(स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)
हाई व्यू, कैवरशम्, रीडिंग,
३ जुलाई, १८९६
प्रिय शशि,
इस पत्र को देखते ही काली (स्वामी अभेदानन्द) को इंग्लैंड रवाना कर देना।
पहले पत्र में ही तुम्हें सब कुछ लिख चुका हूँ। कलकत्ते के मेसर्स ग्रिंडले
कंपनी के पास उसका द्वितीय श्रेणी का मार्ग-व्यय तथा वस्त्रादि खरीदने के
लिए आवश्यक धन भी भेजा जा चुका है। अधिक वस्त्रादि की आवश्यकता नहीं है।
काली को अपने साथ कुछ पुस्तकें लानी होंगी। मेरे पास केवल ऋग्वेद-संहिता है।
यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्वन् संहिताएँ एवं शतपथादि जितने भी 'ब्राह्मण'
प्राप्त हो सकें तथा कुछ सूत्र एवं यास्क के निरुक्त यदि उपलब्ध हों तो इन
ग्रंथों को वह अपने ही साथ लेता आए। अर्थात् इन पुस्तकों की मुझे आवश्यकता
है।... उनको काठ के बक्स में भरकर लाने की व्यवस्था करे।
शरत् के आने में जैसा विलंब हुआ था, वैसा नहीं होना चाहिए; काली फ़ौरन आए।
शरत् अमेरिका रवाना हो चुका है, क्योंकि यहाँ पर उसकी कोई आवश्यकता नहीं रह
गई। कहने का मतलब यह कि वह छ: महीने की देर करके आया और फिर जब वह आया, उस समय
मैं ख़ुद ही यहाँ पहुँच चुका था। काली के बारे में गड़बड़ी हुई थी, अब की बार
वैसे ही कहीं चिट्ठी न खो जाए। शीघ्रता से उसे भेज देना।
सस्नेह,
विवेकानंद
(फ़्रैन्सिस लेगेट को लिखित)
६३, सेण्ट जार्जेस रोड, लंदन,
६ जुलाई, १८९६
प्रिय फ़्रैन्सिस,
...अटलांटिक महासागर के इस पार मेरा कार्य बहुत अच्छी रीति से चल रहा है।
मेरी रविवार की वक्तृताएँ बहुत सफल हुईं और उसी तरह कक्षाएँ भी। काम का मौसम
खत्म हो चुका है और मैं भी बेहद थक चुका हूँ। अब मैं कुमारी मूलर के साथ
स्विट्ज़रलैंड के भ्रमण के लिए जा रहा हूँ। गाल्सवर्दी परिवार ने मेरे साथ
बड़ा सदय व्यवहार किया है। जो
[1]
ने बड़ी चतुरता से उन्हें मेरी तरफ आकृष्ट किया। उनकी चतुरता और शांतिपूर्ण
कार्य-शैली की मैं मुक्तकंठ से प्रशंसा करता हूँ। वे एक राजनीतिज्ञ कुशल महिला
कही जा सकती हैं। वे एक राज चला सकती हैं। मनुष्य में ऐसी प्रखर, साथ ही
अच्छी सहज-बुद्धि मैंने बिरले ही देखी है। अगली शरद् ऋतु में मैं अमेरिका
लौटूँगा और वहाँ का कार्य फिर आरंभ करूँगा।
परसों रात को मैं श्रीमती मार्टिन के यहाँ एक पार्टी में गया था, जिनके संबंध
में तुमने अवश्य ही 'जो' से बहुत कुछ सुना होगा।
इंग्लैंड में यह कार्य चुपचाप पर निश्चित रूप से बढ़ रहा है। यहाँ प्राय: हर
दूसरे पुरुष अथवा स्त्री ने मेरे पास आकर मेरे कार्य के संबंध में बातचीत की।
ब्रिटिश साम्राज्य के कितने ही दोष क्यों न हों, पर भाव-प्रचार का ऐसा
उत्कृष्ट यंत्र अब तक कहीं नहीं रहा है। मैं इस यंत्र के केंद्रस्थल में
अपने विचार रख देना चाहता हूँ, और वे सारी दुनिया में फैल जाएंगे। यह सच है कि
सभी बड़े काम बहुत धीरे-धीरे होते हैं, और उनकी राह में असंख्य विघ्न
उपस्थित होते हैं, विशेषकर इसलिए कि हम हिंदी पराधीन जाति है। इसी कारण हमें
सफलता अवश्य मिलेगी, क्योंकि आध्यात्मिक आदर्श सदा पद्दलित जातियों में से
ही पैदा हुए हैं। यहूदी अपने आध्यात्मिक आदर्शों से रो साम्राज्य पर छा गए
थे। तुम्हें यह सुनकर प्रसन्नता होगी कि मैं भी दिनोंदिन धैर्य, और विशेषकर
सहानुभूति के सबक़ सीख रहा हूँ। मैं समझता हूँ कि शक्तिशाली ऐंग्लोइंडियनों
तक के भीतर मैं परमात्मा को प्रत्यक्ष कर रहा हूँ। मेरा विचार है कि मैं
धीरे धीरे उस अवस्था की ओर बढ़ रहा हूँ, जहाँ ख़ुद 'शैतान'को भी, अगर वह हो तो
मैं प्यार कर सकूँगा।
बीस वर्ष की अवस्था में मैं अत्यंत असहिष्णु और कट्टर था। कलकत्ते में सड़कों
के जिस किनारे पर थियेटर हैं, मैं उस ओर के पैदल- मार्ग से ही नहीं चलता था।
अब तैंतीस वर्ष की उम्र में मैं वेश्याओं के साथ एक ही मकान में ठहर सकता हूँ
अैर उनसे तिरस्कार का एक शब्द कहने का विचार भी मेरे मन में नहीं आएगा।
क्या यह अधोगति है ? अथवा मेरा हृदय विस्तृत होता हुआ मुझे उस विश्वव्यापी
प्रेम की ओर ले जा रहा है, जो साक्षात् भगवान् है ? लोग कहते हैं कि वह
मनुष्य, जो अपने चारों ओर होनेवाली बुराइयों को नहीं देख पाता, अच्छा काम
नहीं कर सकता, उसकी परिणति एक तरह के भाग्यवाद में होती है। मैं तो ऐसा नहीं
देखता। वरन् मेरी कार्य करने की शक्ति अत्यधिक बढ़ रही है और अत्यधिक
प्रभावशील भी होती जा रही है। कभी कभी मुझे एक प्रकार का दिव्य भावावेश होता
है। ऐसा अनुभव करता हूँ कि मैं प्रत्येक प्राणी और वस्तु को आशीर्वाद
दूँ-प्रत्येक से प्रेम करूँ और गले लगा लूँ और मैं यह भी देखता हूँ कि बुराई
एक भ्रांति मात्र है। प्रिय फ़्रैन्सिस, इस समय मैं ऐसी ही अवस्था में हूँ और
अपने प्रति तुम्हारे तथी श्रीमती लेगेट के प्रेम और सहानुभूति का स्मरण कर
मैं सचमुच आनंद के आँसू बहा रहा हूँ। मैं जिस दिन पैदा हुआ था, उस दिन को
धन्यवाद देता हूँ। यहाँ पर मुझे कितनी सहानुभूति, कितना प्रेम मिला है ! और
जिस अनंत प्रमस्वरूप भगवान ने मुझे जन्म दिया है, उसने मेरे हर एक भले और
बुरे (बुरे शब्द से डरो मत) काम पर दृष्टि रखी है-क्योंकि मैं उसी के हाथ के
एक औज़ार के सिवा और हूँ ही क्या, और रहा ही क्या ? उसी की सेवा के लिए
मैंने अपना सब कुछ-अपने प्रियजनों को, अपना सुख, अपना जीवन-त्याग दिया है। वह
मेरा लीलामय प्रियतम है और मैं उसकी लीला का साथी हूँ। इस विश्व में कोई
युक्ति-परिपाटी नहीं है। ईश्वर पर भला किस युक्ति का वश चलेगा ? वह लीलामय इस
नटक की समस्त भूमिकाओं पर हास्य और रुदन का अभिनय कर रहा है। जैसा 'जो'कहती
हैं-अजब तमाशा है ! अजब तमाशा है !
यह दुनिया बड़े मज़े की जगह है, और सबसे मज़ेदार है-वह असीम प्रियतम ! क्या यह
तमाशा नहीं है ? सब एक दूसरे के भाई हों या खेल के साथी, पर वास्तव में हैं
ये मानो पाठशाला के हल्ला मचानेवाले बच्चे, जो कि इस संसाररूपी मैदान में
खेल-कूद करने के लिए छोड़ दिये गए हैं। यही है न ? किसकी तारीफ करूँ और किसे
बुरा कहूँ-सब तो उसी का खेल है। लोग इसकी व्याख्या चाहते हैं। पर ईश्वर की
व्याख्या तुम कैसे करोगे ? यह मस्तिष्कहीन है, उसके पास युक्ति भी नहीं है।
वह छोटे मस्तिष्क तथा सीमित तर्क-शक्तिवाले हम लोगों को मूर्ख बना रहा है, पर
इस बार वह मुझे ऊँघता नहीं पा सकेगा।
मैंने दो-एक बातें सीखी हैं: प्रेम और प्रियतम-तर्क, पांडित्य और वागाडंबर के
बहुत परे। ऐ साक़ी, प्याला भर दे और हम पीकर मस्त हो जाएँ।
तुम्हारा ही प्रेमोन्मत्त,
विवेकानंद
(हेल बहनों को लिखित)
लंदन,
७ जुलाई, १८९६
प्रिय बच्चियों,
यहाँ कार्य में आश्चर्यजनक प्रगति हुई। भारत का एक संन्यासी यहाँ मेरे साथ
था, जिसे मैंने अमेरिका भेज दिया है। भारत से एक और संन्यासी बुला भेजा है।
कार्य का समय समाप्त हो गया है, इसलिए कक्षाओं के लगने तथा रविवारीय
व्याख्यानों का कार्य आगामी १६ तारीख से बंद हो जाएगा। १९ तारीख़ को मैं
करीब एक महीने के लिए शांतिपूर्ण आवास तथा विश्राम के निमित्त स्विट्ज़रलैंड
के पहाड़ों पर चला जाऊँगा और आगामी शरद् ऋतु में लंदन वापस आकर फिर कार्य आरंभ
करूँगा। यहाँ का कार्य बड़ा संतोषजनक रहा है। यहाँ लोगों में दिलचस्पी पैदा
कर मैं भारत के लिए उसकी अपेक्षा सचमुच कहीं अधिक कार्य कर रहा हूँ, जो भारत
में रहकर करता। माँ ने मुझको लिखा है कि यदि तुम लोग अपना मकान किराये पर उठा
दो तो तुम लोगों को साथ लेकर मिस्र-भ्रमण करने में उन्हें प्रसन्नता होगी।
मैं तीन अंग्रेज़ मित्रों के साथ स्विट्ज़रलैंड के पहाड़ों पर जा रहा हूँ। बाद
में, शीत ऋतु के अंत के करीब अंग्रेज़ मित्रों के साथ भारत जाने की मुझे आशा
है। ये लोग वहाँ मेरे मठ में रहनेवाले हैं, जिसके निर्माण की अभी तो केवल
कल्पना भर है। हिमालय पर्वत के अंचल में किसी जगह उसके निर्माण का उद्योग
किया जा रहा है।
तुम लोग कहाँ पर हो ? ग्रीष्म ऋतु का पूरा ज़ोर है, यहाँ तक कि लंदन में भी
बड़ी गरमी पड़ रही है। कृपया श्रीमती ऐडम्स, श्रीमती कोंगोर और शिकागो के
अन्य सभी मित्रों के प्रति मेरा हार्दिक प्रेम ज्ञापित करना।
तुम्हारा सस्नेह भाई
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
६३, सेण्ट जार्जेस रो, लंदन,
८ जुलाई, १८९६
प्रिय श्रीमती बुल,
अंग्रेज़ जाति अत्यंत उदार है। उस दिन करीब तीन मिनट के अंदर ही आगामी शरद्
में कार्य संचालनार्थ नवीन मकान के लिए मेरी कक्षा से १५० पौंड का चंदा मिला।
यदि माँगा जाता तो तत्काल ही वे ५०० पौंड प्रदान करने में किंचितमात्र भी
नहीं हिचकते। किंतु हम लोग धीरे-धीरे कार्य करना चाहते हैं, एक साथ जल्दी
अधिक खर्च करने का कोई अभिप्राय हमारा नहीं है। यहाँ पर इस कार्य का संचालन
करने के लिए हमें अनेक व्यक्ति प्राप्त होंगे एवं वे लोग त्याग की भावना से
भी कुछ कुछ परिचित हैं-अंग्रेज़ों के चरित्र की गहराई का पता यही मिलता है।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(डॉ० नंजुन्दा राव को लिखित)
इंग्लैंड,
१४ जुलाई, १८९६
प्रिय नंजुन्दा राव,
'प्रबुद्ध भारत'की प्रतियाँ मिलीं तथा उनका कक्षा में वितरण भी कर दिया गया
है। यह अत्यंत संतोषजनक है; इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में इसकी बहुत
बिक्री होगी। कुछ ग्राहक तो अमेरिका में ही बन जाने की आशा है। अमेरिका में
इसका विज्ञापन देने की व्यवस्था मैंने पहले ही कर दी है एवं 'गुड इयर' ने
उसे कार्य में भी परिणत कर दिया है। किंतु यहाँ इंग्लैंड में कार्य अपेक्षाकृत
कुछ धीरे-धीरे अग्रसर होगा। यहाँ पर बड़ी मुश्किल यह है कि सब कोर्इ अपना अपना
पत्र निकालना चाहते हैं। ऐसा ठीक भी है, क्योंकि कोई भी विदेशी व्यक्ति असली
अंग्रेज़ों की तरह अच्छी अंग्रेज़ी कभी नहीं लिख सकता तथा अच्छी अंग्रेज़ी
में लिखने से विचारों सुदूर तक जितना विस्तार हो सकेगा उतना हिंदू-अंग्रेज़ी
के द्वारा नहीं। साथ ही विदेशी भाषा में लेख लिखने की अपेक्षा कहानी लिखना और
भी कठिन है।
मैं आपके लिए यहाँ ग्राहक बनाने की पूरी चेष्टा कर रहा हूँ; किंतु आप विदेशी
सहायता पर क़तई निर्भर न रहें। व्यक्ति की तरह जाति को भी अपनी सहायता आप ही
करनी चाहिए। यही यथार्थ स्वदेश-प्रेम है। यदि कोई जाति ऐसा करने में असमर्थ
हो तो यह कहना पड़ेगा कि उसका अभी समय नहीं आया, उसे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
मद्रास से ही यह नवीन आलोक भारत के चारों ओर फैलना चाहिए-इसी उद्देश्य को
लेकर आपको कार्य-क्षेत्र में अग्रसर होना पड़ेगा। एक बात पर मुझे अपना मत
व्यक्त करना है, वह यह कि पत्र का मुखपृष्ठ एकदम गँवारू, देखने में नितांत
रद्दी तथा भद्दा है। यदि संभव हो तो इसे बदल दें। इसे भावव्यंजक तथा साथ ही
सरल बनायें-इसमें मानव-चित्र बिल्कुल नहीं होने चाहिए। 'वटवृक्ष' क़तई
प्रबुद्ध होने का चिह्न नहीं है और न पहाड़, न सतही, यूरोपीय दंपत्ति भी नहीं।
'कमल' ही पुनरभ्युत्थान का प्रतीक है। 'ललित कला'में हम लोग बहुत ही पिछड़े
हुए हैं, ख़ासकर 'चित्रकला' में। उदाहरणस्वरूप, वन में वसंत के पुनरागमन का एक
छोटा सा दृश्य बनाइए-नवपल्लव तथा कलिकाएँ प्रस्फुटित हो रही हों। धीरे-धीरे
आगे बढि़ए, सैकड़ों भाव हैं जिन्हें प्रकाश में लाया जा सकता है।
आगामी रविवार को मैं स्विट्ज़रलैंड जा रहा हूँ, और शरत्काल में इंग्लैंड वापस
आकर पुन: कार्य प्रारंभ करूँगा। यदि संभव हो सका तो स्विट्ज़रलैंड से मैं
धारावाहिक रूप से आपको कुछ लेख भेजूँगा। आपको मालूम ही होगा कि मेरे लिए
विश्राम अत्यंत आवश्यक हो उठा है।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
सैन्स ग्रैण्ड, स्विट्ज़रलैंड,
२५ जुलाई, १८९६
प्रिय श्रीमती बुल,
कम से कम दो मास के लिए मैं जगत को एकदम भूल जाना चाहता हूँ, और कठोर साधना
करना चाहता हूँ। यही मेरा विश्राम है।... पहाड़ों तथा बर्फ़ के दृश्य से मेरे
हृदय में एक अपूर्व शांति सी छा जाती है। यहाँ पर मुझे जैसी अच्छी नींद आ रही
है, दीर्घकाल तक मुझे वैसी नींद आयी।
सभी मित्रों को मेरा प्यार।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित)
ग्रैण्ड होटल, वेलै,
स्विट्ज़रलैंड
प्रिय स्टर्डी,
...मैं थोड़ा बहुत अध्ययन कर रहा हूँ-उपवास बहुत कर रहा हूँ तथा साधना उससे
भी अधिक कर रहा हूँ। वनों में भ्रमण करना अत्यंत आनंददायक है। हमारे रहने का
स्थान तीन विशाल हिमनदी के नीचे है तथा प्राकृतिक दृश्य भी अत्यंत मनोरम है।
एक बात है कि स्विट्ज़रलैंड की झील में आर्यों के आदि निवास-स्थान संबंधी
मेरे मन में जो कुछ भी थोड़ा सा संदेह था, वह एकदम निर्मूल हो चुका है;
'तातार'जाति के माथे से लंबी चोटी हटा देने पर जो दशा होती है, स्विट्ज़रलैंड
के निवासी ठीक उसी प्रकार के हैं।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(श्री लाला बद्री शाह को लिखित)
द्वारा ई०टी०स्टर्डी
हाई व्यू, कैवरशम् , रीडिंग्, लंदन
५ अगस्त, १८९६
प्रिय शाह जी,
आपके सहृदय अभिनंदन के लिए धन्यवाद। आपसे एक बात मैं जानना चाहता हूँ। यदि
लिखने का कष्ट करें तो इस कृपा के लिए मैं विशेष अनुग्रहीत होऊँगा। मैं एक मठ
स्थापित करना चाहता हूँ-मेरी इच्छा है कि वह अल्मोड़ा में या अच्छा हो
उसके समीप किसी स्थान में हो। मैंने सुना है कि श्री रैमसे नामक कोई सज्जन
अल्मोड़ा के समीप एक बँगले में रहते थे, उस बँगले के चारों ओर एक बग़ीचा था।
क्या वह बँगला खरीदा जा सकता है ? उसका मूल्य क्या होगा ? यदि खरीदना संभव
न हो तो किराये पर मिल सकता है या नहीं ?
क्या आप अल्मोड़ा के समीप किसी ऐसे उपयुक्त स्थान को जानते हैं, जहाँ
बग़ीचे आदि के साथ मैं अपना मठ बना सकूँ ? बग़ीचे का होना नितांत आवश्यक है।
मैं चाहता हूँ कि अलग एक छोटी सी पहाड़ी मिल जाए तो अच्छा हो।
आशा है कि पत्र का उत्तर शीघ्र प्राप्त होगा। आप एवं अल्मोड़ा के अन्य
मित्रों को मेरा आशीर्वाद तथा प्रेम।
भवदीय,
विवेकानंद
(श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित)
स्विट्ज़रलैंड,
५ अगस्त, १८९६
प्रिय स्टर्डी,
आज सुबह प्रोफ़ेसर मैक्समूलर क एक पत्र मिला; उससे पता चला कि श्री रामकृष्ण
परमहंस संबंधी उनका लेख 'दि नाइंटीन्थ सेंचुरी' पत्रिका के अगस्त अंक में
प्रकाशित हुआ है। क्या तुमने उसे पढ़ा है ? उन्होंने इस लेख के बारे में मेरा
अभिमत माँगा है। अभी तक मैंने उसे नहीं देखा है, अत: उन्हें कुछ भी नहीं लिख
पाया हूँ। यदि तुम्हें वह प्रति प्राप्त हुई हो तो कृपया मुझे भेज देना।
'ब्रह्मवादिन्' की भी यदि कोई प्रति आयी हो तो उसे भी भेजना। मैक्समूलर महोदय
हमारी योजनाओं से परिचित होना चाहते हैं ... तथा पत्रिकाओं से भी उन्होंने
अधिकाधिक सहायता प्रदान करने का वचन दिया है तथा श्री रामकृष्ण परमहंस पर एक
पुस्तक लिखने को वे प्रस्तुत हैं।
मैं समझता हूँ कि पत्रिकादि के विषय में उनके साथ तुम्हारा सीधा पत्र-व्यवहार
होना ही उचित है। 'दि नाइंटीन्थ सेंचुरी'पढ़ने के बाद उनके पत्र का जवाब
लिखकर जब मैं तुमको उनका पत्र भेज दूँगा, तब तुम देखोगे कि वे हमारे प्रयास पर
कितने प्रसन्न हैं तथा यथासाध्य सहायता प्रदान करने के लिए तैयार हैं।...
पुनश्च-आशा है कि तुम पत्रिका को बड़े आकार की करने के प्रश्न पर भली भांति
विचार करोगे। अमेरिका से कुछ धनराशि एकत्र करने की व्यवस्था हो सकती है एवं
साथ ही पत्रिका अपने लोगों के हाथों ही रखी जा सकती है। इस बारे में तुम्हारी
तथा मैक्समूलर महोदय की निश्चित योजना से अवगत होने के बाद मैं अमेरिका पत्र
लिखना चाहता हूँ।
सेवितव्यो महावृक्ष: फलछायासमन्वित:।
यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन निवार्यते।।
-'जिस वृक्ष में फल एवं छाया हो, उसी का आश्रय लेना चाहिए;
कदाचित् फल न भी मिले, फिर भी उसकी छाया से तो कोई भी वंचित नहीं कर सकता। 'अत: मामूली बात यह है कि महान कार्य को इसी भावना से
प्रारंभ करना चाहिए।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
प्रिय आलासिंगा,
तुम्हारे पत्र से 'ब्रह्मवादिन्'की आर्थिक दुर्दशा का समाचार विदित हुआ। लंदन
लौटने पर तुम्हें सहायता भेजने की चेष्टा करूँगा। तुम पत्रिका का स्तर नीचा
न करना, उसको उन्नत रखना; अत्यंत शीघ्र ही मैं तुम्हारी ऐसी सहायता कर सकूँगा
कि इस बेहूदे अध्यापन-कार्य से तुम्हें मुक्ति मिल सके। डरने की कोई बात
नहीं है वत्स, सभी महान कार्य संपन्न होंगे। साहस से काम लो।
'ब्रह्मवादिन्'एक रत्न है, इसे नष्ट नहीं होना चाहिए। यह ठीक है कि ऐसी
पत्रिकाओं को सदा निजी दान से ही जीवित रखना पड़ता है, हम भी वैसा ही करेंगे।
कुछ महीने और जमे रहो।
मैक्समूलर महोदय का श्री रामकृष्ण संबंधी लेख 'दि नाइंटीन्थ सेंचुरी'में
प्रकाशित हुआ है। मुझे मिलते ही मैं उसकी एक प्रतिलिपि तुम्हारे पास भेज
दूँगा। वे मुझे अत्यंत सुंदर पत्र लिखते हैं। श्री रामकृष्ण देव की एक बड़ी
जीवनी लिखने के लिए वे सामग्री चाहते हैं। तुम कलकत्ते एक पत्र लिखकर सूचित कर
दो कि जहाँ तक हो सके सामग्री एकत्र करके उन्हें भेज दी जाए।
अमेरिकी पत्र के लिए भेजा हुआ समाचार मुझे पहले ही मिल चुका है। भारत में उसे
प्रकाशित करने की आवश्यकता नहीं है, समाचार-पत्र द्वारा इस प्रकार का प्रचार
बहुत हो चुका है। इस विषय में ख़ासकर मेरी अब कुछ भी रुचि नहीं है। मूर्खों को
बकने दो, हमें तो अपना कार्य करना है। सत्य को कोई नहीं रोक सकता।
यह तो तुम्हें पता ही है कि मैं इस समय स्विट्ज़रलैंड में हूँ और बराबर घूम
रहा हूँ। पढ़ने अथवा लिखने का कार्य कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ, और करना भी
उचित प्रतीत नहीं होता। लंदन में मुझे एक महान कार्य करना है, आगामी माह से
उसे प्रारंभ करना है। अगले जाडों में भारत लौटकर मैं वहाँ के कार्य को भी ठीक
करने की कोशिश करूँगा।
सब लोगों को मेरा प्रेम ! बहादुरों, कार्य करते रहो, पीछे न हटो-'नहीं' मत
कहो। कार्य करते रहो-तुम्हारी सहायता के लिए प्रभु तुम्हारे पीछे खड़े हैं।
महाशक्ति तुम्हारे साथ विद्यमान हैं।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
पुनश्च-डरने की कोई बात नहीं, धन तथा अन्य वस्तुएँ शीघ्र ही प्राप्त
होंगी।
(श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
स्विट्ज़रलैंड
८ अगस्त, १८९६
प्रिय आलासिंगा,
कई दिन पहले मैंने अपने पत्र में तुम्हें इस बात का आभास दिया था कि मैं
'ब्रह्मवादिन्' के लिए कुछ करने की स्थिति में हूँ। मैं तुम्हें एक या दो
वर्षों तक १०० रुपया माहवार दूँगा-अर्थात् साल में ६० अथवा ७० पौंड-यानी जितने
से सौ रुपये माहवार हो सके।तब तुम मुक्त होकर 'ब्रह्मवादिन्' का कार्य कर
सकोगे तथा इसे और भी सफल बना सकोगे। श्रीयुत मणि अय्यर और कुछ मित्र कोष
इकट्ठा करने में तुम्हारी सहायता कर सकते हैं-जिससे छपाई आदि की क़ीमत पूरी
हो जाएगी। चंदे से कितनी आमदनी होती है ? क्या इस रक़म से लेखकों को
पारिश्रमिक देकर उनसे अच्छी सामग्री नहीं लिखवायी जा सकती ? यह आवश्यक नहीं
कि 'ब्रह्मवादिन्' में प्रकाशित होनेवाली सभी रचनाएँ सभी की समझ में
आयें-परंतु यह ज़रूरी है कि देशभक्ति और सुकर्म की भावना-प्रेरणा से ही लोग
इसे खरीदें। लोग से मेरा मतलब हिंदुओं से है।
यों, बहुत सी बातें आवश्यक हैं। पहली बात है-पूरी ईमानदारी। मेरे मन में इस
बात की रत्ती भर शंका नहीं कि तुम लोगों में से कोई भी इससे उदासीन रहोगे।
बल्कि, व्यावसायिक मामलों में हिंदुओं में एक अजीब ढिलाई देखी जाती है-बेतरतीब
हिसाब-किताब और बेसिलसिले का कारोबार। दूसरी बात : उद्देश्य के प्रति पूर्ण
निष्ठा-यह जानते हुए कि 'ब्रह्मवादिन्' की सफलता पर ही तुम्हारी मुक्ति
निर्भर करती है।
इस पत्र (ब्रह्मवादिन्) को अपना इष्टदेवता बनाओं और तब देखना, सफलता किस तरह
आती है। मैंने अभेदानन्द को भारत से बुला भेजा है। आशा है, अन्य संन्यासी
की भांति उसे देरी नहीं लगेगी। पत्र पाते ही तुम 'ब्रह्मवादिन्' के आय-व्यय
का पूरा लेखा-जोखा भेजो, जिसे देखकर मैा यह सोच सकूँ कि इसके लिए क्या किया
जा सकता है ? यह याद रखो कि पवित्रता, नि:स्वार्थ भावना और गुरु की
आज्ञाकारिता ही सभी सफलताओं के रहस्य हैं।...
किसी धर्मिक पत्र की खपत-विदेश में असंभव है। इसे हिंदुओं की ही सहायता मिलनी
चाहिए-यदि उनमें भले-बुरे का ज्ञान हो।
बहरहाल, श्रीमती एनी बेसेंट ने अपने निवास स्थान पर मुझे-भक्ति पर बोलने के
लिए-निमंत्रित किया था। मैंने वहाँ एक रात व्याख्यान दिया। कर्नल अल्कॉट भी
वहाँ थे। मैंने सभी संप्रदाय के प्रति अपनी सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए
ही भाषण देना स्वीकार किया। हमारे देशवासिायों को यह याद रखना चाहिए कि
अध्यात्म के बारे में हम ही जगद्गुरु हैं-विदेशी नहीं-किंतु, सांसारिकता अभी
हमें उनसे सीखना है।
मैंने मैक्समूलर का लेख पढ़ा है। हालाँकि छ: माह पूर्व जब कि उन्होंने इसे
लिखा था-उनके पास मजूमदार के पर्चें के सिवा और कोई सामग्री नहीं थी। इस
दृष्टि से यह लेख सुंदर है। इधर उन्होंने मुझे एक लंबी और प्यारी चिट्ठी
लिखी है, जिसमें उन्होंने श्री रामकृष्ण पर एक किताब लिखने की इच्छा प्रकट
की है। मैंने उन्हें बहुत सारी सामग्री दी है, किंतु भारत से और भी अधिक
मँगाने की आवश्यकता है।
काम करते चलो। डटे रहो बहादुरी से। सभी कठिनाइयों को झेलने की चुनौती दो।
देखते नहीं वत्स, यह संसार-दु:खपूर्ण है।
प्यार के साथ,
विवेकानंद
(श्री जे० जे० गुडविन को लिखित
)
स्विट्ज़रलैंड
८ अगस्त, १८९६
प्रिय गुडविन,
मैं अब विश्राम कर रहा हूँ। भिन्न- भिन्न पत्रों से मुझे कृपानंद के विषय
में बहुत कुछ मालूम होता रहता है। मुझे उसके लिए दु:ख है। उसके मस्तिष्क में
अवश्य कुछ दोष होगा। उसे अकेला छोड़ दो। तुममें से किसी को भी उसके लिए
परेशान होने की आवश्यकता नहीं।
मुझे आघात पहुँचाने की देव या दानव किसी में भी शक्ति नहीं है इसलिए निश्चित
रहो। अचल प्रेम और पूर्ण नि:स्वार्थ भाव की ही सर्वत्र विजय होती है।
प्रत्येक कठिनाई के आने पर हम वेदांतियों को स्वत: यह प्रश्न करना चाहिए,
'मैं इसे क्यों देखता हूँ ?' 'प्रेम से मैं क्यों नहीं इस पर विजय पा सकता
हूँ ?'
स्वामी का जो स्वागत किया गया, उससे मैं अति प्रसन्न हूँ और वे जो अच्छा
कार्य कर रहे हैं, उससे भी। बड़े काम में बहुत समय तक लगातार और महान प्रयत्न
की आवश्यकता होती है। यदि थोड़े से व्यक्ति असफल भी हो जायँ तो भी उसकी चिंता
हमें नहीं करनी चाहिए। संसार का यह नियम ही है कि अनेक नीचे गिरते हैं, कितने
ही दु:ख आते हैं, कितनी ही भयंकर कठिनाइयाँ सामने उपस्थित होती हैं,
स्वार्थपरता तथा अन्य बुराइयों का मानव हृदय में घोर संघर्ष होता है और तभी
आध्यात्मिकता की अग्नि में इन सभी का विनाश होने वाला होता है। इस जगत में
श्रेय का मार्ग सबसे दुर्गम और पथरीला है। आश्चर्य की बात है कि इतने लोग
सफलता प्राप्त करते हैं, कितने लोग असफल होते हैं यह आश्चर्य नहीं।
सहस्त्रों ठोकर खाकर चरित्र का गठन होता हैं।
मुझे अब बहुत ताज़गी मालूम होती है। मैं खिड़की से बाहर दृष्टि डालता हूँ,
मुझे बड़ी-बड़ी हिम-नदियाँ दिखती हैं और मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मैं हिमालय
में हूँ। मैं बिल्कुल शांत हूँ। मेरे स्नायुओं ने अपनी पुरानी शक्ति पुन:
प्राप्त कर ली है, और छोटी-छोटी परेशानियाँ, जिस तरह की परेशानियों का तुमने
जि़क्र किया है, मुझे स्पर्श भी नहीं करतीं। मैं बच्चों के इस खेल से कैसे
विचलित हो सकता हूँ। सारा संसार बच्चों का खेल मात्र है-प्रचार करना, शिक्षा
देना तथा सभी कुछ।ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति-'उसे संन्यासी समझो जो न द्वेष करता है, न इच्छा करता है। 'और इस संसार की छोटी सी कीचड़ भरी तलैया में, जहाँ दु:ख रोग
तथा मृत्यु का चक्र निरंतर चलता रहता है, क्या है जिसकी इच्छा की जा सके ? त्यागात् शांतिरनन्तरम्- 'जिसने सब इच्छाओं को त्याग
दिया है, वही सुखी है।'
यह विश्राम-नित्य और शांतिमय विश्राम-इस रमणीक स्थान में अब उसकी झलक मुझे
मिल रही है।
आत्मानं चेद् विजानीयात् अयमस्मीति पूरुष:। किमिच्छन् कस्य कामाय
शरीरमनुसंजरेत्।--
'एक बार यह जानकर कि इस आत्मा का ही केवल अस्तित्व है और किसी का नहीं, किस
चीज की या किसके लिए इच्छा करके तुम इस शरीर के लिए दु:ख उठाओगे ?'
मुझे ऐसा विदित होता है कि जिसको वे लोग 'कर्म'कहते हैं, उसका मैं अपने
हिस्से का अनुभव कर चुका हूँ। मैं भर पाया, अब निकलने की मुझे उत्कट अभिलाषा
है।
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चत् यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां
कश्चिन्मां वेत्ति तत्वत:।
--'सहस्त्रों मनुष्यों में कोई एक लक्ष्य को प्राप्त करने का यत्न करता
है। और यत्न करनेवाले उद्योगी पुरुषों में थोड़े ही ध्येय तक पहुँचते हैं।'इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:-- 'क्योंकि इंद्रियाँ बलवती हैं और वे मनुष्य को नीचे की ओर
खींचती हैं।'
'साधु संसार', 'सुखी जगत' और 'सामाजिक उन्नति', ये सब 'उष्ण बरफ़'अथवा
'अंधकारमय प्रकाश'के समान ही हैं। यदि संसार साधु होता तो यह संसार ही न होता।
जीव मूर्खतावश असीम अनंत को सीमित भौतिक पदार्थ द्वारा, चैतन्य को जड़ द्वारा
अभिव्यक्त करना चाहता है, परंतु अंत में अपने 'भ्रम को समझकर वह उससे
छुटकारा पाने की चेष्टा करता है। यह निवृत्ति ही धर्म का प्रारंभ है और उसका
उपाय है , ममत्व का नाश अर्थात् प्रेम। स्त्री, संतान या किसी अन्य
व्यक्ति के लिए प्रेम नहीं, परंतु छोटे से अपने ममत्व को छोड़कर, सबके लिए
प्रेम। वह 'मानवी उन्नति' और इसके समान जो लंबी चौड़ी बातें तुम अमेरिका में
बहुत सुनोगे, उसके भुलावे में मत आना। सभी क्षेत्रों में 'उन्नति' नहीं हो
सकती, उसके साथ-साथ कहीं न कहीं अवनति हो रही होगी। एक समाज में एक प्रकार के
दोष हैं तो दूसरे में दूसरे प्रकार के। यही बात इतिहास के विशिष्ट कालों की
भी है। मध्य युग में चोर डाकू अधिक थे, अब छल-कपट करनेवाले अधिक हैं। एक
विशिष्ट काल में वैवाहिक जीवन का सिद्धांत कम है तो दूसरे में वेश्यावृत्ति
अधिक। एक में शारीरिक कष्ट अधिक है, तो दूसरे में उससे सहस्त्र गुनी अधिक
मानसिक यातनाएँ। इसी प्रकार ज्ञान की भी स्थिति है। क्या प्रकृति में
गुरुत्वाकर्षण का निरीक्षण और नाम रखने से पहले उसका अस्तित्व ही न था ? फिर
उसके जानने से क्या अंतर पड़ा ? क्या तुम रेड इंडियनों (उत्तर अमेरिका के
आदिवासियों) से अधिक सुखी हो ?
यह सब व्यर्थ है, निरर्थक है-इसे यथार्थ रूप में जानना ही ज्ञान है परंतु
थोड़े, बहुत थोड़े ही कभी इसे जान पायेंगे। तमेवैकं जानथ आत्मनमन्या वाचो विमुंचथ-उस एक आत्म को ही
जानो और सब बातों को छोड़ दो। इस संसार में ठोकरें खाने से इस एक ज्ञान की ही
हमें प्राप्ति होती है। मनुष्य जाति को इस प्रकार पुकारना कि उत्तिष्ठत जागृत प्राप्य वरान्निबोधत-'जागो, उठो, और
ध्येय की उपलब्धि के बिना रुको नहीं।' यही एकमात्र कर्म है। त्याग ही धर्म
का सार है, और कुछ नहीं।
ईश्वर व्यक्तियों की एक समष्टि है। फिर भी वह स्वयं एक व्यक्ति है, उसी
प्रकार जिस प्रकार मानवी शरीर एक ईकाई है और उसका प्रत्येक 'कोश'एक व्यक्ति
है। समष्टि ही ईश्वर है, व्यष्टि या अंश आत्मा या जीव है। इसलिए ईश्वर का
अस्तित्व जीव पर निर्भर है, जैसे कि शरीर का उसके कोश पर, इसी प्रकार इसका
विलोम समझिए। इस प्रकार जीव और ईश्वर परंपरावलंबी है। जब तक एक का अस्तित्व
है, तब तक दूसरे का भी रहेगा। और हमारी इस पृथ्वी को छोड़कर अन्य सब ऊँचे
लोकों में शुभ की मात्रा अशुभ से अत्यधिक होती है, इसलिए वह समष्टिस्वरूप
ईश्वर, शिवस्वरूप, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ कहा जा सकता है। ये प्रत्यक्ष
गुण हैं और ईश्वर से संबद्ध होने के कारण उन्हें प्रमाणित करने के लिए तर्क
की आवश्यकता नहीं।
ब्रह्म इन दोनों से परे हैं और वह कोई विशिष्ट अवस्था नहीं है। यह एक ऐसी
ईकाई है जो अनेक की समष्टि से नहीं बनी। यह एक ऐसी सत्ता है जो कोश से लेकर
ईश्वर तक सब में व्याप्त है और उसके बिना किसी का अस्तित्व नहीं हो सकता।
वही सत्ता अथवा ब्रह्म वास्तविक है। जब मैं सोचता हूँ, 'मैं ब्रह्म हूँ'तब
मेरा ही यथार्थ अस्तित्व होता हे। ऐसा ही सब के बारे में है। विश्व को
प्रत्येक वस्तु स्वरूपत: वही सत्ता है।...
कुछ दिन हुए कृपानन्द को लिखने की मुझे अकस्मात् प्रबल इच्छा हुई। शायद वह
दु:खी था और मुझे याद करता होगा। इसलिए मैंने उसे सहानुभूतिपूर्ण पत्र लिखा।
आज अमेरिका से ख़बर मिलने पर मेरी समझ में आया कि ऐसा क्यों हुआ। हिम-नदियों
के पास से तोड़े हुए पुष्प मैंने उसे भेजे। कुमारी वाल्डो से कहना कि अपना
आंतरिक स्नेह प्रदर्शित करते हुए उसे कुछ धन भेज दें। प्रेम का कभी नाश नहीं
होता। पिता का प्रेम अमर है, संतान चाहे जो करे या जैसे भी हो। वह मेरा पुत्र
जैसा है। अब वह दु:ख में है इसलिए वह समान या अपने भाग से अधिक मेरे प्रेम तथा
सहायता का अधिकारी है।
शुभाकांक्षी
विवेकानंद
(श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित)
ग्रैंड होटल सस फी,
वैले, स्विट्ज़रलैंड,
८ अगस्त, १८९६
महाभाग एवं परम प्रिय,
तुम्हारे पत्र के साथ ही पत्रों का एक बड़ा पुलिंदा मिला। मैक्समूलर ने मुझको
जो पत्र लिखा है, उसे तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। मेरे प्रति उनकी बड़ी कृपा
और सौजन्य है।
कुमारी मूलर का विचार है कि वे बहुत जल्द इंग्लैंड चली जायँगी। तब मैं
'प्योरिटी कांग्रेस' में शरीक़ होने के लिए वर्न जा सकूँगा, जिसके लिए मैंने
वादा किया था। यदि सेवियर दंपत्ति मुझे अपने साथ ले चलने को राजी हो गए, तभी
मैं कील जाऊँगा और सूचनार्थ तुम्हें पहले ही पत्र लिख दूँगा। सेवियर दंपत्ति
बड़े सज्जन और कृपालु हैं, किंतु उनकी उदारता से लाभ उठाने का मुझे अधिकार
नहीं। क्योंकि वहाँ का खर्च भयानक है। ऐसी दशा में वर्न काँग्रेस में शरीक़
होने का विचार त्याग देना ही मेरे विचार से सर्वोत्तम है, क्योंकि बैठक
सितंबर के मध्य में होगी जिसमें अभी बहुत देर है।
अत: जर्मनी में जाने का मेरा विचार हो रहा है। वहाँ की यात्रा का अंतिम स्थान
कील होगा, जहाँ से इंग्लैंड वापस आऊँगा।
बाल गंगाधर तिलक (श्री तिलक) नाम है और 'ओरायन'उनकी पुस्तक का नाम है।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च-जेकवी की भी एक (पुस्तक) है-शायद उन्हीं पद्धतियों पर वह अनूदित है
तथा उसके वे ही निष्कर्ष हैं।
पुनश्च-मुझे आशा है कि तुम ठहरने के स्थान और हाल के विषय में कुमारी मूलर की
राय ले लोगे, क्योंकि यदि उनकी तथा अन्य लोगों की सलाह न ली गई तो वे बहुत
अप्रसन्न होंगी।
विवेकानंद
कल रात कुमारी मूलर ने प्रोफ़ेसर डॉयसन को तार भेजा और आज सबेरे ९ अगस्त को
तार का जवाब आ गया, जिसमें उन्होंने मेरा स्वागत किया है। १० सितंबर को मैं
कील में डॉयसन के यहाँ पहुँचनेवाला हूँ। तो तुम मुझसे कहाँ मिलोगे ? कील में ?
कुमारी मूलर स्विट्ज़रलैंड से इंग्लैंड जा रही है; मैं सेवियर दंपत्ति के साथ
कील जा रहा हूँ। १० सितंबर को मैं वहाँ रहूँगा।
विवेकानंद
पुनश्च-व्याख्यान के विषय में अभी तक मैंने कुछ निर्धारित नहीं किया है।
पढ़ने का मुझे अवकाश नहीं। बहुत संभव है कि 'सालेम सोसायटी' किसी हिंदू
संप्रदाय का संगठन है, झक्कियों का नहीं।
विवेकानंद
(श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित)
स्विट्ज़रलैंड,
१२ अगस्त, १८९६
प्रिय श्री स्टर्डी,
आज मुझे एक पत्र अमेरिका से मिला जिसे मैं तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। मैंने
उनको लिख दिया है कि मैं चाहता हूँ कि कम से कम वर्तमान प्रारंभिक कार्य में
ध्यान केंद्रित किया जाए। मैंने उनको यह भी सलाह दी है कि कई पत्रिकाएँ शुरू
करने के बजाए 'ब्रह्मवादिन्' में अमेरिका में लिखित कुछ लेख रखकर काम शुरू
करें और चंदा कुछ बढ़ा दें, जिससे अमेरिका में होनेवाला खर्च निकल जाए। पता
नहीं, वे क्यों करेंगे।
हम लोग अगले सप्ताह जर्मनी की तरफ रवाना होंगे। जैसे हम जर्मनी पहुँचे,
कुमारी मूलर इंग्लैंड रवाना हो जायँगी।
कैप्टेन तथा श्रीमती सेवियर और मैं कील में तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे।
मैंने अब तक कुछ नहीं लिखा और न पढ़ा ही है। वस्तुत: मैं पूर्ण विश्राम ले
रहा हूँ। चिंता न करना, तुमको लेख तैयार मिलेगा। मुझे मठ से इस आशय का पत्र
मिला है कि दूसरा स्वामी रवाना होने के लिए तैयार है। मुझे आशा है कि वह
तुम्हारी इच्छा के उपयुक्त व्यक्ति होगा। वह हमारे संस्कृत के अच्छे
विद्वानों में से हैं... और जैसा कि मैंने सुना है उसने अपनी अंग्रेज़ी काफी
सुधार ली है। सारदानंद के बारे में मुझे अमेरिका से अख़बारों की बहुत सी कतरनें
मिली हैं। उनसे पता चलता है कि उसने वहाँ बहुत अच्छा काम किया है। मनुष्य के
अंदर जो कुछ है, उसे विकसित करने के लिए अमेरिका एक अत्यंत सुंदर प्रशिक्षण
केंद्र हे। वहाँ का वातावरण कितना सहानुभूतिपूर्ण है। मुझे गुडविन तथा
सारदानंद के पत्र मिले हैं। सारदानंद ने तुमको, श्रीमती स्टर्डी तथा बच्चे
को स्नेह भेजा है।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
ल्यूकर्नि, स्विटृज़रलैंड,
२३ अगस्त, १८९६
प्रिय श्रीमती बुल,
आपका अंतिम पत्र मुझे आज मिला, आपके भेजे हुए ५ पौंड की रसीद अब तक आपको मिल
चुकी होगी। आपके जो सदस्य होने की बात लिखी है, उसे मैं ठीक-ठीक नहीं समझ
सका, फिर भी किसी संस्था की सदस्य-सूची में मेरे नामोल्लेख के संबंध में
मुझे कोई आपत्ति नहीं है। किंतु इस विषय स्टर्डी का क्या अभिमत है, मैं नहीं
जानता। मैं इस समय स्विट्ज़रलैंड में भ्रमण कर रहा हूँ। यहाँ से मैं जर्मनी
जाऊँगा, बाद में इंग्लैंड जाना है तथा अगले जाड़े में भारत। यह जानकर कि
सारदानंद तथा गुडविन अमेरिका में अच्छी तरह से प्रचार-कार्य चला रहे हैं,
मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। मेरी अपनी बात तो यह है कि किसी कार्य के
प्रतिदान स्वरूप मैं उस ५०० पौंड पर अपना कोई हक़ क़ायम करना नहीं चाहता। मैं
तो यह समझता हूँ कि काफी परिश्रम कर चुका। अब मैं अवकाश लेने जा रहा हूँ।
मैंने भारत से एक और व्यक्ति माँगा है, आगामी माह में वह मेरे पास आ जाएगा।
मैंने कार्य प्रारंभ कर दिया है, अब दूसरे लोग उसको पूरा करें। आप तो देखती ही
है कि कार्य को चालू करने के लिए कुछ समय के लिए मुझे रुपया-पैसा छूना पड़ा।
अब मेरा यह दृढ़ विश्वास हे कि मेरा कर्तव्य समाप्त हो चुका है। वेदांत अथवा
जगत के अन्य किसी दर्शन अथवा स्वयं कार्य के प्रति अब मुझे कोई आकर्षण नहीं
है। मैं प्रस्थान करने के लिए तैयारी कर रहा हूँ-इस जगत में, इस नरक में, मैं
फिर लौटना नहीं चाहता। यहाँ तक कि इस कार्य की आध्यात्मिक उपादेयता के प्रति
भी मेरी अरुचि होती जा रही है। मैं चाहता हूँ कि माँ मुझे शीघ्र ही अपने पास
बुला लें ! फिर कभी मुझे लौटना न पड़े !
ये सब कार्य तथा उपकार आदि कार्य चित्तशुद्धि के साधन मात्र हैं, इसे मैं बहुत
देख चुका। जगत अनंत काल तक सदैव जगत ही रहेगा। हम लोग जैसे हैं, वैसे ही उसे
देखते हैं। कौन कार्य करता है और किसका कार्य है ? जगत नामक कोई भी वस्तु
नहीं है, यह सब कुछ स्वयं भगवान् हैं। भ्रम से हम इसे जगत कहते हैं। यहाँ पर
न तो मैं हूँ और न तुम और न आप-एकमात्र वही है, प्रभु- एकमेवाद्वितीयम्। अत: अब रुपये-पैसे के मामलों से मैं अपना
कोई भी संबंध नहीं रखना चाहता। यह सब आप लोगों का ही पैसा है, आप लोगों को जा
रुपया मिले, आप अपनी इच्छा के अनुसार खर्च करें। आप लोगों का कल्याण हो।
प्रभुपदाश्रित, आपका
विवेकानंद
पुनश्च-डॉक्टर जेन्स के कार्य के प्रति मेरी पूर्ण सहानुभूति है एवं मैंने
उनको यह बात लिख दी है। यदि गुडविन तथा सारदानंद अमेरिका में कार्य को बढ़ा
सकते हैं तो भगवान् उन्हें सफलता दे। स्टर्डी के, मेरे अथवा अन्य किसी के
पास तो उन्होंने अपने को गिरवी नहीं रखा। 'ग्रीनएकर' के कार्यक्रम में यह एक
भरी भूल हुई है कि उसमें यह छापा गया है कि स्टर्डी ने कृपा कर सारदानंद को
वहाँ रहने की (इंग्लैंड से अवकाश लेकर वहाँ रहने की) अनुमति प्रदान की है।
स्टर्डी अथवा और कोई एक संन्यासी को अनुमति देने वाला कौन होता है ?
स्टर्डी को स्वयं इस पर हँसी आयी और खेद भी हुआ। यह निरी मूर्खता है, और कुछ
भी नहीं ! यह स्टर्डी का अपमान है, और यह समाचार यदि भारत में पहुँच जाता तो
मेरे कार्य में अत्यंत हानि होती। सौभाग्यवश मैंने उन विज्ञापनों को
टुकड़े-टुकड़े कर फाड़कर नाली में फेंक दिया है। मुझे आश्यर्च है कि क्या यह
वही प्रसिद्ध 'यांकी' आचरण है जिसके बारे में बातें करके अंग्रेज़ लोग मज़ा
लेते हैं ? यहाँ तक कि मैं ख़ुद भी जगत के एक भी संन्यासी का स्वामी नहीं
हूँ। संन्यासियों को जो कार्य करना उचित प्रतीत होता है, उसे वे करते हैं और
चाहता हूँ कि मैं उनकी कुछ सहायता कर सकूँ-बस, इतना ही उनसे मेरा संबंध है।
पारिवारिक बंधन रूपी लोहे की साँकल मैं तोड़ चुका हूँ-अब मैं धर्मसंघ की सोने
की साँकल पहिनना नहीं चाहता। मैं मुक्त हूँ, सदा मुक्त रहूँगा। मेरी अभिलाषा
है कि सभी कोई मुक्त हो जायँ-वायु के समान मुक्त। यदि न्यूयार्क, वोस्टन
अथवा अमेरिका के अन्य किसी स्थल के निवासी वेदांत चर्चा के लिए आग्रहशील हों
तो उन्हें वेदांत के आचार्यों को आदरपूर्वक ग्रहण करना, उनकी देखभाल तथा उनके
प्रतिपालन की व्यवस्था करना चाहिए। जहाँ तक मेरी बात है, मैं तो एक प्रकार
से अवकाश ले चुका हूँ। जगत की नाट्यशाला में मेरा अभिनय समाप्त हो चुका है !
भवदीय,
विवेकानंद
(स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)
लेक ल्यूकर्नि, स्विट्ज़रलैंड,
२३ अगस्त, १८९६
प्रिय शशि,
आज रामदयाल बाबू का पत्र मुझे मिला, जिसमें वे लिखते है कि दक्षिणेश्वर में
श्री रामकृष्ण के वार्षिकोत्सव के दिन बहुत सी वेश्याएँ वहाँ आयी थीं,
इसलिए बहुत से लोगों को वहाँ जाने की इच्छा कम होती है। इसके अतिरिक्त उनके
विचार से पुरुषों के जाने के लिए एक दिन नियुक्त होना चाहिए और स्त्रियों के
लिए दूसरा। इस विषय पर मेरा निर्णय यह है :
१. यदि वेश्याओं को दक्षिणेश्वर जैसे महान तीर्थ में जाने की अनुमति नहीं
है, तब वे और कहाँ जायँ। ईश्वर विशेषकर पापियों के लिए प्रकट होते हैं,
पुण्यवानों के लिए कम।
२. लिंग, जाति, धन, विद्या और इनके समान और बहुत सी बातों के भेद-भावों को, जो
साक्षात् नरक के द्वार हैं, संसार में ही सीमाबद्ध रहने दो। यदि तीर्थों के
पवित्र स्थानों में ये भेदभाव बने रहेंगे तो उनमें और नरक में क्या अंतर रह
जाएगा ?
३. अपनी विशाल जगन्नाथपुरी है, जहाँ पापी और पुण्यात्मा, महात्मा और
दुरात्मा, पुरुष, स्त्री और बालक-बिना कसी उम्र अथवा अवस्था के भेदभाव
के-सबको समान अधिकार है। वर्ष में कम से कम एक दिन के लिए सहस्त्रों
स्त्री-पुरुष पाप और भेदभाव से छुटकारा पाते हैं और परमात्मा का नाम सुनते और
गाते हैं। यह स्वयं परम श्रेय है।
४. यदि तीर्थ स्थान में भी एक दिन के लिए लोगों की पापप्रवृत्ति पर नियंत्रण
नहीं किया जा सकता, तब समझो कि दोष तुम्हारा है, उनका नहीं। आध्यात्मिकता की
एक ऐसी शक्तिशाली लहर उठा दो कि उसके समीप जो भी आ जायँ, वे उसमें बह जायँ।
५. जो लोग मंदिर में भी यह सोचते हैं कि यह वेश्या है, यह मनुष्य नीच जाति
का है, दरिद्र है तथा यह मामूली आदमी है-ऐसे लोगों की संख्या (जिन्हें तुम
सज्जन कहते हो) जितनी कम हो उतना ही अच्छा। क्या वे लोग, जो भक्तों की
जाति, लिंग या व्यवसाय देखते हैं, हमारे प्रभु को समझ सकते हैं ? मैं प्रभु
से प्रार्थना करता हूँ कि सैकड़ों वेश्याएँ आयें और 'उनके'चरणों में अपना सिर
नवायें, और यदि एक भी सज्जन न आए तो भी कोई हानि नहीं। आओ वेश्याओं, आओ
शराबियों, आओ चोरो, सब आओ-श्री प्रभु का द्वार सबके लिए खुला है। 'It is
easier for a camel to pass through the eye of a needle than for a rich man
to enter the Kingdom of God.' (धनवान का ईश्वर के राज्य में प्रवेश करने की
अपेक्षा ऊँट का सुई के छेद में घुसना सहज है।) कभी कोई ऐसे क्रूर और राक्षसी
भावों को अपने मन में न आने दो।
६. परंतु कुछ सामाजिक सावधानी की आवश्यकता है-हम यह कैसे रख सकते हैं ? कुछ
पुरुष (यदि वृद्ध हों तो अच्छा हो) पहरेदारी का भार दिन भर के लिए ले लें। वे
उत्सव के स्थान में परिभ्रमण करें, और यदि वे किसी पुरुष अथवा स्त्री की
बातचीत या आचरण में अशिष्ट व्यवहार पायें तो वे उन्हें तुरंत ही उद्यान से
निकाल दें। परंतु जब तक शिष्ट स्त्री-पुरुषों के समान उनका आचरण रहे, तब तक
वे भक्त हैं और आदरणीय हैं-चाहे वे पुरुष हों या स्त्री, सच्चरित्र या
दुश्चरित्र।
मैं इस समय स्विट्ज़रलैंड में भ्रमण कर रहा हूँ और प्रोफ़ेसर डॉयसन से भेंट
करने शीध्र ही जर्मनी जानेवाला हूँ। वहाँ से मैं २३ या २४ सितंबर तक इंग्लैंड
लौटकर आऊँगा और आगामी जाड़े में तुम मुझे भारत में पाओगे। तुम्हें और सबको
मेरा प्यार।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(डॉ० नंजुन्दा राव को लिखित)
स्विट्ज़रलैंड,
२६ अगस्त, १८९६
प्रिय नंजुन्दा राव,
मुझे तुम्हारा पत्र अभी मिला। मैं बराबर घूम रहा हूँ, मैं आल्प्स के बहुत
से पहाड़ों पर चढ़ा हूँ और मैंने कई हिम नदियाँ पार की हैं। अब मैं जर्मनी जा
रहा हूँ। प्रोफ़ेसर डॉसन ने मुझे कील आने का निमंत्रण दिया है। वहाँ से मैं
इंग्लैंड आऊँगा। संभव है कि इसी सर्दी में मैं भारत लौटूँ।
मैंने 'प्रबुद्ध भारत'के मुख-पूष्ठ की डिज़ाइन की जिस बात पर आपत्ति की थी वह
सिर्फ़ इसका फूहड़पन ही नहीं था, बल्कि इसमें अनेक चित्रों की निरुद्देश्य
भरमार भी है। डिज़ाइन सरल, प्रतीकात्मक एवं संक्षिप्त होनी चाहिए। मैं
'प्रबुद्ध भारत'के लिए लंदन में डिज़ाइन बनाने की कोशिश करूँगा और तुम्हारे
पास इसे भेजूँगा।
मुझे बड़ा हर्ष है कि काम अति सुंदर रूप से चल रहा है।... परंतु मैं तुम्हें
एक सलाह दूँगा। भारत में जो काम साझे में होता है वह एक दोष के बोझ से डूब
जाता है। हमने अभी तक व्यावसायिक दृष्टिकोण नहीं विकसित किया। अपने वास्तविक
अर्थ में व्यवसाय व्यवसाय ही है, मित्रता नहीं, जैसी कि हिंदू कहावत है,
'मुँहदेखी'न होनी चाहिए। अपने जि़म्मे जो हिसाब-किताब हो, वह बहुत ही सफ़ाई
से रखना चाहिए और कभी एक कोष का धन किसी दूसरे काम में कदापि न चाहिए, चाहे
दूसरे क्षण भूखे ही क्यों न रहना पड़े। यही है व्यावसायिक ईमानदारी। दूसरी
बात यह है कि कार्य करने की अटूट शक्ति होनी चाहिए। जो कुछ तुम करते हो, उस
समय के लिए उसे अपनी पूजा समझो। इस समय इस पत्रिका को अपना ईश्वर बना लो, और
तुम्हें सफलता प्राप्त होगी।
तुम इस पत्रिका के संचालन में सफल होने के बाद इसी प्रकार भारतीय भाषाओं
में-तमिल, तेलुगु और कन्नड़ आदि में-भी पत्रिकाएँ शुरू करो। मद्रासी गुणवान
हैं, पुरुषार्थी हैं, यह सब कुछ है; परंतु ऐसा मालूम होता है कि शंकराचार्य की
जन्मभूमि ने त्याग का भाव खो दिया है।
मेरे बच्चों को संघर्ष में कूदना होगा, संसार त्यागना होगा-तब दृढ़ नींव
पड़ेगी।
वीरता से आगे बढ़ो-डिज़ाइन और दूसरी छोटी- छोटी बातों की चिंता न करो-'घोड़े
के साथ लगाम भी मिल जाएगी।' मृत्युपर्यंत काम करो-मैं तुम्हारे साथ हूँ, और
जब मैं न रहूँगा, तब मेरी आत्मा तुम्हारे साथ काम करेगी। यह जीवन आता और
जाता है-नाम, यश, भोग, यह सब थोड़े दिन के हैं। संसारी कीड़े की तरह मरने से
अच्छा है-कहीं अधिक अच्छा है कर्तव्य क्षेत्र में सत्य का उपदेश देते हुए
मरना। आगे बढ़ो।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(स्वामी कृपानंद को लिखित)
स्विट्ज़रलैंड,
अगस्त, १८९६
प्रिय कृपानंद,
तुम पवित्र तथा सर्वोपरि निष्ठावान बनो; एक मुहूर्त के लिए भी भगवान् के प्रति
अपनी आस्था न खोओ, इसी से तुम्हें प्रकाश दिखाई देगा। जो कुछ सत्य है, वही
चिरस्थायी बनेगा, किंतु जो सत्य नहीं है, उसकी कोई भी रक्षा नही कर सकता।
आधुनिक समय में तीव्र गति से प्रत्येक वस्तु की खोज की जाती है, इस समय
हमारा जन्म होने के कारण हमें बहुत कुछ सुविधा प्राप्त हुई है। और लोग चाहे
कुछ भी क्यों न सोचें, तुम कभी अपनी पवित्रता, नैतिकता तथा भगवत्प्रीति के
आदर्श को छोटा न बनाना। सभी प्रकार की गुप्त संस्थाओं से सावधान रहना, इस
बात का सबसे अधिक ख्याल रखना। भगवत्प्रेमियों को किसी इंद्रजाल से नहीं डरना
चाहिए। स्वर्ग तथा मर्त्य लोक में सर्वत्र केवल पवित्रता ही सर्वश्रेष्ठ तथ
दिव्यतम शक्ति है। सत्यमेव जयते नानृतम् , सत्येन पन्था विततो देवयान:।-- 'सत्य की ही जय होती है,
मिथ्या की नहीं; सत्य के ही मध्य होकर देवयान मार्ग अग्रसर हुआ है'कोई
तुम्हारा सहगामी बना या न बना, इस विषय को लेकर माथापच्ची करने की आवश्यकता
नहीं है; केवल प्रभु का हाथ पकड़ने में भूल न होनी चाहिए, बस इतना ही
पर्याप्त है।...
कल मैं 'माँन्टि रोसा' हिमनद के किनारे गया था तथा चिरकालिक हिम के प्राय:
मध्य में उत्पन्न कुछ एक सदाबहार फूल तोड़ लाया था। उनमें से एक इस पत्र के
अंदर रखकर तुम्हारे लिए भेज रहा हूँ-आशा है कि इस पार्थिव जीवन के समस्त हिम
तथा बर्फ़ के बीच में तुम भी उसी प्रकार की आध्यात्मिक दृढ़ता प्राप्त
करोगे।...
तुम्हारा स्वप्न अति सुंदर है। स्वप्न में हमें अपने एक ऐसे मानसिक
'स्तर'का परिचय मिलता है, जिसकी अनुभूति जागृत दशा में नहीं होता और कल्पना
चाहे कितनी ही ख्याली क्यों न हो-अज्ञात आध्यात्मिक सत्य सदा कल्याण के
पीछे रहते हैं। साहस से काम लो। मानव जाति के कल्याण के लिए हम यथासाध्य
प्रयास करेंगे, शेष सब प्रभु पर निर्भर है।...
अधीर न बनो, उतावली न करो। धैर्यपूर्ण, एकनिष्ठ तथा शांतिपूर्ण कर्म के
द्वारा ही सफलता मिलती है। प्रभु सर्वोपरि है। वत्स, हम अवश्य सफल
होंगे-सफलता अवश्य मिलेगी। 'उसका'नाम धन्य है !
अमेरिका में कोई आश्रम नहीं है। यदि एक आश्रम होता तो क्या ही सुंदर होता !
उससे मुझे न जाने कितना आनंद मिलता और उसके द्वारा इस देश का न जाने कितना
कल्याण होता !
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित)
कील,
१०सितंबर,१८९६
प्रिय मित्र,
आखिर प्रोफ़ेसर डॉयसन के साथ मेरी भेंट हुई।... उनके साथ दर्शनीय स्थलों को
देखने तथा वेदांत पर विचार-विमर्श करने में कल का सारा दिन बहुत ही अच्छी तरह
बीता।
मैं समझता हूँ कि वे एक 'लड़ाकू अद्वैतवादी' (A warring Advaitist) हैं।
अद्वैतवाद को छोड़कर और किसी से वे मेल करना नहीं चाहते। 'ईश्वर' शब्द से वे
आतंकित हो उठते हैं। यदि उनसे संभव होता तो ये इसको एकदम निर्मूल कर देते।
मासिक पत्रिका संबंधी तुम्हारी योज़ना से वे अत्यंत आनंदित हैं तथा इस बारे
में तुम्हारे साथ लंदन में विचार-विमर्श करना चाहते हैं, शीघ्र ही वे वहाँ जा
रहे हैं।...
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(कुमारी हैरियेट हेल को लिखित)
एयरली लॉज, रिजवे गार्डन्स,
विंबलडन, इंग्लैंड,
१७ सितंबर, १८९६
प्रिय बहन,
स्विट्ज़रलैंड से यहाँ वापस आने पर अभी अभी तुम्हारा अत्यंत शुभ समाचार मिला।
'चिरकुमारी आश्रम' (Old Maids Home) में प्राप्य सुख के बारे में आखिर तुमने
अपना मत परिवर्तन किया है, उससे मुझे बहुत ही खुशी हुई। अब तुम्हारा यह
सिद्धांत बिल्कुल ठीक है कि नब्बे प्रतिशत व्यक्तियों के लिए विवाह जीवन का
सर्वोत्तम ध्येय है, और जब वे इस चिरंतन सत्य का अनुभव कर उसका अनुसरण करने
को प्रस्तुत हो जाएंगे, उन्हें सहनशीलता और क्षमाशीलता अपनानी पड़ेगी तथा
जीवन-यात्रा में मिल-जुलकर चलना पड़ेगा, तभी उनका जीवन अत्यंत सुखपूर्ण होगा।
प्रिय हैरियेट, तुम यह निश्चित जानना कि 'संपन्न जीवन' में अंतर्विरोध है। अत:
हमें सर्वदा इस बात की संभावना स्वीकार करनी चाहिए कि हमारे उच्चतम आदर्श से
निम्न श्रेणी की ही वस्तुएँ हमें मिलेगी, यह समझ लेने पर प्रत्येक वस्तु
का हम अधिक से अधिक सदुपयोग करेंगे। मैं जहाँ तक तुमको जानता हूँ, उससे मेरी
धारणा बनी है कि तुम्हारे अंदर ऐसी प्रशांत शक्ति विद्यमान है, जो क्षमा तथा
सहनशीलता से पर्याप्त पूर्ण है। अत: मैं निश्चित रूप से यह भविष्यवाणी कर
सकता हूँ कि तुम्हारा दांपत्य-जीवन अत्यंत सुखमय होगा।
तुम तथा तुम्हारे वाग्दत्त पति को मेरा आशीर्वाद। प्रभु तुम्हारे पति के
हृदय में सर्वदा यह बात जागृत रखें कि तुम जैसी पवित्र, सच्चरित्र,
बुद्धिशालिनी, स्नेहमयी तथा सुंदरी सहधर्मिणी को पाना उनका सौभाग्य था। इतने
शीघ्र 'अटलांटिक'महासागर पार करने की मेरी कोई संभावना नहीं है, यद्यपि मेरी
यह हार्दिक अभिलाषा है कि तुम्हारे विवाह में उपस्थित रहूँ।
ऐसी दशा में हम लोगों की एक पुस्तक में से कुछ अंश उद्धृत करना ही मेरे लिए
उत्तम है : 'अपने पति को इहलोक की समस्त काम्य वस्तुओं की प्राप्ति करने में
सहायता प्रदान कर, तुम सर्वदा उनके ऐकांतिक प्रेम की अधिकरिणी बनो; अनंतर
पौत्र-पौत्रियों की प्राप्ति के बाद जब आयु समाप्त होने लगे, तब जिस
सच्चिदानंद सागर के जलस्पर्श से सब प्रकार के विभेद दूर हो जाते हैं, एवं हम
सब एक में परिणत होते हैं, उन्हें प्राप्त करने के लिए तुम दोनों परस्पर
सहायक बनो।'
'उमा की तरह तुम जीवन भर पवित्र तथा निष्काम रहो तथा तुम्हारे पति का जीवन
शिव जैसा उमागतप्राण हो !'
तुम्हारा स्नेहाधीन भाई,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
एयरलीलॉज, रिजवेगार्डन्स,
विम्बलडन, इंग्लैंड,
१७सितंबर, १८९६
प्रिय बहन,
स्विट्ज़रलैंड में दो महीने तक पर्वतरोहण, पद-यात्रा और हिमनदों का दृश्य
देखने के बाद आज लंदन पहुँचा। इससे मुझे एक लाभ हुआ-शरीर का व्यर्थ का मोटापा
छँट गया और वजन कुछ पौंड घट गया। ठीक, किंतु उसमें भी खैरियत नहीं, क्योंकि इस
जन्म में जो ठोस शरीर प्राप्त हुआ है, उसने अनंत विस्तार की होड़ में मन को
मत देने की ठान रखी है। अगर यह रवैया जारी रहा तो मुझे जल्द ही अपने शारीरिक
रूप में अपनी व्यक्तिगत पहिचान खोनी पड़ेगी-कम से कम शेष सारी दुनिया की
निगाह में।
हैरियट के पत्र के शुभ संवाद से मुझे जो प्रसन्नता हुई, उसे शब्दों में
व्यक्त करना मेरे लिए असंभव है। मैंने उसे आज पत्र लिखा है। खेद है कि उसके
विवाह के अवसर पर मैं न आ सकूँगा, किंतु समस्त शुभकामनाओं और आशीर्वादों के
साथ मैं अपने 'सूक्ष्म शरीर' से उपस्थित रहूँगा। खैर, अपनी प्रसन्नता की
पूर्णता के निमित्त मैं तुमसे तथा अन्य बहनों से भी इसी प्रकार के समाचार की
अपेक्षा करता हूँ।
इस जीवन में मुझे एक बड़ी नसीहत मिली है, और प्रिय मेरी, मैं अब उसे तुम्हें
बताना चाहता हूँ। वह है-'जितना ही ऊँचा तुम्हारा ध्येय होगा, उतना ही अधिक
तुम्हें संतप्त होना पड़ेगा।' कारण यह है कि 'संसार में' अथवा इस जीवन में
भी आदर्श नाम की वस्तु की उपलब्धि नहीं हो सकती। जो संसार में पूर्णता चाहता
है वह पागल है, क्योंकि वह हो नहीं सकती।
ससीम में असीम तुम्हें कैसे मिलेगा ? इसलिए मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ
कि हैरियट का जीवन अत्यंत आनंदमय और सुखमय होगा, क्योंकि वह इतनी कल्पनाशील
और भावुक नहीं है कि अपने को मूर्ख बना ले। जीवन को सुमधुर बनाने के लिए उसमें
पर्याप्त भावुकता है और जीवन की कठोर गुत्थियों को, जो प्रत्येक के सामने
आती ही हैं, सुलझाने के लिए उसमें काफी समझदारी तथा कोमलता भी है। उससे भी
अधिक मात्रा में वे ही गुण मैककिंडले में भी हैं। वह ऐसी लड़की है जो
सर्वोत्तम पत्नी होने लायक़ है, पर यह दुनिया ऐस मूढ़ों की खान है कि
इने-गिने लोग ही आंतरिक सौंदर्य परख पाते हैं ! जहाँ तक तुम्हारा और आइसाबेल
का सवाल है, मैं तुम्हें सच बताऊँगा और मेरी भाषा स्पष्ट है।
मेरी, तुम तो एक बहादुर अरब जैसी हो-शानदार और भव्य। तुम भव्य राजमहिषी बनने
योग्य हो-शारीरिक दृष्टि से और मानसिक दृष्टि से भी। तुम किसी तेज़-तर्राक,
बहादुर और जोख़िम उठानेवाले वीर पति की पार्श्ववर्ती बनकर चमक उठोगी; किंतु
प्रिय बहन, पत्नी के रूप में तुम ख़राब से ख़राब सिद्ध होगी। सामान्य दुनिया
में जो आराम से जीवन व्यतीत करनेवाले, व्यावहारिक तथा कार्य के बोझ से
पिसनेवाले पति हुआ करते हैं, उनकी तो तुम जान ही निकाल लोगी। सावधान, बहन,
यद्यपि किसी उपन्यास की अपेक्षा वास्तविक जीवन में अधिक रूमानिअत है, लेकिन
वह है बहुत कम। अतएव तुम्हें मेरी सलाह है कि जब तक तुम अपने आदर्शों को
व्यावहारिक स्तर पर न ले आ सको, तब तक हरगिज़ विवाह मत करना। यदि कर लिया तो
दोनों का जीवन दु:खमय होगा। कुछ ही महीनों में सामान्य कोटि के उत्तम, भले
युवक के प्रति तुम अपना सारा आदर खो बैठोगी और तब जीवन नीरस हो जाएगा। बहन
आइसाबेल का स्वभाव भी तुम्हारे ही जैसा है। अंतर इतना ही है कि किंडरगार्टन
की अध्यापिका होने के नाते उसने धैर्य और सहिष्णुता का अच्छा पाठ सीख लिया
है। संभवतः वह अच्छी पत्नी बनेगी।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक कोटि तो उन लोगों की है जो दृढ़
स्नायुओवाले, शांत तथा प्रकृति के अनुरूप आचरण करनेवाले होते हैं; वे अधिक
कल्पनाशील नहीं होते, फिर भी अच्छे दयालु, सौम्य आदि होते हैं। दुनिया ऐसे
लोगों के लिए ही है-वे ही सुखी रहने के लिए पैदा हुए हैं। दूसरी कोटि उन लोगों
की है जिनके स्नायु अधिक तनाव के हैं, जिनमें प्रगाढ़ भावना है, जो अत्यधिक
कल्पनाशील हैं, सदा एक क्षण में बहुत ऊँचे चले जाते हैं और दूसरे क्षण नीचे
उतर आते हैं-उनके लिए सुख नहीं। प्रथम कोटि के लोगों का सुख-काल प्राय: सम
होता है और द्वितीय कोटि के लोगों को हर्ष विषाद के द्वंद्व में जीवन व्यतीत
करना पड़ता है। किंतु इसी द्वितीय कोटि में ही उन लोगों का आविर्भाव होता है,
जिन्हें हम प्रतिभासंपन्न कहते हैं। इस हाल के सिद्धांत में कुछ सत्य है कि
'प्रतिभा एक प्रकार का पागलपन है।'
इस कोटि के लोग यदि महान बनना चाहें तो उन्हें वारे-न्यारे की लड़ाई लड़नी
होगी-युद्ध के लिए मैदान साफ करना पड़ेगा। कोई बोझ नहीं-न जोरू न जाँता, न
बच्चे और न किसी वस्तु के प्रति आवश्यकता से अधिक आसक्ति। अनुरक्ति केवल एक
'भाव' के प्रति और उसीके निमित्त जीना-मरना। मैं इसी प्रकार का व्यक्ति हूँ।
मैंने केवल वेदांत का भाव ग्रहण किया है और 'युद्ध के लिए मैदान साफ कर लिया
है।' और तुम आइसाबेल भी इसी कोटि में हो, परंतु मैं तुम्हें बता देना चाहता
हूँ, यद्यपि है यह कटु सत्य, कि 'तुम लोग अपना जीवन व्यर्थ चौपट कर रही हो।
'या तो तुम लोग एक भाव ग्रहण कर लो, तन्निमित्त मैदान साफ कर लो और जीवन
अर्पित कर दो; या संतुष्ट एवं व्यावहारिक बनो; आदर्श नीचा करो, विवाह कर लो
एवं 'सुखमय जीवन'व्यतीत करो। या तो 'भोग'या 'योग'-सांसारिक सुख भोगो या सब
त्याग कर योगी बनो। 'एक साथ दोनों की उपलब्धि किसी को नहीं हो सकती।'अभी या
फिर कभी नहीं-शीघ्र चुन लो। कहावत है कि 'जो बहुत सविशेष होता है, उसके हाथ
कुछ नहीं लगता।' अब सच्चे दिल से वास्तव में और सदा के लिए कर्म-संग्राम के
लिए 'मैदान साफ करने'का संकल्प करो; कुछ भी ले लो, दर्शन या विज्ञान या धर्म
अथवा साहित्य कुछ भी ले लो और अपने शेष जीवन के लिए उसी को अपना ईश्वर बना
लो। या तो सुख ही लाभ करो या महानता। तुम्हारे और आइसबेल के प्रति मेरी
सहानुभूति नहीं, तुमने इसे चुना है न उसे। मैा तुम्हें सुखी-जैसा कि हैरियट
ने ठीक ही चुना है-अथवा 'महान'देखना चाहता हूँ। भोजन, मद्यपान, श्रृंगार तथा
सामाजिक अल्हड़पन ऐसी वस्तुएँ नही कि जीवन को उनके हवाले कर दो-विशेषत: तुम,
मेरी। तुम एक उत्कृष्ट मस्तिष्क और योग्यताओं में घुन लगने दे रही हो,
जिसके लिए ज़रा भी कारण नहीं है। तुममें महान बनने की महत्त्वाकांक्षा होनी
चाहिए। मैं जानता हूँ कि तुम मेरी इन कटूक्तियों को समुचित भाव से ग्रहण
करोगी, क्योंकि तुम्हें मालूम है कि मैं तुम्हें बहन कह कर जो संबोधित करता
हूँ, वैसा ही या उससे भी अधिक तुम्हें प्यार करता हूँ। इसे बताने का मेरा
बहुत पहले से विचार था और ज्यों-ज्यों अनुभव बढ़ता जा रहा है, त्यों-
त्यों इसे बता देने का विचार हो रहा है। हैरियट से जो हर्षमय समाचार मिला,
उससे हठात् तुम्हें यह सब कहने को प्रेरित हुआ। सुलभ हो सकता है, मुझे बेहद
खुशी होगी, अन्यथा मैं तुम्हारे बारे में यह सुनना पसंद करूँगा कि तुम महान
कार्य कर रही हो।
जर्मनी में प्रोफ़ेसर डॉयसन से मेरी भेंट मज़ेदार थी। मुझे विश्वास है कि
तुमने सुना होगा कि वे जीवित जर्मनी दार्शनिकों में सर्वश्रेष्ठ हैं। हम
दोनों साथ ही इंग्लैंड आए और साथ ही यहाँ अपने मित्रों से मिलने आए, जहाँ
इंग्लैंड के प्रवास-काल में मैं ठहनेवाला हूँ। संस्कृत में वार्तालाप उन्हें
अत्यंन्त प्रिय है और पाश्चात्य देशों में संस्कृत के विद्वानों में वे
ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जो उसमें बातचीत कर सकते हैं। वह अभ्यस्त बनना चाहते
हैं, इसलिए संस्कृत के सिवा अन्य किसी भाषा में वे मुझसे बातें नहीं करते।
यहाँ मैं अपने मित्रों के बीच आया हूँ, कुछ सप्ताह कार्य करूँगा और तब जाड़ों
में भारत वापस लौट जाऊँगा।
तुम्हारा सदैव सस्नेह भाई,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
द्वारा कुमारी मूलर,
एयरलीलॉज, रिजवेगार्डन्स,
विंबलडन, इंग्लैंड,
२२ सितंबर, १८९६
प्रिय आलासिंगा,
मैक्समूलर द्वारा लिखित रामकृष्ण पर जो लेख मैंने तुम्हें भेजा था, आशा है
मिला होगा। उन्होंने कहीं भी मेरे नाम की चर्चा नहीं की है-इसके लिए दु:खित
मत होना। क्योंकि मुझसे परिचय होने के छ: माह पूर्व उन्होंने यह लेख लिखा था।
और, यदि उनका मूल वक्तव्य सही तो फिर इससे क्या लेना देना कि किसका नाम
उन्होंने लिया और नहीं लिया। जर्मनी में प्रोफ़ेसर डॉयसन के साथ मेरा समय
आनंदपूर्वक कटा। इसके बाद हम दोनों साथ ही लंदन आए और हमारी मित्रता घनिष्ठ
हो गई है।
मैं शीघ्र ही उनके संबंध में एक लेख भेज रहा हूँ। सिर्फ एक प्रार्थना है, मेरे
लेख के पहले पुराने ढंग का-'प्रिय महाशय' मत जोड़ा करो। तुमने 'राजयोग'पुस्तक
अभी तक देखी है या नहीं, इस वर्ष के लिए मैं एक प्रारूप भेजने की चेष्टा
करूँगा। मैं तुम्हें 'डेली न्यूज'में प्रकाशित रूप के ज़ार द्वारा लिखित
यात्रा-पुस्तक की समीक्षा भेज रहा हूँ। जिस परिच्छेद में उन्होंने भारत को
अध्यात्म और ज्ञान का देश कहा है-उसको तुम अपने पत्र में उद्धृत करके एक
निबंध 'इंडियन मिरर' को भेज दो।
तुम ज्ञानयोग के व्याख्यान को खूशी से प्रकाशित कर सकते हो। और डॉक्टर
नंजुंदा राव भी उसे अपने 'प्रबुद्ध भारत' के लिए ले सकते हैं किंतु सिर्फ़ सरल
और सहज भाषणों को। उन व्याख्यानों को एक बार सावधानी से देखकर उसमें
पुनरावृत्ति और परस्पर विरोधी विचारों को निकाल देना है। मुझे पूरी आशा है कि
लिखने के लिए अब अधिक समय मिलेगा। पूरी शक्ति के साथ कार्य में जुटे रहो।
सभी को प्यार-
तुम्हारा,
विवेकानंद
पुनश्च-मैंने उद्धृत होने वाले परिच्छेद को रेखांकित कर दिया है। बाक़ी अंश
किसी पत्रिका के लिए निरर्थक हैं।
मैं नहीं समझता कि अभी पत्रिका को मासिक बनाने से कोई लाभ होगा-जब तक कि तुमको
यह विश्वास न हो जाए कि उसका कलेवर मोटा होगा। जैसा कि अभी है-कलेवर और
सामग्री सभी मामूली है। अभी भी एक बहुत बड़ा क्षेत्र पड़ा हुआ है, जो अभी तक
छुआ नहीं गया है। यथा-तुलसीदास, कबीर और नानक तथा दक्षिण भारत के संतों के
जीवन और कृति के संबंध में लिखना। इसे विद्वत्तापूर्ण शैली तथा पूरी जानकारी
के साथ लिखना होगा-ढीले ढाले और अधकचरे ढंग से नहीं; असल में, पत्र को
आदर्श-वेदांत के प्रचार के अलावा भारतीय अनुसंधान और ज्ञानपिपासाओं
का-मुख-पत्र बनाना होगा। हाँ, धर्म ही इसका आधार होगा। तुम्हें अच्छे लेखकों
से मिलकर अच्छी सामग्री के लिए आग्रह करना होगा तथा उनकी लेखनी से अच्छी रचना
वसूल करनी होगी।
लगन के साथ कार्य में लगे रहा-
तुम्हारा,
विवेकानंद
(कुमारी जोसेफि़न मैक्लिऑड को लिखित)
द्वारा कुमारी मूलर,
एयरलीलॉज, रिजवेगार्डन्स,
विंबलडन, इंग्लैंड,
७ अक्तूबर, १८९६
प्रिय जो,
पुन: उसी लंदन में ! और कक्षाएँ भी यथावत शुरू हो गई हैं। मेरा मन आप-ही उस
परिचित मुख को चारों ओर ढूँढ रहा था, जिसमें कभी निरुत्साह की एक रेखा तक
नहीं दिखती थी; जो कभी परिवर्तित नहीं होता था और जिससे मुझे सदा सहायता मिलती
थी तथा जो मुझमें शक्ति एवं उत्साह का संचार करता था। और कई हजार मील की दूरी
के बावजूद वही मुखमंडल मेरे मनश्चक्षु के सम्मुख उदित हुआ, क्योंकि उस
अतींद्रिय भूमि में दूरत्व का स्थान ही कहाँ है ? अस्तु, तुम तो अपने
शांतिमय तथा पूर्ण विश्रामदायक धर लौट चुकी हो-परंतु मेरे समक्ष प्रतिक्षण
कर्मों का तांडव बढ़ता ही जा रहा है ! फिर भी तुम्हारी शुभकामनाएँ सदा ही
मेरे साथ हैं-ठीक है न ?
किसी गुफ़ा में जाकर चुपचाप निवास करना ही मेरा स्वाभाविक संस्कार है; किंतु
पीछे से मेरा अदृष्ट मुझे आगे की ओर ढकेल रहा हे और मैं आगे बढ़ता जा रहा
हूँ। अदृष्ट की गति को कौन रोक सकता है ?
ईसा मसीह ने अपने 'पर्वत पर उपदेश' (Sermon on the Mount) में यह क्यों नहीं
कहा- 'जो सदा आनंदमय तथा आशावादी है, वे ही धन्य हैं, क्योंकि उनको स्वर्ग
का राज्य तो पहले ही प्राप्त हो चुका है।'मेरा विश्वास है कि उन्होंने
निश्चय ही ऐसा कहा होगा, यद्यपि वह लिपिबद्ध नहीं हुआ; कारण यह है कि
उन्होंने अपने हृदय में विश्व के अनंत दु:ख को धारण किया था एवं यह कहा था
कि साधु का हृदय शिशु के अंत:करण के सदृश है। मैं समझता हूँ, उनके हज़ारों
उपदेशों में से शायद एकाध उपदेश, जो याद रहा, लिपिबद्ध किया गया है।
हमारे अधिकांश मित्र आज आए थे। गाल्सवर्दी परिवार की एक सदस्या-विवाहित
पुत्री भी आयी थी। श्रमती गाल्सवर्दी आज नहीं आ सकीं, सूचना बहुत देर से दी
गई थी। अब हमारे पास एक हॉल भी है, खासा बड़ा जिसमें लगभग दो सौ व्यक्ति अथवा
इससे अधिक भी आ सकते हैं। इसमें एक बड़ा सा कोना है जिसमें पुस्तकालय की
व्यवस्था की जाएगी। अब मेरी सहायता के लिए भारत से एक और व्यक्ति आ गया है।
मुझे स्विट्ज़रलैंड में बड़ा आनंद आया, जर्मनी में भी। प्रोफ़ेसर डॉयसन बहुत
ही कृपालु रहे-हम दोनों साथ लंदन आए और दोनों ने यहाँ काफी आनंद लिया।
प्रोफ़ेसर मैक्समूलर भी बहुत अच्छे मित्र हैं। कुल मिलाकर इंग्लैंड का काम
मजबूत हो रहा है-और सम्माननीय भी, यह देखकर कि बड़े-बड़े विद्वान सहानुभूति
प्रदर्शित कर रहे हैं। शायद मैं अगली सर्दियों में कुछ अंग्रेज़ मित्रों के साथ
भारत जाऊँगा। यह तो बात हुई अपने बारे में।
उस धार्मिक परिवार का क्या हाल है ? मुझे विश्वास है कि सब कुछ बिल्कुल ठीक
चल रहा है। अब तो तुम्हें फ़ोक्स का समाचार सुनने को मिला होगा। मुझे डर है
कि उसके जहाज़ी यात्रा शुरू करने के एक दिन पहले, मेरे यह कहने से कि तुम तब
तक मेबेल से विवाह नहीं कर सकते, जब तक तुम काफी कमाने न लगो, वह कुछ निराश हो
गया था ! क्या मेबेल अभी तुम्हारे यहाँ है ? उससे मेरा प्यार कहना। तुम
अपना वर्तमान पता भी मुझको लिखना।
माँ कैसी है ? मुझे विश्वास है कि फ्रांसिस पूर्ववत् पक्के खरे सोने की तरह
है। अल्बर्टा तो संगीत और भाषाएँ सीख रही होगी, पर्ववत् खूब हँसती होगी और
खूब सेब खाती होगी ? हाँ, आजकल फल-बादाम ही मेरा मुख्य आहार है, एवं वे मुझे
काफी अनुकूल जान पड़ते हैं। यदि कभी उस अज्ञात 'उच्च देशीय' बूढ़े डॉक्टर के
साथ तुम्हारी भेंट हो तो यह रहस्य उन्हें बतलाना। मेरी चर्बी बहुत कुछ घट
चुकी है; जिस दिन भाषण देना होता है, उस दिन अवश्य पौष्टिक भोजन करना पड़ता
है। हालिन का क्या समाचार है ? उसकी तरह के मधुर स्वभाव का कोई दूसरा बालक
मुझे दिखाई नहीं दिया। उसका समग्र जीवन सर्वविध आशीर्वाद से पूर्ण हो।
मैंने सुना है कि जरथुष्ट्र के मतवाद के समर्थन में तुम्हारे मित्र कोला
भाषण दे रहे हैं ? इसमें संदेह नही कि उनका भाग्य विशेष अनुकूल नहीं है।
कुमारी एंड्रीज तथा हमारे योगानंद का क्या समाचार है ? 'ज़ ज़ ज़' गोष्ठी की
क्या ख़बर है ? और हमारी श्रीमती (नाम याद नहीं है) कैसी हैं ? ऐसा सुना जा
रहा है कि हाल ही में आधा जहाज़ भरकर हिंदू, बौद्ध, मुसलमान तथा अन्य और न
जाने कितने ही संप्रदाय के लोग अमेरिका आ पहुँचे हैं; तथा महात्माओं की खोज
करनेवालों, ईसाई धर्म-प्रचारकों आदि का दूसरा दल भारत में घुसा है। बहुत खूब ?
भारतवर्ष तथा अमेरिका-ये दोनों देश धर्म-उद्योग के लिए बने जान पड़ते हैं !
किंतु 'जो', सावधान ! विधर्मियों की छूत ख़तरनाक है। श्रीमती स्टलिंग से आज
रास्ते में भेंट हुई। आजकल वे मेरे भाषण सुनने नहीं आतीं। यह उनके लिए उचित
ही है, क्योंकि अत्यधिक दार्शनिकता भी ठीक नहीं है। क्या तुम्हें उस महिला
की याद है जो मेरी हर सभा में इतनी देर से आती थी कि उसको कुछ भी सुनने को न
मिलता था, किंतु तुरंत बाद में वह मुझे पकड़कर इतनी देर तक बातचीत में लगाये
रखती कि भूख से मेरे उदर में 'वाटरलू'का महासंग्राम छिड़ जाता था। वह आयी थी।
लोग आ रहे हैं तथा और भी आयेंगे। यह आनंद का विषय है।
रात बढ़ती जा रही है, अत: 'जो'विदा-(न्यूयार्क में भी क्या ठीक ठीक
अदब-क़ायदे का पालन करना आवश्यक है ?) प्रभु, निरंतर तुम्हारा कल्याण करें !
'मनुष्य के प्रवीण रचयिता ब्रह्म को एक ऐसे निर्दोष रूप की रचना करने की
इच्छा हुई जिसका अनुपम सौष्ठव सृष्टि की सुंदरतम कृतियों में सर्वोत्तम
हो।'इसके लिए उसने महाकांक्षा से समसत सुंदर वस्तुओं का एक साथ आवाहन कर अपने
शाश्वत मन में एकत्र किया और उनको एक चित्र की भांति उत्कृष्ट तथा आदर्श
रूप दिया। ऐसे दिव्य, ऐसे आश्चर्यजनक आदि रूप से उस सौंदर्य राशि की रचना
हुई।' (कालिदास कृत अभिज्ञानशाकुन्तलम्)
'जो', 'जो' तुम वह हो, मैं केवल इतना और जोड़ देना चाहता हूँ कि उसी रचयिता ने
समस्त पवित्रता, समस्त उदाराशयता तथा अन्य समस्त गुणों को भी एकत्र किया
और तब 'जो'की रचना हुई।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
पुनश्च-सेवियर दंपत्ति तुम्हें अपनी शुभकामनाएँ भेज रहे हैं। उनके
निवासस्थान से ही मैं यह पत्र लिख रहा हूँ।
विवेकानंद
(कुमारी एलेन वाल्डो या हरिदासी नामक एक शिष्या को लिखित)
एयरलीलॉज, रिजवेगार्डन्स,
विंबलडन, इंग्लैंड,
८ अक्तूबर, १८९६
प्रिय वाल्डो,
...स्विट्ज़रलैंड में मुझे पूर्ण विश्राम मिला एवं प्रोफ़ेसर पॉल डॉयसन के साथ
मेरी विशेष मित्रता हो गई है। वस्तुत: अन्य स्थानों की अपेक्षा यूरोप में
मेरा कार्य अधिक संतोषजनक रूप से बढ़ रहा है तथा भारतवर्ष में इसका बहुत
ज्यादा प्रभाव पड़ेगा। लंदन में पुन: कक्षाएँ चालू हो गई हैं-आज तत्संबंधी
प्रथम व्याख्यान होगा। अब मुझे एक ऐसा सभागृह मिल गया है, जिस पर मेरा ही
नियंत्रण है; उसमें दो सौ या अधिक व्यक्ति बैठ सकते हैं...
यह तो तुम जानती ही हो कि अंग्रेज़ लोग कितने दृढ़चित्त होते हैं; अन्य
जातियों की अपेक्षा उन लोगों में पारस्परिक ईर्ष्या की भावना भी बहुत ही कम
होती है और यही कारण है कि उनका प्रभुत्व सारे संसार पर है। दासता की प्रतीक
खुशामद से सर्वथा दूर रहकर उन्होंने आज्ञा-पालन, पूर्ण स्वतंत्रता के साथ
नियमों के पालन के रहस्य का पता लगा लिया है।
प्रोफ़ेसर मैक्समूलर अब मेरे मित्र हैं। मुझ पर लंदन की छाप लग चुकी है। 'र'
नामक युवक के बारे में मुझे विशेष कुछ ज्ञात नहीं। यह बंगाली है तथा कुछ कुछ
संस्कृत भी पढ़ा सकता है। तुम तो मेरी इस दृढ़ धारणा से परिचित ही हो कि
जिसने काम-कांचन पर विजय नही पायी, उस पर मुझे क़तई भरोसा नहीं। तुम उसे
सैद्धांतिक विषयों की शिक्षा देने का अवसर प्रदान कर देख सकती हो; किंतु वह
'राजयोग' कभी भी न सिखा पाये। जो नियमित रूप से उसमें प्रशिक्षित नहीं, उसके
लिए इससे खिलवाड़ करना नितांत ख़तरनाक है। सारदानंद के संबंध में कोई डर नहीं
है, वर्तमान भारत के सर्वश्रेष्ठ योगी का आशीर्वाद उसे प्राप्त है। तुम
क्यों नहीं शिक्षा देना प्रारंभ करती हो ?... इस 'र' बालक की अपेक्षा
तुम्हारा दार्शनिक ज्ञान कहीं अधिक है। 'कक्षा' की नोटिस निकालो तथा नियमित
रूप से धर्मचर्चा करो और व्याख्यान दो।
अनेक हिंदुओं, यहाँ तक कि मेरे किसी गुरुभाई को अमेरिका में सफलता मिली है-इस
संवाद से मुझे जो आनंदानुभव होता है, उससे सहस्र गुना अधिक आनंद मुझे तब
प्राप्त होगा, जब मैं यह देखूँगा कि तुम लोगों में से किसी ने इसमें हाथ
बँटाया है। मनुष्य दुनिया को जीतना चाहता है; किंतु अपनी संतान के निकट
पराजित होना चाहता है।... ज्ञानाग्नि प्रज्ज्वलित करो ! ज्ञानाग्नि
प्रज्ज्वलित करो !
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
विंबलडन, इंग्लैंड,
८ अक्तूबर, १८९६
प्रिय श्रीमती बुल,
...जर्मनी में प्रोफ़ेसर डॉयसन के साथ मेरी भेंट हुई थी। कील में मैं उनका
अतिथि था। हम दोनों एक साथ लंदन आए थे तथा यहाँ पर भी कई बार उनसे मिलकर मुझे
विशेष आनंद मिला...। धर्म तथा समाज संबंधी कार्य के विभिन्न अंगों के प्रति
यद्यपि मेरी पूर्ण सहानुभूति है, फिर भी मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि
प्रत्येक के कार्यों का विशेष विभाग होना नितांत आवश्यक है। वेदांत-प्रचार
ही हमारा मुख्य कार्य है। अन्य कार्यों में सहायता पहुँचाना भी इसी आदर्श का
सहायक होना चाहिए। आशा है कि आप इस विषय को सारदानंद के हृदय में अच्छी तरह
दृढ़ता के साथ जमा देगे।
क्या आपने प्रोफ़ेसर मैक्समूलर रचित श्री रामकृष्ण संबंधी लेख पढ़ा ?...
यहाँ पर इंग्लैंड में प्राय: सभी लोग हमारे सहायक बनते जा रहे हैं। न केवल
हमारे कार्यों का यहाँ पर विस्तार हो रहा है, अपितु उनको सम्मान भी मिल रहा
है।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(१८९६ ई० के अंत में डॉ० बरोज़ की भारतव्यापी व्याख्यान -यात्रा के पूर्व
'इंडियन मिरर' नामक पत्र में स्वामी जी काएक पत्र प्रकाशित हुआ था, जिसमें
उन्होंने अपने देशवासियों को डॉ० बरोज़ का परिचय प्रदान करते हुए उनका
उपयुक्त अभिनंदन करने के लिए अनुरोध किया था। नीचे उसी का कुछ अंश दिया जा
रहा है।)
लंदन,
१८ अक्टूबर, १८९६
शिकागो विश्व मेला में सम्मेलनों की विराट् कल्पना को सफल बनाने के लिए
श्री सी० बॉनी ने डॉ० बरोज़ को अपना सहकारी निर्वाचित कर सबसे उपयुक्त
व्यक्ति पर ही कार्यभार सौंपा था; डॉ० बरोज़ के नेतृत्व में उन सम्मेलनों
में धर्म-महासभा को जो महत्व प्राप्त हुआ था, वह आज इतिहास-प्रसिद्ध है।
डॉ० बरोज़ का अद्भुत साहस, अथक परिश्रम, अविचलित धैर्य तथा स्वभाव-सिद्ध
भद्रता के फलस्वरूप ही इस सम्मेलन को अपूर्व सफलता प्राप्त हुई थी।
उस आश्यर्चजनक शिकागो-सम्मेलन के द्वारा ही भारत, भारतवासी तथा भारतीय
भावनाएँ संसार के समक्ष पहले से भी अधिक उज्ज्वल रूप से प्रकट हुइ्र हैं एवं
इस स्वजातीय कल्याण के लिए उस सभा से संबंधित अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा
हम डॉ० बरोज़ के ही अधिक ऋणी हैं।
इसके सिवाय वे हमारे समीप धर्म के पवित्र नाम तथा मानव जाति के एक श्रेष्ठ
आचार्य का नाम लेकर आ रहे हैं एवं मेरा यह विश्वास है कि 'नेज़रथ के पैग़ंबर'
द्वारा प्रचारित धर्म की उनकी व्याख्या अत्यंत उदार होगी तथा मन को उन्नत
बनाएगी। ईसा की शक्ति का जो परिचय वे देना चाहते हैं, वह दूसरों के मत के
प्रति असहिष्णु, प्रभुत्वपूर्ण और दूसरों के प्रति घूणापूर्ण
मनोवृत्तिप्रसूत नहीं है। परंतु एक भाई की तरह उन्नति-अभिलाषी भारत के
विभिन्न वर्गों के सहयोगी भाइयों में सम्मिलित होने की आकांक्षा से प्रेरित
होकर-वे जा रहे हैं। सबसे पहले हमें यह स्मरण रखना है कि कृतज्ञता तथा
अतिथि-सेवा ही भारतीय जीवन का वैशिष्ट्य है; अत: अपने देशवासियों के समीप
मेरा यह विनम्र अनुरोध है कि पृथ्वी के दूसरे छोर से भारत जानेवाले इस विदेशी
सज्जन के प्रति वे ऐसा आचरण करें जिससे उन्हें यह पता चल सके कि दु:ख,
दारिद्रय तथा अवनति की स्थिति में भी हमारा हृदय, अतीत की तरह ही अर्थात जब
भारतवर्ष आर्यभूमि के नाम से प्रख्यात था एवं उसके ऐश्वर्य की बात जगत की सब
जातियों की जिह्वा पर रहती थी, आज भी मित्रतापूर्ण है।
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
१४, ग्रेकोट गार्डन्स,
वेस्टमिनिस्टर, लंदन,
१ नवंबर, १८९६
प्रिय मेरी,
'सोना और चाँदी मेरे पास किंचित् मात्र नहीं है, किंतु जो मेरे पास है वह मैं
तुम्हें मुक्तहस्त दे रहा हूँ।'-और वह यह ज्ञान है कि स्वर्ग का
स्वर्णत्व, रजत का रजतत्व, पुरुष का पुरुषत्व, स्त्री का स्त्रीत्व और
सब वस्तुओं का सत्यस्वरूप परमात्मा ही है, और इस परमात्मा को प्राप्त
करने के लिए बाह्य जगत में हम अनादि काल से प्रयत्न करते आ रहे हैं, और इस
प्रयत्न में हम अपनी कल्पना की 'विचित्र'वस्तुओं-पुरुष, स्त्री, बालक,
शरीर, मन, पृथ्वी, सूर्य, चंद्र, तारे, संसार, प्रेम, द्वेष, धन, संपत्ति
इत्यादि को; और भूत, राक्षस, देवदूत, देवता, ईश्वर इत्यादि को भी-त्यागते
रहे हैं।
सच तो यह है कि प्रभु हममें ही है, हम स्वयं प्रभु है-जो नित्यद्रष्टा,
सच्चा 'अहम्' तथा अतींद्रिय है। उसे द्वैत भाव से देखने की प्रवृत्ति तो केवल
समय और बुद्धि को नष्ट करना ही है। जब जीव को यह ज्ञान हो जाता है, तब वह
विषयों का आश्रय लेना छोड़ देता है ओर आत्मा की ओर अधिकाधिक प्रवृत्त होता
है। यही क्रम-विकास है अर्थात् अंतर्दृष्टि का अधिकाधिक विकास एवं बहिर्दृष्टि
का अधिकाधिक लोप। सर्वाधिक विकसित रूप मानव है, क्योंकि वह मननशील है-वह ऐसी
प्राणी है जो विचार करता है, ऐसा प्राणी नहीं जो केवल इंद्रियों से संबद्ध है।
धर्मशास्त्र में इसे 'त्याग' कहते हैं। समाज का निर्माण, विवाह की
व्यवस्था, संतान-प्रेम, हमारे शुभ कर्म, शुद्धाचरण और नैतिकता, ये सब त्याग
के विभिन्न रूप हैं। सब समाजों में हम लोगों का जीवन इच्छा, पिपासा या कामना
के दमन में ही निहित है। इच्छा अथवा मिथ्या आत्मा के इस परित्याग-स्वार्थ
से निकलने की अभिलाषा, नित्य द्रष्टा को द्वैत भाव से देखने के प्रयत्न के
विरुद्ध संघर्ष के भिन्न-भिन्न रूप तथा उनकी अवस्थाएँ ही संसार के
भिन्न-भिन्न समाज एवं सामाजिक नियम हैं। मिथ्या आत्मा के समर्पण तथ
स्वार्थनिग्रह का सबसे सरल उपाय है प्रेम तथा इसका विपरीत उपाय है द्वेष।
स्वर्ग-नरक तथा आकाश के परे राज करनेवाले शासकों के संबद्ध अनेक कथाओं
अंधविश्वासों के द्वारा मनुष्यों को भुलाने में डालकर उसे आत्मसमर्पण के
लक्ष्य की ओर अग्रसर किया जाता है। इन सब अंधविश्वासों से दूर रहकर
तत्वज्ञानी वासना के त्याग द्वारा जानबूझकर इस लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता है।
बाह्य स्वर्ग या राम-राज्य का अस्तित्व केवल कल्पना में ही हैं, परंतु
मनुष्य के भीतर इनका अस्तित्व पहले से ही है। कस्तूरी की सुगंध के कारण की
व्यर्थ खोज करने के बाद, कस्तूरी-मृग अंत में उसे अपने में ही पाता है।
बाह्य समाज सर्वदा शुभ और अशुभ का सम्मिश्रण होगा-बाह्य जीवन की अनुगामी उसकी
छाया अर्थात् मृत्यु, सर्वदा उसके साथ रहेगी, और जीवन जितना लंबा होगा, उसकी
छाया भी उतनी ही लंबी होगी। केवल जब सूर्य हमारे सिर पर होता है, तब कोई छाया
नहीं होती। जब ईश्वर, शुभ और अन्य सब कुछ हममें ही हैं तो अशुभ कहाँ ? परंतु
बाह्य जीवन में प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और हर शुभ के साथ
अशुभ उसकी छाया की तरह जाता है। उन्नति में अधोगति का समान अंश रहता है, कारण
यह है कि अशुभ और शुभ एक ही पदार्थ हैं, दो नहीं, भेद अभिव्यक्ति में
है-मात्रा में है, न कि जाति में।
हमारा जीवन स्वयं दूसरों की मृत्यु पर अवलंबित है, चाहे वनस्पतियाँ हों,
चाहे पशु, चाहे कीटाणु। एक बड़ी भारी भूल जो हम लोग बहुधा करते हैं, वह यह कि
शुभ को हम सदा बढ़नेवाली वस्तु समझते हैं और अशुभ को एक निश्चित राशि मानते
हैं। इससे हम तर्क द्वारा सिद्ध करते हैं कि यदि अशुभ दिन-दिन घट रहा है तो एक
समय ऐसा आएगा, जब शुभ ही अकेला शेष रह जाएगा। मिथ्या पूर्व पक्ष को स्वीकार
कर लेने से हमारा तर्क अशुद्ध हो जाता है। यदि शुभ की मात्रा बढ़ रही है तो
अशुभ की भी बढ़ती है। मेरी जाति की जनता की अपेक्षा मेरी आकाक्षाएँ बहुत बढ़
गई हैं। मेरा सुख उनसे अत्यधिक है, परंतु मेरा दु:ख भी उनसे लाखों गुना तीव्र
है। जिस स्वभाव के कारण तुम्हें शुभ के स्पर्श मात्र का आभास होता है, उसी
से तुम्हें अशुभ के स्पर्श मात्र का भी आभास होगा। जिन स्नायुओं द्वारा सुख
का अनुभव होता है, उन्हीं के द्वारा दु:ख का भी; और एक ही मन दोनों का अनुभव
करता है। संसार की उन्नति का अर्थ है सुख और दु:ख-दोनों की अधिक मात्रा। जीवन
और मृत्यु, शुभ और अशुभ, ज्ञान और अज्ञान का सम्मिश्रण-यही 'माया'कहलाती
है-यही है विश्व का नियम। तुम अनंत काल तक इस जाल में सुख और दु:ख की खोज
करो-तुम्हें बहुत सुख और बहुत दु:ख-दोनों मिलेंगे। यह कहना कि संसार में केवल
शुभ ही हो, अशुभ नहीं, बालकों का प्रलाप मात्र है। दो मार्ग हमारे सामने
हैं-एक तो सब प्रकार की आशा को छोड़कर संसार जैसा है वैसा स्वीकार करके, दु:ख
की वेदना को सहन करें, इस आशा में कि कभी कभी सुख का अल्पांश मिल जाया करेगा।
दूसरा मार्ग यह है कि हम सुख को दु:ख का ही एक दूसरा रूप समझकर सुख की खोज को
त्याग दें तथा सत्य की खोज करें-और जो सत्य की खोज करने का साहस रखते हैं,
वे उसे नित्य अपने में ही विद्यमान पाते हैं। फिर हमें यह भी पता लग जाता है
कि वही सत्य किस प्रकार हमारे व्यावहारिक जीवन के भ्रम और ज्ञान दोनों रूपों
में प्रकट हो रहा है-हमें यह भी पता लग जाता है कि वही सत्य 'आनंद'है, जो शुभ
और अशुभ दोनों रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। साथ ही हमें यह भी पता लग
जाता है कि वहीं 'सत्'जीवन और मृत्यु दोनों रूपों में प्रकट हो रहा है।
इस प्रकार हम यह अनुभव करते हैं कि ये सब बातें उसी एक
अस्तित्व-सत्-चित्-आनंद, सब चीजों के अस्तित्व स्वरूप, मेरे यथार्थ स्वरूप
की भिन्न भिन्न प्रतिच्छायाएँ मात्र हैं। तब और केवल तभी बिना बुराई के
भलाई करना संभव होता है, क्योंकि ऐसी आत्मा ने उस पदार्थ को, जिससे कि शुभ और
अशुभ दोनों का निर्माण होता है, जान लिया है और अपने वश में कर लिया है, और वह
अपनी इच्छानुसार एक या दूसरे का विकास करता है। हम यह भी जानते हैं कि वह
केवल शुभ का ही विकास करता है। यही 'जीवन्मुक्ति' हैं जो वेदांत का और सब
तत्व-ज्ञानों का अंतिम लक्ष्य है।
मानवी समाज पर चारों वर्ण-पुरोहित, सैनिक, व्यापारी और मज़दूर बारी-बारी से
शासन करते हैं। हर शासन का अपना गौरव और अपना दोष होता है। जब ब्राह्मण का
राजय होता है, तब आनुवंशिक आधार पर भयंकर पृथकता रहती है-पुरोहित स्वयं और
उनके वंशज नाना प्रकार के अधिकारों से सुरक्षित रहते हैं, उनके अतिरिक्त किसी
को कोई ज्ञान नहीं होता, और उनके अतिरिक्त किसी को शिक्षा देने का अधिकार
नहीं है। इस विशिष्ट युग में सब विद्यार्थियों की नींव पड़ती है, यह इसका
गौरव है। ब्राह्मण मन को उन्नत करते हैं, क्योंकि मन द्वारा ही वे राज्य
करते हैं।
क्षत्रिय शासन क्रूर और अन्यायी होता है, परंतु उनमें पृथकता नहीं रहती और
उनुके युग में कला और सामाजिक संस्कृति उन्नति के शिखर पर पहुँच जाती है।
उसके बाद वैश्य शासन आता है। इसमें कुचलने की और खून चूसने की मौन शक्ति
अत्यंत भीषण होती है। इसका लाभ यह है कि व्यापारी सब जगह जाता है, इसलिए वह
पहले दोनों युगों में एकत्र किए हुए विचारों को फैलाने में सफल होता है। उनमें
क्षत्रियों से भी कम पृथकता होती है, परंतु सभ्यता की अवनति आरंभ हो जाती है।
अंत में आएगा मज़दूरों का शासन। उसका लाभ होगा भौतिक सुखों का समान वितरण-और
उससे हानि होगी, कदाचित् संस्कृति का निम्न स्तर पर गिर जाना। साधारण
शिक्षा का बहुत प्रचार होगा, परंतु असामान्य प्रतिभाशाली व्यक्ति कम होते
जाएंगे।
यदि ऐसा राज्य स्थापित करना संभव हो जिसमें ब्राह्मण युग का ज्ञान, क्षत्रिय
युग की सभ्यता, वैश्य युग का प्रचार-भाव और शूद्र युग की समानता रखी जा
सके-उसके दोषों को त्याग कर-तो वह आदर्श राज्य होगा परंतु क्या यह संभव है
?
परंतु पहले तीनों का राज्य हो चुका है। अब शूद्र शासन का युग आ गया है-वे
अवश्य राज्य करेंगे, और उन्हें कोई रोक नहीं सकता। सिक्के का स्वर्ण अथवा
रजतमान रखने में क्या क्या कठिनाइयाँ हैं, मैं यह सब नहीं जानता (और मैंने
देखा है कि कोई भी इस विषय में अधिक नहीं जानता), परंतु मैं यह देखता हूँ कि
स्वर्णमान ने धनवानों को अधिक धनी तथा दरिद्रों को और भी अधिक दरिद्र बना
दिया है। ब्रायन ने ठीक ही कहा था कि 'सोने के भी क्राँस पर हम लटकाये जाना
पसंद न करेंगे।'रजतमान हो जाने पर इस असमान युद्ध में ग़रीबों के पक्ष में कुछ
बल आ जाएगा। मैा समाजवादी हूँ, इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष
व्यवस्था समझता हूँ, परंतु इसलिए कि रोटी न मिलने से आधी रोटी ही अच्छी है।
और सब मतवाद काम में लाये जा चुके हैं और दोषयुक्त सिद्ध हुए हैं। इसकी भी अब
परीक्षा होने दो-यदि और किसी कारण से नहीं तो उसकी नवीनता के लिए ही। सर्वदा
एक ही वर्ग के व्यक्तियों को सुख और दु:ख मिलने की अपेक्षा सुख और दु:ख का
बटवारा करना अच्छा है। शुभ और अशुभ की समष्टि संसार में समान ही रहती हे। नए
मतवादों से वह भार कंधे से कंधा बदल लेगा, और कुछ नहीं।
इस दु:खी संसार में सब को सुख-भाग का अवसर दो, जिससे इस तथाकथित सुख के अनुभव
के पश्चात् वे संसार, शासन-विधि और अन्य झंझटों को छोड़कर प्रभु के पास आ
सकें।
तुम सबको मेरा प्यार।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पुरुमल को लिखित)
१४, ग्रेकोटगार्डन्स,
वेस्टमिनिस्टर, एस० डब्लू०,
११ नवंबर, १८९६
प्रिय आलासिंगा,
बहुत संभव है कि मैं १६ दिसंबर या उसके दो एक दिन बाद यहाँ से प्रस्थान करूँ।
यहाँ से इटली जाऊँगा और वहाँ के कुछ स्थानों को देखने के बाद नेपुल्स में
स्टीमर पर सवार हो जाऊँगा। कुमारी मूलर, श्री और श्रीमती सेवियर तथा गुडविन
नामक एक युवक मेरे साथ चल रहे हैं। सेवियर दंपत्ति अल्मोड़े में बसने जा रहे
हैं और कुमारी मूलर भी। सेवियर भारतीय सेना में पाँच साल तक अफ़सर के पद पर
थे। अत: भारत के बारे में उन्हें काफी जानकारी है। कुमारी मूलर थियोसॉफि़स्ट
थीं जिन्होंने अक्षय को गोद लिया। गुडविन अंग्रेज़ हैं जिनके द्वारा
शीघ्रलिपि में तैयार की गई टिप्पणियों से पुस्तिकाओं का प्रकाशन संभव हुआ।
मैं कोलंबो से सर्वप्रथम मद्रास पहुँचूँगा। अन्य लोग अल्मोड़े जाएंगे। वहाँ
से मैं कलकत्ता जाऊँगा। जब मैं यहाँ से प्रस्थान करूँगा, तब ठीक ठीक सूचना
देते हुए पत्र लिखूँगा।
तुम्हारा शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
पुनश्च-'राजयोग'पुस्तक के प्रथम संस्करण की सभी प्रतियाँ बिक गई और द्वितीय
संस्करण छपने के लिए प्रेस में है। भारत और अमेरिका सबसे बड़े खरीदार हैं।
विवेकानंद
(श्रीमती बुल को लिखित)
ग्रेकोटगार्डन्स,
वेस्ट मिनिस्टर,
१३ नवंबर, १८९६
प्रिय श्रीमती बुल,
...मैं शीघ्र ही भारत के लिए प्रस्थान करनेवाला हूँ, कदाचित् १६ दिसंबर को।
अमेरिका आने से पहले मुझे एक बार भारत जाने की तीव्र अभिलाषा है, और मैंने
अपने साथ इंग्लैंड से कई मित्रों को भारत ले जाने का प्रबंध किया है, इसलिए
चाहे मेरी कितनी ही इच्छा हो, परंतु अमेरिका होते हुए जाना मेरे लिए असंभव
है।
निश्चय ही डॉ० जेन्स अति उत्तम काम कर रहे हैं। उन्होंने मेरी और मेरे
कार्य की जो सहायता की है, उसके लिए और उनके कृपाभाव के लिए कृतज्ञता प्रकट
करने में मैं असमर्थ सा हूँ... यहाँ का कार्य अत्यंत सुंदर रूप से आगे बढ़ रहा
है।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
३१, विक्टोरिया स्ट्रीट, लंदन,
२० नवंबर, १८९६
प्रिय आलासिंगा,
मैं ईग्लैण्ड से इटली के लिए १६ दिसंबर को रवाना होऊँगा और नेपल्स से
'नार्थ जर्मनी लॉयड एस० एस० प्रिन्स रीजेन्ट लिओपोल्ड'नामक जहाज़ से
प्रस्थान करूँगा। जहाज़ आगामी १४ जनवरी को कोलंबो पहुँचने-वाला है।
श्रीलंका में कुछ चीज़ें देखने की मेरी इच्छा है; वहाँ से फिर मद्रास
पहुँचूँगा। मेरे साथ तीन अंग्रेज़ दोस्त हैं-कैप्टन तथा श्रीमती सेवियर तथा
श्री गुडविन। श्री सेवियर ओर उसकी पत्नी अल्मोड़ा के पास हिमालय में एक मठ
बनाने की सोच रहे हैं, जिसे मैं अपना 'हिमलाय केंद्र'बनाना चाहता हूँ। और वहीं
पाश्चात्य शिष्यों को ब्रह्मचारी और संन्यासी के रूप में रखूँगा। गुडविन
एक अविवाहित नवयुवक है। वह मेरे साथ भ्रमण करेगा और मेरे ही साथ रहेगा। वह
संन्यासी जैसा ही है।
मेरी तीव्र अभिलाषा है कि श्री रामकृष्ण देव में जन्मोत्सव से पहले मैं
कलकत्ता पहुँच जाऊँ।... मेरी वर्तमान कार्य-योजना यह है कि युवक प्रचारकों के
प्रशिक्षण के लिए कलकत्ता और मद्रास में दो केंद्र स्थापित करना है। कलकत्ते
के केंद्र के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है। कलकत्ता श्री रामकृष्ण के
कर्म-जीवन का क्षेत्र रह चुका है, इसलिए वह मेरा ध्यान पहले आकर्षित करता है।
मद्रास के केंद्र के लिए मैं आशा करता हूँ कि भारत से मुझे धन मिल जाएगा।
इन तीन केंद्रों से हम काम आरंभ करेंगे। फिर इसके बाद बंबई और इलाहाबाद में भी
केंद्र बनायेंगे। इन तीन स्थानों से, यदि भगवान् की कृपा हुई तो, हम भारत भर
में ही नहीं, परंतु संसार के प्रत्येक देश में प्रचारकों का दल भेजेंगे। यह
हमारा पहला कर्तव्य होना चाहिए। दिल लगाकर काम करते रहो। कुछ समय के लिए लंदन
का मुख्य कार्यालय ३९, विक्टोरिया स्ट्रीट में रहेगा, क्योंकि कार्य यहीं
से होगा। स्टर्डी के पास संदूक भर 'ब्रह्मवादिन्' पत्रिका है, जिसका मुझे
पहले पता नहीं था। वह अब इसके लिए ग्राहक बनाने के लिए प्रचार-कार्य कर रहा
है।
चूँकि अब अंग्रेज़ी भाषा में भारत से एक पत्रिका आरंभ हो गई है, अत: अब भारतीय
भाषाओं में भी हम कोई पत्रिका आरंभ कर सकते हैं। बिंबलडन की कुमारी एम० नोबल
बड़ी काम करने वाली है। वह मद्रास की दोनों पत्रिकाओं के लिए प्रचार-कार्य भी
करेगी। वह तुम्हें लिखेगी। ऐसे कार्य धीरे-धीरे, किंतु निश्चित रूप से आगे
बढ़ेंगे। ऐसी पत्रिकाओं को अनुयायियों के छोटे से समुदाय द्वारा ही सहायता
मिलती है। एक ही समय में उनसे अनेक कार्य करने की आशा नहीं करनी चाहिए। उनको
पुस्तकें खरीदनी पड़ती हैं; इंग्लैंड का कार्य चलाने के लिए पैसा एकत्र करना
पड़ता है; यहाँ की पत्रिका के लिए ग्राहक ढूँढ़ने पड़ते हैं; और फिर भारतीय
पत्रिकाओं को खरीदना पड़ता है। यह बहुत ज़्यादती है। यह शिक्षा प्रचार की
अपेक्षा व्यापार-कार्य अधिक जान पड़ता है। ऐसी स्थिति में तुम धीरज रखो। फिर
भी मुझे आशा है कि कुछ ग्राहक बन ही जाएंगे। इसके अलावा मेरे जाने के बाद यहाँ
लोगों के पास करने के लिए काम होना चाहिए, नहीं तो सब किया-कराया मिट्टी में
मिल जाएगा। इसलिए धीरे-धीरे यहाँ और अमेरिका में भी पत्रिका होनी चाहिए।
भारतीय पत्रिकाओं की सहायता भारतवासियों को ही करनी चाहिए। किसी पत्रिका के सब
राष्ट्रों में समान भाव से अपनाये जाने के लिए, सब राष्ट्रों के लेखकों का
एक बड़ा भारी विभाग रखना पड़ेगा, जिसके माने हैं प्रतिवर्ष एक लाख रुपये का
खर्च।
...तुम्हें यह न भूलना चाहिए कि मेरे कार्य अंतरराष्ट्रीय हैं, केवल भारतीय
नहीं। मेरा तथा अभेदानंद दोनों का स्वास्थ्य अच्छा है।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(श्री लाला बद्री शाह को लिखित)
३१, विक्टोरियास्ट्रीट, लंदन,
२१ नवंबर, १८९६
प्रिय लाला जी,
७ जनवरी तक मैं मद्रास पहुँचूँगा; कुछ दिन समतल क्षेत्र में रहकर मेरी
अल्मोड़ा जाने की इच्छा है।
मेरे साथ मेरे तीन अंग्रेज़ मित्र हैं, उनमें दो, सेवियर दंपत्ति, अल्मोड़ा
में निवास करेंगे। आपको शायद यह पता होगा कि वे मेरे शिष्य हैं एवं मेरे लिए
हिमालय में वे एक मठ बनवायेंगे। इसीलिए मैंने आपको एक उपयुक्त स्थान ढूँढ़ने
के लिए लिखा था। हमारे लिए एक ऐसी पूरी पहाड़ी चाहिए, जहाँ से हिम-दृश्य
दिखाई देता हो। इसमें संदेह नहीं कि उपयुक्त स्थान निर्वाचित कर आश्रम
निर्माण के लिए समय चाहिए। इस बीच क्या आप मेरे मित्रों के रहने के लिए
किराये पर एक छोटे से बँगले की व्यवस्था करने की कृपा करेंगे ? उसमें तीन
व्यक्तियों के रहने लायक स्थान होना आवश्यक है। बहुत बड़ा मकान नहीं चाहिए,
इस समय छोटे से ही कार्य चल सकेगा। मेरे मित्र वहाँ पर रहकर आश्रम के लिए
उपयुक्त स्थान तथा मकान की तलाश करेंगे।
इस पत्र के उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उत्तर मिलने से पहले
ही मैं भारत की ओर रवाना हो जाऊँगा। मद्रास पहुँच कर मैं आपको तार से सूचित
करूँगा।
आप सब लोगों को स्नेह तथा आशीर्वाद।
भवदीय,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी तथा हैरियट हेल को लिखित)
३१, विक्टोरियास्ट्रीट, लंदन,
२८ नवंबर, १८९६
प्रिय बहनों,
चाहे जिस कारण से भी हो, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम चारों से ही मैं सबसे
अधिक स्नेह करता हूँ एवं मुझे अत्यंत गर्व के साथ यह विश्वास है कि तुम चारों
भी मुझसे वैसा ही स्नेह करती हो। इसलिए भारत रवाना होने से पूर्व तुम लोगों
को यह पत्र स्वयं ही आत्मप्रेरित होकर लिख रहा हूँ। लंदन में हमारे कार्य को
ज़बरदस्त सफलता मिली है। अंग्रेज़ लोग अमेरिकनों की तरह उतने अधिक सजीव नहीं
है, किंतु यदि कोई एक बार उनके हृदय को छू ले तो फिर सदा के लिए वे गुलाम बन
जाते हैं। धीरे-धीरे मैं उन पर अपना अधिकार जमा रहा हूँ। आश्चर्य है कि छ:
माह के अंदर ही, सार्वजनिक भाषणों के अलावा भी मेरी कक्षा में १२० व्यक्ति
नियमित रूप से उपस्थित हो रहे हैं। अंग्रेज़ लोग अत्यंत कार्यशील हैं, अत: यहाँ
के सभी लोग क्रियात्मक रूप से कुछ करना चाहते हैं। कैप्टन तथा श्रीमती सेवियर
एवं श्री गुडविन कार्य करने के लिए मेरे साथ भारत रवाना हो रहे हैं और उसका
व्यय-भार भी वे स्वयं उठायेंगे। यहाँ पर और भी बहुत से लोग इस प्रकार कार्य
को प्रस्तुत हैं। प्रतिष्ठित स्त्री-पुरुष के मस्तिष्क में एक बार किसी
भावना को प्रवेश करा देने पर, उसे कार्य में परिश्रम करने के लिए वे अपना सब
कुछ त्याग करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं ! और सबसे अधिक आनंदप्रद समाचार
(यह कोई साधारण बात नहीं) यह है कि भारत में कार्य प्रारंभ करने के लिए हमें
आर्थिक सहायता प्राप्त हो गई है एवं आगे चलकर और भी प्राप्त होगी। अंग्रेज़
जाति के संबंध में मेरी धारणा पूर्णतया बदल चुकी है। अब मुझे यह पता चल रहा है
कि अन्यान्य जातियों की अपेक्षा प्रभु ने उन पर अधिक कृपा क्यों की है। वे
दृढ़संकल्प तथा अत्यंत निष्ठावान हैं; साथ ही उनमें हार्दिक सहानुभूति
है-बाहर उदासीनता का केवल एक आवरण रहता है। उसको तोड़ देना है, सब फिर
तुम्हें अपनी पसंद का व्यक्ति मिल जाएगा।
इस समय कलकत्ता तथा हिमालय में मैं एक एक केंद्र स्थापित करने जा रहा हूँ।
प्राय: ७००० फ़ुट ऊँची एक समूची पहाड़ी पर हिमालय-केंद्र स्थापित होगा। वह
पहाड़ी गर्मी की ऋतु में शीतल तथा जाड़े में ठंडी रहेगी। कैप्टन तथा श्रीमती
सेवियर वहीं रहेंगे एवं यूरोपीय कार्यकताओं का वह केंद्र होगा, क्योंकि मैं
उनको भारतीय रहन सहन अपनाने तथा दिनदाघतप्त भारतीय समतल भूमि में बसने के लिए
बाध्य कर मार डालना नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ कि सैकड़ों की संख्या में
हिंदू युवक प्रत्येक सभ्य देश में जाकर वेदांत का प्रचार करें और वहाँ से
नर-नारियों को एकत्र कर कार्य करने के लिए भारत भेजें। यह आदान-प्रदान बहुत ही
उत्तम होगा। केंद्रों को स्थापित कर मैं 'जॉब का ग्रंथ'
[2]
में वर्णित उस व्यक्ति की तरह ऊपर नीचे चारों ओर घूमूँगा।
आज यहीं पर पत्र को समाप्त करना चाहता हूँ-नहीं तो आज की डाक से रवाना न हो
सकेगा। सभी ओर से मेरे कार्यों के लिए सुविधा मिलती जा रही है-तदर्थ मैं
अत्यंत सुखी हूँ एवं मैं समझता हूँ कि तुम लोगों को भी मेरी तरह सुख का अनुभव
होगा। तुम्हें अनंत कलयाण तथा सुख-शांति प्राप्त हो। अनंत प्यार के साथ-
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
पुनश्च-धर्मपाल का क्या समाचार है ? वह क्या कर रहा है ? उससे भेंट होने पर
मेरा स्नेह कहना।
विवेकानंद
(कुमारी जोसेफि़न मैक्लिऑड को लिखित)
ग्रेकोट गार्डन्स,
वेस्टमिनिस्टर एम० डब्लू०, लंदन,
३ दिसंबर, १८९६
प्रिय 'जो',
तुम्हारे कृपापूर्ण निमंत्रण के लिए अनेक धन्यवाद। किंतु, प्रिय जो-जो,
प्यारे भगवान् ने यह विधान किया है कि मुझे १६ तारीख को कप्तान तथा श्रीमती
सेवियर एवं गुडविन के साथ भारत के लिए प्रस्थान करना है। सेवियर दंपत्ति मेरे
साथ नेपुल्स में स्टीमर पर सवार होंगे। चूँकि चार दिन रोम में रुकना है,
इसलिए मैं अल्बर्टा से विदा लेने जाऊँगा।
यहाँ अब कुछ चहल-पहल शुरू हो गई है; ३९, विक्टोरिया के बड़े हाल में कक्षा
लगती है, जो भर गया है, फिर भी और लोग कक्षा में शामिल होना चाहते हैं।
साथ ही, उस प्राचीन भले देश की पुकार है; मुझे जाना ही है इसलिए इस अप्रैल में
रूस जाने की सभी परियोजनाओं को नमस्कार। मैं भारत में कर्म-चक्र का प्रवर्तन
मात्र कर पुन: सदा रमणीय अमेरिका सथा इंग्लैंड इत्यादि के लिए प्रस्थान कर
दूँगा।
मेबुल का पत्र भेज कर तुमने बड़ी कृपा की-सचमुच शुभ समाचार है। केवल थोड़ा
अफ़सोस है तो बेचारे फॉक्स के लिए। चाहे जो हो मेबुल उससे बच गई; यह बेहतर
हुआ।
न्यूयार्क में क्या हो रहा है, इसके बारे में तुमने कुछ नहीं लिखा। आशा है
वहाँ सब अच्छा ही होगा। बेचारा कोला ! क्या वह अब जीविकोपार्जन में समर्थ हो
पाया ?
गुडविन का आगमन बड़े मौके़ से हुआ, क्योंकि इससे व्याख्यानों का विवरण ठीक
तौर से तैयार होने लगा जिसका प्रकाशन पत्रिका के रूप में हो रहा है। खर्च भर
के लिए काफ़ी ग्राहक बन गए हैं।
अगले सप्ताह तीन व्याख्यान होंगे और इस मौसम का मेरा लंदन का कार्य समाप्त
हो जाएगा। यहाँ इस वक्त धूम मची है, इसलिए मेरे छोड़कर चले जाने को सभी लोग
नादानी समझते हैं, परंतु प्यारे प्रभु का आदेश है, 'प्राचीन भारत को
प्रस्थान करो।'मैं आदेश का पालन कर रहा हूँ।
फै़ंकिनसेंस, माँ, होलिस्टर तथा अन्य सबको मेरा चिर प्रेम तथा आशीर्वाद और
वही तुम्हारे लिए भी।
तुम्हारा शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(कुमारी अल्बर्टा स्टारगीज़ को लिखित)
१४, ग्रेकोटगार्डन्स,
वेस्टमिनिस्टरएम०डब्लू०, लंदन,
३ दिसंबर, १८९६
प्रिय अल्बर्टा,
इस पत्र के साथ 'जो-जो'को लिखित मैबेल का पत्र भेज रहा हूँ। इसमें उल्लिखित
समाचार से मुझे बड़ी खुशी हुई और मुझें विश्वास है, तुम्हें भी होगी।
यहाँ से १६ तारीख को भारत रवाना हो रहा हूँ और नेपुल्स में स्टीमर पर सवार
हो जाऊँगा। अत: कुछ दिन इटली में और तीन चार दिन रोम में रहूँगा। विदाई के समय
तुमसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता होगी।
कप्तान सेवियर और श्रीमती सेवियर दोनों मेरे साथ इंग्लैंड से भारत जा रहे हैं
और वे भी मेरे साथ इटली में रहेंगे। पिछली ग्रीष्म ऋतु में तुम उनसे मिल चुकी
हो। लगभग एक वर्ष में अमेरिका लौटने का मेरा इरादा है और वहाँ से यूरोप आऊँगा।
सप्रेम एवं साशीष,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
३८, विक्टोरिया स्ट्रीट,
लंदन,
९ दिसंबर, १८९६
प्रिय श्रीमती बुल,
आपके इस अत्यंत उदारतापूर्ण दान के लिए कृतज्ञता प्रकट करना अनावश्यक है।
कार्य के प्रारंभ में ही अधिक धन संग्रह कर मैं अपने को संकट में डालना नहीं
चाहता हूँ; किंतु कार्य-विस्तार के साथ साथ उस धन का प्रयोग करने पर मुझे
बड़ी खुशी होगी। अत्यंत छोटे पैमाने पर मैं कार्य प्रारंभ करना चाहता हूँ। अभी
तक मेरी कोई स्पष्ट योजना नहीं है। भारत के कार्यक्षेत्र में पहुँचने पर
वास्तविक स्थिति का पता चलेगा। भारत पहुँचकर मैं अपनी योजना तथा उसे कार्य
में परिणत करने के व्यावहारिक उपाय आपको विशद रूप से सूचित करूँगा। मैं १६
तारीख को रवाना हो रहा हूँ एवं इटली में दो चार दिन रहकर नेपुल्स से जहाज़
पकडूँगा।
कृपया श्रीमती वागान, सारदानंद तथा वहाँ के अन्य मित्रों को मेरा स्नेह
दीजियेगा। आपके बारे में मैं इतना ही कह सकता हूँ कि सदा ही से मैं आपको अपना
सर्वोत्तम मित्र मानता आया हूँ एवं जीवन भर वैसे ही मानता रहूँगा। मेरा आंतरिक
स्नेह तथा आशिर्वाद ग्रहण करें।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(एक अमेरिकन महिला को लिखित)
लंदन,
१३ दिसंबर, १८९६
प्रिय श्रीमती जी,
नैतिकता का क्रमविन्यास समझ लेने के बाद सब चीज़ें समझ में आने लगती हैं।
त्याग, अप्रतिरोध, अहिंसा के आदर्शों को सांसारिकता, प्रतिरोध और हिंसा की
प्रवृत्तियों को निरंतर कम करते रहने से प्राप्त किया जा सकता है। आदर्श
सामने रखो और उसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न करो। इस संसार में बिना प्रतिरोध,
बिना हिंसा और बिना इच्छा के कोई रह ही नहीं सकता। अभी संसार उस अवस्था में
नहीं पहुँचा कि ये आदर्श समाज में प्राप्त किए जा सकें।
सब प्रकार की बुराइयों में से गुजरते हुए संसार की जो उन्नति हो रही है, वह
उसे धीरे धीरे तथा निश्चित रूप से इन आदर्शों के उपयुक्त बना रहीं है।
अधिकांश जनता को तो इस मंद विकास के साथ चलना पड़ेगा, पर असाधारण लोगों को
वर्तमान परिस्थितियों में इन आदर्शों की प्राप्ति के लिए अपना मार्ग अलग बनाना
पड़ेगा।
जो जिस समय का कर्तव्य है, उसका पालन करना सबसे श्रेष्ठ मार्ग है, और यदि वह
केवल कर्तव्य समझ कर किया जाए तो वह मनुष्य को आसक्त नहीं बनाता।
संगीत सर्वोंत्तम कला है और जो उसे समझते हैं उनके लिए वह सर्वोंत्तम उपासना
भी है।
हमें अज्ञान और अशुभ का नाश करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए, केवल यह समझ
लेना है कि शुभ की वृद्धि से ही अशुभ का नाश होता है।
शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(श्री फ्लोरेंस लेगेट को लिखित)
१३ दिसंबर, १८९६
प्रिय फ्रैंकिनसेंस,
तो गोपाल
[3]
देवी शरीर धारण कर पैदा हुए ! ऐसा होना ठीक ही था-समय और स्थान के विचार से।
आजीवन उस पर प्रभु की कृपा बनी रहे ! उसकी प्राप्ति के लिए तीव्र इच्छा थी और
प्रार्थनाएँ भी की गई थीं और वह तुम तथा तुम्हारी पत्नी के लिए जीवन में
वरदान स्वरूप आयी है। मुझे इसमें रंच भी संदेह नहीं है।
मेरी इच्छा थी कि चाहे वह रहस्य ही पूरा करने के ख्याल से कि 'पाश्चात्य
शिशु के लिए प्राच्य मुनि उपहार ला रहे हैं,'मैं इस समय अमेरिका आ जाता।
किंतु सब प्रार्थनाओं और आशीर्वादों से भरपूर मेरा हृदय वहीं पर है और शरीर की
अपेक्षा मन अधिक शक्तिशाली होता है।
मैं इस महीने की १६वीं तारीख को रवाना हो रहा हूँ और नेपुल्स में स्टीमर पर
सवार हो जाऊँगा। अल्बर्टा से रोम में अवश्य ही मिलूँगा।
पावन परिवार को बहुत बहुत प्यार।
सदा प्रभुपदाश्रित
विवेकानंद
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
होटल मिनर्वा, फ्लोरेंस,
२० दिसंबर, १८९६
प्रिय राखाल,
इस पत्र से ही तुम्हें यह ज्ञात हो रहा होगा कि मैं अभी तक मार्ग में हूँ।
लंदन छोड़ने से पहले ही तुम्हारा पत्र तथा पुस्तिका मुझे मिली थी। मजूमदार के
पागलपन पर कोई ध्यान न देना। इसमें कोई संदेह नहीं कि ईर्ष्या ने उनका दिमाग
ख़राब कर दिया है। उन्होंने जिस अभद्रोचित भाषा का प्रयोग किया है, उसे सुनकर
सभ्य देश के लोग उनका उपहास ही करेंगे। इस प्रकार की अशिष्ट भाषा का प्रयोग
कर उन्होंने स्वयं ही अपने उद्देश्य को विफल कर डाला है।
फिर भी हम कभी अपनी ओर से हरमोहन अथवा अनय किसी व्यक्ति को ब्राह्मसमाजियों
या और किसी के साथ झगड़ने की अनुमति नहीं दे सकते। जनता इस बात को अच्छी तरह
से जान ले कि किसी संप्रदाय के साथ हमारा कोई विवाद नहीं है और यदि कोई झगड़ा
करता है तो उसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी है। परस्पर विवाद करना तथा आपस में
निंदा करना हमारा जातीय स्वभाव है। आलसी, कर्महीन, कटुभाषी, ईर्ष्यापरायण,
डरपोक तथा विवादप्रिय-यही तो हम बंगालियों की प्रकृति है। मेरा मित्र कहकर
अपना परिचय देनेवाले को पहले इन्हें त्यागना होगा। न ही हरमोहन को कोई
पुस्तक छापने की अनुमति देनी होगी, क्योंकि इस प्रकार के प्रकाशन केवल जनता
को छलने के लिए होते हैं।
कलकत्ते में यदि संतरे मिलते हों तो मद्रास में आलासिंगा के पते पर सौ संतरे
भेज देना, जिससे मद्रास पहुँचने पर मुझे प्राप्त हो सके।
मुझे पता चला है कि मजूमदार ने यह लिखा है कि 'ब्रह्मवादिन्' पत्रिका में
प्रकाशित श्री रामकृष्ण के उपदेश यथार्थ नहीं हैं, मिथ्या हैं। यदि ऐसा ही
है तो सुरेश दत्त तथा रामबाबू को 'इंडियन मिरर' में इसका प्रतिवाद करने को
कहना। मुझे यह पता नहीं है कि उन उपदेशों को संग्रह किस प्रकार किया गया है,
अत: इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता हूँ।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानंद
पुनश्च-इन मूर्खों की ओर कोई ध्यान न देना; कहावत है कि 'वृद्ध मूर्ख जैसा
और कोई दूसरा मूर्ख नहीं है। 'उन्हें चिल्लाने दो। अहा, उन बेचारों का पेशा
ही मारा गया है ! कुछ चिल्लाकर ही उन्हें संतुष्ट होने दो।
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पुरुमल को लिखित)
१४ ग्रेकोटगार्डन्स,
वेस्टमिनिस्टर, लंदन,
१८९६
प्रिय आलासिंगा,
लगभग तीन सप्ताह हुए मैं स्विट्ज़रलैंड से लौटा हूँ, पर इसके पूर्व तुम्हें
पत्र न लिख सका। पिछली डाक से मैंने तुम्हें कील के पॉल डॉयसन पर लिखा एक लेख
भेजा था। स्टर्डी की पत्रिका की योजना में अभी भी विलंब है। जैसा कि तुम
जानते हो मैंने सेंट जार्ज रोड स्थित मकान छोड़ दिया है। ३९, विक्टोरिया
स्ट्रीट पर एक लेक्चर हॉल हमें मिल गया है। ई० टी० स्टर्डी के मार्फ़त
भेजने पर चिट्ठी-पत्री मुझे एक साल तक मिल जाया करेगी। ग्रेकोट गार्डन्स के
कमरे मेरे तथा मात्र तीन महीने के लिए आए हुए स्वामियों के आवास के लिए हैं।
लंदन में काम शीघ्रता से बढ़ रहा है और हमारी कक्षाएँ बड़ी होती जा रही हैं।
इसमें मुझे कोई संदेह नहीं कि यह इसी रफ़्तार से बढ़ता ही जाएगा, क्योंकि
अंग्रेज़ लोग दृढ़ एवं निष्ठावान हैं। यह सही है कि मेरे छोड़ते ही इसका
अधिकांश तानाबाना टूट जाएगा। कुछ घटित अवश्य होगा। कोई शक्तिशाली व्यक्ति
इसे वहन करने के लिए उठ खड़ा होगा। ईश्वर जानता है कि क्या अच्छा है।
अमेरिका में वेदांत और योग पर बीस उपदेशकों की आवश्यकता है। पर ये उपदेशक और
इन्हें यहाँ लाने के लिए धन कहाँ मिलेगा ? यदि कुछ सच्चे और शक्तिशाली
मनुष्य मिल जायें तो आधा संयुक्त राज्य इस वर्ष में जीता जा सकता है। वे
कहाँ हैं ? वहाँ के लिए हम सब अहमक़ हैं। स्वार्थी, कायर, देश-भक्ति की केवल
मुख से बकवास करनेवाले, और अपनी कट्टरता तथा धार्मिकता के अभिमान से चूर !!
मद्रासियों
[4]
में अधिक स्फूर्ति और दृढता होती है, परंतु वहाँ हर मूर्ख विवाहित है। ओफ़,
विवाह ! विवाह ! विवाह ! और फिर आजकल के विवाह का तरीक़ा जिसमें लड़कों को जीत
दिया जाता है ! अनासक्त गृहस्थ होने की इच्छा करना बहुत अच्छा है, परंतु
मद्रास में अभी उसकी आवश्यकता नहीं है-बल्कि अविवाह की है...
मेरे बच्चे, मैं जो चाहता हूँ वह है लोहे की नसें और फौ़लाद के स्नायु जिनके
भीतर ऐसा मन वास करता हो, जो कि वज्र के समान पदार्थ का बना हो। बल,
पुरुषार्थ, क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज। हमारे सुंदर होनहार लड़के-उनके पास सब
कुछ है यदि वे विवाह नाम की क्रूर वेदी पर लाखों की गिनती में बलिदान न किए
जायँ ! हे भगवान्, मेरे हृदय का क्रंदन सुनो। मद्रास तभी जागृत होगा, जब उसके
प्रत्यक्ष हृदय स्वरूप सौ शिक्षित नवयुवक संसार को त्याग कर और कमर कसकर,
देश देश में भ्रमण करते हुए सत्य का संग्राम लड़ने के लिए तैयार होंगे। भारत
के बाहर का एक आधात भारत के अंदर के एक लाख आघातों के बराबर है। खैर, यदि
प्रभु की इच्छा होगी तो सभी कुछ हो जाएगा।
मिस मूलर ही वह व्यक्ति हैं जिनसे मैंने तुम्हें रुपये दिलाने का वचन दिया
था। मैंने उन्हें तुम्हारे नए प्रस्ताव के विषय में बतला दिया है। वे उसके
बारे में सोच रही हैं। इस बीच मैं सोचता हूँ उन्हें कुछ काम दे देना उचित
रहेगा। उन्होंने 'ब्रह्मवादिन्'और 'प्रबुद्ध भारत'का प्रतिनिधि बनना स्वीकार
कर लिया है। इसके विषय में क्या तुम उन्हें लिखोगे ? उनका पता है: एयरली
लॉज, रिजवे गार्डन्स, विंबलडन, इंग्लैंड। वहीं उनके साथ पिछले कई हफ़्तों से
मैं रह रहा था लेकिन लंदन का काम मेरे वहाँ रहे बिना संभव नहीं है। इसीलिए
मैंने अपना आवास बदल दिया है। मुझे दु:ख है कि इससे मिस मूलर की भावनाओं को
थोड़ी ठेस पहुँची है। लेकिन किया ही क्या जा सकता है ! उनका पूरा नाम है सिम
हेनरियेटा मूलर। मैक्समूलर के साथ गाढ़ी मित्रता हो रही है। मैं शीघ्र ही
ऑक्सफ़ोर्ड में दो व्याख्यान देने वाला हूँ।
मैं वेदांत दर्शन पर कुछ बड़ी चीज लिख रहा हूँ और भिन्न-भिन्न वेदों से
वाक्य संग्रह करने में लगा हूँ, जो कि वेदांत की तीनों अवस्थाओं से संबंध
रखते हैं। पहले अद्वैतवादी संबंधी विचार, फिर विशिष्टाद्वैत और द्वैत से जो
वाक्य संबंध रखते हों, वे संहिता, ब्राह्मण , उपनिषद् और पुराण में से किसी
से संग्रह करा कर तुम मेरी सहायता कर सकते हो। वे श्रेणीबद्ध होने चाहिए,
शुद्ध अक्षरों में लिखे जाने चाहिए और प्रत्येक के साथ ग्रंथ और अध्याय के
नाम उद्धृत होने चाहिए। पुस्तक रूप में दर्शन शास्त्र को पश्चिम में छोड़े
बिना पश्चिम से चल देना दयनीय होगा।
मैसूर से तमिल अक्षरों में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसमें सभी १०७
उपनिषद् सम्मिलित थे। मैंने प्रोफ़ेसर डॉयसन के पुस्तकालय में वह पुस्तक
देखी थी। क्या वह देवनागरी अक्षरों में भी मुद्रित हुई है ? यदि हो तो मुझे
एक प्रति भेजना। यदि न हो तो मुझे तमिल संस्करण तथा एक कागज़ पर तमिल अक्षर
और संयुक्ताक्षर लिखकर भेज देना। उसके साथ देवनागरी समानार्थक अक्षर भी लिख
देना जिससे मैं तमिल अक्षर पहचानना सीख जाऊँ।
श्री सत्यनाथन्, जिसने कुछ दिन हुए मैं लंदन में मिला था, कहते थे कि 'मद्रास
मेल' ने जो मद्रास का मुख्य ऐंग्लो इंडियन समाचार पत्र है, मेरी पुस्तक
'राजयोग'की अनुकूल समीक्षा की है। मैंने सुना है कि अमेरिका के प्रधान
शरीर-शास्त्रज्ञ मेरे विचारों पर मुग्ध हो गए हैं। उसके साथ ही इंग्लैंड में
कुछ लोगों ने मेरे विचारों का मज़ाक उड़ाया है। यह ठीक ही है; क्योंकि इसमें
संदेह नहीं कि मेरे विचार नितांत साहसिक हैं और बहुत कुछ उनमें से हमेशा के
लिए अर्थहीन रहेंगे, परंतु उनमें कुछ ऐसे संकेत भी हैं जिन्हें
शरीर-शास्त्रज्ञ यदि शीघ्र ही ग्रहण कर ले तो अच्छा हो। फिर भी उसके परिणाम
से मैं बिल्कुल संतुष्ट हूँ। वे चाहे मेरी निंदा ही करें, पर चर्चा तो करें।
यह मेरा आदर्श-वाक्य है। इंग्लैंड में बेशक भद्र लोग हैं और बेहूदी बातें
नहीं करते, जैसा कि मैंने अमेरिका में पाया। और फिर इंग्लैंड के लगभग सभी
मिशनरी भिन्न मतावलंबी वर्ग के हैं। वे इंग्लैंड के भद्र-जन वर्ग से नहीं
आते। यहाँ के सभी धार्मिक भद्रजन इंग्लिश चर्च को मानते हैं। उन भिन्न
मतावलंबियों की इंग्लैंड में कोई पूछ नहीं है और वे शिक्षित भी नहीं हैं। उनके
बारे में मैं यहाँ कुछ भी नहीं सुनता, जिनके विषय में तुम मुझे बार-बार आगाह
करते हो। उनको यहाँ कोई नहीं जानता और यहाँ बकवास करने की उनको हिम्मत भी
नहीं है। आशा है आर. के. नायडू मद्रास में ही होंगे और तुम कुशलपूर्वक हो।
डटे रहो मेरे बहादुर बच्चों ! हमने अभी कार्य आरंभ ही किया है। निराश न हो !
कभी न कहो कि बस इतना काफी है !... जैसे ही मनुष्य पश्चिम में आकर दूसरे
राष्ट्रों को देखता है, उसकी आँखें खुल जाती हैं। इसी तरह मुझे शक्तिशाली
कार्यकर्ता मिल जाते हैं-केवल बातों से नहीं, प्रत्यक्ष दिखाने से कि हमारे
पास भारत में क्या है और क्या नहीं। मेरी कितनी इच्छा है कि कम से कम दस लाख
हिंदू पूरे संसार का भ्रमण किए हुए होते !
प्रेमपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानंद
(कुमारी अल्बर्टा स्टारगीज को लिखित)
होटल मिनर्वा, फ़्लोरेंस
२० दिसंबर , १८९६
प्रिय अल्बर्टा,
कल हम लोग रोम पहुँच रहे हैं। चूँकि हम लोग रोम रात में देर से पहुँचेंगे,
इससे संभवतः मैं परसों ही तुमसे मिलने के लिए आ सकूँगा। हम लोग 'होटल
कांटिनेंटल'में ठहरेंगे।
सस्नेह और साशीष,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
अमेरिका,
१८९६
प्रिय आलासिंगा,
गत सप्ताह मैंने तुमको 'ब्रह्मवादिन्' के संबंध में लिखा था। उसमें भक्ति
विषयक व्याख्यानों के बारे में लिखना मैं भूल गया था। उनको एक साथ
पुस्तकाकार प्रकाशित करना चाहिए। 'गुड ईयर' के नाम से न्यूयार्क, अमेरिका के
पते पर उसकी एक सौ प्रतियाँ भेज सकते हो। मैं बीस दिन के अंदर जहाज़ से
इंग्लैंड रवाना हो रहा हूँ। कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा राजयोग संबंधी मेरी और भी
बड़ी-बड़ी पुस्तकें हैं।'कर्मयोग' प्रकाशित हो चुका है। 'राजयोग'का आकार
अत्यंत बृहत् होगा-वह भी प्रेस में पहुँच चुका है। 'ज्ञानयोग' संभवतः इंग्लैंड
में छपवाना होगा।
तुमने 'ब्रह्मवादिन्' में 'क'का एक पत्र प्रकाशित किया है, उसका प्रकाशन न
होना ही अच्छा था। थियोसॉफि़स्टों ने 'क' की जो ख़बर ली है, उससे वह जल भुन
रहा है। साथ ही उस प्रकार का पत्र सभ्यजनोचित भी नहीं है, उससे सभी लोगों पर
छींटाकशी होती है। 'ब्रह्मवादिन्'की नीति से वह मेल भी नहीं खाता। अत: भविष्य
में यदि कभी 'क'किसी संप्रदाय के विरुद्ध, चाहे वह कितना ही खब्ती और उद्धत
हो, कुछ लिखे तो उसे नरम करके ही छापना। कोई भी संप्रदाय, चाहे वह बुरा हो या
भला, उसक विरुद्ध 'ब्रह्मवादिन्' में कोई लेख प्रकाशित नहीं होना चाहिए। इसका
अर्थ यह भी नहीं है कि प्रवंचकों के साथ जानबूझकर सहानुभूति दिखानी चाहिए।
पुनः तुम लोगों को मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि उक्त पत्र (ब्रह्मवादिन्)
इतना अधिक शास्त्रीय (technical) बन चुका है कि यहाँ पर उसकी ग्राहक संख्या
बढ़ने की आशा नहीं है। साधारणतया पश्चिम के लोगों का इतनी अधिक क्लिष्ट
संस्कृत भाषा तथा उसकी बारीकियों का ज्ञान नहीं है और न उनमें जानने की
इच्छा ही है। हाँ, इतना अवश्य है कि भारत के लिए वह पत्र बहुत उपयोगी सिद्ध
हुआ है। किसी मतविशेष का समर्थन किया जा रहा हो, ऐसी एक भी बात उसके संपादकीय
लेख में नहीं रखनी चाहिए। और तुम्हें यह सदा ध्यान रखना है कि तुम केवल भारत
को नहीं, वरन् सारे संसार को संबोधित कर बातें कह रहे हो और तुम जो कुछ कहना
चाहते हो, संसार उसके बारे में बिल्कुल अनजान है। प्रत्येक संस्कृत श्लोक
का अनुवाद अत्यंत सावधानी के साथ करना और जहाँ तक हो सके उसे सरल भाषा में
व्यक्त करने की चेष्टा करना।
तुम्हारे पत्र के जवाब मिलने से पहले ही मैं इंग्लैंड पहुँच जाऊँगा। अत: मुझे
पत्र का जवाब द्वारा ई० टी० स्टर्डी, हाई व्यू, कैवरशम् इंग्लैंड के पते पर
देना।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(स्वामी अभेदानंद को लिखित)
द्वारा ई० टी० स्टर्डी,
हाई व्यू, कैवरशम्, रीडिंग, इंग्लैंड
१८९६
प्रेमास्पद,
मेरा पहला पत्र मिला होगा। अब इंग्लैंड में मुझे पत्रादि उपर्युक्त पते पर
भेजना। श्री स्टर्डी को तारक दादा ( स्वामी शिवानंद) जानते हैं। उन्होंने
ही मुझे इंग्लैंड बुलाया है तथा हम दोनों मिलकर इंग्लैंड में आंदोलन चलाना
चहते हैं। नवंबर महीने में पुन: अमेरिका जाने का मेरा विचार है। अत: यहाँ पर
एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है, जो संस्कृत तथा अंग्रेज़ी अच्छी तरह से जानता
हो। मैं समझता हूँ कि इसके लिए शशि, सारदा अथवा तुम उपयुक्त हो। इन तीनों में
से यदि तुम्हारा शरीर पूर्णतया स्वस्थ हो गया हो तो तुम्हीं चले आना। मेरी
राय में यही अधिक अच्छा होग, अन्यथा शरत् को भेजना। कार्य केवल इतना ही है
कि मैं जिन शिष्य-सेवकों को यहाँ छोड़ जाऊँगा उन्हें शिक्षा देना तथा वेदांत
पढ़ाना होगा और थोड़ा-बहुत अंग्रेज़ी में अनुवाद करना तथा बीच-बीच में भाषण आदि
भी देना पड़ेगा। कर्मणा बाध्यते बुद्धि:।-- को आने की
अत्यंत अभिलाषा है, किंतु जड़ मज़बूत किए बिना सब कुछ व्यर्थ हो जाएगा। इस
पत्र के साथ एक चेक भेज रहा हूँ , उससे कपड़-लत्ते खरीद लेना। महेंद्र बाबू
(मास्टर महाशय) के नाम चेक भेजा जा रहा है। गंगाधर का तिब्बत चोग़ा मठ में
है; उसी तरह का एक चोग़ा गेरू से रँग लेना। कॉलर कुछ ऊँचा होना चाहिए, जिससे
गला ढका जा सके।... ओवरकोट के बिना जहाज़ में विशेष कष्ट होगा।... द्वितीय
श्रेणी का टिकट भेज रहा हूँ; प्रथम श्रेणी तथा द्वितीय श्रेणी में कोई विशेष
अंतर नहीं है।...
बंबई पहुँचकर-मेसर्स किंग किंग एंड कंपनी, फ़ोर्ट, बंबई ऑफिस में जाकर यह कहना
कि 'मैं स्टर्डी साहब का आदमी हूँ ', उससे वे तुम्हारे लिए इंग्लैंड तक का
एक टिकट देंगे। यहाँ से एक पत्र उक्त कंपनी को भेजा जा रहा है। खेतड़ी के
राजा साहब को भी मैं एक पत्र इस आशय का लिख रहा हूँ कि उनके बंबई के एजेंट
तुम्हारी अच्छी तरह से देखभाल कर टिकट आदि की व्यवस्था कर दें। यदि इन १५०
रुपयों में उपयुक्त कपड़े-लत्ते की व्यवस्था न हो तो राखाल बाक़ी रुपयों का
इंतज़ाम कर दे, बाद में मैं उसे भेज दूँगा। इसके अलावा ५० रुपये जेब खर्च के
लिए रखना-ये भी राखाल से देने को कहना। मैं बाद में भेज दूँगा। चुनी बाबू के
लिए मैंने जो रुपया भेजा है, आज तक उसका कोई समाचार मुझे नहीं मिला। पत्र के
देखते ही रवाना हो जाना। महेंद्र बाबू से कहना कि वे मेरे कलकत्ते के एजेंट
हैं। इस पत्र को देखते ही वे श्री स्टर्डी को यह उल्लेख करते हुए एक पत्र
भेजें कि कलकत्ता संबंधी हमें जो कामकाज इत्यादि करने होंगे, वे उन कार्यों
को करने के लिए प्रस्तुत हैं। अर्थात् श्री स्टर्डी मेंरे इंग्लैंड के
सेक्रेटरी हैं, महेंद्र बाबू कलकत्ते के, आलासिंगा मद्रास के। मद्रास में यह
समाचार भेज देना। सभी के आंतरिक प्रयास के बिना क्या कोई कार्य हो सकता है ? उद्योगिनं पुरुषासिंह-मुपैति लक्ष्मी: --'
उद्योगी पुरुष सिंह ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है।' पीछे
की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है-आगे बढ़ो। हमें अनंत शक्ति, अनंत उत्साह,
अनंत साहस तथा अनंत धैर्य चाहिए, तभी महान कार्य संपन्न होगा। दुनिया में आग
फूँकनी है।
जिस दिन जहाज़ का प्रबंध हो, तत्काल ही श्री स्टर्डी को पत्र लिखना कि 'अमुक
जहाज़ में मैं आ रहा हूँ।'अन्यथा लंदन पहुँचने पर गड़बड़ी होने की संभावना
है। जो जहाज़ सीधे लंदन आता हो उसी से आना; क्योंकि यद्यपि उससे आने में दो
चार दिन की देरी हो सकती है, किंतु किराया कम लगता है। इस समय हमारे पास तो धन
अधिक नहीं है। समय आने पर लोगों को हम चारों ओर भेज सकेंगे। किमधिकमिति।
विवेकानंद
पुनश्च-इस पत्र को देखते ही खेतड़ी के राजा साहब को लिखना कि तुम बंबई जा रहे
हो, अत: उनके एजेंट तुम्हें जहाज़ में बिठाने के लिए सहायता करें।
विवेकानंद
यह पता किसी डायरी में लिखकर अपने साथ रखना-किसी प्रकार गड़बड़ी न हो।
(स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित)
ई० टी० स्टर्डी का मकान,
हाई व्यू, कैवरशम्, रीडिग,
१८९६
प्रिय शशि,
मुझे स्मरण नहीं है कि मैंने अपने पूर्व पत्र में इसका उल्लेख किया है या
नहीं, अत: इस पत्र द्वारा तुम्हें यह सूचित करता हूँ कि काली अपने रवाना होने
के दिन अथवा उससे पूर्व श्री ई० टी० स्टर्डी को पत्र डाल दें, ताकि वे जाकर
जहाज़ से उसे लिवा लायें। यह लंदन शहर मनुष्यों का सागर है-दस पंद्रह कलकत्ता
इसमें इकट्ठे समा सकते हैं। अत: उस प्रकार की व्यवस्था किए बिना गड़बड़ी
होने की संभावना है। आने में देरी न हो, पत्र देखते ही उसे निकलने को कहना।
शरत् की तरह आने में विलंब नहीं होना चाहिए। और बाक़ी बातें स्वयं
सोच-विचारकर ठीक कर लेना।... काली को जैसे भी हो शीघ्र भेजना। यदि शरत् की तरह
आने में विलंब हो तो फिर किसी के आने की आवश्यकता नहीं है-ढुलमुल नीतिवाले
आलसी से यह कार्य नहीं हो सकता, यह तो महान रजोगुण का कार्य है।... तमोगुण से
हमारा देश छाया हुआ है-जहाँ देखो वहीं तम; रजोगुण चाहिए, उसके बाद सत्त्व; वह
तो अत्यंत दूर की बात है।
सस्नेह,
नरेन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
डैम्फ़र,
'प्रिंस रीजेण्ट लियोपोल्ड',
३ जनवरी, १८९६
प्रिय मेरी,
तुम्हारा पत्र मिला जो लंदन पहुँचने के बाद रोम के लिए प्रेषित किया गया था।
तुम्हारी कृपा थी जो इतना सुंदर पत्र लिखा और उसका शब्द शब्द मुझे अच्छा
लगा। यूरोप में वाद्य-वृन्द के विकास के विषय में मुझे कुछ मालूम नहीं।
नेपुल्स से चार दिनों की भयावह समुद्र-यात्रा के पश्चात् हम लोग पोर्ट सईद
के निकट पहुँच रहे हैं। जहाज़ अत्यधिक दोलायित हो रहा है, अतएव ऐसी
परिस्थितियों में अपनी ख़राब लिखावट के लिए तुमसे क्षमा चाहता हूँ।
स्वेज से एशिया महाद्वीप आरंभ हो जाता है। एक बार फिर एशिया आया। मैं क्या
हूँ ? एशियाई, यूरोपीय या अमेरीकी ? मैं तो अपने में व्यक्तित्वों की एक
अजीब खिचड़ी पाता हूँ। तुमने धर्मपाल के बारे में, उनके आने जाने तथा कार्यों
के विषय में कुछ नहीं लिखा। गाँधी की अपेक्षा उनके प्रति मेरी दिलचस्पी बहुत
ज्यादा है।
कुछ ही दिनों में मैं कोलंबो में जहाज़ से उतरूँगा और फिर लंका को थोड़ा देखने
का विचार है। एक समय था, जब लंका की आबादी दो करोड़ से भी अधिक थी और उसकी
राजधानी विशाल थी। राजधानी के ध्वंसावशेष का विस्तार लगभग एक सौ वर्ग मील
है।
लंकावासी द्राविड़ नहीं है, बल्कि विशुद्ध आर्य है। ईसा के जन्म से ८ सौ
वर्ष पूर्व बंगाल के लोग वहाँ जाकर बसे और तब से लेकर आज तक लंकावासियों ने
अपना इतिहास बड़ा स्पष्ट रखा है। प्राचीन दुनिया का वह सबसे बड़ा
व्यापार-केंद्र था और अनुराधापुर प्राचीनों का लंदन था।
पश्चिमी देशों के सभी स्थानों की अपेक्षा रोम मुझे ज़्यादा अच्छा लगा और
पाम्पियाई देखने के बाद तो तथाकथित आधुनिक सभ्यता के प्रति समादर की मेरी
सारी भावना लुप्त हो गई। वाष्प तथा विद्युत शक्ति के अतिरिक्त उनके पास और
सब कुछ था और कला संबंधी उनके विचार तथा कृतियाँ तो आधुनिकों की अपेक्षा लाख
गुनी अधिक थी।
कृपया कुमारी लॉक ( Miss Locke) से कहना कि मैंने उन्हें जो यह बताया था कि
मानव-मूर्ति-कला का जितना विकास यूनान में हुआ था, उतना भारत में नहीं, वह
मेरी ग़लती थी। फर्ग्युसन तथा अन्य प्रामाणिक लेखकों की पुस्तकों में मुझे
यह पढ़ने को मिल रहा है कि उड़ीसा या जगन्नाथ में, जहाँ मैं नहीं गया हूँ,
ध्वंसावशेषों में जो मानवीय मूर्तियाँ मिली हैं, वे सौंदर्य तथा शारीरिक
रचना-नैपुण्य में यूनानियों की किसी भी कृति की बराबरी कर सकती हैं। मृत्यु
की एक महाकाय प्रतिमा है। उसमें मृत्यु को नारी के बृहदाकार अस्थि-पंजर के
रूप में दिखाया गया है, जिसके चमड़े पर तमाम झुर्रियाँ पड़ी हुई है-शरीर-रचना
की बारीकियों का इतना सच्चा प्रदर्शन परम भयावह और बीभत्स है। मेरे लेखक का
मत है कि गवाक्ष में निर्मित एक नारी-मूर्ति बिल्कुल 'वीनस डी मेडिसी'से
मिलती-जुलती है, इत्यादि। पर तुम्हे याद रखना चाहिए कि प्राय: सब कुछ
मूर्ति-भंजक मुसलमानों ने नष्ट कर डाला, फिर भी जो कुछ बचा है, वह यूरोप के
तमाम भग्नावशेषों की तुलना में श्रेष्ठ है ! मैंने आठ वर्ष परिभ्रमण किया,
किंतु बहुत सी श्रेष्ठतम कलाकृतियों को नहीं देखा है।
बहन लॉक से यह भी कहना कि भारत के वन-प्रांत में एक मंदिर के खंडहर हैं और
उसके साथ यदि यूनान के 'पार्थेनान' की समीक्षा की जाए तो फर्ग्युसन का मत है
कि दोनों ही स्थापत्य कला के चरम बिंदु तक पहुँच गए हैं-दोनों अपने अपने
ढ़ंग के निराले हैं-एक कल्पना में और दूसरा कल्पना एवं अलंकरण में बाद की
मुगलकालीन इमारतों आदि में भारतीय तथ मुस्लिम कलाओं का संकट है और वे
प्राचीनकाल की सर्वोत्कृष्ट स्थापत्य कला की आंशिक समता भी नहीं कर
सकतीं।...
तुम्हारा सस्नेह,
विवेकानंद
पुनश्च-संयोग से फ़्लोरेंस में 'मदर चर्च'और 'फ़ादर पोप'के दर्शन हुए। इसे
तुम जानती ही हो।
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
रामनाड़,
शनिवार, ३० जनवरी, १८९६
प्रिय मेरी,
परिस्थितियाँ अत्यंत आश्चर्यजनक रूप से मेरे लिए अनुकूल होती जा रही हैं।
कोलंबो में मैंने जहाज़ छोड़ा तथा भारत के दक्षिण स्थित प्राय: अंतिम भूखंड
रामनाड़ में मैं इस समय वहाँ के राजा का अतिथि हूँ। मेरी यात्रा एक विराट
जुलूस के समान रही-बेशुमार जनता की भीड़, रोशनी, मानपत्र व़गैरह व़गैरह। भारत
की भूमि पर, जहाँ मैंने प्रथम पदार्पण किया, वहाँ पर ४० फ़ुट ऊँचा एक
स्मृति-स्तंभ बनवाया जा रहा है। रामनाड़ के राज साहब ने अपना मानपत्र एक
अत्यंत सुंदर नक्क़ाशी किए हुए असली सोने के बड़े बॉक्स में रखकर मुझे प्रदान
किया गया है; उसमें मुझे 'परम पवित्र' (His Most Holiness) कहकर संबोधित किया
गया है। मद्रास तथा कलकत्ते में लोग बड़ी उत्कंठा के साथ मेरी प्रतीक्षा कर
रहे हैं, मानो सारा देश मुझे सम्मानित करने लिए उठ खड़ा हुआ है। अत: मेरी,
तुम यह देख रही हो कि मैं अपने भाग्य के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हूँ। फिर भी
मेरा मन शिकागो के उन निस्तब्ध, विश्रांतिपूर्ण दिनों की ओर दौड़ रहा
है-कितने सुंदर विश्रामदायक, शांति तथा प्रेमपूर्ण थे वे दिन ! इसीलिए मैं अभी
तुमको पत्र लिखने बैठा हूँ। आशा है कि तुम सभी सकुशल तथा आनंदपूर्वक होगे।
डाक्टर बरोज़ की अभ्यर्थना करने के लिए मैंने लंदन से अपने देशवासियों को
पत्र लिखा था। उन लोगों ने अत्यंत आवभगत के साथ उनकी अभ्यर्थना की थी। किंतु
वे यहाँ के लोगों में प्रेरणा-संचार नहीं कर सके, इसके लिए मैं दोषी नहीं हूँ।
कलकत्ते के लोगों में कोई नवीन भावना पैदा करना बहुत कठिन है। अब मैं सुना रहा
हूँ कि डॉक्टर बरोज़ के मन में मेरे प्रति अनेक धारणाएँ उठ रहीं हैं। इसी का
नाम तो संसार है !
माता जी, पिता जी तथा तुम सभी को मेरा प्यार।
तुम्हारा स्नेहबद्ध,
विवेकानन्द
(स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित)
मद्रास,
१२ फ़रवरी, १८९६
प्रिय राखाल,
आगामी रविवार को 'यस० यस० मोंबासा' जहाज़ से मेरे रवाना होने की बात है।
स्वास्थ्य अनुकूल न होने के कारण पूना तथा और भी अनेक स्थानों के निमंत्रण
मुझे अस्वीकार करने पड़े। अत्यधिक परिश्रम तथ गर्मी के कारण स्वास्थ्य
बहुत ख़राब हो चुका है।
थियोसॉफि़स्ट तथा अन्य लोगों की इच्छा मुझे अत्यंत भयभीत करने की थी; अत:
उन्हें दो चार बातें स्पष्ट रूप से कहने के लिए मुझे बाध्य होना पड़ा था।
तुम तो यह जानते हो कि उनके साथ सम्मिलित न होने के कारण उन लोगों ने अमेरिका
में मुझे बराबर कष्ट दिया है। यहाँ पर भी उसी प्रकार के आचरण करने की उन
लोगों की इच्छा थी। इसीलिए मुझे अपना अभिमत स्पष्ट-रूप से व्यक्त करना
पड़ा था। इससे यदि मेरे कलकत्ते के मित्रों में से कोई असंतुष्ट हुए हों, तो
भगवान् उन पर कृपा करे। तुम्हारे लिए डरने की कोई बात नहीं है, मैं अकेला
नहीं हूँ, प्रभु सदा मेरे साथ है। इसके सिवाय और मैं कर ही क्या सकता था ?
तुम्हारा,
विवेकानंद
पुनश्च-मकान तैयार हो गया हो, तो उसे ले लेना।
विवेकानंद
[1]
कुमारी जोसेफि़न मैक्लिऑड
[2]
Book of Job (जॉब का ग्रन्थ) बाइबिल के प्राचीन व्यवस्थान का
अंशविशेष है। इसमें एक कथा इस प्रकार है, एक बार शैतान ईश्वर से
मिलने गया । ईश्वर ने उससे पूछा कि वह कहाँ से आ रहा है । उत्तर में
उसने कहा "इस पृथिवी के इधर-उधर चक्कर लगाकर तथा उसके ऊपर नीचे घूमता
हुआ मैं आ रहा हूँ । "यहाँ पर स्वामी जी ने इधर उधर घूमने के प्रसंग
में परिहासपूर्वक बाइबिल की उस घटना को लक्ष्य कर उक्त वाक्य का
प्रयोग किया है ।
[3]
गोपाल का प्रयोग श्री कृष्ण के शिशु रूप के लिए किया जाना है ; यहाँ
पुत्र-जन्म की प्रतीक्षा में पुत्री के जन्म का संकेत किया गया है ।
[4]
मद्रासी शब्द को प्रयोग स्वामी जी ने सदैव एक व्यापक संदर्भ में
किया है, जिसके अंतर्गत संपूर्ण दक्षिणवासी आ जाते हैं ।