(श्रीमती बोलि बुल को लिखित)
आलमबाजार मठ,
कलकत्ता,
२५ फरवरी १८९७
प्रिय श्रीमती बुल,
भारत के दुर्भिक्ष-निवारण के लिए सारदानंद ने २० पौंड भेजे है। किंतु इस समय
उसके घर में ही दुर्भिक्ष है, अत: पुरानी कहावत के अनुसार पहले उसी को दूर
करना मैंने अपना कर्तव्य समझा। इसलिए उस धन का प्रयोग उसी रूप से किया गया
है।
जुलूस, बाजे-गाजे तथा स्वागत-समारोहों के मारे, जैसा कि लोगा कहते है, मझे
मरने की भी फुर्सत नहीं है-इन सबसे मैं मृतप्राय हो चुका हूँ। जन्मोत्सव
समाप्त होते ही मैं पहाड़ की ओर भागना चाहता हूँ। कैमब्रिज सम्मेलन' तथा
'ब्रुकलिन नैतिक समिति' की ओर से मुझे एक-एक मानपत्र प्राप्त हुआ है। डॉ.
जेम्स ने 'न्यूयार्क वेदांत एसोसिएशन' के जिस मानपत्र का उल्लेख किया है,
यह अभी तक नहीं आया है
डॉ. जेम्स का एक पत्र और भी आया है, जिसमें उन्होंने आप लोगों के सम्मेलन
के अनुरूप भारत में भी कार्य करने का परामर्श दिया है। किंतु इन बातों की ओर
ध्यान देना मेरे लिए प्राय: असंभव है। मैं इतना अधिक थका हुआ हूँ कि यदि मुझे
विश्राम न मिले तो अगले छ: माह तक मैं जीवित रह सकूँगा भी या नहीं, इसमें मझे
संदेह है।
इस समय मुझे दो केंद्र खोलने हैं-एक कलकत्ते में तथा दूसरा मद्रास में।
मद्रासियों में गंभीरता अधिक है और वे लोग ईमानदार भी खूब हैं और मेरा यह
विश्वास है कि मद्रास से ही वे लोग आवश्यक धन एकत्र कर लेंगे। कलकत्ते के
लोग, खासकर अभिजात्य वर्ग के लोग, अधिकांश देश-भक्ति के क्षेत्र में ही
उत्साही हैं और उनकी सहानुभूति कभी कार्य में परिणत नहीं होगी। दूसरी ओर इस
देश में ईर्ष्यालु तथा निष्ठुर प्रकृति के लोगों की संख्या अत्यंत अधिक
है, जो मेरे तमाम कार्यों को तहस-नहस कर धूल में मिलाने में कोई कसर नहीं उठा
रखेंगे।
आप तो यह अच्छी तरह से जानती हैं कि बाधा जितनी अधिक होती है, मेरे अंदर की
भावना भी उतना ही बलवती हो उठती है। संन्यासियों तथा महिलाओं के लिए पृथक-पृथक
एक-एक केंद्र स्थापित करने के पूर्व ही यदि मेरी मृत्यु हो जाए तो मेरे जीवन
का व्रत असमाप्त ही रह जाएगा।
मुझे इंग्लैंड से ५०० पौंड तथा श्री स्टर्डी से ५०० पौंड के लगभग प्राप्त
हुए है। उसके साथ आपके दिए हुए धन को जोड़ने से मुझे विश्वास है कि मैं दोनों
केंद्रों का कार्य प्रारंभ कर सकूंगा। अत: यह उचित प्रतीत होता है कि आप
यथासंभव शीघ्र अपना रुपया भेज दें। सबसे सुरक्षित उपाय यह है कि अमेरिका के
किसी बैंक में अपने तथा मेरे संयुक्त नाम से रुपया जमा कर दें, जिससे हममें
से कोई भी उसे निकाल सके। यदि रुपया निकालने के पूर्व ही मेरी मृत्यु हो जाए
तो आप संपूर्ण रुपयों को निकालकर मेरी अभिलाषा के अनुसार व्यय कर सकेंगी।
इससे मेरी मृत्यु के बाद मेरे बंधु-बांधवों में से कोई भी उस धन को लेकर किसी
प्रकार की गड़बड़ी नहीं कर सकेंगे। इंग्लैंड का रुपया भी उसी प्रकार मेरे तथा
श्री स्टर्डी के नाम से बैंक में जमा किया जा चुका है।
आपका,
विवेकानंद
(श्री शरतच्चन्द्र चक्रवर्ती को लिखित)
ऊँ नमो भगवते रामकृष्णाय
दार्जिलिंग
११ मार्च १८९७
शुभ हो। आशीर्वाद तथा प्रेमालिंगनपूर्ण यह पत्र तुम्हें सुख प्रदान करे। इस
समय मेरा पांचभौतिक देहपिंजर पहले की अपेक्षा कुछ ठीक है। मुझे ऐसा प्रतीत
होता है कि पर्वतराज हिमालय का बर्फ से आच्छादित शिखर-समूह मृतप्राय मानवों
को भी सजीव बना देता है। मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि रास्ते की क्लान्ति भी
कुछ घट चुकी है। तुम्हारे ह्दय में मुमुक्षुत्व के प्रति जो उत्कंठा है, जो
तुम्हारे पत्र से व्यकत होती है, मैंने उसे पहले से ही अनुभव कर लिया है। यह
मुमुक्षत्व ही क्रमश: नित्यस्वरूप ब्रह्म में एकाग्रता की सृष्टि करता है।
'मुक्त्िा-लाभ करने का और कोई दूसरा मार्ग नहीं है।' जब तक तुम्हारे समूचे
कर्म का पूर्ण रूप से क्षय न हो, तब तक तुम्हारी यह भावना उत्तरोत्तर बढ़ती
जाए। अनंतर तुम्हारे ह्दय में सहसा ब्रह्म का प्रकाश होगा तथा उसके साथ ही
साथ सारी विषय-वासनाएँ नष्ट हो जायेंगी। तुम्हारे अनुराग की दृढ़ता से ही यह
स्पष्ट है कि तुम शीघ्र ही अपनी कल्याणप्रद उस जीवन्मुक्त दशा को
प्राप्त करोगे। अब मैं उस जगत् गुरु महासमन्वयाचार्य श्री १०८ रामकृष्ण देव
से प्रार्थना करता हूँ कि तुम्हारे ह्रदय में वे आविर्भूत हों, जिससे तुम
कृत्कृत्य तथा दृढ़चित्त होकर महामोहसागर से लोगों के उद्धार के लिए
प्रयत्न कर सको। तुम चिर तेजस्वी बनो। वीरों के लिए मुक्त्िा करतलगत है,
कापुरूषों के लिए नहीं। हे वीरों, कटिबद्ध हो, तुम्हारे सामने महामोहरूप
शत्रु-समूह उपस्थित है। 'श्रेय-प्राप्ति में अनेक विघ्न है'-यह निश्चित है,
फिर भी अधिकाधिक प्रयत्न करते रहो। महामोह के ग्राह से ग्रस्त लोगों की ओर
दृष्टिपाल करो, हाय, उनके ह्दयवेधक करूणापूर्ण आर्तनाद को सुनो। हे वीरो,
वद्धों को पाशमुक्त करने के लिए, दरिद्रों के कष्टों को कम करने के लिए तथा
अज्ञजनों के अंतर का असीम अंधकार दूर करने के लिए आगे बढ़ो। बढ़ते जाओ-सुनो,
वेदांत -दुन्दुभि बजाकर निडर बनने की कैसी उद्घघोषणा कर रहा है। वह
दुंदुभि-घोष समस्त जगद्वासियों की ह्दय-ग्रंथियों को विच्छिन्न करने में
समर्थ हो।
तुम्हारा परम शुभाकांक्षी,
विवेकानंद
(
'भारती' की संपादिका श्रीमती सरला घोषाल को लिखित)
ऊँ तत् सत्
रोज बैंक,
बर्दवान राजभवन, दार्जिलिंग
६ अप्रैल १८९७
मान्यवर महोदया,
आपके द्वारा प्रेषित 'भारती' की प्रति पाकर बहुत अनुगृहीत हूँ। जिस उद्देश्य
के लिए मैंने अपना नगण्य जीवन अर्पित कर दिया है, उसके लिए आप जैसी गुणज्ञ
महिलाओं का साधुवाद पाकर मैं अपने को धन्य समझता हूँ।
इस जीवन-संग्राम में ऐसे बिरले ही पुरूष हैं, जो नए भावों के प्रवर्तकों का
समर्थन करें, महिलाओं की तो बात ही दूर है। हमारे अभागे देश में यह बात विशेष
रूप से देखने में आती है। अतएव बंगाल की एक विदुषी नारी से साधुवाद मिलने का
मूल्य सारे भारत के पुरूष वर्ग की तुमुल प्रशंसा ध्वनि से कहीं बढ़कर है।
भगवान् करें, इस देश में आप जैसी अनेक महिलाएँ जन्म लें और स्वदेश की
उन्नति में अपने जीवन का उत्सर्ग करें।
'भारती' पत्रिका में आपने मेरे संबंध में जो लेख लिखा है, उसके विषय में मुझे
कुछ कहना है जो यह है: भारत के मंगल के लिए ही पाश्चात्य देशों में धर्म
प्रचार हुआ है और आगे भी होगा। वह मेरी चिर धारणा है कि पश्चिमी देशों की
सहायता के बिना हम लोगों का अभ्युत्थान नहीं हो सकेगा। इस देश में न तो
गुणों का सम्मान है और न आर्थिक बल, और सर्वाधिक शोचनीय है कि व्यावहारिकता
लेश मात्र नहीं है।
इस देश में साध्य तो अनेक है, किंतु साधन नहीं। मस्तिष्क तो है, परंतु हाथ
नहीं। हम लोगों के पास वेदांत मत है, लेकिन उसे कार्य रूप में परिणत करने की
क्षमता नहीं है। हमारे ग्रंथों में सार्वभौम साम्यवाद का सिद्धांत है, किंतु
कार्यों में महाभेद वृत्ति है। महा नि:स्वार्थ निष्काम कर्म भारत में ही
प्रचारित हुआ, परंतु हमारे कर्म अत्यंत ह्दयहीन हुआ करते है: और मांस-पिंड की
अपनी इस कार्य को छोड़कर, अन्य किसी विषय में हम सोचते ही नहीं।
फिर भी प्रस्तुत अवस्था में ही हमें आगे बढ़तें चलना है, दूसरा कोई उपाय
नहीं। भले-बुरे के निर्णय की शक्ति सब में है, किंतु वीर तो वही है जो
भ्रमप्रमाद तथा दु:खपूर्ण संसार-तरंगों के आघात से अविचल रहकर एक हाथ से आँसू
पोंछता है और दूसरे अकम्पित हाथ से उद्धार का मार्ग प्रदर्शित करता है। एक ओर
प्राचीनपंथी जड़ पिंड जैसा समाज है और दूसरी ओर चपल, अधीर, आग उगलनेवाले
सुधारक वृंद हैं: इन दोनों के बीच का मध्यम मार्ग की कल्याणकारी है। मैंने
जापान में सुना कि वहाँ के लड़कियों को यह विश्वास है कि यदि उनकी गुड़िया को
ह्दय से प्यार किया जाए तो ये जीवित हो उठेगी। जापानी बालिका अपनी गुड़िया को
कभी नहीं तोड़ती। हे महाभागे। मेरा भी विश्वास है कि यदि हतश्री, अभागे,
निर्बुद्धि, पददलित, चिर बुभुक्षित, झगड़ालू और ईर्ष्यालु भारतवासियों को भी
कोई ह्दय से प्यार करने लगे तो भारत पुन: जाग्रत हो जाएगा। भारत तभी जागेगा
जब विशाल ह्दयवाले सैकड़ों स्त्री-पुरूष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को
विसर्जित कर मन, वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतीयों के क्ल्याण के लिए
सचेष्ट होंगे जो दरिद्रता तथा मूर्खता के अगाम सागर में निरंतर नीचे डूबते जा
रहे है। मैंने अपने जैसे क्षुद्र जीवन में अनुभव कर लिया है कि उत्तम लक्ष्य,
निष्कपटता और अनंत प्रेम से विश्व-विजय की जा सकती है। पाश्चात्य देशों
में मेरा फिर जाना अभी अनिश्चित है। यदि जाऊँ तो यही समझिएगा कि भारत की भलाई
के उद्देश्य से ही। इस देश में जन-बल कहाँ है? अर्थ-बल कहाँ है? पाश्चात्य
देशों के अनेक स्त्री-पुरूष भारत के कल्याण के निमित्त अति नीच चांडाल आदि
की सेवा भारतीय भाव से और भारतीय धर्म के माध्यम से करने के लिए तैयार है।
देश में ऐसे कितने आदमी है? और आर्थिक बल !!
मेरे स्वागत में जो व्यय हुआ, है उसके लिए धन-संग्रह करने में
कलकत्तावासियों ने मेरे व्याख्यान की व्यवस्था की और टिकट बेंचा, फिर भी
कमी रह गई और खर्च चुकाने के लिए तीन सौ रूपये का एक बिल मेरे सामने पेश किया
गया!! इसके लिए मैं किसी को दोष नहीं दे रहा हूँ और न किसी की निंदा कर रहा
हूँ, किंतु मैं केवल यही बताना चाहता हूँ कि पश्चिम देशों से जन-बल और धन-बल
की सहायता मिले बिना हम लोगों का कल्याण होना असंभव है। इति।
चिर कृतज्ञ तथा प्रभु से आपके कल्याण का आकांक्षी,
विवेकानंद
(स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित)
एम. एन. बनर्जी का मकान,
दार्जिलिंग
२० अप्रैल १८९७
प्रिय शशि,
अब तक तुम लोग निश्चय ही मद्रास पहुँच चुके होगे। विलगिरि अवश्य ही तुम
लोगों की आवभगत करता होगा तथा सदानंद सेवा में लगा होगा। मद्रास में पूर्ण
सात्विकता के साथ अर्चनादि करने होंगे। रजोगुण उनमें लेश मात्र न हो। आलासिंगा
शायद अब तक मद्रास पहुँच चुका होगा। किसी भी व्यक्ति के साथ वाद-विवाद न
करना-सदा शांत भाव अपनाना। इस समय विलगिरि के भवन में ही श्री रामकृष्ण की
स्थापना कर पूजादि करते रहो। किंतु ध्यान रहे कि पूजा बहुत लंबी तथा
आडंबरयुक्त न होने पाये। उस बचे हुए समय का उपयेाग कक्षा चलाने तथा
व्याख्यानादि में होना चाहिए। इस दिशा में जितना कर सको उतना ही अच्छा है।
दोनों पत्रों की देख-रेख तथा जहाँ तक हो सके उनकी सहायता करते रहना। विलंगिरि
की दो विधवा कन्याएँ है। उनको शिक्षा प्रदान करना तथा इसका विशेष ध्यान रखना
कि उनके द्वारा उसी प्रकार की और भी विधवाएँ अपने धर्म की पक्की जानकारी और
थोड़ी बहुत संस्कृत तथा अंग्रेज़ी की शिक्षा प्राप्त कर सकें। किंतु यह काम
अपने को सदा दूर रखते हुए ही करना। युवतियों के सम्मुख अत्यंत सावधान रहना
नितांत आवश्यक है: क्योंकि एक बार पतन होने पर और कोई गति नहीं है तथा उस
अपराध के लिए क्षमा भी नहीं है।
गुप्त (स्वामी सदानंद) को कुत्ते ने काटा है-इस समाचार से अत्यंत चिंतित
हूँ: किंतु मैंने सुना है कि वह पागल कुत्ता नहीं है, अत: खतरे की कोई बात
नहीं। जो कुछ भी हो, गंगाधर ने जो दवा भेजी है, उसका प्रयोग अवश्य होना
चाहिए: प्रात: काल पूजादि संक्षेप में संपन्न कर विलगिरि को सपरिवार बुलाकर
कुछ गीता तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों का पाठ करना। दिव्य राधा कृष्ण प्रेम
संबंधी किसी भी प्रकार की शिक्षा की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। केवल सीता-राम
तथा महादेव-पार्वती विषयक शिक्षा प्रदान करना। इस विषय में किसी प्रकार की भूल
न होनी चाहिए। याद रखो कि युवक-युवतियों के अपरिपक्व मन के लिए राधा-कृष्ण
के अपार्थिव संबंध की लीला एकदम अनुपयुक्त है। खासकर विलगिरि तथा अन्य
रामानुजी लोग रामोपासक हैं, उनके विशुद्ध भाव नष्ट न होने पावें।
अपराह्न में साधारण लोगों के लिए उसी प्रकार कुछ आध्यात्मिक प्रवचन देते
रहना। इसी तरह धीरे धीरे पर्वतमपि लंघयेत्। परम विशुद्ध
भावों की सदा रक्षा होनी चाहिए। किसी भी तरह से 'वामा-चार' का प्रवेश न हो।
आगे प्रभु स्वंय ही बुद्धि प्रदान करेंगे-डरने का कोई कारण नहीं है। विलगिरि
को मेरा सादर नमस्कार तथा सप्रेम अभिवादन कहना। अन्यान्य भक्तों से भी
मेरा नमस्कार कहना।
मेरा रोग पहले की अपेक्षा अब कुछ शांत है-एकदम दूर भी हो सकता है-प्रभु की
इच्छा पर ही सब कुछ निर्भर है। तुम्हें मेरा प्यार, नमस्कार तथा
आर्शीर्वाद। किमधिकमिति।
पुनश्च-डॉक्टर नन्जुन्दा राव को मेरा विशेष प्रेमाभिवादन तथा आर्शीर्वाद
कहना तथा जहाँ तक हो सके उनकी सहायता करना। ब्राह्मणेतर जाति में संस्कृत के
अध्ययन को प्रोत्साहित करने के लिए अपनी पूरी चेष्टा करना।
विवेकानंद
(श्रीमती सरला घोषाल के लिखित)
दार्जिलिंग,
द्वारा श्रीयुत एमहाशयएन. बनर्जी
२४ अप्रैल १८९७
महाशया,
आपने मेरी कार्य-प्रणाली के संबंध में जो पूछा है, उस विषय में सबसे आवश्यक
बात यह कहनी है कि काम उसी पैमाने पर शुरू करना चाहिए जो अपेक्षित परिणामों के
अनुरूप हो। अपनी मित्र कुमारी मूलर के मुँह से आपकी उदार बुद्धि,
स्वदेश-प्रेम और दृढ़ अध्यवसाय की बहुत सी बातें मैं सुन चुका हूँ और आपकी
विद्वत्ता का प्रमाण तो प्रत्यक्ष ही है। आप मेरे क्षुद्र जीवन की नगण्य
चेष्टा के विषय में जानना चाहती हैं, मैं इसको अपना बहुत बड़ा सौभाग्य मानकर
इस छोटे से पत्र में यथासंभव निवेदन करने का प्रयत्न करूंगा। परंतु पहले मैं
आपके विचार-चिंतन के लिए अपनी परिपक्व मान्यताओं को आपको सम्मुख रखता हूँ।
हम लोग सदा पराधीन रहे हैं, अर्थात् इस भारतभूमि में जनसमुदाय को कभी भी अपनी
आत्म-स्वत्व बुद्धि को उद्दीप्त करने का मौका नहीं दिया गया। पश्चिमी देश
आज कई सदियों से स्वाधीनता की ओर बड़े वेग से बढ़ रहे है। इस भारत में
कौलीन्य-प्रथा से लेकर खान-पान तक सभी विषय राजा ही निपटाते आए है। परंतु
पश्चिमी देशों में सभी कार्य जनता अपने-आप करती है।
अब राजा किसी सामाजिक विषय में हाथ नहीं डालते, तो भी भारतीय जनता में अब तक
आत्म-निर्भरता तो दूर रही, थोड़ा सा आत्मविश्वास भी पैदा नहीं हुआ। जो
आत्मविश्वास वेदांत की नींव है, वह किंचित् भी यहाँ व्यवहार में परिणत नहीं
हुआ है। इसीलिए पश्चिमी प्रणाली-अर्थात् पहले उद्देश्य की चर्चा, और तब तमाम
शक्तियों के साथ उसे पूरा करना-इस देश में अभी तक सफल नहीं हुई है और इसीलिए
हम विदेशी शासन के अधीन इतने अधिक स्थितिशील (Conservative) दिखायी पड़ते हैं।
यदि यह सत्य हो तो जनता में चर्चा या सार्वजनिक वाद-विवाद के द्वारा किसी
बड़े काम को सिद्ध करने की चेष्टा करना वृथा है। 'जब सिर ही नहीं तो सिर में
दर्द कैसा?' जनता कहाँ है ? इसके सिवा हम ऐसे शक्तिहीन हैं कि यदि हम किसी
विषय की चर्चा शुरू करते हैं तो उसी में हमारा सारा बल लग जाता है और कोई काम
करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता। शायद इसीलिए हम बंगाल में 'बड़ी बड़ी
तैयारियाँ और छोटा सा फल' सदा देखा करते हैं। दूसरी बात, जैसा मैं पहले ही लिख
चुका हूँ, यह है कि भारतवर्ष के धनिकों से हमें कुछ भी आशा नहीं है। इसलिए
उत्तम यही है कि हम भविष्य की आशा रूप अपने युवकों के बीच धैर्यपूर्वक,
दृढ़ता से चुपचाप काम करें।
अब कार्य के विषय में कहता हूँ: वर्तमान सभ्यता-जैसे कि पश्चिमी देशों की
है-और प्राचीन सभ्यता-जैसे कि भारत, मिश्र और रोम आदि देश की रही है-इनके बीच
अंतर उसी दिन से शुरू हुआ जब से शिक्षा,सभ्यता आदि उच्च जातियों से
धीरे-धीरे नीचे जातियों में फैलने लगी। मैं अत्यक्ष देखता हूँ कि जिस जाति की
जनता में विद्या-बुद्धि का जितना ही अधिक प्रचार है, वह जाति उतनी ही उन्नत
है। भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की संपूर्ण
विद्या-बुद्धि, राज-शासन और दम्भ के बल से मुट्ठी भर लोगों के एकाधिकार में
रखी गई है। यदि हमें फिर से उन्नति करनी है तो हमको उसी मार्ग पर चलना होगा,
अर्थात जनता में विद्या का प्रसार करनाहोगा। आधी सदी से समाजसुधार की धूम मच
रही है। मैंने दस वर्षों तक भारत के विभिन्न स्थानों में घूमकर देखा कि देश
में समाज-सुधारक संस्थाओं की बाढ़ सी आयी है। परंतु जिनका रक्त शोषण करके
हमारे 'भद्र लोगों' ने अपना यह खिताब प्राप्त किया और कर रहे हैं, उन बेचारों
के लिए एक भी संस्था नजर न आयी ! मुसलमान कितने सिपाही लाये थे? यहाँ
अंग्रेज़ कितने है ?चाँदी के छ: सिक्कों के लिए अपने बाप और भाई के गले पर
चाकू फेरनेवाले लाखों आदमी सिवा भारत के और कहाँ मिल सकते हैं ? सात सौ वर्षों
के मुसलमान शासन में छ: करोड़ मुसलमान, और सौ वर्षों के ईसाई राज्य में बीस
लाख ईसाई क्यों बने ? मौलिकता ने देश को क्यों बिल्कुल त्याग दिया है ?
क्यों हमारे शिल्पी यूरोपवालों के साथ बराबरी करने में असमर्थ होकर दिनोंदिन
लोप होते जा रहें ? लेकिन तब वह कौन सी शक्ति थी जिससे जर्मन कारीगरों ने
अंग्रेज़ कारीगरों के कई सदियों से जमे हुए दृढ़ आसन को हिला दिया?
केवल शिक्षा! शिक्षा! शिक्षा! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमकर और यहाँ के
गरीबों के भी अमन-चैन और शिक्षा को देखकर गरीब देशवासियों की याद आती थी और
मैं आँसू बहाता था। यह अंतर क्यों? उत्तर में पाया कि शिक्षा से। शिक्षा और
आत्मविश्वास से उनका अंतर्निहित ब्रह्मभाव जाग गया है,जब कि हमारा ब्रह्मभाव
क्रमश: निद्रित-संकुचित होता जा रहा है। न्यूयार्क में मैं आइरिश उपनिवेशवासी
को आते हुए देखा करता था-पददलित, कांतिहीन, नि:संबल, अति दरिद्र और
महामूर्ख,साथ में एक लाठी और उसके सिरे पर लटकती हुई फटे कपड़ों की एक छोटी सी
गठरी। उसकी चाल में भय और आँख में शंका होती थी। छ: ही महीने के बाद यही
दृश्य बिल्कुल दूसरा हो जाता। अब वह तनकर चलता था, उसका वेश बदल गया था,
उसकी चाल और चितबन में पहले का वह डर दिखायी नहीं पड़ता। ऐसा क्यों हुआ ?
हमारा वेदांत कहता है कि वह आइरिश अपने देश में चारों तरफ़ घृणा से घिरा हुआ
रहता था-सारी प्रकृति एक स्वर से उससे कह रही थी कि 'बच्चू, तेरे लिए और कोई
आशा नहीं है: तू गुलाम ही पैदा हुआ और सदा गुलाम ही बना रहेगा।' आजन्म सुनते
बच्चू को उसी का विश्वास हो गया। बच्चू ने अपने को सम्मोहित कर डाला कि वह
अति नीच है। इससे उसका ब्रह्मभाव संकुचित हो गया। परंतु जब उसने अमेरिका में
पैर रखा तो चारों ओर से ध्वनि उठी कि 'बच्चू' तू भी वही आदमी है जो हम लोग
हैं। आदमियों ने ही सब काम किये है: तेरे और मेरे समान आदमी ही सब कुछ कर सकते
हैं। धीरज धर।' बच्चू ने सिर उठाया और देखा कि बात तो ठीक ही है-बस, उसके
सोया हुआ ब्रह्म जाग उठा: मानो स्वयं प्रकृति ही ने कहा हो,'उठो, जागो, रूको
मत, जब तक मंजिल पर न पहुँच जाओ।'
वैसे ही हमारे लड़के जो शिक्षा पा रहे हैं, वह बड़ी निषेधात्मक है। स्कूल के
लड़के कुछ भी नहीं सीखते, बल्कि जो कुछ अपना है उसका भी नाश हो जाता है, और
इसका परिणाम होता है-श्रद्धा का अभाव। जो श्रद्धा वेद-वेदांत का मूल मंत्र है,
जिस श्रद्धा ने नचिकेता को प्रत्यक्ष यम के पास जाकर प्रश्न करने का साहस
दिया, जिस श्रद्धा के बल से यह संसार चल रहा है-उसी श्रद्धा का लोप! गीता में
कहा है, अज्ञश्चाश्रद्द धानश्च संशयात्मा विनश्यति-अज्ञ
तथा श्रद्धाहीन और संशययुक्त पुरूष का नाश हो जाता है। इसीलिए हम मृत्यु के
इतने समीप हैं। अब उपाय है-शिक्षा का प्रसार। पहले आत्मज्ञान। इससे मेरा मतलब
जटा-जूट, दण्ड, कमण्डलु और पहाड़ों की कन्दराओं से नहीं जो इस शब्द के
उच्चारण करते ही याद आते हैं। तो मेरा मतलब क्या है ? जिस ज्ञान के द्वारा
मनुष्य संसार-बंधन तर्क से छुटकारा पा जाता है, उससे क्या तुच्छ भौतिक
उन्नति नहीं हो सकेगी ? अवश्य ही हो सकेगी। मुक्ति, वैराग्य, त्याग-ये सब
उच्चतम आदर्श हैं, परंतु गीता के अनुसार स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्, अर्थात् इस
धर्म का थोड़ा सा भाग भी महाभय (जन्म-मरण) से त्राण करता है। द्वैत,
विशिष्टद्वैत, अद्वैत, शैवसिद्धांत, यैष्णव, शाक्त, यहाँ तक कि बौद्ध और
जैन आदि जितने संप्रदाय भारत में स्थापित हुए हैं, सभी इस विषय पर सहमत हैं
कि इस जीवात्मा में अनंत शक्ति अव्यक्त भाव से निहित है: चींटी से लेकर उँचे
से उँचे सिद्ध तक सभी में वह आत्मा विराजमान है, अंतर केवल उसके
प्रत्यक्षीकरण के भेद में है। वरणभेवस्तु तत: क्षेत्रिकवत् (पातज्जल
योगसूत्र, कैवल्यपाद)-किसान जैसे खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का
पानी दूसरे खेत में चला जाता है, वैसे ही आत्मा भी आवरण टूटते ही प्रकट हो
जाती है। उपयुक्त अवसर और उपयुक्त देश-काल मिलते ही उस शक्ति का विकास हो
जाता है। परंतु चाहे विकास हो, चाहे न हो, वह शक्ति प्रत्येक जीवन-ब्रह्म से
लेकर घास तक में-विद्यमान है। इस शक्ति को सर्वत्र जा जाकर जगाना होगा।
यह हुई पहली बात। दूसरी बात यह है कि इसके साथ-साथ शिक्षा भी देनी होगी। बात
कहने में तो बड़ी सरल है, पर काम किस तरह लायी जाये? हमारे देश में हज़ारों
नि:स्वार्थ दयालु और तयागी पुरुष हैं। उनमें से कम से कम आधों को उसी तरीके
से जिसमें वे बिना पारिश्रमिक लिए घूम-घूम कर धर्मशिक्षा देते हैं, अपनी
आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। इसके लिए पहले
प्रत्येक प्रांत की राजधानी में एक-एक केंद्र होना चाहिए, जहाँ से धीरे-धीरे
भारत के सब स्थानों में फैलना होगा। मद्रास और कलकत्ते में हाल में दो केंद्र
बने हैं, कुछ और भी जल्द होने की आशा है। एक बात और है, गरीबों की शिक्षा
प्राय: मौखिक रूप से ही दी जानी चाहिए। स्कूल आदि का अभी समय नहीं आया है।
धीरे-धीरे उन मुख्य केंद्रों में खेती, उद्योग आदि भी सिखाये जाएंगे और
शिल्प की उन्नति के लिए शिल्पगृह भी खोले जाएंगे। उन शिल्पगृहों का माल
यूरोप और अमेरिका में बेचने के लिए उन देशों की संस्थाओं के समान ही
संस्थाएँ खोली जायँगी। जिस प्रकार पुरुषों के लिए केंद्र हैं, उसी प्रकार
स्त्रियों के लिए भी खोलना आवश्यक होगा। पर आप जानती ही हैं कि ऐसा होना इस
देश में बड़ा कठिन है। फिर भी इन सब कामों के लिए जिस धन की आवश्यकता है, वह
इंग्लैंड आदि पश्चिमी देशों से ही आना होगा, क्योंकि मुझे इस बात का दृढ़
विश्वास है कि जिस साँपने काटा है, वही अपना विष भी उतारेगा। इसलिए हमारे
धर्म का यूरोप और अमेरिका में प्रचार होना चाहिए। आधुनिक विज्ञान ने ईसाई आदि
धर्मों की भित्ति बिल्कुल चूर-चूर कर दी है। इसके सिवाय विलासिता तो प्राय:
धर्मवृत्ति का ही नाश करने पर तुली हुई है। यूरोप और अमेरिका आशा-भरी दृष्टि
से भारत की ओर ताक रहे हैं। परोपकार का, शत्रु के किले पर अधिकार जमाने का यही
समय है।
पश्चिमी देशों में नारियों की ही राज, उन्हीं का प्रभाव और उन्हीं की
प्रभुता है। यदि आप जैसी वेदांत जाननेवाली तेजस्विनी और विदुषी महिला इस समय
धर्म प्रचार के लिए इंग्लैंड जायँ तो मुझे विश्वास है कि हर साल कम से कम
सैकड़ों नर-नारी भारतीय धर्म ग्रहण कर कृतार्थ हो जाएंगे। अकेली रमाबाई हो
हमारे यहाँ से गई थीं, तो भी उन्होंने सबको आश्चर्यचकित कर दिया था। यदि आप
जैसी कोई वहाँ जाये तो इंग्लैंड हिल जाए, अमेरिका का तो कहना ही क्या ! मैं
दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ कि यदि भारत की नारियाँ देशी पोशाक पहने भारतीय
ऋषियों के मुँह से निकले हुए धर्म का प्रचार करें तो एक ऐसी बड़ी तरंग उठेगी
जो सारे पश्चिमी संसार को डुबा देगी। क्या मैत्रेयी, खना, लीलावती, सावित्री
और उभयभारती की इस जन्मभूमि में किसी और नारी को यह करने का साहस नहीं होगा ?
प्रभु ही जानता है। इंग्लैंड पर हम लोग अध्यात्म के बल से अधिकार कर लेगे,
उसे जीत लेंगे-नान्य विद्यतेअयनाय-इसके तिवाय मुक्ति का और
दूसरा मार्ग ही नहीं। क्या सभा-समितियों के द्वारा भी कभी मुकित मिल सकती है
? अपने विजेताओं को अपनी अध्यात्म-शक्ति से हमें देवता बनाना होगा। मैं तो
एक नगण्य भिक्षुक परिव्राजक हुँ, अकेला और असहाय ! मैं क्या कर सकता हूँ ?
आप लोगों के पास धन है, बुद्धि है और विद्या भी है-क्या आप लोग इस मौके को
हाथ से जाने देंगी? अब इंग्लैंड, यूरोप और अमेरिका पर विजय पाना-यही हमारा
महावत होना चाहिए। इसीसे देश का भला होगा। विस्तार ही जीवन का चिह्न है, और
हमें सारी दुनिया में अपने आध्यात्मिक आदर्शों का प्रचार करना होगा। हाय!
मेरा शरीर कितना दुर्बल है, जिस पर बंगाली का शरीर-इस घोड़े परिश्रम से ही
प्राणघातक व्याधि ने इसे घेर लिया। परंतु आशा है कि उत्पत्स्यतेस्ति मम
कोउपि समानधर्मा, कालो ह्राय निरवधिविंपुला व पृथ्वी। (भवभूति)-अर्थात् मेरे
समान गुणवाला कोई और है या होगा, क्योंकि काल का अंत नहीं और पृथ्वी भी
विशाल है।
शाकाहारी भोजन के विषय में मुझे पहले तो यह कहना है कि मेरे गुरु शाकाहारी थे:
लेकिन देवी का प्रसाद-रूप मांस दिए जाने पर उसे शिरोधार्य करते थे। जीव-हत्या
निश्चय ही पाप है, किंतु जब तक शाकाहार रसायन की प्रगति द्वारा मानव-प्रकृति
के लिए उपयुक्त नहीं बन जाता, तब तक मांस-भक्षण के अतिरिक्त कोई धारा ही
नहीं है। परिस्थितिवश जब तक मनुष्य राजसिक जीवन बिताने के लिए बाध्य है, तब
तक उसे उसके लिए मांस-भक्षण करना ही पड़ेगा। यह सत्य है कि सम्राट् अशेाक के
दंड-भय से लाखों जानकारी की प्राण-रक्षा हुई थी, लेकिन हज़ारों वर्षों की
गुलामी क्या उससे भयानक नहीं ? इनमें से कौन अधिक पापपूर्ण है?-कुछ बकरियों
की जान लेना या अपनी पत्नी-पुत्री की मर्यादा की रक्षा करने और आततायी हाथों
द्वारा अपने बच्चों के मुख का ग्रास बचाने में असमर्थ होना ? समाज के उन कुछ
उच्चवर्गीय लोगों के, जो अपनी जीविका के लिए कोई भी शारीरिक श्रम नहीं करते,
मांस न खाने में कोई आपत्ति नहीं, किंतु न अधिकांश लोगों पर, जो रात-दिन
परिश्रम करके अपनी रोटी कमाते हैं, शाकाहार लादना ही हमारी राष्ट्रीय
परतंत्रता का एक कारण हुआ है। अच्छे और पौष्टिक भोजन से क्या-क्या हो सकता
है, जापान इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। सर्वशक्तिमती विश्वेश्वरी आपके ह्रदय
में अवतीर्ण हों।
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
दार्जिलिंग,
२८ अप्रैल, १८९७
प्रिय मेरी,
कुछ दिन हुए, तुम्हारा सुंदर पत्र मुझे मिला। कल हैरियट के विवाह की सूचना
संबंधी पत्र मिला। भगवान सूखी दंपत्ति का मंगल करें। यह सारा देश मेरे स्वागत
के लिए प्राण होकर उठ खड़ा हुआ। हर स्थान में हज़ारों-लाखों मनुष्यों ने
स्थान-स्थान पर जयजयकार किया। राजाओं ने मेरी गाड़ी खीची, राजधानियों के
मार्गों पर हर कही स्वागत-द्वार बनाये गए, जिन पर शानदार आदर्श-वाक्य थे।
आदि। आदि! आदि!! सब बाते शीघ्र ही पुस्तक रूप में प्रकाशित होने वाली है और
तुम्हारे पास एक प्रति पहुँच जाएगी। किंतु दुर्भाग्यवश इंग्लैंड में अत्यंत
परिश्रम से मैं पहले ही थका हुआ था, और दक्षिण भारत की गर्मी में इस अत्यधिक
परिश्रम ने मुझे बिल्कुल गिरा दिया। इस कारण भारत के दूसरे भागों में जाने का
विचार मुझे छोड़ना पड़ा और सबसे निकट के पहाड़ अर्थात् दार्जिलिंग को
शीघ्रातिशीघ्र आना पड़ा। अब मैं पहले से बहुत अच्छा हूँ और अल्मोड़ा में एक
महीना और रहने से मैं पूर्णतया स्वस्थ हो जाऊंगा। वैसे इतना बता दूँ कि
यूरोप का एक अवसर मैंने अभी खो दिया है। राजा अजित सिंह और कुछ दूसरे राजा
शनिवार को इंग्लैंड के लिए रवाना है। राजा अजित सिंह और कुछ दूसरे राजा
शनिवार को इंग्लैंड के लिए रवाना हो रहे है। उन्होंने बहुत यत्न किया कि मैं
उनके साथ जाऊँ। परंतु अभाग्यवश डॉक्टरों ने मेरा अभी किसी प्रकार का शारीरिक
अथवा मानसिक श्रम करना स्वीकार न किया। इसलिए, अत्यंत निराला के साथ मुझे वह
विचार छोड़ देना पड़ा। मैंने अब अब उसे किसी निकट भविष्य के लिए रख छोड़ा है।
मुझे आना है कि डॉक्टर सरोज इस समय तक अमेरिका पहुँच गए होंगे। बेचारे। वे
वहाँ अति कट्टर ईसाई-धर्म का प्रचार करने आए थे, और जैसा होता है, किसी ने
उनकी न सुनी। इतना अवश्य है कि उन्होंने प्रेमपूर्वक उनका स्वागत किया,
परंतु वह मेरे पत्र के कारण ही था। मैं उनको बुद्धि तो नहीं दे सकता था। इसके
अतिरिक्त वे कुछ विचित्र स्वभाव के व्यक्ति थे। मैंने सुना है कि मेरे भारत
आने पर राष्ट्र ने जो खुशी मनायी, उससे जलन के मारे वे पागल से हो गए थे। कुछ
भी हो तुम लोगों को उनसे बुद्धिमान व्यक्ति भेजना उचित था, क्योंकि डॉ. सरोज
के कारण हिंदुओं के मन में धर्म-प्रतिनिधि सभा एक स्वर्ग सी बन गई है।
अध्यात्म-विद्या के संबंध में पृथ्वी का कोई भी राष्ट्र हिंदुओं का
मार्ग-दर्शन नहीं कर सकता, और विचित्र बात तो वह है कि ईसाई देशों से जितने
लोग यहाँ आते हैं, वे सब एक ही प्राचीन मूर्खतापूर्ण तर्क देते हैं कि ईसाई
धनवान और शक्तिमान हैं और हिंदू नहीं हैं, इसलिए ईसाई धर्म हिंदू धर्म की
अपेक्षा श्रेष्ठ है। इस पर हिंदू उचित ही यह प्रत्युत्तर देते हैं कि यही एक
कारण है जिससे हिंदू मत धर्म कहला सकता है और ईसाई मत नहीं: क्योंकि इस
पाशविक संसार में अधर्म और धूर्तता ही फलती है, गुणवानों को तो दु:ख भेागना
पड़ता है। ऐसा लगता है कि पश्चिमी राष्ट्र वैज्ञानिक संस्कृति में चाहें
कितने ही उन्नत क्यों न हों, तत्त्ज्ञान और आध्यात्मिक शिक्षा में वे निरे
बालक ही हैं। भौतिक विज्ञान केवल लौकिक समृद्धि दे सकता है, परंतु अध्यात्म
शाश्वत जीवन के लिए है। यदि शाश्वत जीवन न भी हो तो भी आध्यात्मिक विचारों
का आदर्श मनुष्य को अधिक आनंद देता है और उसे अधिक सुखी बनाता है: परंतु
भौतिकवाद की मूर्खता स्पर्धा, असंतुलित महत्त्वाकांक्षा एवं व्यक्तितथा
राष्ट्र को अंतिम मृत्यू की ओर ले जाती है।
यह दार्जिलिंग एक रमणीय स्थान है। बादलों के हटने पर कभी कभी भव्य कंचनजंघा
(२८,१४६ फुट) का दृश्य दिखता है, और कभी कभी एक समीपवर्ती शिखर से गौरीशंकर
(२९,००२ फुट) की झलक दिख जाती है। फिर, यहाँ के निवासी भी अत्यंत मनोहर होते
हैं-तिब्बती, नेपाली और सर्वोपरि रूपवती लेपचा स्त्रियाँ! क्या तुम किसी
कौलसन टर्नबुल नामक शिकागो निवासी को जानती हो ? मेरे भारत पहुँचने से कुछ
सप्ताह पहले से वह वहाँ था। मालूम होता है कि मैं उसे बहुत अच्छा लगा
था,जिसका परिणाम यह हुआ कि हिंदुओं को वह बहुत प्रिय हो गया। 'जो,' श्रीमती
ऐडम्स, बहन जोमेंफिन और हमारे अन्य मित्रों का क्या हाल है ? हमारे प्यारे
मिल्स कहाँ है ? धीरे-धीरे किंतु निश्चयात्मक रूप से काम कर रहे है ? मैं
हैरियट मैं हैरियट को विवाह का कुछ उपहार भेजना चाहता था, परंतु आपके यहाँ की
'भयंकर' चुंगी के डर से किसी निकट भविष्य के लिए यह स्थगित कर दिया है।
कदाचित् मैं उन लोगों से यूरोप में शीघ्र ही मिलूँगा। निश्चय ही मैं बहुत खुश
होता, यदि तुम अपनी सगाई की घोषणा कर देती और मैं एक पत्र में आधे दर्जन
कागजों को भरकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर देता...
मेरे गुच्छे के गुच्छे बाल सफ़ेद हो रहे हैं और मेरे मुख पर चारों ओर से
झुर्रियाँ पड़ रही है: शरीर का मांस घटने से बीस वर्ष मेरी आयु बढ़ी हुई मालूम
पड़ती है। और अब मेरा शरीर तेज़ी से घटता जा रहा है, क्योंकि मैं केवल मांस पर
ही जीवित रहने को विवश हूँ-न रोटी, न चावल, न आलू और कॉफी के साथ थोड़ी सी
चीनी ही। मैं एक ब्राह्राण परिवार के साथ रहता हूँ, जहाँ स्त्रियों को छोड़कर
बाकी सब लोग नेकर पहनते है। मैं भी वही पहनता हूँ। यदि तुम मुझे पहाड़ी हिरन
की तरह चट्टान से चट्टान पर कूदते हुए देखती या पहाड़ी रास्तों में ऊपर-नीचे
भागते हुए देखती तो आश्चर्य से स्तब्ध हो जाती।
मैं यहाँ बहुत अच्छा हूँ, क्योंकि शहरों में मेरा जीवन यातना हो गया-था। यदि
राह में मेरी झलक भी दिख जाती थी तो तमाशा देखनेवालों का जमघट जग जाता था !!
ख्याति में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं है! अब मैं बड़ी सी दाढ़ी रखनेवाला
हूँ, जिसके बाल तो अब सफ़ेद हो ही रहे हैं। इससे रूप समादरणीय हो जाता है और यह
अमेरिका निंदकों में भी बचाती है! हे श्वेतकेश, तुम कितना कुछ नहीं छुपा सकते
हो ! धन्य हो तुम!
डाक का समय हो गया है, इसलिए मैं समाप्त करता हूँ। सुस्वप्न,
सुस्वास्थ्य और संपूर्ण मुगल तुम्हारे साथ हों।
माता, पिता और तुम सबको मेरा प्यार,
तुम्हारा,
विवेकानंद
आलमबाजार मठ,
कलकत्ता,
५ मई, १८९७
प्रिय-,
मैं अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्य को सँभालने एक मास के लिए दार्जिलिंग गया
था। मैं अब पहले से बहुत अच्छा हूँ। दार्जिलिंग में मेरा रोग पूरी तरह से भाग
गया। पूर्णतया स्वस्थ होने के लिए कल मैं एक दूसरे पहाड़ी स्थान अल्मोड़ा
जा रहा हूँ।
जैसा कि पहले आपको लिख चुका हूँ, यहाँ सब चीजें बहुत आशाजनक नहीं मालूम होती,
यद्यपि संपूर्ण राष्ट्र ने एक प्राण होकर मेरा सम्मान किया और उत्साह से
लोग प्राय: पागल से हो गए थे। भारत में व्यावहारिक बुद्धि की कमी है। फिर
कलकत्ते के निकट जमीन का मूल्य बहुत बढ़ गया है। मेरा विचार अभी तीनों
राजधानियों में तीन केंद्र स्थापित करने का है। ये मेरी, प्रचारकों को तैयार
करने की मानो पाठशालाएँ होंगी, जहाँ से मैं भारत पर आक्रमण करना चाहता हूँ।
मैं कुछ वर्ष और जिऊँ, भारत पहले से ही श्री रामकृष्ण का हो गया है।
मुझे डॉक्टर जेम्स का एक अत्यंत कृपापूर्ण पत्र मिला जिसमें उन्होंने पतित
बौद्ध मत पर मेरे विचारों की आलोचना की है। तुमने भी लिखा है कि उस पर धर्मपाल
अति क्रुद्ध है। श्री धर्मपाल एक सज्जन व्यक्ति है और मुझे उनसे प्रेम है,
परंतु भारतीय बातों पर उनका आवेश एक बिल्कुल गलत चीज़ होगी।
मेरा वह दृढ़ विश्वास है कि जो आधुनिक हिंदू धर्म कहलाता है और जो दोषपूर्ण
है, वह अवनत बौद्ध मत का ही एक रूप है। हिंदुओं को साफ-साफ इसे समझ लेने दो,
फिर उन्हें उसको त्याग देने में कोई आपत्ति न होगी। बौद्ध मत का वह प्राचीन
रूप, जिसका बुद्धदेव ने उपदेश दिया था और उनका व्यक्तित्व मेरे लिए परम
पूजनीय है। और तुम अच्छी तरह जानते हो कि हम हिंदू लोग उन्हें अवतार मानकर
उनकी पूजा करते हैं। लंका का बौद्ध धर्म भी किसी काम का नहीं है। लंका की
यात्रा से मेरा भ्रम दूर हो गया है। जीवित और वहाँ के एकमात्र लोग हिंदू ही
हैं। वहाँ के बौद्ध यूरोप के रंग में रंगे हुए हैं, यहाँ तक कि श्री धर्मपाल
और उनके पिता के नाम भी यूरोपीय थे,जो उन्होंने अब बदले हैं। अपने अहिंसा के
महान् सिद्धांत का वह इतना आदर करते हैं कि उन्होंने कमाई खाने जगह-जगह खोल
रखे हैं। और उनके पुरोहित इसमें उन्हें प्रोत्साहित करते हैं। वह वास्तविक
बौद्ध धर्म जिस पर मैंने एक बार विचार किया था कि वह अभी बहुत कल्याण करने
में समर्थ होगा, पर मैंने वह विचार छोड़ दिया है और मैं स्पष्ट उस कारण को
देखता हूँ जिससे बौद्ध धर्म भारत से निकाला गया और हमें बडा हर्ष होगा यदि
लंकावासी भी इस धर्म के अवषेश रूप को, उसकी विकराल मूर्तियों तथा भ्रष्ट
आचारों के साथ त्याग देंगे।
थियोसोफिस्ट लोगों के विषय में पहले तुमको यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत में
थियोसोफिस्ट और बौद्धों का अस्तित्व शून्य के बराबर है। वे कुछ समाचार-पत्र
प्रकाशित करते है, जिनके द्वारा बड़ा हल्ला-गुल्ला मचाते हैं और
पाश्चात्यों को आकर्षित करने का प्रयत्न करते है...
मैं अमेरिका में एक मनुष्य था और यहाँ दूसरा हूँ। पूरा राष्ट्र मुझे अपना
नेता मानता है, और वहाँ मैं एक ऐसा प्रचारक था जिसकी निंदा की जाती थी। यहाँ
राजा मेरी गाड़ी खींचते है, वहाँ मैं किसी शिष्ट होटल में प्रवेश नहीं कर
सकता था। इसलिए मेरे यहाँ के उद्गार मेरे देशवासी तथा मेरी जाति के
कल्याणार्थ होने चाहिए, चाहें वे थोड़े से लोगों को कितने ही अप्रिय क्यों न
जान पड़े। सच्ची और निष्कपट बातों के लिए स्वीकृति, प्रेम और
सहिष्णुता-परंतु पाखंड के लिए नहीं। थियोसोफिस्ट लोगों ने मेरी चापलूसी और
मिथ्या प्रशंसा करने का यत्न किया था, क्योंकि भारत में मैं अब नेता माना
जाता हूँ। इसलिए मेरे लिए यह आवश्यक हो गया कि मैं कुछ बेचकर और निश्चित
शब्दों से उनका खंडन करूँ। मैंने यह किया भी और मैं बहुत खुश हूँ । यदि मेरा
स्वास्थ्य ठीक होता तो मैं इस समय तक इन नए उत्पत्र हुए पाखण्डियों का
भारत से सफा़या कर देता, कम से कम भरसक प्रयत्न तो करता हो... मैं तुमसे कहता
हुँ कि भारत पहले ही श्री रामकृष्ण का हो चुका है और पवित्र हिंदू धर्म के
लिए मैंने यहाँ अपने कार्य का थोड़ा संगठित कर लिया है।
तुम्हारा
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
आलमबाजार मठ,
कलकत्ता,
५ मई, १८९७
प्रिय कुमारी नोबल,
तुम्हारे अत्यंत स्नेहयुक्त तथा उत्साहपूर्ण पत्र ने मेरे ह्रदय में जो
शक्ति संचार किया है, वह तुम स्वंय भी नहीं जानती हो।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मन को पूर्ण निराला में डुबो देनेवाले ऐसे अनेक क्षण
जीवन में आते हैं, खासकर उस समय जब किसी उद्देश्य को सफल बनाने के लिए जीवन
भर प्रयास करने के बाद सफलता का क्षीण प्रकाश दिखायी देने लगा हो, ठीक उसी समय
कोई प्रचंड सर्वस्व नाशकारी आघात उपस्थित हो जाये। दैहिक अस्वस्थता की और
मैं विशेष ध्यान नहीं देता, मुझे तो दु:ख इस बात का है कि मेरी योजनाओं को
कार्य में परिणत करने का कुछ भी अवसर मुझे प्राप्त नहीं हुआ। और तुम्हें यह
विदित है कि इसका मूल कारण धन का अभाव है।
हिंदू लोग जुलूस निकाल रहे हैं तथा और भी न जाने क्या कर रहे हैं, किंतु वे
आर्थिक सहायता नहीं कर सकते। जहाँ तक आर्थिक सहायता का प्रश्न है, वह तो मुझे
दुनिया में एकमात्र इंग्लैंड की कुमारी से-तथा श्री स-से ही मिली है।... जब
मैं वहाँ या, तब मेरी यह धारणा थी कि एक हज़ार पौंड प्राप्त होने पर ही कम से
कम कलकत्ते में प्रधान केंद्र स्थापित किया जा सकेगा: किंतु यह अनुमान मैंने
दस-बारह वर्ष पहले की अपनी कलकत्ता संबंधी धारणा के आधार पर किया था परंतु इस
अरसे में मंहगाई तीन-चार गुनी बढ़ चुकी है।
जो भी कुछ तो, कार्य प्रारंभ हो चुका है। एक टूटा-फूटा पुराना छोटा मकान छ:
सात शिलिंग किराये पर लिया गया है। जिसमें लगभग चौबीस युवक शिक्षा प्राप्त कर
रहे हैं। स्वास्थ्य-सुधार के लिए मुझे एक माह तक दार्जिलिंग रहना पड़ा था।
तुम्हें यह जानकर खुशी होगी कि मैं पहले की अपेक्षा बहुत कुछ स्वस्थ हूँ।
और, क्या तुम्हें विश्वास होगा, बिना किसी प्रकार की औषधि सेवन किये केवल
इच्छा-शक्ति के प्रयोग द्वारा ही ? मैं फिर एक पहाड़ी स्थान की और रवाना हो
रहा हूँ, क्योंकि इस समय यहाँ पर अत्यंत गर्मी है। मेरा विश्वास है कि तुम
लोगों की 'समिति' अब भी चालू होगी। यहाँ के कार्यों का विवरण मैं प्राय:
प्रतिमास तुम्हें भेजता रहूँगा। ऐसा सुना जा रहा है कि लंदन का कार्य ठीक ठीक
नहीं चल रहा है और इसीलिए मैं इस समय लंदन जाना नहीं चाहता, हालांकि 'जयती'
उत्सव के उपलक्ष्य में लंदन जानेवाले हमारे कुछ-एक राजाओं ने मुझे अपना साथी
बनाने के लिए प्रयत्न किया था, किंतु वहाँ जाने पर वेदांत की ओर लोगों की
रूचि बढ़ाने के लिए मुझे पुन: अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता और उसका असर मेरे
स्वास्थ्य के लिए विशेष हानिकर होता।
फिर भी निकट भविष्य में एकाध महीने के लिए मैं वहाँ जा सकता हूँ । बस, यहाँ
के कार्यों को शुरू होते हुए मैं देख सकता तो कितने आनंद और स्वतंत्रता से
बाहर भ्रमण करने निकल पड़ता।
यहाँ तक तो कार्यों की चर्चा हुई। अब मुझे तुम्हारे बारे में कुछ कहना है।
प्रिय कुमारी नोबल, तुम्हारे अंदर जो ममता, निष्ठा, भक्ति तथा गुणज्ञता
विद्यमान है, यदि वह किसी को प्राप्त हो तो वह जीवन भर चाहे जितना भी परिश्रम
क्यों न करें, इन गुणों के द्वारा ही उसे उसका सौगुना प्रतिदान मिल जाता है।
तुम्हारा सर्वागीण मंगल हो! मेरी मातृभाषा में जैसा कहा जाता है, मैं यह कहना
चाहुँगा कि 'मेरा सारा जीवन तुम्हारे सेवार्थ प्रस्तुत है।'
तुम्हारे तथा इग्लैंण्ड स्थित अन्यान्य मित्रों के पत्रों के लिए मैं सदैब
अत्यंत उत्सुक रहता हूँ और भविष्य में भी ऐसा ही उत्सुक रहूँगा। श्री तथा
श्रीमती हैमंड के अत्यंत सुंदर तथा स्नेहपूर्ण जो पत्र मुझे प्राप्त हुए हैं
और इसके अलावा श्री हैमंड ने 'ब्रह्मवादिन्' पत्रिका में मेरे लिए एक सुंदर
कविता भी लिखी है, यद्यपि मैं कतई उसके योग्य नहीं हूँ । हिमालय से पुन: मैं
तुम्हें पत्र लिखूँगा: उत्तप्त मैदानों की अपेक्षा वहाँ पर हिमशिखरों के
सम्मुख विचार स्पष्ट एवं स्नायु शांत होगें। कुमारी मूलर इसी बीच
अल्मोड़ा पहुँच चुकी हैं। श्री तथा श्रीमती सेवियर शिमला जा रहे है। अब तक वे
दार्जिलिंग में थे। देखो मित्र, इसी तरह से जागतिक घटनाओं का परिवर्तन हो
रहा-एकमात्र प्रभु ही निर्विकार तथा प्रेमस्वरूप है। तुम्हारे ह्रदयसिंहासन
पर वे चिराधिष्ठित हों-विवेकानंद की यही निरंतर प्रार्थना है।
अल्मोड़ा,
२० मई, १८९७
प्रिय महिम,
तुम्हारा पत्र मिलने से अत्यंत ख़ुशी हुई। शायद भूल से मैंने तुमको यह नहीं
बतलाया होगा कि मेरे लिए लिखे जानेवाले पत्रों की नकल तुम अपने पास रखना। इसके
अलावा भी और लोग मठ में जो आवश्यक पत्र भेजें तथा मठ की ओर से विभिन्न
व्यक्तियों के पास जो पत्रादि भेजे जायँ, उनकी नकल रखनी आवश्यक है।
सब कार्य सुचारू रूप से ही रहे हैं, वहॉं के कार्य की क्रमोन्नति हो रही है
तथा कलकत्ते का समाचार भी-तदनुरूप है-यह जानकर मैं बहुत खुश हँ।
मैं अब पूर्णतया स्वस्थ हूँ: सिर्फ रास्ते की कुछ थकावट है-वह भी दो-चार
दिन में दूर हो जायेगी।
तुम लोगों को मेरा प्यार तथा आशीर्वाद।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित)
अल्मोड़ा,
२० मई, १८९७
अभिन्नह्दय,
तुम्हारे पत्र से सभी विशेष समाचार प्राप्त हुए। सुधीर का भी एक पत्र मिला
मास्टर महाशय ने भी एक पत्र भेजा है। नित्यानंद (योगेन चटर्जी) के दो पत्र
दुर्भिक्ष-स्थल से प्राप्त हुए हैं।
रूपये-पैसे का अभी भी कोई ठीक-ठिकाना नहीं है... पर होगा अवश्य। धन होने पर
मकान, जमीन तथा स्थायी कोष आदि की व्यवस्था ठीक ठीक हो जाएगी। किंतु तब तक
नहीं मिलता है, तब तक कोई आसरा नहीं रखना चाहिए: और मैं भी अभी दो-तीन माह तक
गरम स्थान में लौटना नहीं चाहता। इसके बाद मैं एक दौरा करूँगा और निश्चय ही
धन संग्रह कर लूँगा। इसलिए यदि तुम यह समझते हो कि वह सामने की आठ 'काठा' खुली
जमीन न मिल रही हो तो ऐसा करना...इलाल को बयाना देने में कोई हरज नहीं, समझ लो
कि तुम कुछ भी नहीं खो रहे हो। इन कार्यों को तुम खुद ही सोच समझकर करना, मैं
और अधिक क्या लिख सकता हुँ ? शीघ्रता करने से भूल होने की खास संभावना
है।...मास्टर महाशय से कहना कि उन्होंने जो मंतव्य प्रकट किया है, उससे मैं
पूर्ण सहमत हूँ।
गंगाधर को लिखना कि यदि वहाँ पर भिक्षादि दुष्प्राप्य हो तो गाँठ से पैसा
खर्च कर अपने भोजनादि की व्यवस्था करे तथा प्रति सप्ताह उपेन की पत्रिका
(बसुमती) में समाचार प्रकाशित करता रहे। ऐसा करने पर अन्य लोगों से भी सहायता
मिल सकती है।
शशि के एक पत्र से पता चला कि...उसे निर्भयानंद की आवश्यकता है। यदि तुम उचित
समझों तो निर्भयानंद को मद्रास भेजकर गुप्त को बुला लेना...मठ की नियमावली की
बांग्ला प्रति या उसका अंग्रेज़ी अनुवाद शशि को भेज देना और वहाँ पर उसी के
अनुसार कार्य करने को उसे लिख देना।
यह जानकर खुशी हुई कि कलकत्ते की संस्था अच्छी तरह चल रही है। यदि एक-दो
व्यक्ति उसमें सम्मिलित न हों तो कोई बात नहीं। धीरे-धीरे सभी आने लगेंगे।
सबके साथ सद्व्यवहार करना। मीठी बात का असर बहुत होता है। जिससे नए लोग
सम्मिलित हों, ऐसा प्रयास करना अत्यंत आवश्यक है। हमें नए नए सदस्यों की
आवश्यकता है।
योगेन अच्छी तरह से है। अल्मोड़ा में अत्यधिक गर्मी होने की वजह से वहाँ से
२० मील की दूरी पर मैं एक सुंदर बगीचे में रह रहा हूँ: यह स्थान वहाँ से ठंडा
अवश्य है, किंतु गर्मी भी है। यहाँ तक गर्मी का सवाल है, कलकत्ते से यहाँ पर
ऐसा कोई विशेष अंतर नहीं है।...
मुझे अब बुखार नहीं आता। और भी ठंडा स्थान में जाने को चेष्टा कर रहा हूँ।
मैं अनुभव करता हूँ कि गर्मी तथा चलने के श्रम से 'लीवर' की क्रिया में तुरंत
गड़बड़ी होने लगती है। यहाँ पर इतनी सूखी हवा चलती है कि दिन-रात नाक में जलन
होती रहती है और जीभ भी लकड़ी जैसी सूखी बनी रहती है। तुम लोग नुकताचीनी न
करना: नहीं तो अब तक मजे से मैं किसी ठंडे स्थान में पहुँच गया होता।
"स्वामी जी पथ्य संबंधी नियमों की सदा उपेक्षा करते है,"क्या व्यर्थ की
बात बकते हो ? क्या तुम सचमुच उन सूखों बातों पर ध्यान देते हो ? यह वैसे ही
है, जैसे कि तुम्हारा मुझे उड़द की दाल न खाने देना, क्योंकि उसमें स्टार्च
(श्वेतसार) होता है। और यह भी कि चावल और रोटी तलकर खाने से स्टार्च
(श्वेतसार) नहीं रहता है ! यह तो अद्भुत विद्या है ! असली बात यह है कि मेरी
पुरानी आदत लौट रही है।... यह मैं स्पष्ट देख रहा हूँ। देश के इन भाग में
बीमारी, यहाँ के रंग-ढ़ंग अपना लेती है और देश के उस भाग में वहाँ के। रात में
अल्प भोजन करने की सोच रहा हूँ: सुबह तथा दोपहर में पेट भर भोजन करूँगा तथा
रात में दूध, फल इत्यादि लूँगा। इसीलिए तो भाई फलों के बगीचे में
'फल-प्राप्ति' की आशा में पड़ा हुआ हूँ। क्या इतना भी नहीं समझते?
तुम डरते क्यों हो ? क्या दानव की मृत्यु इतनी शीघ्र हो सकती है ? अभी तो
केवल सांध्य दीप ही जलाया गया है, और अभी तो सारी रात गायन-वादन करना है।
आजकल मेरा मिजाज भी ठीक है, बुखार भी केवल 'लीवर' के कारण ही है।-मुझे यह
अच्छी तरह से पता है। उसे भी मैं दुरूस्त कर दूँगा-डर किस बात का है ?...
साहस के साथ कार्य में जुट जाओ: हमें एक बार तूफ़ान पैदा कर देना है।
किमधिकमिति।
मठ के सब लोगों को मेरा प्यार कहना तथा समिति की आगामी बैठक में सबको मेरा
सादर नमस्कार कहना और कहना कि यद्यपि में सशरीर उपस्थित नहीं हूँ, फिर भी
मेरी आत्मा उस जगह विद्यमान है, यहाँ कि प्रभु का नाम कीर्तन होता है। यावत्तव कथा राम संचरिष्यति मेदिनीम्,
अर्थात् हे राम, जहाँ भी संसार में तुम्हारी कथा होती है, वहीं पर मैं
विद्यमान रहता हूँ। क्योंकि आत्मा तो सर्वव्यापी है न !
सस्नेह,
विवेकानंद
(डॉक्टर शशिभूषण घोष को लिखित)
अल्मोड़ा,
२९ मई, १८९७
प्रिय डॉक्टर शशि,
तुम्हारा पत्र तथा दवा की दो बोतलें यथासमय प्राप्त हुई। कल सायंकाल से
तुम्हारी दवा की परीक्षा चालू कर दी है। आशा है कि एक दवा की अपेक्षा दोनों
को मिलाने से अधिक असर होगा।
सुबह-शाम घोड़े पर सवार होकर मैंने पर्याप्त रूप से व्यायाम करना प्रारंभ कर
दिया है और उसके बाद से सचमुच मैं बहुत अच्छा हूँ। व्यायाम शुरू करने के बाद
पहले सप्ताह में ही मैं इतना स्वस्थ अनुभव करने लगा, जितना कि बचपन के उन
दिनों को छा़ड़कर जब मैं कुश्ती लड़ा करता था, मैंने कभी नहीं किया था। तैब
मुझे, सच में लगता था कि शरीरधारी होना ही एक आनंद का विषय है। तब शरीर की
प्रत्येक गति में मुझे शक्ति का आभास मिलता था तथा अंग-प्रत्यंग के संचालन
से सुख की अनुभुति होती थी। वह अनुभव अब कुछ घट चुका है, फिर भी मैं अपने को
शक्तिशाली अनुभव करता हूँ। जहाँ तक ताकत का सवाल है, जी.जी. तथा निरंजन दोनों
को ही देखते देखते मैं धरती पर पछाड़ सकता था। दर्जिलिंग में मुझे सदा ऐसा
लगता था, जैसे मैं कोई दूसरा ही व्यक्ति बन चुका हूँ। और यहाँ पर मुझे ऐसा
अनुभव होता है कि मुझमें कोई रोग ही नहीं है। लेकिन एक उल्लेखनीय परिवर्तन
दिखायी दे रहा है। बिस्तर पर लेटने के साथ ही मुझे कभी नींद नहीं आती थी-घंटे
दो घंटे तक मुझे इधर-उधर करवट बदलनी पड़ती थी। केवल मद्रास से दार्जिलिंग तक
(दार्जिलिंग में सिर्फ़ पहले महीने तक) तकिये पर सिर रखते ही मुझे नींद आ जाती
थी। वह सुलभनिद्रा अब एकदम अंतर्हित हो चुकी है और इधर-उधर करवट बदलने की मेरी
वह पुरानी आदत तथा रात्रि में भोजन के बाद गर्मी लगने की अनुभूति पुन: वापस
लौट आयी है। दिन में भोजन के बाद कोई खास गर्मी का अनुभव नहीं होता।
यहाँ पर एक फल का बगीचा है, अत: यहाँ आते ही मैंने अधिक फल खाना प्रारंभ कर
दिया है। किंतु यहाँ पर खूबानी के सिवाय और कोई फल नहीं मिलता। नैनीताल से
अन्य फल मँगवाने की मैं चेष्टा कर रहा हूँ। दिन में यहाँ पर यद्यपि गर्मी
अधिक है, फिर भी प्यास नहीं लगती।... साधारणतया यहाँ पर मुझे शक्तिवर्द्धन के
साथ ही साथ प्रफुल्लता तथा विपुल स्वास्थ्य का अनुभव हो रहा है। चिंता की
बात केवल इतनी है कि अधिक मात्रा में दूध लेने के कारण चर्बी की वृद्धि हो रही
है। योगेन ने जो लिखा है, उस पर ध्यान न देना। जैसे वह स्वयं डरपोक है, वैसे
ही दूसरों को भी बनाना चाहता है। मैंने लखनऊ में एक बरफी का सोलहवाँ हिस्सा
खाया था: उसके मतानुसार अल्मोड़े में मेरे बीमार पड़ने का कारण वही है! शायद
दो-चार दिन में ही योगेन यहाँ आएगा। मैं उसकी देखभाल करूँगा। हाँ, एक बात और
है, मैं आसानी से मलेरियाग्रस्त हो जाता हूँ-अल्मोड़ा आते ही जो पहले
सप्ताह में मैं बीमार पड़ गया था, उसका कारण शायद तराई की तरफ़ से होकर आना
ही था। खैर, इस समय तो मैं अपने को अत्यंत बलशाली अनुभव कर रहा हूँ। डॉक्टर,
आजकल जब मैं बर्फ़ से ढके हुए पर्वतशिखरों के सम्मुख बैठकर उपनिषद् के इस अंश
का पाठ करता हूँ-
न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्
(जिसने योगाग्निमयं शरीर प्राप्त किया है, उसके लिए जरा-मृत्यु कुछ भी नहीं
है) उस समय यदि एक बार तुम मुझे देख सकते!
रामकृष्ण मिशन, कलकत्ते की सभाओं की सफलता के समाचार से मैं अत्यंत आनंदित
हूँ। इस महान् कार्य में जो सहायता प्रदान कर रहे हैं, उनका सर्वांगीण
कल्याण हो।...संपूर्ण स्नेह के साथ।
प्रभुपदाश्रित तुम्हारा,
विवेकानंद
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
अल्मोड़ा,
३० मई, १८९७
प्रिय महाशय,
मैंने सुना है कि आपके ऊपर कोई अपरिहार्य पारिवारिक दु:ख आ पड़ा है। यह दु:ख
आप जैसे ज्ञानी पुरूष का क्या कर सकता है ? फिर भी इस सांसारिक जीवन के
संदर्भ में मित्रता के स्निग्ध व्यवहार को प्रेरणा से मेरे लिए इसकी चर्चा
करना आवश्यक हो जाता है। किंतु वे दु:ख के क्षण बहुधा आध्यात्मिक अनुभव को
उच्चतर रूप से व्यक्ति करते हैं। जैसे कि थोड़ी देर के लिए बादल हट गए हों
और सत्य रूपी सूर्य चमक उठे। कुछ लोगों के लिए ऐसी अवस्था में आधे बंधन
शिथिल पड़ जाते हैं। सबसे बड़ा बंधन है मान का-नाम डूबने का भय मृत्यु के भय
से प्रबल है: और उस समय यह बंधन भी कुछ ढीला दिखायी देता है। जैसे कि एक क्षण
के लिए मन को यह अनुभव होता हो कि मानव-मत की अपेक्षा अंतर्यामी प्रभु की ओर
ध्यान देना अधिक अच्छा है। परंतु फिर से बादल आकर घेर लेते हैं वास्तव में
यही माया है।
यद्यपि बहुत दिनों से मेरा आप से पत्र-व्यवहार नहीं था, परंतु औरों से आपका
प्राय: सब समाचार सुनता रहा हूँ। कुछ समय हुआ, आपने कृपापूर्वक मझे इंग्लैंड
में गीता के अनुवाद की एक प्रति भेजी थी। उसकी जिल्द पर आपके हाथ की एक
पंक्ति लिखी हुई थी। इस स्वीकृति घोड़े से शब्दों में दिए जाने के कारण
मैंने सुना कि आपको मेरी आपके प्रति पुराने प्रेम की भावना में संदेह
उत्पन्न हो गया।
कृपया इस संदेह को आधार रहित जानिए। उस संक्षिप्त स्वीकृति का कारण यह था कि
पाँच वर्ष में मैंने आपको लिखि हुई 'एक ही पंक्ति उस अंग्रेज़ी गीता की जिल्द
पर देखी, इस बात से मैंने यह विचार किया कि यदि इससे अधिक लिखने का आपको अवकाश
न था तो क्या अधिक पढ़ने का अवकाश हो सकता है ? दूसरी बात, मुझे यह पता लगा
कि हिंदू धर्म के गौरांग मिशनरियाँ के आप विशेष मित्र है और दुष्ट काले
भारतवासी आपकी घृणा के पात्र है! यह मन में शंकर उत्पन्न करनेवाला विषय था।
तीसरे, में म्लेच्छ, शूद्र इत्यादि हैं-जो मिले सो खाता हूँ वह भी जिस किसी
के साथ और सभी के सामने-चाहे देश हो या परदेश। इसके अतिरिक्त मेरी विचार-धारा
में बहुत विकृति आ गई है-मैं एक निर्गुण पूर्ण ब्रह्मा को देखता हूँ, और कुछ
कुछ समझता भी हूँ, और इने-गिने व्यक्तियों में उस ब्रह्म का विशेष आविर्भाव
भी देखता है: यदि वे ही व्यक्ति ईश्वर के दास से पुकारे जायें तो मैं इस
विचार को ग्रहण कर सकता हूँ परंतु बौद्धिक सिद्धांतों द्वारा परिकल्पित विधाता
आदि की ओर मन आकर्षित नहीं होता।
ऐसा ही ईश्वर मैंने अपने जीवन में देखा है और उनके आदेशों का पालन करने के
लिए मैा जीवित हूँ। स्मृति और पुराण सीमित बुद्धिवाले व्यक्तियों की रचनाएँ
और भ्रम, त्रुटि, प्रमाद, भेद तथा द्वेष भाव से परिपूर्ण हैं। उनके केवल कुछ
अंश जिनमें आत्मा की व्यापकता और प्रेम की भावना विद्यमान है, ग्रहण करने
योग्य हैं, शेष सबका त्याग कर देना चाहिए। उपनिषद और गीता सच्चे शास्त्र
हैं, और राम, कृष्ण, बुद्ध चैतन्य, कबीर आदि सच्चे अवतार है: क्योंकि उनके
ह्रदय आकाश के समान विशाल थे-और इन सबसे श्रेष्ठ है राम-कृष्ण। रामनुज, शंकर
इत्यादि संकीर्ण ह्रदयवाले केवल पंडित मालूम होते है। वह प्रेम कहाँ है, वह
ह्रदय जो दूसरों का दु:ख देखकर द्रवित हो ? पंडितों का शुष्क विद्याभिमान और
जैसे-तैसे केवल अपने आपको मुक्त करने की इच्छा! परंतु महाशय, क्या यह संभव
है ? क्या इसकी कभी संभावना थी या हो सकती है ? क्या अहंभाव का अल्पांश भी
रहने से किसी चीज़ की प्राप्ति हो सकती है ?क्या अहंभाव का अल्पांश भी रहने
से किसी चीज़ की प्राप्ति हो सकती है ?
मुझे एक बड़ा विभेद और दिखायी देता है-मेरे मन में दिनोंदिन यह विश्वास बढ़ता
जा रहा है कि जाति-भाव सबसे अधिक भेद उत्पन्न करनेवाला और माया का मूल है।
सब प्रकार का जाति-भेद चाहे वह जन्मगत हो या गुणगत, बंधन ही है। कुछ मिश्र यह
सुझाव देते है, "सच है, मन में ऐसा ही समझों, परंतु बाहर व्यावहारिक जगत् में
जाति जैसे भेदों को बनाये रखना उचित ही है।"
...मन में एकता का भाव कहने के लिए उसे स्थापित करने की कातर निर्वीयँ
चेष्टा और बाह्य जगत् में राक्षसों का नरक-नृत्य-अत्याचार और
उत्पीड़न-निर्धनों के लिए साक्षात् यमराज! परंतु यदि वही अछूत काफी धनी हो
जाए तो 'अरे, वह तो धर्म का रक्षक है।'
सबसे अधिक अपने अध्ययन से मैंने यह जाना है कि धर्म के विधि-निषेधादि नियम
शूद्र के लिए नहीं हैं: यदि वह भोजन में या विदेश जाने में कुछ विचार दिखाये
तो उसके लिए वह व्यर्थ है, केवल निरर्थक परिश्रम। मैं शूद्र हूँ, म्लेच्छ
हूँ, इसलिए मुझे इन सब झंझटों से क्या संबंध ? मेरे लिए म्लेच्छ का भोजन
हुआ तो क्या, और शूद्र का हुआ तो क्या ? पुरोहितों की लिखी हुई पुस्तकों ही
में जाति जैसे पागल विचार पये जाते हैं, ईश्वर द्वारा प्रकट की हुई पुस्तकों
में नहीं। अपने पूर्वजों के कार्य का फल पुरोहितों की भोगने दो: मैं तो भगवान
की वाणी का अनुसरण करूँगा, क्योंकि मेरा कल्याण उसी में है।
एक और सत्य, जिसका मैंने अनुभव किया है, वह यह है कि नि:स्वार्थ सेवा ही
धर्म है और बाह्रा विधि, अनुष्ठान आदि केवल पागलपन है यहाँ तक कि अपनी मुक्ति
की अभिलाषा करना भी अनुचित है। मुक्ति केवल उसके लिए है जो दूसरों के लिए
सर्वस्व त्याग देता है, परंतु वे लोग जो 'मेरी मुक्ति,' 'मेरी मुक्त' की
अहर्निश रट लगाये रहते हैं, वे अपना वर्तमान और भावी वास्तविक कल्याण नष्ट
कर इधर-इधर भटकते रह जाते हैं। ऐसा होते मैंने कई बार प्रत्यक्ष देखा है। इन
विविध विषयों पर विचार करते हुए आपको पत्र लिखिने का मेरा मन नहीं था। इन सब
मतभेदों के होते हुए भी यदि आपका प्रेम मेरे प्रति पहले जैसा ही हो तो इसे मैं
बड़े आनंद का विषय समझूँगा।
आपका, विवेकानंद
अल्मोड़ा,
१ जून, १८९७
प्रिय श्री-
वेदों के विरुद्ध तुमने जो तर्क दिया है, वह अखंडनीय होता, यदि 'वेद' शब्द का
अर्थ 'संहिता' होता। भारत में यह सर्वसम्मत है कि 'वेद' शब्द में तीन भाग
सम्मिलित हैं-संहिता, ब्राह्मण और उपनिषद्। इनमें से पहले दो भाग कर्मकांड
संबंधी होने के कारण अब लगभग एक ओर कर दिए गए हैं। सब मतों के निर्माताओं तथा
तत्त्वज्ञानियों ने केवल उपनिषदों को ही ग्रहण किया है।
केवल संहिता ही वेद हैं, यह स्वामी दयानंद का शुरू किया हुआ बिल्कुल नया
विचार है, और पुरातन मतावलंबी या सतातनी जनता में इसको माननेवाला कोई नहीं है।
इस नए मत के पीछे कारण यह था कि स्वामी दयानंद यह समझते थे कि संहिता की एक
नई व्याख्या के अनुसार वे पूरे वेद का एक सुसंगत सिद्धांत निर्माण कर
सकेंगे। परंतु कठिनाइयाँ ज्यों की त्यों बनी रहीं, केबल वे अब ब्राह्मण भाग
के संबंध में उठ खड़ी हुई और अनेक व्याख्याओं तथा प्रक्षिप्तता की
परिकल्पनाओं के बावजूद भी बहुत कुछ शेष रह ही गयीं।
अब यदि संहिता के आधार पर एक समन्वयपूर्ण धर्म का निर्माण संभव हो सकता है तो
उपनिषदों के आधार पर एक समन्वयपूर्ण एवं सामंजस्यपूर्ण मत का निर्माण
सहस्त्र गुना अधिक संभव है। फिर इसमें पहले से स्वीकृत राष्ट्रीय मत के
विपरीत जाना भी नहीं पड़ेगा। यहाँ अतीत के सब आचार्य तुम्हारा साथ देंगे तथा
उन्नति के नए मार्गों का विशाल क्षेत्र तुम्हारे सामने खुला होगा?
नि:संदेह गीता हिंदुओं की बाइबिल बन चुकी है और वह इस मान के सर्वथा योग्य भी
है। परंतु श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व काल्पनिक कथाओं की कुहेलिका से ऐसा
आच्छादित हो गया है कि उनके जीवन से जीवनदायिनी स्फूर्ति प्राप्त करना आज
असंभव सा जान पड़ता है। दूसरे, वर्तमान युग में नई विचार-प्रणाली और नवीन जीवन
की आवश्यकता है। मैं आशा करता हूँ कि इससे तुम्हें इस ढंग से विचार सहायता
मिलेगी।
आशीर्वाद के साथ तुम्हारा,
विवेकानंद
प्रिय शुद्धानंद,
तुम्हारे पत्र से यह जानकर कि वहाँ सब कुशलपूर्वक हैं, तथा अन्य सब समाचार
विस्तारपूर्वक पढ़कर मुझे हर्ष हुआ। मैं भी अब पहले से अच्छा हूँ और शेष
तुम्हें सब डॉ. शशिभूषण से मालूम हो जाएगा। ब्रह्मानंद द्वारा संशोधित पद्धति
के अनुसार शिक्षा जैसी चल रही है, अभी वैसी ही चलने दो और भविष्य में यदि
परिवर्तन की आवश्यकता हो तो कर लेना। परंतु यह कभी न भूलना कि ऐसा
सर्वसम्मति ही से होना चाहिए।
आजकल में एक व्यापारी के बाग रह रहा हूँ, जो अल्मोड़े से कुछ दूर उत्तर में
है। हिमालय के हिम-शिखर मेरे सामने हैं, जो सूर्य के प्रकाश में रजत-राशि के
समान आभासित होते हैं, और ह्दय को आनंदित करते हैं। शुद हवा, नियमानुसार भोजन
और यथेष्ट व्यायाम करने से मेरा शरीर बलवान तथा स्वस्थ हो गया है। परंतु
मैंने सुना है कि योगानंद बहुत बीमार है। मैं उसको यहाँ आने के लिए निमंत्रित
कर रहा हूँ, परंतु वह पहाड़ की हवा और पानी, से डरता है। मैंने आज उसे यह लिखा
है कि 'इस बाग में कुछ दिन आकर रहो, और यदि रोग में कोई सुधार न हो तो तुम
कलकत्ते चले जाना।' आगे उसकी इच्छा।
अल्मोड़ा में रोज शाम को अच्युतानंद लोगों को एकत्र करता है और उन्हें गीता
तथा अन्य शास्त्र पढ़कर सुनाता है। बहुत से नगरवासी और छावनी से सिपाही
प्रतिदिन वहाँ आ जाते हैं। मैंने सुना है कि सब लोग उसकी प्रशंसा करते हैं।
'यावानर्थ...'
[1]
'इत्यादि श्लोक की जो तुमने बांग्ला में व्याख्या की है, वह मुझे ठीक नहीं
मालूम पड़ती।
तुम्हारी व्याख्या इस प्रकार की है-जब (पृथ्वी) जल से आप्लावित हो जाती
है, तब पीने की पानी क्या आवश्यकता ?
यदि प्रकृति का ऐसा नियम हो कि पृथ्वी के जल से आप्लावित हो जाने पर पानी
पीना व्यर्थ हो जाए, और यदि वायु-मार्ग से किसी विशेष अथवा और किसी गुप्त
रीति से लोगों की प्यास बुझ सके, सभी यह अद्भुत व्याख्या संगत हो सकती है,
अन्यथा नहीं। तुम्हें श्री शंकराचार्य का अनुसरण करना चाहिए। या तुम इस
प्रकार भी व्याख्या कर सकते हैं:
जैसे कि, जब बड़े भूमि-भाग जल से आप्लावित हुए रहते हैं, तब भी छोटे-छोटे
तालाब प्यासे मनुष्यों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं (अर्थात् उसके लिए
थोड़ा सा जल भी पर्याप्त होता है और वह मानो कहता है, इस विपुल जल-राशि को
रहने दो, मेरा काम थोड़े जल से ही चल जाएगा)-इसी प्रकार विद्वान ब्राह्मण के
लिए संपूर्ण वेद उपयोगी होते हैं। जैसे भूमि के जल में डूबे हुए होने के
बावजूद भी हमें केवल पानी पीने से मतलब है और कुछ नहीं, इसी प्रकार वेदों से
हमारा अभिप्राय है केवल ज्ञान की प्राप्ति से है।
एक और व्याख्या है जिससे ग्रंथकर्ता का अर्थ अधिक योग्य रीति से समझ में
आता है: जब भूमि जल से आप्लावित होती है, तब भी लोग हितकर और पीने योग्य जल
की ही खोज करते हैं, और दूसरे प्रकार के जल की नहीं। भूमि के पानी से
आप्लावित होने पर भी उस पानी के अनेक भेद होते हैं, और उसमें भिन्न गुण और
धर्म पाये जाते हैं। आश्रयभूत भूमि के गुण एवं प्रकृति के अनुसार होते हैं।
इसी प्रकार बुद्धिमान ब्राह्मण भी अपनी संसार-तृष्णा को शांत करने के लिए उस
शब्द-समुद्र में से-जिसका नाम वेद है तथा जो अनेक प्रकार के ज्ञान-प्रवाहों
से पूर्ण है-उसी धारा को खोजेगा जो उसे मुक्ति के पथ में जे जाने के लिए समर्थ
हो। और वह ज्ञान-प्रवाह ब्रह्मज्ञान ही है, जो ऐसा कर सकता है।
आशीर्वाद और शुभकामनाओं सहित,
तुम्हारा,
विवेकानंद
(मेरी हेल्बॉयस्टर को लिखित)
अल्मोड़ा,
२ जून, १८९७
प्रिय मेरी,
मैं अपना बड़ा गप्पी पत्र, जिसके लिए वादा कर चुका हूँ, आरंभ कर रहा हूँ।
इसकी वृद्धि का पूरा इरादा है और यदि यह इसमें विफल होता है तो तुम्हारे ही
कर्मों का दोष होगा। मुझे विश्वास है कि तुम्हारा स्वास्थ्य बहुत अच्छा
होगा। मेरा स्वास्थ्य बहुत ज्यादा खराब रहा है: अब थोड़ा सुधर रहा है आशा
है, शीघ्र चंगा हो जाऊँगा।
लंदन के कार्य का क्या हाल है ? मुझे आशंका है कि वह चौपट हो रहा है। क्या
तुम यदा-कदा लंदन जाती हो ? क्या स्टर्डी को नया बच्चा पैदा हुआ ? आजकल तो
भारत का मैदानी प्रदेश आग सा तप रहा है। मैं वह गरमी बर्दाश्त नहीं कर सकता।
इसलिए मैं इस पर्वतीय स्थान पर हूँ। मैदानों की अपेक्षा यह थोड़ा ठंडा है।
मैं एक सुंदर बाग में रहता हूँ, जो अल्मोड़े के एक व्यापारी का है-बाग कई
मील तक पहाड़ों और वनों को स्पर्श करता है। परसों रात में एक चीता यहाँ आ
धमका और बाग में रखी गई भेड़ों-बकरियों के झुंड से एक बकरा उठा ले गया। नौकरों
का शोरगुल और रखवाली करनेवाले तिब्बती कुत्तों का भूँकना बड़ा ही भयावह था।
जब से मैं यहाँ ठहरा हूँ, तब से ये कुत्ते रात भर कुछ दूरी पर जंजीरों से
बांधकर रखे जाते हैं, ताकि उनके भूँकने की जोर की आवाज से मेरी नींद में बाधा
न पड़े। इससे चीते का दाँव बैठ गया और उसे बढ़िया भोजन मिल गया-शायद हफ्तों
बाद। इससे उसका खूब भला हो !
क्या तुम्हें कुमारी मूलर की याद है ? वे यहाँ कुछ दिनों के लिए आयी हैं और
जब उन्होंने चीतेवाली घटना सुनी तो डर सी गयीं। लंदन में सिखायी हुई खालों की
बड़ी माँग जान पड़ती है अन्य बातों की अपेक्षा इस कारण हमारे यहाँ के चीतों
और बाधों पर विपत्ति उमड़ पड़ी है।
इस वक्त जब मैं तुम्हें पत्र लिख रहा हूँ, तब मेरे सम्मुख विशाल बर्फी़ली
चोटियों की लंबी क़तारें खड़ी दिखायी पड़ रही हैं, जो अपराह्न की तापोज्ज्वलता
परावर्तित कर रही हैं। यहाँ से नाक की सीध में वे लगभग बीस मीस दूर है और
चक्करदार पहाड़ी मार्गों से जाने पर वे चालीस मील दूर पड़ेंगी।
मुझे आशा है कि काउंटेस के पत्र में तुम्हारे अनुवादों का अच्छा स्वागत
हुआ। अपने यहाँ के कुछ देशी नरेशों के साथ इस उत्सव-काल में लंदन आने का मेरा
बड़ा मन था और अच्छा अवसर थी मिला था, किंतु मेरे चिकित्सकों ने इतनी जल्दी
काम का जोखिम उठाने की अनुमति मुझे नहीं दी। क्योंकि यूरोप जाने का अर्थ है
कार्य, है न ? कार्य नहीं तो रोटी नहीं।
यहाँ गेरूआ वस्त्र काफ़ी है और इससे पर्याप्त भोजन मुझे सुलभ हो जाएगा। जो
हो, अति वांछनीय विश्राम ले रहा हूँ, आशा है, इससे मुझे लाभ होगा।
तुम्हारा कार्य कैसा हो रहा है ? खुशी के साथ या अफ़सोस के साथ ? क्या तुम
पर्याप्त विश्राम करना पसंद नहीं करती-मान लो कुछ साल का विश्राम-और कोई काम
न करना पड़े ? सोना, खाना और क़सरत करना: कसरत करना, खाना और सोना-यही आगे कुछ
महीनों तक मैं करने जा रहा हूँ। श्री गुडविन मेरे साथ हैं। तुमको उन्हें
भारतीय पोशाक में देखना चाहिए। मैं बहुत जल्द उनका मूढ़ मुडवाकर उन्हें पूरा
संन्यासी बनाने जा रहा हूँ।
क्या तुम अब भी कुछ योगाभ्यास कर रही हो ? क्या उससे तुम्हें कुछ लाभ
मालूम पड़ता है ? मुझे पता लगा है कि श्री मार्टिन का देहांत हो गया। श्रीमती
मार्टिन का क्या हाल है-क्या कभी कभी उनसे मिलती हो ?
क्या तुम कुमारी नोबल को जानती हो ? कभी उनसे मिलती हो ? यहाँ मेरे पत्र का
अंत होता है, क्योंकि भारी अंधड़ चल रहा है और लिखना असंभव है। प्रिय मेरी,
यह सब तुम्हारा कर्म-दोष है, क्योंकि मैं तो बहुत सी अद्भुत बातें लिखना
चाहता था और तुम्हें ऐसी सुंदर कहानियाँ सुनाना चाहता था: परंतु उन्हें
भविष्य के लिए मुझे स्थगित करना पड़ेगा और तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
तुम्हारा सदैव प्रभुपदाश्रित,
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
अल्मोड़ा,
३ जून, १८९७
प्रिय कुमारी नोबल,
... जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। मैंने बहुत से
स्वदेशवासियों को जाग्रत कर दिया है, और यही मैं चाहता था। अब जो कुछ होना
है, होने दो: कर्म के नियम को अपनी गति के अनुसार चलने दो। मुझे यहाँ इस लोक
इस लोक में कोई बंधन नहीं है। मैंने जीवन देखा है और वह सब स्वार्थ के लिए है
जीवन स्वार्थ के लिए, प्रेम स्वार्थ के लिए, मान स्वार्थ के लिए, सभी चीज़ें
स्वार्थ के लिए। मैं पीछे दृष्टि डालता हूँ तो यह नहीं पाता कि मैंने कोई भी
कर्म स्वार्थ के लिए किया है। यहाँ तक कि मेरे बुरे कर्म भी स्वार्थ के लिए
नहीं थे। अतएव मैं संतुष्ट हूँ: यह बात नहीं कि मैं समझता हूँ कि मैंने कोई
विशेष महत्वपूर्ण या अच्छा कार्य किया है, परंतु संसार इतना क्षुद्र है,
जीवन इतना तुच्छ और जीवन में इतनी, इतनी विवशता है-कि मैं मन ही मन हँसता हूँ
और आश्चर्य करता हूँ कि मनुष्य, जो कि विवेकी जीव है, इस क्षुद्र स्वार्थ
के पीछे भागता है-ऐसी कुत्सित एवं घृणित वस्तु के लिए लालायित रहता है।
यही सत्य है। हम एक फंदे में फंस गए हैं, और जितनी जल्दी उससे निकल सकेंगे,
उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा। मैंने सत्य का दर्शन कर लिया है-अब यदि यह
शरीर ज्वार-भाटे के समान बहता है तो मुझे क्या चिंता !
जहाँ मैं अभी रह रहा हूँ, वह एक सुंदर पहाड़ी उद्यान है। उत्तर में, प्राय:
क्षितिज पर्यंत विस्तृत हिमाच्छादित हिमालय के शिखर पर शिखर दिखायी देते
हैं। वे सघन वन से परिपूर्ण हैं। यहाँ न ठंड है, न अधिक गर्मी: प्रात: और सायं
अत्यंत मनोहर है। मैं गर्मी में यहाँ रहूँगा और वर्षों के आरंभ में काम करने
नीचे जाना चाहता हूँ।
मैंने विद्यार्थी जीवन के लिए जन्म् लिया था-एकान्त और शांति से अध्ययन में
लीन होने के लिए। किंतु जगदंबा का विधान दूसरा ही है। फिर भी वह प्रवृत्ति अभी
भी है।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित)
अल्मोड़ा,
विवेकानंद
अभिन्नह्दय,
तुमने चारु का जो पत्र भेजा है, उसके बारे में मेरी पूरी सहानुभूति है।
महारानी जी को मानपात्र दिया जाएगा, उसमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना
आवश्यक है:
1. वह सभी अतिशयोक्तिपूर्ण कथनों से मुक्त होना चाहिए, दूसरे शब्दों में 'आप
ईश्वर की प्रतिनिधि हैं' इत्यादि (व्यर्थ बातों) का उल्लेख, जैसा कि हम
देशवासियों के लिए आम हो गया है, नहीं होना चाहिए।
2. आपके राज में सभी धर्मों की सुरक्षा होने के कारण भारतवर्ष तथा इंग्लैंड
में हम लोग निर्भयता के साथ अपने वेदांत मत का प्रचार करने में समर्थ हुए हैं।
3. दरिद्र भारतवासी के प्रति उनकी दया का उल्लेख, जैसे कि दुर्भिक्ष-कोश में
स्वयं दान देकर अंग्रेज़ों को अपूर्व दान के प्रति प्रोत्साहित करना।
4. उनके दीर्घ जीवन तथा उनके राज्य में प्रजाओं की उत्तरोत्तर सुख-समृद्धि की
कामना व्यक्त करना।
मानपत्र शुद्ध अंग्रेज़ी में लिखकर अल्मोड़ा के पते पर मुझे भेज दो। मैं उसमें
हस्ताक्षर कर शिमला भेज दूँगा। शिमला में इसे किस के पास भेजना होगा, लिखना।
सस्नेह,
विवेकानंद
पुनश्च-शुद्धानंद से कहो कि वह प्रति सप्ताह मठ से मुझे जो पत्र लिखता है,
उसकी एक प्रतिलिपि रख लिया करे।
(स्वामी अखण्डानंद को लिखित)
अल्मोड़ा,
१५ जून, १८९७
कल्याणबरेषु,
तुम्हारे समाचार मुझे विस्तारपूर्वक मिलते जा रहे हैं, और मेरा आनंद
अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है। इसी प्रकार के कार्य द्वारा जगत् पर विजय प्राप्त
की जा सकती है। संप्रदाय और मत का अंतर क्या अर्थ रखते हैं ? शाबाश मेरे
लाखों आलिगन और आशीर्वाद स्वीकार करो। कर्म, कर्म-मुझे और किसी चीज़ की परवाह
नहीं है। मृत्युपर्यंत कर्म, कर्म! जो दुर्बल है, उन्हें अपने आप को महान्
नेता बनाना है धन की चिंता न करो, वह आसमान से बरसेगा। जिनका दान तुम स्वीकार
करते हो, उन्हें अपने नाम से देने दो, इसमें कुछ हानि नहीं। किसका नाम और
किसका महत्त्व क्या है ? उसे अलग रख दो! यदि भूखों को भोजन का ग्रास देने में
नाम, संपत्ति और सब कुछ नष्ट हो जायँ तब भी-अहो भाग्यमहो भाग्यम् 'तब भी
बड़ा भाग्य है'-अत्यंत भाग्यशाली हो तुम! ह्दय और केवल ह्रदय ही विजय
प्राप्त कर सकता है, मस्तिष्क नहीं। पुस्तकें और विद्या, योग, ध्यान और
ज्ञान-प्रेम की तुलना में ये सब धूलि के समान है। प्रेम से अलौकिक शक्ति मिलती
है, प्रेम से भक्ति उत्पन्न होती है, प्रेम ही ज्ञान देता है, और प्रेम ही
मुक्त्िा की ओर ले जाता है। वस्तुत: यही उपासना है-मानव शरीर में स्थित
ईश्वर की उपासना! नेदं यदिदसुपासते 'वह (अर्थात् ईश्वर से
भिन्न वस्तु) नहीं, जिसकी लोग उपासना करते हैं।' यह तो अभी आरंभ ही है, और
जब तक हम इसी प्रकार पूरे भारत में, नहीं, नहीं, संपूर्ण पृथ्वी पर न फैल
जाये, तब तक हमारे प्रभु का माहात्म्य ही क्या है!
लोगों को देखने दो कि हमारे प्रभु के चरणों के स्पर्श से मनुष्य को देवत्व
प्राप्त होता है या नहीं! जीवन्मुक्ति इसीका नाम है, जब अहंकार और स्वार्थ
का चिह्न भी नहीं रहता।
शाबाश! श्री प्रभु की जय हो! क्रमश: भिन्न स्थानों में जाओ। यदि हो सके तो
कलकत्ते जाओ, लड़कों की एक अन्य टोली की सहायता से धन एकत्र करो: उनमें से
दो-एक को एक स्थान में लगाओ, और फिर किसी और स्थान से कार्य आरंभ करो। इस
प्रकार धीरे-धीरे फैलते जाओ और उनका निरीक्षण करते रहो। कुछ समय के बाद तुम
देखोगे कि काम स्थायी हो जाएगा और धर्म तथा शिक्षा का प्रसार इसके साथ स्वयं
हो जाएगा। मैंने कलकत्ते में उन लोगों को विशेष रूप से समझा दिया है। ऐसा ही
काम करते रहो तो मैं तुम्हें सिर-आँख पर चढ़ाने के लिए तैयार हूँ। शाबाश! तुम
देखोगे कि धीरे-धीरे हर जिला केंद्र बन जाएगा-और वह भी स्वामी केंद्र। मैं
शीघ्र ही नीचे (plains) जानेवाला हूँ। मैं योद्धा हूँ और रणक्षेत्र में ही
मरूँगा। क्या मझे वहाँ पर्दानशीन औरत की तरह बैठना शोभा देता है?
सप्रेम तुम्हारा,
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
अल्मोड़ा,
२० जून, १८९७
प्रिय कुमारी नोबल,
मैं निष्कपट भाव से तुम्हें यह लिख रहा हँ। तुम्हारी प्रत्येक बात मेरे
समीप मूल्यवान है तथा तुम्हारा प्रत्येक पत्र मेरे लिए अत्यंत आकांक्षा की
वस्तु है। जब इच्छा तथा सुविधा हो मुझे नि:संकोच लिखना: यह सोचकर कि मैं
तुम्हारी एक भी बात को गलत न समझूंगा तथा किसी भी बात की उपेक्षा न करूँगा
बहुत दिनों से मुझे कार्य का कोई विवरण नहीं मिला है। क्या तुम कोई समाचार
भेज सकती हो ? भारत में मुझको लेकर कितना भी उत्साह क्यों न दिखाया जाए,
मुझे यहाँ से किसी प्रकार की सहायता की आशा नहीं है, क्योंकि भारत के लोग
अत्यंत गरीब हैं।
फिर भी मैंने जैसी शिक्षा पायी थी, ठीक वैसे ही पेड़ों के नीचे, किसी प्रकार
से खाने-पीने की व्यवस्था कर कार्य प्रारंभ कर दिया है। काम की योजना भी
थोड़ी बदली है। मैंने अपने कुछ बालकों को दुर्भिक्ष पीड़ित स्थलों पर भेजा है।
इससे जादू-मंत्र जैसा असर हुआ है। मैं यह देख रहा हूँ, जैसी कि मेरी चिर काल
से धारणा रही है कि हृदय, केवल हृदय के द्वारा ही संसार के मर्म को छुआ जा
सकता है। अत: इस समय अधिक संख्या में युवकों को प्रशिक्षित करने की योजना है,
(अभी उच्च श्रेणी से लेकर ही कार्यरंभ करने का विचार है: निम्न श्रेणी को
लेकर नहीं, क्योंकि उनके लिए हमें अभी कुछ दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी) और
उनमें से कुछ को किसी एक जिले में भेजकर अपना पहला आक्रमण शुरू करना है। धर्म
के इन मार्ग-प्रशस्तकों द्वारा जब मार्ग साफ हो जाएगा तब तत्त्व एवं दर्शन के
प्रचार का समय आएगा।
कुछ लड़कों को इस समय शिक्षा दी जा रही है; किंतु कार्य चालू करने के लिए जो
जीर्ण आवास हमें प्राप्त हुआ था, गत भूकंप में वह एकदम नष्ट हो चुका है,
गनीमत सिर्फ इतनी थी कि वह किराये का था। खैर चिंता की कोई बात नहीं। मुसीबत
और आवास के अभाव में भी काम चालू रखना है।...अब तक मुंडित मस्तक, छिन्न
वस्त्र तथा अनिश्चित आहार मात्र ही हमारा सहारा रहा है। किंतु इस परिस्थिति
में परिवर्तन आवश्यक है और इसमें संदेह नहीं कि परिवर्तन अवश्य होगा, क्योंकि
हम लोगों ने पूर्ण आंतरिकता के साथ इस कार्य में योग दिया है।
यह सच है कि इस देश के लोगों के पास त्याग करने लायक कोई वस्तु नहीं है। फिर
भी त्याग हमारे खून में विद्यमान है। जिन लड़कों को शिक्षा दी जा रही है,
उनमें से एक किसी जिले का एक्जिक्यूटिव इंजीनियर था। भारत में यह पद एक उच्च
स्थान रखता है। उसमें उसे तिनके की तरह त्याग दिया!...
मेरा असीम प्यार,
भवदीय,
विवेकानंद
(स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित)
अल्मोड़ा,
२० जून, १८९७
अभिन्नह्रदय,
तुम्हारा स्वास्थ्य पहले की अपेक्षा ठीक है, यह जानकर खुशी हुई। योगेन भाई की
बातों पर ध्यान देना बेकार है। वे शायद ही कभी कोई ठीक बात कहते हों। मैं अब
पूर्ण स्वस्थ हूँ। शरीर में ताकत में ताकत भी खूब है: प्यास नहीं लगती तथा
रात में पेशाब के लिए उठना भी नहीं पड़ता।... कमर में कोई दर्द-वर्द नहीं है:
लीवर की क्रिया भी ठीक है। शशि को दवा से मुझे कोई खास असर होने का पता नहीं
चला अत: वह दवा लेना मैंने बंद कर दिया है। पर्याप्त मात्रा में आम खा रहा
हूँ। घोड़े की सवारी का अभ्यास भी विशेष रूप से चालू है-लगातार बीस तीस मील
तक दौड़ने पर भी किसी प्रकार के दर्द अथवा थकावट का अनुभव नहीं होता। पेट
बढ़ने की आशंका से दूध लेना कतई बंद है।
कल अल्मोड़ा पहुँचा हूँ। पुन: बगीचे में लौटने का विचार नहीं है। अब से मिस
मूलर के अतिथि-रूप में अंग्रेज़ी कायदे के अनुसार दिन में तीन बार भोजन किया
करूँगा। किराये पर मकान लेने की व्यवस्यादि जो कुछ आवश्यक हो, करना! इस
बारे में मुझसे इतनी पूछ-ताछ क्यों की जा रही है ? शुद्धानंद ने लिखा है कि
Ruddock's Practice of Medicine या ऐसा ही कुछ पढ़ाया जा रहा है। कक्षा में
ऐसी बेकार की चीज़ों की पढ़ाई की क्या सार्थकता है ?, सेट भौतिक शास्त्र तथा
रसायन शास्त्र के साधारण पिंड के एवं एक दूरबीन तथा एक अणुवीक्षण यत्र की
व्यवस्था १५०) से २००) रुपये में हो सकती है। शशि बाबू सप्ताह में एक दिन
प्रायोगिक रसायन के विषय में तथा हरिप्रसन्न भौतिक शास्त्र के विषय में
लेक्चर दे सकते हैं। साथ ही बांग्ला में विज्ञान संबंधी जितनी भी अच्छी
पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, उन्हें खरीदना तथा उनकी पढ़ाई की व्यवस्था
करना। किमधिकमिति।
सस्नेह,
विवेकानंद
ऊँ नमो भगवते रामकृष्णाय
जिनकी शक्ति से हम सब लोग तथा समस्त जगत् कृतार्थ हैं, उन शिवस्वरूप,
स्वतंत्र, ईश्वर श्री रामकृष्ण की मैं सदैव वंदना करता हूँ।
अल्मोड़ा,
३ जुलाई, १८९७
आयुष्मन् शरच्चन्द्र,
शास्त्रों के वे रचनाकार जो कर्म की ओर रूचि नहीं रखते, कहते हैं कि
सर्वशक्तिमान भावी प्रबल है: परंतु दूसरे लोग जो कर्म करनेवाले हैं, समझते है
कि मनुष्य की इच्छा-शक्ति श्रेष्ठतर है। जो मानवी इच्छा-शक्ति को दु:ख
हरनेवाला समझते हैं, और जो भाग्य का भरोसा करते हैं, इन दोनों पक्षों की
लड़ाई का कारण अविवेक समझो और ज्ञान की उच्चतम अवस्था में पहुँचने का
प्रयत्न करो।
यह कहा गया है कि विपत्ति सच्चे ज्ञानकी कसौटी है, और यही बात, 'तत्त्वमसि'
(तू वह है) की सच्चाई के बारे में हज़ार गुना अधिक कही जा सकती है। यह
वैराग्य की बीमारी का सच्चा निदान है। धन्य जिनमें यह लक्षण पाया जाता है।
हालाँकि यह तुम्हें बुरा लगता है, फिर भी मैं यह कहावत दुहराता हूँ, 'कुछ देर
प्रतीक्षा करो।' तुम खेते-खेते थक गए हो, अब डांड़ पर आराम करो। गति के आवेग
से नाव उस पार पहुँच जाएगी। यही गीता में कहा है- तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति अर्थात् 'उस
ज्ञान को शुद्धान्त:करणवाला साधक समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा स्वयं अपनी
आत्मा में यथा समय अनुभव' करता है।' और उपनिषद् में कहा है-न धनेन न प्रजया त्यागेनेके अमृतत्वमानशु: अर्थात् 'न धन से,
संतान से, वरन् केवल त्याग से ही अमरत्व प्राप्त हो सकता है' (कैवल्य २)
यहाँ 'त्याग' शब्द से वैराग्यका संकेत किया गया है। यह दो प्रकारका हो सकता
है-उद्देश्यपूर्ण और उद्देश्यहीन। यदि दूसरी प्रकार का हो तो उसके लिए केवल
वही यत्न करेगा, जिसका दिमाग सड़ चुका हो: परंतु यदि पहले से अभिप्राय हो तो
वैराग्य का अर्थ होगा कि मन को अन्य वस्तुओं से हटाकर भगवान् या आत्मा में
लीन कर लेना। सबका स्वामी (परमात्मा) कोई व्यक्ति विशेष नहीं हो सकता, वह
तो समष्टिरूप ही होगा। वैराग्यवान मनुष्य आत्मा शब्द का अर्थ व्यक्तिगत
'मैं' न समझकर, उस सर्वव्यापी ईश्वर को समझता है, जो अंत: करण में अंतनियामक
होकर सब में वास कर रहा है। वे समष्टि के रूप में सबको प्रतीत हो सकते हैं। इस
प्रकार जब जीव और ईश्वर स्वरूपत: अभित्र हैं, तब जीवों की सेवा और ईश्वर से
प्रेम करने का अर्थ एक ही है। यहाँ एक विशेषता है। जब जीव को जीव समझकर सेवा
की जाती है, तब वह दया है, प्रेम नहीं : परंतु जब उसे आत्मा समझकर सेवा की
जाती है, तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही एकमात्र प्रेम का पात्र है, यह
श्रुति, स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। भगवान् चैतन्य देव ने
इसलिए यह ठीक ही कहा था-'ईश्वर से प्रेम और पर दया।' वे द्वैतवादी थे, इसलिए
जीव और ईश्वर में भेद करने का उनका निर्णय अनुरूप ही था। परंतु हम अद्वैतवादी
हैं। हमारे लिए जीव को ईश्वर से पृथक, समझना ही बंधन का कारण है। इसलिए हमारा
मूल तत्त्व प्रेम होना चाहिए,नकि दया। मुझे तो जीवों के प्रति 'दया' शब्द का
प्रयोग विवेकरहित और व्यर्थ जान पड़ता है। हमारा धर्म करुणा करना नहीं, सेवा
करना है। दया की भावना हमारे योग्य नहीं, हमसें प्रेम एवं समष्टि में
स्वानुभव की भावना होनी चाहिए।
जिस वैराग्य का भाव प्रेम है, जो समस्त भित्रता को एक कर देता है, जो
संसाररूपी रोग को दूर कर देता है, जो इस नश्वर संसार के त्रय-तापों को मिटा
देता है, जो सब चीज़ों के यथार्थ रूप को प्रकट करता है, जो माया अंधकार को
विनष्ट करता है, और घास के तिनके से लेकर ब्रह्मा तक सब चीज़ों में आत्मा का
स्वरूप दिखाता है, वह वैराग्य, हे शर्मन्, अपने कल्याण के लिए तुम्हें
प्राप्त हो। मेरी यह निरंतर प्रार्थना है।
तुम्हें सदैव प्यार करने वाला,
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित
)
अल्मोड़ा,
४ जुलाई, १८९७
प्रिय कुमारी नोबल,
आश्चर्य की बात है कि आजकल इंग्लैंड से मेरे ऊपर भले-बुरे दोनों ही प्रकार के
प्रभावों की क्रियाएँ जारी हैं... परंतु तुम्हारे पत्र उज्जवल तथा
उत्साहपूर्ण है एवं उनसे मेरे ह्रदय में शक्ति तथा आश का संचार होता है,
जिसके लिए मेरा ह्रदय इस समय अत्यंत लालायित है। यह प्रभु ही जानते हैं।
यद्यपि मैं अभी तक हिमालय में हूँ तथा कम से कम एक माह तक और भी रहने का विचार
है, पर यहाँ आने से पूर्व, ही मैंने कलकत्ते में कार्य प्रारंभ करा दिया तथा
प्रति सप्ताह वहाँ के कार्य का विवरण मिल रहा है।
इस समय मैं दुर्भिक्ष के कार्य में व्यस्त हूँ तथा कुछ एक युवकों को भविष्य
के कार्य के लिए प्रशिक्षित करने के सिवा शिक्षा-कार्य में अधिक जान नहीं डाल
पाया हूँ। दुर्भिक्ष-ग्रस्त लोगों के लिए भेाजन की व्यवस्था करने में ही
मेरी सारी शक्ति एवं पूँजी समाप्त होती जा रही है। यद्यपि अब तक अत्यंत
समान्य रूप से ही मुझे कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ है, फिर भी आशातीत
परिणाम दिखायी दे रहा है। बुद्धदेव के बाद से यह पहली बार पुन: देखने को मिल
रहा है कि ब्राह्मण संतानें हैजाग्रस्त की शैय्या के निकट उनकी सेवा-शुश्रूषा
में संलग्न हैं।
भारत में वक्तृता तथा शिक्षा से कोई कार्य नहीं होगी। इस समय सक्रिय धर्म की
आवश्यकता है। मुसलमानों की भाषा में कहना हो तो कहूँगा कि यदि 'खुदा की मर्जी
हुई' तो मैं यही दिखाने के लिए कमर कसकर बैठा हूँ।... तुम्हारी समिति की
नियमावली से मैं पूर्णतया सहमत हूँ: और विश्वास करो, भविष्य में तुम जो कुछ
भी करोगी उसमें मेरी सम्मति होगी। तुम्हारी योग्यता तथा सहानुभूति पर मझे
पूर्ण विश्वास है। पहले से ही तुम्हारे समीप अशेष रूप से ऋृणी का भार बढ़ाती
ही जा रही हो। मुझे इसी का संतोष है कि यह सब कुछ दूसरों के हित के लिए है।
अन्यथा विंबलडन के मित्रों ने मेरे प्रति अपूर्व अनुग्रह प्रकट किया है, मैं
सर्वथा उसके अयोग्य हूँ। तुम अत्यंत सज्जन, धीर तथा सच्चे अंग्रेज़ लोग
हो-भगवान् तुम्हारा सदा मंगल करें। दूर रह कर भी मैं प्रतिदिन तुम्हारा
अधिकारिक गुण-ग्राही बनता आ रहा हूँ। कृपया...तथा वहां के मेरे सब मित्रों को
मेरा चिर स्नेह व्यक्त करना। संपूर्ण स्नेह के साथ,
भवदीय, चिरसत्याबद्ध,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल की लिखित)
अल्मोड़ा,
९ जुलाई, १८९७
प्रिय बहन,
तुम्हारे पत्र की पंक्तियों में जो निराशा का भाव झलक रहा है, उसे पढ़कर मुझे
बड़ा दु:ख हुआ। इसका कारण मैं समझता हूँ। तुम्हारी चेतावनी के लिए धन्यवाद,
मैं उसका उद्देश्य भलीभांति समझ गया हूँ। मैंने राजा अजित सिंह के साथ
इंग्लैंड जाने का प्रबंध किया था, पर डॉक्टरों की मनाही के कारण, ऐसा न हो
सका। मुझे यह सुनकर अत्यंत हर्ष होगा कि हैरियट उनसे मिली। वे तुममें से किसी
से भी मिलकर बहुत प्रसन्न होंगे।
मुझे अमेरिका के कई एक अखबारों की बहुत सी कटिंग मिली, जिनमें अमेरिका की
नारियों के संबंध में मेरे विचारों की भीषण निंदा की गई है। मझे यह अनोखी खबर
भी दी गई है कि अपनी जाति से निकाल दिया गया हूँ ! जैसे मेरी जाति भी थी जिससे
मैं निकाला जाऊं ! संन्यासी की जाति कैसी ?
जातिच्युत होना तो दूर रहा, मेरे पश्चिमी देशों में जाने से यहां
समुद्र-यात्रा के विरुद्ध जो भाव थे, वे बहुत कुछ दब गए। यदि मुझे जातिच्युत
होना पडता तो साथ ही साथ भारत के आधे नरेशों और प्राय: सारे शिक्षित समुदाय को
भी वैसा ही होना पडता। यह तो हुआ नहीं, उल्टे मेरे पूर्वाश्रम की जाति के एक
विशिष्ट राजा ने मेरी अभ्यर्थना के लिए एक दावत की जिसमें उस जाति के
अधिकांश बड़े-बड़े लोग उपस्थित थे। भारत में संन्यासी जिस किसी के साथ भोजन
नहीं करते, क्योंकि देवताओं के लिए मनुष्यों के साथ खान-पान करना
अमर्यादासूचक है। संन्यासी नारायण समझे जाते हैं, जबकि दूसरे केवल मनुष्य।
प्रिय मेरी, अनेक राजाओं के वंशधरों ने इन पैरों को धोया, पोंछा और पूजा है,
और देश के एक छोर से दूसरे छोर तक मेरा ऐसा सत्कार होता रहा, जो किसी को
प्राप्त नहीं हुआ।
इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जब मैं रास्तों में निकलता था, तब शांति
रक्षा के लिए पुलिस की ज़रूरत पड़ती थी! जातिच्युत करना इसे ही कहते होंगे!
हाँ इससे पादरियों के हाथ के तोते अवश्य उड़ गए। यहाँ वे हैं ही कौन? कुछ भी
नहीं। हमें उनके अस्तित्व की खबर ही नहीं रहती। बात यह हुई कि अपनी एक
वक्तृता में मैंने इंग्लिश चर्चवाले सज्जनों को छोड़ बाकी कुल पादरियों तथा
उनकी उत्पत्ति के बारे में कुछ कहा था। प्रसंगवश मुझे अमेरिका की उत्यनत
धार्मिक स्त्रियों और उनकी बुरी अफवाह फैलाने की शक्ति का भी उल्लेख करना
पड़ा था। मेरे अमेरिका के कार्य को बिगाड़ने के लिए, इसीको पादरी लोग सारी
अमेंरिकन स्त्री जाति पर लांछन कहकर शोर मचा रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं
कि अपने विरुद्ध जो कुछ भी कहा जाए, वह अमेरिकावासियों को पसन्द ही होगा।
प्रिय मेरी, अगर मान भी जिया जाए कि मैंने अमेरिकनों के विरुद्ध सब तरह की
कड़ी बातें कही हैं तो भी क्या वे हमारी माताओं और बहनों के बारे में कही गई
घृणित बातों के लक्षांश को भी चुका सकेंगे ? ईसाई अमेरिकन नर-नारी हमें भारतीय
बर्बर कहकर जो घृणा का भाव रखते हैं, क्या सात समुद्रों का जल भी उसे बहा
देने में समर्थ होगा ? और हमने उनका बिगाड़ा ही क्या है ? अमेरिकावासी पहले
अपनी समालोचना धैर्य रखना सीखें, तब दूसरों की समालोचना करें। यह सर्वविदित
मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जो लोग दूसरों को गाली-गलौज करने में बड़े तत्पर
रहते हैं, वे उनके द्वारा अपनी तनिक भी समालोचना सहन नहीं कर सकते। फिर उनका
मैं कर्जदार थोड़े ही हूँ । तुम्हारे परिवार, श्रीमती बुल, लेगेट परिवार और
दो-चार सह्रदय जनों को छोड़ कौन मुझ पर मेहरबान रहा है ? अपने विचारों को
व्यावहारिक रूप देने में किसने मेरा हाथ बटाया ? मुझे परिश्रम करते करते
प्राय: मौत का सामना करना पड़ा है। मुझे अपनी सारी शक्तियाँ अमेरिका में खर्च
करनी पड़ी, केवल इसलिए कि वहाँ वाले अधिक उदार और आध्यात्मिक होना सीखें।
इंग्लैंड में मैंने केवल छ: ही महीने काम किया। वहाँ किसीने मेरी निंदा नहीं
की, सिवा एक के और वह भी एक अमेरिकन स्त्री की करतूत थी, जिसे जानकर मेरे
अंग्रेज़ मित्रों को तसल्ली मिली। दोष लगाना तो दूर रहा, इंग्लिश चर्च के
अनेक अच्छे पादरी मेरे पक्के दोस्त बने और बना माँगे मुझे अपने कार्य के
लिए बहुत सहायता मिली तथा भविष्य में और उसके मिलने की पूरी आशा है। वहाँ एक
समिति मेरे कार्य की देखभाल कर रही है और उसके लिए धन इकट्ठा कर रही है। वहाँ
के चार प्रतिष्ठित व्यक्ति मेरे काम में सहायता करने के लिए मेरे साथ भारत आए
हैं। दर्जनों और तैयार ये और फिर जब मैं वहाँ जाउँगा, सैकड़ों तैयार मिलेंगे।
प्रिय मेरी, मेरे लिए तुम्हें भय की कोई बात नहीं। अमेरिका के लोग बड़े हैं,
केवल यूरोप के होटलवालों और करोड़पतियों तथा अपनी दृष्टि में। संसार बहुत बड़ा
है, और अमेरिका वालों के रुष्ट हो जाने पर भी मेरे लिए कोई न कोई जगह जरूर
रहेगी। कुछ भी हो, मुझे अपने कार्य से बड़ी प्रसन्नता है। मैंने कभी कोई
मंसूबा नहीं बाँधा। चीजें जैसी सामने आती गयीं, मैं भी उनको वैसे ही स्वीकार
करता गया। केवल एक चिंता मस्तिष्क में दहक रही थी-वह यह कि भारतीय जनता को
ऊँचा उठानेवाले यंत्र को चालू कर दूँ और इस काम में मैं किसी हद तक सफल हो सका
हूँ। तुम्हारा ह्रदय यह देखकर आनंद से प्रफुल्लित हो जाता कि किस तरह मेरे
लड़के दुर्भिक्ष, रोग और दु:ख-दर्द के बीच काम कर रहे हैं-हैजे से पीड़ित
पैरिया की चटाई के पास बैठे उसकी सेवा कर रहे हैं, भूखे चांडाल को खिला रहे
हैं-और प्रभु मेरी और उन सबकी सहायता कर रहे हैं। मनुष्य क्या है ? वे
प्रेमास्पद प्रभु ही सदा मेरे साथ हैं-जब मैं अमेरिका में था, तब भी मेरे साथ
थे और अब इंग्लैंड में था, तब भी। जब मैं भारत में दर-दर घूमता था और जहां
कोई भी नहीं जानता था, तब भी वे प्रभु ही मेरे साथ रहे। लोग क्या कहते हैं,
इसकी मुझे क्या परवाह ! वे तो अबोध बालक हैं, वे उससे अधिक क्या जानेंगे ?
मैं जो कि आत्मा का साक्षात्कार कर चुका हूँ और सारे सांसारिक प्रपंचों की
असारता जान चुका हूँ, क्या बच्चों की तोतली बोलियों से अपने मार्ग से हट
जाऊँ ?-मुझे देखने से क्या ऐसा लगता है ?
मुझे अपने बारे में बहुत कुछ कहना पड़ा, क्योंकि तुमको कैफियत देनी थी। मैं
जानता हूँ कि मेरा कार्य समाप्त हो चुका-अधिक से अधिक तीन या चार वर्ष आयु के
और बचे हैं। अपनी मुक्ति की इच्छा तब बिल्कुल नहीं। सांसारिक भोग तो मैंने
कभी चाहा ही नहीं। मुझे सिर्फ अपने पिंड को मज़बूत और कार्योंपयोगी देखना है,
और फिर निश्चित रूप से यह जानकर कि कम से कम भारत में मैंने मानवजाति के
कल्याण का एक ऐसा पिंड स्थापित कर दिया है, जिसका कोई शक्ति नाश नहीं कर
सकती, मैं सो जाउँगा और आगे क्या होनेवाला है, इसकी परवाह नहीं करूँगा। मेरी
अभिलाषा है कि मैं बार बार जन्म लूँ और हज़ारों दु:ख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस
एकमात्र संपूर्ण आत्माओं के समष्टि रूप ईश्वर की पूजा कर सकूँ जिसकी सचमुच
सत्ता है और जिसका मुझे विश्वास है। सबसे बढ़कर, सभी जातियों और वर्णों के
पापी, तापी और दरिद्र रूपी ईश्वर ही मेरा विशेष उपास्य है।
'जो तुम्हारे भीतर है और बाहर भी, जो सभी हाथों से काम करता'
'जो तुम्हारे भीतर भी है और' है और सभी पैरों से चलता है, जिसका बाह्य शरीर
तुम हो, उसी की उपासना करो और अन्य सब मूर्तियाँ तोड़ दो।'
'जो ऊँचा है और नीचा है, परम साधु है और पापी भी, जो देवता है और कीट है, उस
प्रत्यक्ष, ज्ञय, सत्य, सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपासना करो और अन्य सब
मूर्तियाँ तोड़ दो।'
'जिसमें न पूर्व जन्म घटित होता है न पर जन्म: न मृत्यु न आवागमन: जिसमें
हम सदा एक होकर रहे हैं, और रहेंगे, उसी ईश्वर की उपासना करो और अन्य सब
मूर्तियाँ दो।'
हे मूर्खों ! जीते-जागते ईश्वर और जगत् में व्याप्त उसके अनंत प्रतिबिंबों
को छोड़कर तुम काल्पनिक छाया के पीछे दौड़ रहे हो ! उसी की-उस प्रत्यक्ष
ईश्वर की-उपासना करो और अन्य सब मूर्तियाँ तोड़ दो।'
मेरा समय कम है। मुझे जो कुछ कहना है, सब साफ़ कह देना होगा-उससे किसी को
पीड़ा हो या क्रोध, इसकी परवाह किये हुए। इसलिए प्रिय मेरी, यदि मेरे मुँह से
कुछ कड़ी बातें निकल पड़े तो मत घबराना, क्योंकि मेरे पीछे जो शक्ति है वह
विवेकानंद नहीं, स्वयं ईश्वर, है, और वही सबसे ठीक जानता है। यदि मैं संसार
को खुश करने चला तो इससे संसार की हानि ही होगी। अधिकांश लोग जो कहते हैं वह
गलत है, क्येांकि हम देखते हैं कि उनके निपिंडण से संसार की इतनी दुर्गति हो
रही है। प्रत्येक नवीन विचार विरोध की सृष्टि अवश्य करेगा-सभ्य समाज में वह
शिष्ट उपहास के रूप में लिया जाएगा और बर्बर समाज में नीच चिल्लाहट और घृणित
बदनामी के रूप में। संसार के ये कीड़े भी एक दिन तनकर खड़े होंगे, ये बच्चे
भी किसी दिन प्रकाश देख पायेंगे। अमेरिका वाले नए मद से मतवाले हैं। हमारे देश
पर समृद्धि की सैकड़ों लहरें आयी और गुजर गुजर गयीं। हमने वह सबक सीखा है जिसे
बच्चे अभी नहीं समझ सकते। यह सब झूठी दिखावट है। यह विकराल संसार माया है-इसे
त्याग दो और सुखी हो। काम-कांचन की भावनाएँ त्याग दो। ये ही एकमात्र बंधन
है। विवाह है। स्त्री-पुरूष का संबंध और धन-ये ही एकमात्र प्रत्यक्ष शैतान
है। समस्त सांसारिक प्रेम देह से ही उपजते हैं। काम-कांचन को त्याग दो। इनके
जाते ही आँख खुल जायेंगी और आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार हो जाएगा, तभी
आत्मा अपनी अनंत शक्ति पुन: प्राप्त कर लेगी। मेरी तीव्र इच्छा थी कि
हैरियेट से मिलने इंग्लैंड जाऊं। सिर्फ एक इच्छा और
है-मृत्यु के पहले तुम चारों बहनों से एक बार मिलना; मेरी यह इच्छा अवश्य ही
पूर्ण होगी।
तुम्हारा चिर स्नेहाबद्ध,
विवेकानंद
(
स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित)
ऊँ नमो भगवते रामकृष्णाय
अल्मोड़ा,
९ जुलाई, १८९७
अभिन्नहृदयेषु,
हमारी संस्था के उद्देश्य का पहला प्रूफ मैंने संशोधित करके आज तुम्हारे पास
वापस भेजा है। उसके नियमवाले अंश (जो हमारी संस्था के सदस्यों ने पढ़े थे)
अशुद्धियों से भरे हैं। उसे सावधानी से ठीक करके छपवाना, नहीं तो लोग हंसेंगे।
...बहरमपुर में जैसा काम हो रहा है वह बहुत ही अच्छा है। इसी प्रकार के कामों
की विजय होगी-क्या मात्र मतवाद और सिद्धांत हृदय को स्पर्श कर सकते हैं ?
कर्म, कर्म -आदर्श जीवन यापन करो-सिद्धांतों और मतों का क्या मूल्य ? दर्शन,
योग और तपस्या-पूजागृह-अक्षत चावल या शाक का भोग-यह सब व्यक्तिगत अथवा देशगत
धर्म है। किंतु दूसरों की भलाई और सेवा करमा एक महान् सार्वलौकिक धर्म है।
आबालवृद्धवनिता, चांडाल-यहाँ तक कि पशु भी इस धर्म को ग्रहण कर सकते हैं।
क्या मात्र किसी निषेधात्मक धर्म से काम चल सकता है ? पत्थर कभी अनैतिक कर्म
नहीं करता, गाय कभी झूठ नहीं बोलती, वृक्ष कभी चोरी या डकैती नहीं करते, परंतु
इससे होता क्या है ? माना कि तुम चोरी नहीं करते, न झूठ बोलते हो, न अनैतिक
जीवन व्यतीत करते हो, बल्कि चार घंटे प्रतिदिन ध्यान करते हो, और उसके दुगने
घंटे तक भक्तिपूर्वक घंटी बजाते हो-परंतु अंत में इसका उपयोग क्या है ? वह
कार्य यद्यपि थोड़ा ही है, परंतु सदा के लिए बहरमपुर तुम्हारे चरणों पर नत हो
गया है-अब जैसा तुम चाहते हो वैसा हो लोग करेंगे। अब तुम्हें लोगों से यह तक
नहीं करना पड़ेगा कि 'श्री रामकृष्ण भगवान् हैं।' काम के बिना केवल व्याख्यान
क्या कर सकता है! क्या मीठे शब्दों से रोटी चुपड़ी जा सकती है? यदि तुम दस
जिलों में ऐसा कर सको तो वे दसों तुम्हारी मुट्ठी में आ जाएंगे। इसलिए समझदार
लड़के की तरह इस समय अपने कर्मं विभाग पर ही सबसे ज्यादा जोर दो, और उसकी
उपयोगिता को बढ़ाने की प्राण-पण से चेष्टा करो। कुछ लड़कों को द्वार द्वार
जाने के लिए संगठित करो, और अलखिया साधुओं के समान उन्हें जो मिले वह लाने
दो-धन, पुराने वस्त्र, या चावल या खाद्य पदार्थ या और जो कुछ भी मिले। फिर उसे
बाँट दो। वास्तव में यही सच्चा कार्य है। इसके बाद लोगों को श्रद्धा होगी, और
फिर तुम जो कहोगे वे करेंगे।
कलकत्ते की बैठक के खर्च को पूरा करने के बाद जो बचे उसे दुर्भिक्ष-पीड़ितों
की सहायता के लिए भेज दो, या जो अगणित दरिद्र कलकत्ते की मैली-कुचैली गलियों
में रहते हैं, उनकी सहायता में लगा दो-स्मारक-भवन और इस प्रकार के कार्यों का
विचार त्याग दो प्रभु जो अच्छा समझेंगे वह करेंगे। इस समय मेरा स्वास्थ्य अति
उत्तम है।
उपयोगी सामग्री तुम क्यों नहीं एकत्र कर रहे हो ?-मैं स्वयं वहाँ आकर पत्रिका
आरंभ करूँगा। प्रेम और सहानुभूति से सारा संसार खरीदा जा सकता है; व्याख्यान,
पुस्तक और दर्शन का स्थान इनसे नीचा है।
कृपया शशि को लिखो कि गरीबों की सेवा के लिए इसी प्रकार का एक कर्मविभाग वह भी
खोले।
...पूजा का खर्च घटाकर एक या दो रुपये महीने पर ले आओ प्रभु की संतानें भूख से
मर रही हैं...केवल जल और तुलसी-पत्र से पूजा करो और उसके भोग के निमित्त धन को
उस जीवित प्रभु के भोजन में खर्च करो, जो दरिद्रों में वास करता है। तभी प्रभु
की सब पर कृपा होगी। योगेन यहाँ अस्वस्थ रहा, इसलिए आज वह कलकत्ते के लिए
रवाना हो गया है। मैं कल देवलधार फिर जाऊँगा। तुम सभी को मेरा प्यार।
सस्नेह,
विवेकानंद
(कुमारी मैंक्लिऑड को लिखित)
अल्मोड़ा,
१० जुलाई, १८९७
प्रिय जो जो,
तुम्हारे पत्रों को पढ़ने की फुरसत मुझे है, तुम्हारे इस आविष्कार से मुझे
खुशी हुई।
व्याख्यानबाज़ी तथा वक्तृता से परेशान होकर मैंने हिमालय का आश्रय लिया है।
डॉक्टरों द्वारा खेतड़ी के राजा साहब के साथ इंग्लैंड जाने की अनुमति प्राप्त
होने के कारण मैं अत्यंत दुःखित हूँ; और स्टर्डी भी इससे अत्यंत क्षुब्ध हो
उठा है।
सेवियर दंपत्ति शिमला में हैं और कुमारी मूलर यहाँ पर-अल्मोड़ा में प्लेग का
प्रकोप घट चुका है; किंतु दुर्भिक्ष अभी भी यहाँ पर जारी है, साथ ही अब तक
वर्षा न होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि वह और भी भयानक रूप धारण करेगा।
दुर्भिक्ष-पीड़ित विभिन्न ज़िलों में हमारे साथियों ने कार्य प्रारंभ कर दिया
है और यहाँ से उनका निर्देशन करने में में अत्यंत ही व्यस्त हूँ।
जैसे भी बने तुम यहाँ आ जाओ; सिर्फ़ इतना ही ख्याल रखने की बात है कि यूरोपीय
एवं हिंदुओं का (अर्थात् यूरोपीय लोग जिन्हें 'नेटिव" कहते हैं उनका) साथ
रहना जल और तेल की तरह है। नेटिव लोगों के साथ मिलना-जुलना यूरोपीय लोगों के
लिए एक महासंकटजनक घटना है। (प्रादेशिक) राजधानियों में भी उल्लेख योग्य कोई
होटल नहीं है। तुम्हें अधिक नौकर-चाकरों की व्यवस्था करनी पड़ेगी (यद्यपि उसका
ख़र्च होटल की अपेक्षा कम होगा)। तुम्हें केवल लँगोटी पहनकर रहने वालों का संग
बर्दाश्त करना पड़ेगा; मुझे भी तुम उसी रूप में देखोगी। सभी जगह धूल और कीचड़
तथा काले आदमी दिखायी देंगे। किंतु दार्शनिक विवेचन करनेवाले भी तुम्हें अनेक
व्यक्ति मिलेंगे। यहाँ पर यदि तुम अंग्रेज़ों के साथ विशेष मिलती-जुलती रहोगी
तो तुम्हें अधिक आराम मिलेगा, लेकिन इससे हिंदुओं का ठीक ठीक परिचय तुम्हें
नहीं प्राप्त होगा। शायद तुम्हारे साथ बैठकर में भोजन नहीं कर सकूँगा; किंतु
मैं तुम्हें यह बचन देता हूँ कि तुम्हारे साथ मैं अनेक स्थलों में भ्रमण
करूँगा तथा तुम्हारी यात्रा को भरसक सुखमय बनाने का भ्रयत्न करूँगा। तुम्हें
यहाँ यही सब मिलेगा, यदि इससे कुछ अच्छा परिणाम निकलता है तो अच्छी ही बात है।
शायद मेरी हेल भी तुम्हारे साथ आ सकती है। आचंड लेक, आचंड द्वीप, मिचिगन के
पते पर कुमारी कंम्पबेल नाम की एक कुमारी रहती है, वे श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त
हैं एवं उपवास तथा प्रार्थनादि के लिए उक्त द्वीप में एकांतवास करती हैं।
भारत-दर्शनार्थ वे सब कुछ त्यागने को प्रस्तुत हैं, किंतु वे अत्यंत गरीब हैं।
यदि तुम उनको अपने साथ किसी प्रकार ला सको तो जिस किसी प्रकार से भी हो, में
उनके खर्चे की व्यवस्था करूँगा। श्रीमती बुल यदि वयोवृद्ध लैण्डस्बर्ग को
अपने साथ ला सकें तो शायद उस वृद्ध के जीवन की रक्षा हो जाए।
तुम्हारे साथ अमेरिका लौटने की मेरी पूरी संभावना है। हालिस्टर तथा उस शिशु को
मेरा चुंबन देना। अल्बर्टा, लेगेल दंपत्ति तथा मेंबल के प्रति मेरा स्नेह
व्यक्त करना। फाक्स क्या कर रहा है ? उससे भेंट होने पर उसे मेरा स्नेह कहना।
श्रीमती बुल तथा सारदानंद को मेरा स्नेह कहना। पहले की तरह ही मैं शक्तिशाली
हूँ; किंतु मेरा स्वास्थ्य आगे किस प्रकार रहेगा, यह भविष्य के समस्त झमेलों
से मुक्त रहने पर निर्भर है। अब और अधिक दौड़-धूप उचित नहीं होगी।
इस वर्ष तिब्बत जाने की प्रबल इच्छा थी, किंतु इन लोगों ने जाने की अनुमति
नहीं दी, क्योंकि वहाँ का रास्ता अत्यंत श्रमसाध्य है। अत: खड़े पहाड़ पर पूरी
रफ्तार से पहाड़ी घोड़ा दौड़ाकर ही मैं संतुष्ट हूँ। तुम्हारी साइकिल से यह
अधिक उत्तेजनाप्रद है, यद्यपि विंबलडन में मुझे उसका भी विशेष अनुभव हो चुका
है। मीलों तक पहाड़ी के ऊपर और मीलों तक पहाड़ी के नीचे जाता हुआ रास्ता, जो
कुछ ही फुट चौड़ा होगा, मानों खड़ी चट्टानों और हजारों फुट नीचे के गड़्ढों के
ऊपर लटकता रहता है।
सदा प्रभुपदाश्रित तुम्हारा,
विवेकानंद
पुनश्च-भारत आने के लिए सर्वोत्तम समय अक्तूबर का मध्य भाग अथवा नवंबर का
प्रथम भाग है। दिसंबर, जनवरी तथा फ़रवरी में सब कुछ देखकर फरवरी के अंत में
तुम लौट सकती ही। मार्च से गर्मी शुरू होती है। दक्षिण भारत हमेशा ही गरम रहता
है।
विवेकानंद
मद्रास से शीघ्र ही एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ होगा, गुडविन उस कार्य के
लिए वहाँ गया हुआ है।
विवेकानंद
(स्वामी शुद्धानंद को लिखित)
अल्मोड़ा, .
११ जुलाई, १८९७
प्रिय शुद्धानंद,
तुमने हाल में मठ का जो कार्य-विवरण भेजा है, उसे पाकर मुझे अत्यंत खशी हुई।
तुम्हारी 'रिपोर्ट' के बारे में मुझे कोई विशेष समालोचना नहीं करनी है। मैं
सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि तुम्हें थोड़ा और स्पष्ट रूप से लिखने का
अभ्यास करना चाहिए।
जितना कार्य हुआ है उससे मैं अत्यंत संतुष्ट हूँ, किंतु उसे और भी आगे बढ़ाना
चाहिए। पहले मैंने भौतिक तथा रसायन शास्त्र के कुछ यंत्रों को एकत्र करने तथा
प्राथमिक एवं प्रायोगिक रसायन तथा भौतिक शास्त्र-विशेषतः शरीर विज्ञान की
कक्षाएँ शुरू करने का सुझाव दिया था, उसके विषय में मुझे अभी तक कुछ सुनने को
नहीं मिला।
और बांग्ला में अनूदित सभी वैज्ञानिक ग्रंथों को खरीदने के मेरे सुझाव का
क्या हुआ ?
अब मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मठ में एक साथ तीन महंतो का निर्वाचन करना
आवश्यक है-एक व्यावहारिक कार्यों का संचालन करेंगे, दूसरे आध्यात्मिकता की ओर
ध्यान देंगे एवं तीसरे ज्ञानार्जन की व्यवस्था करेंगे।
कठिनाई तो शिक्षा-विभाग के उपयुक्त निर्देशक के प्राप्त होने में है।
ब्रह्मानंद तथा तुरीयानंद आसानी से शेष दोनों विभागों का कार्य संभाल सकते
हैं। मुझे दुःख है कि मठ दर्शनार्थ केवल कलकत्ते के बाबू लोग आ रहे हैं। उनसे
कुछ काम नहीं होगा। हमें साहसी युवकों की आवश्यकता है जो काम कर सकते हों,
मूर्खों की नहीं।
ब्रह्मानंद से कहना कि वह अभेदानंद तथा सारदानंद को अपने साप्ताहिक
कार्य-विवरण मठ में भेजने के लिए लिखे-उसके भेजने में किसी प्रकार की त्रुटि
नहीं होनी चाहिए, और भविष्य में बांग्ला में निकलनेवाली पत्रिका के लिए लेख
तथा नोट्स आदि भेजें। गिरीश बाबू उस पत्रिका के लिए क्या कुछ आवश्यक व्यवस्था
कर रहे हैं ? अदम्य इच्छा-शक्ति के साथ कार्य करते चलो तथा सदा प्रस्तुत रहो।
अखण्डानंद महुला में अद्भुत कार्य कर रहा है, किंतु उसकी कार्य-प्रणाली ठीक
प्रतीत नहीं होती। ऐसा मालूम हो रहा है कि वे लोग एक छोटे से गाँव में ही अपनी
शक्ति क्षय कर रहे हैं, और वह भी एकमात्र चावल-वितरण के कार्य में। इसके साथ
ही साथ किसी प्रकार का प्रचार-कार्य भी हो रहा है-यह बात मेरे सुनने में नहीं
आ रही है। लोगों को यदि आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा न दी जाए तो सारे संसार की
दौलत से भी भारत के एक छोटे से गाँव की सहायता नहीं की जा सकती है। शिक्षा
प्रदान करना हमारा पहला कार्य होना चाहिए-नैतिक तथा बौद्धिक दोनों ही प्रकार
की। मुझे इस बारे में तो कुछ भी समाचार नहीं मिल रहा है, केवल इतना ही सुन रहा
हूँ कि इतने भिखमंगों को सहायता दी गई है! ब्रह्मानंद से कहो कि विभिन्न जिलों
में वह केंद्र स्थापित करे, जिससे हम थोड़ी पूंजी से ही यथासंभव अधिक स्थलों
में कार्य कर सकें। ऐसा लगता है कि अब तक उन कार्यों से वास्तव में कुछ भी
नहीं हुआ है। क्योंकि अभी तक स्थानीय लोगों में किसी प्रकार की आकांक्षा
जाग्रत करने में सफलता नहीं मिली है, जिससे वे लोक-शिक्षा के लिए किसी प्रकार
की सभा-समिति स्थापित कर सकें और उस शिक्षा के फलस्वरूप आत्मनिर्भर तथा
मितव्ययी बन सकें; विवाह की ओर उनका अस्वाभाविक झुकाव दूर हो और इसी प्रकार
भविष्य में दुर्भिक्ष के कराल गाल में जाने से वे अपने को बचा सकें। दया से
लोगों के हृदय-द्वार खुल जाते हैं, किंतु उस द्वार से उनके सामूहिक हित साधना
के लिए हमें प्रयास करना होगा।
सबसे सहज उपाय यह है कि हम छोटी सी झोपड़ी लेकर गुरु महाराज का मंदिर स्थापित
करें। गरीब लोग जो वहाँ एकत्र हों, उनकी सहायता की जाए और वे लोग वहाँ पर
पूजार्चन भी करें। प्रतिदिन सुबह-शाम वहाँ पुराण-कथा हो। उस कथा के सहारे से
ही तुम अपनी इच्छानुसार जनता में शिक्षा प्रसार कर सकते हो। क्रमश: उन लोगों
में स्वतः ही इस विषय में विश्वास तथा आग्रह बढ़ेगा। तब वे स्वयं ही उस मंदिर
के संचालन का भार अपने ऊपर लेंगे, और हो सकता है कि कुछ ही वर्षों में यह छोटा
सा मंदिर एक विराट आश्रम में परिणत हो जाए। जो लोग दुर्भिक्ष-निवारण का के लिए
जा रहे हैं, वे सर्वप्रथम प्रत्येक जिले में एक मध्यवर्ती स्थल का निर्वाचन
करें तथा वहाँ पर इसी प्रकार की एक झोपड़ी लेकर मंदिर स्थापित करें, जहाँ से
अपने सभी कार्य थोड़े-बहुत प्रारंभ किये जा सकें।
मन की प्रवृत्ति के अनुसार काम मिलने पर अत्यंत मूर्ख व्यक्ति भी उसे कर सकता
है। लेकिन सब कामों को जो अपने मन के अनुकूल बना लेता है, वही बुद्धिमान है।
कोई भी काम छोटा नहीं है, संसार में सब कुछ वट-बीज की तरह है, सरसों जैसा
क्षुद्र दिखायी देने पर भी अति विशाल वट-वृक्ष उसके अंदर विद्यमान है।
बुद्धिमान वही है जो ऐसा देख पाता है और सब कामों को महान् बनाने में समर्थ
है।
जो लोग दुर्भिक्ष-निवारण काय॑ कर रहे हैं, उन्हें इस ओर भी ध्यान रखना चाहिए
कि कहीं गरीबों के प्राप्य को धोखेबाज न झपट लें। भारत ऐसे आलसी घोखेबाज़ों से
भरा पड़ा है और तुम्हें यह देखकर आश्चर्य होगा कि वे लोग कभी-भूखों नहीं मरते
हैं-उन्हें कुछ न कुछ खाने को मिल ही जाता है। दुर्भिक्ष-पीड़ित स्थलों में
कार्य करने वालों को इस ओर ध्यान दिलाने के लिए ब्रह्मानंद से पत्र लिखने को
कहना, जिससे वे व्यर्थ में धन-व्यय न कर सकें। जहाँ तेक हो सके, कम से कम
ख़र्चे में अधिक,से अधिक स्थायी सत्कार्य की प्रतिष्ठा करना ही हमारा ध्येय
है।
अब तुम समझ ही गए होगे कि तुम लोगों को स्वय ही मौलिक ढंग से सोचना चाहिए,
नहीं तो मेरी मृत्यु के बाद सब कुछ नष्ट हो जाएगा। उदाहरण के लिए तुम सब लोग
मिलकर इस विषय में विचार करने के लिए एक सभा का आयोजन कर सकते हो कि अपने कम
से कम साधनों द्वारा हम किस प्रकार श्रेष्ठतम स्थायी फल प्राप्त कर सकते हैं।
सभा की निर्धारित तिथि से कुछ दिन पूर्व सबको उसकी सूचना दी जाए, सब कोई अपने
सुझाव दें, इन सुझावों पर विचार-विमर्श तथा आलोचना हो, और तब इसकी रिपोर्ट
मेरे पास भेजो।
अंत में यह कहना चाहता हूँ तुम लोग यह स्मरण रखो कि में अपने गुरु-भाइयों की
अपेक्षा अपनी संतानों से अधिक आशा रखता हूँ-मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे,
मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्नत बनें। तुम लोगों में से
प्रत्येक को महान् शक्तिशाली बनाना होगा-में कहता हूँ, अवश्य बनना होगा।
आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के
लिए सदा भ्रस्तुत रहना-इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हें अपने मार्ग से
विचलित नहीं कर सकता।
प्रेम एवं आशीर्वाद सहित,
विवेकानंद
(स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित)
देउलधार, अल्मोड़ा,
१३ जुलाई, १८९७
प्रेमास्पद,
यहाँ से अल्मोड़ा जाकर योगेन के लिए मेंने विशेष प्रयत्त किया। किंतु कुछ आराम
होते ही वह देश के लिए रवाना हो गया। सुभल घाटी से वह अपने सकुशल पहुँचने का
संवाद देगा। चूँकि सवारी के लिए डाँडी आदि मिलना असंभव है, इसलिए लाटू नहीं जा
सका। अच्युत और मैं यहाँ पर पुनः लौट आए हैं। धूप में गर्दनतोड़ रफ्तार से
घोड़ा दौड़ाकर आने के कारण आज मेरा शरीर कुछ ख़राब है। करीब दो सप्ताह शशि
बाबू की दवा लेकर भी विशेष कोई लाभ नहीं प्रतीत हो रहा है।-लीवर का दर्द नहीं
है और पर्याप्त कसरत करने से हाथ-पाँव विशेष मज़बूत हो गए हैं; किंतु पेट
अत्यंत फूल रहा है, उठने-बैठने में साँस की 'तकलीफ होती है। संभवतः, यह दूध
पीने का फल है; शशि से पूछना कि दूध छोड़ा जा सकता है या नहीं? पहले दो बार
मुझे लू लग गई थी। तब से धूप लगने पर आँखें लाल हो जाती हैं और दो-चार दिन तक
लगातार शरीर अस्वस्थ रहता है।
मठ के समाचार से अत्यंत प्रसन्नता हुई तथा यह भी मालूम हुआ कि दुर्भिक्ष
पीड़ितों में कार्य अच्छी तरह से चल रहा है। मुझे लिखो कि दुर्भिक्ष कार्य के
लिए 'ब्रह्मवादिन्' ऑफ़िस 'से तुम्हें घन प्राप्त हुआ है या नहीं; यहाँ से भी
धन राशि भेजा जा रहा है। दुर्भिक्ष का प्रकोप अन्य स्थानों में भी है, इसलिए
एक स्थान पर ही रुकने की आवश्यकता नहीं है। उतको अन्यत्र जाने के लिए कहना एवं
प्रत्येक को विभिन्न स्थानों में जाने के लिए लिखना। इस प्रकार के कार्य ही
सच्चे का हैं। इस प्रकार खेत जुत जाने पर आध्यात्मिक ज्ञान का बीज बोया जा
सकता है। यह हमेशा याद रखो कि इस प्रकार का कार्य ही उन कट्टरपंथियों के लिए
उचित उत्तर है, जो हमें गालियाँ दे रहे हैं। शशि एवं सारदा जैसा छपवाना चाहते
हैं, उसमें मेरी कोई आपत्ति नहीं है।
मठ का नाम क्या होना चाहिए, यह तुम लोग ही निर्णय करना।... रुपया सात सप्ताह
के अंदर ही पहुँच जाएगा, लेकिन ज़मीन के बारे में मुझे कोई भी समाचार नहीं
मिला है। इस संबंध में मैं समझता हूँ कि काशी पुर के कृष्णोपाल के बगीचे को
खरीद लेना ही उचित होगा। इस बारे में तुम्हारी क्या राय है? बढ़े बड़े काम
पीछे होते रहेंगे। यदि इसमें तुम्हारी सहमति हो तो इस विषय की किसी से मठ अथवा
बाहर के व्यक्तियों से-चर्चा न कर गुप्त रूप से पता लगाना। योजना गुप्त न रखने
से काम प्रायः ठीक-ठीक नहीं हो पाता। यदि १५-१६ हज़ार में कार्य बनता हो तो
अविलंब खरीद लेना (यदि ऐसा तुम्हें उचित लगे तो)। यदि उससे कुछ अधिक मूल्य हो
दो बयाना देकर सात सप्ताह तक प्रतीक्षा करना। मेरी राय में इस समय उसे ख़रीद
लेना ही अच्छा है। बाकी काम धीरे घीरे होते रहेंगे। हमारी सारी स्मृतियाँ उस
बगीचे से जुड़ी हुई हैं। वास्तव में वही हमारा प्रथम मठ है। अत्यंत गोपनीय रूप
से यह कार्य होना चाहिए- फलानुमेंयाः प्रारम्भाः संस्कारा प्राक्तना इव-(फल को देखकर
ही किसी कार्य का विचार किया जा सकता है, जैसेकि किसी के वर्तमान व्यवहार को
देखकंर उसके पूर्व संस्कारों का अनुमान लगाया जा सकता है)।
इसमें संदेह नहीं कि काशीपुर के बगीचे की ज़मीन का मूल्य अधिक बढ़ गया है,
किंतु दूसरी ओर हमारे पास धन भी कम पड़ गया है। जैसे भी हो, इसकी व्यवस्था
करना, और शीघ्र करना। काहिली से सब काम नष्ट हो जाता है। यह बगीचा तो खरीदना
ही होगा, चाहे आज या दो दिन बाद-और चाहे गंगा तट पर कितने ही विशाल मठ की
स्थापना क्यों न करनी हो। अन्य व्यक्तियों के द्वारा यदि इसकी व्यवस्था हो
सके तो और भी अच्छा है। यदि उनको पता चल गया कि हम लोग खरीद रहे हैं तो वे लोग
अधिक दाम माँगेगे। इसलिए बहुत ही सँभल कर काम करो। अभीः श्री रामकृष्ण सहाय
हैं, डर किस बात का ? सबसे मेरा प्यार कहना।
सस्नेह,
विवेकानंद
पुनश्च (लिफाफे पर लिखित)... काशीपुर के लिए विशेष प्रयास करना... बैलूड़ की
ज़मीन छोड़ दो।
जब कि तुम ऊँचे लोग श्रेय मिलने के विवाद में पड़े हुए हो तो क्या तब तक गरीब
बेचारे भूखे मरेंगे? यदि 'महाबोधि संस्था' पूरा श्रेय लेना चाहती है तो लेने
दो। गरीबों का उपकार होने दो। कार्य अच्छी तरह से चल रहा है, यह बहुत ही अच्छी
बात है। और भी ताकत से जुट जाओ। मैं लेख भेजने की व्यवस्था कर रहा हूँ। सैकरिन
तथा नींबू पहुँच गए हैं।
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
अल्मोड़ा,
२३ जुलाई, १८९७
प्रिय कुमारी नोबल,
मेरे संक्षिप्त पत्र के लिए बुरा न मानना। अब मैं पहाड़ से मैदान की ओर रवाना
हो रहा हूँ। किसी एक निर्दिष्ट स्थल पर पहुँच कर तुम्हें विस्तृत पत्र
लिखूँगा। तुम्हारी इस बात का कि घनिष्ठता के बिना भी स्पष्टवादिता हो सकती है,
मैं तात्पर्य नहीं समझ सका। अप्रनी ओर से तो मैं यह कह सकता हूँ कि प्राच्य
औपचारिकता का जो भी अंश अभी तक मुझ में मौजूद है, उसका अंतिम चिह्न तक मिटाकर
बालसुलभ सरलता से बातें करने के लिए में सब कुछ क रने को प्रस्तुत हूँ। काश,
एक दिन के लिए भी स्वतंत्रता के पूर्ण आलोक में जीने का सौभाग्य प्राप्त हो
एवं सरलता की मुक्त वायु में श्वास लेने का अवसर मिले! क्या यह उच्चतम
प्रकार की पवित्रता नहीं है?
इस संसार में लोगों से डरकर हम काम करते हैं, डरकर बातें करते हैं तथा डरकर ही
चिंतन करते हैं। हाय, शत्रुओं से घिरे हुए लोक में हमने जन्म लिया है! इस
प्रकार की भोति से थहाँ कौन मुक्त हो सका है कि जैसे प्रत्येक वस्तु गुप्तचर
की तरह उसका पीछा कर रही हो ? और जो जीवन में अग्रसर होना चाहता है, उसके
भाग्य में दुर्गति लिखी हुई है। क्या यह संसार कभी मित्रों से पूर्ण होगा?
कौन जानता है? हम तो केवल प्रयत्न कर सकते हैं।
कार्य प्रारंभ हो गया है तथा इस समय दुर्भिक्ष-निवारण ही हमारे लिए प्रधान
कर्तव्य है। अनेक केंद्र स्थापित हो चुके हैं एवं दुर्भिक्ष-सेवा, प्रचार तथा
साधारण शिक्षा-प्रदान की व्यवस्था की गई है। यद्यपि अभी तक कार्य अत्यंत नगण्य
रूप से ही हो रहा है, फिर भी जिन युवकों को शिक्षा दी जा रही है,
आवश्यकतानुसार उनसे काम लिया जा रहा है। इस समय मद्रास तथा कलकत्ता ही हमारे
कार्य-क्षेत्र हैं। श्री गुडविन मद्रास में कार्य कर रहा है। कोलंबों में भी
एक व्यक्ति को भेजा गया है। यदि अभी तक तुम्हें कार्य-विवरण नहीं भेजा गया हो
तो आगामी सप्ताह से संपूर्ण कार्यों का एक मासिक विवरण तुमको भेजा जाएगा। मैं
इस समय कार्यक्षेत्र से दूरी पर हूँ, इससे सभी कार्य कुछ शिथिलता से चल रहे
हैं, यह तुम देख ही रही हो; किंतु साधारणतया कार्य संतोषजनक है।
यहाँ न आकर इंग्लैंड से ही तुम हमारे लिए अधिक कार्य कर सकती हो। दरिद्र
भारतवासियों के कल्याणार्थ तुम्हारे विपुल आत्म-त्याग के लिए भगवान तुम्हारा
मंगल करें !
तुम्हारे इस मन्तव्य को मैं भी मानता हूँ कि मेरे इंग्लैंड जाने पर वहाँ का
कार्य बहुत कुछ सजीव हो उठेगा। फिर भी यहाँ का कर्म-चक्र जब तक चालू न हो और
मुझे विश्वास न हो जाए कि मेरी अनुपस्थिति में कार्य-संचालन करनेवाले और भी
व्यक्ति हैं, मेरे लिए भारत छोड़ना उचित न होगा। जैसा कि मुसलमान कहते हैं,
खुदा की मर्ज़ी से' कुछ एक माह में ही उसकी व्यवस्था हो जाएगी। मेरे अन्यतम
श्रेष्ठ कार्यकर्ता खेतड़ी के राजा साहब इस समय इंग्लैंड में हैं। आशा है कि
वे शीघ्र ही भारत वापस आएंगे एवं अवश्य ही मेरे विशेष सहायक होगे।
अनंत प्यार तथा आशीर्वाद सहित,
तुम्हारा,
विवेकानंद
(स्वामी अखण्डानंद को लिखित)
ऊँ नमो भगवते रामकृष्णाय
अल्मोड़ा,
२४ जुलाई, १८९७
कल्याणीय,
तुम्हारे पत्र में सविस्तर समाचार पाकर अत्यंत खुशी हुई। अनाथालय के बारे में
तुम्हारा जो अभिमत है, वह अति उत्तम है। श्री महाराज (स्वामी ब्रह्मानंद)
अविलंब ही उसे अवश्य पूर्ण करेंगे। एक स्थायी केंद्र स्थापित करने के लिए
पूर्णतया प्रयास करते रहना १... रूपयों के लिए कोई चिंता नहीं है-कल अल्मोड़ा
से समतल प्रदेश में आने की मेरी अभिलाषा है। जहाँ भी हलचल होगी, वहीं
दुर्भिक्ष के लिए चंदा एकत्र करूँगा-चिंता न करना। कलकत्ते में जैसा हमारा मठ
है, उसी नमूने से प्रत्येक जिले में जब एक-एक मठ स्थापित होगा, तभी मेरी
मनोकामना पूरी होगी। प्रचार-कार्य बंद न होने पाये एवं प्रचार की अपेक्षा
विद्या-दान ही प्रधान कार्य है ; ग्रामीण लोगों में भाषण आदि के द्वारा धर्म,
इतिहास इत्यादि की शिक्षा देनी होगी-खासकर उन लोगों को इतिहास से परिचित करना
होगा। हमारे इस शिक्षा-कार्य में सहायता प्रदान करने के लिए इंग्लैंड में एक
सभा स्थापित की गई है; उसका कार्य अत्यंत संतोषजनक है, बीच बीच में मुझे ऐसा
समाचार मिलता रहता है! इसी तरह घीरे-धीरे चारों ओर से सहायता मिलती
रहेगी-चिंता को क्या बात है? जो लोग यह समझते हैं कि सहायता मिलने पर कार्य
प्रारंभ किया जाए, उनसे कोई कार्य नहीं हो सकता। जो यह समझते हैं कि
कार्य-क्षेत्र में उतरने पर अवश्य सहायता मिलेगी, वे ही कार्य संपादन कर सकते
हैं।
सारी शक्तियाँ तुम्हारे भीतर विद्यमान हैं-इसमें विश्वास रखो। वे अभिव्यक्त
हुए बिना नहीं रह सकतीं। मेरा हादिक प्यार तथा आशीर्वाद लेना तथा ब्रह्मचारी
से कहना। तुम बीच-बीच में अत्यंत उत्साहपूर्ण पत्र मठ में भेजते रहना, जिससे
कि सब लोग उत्साहित होकर कार्य करते रहें। वाह गुरु की फ़तह! किमधिकमिति।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(मेरी हेल्बॉयस्टर को लिखित)
अल्मोडा,
२५ जुलाई, १८९७
प्रिय मेरी,
अपना वादा पूरा कर देने के लिए अब मेरे पास अवकाश, इच्छा और अवसर है। इसलिए
पत्र आरंभ कर रहा हूँ | कुछ समय से मैं बहुत कमजोर हूँ और उसकी वजह से तथा
अन्य कारणों से इस जयंती महोत्सव काल में मुझे अपनी इंग्लैंड की यात्रा स्थगित
करनी पड़ी।
पहले तो मुझे अपने अच्छे तथा अत्यंत प्रिय सुह्दों से एक बार फिर न मिलने की
असमर्थता पर बड़ा दुःख हुआ, किंतु कर्म का परिहार नहीं हो सकता और मुझे अपने
हिमालय से ही संतोष करना पड़ा। किंतु है तो यह दुःखद ही सौदा; क्योंकि जीवंत
आत्मा का जो सौंदर्य मनुष्य के चेहरे पर चमकता है, वह जड़ पदार्थों के कितने
ही सौंदर्य की अपेक्षा अत्यधिक आह्लादकारी होता है।
क्या आत्मा संसार का आलोक नहीं है ?
कई कारणों से लंदन में कार्य को धीमी गति से चलना पड़ा, जिनमें अंतिम कारण, जो
कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, रुपया है, मेरी दोस्त! जब मैं वहाँ रहता हूँ, रुपया
येनकेन प्रकारेण आ ही जाता है, जिससे कार्य चलता रहता है। अब हर आदमी अपना
कंधा झाड़ रहा है। मुझको फिर अवश्य आना है और कार्य को पुनरुज्जीवित करने के
लिए यथाशक्ति प्रयत्न करना है।
मैं काफी घुड़सवारी एवं व्यायाम कर रहा हूँ; किंतु डॉक्टरों की सलाह से मुझे
अधिक मात्रा में भखनिया दूध पीना पड़ा था, जिसका फल यह हुआ कि मैं पीछे की
बजाए आगे की ओर अधिक झुक गया हूँ। यद्यपि मैं हमेशा से ही एक अग्रगामी मनुष्य
हूँ, फिर भी में तत्काल ही बहुत अधिक मशहूर होना नहीं चाहता, और मैंने दूध
पीना छोड़ दिया है।
मुझे यह पढ़कर खुशी हुई कि तुमको अपने भोजन के लिए अच्छी भूख लगने लगी है।
क्या तुम विम्बल्डन की कुमारी मार्गरेट नोबल को जानती हो? वह हमारे लिए
परिश्रम के साथ कार्य कर रही है। अगर हो सके तो तुम उसके साथ पत्र-व्यवहार
प्रारंभ कर देना, और तुम मेरी वहाँ काफी सहायता कर सकती हो। उसका पता है,
ब्रॉप्टबुड, वॉरप्ले रोड, विंबलडन।
तो, हाँ, तुमने मेरी छोटी सी मित्र कुमारी आर्चर्ड से भेंट की और तुमने उसको
पसंद भी किया-यह अच्छी बात रही। उसके प्रति मेरी महान् आशाएँ हैं। जब मैं
बहुत ही वृद्ध हो जाऊँगा तो जीवन के कर्मों से कैसे पूर्णतया विमुक्त होना
चाहूँगा ? तुम्हारे एवं कुमारी आर्चर्ड के सदृश अपने छोटे प्यारे-मित्रों के
नामों से संसार को प्रतिध्वनित होता हुआ सुनूँगा !
और हाँ, मुझे खृशी है कि मैं शीघ्रता से वृद्धत्व को प्राप्त हो रहा हूँ, मेरे
बाल सफेद हो रहे हैं। 'स्वर्ण के बीच रजत-सूत्र'-मेरा तात्पर्य काले से
है-शीघ्रता से चले आ रहे हैं।
एक उपदेष्टा के लिए युवक होता बुरा है, क्या तुम ऐसा नहीं सोचतीं? मैं तो ऐसा
ही समझता हूँ, जैसा कि मैंने जीवन भर समझा। एक वृद्ध मनुष्य में लोगों की अधिक
आस्था रहती है, जौर वह अधिक पूज्य नज़र आता है। तथापि वृद्ध दुर्जन संसार में
सबसे बुरे दुर्जन होते हैं। क्या ऐसी बात नहीं ?
संसार के पास अपना न्याय-विधान है, जो दुर्भाग्य से सत्य से बहुत ही भिन्न है।
तो तुम्हारा 'सार्वभौमिक धर्म 'द मंडे रिव्यू' के द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया
है। इसकी कदापि चिंता न करना, किसी अन्य पत्र में प्रयत्न करो। एक बार
कार्यारंभ हो जाने पर तुम अधिक तेजी से बढ़ सकोगी, ऐसा मुझे विश्वास है। और
मैं कितना प्रसन्न हूँ कि तुम कार्य से प्रेम करती हो : इससे मार्ग प्रशस्त
होगा, इसके विषय में मुझे किचित् भी संशय नहीं। हमारे विचारों के लिए एक
भविष्य है, प्रिय मेरी-और यह शीघ्र ही कार्य रूप में परिणत होगा।
मैं सोचता हूँ कि यह पत्र तुम्हें पेरिस में मिलेगा-तुम्हारे मनोरम पेरिस
में-और मैं आशा करता हूँ कि तुम मुझे बहुत कुछ लिखोगी, फ्रांसीसी पत्रकारिता
एवं वहाँ होनेवाले आगामी 'विश्व-मेला' के संबंध में।
मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि वेदांत एवं योग के द्वारा तुम्हें सहायता मिली है।
दुर्भाग्य से कभी-कभी में सरकस के उस विचित्र विदूषक के सदृश हो जाता हूँ, जो
दूसरों को तो हँसाये किंतु स्वयं खिन्न हो।
स्वभावत: तुम प्रफुल्ल प्रवृत्ति की हो। कोई भी वस्तु तुम्हें नहीं स्पर्श
करती लगती। साथ ही तुम एक दूरदर्शी लड़की हो, इस सीमा तक कि तुमने 'प्यार' एवं
इसकी संपूर्ण मूर्खताओं से अपने को समझ-बूझकर अलग रखा है। अतः तुमने अपने शुभ
कर्म का अनुष्ठान कर लिया है और अपने आजीवन मंगल का बीजवपन कर लिया है। जीवन
में हमारी कठिनाई यह है कि हम भविष्य के द्वारा प्रेरित न होकर वर्तमान के
द्वारा होते हैं। वर्तमान में जो वस्तु थोड़ा भी सुख देती है, हमें अपनी ओर
खींच ले जाती है, और फलस्वरूप वर्तमान समय के थोड़े से सुख के लिए हम भविष्य
के लिए एक बहुत बड़ी आपत्ति मोल ले लेते हैं। मैं चाहता हूँ कि मुझे न कोई
प्यार करने वाला होता, और बाल्यावस्था में अनाथ होता। मेरे जीवन की सबसे
महान् विपत्ति मेरे अपने लोग रहे हैं-मेरे भाई-बहन एवं माँ आदि संबंधी जन
व्यक्ति की प्रगति में भयावह अवरोध की तरह हैं, और क्या यह कोई आश्चर्य की
बात नहीं कि लोग फिर भी वैवाहिक संबंधों के द्वारा नए संबंधियों की खोज करते
रहेंगे !!!
जो एकाकी है, वह सुखी है। सबका समान मंगल करो, लेकिन किसी से प्यार मत करो।'
यह एक बंधन है, और बंधन सदा दुःख की ही सृष्टि करता है। अपने मानस में एकाकी
जीवन बिताओ-यही सुख है। देखभाल करने के लिए किसी व्यक्ति का न होना और इस बात
की चिंता न करना कि मेरी देखभाल कौन करेगा-मुक्त होने का यही मार्ग है।
तुम्हारी मानसिक रचना से मैं बड़ी ईर्ष्या करता हूँ-शांत, सौम्य, विनोदी, फिर
भी गंभीर एवं विमुक्त। मेरी, तुम मुक्त हो चुकी हो, पहले से ही मुक्त। तुम
जीवन्मुक्त हो। मैं नारी अधिक हूँ, पुरुष कम, तुम पुरुष अधिक हो एवं नारी कम।
मैं सदा दूसरे के दुःख को अपने ऊपर ओढ़ता रहा हँ-बिना किसी प्रयोजन के, किसी
को कोई लाभ पहुँचाने में समर्थ हुए बिना-ठीक उन स्त्रियों की तरह जो संतान न
होने पर अपने संपूर्ण स्नेह को किसी बिल्ली पर केंद्रित कर देती हैं !!!
क्या तुम समझती हो कि इसमें कोई आध्यात्मिकता है? सब निरर्थक, ये सब भौतिक
स्नायविक बंधन है-यह बस इतना ही भर है। ओह, भौतिकता के साम्राज्य से कैसे
मुक्त हुआ जाए!!
तुम्हारी मित्र श्रीमती मार्टिन हर महीने अपनी पत्रिका की प्रतियाँ मुझे भेजा
करती हैं-परंतु स्टर्डी का थर्मामीटर ऐसा लगता है, शून्य के नीचे हो गया है।
इस गर्मी में मेरे इंग्लैंड न पहुँचने के कारण वह बहुत ही निराश हो गया लगता
है। मैं कर ही क्या सकता था ?
हम लोगों ने यहाँ दो मठो का कार्य प्रारंभ कर दिया है-एक कलकत्ते में और एक
मद्रास में। कलकत्ते का मठ (जो किराये में लिया गया एक जीर्ण मकान है) पिछले
भूचाल में भीषण रूप से प्रकंपित हो गया था।
हमें बालकों की अच्छी संख्या प्राप्त हो चुकी है; उन्हें अब प्रशिक्षित किया
जा रहा है। अनेक स्थानों में हमने अकाल-सहायता का कार्य प्रारंभ कर दिया है और
कार्य अच्छी गति में आगे बढ़ रहा है। भारत के विभिन्न स्थानों में इस प्रकार
के और भी केंद्र स्थापित करने की चेष्टा हम लोग करेंगे।
कुछ दिनों बाद में नीचे मैदानों की ओर जाऊँगा, और वहाँ से पश्चिमी पर्वतों की
ओर। जब मैदानों में ठंडक पड़ने लगेगी, में सर्वत्र एक व्याख्यान-यात्रा
करूँगा, और देखना है कि क्या काम हो सकता है।
अब यहाँ लिखने के लिए में अधिक समय न पा सकूँगा-कितने लोग प्रतीक्षा कर रहे
हैं-अतः मैं लिखना बंद करता हूँ, प्यारी मेरी, तुम सब लोगों के सुख एवं
प्रसन्नता की कामना करते हुए।
भौतिकता तुम्हें कभी भी आकर्षित न करे, यही मेरी सतत प्रार्थना है-
भगवत्पदाश्रित,
विवेकानंद
(श्रीमती लेगेट को लिखित)
अल्मोड़ा,
२८ जुलाई, १८९७
मेरी प्यारी माँ,
आपके सुंदर कृपा-पत्र के लिए अनेक धन्यवाद। काश, मैं लंदन में होता और खेतड़ी
के राजा साहब का निमंत्रण स्वीकार कर सकता। पिछली बार, लदंन में मैं बहुत से
प्रीतिभोजों में सम्मिलित हुआ। लेकिन दुर्भाग्यवश अस्वस्थता के कारण मैं राजा
साहब का साथ न दे सका !
तो, अल्बर्टा फिर अपने घर-अमेरिका पहुँच गई है। उसने रोम में मेरे लिए जो कुछ
किया उसके लिए में ऋणी हूँ ! हॉली कैसे हैं ? हॉली-दंपत्ति को मेरा स्नेह दें
तथा नवागत शिशु-मेरी सबसे छोटी बहन को मेरी ओर से प्यार करें।
मैं पिछले नौ महीने हिमालय में कुछ विश्राम करता रहा हूँ। अब फिर-मैदानों की
ओर जा रहा हूँ-काम में जुट जाने के लिए!
फ्रैन्किनसेन्स और जो-जो और मेबेल को मेरा प्यार-और आपको भी-
आपका,
विवेकानंद
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
अल्मोड़ा,
२९ जुलाई, १८९७
प्रिय कुमारी नोबल,
श्री स्टर्डी का एक पत्र कल मुझे मिला, जिससे मुझे यह मालूम हुआ कि तुमने भारत
आने का, और स्वयं सब चीज़ों को देखने का विचार मन में ठान लिया है। उसका उत्तर
कल मैं दे चुका हूँ, परंतु मैंने कुमारी मूलर से तुम्हारे इस संकल्प के विषय
में जो कुछ सुना उससे यह दूसरा संक्षिप्त पत्र आवश्यक हो गया, और अच्छा है कि
मैं तुम्हें सीधे ही लिखूँ।
मैं तुमसे स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि मुझ्ले विश्वास है कि भारत के काम
में तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है। आवश्यकता है स्त्री की, पुरुष की नहीं-सच्ची
सिंहिनी की जो भारतीयों के लिए, विशेषकर स्त्रियों के लिए काम करे।
भारत अभी तक महान् महिलाओं को उत्पन्न नहीं कर सकता, उसे दूसरे राष्ट्रों से
उन्हें उधार लेना पड़ेगा। तुम्हारी शिक्षा, सच्चा भाव, पवित्रता, महान्
प्रेम, दृढ़ निश्चय और सबसे अधिक तुम्हारे केल्टिक (celtic) रक्त ने तुमको
वैसी ही नारी बनाया है, जिसकी आवश्यकता है।
परंतु कठिनाइयाँ भी बहुत हैं। यहाँ जो दुःख, कुसंस्कार और दासत्व है, उसकी तुम
कल्पना नहीं कर सकतीं। तुम्हें एक अर्द्धचर्न स्त्री-पुरुषों के समूह में रहता
होगा, जिनके जाति और पृथकता के विचित्र विचार हैं, जो भय और द्वेष से सफेद
चमड़े से दूर रहना चाहते हैं और जिनसे सफेद चमड़े वाले स्वयं अत्यंत घृणा करते
हैं। दूसरी ओर श्वेत जाति के लोग तुम्हें सनकी समझेंगे और तुम्हारे
आचार-व्यवहार को सशंकित दृष्टि से देखते रहेंगे।
फिर यहाँ भयंकर गर्मी पड़ती है; अधिकांश स्थानों में हमारा शीतकाल तुम्हारी
गर्मी के समान होता है और दक्षिण में हमेशा आग बरसती रहती है।
नगरों के बाहर विलायती आराम की कोई भी सामग्री नहीं मिल सकती। ये सब बातें
होते हुए भी यदि काम करने का साहस करोगी तो हम तुम्हारा स्वागत करेंगे, सौ बार
स्वागत करेंगे। मेरे विषय में यह बात है कि जैसे अन्य स्थानों में वैसे ही में
यहाँ भी कुछ नहीं हूँ, फिर भी जो कुछ भेरा सामर्थ्य होगा, वह तुम्हारी सेवा
में लगा दूँगा।
इस कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने थे पहले तुमको अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए
और यदि काम करने के बाद तुम असफल हो जाओगी अथवा अप्रसन्न हो जाओगी तो मैं अपनी
ओर में तुमसे प्रतिज्ञा करता हूँ कि चाहे तुम भारत के लिए काम करो यान करो,
तुम वेदांत को त्याग दो या उसमें स्थित रहो, मैं आमरण तुम्हारे साथ हूँ। 'हाथी
के दाँत बाहर निकलते हैं, परंतु अंदर नहीं जाते।' -इसी तरह मर्द के वचन वापस
नहीं फिर सकते। यह मैं तुमसे प्रतिज्ञा करता हूँ। फिर से मैं तुमको सावधान
करता हूँ। तुमको अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए, और कुमारी मूलर आदि के आश्रित
न रहना चाहिए। अपने ढंग की वह एक शिष्ट महिला है, परंतु दुर्भाग्यवश जब वह
बालिका ही थी, तभी से उसके मन में यह बात सभा गई है कि वह जन्म से ही एक लेता
है और संसार को हिलाने के लिए धन के अतिरिक्त किसी गुण को आवश्यकता नहीं है।
यह भाव फिर-फिर कर उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके मन में उठत है और थोड़े दिनों
में तुम देखोगी कि उसके साथ मिलकर रहना तुम्हारे लिए असंभव होगा। अब उसका
विचार कलकत्ते में एक मकान लेने का है, जहाँ तुम और वह तथा अन्य यूरोपीय या
अमरीकी मित्र यदि आकर रहना चाहें तो रह सकें।
उसका विचार शुभ है, परंतु महंतिन बनने का उसका संकल्प दो कारणों से कभी सफल न
होगा-उसका क्रोधी स्वभाव और अहंकारयुक्त व्यवहार, तथा उसका अत्यंत अस्थिर मत ।
बहुतों से मित्रता करना दूर से ही अच्छा रहता है और जो मनुष्य अपने पैरों पर
खड़ा होता है, उसका हमेशा भला होता है।
श्रीमती सेवियर नारियों में एक रत्न हैं, ऐसी गुणवती और दयालु । केवल सेवियर
दंपत्ति ऐसे अंग्रेज़ हैं जो भारतवासियों से घृणा नहीं करते, स्टर्डी की भी
गिनती इनमें नहीं है। श्रीमान् और श्रीमती सेवियर दो ही व्यक्ति हैं जो
अभिमान-पूर्वक हमें उत्साह दिलाने नहीं आए थे, परंतु उनका अभी कोई निश्चित
कार्यक्रम नहीं है। जब तुम आओ तब उन्हें अपने साथ काम में लगाओ। इससे तुमको भी
सहायता मिलेगी और उन्हें भी। परंतु अंत में अपने पैरों पर ही खड़ा होना
परमावश्यक है।
अमेरिका से मैंने यह सुना है कि बोस्टन निवासी मेरी दो मित्र श्रीमती बुल और
कुमारी मैंक्लिऑड शरद ऋतु में भारत आने वाली हैं। कुमारी मैंक्लिऑड को तुम
लन्दन में जानती थीं-वह पेरिस के वस्त्र पहने हुए अमेरिकी युवती; श्रीमती बुल
पचास वर्ष के लगभग हैं और अमेरिका में वे सहानुभूति रखने वाली मेरी मित्र थीं।
मैं तुमको यह सम्मति दूंगा कि यदि तुम उनके साथ ही आओगी तो यात्रा की क्लांति
कम हो जाएगी, क्योंकि वे भी यूरोप होते हुए आ रही हैं।
श्री स्टर्डी का बहुत दिनों के बाद पत्र पाकर मुझे हर्ष हुआ। किंतु वह पत्र
रूखा और प्राणहीन था। मालूम होता है कि लंदन के कार्य के असफल होने से वे
निराश हुए।
तुम्हें मेरा अनंत प्यार।
भगवत्पदाश्रित,
विवेकानंद
(स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित)
अल्मोड़ा,
२९ जुलाई, १८९७
प्रिय शशि,
तुम्हारा काम-काज ठीक ठीक चल रहा है, यह समाचार मिला। तीनों भाष्यों का अच्छी
तरह से अध्ययन करना तथा यूरोप।य दर्शन एवं तत्संबधी विषयों का भी सम्यक्
अध्ययन आवश्यक है, इसमें त्रुटि नहीं होनी चाहिए। दूसरों से लड़ने के लिए
उपयुक्त अस्त्र चाहिए, इस बात को कदापि भूल न जाना। अब तो शुकुल (स्वामी
आत्मानंद) पहुँच गया है, तुम्हारी सेवा इत्यादि की समुचित व्यवस्था हो गई
होगी। सदानंद यदि वहाँ नहीं रहना चाहे तो उसे कलकत्ते भेज देना एवं प्रति
सप्ताह एक रिपोर्ट आय-व्यय इत्यादि सभी विवरण सहित, मठ में भेजने की व्यवस्था
करना, इस काये में भूल नहीं होनी चाहिए। आलासिंगा के बहनोई यहाँ पर बद्रीदास
से चार सौ रुपये क़र्ज़ लेकर घर गए हैं-पहुँचते ही भेज देने की बात थी, किंतु
पता नहीं अब तक क्यों नहीं भेजा। आलासिंगा से पूछता एवं शीघ्र भेजने को कहना;
क्योंकि परसों मैं यहाँ से रवाना हो रहा हूँ-मसूरी अथवा अन्यत्र जहाँ कहीं सी
जाना हो, बाद में निश्चय करूँगा। कल यहाँ पर अंग्रेज़ लोगों के बीच एक
व्याख्यान हुआ था, उससे सब लोग अत्यंत आनंदित हुए हैं। किंतु उससे पूर्व दिवस
हिंदी में मेरा भाषण हुआ, उससे मैं स्वयं अत्यंत आनंदित हूँ-मुझे पहले ऐसी
धारणा नहीं थी कि हिंदी में भी मैं वक्तृता दे सकूँगा। क्या मठ के लिए युवक
एकत्र किये जा रहे हैं? यदि ऐसा होता हो तो कलकत्ते में जैसा कार्य चल रहा है,
ठीक उसी प्रकार से कार्य करते रहो। अभी कुछ दिन अपनी बुद्धि को विशेष खर्च न
करना, क्योंकि ऐसा करने से उसके समाप्त हो जाने का भय है-कुछ दिन बाद उसका
प्रयोग करना।
तुम अपने शरीर का विशेष ध्यान रखना-किंतु विशेष देखभाल करने से शरीर स्वस्थ न
रहकर कहीं अधिक खराब हो जाता है। विद्याबल के बिना मान्यता नहीं मिल सकती-यह
निश्चित है एवं इस ओर ध्यान रखकर कार्य करते रहना। मेरा हार्दिक प्यार तथा
आशीर्वाद जानना एवं गुडविन आदि से कहना।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानंद
(स्वामी अखण्डानंद को लिखित)
अल्मोड़ा,
३० जुलाई, १८९७
प्रिय अखण्डानंद,
तुम्हारे कथनानुसार डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट लेर्विज साहब को मैंने एक पत्र
लिख दिया है। साथ ही, तुम भी उनके विशेष कार्यों का उल्लेख कर डॉक्टर शशि के
द्वारा संशोधन कराके 'इंडियन मिरर' में प्रकाशनार्थ एक विस्तृत पत्र लिखना एवं
उसकी एक प्रति उक्त महोदय को भेजना। हम लोगों में जो भूखे हैं, वे केवल दोष ही
ढूँढते रहते हैं, वे कुछ गुण भी तो देखें।
आगामी सोमवार को मैं यहाँ से रवाना हो रहा हूँ।...
अनाथ बालकों को एकत्र करने की क्या व्यवस्था हो रही है ? नहीं तो मठ से
चार-पाँच जनों को बुला लो, गाँवों में ढूँढ़ने से दो दिन में ही मिल जाएंगे।
स्थायी केंद्र की स्थापना तो होनी ही चाहिए। और-दैव कृपा के बिना इस देश में
क्या कुछ हो सकता है ? राजनीति इत्यादि में कभी सम्मिलित न होना तथा उससे कोई
संबंध न रखना। किंतु उनसे किसी प्रकार का वाद-विवाद करने की आवश्यकता नहीं है।
जो का करना है, उसमें तन-मन-धन लगा देना चाहिए। यहाँ पर साहबों के बीच मैंने
एक अंग्रेज़ी भाषण तथा भारतीयों के लिए एक भाषण हिंदी में दिया था। हिंदी में
मेरा यह प्रथम भाषण था-किंतु सभी ने बहुत पसन्द किया। साहब लोग तो जैसे हैं
वैसे ही हैं, चारों ओर यह सुनायी दिया 'काला आदमी', भाई, बहुत आश्चर्य की बात
है।' आगामी शनिवार को यूरोपियन लोगों के लिए एक दूसरों भाषण होगा। यहाँ पर एक
बड़ी सभा स्थापित की गई है। भविष्य में कितना कार्य होता है-यह देखना है।
विद्या तथा धार्मिक शिक्षा प्रदान करना इस सभा का मुख्य उद्देश्य है।
सोमवार को यहाँ से बरेली रवाना होना है, फिर सहारनपुर तथा उसके बाद अम्बाला
जाना है, वहाँ से कैप्टन सेवियर के साथ संभवतः मसूरी जाऊँगा, अनंतर कुछ सर्दी
पड़ने पर वापस लौटने का विचार है एवं राजपूताना जाना है।
तुम पूरी लगन के साथ कार्य करते रहो, डरने की क्या बात है? 'पुन: जुट जाओ'-इस
नीति का पालन करना मैंने भी प्रारंभ कर दिया है। शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी
है, फिर उसे आलस्य में क्यों नष्ट किया जाए? 'जंग लड़कर मरने से घिस घिस कर
मरना कहीं अधिक अच्छा है! मर जाने पर भी भेरी हड्डी-हड्डी से जादू की करामात
दिखायी देगी, फिर अगर मैं मर भी जाऊँ तो चिंता किस बात की है? दस वर्ष के अंदर
संपूर्ण भारत में छा जाना होगा-इससे कम में नशा ही न होगा।' पहलवान की तरह
क़मर कस कर जुट जाओ-'वाह गुरु की फ़तह!' रुपये-पैसे सब कुछ अपने आप आते
रहेंगे, मनुष्य चाहिए, रुपयों की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य सब कुछ कर सकता है,
रुपयों में क्षमता कितनी है?-मनुष्य चाहिए-जितने मिले उतना ही अच्छा है।...'म'
ने तो बहुत रुपया एकत्र किया था, किंतु मनुष्य के बिना उसे सफलता कितनी मिली?
किमधिकमिति।
स्नेह,
विवेकानंद
(कुमारी जोसेफ़िन मैंक्लिऑड को लिखित)
बेलूड़ मठ,
११ अगस्त, १८९७
प्रिय 'जो',
…सुनो, माँ के काम में कोई वाधा नहीं आएगी। क्योंकि उसका निर्माण सत्य,
निश्छलता और पवित्रता से किया गया है और वह सब आज तक अक्षुण्ण रहा है। पूर्ण
निश्छलता ही इसका मूल मंत्र रहा है।
प्यार के साथ
तुम्हारा,
विवेकानंद
(स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित)
अम्बाला,
१९ अगस्त, १८९७
प्रिय शशि,
अर्थाभाव के कारण मद्रास का कार्य उत्तम रूप से नहीं चल रहा है, यह जानकर मुझे
अत्यंत दुःख हुआ। आलासिंगा के बहनोई के द्वारा उधार लिये गए रुपये अल्मोड़ा
पहुँच चुके हैं, यह जानकर ख़ुशी हुई। गुडविन ने व्याख्यान संबंधी जो धन अवशिष्ट
है, उसमें से कुछ रुपये लेने के लिए स्वागत समिति को पत्र देने को लिखा है।...
उस व्याख्यान के धन को स्वागत में व्यय करना अत्यंत हीन कार्य है-इस बारे में
मैं किसी से कुछ भी कहना नहीं चाहता। रुपयों के संबंध में हमारे देशवासियों का
आचरण किस प्रकार का है, यह मैंने अच्छी तरह से जान लिया है। तुम स्वयं मेरी ओर
से अपने मित्रों को यह बात नम्रतापूर्वक समझा देना कि यदि वे खर्च वहन करने का
कोई साधन ढूँढ निकाले तो ठीक है, अन्यथा तुम लोग कलकत्ते के मठ में चले जाना
अधवा मठ को वहाँ से उठाकर रामनाड़ ले जाना।
मैं इस समय धर्मशाला के पहाड़ पर जा रहा हूँ। निरंजन, दीनू, कृष्णलाल, लाटू
एवं अच्युत अमृतसर में रहेंगे। सदानंद को अभी तक मठ में क्यों नहीं भेजा गया?
यदि वह अभी तक वहीं हो तो अमृतसर से निरंजन के पन्र मिलते ही उसे पंजाब भेज
देना। मैं पंजाब के पहाड़ों पर और भी कुछ विश्राम लेने के बाद पंजाब में कार्य
प्रारंभ करूँगा। पंजाब तथा राजपूताना वास्तविक कार्यक्षेत्र हैं! कार्य
प्रारंभ कर तुम लोगों को सूचित करूँगा।
बीच में मेरा स्वास्थ्य अत्यंत ख़राब हो गया था। अब धीरे-धीरे सुधर रहा है।
पहाड़ पर कुछ दिन रहने से ही ठीक हो जाएगा। आलासिंगा, जी. जी., आर. ए. गुडविन,
गुप्त (स्वामी सदानंद), शुकुल आदि सभी को मेरा प्यार कहना तथा तुम स्वयं
जानना। इति।
सस्नेह,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
बेलूड़ मठ
[2]
,
१९ अगस्त, १८९७
प्रिय श्रीमती बुल,
मेरा शरीर विशेष अच्छा नहीं है; यद्यपि मुझे कुछ विश्राम मिला है, फिर भी
आगामी जाड़े से पूर्व पहले जैसी शक्ति प्राप्त होने की संभावना नहीं है।
'जो'-के एक पत्र से पता चला कि आप दोनों भारत आ रही हैं। आप लोगों को भारत में
देखकर मुझे जो खुशी होगी, उसका उल्लेख अनावश्यक है; किंतु पहले से ही यह जान
लेना आवश्यक है कि यह देश समग्र पृथ्वी में सबसे अधिक गंदा तथा अस्वास्थ्यकर
है। बड़े शहरों को छोड़कर प्राय: सर्वत्र ही यूरोपीय जीवन-यात्रा के अनुकूल
सुख-सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं।
इंग्लैंड से समाचार मिला है कि श्री स्टर्डी अभेदानंद को न्यूयार्क भेज रहे
हैं। मेरे बिना इंग्लैंड में कार्य चलना असंभव सा प्रतीत हो रहा है। इस समय एक
पत्रिका प्रकाशित कर श्री स्टर्डी उसका संचालन करेंगे। इसी ऋतु में इंग्लैंड
रवाना होने को मैंने व्यवस्था की थी; किंतु चिकित्सकों की मूर्खता के कारण वह
संभव न हो सका। भारत में कार्य चल रहा है।
यूरोप अथवा अमेरिका के कोई व्यक्ति इस देश के किसी कार्य में इस समय आत्मनियोग
कर सकेंगे-मुझे ऐसी आशा नहीं है। साथ ही यहाँ की जलवायु को सहन करना किसी भी
पाश्चात्य देशवासी के लिए नितांत कष्टप्रद है। एनी बेसेंट की शक्ति असाधारण
होने पर भी वे केवल थियोसॉफ़िस्टों में ही कार्य करती हैं; फलस्वरूप
म्लेच्छों को जिस प्रकार इस देश में सामाजिक परिवर्जनादि विविध असम्मानों का
सामना करना पड़ता है, उन्हें भी उसी प्रकार करना पड़ रहा है। यहाँ तक कि
गुडविन भी बीच बीच में अत्यंत उग्र हो उठता है तथा मुझको उसे शांत करना पड़ता
है। गुडविन बहुत अच्छी तरह से कार्य कर रहा है, पुरुष होने के कारण लोगों से
मिलने में उसे किसी प्रकार की बाधा नहीं है। किंतु इस देश के पुरुष समाज में
नारियों का कोई स्थान नहीं है, वे केवल मात्र अपने लोगों में ही कार्य कर सकती
हैं। जो अंग्रेज़ मित्र इस देश में आए हैं, अभी तक किसी कार्य में उनका उपयोग
नहीं हो सका है, भविष्य में हो सकेगा अथवा नहीं, यह भी पता नहीं। इन सब विषयों
को जानकर भी यदि कोई प्रयास करने के लिए प्रस्तुत हों तो उन्हे