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व्याख्यान

धर्म

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम धर्म : उसकी विधियाँ और प्रयोजन पीछे     आगे

विश्‍व के धर्मों के अध्‍ययन से हमें साधारणतया धार्मिक प्रवृत्ति की दो विधियों का पता चलता है। एक है ईश्‍वर से मनुष्‍य की ओर। जैसे धर्मों के सेमिटिक वर्ग में ईवर का ज्ञान सर्वप्रथम आता है, पर आश्‍चर्य की बात यह है कि इसके साथ आत्‍मा की कोई चर्चा भी नहीं आती। यहूदी लोगों की यह विशेषता रही है कि अपनेइतिहास के अर्वाचीनकाल तक उन लोगों ने मानवात्‍मा संबंधी ज्ञान का कोई विकास ही नहीं किया था। उनके अनुसार मनुष्‍य, मन तथा भौतिक पदार्थों के संयोग से बना है, बस। मृत्‍यु के साथ सब कुछ का अंत हो जाता है। दूसरी ओर इन्‍हीं जातियों ने ईश्‍वर संबंधी अत्‍यंत आश्‍चर्यजनक धारणा का विकास किया था। यह धार्मिक प्रक्रिया की एक विधि है। दूसरी विधि है मनुष्‍य से ईश्‍वर की ओर की। यह दूसरी विधि ख़ासकर आर्यों में पायी जाती है, जब कि पहली सेमिटिक लोगों में। आर्यों ने पहले-पहल आत्‍मा संबंधी धारणा का विकास किया। ईश्‍वर-संबंधी इनकी धारणा अस्‍पष्ट, अविकसित तथा धूमिल थी। पर जैसे जैसे उन्‍हें मानवात्‍मा का स्‍पष्‍ट ज्ञान होता गया, वैसे वैसे ईश्‍वर का ज्ञान भी उसी अनुपात में स्‍पष्‍ट होता गया। इस तरह वेदों की जिज्ञासा आत्‍मा से ही शुरु हुई है। आर्यों ने ईश्‍वर-संबंधी जो कुछ ज्ञान लाभ किया, वह सब मानवात्‍मा के ज्ञान के माध्‍यम से ही; और इसलिए उनके संपूर्ण दर्शनों पर जो एक विशिष्‍ट छाप देखने को मिलती है वह है ईश्‍वर संबंधी अंतर्मुखी जिज्ञासा। आर्य लोग सदैव अपनी आत्‍मा में ही ब्रह्म को खोजते रहे हैं। कालांतर में उन लोगों की यह स्‍वाभाविक विशेषता बन गयी। और यह विशेषता उनकी कलाओं तथा उनके सामान्‍यतम व्‍यवहारों में भी अभिव्‍यंजित हुई। आज भी जब हम धार्मिक मुद्रा में बैठे किसी व्‍यक्ति का ब्‍यूरोपीय चित्र देखते हैं, तो पाते हैं कि चित्रकार ने उसकी आँखों को ऊर्ध्‍वोन्‍मुख दिखाया हैं, मानो वह प्रकृति से बाहर, आकाश की ओर ईश्‍वर की खोज के लिए देख रहा हो पर दूसरी ओर भारतवर्ष में धार्मिक प्रवृत्ति को साधक की बंद आँखों के द्वारा अभिव्‍यक्‍त किया जाता है, मानो वह अपने भीतर देख रहा हो।

वस्‍तुत: मनुष्‍य के अध्‍ययन के ये ही दो विषय है: बाह्म प्रकृति तथा आंतरिक प्रकृति। वैसे तो ये दोनों विषय परस्‍पर विरोधी प्रतीत होते हैं, पर साधारण मनुष्‍य यही सोचता है कि बाह्म प्रकृति पूर्णतया आंतरिक प्रकृति-विचार-जगत द्वारा ही निर्मित हुई है। संसार के अधिकांश दर्शन, खासकर पाश्‍चात्‍य दर्शन, ऐसा मानते हैं कि ये दोनों- जड़ और चेतन (मन) -विरोधी तत्व हैं। अंतत: यह देखा जाता है कि ये दोनों तत्व परस्‍पर आकृष्‍ट होते हैं और अंत में संघटित होकर एक ही अनंत सत्ता का निर्माण करते हैं। मेरे इस विश्‍लेषण का यह क़तई अर्थ नहीं कि मैं इन दोनों दृष्टियों में से एक को उच्‍च और दूसरी को निम्‍न बताना चाहता हूँ। मेरा मतलब यह कदापि नहीं है कि जो लोग ब्रह्म प्रकृति के माध्‍यम से सत्‍य का संधान कर रहे हैं, वे ग़लत रास्‍ते पर हैं-अथवा, जो आंतरिक प्रकृति के माध्‍यम से ही सत्‍य को पाना चाहते हैं, वे अपेक्षाकृत उच्‍चतर कोटि के माध्‍यम से ही सत्‍य को पाना चाहते हैं, वे अपेक्षाकृत उच्‍चतर कोटि के हैं। ये तो सत्‍य के साधन की दो विधियाँ हैं। दोनों ही को अवश्‍य ही रहना है, दोनों ही का अध्‍ययन करना चाहिए और अंत में यह यह देखा जाएगा कि दोनों एक में मिल जाती हैं। हम देखेंगे कि न तो शरीर मन का विरोधी है न मन शरीर का, यद्यपि ऐसे कुछ लोग मिलेंगे, जो सोचते हैं कि यह शरीर तो कुछ नहीं है। प्राचीन काल में हर देश में कुछ लोग ऐसे मिलते थे, खै़र, बाद में यह अनुभव किया गया, जैसा कि वेदों में उल्लिखित है, कि शरीर मन में तथा मन शरीर में विलीन हो जाता है।

तुमको सभी वेदों में समान रूप से उपदिष्‍ट वचन अवश्‍य याद होगा, 'जिस प्रकार मिट्टी के एक ढेले को जानने से हमें संसार भर की संपूर्ण मिट्टी का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार वह कौन सी वस्‍तु है, जिसे जानकर हमें संपूर्ण वस्‍तुओं का ज्ञान हो जाएगा ?' वस्‍तुत: संपूर्ण मानव ज्ञान का यही आशय है। यह उस एकत्‍व की खोज है, जिसकी ओर हम सभी अग्रसर हो रहे हैं। हमारे सभी कार्य - चाहे वे अत्‍यंत भौतिक हों, चाहे वे स्‍थूलतम और सूक्ष्‍मतम हों, चाहे वे उच्‍चतम या एक ही परम आध्‍यात्मिक - समान रुपेण इस एक आदर्श की ओर उन्‍मुख हैं -वह है, एकत्‍व की प्राप्ति। मनुष्‍य पहले अकेला रहता है। फिर वह विवाह करता है। ऊपर से देखने में भले ही इसमें उसका स्‍वार्थ झलके, पर इसके मूल में एक ही इच्‍छा - प्रेरकशक्ति हैं। - ऐक्‍य ही प्राप्ति। उसकी संतानें हैं, मित्र हैं, वह देशप्रेमी है, विश्‍वप्रेमी है और संपूर्ण विश्‍वप्रेम में उसकी परिसम्पि होती है। मानो कोई अदम्‍य शक्ति है, जो हमें पूर्णता की उस स्थिति में जाने के लिए बाध्‍य करती है, जिसमें हम अपने तुच्‍छ व्‍यक्तित्‍व को समाप्‍त कर अधिकाधिक उदार बन जाते हैं। यही वह ध्‍येय है, जिसकी ओर संपूर्ण विश्‍व धावमान है। हर परमाणु एक दूसरे से मिलना चाहता है। परमाणु पर परमाणु मिलते जाते हैं और इस तरह पृथ्‍वी, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र तथा ग्रहों का निर्माण होता है। फि़र वे भी एक दूसरे की ओर खिंचे जा रहे हैं और अंतत: हम जानते हैं कि संपूर्ण विश्‍व-भौतिक तथा चेतन- एक अभिन्‍न सत्ता में अंगीभूत हो जाता है।

जो विधान बृहत पैंगंबरों में बड़े पैमाने पर काम कर रहा है, वही विधान सूक्ष्‍म पैंगंबरों में भी छोटे पैमान पर काम कर रहा है। जिस तरह विविधता तथा पृथकता में विश्‍व का अस्तित्‍व है, और यह सदा एक अभिन्‍नता और एकता की ओर अग्रसर हो रहा है, उसी तरह अपने इस छोटे जगत में भी प्रत्‍येक आत्‍मा मानो अन्‍य सभी वस्‍तुओं से पृथक सत्ता के रूप में जन्‍म लेती हैं। जो प्राणि जितना ही अज्ञानी है, जितना ही अप्रबुद्ध हैं, वह उतना ही अधिक अपने को विश्‍व की अन्‍य वस्‍तुओं से भिन्‍न समझता है। जो जितना ही अधिक अपने को विश्‍व की अन्‍य वस्‍तुओं से भिन्‍न समझता है। जो जितना ही अज्ञानी है, वह उतना ही अधिक सोचता है कि वह मर जाएगा अथवा जन्‍म लेगा- और यह विचार ही विश्‍व के उसकी पृथकता का द्योतक हैं। पर हम यह भी देखते हैं कि आदमी जैसे जैसे विकसित होता है और ज्ञान लाभ करता हैं, वैसे वैसे उसमें नैतिकता का विकास होता है और अपृथक ताप की भावना का प्रादुर्भाव होता है। चाहे लोग इसे समझें या नहीं, उनके पीछे की यही शक्ति उन्‍हें नि:स्‍वार्थता की ओर प्रेरित करती रहती है। और सारी नैतिकता की भित्ति यही है। यही सारे नीतिशास्‍त्रों का मूल तत्‍वहै, चाहे वे किसी भी भाषा में, किसी भी धर्म में अथवा किसी भी आचार्य द्वारा उपदिष्‍ट हों। 'तू नि-स्‍वार्थ बन' ''मैं नहीं, वरन् 'तू'' '' - यह भाव ही सारे नीतिशास्‍त्र की पृष्‍ठभूमि है। और इसका तात्‍पर्य है, व्‍यक्तित्‍व के अभाव की स्‍वीकृति- इस भाव का आना कि तुम मेरे अंग हो और मैं तुम्‍हारा, तुमको चोट लगने से मुझे चोट लगेगी और तुम्‍हारी सहायता करके मैं स्‍वयं की सहायता करूँगा, जब तक तुम जीवित हो, मेरी मृत्‍यु नहीं हो सकती। जब तक इस विश्‍व में एक कीट भी जीवित रहेगा, मेरी मृत्‍यु कैसे हो सकती है? क्‍योंकि उस कीट के जीवन में भी तो मेरा जीवन है! साथ ही यह भाव यह भी सिखाता है कि हम अपने किसी भी सहजीवी प्राणी की सहायता किये बिना नहीं रह सकते, क्‍योंकि उसके हित में ही हमारा भी हित सन्निहित है।

यही वेदांत तथा अन्‍य सभी धर्मों का सार-तत्व हैं। तुम जानते हो कि धर्मों की साधारणत: तीन अवस्‍थाएँ होती हैं। पहली अवस्‍था है दर्शन की, सार- तत्व की, मूलभूत सिद्धांत की। इन सिद्धांतों की अभिव्‍यक्ति पुराणों में होती है - ये पुराणमहात्‍माओं तथा महापुरुषों, देवों अथवा दैवी आत्‍माओं से संबद्ध हो सकते हैं - और इन सारे पुराणों में शक्ति की भावना अंतर्निहित रहती है। निम्‍न कोटि के पुराणों में -जैसे आदिम काल के पुराणों में - इस शक्ति की अभिव्‍यक्ति शारीरिक शक्ति के रूप में होती थी, उनके नायक महान शक्तिशाली तथा दैत्‍याकार होते थे। एक ही कथा-नायक संपूर्ण संसार पर विजय प्राप्‍त कर लेता था। जैसे जैसे मनुष्‍यका विकास होता जाता है, वैसे वैसे वह शक्ति की अभिव्‍यक्ति शारीरिक स्‍तर से उच्‍चतर स्‍तर पर देखना चाहता है और इसलिए मनुष्‍य के आदर्श नायक भी उच्‍च स्‍तर के होते जाते हैं। उच्‍च कोटि के पुराणों के नायक महान नैतिक पुरुष है। उनकी शक्ति का प्रकाश नैतिकता और पवित्रता के ही रूप में होता है। उनकी शक्ति का प्रकाश नैतिकता और पवित्रता के ही रूप में होता है। वे स्‍वयं समर्थ हैं, अकेले ही अनैतिकता और स्‍वार्थ के उमड़ते ज्‍वार को पीछे ढकेल देने की क्षमता होती है है उनमें। धर्म की तीसरी अवस्‍था है प्रतीक, जिसे तुम कर्मकांड और बाह्माचार कहते हो। पुराणों और आदर्श पुरुषों के जीवन भी कुछ लोगों के लिए पर्याप्‍त नहीं है। इससे भी निम्‍न कोटि के लोग होते हैं, जो बच्‍चों की भाँति खिलौने के माध्‍यम से से ही धर्म को समझ सकते हैं। और इस तरह ऐसे प्रतीकों का विकास हुआ, जिन्‍हें वे विशिष्‍ट उदाहरण के यप में इस तरह देख सकते हैं तथा अनुभव कर सकते हैं, जैसे वे ठोस पदार्थ हों।

इस तरह तुमने देखा कि हर धर्म में तीन अवस्‍थाएँ होती हैं : दर्शन, पुराण तथा कर्मकांड। सौभाग्‍य से भारतवर्ष में वेदांत धर्म में इन तीनों अवस्‍थाओं का विभाजन अत्‍यंत स्‍पष्‍ट ढंग से हुआ है। अन्‍य धर्मों में सिद्धांत तथा पुराण इस तरह मिले-जुले हैं कि उन्‍हें अलग अलग करके समझना अत्‍यंत दुष्‍कर है। पुराण इतने प्रभावशाली होते है कि वे सिद्धांतों को निगल जाते हैं और शताब्दियों के पाश्‍चात् ये सिद्धांत ओझल ही हो जाते हैं। उनकी व्‍याख्‍या और उनके उदाहरण ही सिद्धांतों को निगल खाते हैं और लोग केवल व्‍याख्‍या तथा उदाहरण- आदर्श पुरुषों के जीवन- यही देखते रह जाते हैं, जब कि उनके मूलभूत सिद्धांत प्राय: तिरोहित हो जाते हैं। यह बात इस दह तक पहुँच जाती हैं कि अगर आज कोई ईसा मसीह के जीवन से अलग ईसाई धर्म के सिद्धांतों की चर्चा करें, तो लोग उस पर आक्रमण करेंगे, उसे गलत समझेंगे तथा मानेंगे कि वह ईसाई धर्म का खंडन कर रहा है। इसी तरह अगर कोई इस्‍लाम के सिद्धांत की चर्चा करें, तो मुसलमान लोग ठीक उसी तरह बुरा मानेंगे। कारण यह है कि इन धर्मों में मूर्त विचारों ने - महापुरुषों तथा पैग़ंबरों की जीवनियों ने मौलिक सिद्धांतों को पूर्णत: आच्‍छादित कर लिया है।

वेदांत के साथ बड़ी सुविधा यह है कि यह किसी एक व्‍यक्ति पर आधारित नहीं रहा और इसलिए स्‍वभावत: ही ईसाई, स्‍लाम अथवा बौद्ध धर्मों की भाँति इसके सिद्धांतों को धर्माचार्यों की जीवनियों ने ग्रास या आवृत नहीं कर लिया। वेदांत में सिद्धांत ही जीवित हैं और पैगंबरों के जीवन मानो वेदांत के लिए अज्ञात हैं और गौण है। उपनिषदों में किसी ख़ास पैगंबर की चर्चा नहीं है, प्रत्‍युत अनेक स्‍त्री एवं पुरुष पैगंबरों की चर्चा है। प्राचीन हिब्रू लोगों में भी ये विचार थे अवश्‍य, पर हम देखते हैं कि हिब्रू साहित्‍य का अधिकांश मूसा ही अधिकृत किये हुए हैं। मेरा मतलब यह कदापि नहीं कि इन पैगंबरों का किसी राष्‍ट्र की धार्मिक चेतना पर छा जाना बुरा है, परंतु यदि मौकि सिद्धांत की बात है, हम काफ़ी हद तक सहमत हो सकते हैं, पर व्‍यक्तियों के बारे में भी सहमत हों, ऐसा नहीं हो सकता। व्‍यक्तियों का प्रभाव हमारे संवेगों पर पड़ता है, पर सिद्धांत हमें इससे उच्‍चतर स्‍तर पर प्रभावित करते हैं - वे हमारी सुस्थिर विचार-शक्ति को प्रभावित करते हैं। अंतोगत्‍वा सिद्धांतों की ही विजय होगी, क्‍योंकि मनुष्‍य का मनुष्‍यत्‍व इसी में है। संवेग तो अनेक बार हमें पशुओं की श्रेणी तक खींचकर के आते हैं। संवेगों का संबंध वृद्धि से अधिक इंद्रियों से है। और इसलिए सिद्धांत जब पूर्णत: तिरोहित हो जाते हैं और संवेगों का ही बोल-बाला रह जाता है, तब धर्म का अध:पतन धर्मांधता तथा सांप्रदायिक कट्टरता के रूप में होता है। वैसी स्थिति में वे राजनीतिक दलबन्दियाँ ही रह जाते हैं। अत्‍यंत उग्र भ्रांत धारणाएँ अपनाई जाती हैं व उनके नाम पर हज़ारों अपने बंधु-बान्‍धवों की गर्दन काटने के लिए तैयार हो जाते हैं। यही वजह है कि यद्यपि ये महापुरुष तथा पैगंबर मानवता के कल्‍याण के महान प्रेरक हैं, फिर भी इनके जीवन तब अत्‍यंत अहितकर साबित होते हैं, जब वे अपने आधारभूत सिद्धांतों के ही प्रतिकूल जन-समुदायों को ले चलाने लगते हैं। इससे सदा धर्मांधता का सूत्रपात हुआ है तथा संसार रक्‍त से आप्‍लावित होता रहा है। वेदांत ऐसी कठिनाइयों से बच सकता है, क्‍योंकि इसका कोई एक विशेष पैगंबर नहीं। इसके अनेकों द्रष्‍टाएँ हुए हैं, जो ऋषि कहे जाते हैं। ये द्रष्‍टा इसलिए कहे जाते हैं कि इन्‍होंने सत्‍य का -मंत्रों का दर्शन किया।

मंत्र शब्‍द का अर्थ है, 'सुविचारित', जिसका चंतन किया गया है और ऋषि इन विचारों का द्रष्‍टा होता है। इस तरह ये मंत्र किन्‍हीं विशेष व्‍यक्तियों की संपत्ति नहीं है। चाहे कोई कितना भी महान हो, पर उसका इन पर एकाधिपत्‍य नहीं हो सकता। और न तो ये विचार बुद्ध और ईसा जैसे महापुरुषों की ही एकमात्र संपत्ति हो सकते हैं। ये विचार तो निम्‍न से निम्‍न प्राणी के भी उतने ही हैं, जितने बुद्ध के- नन्‍हें कीटाणु का भी इन पर उतना ही आधिपत्‍य है, जितना ईसा का। कारण,ये सिद्धांत तो सार्वभौम हैं। कभी इनकी रचना नहीं होती। ये तो सदैव ही रहे हैं और सदैव रहेंगे। ये स्‍वयंभू हैं- आज विज्ञान जिन नियमों को बताता हैं, उनसे इनकी रचना की व्‍याख्‍या नहीं हो सकती। प्रकृति में शाश्‍वत रूप से ये विद्यमान है। वे आवृत रहते हैं और फिर अनावृत-आविष्‍कृत - हो जाते हैं। यदि न्‍यूटन का जन्‍म न भी होता, तो भी गुरुत्‍वाकर्षण का सिद्धांत रहता ही, और अपनी स्‍वाभाविक गति से काम करता ही जाता। हाँ, न्‍यूटन की प्रतिभा के अवश्‍य इसको सूत्रबद्ध किया, उसका आविष्‍कार किया, परिचय कराया, उसे मनुष्‍य जाति के ज्ञान का एक अंग बना दिया। ठीक ऐसी ही बात इन धार्मिक सिद्धांतों- महान आध्‍यात्मिक सत्‍यों -के संबंध में भी हैं। ये शाश्‍वत रूप से काम करते आ रहे हैं। अगर वेद, बाइबिल तथा कु़रान न भी होते, अगर ऋषि तथा पैगंबर न भी पैदा हुए होते, तो भी ये नियम रहते ही। यही होता कि कुछ काल के लिए ये अनाविष्‍कृत रहते। पर धीरे-धीरे ये मानव जाति की उन्‍नति के लिए, मानव प्रकृति के विकास के लिए काम करते ही जाते। पैगंबर तथा ऋषि वे होते हैं, जो इन नियमों का आविष्‍कार करते हैं- आध्‍यात्मिक क्षेत्र में पैगंबर हैं, वैसे ही ये आध्‍यात्मिक क्षेत्र में। और ये लोग इन आविष्‍कृत नियमों पर अपना एकाधिपत्‍य नहीं साबित कर सकते, ये तो प्रकृति मात्र की सार्वजनिक संपत्ति है।

जैसा कि हिंदू लोग मानते हैं, वेद शाश्‍वत है। अब हम समझने लगे हैं कि उनके शाश्‍वत कहने का तात्‍पर्य क्‍या है। शाश्‍वत का तात्‍पर्य है कि नियमों का न तो आदि है, न अंत, जैसे प्रकृति का न आदि है, न अंत। एक पृथ्‍वी के बाद दूसरी पृथ्‍वी, एक सिद्धांत के बाद दूसरा सिद्धांत बनेगा और कुछ समय तक चलकर पुन: विघटित होकर प्रलय में विलीन हो जाएगा - किंतु विश्‍व ज्‍यों का त्‍यों बना ही रहेगा। कोटि कोटि सिद्धांत बनते हैं और करोड़ों विनष्‍ट होते हैं, पर विश्‍व ज्‍यों का त्‍यों बना रहता है। किसी खास ग्रह के संदर्भ में काल के आदि अथवा अंत के विषय में कुछ कहा जा सकता है। पर जहाँ तक विश्‍व का प्रश्‍न है, काल का कुछ भी अर्थ नहीं है। ठीक यही बात भौतिक, मानसिक तथा आध्‍यात्मिक सिद्धांतों के बारे में भी है। उनका न आदि है, न अंत और अपेक्षाकृत हाल ही में, अधिक से अधिक कुछ हज़ार वर्ष पहले, मनुष्‍य ने इन्‍हें प्रकाश में लाने की कोशिश शुरु की। अभी तो अनंत राशि हमारे सामने पड़ी है। इसलिए वेदों से एक महान प्रारंभिक शिक्षा हमें मिलती हैं कि धर्म का अभी आरंभ ही हुआ है। आध्‍यात्मिक सत्‍य का अनंत समुद्र हमारे सामने पड़ा है, जिसका हमें आविष्‍कार करना है तथा जिसे हमें अपने जीवन में उतारना है। दुनिया ने हज़ारों पैगंबरों को देखा है, पर उसे अभी और भी करोड़ों को देखना है।

प्राचीन काल में हर समाज में अनेक पैगंबर हुआ करते थे- अब ऐसा समय आयेगा कि दुनिया के हर शहर की हर गली में पैगंबर घूमेंगे। प्राचीन काल में समाज के कुछ विशिष्‍ट नियमों के अनुसार खास खास व्‍यक्ति ही पैगंबर माने जा सकते थे। अब तो ऐसा समय आने वाला है, जब समझा जाने लगेगा कि धार्मिक होना पैगंबर होना ही है और तब तक कोई धार्मिक नहीं होता, जब तक वह पैगंबर नहीं बन जाता। तब हम लोग समझेंगे कि कतिपय विचारों को समझ लेना तथा उन्‍हें अभिव्‍यक्‍त करना ही धार्मिकता का रहस्‍य नहीं है, वरन् जैसा कि वेद कहते हैं आध्‍यात्मिक तत्वों की अनुभूति करनी होगी तथा और भी उच्‍च ओर अनाविष्‍कृत तथ्‍यों का संधान करना होगा, उन्‍हें समाज के लिए सुलभ करना होगा। धर्माध्‍ययन ऐसे धर्माचार्यों के निर्माण की कुंजी है। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों को पैगंबर बनाने के लिए प्रशिक्षण-केंद्र होना चाहिए। संपूर्ण विश्‍व को पैगंबरों से भर देना होगा- और जब तक कोई पैगंबर नहीं बनता, तब तक तो धर्म उसके लिए तुच्‍छ और महज़ मज़ाक का विषय रहेगा। जिसे अर्थ में हम दीवार को देखते हैं, उसकी अपेक्षा हज़ार गुने प्रखर रूप में हमें धर्म को देखना, उसे अनुभव करना होगा।

धर्म की विभिन्‍न अभिव्‍यक्तियों का मूल एक ही तत्व है और वह हमारे लिए बहुत पहले निश्चित किया जा चुका है। हर विज्ञान उस बिंदु पर आकर रुक जाता है, जहाँ उसे एक एकत्‍व का पता चल जाता है। उस अंतिम एकत्‍व के ज्ञान के बाद उस विज्ञान को और भी नूतन सिद्धांतों के आविष्‍कार की कोई आवश्‍यकता नहीं रह जाती। धार्मिक क्षेत्र में उस मौलिक एकत्‍व का ज्ञान तो बहुत पहले हो चुका है। अब धर्मों के समक्ष जो काम है, वह है उस इकाई की विभिन्‍न अभिव्‍यक्तियों का पता लगाना। उदाहरण के लिए हम किसी भी विज्ञान को ले, जैसे रसायनशास्‍त्र को। मान लो कि ऐसे तत्व का पता चल जाए, जिससे सभी तत्वों का निर्माण हो सकता है। तब तो रसायनशास्‍त्र अपने चरम विकास पर पहुँच जाएगा और उसके सामने बस इतना ही काम शेष रह जाएगा कि वह देखे कि उस मौलिक तत्व की कितनी अभिव्‍यक्तियाँ हैं और जीवन में उनका क्‍या उपयोग है। ठीक यही बात धर्म के मामले में भी है। युगों पूर्व धर्म के विराट् मौलिक तत्वों का पता चल गया, उसके क्षेत्र तथा उसकी योजना का ज्ञान प्राप्‍त हो गया। यह सब तभी हो गया, जब मनुष्‍य ने वेदों में उल्लिखित तथाकथित 'अंतिम शब्‍द' - सोहम् - को पा लिया अर्थात इस सत्‍य को समझ लिया कि जड़- चेतनमय विश्‍व में एक ही सत्ता व्‍याप्‍त है, चाहे उसे आप 'गॉड' कहें अथवा ब्रह्म, अल्‍लाह कहें अथवा जिहोवा। मनुष्‍य इस सत्‍य की अनुभूति के आगे नहीं जा सकता। सौभाग्‍य से हमारे लिए इस सिद्धांत का आविष्‍कार पहले ही हो चुका है और हमारे लिए बस इतना ही शेष है कि इसका अपने जीवन में उपयोग करें। हमें वह काम करना है, जिससे प्रत्‍येक मनुष्‍य द्रष्‍टा बन जाए। सचमुच हमारे सामने एक महान कार्य हैं।

पहले जमाने में लोगों को यह पता ही नहीं था कि पैगंबर का मतलब क्‍या होता है। वे सोचते हैं कि संयोग ही से कोई व्‍यक्ति दैवी कृपा अथवा असाधारण प्रतिभा का भागी बनता है और उसके बल पर उत्‍कृष्‍ट ज्ञान प्राप्‍त कर लेता है। आज तो हम यह सिद्ध करने के लिए तैयार है कि प्रत्‍येक व्‍यक्ति को इस उत्‍कृष्‍ट ज्ञान को प्राप्‍त करने का जन्‍मसिद्ध अधिकार है- इस विश्‍व में मात्र संयोग से कुछ नहीं होता। जिस व्‍यक्ति के बारे में हम सोचते हैं कि संयोग से उसने अमुक चीज़ प्राप्‍त कर ली है, वह व्‍यक्ति वस्‍तुत: युगों से उसकी प्राप्ति से उसने अमुक चीज़ प्राप्‍त कर ली है, वह व्‍यक्ति वस्‍तुत: युगों से उसकी प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्‍न करता रहा है। इस तरह सारी समस्‍या का रूप यह हो जाता है : क्‍या हम सचमुच पैगंबर बनना चाहते हैं?' अगर हाँ, तो हम बनकर रहेंगे।

इस तरह पैगंबर बनाने का महान कार्य हमारे सम्‍मुख पड़ा हैं। सभी महत्‍वपूर्ण धर्म जाने-अनजाने इसी उद्देश्‍य की ओर अग्रसर हो रहे हैं। हाँ, अपवाद-स्‍वरूप कुछ ऐसे धर्म अवश्‍य मिल जाएंगे, जो मानते हैं कि आध्‍यात्मिकता का प्रत्‍यक्षीकरण इस जन्‍म में संभव नहीं है। वे मानते हैं कि मनुष्‍य मरेगा और इतर जन्‍म में कभी उसे आध्‍यात्मिक तत्वों के दर्शन होंगे- और तभी उसे उन सत्‍यों की प्रत्‍यक्षानुभूति होगी, जिनमें वह अभी केवल विश्‍वास करता है। किंतु ऐसा मानने वालों से वेदांत पूछेगा कि तब तुम कैसे जानते हो कि आध्‍यात्मिकता नाम की कोई चीज़ है भी? तब उनको यही उत्तर देना पड़ेगा कि ऐसे असाधारण पुरुष सदा होते रहे हैं, जिन्‍हें इसी जन्‍म में साधारणत: अज्ञात और अज्ञेय माने जाने वाले सत्‍यों की झलक मिली है।

इसमें एक कठिनाई है। यदि ये द्रष्‍टा लोग कुछ विचित्र प्रकार के व्‍यक्ति थे और उन्‍हें इस प्रकार की शक्ति संयोग से प्राप्‍त हो गयी थी, तो हमें उनकी बातों में विश्‍वास करने का कोई अधिकार नहीं है। किसी भी संयोग -जनित वस्‍तु में विश्‍वास करना पाप होगा, क्‍योंकि हम उस वस्‍तु को साधारणत: जान तो सकते नहीं। आखिर ज्ञान का अर्थ क्‍या है? अपवादिता का विनाश! मान लो, कोई लड़का किसी गली अथवा ऐसे स्‍थान में जाता है, जहाँ जंगली पशुओं को रखा गया हो और वहाँ वह एक विचित्र रूप वाले पशु को देखता है। उसे पता नहीं कि वह क्‍या है। बाद में वह किसी ऐसे देश में जाता है, जहाँ उसे उस तरह के सैकड़ों पशु दिखायी पड़ते हैं और तब वह समझ जाता है कि पहले वाला पशु किस जाति का प्राणी है। अनुभूत तथ्‍यों में किसी सिद्धांत का दर्शन ही ज्ञान है। अपवाद का भाव अज्ञान का द्योतक है। जब ज्ञात सिद्धांत से परे एक या कुछ ऐसे उदाहरण मिलें, जो उस सिद्धांत से मेल न खाते हों, तो मानना चाहिए कि उनके विषय में हम अंधकार में है। अब अगर वे इक्‍के-दुक्‍के पैगंबर, जैसा लोग कहते हैं, असाधारण पुरुष थे और केवल उन्‍हें ही परम तत्वों की झलक पाने का अधिकार प्राप्‍त था, अन्‍य किसी को नहीं, तब हमें उनमें विश्‍वास नहीं करना चाहिए; क्‍योंकि वे किसी सर्वसाधारण सिद्धांत से असंबद्ध अपवादी दृष्‍टांत हैं। हम तभी उनमें विश्‍वास कर सकते हैं, जब स्‍वयं वैसे पैगंबर हो जाएं।

अख़बारों में निकलने वाले समुद्री साँपों संबंधी मजाकों से तुम सभी परिचित होगे। आखिर ऐसे मज़ाक क्‍यों किये जाते हैं ? इसलिए कि कुछ लोग समय समय पर आकर समुद्रिक सर्प की कहानियाँ कह जाते हैं, तब कि दूसरे लोग उस सर्प को कभी देखते नहीं हैं। चूँकि इनका कोई विशिष्‍ट सिद्धांत नहीं है, इसलिए दुनिया इनमें विश्‍वास नहीं करती। अगर कोई आदमी आकर हमसे कहने लगे कि अमुक पैगंबर हवा में अंतर्धान होकर चले गये, तो हमें इतना अधिकार है कि इन चीज़ों को प्रत्‍यक्ष देख सके। मैं उस व्‍यक्ति से पूछूँगा, ''क्‍या तुम्‍हारे पिता और पितामह ने भी इस बात को देखा था?'' जवाब मिलेगा, ''नहीं। पर पाँच हज़ार वर्ष पूर्व ऐसी घटना हुई थी।'' और अगर मैं इसमें विश्‍वास न करूँ, तो मुझे शाश्‍वत ज्‍वाला में जलना पड़ेगा!

कैसा घोर है! इसका परिणाम है, मनुष्‍य का देवत्‍व से पशुत्‍व की ओर पतन। अगर हमें यों ही विश्‍वास कर लेना होता, तो बुद्धि किसलिए मिली? बुद्धि के विपरीत विश्‍वास करना क्‍या महान कलंक की बात नहीं है? ईश्‍वर ने जो शक्ति हमें दी है, उसका उपयोग न करने का हमारा क्‍या अधिकार है? मुझे विश्‍वास है कि ईश्‍वर उस व्‍यक्ति को तो क्षमा कर दे सकता है, जो अपनी बुद्धि का प्रयोग करता है और आस्‍था नहीं रखता, किंतु वह उसे नहीं क्षमा करेगा जो उसकी दी हुई शक्ति का उपयोग किये बिना ही विश्‍वास कर लेता है। ऐसे व्‍यक्ति का स्‍वभावत: पाशविकता की ओर पतन होता है। उसकी इंद्रियों का ह्रास होता और अंत में उसकी मृत्‍यु हो जाती है। हमें तर्क अवश्‍य करना चाहिए, और जब ये अंत में उसकी मृत्‍यु हो जाती है। हमें तर्क अवश्‍य करना चाहिए, और जब ये पैगंबर और महापुरुष, जिनकी चर्चा सभी देशों की प्राचीन पुस्‍तकों में हैं, तर्क की कसौटी पर खरे उतरें, तभी इनमें विश्‍वास किया जाना चाहिए। जब हम अपने बीच ऐसे पैगंबरों को देख लेंगे, तब अनायास ही हम उनमें विश्‍वास करने लगेंगे। तब हम समझ जाएंगे कि वे पैगंबर विलक्षण पुरुष नहीं थे, प्रत्‍युत एक विशिष्‍ट तत्व की साकार प्रतिमा थे। उनके जीवन के माध्‍यम से इन तत्वों ने अपने को अभिव्‍यक्‍त किया था, और अगर हम भी उन्‍हें अपने जीवन में प्रकाशित करना चाहते हैं, तो हमें उसके लिए साधन करनी होगी। जब हम स्‍वयं पैगंबर बन जाएंगे, तो स्‍वत: उनमें हमारा विश्‍वास जग जाएगा। वे तो दैवी तथ्‍यों के द्रष्‍टा थे। वे इंद्रियातीत तथ्‍यों की झाँकी पा सकते थे। इन बातों में हमारा विश्‍वास तभी हो सकेगा, जब हम स्‍वयं भी वैसा कर सकेंगे; अन्‍यथा नहीं।

वेदांत का यही एकमात्र सिद्धांत है। वह मानता है कि धर्म तो वर्तमान में ही अनुभूत होने वाला विषय है, क्‍योंकि उसके अनुसार यह जन्‍म और वह जन्‍म, जन्‍म और मरण, इहलोक और परलोक, ये सारी बातें तथा पूर्व धारणाओं पर आधारित हैं। काल के प्रवाह में कभी विराम नहीं होता, हाँ, अपनी धारणाओं से हम भले ही उसमें विराम मान लें। चाहे दस बजा हो या बारह, काल में कोई अंतर तो नहीं पड़ता। हाँ, प्रकृति में कुछ परिवर्तन भले ही दीख पड़ते हैं। समय का प्रवाह तो अविच्छिन्‍न रूप से सतत जारी रहता है। तब फिर इस जन्‍म और उस जन्‍म का क्‍या अभिप्राय है? यह तो केवल समय का प्रश्‍न है और जो काम पिछले समय में न किया जा सका हो, उसे गति को तीव्रतर करके अब पूरा किया जा सकता है। इस तरह वेदांत का कहना है कि धर्म की अनुभूति तो यहीं हो सकती हैं। और तुम्‍हारे धार्मिक होने का अर्थ है कि तुम किसी धर्म की शरण में गए बिना ही आरंभ करो और अपनी साधना से ही धर्म की अनुभूति करो। जब तुम ऐसा कर सकोगे, तभी तुम्‍हारा कोई धर्म होगा। उसके पहले तुम नास्तिक ही नहीं- बल्कि उससे भी बुरे हो- क्‍योंकि जो नास्तिक है, वह कम से कम सच्‍चा तो है, वह कहता है, ''मुझे इन सारी चीज़ों का कोई ज्ञान नहीं'', जब कि दूसरे लोग ज्ञान न रखते हुए भी संसार भर में ढिँढोरा पीटते चलते हैं, ''हम बड़े धार्मिक हैं।'' उनका धर्म क्‍या है, यह कोई नहीं जानता। उन लोगों ने तो जैसे कुछ दादी की कहानियों को रट लिया है और पंडे-पुरोहितों ने उनसे उनमें विश्‍वास करने के लिए कह दिया है, बस। अगर कोई उसमें विश्‍वास नहीं करता, तो उसे तरह तरह की धमकियाँ दी जाती हैं। ऐसे ही तो सारी चीज़ें दुनिया में चल रही हैं।

धर्म का साक्षात्‍कार ही एकमात्र मार्ग है। हममें से प्रत्‍येक को स्‍वयं साक्षात्‍कार करना चाहिए। आखि़र संसार की इन बाइबिलों, इन धर्मग्रंथों की क्‍या उपयोगिता है? ये उतने ही उपयोगी हैं, जितने किसी देश के मानचित्र। यहाँ आने के पहले मैंने इंग्लैंड का मानचित्र सैकड़ों बार देखा था और इस देश के संबंध में एक धारणा बनाने में उनसे काफ़ी सहायता मिली थी। फि़र भी जब मैं यहाँ आया, तो लगा कि मानचित्र और असली देश में कितना फ़र्क हैं! ठीक ऐसा ही अंतर धार्मिक ग्रंथों तथा धार्मिक अनुभव में भी है। ये पुस्‍तकें मात्र मानचित्र हैं। ये अतीत के उन महापुरुषों के अनुभवों के भंडार हैं, जिनसे हमें प्रेरणा मिलती है कि ऐसे अनुभव प्राप्‍त करने के लिए हमें भी साहस और प्रयत्‍न करना चाहिए और अगर हम उनसे ऊपर न उठ सकें, तो कम से कम अपनी साधना से उनके बराबर तो पहुँच ही जाएं।

वेदांत का पहला सिद्धांत यही है कि आत्‍मज्ञान ही धर्म है और जिसे उसकी उपलब्धि हो चुकी है, वही धार्मिक है। जब तक इसकी सिद्धि नहीं हो जाती, तब तक कोई व्‍यक्ति उस व्‍यक्ति से कदापि अच्‍छा नहीं, जो कहता है, ''मैं कुछ नहीं जानता'' - बल्कि वह उससे भी गया-गुज़रा है, क्‍योंकि जब कोई यह कहता है कि मैं कुछ नहीं जानता,तो उतनी दूरी तक वह ईमानदार तो है। आत्‍मज्ञान के मार्ग में फिर हमें इन धर्मग्रंथों से अत्‍यंत सहायता मिलती है। वे न केवल मार्ग- प्रदर्शन करते हैं, अपितु सम्‍यक् निदेशन तथा अभ्‍यास कराने में भी सहायक होते हैं। कारण, हर विज्ञान में अनुसंधान का अपना एक तरीक़ा होता है। दुनिया में तुमको ऐसे अनेक लोग मिलेंगे, जो कहते फिरते हैं, ''मैं धार्मिक बनना चाहता था, सिद्धि प्राप्‍त करना चाहता था, पर वैसा नकर सका; इसलिए मैं अब किसी चीज़ में विश्‍वास नहीं करता।'' शिक्षित लोगों में भी ऐसा कहने - वाले लोग मिलेंगे ही। अनेक लोग कहेंगे, ''मैंने आजीवन धार्मिक बनने का प्रयास किया, पर इसमें कुछ नहीं रखा है।'' दूसरी ओर तुम यह दृश्‍य भी पाओगे: मान लो, कोई रसायनशास्‍त्री है, जिससे तुम कहते हो, ''मैं जीवन भर रसायन- शास्‍त्री बनने का प्रयास करता रहा और देखा कि उसमें कुछ नहीं रखा है। इसलिए मैं रसायनशास्‍त्र में विश्वास नहीं करता।'' वह तुरंत तुमसे पूछेगा - ''तुमने कब इसके लिए प्रयास किया ?'' तुम कहोगे, मैं नित्‍य ही सो जाने से पहले कहता रहा- ओ रसायनशास्‍त्र, मेरे पास आ आजो! और वह कभी न आया। तुम्‍हारे प्रयास ही कुछ इसी ढंग के रहे। वह रसायनशास्‍त्री तुम पर हँसेगा और कहेगा - ''भाई, तरीक़ा यह नहीं है। क्‍यों न तुमने किसी प्रयोगशाला में जाकर रसायनों से कभी अपने हाथ को जलाया? उसी से तुम कुछ सीख गये होते।'' क्‍या धर्म के क्षेत्र में भी तुम ऐसा ही प्रयत्‍न करते हो? हर विज्ञान में सीखने का एक विशिष्‍ट तरीक़ा होता है, और धर्म के साथ भी यही बात है। इसके भी अपने विशिष्‍ट ढंग हैं। और इस मामले में विश्‍व के प्रत्‍येक सिद्ध पैगंबर से हम कुछ सीख सकते हैं। वे हमें उन तरीक़ों को सिखा सकते हैं, जिनसे ही हम धार्मिक तथ्‍यों का संधान कर सकते हैं। उन्‍होंने जीवन भर संघर्ष करके मन को सुसंस्‍कृत करने के कुछ उपायों का अनुसंधान किया है और ऐसी मानसिक स्थितियों का पता लगाया है, जिनमें सूक्ष्‍मातिकसूक्ष्‍म प्रत्‍यक्षीकरण संभव है। इन्‍हीं स्थितियों में अपने को लाकर उन्‍होंने धार्मिक तथ्‍यों का अनुभव किया। धार्मिक बनने के लिए, धर्म का प्रत्‍यक्षीकरण करने के लिए तथा पैगंबर बनने के लिए हमें इन उपायों को अपनाकर साधना करनी पड़ेगी। और वैसा करने पर भी अगर हमारे हाथ कुछ नहीं लगता, तब हमें यह कहने का अधिकार होगा कि धर्म में कुछ नहीं रखा है, क्‍योंकि मैंने प्रयास करके देखा है कि कुछ हाथ नहीं आता।

सभी धर्मों का यह व्‍यावहारिक पक्ष है। संसार के हर धर्मग्रंथ में तुम इसे पाओगे। वहाँ केवल सिद्धांत की ही चर्चा नहीं रहता, बल्कि संतों के जीवन-चरित के माध्‍यम से साधना का भी वर्णन रहता है। अगर वे स्‍पष्‍टरुपेण कुछ विशिष्‍ट नियमों का जि़क्र नहीं भी करते, तो भी महात्‍माओं की जीवनियों में कुछ विशिष्‍ट नियमों का निर्वाह तो देखा ही जाताहै। इन नियमों के पालन से ही वे अपने को जनसाधारण से विशिष्‍ट कर लेते हैं और इसी से वे उच्‍च सिद्धियाँ प्राप्‍त करते तथा ब्रह्म का दर्शन करते हैं। अगर हम भी ऐसे दर्शन की इच्‍छा रखते हैं, तो हमें भी वैसी साधना करनी पड़ेगी। साधना ही हमें ऊपर उठायेगी। इसलिए वेदांत के सामने यही योजना है : पहले सिद्धांतों का निरूपण, लक्ष्‍य का संधान और फिर वैसी साधना की शिक्षा, जिससे लक्ष्‍य की सिद्धि हो सके, धर्म का ज्ञान हो सके, उसकी वास्‍तविक अनुभूति हो सके।

फि़र, साधना कई प्रकार की हो सकती है। चूँकि हमारे स्‍वभाव भिन्न-भिन्न तरह के हैं, इसलिए शायद ही कोई एक साधना दो व्‍यक्तियों के लिए सम्यक उपयोगी सिद्ध होगी। हममें से प्रत्‍येक की अपनी अपनी विलक्षण मनो‍वृत्ति होती है, अत: साधनाएँ भी भिन्न-भिन्न तरह की होंगी ही। कुछ लोग भावुक होते हैं, तो कुछ लोग चिंतनशील- फि़र कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो धार्मिक संस्‍कारों से ही चिपके रहते हैं, मानो उन्‍हें ठोस बातें ही पसंद आती हैं। पर तुमको ऐसा भी व्‍यक्ति मिलेगा, जो धार्मिक संस्‍कार अथवा औपचारिकता पर ध्‍यान नहीं देता, जो अपने बदन पर तावीज़ों का बोझ लादे फिरता है, क्‍योंकि उन प्रतीकों में उसका अटूट विश्‍वास रहता है। जो व्‍यक्ति भावुक है, वह सर्वत्र अपनी दानशीलता प्रदर्शित करता चलता है- वह रोता है, हँसता है, आदि-आदि। ये विभिन्‍न स्‍वभाव वाले व्‍यक्ति एक ही प्रकार की साधना नहीं कर सकते। अगर परम तत्व को पाने के लिए एक ही प्रकार की साधना होती, तो निस्‍संदेह उन सभी व्‍यक्तियों की मृत्‍यु हो जाती, जो उस साधना के अनुकूल नहीं बने हैं। अत: साधना की विभिन्‍न विधियों का अनुसंधान किया गया है। वेदांत इस तथ्‍य को अच्‍छी तरह समझता है; इसीलिए यह आत्‍मज्ञान की विभिन्‍न विधियों को विश्‍व के समक्ष रखता है। तुम अपनी इच्‍छा से चाहे जिस किसी भी विधि को अपनाओ। और अगर वह तुम्‍हारे अनुकूल न सिद्ध हो, तो किसी दूसरी विधि को अपनाओ। इस दृष्टि से देखने पर लगता है कि यह कितने महत्‍व की बात है कि विश्‍व में अनेक धर्म उपलब्‍ध हैं, अनेक धर्माचार्य उपलब्‍ध है! यद्यपि कुछ लोग चाहते ज़रुर हैं कि संसार भर में एक ही धर्म होता, एक ही धर्माचार्य होते। मुसलमान चाहते हैं कि सारा विश्‍व मुसलमान ही होता, ईसाई चाहते हैं कि सारा विश्‍व ईसाई धर्म ही मानता और बौद्ध चाहते हैं कि बौद्ध धर्म ही विश्‍व धर्म बनता। परंतु वेदांत कहता है कि विश्‍व के प्रत्‍येक व्‍यक्ति को अगर वह चाहता है, तो अलग रहने दो; सबकी मूलभूत एकता तो बनी ही रहेगी। जितने धर्माचार्य आएंगे ,जितने धर्मग्रंथ बनेंगे, जितने द्रष्‍टा आएंगे जितनी विधियाँ बनेंगी, विश्‍व का उतना ही अधिक कल्‍याण होगा। जिस प्रकार सामाजिक जीवन में जितने अधिक प्रकार की जीविकाएँ रहेंगी, समाज को उतना ही अधिक लाभ होगा, लोगों को जीविका चुनने की उतनी ही अधिक स्‍वंतत्रता रहेगी, उसी प्रकार दर्शन और धर्म के क्षेत्र में भी वैसी ही बात है। यह कितनी अच्‍छी बात है कि आज हमारे सामने विज्ञान की विभिन्‍न शाखाएँ हैं और लोगों को अपने मनोकुकूल शिक्षा पाने की सुविधाएँ प्राप्‍त हैं। इस तरह भौतिक स्‍तर पर अनेक प्रकार की वस्‍तुओं की उपलब्धि से हमारी सुविधाएँ बढ़ गयी हैं। क्‍योंकि अपने मनोनुकूल वस्‍तु का हम चुनाव कर पाते हैं। ठीक यही बात धर्म के मामले में भी है। ईश्‍वर की यह सबसे बड़ी कृपा है कि संसार में अनेक धर्मों का सृजन हुआ है। और मैं तो ईश्‍वर से प्रार्थना करूँगा कि नित्‍य ही इनकी और भी वृद्धि होती रहे जब तक प्रत्‍येक का अपना अपना धर्म न हो जाए।

वेदांत इस बात को मानता है और इसीलिए यह एक विशिष्‍ट सिद्धांत का उपदेश देते हुए विविध साधन-विधियों को मान्‍यता देता है। इसे किसी के खिलाफ़ कुछ भी कहना नहीं है, चाहे तुम ईसाई हो, बौद्ध हो, यहूदी हो या हिंदू हो, तुम चाहे जिस किसी भी धार्मिक उपाख्‍यान में विश्‍वास करते हो, तुम चाहे नाज़रथ के पैगंबर को मानते हो अथवा मक्‍का के अथवा हिंदुस्तान के अथवा अन्‍य किसी भी स्‍थान के, चाहे तुम स्‍वयं ही कोई पैगंबर हो - इन बातों से वेदांत का कोई विरोध नहीं। यह तो केवल उस सिद्धांत का उपदेश देता है, जो सारे धर्मों की पृष्‍ठभूमि हैं और सारे पैगंबर तथा संत द्रष्‍टा जिसके द्रष्‍टांत- स्‍वरूप और अभिव्यक्तिस्‍वरूप हैं। तुम्‍हारे पैगंबर चाहे जितने अधिक हों, इसमें कोई आपत्ति नहीं। यह तो केवल सिद्धांत की बात करता है, साधना की विधि तो तुमको चुननी है। तुम चाहे तो भी मार्ग अंगीकार करो, जिस किसी भी धर्मगुरु को मानो, पर इतना ध्‍यान रखो कि वह मार्ग तुम्‍हारे स्‍वभाव के अनुकूल हो, क्‍योंकि तभी तुम्‍हारा विकास हो सकेगा।


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