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व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम

अनुक्रम उच्‍चतर जीवन के निमित्त साधनाएँ     आगे

उच्चतर जीवन के निमित्त साधनाएँ

पूर्वावस्‍था की ओर प्रतिगमन होने से हमारा पतन होता है; और यदि क्रम-विकास की ओर हो, तो हम आगे बढ़ते जाते हैं। अत: हमें पूर्वावस्‍था की ओर यह प्रतिगमन नहीं होने देना चाहिए। सर्वप्रथम तो हमारा शरीर ही हमारे अध्‍ययन का विषय बनना चाहिए। पर कठिनाई तो यह है कि हम पड़ोसियों को ही सीख देने में अत्‍यधिक व्‍यस्‍त रहा करते हैं! हमें अपने शरीर से ही प्रारंभ करना चाहिए। ह्रदय, यकृत आदि सभी प्रतिगामी हैं; इन्‍हें ज्ञान के क्षेत्र में ले आओ, इन पर नियंत्रण रखो, ताकि इनका परिचालन तुम्‍हारी इच्‍छानुसार हो सके। एक समय था, जब हमारा यकृत पर नियंत्रण था; हम अपनी सारी त्वचा उसी प्रकार हिला सकते थे, जैसे एक गाय। मैंने अनेक व्‍यक्तियों को कठोर अभ्‍यास द्वारा इस नियंत्रण को पुन: प्राप्‍त करते देखा है। एक बार संस्‍कार पड़ने पर वह मिटता नहीं। अवचेतन मन के विशाल सागर में निमग्‍न क्रियाओं को नियंत्रण में ले आओ। यही हमारी साधना का पहला अंग है और हमारे सामाजिक कल्‍याण के लिए इसकी नितांत आवश्‍यकता है। दूसरी ओर, केवल चैतन्‍य का ही सर्वदा अध्‍ययन करते रहने की आवश्‍यकता नहीं।

इसके बाद है साधना का दूसरा अंग, जिसकी हमारे सामाजिक जीवन में उतनी आवश्‍यकता नहीं-और जो हमें मुक्ति की ओर ले जाता है। इसका प्रत्‍यक्ष कार्य है, आत्‍मा को मुक्‍त कर देना, अंधकार में प्रकाश लाना, जो पीछे है, उसे स्‍वच्‍छ करना, उसे झकझोर देना, आवश्‍यकता हो, तो उसका विरोध करना तथा साधक को इस योग्‍य बना देना कि वह अंधकार को चीरता हुआ आगे बढ़ निकले। ये अतिचेतन ही हमारे जीवन का लक्ष्‍य है। जब उस अवस्‍था की उपलब्धि हो जाती है, तब यही मानव दिव्‍य बन जाता है, मुक्‍त हो जाता है। और उस मन के सम्‍मुख, जिसे सब विषयों से परे जाने का इस प्रकार अभ्यास हो गया है, यह जगत् क्रमश: अपने रहस्‍य खोलता जाता है; प्रकृति की पुस्‍तक के अध्‍याय एक-एक करके पढ़ जाते हैं, जब तक कि इस लक्ष्‍य की प्राप्ति नहीं हो जाती; और तब हम जन्‍म और मृत्‍यु की इस घाटा से उस 'एक' की ओर प्रयाण करता हैं, जहाँ जन्‍म और मृत्‍यु-किसी का अस्तित्‍व नहीं है, तब हम सत्‍य को जान लेते हैं और सत्‍यस्‍वरूप बन जाते हैं।

हमें पहले जिस बात की आवश्‍यकता हैं, वह है कोलाहल हीन शांतिमय जीवन। यदि दिन भर मुझे पेट की चिंता के लिए दुनिया की खाक छाननी पड़े, तो इस जीवन में कोई भी उच्‍चतर उपलब्धि मेरे लिए कठिन होगी। हो सकता है, मैं अगले जन्‍म में कुछ अधिक अनुकूल परिस्थितियों में जन्‍म लूँ। पर यदि मैं सचमुच अपनी धुन का पक्‍का हूँ, तो इसी जन्‍म में ये ही परिस्थितियाँ परिवर्तित हो जाएंगी। क्‍या कभी ऐसा हुआ है कि तुम्‍हें वह चीज़ न मिली हो, जिसे तुम ह्रदय से चाहते थे? ऐसा कभी हो ही नहीं सकता क्‍योंकि आवश्‍यकता ही, वासना ही शरीर का निर्माण करती है। वह प्रकाश ही है, जिसने तुम्‍हारे सिर में मानो दो छेद कर दिए हैं, जिन्‍हें आँख कहा जाता है। यदि प्रकाश का अस्तित्‍व न होता, तो तुम्‍हारी आँखें भी न होतीं। वह ध्‍वनि ही है, जिसने कानों का निर्माण किया है। तुम्‍हारी इंद्रियों की सृष्टि के पहले से ही ये इंद्रियगम्‍य वस्‍तुएँ विद्यमान है। कई सहस्र वर्षों में, या संभव है, इससे कुछ पहले ही, हममें शायद ऐसी इंद्रियों की भी सृष्टि हो जाए, जिससे हम विद्युत-प्रवाह और प्रकृति में होने वाली अन्‍य घटनाओं को भी देख सकें। शांतिमय मन में कोई वासना नहीं रहती। जब तक इच्‍छाओं की पूर्ति के लिए बाहर में कोई सामग्री न हो, इच्‍छा की उत्‍पत्ति नहीं होती। बाहर की वह सामग्री शरीर में मानो एक छिद्र कर मन में प्रवेश करने का प्रयत्‍न करती है। अत:, यदि एक शांतिमय, कोलाहलहीन जीवन के लिए इच्‍छा उठे, जहाँ सभी कुछ मन के विकास के लिए अनुकूल होगा, तो यह निश्चित जानो कि वह अवश्‍य पूर्ण होगी-यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ। भले ही ऐसे जीवन की प्राप्ति सहस्‍त्रों जन्‍म के बाद हो, पर उसकी प्राप्ति अवश्‍यमेव होगी। उस इच्‍छा को बनाये रखो-मिटने न दो-उसकी पूर्ति के लिए प्राणपण से चेष्‍टा करते रहो। यदि तुम्‍हारे लिए कोई वस्‍तु बाहर न हो, तो तुममें उसके लिए प्रबल इच्‍छा उत्‍पन्‍न हो ही नहीं सकती। पर हाँ, तुमको यह जान लेना चाहिए कि इच्‍छा इच्‍छा में भी भेद होता है। गुरु ने कहा, "मेरे बच्‍चे, यदि तुम भगवत्‍प्राप्ति की इच्‍छा रखते हो, तो अवश्‍य ही तुम्‍हें भगवान का लाभ होगा।" शिष्‍य ने गुरु का मंतव्य पूर्णतया नही समझा। एक दिन दोनो नहाने के लिए एक नदी में गए। गुरु ने शिष्‍य से कहा, "डुबकी लगाओ" और शिष्‍य ने डुबकी लगायी। गुरु एकदम शिष्‍य के ऊपर हो गए और उसे पानी में डुबाये रखा। उन्‍होंने शिष्‍य को उपर नहीं आने दिया। जब वह लड़का ऊपर आने की कोशिश करते करते थक गया, तब गुरु ने उसे छोड़ दिया और पूछा, "अच्‍छा, मेरे बच्‍चे, बताओ तो सही, तुम्‍हें पानी के अंदर कैसा लग रहा था?" "ओफ़! एक साँस लेने के लिए मेरा जी तड़प रहा था।" "क्‍या ईश्‍वर के लिए भी तुम्‍हारी इच्‍छा उतनी ही प्रबल है?" "नहीं, गुरु जी।" "तब ईश्‍वर-प्राप्ति के लिए वैसी ही उत्कट इच्‍छा रखो, तुम्‍हें ईश्‍वर के दर्शन होंगे।"

जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते, वह वस्‍तु हमें प्राप्‍त होगी ही। यदि हमें उसकी प्राप्ति न हो, तो जीवन दूभर हो उठेगा।

यदि तुम योगी होना चाहते हो, तो तुम्‍हें स्‍वतंत्र होना पड़ेगा, और अपने आपको ऐसे वातावरण में रखना होगा, जहाँ तुम सर्व चिंताओं से मुक्‍त होकर अकेले रह सकते हो। जो आराममय और विलासमय जीवन की इच्‍छा रखते हुए आत्‍मानुभूति की चाह रखता है, वह उस मूर्ख के समान है, जिसने नदी पार करने के लिए, एक मगर को लकड़ी का लट्ठा समझकर पकड़ लिया था। 'अरे, तुम लोग पहले र्इश्‍वर के राज्‍य और धर्म की प्राप्ति के लिए प्रयत्‍न करो, और शेष ये सब वस्‍तुएँ तुम्‍हारे पास अपने आप ही आ जायेंगी।' उसी के पास सभी वस्‍तुएँ आती हैं, जो किसी की परवाह नहीं करता। भाग्‍य उस चपला स्‍त्री के समान है; जो उसे चाहता है, उसकी वह परवाह ही नहीं करती; पर जो व्‍यक्ति उसकी परवाह नहीं करता, उसके चरणों पर वह लोटती रहती है। जिसे धन की कोई कामना नहीं, लक्ष्‍मी उसी के घर छप्‍प्‍र फाड़कर आती हैं। इसी प्रकार नाम-यश भी अयाचक के पास ढेर में आता है, यहाँ तक कि यह सब उसके लिए एक कष्‍टप्रद बोझा हो जाता है। सदैव स्‍वामी के पास ही यह सब आता है। गुलाम को कभी कुछ नहीं मिलता। स्‍वामी तो वह है, जो बिना उन सबके रह सके, जिसका जीवन संसार की क्षुद्र सारहीन वस्‍तुओं पर अवलंबित नहीं रहता। एक आदर्श के लिए-और केवल उसी एक आदर्श के लिए जीवित रहो। उस आदर्श को इतना प्रबल, इतना विशाल एवं महान होने दो, जिससे मन के अंदर और कुछ न रहने पाए; मन में अन्‍य किसी के लिए भी स्‍थान न रहे, अन्‍य किसी विषय पर सोचने के लिए समय ही न रहे।

क्‍या तुमने देखा नहीं, किस प्रकार कुछ लोग धनी बनने की वासनारूपी अग्नि में अपनी समस्‍त शक्ति, समय, बुद्धि, शरीर, यहाँ तक कि अपना सर्व स्‍वाहा कर देते हैं! उन्‍हें खाने-पीने तक के लिए फुरसत नहीं मिलती! पक्षियों के कलरव से पूर्व ही उठकर वे बाहर चले जाते हैं और काम में लग जाते है! इसी प्रयत्‍न में उनमें से नब्‍बे प्रतिशत लोग काल के कराल गाल में प्रविष्‍ट हो जाते हैं, और शेष लोग यदि पैसा कमाते भी हैं, तो उसका उपभोग नहीं कर पाते। यह महान है! मैं यह नहीं कहता कि धनवान बनने के लिए प्रयत्‍न करना बुरा है। यह बहुत ही अद्भुत है, आश्‍चर्यजनक है। क्‍यों, यह क्‍या दर्शाता है? इससे यही ज्ञात होता है कि हम मुक्ति के लिए उतना ही प्रयत्‍न कर सकते हैं, उतनी ही शक्ति लगा सकते हैं, जितना एक व्‍यक्ति धनोपार्जन के लिए। हम जानते हैं कि मरने के उपरांत हमें धन इत्‍यादि सभी कुछ छोड़ जाना पड़ेगा, तिस पर भी देखो, हम इनके लिए कितनी शक्ति नष्‍ट कर देते हैं! अत: हमको उस वस्‍तु की प्राप्ति के लिए, जिसका कभी नाश नहीं होता और जो चिरकाल तक हमारे साथ रहती है, क्‍या सहस्‍त्रगुनी अधिक शक्ति नहीं लगानी चाहिए? क्‍योंकि, हमारे अपने शुभ कर्म, हमारी अपनी आध्‍यात्मिक अनुभूतियाँ-यही सब हमारे ऐसे साथी हैं, जो हमारे देह-नाश के बाद भी हमारे साथ आते हैं। और शेष सब कुछ तो देह के साथ यहीं पड़ा रह जाता है।

आदर्शोपलब्धि के लिए वास्तविक इच्‍छा-यही हमारा पहला और एक बड़ा कदम है। इसके बाद अन्‍य सब कुछ सहज हो जाता है। इस सत्‍य का आविष्‍कार भारतीय मन ने किया। वहाँ भारत में, सत्‍य को ढूँढ़ निकालने में मनुष्‍य कोई कसर नहीं उठा रखते। पर यहाँ पाश्‍चात्‍य देशों में मुश्किल तो यह है कि हर एक बात इतनी सरल कर दी गई है! यहाँ का प्रधान लक्ष्‍य सत्‍य नहीं, वरन् भौतिक प्रगति है। संघर्ष एक बड़ा पाठ है। ध्‍यान रखो, संघर्ष इस जीवन में बड़ा लाभदायक है। इम संघर्ष में से होकर ही अग्रसर होते हैं-यदि स्‍वर्ग के लिए कोई मार्ग है, तो वह नरक में से होकर जाता है। नरक से होकर स्‍वर्ग-यही सदा का रास्‍ता है। जब जीवात्‍मा परिस्थितियों का सामना करते हुए मृत्‍यु को प्राप्‍त होती है, जब मार्ग में इस प्रकार उसकी सहस्‍त्रों बार मृत्‍यु होने पर भी वह निर्भीकता से संघर्ष करती हुई आगे बढ़ती है और बढ़ती जाती है, तब वह महान शक्तिशाली बन जाती है और उस आदर्श पर हँसती है, जिसके लिए वह अभी तक संघर्ष कर रही थी, क्‍योंकि वह जान लेती है कि वह स्‍वयं उस आदर्श से कहीं अधिक श्रेष्‍ठ है। मैं-स्‍वयं मेरी आत्‍मा ही लक्ष्‍य है, अन्‍य और कुछ भी नहीं; क्‍योंकि ऐसा क्‍या है, जिसके साथ मेरी आत्‍मा की तुलना की जा सके? सुवर्ण की एक थैली क्‍या कभी मेरा आदर्श हो सकती है? कदापि नहीं! मेरी आत्‍मा ही मेरा सर्वोच्‍च आदर्श है। अपने प्रकृत स्‍वरूप की अनुभूति ही मेरे जीवन का एकमात्र ध्‍येय है।

ऐसी कोई वस्‍तु नहीं है, जो संपूर्णतया बुरी हो। यहाँ शैतान और ईश्‍वर, दोनों के लिए ही स्‍थान है, अन्‍यथा शैतान यहाँ होता ही नहीं। जैसे मैंने तुमसे कहा ही है, हम नरक में से होकर ही स्‍वर्ग की ओर प्रयाण करते हैं। हमारी भूलों की भी यहाँ उपयोगिता है। बढ़े चलो! यदि तुम सोचते हो कि तुमने कोई अनुचित कार्य किया है, तो भी पीछे फिरकर मत देखो। यदि पहले तुमने इन गलतियों को न किया होता, तो क्‍या तुम विश्‍वास करते हो कि आज तुम जैसे हो, वैसे कभी हो सकते? अत: अपनी भूलों को आशीर्वाद दो। वे अदृश्‍य देवदूतों के समान रही हैं। धन्‍य हो दु:ख! धन्‍य हो सुख! तुम्‍हारे मत्थे क्‍या आता है, इसकी चिंता न करो। आदर्श को पकड़े रहो। आगे बढ़ते चलो! छोटी-छोटी बातों और भूलों पर ध्‍यान न दो। हमारी इस रणभूमि में भूलों की धूल तो उड़ेगी ही। जो इतने नाजुक हैं कि धूल सहन नहीं कर सकते, उन्‍हें पंक्ति से बाहर चले जाने दो।

अत: संघर्ष के लिए यह प्रबल निश्‍चय-ऐहिक वस्‍तुओं की प्राप्ति के लिए हम जितना प्रयत्‍न करते हैं उससे सौ गुना अधिक प्रबल निश्‍चय हमारी प्रथम महान साधना है।

और फिर उसके साथ ध्‍यान भी होना चाहिए। ध्‍यान ही एकमात्र असल वस्‍तु है। ध्‍यान करो! ध्‍यान ही सबसे महत्‍वपूर्ण है। मन की यह ध्‍यानावस्‍था आध्‍यात्मिक जीवन की निकटतम समीपता है। समस्‍त जड़ पदार्थों से मुक्‍त होकर आत्‍मा का अपने बारे में चिंतन-आत्‍मा का यह अद्भुत संस्‍पर्श-यही हमारे दैनिक जीवन में एकमात्र ऐसा क्षण है, जब हम किंचित् भी पार्थिव नहीं रह जाते।

शरीर हमारा शत्रु है और मित्र भी। तुममें से कौन वास्‍तविक दु:ख का दृश्‍य सहन कर सकता है? और यदि केवल किसी चित्र में तुम दु:ख का दृश्‍य देखो, तो तुममें से कौन उसे सहन नहीं कर सकता? इसका कारण क्‍या है, जानते हो?-हम चित्र से अपने को तादात्‍म्‍य नहीं करते, क्‍योंकि चित्र असत् है; अवास्‍तविक है; हम जानते हैं कि वह एक चित्र मात्र है; वह न हम पर कृपा कर सकता है, न हमें चोट पहुँचा सकता है। यही नहीं, यदि परदे पर एक भयानक दु:ख चित्रित किया गया हो, तो शायद हम उसका रस भी ले सकते हैं। हम चित्रकार के शिल्‍प की प्रशंसा करते हैं, हम उसकी असाधारण प्रतिभा पर आश्चर्यचकित हो जाते हैं, भले ही चित्रित दृश्‍य वीभत्‍सतम क्‍यों न हो। इसका रहस्‍य क्‍या है, जानते हो? अनासक्त्‍िा ही इसका रहस्‍य है। अतएव साक्षी बनो।

जब तक 'मैं साक्षी हूँ', इस भाव तक तुम नहीं पहुँचते, तब तक प्राणायाम अथवा योग की भौतिक क्रियाएँ आदि किसी काम की नहीं। यदि खूनी हाथ तुम्‍हारी गर्दन पकड़ ले, तो कहो, "मैं साक्षी हूँ! मैं साक्षी हूँ!" कहो, मैं आत्‍मा हूँ! कोई भी बाह्रय वस्‍तु मुझे स्‍पर्श नहीं कर सकती।" यदि मन में बुरे विचार उठें, तो बार-बार यही दुहराओ, यह कह-कहकर उनके सिर पर हथौड़े की चोट करो कि "मैं आत्‍मा हूँ! मैं साक्षी हूँ! मैं नित्‍य शुभ और कल्‍याणस्‍वरूप हूँ! कोई कारण नहीं कि मैं कर्म करूँ, कोई कारण नहीं, जो मैं भुगतूँ, मेरे सब कर्मों का अंत हो चुका है, मैं साक्षीस्‍वरूप हूँ। मैं अपनी चित्रशाला में हूँ-यह जगत् मेरा अजाएबघर है, मैं इन क्रमागत चित्रों को केवल देखता जा रहा हूँ। वे सभी सुंदर हैं-भले हों या बुरे। मैं अद्भुत कौशल देख रहा हूँ; किंतु यह समस्‍त एक है। उस महान चित्रकार परमात्‍मा की अनंत अर्चियाँ!" सचमुच, किसी का अस्तित्व नहीं है-न संकल्‍प है, न विकल्‍प। वे प्रभु ही सब कुछ हैं। ईश्‍वर-चित्-शक्ति-जगदंबा लीला कर रही हैं, और हम सब गुडि़यों जैसे हैं, उनकी लीला में सहायक मात्र हैं। यहाँ वे किसी को कभी भिखारी के रूप में सजाती हैं, और कभी राजा के रूप में, तीसरे क्षण उसे साधु का रूप दे देती हैं और कुछ ही देर बाद शैतान की वेश-भूषा पहना देती हैं। हम जगन्‍माता की उनके खेल में सहायता देने के लिए भिन्न-भिन्न वेश धारण कर रहे हैं।

जब तक बच्‍चा खेलता रहता है, तब माँ के बुलाने पर भी नहीं जाता। पर जब उसका खेलना समाप्त हो जाता है, तब वह सीधे माँ के पास दौड़ जाता है, फिर 'ना' नहीं कहता। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी ऐसे क्षण आते हैं, जब हम अनुभव करते हैं कि हमारा खेल खत्‍म हो गया, और तब हम जगन्‍माता की ओर दौड़ जाना चाहते हैं। तब, हमारी आँखों में यहाँ के अपने समस्‍त कार्य-कलापों का कोई मूल्‍य नहीं रह जाता; नर-नारी-बच्‍चे, धन-नाम-यश, जीवन के हर्ष और महत्‍व, दंड और पुरस्‍कार-इनका कुछ भी अस्तित्‍व नहीं रह जाता, और समस्‍त जीवन उड़ते दृश्‍य सा जान पड़ता है। हम देखते हैं केवल एक असीम लय-लहरी को किसी अज्ञान दिशा में बहते हुए-बिना किसी छोर के, बिना किसी उद्देश्‍य के। हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि हमारा खेल समाप्‍त हो चुका।


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