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व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम संन्‍यास और गृहस्‍थ जीवन पीछे     आगे

एक संन्‍यासी और एक गृहस्‍थ के विभिन्‍न कर्तव्‍यों की विवेचना करते हुए स्‍वामी जी ने कहा: एक संन्‍यासी जब तक कि सर्वोच्‍च पद पर न पहुँच जाए, अर्थात परमहंस न हो जाए, तब तक उसे गृहस्‍थों, द्वारा छुए या उपयोग में लाये भोजन, बिछावन आदि से बचना चाहिए, उनके प्रति घृणा की भावना से नहीं, वरन् अपने को बचाने के लिए। गृहस्‍थ को चाहिए कि वह संन्‍यासी को 'नमो नारायणाय' कहकर नमस्‍कार करे,और संन्‍यासी को उसे आशीर्वाद देना चाहिए।

मेरूसर्षपयोयद् यत् सूर्यखद्योतयोरिव।

सरित्‍सागरयोर्यद् यत् तथा भिक्षुगृहस्‍थयो:।।

'विशालतम पर्वत और राई में, सूर्य और जुगनू में,सागर और सरिता में जितना अंतर है, उतना ही विशाल अंतर संन्‍यासी और गृहस्‍थ में होता है।'

स्‍वामी विवेकानंद ने प्रत्‍येक से इसका पाठ करवाया, और वेदांत के कुछ पदों का गान करते हुए बोले, "तुमको सदा इन श्‍लोकों का जप करना चाहिए।" 'श्रवण' का अर्थ केवल गुरु से सुनना नहीं है, वरन् स्‍वयं अपने प्रति आवृत्ति करना भी होता है। आवृत्तिरसकृदुपदेशात् 'बारंबार यह आदेश दिया गया है कि सदुपदेशों की आवृत्ति प्राय: करते रहना चाहिए।' वेदांत के इस सूत्र में व्‍यास जप पर बल देते हैं।


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