(नवंबर 26, 1863 को मिनियापोलिस में दिया गया और मिनियापोलिस जर्नल में प्रकाशित भाषण)
कल प्रात:काल यूनिटेरियन चर्च ब्राह्मण उपदेशक स्वामी विवकानंद द्वारा संक्षेप में प्रस्तुत प्राच्य धार्मिक विचारधारा के विषय में कुछ जानने के लिए उत्सुक श्रोताओं से भरा हुआ था। पिछली गर्मियों में शिकागो की धर्म-महासभा में स्वामी विवेकानंद एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे। पेरीपेटेटिक क्लब ने ब्राह्मण धर्म के इस लब्धप्रतिष्ठ प्रतिनिधि को मिनियापोलिस में आमंत्रित किया था और पिछले शुक्रवार की शाम को उन्होंने उस संस्था में भाषण दिया था। वे कल अपना भाषण दे सकें, इसलिए उनको इस सप्ताह के अंत तक रुकने के लिए राज़ी कर लिया गया।
पादरी डॉक्टर एच. एम. साइमन्स ने पॉल के श्रद्धा-आशा-प्रेम वाले प्रकरण का पाठ किया, और 'इन सबमें सर्वोच्च प्रेम है,' इस पाठ के उपरांत उन्होंने ऐसी ही शिक्षा देने वाले ब्राह्मण धर्मग्रंथ के एक अंश, और मुस्लिम धर्म के एक अंश का भी, तथा हिंदू साहित्य से ऐसी कविताओं का, जो पॉल के कथनों से मेल खाती थीं, पाठ किया।
दूसरे भजन के बाद स्वामी विवेकानंद का परिचय कराया गया। वे मंच के किनारे तक आए, और उन्होंने तुरंत एक हिंदू कथा सुनानी आरंभ करके श्रोताओं को मुग्ध कर लिया। उन्होंने उत्कृष्ट अंग्रेजी में कहा: "मैं तुमको पाँच अंधों की एक कहानी सुनाऊँगा। भारत के एक गाँव में एक जुलूस निकला। सब लोग जुलूस देखने आए, और विशेष तौर से, उस हाथी को देखने, जो बहुत बढि़या सजा हुआ था। लोग प्रसन्न थे, और क्योंकि अंधे हाथी को देख नहीं सकते थे, इसलिए उसके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने हाथी को छूने का निश्चय किया। उन्हें यह गौरव दिया गया। जब जुलूस चला गया, तो वे अन्य लोगों के साथ लौटे और हाथी के बारे में बातचीत करने लगे। "वह बिल्कुल दीवार जैसा था," एक ने कहा। "नहीं", दूसरा बोला, "वह रस्सी के टुकड़े के समान था।" "तुम दोनों गलत हो", तीसरा बोला, "मैंने उसे छुआ है और वह बिल्कुल साँप के समान था।" बहस तेज़ हो गई और चौथे ने कहा कि हाथी तकिए के समान था। विवाद में शीघ्र कहा-सुनी होने लगी और पाँचों अंधे आपस में लड़ने लगे। तभी उधर से दो आँखोंवाला एक व्यक्ति निकला। और उसने पूछा, "मेरे मित्रों, बात क्या है?" झगड़ा उसे समझाया गया। इस पर आगंतुक बोला, "भाइयों तुम, सभी सही हो। कठिनाई यह है कि तुम सभी ने हाथी को विभिन्न स्थलों पर छुआ है। दीवार उसकी बगल थी, रस्सी उसकी पूँछ थी, साँप उसकी सूँड़ थी और तकिया उसका पैर था। झगड़ा बंद करो; तुम सभी सही हो, केवल तुमने हाथी को अपने विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा है।"
धर्म, उन्होंने कहा, ऐसे ही झगड़े में फँस गया है। पश्चिम के लाग समझते हैं कि उन्हीं का धर्म ईश्वर का एकमात्र धर्म है, और पूर्व के लोग भी ऐसा ही आग्रह करते हैं। दोनों ग़लती पर हैं, ईश्वर प्रत्येक धर्म में है।
पश्चिमी विचारधारा की उन्होंने बहुत महत्त्वपूर्ण आलोचनाएँ कीं। ईसाईयों को उन्होंने एक 'दुकानदारी धर्म' वाला बताया। वे सदा ईश्वर से माँगते रहते हैं- "हे ईश्वर, मुझे यह दे और मुझे वह दे; हे ईश्वर, यह कर और वह कर।" हिंदू की समझ में यह नहीं आता। वह ईश्वर से माँगने को अनुचित समझता है। धार्मिक व्यक्ति को माँगने के बजाए देना चाहिए। हिंदू ईश्वर से कुछ माँगने के स्थान पर ईश्वर को, अपने साथियों को, देने में विश्वास करता है। उन्होंने कहा कि पश्चिम में बहुत से लोग ईश्वर के बारे में बहुत अधिक सोचते हैं; लेकिन तभी तक, जब तक सब ठीक ठीक चलता रहता है; पर जब उससे विपरीत होता है, तो ईश्वर भूल जाता है। हिंदू ऐसा नहीं करता, वह ईश्वर को प्रेमस्वरूप देखता है, हिंदू धर्म ईश्वर के मातृत्व और पितृत्व, दोनों को मानता है, इसलिए कि मातृत्व में प्रेम की भावना की परिणति अधिक उत्तमता से होती है। पश्चिमी ईसाई पूरे सप्ताह भर डॉलर के लिए काम करता है और जब सफल होता है, तो प्रार्थना करता है, "हे ईश्वर, यह अभीष्ट देने के लिए हम तुझे धन्यवाद देते हैं।" और इसके बाद वह उस सब धन को अपनी जेब में डाल लेगा; हिंदू धनोपार्जन करता है ओर उसे दरिद्र अथवा कम भाग्यशाली लोगों की सहायता के लिए ईश्वर को अर्पित कर देता है। और इस प्रकार पश्चिम के विचारों और पूर्व के विचारों की तुलना की गई। ईश्वर की बात करते हुए विवेकानंद ने कहा, "तुम पश्चिम के लोग सोचते हो कि तुम्हारे पास ईश्वर है। ईश्वर पास होने से क्या हुआ? यदि वह तुम्हारे पास है, तो अपराध इतना व्यापक क्यों है कि दस व्यक्तियों में से नौ पाखंडी हैं। जहाँ ईश्वर है, वहाँ पाखंड नहीं रह सकता। तुम्हारे पास ईश्वर की पूजा के लिए महल हैं और तुम अंशत: सप्ताह में एक बार वहाँ जाते हो, पर बहुत कम लोग ईश्वर की उपासना करने के लिए जाते हैं। पश्चिम में चर्च जाना एक फैशन है और तुममें से बहुत से केवल इसी कारण वहाँ जाते हैं। तो, ऐसी दशा में, तुम, पश्चिम के लोगों का यह दावा कि ईश्वर केवल हमारे ही पास है, कैसे उचित है?"
मुक्त करतल-ध्वनि के कारण यहाँ वक्ता को रुकना पड़ा। उन्होंने फिर कहना आरंभ किया: "हम हिंदू धर्मावलंबी प्रेम के लिए ईश्वर की पूजा में विश्वास करते हैं, वह हमें जो देता है, उसके लिए नहीं, वरन् इसलिए कि ईश्वर प्रेम है, और किसी जाति के पास,किसी राष्ट्र के पास, किसी धर्म के पास ईश्वर नहीं हो सकता, जब तक कि वह उसे प्रेम के कारण पूजने को तैयार नहीं हो। तुम पश्चिम के लोग व्यवसाय में व्यावहारिक हो, महान आविष्कारों में व्यावहारिक हो, पर हम पूर्व के लोग धर्म में व्यावहारिक हैं। तुमने वाणिज्य को अपना व्यवसाय बनाया है और हमने धर्म को अपना व्यवसाय बनाया है। यदि तुम भारत आओ और खेत में काम करनेवाले से बातें करो, तो तुम पाओगे कि राज्य-शासन के बारे में उसकी कोई राय नहीं है। राजनीति का उसे कोई ज्ञान नहीं है। पर यदि तुम उससे धर्म के विषय में बात करोगे, तो पाओगे कि नीचे से नीच व्यक्ति को भी एकेश्वरवाद, द्वैतवाद, और धर्म के सब वादों का ज्ञान है। तुम पूछो:
'तुम किस सरकार के नीचे रहते हो?' और वह उत्तर देगा 'मैं नहीं जानता। मैं अपने कर देता हूँ, इतना ही जानता हूँ।' मैंने तुम्हारे मज़दूरों से, तुम्हारे किसानों से बातें की हैं, और मैं पाता हूँ कि राजनीति के विषय में सबको जानकारी है। वे डेमोक्रैट अथवा रिपब्लिकन हैं और वे जानते हैं कि वे मुक्त चाँदी अथवा स्वर्ण स्टैडर्ड में से किसको अधिक अच्छा समझते हैं। पर तुम उनसे धर्म की बात करो, तो वे भारतीय किसान की भाँति हैं, पर तुम उनसे धर्म की बात करो,तो वे भारतीय किसान की भाँति हैं, वे नहीं जानते; वे जानते हैं कि वे अमुक गिरजे में जाते हैं, पर उन्हें यह पता नहीं है कि वे किसमें विश्वास करते हैं। वे अपने बैठने स्थान का, 'प्यू' का, किराया भर देते हैं, और वे उसके विषय में, अथवा ईश्वर के विषय में केवल इतना ही जानते हैं।"
भारत में अंधविश्वासों का होना वक्ता ने स्वीकार किया, "पर वे किस जाति में नहीं है?" उन्होंने पूछा। भाषण समाप्त करते हुए उन्होंने कहा कि जातियाँ ईश्वर को एकाधिकार की दृष्टि से देखती रही हैं। ईश्वर सब जातियों के पास है, शुभ करने की कोई भी प्रेरणा ईश्वर है। पश्चिम के लोगों को और पूर्व के लोगों को भी, 'ईश्वर की आवश्यकता के अनुभव करने' की तुलना उन्होंने उस व्यक्ति से की, जो पानी के भीतर है और हवा के लिए छटपटा रहा है। वह हवा की आवश्यकता का अनुभव कर रहा है, वह उसके बिना जीवित रह नहीं सकता। जब पश्चिम के लोग ईश्वर की आवश्यकता का इस प्रकार अनुभव करेंगे, तो भारत उनका स्वागत करेगा, इसलिए कि प्रचारक-मिशनरी लोग-तब वहाँ ईश्वर को लेकर आयेंगे, इस विचार को लेकर नहीं कि भारत को ईश्वर का ज्ञान नहीं है, तब उनके ह्दय में प्रेम होगा, कट्टरता नहीं।
[1] शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति।
ग्राहं दारूधिाया धृत्वा नहीं तर्तुं स गच्छति।। विवेकचूड़ामणि।।८४।।
[2] मिस्र देश में मुर्दों को औषधियों के द्वारा कई हजार वर्ष तक कायम रखने का रिवाज है। इस तरह कायम रखी हुई लाश को 'ममी' कहते हैं।
[3] मुण्डकोपनिषद्।।३।१।१-२
[9] कठोपनिषद्।।१।२; १-२४; १।३।३-१५।।
[10] वही।।२।२।१३,१५; २।३।२४ १५, १६।।
[13] संकेतलिपि द्वारा आलिखित यह विवरण अपूर्ण मिला था। स्पष्टीकरणार्थ कहीं कहीं कोष्ठक में अतिरिक्त सामग्री रखी गयी है; और जहाँ विवरण उपलब्ध नहीं हुआ है, वहाँ तीन बिन्दुओं से चिन्ह्रित किया गया है । स.
[15] दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम्।।12।।
[17] वेदांत ऐण्ड दि वेस्ट' से उद्धृत। संकेतलिपि द्वारा आलिखित यह एवं परवर्ती भाषण-'औपचारिक उपासना' और 'दिव्य प्रेम'-अपूर्ण मिले थे। कहीं कहीं स्पष्टीकरणार्थ अतिरिक्त सामग्री कोष्ठक में रखी गई है और जहाँ विवरण उपलब्ध नहीं हुआ है, वहाँ तीन बिंदु से चिन्ह्रित किया गया है।
[19] अपाणिपादो जवनो ग्रहीता।। श्वेताश्वतरोपनिषद्।।3।16।।
[20] यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्वि नेदं यदिदमुपासते।। केनोपनिषद्।।1।6।।
[21] वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्राति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। गीता।।2।22।।
[22] शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य आ ये धामानि दिव्यानि तस्थु:।।
--श्वेताश्वतरोपनिषद्।।2।5।।
[23] वेदाहमेतं पुरूषं महान्तमादित्यवर्ण तमस: परस्तात्।
तमेव विदित्वाऽति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।।
--श्वेताश्वतरोपनिषद्।।3।8।।
[24] बृहदारण्यकोपनिषद् ।।4।5।6।।
[25] असमो मा सद्गमय । समसो मा ज्योतिर्गमय ।।
--बृहदारण्यकोपनिषद् ।।1।3।28।।