भक्ति
(मेडिसन स्क्वेयर कन्सर्ट हॉल, न्यूयार्क में 6 फ़रवरी, 1866 को दिया हुआ भाषण)
केवल कुछ धर्मों को छोड़कर सगुण ईश्वर की कल्पना प्राय: सभी धर्मों में प्रचलित रही है। जैन और बौद्धों को छोड़कर संसार के सभी धर्मों ने सगुण परमेश्वर की कल्पना स्वीकार की है, और उसी कल्पना से भक्ति और उपासना का उदय हुआ है। बौद्ध और जैन सगुण परमेश्वर को नहीं मानते, तथापि वे अपने धर्म-संस्थापकों की ठीक वेसी ही पूजा करते हैं, जिस प्रकार इतर धर्मो-पासक सगुण ईश्वर की। किसी एक ऐसे उच्चतर व्यक्ति की पूजा और भक्ति, जो मनुष्य को उसके प्रेम का प्रतिदान प्रेम से दे सके, सर्वत्र दिखायी देती है। विभिन्न धर्मों में यह प्रेम और भक्ति भिन्न अवस्थाओं में विभिन्न परिमाण से प्रकटहोती आयी है। निम्नतम अवस्था है 'बाह्य उपचार' अथवा कर्मकांड; इस अवस्था में सूक्ष्म कल्पनाओं की धारणा असंभव प्राय होती है। इसलिए वे निम्नतम भूमिका पर लायी जाकर फिर स्थूल रूप में परिणत की जाती हैं। फलत: अनेक प्रकार के रूपाकारों तथा उनके साथ अनेक प्रतीकों का उदय होता है। विश्व के समस्त इतिहास से प्रकट होता है कि इन मूर्त विचारों तथा प्रतीकों द्वारा ही मनुष्य ने निर्गुण को ग्रहण करने का प्रयत्न किया है। घंटियाँ, संगीत, पोथी, मंत्र-तंत्र, मूर्तियाँ और धर्म के अन्याय बाह्य अनुष्ठान-ये सब इसी श्रेणी में समाविष्ट होते हैं। मनुष्य की इंद्रियों द्वारा ग्रहण होने योग्य कोई भी वस्तु तथा निर्गुण की कल्पना सुगमता से करा देने वाली कोई भी स्थूल आकृति पूजा का विषय बन जाती है।
प्रत्येक धर्म में समय-समय पर ऐसे सुधारक जन्म लेते आए हैं, जिन्होंने सभी प्रतीकों और बाह्य अनुष्ठानों का विरोध किया है। किंतु उनका यह विरोध व्यर्थ रहा है, क्योंकि मनुष्य जब तक मनुष्य है, अधिकांश जन-समाज कोई ऐसा मूर्त प्रतीक अवश्य चाहेगा,जिसका वह आश्रय ले सके, जिसको केंद्र मानकर अपने मन के विचारों को गूँथ सके। मुसलमानों और प्रोटेस्टेंट ईसाईयों ने सभी प्रकार के बाह्यानुष्ठानों के निराकरण के लिए महान प्रयास किया है, परंतु इतना होते हुए भी कर्मकांड उनमें घुसे पड़े हैं। उनका बहिष्कार नहीं किया जा सकता। बहुत प्रयास के बाद केवल इतना ही हो जाता है कि जन-समाज एक प्रतीक को छोड़कर दूसरे को ग्रहण कर लेता है। वही मुसलमान जो काफि़रों के हर बाह्य अनुष्ठान, प्रतीक, मूर्ति या पूजा को पाप समझता है, जब वह स्वयं काबे की मस्जिद में जाता है, तो इस तरह नहीं सोचता। जब कोई धर्मशील मुसलमान प्रार्थना करता है, तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने को काबे में खड़ा हुआ समझे। जब वह हज को जाता है, तो मस्जिद के दीवाल में लगे हुए काले पत्थर को उसे चूमना पड़ता है। क़यामत के अंतिम दिन इस पत्थर पर अंकित करोड़ों हज करने वालों के चुंबन विश्वस्त लोगों के लाभ के लिए गवाही के रूप में उठ खड़े होंगे। काबे में जि़मजि़म नामक एक कुआँ है। मुसलमानों का विश्वास है कि अगर कोई इस कुएँ का थोड़ा भी पानी निकाल पाए, तो संपूर्ण पापों से उसे क्षमा दे दी जाएगी और न्यायदान के दिन उसे दूसरा शरीर प्राप्त होगा तथा वह सदा जीवित रहेगा। दूसरे धर्मों में प्रतीकोपासना इमारतों के रूप में प्रकट होती है। प्रोटेस्टेंट पंथवाले ऐसा समझते हैं कि गिरजाघर अन्य स्थानों से अधिक पवित्र होता है। गिरजाघर ही मानो स्वयं प्रतीक है। या उस 'पवित्र पुस्तक' अर्थात बाइबिल की बात लो। बाइबिल की कल्पना उनके लिए किसी भी अन्य प्रतीक से अधिक पवित्र है।
अतएव, प्रतीकोपासना के विरुद्ध उपदेश देना व्यर्थ है। और प्रतीकों के विरुद्ध उपदेश हम क्यों कर दें? मनुष्य प्रतीकों का उपयोग न करे, इसका कोई कारण नहीं है। मनुष्य उनका प्रयोग इसलिए करता है कि वे कुछ लक्षित भावों के संकेतस्वरूप होते हैं। यह विश्व ही एक प्रतीक है, जिसके द्वारा हम उसके परे और पीछे स्थित वस्तु को ही ग्रहण करने का यत्न कर रहे हैं। लक्ष्य है आत्मा, न कि जड़ वस्तुएँ। इसलिए मूर्तियाँ, घंटियाँ, मोमबत्तियाँ, ग्रंथ, गिरजाघर,मंदिर और अन्यान्य प्रवित्र प्रतीक बहुत अच्छे हैं और अध्यात्मरूपी पौधे की बाढ़ के लिए बहुत उपयोगी हैं; लेकिन इनका उपयोग बस यहीं तक है, इससे अधिक नहीं। अधिकांश लोगों के विषय में यही दीख पड़ता है कि इस पौधे की बाढ़ आगे नहीं हो पाती। किसी संप्रदाय में जन्म लेना अच्छी बात है, पर संप्रदाय में ही मर जाना दुर्भाग्य है। अध्यात्मरूपी पौधे की बाढ़ में मदद पहुँचाने वाले उपासना-प्रकारों की सीमा में जन्म लेना अच्छा है, किंतु इन उपासनाओं के घेरे में ही यदि उसकी मृत्यु हो जाए, तो यह स्पष्ट है कि उसका विकास नहीं हुआ, उस आत्मा की उन्नति नहीं हुई।
इसलिए अगर कोई कहे कि प्रतीकों, बाह्य अनुष्ठानों तथा रूपों की सदैव ही आवश्यकता है, तो यह ग़लत है। लेकिन अगर वह कहे कि मन के अविकसित काल में आत्मोन्नति के लिए वे आवश्यक हैं, तो सत्य होगा। किंतु यह आत्मोन्नति कोई बौद्धिक विकास है, ऐसी भ्रमपूर्ण धारणा तुम्हें न कर लेनी चाहिए। एक मनुष्य चाहे असाधारण बुद्धिमान हो, परंतु फिर भी संभव है कि आध्यात्मिक क्षेत्र में वह अभी निरा बच्चा ही हो। किसी भी क्षण तुम इसकी परीक्षा ले सकते हो। तुममें से प्रत्येक व्यक्ति ने सर्वव्यापी परमेश्वर में विश्वास करना सीखा है। वही सोचने की कोशिश करो। तुममें कितने कम लोग सर्वव्यापित्व की कल्पना कर सकते हैं! अगर तुम बहुत प्रयत्न करो, तो तुम्हें समुद्र की,आकाश की, विस्तृत हरियाली की या मरूभूमि की ही कल्पना अमूर्त रूप से ही नहीं कर सकते और जब तक निराकार के रूप में ही तुम्हें अवगत नहीं होता, तब तक तुम्हें इन आकृतियाँ का, इन स्थूल मूर्तियों का आश्रय लेना ही होगा। ये आकृतियाँ चाहे मन के अंदर हों, चाहे मन के बाहर, इससे कुछ अधिक अंतर नहीं हेाता। हम सब जन्म से ही मूर्तिपूजक हैं। और मूर्तिपूजा अच्छी है, क्योंकि यह मनुष्य के लिए अत्यंत स्वाभाविक है। इस उपासना से परे कौन जा सकता है? केवल वही, जो सिद्ध पुरुष है, जो अवतारी पुरुष हैं। बाक़ी सब मूर्तिपूजक ही हैं। जब तक यह विश्व और उसमें की मूर्त वस्तुएँ हमारी आँखों के सामने खड़ी हैं, तब तक हममें से प्रत्येंक मूर्तिपूजक है। स्वयं यह विश्व ही एक विशाल प्रतीक है, जिसकी हम पूजा कर रहे हैं। जो कहता है कि मैं शरीर हूँ, वह जन्म से ही मूर्तिपूजक है। हम हैं आत्मा,जिसका न कोई आकार है, न रूप, जो अनंत है और जिसमें जड़त्व का संपूर्ण अभाव है। अतएव, जो लोग अमूर्त की धारणा तक नहीं कर सकते, जो शरीर या जड़ वस्तुओं का आश्रय लिए बिना अपने वास्तविक स्वरूप का चिंतन नहीं कर सकते, वे मूर्तिपूजक ही हैं। और फिर भी, ऐसे लोग एक दूसरे को 'तुम मूर्तिपूजक हो' कहते हुए आपस में कैसे झगड़ते हैं! दूसरे शब्दों में, प्रत्येक कहता है कि मेरी ही मूर्ति सच्ची है, दूसरों की नहीं!
इसलिए इन बचकानी कल्पनाओं का हमें त्याग कर देना चाहिए। हमें उन मनुष्यों की थोथी बकवास से परे चले जाना चाहिए, जो समझते हैं कि सारा धर्म शब्दजाल में ही समाया है, जिनकी समझ में धर्म केवल सिद्धांतों का एक समूह मात्र है, जिनके लिए धर्म केवल बुद्धि की सम्मति या विरोध है, जो धर्म का अर्थ केवल अपने पुरोहितों द्वारा बतलाये हुए कुछ शब्दों में विश्वास करना ही समझते हैं, जो धर्म को कोई ऐसी वस्तु समझते हैं, जो उनके बाप-दादाओं के विश्वास का विषय था, जो कुछ विशिष्ट कल्पनाओं और अंधविश्वासों को ही धर्म मानकर उनसे चिपके रहते है और वह भी केवल इसलिए कि यह अंधविश्वास उनके समस्त राष्ट्र का है। हमें इन कल्पनाओं को त्याग देना चाहिए। अखिल मानव समाज को हमें एक ऐसा विशाल प्राणी समझना चाहिए, जो धीरे-धीरे प्रकाश की ओर बढ़ रहा है, अथवा एक ऐसा आश्चर्यजनक पौधा, जो स्वयं को उस अद्भुत सत्य के प्रति शनै: शनै: खोल रहा है, जिसे हम ईश्वर कहते हैं। और इस ओर की पहली हलचल, पहली गति सदा बाह्य अनुष्ठानों तथा स्थूल द्वारा ही होती है।
इन सभी बाह्य अनुष्ठानों के अंतराल में एक कल्पना मुख्यत: दिखेगी, जो दूसरी सब कल्पनाओं में श्रेष्ठ है। वह है नाम की उपासना। तुममें से जिन लोगों ने पुराने ईसाई धर्म का अथवा अन्य धर्मो का अध्ययन किया है, उन्होंने शायद देखा होगा कि सभी धर्मों के अंतर्गत यह नामोपासना की कल्पना है। नाम अत्यंत पवित्र माना जाता है। ईश्वर का पवित्र नाम सब नामों से और सब पवित्र वस्तुओं से पवित्रतर है, ऐसा हम बाइबिल में पढ़ते हैं। ईश्वर के नाम की पवित्रता अतुलनीय मानी गई है और ऐसा समझा गया है कि यह पवित्र नाम ही परमेश्वर है। और यह सत्य है, क्योंकि यह विश्व नाम और रूप के अतिरिक्त और है ही क्या? क्या शब्दों के बिना तुम सोच सकते हो? शब्द और विचार एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। तुममें से कोई उनको अलग कर सकता हो, तो प्रयत्न कर देखो। जब कभी तुम सोचते हो, तो शब्द और आकृतियों द्वारा ही। एक के साथ दूसरा आता ही है; नाम रूप की याद दिलाता है और रूप से नाम का स्मरण होता है। यह संपूर्ण विश्व मानो परमेश्वर का स्थूल प्रतीक है, और उसके पीछे है, उसका महिमान्वित नाम। प्रत्येक शरीर है रूप, और उसके पीछे रहता है उसका नाम। ज्यों ही तुम अपने किसी मित्र के नाम को याद करते हो, उसकी आकृति तुम्हारे सामने खड़ी हो जाती है; और ज्यों ही तुम उसके शरीर की आकृति मन में लाते हो, उसका नाम तुम्हें याद आ जाता है। यह तो मनुष्य के सहज स्वभाव में ही है। दूसरे शब्दों में, मनोविज्ञान की दृष्टि से, मनुष्य के चित्त में रूप के बोध के बिना नाम का बोध नहीं हो सकता और न नाम के बोध के बिना रूप का। वे दोनों अलग नहीं किए जा सकते। एक ही लहर के वे बाहरी और भीतरी अंग हैं। इसीलिए नाम का इतना माहात्म्य है और दुनिया में वह सब जगह पूजा जाता है-चाहे जान-बुझकर, चाहे अनजाने, मनुष्य को नाम की महिमा मालूम हो ही गई।
हम यह भी देखते हैं कि भिन्न-भिन्न धर्मों में पवित्र पुरुषों की पूजा होती आयी है। कोई कृष्ण की पूजा करता है, कोई इसा मसीह की; कोई बुद्ध को पूजता है, कोई अन्य विभूतियों को। इसी तरह, लोग संतों की पूजा करते आ रहे हैं। सैकड़ों संतों की पूजा संसार में होती रही है और उनकी पूजा क्यों न हो? प्रकाश के स्पंदन सर्वत्र विद्यमान हैं। उल्लू उसे अँधेरे में देखता है; इसीसे स्पष्ट है कि वह वहाँ विद्यमान है, मनुष भले ही उसे न देख सके। मनुष्य को वह स्पंदन केवल दीपक, सूर्य, चंद्रमा इत्यादि में दिखायी देता हैं। परमेश्वर सर्वत्र विद्यमान है। वह घट घट में प्रकट हो रहा है, लेकिन मनुष्य को वह मनुष्य रूप में ही दृष्टिगोचर, उपलब्ध होता है। जब उसकी ज्योति, उसका अस्तित्व, उसका ईश्वरत्व मानवी मुखमंडल पर प्रकट होता है, तभी मनुष्य उसकी पहचान कर सकता है। इस तरह मनुष्य सर्वदा मानव-रूप में परमेश्वर की पूजा करता आ रहा है और जब तक मनुष्य मनुष्य रहेगा, वह ऐसा करता ही जाएगा। वह भले ही ऐसी पूजा के विरुद्ध चिल्लाये, भले ही उसके प्रतिकूल प्रयत्न करे, पर ज्यों ही वह परमेश्वर-प्राप्ति का प्रयत्न करेगा, उसे प्रतीत हो जाएगा कि स्वभावत: ही वह ईश्वर का विचार मनुष्य रूप में ही कर सकता है।
अतएव, प्राय: प्रत्येक धर्म में हम तीन मुख्य बातें देखते हैं, जिनके द्वारा परमेश्वर की पूजा की जाती है। वे हैं प्रतिमाएँ या प्रतीक, नाम और देव-मानव। प्रत्येक धर्म में ये बातें हैं और फिर भी लोग एक दूसरे से लड़ना चाहते हैं। एक कहता है, "यदि संसार में कोई प्रतिमा सच्ची है, तो वह मेरे धर्म की; कोई नाम सच्चा है, तो मेरे धर्म का और कोई देव-मानव है, तो मेरे ही धर्म का। तुम्हारे तो केवल कपोल कल्पित हैं।" इन दिनों ईसाई पादरी कुछ नरम हो गए हैं। वे मानने लगे हैं कि पुराने धर्मों के विभिन्न पूजा-प्रकार ईसाई धर्म के पूर्वाभास मात्र हैं, परंतु फिर भी उनके मत से ईसाई धर्म ही सच्चा धर्म है। ईसाई उत्पन्न करने के पहले ईश्वर ने अपनी शक्तियाँ जाँच लीं, इन पूजा-पद्धतियों का निर्माण कर उसने अपने बलाबल को नापा और अंत में ईसाई धर्म की उत्पत्ति हुई। उनका आजकल ऐसा कहना कुछ कम प्रगतिसूचक नहीं है। पचास वर्ष पूर्व तो वे लोग यह भी स्वीकार करने को तैयार न थे; उनके धर्म को छोड़कर और अन्य कुछ भी सत्य न था। यह भाव किसी धर्म किसी एक राष्ट्र या किसी एक जाति का वैशिष्ट्य नहीं है; लोग तो हमेशा यही सोचते रहे हैं कि जो कुछ वे करते आए हैं वही ठीक है और अन्य लोगों को भी वैसा ही आचरण करना चाहिए। विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से हमें यहाँ बहुत सहायता मिलेगी। इस अध्ययन से यह मालूम हो जाएगा कि जिन विचारों को हम अपने-केवल अपने-कहते आए हैं, वे सैकड़ों वर्ष पूर्व दूसरे लोगों के मन में विद्यमान थे, और कभी-कभी तो उनका व्यक्त रूप हमारे अपने विचारों से कहीं अधिक अच्छा था।
ये तो उपासना के केवल बाह्य अंग हैं, जिनमें से होकर मनुष्य को गुज़रना पड़ता है। किंतु यदि वह सच्चा है, यदि वह सचमुच सत्य की प्राप्ति करना चाहता है, तो उसे इन बाह्य अंगों से ऊँचा उठकर ऐसी भूमि पर पहुँचना होगा, जहाँ ये बाह्य अंग शून्यवत् हो जाते हैं। मंदिर और गिरजा, पोथी और पूजा ये धर्म की केवल शिशुशाला मात्र हैं, जिनके द्वारा आध्यात्मिक शिशु पर्याप्त बलवान होता है, जिससे वह उच्चतर सीढि़यों पर पैर रखने में समर्थ होता है। यदि उसकी इच्छा है कि उसकी धर्म में गति हो, तो ये पहली सीढि़याँ आवश्यक हैं। ईश्वर-प्राप्ति की पिपासा उत्पन्न होने के साथ ही मनुष्य में सच्चा अनुराग, सच्ची भक्ति उत्पन्न हो जाती है। पर ऐसी पिपासा है किसे?-प्रश्न तो यही है। धर्म न तो मतों में हैं, न पंथों में और न तार्किक विवाद में ही। धर्म का अर्थ है आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, उसका प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर लेना और तद्रूप हो जाना। हम ऐसे अनेक लोगों से मिलते हैं, जो परमेश्वर, आत्मा और विश्व के गूढ़ रहस्यों के बारे में बातें किया करते हैं। किंतु एक- एक को लेकर यदि तुम उनसे पूछो "क्या तुमने परमेश्वर का प्रत्यक्ष्ा दर्शन किया है, क्या तुम्हें आत्मानुभव हुआ है?"-तो ऐसे कितने निकलेंगे, जो 'हाँ' कह सकें? और फिर भी लोग एक दूसरे से लड़ते चले आ रहे हैं! एक समय भारत में विभिन्न संप्रदायों के अनुयायी इकट्ठे हुए और आपस में लड़ने लगे। एक कहता था कि यदि कोई परमेश्वर है, तो वह है 'शिव'। दूसरा कहता था 'विष्णु', और इस तरह उनके बाद विवाद का कोई अंत न था। उस राह से एक योगी जा रहा था। विवादकों ने उसे पुकारा और उससे अपना निर्णय देने को कहा। जो मनुष्य शिव को सर्वश्रेष्ठ ईश्वर बतलाता था, उससे उससे पहले पूछा, "क्या तुमने शिव जी को देखा है? क्या तुम उनसे परिचित हो? यदि नहीं, तो तुम कैसे कहते हो कि वे सर्वश्रेष्ठ हैं?" फिर उसने विष्णुभक्त से पूछा, "क्या तुमने विष्णु को देखा है?" और इस तरह प्रत्येक से यही प्रश्न पूछने पर उसे ज्ञात हुआ कि उनमें से किसी को परमेश्वर के विषय में कुछ भी ज्ञान न था। और इसीलिए वे आपस में इतना लड़ रहे थे, क्योंकि अगर उन्हें सचमुच ही कुछ मालूम होता, तो वे कभी न लड़ते। जब घड़ा पानी से भरा जाता हैं, तो शब्द करता है, पर जब पूरा भर जाता है, तो आवाज़ निकलनी बंद हो जाती है। अतएव, संप्रदायों की आपस की लड़ाई से ही यह बात सिद्ध होती है की वे धर्म के बारे में कुछ नहीं जानते। उनके लिए धर्म तो केवल ग्रंथों में लिखने योग्य शब्दजाल मात्र है। प्रत्येक मनुष्य चटपट एक बड़ी पुस्तक लिखने बैठ जाता है, उसे जितनी मोटी हो सके, बनाने की चेष्टा करता है, जो किताब उसके हाथ लग जाए, उसी में से चोरी कर लेता है और इसके लिए कृतज्ञता-प्रकाशन तक नहीं करता! फिर, संसार में पहले से ही मची हुई गड़बड़ी को और भी अधिक बढ़ा देने के लिए उस पुस्तक को वह दुनिया के सम्मुख प्रस्तुत कर देता है।
अधिकांश मनुष्य नास्तिक हैं। मुझे इत बात का आनंद है कि पाश्चात्य देशों में एक दूसरे ही प्रकार के नास्तिकों की जाति इन दिनों पैदा हो गई है। मेरे कहने का तात्पर्य है जड़वादी। वे ह्दय से नास्तिक हैं। वे धार्मिक नास्तिकों से अच्छे हैं। ये धार्मिक नास्तिक दांभिक होते हैं, ये धर्म के बारे में लड़ते हैं, धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, पर उसे पाना नहीं चाहते, उसका प्रत्यक्ष अनुभव लेना नहीं चाहते और न उसे समझना ही चाहते हैं। ईसा मसीह के ये शब्द स्मरण रहें, 'तुम माँगो और वह तुम्हें दिया जाएगा; तुम ढूँढ़ो और तुम उसे पाओगे। तुम खटखटाओ और तुम्हारे लिए दरवाज़ा खुल जाएगा।' ये शब्द बिल्कुल सत्य हैं, आलंकारिक या काल्पनिक नहीं है। परमेश्वर के एक सबसे महान पुत्र के ह्दय के रक्त में से वे बह निकले थे। वे ऐसे शब्द हैं, जो स्वयं अनुभव करने के बाद निकले हैं। ऐसे व्यक्ति से निकले हैं, जिसने परमेश्वर का प्रत्यक्ष अनुभव किया था, जिसे उसका प्रत्यक्ष स्पर्श हुआ था, जिसेने उसके साथ वास किया था, उसके साथ बातचीत की थी और वह भी साधारण रूप से नहीं, बल्कि जैसे हम इस दीवार को देख रहे हैं, उससे भी सैकड़ों गुना अधिक प्रत्यक्ष रूप से। प्रश्न तो यह है कि परमेश्वर को चाहता है कौन? क्या तुम ऐसा समझते हो कि दुनिया के ये सब लोग परमेश्वर को चाहते हैं, पर उसे पा नहीं सकते? असंभव। दुनिया में ऐसी कौन सी इच्छा है, जिसका विषय बाहर दुनिया में विद्यमान नहीं है? मनुष्य चाहता है कि वह साँस ले और वह देखता है कि उसके साँस लेने के लिए हवा विद्यमान है। मनुष्य खाने की इच्छा करता है और वह देखता है कि खाने के पदार्थ उसके सम्मुख विद्यमान हैं। इच्छाएँ क्यों उत्पन्न होती हैं? इसलिए कि उनके विषय बाहर विद्यमान हैं। प्रकाश विद्यमान था, इसलिए आँखों ने जन्म लिया और शब्द विद्यमान था, इसलिए उसने कानों को जन्म दिया। इस तरह मनुष्य की प्रत्येक इच्छा किसी न किसी बाह्य विद्यमान वस्तु के कारण ही उत्पन्न हुई है। तो फिर पूर्णत्व की इच्छा, अंतिम ध्येय पर पहुँचने की इच्छा तथा प्रकृति से परे जाने की इच्छा यह स्वयं ही क्यों कर उत्पन्न हो सकती है? ऐसी कोई वस्तु होनी ही चाहिए, जिसने इस इच्छा को मनुष्य के ह्दय में पैदा किया है और उसके ह्दय में इसका वास कराया है। इसलिए जिस व्यक्ति में यह इच्छा उत्पन्न हुई है, वह अवश्य ही अपने ध्येय को पहुँच जाएगा। हम एकमात्र परमेश्वर को छोड़ अन्य सब वस्तुएँ चाहते हैं। तुम अपने आसपास जो कुछ देखते हो, वह धर्म नहीं है। गृहस्वामिनी ने अपने बैठके में दुनिया के सारे फर्नीचर इकट्ठा कर रखा है और मान लो, एक ऐसा फ़ैशन निकल पड़ा कि जापान की भी कोई न कोई चीज़ घर में अवश्य रहनी चाहिए। अत: वह एक जापानी फूलदान मोल ले आती है और उसे भी अपने कमरे में रख देती है। अधिकांश लोगों के लिए धर्म ऐसा ही है; उनके पास सब तरह की उपभोग की सामग्री है, और यदि वे उसमें धर्म की थोड़ी सी खुशबू न छोड़ें, तो ठीक नहीं होगा, क्योंकि अन्यथा समाज आलोचना करेगा। समाज हमसे यह अपेक्षा करता है और इसीलिए मनुष्य कोई न कोई धर्म अपना लेता है। आज दुनिया में धर्म की यही अवस्था है।
एक शिष्य अपने गुरु के पास गया और बोला, "महाराज, मैं धर्म-लाभ करना चाहता हूँ।" गुरु ने उस युवक की ओर देखा और चुप रहे। वे सिर्फ़ मुस्करा दिए। वह युवक प्रतिदिन आता और धर्म की उपलब्धि करने का आग्रह करता। पर वे वृद्ध उस युवक से अधिक अनुभवी थे। एक दिन जब धूप खूब कड़ाके की पड़ रही थी, उन्होंने उस शिष्य से अपने साथ अवगाहनार्थ नहीं चलने के लिए कहा। जब वे नदी में पहुँच गए, तो गुरु ने उससे पानी में डुबकी लगाने को कहा। ज्यों ही उस युवक ने डुबकी लगायी, गुरु ने बलपूर्वक उसे पानी के अंदर डुबाये रखा। उसके कुछ क्ष्ाण छटपटाने के बाद उन्होंने उसे छोड़ दिया। जब वह पानी के बाहर आया, तो वृद्ध ने पूछ, "अच्छा, मेरे बच्चे, बताओ तो सही, जब तुम पानी के अंदर थे, तब सबसे अधिक क्या चाहते थे?" युवक ने उत्तर दिया "केवल एक साँस।" तब गुरु ने कहा, "क्या तुम ईश्वर को भी इतनी ही तीव्रता से चाहते हो? यदि ऐसा है, तो फिर उसे एक क्षण में पा जाओगे।" जब तक तुम्हें ऐसी प्यास नहीं लगती, तुम अपनी बुद्धि को लेकर अथवा अपनी पुस्तकों या मूर्तियों को लेकर चाहे जितना भी कोशिश करो, तुम्हें धर्म-लाभ न होगा। जब तक तुमसे ऐसी प्यास उत्पन्न नहीं होती, तुम नास्तिक से किसी भी प्रकार श्रेष्ठ नहीं हो! अंतर यह है कि नास्तिक ईमानदार हैं और तुम उतना भी नहीं हो।
एक महात्मा अक्सर कहा करते थे, "मान लो, इस कमरे में चोर घुसा हो और किसी तरह उसे पता चल जाए कि पासवाले कमरे में बहुत सा सोना रखा हुआ हैं और दोनों कमरों के बीच की दीवाल भी बहुत कमज़ोर है। ऐसी अवस्था में उस चोर की क्या दशा होगी? उसे न तो नींद आएगी, न उसे खाने या अन्य कोई काम करने में रूचि रह जाएगी। उसका सारा मन इस बात में ही लगा रहेगा कि सोना किस तरह हाथ लगे। क्या तुम ऐसा समझते हो कि यह निश्चित विश्वास होते हुए भी कि परमात्मा सुख, आनंद एवं ऐश्वर्य की खान है और वह हमारे पास ही है, लोग ऐसा ही आचरण करते रहेंगे, जैसा कि आज वे कर रहे हैं और परमेश्वर-प्राप्ति का तनिक भी प्रयत्न न करेंगे?" ज्यों ही मनुष्य विश्वास करने लगता है कि परमेश्वर विद्यमान है, वह उसे पानेके लिए पागल हो जाता है। लोग अपनी राह भले ही जाएं, लेकिन जब मनुष्य को यह विश्वास हो जाता है कि जैसा जीवन वह आज व्यतीत कर रहा है, उससे कहीं ऊँचा जीवन व्यतीत कर सकता है और ज्यों ही उसे निश्चित रूप से यह अनुभव होने लगता है कि इंद्रियां ही सर्वस्व नहीं हैं, यह मर्यादित जड़ शरीर उस शाश्वत, चिरंतन और अमर आत्मानंद के सामने कुछ नहीं है, तो वह उन्मत्त हो जाता है और उस परमानंद को स्वयं ढूँढ़ निकालता है। यह वह पागलपन है, वह प्यास है, वह उन्माद है, जिसका नाम है धर्म-भव की 'जागृति' और जब वह जग्रत हो जाता है, तो मनुष्य धर्मप्रवण बनने लगता है। पर इसके लिए बहुत समय लगता है। ये सब प्रतीक और विधियाँ, ये प्रार्थनाएँ और ये तीर्थयात्राएँ, ये ग्रंथ, घंटियाँ, मोमबत्तियाँ और पुरोहित-ये सब पूर्व तैयारियाँ मात्र हैं। इनसे मन का मेल दुर हो जाता है। और जब जीव शुद्ध हो जाता है, तो स्वभावत: ही वह पवित्रतास्वरूप परमात्मा की ओर जाना चाहता है। शताब्दीयों की धूल से सना लोहा जिस तरह लोहचुंबक के पास पड़े रहने से भी उसकी ओर नहीं खिंचता, और जैसे वह धूल साफ़ हो जाने के बाद वही लोहा चुंबक की ओर स्वयं खिंचने लगता है, उसी प्रकार युगानुयुग की धुल से, अपवित्रता, दुष्टता और पापों से सना हुआ यह जीव जब अनेक जन्मों के बाद इन उपासनाओं और विधियों द्वारा, दूसरों की भलार्इ और सर्वभूतों के प्रति प्रेम द्वारा शुद्ध हो जाता है, जब उसका स्वाभाविक आध्यात्मिक आकर्षण जागृत हो जाता है, वह जाग उठता है और परमेश्वर की ओर जाने का यत्न करने लगता है।
तो भी, ये विधिया और प्रतीक केवल आरंभ के लिए उपयुकत हैं, यह ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम नहीं है। सर्वत्र हम प्रेम के बारे में सुना करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति कहता है, "ईश्वर से प्रेम करो।" मनुष्य यह नहीं जानता कि प्रेम करने का तात्पर्य क्या है; यदि वह जानता होता, तो इस तरह बकवास न करता। प्रत्येक मनुष्य कहता है कि वह प्यार कर सकता है और कुछ ही समय बाद उसे दिखने लगता है कि प्यार करना उसके सवभाव में ही नहीं है। हर एक स्त्री कहती है कि वह प्यार करती है, पर शीघ्र ही उसे पता लग जाता है कि वह प्यार नहीं कर सकती। दुनिया में प्यार सिर्फ़ बातों में है। प्यार करना बड़ा कठिन है। प्यार है कहाँ? तुम कैसे जानते हो कि प्रेम का अस्तित्व है? प्रेम का पहला लखण यह है कि वह व्यापार नहीं जानता। जब तक एक मनुष्य दूसरे से कुछ लाभ उठाने के लिए प्यार करता है, तब तक तुम समझ लो कि वह प्रेम नहीं है। वह तो दुकानदारी है। जहाँ कहीं खरीदने और बेचने का सवाल आया, वहाँ प्रेम नहीं है। इसलिए जब मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करता है, "मुझे यह दो, मुझे वह दो", तो यह प्रेम नहीं है। यह प्रेम कैसे हो सकता है? मैं तुम्हारी स्तुति करता हूँ, और तुम बदले में मुझे कुछ दो। बस, यही उसका स्वरूप है--सिर्फ़ दुकानदारी!
एक समय एक बड़ा राजा शिकार खेलने जंगल में गया। उसकी वहाँ एक साधु से भेंट हुई। थोड़ी देर की बातचीत से राजा साधु से इतना प्रसन्न् हो गया कि उसने उनसे कहा, "महाराज, कुछ भेंट स्वीकार कीजिए।" साधु ने उत्तर दिया, "नहीं, मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। ये वृक्ष मुझे खाने को फल देते हैं। स्वच्छ जल के ये सुंदर झरने मेरी प्यास बुझाते हैं। मैं इन गुफाओं में सोता हूँ। चाहे तुम सम्राट् ही क्यों न हो, मुझे तुम्हारी भेंट की कोई चाह नहीं।" सम्राट् बोला, "कम से कम मुझे पवित्र करने और संतोष देने के लिए तो आप कुछ भेंट स्वीकार कीजिए तथा मेरे साथ नगर में पधारिए।" अंत में साधु मान गए और वे उस सम्राट् के साथ् महल में आए। वहाँ उन्होंने सोना, रत्न, संगमर्मर तथा अन्य अत्यंत आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखीं। प्रत्येक स्थान में ऐश्वर्य और प्रभुता चू सी रही थी। सम्राट् ने साधु से एक मिनट ठहरने के लिए कहा अेर एक कोने में जाकर प्रार्थना करने लगा, "हे परमेश्वर, मुझे और अधिक धन दे, और अधिक संतान दे, और अधिक भूमि दे"-आदि…। इधर साधु उठ खड़े हुए और चलने लगे। सम्राट् ने जब देखा कि वे जा रहे हैं, तो उनके पीछे दौड़कर बोला, "महाराज, ठहरिए। आपने मेरी भेंट तो स्वीकार ही नहीं की।" साधु मुँह फेरकर बोले, "भिखारी, मैं भिखमंगों से कुछ नहीं माँगता। तुम मुझे क्या दे सकते हो? तुम तो खुद ही माँग रहे थे।" अत: यह प्रेम की भाषा नहीं है। यदि तुमने ईश्वर से माँगा, "मुझे यह दे, वह दे", तो फिर तुम्हारे प्रेम में और दुकानदारी में अंतर ही क्या रहा? प्रेम का पहला लक्षण यह है कि प्रेम व्यापार नहीं जानता। प्रेम सदा देता ही आया है, लेता कभी नहीं। ईश्वर का पुत्र कहता है, "यदि ईश्वर की इच्छा हो, तो मैं उसे अपना सर्वस्व देने को तैयार हूँ, लेकिन इस दुनिया में उससे मैं कुछ नहीं चाहता। मैं उसे इसलिए प्यार करता हूँ कि मैं प्यार करना चाहता हूँ और बदले में कुछ चाह नहीं रखता। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है या नहीं, यह जानने की मुझे क्या चिंता? मैं उससे न किसी प्रकार की सिद्धि चाहता हूँ, न उसकी शक्ति की कोई अभिव्यक्ति। मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह प्रेममय प्रभु है। इससे अधिक मैं और कुछ नहीं जानना चाहता।"
प्रेम का दूसरा लक्षण यह है कि वह भय नहीं करता। जब तक मनुष्य परमेश्वर की ऐसी कल्पना करता है कि वह एक हाथ में पुरस्कार और दूसरे हाथ में दंड लिए हुए बादलों के ऊपर बैठा हुआ एक व्यक्ति है, तब तक वहाँ प्यार नहीं हो सकता। क्या तुम डराकर किसीसे प्यार करा सकते हो? मेमना क्या शेर से प्यार कर सकता है और चूहा, बिल्ली से या गुलाम, मालिक से? गुलाम कभी-कभी प्यार सा करता हुआ दिखाता है, पर क्या वह प्यार है? भय में प्यार तुमने कब और कहाँ देखा? वह तो सदैव एक विडंबना होती है। प्यार के साथ भय का विचार कभी नहीं आता। मान लो, एक युवती माँ सड़क से जा रही है। यदि उस पर कोई कुत्ता भौंकता है, तो वह पासवाले घर में चट दौड़ जाती है। अब कल्पनाकरो कि दूसरे दिन वह अपने बालक को लिए हुए रास्ते से जा रही है और इतने में एक शेर झपट पड़ता है। उस दशा में वह क्या करेगी? बच्चे को बचाने के लिए वह स्वयं को शेर के मुँह में डाल देगी। प्यार ने उसका सारा भय जीत लिया। इसी तरह ईश्वर के प्यार के विषय में जानो। किसे यह चिंता है कि ईश्वर दंड देनोवाला है या पुरस्कार? प्रेमी के ऐसे विचार ही नहीं होते। मान लो, एक न्यायाधीश अपने घर आता है। उसकी पत्नी उसे किस रूप में देखेगी? न तो न्यायाधीश के रूप में और न पुरस्कार या दंड देने वाले के रूप में, वरन् एक पति के रूप में, एक प्यार करने वाले के रूप में। उसके लड़के उसे किस दृष्टि से देखेंगे? प्यार करने वाले पिता की दृष्टि से, न कि दंड या पुरस्कर देनेवाले अधिकारी की दृष्टि से। इसी प्रकार परमेश्वर के सुपुत्र उसको दंड देने वाले या पुरस्कार देनेवाले की दृष्टि से कभी नहीं देखते। जिन्होंने कभी प्रेमास्वादन नहीं किया है, वे ही डरते और काँपते हैं। समस्त भय निकाल बाहर करो। परमेश्वर दंड देनेवाला है या पुरस्कार देनेवाला, ये भीषण कल्पनाएँ मनुष्य की जंगली अवस्था में ही उपयुक्त हैं। कुछ मनुष्य अत्यंत बुद्धिप्रधान होने पर भी अध्यात्म-दृष्टि से जंगली ही होते हैं। ऐसे मनुष्यों के लिए ये कल्पनाएँ सहायक हो सकती हैं। पर वे मनुष्य, जो धार्मिक हैं, जिनकी धर्म की ओर गति हो रही है, जिनके अंतश्चक्षु खुल गए हैं, इन कल्पनाओं को बालक की कल्पनाओं के समान समझते हें--निरी मूर्खता समझते हैं। ऐसे मनुष्य भय की समस्त कल्पनाओं को निकाल डालते हैं।
तीसरा लक्षण इससे भी उच्चतर है। प्रेमसदा ही सर्वोच्च आदर्श रहा है। जब मनुष्य पहली दो अवस्थाएँ पार कर लेता है, जब वह दुकानदारी छोड़ देता है और डर निकाल डालता है, तब उसकी समझ में आने लगता हैं कि प्रेम सदा सर्वोच्च आदर्श रहा है। एक सुंदर स्त्री एक कुरूप पुरुष से प्यार करती है, तथा एक सुंदर पुरुष एक कुरूप स्त्री से प्यार करता है--क्या ऐसा इस दुनिया में अनेकों बार नहीं हुआ है? यह आकर्षण क्यों? देखने वालों को वह केवल कुरूप मनुष्य या कुरूप स्त्री ही दिखलायी देती है, पर प्रेमी को नहीं। प्रेमी को तो अपनी प्रेयसी सब जीवों में अत्यंत सुंदर दिखायी देती है। ऐसा क्यों? वह सुदरी, जो एक कुरूप मनुष्य को प्यार करती है, अपने मन में विद्यमान अपने सौंदर्य विषयक आदर्श को मानो उस पर आरोपित कर देती है, और वह जो पूजती तथा प्यार करती है, वह उस कुरूप मनुष्य को नहीं, बल्कि अपने उसी आदर्श को। वह मनुष्य तो माना उद्दीपक मात्र है और वह स्त्री उस पर अपना वह आदर्श आरोपित कर उसे ढक लेती है। इस तरह वह उसकी पूजा का पात्र बन जाता है। यह बात प्रेम के प्रत्येक दृष्टांत में लागू होती है। हममें से बहुतों के बहन या भाई दिखने में बिल्कुल ही साधारण होते हैं, लेकिन यह कल्पना ही कि वे भाई या बहन हैं उन्हें हमारे निकट सुंदरा बना देती है।
हर व्यक्ति अपने आदर्श की कल्पना प्रक्षिप्त करके उसे ही पूजता है, यही तत्वज्ञान इसकी पार्श्वभूमि में है। यह बाह्य जगत् केवल आलंबनों का जगत् है। जो कुछ हम देखते हैं, वह हमारे मन का प्रक्षेप ही है। सीपी में रेत का एक कण घुस जाता है और उसे क्षुब्ध करने लगता है। उस क्षोभ से सीपी में स्राव पैदा होता है और रेत का कण उस स्राव से बिल्कुल ढक जाता है और इस तरह एक सुंदर मोती बन जता है। इसी प्रकार, बाह्य वस्तुओं से हमें केवल उद्दपन मिलता है और उन पर अपने आदर्शों को आरोपित कर हम अपने जगत् की सृष्टि करते हैं। दुष्ट मनुष्य इस संसार को पूर्ण नरक देखता है और अच्छा मनुष्य इसी को पूर्ण स्वर्ग। प्रेमियों के लिए दुनिया प्रेम से भरी है, पर द्वेष करने वालों के लिए द्वेष से। झगड़ने वाले केवल लड़ाई ही देखते हैं, पर शांत व्यक्ति देखते हैं केवल शांति। इसी तरह सिद्ध पुरुष केवल परमेश्वर को ही देखते हैं, अन्य किसी को नहीं। अतएव हम सदा अपने सर्वोच्च आदर्श की ही पूजा किया करते हैं। और जब हम उस अवस्था को पहुँच जाते हैं, जब हम आदर्श को आदर्श के ही रूप में प्यार करते हैं, तब समस्त विवाद और संशय लुप्त हो जाते हैं। इसकी किसे चिंता है कि परमेश्वर इंद्रियों द्वारा प्रत्येख देखा जा सकता है या नहीं? वह आदर्श मुझमें से कभी लुप्त नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो मेरी सत्ता का एक अंश है। जब मुझे अपने स्वयं के अस्तित्व में संशय होगा, तभी में उस आदर्श में शंका करूँगा, और चूँकि मैं अपने अस्तित्व में कभी संशय नहीं करता, इसलिए उस आदर्श में भी कभी नहीं कर सकता। इसकी चिंता किसे है कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान और साथ ही साथ दयामय है अथवा नहीं? यह किसे चिंता है कि वह मान-समाज को पुरस्कार देनेवाल है, या उसे एक निरंकुश शासक की दृष्टि से देखने वाला अथवा एक सदय सम्राट् की दृष्टि से देखने वाला है?
प्रेमी तो इन सब कल्पनाओं से अतीत हो चुका है। वह पारितोषिक और दंड, शंका और भय से, वैज्ञानिक तथा अन्य प्रमाणों के पार हो गया है। प्रेम का आदर्श ही उसके लिए पर्याप्त हैं, और क्या यह स्वत: प्रमाण नहीं है कि यह विश्व प्रेम की ही अभिव्यक्ति मात्र है? अणु का अणु से कौन संयोग करता है और परमाणु परमाणुओं से कैसे जुड़ जाते हैं? ग्रहों को एक दूसरे की ओर कौन दौड़ाता है? वह क्या है, जिससे मनुष्य की ओर खिंचता है ओर पुरुष स्त्री की ओर, स्त्री पुरुष की ओर, जीव जीव की ओर और संपूर्ण विश्व मानो एक केंद्र की ओर? -वह है प्रेम। छोटे से छोटे अणु से लेकर उच्चतम जीव में यह प्रकट हो रहा है। यह प्रेम सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वह प्रेमस्वरूप परमात्मा ही चेतन तथा अचेतन में, व्यष्टि तथा समष्टि में आकर्षण के रूप में प्रकट हो रहा है। विश्व को गतिमान करने वाली अगर कोई शक्ति है, तो वही है। उसी प्रेम की प्रेरणा से ईसा मसीह मानव जाति के लिए अपना जीवन दे देते हैं, बुद्ध एक पशु तक के लिए, माँ बच्चे के लिए और पति पत्नी के लिए। इसी प्रेम से अनुप्रेरित हो मनुष्य अपने देश के लिए प्राण दे देते हैं; और यह विचित्र भले ही दिखे, पर इसी प्रेम की प्रेरणा से चोर चोरी करता है और खूनी खून! इन उदाहरणों के पीछे तत्व एक ही है, पर उसकी अभिव्यक्ति भिन्न है। विश्व को गति देनेवाली एकमात्र शक्ति यह प्रेम ही है। चोर को सोने से प्यार होता है; प्यार यहाँ भी है, किंतु वह पथभ्रष्ट हो गया है। इस तरह हम देखते हैं कि सब दुष्कृत्यों और सब सत्कार्यों के पीछे यह शाश्वत प्रेम ही कार्यान्वित हो रहा है। कल्पना करो कि न्युयार्क़ के ग़रीबों के लिए एक हज़ार डॉलर का दानपत्र एक मनुष्य लिखता है और उसी समय, उसी कमरे में दूसरा एक मनुष्य अपने मित्र के जाली दस्तखत तैयार करता है। वह प्रकाश, जिसमें दोनों लिखते हैं, एक ही है, लेकिन उसके उपयोग के अनुसार प्रत्येक अपने काम के लिए उत्तरदायी होगा। प्रकाश के लिए न तो प्रशंसा है और न दोष। प्रेमस्वरूप परमात्मा सर्वातीत होने पर भी प्रत्येक वस्तु में प्रकाशमान है। विश्व का अगर कोई ऐसी संचालक शक्ति है, जिसके अभाव में इस दुनिया के एक क्षण में टुकड़े- टुकड़े हो जाएंगे, तो वह है प्रेम और यह प्रेम ही परमेश्वर है।
अरे, यदि कोई स्त्री अपने पति से प्यार करती है, तो पति के लिए नहीं, बल्कि पति में विद्यमान आत्मा के कारण ही। अरे, ऐसा कोई पुरुष नहीं था, जिसने पत्नी को पत्नी के नाते प्यार किया हो, बल्कि किया उसने पत्नी में विद्यमान आत्मा के नाते से। किसी व्यक्ति ने कभी भी किसी वस्तु से प्यार आत्मा को छोड़ अन्य किसी वस्तु के कारण नहीं किया है। [1] यहाँ तक कि इतनी निंदित स्वार्थी वृत्ति भी उसी प्यार की अभिव्यक्ति है। इस खेल से ज़रा हटकर खड़े रहो, उसमें भाग न लो, पर इस अद्भुत दृश्यावली को--इस महान जीवन-नाटक को, जो दृश्य पर दृश्य खेला जा रहा है, देखो, और इस अद्भुत समन्वित स्वर-लहरी को सुनो--सब कुछ उसी प्रेम का प्रकाश है। स्वार्थी वृत्ति से भी आत्मा बढ़ती ही जाएगी और दुगुनी-चौगुनी बढ़ेगी। एक आत्मा, एक व्यक्ति विवाह कर लेने से दो हो जाता है। बच्चे होने पर अनेक, और इस तरह वृद्धि करते करते अंतत: वह सारे संसार को, समस्त विश्वब्रह्माण्ड को अपनी आत्मा के रूप में अनुभव कर लेती है। वह पूर्ण विकसित होकर उस प्रेम के साथ एकरूप हो जाती है, जो विश्वव्यापी है, अनंत है, वह प्रेम, जो स्वयं भगवान है।
इस तरह हम परा भक्ति पर आते हैं, जहाँ प्रतीक तथा रूपाकार विलीन हो जाते हैं। जो इस परा भक्ति को पहुँच जाता है, वह किसी संप्रदाय विशेष का होकर नहीं रह सकता, क्योंकि सब संप्रदाय उसमें ही विद्यमान हैं। वह किस पंथ का हो सकता है? --क्योंकि सब मंदिर और गिरजाघर तो उसमें ही विद्यमान हैं। ऐसा कौन सा गिरजाघर है, जो उसके लिए काफ़ी हो सके? ऐसा मनुष्य स्वयं को किन्हीं मर्यादित कल्पनाओं द्वारा बाँध नहीं सकता। जिस असीम प्रेम से वह एकरूप हो गया है, उसकी सीमा कहाँ हो सकती है? हम देखते हैं कि जिन धर्मों ने प्रेम के इस आदर्श को अपनाया है, उन्होंने उसे अभिव्यक्त करने का भी पूरा प्रयत्न किया है। यद्यपि हम समझ सकते हैं कि यह प्रेम क्या चीज़ है और यद्यपि इस दुनिया में सब प्रकार का प्रेम तथा आकर्षण उस अनंत प्रेम की ही विविध अभिव्यक्तियाँ हैं, जिसका वर्णन करने का प्रयास विभिन्न संप्रदायों के साधु-सन्तोंने किया है, तो भी हम यही देखते हैं कि उन्होंने भाषा की सारी शक्तियों का उपयोग किया है और प्रेम की मांसलतम अभिव्यंजनाओं को दिव्य रूप दे दिया है।
एक यहूदी राजर्षि ने गाया है तथा भारतवर्ष के ऋृषिगण भी गाते हैं, "ओ प्रियतम, अपने अधरों का एक चुंबन हमें दे--तेरे चुंबन से तेरे लिए हमारी पिपासा बढ़ती ही जाती है, सारे दु:ख दूर हो जाते जाते हैं। वर्तमान, भूत, भविष्य सब भूल जाता है और अकेले तुझमें ही हम मग्न हो जाते हैं।" जब प्रेमी की समस्त वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं, तो उसका मतवालापन ऐसा ही होता है। वह तो कहता है, "कौन मुक्ति की परवाह करता है? किसे छुटकारा पाने की चिंता है? कौन पूर्ण बनना चाहता है? किसे स्वातत्र्य की परवाह है?" "न मैं धन चाहता हूँ, न स्वास्थ्य। न मैं सौंदर्य चाहता हूँ, न बुद्धि। दुनिया में जो दु:ख विद्यमान हैं, उनमें मुझे बारंबार जन्म लेने दे; मैं कभी शिकायत न करूँगा बस, मुझे तू अपने से प्यार करने दे,प्यार के लिए प्यार करने दे।"
यही है प्रेम का उन्माद, जो इन गीतों में प्रकट हो रहा है। सबसे उच्च, सर्वाधिक अभिव्यंजक तथा गहरा एवं आकर्षक मानवीय प्रेम स्त्री और पुरुष के मध्य होता है। इसीलिए प्रगाढ़ भक्ति के प्रकट करने में ऐसी भाषा का उपयोग किया गया है। मानवी प्रेम का यह उन्माद साधुओं के प्रेमोन्माद की एक अस्पष्ट प्रतिध्वनिमात्र है। ईश्वर के सच्चे भक्त प्यार से पागल बन जाना चाहते हैं, 'ईशोन्मत' बन जाना चाहते हैं। वे तो प्रेम के उस प्याले को पीना चाहते हैं, जो प्रत्येक धर्म के साधु-संतों द्वारा तैयार किया गया है, जिसे उन महात्माओं ने अपने ह्दय के रक्त से भरा है और जिसमें ऐसे प्रेमियों की समस्त आशाएँ घनीभूत हो केंद्रित हुई हैं, जिन्होंने भगवान को बिना किसी उपहार की इच्छा के प्यार किया है, केवल प्यार के लिए ही प्यार किया है। प्रेम ही प्रेम का उपहार है और इस उपहार की क्या ही महिमा है! यही एकमात्र प्याला है, जिसके पीने से भव-रोग नष्ट हो जाता है। मनुष्य में दैवी उन्माद आ जाता है और वह यह भी भूल जाता है कि मैं मनुष्य हूँ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह सब विविध संप्रदाय अंत में पूर्ण ऐक्य के साधारण केंद्र में जा मिलते हैं। हम आरंभ सदैव द्वैत से करते हैं। ईश्वर एक पृथक् सत्ता है और मैं एक पृथक् सत्ता हूँ। फिर दोनों के बीच प्रेम उत्पन्न होता है। मनुष्य ईश्वर की ओर जाने लगता है और ईश्वर मानो मनुष्य की ओर आने लगता है। मनुष्य ईश्वर के प्रति पितृभाव, मातृभाव, सख्यभाव, मधुरभाव इत्यादि जीवन के विभिन्न भावों को ग्रहण करता है; और अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति तब होती है, जब वह अपने उपास्य से एकरूप हो जाता है। 'तू ही मैं, मैं ही तू। तुझे पूजकर मैं अपनी पूजा करता हूँ और अपने को पूजकर तेरी।' यह उसी की पराकाष्ठा है, जिसे लेकर उसने अपनी साधना आरंभ की थी। आरंभ में, मनुष्य का प्रेम वस्तुत: आत्मा से ही था, लेकिन क्षुद्र अहंकार के प्रभाव से वह प्रेम स्वार्थी बन गया। अंत में जब आत्मा का क्षुद्र भाव नष्ट होकर उसका अनंत स्वरूप प्रकाशित हो गया, तब उस प्रेम की पूर्ण दीप्ति प्रकट हो गई। वह ईश्वर, जो आरंभ में कहीं दूर स्थान में अवस्थित सा मालूम होता था, अब अनंत प्रेमस्वरूप हो गया। स्वयं मनुष्य का ही रूपांतर हो गया। वह ईश्वर के निकट आता जा रहा था, अपने में भरी हुई निस्सार वासनाओं को हटाता जा रहा था। वासनाओं का लोप होते ही उसकी सारी स्वार्थ-बुद्धि लुप्त हो गई, और चरम लक्ष्य पर पहुँचकर उसने देखा कि प्रेम, प्रेमी तथा प्रेमास्पद सब एक ही हैं।
भक्तियोग -1
द्वैतवादी कहता है कि जब तक हाथ में डंडा लिए हुए दंड देने को सदैव प्रस्तुत ईश्वर की कल्पना न की जाए, तब तक मनुष्य नैतिक नहीं हो सकता। यह कैसे? जैसे मान लो, कोई घोड़ा मनुष्य को नैतिकता पर उपदेश देने आए--गाड़ियों में जोता जाने वाला वह मरियल घोड़ा, जो चाबुक की मार खाकर ही चलता है और उस मार का अभ्यस्त हो गया है--और कहे, "सचमुच, मनुष्य बड़े ही अनैतिक है।" क्यों?-- "इसलिए कि मैं जानता हूँ, उन पर नियमित रूप से कोड़ों की मार नहीं पड़ती।" पर सच बात तो यह है, कोड़े का डर तो लोगों को और भी अनैतिक बना देता है।
तुम सभी कहते हो कि ईश्वर है और वह सर्वत्र विद्यमान है। ज़रा आँखें बंद करो और सोचो तो, वह क्या है। तुम्हें क्या ज्ञात होता है? यही कि मन में सर्वव्यापकता का भाव लाने के लिए तुम्हें या तो सागर की कल्पना करनी पड़ती है, या नील गगन, विस्तृत मैदान अथवा अन्य किसी वस्तु की, जिसे तुमने अपने जीवन में देखा है। यदि इतना ही है, तो तुम ईश्वर की सर्वव्यापकता का कुछ भी अर्थ नहीं समझते; वह तुम्हारे लिए बिल्कुल अर्थहीनहै। ऐसा ही ईश्वर की अन्य उपाधियों के संबंध में भी जानो। सर्वशक्तिमत्ता या सर्वज्ञता के विषय में हम क्या सोच सकते हैं?--कुछ भी नहीं। अनुभूति ही धर्म का सार है, और मैं तुम्हें ईश्वर का उपासक तभी कहूँगा, जब तुम उसके स्वरूप का अनुभव कर सकोगे। जब तक तुम्हें यह अनुभूति नहीं नहीं होती, तब तक तुम्हारे लिए ईश्वर कुछ अक्षरों से बना एक शब्द मात्र है--इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। यह अनुभूति ही धर्म का सार है; तुम चाहे जितने सिद्धांतों, दर्शनों या नीतिशास्त्रों को अपने मस्तिष्क में ठूँसलो, पर इससे विशेष कुछ होनेका नहीं--होगा केवल तभी, जब तुम जान लोगे कि तुम स्वयं क्या हो और तुमने क्या अनुभव किया है।
जब निर्गुण ब्रह्म को हम माया के कुहरे में से देखते हैं, तो वही सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाता है। जब हम उसे पंचेंद्रियों द्वारा पाने की चेष्टा करते हें, तो उसे हम सगुण ब्रह्म के रूप में ही देख सकते हैं। तात्पर्य यह कि आत्मा का विषयीकरण (objectification) नहीं हो सकता--आत्मा को दृश्यमान वस्तु नहीं बनाया जा सकता। ज्ञाता स्वयं अपना ज्ञेय कैसे हो सकता है? परंतु उसका मानो प्रति बिंब पड़ सकता है--चाहो तो, इसे उसका विषयीकरण कह सकते हो। इस प्रतिबिंब का सर्वोत्कृष्ट रूप ज्ञाता को ज्ञेय रूप में लाने का महतम प्रया--यही सगुण ब्रह्म या ईश्वर है। आत्मा सनातन ज्ञाता है, और हम उसे ज्ञेय रूप में ढालने का निरंतर प्रयत्न कर रहे हैं। इसी संघर्ष से इस जगत्-प्रपंच की सृष्टि हुई है, इसी प्रयत्न से जड़ पदार्थ आदि की उत्पत्ति हुई है। पर ये सब आत्मा के निम्नतमरूप हैं, और आत्मा का हमारे लिए संभव सर्वोच्च ज्ञेय रूप तो वह है, जिसे हम 'ईश्वर' कहते हैं। विषयीकरण का यह प्रयास हमारे स्वयं अपने स्वरूप के प्रकटी-करण का प्रयास है। सांख्य के मतानुसार, प्रकृति यह सब खेल पुरुष को दिखला रही है, और जब पुरुष को यथार्थ अनुभव हो जाएगा, तब वह अपना स्वरूप जान लेगा। अद्वैत वेदांती के मतानुसार, जीवात्मा अपने को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न कर रही है। लंबे संघर्ष के बाद जीवात्मा जान लेती है कि ज्ञाता तो ज्ञाता ही रहेगा, ज्ञेय नहीं हो सकता, तब उसे वैराग्य हो जाता है, और वह मुक्त हो जाता है।
जब मनुष्य उस पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसका स्वभाव ईश्वर जैसा हो जाता है। जैसे ईसा ने कहा है, "मैं और मेरे पिता एक हैं।" तब वह जान लेता है कि वह ब्रह्म से--निरपेक्ष सत्ता से--एकरूप है, और वह ईश्वर के समान लीला करने लगता है। जिस प्रकार बड़े से बड़ा सम्राट् भी कभी-कभी खिलौनों से खेल लेता है, वैसे ही वह भी खेलता है।
कुछ कल्पनाएँ ऐसी होती हैं, जो अन्य दूसरी कल्पनाओं से अद्भुत होने वाले बंधन को छिन्न-भिन्न कर देती हैं। यह समस्त जगत् ही कल्पना प्रसूत हैं, परंतु यहाँ एक प्रकार की कल्पनाएँ दूसरे प्रकार की कल्पनाओं से उत्थित होने वाली बुराइयों को नष्ट कर देती हैं। जो कल्पनाएँ हमें यह बतलाती हैं कि यह संसार पाप, दु:ख और मृत्यु से भरा हुआ है, वे बड़ी भयानक हैं; परंतु जो कहती हैं कि 'तुम पवित्र हो; ईश्वर है; दु:ख का अस्तित्व ही नहीं है' वे सब अच्छी हैं, और प्रथमोक्त कल्पनाओं से होनेवाले बंधन का खंडन कर देती हैं। सबसे ऊँची कल्पना, जो समस्त बंधन-पाशों को तोड़ सकती है, सगुण ब्रह्म या ईश्वर की है।
भगवान से यह प्रार्थना करना कि 'प्रभु, अमुक वस्तु की रक्षा करो और मुझे यह दो; मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ और तुम मुझे यह आवश्यक वस्तु दो; प्रभु, मेरा सिरदर्द अच्छा कर दो' आदि आदि--यह सब भक्ति नहीं है। ये तो धर्म के हीनतम रूप हैं, कर्म के निम्नतम रूप हैं। यदि मनुष्य शारीरिक वासनाओं की पूर्ति में ही अपनी समस्त मानसिक शक्ति खर्च कर दे, तो तुम भला बताओ तो, उसमें और पशु में अंतर ही क्या है? भक्ति एक उच्चतर वस्तु है, स्वर्ग की कामना से भी ऊँची। स्वर्ग का अर्थ असल में है क्या?--तीव्रतम भोग का एक स्थान। वह ईश्वर कैसे हो सकता है?
केवल मूर्ख ही इंद्रियग्रस्त -सुखों के पीछे दौड़ते हैं। इंद्रियों में रहना सरल है; खाते, पीते और मौज उड़ाते हुए पुराने ढर्रे में चलते रहना सरलतर है। किंतु आजकल के दार्शनिक तुम्हें जो बतलाना चाहते हैं, वह यह है कि मौज उड़ाओ, किंतु उस पर केवल धर्म की दाप लगा दो। इस प्रकार का सिद्धांत बड़ा खतरनाक है। इंद्रियों में ही मृत्यु है। आत्मा के स्तर पर का जीवन ही सच्चा जीवन है; अन्य सब स्तरों का जीवन मृत्युस्वरूप है। यह संपूर्ण जीवन एक व्यायामशाला है। आदि हम सच्चे जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, तो हम इस जीवन के परे जाना होगा।
जब तक 'मुझे मत-छू-वाद' तुम्हारा धर्म है और रसोई की पतीली तुम्हारा ईष्टदेव है, तब तक तुम्हारा आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। धर्म धर्म के बीच जो क्षुद्र मतभेद हैं, वे सब केवल शाब्दीक हैं-उनमें कोई अर्थ नहीं। हर एक सोचता है, यह मेरा मौलिक विचार है, और अपने मन के अनुसार ही सक काम कराना चाहता है। इसीसे संघर्षों की उत्पत्ति होती है।
दूसरों की आलोचना करने में हम सदा यह मूर्खता करते हैं कि किसी एक विशेष गुण को हम अपने जीवन का सर्वस्व समझ लेते हैं और उसी को मापदंड मानकर दूसरों के दोषों को खोजने लगते हैं। इस प्रकार दूसरों को पहचानने में हम भूलें कर बैठते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि कट्टरता ओर धर्मांधता द्वारा किसी धर्म का प्रचार बड़ी जल्दी किया जा सकता है, किंतु नींव उसी धर्म की दृढ़ होती है जो हर एक को विचार की स्वतंत्रता देता है और इस तरह उसे उच्चतर मार्ग पर आरूढ़ कर देता है, भले ही इससे धर्म का प्रचार शनै: हो।
भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लवित कर दो, फिर अन्य विचार अपने आप ही आ जाएंगे। आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक ज्ञान का दान सर्वोत्तम दान है, क्योंकि यह हमें संसार के आवागमन से मुक्त कर देता है; इसके बाद है लौकिक ज्ञान का दान, क्योंकि यह आध्यात्मिक ज्ञान के लिए हमारी आँखें खोल देता है; इसके बाद आता है जीवन-दान और चतुर्थ है अन्न-दान।
यदि साधना करते करते शरीरपात भी हो जाए, तो होने दो; इससे क्या? सर्वदा साधुओं की संगति में रहते रहते समय आने पर आत्मज्ञान होगा ही। एक ऐसा भी समय आता है, जब मनुष्य की समझ में यह बात आ जाती है कि किसी दूसरे आदमी के लिए चिलम भरकर उसकी सेवा करना लाखों बार के ध्यान से कहीं बढ़कर है। जो व्यक्ति ठीक ठीक चिलम भर सकता है, वह ध्यान भी ठीक तरह से कर सकता है।
देवतागण और कोई नहीं, उच्च अवस्थाप्राप्त दिवंगत मानव हैं। हमें उनसे सहायता मिल सकती है। हर कोई आचार्य या गुरु नहीं हो सकता, किंतु मुक्त बहुत से लोग हो सकते हैं। मुक्त पुरुष को यह जगत् स्वप्नवत् जान पड़ता है, किंतु आचार्य को मानो स्वप्न और जागृत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत् सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा क्योंकर देगा? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत् स्वप्नवत् है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अंतर ही क्या?-और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा? गुरु को शिष्य के पापों का बोझ वहन करना पड़ता है; और यही कारण है कि शक्तिशाली आचार्यों के शरीर में भी रोग प्रविष्ट हो जाते हैं। यदि गुरु अपूर्ण हुआ, तो, शिष्य के पाप उसके मन पर भी प्रभाव डालते हैं, और इस तरह उसका पतन हो जाता है। अत: आचार्य होना बड़ा कठिन है।
आचार्य या गुरु होने की अपेक्षा जीवन्मुक्त होना सरल है। क्योंकि जीवन्मुक्त संसार को स्वप्नवत् मानता है और उससे कोई वास्ता नहीं रखता; पर आचार्य को यह ज्ञान होने पर भी कि जगत् स्वप्नवत् है, उसमें रहना और कार्य करना पड़ता है। हर एक के लिए आचार्य होना संभव नहीं।आचार्य तो वह है, जिसके माध्यम से दैवी शक्ति कार्य करती है। आचार्य का शरीर अन्य मनुष्यों के शरीर से बिल्कुल भिन्न प्रकार का होता है। उस (आचार्य के) शरीर को पूर्ण अवस्था में बनाये रखने का एक विज्ञान है। उसका शरीर बहुत ही कोमल, ग्रहणशील तथा तीव्र आनंद और कष्ट का अनुभव कर सकने की क्षमता रखनेवाला होता है। वह असाधारण होता है।
जीवन के सभी क्षेत्रों में हम देखते हैं कि अंतर्मानव की ही जीत होती है, ओर यह अंतर्मानव ही-यह व्यक्तित्व ही समस्त सफलता का रहस्य है। नवद्वीप के भगवान श्री कृष्ण चैतन्य में भावनाओं का जैसा उदात्त विकास देखने में आता है, वैसा और कहीं नहीं।
श्री रामकृष्ण एक महान दैवी शक्ति हैं। तुम्हें यह न विचार करना चाहिए कि उनका सिद्धांत यह है या वह। किंतु वे एक महान शक्ति हैं, जो अब भी उनके शिष्यों में वर्तमान है और संसार में कार्य कर रही है। मैंने उनको उनके विचारों में विकसित होते देखा है। वे आज भी विकास कर रहे हैं। श्री रामकृष्ण जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य भी।
भक्तियोग - 2
भक्तियोग ब्रह्म से एकत्व प्राप्त करने के लिए व्यवस्थित भक्ति का मार्ग है। यह धर्म अथवा अनुभूति प्राप्त करने का सरलतम और निश्चिततम उपाय है। इस मार्ग में पूर्णता प्राप्त करने के लिए ईश्वर के प्रति प्रेम ही एक सारभूत वस्तु है।
प्रेम की पाँच अवस्थाएँ होती हैं।
प्रथम, मनुष्य सहायता चाहता है और उसमें थोड़ा भय होता है।
द्वितीय, जब ईश्वर माता के रूप में देखा जाता है। तब सभी नारियाँ मातृदेवी की प्रतिबिंब जान पड़ती हैं। मातृदेवी की भावना से वास्तविक प्रेम आरंभ होता है।
चतुर्थ, प्रेम के लिए प्रेम। प्रेम सर्वगुणातीत है।
पंचम, दिव्य मिलन में प्रेम। इससे एकत्व अथवा परा चेतना प्राप्त होती है।
जिस प्रकार हम सगुण और निर्गुण हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी सगुण और निर्गुण है।
प्रार्थना और स्तुति प्रगति के प्रथम साधन हैं। भगवान के नाम के जप में चमत्कारी शक्ति है।
मंत्र कोई ऐसा विशेष शब्द, पवित्र वाक्य अथवा ईश्वर का नाम है, जिसे गुरु शिष्य के जप और मनन के लिए चुनता है। शिष्य को प्रार्थना और स्तुति के लिए अपना ध्यान किसी व्यक्ति पर केंद्रित करना चाहिए, और यही उसका इष्ट है।
ये शब्द (मंत्र) ध्वनि मात्र नहीं हैं, वरन् स्वयं ईश्वर हैं, और वे हमारे ही भीतर स्थित हैं। उस ईश्वर का ध्यान करो, उसकी चर्चा करो। कोई सांसारिक इच्छा नहीं! बुद्ध का उपदेश था, 'जैसा तुम विचारते हो, वैसे ही तुम हो।'
परा चेतना प्राप्त करने के बाद भक्त फिर प्रेम और उपासना पर उत्तर आता है।
शुद्ध प्रेम का कोई उद्देश्य नहीं होता। उसका कोई स्वार्थ नहीं होता।
प्रार्थना और स्तुति के बाद ध्यान आता है। इसके बाद नाम और व्यक्ति के इष्ट पर मनन आता है!
प्रार्थना करो कि वह अभिव्यक्ति, जो हमारा पिता है, हमारी माता है, हमारे बंधन काटें।
प्रार्थना करो, "जिस प्रकार पिता पुत्र का हाथ पकड़ता है, उसी प्रकार हमारा हाथ पकड़ो। हमें त्यागो मत!"
प्रार्थना करो, "मुझे धन और सौंदर्य, यह लोक अथवा परलोक नहीं चाहिए। हे ईश्वर, हे स्वामी! मैं केवल तुझे चाहता हूँ। मैं थक गया हूँ। हे नाथ, मेरा हाथ पकड़ो। मैं तुम्हारी शरण हूँ। मुझे अपना दास बनाओ। मेरी रक्षा करो।"
प्रार्थना करो,"तुम हमारे पिता, हमारी माता, हमारे प्रियतम मित्र हो! तुम, ब्रह्माण्ड के धारणकर्ता, हमें इस जीवन के तुच्छ भार का वहन करने में सहायता दो। हमें त्यागो मत। हम कभी तुमसे अलग न हों। हम सदा तुममें निवास करें।"
जब ईश्वर के प्रति प्रेम प्रकट होता है और वही सब कुछ होता है, तो यह संसार बूँद सा प्रतीत होता है।
असत् से सत् की ओर, तमस् से ज्योति की ओर बढ़ो। [2]
भक्तियोग के पाठ
भक्ति द्वारा योग
हम राजयोग और शारीरिक व्यायाम पर विचार कर रहे थे। अब भक्ति के द्वारा योग पर विचार करेंगे। पर तुम्हें याद रखना चाहिए कि कोई भी एक प्रणाली अनिवार्य नहीं है। मैं तुम्हारे सामने बहुत सी प्रणालियाँ, बहुत से विचार, इसलिए रखना चाहता हूँ कि तुम उनमें से उसे चुन सको, जो तुम्हारे लिए उपयुक्त हो; यदि एक उपयुक्त नहीं है, तो शायद दूसरी निकल आए।
हम ऐसे सामंजस्ययुक्त व्यक्ति बनना चाहते हैं, जिसमें हमारी प्रकृति के मानसिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक और क्रियावान पक्षों का समान विकास हुआ हो। जातियाँ और व्यक्ति इनमें से एक पार्श्व अथवा प्रकार का विकास व्यक्त करती हैं और वे उस एक से अधिक को नहीं समझ पातीं। वे एक आदर्श में ऐसी ढल जाती हैं कि किसी अन्य को नहीं देख सकतीं। वास्तविक आदर्श यह है कि हम बहुपार्श्वीय बनें। वास्तव में जागत् के दु:ख का कारण यह है कि हम इतने एकपार्श्वीय हैं कि दूसरे के प्रति सहानुभूति नहीं कर पाते। एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना करो, जो धरती के भीतर से एक खान के द्वार से सूर्य को देखता है; उसे सूर्य का एक पहलू दिखायी देता है। दूसरा सूर्य को पृथ्वी के धरातल से देखता है, एक कुहरे और धुंध में से, एक पर्वत की चोटी पर से; प्रत्येक को सूर्य भिन्न दिखायी देगा। इस प्रकार दृश्य अनेक हैं, पर वास्तव में सूर्य केवल एक है। भेद दृष्टि का है, पर वस्तु एक है; और वह सूर्य है।
प्रत्येक मनुष्य में उसकी प्रकृति के अनुसार विशिष्ट प्रवृत्ति होती है और वह कुछ आदर्श स्वीकार कर लेता है और उन तक पहुँचने के लिए विशिष्ट मार्ग अपनाता है। पर लक्ष्य सबके लिए सदा एक है। रोमन कैथोलिक गंभीर और आध्यात्मिक है, पर उसने व्यापकता खो दी है। यूनिटेरियन व्यापक है, पर उसने आध्यात्मिकता खो दी है और वह धर्म को विभक्त महत्त्व का समझता है। हमें आवश्यकता है रोमन कैथोलिक की गहराई और यूनिटेरियन की व्यापकता की। हम आकाश के समान विस्तीर्ण और सागर के समान गंभीर हों; हममें धर्मांध का सा उत्साह, रहस्यवादी सी गंभीरता और अज्ञेयवादी सी व्यापकता होनी चाहिए। 'सहिष्णुता' शब्द ने उस घमंडी मनुष्य का अप्रीतिकर संसर्ग प्राप्त कर लिया है, जो अपने को उच्च स्थान में समझकर अपने साथी प्राणियों को दया की दृष्टि से देखता है। मन की यह स्थिति भयानक है। हम सब उसी दिशा में, एक ही गंतव्य की ओर, पर विभिन्न प्रकृतियों की आवश्यकता के अनुसार उनके लिए उपयुक्त मार्गों से जा रहे हैं। हमें बहुपार्श्वीय होना चाहिए, वास्तव में हमें इतना नम्र हो जाना चाहिए कि हम दूसरे को केवल सहन ही न कर सकें, वरन्, जो उससे कहीं अधिक कठिन काम है, उसके साथ सहानुभूति कर सकें,उसके मार्ग में साथ चल सकें और उसकी महदाकांक्षा तथा ईश्वर की खोज में,जैसा वह अनुभव करता है, वैसा ही हम भी कर सकें। धर्म में दो तत्व होते हैं-सकारात्मक और नकारात्मक। उदाहरणार्थ, ईसाई धर्म में, जब तुम अवतार, त्रिदेव,ईसा के द्वारा मुक्ति की बात करते हो, तो मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं कहता हूँ, "बहुत ठीक, इसे मैं भी सत्य मानता हूँ।" पर जब तुम यह कहने लगते हो, "दूसरा कोई सच्चा धर्म है ही नहीं, ईश्वर अन्यत्र कभी प्रकट ही नहीं हुआ," तो मैं कहता हूँ, "ठहरो, यदि तुम किसीको वर्जित करते हो, अथवा किसी का खंडन करते हो, तो मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पाऊँगा।" प्रत्येक धर्म के पास देने को एक संदेश है,मनुष्य को सिखाने के लिए कुछ वस्तु है; पर जब वह विरोध करने लगता है, दूसरों को छोड़ने लगता है, तो वह एक नकारात्मक और इसलिए एक खतरनाक रूप ले लेता है और नहीं जानता कि कहाँ आरंभ करे और कहाँ अंत।
प्रत्येक शक्ति एक चक्र पूरा करती है। वह शक्ति, जिसे हम मनुष्य कहते हैं, अनंत ईश्वर से चलती है और उसे उसी में लौटना चाहिए। ईश्वर में लौटने की यह क्रिया दो में से एक प्रकार से पूरी होनी चाहिए-या तो प्रकृति का अनुसरण करते हुए पीछे सरकने में, अथवा स्वयं अपनी आंतरिक शक्ति से, जो हमें मार्ग में रुकने को बाध्य करती है, जो यदि मुक्त छोड़ दिए जाने पर हमें एक चक्र में ईश्वर तक वापस ले जाती, और जो झटके से घूमकर ईश्वर को, मानो एक छोटे रास्ते, से पा लेती है। यही है, जो योगी करता है।
मैंने कहा है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी प्रकृति के अनुसार स्वयं अपना आदर्श निश्चित करना चाहिए। यह आदर्श उस मनुष्य का इष्ट कहलाता है। तुमको इसे पवित्र (और इसलिए गुप्त) रखना चाहिए और जब ईश्वर की उपासना करो, तो अपने इष्ट के अनुसार करो। हम उस विशेष रीति को किस प्रकार जान सकते हैं? यह बहुत कठिन है, पर जब तुम अपनी उपासना में लगे रहोगे, तो तुमको वह स्वत: ज्ञात हो जाएगी। ईश्वर ने मनुष्य को तीन विशेष वस्तुएँ दी हैं-मनुष्य शरीर, मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा, ओर जो पहले से मुक्त हैं, उनसे सहायता लेने की क्षमता। अब, बिना सगुण ईश्वर हुए भक्ति नहीं हो सकती। प्रेमी और प्रेमपात्र, दोनों होने चाहिए। ईश्वर अनन्तीकृत मानव है। ऐसा होना अनिवार्य है, क्योंकि जब तक हम मनुष्य हैं, हमें मानवीकृत ईश्वर चाहिए। हम एक सगुण ईश्वर को और केवल उसीको देखने को बाध्य हैं। सोचो कि इस संसार में हम जो कुछ देखते हैं, वह सब किस प्रकार केवल विषय मात्र नहीं होता, वरन् विषय+हमारा मन होता है। कुर्सी+तुम्हारे मन पर कुर्सी की प्रतिक्रिया, वास्तविक कुर्सी है। तुम प्रत्येक वस्तु को अपने मन से रँग देते हो, केवल तभी तुम उसे देख सकते हो। (उदाहरण:एक सफ़ेद, वर्गाकार, चमकदार, कठोर बॉक्स उसे क्रमश: तीन इंद्रियों चार इंद्रियों, और फिर पाँच इंद्रियों वाले मनुष्य देखते हैं। केवल अंतिम ही उसे उल्लिखित सभी गुणों सहित देखता है, और उसके पूर्व के प्रत्येक ने अपने से पहलेवाले की अपेक्षा उसका एक गुण अधिक देखा है। अब कल्पना करो कि कोई छ: इंद्रियों वाला मनुष्य उस बॉक्स को देखता है, तो उसे इनके अतिरिक्त बॉक्स का एक गुण और दिखायी देगा।)
क्योंकि मैं प्रेम और ज्ञान देखता हूँ, इसलिए मैं जानता हूँ कि वह सार्वभौमिक कारण इस प्रेम ओर ज्ञान को प्रकट कर रहा है। जो मुझमें प्रेम उत्पन्न करता है, वह प्रेमहीन कैसे हो सकता है? हम मानवीय गुणों से रहित सार्वभौमिक कारण की कल्पना नहीं कर सकते। ईश्वर को ब्रह्मांड में अपने से अलग देखना, पहले क़दम के रूप में आवश्यक है। ईश्वर के तीन दर्शन हैं: निम्नतम दर्शन वह है, जब ईश्वर हमारे समान शरीरवान जान पड़ता है (बाइजैंटाइन कला देखो); उच्चतर दर्शन वह है, जब हम ईश्वर पर मानवीय गुणों का आरोप करते हैं; और अंतत: आगे बढ़ते बढ़ते, जब हम ईश्वर को देखते हैं, तब हमें उच्चतम दिव्य दर्शन प्राप्त होता है।
पर याद रखो कि इन सब सोपानों में हम ईश्वर को और केवल ईश्वर को देख रहे हैं; इसमें न कोई भ्रम है, न भूल। उसी प्रकार, जिस प्रकार विभिन्न स्थानों से सूर्य को देखने पर भी वह सूर्य ही था, चंद्रमा अथवा कुछ ओर नहीं हो गया था।
हम जैसे हैं-अनंतीकृत-उस रूप में ईश्वर को देखे बिना नहीं रह सकते, पर फिर भी वैसे ही, जैसे हम हैं। मान लो, हम ईश्वर की निरपेक्ष, परम रूप में कल्पना करने का प्रयत्न करें, पर आनंद और प्रेम के निमित्त हमें फिर सापेक्षिक अवस्था में लौटना पडे़गा।
ईश्वर की भक्ति, जैसी वह प्रत्येक धर्म में दिखायी देती है, दो भागों में विभाजित होती है: वह जो रूपों और अनुष्ठानों और शब्दों द्वारा कार्य करता है, और वह जो प्रेम द्वारा कार्य करती है। इस संसार में हम नियमों से बँधे हैं और सदा उन्हें तोड़कर निकल जाने का प्रयत्न करते रहते हैं; हम सदा नियमोल्लंघन का, प्रकृति को कुचलने का प्रयत्न करते रहते हैं। उदाहरण के लिए प्रकृति हमें घर नहीं देती, हम उन्हें बनाते हैं। प्रकृति ने हमें नग्न बनाया है, हम अपने को वस्त्रों से ढँकते हैं। मनुष्य का लक्ष्य मुक्त होना है, और बस, जहाँ तक हम प्रकृति के नियमों को तोड़ने में असफल रहते हैं, वहीं तक उन्हें सहन करते हैं। हम प्रकृति के नियमों का पालन इसलिए करते हैं कि नियमों से परे-नियमों से बाहर निकल जाएं। जीवन का समस्त संघर्ष नियम न मानना है। (इसीलिए मैं 'ईसाई वैज्ञानिकों' से सहानुभूति रखता हूँ, क्योंकि वे मनुष्य की स्वतंत्रता और आत्मा के दिव्यत्व की शिक्षा देते हैं)। आत्मा सब परिस्थितियों से ऊपर है। 'ब्रह्मांड मेरे पिता का राज्य है; मैं उसका उत्तराधिकारी हूँ'-मनुष्य को यह भाव अपनाना चाहिए। 'मेरी आत्मा सब वशीभूत कर सकती है।'
मुक्ति तक पहुँचने से पहले हमें नियम से कार्य करना होगा। बाहरी सहायताएँ और विधियाँ, रूप, अनुष्ठान, विश्वास, सिद्धांत सबका अपना समुचित स्थान है और उनका उद्देश्य उस समय तक हमें सहारा देना और शक्ति प्रदान करना है, 'जब तक कि हम सशक्त न हो जाएं।' इसके बाद वे आवश्यक नहीं रह जातीं । वे हमारी धाय हैं और इस रूप में बचपन में अनिवार्य हैं। पुस्तकें भी धाय हैं, औषधियाँ धाय हैं। पर हमें वह समय लाने के लिए काम करना होगा, जब मनुष्य स्वयं अपने शरीर पर अपने स्वामित्व को पहचानने लगेगा। जड़ी-बूटियाँ और औषधियाँ हमारे शरीर पर उसी समय तक प्रभाव डालती हैं, जब तक हम उन्हें ऐसा करने देते हैं। जब हम सबल हो जाते हैं, तो बाहरी विधियों की आवश्यकता नहीं रहती।
शब्दों द्वारा भक्ति
शरीर मन का ही स्थूलतन रूप है, मन सूक्ष्मतर स्तरों से बना हुआ है और शरीर स्थूलतर स्तरों से; और जब मनुष्य का मन पूर्णतया उसके वश में आ जाता है, तो उसका शरीर भी उसके वश में आ जाता है। जिस प्रकार प्रत्येक मन का अपना विशिष्ट शरीर होता है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्द एक विशिष्ट विचार का अंग होता है। जब हम क्रुद्ध होते हैं, तो पुरुष व्यंजनों में बोलते हैं-'बुद्धू', 'मूर्ख', 'गधा', आदि; जब हम करूण होते हैं, तो कोमल स्वरों का उपयोग करते हैं-'अरे राम!'निश्चय ही ये क्षणिक भाव हैं; पर चिरंतन भाव भी होते हैं, जैसे प्रेम, शांति, स्थिरता, आनंद, पवित्रता; और सब धर्मों में इन भावों की शब्दाभिव्यक्ति हुई है; शब्द मनुष्य के इन उच्चतम भावों के केवल शरीर हैं। विचार शब्द उत्पन्न करता है, और अपनी बारी आने पर शब्द विचार अथवा भाव उत्पन्न कर सकते हैं। यहीं शब्दों की सहायता की आवश्यकता होती है। ऐसा प्रत्येक शब्द एक आदर्श का द्योतन करता है। हम सब इन पवित्र और रहस्यमय शब्दों को पहचानते और जानते हैं, किंतु यदि हम उन्हें केवल पुस्तकों में पढ़ते हैं, तो वे हमें प्रभावित नहीं करते। उनके प्रभावशाली होने के लिए आवश्यक है कि वे आत्मा से आविष्ट हों और उनका स्पर्श तथा उपयोग कोई ऐसा व्यक्ति कर चुका हो, जिसे स्वयं परमात्मा की चेतना का स्पर्श प्राप्त हो और अब जीवित हो। केवल ऐसा ही पुरुष इस धारा को चालू कर सकता है। 'हाथ रखने की क्रिया' उसी धारा को चालू रखने की क्रिया है, जिसका आरंभ ईसा ने किया था। जिसमें धारा प्रवर्तन की यह शक्ति होती है, गुरु कहलाता है। ईसा जैसे महान गुरुओं के लिए शब्दों का यह उपयोग आवश्यक नहीं है। पर 'छोटे लोग' इस धारा को शब्दों द्वारा संचारित करते हैं।
दूसरों के दोष न देखो। तुम मनुष्य को उसके दोषों से नहीं जान सकोगे। (जैसे, हम सेब के किसी वृस्क्ष की उत्तमता का निर्णय उसके नीचे पड़े सड़े, कच्चे और अविकसित फलों के आधार पर करने लगें। जिस प्रकार उन फलों से वृक्ष की उत्तमता का पता नहीं चल सकता, उसी प्रकार मनुष्य के दोष उसके चरित्र को नहीं दर्शाते।) याद रखों कि बुरे लोग संसार भर में सदा एक से होते हैं। एशिया, यूरोप और अमेरिका में चोर और हत्यारे एक से हैं। उनकी स्वयं अपनी एक जाति है। विविधता तो केवल भलों और पवित्रों तथा शक्तिशालियों में ही मिलती है। दूसरों में बुराई न देखो। बुराई अज्ञान है, दुर्बलता है। लोगों को यह बताने से क्या लाभ कि वे दुर्बल हैं? आलोचना और खंडन से कोई लाभ नहीं होता। हमें उन्हें कुछ ऊँची वस्तु देनी चाहिए; उन्हें उनके गरिमामय स्वरूप की, उनके जन्मसिद्ध अधिकार की बात बताओ और अधिक लोग ईश्वर की ओर क्यां नहीं आते? कारण यह है कि अपनी पाँच इंद्रियों के बाहर बहुत कम लोगों को आनंद आता है। अंतर्जगत् में अधिकतर लोग न अपनी आँखों से देख सकते हैं और न अपने कानों से सुन सकते हैं।
अब हम 'प्रेम द्वारा उपासना' पर आते हैं।
यह कहा गया है, 'गिरजे में पैदा होना तो अच्छा हे, पर उसमें मरना नहीं।' जब वृक्ष पौधा होता है, तो वह चारों ओर की रूँधाई से सहारा और आरक्षण पाता है; पर जब तक बाड़ हटायी नहीं जाती, उस वृक्ष की वृद्धि और मज़बूती को हानि पहुँचती है। औपचारिक पूजा, जैसा कि हमने देखा है, एक आवश्यक अवस्था है; पर धीरे-धीरे, क्रमश: विकसित होकर हम उससे बाहर निकल जाते हैं और एक उच्चतर भूमि में पहुँच जाते हैं। जब ईश्वर के प्रति प्रेम पूर्ण हो जाता हे, तो हम फिर ईश्वर के गुणों के बारे में नहीं सोचते कि वह सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और उन सब महान विशेषणोंवाला है। हम ईश्वर से कुछ चाहते नहीं, इसलिए इन गुणों की ओर ध्यान देने की चिंता नहीं करते। हम केवल ईश्वर का प्रेम चाहते हैं। पर मनुष्यरूपता अब भी हमारे साथ रहती है। हम अपने मनुष्यपन से छुटकारा नहीं पा सकते, हम अपने शरीर से बाहर नहीं कूद आ सकते; इसलिए हमें ईश्वर से उसी प्रकार प्रेम करना होता है, जैसे कि हम एक दूसरे से प्रेम करते हैं।
मानव-प्रेम में पाँच अवस्थाएँ होती हैं।
1. निम्नतम सबसे साधारण, 'शांत' प्रेम है, जब हम रक्षा, भोजन आदि अपनी सभी आवश्यकताओं के निमित्त अपने पिता की ओर देखते हैं।
2. वह प्रेम, जो हममें सेवा-भाव जगाता है। मनुष्य ईश्वर की सेवा अपने स्वामी की भाँति करना चाहता है, सेवा की इच्छा सब भावनाओं से तीव्र हो जाती है; और हम इस बात के प्रति उदासीन हो जाते हैं कि स्वामी भला है अथवा बुरा, सदय है अथवा निर्दय।
3. मित्र का प्रेम, बराबरवालों का, साथियों का, सखाओं का प्रेम। मनुष्य ईश्वर को अपना सखा अनुभव करता है।
4. मातृवत् प्रेम। ईश्वर को शिशु समझा जाता है। भारत में इस प्रेम को पूर्वगामी प्रेम से ऊँचा माना जाता है, क्योंकि इसमें भय का तत्व बिल्कुल शेष नहीं रह जाता।
5. पति और पत्नी का प्रेम; प्रेम के लिए प्रेम-ईश्वर सब प्रकार से पूर्ण प्रेमास्पद।
इस भाव को सुंदरता के साथ व्यक्त किया गया: 'आँखें चार होती हैं, दो आत्माओं में एक परिवर्तन आने लगता है; इन दोनों आत्माओं के बीच में प्रेम आ जाता है और दोनों को एक बना देता है।'
जब मनुष्य को यह अंतिम और प्रेम का पूर्णतम रूप प्राप्त हो जाता है, तो सब ईच्छाएँ विलीन हो जाती हैं, रूप और सिद्धांत और संप्रदाय बिसर जाते हैं और मुक्ति की इच्छा (और सब धर्मों का उद्देश्य और लक्ष्य जन्म और मरण और दूसरी वस्तुओं से मुक्ति प्राप्त करना है) भी छूट जाती है। उच्चतम प्रेम वह प्रेम है, जिसमें नर-नारी की भावना नहीं होती, क्योंकि सर्वोच्च प्रेम में यह पूर्ण एकता अभिव्यक्त होती है, और लिंगत्व शरीरों को भिन्न करता है। इसलिए मिलन केवल आत्मा में ही संभव है। भौतिक भावना जितनी कम होगी, हमारा प्रेम उतना ही पूर्ण होगा; अत में सब भौतिक भावनाएँ बिसर जाएंगी और दो आत्माएँ एक हो जाएंगी। हम प्रेम करते हैं, सदा प्रेम करते हैं। प्रेम आता है, रूपों को बेध जाता है और उनसे परे देखता है। यह कहा गया है। 'प्रेमी हब्शिन की भौहों में हेलेन की सुंदरता देखता है।' हब्शी एक आभास है और उस आभस पर मनुष्य अपना प्रेम आरोपित करता है। जिस प्रकार सीपी अपने भीतर क्षोभक वस्तुओं को पाकर, उनको सुंदर मोतियों में परिवर्तित कर देनेवाले पदार्थ से आवेष्टित कर देती है, उसी प्रकार मनुष्य अपना प्रेम आरोपित करता है, और वह सदा अपने उच्चतम आदर्श से ही प्रेम करता है, और उच्चतम आदर्श सदा नि:स्वार्थ होता है, इसलिए मनुष्य प्रेम को प्रेम करता है। ईश्वर प्रेम है, और हम ईश्वर से प्रेम करते हैं-अर्थात प्रेम से प्रेम करते हैं। हम केवल प्रेम को देखते हैं। प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता। मक्खन खाता हुआ गूँगा मनुष्य तुमको यह नहीं बता सकता कि मक्खन कैसा लगता है। मक्खन है, और उसके गुण उन लोगों को नहीं बताये जा सकते, जिन्होंने उसको कभी चखा न हो। प्रेम के लिए प्रेम का वर्णन उन लोगों से नहीं किया जा सकता, जिन्होंने इसका अनुभव न किया हो।
एक त्रिकोण को प्रेम का प्रतीक बनाया जा सकता है। पहला कोण है, प्रेम कभी माँगता नहीं; कभी किसी वस्तु की याचना नहीं करता; दूसरा, प्रेम में भय नहीं होता; तीसरा और शीर्षस्थ है, प्रेम के लिए प्रेम। प्रेम की शक्ति के द्वारा इंद्रियां परिष्कृत और ऊर्ध्वमुखी हो जाती हैं। मानव-संबंधों में पूर्ण प्रेम बहुत ही दुर्लभ होता है, क्योंकि मानव-प्रेम लगभग सदा अन्योन्याश्रित और पारस्परिक होता है। पर ईश्वर का प्रेम एक स्थायी धारा है, उसे कोई हानि अथवा बाधा नहीं पहुँचा सकता। जब मनुष्य ईश्वर को याचक की भाँति नहीं, अपने उच्चतम आदर्श के रूप में, नि:स्वार्थ भाव से, प्रेम करता हे, तो प्रेम अपने उच्चतम विकास पर पहुँच जाता है और वह विश्व में एक महान शक्ति बन जाता है। इस स्थिति तक पहुँचने में बहुत समय लगता है और हमें आरंभ वहाँ से करना चाहिए, जो हमारी प्रकृति के निकटतम हो, कुछ सेवा के लिए उत्पन्न् होते हैं, कुछ प्रेम में माता बनने के लिए। जो हो, फल ईश्वर के अधीन है। हमें प्रकृति से लाभ उठाना चाहिए।
संसार का उपकार
हमसे पूछा जाता है: 'आपके धर्म से समाज का क्या लाभ है?' समाज को सत्य की कसौटी बनाया गया है। यह तो बड़ी तर्कहीनता है। समाज केवल विकास की एक अवस्था है, जिसमें होकर हम गुज़र रहे हैं। इस प्रकार तो हम एक वैज्ञानिक आविष्कार के लाभ अथवा उसकी उपयोगिता को एक शिशु के लिए उसकी उपयोगिता से जाँचेगे। यह अत्यंत असंगत है। यदि सामाजिक अवस्था स्थायी होती, तो वह शिशु के सदा शिशु ही बने रहने जैसी बात होती। पूर्ण मनुष्य-शिशु नहीं हो सकता; यह शब्द-'मनुष्य-शिशु'-ही विरोधाभासी है-इसलिए कोई समाज पूर्ण नहीं हो सकता। मनुष्य को ऐसी आरंभिक अवस्थाओं से आगे बढ़ना होगा और वह बढ़ेगा। समाज एक अवस्था तक अच्छा है, पर वह हमारा आदर्श नहीं बन सकता; वह निरंतर परिवर्तनशील है। आधुनिक वणिक् सभ्यता को, अपने समस्त दंभों और आडंबरों के साथ, जो एक प्रकार का 'लार्ड मेयर का तमाशा' है, मरना होगा। संसार को जो चाहिए, वह है व्यक्तियों के माध्यम से विचार शक्ति। मेरे गुरुदेव कहा करते थे, "तुम स्वयं अपने कमल के फूल को खिलने में सहायता क्यों नहीं देते? भ्रमर तब अपने आप आयेंगे।" संसार को ऐसे लोग चाहिए, जो ईश्वर के प्रेम में मतवाले हों। तुम पहले अपने में विश्वास करो, तब तुम ईश्वर में विश्वास करोगे। संसार छ:श्रद्धालु मनुष्यों का इतिहास, छ: गंभीर शुद्ध चरित्रवान मनुष्यों का इतिहास है। हमें तीन वस्तुओं की आवश्यकता है: अनुभव करने के लिए ह्दय की, कल्पना करने के लिए मस्तिष्क की, और काम करने के लिए हाथ की। पहले हमें संसार से बाहर जाना चाहिए और अपने लिए समुचित उपकरण तैयार करने चाहिए। अपने को एक डाइनेमो बनाओ। पहले संसार के लिए महसूस करो। ऐसे समय में जब संसार में सब मनुष्य काम करने को तैयार हैं, तो भावनाशील व्यक्ति कहाँ हैं? वह अनुभूति कहाँ है, जिसने इग्नेशियस लॉयला को उत्पन्न किया था? अपने प्रेम और नम्रता की परीक्षा करो। ईर्ष्यालु व्यक्ति नम्र और प्रेममय नहीं होता। ईर्ष्या एक भयंकर, भयावह पाप है; यह मनुष्य में अत्यंत रहस्यमय रीति से प्रवेश कर जाती है। अपने से पूछो, तुम्हारा मन घृणा अथवा ईर्ष्या की प्रतिक्रिया करता है या नहीं? संसार में जो टनों घृणा और क्रोध उँड़ेला जा रहा है, उससे भले कार्यों का निरंतर निराकरण हो रहा है। यदि तुम पवित्र हो, यदि तुम सशक्त हो, तो तुम, एक व्यक्ति, समस्त संसार के बराबर हो।
शुभ कार्य करने का दूसरा माध्यम-मस्तिष्क केवल सूखा सहारा रेगिस्तान मात्र है; क्योंकि वह अकेला उस समय तक कुछ नहीं कर सकता, जब तक कि उसके पीछे अनुभूति न हो। उस प्रेम को, जो कभी असफल नहीं रहा, साथ लो, और तब मस्तिष्क कल्पना करेगा और हाथ भलाई करेगा। ऋृषियों ने ईश्वर के स्वप्न देखे हैं और उसके दर्शन किए हें। 'जिनका ह्दय शुद्ध है, वे ईश्वर का दर्शन पायेंगे।' सब महान पुरुष ईश्वर दर्शन कर चुकने का दावा करते हैं। हज़ारों वर्ष पहले यह दिव्य दर्शन उपलब्ध हुआ है और, परे जो एकता है, वह स्वीकृत की जा चुकी है, और अब हमें जो करना है, वह है केवल इन महत्त्वपूर्ण रूप-रेखाओं को भरना।
ईश्वर-प्रेम-1
(सितंबर 25, 1863 ई. को दिए गए एक भाषण की शिकागो हेरल्ड में प्रकाशित रिपोर्ट)
लैफ्लीन मनरो स्ट्रीटों पर थर्ड यूनिटेरियन चर्च के सभा-भवन में भरे हुए श्रोताओं ने कल प्रात: स्वामी विवेकानंद का प्रवचन सुना। उनके उपदेश का विषय था, ईश्वर का प्रेम और उन्होंने इसका ज़ोरदार और अनूठा प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि ईश्वर संसार के सब भागों में पूजा जाता है, पर विभिन्न नामों से और विभिन्न रीतियों से। उन्होंने कहा कि मनुष्य के लिए महान और सुंदर की पूजा करना स्वाभाविक है और धर्म उनके स्वभाव का ही एक अंग है। ईश्वर की आवश्यकता सबको अनुभव होती है, और उसका प्रेम उनको प्रेम, दया और न्याय की कार्यों की प्रेरणा देता है। सब मनुष्य ईश्वर से प्रेम करते हैं, क्योंकि ईश्वर स्वयं प्रेम है। वक्ता ने, जब से वे शिकागो आए हैं, मनुष्य के भ्रातृत्व के विषय में बहुत कुछ सुना है। उनका विश्वास है कि मनुष्य एक इससे भी अधिक घनिष्ठ संबंध द्वारा परस्पर ग्रथित है, वह यह है कि वे सब ईश्वर के प्रेम की संतान हैं। मनुष्य का भ्रातृत्व ईश्वर को सबके पिता के रूप में देखने का तर्कसंगत परिणाम है। वक्ता ने कहा कि उन्होंने भारत के वनों में यात्रा की है और वे ग़ुफाओं में सोये हैं, और उन्होंने अपने प्रकृति के निरीक्षण से यह विश्वास निकाला है कि प्राकृतिक नियमों से ऊपर भी कुछ है, जो मनुष्य को बुराई से बचाता है और वह, ईश्वर का प्रेम है। यदि ईश्वर ने ईसा, मुहम्मद और वेद के ऋृषियों को संदेश दिया है, तो वह उससे, अपने बच्चों में से एक से, क्यों नहीं बोलता?
"वास्तव में वह मुझसे बोलता है," स्वामी ने कहा, "और अपने सभी बच्चों से बोलता है। हम उसे अपने चारों ओर देखते हैं और निरंतर उसके प्रेम की असीमता से प्रभावित होते हैं, और उस प्रेम से हम अपने कल्याण तथा सत्कर्म के लिए प्रेरणा प्राप्त करते हैं।"
ईश्वर-प्रेम-2
(फ़रवरी 20, 1864 ई. डिट्रॉएट के यूनिटेरियन चर्च में दिए गए भाषण की डिट्रॉएट फ़्री प्रेस में रिपोर्ट)
विवेकानंद ने कल रात यूनिटेरियन चर्च में ईश्वर के प्रेम पर एक भाषण दिया, उनके भाषण में श्रोताओं की संख्या इससे अधिक पहले कभी नहीं थी। वक्ता की बातों का रुख यह दर्शाने की ओर था कि हम ईश्वर को इसलिए नहीं स्वीकार करते कि हमें उसका अभाव खलता है, वरन् इसलिए स्वीकार करते हैं कि हमें अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए उसकी आवश्यकता होती है। प्रेम ऐसी वस्तु है, जिसमें स्वार्थ का लेश नहीं है, जिसमें प्रेमपात्र की प्रशंसा और स्तुतिगान के अतिरिक्त और कोई विचार नहीं होता। यह एक ऐसा गुण है, जो नमन करता है, पूजा करता है और बदले में कुछ नहीं चाहता। सच्चे प्रेम को केवल यही माँगना है कि वह केवल प्रेम करें।
एक हिंदू नारी संत-1 के बारे में यह कहा जाता है कि जब उसका विवाह हुआ, तो उसने अपने पति, राजा से कहा कि मेरा विवाह तो पहले ही हो चुका है। "किसके साथ?" राजा ने पूछा। "ईश्वर के साथ", उत्तर मिला। वह दीन और दरिद्रों के बीच गई और ईश्वर के आत्यंतिक प्रेम का प्रचार किया। उसकी प्रार्थनाओं में से एक इस प्रसंग में महत्त्वपूर्ण है, जिससे हमें यह ज्ञात होता है कि उसके ह्दय की लगन कैसी थी, "मैं संपत्ति नहीं चाहती, मैं पद नहीं चाहती, मैं मुक्ति नहीं चाहती; यदि तेरी इच्छा हो, तो मुझे सहस्र नरकों में रख, पर मुझे अपने से प्रेम करने दे।" पुरानी भाषा में इस नारी की बहुत सी सुंदर प्रार्थनाएँ हैं। जब उसका अंत आया, तो वह एक नहीं के तट पर समाधि में स्थित हुई। उसने एक सुंदर पद रचा, जिसमें उसने कहा कि वह अपने प्रिय से मिलने जा रही है।
पुरुष धर्म का दार्शनिक विश्लेषण कर सकते हैं। नारी की प्रकृति भक्ति की होती है, वह ईश्वर को ह्दय और आत्मा से प्यार करती है, मस्तिष्क से नहीं। सुलेमान के गीत बाइबिल के सबसे सुंदर अंशों में से हैं। उसकी भाषा प्राय: उसी प्रकार प्रेममयी है, जैसी इस हिंदू नारी संत की प्रार्थनाओं में है। और अब मैंने सुना है कि ईसाई इन अनूठे गीतों को वहाँ से हटाना चाहते हैं। मैंने उन गीतों की व्याख्या सुनी है, जिसमें कहा गया है कि सुलेमान एक छोटी लड़की से प्रेम करता था और उसकी इच्छा थी कि वह उसके शाही प्रेम का प्रतिदान करे। पर वह लड़की एक नवयुवक से प्रेम करती थी और सुलेमान से काई संबंध नहीं रखना चाहती थी। यह व्याख्या कुछ लोगों के लिए बहुत अच्छी है, क्योंकि वे इन गीतों में मूर्तिमान, ईश्वर के प्रति ऐसे अनूठे प्रेम को नहीं समझ सकते। भारत में ईश्वर के प्रति प्रेम अन्य स्थानों के ईश्वर के प्रति प्रेम से कुछ भिन्न है, क्योंकि जब तुम ऐसे देश में जाते हो, जहाँ थर्मामीटर शून्य से 40 डिग्री नीचे पहुँचता है, तो लोगों का स्वभाव बदल जाता है। जिस जलवायु में बाइबिल की पुस्तकें प्रणीत मानी जाती हैं, वहाँ के लोगों की आकांक्षाएँ उन शीतरक्त पश्चिमी राष्ट्रों के लोगों की आकांक्षाओं से भिन्न थीं, जिनकी प्रवृत्ति उस तल्लीनता के साथ, जिसकी अभिव्यक्ति इन गीतों में हुई है, ईश्वर की अपेक्षा सर्वशक्तिमान डॉलर की पूजा करने की ओर अधिक है। ईश्वर का प्रेम इस आधार पर स्थित मालूम होता है कि 'मुझे इससे क्या लाभ होगा?' अपनी प्रार्थनाओं में वे सब प्रकार की स्वार्थपरक वस्तुओं की याचना करते हैं।
ईसाई ईश्वर से सदा कुछ वस्तु माँगते रहते हैं। वे सर्वशक्तिमान के सिंहासन के सम्मुख भिखारी के रूप में उपस्थित होते हैं। एक भिखारी की कहानी है कि उसने एक सम्राट् से भिक्षा माँगी। जब वह प्रतीक्षा कर रहा था, तो सम्राट् का पूजा करने का समय हो गया। सम्राट् ने प्रार्थना की, "हे ईश्वर, मुझे अधिक संपत्ति दे; अधिक शक्ति दे; विशालतर साम्राज्य दे।" "मैं भिखारियों से नही माँगता।" उसे उत्तर मिला।
कुछ लोग उस धार्मिक उत्साह की उत्तेजना को समझना कठिन पाते हैं, जिसने मुहम्मद के ह्दय को हिलाया था। वह मिट्टी में लोट जाते थे और कष्ट से ऐंठ उठते थे। उन पुनीत पुरुषों को, जिन्हें इन अत्यंत तीव्र भावों की अनुभूति हुई है, लोगों में मृगी का रोगी कहा है। अपने विषय में किसी भी विचार का अभाव ईश्वर के प्रेम का अनिवार्य लक्षण है। आजकल धर्म केवल शौक़ और फ़ैशन रह गया है। लोग भेड़ों के रेवड़ की भाँति गिरजे जाते हैं। वे ईश्वर को इसलिए ह्दय से नहीं लगाते, क्योंकि उन्हें उसकी आवश्यकता है। अधिकतर लोग, जो आत्मसंतोष के साथ यह सोचते हैं कि वे निष्ठावान आस्तिक हैं, अवचेतन स्तर पर नास्तिक होते हैं।
प्रेम-धर्म
(नवंबर 16, 1865 को लंदन में दिए गए एक भाषण के नोट्स)
जैसे उपलब्धि की गहराई तक पहुँचने के लिए मनुष्य को पहले प्रतीकों और अनुष्ठानों में से गुज़रना होता है, वैसे ही हम भारत में कहते हैं, "किसी संप्रदाय में जन्म लेना तो ठीक है, पर उसमें मरना ठीक नहीं है।" रक्षा के लिए एक पौधे के चारों ओर बाड़ लगानी चाहिए, पर जब वृक्ष हो जाता है, तो वही बाड़ बाधा बन जाती है। इसलिए पुरातन रूपों की आलोचना और उनको तिरस्कृत करने की आवश्यकता नहीं है। हम यह भूल जाते हैं कि धर्म में सदा विकास होना चाहिए।
पहले हम सगुण ईश्वर की बात सोचते हैं और उसे स्रष्टा, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ आदि कहते हैं। पर जब प्रेम का उदय होता है, तो ईश्वर केवल प्रेम रह जाता है। प्रेमी उपासक को यह चिंता नहीं होती कि ईश्वर क्या है? क्योंकि वह उससे कुछ नहीं चाहता। एक भारतीय संत कहता है, "मैं भिखारी नहीं हूँ! " उसे भय भी नहीं होता। ईश्वर को मनुष्य की भाँति प्यार किया जाता है।
प्रेम पर आधारित पद्धतियों में से कुछ ये हैं: (1) शांत, सामान्य, शांतिमय प्रेम, इसमें पितृत्व और सहायता जैसे विचार होते हैं; (2) दास्य, आदर्श है सेवा; ईश्वर को स्वामी अथवा सेवापति अथवा राजा माना जाता है, जो दंड और पुरस्कार देता है; (3) वात्सल्य, ईश्वर माता अथवा शिशु के रूप में। भारत में माँ कभी दंड नहीं देती। इन अवस्थाओं में से प्रत्येक में उपासक ईश्वर का एक इष्ट बनता है और उसकी ओर बढ़ता है। और तब वह (4) सखा बन जाता है। यहाँ भय नहीं रहता। समानता और घनिष्ठता का भाव भी होता है। कुछ ऐसे हिंदू हैं, जो ईश्वर की उपासना मित्र और सखा के रूप में करते हैं। इसके बाद (5) मधुर, सबसे मीठा प्रेम, पति-पत्नी का प्रेम आता है। संत थेरेसा तथा अन्य आनंदोमत्त संत इसके उदाहरण हैं। ईरानियों में ईश्वर को पत्नी और हिंदुओं में पति माना गया है। हम उस महान रानी मीरांबाई का उदाहरण ले सकते हैं, जो इस बात का प्रचार करती थी कि उसका दैवी प्रेमी ही सर्वस्व है। कुछ में यह भावना इतनी तीव्र हो जाती है कि उन्हें ईश्वर को 'शक्तिमान' अथवा 'पिता' कहना ईश-निंदा लगने लगता है। इस उपासना की भाषा श्रृंगारिक है। कुछ इसमें अवैध प्रेम का भी उपयोग करते हैं। कृष्ण ओर गोपियों की कथा इसी दृष्टिकोण से संबंध रखती है। हो सकता है कि तुमको इसमें उपासक का महापतन होता जान पड़े। और ऐसा होता भी है। फिर भी इस मार्ग से बहुत महान संतों का विकास हुआ है। और कोई मानव संस्था दुरुपयोग से बची नहीं है। क्या तुम इसलिए भोजन नहीं पकाओगे कि संसार में भिखारी हैं? क्या तुम इसलिए कुछ अपने पास नहीं रखोगे कि संसार में चोर हैं? 'हे मेरे प्रिय, तेरे अधरों के एक ही चुंबन ने मुझे पागल बना दिया है!'
इस विचार का फल यह होता है कि मनुष्य फिर किसी संप्रदाय का नहीं रह सकता, अथवा अनुष्ठान को सहन नहीं कर सकता। भारत में धर्म की परिणति मुक्ति में होती है। पर समय आता है कि इसे भी त्याग दिया जाता है और रह जाता है सब प्रेम, केवल प्रेम के लिए।
सबसे अंत में आता है, 'भेदभावहीन प्रेम'-एकात्मता। एक ईरानी कविता है, जिसमें कहा गया है कि कैसे एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के द्वार पर पहुँचता है और दरवाज़ा खटखटाता है। वह पूछती है, "तू कौन है?" और वह उत्तर देता है, "मैं अमुक हूँ, तेरा प्रिय!" और वह केवल यही उत्तर देती है, "चलते बनो! मैं ऐसे किसी को नहीं जानती!" पर जब वह चौथी बार पूछती है, तो वह कहता है, "मैं तू ही हूँ, मेरी प्रिय, इसलिए मेरे लिए दरवाज़ा खोल"। और द्वार खोल दिया जाता है।
एक महान संत ने एक लड़की की भाषा का उपयोग करके प्रेम का वर्णन करते हुए कहा: "आँखें चार हुईं। दो आत्माओं में कुछ परिवर्तन हुए और अब मैं नहीं कह सकती कि वह पुरुष है और मैं नारी, अथवा वह नारी है और मैं पुरुष। मुझे केवल इतना याद है कि दो आत्माएँ थीं; प्रेम आया, और तब एक ही रह गई।" उच्चतम प्रेम में केवल आत्मा का मिलन होता है। अन्य सभी प्रकार का प्रेम शीघ्र उड़ जाता है। केवल आध्यात्मिक ही ठहरता है, और उसमें वृद्धि होती है।
प्रेम इष्ट को देखता है। यह त्रिभुज का तीसरा कोण है। ईश्वर कारण, कर्त्ता, पिता रहा है। प्रेम चरम परिणति है। माँ को खेद होता है कि उसका नवजाता शिशु कुबड़ा है, पर जब वह उसकी कुछ दिन शुश्रूषा कर लेती है, तो वह उसे प्यार करने लगती है और उसे सबसे सुंदर समझने लगती है। लेती प्रेमी इथियोपिया के चेहरे में हेलेन की सुंदरता देखता है। साधारणतया हमें यह अनुभव नहीं होता कि होता क्या है। इथियोपिया का चेहरा आलंबन मात्र है: मनुष्य हेलेन को ही देखता है। उसका आदर्श आलंबन पर प्रक्षिप्त होता है और उसे ढँक लेता है, वैसे ही जैसे कि सीप रेत को मोती बना देती है। ईश्वर वह आदर्श है, जिसके द्वारा मनुष्य सबको देख सकता है।
इसलिए हम स्वयं प्रेम से प्रेम करने लगते हैं। इस प्रेम को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। कोई शब्द इसे व्यक्त नहीं कर सकते। हम इसके विषय में गूँगे हैं।
प्रेम में इंद्रियां बहुत अधिक तीव्र हो जाती हैं। मानवीय प्रेम, हमें याद रखना चाहिए कि, विविध उपाधियों से युक्त है। वह दूसरे के रूख पर भी निर्भर होता है। भारतीय भाषाओं में प्रेम की इस पारस्परिक निर्भरता का वर्णन करने के लिए शब्द हैं। निम्नतम प्रेम है स्वार्थ; इसके अर्थ के अंतर्गत है, प्रेम किए जाने का आनंद लेना।हम भारत में कहते हैं, "एक कपोल देता है, दूसरा चूमता है।" इसके ऊपर पारस्परिक प्रेम है। पर यह भी पारस्परिक रूप से समाप्त हो जाता है। सच्चा प्रेम सर्वस्व दान कर देता है। इसमें हम दूसरे को देखना भी नहीं चाहते, अथवा अपने भाव को व्यक्त करने के लिए कुछ करना भी नहीं चाहते। देना मात्र काफ़ी होता है। किसी मनुष्य को इस प्रकार प्यार करना लगभग असंभव है, पर इस प्रकार ईश्वर को प्रेम करना संभव है।
भारत की गलियों में यदि लड़ते हुए बालक ईश्वर के नाम का उपयोग करते हैं, तो उसे ईश-निंदा नहीं समझा जाता। हम कहते हैं, "तुम अपना हाथ आग में डालो, तुम जानो या न जानो, तुम जल जाओगे। इसी प्रकार ईश्वर के नाम उच्चारण से भलाई के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता।" ईश-निंदा का विचार उन यहूदियों से आया है, जो ईरानी अनन्यता के प्रदर्शन से प्रभावित थे। ये विचार कि ईश्वर न्यायकारी और दंड देनेवाला है, स्वयंअपने में बुरे नहीं हैं, पर वे निम्न और अभद्र हैं। त्रिभुज के तीन कोण हैं: प्रेम भीख नहीं माँगता; प्रेम भय नहीं जानता; प्रेम सदा इष्ट होता है।
'एक पल कौन जीवित रह सकता,
एक क्षण कौन साँस ले सकता,
यदि प्रेममूर्ति विश्व में व्याप्त न होती तो?'
हममें से अधिकांश लोगों को यह लगेगा कि हम सेवा के लिए उत्पन्न हुए हैं। फल हमें ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। कार्य केवल ईश्वर के प्रेम के लिए किया गया है। यदि असफलता आती है, तो दु:ख करने की आवश्यकता नहीं है। कर्म केवल ईश्वर के प्रेम के लिए किया गया था।
नारी में मातृ-प्रकृति का विकास अधिक हुआ है। वे ईश्वर की उपासना बालक के रूप में करती हैं। वे माँगती कुछ नहीं, और कुछ भी करने को तैयार हैं।
कैथोलिक चर्च इन गंभीर बातों में से बहुत सी बातों की शिक्षा देता है, और यद्यपि वह संकीर्ण है, पर वह उच्चतम अर्थ में धार्मिक है। आधुनिक समाज में प्रोटेस्टेंटवाद विस्तृत है, पर छिछला है। शुभ के उत्पादन की कसौटी पर सत्य की परखना उतना ही बुरा हे, जितना कि बच्चे के लिए किसी वैज्ञानिक खोज के मूल्य के संबंध में प्रश्न करना।
हमें समाज से ऊपर उठना चाहिए। हमें नियमों का दमन करना चाहिए और नियमों से परे निकल जाना चाहिए। हम प्रकृति को छूट देते हैं, केवल उसे जीतने के लिए। त्याग का अर्थ है यह, कि कोई भी एक साथ ईश्वर और कांचन की सेवा नहीं कर सकता।
स्वयं अपने विचार और प्रेम की क्षमता को गंभीर करो। अपने कमल को विकसित करो: भ्रमर स्वयं आयेंगे। पहले अपने में विश्वास करो, फिर ईश्वर में। मुट्ठी भर शक्तिशाली मनुष्य विश्व को हिला सकते हैं। हमें आवश्यकता है ह्दय की, अनुभव करने के लिए; मस्तिष्क की, कल्पना करने के लिए और मजबूत भुजा की, काम करने के लिए। बुद्ध ने अपने को पशुओं के लिए समर्पित कर दिया। अपने को कार्य का समर्थ साधन बनाओ। पर यह ईश्वर है, जो कार्य करता है, तुम नहीं। एक मनुष्य में समग्र विश्व विद्यमान है। पदार्थ के एक कण के पीछे ब्रह्मांड की समस्त शक्ति है। यदि ह्दय और मस्तिष्क में मतभेद हो, तो ह्दय का अनुगमन करो।
कल का नियम था, प्रतियोगिता। आज का नियम है, सहयोग। आगे कोई नियम नहीं है।
ऋृषि-मुनि तेरे गुण गायें अथवा सारा संसार तुझे दोषी ठहराये। सौभाग्य स्वयं उतर आए अथवा दरिद्रता और दीनता तेरे सामने खड़ी हों। एक दिन भोजन के लिए वन के साग-पात खा; और दूसरे दिन पचास प्रकार के व्यंजनों का स्वाद ले। न दायें देख और न बाँये, अविचल अपने मार्ग पर बढ़ा चल!
प्रश्नों के उत्तर में स्वामी जी ने पवहारी बाबा की यह कहानी सुनाकर आरंभ किया कि उन्होंने अपने बर्तन उठा लिए और चोर के पीछे भागे, केवल उसके चरणों पर गिरने के लिए और यह कहने के लिए: 'हे भगवन्, मैं नहीं जानता था कि यह तू था। इनको ले जा। ये तेरे हैं! मुझे, अपने बच्चे को, क्षमा कर!'
फिर उन्होंने बताया कि किस प्रकार उस संत को एक विषधर सर्प ने काट खाया और जब संध्या समय उनकी चेतना लौटी, तो उन्होंने कहा, "प्रियतम के पास से मेरे लिए एक दूत आया था।"
दिव्य प्रेम
(अप्रैल 12, 1600 को सैनफ्रांसिस्को क्षेत्र में दिया गया भाषण)
(त्रिकोण को प्रेम का प्रतीक माना जा सकता है। पहला कोण है,) प्रेम प्रश्न नहीं करता। वह भिखारी नहीं होता।...भिखारी का प्रेम बिल्कुल प्रेम नहीं है। प्रेम का पहला चिन्ह्र है, कुछ न माँगना, सब कुछ अर्पित करना। यह है सच्ची आध्यात्मिक उपासना, प्रेम के द्वारा उपासना। अब यह प्रश्न ही नहीं उठता कि ईश्वर दयालु है, या नहीं। वह ईश्वर है: वह मेरा प्रेमपात्र है। ईश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ, ससीम अथवा असीम है, यह प्रश्न अब नहीं रहता। यदि वह शुभ का वितरण करता है, तो ठीक; यदि वह अशुभ लाता है, तो उससे क्या? केवल एक--अनंत प्रेम--के अतिरिक्त उसके सब गुण विलीन हो जाते हैं।
प्राचीन काल में एक भारतीय सम्राट् था, जिसे शिकार-यात्रा में वन में एक महान साधु मिले। वह इन साधु से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने आग्रह किया कि वह कुछ भेंट स्वीकार करने के लिए राजधानी पधारें। (पहले तो) साधु ने अस्वीकार किया। पर जब सम्राट् ने बहुत आग्रह किया, तो अंत में साधु ने मान लिया। जब वह (राजभवन) पहुँचा, तो सम्राट् को उसका समाचार दिया गया। सम्राट् ने कहा, "एक क्षण ठहरिए, मैं अपनी उपासना पूरी कर लूँ।" सम्राट् ने प्रार्थना की, "हे ईश्वर, मुझे अधिक धन, अधिक (जमीन, अधिक स्वास्थ्य), अधिक संतान दो।" साधु उठ खड़ा हुआ और कमरे से बाहर जाने लगा। सम्राट् ने कहा, "आपने मेरी भेंट तो ग्रहण ही नहीं की।" साधु ने उत्तर दिया, "मैं भिखारियों से दान नहीं लेता। इतनी देर से तुम अधिक जमीन के लिए, अधिक धन के लिए, उसके लिए, प्रार्थना कर रहे हो। तुम मुझे क्या दे सकते हो? पहले स्वयं अपनी जरूरतें पूरी करो।"
प्रेम कभी माँगता नहीं; वह सदा देता है।...जब एक युवक अपनी प्रेमिका से मिलने जाता है,...तो उनके बीच व्यावसायिक संबंध नहीं होता; उनका संबंध प्रेम का होता है, और प्रेम भिखारी नहीं है। (इसी प्रकार), हम समझें कि सच्ची आध्यात्मिक उपासना के आरंभ का अर्थ भिक्षाटन नहीं होता। जब हम सब भीख माँगना 'हे ईश्वर, मुझे यह द, मुझे वह दे' समाप्त कर देते हैं, तभी धर्म का आरंभ होगा।
दूसरा (प्रेम के त्रिकोण का कोण) यह है कि प्रेम में भय नहीं होता। तुम मुझे काटकर टुकड़े टुकड़े कर दो, मैं तब भी तुमसे प्रेम करूँगा। मान लो कि तुम माताओं में से कोई एक माता, एक अबला नारी, सड़क पर एक शेर को अपनी संतान पर झपटते देखती है। मैं जानता हूँ कि उस समय तुम कहाँ होगी; तुम शेर का सामना करोगी। दूसरा बार गली में एक कुत्ता आ जाता है, तो तुम भाग निकलेगी। पर तुम शेर के मुँह में कूद पड़ती हो और अपने बच्चे को उसके मुँह से छीन लेती हो। प्रेम डरना नहीं जानता। वह सब बुराइ्यों पर विजय पाता है। ईश्वर का भय धर्म का आरंभ है, पर ईश्वर का प्रेम धर्म का अंत है। संपूर्ण भय का विनाश हो जाता है।
तीसरा (प्रेम के त्रिकोण का कोण) यह है कि प्रेम स्वयं अपना साध्य है। वह कभी साधन नहीं बन सकता,जो मनुष्य यह कहता है, "मैं तुम्हें अमुक बात के लिए प्रेम करता हूँ", वह प्रेम नहीं करता। प्रेम कभी साधन नहीं बन सकता; उसे पूर्ण साध्य होना चाहिए। प्रेम का साध्य और ध्येय क्या है? ईश्वर से प्रेम करना, बस, यही। कोई ईश्वर से प्रेम क्यों करे? यहाँ क्यों नहीं चलेगा, इसलिए कि यह साधन नहीं है। जब कोई मनुष्य प्रेम कर सकता है, तो वही मुक्ति है, वही पूर्णता है, वही स्वर्ग है। इससे अधिक और क्या है? इसके अतिरिक्त उद्देश्य और क्या हो सकता है? प्रेम से अधिक ऊँचा तुम और क्या पा सकते हो?
मैं उसके बारे में बात नहीं कर रहा हूँ, जिसे हम सभी प्रेम का अर्थ समझते हैं। छोटा हल्का-फुल्का प्रेम सुहावना लगता है। नर नारी के प्रेम में पड़ता है और नारी नर के लिए मरने लगती है। हो सकता है कि पाँच मिनट में जॉन जेन को लात लगाए और जेन जॉन को लतियाये। यह भौतिकता है, प्रेम बिल्कुल नहीं। यदि जॉन वास्तव में जेन से प्रेम कर सकता है, तो वह उस क्षण पूर्ण हो जाएगा। उसकी सच्ची प्रकृति प्रेम है: वह अपने में पूर्ण है। जॉन को केवल जेन से प्रेम करने से ही योग की सब शक्तियाँ प्राप्त हो जाएंगी, चाहे उसे धर्म, मनोविज्ञान अथवा पुराण का एक शब्द भी न आता हो। मुझे विश्वास है कि यदि कोई स्त्री और पुरुष वास्तव में प्रेम कर सकते हैं, तो वे उन सब शक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं, जिनका दावा योगी करते हैं, क्योंकि प्रेम स्वयं ईश्वर है। ईश्वर सर्वशक्तिमान है और (इसलिए) तुमको वह प्रेम प्राप्त हो जाता है, चाहे तुमको उसका पता चले या न चले।
अभी उस संध्या मैंने एक लड़के को एक लड़की की प्रतीक्षा करते देखा।... मैंने सोचा, इस लड़के का अध्ययन एक अच्छा प्रयोग होगा। उसमें उसके प्रेम की गहनता के कारण अदृश्य-दर्शन, अश्रव्य-श्रवण की शक्ति का विकास हो गया। साठ अथवा सत्तर बार उसने कभी ग़लती नहीं की, और वह लड़की दो सौ मील की दूरी पर थी। (वह कहता), "उसने यह पहन रखा है", (अथवा), "वह जा रही है।" मैंने यह बात अपनी आखों से देखी है।
प्रश्न यह है, क्या तुम्हारा पति ईश्वर नहीं है, तुम्हारा बच्चा ईश्वर नहीं है? यदि तुम पत्नी से प्रेम कर सकते हो, तो संसार का संपूर्ण धर्म तुम्हारे पास है। धर्म और योग का सारा रहस्य तुम्हारे भीतर है। पर क्या तुम प्रेम कर सकते हो? प्रश्न यह है। तुम कहते हो, "मैं प्रेम करता हूँ...ओ, मेरी, मैं तुम्हारे लिए मरता हूँ!" पर यदि (तुम) मेरी को किसी दूसरे पुरुष का चुंबन लेते देखते हो, तो तुम उस व्यक्ति का गला काटना चाहते हो। यदि मेरी जॉन को किसी दूसरी लड़की से बात करते देख लेती है, तो वह रात भर सो नहीं पाती और वह जॉन के जीवन को नरक बना देती है। यह प्रेम नहीं है। यह यौन लेन-देन और बिक्री है। इसको प्रेम का नाम देना अन्याय है। संसार दिन-रात ईश्वर और धर्म की--इसलिए प्रेम की--बात करता है। प्रत्येक वस्तु का मज़ाक, यही है, जो तुम कर रहे हो! प्रत्येक मनुष्य प्रेम की बात करता है, फिर भी समाचारपत्रों के स्तम्भों में, हम प्रतिदिन तलाक़ों की बात पढ़ते हैं। जब तुम जॉन से प्रेम करती हो, तो तुम जॉन से उसके लिए प्रेम करती हो या अपने लिए! यदि तुम जॉन से अपने लिए प्रेम करती हो, तो तुम जॉन से कुछ आशा रखती हो। यदि तुम जॉन से अपने लिए प्रेम करती हो, तो तुम जॉन से कुछ आशा रखती हो। यदि तुम जॉन से उसके लिए प्रेम करतीहो,तो तुम जॉन से कुछ नहीं चाहतीं। वह जो चाहे कर सकताहै और तुम उससे वैसा ही प्रेम करती रहोगी।
ये हैं तीन बिंदु, तीन कोण, जो (प्रेम का) त्रिकोण बनाते हैं। जब तक प्रेम नहीं होता, ज्ञान सूखी हड्डियों जैसा रहता है, योग एक प्रकार का सिद्धांत बन जाता है, और कर्म केवल श्रम मात्र रह जाता है। (यदि प्रेम होता है) तो ज्ञान काव्य हो जाता है, योग (रहस्यवाद) बन जाता है और कर्म सृष्टि में सबसे आनंददायक वस्तु हो जाता है। पुस्तकों को (केवल) पढ़ने से मनुष्य बाँझ हो जाता है। विद्वान् कौन बनता है? वह जो प्रेम की एक बूँद भी अनुभव कर पाता है। ईश्वर प्रेम है और प्रेम ईश्वर है। और ईश्वर सर्वव्यापी है। यह जानने के बाद कि ईश्वर प्रेम है और ईश्वर सर्वव्यापी है, मनुष्य यह नहीं जानता कि वह अपने सिर पर खड़ा है अथवा (अपने) पैरों पर--उस मनुष्य की भाँति, जिसे शराब की एक बोतल मिल जाती है और जो यह नहीं जानता कि वह कहाँ है।... यदि हम ईश्वर के लिए दस मिनट रोते हैं, तो हमें दो महीने यह पता नहीं चलेगा कि हम कहाँ हैं।... हमें भोजन के समय का ध्यान नहीं रहेगा। हमें पता नही चलेगा कि हम क्या खा रहे हैं। तुम ईश्वर से प्रेम (कैसे कर सकते हो) और अपने व्यवहार को सदा ऐसा सुंदर और चुस्त कैसे रख सकते हो?...वह...प्रेम की सर्वविजयिनी, सर्वसमर्थ शक्ति--वह कैसे आ सकती है?
लोगों की परीक्षा मत लो। वे सब पागल हैं। बच्चे (पागल) हैं अपने खेलों के पीछे, जवान जवान के पीछे, वृद्ध अपने अतीत के वर्षों की जुगाली कर रहे (है); कुछ कांचन के लिए पागल हैं। कुछ ईश्वर के लिए क्यों नहीं? ईश्वर के प्रेम के लिए उसी प्रकार पागल हो जाओ, जैसे तुम जॉनों और जेनों के लिए होते हो। वे कौन हैं? (लोग) कहते हैं,"क्या मैं इसे छोड़ दूँ, क्या मैं उसे छोड़ दूँ?" एक ने पूछा, "क्या मैं विवाह छोड़ दूँ?" कुछ भी मत छोड़ो! वस्तुएँ ही तुम्हें छोड़ देंगी। प्रतीक्षा करो और तुम उनको भूल जाओ।
(पूर्णतया) ईश्वर के प्रेम में ओतप्रोत हो जाना--यह वास्तविक उपासना है! रोमन कैथोलिक चर्च में तुमको कभी-कभी उसकी झाँकी मिल जाती है--उन आश्चर्यजनक संन्यासी और संन्यासिनियों में से कुछ अनूठे प्रेम में पागल हो जाते हैं। तुमको ऐसा प्रेम प्राप्त करना चाहिए। ईश्वर का प्रेम ऐसा होना चाहिए--बिना कुछ माँगे, बिना कुछ जाँचे।
प्रश्न पूछा गया था: 'उपासना कैसे करें?' उसकी उपासना ऐसे करो, मानो कि वह अपनी सब संपत्ति से (अधिक प्रिय) हो, अपने सब संबंधियों से अधिक प्रिय हो, अपनी संतान से (अधिक प्रिय) हो। (उसकी उपासना उस भाँति करो) जैसे कि तुम स्वयं साक्षात् प्रेम को प्रेम करते। एक ऐसा है, जिसका नाम अनंत प्रेम है। ईश्वर की केवल यही परिभाषा है। चिंता मत करो, यदि इस...ब्रह्मांड का नाश हो जाता है, जब तक वह अनंत प्रेम है, हम किसी बात की चिंता क्यों करें? (क्या तुमने) समझा कि पूजा का क्या अर्थ है? अन्य सब विचारों को विलीन हो जाना चाहिए। ईश्वर के अतिरिक्त शेष सब मिट जाना चाहिए। वह प्रेम जो पिता अथवा माता में संतान के लिए होता है, (प्रेम) जो पत्नी में पति के लिए और पति में पत्नी के लिए (होता है), जो मित्र में मित्र के लिए होता है, इस सब प्रेमों को एक स्थान पर एकत्र करके ईश्वर के प्रति अर्पित किया जाना चाहिए। अब, यदि एक नारी एक पुरुष से प्रेम करती है, तो वह दूसरे पुरुष से प्रेम नहीं कर सकती। यदि पुरुष एक नारी से प्रेम करता है, तो वह दूसरी (नारी) से प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम की प्रकृति ही ऐसी है।
मेरे वृद्ध गुरु कहा करते थे, "मान लो कि इस कमरे में सोने की एक थैली है और दूसरे कमरे में एक चोर है। चोर को अच्छी तरह ज्ञात है कि यहाँ सोने की एक थैली है। क्या वह चोर शांति से सो सकेगा? निश्चय ही नहीं। वह सारे समय यही सोचने में पागल रहेगा कि मैं सोने तक कैसे पहुँचूँ।"...(इसी प्रकार), यदि कोई मनुष्य ईश्वर से प्रेम करता हे, तो वह किसी दूसरी वस्तु से प्रेम कैसे कर सकता है? ईश्वर के उस प्रबल प्रेम के सामने कुछ और ठहर कैसे सकता है? (उसके सामने) सब ग़ायब हो जाता है। मन (एस प्रेम को) पाने के लिए, उसे साकार करने के लिए, उसे अनुभव करने के लिए, उसमें रहने के लिए पागल हुए बिना कैसे रह सकता है?
हमें ईश्वर से इस प्रकार प्रेम करना है: 'मुझे धन नहीं चाहिए, न (मित्र, न सौंदर्य), न संपत्ति, न विद्वत्ता, मुक्ति भी नहीं। यदि तेरी इच्छा हो, तो मेरे लिए हज़ार मौतें भेज पर यह वरदान दे कि मैं तुझे प्रेम कर सकूँ और प्रेम के लिए प्रेम कर सकूँ। वह प्रेम, जो भौतिकतापरायण मनुष्य का अपनी सांसारिक संपत्ति के प्रति होता है, वह तीव्र प्रेम मेरे ह्दय में आ जाए, पर केवल परम सुंदर के लिए। ईश्वर की जय हो, प्रेममय ईश्वर की जय हो!' ईश्वर इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उसे उस आश्चर्यजनक बातों की आवश्यकता नहीं है, जो बहुत से योगी कर सकते हैं। छोटे जादूगर छोटे करतब करते हैं। ईश्वर बड़ा जादूगर है; वह सब करतब करता है। जितने संसार (हैं), वह उन सबकी देख-भाल करता है।
एक दूसरा (मार्ग है), प्रत्येक वस्तु को जीता जाए, प्रत्येक वस्तु को वश में किया जाए--शरीर को (और) मन को जीता जाए।... "प्रत्येक वस्तु को जीतने से क्या लाभ? मुझे तो ईश्वर से मतलब है!" (भक्त कहता है।)
एक योगी था, बड़ा प्रेमी। वह गले के कैंसर से मर रहा था। एक दूसरा योगी, जो दार्शनिक था, उससे मिलने आया। (दूसरे ने) कहा, "मेरे मित्र, तुम अपना ध्यान घाव पर क्यों नहीं लगाते और उसे ठीक क्यों नहीं कराते?" जब यह प्रश्न तीसरी बार पूछा गया, तो (इस महान योगी ने) कहा, "क्या तुम यह संभव समझते हो कि जो (मन) मैंने संपूर्णतया ईश्वर को दे दिया है, वह (इस रक्त-मांस के पंजर पर लगाया जा सकता है)?" ईसा ने फ़रिश्तों के दलों को अपनी सहायता के लिए बुलाने से इंकार कर दिया था। क्या यह नन्हा शरीर इतना महत्वपूर्ण है कि मैं इसे दो या तीन दिन और रखने के लिए बीस हज़ार फ़रिश्तों को बुलाऊँ?
(सांसारिक दृष्टिकोण से) मेरा सब कुछ यह शरीर है। यह शरीर मेरा संसार है। मेरा ईश्वर यह शरीर है। मैं शरीर हूँ। यदि तुम मुझे चिकोटी काटते हो, तो मेरे चिकोटा लगती है। जिस क्षण मेरे सिर में दर्द होता है, मैं ईश्वर को भूल जाता हूँ। मैं शरीर हूँ। ईश्वर और प्रत्येक वस्तु को इस उच्चतम लक्ष्य के लिए, शरीर के लिए, नीचे आना चाहिए। इस दृष्टिकोण के अनुसार जब ईसा सलीब पर मरे और (अपनी सहायता के लिए) उन्होंने फ़रिश्तों को नहीं बुलाया, तो वे मूर्ख थे। उन्हें फ़रिश्तों को बुला लेना चाहिए था और अपने को सलीब से उतरवा लेना चाहिए था! पर एक प्रेमी के दृष्टिकोण से, जिसके लिए यह काया कुछ भी नहीं है, इस बकवास की ओर कौन ध्यान देता है? इस आने-जानेवाले शरीर की चिंता क्यों? इसका मूल्य कपड़े के उस टुकडे़ से अधिक नहीं है, जिसके लिए रोम के सिपाही दाँव लगाते थे।
(सांसारिक दृष्टिकोण) और एक प्रेमी के दृष्टिकोण में बहुत बड़ा अंतर है। प्रेम करते जाओ। यदि एक मनुष्य क्रोधित है, तो कोई कारण नहीं है कि तुम क्रोधित हो; यदि कोई अपने को गिराता है तो कोई कारण नहीं है कि तुम अपने को गिराओ।..."मैं इसलिए क्रोधित क्यों होऊँ कि दूसरे मनुष्य ने मूर्खता का काम किया है। बुराई का विरोध न करो!" यह है, जो ईश्वर के प्रेमी कहते हैं। संसार जो करता है, संसार जहाँ जाता है, उसका (उन पर) कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
एक योगी को सिद्धियाँ प्राप्त हो गई थीं। उसने कहा, "मेरी शक्ति देखो! आकाश को देखो। मैं इसे बादलों से ढकँ दूँगा।" पानी बरसने लगा। (किसी ने) कहा, "स्वामी जी, आपने कमाल कर दिया। पर मुझे वह सिखा दीजिए, जिसको जानने के बाद कुछ और चाहने की मेरी इच्छा ही न रह जाए।"... शक्ति से भी छुटकारा पाना, कुछ न लेना, शक्ति न चाहना! (इसका क्या अर्थ है) यह केवल बुद्धि से नहीं समझा जा सकता।... तुम हज़ारों पुस्तकें पढ़कर नहीं समझ सकते। जब हम समझने लगते हैं, तो समस्त संसार हमारे सामने खुल जाता है।... लड़की गुडि़यों से खेल रही है, उनके लिए सदा नए पति प्राप्त कर रही है; पर जब उसका असली पति आता है, तो सब गुडि़याँ (सदा के लिए) अलग कर दी जाती हैं।...ऐसा ही यहाँ के सब कार्यों में होता है। (जब) प्रेम का सूर्य उदित होता है, तो शक्ति और इन इच्छाओं के सभी क्रीड़ा-सूर्य अंतर्हित हो जाते हैं। हम शक्ति का क्या करेंगे? यदि तुम्हारे पास जो शक्ति है, उससे तुमको छुटकारा मिले, तो ईश्वर को धन्यवाद दो। प्रेम आरंभ करो। शक्ति (सिद्धियों) को जाना ही चाहिए। मेरे और ईश्वर के बीच मेरे के अतिरिक्त कुछ और नहीं रहना चाहिए। ईश्वर केवल प्रेम है--और कुछ नही--आरंभ में प्रेम, मध्य में प्रेम और अंत में प्रेम।
एक रानी की कहानी (है), वह सड़कों पर (ईश्वर के प्रेम का) प्रचार करती थी। उसके क्रुद्ध प्रति ने उसे कष्ट दिए, देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक उसका पीछा किया गया। वह अपने (प्रेम का) वर्णन करते हुए गीत गाया करती थी। उसके गीत सब जगह गाये गए हैं। 'मैंने अपने आँसुओं से सींचकर (प्रेम की अमर बेल बोयी है)...' यह अंतिम, महान (लक्ष्य) है। इसके अतिरिक्त और क्या है? (लोग) यह चाहते हैं, वह चाहते हैं। वे सब पाना और अपनाना चाहते हैं। इसी कारण इतने कम (प्रेम को) समझते हैं, इतने कम इस तक आते हैं। उनको जगाओ और बताओ! उन्हें कुछ अधिक संकेत मिलेंगे।
प्रेम स्वयं अनादि, अनंत बलिदान है। तुमको सब कुछ छोड़ देना होगा। तुम किसी वस्तु को अपना नहीं सकते। प्रेम को पाकर किसी दूसरी वस्तु की इच्छा नहीं होगी।... 'केवल तू सदा के लिए मेरा प्रिय बन!' यह है, जो प्रेम चाहता है। 'मेरे प्रिय, उन अधरों का का एक चुंबन! (उसके लिए) जो तेरे द्वारा चुम्बित हो गया है, सब दु:ख मिट जाते हैं। एक बार तुझसे चुंबित होने पर मनुष्य सुखी हो जाता है और अन्य सब वस्तुओं के प्रेम को भूल जाता है। वह केवल तेरे गुण गाता है और केवल तेरे दर्शन करता है।' मानव-प्रेम की प्रकृति में भी (दैवी तत्व उपस्थित होते हैं।) तीव्र प्रेम के आरंभिक क्षण (में) समस्त संसार तुम्हारे ह्दय के साथ स्वर मिलाता ज्ञात होता है। ब्रह्मांड के सब पक्षी तुम्हारे प्रेम को गाते हैं; फूल तुम्हारे लिए खिलते हैं। यह स्वयं अनंत नित्य प्रेम है, जिसमें से (मानव) प्रेम आता है।
ईश्वर का प्रेमी किसीसे--लुटेरों से, कष्ट से, अपने जीवन के भय से भी क्यों डरे? प्रेमी घोर नरक में जा (सकता है), पर क्या वह नरक रहेगा? हम सबको स्वर्ग (और नरक) के ये विचार छोडने होंगे और ऊचाँ (प्रेम) प्राप्त करना होगा।... सैकड़ों प्रेम के इस पागलपन की खोज में हैं, जिसके सामने (ईश्वर के अतिरिक्त) शेष सब (समाप्त हो जाता है।)
अंत में, प्रेम, प्रेमी और प्रेम-पात्र एक हो जाते हैं। यही लक्ष्य है।... आत्मा और मनुष्य के बीच, जीवात्मा और ईश्वर के बीच यह बिलगाव क्यों है?... केवल प्रेम का यह आनंद लेने के लिए। वह अपने से प्रेम करना चाहता था, इसलिए उसने अपने को अनेक में विभाजित किया।... "सृष्टि का संपूर्ण कारण यही है," प्रेमी कहता है। "हम सब एक हैं। 'मैं और मेरे पिता एक हैं।' अभी मैं ईश्वर से प्रेम करने के लिए अलग हो गया हूँ।... अच्छा क्या है--मीठा खाना या मीठा बन जाना? मीठा बन जाना, उसमें क्या मज़ा है? मीठा खाना--उसमें प्रेम का अमित आनंद है।"
प्रेम के सब आदर्श--(ईश्वर हमारे) पिता, माता, मित्र और संतान के रूप में-(इस दृष्टि से बनाये गए हैं कि हमारे भीतर भक्ति की शक्ति उत्पन्न हो और हम ईश्वर को निकटतर और प्रियतर अनुभव करें।) गहनतम प्रेम वह है, जो नर और नारी के बीच होता है। ईश्वर को उसी तरह के प्रेम से प्रेम करना चाहिए। नारी अपने पिता से प्रेम करती है, अपनी माता से प्रेम करती है, अपनी संतान से प्रेम करती है, अपने मित्र से प्रेम करती है, पर वह अपने आपको पूर्णरूपेण न पिता के प्रति, न माता के प्रति, न संतान के प्रति, न मित्र के प्रति प्रकट कर सकती है। केवल एक व्यक्ति है, जिससे वह कुछ नहीं छुपाती। यही बात पुरुष के साथ् है।...(पति)-पत्नी-संबंध सब प्रकार पूर्ण संबंध है। नर-नारी-संबंध में शेष सब प्रेम एक स्थान पर केंद्रित (हो जाते हैं)। पति में नारी को पिता, मित्र, संतान मिलती है। पत्नी में पति को माता, पुत्री तथा कुछ और मिलता है। नर-नारी का यह महत् रूप से पूर्ण प्रेम (ईश्वर के लिए) आना चाहिए-वही प्रेम, जिससे एक नारी बिना किसी रक्त-संबंध के-पूर्णतया, निर्भीकता से और लज्जारहित होकर पुरुष के प्रति अपने को दे देती है। अंधकार नहीं! जिसे वह अपने से नहीं छुपाती, उसे वह अपने प्रेमी से भी नहीं छुपाती। वही प्रेम (ईश्वर के लिए) आना चाहिए। ये बातें समझने में कठिन और दुष्कर हैं। तुम धीरे-धीरे उन्हें समझने लगोगे, और सारे यौन भाव जाते रहेंगे। 'गरमी के दिनों में नदी-तट की रेत में जो स्थिति पानी के बूँद की होती है, वैसी ही स्थिति इस जीवन और इसके सब संबंधों की है।'
ये सब विचार (जैसे कि) 'वह स्रष्टा है,' बच्चों के लिए उपयुक्त हैं। वह मेरा प्रिय है, स्वयं मेरा जीवन है-यह होनी चाहिए मेरे ह्दय की पुकार!...
'मुझे एक आशा है। वे तुझे संसार का स्वामी कहते हैं, और-भला हूँ या बुरा, बड़ा हूँ या छोटा-मैं इस संसार का ही अंश हूँ और तू मेरा प्रिय भी है। मेरा तन, मेरा मन और मेरी आत्मा सब इस वेदी पर हैं। प्रिय, इन भेंटों को अस्वीकार न कर।'
[1] बृहदारण्यकोपनिषद् ।।4।5।6।।
[2] असमो मा सद्गमय । समसो मा ज्योतिर्गमय ।।
--बृहदारण्यकोपनिषद् ।।1।3।28।।