प्रार्थना
स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थो ज्ञः सर्वंगो भुवनस्यास्य गोप्ता।
य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव नान्यो हेतुर्विद्यत ईशनाय ॥
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुवै शरणमहं प्रपद्ये ॥
-'वह विश्व की आत्मा है; वह अमर है; उसी का शासकत्व है; वह सर्वज्ञ, सर्वगत और
इस भुवन का रक्षक है, जो सर्वदा इस जगत का शासनकर्ता है; क्योंकि इस जगत का
चिरंतन शासन करने के लिए और कोई समर्थ नहीं है।
-'जिसने सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा (सार्वभौम चेतना) को उत्पन्न किया और
जिसने उसके लिए वेदों को प्रवृत्त किया, आत्मबुद्धि को प्रकाशित करने वाले उस
देव की मैं मुमुक्षु शरण ग्रहण करता हूँ'।
[1]
भक्ति की परिभाषा
सच्चे और निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को भक्तियोग कहते हैं। इस खोज का आरंभ,
मध्य और अंत प्रेम में होता है। ईश्वर के प्रति प्रेमोन्मत्तता का एक क्षण भी
हमारे लिए शाश्वत मुक्ति देने वाला होता है। भक्तिसूत्र में नारद कहते हैं
"भगवान के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति हैं।" "जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता
है, तो सभी उसके प्रेम-पात्र बन जाते हैं। वह किसी से घृणा नहीं करता; वह सदा
के लिए संतुष्ट हो जाता है।" "इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति नहीं
हो सकती, क्योंकि जब तक सांसारिक वासनाएँ घर किए रहती हैं, तब तक इस प्रेम का
उदय नहीं होता।" "भक्ति कर्म से श्रेष्ठ है और योग से भी उच्च है," क्योंकि इन
सबका एक न एक लक्ष्य है ही, पर "भक्ति स्वयं ही अपना फलस्वरूप तथा साध्य और
साधनस्वरूप है।"
[2]
हमारे देश के साधु-महापुरुषों के बीच भक्ति स्थायी चर्चा का एक विषय रही है।
भक्ति की विशेष रूप से व्याख्या करने वाले शांडिल्य और नारद जैसे महापुरुषों
के अतिरिक्त, स्पष्टत: ज्ञानमार्ग के समर्थक, व्याससूत्र के महान भाष्यकारों
ने भी भक्ति के संबंध में हमें बहुत कुछ दर्शाया है। भले ही उन भाष्यकारों ने
सब सूत्रों की न सही, पर अधिकतर सूत्रों की व्याख्या शुष्क ज्ञान के अर्थ में
ही की है, किंतु उन सूत्रों की और विशेषकर उपासना-काण्ड के सूत्रों की
व्याख्या इतनी सरलता से नहीं की जा सकती।
वास्तव में ज्ञान और भक्ति में उतना अंतर नहीं, जितना लोगों का अनुमान है।
जैसा हम आगे देखेंगे, ये दोनों एक ही बिंदु पर मिलते हैं। यही हाल राजयोग का
भी है। उसका अनुष्ठान जब मुक्ति-लाभ के लिए किया जाता है, भोले-भाले लोगों की
आँखों में धूल झोंकने के उद्देश्य से नहीं (जैसा बहुधा ढोंगी और जादू-मंतर
वाले करते हैं) -तो वह भी हमें उसी लक्ष्य पर ले जाता है।
भक्तियोग का एक बड़ा लाभ यह है कि वह हमारे महान दिव्य लक्ष्य की प्राप्ति का
सबसे सरल और स्वाभाविक मार्ग है। पर साथ ही उससे एक विशेष आशंका यह है कि वह
अपनी निम्न अवस्था में मनुष्य को बहुधा भयानक मतांध और कट्टर बना देता है।
हिंदू, इस्लाम या ईसाई धर्म में जहाँ कहीं इस प्रकार के धर्मांध व्यक्तियों का
दल है, वह सदैव ऐसे ही निम्न श्रेणी के भक्तों द्वारा गठित हुआ है। भक्ति के
इसी पात्र के प्रति अनन्य निष्ठा जिसके बिना यथार्थ प्रेम का विश्वास नहीं,
अक्सर अन्य सब की भर्त्सना का कारण बन जाती है। प्रत्येक धर्म और देश के सभी
दुर्बल और अविकसित बुद्धि वाले मनुष्य अपने आदर्श से प्रेम करने का एक ही उपाय
जानते हैं, और वह है- अन्य सभी आदर्शों से घृणा करना। यहीं इस बात का उत्तर
मिलता है कि वही मनुष्य, जो ईश्वर संबंधी अपने आदर्श के प्रति इतना अनुरक्त
हैं, किसी दूसरे आदर्श को देखते ही या उस संबंध में कोई बात सुनते ही इतना
खूंखार क्यों हो उठता है। इस प्रकार का प्रेम कुछ कुछ, दूसरों के हाथ से अपने
स्वामी की संपत्ति की रक्षा करने वाले एक कुत्ते की जन्मजात-प्रवृत्ति के समान
है। पर कुत्ते की वह जन्मजात प्रवृत्ति मनुष्य की युक्ति से कहीं श्रेष्ठ है,
क्योंकि कुत्ता अपने स्वामी को शत्रु समझकर कभी भ्रमित तो नहीं होता- चाहे
उसका स्वामी किसी भी वेश में उसके सामने क्यों न आये। फिर, मतांध व्यक्ति अपनी
सारी विचार-शक्ति खो बैठता है। व्यक्तिगत विषयों की ओर उसकी इतनी अधिक नज़र
रहती है कि वह यह जानने का बिल्कुल इच्छुक नहीं रह जाता कि कोई व्यक्ति कहता
क्या है- वह सही है या गलत; उसका एकमात्र ध्यान रहता है, यह जानने में कि वह
बात कहता कौन है। जो व्यक्ति अपने मत वाले लोगों के प्रति दयालु है, भला और
सच्चा है सहानुभूति संपन्न है, वही अपने संप्रदाय से बाहर के लोगों के प्रति
बुरा से बुरा काम करने में भी न हिचकेगा।
यह ख़तरा भक्ति की केवल निम्नतर अवस्था में रहती है, जिसे 'गौणी' कहते हैं।
परंतु जब भक्ति परिपक्व होकर उस अवस्था को प्राप्त हो जाती है। जिसे 'परा'
कहते हैं; तब इस प्रकार की भयानक मतांधता और कट्टरता की अभिव्यक्तियों की
आशंका नहीं रह जाती। इस 'परा' भक्ति से अभिभूत व्यक्ति प्रेम स्वरूप भगवान के
इतने निकट पहुँच जाता है कि वह फिर दूसरों के प्रति घृणा की विकिरण का
यंत्रस्वरूप नहीं हो सकता।
यह संभव नहीं कि इसी जीवन में हम में से प्रत्येक, सामंजस्य के साथ अपना
चरित्र-गठन कर सके; फिर भी हम जानते हैं कि जिस चरित्र में ज्ञान, भक्ति और
योग इन तीनों का सुंदर सम्मिश्रण है, वही सर्वोत्तम कोटि का है। एक पक्षी के
उड़ने के लिए तीनों अंगों की आवश्यकता होती है। दो पंख और पतवार स्वरूप एक
पूँछ। ज्ञान और भक्ति मानो दो पंख हैं और योग पूँछ, जो सामंजस्य बनाए रखता है।
जो इन तीनों साधना प्रणालियों को एक साथ सामंजस्य सहित अपना नहीं सकते और
इसलिए केवल भक्ति को अपने मार्ग के रूप में ग्रहण करते हैं, उन्हें यह सदैव
स्मरण रखना आवश्यक है कि यद्यपि बाह्य अनुष्ठान और क्रियाकलाप आरंभिक दशा में
नितांत आवश्यक हैं, फिर भी भगवान के प्रति प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न कर देने के
अतिरिक्त उनकी और कोई उपयोगिता नहीं है।
यद्यपि ज्ञान और भक्ति, दोनों ही मार्गों के आचार्यों का भक्ति के प्रभाव में
विश्वास, फिर भी उनमें कुछ मतभेद है। ज्ञानी की दृष्टि में भक्ति मुक्ति का एक
साधन मात्र है, पर भक्तों के लिए वह साधन भी है और साध्य भी। मेरी दृष्टि में
तो यह भेद नाममात्र का है। वास्तव में, जब भक्ति को हम एक साधन के रूप में
लेते हैं, तो उसका अर्थ केवल निम्न स्तर की उपासना होता है। और यह निम्न स्तर
की उपासना ही आगे चलकर 'परा' भक्ति में परिणत हो जाती है। ज्ञानी और भक्त,
दोनों ही अपनी अपनी साधना प्रणाली पर विशेष ज़ोर देते हैं; वे यह भूल जाते हैं
कि पूर्ण भक्ति के उदित होने से पूर्ण ज्ञान बिना मांगे ही मिल जाता है और इसी
प्रकार पूर्ण ज्ञान के साथ पूर्ण भक्ति भी अभिन्न है।
इस बात को ध्यान में रखते हुए हम अब यह समझने का प्रयत्न करें कि इस विषय में
महान वेदांत भाष्यकारों का क्या कथन है। आवृत्तिरसकृदुपदेशात् सूत्र की व्याख्या करते हुए भगवान शंकर
कहते हैं, "लोग ऐसा कहते हैं, 'वह गुरु का भक्त है, वह राजा का भक्त है', और
वे यह बात उस व्यक्ति को संबोधित कर कहते हैं, जो गुरु या राजा का अनुसरण करता
है और इस प्रकार यह अनुसरण ही जिसके जीवन का ध्येय है। इसी प्रकार, जब वे कहते
हैं, 'एक प्रेमिका स्त्री अपने प्रेमी पति का ध्यान करती है, 'तो यहाँ भी एक
प्रकार से उत्कंठायुक्त निरंतर स्मृति को ही लक्ष्य किया गया है।" शंकराचार्य
के मतानुसार यही भक्ति है।
[3]
"एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल ढालने पर जिस प्रकार वह एक अखंड धारा में
गिरता है, उसी प्रकार (किसी ध्येय-वस्तु के) निरंतर स्मरण को ध्यान कहते हैं।
'जब इस तरह की ध्यान अवस्था ईश्वर के संबंध में प्राप्त हो जाती हैं, तो सारे
बंधन टूट जाते हैं।' इस प्रकार, शास्त्रों में इस निरंतर स्मरण को मुक्ति का
साधन बतलाया है। फिर यह स्मरण दर्शन के ही समान है, क्योंकि उसका तात्पर्य इस
शास्त्रोक्त वाक्य के तात्पर्य के ही सदृश्य है- 'उस पर और अवर (दूर और समीप)
पुरुष के दर्शन से हृदय ग्रंथियां छिन्न हो जाती हैं, समस्त संशयों का नाश हो
जाता है और सारे कर्म क्षीण हो जाते हैं।'
[4]
जो समीप है, उसके तो दर्शन हो सकते हैं, पर जो दूर है, उसका तो केवल स्मरण
किया जा सकता है। फिर भी शास्त्रों का कथन है कि हमें तो उसे देखना है, जो
समीप है और दूर भी; और अत: उपर्युक्त प्रकार का स्मरण दर्शन के ही बराबर है।
यह स्मृति प्रगाढ़ हो जाने पर दर्शन का रूप धारण कर लेती है। शास्त्रों में
प्रमुख स्थानों पर कहा है कि उपासना का अर्थ निरंतर स्मरण ही है। और ज्ञान भी,
जो असकृत् उपासना से अभिन्न है, निरंतर स्मरण के अर्थ में ही वर्णित हुआ है।
अतएव श्रुतियों ने उस स्मृति को, जिसने प्रत्यक्ष अनुभूति का रूप धारण कर लिया
है, मुक्ति का साधन बतलाया है। 'आत्मा की उपलब्धि न तो नाना प्रकार की
विद्याओं से हो सकती है, न मेधा से और न विपुल वेदाध्ययन से। जिसको यह आत्मा
वरण करती है, वही इसकी प्राप्ति करता है तथा उसी के सम्मुख आत्मा अपना स्वरूप
प्रकट करती है।' यहाँ यह कहने के उपरांत कि केवल श्रवण, मनन और निदिध्यासन से
आत्मोपलब्धि नहीं होती, यह बताया गया है, 'जिसको यह आत्मा वरण करती है उसी को
वह प्राप्त होती है।' जो अत्यंत प्रिय है, उसी को वरण किया जाता है; जो इस
आत्मा से अत्यंत प्रेम करता है, वही आत्मा का सबसे बड़ा प्रिय पात्र है। यह
प्रिय पात्र जिससे आत्मा की प्राप्ति कर सकें, उसके लिए स्वयं भगवान सहायता
देता है; क्योंकि भगवान ने स्वयं कहाँ है, 'जो मुझ में सतत युक्त हैं और
प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, उन्हें मैं ऐसा बुद्धियोग देता हूँ, जिससे वे
मुझे प्राप्त हो जाते हैं। 'इसीलिए कहा गया है कि जिसे यह प्रत्यक्ष
अनुभवात्मक स्मृति अत्यंत प्रिय है, उसी को परमात्मा वरण करते हैं, वही
परमात्मा की प्राप्ति करता है; क्योंकि जिसका स्मरण किया जाता है, उस परमात्मा
को यह स्मृति अत्यंत प्रिय है। यह निरंतर स्मृति ही 'भक्ति' शब्द द्वारा
अभिहित हुई है।"
[5]
यह अथातो ब्रह्माजिज्ञासा सूत्र का भाष्य करते हुए भगवान
रामानुज ने कहा है।
पतंजलि के ईश्वरप्रणिधानाद्वा सूत्र की व्याख्या करते हुए
भोज कहते हैं,"प्रणिधान वह भक्ति है, जिसमें इंद्रिय भोग आदि समस्त
फलाकांक्षाओं का त्याग कर सारे कर्म उन परम गुरु को समर्पित कर दिए जाते हैं।"
[6]
भगवान व्यास ने भी इसकी व्याख्या करते हुए कहा है, "प्रणिधान वह भक्ति है,
जिससे उस योगी परमेश्वर का अनुग्रह होता है और उसकी सारी आकांक्षाएं पूर्ण हो
जाती हैं।"
[7]
शांडिल्य के मतानुसार 'ईश्वर में परमानुरक्ति ही भक्ति हैं।" पर भक्ति की
सर्वश्रेष्ठ व्याख्या तो वह है, जो भक्तराज प्रह्लाद ने दी है- जैसी तीव्र
आसक्ति अविवेकी पुरुषों की इंद्रिय विषयों में होती है, (तुम्हारे प्रति) उसी
प्रकार की (तीव्र) आसक्ति तुम्हारा स्मरण करते समय कहीं मेरे हृदय से चली न
जाए!'
[8]
यह आसक्ति किसके प्रति? उसी अन्य पुरुष (चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो) के
प्रति आसक्ति को सभी भक्ति नहीं कह सकते। इसके समर्थन में एक प्राचीन आचार्य
को उद्धृत करते हुए अपने श्री भाष्य में रामानुज कहते हैं, "ब्रह्मा से लेकर
एक तृणपर्यंत संसार के समस्त प्राणी कर्मजनित जन्म-मृत्यु के वश में हैं, अतएव
अविद्यायुक्त और परिवर्तनशील होने के कारण के इस योग्य नहीं कि ध्येय-विषय के
रूप में वे साधक के ध्यान में सहायक हों|"
[9]
शांडिल्य के 'अनुरक्ति 'शब्द की व्याख्या करते हुए भाष्यकार स्वप्नेश्वर कहते
हैं, उसका अर्थ- 'अनु' यानी पश्चात्, और 'रक्ति' यानी आसक्ति, अर्थात वह
आसक्ति जो भगवान के स्वरूप और उसकी महिमा के ज्ञान के पश्चात् आती है।
[10]
अन्यथा स्त्री, पुत्र आदि किसी भी व्यक्ति के प्रति अंध आसक्ति को ही हम
'भक्ति' कहने लगें! अत: हम स्पष्ट देखते हैं कि आध्यात्मिक अनुभूति के निमित्त
किए जाने वाले मानसिक प्रयत्नों की परंपरा या कम ही भक्ति है, जिसका प्रारंभ
साधारण पूजा-पाठ से होता है और अंत ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ एवं अनन्य प्रेम
में।
ईश्वर का दार्शनिक विवेचन
ईश्वर कौन है? 'जिससे विश्व का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है'
[11]
, वही ईश्वर है। वह 'अनंत, शुद्ध, नित्य मुक्त, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, परम
कारुणिक और गुरुप का भी गुरु है,' और सर्वोपरि, 'वह ईश्वर अनिर्वचनीय
प्रेमस्वरूप है।'
[12]
ये सारी परिभाषाएँ निश्चय ही सगुण ईश्वर की हैं। तो क्या ईश्वर दो हैं? एक
स्वरूप, जिसे सच्चिदानंदस्वरूप, जिसे ज्ञानी 'नेति नेति' करके प्राप्त करता है
और दूसरा, भक्त का यह प्रेममय भगवान? नहीं, वह सच्चिदानंद ही यह प्रेममय भगवान
है, वह सगुण और निर्गुण, दोनों है। यह सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि भक्त का
उपास्य सगुण ईश्वर, ब्रह्मा से भिन्न अथवा पृथक नहीं है। सब कुछ वही एकमेवा
द्वितीय ब्रह्मा है। पर हाँ, ब्रह्मा का यह निर्गुण निरपेक्ष स्वरूप अत्यंत
सूक्ष्म होने के कारण प्रेम एवं उपासना के योग्य नहीं। इसलिए भक्त ब्रह्मा के
सापेक्ष भाव अर्थात परम नियंता ईश्वर को ही उपास्य के रूप में ग्रहण करता है।
उदाहरणार्थ, ब्रह्मा मानव मिट्टी या उपासना के सदृश्य है, जिससे नाना प्रकार
की वस्तुएं निर्मित हुई हैं। मिट्टी के रूप में तो वह सब एक हैं, पर उनका आकार
यह अभिव्यक्ति उन्हें भिन्न कर देती है। उत्पत्ति के पूर्व वे सबकी सब मिट्टी
में अव्यक्त भाव से विद्यमान थीं। उपादान की दृष्टि से अवश्य वे सब एक हैं, पर
जो भी भिन्न-भिन्न आकार धारण कर लेती हैं और जब तक वह आकार बना रहता है, तब तक
वह पृथक-पृथक ही प्रतीत होती हैं। एक मिट्टी का चूहा कभी मिट्टी का हाथी नहीं
हो सकता, क्योंकि घर जाने के बाद उनकी आकृति ही उन्हें विशेषत्व पैदा कर देती
है, यद्यपि आकृतिहीन मिट्टी की दशा में वे दोनों एक ही थे। ईश्वर उस निरपेक्ष
सत्ता की उच्चतम अभिव्यक्ति है, या दूसरे शब्दों में मानव-मन निरपेक्ष सत्य कि
जो उच्चतम धारणा कर सकता है, वही ईश्वर है। सृष्टि अनादि है, और उसी प्रकार
ईश्वर भी अनादि है।
वेदांत-सूत्र के चतुर्थ अध्याय के चतुर्थ पाद में यह वर्णन करने के पश्चात् की
मुक्ति-लाभ के उपरांत मुक्तात्मा एक प्रकार से अनंत शक्ति और ज्ञान प्राप्त
करती हैं, व्यासदेव एक दूसरे सूत्र में कहते हैं, "पर किसी को सृष्टि, स्थिति
और प्रलय की शक्ति नहीं होंगी", क्योंकि यह शक्ति केवल ईश्वर की ही है। इस
सूत्र की व्याख्या करते समय द्वैतवादी भाष्यकारों के लिए यह दर्शाना सरल है कि
परतंत्र जीव के लिए ईश्वर की अनंत शक्ति और पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना
नितांत असंभव है। कट्टर द्वैतवादी भाष्यकार मद्धवाचार्य ने वराहपुराण से एक
श्लोक लेकर इस श्लोक की व्याख्या अपनी पूर्व परिचित्त संक्षिप्त शैली में की
है।
इसी सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार रामानुज कहते हैं, "ऐसा संशय उपस्थित
होता है कि मुक्तात्मा को जो शक्ति प्राप्त होती है, उसमें क्या परम पुरुष की
जगत्सृष्टि आदि रूप असाधारण शक्ति और सर्वनियन्तृत्व भी अंतर्भूत हैं? या कि,
उसे यह शक्ति नहीं मिलती, और उसका गौरव केवल परम पुरुष का साक्षात् दर्शन भर
प्राप्त करना है? तो इस पर पूर्व पक्ष यह उपस्थित होता है कि मुक्तात्मा का
जगन्नियन्तृत्व प्राप्त करना युक्तियुक्त है; क्योंकि शास्त्र का कथन है, 'वह
शुद्ध रूप होकर (परम पुरुष के साथ) परम तत्व प्राप्त कर लेता है''
(मुण्डकोपनिषद, ३।१।३)। अन्य स्थान पर यह भी कहा गया है कि उसकी समस्त वासना
पूर्ण हो जाती है। अब बात यह है कि परम एकत्व और सारी वासनाओं की पूर्ति परम
पुरुष की असाधारण शक्ति जगन्नियन्तृत्व बिना संभव नहीं। इसलिए जब हम यह कहते
हैं कि उसकी सब वासनाओं की पूर्ति हो जाती है तथा उसे परम एकत्व प्राप्त हो
जाता है, तो हमें यह मानना ही चाहिए कि उस मुक्त आत्मा को जगन्नियन्तृत्व की
शक्ति प्राप्त हो जाती है। इस संबंध में हमारा उत्तर यह है कि मुक्तात्मा को
जगन्नियन्तृत्व के अतिरिक्त अन्य सब शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
जगन्नियन्तृत्व का अर्थ है- विश्व के सारे स्थावर और जंगम के रूप, उनकी स्थिति
और वासनाओं का नियंतृत्व। पर मुक्तात्माओं में यह जगन्नियन्तृत्व की शक्ति
नहीं रहती, उनकी परमात्मदृष्टि का आवरण अवश्य दूर हो जाता है और उन्हें
ब्रह्मा की अबाध अनुभूति हो जाती है। यह शास्त्र द्वारा सिद्ध होता है।
शास्त्र कहते हैं, "जिससे यह समुदय उत्पन्न होता है, जिसमें यह समुदय स्थित
रहता है और जिसमें प्रलयकाल में यह समुदय लीन हो जाता है, तू उसी को जानने की
इच्छा कर- वही ब्रह्मा है।' यदि यह जगन्नियन्तृत्व- शक्ति मुक्तात्माओं का भी
एक साधारण गुण होता, तो उपर्युक्त श्लोक फिर ब्रह्मा की परिभाषा नहीं हो सकता,
क्योंकि उसके जगन्नियन्तृत्व-गुण से ही उसका लक्षण प्रतिपादित हुआ है। असाधारण
गुणों के द्वारा ही किसी वस्तु की परिभाषा होती है। अतः इस प्रकार के वाक्यों
द्वारा ही उसकी परिभाषा होती है- 'वत्स, आदि में एकमेवाद्वितीय ब्रह्मा ही था।
उसमें इस विचार का स्फुरण हुआ कि मै बहु सृजन करूंगा। उसने तेज़ की सृष्टि की।'
आदि में केवल एक ब्रह्मा ही था। वह एक विकसित होने लगा। उससे क्षत्र नामक एक
सुंदर रूप प्रकट हुआ। वरुण, सोम, रुद्र, पर्जन्य, यम, मृत्यु, ईशान-ये सब
देवता क्षत्र हैं'। 'पहले आत्मा ही थी; अन्य कुछ भी स्पंदमान नहीं था। उसे
सृष्टिसृजन का विचार आया और फिर उसने सृष्टि कर डाली'। 'एकमात्र नारायण ही था,
न ब्रह्मा, न ईशान, न द्यावा-पृथ्वी, नक्षत्र, जल, अग्नि, सोम और न सूर्य।
अकेले उसे आनंद न आया। ध्यान के अनंतर उसके एक कन्या हुई-दश इंद्रिय'। 'जो
पृथ्वी में वास करते हुए भी पृथ्वी से अलग हैं,... जो आत्मा में रहते हुए
...इत्यादि'। इनमें श्रुतियों ने परम पुरुष को जगत् के निंयतृत्व का कर्ता
माना है। जगत् के निंयतृत्व के इन वर्णनों में मुक्तात्मा का ऐसा कोई स्थान
नहीं हैं, जिससे जगन्नियन्तृत्व का कार्य उसमें स्थापित हो सके।"
[13]
दूसरे सूत्र की व्याख्या करते हुए रामानुज कहते हैं, "यदि तुम कहो कि ऐसा नहीं
हैं, वेदों में तो ऐसे अनेक श्लोक हैं, जो इसका खंडन करते हैं, तो वास्तव में
वेदों के उन स्थानों पर केवल निम्न देवलोकों के संबंध में ही मुक्तात्मा का
ऐश्वर्य वर्णित है।" यह भी एक सरल समाधान है। यद्यपि रामानुज समष्टि की एकता
स्वीकार करते है, तथापि उनके मतानुसार इस समष्टि के भीतर नित्य भेद हैं। अतएव,
यह मत भी लगभग द्वैतभावात्मक होने के कारण, जीवात्मा और सगुण ब्रह्मा (ईश्वर)
में भेद बनाए रखना रामानुज के लिए सरल था।
अब इस संबंध में प्रसिद्ध अद्वैतवादी का क्या कहना है, यह समझने का प्रयत्न
करें। हम देखेंगे कि अद्वैत मत द्वैत की समस्त आशाओं और स्पृहाओं को किस
प्रकार अक्षुण्ण रखता है, और दिव्य मानवता के परमोच्च भविष्य के साथ सामंजस्य
रखते हुए समस्या का अपना समाधान प्रस्तुत करता है। जो व्यक्ति मुक्ति-लाभ के
बाद भी अपने व्यक्तित्व की रक्षा के इच्छुक हैं -उन्हें अपनी आकांक्षा को
चरितार्थ करने और सगुण ब्रहा का आनंद प्राप्त करने का यथेष्ट अवसर मिलेगा। ऐसे
लोगों के बारे में भागवत पुराण में कहा है," हे राजन्, हरि के गुण ही ऐसे हैं
कि समस्त बंधनों से मुक्त आत्माराम ऋषि-मुनि भी भगवान की अहैतुकी भक्ति करते
हैं।
[14]
"सांख्य में इन्हीं लोगों को इस कल्प में प्रकृतिलीन कहा गया है; सिद्धि-लाभ
के अनंतर ये ही दूसरे कल्प में विभिन्न जगतों के प्रभुओं के रूप में प्रकट
होते हैं। किंतु इनमें से कोई भी ईश्वर-तुल्य नहीं ही पाता। जो ऐसी अवस्था को
प्राप्त हो गए हैं, जहाँ न सृष्टि है, न सृष्ट, न सृष्टा ,जहाँ न ज्ञाता है ,न
ज्ञान और न ज्ञेय ,जहाँ न 'मैं' है, न 'तुम' और न 'वह ,जहाँ न प्रमाता है, न
प्रमेय और न प्रमाण, जहाँ 'कौन किसको देखे'-वे पुरुष सबसे अतीत हो गए हैं और
वहाँ पहुँच गए हैं ,जहाँ 'न वाणी पहुँच सकती है,न मन' और जिसे श्रुति
'नेति,नेति' कहकर पुकारती है। परंतु जो इस इस अवस्था की प्राप्ति न्ही कर
सकते, अथवा जो उसकी इच्छा नहीं करते, वे उस एक अविभक्त ब्रह्मा को प्रकृति,
आत्मा और इन दोनों में ओतप्रोत एवं इनके आश्रयस्वरूप ईश्वर-इस विद्या विभक्त
रूप में देखेंगे। जब प्रहलाद अपने आपको भूल गए, तो उनके लिए न तो सृष्टि रही
और न उसका कारण; रह गया केवल नाम-रूप से अविभक्त एक अनंत तत्व। पर ज्यों ही
उन्हें यह बोध हुआ कि मैं प्रहलाद हूँ, त्यों ही उनके सम्मुख जगत् और
क्ल्यांमय अनंत गुणागार जगदीश्वर प्रकाशित हो गए। यही अवस्था बड़भागी गोपियों
की भी थी। जब तक वे 'अहं '-ज्ञान शून्य थीं, तब तक वे सभी कृष्ण हो गयी थी। पर
जैसे ही उन्होंने कृष्ण को उपास्य-रूप में देखा, वे फिर से गोपी की गोपी हो
गयी, और तब तत्काल 'उनके सम्मुख पीतांबरधारी, माल्यविभूषित्त, साक्षात् मन्मथ
के भी मन को मथ देने वाले मृदु हास्यरंजित कमलमुख श्री कृष्ण प्रकट हो गए।'
[15]
अब हम आचार्य शंकर की ओर फिर आते हैं। वे कहते हैं, "अच्छा ,जो लोग सगुण
ब्रहमोपसना के बल से परमेश्वर के साथ एक एक हो जाते हैं, पर साथ ही जिनका मन
अपना पृथक अस्तित्व बनाए रखता है , उनका एश्वर्य ससीम होता है या असीम? यह
संशय आने पर पुर पक्ष उपस्थित होता है कि उनका एश्वर्य असीम ही, क्योंकि
शास्त्रों का कथन है,' उन्हें स्वराज प्राप्त हो जाता है', 'जब देवता उनकी
पूजा करते हैं, 'हाँ, जगत के नियंत्रण की शक्ति को छोड़कर।,' मुक्तात्मा को
सृष्टि, स्थिति और प्रलय की शक्ति के अतिरिक्त अन्य सब अणिमादी शक्तियाँ
प्राप्त हो जाती हैं। रहा जगत् का नियंतृत्व, वह तो केवल नित्य सिद्ध ईश्वर का
होता है। कारण कि शास्त्रों में जहाँ पर सृष्टि आदि का प्रसंग आया है, उन सभी
स्थानों में ईश्वर की ही बात ही गयी है। वहाँ पर मुक्तात्माओं की कोई चर्चा
नहीं है। जगत् के परिचालन में केवल उसी परमेश्वर का हाथ है। सृष्टि आदि संबंधी
सारे श्लोक उसी का निर्देश करते हैं। फिर 'नित्य सिद्ध' विशेषण भी दिया गया
है। शास्त्र यह भी कहते हैं कि अन्य जनों की आणिमादी शक्तियाँ ईश्वर की उपसाना
तथा ईश्वर के अन्वेषण से ही प्राप्त होती हैं। अतएव, जगन्नियन्तृत्व में उन
लोगों का कोई स्थान नहीं। इसके अतिरिक्त वे अपने अपने चित्त से युक्त रहते
हैं, इसलिए यह संभव है कि उनकी इच्छाएँ अलग हों। हो सकता है कि एक सृष्टि की
इच्छा करें, तो दूसरा प्रलय की। यह द्वंद्व दूर करने का एकमात्र उपाय यही है
कि वे सब इच्छाएँ अन्य किसी एक इच्छा के अधीन कर दी जाए। अत: निष्कर्ष यह
निकला कि मुक्तात्माओं की इच्छाएँ परमेश्वर की इच्छा के अधीन हैं।"
[16]
अतएव भक्ति केवल सगुण ब्रह्मा के प्रति की जा सकती है। 'जिनका मन अव्यक्त में
आसक्त है, उनके लिए मार्ग अधिक कठिन होता है। हमारी प्रकृति के प्रवाह पर ही
भक्ति निर्विघ्न संतरण करती रह सकती है। यह सती है कि हम ब्रह्मा के संबंध में
कोई ऐसी धारण नहीं बना सकते, जो मानवीय लक्षणों से युक्त न हो। पर क्या यही
बात हमारे द्वारा ज्ञात प्रत्येक वस्तु के संबंध मे भी सती नहीं है? संसार के
सर्वश्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक भगवान कपिल ने युगो पूर्व यह सिद्ध कर दिया था कि
हमारे समस्त बाह्रा और आंतरिक विषय-ज्ञानों और धारणाओं में मानवीय चेतना एक
उदाहरण है। अपने शरीर से लेकर ईश्वर तक यदि हम विचार करें, तो प्रतीत होगा की
हमारी प्रत्यक्षानुभूति की प्रत्येक वस्तु दो बातों का मिश्रण है-एक यह मानवीय
चेतना और दूसरी है एक अन्य वस्तु, यह अन्य वस्तु जो भी हो। इस अनिवार्य मिश्रण
को ही हम साधारणतया 'सत्य' समझा करते हैं। और सचमुच, आज या भविष्य में मानव-मन
के लिए सत्य का ज्ञान जहाँ तक संभव है,वह इसके अतिरिक्त और अधिक कुछ नहीं।
अतएव यह कहना की ईश्वर मानव धर्मवाला होने के कारण असत्य है, निरी मूर्खता है।
यह बहुत कुछ पाश्चात्य आदर्शवाद (idealism) और (realism) यथार्थवाद के झगड़े के
सदृश है। यह सारा झगड़ा केवल इस 'सत्य' शब्द के उलट-फेर पर आधारित है। 'सत्य'
शब्द से जितने भाव सूचित होते हैं, वे समस्त भाव 'ईश्वरभाव' में आ जाते हैं।
ईश्वर उतना ही सत्य है, जितनी विश्व की अन्य कोई वस्तु। और वास्तव में, 'सत्य'
शब्द यहाँ पर जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उससे अधिक 'सत्य' शब्द यहाँ पर
जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उससे अधिक 'सत्य' शब्द का और कोई अर्थ नहीं।
यही हमारी ईश्वर संबंधी दार्शनिक धारणा है।
भक्तियोग का ध्येय
-
आत्मानुभूति
भक्त के लिए इन सब शुष्क विषयों की जानकारी केवल इसलिए आवश्यक है कि वह अपनी
इच्छा-शक्ति दृढ़ बना सके; इससे अधिक उसकी और कोई उपयोगिता नहीं। कारण, वह एक
ऐसे पथ पर चल रहा है, जो शीघ्र ही उसे बुद्धि के धुंधले और अशांतिमय राज्य की
सीमा से बाहर निकालकर साक्षात्कार के राज्य में ले जाएगा। ईश्वर की कृपा से वह
शीघ्र एक ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है, जहाँ पांडित्य-प्रदर्शक बुद्धि बहुत
पीछे छूट जाती है। वहाँ के सहारे अँधेरे में टटोलना नहीं पड़ता, वहाँ तो
प्रत्यक्ष-अनुभव के दिवालोक से सब कुछ आलोकित हो जाता है। तब वह तर्क करके
विश्वास नहीं करता, वरन् प्राय: प्रत्यक्ष देखता है। वह और युक्ति-तर्क नहीं
करता, वरन् प्रत्यक्ष अनुभव करता है। और क्या ईश्वर का यह साक्षात्कार, यह
अनुभव, यह उपयोग अन्यान्य विषयों से कहीं श्रेष्ठ नहीं है? यही नहीं, बल्कि
ऐसे भी भक्त हैं, जिन्होंने घोषणा की है कि वह तो मुक्ति से भी श्रेष्ठ है। और
क्या यह हमारे जीवन की सर्वोच्च उपयोगिता भी नहीं है? संसार में ऐसे बहुत से
लोग हैं, जिनकी यह पक्की धारणा है कि केवल वही चीज़ उपयोगी है, जिससे मनुष्य को
पाशविक सुख प्राप्त होते हैं; यहाँ तक कि धर्म, ईश्वर, परलोक, आत्मा आदि भी
उनके किसी कम के नहीं, क्योंकि उन्हें उनमें धन या शारीरिक सुख प्राप्त नहीं
होते। उनके लिए ऐसी सारी वस्तुएँ, जो इंद्रियों को परितुष्ट और वासनाओं को
तृप्त नहीं करती किसी काम की नहीं। फिर, प्रत्येक मन की विशिष्ट आकांक्षाओं के
अनुसार उपयोगिता का रूप भी बदलता रहता है। जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की
आवश्यकता होती है, उसे वही सबसे उपयोगी जान पड़ती है। अत: उन लोगों के लिए, जो
खाने-पीने, वंश-वृद्धि करने और फिर मर जाने के सिवा और कुछ नहीं जानते,
इंद्रिय-सुख ही एकमात्र उपलब्ध करने योग्य वस्तु ! ऐसे लोगों के हृदय में
उच्चतर विषय के लिए थोड़ी सी भी स्पृहा जगने के लिए अनेक जन्म लग जाएंगे। पर
जिनके लिए आत्मोन्नति के साधन ऐहिक जीवन के क्षणिक सुख-भोगों से अधिक
महत्वपूर्ण हैं, जिनकी दृष्टि में इंद्रियों की तुष्टि केवल एक नासमझ बच्चे के
खिलवाड़ के समान है, उनके लिए भगवान और भगवत्प्रेम ही मानव का सर्वोच्च एवं
एकमात्र प्रयोजन है। ईश्वर को धन्यवाद है कि आज भी यह घोर भोग-लिप्सापूर्ण
संसार ऐसे म्हात्माओं से बिल्कुल शून्य नहीं हो गया है।
पहले कहा जा चुका है कि भक्ति दो प्रकार कि होती है, 'गौणी' और 'परा'। 'गौणी'
का अर्थ है साधन-भक्ति', अर्थात् जिसमें हम भक्ति को एक साधन के रूप में लेते
हैं, और 'परा' इसकी परिपक्वावस्था है। क्रमश: हम समझ सकेंगे कि इस अनिवार्य
आवश्यकता होती है। और वास्तव में कुछ स्थूल सहायकों की अग्नि अंश स्वभाविक
विकास के स्तर हैं और उन्नतिकामी आत्मा की प्रारंभिक अवस्था में उसे ईश्वर की
ओर बढ़ने में सहायता देते यह भी एक महत्वपूर्ण बात है कि दिग्गज महात्मा
उउन्हीं धर्म-संप्रदायों में हुए हैं, जिनमें पौराणिक भावों और
क्रिया-अनुष्ठानों की प्रचुरता है। धर्म के जो शुष्क और मतांध रूप इस बात का
प्रयत्न करते हैं कि जो कुछ कवित्वमय, सुंदर और महान है, जो कुछ कवित्वमय,
सुंदर और महान है, जो कुछ भगवत्प्राप्ति के मार्ग में गिरते-पड़ते अग्रसर होने
वाले सुकुमार मन के लिए अवलंबन स्वरूप है, उसे सबको नष्ट कर दें; जो
धर्म-प्रसाद के आधार स्वरूप स्तंभों को ही ढहा देने का प्रत्यन करते हैं; जो
सती के संबंध में अज्ञान और भ्रमपूर्ण धारणा लेकर इस बात के लिए यत्नशील हैं
कि जो कुछ जीवन के लिए संजीवनीस्वरूप है, जो कुछ मानवात्मा रूपी क्षेत्र में
कहलाती हुई- लत के लिए पालक एवं पोषक है, वह सब नष्ट हो जाए -धर्म के ऐसे
रूपों को यह शीघ्र अनुभव हो जाता है कि उनमें जो कुछ रह गया है, वह है केवल एक
खोखलापन-अनंत शब्दराशि और कोरे तर्क-वितर्कों का एक स्तूप मात्र, जिसमें शायद
एक प्रकार की सामाजिक सफाई या तथाकथित सुधारवाद की थोड़ी सी गंध भर बच रही है।
जिनका धर्म इस प्रकार का हैं, उनमें से अधिकतर लोग जानते या न जानते हुए
जड़वादी हैं; उनके ऐहिक एवं पारलौकिक जीवन का ध्येय केवल भोग है; वही उनकी
दृष्टि में मानव जीवन का सर्वस्य है, वही उनका इष्टापूर्त है। मनुष्य के भौतिक
सुख-स्वाच्छंद्य के लिए रास्ता साफ कर देना आदि कार्य ही उनके मत में मानव
जीवन का सर्वस्य है। अज्ञान और मतांधता के इस विचित्र मिश्रण में रँगे हुए ये
लोग जीतने शीघ्र अपने असली रंग में आ जाए और जितनी जल्दी नास्तिकों और
जड़वादियों के दल में जाकर शामिल हो जाए, क्योंकि असल में वें हैं उसी के
योग्य, संसार का उतना ही मंगल है। धर्मानुष्ठान और आध्यात्मिक अनुभूति का एक
छोटा सा कण भी टनों थोथी बकवासों और अंधी भावुकता से कहीं बढ़कर है। हमें कहीं
एक भी तो ऐसा आध्यात्मिक दिग्गज दिखा दो, जो अज्ञान और मतांधता की इस ऊसर भूमि
से उपजा हो। यदि यह न कर सको, तो बंद कर लो अपना मुँह; खोल दो अपने हृदय के
कपाट, जिसमे सत्य की शुभ्रोज्ज्वल किरणें भीतर प्रवेश कर सकें, और जाकर बालकों
के सदृश भारत के उन ऋषि-मुनियों के चरणों में बैठो, जिनके प्रत्येक शब्द के
पीछे प्रत्यक्ष अनुभूति का बल है। आओ, हम ध्यानपूर्वक सुनें कि वे क्या कहते
हैं।
गुरु की आवश्यकता
प्रत्येक जीवात्मा का पूर्णत्व प्राप्त कर लेना बिल्कुल निश्चित है और अंत में
सभी इस पूर्णावस्था की प्राप्ति कर लेंगे। हम वर्तमान जीवन में जो कुछ हैं, वह
हमारे पूर्व जीवन के कर्मों और विचारों का फल जो कुछ भविष्य में होंगे, वह
हमारे अभी के कर्मों और विचारों का फल होगा। पर, हम स्वयं अपना भाग्य निर्णय
कर रहे हैं, इससे यह न समझ बैठना चाहिए कि हमें किसी बाहरी सहायता की आवश्यकता
नहीं; बल्कि अधिकतर स्थलों में तो इस प्रकार की सहायता नितांत आवश्यक होती है।
जब ऐसी सहायता प्राप्त होती हैं, आध्यात्मिक जीवन जाग्रत हो जाता है , उसकी
उन्नति वेगवती हो जाती है और अंत में साधक पवित्र और सिद्ध हो जाता है।
यह संजीवनी-शक्ति पुस्तकों से नहीं मिल सकती। इस शक्ति की प्राप्ति तो एक
आत्मा एक दूसरी आत्मा से ही कर सकती है-अन्य किसी से नहीं। हम भले ही सारा
जीवन पुस्तकों का अध्ययन करते रहें और बड़े बौद्धिक हो जाए, पर अंत में हम
देखेंगे कि हमारी तनिक भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हुई है। यह बात सत्य नहीं कि
उच्च स्तर के बौद्धिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष की भी उतनी
ही उन्नति होगी। पुस्तकों का अध्ययन करते समय हमें कभी-कभी यह भ्रम हो जाता है
कि इससे हमें आध्यात्मिक सहायता मिल रही है; पर यदि हम ऐसे अध्ययन से अपने में
होने वाले फल का विश्लेषण करें, तो देखेंगे कि उससे अधिक से अधिक हमारी बुद्धि
को ही कुछ लाभ होता है, हमारी अंतरात्मा को नहीं। पुस्तकों का अध्ययन हमारे
आध्यात्मिक विकास के लिए पर्याप्त नहीं हैं। यही कारण है कि यद्यपि लगभग हम सब
आध्यात्मिक विषयों पर बड़ी पांडित्यपूर्ण बातें कर सकते हैं, पर जब उन बातों को
कार्यरूप में परिणत करने का-यथार्थ आध्यात्मिक जीवन बिताने का अवसर आता है, तो
हम अपने को सर्वथा अयोग्य पाते हैं। जीवात्मा की शक्ति को जाग्रत करने के लिए
किसी दूसरी आत्मा से ही शक्ति का संचार होना चाहिए।
जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है, वह गुरु
कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है, उसे शिष्य कहते हैं।
किसी भी आत्मा में इस प्रकार शक्ति-संचार करने के लिए आवश्यक है कि पहले तो,
जिस आत्मा से यह संचार होता हो, उसमें स्वयं इस संचार की शक्ति मौजूद रहे, और
दूसरे, जिस आत्मा में यह शक्ति संचारित की जाए, वह इसे ग्रहण करने योग्य हो।
बीज सजीव हो एवं भूमि भी अच्छी जुती हुई हो, और जब ये दोनों बातें मिल जाती
हैं, तो वहाँ वास्तविक धर्म का अपूर्व विकास होता है। 'यथार्थ धर्म-गुरु में
अपूर्व योग्यता होनी चाहिए और उसके शिष्य को भी कुशल होना चाहिए'।
[17]
जब दोनों ही अद्भुत और असाधारण होते हैं, तभी अद्भुत आध्यात्मिक जागृति होती
है, अन्यथा नहीं। ऐसे ही पुरुष वास्तव में सच्चे गुरु होते हैं, और ऐसे ही
व्यक्ति सच्चे शिष्य या मुमुक्षु या आदर्श साधक कहे जाते हैं। अन्य सब लोग तो
आध्यात्मिकता से खेल मात्र करते हैं। उनमें बस, थोड़ा सा कौतुहल भर उत्पन्न हो
गया है, थोड़ी सी बौद्धिक स्पृहा भर जग गयी है, पर वे अभी धर्म क्षितिज की
बाहरी सीमा पर ही खड़े हैं। इसमें संदेह नहीं कि इसका भी कुछ महत्व अवश्य है
,क्योंकि हो सकता है ,कुछ समय बाद यही भाव सच्ची धर्म-पिपासा में परिवर्तित हो
जाए। और यह भी प्रकृति का एक बड़ा अद्भुत नियम है ज्यों ही भूमि तैयार हो जाती
है, त्यों ही बीज भी आ ही जाता है, और वह आता भी है। ज्यों आत्मा की
धर्म-पिपासा प्रबल होती है, त्यों ही धर्मशक्ति-संचारक पुरुष को उस आत्मा की
सहायता के लिए आना ही चाहिए, और वे आते भी है। जब गृहीता की आत्मा में धर्म के
प्रकाश की आकर्षण-शक्ति पूर्ण और प्रबल हो जाती है, तो इस आकर्षण से आकृष्ट
प्रकाशदायिनी शक्ति स्वयं ही आ जाती है।
इस मार्ग में कुछ खतरे भी हैं। उदाहरणार्थ, इस बात का डर है कि ग्रहीता आत्मा
क्षणिक भावुकता को कहीं वास्तविक धर्म पिपासा ना समझ बैठे। हम अपने जीवन में
ही इसका परीक्षण कर सकते हैं। हमारे जीवन काल में प्रायः ऐसा होता है कि हमारे
एक अत्यंत प्रिय व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और उससे हमें बड़ा आघात लगता
है, हमें लगता है कि जगत हमारी अंगुलियों के बाहर निकला जा रहा है, हमें किसी
दृढ़तर और उच्चतर आश्रय की आवश्यकता अनुभव होती है और हम सोचते हैं की अब हमें
अवश्य धार्मिक हो जाना चाहिए। कुछ दिनों बाद वह भाव तरंग नष्ट हो जाती है और
हम जहाँ थे, वहीं के वहीं रह जाते हैं। हमें से सभी बहुधा ऐसी भाव -तरंगों को
वास्तविक धर्म-पिपासा समझ बैठते हैं। जब तक हम उन क्षणिक आवेशों की धोखे में
रहेंगे, तब तक धर्म के लिए सच्ची और स्थायी, व्याकुलता नहीं आएगी, तब तक हमें
ऐसा पुरुष नहीं मिलेगा, जो हममें धर्म-संचार कर सके। अतएव जब कभी हमें यह
भावना उदित हो कि 'अरे ! मैंने सत्य की प्राप्ति के लिए इतना प्रयत्न किया,
फिर भी कुछ ना हुआ; मेरे सारे पर्यत्न व्यर्थ ही हुए!' तो उस समय ऐसी शिकायत
करने के बदले हमारा प्रथम कर्तव्य यह होगा कि हम अपने आप से ही पूछें, अपने
हृदय को टटोलें और देखे कि हमारी वह स्पृहा यथार्थ है अथवा नहीं। ऐसा करने पर
पता चलेगा कि अधिकतर स्थलों पर हम सत्य को ग्रहण करने की उपयुक्त नहीं थे,
हमें धर्म के लिए सच्ची पिपासा नहीं थी।
फिर, शक्ति संचारक गुरु के संबंध में तो और भी बड़े खतरों की संभावना है। बहुत
से लोग ऐसे हैं, जो स्वयं तो बड़े अज्ञानी हैं, परंतु फिर भी अहंकारवश अपने को
सर्वज्ञ समझते हैं; इतना ही नहीं, बल्कि दूसरों को भी अपने कंधों पर ले जाने
को तैयार रहते हैं। इस प्रकार अंधा अंधी का अगुआ बन जाता है, फलत: दोनों ही
गड्ढे में गिर पड़ते हैं। 'अज्ञान से घिरे हुए, अत्यंत निर्बुद्धि होने पर भी
अपने को महापंडित समझने वाले मूढ़ व्यक्ति, अंधों के नेतृत्व में चलने वाले
अंधों के चारों और ठोकरे खाते हुए भटकते फिरते हैं।'
[18]
संसार ऐसे लोगों से भरा पड़ा है। हर एक आदमी गुरु होना चाहता है। एक भिखारी भी
चाहता है कि वह लाखों का दान कर डालें! जैसे हास्यास्पद ये भिखारी हैं, वैसे
ही यह गुरु भी!
गुरु और शिष्य के लक्षण
तो फिर गुरु की पहचान क्या है? सूर्य को प्रकाश में लाने के लिए मशाल की
आवश्यकता नहीं होती। उसे देखने के लिए हमें दिया नहीं जलाना पड़ता। जब सूर्योदय
होता है, तो हम अपने आप जाते हैं की सूरज उग आया। इसी प्रकार जब हमारी सहायता
के लिए गुरु का आगमन होता है, तो आत्मा अपने आप जान लेती है कि उस पर अब सत्य
के सूर्य की किरणें पड़ने लगी है। सत्य स्वयं ही प्रमाण है--उसे प्रमाणित करने
के लिए किसी दूसरे साक्षी की आवश्यकता नहीं, वह स्वप्रकाश है। वह हमारी
प्रकृति के अंतस्तल तक प्रवेश कर जाता है और उसके समक्ष सारी दुनिया उठ खड़ी
होती है और कहती है, "यही सत्य है।" जिन आचार्यों का सत्य और ज्ञान सूर्य के
समान भास्वर होता है, वे संसार में सर्वोच्च महापुरुष हैं और अधिकांश मानवता
उनकी उपासना ईश्वर के रूप में करती है। परंतु हम उनसे अपेक्षाकृत लघुतर
व्यक्तियों से भी आध्यात्मिक सहायता ले सकते हैं। पर हममें वह अंतर्दृष्टि
नहीं है, जिससे हम गुरु के संबंध में यथार्थ विचार कर सकें। अतएव गुरु और
शिष्य, दोनों के संबंध में कुछ कसौटियाँ और शर्ते आवश्यक है।
शिष्य के लिए यह आवश्यक है कि उसमें पवित्रता, सच्ची ज्ञान-पिपासा और अध्यवसाय
हो। अपवित्र आत्मा कभी यथार्थ धार्मिक नहीं हो सकती। धार्मिक होने के लिए तन,
मन और वचन की शुद्धता नितांत आवश्यक है। रही ज्ञान-पिपासा की बात; तो इस संबंध
में यह एक सनातन सत्य है कि 'जाकर जापर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहि न कछु
संदेहू'-हम जो चाहते हैं, वही पाते हैं। जिस वस्तु की अंत:करण से चाह नहीं
करते, वह हमें प्राप्त नहीं होती। धर्म के लिए सच्ची व्याकुलता होनी बड़ी कठिन
बात है। वह उतनी सरल नहीं, जितना कि हम बहुधा अनुमान करते हैं। धर्म संबंधी
बातें सुनना, धार्मिक पुस्तकें पढ़ना-केवल इतने से ही यह न सोच लेना चाहिए कि
हृदय में सच्ची पिपासा है। उसके लिए तो हमें अपनी पाशविक प्रकृति के साथ
निरंतर जूझते रहना होगा, सतत युद्ध करना होगा और उसे अपने वश में लाने के लिए
अविराम संघर्ष करना होगा। कब तक? जब तक हमारे हृदय में धर्म के लिए सच्ची
व्याकुलता उत्पन्न न हो जाए,जब तक विजयश्री हमारे हाथ न लग जाए। यह कोई एक या
दो दिन कि बात तो है नहीं-कुछ वर्ष या कुछ जन्म कि भी बात नहीं; इसके लिए,
संभव है, हमें सैकड़ों जन्मों तक इसी प्रकार संग्राम करना पड़े। हो सकता, किसी
को सिद्धि थोड़े समय में ही प्राप्त हो जाए ; पर यदि उसके लिए अनंत काल तक भी
बाट जोहनी पड़े, तो भी हमें तैयार रहना चाहिए। जो शिष्य इस प्रकार अध्यवसाय के
साथ साधना मे प्रवृत होता है, उसे सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है।
गुरु के संबंध में यह जान लेना आवश्यक है कि उन्हें धर्मशास्त्रों का मर्म
ज्ञात हो। वैसे तो सारा संसार ही बाइबिल, वेद, भाषाविज्ञान-धर्म की शुष्क
अस्थियाँ मात्र। जो गुरु शब्दाडंबर के चक्कर में पड़ जाते हैं, जिनका मन शब्दों
की शक्ति में वह जाता है, वे भीतर का मर्म खो बैठते हैं। शास्त्रों की
वास्तविक आत्मा के ज्ञान से ही सच्चे गुरु का निर्माण होता है। शास्त्रों का
शब्दजाल एक सघन वन के सदृश है, जिसमें मनुष्य का मन भटक जाता है, और रास्ता
ढूँढे भी नहीं पाता। 'शब्दजाल तो चित्त को भटकाने वाला एक महावन है'।
[19]
'विभिन्न प्रकार की शब्द-रचना, सुंदर भाषा में बोलने के विभिन्न ढंग और
शास्त्र-मर्म की नाना प्रकार से व्याख्या करना-ये सब पंडितों के भोग के लिए ही
हैं ; इनसे अंतर्दृष्टि का विकास नहीं होता'।
[20]
जो लोग इन उपायों से दूसरों को धर्म की शिक्षा देते हैं, वे केवल अपना
पांडित्य प्रदर्शित करना चाहते हैं। उनकी यही इच्छा रहती है कि संसार उन्हें
भूत बड़ा विद्वान मानकर उनका सम्मान करे। संसार के प्रधान आचार्यों में से कोई
भी शास्त्रों की इस प्रकार नानाविध व्याख्या करने के झमेले में नहीं पड़ा।
उन्होंने श्लोकों के अर्थ में खींचातानी नहीं की। वे शब्दार्थ और धात्वर्थ के
फेरे में नहीं पड़े। फिर भी उन्होंने संसार को बड़ी सुंदर शिक्षा दी। इसके
विपरीत, उन लोगों ने, जिनके पास सीखाने को कुछ भी नहीं, कभी एकाध शब्द को ही
पकड़ लिया और उस पर तीन भागों की एक मोटी पुस्तक लिख डाली, जिसमें, उस शब्द की
उत्पत्ति कैसे हुई, किसने उस शब्द का सबसे पहले उपयोग किया, वह क्या खाता था,
वह कितनी देर सोता था, आदि आदि का वर्णन रहता।
भगवान श्री रामकृष्ण एक कहानी कहा करते थे -"एक बार दो आदमी किसी बगीचे में
घूमने गए। उनमें से एक, जिसकी विषय -बुद्धि जरा तेज़ थी, बगीचे में घुसते ही
हिसाब लगाने लगा- 'यहाँ कितने पेड़ आम के हैं, किस पेड़ में कितने आम हैं, एक एक
डाली में कितनी पत्तियाँ हैं, बगीचे की कीमत कितनी हो सकती है -आदि आदि'। पर
दूसरा आदमी बगीचे के मालिक से भेंट करके, एक पेड़ के नीचे बैठ गया और मजे से एक
एक आम गिराकर खाने लगा। अब बताओ तो सही, इन दोनों में कौन ज़्यादा बुद्धिमान
है? आम खाओ, पेट भी भरे, केवल पत्ते गिनने और यह सब हिसाब लगाने से क्या लाभ?"
ये पत्तियाँ और डालें गिनना तथा दूसरों को यह सब बताने का भाव बिल्कुल छोड़ दो।
यह बात नहीं कि इन सबकी कोई उपयोगिता नहीं; है -पर धर्म के क्षेत्र में नहीं।
इन 'पत्तियाँ गिनने वालों' में तुम एक भी आध्यत्मिक महापुरुष नहीं पाओगे। मानव
जीवन के सर्वोच्च ध्येय-मानव की महत्तम गरिमा -धर्म के लिए इतनी 'पत्तियाँ
गिनने' के श्रम की आवश्यकता नहीं। यदि तुम भक्त होना चाहते हो, तो तुम्हारे
लिए यह जानना बिल्कुल आवश्यक नहीं की भगवान श्री कृष्ण ने मथुरा में जन्म लिया
था या ब्रज में, वे करते क्या थे, और अब उन्होंने गीता की शिक्षा दी, तो उस
दिन ठीक तिथि क्या थी। गीता में कर्तव्य और प्रेम संबंधी जो उदात्त उपदेश दिए
गए हैं, उनको अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करो- उनकी आवश्यकता हृदय से
अनुभव करो। उसके तथा उसके प्रणेता के संबंध में अन्य सब विचार तो केवल
विद्वानों के आमोद के लिए हैं। वे जो चाहते हैं, करने दो। हम तो उनके
पांडित्यपूर्ण विवाद पर केवल 'शांति:शांति': कहेंगे और बस खायेंगे।
गुरु के लिए दूसरी आवश्यक बात है- निष्पापता। बहुधा प्रश्न पूछा जाता है, "हम
गुरु के चरित और व्यक्तित्व की ओर ध्यान ही क्यों दें ? हमें तो यही देखना
चाहिए कि वे क्या कहते हैं, और बस, उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।" पर यह बात ठीक
नहीं। यदि कोई मनुष्य मुझे गति-विज्ञान, रसायनशास्त्र अथवा अन्य कोई भौतिक
विज्ञान सिखाना चाहे, तो वह जैसा होना चाहे हो सकता है, क्योंकि परंतु
अध्यात्मविज्ञानों में अपवित्र आत्मा में लेशमात्र भी धर्म का प्रकाश रह सकना
असंभव है। एक अपवित्र व्यक्ति हमें क्या धर्म सिखाएगा? स्वयं आध्यात्मिक सत्य
की उपलब्धि करने और दूसरों में उसका संचार करने का एकमात्र उपाय हैं-हृदय और
मन की पवित्रता। जब तक चित्तशुद्धि नहीं होती ,तब तक भगवद्दर्शन अथवा
अतींद्रिय सत्य का आभास तक नहीं मिलता। अतएव गुरु के संबंध में हमें पहले यह
जान लेना होगा कि उनका चरित्र कैसा है; और तब फिर देखना होगा कि वे कहते क्या
हैं। उन्हें पूर्ण रूप से शुद्धचित्त होना चाहिए, तभी उनके शब्दों का मूल्य
होगा क्योंकि केवल तभी वे सच्चे संचारक हो सकते हैं। यदि स्वयं उनमें
आध्यात्मिक शक्ति न हो, तो वे संचार ही क्या करेंगे? उनके मन में आध्यात्मिकता
इतना प्रबल स्पंदन होना चाहिए, जिससे वह सहज रूप से शिष्य के मन में संचारित
हो जाए। वास्तव में गुरु का काम ही यह है कि वह शिष्य में आध्यात्मिक शक्ति का
संचार कर दें, न कि शिष्य की बुद्धि वृत्ति अथवा अन्य किसी शक्ति को उत्तेजित
मात्र करें। यह स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है कि गुरु से शिष्य में सचमुच एक
शक्ति आ रही है। अतः गुरु का पवित्र होना आवश्यक है।
गुरु के लिए तीसरी आवश्यक बात है-उद्देश्य। गुरु को धन, नाम या यस संबंधी
स्वार्थ-सिद्धि के हेतु धर्म शिक्षा नहीं देनी चाहिए। उनके कार्य तो केवल
प्रेम से, सारी मानव जाति के प्रति विशुद्ध प्रेम से ही प्रेरित हो।
आध्यात्मिक शक्ति का संचार केवल शुद्ध प्रेम के माध्यम से ही हो सकता है। किसी
प्रकार का स्वार्थ पूर्ण भाव, जैसे कि लाभ अथवा यस की इच्छा, फ़ौरन ही
प्रेमरूपी माध्यम को नष्ट कर देगा। भगवान प्रेम स्वरूप हैं, और जिन्होंने इस
तत्व की उपलब्धि कर ली है, वही मनुष्य को शुद्धसत्व होने और ईश्वर को जानने की
शिक्षा दे सकते हैं।
जब देखो कि तुम्हारे गुरु में यह सब लक्षण मौजूद हैं, तो फिर तुम्हें कोई
आशंका नहीं। अन्यथा उनसे शिक्षा ग्रहण करना ठीक नहीं; क्योंकि तब साधु -भाव
संचारित होने के बदले असाधु-भाव के संचालित हो जाने का बड़ा भय रहता है। अतः
इस प्रकार के खतरे से हमें सब प्रकार से बचना चाहिए। केवल वही 'जो शास्त्रज्ञ
निष्पाप, कामगंधहीन और श्रेष्ठ ब्रह्मावित् है'१ और श्रेष्ठ ब्रह्मावित् है'
गुरु है।
जो कुछ कहा गया, उससे यह सहज ही मालूम हो जाएगा कि धर्म में अनुराग लाने के
लिए, धर्म की बातें समझने के लिए और उन्हें अपने जीवन में उतारने के लिए
उपयोगी शिक्षा हम यत्र तत्र और हर किसी से नहीं प्राप्त कर सकते। 'पर्वत उपदेश
देते हैं, कल कल बहने वाले झरने विद्या बिखरते जाते हैं और सर्वत्र शुभ ही शुभ
हैं'-यह सब बातें कवित्व की दृष्टि से भले ही बड़ी सुंदर हों; पर जब तक स्वयं
मनुष्य में सत्य के बीजाणु अपरिस्फुट रूप में विद्यमान ना हों, तब तक दुनिया
की कोई भी चीज़ उसे सत्य का एक कारण तक नहीं दे सकती। पर्वत और झरने किसे उपदेश
देते हैं ?-उसी मानवात्मा को, जिसके पवित्र ह्रदय मंदिर का कमल खिल चुका है।
कौन से इस प्रकार सुंदर रूप से विकसित करने वाला ज्ञान प्रकाश सद्गुरु से ही
आता है। जब यह कमल इस प्रकार खिल जाता है, तब वह पर्वत, झरने, नक्षत्र, सूर्य,
चंद्र अथवा इस बारे में विश्व में जो कुछ है सभी से शिक्षा ग्रहण कर सकता है।
परंतु जिसका हृदय कमल अभी तक खिला नहीं, वह तो इन सब में पर्वत आदि के सिवा और
कुछ ना देख पाएगा। एक अंधा यह भी अजाएबघर में जाए, तो उससे क्या होगा? पहले
उसे आंखें दो, तब कहीं वह समझ सकेगा कि वहाँ के भिन्न-भिन्न वस्तुओं से क्या
शिक्षा मिल सकती है?
गुरु ही धर्म-पिपासु की आँखे खोलने वाले होते हैं। अपने गुरु के साथ हमारा
संबंध ठीक वैसा ही है जैसा पूर्वज के साथ उसके वंशज का। गुरु के प्रति
श्रद्धा, नम्रता, विनय और आदर के बिना हमें धर्म-भाव पनप ही नहीं सकता। और यह
एक महत्वपूर्ण बात है कि जिन देशों में गुरु और शिष्य में इस प्रकार का संबंध
विद्यमान है, केवल वहीं असाधारण आध्यात्मिक पुरुष उत्पन्न हुए हैं; और जिन
देशों में इस प्रकार के गुरु शिष्य संबंध की उपेक्षा हुई है, वहाँ धर्मगुरु एक
वक्ता मात्र रह गया है-गुरु को मतलब रहता है अपनी 'दक्षिणा' से और शिष्य को
मतलब रहता है गुरु के शब्दों से, जिन्हें वह अपने मस्तिष्क में ठूंस लेना
चाहता है। यह हो गया कि बस ,दोनों अपना-अपना रास्ता नापते हैं। ऐसी परिस्थिति
में आध्यात्मिकता बिल्कुल नहीं के बराबर हो रहती है-ना कोई शक्ति संचार करने
वाला होता है और ना कोई उसका ग्रहण करने वाला। ऐसे लोगों के लिए धर्म एक
व्यापार हो जाता है। वे सोचते हैं कि वे उसे अपने धन से खरीद सकते हैं। ईश्वर
करता धर्म इतना सुलभ हो जाता ! पर दुर्भाग्य, ऐसा हो नहीं सकता।
धर्म ही सर्वोच्च ज्ञान है-वही सर्वोच्च विद्या है। वह न पैसों से खरीदा जा
सकता है और न पुस्तकों से प्राप्त किया जा सकता है। तुम भले ही संसार का कोना
कोना छान डालो, हिमालय, आल्प्स और काकेशस के शिखर पर चढ़ जाओ, अथाह समुद्र का
तल भी नाप डालो, पर जब तक तुम्हारा हृदय धर्म को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं
हो जाता और जब तक गुरु का आगमन नहीं होता, तब तक तुम धर्म को कहीं न पाओगे। और
जब ये विधातानिर्दृष्टि गुरु प्राप्त हो जाए, तो उनके निकट बालकवत् विश्वास और
सरलता के साथ अपना हृदय खोल दो और उसमें साक्षात् ईश्वर के दर्शन करो। जो लोग
इस प्रकार प्रेम और श्रद्धासंपन्न हो कर सत्य की खोज करते हैं, उनके निकट
सत्यस्वरूप भगवान सत्य, शिव और सौंदर्य के अलौकिक तत्वों को प्रकट करते हैं।
गुरु और अवतार
जहाँ कहीं प्रभु का गुणवान होता हो, वही स्थान पवित्र है। तो फिर जो मनुष्य
प्रभु का गुणवान करता है, वह कितना पवित्र होगा ! अतएव जिनसे हमें आध्यात्मिक
शिक्षा प्राप्त होती है, उनके समीप हमें कितनी भक्ति के साथ जाना चाहिए ! यह
सत्य है कि संसार में ऐसे धर्मगुरुप की संख्या बहुत थोड़ी है, पर संसार ऐसे
महापुरुषों से कभी शून्य नहीं हो जाती। वे मानव के सुंदरतम पुष्प हैं और
'अहैतुक दयासिंधु'
[21]
हैं। श्री कृष्ण भागवत् में कहते हैं, "मुझे ही आचार्यों जानों।"
[22]
यह संसार ज्यों ही आचार्यों से बिल्कुल रहित हो जाता है, त्यों ही यह एक भंयकर
नरककुंड बन जाता है और नाश की ओर तीव्र वेग से बढ़ने लगता है।
साधारण गुरु से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं, और वे हैं -इस संसार
में ईश्वर के अवतार। वे केवल स्पर्श से, यहाँ तक की इच्छा मात्र से ही
आध्यात्मिक प्रदान कर सकते हैं। उनकी इच्छा से पतित से पतित व्यक्ति भी क्षण
भर में साधु हो जाता है। वे गुरुओं के भी गुरु हैं -मनुष्य के माध्यम से ईश्वर
की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। उनके माध्यम के अतिरिक्त हम अन्य किसी भी उपाय से
भगवान को नहीं देख सकते। हम उनकी उपासना किए बिना रह नहीं सकते, वास्तव में वे
ही एकमात्र एसे हैं, जिनकी उपासना करने के लिए हम विवश हैं।
इस मानवीय अभिव्यक्तियों के माध्यम बिना वकोई मनुष्य ईश्वर-दर्शन नहीं कर
सकता। जब हम अन्य किसी साधन द्वारा ईश्वर-दर्शन का यत्न करते हैं, तो हम अपने
मन में ईश्वर का एक भीषण व्यंग्य-रूप ईश्वर के प्रकृत स्वरूप से निम्नतर नहीं
है। एक बार एक अनाड़ी आदमी से भगवान शिव की मूर्ति बनाने को कहा गया। कई दिनों
के घोर परिश्रम के बाद उसने एक मूर्ति तैयार तो की, पर वह बंदर की थी ! इसी
प्रकार जब हम ईश्वर को तत्वत:, उसके निर्गुण, पूर्ण स्वरूप में सोचने का
प्रयत्न करते हैं, तो हम अनिवार्य रूप से उनमें बुरी तरह असफल होते हैं;
क्योंकि जब हम मनुष्य हैं, तब तक मनुष्य से उच्चतर रूप में हम उनकी कल्पना
नहीं कर सकते। एक समय ऐसा आयेगा, जब हम अपनी मानवीय प्रकृति के परे चले
जाएंगे, और तब हम उसके असली स्वरूप में देख सकेंगे। पर जब तक हम मनुष्य हैं,
तब तक हमें उसकी उपासना मनुष्य में और मनुष्य के रूप में ही करनी होगी। तुम
चाहे कितनी ही लंबी-चौड़ी बातें क्यों न करो, कितना भी प्रयत्न क्यों न करो, पर
तुम ईश्वर को मनुष्य के सिवा और कुछ सोच ही नहीं सकते। तुम भले ही ईश्वर और
संसार की सारी वस्तुओं पर विद्वत्तापूर्ण लंबी -लंबी वक्तृताएँ दे डालो, बड़े
युक्तिवादी बन जाओ और अपने मन को समझा लो कि ईश्वरावतार की ये सब बातें प्रकार
की अद्भुत विचार-बुद्धि से क्या प्राप्त होता है? कुछ नहीं -शून्य, पूजा के
विरुद्ध बड़ा विद्वतापूर्ण भाषण देते हुए सुनो, तो सीधे उनके पास चले जाना
'सर्वव्यापी' आदि शब्दों का उच्चारण करने से वह शब्द-ध्वनि के अतिरिक्त और
क्या समझता है?-तो देखोगे, वास्तव में वह कुछ नहीं समझता। वह उनका ऐसा कोई
अर्थ नहीं लगा सकता, जो उनकी अपनी मानवी प्रकृति से प्रभावित न हो। इस बात में
तो उसमें और रास्ता चलनेवाले एक अपढ़ गँवार में कोई अंतर नहीं। फिर भी यह अपढ़
व्यक्ति कहीं अच्छा है, क्योंकि कम से कम वह शांत तो रहता है, वह संसार की
शांति को भंग नहीं करता; पर यह लंबी-लंबी बातें करने वाला व्यक्ति मनुष्य-जाति
में अशांति और दु;ख पैदा कर देता है। धर्म का अर्थ है प्रत्यक्ष अनुभूति। अतएव
इस अपरोक्ष अनुभूति और थोथी बात के बीच जो विशेष भेद है, उसे हमें अच्छी तरह
पकड़ लेना चाहिए। आत्मा के गंभीरतम प्रदेश में हम जो अनुभव करते हैं, वही
प्रत्यक्षानुभूति है। इस संबंध में सहज बुद्धि जितनी अ-सहज (दुर्लभ) है, उतनी
और कोई वस्तु नहीं।
हम अपनी वर्तमान प्रकृति से सीमित हो ईश्वर को केवल मनुष्य-रूप में ही देख
सकते हैं। मान लो, भैसों की इच्छा भगवान की उपासना करने की हो-तो वे अपने
स्वभाव के अनुसार भगवान को एक बड़े भैंसे के रूप में देखेंगे। यदि एक मछली
भगवान की उपासना करनी चाहे, तो उसे भगवान को एक बड़ी मछ्ली के रूप में ही देखना
होगा। यह न सोचना कि ये सब विभिन्न धारणाएँ केवल विकृत कल्पनाओं से उत्पन्न
हुई हैं। मनुष्य, भैसों, मछली-ये सब मानो भिन्न-भिन्न बरतन हैं: ये सब बरतन
अपनी-अपनी आकृति और जल-धारणा-शक्ति के अनुसार ईश्वररूपी समुद्र के पास अपने को
भरने के लिए जाते हैं। पानी मनुष्य में मनुष्य का रूप लेता है, भैंसे में
भैंसे का और मछली में मछ्ली का। प्रत्येक बरतन में वही ईश्वररूपी समुद्र का जल
है। जब मनुष्य ईश्वर को देखता है, तो वह उसे मनुष्य-रूप में देखता है। और यदि
पशुओं में ईश्वर संबंधी कोई ज्ञान हो, तो वे सब उन्हें अपनी अपनी धारणा के
अनुसार पशु के रूप में देखेंगे। अत: हम ईश्वर को मनुष्य-रूप के अतिरिक्त अन्य
किसी रूप में देख ही नहीं सकते और इसलिए हमें मनुष्य रूप में ही उसकी उपासना
करनी पड़ेगी। इसके सिवा अन्य कोई रास्ता नहीं है।
दो प्रकार के लोग ईश्वर की मनुष्य-रूप में उपासना नहीं करते। एक तो नरपशु,
जिसे धर्म का कोई ज्ञान नहीं और दूसरे परमहंस, जो मानव जाति की सारी
दुर्बलताओं के ऊपर उठ चुके हैं और जो अपनी मानवीय प्रकृति की सीमा के परे चले
गए हैं। उनके लिए सारी प्रकृति आतमस्वरूप हो गयी है। वे ही ईश्वर को उसके
वास्तविक स्वरूप में भज सकते हैं। अन्य विषयों के समान यहाँ भी दोनों चरम भाव
एक से ही दिखते हैं। अतिशय अज्ञानी और फार्म ज्ञानी, दोनों ही उपासना नहीं
करते। नरपशु अज्ञानवश उपासना नहीं करता, और जीवनमुक्त अपनी आत्मा में परमात्मा
का प्रत्यक्ष अनुभव कर लेने के कारण। इन दो चरम भावों के बीच में भजने वाला
नहीं है, तो उस पर रहम करना। उसे अधिक क्या कहें, वह बस, थोथी बकवास करने वाला
है। उसका धर्म अविकसित और खोखली बुद्धि वालों के लिए है।
ईश्वर मनुष्य की दुर्बलताओं को समझता है और मानवता के कल्याण के लिए नरदेह
धारण करता है। श्री कृष्ण ने अवतार के संबंध में गीता में कहा है, "जब धर्म की
ग्लानि होती है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तब तक मैं अवतार लेता हूँ।
साधुओं की रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए तथा धर्म-संस्थापनार्थ मैं युग-युग
में अवतीर्ण होता हूँ।"
[23]
"मूर्ख लोग मुझे जगदीश्वर के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण मुझ नरदेहधारी
की अवेहलना करते हैं।" भगवान श्री रामकृष्ण कहते थे, "जब एक बहुत बड़ी लहर आती
हैं, तो छोटे-छोटे नाले और गड्ढे अपने आप ही लबालब भर जाते है। इसी प्रकार जब
एक अवतार जन्म लेता है, तो समस्त संसार में आध्यात्मिकता की एक बड़ी बाढ़ आ जाती
है और लोग वायु के कण में धर्मभाव का अनुभव करने लगते हैं।"
मंत्र : ॐ : शब्द और ज्ञान
इन अवतारी महापुरुषों के वर्णन के बाद अब हम सिद्ध गुरु की चर्चा करेंगे।
उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान का बीज शिष्य में शब्दों (मंत्र) के द्वारा संप्रेषित
करना होता है, और इन शब्दों का ध्यान किया जाता हैं। ये मंत्र क्या हैं ?
भारतीय दर्शन के अनुसार नाम और रूप ही इस जगत् की अभिव्यक्ति के कारण है,।
मानवीय अंतर्जगत् में एक भी ऐसी चित्तवृति नहीं रह सकती, जो नाम- रूपात्मक न
हो। यदि यह सत्य हो की प्रकृति सर्वत्र एक ही नियम से निर्मित है, तो फिर इस
नाम रूपात्मकता को समस्त ब्रह्मांड का नियम कहना होगा। 'जैसे मिट्टी की सब
चीज़ों का ज्ञान हो जाता है',
[24]
उसी प्रकार इस देहपिंड को जान लेने से समस्त विश्व- ब्रह्मांड का ज्ञान हो
जाता है। रूप, वस्तु का मानो छिलका है और नाम या भाव भीतर का गुदा। शरीर है
रूप और मन या अंत:करण है नाम; और वाक्शक्तियुक्त समस्त प्राणियों में इस नाम
के साथ उसके वाचक शब्दों का अभेध योग रहता है। व्यष्टि- मानव के परिच्छिन्न
महत् या चित्त में विचार-तरंगें पहले 'शब्द' के रूप में उठती हैं और फिर बाद
में तदपेक्षा स्थूलतर 'रूप' धारण कर लेती हैं।
बृहत् ब्रह्मांड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ या समष्टि-महत् ने पहले अपने को
नाम के, और फिर बाद में रूप के आकार में अर्थात् इस परिदृश्यमान जगत् के आकार
में अभिव्यक्ति किया। यह सारा व्यक्त इंद्रियग्राह्य जगत् रूप है, और इसके
पीछे है अनंत अव्यक्त स्फोट। स्फोट का अर्थ -समस्त जगत् की अभिव्यक्ति का कारण
शब्द- ब्रह्मा। समस्त नामों अर्थात् भावों का नित्य-समवायी उपादानस्वरूप यह
नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे ईश्वर इस विश्व की सृष्टि करता है। यही
नहीं, ईश्वर पहले स्फोट-रूप में परिणत हो जाता है और तत्पश्चात् अपने को उससे
भी स्थूल इस इंद्रियग्राह्य जगत् के रूप में परिणत कर लेता है। इस स्फोट का
एकमात्र वाचक शब्द है 'ॐ'। और चूँकि हम किसी भी उपाय के शब्द को भाव से अलग
नहीं कर सकते, इसलिए यह 'ॐ' भी इस नित्य स्फोट से नित्य-संयुक्त है। अतएव
समस्त विश्व की उत्पत्ति सारे नाम रूप की जननीस्वरूप इस ओंकार-रूप पवित्रतम
शब्द से ही मानी जा सकती है। इस संबंध में यह शंका उत्पन्न हो सकती है यद्यपि
शब्द और भाव में नित्य संबंध है, तथापि एक ही भाव के अनेक वाचक शब्द हो सकते
हैं, इसलिए यह आवश्यक नहीं कि यह 'ॐ' नामक शब्दविशेष ही सारे जगत् की
अभिव्यक्ति के कारणस्वरूप भाव का वाचक हो। तो इस पर हमारा उत्तर यह है कि
एकमेव यह 'ॐ' ही इस प्रकार सर्वभावव्यापी वाचक शब्द है, अन्य कोई भी उसके सामन
नहीं। स्फोट पूर्ण रूप से विकसित कोई विशिष्ट शब्द नहीं है। अर्थात यदि उन सब
भेदों को, जो एक भाव को दूसरे से अलग करते हैं, निकाल दिया जाए, तो जो कुछ बचा
रहता है, वही स्फोट है। इसीलिए इस स्फोट को 'नादब्रह्मा' कहते हैं।
अब इस अव्यक्त स्फोट को प्रभावित करने के लिए यदि किसी वाचक शब्द का उपयोग
किया जाए, तो वह शब्द उसे इतना विशिष्टकृत कर देता है की उसका फिर स्फोटत्व ही
नहीं रह जाता। इसीलिए जो वाचक शब्द उसे सबसे कम विशिष्टीकृत करेगा, साथ ही
उसके स्वरूप को यथासंभव पूरी तरह प्रकाशित करेगा, वही उनका सबसे सच्चा वाचक
होगा। और यह वाचक शब्द है एकमात्र 'ॐ' ; क्योंकि ये तीनों अक्षर अ, उ और म,
जिंका एक साथ उच्चारण करने से 'ॐ' होता है, समस्त ध्वनियों के साधारण वाचक के
तौर पर लिए जा सकते हैं। अक्षर 'अ' सारी ध्वनियों में सबसे कम विशिष्टीकृत है।
इसीलिए कृष्ण गीता में कहते हैं-"अक्षरों में मैं 'अ' कार हूँ।" स्पष्ट रूप से
उच्चरित जितनी भी ध्वनियाँ हैं, उनकी उच्चारण- क्रिया मुख में जिह्वा के मूल
से आरंभ होती है और ओठों में आकर समाप्त हो जाती है- 'अ' ध्वनि कंठ से
उच्चारित होती है और 'म्' अंतिम ओष्ठय ध्वनि है। और 'उ' उस शक्ति की सूचक है,
जो जिह्वामूल से आरंभ होकर मुँह भर में लुढ़कती हुई ओठों में आकर समाप्त होती
है। यदि इस 'ॐ' का उच्चारण ठीक ढ़ंग से किया जाए, तो एससे शब्दोच्चारण की
संपूर्ण क्रिया संपन्न हो जाती है-दूसरे किसी भी शब्द में यह शक्ति नहीं। 'ॐ'
का प्रकृत वाच्य है। और चूँकि वाचक वाच्य से कभी अलग नहीं हो सकता, इसीलिए 'ॐ'
और स्फोट अभिन्न हैं। फिर, यह स्फोट इस व्यक्त जगत् का सूक्ष्मतम अंश होने के
कारण ईश्वर के अत्यंत निकटवर्ती है तथा ईश्वरीय ज्ञान की प्रथम अभिव्यक्ति है;
इसीलिए 'ॐ' ही ईश्वर का सच्चा वाचक है। और जिस प्रकार अपूर्ण जीवात्मागण
एकमेंव अखंड सच्चिदानंद ब्रह्मा का चिंतन विशेष विशेष भाव से और विशेष गुणों
से युक्त रूप में ही कर सकते हैं, उसी प्रकार उसके देहरूप इस अखिल ब्रह्मांड
का चिंतन भी, साधक के मनोभाव के अनुसार, विभिन्न रूप से करना पड़ता है।
उपासक के मन का दिशा-निर्धारण तत्वों की प्रबलता के अनुसार होता है। परिणामत:
एक ही ब्रह्मा भिन्न भिन्न रूप में भिन्न-भिन्न गुणों की प्रधानता से युक्त
दीख पड़ता है और वही एक विश्व विभिन्न रूपों में प्रतिभात होता है। जिस प्रकार
अल्पतम विशिष्टीकृत तथा सार्वभौमिक वाचक शब्द 'ॐ' के संबंध में, वाच्य और वाचक
परस्पर समवायी रूप से संबंध हैं, उसी प्रकार वाच्य और वाचक का यह अविच्छिन्न
संबंध ईश्वर और विश्व के विभिन्न खंड भावों पर लागू है। अतएव उनमें से
प्रत्येक का एक विशिष्ट वाचक शब्द होना आवश्यक है। ये वाचक शब्द ऋषियों की
गंभीरतम आध्यात्मिक अनुभूति से उत्पन्न हुए हैं, और वे ईश्वर तथा विश्व की जिन
विशेष विशेष खंड भावों के वाचक हैं, उन विशेष भावों को यथासंभव प्रकाशित करते
हैं। जिस प्रकार 'ॐ' अखंड ब्रह्मा का वाचक है, उसी प्रकार अन्याय मंत्र भी उसी
परम पुरुष के खंड-खंड भावों के वाचक हैं। ये ईश्वर के ध्यान और सत्य भी ज्ञान
की प्राप्ति में सहायक हैं।
प्रतीत तथा प्रतिमा-उपासना
अब हम प्रतीकोपासना तथा प्रतिमा-पूजन का विवेचन करेंगे। प्रतीक का अर्थ है वे
वस्तुएँ, जो थोड़े-बहुत अंश में ब्रह्मा स्थान में उपास्य-रूप से ली जा सकती
हैं। प्रतीक द्वारा ईश्वरोपासना का क्या अर्थ है? इस संबंध म भगवान रामानुज
कहते हैं, "जो वस्तु ब्रह्मा नहीं है, उसमें ब्रह्माबुद्धि करके ब्रह्मा का
अनुसंधान (प्रतीकोपासना कहलाता है)।"
[25]
भगवान शंकराचार्य कहते हैं, "मन की ब्रह्मा रूप से उपासना करो, यह आभ्यंतर
उपासना है ;और आकाश की ब्रह्मा-रूप से उयासना आधिदैविक है।" मन आभ्यंतरिक
प्रतीक ही आकाश ब्राहय। इन दोनों की ही उपासना ब्रह्मा के रूप में करनी होगी।
वे कहते हैं, "इसी प्रकार -'आदित्य ही ब्रह्मा है, यह आदेश है...'जो नाम को
ब्रह्मा क रूप में भजता है'-इन सब वाक्यों से प्रतीकोपासना के संबंध में संशय
उत्पन्न होता है….।"
[26]
प्रतीक शब्द का अर्थ है-बाहर की ओर जाना, और प्रतीकोपासना का अर्थ है-ब्रह्मा
के स्थान में ऐसी किसी वस्तु की उपासना करना, जो कुछ अधिक अंशों में ब्रह्मा
के सदृश है, पर स्वयं ब्रह्मा न हो। श्रुतियों में वर्णित प्रतीकों के
अतिरिक्त पुराणों और तंत्रशास्त्रों में भी प्रतीकों का उल्लेख है। सब प्रकार
की पितृ-उपासना और देवोपासना इस प्रतीकोपासना में समाविष्ट की जा सकती है।
अब बात यह की एकमात्र ईश्वर की उपासना ईश्वर ही भक्ति है। देव, पीटर या अन्य
किसी की उपासना भक्ति नहीं कही जा सकती। विभिन्न देवताओं की जो विभिन्न
उपासना-पद्धतियाँ हैं, उनकी गणना कर्मकांड में ही की जाती है। उसके द्वारा
उपासक को किसी प्रकार के स्वर्ग-भोग के रूप में एक विशिष्ट फल ही मिलता है,
उससे न भक्ति होती है, न मुक्ति। इसीलिए हमें एक बात विशेष रूप से ध्यान में
रखनी चाहिए कि जब कभी दर्शनशास्त्रों के उच्चतम आदर्श परब्रह्मा को उपासक
प्रतीकोपासना द्वारा प्रतीक के स्तर पर नीचे खींच लाता है और स्वयं प्रतीक को
ही अपनी आत्मा-अपना अंतर्यामी समझ बैठता है, तो वह संपूर्ण रूप से लक्षणभ्रष्ट
हो जाता है; क्योंकि प्रतीक वास्तव में कभी भी उपासक की आत्मा नहीं हो सकता।
परंतु जहाँ स्वयं ब्रह्मा ही उपास्य होता है और प्रतीक उसका केवल
प्रतिनिधिस्वरूप अथवा उसके संकेत का कारण मात्र होता है-अर्थात् जहाँ प्रति के
सहारे सर्वव्यापी ब्रह्मा की उपासना की जाती है और प्रतीक को प्रतीक मात्र न
देखकर उसका जगत्-कारण ब्रह्मा के रूप में चिंतन किया जाता है, वहाँ उपासना
निश्चित रूप से फलवती होती है। इतना ही नहीं, जब तक उपासना की प्रारंभिक या
गौणी अवस्था पार नहीं कर ली जाती, तब तक समस्त मानवता के लिए यह अनिवार्य है।
अतएव जब किसी देवता या अन्य पुरुष की उपासना उन्हीं के निमित्त और उन्हीं के
रूप में की जाती, तो वह एक कर्मानुष्ठान मात्र है। और वह एक विद्या होने के
कारण, उस विशेष विद्या का फल भी प्रदान करती है। परंतु जब उस देवता या उस
पुरुष को ब्रह्मारूप मानकर की जाती है, तो उससे वही फल प्राप्त होता है, जो
ईश्वरोपासना से। इसी से यह स्पष्ट है कि श्रुतियों और स्मृतियों के अनेक
स्थलों में की किस प्रकार किसी देवता, महापुरुष अथवा अन्य किसी अलौकिक पुरुष
को लिया गया है, और उन्हें उनके स्वभाव से ऊपर उठा, उनकी ब्रह्मरूप से उपासना
की गयी है। अद्वैतवादी कहते हैं, "वह प्रभु क्या सबकी अंतरात्मा नहीं है?"
शंकराचार्य अपने ब्रह्मसूत्रभाष्य में कहते हैं, "आदित्य आदि की उपासना का फल
वह ब्रह्मा ही देता है, क्योंकि वही सबका नियंता है। जिस प्रकार प्रतिमा में
विष्णु-दृष्टि आदि करनी पड़ती है, उसी प्रकार प्रतीकों में भी ब्रह्मा-दृष्टि
करनी पड़ती है। अतएव समझना होगा कि यहाँ पर वास्तव में ब्रह्मा की ही उपासना की
जा रही है।"
[27]
प्रतीक के संबंध में जो बातें कही गयी हैं, वे सब प्रतिमा के संबंध में भी
सत्य हैं-अर्थात् यदि प्रतिमा किसी देवता या किसी महापुरुष कि सूचक हो, तो ऐसी
उपासना भक्तिप्रसूत नहीं है और वह हमें मुक्ति नहीं दे सकती। पर यदि वह उसी एक
परमेश्वर की सूचक हो, तो उस उपासना से भक्ति और मुक्ति, दोनों प्राप्त हो सकती
हैं। संसार के मुख्य धर्मों में से वेदांत, बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म के कुछ
संप्रदाय बिना किसी आपत्ति के प्रतिमाओं का उपयोग करते हैं। केवल इस्लाम और
प्रोटेस्टंट, ये ही दो ऐसे धर्म हैं, जो इस सहायता की आवश्यकता नहीं मानते।
फिर भी, मुसलमान प्रतिमा के स्थान में अपने पीरों और शहीदों की कब्रों का
उपयोग करते हैं। और प्रोटेस्टेंड लोग धर्म में सब प्रकार की ब्राहय सहायता का
तिरस्कार कर धीरे-धीरे वर्ष-प्रतिवर्ष आध्यात्मिकता से दूर हटते चले जा रहे
हैं, यहाँ तक कि आजकल, अग्रगण्य प्रोटेस्टंटों और केवल नीतिवादी ऑगस्ट काँते
के शिष्यों तथा अज्ञेयवादियों में कोई भेद नहीं रह गया है। फिर, ईसाई और
इस्लाम धर्म में जो कुछ प्रतिमा-उपासना विदयमान है, वह उसी श्रेणी की है,
जिसमें प्रतीक या प्रतिमा की उपासना केवल प्रतीक या प्रतिमा-रूप से होती
है-ईश्वर दर्शन में सहायक-दृष्टि सौकर्य-के रूप में नहीं, अतएव वह
कर्मानुष्ठान के ही समान है-उससे न भक्ति मिल सकती है, न मुक्ति। इस प्रकार की
प्रतिमा-पूजा में उपासक ईश्वर को छोड़ अन्य वस्तुओं में आत्मसमर्पण कर देता है
और इसलिए प्रतिमा, क़ब्र, मंदिर, समाधि के इस प्रकार के उपयोग को ही सच्ची
मूर्ति-पूजा कहा जा सकता है। पर वह न तो कोई पाप- कर्म है और न कोई अन्याय-वह
तो एक कर्म है, और उपासकों को उसका फल अवश्य ही प्राप्त होता है और होगा।
इष्टनिष्ठा
अब हम इष्टनिष्ठा के संबंध में विचार करेंगे। जो भक्त होना चाहता है, उसी यह
जान लेना चाहिए कि 'जितने मत हैं, उतने ही पथ।' उसे यह अवश्य जान लेना चाहिए
कि विभिन्न धर्मों के संप्रदाय उसे प्रभु की महिमा की विभिन्न अभिव्यक्तियां
हैं। 'लोक में कितने नामों से पुकारते हैं। लोगों ने विभिन्न नामों से तुम्हें
विभाजित सा कर दिया है। फिर भी प्रत्येक नाम में तुम्हारी पूर्ण शक्ति वर्तमान
है। इन सभी नामों से तुम उपासक को प्राप्त हो जाते हो। यदि हृदय में तुम्हारे
प्रति ऐ कांतिक अनुराग रहे, तो तुम्हें गाने का कोई निर्दिष्ट समय भी नहीं।
तुम्हें पाना इतना सहज होते हुए भी, मेरे प्रभु यह मेरा दुर्भाग्य ही है, जो
तुम्हारे प्रति मेरा अनुराग नहीं हुआ!
[28]
'इतना ही नहीं ,भक्तों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अन्य धर्म संप्रदाय के
तेज़स्वी प्रवर्तक ओं के प्रति उसके मन में घृणा उत्पन्न न हो, वह उनकी निंदा
ना करें और ना कभी उनकी निंदा सुने ही। ऐसे लोग वास्तव में बहुत कम होते हैं,
जो महान उदार तथा दूसरों के गुण रखने में समर्थ हो और साथ ही प्रगाढ़ प्रेम
संपन्न भी हों। बहुधा हम देखते हैं कि उदार भावापन्न संप्रदाय धार्मिक भाव की
प्रखरता खो देते हैं, उनके लिए धर्म एक प्रकार से सामाजिक-राजनीतिक क्लब जैसा
रह जाता है। दूसरी और बड़े ही संकीर्ण संप्रदायवादी हैं, जो आपने अपने इष्ट के
प्रति तो बड़ी भक्ति प्रदर्शित करते हैं, पर जिन्हें इस भक्ति का प्रत्येक कण
अपने से भिन्न मत वालों के प्रति केवल घृणा करने से प्राप्त हुआ है। कैसा
अच्छा होता, यदि भगवान की दया से यह संसार ऐसे लोगों से भरा होता, परम उदार और
साथ ही गंभीर प्रेमसंपन्न हों! पर खेद है, ऐसे लोग बहुत थोड़े होते हैं! फिर
भी हम जानते हैं कि बहुत से लोगों को ऐसे आदर्श में शिक्षित कर सकना संभव है,
जिसमें प्रेम की तीव्रता और उदारता का अपूर्व सामंजस्य हो। और ऐसा करने का
उपाय है यह इष्ट निष्ठा। भिन्न भिन्न धर्मों के भिन्न-भिन्न संप्रदाय मनुष्य
जाति के सम्मुख केवल एक एक आदर्श रखते हैं, परंतु सनातन वेदांत धर्म ने तो
भगवान के मंदिर में प्रवेश करने के लिए अनेकानेक मार्ग खोल दिए हैं और
मनुष्य-जाति के सम्मुख असंख्य आदर्श उपस्थित कर दिए हैं। इन आदर्शों में से
प्रत्येक उस अंतरस्वरूप ईश्वर की एक-एक अभिव्यक्ति है। परम करुणा के वश हो
वेदांत मुमुक्षु नर-नारियों को वे सब विभिन्न मार्ग दिखा देता है, जो अतीत और
वर्तमान में तेज़स्वी ईश्वर-तनयों या ईश्वर अवतारों द्वारा मानव जीवन की
वास्तविकताओं की कठोर चट्टानों से काटे गए हैं; और वह हाथ बढ़ाकर सब का, यहाँ
तक कि भविष्य में होने वाले लोगों का भी, उससे और आनंद के धाम में स्वागत करता
है, जहाँ मनुष्य की आत्मा माया जाल से मुक्त हो संपूर्ण स्वाधीनता और अनंत
आनंद में विभोर कर रहती है।
अतः भक्तियोग हमें इस बात का आदेश देता है कि हम भगवत्प्राप्ति के विभिन्न
मार्गो में से किसी के भी प्रति घृणा न करें, किसी को भी अस्वीकार न करें। फिर
भी, जब तक पौधा छोटा रहे, जब तक वह बढ़कर एक बड़ा पेड़ ना हो जाए ,तब तक उसे
चारों ओर से रूंध रखना आवश्यक है। आध्यात्मिकता का यह छोटा पौधा यदि आरंभिक,
अपरिपक्व दशा में ही भावों और आदर्शों के सतत परिवर्तन के लिए खुला रहे, तो वह
मर जाएगा बहुत से लोग 'धार्मिक उदारता' के नाम पर अपने आदर्शों को अनवरत बदलते
रहते हैं और इस प्रकार अपनी निरर्थक उत्सुकता तृप्त करते रहते हैं। सदा नयी
बातें सुनने के लिए लालायित रहना उनके लिए एक बीमारी सा, एक नशा सा हो जाता
है। क्षणिक स्नायविक उत्तेजना के लिए ही वे नयी-नयी बातें सुननी चाहते हैं, और
जब इस प्रकार की उत्तेजना देने वाली एक बात का असर उनके मन पर से चला जाता है,
तो फिर दूसरी बात सुनने को तैयार हो जाती हैं। उनके लिए धर्म एक प्रकार से
अफीम के नशे के समान है और बस, उसका वही अंत हो जाता है। भगवान श्री रामकृष्ण
कहते थे,"एक दूसरे भी प्रकार का मनुष्य है जिसकी उपमा जनश्रुति की सीपी से दी
जा सकती है। सीपी समुद्र की तह छोड़कर स्वाति नक्षत्र के पानी की एक बूंद लेने
के लिए ऊपर उठ जाती है और मुंह खोले हुए सतह पर तैरती रहती है। ज्यों भी उसमें
नक्षत्र का एक बूंद पानी पड़ता है,
त्यों ही वह मुंह बंद करके एकदम समुंद्र की तह में चली जाती हैं और जब तक उस
बूंद से एक सुंदर मोती का निर्माण नहीं कर लेती, तब तक वहीं विश्राम करती रहती
है।"
इष्टनिष्ठा का भाव प्रकट करने के लिए यह एक अत्यंत काव्यात्मक और सशक्त उदाहरण
है, और इतनी सुंदर उपमा शायद ही पहले कभी दी गई हो। स्वागत के लिए आरंभिक दशा
में यह एक निष्ठा नितांत आवश्यक है। हनुमान जी के समान उसे भी यह भाव रखना
चाहिए, 'यद्यपि परमात्मा दृष्टि से लक्ष्मीपति और सीतापति दोनों एक हैं तथापि
मेरे सर्वस्व से तो वे ही कमल लोचन श्री राम हैं।'
[29]
अथवा तुलसीदास जी ने जैसा कहा है, "सबके साथ बैठो सबके साथ मिष्ट भाषण करो,
सबका नाम लो और सबसे 'हां हां' कहते रहो, और अपना स्थान मत छोड़ो-अभिनव भाव
दृढ़ रखो"
[30]
, उसे भी ऐसा ही करना चाहिए। तब यदि साधक सच्चे, निष्कपट भाव से साधना करें ,
तो इस बीज से भारत के बटवृक्ष की तरह एक विशाल विटप उत्पन्न होकर, सब दिशाओं
में अपनी शाखाएँ और जड़ें फैलता हुआ धर्म के संपूर्ण क्षेत्र को आच्छादित कर
लेगा। तभी सच्चे भक्त को यह अनुभव होगा कि उसका अपना ही इष्टदेव ता विभिन्न
संप्रदायों में विभिन्न नामों और विभिन्न रूपों से पूजित हो रहा है।
उपाय और साधन
भक्तियोग के उपायों तथा साधनों के संबंध में भगवान रामानुज वेदांतसूत्रों का
भाष्य करते हुए कहते हैं, "भक्ति की प्राप्ति विवेक, विमोक (दमन), अभ्यास,
क्रिया (यज्ञादि), कल्याण (पवित्रता), अनवसाद (बल) और अनुद्धर्ष (उल्लास के
निरोध) से होती है।" उनके मतानुसार 'विवेक' का अर्थ यह है कि अन्य बातों के
विवेक के साथ हमें खाद्याखाद्य का भी विचार रखना चाहिए। उनके मत से, खाद्य
वस्तु के अशुद्ध होने के तीन कारण होते हैं-(१) जातिदोष अर्थात् खाद्य वस्तु
का प्रकृतिगत दोष, जैसे लहसुन, प्याज आदि; (२) आश्रयदोष अर्थात दुष्ट और पापी
व्यक्तियों के पास से आने में दोष; और (३) निमित्तदोष अर्थात किसी अपवित्र
वस्तु, जैसे धूल, केश आदि के संस्पर्श से होने वाला दोष। श्रुति कहती है,
'आहार शुद्ध होने से चित्त शुद्ध होता है और चित्त शुद्ध होने से भगवान का
निरंतर स्मरण होता है'।
[31]
यह वाक्य रामानुज ने छान्दोग्य उपनिषद् से उद्धृत किया है।
भक्तों के लिए खाद्याखाद्य का यह प्रश्न सदा ही बड़ा महत्वपूर्ण रहा है। यद्यपि
अनेक भक्त- संप्रदाय के लोगों ने इस विषय में काफी तिल का ताड़ भी किया है,पर
तो भी इसमें एक बहुत बड़ा सत्य है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि सांख्य दर्शन
के अनुसार सत्त्व, रज और तम-जिनकी साम्यावस्था प्रकृति है और जिनकी
वैषम्यावस्था से यह जगत् उत्पन्न होता है-प्रकृति के गुण और उपादान, दोनों
हैं। अतएव इन्हीं उपादनों से समस्त मानव-देह बनी है। इसमें से सत्त्व पदार्थ
की प्रधानता की आध्यात्मिक उन्नति के क्यी सबसे आवश्यक है। हम भोजन के द्वार
अपने शरीर में जिन उपादानों को लेते हैं वे हमारी मानसिक गठन पर विशेष प्रभाव
डालते हैं। इसलिए हमें खाद्याखाद्य के विषय में विशेष सावधान रखना चाहिए। यह
कह देना आवश्यक है कि अन्य विषयों के सदृश इस संबंध में भी जो कट्टरता शिष्यों
द्वारा उपस्थित कर दी जाती है, उसका उत्तरदायित्व आचार्यों पर नहीं है।
वास्तव में खाद्य के संबंध में यह शुद्धाशुद्ध-विचार गौण है। श्री शंकराचार्य
अपने उपनिषद्- भाष्य में इसी बात का दूसरे प्रकार से विवेचन करते हैं।
उन्होंने 'आहार' शब्द की, जिसका अर्थ हम बहुधा भोजन लगाते हैं, एक दूसरे ही
प्रकार से व्याख्या की है। उनके मतानुसार "जो कुछ आहृत हो, वही आहार है।
शब्दादि विषयों का ज्ञान भोक्ता अर्थात् आत्मा के उपभोग के लिए भीतर आहृत होता
है। इस विषयानुभूतिरूप ज्ञान की शुद्धि को आहार-शुद्धि कहते हैं। इसलिए
आहार-शुद्धि का अर्थ है-राग, द्वेष और मोह से रहित होकर विषय का ज्ञान प्राप्त
करना। अतएव यह ज्ञान या 'आहार' शुद्ध हो जाने से उस व्यक्ति का सत्त्व पदार्थ
अर्थात अंत:करण शुद्ध हो जाता है, और सत्त्वशुद्धि हो जाने से अनंत पुरुष के
यथार्थ स्वरूप का ज्ञान और अविच्छिन्न स्मृति प्राप्त हो जाती है।"१
ये दो व्याख्याएँ ऊपर से विरोधी अवश्य प्रतीत होती हैं, परंतु फिर भी दोनों
सती और आवश्यक हिन। सूक्ष्म शरीर अथवा मन का नियंत्रण और संयम करना स्थूल शरीर
के संयम से निश्चय ही श्रेष्ट ही, परंतु साथ ही साथ सूक्ष्म के संयम के लिए
लिए स्थूल का भी संयम परमावश्यक है। इसलिए आरंभिक दशा में साधक को आहार संबंधी
उन सब नियमों का विशेष रूप से पालन करना चाहिए, जो उसकी गुरु- परंपरा से चले आ
रहे हैं। परंतु आजकल हमारे अनेक संप्रदायों में इस आहारादि विचार की इतनी
बढ़ा-चढ़ी है, अर्थहीन नियमों की इतनी पाबंदी है कि उन संप्रदायों ने मानो धर्म
को रसोईघर में ही सीमित कर रखा है। उस धर्म के महान सत्य वहाँ से बाहर निकलकर
कभी आध्यात्मिकता के सूर्यालोक में जगमगा सकेंगे, इसकी कोई संभावना नहीं। इस
प्रकार का धर्म एक विशेष प्रकार का कोरा जड़वाद मात्र है। वह न तो ज्ञान है, न
भक्ति और न कर्म, वह एक विशेष प्रकार का पागलपन है। जो लोग खाद्याखाद्य के इस
विचार को ही जीवन का सार कर्तव्य समझे बैठे हैं, उनकी गति ब्रह्मालोक में न
होकर पागलखाने में होनी ही अधिक संभव है। अतएव यह युक्तियुक्त प्रतीत होता है
कि खाद्याखाद्य का विचार मन कि स्थिरतारूप उच्चावस्था लाने में विशेष रूप से
आवश्यक है। अन्य किसी भी तरह यह स्थिरता इतने सहज ढंग से नहीं प्राप्त हो
सकती।
उसके बाद है 'विमोक' अर्थात् इंद्रीय-निग्रह-इंद्रियों को विषयों की ओर से
रोकना और उनको वश में लाकर आपनी इच्छा के अधीन रखना। इसे धार्मिक साधना की
नींव ही कह सकते हैं। फिर आता है 'अभ्यास', अर्थात आत्मसंयम और आत्मत्याग का
अभ्यास। आत्मा में दिव्य साक्षात्कार की असीम संभावनाओं को भक्त संघर्ष और ऐसे
अभ्यास के बिना सिद्ध नहीं कर सकता। पर सार्थक के प्राणपण से प्रयत्न और प्रबल
संयम के अभ्यास बिना या किसी भी तरह कार्य में परिणत नहीं किया जा सकता। 'मन
में सदा प्रभु का ही चिंतन चलता रहे'। पहले यह बात बहुत कठिन मालूम होती है।
पर अध्यवसाय के साथ लगे रहने पर इस प्रकार के चिंतन की शक्ति धीरे बढ़ती जाती
है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं, "हे कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से
यह प्राप्त होता है।" उसके बाद है 'क्रिया' अर्थात् यज्ञ। पंच महायज्ञों का
नियमित रूप से अनुष्ठान करना होगा।
'कल्याण' अर्थात् पवित्रता ऐसी भित्ति है, जिस पर सारा भक्तिप्रसाद खड़ा है।
बाह्र्य शौच और खाद्याखाद्य- विचार, ये दोनों सरल हैं, पर आंतरिक शौच एवं
पवित्रता के बिना उनका कोई मूल्य नहीं। रामानुज के आंतरिक शौच के लिए
निम्नलिखित गुणों को उपायस्वरूप बतलाया है-(१) सत्य, (२) आर्जव अर्थात् सरलता,
(३) दया अर्थात् नि:स्वार्थ परोपकार, (४) दान, (५) अंहिसा अर्थात् मन, वचन और
कर्म से किसी की हिंसा न करना, (६) अनभिध्या अर्थात् परद्र्व्य में लोभ न
करना, वृधा चिंतन और दूसरे द्वारा किए गए अनिष्ट आचरण के निरंतर चिंतन का
त्याग। इन गुणों में से अहिंसा विशेष ध्यान देने योग्य है। सब प्राणियों के
प्रति अहिंसा का भाव हमारे लिए परमावश्यक है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम केवल
मनुष्य के प्रति दया का भाव रखें और छोटे जानवरों को निर्दयता से मारते
रहें,और न यही-जैसा कुछ लोग समझते हैं-कि हम कुत्ते और बिल्लियों की तो रक्षा
करते रहें, चीटियों को शक्कर खिलाते रहें, पर इधर, जैसा बने वैसा, अपने मानव
बंधुओं का गला काटने के लिए बिना किसी शिक्षक के तैयार रहें। यह एक उल्लेखनीय
बात है कि इस संसार में प्राय: प्रत्येक शुभ विचार भी वीभत्सता की चरम सीमा तक
ले जाए जा सकते हैं। केवल अक्षरार्थ ग्रहण करके, अति की सीमा तक पहुंचाई अच्छी
साधना भी दोष बन जाती है। कुछ धार्मिक संप्रदायों के मैले- कुचले साधु इस पर
विचार से कि कहीं उनके शरीर के जुएँ आदि मर ना जाएं, नहाते तक नहीं। परंतु
उन्हें इस बात का कभी ध्यान भी नहीं आता कि ऐसा करने से वह दूसरों को कितना
कष्ट देते हैं और कितनी बीमारियां फैलाते हैं! वे जो भी हों, पर कम से कम
वैदिक धर्मावलंबी तो नहीं हैं।
अहिंसा की कसौटी है-ईर्ष्या अभाव। कोई व्यक्ति भले ही शनि आवेश में आकर अथवा
किसी अंधविश्वास से प्रेरित हो या पुरोहितों के छक्के-पंजे में पढ़कर कोई भला
काम कर डालें, अथवा खासा दान दे डाले, पर मानव जाति का सच्चा प्रेमी वह है जो
किसी के प्रति ईर्ष्या भाव नहीं रखता। बहुधा देखा जाता है कि संसार में जो
बड़े मनुष्य कहे जाते हैं, वे अक्सर एक-दूसरे के प्रति केवल थोड़े से नाम,
कीर्ति या चांदी के चंद टुकड़ों के लिए ईर्ष्या करने लगते हैं। जब तक यह
ईर्ष्या भाव मन में रहता है, तब तो अहिंसा भाव में प्रतिष्ठित होना बहुत दूर
की बात है। गाय मांस नहीं खाती, और न भेड़ ही; तो क्या वह बहुत बड़े योगी हो
गए, अहिंसक हो ग ये? ऐरा-गैरा कोई भी कोई विशेष चीज़ खाना छोड़ दे सकता है, पर
उससे वह घासाहारी पशुओं की अपेक्षा का कोई विशेषता नहीं प्राप्त करता। जो
मनुष्य निर्दयता के साथ विधवाओं और अनाथ बालक-बालिकाओं को थक सकता है और जो
थोड़े से धन के लिए जघन्य से जघन्य कृत्य करने में भी नहीं हिचकता, वह तो पशु
से भी गया बीता है- फिर चाहे घास खाकर ही क्यों न रहता हो। जिसके हृदय में कभी
भी किसी के प्रति अनिष्ठ विचार तक नहीं आता, जो अपने बड़े से बड़े शत्रु की भी
उन्नति पर आनंद मनाता है, वही वास्तव में भक्त है, वही योगी है और वही सबका
गुरु है- फिर भले ही वह प्रतिदिन शूकर-मांस ही क्यों न खाता हो। अतः हमें इस
बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि बाह्य क्रियाएं आंतरिक सिद्धि के लिए सहायक
मात्र हैं। जब बाह्य कर्मों के साधन में छोटी-छोटी बातों का पालन करना संभव न
हो, तो उस समय केवल अंतः शौच का अवलंबन करना श्रेयस्कर है। पर धिक्कार है उस
व्यक्ति को, धिक्कार है उस राष्ट्र को, जो धर्म के सार को तो भूल जाता है और
अभ्यास वर्ष बाह्य अनुष्ठानों को ही कसकर पकड़े रहता है तथा उन्हें किसी तरह
छोड़ता नहीं! इन बाह्र्य अनुष्ठानों की उपयोगिता बस वहीं तक है, जब तक वे
आध्यात्मिक जीवन के द्योतक हैं। और जब वे प्राणशून्य हो जाते हैं, जब वे
आध्यात्मिक जीवन के द्योतक नहीं रह जाते, तो निर्ममतापूर्वक उनको नष्ट कर देना
चाहिए।
भक्तियोग की प्राप्ति का एक और साधन है 'अनवसाद' अर्थात् बल। श्रुति कहती है,
'बलहीन व्यक्ति आत्मलाभ नहीं हो सकता।' इस दुर्बलता का तात्पर्य है-शारीरिक और
मानसिक, दोनों प्रकार की दुर्बलताएँ। 'बलिष्ठ, द्रढिष्ठ' व्यक्ति ही ठीक ठीक
साधन होने योग्य है। दुर्बल, कृष-शरीर तथा जरा-जीर्ण व्यक्ति क्या साधन करेगा?
शरीर और मन में जो अद्भुत शक्तियाँ निहित हैं, किसी योगाभ्यास के द्वारा यदि
वे थोड़ी सी भी जाग्रत हो गयीं, तो दुर्बल व्यक्ति तो बिल्कुल नष्ट हो जाएगा।
'युवा, स्वस्थकाय, सबल' व्यक्ति ही सिद्ध हो सकता है। अतएव शारीरिक बल नितांत
आवश्यक है। स्वस्थ शरीर ही इंद्रिय-संयम की प्रतिक्रिया को सह सकता है। अत: जो
भक्त होने का इच्छुक है, उसे सबल और स्वस्थ होना चाहिए। अत्यंत दुर्बल व्यक्ति
यदि कोई योगाभ्यास आरंभ कर दे, तो संभव है, वह किसी असाध्य व्याधि से ग्रस्त
हो जाए, अथवा अपना मानसिक बल ही खो बैठे। जान-बूझकर शरीर को दुर्बल कर लेना
आध्यात्मिक अनुभूति के लिए कोई अनुकूल व्यवस्था नहीं है।
दुर्बलचित्त व्यक्ति ब आत्मलाभ नहीं कर सकता। मनुष्य भक्त होने का इच्छुक है,
उसे सदैव प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। पाश्चात्य देशों में, धार्मिक व्यक्ति वह
माना जाता है, जो कभी मुस्कुराता नहीं, जिसके मुख पर सर्वदा विषाद की रेखा बनी
रहती है और जिसकी सूरत लंबी और जबड़े बैठे से होते हैं। ऐसे कृश शरीर और लंबी
सूरत वाले लोग तो कभी हाकिम की देख-भाल की चीज़ें हैं, वे योगी नहीं हैं!
प्रसन्नचित्त व्यक्ति की अध्यवसायशील हो सकता है। दृढ़ संकल्पवाला व्यक्ति
हज़ारों कठिनाइयों में से भी अपना रास्ता निकाल लेता है। इस माया- जाल को काटकर
अपना रास्ता बना लेना सबसे कठिन कार्य है, और यह केवल प्रबल इच्छा
-शक्तिसंपन्न पुरुष ही कर सकते हैं।
परंतु साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य कहीं अत्याधिक आमोद में
मत्त न हो जाए। यही 'अनुद्धर्ष है। अत्यंत हास्य-कौतुक हमें गंभीर चिंतन के
आयोग्य बना देता है। उससे मानसिक शक्ति व्यर्थ ही क्षीण हो जाती है। इच्छा-
शक्ति जितनी दृढ़ होगी, मनुष्य विभिन्न भावों के उतना ही कम वशीभूत होगा।
अत्यधिक आमोद उतना ही बुरा है, तभी सब प्रकार की आध्यत्मिक अनुभूति संभव होती।
इन्हीं सब साधनों द्वारा क्रमश: ईश्वर-भक्ति का उदय होता है।
पराभक्ति
प्रारंभिक त्याग
जब तक हमने गौणी भक्ति के बारे में चर्चा की। अब हम पराभक्ति का विवेचन
करेंगे। इस पराभक्ति के अभ्यास में लाग्ने के लिए एक विशेष साधन की बात बतलानी
है। सब प्रकार की साधनाओं का उद्देश्य है- आत्मशुद्धि। नाम- जप, कर्मकांड,
प्रतीक ,प्रतिमा आदि केवल आत्मशुद्धि के लिए हैं। पर शुद्धि की इन सब साधनाओं
में त्याग ही सबसे श्रेष्ठ है। इसके बिना कोई भी पराभक्ति के क्षेत्र में
प्रवेश नहीं कर सकता। त्याग की बात सुनते ही बहुत से लोग डर जाते हैं; पर इसके
बिना किसी प्रकार की आध्यात्मिक उन्नति संभव नहीं। सभी प्रकार के योगों में यह
त्याग आवश्यक है। यह त्याग ही सारी आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है, उसका
यथार्थ केंद्र, उसका सार है। यह त्याग ही वास्तविक धर्म है।
जब मानवात्मा संसार की समस्त वस्तुओं से विमुख होकर गंभीर तत्त्वों के
अनुसंधान में लग जाती है, जब वह समझ लेती है कि मैं देहरुप जड़ में बद्ध होकर
स्वयं जड़ हुई जा रही हूँ और क्रमश: विनाश की ओर ही बढ़ रही हूँ,- और ऐसा समझकर
जब वह जड़ पदार्थ से अपना मुँह मोड़ लेती है, तभी त्याग आरंभ होता है, तभी
वास्तविक आध्यत्मिकता का विकास प्रारंभ होता है। कर्मयोगी सारे कर्मफलों का
त्याग करता है; वह जो कुछ कर्म करता है, उसके फल में वह आसक्त नहीं होता। वह
ऐहिक अथवा पारत्रिक किसी प्रकार के फलोपभोग की चिंता नहीं करता। राजयोगी जानता
है की सारी प्रकृति का लक्ष्य आत्मा को भिन्न-भिन्न प्रकार का सुख-दु:खात्मक
अनुभव प्राप्त कराना है, जिनके फलस्वरूप आत्मा यह जान ले कि वह प्रकृति से
नित्य पृथक् और स्वतंत्र है। मानवात्मा को यह भलीभाँति जान लेना होगा कि वह
नित्य आत्मस्वरूप है और भूतों के साथ उसका संयोग केवल सामाजिक है, क्षणिक है।
राजयोगी प्रकृति के अपने अनुभवों से वैराग्य की शिक्षा पाता है। ज्ञानयोगी का
वैराग्य सबसे कठिन है, क्योंकि आरंभ से ही उसे यह जान लेना पड़ता है कि प्रकृति
में जहाँ भी शक्ति की अभिव्यक्ति है, वह सब आत्मा की ही शक्ति है, प्रकृति की
नहीं। उसे आरंभ से ही यह जान लेना पड़ता है कि सारा ज्ञान और अनुभव आत्मा में
ही है, प्रकृति में नहीं, और इसलिए उसे केवल विचारजन्य धारणा के बल से एकदम
प्रकृति के सारे बंधनों को छिन्न-भिन्न कर डालना पड़ता है। प्रकृति और
प्राकृतिक पदार्थों की ओर वह देवता तक नहीं, वे सब उड़ते दृश्यों के समान उसके
सामने गायब से हो जाते हैं। वह स्वयं कैवल्यपद में अवस्थित होने का प्रयत्न
करता है।
सब प्रकार के वैराग्यों में भक्तियोगी का वैराग्य सबसे स्वाभाविक है। उसमें न
कोई कठोरता है, न कुछ छोड़ना पड़ता है, न हमें अपने आपसे कोई चीज़ छीननी पड़ती है,
और न बलपूर्वक किसी चीज़ से हमें अपने अपको अलग ही करना पड़ता है। भक्ति का
त्याग तो अत्यंत सहज और हमारे आसपास की वस्तुओं की तरह स्वाभाविक होता है। इस
प्रकार का त्याग, बहुत कुछ विकृत रूप में, हम प्रतिदिन अपने चारों ओर देखते
हैं। उदाहरणार्थ, एक मनुष्य एक स्त्री से प्रेम करता है। कुछ समय बाद वह दूसरी
स्त्री से प्रेम करने लगता है और पहली स्त्री को छोड़ देता है। वह पहली स्त्री
धीरे-धीरे उसके मन से पूर्णतया चली जाती है और उस मनुष्य को उसकी याद नहीं आती
-उस स्त्री का अभाव तक उसे अब महसूस नहीं होता। एक स्त्री एक मनुष्य से प्रेम
करती है; कुछ दिनों बाद वह दूसरे मनुष्य से प्रेम करने लगती है और पहला आदमी
उसके मन से सहज ही उतर जाता है। किसी व्यक्ति को अपने शहर से प्यार होता है।
फिर वह अपने देश को प्यार करने लगता और तब उसका अपने उस छोटे से शहर के प्रति
उत्कट प्रेम धीरे-धीरे, स्वाभाविक रूप से चला जाता है। फिर जब वही मनुष्य सारे
संसार को प्यार करने लगता है, तब उसकी कट्टर देशभक्ति, अपने देश के प्रबल और
उन्मत्त प्रेम धीरे-धीरे चला जाता है। इससे उसे कोई कष्ट नहीं होता। यह भाव
दूर करने के लिए उसे किसी प्रकार की ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं करनी पड़ती। एक असंस्कृत
मनुष्य इंद्रिय-सुखों में उन्मत्त रहता है। जैसे जैसे वह संस्कृत होता जाता
है, वैसे वैसे बौद्धिक विषयों में उसे अधिक सुख मिलने लगता है और उसके
विषय-भोग भी धीरे-धीरे कम होते जाते है। एक कुत्ता अथवा भेड़िया जितनी रुचि से
अपना भोजन करता है, उतना आनंद किसी मनुष्य को अपने भोजन में नहीं आता। परंतु
जो आनंद मनुष्य को बुद्धि और बौद्धिक कार्यो से प्राप्त होता है, उसका अनुभव
एक कुत्ता नहीं कर सकता। पहले-पहल इंद्रियों से सुख होता है; परंतु
ज्यों-ज्यों प्राणी उच्चतर अवस्थाओं को प्राप्त होता जाता है, त्यों-त्यों
इंद्रियजन्य सुखों में उसकी आसक्ति कम होती जाती है। मानव-समाज में भी देखा
जाता है कि प्रवृत्ति जितनी पशुवत होती है, वह उतनी ही तीव्रता से इंद्रियों
में सुख का अनुभव करता है। पर वह जितनी ही संस्कृत और उच्च होता जाता है, उतना
ही उसे बुद्धि संबंधी तथा इसी प्रकार की अन्य सूक्ष्मतर बातों में मिलने लगता
है। इसी तरह, जब मनुष्य बुद्धि और मनोवृत्ति के भी अतीत हो जाता है और
आध्यत्मिकता तथा ईश्वरानुभूति के क्षेत्र में विचरता है, तो उसे वहाँ एक
अपूर्व आनंद प्राप्त होता है कि उसकी तुलना में सारा इंद्रियजन्य सुख, यहाँ तक
कि बुद्धि से मिलनेवाला सुख भी बिल्कुल तुच्छ प्रतीत होता है। जब चंद्रमा
चारों ओर अपनी शुभ्रोज्ज्वल किरणें बिखेरता है, तो तारे धुँधले पड़ जाते हैं,
परंतु सूर्य के प्रकट होने से चंद्रमा स्वयं ही निष्प्रभ हो जाता है। भक्ति के
लिए जिस वैराग्य की आवश्यकता होती है, उसको प्राप्त करने के लिए किसी का नाश
करने की आवश्यकता नहीं होती। वह वैराग्य तो स्वभावत: ही आ जाता है। जैसे बढ़ते
हुए तेज़ प्रकाश के सामने मंद प्रकाश धीरे-धीरे स्वयं ही धुँधला होता जाता है
और अंत में बिल्कुल विलीन हो जाता है, उसी प्रकार इंद्रीयजन्य तथा बुद्धिजन्य
सुख ईश्वर-प्रेम के समक्ष आप ही आप धीरे-धीरे धुँधले होकर अंत में विलीन हो
जाते हैं।
यही ईश्वर-प्रेम क्रमश: बढ़ते हुए एक ऐसा रूप धारण कर लेता है, जिसे पराभक्ति
कहते हैं। तब तो इस प्रेमिक पुरुष के लिए अनुष्ठान की और आवश्यकता नहीं रह
जाती, शास्त्रों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता; प्रतिमा, मंदिर, गिरजे, विभिन्न
धर्म संप्रदाय, देश, राष्ट्र-ये सब छोटे-छोटे सीमित भाव और बंधन अपने आप ही
चले जाते हैं। तब संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं बच रहती, जो उसको बाँध सके,
जो उसकी स्वाधीनता को नष्ट कर सके। जिस प्रकार किसी चुंबक की चट्टान के पास एक
जहाज के आ जाने से, उस जहाज की सारी कीलें तथा लोहे की छड़ें खिंचकर निकाल आती
हैं और जहाज के तख्ते आदि खुलकर पानी पर तैरने लगते हैं, उसी प्रकार प्रभु की
कृपा से आत्मा के सारे बंधन दूर हो जाते हैं और वह मुक्त हो जाती है। अतएव
भक्ति-लाभ के उपायस्वरूप इस वैराग्य-साधन में न तो किसी प्रकार की कठोरता है,
न शुष्कता और न किसी प्रकार की ज़बरदस्ती ही। भक्त को अपने किसी भी भाव का दामन
करना नहीं पड़ता, प्रत्युत वह तो सब भावों को प्रबल करके भगवान की ओर लगा देता
है।
भक्त का वैराग्य
-
प्रेमजन्य
प्रकृति में हम सर्वत्र प्रेम ही देखते हैं। मानव-समाज में जो कुछ सुंदर और
महान और उदात्त है, वह समस्त प्रेमप्रसूत है; फिर जो कुछ खराब, यही नहीं,
बल्कि पैशाचिक है, वह भी उसी प्रेम-भाव का विकृत रूप है। पति-पत्नी का विशुद्ध
दाम्पत्य प्रेम और अति नीच कामवृत्ति, दोनों उस प्रेम के ही दो रूप हैं। भाव
एक ही है, पर भिन्न भिन्न अवस्था में उसके भिन्न भिन्न रूप होते हैं। यह एक ही
प्रेम एक ओर तो मनुष्य को भलाई करने और अपना सब कुछ गरीबों को बाँट देने के
लिए प्रेरित करता है, फिर दूसरी ओर वही एक दूसरे मनुष्य को अपने बंधु-बांधवों
का गला काटने और उनका सर्वस्य अपहरण कर लेने की प्रेरणा देता है। यह दूसरा
व्यक्ति जिस प्रकार अपने आपसे प्यार करता है, पहला व्यक्ति उसी प्रकार दूसरों
से प्यार करता है। पहली दशा में प्रेम की गति ठीक और उचित्त दिशा में है, पर
दूसरी दशा में वही बुरी दिशा में। जो आग हमारे लिए भोजन पकाती है, वह एक बच्चे
को जला भी सकती है। किंतु इसमें आग का कोई दोष नहीं। उसका जैसा व्यवहार किया
जाएगा, वैसा फल मिलेगा। अतएव यह प्रेम, यह प्रबल आसंग-स्पृहा, दो व्यक्तियों
के एक एकप्राण हो जाने की यह तीव्र आकांक्षा, और संभवत:, अंत में सबकी उस
एकस्वरूप में विलीन हो जाने कि इच्छा, उत्तम या अधम रूप से सर्वत्र प्रकाशित
है।
भक्ति योग उच्चतर प्रेम का विज्ञान है। वह हमें दर्शाता है कि हम प्रेम को ठीक
रास्ते से कैसे लगायें, कैसे उसे वश में लायें, उसका सद्व्यवहार किस प्रकार
करें, किस प्रकार एक नए मार्ग में उसे मोड़ दे और उससे श्रेष्ठ और महत्तम फल
अर्थात जीवन्मुक्त अवस्था किस प्रकार प्राप्त करें। भक्ति योग कुछ छोड़ने
छोड़ने की शिक्षा नहीं देता; वह केवल कहता है, "परमेश्वर में आसक्त होओ।" और
जो परमेश्वर के प्रेम में उन्मत्त हो गया है, उसकी, स्वभावत: निम्न विषयों में
कोई प्रवृत्ति नहीं रह सकती।
'प्रभो, मैं तेरे बारे में और कुछ नहीं जानता, केवल इतना जानता हूँ कि तू मेरा
है। तू सुंदर है! तू स्वयं सौंदर्य स्वरूप है !' हम सभी में सौंदर्य-पिपासा
विद्यमान है। भक्ति योग केवल इतना कहता है कि इस सौंदर्य ब पिपाशा की गति
भगवान की को ओर फेर दो। मानव मुख में, आकाश, तारा या चंद्रमा में जो सौंदर्य
दिखता है, आया कहां से? वह भगवान के उस सर्वतो - मुखी प्राकृतिक सौंदर्य का ही
आंशिक प्रकाश मात्र है।' उसी के प्रकाश से सब प्रकाशित होते हैं।'
[32]
उसी का तेज़ सब वस्तुओं में है। भक्ति की इस उच्च अवस्था को प्राप्त करो। उससे
तुम अपने समस्त क्षुद्र अहम् भावों को भूल जाओगे। छोटे-छोटे सांसारिक
स्वार्थों का त्याग कर दो। मानवता को ही अपने समस्त मानवी और उससे उच्चतर
ध्येयों का भी केंद्र न समझ बैठना। तुम केवल एक साक्षी की तरह, एक जिज्ञासु की
तरह खड़े रहो और प्रकृति की लीलाएं देखते जाओ। मनुष्य के प्रति आसक्ति रहित
होओ और देखो, यह प्रबल प्रेम - प्रवाह जगत् में किस प्रकार कार्य कर रहा है!
हो सकता है ,कभी-कभी एकाध धक्का भी लगे, परंतु वह परम प्रेम की प्राप्ति के
मार्ग में होने वाली एक घटना मात्र है। संभव है, कहीं थोड़ा द्वंद छिड़े, अथवा
कोई थोड़ा फिसल जाए, पर ये सब उस प्रेम में आरोहण के सोपान मात्र हैं। जितनी
द्वंद छिड़े, चाहे जितनी संघर्ष आए पर तुम साक्षी होकर बस एक ओर खड़े रहो। यह
द्वंद तुम्हें तभी खटकेंगे, जब तुम संसार प्रवाह में पड़े होगे। परंतु जब तुम
उसके बाहर निकल जाओगे और केवल एक दृष्टा के रूप में खड़े रहोगे, तो देखोगे कि
प्रेम स्वरूप भगवान अपने आपको अनंत प्रकार से प्रकाशित कर रहा है।
'जहाँ कहीं थोड़ा सा भी आनंद है, चारों वह घोर विषय भोग का ही क्यों न हो,
वहाँ उस अनंत आनंद स्वरूप भगवान का ही अंश है' निम्नतम आकर्षण में भी ईश्वरीय
प्रेम का बीज निहित है। संस्कृत भाषा में प्रभु का एक नाम' हरि' है। उसका अर्थ
यह है कि वह सबको अपनी ओर आकृष्ट करता है। असल में वही हमारे प्रेम का एकमात्र
उपयुक्त पात्र है। यह जो हम लोग नाना दिशाओं में आकृष्ट हो रहे हैं, तो हम
लोगों को खींच कौन रहा है? वही!-वही हमें अपनी गोद में लगातार खींच रहा है।
निर्जीव जड़ क्या कभी चेतन आत्मा की खींच सकता है? नहीं-कभी नहीं। मान लो, एक
सुंदर मुखड़ा देखकर कोई उन्मत्त हो गया। तो क्या कुछ जड़ परमाणुओं की समष्टि
ने उसे पागल कर दिया है? नहीं कभी नहीं। इन जड़ परमाणुओं के पीछे अवश्य
ईश्वरीय शक्ति और ईश्वरीय प्रेम का खेल चल रहा है। अज्ञ मनुष्य यह नहीं जानता।
परंतु फिर भी, जाने य अनजाने, वह उसी के द्वारा आकृष्ट हो रहा है। अतएव यहाँ
तक कि निम्नतम प्रकार के आकर्षण भी अपनी शक्तियां स्वयं भगवान से ही पाती हैं।
' हे प्रिय, कोई स्त्री अपने पति को पति के निमित प्यार नहीं करती; पति की
अंतरस्थ आत्मा के निमित्त ही पत्नी उसे प्यार करती है।'
[33]
प्रेमिका पत्नियाँ चाहे यह जानती हों अथवा नहीं, पर है यह सत्य। ' हे प्रिय,
पत्नी के लिए पत्नी को कोई प्यार नहीं करता, परंतु पत्नी की अंतरस्थ आत्मा के
लिए ही पति उसे प्यार करता है।'
[34]
इसी प्रकार, संसार में जब कोई अपने बच्चे अथवा अन्य किसी से प्रेम करता है, ती
वह वास्तव में उसकी अंतरस्थ आत्मा के लिए ही उसमें प्रेम करता है। भगवान मानो
एक बड़ा चुंबक है और हम सब लोहे के कण के समान हैं। हम लोग उसके द्वारा सतत
खींचे जा रहे हैं। हम सभी उसे प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। संसार में
हम जो नानाविध प्रयत्न करते हैं, वे सब केवल स्वार्थ के लिए नहीं हो सकते।
अज्ञानी लोग जानते नहीं कि उनके जीवन का उद्देश्य क्या है। वास्तव में वे
लगातार परमात्मारूप उस बड़े चुंबक की ओर ही अग्रसर हो रहे हैं। हमारे इस
अविराम, कठोर जीवन-संग्राम का लक्ष्य है- अंत में उनके निकट पहुँचकर उनके साथ
एकीभूत हो जाना।
भक्तियोगी इस जीवन - संग्राम का अर्थ भलीभांति जानता है। वह ऐसे संग्रामों की
एक लंबी श्रृंखला में से पार हो चुका है और वह जानता है कि उनका लक्ष्य क्या
है। उनसे होने वाले द्वंदों से छुटकारा पाने की उसकी तीव्र आंकाक्षा रहती है।
वह संघर्षों से दूर ही रहना चाहता है और सीधे समस्त आकर्षणों के मूल
कारणस्वरूप 'हरि' के निकट चला जाना चाहता है। यही भक्त का त्याग है। भगवान के
प्रति इस प्रबल आकर्षण से उनके अन्य सब आकर्षण नष्ट हो जाते हैं।उनके हृदय में
इस प्रबल अनंत ईश्वर-प्रेम के प्रवेश कर जाने से फिर वहाँ अन्य किसी प्रेम की
तिल मात्र भी गुंजाइश नहीं रह जाती। और रहे भी कैसे? भक्ति उसके हृदय को
ईश्वररूपी प्रेम-सागर के दैवी सलिल से भर देती है और इस प्रकार उसमें फिर
क्षुद्र प्रेमों के लिए स्थान ही नहीं रह जाता। तात्पर्य यह कि भक्त का
वैराग्य अर्थात् भगवान को छोड़ समस्त विषयों में अनासक्ति भगवान के प्रति परम
अनुराग से उत्पन्न होती है।
पराभक्ति की प्राप्ति के लिए यही सर्वोच्च साधन है-यही आदर्श तैयारी है। जब यह
वैराग्य आता है, तो परा भक्ति के राज्य का प्रवेश-द्वार खुल जाता है, जिससे
आत्मा परा भक्ति के गंभीरतम प्रदेशों में पहुँच सके। तभी हम यह समझने लगते हैं
कि परा भक्ति क्या है। और जिसने परा भक्ति के राज्य में प्रवेश किया है, उसी
को यह कहने का अधिकार है कि प्रतिमा-पूजन अथवा बाह्य अनुष्ठान आदि अब आवश्यक
नहीं हैं। उसी ने प्रेम की उस परम अवस्था की प्राप्ति कर ली है, जिसे हम
साधारणतया विश्वबंधुत्व कहते हैं; दूसरे लोग तो विश्वबंधुत्व की कोरी बातें ही
करते हैं। उसमें फिर भेदभाव नहीं रह जाता। अथाह प्रेमसिंधु उसमें समा जाता है।
तब उसे मनुष्य में मनुष्य नहीं दिखता, वरन् सर्वत्र उसे अपना प्रियतम ही
दिखायी देता है। प्रत्येक मुख में उसे 'हरि' ही दिखायी देता है। सूर्य अथवा
चंद्र का प्रकाश उसीकी दृष्टि में वह सब भगवान का ही है। ऐसे भक्त आज भी इस
संसार में विद्यमान हैं। संसार उनसे कभी रिक्त नहीं होता। ऐसे भक्तों को यदि
सांप भी काट ले ,तो वे कहते हैं, "मेरे प्रियतम का एक दूत आया था। "ऐसे ही
पुरुषों को विश्वबंधुत्व की बातें करने का अधिकार है। उनके हृदय में क्रोध,
घृणा अथवा ईर्ष्या कभी प्रवेश नहीं कर पाती। सारा बाह्य, इंद्रिय ग्राह्य जगत्
उनके लिए सदा के लिए लुप्त हो जाता है। वे तो अपने प्रेम के द्वारा बाह्य
दृश्यावली के पीछे स्थित सत्य को सारे समय देखते रहते हैं। वे कभी क्रोधित
कैसे हो सकते हैं?
भक्तियोग की स्वाभाविकता और केंद्रीय रहस्य
भगवान श्री कृष्ण से अर्जुन पूछते हैं, "हे प्रभो, जो सतत युक्त हो तुम्हें
भजते है, और जो अव्यक्त ,निर्गुण के उपासक हैं, इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है?"
कृष्ण उत्तर देते हैं, "हे अर्जुन, मुझमें में को एकाग्र करके जो नित्य युक्त
हो परम श्रद्धा के साथ मेंरी उपासना करता है, वही मेरा श्रेष्ठ उपासक है,वही
श्रेष्ठ योगी है। और जो इंद्रिय-समुदाय को पूर्ण वश में करके, मन-बुद्धि से
परे, सर्वव्यापी, अव्यक्त और सदा एकरस रहने वाले नित्य, अचल, निराकार,
अविनाशी, सच्चिदानंदघन ब्रह्मा की, निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासना
करते हैं, वे समस्त भूतों के हित में रत हुए और सबमें समान भाव रखने वाले योगी
भी मुझे ही प्राप्त होते हैं। किंतु उन सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्मा में
आसक्त चित्तवाले पुरुषों के लिए (साधन में) क्लेश अर्थात् परिश्रम अधिक है,
क्योंकि देहाभिमानी व्यक्तियों द्वारा यह अव्यक्त गति बहुत दु:खपूर्वक प्राप्त
की जाती है, अर्थात जब तक शरीर में अभिमान रहता है, तब तक निराकार ब्रह्मा में
स्थिति होनी कठिन है और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मुझमें
अर्पित कर, मुझे अनन्य ध्यान और योग्य से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं,
मुझमें चित्त लगाने वाले उन प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र है मृत्युरूपी
संसार-समुंद्र से उद्धार करता हूँ।"
उपर्युक्त कथन में ज्ञानयोग और भक्तियोग, दोनों का दिग्दर्शन कराया गया है। कह
सकते हैं कि उसमें दोनों की व्याख्या कर दी गयी है। ज्ञानयोग अवश्य अति
श्रेष्ठ मार्ग है। तत्व-विचार उसका प्राण है। और आश्चर्य की बात तो यह है कि
सभी सोचते हैं कि वे ज्ञानयोग के आदर्श-अनुसार चलने में समर्थ हैं। परंतु
वास्तव में ज्ञानयोग-साधना बड़ी कठिन है। उसमें गिर जाने की बड़ी आशंका रहती
है।संसार में हम दो प्रकार के मनुष्य देखते हैं। एक तो आसुरी प्रकृति वाले
,जिनकी दृष्टि में शरीर का पालन-पोषण ही सर्वस्य है, और दूसरे दैवी प्रकृति
वाले, जिनकी यह धारणा रहती है कि शरीर किसी एक विशेष उद्देश्य की पूर्ति
का-आत्मोन्नति का साधन रहती है। शैतान भी अपनी कार्य-सिद्धि के लिए शास्त्रों
को उद्धृत कर सकता है और करता भी है। और इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि
ज्ञानमार्ग जिस प्रकार साधु व्यक्तियों के सत्कार्य का प्रबल प्रेरक है, उसी
प्रकार असाधु व्यक्तियों के भी कार्य का समर्थक है। ज्ञानयोग में यही एक बड़े
खतरे कि बात है। परंतु भक्तियोग बिल्कुल स्वाभाविक और मधुर है। भक्त उतनी ऊँची
उड़ान नहीं उड़ता , जितनी कि एक ज्ञानयोगी , और इसीलिए उसके बड़े खड्डों में
गिरने की आशंका भी नहीं रहती। पर हां इतना समझ लेना होगा कि साधक किसी भी पथ
पर क्यों न चले, जब तक आत्मा के सारे बंधन छूट नहीं जाते, तब तक वह मुक्त नहीं
हो सकता।
निम्नोक्त श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि किस प्रकार एक भाग्यशालिनी गोपी पाप
और पुण्य के बंधनों से मुक्त हो गयी थी। 'भगवान के ध्यान से उत्पन्न तीव्र
आनंद ने उसके समस्त पुण्य कर्मजनित बंधनों को काट दिया। फिर भगवान की प्राप्ति
न होने की परम आकुलता से उसके समस्त पाप धुल गए और वह मुक्त हो गयी।'
[35]
अतएव भक्तियोग का रहस्य यह है कि मनुष्य के हृदय में जीतने प्रकार की वासनाएँ
और भाव हैं, उनमें से कोई भी स्वरूपत: अधम नहीं है; उन्हें धीरे-धीरे अपने वश
में लाकर उनको उत्तरोत्तर उच्च दिशा में उन्मुख करना होगा, जिससे वे अंतत:
परमोच्च दशा को प्राप्त हो जा जाएं। उनकी सर्वोच्च दिशा है वह, जो ईश्वर की ओर
ले जाती है, और शेष सब दिशाएं निम्नाभिमुखी हैं। हम देखते हैं कि हमारे जीवन
में सुख और दु:ख सर्वदा लगे ही रहते हैं। जब कोई मनुष्य धन अथवा अन्य किसी
सांसारिक वस्तु के अभाव से दु:ख अनुभव करता है, तो वह अपनी भावनाओं को गलत
मार्ग पर ले जा रहा है। फिर भी, दु:ख की भी उपयोगिता है। यदि मनुष्य इस बात के
लिए दु:ख करने लगे कि अब तक उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई, तो वह दु:ख
उसकी मुक्ति का हेतु बन जाएगा।जब कभी तुम्हें इस बात का आनंद होता है कि
तुम्हारे पास चांदी के कुछ टुकड़े हैं तो समझना कि तुम्हारी आनंद-वृत्ति गलत
रास्ते पर जा रही है। उसे उच्चतर दिशा की ओर ले जाना होगा, हमें अपने सर्वोच्च
लक्ष्य ईश्वर के चिंतन में आनंद अनुभव करना होगा। हमारी अन्य संभावनाओं के
संबंध में भी ठीक ऐसी ही बात है। भक्त की दृष्टि में उनमें से कोई भी खराब
नहीं है ; वह उन सबको लेकर केवल भगवान की ओर उन्मुख कर देता है।
भक्ति की अभिव्यक्त्ति के रूप
भक्ति जिन विविध रूपों
[36]
में प्रकाशित होती हैं, उनमें से कुछ ये हैं: पहला है-'श्रद्धा'। लोग मंदिरों
और पवित्र स्थानों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? इसलिए कि वहाँ
भगवान की पूजा होती है, ऐसे सभी स्थानों से उनकी सत्ता अधिक संबंध होती है।
प्रत्येक देश में लोग धर्म के आचार्यों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते
हैं? इसलिए कि ऐसा करना मानव-ह्रदय के लिए नितांत स्वाभाविक है, क्योंकि ये सब
आचार्य उन्हीं भगवान की महिमा का उपदेश देते हैं। इस श्रद्धा का मूल है प्रेम।
हम जिससे प्रेम नहीं करते, उसके प्रति कभी भी श्रद्धालु नहीं हो सकते। इसके
बाद है-'प्रीति' अर्थात् ईश्वर-चिंतन में आनंद। मनुष्य इंद्रिय-विषयों में
इतना तीव्र आनंद अनुभव करता है! इंद्रियों को अच्छी लगने वाली चीज़ों के लिए वह
कहां-कहां भटकता फिरता है बड़ी से बड़ी जोखिम उठाने को तैयार रहता है। भक्त को
चाहिए कि वह भगवान के प्रति इसी प्रकार का तीव्र प्रेम रखे। इसके उपरांत आता
है 'विरह'-प्रेमास्पद के अभाव में उत्पन्न होने वाला तीव्र दु:ख। यह दु:ख
संसार के समस्त दु:खों में सबसे मधुर हैं-अत्यंत मधुर है। जब मनुष्य भगवान को
न पा सकने के कारण, संसार में एकमात्र जानने योग्य वस्तु को न जान सकने के
कारण भीतर तीव्र वेदना अनुभव करने लगता है और फल स्वरूप अत्यंत व्याकुल हो
बिल्कुल पागल सा हो जाता है, तो उस दशा को विरह कहते हैं। मन की ऐसी दशा में
प्रेमास्पद को छोड़ उसे और कुछ अच्छा नहीं लगता (एकरतिविचिकित्सा)। बहुधा यह
विरह सांसारिक प्रणय में देखा जाता है। जब स्त्री और पुरुष में यथार्थ और
प्रगाढ़ प्रेम होता है, तो उन्हें ऐसे किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति अच्छी नहीं
लगती, जो उनके मन का नहीं होता। ठीक इसी प्रकार जब पराभक्ति हृदय पर अपना
प्रभाव जमा लेती है तो अन्य अप्रिय विषयों की उपस्थिति हमें खटकने लगती है,
यहाँ तक कि प्रेमास्पद भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी विषय पर बातचीत तक करना
हमारे लिए रुचिकर हो जाता है 'उसका केवल उसका ध्यान करो और अन्य सब बातें
त्याग दो।
[37]
जो लोग केवल उन्हीं की चर्चा करते हैं, वह भक्त को मित्र के समान प्रतीत होते
हैं, और जो लोग अन्य विषयों की चर्चा करते हैं, वह उसको शत्रु के समान लगते
हैं। प्रेम की इससे भी उच्च अवस्था तो वह है, जब उस प्रेमास्पद भगवान के लिए
ही जीवन धारण किया जाता है, जब उस प्रेमस्वरूप के निमित्त ही प्राण धारण करना
सुंदर और सार्थक समझा जाता है। ऐसे प्रेमी के लिए उस परम प्रेमास्पद भगवान
बिना एक क्षण भी रहना असंभव उठता है।उस प्रियतम का चिंतन हृदय में सदैव बने
रहने के कारण ही उसे जीवन इतना मधुर प्रतीत होता है शास्त्रों में इसी अवस्था
को तदर्थ प्राणसंस्था न कहा है। 'तदीयता 'तब आती है, जब साधक भक्ति-मत के
अनुसार पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाता है, अब वह श्री भगवान के चरणारविंदों
का स्पर्श कर लेता है, तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है- संपूर्ण रूप से
परिवर्तित हो जाती है। तब उसके जीवन की सारी साध पूरी हो जाती है। फिर भी, इस
प्रकार के बहुत से भक्त उसकी उपासना के निमित्त ही जीवन धारण किए रहते हैं। इस
जीवन के इसी एकमात्र सुख को वे छोड़ना नहीं चाहते। 'हे राजन् ! हरि के ऐसे
मनोहर गुण हैं कि जो लोग उनको प्राप्त कर संसार की सारी वस्तुओं से तृप्त हो
गए हैं, जिनके हृदय की सब ग्रंथियां खुल गयी हैं, वे भी भगवान की निष्काम
भक्ति करते हैं।'
[38]
'जिस भगवान की उपासना सारे देवता, मुमुक्षु और ब्रह्मावादीगण करते हैं।'
[39]
ऐसा ही प्रेम का प्रभाव ! जब मनुष्य अपने आपको बिल्कुल भूल जाता है और जब उसे
यह भी ज्ञान नहीं रहता कि कोई चीज़ अपनी है, और तभी उसे यह तदीयता की अवस्था
प्राप्त होती है तब सब कुछ उसके लिए पवित्र हो जाता है क्योंकि वह सब उसके
प्रेमास्पद का ही तो है। सांसारिक प्रेम में भी, प्रेमी अपनी प्रेमिका की
प्रत्येक वस्तु को बड़ी प्रिय और पवित्र मानता है। अपनी प्रण यीनी के कपड़े के
एक छोटे से टुकड़े को भी वह प्यार करता है। इस प्रकार जो मनुष्य भगवान से
प्रेम करता है, उसके लिए सारा संसार प्रिय हो जाता है, क्योंकि यह संसार आखिर
उसी का तो है।
विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय
समष्टि से प्रेम किए बिना हम व्यष्टि से कैसे प्रेम कर सकते हैं? ईश्वर ही वह
समष्टि है, सारे विश्व का यदि अखंड किया जाए, तो वही ईश्वर है, और उसे
पृथक्-पृथक् रूप से देखने पर वही यह दृश्यमान संसार है-व्यष्टि है। समष्टि वह
इकाई है, जिसमें लाखों छोटी- छोटी इकाइयों का योग है। इस समष्टि के माध्यम से
ही सारे विश्व को प्रेम करना संभव है। भारतीय दार्शनिक व्यष्टि पर ही नहीं रुक
जाते; वे तो व्यष्टि पर एक सरसरी दृष्टि डालकर तुरंत एक ऐसे व्यापक या समष्टि
भाव की खोज में लग जाते हैं, जिसमें सब व्यष्टियों या विशेषों का अंतर्भाव हो।
इस समष्टि की खोज ही भारतीय दर्शन और धर्म का लक्ष्य है। ज्ञानी पुरुष एसी एक
समष्टि की, ऐसे एक निरपेक्ष और व्यापक तत्व की कामना करता है, जिसे जानने से
वह सब कुछ जान सके। भक्त उस एक सर्वव्यापी पुरुष की साक्षात् उपलब्धि कर लेना
चाहता है, जिससे प्रेम करने से वह सारे विश्व से प्रेम कर सके। योगी उस मूलभूत
शक्ति को अपने अधिकार में लाना चाहता है, जिसके नियमन से वह इस संपूर्ण विश्व
का नियमन कर सके। यदि हम भारतीय विचार-धारा के इतिहास का अध्ययन करें, तो
देखेंगे कि भारतीय मन सदा से हर विषय में-भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान,
भक्तितत्व, दर्शन आदि सभी में - एक समष्टि या व्यापक तत्व की इस अपूर्व खोज
में लगा रहा है। अतएव भक्त इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि यदि तुम केवल एक के
बाद दूसरे व्यक्ति से प्रेम करते चले जाओ, तो भी अनंत काल में भी संसार को एक
समष्टि के रूप में प्यार करने में समर्थ न हो सकोगे। पर अंत में जब यह मूल
सत्य ज्ञात हो जाता है कि समस्त प्रेम कि समष्टि ईश्वर है, संसार के मुक्त,
बद्ध या मुमुक्ष सारे जीवात्माओं की आदर्श -समष्टि ही ईश्वर है, तभी यह
विश्वप्रेम संभव होता है। ईश्वर ही समष्टि है और यह परिदृश्यमान जगत् उसी का
परिच्छिन्न भाव है-उसी का अभिव्यक्ति है। यदि हम इस समष्टि को प्यार करें, तो
इससे सभी को प्यार करना हो जाता है। तब जगत् को प्यार करना और उसकी भलाई करना
सहज हो जाता है। पर पहले भगवत्प्रेम के द्वारा हमें यह शक्ति प्राप्त कर लेनी
होंगी, अन्यथा संसार की भलाई करना कोई हँसी-खेल नहीं है। भक्त कहता है, "सब
कुछ उसी का है, वह मेरा प्रियतम है, मैं उससे प्रेम करता हूँ।" इस प्रकार भक्त
को सब कुछ पवित्र प्रतीत होने लगता है, क्योंकि वह सब आखिर उसी का तो है। सभी
उसकी संतान हैं, उसके अंगस्वरूप हैं, उसके रूप हैं। तब फिर हम किसी को कैसे
चोट पहुँचा सकते हैं ? दूसरों को बिना प्यार किए हम कैसे रह सकते हैं ? भगवान
के प्रति प्रेम के साथ ही, उसके निश्चित फलस्वरूप, सर्व भूतों के भी प्रति
प्रेम अवश्य आयेगा। हम ईश्वर के जीतने समीप आते है, उतने ही अधिक स्पष्ट रूप
से देखते हैं कि सब कुछ उसी में है। जब जीवात्मा इस परम प्रेमानंद को आत्मसात
करने में सफल होती है, तब वह ईश्वर को सर्व भूतों में देखने लगती है। इस
प्रकार हमारा हृदय प्रेम का एक अनंत स्रोत बन जाता है। और जब हम इस प्रेम की
और भी उच्चतर अवस्थाओं में पदार्पण करते हैं, तब संसार की वस्तुओं में क्षुद्र
भेद की भावनाएँ हमारे हृदय से सर्वथा लुप्त हो जाती हैं। तब मनुष्य मनुष्य के
रूप में नहीं दीखता, वरन् साक्षात् ईश्वर के रूप में ही दीख पड़ता है; पशु में
पशु-रूप नहीं दिखायी पड़ता, वरन् उसमें स्वयं भगवान प्रकाशमान दीख पड़ता है। इस
प्रकार, भक्ति की इस प्रगाढ अवस्था में सभी प्राणी हमारे लिए उपास्य हो जाते
हैं। 'हरि को सब भूतों में अवस्थित जानकार ज्ञानी को सब प्राणियों के प्रति
अव्यभिचारिणी भक्ति रखनी चाहिए'।
[40]
इस प्रगाढ़, सर्वग्राही प्रेम के फलस्वरूप पूर्ण आत्मसमर्पण की अवस्था उपस्थित
होती है। तब यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि संसार में भला- बुरा जो कुछ होता
है, कुछ भी हमारे लिए अनिष्टकर नहीं। शास्त्रो ने इसी को 'अप्रातिकूल्य' कहा
है। ऐसा प्रेमी जीव दु:ख उपस्थित होने पर कहता है, "दु:ख! स्वागत है
तुम्हारा।" यदि कष्ट आये, तो कहेगा, "आओ कष्ट! स्वागत है तुम्हारा। तुम भी तो
मेरे प्रियतम के पास से ही आये हो।" यदि सर्प आये, तो कहेगा, "विराजो, सर्प !"
यहाँ तक कि यदि मृत्यु भी आये, तो वह अधरों पर मुस्कान लिये उसका स्वागत
करेगा। "धन्य हूँ मैं, जो ये सब मेरे पास आते हैं; इन सबका स्वागत है।" भगवान
और जो कुछ भगवान का है, उस सबके प्रति प्रगाढ़ प्रेम से उत्पन्न होने वाली इस
पूर्ण निर्भरता की अवस्था में भक्त अपने को प्रभावित करने वाले मुख और दु:ख का
भेद भूल जाता है। दु:ख-कष्ट आने पर वह तनिक भी विचलित नहीं होता। और
प्रेमस्वरूप ईश्वर की इच्छा पर यह जो स्थिर, खेदशून्य निर्भरता है, वह तो
सचमुच महान वीरतापूर्ण क्रिया- कलापों से मिलने वाले नाम-यश की अपेक्षा कहीं
अधिक वांछनीय है।
अधिकतर मनुष्यों के लिए देह ही सब कुछ है; देह ही उनकी सारी दुनिया है; देहिक
सुख-भोग ही उनका सर्वस्य है। देह और देह से संबंधित वस्तुओं की उपासना करने का
भूत हम सबमें प्रविष्ट हो गया है। भले ही हम लंबी-चौड़ी बातेन करें, बड़ी
ऊँची-ऊँची उड़ाने लें, पर आखिर हैं हम गिद्धों के ही समान; हमारा मन सदा नीचे
पड़े हुए सड़े-गले मांस के टुकड़े में ही पड़ा रहता है। हम शेर से अपने शरीर की
रक्षा क्यों करें ? हम उसे शेर को क्यों न दे दें? कम से कम उससे शेर की तो
तृप्ति होगी, और यह कार्य आत्मत्याग और उपासना से अधिक भिन्न न होगा। क्या तुम
ऐसे एक भाव की उपलब्धि कर सकते हो, जिसमें स्वार्थ की तनिक भी गंध न हो? क्या
तुम अपना अहं-भाव संपूर्ण रूप से नष्ट कर सकते हो? यह प्रेम-धर्म के शिखर की
यह सिर चकरा देने वाली ऊँचाई है, और बहुत थोड़े लोग ही उस तक पहुँच सके हैं। पर
जब तक मनुष्य इस प्रकार के आत्मत्याग के लिए सारे समय, पूरे हृदय के साथ,
प्रस्तुत नहीं रहता, तब तक वह पूर्ण भक्त नहीं हो सकता। हम अपने इस शरीर को
अल्प अथवा अधिक समय तक के लिए भले ही बनाए रख लें, पर उससे क्या ? हमारे शरीर
का एक न एक दिन नाश होना तो अवश्यंभावी है। उसका अस्तित्व चिरस्थायी नहीं है।
वे धन्य हैं, जिनका शरीर दूसरों की सेवा में अर्पित हो जाता है। 'एक साधु
पुरुष केवल अपनी संपत्ति ही नहीं, वरन् अपने प्राण भी दूसरों की सेवा में
उत्सर्ग कर देने के लिए सदैव उद्यत रहता है। इस संसार में जब मृत्यु निश्चित
है, तो श्रेष्ठ यही है कि यह शरीर नीच कार्य की अपेक्षा किसी उत्तम कार्यों
में ही अर्पित हो जाए'। हम भले ही अपने जीवन को पचास वर्ष या, बहुत हुआ, तो सौ
वर्ष तक खींच ले जाए, पर उसके बाद? उसके बाद क्या होता है? जो वस्तु संघात से
उत्पन्न होती है, वह विघटित होकर नष्ट भी होती है। ऐसा समय अवश्य आता है, अब
उसे विघटित होना पड़ता है। ईसा, बुध्द और मुहम्मद सभी दिवंगत हो गए। संसार के
सारे महापुरुष और आचार्यगण आज इस धरती से उठ गए हैं।
भक्त कहता है, "इस क्षणभंगुर संसार में, जहाँ प्रत्येक वस्तु टुकड़े हो धूल में
मिली जा रही हैं, हमें अपने समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए।" और वास्तव में
जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है की उसे सर्वभूतों की सेवा में लगा दिया जाए।
हमारा सबसे बड़ा भ्रम यह है कि हमारा शरीर ही हम है और जिस किसी प्रकार से हो,
इसकी रक्षा करनी होगी, इसर सुखी रखना होगा। और यह भयानक देहात्माबुद्धि ही
संसार में सब प्रकार कि स्वार्थपरता कि जड़ है। यदि तुम यह निश्चित रूप से जान
सको कि तुम शरीर से बिल्कुल पृथक् हो, तो फिर इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं
रह जाएगा, जिसके साथ तुम्हारा विरोध हो सके। तब तुम सब प्रकार कि स्वार्थपरता
के अतीत हो जाओगे। इसीलिए भक्त कहता है कि हमें ऐसा रहना चाहिए, मानो हम
दुनिया कि सारी चीज़ों के लिए मर से गए हों। और वास्तव में यही यथार्थ
आत्मसमर्पण है-यही सच्ची शरणागति है-'जो होने का है, हो'। यही 'तेरी इच्छा
पूर्ण हो' का तात्पर्य है। उसका तात्पर्य यह नहीं कि हम यत्र-तत्र लड़ाई-झगड़ा
करते फिरें और समय यही सोचते रहें कि हमारी ये सारी कमजोरियाँ और सांसारिक
आकांक्षाएँ भगवान की इच्छा से हो रही हैं। हो सकता है कि हमारे स्वार्थपूर्ण
प्रयत्नों से भी कुछ भला हो जाए; पर वह ईश्वर देखेगा, उसमें हमारा-तुम्हारा
कोई हाथ नहीं। यथार्थ भक्त अपने लिए कभी कोई इच्छा या कार्य नहीं करता। उसके
हृदय के अंतरतम प्रदेश से तो बस यही प्रार्थना निकलती है, "प्रभों, लोग
तुम्हारे नाम पर बड़े बड़े मंदिर बनवाते हैं, बड़े बड़े दान देते हैं; पर मैं तो
निर्धन हूँ, मेरे पास कुछ भी नहीं है। अत: मैं अपने इस शरीर को ही तुम्हारे
चरणों में अर्पित करता हूँ। मेरा परित्याग न करना, मेरे प्रभों!" जिसने एक बार
इस अवस्था का आस्वादन कर लिया है, उसके लिए प्रेमास्पद भगवान के चरणों में यह
चीर आत्मासमर्पण कुबेर के धन और इंद्र के ऐश्वर्य से भी श्रेष्ठ है, नाम-यश और
सुख- संपदा की महान आकांक्षा से भी महत्तर है। भक्त के शांत आत्मसमर्पण से
हृदय में जो शांति आती है, उसकी तुलना नहीं हो सकती, वह बुद्धि के लिए अगोचर
है। इस अप्रातिकूल्य अवस्था की प्राप्ति होने पर उसका किसी प्रकार का स्वार्थ
नहीं रह जाता; और तब फिर स्वार्थ में बाधा देने वाली कोई वस्तु भी संसार में
नहीं रह जाती। इस परम शरणागति की अवस्था में सब प्रकार की आसक्ति समूल नष्ट हो
जाती है और रह जाती है सर्वभूतों की अंतरात्मा और आधारस्वरूप उस भगवान के
प्रति सर्वावगाहिनी प्रेमात्मिका भक्ति। भगवान के प्रति प्रेम की यह आसक्ति ही
सचमुच एसी है, जो जीवात्मा को नहीं बाँधती, प्रत्युत उसके समस्त बंधन सार्थक
रूप से छिन्न कर देती है।
सच्चे भक्त के लिए परविद्या और परभक्ति एक हैं
उपनिषदों में परा और अपरा विद्या में भेद बतलाया गया है। भक्त के लिए
पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक ही हैं। मुण्ड्क उपनिषद् में कहा है,
'ब्रह्मा-ज्ञानी के मतानुसार परा और अपरा, ये दो प्रकार की विद्याएँ जानने
योग्य हैं। अपरा विद्या में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद, शिक्षा
(उच्चारणादि की विद्या), कल्प (यज्ञपद्धति), व्याकरण, निरुक्त (वैदिक शब्दों
की व्युत्पत्ति और अर्थ बताने वाला शास्त्र), छंद और ज्योतिष आदि; तथा
पराविद्या द्वारा उस अक्षर ब्रह्मा का ज्ञान होता है'।
[41]
इस प्रकार पराविद्या स्पष्टत: ब्रह्माविद्या है।
देवीभागवत में पराभक्ति की निम्नलिखित व्याख्या है-'एक बर्तन से दूसरे बर्तन
में तेल डालने पर जिस प्रकार एक अविच्छिन्न धारा में प्रवाहित होता है, उसी
प्रकार जब मन भगवान के सतत चिंतन में लग जाता है, तो पराभक्ति की अवस्था
प्राप्त हो जाती है'।
[42]
भगवान के प्रति अविच्छिन्न आसक्ति के साथ हृदय और मन का इस प्रकार अविरत और
नित्य स्थिर भाव ही मनुष्य के हृदय में भगवत्प्रेम का सर्वोच्च प्रकाश है।
अन्य सब प्रकार की भक्ति इस पराभक्ति अर्थात् रागानुगा भक्ति की प्राप्ति के
लिए केवल सोपानस्वरूप है। जब इस प्रकार का अपार अनुराग मनुष्य के हृदय में
उत्पन्न हो जाता है, तो उसका मन निरंतर भगवान के स्मरण में ही लगा रहता है,
उसे और किसी का ध्यान ही नहीं आता। भगवान के अतिरिक्त वह अपने मन में अन्य
विचारों को स्थान तक नहीं देता और फलस्वरूप उसकी आत्मा पवित्रता के अभेज्ञ कवच
से रक्षित हो जाती तथा मानसिक एवं भौतिक समस्त बंधनों को तोड़कर शांत और मुक्त
भाव धारण कर लेती है। ऐसा ही व्यक्ति अपने हृदय में भगवान की उपासना कर सकता
है। उसके लिए अनुष्ठान-पद्धति, प्रतिमा, शास्त्र और मत-मतांतर आदि अनावश्यक हो
जाते है; उनके द्वारा उसे और कोई लाभ नहीं होता। भगवान की इस प्रकार उपासना
करना सहज नहीं है। साधारणतया मानवी प्रेम व्ही लहलहाते देखा जाता है, जहाँ उसे
दूसरी ओर से बदले में प्रेम मिलता है, और जहाँ ऐसा नहीं होता, वहाँ उदासीनता
आकार अपना अधिकार जमा लेती है। ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं, जहाँ बदले में प्रेम न
मिलते हुए भी प्रेम का प्रकाश होता हो। उदाहरणार्थ, हम दीपक के प्रति पतिंगे
के प्रेम को ले सकते हैं। पतिंगा दीपक से प्रेम करता है। और उसमें गिरकर अपने
प्राण दे देता हैं। असल में इस प्रकार प्रेम करना उसका स्वभाव ही है। केवल
प्रेम के लिए प्रेम करना संसार में निस्संदेह प्रेम की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है
और यही पूर्ण नि:स्वार्थ प्रेम है। इस प्रकार का प्रेम जब आध्यत्मिकता के
क्षेत्र में कार्य करने लगता है, तो वही हमें पराभक्ति की उपलब्धि कराता है।
प्रेम का त्रिकोण
प्रेम की उपमा एक त्रिकोण से दी जा सकती है, जिसका प्रत्येक कोण प्रेम के एक
एक अविभाज्य गुण का सूचक है। जिस प्रकार बिना तीनों कोणों के त्रिकोण नहीं बन
सकता, उसी प्रकार निम्नलिखित तीन गुणों के बिना यथार्थ प्रेम का होना असंभव
है। इस प्रेमरूपी त्रिकोण का पहला कोण तो यह है कि प्रेम में किसी प्रकार का
क्रय-विक्रय नहीं होता। जहाँ कहीं किसी बदले की आशा रहती है, वहाँ यथार्थ
प्रेम कभी नहीं हो सकता; वह तो एक प्रकार की दुकानदारी सी हो जाती है। जब तब
हमारे हृदय में इस प्रकार कि थोड़ी सी भी भावना रहती है कि भगवान की आराधना के
बदले में हमें उससे कुछ मिले, तब तक हमारे हृदय में यथार्थ प्रेम का संचार
नहीं हो सकता। जो लोग किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए ईश्वर की उपासना करते
हैं, उन्हें यदि वह चीज़ न मिले, तो निश्चय ही वे उसकी आराधना करना छोड़ देंगे।
भक्त भगवान से इसलिए प्रेम करता है कि वह प्रेमास्पद है; सच्चे भक्त के इस
दैवी प्रेम का और कोई हेतु नहीं रहता।
एक बार एक राजा किसी वन में गया। वहाँ उसे एक साधु मिले। साधु से थोड़ी देर
बातचीत करके राजा उनकी पवित्रता और ज्ञान पर बड़ा मुग्ध हो गया। राजा ने उनसे
प्रार्थना की, "महाराज,यदि आप मुझसे कोई भेंट ग्रहण करने की कृपा करें, तो
धन्य हो जाऊँ।" पर साधु ने इंकार कर दिया और कहा, "इस जंगल के फल मेरे लिए
पर्याप्त हैं, पहाड़ों से निकले हुए शुद्ध पानी के झरने पीने को पर्याप्त जल दे
देते हैं, वृक्षों की छालें मेरे शरीर को ढकने के लिए काफी हैं और पर्वतो की
कंदराएँ सुंदर घर का काम देती हैं। मैं तुमसे अथवा अन्य किसी से कोई भेंट
क्यों लूँ ?" राजा ने कहा, "महाराज, केवल मुझे कृतार्थ करने के लिए कृपया कुछ
अवश्य स्वीकार कर लीजिए, और दया कर मेरे साथ चलकर मेरी राजधानी तथा महल को
पवित्र कीजिए।" विशेष आग्रह के बाद साधु ने अंत में राजा की प्रार्थना स्वीकार
कर ली और उसके साथ उसके महल को गए। साधु को भेंट देने के लिए पहले राजा
नियमानुसार अपनी दैनिक प्रार्थना करने लगा। उसने कहा, "हे ईश्वर, मुझे और अधिक
संतान दो, मेरा धन और भी बढ़े, मेरा राज्य अधिकाधिक फैल जाए, मेरा शरीर स्वस्थ
और निरोग रहे," आदि आदि। राजा अपनी प्रार्थना समाप्त भी न कर पाया था कि साधु
उठ खड़े हुए और चुपके से कमरे के बाहर चल दिए। यह देखकर राजा बड़े असमंजस में
पड़ गया और चिल्लाता हुआ साधु के पीछे भागा, "महाराज, आप कहाँ जा रहें हैं
आपने तो मुझसे कोई भी भेंट ग्रहण नहीं की ।" यह सुनकर वे पीछे घूमकर राजा से
बोले, "अरे भिखारी, मैं भिखारियों से भिक्षा नहीं माँगता। तू तो स्वयं एक
भिखारी है, मुझे किस प्रकार भिक्षा दे सकता है ! मैं इतना मूर्ख नहीं कि तुझ
जैसे भिखारी से कुछ लूँ। जा, भाग जा, मेरे पीछे मत आ।"
इस कथा से ईश्वर के सच्चे प्रेमियों और साधारण भिखारियों में भेद बड़े सुंदर
ढंग से प्रकट हुआ है। भिखारी की भाँति गिड़गिड़ाना प्रेम की भाषा नहीं है। यहाँ
तक कि, मुक्ति के लिए भगवान की उपासना में गिना जाता है। प्रेम कोई पुरस्कार
नहीं चाहता। प्रेम सर्वदा प्रेम के लिए ही होता है। भक्त इसलिए प्रेम करता है
कि बिना प्रेम किए वह रह नहीं सकता। जब तुम किसी मनोहर प्राकृतिक दृश्य से तुम
किसी फल की याचना नहीं करते और न वह दृश्य ही तुमसे कुछ माँगता है। फिर भी उस
दृश्य का दर्शन तुम्हारे मन को बड़ा आनंद देता है, वह तुम्हारे मन के घर्षणों
को हल्का कर तुम्हें शांत कर देता है और उस समय तक के लिए मानो तुम्हें अपनी
नश्वर प्रकृति से ऊपर उठाकार एक स्वर्गीय आनंद से भर देता है। सच्चे प्रेम का
यह भाव उक्त त्रिकोणात्मक प्रेम का पहला कोण है। अपने प्रेम के बदले में कुछ
मत माँगो। सदैव देते ही रहो। भगवान को अपना प्रेम दो, परंतु बदले में उससे कुछ
भी मत माँगो मत।
प्रेम के इस त्रिकोण का दूसरा कोण है प्रेम का भय से नितांत रहित होना। जो लोग
भयवश भगवान से प्रेम करते हैं, वे अधम मनुष्य हैं, उनमें अभी तक मनुष्यत्व का
विकास नहीं हुआ। वे दंड के भय से ईश्वर की उपासना करते हैं। उनकी दृष्टि में
ईश्वर एक महान पुरुष है, जिसके एक हाथ में दंड है और दूसरे हाथ में चाबुक।
उन्हें इस बात का डर रहता है कि यदि वे उसकी आज्ञा का पाला नहीं करेंगे, तो
उन्हें कोड़े लगाये जाएँगे। पर दंड के भय से ईश्वर की उपासना करना सबसे
निम्न-कोटि की उपासना है। एक तो, वह उपासना कहलाने योग्य है ही नहीं, फिर भी
यदि उसे उपासना कहें, तो वह प्रेम की सबसे भद्दी उपासना है। जब तक हृदय में
किसी प्रकार का भय है, तब तक प्रेम कैसे हो सकता है? प्रेम, स्वभावत: सब
प्रकार के भय पर विजय प्राप्त कर लेता है। उदाहरणार्थ, यदि एक युवती माँ सड़क
पर जा रही हो और उस पर कुत्ता भौंक पड़े, तो वह डरकर समीपस्थ घर में घुस जाएगी।
परंतु माँ लो, दूसरे दिन वही स्त्री अपने बच्चे के साथ जा रही है और उसके
बच्चे पर शेर झपट पड़ता है। तो बताओ, वह क्या करेगी? बच्चे की रक्षा के लिए वह
स्वयं शेर के मुंह में चली जाएगी। सचमुच, प्रेम समस्त भय पर विजय प्राप्त कर
लेता है। भय इस स्वार्थपर भावना से उत्पन्न होता है की मैं दुनिया से अलग हूँ।
और जितना ही मैं अपने को क्षुद्र और स्वार्थपर बनाऊँगा, मेरा भय उतना ही
बढ़ेगा। यदि कोई मनुष्य अपने को एक छोटा सा तुच्छ जीव समझे, तो भाय उसे अवश्य
घेर लेगा। और तुम अपने को जितना ही कम तुच्छ समझोगे, तुम्हारे लिए भय भी उतना
ही कम होगा। जब तक तुममें थोड़ा सा भी भय है, तब तक तुम्हारे लिए मानस-सरोवर
में प्रेम की तरंगें नहीं उठ सकती। प्रेम और भय, दोनों एक साथ कभी नहीं रह
सकते। जो भगवान से प्रेम करते हैं, उन्हें उससे डरना नहीं चाहिए। 'ईश्वर का
नाम व्यर्थ में न लो', आदेश पर ईश्वर का सच्चा प्रेमी हँसता है। प्रेम के धर्म
में ईश- निंदा किस प्रकार संभव है? ईश्वर का नाम तुम जितना हो लोगे, फिर वह
किसी भी प्रकार से क्यों न हो, तुम्हारा उतना ही मंगल है। उससे प्रेम होने के
कारण ही तुम उसका नाम लेते हो।
प्रेमरूपी त्रिकोण का तीसरा कोण है प्रेम में किसी प्रतिद्वंदी का न होना,
क्योंकि इस प्रेम में ही प्रेमी का सर्वोच्च आदर्श मूर्त रहता है। सच्चा प्रेम
तब तक नहीं होता, जब तक हमारे प्रेम का पात्र हमारा सर्वोच्च आदर्श नहीं बन
जाता। हो सकता है की अनेक स्थलों में मनुष्य का प्रेम अनुचित्त दिशा में और
अपात्र चला जाता हो; पर प्रेमी ही, उसके लिए तो उसका प्रेमपात्र ही उच्चतम
आदर्श है। हो सकता है, कोई व्यक्ति अपना आदर्श सबसे निकृष्ट मनुष्य में देखे
और कोई दूसरा, किसी देव-मानव में; पर प्रत्येक दशा में वह आदर्श ही है, जिसे
सच्चे और प्रगाढ़ रूप से प्रेम किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के उच्चतम आदर्श
को ही ईश्वर कहते हैं। ज्ञानी हो या अज्ञानी, साधु हो या पापी, पुरुष हो या
अथवा स्त्री, शिक्षित हो अथवा अशिक्षित, प्रत्येक दशा में मनुष्य मात्र का
परमोच्च आदर्श ही ईश्वर है। सौंदर्य, उदात्तता आदर्शों के योग्य में ही हमें
प्रेममय एवं प्रेमास्पद ईश्वर का पूर्णतम भाव मिलता है।
स्वाभावत: ही ये आदर्श किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति के मन में
वर्तमान रहते हैं। वे मानो हमारे मन के अंग या अंशविशेष हैं। उन आदर्शों का
व्यावहारिक जीवन में परिणत करने के जो सब प्रयत्न हैं, वे ही मानवीय प्रकृति
की नानाविध क्रियाओं के रूप में प्रकट होते हैं। विभिन्न जीवात्माओं में जो
विविध आदर्श निहित हैं, वे बाहर आकार मूर्त रूप धारण करने की सतत चेष्टा कर
रहें, और इसके फलस्वरूप हम अपने चारों ओर समाज में नाना प्रकार की गतियाँ और
हलचल देखते है। जो भीतर है, वही बाहर आने का प्रयत्न करता है। आदर्श का यह
नित्य प्रबल प्रभाव ही एक एसी कार्यकारी शक्ति है, जो मानव जीवन में सतत
क्रियाशील है। हो सकता है, सैकड़ों जाम के बाद, हज़ारों वर्ष संघर्ष करने के
पश्चात्, मनुष्य समझे कि अपना अभ्यंतरस्थ आदर्श बाहरी वातावरण और अवस्थाओं के
साथ पूरी तरह मेल नहीं खा सकता। और जब वह समझ जाता है, तब बाहरी जगत् को पाने
आदर्श के अनुसार गढ़ने की फिर अधिक चेष्टा नहीं करता। तब तक इस प्रकार के सारे
प्रयत्न छोड़कर प्रेम की उच्चतम भूमि से, स्वयं आदर्श की आदर्श-रूप से उपासना
करने लगता है। यह पूर्ण अपने में अन्य सब छोटे छोटे आदर्शों को समा लेता है।
सभी लोग इस बात की सत्यता स्वीकार करते हैं की प्रेमी इथियोपिया की भौंहों में
ही हेलेन का सौंदर्य देखता है। तटस्थ लोग कह सकते हैं कि यहाँ प्रेम
स्थान-भ्रष्ट हो गया है; पर जो प्रेमी है, वह अपनी हेलेन को ही सर्वदा देखता
है, इथियोपिया को बिल्कुल नहीं देखता। हेलेन हो या इथियोपिया, वास्तव में
हमारे प्रेम के आधार तो मानो कुछ केंद्र हैं, जिनके चारों ओर हमारे आदर्श
मूर्त होते हैं संसार साधारणत: किसकी उपासना करता है?-अवश्य उच्चतम भक्त और
प्रेमी के सर्वावगाही पूर्ण आदर्श की नहीं। स्त्री- पुरुष साधारणत: उसी आदर्श
की उपासना करते हैं, जो उनके अपने हृदय में हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपना अपना
आदर्श बाहर प्रक्षिप्त करके उसके सम्मुख भूमिष्ठ हो प्रणाम करता है। इसीलिए हम
देखते हैं कि जो लोग निर्दयी और खूनी होते हैं, वे एक रक्तपिपासु ईश्वर की ही
कल्पना करते तथा उसे भजते हैं; क्योंकि वे अपने सर्वोच्च आदर्श की ही उपासना
कर सकते है। और इसीलिए साधुजनों का ईश्वर संबंधी आदर्श बहुत ऊँचा होता है, और
वास्तव में वह अन्य लोगों के आदर्श से बहुत भिन्न है।
प्रेममय ईश्वर स्वयं ही अपना प्रमाण है
जो प्रेमी स्वार्थपरता और भ्या के परे हो गया है, जो फलाकांक्षाशून्य हो गया
है, उसका आदर्श क्या है? वह परमेश्वर से भी यही कहेगा, "मैं तुम्हें अपना
सर्वस्य अर्पित करता हूँ, मैं तुमसे कोई चीज़ नहीं चाहता। वास्तव में ऐसा कुछ
भी नहीं है, जिसे मैं अपना कह सकूँ।" जब मनुष्य इस प्रकार की अवस्था प्राप्त
कर लेता है, तब उसका आदर्श पूर्ण प्रेम के , प्रेमजनित पूर्ण निर्भीकता के
आदर्श में परिणत हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति के सर्वोच्च आदर्श में किसी
प्रकार की संकीर्णता नहीं रह जाती-वह किसी विशेष भाव द्वारा सीमित नहीं रहता।
वह आदर्श तो सार्वभौमिक प्रेम, अनंत और असीम प्रेम, पूर्ण स्वतंत्र प्रेम का
आदर्श होता है; यही क्यों, वह साक्षात् प्रेमस्वरूप होता है। तब प्रेम-धर्म के
इस महान आदर्श की उपासना किसी प्रतीक या प्रतिमा के सहारे नहीं करनी पड़ती,
वरन् तब तो वह आदर्श के रूप में ही उपासित होता है। इस प्रकार के एक
सार्वभौमिक आदर्श की आदर्शरूप से उपासना सबसे उत्कृष्ट प्रकार की परभक्ति है।
भक्ति के अन्य सब प्रकार तो इस परभक्ति की प्राप्ति में केवल सोपानस्वरूप हैं।
इस प्रेम-धर्म के पथ में चलते चलते हमें जो सफलताएँ और असफलताएँ मिलती हैं, वे
सबकी सब उस आदर्श की प्राप्ति के मार्ग पर ही घटती हैं-अर्थात् प्रकारांतर से
वे उसमें सहायता ही पहुंचाती हैं। साधक एक के बाद दूसरी वस्तु लेता जाता है और
उस पर अपना आभ्यंतरिक आदर्श प्रक्षिप्त करता जाता है। क्रमश: ये सारी बाह्र्य
वस्तुएँ इस सतत विस्तारशील आभ्यंतरिक आदर्श को प्रकाशित करने के लिए अनुपयुक्त
सिद्ध होती हैं और इसलिए स्वभावत: एक-एक करके उनका परित्याग कर दिया जाता है।
अंत में साधक समझ जाता है कि बाह्य वस्तुओं में आदर्श की उपलब्धि करने का
प्रत्यन व्यर्थ है और ये सब बाह्य वस्तुएँ तो आदर्श कि तुलना में बिल्कुल
तुच्छ हैं। कालांतर में वह उस सर्वोच्च और निर्विशेष भावापन्न सूक्ष्म आदर्श
को अंतर में ही जीवन्त और सत्य रूप से अनुभव करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता
है। जब भक्त इस अवस्था में पहुँच जाता है, तब उसने यह सब तर्क वितर्क नहीं
उठते की भगवान को सिद्ध किया जा सकता है अथवा नहीं, भगवान सर्वज्ञ और
सर्वशक्तिमान है या नहीं। उसके लिए तो भगवान प्रेममय है-प्रेम का सर्वोच्च
आदर्श है, और बस, यह जानना है उसके लिए यथेष्ट है। भगवान प्रेमरूप होने के
कारण स्वत: सिद्ध है, वह अन्य किसी प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखता। प्रेमी के
पास प्रेमास्पद का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए किसी बात की आवश्यकता नहीं। है
अन्याय धर्मों के न्याय करता भगवान का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए बहुत से
प्रमाणों की आवश्यकता हो सकती है, पर भक्त तो ऐसे ही भगवान की बात मन में भी
नहीं ला सकता। उसके लिए तो भगवान केवल प्रेमस्वरूप है। 'हे प्रिय, कोई भी
स्त्री पति से, पति के लिए प्रेम नहीं करती, वरन् पति में स्थित आत्मा के लिए
वह पति से प्रेम करती है। हे प्रिय, कोई भी पुरुष पत्नी से, पत्नी के लिए
प्रेम नहीं करता, वरन् पत्नी में स्थित आत्मा के लिए ही प्रेम करता है।'
कोई कोई कहते हैं कि स्वार्थपरता ही समस्त मानवीय कार्यों की एकमात्र प्रेरक
शक्ति है। किंतु वह भी तो प्रेम है; पर हां, वह प्रेम विशिष्ट होने के कारण
निम्न भाव पत्र हो गया है - बस, इतना ही। जब मैं अपने को संसार की सारी
वस्तुओं में अवस्थित सोचता हूँ तब निश्चय ही मुझ में किसी प्रकार की
स्वार्थपरता नहीं रह सकती। किंतु जब मैं भ्रम में पड़कर अपने आपको एक छोटा सा
प्राणी सोचने लगता हूँ, तब मेरा प्रेम संकीर्ण हो जाता है-एक विशिष्ट भाव से
सीमित हो जाता है। प्रेम की क्षेत्र को संकीर्ण और मर्यादित कर लेना ही हमारा
भ्रम है। इस विश्व की सारी वस्तुएं भगवान से निकली हैं, अतएव वे सभी हमारे
प्रेम के योग्य हैं। पर हम सर्वदा स्मरण रखें कि समष्टि को प्यार करने से ही
अंशु को भी प्यार करना हो जाता है। यह समष्टि ही भक्त का भगवान है। अन्यान्य
प्रकार के ईश्वर- जैसे, स्वर्ग में रहने वाले पिता, शास्ता, स्रष्टा तथा
नानाविध मतवाद और शास्त्र ग्रंथ भक्तों के लिए कुछ अर्थ नहीं रखते-लिए इन सब
का कोई प्रयोजन नहीं; क्योंकि वह तो पराभक्ति के प्रभाव से पूर्णतया इन सबके
ऊपर उठ गया है। जब हृदय शुद्ध और पवित्र हो जाता है, तथा देवी प्रेम अमृत से
अप्लावित्त हो जाता है, तब ईश्वर संबंधी अन्य सब धारणाएं बच्चों की बात सी
प्रतीत होने लगती हैं और वह पूर्ण एवं अनुपयुक्त समझकर त्याग दी जाती हैं।
सचमुच, पराभक्ति का प्रभाव ही ऐसा है ! तब वह पूर्णताप्राप्त भक्त अपने भगवान
को मंदिरों और गिरजों में खोजने नहीं जाता; उसके लिए तो ऐसा कोई स्थान ही नहीं
,जहाँ वह न हो। वह उसे मंदिर के भीतर और बाहर सर्वत्र देखता है। साधु की
साधुता में और दुष्ट की दुष्टता में भी वह उसके दर्शन करता है; क्योंकि उसने
तो उस महिमामय प्रभु को पहले से ही अपने हृदय सिंहासन पर बिठा लिया है और वह
जानता है कि वह एक सर्वशक्तिमान एवं अनिर्वाण प्रेम ज्योति के रूप में उसके
हृदय में नित्य दीप्तिमान है और सदा से वर्तमान है।
प्रेम के दिव्य आदर्श की मानवीय अभिव्यक्ति
प्रेम के इस परमोच्च और आदर्श को मानवीय भाषा में प्रकट करना असंभव है। यहाँ
तक कि उच्चतम मानवीय कल्पना भी उसकी अनंत पूर्णता तथा सौंदर्य का अनुभव करने
में असमर्थ है। परंतु फिर भी सभी कालों, सभी देशों में, प्रेमधर्म के उच्च और
निम्न, उभय श्रेणी के उपासकों को अपने-अपने प्रेमादर्श का अनुभव और वर्णन करने
के लिए इस अपूर्ण मानवीय भाषा का ही प्रयोग करना पडा है। इतना ही नहीं, बल्कि
भिन्न-भिन्न प्रकार के मानवीय प्रेम इस अनिर्वचनीय दिव्य प्रेम के
प्रतीकस्वरूप गृहीत हुए हैं। मनुष्य दिव्य विषयों के संबंध में अपने मानवीय
ढंग से ही सोच सकता है; वह पूर्ण निरपेक्ष ब्रह्मा हमारे समक्ष हमारी सापेक्ष
भाषा में ही प्रकाशित हो सकता है। यह सारा विश्व हमारे लैब ससीम की भाषा में
लिखा हुआ असीम मात्र है। इसीलिए भक्तगण भगवान और उसकी प्रेमोपसना के संबंध में
उन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं, जो साधारण मानवीय प्रेम के लिए उपयोग में
लाये जाते हैं।
पराभक्ति के कई व्याख्याताओं ने इस दैवी प्रेम को अनेक प्रकार से समझने और
उसका प्रत्यक्ष अनुभव करने की चेष्टा की है। इस प्रेम की निम्नतम रूप को
'शांत' भक्ति कहते हैं। जब भगवान की उपासना के समय मनुष्य के हृदय में
प्रेमाग्नि प्रज्ज्वलित नहीं रहती, जब वह प्रेम से उन्मत्त होकर अपनी सुध-बुध
नहीं खो बैठता, जब उसका प्रेम बाह्र्य क्रिया-कलापों और अनुष्ठानों से कुछ
थोड़ा सा उन्नत एक साधारण सा प्रेम रहता है, जब उसकी उपासना में प्रबल प्रेम की
उन्मत्तता नहीं रहती, तब वह उपासना शांत भक्ति या शांत प्रेम कहलाती है। हम
देखते है कि संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो साधना- पथ पर धीरे-धीरे
अग्रसर होना पसंद करते है; और कुछ आँधी के समान ज़ोर से चलना। शांत भक्त धीर,
शांत और नम्र होता है।
इससे कुछ ऊँची अवस्था है-'दास्य'। इस अवस्था में मनुष्य अपने को ईश्वर का दास
समझता है। विश्वासी सेवक की अपने स्वामी के प्रति अनन्य भक्ति ही उसका आदर्श
है।
इसके बाद है 'सख्य' प्रेम। इस सख्य प्रेम का साधक भगवान से कहता है, 'तुम मेरे
प्रिय सखा ही'।१ जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने मित्र के सम्मुख अपना हृदय खोल
देता है और यह जानता है कि उसका मित्र उसके अवगुणों पर कभी ध्यान न देगा, वरन्
उसकी सदा सहायता ही करेगा-उन दोनों में जिस प्रकार समानता का एक भाव रहता है,
उसी प्रकार सख्य प्रेम के साधक और उसके सखा भगवान के बीच भी मानो एक प्रकार की
समानता का भाव रहता है। इस तरह भगवान हमारा अंतरंग मित्र हो जाता, जिसके समक्ष
हम अपने हृदय के गुप्त से गुप्त भावों को भी बिना किसी हिचकिचाहट के प्रकट कर
सकते हैं। उस पर हम पूरा भरोसा-पूरा विश्वास रख सकते है कि वह वही करेगा,
जिससे हमारा मंगल होगा; और ऐसा सोचकर हम पूर्ण रूप से निश्चिंत रह सकते हैं।
इस अवस्था में भक्त भगवान को अपनी बराबरी का समझता है-भगवान मानो हमारा संगी
हो, सखा हो। हम सभी इस संसार में मानो खेल रहे हैं। जिस प्रकार बच्चे अपना खेल
खेलते हैं, जिस प्रकार बड़े बड़े राजा-महाराजा और सम्राट् अपना खेल खेलते हैं,
उसी प्रकार वह प्रेमस्वरूप भगवान भी इस दुनिया के साथ खेल खेल रहा है। वह
पूर्ण है-उसे किसी चीज़ का अभाव नहीं। उसे सृष्टि करने की क्या आवश्यकता है? जब
हमें किसी चीज़ की आवश्यकता होती है, तभी हम उसकी पूर्ति के लिए क्रियाशील होते
हैं, और अभाव का तात्पर्य ही है अपूर्णता। भगवान पूर्ण है-उसे किसी बात का
अभाव नहीं। तो फिर वह इस नित्य कर्ममय सृष्टि में क्यों लगा है? उसका उद्देश्य
क्या है? भगवान के सृष्टि-निर्माण के संबंध में जो सब भिन्न भिन्न कल्पनाएँ
हैं, वे किंवदंतियों के रूप में ही भली हो सकती हैं, अन्य किसी प्रकार नहीं।
सचमुच, यह समस्त उसकी लीला है। यह सारा विश्व उसका ही खेल है-वह तो उसके लिए
एक तमाशा है। यदि तुम निर्धन हो, तो उस निर्धनता को ही एक बड़ा तमाशा समझो; यदि
धनी हो, तो उस धनीपन को ही एक तमाशे के रूप में देखो। यदि दु:ख आये, तो वही एक
सुंदर तमाशा है, और यदि सुख प्राप्त हो, तो सोचो, यह भी एक सुंदर तमाशा है। यह
दुनिया बस, एक खेल का मैदान है, और हम सब यहाँ पर नाना प्रकार के खेल-खिलवाड़
कर रहे हैं-मौज कर रहे हैं। भगवान सारे समय हमारे साथ खेल रहा है और हम भी
उसके साथ खेलते हैं। भगवान तो हमारा चिरकाल का संगी है-हमारे खेल का साथी है।
कैसा सुंदर खेल रहा है वह ! खेल खत्म हुआ कि कल्प का अंत हो गया ! फिर अल्प या
अधिक समय तक विश्राम-उसके बाद फिर से खेल का आरंभ-पुन:जगत् की सृष्टि! जब तुम
भूल जाते हो कि यह सब एक खेल है और तुम इस खेल में सहायता कर रहे हो, तभी दु:ख
और कष्ट तुम्हारे पास आते हैं; तब हृदय भारी हो जाता है और संसार अपने प्रचंड
बोझ से तुम्हें दबा देता है। पर ज्यों ही तुम इस दो पल के जीवन की परिवर्तनशील
घटनाओं को सत्य समझना छोड़ देते हो और इस संसार को एक क्रीड़ाभूमि तथा अपने आपको
भगवान की क्रीड़ा में एक सखा- संगी सोचने लगते हो, त्यों ही दु:ख-कष्ट चला जाता
है। वह तो प्रत्येक अनु-परमाणु में खेल रहा है। वह तो खेलते- खेलते ही पृथ्वी,
सूर्य, चंद्र आदि का निर्माण कर रहा है। वह तो मानव- हृदय,प्राणियों ओर
पेड़-पौधों के साथ क्रीड़ा कर रहा है। हम मानो उसके शतरंज के मोहरे हैं। वह
मोहरों को शतरंज के खानों में बिठाकर इधर-उधर चला रहा है। वह हमें कभी एक
प्रकार से सजाता है और कभी दूसरे प्रकार से-हम भी जाने य अनजाने उसके खेल में
सहायता कर रहे हैं। अहा, कैसा परमानंद है! हम सब उसके खेल के साथी जो हैं!
इसके बाद है 'वात्सल्य' प्रेम। उसमें भगवान का चिंतन पिता-रूप से न करके,
संतान- रूप से करना पड़ता है। हो सकता है, यह कुछ अजीब सा मालूम हो, पर उसका
उद्देश्य है-अपनी भगवान संबंधी धारणा से ऐश्वर्य के समस्त भाव दूर कर देना।
ऐश्वर्य की भावना के साथ ही भय आता है। पर प्रेम में भय का कोई स्थान नहीं। यह
सत्य है कि चरित्र-गठन के लिए भक्ति और आज्ञापालन आवश्यक हैं, पर जब एक बार
चरित्र गठित हो जाता है-जब प्रेमी शांत प्रेम का आस्वादन कर लेता है और जब
प्रेम की प्रबल उन्मत्तता का भी उसे थोड़ा सा अनुभव हो जाता है, तब उसके लिए
नीतिशास्त्र और साधन-नियम आदि की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रेमी कहता है
कि भगवान को महामहिम, ऐश्वर्यशाली, जगन्नाथ या देवदेव के रूप में सोचने की
मेरी इच्छा ही नहीं होती। भगवान के साथ संबंधित यह जो भयोत्पादक ऐश्वर्य की
भावना है, उसी को दूर करने के लिए वह भगवान को अपनी संतान के रूप में प्यार
करता है। माता-पिता अपने बच्चे से भयभीत नहीं होते, उसके प्रति उनकी श्रद्धा
नहीं होती। वे उस बच्चे से कुछ याचना नहीं करते। बच्चा तो सदा पानेवाला ही
होता है और उसके लिए वे लोग सौ बार भी मरने को तैयार रहते हैं। अपने एक बच्चे
के लिए वे लोग हज़ार जीवन भी न्योछावर करने को प्रस्तुत रहते हैं। बस, इसी
प्रकार भगवान से वात्सल्य- भाव से प्रेम किया जाता है। जो संप्रदाय भगवान के
अवतार में विश्वास करते हैं, उन्हीं में यह वात्सल्य-भाव की उपासना स्वाभाविक
रूप से आती और पनपती है। मुसलमानों के लिए भगवान को एक संतान के रूप में मानना
असंभव है; वे तो डरकर इस भाव से दूर ही रहेंगे। पर ईसाई और हिंदू इसे सहज ही
समझ सकते हैं, क्योंकि उनके तो बाल ईसा और बाल कृष्ण हैं। भारतीय रमणियाँ
बहुधा अपने आपको श्री कृष्ण की माता के रूप में सोचती है। ईसाई माताएँ भी अपने
आपको ईसा की माता के रूप में सोच सकती हैं। इससे पाश्चात्य देशों में ईश्वर के
मातृभाव का प्रचार होगा; और इसी की आज उन्हें विशेष आवश्यकता है। भगवान के
प्रति भय और भक्ति के कुसंस्कार हमारे हृदय गहरे जमे हुए हैं और भगवत्संबंधी
इन भय और भक्ति तथा महिमा-ऐश्वर्य के भावों को प्रेम में बिल्कुल निमग्न कर
देने में बहुत समय लगता है।
प्रेम का यह दिव्य रूप एक और मानवीय भाव में प्रकाशित होता है। उसे 'मधुर'
कहते हैं और वही सब प्रकार के प्रेमों में श्रेष्ठ है। इस संसार में प्रेम कि
जो उच्चतम अभिव्यक्ति है, वही उसकी नींव है और मानवीय प्रेमों में वही सबसे
प्रबल है। पुरुष और स्त्री के बीच जो प्रेम रहता है, उसके समान और कौन सा
प्रेम है, जो मनुष्य की सारी प्रकृति को बिल्कुल उलट-पलट दे, जो उसके प्रत्येक
परमाणु में संचारित होकर उसको पागल बनना दे, उसकी अपनी प्रकृति को ही भुला दे,
और चाहे तो देवता बना दे, चाहे तो देवता बना दे, चाहे दैत्य ? दैवी प्रेम के
इस मधुर भाव में भगवान का चिंतन पतिरूप में किया जाता है-ऐसा विचार कि हम सभी
स्त्रियाँ हैं, इस संसार में और कोई पुरुष नहीं, एक ही पुरुष है और वह है
हमारा प्रेमास्पद भगवान। जो प्रेम पुरुष स्त्री के प्रति और स्त्री पुरुष के
प्रति प्रदर्शित करती है, वही प्रेम भगवान को देना होगा।
हम इस संसार में जीतने प्रकार के प्रेम देखते हैं, जिनके साथ हम अल्प या अधिक
परिमाण में क्रीड़ा मात्र कर रहे हैं, उन सबका एक ही लक्ष्य है और वह है भगवान।
पर दु:ख कि बात है कि मनुष्य उस अनंत समुद्र को नहीं जानता, जिसकी ओर प्रेम की
यह महान सरिता सतत प्रवाहित हो रही है; और इसलिए अज्ञानवश वह इस प्रेम-सरिता
को बहुधा छोटे छोटे मानवी पुतलों की ओर बहाने का प्रयत्न करता रहता है। मानवी
प्रकृति में संतान के प्रति जो प्रबल स्नेह देखा जाता है, वह संतानरूपी एक
छोटे से पुतले के लिए ही नहीं है। यदि तुम आंखें बंद कर उसे केवल संतान पर ही
न्योछावर कर दो, तो तुम्हें उसके फलस्वरूप दु:ख अवश्य भोगना पड़ेगा। पर इस
प्रकार के दु:ख से ही तुममें यह चेतना जाग्रत होगी कि यदि तुम अपना प्रेम किसी
मनुष्य को अर्पित करो, तो उसके फलस्वरूप कभी न कभी दु:ख-कष्ट अवश्य प्राप्त
होगा। अतएव हमें अपना प्रेम उसी पुरुषोत्तम को देना होगा, जिसका विनाश नहीं,
जिसमें कभी परिवर्तन नहीं और जिसके प्रेम-समुद्र में कभी ज्वार-भाटा नहीं।
प्रेम को अपने प्रकृत लक्ष्य पर पहुँचना चाहिए-उसे तो उसके निकट जाना चाहिए,
जो वास्तव में प्रेम का अनंत सागर है। सभी नदियाँ समुद्र में ही जाकर गिरती
हैं। यहाँ तक कि पर्वत से गिरनेवाली पानी की एक बूँद भी, वह फिर कितनी भी बड़ी
क्यों न हो, किसी झरने या नदी में पहुँचकर बस वहीं नहीं रुक जाती, वरन् वह भी
अनंत में किसी न किसी प्रकार समुद्र में ही पहुँच जाती है। भगवान हमारे सब
प्रकार के भावों का एकमात्र लक्ष्य है। यदि तुम्हें क्रोध करना है, तो भगवान
पर क्रोध करो। उलाहना देना है, तो अपने प्रेमास्पद को उलाहना दो-अपने सखा को
उलाहना दो। भला अन्य किसे तुम बिना डर के उलाहना दे सकते हो? मर्त्य जीव
तुम्हारे क्रोध को न सह सकेगा। वहाँ तो प्रतिक्रिया होगी। यदि तुम मुझ पर
क्रोध करो , तो निश्चित है, मैं तुरंत प्रतिक्रिया करूँगा, क्योंकि मैं
तुम्हारे क्रोध को सह नहीं सकता। अपने प्रेमास्पद से कहो, "प्रियतम, तुम मेरे
पास क्यों नहीं आते ? तुमने क्यों मुझे इस प्रकार अकेला छोड़ रखा है?" उसको छोड़
भला और किसमें आनंद है? मिट्टी के छोटे छोटे लोंदों में भला कौन सा आनंद के
घनीभूत सार को ही खोजना है-और भगवान ही आनंद का वह घनीभूत सार है। आओ, हम अपने
समस्त भावों और समस्त प्रवृत्तियों को उसकी ओर मोड़ दें। वे सब उसी के लिए हैं।
वे यदि अपना लक्ष्य चूक जाए, तो वे फिर कुत्सित रूप धारण कर लेंगे। पर यदि वे
अपने ठीक लक्ष्य-स्थल ईश्वर में जाकर पहुँचे, तो उनमें से अत्यंत नीच वृत्ति
भी पूर्णरूपेण परिवर्तित हो जायेगी। भगवान ही मनुष्य के मन और शरीर की समस्त
शक्तियों का एक मात्र लक्ष्य है-एकायन है,-फिर वे शक्तियाँ किसी भी रूप से
क्यों न प्रकट हों। मानव-हृदय का समस्त प्रेम -सारे भाव भगवान की ही ओर जाए।
वही हमारा एकमात्र प्रेमास्पद है। यह मानव-ह्रदय भला किससे प्यार करेगा वह परम
सुंदर है, परम महान है-अहा! वह साक्षात् सौंदर्यस्वरूप है, दिव्यतास्वरूप है।
इस संसार में भला और कौन है, जो उससे अधिक सुंदर हो ? उसे छोड़ इस दुनिया में
भला और कौन पति होने के उपयुक्त है? उसके सिवा इस जगत् में भला और कौन हमारा
प्रेम-पात्र हो सकता है ? अतः वही हमारा पति हो, वही हमारा प्रेमास्पद हो।
बहुत ऐसा होता है कि भगवत्प्रेम में छके भक्तगण जब इस भगवत प्रेम का वर्णन
करने जाते हैं, तो इसके लिए वे सब प्रकार के मानवी प्रेम की भाषा को उपयोगी
मानकर ग्रहण करते हैं। पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते-और वे कभी समझेंगे भी
नहीं। वे उसे केवल भौतिक दृष्टि से देखते हैं। वे इस आध्यात्मिक
प्रेमोन्मत्तता को नहीं समझ पाते। और वह समझ भी कैसे सकें? 'हे प्रियतम,
तुम्हारे अंधेरों के केवल एक चुंबन के लिए! जिसका तुमने एक बार चुंबन किया है,
तुम्हारे लिए उसकी पिपासा बढ़ती ही जाती है। उसके समस्त दु:ख चल ले जाते हैं।
वह तुम्हें छोड़ और सब कुछ भूल जाता है।'
[43]
प्रियतम के उस चुंबन के लिए-उनके अंधेरों के उस स्पर्श के लिए व्याकुल होओ, जो
भक्तों को पागल कर देता है, जो मनुष्य को देवता बना देता है। भगवान जिसको एक
बार अपना अधरामृत देकर कृतार्थ कर देते हैं, उसकी सारी प्रकृति बिल्कुल बदल
जाती है। उसके लिए यह जगत् उड़ जाता है, सूर्य और चंद्र का कोई अस्तित्व नहीं
रह जाता और यह सारा विश्व-ब्रह्मांड एक बिंदु के समान प्रेम की उस अनंत सिंधु
में ना जाने कहां विलीन हो जाता है। प्रेम उन्माद की यही चरम अवस्था है।
पर सच्चा भगवत प्रेमी यहाँ पर भी नहीं रुकता; उसके लिए तो पति और पत्नी की
प्रेमोन्मत्तता भी यथेष्ठ नहीं। अतएव ऐसे भक्त अवैध (परकीय) प्रेम का भाव
ग्रहण करते हैं, क्योंकि वह अत्यंत प्रबल होता है। पर देखो, उसकी वैधता उनका
लक्ष्य नहीं है। इस प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है कि उसे जितनी बाधा मिलती है, वह
उतना ही उग्र रूप धारण करता है। पति पत्नी का प्रेम अबाध रहता है - उसमें किसी
प्रकार की विघ्न बाधा नहीं आती। इसलिए भक्त कल्पना करता है, मानो कोई स्त्री
पर पुरुष में आसक्त हैं और उसके माता-पिता या स्वामी उसके इस प्रेम का विरोध
करते हैं। इस प्रेम के मार्ग में जितनी ही बाधाएं आती हैं, उतना ही प्रबल रूप
धारण करता जाता है। श्री कृष्ण वृंदावन के कुंजों में किस प्रकार लीला करते
थे, किस प्रकार सब लोग उन्मत्त होकर उनसे प्रेम करते थे, किस प्रकार उनकी
बांसुरी की मधुर तान सुनते ही चिर धन्य गोपियाँ सब कुछ भूलकर, इस संसार और
इसकी समस्त बंधनों को भूलकर यहाँ के सारे कर्तव्य तथा सुख दुख को बिसराकर,
उन्मत्त सी उनसे मिलने के लिए छूट पड़ती थी- यह सब मानवीय भाषा द्वारा व्यक्त
नहीं किया जा सकता। मानव, हे मानव, तुम दैवी प्रेम की बातें तो करते हो पर साथ
ही इस संसार की असार वस्तुओं से भी मन दिए रहते हो क्या तुम सच्चे हो? 'जहाँ
राम है, वहाँ काम नहीं, और जहाँ काम है, वहाँ राम नहीं, वे दोनों कभी एक साथ
नहीं रह सकते-प्रकाश और अंधकार क्या कभी एक साथ रहे हैं?'
[44]
उपसंहार
जब प्रेम का यह उच्चतम आदर्श प्राप्त हो जाता है, तो ज्ञान फिर ना जाने कहां
चला जाता है। तब भला ज्ञान की इच्छा भी कौन करें? तब तो मुक्ति, उद्धार,
निर्वाण की बातें न जाने कहां गायब हो जाती हैं। इस दैवी प्रेम में छके रहने
से फिर भला कौन मुक्त होना चाहेगा? 'प्रभो! मुझे धन, जन, सौंदर्य, विद्या,
यहाँ तक कि, मुक्ति भी नहीं चाहिए। बस, इतनी ही साध है कि जन्म-जन्म में
तुम्हारे प्रति मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।'
[45]
भक्त कहता है, "मैं शक्कर हो जाना नहीं चाहता, मुझे तो शक्कर खाना अच्छा लगता
है।" तब भला कौन मुक्त हो जाने की इच्छा करेगा ? कौन भगवान के साथ एक हो जाने
की कामना करेगा ? भक्त कहता है, "मैं जानता हूँ कि मैं ही वह हूँ, तो भी मैं
उससे अपने को अलग रखूँगा और उससे पृथक रहूँगा, ताकि मैं उस प्रियतम में आनंद
ले सकूँ।" प्रेम के लिए प्रेम-यही भक्त का सर्वोच्च सुख है। प्रियतम में आनंद
लेने के लिए कौन हज़ार बार भी बद्ध होने को तैयार न होगा ? एक सच्चा भक्त प्रेम
को छोड़ और किसी वस्तु कि कामना नहीं करता। वह स्वयं प्रेम करना चाहता है, और
चाहता है कि भगवान भी उससे प्रेम करे। उसका निष्काम प्रेम नदी के प्रवाह की
विरुद्ध दिशा में जानेवाले ज्वार के समान है। वह मानो नदी के उद्गम-स्थान की
ओर, स्रोत की विपरीत दिशा में जाता है। संसार उसको पागल कहता है। मैं एक ऐसे
महापुरुष
[46]
को जानता हूँ, जिन्हें लोग पागल कहते थे। इस पर उनका उत्तर था, "भाइयों, सारा
संसार ही तो एक पागलखाना है। कोई सांसारिक प्रेम के पीछे, कोई नाम के पीछे,
कोई यश के लिए, तो कोई पैसे क लिए। फिर कोई ऐसे भी हैं, जो उद्धार पाने या
स्वर्ग जाने के लिए पागल हैं। इस विराट् पागलखाने में मैं भी एक पागल हूँ-मैं
भगवान के लिए पागल हूँ। तुम पैसे के लिए पागल हो, और मैं भगवान के लिए। जैसे
तुम पागल हो, वैसा ही मैं भी। फिर भी मैं सोचता हूँ कि मेरा ही पागलपन सबसे
उत्तम है।" यथार्थ भक्त के प्रेम में इसी प्रकार की तीव्र उन्मत्तता रहती है
और इसके सामने अन्य सब कुछ उड़ जाता है। उसके लिए तो यह सारा जगत् केवल प्रेम
से भरा है-प्रेमी को बस ऐसा ही दीखता है। जब मनुष्य में यह प्रेम प्रवेश करता
है, तो वह चिरकाल के लिए सुखी, चिरकाल के लिए मुक्त हो जाता है। और दैवी प्रेम
की यह पवित्र उन्मत्तता ही हममें समायी हुई संसार-व्याधि को सदा के लिए दूर कर
दे सकती है। उससे वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं और वासनाओं के साथ ही स्वार्थपरता
का भी नाश हो जाता है। तब भक्त भगवान के समीप चला जाता है, क्योंकि उसने उन सब
असार वासनाओं को फेंक दिया है, जिनसे वह पहले भरा हुआ था।
प्रेम के धर्म में हमें द्वैत भाव से आरंभ करना पड़ता है। उस समय हमारे लिए
भगवान हमसे भिन्न रहता है, और हम भी अपने को उससे भिन्न समझते हैं। फिर प्रेम
बीच में आ जाता है। तब मनुष्य भगवान की ओर अग्रसर होने लगता है और भगवान कि
क्रमश: मनुष्य के आध्यात्मिक निकट आने लगता है। मनुष्य संसार के सारे
संबंध-जैसे माता, पिता, पुत्र, सखा, स्वामी, प्रेमी आदि भाव-लेता है और अपने
प्रेम के आदर्श भगवान के प्रति उन सबको आरोपित करता जाता है। उसके लिए भगवान
इन सभी रूप में विराजमान है; और उसकी उन्नति की चरम अवस्था तो वह है, जिसमें
वह अपने उपास्य देवता में संपूर्ण रूप से निमग्न हो जाता है। हम सबका पहले
अपने प्रति प्रेम रहता है, और इस क्षुद्र अहं-भाव का असंगत दावा प्रेम को भी
स्वार्थपर बना देता है। परंतु अंत में ज्ञान-ज्योति का भरपूर प्रकाश आता
है,जिसमें यह क्षुद्र अहं उस अनंत के साथ एक हो जाता है। इस प्रेम के प्रकाश
में मनुष्य स्वयं संपूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता है और अंत में इस सुंदर और
प्राणों को उन्मत्त बना देने वाले सत्य का अनुभव करता है कि प्रेम, प्रेमी और
प्रेमास्पद तीनों एक ही हैं।
[1]
श्वेताश्वतरोपनिषद ॥६।१७-१८॥
[2]
सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥ नारद-सूत्र ॥१॥२॥
सा न कामयमाना, निरोधरूपत्वात् ॥ वही, ७॥
सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ।॥ वही ।|२|२५॥
स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः॥ वही ॥४।३०॥
[3]
ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य ॥४।१।१॥
[5]
ब्रह्मसूत्र, रामानुज भाष्य ॥१।१।।
[6]
प्रणिधानं तत्र भक्तिविशेषविशिष्टमुपासनं सर्वत्रियाणामपि तत्रापेणम्।
विषयसुखादिकं फलभनिच्छन् सर्वाः क्रियास्तस्मिन् परमगुरावर्षयति।
पातंजल योगसूत्र, प्रथम अध्याय, समाधिपाद, २३वें सूत्र की भोजवृत्ति ।
4 प्रणिघानाद्भक्तिविशेषादावाजित ईश्वरस्तमनुगृ हृट्यभिध्यानमात्रेण
इत्यादि--पातंजल योगसूत्र, प्रथम अध्याय, समाधिपाद, २३वाँ सूत्र,
-व्यासभाष्य।
[8]
सा परानुरक्तिरीश्वरे ॥ शाण्डिल्यसूत्र ।॥१॥२।।
[9]
आब्रह्मस्तंबपर्यन्ता जगदन्तर्व्यवस्थिताः।
प्राणिनः कर्मजनितसंसारवशर्वातनः ॥
यतस्ततो न ते ध्याने ध्यानिनामुपकारकाः ।
अविद्यान्तर्गताः सर्वे ते हि संसारगोचराः ॥
[10]
भगवन्महिमादिज्ञानादनु
पश्चाज्जायमानत्वादनुरक्तिरित्युक्तम् ।
--शाण्डिल्यसूत्र, स्वप्नेश्वर टीका ॥१॥२॥
[11]
जन्माद्यस्य यतः ॥ब्रह्मसूत्र ॥१।१।२।।
[12]
स ईश्वर अनिर्वचनीयप्रेमस्वरूपः ।
[13]
जगद्ड्यपारवर्ज प्रकरणादसन्निहितत्वाच्च । ब्रह्मसूत्र ॥४॥४॥१७॥
[14]
ब्रह्मसूत्र, रामानुज भाष्य ॥४।४।१७॥
[15]
तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।
ताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः॥१०।३२२॥
[16]
ब्रहमसूत्र, शांकर भाष्य ॥४।४।१७॥
[17]
आश्चर्यों वक्ता कुशलोङ्स्य लबधा॥ कठोपनिषद्॥१।२।७॥
[18]
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितंमन्यमानाः॥
जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः॥
मुंडकोपनिषद॥१।२।८॥
[19]
शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम् ॥ विवेकचूड़ामणि ॥६०॥
[20]
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम् ।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये ।। विवेक चूड़ामणि॥५८।।
[22]
आचार्य मां विजानियात् ॥११।१७।२६।
[23]
अवजानन्ति मां मूढा मांनुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्र्वरम् ॥गीता॥९।११॥
[24]
यथा सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वे मृन्मयं विज्ञातं स्यात्।
छंदोग्योपनिषद॥६।१।४॥
[25]
अब्रह्मणि ब्रह्मदृष्टयाऽनुसन्धानम् ॥ ब्रह्मसूत्र,
रामानुजभाष्य॥४।१॥५॥
[26]
'मनो बह्मेत्युपासीतेत्यध्यात्मम् ।
'अथाधिदैवतमाकाशो ब्रह्मेति ।'
तथा 'आदित्यो ब्रह्मत्यादेशः।'
स य नाम ब्रह्मेत्युपास्ते' इत्येवमादिषु प्रतीकोपसनेषु संशयः ।
-ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य ॥४॥१॥५॥
[27]
फलमादित्याद्युपासनेषु ग्रह्मैव वास्यति सर्वाध्यक्षत्वात्।
ईदृशं चात्र ब्रह्मण उपास्यत्वं यतः प्रतीकेषु तद्ढुष्ट्याध्यारोपणं
प्रतिमादिषु इव विष्ण्वादीनाम् ।।
--ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य ॥४।१।५॥
[28]
नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति
स्तत्रापिता, नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि
दुर्देवमीदृशमिहाजनि नानुरागः॥शिक्षाष्टकम्॥२॥
[29]
श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि ।
तथापि मम सर्वस्वं रामः कमललोचनः॥
[30]
सबसे बसिए सबसे रसिए, सबका लीजिए नाम ।
हाँ जी हाँ जी करते रहिए, बैठिए अपने ठाम ॥
[31]
आहारशुद्धो
सत्त्वशुद्धिः सत्त्व शुद्धो ध्रुवा स्मृतिः. स्मृतिलम्भे
सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।
छंदोग्योपनिषद॥७।२६।२॥
[32]
तस्य भासा सर्वमिदम् विभाति॥कठोपनिषद॥२।२।१५॥
[33]
न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो
भवति॥ बृहदारण्यकोपनिषद् ॥२॥४॥५॥
[34]
न वा अरे जायाय कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया
भवति॥ बृहदारण्यकोपनिषद्॥२॥४॥५॥
[35]
तच्चिन्ताविपुलाह्लादक्षीणपुष्यचया तथा।
तदप्राप्तिमहद्दुःखविलीनाशेषपातका॥
चिन्तयन्ती जगत्पति परब्रह्मस्वरूपिणम्।
निरुच्छ्वासतया मुक्ति गतान्या गोपकन्यका॥
--विष्णुपुराण ।।५।१३॥२१-२ ।।
[36]
सम्मान-बहुमान-प्रीति-विरह-इतरविचिकित्सा-महिमख्याति-तदर्थ-प्राण
संस्थान-तदीयता-सर्वतद्भाव-अप्रातिकूल्यादीनि च स्मरणेभ्यो बाहुल्यात्
।
शाण्डिल्यसूत्र ॥२॥१॥४४।
[37]
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यष सेतुः।
--मुण्डकोपनिषद्।।२॥२।५॥
[38]
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुर्की भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः॥श्रीमद्भागवत।।१।७॥१०।।
[39]
यं सर्वेदेवा नमन्ति मुमुक्षवो ब्रह्मवादिनश्च ।
--तृसिंहतापनी उपनिषद् ।॥५॥२॥१५॥
[40]
एवं सर्वेषु भूतेषु भकितरव्यभिचारिणी। कर्तव्या पण्डितैज्ञ्ञात्वा
सर्वभूतमयं हरिम् ।।
[41]
हे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च |
तत्रापरा, ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं
निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा, यया तदक्षरमधिगम्यते।।
मुण्डकोपनिवद् ॥१॥१॥४-५॥
[42]
चेतसो वर्तनञ्चैव तैलधारासंमं सदा ।। देवीभागवत ७॥३७ ११॥
[43]
सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्॥
--श्रीमद्भागवत॥१०॥३१॥॥
[44]
जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम । तुलसी कबहूँ होत नहि, रवि
रजनी इक ठाम ॥तुलसीदास।।
[46]
श्री रामकृष्ण परमहंस।