स्वामी विवेकानन्द जी के संपूरण जीवन से हमें समग्र संसार के प्रति केवल धर्म
का शुभ संदेश ही नहीं, बल्कि इस देश की संतति के लिए भी हिंदू धर्म की सनद
मिलती है। आधुनिक युग के विश्वव्यापी विघटनशील वातावरण में हिंदू धर्म को
आवश्यकता थी एक ऐसी चट्टान की, जहाँ वह लंगर डाल सके, एक ऐसी प्रामाणिक वाणी
की, जिसमें वह स्वयं को पहचान सके। स्वामी विवेकानन्द के इन शब्दों और कृतियों
में हिंदू धर्म को यह वरदान उपलब्ध हो गया।
जैसा अन्यत्र कहा गया है, यहाँ इतिहास में पहली बार स्वयं हिंदू धर्म ही एक
उच्चतम कोटि की हिंदू प्रतिभा के सामान्यीकरण का विषय बना है। युग युग तक अपने
पूर्वजों के धार्मिक आदर्शो-विश्वासों को परखने वाला हिंदू भाई तथा बाल-बच्चों
को उनकी शिक्षा देने वाली हिंदू माता आश्वासन और प्रकाश के लिए इन पुस्तकों के
पृष्ठ पलटेगी। भारत में अंग्रेजी के लुप्त हो जाने के बाद भी बहुत दिन तक, उस
भाषा के माध्यम से विश्व को प्राप्त हुई यह देन अक्षुण्ण रहेगी और पूर्व तथा
पश्चिम को समान रूप से सुफल प्रदान करती रहेगी। हिंदू धर्म को आवश्यकता थी
अपने ही भावादर्शों को सुव्यवस्थित और सुगठित करने की और संसार को ज़रूरत थी
सत्य से भयभीत न होने वाले एक धर्म की। ये दोनों ही यहाँ उपलब्ध हैं। संकट के
क्षणों में जातीय चेतना को एकत्र करने और वाणी प्रदान करने वाले व्यक्ति के इस
आविर्भाव से बढ़कर सनातन धर्म की अनंत प्राणशक्ति का, और इस सत्य का कोई दूसरा
महत्तर प्रमाण नहीं दिया जा सकता था कि भारत आज भी उतना ही महान है, जितना कि
वह अतीत में सदा रहा है।
संभवतः इस बात का पूर्व-ज्ञान रहा हो कि भारत अपनी आवश्यकता के प्रति संतुष्ट
केवल तभी होगा, जब वह इस जीवनदायी संदेश को अपनी सीमाओं के बाहर की मानव-जाति
तक पहुँचाए। ऐसा प्रथम बार केवल इसी अवसर पर घटित नहीं हआ। एक बार पहले भी, एक
राष्ट्र-निर्मायक धर्म का संदेश बंधु देशों को भेजकर समूचे भारत ने अपने चिंतन
की गरिमा समझी थी--एक ऐसा एकात्मीकरण, जिससे स्वयं आधुनिक हिंदू धर्म का जन्म
हुआ है। हमें यह कभी न भुला देना चाहिए कि इसी भारत की भूमि पर सर्वप्रथम
शिष्यों को अपने गुरु का यह आदेश श्रुतिगोचर हुआ था, "तुम सारे संसार में जाओ
और जगत् के कोने कोने में प्राणिमात्र को धर्म का उपदेश करो।" यह वही विचार और
प्रेम का वही आवेग है, जो एक नया रूप धारण करके, स्वामी विवेकानन्द के श्रीमुख
से उस समय निःसृत हुआ, जब पश्चिम में एक महती सभा में उन्होंने कहा, "यदि एक
धर्म सच्चा है, तब निश्चय ही अन्य सभी धर्म सच्चे हैं। अतएव हिंदू धर्म उतना
ही आपका है, जितना मेरा।" और इसी भाव को विशद करते हुए वे फिर कहते हैं, "हम
हिंदू केवल सहिष्णु ही नहीं हैं, हम अन्य धर्मों के साथ--मुसलमानों की मस्जिद
में नमाज़ पढ़कर, पारसियों की अग्नि की उपासना करके तथा ईसाइयों के क्रूस के
सम्मुख नतमस्तक होकर उनसे एकात्म हो जाते हैं। हम जानते हैं कि निम्नतम
जड़-पूजावाद से लेकर उच्चतम निर्गुण अद्वैतवाद तक सारे धर्म समान रूप से असीम
को समझने और उसका साक्षात्कार करने के निमित्त मानवीय आत्मा के विविध प्रयास
हैं। अतः हम इन सभी सुमनों को संचित करते हैं, और उन सबको प्रेमसूत्र में
बाँधकर आराधना के निमित्त एक अद्भुत स्तवक निर्माण करते हैं।" इन वक्ता के
हृदय के लिए कोई भी विदेशी या विजातीय नहीं था। इनके लिए केवल मानव-जाति और
सत्य का ही अस्तित्व था।
विश्व-धर्म-महासभा के सम्मुख स्वामी जी के अभिभाषण के संबंध में यह कहा जा
सकता है कि जब उन्होंने अपना भाषण आरंभ किया, तो विषय था, 'हिंदुओं के धार्मिक
विचार', किंतु जब उन्होंने अंत किया, तब तक हिंदू धर्म की सृष्टि हो चुकी थी।
इस संभावना के लिए समय भी परिपक्व हो चुका था। उनके सम्मुख उपस्थित विशाल
श्रोता-समूह पाश्चात्य विचारधारा का ही प्रतिनिधि था, लेकिन इसमें जो
परमोत्कृष्ट विशिष्टता है, उस सबका कुछ विकास भी श्रोताओं में विद्यमान था।
अमेरिका को और विशेष रूप से शिकागो को, जहाँ यह सम्मेलन हुआ, यूरोप के
प्रत्येक राष्ट्र ने अपने मानवीय योगदान से आप्लावित किया है। आधुनिक उद्योग
और संघर्ष के बहुत कुछ उत्कृष्ट और उनमें से कुछ निकृष्ट भाव पश्चिम की इस
नगरों की रानी की सीमाओं के भीतर मिलते हैं, जिसके पदतल--जब वह अपनी आँखों में
उत्तर का प्रकाश भरकर बैठती और चिंतामग्न होती है--मिशिगन झील के तट पर हैं।
आधुनिक ज्ञान में ऐसा बहुत कम है, यूरोप के अतीत से उत्तराधिकार में प्राप्त
ऐसा बहुत कम है, जिसकी कोई न कोई चौकी शिकागो की नगरी में न विद्यमान हो। और
जहाँ हममें से कुछ को इस केंद्र का जनसंकुल जीवन और अधीर उत्सुकता अभी निरी
विश्रृंखल ही क्यों न प्रतीत हों, फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि वे मानवीय
एकता के किसी महान किंतु धीरसंचारी आदर्श को उस समय व्यक्त करने की चेष्टा कर
रहे हैं, जब उनकी परिपक्वता के दिन पूर्ण हो जाएँगे।
ऐसी मनोवैज्ञानिक भूमि थी, ऐसा मानस-सागर था--तरुण, तुमुल तथा अपनी शक्ति और
आत्मविश्वास से उफनाता, फिर भी जिज्ञासु और जागरूक--जो भाषण आरंभ करते समय
विवेकानन्द के सम्मुख था। इसके ठीक विपरीत, उनके पीछे युग-युग के आध्यात्मिक
विकास का प्रशांत सागर था। उनके पीछे एक संसार था, जो अपनी काल-गणना वेदों से
करता है और अपनी याद उपनिषदों में करता है--एक संसार, जिसकी तुलना में बौद्ध
धर्म प्रायः आधुनिक है, एक संसार--मत-मतांतरों की धार्मिक व्यवस्थाओं से
पूर्ण, उष्ण कटिबंध की सूर्य रश्मियों से स्नात शांत देश, जिसकी सड़कों की रज
पर युग-युगांतर से संतों के चरण-चिह्न अंकित होते रहे थे। संक्षेप में, उनके
पीछे था वह भारत--सहस्रों वर्षों के अपने राष्ट्रीय विकास के साथ--जिनमें उसने
अपने देश और काल के महान विस्तार के एक छोर से दूसरे छोर तक अपने समस्त
देशवासियों द्वारा सामान्य रूप से मान्यताप्राप्त कुछ मौलिक और सारभूत सत्यों
का पता लगाया है, अनेक बातें सिद्ध की हैं, और केवल एक पूर्ण मतैक्य को
छोड़कर, लगभग सबको उपलब्ध किया है।
तो यही थे वे दो मानस-प्लावन, प्राच्य और अधुनातन चिंतन के मानो दो प्रबल
महानद। धर्म-महासभा के रंगमंच पर विद्यमान गैरिक वसनमंडित यह परिव्राजक एक
क्षण के निमित्त इन दोनों प्लावनों का संगम-बिंदु बन गया। हिंदू धर्म के
सामान्य आधारों का सूत्रीकरण इस परम नैर्व्यक्तिक व्यक्तित्व से उन प्लावनों
के संपर्क के आघात का अपरिहार्य परिणाम था। स्वामी विवेकानन्द के अधरों से जो
शब्द उच्चरित हुए, वे स्वयं उनके अनुभवजनित नहीं थे। न उन्होंने अपने गुरुदेव
की कथा सुनाने के निमित्त ही इस अवसर का उपयोग किया। इन दोनों के स्थान पर,
भारत की धार्मिक चेतना--संपूर्ण अतीत द्वारा निर्धारित उनके समग्र देशवासियों
का संदेश ही उनके माध्यम से मुखर हुआ था। और जब वे पश्चिम के यौवन और मध्याह्न
में बोल रहे थे, तब प्रशांत के दूसरी ओर, तमसाच्छन्न गोलार्ध की छायाओं में
प्रसुप्त एक राष्ट्र अपनी ओर गतिमान अरुणोदय के पंखों पर आनेवाली और उसके
प्रति स्वयं उसके ही महत्त्व और शक्ति का रहस्य उद्घाटित करने वाली वाणी की
प्रतीक्षा अपनी आत्मा में कर रहा था। उसी धर्म-महासभा के मंच पर स्वामी
विवेकानन्द के अतिरिक्त विशिष्ट मतों और संघों के धर्मदूत भी उपस्थित थे।
किंतु एक ऐसे धर्म का प्रचार करने का गौरव उन्हींको था, जिस तक पहुँचने के लिए
इनमें से प्रत्येक, उन्हीं के शब्दों में, विविध अवस्थाओं और परिस्थितियों के
द्वारा उसी एक लक्ष्य तक पहुँचने के निमित्त विभिन्न स्त्री-पुरुषों की
यात्रा, प्रगति मात्र है।और जैसा कि उन्होंने घोषित किया, वे वहाँ एक ऐसे
महापुरुष का परिचय देने के लिए खड़े हुए थे, जिसने इन सभी मत-मतांतरों के विषय
में कहा है कि ऐसा नहीं है कि इनमें से कोई एक या दूसरा, इस या उस पक्ष में,
इस या उस कारण, सत्य या असत्य है, वरन् मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा
इव--'यह सब सूत्र में मोतियों की भाँति मुझमें ही पुहे हुए हैं।' 'जहाँ
मानव-जाति को पवित्र और उसका उन्नयन करती असामान्य पवित्रता, असामान्य शक्ति,
तेरे देखने में आए, तू जान कि मैं वहाँ हूँ। विवेकानन्द का कहना है कि एक
हिंदू की दृष्टि में 'मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जाता, वरन् सत्य से सत्य
की ओर अग्रसर होता है; निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर जाता है।' यह, तथा
मुक्ति का यह सिद्धांत कि 'मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके ईश्वर होना
है', यह सत्य कि धर्म केवल तभी हममें पूर्णता को प्राप्त करता है, जब वह हमें
'उस तक ले जाता है, जो मृत्यु के संसार में एकमात्र जीवन है, उस तक जो नित्य
परिवर्तनशील जगत का चिरंतन आधार है, उस एक तक ले जाता है, जो केवल आत्मा ही
है, अन्य सभी आत्माएँ जिसकी भ्रांत अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं'--ये दो महान
विशिष्ट सत्यों के रूप में मान्य हो सकते हैं। भारत ने मानव-इतिहास की दीर्घतम
और जटिलतम अनुभूति के द्वारा प्रमाणीकृत इन दोनों सत्यों को उनके माध्यम से
पश्चिम के आधुनिक जगत में घोषित किया।
स्वयं भारत के लिए, जैसा पहले ही कहा जा चुका है, यह संक्षिप्त अभिभाषण
मताधिकार की एक छोटी सी सनद थी। वक्ता ने हिंदू धर्म को सर्वांगतया वेदों पर
आधारित किया है। किंतु वेद संबंधी हमारी धारणा का वे इस शब्द के उच्चारण मात्र
से ही आध्यात्मीकरण कर देते हैं। उनके निकट, जो कुछ सत्य है, वह सब वेद है। वे
कहते हैं, "वेदों का अर्थ कोई ग्रंथ नहीं है। वेदों का अर्थ है, विविध समयों
पर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक नियमों का संचित कोष।"
प्रसंगवश वे सनातन धर्म के संबंध में अपने विचार को भी प्रकट करते हैं।
'विज्ञान की नूतनतम खोजें जिसकी प्रतिध्वनि जैसी लगती हैं, उस वेदांत दर्शन के
उच्च आध्यात्मिक स्तरों से लेकर, विविधतामय पौराणिकतायुक्त मूर्ति-पूजा के
निम्नतम विचार, बौद्धों के अज्ञेयवाद और जैनों के निरीश्वरवाद तक प्रत्येक और
सबका स्थान हिंदू धर्म में है।' उनकी दृष्टि में भारतवासियों का कोई भी मत,
संप्रदाय अथवा कोई भी सच्ची धर्मानुभूति--वह किसी को कितनी ही धूमिल क्यों न
प्रतीत हो--ऐसी नहीं है, जिसे हिंदू धर्म की बाहुओं से औचित्यपूर्वक बहिष्कृत
किया जा सके। और उनके अनुसार इस भारतीय धर्म-माता का विशिष्ट सिद्धांत है इष्ट
देवता--हर आत्मा को अपने मार्ग को चुनने तथा ईश्वर को अपने ढंग से खोजने का
अधिकार। अत: इस प्रकार से परिभाषित हिंदू धर्म के बराबर विराट साम्राज्य की
पताका का बहन कोई अन्य वाहिनी नहीं करती; क्योंकि जिस प्रकार ईश्वर की
प्राप्ति इसका आध्यात्मिक लक्ष्य है, उसी प्रकार इसका आध्यात्मिक नियम है,
प्रत्येक आत्मा की स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित होने की पूर्ण स्वतंत्रता।
किंतु सबों का यह समावेश, प्रत्येक की यह स्वतंत्रता हिंदू धर्म की ऐसी गरिमा
न बन पाती, यदि उसका परम आह्वान और उसकी मधुरतम प्रतिज्ञा यह न होती : 'हे
अमृतपुत्रो! सुनो! उच्चतर लोकों में रहने वालो, तुम भी सुनो : मैंने उस पुराण
पुरुष को पा लिया है, जो समस्त अंधकार, समस्त भ्रांति के परे है। और तुम भी
उसको जानकर मृत्यु से मुक्ति प्राप्त कर सकोगे।' यही है वह शब्द, जिसके
निमित्त शेष सबका अस्तित्व है और रहा है। इसी में वह चरम अनुभूति है, जिसमें
अन्य सबका तिरोभाव हो जाता है। जब 'हमारा प्रस्तुत कार्य' नामक अपने व्याख्यान
में स्वामी जी सबको यह शपथ दिलाते हैं कि वे उनकी सहायता एक ऐसे मंदिर का
निर्माण करने में करें, जहाँ देश का प्रत्येक उपासक उपासना कर सके, एक ऐसा,
जिसके गर्भगृह में केवल ॐ शब्द मात्र होगा, तो हममें से कुछ को उनके इस वचन
में एक इससे भी महान मंदिर की झलक मिलती है--स्वयं भारत की, मातृभूमि की, जैसी
कि वह है--और हम केवल भारतीय धर्मों के ही नहीं, वरन् समग्र मानव-जाति के
विभिन्न मार्गों को वहाँ केंद्रित होते देखते हैं, उस पुनीत स्थल के चरणों में
जहाँ वह प्रतीक प्रतिष्ठित है, जो प्रतीक है ही नहीं, जहाँ वह नाम है, जो
ध्वनि मात्र के अतीत है। सभी उपासनाओं के समस्त मार्ग और सभी धर्म इसी ओर
पहुँचाते हैं, इससे भिन्न दिशा में नहीं। भारत अपनी इस घोषणा में विश्व के परम
विशुद्धतावादी धर्मों के साथ है कि प्रगति दृश्य से अदृश्य की ओर, अनेक से एक
की ओर, निम्न से उच्च की ओर, साकार से निराकार की ओर होती है, किंतु विपरीत
दिशा में कदापि नहीं। भारत के साथ अंतर केवल इतना है कि वह हर सच्ची अवस्था
को--वह जो भी हो, और जहाँ भी हो--उस महान आरोहण का एक सोपान मानकर उसको
सहानुभूति और आश्वासन प्रदान करता है।
यदि हिंदू धर्म के दूत के रूप में उनका कुछ अपना होता, तो स्वामी विवेकानन्द,
जो कुछ थे, उससे कम महान सिद्ध हुए होते। गीता के कृष्ण की भाँति, बुद्ध की
भाँति, शंकराचार्य की भाँति, भारतीय चिंतन के अन्य प्रत्येक महान विचारक की
भाँति, उनके वाक्य भी वेदों और उपनिषदों के उद्धरणों से परिपूर्ण हैं। भारत के
पास जो अपनी ही निधियाँ सुरक्षित हैं, भारत के ही प्रति उनके मात्र उद्घाटक और
भाष्यकार के रूप में ही स्वामी जी का महत्त्व है। यदि वे कभी जन्म ही न लेते,
तो भी जिन सत्यों का उपदेश उन्होंने किया, वे वैसे सत्य बने रहते। यही नहीं,
वे सत्य उतने ही प्रामाणिक भी बने रहते। अंतर केवल होता, उनकी प्राप्ति की
कठिनाई में, उनकी अभिव्यक्ति में आधुनिक स्पष्टता और तीक्ष्णता के अभाव में और
उनके पारस्परिक सामंजस्य एवं एकता की हानि में। यदि वे न होते, तो आज सहस्रों
लोगों को जीवनदायी संदेश प्रदान करनेवाले वे ग्रंथ पंडितों के विवाद के विषय
ही बने रह जाते। उन्होंने एक पंडित की भाँति नहीं, एक अधिकारी व्यक्ति की
भाँति उपदेश दिया। क्योंकि जिस सत्यानुभूति का उपदेश उन्होंने किया, उसकी
गहराइयों में वे स्वयं ही गोता लगा चुके थे और रामानुज की भाँति उसके रहस्यों
को चांडाल, जाति-बहिष्कृत और विदेशियों को बतलाने के निमित्त ही वे वहाँ से
लौटे थे।
किंतु फिर भी यह कथन कि उनके उपदेशों में कुछ नवीनता नहीं है, पूर्णतः सत्य
नहीं है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ये स्वामी विवेकानन्द ही थे, जिन्होंने
अद्वैत दर्शन के श्रेष्ठत्व की घोषणा करते हुए कहा था कि इस अद्वैत में यह
अनुभूति समाविष्ट है, जिसमें सब एक हैं, जो एकमेवाद्वितीय है; पर साथ साथ
उन्होंने हिंदू धर्म में यह सिद्धांत भी संयोजित किया कि द्वैत, विशिष्टाद्वैत
और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर हैं, जिनमें अंतिम अद्वैत ही
लक्ष्य है। यह एक और भी महान तथा अधिक सरल, इस सिद्धांत का अंग है कि अनेक और
एक, विभिन्न समयों पर विभिन्न वृत्तियों में मन के द्वारा देखे जाने वाला एक
ही तत्त्व है; अथवा जैसा श्री रामकृष्ण ने उसी सत्य को इस प्रकार व्यक्त किया
है, "ईश्वर साकार और निराकार, दोनों ही है। ईश्वर वह भी है, जिसमें साकार और
निराकार, दोनों ही समाविष्ट हैं।" यही--वह वस्तु है, जो हमारे गुरुदेव के जीवन
को सर्वोच्च महत्त्व प्रदान करती है, क्योंकि यहाँ वे पूर्व और पश्चिम के ही
नहीं, भूत और भविष्य के भी संगम-विन्दु बन जाते हैं। यदि एक और अनेक सचमुच एक
ही सत्य हैं, तो केवल उपासना के ही विविध प्रकार नहीं, वरन् सामान्य रूप से
कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के सभी प्रकार, सर्जन के सभी प्रकार भी,
सत्य-साक्षात्कार के मार्ग हैं। अतः लौकिक और धार्मिक में अब आगे कोई भेद नहीं
रह जाता। कर्म करना ही उपासना करना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग करना है।
स्वयं जीवन ही धर्म है। प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना उतना ही कठोर
न्यास है, जितना कि त्याग करना और विमुख होना।
स्वामी विवेकानन्द की यही अनुभूति है, जिसने उन्हें उस कर्म का महान उपदेष्टा
सिद्ध किया, जो ज्ञान-भक्ति से अलग नहीं, वरन् उन्हें अभिव्यक्त करने वाला है।
उनके लिए कारखाना, अध्ययन-कक्ष, खेत और क्रीड़ाभूमि आदि भगवान् के साक्षात्कार
के वैसे ही उत्तम और योग्य स्थान हैं, जैसे साधु की कुटी या मंदिर का द्वार।
उनके लिए मानव की सेवा और ईश्वर की पूजा, पौरुष तथा श्रद्धा, सच्चे नैतिक बल
और आध्यात्मिकता में कोई अंतर नहीं है। एक दृष्टि से उनकी संपूर्ण वाणी को इसी
केंद्रीय दृढ़ आस्था के भाष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है। एक बार उन्होंने
कहा था, "कला, विज्ञान एवं धर्म एक ही सत्य की अभिव्यक्ति के विविध माध्यम
हैं। लेकिन इसे समझने के लिए निश्चय ही हमें अद्वैत का सिद्धांत चाहिए।"
उनके दर्शन का निर्माण करने वाले रचनात्मक प्रभाव को शायद त्रिगुणात्मक माना
जा सकता है। पहले तो संस्कृत और अंग्रेजी में उनकी शिक्षा थी। इस प्रकार दो
जगत उनके सम्मुख उद्घाटित हुए एवं उनके वैषम्य ने उन पर एक ऐसी विशिष्ट
अनुभूति का बलिष्ठ प्रभाव डाला, जो भारत के धर्म-ग्रंथों की विषय-वस्तु है।
यदि यह सत्य हो, तो यह स्पष्ट है कि वह, जैसे कुछ अन्य लोगों को प्राप्त हो
गया, उस प्रकार भारतीय ऋषियों को संयोगवश अप्रत्याशित रूप से नहीं प्राप्त हो
गया। वरन् वह एक विज्ञान की विषय-वस्तु था, एक ऐसे तार्किक विश्लेषण का विषय
था, जो सत्य की खोज में बड़े से बड़े बलिदान से पीछे हटने वाला नहीं था।
अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस में, जो दक्षिणेश्वर के उद्यान-मंदिर में रहते
और उपदेश करते थे, स्वामी विवेकानन्द--उन दिनों के 'नरेन'--को प्राचीन
धर्मग्रंथों का वह सत्यापन प्राप्त हुआ, जिसकी माँग उनका हृदय और बाद्ध करती
रही थी। यहाँ वह सत्य उपलब्ध था, जिसका टूटा-फूटा वर्णन ही ग्रंथ कर पाते हैं।
यहाँ एक ऐसा व्यक्ति था, जिसके लिए समाधि ही ज्ञान प्राप्त करने का सतत साधन
थी। हर घंटे चित्त अनेक से एक की ओर दोलायमान था। हर क्षण अतिचेतन भूमिका से
संगृहीत ज्ञान की वाणी से ध्वनित होता था। उनके सन्निकट हर व्यक्ति को ईश्वर
दर्शन की झलक मिल जाती थी और शिष्य में भी परम ज्ञान की अभीप्सा, 'ज्वर चढ़ने
के सदृश' जग उठती थी। किंतु तथापि वे संपूर्ण अज्ञात रूप से ही धर्मग्रंथों की
जीवंत प्रतिमूर्ति थे, क्योंकि उन्होंने उनमें से किसीका कभी अध्ययन ही नहीं
किया था! अपने गुरुदेव, रामकृष्ण परमहंस में, विवेकानन्द को जीवन की कुंजी मिल
गई थी।
किंतु फिर भी अपने जीवन-कार्य के निमित्त उनकी तैयारी पूरी नहीं हो पाई थी।
उनके गुरुदेव का जीवन एवं व्यक्तित्व, जिस विराट् परिपूर्णता का अल्पकालिक एवं
प्रखर प्रतीक था, उसकी परिव्याप्ति को आत्मसात करने के लिए कन्याकुमारी से
हिमालय तक, समग्र भारत का भ्रमण करना, सर्वत्र साधु-संत, विद्वानों और
जन-साधारण से समभाव से मिलना, सबसे शिक्षा ग्रहण करना और सबको शिक्षा देना,
सबके साथ जीवन बिताना और भारत के अतीत एवं वर्तमान का यथार्थ परिचय प्राप्त
करना अनिवार्य था।
इस प्रकार विवेकानन्द की कृतियों का संगीतशास्त्र, गुरु तथा मातृभूमि--इन तीन
स्वर-लहरियों से निर्मित हुआ है। उनके पास देने योग्य यही निधि है। इन्हीं से
उनको वे उपकरण मिले, जिनसे विश्व-विकार को दूर करने वाले आध्यात्मिक वरदान की
विशल्यकरणी उन्होंने प्रस्तुत की। १९ सितंबर, १८९३ ई० से ४ जुलाई, १९०२ ई० तक
कार्य की अल्पावधि में भारत ने अपनी तथा विश्व की संतति के पथ-प्रदर्शन के लिए
उनके हाथों से जो दीप प्रज्वलित एवं प्रतिष्ठित कराया, उसके भीतर ये ही तीन
दीपशिखाएँ प्रोज्ज्वल हैं। हममें से कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो इसी प्रकाश और
अपने पीछे छोड़ी गई उनकी कृतियों के लिए उनको जन्म देनेवाली पुण्यभूमि को, तथा
जिन अदृश्य शक्तियों ने उन्हें विश्व में भेजा, उनको धन्य कहते हैं और विश्वास
करते हैं कि उनके महान संदेश की व्यापकता एवं सार्थकता का मर्म जानने में हम
अभी तक असमर्थ रहे हैं।
४ जुलाई, १९०७ -भगिनी निवेदिता