hindisamay head


अ+ अ-

संवाद संग्रह

संवाद : लंदन

स्वामी विवेकानंद


('मेंम्फ़िस कमर्शियल', १५ जनवरी , १८९४)

संवाददाता के द्वारा यह पूछे जाने पर कि उनके ऊपर अमेरिका का कैसा प्रभाव पड़ा, उन्होंने कहा:

"इस देश के संबंध में मेरे मन में अच्छा भाव उत्पन्न हुआ है, विशेषतः अमेरिका की स्त्रियों के संबंध में। मैंने अमेरिका में गरीबी के अभाव का विशेष उल्लेख किया है।"

इसके बाद बातें धर्म के विषय पर केंद्रित हुईं। स्वामी विवेकानंद ने यह मत प्रकट किया कि विश्व-धर्म-महासभा इस अर्थ में उपयोगी सिद्ध हुई है कि उसने विचारों को प्रशस्त करने में बड़ा काम किया है।

संवाददाता ने प्रश्न किया, "आपके धर्मवालों की ईसाई धर्मावलंबियों की मृत्यु के बाद की दशा के बारे में क्या धारणा है ?"

"हमारा विश्वास है कि यदि वह अच्छा आदमी है, तो उसका उद्धार होगा। हमारा विश्वास है कि यदि कोई नास्तिक भी है और अच्छा आदमी है, तो उसका अवश्य ही उद्धार होगा। हम मानते हैं कि सभी धर्म अच्छे हैं। जो लोग उनको मानते हैं, उनके लिए केवल यह आवश्यक है कि वे झगड़ा न करें।"

स्वामी विवेकानंद से भारत के जादू के आश्चर्यजनक करिश्मों, हवा में ऊपर उठने और प्राणावरोध इत्यादि के विषय में प्रश्न किया गया। विवेकानंद ने कहा:

"हम चमत्कारों में बिल्कुल विश्वास नहीं करते, किंतु प्राकृतिक नियमों की क्रिया के अंतर्गत प्रत्यक्षतः अद्भुत कार्य किए जा सकते हैं। इन विषयों से संबंधित भारत में विपुल साहित्य है और वहाँ लोगों ने इन विषयों का अध्ययन किया है।

"हठयोगियों ने मनोभावों को जानने और घटनाओं की भविष्यवाणी करने के अभ्यास में सफलता प्राप्त की है।

"जहाँ तक हवा में ऊपर उठने की बात है, मैंने किसीको गुरुत्वाकर्षण के ऊपर विजय प्राप्त कर इच्छानुसार हवा में ऊपर उठते कभी नहीं देखा, किंतु मैंने ऐसे बहुत लोगों को देखा है, जो इसकी साधना कर रहे थे। वे इस विषय में प्रकाशित पुस्तकें पढ़ते हैं और चमत्कार-सिद्धि के लिए वर्षों प्रयत्न करते हैं। अपने इस प्रयास में कुछ लोग प्रायः निराहार रहते हैं और अपने को इतना दुबला-पतला बना देते हैं कि यदि कोई उनके पेट में अँगुली लगाये, तो रीढ़ छू ले।

"इन हठयोगियों में से बहुत से दीर्घजीवी होते हैं।"

प्राणावरोध का प्रश्न फिर उठाये जाने पर हिंदू संन्यासी ने 'कशियल' के संवाददाता को बताया कि वे स्वयं एक मनुष्य को जानते हैं, जो एक बंद गुफा में प्रविष्ट हो जाता था और जिसे एक गुप्त द्वार से बंद कर दिया जाता था तथा जो वहाँ अनेक वर्षों तक निराहार रहता था। जिन उपस्थित लोगों ने इस कथन को सुना, उनमें निश्चित रूप से उत्सुकता की एक लहर दौड़ गयी। विवेकानंद को इसकी सत्यता में किंचित् संदेह नहीं है। वे कहते हैं कि प्राणावरोध की दशा में उस अवधि में वृद्धि स्थगित रहती है। उनका कहना है कि भारत में उस आदमी की बात, जो जीवित दफ़ना दिया गया था, जिसकी समाधि के ऊपर जौ के पौधे उगा दिए गए तथा जो अंत में जीवित निकाला गया था, पूर्ण रूप से सही है। उनका विचार है कि जिस अध्ययन ने व्यक्तियों को यह असाधारण कार्य करने में समर्थ बनाया, वह हिमशायी प्राणियों से सूझा होगा।

विवेकानंद ने कहा कि उन्होंने उस करिश्मे को कभी नहीं देखा, जिसके बारे में कुछ लेखकों का दावा है कि भारत में सिद्ध किया गया है--हवा में रस्सी फेंकना और उस पर चढ़कर सुदूर ऊँचाई में अदृश्य हो जाना।

जिस समय संवाददाता विवेकानंद से वार्तालाप कर रहा था, एक उपस्थित महिला ने कहा कि किसीने उससे पूछा था कि क्या विवेकानंद आश्चर्यजनक करिश्मे कर लेते हैं और क्या वे अपने संप्रदाय में दीक्षित होने के एक अंग के रूप में जीवित, पृथ्वी के भीतर समाधि में रह चुके थे। इन दोनों प्रश्नों का उत्तर पूर्ण नकारात्मक था। उन्होंने कहा, "इन बातों का धर्म से क्या प्रयोजन ? क्या ये मनुष्य को पवित्रतर बनाती हैं ? आपकी बाइबिल का 'शैतान' भी तो शक्तिशाली है, परंतु वह पवित्र न होने के कारण ईश्वर से भिन्न है।"

हठयोग संप्रदाय की बात करते हुए विवेकानंद ने कहा कि उनमें अपने शिष्यों की दीक्षा से संबंधित एक प्रथा है, जो ईसा के जीवन की एक रस्म की ओर संकेत करती है, चाहे यह एक संयोग हो अथवा न हो। वे भी अपने शिष्यों को ठीक चालीस दिन तक एकाकी रहने के लिए बाध्य करते हैं।

 

लंदन में भारतीय योगी

('वेस्ट मिनिस्टर ग़ज़ट', २३ अक्तूबर, १८९५ ई०)

भारतीय दर्शन इधर विगत कुछ वर्षों से बहुत से लोगों के लिए गंभीर और वर्धमान आकर्षण का विषय रहा है, यद्यपि अभी तक जिन लोगों ने इस देश में उस दर्शन की व्याख्या की है, उनकी चिंतन-प्रणाली और शिक्षा-दीक्षा पूरी तरह पाश्चात्य होने के कारण वेदांत-तत्व के गंभीर रहस्यों के संबंध में वास्तव में लोगों को बहुत ही थोड़ी जानकारी प्राप्त हुई है; और जो कुछ हुई, वह भी इने-गिने व्यक्तियों तक सीमित है। प्राच्य परंपरा में शिक्षित-दीक्षित योग्य आचार्यगण वेदांत-शास्त्र से जिस गंभीर तत्वज्ञान की प्राप्ति कर लेते हैं, उस ज्ञान-भाण्डार को भाषाविज्ञानियों की दृष्टि से किए गए विशाल अनुवादों से प्राप्त करने की अंतर्दृष्टि और साहस बहुतों में नहीं होता।

एक संवाददाता लिखते हैं--उपर्युक्त कारणों से--कुछ तो जिज्ञासा और कुछ कौतूहलवश मैं पाश्चात्य लोगों के लिए एक नितांत नये व्याख्याता स्वामी विवेकानंद से भेंट करने गया। वे सचमुच एक भारतीय योगी हैं। युग-युगान्तर से संन्यासी और योगी शिष्य-परंपरा से जिस ज्ञान का प्रचार करते आ रहे हैं, उसीकी व्याख्या करने के लिए वे साहसपूर्वक पाश्चात्य जगत् में आये हुए हैं, एवं उसी उद्देश्य से उन्होंने कल रात को प्रिंसेज़ हॉल में एक भाषण भी दिया।

सिर पर पगड़ी धारण किए हुए, शांत और सौम्य मुखमुद्रायुक्त स्वामी विवेकानंद एक भव्य व्यक्ति हैं। मेरे यह पूछने पर कि क्या उनके नाम का कोई विशेष अर्थ है, यदि है तो क्या, उन्होंने कहा: "अब मैं जिस (स्वामी विवेकानंद) नाम से परिचित्त हूँ, उसके प्रथम शब्द का अर्थ है संन्यासी, अर्थात् वह जिसने विधिपूर्वक संसार का परित्याग कर दिया हो। दूसरा शब्द (विवेकानंद) एक उपाधि मात्र है, जिसको संसार त्यागते समय मैंने ग्रहण किया था। सभी संन्यासी ऐसा करते हैं। इसका अर्थ है-विवेक अर्थात् सदसद्विचार का आनंद।

मैंने फिर पूछा, "स्वामी जी, आपने संसार के सामान्य जीवन का त्याग क्यों कर दिया ?" कि उन्होंने उत्तर दिया, "बाल्य काल से ही धर्म और दर्शन में मेरी विशेष रुचि थी। हमारे शास्त्रों का उपदेश है कि त्याग ही मनुष्य का श्रेष्ठतम आदर्श है। मुझमें उस मार्ग का अनुसरण करने के अंतिम निश्चय की प्रेरणा देने के लिए महान धर्मगुरु रामकृष्ण परमहंस के दर्शन प्राप्त होने भर की ही देर थी। वे स्वयं इसी मार्ग पर चल रहे थे और उनमें मैंने अपने सर्वोच्च आदर्श की निष्पत्ति के दर्शन किए।

"तब क्या उन्होंने किसी संप्रदाय की स्थापना की, जिसका प्रतिनिधित्व आप इस समय कर रहे हैं ?"

स्वामी जी ने तत्काल उत्तर दिया, "नहीं, उनका सारा जीवन सांप्रदायिकता और कट्टरता के तोड़ने में ही व्यतीत हुआ। उन्होंने किसी संप्रदाय की स्थापना नहीं की। उसका ठीक विपरीत ही किया। वे पूर्ण विचार-स्वातंत्र्य के समर्थक थे और उसकी स्थापना के निमित्त उन्होंने पूर्ण प्रयास किया। वे एक महान योगी थे।"

प्रश्न--तब तो इस देश के किसी समाज या संप्रदाय जैसे, थियोसॉफ़िकल सोसाइटी, क्रिश्चियन साइंटिस्ट अथवा अन्य किसी संप्रदाय के साथ आपका कुछ भी संबंध न होगा?

स्वामी जी ने स्पष्ट और हृदयस्पर्शी स्वर में उत्तर दिया, "नहीं, तनिक भी नहीं।" (स्वामी जी का मुख ऐसा सरल, निष्कपट और ईमानदार है कि उनका मुखमंडल बालक की तरह चमक उठता है)। "अपने गुरु के उपदेशों के आलोक में मैंने अपने प्राचीन शास्त्रों को जैसा समझा है, मैं उसी की शिक्षा देता हूँ। अलौकिक उपाय से प्राप्त किसी अलौकिक प्रामाण्य का दावा मैं नहीं करता। मेरे उपदेशों में सर्वोच्च बुद्धि को जो ग्राह्य प्रतीत हो और विचारशील व्यक्ति जो कुछ स्वीकार कर सकें, उसी को मैं अपना पुरस्कार समझंगा।"

वे कहते गए--"सभी धर्मों का लक्ष्य है किसी पूर्व रूप में भक्ति, ज्ञान अथवा योग की शिक्षा। वेदांत इन साधना-पद्धतियों का अमूर्त विज्ञान है और मैं इसी विज्ञान का प्रचार करता हूँ। अपने निजी मूर्त मार्ग पर उसे लागू करने का कार्य मैं व्यक्तियों पर ही छोड़ देता हूँ। मैं प्रत्येक व्यक्ति को उसके अनुभव को ही प्रमाणरूप से ग्रहण करने का उपदेश देता हूँ। और मैं यदि किन्हीं ग्रंथों का उल्लेख करता हूँ, तो उन्हींका जो प्राप्य है, और जिन्हें प्रत्येक स्वयं ही पढ़ सकता है। और सर्वोपरि मैं साधारण लोगों के लिए सर्वथा अदृश्य रहनेवाले उन अलौकिक महात्माओं की प्रामाणिकता का उपदेश नहीं करता, जो किसी व्यक्ति को माध्यम बनाकर अपनी बात कहते हैं; और न मैं यह दावा करता हूँ कि किन्हीं गुप्त पुस्तकों या पांडुलिपियों से मैंने कुछ सीखा है। न मैं किसी गुह्य समाज का प्रचारक हूँ और न मैं उस प्रकार की संस्थाओं से किसी प्रकार कल्याण होने में विश्वास ही रखता हूँ। सत्य स्वयं प्रमाण है और वह दिन के प्रकाश को सह सकता है।"

मैंने पूछा, "तो, स्वामी जी, कोई समाज आदि स्थापित करने का विचार आपका नहीं है ?"

उत्तर--नहीं, कोई भी समिति या समाज नहीं। मैं तो केवल उस आत्मा का उपदेश करता हूँ, जो सब प्राणियों के हृदय में गढ़ भाव से अवस्थित है और जो सबमें व्याप्त है। आत्मा का ज्ञान रखनेवाले और उसके प्रकाश में अपना जीवन-यापन करनेवाले मुट्ठी भर शक्तिशाली लोग सारी दुनिया में आज भी ऐसी क्रांति उत्पन्न कर सकते हैं, जैसी प्राचीन काल में एक एक दृढ़चित्त महापुरुष ने अपने अपने समय में की थी।

चूंकि स्वामी जी का मुख प्राच्य सूर्य का संकेत देता है, इसलिए मैंने पूछा, "क्या आप भारत से यहाँ हाल ही में आये हैं ?"

स्वामी जी ने उत्तर दिया, "नहीं, १८९३ ई० में अमेरिका के शिकागो शहर में, जो धर्म-महासभा का अधिवेशन हुआ था, उसमें मैंने हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। तब से मैं संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में भ्रमण करते हुए वक्तृताएँ दे रहा हूँ। अमेरिकन लोग मेरे व्याख्यानों के अत्यंत आग्रहवान श्रोता और मेरे सहानुभूतिशील मित्र रहे हैं। वहाँ मेरा कार्य इतना जम गया है कि मुझे शीघ्र ही वहाँ अवश्य लौट जाना पड़ेगा।"

प्रश्न--स्वामी जी, पाश्चात्य धर्म-मतों के विषय में आपकी क्या राय है?

उत्तर--मैं एक ऐसे दर्शन का प्रचार कर रहा हूँ, जो संसार के सारे धर्ममतों की आधारशिला बन सकता है। मैं उन सबके प्रति अत्यंत सहानुभूति रखता हूँ--मेरा उपदेश किसी धर्म का विरोधी नहीं है। मैं व्यक्ति की ओर ही विशेष ध्यान देता हूँ, उसे तेज़स्वी बनाने की चेष्टा करता हूँ। मैं तो यही शिक्षा देता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति साक्षात् ब्रह्मा है, और सबको उनके इसी आंतरिक ब्रह्मा भाव के संबंध में सचेत होने के लिए आह्वान करता हूँ। जानकर हो या बिना जाने, वस्तुतः यही सब धर्मों का आदर्श है।

प्रश्न--इस देश में आपका कार्य किस प्रकार का रूप लेगा?

उत्तर--मैं मनुष्यों को इन उपदेशों से, जिनका उल्लेख मैंने किया, भर देने की, और अपने अपने ढंग से दूसरों के पास उनके प्रचारार्थ उत्साहित करने की आशा करता हूँ। वे मेरे उपदेशों को अपनी इच्छानुसार रूपांतरित करें। मैं मतों के रूप में उनकी शिक्षा नहीं देता हूँ। अंततः सत्य की ही अवश्य जय होती है।

"प्रकृत कार्य-यंत्र, जिसके माध्यम से मैं कार्य कर रहा हूँ, उसका भार मेरे दो-एक बंधुओं पर है। २२ अक्टूबर की शाम को साढ़े आठ बजे 'पिकेडिली प्रिन्सेज़ हॉल' में अंग्रेज श्रोताओं के लिए उन्होंने मेरे एक भाषण की व्यवस्था की है। इस विषय की घोषणा की जा रही है। विषय है मेरे दर्शन का मूल तत्व-'आत्मज्ञान'। उसके बाद अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए जो भी उपाय दिखेंगे, मैं उनका अवलंबन करने के लिए तैयार हूँ-लोगों के बैठकखाने में या अन्य किसी स्थान की सभा में उपस्थित होना, पत्र का उत्तर देना अथवा स्वयं ही विचार-विमर्श करना इत्यादि। इस अर्थ-लिप्सा-प्रधान युग में मैं इस बात को स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरा कोई भी कार्य अर्थ-प्राप्ति के लिए नहीं है।" क इसके उपरांत, जितने लोगों से मुझे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उनमें इस अत्यंत मौलिक व्यक्ति से मैंने विदा ली।

भारत का मिशन

('संडे टाइम्स', लंदन, १८९६)

इंग्लैंडवासी इस तथ्य को अच्छी तरह जानते हैं कि वे भारत के 'प्रवाल तटों को मिशनरी भेजते हैं। वास्तव में, वे इस धर्माज्ञा का, 'तुम समस्त संसार में जाओ और ईश्वर के संदेश का प्रचार करो' इतनी पूर्णता के साथ पालन करते हैं, कि मुख्य ब्रिटिश संप्रदायों में कोई भी ईसा की शिक्षा के प्रचार के इस आदेश का पालन करने में पीछे नहीं रहा है। पर लोग इस बात को इतनी अच्छी तरह नहीं जानते कि भारत भी इंग्लैंड में धर्म-प्रचारक भेजता है।

संयोग की बात है, यदि इस शब्द का उपयोग किया जा सके, मैं स्वामी विवेकानंद के अस्थायी निवास ६३, सेंट जॉर्ज रोड, एस० डब्ल्यू० में उनके सामने पड़ गया; और क्योंकि उन्होंने अपने कार्य की रूपरेखा और अपने इंग्लैंड आगमन के विषय में बातचीत करने में कोई आपत्ति नहीं की, इसलिए मैं उनके निकट पहुँचा, और अपने अनुरोध की स्वीकृति पर आश्चर्य प्रकट करते हुए बात आरंभ की।

"मैं अमेरिका में इंटरव्यू लेने वालों से पूर्ण अभ्यस्त हो गया हूँ। क्योंकि मेरे देश में एसा रिवाज़ नहीं है, इसलिए यह कोई कारण नहीं है कि मैं जिस देश में जाऊँ, वहाँ सुलभ साधनों का उपयोग उन बातों को फैलाने के लिए न करूँ, जिनका मैं प्रचार करना चाहता हूँ! वहाँ मैं १८९३ में, शिकागो की विश्व-धर्म-महासभा में हिंदू धर्म का प्रतिनिधि था। मैसूर के राजा और कुछ दूसरे मित्रों ने मुझे वहाँ भेजा था। मैं समझता हूँ कि मैं अमेरिका में कुछ सफलता प्राप्त करने का दावा कर सकता हूँ। शिकागो के अतिरिक्त मुझे अमेरिका के अन्य बड़े नगरों से भी बहुत से निमंत्रण मिले। मैं वहाँ बहुत दिनों तक ठहरा; क्योंकि पिछली गर्मियों में और, जैसा कि आप देख रहे हैं, इन गर्मियों में इंग्लैंड आने के अतिरिक्त, मैं अमेरिका में लगभग तीन वर्ष रहा। मेरी राय में अमेरिका की सभ्यता एक महान सभ्यता है। मैंने अमेरिकी मस्तिष्क को नये विचारों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील पाया है। वहाँ कोई बात इसलिए त्याज्य नहीं है, क्योंकि वह नयी है। वह अपनी अच्छाई और बुराई के आधार पर जाँची जाती है और केवल इसी आधार पर स्वीकार अथवा अस्वीकार की जाती है।"

"जब कि इंग्लैंड में--क्या आप संकेत से कुछ कहना चाहते हैं ?"

"हाँ। इंग्लैंड में सभ्यता पुरानी है। ज्यों ज्यों सदियाँ बीतीं हैं, उसमें बहुत विस्तार हुआ है। विशेष रूप से, आपके बहुत से पूर्वाग्रह बन गए हैं, जिनको जीतने की आवश्यकता है, और जो कोई आपसे विचारों का आदान-प्रदान करता है, उसे यह काम करना होगा।"

"ऐसा कहा जाता है। मैं समझता हूँ कि आपने अमेरिका में किसी धर्म अथवा नये मत की स्थापना नहीं की है।"ल

"यह सच है। संगठनों की संख्या बढ़ाना हमारे सिद्धांतों के विपरीत है; क्योंकि, सब प्रकार से, उनकी संख्या पहले ही काफ़ी है। और जब संगठन बनाए जाते हैं, तो उनकी देख-रेख के लिए व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। और वे जिन्होंने संन्यास ले लिया है--अर्थात् जिन्होंने सब सांसारिक पद, संपदा और ख्याति त्याग दी है-तथा जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक ज्ञान की खोज है, इस काम को नहीं सँभाल सकते, और वह फिर दूसरों के हाथों में चला जाता है।"

"क्या आपकी शिक्षा एक तुलनात्मक धर्म-प्रणाली है ?"

"इस विषय में अधिक सुनिश्चित धारणा हमें शायद यह कहने से प्राप्त हो सकती है कि वह धर्म के सब रूपों का सार है; उनके ऊपर से अ-सार को हटाकर उसके ऊपर बल देना है जो उनका वास्तविक आधार है। मैं रामकृष्ण परमहंस का शिष्य हूँ। वे एक पूर्ण संन्यासी थे। मैं उनके प्रभाव और विचारों से प्रभावित हुआ। इस महान संन्यासी ने दूसरे धर्मों के प्रति कभी नकारात्मक अथवा आलोचनात्मक दृष्टिकोण नहीं रखा, वरन् उनके सकारात्मक पक्ष को प्रदर्शित किया अर्थात् जीवन में उनका कैसे पालन और अभ्यास किया जा सकता है। झगड़ना, विरोध का दृष्टकोण रखना उनकी शिक्षा के बिल्कुल विपरीत पड़ता है; उनकी शिक्षा का विषय यह सत्य है कि संसार प्रेम से चलता है। आप जानते हैं कि हिंदू धर्म विधर्मियों को कभी कष्ट नहीं पहुँचाता। यह एक ऐसा देश है, जहाँ सब धर्म शांति और सद्भावना के साथ रह सकते हैं। मुसलमान अपने साथ हत्या और वध लाये, पर उनके आने से पहले शांति का शासन था। इस प्रकार जैन, जो किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करते और ऐसे विश्वास को भ्रम समझते हैं, सहन किए गए और वे आज भी हैं। भारत वास्तविक शक्ति, नम्रता का उदाहरण उपस्थित करता है। आक्रमण, दुस्साहस, संघर्ष ये सब बातें दुर्बलता है।"

"यह बहुत कुछ टाल्स्टाय के सिद्धांत के समान जान पड़ता है, इससे व्यक्तियों का काम चल सकता है, यद्यपि मैं स्वयं इस पर संदेह करता हूँ। पर इससे राष्ट्रों का काम कैसे चलेगा?"

"उनका काम भी बहुत अच्छी तरह से चलेगा। यह भारत का कर्म था, उसका भाग्य था, कि वह जीता जाए, और अपनी बारी आने पर, अपने विजेता पर विजय प्राप्त करे। वह अपने मुसलमान विजेताओं के प्रति यह कर चुका है : शिक्षित मुसलमान सूफ़ी है, उनमें और हिंदुओं में विशेष भेद नहीं है। हिंदू विचार उनकी सभ्यता में रम गया है और उन्होंने शिक्षार्थी की स्थिति ले ली है। मुगल सम्राट महान अकबर व्यवहारतः हिंदू था। और समय आने पर इंग्लैंड भी विजित होगा। आज उसके हाथों में तलवार है, पर विचारों के संसार में वह व्यर्थ से भी अधिक गया-बीता है। आप जानते हैं कि शापेनहॉवर ने भारतीय चिंतन के बारे में क्या कहा है। उन्होंने भविष्यवाणी की है कि जब ये विचार हमारे सुपरिचित्त हो जायँगे, तो यूरोप पर उनका प्रभाव उतना ही गंभीर पड़ेगा, जितना कि अंध युग के बाद यूनानी और लेटिन संस्कृति के पुनर्जीवन का पड़ा था।"

"क्षमा करें, यदि मैं कहूँ कि अभी तो इसके कोई लक्षण दिखायी नहीं देते।"

"शायद नहीं", स्वामी जी गंभीरता से बोले। "मैं यह कहने का साहस कर सकता हूँ कि बहुत से लोगों को पुराने नवजागरण के चिह्न भी दिखायी नहीं दिए थे, और उन्हें उसके आगमन का पता उस समय भी नहीं चला था, जब कि वह आ चुका था। पर एक महान गति आ रही है, जिसे वे लोग ही पहचान सकते हैं, जो समय के संकेतों को समझते हैं। पिछले कुछ वर्षों में प्राच्य अन्वेषणों में बहुत प्रगति हुई है। अभी वे विद्वानों के हाथों में है, और जो कार्य उन्होंने किया है, उसमें वे नीरस और भारी दिखायी देते हैं। पर धीरे-धीरे समझ का प्रकाश फैलेगा।"

"और भारत भविष्य का महान विजेता होगा। पर वह अपने विचारों के प्रचार के लिए अधिक धर्मोपदेशक नहीं भेजता। मैं समझता हूँ कि वह उस समय तक प्रतीक्षा करेगा, जब तक कि संसार उसके चरणों में नहीं आ जाता।"

"एक समय था, जब भारत धर्म-प्रचार-कार्य की एक महान शक्ति था। इंग्लैंड के ईसाई धर्म स्वीकार करने से सैकड़ों वर्ष पहले बुद्ध ने एशिया की दुनिया को अपने सिद्धांत में दीक्षित करने के लिए धर्म-प्रचारक भेजे थे। विचारों के संसार में परिवर्तन आ रहा है। हम अभी केवल आरंभ कर रहे हैं। उन लोगों की संख्या जो धर्म के किसी रूप विशेष को स्वीकार करने से इंकार करते हैं, बहुत बढ़ रही है, और यह हलचल शिक्षित वर्ग में है। अभी हाल की एक अमेरिकी जन-गणना में बहुत से लोगों ने अपने को किसी विशिष्ट धार्मिक वर्ग से संबंध रखनेवाला लिखवाना अस्वीकार किया है। सब धर्म एक ही सत्य की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं; वे आगे बढ़ते हैं, नहीं तो मर जाते हैं। वे एक ही सत्य-स्वरूप केंद्र की त्रिज्याएँ है; वे रूप है, जिनकी विविध मस्तिष्कों को आवश्यकता होती है।"

"अब हम समस्या के निकट पहुँच रहे हैं। यह केंद्रीय सत्य क्या है ?"

"वह है भीतर का ईश्वर। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह कितना ही पतित हो, ईश्वर की--दिव्यत्व की अभिव्यक्ति है। दिव्यत्व पर आवरण आ जाता है, वह दृष्टि से छिप जाता है। मुझे भारतीय विद्रोह की एक घटना याद आती है। वर्षों तक चिर मौन रहने के व्रत की साधना करनेवाले एक स्वामी जी को एक मुसलमान ने छुरा भोंक दिया। लोग हत्यारे को खींचकर आहत के सामने ले गए और बोले, 'स्वामी जी, आप कहें, तो हम इसे ठिकाने लगा दें।' अनेक वर्षों तक मौन रहने के बाद उसने अपना व्रत अपने अंतिम समय में यह कहने के लिए तोड़ा, 'मेरे बच्चों, तुम सब भूल में हो। यह मनुष्य साक्षात् ईश्वर है।' महान शिक्षा यह है कि सबके पीछे वही एक है। उसे गॉड, प्रेम, आत्मा, अल्लाह, जिहोवा-चाहे जो कहिए, वह है वही एक, जो निम्नतम जंतु से लेकर उच्चतम मनुष्य तक, सब जीवों को प्राणवान बनाता है। आप बहुविध छिद्रों से बिद्ध हिम से आवेष्ठित एक महासागर की कल्पना कीजिए, इनमें से प्रत्येक छिद्र एक आत्मा है, एक मनुष्य है, जो अपनी बुद्धि की मात्रा के अनुसार मुक्त होने का प्रयत्न कर रहा है और बर्फ़ को तोड़कर निकलने का प्रयास कर रहा है।"

"मैं समझता हूँ कि मुझे पूर्व और पश्चिम के आदर्श में एक अंतर दिखायी देता है। आप संन्यास, मनन और ऐसे ही उपायों द्वारा अत्यंत पूर्ण व्यक्ति उत्पन्न करना चाहते हैं। और पश्चिम का आदर्श यह जान पड़ता है कि वह समाज-व्यवस्था को पूर्ण बनाए और इसलिए हम राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं पर कार्य करते हैं, क्योंकि हम समझते हैं कि हमारी सभ्यता का स्थायित्व लोगों के कल्याण पर निर्भर है।"

स्वामी जी ने बड़ी गंभीरता से कहा, "पर सभी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाएँ मनुष्यों के भलेपन पर टिकती हैं। कोई राष्ट्र इसलिए महान और अच्छा नहीं होता कि पालियामेंट ने यह या वह पास कर दिया है, वरन् इसलिए होता है कि उसके निवासी महान और अच्छे होते हैं। मैं चीन गया हूँ, उसका संगठन, सब राष्ट्रों से अधिक प्रशंसनीय है। फिर भी चीन आज एक अव्यवस्थित भीड़ है, क्योंकि उसके निवासी अब प्राचीन काल में बनायी गयी व्यवस्था की आवश्यकता के अनुसार सक्षम नहीं है। धर्म इस समस्या की जड़ तक पहुँचता है। यदि वह ठीक रहता है, तो सब ठीक होता है।"

"ईश्वरत्व प्रत्येक के भीतर है, पर आच्छन्न है, यह बात अस्पष्ट और व्यावहारिक जीवन से दूर मालूम होती है। मनुष्य सदा उसी की खोज में नहीं रह सकता।"

"बहुत से लोग अक्सर एक ही उद्देश्य के लिए काम करते हैं, पर इस तथ्य को पहचान नहीं पाते। यह तो हमें मान ही लेना चाहिए कि क़ानून, सरकार, राजनीति ऐसी अवस्थाएँ हैं, जो किसी प्रकार अंतिम नहीं है। उनसे परे एक ध्येय है, जहाँ कानुन की आवश्यकता नहीं होती। और साथ ही स्वयं संन्यासी शब्द का अर्थ है: विधित्यागी ब्रह्मातत्त्वान्वेषी, या यह कह सकते हैं, 'नेतिवादी' ब्रह्मज्ञानी। पर यह भी है कि जो लोग ऐसे शब्द का उपयोग करते हैं, उन्हें सदा भ्रम बना रहता है। ईसा ने देखा कि विधि-नियम उन्नति का मूल नहीं है, केवल नैतिकता और पवित्रता ही शक्ति हैं। अपने इस कथन के बारे में कि पूर्व का उद्देश्य उच्चतर आत्म-विकास और पश्चिम के सामाजिक शासन को पूर्ण करना है, आप निश्चय ही यह नहीं भूल रहे हैं कि एक हमारा दृश्य व्यक्तित्व है और एक वास्तविक व्यक्तित्व है।"

"आपका तात्पर्य निश्चय ही यह है कि हम दृश्य के लिए काम करते हैं और आप वास्तविक के लिए।"

मन पूर्ण विकास प्राप्त करने के लिए विभिन्न अवस्थाओं में होकर आगे बढ़ता है। पहले वह ठोस को पकड़ता है और फिर धीरे-धीरे सिद्धांतों में पहुँचता है। यह भी देखिए कि हम विश्व-बंधुत्व के विचार तक कैसे पहुँचते हैं। पहले हम उसे एक दृढ़, संकीर्ण और पृथक् संप्रदाय के भीतर ग्रहण करते हैं। फिर धीरे-धीरे हम विस्तृत सामान्यीकरण और सूक्ष्म विचारों के संसार में पदार्पण करते हैं।"

"तो आप समझते हैं कि वे संप्रदाय जो इंग्लैंड निवासियों को इतने प्रिय हैं, समाप्त हो जायँगे? आप जानते हैं कि एक फ्रांसीसी ने कहा था कि 'इंग्लैंड ऐसा देश है, जहाँ संप्रदाय तो हज़ार है, पर सबकी रुचि एक ही है।'

मुझे पूर्ण विश्वास है कि उन्हें समाप्त होना है। उनकी स्थापना अ-सार बातों के आधार पर हुई है: उनका सार भाग रहेगा और एक दूसरी इमारत के रूप में निर्मित होगा। आप इस पुरानी कहावत को तो जानते हैं कि किसी संप्रदाय में पैदा होना तो ठीक है, पर उसी में मरना ठीक नहीं है।"

"शायद आप इस विषय में कुछ कहेंगे कि इंग्लैंड में आपका काम कैसा चल रहा है ?"

"धीरे-धीरे, उसी कारण से, जो मैंने अभी बताया है। जब आप मूल और आधार के प्रति कुछ करना चाहते हैं, तो समस्त वास्तविक प्रगति मंद ही होगी। निश्चय ही मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि ये विचार, इस रीति से नहीं, तो किसी दूसरी से, फैले बिना न रहेंगे, और हममें से बहुतों का विचार है कि उनके प्रचार का उचित समय अब आ गया है।"

इसके बाद मैंने वह विवरण सुना कि उनका काम किस प्रकार चलाया जाता है। बहुत से पुराने सिद्धांतों के समान यह नया सिद्धांत भी बिना शुल्क और बिना मूल्य वितरित किया जाता है, यह पूर्णतया उन्हीं लोगों के निजी प्रयासों पर निर्भर होता है, जो उसे अपनाते हैं।

स्वामी जी अपनी पूर्वीय वेश-भूषा में एक दर्शनीय व्यक्ति हैं। उनका सरल और प्रेमपूर्ण ढंग, जिससे उदासीपन की सामान्य धारणा की तनिक भी गंध नहीं आती, अंग्रेज़ी भाषा पर उनका असाधारण अधिकार और वार्तालाप की महान क्षमता उनके व्यक्तित्व की रोचकता में काफ़ी वृद्धि करती है। उनके संन्यास व्रत का अर्थ है पद, संपदा और ख्याति का त्याग और आध्यात्मिक ज्ञान की निरंतर खोज।

 

भारत और इंग्लैंड

('इंडिया, लंदन, १८९६)

'लंदन सीज़न' में, स्वामी विवेकानंद उन बहुसंख्यक लोगों को शिक्षण और भाषण देते रहे हैं, जो उनके सिद्धांत और दार्शनिक दृष्टिकोण के प्रति आकृष्ट हुए हैं। अधिकतर अंग्रेज़ समझते हैं कि फ्रांस द्वारा किए जानेवाले थोड़े से काम को छोड़कर, मिशनरी कार्य पर इंग्लैंड का लगभग एकच्छत्र एकाधिकार है। इसलिए मैं स्वामी जी से उनके अस्थायी निवास स्थान साउथ बेलग्रेविया में यह जानने के लिए मिला कि भारत उन प्रतिवादों के अतिरिक्त, जो वह गृह-खर्च, शासन और न्याय के अधिकारों के एक ही व्यक्ति में निष्ठ होने, सूडान और दूसरी चढ़ाइयों पर होनेवाले व्यय के निपटारे से संबंधित विषयों पर अक्सर भेजता रहता है, क्या संभवतया इंग्लैंड को कोई दूसरा संदेश भी भेज सकता है।

स्वामी जी ने शांत भाव से कहा, "यह कोई नयी बात नहीं है कि भारत बाहर धर्म-प्रचारक भेजे। वह सम्राट अशोक के समय में यह काम किया करता था, उन दिनों जब बौद्ध धर्म नया था और उसके पास आसपास के राष्ट्रों को सिखाने के लिए कोई बात थी।"

"तो क्या हम यह पूछ सकते हैं कि उसने यह काम बंद क्यों कर दिया था और उसे अब फिर आरंभ क्यों किया है ?"

"यह बंद इसलिए हो गया था कि वहाँ स्वार्थ बढ़ गया था और यह सिद्धांत भुला दिया गया था कि राष्ट्र और व्यक्ति समान रूप से आपस में लेन-देन के द्वारा ही क़ायम रहते हैं और उन्नति करते हैं। संसार के प्रति उसका संदेश सदा एक ही रहा है। वह आध्यात्मिक है: अंतर्मुखी विचारों का क्षेत्र युगों से उसका रहा है; अमूर्त विज्ञान, तत्वमीमांसा, न्याय उसके अपने विशेष क्षेत्र है। वास्तव में इंग्लैंड के प्रति मेरा संदेश भारत के प्रति इंग्लैंड के संदेश से उत्पन्न हुआ है। विजय करना, शासन करना, अपने और हमारे लाभ के लिए भौतिक विज्ञान के अपने ज्ञान का उपयोग करना, उसका काम रहा है। संसार के प्रति भारत की देन को संक्षेप में कहने का प्रयत्न करते हुए मुझे एक संस्कृत और एक अंग्रेज़ी मुहावरे की याद आती है। जब मनुष्य मरता है, तो आप कहते हैं कि 'उसने आत्मा त्याग दी है', जब कि हम कहते हैं कि 'उसने शरीर त्याग दिया है।' इसी प्रकार जब आप यह कहते हैं कि 'शरीर में एक आत्मा होती है, तो यह इस बात का केवल संकेत ही नहीं देता, वरन् आपके इस दृष्टिकोण को स्पष्ट दर्शाता है कि शरीर मनुष्य का प्रमुख भाग है। जब कि हम कहते हैं कि मनुष्य आत्मा है और उसके एक शरीर होता है। ये सतह के ऊपर की नन्हीं लहरियाँ है, फिर भी ये आपके राष्ट्रीय विचारधारा को दर्शाती हैं। मैं आपको याद दिलाना चाहूँगा कि शापेनहॉवर ने यह भविष्यवाणी की है कि जब भारतीय दर्शन यूरोप में सुपरिचित हो जाएगा, तो उसका प्रभाव यहाँ उतना ही गहरा पड़ेगा, जितना कि अंध युग के अंत में यूनानी और लेटिन ज्ञान के पुनर्जीवन का पड़ा था। प्राच्य अन्वेषणों में बड़ी प्रगति हो रही है। विचारो का एक नया संसार सत्य के अन्वेषी के सामने खुल रहा है।"

"और भारत अंत में अपने विजेताओं पर विजयी होगा ?"

"हाँ विचारों के क्षेत्र में। इंग्लैंड के पास हथियार है, सांसारिक समृद्धि है, वैसे ही जैसे उससे पहले हमारे मुसलमान विजेताओं के पास थी। फिर भी महान अकबर व्यावहारिक रूप में हिंदू हो गया था, शिक्षित मुसलमानों, सूफ़ियों को हिंदुओं से अलग कर पाना बहुत कठिन है। वे गोमांस नहीं खाते और दूसरी बातों में भी उनका रहन-सहन हमारे समान है। हमारे विचार उनके विचारों में रम गए हैं।"

"तो आप साहब बहादुर के भविष्य को इस रूप में देखते हैं ? पर अभी, इस क्षण तो वह बहुत दूर जान पड़ता है।"

"नहीं, वह इतना दूर नहीं है, जितना कि आप समझते हैं। धार्मिक विचारों के क्षेत्र में हिंदू और अंग्रेज़ में बहुत सी बातें एक सी हैं; और दूसरे धार्मिक समाजों के बीच में भी इसी बात के प्रमाण उपस्थित है। जहाँ अंग्रेज शासक अथवा सिविल सर्वेंट को भारत के साहित्य, विशेषतया उसके दर्शन का ज्ञान है, वहाँ एक संवेदन का क्षेत्र है, ऐसा क्षेत्र, जो निरंतर बढ़ता जा रहा है। यह कहना अत्युक्ति नहीं है कि बिलगाव का-कभी कभी अवहेलना का भी--जो रुख कुछ लोगों द्वारा अपनाया जाता है, उसका एकमात्र कारण अज्ञान है।"

"हाँ, यह कुछ मूर्खता है। क्या आप बतायेंगे कि आप अपने संदेश के लिए इंग्लैंड आने के बजाए अमेरिका क्यों गए ?"

"केवल संयोगवश--इसलिए कि विश्व-धर्म-महासभा लंदन में होने के बजाए, जहाँ कि उसे होना चाहिए था, विश्व-मेले के अवसर पर शिकागो में की गयी। मैसूर के राजा और दूसरे मित्रों ने मुझे हिंदू प्रतिनिधि के रूप में अमेरिका भेजा। मैं वहाँ, पिछली गर्मी और इस गर्मी में भाषण देने के लिए लंदन आने के अतिरिक्त, तीन वर्ष ठहरा। अमेरिकन एक महान जाति है, उनका भविष्य उज्ज्वल है। मैं उनका बड़ा प्रशंसक हैं, और मैंने उनमें बहूत से दयालु मित्र पाये हैं। अंग्रेज़ों की तुलना में उनमें पूर्वाग्रह कम है, वे किसी नये विचार को परखने और तोलने के लिए, उसके नये होने पर भी उसे मान देने के लिए अधिक तैयार हैं। वे अत्यधिक अतिथि-सत्कारी भी है; वहाँ मानो किसी को परिचित्त होने में बहुत कम समय लगता है। मैंने जैसा किया था, आप भी वैसा अमेरिका में नगर से नगर भाषण देते हुए यात्रा कर सकते हैं--सदैव आपको मित्र मिलेंगे। मैंने बोस्टन, न्यूयार्क, फ़िलाडेल्फ़िया, बाल्टिमोर, वाशिंगटन, डेसमोनीस, मेंम्फिस और दूसरे बहुत से स्थान देखे हैं।"

"और उनमें से प्रत्येक में अपने शिष्य छोड़े हैं ?"

"शिष्य, हाँ; पर संगठन नहीं। वह मेरे कार्य का भाग नहीं है। सब प्रकार से इनकी संख्या पहले ही काफ़ी है। संगठनों के प्रबंध के लिए मनुष्यों की आवश्यकता होती है। वे शक्ति, धन और प्रभाव प्राप्त करना चाहते हैं। वे अक्सर शासन हथियाने के लिए संघर्ष करते हैं, लड़ते तक हैं।"

"क्या आपके संदेश का सार कुछ शब्दों में कहा जा सकता है ? क्या यह तुलनात्मक धर्म है, जिसका आप प्रचार करना चाहते हैं ?"

"यह वास्तव में धर्म का दर्शन है, उसके समस्त बाह्य रूपों की भीतरी आत्मा है। धर्म के सब रूपों में एक सार भाग और एक अ-सार भाग होता है। यदि हम उनसे अ-सार को अलग कर दें, तो सब धर्मों का वह वास्तविक आधार बच रहता है, जो धर्म के सब रूपों में सामान्यतः मिलता है। उन सबके पीछे वही एक है। हम उसे गॉड, अल्लाह, जिहोवा, चेतना, प्रेम जो चाहें, कहें। यह वही एक है, जो समस्त जीवन को, उसके न्यूनतम रूप से लेकर मनुष्य में उसकी उच्चतम अभिव्यक्ति तक, सबको अनुप्राणित करता है। यही एकता है, जिस पर हमें बल देना चाहिए, जब कि पश्चिम में, और वास्तव में सभी जगह, मनुष्य की प्रवृत्ति अ-सार पर बल देने की रही है। वे इन रूपों के लिए, अपने साथियों को सहमत बनाने के लिए, आपस में लड़ते हैं, एक दूसरे की हत्या करते हैं। यह देखते हुए कि सार-तत्व ईश्वर का प्रेम और मनुष्य का प्रेम है, कम से कम इतता तो कहा ही जा सकता है कि यह बड़ी विचित्र बात है।"

"मैं समझता हूँ कि एक हिंदू कभी उत्पीड़न नहीं कर सकता।"

"उसने अभी तक ऐसा नहीं किया है; वह मनुष्य की जातियों में सबसे अधिक सहनशील है। यदि हम इस बात पर ध्यान दें कि वह कितनी गंभीरता से धार्मिक है, तो हम यह सोच सकते हैं कि वह नास्तिकों को अवश्य उत्पीड़ित करेगा। जैन इस विश्वास को कोरा भ्रम मानते हैं, पर किसी जैन को कभी उत्पीड़ित नहीं किया गया। भारत में सर्वप्रथम मुसलमान ने ही तलवार उठायी।"

"इंग्लैंड में सारभूत एकता के सिद्धांत ने क्या प्रगति की है ? यहाँ तो हमारे हज़ार संप्रदाय हैं।"

"ज्यों-ज्यों स्वतंत्रता और ज्ञान में वृद्धि होगी, उन्हें धीरे-धीरे समाप्त हो जाना होगा। वे उस अ-सार पर आधारित है, जो अपनी प्रकृति के कारण ही सदा जीवित नहीं रह सकता। संप्रदायों ने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है; यह था उनके सदस्यों की कल्पना के अनुरूप एक एकान्तिक बंधुत्व का निर्माण। हम धीरे-धीरे विभाजन की उन दीवारों को गिराकर, जो व्यक्तियों के ऐसे समूहों को अलग अलग करती है, विश्वबंधुत्व के विचार पर पहुँचते हैं। इंग्लैंड में काम की गति मंद है, संभवतया इसलिए कि अभी इसका समय नहीं आया है। पर, फिर भी, उसमें प्रगति हो रही है। मैं आपका ध्यान एक ऐसे ही काम की ओर आकृष्ट करूँ, जिसमें इंग्लैंड भारत में लगा हुआ है। जाति-पाँति का आधुनिक भेद-भाव भारत की प्रगति में बाधक है। यह संकीर्ण बनाता है, बाधा डालता है, बिलग करता है। यह विचारों की प्रगति के सामने ढह जाएगा।"

"पर कुछ अंग्रेज़ हैं, और जिनमें न भारत के प्रति सहानुभूति का अभाव है और जो न उसके इतिहास से अनभिज्ञ हैं, वे इस जाति-भेद को मुख्य रूप से लाभकारी मानते हैं। कोई भी सरलता से आवश्यकता से अधिक यूरोपियन बन सकता है। आप स्वयं हमारे बहुत से विचारों को भौतिकतावादी कहकर उनकी निंदा करते हैं।"

"यह सच है। किसी बुद्धिमान व्यक्ति का उद्देश्य यह नहीं है कि भारत को इंग्लैंड का अंग बना लिया जाए। शरीर अपने पीछे निहित विचार द्वारा निर्मित होता है। इस प्रकार सामाजिक संगठन राष्ट्रीय विचार की अभिव्यक्ति होता है, और भारत में वह हज़ारों वर्षों के विचारों की अभिव्यक्ति है। इसलिए भारत का यूरोपीयकरण एक असंभव और मूर्खतापूर्ण कार्य है। प्रगति के तत्व भारत में सदा सक्रिय रूप से उपस्थित रहे हैं। जब कभी वहाँ शांतिपूर्ण शासन आया है, वे सदा उभरकर सामने आये हैं। उपनिषदों के काल से लेकर आज तक हमारे लगभग सभी महान शिक्षकों ने जाति-भेद की दीवारों को तोड़ने का प्रयत्न किया है, मेरा तात्पर्य है, पतित अवस्था में जाति-भेद की दीवारों को, मौलिक प्रणाली को नहीं। आप वर्तमान जाति-व्यवस्था में जो अच्छाई देखते हैं, वह उसमें उस आरंभिक जाति-व्यवस्था का अवशेष है, जो एक शानदार सामाजिक संस्था थी। बुद्ध ने जाति-व्यवस्था को उसके आरंभिक रूप में फिर से स्थापित करने का प्रयत्न किया था। भारतीय जागरण के प्रत्येक काल में जाति-भेद को तोड़ डालने के सदा महाप्रयत्न किए गए हैं। पर यह सदा 'हम' होंगे, जो जहाँ कहीं से प्राप्त सहायक विदेशी तत्त्वों को आत्मसात करते हुए नवीन भारत को उसके अतीत के प्रतिफलन और उसीके एक अंग के रूप में बनायेंगे; यह 'वे' कभी नहीं हो सकते। विकास भीतर से होना चाहिए। इंग्लैंड जो कर सकता है, वह यही है कि वह स्वयं भारत को अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त करने में सहायता दे। मेरी राय में, किसी ऐसे दूसरे की, जिसका हाथ भारत की गर्दन पर है, आज्ञा से होनेवाली सब प्रगति सारहीन है। उच्चतम कार्य भी उस समय केवल पतित ही होता है, जब उसे करने के लिए दासता का श्रम काम में लाया जाता है।"

"क्या आपने इंडियन नेशनल कांग्रेस आंदोलन की ओर कुछ ध्यान दिया है ?"

"मैं यह नहीं कह सकता कि मैंने काफ़ी ध्यान दिया है; मेरा कार्यक्षेत्र दूसरा है। पर मैं इस आंदोलन को महत्वपूर्ण मानता हूँ और हृदय से उसकी सफलता चाहता हूँ। भारत की विभिन्न जातियों से एक राष्ट्र का निर्माण किया जा रहा है। कभी कभी मैं सोचता हूँ कि उनकी भिन्नता यूरोप के विभिन्न लोगों से कम नहीं है। अतीत में यूरोप ने भारतीय वाणिज्य के लिए संघर्ष किया है, वह वाणिज्य, जिसने संसार की सभ्यता का स्वरूप निश्चित करने में बहुत बड़ा भाग लिया है; और जिसकी प्राप्ति को मनुष्य के इतिहास में लगभग एक मोड़ कहा जा सकता है। हम देखते हैं कि डचों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंग्रेज़ों ने क्रमिक रूप से इसके लिए लड़ाइयाँ लड़ी हैं। अमेरिका के अन्वेषण को वह क्षतिपूर्ति कहा जा सकता है, जिसे वेनिसवासियों ने पूर्व में उठायी गयी हानि के बदले में सुदूर पश्चिम में खोजा था।"

"पर इसका अंत कहाँ होगा ?"

"इसका अंत निश्चय ही भारत की एकता सम्पादित करने में, और उसके द्वारा वह प्राप्त करने में होगा, जिन्हें हम जनतांत्रिक विचार कह सकते हैं। मनीषा को कुछ संस्कृत लोगों का ही एकाधिकार नहीं रहना चाहिए; वह ऊपर से नीचे के वर्गों में फैलायी जाएगी। शिक्षा आ रही है, और इसके बाद अनिवार्य शिक्षा आयेगी। हमारे लोगों में कार्य कर सकने की जो महान क्षमता है, उसका उपयोग किया जाएगा। भारत की संभावनाएँ बड़ी हैं और उनको प्रस्फुटित किया जाएगा।"

"क्या कभी कोई राष्ट्र बिना महान सैनिक शक्ति बने महान हुआ है ?"

स्वामी जी ने बिना एक क्षण झिझके उत्तर दिया, "हाँ, चीन हुआ है। अन्य देशों के साथ मैंने चीन और जापान की भी यात्रा की है। चीन आज एक अव्यवस्थित भीड़ के समान है, पर अपनी महानता के शिखर पर उसका तत्कालीन संगठन अन्य सब देशों से अधिक प्रशंसनीय था। वे बहुत सी युक्तियाँ और विधियाँ, जिन्हें हम आज आधुनिक कहते हैं, चीनियों द्वारा सैकड़ों, और हज़ारों वर्षों से भी, इस्तेमाल की जा रही हैं। प्रतियोगिता-परीक्षा इसका एक उदाहरण है।"

"वह अव्यवस्थित क्यों हो गया ?"

"इसलिए कि वह ऐसे क्षमतावान लोग नहीं पैदा कर सका, जो इस व्यवस्था का चालू रखते। आपके यहाँ एक कहावत है कि लोगों को पालियामेंट के क़ानून से पुण्यात्मा नहीं बनाया जा सकता। चीनियों ने यह अनुभव आपसे पहले प्राप्त कर लिया था। और इसलिए धर्म राजनीति की अपेक्षा अधिक गहरे महत्व की वस्तु है, वह जड़ तक पहुँचता है और आचरण के सार से संबंध रखता है।"

"क्या भारत को उस जागरण का ज्ञान है, जिसकी आप चर्चा कर रहे हैं ?"

"अच्छी तरह संसार उसे शायद मुख्यतया कांग्रेस आंदोलन और सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में देखता है, पर यह जागरण धर्म में भी उतना ही वास्तविक है, यद्यपि वह वहाँ अधिक निस्तब्धता से काम करता है।"

"पश्चिम और पूर्व के जीवन के आदर्शों में बड़ा अंतर है। हमारा आदर्श सामाजिक व्यवस्था को पूर्णता प्रदान करना मालूम होता है। जब कि हम इन कामों में लगे हुए हैं, पूर्व के लोग सूक्ष्म तत्त्वों पर मनन कर रहे हैं। यहाँ पालियामेंट सूडान में भारतीय सेना के खर्च पर बहस कर रही है। सब प्रतिष्ठित कंजर्वेटिव समाचारपत्रों ने सरकार के इस अन्यायपूर्ण निर्णय के विरुद्ध बहुत ज़ोर से आवाज उठायी है, जब कि आप कदाचित् इस संपूर्ण मामले को ध्यान देने योग्य भी नहीं समझते।"

"पर यहाँ आप एक बड़ी भूल कर रहे हैं।" स्वामी जी ने समाचारपत्र उठाकर कंजर्वेटिव अख़बारों के उद्धरणों पर अपनी दृष्टि दौड़ाते हुए कहा, "इस संबंध में मेरी सहानुभूति स्वाभाविक रूप से अपने देश के साथ है। फिर भी इस पर मुझे एक संस्कृत कहावत की याद आती है: 'जब तुमने हाथी बेच दिया है, तो अंकुश के ऊपर झगड़ा क्यों करते हो?' भारत सदा ही अदा करता है। राजनीतिज्ञों के झगड़े बहुत विचित्र होते हैं। धर्म को राजनीति में पहुँचाने में अभी युग लगेंगे।"

"फिर भी हमें इसका प्रयत्न जल्दी ही करना चाहिए।"

"हाँ, इस महान लंदन के बीच में, जो निश्चय ही मनुष्य का सबसे विशाल गतिशील शासन-यंत्र है, एक विचार का रोपण किया जाना चाहिए। मैं अक्सर इसकी उस शक्ति और पूर्णता को, जिससे वह सूक्ष्मतम शिरा तक पहुँचता है, और इसकी प्रसारण तथा वितरण की आश्चर्यजनक प्रणाली को काम करते हुए देखता हैं। यह हमें इस बात को अनुभव करने में सहायता देता है कि साम्राज्य कितना विशाल है और इसका काम कितना बड़ा है। और अन्य सब वस्तुओं के साथ यह विचारों का वितरण करता है। मनुष्य का यह कार्य उचित्त ही होगा कि वह इस विशाल यंत्र के हृदय में कुछ विचार रख दे, जिससे कि वे दूरतम भागों में फैल सकें।"

स्वामी जी एक विशिष्ट आकृति के व्यक्ति है। उनकी लंबी, चौड़ी और सुंदर आकृति उनकी दर्शनीय पूर्वी वेश-भूषा से और भी उभर आती है। उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावोत्पादक है। वे जन्म से बंगाली, और शिक्षा से कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट हैं। भाषणकर्ता के रूप में उनकी प्रतिभा उच्च कोटि की है। वे बिना किसी नोट की सहायता लिये और किसी शब्द के लिए बिना तनिक भी अटके डेढ़ घंटे तक बोल सकते हैं।

इंग्लैंड में भारत के मिशनरी का उद्देश्य

('दि इको', लंदन, १८९६)

... मैं समझता हूँ कि अपने देश में स्वामी जी किसी वृक्ष के नीचे रहते, अथवा अधिक से अधिक किसी मंदिर के आसपास रहते, उनका सिर घुटा होता और वे अपने देश के वस्त्र पहनते। पर लंदन में ये बातें नहीं की जातीं, इसलिए मैंने स्वामी जी को बहुत कुछ दूसरे लोगों के समान पाया, और गहरे नारंगी रंग का एक लंबा कोट पहनने के अतिरिक्त वे अन्य लोगों के समान ही वस्त्र धारण किए हुए थे। उन्होंने हँसते हुए बताया कि उनका पहनावा, विशेषतया उस समय जब वे साफ़ा बाँधे हुए होते हैं, लंदन की गलियों मैं भटकनेवाले छोकरों को बिल्कुल पसंद नहीं आता; और वे उसकी जो आलोचना करते हैं, उसे मुँह से न निकालना ही अच्छा है। मैंने इस भारतीय योगी से वार्तालाप आरंभ करते हुए कहा कि आप अपने नाम का बहुत धीरे-धीरे हिज्जे कीजिए।...

"क्या आप समझते हैं कि आजकल लोग अ-सार वस्तुओं पर बहुत बल दे रहे हैं ?"

"मैं समझता हूँ कि पिछड़े हुए राष्ट्रों और पश्चिम के सभ्य लोगों में, जो कम संस्कृत हैं, ऐसा किया जा रहा है। आपके प्रश्न में से यह ध्वनि निकलती है कि संस्कृत और समृद्ध लोगों की बात दूसरी है। और सचमुच वैसा है भी; जो समृद्ध हैं, वे अपनी संपदा के उपयोग में अथवा अधिक बटोरने में डूबे हुए हैं। वे, और कामकाजी लोगों का एक बड़ा भाग कहता है कि धर्म सडाँध, बकवास और मूर्खता है, और वे ईमानदारी से ऐसा समझते हैं। आजकल जिस एकमात्र धर्म का फ़ैशन है, वह है देशभक्ति और लोकाचार। लोग चर्च में उसी समय जाते हैं, जब वे विवाह करते हैं अथवा किसीको दफ़नाते हैं।"

"क्या आपके उपदेश उन्हें चर्च में अधिक बार ले जायँगे ?"

"मैं ऐसा नहीं समझता: क्योंकि मेरा किसी अनुष्ठान या मान्यता से कोई संबंध नहीं है। मेरा उद्देश्य केवल यह दर्शाना है कि धर्म सब कुछ है और सब वस्तुओं में है.. .और यहाँ इंग्लैंड में जो व्यवस्था है, हम उसके विषय में क्या कह सकते हैं ? सब बातों से यही प्रकट हो रहा है कि समाजवाद अथवा जनता द्वारा शासन का कोई स्वरूप, उसे आप चाहे जिस नाम से पुकारें, उभरता आ रहा है। लोग निश्चय ही यह चाहेंगे कि उनकी पार्थिव आवश्यकताओं की पूर्ति हो, वे कम काम करें, उनका शोषण न हो, युद्ध न हो और भोजन अधिक मिले। इस बात का हमारे पास क्या प्रमाण है कि यह अथवा कोई दूसरी सभ्यता, जब तक कि वह धर्म पर, मनुष्य के भीतर के शुभ पर आधारित न हो, स्थायी होगी ? विश्वास कीजिए कि धर्म इस समस्या की जड़ तक पहुँचता है। यदि वह ठीक है, तो सब ठीक है।"

"लोगों के मस्तिष्क में धर्म के सार भाग को, तत्वमीमांसा को, पहुँचाना अवश्य कठिन काम है। वह उनके विचारों और रहन-सहन से काफ़ी दूर है।"

"हम सब धर्मों में निम्न सत्य से उच्च सत्य की ओर जाते हैं, कभी असत्य से सत्य की ओर नहीं जाते। संपूर्ण सृष्टि के पीछे एक एकता है, पर मनों में बड़ी विविधता है। वह जो है, एक है; ज्ञानी उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं।' मेरा केवल सत्य के निम्न पाठ मात्र हैं। हम धीरे-धीरे समझते हैं। शैतान की उपासना भी चिरंतन सत्य और अनंत ब्रह्मा का ही विकृत पाठ मात्र है। धर्म की अन्य अवस्थाओं में भी सदा सत्य की कम या अधिक मात्रा उपस्थित रहती है। धर्म के किसी भी स्वरूप में उसका पूर्ण रूप नहीं पाया जाता।"

"क्या हम पूछ सकते हैं कि जिस धर्म का आप इंग्लैंड में प्रचार करने आये हैं, उसकी उद्भावना आपने ही की है ?"

"निश्चय ही नहीं। मैं भारत के एक महान ज्ञानी रामकृष्ण परमहंस का शिष्य हैं। वे ऐसे नहीं थे, जिन्हें हम बहुत विद्वान् कह सकें, जैसा कि हमारे बहुत से ज्ञानी है, पर वे बहुत पवित्र थे, और वेदांत दर्शन की चेतना में गहरे डूबे हुए थे। जब मैं दर्शन कहता हूँ, तो मुझे लगता है कि शायद मुझे धर्म कहना चाहिए था, क्योंकि वह वास्तव में दोनों है। आपको 'नाइन्टीन्थ सेन्चुरी' के एक हाल के अंक में मेरे गुरु के बारे में प्रो० मैक्समूलर का विवरण पढ़ना चाहिए। रामकृष्ण का जन्म हुगली ज़िले में १८३६ ई० में हुआ था और १८८६ ई० में उनकी मृत्यु हुई। केशवचंद्र सेन और दूसरे लोगों के जीवन पर उनका प्रभाव बहुत गंभीर पड़ा है। अपने शरीर को संयमित करके और अपने मन को जीतकर उन्होंने आध्यात्मिक संसार में आश्चर्यजनक गहरी पैठ प्राप्त की थी। उनका चेहरा उनकी शिशुवत् कोमलता, गंभीर नम्रता और कथन की उल्लेखनीय मधुरता के कारण असाधारण था। उसे देखकर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था।"

"तो क्या आपके उपदेश वेदों से लिये गए हैं ?"

"हाँ। वेदांत का अर्थ है वेदों का अंत, तीसरा भाग अर्थात् उपनिषद्, जिनमें वे विचार प्रौढ़ रूप में उपस्थित हैं, जो आरंभिक भाग में अंकुर रूप में वर्तमान थे। वेदों का सबसे प्राचीन भाग संहिता है, जो बहुत पुरानी संस्कृत में है, और वह केवल एक बहुत पुराने कोश, यास्क के निरुक्त की सहायता से समझा जा सकता है।"

"मैं समझता हूँ कि हम अंग्रेज़ों का विचार कुछ ऐसा है कि भारत को हमसे बहुत कुछ सीखना है; यहाँ औसत मनुष्य इस बात को विशेष नहीं जानता कि भारत से क्या सीखा जा सकता है।"

"बात ऐसी ही है। पर विद्वानों का जगत् अच्छी तरह जानता है कि कितना सीखना है और यह पाठ कितना महत्वपूर्ण है। आप मैक्स मूलर, मोनियर विलिएम्स, सर विलिएम हंटर अथवा प्राच्य विद्या के जर्मन विद्वानों को भारतीय तत्व मीमांसा को हँसी में उड़ाते हुए नहीं पायेंगे।"

स्वामी जी अपना भाषण ३९ विक्टोरिया स्ट्रीट पर देते हैं। सबका स्वागत किया जाता है; और जैसा कि प्राचीन धर्म-प्रचार के युग में होता था, यह नवीन उपदेश निःशुल्क और बिना मूल्य दिया जाता है। ये भारतीय धर्मोपदेशक असाधारण सुंदर शरीर के पुरुष हैं; अंग्रेज़ी पर उनके अधिकार का वर्णन केवल पूर्ण कहकर ही किया जा सकता है।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में स्वामी विवेकानंद की रचनाएँ