बुधवार जून
, १८९५
यह वह दिवस है जब स्वामी विवेकानंद ने थाउजेंड आइलैंड पार्क में अपने
शिष्यों को नियमित रूप से उपदेश देना प्रारंभ किया। उस समय तक हम सभी लोग
एकत्र नहीं हो पाए थे; किंतु गुरुदेव का हृदय सदैव अपने कार्य मैं ही लगा
रहता था, अत: उन्होंने जो तीन-चार लोग उनके साथ थे, उन्हीं को तत्काल
उपदेश देना आरंभ कर दिया। इस प्रथम प्रभात में स्वामी जी बाइबिल की एक
पुस्तक हाथ में लेकर छात्रों के समक्ष उपस्थित हुए एवं उसके नए व्यवस्थान
(New Testament) के संत जॉन द्वारा संकलित उपदेशों को खोलकर बोले, "जब तुम
लोग सब ईसाई हो, तो ईसाई शास्त्रा से ही शुरू करना ठीक होगा।"
(जॉन के ग्रंथ के प्रारम्भ में ही यह उपदेश है) आदि में शब्द मात्र था, वह
शब्द ब्रह्म के साथ विद्यमान था और वह शब्द ही ब्रह्म है।
हिंदू लोग इस (शब्द) माया या ब्रह्म का व्यक्त भाव कहते हैं, क्योंकि यह
ब्रह्म की ही शक्ति हैं। जब उस निरपेक्ष ब्रह्मसत्ता को हम माया के आवरण
में से देखते हैं, तब हम उसे प्रकृति कहते हैं। शब्द की अभिव्यक्तियाँ हैं
कृष्ण, बुद्ध, ईसा, रामकृष्ण आदि सब अवतार-पुरुष। उस निर्गुण ब्रह्म की
विशेष अभिव्यक्ति-ईसा-को हम जानते हैं, वे हमारे लिए ज्ञेय हैं। किंतु
निर्गुण ब्रह्म को हम नहीं जान सकते। हम परम पिता को नहीं जान सकते, उसके
पुत्र को जान सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म को हम केवल 'मानवत्व रूपी रंग के;
ईसा के माध्यम से ही देख सकते हैं।
जॉन-रचित ग्रंथ के प्रथम पाँच श्लोकों में ईसाई धर्म का सार निहित है।
इसका प्रत्येक श्लोक गंभीरतम दार्शनिक तथ्य से परिपूर्ण है।
पूर्ण कभी अपूर्ण नहीं होता। अंधकार के मध्य रहते हुए भी वह अंधकार से
अस्पृष्ट रहता है। ईश्वर की दया सभी के ऊपर रहती है, किंतु उनका (मनुष्यों
का) पाप उसे छू नहीं सकता। हम नेत्ररोग से ग्रसित हो सूर्य को अन्य प्रकार
का देख सकते है, किंतु सूर्य जैसा पहले था, वैसा ही रहता है। जॉन के
उनतीसवें श्लोक में जो लिखा है-'जगत का पाप दूर करते हैं'-उसका अभिप्राय
यह है कि ईसा हमें पूर्णता प्राप्त करने का पथ दिखला देंगे। ईश्वर ने ईसा
होकर जन्म लिया-मनुष्य को उसके प्रकृत स्वरूप को दिखला देने और यह समझा
देने के लिए कि वह भी वस्तुत: ब्रह्मस्वरूप ही है। हम लोग हैं देवत्व के
ऊपर मनुष्यत्व का आवरण मात्र, किंतु देवभावापन्न मनुष्य की दृष्टि से ईसा
और हम अभिन्न हैं।
त्रित्ववादियों (Trinitarians) के ईसा हमसे बहुत ही उच्च स्तर पर स्थित
हैं। एकत्ववादियों (Unitarians) के एक साधु पुरुष मात्र हैं। इन दोनों में
कोई भी हमारी सहायता नहीं कर सकता। किंतु जो ईसा ईश्वर के अवतार हैं, जो
अपने ईश्वरत्व को नहीं भूलते, वे ईसा ही हमारी सहायता कर सकते हैं। उनमें
किसी प्रकार की अपूर्णता नहीं है। इन सभी अवतारों को अपने ईश्वरत्व का
ज्ञान सदैव रहता है, और वह उन्हें अपने जन्मकाल से ही रहता है। वे उन
अभिनेताओं के समान हैं, जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चुका है, जिनका निजी
अन्य कोई प्रायोजन नहीं है तो भी जो दूसरों को आनंद देने के लिए रंगमंच पर
बारंबार आते रहते हैं। इन महापुरुषों को संसार की कोई वस्तु नहीं छू पाती।
वे हमें कुछ काल तक शिक्षा देने भर के लिए हमारा रूप और सीमाएं धारण करके
आते हैं, वे ऐसा अभिनय करते हैं, मानो वे हमारे ही सदृश बद्ध हैं, किंतु
वास्तव में वे सीमित नहीं होते, वे सर्वदा मुक्तस्वभाव ही रहते हैं।
* * *
'शुभ' यद्यपि सत्य के समीपवर्ती है, फिर भी वह सत्य नहीं है; 'अशुभ' हमें
विचलित न कर सके, यह सीखने के बाद हमें यह सीखना होगा कि 'शुभ' भी हमें
सुखी न कर सके। हमें जानना होगा कि हम शुभ और अशुभ, दोनों के परे हैं,
उनका समायोजन कैसे होता है, और वे दोनों ही आवश्यक हैं।
द्वैतवाद का भाव प्राचीन ईरानियों से आया है। वास्तव में शुभ और अशुभ
दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता
है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाता। शुभ और अशुभ दोनों के
बंधन को काटकर संपूर्ण रूप से मुक्त हो जाओ, तब इन दोनों में से कोई भी
तुम्हें स्पर्श नहीं कर सकेगा और तुम मुक्त होकर परम आनंद का अनुभव करोगे।
अशुभ मानो लोहे की जंजीर है और शुभ सोने की, किंतु जंजीर दोनों ही हैं।
मुक्त हो जाओ और सदा के लिए यह जान लो कि कोई भी जंजीर तुम्हें बाँध नहीं
सकती। सोने की जंजीर की सहायता से लोहे की जंजीर को ढीली कर दो और फिर
दोनों को फेंक दो। अशुभ रूपी काँटा हमारे शरीर में चुभा हुआ है; उसी वृक्ष
का एक और काँटा (शुभ रूपी) लेकर पहले काँटे को निकाल लो, फिर दोनों को
फेंक दो और मुक्त हो जाओ।
* * *
संसार में सर्वदा दाता का आसन ग्रहण करो। सर्वस्व दे दो, पर बदले में कुछ
न चाहो। प्रेम दो, सहायता दो, सेवा दो; इसमें से जो तुम्हारे पास देने के
लिए है, वह दे डालो; किंतु सावधान रहो, उसके बदले में कुछ लेने की इच्छा
कभी न करो। किसी तरह की कोई सर्त मत रखो। ऐसा करने पर तुम्हारे लिए भी कोई
किसी तरह की शर्त नहीं रखेगा। अपनी हार्दिक दानशीलता के कारण ही हम देते
चलें-ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ईश्वर हमें देता है।
एक मात्र ईश्वर ही देने वाला है, संसार के अन्य सभी लोग दुकानदार मात्र
हैं।-उसी के हस्ताक्षर वाले चेक को प्राप्त करने का यत्न करो; उसे लेकर
जहाँ जाओगे, वहीं तुम्हारा स्वागत होगा।
'ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूप हैं', उपलब्धि की वस्तु है; किंतु 'इति'
'इति' शब्द से वो भी निर्दिष्ट नहीं हो सकता।
* * *
हम जब किसी दु:ख या संघर्ष में फँसते हैं, तब संसार हमें अत्यंत भयावह
प्रतीत होने लगता है। किंतु जैसे हम कुत्ते के दो बच्चों को आपस में खेल
करते हुए या एक दूसरे को काटते हुए देखकर पहले तो उस ओर ध्यान ही नहीं
देते, समझते हैं ये दोनों आपस में खेल कर रहे हैं; इतना ही नहीं, बीच बीच
में यदि कभी वे एक दूसरे को जरा गहराई से काट लें तो हम समझते हैं कि इससे
इनका कोई विशेष अनिष्ट नहीं होगा, उसी प्रकार हम लोगों के संघर्ष भी ईश्वर
की दृष्टि में खेल मात्र हैं। यह संपूर्ण जगत केवल खेल के लिए है-भगवान को
इसमें आनंद आता है। संसार में कुछ भी क्यों न हो, उन्हें क्रोध नहीं आता।
* * *
माँ, इस जीवन-समुद्र में मेरी नौका डूब रही है।
भ्रमजाल की आंधी और मोह-ममता का प्रचंड झंझावात प्रति क्षण बढ़ता जा रहा
है।
मेरे पांचों मांझी (पंचइंद्रियां) मूर्ख हैं और कर्णधार (मन) दुर्बल है।
मेरी स्थिति डांवाडोल है, मेरी नाव डूब रही है।
माँ, मुझे बचा !
'माँ, तेरा प्रकाश केवल साधुओं में ही नहीं, पापियों में भी है; वह
प्रेमियों के भीतर जैसा जैसे रहता है, वैसे ही हत्यारों के भीतर भी
विद्यमान है। माँ ही सभी रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही है। आलोक
अशुद्ध वस्तु पर पड़ने से अशुद्ध नहीं होता, इसी तरह शुद्ध वस्तु पर पड़ने
से उसके गुण में वृद्धि नहीं होती। आलोक नित्यशुद्ध सदा अब परिणामी है।
सभी प्राणियों के भीतर वही सौम्यात्सौम्यतरा, नित्यशुद्धस्वभावा, सदा
अपरिणामिनी माँ विराजमान है।' 'जो माँ समस्त प्राणियों में प्रकाश रूप
विद्यमान है, उसको मैं प्रणाम करता हूँ।'
वह दु:ख दर्द में, भूख-प्यास में उसी प्रकार विद्यमान है, जिस प्रकार सुख
में तथा उदात्त भावों में। 'या भ्रमर जो मधुपान कर रहा है, वह दूसरा कोई
नहीं है, वह स्वयं प्रभु ही इस भ्रमररूप में मधुबन कर रहे हैं।' ईश्वर ही
सबके भीतर है यह जानकर ज्ञानी व्यक्ति निंदा, स्तुति दोनों का परित्याग
करते हैं। जान लो, कोई भी तुम्हारा अनिष्ट नहीं कर सकता। कैसे कर सकेगा ?
क्या तुम आत्मा नहीं हो ? वह हमारे प्राणों का भी प्राण, चक्षु का भी
चक्षु और स्रोत का भी स्रोत है।
हम लोग संसार के बीच इस प्रकार भागे चले जा रहे हैं मानो हमें कोई सिपाही
पकड़ने आ रहा हो- इसलिए हमें जगत के सौंदर्य का लेश मात्र ही आभास मिलता
है। हमें यह जो इतना भय हो रहा है उसका कारण है जड़ को सत्य समझ कर उसमें
विश्वास करना। जड़ की जो कुछ तथाकथित सत्ता प्रतीत हो रही है, वह हमारे मन
के ही कारण है। हम जो कुछ देख रहे हैं, वह प्रकृति के बीच से अपने को
अभिव्यक्त कर रहा ईश्वर ही है।
23 जून
, रविवार
साहसी और निष्कपट बनो। उसके बाद जिस मार्ग पर चाहो अपनी इच्छानुसार
भक्तिपूर्वक अग्रसर होओ। निश्चय ही तुम उस पूर्ण वस्तु को प्राप्त करोगे।
यदि एक बार किसी तरह जंजीर की एक कड़ी पकड़ सको तो पूरी जंजीर को क्रमशः
अपने पास खींच लाने में समर्थ हो सकोगे। वृक्ष की जड़ में यदि जल डाला
जाए, (अर्थात प्रभु को प्राप्त कर लिया जाए) तो समस्त वृक्ष जल प्राप्त हो
प्राप्त कर लेता है। यदि हम भगवान को पा सके तो सब कुछ पा लेंगे।
एकांगी भाव ही जगत के लिए अति अनिष्ट कर वस्तु है। तुम अपने अंदर जितने
विविध पक्षों को विकसित कर सकोगे, उतनी ही आत्माएं तुमको उपलब्ध होंगी और
जगत को तुम समस्त आत्माओं के माध्यम से, कभी भक्त के, कभी ज्ञानी के
माध्यम से, देख सकोगे। पहले अपने स्वभाव को ठीक ठीक पहचान लो, फिर उसमें
दृढ़ रहो। आरंभ करने वाले के लिए निष्ठा (एक भाव में दृढ़ रहना) ही
एकमात्र उपाय है, निष्ठा और ईमानदारी ही तुमको सब कुछ प्राप्त करा देगी।
गिरजा, मंदिर, मत-मतांतर, विविध अनुष्ठान आदि तो पौधे की रक्षा के लिए
लगाए गए घेरे के समान हैं। यदि पौधे को बढ़ाना चाहते हो तो अंत में इस
घेरे को काटना ही पड़ेगा। इसी प्रकार विभिन्न धर्म, वेद, बाइबिल,
मत-मतांतर- ये सभी पौधों के गमलों के सदृश्य हैं, किंतु इन गमलों में
उन्हें एक न एक दिन बाहर निकलना ही पड़ेगा। निष्ठा भी पौधे के गमले के
समान ही अपने पत्र में संघर्षरत साधक की रक्षा करती है।
* * *
एक एक तरंग को नहीं, सारे समुद्र को देखो; चींटी और देवता में भेद-दृष्टि
मत रखो। प्रत्येक कीट-पतंग तक प्रभु ईसा का भाई है। फिर एक को बड़ा, एक को
छोटा कैसे कहते हो ? अपने अपने स्थान पर सभी बड़े हैं। हम जिस प्रकार यहाँ
रहते हैं उसी प्रकार सूर्य, चंद्र और तारों में भी रहते हैं। आत्मा
देश-कालातीत और सर्वव्यापी है। जिस मुख से भी हम उस प्रभु का गुणगान हो
रहा है, वह हमारा ही मुख है; जो भी आंख वस्तु को देख रही है, वह हमारी
आंखे है। हम किसी निर्दिष्ट स्थान में सीमाबद्ध नहीं हैं, हम दे नहीं हैं,
समग्र ब्रह्मांड हमारी दे है। हम एक जादूगर के समान जादू का डंडा घुमाते
हैं और अपने सम्मुख इच्छानुसार नाना प्रकार के दृश्यों की सृष्टि करते
हैं। हम एक ऐसी मकड़ी के समान स्वनिर्मित विशाल जाल के बीच रहते हैं जो
अपनी इच्छानुसार जाल के किसी भी तार पर जा सकती है। आज वह जिस स्थान में
रहती है, उतने को ही जान पाती है, परंतु बाद में वह समस्त जाल को जान
सकेगी। आज हमारा शरीर जिस स्थान में है, उसी स्थान में हम अपनी सत्ता का
अनुभव करते हैं। इस समय हम केवल एक मस्तिष्क का व्यवहार कर पाते हैं ,
किंतु जब हम पूर्ण ज्ञान अथवा परा चेतना अवस्था में पहुँचेंगे, तब हम सब
कुछ जान लेंगे हम सब मस्तिष्कों का उपयोग कर सकेंगे। आज भी हम अपनी
वर्तमान चेतना को धक्का देकर इस प्रकार ठेल सकते हैं कि वह आगे बढ़ जाए और
ज्ञानातीत या पूर्ण ज्ञान की भूमि में कार्य करने लगे।
हम केवल 'अस्ति' स्वरूप, सत्स्वरूप होने की चेष्टा कर रहे हैं, और कुछ
नहीं, उसमें 'अहं' भी नहीं रहेगा, शुद्ध स्फटिक के समान उसमें समग्र जगत
का केवल प्रतिबिंब पड़ेगा, किंतु वह जैसा है वैसा ही वैसे ही रहेगा। यह
अवस्था प्राप्त होने पर क्रिया नहीं रहती, शरीर केवल यंत्रवत हो जाता है;
वह सर्वदा शुद्ध भाव युक्त ही रहता है, उसकी शुद्धि के लिए चेष्टा नहीं
करनी पड़ती, वह अपवित्र हो ही नहीं सकता।
अपने को वही अनंत स्वरूप समझो, ऐसा करने से भय बिल्कुल चला जाएगा। सर्वदा
कहो - "मैं और मेरा पिता (ईश्वर) एक हैं।"
अंगूर की लता पर जिस प्रकार गुच्छों में अंगूर चलते हैं, उसी प्रकार
भविष्य में सैकड़ों आशाओं का आविर्भाव होगा। उस समय संसार का खेल समाप्त
हो जाएगा। सभी संसार-चक्र के से बाहर निकल जाएंगे और मुक्त हो जाएंगे। मान
लो, एक पतीली में पानी रखा गया है; उबालने से पहले पानी में एक के बाद एक
बुलबुले उठते हैं, कोई बड़ा, कोई छोटा; क्रमश: इन बुलबुलों की संख्या
बढ़ने लगती है। अंत में सभी पानी एक आवाज के साथ खोलने लगता है और भाप
बनकर बाहर निकल जाता है। बुद्ध और ईसा भी इस जगत में सर्वापेक्षा बड़े
बुलबुले हैं। मूसा एक छोटे बुलबुले थे, उसके बाद और भी कई बड़े बड़े
बुलबुले उठे। इसी प्रकार एक समय ऐसा आएगा जब संपूर्ण जगत बुलबुले होकर भाप
के समान अदृश्य हो जाएगा। परंतु सृष्टि-प्रवाह अविरल चलता ही रहेगा, फिर
नूतन जल की सृष्टि होगी ही; और वह सृष्टि भी फिर इसी प्रक्रिया के अनुसार
चलती रहेगी।
24 जून
, सोमवार
(आज स्वामी जी ने नारदीय भक्तिसूत्र के विशेष स्थलों को पढ़कर उनकी
व्याख्या की।)
'भक्ति ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूप है, अमृतस्वरूप है, जिसे पाकर मनुष्य
पूर्ण परितृप्त हो जाता है, किसी हानि के निमित्त शोक नहीं करता, कभी
ईर्ष्या नहीं करता, और जिसे जान कर वह उन्मत्त हो जाता है।'
मेरे गुरुदेव कहा करते थे- 'यह जगत एक विशाल पागलखाना है। यहाँ तो सभी
पागल हैं- कोई धन के लिए, कोई स्त्री के लिए, कोई नाम और यश के लिए और कुछ
मनुष्य ऐसे भी हैं जो ईश्वर के लिए पागल हैं। मैं अन्यान्य वस्तुओं के लिए
पागल ना होकर ईश्वर के लिए पागल होना सबसे उत्तम समझता हूँ। ईश्वर है पारस
मणि। उसके स्पर्श से मनुष्य एक ही क्षण में सोना बन जाता है; यद्यपि आकार
पूर्ववत ही रहता है, किंतु प्रकृति बदल जाती है- मनुष्य का आकार रहता है,
किंतु उससे किसी का भी अनिष्ट नहीं होता, उससे अन्याय का कोई कार्य हो ही
नहीं सकता।'
'ईश्वर का चिंतन करते करते कोई रोने लगता है, कोई हंसने लगता है; कोई गाता
है; कोई नाचता है; और किसी के मुख से अद्भुत बातें निकलने लगती हैं किंतु
सब उस एक ईश्वर की ही बातें करते हैं।
पैगंबर धर्म का प्रचार करते हैं, किंतु ईसा बुद्ध, रामकृष्ण आदि के समान
अवतार-पुरुष ही धर्म प्रदान करते हैं। उनका एक स्पर्श मात्र, एक दृक्पात
मात्र पर्याप्त होता है। ईसाई धर्म में इसको पवित्रात्मा (Holy Ghost) की
शक्ति कहते हैं इसी कार्य को लक्ष्य करके 'हस्तस्पर्श' (The laying on of
hands) की कथा बाईबिल में कही गई है। इस प्रभु ईसा ने अपने शिष्यों के
भीतर सचमुच शक्ति संचार किया था। इसको 'गुरुपरंपरागत शक्ति' कहते हैं। यही
यथार्थ बपतिस्मा (Baptism-दीक्षा) है और अनादि काल से चली आ रही है।
'भक्ति को किसी कामना की पूर्ति का साधन साधन नहीं बनाना नहीं बनाया जा
सकता, क्योंकि भक्ति तो समस्त कामनाओं का निरोध है।' नारद ने भक्ति का
लक्षण इस प्रकार बतलाया है-'जब समस्त मन, समस्त वचन और समस्त कर्म उनके
प्रति अर्पित हो जाते हैं और क्षण मात्र के लिए भी उनकी विस्मृति हृदय में
परम व्याकुलता उत्पन्न कर देती है, तभी यथार्थ भक्ति का उदय समझना चाहिए।
यह भक्ति प्रेम की सर्वोच्च अवस्था है; क्योंकि इसमें पारस्परिकता की
कामना नहीं है, जो समस्त मानवीय प्रेम में होती है।
'जो व्यक्ति समस्त लौकिक और वैदिक कर्मों का त्याग कर देता है वह संन्यासी
है। जब आत्मा पूर्णरूपेण ईश्वर की ओर उन्मुख होती है और केवल ईश्वर में ही
शरण लेती है तब हम कह सकते हैं कि अब हमें इस प्रकार का प्रेम प्राप्त
होने वाला है।'
जब तक शास्त्र-विधियों का पालन छोड़ देने का सामर्थ्य प्राप्त हो, तब तक
इन सबको मानते चलो, किंतु उसके बाद तुम्हें शास्त्र के परे जाना होगा।
शास्त्र चरम लक्ष्य नहीं है। आध्यात्मिक सत्य का एकमात्र प्रमाण
है-सत्यनुसंधान। प्रत्येक को स्वयं परीक्षा करके देखना होगा कि यह सत्य है
या नहीं। जो धर्माचार्य यह कहते हैं कि मैंने इस सत्य का दर्शन किया है,
किंतु तुम कभी नहीं कर सकते, उनकी बात पर विश्वास मत करो; किंतु जो यह
कहते हैं कि तुम भी चेष्टा करने पर दर्शन पा सकोगे, केवल उन्हीं की बात पर
विश्वास करो।
इस संसार में सभी युगों के, सभी देशों के सभी शास्त्र और सभी सत्य वेद
हैं; क्योंकि यह सभी सत्य अनुभव में है और सभी लोग इन सब सत्यों की
उपलब्धि कर सकते हैं।
जब प्रेम का सूर्य क्षितिज पर उदित होने लगता है, तब हम सभी कर्मों को
ईश्वरार्पण कर देना चाहते हैं; और उस उसकी एक क्षण की भी विस्मृति से हमें
बड़े क्लेश का अनुभव होता है। ईश्वर और उसके प्रति तुम्हारी भक्ति-दोनों
के बीच कोई भी अन्य वस्तु नहीं होनी चाहिए। उनकी भक्ति करो, उनकी भक्ति
करो, उनसे प्रेम करो। लोग कुछ भी कहें, कहने दो, उसकी परवाह मत करो। प्रेम
(भक्ति) तीन प्रकार का होता है-पहला वह जो माँगना ही जानता है, देना नहीं;
दूसरा है विनिमय; और तीसरा है प्रतिदान के विचार मात्र से ही से भी रहित,
प्रेम-दीपक के प्रति पतंग के प्रेम के सदृश।
'यह भक्ति कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ है।'
कर्म के द्वारा केवल कर्म करने वाले का ही प्रशिक्षण होता है, उससे दूसरा
का कुछ उपकार नहीं होता। हमें अपनी समस्या को स्वयं ही सुलझाना है,
महापुरुष तो हमारा केवल पथ-प्रदर्शन करते हैं। और 'जो तुम विचार करते हो,
वह तुम बन भी जाते हो।' ईसा के श्री चरणों में यदि तुम अपने को समर्पित कर
दोगे तो तुम्हें सर्वदा उनका चिंतन करना होगा और इस चिंतन के फलस्वरूप तुम
तद्वत् बन जाओगे, इस प्रकार तुम उनसे 'प्रेम' करते हो।
'पराभक्ति और पराविद्या दोनों एक ही हैं।'
किंतु ईश्वर के संबंध में केवल नानाविध मत-मतानंतर की आलोचना करने से काम
नहीं चलेगा। ईश्वर से प्रेम करना होगा और साधन कर साधना करनी होगी। संसार
और सांसारिक विषयों का त्याग विशेषत: तब करो जब 'पौधा' सुकुमार रहता है।
दिन-रात ईश्वर का चिंतन करो; जहाँ तक हो सके दूसरे विषयों का चिंतन छोड़
दो। सभी आवश्यक दैनंदिन विचारों का चिंतन ईश्वर के माध्यम से किया जा सकता
है। ईश्वर को अर्पित करके खाओ, उसको अर्पित करके पियो, उसको अर्पित करके
सोओ, सब में उसीको देखो। दूसरों से उसकी चर्चा करो, यह सबसे अधिक उपयोगी
है। इन प्रेमा भक्ति के रूपों को क्रमशः साधारणी, समंजसा तथा समर्था कहा
गया है।
भगवान की कृपा अथवा उसकी योग्यतम संतान महापुरुषों की कृपा प्राप्त कर लो।
यह भी दो भागवत्प्राप्ति के प्रधान उपाय हैं। ऐसे महापुरुषों का संग-लाभ
होना बहुत ही कठिन है, पाँच मिनट भी उनका ठीक-ठीक संग-लाभ हो जाए तो सारा
जीवन ही बदल जाता है। यदि तुम इन महापुरुषों की संगति के सचमुच इच्छुक हो
तो तुम्हें किसी न किसी महापुरुष का संगलाभ अवश्य होगा। ये भक्त, ये
महापुरुष जहाँ रहते हैं, वह स्थान पवित्र हो जाता है, 'प्रभु की संतानों
का ऐसा ही महात्मा महात्मा है।' वे स्वयं प्रभु हैं, वे जो कहते हैं वही
शास्त्र हो जाता है। ऐसा है उनका महात्म्य ! वे जिस स्थान पर निवास करते
हैं, वह उनके देहनि:सृत पवित्र शक्ति-स्पंदन से परिपूर्ण हो जाता है; जो
कोई उस स्थान पर जाता है, वही उस स्पंदन का अनुभव करता है और इसी कारण
उसके भीतर भी पवित्र बनने की प्रवृत्ति जाग उठती है।
'इस प्रकार के प्रेमियों में जाति, विद्या, रूप, कूल, धन आदि का भेद नहीं
रहता, क्योंकि वह उनके (ईश्वर के) हैं।
कुसंग पूर्ण रूप से छोड़ दो, विशेषता: प्रारंभिक अवस्था में। विषयी लोगों
का संग कभी न करो, क्योंकि उनकी संगति से चित्त चंचल हो जाता है। 'मैं' और
'मेरा' के भाव को सर्वथा छोड़ दो। जिसके लिए जगत में 'मेरा' कुछ भी नहीं
है, उसीके निकट भगवान आविर्भूत होते हैं। सभी प्रकार के मायिक प्रेम वह
बंधनों को काट डालो। आलस्य का त्याग करो, और 'मेरा क्या होगा' इस प्रकार
की चिंता कभी ना करो। तुमने जो कुछ काम किया है, उसका फलाफल जानने के लिए
पीछे की ओर मुड़कर मत देखो। भगवान को समर्पण कर कर्म करते चलो, फलाफल की
कुछ भी चिंता ना करो। जब मन और प्राण अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में भगवान
की ओर जाते हैं, जब रुपये-पैसे या नाम-यश की प्राप्ति के लिए समय नहीं
बचता, भगवान को छोड़ अन्य किसी के चिंतन का अवसर नहीं मिलता, तभी हृदय में
उस अपार अपूर्व प्रेमानंद का उदय होता है। वासनाएँ तो शीशे की गुड़ियों के
समान आसार हैं। प्रकृति प्रेम या भक्ति नित्य नूतन और प्रतिक्षण वर्धिष्णु
है, और है सूक्ष्म अनुभवस्वरूप। अनुभव के द्वारा ही इसे समझना होता है,
व्याख्यान के द्वारा यह नहीं समझायी जा सकती। भक्ति ही सबसे सहज साधना है।
भक्ति स्वभाविक है, इसमें किसी युक्ति या तर्क की अपेक्षा नहीं; भक्ति
स्वयं प्राण है, इसके लिए और किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। मुक्ति-तर्क
क्या है ? अपने मन के द्वारा किसी विषय को सीमाबद्ध करना ही युक्ति-तर्क
है। हम मानो अपने मन का जाल फैलाकर किसी विषय को पकड़ते हैं और कहते हैं
हमने इस विषय को प्रमाणित किया है। किंतु ईश्वर को हम जाल के द्वारा पकड़
नहीं सकते--कभी भी नहीं।
भक्ति आहैतुकी होना चाहिए। हम जब प्रेम के अयोग्य किसी वस्तु या व्यक्ति
से प्यार करते हैं, तब वह प्रेम भी उसी प्रकृत प्रेम और प्रकृत आनंद की
अभिव्यक्ति मात्र है। प्रेम को चाहे जिस रूप से व्यवहार में क्यों ना लाओ,
प्रेम स्वभाव से ही शांति और आनंदस्वरूप है। हत्यारा जब अपने शिशु का
चुंबन करता है, उस समय वह प्रेम को छोड़ अन्य सब कुछ भूल जाता है। 'अहं'
का बिल्कुल नाश कर डालो। काम-क्रोध का त्याग करो-अपना सर्वस्व ईश्वर को
समर्पित कर दो। नाहं नाहं, त्वमेव त्वमेव-'मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ, तू
ही है, तू ही है-'मैं' मर गया, रहे हो केवल 'तुम' ही। 'मैं तुम ही हूँ'।
किसी की निंदा मत करो। यदि दु:ख-विपत्ति आए, तो समझो ईश्वर तुम्हारे साथ
खेल रहे हैं-- और यही समझकर दु:ख में भी परम सुखी रहो।
प्रेम देशकालातीत है, वह पूर्णस्वरूप है।
२५ जून
,मंगलवार
प्रत्येक सुखोपभोग के बाद दु:ख आता है-यह दु:ख उसी क्षण आ सकता है, अथवा
संभव है, कुछ देर में आए। जो आत्मा जितनी उन्नत है, उसे सुख के बाद दु:ख
भी उतनी ही शीघ्र प्राप्त होती है। हमें सुख-दु:ख दोनों ही नहीं चाहिए। ये
दोनों ही हमारे प्रकृत स्वरूप को भूला देते हैं। दोनों ही जंजीर हैं-एक
लोहे की, दूसरी सोने की। इन दोनों के पीछे ही आत्मा है-उसमें ना सुख है, न
दु:ख। सुख-दु:ख दोनों ही अवस्था विशेष है और प्रत्येक अवस्था सदा
परिवर्तनशील होती है परंतु आत्मा आनंदस्वरूप अपरिणामी और शांतिस्वरूप है।
हमें आत्मा की प्राप्ति नहीं करनी है, वह तो हमारा प्रकृत रूप ही है, केवल
मैल को धो डालो, तभी उसका दर्शन होगा।
इस आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होकर ही हम जगत से ठीक ठीक प्रेम कर सकेंगे।
खूब उच्च भाव में अपने को प्रतिष्ठित करो, 'मैं अनंत आत्मस्वरूप हूँ', यह
समझकर हमें जगत्प्रपंच की ओर संपूर्ण शांत भाव से दृष्टिपात करना होगा। यह
जगह तो एक छोटे बच्चे के खिलौने के समान है; हम जब उसे समझ लेंगे तब जगत
में कुछ भी क्यों न हो, वह हमें चंचल ना कर सकेगा। यदि प्रशंसा नाम मन
प्रसन्न होगा तो निंदा से वह अवश्य ही विषण्ण हो जाएगा। केवल इंद्रियों का
ही नहीं, मन का भी समस्त सुख अनित्य है; किंतु हमारे भीतर ही वह निरपेक्ष
सुख रहता है, जो किसी और के ऊपर निर्भर नहीं करता। यह सुख पूरी तरह
स्वायत्त और आनंदस्वरूप है। सुख के लिए आभ्यांतरिक आत्मा पर हम जितना
निर्भर रहेंगे, उतना ही हम आध्यात्मिक होंगे। इस आत्मानंद को ही जगत में
धर्म कहते हैं।
अंतर्जगत-जो कि वास्तविक सत्य है-बहिर्जगत की अपेक्षा अनंत गुना श्रेष्ठ
है। बहिर्जगत तो उस सत्य अंतर्जगत का छायामय प्रक्षेप मात्र है। वह जगह न
तो सत्य है, न मिथ्या। यह तो सत्य की छाया मात्र है। कभी कहते हैं, 'यह
कल्पना सत्य की स्वर्णिम छाया है।
हम जब जगत में प्रवेश करते हैं, तभी वह हमारे लिए सजीव हो उठता है। हम यदि
अलग कर दिए जाएं, तो जगत अचेतन, मृत और जड़ पदार्थ मात्र रह जाता है। हम
ही जगत के पदार्थसमूह को जीवन दान करते हैं, किंतु एक निर्बोध जीव के समान
इस तथ्य को भूलकर कभी हम उनसे भयभीत हो जाते हैं और कभी उनका उपभोग करने
लगते हैं। मछली की टोकरी यदि पास में न रहे तो नींद नहीं आएगी-यह जैसे उन
मछली बेचनेवाली औरतों को हुआ था वैसा ही तुम लोगों को कहीं न हो : कुछ
मछली वाली सिर पर मछली की टोकरीयाँ लेकर बाजार से घर लौट रही थीं। उसी समय
खूब जोर से वर्षा होने लगी। घर जाने में असमर्थ हो उन्होंने रास्ते में
अपनी पहचान की एक मालिन के बगीचे में आश्रय लिया। मालिन ने रात में सोने
के लिए जो कोठरी उन्हें दी, ठीक उसके पास ही फूलों का बगीचा था। हवा के
कारण बगीचे के सुंदर फूलों की महक उन औरतों की नाक में आने लगी, किंतु वह
महक उनके लिए इतनी असह्य हो उठी कि वह किसी तरह भी न सकीं। अंत में उनमें
से एक ने सुझाव दिया-'आओ' हम मछली की टोकरियों को भिगोकर सिर के पास रख
लें। वैसा करने पर जब उन टोकरियों से मछलियों की गंध उनकी नाक में आने
लगी, तब वे आराम से खर्राटे भरने लगीं !
यह संसार भी हमारे लिए उस मछली की टोकरी के समान है-हमें सुखभोग के लिए उस
पर निर्भर ना रहना चाहिए। जो उस पर निर्भर रहते हैं, वे तामस प्रकृति अथवा
बद्ध जीव हैं। उनके बाद राजस प्रकृति के लोग हैं; उनका अहंकार खूब प्रबल
होता है, वह सर्वदा 'मैं-मैं' कहते रहते हैं। कभी-कभी वे सत्कार्य भी करते
हैं, चेष्टा करने पर वे धार्मिक भी हो सकते हैं। किंतु सात्विक प्रकृति
वाले ही सर्वश्रेष्ठ हैं वे सर्वदा अंतरमुख और आत्मनिष्ठ रहते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति में सत्व, रज और तमोगुण हैं। एक एक समय में मनुष्य में
एक एक गुण का प्राधान्य होता है।
सृष्टि का अर्थ कुछ निर्माण करना या बनाना नहीं है; सृष्टि का अर्थ है-जो
साम्य भाव नष्ट हो गया है, उसीको पुनः प्राप्त करने की चेष्टा-जैसे यदि एक
काग को टुकड़े-टुकड़े कर उसे पानी में नीचे फेंक दे तो वे सब टुकड़े
अलग-अलग या एक साथ मिलकर पानी के ऊपर आने की चेष्टा करते हैं। जीवन अशुभ
है और अशुभ सदा उसके साथ रहता है। किंचित् अशुभ से ही जगत की सृष्टि हुई
है। जगत में थोड़ा बहुत अशुभ है, उसे अच्छा ही कहना चाहिए, क्योंकि साम्य
भाव आने पर यह जगत ही नष्ट हो जाएगा। साम्य और विनाश दोनों एक ही हैं।
जितने दिनों तक यह जगत चल रहा है, उतने दिनों तक साथ ही साथ शुभ और अशुभ
भी चलते रहेंगे, किंतु जब हम जगत के परे चले जाते हैं, तब शुभाशुभ दोनों
से अतीत हो जाते हैं अर्थात परमानंद प्राप्त कर लेते हैं।
जगत में दु:खविरहित सुख, अशुभविरहित शुभ पाने की संभावना कदापि नहीं है;
क्योंकि जीवन का अर्थ ही है साम्य भाव की विच्युति। हमें हमें चाहिए
मुक्ति; जीवन, सुख अथवा शुभ कुछ भी नहीं। सृष्टि-प्रवाह अनंत काल से चल
रहा है-न उसका आदि है, न अंत-एक अनंत सागर के ऊपर की निरंतर गतिशील तरंग
के समान है। इसमें कुछ ऐसे गहरे स्थल हैं, जहाँ हम अब भी नहीं पहुँचे है,
और ऐसे भी कुछ स्थल हैं, जहाँ साम्य भाव पुनः स्थापित हो चुका है, किंतु
ऊपर की सतह पर सरल तरंग सर्वदा ही उठती रहती है, वहाँ पर अनंत काल से इस
साम्यावस्था को प्राप्त करने की चेष्टा चलती ही रहती है। जीवन और मृत्यु
एक ही वस्तु के विभिन्न नाम मात्र हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
दोनों ही माया है-यह अवस्था स्पष्ट रूप से समझी नहीं जा सकती-एक समय जीवित
रहने की चेष्टा होती है, तो दूसरे ही क्षण विनाश मृत्यु की। हमारा यथार्थ
स्वरूप आत्मा इन दोनों से परे है। जब हम ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करते
हैं तो ईश्वर, और कुछ नहीं, वास्तव में आत्मा ही है, जिससे हमने अपने को
अलग कर लिया है और जिसे हम अपने से अलग मानकर पूजते हैं; किंतु वास्तव में
यह उपासना उसी की है जो चिर काल से एकमात्र ईश्वरपदवाच्य हमारा अंतरात्मा
ही है।
उस नष्ट साम्यावस्था को पुनः प्राप्त करने के लिए पहले हमें रजत द्वारा
तमस को और सत्व द्वारा रजत को जीतना होगा। सत्व का अभिप्राय उस प्रकार की
स्थिर, धीर, प्रशांत अवस्था से है, जिसके धीरे- धीरे बढ़ने पर अंत में
अन्यान्य भाव अर्थात रजत और तमस सर्वथा लुप्त हो जाते हैं। बंधन काट डालो,
मुक्त बनो, यथार्थ 'पुत्र' बनो, तभी ईसा के समान 'पिता को देख सकोगे।'
धर्म और ईश्वर कहने से अनंत शक्ति और अनंत वीर्य समझा जाता है। दुर्बलता
और दासत्व का त्याग करो। जब तुम मुक्त स्वभाव हो, केवल तभी तुम आत्मा हो;
यदि तुम मुक्त मुक्तस्वभाव हो तभी अमृतत्व तुम्हारे करतलगत है; तभी ईश्वर
वास्तव में है, यदि वह मुक्तस्वभाव है।
* * *
जगत मेरे लिए है, मैं जगत के लिए कदापि नहीं हूँ। शुभ-अशुभ सभी मेरे दास
हैं, मैं उनका दास कदापि नहीं हूँ। जिस अवस्था में पड़ा है, उसी अवस्था
में पड़े रहना पशु का स्वभाव है; मनुष्य का स्वभाव है-अशुभ छोड़कर शुभ
प्राप्त करने की चेष्टा करना; और शुभाशुभ की किसी के लिए भी चेष्टा न
करना-सर्वदा सब अवस्थाओं में आनंदमय होकर रहना ईश्वर का स्वभाव है। हमें
ईश्वर होना होगा। हृदय को समुद्र के समान महान बना लो, संसार के क्षुद्र
भावों के परे चले जाओ, इतना ही नहीं, अशुभ आने पर भी आनंद से उन्मत्त हो
जाओ; जगत को एक तस्वीर के समान देखो; और यह जानकर कि जगत में तुम्हें कोई
भी वस्तु विचलित नहीं कर सकती, जगह के सौंदर्य का उपभोग करो। जगत के सुख
इस प्रकार हैं, जैसे छोटे छोटे लड़के खेल करते-करते कीचड़ में काँच की
गुड़िया पा जाते हैं। जगत के सु:ख-दु:ख के ऊपर शांत भाव से दृष्टिपात करो;
शुभ और अशुभ दोनों को एक दृष्टि से देखो-दोनों ही भगवान के खेल हैं, इसलिए
सभी में आनंद का अनुभव करो।
* * *
मेरे गुरुदेव कहते थे-'सभी नारायण हैं, किंतु बाघ नारायण से दूर रहना होता
है; सभी जल नारायण हैं, तो सभी गंदा जल नहीं पिया जाता।'
'आकाशरूपी थाली में रवि-चंद्र रूपी दीपक जलते हैं-फिर अन्य मंदिरों की
क्या आवश्यकता ? सभी नेत्र तेरे नेत्र हैं, फिर भी तेरा एक भी नेत्र नहीं
है; सभी हाथ तेरे हाथ हैं, फिर भी तेरा एक भी हाथ नहीं है।'
न कुछ पाने की चेष्टा करो, ना कुछ छोड़ने की चेष्टा करो, यदृच्छलाभ से
संतुष्ट बनो किसी भी विषय से तुम विचलित ना हो, तभी समझो कि तुमने मुक्ति
या स्वाधीनता प्राप्त कर ली। केवल सहन करने से ना होगा-बिल्कुल अनासक्त
बनो। उस साँड़ की कहानी मन में रखो जिसके सींग पर एक मच्छर बहुत समय तक
बैठा रहा--इतनी देर बैठने के बाद उसकी औचित्त्य बुद्धि जाग्रत हो उठी; यह
सोचकर कि संभव है साँड के सींग पर मेरे बैठने से उसे बहुत कष्ट हो रहा हो,
वह साँड़ को संबोधित कर कहने लगा, "भाई साँड़! मैं बहुत देर से तुम्हारे
सींग पर बैठा हूँ। मालूम होता है तुम्हें बहुत असुविधा हो रही है, मुझे
क्षमा करना। यह लो, मैं उड़ जाता हूँ।" साँड़ बोला-"नहीं, नहीं, तुम सपरिवार
आकर भी मेरे सींग पर निवास करो न। मेरा उससे कुछ न बिगड़ेगा।"
२६ जून बुधवार
जब हमारा 'अहंज्ञान' नहीं रहता, तभी हम अपना सर्वोत्तम कार्य कर सकते हैं,
दूसरों को सर्वाधिक प्रभावित कर पाते हैं। सभी महान प्रतिभाशाली व्यक्ति
इस बात को जानते हैं। उस दिव्य कर्ता के प्रति अपना हृदय खोल दो, तुम
स्वयं कुछ भी करने मत जाओ। श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-'हे अर्जुन,
त्रिलोक में मेरे लिए कर्तव्य नामक कुछ भी नहीं है।' उनके ऊपर संपूर्णतया
निर्भर रहो, संपूर्ण रूप से अनासक्त होओ, ऐसा होने पर ही तुम्हारे द्वारा
कुछ यथार्थ कार्य हो सकता है। जिस शक्ति के द्वारा यह सभी कार्य होते हैं,
उसे हम देख नहीं पाते, हम केवल उसका फलमात्र देख पाते हैं। अहं को निकाल
डालो, उसका नाश कर डालो, उसे भूल जाओ; अपने द्वारा ईश्वर को कार्य करने
दो-यह उन्हीं का कार्य है, उन्हें करने दो। हमें और कुछ नहीं करना
होगा-केवल स्वयं हटकर उन्हें काम करने देना होगा। हम जितना दूर हटते
जाएँगे, ईश्वर उतना ही हमारे भीतर आएगा। 'तुछ अहं' को नष्ट कर डालो--केवल
'महत्त्व अहं' रहने दो। हम अभी जो कुछ हैं। वह सब अपने चिंतन का ही फल है।
इसलिए तुम क्या चिंतन करते हो, इस विषय में विशेष ध्यान रखो। शब्द तो गौण
वस्तु है। चिंतन ही बहुकाल-स्थायी है और उसकी गति भी बहु-दूरव्यापी है। हम
जो कुछ चिंतन करते हैं। उसमें हमारे चरित्र की छाप लग जाती है; इस कारण
साधु पुरुषों की हँसी या गाली में भी उस के हृदय का प्रेम और पवित्रता
रहती है और उससे हमारा कल्याण ही होता है।
कुछ भी कामना मत करो। ईश्वर का चिंतन करो, किंतु किसी भी फल की कामना मत
करो। जो कामनाशुन्य होते हैं, उन्हींका कार्य फलप्रद होता है। भिक्षाजीवी
सन्यासी द्वारा द्वार पर धर्म का संदेश लेकर जाते हैं, किंतु वे मन में
सोचते हैं, हम कुछ भी नहीं करते। यह किसी प्रकार की अपनी अधिकार-सत्ता भी
नहीं दर्शाते, उनका कार्य उनके अनजान में हो जाता है। यदि वे (ऐहिक)
ज्ञानरूपी वृक्ष का फल खाएं तो उन्हें अहंकार आ जाए फिर वे जो कुछ
लोककल्याण करेंगे-सब नष्ट हो जाएगा। जब हम 'मैं-मैं' करते हैं, तब हम
मूर्ख से बन जाते हैं, और कहते हैं-हमने 'ज्ञान' लाभ कर लिया है, किंतु
वास्तव में तो हम 'आँख बाँधे बैल' के समान कोल्हू में ही लगातार घूमते
रहते हैं। भगवान खूब अच्छी तरह अपने को छिपाकर रखते हैं, इसीलिए उनका
कार्य भी सर्वोत्तम है। इसी प्रकार जो अपने को संपूर्ण रूप से छिपाकर रख
सकते हैं, वे ही सब की अपेक्षा अधिक कार्य कर पाते हैं। पहले अपने को जीत
लो, फिर संपूर्ण जगत तुम्हारे पैरों के नीचे आ जाएगा।
सत्व गुण में अवस्थित होने पर हम सभी वस्तुओं के असली रूप को देख सकते
हैं, उस समय हम पंचेंद्रियों और बुद्धि के अतीत प्रदेश में चले जाते हैं।
'अहं' ही वज्रदृढ़ प्राचीर है, जिसने हमें बंद कर रखा है-सत्य के मुक्त
वायुमंडल में वह हमें नहीं जाने देता-सभी विषयों में, सभी कार्यों में इसी
से 'मैं, मेरा' यह भाव आता है-हम सोचते हैं, मैं यह कार्य करता हूँ, वह
कार्य करता हूँ, इत्यादि। इस क्षुद्र अहंम भाव को दूर कर डालो, हममें यह
जो अहंरूप पैशाचिक भाव रहता है, उसे बिल्कुल नष्ट कर डालो। नाहं नाहं,
त्वमेव त्वमेव, इस मंत्र का उच्चारण करो, हृदय से उसे अनुभव करो, समग्र
जीवन उससे अनुप्राणित कर दो। जब तक हम इस अहंभाव-गठित जगत का परित्याग
नहीं कर पाते, तब तक हम स्वर्ग-राज्य में कभी भी प्रवेश नहीं कर सकेंगे-न
कोई कभी कर सका है और न कर सकेगा। संसार त्याग करने का अर्थ है-इस अहंभाव
को बिल्कुल भूल जाना, अहं भाव की ओर कभी भी ध्यान ना देना; देह में वास
करना, लेकिन देह का ना होना। इस दुष्ट अहंभाव को बिल्कुल नष्ट कर डाल
डालना होगा। लोग जब तुम्हारी बुराई करें, तो तुम उन्हें आशीर्वाद दो;
सोचकर देखो, वे तुम्हारा कितना उपकार करते हैं; अनिष्ट यदि किसी का होता
है, तो केवल उनका अपना ही होता है। ऐसे स्थान पर जाओ जहाँ लोग तुमसे घृणा
करें; तुम अपनी अहंता को उन्हें मार मार कर अपने भीतर से बाहर निकाल
फेंकने दो-ऐसा होने पर तुम भगवान के सन्निकट पहुँच जाओगे। बंदरिया जैसे
अपने बच्चे को गोद में दबाए रहती है, किंतु अंत में बाध्य होने पर उसको
हटाकर फेंक देती है, उसे कुचल डालने में भी पीछे नहीं रहती, उसी प्रकार हम
भी संसार को जितने दिन तक संभव होता है, छाती से चिपकाए रहते हैं, किंतु
अंत में जब हम उसे पददलित करने पर बाध्य होते हैं, तभी हम ईश्वर के समीप
जाने के अधिकारी होते हैं। धर्म के लिए यदि दूसरा दूसरों का अत्याचार सहन
करना पड़े तो हम धन्य हो जाएंगे ; यदि हम लिखना-पढ़ना न जाने तो हम धन्य
हैं, क्योंकि ईश्वर के सान्निध्य से दूर करनेवाली अनेक बातें उससे कम हो
जाती हैं।
भोग है लाख फनवाला सांप-हमें उसे कुचलना ही होगा। हम भोगों को त्यागकर
अग्रसर होने लगें कुछ भी न पाने पर संभव है हम निराश हो जाएँ; किंतु लगे
रहो, लगे रहो-कभी छोड़ो मत। यह संसार एक पिशाच के समान है। यह संसार मानो
एक राज्य है-हमारा क्षुद्र अहं मानो उसका राजा है। उसे दूर कर दृढ़ होकर
खड़े हो जाओ। काम-कंचन, नाथ-यश को छोड़ दृढ़ भाव से ईश्वर की शरण लो, अंत
में हम सुख-दु:ख में संपूर्ण उदासीनता लाभ करेंगे। इंद्रियचरितार्थ ही सुख
है-यह धारणा संपूर्ण जड़वादात्मक है। उसमें एक बिंदु मात्र भी यथार्थ सुख
नहीं है। उसमें जो कुछ सुख है, वह वास्तविक आनंद का प्रतिबिंब मात्र है।
जिन्होंने ईश्वर के श्रीचरणों में आत्मसमर्पण किया है, वह जगत के लिए उन
तथाकथित कर्मियों की अपेक्षा अनेक अधिक कार्य करते हैं। जिसने स्वयं को
संपूर्ण रूप शुद्ध रूप बना लिया है वह सैकड़ों धर्म-प्रचारकों की अपेक्षा
अधिक कार्य करता है। चित्तशुद्धि और मौन वाणी में शक्ति आती है।
लिली फूल के सदृश बनो-एक ही स्थान में रहो, अपनी पंखुड़ियों को मुकुलित
करो, मधुमक्खियों स्वयं ही आ जुटेंगी। श्रीयुत केशवचन्द्र सेन और श्री
रामकृष्ण के बीच एक बड़ा अंतर था। श्री रामकृष्ण देव जगत में पाप या अशुभ
नहीं देख पाते थे-वे जगत में कुछ भी अशुभ नहीं देख पाते थे, और वे उस अशुभ
को दूर करने का लिए चेष्टा करने का भी कोई प्रयोजन नहीं देखते थे। और
केशवचन्द्र एक महान धर्मसंस्कारक, नेता एवं भारतवर्षीय ब्राह्म समाज के
प्रतिष्ठाता थे। बारह वर्षों के पश्चात इन शांत दक्षिणेश्वरवासी
महापुरुषों ने केवल भारत में ही नहीं, वरन समग्र संसार में एक क्रांति कर
दी। यह सभी महापुरुष वास्तव में महाशक्ति के आधार हैं-वे जीते हैं, प्रेम
करते हैं और फिर अपने व्यक्तित्व को खींच लेते हैं। वह कभी भी, 'मैं,
मेरा' नहीं करते। वे अपने को ईश्वर का यंत्रस्वरूप समझकर ही अपने को धन्य
मानते हैं। ऐसे व्यक्ति ईसा और बुद्ध आदि के निर्माता हैं। वे सदैव ईश्वर
के साथ संपूर्ण भाव से तादात्म्य लाभ करके एक आदर्श जगत में निवास करते
हैं। वे कुछ नहीं चाहते और अहंभाव से कुछ भी नहीं करते। वे ही वस्तुत:
प्रेरकस्वरूप हैं-वे जीवन्मुक्त एवं बिल्कुल अहंशून्य हैं। उनका शुद्र
अहंज्ञान पूर्ण रूप से नष्ट हो गया है, उन्हें महत्वाकांक्षा बिल्कुल नहीं
है। उनका व्यक्तित्व पूर्ण रूप से लुप्त हो गया है, वे निराकार तत्वस्वरूप
हैं।
27 जून
, बृहस्पतिवार
(स्वामी जी आज बाइबिल का नया व्यवस्थान लेकर आए तथा दूसरी बार बाइबिल में
जॉन के ग्रंथ की व्याख्यान की।)
मुहम्मद इस बात का दावा करते थे कि वे वही शांतिदाता हैं, जिन्हें भेजने
का ईसा मसीह ने वचन दिया था। स्वामी जी के मत से इस बात को स्वीकार करने
की कुछ भी आवश्यकता नहीं है कि ईसा मसीह का अलौकिक भाव से जन्म हुआ था।
सभी युगों में, सभी देशों में इस प्रकार का दावा देखने में आता है। सभी
बड़े लोगों ने दावा किया है कि उनका जन्म देवताओं से हुआ है।
ज्ञान सापेक्षिक मात्र है। हम ईश्वर हो सकते हैं, किंतु उन्हें कभी जा
नहीं सकते। ज्ञान निम्नतर अवस्था मात्र है। तुम्हारी बाइबिल में भी है,
आदम ने जब ज्ञान लाभ किया उसी समय उनका पतन हो गया। उससे पहले वे स्वयं
सत्यस्वरूप, पवित्रतास्वरूप, एवं ईश्वरस्वरूप थे। हमारा मुख्य हमसे कोई भी
वस्तु नहीं है, किंतु हम कभी भी असली मुख को देख नहीं पाते, हम केवल उसका
प्रतिबिंब ही देख सकते हैं। हम स्वयं प्रेमस्वरूप हैं, किंतु जब हम इस
प्रेम के संबंध में सोचने लगते हैं तो देखते हैं कि हमें एक कल्पना का
आश्रय ग्रहण करना पड़ता है; इसी से यह प्रमाणित होता है कि हम जिसे जड़
कहते हैं, वह तो चित् की बहिरभिव्यक्ति मात्र है। क्योंकि ज्ञाता अपने
प्रतिबिंब को ही जान सकता है, स्वयं को नहीं, वह सदा अज्ञेय है। अतः ज्ञान
ज्ञाता से भिन्न और पृथक होता है। हम इस प्रकार वह बाह्यकृत विचार है अथवा
हम पृथक वस्तु के रूप में ज्ञाता से बाहर स्थित विचार। चूँकि ज्ञाता आत्मा
ने नाम से विख्यात है, जो उससे भिन्न और पृथक है उसे जड़ या भौतिक तत्व
कहा जाना चाहिए। 'इसलिए स्वामी जी कहते हैं कि 'जड़ या भौतिक तत्व विख्यात
विचार है।'
निवृत्ति का अर्थ है संसार से विमुख हो जाना। हिंदुओं के पुराण में है,
प्रथम पृष्ठ चार ऋषियों को हंस रूपी भगवान ने शिक्षा दी थी कि जगत-प्रपंच
गौण मात्र है ; इसलिए ऋषियों ने सृष्टि नहीं की। इसका तात्पर्य यह है कि
अभिव्यक्ति का अर्थ ही अवस्थित है; क्योंकि आत्मा अभिव्यक्ति शब्द के
द्वारा साधित होती है, और 'शब्द भाव को नष्ट कर डालता है।' फिर भी तत्व
जड़ावरण से आवृत हुए बिना नहीं रह सकता, यद्यपि हम जानते हैं कि अंत में इस
प्रकार के आवरण की ओर ध्यान रखते रखते हम असल को भी खो बैठते हैं। सभी
महान आचार्य इस बात को जानते हैं और इसीलिए पैगंबर पुनः पुनः आकर हमें मूल
तत्व समझा देते हैं और इसीलिए तत्कालोपयोगी उसका एक और नवीन आवरण दे जाते
हैं। मेरे गुरुदेव कहते थे-धर्म एक है, सभी पैगंबरों की शिक्षा वही होती
है, किंतु उस तत्व को प्रकाशित करने के लिए सभी को उसे कोई न कोई आकार
देना पड़ा। इसलिए उन्होंने उसके पुरातन आकार को त्यागकर उसे नए आकार में
हमारे सामने रखा है। जब हम नाम-रूप से, विशेषत: देह से मुक्त होते हैं, जब
हमारे लिए भली-बुरी किसी भी देह का प्रयोजन नहीं रहता, तभी हम बंधनमुक्त
हो सकते हैं। अनंत उन्नति का अर्थ है, अनंत काल से लिए बंधन; उसकी अपेक्षा
सभी प्रकार के आकार का ध्वंस ही वांछनीय है। हमें सभी प्रकार की देह से,
देवता-देह से भी मुक्त होना है। ईश्वर ही एकमात्र यथार्थ सत्य वस्तु है,
दो सत्य पदार्थ एक साथ कभी नहीं रह सकते। एकमात्र आत्मा ही है और मैं ही
वह हूँ। शुभ कर्म का मूल्य केवल इतना ही है कि वह मुक्ति लाभ का सहायक है।
उसके द्वारा कर्ता का ही कल्याण होता है, दूसरे का नहीं।
ज्ञान का अर्थ है वर्गीकरण। हम एक ही जाति के अनेक पदार्थों को देखते हैं
तो उन सबको कोई एक नाम दे देते हैं। इससे हमारा मन शांत हो गया। हम केवल
तथ्यों का ही अविष्कार करते हैं, 'क्यों' का नहीं। हम अंधकार के ही कुछ
विस्तृत क्षेत्र में अधिक घूम-फिरकर यह सोचने लगते हैं कि हमने सचमुच कुछ
ज्ञान लाभ कर लिया है। इस जगत में 'क्यों' का कुछ भी उत्तर नहीं हो सकता।
'क्यों' का उत्तर पाने के लिए हमें ईश्वर के समीप जाना होगा। जो सभी के
ज्ञाता हैं, उन्हें कभी भी प्रकाशित नहीं किया जा सकता। यह ऐसा ही है,
जैसे नमक का कण सागर में प्रवेश करते ही गलकर उसमें मिल जाता है।
वैषम्य ही सृष्टि का मूल है-एकरसता या साम्य ही ईश्वर है। इस वैषम्य भाव
के परे चले जाओ; ऐसा करने पर ही जीवन और मृत्यु दोनों को जीत लोगे एवं
अनंत समत्व में पहुंच जाओगे। तभी तुम ब्रह्म में प्रतिष्ठित होगे, स्वयं
ब्रह्मस्वरूप हो जाओगे। मुक्ति प्राप्त करने की चेष्टा करो, उसमें प्राण
जाएँ, वह भी स्वीकार करो। एक पुस्तक के साथ उसके पृष्ठों का जो संबंध हैं,
वही हमारा साथ हमारे जन्मों का भी है, किंतु हम अपरिणामी, साक्षिस्वरूप और
आत्मस्वरूप हैं; और इसी आत्मा के ऊपर जन्म-जन्मांतर की छाया पड़ती है,
जैसे एक मशाल को खूब जोर-जोर से घुमाओ तो नेत्र के सामने वृत्ताकार प्रतीत
होने लगता है। आत्मा में ही समस्त व्यक्तित्व का एकत्व है; और चूंकि आत्मा
अनंत, अपरिणामी और अंचचल है, अतः आत्मा ब्रह्मस्वरूप है। आत्मा को जीवन
नहीं कहा जा सकता किंतु उससे समुदाय जीवन गठित होता है; उसे सुख नहीं कहा
जा सकता, किंतु उससे सुख की उत्पत्ति होती है।
आजकल संसार ईश्वर को छोड़ रहा है, क्योंकि वह संसार के लिए पर्याप्त कुछ
कर नहीं रहा है। अतः वे कहते हैं-"उससे हमें क्या लाभ है?" क्या हमें
ईश्वर का 'चिंतन' केवल एक नगरपालिका के अधिकारी के रूप में करना होगा ? हम
इतना तो कर सकते हैं कि हम अपनी सभी वासना, ईर्ष्या, घृणा और भेद बुद्धि
दूर कर दें, 'क्षुद्र अहं' को नष्ट कर डालें, एक प्रकार की मानसिक
आत्महत्या जैसी कर डालें। शरीर और मन को पवित्र और स्वस्थ रखो-किंतु केवल
ईश्वर लाभ करने के यंत्ररूप में, इतना ही उनका एकमात्र यथार्थ प्रयोजन है।
केवल सत्य के लिए सत्य का अनुसंधान करो; इस बात को मत सोचो कि उसके द्वारा
आनंद लाभ होगा। आनंद स्वयं आ सकता है, किंतु इसलिए उसे अपने लाभ का प्रेरक
मत बनाओ। ईश्वर लाभ को छोड़कर और किसी प्रकार का उद्देश्य मत रखो। सत्य
लाभ करने के लिए यदि नरक होकर जाना पड़े तो भी पीछे मत हटो।
28 जून शुक्रवार
(आज हम सब लोग स्वामी जी के साथ एक स्थान में वनगोष्टी के लिए गऐ। जहाँ
कहीं स्वामी जी रहते थे, वहीं उनका लगातार उपदेश चलता था और उनके नोट्स
लिए जाते थे, किंतु आज हुए उपदेश नहीं लिए गए और इस कारण उनका कोई आलेख
उपलब्ध नहीं हैं।)
परंतु बाहर निकलने के पहले सबेरे जलपान के समय उन्होंने यह कहा: सभी
प्रकार के अन्न के लिए भगवान के प्रति कृतज्ञ होओ-अन्य ब्रह्मस्वरूप है।
उनकी सर्वव्यापिनी शक्ति ही हमारी व्यष्ठि-शक्ति में परिणत होकर हमारे सभी
प्रकार के कार्य करने में सहायक होती है।
28 जून
, शनिवार
(आज स्वामी जी गीता हाथ में लेकर उपस्थित हुए।)
गीता में हृषीकेश अर्थात जीवात्माओं ईश्वर, गुड़ाकेश अर्थात निद्रा के
अधीश्वर अथवा निद्राजयी अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं। यह जगत ही
'धर्मक्षेत्र' कुरुक्षेत्र है। पंच पांडव (अर्थात धर्म) शत कौरवों के साथ
(हम जिन सभी विषयों में आसक्त रहते हैं और जिसके साथ हमारा सतत विरोध चलता
रहता है ) युद्ध कर रहे हैं। पांच पांडवों के मध्य सर्वश्रेष्ठ वीर अर्जुन
(अर्थात प्रबुद्ध जीवात्मा) सेनापति है। हमें समस्त इंद्रिय-सुखों के
साथ-जिन सभी वस्तुओं में हम अत्यंत आसक्त हैं उनके साथ--युद्ध करना होगा,
उन्हें मार डालना होगा। हमें नि:संग होकर खड़े होना होगा। हम ब्रह्मस्वरूप
है, इस भाव में हमें अन्य सब भावों को तिरोहित कर देना होगा।
श्री कृष्ण सब प्रकार के कर्म करते थे, किंतु सभी प्रकार की आसक्ति से
रहित होकर। वे संसार में थे अवश्य, किंतु कभी संसारी नहीं थे। सभी कर्म
करो, किंतु अनासक्त होकर करो; कर्म के लिए ही कर्म करो; अपने लिए कभी मत
करो।
* * *
कोई भी नाम-रूपात्मक पदार्थ कभी भी मुक्तस्वभाव नहीं हो सकता। हम (पात्र)
इस नाम-रूप की मिट्टी से ही बने हैं; फिर नाम-रूप सीमित है और मुक्त नहीं
है, अतः जो सापेक्ष है, उसे मुक्त नहीं कहा जा सकता। घट जब तक घट है, तब
तक अपने को कभी भी मुक्त नहीं कर सकता; जब वह नाम-रूप से अतीत हो जाता है,
तभी मुक्त हो जाता है। समग्र जगत ही आत्मस्वरूप है-यही आत्मा विभिन्न
रूपों में अभिव्यक्त है, जैसे एक सुर से अनेक प्रकार के सुरों की
अभिव्यक्ति। यदि ऐसा ना हो तो सभी एक ही प्रकार के हो जाएँ, सभी एक दूसरे
हो जाएँ। समय समय पर बेसुक है अवश्य,परन्तु बाद में परवर्ती सुरों का ऐक्य
तो और भी मधुर लगता है। महान विश्व-संगीत में तीन भावों का विशेष प्रकार
दिखाई देता है-साम्य, बल और स्वाधीनता।
यदि तुम्हारी स्वाधीनता के कारण दूसरे की कुछ क्षति होती है, तो तुम्हें
समझना होगा कि वह वास्तविक स्वाधीनता नहीं है। दूसरे की किसी प्रकार की
क्षति कभी मत करो।
मिल्टन कहते हैं-'दुर्बल होना ही क्लेश भोगना है।' कर्म और फलभोग--इन
दोनों का अविच्छिन्न संबंध है। (अधिकतर देखा जाता है कि जो अधिक हँसता है,
उसको उतना रोना होता है-जितनी हँसी उतना रोना।) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा
फलेषु कदाचन-'कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं।'
* * *
स्थूल दृष्टि से देखने पर कुविचारों को रोगबीजाणु कहा जा सकता है। हमारा
शरीर मानो एक लोहपिंड है और हमारा प्रत्येक विचार मानो धीरे-धीरे उसके ऊपर
हथौड़ी की चोट मारता है-उसके द्वारा हम अपने शरीर का गढ़न इच्छानुसार करते
हैं। हम जगत के संपूर्ण शुभ विचारों के उत्तराधिकारीस्वरूप हैं-यदि हम
अपने को उसके प्रति मुक्त कर दें।
शास्त्र तो वह हमारे ही भीतर हैं। 'मूर्ख, क्या तू सुन नहीं रहा है, तेरे
ह्रदय के भीतर दिन-रात वही अनंत संगीत ध्वनित हो रहा है-सच्चिदाननन्द:
सच्चिदाननन्द:, सोऽहं सोऽहं?'
हम से प्रत्येक के भीतर-क्या क्षुद्र पिपीलिका और क्या स्वर्ग के
देवता--सभी के भीतर अनंत ज्ञान का स्रोत विद्यमान है। यथार्थ धर्म एक है;
हम उसे विभिन्न रूपों, विभिन्न प्रतीकों और उसके विभिन्न दृष्टांतों को
लेकर व्यर्थ में झगड़ा करके मारते रहते हैं। जो यह जानता है कि किस प्रकार
खोजना चाहिए, उसके लिए सत्य युग तो सदा ही विद्यमान रहता है। हम स्वयं
नष्ट हो गए हैं, इसलिए जगत को नष्ट समझते हैं।
इस जगत में पूर्ण शक्ति का कोई कार्य नहीं रहता; उसे केवल 'अस्ति' या 'सत'
मात्र कहा जाता है, उसका कोई कार्य नहीं रहता।
यथार्थ सिद्धिलाभ तो एक ही प्रकार का है, किंतु सापेक्षिक सिद्धि अनेक
प्रकार की हो सकती है।
३० जून
, रविवार
किसी एक कल्पना का आश्रय लिए बिना विचार करने की चेष्टा असंभव को संभव
करने की चेष्टा है। स्तनपायी किसी जीवविशेष का उदाहरण लिए बिना स्तनपायी
जीव की किसी प्रकार की धारणा हम नहीं कर सकते। ईश्वर की धारणा के संबंध
में भी यही बात है।
जगत में जितने प्रकार के भाव या धारणाएँ हैं, उनका जो सूक्ष्म सारनिष्कर्ष
है, उसी को हम ईश्वर कहते हैं।
प्रत्येक विचार के दो भाग -एक है विचारणा और दूसरा है उसी भाव का द्योतक
'शब्द'-और वे दोनों ही आवश्यक है। क्या प्रत्ययवादी (idealist), क्या
जड़वादी (materialist) किसी का भी मत शुद्ध सत्य नहीं है। हमें भाव और उसकी
अभिव्यक्ति दोनों ही लेने होंगे।
हम दर्पण में अपना मुख देख पाते हैं-समुदाय ज्ञान भी उसी प्रकार का
है-बाहर जो प्रतिबिंबित है, उसका ज्ञान होता है। कोई भी अपनी आस्था या
ईश्वर को नहीं जान सकता, किंतु हम स्वयं ही वह आत्मा हैं, हमीं ईश्वर हैं।
निर्वाण की अवस्था में तुम तभी होते हो, जब 'तुम' नहीं होते: बुद्धदेव ने
कहा है-'जब तुम नहीं जाते, तभी तुम सर्वोत्तम और सत्य होते हो'-जब तुच्छ
अहं नष्ट हो जाता है।
अधिकांश लोगों में वही अभ्यांतरीण ईश्वरीय ज्योति आवृत एवं अस्पष्ट होकर
रहती है, जैसे एक लोहे के पीपे के भीतर प्रदीप रखा रहता है, पर उस प्रदीप
की थोड़ी सी भी ज्योति बाहर नहीं आ पाती। पवित्रता एवं नि:स्वार्थता का
थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते-करते हम इस आच्छादक माध्यम को कम घना कर सकते
हैं। अंत में वह काँच के समान पारदर्शी हो जाता है। श्री रामकृष्ण में
मानो यह लोहे का पीपा काँच के रूप में परिणत हो गया है। उसके भीतर से वह
आभ्यंतरीण ज्योति यथास्वरूप दिखाई देती है। हम सभी कभी ना कभी ऐसे ही काँच
के पीपे हो जाएँगे-इतना ही नहीं, उसकी भी अपेक्षा उच्च प्रतिबिंबों के
आधारस्वरूप होंगे। किंतु जब तक कोई 'पीपा' रहता है, तब तक उसे जड़ उपायों
की सहायता से ही चिंतन करना पड़ता है। धैर्यहीन व्यक्ति कभी भी सिद्ध नहीं
हो सकता।
महान संत पुरुष सिद्धांत (principles) के दृष्टांत स्वरूप हैं; किंतु
शिष्य तो महात्माओं को ही सिद्धांत बना लेते हैं और उस व्यक्ति विशेष को
ही सब कुछ समझकर सिद्धांत को भूल जाते हैं।
सगुण ईश्वर के विरुद्ध बुद्ध के लगातार तर्क करने के फलस्वरूप भारत में
प्रतिमा-पूजा का सूत्रपात हुआ ! वैदिक युग में प्रतिमा का अस्तित्व नहीं
था, उस समय लोगों की यही धारणा थी कि ईश्वर सर्वत्र विराजमान है। किंतु
बुद्ध के प्रचार के कारण हम जगत्स्त्रष्टा एवं उसने सखास्वरूप ईश्वर को खो
बैठे और उसकी प्रतिक्रियास्वरुप प्रतिमा-पूजा की उत्पत्ति हुई। लोगों ने
बुद्ध की मूर्ति गढ़कर पूजा करना आरंभ किया। ईसा मसीह के संबंध में भी वैसा
ही हुआ है। काठ-पत्थर की पूजा से लेकर ईसा और बुद्ध की पूजा तक सभी
प्रतिमा पूजा है; किसी ना किसी प्रकार की मूर्ति के बिना हमारा काम चल ही
नहीं सकता।
* * *
सुधार की उग्र चेष्टा का फल यही होता है कि उससे सुधार की गति रुक- रुक
जाती है। किसी से ऐसा मत कहो कि 'तुम बुरे हो', वरन उससे यह कहो-'तुम
अच्छे हो, और भी अच्छे बनो।'
सभी देशों में पुरोहित अनिष्ट करते हैं, क्योंकि वे लोगों को गाली देते
हैं और उनकी आलोचना करते हैं। वे डोरी को ठीक करने के लिए उसे खींचते हैं,
किंतु उससे दूसरी दो या तीन डोरियाँ स्थान भ्रष्ट हो जाती हैं। प्रेम कभी
निंदा नहीं करता, ऐसा तो महत्वाकांक्षा ही करती है। न्यायसंगत क्रोध या
वैध हिंसा नाम की कोई वस्तु नहीं है।
यदि तुम किसी को सिंह नहीं होने दोगे, तो वह लोमड़ी हो जाएगा। स्त्री एक
शक्ति है, किंतु अब इस शक्ति का प्रयोग केवल बुरे विषयों में ही हो रहा
हैं। इसका कारण यह है कि पुरुष स्त्रियों के ऊपर अत्याचार कर रहे हैं। आज
स्त्रियाँ लोमड़ी के समान हैं, किंतु जब उसके ऊपर और अधिक अत्याचार नहीं
होगा, तब वे सिंहिनी होकर खड़ी होंगी।
साधारणतः धर्मभाव को बुद्धि द्वारा नियमित करना उचित है। नहीं तो इस भाव
की अवनति हो जाती है और वह भावुकता मात्र में परिणत हो जाता है।
* * *
सभी ईश्वरवादी यह स्वीकार करते हैं कि इस परिणामी जगत के पीछे एक अपरिणामी
वस्तु है, यद्यपि उस चरम वस्तु की धारणा के संबंध में उसमें आपस में मतभेद
है। बुद्ध इसे संपूर्णत: अस्वीकार करते थे। उन्होंने कहा-"ब्रह्म या आत्मा
नाम की कोई वस्तु नहीं है।"
चरित्र की दृष्टि से बुद्ध संसार से सबसे अधिक महान हुए हैं। उनके बाद
हैं-ईसा। किंतु गीता में श्री कृष्ण जो कह गए हैं, उसके समान महान उपदेश
जगत में और कहीं नहीं है। जिन्होंने उस अद्भुत काव्य की रचना की थी, वे उन
सब विरले महात्माओं में से एक थे, जिसके जीवन द्वारा समग्र जगत में नव
जीवन की एक लहर दौड़ जाती है। जिन्होंने गीता लिखी है, उसके सदृश्य
आश्चर्यजनक मस्तिष्क मनुष्य जाति और कभी नहीं देख पाएगी।
* * *
जगत में एकमात्र शक्ति ही विद्यमान है-वही कभी अशुभ, कभी शुभ भाव में
अभिव्यक्त होती है। ईश्वर और शैतान एक सी नदी हैं-जिनकी धाराएँ विपरीत
दिशाओं में बहती हैं।
१ जुलाई
, सोमवार
श्री रामकृष्ण देव
श्री रामकृष्ण देव एक अत्यंत निष्ठावान ब्राह्मण के पुत्र थे। उनके पिता
ब्राह्मणों की एक जाति विशेष को छोड़कर अन्य किसी का दान नहीं ग्रहण करते
थे। जीविकोपार्जन के लिए सर्वसाधारण व्यक्ति के समान वे कोई काम भी नहीं
कर सकते थे, पुस्तकें बेचना या किसी के यहाँ नौकरी करना तो दूर की बात है,
किसी देवमंदिर में पौरोहित्य करना भी उनके लिए संभव नहीं था। उनकी वृत्ति
आकाशी वृत्ति थी; जो अयाचित् भाव से उपस्थित होता था, उसी से उसके
भोजन-वस्त्र का निर्वाह होता था; किंतु वह भी वे किसी पतित ब्राह्मण के
पास से नहीं लेते थे। हिंदू धर्म में देवमंदिरों का ऐसा कोई प्राधान्य
नहीं है। चाहे सभी मंदिर नष्ट हो जाएं, फिर भी धर्म की बिंदु मात्र भी
क्षति नहीं होगी। हिंदुओं के मत में अपने लिए घर बनवाना स्वार्थपरायणता का
कार्य है; केवल देवता और अतिथि के लिए ही घर बनवाया जा सकता है। इसीलिए
लोग भगवान के निवासस्वरूप मंदिर आदि का निर्माण करवाते हैं।
अपनी पारिवारिक स्थिति अत्यंत विपन्न होने के कारण श्री रामकृष्ण बहुत
थोड़ी अवस्था में एक मंदिर में पुजारी होने के लिए बाध्य हुए। मंदिर में
जगज्जननी की मूर्ति प्रतिष्ठित थी-उन्हें प्रकृति या काली भी कहा जाता है।
एक स्त्रीमूर्ति एक पुरुषमूर्ति पर खड़ी हैं-इसका अर्थ यह है कि मायावरण
को हटाए बिना हम ज्ञान लाभ नहीं कर सकते। ब्रह्म निर्लिंग है-वह अज्ञात और
अज्ञेय है। वह जब अपने को अभिव्यक्त करता है, तब अपने को माया के आवरण से
आवृत्त कर जगज्जननी का स्वरूप धारण करता और सृष्टि-प्रपंच का विस्तार करता
है। धराशायी पुरुष (शिव का ब्रह्म) मायावृत्त होने के कारण शव हो गया है।
ज्ञानी कहता है-'मैं बलपूर्वक माया को हटाकर ब्रह्म को प्रकाशित करूँगा'
(अद्धैतवाद), किंतु द्वैतवादी या भक्त कहता है-उस जगज्जननी से प्रार्थना
करने पर वे द्वार छोड़ देंगी, तभी ब्रह्म प्रकाशित होगा-उन्हीं के हाथ में
चाभी है।'
प्रतिदिन माँ काली की सेवा तथा पूजा-अर्चना करते करते इन तरुण पुरोहित के
ह्रदय में क्रमश: ऐसी तीव्र व्याकुलता तथा भक्ति का उद्रेक हुआ कि वे फिर
नियमित रूप से मंदिर में पूजा आदि कार्य करने में असमर्थ हो गए। इसलिए वे
उसे छोड़कर मंदिर के अहाते के भीतर ही एक छोटे से जंगल में जाकर दिन-रात
ध्यान-धारणा करने लगे। वह जंगल ठीक गंगा जी के किनारे था; एक दिन गंगा जी
की प्रबल धारा में ठीक एक कुटी के निर्माणोपयोगी सामग्री उसके पास बहकर आ
गयी। उसी कुटीर में रहकर वे सर्वदा प्रार्थना करने और रोने लगे-जगन्माता
को छोड़कर और किसी भी विषय की चिंता उन्हें नहीं रही; इतना ही नहीं, अपने
शरीर की भी चिंता उन्हें नहीं रही। इस समय उनका एक आत्मीय प्रतिदिन
मध्याह्न में एक बार उनको भोजन करा जाता था और उनकी देख-रेख करता था। कुछ
दिनों के बाद एक संन्यासिनी आकर उन्हें उनकी 'माँ' से मिलाने के लिए
सहायता करने लगीं। उन्हें जिस प्रकार के गुरु की आवश्यकता होती थी, वह
स्वयं उसके पास आकर उपस्थित हो जाते थे। सभी संप्रदाय के कोई न कोई साधु
आकर उन्हें उपदेश देते थे और वे ध्यानपूर्वक सभी का उद्देश्य सुनते थे।
परंतु वे केवल उन जगन्माता की ही उपासना करते थे-वे सभी में जगन्माता को
ही देखते थे।
श्री रामकृष्ण ने कभी किसी से विरुद्ध कोई कड़ी बात नहीं कही। उनका ह्रदय
इतना उदार था कि उनके बारे में कभी संप्रदाय सोचते थे कि वे उन्हीं के
हैं। वह सभी से प्रेम करते थे। उनकी दृष्टि में सभी धर्म सत्य थे-वे कहते
थे, धर्मजगत में सभी धर्मों का स्थान है। वह मुक्तस्वभाव थे, किंतु
सर्वसाधारण के प्रति समान प्रेम में ही उनके मुक्तस्वभाव का परिचय पाया
जाता था, वज्त्रवत कठोरता में नहीं। इस प्रकार के कोमलह्रदय व्यक्ति ही
नूतन भाव की सृष्टि करते हैं। और कर्मप्रवण लोग इस भाव को चारों ओर फैला
देते हैं। संत पॉल इस दूसरी कोटि के थे। इसलिए उन्होंने सत्य का आलोक
चारों ओर फैलाया था।
किंतु अब संत पॉल का युग नहीं है। हमको ही आधुनिक जगत का नूतन आलोकस्वरूप
होना होगा। हमारे युग की विशेष आवश्यकता है एक ऐसे संघ का निर्माण जो
स्वयं अपना समायोजन कर ले। जब ऐसा होगा, तब वही जगत का अंतिम धर्म होगा।
संसार-चक्र चलेगा ही-हमें उसकी सहायता करनी होगी, बाधा देने के काम नहीं
चलेगा। धार्मिक विचार-धाराओं की तरंग उठती है, गिरती है और उन सभी तरंगों
के शीर्ष-प्रदेश में उसी युग के पैगंबर विराजते हैं: श्री रामकृष्ण
वर्तमान युग के उपयुक्त धर्म की शिक्षा देने आए थे, जो विधायक हैं, न कि
विध्वंसक। उन्हें अभिनव ढंग से प्रकृति के समीप जाकर सत्य जानने की चेष्टा
करनी पड़ी थी, फलस्वरूप उन्होंने वैज्ञानिक धर्म को प्राप्त कर लिया था।
वह धर्म किसी को कुछ मान लेने को नहीं कहता है, स्वयं परख लेने को कहता
है। 'मैं सत्य का दर्शन करता हूँ, तुम भी इच्छा करने पर उनका दर्शन कर
सकते हो।' मैंने जिस साधन का अवलंबन किया है, तुम भी उसी का अवलंबन करो,
वैसा करने पर तुम भी हमारे सदृश सत्य का दर्शन करोगे। ईश्वर सभी के समीप
आएंगे-इस समत्व भाव को सभी प्राप्त कर सकेंगे। श्री रामकृष्ण जो कुछ उपदेश
दिए गए हैं, वह सब हिंदू धर्म का सारस्वरूप है, उन्होंने अपनी ओर से कोई
नई बात नहीं कही। और वे उन सब बातों को अपनी बतलाने का भी कभी दावा नहीं
करते थे; वे नाम-यश के लिए किंचित् मात्र भी आकांक्षा नहीं रखते थे।
उनकी अवस्था जब लगभग चालीस वर्ष की थी, तब उन्होंने उपदेश करना प्रारंभ
किया। किंतु इस प्रचार के लिए कभी भी नहीं बाहर नहीं गए। जो उनके पास आकर
उपदेश ग्रहण करने की इच्छा करते थे, उन्हीं की प्रतीक्षा करते थे। हिंदू
समाज की प्रथा के अनुसार उनके माता-पिता ने उनके यौवनकाल के आरंभ में पाँच
वर्ष की एक छोटी लड़की के साथ उनका विवाह कर दिया था। विवाह के उपरांत यह
बालिका बहुत दूर के एक ग्राम में अपने परिवारवालों के साथ रहती रही वह यह
नहीं जानती थी कि उसके तरुण पति कितने कठोर संघर्षों में व्यस्त हैं। जब
वह सयानी हुई, उस समय उसका पति भगवत्प्रेम में तन्मय हो चुका था। वह पैदल
ही अपने गाँव से दक्षिणेश्वर काली मंदिर में पति के समीप उपस्थित हुई। वह
अपने पति को देखते ही उनकी वास्तविक अवस्था को समझ गयी; क्योंकि वह स्वयं
अत्यंत विशुद्ध एवं उन्नत स्वभाव की थी। वह केवल अपने पति के कार्य में
सहायता करने की ही इच्छुक थी; उसे कभी भी ऐसी इच्छा नहीं हुई कि वह अपने
पति को गृहस्थ जीवन की ओर खींच लावे। श्री रामकृष्णा की पूजा भारत में एक
महान अवतार के रूप में होती है। उनका जन्म-दिन वहाँ पर एक धर्मोत्सव-रूप
में मनाया जाता है।
* * *
एक विशिष्ट लक्षणयुक्त गोलाकार शीला विष्णु अर्थात सर्वव्यापी भगवान के
प्रतीक-रूप में व्यवहृत होती है। प्रातःकाल पुरोहित आकर उस शालिग्राम शिला
की पुष्पचंदन, नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा करते हैं, धूप-कर्पूरादि के
द्वारा आरती करते हैं, उसके बाद उन्हें सुलाकर उस प्रकार की पूजा के लिए
उनके समीप क्षमा-प्रार्थना करते हैं। ईश्वर के स्वरूपत: रूपविवर्जित होने
पर भी वे इस प्रकार के प्रतीक या जड़ वस्तु की सहायता के बिना उनकी उपासना
नहीं कर पाते--इस दोष या दूर दुर्बलता के लिए वे उनके निकट क्षमा
प्रार्थना करते हैं। वे शिला को स्नान कराते हैं, कपड़ा पहनाते हैं, और
अपनी चैतन्य-शक्ति के द्वारा उनकी प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं।
* * *
एक संप्रदाय है, जो कहता है-भगवान की केवल शिव और सुंदर रूप में पूजा करना
दुर्बलता मात्र है, हमें अशिव और वीभत्स रूप से भी प्रेम करना होगा और
उसकी पूजा करनी होगी। यह संप्रदाय तिब्बत देश में सर्वत्र विद्यमान है और
उसके भीतर विवाह-प्रथा नहीं है। भारत में यह संप्रदाय प्रकट रूप में रह
नहीं सकता, इसलिए वे गुप्त रूप में वहाँ अपने समाज का संगठन करते हैं। कोई
भी सत्पुरुष गुप्त रूप के अतिरिक्त इस संप्रदायों में योग नहीं दे सकता।
तिब्बत देश में तीन बार साम्यवाद को कार्य में परिणत करने की चेष्टा की
गयी है, किंतु प्रत्येक बार वह चेष्टा विफल हो गयी। वे खूब तपस्या करते
हैं और शक्ति (विभूति) लाभ की दृष्टि से उसमें खूब सफलता भी प्राप्त करते
हैं।
'तपस' शब्द का धात्वर्थ है, ताप देना या उत्तत करना। यह हमारी उच्च
प्रकृति को 'तप्त' या उत्तेजित करने की साधना या प्रक्रिया विशेष है,
उदाहरणार्थ, सूर्योदय से लेकर सूर्यस्त पर्यत ओंकार का लगातार जप करना। इन
सभी क्रियाओं के द्वारा एक ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे अपनी
इच्छानुसार आध्यात्मिक या भौतिक, किसी भी रूप में परिणत किया जा सकता है।
इस तपस्या का भाव समग्र हिंदू धर्म में ओतप्रोत है। इतना ही नहीं, हिंदू
लोग कहते हैं कि ईश्वर को भी जगत की सृष्टि करने के लिए तपस्या करनी पड़ी
थी। यह मानो मानसिक यंत्र विशेष है-इसके द्वारा सब कुछ किया जा सकता है।
शास्त्र में कहा है-'त्रिभुवन में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तपस्या के
द्वारा पाया नहीं जा सकता।'
* * *
जो लोग ऐसे संप्रदायों के मतामत या कार्य-कलाप का दोष-दृष्टि से वर्णन
करते हैं, जिनके साथ उनकी सहानुभूति नहीं है, वे जान या अनजान में
मिथ्यावादी होते हैं। जो संप्रदाय-विशेष में दृढ़ विश्वासी हैं, वे प्राय:
यह देख नहीं पाते कि दूसरे संप्रदाय में भी सत्य है।
* * *
भक्तश्रेष्ठ हनुमान से एक बार पूछा गया था-"आज महीने की कौन सी तिथि है?"
उन्होंने उत्तर दिया, "राम ही मेरे संवत, तिथि आदि सब कुछ हैं। मैं और कोई
तिथि आदि कुछ नहीं जानता।"
2 जुलाई
, मंगलवार
जगज्जननी
शाक्त जगत की उस सर्वव्यापिनी शक्ति को 'माँ' कहकर उसकी पूजा करते
हैं-क्योंकि 'माँ' नाम की अपेक्षा अधिक मधुर और दूसरा नाम नहीं है। भारत
में माता ही स्त्री-चरित्र का चरम आदर्श है। भगवान की मातृरूप में तथा
प्रेम के उच्चतम विकास रूप में पूजा करने को हिंदू लोग दक्षिणाचार्य या
दक्षिण-मार्ग कहते हैं; उपासना से हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है,
मुक्ति होती है-इसके द्वारा कभी भी ऐहिक उन्नति नहीं होती। उसके भीषण रूप
की अर्थात रुद्रमूर्त्ति की उपासना को वामाचार या वाम-मार्ग कहते हैं।
साधारणत: इसमें संसारिक उन्नति खूब होती है, किंतु आध्यात्मिक उन्नति
विशेष रूप से नहीं होती। काल-क्रम से अवनति होती है और जो जाति उसका साधन
करती है, उसका बिल्कुल ध्वंस हो जाता है।
बताया गया है। 'माँ' नाम लेने से ही शक्ति का भाव, सर्वशक्तिमान और दैवी
शक्ति का भाव आ जाता है, जैसे शिशु अपनी माँ को सर्वशक्तिमती समझता है
अर्थात माँ सब कुछ कर सकती है। वह जगज्जननी भगवती ही हमारी अभ्यंतरिक
द्रिता कुंडलिनी हैं-उनकी उपासना किए बिना हम कभी भी अपने को पहचान नहीं
सकते। सर्वशक्तिमत्ता, सर्वव्यापिता और अनंत दया उन्हीं जगज्जननी भगवती के
गुण हैं। जगत में जितनी शक्ति है, उसकी समष्टिस्वरूपिणी वही हैं। जगत में
समस्त शक्ति की वह पूर्ण योग हैं। जगत में शक्ति की सभी अभिव्यक्तियाँ
'माँ' ही हैं। वही प्राणरूपिणी हैं, वही बुद्धिरूपिणी हैं, वही है
प्रेमरूपिणी। वे समग्र जगत के भीतर विराजमान है, फिर भी वे जगत से संपूर्ण
पृथक हैं। वे एक व्यक्ति रूप हैं-उनको जाना जा सकता है, देखा जा सकता है
(जैसे श्री रामकृष्ण ने उनको जाना और देखा था)। उन जगन्माता के भाव में
प्रतिष्ठित होकर हम जो चाहे कर सकते हैं। वे तुरंत ही हमारी प्रार्थनाओं
का उत्तर देती हैं।
वे जब चाहें, किसी भी रूप में हमें दर्शन दे सकती हैं। उन जगज्जननी के
नाम-रूप दोनों रह सकते हैं। अथवा रूपों के न रहने पर केवल नाम रह सकता है।
उनकी इन सभी विभिन्न भावों में उपासना करते करते हम एक ऐसी अवस्था में
पहुंचते हैं, जहाँ पर नाम-रूप कुछ भी नहीं रहता, केवल शुद्ध सत्ता मात्र
रह जाती है।
जैसे किसी शरीर विशेष के समुदय कोषों से (cell) मिलकर एक मनुष्य बनता है,
उसी प्रकार प्रत्येक जीव आत्मा मानो एक एक कोषस्वरूप है, एवं उन सबकी
समष्टि ईश्वर है-और वह अनंत पूर्ण तत्व (ब्रह्मा) उससे भी अतीत है। समुद्र
जब स्थिर रहता है, तब उसे कहा जाता है 'ब्रह्म', और उसी समुद्र में जब
तरंग उठती है, तब उसी को हम 'शक्ति' यां 'माँ' कहते हैं। वह शक्ति या
महामाया ही देश-काल निमित्त-स्वरूप है। वह ब्रह्म ही माँ है। उसके दो रूप
हैं-एक सविशेष या सगुण, और दूसरा निर्विशेष या निर्गुण। प्रथम रूप में वह
ईश्वर, जीव और जगत है, द्वितीय रूप में वह अज्ञात और अज्ञेय है। उस
निरुपाधिक सत्ता से ही ईश्वर, जीव और जगत यह भाव आता है। समस्त सत्ता-जो
कुछ हम जान सकते हैं, सभी यह त्रिकोणात्मक हैं; यही विशिष्टाद्वैत भाव है।
उन्हीं जगदंबा का एक कण, एक बिंदु है कृष्ण, और एक कण बुद्ध, और एक कण
ईसा। हमारी पार्थिव व जननी में अन जगन्माता का जो एक कण प्रकाशित रहता है,
उसी की उपासना से महानता का लाभ होता है। यदि परम ज्ञान और आनंद चाहते हो,
तो जगज्जननी की उपासना करो।
3 जुलाई
, बुधवार
सामान्यतया कह सकते हैं, भय से ही मनुष्य के धर्म का प्रारंभ होता है।
'ईश्वर-भीति ही ज्ञान का आरंभ है।' किंतु बाद में उससे यह उच्चतर भाव आता
है कि 'पूर्ण प्रेम के उदय होने पर भय दूर हो जाता है।' जब तक हम ज्ञान
लाभ नहीं करते, जब तक ईश्वर क्या है, यह हम नहीं जान पाते, तब तक कुछ न
कुछ भय रहेगा ही। ईसा मनुष्य थे, इसलिए वे जगत में अपवित्रता देख पाते
थे-और उसकी खूब भर्त्सना भी कर गए हैं। किंतु ईश्वर अनंत गुने श्रेष्ठ
हैं, वे जगत में कुछ भी अन्याय नहीं देख पाते, इसलिए उन्हें क्रोध करने का
भी कोई कारण नहीं है। निंदावाद कभी भी सर्वोच्च नहीं हो सकता। डेविड का
हाथ रक्त से पंकिल था, इसलिए वह मंदिर नहीं बनवा सका।
हमारे ह्रदय में प्रेम, धर्म और पवित्रता का भाव जितना बढ़ता जाता है,
उतना ही हम बाहर प्रेम, धर्म और पवित्रता देख सकते हैं। हम दूसरों के
कार्यों की जो निंदा करते हैं, वह वास्तव में हमारी अपनी ही निंदा है। तुम
अपने क्षुद्र ब्रह्मांड को ठीक करो, जो तुम्हारे हाथ में है, वैसा होने पर
वृहद ब्रह्मांड भी तुम्हारे लिए आप ही आप ठीक हो जाएगा। यह मानो जलस्थिति
विज्ञान (Hydrostatics) की समस्या के समान है-एक बिंदु जल की शक्ति से
समग्र जगत को साम्यावस्था में रखा जा सकता है। हमारे भीतर जो नहीं है,
बाहर भी हम उसे नहीं देख सकते। वृहद इंजन के सामने अत्यंत छोटा इंजन जैसा
है, समग्र जगत की तुलना में हम भी वैसे ही हैं। छोटे इंजन के भीतर कुछ
गड़बड़ी देखकर, बड़े इंजन के भीतर भी कोई गड़बड़ी है, ऐसी हम कल्पना करते
हैं।
जगत में जो कुछ यथार्थ उन्नति हुई है, वह प्रेम की शक्ति से ही हुई है।
दोष बता बताकर कभी भी अच्छा काम नहीं किया जा सकता। हजार हजार वर्ष
परीक्षा करके यह बात देखी जा चुकी है। निंदावाद से कुछ भी फल नहीं होता।
यथार्थ वेदांती को सभी के साथ सहानुभूति करनी होगी, क्योंकि अद्वैतवाद या
संपूर्ण एकत्व भाव ही वेदांत का सार मर्म है। द्वैतवादी साधारणत: कट्टर
होते हैं-वे सोचते हैं, उन्हीं का मार्ग एकमात्र मार्ग है। भारत में
वैष्णव संप्रदाय द्वैतवादी हैं और वे लोग अत्यंत कट्टर हैं। शैव भी एक
अन्य द्वैतवादी संप्रदाय है, उनमें घंटाकर्ण नामक एक भक्त की कथा प्रचलित
है। वह शिव जी का ऐसा कट्टर भक्त था, उसकी यह प्रतिज्ञा थी कि किसी दूसरे
देवता का नाम कान से भी नहीं सुनूँगा। किसी देवता का नाम सुनना न पड़े, इस
भय से वह अपने दोनों कानों में दो घंटे बाँधे रखता था। उसकी प्रगाढ़ भक्ति
से संतुष्ट होकर शिव जी ने सोचा कि इसे यह समझा देना उचित् है कि शिव और
विष्णु में कोई भेद नहीं। इसलिए उसके समक्ष अर्ध शिव,अर्ध विष्णु अर्थात
हरिहर रूप में वे प्रकट हुए। उस समय घंटाकर्ण उसकी आरती कर रहा था। किंतु
उसकी ऐसी कट्टरता भी कि जब उसने देखा कि धूप की सुगंध विष्णु की नाक में
जा रही है, उसने उसकी नाक दबा दी।
* * *
मांसाहारी प्राणी, जैसे सिंह, एक आगत करके ही क्लांत हो जाता है, किंतु
सहनशील बैल सारा दिन चलता रहता है, चलते- चलते ही वह खा भी लेता है और
निद्रा भी ले लेता है। चंचल, सदा क्रियाशील यांकी भात खानेवाले चीनी
कुलियों के साथ साथ काम नहीं कर पाते। जब तक सैनिक शक्ति का प्राधान्य
रहेगा, तब तक मांस भोजन प्रचलित रहेगा। किंतु विज्ञान की उन्नति के
साथ-साथ युद्ध जब कम हो जाएंगे, उस समय निरामिष भोजियों का दल प्रबल होगा।
* * *
जब हम भगवान से प्रेम करते हैं, तब मानो हम अपने को दो भागों में विभक्त
कर डालते हैं-हम स्वयं अपने को प्रेम करते हैं। ईश्वर ने हमारी सृष्टि की
है और हमने ईश्वर की। हम अपने भाव के अनुसार ईश्वर की सृष्टि करते हैं। हम
ही ईश्वर को अपना प्रभु बनाने के लिए उनकी सृष्टि करते हैं, ईश्वर हमें
अपना दास नहीं बनाते। जब हम जान लेते हैं कि हम ईश्वर के साथ अभिन्न हैं,
ईश्वर हमारे सखा हैं, तभी वास्तविक साम्यावस्था प्राप्त होती है, तभी
हमारी मुक्ति होती है। उस अनंत पुरुष से जब तक तुम अपने को किंचित् भी
पृथक रखोगे, तब तक भय कभी भी दूर नहीं हो सकता।
भगवत्साधना कहने पर, भगवान से प्रेम करने पर जगत का क्या कल्याण
होगा-मूर्ख के समान ऐसा प्रश्न कभी मत करना। संसार की परवाह मत करो, भगवान
से प्रेम करो-और कुछ मत चाहो। केवल प्रेम करो और अन्य किसी वस्तु की
प्रत्याशा मत रखो। प्रेम करो-और सब मत-मतांतर भूल जाओ। प्रेम का प्याला
पीकर पागल हो जाओ। बोलो, 'हे प्रभु, मैं तुम्हारा ही हूँ-चिर काल के लिए
तुम्हारा ही हूँ', और सब कुछ भूलकर कूद पड़ो। प्रेम ही ईश्वर है। एक
बिल्ली को अपने बच्चों को प्यार करते देखकर उस स्थान पर खड़े हो जाओ, और
ऐसे ही प्रेम से भगवान की उपासना करो। उस स्थान में भगवान का आविर्भाव हुआ
है, यह अक्षरश: सत्य है; इस कथन में विश्वास करो। सर्वदा कहो, 'मैं
तुम्हारा हूँ, तुम्हारा हूँ ;' क्योंकि हम सर्वत्र भगवान का दर्शन कर सकते
हैं। उन्हें खोजने के लिए कहीं भी चक्कर मत काटो-वे तो प्रत्यक्ष हैं,
उन्हें केवल देखो। 'वही विश्वात्मा, जगज्ज्योति प्रभु सर्वदा तुम्हारी
रक्षा करें।'
* * *
निर्गुण परब्रह्म की उपासना नहीं की जा सकती, इसलिए हमें अपने ही सदृश
प्रकृति-सम्पन्न उनके प्रकाश विशेष की उपासना करनी होगी। ईसा हम लोगों के
समान मनुष्य प्रकृति सम्पन्न थे-वे ख्रिस्त हो गए थे। हम भी उनका समान
ख्रिस्त हो सकते हैं और हमें वह होना ही होगा। ख्रिस्त और बुद्ध अवस्था
विशेष का नाम हैं-जो हमें प्राप्त करनी होगी। ईसा और गौतम वे व्यक्ति हैं
जिनमें यह अवस्था व्यक्त हुई। जगन्माता या आद्या शक्ति ही ब्रह्म का प्रथम
और सर्वश्रेष्ठ प्रकाश हैं-उसके बाद ख्रिस्त और बुद्ध उनसे प्रकाशित हुए
हैं। हम स्वयं ही अपनी परिस्थिति का निर्माण कर अपने को बुद्ध कर देते हैं
और हम स्वयं ही इस जंजीर को तोड़कर मुक्त हो जाते हैं। आत्मा अभयस्वरूप है।
जब हम अपनी आत्मा के बहिर्देश में अवस्थित ईश्वर की उपासना करते हैं, तब
ठीक ही करते हैं,पर उस समय हम यह नहीं जानते कि हम वास्तव में क्या कर रहे
हैं। हम जब अपनी आत्मा का स्वरूप समझ पते हैं, तभी इस रहस्य को जान पाते
हैं। एकत्व ही प्रेम की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है।
ईरानी सूफियों की एक कविता में है-
'एक दिन ऐसा था, जब मैं नारी और वह पुरुष था।
दोनों के बीच प्रेम बढ़ने लगा-अंत में वह या मैं कोई भी नहीं रहा।
अब केवल इतना ही अस्पष्ट रूप से स्मरण आता है कि एक समय दो पृथक व्यक्ति
थे;
किंतु अंत में प्रेम ने आकर दोनों को एक कर दिया।'
ज्ञान अनादि अनंत काल तक वर्तमान रहता है-वह ईश्वर के साथ सहअस्तित्ववाद
है। जो व्यक्ति किसी प्रकार के आध्यात्मिक नियम का आविष्कार करते हैं,
उन्हीं को प्रेरित (inspired) या प्रत्यादिष्ट पुरुष या ऋषि कहते हैं। वे
जो कुछ प्रकाशित करते हैं, उसे रहस्य प्रकाशन (revelation) या अपौरुषेय
वाक्य कहते हैं। किंतु इस प्रकार के अपौरुषेय वाक्य भी अनंत हैं--यह नहीं
कि अब तक जो कुछ हुआ, वहीं पर उनका अंत हो गया है और अब अंध भाव से उसी का
अनुसरण करना पड़ेगा। हिंदुओं के विजेताओं ने उनकी अनेक वर्षों तक समालोचना
की, जिससे उन्होंने (हिंदुओं ने) अब स्वयं ही अपने धर्म की समालोचना करने
का साहस किया और उससे वह उदार भावापन्न हो गए। उसके विदेशी शासकों ने
अनजान में उनके पैरों की बेड़ियाँ तोड़ डाली हैं। हिंदू लोग जगत में
सर्वापेक्षा धार्मिक जाति होते हुए भी वास्तव में भगवत निंदा या धर्म
निंदा क्या है, यह नहीं जानते। उनके मतानुसार भगवान या धर्म के संबंध में
किसी भी भाव से आलोचना करने से भी उससे पवित्रता और कल्याण प्राप्त होते
हैं। और वे लोग पैगंबर, ग्रंथों या पाखंडपूर्ण पवित्रता आदि के प्रति किसी
प्रकार की कृत्रिम श्रद्धा या भक्ति नहीं प्रदर्शित करते।
ईसाई संघ ईसा को अपने मत के अनुसार गढ़ने की चेष्टा कर रहा है, किंतु
स्वयं को ईसा के जीवनादर्श के अनुसार गढ़ने की चेष्टा नहीं करता। इसीलिए
जो ग्रंथ सामयिक उद्देश्य सिद्ध करने में सहायक हुए थे, केवल उन्हीं
ग्रंथों को रखा गया था। अतः उन ग्रंथों पर कभी भी निर्भर नहीं रहा जा
सकता। और इस प्रकार के ग्रंथ या शास्त्र की उपासना तो सबसे निकृष्ट
प्रतिमा-पूजन है-वह तो हमारे हाथ-पैर को बिल्कुल बाँध देती हैं। इनके मत
में क्या विज्ञान, क्या धर्म, क्या दर्शन-सभी को इस शास्त्र का मतानुयायी
होना होगा। प्रोसेस्टैंटों की बाइबिल का अत्याचार इनमें सबसे बढ़कर भयानक
अत्याचार है। ईसाई देशों में प्रत्येक के सिर पर एक विशाल गिरजा का दबाव
रहता है और उसके शिखर पर धर्म ग्रंथ-किंतु फिर भी मानव जीवित है, और उसकी
उन्नति भी हो रही है। क्या इसीसे यह प्रमाणित नहीं होता कि मनुष्य
ईश्वरस्वरूप है ?
जीवो में मनुष्य की सर्वोच्च जीव है और यह लोक ही सर्वोच्च लोक है। ईश्वर
को मनुष्य की अपेक्षा बड़ा समझकर हम उनकी कल्पना नहीं कर पाते; इसलिए
हमारा ईश्वर भी मानव है-और मानव भी ईश्वर है। जब हम मनुष्य भाव से ऊपर
उठकर उससे अतीत किसी उच्च वस्तु का साक्षात्कार करते हैं, तब हमें इस जगत
को छोड़कर, देह, मन, कल्पना-इस सबके भी परे जाना पड़ता है। जब हम
उच्चावस्था प्राप्त कर वही अनंतस्वरूप हो जाते हैं, तब हम फिर इस जगत में
नहीं रहते। हमारे लिए इस जगत को छोड़ अन्य किसी जगत को जानने की संभावना
नहीं है और मनुष्य ही इस जगत की सर्वोच्च सीमा है। पशुओं के संबंध में हम
जो कुछ जान पाते हैं, वह केवल सादृश्यमूलक ज्ञान है। हम स्वयं जो कुछ करते
हैं अथवा अनुभव करते हैं, उसी के द्वारा हम उनका विचार करते हैं। ज्ञान की
समष्टि सर्वदा ही समान रहती है-हाँ, कभी वह अधिक और कभी कम अभिव्यक्त होता
है, बस इतना ही। इस ज्ञान का एकमात्र स्रोत हमारे ही भीतर है और केवल वहीं
यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
* * *
समस्त काव्य, चित्रकला और संगीत शब्द, रंम और ध्वनि के द्वारा भावना की ही
अभिव्यक्ति है।
* * *
वे धन्य हैं, जो जल्दी जल्दी पापों का फल भोग लेते हैं-उनका हिसाब जल्दी
जल्दी निपट गया। जिन्हें पाप का फल विलंब से मिलता है, उनका बड़ा
दुर्भाग्य है-उन्हें बहुत अधिक भुगतना पड़ता है।
जिन्होंने समस्त भाव को प्राप्त कर लिया है, वे ही ब्रह्म में अवस्थित
कहलाते हैं। सभी प्रकार की घृणा का अर्थ है आत्मा के द्वारा आत्मा का हनन।
इसलिए प्रेम ही जीवन का यथार्थ नियामक है। प्रेम की अवस्था को प्राप्त
करना ही सिद्धांवस्था है; किंतु हम जितना ही सिद्धि की ओर अग्रसर होते
हैं, उतना ही हम कर्म (तथाकथित) कर पाते हैं। सात्विक व्यक्ति जानते हैं
और देखते हैं कि सभी मानो लड़कों का खिलवाड़ मात्र है; इसलिए वे किसी भी
बात के लिए चिंतित नहीं होते।
एक आघात कर देना सरल है, किंतु हाथ रोककर, स्थिर होकर 'हे प्रभु, मैं
तुम्हारी शरण में आया हूँ,' यह कहना और फिर प्रतीक्षा करना कि जैसी उसकी
इच्छा हो करें, बड़ा कठिन है।
५ जुलाई, शुक्रवार
जब तक तुम किसी भी क्षण बदलने को प्रस्तुत नहीं होते, तब तक तुम सत्य लाभ
कभी नहीं कर सकते; अवश्यमेव तुम्हें सत्य के अनुसंधान में भाव से लगे रहना
होगा।
* * *
चार्वाक के अनुयायियों का भारत में एक अत्यंत प्राचीन संप्रदाय था। उनके
अनुयायी घोर जड़वादी थे। इस समय वह संप्रदाय लुप्त हो गया है और उनके
अधिकांश ग्रंथ भी लुप्त हो गए हैं। उनके मतानुसार आत्मा और भौतिक शक्ति से
उत्पन्न होती है-इसलिए देह का नाश होने से आत्मा का भी नाश हो जाता है और
देह-नाश के बाद भी आत्मा का अस्तित्व है, इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। वह
केवल इंद्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान स्वीकार करता है-अनुमान द्वारा भी ज्ञान
प्राप्त हो सकता है, इसे वह स्वीकार नहीं करता।
* * *
समाधि का अर्थ है-जीवात्मा और परमात्मा का अभेद भाव, अथवा समत्व भाव की
प्राप्ति।
जड़वादी कहता है कि मुक्ति की वाणी एक भ्रम है। विज्ञानवादी कहता है कि
बंधन का अस्तित्व बतालाने वाले वाणी भ्रम है। वेदान्ती कहता है, तुम एक ही
साथ मुक्त और बद्ध दोनों हो; पार्थिव स्तर पर तुम कभी भी मुक्त नहीं हो,
किंतु पारमार्थिक या आध्यात्मिक स्तर पर तुम नित्य मुक्त हो।
मुक्ति और बंधन दोनों के परे चले जाओ।
हम शिवस्वरूप, अतीन्द्रिय, अविनाशी ज्ञानस्वरूप हैं। प्रत्येक व्यक्ति के
पीछे अनंत शक्ति रहती है; जगन्माता की प्रार्थना करने से ही यह शक्ति
तुम्हें प्राप्त होगी।
'हे मां वागीश्वरी, तू स्वयंभू है, तु मेरी जिह्वा पर वाक् रूप से
आविर्भूत हो !
'हे माँ, वज्र तेरी वाणी है-तू मेरे भीतर आविर्भूत हो ! हे काली, तू अनंत
कालरूपिणी है, तू अमोघ शक्ति-स्वरूपिणी है !'
* * *
6 जुलाई
, शनिवार
(आज स्वामी जी ने व्यासकृत वेदांत सूत्र के शंकर भाषण पर उपदेश दिया।)
ॐ तत सत !
शंकर के मतानुसार जगत को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-अस्मद (मैं)
और युष्मद् (तुम)। और प्रकाश एवं अंधकार जैसे संपूर्ण विरुद्ध पदार्थ हैं,
ये दोनों भी वैसे ही हैं; इसलिए यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनों में
किसी एक से दूसरा उत्पन्न नहीं हो सकता। इस 'मैं' या विषयो के ऊपर 'तुम'
या विषय का अध्यास हुआ है। विषयी ही एकमात्र सत्य वस्तु है और दूसरा
अर्थात विषय आपात-प्रतीयमान सत्ता मात्र है। इसके विरुद्ध मत कभी भी
प्रमाणित नहीं किया जा सकता। जड़ पदार्थ और बहिर्जगत आत्मा की ही
अवस्थाविशेष मात्र है। वास्तव में वही एकमात्र है।
हमारा यह जगत सत्य और मिथ्या के सम्मिक्षण से उत्पन्न होता है। यह संसार,
शक्तियों के समानांतर चतुर्भुज मंप गेंद की कर्णाभिमुखी गति के सदृश्य
हमारे ऊपर क्रिया करनेवाली परस्पर विरोधी शक्तियों का परिणाम है। यह जगत
ब्रह्मस्वरूप और सत्य है; किंतु हम जिस जगत को देखते हैं वह उस प्रकार का
नहीं है; जिस तरह सीप में रजत का भ्रम होता है, उसी तरह हमें भी ब्रह्म
में जगत का भ्रम होता है। इसी को कहते हैं अध्यास, अर्थात सत्य सत्ता पर
निर्भर एक सापेक्ष सत्ता, किसी देखे हुए दृश्य के अनुस्मरण की भाँति; एक
अवधि के लिए तो उसका अस्तित्व रहता है, किंतु उसका अस्तित्व सत्य नहीं
होता। अथवा अध्यास का दृष्टांत दूसरे लोग इस प्रकार देते हैं-उष्णता जल का
धर्म नहीं है, परंतु हम कल्पना कर लेते हैं कि जल उष्ण है। इसलिए अध्यास
का अर्थ है अतस्मिन तदबुद्धि: -जो वस्तु जैसी नहीं है, उसको वैसा ग्रहण
करना। हम सत्य का ही दर्शन करते हैं, किंतु जिस माध्यम से हम उसे देखते
हैं, उसके कारण उसका रूप विकृत हो जाता है।
स्वयं अपने को विषय बनाए बिना तुम कभी भी अपने को नहीं जान सकते। जब हम एक
वस्तु को दूसरी समझ लेते हैं, तब हम सदैव अपने सम्मुख प्रस्तुत वस्तु को
ही सत्य मानते हैं, अदृश्य वस्तु को नहीं; इस प्रकार हम विषय को विषयी समझ
लेते हैं। किंतु आत्मा कभी भी विषय नहीं होती। मन है अंतररिन्द्रय, और सब
बहिरिन्द्रियाँ उसी की यंत्रस्वरूप हैं। विषयी में बहि:प्रक्षेप शक्ति
(Objectifying Power) विद्यमान है-इसीलिए वह 'मैं हूँ', इस प्रकार अपने को
जान पाता है। किंतु वह आत्मा या विषयी अपना ही विषय है, मन या इंद्रियों
का नहीं। फिर भी हम एक भाव (idea) का एक दूसरे भाव पर अध्यास कर सकते हैं;
उदाहरणार्थ हम कहते हैं, 'आकाश नीला है', किंतु आकाश स्वयं एक भाव या
प्रत्यय मात्र है। विद्या और अविद्या दोनों हैं, किंतु आत्मा कभी भी
अविद्याच्छन्न नहीं होती। सापेक्षिक ज्ञान भी उपयोगी है, क्योंकि वह उसी
चरम ज्ञान में पहुँचने की सीढ़ी है। किंतु इंद्रियजन्य ज्ञान या मानसिक
ज्ञान, इतना ही नहीं, वेद-प्रमाणजन्य ज्ञान भी कभी परमार्थ सत्य नहीं हो
सकता, क्योंकि ये सब सापेक्षिक ज्ञान की सीमा के भीतर हैं। पहले 'मैं देह
हूँ', इस भ्रम को दूर कर दो, तभी यथार्थ ज्ञान की आकांक्षा होगी। मानवीय
ज्ञान पशुज्ञान की ही उच्चतर अवस्था मात्र है।
* * *
वेद के एक अंश में कर्मकांड-अनेकविध अनुष्ठानपद्धति, यज्ञयागादि-का उपदेश
है। दूसरे अंश में ब्रह्मज्ञान और धर्म का विषय वर्णित है। वेद का यही भाग
आत्म-तत्व के संबंध में उपदेश देता है और इसीलिए वेद के इस भाग का ज्ञान
यथार्थ पारमार्थिक ज्ञान का अति समीपवर्ती है। परब्रह्म का ज्ञान किसी
शास्त्र के ऊपर या और किसी अन्य वस्तु पर निर्भर नहीं होता; वह स्वयं
पूर्ण-स्वरूप होता है। शास्त्रों के अध्ययन से यह ज्ञान नहीं मिलता; यह
कोई सिद्धांत नहीं है, यह है सत्य का साक्षात्कार। दर्पण के ऊपर जो मैल जम
गया है, उसे साफ कर डालो, अपने मन को पवित्र करो, ऐसा होने से उसी क्षण इस
ज्ञान का उदय होगा कि तुम ब्रह्म हो।
केवल ब्रह्म ही है-जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, दुख नहीं, कष्ट नहीं, नरहत्या
नहीं, किसी तरह का परिणाम नहीं, शुभ नहीं, अशुभ भी नहीं; सभी कुछ ब्रह्म
है। हम रस्सी को साँप मान लेते हैं, भूल हमारी है।-हम केवल तभी जगत का
कल्याण कर सकते हैं, जब हम भगवान से प्रेम करते हैं और वे भी हमसे प्यार
करते हैं। हत्यारा व्यक्ति भी ब्रह्म है-हत्यारा का आवरण उस पर अध्यस्त या
आरोपित मात्र हुआ है। उसे हाथ पकड़कर इस सत्य का ज्ञान करा दो।
आत्मा में किसी प्रकार का जाति-भेद नहीं है; उसमें 'जाति-भेद है', यह
मानना भ्रांति है। इसी प्रकार 'आत्मा का जीवन या मरण या कोई गति अथवा गुण
है', यह भावना भी भ्रम है। आत्मा का कभी भी परिवर्तन नहीं होता, न वह कहीं
आती है, न जाती है। वह अपनी समग्र अभिव्यक्तियों की चिरंतर साक्षिस्वरूप
है, किंतु हम उस अभिव्यक्तियों को भी आत्मा समझ बैठते हैं। यह अनादि अनंत
भ्रम अनंत काल से चला आ रहा है। वेदों को हमारे स्तर पर आकर हमें उपदेश
देना पड़ता है, क्योंकि यदि वेद उच्चतम सत्य को उच्चतम भाव या भाषा में
हमारे लिए कहते तो हम वह समझ ही नहीं पाते।
स्वर्ग हमारी कामना से सृष्ट अंधविश्वास मात्र है और कामना चिर काल के लिए
बंधन-अवनति का द्वारस्वरूप है। ब्रह्मदृष्टि को छोड़कर अन्य किसी भाव से
किसी वस्तु को मत देखो। यदि ऐसा करोगे तो अन्याय और अशुभ ही देखने में
आएगा; क्योंकि हम जिस वस्तु को देखने जाते हैं, उसके ऊपर एक भ्रमात्मक
आवरण डाल देते हैं, और इसी कारण अशुभ देखते हैं। इस सब भ्रमों से मुक्त हो
जाओ और परमानंद का उपभोग करो। सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त होना ही
मुक्ति है।
एक दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य ब्रह्म को जानता है; क्योंकि वह जानता है,
'मैं हूँ'; किंतु मनुष्य अपना यथार्थ स्वरूप नहीं जानता। हम सभी जानते हैं
कि हम हैं, किंतु कैसे हैं, यह नहीं जानते। सभी निम्नतर व्याख्याएँ आंशिक
सत्य मात्र हैं। किंतु देव का सार-तत्व यह है कि हममें से प्रत्येक के
भीतर जो आत्मा रहती है, वह ब्रह्मस्वरूप है। जगत्प्रपंच के भीतर जो कुछ
है-सब जन्म, वृद्धि, मृत्यु, उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में अंतर्भूत है।
हमारी अपरोक्षानुभूति वेदों से भी अतीत है; क्योंकि वेदों का भी प्रामाण्य
इस अपरोक्षानुभूति के ऊपर ही निर्भर है। सर्वोच्च वेदांत है-प्रपंचातीत
सत्ता का तत्व-ज्ञान।
सृष्टि का आदि है, यह कहने से सभी प्रकार के दार्शनिक विचारों के मूल में
कुठाराघात होता है।
माया जगत्प्रपंच की अव्यक्त और व्यक्ति शक्ति है। जब तक वह मातृस्वरूपिणी
हमें नहीं छोड़ देती, तब तक हम मुक्त नहीं हो सकते।
जगत हमारे उपभोग के लिए पड़ा हुआ है; किंतु कभी भी किसी वस्तु का अभाव-बोध
मत करो। अभाव-बोध करना दुर्बलता है, अभाव-बोध ही हमें भिक्षुक बना डालता
है। किंतु हम हैं राजपुत्र, भिक्षुक नहीं।
७ जुलाई, रविवार (प्रातःकाल)
अनंत अभिव्यक्ति स्वयं को खंडों में विभाजित करने पर भी अनंत ही रहती है
और उसका प्रत्येक भाग भी अनंत रहता है।
परिणामी और अपरिणामी, व्यक्त और अव्यक्त-दोनों ही अवस्थाओं में ब्रह्म एक
है। ज्ञाता और ज्ञेय को एक ही समझो। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय-यही त्रिपुटी
जगत्प्रपंच रूप में प्रकाशित हुई है। योगी ध्यान में जो ईश्वर का दर्शन
करते हैं, वे अपनी आत्मा की शक्ति से ही कर पाते हैं।
हम जिसे प्रकृति ये अदृष्ट कहते हैं, वह केवल ईश्वरेच्छा मात्र है। जब तक
भोग-सुख खोजा जाता है, तब तक बंधन रहता है। जब तक हम अपूर्ण हैं, तब तक
भोग संभव है; क्योंकि भोग का अर्थ है-अपूर्ण वासना की परिपूर्ति। जीवात्मा
प्राकृति का उपभोग करता है। प्रकृति, जीवात्मा और ईश्वर-इनके अंतर्निहित
सत्य है ब्रह्म। किंतु जब तक हम उसे प्रकाशित नहीं करते, तब तक हम उसे
नहीं देख पाते। जैसे घर्षण के द्वारा अग्नि उत्पन्न की जा सकती है, उसी
प्रकार ब्रह्म को भी मंथन द्वारा प्रकाशित किया जा सकता है। देह को नीचे
की अरणि और प्रणव या ओंकार को ऊपर की अरणि समझो और ध्यान को मंथन स्वरूप
समझो। इस प्रकार मंथन करने पर ब्रह्मज्ञान रूपी अग्नि आत्मा में प्रकाशित
हो जाएगी। तपस्या द्वारा यही करने की चेष्टा करो। देह को सीधी रखकर
इंद्रियों की आहुति मन में दो। इंद्रियों का केंद्र भीतर है, बाहर तो उनके
यंत्र हैं। इसलिए बलपूर्वक मन में उसका प्रवेश करा दो। उसके बाद धारणा की
सहायता से मन को ध्यान में स्थिर करो। जैसे दूध के भीतर सर्वत्र मक्खन
रहता है, ब्रह्म भी उसी तरह जगत में सर्वत्र विद्यमान है। किंतु मंथन
द्वारा वह एक विशिष्ट स्थान में प्रकाशित होता है। जैसे मथने पर दूध का
मक्खन ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार ध्यान के द्वारा आत्मा में ब्रह्म का
साक्षात्कार हो जाता है।
सब हिंदू दर्शन कहते हैं कि हम उनमें पांच इंद्रियों के अतिरिक्त एक छठी
अतिचेतन इंद्रिय भी है। उसके द्वारा ही अतींद्रिय ज्ञान लाभ होता है।
* * *
जगत गतिस्वरूप है और अनंत: घर्षण द्वारा (friction) प्रत्येक वस्तु का अंत
कर देगा; उसके बाद कुछ काल तक स्थिति की अवस्था रहने पर फिर उसी तरह
सृष्टि का आरंभ होगा।
जब तक यह 'त्वगंबर' मनुष्य को वेष्टित करके रखता है, अर्थात जब तक वह अपने
को देह के साथ अभिन्न मानता है, तब तक वह 'ईश्वर' को देख नहीं पाता।
रविवार, अपराह्न
भारत में छ: दर्शनों को सनातनी दर्शन कहा जाता है, क्योंकि वे वेद में
विश्वास करते हैं।
व्यास का दर्शन मुख्यतया उपनिषदों पर प्रतिष्ठित है। उन्होंने उसे
सूत्रशैली में, कर्ता-क्रिया आदि रहित बीजगणित के प्रतीकों में लिखा है।
इस कारण व्यास-सूत्र का अर्थ समझने में बहुत गड़बड़ी हुई। इस एक सूत्र से
ही द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद एवं अद्वैतवाद या 'वेदान्त केसरी' की
उत्पत्ति हुई। और इन सभी विभिन्न मतों के बड़े-बड़े भाषाकारों ने सूत्रों
के साथ अपने अपने दर्शन का मेल बैठाने के लिए समय समय पर जान-बूझकर मिथ्या
भाषण भी किया है।
उपनिषद में किसी व्यक्ति विशेष के कार्यकलाप का इतिहास बहुत अल्प ही पाया
जाता है, किंतु प्रायः अन्य सभी शास्त्र प्रधानत: किसी व्यक्ति विशेष के
ही इतिहास हैं। वेद में प्रायः केवल दार्शनिक तत्वों की ही आलोचना है।
दर्शनरहित धर्म अंधविश्वास में और धर्मरहित दर्शन सुखी नास्तिकता में
परिणत हो जाता है।
विशिष्टाद्वैतवाद का अर्थ है-अद्वैतवेद, किंतु विशेषयुक्त। उसके
व्याख्याता हैं रामानुज। वे कहते हैं, 'वेदरूपी क्षीरसमुद्र का मंथन करके
व्यास ने मानव जाति के कल्याण के लिए इस वेदांत दर्शन रूपी मक्खन को
निकाला है।' वे यह भी कहते हैं, 'समस्त शुभ गुण और लक्षण विश्व के प्रति
ब्रह्म के हैं। वह पुरुषोत्तम हैं।' मध्य पूर्णतया द्वैतवादी हैं। वे कहते
हैं, 'स्त्रियों को भी वेदपाठ करने का अधिकार है।' वे प्रधानत: पुराणों से
ही उद्धरण देते हैं। वे कहते हैं, ब्रह्म का अर्थ विष्णु है-शिव किंचित्
भी नहीं, क्योंकि विष्णु को छोड़कर अन्य कोई भी मुक्तिदाता नहीं है।
८ जुलाई
, सोमवार
मध्वाचार्य की व्याख्या में तर्क का स्थान नहीं है-केवल वेदों के
श्रुति-ज्ञान पर ही सब का सब आधारित है।
रामानुज कहते हैं, वेद ही सर्वापेक्षा पवित्र पठनीय ग्रंथ है। त्रैवर्णिक
अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन उच्च वर्णों की संतानों को
यज्ञोपवीत सस्कार के बाद अष्टम, दशम या एकादश वर्ष की अवस्था में
वेदाध्ययन आरंभ करना उचित् है। वेदाध्ययन का अर्थ है, गुरुगृह में जाकर
नियमित स्वर और उच्चारण के सहित वेदों की शब्दराशि को आद्यांत कंठस्थ
करना।
जब का अर्थ है पवित्र नाम की बारंबार आवृत्ति। यह जप करते करते साधन
क्रमशः उस अनंत तक जाता है। यागयज्ञादि तो मानो कमजोर नौका के समान है।
ब्रह्मज्ञान के लिए इन यागयज्ञादि के अतिरिक्त और भी कुछ चाहिए; और ब्रह्म
ज्ञान ही मुक्ति है। मुक्ति और कुछ नहीं-अज्ञान का विनाश ही मुक्ति है;
ब्रह्मज्ञान से ही इस अज्ञान का विनाश होता है। वेदांत का तात्पर्य जानने
के लिए इन सब यागयज्ञादि करने की कोई आवश्यकता नहीं। केवल ओंकार जप करना
ही पर्याप्त है।
भेद दर्शन ही समस्त दु:ख का कारण है और अज्ञान ही इस भेद दर्शन का कारण
है। इसी हेतु यागयज्ञादि अनुष्ठान अनावश्यक हैं, क्योंकि वह भेद ज्ञान को
और भी बढ़ा देते हैं। इन सब यागयज्ञादि का उद्देश्य कुछ लाभ करना-अथवा कुछ
से छुटकारा पाना है। ब्रह्म निष्क्रिय है, आत्मा ही ब्रह्म है, एवं हम ही
वह आत्मस्वरूप हैं-इस प्रकार के ज्ञान के द्वारा ही सारी भ्रांतियां दूर
हो जाती हैं। यह तत्व पहले सुनना होगा, बाद में मनन अर्थात विचार द्वारा
धारण करनी होगी, अंत में उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि करनी होगी। मनन है, विचार
के द्वारा युक्ति-तर्क के द्वारा ज्ञान अपने भीतर प्रतिष्ठित करना !
प्रत्यक्षानुभूति या साक्षात्कार का अर्थ है-सर्वदा चिंतन और ध्यान के
द्वारा उसे अपने जीवन का अंग बना डालना। यह अविराम चिंता या ध्यान मानो एक
मात्र से दूसरे पात्र में प्रक्षिप्त अविच्छिन्न तैलधारा के समान है।
ध्यान दिन-रात मन को इस भाव के बीच में रख देता है और उसके द्वारा हमें
मुक्ति-लाभ करने में सहायता पहुंचाता है। सर्वदा सोऽहं, सोऽहं, यह चिंता
करो-इस प्रकार की अविच्छिन्न चिंता प्रायः मुक्ति के समान है। दिन-रात
कहो-सोऽहं, सोऽहं। इस प्रकार सर्वदा चिंतन करने से अपरोक्षानुभूति प्राप्त
होगी। भगवान को इस प्रकार तन्मय भाव से सदा-सर्वदा स्मरण करना ही भक्ति
है।
सभी प्रकार के शुभ कर्म भक्ति लाभ कराने में गौण भाव से सहायता करते हैं।
शुभ चिंतन तथा शुभ कार्य अशुभ चिंता और अशुभ का कर्म की अपेक्षा कम भेद
ज्ञान उत्पन्न करते हैं, इसलिए गौण भाव से ये मुक्ति की ओर ले जाते हैं।
कर्म करो, किंतु कर्मफल भगवान को समर्पित कर दो। केवल ज्ञान के द्वारा ही
पूर्णता या सिद्धावस्था प्राप्त होती है। जो भक्तिपूर्वक सत्यस्वरूप भगवान
की साधना करते हैं, उसके निकट वही सत्यस्वरूप भगवान प्रकाशित होते हैं।
* * *
हम मानो प्रदीपस्वरूप हैं और इस प्रदीप के ज्वलन को ही हम जीवन कहते हैं।
ऑक्सीजन समाप्त होने पर दीपक भी बूझ जाएगा। हम केवल प्रदीप को साफ रख सकते
हैं। जीवन केवल कुछ वस्तुओं का मिश्रणस्वरूप है, यह एक कार्यस्वरूप है,
इसलिए यह अवश्यमेव अपने उपादान कारणों में विलीन होगा।
9 जुलाई
, मंगलवार
आत्मा की दृष्टि से मनुष्य वास्तव में मुक्त ही है, किंतु मनुष्य की अपनी
दृष्टि से वह बद्ध है और प्रत्येक भौतिक अवस्था द्वारा उसका परिवर्तन होता
रहता है। मनुष्य की दृष्टि से उसे एक यंत्र विशेष कहा जा सकता है, केवल
उसके भीतर मुक्ति या स्वाधीनता का भाव विद्यमान है, बस इतना ही। किंतु जगत
के सभी शरीरों में यह मनुष्य शरीर ही सर्वश्रेष्ठ शरीर है तथा मनुष्य मन
ही सर्वश्रेष्ठ मन है। जब मनुष्य आत्मोपलब्धि करता है, तब आवश्यकता के
अनुसार वह कोई भी शरीर धारण कर सकता है; तब वह कभी नियमों के परे हो जाता
है। यह प्रथमत: एक उक्ति मात्र है; इसे प्रमाणित करके दिखाना होगा।
प्रत्येक व्यक्ति को इसे स्वयं प्रमाणित करके देखना होगा; हम अपने मन का
समाधान कर सकते हैं, किंतु दूसरों के मन का नहीं। धर्मविज्ञानों में
एकमात्र राजयोग को प्रमाणित किया जा सकता है--और मैं केवल उस बात की
शिक्षा देता हूँ, जिसको मैंने स्वयं अनुभव करके सत्य पाया है, विचार शक्ति
की चरम अवस्था ही अपरोक्ष ज्ञान है, किंतु वह कभी बुद्धिविरोधी नहीं हो
सकता।
कर्म के द्वारा चित्त शुद्ध होता है, इसलिए कर्म विद्या या ज्ञान का सहायक
है। बौद्धों के मत में मानव और पशुओं का हित ही एकमात्र कर्म है; ब्राह्मण
या हिंदुओं के मत में उपासना तथा सभी प्रकार के यज्ञयागादि अनुष्ठान भी
ठीक वैसा ही कर्म है, एवं चित्र-शुद्धि के सहायक स्वरुप हैं। शंकर के
मतानुसार 'सभी प्रकार के शुभाशुभ कर्म ज्ञान के प्रतिबंधक है।' जो सभी
कार्य अज्ञान की ओर ले जाते हैं, वे पाप हैं-साक्षात्संबंध से नहीं, किंतु
कारणस्वरूप से-क्योंकि उनके द्वारा रज और तम बढ़ जाते हैं। केवल सत्य के
द्वारा ही ज्ञान-लाभ होता है। पुण्य या शुभ कर्म के द्वारा ज्ञान का आवरण
दूर होता है और केवल ज्ञान द्वारा ही ईश्वर-दर्शन होता है।
ज्ञान कभी उत्पन्न नहीं किया जा सकता, उसका केवल आविष्कार किया जा सकता
है; और जो कोई व्यक्ति कोई बड़ा अविष्कार करते हैं, उन्हीं को प्रेरित
(inspired) पुरुष कहा जा सकता है। यदि वे केवल आध्यात्मिक सत्य का
आविष्कार करते हैं, तो हम उन्हें पैगंबर या ऋषि कहते हैं; और जब वह
आविष्कार जड़ जगत संबंधी कोई सत्य होता है, तो उन्हें हम वैज्ञानिक कहते
हैं। यद्यपि सत्यों का मूल एक ब्रह्म ही है, तथापि हम प्रथमोक्त श्रेणी के
उच्चतर आसन देते हैं।
शंकर कहते हैं, ब्रह्म सभी प्रकार के ज्ञान का सार है, उसकी भित्तिस्वरूप
है, तथा ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय रूपी जो अभिव्यक्ति हैं, वे ब्रह्म में
काल्पनिक भेद मात्र है। रामानुज ब्रह्म ज्ञान का अस्तित्व स्वीकार करते
हैं। विशुद्ध अद्वैतवादी ब्रह्म में कोई भी गुण स्वीकार नहीं करते-यहाँ तक
की सत्ता तक को स्वीकार नहीं करते, सत्ता शब्द को हम चाहे किसी भी अर्थ
में क्यों न लें। रामानुज कहते हैं, ब्रह्म सचेतन ज्ञान का सारस्वरूप है।
अव्यक्त या सा साम्यभावापन्न ज्ञान जब व्यक्त वैषम्यावस्था को प्राप्त
होता है तभी जगत्प्रपंच की उत्पत्ति होती है।
* * *
बौद्ध धर्म-जो कि जगत के उच्चतम दार्शनिक धर्मों में से एक है-भारत की
सर्वसाधारण जनता में फैल गया था। जरा विचार कर देखो, ढाई हजार वर्ष पहले
आर्यों की सभ्यता और शिक्षा कैसी अद्भुत रही होगी, जिससे वे लोग इस प्रकार
के उच्च विचारों को समझ सकें ! भारत के महान दार्शनिकों में एकमात्र
बुद्धदेव ने ही जातिभेद नहीं माना और आज भारत में एक भी बुद्ध देखने में
नहीं आता। अन्यान्य दार्शनिक अल्पाधिक मात्रा में सामाजिक कुसंस्कारों को
प्रश्रय देते थे; उनकी उड़ान भले ही कितनी ऊँची क्यों ना रही हो, उसके
भीतर गिद्ध का थोड़ा अंश विद्यमान ही रहा। मेरे गुरुदेव जैसा कहते थे,
'गिद्ध इतना ऊंचा उड़ते हैं कि वे दिखाई नहीं पड़ते, किंतु दृष्टि उनकी
रहती है जमीन पर पड़े हुए सड़े मांस के टुकड़ों पर ही।'
* * *
प्राचीन हिंदू लोग अद्भुत पंडित थे-मानो जीवित विश्वकोष ! वे कहते
थे-'विद्या यदि किताबों में ही रहे और धन यदि दूसरों के हाथ में रहे, तो
कार्यकाल उपस्थित होने पर वह विद्या भी विद्या नहीं है और वह धन भी धन
नहीं है।'
शंकर को अनेक लोग शिव का अवतार मानते हैं।
१० जुलाई
, बुधवार
भारत में साढ़े छ: करोड़ मुसलमान हैं-उसमें से कुछ सूफी हैं। ये सूफी लोग
जीवात्मा को परमात्मा से अभिन्न मानते हैं। और उन्हीं के द्वारा यह भाव
यूरोप में आया है। वह कहते हैं-'अनलहक' अर्थात मैं वही सत्यस्वरूप हूँ।
फिर भी उनके भीतर बहिरंग या प्रकाश्य (exoteric) एवं अंतरंग या गुह्म
(esoteric) मत हैं, यद्यपि मुहम्मद स्वयं इसमें विश्वास नहीं करते थे।
'हाशाशिन' शब्द से अंग्रेजी Assassin (हत्याकारी) शब्द आया है .