कृष्ण
(कैलिफोर्निया में दिया हुआ भाषण, अप्रैल १, १९०० ई.)
कृष्ण का आविर्भाव लगभग ठीक उन्हीं परिस्थितियों से परिवेष्टित है, जिनसे
भारतवर्ष में बौद्ध धर्म का जन्म हुआ। केवल यही नहीं, उस समय की सी घटनाएँ हम
अपने समय में भी घटित होते देख रहे हैं।
कोई एक आदर्श होता है। साथ ही अनिवार्य रूप से मानव जाति का एक ऐसा विशाल
बृहत्तर अंश भी सदैव होता है, जो उस आदर्श के समीप, बौद्धिक स्तर पर भी नहीं
पहुँच पाता।... सबल व्यक्ति ही उसे संपन्न कर पाते हैं, किंतु उन्हें बहुधा
दुर्बलों के प्रति सहानुभूति नहीं होती। सबलों के निकट दुर्बल भिखारी मात्र
हैं। सबल आगे बढ़ते चले जाते हैं।... यह तो खैर हमें स्पष्ट ही है कि
स्वीकृत होने योग्य उच्चतम स्थिति दुर्बलों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और
सहायक होने की है। किंतु अनेक बार हमारे सहानुभूतिपूर्ण होने के मार्ग को
दार्शनिक अवरूद्ध कर देता है। यदि हम इस सिद्धांत का अनुसरण करनेवाले हों कि
इस संपूर्ण अनंत जीवन को अभी कुछ वर्षों के इस प्रस्तुत अस्तित्व द्वारा ही
निर्धारित कर डालना है... तब तो हमारे लिए बहुत ही निराशामय है... और जो
निर्बल है, उनकी ओर मुड़कर पीछे देखने का समय हमारे पास नहीं है। किंतु यदि यह
स्थिति न हो-यदि जगत उन अनेक पाठशालाओं में से केवल एक हो, जिनके मध्य हमें
गुजरना है, यदि चिरंतन जीवन, शाश्वत नियम द्वारा ही ढलता, गढ़ता तथा
निर्दिष्ट होता हो, और शाश्वत नियम तथा शाश्वत अवसर हर एक की प्रतीक्षा कर
रहें हो-तो हमें जल्दी में होने की आवश्यकता नहीं। तब हमारे पास सहानुभूति
करने, आस-पास देखने, दुर्बलों को सहारे का हाथ देने और उन्हें ऊपर उठाने का
समय है। बौद्ध धर्म में हमें संस्कृत के दो शब्द मिलते हैं: धर्म और संघ।
किंतु एक परम विचित्र तथ्य यह है कि कृष्ण के शिष्यों और अनुयायियों के पास
अपने धर्म का कोई नाम नहीं है; विदेशी लोग यद्यपि उसे हिंदू धर्म या
ब्राह्मणवाद कहते हैं। धर्म एक है, और संप्रदाय (संघ) अनेक। जिस क्षण उसे तुम
एक नाम दे देते हो, व्यष्टीकृत कर शेष से पृथक कर देते हो, यह एक संप्रदाय
बन जाता है, धर्म नहीं रह जाता। संप्रदाय अपने निजी सत्य का उद्घोष करता है
और यह घोषणा करता है कि अन्यत्र कहीं भी सत्य नहीं है। धर्म यह विश्वास
करता है कि संसार में धर्म केवल एक ही रहा है और अब भी केवल एक ही है। दो
धर्मों का अस्तित्व कभी भी नहीं रहा है। वही एक धर्म विभिन्न स्थानों में
विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत करता है। (उसका) कार्य है, मानवता के लक्ष्य और
प्रयोजन के सम्यक बोध पर विचार करना।
कृष्ण का यही महान कार्य था : हमारी आँखों को स्वच्छ कराना और मानवता की
ऊर्ध्वगामी तथा अग्रगामी प्रगति को विशालतर दृष्टि से दिखाना। उनका ही पहला
हृदय था, जिसमें सबमें विद्यमान सत्य को देख सकने की विशालता थी, और उनकी ही
प्रथम वाणी थी, जिससे प्रत्येक और समस्त के निमित्त सुंदर शब्द उच्चरित
हुए।
यह कृष्ण बुद्ध के लगभग एक हजार वर्ष पूर्व हुए। ...बहुत से लोग इस बात में
विश्वास नहीं करते कि उनका कभी अस्तित्व भी था। कुछ लोगों का विश्वास है कि
(कृष्ण की उपासना) प्राचीन सूर्योपासना (से विकसित हुई)। ऐसा प्रतीत होता है
कि कृष्ण कई हुए हैं : एक का उल्लेख उपनिषदों में है, दूसरे कोई राजा थे,
अन्य एक सेनानी। इन सबको एक कृष्ण में पूंजीभूत कर दिया गया है। किंतु इससे
कुछ बचता-बिगड़ता नहीं। तथ्य यह है कि कोई ऐसा व्यक्ति आता है, जो
आध्यात्मिकता में अद्वितीय है। तब उसके चारों और सभी तरह की दंतकथाओं की
सृष्टि हो जाती है। किंतु ऐसे जिस एक व्यक्ति को लेकर जिन बाइबिलों और कथाओं
की रचना होती है, उसके चरित्र के अनुसार उनको पुन: ढालना होता है। बाइबिल के
नव व्यवस्थान में पायी जानेवाली समस्त कथाओं को ईसा के स्वीकृत जीवन और
चरित्र के अनुरूप ढालना पड़ा है। बुद्ध से संबंधित समस्त भारतीय कथाओं में भी
उनके समग्र जीवन का मूल स्वर-दूसरों के लिए आत्म-त्याग-सुरक्षित रखा गया
है।…
कृष्ण में हमें उनके संदेश में...दो विचार सर्वोपरि मिलते हैं : पहला है
विभिन्न विचारों का सामंजस्य; और दूसरा है अनासक्ति। मनुष्य पूर्णत्व को,
सर्वोच्च लक्ष्य को, राज सिंहासन पर बैठे रहकर, सेनाओं का संचालन करते रहकर,
राष्ट्रों के निमित्त विराट् योजनाओं को कार्यान्वित करते रहकर, प्राप्त कर
सकता है। वस्तुत: कृष्ण का महान उपदेश युद्धक्षेत्र में ही प्रदान किया गया
है।
कृष्ण प्राचीन पुरोहितों की सारी, छलना, विडंबना और उनके विधि-विधानों की
व्यर्थता के मर्म को अच्छी तरह समझ गए थे; किंतु फिर भी उन्हें इन बातों
में कुछ अच्छाई भी मिली।
यदि तुम एक सबल मनुष्य हो, तो बहुत अच्छा है। किंतु तब उन लोगों की
भर्त्सना न करो, जो तुम्हारे लिए अभीष्ट मात्रा में बलवान नहीं हैं। ... हर
कोई कहता है, 'बुरा हो तुम्हारा !' लेकिन यह कहनेवाला कौन है, 'बुरा हो मेरा,
जो मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता?' लोग अपनी क्षमता, सामर्थ्य और ज्ञान
के अनुरूप जो कुछ उनसे संभव है, ठीक कर रहे हैं। बुरा हो मेरा, जो मैं उन्हें
उठाकर वहाँ नहीं ला सकता, जहाँ मैं हूँ !
अत: कृष्ण का कहना है कि अनुष्ठान, देवताओं की पूजा, और दंतकथाएँ, सब ठीक
हैं। ... क्यों ? क्योंकि वे सब उसी लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। अनुष्ठान,
ग्रंथ और आडंबर-ये सब श्रृंखला की कड़ियाँ हैं। बस, पकड़ लो ! वही एक चीज है।
यदि तुम निश्छल हो और तुमने किसी एक कड़ी को सचमुच पकड़ लिया है, तो उसे
छूटने न दो, फिर शेष का आ जाना ध्रुव है। (किंतु लोग) पकड़ते ही नहीं। वे इसी
का निर्णय करने और इसी पर झगड़ने में समय बिताते रहते हैं कि पकड़ना क्या
चाहिए और आखिर किसी भी चीज़ को पकड़ नहीं पाते।... सत्य का पीछा हम सदैव करते
रहते हैं, लेकिन उसे पाना कभी नहीं चाहते। ... हम केवल इधर-उधर भटकने और पूछने
का सुख भर चाहते हैं। हमारे पास शक्ति प्रचुर है, किंतु हम उसका व्यय इस
प्रकार करते हैं। इसी कारण कृष्ण ने कहा है : एक ही केंद्र से निकल कर बाहर
फैली इन श्रृंखलाओं में से किसी एक को पकड़ लो। कोई एक पग दूसरे की अपेक्षा
बड़ा नहीं है। ... धर्म के किसी भी पक्ष की, जहाँ तक वह निश्छल है, भर्त्सना
न करो। इन श्रृंखलाओं में किसी एक को पकड़े रहो और वह तुम्हें केंद्र में
खींच ले जाएगी। शेष सब स्वयं तुम्हारा हृदय ही तुम्हें सिखा देगा। भीतर
बैठा हुआ गुरु सभी मत-मतांतरों और दर्शनों की शिक्षा दे देगा....
कृष्ण भी ईसा की भाँति अपने को ईश्वर मान कर बात करते हैं। वे देवता को अपने
भीतर देखते हैं। और वे कहते हैं, 'मेरे मार्ग से भटक कर कोई व्यक्ति नहीं जा
सकता। सबको मेरे पास आना ही है। मुझको कोई जिस रूप में भजता है, उसको मैं उसी
रूप के प्रति श्रद्धा प्रदान करता हूँ, और उसीके द्वारा मैं उसको मिलता हूँ…'
[1]
; उनका हृदय संपूर्णत: जनसाधारण के लिए है।
स्वतंत्र, कृष्ण झुकने से अस्वीकार करते हैं। उनकी निर्भीकता हमें डरा देती
है। हम हर वस्तु पर निर्भर हैं- कुछ अच्छे शब्दों पर, परिस्थितियों पर।
किंतु जब आत्मा किसी भी वस्तु, जीवन तक पर, निर्भर न रहना चाहे, तो वह दर्शन
की पराकाष्ठा है, मनुष्यत्व की पराकाष्ठा है। उपासना भी उसी लक्ष्य तक ले
जाती है। कृष्ण उपासना पर बड़ा बल देते हैं। ईश्वर की उपासना करो !
इस संसार में हम विविध प्रकार की उपासना देखते हैं। रोगी मनुष्य ईश्वर के
प्रति बड़ा पूजा भाव रखता है। अपनी संपदा खो देने वाला व्यक्ति धन पाने के
निमित्त बड़ी पूजा करता है। लेकिन सर्वोच्च उपासना उस व्यक्ति की है, जो
ईश्वर को ईश्वर के निमित्त ही प्रेम करता है। (यह प्रश्न किया जा सकता है कि)
यदि ईश्वर है तो संसार में इतना दुःख क्यों है? उपासक उत्तर देता है :
"...दु:ख इस जगत में अवश्य हैं, (किंतु) इस कारण मैं ईश्वर को प्रेम करना
नहीं छोड़ सकता। मैं उसकी उपासना इसलिए नहीं करता कि वह मेरे (दु:ख) को हर ले।
मैं उसको इसलिए प्रेम करता हूँ कि वह साक्षात् प्रेम है।" अन्य (प्रकार की
उपासना) निम्नस्तरीय है। किंतु कृष्ण किसी की भी निंदा नहीं करते। निश्चल
खड़े रहने की अपेक्षा कुछ करना अधिक अच्छा है। जो मनुष्य, ईश्वर की उपासना
आरंभ कर देता है, उसका विकास क्रमश: होता रहेगा और वह ईश्वर को केवल प्रेम के
ही निमित्त प्रेम करने लगेगा।...
इस जीवन को जीते हुए पवित्रता कैसे प्राप्त की जाए ? क्या हमें वन की गुफाओं
में जाना चाहिए ? उससे क्या लाभ हागा? यदि मन नियंत्रण के बाहर हो तो गुफा
में रहने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि वही मन सारा उत्पात वहाँ भी उपस्थित
करेगा। गुफा में हमें बीस शैतान मिलेंगे, क्योंकि सारे शैतान मन में विद्यमान
हैं। यदि मन पर नियंत्रण हो, तो हम जहाँ भी हों, वहीं गुफा प्राप्त कर सकते
हैं।
यह हमारा मनोभाव ही है, जो हमारे जगत-वह हमारे लिए जो भी है-की रचना करता है।
हमारे विचार वस्तुओं को सुंदर बनाते हैं, हमारे विचार ही वस्तुओं को कुरूप
बनाते हैं। सारा जगत हमारे अपने मनों में है। वस्तुओं को सम्यक् दृष्टि से
देखना सीखो। पहले, इस संसार में विश्वास करो-कि हर वस्तु के पीछे अर्थ है।
जगत की प्रत्येक वस्तु शुभ, पवित्र और सुंदर है। यदि कुछ तुम्हें अशुभ लगे,
तो सोचो कि तुम उसे सम्यक् दृष्टि से समझ नहीं पा रहे हो। बोझ अपने ऊपर डाल
दो।... जब जब हम यह कहने को लालयित हों कि संसार की अधोगति हो रही है, तो हमें
स्वयं अपना विश्लेषण करना चाहिए, और तब हमें अनुभव होगा कि वस्तुओं को उनके
वास्तविक स्वरूप में देखने की शक्ति ही हमने खो दी है।
दिन और रात कर्म करते रहो। 'देख, मैं तो विश्व का प्रभु हूँ। मेरा कोई भी
कर्तव्य नहीं है। हर कर्तव्य बंधन है। किंतु मैं कर्म के निमित्त कर्म करता
रहता हूँ। यदि मैं, एक क्षण को भी कर्म बंद कर दूँ, (तो सब अस्त-व्यस्त हो
जाए)।'
[2]
कर्तव्य के विचार से रहित होकर तू भी इसी तरह कर्म कर।...
यह जगत एक खेल है। तुम उस (ईश्वर) के साथ के खिलाड़ी हो। चलते रहो, और बिना
किसी दु:ख, बिना किसी क्लेश के कर्म करते रहो ! उसके खेल को दरिद्र बस्तियों
में देखो, विशाल कक्षों में देखो ! जनसाधारण को ऊपर उठाने के लिए कार्य करो!
इसीलिए नहीं कि वे अधम या पतित हैं; कृष्ण ऐसा नहीं कहते।
क्या तुम जानते हो कि अच्छा काम इतना कम क्यों हो पाता है ? श्रीमती जी
दरिद्र बस्तियों में जाती हैं। ... कुछ स्वर्ण मुद्राएँ देती हैं और कहती
हैं, "मेरे दरिद्रो, यह लो और सुखी हो !" …अथवा गली में चली जा रही उन
संभ्रांत महिला को एक दरिद्र व्यक्ति दिखलायी पड़ता है और वह उसके पास पाँच
पैसे फेंक देती हैं। इसमें निहित अधर्म की बात पर विचार करो ! धन्य हैं हम,
कि प्रभु ने हमें तुम्हारे निजी व्यवस्थान में अपना उपदेश दे रक्खा है।
ईसा ने कहा है, 'तुमने जितना भी मेरे बंधुओं में से दीनतम के प्रति किया है,
वह तुमने मेरे लिए किया है।' यह सोचना पाखंड है कि तुम किसीकी सहायता कर सकते
हो। पहले इस सहायता करने के विचार को जड़ से निकाल दो और तब उपासना करने जाओ।
ईश्वर के बच्चे तुम्हारे गुरु के बच्चे हैं (और बच्चे पिता के ही विविध
रूप हैं)। तुम उसके सेवक हो। जीवंत ईश्वर की सेवा करो ! तुम्हारे पस ईश्वर
अंधों, पंगुओं, दरिद्रों, निर्बलों और नारकीयों के रूप में आता है। तुम्हारे
पास पूजन करने का कितना महिमान्वित अवसर है ! लेकिन जिस क्षण तुम यह सोचते
लगते हो कि तुम 'सहायता' कर रहे हो, तुम सारी चीज़ को बिगाड़ देते हो और
स्वयं को पतित कर लेते हो। यह जानते हुए कर्म करो। तुम पूछोगे, "इससे क्या
होगा ?" तुमको वह हृदय टूटने की, उस भीषण क्लेश की प्राप्ति नहीं होगी। ...तब
कर्म दासता नहीं रह जाता। वह एक खेल, स्वयं में ही आनंद बन जाता है। कर्म करो
! अनासक्त बनो ! यही समग्र रहस्य है। यदि आसक्त हो जाते हो, तो दु:खी होते
हो। ...
हम जीवन में जो भी करते हैं, उससे अपने को तदाकार कर देते हैं। एक व्यक्ति
मुझसे कड़े शब्द कहता है। मैं क्रोध आता अनुभव करता हूँ। कुछ क्षणों में
क्रोध और मैं एक हो जाते हैं, और तब क्लेश आता है। अपने को केवल ईश्वर से
संलग्न करो और किसी वस्तु से नहीं, क्योंकि और सब वस्तुएँ असत् हैं। असत्
में आसक्ति क्लेश उत्पन्न करेगी। केवल एक ही सत्ता है जो सत्य है, केवल एक
ही जीवन है जिसमें न विषय है, न (विषयी)।...
किंतु अनासक्त प्रेम तुमको हानि नहीं पहुँचायेगा। कुछ भी करो- विवाह करो,
बच्चे होने दो।... जो अच्छा लगे, वह करो- कुछ भी तुमको हानि नहीं करेगा।
'मेरा' का विचार लेकर कुछ न करो। कर्तव्य कर्तव्य के लिए; कर्म कर्म के लिए।
वह तुम्हारे लिए क्या है ? तुम उससे अलग खड़े हो।
जब हम उस अनासक्ति तक पहुँचते हैं, तभी जगत के आश्चर्यजनक रहस्य को समझ सकते
हैं; कैसे वह (जगत) तीव्र क्रियाशीलता और स्पंदन है, तथा साथ ही गहन शांति और
निश्चलता भी है; किस प्रकार वह प्रतिक्षण कार्य और प्रतिक्षण विश्राम भी है।
वही इस जगत का रहस्य है--एक ही में वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक, एक ही में ससीम
और असीम। तभी हम उस रहस्य को प्राप्त कर सकेंगे। 'वह जो प्रखर कर्म के मध्य
महत्तम अकर्म, और महत्तम अकर्म में प्रखर कर्म देखता है, योगी का पद लाभ कर
चुका है।'
[3]
वही सच्चा कर्मी है, अन्य कोई नहीं। हम अल्प सा कर्म करते हैं और अपने को
ध्वस्त कर डालते हैं। क्यों ? हम उस कर्म के प्रति आसक्त हो जाते हैं। यदि
हम उससे आसक्त न हो जाएं, तो उसके साथ साथ हमें अनंत विश्राम भी प्राप्त
होगा।...
अनासक्ति के इस रूप तक पहुँच पाना है कितना कठिन ! अतएव कृष्ण हमें निम्नतर
मार्ग और पद्धतियाँ दिखलाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के लिए सबसे सरल मार्ग
है, (अपना) कार्य करना और फलों को ग्रहण न करना। यह हमारी तृष्णा है, जो हमें
बाँधती है। यदि हम कर्मों के फलों को ग्रहण करते हैं, चाहे वे अच्छे हों या
बुरें, तो हमको उन्हें सहन करना ही पड़ेगा। किंतु यदि हम कर्म स्वयं अपने
लिए न करके पूर्णरूपेण प्रभु की महिमा के निमित्त करें, तो फल अपनी चिंता
स्वयं ही कर लेंगे। 'कर्म करने का ही अधिकार तुम्हें है, उनके फलों का
नहीं।'
[4]
सैनिक फलों के लिए कर्म नहीं करता। वह अपना कर्तव्य करता है। यदि पराजय होती
है तो वह सेनानी की है, सैनिक की नहीं। हम अपना कर्म प्रेम के निमित्त करते
हैं-सेनानी के प्रति प्रेम, प्रभु के प्रति प्रेम के निमित्त। ...
यदि तुम सबल हो, तो वेदांत दर्शन को ग्रहण कर स्वाधीन हो जाओ। यदि तुम वह
नहीं कर सकते, तो ईश्वर की उपासना करो; यदि वह नहीं, तो किसी प्रतिमा की पूजा
करो। यदि वह भी करने की शक्ति तुममें न हो, तो लाभ के विचार से रहित होकर कुछ
शुभ कर्म करो। तुम्हारे पास जो कुछ है, वह सब प्रभु की सेवा में समर्पित कर
दो। लड़ते रहो। 'पत्र, पुष्प और जल-मेरी वेदी पर कोई भी व्यक्ति जो कुछ
चढ़ाया है, मैं उसे एक समान प्रसन्नता से ग्रहण करता हूँ।
[5]
' यदि तुम कुछ भी, एक शुभ कर्म नहीं कर सकते, तो (प्रभु की) शरण लो। 'ईश्वर
समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित है, और वह उनको अपने चक्र पर भ्रमाया करता
है। अपने संपूर्ण हृदय और आत्मा से तू उनकी शरण में जा।
[6]
' …
प्रेम के इस सिद्धांत पर कृष्ण ने (गीता में) जिन सामान्य भावों का उपदेश
किया है, उनमें से कुछ ये हैं। प्रेम पर प्रवचन अन्य ग्रंथों (में) भी हैं,
जैसे बुद्ध के, ईसा के।
अब कृष्ण के जीवन से संबंध में कुछ शब्द। ईसा और कृष्ण के जीवन में प्रचुर
मात्रा में सादृश्य मिलता है। इस बात पर वाद-विवाद चल रहा है कि कौन किसका
ऋणी है। दोनों ही स्थानों में एक अत्याचारी राजा था। दोनों का ही जन्म चरनी
में हुआ। दोनों के माता-पिता बंदी थे। दोनों की रक्षा देवदूतों ने की। दोनों
दृष्टांतों में उस वर्ष जन्मे सभी लड़कों की हत्या कर दी गई। बचपन एक ही
जैसा है।...अंतत: दोनों की हत्या हुई। कृष्ण की मृत्यु दुर्घटना से हुई;
जिस व्यक्ति ने उन्हें मारा था, उसे वे स्वर्ग ले गए। ईसा की हत्या हुई,
उन्होंने उस डाकू को आशीष दिया और उसे स्वर्ग ले गए।
नव व्यवस्थान और गीता के उपदेशों में भी बहुत सी समानताएँ हैं। मानव विचारणा
उसी पथ पर चलती है। ... मैं स्वयं कृष्ण के शब्दों में ही तुम्हारे लिए
उत्तर खोज दूँगा। 'जब जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है,
मैं अवतार लेता हूँ। बार- बार मैं आता हूँ। अतएव, जब कभी तू किसी महान आत्मा
को मानव जाति का उत्थान करने के निमित्त संघर्ष करती देख, जान ले कि मैं आया
हूँ, …।'
[7]
साथ ही यदि वह ईसा या बुद्ध के रूप में आता है, तो इतना विभेद क्यों होता है
? उपदेशों का अनुसरण अवश्य होना चाहिए ! एक हिंदू भक्त कहेगा : यह स्वयं
ईश्वर ही है, जो ईसा और कृष्ण और बुद्ध और समस्त (महान धर्मोंपदेशकों) के
रूप में आता है। एक हिंदू दार्शनिक कहेगा : ये महान आत्माएँ हैं, वे मुक्त
हो चुकी हैं। यद्यपि वे मुक्त हैं, किंतु जब तक समग्र संसार दु:खग्रस्त है,
वे अपनी मुक्ति को स्वीकार नहीं करते। वे बारंबार आते हैं, मानव शरीर धारण
करते और मानव जाति की सहायता करते हैं। वे अपने बचपन से ही जानते रहते हैं कि
वे क्या हैं और किसलिए आए हैं। ...वे हमारी तरह बंधनों के माध्यम से नहीं
आते। ... वे अपनी स्वाधीन इच्छा से आते हैं और विराट् आध्यात्मिक शक्ति से
मुक्त होने के लिए वे विवश हैं। हम उसका प्रतिरोध नहीं कर सकते। मानव जाति का
विशाल समूह आध्यात्मिकता के इस भँवर में खिंच आता है, और इन (महान आत्माओं)
में से किसी एक का आघात मिलने के कारण उसका स्पंदन चलता ही जाता है। संपूर्ण
मानव जाति के मुक्त हो जाने तक यह इसी प्रकार चलता रहता है और इस पृथ्वी का
खेल समाप्त हो जाता है।
गरिमान्वित हों वे महान आत्माएँ, जिनकी जीवनियों का अनुशीलन हम अभी कर चुके
हैं। वे संसार के जीवंत देवता हैं। वे वह व्यक्ति हैं, जिनकी हमें पूजा करनी
चाहिए। यदि वह मेरे पास आए, तो मैं उसे केवल तभी पहचान पाऊँगा, जब वह मनुष्य
का रूप धारण कर ले। वह है तो सर्वत्र, किंतु क्या हम उसे देख पाते हैं ? हम
उसे केवल तभी देख सकते हैं, जब वह मानव की सीमा अंगीकार करे। ..... यदि
मनुष्य ... और पशु ईश्वर की अभिव्यक्ति हैं, मानव जाति के ये शिक्षक नेता
हैं, गुरु हैं। अतएव, उन तुमको अभिवंदन, जिनके पादपीठ की उपासना देवदूत करते
हैं ! अभिवंदन, तुम मानव जाति के नेताओं का ! अभिवंदन, तुम महान शास्ताओं का
! तुम नेताओं, सदा सदा के लिए हमारा अभिवंदन ग्रहण करो।
गीता (१)
(सैनफ्रांसिस्को में दिया हुआ भाषण, मई २६, १९०० ई.)
गीता को समझने के लिए उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जानना आवश्यक है। गीता
उपनिषदों की एक व्याख्या है। उपनिषद् भारत के बाइबिल हैं। उनका वही स्थान
है, जो नव व्यवस्थान का है। उपनिषद् के अंतर्गत सौ (से अधिक) पुस्तकें हैं,
जिनमें कुछ बहुत छोटी और कुछ बड़ी हैं, और प्रत्येक एक पृथक ग्रंथ है।
उपनिषद् किसी उपदेष्टा के जीवन पर प्रकाश नहीं डालते, केवल सिद्धांतों की
शिक्षा देते हैं। वे प्राय: राजाओं के दरबार में (आयोजित विद्वत् सभाओं में)
होनेवाले विचार-विमर्श की संकेतलिपि में जी हुई टिप्पणियाँ (जैसे) हैं।
उपनिषद् शब्द का अर्थ 'बैठकें' (या 'एक शिक्षक के समीप बैठना') हो सकता है।
तुम लोगों में जिन्होंने कुछ उपनिषद् पढ़े होंगे, वे समझ सकते हैं कि वे किस
प्रकार संकेत लिपि में लिखे संक्षिप्त रेखाचित्र हैं। एक लंबे विचार-विमर्श
के बाद, संभवत: स्मृति के आधार पर, उनको लिख लिया जाता था। कठिनाई यह है कि
तुमको पृष्ठभूमि बहुत ही कम मिल पाती है। केवल सुदीप्त स्थलों का ही वहाँ
उल्लेख है। प्राचीन संस्कृत के उद्भव का समय ५,००० ई. पू. है; उपनिषद् उससे
(कम से कम) २,००० वर्ष पूर्व के हैं। कोई (निश्चयपूर्वक) यह नहीं जानता कि वे
कितने प्राचीन हैं। गीता उपनिषदों के विचारों को ले लेती है और (कुछ) स्थलों
पर उनके शब्दों को भी। उनको, उपनिषदों द्वारा निरूपित संपूर्ण विषय को एक
ठोस, संघटित और व्यवस्थित ढंग से स्पष्ट करने की दृष्टि से सूत्रबद्ध किया
गया है।
हिंदुओं के (मूल) धर्मग्रंथों को वेद कहा जाता है। वे-उनकी लिखित राशि-इतने
विशाल हैं कि यदि उनके मूल ग्रंथों को ही यहाँ लाया जाए, तो वे इस कमरे में
समायेंगे नहीं। उनमें अनेक लुप्त हो गए हैं। उनको अनेक शाखाओं में विभक्त
किया गया, हर शाखा कतिपय पुरोहितों के मस्तिष्क में रख दी गई और स्मृति के
द्वारा जीवित रखी गई। ऐसे व्यक्ति अब भी हैं। वे एक भी स्वर बिना भूले,
वेदग्रंथों की एक के बाद दूसरे की, पुनरावृत्ति कर सकते हैं। वेदों के बृहत्तर
अंश विलुप्त हो गए हैं। अवशिष्ट लघु अंश स्वयं में ही एक पुस्तकालय है।
इनमें जो प्राचीनतम हैं, उसमें ऋग्वेद की ऋचाएँ संग्रहीत हैं। आधुनिक विद्वान्
का उद्देश्य (वैदिक साहित्य के अनुक्रम को) पुन: प्रतिष्ठित करना है।
प्राचीन सनातनी दृष्टिकोण नितांत भिन्न है, जैसे बाइबिल संबंधी तुम्हारा
सनातनी दृष्टिकोण आधुनिक विद्वान से नितांत भिन्न है। वेद दो भागों में
विभक्त हैं : एक उपनिषदों का--ज्ञानकांड, और दूसरा कर्मकांड।
कर्मकांड का कुछ परिचय देनेका प्रयत्न हम करेंगे। यह कर्मकांड तथा विविध
देवताओं को संबोधित स्तोत्रों से रचित है। कर्मकांडीय खंड में अुनष्ठान हैं,
जिनमें से कुछ बहुत ही विस्तारपूर्ण हैं। बहुसंख्यक पुरोहितों की आवश्यकता
पड़ती है। अनुष्ठानों के विस्तार के कारण पौरोहित्य का कार्य स्वयं में एक
विज्ञान बन गया। श्रद्धा की जन-धारणा शनै: शनै: इन ऋचाओं और अनुष्ठानों के
चतुर्दिक विकसित होती गई। देवता अंत:र्हित हो गए और उनकी जगह अनुष्ठान ही शेष
रह गए। भारत में यह एक विचित्र विकास हुआ। सनातनी हिंदू (मीमांसक) देवताओं में
विश्वास नहीं करता, लेकिन असनातनी उनमें विश्वास करता है। यदि तुम किसी
सनातनी हिंदू से पूछो कि वेदों में इन देवताओं का क्या अर्थ है (तो वह कोई
संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाएगा)। पुरोहित इन ऋचाओं का गान करते, तर्पण करते,
तथा अग्नि में आहुतियाँ डालते हैं। जब तुम सनातनी हिंदू से इसका अर्थ पूछोगे,
वह कहेगा कि शब्दों में किंचित् प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति होती है। बस,
केवल यही। उनमें (शब्दों में) समग्र प्राकृतिक और अतिप्राकृतिक शक्ति
विद्यमान है। वेद केवल ऐसे शब्द मात्र हैं, जिनमें-यदि उनका स्वरोच्चारण
शुद्ध हो-प्रभाव उत्पन्न करने की रहस्यमयी शक्ति है। यदि एक भी ध्वनि
अशुद्ध हो तो काम नहीं चलेगा। प्रत्येक (स्वर) शुद्ध होना चाहिए। (इस
प्रकार) अन्य धर्मों में जिसे प्रार्थना कहा जाता है, वह विलुप्त हो गई और
वेद देवता बन गए। वेदों के शब्दों को दिया जानेवाला आत्यंतिक महत्त्व इस
तरह तुमको स्पष्ट हो गया होगा। ये शब्द नित्य हैं, जिनसे संपूर्ण विश्व
उत्पन्न हुआ है। शब्दों के बिना कोई विचार नहीं हो सकता। अत: इस जगत में जो
भी है, वह विचार की अभिव्यक्ति है, और विचार अपने को केवल शब्दों के द्वारा
व्यक्त कर सकता है। शब्दों का यह समूह ही, जिसके द्वारा अव्यक्त विचार
व्यक्त होता है, वेदों का अर्थ है। निष्कर्ष यह निकलता है कि प्रत्येक
वस्तु की बाह्य सत्ता (वेदों पर निर्भर है, क्योंकि विचार) का अस्तित्व
शब्द के बिना नहीं हो सकता। यदि 'घोड़ा' शब्द का अस्तित्व न होता, तो कोई
भी घोड़े के संबंध में विचार न कर सकता। (अतएव) विचार, शब्द और बाह्यवस्तु
(में एक घनिष्ट संबंध) अवश्य होना चाहिए। यह शब्द (वास्तविकता में ) है
क्या ? वेद। वे उसे संस्कृत भाषा कदापि नहीं कहते। वह वैदिक भाषा, देववाणी
है। वैदिक भाषा से पुरानी अन्य कोई भाषा नहीं है। तुम कुछ पूछ सकते हो:
'वेदों को किसने लिखा ?' वे लिखे नहीं गए थे। शब्द ही वेद हैं। यदि मैं शुद्ध
उच्चारण कर सकूँ तो एक एक शब्द वेद है। तब वह (अभीष्ट) प्रभाव तत्काल
उत्पन्न करेगा।
वेदों की यह राशि चिरंतन अस्तित्व रखती है और समग्र विश्व इस शब्द-राशि की
ही अभिव्यक्ति है। जब यह कल्प समाप्त होता है, शक्ति की यह संपूर्ण
अभिव्यक्ति अधिकाधिक सूक्ष्मतर होती जाती है, केवल शब्द हो जाती है और
अंतत: विचार। आगामी कल्प में पहले विचार शब्दों में रूपांतरित होता है, और
तब इन शब्दों से (संपूर्ण विश्व) उत्पन्न होता है। यदि यहाँ कुछ ऐसा है,
जो वेदों में नहीं है, तो वह तुम्हारा मतिभ्रम है। उसका अस्तित्व ही नहीं
है।
केवल इस विषय पर (बहुसंख्यक) ग्रंथ वेदों का मंडन करते हैं। यदि तुम (उनके
रचयिताओं से) कहो कि वेदों का उच्चारण पहले मनुष्यों द्वारा हुआ होगा, (तो
वे हँस पड़ेंगे)। तुमने किसी (व्यक्ति को उनका उच्चारण प्रथम बार करते) नहीं
सुना होगा। बुद्ध के शब्दों को लो। एक परंपरा यह है कि उन्होंने (पूर्व में
अनेक बार) जन्म धारण किया और इन शब्दों का उच्चारण किया। यदि ईसाई उठ खड़े
हों और कहें, 'मेरा धर्म एक ऐतिहासिक धर्म है और अत: तुम्हारा गलत है, हमारा
ठीक है; (तो मीमांसक उत्तर देगा), 'अपना धर्म ऐतिहासिक मानने के कारण तुम यह
स्वीकार करते हो कि एक व्यक्ति ने उसकी रचना उन्नीस सौ वर्ष पहले की। जो
सत्य है, वह अनिवार्य रूप से अनंत और शाश्वत होता है। सत्य की यह एक कसौटी
है। उसका कभी क्षय नहीं होता है। सत्य की यह एक कसौटी है। उसका कभी क्षय नहीं
होता और वह सदैव वही रहता है। तुम स्वीकार करते हो कि तुम्हारे, धर्म की
सृष्टि अमुक व्यक्ति द्वारा हुई। लेकिन वेदों की नहीं। न किन्हीं पैगंबरों
द्वारा, न किसी अन्य द्वारा।... केवल अनंत शब्द, अपने स्वरूप से ही अनंत,
जिनसे समस्त सृष्टि आती और जाती है।' विचार-स्तर पर यह पूर्णरूपेण सत्य
है।...सृष्टिका आरंभ ध्वनि होना ही चाहिए। बीजाणुओं के जीवधातु के सदृश
बीज-ध्वनियाँ भी होनी चाहिए। शब्दों के बिना कोई विचार नहीं हो सकता।...जहाँ
जहाँ संवेदन, विचार और संवेग होते हैं, वहाँ शब्दों का होना अनिवार्य है।
कठिनाई तभी होती है, जब वे कहते हैं कि वेद यही चार ग्रंथ हैं और कुछ नहीं।
(तब) उठकर बौद्ध कहेगा, 'वेद हमारे हैं। वे हमारे प्रति बाद में प्रकट हुए।'
यह हो नहीं सकता। प्रकृति उस प्रकार नहीं चलती। प्रकृति अपने नियमों को खंड
खंड करके, गुरुत्वाकर्षण का एक इंच आज और (दूसरा) कल प्रकट नहीं करती। वह एक
ही बार में सदा के लिए (प्रदान किया जाता) है। यह 'नया धर्म और श्रेष्ठतर
दिव्य-प्रेरणा' आदि की बात एकदम अनर्गल है। उसका कोई अर्थ नहीं। नियम एक लाख
हो सकते हैं और मनुष्य आज उनमें से केवल कुछ को ही जान सकता है। हम उनको केवल
खोज निकालते हैं-बस। (नित्य शब्दों के संबंध में) विराट् दावा करनेवाले
प्राचीन पुरोहितों ने देवताओं को सिंहासन से च्युत करके देवताओं का स्थान ले
लिया। (उन्होंने कहा,) "तुम शब्दों की शक्ति को नहीं समझते। हम जानते हैं कि
उनका प्रयोग कैसे करना चाहिए। हम संसार के जीवंत देवता हैं। हमें (दक्षिणा)
दो; हम शब्दों का दक्षता से प्रयोग करेंगे, और तुम जो चाहते हो, वह तुम्हें
प्राप्त हो जाएगा। क्या उन शब्दों का उच्चारण तुम स्वयं कर सकते हो ? तुम
नहीं कर सकते, क्योंकि याद रखो, एक भूल से बिल्कुल उलटा प्रभाव उत्पन्न
होगा। तुम धनवान, रूपवान, दीर्घायु होना चाहते हो; और सुंदर पति चाहती हो ?"
बस पुरोहित को (दक्षिणा) दो और चुप रहो !
किंतु एक दूसरा पक्ष भी है। वेदों के प्रथम खंड का आदर्श दूसरे
खंड-उपनिषदों-के आदर्श से नितांत भिन्न है। प्रथम खंड का आदर्श, वेदांत को
छोड़कर संसार के अन्य सभी धर्मों के आदर्श के समान है। आदर्श है भोग, इहलोक
में और परलोक में -पुरुष और पत्नी, पति और बच्चे। अपना रुपया (दक्षिणा में)
दो, और पुरोहित जी तुमको एक प्रमाण-पत्र देंगे, और फिर स्वर्ग में तुम चैन
करोगे। वहाँ तुम अपने सभी स्वजनों से मिलोगे और यह हिंडोला अनंत काल तक चलता
रहेगा। आँसू नहीं, रोना नहीं, केवल हँसना ही हँसना। पेट का दर्द नहीं, मगर
खाते जाना। सरदर्द नहीं, मगर (पार्टियाँ)। यही पुरोहितों की दृष्टि में
मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य था।
इस दर्शन में एक और विचार है, जो तुम्हारी आधुनिक विचारधारा के अनुरूप है।
मनुष्य प्रकृति का दास है, और उसे सदा दास ही रहना है। हम कर्म कहते हैं।
कर्म का अर्थ है नियम और वह सर्वत्र लागू होता है। सभी कर्म से आबद्ध हैं।
'बाहर निकलने का क्या कोई रास्ता ही नहीं है ?" नहीं ! सारे समय दास ही बने
रहो- बढि़या दास। यदि तुम हमें (पर्याप्त) दक्षिणा देते रहो, तो हम शब्दों
का दक्ष प्रयोग करेंगे, जिससे तुमको सबका बुरा नहीं, केवल अच्छा ही पहलू
प्राप्त होता रहेगा।' यह आदर्श (मीमांसकों) का था। ये वे आदर्श हैं, जो
युग-युग से लोकप्रिय रहे हैं। मानव जाति की विशाल राशि कभी विचारक नहीं रही।
यदि वे विचारने का प्रयत्न भी करते हैं, तो उन पर अंधविश्वासों के विशाल
पुंज का प्रभाव भयानक होता है। जिस क्षण वे दुर्बल पड़ते हैं, एक चोट लगती है
और रीढ़ टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाती है। उनको प्रलोभनों और धमकियों के द्वारा
ही संचालित किया जा सकता है। वे स्वयं अपने को कभी परिचालित नहीं कर सकते।
उनको भयाकुल, संत्रस्त और आतंकित करते रहना ज़रूरी है, और बस, वे हमेशा के
लिए तुम्हारे दास बने रहेंगे। केवल दक्षिणा देने और पालन करते रहने के
अतिरिक्त उन्हें और कुछ नहीं करना है। शेष सब पुरोहित के द्वारा किया जाता
है।... धर्म कितना आसान हो जाता है ! तुम देखते हो न, तुमको कुछ भी नहीं करना
है। घर जाओ और चुपचाप बैठो। कोई तुम्हारे निमित्त सब कुछ कर रहा है। बेचारे,
बेचारे पशु !
इसके साथ ही एक दूसरी प्रणाली भी थी। उपनिषद् अपने समस्त निष्कर्षों में
संपूर्णत: विपरीत हैं। सर्वप्रथम, उपनिषद् जगत के स्रप्टा और शासक ईश्वर में
विश्वास करते हैं। आगे चलकर तुमको (एक सदय विधाता का विचार) मिलता है। यह एक
नितांत विपरीत परिकल्पना है। अब, यद्यपि हम पुरोहित की बात सुनते हैं, आदर्श
कहीं अधिक सूक्ष्म हो जाता है। अनेक देवताओं की बजाए उन्होंने एक ईश्वर की
रचना की।
दूसरे, उपनिषद् मानते हैं कि तुम सब कर्मवाद से आबद्ध हो, किंतु वे बाहर
निकलने का मार्ग भी घोषित करते हैं। मनुष्य का लक्ष्य नियम के परे जाना है।
और भोग कभी लक्ष्य नहीं हो सकता, क्योंकि भोग केवल प्रकृति में ही हो सकता
है।
तीसरे, उपनिषद् सभी यज्ञों की भर्त्सना करते हैं और कहते हैं कि वह पाखंड है।
उससे तुमको वह सब मिल सकता है, जो तुम चाहते हो; लेकिन वह वांछनीय नहीं है,
क्योंकि जितना ही अधिक तुम पाते हो, उतना ही अधिक तुम और चाहने लगते हो, और
तुम अनंत काल तक एक ही चक्र के चक्कर काटा करते हो, रोते-हँसते रहकर कभी अंत
को प्राप्त नहीं कर पाते। चिरंतन सुख जैसी कोई वस्तु कहीं भी असंभव है। वह
केवल बाल-स्वप्न है। एक ही शक्ति हर्ष ओर विषाद दोनों हो जाती है।
आज मैंने अपना मनोविज्ञान किंचित बदल दिया है। मैंने एक महान विचित्र तथ्य
पाया है। तुम्हारे (मन में) कोई विचार है, जिसे तुम रखना नहीं चाहते; तुम
किसी अन्य विषय पर सोचने लगते हो और जिस विचार को तुम दबा देना चाहते हो, वह
पूर्ण रूप से दब जाता है। वह विचार क्या है? मैंने उसे पंद्रह मिनट में बाहर
आते देखा। उसने बाहर आकर मुझे हिला डाला। वह प्रबल था, और वह इतने भीषण और
हिंस्र ढंग से आया (कि) मैं समझा कि यहाँ कोई पागल आदमी है। और जब वह समाप्त
हो गया, वह सब जो घटित हुआ था, पूर्वगामी संवेग का अवदमन मात्र था। बाहर क्या
आया ? मेरा अपना कुसंस्कार था, जिसे क्रियमाण होकर निश्शेष होना था। 'प्रकृति
अपना कार्य अवश्य करेगी। अवदमन क्या कर सकता है ?'
[8]
यह कथन गीता का एक भीषण कथन है। ऐसा प्रतीत होता है कि अंतत: यह सारा संघर्ष
निरर्थक है। तुममें एक ही समय प्रतियोगिता में रत लाखों उत्तेजनाएँ हो सकती
हैं। तुम उनका दमन कर सकते हो, लेकिन जैसे ही कमानी घूमती प्रतिघात करती है,
सारी की सारी चीज वहाँ फिर आ जाती है।
(किंतु आशा भी है)। यदि तुममें यथेष्ट शक्ति है, तो तुम अपनी चेतना को एक ही
समय में बीस भागों में बाँट सकते हो। मैं अपना मनोविज्ञान बदल रहा हूँ। मन
विकसित होता है। यह योगियों का कहना है। एक वासना दूसरे को जगाती है, पहली मर
जाती है। यदि तुम क्रुद्ध होते हो, और तब बाद में प्रसन्न, तो अगले क्षण
क्रोध चला जाता है। उस क्रोध से तुमने दूसरी दशा का निर्माण कर लिया। ये दशाएँ
सदैव परस्पर परिवर्तनीय होती हैं। शाश्वत सुख और दु:ख एक बाल-स्वप्न हैं।
उपनिषद् यह निर्देश करते हैं कि मनुष्य का लक्ष्य न सुख है, न दु:ख; वरन्,
हमें उसका स्वामी बनना है, जिससे सुख दु:ख का निर्माण होता है। हमें स्थिति
की जड़ से ही उसका स्वामी जैसा होना है।
विरोध का दूसरा स्थल है: उननिषदों द्वारा सभी अनुष्ठानों की निंदा, विशेषकर
उनकी, जिनमें पशुओं का वध किया जाता है। वे उन सबको अनर्गल घोषित करते हैं।
प्राचीन दार्शनिकों की एक शाखा का कहना है कि यदि अभीष्ट परिणाम उत्पन्न
करना है, तो तुम अमुक पशु की बलि अमुक समय में दो। (तुम उत्तर दे सकते
हो),'लेकिन पशु के प्राण लेने का पाप भी तो है, उसके लिए भी तो (दंड) भोगना
पड़ेगा।' वे कहते हैं कि यह निरर्थक बात है। तुम कैसे जानते हो कि क्या उचित
है और अनुचित है ? तुम्हारा मन ऐसा कहता है ? तुम्हारा मन जो कहता है, उसकी
परवाह कौन करता है ? तुम क्या बकवाद कर रहे हो ? तुम अपने मन को शस्त्रों के
विरुद्ध खड़ा कर रहे हो। यदि तुम्हारा मन कुछ कहे और वेद कुछ दूसरी बात कहते
हों, तो अपने मन को रोक दो; वेदों में विश्वास करो। यदि वे कहते हों कि
नर-हत्या उचित है, तो वह उचित है। यदि तुम कहो, 'नहीं, मेरी अंतरात्मा कहती
है', (अन्यथा उससे काम नहीं चलेगा)। जिस क्षण तुम किसी पुस्तक को चिरंतन
शब्द और पवित्र मानने लगते हो, तुम फिर शंका नही उठा सकते। मेरी समझ में नहीं
आता कि तुम (उसके) बारे में कहते हो, 'कितने आश्चर्यजनक हैं वे शब्द, कितने
उचित और कितने अच्छे!' क्योंकि यदि तुम बाइबिल को ईश्वर की वाणी मानकर
उसमें विश्वास करते हो, तो तुमको कोई निर्णय देने का अधिकार नहीं रह जाता।
जिस क्षण तुम निर्णय करने लगते हो, तुम अपने को बाइबिल से ऊँचा मान लेते हो।
(तब) तुम्हारे निकट बाइबिल की क्या उपयोगिता है ? पुरोहित कहते हैं, 'हम
तुम्हारी बाइबिल या किसीसे भी तुलना करने से इनकार करते हैं। तुलना करना
व्यर्थ है, क्योंकि प्रमाण क्या है ? बात यही तुम समझते हो कि कुछ उचित
नहीं है, तो जाओ और उसे वेदानुकूल यथोचित कर लो।''
उपनिषद इसमें विश्वास करते हैं, (लेकिन उनके पास एक अधिक ऊँचा आदर्श भी है)।
एक ओर वे वेदों को उलटना नहीं चाहते, दूसरी ओर वे इस पशुबलि को और पुरोहितों
को हर किसी का धन चुराते भी देखते हैं। किंतु मनोविज्ञान में वे सह समान हैं ?
आत्मा के स्वरूप (को लेकर) सारे अंतर दर्शन में हैं। क्या उसके शरीर और मन
है ? और मन क्या केवल नाड़ियों-संवेदक और संचालक नाड़ियों- का पुंज मात्र है
? वे सब मनोविज्ञान को एक असंदिग्धपूर्ण विज्ञान के रूप में स्वीकार करते
हैं। उसमें कोई मतभेद नहीं हो सकता। सारी लड़ाई दर्शन को लेकर है --आत्मा और
ईश्वर के स्वरूप आदि को लेकर।
इसके उपरांत उपनिषदों तथा पुरोहितों में एक बड़ा अंतर और है। उपनिषद् कहते
हैं, त्यागो। यही हर बात की कसौटी है। हर वस्तु को त्यागो। यह सर्जना शक्ति
है, जो हमें इस सारे जंजाल में फँसाती है। शांत हो जाने पर मन अपने स्वरूप
में स्थित हो जाता है। जिस क्षण तुम उसे शांत कर लोगे, उसी क्षण तुम सत्य को
जान लोगे। वह क्या है, जो मन को सदा घुमाता रहता है ? कल्पना-सर्जक
प्रक्रिया। सर्जना को बंद कर दो और तुम सत्य को जान जाओगे। सर्जना की समग्र
शक्ति का विराम हो जाना अनिवार्य है, तभी तुम सत्य को तत्काल जान सकोगे।
दूसरी ओर, पुरोहित लोग पूर्णतया (सर्जना) के पक्ष में हैं। जीवन की किसी ऐसी
योनि की कल्पना करो (जिसमें सर्जन-क्रिया न हो। यह कल्पनातीत है)। लोगों को
(स्थिर समाज को विकसित करनेवाली) एक योजना की आवश्यकता थी। (वरण की एक कठोर
पद्धति अपनायी गई। उदाहरणार्थ,) अंधे और पंगु विवाह नहीं कर सकते।
(परिणामस्वरूप) संसार के अन्य किसी भी देश की तुलना में तुमको भारत में
शारीरिक विकृति इतनी कम मिलेगी। (वहाँ) मिरगी से पीडि़त और विक्षिप्त (लोग)
बहुत कम हैं। यह प्रत्यक्ष वरण का परिणाम है। पुरोहित कहते हैं, 'वे
संन्यासी हो जायें।" दूसरी ओर उपनिषदों का कहना है, "अरे नहीं, धरती के
श्रेष्ठतम, उत्तमतम (और) सद्यतम फूल ही वेदी पर रखे जाएं। स्वस्थ शरीर और
स्वस्थ बुद्धि वाले बलशाली युवा ही सत्य के लिए संघर्ष करें।"
इस प्रकार इन समस्त मत-वैभिन्यों को लेकर, जैसा मैं तुमको बतला चुका हूँ,
पुरोहितों ने अपने को एक पृथक जाति में ही विभक्त कर लिया। दूसरी जाति है
राजाओं की।... उपनिषदों का सारा दर्शन राजाओं के मस्तिष्क से प्रसूत हुआ है,
पुरोहितों से नहीं। हर धार्मिक संघर्ष के अंतराल में एक आर्थिक संघर्ष भी
विद्यमान रहता है। मनुष्य कहलानेवाला यह पशु कुछ धार्मिक प्रभाव रखता है,
लेकिन वह निर्देशित होता है अर्थशक्ति से। व्यक्ति किसी अन्य उद्देश्य से
भी प्रेरित होते हैं, किंतु जब तक अर्थ-शक्ति (सन्निहित) न हो, मानव जाति का
समुदाय एक पग भी कभी नहीं उठता। तुम (एक ऐसे धर्म का प्रचार कर सकते हो, जो हर
ब्योरे में भले ही पूर्ण न हो), किंतु यदि उसकी एक आर्थिक पृष्ठभूमि भी हो,
और यदि तुम्हारे पास उसका प्रचार करनेवाले (उत्साही समर्थक) हों, तो तुम
किसी पूरे देश को उसके लिए कायल कर सकते हो।...
जब कभी कोई धर्म सफल होता है, तो उसमें आर्थिक मूल्य भी अवश्य होता है। एक
ही प्रकार के सहस्रों संप्रदाय प्रभुत्व के लिए संघर्ष करते हैं, किंतु असली
आर्थिक समस्या का समाधान कर सकनेवाले ही उसे प्राप्त कर पाते हैं। मनुष्य
पेट से प्रेरित होता है। वह चलता है, पहले पेट जाता है और उसके बाद सिर। क्या
तुमने यह देखा नहीं? सिर को पहले चलने में युग लग जाएंगे। साठ वर्ष की आयु का
होने तक (संसार से) मनुष्य का बुलावा आ जाता है। सारा जीवन एक भ्रम है, और जब
तुम वस्तुओं को वस्तुरूप में देखने लगते हो, ठीक तभी तुम छिन जाते हो। जब तक
पेट पहले जाता था, तुम बिल्कुल ठीक थे। जब बचकाने सपने विलुप्त हाने लगते
हैं, और तुम वस्तुओं को वस्तुरूप में देखना आरंभ कर देते हो, तब सिर आगे
चलता है। और ठीक जब सिर पहले चलता है, (तुम चल बसते हो)।
उपनिषदों के धर्म को लोकप्रिय बनाना एक दुस्कर कार्य था, क्योंकि उसमें
अर्थ-शक्ति अत्यल्प है, लेकिन परमार्थ अत्यंत। ...
हर देश में पुरोहित दो कारणों से पुराणपंथी (या अनुदार) होता है; एक तो यह कि
वह उसकी रोटी है, दूसरे यह कि वह केवल जनता के साथ ही चल सकता है। सब पुरोहित
सबल नहीं होते। यदि जनता कहे,'दो हजार देवताओं का प्रचार करो', तो पुरोहित
वैसा ही करेगा। वे उस समाज के सेवक हैं, जो उन्हें दक्षिणा देता है। ईश्वर
उन्हें दक्षिणा देता नहीं। इसलिए पुरोहितों को दोष देने के पूर्व अपने को दोष
दो। तुम केवल उसी प्रकार की सरकार, धर्म और पुरोहित प्राप्त कर सकते हो,
जिसके तुम पात्र हो, उससे श्रेष्ठ नहीं।
उननिषदों का प्रभाव राज्यों पर बहुत कम था, यद्यपि उनकी खोज उन राजाओं द्वारा
हुई, जो समस्त राज्यशक्ति को अपने हाथों में रखते थे। अत: संघर्ष प्रचंडतर
होना आरंभ हो गया। उसकी पराकाष्ठा २००० वर्ष बाद बौद्ध धर्म में हुई। बौद्ध
धर्म का बीज यहाँ, राजा और पुरोहित के मध्य साधारण संघर्ष (में) विद्यमान है;
और (संघर्ष) मे समस्त धर्म की अवनति हुई। एक पक्ष धर्म की बलि दे देना चाहता
था; दूसरा बलियों, वैदिक देवताओं आदि से चिपका रहना चाहता था। बौद्ध धर्म
ने...जनता की जंजीरों को तोड़ डाला। सारी जातियाँ और सारे संप्रदाय एक मिनट
में बराबर हो गए। इस प्रकार भारत में महान धार्मिक विचारों का अस्तित्व है,
लेकिन उनका प्रचार अभी होना है, अन्यथा उनसे कोई उपकार नहीं होता। ...
यह महान संघर्ष भारत में इस प्रकार आरंभ हुआ और गीता में अपने चरम बिंदुओं में
से एक पर पहुँचा। जब उससे यह आशंका होने लगी कि भारत इन दो (दलों) के मध्य
विभक्त होने जा रहा है, तब इन कृष्ण का आविर्भाव हुआ और गीता में उन्होंने
पुरोहितों और जनता के कर्मकांड और दर्शन का समन्वय करने का प्रयास किया।
कृष्ण को उसी प्रकार प्रेम किया और पूजा जाता है, जिस प्रकार तुम ईसा को करते
हो। अंतर केवल युग का है। हिंदू लोग कृष्ण का जन्मदिन उसी प्रकार मनाते हैं,
जैसे तुम ईसा का। कृष्ण पाँच सहस्र वर्ष पूर्व हुए थे और उनका जीवन
चमत्कारों से पूर्ण है, जिनमें से कुछ ईसा के जीवन के चमत्कारों के बहुत
सदृश हैं। शिशु का जन्म कारागृह में हुआ। पिता ने उसे बाहर ले जाकर गोपालों
के मध्य रखा। उस वर्ष जन्मे सभी शिशुओं की हत्या कर देने का आदेश दिया गया
। वे भी मारे गए : यही उनका भाग्य था।
कृष्ण एक विवाहित व्यक्ति थे। उनके संबंध में सहस्रों पुस्तकें हैं। वे
मुझे अधिक नहीं रुचतीं। तुम जानते हो, हिंदू कथा कहने में महान हैं। यदि ईसाई
मिशनरी बाइबिल से एक कथा कहे, तो हिंदू लोग बीस कहानियाँ प्रस्तुत कर देंगे।
तुम कहते हो कि विराट् मत्स्य (ह्वेल) ने जोना को निगल लिया; हिंदू कहते हैं
कि अमुक ने एक हाथी निगल लिया। ... अपने बचपन से ही मैं कृष्ण के जीवन के
विषय में सुनता आया हूँ। मैं इसको स्वयंसिद्ध मान कर चलता हूँ कि कृष्ण नाम
का कोई व्यक्ति अवश्य रहा होगा, और उनकी गीता से स्पष्ट है कि वे एक
अद्भुत ग्रंथ छोड़ गए हैं। मैं तुमको बतला चुका हूँ कि तुम किसी व्यक्ति के
चरित्र को उससे संबंधित उपाख्यानों का विश्लेषण करके समझ सकते हो।
उपाख्यानों का स्वरूप (अलंकरणात्मक) होता है। तुम अवश्य देखोगे कि उन सबको
चमकाकर विन्यस्त कर दिया जाता है, जिससे वे चरित्र में खप सकें। उदाहरण के
लिए बुद्ध को लो 1 केन्द्रीय भाव उत्सर्ग है। सहस्रों लोक-वार्ताएँ हैं,
लेकिन उत्सर्ग को प्रत्येक में अक्षुण्ण रखा गया है। लिंकन के विषय में
--उस महापुरुष की किसी विशेषता को लेकर-हजारों कहानियाँ हैं। तुम उन सारे
कथानकों को ले लो, उनमें सामान्य भाव को खोजो, और (तुम जान लो) कि वही उस
व्यक्ति का मूल चरित्र था। कृष्ण के चरित्र मे तुमको केंद्रीय भाव अनासक्ति
मिलता है। उनको किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। वे कुछ भी नहीं चाहते। वे
कर्म के निमित्त कर्म करते हैं; कर्म के निमित्त कर्म। उपासना के निमित्त
उपासना। 'शुभ इसलिए करो कि शुभ करना शुभ है। और अधिक न माँगो।' यही उस
व्यक्ति का चरित्र रहा होगा। अन्यथा यह कथानक एक अनासक्ति के भाव में
केंद्रित न किए जा सकते।
जहाँ तक मैं जानता हूँ कि वे एक सुसामंजस्यपूर्ण-मस्तिष्क, हृदय और
कर-नैपुण्य (ज्ञान, भक्ति और कर्म) में आश्चर्यजनक रूप से सम
विकसित-व्यक्ति हैं। उनका प्रत्येक क्षण क्रियाशीलता से, चाहे वह एक
संभ्रांत जन की हो, योद्धा, अमात्य या किसी अन्य की हो, जीवंत है। वे एक
संभ्रांत पुरुष, एक विद्वान् और एक कवि के रूप में महान हैं। इस सर्वतोमुखी और
आश्चर्यजनक क्रियाशीलता, तथा ह्रदय और मस्तिष्क के समन्वय को तुम गीता तथा
अन्य ग्रंथों में पाते हो। परम आश्चर्यजनक हृदय, उत्कृष्टतम भाषा-कहीं कुछ
भी उसे पा नहीं सकता। व्यक्ति की प्रबल क्रियाशीलता- यही धारणा अब तक बनी हुई
है। पाँच हज़ार वर्ष बीत चुके हैं ओर उन्होंने कोटि-कोटि जन को प्रभावित किया
है। जरा सोचो कि इस व्यक्ति का समग्र जगत पर कितना प्रभाव है, भले ही तुम
उससे अवगत हो या न हो। उनके प्रति मेरा सम्मान भाव उनकी पूर्ण प्रकृतिस्थता
के कारण है। उस मस्तिष्क में न तो जाले हैं, न अंधविश्वास। वे प्रत्येक
वस्तु का उपयोग जानते हैं, और जब (उनमें से प्रत्येक को स्थान देना) आवश्यक
होता है, वे वहाँ (मौजूद मिलते) हैं। वे जो बोलते रहते हैं, सर्वत्र जाते रहते
हैं, वेदों के रहस्य के बारे में प्रश्न करते हैं वे सत्य को नहीं जानते। वे
धूर्त के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। अंधविश्वास और अज्ञान (तक) के लिए भी
वेदों में एक स्थान है। पर सारा रहस्य हर वस्तु के लिए उचित स्थान खोज लेने
में है।
और फिर वह हृदय ! प्रत्येक जाति के लिए धर्म के कपाट खोलनेवाले, बुद्ध के भी
पूर्वगामी, वे प्रथम व्यक्ति हैं। वह अद्भुत बुद्धि! वह विराट क्रियाशील
जीवन! बुद्ध की क्रियाशीलता, उपदेश करने के एक क्षेत्र में सीमित थी। अपने पास
पत्नी और पुत्र को रखना और साथ ही शास्ता भी होना उनसे नहीं हो सका। कृष्ण
ने युद्धक्षेत्र के बीच उपदेश दिया : 'वह जो प्रचंड कर्म में स्वयं को परम
शांत देखता है, और परम साम्यावस्था में प्रचंड कर्म को देखता है, वही महान
(योगी और वही श्रेष्ठ ज्ञानी है)।'
[9]
उसके चतुर्दिक् आयुधों का उड़ते रहना इस व्यक्ति के लिए कोई अर्थ ही नहीं
रखता। शांत और धीर (बने रहकर) वे जीवन और मृत्यु की समस्याओं का निरूपण करते
चले जाते हैं। हर पैगंबर का अपनी शिक्षा पर सर्वोत्तम भाष्य होता है। यदि
तुम्हारी इच्छा नव व्यवस्थान (New Testament) के सिद्धांत का अर्थ जानने की
होती है, तो तुम अमुक-अमुक के पास जाते हो। लेकिन तुम चारों सुसमाचारों
Gospels) को बारंबार पढ़ो और उनमें वर्णित शास्ता के अद्भुत जीवनालोक में
उनके आशय को समझने की चेष्टा करो। महापुरुष विचार करते हैं, तथा हम और तुम
(भी) विचार करते हैं। लेकिन एक अंतर है। हम विचार करते हैं, लेकिन हमारे शरीर
अनुसरण नहीं करते। हमारे कर्म हमारे विचारों से सामंजस्य नहीं रख पाते। हमारे
शब्दों में उन शब्दों की शक्ति नहीं होती, जो वेद बन जाते हैं। ... वे जो
कुछ विचार करते हैं, उसका संपन्न होना निश्चित है। यदि वे कहते हैं, ''मैं यह
करता हूँ'' तो शरीर उसे कर डालता है। पूर्ण आज्ञा-पालन। यही साध्य है। तुम एक
क्षण में अपने को ईश्वर सोच सकते हो, लेकिन (ईश्वर) हो नहीं सकते। यही
कठिनाई है। वे जो सोचते हैं, हो जाते हैं। हम केवल शनै: शनै: ही हो सकेंगे।
तुमने देखा कि यह व्याख्यान कृष्ण तथा उनके समय के संबंध में है। आगामी
व्याख्यान में हम उनकी पुस्तक के संबंध में अधिक जान सकेंगे।
गीता (२)
(सैनफ्रांसिस्को में दिया हुआ व्याख्यान, मई २८, १९०० ई.)
गीता के लिए एक प्रारंभिक अल्प भूमिका आवश्यक है। दृश्य कुरुक्षेत्र के
युद्धक्षेत्र में न्यस्त है। एक ही वंश की दो शाखाएँ पाँच सहस्र वर्ष पूर्व
भारत के साम्राज्य के निमित्त युद्ध कर रही थीं। पांडवों के पास अधिकार था
किंतु कौरवों के पास बल। पांडव पाँच भाई थे और वे एक वन में वास कर रहे थे।
कृष्ण पांडवों के मित्र थे। कौरव लोग उनको सुई की नोंक को ढक सकने भर की भी
धरती नहीं देना चाहते थे।
प्रथम दृश्य युद्धक्षेत्र है, दानों पक्ष अपने संबंधियों ओर मित्रों को देख
रहे हैं- एक भाई इस ओर, दूसरा उस ओर; पितामह इस ओर, पौत्र दूसरी ओर। जब अर्जुन
स्वयं अपने मित्रों और संबंधियों को दूसरे पक्ष में देखता और अनुभव करता है
कि उसे उनका वध करना पड़ सकता है, तो उसका दिल बैठ जाता है और वह कहता है कि
अब मैं युद्ध नहीं करूँगा। इस प्रकार गीता आरंभ होती है।
इस जगत में हम सबके लिए जीवन एक अनवरत युद्ध है।.... ऐसे अनेक अवसर आते हैं,
जब हम अपनी दुर्बलता का भाष्य क्षमा और त्याग के रूप में करना चाहते हैं।
भिखारी के त्याग में कोई श्रेष्ठता नहीं होती। जो (प्रहार कर) सकता है यदि
वह क्षमा कर दे तो उसमें श्रेष्ठता है। जिसके पास है, यदि वह त्याग करे तो
उसमें श्रेष्ठता है। हम जानते हैं कि आलस्य और कायरतावश जीवन में हम न जाने
कितनी बार युद्ध में हार मान लेते हैं और अपने मन को यह विश्वास दिलाने के
लिए सम्मोहित करने का प्रयास करते हैं कि हम वीर हैं।
गीता का आरंभ इस अति सारगर्भित श्लोक से होता है : 'उठ, हे पार्थ ! त्याग दे
हृदय की इस क्षुद्र दुर्बलता को, इस क्लैव्य को ! उठ खड़ा हो और लड़ !'
[10]
तब अर्जुन (कृष्ण से) इस विषय पर तर्क करने का प्रयास करते हुए उच्चतर नैतिक
प्रश्नों को उठाता है- अप्रतिरोध प्रतिरोध से किस प्रकार उत्तम है, आदि। वह
अपने को न्यायानुकूल सिद्ध करने का यत्न करता है,लेकिन वह कृष्ण को मूर्ख
नहीं बना पाता। कृष्ण उच्चतर आत्मा या ईश्वर हैं। वह (अर्जुन के) तर्क की
असलियत तत्क्षण समझ लेते हैं। इस दृष्टांत में (प्रेरणा) दुर्बलता है।
अर्जुन स्वयं अपने संबंधियों को देखता है, लेकिन वह उन्हें मार नहीं सकता।
...
अर्जुन के हृदय में उसकी भावुकता और कर्तव्य के मध्य संघर्ष होता है। हम
(पशु) और पक्षियों के जितने ही अधिक निकट होते हैं, संवेगों के नरक में हम
उतने ही अधिक होते हैं। हम इसे प्रेम कहते हैं। यह आत्म-सम्मोहन है। हम
पशुओं के सदृश अपने संवेगों के अधीन हैं। गाय अपनी संतान के लिए अपने जीवन का
उत्सर्ग कर सकती है। हर पशु कर सकता है। उससे क्या होता है ? यह पक्षियोचित
अंध संवेग नहीं हैं, जो पूर्णता की ओर ले जाता है। ... मनुष्य का लक्ष्य है
चिरंतन चेतना तक पहुँचना ! वहाँ संवेग का कोई स्थान नहीं है, न भावुकता का, न
संवेदनाओं से संबंध रखनेवाली किसी वस्तु का- (स्थान) केवल विशुद्ध बुद्धि के
प्रकाश (का है)। (वहाँ) मनुष्य विशुद्ध आत्मा के रूप में स्थित है।
अब अर्जुन इस भावुकता के अधीन है। वह वह नहीं है, जो उसे होना चाहिए - बुद्धि
के शाश्वत प्रकाश के मध्य कर्म करनेवाला एक महान आत्मसंयमी, प्रबुद्ध
स्थित-प्रज्ञ। वह एक पशु, एक शिशु सदृश हो गया है; उसने अपने हृदय को अपना
मस्तिष्क हर ले जाने दिया है, वह अपने को मूर्ख सिद्ध कर रहा है और अपनी
दुर्बलता को 'प्रेम' आदि की पुष्पिता नामावली से ढक देने का प्रयास कर रहा है।
कृष्ण इस सबकी वास्तविकता समझते हैं। अर्जुन अल्प विद्यावाले व्यक्ति की
भाँति बातें करता है और अनेक कारण प्रस्तुत करता है, लेकिन इसके साथ ही वह
मूर्खों की भाषा बोलता है।
'ज्ञानी उनके लिए शोक नहीं करता, जो जीवित हैं और न उनके लिए, जो मरते हैं'
[11]
(कृष्ण) कहते हैं :) 'न तुम मर सकते हो, न मैं मर सकता हूँ। कभी भी ऐसा समय
नहीं था, जब हमारा अस्तित्व न रहा हो। न कभी ऐसा समय होगा, जब हमारा
अस्तित्व नहीं होगा। जैसे इस जीवन में मनुष्य आरंभ बचपन से करता और यौवन तथा
वृद्धावस्था को पार करता है, वैसे ही मृत्यु होने पर वह दूसरे प्रकार के
शरीर में प्रविष्ट मात्र हो जाता है । ज्ञानी व्यक्ति शोकग्रस्त क्यों हो
?'
[12]
और इस भावुकता का, जिसने तुम्हें पकड़ रखा है, आदि कहाँ हैं ? यह है
इंद्रियों में। 'यह मात्रा स्पर्श (इंद्रियों और विषयों का संयोग), जो शील और
उष्ण, सुख और दु:ख, सुख और पीड़ा आदि सत्ता के समस्त गुणों को उत्पन्न
करता है। वे आते-जाते रहते हैं।'
[13]
मनुष्य इस क्षण दु:खी है, दूसरे में सुखी। इस तरह वह आत्मा के स्वरूप का
अनुभव नहीं कर सकता।
सत् का कभी अभाव और असत् का कभी भाव नहीं हो सकता। ... इसलिए जान लो कि जो इस
समस्त विश्व में व्याप्त है, वह अनादि और अनंत है। वह अपरिवर्तनीय है।
विश्व में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जो (इस अपरिवर्तनशील को) परिवर्तित कर
सके। यद्यपि इस शरीर का आदि और अंत: है, शरीर में निवास करनेवाला असीम है और
अनंत है।'
[14]
यह जानते हुए उठ खड़े हो और लड़ो ! एक पग भी पीछे न रखो, यही भाव है ...जो भी
आए, उससे लड़ कर निपट लो। अंत:रिक्ष से नक्षत्र भले ही हट जाएं। सारा संसार
हमारे विरुद्ध क्यों न खड़ा हो जाए। मृत्यु का अर्थ केवल वस्त्रों का
परिवर्तन है। उससे क्या ? अत: लड़ो ! कायर होकर तुम कुछ भी लाभ नहीं उठाते।
... एक पग पीछे हटकर तुम किसी भी दुर्भाग्य को टाल नहीं सकते। तुम संसार के
सभी देवताओं के निकट रो चुके हो। क्या उससे क्लेश का अंत: हुआ ? भारत की
जनता छ: करोड़ देवताओं के निकट रोती-कलपती है, और फिर भी कुत्तों की मौत मरती
रहती है। ये देवता हैं कहाँ ?... जब तुम सफल हो चुकते हो, तब देवता तुम्हारी
सहायता करने आते हैं। अत: लाभ क्या है ? अंत: तक हिम्मत न हारो...
अंधविश्वासों के आगे यह घुटने टेकना, स्वयं अपने मन के हाथों अपने को बेच
देना, मेरी आत्मा, तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम असीम अमर, अनादि हो। तुम
असीम आत्मा हो ! इस कारण दास होना तुम्हें शोभा नहीं देता। ... उठो ! जागो !
खड़े हो और लड़ो ! यदि आवश्यक हो तो मर जाओ। तुम्हारी सहायता करनेवाला कोई
भी नहीं हैं। तुम समग्र संसार हो। तुम्हारी सहायता कौन कर सकता है ?
'जन्म के पूर्व ओर मृत्यु के बाद प्राणी हमारी मानवीय इंद्रियों में अज्ञात
रहते हैं। केवल मध्य में ही वे व्यक्त रहते हैं। इसमें शोक करने की क्या
बात है ?'
[15]
'कोई इस (आत्मा) को आश्चर्यवत् देखता है। कोई उसको आश्चर्यवत् कहता है।
अन्य उसे आश्चर्यवत् सुनते हैं। अन्य उसे सुनकर भी नहीं समझ पाते।'
[16]
लेकिन यदि तुम कहो कि इन सब लोगों की हत्या करना पाप है, तो इस पर अपने
वर्ण-धर्म की दृष्टि से विचार करो।... 'सुख और दु:ख, लाभ और अलाभ, जय और पराजय
को समान समझकर तू उठ खड़ा हो युद्ध कर।'
[17]
यह गीता के एक अन्य विचित्र सिद्धांत-अनासक्ति--का आरंभ है। अर्थात, हमें
अपने कर्मों का फल इसलिए भोगना पड़ता है कि हम अपने को उनसे संसक्त कर लेते
हैं। ... 'जो कर्तव्य के निमित्त कर्तव्य के रूप में किया जाता है वही कर्म
के बंधनों का नाश कर सकता है।'
[18]
उसको सीमा से अधिक कर डालने का खतरा तुमको नहीं है। ... 'यदि तुम इसका
स्वल्प भी करते हो (तो यह योग तुम्हें जन्म-मरण के भीषण चक्र से बचा
लेगा)।'
[19]
'जान लो, हे अजुन, सफलता प्राप्त करनेवाली बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि ही
है। जो मन अपने को सहस्रों विषयों में व्यस्त कर लेता है, अपनी शक्ति को
विकीर्ण कर डालता है। कुछ लोग पुष्पिता वाणी बोल सकते हैं और सोचते हैं कि
वेदों के परे कुछ है ही नहीं। वे स्वर्ग जाना चाहते हैं। वेदों की शक्ति
द्वारा वे भागों को प्राप्त करना चाहते हैं और अत: वे यज्ञ-यागादि करते रहते
हैं।'
[20]
जब तक इस प्रकार के लोग इन समस्त भौतिकवादी विचारों को नहीं त्यागते,
उनको(आध्यात्मिक साधना में) कोई सफलता नही प्राप्त हो सकती।'
[21]
यह एक दसूरा महान पाठ है। जब तक समस्त भौतिकवादी विचारों को तिलांजलि नहीं दी
जाती, आध्यात्मिकता की उपलब्धि कदापि नही हो सकती।... इंद्रियों में क्या
है? इंद्रि सब भ्रम हैं। लोग मरने के बाद भी (स्वर्ग में) उनको -दो आँखों, एक
नाक को - धारण किए रखना चाहते हैं। कुछ यह कल्पना करते हैं कि वहाँ उनकी
इंद्रियाँ प्रस्तुत से अधिक संख्या में होंगी। वे ईश्वर को-उसके भौतिक शरीर
को-एक सिंहासन पर आसीन चिरंतन काल तक देखते रहना चाहते हैं।.... ऐसे
व्यक्तियों की वासनाएँ शरीर, खाने-पीने और भोग की होती हैं। वह दीर्घीकृत
भौतिकवादी जीवन ही है। मुनष्य इस जीवन के परे किसी अन्य वस्तु की बात सोच
नहीं सकता। यह जीवन पूर्तणया शरीर के लिए है। 'ऐसा व्यक्ति उस एकाग्रता को
कभी नहीं प्राप्त कर पाता, जो मुक्ति की ओर ले जाती है।'
[22]
'वेद केवल तीन गुणों-सत्त्व, रजस् और तमस्- से संबंधित विषयों की ही शिक्षा
देते हैं।'
[23]
वेद केवल प्रकृति के विषयों के संबंध में शिक्षा देते हैं। लोग जिस विषय को
पृथ्वी पर नहीं देखते, उसके संबंध में कुछ भी सोच नहीं सकते। यदि वे स्वर्ग
की बात करते हैं, तो वे एक सिंहासनारूढ़ राजा की, धूप जलाते हुए लोगों की ही
कल्पना कर पाते हैं। यह सब प्रकृति है, प्रकृति के परे कुछ नहीं। अतएवं वेद
प्रकृति के सिवा और कोई शिक्षा नहीं देते। 'प्रकृति के परे जाओ, सत्ता के
द्वंद्वों के परे, स्वयं अपनी सत्ता के परे जाओ, किसी की चिंता न करो-न
अच्छे की, न बुरे की।'
[24]
हमने स्वयं का अपने शरीरों से तादात्म्य कर रखा है। हम केवल शरीर हैं, या
शरीर के अधीन हैं। यदि मुझे कोई चिकोटी काटता है, तो मैं चिल्ला उठता हूँ। यह
सब अर्थहीन है, क्योंकि मैं आत्मा हूँ। दु:ख, कल्पना, पशु, देवता, दैत्य,
हर वस्तु, संपूर्ण संसार की यह श्रृंखला-यह सब शरीर के साथ अपना तादात्म्य
कर लेने से होती है। मैं आत्मा हूँ। जब तुम मेरी चुटकी लेते हो तो मैं उछल
क्यों पड़ता हूँ ? ... इस (स्थिति) की गुलामी तो देखो। तुमको लज्जा नही लगती
? हम धार्मिक हैं ! हम दार्शनिक हैं ! हम महात्मा हैं ! भगवान हमारा कल्याण
करें ! हम हैं क्या ? जीवित नरक, हम यही हैं ! पागल, हम यही हैं !
(शरीर का) विचार हम त्याग नहीं सकते। हम धरतीबद्ध हैं। ...हमारे भाव
कब्रिस्तान हैं। शरीर छोड़ने पर भी हम उन (भावो) के कारण सहस्रों तत्त्वों
द्वारा आबद्ध रहते हैं।
आसक्ति के बिना कर्म कौन कर सकता है ? असली प्रश्न यह है। चाहे उसका कर्म सफल
हो या विफल, ऐसा व्यक्ति वही रहता है। भले ही उसका संपूर्ण जीवन-कार्य क्षण
भर में जलकर भस्म हो जाए, उसका दिल एक बार भी नहीं बैठता। 'यह वह मनीषी है,
जो फलों की चिंता किए बिना सदैव कर्म के निमित्त कर्म करता रहता है। इस प्रकार
वह जन्म-मरण की पीड़ा के परे चला जाता है। इस प्रकार वह मुक्त हो जाता है।'
[25]
तब वह देखता है कि यह आसक्ति एक भ्रम है। आत्मा कभी भी आसक्त नहीं हो
सकती।... तब वह सभी श्रुतियों ओर दर्शनों के परे चला जाता है।३ यदि मन
भ्रमाकुल और पुस्तकों तथा श्रुतियों द्वारा भँवर में खिंचा पड़ा हो तो इन सारी
श्रुतियों से क्या लाभ है ? (उनमें) एक यह कहती है, दूसरी वह। तुम किसी
पुस्तक को लोगे ? अकेले खड़े होओ ! अपनी आत्मा की महिमा देखो, और देखो कि
तुम्हें कर्म करना ही है। तभी तुम निश्चल बुद्धिवाले हो सकोगे।
[26]
अर्जुन पूछता है, "स्थितप्रज्ञ व्यक्ति कौन है ?"
[27]
कृष्ण उत्तर देते हैं, "वह व्यक्ति, जिसने सभी इच्छाओं का त्याग कर दिया
है, जो कुछ नहीं चाहता-न यह जीवन ही, न मुक्ति, न देवता, न कर्म, न और कुछ। जब
वह पूर्णकाम हो जाता है, तब उसकी कोई कामना शेष नहीं रहती।"
[28]
उसने आत्मा की महिमा का दर्शन कर लिया है और देख लिया है कि जगत, देवता और
स्वर्ग स्वयं उसकी आत्मा के भीतर हैं। तब देवता देवता नहीं रह जाते,
मृत्यु-मृत्यु नहीं रह जाती। सब कुछ बदल जाता है। यदि उसकी बुद्धि स्थिर हो
गई हो, यदि उसका मन दु:ख से विचलित न होता हो, यदि वह किसी सुख की आकांक्षा न
करता हो, यदि वह समस्त आसक्ति, समस्त भय, समस्त आक्रोश से मुक्त हो गया
हो, तो ऐसे व्यक्ति को (स्थितप्रज्ञ मुनि) कहते हैं ...।
[29]
'जैसे कछुआ अपने पैरों को भीतर खींच सकता है, और यदि तुम उस पर प्रहार करो तो
एक भी पैर बाहर नहीं निकलता, इसी प्रकार स्थितप्रज्ञ भी अपनी ज्ञानेंद्रियों
को भीतर खींच सकता है',
[30]
और उन्हें कोई भी वस्तु बाहर जाने के लिए विवश नहीं कर सकती। उसको कुछ भी
हिला नहीं सकता, न कोई प्रलोभन, न कुछ और। विश्व टूटकर उसके चारों ओर बिखर
जाए,तो भी वह उसके मन में एक लहर नहीं उठा पाता।
इसके बाद एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रश्न आता है। कभी कभी लोग कई दिनों तक का
(अनशन) व्रत रखते हैं। ... निकृष्टतम मनुष्य बीस दिन का व्रत रखने के बाद
एकदम सौम्य हो जाता है। व्रत करने और अपने को यातना देने का प्रयोग लोग संसार
भर में करते रहे हैं। कृष्ण के विचार में यह सब निरर्थक है। उनका कहना है कि
जो व्यक्ति अपने को यातना दे रहा है, उसकी इंद्रियाँ प्रस्तुत क्षणों में
उससे दूर हट जाएंगी, लेकिन फिर बीस गुनी शक्ति के साथ प्रकट होंगी। ... हमें
क्या करना चाहिए ? (भाव है कि) स्वाभाविक होना चाहिए, तापस नहीं। चलते
रहो,कर्म करो, केवल इतना ध्यान रखो कि आसक्त न हाने पाओ। जिस व्यक्ति ने
अनासक्ति का रहस्य नहीं सीखा और उसका अभ्यास नहीं किया, उसमें प्रज्ञा कभी
दृढ़तापूर्वक स्थिर नहीं हो सकती।
मैं बाहर जाता हूँ और आँखें खोलता हूँ। यदि वहाँ कुछ है, तो मैं उसे अवश्य
देखूँगा। मैं ऐसा करने के लिए विवश हूँ। मन इंद्रियों के पीछे भागता है। अब
इंद्रियों को प्रकृति के प्रति कोई भी प्रतिक्रिया करना त्याग देना चाहिए।
'जब (इंद्रियबद्ध) जगत के लिए अँधेरी रात होती है, तब संयमी (व्यक्ति) जागता
रहता है। वह उसके लिए दिन का प्रकाश है।... और जब जगत जागता है, ज्ञानी सोता
है।
[31]
' --प्रकाश के उस जगत में, जहाँ मनुष्य अपने को पक्षी के रूप में नहीं देखता,
न पशु के रूप में, न शरीरवत्, वरन् असीम आत्मा, मृत्युरहित, अमर (के रूप
में देखता है)। वहाँ, जहाँ अज्ञानी सोते रहते हैं, और जहाँ उनके पास समझने के
लिए न समय होता है, न बुद्धि, न शक्ति वहाँ ज्ञानी जाग्रत रहता है। वह उसके
लिए दिन का प्रकाश है।
'जैसे संसार की मारी नदियाँ अपना जल सागर में निरंतर उड़ेला करती हैं, किंतु
सागर का विराट् गरिमामयस्वरूप अक्षुब्ध और अपरिवर्तित रहता है; उसी प्रकार
यद्यपि सारी इंद्रियाँ प्रकृति से सारे विषय लाती रहती हैं, स्थितप्रज्ञ का
समुद्र जैसा हृदय न विचलित होता है, न भयभीत होता है।' दु:खों को करोड़ों
नदियों में, सुख को सैकड़ों में आने दो ! मैं दु:ख का दास नहीं हूँ! मैं सुख
का दास नहीं हूँ !
गीता (३)
(२९ मई, १९०० ई. को सैनफ्रांसिस्को में दिया गया भाषण)
अर्जुन ने पूछ, ''आपने अभी कर्म का उपदेश दिया, फिर भी आप ब्रह्मज्ञान को
सर्वश्रेष्ठ जीवन प्रतिपादित करते हैं। हे कृष्ण, यदि आपके विचार से कर्म की
अपेक्षा ज्ञान उत्तम है, तो आप मुझे कर्म करने को क्यों कहते हैं ?''
[32]
(श्रीकृष्ण)--"प्राचीन काल से ये दो व्यवस्थाएँ हम लोगों के समय तक चली आ
रही हैं। सांख्य दर्शन ज्ञान का सिद्धांत प्रस्तुत करता है। योगी कर्म का
सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। किंतु कर्म त्याग कर कोई भी शांति-लाभ नहीं कर
सकता। इस जीवन में कोई एक क्षण के लिए भी कर्म बंद नहीं कर सकता। प्रकृतिजन्य
गुण उसे कर्म में प्रवृत्त करेंगे। जिसने कर्म करना तो बंद कर दिया और साथ ही
मन से उनका चिंतन करता है, उसके कुछ हाथ नहीं-लगता; वह तो बस मिथ्याचारी हो
जाता है। परंतु जो मन द्वारा धीरे-धीरे अपनी इंद्रियों को नियमन कर लेता है,
उन्हें कार्य में लगाता है, वह व्यक्ति उससे उत्तम है। इसलिए तुम कर्म करो
....।"
[33]
"यदि तुम्हें यह रहस्य ज्ञात भी हो गया हो कि तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं
हैं, तुम मुक्त हो, तब भी परोपकार के लिए तुम्हें कार्य करना है। क्योंकि
कोई श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है, साधारण लोग भी उसका अनुकरण करते हैं।
[34]
यदि कोई श्रेष्ठ पुरुष, जिसने मानसिक शांति और मुक्ति प्राप्त कर ली है,
कार्य करना बंद कर दे, तो अन्य सब लोग, जिनमें न वह ज्ञान है और न शांति,
उसका अनुकरण करने लगेंगे। और इस तरह भ्रम पैदा हो जाएगा।
[35]
"देखो, हे अर्जुन, कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो मेरे पास न हो और मेरे लिए कुछ
प्राप्तव्य भी नहीं है। और फिर भी मैं कर्म करता रहता हूँ। यदि मैं एक क्षण
के लिए कार्य करना बन्द कर दूँ तो ये सब लोक (नष्ट हो) जाएंगे।
[36]
जिसे आज्ञानी जन फलासक्त होकर लाभ के लिए करते हैं, उसे अनासक्त विद्वान् फल
तथा लाभ की आकांक्षा न रखते हुए करें।"
[37]
यदि तुम ज्ञानी भी हो, तब भी अज्ञानियों के बालासुलभ विश्वास को मत डिगाओं,
[38]
बल्कि उनके स्तर पर जाओ और धीरे-धीरे उन्हें ऊपर उठाओ। यह बड़ा शक्तिशाली
भाव है और भारत में यह आदर्श बन गया है। यही कारण है कि तुम किसी महान
दार्शनिक को भी मंदिर में जाते और मूर्तियों की पूजा करते देख सकते हो। यह
ढोंग नहीं है।
बाद में हम पढ़ते हैं, कृष्ण क्या कहते हैं, ''जो लोग अन्य देवताओं की पूजा
करते हैं, वे वस्तुत: मेरी पूजा करते हैं।''
[39]
वह मुनष्य-शरीरधारी भगवान है, जिसकी पूजा मानव कर रहा है। यदि तुम उसे गलत
नाम से संबोधित करो, तो क्या वह क्रुद्ध होगा ? तब तो वह लेशमात्र भगवान नहीं
हो सकता ! क्या तुम यह नहीं समझ सकते कि मनुष्य के स्वयं अपने हृदय में जो
कुछ है, वही भगवान है, चाहे वह पत्थर की ही पूजा क्यों न करता हो ? इससे
क्या !
यदि इस भावना से हम एक बार अपने को मुक्त कर सकें कि मतों में ही धर्म
सन्निविष्ट है, तो हम अधिक स्पष्टतापूर्वक समझ जाएंगे। धर्मविषयक एक भावना
यह रही है कि समस्त संसार का जन्म इस कारण हुआ कि आदम ने वे सेब खा लिए, और
निस्तार का कोई मार्ग नहीं है। ईसा मसीह पर विश्वास करो- एक विशेष मनुष्य
की मृत्यु पर ! परंतु भारत में बिल्कुल भिन्न भाव है। (वहाँ) धर्म का अर्थ
है साक्षात्कार, और कुछ नहीं। मंजिल तक चाहे कोई चार घोड़ों की बग्धी से
जाए, चाहे बिजली की गाड़ी से जाए अथवा ज़मीन पर लेटता हुआ जाए, इससे कोई अंतर
नहीं पड़ता। लक्ष्य एक ही है। (ईसाइयों) के लिए समस्या है कि एक भयावह
ईश्वर के कोप से कैसे बचा जाए ? भारतीयों के लिए यह है कि वे यथार्थत: जो
हैं, वही कैसे हों, अपने लुप्त आत्म-तत्त्व को कैसे पुन: प्राप्त करें।
क्या तुम्हें यह बोध हो गया कि तुम आत्मा हो ? जब तुम कहते हो, ''मैं कर्ता
हूँ'', तो उसका तात्पर्य क्या है ? यह मांस-पिंड जो शरीर कहलाता है, वह-या
आत्मा, जो असीम, नित्य आनंदस्वरूप, प्रकाशमान और अमर है ? तुम सबसे महान
दार्शनिक क्यों न हो, किंतु जब तक तुम्हारी यह भावना है कि तुम शरीर हो, तब
तक तुम उस कीड़े से बढ़कर नहीं हो, जो तुम्हारे पाँव तले रेंग रहा है ! तुम
क्षम्य नहीं हो ! तुम्हारी इतनी बुरी दशा है कि तुम सब दर्शनों को जानते हुए
भी सोचते हो कि तुम शरीर हो! शरीरासक्त देवता, यही तो तुम हो !क्या यह धर्म
है ?
आत्मा के रूप में आत्मा का साक्षात्कार धर्म है। हम इस समय क्या कर रहे
हैं ? ठीक विपरीत, आत्मा को जड़ समझ रहे हैं। अमर ईश्वर के उपादान से हम लोग
मृत्यु और जड़ की रचना करते हैं और मूल, निश्चेतन जड़ के उपादान से हम
आत्मा की रचना करते हैं ...।
यदि तुम शीर्षासन कर या एक पैर पर खड़े रहकर या प्रत्येक तीन तीन शिरोंवाले
पाँच हज़ार देवताओं की पूजा कर (ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकते हो) --तो खुशी
की बात है ! ... जिस तरीके से कर सको, करो ! किसी को कुछ कहने का अधिकार नहीं
है। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि यदि तुम्हारी विधि उत्तम और उत्कृष्ट है, तो
तुम्हारा काम यह नहीं है कि तुम दूसरे मनुष्य की विधि को बुरी कहा, भले ही
तुम्हारी समझ से वह शठतापूर्ण क्यों न हो।
पुनश्च, धर्म विकास (का विषय) है,मूर्खतापूर्ण शब्दों का समुच्चय नहीं। दो
हजार वर्ष पूर्व एक व्यक्ति ने ईश्वर का साक्षात्कार किया। मूसा ने ईश्वर
को एक जलती हुई झाड़ी में देखा। मूसा ने ईश्वर का साक्षात्कार करने के बाद
जो किया, क्या उससे तुम्हारा परित्राण होता है ? किसी व्यक्ति ने यदि भगवान
का दर्शन कर लिया, तो उससे तुमको तिल मात्र सहायता नहीं मिल सकती। उससे तुमको
केवल उत्तेजना और प्रेरणा मिल सकती है कि तुम भी वही करो। प्राचीनों के
उदाहरणों का सारा महत्त्व इसी बात में है। इससे अधिक और कुछ नहीं। वे मार्ग
में दिशा-संकेत मात्र हैं। एक आदमी के भोजन करने से दूसरे को तृप्ति नहीं हो
सकती। एक व्यक्ति के भगवान के दर्शन करने से दूसरे व्यक्ति का परित्राण नहीं
हो सकता। तुम्हें स्वयं ही ईश्वर का साक्षात्कार करना होगा। ये सब लोग इस
प्रश्न पर लड़ रहे हैं कि ईश्वर का प्रकृत रूप क्या है--वह एक शरीर और तीन
शिरोंवाला है या छ: शरीरों और पाँच शिरों-वाला है। क्या तुमने ईश्वर को देखा
है ? नहीं। ... और उनका विश्वास नहीं है कि वे उसे कभी देख सकते हैं। हम
मर्त्य मानव कितने मूर्ख हैं ! निश्चय ही। पागल ! (भारत में) यह परंपरा चली
आ रही है कि यदि कोई ईश्वर है, तो वह तुम्हारा भी है और मेरा भी है। सूर्य
किसका है ! तुम कहते हो चाचा साम किसी के भी चाचा हैं। यदि कोई ईश्वर है, तो
उसे देखने में तुम समर्थ होगे ही । यदि नहीं, तो छोड़ो उसे।
हर एक सोचता है कि उसीकी विधि सर्वोत्तम है। बड़ी अच्छी बात है ! किंतु याद
रखो, वह तुम्हारे लिए अच्छी हो सकती है। एक ही खाद्य एक के लिए बहुत कुपथ्य
हो सकता है और दूसरे के लिए अच्छा पथ्य। क्योंकि यह तुम्हारे लिए अच्छा
है, इसलिए बेधड़क यह निष्कर्ष न निकालो कि तुम्हारी विधि प्रत्येक व्यक्ति
के लिए उपयुक्त विधि है, और जैक का कोट जॉन ओर मेरीको भी फिट होगा। सभी
अशिक्षित, असंस्कृत, विचारहीन स्त्री-पुरुष उस प्रकार के संकीर्ण जामे में
कस दिए गए हैं ! तुम लोग स्वयं सोचो। नास्तिक बन जाओ ! जड़वादी बन जाओ ! वह
कहीं अच्छा होगा। बुद्धि से काम लो ! ... तुम्हें यह कहने का क्या अधिकार
है कि अमुक व्यक्ति की विधि गलत है ? तुम्हारे लिए वह गलत हो सकती है।
अर्थात, यदि तुमने वह विधि अपनायी, तो तुम्हारी अवनति होगी, किंतु इसका यह
अर्थ नहीं होता कि वह परिभ्रष्ट हो जाएगा। इसलिए, कृष्ण कहते हैं, यदि तुम
ज्ञानी हो और किसी को हीन देखते हो, तो उसकी निंदा मत करो। उसके स्तर पर जाओ
और यदि कर सकते हो तो उसकी सहायता करो। उसका विकास होना चाहिए। मैं पाँच घंटे
में उसके दिमाग में पाँच घड़े ज्ञान उड़ेल सकता हूँ। पर उससे क्या लाभ होगा ?
वह पहले से भी थोड़ा और निकृष्ट हो जाएगा।
यह कर्म-बंधन कहाँ से आता है ? क्योंकि हम आत्मा को कर्म की श्रृंखला में
बाँध देते हैं। भारतीय धार्मिक व्यवस्था के अनुसार दो सत्ताएँ हैं-एक ओर
प्रकृति और दूसरी ओर आत्मा। प्रकृति शब्द से केवल बाह्य जगत का प्रयोजन नहीं
है, वरन् हमारे शरीर, मन, इच्छा और यहाँ तक कि उसका भी प्रयोजन है, जो कहता है
'मैं'। उन सबसे परे है, वह चिरंतन जीवन और आत्मज्योति--आत्मा। इस दर्शन के
अनुसार आत्मा प्रकृति से पूर्णतया पृथक थी और सदैव पृथक रहेगी। किसी भी समय
आत्मा और मन अभिन्न नहीं रहे हैं।
यह स्वत: स्पष्ट है कि तुम जो भोजन करते हो, वह सारे समय मन का निर्माण
करता रहता है। वह जड़ है। आत्मा खाद्य के संबंध से अतीत है। चाहे तुम खाओ या न
खाओ, उससे कोई अंतर नही पड़ता। चाहे तुम सोचो या न सोचो, उससे कोई अंतर नहीं
पड़ता। वह प्रकाश है। उसका प्रकाश सदा एक सा है। यदि तुम (किसी प्रकाश के
सामने) कोई नीला या हरा शीशा रख दो, तो प्रकाश का वह क्या करेगा ? उसका रंग
अपरिवर्तनीय है। यह तो मन है, जो बदलता है और विभिन्न रंग प्रदान करता है।
जिस क्षण जीवात्मा शरीर को त्याग देती है, सब टूट-फूट कर बिखर जाता है।
प्रकृति में जो सत्य है, वह आत्मा है। स्वयं सत्य-आत्मा का प्रकाश-चलता
है और बोलता है तथा (हमारे शरीर, मन आदि के द्वारा) प्रत्येक कार्य करता है।
यह आत्मा की ही शक्ति, उसका तत्त्व और उसका जीवन है, जिस पर जड़ पदार्थ की
नानाविध क्रिया हो रही है ...। यद्यपि आत्मा सबको प्रकाश प्रदान करती है,
हमारे सभी विचारों, शारीरिक कार्यों और प्रत्येक कार्य का निमित्त है, तथापि
वह स्वयं अच्छे-बुरे, सुख-दु:ख, शीतोष्ण तथा प्रकृति के सभी द्वंद्वों से
निर्लिप्त है।
"अत:, है अर्जुन, ये सभी कर्म प्रकृतिनिष्ठ हैं। प्रकृति... हमारे शरीर और मन
में अपने ही गुणों की क्रियमाण कर रही है। हम प्रकृति के तद्रूप बन जाते हैं
और कहते हैं, 'मैं इसका कर्ता हूँ।' इस प्रकार हम विमूढ़ताग्रस्त हो जाते
हैं।"
[40]
हम सदैव किसी बाध्यता से कर्म करते हैं। जब भूख मुझे बाध्य करती है, तब मैं
खाता हूँ। दु:खभाग तो इससे भी बढ़ कर दासता है। यथार्थ 'मैं' तो नित्य मुक्त
है। उसे कुछ करने के लिए कौन बाध्य करता है ? दु:ख-भोक्ता तो प्रकृति में
है। जब हम देहात्मा हो जाते हैं, तभी हम कहते हैं, "मैं दु:ख भोग रहा हूँ;
मैं श्री अमुक हूँ"--तथा इसी प्रकार की अन्य सब मूर्खतापूर्ण बातें। परंतु
जिसे सत्य का ज्ञान हो गया है, वह अपने को पृथक रखता है। उसका शरीर चाहे जो
करे, उसका मन चाहे जो करे, वह परवाह नहीं करता। किंतु तुम ध्यान दो, मानव
जाति के अधिकांश जन समुदाय को यही भ्रान्ति है, और जब कभी लोग कोई अच्छा कर्म
करते हैं, तो समझते हैं कि वे उसके कर्ता हैं। वे अभी उच्चतर दर्शन के समझने
के योग्य नहीं हैं। उनको अपने विश्वास से विचलित मत करो ! वे अनिष्ट का
परिहार कर रहे हैं और इष्ट कार्य में लगे हैं। कितना महान है ! उन्हें वैसा
करने दो...! वे पुण्यकर्मा हैं। उत्तरोत्तर वे सोचने लगेंगे कि पुण्य कर्म
से भी श्रेष्ठ, गौरवयुक्त और कुछ है। वे साक्षी मात्र रहेंगे और कार्य हो
जाएगा ...। धीरे-धीरे वे समझ जाएंगे। जब वे सभी पापों का परिहार कर चुकेंगे और
सब पुण्य कर्म कर चुकेंगे, तब उन्हें यह बोध होने लगेगा कि वे समस्त
प्रकृति के अतीत हैं। वे कर्ता नहीं हैं। वे (पृथक) रहते हैं। वे... साक्षी
हैं। वे तो बस अलग रहनेवाले द्रष्टा हैं। प्रकृति समस्त जगत का प्रसव कर रही
है ...। 'हे सौम्य, आरंभ में केवल सत् था। अन्य किसी का अस्तित्व नहीं था।
उसने (इच्छा की) और अन्य सबकी सृष्टि हो गई।'
[41]
'ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुरूप कर्म करते हैं। प्रत्येक प्राणी अपनी
प्रकृति के अनुसार कर्म करता है। वह उसका अतिक्रमण नहीं कर सकता।' परामाणु
नियम का उल्लंघन नहीं कर सकता। परमाणु चाहे मानसिक हो अथवा शारीरिक, उसे नियम
का पालन करना ही पड़ेगा। '(बाह्य निग्रह) से क्या लाभ ?'
[42]
जीवन में किसी वस्तु को मूल्यवान क्या बनाता है ? न भोग, न स्वामित्व।
प्रत्येक वस्तु की मीमांसा करो। तुम्हें पता लगेगा कि हमें कुछ सिखाने में
अनुभव के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु मूल्य नहीं रखती। और बहुत से मामलों में
सुखभोग की अपेक्षा हमारी कठिनाइयाँ हमें अपेक्षाकृत कहीं श्रेष्ठ अनुभव
प्रदान करती हैं। प्राय: प्रकृति के दुलार की अपेक्षा उसके प्रहार से हमें
अधिक श्रेष्ठ अनुभव प्राप्त होता है ...। (इस भूमिका में) अकाल तक का भी
स्थान और मूल्य है ...।
कृष्ण के अनुसार हम कोई ऐसे नए प्राणी नहीं हैं, जिनका जन्म अभी हुआ हो।
हमारे मन अभिनव नहीं हैं ...। आधुनिक युग में हम सभी जानते हैं कि प्रत्येक
शिशु [अपने जन्म के साथ] केवल मानव जीवन के ही नहीं, वरन् वनस्पति-जीवन के
भी समस्त अतीत को ले आता है। अतीत के सब अध्याय हैं, वर्तमान का यह अध्याय
है और भविष्य के अध्यायों का सारा ढेर उसके समक्ष है। प्रत्येक के मार्ग का
नक्शा बना है, खाका तैयार है और योजना बनी-बनायी है। इस सब अंधकार के बावजूद,
कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं हो सकता-कोई घटना, कोई परिस्थिति...। यह हमारा
निरा अज्ञान है। निमित्त की समस्त् असीम श्रृंखला... कड़ी कड़ी जुड़कर पुन:
प्रकृति से ही निबद्ध है। यह सार्वभौम कार्यकारण (की श्रृंखला) है, जिसकी एक
कड़ी, एक भाग तुम्हें मिला है और मुझे दूसरा ...। और वह (भाग) हमारी प्रकृति
है।
अब श्री कृष्ण कहते हैं, "परधर्म अपनाने की चेष्टा करने की अपेक्षा स्वधर्म
में मृत्यु प्राप्त करना कहीं अधिक श्रेयस्कर है।"
[43]
यह मेरा धर्म है ओर मैं यहाँ नीच हूँ। और तुम वहाँ ऊपर हो और मैं निरंतर इस
प्रलोभन में हूँ कि स्वधर्म त्याग दूँ। सोचता हूँ कि मैं वहाँ जाकर
तुम्हारे साथ हो जाऊँगा। और यदि मैं ऊपर जाता हूँ, तो न वहाँ का रहता हूँ, न
यहाँ का। हमें इस सिद्धांत को दृष्टि से ओझल नहीं रखना चाहिए। यह सब विकास का
[विषय] है। प्रतीक्षा करो और विकास करो। और तब तुमको सब कुछ उपलब्ध होगा,
अन्यथा (बहुत बड़ा आध्यात्मिक खतरा) होगा। यही धर्म-शिक्षा का आधारभूत
रहस्य है।
'लोगों का उद्धार करने' और एक ही मत में सबके निष्ठावान होने से तुम्हारा
तात्पर्य क्या है ? यह हो नहीं सकता। सामान्य विचारों को मानव जाति को
सिखाया जा सकता है। सद्गुरु यह पता लगाने में समर्थ होगा कि तुम्हारी निजी
प्रकृति क्या है। हो सकता है कि तुम उसे न जानते हो। संभव है कि तुम जिसे
अपनी प्रकृति सोच बैठे हो, वह बिल्कुल गलत हो। वह चेतना तक विकसित नहीं हो
पायी है। गुरु वह व्यक्ति है, जिसे जानना चाहिए ...। तुम्हारे मुखमंडल पर
दृष्टिपात करके उसे समझ जाना चाहिए और तुम्हें [तुम्हारे मार्ग] पर लगा देना
चाहिए। हम लोग इधर-उधर टटोलते हैं; संघर्ष करते हैं और नाना प्रकार के कार्य
करते हैं तथा कोई प्रगति नहीं कर पाते, अंतत: वह समय आता है और हम जीवन-प्रवाह
में निमज्जित होकर बहने लगते हैं। उसका लक्षण यह है कि जिस क्षण हम उस नदी में
पहुँचते हैं, हम तैरने लगते हैं। तब कोई संघर्ष नहीं रह जाता। उसका पता लगाना
है। तब उसे छोड़कर एवं किसी अन्य को अपनाने की अपेक्षा उसी मार्ग में प्राण
तक त्याग दो।
ऐसा करने के बजाए हम एक धर्म चलाने लगते हैं, कुछ रूढिवादी विधि-विधान बना
लेते और मानव जाति के लक्ष्य से विश्वासघात करने लगते हैं और सबके साथ ऐसा
व्यवहार करने लगते हैं मानो उन सबकी प्रकृति एक सी है। किन्हीं दो
व्यक्तियों के मन तथा शरीर एक नहीं होते ...। किन्हीं दो व्यक्तियों का एक
धर्म नहीं होता ...।
यदि तुम धार्मिक होना चाहते हो, तो किसी संगठनबद्ध धर्म के द्वार में प्रवेश
मत करो। वे इष्ट की अपेक्षा सौगुना अधिक अनिष्ट करते हैं, क्योंकि वे
प्रत्येक के वैयक्तिक विकास की वृद्धि रोक देते हैं। हर एक चीज पढ़ो, लेकिन
अपना आसन दृढ़ रखो। यदि तुम मेरी सलाह लो, तो जाल में अपनी गर्दन मत फँसाओ।
जिस क्षण वे तुम्हारे ऊपर अपना फंदा डालने का प्रयत्न करें, तुम अपनी गर्दन
हटा लो और अन्यत्र चले जाओ। जिस प्रकार मुधमक्खी चुन- चुनकर बहुत से फूलों
से मधु का संचय करती है, किंतु किसी फूल के बंधन में नहीं पड़ती, उसी प्रकार
तुम भी बंधन में मत पड़ो ...। किसी संगठनबद्ध धर्म के द्वार में प्रवेश मत
करो। धर्म केवल तुम और तुम्हारे भगवान के बीच की वस्तु है और किसी तीसरे
व्यक्ति को उसमें हरगिज टाँग नहीं अड़ानी चाहिए। जरा सोचो, इन संगठनबद्ध
धर्मों ने क्या किया है ! इन धार्मिक उत्पीड़नों की अपेक्षा कौन सा नेपोलिया
अधिक भयंकर था ? ... यदि तुम और में संगठित हो जाएं, तो हम लोग प्रत्येक
व्यक्ति से घृणा करने लगेंगे। यदि प्रेम करने का अर्थ दूसरों को घृणा करना
है, तो उससे कहीं अच्छा है कि प्रेम ही न करें। यह कोई प्रेम नहीं है। यह तो
नरक है। यदि अपने जनों से प्रेम करने का अर्थ अन्य सब लोगों से घृणा करना है,
तो यह पूर्ण स्वार्थ स्वार्थ और पाशविकता है। इसका परिणाम यह होगा कि वह
तुम्हें पशु बना देगा। अतएव दूसरे के प्रकृत धर्म पर, चाहे वह तुम्हें कितना
भी महान क्यों न प्रतीत हो, चलने की अपेक्षा स्वधर्म पालन करते हुए मर जाना
अच्छा है।
[44]
'अर्जुन, सावधान, काम और क्रोध महाशत्रु हैं। उनका शमन करना होगा। बुद्धिमानों
तक के ज्ञान को वे आवृत कर लेते हैं। इस कामाग्नि को तृप्त नहीं किया जा
सकता। इसके अधिष्ठान कर्मेंद्रिय और मन हैं। आत्मा नि:स्पृह है।
[45]
'
'प्राचीन काल में मैंने इस योग की (विवस्वान् को, विवस्वान् ने मनु को)
शिक्षा दी। ... इस तरह परंपरागत ज्ञान राजर्षियों को प्राप्त हुआ। किंतु
कालांतर में यह योग नष्ट हो गया। यही कारण है कि आज पुन: मैं तुमको बता रहा
हूँ।'
[46]
तब अर्जुन ने पूछा, "आप ऐसा क्यों कहते हैं ? आप ऐसे पुरुष हैं, जिनका जन्म
हाल में हुआ है, और (विवस्वान् का जन्म् तो आपसे बहुत पहले हुआ था)। आपने
उन्हें सिखाया, इसका क्या अर्थ है ?"
[47]
तब कृष्ण ने कहा, "हे अर्जुन, तुम और मैं दोनों जन्म-मरण के चक्र से बहुत
बार गुजर चुके किंतु तुम्हें उन सबकी स्मृति नहीं है। मैं अव्यय, अज और सब
भूतप्राणियों का ईश्वर हूँ। मैं अपनी ही प्रकृति को अधीन कर प्रकट होता हूँ।
जब जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तब तब मैं
मानव जाति के सहायतार्थ अवतार लेता हूँ। साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए,
दुष्ट कर्म करने-वालों का नाश करने के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं
युग-युग में प्रकट होता हूँ। जो भी मनुष्य चाहे जिस किसी मार्ग से मेरे पास
पहुँचना चाहता है, मैं उसको उसी मार्ग से मिलता हूँ। किंतु, हे अर्जुन, तुम
जान लो कि कोई मनुष्य मेरे मार्ग से कभी च्युत नहीं हो सकता।"
[48]
कभी कोई च्युत नहीं हुआ। हम कैसे हो सकते हैं ? उसके मार्ग से कोई स्खलित
नहीं होता।
...सभी समाज असम्यक् सामान्यीकरण पर आधारित हैं। सम्यक् सामान्यीकरण के
आधार पर ही नियम निरूपित किया जा सकता है। प्राचीन कहावत क्या है--प्रत्येक
नियम का अपना अपवाद होता है ? ... यदि यह नियम हैं, तो यह तोड़ा नहीं जा सकता।
उसे कोई तोड़ नहीं सकता। क्या सेब गुरुत्वाकर्षण के नियम को भंग करता है ?
जिस पल कोई नियम भंग होता है, जगत का अस्तित्व नहीं रह जाता। एक समय उपस्थित
होगा, जब तुम नियम भंग करोगे और उसी क्षण तुम्हारी चेतना, मन और शरीर
विलुप्त हो जाएंगे।
वहाँ एक आदमी चोरी कर रहा है। वह क्यों चोरी करता है ? तुम उसे दंड देते हो।
क्यों, क्या तुम उसको स्थान नहीं दे सकते और उसकी शक्ति को कार्य में नहीं
लगा सकते ?...तुम कहते हो, "तुम पापी हो", और बहुत से लोग कहेंगे कि उसने
कानून को तोड़ा है। मानव जाति का यह यूथ (एकरूपता में) ढकेल दिया गया है और
इसी कारण तमाम उपद्रव, पाप और दुर्बलता हैं...। दुनिया उतनी बुरी नहीं है,
जितनी तुम सोचते हो; मूर्खों ने ही उसे बुरी बना रखा है। हम अपने प्रेत और
दैत्य रचते हैं और फिर ... उनसे अपना पिंड नहीं छुड़ा पाते। हम अपनी दृष्टि
को अपने हाथ से ढक लेते हैं और चिल्लाते है, "कोई हमें प्रकाश दो।" मूर्खों !
अपनी आँखों पर से अपने हाथ हटा लो ! बस यही इतना है ...। कोई अपने को दोष नहीं
देता, पर हम अपनी रक्षा के लिए देवताओं को दुहाई देते हैं। यही तो तरस की बात
है। समाज में इतनी बुराई क्यों है ? वे क्या बताते हैं ? शरीर, शैतान और
औरत। उन्हें तुम अपने लिए सँजोते ही क्यों हो ? कोई नहीं कहता कि तुम
उन्हें अपने लिए सँजोओ। 'हे अर्जुन, कोई भी मेरे मार्ग से च्युत नहीं हो
सकता।'
[49]
हम लोग मूर्ख हैं और हमारे मार्ग मूर्खतापूर्ण हैं। हमें इस सब माया से गुजरना
पड़ेगा। ईश्वर ने स्वर्ग की रचना की और मनुष्य ने अपने लिए नरक रच डाला।
'कोई कर्म मुझे स्पर्श नहीं कर सकता। मुझे कर्म के फल की स्पृहा नहीं है। जो
कोई मुझे ऐसा जानता है, वह कर्म के बंधन में नहीं पड़ता। पहले के मुमुक्षु
पुरुष इस रहस्य को जान कर [निरापद भाव से कर्म में प्रवृत्त हो सके]। तुम भी
उन्हींकी भाँति कर्म करो।
[50]
' 'जो पुरुष प्रचंड कर्म में प्रचंड अकर्म, और प्रचंड अकर्म में प्रचंड कर्म
देखता है, वही (सचमुच बुद्धिमान है)।
[51]
' यही तो प्रश्न है- प्रत्येक इंद्रिय और अंग-प्रत्यंग के सक्रिय होते हुए
भी क्या तुममें वह अपार शांति है कि जिससे कोई भी तुम्हें क्षुब्ध न कर सके
? मार्केट स्ट्रीट में खड़े होकर, तमाम भीड़-भाड़ के बीच ... जो तुम्हारे
चारों तरफ़ से गुजर रही हो, कार की प्रतीक्षा करते समय क्या तुम ध्यानस्थ
हो--अविचल तथा शांत हो ? गुफा में, जहाँ तुम्हारे चतुर्दिक शांति विराजमान
है, वहाँ तुम व्यस्त सक्रिय हो? यदि हो, तो तुम योगी हो, अन्यथा नहीं।
'ज्ञानी जन उसे पंडित कहते हैं जिसके प्रत्येक कार्य संकल्प और कामना से
रहित होते हैं और जिनमें कोई स्वार्थ भावना नहीं होती।'
[52]
जब तक हम लोग स्वार्थी हैं, तब तक सत्य हमारे पास नहीं आ सकता। हम प्रत्येक
वस्तु पर अपनी प्रकृति का रंग चढ़ा देते हैं। चीजें हमारे सम्मुख अपने असली
रूप में आती हैं। यह नहीं कि वे छिपी हैं, ज़रा भी नहीं ! छिपाते तो हम हैं।
हमारे पास तूलिका है। कोई वस्तु आती है, और हमें वह पसन्द नहीं आती; हम उस
पर अपनी तूलिका ज़रा फेर देते हैं और तब उसको देखते हैं ...। हम जानना नहीं
चाहते। हम प्रत्येक वस्तु को अपने रंग से रँग देते हैं। सभी कर्मों की
प्रेरणा स्वार्थ है। हर एक चीज़ हमारे ही द्वारा छिपी है। हम लोग उस रेशम के
कीड़े के सदृश हैं, जो अपने ही शरीर से धागे निकालता है, जिससे कोया बनता है,
और देखो, वह उसी में फँस जाता है। अपने ही कर्मों से वह अपने को बंदीगृह में
डाल लेता है। यही हम लोग कर रहे हैं। जिस क्षण मैं 'मैं' कहता हूँ, धागे का एक
फेरा धूम जाता है। 'मैं और मेरा' कहा कि दूसरा फेरा घूम जाता है ...।
हम कर्म के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते। कर्म करो ! किंतु ठीक उस तरह, जब
तुम्हारा पड़ोसी तुमसे कहता है, "आओ और मेरी मदद करो !" तुम जब अपने लिए
कार्य करो, तब भी ठीक वही भाव रखो। इससे अधिक नहीं। जॉन के शरीर का जितना
मूल्य है, उससे अधिक तुम्हारे शरीर का नहीं है। जॉन के शरीर के लिए तुम
जितना करते हो, उससे कुछ अधिक अपने शरीर के लिए मत करो। यही धर्म है।
'जिसकी चेष्ढाएँ सभी कामनाओं तथा संकल्पों से रहित हैं, उसने ज्ञान रूपी
अग्नि द्वारा सब कर्म-बन्धनों को भस्म कर डाला है। वह पंडित है ।'
[53]
शास्त्राध्ययन इसे नहीं कर सकता। गधे की पीठ पर पूरे पुस्तकालय की
पुस्तकें लादी जा सकती हैं, लेकिन उससे वह विद्वान् कदापि नहीं हो सकता। बहुत
से ग्रंथ पढ़ने से क्या लाभ?' 'कर्म की सब आसक्ति त्याग कर, नित्य तृप्त
रहकर, फल की आशा का परित्याग कर, बुद्धिमान पुरुष कार्य करता है और कर्म से
अतीत रहता है।'
[54]
…
अपनी माता के गर्भ से मैं नग्न पैदा हुआ और नग्न ही लौटता हूँ। निस्सहाय
मैं आया और निस्सहाय जा रहा हूँ। निस्सहाय इस समय भी हूँ। और हम लक्ष्य
नहीं जानते। उसके विषय में सोचना हमारे लिए भयानक है। ऐसे विचित्र भाव हमारे
होते हैं ! हम किसी माध्यम के पास जाते हैं। यह देखने के लिए कि क्या
प्रेतात्मा हमारी सहायता कर सकती है। ज़रा इस कमजोरी पर गौर करो ! प्रेत,
शैतान, देवी-देवता, कोई भी--आओ ! और सब पुरोहितों, सब वंचक पण्डितो ! वही समय
है, जिस क्षण हम निर्बल होते हैं, वे हमको अपने शिकंजे में ले लेते हैं। तब वे
सभी देवताओं को लाते हैं।
मैं अपने देश में देखता हूँ कि कोई व्यक्ति बलवान, शिक्षित और दार्शनिक बन
जाता है और कहता है, "यह सब पूजा-पाठ और स्नान मूर्खता है।" …किसी व्यक्ति
का पिता मर जाता है और उसकी माता मर जाती है। किसी हिंदू के लिए यह सबसे भयानक
सदमा होता है। तुम देखोगे कि वह हर एक गंदे तालाब में स्नान कर रहा है, मंदिर
में जा रहा है और धूल चाट रहा है। ... कोई भी मदद करो ! किंतु हैं हम असहाय।
किसी से कोई सहायता नहीं मिलती। यही सत्य है। मनुष्यों से अधिक देवताओं की
संख्या है; और फिर भी कोई मदद नहीं। हम कुत्तों के सदृश मरते हैं--कोई मदद
नहीं। सर्वत्र पशुता, अकाल, व्याधि, दु:ख और अनिष्ट ! और सहायता के लिए सभी
पुकारते हैं। किंतु कोई सहायता नहीं। और फिर भी, आशा के विपरीत आशा करते हुए,
हम लोग सहायता के लिए पुकार करते हैं। हाय रे दु:ख की दशा ! हाय रे उसका आतंक
! अपने हृदय में देखो! कष्ट के आधे के लिए हम दोषी नहीं हैं, बल्कि दोष हमारे
माता-पिता का है। इस दुर्बलता के साथ पैदा हुए, और उसकी अधिकाधिक मात्रा हमारे
मस्तिष्क में भर दी गई। पग पग ही हम उसके परे हो पाते हैं।
असहाय अनुभव करना बड़ी भारी भूल है। किसी से सहायता की याचना मत करो। अपनी
सहायता हम स्वयं हैं। यदि हम अपनी सहायता नहीं कर सकते, तो हमारा सहायक कोई
नहीं हैं। ...'तुम्हीं एकमात्र अपने बंधु हो, तुम्हीं एकमात्र अपने शुत्र
हो। मेरी अपनी आत्मा के अतिरिक्त कोई अन्य शुत्र नहीं है, अपनी आत्मा के
अतिरिक्त कोई मित्र भी नहीं है।
[55]
' यह अंतिम और सर्वश्रेष्ठ पाठ है और ओह, इसे सीखने में कितना समय लगता है !
ऐसा प्रतीत होता है कि हमने उसे वश में कर लिया और दूसरे क्षण पुरानी तरंग आ
धमकती है। रीढ़ की हड्डी टूट जाती है। हम निर्बल हो जाते हैं और पुन: उसी
कुसंस्कार तथा सहायता को पकड़ने के लिए लपकते हैं। सहायता प्राप्त करने की
इस मिथ्या भावना के जो दु:खराशि सारी (विपत्तियाँ) मिलती हैं, जरा उन पर भी
विचार करो !
संभवत: पुजारी अपने नित्य के घिसे-पिटे शब्दों का उच्चारण करता है और कुछ
प्राप्ति की आशा लगाये रहता है। साठ हजार व्यक्ति आसपास की ओर निगाह लगाये
रहते हैं और प्रार्थना करते हैं तथा पुजारी को दक्षिणा देते हैं। महीने के बाद
महीने बीत जाते हैं, फिर भी उनकी निगाह लगी रहती है, दक्षिणा देते रहते हैं और
प्रार्थना करते रहते हैं...। इस पर गौर करो ! क्या यह पागलपन नहीं है ? कौन
उत्तरदायी है ? तुम धर्म का उपदेश कर सकते हो, परंतु अविकसित बच्चों के मन को
उत्तेजित करना ...! तुम्हें इसके लिए दु:ख भोगना पड़ेगा। अपने अंत::करण में
तुम क्या हो ? किसी के दिमाग में तुमने जो दुर्बलता पैदा करनेवाला विचार भरा
है, इसके बदले मे तुम्हें चक्रवृद्धि ब्याज देना पड़ेगा। कर्मवाद के अनुसार
फलभोग अवश्यम्भावी है।
केवल एक ही पाप है। वह है दुर्बलता। जब मैं बालक था, तो मैंने मिल्टन का
'पैराडाइज लास्ट' पढ़ा था। जिस भले व्यक्ति के प्रति मेरे मन में सम्मान
पैदा हुआ, वह केवल शैतान था। एकमात्र संत है वह आत्मा, जो कभी निर्बल नहीं
होती, प्रत्येक का सामना करती है और चौपड़ के खेल के लिए कृतसंकल्प होती है।
सन्नद्ध हो जाओ और पाँसा फेंको!...एक पागलपन में दूसरा मत जोड़ो। जो अनिष्ट
आने ही वाला है, उसमें अपनी दुर्बलता मत जोड़ो। दुनिया को बस मुझे इतना ही
बताना है। बलवान बनो!... तुम प्रेतों और शैतानों की बातें करते हो। हम लोग
जीवित शैतान हैं। शक्ति और विकास जीवन के लक्षण हैं। मृत्यु का लक्षण है
दुर्बलता, उससे दूर रहो ! वह मृत्यु है। अगर यह शक्ति है, नरक में उतर जाओ और
उसे पकड़ लो! मुक्ति केवल वीरों के लिए है- वीरभोग्या वसुन्धरा। अन्य कोई नहीं, वरन् सर्वश्रेष्ठ
वीर ही मुक्त का अधिकारी है। किसका नरक ? किसका पाप ? किसकी दुर्बलता ? किसकी
मृत्यु ? किसकी व्याधि ?
तुम ईश्वर पर विश्वास करते हो। यदि आस्तिक हो, तो वास्तविक ईश्वर पर
विश्वास करो। 'तुम पुरुष हो, स्त्री हो, तुम कौमार्य की शक्ति से ओतप्रोत
युवा हो और तुम्हीं जीर्ण होकर लाठी टेकते हुए चलते हो।'
[56]
तुम दौर्बल्य हो। तुम भय हो। तुम स्वर्ग हो और तुम नरक हो। तुम डस लेनेवाले
सर्प हो। तुम भय रूप में आओ ! तुम दु:ख रूप में आओ !...
सब दुर्बलता और सब बंधन कल्पना है। उससे एक शब्द कह दो और वह लापता हो
जाएगी। निर्बल मत बनो ! निस्तार का अन्य कोई मार्ग नहीं है....। सन्नद्ध हो
जाओ और शक्तिशाली बनो ! कोई भय नहीं। कोई कुसंस्कार नहीं। सत्य जैसा है,
उसका सामना करो! यदि मृत्यु आती है-वह हमारे सभी दु:खों से बढ़कर दु:ख है-तो
आने दो। हम चौपड़ का पाँसा फेंकने के लिए कृतसंकल्प हैं। यही समय धर्म है,
जिसे मैं जानता हूँ। मैंने उसे उपलब्ध नहीं कर लिया है, किंतु मैं उसके लिए
संघर्ष कर रहा हूँ। हो सकता है मैं न कर सकूँ, पर तुम कर सकते हो। बढ़ते जाओ !
जहाँ कोई किसी दूसरे को देखता है, दूसरे को सुनता है, जब तक दो हैं, तब तक भय
का होना अवश्यम्भावी है और भय ही सारे दु:ख का जनक है। जहाँ कोई किसी अन्य
को नहीं देखता, तब सब एक हैं, वहाँ न तो कोई दुःखी है और न संतप्त है।
[57]
केवल एक है और वह अद्वितीय है। इसलिए डरो मत। जागो, उठो, रूको नहीं, जब तक
लक्ष्य तक पहुँच न जाओ।
गीता पर विचार
सन् १८९७ में स्वामी विवेकानंद अपने कलकत्ते के अल्पवास में प्राय: मठ में ही
रहते थे। यह मठ रामकृष्ण मिशन का प्रधान कार्यालय था, और उन दिनों आलमबाजार
में स्थित था। उस अवधि में कई युवक, जो पहले से ही अपने को तैयार कर रहे थे,
उनके पास आए। उन्होंने संन्यास और ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और स्वामी जी ने
गीता और वेदांत पर कक्षाएँ लेकर तथा उनसे ध्यान का अभ्यास आरंभ कर-कर
उन्हें भावी कार्य के लिए प्रशिक्षित करना शुरू किया। इनमें से एक कक्षा में
गीता पर बांग्ला भाषा में उन्होंने जोरदार प्रवचन किया। मठ की डायरी में
प्रवचन का जा संक्षिप्त विवरण अंकित है, उसका हिंदी रूपांतर निम्नलिखित है:-
गीता नाम से विख्यात ग्रंथ महाभारत का एक अंश है। गीता को ठीक से समझने के
लिए कई बातों का जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रथम तो यह, कि क्या वह सचमुच
महाभारत का एक अंश है, अथवा उस महाकाव्य में वह क्षेपक के रूप में सम्मिलित
कर ली गई है; द्वितीय यह, कि क्या कृष्ण नाम के कोई ऐतिहासिक पुरुष थे;
तृतीय यह, कि गीता में कुरूक्षेत्र के जिस महायुद्ध का उल्लेख है, क्या वह
सचमुच हुआ था; और चतुर्थ यह कि क्या अर्जुन तथा अन्य लोग वास्तविक ऐतिहासिक
पुरुष थे।
अब सर्वप्रथम हम यह देखें कि इस तरह की जाँच-पड़ताल के क्या आधार हैं। हम
जानते है कि वेदव्यास नाम के कई व्यक्ति हुए, और उनमें से गीता का असली लेखक
कौन था-वादरायण व्यास यर द्वैपायन व्यास ? 'व्यास' तो उपाधि मात्र थी। जो
कोई नए पुराण की रचना करता था, वह व्यास के नाम से प्रसिद्ध हो जाता था, जो
विक्रमादित्य शब्द के सदृश एक सामान्य नाम था। एक अन्य बात यह है कि
साधारण जनता को गीता के विषय में तब तक अधिक जानकारी नहीं थी, जब तब
शंकराचार्य ने उस पर अपना महान भाष्य लिखकर उसे विख्यात नहीं बना दिया।
बहुतों का कहना है कि उससे बहुत पहले उस पर बोधायन का भाष्य प्रचलित था। यदि
यह सिद्ध हो सक, तो निस्संदेह गीता की प्राचीनता और व्यास का उसका लेखक होना
काफी हद तक मान्य हो सकता है। किंतु भारत भर में भ्रमण करते समय मुझे
वेदांत-सूत्र पर बोधायन भाष्य की कोई प्रति नहीं मिली। रामानुज ने उससे अपना
श्रीभाष्य संकलित किया, शंकराचार्य ने उसका उल्लेख किया है और स्वयं अपने
भाष्य में उन्होंने यत्र-तत्र उसे अंशत: उद्धृत तक किया है और स्वामी
दयानंद ने उसकी बड़ी चर्चा की है। कहा जाता है कि रामानुज तक ने
कीड़ों-मकोड़ों से खायी हुई एक हस्तलिखित प्रति से, जो संयोग उन्हें मिल गई
थी, अपने भाष्य को संकलित किया। जब वेदांत-सूत्र पर लिखा गया बोधायन का यह
महान भाष्य भी अनिश्चितता के अंधकार में इतना ढका हुआ है, तब गीता पर बोधायन
भाष्य के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास व्यर्थ है। कुछ लोग यह
निष्कर्ष निकालते हैं कि गीता के लेखक शंकराचार्य थे और उन्होंने ही उसे
महाभारत के बीच में प्रक्षिप्त कर दिया।
फिर जहाँ तक दूसरा विचारणीय प्रश्न है, कृष्ण के व्यक्तित्व के विषय में
बहुत संदेह की स्थिति है। छांदोग्योपनिषद में एक जगह हमें देवकी के पुत्र
कृष्ण का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने एक घोर नामक योगी से आध्यात्मिक
शिक्षा प्राप्त की थी। महाभारत में कृष्ण द्वारिकाधीश हैं और विष्णुपुराण
में गोपियों के साथ लीला करते हुए कृष्ण का वर्णन मिलता है। फिर भागवत में
उनकी रासलीला का विशद वर्णन किया गया है। हमारे देश में अति प्राचीन काल में
मदनोत्सव के नाम से एक उत्सव (कामदेव के सम्मान में समारोह) प्रचलित था।
बिल्कुल वही चीज दोल में रूपान्तरित कर दी गई और वह कृष्ण के मत्थे मढ़
दी गई। कौन इतना साहसी हो सकता है, जो जोर देकर कहे कि उनसे संबंधित रासलीला
तथा अन्य वस्तुएँ उनके साथ उसी भाँति नहीं जोड़ दी गईं ? प्राचीन काल में
हमारे देश में ऐतिहासिक शोध द्वारा सत्य का पता लगाने की प्रवृत्ति बहुत कम
थी। अतएव समुचित तथ्यों और प्रमाणों द्वारा सिद्ध किए बिना ही जिसके विचार
में जो सर्वोत्तम जान पड़ता, उसे वह कह डालता था। इसलिए प्राय: ऐसा हुआ कि
किसी आदमी ने कोई ग्रंथ रचा और गुरु या किसी अन्य के नाम से उसे प्रचलित कर
दिया। ऐसे मामलों में ऐतिहासिक तथ्यों की खोज करनेवाले के लिए सत्य तक
पहुँचाना बड़े जोखिम का काम है। प्राचीन काल में लोगों को भूगोल का जरा भी
ज्ञान नहीं था-कल्पना की बेसिर पैर की उड़ानें थीं, अत: हमें मस्तिष्क की
ऐसी काल्पनिक सृष्टियों के नमूने मिलते हैं यथा इक्षु-सागर, घृत-सागर,
दघि-सागर, आदि ! पुराणों में हमें मिलता है कि एक की आयु दस हजार वर्ष थी, तो
दूसरे की आयु एक लाख वर्ष थी ! किंतु वेद कहते हैं, शतायुर्वै पुरुष:-'मनुष्य
की आयु एक सौ वर्ष की है।' यहाँ हम किसका मत ठीक मानें ? अत:, कृष्ण के विषय
में सही निष्कर्ष पर पहुँचना प्राय: असंभव है।
यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह किसी महान पुरुष के वास्तविक चरित में तरह
तरह की काल्पनिक अतिमानवीय विशेषताएँ जोड़ देता है । कृष्ण के विषय में
अवश्य ऐसा हुआ होगा, किंतु यह बिल्कुल संभव प्रतीत होता है कि वह राजा थे।
मैं इसे बिल्कुल संभव कहता हूँ, क्योंकि प्राचीन काल में हमारे देश में
ब्रह्म ज्ञान का उपदेश देने में मुख्यत: राजन्य वर्ग ही उद्योग करता था।
यहाँ एक और बात पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा कि गीता का लेखक चाहे जो कोई
रहा हो, हमें उसमें वही शिक्षाएँ मिलती हैं, जो समस्त महाभारत में हैं। इससे
हम निरापद रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि महाभारत-काल में किसी महान
पुरुष का अभ्युदय हुआ, जिसने तत्कालीन समाज को इस नए परिधान में ब्रह्मज्ञान
का उपदेश दिया। एक और बात सामने आती है कि प्राचीन समय में जब एक
धर्म-संप्रदाय के पश्चात् दूसरे धर्म-संप्रदाय का अभ्युदय होता था, तब किसी
न किसी नए धर्मशास्त्र का भी प्रणयन होता था और वह उनमें व्यवहृत होने लगता
था। यह भी होता था कि काल व्यतीत होने पर धर्म-संप्रदाय का तो अस्तित्व मिट
गया, किंतु धर्मशास्त्र बचा रह गया। इस प्रकार,यह बिल्कुल संभव है कि गीता
किसी ऐसे धर्म-संप्रदाय का शास्त्र रही हो, जिसने अपने उच्च एवं श्रेष्ठ
विचारों को इस पवित्र ग्रंथ में समाविष्ट किया हो।
अब तीसरा प्रश्न है, जो कुरूक्षेत्र के युद्ध के विषय से सम्बधित है। इसके
समर्थन में कोई विशेष प्रमाण नहीं प्रस्तुत किया जा सकता। परंतु इसमें संदेह
नहीं है, कि कुरूओं और पांचालों में एक युद्ध हुआ था। दूसरी बात यह है कि
रणक्षेत्र में, जहाँ विशाल सेना व्यूहबद्ध खड़ी हो और लड़ने के लिए सन्नद्ध
हो, बस अंतिम संकेत की प्रतीक्षा कर रही हो, ज्ञान, भक्ति और योग के विषय में
इतनी अधिक चर्चा कैसे हो सकती थी ? और क्या रणक्षेत्र के कोलाहल और खलबली में
कृष्ण तथा अर्जुन के संवाद के प्रत्येक शब्द को नोट करने के लिए वहाँ कोई
शीघ्रलिपिक उपस्थित था ? कुछ लोगों का कहना है कि कुरूक्ष्ोत्र-युद्ध केवल एक
रूपक है। जब हम उसके गुह्य अभिप्राय का सारांश निकालते हैं, तो उसका अर्थ उस
युद्ध से होता है, जो निरंतर मनुष्य के अंत:करण में उसकी दैवी तथा आसुरी
प्रवृत्तियों में हो रहा हैं। यह अर्थ भी विवेकवर्जित नहीं हो सकता। चौथा
प्रश्न लो। अर्जुन तथा अन्य लोगों की ऐतिहासिकता के विषय में संदेह का काफ़ी
आधार है और वह आधार यह है-अत्यंत प्राचीन ग्रंथ, शतपथ ब्राह्मण है उसमें कहीं
पर उन सभी नामों का उल्ल्ोख है, जो अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठाता थे, किंतु
वहाँ अर्जुन तथा अन्य लोगों के नामों के उल्लेख की कौन कहे, उनका संकेत भी
नहीं है, यद्यपि उसमें जनमेजय का वर्णन है, जो परीक्षित के पुत्र और अर्जुन के
प्रपौत्र थे, फिर भी महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में कहा गया है कि युधिष्ठिर,
अर्जुन तथा अन्य लोगों ने अश्वमेघ यज्ञ किया।
यहाँ एक बात विशेष रूप से याद रखनी चाहिए कि इन ऐतिहासिक खोजों और हमारे
वास्तविक उद्देश्य के बीच कोई संबंध नहीं है। हमारा वास्तविक उद्देश्य वह
ज्ञान है, जो धर्मोंपार्जन कराता है। इसकी सारी ऐतिहासिकता आज पूर्ण रूप से
मिथ्या प्रमाणित हो जाए, तब भी इससे हमें कोई क्षति नहीं पहुँचेगी। तब तुम
पूछ सकते हो कि इतनी ऐतिहासिक शोध से क्या लाभ है ? इससे लाभ है, क्योंकि
हमें सत्य का पता लगाना है। वह हमें अज्ञानवश ग़लत भावनाओं में बँधे नहीं
रहने देगा। इस देश में इस प्रकार की छानबीन के महत्त्व को लोग बहुत कम समझते
हैं। बहुत से धर्म-संप्रदायों का विश्वास है कि बहुजनहिताय किसी अच्छी बात
का उपदेश देने में, एक असत्य कह देने से कोई हानि नहीं है, बशर्ते उससे उपदेश
को सहायता मिले, या दूसरे शब्दों में उद्देश्य पावन होने से साधनों के अपावन
होने के दोष का परिमार्जन हो जाता है। अत: हम देखते हैं कि हमारे तंत्र
ग्रंथों में से बहुतों का आरंभ 'महादेव ने पार्वती से कहा' से होता है। किंतु
हमार कर्तव्य यह होना चाहिए कि हमें स्वयं सत्य की पूरी प्रतीति हो जाए और
हम केवल सत्य में ही विश्वास करें। कुसंस्कार अथवा सत्य की छानबीन किए
बिना प्राचीन परंपराओं के विश्वास में इतना बल है कि वह लोगों का हाथ-पाँव
जकड़ देता है, इतना जकड़ देता है कि ईसा मसीह, मुहम्मद और अन्य महापुरुष तक
ऐसे बहुत से कुसंस्कारों के प्रति आस्था रखते थे औार उन्हें विदा न कर सके।
तुम्हें सदा अपनी दृष्टि सत्य पर जमाये रखनी चाहिए और सभी कुसंस्कारों का
पूर्णतया परिहार करना चाहिए।
अब हमें यह देखना चाहिए कि गीता में क्या है। उपनिषदों का अध्ययन करें तो हम
देखते हैं कि बहुत से असम्बद्ध विषयों की भूलभुलैया में भटकने पर सहसा किसी
महान सत्य की चर्चा छिड़ जाती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी विशाल वीरान प्रदेश
में किसी यात्री को अकस्मात् यत्र-तत्र अति सुंदर गुलाब मिल जाता है, जिसकी
पत्तियाँ, काँटे, जड़ें सभी परस्पर उलझी हैं। उनकी तुलना मे गीता इन सत्यों
के सदृश है, जो सुंदर ढंग से यथास्थान व्यवस्थित है--वह एक सुंदर पुष्पमाला
के या सर्वोत्तम चुने हुए फूलों के एक गुलदस्ते के समान है। उपनिषदों में कई
स्थलों पर श्रद्धा की विस्तृत विवेचना की गई है, किंतु भक्ति का उल्लेख
अल्प ही है। दूसरी ओर गीता में भक्ति की बार-बार विवेचना ही नहीं की गई है,
वरन् उसमें भक्ति की अंत:र्निष्ठ भावना चरम उत्कर्ष तक पहुँच गई है।
अब गीता के कुछ प्रमुख प्रसंगों पर दृष्टिपात करें, जिनकी उसमें चर्चा है।
गीता की मौलिकता किस बात में है, जिससे पूर्ववर्ती सभी शास्त्रों से वह
विशिष्ट मानी जा सकती है? यद्यपि उसके प्रवर्तन के पूर्व योग, ज्ञान, भक्ति
आदि सभी के दृढ़ अनुयायी थे, तथापि वे सब आपस में विवाद करते थे। अपने चुने
हुए मार्गों की सर्वात्कृष्टता का प्रत्येक दावा करता था। इन विभिन्न
मार्गों में समन्वय स्थापित करने का किसीने कभी प्रयत्न नहीं किया। गीता के
रचयिता ने ही सर्वप्रथम उनमें समन्वय का प्रयास किया। तत्कालीन प्रचलित सभी
धर्म संप्रदायों के सर्वोत्तम तत्वों को उन्होंने लिया और गीता में सूत्रबद्ध
कर दिया। किंतु जहाँ आपस में लड़ने-झगड़नेवाले इन धर्म-संप्रदायों में पूर्ण
समन्वय प्रस्तुत करने में कृष्ण विफल हुए, वहाँ इस उन्नीसवीं शताब्दी में
वह रामकृष्ण परमहंस द्वारा पूर्णत: संपन्न हुआ।
इसके पश्चात् है निष्काम कर्म, आसक्ति रहित कर्म। आजकल लोग इसका अर्थ कई तरह
से करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि अनासक्त होने का अर्थ है निरभिप्राय हो
जाना। यदि उसका यथार्थ यही है, तब तो हृदयहीन पशु और दीवारें निष्काम कर्म के
सम्पादन के सबसे बढि़या नमूने हैं। फिर लोग जनक का उदाहरण रखते हैं कि
निष्काम कर्म के अभ्यास में सिद्धहस्त होने में उनको भी वैसी ही मान्यता
दी जाए। जनक (शाब्दिक अर्थ, पिता) ने वह गौरव बच्चे पैदा कर उपार्जित नहीं
किया था, किंतु ये लोग एक झुंड बच्चों के पिता होने की एक-मात्र अर्हता पर
जनक बनना चाहते हैं। सच्चे निष्काम कर्मी (बिना कामना के काम करनेवाले) को न
तो पशु बनना है, न जड़, न हृदयहीन। वह तामसिक नहीं, बल्कि विशुद्ध सात्त्विक
होता है। उसका हृदय प्रेम और सहानुभूति से इतना ओतप्रोत है कि वह अपने प्रेम
से सारे विश्व को लपेट सकता है। किंतु संसार साधारणत: उसके सर्वग्राही प्रेम
तथा सहानुभूति को पूरी तरह समझ नहीं पाता।
धर्म के विभिन्न मार्गों का समन्वय और नि:स्पृह या निष्काम कर्म-ये गीता की
दो प्रमुख विशेषताएँ हैं।
अब हम द्वितीय अध्याय से कुछ पढ़ें--
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:।।१।।
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।।२।।
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।।३।।
संजय ने कहा--जो अर्जुन करुणा और विषाद से अभिभूत हो गया था और जिसके नेत्र
आँसुओं से गीले हो गए थे, उससे मधुसूदन ने ये शब्द कहे :--
श्री भगवान ने कहा--
हे अर्जुन, तुझको ऐसे विषम स्थल में यह नैराश्य किस हेतु प्राप्त हुआ ? यह
तो अनार्यों के जैसा है, अकीर्तिकारी है और स्वर्ग-प्राप्ति के विपरीत है।
हे पृथा-पुत्र, तू नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहीं है। हृदय
की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर, हे शत्रुतापी, उठ।
तं तथा कृपयाविष्टम्
से आरंभ होनेवाले श्लोक में कैसे कवित्वपूर्ण ओर कैसे सुंदर ढंग से अर्जुन
की सच्ची स्थिति का चित्रण किया गया हैं ! तब श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश
देते हैं, और क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ अदि कहकर वह लड़ने के लिए अर्जुन
को प्रेरित क्यों कर रहे हैं ? क्योंकि अर्जुन में युद्ध से विरति विशुद्ध
सत्त्व गुण की अति प्रबलता के कारण पैदा नहीं हुई। अनिच्छा पैदा होने का कारण
बिल्कुल तमस् था। सत्त्व-गुण-प्रधान व्यक्ति की प्रकृति होती है कि वह जीवन
की सभी स्थितियों में--चाहे संपत्ति हो अथवा विपत्ति हो--समभाव से शांत रहता
है। किंतु अर्जुन त्रस्त था, वह करुणा से आकुल था। वह रणक्षेत्र में लड़ने के
अलावा किसी दूसरे अभिप्राय से नहीं आया था, इस सीधे से तथ्य से सिद्ध हो जाता
है कि उसमें युद्ध की जन्मजात प्रवृत्ति थी और उस ओर झुकाव था। हमारे जीवन
में भी बहुधा ऐसी घटनाएँ देखी जाती हैं। बहुत से लोग सोचते हैं कि उनकी
प्रकृति सात्त्वि है, परंतु वस्तुत: वे तामसिक के अतिरिक्त और कुछ नहीं
होते। बहुत से लोग गंदे तरीक़े से रहते हैं और अपने को परमहंस मान बैठते हैं !
क्यों ? क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि परमहंस लोग किसी जड़ या पागल या गंदे
जीवन सदृश रहते हैं। परमहंसों की उपमा बच्चों से दी जाती है, लेकिन इसे समझना
चाहिए कि यह उपमा एकांगी है। परमहंस और बालक एक तथा अभिन्न नहीं हैं। वे केवल
एक से प्रतीत होते हैं, मानो दो छोरों पर स्थित दो ध्रुव हों। एक ज्ञानातीत
अवस्था में पहुँच गया है और दूसरे को ज्ञान का आभास तक नहीं हुआ है। प्रकाश
के सबसे द्रुत और मंद कंपन, दोनों ही, हमारी स्थूल दृष्टि की पहुँच के परे
हैं, किंतु एक में प्रखर ताप है और दूसरे में, हम कह सकते हैं कि ताप प्राय:
बिल्कुल नहीं होता। सत्त्व और तमस् के परस्पर विरोधी गुध भी ऐसे ही हैं,
निस्संदेह, कई दृष्टियों से तो वे एक प्रतीत होते हैं, लेकिन उनमें
आकाश-पाताल की भिन्नता है। तमोगुण को अपने को सत्त्व के वेश-विन्यास में
दिखाना बहुत प्रिय है। यहाँ महायोद्धा अर्जुन में वह तमस् दया (करुणा) के छद्म
वेश में आया है।
अर्जुन को जिस मोह ने धर दबाया है, उसके निवारण के लिए भगवान ने क्या कहा ?
जैसा कि मैं सदा उपदेश देता हूँ कि किसी व्यक्ति को पापी कहकर तुम्हें उसकी
निंदा नहीं करनी चाहिए, बल्कि तुम्हें उसका ध्यान, उसमें विद्यामान
सर्वशक्तिमत्ता की ओर आकृष्ट करना चाहिए, वैसे ही भगवान अर्जुन से कहते हैं। नैतत्त्वय्युपपद्यते--'यह तुम्हारे योग्य नहीं है !' 'तुम
अविनाशी आत्मा हो, बस दोषों से परे हो। अपनी सत्य प्रकृति को भूलकर और अपने
को पापी समझकर, तुमने अपने को वैसा बना लिया है, जैसा कि कोई शारीरिक पापों
तथा मानसिक शोक से पीड़ित हो--यह तुम्हारे योग्य नहीं है।' भगवान इस प्रकार
कहते हैं, "क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ--हे पृथा-पुत्र, नपुंसकता को न
प्राप्त हो। दुनिया में न तो पाप है, न दु:ख है, न रोग है और न शोक है; यदि
दुनिया में कोई ऐसी वस्तु है, जिसे पाप कहा जा सकता है, तो वह है--'भय'। जान
लो कि जिस किसी काम से तुममें गुप्त शक्ति पैदा हो, वह पुण्य है ; और जो
तुम्हारे शरीर और मन को निर्बल बनाये, वह सचमुच पाप है। इस निर्बलता और इस
हृदय-दुर्बलता को दूर भगाओ ! क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ !
तुम बहादुर हो, वीर हो; यह तुम्हारे अयोग्य है।"
यदि तुम लोग, ऐ मेरे बच्चो, दुनिया को यह संदेश पहुँचा सको कि क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते--तो ये
सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जाएं। दुर्बलता
के ये सब भाव कहीं नहीं रह जाएंगे। इस समय सर्वत्र है--भय के स्पंदन का यह
प्रभाव। प्रवाह को उलट दो; उलटा स्पंदन लाओ, और देखो, जादू का रूपान्तर !
तुम सर्वशक्तिमान हो--तोप के मुँह तक जाओ, जाओ तो, डरो मत। अति अधम पापी से
घृणा मत करो, उसके बाहर को मत देखो। दृष्टि को अंत:र्मुख करो, जहाँ परमात्मा
का निवास है। तुरही की ध्वनि से विश्व को निनादित कर दो, 'तुममें कोई पाप
नहीं है, तुममें कोई दु:ख नहीं है, तुम परम शक्ति के आगार हो। उठो, जागो और
भीतर के देवत्व को अभिव्यक्त करो।'
यदि कोई यह श्लोक पढ़ता है
--क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं
हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप--
तो उसे संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ होता है, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी
गीता का संदेश निहित है।
[41]
ऐतरेयोपनिषद्।।१।।; छान्दोग्योपनिषद्।।६।२-३।।
[56]
श्वेताश्वतरोपनिषद्।।४।३।।
[57]
छान्दोग्योपनिषद्।।७।२३-२४।।