सूक्तियाँ एवं सुभाषित
१. स्वामी जी से किसी ने पूछा : "क्या बुद्ध ने उपदेश दिया था कि नानात्व सत्य
है और अहम् असत्य है, जब कि सनातनी हिंदू धर्म एक को सत्य और अनेक (या
नानात्व) को असत्य मानता है ?" स्वामी जी ने उत्तर दिया, "हाँ, और रामकृष्ण
परमहंस तथा मैंने इसमें जो कुछ जोड़ा है, वह यह है : अनेक और एक एक ही तत्त्व
हैं, जिसका प्रत्यक्ष मन विभिन्न समयों पर और विभिन्न वृत्तियों के साथ करता
है।"
२. "याद रखो!" उन्होंने एक बार अपने शिष्य से कहा, "याद रखो! भारत का सदैव यही
सन्देश रहा है : 'आत्मा प्रकृति के लिए नहीं, वरन् प्रकृति आत्मा के लिए है !'
"
३. "जिस बात की दुनिया को आज आवश्यकता है, वह है बीस ऐसे स्त्री पुरुष जो सड़क
पर खड़े होकर सबके सामने यह कहने का साहस कर सकें कि हमारे पास ईश्वर को
छोड़कर और कुछ नहीं है। कौन निकलेगा? डर की क्या बात है ? यदि यह सत्य है, तो
और किसी बात की क्या परवाह ? यदि यह सत्य नहीं है, तो हमारे जीवन का ही क्या
मूल्य है ?"
४. "आह ! कितना शांतिपूर्ण हो जाता है उस व्यक्ति का कर्म जो मनुष्य की
ईश्वरता से सचमुच अवगत हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को कुछ भी करना शेष नहीं रह
जाता, सिवाय इसके कि वह लोगों की आँखें खोलता रहे। शेष सब अपने आप हो जाता
है।"
५. उन (श्री रामकृष्ण) को वह महान जीवन जीने मात्र में ही संतोष था। उसकी
व्याख्या की खोजबीन उन्होंने दूसरों पर छोड़ दी थी।
६. जब स्वामी विवेकानन्द के एक शिष्य ने उनसे लौकिक व्यवहारशीलता की कोई बात
कही, तब वे झल्लाकर कहने लगे, "योजनाएँ! योजनाएँ ! यही कारण है कि . . .पश्चिम
के लोग कभी धर्म की सृष्टि नहीं कर सकते! यदि तुम लोगों में से किसी ने की तो
केवल उन थोड़े से कैथोलिक संतों ने जिनके पास कोई योजनाएँ नहीं थीं। योजना
बनानेवालों ने कभी धर्म की शिक्षा नहीं दी।''
७. "पश्चिम का सामाजिक जीवन एक अट्टहास है; किंतु भीतर से वह रुदन है। उसका
अंत सिसकी में होता है। समस्त आमोद-प्रमोद और चापल्य सतह पर है। वस्तुतः वह
दुखांत तीव्रता से पूर्ण है। पर यहाँ, वह बाहर से दुःखी और उदास है, परंतु
उसमें भीतर निश्चिंतता और आह्लाद है।
"हमारे यहाँ एक सिद्धांत है कि यह सृष्टि केवल लीला के लिए ईश्वर की
अभिव्यक्ति है, और लीला के लिए अवतारों ने पृथिवी पर जन्म लिया एवं जीवन
व्यतीत किया। खेल, यह केवल खेल ही था। ईसा को ऋसित क्यों किया गया? वह लीला
मात्र थी। यही बात जीवन की है। प्रभु के साथ खेल मात्र। कहो, 'यह सब खेल है,
यह सब खेल है।' क्या 'तुम' सचमुच कुछ करते हो?"
८. "मुझे विश्वास हो चला है कि नेता का निर्माण एक जीवन में नहीं होता। उसे
इसके लिए जन्म लेना होता है। कारण यह है कि संगठन और योजनाएँ बनाने में कठिनाई
नहीं होती; नेता की परीक्षा, वास्तविक परीक्षा विभिन्न प्रकार के लोगों को
उनकी सर्व-सामान्य संवेदनाओं की दिशा में एकत्र रखने में है। यह केवल अनजान
में ही किया जाना संभव है, प्रयत्न द्वारा कदापि नहीं।"
९. प्लेटो के प्रत्ययों के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए स्वामी जी ने कहा,
"और इसलिए तुम देखते हो, यह सब केवल उन महान प्रत्ययों की क्षीण अभिव्यक्ति
मात्र है। केवल वे ही सत्य और पूर्ण हैं। कहीं तुम्हारा प्रत्ययात्मक-आदर्श--
'तुम' है, तुम्हारा यह तुम उसकी अभिव्यक्ति का एक प्रयास है ! प्रयास में अभी
भी अनेक प्रकार की कमियाँ हैं। फिर भी, बढ़े चलो! किसी दिन तुम आदर्श की
अभिव्यक्ति कर सकोगे।"
१०. एक शिष्या के कथन का उत्तर देते हुए, जिसके विचार में मोक्ष की उत्कट
अभिलाषा लेकर व्यक्तिगत मुक्ति के लिए प्रयत्न करने की अपेक्षा अपने प्रिय
आदर्शों की पूर्ति के लिए बार बार जन्म लेना उसके लिए अधिक श्रेयस्कर होगा,
स्वामी जी ने तत्काल उत्तर दिया, "इसका कारण यह है कि तुम प्रगति के विचार के
ऊपर विजय नहीं प्राप्त कर पातीं। किंतु चीज़ों की अच्छाई में वृद्धि नहीं
होती। वे तो जैसी की तैसी रहती हैं; और हम उनमें जो परिवर्तन करते हैं, उसके
अनुसार 'हम' श्रेष्ठतर होते चलते हैं।"
११. अल्मोड़े में एक वयोवृद्ध सज्जन, जिनका मुख प्रीतिकर दुर्बलता से पूर्ण
था, आए और उनसे कर्म के संबंध में एक प्रश्न पूछा। उन्होंने पूछा कि जिनके
कर्म में सबलों के द्वारा दुर्बलों को सताये जाते हुए देखना हो, उन्हें क्या
करना चाहिए? स्वामी जी ने उन पर विस्मयपूर्ण रोष प्रकट करते हुए कहा, "क्यों,
निश्चय ही बलवानों को ठोंक दो। इस कर्म में तुम अपना योग भूल जाते हो; तुम्हें
विद्रोह करने का अधिकार सदैव है।"
१२. किसी ने स्वामी जी से पूछा, "औचित्य की रक्षा के निमित्त मनुष्य को
आत्म-बलिदान करने के लिए उद्यत होना उचित है अथवा गीता की शिक्षा मानकर कभी भी
प्रतिक्रिया न करने का पाठ सीखना? स्वामी जी धीरे-धीरे यह कहकर देर तक चुप
रहे, "मैं तो प्रतिक्रियाहीन होने के पक्ष में हूँ।" फिर उन्होंने
कहा--"संन्यासियों के लिए। गृहस्थ के लिए आत्म-रक्षा!"
१३. "यह सोचना भूल है कि सभी मनुष्यों के लिए सुख ही प्रेरणा होता है। उतनी ही
बड़ी संख्या तो उनकी भी है जो दुःख की खोज करने के ही लिए जन्म लेते हैं। आओ,
हम लोग भी 'कराल' की उपासना कराल' के ही निमित्त करें।"
१४. "रामकृष्ण परमहंस ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो सदैव यह कहने का साहस रखते थे
कि हमें सभी लोगों को उनकी ही भाषा में उत्तर देना चाहिए।"
१५. 'काली' को इष्टरूप में स्वीकार करने में अपने संशय' के दिनों को स्मरण
करते हुए उन्होंने कहा, "मैं 'काली' से कितनी घृणा करता था ! और उसके सभी
ढंगों से ! वह मेरे छः वर्षों के संघर्ष की भूमि थी--कि मैं उसे स्वीकार नहीं
करूंगा। पर मुझे अंत में उसे स्वीकार करना पड़ा। रामकृष्ण परमहंस ने मुझे उसे
अर्पित कर दिया था, और अब मुझे विश्वास है कि जो भी मैं करता हूँ, उस सब में
वह मुझे पथ दिखलाती है और जो उसकी इच्छा होती है, वैसा मेरे साथ करती है। . .
.फिर भी मैं इतने दीर्घकाल तक लड़ा। मैं भगवान् रामकृष्ण को प्यार करता था और
बस इसी बात ने मुझे अविचल रखा। मैंने उनकी अद्भुत पवित्रता देखी. . . मैंने
उनके अद्भुत प्रेम का अनुभव किया। तब तक उनकी महानता का भान मुझे नहीं हुआ था।
वह सब बाद में हुआ, जब मैंने समर्पण कर दिया। उस समय मैं उन्हें दिव्य-दृश्य
आदि देखनेवाला एक विकृत-चित्त शिशु समझता था। मुझे इससे घृणा थी। और फिर तो
मुझे भी उसे (काली को) स्वीकार करना पड़ा।
"नहीं, जिस बात ने मुझे ऐसा करने के लिए बाध्य किया, वह एक रहस्य है जो मेरी
मृत्यु के साथ ही चला जाएगा। उन दिनों मेरे ऊपर अनेक विपत्तियाँ आ पड़ी थीं।.
. . यह एक अवसर था . . . उसने मुझे दास बना लिया। ये ही शब्द थे : 'तुमको
दास'। तब रामकृष्ण परमहंस ने मुझे उसको सौंप दिया. . . आश्चर्यजनक ! ऐसा करने
के बाद वे केवल दो वर्ष तक जीवित रहे और उनका अधिकांश समय कष्ट में ही बीता।
वे छः महीने भी अपने स्वास्थ्य और ओज को सुरक्षित न रख सके।
"जानते ही होगे, गुरु नानक भी ऐसे ही थे, केवल इस बात की प्रतीक्षा में कि कोई
शिष्य ऐसा मिले, जिसे वे अपनी शक्ति दे सकते। उन्होंने अपने परिवारवालों की
उपेक्षा की--उनके बच्चे उनकी दृष्टि में बेकार थे--तब उन्हें एक बालक मिला,
जिसे उन्होंने दिया। तब कहीं वे शांति से मर सके।
"तुम कहते हो कि भविष्य रामकृष्ण को काली का अवतार कहेगा? हाँ, मैं समझता हूँ
कि निस्संदेह उसने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही रामकृष्ण के शरीर का
निर्माण किया था।
"देखो, मैं बिना यह विश्वास किए नहीं रह सकता कि कहीं कोई ऐसी शक्ति है, जो
अपने को नारी मानती है और काली अथवा माँ कही जाती है . . .और मैं ब्रह्म में
भी विश्वास करता हूँ. . .किंतु क्या वह सदैव ऐसा ही नहीं है ? क्या इस शरीर
में कोषाणुओं का समूह ही व्यक्तित्व का निर्माण नहीं करता; क्या, केवल एक
नहीं, बल्कि अनेक मस्तिष्क केंद्र ही चेतना की सृष्टि नहीं करते? . . .जटिलता
में एकता! ठीक ऐसा यह बात ब्रह्म के संबंध में भिन्न क्यों हो? वह ब्रह्म है।
वह एक है। फिर भी--फिर भी--वह देव-वर्ग भी है।"
१६. "जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है, उतना ही अधिक मुझे लगता। है कि पौरुष
में सभी बातें शामिल हैं। यह मेरा नया संदेश है।"
१७. यूरोपवालों के द्वारा नरभक्षी वृत्ति के इस तरह उल्लेख को कि जैसे वह कुछ
समाजों के जीवन का सामान्य अंग ही हो, लक्षित करते हुए स्वामी जी ने कहा, "यह
सत्य नहीं है ! किसी भी जाति ने धार्मिक बलिदान, युद्ध अथवा प्रतिशोध के
अतिरिक्त कभी भी नर-मांस भक्षण नहीं किया। क्या तुम नहीं देखते ? वह यूथचारी
प्राणियों में हो ही नहीं सकती। वह तो सामाजिक जीवन का ही मूलोच्छेदन कर
देगी।"
१८. "यौन-प्रेम तथा सृष्टि ! ये ही अधिकांश धर्मों की जड़ में हैं। इन्हें
भारत में वैष्णव धर्म और पश्चिम में ईसाई मत कहते हैं। मृत्यु अथवा काली की
उपासना का साहस करनेवालों की संख्या कितनी कम है। आओ हम मृत्यु की उपासना
करें। आओ, हम मृत्यु की उपासना करें! आओ, हम कराल को आलिंगन में बाँध लें,
इसलिए कि वह कराल है ! हम यह न कहें कि वह शांत हो जाए। आओ, आपदा को आपदा के
ही निमित्त स्वीकार करें।"
१९. "पाँच सौ वर्ष धर्म-मार्ग के, पाँच सौ वर्ष प्रतिमाओं के तथा पाँच सौ वर्ष
तंत्रों के, ये बौद्धमत के तीन चक्र थे। पर यह न समझो कि भारत में कभी बौद्ध
नामक धर्म भी था, जिसके अपने मंदिर और पुरोहित थे! ऐसा कुछ न था। यह सब तो
सदैव हिंदू धर्म के ही अंतर्गत था। केवल एक ही समय बुद्ध का प्रभाव सर्वोपरि
हुआ, और तभी सारी जाति मठ-प्रेमी बन गई।"
२०. "सनातनियों का सारा आदर्श समर्पण है। तुम्हारा आदर्श संघर्ष है। फलतः हमी
लोग जीवन का आनंद उठा सकते हैं, तुम लोग कदापि नहीं! तुम हमेशा अपनी दशा को और
अच्छे रूप में परिवर्तित करने के लिए सचेष्ट रहते हो, और एक करोड़वें अंश
मात्र का परिवर्तन संपन्न होने के पहले ही मर जाते हो। पश्चिम का आदर्श
क्रियाशील रहना है, पूर्व का आदर्श सहन करना है। पूर्ण जीवन क्रियाशीलता और
सहनशीलता का समन्वय है। पर वह कभी हो नहीं सकता।
"हमारे पथ में यह स्वीकार किया गया है कि मनुष्य की सभी इच्छाओं की पूर्ति
संभव नहीं है। जीवन में अनेक बाधाएँ हैं। यह असुंदर है, किंतु यह प्रकाश और
शक्ति के बिंदुओं को उभारता भी है। हमारे सुधारक केवल कुरूपता को देखते हैं और
उसके निराकरण की चेष्टा करते हैं। लेकिन वे उसके स्थान पर कुछ वैसा ही और
कुरूप स्थापित कर देते हैं, और नयी रूढ़ि की शक्ति के केंद्रों के समरूप कार्य
करने में हमें पुरानी रूढ़ि के बराबर ही समय देना पड़ता है।
"इच्छा परिवर्तन के द्वारा सबल नहीं की जा सकती। वह तो उससे दुर्बल और पराधीन
बन जाती है। परंतु हमें सदैव आत्मसात् करते रहना चाहिए। आत्मसात् करते रहने से
इच्छा-शक्ति बल पाती है। संसार में इच्छा-शक्ति ऐसी शक्ति है, जिसकी प्रशंसा
हम जान या अनजान में करते हैं। इच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति करने के कारण ही सती
को संसार महान मानता है।
"जिस चीज के दूर करने की आवश्यकता है, वह स्वार्थपरता है। मैं देखता हूँ कि
अपने जीवन में मैंने जब कभी कोई भूल की है, तो सदैव ही मूल्यांकन में मेरा
'स्व' सम्मिलित हो गया था। जहाँ पर 'स्व' ने हस्तक्षेप नहीं किया, वहाँ मेरा
निर्णय सीधे अभीष्ट पर पहुँच गया।
"बिना 'स्व' के कोई भी धर्म संभव न हो पाता। यदि मनुष्य अपने लिए कुछ न चाहता
होता, तो क्या तुम समझते हो कि वह प्रार्थना और उपासना की ओर प्रवृत्त हुआ
होता? अरे! वह तो ईश्वर के संबंध में कभी विचार भी न करता, सिवाय इसके कि वह
यदाकदा किसी सुंदर प्राकृतिक दृश्य आदि को देखकर कुछ थोड़ी प्रशंसा कर देता।
वस्तुतः यही तो वह दृष्टि है, जिसे अपनाने की आवश्यकता है। बस स्तुति और
धन्यवाद। काश, हम लोग इस 'स्व' से मुक्त हो पाते!
"संघर्ष को विकास का चिह्न मानना तुम्हारी बड़ी भूल है। बात ऐसी कदापि नहीं
है। आत्मसात्करण ही उसका चिह्न है। हिंदू धर्म आत्मसात्करण की प्रतिभा का ही
नाम है। हमने संघर्ष की कभी चिंता नहीं की। निश्चय ही हम कभी-कभी अपने घर की
रक्षा के लिए प्रहार कर ही सकते थे! वह ठीक भी होता। पर हमने कभी भी संघर्ष के
लिए संघर्ष की ओर ध्यान नहीं दिया। प्रत्येक को यह पाठ सीखना पड़ा। अतः ये
नवागंतुक जातियाँ चक्कर काटती रहें ! अंत में वे सब हिंदू धर्म में समाहित हो
जाएंगी।"
२१. "सगुण ईश्वर, केवल मानव आत्माओं का ही नहीं, प्रत्युत् सभी आत्माओं का
पूर्ण योग है। पूर्ण की इच्छा का विरोध कोई नहीं कर सकता। इसी को हम नियम कहते
हैं। यही 'शिव' और 'काली' इत्यादि का अर्थ है।"
२२. "कराल की उपासना! मृत्यु की अर्चना ! और सब मिथ्या है। समस्त संघर्ष
व्यर्थ है। यही अंतिम पाठ है। किंतु यह कायर का मत्यु-प्रेम नहीं है, न
निर्बलों का प्रेम है, और न यह आत्मघात है। यह तो उस वीर द्वारा किया गया
स्वागत है, जिसने प्रत्येक वस्तु को गहराई से जान लिया है और जो यह 'जानता है
कि कोई अन्य मार्ग नहीं है।"
२३. "मैं उन सभी से असहमत हूँ, जो अपने ही अन्धविश्वासों को हमारी जनता के ऊपर
लाद रहे हैं। जिस प्रकार मिस्र के पुरातत्त्ववेत्ता की मिस्र देश के संबंध में
रुचि रहती है, उसी प्रकार भारत के संबंध में भी नितांत स्वार्थपूर्ण रुचि रखना
सरल है। कोई भी अपनी पुस्तकों का, अपने अध्ययन का अथवा अपने स्वप्नों का भारत
पुनः देखने की आकांक्षा रख सकता है। किंतु मेरी आकांक्षा, इस युग के सबल
पक्षों द्वारा परिपुष्ट उस भारत के सबल पक्षों को केवल एक स्वाभाविक रूप में
देखने की है। नए उत्थान को भीतर से ही विकसित होना चाहिए।
"इसलिए मैं केवल उपनिषदों की शिक्षा देता हूँ। तुम देख सकते हो कि मैंने
उपनिषदों के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र से उद्धरण कभी नहीं दिए ; उपनिषदों से भी
केवल 'बल' का आदर्श। वेद एवं वेदांत का समस्त सार तथा अन्य सब कुछ एक इस शब्द
में निहित है। बुद्ध ने अप्रतिरोध और अहिंसा की शिक्षा दी। लेकिन यह मेरे
विचार से उसी बात की अधिक श्रेयस्कर ढंग की शिक्षा है। कारण यह है कि अहिंसा
के पीछे एक भयंकर दुर्बलता है। दुर्बलता से ही प्रतिरोध के विचार का जन्म होता
है। मैं सागर की बौछार के एक बूँद को भी न तो दंड देने की बात सोचता हूँ और न
उससे पलायन करने की। यह मेरे लिए कुछ नहीं है। किंतु मच्छर के लिए वह बूँद एक
गंभीर विषय होगा। अब मैं समस्त हिंसा को उसी प्रकार का बना दूँगा। बल और अभय।
मेरा आदर्श तो वह संत है जो विद्रोह में मारा गया था और जब उसके हृदय में छूरा
भोंका गया, तब उसने केवल यह कहने के लिए अपना मौन-भंग किया, "और तू भी 'वहीं'
है।
"किंतु तुम पूछ सकते हो कि इस योजना में रामकृष्ण का क्या स्थान है ?
"वे तो स्वयं प्रणाली हैं, आश्चर्यजनक अज्ञात प्रणाली ! उन्होंने अपने को नहीं
समझा। उन्होंने इंग्लैंड या अंग्रेजों के विषय में कुछ नहीं जाना, सिवा इसके
कि अंग्रेज समुद्र पार के विचित्र लोग हैं। किंतु उन्होंने वह महान जीवन जिया
और मैंने उसका अर्थ समझा। किसीके लिए कभी निंदा का एक शब्द भी नहीं! एक बार
मैं अपने यहाँ के पैशाचिकों के एक संप्रदाय की निंदा कर रहा था। मैं तीन घंटे
तक बड़बड़ाता या प्रलाप करता रहा और वे चुपचाप सुनते रहे। जब मैंने कहना
समाप्त कर लिया, तब उन्होंने कहा, 'अच्छा ठीक है। पर शायद प्रत्येक घर में एक
पिछला दरवाजा होता है। कौन जाने ?'
"अब तक हमारे भारतीय धर्म का बड़ा दोष केवल दो शब्दों के ज्ञान में निहित रहा
है : संन्यास और मुक्ति। केवल मुक्ति की बात ! गृहस्थ के लिए कुछ नहीं !
"परंतु मेरा अभीष्ट तो इन्हीं लोगों की सहायता करना है। कारण, क्या सभी
आत्माएँ समान गुणवाली नहीं हैं ? क्या सभी का लक्ष्य एक ही नहीं है ?
"इसीलिए शिक्षा के द्वारा राष्ट्र को शक्ति-संपन्न बनाना चाहिए।"
२४. स्वामी जी मानते थे कि पुराण उदात्त भावों को जनता तक पहुँचाने के निमित्त
हिंदू धर्म का प्रयास है। भारत में केवल एक ही व्यक्ति, कृष्ण की बुद्धि ऐसी
थी, जिसने इस आवश्यकता को पहले ही समझा था। संभवतः वे मनुष्यों में
सर्वश्रेष्ठ थे। .
स्वामी जी ने कहा, "इस प्रकार एक धर्म की सृष्टि हुई, जिसका लक्ष्य जीवन की
स्थिति और आनंद के प्रतीक विष्णु की उपासना है, जो ईश्वरानुभूति की प्राप्ति
का साधन है। हमारा अंतिम आंदोलन, चैतन्यवाद, तुम्हें याद होगा, आनंद के हेतु
था। साथ ही, जैन धर्म दूसरी चरम सीमा है, आत्म-यातना के द्वारा शरीर को
धीरे-धीरे नष्ट कर देना। इसीलिए तुम देखोगे कि बौद्ध धर्म सुधरा हुआ जैन धर्म
ही है और बुद्ध के द्वारा पाँच तपस्वियों का साथ छोड़ देने का वास्तविक अर्थ
यही है। भारत में प्रत्येक युग में संप्रदायों का एक चक्र विद्यमान है, जो
आत्म-यातना की चरम सीमा से लेकर असंयम की चरम सीमा तक शारीरिक साधना के
प्रत्येक स्तर को प्रस्तुत करता है, और उसी अवधि में एक दार्शनिक चक्र भी सदैव
विकसित होता है, जो ईश्वर साक्षात्कार को इंद्रिय भोग से लेकर इंद्रिय हनन तक,
हर कोटि के साधनों द्वारा संभव दिखलाता है। इस प्रकार हिंदू धर्म सदैव ही एक
में लगे दो विपरीत दिशागामी चक्रों से निर्मित धुरी जैसा रहा है।
"हाँ !' वैष्णव धर्म कहता है, 'यह बिल्कुल ठीक है ! माता, पिता, भाई, पति अथवा
संतान के प्रति अपार प्रेम। यह बिल्कुल ठीक होगा, यदि केवल यह सोच सको कि
कृष्ण ही बालक है और जब तुम उसे खिलाते हो, तब कृष्ण को ही खिलाते हो !'
वेदांत की इस घोषणा के विरुद्ध कि 'इंद्रिय-निग्रह करो', चैतन्य देव ने
उद्घोषित किया, 'इंद्रियों के द्वारा ईश्वर की पूजा करो।'
"मैं भारत को एक तरुण सजीव प्राणी के रूप में देखता हूँ। यूरोप भी सजीव और
युवा है। इनमें से कोई भी अभी विकास की उस अवस्था को नहीं प्राप्त कर सका है,
जिसमें हम निरापद रूप से उसकी संस्थाओं की आलोचना कर सकें। ये दोनों महान
प्रयोग हैं, जिनमें अभी कोई भी पूर्ण नहीं हुआ है। भारत में हम सामाजिक
साम्यवाद पाते हैं, जिस पर और जिसके चारों ओर अद्वैत--अर्थात आध्यात्मिक
व्यक्तिवाद का प्रकाश पड़ रहा है। यूरोप में तुम सामाजिक दृष्टि से
व्यक्तिवादी हो, किंतु तुम्हारे विचार द्वैतवादी हैं, जो आध्यात्मिक साम्यवाद
है। इस प्रकार एक व्यक्तिवादी विचारों से घिरी हुई समाजवादी संस्थाओं से
निर्मित है और दूसरा साम्यवादी विचारों से घिरी हुई व्यक्तिवादी संस्थाओं से
निर्मित है।
"इस भारतीय प्रयोग का जैसा भी रूप है, हमें उसको सहारा देना चाहिए। जो आंदोलन
वस्तुओं को, जैसी वे स्वरूपतः हैं, उस रूप में सुधारने का प्रयास नहीं करते,
व्यर्थ हैं। उदाहरणार्थ यूरोप में मैं विवाह को उतना ही अधिक आदर देता हूँ,
जितना अ-विवाह को। यह कभी न भूलो कि व्यक्ति जितना अपने गुणों से महान एवं
पूर्ण बनता है, उतना ही अपने दोषों से। इसलिए हमें किसी राष्ट्र के चरित्र के
वैशिष्ट्य को मिटाने का प्रयास कदापि नहीं करना चाहिए, भले ही कोई यह सिद्ध कर
दे कि उसके चरित्र में दोष ही दोष हैं।"
२५. "तुम सदैव कह सकते हो कि प्रतिमा ईश्वर है। केवल यही सोचने की भूल से बचना
कि ईश्वर प्रतिमा है।"
२६. एक बार स्वामी जी से होटेनटोट
[1]
लोगों की फेटिश-पूजा
[2]
(जड़-पूजा) की भर्त्सना करने की प्रार्थना की गई। उन्होंने उत्तर दिया, "मैं
नहीं जानता कि फेटिश-पूजा क्या है !" तब एक ऐसे विषय का भीषण चित्र तत्काल
उनके सामने रखा गया, जिसे बारी-बारी से पूजा, पीटा और धन्यवाद दिया जाता था।
वे चिल्ला उठे, "ऐसा तो मैं भी करता हूँ !" दीन और अनुपस्थित जनों के प्रति इस
अन्याय पर क्रोध से लाल होकर एक क्षण बाद फिर बोले, "क्या तुम नहीं देखते,
क्या तुम नहीं देखते कि उसमें कोई फेटिश-पूजा नहीं है ? ओह, तुम्हारा हृदय
पथरा गया है, इसी कारण तुम नहीं देखते कि बच्चा ठीक करता है ! बच्चा सभी जगह
व्यक्ति देखता है। ज्ञान हमसे वह बाल-दृष्टि छीन लेता है। परंतु अंत में,
उच्चतर ज्ञान द्वारा, हम फिर उसे प्राप्त करते हैं। वह चट्टानों, डंडों,
पेड़ों आदि में जीवंत शक्ति देखता है। और क्या उनके पीछे जीवंत शक्ति नहीं है
? यह प्रतीकवाद है, फेटिश-पूजन नहीं ! क्या तुम नहीं समझ सकते?"
२७. एक दिन उन्होंने सत्यभामा के त्याग की कथा बतायी और बताया कि. . किस
प्रकार एक काग़ज़ के टुकड़े के ऊपर 'कृष्ण' लिखकर तराजू के एक पलड़े पर रखने
पर दूसरी ओर के पलड़े पर स्वयं कृष्ण को पैर रखना पड़ा। उन्होंने कहा, "सनातन
हिंदू धर्म श्रुति यानी शब्द को सब कुछ मानता है। 'वस्तु' तो केवल पूर्व स्थित
एवं शाश्वत प्रत्यय की एक क्षीण अभिव्यक्ति मात्र है। अतः ईश्वर का नाम सब कुछ
है; स्वयं ईश्वर भी अनंत मानस के उस प्रत्यय की अभिव्यक्ति है। तुम्हारे
व्यक्तित्व से तुम्हारा नाम अनंत गुना अधिक पूर्ण है। ईश्वर का नाम ईश्वर से
बड़ा है। अपनी वाणी के प्रति सतर्क रहो !"
२८. "मैं यूनानी देवताओं की भी उपासना नहीं करूँगा, क्योंकि वे मानवता से पृथक
थे! केवल उन्हीं की उपासना करनी चाहिए, जो हमारे समान, परंतु हमसे महान हों।
देवताओं और मुझमें केवल परिमाण का अंतर होना चाहिए।"
२९. "एक कीड़े पर पत्थर गिरता है और उसे कुचल देता है। इससे हम यह अनुमान करते
हैं कि सभी पत्थर कीड़े पर गिरने पर उसे कुचल देते हैं। हम अपनी प्रत्यक्ष
अनुभूति का प्रयोग तत्काल ही फिर इस प्रकार क्यों करते हैं ? कोई कहता है,
अनुभव करो। लेकिन मान लें कि यह प्रथम बार ही घटित होता है। किसी शिशु को ऊपर
उछालो तो वह चिल्ला पड़ता है। क्या यह पिछले जीवन का अनुभव है ? पर यह भविष्य
पर क्यों लागू किया जाता है ? चूँकि कुछ चीजों के बीच एक वास्तविक संबंध होता
है--'व्यापकता'। हमें केवल यह देखना है कि वह लक्षण हमारे दृष्टांत का न तो
अतिक्रमण करे, और न उससे घटकर निकले। इसी मान्यता पर मनुष्य का सारा ज्ञान
निर्भर है।
"भ्रांतियों के संबंध में यह याद रखना चाहिए कि प्रत्यक्ष तभी एक प्रमाण हो
सकता है, जब इंद्रिय, विधि और प्रत्यक्ष का स्थायित्व आदि सब शुद्ध रखे जाएं।
रोग अथवा मनोवेग का प्रभाव निरीक्षण में बाधा पहुँचायेगा। स्वयं प्रत्यक्ष बोध
भी अनुमान का ही एक रूप है। अतः समस्त मानव-ज्ञान अनिश्चित है तथा भ्रमपूर्ण
हो सकता है। सच्चा साक्षी कौन है ? वही सच्चा साक्षी है, जिसके लिए कही हुई
वस्तु प्रत्यक्षानुभूति हो। अतः वेद सत्य हैं, क्योंकि उनमें अधिकारी पुरुषों
की साक्षी अंतर्निहित है। परंतु क्या प्रत्यक्षीकरण की यह क्षमता कुछ विशेष
लोगों में ही होती है ? नहीं ! ऋषि, आर्य और म्लेच्छ, सभी में वह एक समान
विद्यमान है।
"आधुनिक बंगाल के मतानुसार साक्ष्य प्रत्यक्ष बोध की एक विशेष दशा मात्र है और
सादृश्य एवं तर्क-साम्य केवल निम्न कोटि के अनुमान हैं। अतएव प्रत्यक्ष
अनुभूति और अनुमान ये ही दो वास्तविक प्रमाण हैं।
"मनुष्यों का एक वर्ग, बाह्म अभिव्यक्ति को प्राथमिकता प्रदान करता है, दूसरा
आंतरिक भाव को। कौन पहले हुआ? चिड़िया अंडे से पहले अथवा अंडा चिड़िया से? तेल
कटोरे को थामे है या कटोरा तेल को? यह एक ऐसी समस्या है, जिसका कोई हल नहीं
है। इसे छोड़ दो। माया से बचकर निकल आओ!"
३०. "यदि स्वयं यह संसार ही नष्ट हो जाए, तो मैं क्यों चिंता करूँ? मेरे दर्शन
के अनुसार तो, तुम जानते हो, यह एक बड़ी अच्छी बात होगी! परंतु वास्तव में वह
सब जो मेरे विरुद्ध है, वह तो अंत में भी मेरे साथ रहेगा। क्या मैं उसका (माता
का) सैनिक नहीं हूँ?"
३१. "हाँ मेरा अपना जीवन किसी एक महान व्यक्ति के उत्साह के द्वारा प्रेरित
है, पर इससे क्या? कभी भी एक व्यक्ति के द्वारा संसार भर को प्रेरणा नहीं
मिली!
"यह सत्य है कि मैं इस बात में विश्वास करता हूँ कि रामकृष्ण परमहंस सचमुच
ईश्वर-प्रेरित थे। परंतु मैं भी प्रेरित किया गया हूँ और तुम भी प्रेरित किए
गए हो। तुम्हारे शिष्य भी ऐसे ही होंगे, और उनके बाद उनके शिष्य भी। यही क्रम
कालांत तक चलेगा।
"क्या तुम नहीं देखते कि गुह्य व्याख्याओं का युग समाप्त हो गया है ? भले के
लिए हो या बुरे के लिए, वह दिन चला गया; कभी न लौटने के लिए। भविष्य में सत्य'
संसार के लिए खुला रहेगा!"
३२. "बुद्ध ने यह मानकर एक घातक भूल की थी कि समस्त विश्व उपनिषदों की ऊँचाई
तक उठाया जा सकता है। और स्वार्थ ने सब कुछ विकृत कर डाला। कृष्ण अधिक
दूरदर्शी थे, क्योंकि वे अधिक राजनीतिज्ञ थे। किंतु बुद्ध समझौता नहीं चाहते
थे। इसके पूर्व दुनिया ने अवतारों को भी समझौते से विनष्ट होते देखा है,
मान्यता के अभाव में मृत्यु की यंत्रणा भोगते और लुप्त होते देखा है। एक क्षण
के भी समझौते के बल पर बुद्ध अपने जीवन काल में ही समस्त एशिया में ईश्वर की
तरह पूजे जा सकते थे। परंतु उनका केवल यही उत्तर था : 'बुद्ध की स्थिति एक
सिद्धि है, वह एक व्यक्ति नहीं है।' सचमुच, समस्त संसार में वे ही एक ऐसे
मनुष्य थे, जो सदैव नितांत प्रकृतिस्थ रहे, जितने मनुष्यों ने जन्म लिया है,
उनमें अकेले एक प्रबुद्ध मानव !"
३३. पश्चिम में लोगों ने स्वामी जी से कहा कि यदि बुद्ध को क्रूसित किया गया
होता, तो उनकी महानता और अधिक प्रेरणादायिनी हुई होती। स्वामी जी ने इसे
'रोमनिवासियों की बर्बरता' की संज्ञा दी और कहा, "निम्नतम और सर्वाधिक
पशु-सुलभ रुचि कार्य की ओर होती है। इसलिए दुनिया सदैव महाकाव्यों से प्रेम
करती रहेगी। यह भारत का सौभाग्य है कि उसने सिर के बल फेंक दिया गहरे गर्त में
लिखनेवाले मिल्टन को नहीं उत्पन्न किया। उस सबका प्रक्षालन ब्राउनिंग की कुछ
पंक्तियों से ही भली प्रकार हो गया था!" उनके मतानुसार इस कथा की
महाकाव्यात्मक शक्ति ने ही रोमनों को प्रभावित किया था। 'क्रूसीकरण' ने ही
ईसाई धर्म को रोम की दुनिया तक पहुँचाया था। "हाँ, हाँ", उन्होंने आग्रहपूर्वक
कहा, "तुम पश्चिम के लोग क्रिया चाहते हो। तुम अब भी जीवन की सहज सामान्य लघु
घटनाओं के काव्य को नहीं अनुभव करते ! अपने मृत बालक को लेकर बुद्ध के पास
आनेवाली उस युवती माता की कहानी से बढ़कर और क्या सौंदर्य हो सकता है ? अथवा
बकरियों की घटना? तुम जानते हो, 'महान त्याग' भारत के लिए नया नहीं था ! . .
.परंतु 'निर्वाण के बाद', उसका काव्यत्व तो देखो!
"वर्षा की रात है और वे चरवाहे की झोपड़ी तक आते हैं और चुचुआती हुई ओलती के
नीचे दीवाल से सटकर बैठ जाते हैं। मूसलाधार पानी बरस रहा है और हवा चल रही है।
"भीतर, खिड़की से चरवाहे की दृष्टि एक चेहरे पर पड़ती है और वह सोचता है, 'आ,
हा! पीत वस्त्र! वहीं रुके रहो! तुम्हारे लिए वह पर्याप्त है।' और फिर वह गाने
लगता है।
"'मेरे पशु घर के भीतर हैं, आग तेजी से जल रही है, पत्नी सुरक्षित है, बच्चे
मीठी नींद सो रहे हैं। इसलिए ऐ बादलों, यदि तुम आज रात बरसना ही चाहते हो, तो
बरसो।'
"तब बुद्ध बाहर से उत्तर देते हैं, 'मेरा मन नियंत्रित है। मेरी इंद्रियाँ सब
संयमित हैं। मेरा हृदय दृढ़ है। इसलिए ऐ बादलों, यदि आज रात बरसना ही चाहते
हो, तो बरसो।'
"फिर चरवाहे ने गाया : 'खेत कट गए हैं। चारा खलिहान में एकत्र है। नदी लबालब
है और सड़कें ठोस हैं। अतः ऐ बादलों, यदि आज रात तुम बरसना चाहते हो, तो
बरसो।'
"यही क्रम चलता है और अंत में चरवाहा पश्चाताप और आश्चर्य से भरकर उठता है और
शिष्य बन जाता है।
"नाई की कहानी से बढ़कर और अधिक सुंदर क्या हो सकता है ? "भगवान् मेरे घर के
पास से निकले,
मेरा घर--नाई का! "मैं भागा, किंतु वे मुड़े और मेरी प्रतीक्षा की।
मेरी प्रतीक्षा कीनाई की ! "मैंने कहा, 'हे प्रभु क्या मैं आपसे बोल सकता हूँ
?' "और उन्होंने कहा, 'हाँ!
'हाँ'! मुझसे--नाई से ! "और मैंने कहा, 'क्या निर्वाण मुझ जैसों के लिए है ?'
"तब उन्होंने कहा, 'हाँ'।
मेरे लिए भी नाई के लिए भी! "और मैंने कहा, 'क्या मैं आपका अनुगमन कर सकता
हूँ?' "तब उन्होंने कहा, 'हाँ'।
मुझ से--नाई से भी!
"और मैंने कहा, 'प्रभु, क्या मैं आपके साथ रह सकता हूँ ?'
"तब उन्होंने कहा, 'तुम रह सकते हो।'
मुझ से--भी गरीब नाई से !"
३४. "बौद्ध मत और हिंदू धर्म में सबसे बड़ा भेद इस बात का है कि बौद्ध धर्म
कहता है, 'इस सबको भ्रम अनुभव करो', जब कि हिंदू धर्म का कहना है, 'यह अनुभव
करो कि माया के भीतर सत्य है।' यह कैसे' किया जाए? इस 'कैसे' के संबंध में
हिंदू धर्म ने कोई कठोर नियम निर्धारित करने का दावा नहीं किया। बौद्ध अनुशासन
का पालन केवल मठवाद द्वारा ही संभव था; जबकि हिंदू अपने श्रेयस् की उपलब्धि
जीवन के किसी भी आश्रम में कर सकता है। सभी मार्ग समान रूप से एक ही सत्य तक
ले जानेवाले हैं। धर्म की एक सर्वोच्च और महानतम उक्ति को एक कसाई के मुख से
कहलाया गया है। उसने एक विवाहिता स्त्री की आज्ञा से एक संन्यासी को उपदेश
दिया। इस प्रकार बौद्ध धर्म श्रमणों का धर्म बना, किंतु हिंदू धर्म संन्यास की
श्रेष्ठता स्वीकार करते हुए भी, दैनिक कर्तव्यों के प्रति सच्चे बने रहने का
धर्म है। वह कर्तव्य जो भी हो, मनुष्य उसके पथ पर चल कर ईश्वर प्राप्त कर सकता
है।"
३५. स्वामी जी ने स्त्रियों के लिए संन्यास के आदर्श की चर्चा करते हुए कहा,
"अपने वर्ग के लिए नियम निर्धारित कर लो, अपने विचारों को सूत्र-बद्ध कर लो,
और यदि गुंजाइश हो, तो थोड़ी सार्वदेशिकता का भी समावेश करो। पर याद रखो किसी
भी समय में समस्त विश्व में आधे दर्जन से अधिक व्यक्ति इसके लिए तैयार नहीं
मिलेंगे। संप्रदायों के लिए स्थान होना चाहिए, पर साथ ही संप्रदायों से ऊपर
उठने के लिए भी। तुमको स्वयं अपने औजार गढ़ने होंगे। नियम बनाओ, किंतु उन्हें
इस प्रकार बनाओ कि जब लोग बिना उनके काम चलाने लगें तो वे उन्हें तोड़कर फेंक
सकें। हमारी मौलिकतापूर्ण अनुसाशन के साथ पूर्ण स्वतंत्रता को संयुक्त कर देने
में है। यह संन्यास आश्रम में भी संभव है।"
३६. "दो विभिन्न जातियों का संपर्क होने पर वे घुलमिल जाती हैं और उनसे एक
बलशाली तथा भिन्न नस्ल पैदा होती है। वह स्वयं अपने को सम्मिश्रण से बचाने की
चेष्टा करती है और यहीं तुम जाति-भेद का प्रारंभ देखते हो। सेब को देखो।
चयनात्मक प्रजनन के द्वारा श्रेष्ठतम प्रकार उत्पन्न किए जाते हैं, पर एक बार
दो नस्लें बनाकर हम उनकी क़िस्म को सुरक्षित रखने की चेष्टा करते हैं।"
३७. भारत में लड़कियों की शिक्षा की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, "देव-पूजा
के निमित्त तुम्हें प्रतिमाओं का प्रयोग करना पड़ेगा ही। परंतु तुम इन्हें बदल
सकते हो। काली का सदैव एक ही स्थिति में रहना आवश्यक नहीं है। अपनी लड़कियों
को उसे नए रूपों में चित्रित करने के लिए प्रोत्साहित करो। सरस्वती की सौ
भिन्न-भिन्न मुद्राएँ बनाओ। उन्हें अपनी अपनी कल्पनाओं का आरेखन, मूर्तीकरण और
चित्रण करने दो।
"पूजा गृह में वेदी की सबसे निचली सीढ़ी पर रखा जानेवाला कलश सदैव पानी से भरा
हुआ रहना चाहिए और तामिल देश के बड़े-बड़े घृत दीपकों में ज्योति सदैव जलती
रहनी चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि अखंड पूजा की व्यवस्था हो सके, तो हिंदू भावना
के अनुकूल इससे बढ़कर और कुछ नहीं हो सकती।
"किंतु आयोजित अनुष्ठान भी वैदिक ही होने चाहिए। एक वैदिक वेदी का होना आवश्यक
है, जिस पर पूजा के समय वैदिक अग्नि जलायी जा सके। नैवेद्य अर्पण में भाग लेने
के लिए बच्चे उपस्थित रहने चाहिए। यह ऐसी धर्म-विधि है जिसे समस्त भारत में
आदर प्राप्त है।
"अपने पास सभी प्रकार के पशुओं को रखो। गाय से प्रारंभ करना सुंदर होगा। किंतु
तुम्हें कुत्ते, बिल्लियाँ, पक्षी और अन्य जीव भी रखना चाहिए। बच्चों को अवसर
दो कि वे उन्हें खिलाएँ और उनकी देखभाल कर सकें।
"इसके बाद ज्ञान-यज्ञ है। वह सबसे अधिक सुंदर है। क्या तुम जानते हो कि भारत
में प्रत्येक पुस्तक पवित्र है, केवल वेद ही नहीं, अपितु अंग्रेज़ों और
मुसलमानों की भी सभी पवित्र हैं।
"प्राचीन कलाओं को पुनरुज्जीवित करो। अपनी लड़कियों को खोये से फलों के नमूने
बनाना सिखाओ। उन्हें कलात्मक पाक-क्रिया और सीना-पिरोना सिखाओ। उन्हें
चित्रकला, फोटोग्राफी, सोने, चाँदी, कागज, जरी और कसीदाकारी पर चित्र बनाने की
शिक्षा दो। इसका ध्यान रखो कि प्रत्येक को किसी न किसी ऐसी कला का ज्ञान हो
जाए, जिसके द्वारा आवश्यकता पड़ने पर वे अपनी जीविका अर्जन कर सकें।
"और मानवता को कभी न भूलो! मानवतावादी मनुष्य-पूजा का भाव भारत में बीज रूप
में विद्यमान है, परंतु इसे कभी विशिष्ट रूप नहीं दिया गया। अपने
विद्यार्थियों से इसका विकास करवाओ। इसको काव्य और कला का रूप दो। हाँ, स्नान
के बाद और भोजन के पूर्व भिक्षुकों के चरणों पर की गई दैनिक पूजा हृदय और हाथ
दोनों की आश्चर्यजनक शिक्षा होगी। फिर, कभी कभी बच्चों की पूजा हो सकती है,
स्वयं अपने शिष्यों की। अथवा दूसरे के शिशु माँग कर उन्हें पालो-पोसो और
खिलाओ। माता जी
[3]
ने मुझसे क्या कहा था? 'स्वामी जी! मेरे लिए कोई सहारा नहीं है। किंतु मैं इन
पुण्यात्माओं की पूजा करती हैं और ये मुझे मोक्ष तक पहुँचा देंगी।' तुम देखते
हो कि वे अनुभव करती हैं कि वे कुमारी में निवास करनेवाली उमा की सेवा कर रही
हैं और यह किसी विद्यालय का प्रारंभ करने के निमित्त एक अद्भुत भावना है।"
३८. "प्रेम सदैव आनंद की अभिव्यक्ति है। इस पर दुःख की तनिक भी छाया पड़ना
सदैव शरीरपरायणता और स्वार्थपरता का चिह्न है।"
३९. "पश्चिम विवाह को विधिमूलक गठबंधन के बाहर जो कुछ है, उन सबसे युक्त मानता
है, जब भारत में इसे समाज के द्वारा दो व्यक्तियों को शाश्वत काल तक संयुक्त
रखने के लिए उनके ऊपर डाला हुआ बंधन माना जाता है। उन दोनों को एक दूसरे को
जन्म-जन्मांतर के लिए वरण करना होगा, चाहे उनकी इच्छा हो या न हो। प्रत्येक एक
दूसरे के आधे पुण्य का भागी होता है। यदि एक इस जीवन में बुरी तरह पिछड़ जाता
है, तो दूसरे को, जब तक कि वह फिर बराबर नहीं आ जाता, केवल प्रतीक्षा करनी
पड़ती है, समय देना होता है।"
४०. "अवचेतन और अतिचेतन रूपी महासागरों के मध्य चेतना एक झीना स्तर मात्र है।"
४१. "जब मैंने पश्चिमवालों को चेतना पर इतनी अधिक बातें करते सुना, तो मुझे
स्वयं अपने कानों पर विश्वास नहीं हो सका। चेतना? चेतना का क्या महत्त्व है !
क्यों, अवचेतन की अथाह गहराई तथा अतिचेतन की ऊँचाइयों से तुलना करने पर वह कुछ
नहीं है। इस संबंध में मैं भुलावे में नहीं आ सकता, क्योंकि क्या मैंने श्री
रामकृष्ण परमहंस को दस मिनट में व्यक्ति के अवचेतन मन से उसका समस्त अतीत जान
लेते और उसके आधार पर उसका भविष्य और उसकी शक्तियों का निश्चय करते नहीं देखा
है?"
४२. "ये सब (दिव्य दर्शन आदि) गौण विषय हैं। वे सच्चे योग नहीं हैं।
अप्रत्यक्ष रूप से ये हमारे वक्तव्यों की सत्यता की पुष्टि करते हैं, इस कारण
इनकी कुछ उपयोगिता हो सकती है। एक छोटी सी झलक भी यह विश्वास प्रदान करती है
कि इस स्थूल पदार्थ के पीछे कोई चीज है। किंतु जो इनके लिए समय देते हैं, वे
बड़े खतरे मोल लेते हैं।
"ये (यौगिक सिद्धियाँ) सीमा के प्रश्न हैं।' इनके द्वारा प्राप्त ज्ञान कभी भी
निश्चित और स्थायी नहीं हो सकता। क्या मैंने कहा नहीं कि ये 'सीमा के प्रश्न'
हैं ? सीमा-रेखा सदैव हटती रहती है !"
४३. "अद्वैत की यह मान्यता है कि आत्मा न आती है, न जाती है और विश्व के ये सब
लोक अथवा स्तर आकाश और प्राण की भिन्न-भिन्न रचनाएँ हैं। अर्थात, यह सौर मंडल
जिसके अंतर्गत दृश्य जगत का निम्नतम अथवा सबसे अधिक घनीभूत स्तर है, उसमें
प्राण भौतिक शक्ति के रूप में तथा आकाश संवेद्य पदार्थ के रूप में प्रतीत होता
है। दूसरा चंद्र मंडल कहलाता है, जो सौर मंडल के चारों ओर है। यह चंद्रमा नहीं
है, बल्कि देवताओं का निवासस्थान है; अर्थात इसमें प्राण मानसिक शक्तियों के
रूप में प्रकट होता है और आकाश तन्मात्राओं अथवा सूक्ष्म कणों के रूप में।
इसके परे विद्युत् मंडल है; अर्थात एक ऐसी दशा, जो आकाश से अविच्छेद्य है और
तुम्हारे लिए यह कहना कठिन है कि विद्युत् शक्ति है अथवा भौतिक तत्त्व। इसके
बाद ब्रह्मलोक है, जहाँ न प्राण है और न आकाश, बल्कि दोनों मनोमय कोश अथवा आदि
शक्ति में विलीन हो जाते हैं। और यहाँ, न तो प्राण है और न आकाश--जीव समस्त
विश्व को समष्टि या महत् (अर्थात मन) के पूर्ण योग के रूप में ग्रहण करता है।
यह एक पुरुष, एक अमूर्त विश्वात्मा प्रतीत होता है, किंतु वह ब्रह्म नहीं है,
क्योंकि अब भी अनेकत्व विद्यमान है। अंत में इससे जीव उस एकत्व का अनुभव करता
है, जो लक्ष्य है। अद्वैतवाद कहता है कि ये ही वे दिव्य रूप हैं, जो जीव के
सामने क्रमशः उदय होते हैं। वह स्वयं न तो जाता है, न आता है और जिस दृश्य को
वह वर्तमान काल में देख रहा है, वह भी इसी प्रकार प्रतिबिंब हुआ है। प्रक्षेपण
(सृष्टि) और प्रलय का उसी क्रम में होना अनिवार्य है, केवल एक का अर्थ है पीछे
जाना और दूसरे का बाहर आना।
"अव, चूँकि प्रत्येक व्यक्ति अपने ही जगत को देख सकता है, वह जगत उसके बंधन के
साथ उत्पन्न होता है और उसकी मुक्ति के साथ चला जाता है, यद्यपि जो बंधन में
हैं, उनके लिए वह बना रहता है। अतः नाम और रूप से विश्व बना है। समुद्र में
लहर तभी तक लहर है, जब तक वह नाम और रूप से बँधी हुई है। यदि लहर शांत हो जाती
है, तो समुद्र ही रहता है, किंतु वह नाम-रूप शीघ्र ही सदैव के लिए अदृश्य हो
जाता है। अतः लहर का नाम और रूप उस जल के बिना अस्तित्व नहीं रख सकता, जो उनके
(नाम और रूप) द्वारा लहर बना दिया गया था, फिर भी नाम और रूप स्वयं लहर नहीं
थे। जैसे ही वह पानी में मिल जाती है, वे नष्ट हो जाते हैं। लेकिन दूसरे नाम
और रूप दूसरी लहरों से संबंधित होकर जीवित रहते हैं। इस नाम-रूप को माया कहा
गया है और जल ब्रह्म है। लहरें कभी भी जल के अतिरिक्त और कुछ नहीं थीं, फिर भी
लहरों की अवस्था में उनका नाम और रूप था। फिर, यह नाम और रूप एक क्षण भी लहर
से पृथक नहीं रह सकता, यद्यपि लहर, जल के रूप में शाश्वत काल तक नाम और रूप से
पृथक रह सकती है। परंतु चूँकि नाम और रूप कभी अलग नहीं किए जा सकते, उनके
अस्तित्व को भी नहीं माना जा सकता। फिर भी वे शून्य नहीं हैं। इसे माया कहते
हैं।"
४४. "मैं बुद्ध का दासानुदास हूँ। उनके जैसा क्या दूसरा कोई कभी हुआ?
--प्रभु--जिन्होंने कभी भी एक भी कार्य अपने लिए नहीं किया ऐसा हृदय जो सारी
दुनिया को गले लगाता था! इतने करुणामय कि राजकुमार और संन्यासी होते हुए भी एक
छोटी सी बकरी को बचाने के लिए अपने प्राण भी दे देते! इतने प्रेमी कि एक बाघिन
की भूख मिटाने के लिए अपने आपको समर्पित कर दिया ! --एक चांडाल का आतिथ्य
स्वीकार किया और उसे आशीर्वाद दिया ! जब मैं बालक था, वे मेरे कमरे में आए और
मैं उनके चरणों पर गिर पड़ा ! क्योंकि मैंने जाना कि वे स्वयं प्रभु ही थे।"
४५. "वे (शुक) आदर्श परमहंस हैं। मनुष्यों में वे ही एक थे, जिन्हें सत्
चित्--आनंद के अखंड महासागर से एक चुल्लू भर जल पीने का सौभाग्य प्राप्त हुआ
था। अधिकांश सन्त तो उसके तट पर उसकी लहरों का गर्जन सुनकर ही जीवन समाप्त कर
देते हैं। बहुत थोड़े लोग उसका साक्षात्कार करते हैं और उससे भी कम उसका
रसास्वादन करते हैं। किंतु उन्होंने तो परमानंद के सागर का रस पान किया।"
४६. "बिना त्याग के भक्ति का विचार कैसा? यह बहुत घातक है।"
४७. "हम न तो दुःख की उपासना करते हैं, न सुख की। हम उनमें से किसी के भी
द्वारा उन दोनों से परे की स्थिति प्राप्त करना चाहते हैं।"
४८. "शंकराचार्य ने वेदों की लय को, राष्ट्रीय आरोह-अवरोह को पहचाना था। सचमुच
मैं सदैव यह कल्पना किया करता हूँ कि बाल्यकाल में उन्हें भी मेरी भाँति कोई न
कोई दिव्यानुभूति अवश्य हुई होगी; और तब उन्होंने उस पुरातन संगीत का
पुनरुद्धार किया। कुछ भी हो, उनके समस्त जीवन का कार्य, वेदों और उपनिषदों की
सुषमा के स्पंदन के सिवा और कुछ नहीं।"
४९. "यद्यपि माँ का प्रेम कुछ नातों में बढ़कर होता है, फिर भी सारी दुनिया
स्त्री-पुरुष के प्रेम को उसका (आत्मा और ईश्वर के संबंध का) प्रतीक मानती है।
किसी अन्य भाव में आदर्शीकरण की इतनी विराट शक्ति नहीं है। प्रियतम की जिस रूप
में कल्पना की जाती है, वह सचमुच वही बन जाता है। यह प्रेम अपने पात्र को बदल
देता है।"
५०. "क्या जनक बनना इतना सरल है ? राजसिंहासन पर पूर्णरूपेण अनासक्त होकर
बैठना, धन, यश, पत्नी और संतान की कुछ भी परवाह न करना। पश्चिम में न जाने
कितने लोगों ने मुझसे कहा कि उन्होंने इस स्थिति को प्राप्त कर लिया है। किंतु
मैं तो केवल यही कह सका, 'ऐसे महान पुरुष भारतवर्ष में तो जन्म लेते नहीं !'
५१. "स्वयं अपने से यह कहना और बच्चों को यह सिखाना कभी न भूलो कि एक गृहस्थ
और संन्यासी में वैसा ही अंतर है, जैसा कि जुगुनू और देदीप्यमान सूर्य में,
छोटे से पोखरे और अनंत सागर में, सरसों के दाने और सुमेरु पर्वत में है।
"सब कुछ भय से भरा हुआ है : केवल त्यागशीलता मुक्त है।
"पाखंडी साधु और अपने व्रत में असफल होनेवाले भी धन्य हैं, क्योंकि उन्होंने
अपने आदर्श का कुछ दर्शन तो पाया, और इसलिए एक सीमा तक दूसरों की सफलता के
कारण हैं!
"हम अपने आदर्श को कभी न भूलें!"
५२. "बहता पानी और रमते योगी ही शुद्ध रहते हैं।"
५३. "जो संन्यासी कांचन के बारे में सोचता, उसकी इच्छा करता है, वह आत्मघात
करता है।"
५४. "हमें इसकी क्या चिंता कि मुहम्मद अच्छे थे या बुद्ध ? क्या इससे मेरी
अच्छाई या बुराई में परिवर्तन हो सकता है ? आओ, हम लोग अपने लिए और अपनी
जिम्मेदारी पर अच्छे बनें।"
५५. "इस देश में तुम लोग अपनी व्यक्तिता खोने से बहुत डरते हो। क्यों, तुम लोग
तो अभी व्यक्ति भी नहीं बन पाए हो। जब तुम अपने संपूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर
लोगे, तभी तुम अपना सच्चा व्यक्तित्व प्राप्त कर पाओगे, उसके पूर्व नहीं। जो
दूसरी बात मैं इस देश में लगातार सुन रहा हूँ, वह यह है कि हमें प्रकृति के
सामंजस्य में रहना चाहिए। क्या तुमको नहीं मालूम कि दुनिया में अब तक जो भी
प्रगति हुई है, वह प्रकृति पर विजय पाने के कारण हुई है ? अगर हमें कुछ भी
उन्नति करनी है, तो हमें प्रत्येक क़दम पर प्रकृति का प्रतिरोध करना होगा।"
५६. "लोग कहते हैं कि मुझे भारत में सर्वसाधारण को वेदांत की शिक्षा नहीं देनी
चाहिए। किंतु मैं कहता हूँ कि मैं एक बच्चे को भी इसे समझा सकता हूँ। सर्वोच्च
आध्यात्मिक सत्यों की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए कोई भी वय कम नहीं है।"
५७. "जितना कम पढ़ो उतना ही अच्छा है। गीता तथा वेदांत पर अन्य अच्छी पुस्तकों
को पढ़ो। बस इसी की तुम्हें आवश्यकता है। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली पूर्णतः
दोषपूर्ण है। चिंतन शक्ति का विकास होने के ही पूर्व मस्तिष्क बहुत सी बातों
से भर दिया जाता है। मन के संयम की शिक्षा पहले दी जानी चाहिए। यदि मुझे अपनी
शिक्षा फिर प्रारंभ करनी हो और कुछ भी मेरी चले, तो मैं सर्वप्रथम अपने मन का
स्वामी बनना सीखूंगा और तब यदि मुझे आवश्यकता होगी, तो तथ्यों का संग्रह
करूँगा। लोगों को सीखने में बहुत देर लगती है, क्योंकि वे अपने मन को
इच्छानुसार एकाग्र नहीं कर पाते।"
५८ "यदि बुरा समय आता है, तो इससे क्या? दोलक (pendulum) फिर पीछे जाएगा। पर
यह कुछ अच्छा नहीं है। चाहिए तो यह कि इसे रोक दें।"
[1]
दक्षिण पश्चिमी अफ्रीका को एक विलीयमान खानाबदोश पशुपालक जाति।
[2]
फेटिश का अर्थ है, कोई वस्तु जिसको प्राप्त कर लेने पर उसमें रहनेवाली
आत्मा पर अधिकार मिल जाता है। विभिन्न आदिम जातियों में फेटिश के रूप
में विविध वस्तुओं की पूजा की जाती है।
[3]
कलकत्ते को महाकाली पाठशाला को संस्थापिका तपस्विनी माता जी।