वेदांत दर्शन
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(२५ मार्च, १८९६ ई० को हॉवर्ड विश्वविद्यालय की स्नातक दर्शन परिषद् में दिया
गया भाषण)
भारत में संप्रति जितने दार्शनिक संप्रदाय हैं, वे सभी वेदांत दर्शन के
अंतर्गत आते हैं। वेदांत की कई प्रकार की व्याख्याएँ हुई हैं और मेरे विचार से
वे सभी प्रगतिशील रही हैं। प्रारंभ में व्याख्याएँ द्वैतवादी हुई, अंत में
अद्वैतवादी। वेदांत का शाब्दिक अर्थ है 'वेद का अंत'। वेद हिंदुओं के आदि
धर्मग्रंथ हैं।[1] कभी कभी
पाश्चात्य देशों में 'वेद' को केवल ऋचाएँ और कर्मकांड ही समझा जाता है। किंतु
अब इनको अधिक महत्व नहीं दिया जाता, और भारत में साधारणत: वेद शब्द से वेदांत
ही समझा जाता है। यहाँ के टीकाकार जब धर्मग्रंथों से कुछ उद्वृत करना चाहते
हैं, तो साधारणत: वे वेदांत से ही उद्वृत करते हैं। ये लोग वेदांत को श्रुति [2] करते हैं। ऐसी बात नहीं है
कि ग्रंथ वेदांत के नाम से विख्यात हैं, उनकी रचना वैदिक कर्मकाण्ड के बाद
हुई। ईशोपनिषद् जो जयुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय हैं, वेदों के प्राचीनतम अंशो
में एक है। ऐसे भी उपनिषद् हैं, जो ब्राह्मणों के अंश हैं। अन्य उपनिषद् [3] न तो ब्राह्मणों के, न वेद
के अन्य भागों के ही अंतर्गत हैं। किंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वे वेद
के अन्य भागों से पूर्णत: स्वतंत्र हैं। यह तो हम जानते हैं कि वेद के अनेक
भाग सर्वथा अप्राप्त हैं तथा अनेक ब्राह्मण भी नष्ट हो चुके हैं। अत: यह संभव
है कि जो उपनिषद् अब स्वतंत्र ग्रंथ जैसे प्रतीत होते हैं, वे ब्राह्मणों के
अंतर्गत रहे हों। ऐसे ब्राह्मण-ग्रंथ लुप्त हो गए हैं, मात्र उपनिषद् अवशिष्ट
हैं। इन उपनिषदों को आरण्यक भी कहते हैं।
व्यावहारिक रूप में वेदांत ही हिंदुओं का धर्मग्रंथ है। जितने भी आस्तिक दर्शन
हैं, सभी इसी को अपना आधार मानते हैं। यदि उनके उद्देश्य के अनुकूल होता हैं,
तो बौद्ध तथा जैन भी वेदांत को प्रमाण मानकर उससे एक उद्धरण प्रस्तुत करते
हैं। यद्यपि भारत के सभी आस्तिक दर्शन वेदों पर आधारित हैं, फिर भी उनके नाम
भिन्न भिन्न हैं। अंतिम दर्शन जो व्यास का है, पूर्व प्रतिपादित दर्शनों की
अपेक्षा वैदिक विचारों पर अधिक आधारित है। इसमें सांख्य और न्याय जैसे प्राचीन
दर्शनों का वेदांत के साथ यथासंभव सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया गया
हैं। इसलिए इसे विशेष रूप से वेदांत कहा जाता हैं। आधुनिक भारतीयों के अनुसार
व्यास-सूत्र ही वेदांत दर्शन का आधार माना जाता है। विभिन्न भाष्यकारों ने
व्यास के सूत्रों की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की हैं। सामान्यत: अभी भारत
में तीन प्रकार के व्याख्याकार हैं। [4] उनकी व्याख्याओं से तीन
दार्शनिक पद्धतियों एवं संप्रदायों की उत्पत्ति हुई है - द्वैत, विशिष्टाद्वैत
तथा अद्वैत। अधिकांश भारतीय द्वैत एवं विशिष्टाद्वैव के अनुयायी हैं।
अद्वैतवादियों की संख्या अपेक्षाकृत कम हैं। मैं इन तीन संप्रदायों की
विचार-पद्धतियों की चर्चा तुम्हारे सम्मुख करना चाहता हूँ। इसके पहले कि मैं
ऐसा करूँ, मैं तुमकों यह बतला देना चाहता हूँ कि इन तीनों वेदांत दर्शनों की
मनोवैज्ञानिक न्याय एवं वैशेषिक दर्शनों के मनोविज्ञानों के सदृश है। इनके
मनोविज्ञानों में केवल गौण विषयों में भेद पाया जाता है।
सभी वेदांती तीन बातों में एक मत हैं। ये सभी ईश्वर को, वेदों के श्रुति रूप
को तथा सृष्टि-चक्र को मानते हैं। वेदों की चर्चा तो हम कर चुके हैं। सृष्टि
संबंधी मत इस प्रकार हैं। समस्त विश्व का जड़ पदार्थ आकाश नामक मूल जड़-सत्ता से
उद्भूत हुआ है।[5]
गुरुत्वाकर्षण, आकर्षण या विकर्षण, जीवन आदि जितनी शक्तियाँ हैं, वे सभी आदि
शक्ति प्राण से उद्भूत हुई हैं। आकाश पर प्राण का प्रभाव पड़ने से विश्व का
सर्जन या प्रक्षेपण[6] होता
है। सृष्टि के प्रारंभ में आकाश स्थिर तथा अव्यक्त रहता है। बाद में प्राण
ज्यों-ज्यों अधिकाधिक क्रियाशील होता है, त्यों-त्यों अधिकाधिक स्थूल पदार्थ
उत्पन्न होते जाते हैं, यथा पेड़, पौधे, पशु, मनुष्य, नक्षत्र आदि। कालांतर में
सृष्टि की प्रगति समाप्त हो जाती है और प्रलय प्रारंभ होता है। सभी पदार्थ
सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपों को प्राप्त करते हुए मूलभूत आकाश एवं प्राण के परे भी
एक सत्ता है, जिसे महत् कहते हैं। महत् आकाश एवं प्राण का निर्माण नहीं करता,
स्वयं उनका रूप धारण कर लेता है।
अब मैं मन, आत्मा तथा ईश्वर के संबंध में चर्चा करूँगा। सर्वमान्य सांख्य
दर्शन के अनुसार चाक्षुष प्रत्यक्ष के लिए चक्षु जैसे उपकरणों की आवश्यकता
होती हैं। इन उपकरणों के पीछे चाक्षुष स्नायु-तंतु तथा उसके स्नायु-केंद्र-
दर्शनेंद्रिय हैं। ये बाह्य उपकरण नहीं है, फिर भी इनके बिना आँखे देख नही
सकती। प्रत्यक्ष के लिए अन्य उपकरण की भी आवश्यकता होती है। इंद्रिय के साथ मन
का संयोग भी आवश्यक हैं। फिर बुद्धि से भी संवेदना का संयोग आवश्यक है,
क्योंकि मन की वह शक्ति जिससे रूप निर्धारण करने वाली प्रतिक्रिया उत्पन्न
होती है, बुद्धि ही है। बुद्धि के कारण जब प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, तब
साथ ही साथ बाह्य जगत् तथा अहंकार प्रतिभासित हो उठते हैं। और तब इच्छा
उत्पन्न होती है। मन के स्वरूप का वर्णन यहीं पूरा नहीं होता। जैसे प्रकाश
के आनुक्रमिक संवेगो से रचित चित्र को संपूर्ण बनाने के लिए उसका किसी स्थिर
आधार पर संघटित होना आवश्यक है, उसी प्रकार मन के लिए यह आवश्यक है कि उसके
सभी प्रत्यय सम्मिलित हों और शरीर एवं मन से अपेक्षाकृत अधिक स्थिर सत्ता पर
उनका प्रक्षेपण हो। ऐसी स्थिर सत्ता को पुरुष या आत्मा करते हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार मन की प्रतिक्रियात्मक शक्ति, जिसे बुद्धि की संज्ञा
दी जाती है, महत् से उद्भूत होती है। ऐसा कहा जा सकता है कि बुद्धि महत् का
परिवर्तित रूप है या उसकी अभिव्यक्ति है। महत् स्पदंनशील बुद्धि में
परिवर्तित होता है। बुद्धि का एक अंश इंद्रियों में तथा दूसरा अंश तन्मात्राओं
में परिवर्तित होता है। इन सबके संयोग से विश्व का निर्माण होता है। सांख्य के
अनुसार महत् के परे भी सत् की एक अवस्था है, जिसे अव्यक्त कहते हैं। इस
अवस्था में मन का अस्तित्व नहीं रहता, केवल इसके कारण विद्यमान रहते हैं।
सत् की इस अवस्था को प्रकृति भी कहते हैं। प्रकृति से पुरुष सतत भिन्न होता
है। सांख्य के अनुसार पुरुष ही आत्मा है, जो निर्गुण तथा सर्वव्यापी होता है।
पुरुष कर्ता नहीं, द्रष्टा मात्र है। पुरुष का स्वरूप समझाने के लिए स्फटिक का
उदाहरण दिया जाता है, स्फटिक स्वयं बिना रंग का होता है, किंतु यदि किसी
प्रकार का रंग उसके समीप रखा जाता है, तो वह उसी प्रकार के रंग में रंगा दीख
पड़ता है। वेदांती सांख्य के आत्मा एवं जगत् संबंधी मतों को नहीं मानते। सांख्य
के अनुसार पुरुष एवं प्रकृति के बीच बड़ा पार्थक्य है। इस प्रार्थक्य को दूर
करना आवश्यक है। सांख्य इसे दूर करना चाहता है, पर सफल नहीं होता। जब पुरुष
वास्तव में रंगहीन है, तो उस पर प्रकृति का रंग कैसे चढ़ सकता है? इसलिए
वेदांती मौलिक स्तर पर ही यह मानते हैं कि पुरुष और प्रकृति अभिन्न है। [7] द्वैतवादी भी यह स्वीकार
करते हैं कि आत्मन् या ईश्वर संसार का केवल निमित्त कारण ही नहीं, उपादान कारण
भी है। किंतु यथार्थं में वे ऐसा केवल कहते हैं। उनके कहने का अभिप्राय दूसरा
होता है, क्योंकि उनके विचारों से जो सही परिणाम निकलते हैं, उनको वे स्वीकार
नहीं करना चाहते। वे कहते हैं कि विश्व में तीन प्रकार की सत्ताएँ हैं - ईश्वर, आत्मा और प्रकृति। प्रकृति और आत्मा
मानो ईश्वर का शरीर हैं। इस कारण यह कहा जा सकता है कि ईश्वर और प्रकृति
अभिन्न हैं। किंतु पारमार्थिक दृष्टि से तो प्रकृति और आत्माओं में भिन्नता
रह जाती है। सृष्टि-चक्र के प्रारंभ होने पर वे व्यक्त रूप धारण करती हैं और
जब सृष्टि-चक्र का अंत होता है, तो वे सूक्ष्म रूप धारण कर लेती हैं और
सूक्ष्मावस्था में ही रहती हैं। अद्वैत वेदांती आत्मा की इस व्याख्या को नहीं
मानते और इसके मत का समर्थन तो प्राय: सभी उपनिषदों में पाया जाता हैं।
उपनिषदों के आधार पर ही वे अपने दर्शन का प्रतिपादन करते हैं। सभी उपनिषदों का
विषय एक है, उद्देश्य एक है - निम्नलिखित विचार को स्थापित करना : 'मिट्टी के
एक टुकड़े के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेने से हम संसार की सभी मिट्टी के
बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इसी प्रकार अवश्य ऐसा कोई तत्त्व है,
जिसको जान लेने से हम संसार की सभी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर ले सकते हैं।
वह तत्त्व क्या हैं?'[8]
अद्वैतवादी समस्त विश्व को एक सामान्य रूप देना चाहते हैं, विश्व के एकमात्र
तत्त्व को बतलाना चाहते हैं। कि उनका मूल सिद्धांत यह हैं कि सारा विश्व एक है
और एक ही सत् नानारूपों में प्रतिभासित होता है। उनके अनुसार सांख्य की
प्रकृति का अस्तित्व तो है, परंतु प्रकृति ईश्वर से अभिन्न है। विश्व, मनुष्य,
जीवात्मा तथा जितनी भी अन्य सत्ताएँ है, सभी सत् के ही भिन्न रूप हैं। मन तथा
महत् उसी सत् के व्यक्त रूप है। इस मत के विरोध में कहा जा सकता है कि यह तो
सर्वेश्वरवाद (pantheism) है। यह भी प्रश्न उठ सकता है कि अपरिवर्तनशील सत्
(वेदांती सत् को ऐसा ही मानते हैं, क्योंकि जो निरपेक्ष है, वह अपरिवर्तनशील
है) परिवर्तनशील तथा नाशवान में कैसे परिवर्तित हो सकता है? इस समस्या के
समाधान में (अद्वैत) वेदांती विवर्तवाद के सिद्धांत को प्रस्तुत करते हैं।
सांख्य मतानुयायियों तथा द्वैतवादियों के अनुसार सारा विश्व प्रकृति से उद्भूत
हुआ है। कुछ अद्वैतवादियों तथा कुछ द्वैतवादियों के अनुसार, सारा विश्व ईश्वर
से उत्पन्न हुआ है। किंतु शंकाराचार्य के अनुयायियों के अनुसार (सही अर्थ में
ये ही अद्वैतवादी हैं) समस्त विश्व ब्रह्म का प्रतिभासिक रूप है। ब्रह्म विश्व
का वास्तविक नहीं, केवल आभासी उपादान कारण हैं, इस संबंध में रज्जु और सर्प का
प्रसिद्ध उदाहरण दिया जाता है। रज्जु सर्प जैसी आभासित होती है, वह वास्तव में
सर्प नहीं है। उसका सर्प में परिवर्तन नहीं होता। इसी तरह सारा विश्व वास्तव
में सत् है। सत् का परिवर्तन नहीं होता। हम इसमें जितने भी परिवर्तन पाते
हैं, सभी आभास मात्र हैं। ये परिवर्तन देश काल तथा निमित्त के कारण होते हैं ;
मनोवैज्ञानिक सिद्धांत की दृष्टि से नाम - रूप के कारण होते हैं। नाम और रूप
के द्वारा ही एक वस्तु की दूसरी वस्तु से भेद किया जाता है। अत: नाम और रूप
ही उन वस्तुओं के भेद के कारण हैं। वास्तव में दोनों वस्तुएँ एक हैं। (अद्वैत)
वेदांतियों के अनुसार सत् और जगत् (phenomenon) परस्पर भिन्न सताएँ नहीं
हैं। रज्जु का सर्प जैसा दीखना भ्रमात्मक हैं। भ्रम के समाप्त होने पर सर्प का
दिखना भी समाप्त हो जाता है। अज्ञानवश व्यक्ति जगत् नहीं होता। अज्ञान, जिसे
माया कहते हैं, जगत् का कारण हैं, क्योंकि इसी के कारण निरपेक्ष अपरिवर्तनशील
सत् व्यक्त जगत् के रूप में प्रतिभासित होता है। माया शून्य या असत् नहीं है।
यह सत् भी नहीं है, क्योंकि निरपेक्ष अपरिवर्तनशील तत्त्व ही एकमात्र सत् है।
परमार्थिक दृष्टि से तो माया को असत् कहा जाना चाहिए, किंतु असत् भी नहीं कहा
जा सकता , क्योंकि तब तो इसके कारण जगत् का प्रतिभासित होना भी संभव नहीं हो
सकता। अत: यह न तो सत् है, न असत् है। वेदांत में इस अनिर्वचन करते हैं। यही
जगत् का यथार्थ कारण है। ब्रह्म उपादन कारण है और माया नाम - रूप का कारण है।
ब्रह्म नाना रूपों में परिवर्तित जैसा प्रतिभासित होता है। इस प्रकार
अद्वैतवादियों के लिए जीवात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। उनके अनुसार
माया ही जीवात्मा के अस्तित्व का कारण है। पारमार्थिक दृष्टि से उसका अपना
कोई अस्तित्व नहीं है। इस प्रकार सत्ता यदि केवल एक है, तो यह कैसे संभव हो
सकता है कि मैं एक पृथक सत्ता हूँ और तुम एक पृथक सत्ता हो? यथार्थ में हम लोग
सभी एक हैं। हमारी द्वैत दृष्टि ही सभी अनिष्ट का कारण है। जभी मैं यह समझता
हूँ कि मैं संसार से पृथक हूँ, तभी पहले भय उत्पन्न होता है और तब दु:ख का
अनुभव होता है। जहाँ व्यक्ति दूसरे से सुनता है, दूसरे को देखता है, वह अल्प
है। जहाँ व्यक्ति दूसरे को देखता नहीं, दूसरे को सुनता नहीं, वह भूमा है; वह
ब्रह्म है। भूमा में परम सुख है, अल्प में नहीं? [9]
अद्वैत दर्शन के अनुसार परम तत्त्व के विघटन से सांसारिक नाम रूपों के
प्रतिभासित होने के कारण मनुष्य का पारमार्थिक स्वरूप छिप जाता है। पर उसमें
वास्तविक परिवर्तन कदापि नहीं होता। निम्न से निम्न कीट में तथा उच्च से
उच्च मनुष्य में एक ही आध्यात्मिक तत्त्व विद्यमान है। कीट निम्न कोटि का
इसलिए है कि उसके देवत्व पर मायाजनित अध्यास अधिक रहता है। जिस पदार्थ में
इस तरह का अध्यास सबसे कम रहता है, वह सबसे ऊँची कोटि का होता है। सभी
वस्तुओं के पीछे उसी देवत्व का अस्तित्व है, और इसी से नैतिकता का आधार
प्रस्तुत होता है। दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को
अभिन्न समझकर उसके साथ प्रेम करना चाहिए, क्योंकि समस्त विश्व मौलिक स्तर
पर एक है। दूसरे को कष्ट देना अपने आप को कष्ट देना है। दूसरे के साथ प्रेम
करना अपने आपसे प्रेम करना है। इसी से अद्वैत नैतिकता का वह सिद्धांत उद्भूत
होता है, जिसका समाहार एक आत्मोत्सर्ग शब्द में किया गया हैं। अद्वैत
वादियों के अनुसार जीवात्मा ही दु:खों का कारण है। व्यक्ति-सीमित जीवात्मा
के कारण मैं अपने को अन्य वस्तुओं से भिन्न समझता हूँ। अत: यही घृणा,
ईर्ष्या, दु:ख, संघर्ष आदि अनिष्टों का कारण है। इसके परिहार से सभी संघर्ष,
सभी दु:ख समाप्त हो जाते हैं। अत: इसका परिहार आवश्यक है। निम्न से निम्न
सत्ताओं के लिए भी हमें अपने जीवन का उत्सर्ग करने को तत्पर रहना चाहिए।
मनुष्य जब एक लघु कीट के लिए अपने जीवन तक का उत्सर्ग करने को तत्पर हो
जाता है, तो वह पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है। अद्वैतवादियों के अनुसार
पूर्णत्व ही जीवन का अभीष्ट है। मनुष्य जब उत्सर्ग के योग्य हो जाता है,
तो उसके अज्ञान का आवरण दूर हो जाता है और वह अपने को पहचान लेना है। जीवन -
काल में ही उसे यह अनुभव हो जाता है कि उसमें और संसार में कोई अंतर नहीं है।
कुछ समय के लिए तो ऐसे व्यक्ति के लिए जगत का नाश हो जाता है और वह समझ लेता
है कि उसका वास्तविक स्वरूप क्या है। किंतु जब तक उसके वर्तमान शरीर का
कर्म अवशिष्ट रहा है, तब तक उसे जीवन धारण करते रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति
में अविद्या का आवरण तो नष्ट हो चुका रहता है, पर शरीर को कुछ अवधि के लिए
रहना पड़ता है। इसे वेदांती जीवन्मुक्ति कहते हैं। मनुष्य मरीचिका को देखकर
कुछ समय के लिए भ्रम में अवश्य पड़ जाता है, किंतु एक दिन मरीचिका विलीन हो
जाती है। बाद में मरीचिका के सम्मुख आने पर भी मनुष्य भ्रम में नहीं पड़ता।
मरीचिका जब पहली बार घटित होती है,मनुष्य सत्य और मिथ्या में भेद नहीं कर
सकता। किंतु जब वह एक बार नष्ट हो जाती है, तब नेत्रादि इंद्रियों के वर्तमान
रहनें के कारण मनुष्य उसे देखता तो है, पर उसकें कारण भ्रम में नहीं पड़ता।
अब तो उसे मरीचिका तथा वास्तविक जगत के भेद का ज्ञान प्राप्त रहता है।
इसीलिए वह मरीचिका के कारण भ्रम में नहीं पड़ता। इस प्रकार अद्वैत वेदांतियों
के अनुसार व्यक्ति जब अपने आपका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो उसके
लिए संसार का मानो लोप हो जाता है। संसार का फिर से प्रत्यक्ष तो होता है,
किंतु अब वह दुख:मय नहीं रह जाता। जो संसार पहलें दु:खमय कारागार था, अब वह
सच्चिदानन्द हो जाता है। अद्वैत के अनुसार सच्चिदानन्द की अवस्था को
प्राप्त करना ही जीवन का अभीष्ट है।
वेदांत दर्शन - २
वेदांती कहता है कि मनुष्य न तो जन्म लेता है और न मरता या स्वर्ग जाता है ।
आत्मा के संबंध में पुनर्जन्म एक कल्पना मात्र है। पुस्तक के पन्ने उलटने
का उदाहरण लो। उलट-पुलट पुस्तक में हो रही है, उलटने वाले मनुष्य में नहीं।
प्रत्येक आत्मा सर्वव्यापी है, तब वह कहाँ आ-जा सकती है? ये जन्म और मरण
प्रकृति में होने वाले परिवर्तन हैं, जिन्हें हम प्रमादवश अपने में ही घटने
वाले परिवर्तन समझ रहे हैं।
पुनर्जन्म प्रकृति का क्रम-विकास तथा अंत:स्थित परमात्मा की अभिव्यक्ति
है।
वेदांत कहता है कि प्रत्येक जीवन अतीत का प्रतिफलस्वरूप है, और जब हम
संपूर्ण अतीत पर दृष्टि डाल सकने में सक्षम हो सकेंगे, तब हम मुक्त हो
जाएंगें। मुक्त होने की इच्छा बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति का रूप धारण कर
लेती है। और कुछ वर्ष का समय मानो मानव की आँखों में सत्य को स्पष्ट कर
देता है। यह जीवन छोड़ने के बाद जब मनुष्य दूसरे जन्म की प्रतीक्षा में
रहता है, तब भी वह प्रपंचमय जगत के अंतर्गत ही है।
आत्मा का हम इन शब्दों में वर्णन करते हैं : इसे न तलवार काट सकती है, न
भाला छेद सकता है ; न आग जला सकती है, न पानी घुला सकता है; यह अविनाशी और
सर्वव्यापी है। अतएव इसके लिए रोना क्यों?
यदि यह अत्यंत पतित रही है, तो कालक्रम से उन्नत बन जाएगी। मूल सिद्धांत यह
है कि शाश्वत मुक्ति पर सबका अधिकार है। उसे सभी अवश्य प्राप्त करेंगे।
मोक्ष की इच्छा से प्रेरित होकर हमें प्रयत्न करना पड़ता है। मोक्ष की इच्छा
को छोड़कर अन्य सभी इच्छाएँ भ्रमात्मक हैं। वेदांती कहता है कि प्रत्येक
शुभ कार्य इस मुक्ति की ही अभिव्यक्ति है।
मैं यह नहीं मानता कि एक ऐसा भी समय आएगा, जब संसार से समस्त अशुभ लुप्त हो
जाएगा। यह कैसे हो सकता है? यह प्रवाह तो चलता ही रहेगा। जलराशि एक छोर से
निकलती रहती है, पर दूसरे छोर से जलसमूह आता भी रहता है।
वेदांत कहता है कि तुम पवित्र और पूर्ण हो। एक अवस्था ऐसी भी है, जो कि पाप
और पुण्य से परे है, और वही तुम्हारा प्रकृत स्वरूप है। वह अवस्था पुण्य
से भी ऊँची है। पुण्य में भी भेद-ज्ञान है, किंतु पाप से कम।
हमारे यहाँ पाप विषयक कोई सिद्धांत नहीं। हम तो उसे अज्ञान कहते हैं।
जहाँ तक नीतिशास्त्र, अन्य लोगों के प्रति व्यवहार आदि का संबंध है- यह सब
प्रपंचमय जगत के अंतर्गत है। सत्य तो यह है कि परमात्मा में अज्ञान जैसी
किसी वस्तु के आरोप करने की बात सोची ही नहीं जा सकती। उसके संबंध में हम
कहते हैं कि वह सत-चित-आनंदस्वरूप है। उस अतींद्रिय, निरपेक्ष सत्ता को विचार
और वाणी द्वारा व्यक्त करने का हमारा प्रत्येक प्रयत्न उसे इंद्रियग्राह्य
और सापेक्ष बना देगा, और इस तरह उसके वास्तविक स्वरूप को नष्ट कर देगा।
एक बात हमें ध्यान में रखनी होगी, और वह यह कि इंद्रियग्राह्य जगत् में 'मैं
ब्रह्म हूँ ' इस प्रकार का कथन नहीं किया जा सकता। यदि तुम इस नामरूपमय जगत
में आबद्ध हो और साथ ही अपने को ब्रह्म होने का भी दावा करो, तो तुम्हें
अनाचार करने से कौन रोक सकता है? अतएव तुम्हारे ब्रह्म होने की बात
इंद्रियातीत जगत के विषय में ही लागू हो सकती है। यदि मैं ब्रह्म हूँ, तो
इंद्रियवृत्तियों से मैं परे हूँ और पाप कर ही नहीं सकता। निश्चय ही, नैतिकता
मनुष्य का चरम लक्ष्य नहीं है, वह तो मोक्ष-प्राप्ति का साधन मात्र है।
वेदांत कहता है कि इस ब्रह्म-तत्त्व की अनुभूति का एक मार्ग 'योग' है। योग
अपने आंतरिक मुक्त स्वभाव की अनुभूति से होता है, और इस अनुभूति के सामने
सभी वस्तुएँ पराभूत हो जाती है। नैतिकता और आचार सभी अपने सम्यक स्थान में
विन्यस्त हो जाएँगे।
अद्वैत दर्शन के विरोध में जितनी भी आलोचनाएँ की गई हैं, उन सबका सारांश यह है
कि इंद्रिय-सुखों के भोग में बाधा पहुँचती है। हम हर्षपूर्वक इस बात को
स्वीकार करते हैं।
वेदांत दर्शन परम निराशावाद को लेकर प्रारंभ होता है और उसकी समाप्ति होती है
यथार्थ आशावाद में। हम ऐंद्रिक आशावाद को अस्वीकार करते हैं, परंतु
इंद्रियातीत आत्मानुभूति पर आधारित सच्चे आशावाद को स्वीकार करते हैं।
यथार्थ सुख इद्रियों में नहीं, इंद्रियों से परे है, और प्रत्येक व्यक्ति
में वह विद्यमान है। संसार में हम जो तथाकथित आशावाद देखते हैं, वह हमें
इंद्रियपरायण बनाकर विनाश की ओर ले जाता है।
हमारे दर्शन में निषेध (नेति-नेति) का बहुत बड़ा महत्त्व है। निषेधीकरण में
वास्तविक आत्मा का अस्तित्व-बोध निहित है। ऐंद्रिक जगत को अस्वीकार करने
के दृष्टिकोण से वेदांत निराशावादी है, पर इंद्रियातीत सच्चे जगत को स्वीकार
करने के दृष्टिकोण से वह आशावादी है।
यद्यपि वेदांत कहता है कि बुद्धि से भी परे कोई वस्तु है, तो भी यह मनुष्य
की तर्क-शक्ति को उचित मान्यता प्रदान करता है, उसकी अवहेलना नहीं करता;
क्योंकि उस वस्तु की प्राप्ति का मार्ग बुद्धि से होकर ही जाता है।
समस्त पुराने अंधविश्वासों को भगा देने के लिए हमें तर्क-बुद्धि की
आवश्यकता है; और अंत में जो बचा रहता है, वही वेदांत है। संस्कृत में एक
सुंदर कविता है, जिसमें एक साधु पुरुष अपने आप से कहता है,'मेरे मित्र, तू
कयों रोता है। तेरे लिए न भय है, न मृत्यु, तो क्यों रोता है? तेरे लिए कोई
दु:ख-कष्ट नहीं है, क्योंकि तू तो इस अनंत नीलाकाश की भाँति स्वभावत:
अपरिवर्तनशील है। नील गगन के सामने रंग-बिरंगे बादल आते हैं, क्षणभर खेल करते
हैं और फिर चले जाते हैं, पर आकाश ज्यों का त्यों ही रहता है। तुझे भी केवल
अज्ञानरूपी बादलों को भगा देना है।'
हमें केवल द्वार खोलकर रास्ता साफ कर देना है। पानी अपने आप वेग से आकर भर
जाएगा, क्योंकि वह वहाँ पहले ही से विद्यमान है।
मानव मन का अधिकांश चेतन एवं कुछ अंश अचेतन होता है, और उसके लिए चेतन से परे
चले जाना संभव है। यथार्थ मनुष्य बन जाने पर ही हम तर्कबुद्धि से अतीत हो
सकते हैं। 'उच्चतर' और 'निम्नतर' शब्दों का प्रयोग हम केवल प्रपंचमय जगत
में ही कर सकते हैं। इनका अतींद्रिय जगत के विषय में प्रयोग करना सहज ही
विरोधाभास है, क्योंकि वहाँ विभेद नहीं है। इस प्रपंचमय जगत में मनुष्य-योनि
उच्चतम है। वेदांती कहता है कि मानव देवता से भी ऊँचा है। समस्त देवताओं को
एक न एक दिन मरना ही होगा, और पुन: मनुष्य-जन्म लेना होगा-केवल मनुष्य शरीर
में ही वे पूर्णत्व लाभ कर सकेंगे।
यह सत्य है कि हम एक विचार-प्रणाली की-एक मत या वाद की-सृष्टि करते हैं,
किंतु हमें यह मानना पड़ेगा कि वह पूर्ण नहीं है, क्योंकि सत्य सभी
प्रणालियों से परे की चीज है। हम अपने उस मत की अन्य मतों से तुलना करने को
तैयार हैं, पर वह पूर्ण नहीं है, क्योंकि युक्ति स्वयं अपूर्ण है। तो भी,
वही एकमात्र युक्तिसंगत विचार-प्रणाली है, जिसकी धारणा मानव मन कर सकता है।
यह कुछ अंशों में सत्य है कि किसी भी मत के परिपुष्ट होने के लिए उसका
प्रचार होना चाहिए। किसी भी मत का उतना प्रचार नही हुआ, जितना कि वेदांत का।
अभी भी शिक्षा व्यक्तिगत संपर्क द्वारा ही होती है। बहुत सा पढ़ लेने से ही
'मनुष्य' का निर्माण नहीं होता। जितने भी यथार्थ मनुष्य हो चुके हैं, वे सब
व्यक्तिगत संपर्क द्वारा ही बने थे। यह सत्य है कि ऐसे यथार्थ मनुष्य बहुत
कम संख्या में हैं, पर उनकी संख्या बढ़ेगी। तो भी यह विश्वास नहीं किया जा
सकता कि एक ऐसा भी दिन आएगा,जब हम सबके सब दार्शनिक बन जाएंगे। हमारा इस बात
में विश्वास नहीं कि कभी ऐसा समय आएगा, जब केवल सुख ही सुख रहेगा और दु:ख
सर्वथा अभाव हो जाएगा।
हमारे जीवन में कुछ क्षण ऐसे आते हैं, अजब हमें परमानंद की झलक मिल जाती है,
और उस समय हम न कुछ लेना चाहते हैं, न देना -उस महदानंद की अनुभूति की अवस्था
में हम उस आनंद को छोड़ भी अनुभव नहीं करते। पर ये क्षण लुप्त हो जाते हैं और
पुन: हम विश्व के प्रपंच को अपने सामने चलते-फिरते देखते हैं। हम जानते हैं
कि यह सब सभी वस्तुओं के आधारस्वरूप ईश्वर पर चित्रित रंग-बिरंगी
पच्चीकारी मात्र है।
वेदांत शिक्षा देता है कि निर्वाण-लाभ यहीं और अभी हो सकता है, उसके लिए हमें
मृत्यु की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं। निर्वाण का अर्थ है
आत्म-साक्षात्कार कर लेना; और यदि एक बार कभी, वह चाहे क्षणभर के लिए ही
क्यों हो, हमें यह अवस्था प्राप्त हो गई, तो फिर कभी भी हम व्यक्तित्व की
भ्रांति से विमोहित न हो सकेंगे। हमारे चक्षु हैं, अत: हम प्रतीयमान वस्तु को
ही देखते हैं, पर हमने इसके वास्तविक स्वरूप को जान लिया है और हमें सदैव यह
ज्ञान रहता है कि वह है क्या; हमने उसके वास्तविक स्वरूप को जान लिया है। यह
वह आवरण है, जिसने अपरिणामी आत्मा को ढक रखा है। आवरण खुल जाता है और तब हम
इसके पीछे अवस्थित आत्मा को देख देख पाते हैं। सभी परिवर्तन या परिणाम आवरण
में ही होते हैं। साधु पुरुष में यह आवरण इतना महीन होता है कि उसमें आत्मा
की हमें स्पष्ट झलक दिखाई पड़ती है; पर पापी में यह आवरण इतना मोटा होता है
कि हम इस सत्य में संशय करने लग जाते हैं कि पापी के पीछे भी वही आत्मा है,
जो साधु पुरुष के पीछे विद्यमान है। जब संपूर्ण आवरण हट जाता है, तब हम देखने
लगते हैं कि वास्तव में आवरण का अस्तित्व किसी काल में नहीं था - हम सदैव
आत्मा ही थे, अन्य कुछ भी नहीं; यहाँ तक कि आवरण की बात ही भूल जाती है।
जीवन में इस विभेद के दो चरण हैं : पहला तो यह कि जो मनुष्य आत्मज्ञानी है,
उस पर किसी भी बात का प्रभाव नहीं पड़ता और दुसरे, ऐसा ही मनुष्य संसार का
हित कर सकता है। केवल वही मनुष्य परोपकार का वास्तविक उद्देश्य समझ सकता है,
क्योंकि वह जानता है कि ब्रह्म-अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं। इस उद्देश्य
को हम अहंवादिता नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसा होने से तो उसमें भेद-ज्ञान आ
जाएगा। यही एकमात्र नि:स्वार्थपरता है। इस अवस्था में व्यक्ति का बोध नहीं
होता, सर्वगत आत्मा का बोध होता है। प्रेम और सहानुभूति का प्रत्येक कार्य
इसी सर्वव्यापी तत्त्व की पुष्टि करता है। 'मैं नहीं, तू।' दार्शनिक ढंग से
इसे यों कह सकते हैं कि दूसरों की सहायता इसलिए करो कि तुम उसमें और वह तुममें
है। केवल सच्चा वेदांती ही बिना किसी दु:ख या हिचकिचाहट के दूसरे के लिए अपना
जीवन दे सकता है, क्योंकि वह जानता है कि वह अमर है। जब तक संसार में एक कीड़ा
भी जीवित है, अत: वह दूसरों का हित करता जाता है; और शरीर - रक्षा के इन
आधुनिक विचारों की तनिक भी परवाह नहीं करता। जब मनुष्य इस त्याग की अवस्था
में आरूढ़ हो जाता है, तब वह नैतिक संघर्ष के समस्त वस्तुओं के परे चला जाता
है। तब, वह महापंडित, गाय, कुत्ते और घृणित से घृणित पदार्थों में विद्वान,
गाय, कुत्ता घृणित पदार्थ नहीं देखता, किंतु सर्वभूतों में उसी देवत्व का
प्रकाश देखता है। केवल वही सुखी है। और जिसने इस एकत्व का अनुभव कर लिया है,
उसने इस जीवन में ही संसार पर विजय प्राप्त कर ली है। परमात्मा पवित्र है;
अत: ऐसा व्यक्ति परमात्मा में अवस्थित कहा जाता है। ईसा मसीह ने कहा है,'मैं
अब्राहम'[10] के भी पहले से
हूँ।' इसका अर्थ यह है कि ईसा और उनकी तरह के अन्य लोग मुक्त आत्माएँ हैं।
ईसा ने पूर्व कर्मों से बाध्य होकर मनुष्य-शरीर ग्रहण नहीं किया, किंतु केवल
मानव जाति का हित करने के लिए उन्होंने नर-देह धारण की। यह बात नहीं है कि
मुक्त होने पर मनुष्य कर्म करना छोड़ दे और निर्जीव मिट्टी का ढेर बन जाए,
प्रत्युत वह अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक कर्मशील होता है, क्योंकि अन्य
लोग तो केवल बाध्य होकर कर्म करते हैं, पर वह स्वतंत्र होकर।
यदि हम ईश्वर से अभिन्न हैं, तो क्या हमारा पृथक व्यक्तित्व नहीं है?
हाँ, है, और वह है ईश्वर। हमारा व्यक्तित्व देख रहे हो, वह तुम्हारा
यथार्थ व्यक्तित्व नहीं-तुम यथार्थ व्यक्तित्व की ओर अग्रसर हो रहे हो।
'इंडिविजुअल्टी' (व्यक्तित्व) का अर्थ है जिसका 'डिवीजन'(विभाजन) न हो सके।
तुम वर्तमान व्यक्तित्व को व्यक्तित्व कैसे कह सकते हो? अभी तुम एक तरह से
सोच रहे हो, घंटे भर बाद कुछ दूसरी तरह से चिंता करने लगते हो, और दो घंटे बाद
कुछ तीसरी ही तरह से। व्यक्तित्व तो वह है, जो बदलता नहीं-वह समस्त
वस्तुओं से परे है,अपरिणामी है। यदि यह वर्तमान स्थिति ही चिरकाल तक बनी रहे,
तो यह बड़ी ही भयानक बात होगी; क्योंकि तब तो चोर या दुष्ट सदैव चोर या
दुष्ट ही बना रहेगा। यदि किसी बच्चे की मृत्यु हो जाए, तो वह सदा बच्चा ही
बना रहेगा। यथार्थ व्यक्तित्व वह है, जिसमें कभी भी परिवर्तन नहीं होता, और
न होगा-और वह है अंत:स्थित परमात्मा।
वेदांत वह विशाल सागर है, जिसके वक्ष पर युद्ध-पोत और साधारण बेड़ा दोनों पास
पास रह सकते हैं। वेदांत में यथार्थ योगी, मूर्तिपूजक, नास्तिक इन सभी के लिए
पास पास रहने को स्थान है। इतना ही नहीं, वेदांत-सागर में हिंदू, मुसलमान,
ईसाई या पारसी सभी एक हैं - सभी उस सर्वशक्तिमान परमात्मा की संतान हैं।
क्या वेदांत भावी युग का धर्म होगा
?
(सैनफ्रांसिस्को में ८ अप्रैल, १९०० ई. को दिया गया भाषण)
इधर लगभग महीने भर मेरे व्याख्यानों में उपस्थित रहने से तुम लोगों को अब तक
वेदांत दर्शन के आधारभूत सिद्धांतों का थोड़ा-बहुत परिचय मिल चुका होगा। संसार
भर में प्राचीनतम धर्म-दर्शन है वेदांत, लेकिन वह लोकप्रिय हुआ है, ऐसा कदापि
नहीं कहा जा सकता। इसलिए 'क्या वेदांत भावी युग का धर्म होगा?' इस प्रश्न का
उत्तर दे सकना बड़ा कठिन है।
मैं यह पहले ही बता दूँ कि अधिकांश मानवता कभी इसे अपना धर्म मानेगी, इसका मैं
अनुमान नहीं लगा पाता। क्या संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे एक समग्र राष्ट्र
को वह कभी प्रभावित कर सकेगा? शायद वह कर सके। जो भी हो, आज की संध्या का
प्रतिपाद्य विषय यही रहेगा।
वेदांत क्या नहीं है, इससे आरंभ कर, वेदांत क्या है, इसका परिचय दूँगा।
लेकिन यह याद रखो कि निरपेक्ष सिद्धांतों पर जोर देने के साथ साथ वेदांत का
किसी अन्य विचारधारा से विरोध नहीं है। हाँ, मौलिक सिद्धांतों का जहाँ तक
संबंध है, उसका किसी से समझौता या अपने सत्य पक्ष का त्याग संभव नहीं है।
तुम सबको मालूम है कि धर्म के निर्माण के लिए कुछ उपादान आवश्यक होते हैं।
इनमें ग्रंथ का स्थान सर्वोपरि है। ग्रंथ की शक्ति अद्भुत है। कारण जो भी
हों, ग्रंथ मानवीय श्रद्धा के ध्रुव केंद्र हैं। आज के जीवित धर्मों में ऐसा
कोई भी नहीं है, जिसका अपना ग्रंथ न हो। तर्कवाद और लंबी-चौड़ी बातों के
बावजूद मानवता ग्रंथों से चिपकी हुई है। आपके देश में ही ग्रंथरहित धर्म के
प्रचार का सारा प्रयास विफल हुआ है। भारत में संप्रदायों का आरंभ तो
सफलतापूर्वक हो जाता है, किंतु कुछ ही वर्षों में वे इसलिए दिवंगत हो जाते हैं
कि उनके पीछे कोई ग्रंथ नहीं होता। यही अन्य देशों में होता है।
एकत्ववादी (Unitarian) आंदोलन के उत्थान और पतन के इतिहास को लो। वह
तुम्हारे राष्ट्र के सर्वोच्च चिंतन का प्रतीक है। मेथाडिस्ट
(Methodist), बैप्टिस्ट (Baptist) और इतर ईसाई संप्रदायों की भाँति उसका
प्रचार क्यों नहीं हो सका? कारण स्पष्ट है। उसका अपना कोई ग्रंथ न था। ठीक
विपरीत यहूदियों को देखो। मुट्ठी भर लोग, हर राष्ट्र से खदेड़े जाने पर भी
संघटित हैं, क्योंकि उनका अपना धर्मग्रंथ है। पारसियों को लो, दुनिया भर में
वे केवल एक लाख ही होंगे। जैन संप्रदाय के अनुयायी भारत में दस ही लाख रह गए
हैं। क्या तुम जानते हो कि ये थोड़े से पारसी और जैनी केवल अपने धर्मग्रंथों
की बदौलत ही जीवित हैं? आज जितने भी जीवित धर्म हैं, उनमें से प्रत्येक का
अपना स्वतंत्र धर्मग्रंथ है।
धर्म की दूसरी आवश्यकता है व्यक्ति विशेष के प्रति पूज्य भाव। यह विशिष्ट
व्यक्ति विश्व के स्वामी या महान उपदेशक के रूप में पूजा जाता है। मनुष्य
के लिए किसी देहधारी मानव की उपासना करना अनिवार्य है। कई अवतारी पुरुष,
पैगंबर या महान नेता मानव को चाहिए ही। सारे धर्मों में अवतार की मान्यता है।
बौद्ध, इस्लाम, यहूदी आदि धर्मों में पैगंबर को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त
है। लेकिन लक्ष्य सबका समान है -उनकी पूजा-भावना किसी व्यक्ति या व्यक्ति
समुदाय पर केंद्रित है।
धर्म की तीसरी आवश्यकता यह है कि सबल और आत्म-विश्वासयुक्त होने के लिए
उसे केवल अपने को ही सत्य मानना चाहिए। अन्यथा जन-समाज पर उसका प्रभाव नहीं
के बराबर होगा।
उदारवादिता (Liberalism) मानव मन में धर्मांधता को जगा नहीं पाती, स्वयं अपने
को छोड़कर किसी अन्य के प्रति शत्रुता का भाव नहीं जगा सकती, अत: वह मर जाती
है। इसीलिए उदारता को बार बार पराभूत होना पड़ेगा उसका प्रभाव भी इने-गिनों तक
सीमित रहता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। उदारवादिता हमें स्वार्थरहित बनाने
की चेष्टा करती है। लेकिन हम नि:स्वार्थी नहीं होना चाहते। उससे कोई
तात्कालिक लाभ नहीं होता। स्वार्थी बने रहने में ही हमारा अधिक हित है। जब
हम गरीब या साधनहीन होते हैं, हम उदारता की हामी भरते हैं। धन और शक्ति-संचय
के क्षणसे ही हम अतीव अनुदार हो जाते हैं। गरीब जनतंत्रवादी होता है। धनी बनते
ही वह सामंत बन जाता है। मानव - स्वभाव की यही प्रवृत्ति धर्मक्षेत्र में भी
दिखाई पड़ती है।
किसी पैगंबर का आविर्भाव होता है। वह अपने अनुयायियों को हर तरह कें
पुरस्कारों का वचन और अनुसरण न करने वालों को चिरंतन नरक की धमकी देता है। और
इस प्रकार वह अपने पंथ का प्रचार करता है। वर्तमान सारे प्रचारशील धर्म घोर
कट्टरपंथी हैं। कोई संप्रदाय अन्य संप्रदायों से जितनी घृणा करेगा, उतना ही
वह सफल होगा और अपने अनुयायियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ाता जाएगा। संसार के
अधिकतर भागों में भ्रमण करने के उपरांत और विविध जातियों के मध्य रहने एवं
विश्व की वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए हुए मैं इसी निष्कर्ष पर
पहुँचा हूँ कि विश्व-बंधुत्व के संबंध में इतनी बातें होते रहने पर भी
प्रस्तुत स्थिति चलती ही रहेगी।
वेदांत इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं करता। उसकी सबसे मौलिक कठिनाई यही
है कि किसी ग्रंथ पर उसकी आस्था नही है। एक ग्रंथ का दूसरे पर अधिकार उसे
मान्य नहीं। कोई भी ग्रंथ ईश्वर, जीव, परम तत्त्व आदि संबंधी सभी सत्यों का
आश्रय हो सकता है, इस दावे का वह प्रबल विरोध करता है। तुममें से जिन्होंने
उपनिषद पढ़े हैं, उन्हें मालूम होगा कि उनकी बार-बार यही घोषणा है -
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया (इस आत्मा को प्रवचन से अथवा बुद्धि से
प्राप्त नहीं किया जा सकता)।
दूसरे, वह व्यक्तिविशेष की आराधना को और भी अधिक अग्राह्य मानता है। तुममें
से वेदांत के विद्यार्थी - वेदांत से आशय उपनिषद हैं - जानते हैं कि केवल यही
धर्म किसी व्यक्ति विशेष से चिपका नहीं है। कोई भी एक स्त्री या पुरुष
वेदांतियों की आराधना का पात्र नहीं बन सका है। यह संभव भी नहीं। कोई मानव
किसी पक्षी या कीट की अपेक्षा अधिक पूज्य नहीं होता। हम सब भाई हैं। अंतर
केवल परिमाण का है। जो क्षुद्र कीट है, बिल्कुल वही मैं भी हूँ । इस प्रकार
तुम देखतें हो कि वेदांत में, किसी व्यक्ति का हमारे आगे खड़ा होना, और हम
सबका उसकी आराधना करना, उसका हमें घसीटते हुए आगे बढ़ाना और हमारा उद्धार
करना, इसकी संभावना ही नहीं है। वेदांत आपको यह सब नहीं देता। कोई ग्रंथ नहीं,
पूजा के लिए कोई व्यक्ति नहीं, कुछ भी नहीं।
इससे भी अधिक कठिनता ईश्वर संबंधी है। इस देश में तुम जनतंत्रवादी रहना चाहते
हो? वेदांत जनतंत्रीय ईश्वर का ही उपदेश करता है ।
तुम्हारी सरकार है ; पर सरकार व्यक्ति-निरपेक्ष है। तुम्हारी कोई तानाशाही
सरकार नहीं, फिर भी दुनिया के किसी भी राजतंत्र की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली है।
शायद यह कोई भी नहीं समझ पाता कि यथार्थ शक्ति, यथार्थ जीवन एवं वास्तविक बल
अदृश्य, निरपेक्ष तथा शून्य सत्ता में छिपे हैं। दूसरों से अलग मात्र
व्यक्तिकी हैसियत से तुम्हारी कोई सत्ता नहीं, लेकिन स्वशासित राष्ट्र की
अवैयक्तिक इकाई के रूप में तुम अतीव बलशाली हो। शासन- व्यवस्था में सम्मिलित
सदस्य समूह के नाते तो महान शक्तिशाली हो। किंतु यथार्थत : यह शक्ति है कहाँ?
हर व्यक्ति ही वह शक्ति है। कोई राजा नहीं। मैं सबको समान देखता हूँ। किसी के
सामने मुझे टोपी उतारना या सिर झुकाना नहीं पड़ा हे। फिर भी हर व्यक्ति में
अद्भुत शक्ति छिपी हुई है।
वेदांत पूर्णरूपेण यही है । उसका ईश्वर, सर्वथा सबसे दूर, एक ऊँचे सिंहासन पर
विराजने वाला महाराजा नहीं। ऐसे लोग भी हैं, जो अपना ईश्वर उसी रूप में देखना
चाहते हैं, जिससे सभी भयभीत हों और जिसको प्रसन्न रखा जाए। वे उसके सामने दीप
जलाते हैं और नाक रगड़ते हैं। वे एक राजा से शासित होना चाहते हैं और यहाँ की
भाँति स्वर्ग में भी शासित होने की बात पर विश्वास रखते हैं। कम से कम इस
राष्ट्र से तो राजा मिट ही गया है। अब स्वर्ग का राजा है कहाँ? केवल वहीं
जहाँ लौकिक राजा है। इस देश में राजा प्रत्येक मनुष्य में निहित हो गया हैं।
यहाँ तुम सब लोग राजा हो। यही वेदांत का भी ध्येय है। तुम सब ईश्वर हो। केवल
एक ईश्वर पर्याप्त नहीं। वेदांत का अभिमत है, तुम सब ईश्वर हो।
इससे वेदांत की कठिनाई और भी बढ़ जाती है। वह ईश्वर की पुरानी धारणा का
प्रतिपादन करता ही नहीं। सुरलोक में रहकर हमारी अनुमति के बिना ही संसार की
गतिविधि का आयोजन करने वाले, अपनी लीला के लिए शून्य से हमारा सर्जन करने
वाले और निज परितोष के लिए हमें आपदग्रस्त करने वाले ईश्वर की जगह वेदांत
सर्वांतर्यामी, सर्वव्यापक ईश्वर का निरूपण करता है। इस राष्ट्र से तो
राजराजेश्वर की विदाई हो चुकी है। लेकिन वेदांत से तो स्वर्ग का साम्राज्य
सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही लुप्त हो गया था।
भारत लौकिक परम भट्टारक का परित्याग नहीं कर सकता। इसी कारण वेदांत भारत का
धर्म नहीं हो सकता। जनतंत्र के कारण वेदांत इस राष्ट्र का धर्म हो सकता है,
परंतु यह उसी हालत में संभव है जब तुम दिमाग में धुँधली विचारधाराओं एवं
अंधविश्वासों वाले मनुष्य न बनकर उसे भली भाँति समझ सको और समझो, जब तुम
सच्चे स्त्री-पुरुष बनो और जब तुम सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक बनो,
क्योंकि वेदांत केवल अध्यात्म का ही विषय है।
स्वर्गस्थ ईश्वर की धारणा क्या है? भौतिकवाद। ईश्वरीय अनंत तत्त्व जो हम
सबमें समाविष्ट है, वेदांत की धारणा है। बादलों के ऊपर विराजने वाला ईश्वर !
इसकी निरी ईशतिरस्कारिता पर विचार करो। यह भौतिकवाद है, कोरा भौतिकवाद। यदि
शिशु ऐसा सोचें तो काई बात नहीं। लेकिन परिपक्व बुद्धि वाले ऐसी बातों की
शिक्षा देने लगें, तो यह अत्यधिक अरूचिकर है-यही उसका फल होता है। यह सब कुछ
जड़ है, देह-भाव है, स्थूल भाव है, इंद्रीयगोचर विषय है। उसका प्रत्येक अंश
मिट्टी है, कोरी मिट्टी है। यह भी कोई धर्म है? अफ़्रीका के मम्बो-फ़म्बो
'धर्म' की भाँति यह कोई धर्म नहीं है। ईश्वर आत्मा है और आत्मा एवं सत्य
के द्वारा ही उसकी उपासना होनी चाहिए। क्या आत्मा मात्र स्वर्ग-निवासी है?
आत्मा है क्या? हम सब आत्मा है। क्या कारण है कि हम इसकी अनुभूति नहीं
करते? कौन मुझसे तुम्हें अलग करता है? देह और कुछ नहीं। देह को भूलो, और सब
आत्मा ही है।
ये वे बातें है, जो वेदांत से अपेक्षित नहीं है। कोई धर्मग्रंथ नहीं। शेष
मनुष्य जाति से पृथक् कोई मनुष्य नहीं,'तुम कीट मात्र और हम जगदीश्वर' ऐसा
कुछ नहीं। यदि तुम जगदीश्वर प्रभु हो तो मैं भी जगदीश्वर प्रभु हूँ। अत:
वेदांत पाप नहीं मानता। भूलें जरूर हैं, लेकिन पाप नहीं। कालांतर में सब ठीक
होने वाला है। कोई शैतान नहीं -ऐसी कोई बकवास नहीं। वेदांत के अनुसार जिस क्षण
तुम अपने को या इतर जन को पापी समझते हो, वही पाप है। इसी से अन्य सब भूलों
का या उनका जिन्हें बहुधा पाप की संज्ञा दी जाती है, सूत्रपात होता है। हमारे
जीवन में अनेक भूलें हुई हैं। फिर भी आगे हम बढ़ते ही रहे हैं। हमसे भूलें
हुई, इसमें हमारा गौरव है। बीते जीवन का सिंहावलोकन करो। यदि तुम्हारी आज की
हालत अच्छी है, तो उसका श्रेय सफलताओं के साथ साथ पिछली भूलों को भी मिलना
चाहिए। सफलता भी गौरवशालिनी ! विफलता भी गौरवशालिनी ! बीते हुए की चिंता मत
करो। आगे बढ़ो !
इस तरह तुम देखते हो कि वेदांत पाप और पापी की स्थापना नहीं करता। वह
(ईश्वर) एक ऐसी सत्ता है, जिससे हम कदापि आतंकित नहीं होंगे; क्योंकि वह
हमारी अपनी आत्मा है। उसमें भीति जगाने वाले ईश्वर का आतंक नहीं। केवल एक ही
सत्ता है, जिससे हमें डर नहीं है, वह ईश्वर का आतंक नहीं। केवल एक ही सत्ता
है, जिससे हमें डर नहीं है, वह ईश्वर है। तो क्या ईश्वर से डरने वाला
प्राणी ही यथार्थ में सबसे बड़ा अंधविश्वासी नहीं है? निज छाया से कोई भयभीत
भले ही हो उठे, किंतु वह भी निज से संत्रस्त नहीं है। ईश्वर मानव की ही
आत्मा है। वही एक ऐसी सत्ता है, जिससे तुम कदापि भयभीत नहीं हो सकते। ईश्वर
का भय व्यक्ति के अंतराल में घर कर जाए, वह उससे थर्रा उठे, ये सब बातें
अनर्गल नहीं तो और क्या हैं? ईश्वर की कृपा कहो कि हम सब पागलखाने में नहीं
है ! यदि हममें से अधिकांश पागल न हों, तो हम 'ईश्वर-भीति' जैसी धारणा का
आविष्कार ही क्यों करें? भगवान बुद्ध का कथन था कि न्यूनाधिक मात्रा में
सारी मानवता विक्षिप्त है। लगता है कि यह पूर्णत: सत्य है।
कोई धर्मग्रंथ नहीं, कोई व्यक्ति (अवतार) नहीं, कोई सगुण ईश्वर नहीं। इन सभी
को जाना होगा। फिर इंद्रियों को भी जाना पड़ेगा। हम इंद्रियों के दास नहीं रह
सकते। अभी हम नदी में ठंड से ठिठुरकर मरने वालों की भाँति, आबद्ध हैं। सो जाने
की ऐसी बलवती ईप्सा द्वारा वे लोग आक्रांत हैं कि जब उनके साथी उन्हें
मृत्यु से सजग कर जाग्रत करना चाहते हैं, तो वे कहते हैं, "जान जाए बला से।
लेकिन नींद हराम न होने पाए।" हम इंद्रिय-सुख की सस्ती वस्तु के शिकार हैं,
भले ही उससे हमारा सर्वनाश ही क्यों न हो। हमने यह भुला दिया है कि जीवन में
और अधिक महान वस्तुएँ हैं।
एक हिंदू पौराणिक कथा है कि ईश्वर ने एक बार धरती पर शूकरावतार लिया। उनकी एक
शूकरी भी थी। कालांतर में उनके कई शूकर संतानें हुई। अपने परिवार वालों के बीच
वे बड़े चैन से रहे। कीचड़ में लोटते हुए वे खूब मस्त थे। वे अपनी दिव्य
महिमा एवं प्रभुता भूल बैठे। देवता बड़े चिंतित हुए। वे धरती पर उतर आए और
उनसे शूकर-शरीर त्याग कर देवलोक लौट चलने की विनती करने लगे। ईश्वर ने उनकी
एक न सुनी और उन सबको दुत्कार दिया। वे बोले,''मैं बड़ा प्रसन्न हूँ और इस
रंग में भंग देखना नहीं चाहता हूँ। "कोई चारा न देख देवताओं ने प्रभु का
शूकर-शरीर नष्ट कर दिया। तत्क्षण ईश्वर की दिव्य भव्यता लौट आई और वे
बड़े विस्मित थे कि शूकर स्थिति में वे प्रसन्न रहे कैसे !
मानवीय आचरण भी इसी प्रकार का है। जब कभी वे लोग निर्गुण ईश्वर की चर्चा
सुनते हैं, तो उनकी प्रतिक्रिया होती है कि 'मेरे व्यक्तित्व का क्या होगा?
व्यक्तित्व लुप्त ही हो जाएगा।' फिर कभी ऐसा विचार मन में उठे तो उस शूकर
की दशा याद कर लेना और तब देखना कि तुममें से प्रत्येक की प्रसन्नता का
पारावार कितना असीम है ! तुम अपनी वर्तमान स्थिति से कितने संतुष्ट हो। लेकिन
जब तुम्हें यह अनुभव हो जाएगा कि तुम यथार्थत: क्या हो, तो तुम यह देखकर
तत्क्षण आश्चर्यचकित हो जाओगे कि इंद्रिय-जीवन के परित्याग के प्रति तुम
अनिच्छुक क्यों हो। तुम्हारे व्यक्तित्व में रहा ही क्या है? वह
शूकर-जीवन से कहीं बढ़कर है? और क्या तुम इसको छोड़ना नहीं चाहते ! प्रभु
हमारा कल्याण करे !
वेदांत की शिक्षा क्या है? प्रथमत: यह शिक्षा देता है कि सत्य-दर्शन के लिए
तुम्हें अपने से भी बाहर जाने की जरूरत नहीं। सभी अतीत और सभी अनागत इसी
वर्तमान में निहित हैं। कभी किसी ने अतीत को नहीं देखा। क्या तुममें से किसी
ने अतीत को देखा है? जब यह सोचते हो कि तुम अतीत को जानते हो, तो तुम केवल
वर्तमान में ही अतीत की कल्पना करते हो। भविष्य को देखने के लिए तुम्हें
इसे वर्तमान में उतार लाना पड़ेगा, जो वर्तमान यथार्थ सत्य है - शेष सब
कल्पना है। वर्तमान ही सब कुछ है। केवल वही 'एक' है - एकमेवाद्वितीयम। जो
सत्य है सब इसी में है। अनंत काल का एक क्षण दूसरे प्रत्येक क्षण की ही
भाँति अपने में पूर्ण और सबको समाहित कर लेने वाला है। जो कुछ है, था और
होगा, सब इसी वर्तमान में है। इससे परे किसी कल्पना में कोई प्रवृत्त हो तो
वह विफल मनोरथ होगा।
क्या इस पृथ्वी से भिन्न स्वर्ग का चित्रण कोई धर्म कर सकता है? और यह सब
कला मात्र है, केवल इस कला का ज्ञान हमें धीरे-धीरे होता है। हम पंचेन्द्रियों
के सहारे इस सृष्टि को निरखते हैं और उसे रंग-रूप-शब्द आदि से युक्त स्थूल
ही पाते हैं। मान लो, विद्युत-चेतना का मुझमें स्फुरण हो जाए तो सब कुछ बदल
जाएगा। मान लो कि मेरी इंद्रियाँ सूक्ष्मतर हो जाएँ, तो तुम सब बदले नजर
आओगे। मैं ही बदल जाऊँ तो तुम भी बदल जाओगे। यदि मैं इंद्रियों की सीमा पार कर
लूँ, तो तुम सब आत्मरूप तथा ईश्वर-रूप देखोगे। जगत का दृश्य रूप सत्य नहीं
है।
हम इसको शनै:शनै: समझ सकेंगे और तब हम देखेंगे कि स्वर्ग आदि सब कुछ यहीं है;
इसी क्षण है और दिव्य सत्ता पर अध्यासों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह
सत्ता सभी-लोकों एवं स्वर्गों से बढ़कर है। लोगों का विचार है कि यह संसार
त्रुटिपूर्ण है और वे कल्पना करते हैं कि स्वर्ग कही अन्यत्र है। यह संसार
बुरा नहीं है तुम जानो तो यह साक्षात ईश्वर है। इसका बोध भी दूभर है और इस पर
विश्वास करना और भी दुष्कर है। कल फाँसी पर लटकाया जाने वाला हत्यारा भी
ईश्वर है, पूर्ण ब्रह्म है। अवश्य ही यह विषय जटिल है, पर वह बोधगम्य हो
सकता है।
इसीलिए वेदांत का प्रतिवाद्य है 'विश्व का एकत्व', विश्व-बंधुत्व नहीं।
मैं भी वैसा हूँ, जैसा एक मनुष्य है, एक जानवर है - बुरा, भला या और कुछ भी।
सब परिस्थितियों में यह एक ही देह, एक ही मन और एक ही आत्मा है। आत्मा का
अंत नहीं। कहीं कोई विनाश नहीं, देह का भी अंत नहीं। मन भी मरता नहीं है। देह
का अंत हो कैसे? एक पत्ती झड़ जाए तो क्या पेड़ का अंत हो जाएगा? यह विराट
विश्व ही मेरी देह है। देखो, कैसी इसकी अविकल परंपरा है। सारे मन मेरे मन
हैं। सबके पैरों से मैं ही चलता हूँ। सबके मुँह से मैं ही बोलता हूँ। सबके
शरीर में मेरा ही निवास है।
मैं इसका अनुभव क्यों नहीं कर पाता हूँ? इसका कारण है वही व्यक्तित्व
भाव, वही शूकरपना। इस मन से तुम आबद्ध हो चुके हो और तुम यहीं रह सकते हो,
वहाँ नहीं। अमरत्व है क्या? कितने कम लोग यह उत्तर देंगे कि 'वह हमारा यह
जीवन ही है !' बहुतेरों की धारणा है कि यह जीवन मरणशील है, प्राणहीन है -
ईश्वर यहाँ नहीं है, स्वर्ग पहुँचने पर ही वे अमर होंगे। उनकी कल्पना है कि
मृत्यु के बाद ही ईश्वर से उनका साक्षात्कार होगा। लेकिन यदि वे इसी जीवन
में और अभी उसका साक्षात्कार नहीं करते, तो मरने के बाद भी उसे नहीं देख
पाएंगें। यद्यपि अमरता पर उनकी आस्था है, तो भी उन्हें यह अज्ञात है कि
अमरता मरने और स्वर्ग जाने से नहीं, बल्कि व्यक्तिवाद की इस शूकर-प्रवृति और
क्षुद्र देह बंधन से अपने को आबद्ध न करने पर ही प्राप्त होती है। निज को
सबमें, सबको निज में जानने, समस्त मन से देखने की ही संज्ञा अमरता है। हमें
दूसरों के शरीर में भी आत्मदर्शन अवश्य ही मिलेगा। सहानुभूति या समानुभूति
है क्या? क्या सहानुभूति की भी सीमा निर्दिष्ट है? संभवत: एक ऐसा भी समय
आएगा, जब कि समस्त सृष्टि से मैं तादात्म्य अनुभव कर पाऊँगा।
इससे लाभ? इस शूकर-देह का परित्याग करना कठिन है। अपनी छोटी सी वासनामय देह
के आनंद के परित्याग से हमें पश्चाताप होता है। वेदांत का लक्ष्य
'देह-भाव-त्याग' नहीं, देह-भाव-अतिक्रमण' है। तपश्चर्या आवश्यक नहीं - दो
देहों का भी उपभोग भला - तीन का भी भला। एक से अधिक देहों में जीवन यापन करना
अच्छा ! जब मैं निखिल सृष्टि से तादात्म्य का सुख लूट सकता हूँ, तो संपूर्ण
सृष्टि ही मेरा शरीर है।
बहुत से ऐसे हैं जो यह उपदेश सुनते ही संत्रस्त हो जाते हैं। उन्हें यह
सुनना पसंद नहीं कि वे क्षुद्र पशु देहधारी नहीं, जिनका किसी निरंकुश भगवान ने
सर्जन किया है। मेरा उनसे अनुरोध है,'ऊपर उठो !' वे कहते हैं कि 'पाप में
हमारा जन्म हुआ, किसी के अनुग्रह के बिना वे अपना उद्धार नहीं कर सकते।' मैं
कहता हूँ, "तुम दिव्य तेजसंभूत हो।" उनका जवाब है, "आप नास्तिक हैं, ऐस बकवास
करने का आप साहस कैसे करते हैं। एक अति दु:खी जीव परमेश्वर कैसे हो सकता है?
हम सभी पापी हैं।" तुम्हें विदित है, कभी-कभी में बेहद निराश हो जाता हूँ।
सैकड़ों स्त्री-पुरुष मुझसे कहते हैं कि यदि कोई भी नरक नहीं है, तो कोई धर्म
कैसे हो सकता है? यदि ये लोग खुशी-खुशी नरक जाते हैं, तो इन्हें कौन रोक सकता
है !
तुम जिसका स्वप्न देखोगे, जो सोचोगे, उसी की सृष्टि करोगे। अगर यह नरक है,
तो मरते ही तुम्हें नरक दिखेगा। अगर वह असत् और शैतान है, तो तुम्हें शैतान
ही मिलेगा। अगर प्रेत है, तो प्रेत ही देखोगे। तुम जो कुछ सोचते हो, वही बनते
भी हो। अगर तुम्हें सोचना हो तो अच्छे-ऊँचे विचार मन में लाओ। मान लिया कि
तुम कमजोर क्षुद्र कीट हो। अपने को कमजोर घोषित करने से हम कमजोर बनेंगे,
हमारी हालत बेहतर न होगी। कल्पना करो कि हमने प्रकाश बुझा दिया, खिड़कियाँ
बंद कर दी और कमरे को अंधकारपूर्ण कहने लगे ! इससे बढ़कर प्रलाप क्या होगा !
अपने को पापी कहने से लाभ मुझे क्या मिलता है? यदि मैं अँधेरे में हूँ, तो
रोशनी कर लूँ। फिर सारी बला टली। फिर भी मानव स्वभाव कितना विचित्र है !
विश्व-मन को अपने जीवन का नित्य आधार जानकर भी लोग शैतान, अंधेरा, झूठ आदि
पर भी ज्यादा सोचते हैं। तुम उन्हें सही बताओ, उन्हें विश्वास नहीं होता।
उन्हें अँधेरा ही ज्यादा पसंद है।
यह वेदांत की ओर से उठाया गया एक महान प्रश्न है कि लोग इतने भयभीत क्यों
हैं? जवाब सीधा है कि उन्होंने अपने को असहाय और पराश्रित बना लिया है। हम
इतने आलसी हैं कि अपने लिए स्वयं कुछ करना नहीं चाहते। हम अपना प्रत्येक काम
कराने के लिए किसी सगुण ईश्वर की, किसी त्राता की या किसी पैगंबर की कामना
करते हैं। एक बड़ा अमीर आदमी कभी पैदल नहीं चलता, हमेशा सवारी पर घूमता है।
लेकिन कुछ वर्ष बाद वह पंगु बन जाता है, तो उसकी नींद खुलती है। वह महसूस करने
लगता है कि उसके जीने का ढंग अंतत: अच्छा न था। मेरे लिए दूसरा कोई नहीं चल
सकता है। जब कभी किसी ने मेरे लिए किया, तो उससे नुकसान मेरा ही होता था।
दूसरा कोई किसी का हर काम करने लगे तो उसके हाथ-पैर बेकार हो जाएँगे। जो कुछ
भी हो, हम स्वयं करते हैं, वही हमें करना है। मेरे व्याख्यानों से
आध्यात्म के रहस्य तुम नहीं सीख पाओगे। तुम जो कुछ भी सीख सके हो, उसके लिए
मैं चिंगारी मात्र हूँ, जिसने इसको अंगारे में परिवर्तित किया। पैगंबर या
उपदेशक इतना ही कर सकते हैं। सहायता प्राप्त करने के लिए मारे मारे फिरना
मूर्खता है।
तुम जानते हो, भारत में बैलगाडि़याँ होती हैं। यों एक गाड़ी में दो बैल जोते
जाते हैं और कभी कभी जुए की नोंक पर तिनके का एक गुच्छा लटका दिया जाता है,
वह बैलों के ठीक सामने किंतु उनकी पहुँच से कुछ दूर होता है। बैल लगातार उसे
खा लेने की कोशिश करते हैं, लेकिन असफल ही रहते हैं। हमें दूसरों से मिलने
वाली मदद का असली रूप यही है। हम सोचते हैं कि हमें सुरक्षा, शक्ति, विवेक,
संतोष आदि बाहर से मिलेंगे। हमारी आशा सतत बनी रहती है, किंतु वह कभी पूरी
नहीं होती। किसी को भी बाहर से सहायता कभी नहीं प्राप्त होती।
मनुष्य को कोई सहायता नहीं प्राप्त होने की। न कोई सहायता कभी मिली, मिल रही
है और न मिलेगी ही। सहायता की आवश्यकता भी क्या है? क्या तुम पुरुष और
स्त्री नहीं होते? क्या पृथ्वी के पालक को दूसरों की सहायता चाहिए? क्या
तुम लज्जित नहीं होते? तुम खाक बन जाओ तो तुम्हें मदद मिलेगी। पर तुम तो
आत्मरूप हो। स्वयं कठिनाइयों से छुटकारा पाओ ! कोई तुम्हारा सहायक नहीं है
और न कभी था। अपनी रक्षा स्वयं करो। यह सोचना कि कोई सहायक है, मीठा सपना
मात्र है। उससे कोई लाभ नहीं होने का।
एक बार एक ईसाई मेरे पास आया और बोला - "आप घोर पापी हैं।" मैंने जवाब
दिया-"जी हाँ ! मैं पापी हूँ।आप अपना काम देखिए। " वह ईसाई प्रचारक था। उसने
मुझे तंग करना न छोड़ा। मैं जब उसे देखता हँ, तो भाग खड़ा होता हूँ। वह कहने
लगा - "मेरे पास आपकी भलाई के लिए कुछ उपाय हैं। आप पापी हैं और नरक में गिरने
जा रहे हैं।" मेरा जवाब था - "बहुत खूब !" और कुछ?" मैंने उससे प्रश्न किया -
"आप कहाँ जाने वाले हैं?" वह बोल उठा -"मैं स्वर्ग जाने वाला हूँ।" मैंने बता
दिया - "मैं नरक जाऊँगा" उस दिन से उसने पिंड छोड़ दिया।
अब एक ईसाई महोदय आते हैं और कहते हैं - "आपका सर्वनाश निश्चित है; लेकिन यदि
आप इस धर्म - सिद्धांत पर विश्वास करें, तो ईसा मसीह आपको बचा लेंगे।" यह अगर
सच होता - मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि यह कोरा अंधविश्वास है - तो ईसाई
राष्ट्रो में कोई कुटिलता न होती। थोड़ी देर के लिए इसमें विश्वास भी कर लें -
मानने में लगता क्या है - लेकिन फिर कोई असर क्यों नहीं नजर आता? मेरे पूछने
पर कि " इतने कुटिल स्वभाव वाले - खल - क्यों है? तो जवाब मिलता है "अभी हमें
अधिक परिश्रम करना है। " ईश्वर पर विश्वास रखो, किंतु बारूद सूखी रखो ! ईश्वर
से प्रार्थना करो, और ईश्वर को उद्धार करने के लिए आने दो। लेकिन मैंने ही सभी
संघर्ष किए, मेरी ही प्रार्थना - पूजा रहीं; समस्याओं का समाधान मैं निकालूँ -
और ईश्वर उसके गौरव का भागी बने। यह ठीक नहीं। मैं कदापि ऐसा नहीं करने का।
मैं एक बार प्रीतिभोज में निमंत्रित था । आतिथेया ने मेरे मुँह से 'कल्याण हो'
कहलवाना चाहा। मैं बोला, "देवी जी ! मै आपकी कल्याण कामना करता हूँ। आशीर्वाद
धन्यवाद दोनों आपको ही अर्पित हैं।" मैं जब काम में लगता हूँ, तो अपने लिए
'कल्याण' कह लेता हूँ। गौरव मुझे मिलना चाहिए कि मैं अथक परिश्रम कर पाया और
यह सब कुछ प्राप्त कर सका।
कड़ा परिश्रम करो तुम और धन्यवाद दो दूसरों को ! यह इसलिए कि तुम अंधविश्वासी
हो, डरपोक हो। हजारों वर्षो के पाले - पोसे अंधविश्वास की अब कोई आवश्यकता
नहीं। आध्यात्मिक बनने में थोड़ा विशेष परिश्रम लगता है। अंधविश्वास मात्र
भौतिकवादिता हैं, क्योंकि उनका अस्तित्व ही देह पर आधारित है। वहाँ आत्मा के
लिए स्थान नहीं ! आत्मा अंधविश्वास से असंपृक्त है - वह देहज क्षुद्र वासनाओं
से परे हैं।
आत्मा के क्षेत्र में भी जहाँ - तहाँ क्षुद्र वासनाएँ प्रक्षेपित होने लगी
हैं। मैं कई प्रेतात्मा संबंधी सभाओं में गया हूँ। उनमें से एक महिला
सभानेत्री थीं। वे मुझसे बोलों -"आपकी माता जी और आपके पितामह मेरे यहाँ आते
है।" उन्होंने कहा कि "उन्होंने मेरा अभिवादन किया ओर मुझसे बातें की।" किंतु
मेरी माता जी अभी जीवित हैं ! लोगो का यह प्रिय विषय सा हो गया है कि मरने के
बाद भी उनके सगे संबंधी सुपरिचित शरीर में ही जी रहे हैं और प्रेतात्मवादी
उनके अंधविश्वास का फायदा उठाते हैं। मुझे बड़ा दु:ख होगा कि मेरे स्वर्गीय
पिता अपने उसी घिनौने शरीर को अभी भी धारण किए हुए हैं। उनके सभी पितर
जड़ावृत्त हैं ; इससे लोगों को सांत्वना मिलती है। एक स्थान पर ईसा मसीह मेरे
सामने हाजिर कराए गए। मैं पूछ बैठा, "प्रभो, आप कैसे हैं?" मेरे लिए ये सभी
बातें निराशाजनक हैं। यदि वह संत महापुरुष अभी भी शरीरधारी हैं, तो हम बेचारे
जीवधारियों का क्या होगा? प्रेतात्मवादियों ने उन बुलाए गए सज्जनों मे से किसी
को छूने नहीं दिया। यदि यह सब सच भी हैं, तो भी मुझे उनकी आवश्यकता नहीं। मैं
सोचता हूँ - माँ ! माँ ! ये नास्तिक - सचमुच लोगों की यही समुचित संज्ञा हैं !
केवल पंचेद्रियों की वासना मात्र हैं ! यहाँ के प्राप्त पदार्थों से तृप्त न
होकर मरने के बाद भी उन्हीं को और अधिक पाने के इच्छुक हैं।
वेदांत का ईश्वर क्या हैं? वह व्यक्ति नहीं, विचार है, तत्त्व हैं। तुम और हम
सब सगुण ईश्वर हैं। विश्व का परात्पर ईश्वर, विश्व का स्त्रष्टा, विधाता और
संहर्ता परमेश्वर निर्विशेष तत्त्व हैं। तुम-हम चूहे-बिल्ली, भूत-प्रेत आदि
सभी उसके रूप हैं - सभी सगुण ईश्वर हैं। तुम्हारी इच्छा है सगुण ईश्वर की
उपासना करने की। वह तो अपनी आत्मा की ही उपासना हैं। यदि तुम मेरी राय मानो तो
किसी भी गिरजाघर में कदम न रखो बाहर निकलो, आओ, और अपने को प्रक्षालित कर
डालो। जब तक कि युग- युग के चिपके-जमे तुम्हारे अंधविश्वास बह न जाएँ, तब तक
अपने को बारंबार प्रक्षालित करते रहो। शायद यह काम तुम्हें न रूचे, क्योंकि
तुम तो इस देश में नहाते ही कम हो, स्नान पर स्नान भारत की रीति है, तुम्हारे
समाज की नहीं।
मुझसे प्राय: पूछा गया हैं, "मैं इतना अधिक हँसता और व्यंग-विनोद करता क्यों
हूँ?" जब कभी पेट दर्द करने लगता हैं, तो कभी-कभी गंभीर हो जाता हूँ। ईश्वर
केवल आनंदपूर्ण हैं। सभी अस्तित्व के मूल में एकमात्र वही है, अखिल विश्व का
वही शिव है, सत्य है। तुम उसी के अवतार मात्र हो। यही गौरव की बात हैं। उसके
जितने अधिक निकट तुम होओगे, तुम्हें उतना ही कम चीखना-चिल्लाना पड़ेगा। उससे
जितनी दूर हम होते हैं, उतना ही अधिक हमें अवसाद झेलना पड़ता हैं। जितना अधिक
उसे जानते हैं, उतना ही संकट टलता जाता हैं। यदि प्रभु में लीन होने वाला भी
पीड़ित रहे, तो उसकी तल्लीनता से लाभ क्या? ऐसे ईश्वर का भी कोई उपयोग है?
प्रशांत महासागर में उसे फेंक दो ! हमें उसकी आवश्यकता नहीं !
लेकिन ईश्वर तो अनंत हैं, निर्विशेष सत्ता है - सच्चिदानन्द हैं, निर्विकार
है, अमर है, अभय है, और तुम सब उसके अवतार हो, अंगमात्र हो। वेदांत का ईश्वर
यही हैं, जिसका स्वर्ग सर्वत्र हैं। इस स्वर्ग में समस्त सगुण ईश्वर निवास
करते हैं। तुम सभी मंदिरों में प्रार्थना, पुष्प- समर्पण आदि से विरत रहो !
तुम्हारी प्रार्थना का ध्येय क्या हैं? स्वर्ग-प्राप्ति, किसी की
वस्तु-सिद्धि, और दूसरों को उससे वंचित करने की कामना। "प्रभो ! भोजन मुझे खूब
मिले ! दूसरा भले ही भूखा रहे !" नित्य, अनंत, शाश्वत, सच्चिदानन्द स्वरूप उस
ईश्वर की कैसी भव्य कल्पना है, जिसमें कोई भेद नहीं, कोई दोष नहीं, जो सदा
स्वतंत्र, निरंतर निर्मल एवं सतत परिपूर्ण है ! हम उसे समस्त मानवीय लक्षणों,
कार्यव्यापारों एवं सीमाओं से आभूषित करते हैं। उसे हमारे लिए खाना देना
पड़ेगा, कपड़ा देना पड़ेगा। वस्तुत: ये सारे काम हमें स्वयं करने होंगे, और कभी
भी किसी ने यह सब हमारे लिए नहीं किया। यही स्पष्ट सत्य है।
किंतु तुम शायद ही कभी इस पर विचार करते हो। तुम यह कल्पना करते हो कि एक
ईश्वर है, जिसके तुम विशेष कृपा पात्र हो, जो तुम्हारी मनौतियाँ पूरी करता है;
और तुम उससे समस्त मानव, संपूर्ण जीवधारियों पर कृपा करने का अनुरोध नहीं
करते, बल्कि निज के लिए, निज के परिवार के लिए, अपनी बिरादरी भर के लिए उसके
अनुग्रह का आग्रह करते हो। जब हिंदू भूखा है, तो तुम्हें उसकी चिंता नहीं है ;
उस समय तुम यह नहीं विचारते कि ईसाइयों का ईश्वर ही हिंदुओं का ईश्वर भी हैं।
ईश्वर संबंधी हमारी सारी धारणाएँ, प्रार्थनाएँ, उपासनाएँ, देह बुद्धि के
अज्ञान के प्रभाव से विकृत हैं। हो सकता है, मेरी बात तुम्हें अच्छी न लगे। आज
तुम मुझे भले ही कोस लो, लेकिन कल तुम मुझे आशीर्वाद दोगे।
हमें विचारशील अवश्य बनना चाहिए। किसी भी योनि में जन्म दु:खदायी हैं। हमें
भौतिकता से ऊपर उठना होगा। मेरी माँ हमें अपनी वज्ज्रमुष्टिका से मुक्त होने
देना न चाहेगी ; फिर भी हमें प्रयत्न करना होगा। यह संघर्ष ही उपासना है, अन्य
सब कुछ भ्रम मात्र है। तुम सगुण ईश्वर हो। इस क्षण मैं तुम्हारा उपासक हूँ।
यदी महत्तम प्रार्थना है। इसी अर्थ में संपूर्ण विश्व की उपासना करो। उसकी
सेवा करते हुए। मेरा ऊँचे मंच पर खड़ा होना, मैं जानता हूँ, उपासना जैसा नहीं
प्रतीत होता हैं। किंतु यदि इसमें सेवा-भाव है, तो यही उपासना है।
अनंत सत्य अप्राप्य है। वह सतत ही इस लोक में विद्यमान है, वह अमर है, अजर है।
वह, जो विश्व का प्रभु है, जन-जन में है। मंदिर केवल एक है, वह है देह-मंदिर।
यही अकेला मंदिर सनातन है। इसी देह में उसका, परमात्मा का, राज-राजेश्वर का
निवास है। हम देख नहीं पाते, इसलिए हम उसकी पाषाण प्रतिमाएँ बनाते है, और उन
पर ऊँचे मंदिर खड़े करते है। सदा से भारत में वेदांत रहा हैं, लेकिन भारत ऐसे
मंदिरों से भरा पड़ा है - केवल मंदिर ही नहीं किंतु खुदी हुई मूर्तियों से भरी
गुफाएँ भी वहाँ हैं। गंगा किनारे रहने वाला मूढ़मति पानी के लिए कुआँ खोदे। यही
हमारा हाल है। ईश्वर में निवास करते हुए भी हम बाहर जाकर उसकी मूर्तियाँ बनाने
लगते हैं। जब वह हमारे देह-मंदिरों में सदा निवास करते हैं, हम उसें मूर्तियों
में प्रक्षेपित करते हैं। बुद्धि हमारी मारी गई है, और यह बड़ा भारी भ्रम है।
ईश्वर रूप में सबकी उपासना करो-सारे आकार उसके मंदिर हैं। बाकी सब कुछ भ्रम
है। हमेशा भीतर की ओर देखो, बाहर की ओर कदापि नहीं। वेदांत-प्रतिपादित ईश्वर
यही है और उसकी उपासना भी यही है। स्वभावत: वेदांत में कोई संप्रदाय नहीं है,
कोई शाखा-प्रशाखा नहीं, कोई जाति-भेद नहीं। यह भारत का राष्ट्रीय धर्म हो भी
तो कैसे?
सैकड़ों जातियाँ ! यदि कोई किसी की थाली छू दे, तो वह चिल्ला उठता है,
"परमात्मा उबार लो, मैं भ्रष्ट हो गया।" पहली विदेश - यात्रा से लौटकर जब मैं
भारत गया, तो अनेक सनातनी हिंदुओं ने पाश्चात्यों के साथ मेरे संपर्क और
कट्टरता के नियमों के भंग करने को संप्रदाय विरोधी ठहरा कर खूब हो-हल्ला
मचाया। पाश्चात्य लोगों को मेरा वैदिक सत्य की शिक्षा देना उन्हें अप्रिय लगा।
लेकिन इतने भेद और अंतर रहेंगे कैसे? जब हम आत्मरूप हैं, समान हैं। अमीर गरीब
को एवं पंडित अज्ञानी को देखकर नाक भी कैसे सिकोड़ पाएगा? यदि समाज की रूपरेखा
न बदले, तो वेदांत-धर्म के सदृश्य धर्म प्रभावशाली कैसे हो? विवेकी यथार्थ
विचारशील मानवों की संख्या विपुल होने में हज़ारों साल लगेंगे। मानव को नई
बातें सुझाना, उन्हें उच्च विचार प्रदान करना बड़ा ही श्रमसाध्य है।
रूढ़ी-विश्वासों का उन्मूलन और भी दुष्कर है- बहुत ही दुष्कर। ये शीघ्र
विनष्ट नहीं होते, शिक्षा-दीक्षा के बाद विद्वज्जन अँधेरे में काँप उठते हैं
- शिशु अवस्था की कहानियाँ याद आ जाती हैं, और वे प्रेत देखने लगते हैं।
वेदांत 'वेद' शब्द से बना है और 'वेद' का अर्थ है ज्ञान। समस्त ज्ञान वेद है
और ईश्वर की भाँति अनंत है। कोई व्यक्ति ज्ञान की कभी सृष्टि नहीं करता। क्या
तुमने कभी ज्ञान का सर्जन होते देखा है? ज्ञान का अन्वेषन मात्र होता है -
आवृत्त का अनावरण होता है। ज्ञान सदा यहीं है, क्योंकि वह स्वयं ईश्वर है।
अतीत, वर्तमान, अनागत इन तीनों का ज्ञान हम सबमें विद्यमान है। हम उसका
अनुसंधान मात्र करते हैं, और कुछ नहीं। ये सारे ज्ञान स्वयं ईश्वर है। वेद
संस्कृत भाषा के महान् ग्रंथ है। हम अपने देश में वेदपाठी के सम्मुख नतमस्तक
होते है, भौतिक शास्त्र के विशेषज्ञ की हम कोई चिंता नहीं करते। यह अंधविश्वास
ही है। यह बिल्कुल ही वेदांत नहीं। यह कोरा जड़वाद है। ईश्वर के लिए समस्त
ज्ञान पवित्र है। ज्ञान ही ईश्वर है। अनंत ज्ञान पूर्ण मात्रा में प्रत्येक
जीवधारी में निहित हैं। तुम वास्तव में अज्ञानी नही, भले ही ऐसा दिखाई पड़े
तुममें से प्रत्येक ईश्वरावतार है। तुम सर्वशक्तिमान सम्पन्न, सर्वान्तर्यामी,
दिव्यस्वरूप के अवतार हो। हो सकता है, मेरी बातों पर तुम्हें हँसी आए, किंतु
वह समय दूर नहीं जब तुम इसे समझ सकोगे। तुम्हें समझना पड़ेगा। कोई पीछे नहीं
रहने पाएगा।
इसका लक्ष्य क्या है? जिस वेदांत की चर्चा मैंने की है, वह कोई नया धर्म नहीं।
वह स्वयं ईश्वर ही की भाँति- प्राचीन है। देश-काल के बंधन उसे बाँध नहीं सकते,
वह सर्वत्र है। प्रत्येक को इस सत्य का ज्ञान है। हम सब इसी का रूप निश्चित कर
रहे हैं। विश्व मात्र का लक्ष्य वही है। बाह्य प्रकृति पर भी यही नियम लागू
है - कण-कण इसी लक्ष्य की ओर धावित हैं। तुम क्या सोचते हो कि परिशुद्ध अनंत
आत्माएँ इस परम सत्य के दर्शन से वंचित है? वह सर्वसुलभ है, सभी इसी लक्ष्य पर
पहुँच रहे हैं - अंतर्निहित दिव्यता की ओर। सनकी, हत्यारा, रूढ़िवादी, भीड़-दंड
से पीड़ित सभी इसी लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। हमारा काम इतना ही है कि अनजाने जो
कुछ हम कर रहे है, उसे हम समझकर करें - अधिक अच्छाई के साथ करें।
समग्र अस्तित्व का एकत्व तुममें पहले से ही विद्यमान है। उससे रहित कभी किसी
ने जन्म ही नहीं किया। तुम किसी भी तरह उसे अस्वीकार करो, वह सदा अपने
अस्तित्व को सिद्ध करता है। मानवीय अनुराग क्या है? यह न्यूनाधिक रूप में इसी
एकत्व का मण्डन तो है: 'मै तुम, अपनी स्त्री, संतान, बंधु-बांधवों से अभिन्न
हूँ।' तुम केवल अनजाने इस अभिन्नता का अनुमोदन कर रहे हो। 'कभी किसी ने पति से
पति के नाते नहीं, अपितु पति में आत्मा के हेतु अनुराग दर्शाया है।' [11] पत्नी पति से अभिन्नता
का अनुभव करती है। पति भी पत्नी में निज को ही पाता है - प्रकृत्या वह ऐसा
करता है। जान बूझकर वह ऐसा कर नहीं पाता है।
संपूर्ण जगत् एक ही सत्ता है। उसके अतिरिक्त और कुछ हो भी नहीं सकता।
विभिन्नताओं के परे हम इसी विराट् विश्व-सत्ता की ओर बढ़ रहे है। परिवार से
कबीले, कबीलों से कुल, कुलों से राष्ट्र, राष्ट्रों से मानवता-कितनी इच्छाएँ
उस एकत्व की ओर अग्रसर हो रही है ! इस एकत्व की अनुभूति ही संपूर्ण
ज्ञान-विज्ञान है।
एकत्व ही ज्ञान है और अनेकता ही अज्ञान। इस ज्ञान पर तुम सबका जन्मसिद्ध
अधिकार है। मुझे तुमको यह सब समझाने की आवश्यकता नहीं। संसार में कभी भी
अलग-अलग धर्म नहीं रहे। चाहें या न चाहें, हम सभी मुक्ति के अधिकारी हैं। सब
अंत में बंधन-मुक्त होकर रहेंगे, क्योंकि मुक्त होना तुम्हारा स्वभाव है। हम
तो मुक्त हैं ही, केवल हम यह जानते भर नहीं और हमें पता नहीं कि हम क्या करते
रहे हैं। समस्त धर्म के विधि-विधानों, आदर्शों का नैतिक मानदंड एक है । एक ही
ध्येय का प्रचार हो रहा है कि सबसे स्वार्थरहित बनो, दूसरों से प्रेम करो। कोई
कहता है, 'जेहोवा का आदेश है।' मुहम्मद साहब ने घोषणा की, 'अल्लाह' दूसरे
चिल्लाए 'मसीहा !' अगर यह जेहोबा का आदेश होता, तो वह जेहोवा से अपरिचितों का
आदर्श हुआ कैसे? यदि यह केवल ईसा मसीह का संदेश है, तो उन्हें न जानने वालों
को वह कैसे प्राप्त हुआ? अगर केवल विष्णु ही ऐसा कर सके तो उनको न जानने
वाले एक यहूदी का यह जीवन-ध्येय क्यों हुआ? सबसे महत्तर एक अन्य
प्रेरणा-स्त्रोत है। वह है कहाँ? वह है ईश्वर के सनातन मंदिर में, वह है शुद्र
से लेकर महान् तक की आत्मा में। अनंत नि:स्वार्थता, असीम त्याग और महती एकता
की ओर जाने वाली असीम अनिवार्यता ही है ।
अपने अज्ञान के कारण देखने में हम विभक्त एवं सीमित से लगते है, और हम मानो
नगण्य श्रीयुत-श्रीमती हो रह गए हैं। किंतु समूची प्रकृति इस भ्रम को हर क्षण
असत्य सिद्ध करती रही है। सबसे विलग मैं एक तुच्छ स्त्री-पुरुष नहीं। मैं एक
विराट् सत्ता ही हूँ। आत्मा निज गौरव के सहारे क्षण-प्रतिक्षण जाग्रत हो रही
है, एवं अपनी सहजात दिव्यता का उद्घोष कर रही है।
यह वेदांत सर्वत्र है, केवल तुम्हें उससे अवगत होना है। ये निरर्थक
विश्वासपुंज एवं अंधविश्वास समूह ही हमारी प्रगति में बाधक है। अगर संभव हो तो
हम इन्हें दूर फेंके और यह समझें कि ईश्वर सत्य आत्मा के द्वारा एक उपस्य
आत्मा हैं। अब अधिक बनने का प्रयत्न मत करो। भौतिकता को दूर हटाओ। ईश्वर की
धारणा यथार्थत: आध्यात्मिक होनी चाहिए। ईश्वर संबंधी अन्य आदर्श जो न्यूनाधिक
रूप में जड़वाद से प्रेरित हैं, अवश्य ही विदा हों। जब मानव अधिकाअधिक
आध्यात्मिक होगा, तो उसे निरर्थक विचारों को दूर फेंकना होगा, उन्हे पीछे छोड़
आना होगा। वस्तुत: प्रत्येक देश में कुछ ऐसे पुरुष हुए है, जो भौतिकता के
परित्याग के लिए शक्तिमान हो एवं आत्मा के अमर आलोक में खड़े होकर आत्मा की
आत्मा से आराधना करते हैं।
अगर वेदांत- जो यह चेतनाशील ज्ञान है कि सभी एक आत्मा है, चारों ओर फैल जाए तो
सारी मानवता आध्यात्मिक हो जाएगी। परंतु क्या यह संभव है? मैं तो कुछ नहीं कह
सकता। हजारों वर्षो में भी यह संभव नहीं हुआ। पुरानी सड़ी-गली धारणाओं को विदा
लेनी ही है। अपने अंधविश्वासों के चिरस्थायी बनाने के फेर में ही तुम अभी पड़े
हो। उस पर भी परिवार-बंधु, जाति-भाई, राष्ट्र-बंधु आदि के झमेले हैं।
वेदांत-सिद्धि के मार्ग में ये सब रोड़े हैं। इने-गिनों के ही लिए धर्म धर्म
रहा है।
सारे संसार में धर्मक्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्तियों में बहुतेरे
वास्तव में राजनीतिक कार्यकर्ता ही रहे हैं। यही मानव इतिहास रहा है। किसी से
समझौता न करते हुए शायद ही उन्होंने सत्य का अनुशीलन किया हो, ये लोग सदा ही
समूह या समाज नामधारी ईश्वर के उपासक रहे हैं। अधिकतर जनसमुदाय के
अंधविश्वासों और दुर्बलताओं के समर्थन से ही उनका संबंध रहा है। प्रकृति पर
विजय-प्राप्ति उनका लक्ष्य नहीं, बल्कि अपने को प्रकृति के अनुकूल बनाने में
लगे रहना उनका लक्ष्य नहीं, बल्कि अपने को प्रकृति के अनुकूल बनाने में लगे
रहना उनका साध्य है - और कुछ नहीं। भारत में जाकर किसी नए धर्म का प्रचार करो
-वे अपना कान हटा लेगें। लेकिन यदि तुम बताओ कि यह वेद से उद्धत है, तो सब
कहेंगे, 'यह ठीक है।' मैं यहाँ इस मत की शिक्षा दे सकता हूँ ; किंतु तुममें से
ऐसे कितने हैं, जो इसे ध्यानपूर्वक स्वीकार करेंगे? पर यह पूर्णतया सत्य है,
और मुझे तुम्हारे लिए इसका प्रतिपादन करना ही है।
इस प्रश्न का एक दूसरा भी पक्ष है। प्रत्येक यही कहता है कि सर्वोच्च एवं
पूर्ण सत्य की अनुभूति एकाएक सबके लिए संभव नहीं; क्रम से उपासना, प्रार्थना
एवं अन्य प्रचलित धार्मिक विधि-विधानों का सहारा लेकर धीरे-धीरे मानव को यहाँ
तक पहुँचाना होगा। मैं कह नहीं सकता लेकर धीरे-धीरे मानव को यहाँ तक पहुँचाना
होगा। मैं कह नहीं सकता कि यह तरीका गलत है या सही। भारत में मैं दोनों
मार्गों से कार्य करता हूँ।
कलकत्ते में ईश्वर, वेद, बाइबिल, ईसा, बुद्ध आदि के नाम पर बहुत सारे मंदिर
एवं प्रतिमाएँ हैं। इन्हें चलने दो। लेकिन हिमालय की ऊँचाइयों पर हमने एक
स्थान बनाया है, जहाँ पूर्ण सत्य की अपेक्षा और किसी वस्तु का प्रवेश नहीं हो
सकता। तुम्हारे सम्मुख आज के व्याख्यान में बताए गए तत्त्वों का प्रयोग वहाँ
देखना चाहता हूँ। आश्रम एक अंग्रेज सज्जन और अंग्रेज महिला के संरक्षण में है।
सत्य-साधकों का प्रशिक्षण, शैशव से ही निर्भीक, अंधविश्वासरहित नरश्रेष्ठों का
निर्माण आदि मेरा ध्येय है। वे ईसा, बुद्ध, शिव एवं विष्णु आदि नामों को सुनने
नहीं पाएंगे - इनमें से किसी का भी नहीं। आरंभ से ही उन्हे आत्मनिर्भर बनने की
शिक्षा दी जाएगी। शैशवावस्था से ही वे सीखेंगे कि ईश्वर आत्मा हैं, आत्मा और
सत्य के द्वारा ही उसकी आराधना होनी चाहिए। सबको आत्मा के रूप में देखना होगा।
यही आदर्श है। इसकी सफलता का मुझे कोई अनुमान नहीं। आज मैं अपने प्रिय विषय का
प्रचार कर रहा हूँ। यदि द्वैत के संपूर्ण रूढ़-विश्वासों से दूर ऐसे ही आदर्श
के अनुरूप मेरा लालन-पालन भी हुआ होता, तो कितना भला होता !
कभी-कभी मैं, यह स्वीकार करता हूँ कि द्वैत मार्ग में भी कुछ अच्छाईं अवश्य
है, जो दुर्बल है, उनकी यह सहायता करता है । यदि कोई तुमसें ध्रुव नक्षत्र
देखना चाहे, तो पहले उसे तुम निकटवर्ती उज्ज्जवल नक्षत्र, पीछे क्षीण प्रकाश
का नक्षत्र, बाद में धुँधला नक्षत्र और अंत में ध्रुव नक्षत्र दिखाओ। उसके
ध्रुव नक्षत्र के निरीक्षण में इससे आसानी होगी। समस्त साधनाएँ,
दीक्षा-विधियाँ, धर्मग्रंथ, ईश्वर आदि धर्म के आरंभिक रूप है, धर्म की
शिशुशालाएँ मात्र हैं।
तदुपरांत इसके दूसरे पक्ष पर भी मैं सोचता हूँ। यदि संसार इस धीमी चाल, क्रमिक
प्रणाली का अनुरक्षण करता है, तो सत्य-साक्षात्कार में इसे कितनी प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी? कितनी देर होगी? यह कभी किसी सीमा तक सफल हो सकेगा, इसका निश्चय
कैसे किया जाए? आज तक तो यह सफल नहीं रहा। आखिरकार क्रम से हो या क्रमरहित
दुर्बल, के लिए सरल या जटिल, क्या द्वैत मार्ग असत्य पर आधरित नहीं है? क्या
सारे प्रचलित धार्मिक अनुष्ठान ज्यादातर कमजोरी बढ़ाने वाले हैं, इसीलिए
दोषपूर्ण नहीं हैं? ये गलत सिद्धांत मानवता की भ्रामक धारणा पर आधारित है। दो
गलतियों से कभी एक सत्य का निर्माण होता है? मिथ्या कभी सत्य सिद्ध हागा?
अँधेरा कभी उजाला होगा?
मैं एक दिवंगत व्यक्ति का सेवक हूँ उनका मैं एक संदेशवाहक मात्र हूँ। मैं
प्रयोग करना चाहता हूँ। वेदांत - शिक्षा मैंने अभी तुमको दी है, उस पर कोई ठोस
प्रयोग पहले नहीं हुआ यद्यपि वेदांत विश्व का प्राचीनतम दर्शन है, फिर भी
अंधविश्वास आदि समस्त विकारों को इसमें मिला दिया गया है।
ईसा मसीह के उदगार थे, 'परम पिता और मैं दोनों अभिन्न हुआ है', और तुम इसे
दुहराते हो, फिर भी मनुष्य के लिए यह सहायक सिद्ध नहीं हुआ। लगभग बीस सदियों
तक मानव इस उदगार का मर्म न जान सके। ईसा मानवों के रक्षक ठहराए गए। वे ईश्वर
और हम कीड़े हैं ! यही हाल भारत में भी है। हर देश में यही धारणा प्रत्येक
संप्रदाय विशेष की रीढ़ है। सैकड़ों, हजारों वर्षों से दुनिया में
लाखों-करोड़ों की संख्या में जगदीश्वर, अवतारी पुरुष, उद्धारक, पैगंबर आदि
की आराधना व्यक्ति को प्रेरित करती आई है। लोगों को यही सिखाया गया है कि वे
असहाय हैं, दु:खी जीव हैं और मुक्ति के लिए किसी व्यक्ति विशेष या व्यक्ति
समूह पर ही उनको आश्रित रहना है। इन विश्वास-भावनाओं में अद्भुत तत्त्व हैं
अवश्य। किंतु वे अपनी चरमावस्था में भी धर्म की शिशुशालाएँ मात्र हैं, और
उनसे किसी को कोई- खास सहायता नहीं मिली। मानव एक प्रकार के सम्मोहन के
द्वारा अति अधमावस्था को प्राप्त हो गया है। हाँ, इस दशा में भी कुछ ऐसे
स्थितप्रज्ञ लोग हैं, जो इस मोह-जाल को काट फेंकते हैं। महापुरुषों के
आविर्भाव का अनुकूल समय आएगा और उनके सतत प्रयास से धर्म की ये शिशुशालाएँ
विनष्ट हो जाएँगी और यथार्थ धर्म-आत्मा से आत्मा की आराधना-अधिक सजीव और
शक्तिशाली हो सकेगी।
वेदांत और विशेषाधिकार
(लंदन में दिया गया व्याख्यान)
हम लोगों ने अद्वैत के तत्त्ववाद से संबंध भाग को प्राय: समाप्त कर लिया है।
एक बात जो शायद सबसे कठिन है, अभी शेष है। अब तक हम लोगों ने यह समझ लिया है
कि अद्वैत सिद्धांत के अनुसार हम अपने चतुर्दिक् जो कुछ देखते हैं, वस्तुत:
समस्त विश्व, उसी एक पूर्ण का विकास है। संस्कृत में उसे ब्रह्मा कहते हैं।
ब्रह्म समस्त प्रकृति में परिणत हो गया है। परंतु यहाँ एक कठिनाई उत्पन्न
हो जाती है। ब्रह्म के लिए परिणामी होना कैसे संभव है? ब्रह्म में परिणति
किसने की? स्वयं अपनी परिभाषा के अनुसार ब्रह्म अपरिणामी है। अपरिणामी में
परिणाम का होना परस्पर-विरोधी है। जो सगुण ईश्वर में विश्वास रखते हैं,
उनके लिए भी वही कठिनाई उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ, यह सृष्टि कैसे हुई?
शून्य से उसका उद्भव नहीं हो सकता; इसमें अंतर्विरोध है - असत् से सत् का
प्रादुर्भाव कभी हो नहीं सकता। कार्य दूसरे रूप में कारण ही है। बीज से विशाल
वृक्ष उगता है। वृक्ष बीज है, जिसमें वायु तथा जल गृहीत हैं। और यदि वृक्ष के
आकार के निर्माण में लिए गए जल तथा वायु की मात्रा के परीक्षण की कोई विधि
निकल आए, तो हमें पता लग जाएगा कि वह (बीज) ठीक वही कार्य अर्थात् वृक्ष है।
आधुनिक विज्ञान ने इसे असंदिग्ध रूप से सिद्ध कर दिया है कि कारण दूसरे रूप
में कार्य होता है। कारण के भागों के समायोजन में परिवर्तन होता है और वह
कार्य हो जाता है। अत: हमें बिना कारण के विश्व की उत्पत्ति मानने की कठिनाई
से बचना है और हम यह मानने के लिए बाध्य हो जाते हैं कि ईश्वर ही विश्व बन
गया।
किंतु हम लोग एक कठिनाई से तो बचे, पर दूसरी में पड़ गए। प्रत्येक सिद्धांत
में अपरिवर्तनशीलता की धारणा के माध्यम से ईश्वर की धारणा आ जाती है। हमने
इतिहास से खोज निकाला है कि ईश्वर विषयक जिज्ञासा की सबसे अपरिपक्व अवस्था
में भी जो एक भाव मन में सदा बना रहा है, वह है मुक्ति का भाव; और मुक्ति तथा
अपरिवर्तनशीलता या नित्यता की धारणा एक तथा अभिन्न हैं। केवल मुक्त ही ऐसा
है, जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता और जो अपरिणामी या नित्य है, केवल वही
मुक्त है; क्योंकि किसी वस्तु में परिवर्तन किसी अन्य बाह्य वस्तु द्वारा
अथवा आंतरिक वस्तु द्वारा, जो अपने परिवेश की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हो,
उत्पन्न होता है। परिणामधर्मी प्रत्येक वस्तु अवश्य ही कुछ कारण या
कारणों से आबद्ध होती है। ये कारण अपरिणामी नहीं हो सकते। मान लिया जाए कि
ईश्वर ही यह विश्व बन गया है, तो ईश्वर यहाँ है और वह परिवर्तित हो गया है।
और मान लिया जाए कि असीम यह ससीम विश्व बन गया है, तो असीम का इतना अंश निकल
गया और इसलिए असीम में से विश्व के घटा देने पर जो शेष रह जाए, वही ईश्वर
हुआ। परिणामी या परिवर्तनशील ईश्वर तो ईश्वर हो नहीं सकता। सर्वेश्वरवाद के
इस सिद्धांत से बचने के लिए वेदांत में बड़ा ही निर्भीक सिद्धांत है। वह है-
जिस रूप में हम इस जगत् को जानते या सोचते हैं, उसकी सत्ता ही नहीं है;
अपरिवर्तनीय परिवर्तित नहीं हुआ है; यह सारा विश्व आभास मात्र है, सत्य नहीं
है और अंशों, क्षुद्र जीवों तथा विभेद के ये प्रत्यय मिथ्या हैं, स्वयं
वस्तु के स्वरूप नहीं। ईश्वर में किंचित् भी परिवर्तन नहीं हुआ है तथा वह
लेशमात्र विश्व नहीं बना है। देश, काल और निमित्त के माध्यम से देखने के लिए
विवश होने के कारण हम ईश्वर को विश्ववत् देखते हैं। देश, काल एवं निमित्त के
कारण यह आपातदृष्ट भेद है, वस्तुत: नहीं। सचमुच यह बड़ा निर्भीक सिद्धांत
है। अब इस सिद्धांत की व्याख्या जरा और स्पष्ट रूप से होनी चाहिए। इसका
अर्थ वह (दार्शनिक) आदर्शवाद या प्रत्ययवाद नहीं है, जैसा कि लोग साधारणतया
समझते हैं। वह यह नहीं कहता कि विश्व का अस्तित्व नहीं है। उसका अस्तित्व
है, किंतु साथ ही हम उसे जो समझते हैं, वह नहीं है। इसे सोदाहरण समझाने के लिए
अद्वैत दर्शन द्वारा दिया गया दृष्टांत सुविदित है। रात के अंधकार में पेड़ का
तना किसी अंधविश्वासी को भूत के रूप में, लुटेरे को पुलिस के सिपाही के रूप
में और साथी की प्रतीक्षा में खड़े किसी व्यक्ति को सुह्द् के रूप में दिखाई
पड़ता है। इन सभी स्थितियों में वृक्ष का तना परिवर्तित नहीं हुआ, परंतु
परिवर्तनों के आभास हुए और ये परिवर्तन देखनेवालों के मन में घटित हुए थे। हम
मनोविज्ञान के द्वारा आत्मनिष्ठ पक्ष से इसे अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह समझ
सकते हैं। कोई हमसे बहिर्वस्तु है, जिसका प्रकृत स्वरूप हमें अज्ञात एवं
अज्ञेय है - उसे हम 'क' मान लें। और कोई हममें अंतर्निष्ठ वस्तु है। वह भी
हमें अज्ञात एवं अज्ञेय है- उसे हम 'ख' मान लें। 'क' और 'ख' का समवाय ज्ञेय
है, अत: प्रत्येक वस्तु जिसे हम जानते हैं उसके दो भाग हुए,'क' जो बाहर है
और 'ख' जो भीतर है; और 'क' तथा 'ख' की संहति वह वस्तु हुई, जिसे हम जानते
हैं। अत: विश्व में प्रत्येक रूप अंशत: हम लोगों की सृष्टि है और अंशत: कुछ
बाह्य वस्तु है। अब वेदांत यह प्रतिपादित करता है कि यह 'क' और यह 'ख' एक ही
है और उनमें अंतर नहीं।
कुछ पाश्चात्य दार्शनिक, विशेषत: हर्बर्ट स्पेन्सर तथा कतिपय अन्य आधुनिक
दार्शनिक, इससे बहुत मिलते-जुलते निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। जब यह कहा जाता है
कि वही शक्ति जो अपने को फूलों में अभिव्यक्त कर रही है, मेरी अपनी चेतना
में भी उमड़ रही है, तब यह ठीक वही भाव है, जिसका उपदेश वेदांती देते हैं कि
बाह्य जगत् की तात्विकता तथा अंतर्जगत् की तात्विकता एक एवं अभिन्न है।
आंतरिक तथा बाह्य के भावों का अस्तित्व भी भेदजन्य है और स्वयं वस्तुओं
में उनका अस्तित्व नहीं है। उदाहरणार्थ, यदि हममें एक अन्य इंद्रिय विकसित
हो जाए, तो हमारे लिए सारा जगत् बदल जाएगा, जिसका अभिप्राय यह है कि विषयी
विषय को बदल देगा। यदि मैं परिवर्तित होता हूँ, तो बाह्य जगत् परिवर्तित हो
जाता है। अतएवं वेदांत के सिद्धांत का मर्म यह है कि तुम और मैं तथा विश्व की
प्रत्येक वस्तु ब्रह्म ही है, अंश नहीं, वरन् पूर्ण। तुम उस ब्रह्म के
सर्वाश हो और अन्य लोग भी वही हैं, क्योंकि पूर्ण में अपूर्ण का भाव आ नहीं
सकता। ये विभाग तथा ये सीमाएँ आभास मात्र हैं, वस्तुनिष्ठ नहीं। मैं संपूर्ण
और अशेष हूँ और अन्य लोग भी वही है, क्योंकि पूर्ण में अपूर्ण का भाव आ नहीं
सकता। ये विभाग तथा ये सीमाएँ आभास मात्र हैं, वस्तुनिष्ठ नहीं। मैं संपूर्ण
और अशेष हूँ और मैं कभी बंधन में नहीं था। वेदांत डंके की चोट पर कहता है कि
यदि तुम अपने को बंधन में समझते हो, तो बंधन में पड़े रहोगे; यदि तुम जानते हो
कि तूम मुक्त हो, तो बस मुक्त हो गए। इस प्रकार इस दर्शन का चरम लक्ष्य तथा
उद्देश्य हमें यह बोध कराता है कि हम सदैव मुक्त रहे हैं और नित्य मुक्त
रहेंगे। हम न कभी परिवर्तित होते हैं, न मरते हैं और न जन्म लेते हैं। तव ये
परिवर्तन क्या हैं? इस जगत् को मिथ्या जगत् के रूप में स्वीकार किया गया
है, जो देश, काल तथा निमित्त से आबद्ध है और इसे संस्कृत में विवर्तवाद की
संज्ञा दी गई है। यह प्रकृति का विकास और ब्रह्म की अभिव्यक्ति है। ब्रह्म
में कोई विकार नहीं होता या उसका पुनर्विकास नहीं होता। सूक्ष्म जीवाणु
(एमीबा) में अव्यक्त रूप से वही असीम पूर्णता रहती है। एमीबा आवरण के कारण
इसका नाम एमीबा पड़ा और एमीबा अवस्था से पूर्ण मनुष्य होने की अवस्था
पर्यंत उसमें परिवर्तन नहीं होता, जो भीतर विद्यमान है -वह ज्यों का त्यों
अधिकारी बना रहता है - किंतु आवरण में परिवर्तन होता है।
यहाँ एक परदा है और बाहर सुंदर दृश्य है। परदे में एक छोटा सा छिद्र है,
जिससे हम उसकी झलक मात्र पाते हैं। मान लो यह छिद्र बढ़ने लगा। ज्यों ज्यों
वह बड़ा होता जाता है, त्यों त्यों दृश्य का अधिकाधिक अंश दिखाई जड़ने लगता
है और जब परदे का लोप हो जाता है, तब संपूर्ण दृश्य दृष्टिगत हो जाता है। यह
बाहर का दृश्य आत्मा है और हमारे तथा दृश्य के बीच का परदा माया - देश, काल
और निमित्त है। कहीं एक छोटा छिद्र है, जिससे मुझे आत्मा की एक झलक मात्र
मिलती है। जब छिद्र पहले से बड़ा हो जाता है, तब मैं अधिकाधिक साक्षात्कार
करने लगता हूँ और जब परदा लुप्त हो जाता है, तब मैं जानता हूँ कि मैं आत्मा
हूँ। अत: विश्व में जो परिवर्तन होते हैं, उनसे ब्रह्म निर्लिप्त है।
परिवर्तन प्रकृति में होता है। प्रकृति अधिकाधिक विकसित होती है और अंतत:
ब्रह्म अपने को अभिव्यक्त करता है। प्रत्येक में उसकी सत्ता है। कुछ में
उसकी अभिव्यक्ति दूसरों की अपेक्षा अधिक होती है। संपूर्ण विश्व यथार्थत: एक
है। आत्मा के प्रसंगमें यह कथन निरर्थक है कि एक आत्मा अन्य की अपेक्षा
श्रेष्ठ है। आत्मा के वर्णन में यह कथन निरर्थक है कि मनुष्य पशु अथवा पौधे
से श्रेष्ठ है; सारा विश्व एक है। पौधे में आत्मा की अभिव्यक्ति में
रूकावटें बहुत बड़ी हैं; पशुओं में उनसे थोड़ी कम और मनुष्य में और भी कम है;
सुसंस्कृत आध्यात्मिक मनुष्यों में उनसे भी कम हैं और पूर्ण मानव में उन
रूकावटों का पूर्णतया लोप हो जाता है। हमारे सभी संघर्ष, अभ्यास, कष्ट, सुख,
आँसू और मुस्कान- जो कुछ हम करते और सोचते हैं- इसी ध्येय की ओर प्रवृत्त
होते हैं कि परदा फट जाए, छिद्र बढ़ता जाए और पीछे छिपी हुई अभिव्यक्ति एवं
यथार्थता के बीच की परतें क्षीण हो जाएँ। अत: हमारा कार्य आत्मा को मुक्त
करना नहीं, वरन् बंधन से पिंड छुड़ाना है। सूर्य बादलों की परतों से ढँका है,
किंतु उनसे अप्रभावित है। वायु का कार्य बादलों को उड़ाकर भगा देना है और बादल
जितने ही छटेंगे उतना ही सूर्य का प्रकाश दिखाई पड़ने लगेगा। आत्मा में कोई
भी विकार नहीं है- वह असीम, पूर्ण, शाश्वत और सच्चिदानन्द है। आत्मा का
जन्म-मरण भी नहीं हो सकता। मृत्यु, जन्म, पुनर्जन्म और स्वर्गारोहण
आत्मा का नहीं हो सकता। ये तो नाना आभास, नाना मृगमरीचिकाएँ और नाना स्वप्न
हैं। यदि कोई मनुष्य भव-स्वप्न देख रहा है और इस समय दुर्विचारों तथा
दुष्कर्मों के स्वप्न में निमग्न है, तो कुछ काल पश्चात् उसी स्वप्न का
विचार दूसरे स्वप्न को पैदा करेगा। वह स्वप्न देखेगा कि वह एक भयानक
स्थान में है और उसे यंत्रणा मिल रही है। जो मनुष्य सुविचारों तथा शुभ
कर्मों का स्वप्न देख रहा है, वह उसकी अवधि समाप्त होने पर यह स्वप्न
देखेगा कि वह पहले की अपेक्षा उत्तम स्थान में है और एक स्वप्न के पश्चात्
दूसरे स्वप्न का ताँता लगा रहेगा। परंतु वह समय आएगा, जब ये सभी स्वप्न
विलुप्त हो जाएँगे। हममें से प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष एक ऐसा समय अवश्य
आएगा, जब समस्त विश्व स्वप्न मात्र प्रतीत होगा। तब हमें पता लगेगा कि
अपने परिवेश की अपेक्षा आत्मा अनंत गुना श्रेष्ठ है। जिन्हें हम अपना
परिवेश कहते हें, उनके बीच संघर्ष में एक समय ऐसा आएगा, जब हमें पता लगेगा कि
आत्मा की शक्ति की तुलना में ये परिवेश प्राय: शून्य थे। केवल प्रश्न काल
का है और अनंत में काल शून्य है; महासागर में यह एक बूँद के तुल्य है। हममें
प्रतीक्षा की क्षमता है और हम शांत रह सकते हैं।
अतएव जाने या अनजाने समस्त विश्व उसी लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहा है।
चन्द्रमा अन्य पिडों की आकर्षण-शक्ति की परिधि से निकलने के लिए संघर्ष कर
रहा है और अंततोगत्वा वह उससे बाहर निकलेगा ही। लेकिन जो मुक्त होने के
प्रयास में सचेत हैं, वे काल की अवधि त्वरित कर देते हैं। इस सिद्धांत से एक
लाभ जो हमें व्यवहार में दिखाई पड़ता है, वह यह है कि केवल इसी दृष्टिकोण से
यथार्थ सार्वभौम प्रेम का भाव संभव है। सब साथ के मुसाफिर हैं, सहयात्री हैं -
सभी जीव, पौधे और पशु; केवल मेरा भाई मनुष्य ही नहीं, वरन् मेरा भाई पशु और
मेरा भाई पौधा भी ; केवल मेरा भाई सज्जन ही नहीं वरन् मेरा भाई दुर्जन, मेरा
भाई आध्यात्मिक और मेरा भाई दुष्ट भी। वे सब एक लक्ष्य की ओर चल रहे हैं।
सब एक ही नदी में हैं, और अनंत मुक्ति की दिशा में प्रत्येक शीघ्रता से बढ़
रहा है। हम धारा को रोक नहीं सकते, कोई भी रोक नहीं सकता, कोई पीछे नहीं जा
सकता, चाहे वह लाख कोशिश करे; वह आगे बहता ही जाएगा और अंत में मुक्ति-लाभ
करेगा। मुक्ति हमारी सत्ता का केंद्र-बिंदु है, जिससे मानो हम बाहर फेंक दिए
गए हैं और सृष्टि का अभिप्राय वहीं वापस लौटने का संघर्ष है। हम यहाँ हैं, यह
तथ्य ही बतलाता है कि हम केंद्र की ओर जा रहे हैं और केंद्र की ओर इस आकर्षण
की अभिव्यक्ति को हम प्रेम कहते हैं।
प्रश्न पूछा जाता है कि विश्व की उत्पत्ति किससे होती है, किसमें उसकी
स्थिति है और फिर किसमें वह लय होता है? और उत्तर है- प्रेम से उसकी उत्पत्ति
होती है, प्रेम में वह स्थित होता है और प्रेम में ही लीन हो जाता है। इस
प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि चाहे किसीको पसंद हो या नापसंद, किसी के लिए
प्रतिगमन की गुंजाइश नहीं। पीछे लौटने के लिए चाहे कोई कितना भी छटपटाए,
प्रत्येक को केंद्र में पहुँचना ही होगा। फिर भी यदि हम सचेत होकर और
जान-बूझकर प्रयत्न करें, तो इससे मार्ग निरापद होगा, संघर्षण कम हो जाएगा और
समय भी कम लगेगा। इससे स्वभावत: हम जिस दूसरे निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, वह
यह है कि सभी ज्ञान और सभी शक्ति भीतर हैं, बाहर नहीं। जिसे हम प्रकृति कहते
हैं, वह प्रतिबिंबक शीशा (दर्पण) है- बस प्रकृति का इतना ही प्रयोजन है- और
समस्त ज्ञान प्रकृति के इस दर्पण पर अभ्यंतर परावर्तनया प्रतिबिंबन है।
जिन्हें हम सिद्धियाँ, प्रकृति के रहस्य और शक्ति कहते हैं, वे सब भीतर
विद्यमान हैं। बाह्य जगत् में परिवर्तन की श्रृंखला मात्र होती है। प्रकृति
में कोई ज्ञान नहीं; मानव की आत्मा से समस्त ज्ञान उद्भूत होता है। मनुष्य
ज्ञान व्यक्त करता है, अपने भीतर वह उसका आविष्कार करता है, जो पहले
शाश्वत काल से विद्यमान है। प्रत्येक व्यक्ति चितस्वरूप है, प्रत्येक
व्यक्ति आनंदस्वरूप और सतस्वरूप है। समता के संबंध में नैतिक प्रभाव ठीक
वैसा ही है, जैसा हम अन्यत्र देख चुके हैं।
किंतु विशेषाधिकार का भाव मानव जीवन का विष है। मानो दो शक्तियाँ निरंतर कार्य
कर रही हैं, एक जातियाँ बना रही है और दूसरी जातियाँ तोड़ रही है। दूसरे
शब्दों में हम इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि एक विशेषाधिकार बनाने में लगी है
और दूसरी विशेषाधिकार तोड़ने में लगी है। और जब कभी विशेषाधिकार तोड़ दिया
जाता है, तब जाति को अधिकाधिक प्रकाश तथा प्रगति उपलब्ध होती है। यह संघर्ष
हम अपने चतुर्दिक् देखते हैं। अवश्य ही प्रथम है विशेषाधिकार का वह पाशविक
भाव, जो निर्बल के ऊपर सबल का होता है। धन का विशेषाधिकार है। यदि दूसरे की
अपेक्षा किसी के पास अधिक द्रव्य है, तो वह कम द्रव्यवालों पर थोड़ा
विशेषाधिकार चाहता है। फिर बुद्धि का विशेषाधिकार उससे कहीं अधिक सूक्ष्म और
शक्तिशाली है। एक आदमी दूसरों की अपेक्षा अधिक जानकारी रखता है, इसलिए वह अधिक
विशेषाधिकार का दावा करता है। और सबसे अंतिम तथा सबसे निकृष्ट, क्योंकि यह
सर्वाधिक अत्याचारपूर्ण है, आध्यात्मिकता का विशेषाधिकार है। यदि कुछ लोग यह
सोचते है कि उनका आध्यात्मिक ज्ञान अधिक है और वे ईश्वर के विषय में अधिक
जानते हैं, तो वे अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठतर विशेषाधिकार का दावा करते
हैं। वे कहते हैं,''ऐ भेड़-बकरियों ! आओ और हमारी पूजा करो, हम ईश्वर के
संदेशवाहक हैं और हमारी पूजा तुम्हें करनी ही पड़ेगी। "किसी के ऊपर मानसिक,
शारीरिक अथवा आध्यात्मिक विशेषाधिकार स्वीकार करना और साथ ही वेदांती बनना-
दोनों नहीं हो सकता। किसी को रंच मात्र विशेषाधिकार नहीं है। प्रत्येक
व्यक्ति में समान ही सामर्थ्य है- एक में उसकी अभिव्यक्ति अधिक है, दूसरे
में कम। प्रत्येक में समान क्षमता है। फिर विशेषाधिकार का दावा कहाँ
प्रत्येक आत्मा में, यहाँ तक कि सर्वाधिक अज्ञानी में भी, समस्त ज्ञान है;
उसने उसे अभिव्यक्त नहीं किया, लेकिन शायद उसे अवसर नहीं मिला, शायद परिवेश
उसके अनुकूल नहीं थे। जब उसे अवसर मिलेगा, तब वह उसे अभिव्यक्त करेगा। एक
मनुष्य दूसरे से जन्मना श्रेष्ठ है, यह भाव वेदांत की दृष्टि से निरर्थक है
और दो राष्ट्रों में से एक श्रेष्ठ है तथा दूसरा निकृष्ट है; यह विचार भी
बिल्कुल निरर्थक है। दोनों की एक ही परिस्थितियों में रखो और देखो कि एक सी
बुद्धि का समुदय होता है या नहीं। इसके पूर्व तुम्हें यह कहने का अधिकार नहीं
कि एक राष्ट्र दूसरे से श्रेष्ठतर है। जहाँ तक आध्यात्मिकता का सवाल है,
वहाँ विशेषाधिकार का दावा नहीं होना चाहिए। मानव जाति की सेवा करना
विशेषाधिकार है, क्योंकि यह ईश्वर की उपासना है। ईश्वर यहीं है, इन सब
मानवीय आत्माओं में है। वह मनुष्य की आत्मा है। मनुष्य क्या विशेषाधिकार
माँग सकते हैं? ईश्वर के कोई विशेष संदेशवाहक नहीं, न कभी हुए और न हो सकते
हैं। छोटे-बड़े सभी जीव ईश्वर की समान रूप से अभिव्यक्तियाँ हैं, अंतर केवल
अभिव्यक्तियों में है। वही सनातन संदेश, जो शाश्वत काल से दिया जाता रहा है,
उन्हें थोड़ा थोड़ा प्राप्त हो रहा है। वह सनातन संदेश प्रत्येक जीव के
हृदय पर अंकित है, वह वहाँ पहले से ही विद्यमान है और उसे प्रकट करने के लिए
सब संघर्ष कर रहे हैं। अनुकूल परिस्थितियों में होने के कारण कुछ लोग दूसरों
की अपेक्षा कुछ अच्छे प्रकार से प्रकट करते हैं, पर संदेशवाहक के रूप में सब
एक ही हैं। वहाँ श्रेष्ठता का दावा क्या? सर्वाधिक अज्ञानी, सर्वाधिक अबोध
शिशु भी ईश्वर के उतने ही महान् संदेशवाहक हैं, जितने वे जिनका कभी अस्तित्व
रहा और वे जो कभी भविष्य में पैदा होंगे, क्योंकि प्रत्येक जीव के हृदय पर
सदा के लिए वह अनंत संदेश अंकित कर दिया गया है। जहाँ कहीं भी जीव है, उसके
पास सर्वोच्च का अनंत संदेश है। वह वहाँ है। अत: अद्वैत का कार्य इन सभी
विशेषाधिकारों को तोड़ डालना है। यह सब कार्यों से कठिन है, और विचित्र बात तो
यह है कि अद्वैत अपनी जन्मभूमि में अन्य किसी स्थान की अपेक्षा कम सक्रिय
रहा है। यदि विशेषाधिकारवाला कोई देश है, तो यह वही देश है, जिसने इस दर्शन को
जन्म दिया- आध्यात्मिक मनुष्य के लिए और साथ ही जन्मना मनुष्य के लिए
विशेषाधिकार। वहाँ उन्हें रूपये-पैसे का विशेषाधिकार (मेरी समझ से लाभों में
यह भी एक है) उतना नहीं है, किंतु जन्मना विशेषाधिकार और आध्यात्मिक
विशेषाधिकार सर्वत्र है।
वेदांती नैतिकता के प्रचार का एक बार महत् प्रयास हुआ, जो कुछ हद तक कई सौ
वर्षों के लिए सफल रहा और इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि वे वर्ष राष्ट्र
के सर्वोत्तम काल थे। मेरा अभिप्राय विशेषाधिकार तोड़ने के बौद्धों के प्रयास
से है। बुद्ध को संबोधित कर जिन अति सुंदर विरूदावालियों का प्रयोग किया गया
है, उनमें से जो थोड़ी सी मुझे याद हैं, वे इस प्रकार हैं- 'हे
जाति-विध्वंसक, विशेषाधिकारविनाशक, सर्वजीव-समत्व-शिक्षक'। इस तरह समता के
एक भाव का उन्होंने उपदेश दिया। श्रमणों के भ्रातृ-मंडल में इसकी शक्ति को
कुछ हद तक गलत समझा गया। हमें पता लगता है कि वहाँ वरिष्ठों एवं कनिष्ठों की
व्यवस्था कर उनका धर्मसंघ बनाने के सैकड़ों प्रयत्न किए गए। यदि लोगों से
कहो कि सभी देवता हैं, तो तुम धर्मसंघ को ज्यादा कारगर नहीं बना सकते। वेदांत
के अच्छे प्रभावों में से एक यह है कि धार्मिक विचारों में स्वतंत्रता रही
है, जिसका उपभोग भारत ने अपने इतिहास के सभी कालों में किया है। यह एक गौरव की
बात है कि यह एक ऐसा देश है, जहाँ कभी धार्मिक उत्पीड़न नहीं हुआ और जहाँ
लोगों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता दी जाती है।
वेदांत के इस व्यावहारिक पक्ष की आज भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी पहले कभी
थी; और शायद पहले की अपेक्षा कहीं अधिक आवश्यकता है, क्येांकि ज्ञान के
विस्तार के साथ विशेषाधिकार का यह दावा अत्यधिक घनीभूत हो गया है। भगवान् और
शैतान या अहुर्मज़्द और अहिर्मन की कल्पना में पर्याप्त काव्य है। सुर और
असुर में कुछ भेद नहीं है, भेद केवल नि:स्वार्थ तथा स्वार्थ में है। असुर भी
उतना जानता है, जितना सुर, उसमें बस पवित्रता नहीं होती- इसी से वह असुर बन
जाता है, आधुनिक संसार पर वही भावना लागू करो। अपवित्र ज्ञान और शक्ति का
अतिरेक मनुष्यों को असुर बना देता है। यंत्रों तथा अन्य साज-सामानों के
निर्माण से बहुत बड़ी शक्ति प्राप्त की जा रही है और आज विशेषाधिकारों का ऐसा
दावा किया जा रहा है, जैसा संसार के इतिहास में पहले कभी नहीं किया गया था।
इसी कारण वेदांत इसके विरुद्ध प्रचार करना चाहता है कि मनुष्यों की आत्मा पर
अत्याचार करना समाप्त किया जाए।
तुममें से जिन लोगों ने गीता पढ़ी है, उन्हें यह स्मरणीय उद्धरण याद होगा -
'सचमुच वही ऋषि और पंडित है, जो विद्या तथा विनय से युक्त ब्राह्मण, गाय,
हाथी, कुत्ते और चांडाल में समदृष्टि रखता है। जिसका अंत:करण समता में अर्थात्
सब भूतों के अंतर्गत ब्रह्मरूप समभाव में निश्चलतापूर्वक स्थित हो गया है,
उसने जीवितावस्था में ही जन्म को जीत लिया है और क्योंकि वह ब्रह्म निर्दोष
है, इसलिए जो समदर्शी एवं निर्दोष हैं, वे ब्रह्म में ही स्थित कहे जाते हैं।" [12] वेदांती नैतिकता का यही
सारांश है। सबके प्रति साम्य। हम देख चुके हैं कि वह अंतर्जगत् है, जो बाह्य
जगत् पर शासन करता है। आत्मपरिर्वन के साथ वस्तुपरिवर्तन अवश्यंभावी है;
अपने को शुद्ध कर लो और संसार का विशुद्ध होना अवश्यंभावी है। पहले के किसी
भी समय से अधिक आजकल इस एक बात की शिक्षा की आवश्यकता है। हम लोग अपने विषय
में उत्तरोत्तर कम और अपने पड़ोसियों के विषय में उत्तरोत्तर अधिक व्यस्त
होते जा रहे हैं। यदि हम परिवर्तित होते हैं, तो संसार परिवर्तित हो जाएगा;
यदि हम निर्मल हैं, तो संसार निर्मल हो जाएगा। प्रश्न यह है कि मैं दूसरों
में दोष क्यों देखूँ। जब तक मैं दोषमय न हो जाऊँ, तब तक मैं दोष नहीं देख
सकता। जब तक मैं निर्बल न हो जाऊँ, तब तक मैं दु:खी नहीं हो सकता। जब मैं बालक
था, उस समय जो चीजें मुझे दु:खी बना देती थीं, अब वैसा नहीं कर पातीं। कर्ता
में परिवर्तन हुआ, इसलिए कर्म में परिवर्तन अवश्यंभावी है- यह वेदांत का मत
है। जब हम समत्व की अद्भुत स्थिति में पहुँच जाएंगें अर्थात् साम्यभाव
प्राप्त कर लेंगे तब उन सभी वस्तुओं पर हमें हँसी आएगी, जिन्हें हम दु:खों
और अशुभ का निमित्त कहते हैं। इसी को वेदांत में मुक्ति-लाभ कहा गया है। उस
मुक्त तक पहुँचने का लक्षण यह है कि इस प्रकार का अनन्य भाव तथा समत्व
अधिकाधिक प्रतीत होगा। 'सुख-दु:ख में सम, जयपराजय में सम'- इस प्रकार की
मन:स्थिति मुक्तावस्था के निकट है।
मन आसानी से नहीं जीता जा सकता। हलकी से हलकी उत्तेजना या खतरा आने पर,
प्रत्येक छोटी सी घटना उपस्थित होने पर, जो मन तरंगायमान होने लगते हैं, तब
महानता और आध्यात्किता की चर्चा का क्या प्रयोजन? मन की यह अस्थिर दशा बदलनी
ही होगी। हमें स्वयं अपने से पूछना चाहिए कि हमारे ऊपर बाह्य जगत् की कहाँ तक
प्रतिक्रिया हो सकती है और अपने बाहर की तमाम शक्तियों के बावजूद कहाँ तक हम
अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। जब दुनिया की सारी शक्तियों को हम अपना
संतुलन बिगाड़ने से रोकने में सफल हो जाएं, तभी हम मुक्त हैं और उसके पूर्व
नहीं। वही उद्धार है। वह यहीं है और अन्यत्र नहीं- वह यही क्षण है। इस भाव से
और इस मूल स्रोत से सभी सुंदर विचारधाराओं का संसार में प्रवाह हुआ है, जो
प्रत्यक्षत: परस्पर विरोधी हैं और जिनकी अभिव्यक्ति सामान्यत: ग़लत अर्थ
में समझी गई है। प्रत्येक राष्ट्र में हम ऐसे कितने ही वीर तथा अद्भुत
आध्यात्मिक व्यक्ति पाते हैं, जो ध्यान-धारणा के लिए गुफाओं और वनों में
चले गए तथा जिन्होंने बाहरी दुनिया से अपना संबंध विच्छेद कर लिया। यह तो एक
भाव है। दूसरी ओर हमें ऐसे प्राणी मिलते हैं, जो समुज्ज्वल और यशस्वी हैं
और जो समाज में प्रवेश करते हैं तथा जनगण एवं दीन-दु:खियों की समुन्नति के
लिए यत्न करते हैं। देखने में ये दोनों विधियाँ परस्पर-विरोधी हैं। जो अपने
भाई मनुष्यों से पृथक् गुफा में निवास करता है, वह उन लोगों पर घृणा की
दृष्टि से हँसता है, जो अपने भाई मनुष्यों के पुनरुद्धार के लिए कार्य कर रहे
हैं। वह कहता है,''कितनी मूर्खता की बात है ! वहाँ क्या काम है? माया का
संसार सदा मायामय रहेगा। वह बदल नहीं सकता।" यदि मैं भारत के किसी अपने
पुरोहित से पूछूँ कि क्या वेदांत में तुम्हें विश्वास है, तो वह जवाब देगा,
"वह तो मेरा धर्म है; मैं अवश्य विश्वास करता हूँ; वह मेरा प्राण है।" "बहुत
ठीक, तो क्या तुम प्राणिमात्र की समता और प्रत्येक वस्तु की अनन्य एकता को
स्वीकार करते हो?" "निश्चय ही, मैं स्वीकार करता हूँ।" परंतु दूसरे ही क्षण
जब एक नीच जाति का आदमी पुरोहित के पास पहुँचता है, तो उसकी छूत से बचने के
लिए वह छलाँग मारकर सड़क के किनारे चला जाता है। "कूदते क्यों हो?" "क्योंकि
उसके स्पर्श मात्र से मैं अपवित्र हो जाता।" "परंतु तुम तो अभी अभी कह रहे थे
कि हम सब एक ही हैं और तुम स्वीकार करते हो कि प्राणियों में कोई भेद नहीं
है। "वह जवाब देता है,"अरे भाई, गृहस्थों के लिए तो यह केवल सिद्धांत का विषय
है; जब मैं (संन्यास लेकर) वन में जाऊँगा, तब मैं समदर्शी हो जाऊँगा। "तुम
इंग्लैंड में अपने किसी बड़े आदमी से, जो बड़े कुल में पैदा हुआ हो और धनी
हो, पूछो कि जब सभी ईश्वर के यहाँ से आए हैं, तब क्या तुम ईसाई होने के नाते
मनुष्य जाति के भ्रातृत्व में विश्वास करते हो? वह स्वीकारात्मक उत्तर
देगा, किंतु पाँच मिनट में ही वह सामान्य लोगों के प्रति कुछ अनादरसूचक
शब्दों का ज़ोर से प्रयोग करने लगेगा। अतएव कई हज़ार वर्षों तक यह कोरा
सिद्धांत ही रहा है और कभी कार्य रूप में परिणत नहीं हुआ। इसे सब समझते हैं,
सब इसे सत्य घोषित करते हैं, किंतु जब व्यवहार में लाने की बात कहो, तो लोग
कहने लगते हैं कि इसमें लाखों वर्ष लगेंगे।
कोई राजा था, जिसके बहुत से सभासद थे और इन सभासदों में से प्रत्येक यह दम
भरता था कि अपने स्वामी के लिए वह जीवनोत्सर्ग करने को उद्यत है और उससे
बढ़कर निष्कपट व्यक्ति कभी कोई पैदा ही नहीं हुआ। कालांतर में एक संन्यासी
राजा के यहाँ आया। राजा ने उससे कहा कि मेरे यहाँ जितने अधिक सच्चे सभासद
हैं, उतने पहले किसी राजा के यहाँ कभी नहीं थे। संन्यासी मुस्कराने लगा और
उसने कहा कि मैं इस पर विश्वास नहीं करता। राजा ने कहा कि वह एक बहुत बड़ा
यज्ञ करेगा, जिसके द्वारा राजा का राज्यकाल बहुत दीर्घ हो जाएगा, लेकिन शर्त
यह है कि छोटा सा तालाब बनना चाहिए, जिसमें रात्रि के अंधकार में प्रत्येक
सभासद एक एक घड़ा दूध उड़ेल दे। राजा मुस्कराया और उसने कहा, "क्या यही
परीक्षा है?" उसने सभासदों को अपने पास बुलाया और उन्हें बताया कि क्या करना
है। सबने प्रस्ताव पर अपनी सहर्ष स्वीकृति प्रदान की और वे सब लौट गए। निशीथ
वेला में आ आकर उन्होंने अपने धड़े उड़ेले परंतु सबेरे देखा गया तो वह केवल
पानी से भरा था। सभासद एकत्र किए गए और उनसे इस मामले में पूछताछ की गई। उनमें
से प्रत्येक ने यह सोचा था कि इतने घड़ों का दूध हो जाएगा कि उसके द्वारा
उड़ेले गए पानी का पता न लगेगा। दुर्भाग्य से हममें से अधिकांश का भाव यही
होता है और हम अपने कार्य-भाग को उसी प्रकार करते हैं, जैसा कहानी के सभासदों
ने किया है।
पुरोहित कहता है कि समता का भाव इतना अधिक है कि मेरे छोटे से विशेषाधिकार की
पोल नहीं खुलेगी। यही बात हमारे धनिक कहते हैं, यही बात प्रत्येक देश के
अत्याचारी कहते हैं। जिन पर अत्याचार होता है, उनके लिए उन लोगों की अपेक्षा
अधिक आशाएँ हैं, जो अत्याचारी हैं। मुक्ति-लाभ करने में अत्याचारियों को
बहुत लंबा समय लगेगा, पर अन्य लोगों को अपेक्षाकृत कम समय लगेगा। लोमड़ी की
क्रूरता सिंह की कूरता से अत्यधिक भयानक है। सिंह एक आघात करता है और बाद में
कुछ समय शांत रहता है, लेकिन लोमड़ी लगातार शिकार का पीछा करने की कोशिश में
कोई मौका हाथ से नहीं जाने देती। पौरोहित्य प्रकृत्या क्रूर तथा हृदयहीन है।
यही कारण है कि जहाँ पौरोहित्य का उदय हुआ, वहाँ धर्म का अध:पतन हो जाता है।
वेदांत कहता है कि हमें विशेषाधिकार का भाव अवश्य त्याग देना होगा, तभी धर्म
आएगा। उसके पूर्व धर्म का लेश भी नहीं है।
क्या ईसा के इस कथन पर तुम्हारा विश्वास है, 'तुम्हारे पास जो कुछ है, उसे
बेच दो और ग़रीबों को दे दो?' वहाँ व्यावहारिक समता है, शास्त्र को
तोड़-मरोड़कर व्याख्या का प्रयास मत करो, सत्य को यथावत् ग्रहण करो !
तोड़-मरोड़कर शास्त्र की व्याख्या का प्रयास मत करो। मैंने लोगों को यह
कहते सुना है कि केवल उन मुट्ठी भर यहूदियों को वह उपदेश दिया गया था,
जिन्होंने ईसा की बातों को ध्यानपूर्वक सुना। अन्य बातों में भी वही तर्क
लागू होगा। शास्त्रों को मत तोड़ो-मरोड़ो; सत्य यथावत् ग्रहण करने का साहस
करो। यदि हम वहाँ तक पहुँच न भी सकें, तो अपनी दुबर्लता स्वीकार कर लें,
किंतु हम आदर्श का विनाश न करें। हम आशा करें कि कभी उसे उपलब्ध कर लें,
किंतु हम आदर्श का विनाश न करें। हम आशा करें कि कभी उसे उपलब्ध कर लेंगे और
एतदर्थ प्रयास करें। वही तो है- 'तुम्हारे पास जो कुछ है उसे बेच दो और
गरीबों को दे दो तथा मेरा अनुसरण करो। 'इस प्रकार अपने विशेषाधिकारों तथा अपने
भीतर की उस प्रत्येक वस्तु को, जो विशेषाधिकार के लाभ में सहायक है, रौंदते
हुए हम उस ज्ञान के लिए उद्यम करें, इससे समस्त मनुष्य जाति के प्रति
अनन्यता की भावना पैदा हो। तुम कुछ अधिक परिमार्जित भाषा बोलते हो, इससे
सोचते हो कि तुम किसी साधारण व्यक्ति से बढ़कर हो। याद रखो, जब तुम ऐसा सोचते
हो, तब तुम मुक्ति की ओर आगे नहीं बढ़ते हो, प्रत्युत् अपने पैरों में एक नई
बेड़ी डालते हो। सर्वोपरि बात तो यह है कि यदि आध्यात्मिकता का घमंड
तुम्हारे भीतर घुसता है, तो तुम्हारे लिए महा विपत्ति है। यह सब बंधनों से
बढ़कर महा भयावना बंधन है। धन अथवा मानव हृदय का कोई अन्य बंधन आत्मा को
उतना जकड़कर नहीं बाँधता, जितना यह बाँधता है। 'अन्य लोगों की अपेक्षा मैं
अधिक पवित्र हूँ'- यह भाव उन सबसे अधिक भयावह है, जिनका प्रवेश कभी मानव के
हृदय में हो सकता है। किस अर्थ में तुम पवित्र हो? तुम्हारे अंदर जो
परमात्मा है, वही परमात्मा सब में है। यदि तुमने यह न जाना, तो कुछ न जाना।
भेद हो कैसे सकता है? यह सब तो एक है। प्रत्येक प्राणी सर्वोच्च प्रभु का
मंदिर है। यदि तुम उसे देख सके, तो ठीक है और यदि नहीं देख सके, तो तुममें
आध्यात्मिकता अभी तक नहीं आई।
विशेषाधिकार
(लंदन के सेसम क्लब में दिया गया व्याख्यान)
समस्त प्रकृति में दो शक्तियाँ कार्य करती हुई प्रतीत होती हैं। इनमें से एक
निरंतर भिन्नता और दूसरी निरंतर एकता उत्पन्न करती रहती है। एक अधिकाधिक
पृथक् व्यष्टियों के निर्माण में लगी है और दूसरी मानो व्यष्टियों को एक
समष्टि में लाने और इन नाना भेदों के बीच अभेद लाने में लगी है। ऐसा जान पड़ता
है कि इन दोनों शक्तियों का कार्य प्रकृति तथा मानव जीवन के प्रत्येक विभाग
में प्रविष्ट होता है। हम सदा दोनों शक्तियों को भौतिक स्तर पर सर्वापेक्षा
सुस्पष्ट कार्य करते हुए पाते हैं। वे व्यष्टियों को पृथक् करती रहती हैं,
अन्य व्यष्टियों से उन्हें अधिकाधिक भिन्न बनाती रहती हैं और फिर उन्हें
जातियों और श्रेणियों में विभक्त करती हैं एवं अभिव्यक्तियों तथा आकृतियों
में एकरूपता लाती हैं। मनुष्य के सामाजिक जीवन में भी यही लागू होता है। जिस
काल के समाज आरंभ हुआ, ये दोनों शक्तियाँ कार्य कर रही हैं, विभेदीकरण तथा
एकीकरण में लगी हैं। विभिन्न स्थानों और विभिन्न कालों में उनका कार्य नाना
रूपों में प्रकट होता है और वह नाना नामों से संबोधित होता है। परंतु सार
सबमें विद्यमान है, एक शक्ति विभेदीकरण और दूसरी एकीकरण के लिए सचेष्ट है. एक
जाति बनाने और दूसरी उसे तोड़ने के लिए कार्य कर रही है; एक श्रेणियों तथा
विशेषाधिकारों को जन्म देने और दूसरी उनका विनाश करने में लगी है। सारा
विश्व इन दोनों शक्तियों का रण-क्षेत्र प्रतीत होता है। एक ओर यह आग्रह है कि
यद्यपि एकीकरण की इस प्रक्रिया का अस्तित्व है, पर हमें अपनी पूरी शक्ति
लगाकर इसका प्रतिरोध करना ही चाहिए, क्योंकि यह मृत्यु की ओर ले जाती है,
पूर्ण एकत्व पूर्ण विनाश है, और इस विश्व में विभेदीकरण की प्रक्रिया जब बंद
हो जाती है, तब विश्व का अंत हो जाता है। यह विभेदीकरण ही है, जो हमारे
सम्मुख स्थित इस जगत् की घटनावली का निमित्त है; एकीकरण उन्हें समरूप और
निर्जीव जड़ पदार्थ में रूपांतरित कर देगा। निश्चय ही मानव जाति ऐसी स्थिति से
बचना चाहती है। हम अपने चतुर्दिक् जो वस्तुएँ तथा तथ्य देखते हैं, उन सब पर
यही तर्क लागू होता है। इस बात पर जोर दिया जाता है कि इस भौतिक शरीर और
सामाजिक वर्गीकरण में भी पूर्ण साम्य अथवा एकरूपता स्वाभाविक मृत्यु तथा
सामाजिक मृत्यु उत्पन्न कर देगी। विचार तथा भावना के पूर्ण साम्य से
मानसिक अपक्षय और अध:पतन हो जाएगा। इसलिए एकरूपता का परिहार करना है। एक पक्ष
की ओर से उपर्युक्त तर्क दिया गया है, और विविध समयों पर हर देश में भिन्न
शब्दों के द्वारा उस पर जोर दिया गया है। भारत के ब्राह्मण अन्य सब लोगों के
विरुद्ध समाज के विशेष अंश के विशेषाधिकारों को बनाए रखने तथा वर्ग-भेद और
वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन करने में इन्हीं तर्कों पर बल देते हैं। वे
घोषणा करते हैं कि जाति-भेद के विनाश से समाज का विनाश हो जाएगा और साहसपूर्ण
ऐतिहासिक तथ्यों का प्रमाण पेश करते हैं कि उनका समाज सर्वाधिक चिरजीवी है।
अत: शक्ति के किंचित् दिखावे के साथ वे इस तर्क का सहारा लेते हैं।
प्रामाणिकता के किंचित् दिखावे के साथ वे घोषणा करते हैं कि व्यक्ति को
अल्पतर जीवन प्रदान करने वाली व्यवस्था की अपेक्षा उसे दीर्घतम जीवन प्रदान
करने वाली व्यवस्था निश्चित रूप से श्रेष्ठ है।
दूसरी ओर एकत्व के भाव के समर्थक भी सभी कालों में रहे हैं। उपनिषदों,
बुद्धों और ईसा मसीहों तथा अन्य महान् धर्मोपदेष्टाओं के समय से हमारे
वर्तमान काल तक नई राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में, उत्पीड़ितों तथा पददलितों
के दावों तथा विशेषाधिकारों से विहीन व्यक्तियों के दावों में, बस इसी एकता
और एकरूपता की एक आवाज बुलंद हुई है। किंतु मानव प्रकृति अपने को व्यक्त
करती ही है। जिन्हें कोई सुविधा प्राप्त है, वे उसे बनाए रखना चाहते हैं और
उन्हें कोई तर्क मिल जाता है- चाहे वह कितना भी एकांगी और रद्दी क्यों न हो-
और वे उस पर डटे रहते हैं। दोनों ही पक्षों पर यह बात लागू होती है।
दर्शन या तत्त्वज्ञान में यह प्रश्न दूसरा रूप धारण कर लेता है। बौद्धों का
कहना है कि इस दृश्य प्रपंच के मध्य एकता स्थापित करने वाली वस्तु खोजने
की हमें आवश्यकता नहीं। दृश्य जगत् पर ही हमें संतोष करना चाहिए। चाहे कितनी
भी दु:खमय और निर्बल क्यों न हो, यह विविधता जीवन का सार है, उससे अधिक हमें
कुछ नहीं मिल सकता। वेदांती कहता है कि केवल एकत्व ही ऐसी वस्तु हैं, जिसका
अस्तित्व है; विविधता तो केवल दृश्य प्रपंच, क्षणभंगुर और प्रतीयमान है।
वेदांती कहता है 'नानात्व मत देखो, एकत्व की ओर वापस जाओ। 'बौद्ध कहता है,
'एकत्व से बचो, वह भ्रांति है; नानात्व की ओर जाओ। 'धर्म तथा दर्शन में वे
ही मतभेद हम लोगों के समय तक चले आ रहे हैं, क्योंकि वस्तुत: ज्ञान के मूल
तत्त्वों की संख्या बहुत कम है। दर्शन और दार्शनिक ज्ञान, धर्म तथा धार्मिक
ज्ञान पाँच हजार वर्ष पूर्व अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच गए और हम लोग उन्हीं
सत्यों का विभिन्न भाषाओं में केवल दुहरा भर रहे हैं, कभी-कभी नए
दृष्टांतों द्वारा उन्हें समृद्ध भर कर देते हैं। इसलिए आज भी यह एक संघर्ष
है। एक पक्ष चाहता है कि हम दृश्य प्रपंच में कायम रहें, इन विविधताओं पर
आरूढ़ रहें और वह तर्क के बड़े आग्रह से संकेत करता है कि विविधता को रखना ही
होगा, क्योंकि जब वह खत्म हो जाएगी, तब प्रत्येक वस्तु समाप्त हो जाएगी।
जीवन का हम जो अर्थ लगाते हैं, उसका निमित्त नानात्व है। इसीके साथ दूसरा
पक्ष दृढ़ साहस के साथ एकत्व की ओर संकेत करता है।
जब हम नीतिशास्त्र पर विचार करते हैं, तो हमें बड़ा अंतर मिलता है। शायद यही
एक विज्ञान है, जो इस संघर्ष का महत्वपूर्ण अतिक्रमण करता है क्योंकि
नीतिशास्त्र एकता है; इसका आधार है प्रेम। वह इस विविधता पर दृष्टिपात नहीं
करता। नीतिशास्त्र का एकमात्र उद्देश्य है, यह एकत्व और यह एकरूपता। आज तक
मानव जाति नैतिकता के जिन उच्चतम विधानों की खोज कर सकी है, वे विविधता नहीं
स्वीकार करते, उसकी खोज-बीन के निमित्त रुकने के लिए उनके पास समय नहीं है,
उनका एक उद्देश्य बस वही एकरूपता लाना है। भारतीय मस्तिष्क- मेरा अभिप्राय
वेदांती मस्तिष्क से है- अधिक विश्लेषक है और उसने समस्त विश्लेषण के
परिणामस्वरूप इस एकत्व का पता लगाया और उसने समस्त विश्लेषण के
परिणामस्वरूप इस एकत्व का पता लगाया और उसने एकत्व के इस एक भाव पर
प्रत्येक वस्तु को आधारित करना चाहा। किंतु जैसा कि हम चर्चा कर चुके हैं,
उसी देश में अन्य मस्तिष्क (बौद्ध) थे, जो वह एकत्व कहीं नहीं देख सके।
उनकी दृष्टि में संपूर्ण सत्य विविधता का ही समुच्चय है और एक वस्तु का
दूसरी से कोई संबंध नहीं है।
प्रोफेसर मैक्समूलर ने अपनी एक पुस्तक में एक पुरानी यूनानी कहानी का
उल्लेख किया है, जो मुझे स्मरण है। उसमें बताया गया है कि एक ब्राह्मण किस
प्रकार एथेन्स में सक्रेटिस के यहाँ गया। ब्राह्मण ने पूछा, "सर्वोच्च ज्ञान
क्या है?" और सक्रेटिस ने जवाब दिया, "मनुष्य को जान लेना समस्त ज्ञान का
चरम लक्ष्य और उद्देश्य है।" "परंतु ईश्वर को जाने बिना आप मनुष्य को कैसे
जान सकेंगे?" ब्राह्मण ने प्रत्युत्तर दिया। एक पक्ष, जो यूनानी पक्ष है और
जिसका प्रतिनिधित्व आधुनिक यूरोप करता है, मनुष्य-ज्ञान पर बल देता है;
भारतीय पक्ष, जिसका अधिकांश प्रतिनिधित्व संसार के प्राचीन धर्म करते हैं,
ईश्वर-ज्ञान पर बल देता है। एक प्रकृति में ईश्वर तथा दूसरा ईश्वर में
प्रकृति का दर्शन करता है। वर्तमान काल में शायद हम लोगों को यह सुविधा
प्राप्त हुई है कि दोनों दृष्टिकोणों के प्रति तटस्थ रहकर सब पर निष्पक्ष
विचार कर सकें। यह एक तथ्य है कि विविधता का अस्तित्व है और यदि जीवन को
कायम रहना है, तो यह (विविधता) अवश्य रहेगी। यह भी एक तथ्य है कि इस
नानात्व में और इसके बीच एकत्व को अवगत करना होगा। प्रकृति में ईश्वर दिखाई
पड़ता है, यह तथ्य है परंतु यह भी एक तथ्य है कि प्रकृति का दर्शन ईश्वर
में होता है। मनुष्य-ज्ञान सर्वोच्च ज्ञान है और केवल मनुष्य-ज्ञान द्वारा
ही हम ईश्वर को जान सकते हैं। यह भी एक तथ्य है कि ईश्वर-ज्ञान सर्वोच्च
ज्ञान है और है केवल ईश्वर-ज्ञान से ही हम मनुष्य को जान सकते हैं। यद्यपि
देखने में ये दोनों वक्तव्य परस्पर विरोधी जान पड़ सकते हैं, किंतु वे
मनुष्य की प्रकृति की आवश्यकता हैं। समस्त विश्व भेद-अभेद की क्रीड़ाभूमि
है; समस्त विश्व असीम में ससीम की लीला है। दूसरे को ग्रहण किए बिना हम पहले
को अंगीकार नहीं कर सकते लेकिन हम दोनों को न तो एक ही प्रत्यक्ष बोध के रूप
में ग्रहण कर सकते हैं और न एक ही अनुभूति के तथ्य के रूप में फिर भी इसी
प्रकार यह क्रम सदा चलता रहेगा।
अतएव जब हम धर्म की विवेचना करते हैं, जो हमारे लिए नीतिशास्त्र की अपेक्षा
अधिक विशेष अभिप्राय का विषय है, तो जब तक जीवन का अस्तित्व रहेगा, तब तक ऐसी
अवस्था का होना असंभव है, जिसमें सारी विविधताओं का लोप होकर एक सी मृत
समरूपता क़ायम हो जाए। यह वांछनीय भी नहीं। साथ ही तथ्य का दूसरा पहलू है-
एकत्व का अस्तित्व पहले से ही है। यह है विचित्र दावा- यह नहीं कि इस एकत्व
को बनाना है, वरन् यह कि इसका अस्तित्व पहले से ही है और उसके बिना तुम्हें
नानात्व का किंचित् प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। यह सब धर्मों का दावा रहा है।
जब कभी किसीने ससीम का प्रत्यक्ष किया है, तब उसने असीम का भी प्रत्यक्ष
किया है। कुछ ने ससीम पर बल दिया और घोषित किया कि उन्होंने बाह्य ससीम का
प्रत्यक्ष किया; दूसरों ने असीम पक्ष पर बल दिया और घोषित किया कि उन्होंने
केवल असीम का प्रत्यक्ष किया। पर हम जानते हैं कि यह तार्किक आवश्यकता है कि
हम एक के बिना दूसरे का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। इसलिए दावा यह है कि यह
एकत्व, यह पूर्णत्व- जैसा कि इसे हम कह सकते हैं- बनने को नहीं है, इसका
पहले से ही अस्तित्व है और यह यहाँ विद्यमान है; हमें केवल उसे मान्यता
प्रदान करना है और उसे समझना है। चाहे उसे हम जानते हों या नहीं, चाहे उसे हम
स्पष्ट भाषा में व्यक्त कर सकते हों या नहीं, चाहे इस प्रत्यक्ष में
इंद्रिय-प्रत्यक्ष की स्पष्टता और शक्ति हो या न हो, पर वह है अवश्य। अपने
मन की तार्किक आवश्यकता के कारण हम यह स्वीकार करने के लिए बाध्य है कि वह
यहाँ विद्यमान है, अन्यथा ससीम का प्रत्यक्ष न हो पाता। मैं द्रव्य और गुण
के प्राचीन सिद्धांत की चर्चा नहीं कर रहा हूँ, वरन् एकत्व की चर्चा कर रहा
हूँ कि इस सब दृश्य प्रपंच-समूह के बीच चेतना का यह तथ्य तो ह्दयंगम होता ही
है कि मैं और तुम एक दूसरे से भिन्न हैं और साथ ही यह चेतना भी कि मैं और तुम
एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। उस एकत्व के बिना ज्ञान असंभव होता। अभेद के
भाव बिना न प्रत्यक्ष बोध होगा, न ज्ञान। इसलिए दोनों साथ साथ चलते हैं।
अतएव यदि परिस्थितियों की पूर्ण एकरूपता नीतिशास्त्र का उद्देश्य हो, तो वह
असंभव प्रतीत होता है। चाहे हम कितना भी प्रयत्न क्यों न करें, सब मनुष्य
एक से कभी नहीं हो सकते। मनुष्य जन्म से ही भिन्न-भिन्न होंगे; कुछ में
अन्य की अपेक्षा अधिक सामर्थ्य होगा; कुछ में स्वाभाविक क्षमता होगी,
दूसरों में नहीं; कुछ के शरीर पूर्ण विकसित होंगे और दूसरों के नहीं। हम इसे
कभी रोक नहीं सकते। इसके साथ ही विभिन्न आचार्यों द्वारा उपदिष्ट नैतिकता के
ये अद्भुत शब्द हमारे कर्ण-कुहरों में प्रविष्ट होते हैं- 'एक ही ईश्वर को
सबमें सम भाव से देखनेवाला मनीषी पुरुष आत्मा से आत्मा की हिंसा नहीं करता
और इस प्रकार परम गति को प्राप्त होता है। जिसका अंत:करण समता में अर्थात् सब
भूतों में स्थित ब्रह्मरूप सम भाव में निश्चलतापूर्वक स्थित हो गया है, उसने
जीवितावस्था में ही जन्म को जीत लिया है; और क्योंकि ब्रह्म निर्दोष है,
इसलिए जो समदर्शी एवं निर्दोष हैं, वे ब्रह्म में ही स्थित कहे जाते हैं।' [13]हम इसे अस्वीकार नहीं
कर सकते कि यही यथार्थ भाव है; फिर भी इसीके साथ यह कठिनाई उपस्थित होती है कि
बाह्य रूपों तथा अवस्था में कभी साम्य प्राप्त नहीं हो सकता।
किंतु जिसकी सम्प्राप्ति हो सकती है, वह है विशेषाधिकार का निराकरण। सारे
संसार के समक्ष वास्तव में यही कार्य है। प्रत्येक जाति और प्रत्येक देश के
सामाजिक जीवन में यह संघर्ष होता रहा है। कठिनाई यह नहीं है कि कोई जनसमूह
किसी अन्य जनसमूह से प्रकृत्या अधिक मेघावी है, परंतु क्या जिस जनसमूह को
बौद्धिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, वह उन लोगों के शारीरिक सुख-भोग भी छीन ले,
जिनको वे सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं। संघर्ष है उस विशेषाधिकार के उन्मूलन
का। यह स्वयंसिद्ध तथ्य है कि अन्य लोगों की अपेक्षा कुछ लोगों में शारीरिक
बल अधिक होगा और इस प्रकार स्वाभाविक है कि वे निर्बल को दबा देंगे या
परास्त कर देंगे; परंतु यह कानून नहीं कहता कि इस बल के कारण जीवन के सभी
प्राप्य सुखों को वे सवयं अपने में समेट लें, और संघर्ष इसी के विरुद्ध रहा
है। यह स्वाभाविक है कि कुछ लोग स्वभावत: सक्षम होने के कारण दूसरों की
अपेक्षा अधिक धन संग्रह कर लें; किंतु धन प्राप्त करने के इस सामर्थ्य के
कारण वे उन लोगों पर अत्याचार और अंधाधुन्ध व्यवहार करें, जो उतना अधिक धन
संग्रह करने में समर्थ न हों, तो यह कानून का अंग नहीं है, और संघर्ष इसके
विरुद्ध हुआ है। अन्य के ऊपर सुविधा के उपभोग को विशेषाधिकार कहते हैं और
इसका विनाश करना युग युग से नैतिकता का उद्देश्य रहा है। यह कार्य ऐसा है,
जिसकी प्रवृत्ति साम्य और एकत्व की ओर है तथा जिससे विविधता का विनाश नहीं
होता।
इन विविधताओं को अनंत काल तक रहने दो; यह तो जीवन का सार है। अनंत काल तक हम
सब इस प्रकार लीला करेंगे। तुम धनी होगे, मैं निर्धन; तुम सबल होगे और मैं
निर्बल; तुम विद्वान् होगे और मैं अज्ञानी; तुम बहुत आध्यात्मिक होगे और मैं
कम। किंतु उससे क्या? हम लोग वैसे बने रहें; लेकिन चूँकि तुममें शारीरिक तथा
बौद्धिक बल अपेक्षाकृत अधिक है, इसलिए तुम्हें मेरी अपेक्षा अधिक विशेषाधिकार
कदापि नहीं प्राप्त होना चाहिए और यदि तुम्हारे पास अधिक धन है, तो कोई कारण
नहीं कि तुम मुझसे बड़े समझे जाओ, क्योंकि विभिन्न दशाओं के बावजूद वही अभेद
यहाँ विद्यमान है।
नानात्व के बावजूद एकत्व को स्वीकार करना, प्रत्येक वस्तु के हमारे लिए
भयप्रद प्रतीत होने के बावजूद अंत:करण में ईश्वर को स्वीकार करना, सभी
प्रत्यक्ष दुर्बलताओं के बावजूद असीम बल को प्रत्येक का गुण स्वीकार करना
और ऊपरी सतह के सभी विरोधाभासों के बावजूद आत्मा की शाश्वत, अनंत और तात्विक
पवित्रता को स्वीकार करना नीतिशास्त्र का कार्य रहा है और भविष्य में भी
रहेगा, न कि विविधता का विनाश करना और बाह्य जगत् में एकरूपता की स्थापना
करना- जो असंभव है, क्योंकि उससे मृत्यु तथा विनाश हो जाएगा। इसे हमें
स्वीकार करना पड़ेगा। केवल एक पक्ष का ग्रहण और उस पक्ष की अर्द्ध स्वीकृति
खतरनाक है और उससे विवाद की आशंका है। संपूर्ण वस्तु को हमें यथावत् ग्रहण
करना होगा, अपना आधार बनाकर उस पर खड़ा होना होगा तथा व्यक्ति के रूप में एवं
समाज के इकाई-सदस्य के रूप में अपने जीवन के प्रत्येक अंग में उसे चरितार्थ
करना होगा।
सभ्यता का अवयव वेदांत
(एअर्ली लॉज, रिजवे गार्डेन्स, इंग्लैंड में दिए गए एक भाषण का उद्धरण)
जो लोग किसी वस्तु का केवल बाह्य स्थूल स्वरूप ही देखने में समर्थ हैं, वे
भारतीय राष्ट्र को केवल विजितों, पीडि़तों तथा स्वप्नद्रष्टाओं और
दार्शनिकों की जाति समझते हैं। वे इस बात को समझने में असमर्थ हैं कि
आध्यात्मिक क्षेत्र में भारत ने संसार को जीत लिया है। नि:संदेह यह सच है कि
जिस प्रकार अत्यधिक कार्यशील पाश्चात्य बुद्धि प्राच्य अंतर्वीक्षण और
चिंतनशीलता को अपनाने से लाभान्वित होगी, उसी प्रकार प्राच्य बुद्धि भी
किंचित् अधिक कार्यशीलता तथा ऊर्जस्विता के द्वारा लाभाविंत होगी। फिर भी, हम
पूछ सकते हैं कि वह शक्ति क्या है, जिसके कारण सहिष्णु तथा पीड़ित जातियाँ -
हिंदू तथा यहूदी, जिन दो जातियों से विश्व के महान् धर्म निकले, जीवित रहीं,
जबकि अन्य राष्ट्र विनष्ट हो गए? इसका कारण केवल आध्यात्मिक शक्ति हो सकती
है। आज भी हिंदू शांत भाव से जीवित हैं; तथा यहूदी, जब वे फि़लिस्तीन में
रहते थे, तब की अपेक्षा आज अधिक संख्या में पाए जाते हैं। भारतीय दर्शन
समस्त सभ्य संसार में व्याप्त हो गया है और अपनी इस यात्रा में सभ्यताओं
को ओतप्रोत तथा परिमार्जित करता गया है। इसी प्रकार, प्राचीन काल में भी जब
यूरोप अज्ञात था,भारत का वाणिज्य अफ़्रीका के छोर तक पहुँच गया था, विश्व के
अन्य भागों से आवागमन स्थापित कर चुका था, जिससे यह मान्यता निर्मूल सिद्ध
हो जाती है कि भारतीय अपने देश के बाहर कभी नहीं गए।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि किसी विदेशी शक्ति का भारत पर आधिपत्य, उस
शक्ति के इतिहास में उसे एक मोड़ देनेवाला बिंदु रहा है, जिससे उसको धन, वैभव,
राज्य तथा आध्यात्मिक विचार प्राप्त होते रहे हैं। जब कि एक पाश्चात्य
मनुष्य यह नापने का प्रयत्न करता है कि उसके लिए कितना अधिक परिग्रह और भोग
कर सकना संभव है, प्राच्य मनुष्य विपरीत दिशा में जाता है और नापता सा है कि
वह कम से कम कितनी भौतिक संपत्ति से काम चला सकता है। उस प्राचीन जाति में
ईश्वर को प्राप्त करने के प्रयत्न का सूत्र हम वेदों में पाते हैं। उस
ईश्वर की प्राप्ति के हेतु उन लोगों ने उपासना के विभिन्न स्तरों को
अपनाया। पितरों की पूजा से आरंभ कर वे लोग अग्नि, अर्थात् अग्निदेवता, इंद्र,
अर्थात् तड़ित के देवता तथा देवाधिदेव वरुण तक पहुँच गए। ईश्वर संबंधी
कल्पना का विश्वास्, अर्थात् बहुदेववाद से एकेश्वरवाद, हम सभी धर्मों में
पाते है। इसका सही अर्थ यह है कि वह ईश्वर वनजातियों के देवताओं में प्रधान
है, विश्व की सृष्टि करता है, शासन करता है तथा प्रत्येक हृदय को देखता रहता
है। इस प्रकार से यह क्रमिक विकास बहुदेयवाद से एकेश्वरवाद की ओर ले जाता है
परंतु ईश्वर की यह मानवीय कल्पना हिंदुओं को संतुष्ट नहीं कर सकी। वह
कल्पना उन लोगों के लिए, जो दिव्य तत्त्व का अन्वेषण कर रहे थे, अत्यधिक
मानवीय थी। अतएव, उन लोगों ने ईश्वर का अन्वेषण इंद्रियजन्य तथा बाह्य
भौतिक जगत् में करना छोड़ दिया और अपना ध्यान अंतर्जगत् के प्रति केंद्रित
किया। क्या कोई अंतर्जगत् है भी? वह है तो क्या है? यह है आत्मा। यह
स्वयंस्वरूप है तथा केवल यही एक ऐसा तत्त्व है, जिसके विषय में कोई व्यक्ति
निश्चित हो सकता है। यदि वह स्वयं अपने को जान ले, तो वह समूचे ब्रह्मांड को
जान सकता है, अन्यथा नहीं। यही प्रश्न दूसरे रूप में काल के प्रारंभ में ही,
ऋग्वेद में पूछा गया था- 'कौन अथवा क्या आदि काल ही से वर्तमान था?' इस
प्रश्न का उत्तर क्रम से वेदांत दर्शन ने दिया कि आत्मा ही आदि काल में
स्थित थी, अर्थात् जिसे हम ब्रह्म, विश्वात्मा तथा स्वयंस्वरूप कहते हैं,
वह शक्ति है जिसके द्वारा प्रारंभ से ही सभी तत्त्व व्यक्त हुए थे, हो रहे
हैं और होंगे।
वेदांत के दार्शनिकों ने उपर्युक्त प्रश्न का हल करते हुए नीतिशास्त्र के
मूल आधार का भी आविष्कार किया। यद्यपि सभी धर्म 'हत्या मत करो; हिंसा मत
करो; अपने पड़ोसियों को अपने ही जैसा प्यार करो' इत्यादि नैतिकतामूलक आचार
की शिक्षा देते हैं, परंतु किसी भी धर्म ने इन शिक्षाओं के मौलिक सिद्धांत पर
प्रकाश नहीं डाला है। 'मैं अपने पड़ोसी को क्यों न हानि पहुँचाऊँ?' इस
प्रश्न का संतोषजनक अथवा निश्चयात्मक उत्तर अब तक नहीं प्राप्त हो सका, जब
तक हिंदुओं ने, जो केवल धार्मिक अंध नियमों से ही संतुष्ट नहीं हो सकते थे,
इसका हल आध्यात्मिक विचारधारा से नहीं किया। अतएव, हिंदुओं का कहना है कि यह
आत्मा संपूर्ण तथा सर्वव्यापी है; अत: अनंत है। दो अनंत तत्त्वों का
अस्तित्व नहीं हो सकता, क्योंकि वे एक दूसरे को सीमित कर देंगे और स्वयं भी
परिमित हो जाएँगे। एक बात और; प्रत्येक जीवात्मा उस विश्वात्मा का, जो कि
अनंत है, एक अंश है। अत: अपने पड़ोसी को हानि पहुँचाकर मनुष्य वस्तुत:
स्वयं अपने आपको हानि पहुँचाता है। यह सभी नीति-संहिताओं का आधारभूत दार्शनिक
सत्य है।
बहुधा यह विश्वास कर लिया जाता है कि एक व्यक्ति पूर्णता प्राप्त करने की
यात्रा में भ्रांति से सत्य की ओर जाता है तथा जब एक विचार से दूसरे विचार पर
पहुँचता है, तो वह पहले वाले विचार को निश्चयात्मक रूप से अस्वीकृत कर देता
है। परंतु कोई भी भ्रांति सत्य की ओर नहीं ले जा सकती। विभिन्न दशाओं के
अतिक्रमण में जीवात्मा एक सत्य से दूसरे सत्य की ओर जाता है, क्योंकि वह
निम्न कोटि के सत्य से उच्चतर कोटि के सत्य की ओर जाती है। यह बात
निम्नांकित उदाहरण से स्पष्ट की जा सकती है। मान लो कि एक मनुष्य सूर्य की
ओर जा रहा है और हर एक पग पर उसका फ़ोटो लेता जाता है। परंतु जब वह सचमुच ही
सूर्यतक पहुँच जाता है, तब उसका लिया हुआ पहला फोटो दूसरे से, और दूसरा तीसरे
से या अंतिम फोटो से कितना भिन्न होगा ! परंतु ये सभी एक दूसरे से अत्यधिक
भिन्न होते हुए भी सत्य हैं। केवल समय तथा स्थान की परिवर्तित दशाओं से वे
विभिन्न दीख पड़ते हैं। इस सत्य की मान्यता ही के कारण एक हिंदू सभी धर्मों
में, निकृष्ट दीख पड़ते हैं। इस सत्य की मान्यता ही के कारण एक हिंदू सभी
धर्मों में, निकृष्ट से उत्कृष्ट में भी उस सार्वभौम सत्य को देखने में
समर्थ होता है। इस दृष्टिकोण के कारण हिंदुओं ने कभी धार्मिक उत्पीड़न का
आश्रय नहीं लिया। (यहाँ तक कि) आज एक मुसलमान संत की दरगाह, जो मुसलमानों
द्वारा निरादृत और विस्मृत कर दी गई है, वह हिंदुओं द्वारा पूजी जाती है ! इस
प्रकार की सहिष्णु प्रवृत्ति के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं।
प्राच्य बुद्धि तब तक संतुष्ट नहीं हो सकती, जब तक संपूर्ण मानवता द्वारा
ईप्सित लक्ष्य- एकत्व को प्राप्त न कर ले। पाश्चात्य वैज्ञानिक एकत्व को
अणु या परमाणु में खोजता है और जब वह इसे पा लेता है, तब उसको आगे और कुछ
खोजने को नहीं रह जाता। इस प्रकार जब हम आत्मा या स्वयं की एकता प्राप्त कर
लेते हैं, जिसे आत्मा कहते हैं, तब हम आगे नहीं जा सकते। अत: यह स्पष्ट है
कि इस बाह्य जगत् में जो कुछ है, वह उसी एक तत्त्व का व्यक्त स्वरूप है।
फिर भी, वैज्ञानिक को भी अध्यात्म को मान्यता देने की आवश्यकता तब आ पड़ती
है, जब वह कल्पना करता है कि एक परमाणु, जिसकी लंबाई और चौड़ाई नहीं होती, वह
भी संयुक्त होकर, विस्तार, लंबाई तथा चौड़ाई का कारण बन जाता है। जब एक अणु
दूसरे अणु पर क्रियाशील होता है, तो इसका कारण कोई माध्यम होगा ही। वह
माध्यम क्या है? यह (शायद) एक तीसरा परमाणु होगा। यदि ऐसा है, तो भी इस
प्रश्न का हल नहीं हो सकता है, क्योंकि ये दो परमाणु तीसरे पर कसे क्रियाशील
होंगे? यह स्पष्ट ही एक असंगत तथा तर्क-विरुद्ध विचार है। इस प्रकार के
विरोधाभासी पद सभी भौतिक विज्ञानों की आवश्यक परिकल्पनाओं में पाए जाते हैं,
जैसे कि बिंदु वह है, जिसका कोई अंश या विस्तार न हो; या रेखा वह है, जिसमें
चौड़ाईरहित लंबाई हो। परंतु ऐसी कल्पनाएँ न देखी जा सकती हैं और न विचारगम्य
ही हैं। क्यों? इसलिए कि ये इंद्रियों द्वारा बोधगम्य नहीं हैं और ये
दार्शनिक कल्पनाएँ हैं। अत: हम देखते हैं कि बुद्धि ही अंतत: सभी
प्रत्यक्षों को स्वरूप प्रदान करती है। जब मैं एक कुर्सी को देखता हूँ, तब
वह कुर्सी मेरी आँखों के बाहर की असली कुर्सी नहीं होती, जिसका हमें बोध होता
है; परंतु वह (कुर्सी) किसी बाह्य वस्तु तथा तज्जन्य मानसिक प्रतिभा का
संयोग ही होती है। इस प्रकार एक भौतिकवादी भी अंततोगत्वा अध्यात्म की ओर
प्रेरित हो जाता है।
वेदांत का सार तत्त्व तथा प्रभाव
(बोस्टन के ट्वेन्टिएथ सेन्चुरी क्लब में दिया गया भाषण)
इस सांध्यकालीन विषय पर कुछ बोलने के पहले, जब कि मुझे यह अवसर मिला है,
क्या तुम धन्यवाद के कुछ शब्द कहने की अनुमति प्रदान करोगे? मैं तीन वर्षों
तक तुम लोगों के साथ रहा। मैं प्राय: पूरे अमेरिका का भ्रमण कर चुका हूँ, और
चूँकि अब मैं अपने स्वदेश लौट रहा हूँ, यह ठीक होगा कि मैं अमेरिका के इस
एथेन्स में, अपनी कृतज्ञता प्