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पत्र संग्रह

अभिनंदन पत्रों का उत्तर

स्वामी विवेकानंद


खेतड़ी के महाराज के अभिनंदन का उत्तर

धर्मभूमि भारत

स्‍वामी जी के अमेरिका प्रवास काल में उन्‍हें खेतड़ी (राजपूताना) के महाराज का (४ मार्च, १८९५ का) निम्‍नलिखित अभिनंदन प्राप्त हुआ :

प्रिय स्‍वामी जी,

आज इसी विशेष उद्देश्‍य के निमित्त आयोजित इस दरबार के अध्‍यक्ष की हैसियत से, अमेरिका के शिकागो नगर में समायोजित धर्म-महासभा में आपके द्वारा किए गए हिंदू धर्म के योग्‍यतापूर्ण प्रतिनिधित्‍व के उपलक्ष्‍य में अपनी प्रजा एवं अपनी ओर से, आपको इस राज्‍य का हार्दिक धन्‍यवाद प्रेषित करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है।

मैं नहीं समझता हूँ कि भाषा की स्‍वाभाविक त्रुटियों द्वारा प्रस्‍तुत बाधाओं के बावजूद हिंदू धर्म के मूल सिद्धातों को अंग्रेजी भाषा के माध्‍यम से आपसे भी अधिक स्‍पष्‍टता एवं यथार्थता के साथ व्‍यक्‍त किया जा सकता था।

विदेश में आपकी वाणी एवं व्‍यवहार के फलस्‍वरूप विभिन्‍न देशों एवं धर्मों के लोगों में केवल आपके प्रति श्रद्धा का ही विस्‍तार नहीं हुआ, बल्कि उनसे घनिष्‍ठता प्राप्‍त करने में तथा आपके नि:स्‍वार्थ उद्देश्‍य की प्रगति को भी सहायता मिली है। इस सबकी हमने अतीव एवं वर्णनातीत सराहना की है। आपने विदेशों में जाकर अमेरिकी धर्म-महासभा में हमारे प्राचीन धर्म के उन सत्‍यों को, जो सदा से हमारे प्रिय रहे हैं, प्रतिपादित करने में जो कष्‍ट उठाया है, उसके लिए यदि में अपनी सच्‍ची कृतज्ञता अभिव्‍यक्‍त करते हुए आपको कुछ पंक्तियाँ औपचारिक रूप से न लिख पाता, तो इससे हमें अपनी कर्तव्‍य-च्‍युति का भान होता। निस्‍संदेह यह भारत के गौरव के अनुकूल है कि आप जैसे योग्‍य प्रतिनिधि पाने का इसे सौभाग्‍य प्राप्‍त हुआ है।

वे भद्र महोदय भी धन्‍यवाद के पात्र हैं, जिन्‍होंने धर्म-महासभा आयोजित की एवं आपका उत्‍साह के साथ स्वागत किया। उस महाद्वीप के लिए आप नितांत परदेशी थे, आपके अनेक गुणों के प्रति उनके अनुराग से ही आपके साथ उनका सौहार्दपूर्ण व्‍यवहार संभव हुआ, और यह उनकी सहृदयता का ज्‍वलंत प्रमाण है।

मैं इसके साथ इस अभिनंदन की बीस मुद्रित प्रतियाँ भेज रहा हूँ और निवेदन है कि इसे आप अपने पास रखकर शेष को अपने मित्रों में वितरित कर दें।

सश्रद्ध

आपका सच्‍चा शुभाकांक्षी,

राजा अजितसिंह बहादुर,

खेतड़ी

स्‍वामी जी ने निम्‍नलिखित उत्तर भेजा:

'जब जब धर्म की अवनति होती है और अधर्म बढ़ता है, तब तब मैं पुन: धर्म की संस्‍थापना के लिए अवतीर्ण होता हूँ।' [1]

हे राजन्, ये शब्‍द पवित्र गीता में उन्‍हीं सनातन भगवान् के वाक्‍य हैं। यह वाक्‍य संसार में आध्‍यात्मिक शक्ति-प्रवाह के सनातन उत्‍थान और पतन के नियमों का मूल मंत्रस्‍वरूप है।

ये परिवर्तन बारंबार संसार में नए नए लयों में प्रकाशित हो रहे हैं और यद्यपि अन्‍याय महान् परिवर्तनों की तरह उनके कार्यक्षेत्र में प्रत्‍येक क्षुद्र वस्‍तु के ऊपर उनका प्रभाव पड़ता है, फिर भी अनुकूल स्‍थान में ही उनकी कार्यशक्ति का प्रकाश अधिक पाया जाता है।

समष्टि रूप से जिस प्रकार आदिम अवस्‍था त्रिगुणों का साम्‍य-भाव है,- इस साम्‍यावस्‍था के भंग होने और उसे पुन: प्राप्‍त करने के निमित्त होनेवाले समस्‍त संघर्षों को ही हम प्रकृति की अभिव्‍यक्ति- यह विश्‍व- कहते हैं, और आदि साम्‍यावस्‍था प्राप्‍त होने तक यह जगत् एवं वस्‍तुओं की गतिविधि इसी प्रकार चलती रहेगी- उसी प्रकार मालूम होता है कि इस पृथ्‍वी पर जब तक मनुष्‍य जाति वर्तमान रूप में रहेगी तब तक विषमता और उसकी नित्‍य सहचरी- साम्‍य-लाभ की चेष्‍टा- दोनों ही साथ साथ चलती रहेंगी। इसके फलस्‍वरूप संसार में सर्वत्र भिन्‍न-भिन्‍न जातियों, उपजातियों से लेकर व्‍यक्तियों तक में विशेषत्‍व सृष्‍ट होता रहेगा।

निष्‍पक्ष वितरण और तुलन के इस जगत् में प्रत्‍येक जाति मानों किसी विशेष प्रकार के शक्ति-संग्रह एवं उसके वितरण के निमित्त एक अद्भुत डाइनेमो है, और उस जाति के पास अन्‍यान्‍य अनेक वस्‍तुओं के रहने पर भी वही विशेष शक्ति उस जाति के विशेष लक्षण के रूप में उद्भासित होती है। मनुष्‍य प्रकृति के किसी विशेष भाव के विशेष विकास तथा उद्दीपन होने पर उसका प्रभाव अल्‍पाधिक मात्रा में सभी पर होता है, परंतु जिस जाति का वह भाव विशेष लक्षण है एवं साधारणत: जिसे केंद्र बनाकर वह उत्‍पन्‍न हुआ है, उसी जाति के अंतस्‍तल को वह सबसे अधिक आलोड़ित कर देता है। इसी कारण धर्म-जगत् में किसी आंदोलन के उपस्थित होने पर, उसके फलस्‍वरूप, भारत में अवश्‍य ही अनेक प्रकार के महत्‍वपूर्ण परिवर्तन प्रकटित होंगे- क्योंकि भारत को ही केंद्र बनाकर बारंबार धर्म की तरंगें उत्थित हुई हैं; क्‍योंकि सर्वोपरि भारत धर्म का देश है।

प्रत्‍येक व्‍यक्ति केवल उसी वस्‍तु को सत्‍य समझता है, जो उसे उसके उद्देश्‍य की पूर्ति में सहायक होती है। सांसारिक भावापन्‍न व्‍यक्तियों के समक्ष वही वस्‍तु सत्‍य है, जिसके विनिमय में उन्‍हें अर्थ की प्राप्ति होती हो; और जिसके बदले में उन्‍हें धन-लाभ नहीं होता, वह उनके लिए असत्‍य है। जिस व्‍यक्ति की आकांक्षा दूसरों पर प्रभुत्‍व स्‍थापित करने की है, उसके लिए तो सत्‍य वही है, जिसके द्वारा उसकी यह आकांक्षा पूर्ण होती है, और शेष सब उसके लिए निरर्थक है। इसी प्रकार जो वस्‍तु किसी व्‍यक्ति की आकांक्षा-पूर्ति में सहायक नहीं होती, उस वस्‍तु में वह व्‍यक्ति किसी प्रकार का सत्‍य या अर्थ नहीं देख पाता।

जिन व्‍यक्तियों का एकमात्र लक्ष्य अपने जीवन की समस्‍त शक्तियों के विनिमय में कांचन, नाम-यश या अन्‍य किसी प्रकार के भोग-विलास का अर्जन करना है, जिनके समक्ष रणभूमिगामी सुसज्जित सेनादल ही शक्ति के विकास का एकमात्र प्रतीक है, जिनके निकट इंद्रिय-सुख ही जीवन का एकमात्र आनंद है- ऐसे लोगों के लिए भारत सर्वदा ही एक बड़े मरूस्‍थल के समान प्रतीत होगा, जहाँ की आँधी का एक झोंका ही उनकी कल्पित जीवन-विकास की धारणा के लिए मानो मृत्‍युस्‍वरूप है।

किंतु जिन व्‍यक्तियों की जीवन-तृष्‍णा इंद्रिय-जगत् से सुदूर स्थित अमृतसरिता के दिव्‍य सलिल-पान से संपूर्णत: बुझ चुकी है, जिनकी आत्‍मा ने- सर्प के केंचुल-त्‍याग की तरह- काम, कांचन और यश-स्‍पृहा के विविध बंधनों को दूर फेंक दिया है, जिनका मन शांति की अत्‍युच्‍च शिखा पर पहुँच गया है और जो वहाँ से इंद्रिय-भोगों में आबद्ध तथा नीच जनोचित कलह, विषाद और द्वेषहिंसा में रत व्‍यक्तियों को प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से देखते हैं, जिनके संचित पूर्व सत्‍कर्म के प्रभाव से आँखों के सामने से अज्ञान का आवरण लुप्‍त हो गया है, जिससे वे असार नाम-रूप को भेदकर प्रकृत सत्‍य का दर्शन करने में समर्थ हुए हैं, ऐसे व्‍यक्ति कहीं भी क्‍यों न रहें, आध्‍यात्मिकता की जननी एवं अनंत खानिस्‍वरूप भारत उनके समक्ष भिन्‍न रूप में, अधिक महिमान्वित और उज्‍जवल भासित होगा। इस मायावी जगत् में जो एकमात्र प्रकृत सत्ता है, उसके अनुसंधान में रत प्रत्‍येक व्‍यक्ति के लिए भारत आशा की एक प्रज्जवलित शिखा है।

अधिकांश मनुष्‍य शक्ति को उसी समय शक्ति समझते हैं, जब वह उनके अनुभव के योग्‍य होकर स्‍थूलाकार में उनके सामने प्रकट हो जाती है। उनकी दृष्टि में समरांगण में तलवारों की झनझनाहट आदि ही परम स्‍पष्‍टत: प्रत्‍यक्ष शक्ति के विकास मालूम होते हैं; और जो आँधी की भाँति सामने से चीजों को तोड़-मोड़कर उथल-पुथल पैदा न कर देती हो, वह उनकी दृष्टि में जीवन की अभिव्‍यक्ति नहीं है- वरन् मृत्‍युस्‍वरूप है। इसीलिए शताब्दियों से विदेशियों द्वारा शासित एवं निश्‍चेष्‍ट, एकताहीन एवं देशभक्तिहीन भारत उनके निकट ऐसा प्रतीत होगा, मानो वह गलित अस्थि-चर्मों से ढकी हुई भूमि मात्र हो।

ऐसा कहा जाता है- योग्‍यतम ही जीवन-संग्राम में जीवित बचता है। तब फिर प्रश्‍न उठता है कि साधारण धारणानुसार यह जो जाति अन्‍य जातियों की अपेक्षा नितांत अयोग्‍य है, दारूण जातीय दुर्भाग्‍यचक्र में फँस जाने पर भी उसके विनाश का कोई चिह्न दिखाई क्‍यों नहीं देता ? तथाकथित वीर्यशाली और कर्मपरायण जातियों की प्रजनन शक्ति जिस प्रकार एक ओर प्रतिदिन कम होती जा रही है, उसी प्रकार दूसरी और नैतिकता विहीन (?) हिंदुओं की वृद्धि सर्वापेक्षा अधिक हो रही है- यह किस प्रकार होता है ? जो लोग एक पल में समस्‍त विश्‍व को रक्‍तरंजित कर सकते हैं, उनके लिए संसार के अधिकांश लोगों को भूखा मार सकते हैं, वे भी गौरवान्वित हो सकते हैं, किंतु जो लोग अन्‍य लोगों का अन्‍न न छीनकर लाखों मनुष्‍यों को सुख और शांति प्रदान करते हैं, वे क्‍या किसी प्रकार का सम्‍मान प्राप्‍त करने योग्‍य नहीं हैं ? शताब्दियों से दूसरों के ऊपर किसी भी प्रकार का अत्‍याचार न करके लाखों के भाग्‍य का संचालन करने वालों के कार्य में क्‍या किसी प्रकार की शक्ति का विकास प्रकट नहीं होता ?

सभी प्राचीन जातियों के पौराणिक ग्रंथों में, उनके वीरों की गाथाओं में यह देखा जाता है उनका प्राण उनके शरीर के किसी विशेष छोटे से अंश में आबद्ध था; और जब तक उनका वह अंश अस्‍पर्शित रहा, तब तक वे अजेय रहे। इसी प्रकार प्रतीत होता है कि मानो प्रत्‍येक जाति में किसी विशेष स्‍थान में उसकी जीवनीशक्ति संचित रहती है; और जब तक वह स्‍थान अक्षुण्‍ण बना रहेगा, तब तक किसी प्रकार का दु:ख या विपत्ति उस जाति का विनाश नहीं कर सकती।

धर्म ही है भारत की यह जीवनीशक्ति; और जब तक हिंदू जाति अपने पूर्वजों से प्राप्‍त उत्तराधिकार को नहीं भूलेगी, तब तक संसार में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं, है जो उसका ध्‍वंस कर सके।

जो लोग सदैव अपने अतीत की ही ओर दृष्टि लगाए रखते हैं, आजकल सभी लोग उनकी निंदा किया करते हैं। वे कहते हैं कि इस प्रकार निरंतर अतीत की ओर देखते रहने के कारण ही हिंदू जाति को नाना प्रकार के दु:ख और आपत्तियाँ भोगनी पड़ी हैं। किंतु मेरी तो यह धारणा है कि इसका विपरीत ही सत्‍य है। जब तक हिंदू जाति अपने अतीत को भूल गई थी, तब तक वह संज्ञाहीन अवस्‍था में पड़ी रही, और अतीत की ओर दृष्टि जाते ही चहुँ ओर पुनर्जीवन के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। भविष्‍य को इसी अतीत के साँचे में ढालना होगा, अतीत ही भविष्‍य होगा।

अतएव हिंदू लोग अतीत का जितना ही अध्‍ययन करेंगे, उनका भविष्‍य अतना ही उज्‍ज्‍वल होगा; और जो कोई इस अतीत के बारे में प्रत्‍येक व्‍यक्ति को विज्ञ करने की चेष्‍टा कर रहा है, वह स्‍वजाति का परम हितकारी है। भारत की अवनति इसलिए नहीं हुई है कि हमारे पूर्व पुरुषों के नियम एवं आचार-व्‍यवहार खराब थे, वरन् उसकी अवनति का कारण यह था कि उन नियमों और आचारव्‍यवहारों को उनकी न्‍यायसंगत परिणति तक नहीं ले जाने दिया गया।

भारत का इतिहास पढ़ने वाला प्रत्‍येक विचारशील पाठक यह जानता है कि भारत के सामाजिक विधान प्रत्‍येक युग के साथ परिवर्तित हुए हैं । आरंभ में ये नियम एक ऐसी विराट् योजना के पुंजीभूत रूप थे, जिसे क्रमश: भविष्‍य में फलीभूत होना था। प्राचीन भारत के ऋषिगण इतने दूरदर्शी थे कि उनकी ज्ञानराशि के महत्‍व को समझने में विश्‍व को अब भी सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी; और उनके वंशधरों द्वारा इस महान् उद्देश्‍य की पूर्ण रूप से ग्रहण करने की यह अक्षमता ही भारत की अवनति का एकमात्र कारण है।

प्राचीन भारत सदियों तक ब्राह्मण और क्षत्रिय अपनी इन दो प्रधान जातियों की महत्‍वाकांक्षा की पूर्ति के लिए एक युद्ध क्षेत्र रहा था।

एक ओर पुरोहितवर्ग साधारण प्रजा पर क्षत्रियों के अन्‍यायपूर्ण सामाजिक अत्‍याचार के विरुद्ध थे,- उस प्रजा को क्षत्रियगण अपने धर्मसंगत खाद्य के रूप में देखा करते थे- और दूसरी ओर, भारत की एकमात्र शक्ति संपन्न क्षत्रिय जाति ने जनता को पुरोहितों के आध्‍यात्मिक अत्‍याचार से बचाने तथा निरंतर बढ़ते हुए उनके कर्मकांडों के परिवर्तनों से उसको छुड़ाने के लिए कमर कसी थी। इसमें क्षत्रियों को कुछ परिमाण में सफलता भी मिली थी ।

यह संघर्ष हमारी जाति के इतिहास के एकदम प्रारंभिक युगों में ही आरंभ हुआ था, और समस्‍त श्रुतियों में वह स्‍पष्‍ट रूप से प्रकट होता है। कुछ समय के लिए यह विरोध कम हो गया, जब क्षत्रियों तथा ज्ञानकाण्‍ड के नेता श्री कृष्‍ण ने समन्‍वय का मार्ग दिखला दिया। उसका परिणाम है गीता की शिक्षा, जो दर्शन, उदारता एवं धर्म का सारस्‍वरूप है। किंतु संघर्ष का कारण तब भी विद्यमान था, अत: उसका परिणाम अनिवार्य था।

निर्धन एवं अशिक्षित जनता पर प्रभुत्‍व स्‍थापित करने की महत्‍वाकांक्षा इन दोनों जातियों में वर्तमान थी, अत: संघर्ष पुन: भयानक हो उठा। हमें उस समय का जो कुछ थोड़ा सा साहित्‍य उपलब्‍ध है, वह प्राचीन काल के उसी प्रबल संघर्ष की क्षीण प्रतिध्‍वनि मात्र है। किंतु अंत में क्षत्रियों की विजय हुई, ज्ञान की जीत हुई, स्‍वाधीनता की जीत हुई;कर्मकांड को नीचा देखना पड़ा और उसका अधिकांश हमेशा के लिए विदा हो गया। यह वही क्रांति थी, जिसे हम बौद्ध सुधारवाद के नाम से अभिहित करते हैं। धर्म की दृष्टि से यह कर्मकांड के हाथों से मुक्ति का सूचक है, और राजनीति के दृष्टिकोण से यह क्षत्रियों के द्वारा पुरोहितों का पराभव सूचित करता है।

यह एक विशेष रूप से ध्‍यान देने योग्‍य बात है कि प्राचीन भारत ने जिन दो सर्वश्रेष्‍ठ पुरुषों को जन्‍म दिया था, वे दोनों ही क्षत्रिय हैं- वे थे कृष्‍ण और बुद्ध। और यह उससे भी अधिक ध्‍यान देने योग्‍य बात है कि इन दोनों ही देव-मानवों ने लिंग और जाति भेद को न मानकर सबके लिए ज्ञान का द्वार उन्‍मुक्‍त कर दिया था।

बौद्ध धर्म में अद्भुत नैतिक बल विद्यमान रहने पर भी वह अतीव ध्‍वंसात्‍मक था, और उसकी अधिकांश शक्ति नकारात्‍मक प्रयासों में ही व्‍यय हो जाने के कारण उसे अपनी जन्‍मभूमि में ही अपना विनाश देखना पड़ा, एवं उसका जो कुछ शेष-रहा, वह जिन कुसंस्‍कारों तथा कर्मकाण्‍डों के निवारण के लिए नियोजित किया गया था, उनसे शतश: अधिक भयानक कुसंस्‍कारों और कर्मकाण्‍डों में फँस गया। यद्यपि आंशिक रूप में वह वैदिक पशुबलि निवारण करने में सफल हुआ, पर उसने समस्‍त देश को मंदिर, प्रतिमा, यंत्र तथा साधुओं की अस्थियों से पूर्ण कर दिया।

विशेषत:, उसके द्वारा आर्य, मंगोल एवं आदिवासियों का जो एक विचित्र मिस्रण हुआ, उससे अज्ञात रूप से कितने ही बीभत्‍स वामाचार-संप्रदायों की सृष्टि हुई। मुख्‍यतया इसीलिए श्री शंकराचार्य और उनके मतानुयायी संन्‍यासियों को उन महान् आचार्य बुद्ध के इस विकृत रूप में परिणत उपदेशों को भारत के बाहर निकाल देना पड़ा।

इस प्रकार मनुष्‍य-देह धारण करनेवाली में सर्वश्रेष्‍ठ आत्‍मा स्‍वयं भगवान् बुद्ध द्वारा परिचालित संजीवनी-शक्तिप्रवाह भी दुर्गंधमय रोग-कीटाणुपूर्ण क्षुद्र गंदे जलाशय में बदल गया,और भारत को भी अनेक शताब्दियों तक प्रतीक्षा करनी पड़ी, जब तक कि भगवान् शंकर और उनके कुछ ही समय बाद रामानुज एवं माधवाचार्य आविर्भूत नहीं हुए।

इसी बीच में भारत के इतिहास का एक नितांत नया अध्‍याय आरंभ हो गया था। प्राचीन ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियाँ लुप्‍त हो गई थी। हिमालय तथा विन्‍ध्‍याचल की मध्‍यवर्ती वह आर्यभूमि, जिसने कृष्‍ण और बुद्ध को जन्‍म दिया था, जो महामना राजर्षियों तथा ब्रह्मर्षियों की क्रीड़ाभूमि रही थी, इस समय नीरव रही; और भारत प्रायद्वीप के सबसे आखिरी छोर से, भाषा तथा रूप में भिन्‍न जातियों की ओर से एवं प्राचीन ब्राह्मणों के वंशज कहकर गौरवानुभव करनेवाली पीढि़यों से विकृत बौद्धधर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया आरंभ हो गई।

आर्यावर्त के उन ब्राह्मणों और क्षत्रियों का क्‍या हुआ ? उनका नाम हमेशा के लिए मिट गया, इधर-उधर ब्राह्मणत्‍व एवं क्षत्रियत्‍व पर अभिमान करनेवाली केवल कुछ मिश्रित जातियाँ ही शेष रह गयीं, और इन जातियों के इस प्रकार अहंकार तथा आत्‍मप्रशंसापूर्ण वाक्‍यों के कहने पर भी कि 'इस देश (ब्रह्मावर्त या ब्रह्मर्षि देश) में पैदा हुए ब्राह्मणों से ही संसार के सभी मनुष्‍य चरित्र-निर्माण की शिक्षा प्राप्‍त करेंगे।' [2] , इन लोगों को दीन वेष में दाक्षिणात्‍यों के पदप्रांत में बैठकर विनयपूर्वक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी। इसका परिणाम हुआ भारत में वेदों का पुनरभ्युदय, - वेदांत का ऐसा प्रबल पुनरूत्‍थान जैसा भारत ने और कभी नहीं देखा था; यहाँ तक कि गृहस्‍थाश्रमी भी आरण्‍यकों के अध्‍ययन में संलग्‍न हो गए।

बौद्ध आंदोलन में क्षत्रियगण ही वास्‍तव में नेता रहे थे तथा बड़ी संख्‍या में उन्‍होंने बौद्ध धर्म स्‍वीकार किया था। सुधार तथा धर्म-परिवर्तन के उत्‍साह में संस्‍कृत भाषा तो उपेक्षित हो गई, और लोक-भाषाओं का एकांत विकास होने लगा। अधिकांश क्षत्रिय वैदिक साहित्‍य एवं संस्‍कृत शिक्षा के क्षेत्र से अलग हो गए। अतएव दाक्षिणात्‍यों से यह जो सुधार-तरंग उत्थित हुई, उससे कुछ सीमा तक केवल पुरोहितों का ही उपकार हुआ, पर भारत को शेष कोटि-कोटि जनता के पैरों में उसने पहले से भी अधिक श्रृखंलाएँ डाल दीं।

क्षत्रियगण सदा से ही भारत का मेरूदंड रहे हैं, अतएव वे ही विज्ञान और स्‍वतंत्रता के सनातन रक्षक हैं। देश से अंधविश्‍वासों को हटा देने के लिए चिरकाल से ही उनकी वाणी प्रतिध्‍वनित हुई है, और भारत के इतिहास के आदि से अंत तक पुरोहितों के अत्‍याचार से साधारण जनता की रक्षा करने के लिए वे स्‍वयं एक अभेद्य दीवार की भाँति खड़े रहे हैं।

जब उनमें से अधिकांश घोर अज्ञानता में निमग्‍न हो गए, और शेष थोड़ों ने मध्‍य एशिया की जंगली जातियों के साथ रोटी-बेटी का संबंध स्‍थापित कर भारत में पुरोहितों की शक्ति दृढ़ करने के लिए तलवार हाथ में ली, तब भारत के पाप का प्‍याला लबालब भर गया और भारत-भूमि एकदम नीचे डूब गई, - और इससे इसका उद्धार उस समय तक नहीं होगा, जब तक कि क्षत्रियगण स्‍वयं न जागेंगे तथा अपने को मुक्‍त कर शेष जाति के पैरों से जंजीरों को न खोल देंगे। पुरोहित-प्रपंच ही भारत की अधोगति का मूल कारण है। मनुष्‍य अपने भाई को पतित बनाकर क्‍या स्‍वयं पतित होने से बच सकता है ?

राजन्, स्‍मरण रखिए, आपके पूर्वजों द्वारा आविष्‍कृत सत्‍यों में सर्वश्रेष्‍ठ सत्‍य है- इस ब्रह्मांड का एकत्‍व। क्‍या कोई व्‍यक्ति स्‍वयं का किसी प्रकार अनिष्‍ट किए बिना दूसरों को हानि पहुँचा सकता है ? ब्राह्मण और क्षत्रियों के ये ही अत्‍याचार चक्रवृद्धि ब्‍याज के सहित अब स्‍वयं उन्‍हीं के सिर पर पतित हुए हैं,एवं यह हजारों वर्ष की पराधीनता और अवनति निश्‍चय ही उन्‍हींके कर्मों के अनिवार्य फल का भोग है।

आपके एक पूर्वज ने, जिन्‍हें लोग ईश्‍वर का अवतार समझते हैं, कहा था, जिनका मन साम्‍य-भाव में अवस्थित है, उन्‍होंने जीवित दशा में ही संसार पर जय-लाभ कर लिया है।' [3] हम सभी का यही विश्‍वास है। तब क्‍या उनका यह वाक्‍य अर्थहीन प्रलाप के समान है ? यदि नहीं है - और हम जानते हैं कि ऐसा नहीं है- तब तो समस्‍त सृष्‍ट जगत् के जन्‍म-लिंगविरहित, यहाँ तक कि गुणनिविशेष इस संपूर्ण साम्‍य के विरुद्ध कोई भी चेष्‍टा भयंकर भ्रमपूर्ण है; और जब तक मानव इस साम्‍य-ज्ञान को प्राप्‍त नहीं करता, तब तक वह कभी मुक्‍त नहीं हो सकता।

अतएव, हे राजन् आप वेदांत के उपदेशों का पालन कीजिए- किसी अमुक-तमुक भाष्‍यकार अथवा टीकाकार के अनुसार नहीं,वरन् उसी प्रकार, जिस प्रकार आपके अंतर्यामी प्रभु आपको समझाते हैं। सर्वोपरि, सर्वभूतों में, समस्‍त वस्‍तुओं में इस समज्ञान-रूप महान् उपदेश का पालन कीजिए- सर्वभूतों में उसी एक भगवान् को अवस्थित देखिए।

यही मुक्ति का पथ है; वैषम्‍य ही बंधन का मार्ग है। कोई व्‍यक्ति या कोई जाति बाह्य एकत्‍व-ज्ञान के बिना बाह्य स्‍वाधीनता प्राप्‍त नहीं कर सकती, और मानसिक शक्तियों के एकत्‍व-ज्ञान के बिना मानसिक स्‍वाधीनता का लाभ भी उसे नहीं हो सकता।

अज्ञान, भेदबुद्धि एवं वासना ये तीनों ही मानव जाति के दु:ख के कारण हैं, और उनमें एक के साथ दूसरे का अविच्छिन्‍न संबंध है। अपने आपको अन्‍य मनुष्‍यों की अपेक्षा, यहाँ तक कि पशु से भी श्रेष्‍ठ समझने का किसी को क्‍या अधिकार है ? वास्‍तव में तो सर्वत्र एक ही वस्‍तु विराजमान है। त्‍वं स्‍त्रीं, त्‍वं पुमानसि, त्‍वं कुमार उत वा कुमारी- 'तुम स्‍त्री हो, तुम पुरुष हो, तुम कुमार हो एवं तुम्‍हीं कुमारी हो।'

बहुत से लोग कहेंगे, 'इस प्रकार सोचना तो संन्‍यासी को ही शोभा देता है, उनके लिए ही यह ठीक है, किंतु हम सब तो गृहस्‍थ हैं।' अवश्‍य ही, गृहस्‍थ को दूसरे अनेक कर्तव्‍यों का पालन करना पड़ता है, अत: वह इस साम्‍य-भाव़ में इतना स्थित नहीं रह सकता; परंतु उन लोगों का आदर्श यही होना उचित है, क्‍योंकि इस समत्‍व-भाव को प्राप्‍त करना ही सभी समाजों का, समस्‍त प्रकृति का आदर्श है। पर अफसोस ! लोग समझते हैं कि वैषम्‍य ही समता की प्राप्ति का मार्ग है, मानो अन्‍यास करते करते वे न्‍याय के रास्‍ते पर आ पहुंचेगे !

यह वैषम्‍य ही मनुष्‍य-प्रकृति की घोर दुर्बलता है, मनुष्‍य जाति के ऊपर अभिशाप स्‍वरूप है तथा समस्‍त दु:ख कष्‍टों का मूल स्‍वरूप है। यही भौतिक, मानसिक तथा आध्‍यात्मिक सर्वविध बंधनों का मूल है।

समं पश्‍यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्‍वरम्।

न हिनस्‍त्‍यात्‍मनात्‍मानं ततो याति परां गतिम्।।

-'ईश्‍वर को सर्वत्र समान रूप से अवस्थित देखकर वे आत्‍मा के द्वारा आत्‍मा की हिंसा नहीं करते, अतएव परम गति प्राप्‍त करते हैं।' केवल इसी एक कथन में, थोड़े से शब्‍दों में मुक्ति का सार्वभामक उपाय निहित है।

आप राजपूत लोग ही प्राचीन भारत के गौरवस्‍वरूप रहे हैं। आप लोगों की अवनति के साथ ही जातीय अवनति आरंभ हो गई; और भारत का उत्‍थान केवल तभी हो सकता है, जब क्षत्रियों के वंशज ब्राह्मणों के वंशजों के साथ समवेत प्रयत्‍न में कटिबद्ध होंगे- लूटे हुए वैभव और शक्ति का बटवारा करने के लिए नहीं, वरन् अज्ञानियों को ज्ञान प्रदान करने के लिए एवं पूर्वजों की पवित्र निवासभूमि की खोयी हुई महिमा के पुन:स्‍थापन के लिए।

कौन कह सकता है कि यह शुभ मुहूर्त नहीं है ? फिर से कालचक्र घूमकर आ रहा है, एक बार फिर भारत से वही शक्ति-प्रवाह नि:सृत हो रहा है, जो शीघ्र ही समस्‍त जगत् को प्‍लावित कर देगा। एक वाणी मुखरित हुई है, जिसकी प्रतिध्‍वनि चारों ओर व्‍याप्‍त हो रही है एवं जो प्रतिदिन अधिकाधिक शक्ति संग्रह कर रही है, और यह वाणी अपने पहले की सभी वाणियों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली है, क्‍योंकि यह अपनी पूर्ववर्ती उन सभी वाणियों का समष्टिस्‍वरूप है। जो वाणी एक समय कलकलनिनादिनी सरस्‍वती के तीर पर ऋषियों के अंतस्‍तल में प्रस्‍फुटित हुई थी, जिस वाणी ने रजतशुभ्र हिमाच्‍छादित गिरिराज हिमालय के शिखर शिखर पर प्रतिध्‍वनित हो कृष्‍ण, बुद्ध और चैतन्‍य में से होते हुए समतल प्रदेशों में अवरोहण कर समस्‍त देश को प्‍लावित कर दिया था, वही एक बार पुन: मु‍खरित हुई है। एक बार फिर से द्वार खुल गए हैं। आइए, हम सब आलोक-राज्‍य में प्रवेश करें- द्वार एक बार पुन: उन्‍मुक्‍त हो गए हैं।

हे मेरे प्रिय राजन्, आप उसी जाति के वंशधर हैं, जो सनातन धर्म का जीवंत आधार-स्‍तंभस्‍वरूप है एवं जो उस सनातन धर्म का कर्तव्‍यबद्ध रक्षक और सहायक है; आप ही क्‍या इससे दूर रहेंगे ? मैं जानता हूँ, यह कभी नहीं हो सकता। यह मेरी दृढ़ धारणा है कि आपका ही हाथ सर्वप्रथम फिर से धर्म की सहायता के लिए आगे बढ़ेगा। और जब भी, हे राजा अजितसिंह, मैं आपके बारे में सोचता हूँ, तब यह देखकर मुझे बड़ी प्रसन्‍नता होती है कि आप में आपकी वंशगत सर्वपरिचित वैज्ञानिक शिक्षा के साथ ही सब मानवों के प्रति असीम प्रेम युक्‍त ऐसे पवित्रचरित्र का सम्मिलन हुआ है, जिससे एक साधु भी गौरवान्वित हो सकता है; और जब ऐसे व्‍यक्ति ही सनातन धर्म के पुनर्गठन के इच्‍छुक हैं, तब मैं उसके महा गौरवशाली पुनरुद्धार में विश्‍वास रखे बिना नहीं रह सकता।

सर्वदा ही आप तथा आपके स्‍वजनों पर श्री रामकृष्‍ण के आशीर्वाद की वर्षा हो, और दूसरों के उपकारार्थ एवं सत्‍य-प्रचार के लिए आप दीर्घ काल तक जीवित रहें, यही सदैव प्रार्थना है-

मद्रास के अभिनंदन का उत्तर [4]

मद्रास निवासी मित्रों , देशबंधुओं और सहधर्मियों !

मुझे यह जानकर परम संतोष है कि अपने धर्म के प्रति मेरी नगण्‍य सेवा तुम्‍हें मान्‍य हुई है। मुझे यह संतोष इसलिए नहीं कि तुमने मेरी व्‍यक्तिगत या दूर विदेश में मेरे किए हुए कार्य की प्रशंसा की है; वरन् संतोष मुझे इस कारण है कि हिंदू धर्म के पुनरुत्‍थान में तुम्‍हारा यह आनंद यही स्‍पष्‍टत: सूचित करता है कि यद्यपि विदेशियों के आक्रमण की आँधी पर आँधी हतभाग्‍य भारत के भक्ति-विनम्र मस्‍तक पर आघात करती चली गई है, यद्यपि कई शताब्दियों के हमारे उपेक्षा-भाव और हमारे विजेताओं के तिरस्‍कार-भाव ने हमारे पुरातन आर्यावर्त के वैभव के प्रकाश को धुँधला कर दिया है, यद्यपि उसके अनेक भव्‍य आधार-स्‍तंभ, बहुतेरे सुंदर मेहराब और बहुतेरे वैचित्‍यपूर्ण कोने कई सदियों तक देश को प्रलयमग्‍न करनेवाली बाढ़ों में बहकर नष्‍ट हो गए, तथापि उसका केंद्र सशक्‍त है, उसकी आधार-शिला सुदृढ़ है; वह आध्‍यात्मिक भित्ति-जिस पर हिंदू जाति की ईश्‍वर-भक्ति और भूत-दया का अपूर्व कीर्तिस्‍तंभ स्‍थापित हुआ है, वह किंचित् भी विचलित नहीं हुई,वरन् पूर्ववत् सुदृढ़ और सबल बनी है। जिस ईश्‍वर का संदेश, भारत तथा समस्‍त संसार को पहुँचाने का सम्‍मान मुझ जैसे उसके अत्‍यंत तुच्‍छ और अयोग्‍य सेवक को मिला है, उस ईश्‍वर के प्रति तुम्‍हारा आदर-भाव सचमुच अपूर्व है। यह तुम्‍हारी जन्‍मजात धार्मिक प्रकृति है, जिसके कारण तुम उस ईश्‍वर में और उसके संदेश में धर्म के उस ज्‍वार-तरंग की प्रथम मर्मर का अनुभव कर रहे हो, जो निकट भविष्‍य में सारे भारत पर अपनी संपूर्ण अबाध शक्ति के साथ अवश्‍यमेव फूट पड़ेगी और अपनी अनंत शक्ति संपन्‍न बाढ़ द्वारा, जो कुछ दुर्बल और सदोष है, उसकी दूर बहा ले जाएगी तथा हिंदू जाति को उठाकर विधि-नियोजित उस उच्‍च आसन पर बिठा देगी, जहाँ उसका पहुँचना निश्चित और अनिवार्य है; वहाँ वह भूतकाल की अपेक्षा और भी अधिक वैभवशाली बनेगा, शताब्दियों की नीरव कष्‍ट-सहिष्‍णुता का उपयुक्‍त पुरस्‍कार पाएगा और संसार की समस्‍त जातियों के मध्‍य में अपने उद्देश्‍य आध्‍यात्मिक प्रकृति संपन्‍न मानव जाति के विकास- को पूर्ण करेगा।

उत्तर भारतवासी तुम दाक्षिणात्‍यों के विशेष कृतज्ञ हैं, क्‍योंकि आज भारत में जो प्रेरणाएँ काम कर रही हैं, उनमें से अधिकांश का इसी दक्षिण प्रदेश से उद्गम होना पाया जाता है। श्रेष्‍ठ, भाष्‍यकार, युगप्रवर्तक आचार्य- शंकर, रामानुज और मध्‍य ने इसी दक्षिण भारत में जन्‍म लिया है। उन भगवान् शंकराचार्य के सामने संसार का प्रत्‍येक अद्वैतवादी ऋणी हो मस्‍तिष्क झुकाता है; उन महात्‍मा रामानुजाचार्य के स्‍वर्गीय स्‍पर्श ने पददलित पैरिया [5] लोगों को अलवार बना दिया; तथा उत्तर भारत के एकमात्र महापुरुष श्री कृष्‍ण चैतन्‍य, जिनका प्रभाव सारे भारत में है, उनके अनुयायियों ने भी उन महाविभूति माधवाचार्य का नेतृत्‍व स्‍वीकार किया। ये सभी दक्षिण में ही उत्‍पन्‍न हुए। इस वर्तमान युग में भी काशीपुरी के वैभव में अग्रस्‍थान दाक्षिणात्‍यों का ही है; तुम्‍हारे त्‍याग का ही अधिकार हिमालय के सुदूरवर्ती शिखरों पर के पवित्र मंदिरों पर है; और इसमें कोई आश्‍चर्य की बात नहीं कि तुम्‍हारी नसों में संत महापुरुषों का रक्‍त प्रवाहित होने के कारण, तथा ऐसे आचार्यों के आशीर्वाद से धन्‍य जीवन प्राप्‍त होने के कारण तुम लोग ही भगवान् श्री रामकृष्‍ण के संदेश के मर्म को समझने में और उसे आदरपूर्वक ग्रहण करने में सर्वप्रथम अग्रसर हो रहे हो।

दक्षिण ही वैदिक विद्या का भंडार रहा है, अतएव तुम लोग मेरा यह कहना समझ लोगे कि अज्ञ आक्रमणकारियों द्वारा पुन: पुन: प्रतिवाद होते रहने पर भी आज श्रुति [6] ही हिंदू धर्म के सभी विभिन्‍न संप्रदायों का मेरूदंड है।

वेद के संहिता और ब्राह्मण [7] भागों की महिमा मानव जाति के इतिहास की खोज लगानेवालों के लिए और भाषाशास्त्रियों के लिए चाहे जितनी अधिक हो, अग्निमीळे या इषेत्‍वोर्जेत्‍वा या शन्नो देवीरभीष्‍टये [8] वेदमंत्रों से विभिन्‍न वेदियों में यज्ञों और आहुतियों के संयोग से प्राप्‍य फल समूह चाहे जितना वांछनीय हो- पर यह सब तो भोग-मार्ग है, और किसी ने भी इसके द्वारा मोक्ष-प्राप्ति का दावा नहीं किया। इसी कारण ज्ञानकाण्‍ड, जो आरण्‍यक नामक श्रुति का श्रेष्‍ठ भाग है और जिसमें आध्‍यात्मिकता की, मोक्ष-मार्ग की शिक्षा दी गई है, उसी का प्रभुत्‍व भारत में आज तक सदा रहा है तथा भविष्‍य में भी रहेगा।

वर्तमान युग का हिंदू युवक, सनातन धर्म के अनेक पंथों की भूलभूलैयों में भटका हुआ, उस एकमात्र हिंदू धर्म को- जिसकी सार्वजनीन उपयोगिता तदुपदिष्‍ट अणोरणीयान् महतो महीयान् ईश्‍वर का यथार्थ प्रतिबिंब है उस धर्म के मर्म को, अपने भ्रमात्‍मक पूर्व धारणाओं और दुराग्रहों के कारण ग्रहण करने में असमर्थ होने से, जिन राष्‍ट्रों ने निरी भौतिकता के सिवाय कभी भी और कुछ नहीं जाना,उनसे आध्‍यात्मिक सत्‍य का पुराना पैमाना उधार लेकर अँधेरे में टटोलता हुआ, अपने पूर्वजों के धर्म को समझने का व्‍यर्थ का कष्‍ट उठाता हुआ अंत में उस खोज को बिल्‍कुल त्‍याग देता है और या तो वह निपट अज्ञेयवादी बन जाता है या अपनी धार्मिक प्रकृति की प्रेरणाओं के कारण पशुजीवन बिताने में समर्थ नहीं हो पाता और पाश्‍चात्‍य भौतिकता के पौर्वात्‍य गंधधारी कषायों का असावधानी के साथ पान करके श्रुति की भविष्‍य वाणी परियन्ति मूढा अंधेनैव नीयमाना यथान्‍धा: [9] को चरितार्थ करता है !

केवल वे ही बच पाते हैं जिनकी आध्‍यात्मिक प्रकृति सद्गुरू के संजीवनी स्‍पर्श से जाग्रत हो चुकी है। शिष्‍यों को सत् साहब [10] कहकर प्रणाम करो और साखी (भजन) के श्रवण का आनंद उठाओ; चाहे राजपूताना के सुधारक दादू के अद्भुत ज्ञान-भंडार को पढ़ो या उनके राजशिष्‍य सुंदरदास से लेकर उस 'विचारसागर' के प्रख्‍यात लेखक निश्‍चलदास के ग्रंथों को ही पढ़ो- जिस (विचारसागर) का प्रभाव भारत में गत तीन शताब्दियों में किसी भी भाषा में लिखे हुए ग्रंथ से अधिक है; यदि उत्तर भारत के किसी भंगी मेहतर से अपने लालगुरु के उपदेशों का वर्णन करने को कहो- तो इन सभी उपदेशकों और विभिन्‍न पंथों का मूल आधार वही मत दिखाई देगा जिसका प्रमाण 'श्रुति' है,'गीता' जिसकी दैवी टीका है,'शारीरिक सूत्र' [11] जिसका संगठित रूप है, और भारत के सभी विभिन्‍न मत-मतांतर- परमहंस परिव्राजकाचार्यों से लेकर लालगुरु के बेचारे तिरस्‍कृत मेहतर शिष्‍यों तक के मत- जिसके भिन्‍न-भिन्‍न रूप हैं।

तब तो यह प्रस्‍थानत्रय [12] ही, द्वैत, विशिष्‍टाद्वैत, अद्वैत और अन्‍य कुछ अप्रसिद्ध व्‍याख्‍याओं के साथ, हिंदू धर्म का 'प्रमाणग्रंथ' है। वेद के संहिताभाग प्राचीन नाराशंसी के आधुनिक स्‍वरूप पुराण हो उसका 'उपाख्‍यान' विभाग है और वैदिक ब्राह्मणभाग का आधुनिक स्‍वरूप तंत्र ही उसका 'कर्मकांड' है। इस प्रकार एकमात्र प्रस्‍थानत्रय ही सभी संप्रदायों का सर्वसाधारण प्रमाणग्रंथ है, परंतु प्रत्‍येक संप्रदाय ने पुराणों और तंत्रों में से अपने लिए एक एक को अलग अलग ग्रहण कर लिया हैं।

उपर्युक्‍त कथनानुसार तंत्र ही वैदिक कर्मकांड के किंचित् परिवर्तित आधुनिक रूप हैं और किसी पाठक के उनके संबंध में किसी अत्‍यंत असंगत सिद्धांत में पहुँचने के पूर्व मेरा अनुरोध है कि वह तंत्रों को 'ब्राह्मण'- विशेष कर अध्‍वर्युभाग- के साथ पढ़ ले। तंत्रों में उपयोग किए हुए अधिकांश मंत्र तो 'ब्राह्मण' से ही शब्‍दश: उद्धृत हुए दिखाई देंगे। और उनके प्रभाव के संबंध में यह कहना पर्याप्‍त है कि श्रोत और स्‍मार्त कर्मों को छोड़कर हिमालय से कन्‍याकुमारी तक प्रचलित शेष सब कर्मकांड तंत्रों से ही लिए गए हैं और उन्‍हींके अनुसार शाक्‍त, शैव, वैष्‍णव तथा अन्‍यान्‍य संप्रदायों में उपासना की जाती है।

हाँ, मैं ऐसा तो दावा नहीं कर सकता कि सभी हिंदू अपने धर्म के इस मूल के संबंध में पूर्णत: परिचित हैं। बहुतेरे लोगों ने तो, विशेषकर निम्‍न बंगदेश में इन संप्रदायों और इन महान् प्रणालियों के नाम तक नहीं सुने हैं, परंतु जानकर या अनजान में वे सब इसी प्रस्‍थानत्रय में निर्धारित योजना के अनुसार काम करते हैं।

दूसरी ओर देखो तो जहाँ कहीं हिंदी भाषा बोली जाती है, वहाँ अति नीच वर्गों में भी दक्षिण बंगाल के बहुतेरे उच्‍चतम वर्गों की अपेक्षा वेदांत धर्म की अधिक जानकारी है।

ऐसा क्‍यों है ?

बंगदेशीय न्‍याय जो मिथिलाभूमि से नवद्वीप में स्‍थानांतरित हुआ और शिरोमणि, गदाधर, जगदीश आदि मनीषीगण की प्रतिभा द्वारा पोषित एवं संवर्धित हुआ, जिसमें किसी किसी विषय में तो सारे संसार की अन्‍य सभी प्रणालियों से श्रेष्‍ठ, अपूर्व तथा उपयुक्‍त भाषा-शिल्‍प में वर्णित तर्कप्रणाली के विश्‍लेषण का समावेश है, वह सारे भारत में आदर की दृष्टि से अध्‍ययन किया जाता है; परंतु खेद है कि बंगवासियों ने वेद के अध्‍ययन की अत्‍यंत उपेक्षा की, यहाँ तक कि पिछले कुछ वर्षों के पहले बंगाल में पतंजलि के महाभाष्‍य [13] का शिक्षक प्राय: मिलता ही नहीं था। केवल एक ही बार वे एक महान् प्रतिभाशाली भगवान् श्री कृष्‍ण चैतन्‍य ही उस अनंत 'अवच्छित्र अवच्‍छेदक' [14] के जाल से ऊपर उठ सके। उसी समय एक बार बंगाल की आध्‍यात्मिक तंद्रा भंग हुई और कुछ समय तक वह भी भारत के अन्‍य प्रदेशों के धर्म-जीवन में सहभागी हुआ।

आश्‍चर्य की बात है कि यद्यपि श्री चैतन्‍य ने संन्‍यास दीक्षा एक भारतीय से ग्रहण की और उस कारण वे स्‍वयं भारतीय [15] थे, पर माधवेंद्र पुरी के शिष्‍य ईश्‍वर पुरी द्वारा ही उनकी आध्‍यात्मिक प्रतिभा की प्रथम जाग्रति हुई।

ऐसा प्रतीत होता है कि बंगदेश में धार्मिक जाग्रति करना मानो पुरी संप्रदाय का ही एक विधाता-निर्दिष्‍ट उद्देश्‍य था। भगवान् श्री रामकृष्‍ण को संन्‍यास-आश्रम तोता पुरी से प्राप्‍त हुआ।

श्री चैतन्‍य महाप्रभु ने व्‍याससूत्र पर जो भाष्‍य लिखा, वह या तो लुप्‍त हो गया या अभी तक नहीं मिल सका। उनके शिष्‍यगण दक्षिण के माध्‍व संप्रदाय के साथ सम्मिलित हो गए और क्रमश: रूप, सनातन और जीव गोस्‍वामी जैसे विख्‍यात महापुरुषों द्वारा अंगीकृत कार्यभार बाबा जी लोगों के कंधे आ पड़ा और श्री चैतन्‍य महाप्रभु का महान् आंदोलन तीव्र गति से ध्‍वंस की ओर जाने लगा। केवल थोड़े ही वर्षों से उसके पुनरूज्‍जीवन का चिन्‍ह दिखाई दे रहा है। आशा है कि वह अपना नष्‍ट वैभव पुन: प्राप्‍त करेगा।

श्री चैतन्‍य का प्रभाव सारे भारत में दिखाई देता है। जहाँ कहीं भक्तिमार्ग की जानकारी है, वहाँ उनकी पूजा-मान्‍यता तथा उनके संबंध में सादर चर्चा प्रचलित है। मैं कई कारणों से यही मानता हूँ कि वल्‍लभाचार्य का संपूर्ण संप्रदाय [16] श्री चैतन्‍य महाप्रभु के संप्रदाय की एक शाखा मात्र है। पर बंगाल में उनके शिष्‍य कहलाने वाले लोग यह नहीं जानते कि उनकी शक्ति सारे भारत में आज भी किस तरह काम कर रही है। और वे समझें भी कैसे ? उनके शिष्‍य तो गद्दीवाले बन गए, पर वे स्‍वयं भारत में नंगे पैर द्वार द्वार पर जाकर चांडाल तक को उपदेश देते, भगवान् के प्रति प्रेम संपन्‍न होने की भीख माँगते फिरे।

जो विचित्र अशास्‍त्रीय पैतृक कुलगुरुओं की प्रथा बंगाल प्रांत में- और अधिकतर केवल उसी प्रांत में प्रचलित है, वही उस प्रांत के भारत के अन्‍य भागों के आध्‍यात्मिक जीवन से अलग रहने का एक और कारण है । सबसे बड़ा कारण तो यह है कि बंगदेशीय जीवन पर ऐसे महान् संन्‍यासी वर्ग का प्रभाव नहीं पड़ा, जो वर्ग आज भी अत्‍युच्‍च भारतीय आध्‍यात्मिक संस्‍कृति के प्रतिनिधि और भांडारस्‍वरूप है।

बंगाल के उच्‍च वर्ग में त्‍याग की रुचि कदापि नहीं है। उनकी प्रवृत्ति भोग की ओर है। वे आध्‍यात्मिक विषयों में गंभीर अंतर्दृष्टि कैसे प्राप्‍त कर सकते हैं ? त्‍यागेनंके अमृतत्त्वमानशु:-- 'एकमात्र त्‍याग द्वारा ही अमृतत्त्व प्राप्‍त होता है।' इसका व्‍यक्तिक्रम कैसे हो सकता है।

दूसरी ओर देखो तो हिंदी भाषी संसार में बड़े प्रभावशली प्रतिभावान त्‍यागी उपदेशकों की परंपरा ने द्वार-द्वार तक वेदांत के सिद्धातों को पहुँचा दिया है। विशेषकर पंजाब केसरी रणजीतसिंह के शासन-काल में त्‍यागियों को जो प्रोत्‍साहन दिया गया था, उसके कारण नीचातिनीचों को भी वेदांत दर्शन के उच्‍चतम उपदेशों को ग्रहण करने का अवसर प्राप्‍त हो गया। सात्विक अभिमान के साथ पंजाबी कृषक पुत्री कहती है कि मेरा सूत कातने का चरखा भी सोअहम सोअहम पुकार रहा है और मैंने मेहतर त्‍यागियों को भी ऋषिकेश के अरण्‍यों में संन्‍यासी का वेष धारण किए वेदांत का अध्‍ययन करते देखा है । और वे ऐसे-वैसे नहीं हैं । अनेक अभिमानी उच्‍चवर्णीय पुरुष भी उनके चरणों के समीप बैठकर शिक्षा प्राप्‍त करने में प्रसन्‍न होंगे । और ऐसा क्‍यों न हो ? अंत्यादपि परं धर्मम्- नीचकुलोत्‍पन्‍न मनुष्‍य से भी परम धर्म- परमात्‍म-ज्ञान की शिक्षा ली जा सकती है।

इसी तरह उत्तर-पश्चिमी प्रांत [17] और पंजाब में धार्मिक शिक्षा बंगाल, बंबई या मद्रास की अपेक्षा अधिक है। भिन्‍न भिन्‍न संप्रदायों के सदा काल-प्रवास करनेवाले त्‍यागी- दशनामी, बैरागी और पंथी [18] लोग- प्रत्‍येक के द्वार पर धर्म का उपदेश दिया करते हैं और उसके लिए खर्च क्‍या पड़ता है ?- केवल एक टुकड़ा रोटी। और उनमें से अधिकांश कितने उदार और नि:स्‍वार्थ होते हैं। एक कचू-पंथी या स्‍वतंत्र-पंथी संन्‍यासी [19] (जो अपने को किसी पंथ में शामिल नहीं करना चाहते), ऐसे हैं, जिनके द्वारा राजपूताना में सैकड़ों पाठशालाएँ और दातव्‍य आश्रम स्‍थापित हुए हैं। उन्‍होंने जंगलों में अस्‍पताल खोले हैं और हिमालय के दुर्गम गिरि-नदियों को पार करने के लिए लोहे के पुल बनवाये हैं। और वे ऐसे पुरुष हैं कि सिक्‍के को अपने हाथों से कभी छूते तक नहीं और एक कंबल के सिवा कोई अन्‍य संसारी वस्‍तु अपने पास नहीं रखते। इसी कारण लोगों में उनका नाम 'कमलीवाले' बाबा या स्‍वामी पढ़ गया है। वे अपना भोजन द्वार द्वार पर जाकर माँग लिया करते हैं। मैंने उनको एक ही घर से अपना पूरा भोजन लेते नहीं देखा है। वे इसी विचार या डर से ऐसा करते हैं कि कहीं किसी एक ही गृहस्‍थ को उनकी भिक्षा भाररूप न हो जाए। और ऐसे वे ही एक नहीं हैं। उनके समान और कितने ही हैं। भारत में जब तक ऐसे भूदेव जीवित रहेंगे और अपने ऐसे दैवी आचरणरूप दुर्भेद्य परकोटे में 'सनातन धर्म' की रक्षा करते रहेंगे, तब तक वह पुराना धर्म क्‍या कभी मर सकता है ?

इस अमेरिका देश में वर्ष में केवल छ: मास प्रत्‍येक रविवार को केवल दो घंटे ही धर्मोपदेश देने के लिए पादरी लोग ३०,००० रु., ४०,००० रु., ५०,००० रु. और कभी कभी तो ९०,००० रु. तक वार्षिक वेतन पाते हैं। देखो, अमेरिकन लोग अपने धर्म की रक्षा के लिए किस तरह करोड़ों रूपये बहा देते हैं और बंगदेशीय नवयुवकों को यह शिक्षा दी गई है कि ये देवतुल्‍य परम नि-स्‍वार्थ कमलीवाले बाबा सरीखे संत आलसी और आवारा लोग हैं। मद्भक्‍तानात्र्च ये भक्‍तास्‍ते मे भक्‍ततमा मता: [20] - 'जो मेरे भक्‍तों के भक्‍त हैं, उन्‍हें मैं अपना सबसे श्रेष्‍ठ भक्‍त मानता हूँ।'

अच्‍छा, अब एक दूसरे सिरे का उदाहरण लो-मान लो, एक अत्‍यंत अज्ञानी बैरागी है। वह भी किसी गाँव में पहुँचेगा तो तुलसीकृत रामायण, चैतन्‍य-चरितामृत और यदि दाक्षिणात्‍य हुआ, तो दक्षिण के आलवार ग्रंथों में से जो कुछ भी वह जानता होगा, उसे ग्रामवासियों को सिखाने का भरसक प्रयत्‍न करेगा। क्‍या ऐसा करने से कोई उपकार नहीं होता ? और यह सब केवल रोटी के टुकड़े और लँगोटी के कपड़े के बदले में हो जाता है। इन लोगों की निर्दयतापूर्ण समालोचना करने से पूर्व, मेरे भाइयों ! यह तो सोचो कि तुमने अपने गरीब देशभाइयों के लिए क्‍या किया है, जिनके खर्च से तुमने अपनी शिक्षा पाई, जिनका देशभाइयों के लिए क्‍या किया है, जिनके खर्च से तुमने अपनी शिक्षा पाई, जिनका शोषण करके तुम अपने पदगौरव को कायम रखते हो और 'बाबा जी लोग केवल आवारा फिरने वाले लोग होते हैं', यह सिखाने के लिए अपने शिक्षकों को वेतन देते हो !

हमारे कुछ बंगदेशीय भाई लोग हिंदू धर्म के इस पुनरुत्‍थान की, हिंदू धर्म का 'नया विकास' कहकर उसकी आलोचना करते हैं। वे इसे 'नया' भले ही कहें, क्‍योंकि हिंदू धर्म केवल अभी ही बंगाल में प्रवेश कर रहा है। वहाँ अब तक तो धर्म की समग्र कल्‍पना केवल खान-पान और विवाह संबंधी देशाचार (स्‍थानीय रीति-रिवाज) के समुदाय तक ही परिमित थी।

श्री रामकृष्‍ण के शिष्‍यगण हिंदू धर्म का जिस रूप में सारे भारत में प्रचार कर रहे हैं, वह सत् शास्‍त्रों के अनुकूल है या नहीं, ऐसे बड़े विषय का विचार करने के लिए इस छोटे से पत्रक में पर्याप्‍त स्‍थान नहीं है। पर मैं यहाँ अपने समालोचकों के सामने कुछ संकेत अवश्‍य रखूँगा, जिनसे हमारी स्थिति को समझने में उन्‍हें कुछ सहायता मिल सके।

प्रथम तो मैंने ऐसी दलील कभी नहीं की कि 'काशीदास' या 'कृतिवास' [21] के ग्रंथों से हिंदू धर्म का यथार्थ रूप जाना जा सकता है, यद्यपि उनकी वाणी 'अमृत समान' है और उनको श्रवण करनेवाले 'पुण्‍यवान' हैं। हिंदू धर्म का यथार्थ ज्ञान प्राप्‍त करने के लिए हमें वेद और दर्शन शास्‍त्र पढ़ना चाहिए और भारत भर के महान् आचार्यों और उनके शिष्‍यों से उपदेश ग्रहण करना चाहिए।

भाइयों ! यदि तुम 'गीतमसूत्र' से प्रारंभ करो और 'आप्‍त' [22] के संबंध के उसके सिद्धांतों की वात्‍स्‍यायन भाष्‍य की दृष्टि से पढ़ो, और शबर आदि अन्‍य भाष्‍यकारों की सहायता से मीमांसकों के मत तक पहुँच जाएं, तो तुमको पता चलेगा कि वे अलौकिक प्रत्यक्ष [23] तथा 'आप्‍त' के विषय में क्‍या कहते हैं, क्‍या हर एक व्‍यक्ति आप्‍त हो सकता है अथवा नहीं, और ऐसे आप्‍तों के वाक्‍य होने के कारण ही वेदों का प्रामाण्‍य है। यदि तुमको यजुर्वेद की महीधरकृत प्रस्‍तावना पढ़ने का समय हो, तो उसमें तुमको इस बात का और अधिक स्पष्‍टीकरण मिलेगा कि वेद मनुष्‍य के आध्‍यात्मिक जीवन के नियम हैं। और इसी कारण उनका सिद्धांत है कि वेद अनादि तथा अनंत हैं।

सृष्टि के अनादित्‍व का सिद्धांत, केवल हिंदू धर्म का ही नहीं, वरन् बौद्ध तथा जैन धर्म का भी प्रधान आधार स्‍तंभ है।

अब भारत के सभी संप्रदाय स्‍थूल रूप से - ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी - इन दो श्रेणियों में वि‍भक्‍त किए जा सकते हैं। यदि तुम श्री शंकराचार्य कृत 'शारीरक भाष्‍य' की भूमिका को देखो, तो उसमें तुमको ज्ञान की निरपेक्षता के संबंध में पूर्ण विवेचन मिलेगा और सिद्धांत यह निकाला गया है कि ब्रह्म की अनुभूति और मोक्ष की प्राप्ति किसी अनुष्‍ठान, मत, वर्ण, जाति या संप्रदाय पर अवलंबित नहीं है। कोई भी साधन-चतुष्‍टय-संपन्‍न [24] साधक उसका अधिकारी बन सकता है। साधन-चतुष्‍टय संपूर्ण चित्तशुद्धि करने वाले कुछ अनुष्‍ठान मात्र हैं।

भक्तिमार्ग के विषय में तो बंगदेशीय समालोचक भी अच्‍छी तरह से जानते हैं कि भक्ति के कई आचार्यों ने यह घोषणा की है कि जाति, वंश, लिंग आदि- यहाँ तक कि मनुष्‍य योनि- की भी आवश्‍यकता मोक्ष के लिए नहीं है। केवल एक आवश्‍यक वस्‍तु है भक्ति।

ज्ञान और भक्ति दोनों को निरपेक्ष बतलाकर ही सर्वत्र उपदेश दिया गया है। इसी कारण एक भी ऐसे आचार्य नहीं हैं, जिन्‍होंने विशेष पंथ, विशेष जाति या विशेष वंश की आवश्‍यकता मोक्ष के लिए बतायी हो। इस संबंध में अंतरा वापि तु तद्दृष्‍ट: [25] इस व्‍यास-सूत्र का शंकर, रामानुज और मध्‍यकृत भाष्य पढ़ो।

समग्र उपनिषदों का अध्‍ययन करो और संहिताओं में भी देखो। कहीं भी मोक्ष के संबंध में अन्‍य धर्मों के समान मर्यादित या संकीर्ण विचार नहीं मिलेंगे। अन्‍य धर्मों के प्रति सहिष्‍णुता के विषय में सर्वत्र ही उल्‍लेख है, यहाँ तक कि अध्‍वर्यु वेद की संहिता के चालीसवें अध्‍याय के तृतीय या चतुर्थ श्‍लोक में (यदि मुझे ठीक स्‍मरण है तो) कहा है-

न बुद्धिभेदं जनएदज्ञानां कर्मसंगिनाम्। [26]

यही भाव हिंदू धर्म में सर्वत्र विद्यमान है।

क्‍या भारत में कोई भी मनुष्‍य - जब तक वह सामाजिक नियमों का पालन करता रहा - किसी भी विशिष्‍ट इष्‍ट देवता को मानने के कारण या नास्तिक या अज्ञेयवादी होने के कारण पीड़ित किया गया ? समाज किसी को सामाजिक नियम भंग करने के अपराध में शासित करे, पर प्रत्‍येक मनुष्‍य के लिए, अति नीच पतित के लिए भी हिंदू धर्म में मोक्षमार्ग कभी बंद नहीं किया गया। इन दोनों विषयों को एक में मत मिलाओ। उदाहरणार्थ - मलावार में जिस सड़क से उच्‍च वर्ण का मनुष्‍य चलता है, उससे चांडाल की चलने की मनाही है, पर यदि वह मुसलमान या ईसाई हो जाए, तो वह कहीं भी चल सकता है-ऐसा नियम हिंदू राजा के राज्‍य में सदियों से रहा है। यह अटपटा भले ही दिखे, पर अत्‍यंत प्रतिकूल अवस्‍था में भी अन्‍य धर्मों के प्रति सहिष्‍णुता का भाव तो इसमें स्‍पष्‍ट है।

एक भाव हिंदू धर्म में संसार के अनय धर्मों को अपेक्षा विशेष है। उसके प्रकट करने में ऋषियों ने संस्‍कृत भाषा के प्राय: समग्र शब्‍दसमूह की नि:शेष कर डाला है। वह भाव यह है कि मनुष्‍य को इसी जीवन में ईश्‍वर की प्राप्ति करनी होगी और अद्वैतग्रंथ अत्‍यंत प्रमाणयुक्‍त तर्क के साथ उसमें यह जोड़ देते हैं कि 'ईश्‍वर को जानना ही ईश्‍वर हो जाना है'- ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति। [27]

इसके आवश्‍यक फलस्‍वरूप यह उदार और अत्‍यंत प्रभावशाली मत प्रकट होता है-जो कि न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा घोषित हुआ है, जिसे न केवल विदुर, धर्मव्‍याघ [28] आदि ने ही कहा है, वरन् अभी कुछ समय पूर्व दादू-पंथी संप्रदाय के त्‍यागी संत निश्‍चलदास ने अपने 'विचारसागर' में स्‍पष्‍टतापूर्वक कहा है-

'जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेद है, और उससे अज्ञान का अंधकार दूर हट जाएगा, चाहे वह वाणी संस्‍कृत में हो या किसी लोकभाषा में हो।' [29]

इस प्रकार द्वैतवादियों के मत् के अनुसार ब्रह्म की उपलब्धि करना, ईश्‍वर का साक्षात्‍कार करना या अद्वैतवादियों के कहने के अनुसार ब्रह्म ही जाना- यही वेदों के समस्‍त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्‍य है, और उसके अन्‍य उपदेश हमारी, उस लक्ष्‍य की ओर प्रगति के लिए सोपानस्‍वरूप हैं। भाष्‍यकार शंकराचार्य की महिमा यही है कि उनकी प्रतिभा ने व्‍यास के भावों की ऐसी अपूर्व व्‍याख्‍या प्रकट की।

निरपेक्ष रूप से केवल ब्रह्म ही सत्‍य है। सापेक्ष सत्‍य की दृष्टि से भारत और अन्‍य देशों के सभी विभिन्‍न मत उसी ब्रह्म के भिन्‍न-भिन्‍न रूपों के आधार पर बने हुए होने के कारण सत्‍य हैं। केवल कुछ मत दूसरे अंध मतों से श्रेष्‍ठ हैं। मान लो, एक मनुष्‍य सीधा सूर्य की ओर चलता जा रहा है। अपनी यात्रा में प्रत्‍येक पद पर वह सूर्य के नवीन-नवीन दृश्‍य-आकार, रूप और प्रकाश-हर क्षण नया-नया देखता जाएगा, जब तक कि वह प्रत्‍यक्ष सूर्य तक न पहुँच जाए। पहले सूर्य जैसा उसे एक बड़े गेंद सा दिखाई देता था, वैसा तो वह कभी नहीं था; न वह सूर्य कभी वैसा ही था, जैसा कि उसे वह अपनी यात्रा में भिन्‍न- भिन्‍न रूपों में दिखा। फिर भी क्‍या यह सत्‍य नहीं है कि हमारे उस यात्री ने सदा सूर्य को ही देखा और उस सूर्य के सिवा किसी अन्‍य वस्‍तु को नहीं देखा ! उसी तरह ये सभी भिन्‍न-भिन्‍न मत सत्‍य हैं- कुछ सन्निकट हैं, तो कुछ यथार्थ सूर्य से अधिक दूर हैं-और वह सूर्य है हमारा एकमेवाद्वितीयम् ब्रह्म (एक अद्वितीय ब्रह्म)।

और जब वेद ही उस सत्‍य निर्विशेष ब्रह्म की शिक्षा देनेवाले एकमात्र शास्‍त्र हैं और ईश्‍वर संबंधी अन्‍य सब मत केवल उसी के छोटे मर्यादित दर्शन मात्र हैं; जब कि सर्वलोकहितैषिणी श्रुति भगवती धीरे से भक्‍त का हाथ पकड़ लेती है और एक श्रेणी से दूसरी में, और क्रमश: अन्‍य सभी श्रेणियों में से, जहाँ जहाँ से पार होना आवश्‍यक है वहाँ से ले जाकर, उस निर्विशेष ब्रह्म तक पहुँचा देती है; और जब अन्‍य सभी धर्म उन्‍हीं में रूद्धगति तथा स्थितिशील रूप में किसी एक या दूसरी श्रेणी मात्र का ही निर्देश करते हैं, तब तो संसार के सभी धर्म उस नामरहित, सीमा रहित, नित्‍य वैदिक धर्म के अंतर्गत हैं।

सैकड़ों जीवन तक लगातार प्रयत्‍न करो, युगों अपने मन के अंतस्‍तल में खोजो- तो भी तुमको एक भी ऐसा उदार धार्मिक विचार दिखाई नहीं देगा, जो कि आध्‍यात्मिकता की उस अनंत खान में पूर्व से ही अंतर्निहित न हो।

अब हिंदुओं की मूर्तिपूजा कही जाने वाली तथाकथित प्रथा को ले लो-प्रथम तो तुम जाकर उस पूजा के विभिन्‍न प्रकारों को सीखो और यह निश्‍चय करो कि वे उपासक यथार्थ में पूजा कहाँ कर रहे हैं- मंदिर में, प्रतिमा में या अपने देह-मंदिर में। पहले यह तो निश्‍चय रूप से जान लो कि वे क्‍या कर रहे हैं (निंदा करनेवालों में से ९० प्रतिशत से अधिक लोग इस बात को नहीं जाते) और तब वेदांत दर्शन की दृष्टि से वह बात अपने आप ही समझ में आ जाएगी।

फिर भी यह कर्म अनिवार्य नहीं हैं। वरन् 'मनु' को खोलकर देखो, जहाँ उसमें प्रत्‍येक वृद्ध मनुष्‍य के लिए चतुर्थ आश्रम ग्रहण करने की आज्ञा है, चाहे वह वैसा करे या न करे, उसे सभी कर्मों का त्‍याग तो करना ही चाहिए। सर्वत्र यही पुन: पुन: कहा गया है कि ये सभी कर्म ज्ञान में जाकर समाप्‍त होते हैं- ज्ञाने परिसमाप्‍यते। [30]

यथार्थ में तो अन्‍य देशों के अनेक भद्र लोगों की अपेक्षा किसी भी हिंदू किसान को धार्मिक शिक्षा अधिक प्राप्‍त है। अपने भाषणों में दर्शन और धर्मशास्‍त्र के यूरोपीय शब्‍दों के उपयोग करने के विषय में मुझे एक मित्र ने दोषी ठहराया। मैं संस्‍कृत शब्‍दों का सहर्ष उपयोग करता, मेरे लिए वैसा करना बहुत आसान होता, क्‍योंकि धर्म-भाव को प्रकट करने के लिए एकमात्र पूर्ण साधन संस्‍कृत भाषा ही है; पर वह मित्र यह भूल गया था कि मैं पाश्‍चात्‍य श्रोताओं के सामने भाषण दे रहा था। और यद्यपि एक भारतीय ईसाई पादरी ने यह कहा था कि हिंदू लोग अपने धर्मग्रंथों का अर्थ भूल गए हैं और पादरी लोगों ने ही उसका अर्थ खोल निकाला, पादरियों के उस वृहत् समुदाय में मुझे एक भी ऐसा नहीं मिला, जो संस्‍कृत का एक वाक्‍य भी समझ सकता- पर फिर भी उनमें से कई ऐसे थे, जिन्‍होंने वेदों तथा हिंदू धर्म के अन्‍य पवित्रग्रंथों को निंदात्‍मक समालोचना के विद्वतापूर्ण लेख पढ़कर सुनाए !

यह बात सच नहीं है कि मैं किसी धर्म का विरोधी हूँ । और मैं भारत के ईसाई पादरियों से शत्रुता रखता हूँ, यह भी उतना ही असत्‍य है परंतु अमेरिका में वे जिस तरीक़े से चंदा से धन एकत्र करते हैं, उसका मैं अवश्‍य ही प्रतिवाद करता हूँ। बच्‍चों की पाठ्य पुस्‍तकों में ऐसे चित्रों के छापने का क्‍या मतलब है, जिनमें हिंदू माता अपने बच्‍चे का गंगा नदी में मगर के मुँह में झोंक रही है ? चित्र में माता को काले रंग की है, परंतु बच्‍चे का रंग गौर रखा गया है,जिससे कि बच्‍चे के प्रति सहानुभूति अधिक बढ़े और धन अधिक प्राप्‍त हो। उन चित्रों का भी क्‍या अर्थ है, जिनमें एक मनुष्‍य अपनी पत्‍नी को अपने हाथों से एक स्‍तंभ से बाँधकर इसलिए जीवित जला रहा है कि वह मरकर भूत हो जाए और उसके (अपने पति के) शत्रुओं को सताये ! मनुष्‍यों के समूह को कुचलते हुए बड़े-बड़े रथों के चित्र छापने का क्‍या मतलब है ? उस दिन इस देश में (अमेरिका में) बच्‍चों के लिए एक पुस्‍तक प्रकाशित हुई। उसमें एक सज्‍जन अपनी कलकत्‍ता-यात्रा का वर्णन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि कलकत्‍ता की सड़कों पर कई धर्मोंन्मत मनुष्‍यों पर से उनको कुचलते हुए एक बड़ा रथ चलाया जा रहा था, ऐसा मैंने देखा। मेमफिस शहर में मैंने एक पादरी को यह प्रचार करते सुना कि भारत के प्रत्‍येक ग्राम में एक ऐसा तालाब रहता है, जो छोटे-छोटे बच्‍चों की हड्डियों से भरा रहता है।

हिंदुओं ने ईसा मसीह के उन शिष्‍यों को, जो प्रत्‍येक ईसाई बालक को यह सिखाते हैं कि हिंदू दृष्‍ट हैं, अभागे हैं और पृथ्‍वी में अत्‍यंत भयानक दानवस्‍वरूप हैं, क्‍या किया है ? यहाँ के बालकों को रविवार की पाठशालाओं की शिक्षा का एक अंश यही रहता है कि जो ईसाई नहीं हैं, उन लोगों से और विशेषकर हिंदुओं से घृणा करो, ताकि बचपन मे ही वे पादरी मिशन को अपने पैसे चंदे के रूप में देने लगें। यदि सत्‍य के लिए नहीं, तो कम से कम अपने ही बच्‍चों के सदाचार की रक्षा के निमित्त ईसाई पादरियों को चाहिए कि वे ऐसी बातें न होने दें। ऐसे बच्‍चे आगे बड़े होकर निर्दयी पुरुष और स्‍त्री बनते हैं, तो इसमें आश्‍चर्य ही क्‍या है ? जो प्रचारक अनंत नरकों की यातनाओं, वहाँ की प्रज्‍वलित अग्निज्‍वाला, प्रज्‍वलित गंधक आदि का जितना ही अधिक भयंकर वर्णन कर सके, उसे उतनी ही अधिक प्रतिष्‍ठा कट्टरपंथियों में मिलती है । हमारे एक मित्र की नौकरानी लड़की को पुनरुत्‍थान संप्रदाय [31] (revivalist) के उपदेश सुनने के परिणामस्‍वरूप पागलखाने में रखना पड़ा । उसके लिए 'नरकाग्नि और प्रज्‍वलित गंधक' की मात्रा अत्‍यधिक हो गई ! पुनश्‍च, हिंदू धर्म के विरुद्ध मद्रास में प्रकाशित पुस्‍तकों की ओर तो देखो। यदि इस प्रकार का एक वाक्‍य भी कोई हिंदू ईसाई धर्म के विरुद्ध लिख दे, तो पादरी लोग बदला लेने के लिए आकाश-पाताल एक कर डालेंगे।

मेरे देशबंधुओं ! मैं इस देश में एक वर्ष से अधिक रह चुका हूँ। मैंने इनके समाज का प्राय: कोना-कोना छान डाला है । और दोनों का मिलान करके मैं तुम लोगों को बता रहा हूँ कि जैसा पादरी लोग संसार को बताया करते हैं, उस प्रकार न तो हम लोग 'राक्षस' है और न वे लोग 'देवता' ही, जैसा कि उनका दावा है। पादरी लोग नैतिक पतन, बाल हत्‍या और हिंदू विवाह-पद्धति के दोषों के संबंध में जितना ही कम बोलें, उतना ही उनके लिए बेहतर होगा। कई देशों के ऐसे यथार्थ चित्र फीके पड़ जाएँगे परंतु मेरे जीवन का उद्देश्‍य वैतनिक प्रचारक बनने का नहीं है। हिंदू समाज संपूर्ण निर्दोष है, ऐसा दावा और कोई करे तो करे, मैं तो कदापि न करूँगा। मेरे समाज की त्रुटियों की, या शताब्दियों के दुर्भाग्‍य के कारण जिन दोषों ने उसमें जड़ जमा ली है, उनकी जानकारी मुझे औरों की अपेक्षा अधिक है। विदेशी मित्रों ! यदि तुम सच्‍ची सहानुभूति के साथ सहायता देने के लिए- न कि विनाश करने के लिए- आते हो तो, ईश्‍वर तुमको सफल बनाए । परंतु यदि इस दलित और पतित राष्‍ट्र के मस्‍तक पर समय-कुसमय सतत गालियों की बौछार करके अपने निजी राष्‍ट्र की नैतिक श्रेष्‍ठता की विजयपूर्ण घोषणा करना ही तुम्‍हारा उद्देश्‍य है, तो मैं तुमको साफ साफ बतला देना चाहता हूँ कि यदि कुछ भी न्‍याय के साथ तुलना की जाएगी, तो नैतिक आचार में हिंदू लोग संसार की अन्‍य जातियों की अपेक्षा अत्‍यधिक उन्‍नत पाए जाएँगे।

भारत में धर्म पर प्रतिबंध नहीं रखा गया था। किसी भी मनुष्‍य को अपने इष्‍टदेव या संप्रदाय या अपने गुरु के चुनने में कोई रोक-टोक नहीं की जाती थी। इसी कारण यहाँ धर्म की जैसी वृद्धि हुई, वैसी कहीं नहीं हुई। दूसरी ओर ऐसा हुआ कि धर्म के इन असंख्‍य विभेदों को रखने के लिए एक स्थिर बिंदु की आवश्‍यकता हुई, और भारत में समाज ही ऐसा बिंदु माना गया। परिणामस्‍वरूप समाज कड़ा और कठोर तथा प्राय: अचल बन गया। कारण यह है कि स्‍वाधीनता ही उन्‍नति का एक मात्र उपाय है।

इसके विपरीत पाश्‍चात्‍य देशों में विभिन्‍न भावों के विकास का क्षेत्र समाज था और स्थिर बिंदु या धर्म। मतैक्‍य ही यूरोपीय धर्म का मूलमंत्र बन गया और अभी भी है। और प्रत्‍येक नए परिवर्तन को अपने लिए थोड़ा भी स्‍थान प्राप्‍त करने के लिए रक्‍त की नदी में से तैरकर जाना पड़ता है। परिणामस्‍वरूप वहाँ सामाजिक संगठन जो अपूर्व है, परंतु धर्म अत्‍यंत स्‍थूल जड़वाद से आगे नहीं बढ़ सका।

आज पश्चिम तो अपनी आवश्‍यकताओं के विषय में जाग्रत हो रहा है और पाश्‍चात्‍य ईश्वरातत्‍वान्‍वेषियों का मूलमंत्र 'मनुष्‍य का सच्‍चा स्‍वरूप' और 'आत्‍मा' हो गया है। संस्‍कृत दर्शन का विद्यार्थी जानता है कि वायु किधर से बह रही है; शक्ति कहीं से भी आए, जब तक वह नवीन जीवन का संचार करती रहे, उस पर कोई आपत्ति नहीं की जा सकती ।

उसी समय भारत में नई परिस्थितियों के कारण सामाजिक संगठन के पुन: संशोधन की आवश्‍यकता विशेष रूप से प्रतीत होने लगी। पिछले पौन सौ वर्षों से भारत में सुधार-सभाओं और सुधारकों की बहुत चहल-पहल रही है। पर शोक की बात है कि उनमें से प्रत्‍येक यत्‍न असफल रहा। उन लोगों को समाज-सुधार का यथार्थ रहस्‍य विदित नहीं था। उन्‍होंने यथार्थ में सीखने लायक बड़ी बात को नहीं सीखा। उतावली में उन लोगों ने हमारे समाज के सारे दोषों का उत्तरदायित्‍व धर्म के मत्‍थे मढ़ दिया और कथा में वर्णित अपने मित्र के कपाल पर बैठे हुए मच्‍छर को मारने की इच्‍छा करने वाले मनुष्‍य की तरह अपने मित्र और मच्‍छर दोनों को शायद उन्‍होंने एक साथ ही मार डाला होता परंतु सौभाग्‍य से इस प्रसंग में तो स्‍वयं वे ही अचल चट्टानों पर जाकर टकराए और उस टकराने की चोट से अपना ही अस्तित्‍व खो बैठे। उन उदार नि:स्‍वार्थ आत्‍माओं को धन्‍य है, जो अपने विपथगामी प्रयत्‍नों में श्रम उठाते हुए असफल रहे। उनके सुधार के प्रति उत्‍साहरूपी वैद्युतिक आघातों की उस निद्रामग्‍न समाजरूपी कुंभकर्ण को अत्‍यंत आवश्‍यकता थी। पर वे पूर्णत: विनाशात्‍मक थे, रचनात्‍मक नहीं; और इसी कारण मरणशील थे, अत: मर भी गए।

आओ, हम उन्‍हें आशीर्वाद दें और उनके अनुभव से लाभ उठाएं। उन्‍होंने यह पाठ नहीं पढ़ा कि विकास का भीतर से आरंभ होकर बाहर उसकी परिणति होती है और सभी क्रम विकास [32] पूर्ववर्ती किसी क्रमसंकोच का पुनर्विकास मात्र है। वे यह नहीं जान पाए कि बीज अपने चारों ओर के तत्त्वों से उपादान ग्रहण करता है, पर वृक्ष तो अपनी ही प्रकृति में उगेगा। जब तक संपूर्ण हिंदू जाति निर्मूल न हो जाए और उसकी भूमि को नई जाति अधिकृत न कर ले, त‍ब तक समाज के ऐसे विप्‍लवकारी संस्‍कार संभव नहीं हैं। चाहे पूर्व प्रयत्‍न करे, चाहे पश्चिम, भारत कभी यूरोप नहीं बन सकता, जब तक कि वह मर-मिट न जाए।

और क्‍या वह कभी मर भी जाएगा ? वह भारत जो प्राचीन काल से सभी उदात्तता, नैतिकता और आध्‍यात्मिकता का जन्‍म स्‍थान रहा है, वह देश जिसमें ऋषिगण विचरण करते रहे हैं, जिस भूमि में देवतुल्‍य मनुष्‍य अभी भी जीवित और जाग्रत हैं, क्‍या मर जाएगा ? भाइयों ! मैं उस एथेंसीय ऋषि [33] की लालटेन को उधार लेकर तुम्‍हारे पीछे-पीछे इस विशाल संसार के शहरों, ग्रामों, मैदानों और जंगलों को चलूँगा- मुझे अगर तुम दिखा सकते हो, तो ऐसे पुरुष दूसरे देशों में भी दिखा दो। सत्‍य ही कहा है, 'वृक्ष की पहचान उसके फलों से ही होती है।' भारत में प्रत्‍येक आम्र वृक्ष के नीचे जाओ और ज़मीन पर गिरे हुए कच्‍चे कीड़े लगे हुए फलों के बोरे के बोरे भरकर ले आओ और उनमें से प्रत्‍येक फल पर अत्‍यंत विद्वत्‍तापूर्ण सैकड़ों पुस्‍तकें लिख डालो- परंतु इतने पर भी तुम एक भी आम्र फल का यथार्थ वर्णन नहीं कर पाओगे। अच्‍छा, अब तुम एक रसीला मीठा पूरा पका आम उस पेड़ पर से तोड़ लो और अब तुम आप सचमुच क्‍या है, यह पूर्ण रूप से जान जाओगे।

उसी तरह ये देव-मानव हिंदू धर्म के यथार्थ स्‍वरूप का परिचय दे रहे हैं। वे उस जातिरूप वृक्ष की प्रकृति, शक्ति और संभावनाओं को स्‍पष्‍ट रूप में प्रकाशित करते हैं। वह जातिवृक्ष ऐसा है कि उसने कई शताब्दियों की सभ्‍यता देखी है। उस वृक्ष ने सहस्‍त्रों वर्षों तक झंझावात के आघातों को सहन किया और फिर भी सनातन यौवन की अक्षुण्‍ण शक्तियों से भरा हुआ खड़ा है।

क्‍या भारत मर जाएगा ? तब तो संसार से सारी आध्‍यात्मिकता का समूल नाश हो जाएगा, सारे सदाचारपूर्ण आदर्श जीवन का विनाश हो जाएगा, धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्‍ट हो जाएगी, सारी भावुकता का भी लोप हो जाएगा। और उसके स्‍थान में कामरूपी देव और विलासितारूपी देवी राज्‍य करेगी। धन उनका पुरोहित होगा। प्रतारणा, पाशविक बल और प्रतिद्वंद्विता, ये ही उनकी पूजा-पद्धति होंगी और मानवात्‍मा उनकी बलिसामग्री हो जाएगी। ऐसी दुर्घटना कभी हो नहीं सकती। क्रियाशक्ति की अपेक्षा सहनशक्ति कई गुना बड़ी होती है। प्रेम का बल घृणा के बल की अपेक्षा अनंत गुना अधिक है। जो समझते हैं कि हिंदू धर्म का वर्तमान पुनरुत्‍थान देशभक्ति की प्रवृत्ति का विकास मात्र है, वे भ्रम में हैं।

आओ, सर्वप्रथम हम इस अद्भुत व्‍यापार को समझने का प्रयत्‍न करें।

क्‍या यह आश्‍चर्य की बात नहीं है कि जब कि वर्तमान वैज्ञानिक खोज के प्रबल आक्रमण के सामने पाश्‍चात्‍य स्‍वमतांध धर्मों के पुराने किले टूट टूटकर धूलि में मिल रहे हैं, जबकि आधुनिक विज्ञान के हथौडों की चोटें उन धार्मिक मतों को चीनी मिट्टी के बर्तनों की तरह चूर-चूर कर रही हैं, जिनका आधार केवल विश्‍वास या चर्च-समिति की सभाओं का बहुमत है, जबकि पाश्‍चात्‍य धर्मसमूह अत्‍युग्र आधुनिक विचारों की बढ़ती हुई तरग के साथ मेल मिलाने में अपनी बुद्धि का दिवाला निकाल चुका है, जबकि अन्‍य धर्मों के मूल ग्रंथों के वाक्‍यों की, आधुनिक विचारों के नित्‍य बढ़नेवाले दबाव के कारण, जहाँ तक बन पड़ा, अत्‍यंत खींचातानी की गई- उनमें से अधिकांश तो इस खींचातानी में टूट गए और रद्दीखाने में डाल दिए गए, जबकि पश्चिम के अधिकांश विचारशील व्‍यक्ति चर्च के साथ अपना संबंध तोड़कर अशांति-सागर में इधर-उधर बह रहे हैं, उस समय भी वेदरूपी ज्ञान के झरने से जीवनामृत पीनेवाले, वेदों से उत्‍पन्‍न केवल हिंदू और बौद्ध धर्म ही पुनरूज्‍जीवित हो रहे हैं ?

पश्चिम के अशांत हृदय नास्तिक और अज्ञेयवादी को गीता और धम्‍मपद [34] में ही ऐसा स्‍थान मिलता है, जहाँ उनका चित्त शांति पाता है।

अब पाँसे पलट गए। जो हिंदू निराशा के आँसू बहाता हुआ अपने पुराने निवास-गृह को आततायियों द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि से परिवेष्टित देख रहा था, आज जबकि आधुनिक विचार के शोधक प्रकाश ने धुएँ के अंधकार को हटा दिया है, तब वही हिंदू देख रहा है कि उसीका घर तो अपनी पूरी दृढ़ता के साथ खड़ा हुआ है और शेष सब लोग या तो मर मिटे या अपने अपने घर हिंदू नमूने के अनुसार नए सिरे से बना रहे हैं। यह देखकर उस हिंदू ने अपने आँसू पोंछ डाले और यह जान लिया कि उर्ध्‍वमूलमध: शाखमश्‍वत्‍य [35] को जड़ तक काटने की कोशिश करनेवाली वह कुल्‍हाड़ी चीर-फाड़ करने वाले चिकित्‍सक सर्जन की हितकारक छूरी ही साबित हुई।

उसने यह देख लिया कि अपने धर्म की रक्षा के लिए न तो उसे शास्‍त्र-वाक्‍यों की तोड़-मरोड़ करनी है और न किसी अन्‍य प्रकार की बौद्धिक बेइमानी ही। इतना ही नहीं, वह तो अपने शास्‍त्रों में जो कुछ निम्‍न श्रेणी का है, उसे निम्‍न ही कहकर स्‍वीकार कर सकता है, क्‍योंकि शास्‍त्रकारों ने निम्‍न स्‍तर के अधिकारियों के लिए अरूंधती-दर्शन न्‍याय [36] के अनुसार वैसा ही जान-बूझकर रखा है। धन्‍य हैं वे पुरातन ऋषि, जिन्‍होंने ऐसे सर्वव्‍यापी, सदा विस्‍तारशील धर्मप्रणाली का आविष्‍कार किया है, जिसमें भौतिक क्षेत्र में आज तक जो आविष्‍कार हो चुके हैं और जो कुछ भी भविष्‍य में होनेवाले हैं, उन सबका सादर समावेश हो सकता है। अब तो हिंदू अपने शास्‍त्रों का आदर पुन: नए भाव से करने लगा है और उसने यह नई जानकारी प्राप्‍त की है कि जो वैज्ञानिक आविष्‍कार प्रत्‍येक मर्यादित छोटी-छोटी धर्म-प्रणाली के लिए घातक सिद्ध हुए, वे सब उसके पूर्वजों के ध्‍यानलब्‍ध, तुरीय अवस्‍था में पाए हुए सत्‍यों के ही बुद्धि और इंद्रियजन्‍य व्यावहारिक ज्ञानक्षेत्र में पुनराविष्‍कार मात्र हैं।

अत: उसे न तो किसी वस्‍तु का त्‍याग ही करना है और न किसी वस्‍तु की प्राप्‍त करने के लिए इधर-उधर भटकना ही है, वरन् उसके लिए इतना ही पर्याप्‍त है कि वह अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार में पाए हुए अनंत कोष में से केवल थोड़ा सा निकालकर अपने उपयोग में लाए और उससे अपनी आवश्‍यकता की पूर्ति करे। और उसने ऐसा करना आरंभ कर दिया है और भविष्‍य में वह और अधिकाधिक करेगा। क्‍या यही इस पुनरुत्‍थान का सच्‍चा कारण नहीं है ?

बंगाल के नवयुवकों ! तुम लोगों से मेरा विशेष अनुरोध है। भाइयों ! हमें यह जानकर लज्‍जा होती है कि जिन बहुतेरे वास्‍तविक दोषों के कारण विदेशी लोग हिंदू जाति को बदनाम करते हैं, उन दोषों का कारण हम ही हैं। हम ही भारत की अन्‍य जातियों के सिर पर बरसनेवाली अनुचित गालियों के कारण हैं। पर ईश्‍वर को धन्‍यवाद है कि हम लोग इस बात को पूर्णतया जान गए हैं और उसी ईश्‍वर के आशीर्वाद से न केवल अपने को ही शुद्ध कर लेंगे, वरन् सारे भारत को सनातन धर्म द्वारा उपदिष्‍ट आदर्शों के प्राप्‍त करने में सहायता देंगे।

सर्वप्रथम तो हमें उस चिन्ह - ईर्ष्‍यारूपी कलंक- को, जिसे गुलामों के ललाट में प्रकृति सदैव लगा दिया करती है, धो डालना चाहिए। किसी से ईर्ष्‍या मत करो। भलाई के काम करनेवाले प्रत्‍येक को अपने हाथ का सहारा दो। तीनों लोकों के जीव मात्र के लिए शुभकामना करो।

अपने धर्म के उसी एक केंद्रवर्ती सत्‍य पर खड़े हो जाओ- जो हिंदू, बौद्ध और जैनियों के लिए पैतृक संपत्ति है। वह सत्‍य है, मनुष्‍य की आत्मा- अजर, अविनाशी, सर्वव्‍यापी, अनंत, मानवात्‍मा, जिसकी महिमा वेद भी वर्णन नहीं कर सकते, जिसके वैभव के सामने सूर्य-चंद्र, तारागण और नक्षत्र-समूहों के साथ सारा विश्‍व एक बिंदुवत् है। प्रत्‍येक स्‍त्री-पुरुष, यही नहीं, उच्‍चतम देवों से लेकर पदतलस्‍थ कीट पर्यंत सभी वही आत्‍मा, विकसित या अविकसित है। अंतर प्रकार में नहीं, केवल परिमाण में है।

आत्‍मा की इस अनंत शक्ति का प्रयोग जड़ वस्‍तु पर होने से भौतिक उन्‍नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है और अपने ही पर होने से मनुष्‍य का ईश्‍वर बन जाता है।

पहले हमें ईश्‍वर बन लेने दो। तत्‍पश्‍चात् दूसरों को ईश्‍वर बनाने में सहायता देंगे। बनो और बनाओ, यही हमारा मूल-मंत्र रहे।

ऐसा न कहो कि मनुष्‍य पापी है। उसे यह बताओ कि तू ब्रह्म है। यदि कोई शैतान हो, तो भी हमारा कर्तव्‍य यही है कि हम ब्रह्म का ही स्‍मरण करें, शैतान का नहीं।

यदि कोठरी में अंधकार है, तो सदा अंधकार का अनुभव करते रहने और अंधकार अंधकार चिल्‍लाते रहने से तो वह दूर नहीं होगा, बल्कि प्रकाश को भीतर ले आओ, तब वह दूर हो जाएगा। यह तो हमें समझ लेना चाहिए कि जो कुछ भी अभावात्‍मक है, विनाशकारी है और केवल दोष देखने वाला है, उसका अंत अवश्यंभावी है; और जो भावात्‍मक, सत्‍यात्‍मक और रचनात्‍मक है, वही अमर है और वही सदा रहेगा। हम यही कहीं- 'हम हैं', 'ईश्‍वर है और हम ईश्वर हैं ।' शिवोहम् शिवोहम् कहते हुए आगे बढ़ते चलो। जड़ नहीं, वरन् चैतन्‍य हमारा लक्ष्‍य है। नाम और रूपवाले सभी नामरूपहीन सत्ता के अधीन हैं। इसी सनातन सत्‍य की शिक्षा श्रुति दे रही है। प्रकाश को ले आओ, अंधकार आप ही आप नष्‍ट हो जाएगा। वेदांत-केसरी गर्जना करे, सियार अपने अपने बिलों में छिप जाएंगे। भावों को सब और बिखेर दो और फल अपने आप होता रहेगा। भिन्‍न-भिन्‍न रासायनिक द्रव्‍यों को एक साथ डाल दो, उसकी सम्मिश्रण-क्रिया आप ही आप होती रहेगी। आत्‍मा की शक्ति का विकास करो, और सारे भारत के विस्‍तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो और जिस स्थिति की आवश्‍यकता है, वह आप ही आप प्राप्‍त हो जाएगी।

अपने आभ्‍यंतरिक ब्रह्मभाव को प्रकट करो और उसके चारों ओर सब कुछ समन्वित होकर विन्‍यस्‍त हो जाएगा। वेदों में बताए हुए इंद्र और विरोचन [37] के उदाहरण को स्‍मरण रखो। दोनों को अपने ब्रह्मत्‍व का बोध कराया गया था, परंतु असुर विरोचन अपनी देह को ही ब्रह्म मान बैठा। इंद्र तो देवता थे, वे समझ गए कि वास्‍तव में आत्‍मा ही ब्रह्म है। तुम तो इंद्र की संतान हो। तुम देवताओं के वंशज हो। जड़ पदार्थ तुम्‍हारा ईश्‍वर कदापि नहीं हो सकता; शरीर तुम्‍हारा ईश्‍वर कभी नहीं हो सकता।

भारत का पुनरुत्‍थान होगा, पर वह जड़ की शक्ति से नहीं, वरन् आत्‍मा की शक्ति द्वारा। वह उत्‍थान विनाश की ध्‍वजा लेकर नहीं, वरन् शांति और प्रेम की ध्‍वजा से- संन्‍यासियों के वेश से- धन की शक्ति से नहीं, बल्कि भिक्षापात्र की शक्ति से संपादित होगा। ऐसा मत कहो कि हम दुर्बल हैं, कमजोर हैं। आत्‍मा सर्वशक्तिमान है। श्री रामकृष्‍ण के चरणों के दैवी स्‍पर्श से जिनका अभ्‍युदय हुआ है, उन मुट्ठी भर नवयुवकों की ओर देखो। उन्‍होंने उनके उपदेशों का प्रचार आसाम से सिंध तक और हिमालय से कन्‍याकुमारी तक कर डाला। वे लोग हिमालय पर्वत को बीस हजार फुट की ऊँचाई पर से पैदल ही बर्फ पर से लाँघकर तिब्‍बत के रहस्‍यमय प्रदेश में प्रविष्‍ट हो गए। उन्‍होंने अपनी रोटी भिक्षा द्वारा प्राप्‍त की और अपने अंग चिथड़ों से ढाँके। उन पर कितने ही अत्‍याचार किए गए, पुलिस ने उनका पीछा किया, वे जेल में डाले गए, पर अंत में जब सरकार को उनकी निर्दोषिता का निश्‍चय हो गया, तब वे मुक्‍त कर दिए गए।

उनकी संख्‍या अभी बीस है। कल उनकी संख्‍या दो हजार बना दो। बंगदेश के युवकों ! तुम्‍हारे देश को इसकी आवश्‍यकता है। सारे संसार को इसकी आवश्‍यकता है। अपने अंत:स्थित ब्रह्म को जगाओ, जो तुम्‍हें क्षुधा-तृष्‍णा, शीत-उष्‍ण सहन करने में समर्थ बना देगा। विलासपूर्ण भवनों में बैठे बैठे जीवन की सभी सुख सामग्री से घिरे हुए रहना और धर्म की थोड़ी सी चर्चा कर लेना अन्‍य देशों में भले ही शोभा दे, पर भारत को तो स्‍वभावत: सत्‍य की इससे कहीं अधिक पहचान है। वह तो प्रकृति से ही अधिकसत्‍य-प्रेमी है। वह कपटवेश को अपनी अंत:शक्ति से ही ताड़ जाता है। तुम लोग त्‍याग करो, महान् बनो। कोई भी बड़ा कार्य बिना त्‍याग के नहीं किया जा सकता। स्‍वयं 'पुरुष' ने भी सृष्टि की रचना करने के लिए स्‍वार्थ त्‍याग किया, अपने को बलिदान किया। अपने आरामों का, अपने सुखों का, अपने नाम, यश और पदों का-इतना ही नहीं, अपने जीवन तक का-त्‍याग करो और मनुष्‍यरूपी श्रृंखला से ऐसा पुल बनाओ, जिस पुल पर से करोड़ों लोग इस संसार-सागर को पार कर जाएं। समस्‍त मंगलकारी शक्तियों को एकत्र करो। किस ध्‍वजा के नीचे तुम अग्रसर हो रहे हो, इसकी परवाह मत करो। तुम्‍हारी ध्‍वजा का रंग हरा, नीला या लाल कुछ भी हो, उसकी चिंता मत करो, बल्कि सभी रंगों को एक में मिला दो और उससे उस अत्‍युज्‍ज्‍वल श्‍वेत रंग का निर्माण करो, जो कि प्रेम का रंग है। हमें तो कर्म ही करना है, फल अपने आप होता रहेगा। यदि कोई सामाजिक बंधन तुम्‍हारे ईश्‍वर-प्राप्ति के मार्ग में बाधक है, तो आत्‍मशक्ति के सामने अपने आप ही वह टूट जाएगा। भविष्‍य मुझे दीखता नहीं और मैं उसे देखने की चिंता भी नहीं करता परंतु मैं अपने सामने यह एक सजीव दृश्‍य तो अवश्‍य देख रहा हूँ कि हमारी यह प्राचीन माता पुन: एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर नवयौवनपूर्ण और पूर्व की अपेक्षा अधिक महा महिमान्वित होकर विराजी है। शांति और आशीर्वाद के वचनों के साथ सारे संसार में उसके नाम की घोषणा कर दो ।

सेवा और प्रेम में सदा तुम्‍हारा,

विवेकानंद



[1] गीता ।।४।७।।

[2] एतद्देशप्रसूतस्‍य सकाशादग्रजन्‍मन:।

स्‍वं स्‍वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्‍यां सर्वमानवा: ।।मनु.।।

[3] इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्‍ये स्थितं मन: ।।गीता।।५।१९।।

[4] जब अमेरिका में स्‍वामी जी की सफलता का समाचार भारत में फैल गया, तब अनेक सभाएँ की गयीं और धन्‍यवाद तथा बधाई के अभिनंदन-पत्र उन्‍हें भेजे गये। उन्‍होंने अपना पहला उत्‍तर मद्रास के हिंदुओं के अभिनंदन के प्रति लिखा।

[5] दक्षिण भारत की चाण्‍डालतुल्‍य नीच जातिविशेष को पैरिया कहते हैं। अलवार शब्‍द का अर्थ है भक्‍त। विशिष्‍टाद्वैतवादी भक्‍त अलवार कहलाते हैं।

[6] वेद को श्रुति माना जाता है।

[7] चारों वेदों में से प्रत्‍येक के तीन भाग हैं। (क) संहिता- इसमें भिन्‍न भिन्‍न देवताओं के प्रति रचे स्‍त्रोत्रात्‍मक मंत्र हैं। (ख) ब्राह्मण- यह वेद का वह वर्णनात्‍मक भाग है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि किस मंत्र का किस यज्ञ में कैसे प्रयोग करना चाहिए। (ग) आरण्‍यक- इस भाग में अरण्‍य में ऋषियों द्वारा प्रतिपादित तत्‍वों का वर्णन है। उपनिषद् इन्‍हीं आरण्‍यक के अंतर्गत हैं।

[8] ये तीन यथाक्रम ऋक्, यजु: तथा अथर्ववेद के प्रथम श्‍लोक के अंश हैं: (क) ऊँ अग्निमोळे पुरोहितं यज्ञस्‍य देवमृत्विजम्। होतारं रत्‍नधातमम् ।।

- ऋग्‍वेद १।१।१।।

(ख) ऊँ इषेत्‍वोजेंत्‍वा वायव: स्‍योपायव: स्‍थ देवो द: सविता प्रार्पयतु श्रेष्‍ठतमाय कर्मणे ।।यजुर्वेद ।।१।१।१।।

(ग) ऊँ शत्रो देवीरभीष्‍टये आपो भवंतु पीतये शत्रोरभिस्‍त्रवस्‍तु न:।

-- अथर्ववेद ।।१।१।१।।

[9] एक अंधे के द्वारा पथ प्रदर्शित किये हुए दूसरे अंधों की तरह मूढ़ इधर-उधर चक्‍कर लगाते फिरते हैं। --कठोपनिषद् ।।१।२।४।।

[10] पूजनीय साधु।

[11] भगवान् व्‍यासदेवप्रणीत वेदांत दर्शन।

[12] उपनिषद् गीता और शारीरक सूत्र। संन्‍यासियों के लिए इस प्रस्‍थानत्रय का अध्‍ययन अनिवार्य है।

[13] पाणिनि के व्‍याकरण का भाष्‍य। वेदों के अध्‍ययन के लिए पाणिनि की विशेष आवश्‍यकता होती है।

[14] न्‍याय परिभाषा के दो शब्‍द। अवच्छिन्‍न का अर्थ है 'विशिष्‍ट' जिसके द्वारा सीमाबद्ध होता है; अवच्‍छेदक शब्‍द का अर्थ है-वह, जो 'विशिष्‍ट' करता है।

[15] श्री शंकराचार्य के शिष्‍यों ने दस संन्‍यासी संप्रदाय स्‍थापित किये थे। उन्‍हें दशनामी महते हैं, वे हैं-गिरि, पुरी, भारती, वन, अरण्‍य, पर्वत, सागर, तीर्थ, सरस्‍वती और आश्रम।

[16] यह एक विशिष्‍ट वैषणव संप्रदाय है। वल्‍लभाचार्य श्री विष्‍णु स्‍वामी के शिष्‍य थे। इस संप्रदाय का बंबई प्रांत में खूब प्रचार है।

[17] वर्तमान उत्‍तर प्रदेश।

[18] वैष्‍णव साधकों को बैरागी कहते हैं। पंथी-जैसे कबीर-पंथी, नानक-पंथी आदि।

[19] ये उस समय जीवित थे।

[20] आदि पुराण में से एक श्‍लोक का अंश।

[21] प्रसिद्ध बंगाली कवि।

[22] जिन्‍होंने पाया है- अर्थात् ऐसे पुरूष जिन्‍होंने आत्‍म-तत्‍व का साक्षात्‍कार किया है, जो मनुष्‍य स्‍वभावसुलभ दुर्बलता से मुक्‍त हुए हैं।

[23] अपरोक्षानुभूति।

[24] नित्‍यानित्‍यवस्‍तुविवेक - ब्रह्म नित्‍य तथा जगत् अनित्‍य - इस तत्‍व का विचार (2) इहामूत्रफलभोगविराग - सांसारिक सुख तथा पारलौकिक स्‍वर्गादि भोग के संबंध में वितृष्‍णा (3) शमादि षट् सम्‍पत्ति-(क) शम - चित्‍तसंयम, (ख) वम-इंद्रियसंयम, (ग) उपरति - संन्‍यास तथा चित्‍तवृत्ति का उपरम, (घ) तितिक्षा - प्रतिकार तथा चिंता-विलापशून्‍य होकर समस्‍त दु:खों को सहना, (ड) श्रद्धा - गुरू-वेदांत वाक्‍य में विश्‍वास, (च) समाधान - ब्रह्म में चित्‍त की एकाग्रता, (4) मुमुक्षुत्‍व - मोक्षलाभ की प्रबल इच्‍छा।

- द्र.वेदांतसूत्र का शारीरक भाष्‍य ।।१।१।१।।

[25] वेदांतसूत्र ।।३।४।३५।। इसका अर्थ इसी शास्‍त्र में पाया जाता है कि अनेक व्‍यक्ति किसी आश्रमविशेष का अवलंबन करके भी ज्ञान के अधिकारी हुए हैं।

[26] यह गीता में भी है, ३।२६; इसका अर्थ है - जो कर्म को ही श्रेष्‍ठ मानकर कर्म में आसक्‍त है; उन अज्ञ व्‍यक्तियों को ज्ञान का उपदेश देकर, ज्ञानी पुरूष को उनकी मति विचलित नहीं करनी चाहिए।

[27] 'जानत तुमहिं तुमहिं ह्वं जाई'-तुलसी रामायण, अयोध्‍याकांड।

[28] द्र. महाभारत, वनपर्व।

[29] जो ब्रह्मविद् वही ब्रह्म ताको वाणी वेद।

संस्‍कृत और भाषा में करत भरम छेद।।

[30] गीता ।।४।३३।।

[31] एक संप्रदाय, जो कुछ अनुदार मतों को ईसाई धर्म का प्राचीन भाव कहकर पुन: स्‍थापित करने का प्रयत्‍न करता है।

[32] क्रमविकास- Evolution; क्रमसंकोच - Involution

[33] डायोजीनीज़, सिनिक (Cynic) संप्रदाय के एक महात्‍मा, जिनका यह विश्‍वास था कि संसार में सच्‍चे साधु बहुत कम हैं। इसी भाव को प्रकट करने के लिए वे दिन में लालटेन जलाकर इधर-उधर घूमा करते थे।

[34] बौद्धों का श्रेष्‍ठ नीतिशास्‍त्र।

[35] गीता (१५।१) तथा कठोपनिषद् (२।३।१) से उद्धृत। इसका अर्थ है-'इस संसार-वृक्ष का मूल ऊर्ध्‍व (ब्रह्म) में, और शाखा-प्रशाखाएँ निम्‍न की ओर फैली हुई हैं।' यहाँ पर उसका अर्थ है हिंदू धर्म।

[36] अरूंधती एक इतना छोटा तारा है, जो शीघ्र नहीं दिखायी देता। जब उसे किसी मनुष्‍य को दिखाना होता है, तो पहले उस मनुष्‍य की दृष्टि उस तारे के निकट के किसी दूसरे बड़े चमकीले तारे की ओर की जाती है, और इस प्रकार क्रमश: उस छोटे अरूंधती तारे को दिखाया जाता है। इसी प्रकार धर्म का सूक्ष्‍म भाव समझने के लिए पहले स्‍थूल भाव की सहायता लेनी पड़ती है।

[37] द्र. छान्‍दोग्‍योपनिषद् का शेष भाग।


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