सूक्तियाँ एवं सुभाषित
1. मनुष्य प्रक़ति पर विजय प्राप्त करने के लिए उत्पन्न हुआ है, उसका अनुसरण करने के लिए नहीं।
2. जब तुम अपने आपको शरीर समझते हो, तुम विश्व से अलग हो; जब तुम अपने आपको जीव समझते हो, तब तुम अनंत अग्नि के एक स्फुलिंग हो; जब तुम अपने आपको आत्मस्वरूप मानते हो, तभी तुम विश्व हो।
3. संकल्प स्वतंत्र नहीं होता--वह भी कार्य-कारण से बँधा एक तत्व है-- लेकिन संकल्प के पीछे कुछ है, जो स्वतंत्र है।
4. शक्ति 'शिव'- ता में है, पवित्रता में है।
5. विश्व है परमात्मा का व्यक्त रूप।
6. जब तक तुम स्वयं अपने में विश्वास नहीं करते, परमात्मा में तुम विश्वास नहीं कर सकते।
7. अशुभ की जड़ इस भ्रम में है कि हम शरीर मात्र हैं। यदि कोई मौलिक या आदि पाप है, तो वह यही है।
8. एक पक्ष कहता है विचार जड़ वस्तु से उत्पन्न होता है; दूसरा पक्ष कहता है, जड़ वस्तु विचार से। दोनों कथन गलत हैं : जड़ वस्तु और विचार, दोनों का सह-अस्तित्व हैं। वह कोई तीसरी ही वस्तु है, जिससे विचार और जड़ वस्तु दोनों उत्पन्न होते हैं।
9. जैसे देश में जड़ वस्तु के कण संयुक्त होते हैं; वैसे ही काल में मन की तरंगे संयुक्त होती हैं।
10. ईश्वर की परिभाषा करना चर्वितचर्वण है; क्योंकि एकमात्र परम अस्तित्व, जिसे हम जानते हैं, वही है।
11. धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है।
12. बाह्य प्रकृति अंत:प्रकृति का ही विशाल आलेख है।
13. तुम्हारी प्रवृत्ति तुम्हारे काम का मापदंड है। तुम ईश्वर हो और निम्नतम मनुष्य भी ईश्वर है, इससे बढ़कर और कौन सी प्रवृत्ति हो सकती है ?
14. मानसिक जगत् का पर्यवेक्षक बहुत बलवान और वैज्ञानिक प्रशिक्षणयुक्त होना चाहिए।
15. यह मानना कि मन ही सब कुछ है, विचार ही सब कुछ है--केवल एक प्रकार का उच्चतर भौतिकवाद है।
16. यह दुनिया एक बड़ी व्यायामशाला है, जहाँ हम अपने आपको बलवान बनाने के लिए आते हैं।
17. जैसे तुम पौधे को उगा नहीं सकते, वैसे ही तुम बच्चे को सिखा नहीं सकते। जो कुछ तुम कर सकते हो, वह केवल नकारात्मक पक्ष में है--तुम केवल सहायता दे सकते हो। वह तो एक आंतरिक अभिव्यंजना है; वह अपना स्वभाव स्वयं विकसित करता है--तुम केवल बाधाओं को दूर कर सकते हो।
18. एक पंथ बनाते ही तुम विश्वबंधुता के विरुद्ध हो जाते हो। जो सच्ची विश्वबंधुता की भावना रखते हैं, वे अधिक बोलते नहीं; उनके कर्म ही स्वयं जोर से बोलते हैं।
19. सत्य हजार ढंग से कहा जा सकता है, और फिर भी हर ढंग सच हो सकता है।
20. तुमको अंदर से बाहर विकसित होना है। कोई तुमको न सिखा सकता है, न आध्यात्मिक बना सकता है। तुम्हारी आत्मा के सिवा और कोई गुरु नहीं है।
21. यदि एक अनंत श्रृंखला में कुछ कड़ियाँ समझायी जा सकती हैं, तो उसी पद्धति से सब समझायी जा सकती हैं।
22. जो मनुष्य किसी भौतिक वस्तु से विचलित नहीं होता, उसने अमरता पा ली।
23. सत्य के लिए सब कुछ त्यागा जा सकता है, पर सत्य को किसी भी चीज के लिए छोड़ा नहीं जा सकता, उसकी बलि नहीं दी जा सकती।
24. सत्य का अन्वेषण शक्ति की अभिव्यक्ति है-- वह कमजोर, अंध लोगों का अँधेरे में टटोलना नहीं है।
25. ईश्वर मनुष्य बना; मनुष्य भी फिर से ईश्वर बनेगा।
26. यह एक बच्चों की सी बात है कि मनुष्य मरता है और स्वर्ग में जाता है। हम कभी न आते हैं, न जाते। हम जहाँ हैं, वहीं रहते हैं। सारी आत्माएँ, जो हो चुकी हैं, अब हैं और आगे होंगी; वे सब ज्यामिति के एक बिंदु पर स्थित हैं।
27. जिससे हृदय की पुस्तक खुल चुकी है, उसे अन्य किसी पुस्तक की आवश्यकता नहीं रह जाती। उनका महत्व केवल इतना भर है कि वे हममें लालसा जगाती हैं। वे प्राय: अन्य व्यक्तियों के अनुभव होती हैं।
28. सब प्राणियों के प्रति करुणा रखो। जो दु:ख में हैं, उन पर दया करो। सब प्राणियों से प्रेम करो। किसी से ईर्ष्या मत करो। दूसरों के दोष मत देखो।
29. मनुष्य न तो कभी मरता है, न कभी जन्म लेता है। शरीर मरते हैं; पर वह कभी नहीं मरता।
30. कोई भी किसी धर्म में जन्म नहीं लेता, परंतु प्रत्येक व्यक्ति धर्म के लिए जन्म लेता है।
31. विश्व में केवल एक आत्म-तत्व है, सब कुछ केवल 'उसी' की अभिव्यक्तियाँ हैं।
32. समस्त उपासक जनसाधारण और कुछ वीरों में (इन दो वर्गों में) विभक्त हैं।
33. यदि यहाँ और अभी पूर्णता की प्राप्ति असंभव है, तो इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि दूसरे जन्म में हमें पूर्णता मिल ही जाएगी।
34. यदि मैं एक मिट्टी के ढेले को पूर्णतया जान लूँ, तो सारी मिट्टी की जान लूँगा। यह है सिद्धांतों का ज्ञान, लेकिन उनका समायोजन अलग अलग होता है। जब तुम स्वयं को जान लोगे, तो सब कुछ जान लोगे !
35. व्यक्तिगत रूप से मैं वेदों में से उतना ही स्वीकार करता हूँ, जो बुद्धिसम्मत है। वेदों के कतिपय अंश स्पष्ट ही परस्पर विरोधी हैं। वे, पाश्चात्य अर्थ में, दैवी प्रेरणा से प्रेरित नहीं माने जाते हैं। परंतु वे ईश्वर के ज्ञान या सर्वज्ञता का संपूर्ण रूप हैं। यह ज्ञान एक कल्प के आरंभ में व्यक्त होता है; और जब वह कल्प समाप्त होता है, वह सूक्ष्म रूप प्राप्त करता है। जब कल्प पुन: व्यक्त होता है, ज्ञान भी व्यक्त होता है। यहाँ तक यह सिद्धांत ठीक है। पर यह कहना कि केवल यह वेद नामक ग्रंथ ही उस परम तत्व का ज्ञान है, कुतर्क है। मनु ने एक स्थान पर कहा है कि वेद में वही अंश वेद है, जो बुद्धिग्राह्य, विवेकसम्मत है। हमारे अनेक दार्शनिकों ने यही दृष्टिकोण अपनाया है।
36. दुनिया के सब धर्मग्रंथों में केवल वेद ही यह घोषणा करते हैं कि वेदाध्ययन गौण है। सच्चा अध्ययन तो वह है, 'जिससे अक्षर ब्रह्म प्राप्त हो'। और वह न पढ़ना है, न विश्वास करना है, न तर्क करना है, वरन् अतिचेतन ज्ञान अथवा समाधि है।
37. हम कभी निम्नस्तरीय पशु थे। हम समझते है कि वे हमसे कुछ भिन्न वस्तु हैं। मैं देखता हूँ, पश्चिमवाले कहते हैं, 'दुनिया हमारे लिए बनी है।' यदि चीते पुस्तकें लिख सकते, तो वे यही कहते कि मनुष्य उनके लिए बना है, और मनुष्य सबसे पापी प्राणी है, क्योंकि वह उनकी (चीते की) पकड़ में सहज नहीं आता। आज जो कीड़ा तुम्हारे पैरों के नीचे रेंग रहा है, वह आगे होनेवाला ईश्वर है।
38. न्यूयार्क में स्वामी विवेकानन्द ने कहा, ''मैं बहुत चाहता हूँ कि हमारी स्त्रियों में तुम्हारी बौद्धिकता होती, परंतु यदि वह चारित्रिक पवित्रता का मूल्य देकर ही आ सकती हो, तो मैं उसे नहीं चाहूँगा। तुमको जो कुछ आता है, उसके लिए मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूँ, लेकिन जो बुरा है, उसे गुलाबों से ढककर उसे अच्छा कहने का जो यत्न तुम करती हो, उससे मैं नफरत करता हूँ। बौद्धिकता ही परम श्रेय नहीं है। नैतिकता और आध्यात्मिकता के लिए हम प्रयत्न करते हैं। हमारी स्त्रियाँ इतनी विदुषी नहीं, परंतु वे अधिक पवित्र हैं। प्रत्येक स्त्री के लिए अपने पति को छोड़ कोई भी पुरुष पुत्र जैसा होना चाहिए।
''प्रत्येक पुरुष के लिए अपनी पत्नी को छोड़ अन्य सब स्त्रियाँ माता के समान होनी चाहिए। जब मैं अपने आसपास देखता हूँ और स्त्री-दाक्षिण्य के नाम पर जो कुछ चलता है, वह देखता हूँ, तो मेरी आत्मा ग्लानि से भर उठती है। जब तक तुम्हारी स्त्रियाँ यौन संबंधी प्रश्न की उपेक्षा करके सामान्य मानवता के स्तर पर नहीं मिलतीं, उनका सच्चा विकास नहीं होगा। तब तक वे सिर्फ खिलौना बनी रहैंगी, और कुछ नहीं। यही सब तलाक का कारण है। तुम्हारे पुरुष नीचे झुकते हैं और कुर्सी देते हैं, मगर दूसरे ही क्षण वे प्रशंसा में कहना शुरू करते हैं--'देवी जी, तुम्हारी आँखें कितनी सुंदर हैं ! 'उन्हें यह करने का क्या अधिकार है ? एक पुरुष इतना साहस क्यों कर पाता है, और तुम स्त्रियाँ कैसे इसकी अनुमति दे सकती हो? ऐसी चीजों से मानवता के अधमतर पक्ष का विकास होता है। उनसे श्रेष्ठ आदर्शों की ओर हम नहीं बढ़ते।
''हम स्त्री और पुरुष है, हमें यहीं न सोचकर सोचना चाहिए कि हम मानव हैं, जो एक दूसरे की सहायता करने और एक दूसरे के काम आने के लिए जन्मे हैं। ज्यों ही एक तरूण और तरूणी एकांत पाते हैं, वह उसकी आशंसा करना शुरू करता है, और इस प्रकार विवाह के रूप में पत्नी ग्रहण करने के पहले वह दो सौ स्त्रियों से प्रेम कर चुका होता है। वाह ! यदि मैं विवाह करनेवालों में से एक होता, तो मैं प्रेम करने के लिए ऐसी ही स्त्री खोजता, जिससे वह सब कुछ न करना होता।
''जब मैं भारत में था और बाहर से इन चीजों को देखता था, तो मुझसे कहा जाता था, यह सब ठीक है, यह निरा मन बहलाव है। मनोरंजन है और मैं उसमें विश्वास करता था। परंतु उसके बाद मैंने काफी यात्रा की हैं, और मैं जानता हूँ कि यह ठीक नहीं है। यह गलत है, सिर्फ़ तुम पश्चिमवाले अपनी आँखें मूँदे हो और उसे अच्छा कहते हो। पश्चिम के देशों की दिक्कत यह है कि वे बच्चे हैं, मूर्ख हैं, चंचल चित्त हैं और समृद्ध हैं। इनमें से एक ही गुण अनर्थ करने के लिए काफी है ; लेकिन जब ये तीनों, चारों एकत्र हों, तो सावधान !''
सबके बारे में ही स्वामी जी कठोर थे, बोस्टन में सबसे कड़ी बात उन्होंने कही--''सबमें बोस्टन सर्वाधिक बुरा है। वहाँ की स्त्रियाँ सब चंचलाएँ, किसी न किसी धुन (Fad) को माननेवाली, सदा नए और अनोखे की तलाश में रहती हैं !''
39. (स्वामी जी ने अमेरिका में कहा) जो देश अपनी सभ्यता पर इतना अहंकार करता है, उसमें आध्यात्मिकता की आशा कैसे की जा सकती है ?
40. 'इहलोक' और 'परलोक' यह बच्चों को डराने के शब्द हैं। सब कुछ 'इह' या यहाँ ही है। यहाँ, इसी शरीर में, ईश्वर में जीवित और गतिशील रहने के लिए संपूर्ण अहन्ता दूर होनी चाहिए, सारे अंधविश्वासों को हटाना चाहिए। ऐसे व्यक्ति भारत में रहते हैं। ऐसे लोग इस देश (अमेरिका) में कहाँ हैं ? तुम्हारे प्रचारक स्वप्नदर्शियों के विरुद्ध बोलते हैं। इस देश के लोग और भी अच्छी दशा में होते, यदि कुछ अधिक स्वप्नदर्शी होते। स्वप्न देखने और उन्नीसवीं सदी की बकवास में बहुत अंतर है। यह सारा जगत् ईश्वर से भरा है, पाप से नहीं। आओ, हम एक दूसरे की मदद करें, एक दूसरे से प्रेम करें।
41. मुझे अपनी गुरु की तरह कामिनी, कांचन और कीर्ति से पराड:मुख सच्चा संन्यासी बनकर मरने दो; और इन तीनों में कीर्ति का लोभ सबसे अधिक मायावी होता है।
42. मैंने कभी प्रतिशोध की बात नहीं की। मैंने सदा बल की बात की है। हम समुद्र की फुहार की बूँद से बदला लेने की स्वप्न में भी कल्पना करते हैं ? लेकिन एक मच्छर के लिए यह एक बड़ी बात है।
43. (स्वामी जी ने एक बार अमेरिका में कहा) यह एक महान् देश है। लेकिन मैं यहाँ रहना नहीं चाहूँगा। अमेरिकन लोग पैसे को बहुत महत्व देते हैं। वे सब चीजों से बढ़कर पैसे को मानते हैं। तुम लोगों को बहुत कुछ सीखना है। जब तुम्हारा देश भी हमारे भारत की तरह प्राचीन देश बनेगा, तब तुम अधिक समझदार होगे।
44. हो सकता है कि एक पुराने वस्त्र को त्याग देने के सदृश, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं बहुत उपादेय पाऊँ। लेकिन मैं काम करना नहीं छोडूँगा। जब तक सारी दुनिया न जान ले, मैं सब जगह लोगों को यही प्रेरणा देता रहूँगा कि वह परमात्मा के साथ एक है।
45. जो कुछ मैं हूँ, जो कुछ सारी दुनिया एक दिन बनेगी, वह मेरे गुरु श्री रामकृष्ण के कारण है। उन्होंने हिंदूत्व, इसलाम और ईसाई मत में वह अपूर्व एकता खोजी, जो सब चीजों के भीतर रमी हुई है। श्री रामकृष्ण उस एकता के अवतार थे, उन्होंने उस एकता का अनुभव किया और सबको उसका उपदेश दिया।
46. अगर स्वाद की इंद्रिय को ढील दी, तो सभी इंद्रियाँ बेलगाम दौड़ेंगी।
47. ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म--ये चार मार्ग मुक्ति की ओर ले जाने-वाले हैं। हर एक को उस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, जिसके लिए वह योग्य है; लेकन इस युग में कर्मयोग पर विशेष बल देना चाहिए।
48. धर्म कल्पना की चीज नहीं, प्रत्यक्ष दर्शन की चीज है। जिसने एक भी महान् आत्मा के दर्शन कर लिए, वह अनेक पुस्तकी पंडितों से बढ़कर है।
49. एक बार स्वामी जी किसी की बहुत प्रशंसा कर रहे थे; इस पर उनके पास बैठे हुए किसीने कहा, ''लेकिन वह आपको नहीं मानते''--इसे सुनकर स्वामी जी ने तत्काल उत्तर दिया: ''क्या ऐसा कोई कानूनी शपथ-पत्र लिखा हुआ है कि उन्हें मेरी हर बात माननी ही चाहिए। वे अच्छा काम कर रहे हैं और इसलिए प्रशंसा के पात्र हैं।''
50. सच्चे धर्म के क्षेत्र में, कोरे पुस्तकीय ज्ञान का कोई स्थान नहीं।
51. पैसेवालों की पूजा का प्रवेश होते ही धार्मिक संप्रदाय का पतन आरंभ हो जाता है।
52. अगर कुछ बुरा करना चाहो, तो वह अपने से बड़ों के सामने करो।
53. गुरु की कृपा से, शिष्य बिना ग्रंथ पढ़े ही पंडित हो जाता है।
54. न पाप है, न पुण्य है, सिर्फ अज्ञान है। अद्वैत की उपलब्धि से यह अज्ञान मिट जाता है।
55. धार्मिक आंदोलन समूहों में आते हैं। उनमें से हर एक दूसरे से ऊपर बढ़कर अपने को चलाना चाहता है। लेकिन सामान्यत: उनमें से एक की शक्ति बढ़ती है और वही, अंतत: शेष सब समकालीन आंदोलनों को आत्मसात कर लेता है।
56. जब स्वामी जी रामनाड़ में थे, एक संभाषण के बीच उन्होंने कहा कि श्री राम परमात्मा हैं। सीता जीवात्मा और प्रत्येक स्त्री या पुरुष का शरीर लंका है। जीवात्मा जो कि शरीर में बद्ध है, या लंकाद्वीप में बंदी है, वह सदा परमात्मा श्री राम से मिलना चाहती है लेकिन राक्षस यह होने नहीं देते। और ये राक्षस- चरित्र के कुछ गुण हैं। जैसे विभीषण सत्त्व गुण है; रावण, रजोगुण; कुंभकर्ण, तमोगुण। सत्त्व गुण का अर्थ है अच्छाई; रजोगुण का अर्थ है लोभ और वासना; तमोगुण में अंधकार, आलस्य, तृष्णा, ईर्ष्या आदि विकार आते हैं। ये गुण शरीररूपी लंका में बंदिनी सीता के यानी जीवात्मा को परमात्मा श्री राम से मिलने नहीं देते। सीता जब बंदिनी होती हैं, और अपने स्वामी से मिलने के लिए आतुर रहती हैं, उन्हें हनुमान या गुरु मिलते हैं, जो ब्रह्मज्ञानरूपी मुद्रिका उन्हें दिखाते हैं और उसको पाते ही सब भ्रम नष्ट हो जाते हैं; और इस प्रकार से सीता श्री राम से मिलने का मार्ग पा जाती हैं, या दूसरे शब्दों में जीवात्मा परमात्मा में एकाकार हो जाती हैं।
57. एक सच्चा ईसाई सच्चा हिंदू होता है, और एक सच्चा हिंदू सच्चा ईसाई।
58. समस्त स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन अपने भीतर काम करनेवाली आध्यात्मिक शक्तियों के व्यक्त रूप होते हैं; और यदि ये बलशाली और सुव्यवस्थित हों, तो समाज अपने आपको उस तरह से ढाल लेता है। हर व्यक्ति को अपनी मुक्ति की साधना स्वयं करनी होती है; कोई दूसरा रास्ता नहीं है। और यही बात राष्ट्रों के लिए भी सही है। और फिर हर राष्ट्र की बड़ी संस्थाएँ उसके अस्तित्व की उपाधियाँ होती हैं और वे किसी दूसरी जाति के साँचे के हिसाब से नहीं बदल सकतीं। जब तक उच्चतर संस्थाएँ विकसित नहीं होती, पुरानी संस्थाओं को तोड़ने का प्रयत्न करना भयानक होगा। विकास सदैव क्रमिक होता है।
संस्थाओं के दोष दिखाना आसान होता है, चूँकि सभी संस्थाएँ थोड़ी-बहुत अपूर्ण होती हैं, लेकिन मानव जाति का सच्चा कल्याण करनेवाला तो वह है, जो व्यक्तियों को, वे चाहे जिन संस्थाओं में रहते हों, अपनी अपूर्णताओं से ऊपर उठने में सहायता देता है। व्यक्ति के उत्थान से देश और संस्थाओं का भी उत्थान अवश्य होता है। शीलवान लोग बुरी रूढ़ियों और नियमों की उपेक्षा करते हैं और प्रेम, सहानुभूति और प्रामाणिकता के अलिखित और अधिक शक्तिशाली नियम उनका स्थान लेते हैं। वह राष्ट्र बहुत सुखी है, जिसका बहुत थोड़े से कायदे-कानून से काम चलता है, और जिसे इस या उस संस्था में अपना सिर खपाने की जरूरत नहीं होती है। अच्छे आदमी सब विधि-विधानों से ऊपर उठते हैं, और वे ही अपने लोगों को-- वे चाहे जिन परिस्थितियों में रहते हों-- ऊपर उठाने में मदद करते हैं।
भारत की मुक्ति, इसलिए, व्यक्ति की शक्ति पर और प्रत्येक व्यक्ति के अपने भीतर के ईश्वरत्व के ज्ञान पर निर्भर है।
59. जब तक भौतिकता नहीं जाती, तब तक आध्यात्मिकता तक नहीं पहुँचा जा सकता।
60. गीता का पहला संवाद रूपक माना जा सकता है।
61. जहाज छूट जाएगा इस डर से, एक अधीर अमेरिकन भक्त ने कहा : ''स्वामी जी, आपकी समय का कोई विचार नहीं।'' स्वामी जी ने शांतिपूर्वक कहा : ''नहीं, तुम समय में जीते हो, हम अनंत में !''
62. हम सदा भावुकता को कर्तव्य का स्थान हड़पने देते हैं, और अपनी श्लाघा करते हैं कि सच्चे प्रेम के प्रतिदान में हम ऐसा कर रहे हैं।
63. यदि त्याग की शक्ति प्राप्त करनी हो, तो हमें संवेगात्मकता से ऊपर उठना होगा। संवेग पशुओं की कोटि की चीज है। वे पूर्णरूपेण संवेग के प्राणी होते हैं।
64. अपने छोटे बच्चों के लिए मरना, कोई बहुत ऊँचा त्याग नहीं। पशु वैसा करते हैं, ठीक जैसे मानवी माताएँ करती हैं। सच्चे प्रेम का वह कोई चिह्न नहीं; वह केवल अंध भावना है।
65. हम हमेशा अपनी कमजोरी को शक्ति बताने की कोशिश करते हैं; अपनी भावुकता को प्रेम कहते हैं; अपनी कायरता को धैर्य, इत्यादि।
66. जब अहंकार, दुर्बलता आदि देखो, तो अपनी आत्मा से कहो; 'यह तुम्हें शोभा नहीं देता। यह तुम्हारे योग्य नहीं।'
67. कोई भी पति पत्नी को केवल पत्नी के नाते नहीं प्रेम करता, न कोई भी पत्नी पति को केवल पति के नाते प्रेम करती है। पत्नी में जो परमात्म-तत्व है, उसीसे पति प्रेम करता है; पति में जो परमेश्वर है, उसीसे पत्नी प्रेम करती है। प्रत्येक में जो ईश्वर-तत्व है, वही हमें अपने प्रिय के निकट खींचता है। प्रत्येक वस्तु में और प्रत्येक व्यक्ति में जो परमेश्वर है, वही हमसे प्रेम कराता है। परमेश्वर ही सच्चा प्रेम है।
68. ओह, यदि तुम अपने आपको जान पाते ! तुम आत्मा हो, तुम ईश्वर हो। यदि मैं कभी ईश-निंदा करता सा अनुभव करता हूँ, तो तब, जब मैं तुम्हें मनुष्य कहता हूँ।
69. हर एक में परमात्मा है; बाकी सब तो सपना है, छलना है।
70. यदि आत्मा के जीवन में मुझे आनंद नहीं मिलता, तो क्या मैं इंद्रियों के जीवन में आनंद पाऊँगा ? यदि मुझे अमृत नहीं मिलता, तो क्या मैं गड्ढे के पानी से प्यास बुझाऊँ ? चातक सिर्फ बादलों से ही पानी पीता है, और ऊँचा उड़ता हुआ चिल्लाता है, 'शुद्ध पानी !' और कोई आँधी या तूफान उसके पंखों को डिगा नहीं पाते और न उसे धरती के पानी को पीने के लिए बाध्य कर पाते हैं।
71. कोई भी मत, जो तुम्हें ईश्वर-प्राप्ति में सहायता देता है, अच्छा है। धर्म ईश्वर की प्राप्ति है।
72. नास्तिक उदार हो सकता है, पर धार्मिक नहीं। परंतु धार्मिक मनुष्य को उदार होना ही चाहिए।
73. दांभिक गुरुवाद की चट्टान पर हर एक की नाव डूबती है, केवल वे आत्माएँ ही बचती हैं, जो स्वयं गुरु बनने के लिए जन्म लेती हैं।
74. मनुष्य पशुता, मनुष्यता और देवत्व का मिश्रण है।
75. 'सामाजिक प्रगति' शब्द का उतना ही अर्थ है, जितना 'गर्म बर्फ' या 'अँधेरा प्रकाश'। अंतत: 'सामाजिक प्रगति' जैसी कोई चीज नहीं।
76. वस्तुएँ अधिक अच्छी नहीं बनतीं; हम उनमें परिवर्तन करके अधिक अच्छे बनाते हैं।
77. मैं अपने साथियों की मदद कर सकूँ : बस इतना ही मैं चाहता हूँ।
78. न्यूयार्क में एक प्रश्न के उत्तर में स्वामी जी ने धीरे से कहा : ''नहीं, मैं परलोक-विद्या में विश्वास नहीं करता। यदि कोई चीज सच नहीं है, तो नहीं है। अद्भुत या विचित्र चीजें भी प्राकृतिक घटनाएँ हैं। मैं उन्हें विज्ञान की वस्तु मानता हूँ। तब वे मेरे लिए परलोक-विद्यावाली या भूत-प्रेतवाली नहीं होतीं। मैं ऐसी परलोक ज्ञान-संस्थाओं में विश्वास नहीं करता। वे कुछ भी अच्छा नहीं करतीं, न वे कभी कुछ अच्छा कर सकती हैं।
79. मनुष्यों में साधारणतया चार प्रकार होते हैं--बुद्धिवादी, भावुक, रहस्यवादी, कर्मठ। हमें इनमें से प्रत्येक के लिए उचित प्रकार की पूजा-विधि देनी चाहिए। बुद्धिवादी मनुष्य आता है और कहता है : 'मुझे इस तरह का पूजा-विधान पसंद नहीं। मुझे दार्शनिक, विवेकसिद्ध सामग्री दो--वही मैं चाहता हूँ।' अत: बुद्धिवादी मनुष्य के लिए बुद्धिसम्मत दार्शनिक पूजा है।
फिर आता है कर्मठ। वह कहता है : 'दार्शनिक की पूजा मेरे किसी काम की नहीं। मुझे अपने मानव बंधुओं की सेवा का काम दो।' उसके लिए सेवा ही सबसे बड़ी पूजा है। रहस्यवादी और भावुक के लिए उनके योग्य पूजापद्धतियाँ हैं। धर्म में, इन सब लोगों के विश्वास के तत्व हैं।
80. मैं सत्य के लिए हूँ। सत्य मिथ्या के साथ कभी मैत्री नहीं कर सकता। चाहे सारी दुनिया मेरे विरुद्ध हो जाय, अंत में सत्य ही जीतेगा।
81. परम मानवतावादी विचार जब भी समूह के हाथों में पड़ जाते हैं, तो पहला परिणाम होता है : पतन। विद्वत्ता और बुद्धि से वस्तुओं को सुरक्षित रहने में सहायता मिलती है। किसी भी समाज में जो संस्कृत हैं, वे ही धर्म और दर्शन को शुद्ध 'रूप' में रखनेवाले सच्चे धर्मरक्षक हैं। किसी भी जाति की बौद्धिक और सामाजिक परिस्थिति का पता लगाना हो, तो उसी 'रूप' से लग सकता है।
82. अमेरिका में स्वामी जी ने एक बार कहा : ''मैं किसी नयी आस्था में तुम्हारा धर्म-परिवर्तन कराने के लिए नहीं आया हूँ। मैं चाहता हूँ, तुम अपना धर्म पालन करो; मेथाडिस्ट और अच्छे मेथाडिस्ट बनें; प्रेसबिटेरियन और अच्छे प्रेसबिटेरियन हों; यूनिटेरियन और अच्छे यूनिटेरियन हों। मैं चाहता हूँ, तुम सत्य का पालन करो; अपनी आत्मा में जो प्रकाश है, वह व्यक्त करो।
83. सुख आदमी के सामने आता है, तो दु:ख का मुकुट पहन कर। जो उसका स्वागत करता है, उसे दु:ख का भी स्वागत करना चाहिए।
84. जिसने दुनिया से पीठ फेर ली, जिसने सबका त्याग कर दिया, जिसने वासना पर विजय पायी, जो शांति का प्यासा है, वही मुक्त है, वही महान् है। किसी को राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता चाहे मिल जाय, पर यदि वह वासनाओं और इच्छाओं का दास है, तो सच्ची स्वतंत्रता का शुद्ध आनंद वह नहीं जान सकता।
85. परोपकार ही धर्म है; परपीड़न ही पाप। शक्ति और पौरुष पुण्य है, कमज़ोरी और कायरता पाप। स्वतंत्रता पुण्य है; पराधीनता पाप। दूसरों से प्रेम करना पुण्य हैं, दूसरों से घृणा करना पाप। परमात्मा में और अपने आप में विश्वास पुण्य है; संदेह ही पाप है। एकता का ध्यान पुण्य है; अनेकता देखना ही पाप। विभिन्न शास्त्र केवल पुण्य-प्राप्ति के ही साधन बताते हैं।
86. जब तर्क से बुद्धि सत्य को जन लेती है, तब वह भावनाओं के स्रोत हृदय द्वारा अनुभूत होता है। इस प्रकार बुद्धि और भावना दोनों एक ही क्षण में आलोकित हो उठते हैं; और तभी जैसे मुंडकोपनिषद् (2।2।8) में कहा है-
'हृदय-ग्रंथि खुल जाती है, सब संशय मिट जाते हैं।'
जब प्राचीन काल में ज्ञान और भाव ऋषियों के हृदय में एक साथ प्रस्फुटित हो उठते थे, तब सर्वोच्च सत्य ने काव्य की भाषा ग्रहण की और तभी वेद और अन्य शास्त्र रचे गए। इसी कारण, उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि वैदिक स्तर पर मानो भाव और ज्ञान की दोनों समानांतर रेखाएँ अंतत: मिलकर एकाकार हो गयी हैं और एक दूसरे से अभिन्न हैं।
87. विभिन्न धर्मों के ग्रंथ विश्वप्रेम, स्वतंत्रता, पौरुष और नि:स्वार्थ उपकार की प्राप्ति के अलग- अलग मार्ग बताते हैं। प्रत्येक धर्म-पंथ, पुण्य क्या है और पाप क्या है, इस विषय में प्राय: भिन्न है, और एक दूसरे से ये पंथ अपने अपने पुण्य-प्राप्ति के साधनों और पाप को दूर रखने के मार्गों के विषय में लड़ते रहते हैं; मुख्य साध्य या ध्येय की प्राप्ति की ओर कोई ध्यान नहीं देता। प्रत्येक साधन कम या अधिक मात्रा में सहायक तो होता ही है और गीता (18।48) कहती है : सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:। इसलिए साधन तो कम या अधिक मात्रा में सदोष जान पड़ेंगे परंतु अपने अपने धर्म-ग्रंथ में लिखे हुए साधन द्वारा ही हमें सर्वोच्च पुण्य प्राप्त करना है, इसलिए हमें उनका अनुसरण करना चाहिए परंतु उनके साथ साथ विवेक-बुद्धि से भी काम लेना चाहिए। इस प्रकार ज्यों ज्यों हम प्रगति करते जाएंगे, पाप-पुण्य की पहेली अपने आप सुलझती चली जाएगी।
88. आजकल हमारे देश में कितने लोग सचमुच में शास्त्र समझते हैं ? उन्होंने सिर्फ़ कुछ शब्द जैसे ब्रह्म, माया प्रकृति आदि रट लिए हैं और उनमें अपना सिर खपाते हैं। शास्त्रों के सच्चे अर्थ और उद्देश्य को एक ओर रखकर, वे शब्दों पर लड़ते रहते हैं। यदि शास्त्र सब व्यक्तियों को, सब परिस्थितियों में, सब समय उपयोगी न हों, तो वे किस काम के हैं ? अगर शास्त्र सिर्फ संन्यासियों के काम के हों और गृहस्थों के नहीं, तो फिर ऐसे एकांगी शास्त्रों के गृहस्थों को क्या उपयोग है ? यदि शास्त्र सिर्फ़ सर्व संगपरित्यागी, विरक्त और वानप्रस्थों के लिए ही हों और यदि वे दैनन्दिन जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में आशा का दीपक नहीं जला सकते, यदि वे उनके दैनिक श्रम, रोग, दु:ख, दैन्य, परिताप में निराशा, दलितों की आत्मग्लानि, युद्ध के भय, लोभ, क्रोध, इंद्रिय सुख, विजयानंद, पराजय के अंधकार और अतंत: मृत्यु की भयावनी रात में काम में नहीं आते -तो दुर्बल मानवता को ऐसे शास्त्रों की जरूरत नहीं, और ऐसे शास्त्र शास्त्र नहीं हैं।
89. भोग के द्वारा योग समय पर आएगा। परंतु मेरे देशवासियों का दुर्भाग्य है कि योग की प्राप्ति तो दूर रही, उन्हें थोड़ा सा भोग भी नसीब नहीं। सब प्रकार के अपमान सहन करकें, वे बड़ी मुश्किल से शरीर की न्यूनतम आवश्यकताओं को जुटा पाते हैं-और वे भी सबको नहीं मिल पातीं ! यह विचित्र है कि ऐसी बुरी स्थिति से भी हमारी नींद नहीं टूटती और हम अपने तात्कालिक कर्तव्य के प्रति उन्मुख नहीं होते।
90. अपने अधिकारों और विशेषाधिकारों के लिए आंदोलन करो, लेकिन याद रखो कि जब तक देश में आत्मसम्मान की भावना उत्कटता से नहीं जगाते और अपने आपको सही तौर पर नहीं उठाते, तब तक हक और अधिकार प्राप्त करने की आशा केवल अलनस्कर (शेखचिल्ली) के दिवास्वप्न की तरह रहेगी।
91. जब कोई प्रतिभा या विशेष शक्तिवाला व्यक्ति जन्म लेता है, तो मानो उसके आनुवंशिक सर्वोत्तम गुण और सबसे क्रियाशील विशेषताएँ उसके व्यक्तित्व के निर्माण में पूरी तरह निचुड़कर, स्तर-रूप में आती हैं। इसी कारण हम देखते हैं कि उसी वंश में बाद में जन्म लेनेवाले या तो मूर्ख होते हैं या साधारण योगयतावाले, और कई उदाहरण ऐसे भी हैं कि कभी कभी ऐसे वंश पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं।
92. यदि इस जीवन में मोक्ष नहीं मिल सकता, तो क्या आधार है कि तुम्हें वह अगले एक या अनेक जन्मों में मिलेगा ही ?
93. आगरे का ताज देखकर स्वामी जी ने कहा : ''यदि यहाँ के संगमरमर के एक टुकड़े को निचोड़ सको, तो उसमें से राजसी प्रेम और पीड़ा के बूँद टपकेंगे।'' और भी उन्होंने कहा, ''इसके अंदर के सौंदर्य के शिल्प का एक वर्ग इंच समझने के लिए सचमुच में छ:महीने लगते हैं।''
94. जब भारत का सच्चा इतिहास लिखा जाएगा, यह सिद्ध होगा कि धर्म के विषय में और ललित कलाओं में भारत सारे विश्व का प्रथम गुरु है।
95. स्थापत्य के बारे में उन्होंने कहा : ''लोग कहते हैं, कलकत्ता महलों का नगर है, परंतु यहाँ के मकान ऐसे लगते हैं, जैसे एक संदूक के ऊपर दूसरा रखा गया हो। इनसे कोई कल्पना नहीं जागती। राजपूताना में अभी भी बहुत कुछ मिल सकता है, जो शुद्ध हिंदू स्थापत्य है। यदि एक धर्मशाला को देखो, तो लगेगा कि वह खुली बाँहों से तुम्हें अपने शरण में लेने के लिए पुकार रही है और कह रही है कि मेरे निर्विशेष आतिथ्य का अंश ग्रहण करो। किसी मंदिर को देखो, तो उसमें और उसके आसपास दैवी वातावरण निश्चय मिलेगा। किसी देहाती कुटी को भी देखो, तो उसके विविध हिस्सों का विशेष अर्थ तुम्हारी समझ में आ सकेगा, और उसके स्वामी के आदर्श और प्रमुख स्वभाव-गुणों का साक्ष्य उस पूरी बनावट से मिलेगा। इटली को छोड़कर मैंने कहीं भी ऐसा अभिव्यंजक स्थापत्य नहीं देखा।''