भारत : उसका धर्म तथा रीति-रिवाज़
(सालेम इवनिंग न्यूज , 29 अगस्त , 1893 ई.)
कल शाम के गरम मौसम के बावजूद, वेसली प्रार्थनागृह में 'विचार और कार्य सभा' के सदस्य इस देश में भ्रमण करनेवाले हिंदू साधु स्वामी 'विवेकानन्द ' से मिलने के लिए तथा वेदों अथवा पवित्र ग्रंथों की शिक्षा पर आधारित हिंदू धर्म पर उन महाशय का एक अनौपचारिक भाषण सुनने के लिए बड़ी संख्या में एकत्र हुए। उन्होंने जाति-व्यवस्था को एक सामाजिक विभाजन बताया और कहा कि वह उनके धर्म के ऊपर किसी भी प्रकार आधारित नहीं है।
बहुसंख्यक जनता की गरीबी का उन्होंने जोरदार शब्दों में वर्णन किया। भारत, जिसका क्षेत्रफल संयुक्त राष्ट्र से बहुत कम है, की जनसंख्या तेईस करोड़ है (?) और इसमें 30 करोड़ (?) लोगों की औसत आय पचास सेंट से भी कम है। कहीं- कहीं तो देश के पूरे जिलों के लोग एक पेड़ में लगनेवाले फूलों को उबालकर खाते हुए महीनों और वर्षों तक बसर करते हैं।
दूसरे जिलों में पुरुष केवल भात खाते हैं और स्त्रियों तथा बच्चों को चावल को पकानेवाले पानी (माड़) से अपनी क्षुधा तृप्त करनी पड़ती है। चावल की फसल ख़राब हो जाने का अर्थ है, अकाल। आधे लोग दिन में एक बार भोजन करके निर्वाह करते हैं और शेष आधे लोगों को पता नहीं कि दूसरे समय का भोजन कहाँ से आएगा। स्वामी विव क्योन्द (विवेकानन्द) [1] के मतानुसार भारत के लोगों को धर्म की अधिक या श्रेष्ठतर धर्म की आवश्यकता नहीं है, परंतु जैसा कि वे व्यक्त करते हैं, 'व्यावहारिकता' की आवश्यकता है; और वे इस आशा को लेकर इस देश में आए हैं कि वे अमरीकी जनता का ध्यान करोड़ों पीड़ित और बुभुक्षित लोगों की इस महान आवश्यकता की ओर आकृष्ट कर सकें।
उन्होंने अपने देश की जनता और उसके धर्म के संबंध में कुछ विस्तारपूर्वक कहा। उनके भाषण देते समय डॉ. एफ. ए. गार्डनर एवं सेंट्रल बैपटिस्ट चर्च के रेवरेंड एस. एफ. नॉब्स ने उनसे अनेक तथा गहरे प्रश्न किए। उन्होंने कहा कि वहाँ मिशनरियों के पास सुंदर सिद्धांत हैं और उन्होंने अच्छे विचारों को लेकर कार्य प्रारंभ किया था, किंतु उन्होंने जनता की औद्योगिक दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने कहा कि अमेरिकनों को उन्हें धार्मिक शिक्षा देने के लिए मिशनरियों को भेजने के बजाय यह अधिक उचित होगा कि वे ऐसे लोगों को भेजें, जो उन्हें औद्योगिक शिक्षा प्रदान कर सकें।
जब यह पूछा गया कि क्या यह सच नहीं कि ईसाइयों ने भारतीयों को विपत्ति के समय सहायता दी और क्या उन्होंने उन्हें प्रशिक्षण विद्यालयों के द्वारा व्यावहारिक सहायता नहीं दी, तब वक्ता ने उत्तर में कहा कि उन्होंने कभी-कभी यह किया; परंतु वास्तव में उनका यह करना उचित नहीं था, क्योंकि कानून इस बात की आज्ञा नहीं देता कि वे ऐसे समय में जनता पर प्रभाव डालने का प्रयत्न करें।
उन्होंने भारत में स्त्रियों की गिरी हुई दशा का यह कारण बताया कि हिंदू पुरुष नारी का इतना आदर करते हैं कि वे उसे बाहर निकलने न देने का सबसे अच्छी बात समझते हैं। हिंदू नारी का इतना अधिक आदर किया जाता था कि वह अलग रखी गयी। उन्होंने अपने पतियों की मृत्यु होने पर स्त्रियों के जल जाने की प्राचीन प्रथा का कारण बताया कि वे उन्हें प्यार करती थीं, अत: वे बिना उनके जीवित नहीं रह सकती थीं। वे विवाह में अभिन्न थीं और उनका मृत्यु में भी अभिन्न होना आवश्यक था।
उनसे मूर्ति-पूजा तथा अपने को जगन्नाथ-रथ के सम्मुख डाल देने के बारे में भी पूछा गया और उन्होंने कहा कि इसके लिए हिंदुओं को दोष देना उचित नहीं है, क्योंकि वह धर्मोंमत्तों और अधिकतर कुष्ठरोगियों का कार्य है।
भाषणकर्ता ने अपने देश में अपना ध्येय संन्यासियों को औद्योगिक दृष्टि से संगठित करना बतलाया, जिससे वे जनता को औद्योगिक शिक्षा के लाभों को प्रदान कर उनकी दशा को समुन्नत एवं सुधार कर सकें।
जो भी बच्चे अथवा नवयुवक सुनने के इच्छुक हों, उनके लिए आज शाम को विवेकानन्द 166, नार्थ स्ट्रीट पर भारतीय बच्चों के विषय में बोलेंगे। इसके लिए श्रीमती वुड्स ने कृपापूर्वक अपना बगीचा दे रखा है। देखने में उनका शरीर सुंदर है, श्याम वर्ण, परंतु सुंदर, गेरूए रंग का लंबा कुरता कमर में एक बंद बाँधे हुए एवं सिर पर गेरूआ पगड़ी। संन्यासी होने के कारण वे किसी जाति में नहीं हैं और किसी के भी साथ खा-पी सकते हैं।
(डेली गज़ट , 29 अगस्त , 1893)
भारत के राजा [2] स्वामी विवि रानान्ड कल शाम को वेसली चर्च में 'विचार और कार्य-सभा' के अतिथि थे।
एक बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष उपस्थित थे और उन्होंने सम्मानित संन्यासी से अमेरिकन ढंग से हाथ मिलाया। वे एक नारंगी रंग का लंबा कुरता, लाल कमरबंद, पीली पगड़ी, जिसका एक छोर एक ओर लटकता था और जिसे वे रूमाल के रूप में प्रयोग करते थे, और कांग्रेसी जूते पहने हुए थे।
उन्होंने अपने देशवासियों की दशा एवं उनके धर्म के संबंध में विस्तार-पूर्वक बताया। उनके भाषण देते समय डॉ. एफ. ए. गार्डनर एवं सेंट्रल बैपटिस्ट चर्च के रेवरेण्ड एस. एफ. नॉब्स ने उनके अनेक बार प्रश्न पूछे। उन्होंने कहा कि वहाँ मिशनरियों के पास सुंदर सिद्धांत हैं और उन्होंने अच्छे विचारों को लेकर कार्य प्रारंभ किया था, किंतु उन्होंने जनता की औद्योगिक दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने कहा कि उन्हें धार्मिक शिक्षा देने के लिए मिशनरी भेजने के बजाय यह अधिक उचित होगा कि अमेरिकावाले ऐसे लोगों को भेजें, जो उन्हें औद्योगिक शिक्षा प्रदान कर सकें।
स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंध में कुछ विस्तार से बोलते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय पति कभी धोखा नहीं देते और न अत्याचार करते हैं तथा उन्होंने और अनेक पापों को गिनाया, जो वे नहीं करते।
जब यह पूछा गया कि क्या यह सच नहीं है कि ईसाइयों ने भारतीयों को विपत्ति के समय सहायता दी और क्या उन्होंने उन्हें प्रशिक्षण विद्यालयों के द्वारा व्यावहारिक सहायता नहीं दी, तब, वक्ता ने उत्तर में कहा कि उन्होंने कभी-कभी यह किया; परंतु वास्तव में उनका यह करना उचित नहीं था, क्योंकि कानून इस बात की आज्ञा नहीं देता कि वे ऐसे समय में जनता पर प्रभाव डालने का प्रयत्न करें।
उन्होंने भारत में स्त्रियों की गिरी हुई दशा का यह कारण बताया कि हिंदू पुरुष नारी का इतना आदर करते हैं कि वे उसे बाहर न निकलने देने को सबसे अच्छी बात समझते हैं। हिंदू नारी का इतना अधिक आदर किया जाता था कि वह अलग रखी गयी। उन्होंने स्त्रियों के अपने पतियों की मृत्यु होने पर जल जाने की प्राचीन प्रथा का कारण बताया कि वे पति को प्यार करती थी, इसलिए वे बिना उनके जीवित नहीं रह सकती थीं। वे विवाह में अभिन्न थीं और उनका मृत्यु में भी अभिन्न होना आवश्यक था।
उनसे मूर्ति-पूजा तथा अपने को जगन्नाथ-रथ के सामने डाल देने के बारे में भी पूछा गया और उन्होंने कहा कि इसके लिए हिंदुओं को दोष देना उचित नहीं है, क्योंकि वह धर्मोंन्मत्तों और अधिकतर कुष्ठ रोगियों का कार्य है।
मूर्ति-पूजा के संबंध में उन्होंने कहा कि उन्होंने ईसाइयों से यह पूछा है कि वे प्रार्थना करते समय क्या चिंतन करते हैं, और उनमें से कुछ ने बताया कि वे चर्च का चिंतन करते हैं, कुछ ने कहा कि ईश्वर [3] का। उनके देशवासी मूर्ति का ध्यान करते हैं। ग़रीबों के लिए मूर्तियाँ आवश्यक हैं। उन्होंने कहा कि प्राचीन काल में जब उनके धर्म का जन्म हुआ था, स्त्रियाँ आध्यात्मिक प्रतिभा और मानसिक शक्ति के लिए विख्यात थीं। तथापि जैसा कि उन्होंने स्वीकार सा किया कि वर्तमान काल में स्त्रियों की दशा गिर गयी है। वे खाने-पीने, गप्प लड़ाने और चुगली-चवाई करने के सिवा और कुछ नहीं करतीं।
वक्ता ने बताया कि उनका उद्देश्य अपने देश में संन्यासियों का औद्योगिक कार्यों के लिए संगठन करना है, जिससे कि वे जनता को इस औद्योगिक शिक्षा का लाभ उपलब्ध करा सकें और इस प्रकार उन्हें ऊँचा उठा सकें तथा उनकी दशा सुधार सकें।
(सालेम इवनिंग न्यूज , 1 सितंर , 1893)
भारत के विद्वान् संन्यासी, जो कुछ दिनों से इस शहर में हैं, रविवार की शाम को साढ़े सात बजे 'ईस्ट चर्च' में भाषण देंगे। स्वामी विवेकानन्द ने पिछले रविवार की शाम को पल्ली-पुरोहित तथा हार्वर्ड के प्रो. राइट के आमंत्रण पर, जिन्होंने उनके प्रति बड़ी उदारता दिखायी है, एनिस्क्वाम के एपिस्कोपल चर्च में प्रवचन किया।
वे सोमवार की रात्रि को सैराटोगा के लिए प्रस्थान करेंगे और वहाँ 'सामाजिक विज्ञान संघ' के सम्मुख भाषण देंगे। तदंतर वे शिकागो क कांग्रेस के सम्मुख बोलेंगे। भारत के उच्चतर विश्वविद्यालयों में शिक्षित भारतीयों की भाँति विवाविवेकानन्द भी शुद्ध और सरलतापूर्वक अंग्रेज़ी बोलते हैं। भारतीय बच्चों के खेल, पाठशाला और रीति-रिवाज के संबंध में मंगलवार को बच्चों के सामने दिया हुआ उनका सरल भाषण अत्यंत रोचक एवं मूल्यवान था। एक छोटी सी बच्ची के इस कथन पर कि उसकी 'अध्यापिका ने उसकी अंगुली को इतने ज़ोर से चूमा कि वह टूट सी गयी', वे बड़े द्रवीभूत हुए। अन्य साधुओं की भाँति 'विवेकानन्द ' अपने देश में सत्य, पवित्रता और मानव-बंधुत्व के धर्म का उपदेश करते हुए यात्रा अवश्य करते थे, किंतु उनकी दृष्टि से कोई भी बड़ी अच्छाई अथवा बुराई छिप नहीं सकती थी। वे अन्य धर्मों के व्यक्तियों के प्रति अत्यंत उदार हैं और अपने से मतभेद रखनेवालों से प्रेमपूर्ण वाणी ही बोलते हैं।
(डेली गजट , 5 सितंबर , 1893)
भारत के राजा स्वामी विवी रानान्ड ने रविवार की शाम को भारतीय धर्म तथा अपनी मातृभूमि के ग़रीब निवासियों के संबंध में भाषण दिया। श्रोताओं की संख्या अच्छी थी, परंतु इतनी अधिक नहीं थी, जितनी कि विषय की महत्ता अथवा रोचक वक्ता के लिए अपेक्षित थी। संन्यासी अपने देश की वेषभूषा में थे और प्राय: चालीस मिनट बोले। उन्होंने कहा कि आज के भारत की, जो पचास वर्ष पूर्व का भारत नहीं है, सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि मिशनरी जनता को धार्मिक नहीं, अपितु औद्योगिक शिक्षा प्रदान करें। जितने धर्म की हिंदुओं को आवश्यकता है, वह उनके पास है और हिंदू धर्म संसार का सबसे प्राचीन धर्म है। संन्यासी बड़े सुदंर वक्ता हैं और उन्होंने अपने श्रोताओं का ध्यान पूर्णरूपेण आकृष्ट रखा।
(डेली सैराटॉजियन , 6 सितंबर , 1893)
…इसके बाद मंच पर मद्रास, हिंदुस्तान के संन्यासी 'विवेकानन्द ' उपस्थित हुए, जिन्होंने भारत भर में उपदेश दिया है। उनकी सामाजिक विज्ञान में अभिरुचि है और वे मेधावी तथा सुंदर वक्ता हैं। उन्होंने भारत में मुस्लिम शासन पर भाषण दिया।
आज के कार्यक्रम में कुछ रोचक विषय सम्मिलित हैं और हार्टफोर्ड के जैकब ग्रीन के द्वरा, 'बिमेटालिज्म' पर भाषण विशेष रोचक है। इस अवसर पर विवेकानन्द पुन: भारत में चाँदी के उपयोग पर भाषण देंगे।
समारोह में हिंदू
(बोस्टन इवनिंग ट्रांसस्क्रिप्ट, 30 सितंबर, 1893)
शिकागो, 23 सितंबर :
'आर्ट पैलेस के प्रवेश-द्वार की बायीं ओर एक कमरा है, जिस पर 'नं. 1 - बाहर रहिए' अंकित है। यदा-कदा 'धर्म-सम्मेलन' में आए हुए प्रतिनिधि आते हैं, या तो परस्पर वार्तालाप के लिए या अध्यक्ष बोने से बात करने के लिए, जिनका इस हिस्से के एक कोने में व्यक्तिगत कार्यालय है। मुड़नेवाले द्वारों की जनता से रक्षा कठोरता से की जाती है और सामान्यत: लोग काफी दूर खड़े रहते हैं, जिससे कि वे भीतर नहीं झाँक सकते। उस पवित्र हाते में केवल प्रतिनिधि ही प्रवेश कर सकते हैं, किंतु 'प्रवेश-पत्र' प्राप्त कर लेना और 'हाल ऑफ कोलम्बस' के मंच की अपेक्षा सम्मानित अतिथियों से थोड़े समय की निकटता स्थापित करने का अवसर प्राप्त कर लेना कठिन नहीं है।
इस प्रतीक्षा-कक्ष में सबसे आकर्षक व्यक्ति ब्राह्मण संन्यासी स्वामी विवेकानन्द से भेंट होती है। वे लंबे और सुगठित शरीरवाले हैं तथा हिंदुस्तानियों का उन्नत व्यवहार उनमें है। बना दाढ़ी-मूँछ का चेहरा, समुचित ढला हुआ सामान्य आकार, सफेद दाँत और सुंदर ढंग से गढ़े हुए ओठ, जो साधारणत: बात करते समय कृपापूर्ण मुस्कान के रूप में खुले रहते हैं। उनके संतुलित सिर पर नारंगी अथवा लाल रंग की पगड़ी शोभायमान होती है और उनका चोगा (जो इस वस्त्र का वास्तविक नाम नहीं है) कमरबंद से बॅंधा हुआ है और घुटनों के नीचे गिरता है। वह कभी चमकीले नारंगी के रंग का और कभी गहरे लाल रंग का होता है। वे उत्तम अंग्रेजी बोलते हैं और उन्होंने किसी भी गंभीरता से पूछे गए प्रश्न का उत्तर दिया।
सरल व्यवहार के साथ साथ जब वे स्त्रियों से बात करते हैं, तब उनमें एक व्यक्तिगत आत्मसंयम की झलक दृष्टिगत होती है, जो उनके द्वारा स्वीकृत जीवन की परिचायक है। जब उनके 'आश्रम' के नियमों के बारे में पूछा गया, तब उन्होंने बताया, -मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ, मैं मुक्त हूँ। कभी मैं हिमालय पर्वत पर रहता हूँ और कमी नगरों की सड़कों पर। मुझे नहीं मालूम कि मेरा अगला भोजन कहाँ मिलेगा। मैं अपने पास पैसा कभी नहीं रखता। मैं यहाँ चंदे के द्वारा आता हूँ। तब निकट खड़े हुए अपने एक-दो देशवासियों की ओर देखते हुए उन्होंने कहा, -मेरा प्रबंध ये लोग करेंगे और संकेत किया कि शिकागो में उनके भोजन का बिल दूसरों को चुकाना होगा। यह पूछे जाने पर कि क्या आप संन्यासी की सामान्य पोशाक पहने हुए हैं, उन्होंने बताया, -यह अच्छी पोशाक है, जब मैं स्वदेश में रहता हूँ, मैं कुछ टुकड़े पहनता हूँ और नंगे पाँव चलता हूँ। क्या मैं जाति मानता हूँ? जाति एक सामाजिक प्रथा है, धर्म का इससे कोई संबंध नहीं। सभी जातियाँ मुझसे संपर्क रख सकती हैं।
श्री विवेकानन्द के व्यवहार और उनकी सामान्य आकृति से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उनका जन्म उच्च वंश में हुआ है - ऐच्छिक निर्धनता और गृहविहीन विचरण है कि उनका जन्म उच्च वंश में हुआ है- ऐच्छिक निर्धनता और गृहविहीन विचरण के अनेक वर्ष उन्हें एक भद्रपुरुष के जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित नहीं कर सके; उनका घर का नाम भी विख्यात नहीं है : विवेकानन्द नाम उन्होंने धार्मिक जीवन स्वीकार करने पर रखा और 'स्वामी' तो केवल उनके प्रति श्रद्धा की जाने के कारण दी हुई एक उपाधि है। उनकी उम्र तीस से बहुत अधिक न होगी और वे ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो वे इसी जीवन और इसकी सिद्धि के लिए तथा इस जीवन के परे जो कुछ है, उसके चिंतन के लिए बने हों। यह सोचकर कि उनके जीवन का क्या मोड़ रहा होगा, अवश्य ही आश्चर्य होता है।
संन्यासी होने पर उनके सर्वस्व त्याग पर की गयी एक टिप्पणी पर उन्होंने सहसा उत्तर दिया, ''जब मैं प्रत्येक स्त्री में केवल दिव्य माँ को ही देखता हूँ, तब मैं विवाह क्यों करूँ? मैं यह सब त्याग क्यों करता हूँ? अपने को सांसारिक बंधनों और आसक्तियों से मुक्त करने के लिए, जिससे कि मेरा पुनर्जन्म न हो: मृत्यु के बाद मैं अपने आपको परमात्मा में मिला देना चाहता हूँ, परमात्मा के साथ एक। मैं 'बुद्ध हो जाऊँगा।''
विवेकानन्द का इससे यह आशय नहीं है कि वे बौद्ध हैं। उन पर किसी भी नाम या जाति की छाप नहीं पड़ सकती। वे उच्चतर ब्राह्मणवाद की एक देन हैं, हिंदुत्व के परिणाम हैं, जो विस्तृत, स्वप्नदर्शी एवं आत्मत्यागपरायण हैं। वे संन्यासी अथवा पूतात्मा हैं।
उनके पास कुछ पुस्तिकाएँ हैं, जिन्हें वे वितरित करते हैं। वे अपने गुरुदेव परमहंस रामकृष्ण के संबंध में हैं। वे एक हिंदू भक्त थे, जिन्होंने अपने श्रोताओं और शिष्यों पर ऐसा प्रभाव डाला था कि उनमें से अनेक उनकी मृत्यु के बाद संन्यासी हो गए थे। मजूमदार भी इस संत को अपना गुरु मानते थे, किंतु वे, जैसा कि ईसा ने उपदेश दिया है, विश्व में वह पवित्रता लाने के लिए कार्य करते है, जो इस जगत् में होगी, किंतु जो इस जगत् की नहीं है।
सम्मेलन में विवेकानन्द का भाषण आकाश की भाँति विस्तीर्ण था, उसमें सभी धर्मों की सर्वोत्तम बातों का एक अंतिम विश्वधर्म के रूप में समावेश था- मानवता के प्रति प्रेम, ईश्वर-प्रेम के लिए सत्कार्य, न कि दंड के भय से अथवा लाभ की आशा से। सम्मेलन में वे अपने भावों की और आकृति की भव्यता के कारण बड़े जनप्रिय हैं। उनके मंच पर आने मात्र पर हर्षध्वनि होने लगती है और हजारों व्यक्तियों का यह विशिष्ट सम्मान वे बालसुलभ संतोष की भावना से स्वीकार करते हैं, उनमें गर्व की तनिक भी झलक नहीं होती। निर्धनता एवं आत्म-त्याग से सहसा इस वैभव और उत्कर्ष में पहुँच जाना इस विनम्र युवक ब्राह्मण संन्यासी के लिए भी अवश्य ही एक अजीब अनुभव होगा। जब यह पूछा गया कि क्या वे हिमालय में रहनेवाले उन 'भ्राताओं' के बारे में जानते हैं, जिनके प्रति थियोसॉफि़स्ट इतना दृढ़ विश्वास रखते हैं, उन्होंने सहज ही उत्तर दिया, ''मेरी उनमें से किसी से भी भेंट नहीं हुई'', जिसका आशय यह भी था कि ''ऐसे लोग हो सकते हैं और यद्यपि मैं हिमालय से परिचित हूँ, पर अभी उनसे मेरा मिलना नहीं हुआ।''
धर्म-महासभा के अवसर पर
(ड्यूबक , आइवा , टाइम्स , 29 सितंबर , 1893)
विश्व-मेला, 28 सितंबर (विशेष) :
अब धर्म-महासभा उस स्थान पर पहुँची, जहाँ तीव्र कटुता उत्पन्न हो गयी। निस्संदेह शिष्टाचार का पतला परदा बना रहा, किंतु इसके पीछे दुर्भावना विद्यमान थी। रेवरेन्ड जोसेफ कुक ने हिंदुओं का तीव्र आलोचना की और बदले में उनकी भी आलोचना हुई। उन्होंने कहा, बिना रचे गए विश्व की बात करना प्राय: अक्षम्य प्रलाप है, और एशियावालों ने प्रत्युत्तर दिया कि ऐसा विश्व जिसका प्रारंभ है, एक स्वयंसिद्ध बेतुकापन है। विशप जे. पी. न्यूमैन ने ओहियो तट से दूर तक जानेवाली गोली चलाते हुए घोषणा की कि पूर्ववालों ने मिशनरियों के प्रति भ्रांत कथन करके संयुक्त राष्ट्र के समस्त ईसाइयों का अपमान किया है और पूर्ववालों ने अपनी उत्तेजक शांति और अति उद्धत मुस्कान के द्वारा उत्तर दिया कि वह केवल विशप का अज्ञान है।
बौद्ध दर्शन
सीधे प्रश्न के उत्तर में तीन विद्वान् बौद्धों ने विशेष रूप से सरल और सुंदर भाषा में ईश्वर, मनुष्य और जड़-पदार्थ के संबंध में अपने मूल विश्वास प्रकट किए।
(इसके उपरान्त धर्मपाल के निबंध 'वृद्ध के प्रति विश्व का ऋण' (The world's Debt to Buddha) का सारांश है। धर्मपाल ने अपने इस निबंध पाठ का आरंभ, जैसा हमें एक अन्य स्त्रोत से ज्ञात होता है, शुभकामना का एक सिंहली गीत गाकर किया। लेख फिर चालू रहता है:)
उनकी (धर्मपाल की) वक्तृता को शिकागो के श्रोताओं द्वारा सुनी गयी वक्ताओं में सुंदरतम में रखा जा सकता है। डेमस्थेनीज भी इससे अधिक कुछ नहीं कर सका था।
कटु उक्ति
हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द इतने सौभाग्यशाली न थे। वे असंतुष्ट थे अथवा प्रत्यक्षत: शीघ्र ही हो गए थे। वे नारंगी रंग की पोशाक में थे और पीली पगड़ी बाँधे हुए थे तथा उन्होंने तुरंत ईसाई राष्ट्रों पर इन शब्दों के साथ भीषण आक्रमण किया: हम पूर्व से आनेवाले लोग इतने दिन यहाँ बैठे और हमको संरक्षकतात्मक ढंग से बताया गया कि हमें ईसाई धर्म स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि ईसाई राष्ट्र सर्वाधिक संपन्न हैं। हम अपने चारों ओर देखते हैं, तो पाते हैं कि इंग्लैंड दुनिया में सबसे अधिक संपन्न ईसाई देश है, जिसका पैर 25 करोड़ (?) एशियावासियों की गर्दन पर है। हम इतिहास की ओर मुड़कर देखते हैं, तो पता चलता है कि ईसाई यूरोप की समृद्धि का प्रारंभ स्पेन से हुआ। स्पेन की समृद्धि का श्रीगणेश मेक्सिको के ऊपर किए गए आक्रमण से हुआ। ईसाइयत अपने भाइयों का गला काटकर अपनी समृद्धि की सिद्धि प्राप्त करती है। हिंदू इस कीमत पर अपनी उन्नति नहीं चाहेंगे। इसी प्रकार वे लोग बोलते गए। प्रत्येक आनेवाला वक्ता मानो और अधिक कटु होता गया।
(आउटलुक , 7 अक्तूबर , 1893)
गहरे नारंगी रंग की साधुओं की पोशाक पहने हुए विवेकानन्द ने भारत में ईसाइयों के कार्य की बुरी तरह खबर ली। वे ईसाई मिशनरियों के कार्य की आलोचना करते हैं। यह स्पष्ट है कि उन्होंने ईसाई धर्म के अध्ययन का प्रयत्न नहीं किया है, किंतु जैसा कि वे दावा करते हैं, उसके पुरोहितों ने भी उनके मतों और सहस्त्रों वर्षों के जाति-विभेदों को समझने का प्रयत्न नहीं किया है। उनके मतानुसार वे केवल उनके अति पवित्र विश्वासों के प्रति घृणा प्रदर्शित करने के लिए और अपने देशवासियों को उनके द्वारा दी जानेवाली नैतिकता और आध्यात्मिकता की शिक्षा की जड़ काटने के लिए आए हैं।
( क्रि टिक , 7 अक्तूबर , 1983)
किंतु सम्मेलन के सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति लंका के बौद्ध भिक्षु एच. धर्मपाल और हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द थे। प्रथम ने तीखेपन से कहा, ''यदि धर्मशास्त्र और धर्म-सिद्धांत तुम्हारे सत्य की खोज के मार्ग में बाधक हैं, तो उन्हें अलग रख दो। निष्पक्षतापूर्वक सोचना, सभी प्राणियों से प्रेम के लिए प्रेम करना और पवित्र जीवन व्यतीत करना सीखो। तब सत्य का प्रकाश तुम्हें आलोकित कर देगा।'' यद्यपि सभा में होनेवाले बहुत से संक्षिप्त भाषण वाकपटुता से युक्त थे और जिनके विजयोल्लास की समुचित पराकाष्ठा हैलेलुजा कोरस के अपोलो क्लब के द्वारा उत्कृष्ट प्रस्तुति में हुई, तथापि जितनी अच्छी तरह सम्मेलन की भावनाओं, सीमाओं और सुंदर प्रभावों को हिंदू संन्यासी ने व्यक्त किया, उतना और किसी ने भी नहीं किया। मैं उनके भाषण की पूरी प्रतिलिपि दे रहा हूँ, किंतु मैं श्रोताओं पर उसके प्रभाव मात्र की ओर संकेत कर सकता हूँ, क्योंकि वे दैवी अधिकार द्वारा सिद्ध वक्ता हैं। उनका सुदृढ़ बुद्धि संपन्न चेहरा, पीले और नारंगी रंग के वस्त्रों की रंगीन पृष्ठभूमि में उनके द्वारा उद्घोषित ह्रदय प्रसूत शब्दों और लययुक्त वक्तव्यों से कुछ कम आकर्षक नहीं था।... (स्वामीजी के अंतिम भाषण में एक बड़े अंश के उद्धरण के पश्चात लेख आगे चलता है:)
संभवत: सम्मेलन का सर्वाधिक प्रत्यक्ष परिणाम विदेशी मिशनों (धर्मप्रचार संघों) के संबंध में लोगों के ह्रदय में भावना उत्पन्न करना था। विद्वान् पूर्ववालों को शिक्षा देने के लिए अर्द्धशिक्षित विद्यार्थियों को भेजने की धृष्टता अंग्रेजी भाषा-भाषी जनता के सामने इतनी प्रबलता से कभी भी स्पष्ट नहीं हुई थी। केवल सहिष्णुता और सहानुभूति की भावना से ही हमें उनके विश्वासों को प्रभावित करने की स्वतंत्रता है, और इन गुणोंवाले उपदेशक बहुत कम हैं। यह समझ लेना आवश्यक है कि हमें बौद्धों से ठीक उतना ही सीखना है, जितना कि उन्हें हमसे और केवल सामंजस्य द्वारा ही उच्चतम प्रभाव डाला जा सकता है।
शिकागो, 3 अक्तूबर, 1893 लूसी मोनरो
['महासम्मेलन के महत्व के संबंध में मनोभाव अथवा अभिमत' के लिए 1 अक्तूबर, 1893 के 'न्यूयार्क वर्ल्ड' द्वारा प्रत्येक प्रतिनिधि के अनुरोध किए जाने पर स्वामी जी ने एक गीता से तथा एक व्यास से उद्धरण देकर उत्तर दिया:]
''प्रत्येक धर्म में विद्यमान रहनेवाला मैं ही मैं हूँ - उस सूत्र की भाँति जिसमें मणियाँ पिरोयी रहती हैं।'' ''पवित्र, पूर्ण और निर्मल व्यक्ति सभी धर्मों में पाए जाते हैं; अत: वे सभी सत्य की ओर से जाते हैं- क्योंकि विष से अमृत नहीं निकल सकता।''
व्यक्तिगत विशेषताएँ
(क्रिटिक, 7 अक्तूबर, 1893)
…धर्म-महासभा के आविर्भाव ने ही अस तथ्य के प्रति हमारी आँखें खोल दीं कि प्राचीन धर्मों के तत्त्वदर्शन में आधुनिकों के लिए बहुत अधिक सौंदर्य है। जब हमने स्पष्ट रूप से यह देख लिया, तब शीघ्र ही उनके व्याख्याताओं में हमारी रुचि उत्पन्न हुई और एक विशेष उत्सुकता के साथ हम ज्ञान की खोज के लिए अग्रसर हुए। महासम्मेलन की समाप्ति पर इसे प्राप्त करने का सबसे अधिक सुलभ साधन स्वामी विवेकानन्द के भाषण और प्रवचन थे, जो अब भी इस शहर (शिकागो) में हैं। उनका इस देश में आने का मूल उद्देश्य अमेरिकावालों को हिंदुओं में नए उद्योगों को स्थापित करने के लिए प्रेरित करना था, किंतु फिलहाल उन्होंने इसे स्थगित कर दिया है, क्योंकि उनका अनुभव है कि 'अमेरिकन लोग दुनिया में सबसे अधिक दानशील हैं', अत: प्रत्येक उद्देश्ययुक्त व्यक्ति उसे कार्यान्वित करने के' लिए यहाँ सहायता प्राप्त करने आता है। जब उनसे यहाँ के और भारत के गरीबों की तुलनात्मक दशा के बारे में पूछा गया, तब उन्होंने बताया कि हमारे (अमेरिका के) गरीब वहाँ राजा होंगे और यहाँ के खराब से खराब मुहल्ले में जाने पर वे उन्हें अपने दृष्टिकोण से सुखप्रद और सुंदर ही लगे।
ब्राह्मणों में ब्राह्मण विवेकानन्द ने संन्यासियों के भ्रातृमंडल में प्रवेश करने के लिए अपने वर्ग का परित्याग कर दिया; वहाँ समस्त जात्यभिमान स्वेच्छा से त्याग दिया जाता है। तो भी उनके व्यक्तित्व पर उनकी जाति के चिह्न विद्यमान हैं। उनकी संस्कृति, उनकी वाग्मिता और उनके आकर्षक व्यक्तित्व ने हमें हिंदू सभ्यता का एक नया भाव प्रदान किया। वे एक रोचक व्यक्ति हैं और पीले वस्त्रों की भूमिका में उनका सुंदर, बुद्धिमत्तापूर्ण, क्रियाशील चेहरा तथा गंभीर संगीत-मय स्वर किसी को भी तुरंत अपने पक्ष में आकृष्ट कर लेता है। अत: इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बुद्ध के जीवन तथा उनके मत के सिद्धातों का हम लोगों द्वारा परिचय प्राप्त कर लेने तक उन्हें साहित्य गोष्ठियों के द्वारा अपनाया गया है और उन्होंने गिरजाघरों में उपदेश तथा भाषण दिए हैं। वे बिना कुछ लिखे हुए भाषण देते हैं तथा अपने तथ्यों और निष्कर्षों को श्रेष्ठतम कला एवं अति विश्वसनीय सदाशयता के साथ प्रस्तुत करते हैं; कभी कभी सुंदर एवं प्रेरक वाग्मिता के स्तर पर पहुँच जाते हैं। देखने में वे अति कुशल जेसुइट की भाँति विद्वान् और सुसंस्कृत होते हुए अपने मानसिक गठन में कुछ जेसुइट तत्त्व रखते हैं। किंतु यद्यपि उनके द्वारा अपने भाषणों में छोड़े जानेवाले छोटे- छोटे व्यंग्य तलवार से भी अधिक तेज होते हैं, वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि उनके बहुत से श्रोता उन्हें समझ नहीं पाते। सब कुछ होते हुए वे शिष्टाचार में कभी नहीं चूकते, क्योंकि उनके ये प्रहार कभी भी हमारी प्रथाओं पर इतने सीधे नहीं पड़ते कि वे कठोर प्रतीत हों। संप्रति वे हमें अपने धर्म एवं उसके दार्शनिकों के विचार से अवगत कराने के कार्य से ही संतुष्ट हैं। वे उस समय की प्रतीक्षा में है, जब हम मूर्तिपूजा के स्तर से आगे बढ़ जाएंगे- उनके मत से यह इस समय ज्ञानविहीन वर्गों के लिए आवश्यक है- पूजा से परे, प्रकृति में ईश्वर की विद्यमानता और मानव के दायित्व और दिव्यत्व के भी ज्ञान से परे। ''अपना मोक्ष अपने आप उपलब्ध करो'', वे बुद्ध की मृत्यु के समय के वचनों के साथ कहते हैं, ''मैं तुम्हें सहायता नहीं दे सकता। कोई भी मनुष्य तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। अपनी सहायता स्वयं करो।''
- लूसी मोनरो
पुनर्जन्म
(इवैन्स्टन इन्डेक्स , 7 अक्तूबर , 1893)
पिछले सप्ताह 'काँग्रगेशनल चर्च' में भाषणों का कुछ ऐसा क्रम रहा है, जिसका ढंग अभी समाप्त हुए धर्म-महासभा से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। वक्ता स्वेडन के डॉ. कार्ल वॉन बरगेन तथा हिंदू संन्यासी विवेकानन्द थे।.... स्वामी विवेकानन्द धर्म-महासभा में आए हुए भारतीय प्रतिनिधि हैं। अपनी नारंगी रंग की विशिष्ट पोशाक, चुंबकीय व्यक्तित्व, कुशल वक्तृता और हिंदू दर्शन की विस्मयकारक व्याख्या के कारण उन्होंने बहुत अधिक लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। जब से वे शिकागो में है, उनका उल्लासपूर्ण स्वागत हो रहा है। इन भाषणों का क्रम तीन दिन संध्या काल चलने के लिए आयोजित किया गया।
(शनिवार और मंगलवार के भाषण बिना किसी टिप्पणी के उद्धृत किए गए; पश्चात् लेख आगे चलता है:)
बृहस्पतिवार, अक्तूबर 5 की शाम को डॉ. वॉन बरगेन 'स्वेडन श्री राजपुत्रियों के स्थापनकर्ता, हल्डाइन बीमिश' के ऊपर बोले तथा हिंदू संन्यासी ने 'पुनर्जन्म' विषय पर विचार किया। दूसरे (वक्ता) बड़े रोचक थे, क्योंकि उनके विचार ऐसे थे, जैसे कि पृथ्वी के इस भाग में बहुधा सुनने में नहीं आते। इस सिद्धांत के रूप में नहीं मानते, वे भी इसके विरोध में कुछ नहीं कहते। इस सिद्धांत के संबंध में सबसे मुख्य बात इस बात का निर्णय करने में है कि हमारा कोई अतीत भी है। हमें विदित है कि हमारा वर्तमान है और भविष्य के होने के संबंध में हमें विश्वास है। किंतु बिना अतीत के वर्तमान कैसे संभव है? आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दियाहै कि जड़ पदार्थ है और बना रहता है। सृष्टि केवल उसका रूपांतर है। हमारा उद्भव शून्य से नहीं हुआ। कुछ लोग ईश्वर को प्रत्येक वस्तु का सर्वनिष्ठ कारण मानते हैं और इसे अस्तित्व का पर्याप्त हेतु समझते हैं। परंतु प्रत्येक वस्तु में हमें दृश्य-रूप का विचार करना चाहिए कि कहाँ से और किससे जड़ पदार्थ उद्भूत होता है। जो तर्क इस बात को सिद्ध करता है कि भविष्य है, वही इस बात को भी सिद्ध करता है कि अतीत है। यह आवश्यक है कि ईश्वर की इच्छा के अतिरिक्त अन्य कारण हों। आनुवंशिकता पर्याप्त कारण प्रदान करने में असमर्थ है। कुछ लोग कहते हैं कि हमें पिछले अस्तित्व का ज्ञान नहीं है। बहुत से ऐसे उदाहरण मिले हैं, जिनमें अतीत की स्पष्ट स्मृति मिलती है। यहीं इस सिद्धांत के बीजाणु विद्यमान हैं। हिंदू मूक पशुओं के प्रति दयालु, हैं, इस कारण बहुत से लोग यह सोचते हैं कि हम लोग निम्नतर योनियों में आत्मा के पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं। वे दया को अंधविश्वास के परिणाम के अतिरिक्त अन्य किसी कारण से उद्भूत मानने में असमर्थ हैं। एक प्राचीन हिंदू पंडित, जो कुछ हमें ऊपर उठाता है उसे, धर्म कहता है। पशुता बहिष्कृत हो जाती है और मानवता दिव्यता के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। पुनर्जन्म का सिद्धांत मनुष्य को इस छोटी सी पृथ्वी तक ही सीमित नहीं कर देता। उसकी आत्मा दूसरी उच्चतर पृथ्वियों में जा सकती है, जहाँ उसका उच्चतर अस्तित्व होगा, पाँच इंद्रियों के बजाय आठ इंद्रियोंवाला होगा और इस तरह बना रहकर वह अंत में पूर्णता और दिव्यता की पराकाष्ठा तक पहुँचेगा और 'परमानंद के द्वीप' में विस्मरण को पीकर छक सकेगा।
हिंदू सभ्यता
(यद्यपि 9 अक्तूबर को स्ट्रियेटर में दिया गया भाषण श्रोताओं की एक अच्छी संख्या द्वारा सुना गया , पर 9 अक्तूबर के ' स्ट्रियेटर डेली फ़्रीप्रेस ' ने निम्नलिखित नीरस सी टिप्पणी प्रकाशित की:)
'आपेरा हाउस' में इस सुविख्यात हिंदू का भाषण अत्यंत रोचक था। उन्होंने तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के द्वारा आर्य जातियों और अमेरिका में उनके वंशजों के बीच के चिरस्वीकृत संबंध को सिद्ध करने का प्रयत्न किया। उन्होंने तीन चौथाई जनता को नितांत अपमानजनक पराधीनता में रखनेवाली जाति-प्रथा का नरमी के साथ समर्थन किया और गर्वपूर्वक कहा कि आज का भारत वही भारत है, जिसके शताब्दियों से दुनिया के उल्का के समान राष्ट्रों को अंतरिक्ष में चमकते हुए और विस्मृति के गर्भ में डूबते हुए देखा है। जनसाधारण की भाँति उन्हें अतीत से प्रेम है। उनका जीवन अपने लिए नहीं, अपितु ईश्वर के लिए है। उनके देश में भिक्षावृत्ति और भ्रमणशीलता को बहुत बड़ी बात समझा जाता है, यद्यपि यह बात उनके भाषण में इतनी प्रमुख नहीं थी। जब भोजन तैयार हो जाता है, तब लोग किसी ऐसे व्यक्ति के आने की प्रतीक्षा करते हैं, जिसे पहले भोजन कराया जाय, इसके पश्चात् पशु, नौकर, गृहस्वामी और सबसे बाद घर की स्त्रियाँ। दस वर्ष की अवस्था में बालकों को ले लिया जाता है और गुरु के पास दस अथवा बीस वर्ष तक रखते हैं, उन्हें शिक्षा दी जाती है और अपने पहले के पेशे में लग जाने के लिए भेज दिया जाता है, अथवा वे निरंतर भ्रमण, प्रवचन, उपासना के जीवन को स्वीकार करते हैं; वे अपने साथ खाने-पहनने की दी हुई वस्तु मात्र रखते हैं, धन को कभी स्पर्श नहीं करते। विवेकानन्द पिछले वर्ग के हैं। वृद्धावस्था आने पर लोग संसार से संन्यास ले लेते हैं और कुछ समय अध्ययन और उपासना में लगाकर वे भी धर्म-प्रचार के लिए निकल पड़ते हैं। उन्होंने कहा कि बौद्धिक विकास के लिए अवकाश आवश्यक है और अमेरिका के आदिवासियों को, जिन्हें कोलंबस ने जंगली दशा में पाया था, अमेरिकावालों के द्वारा शिक्षित न किए जाने की आलोचना की। इसमें उन्होंने परिस्थितियों के ज्ञान के अभाव का प्रदर्शन किया। उनका भाषण निराशाजनक रूप से संक्षिप्त था और जो कुछ कहा गया, उसकी अपेक्षा बहुत कुछ महत्वपूर्ण प्रतीत होनेवाली बातें छूट गयी थीं [4] ?
एक रोचक भाषण
(विस्कोन्सिन स्टेट जर्नल , २१ नवंबर , १८९३)
पिछली रात काँग्रेगेशनल चर्च (मैडिसन) में विख्यात हिंदू संन्यासी विवेकानन्द द्वारा दिया हुआ भाषण अत्यंत रोचक था और उसमें ठोस दर्शन और श्रेष्ठ धर्म की बहुत सी बातें थीं। यद्यपि वे मूर्तिपूजक कहे जा सकते हैं, पर ईसाई धर्म उनके द्वारा प्रदत्त अनेक शिक्षाओं का अनुसरण कर सकता है। उसका धर्म विश्व की तरह व्यापक है, जिसमें सभी धर्मों और कहीं भी पाए जानेवाले सत्य का समावेश है। उन्होंने इस बात की घोषणा की कि 'भारतीय धर्म' में धर्मांधता, अंधविश्वास और जड़ विधि-विधान का कोई स्थान नहीं है।
हिंदू धर्म
(मिनियापोलिस स्टार , 25 नवंबर , 1893)
पिछली शाम को फ़र्स्ट यूनिटेरियन चर्च (मिनियापोलिस) में हिंदू धर्म की व्याख्या करते समय प्राचीन एवं सनातन सिद्धातों के मूर्त रूप होने के कारण समस्त सूक्ष्म आकर्षणों से समन्वित ब्राह्मण धर्म स्वामी विवेकानन्द के भाषण का विषय था। यह ऐसे श्रोताओं का समुदाय था, जिसमें विचारशील स्त्री-पुरुष सम्मिलित थे, क्योंकि यह भाषण 'पेरिपैटेटिक्स' द्वारा आमंत्रित किया गया था और जिन मित्रों को उनके साथ यह सौभाग्य प्राप्त हुआ था, उनमें विभिन्न श्रेणियों के पुरोहित, विद्वान् और विद्यार्थी सम्मिलित थे। विवकानंद एक ब्राह्मण साधु हैं और वे मंच पर अपने देश की पोशाक - सिर पर पगड़ी, नारंगी रंग का कोट, जो कमर पर लाल बंद से कसा हुआ था और लाल अधोवस्त्र - पहने हुए, आसीन थे।
उन्होंने धीरे- धीरे और स्पष्ट बोलते हुए तथा द्रूतगति की अपेक्षा वाणी की सौम्यता के द्वारा अपने श्रोताओं को क़ायल करते हुए अपने धर्म को पूरी ईमानदारी के साथ सामने रखा। उनके शब्द सावधानी से चुने हुए थे और प्रत्येक शब्द अपना अर्थ प्रत्यक्ष ही व्यक्त करता था। उन्होंने हिंदू धर्म के सरलतम सत्यों को प्रस्तुत किया और यद्यपि ईसाई धर्म के प्रति कोई कड़ी बात नहीं कही, फिर भी उसकी ओर ऐसे संकेत अवश्य किए, जिससे ब्रह्मा का धर्म सर्वोपरि ठहराया गया। हिंदू धर्म का सर्वव्यापी विचार तथा प्रमुख सिद्धांत आत्मा का अंर्तनिहित दिव्यत्व है। आत्मा पूर्ण है और धर्म मनुष्य में पहले से ही विद्यमान दिव्यत्व की अभिव्यक्ति है। वर्तमान, अतीत और भविष्य के तथा मनुष्य की दो प्रवृत्तियों के बीच में एक विभाजन रेखा मात्र है। यदि सत् प्रबल होता हैं, वह उच्चतर लोक प्राप्त करता हैऔर यदि असत् शक्तिशाली हो जाता है, तो उसका पतन होता है। उसके भीतर ये दोनों प्रवृत्तियाँ निरंतर क्रियाशील रहती हैं - जो कुछ उसे उठाता है, वह शुभ है और जो कुछ उसे गिराता है, वह अशुभ है।
विवेकानन्द कल प्रात:काल 'फर्स्ट यूनिटेरियन चर्च' में भाषण देंगे।
* * *
(डेस मोइन्स न्यूज , 28 नवंबर , 1983)
पिछली रात्रि (27 नवंबर) सूदूर भारतवर्ष के प्रतिभाशाली विद्वान् स्वामी विवेकानन्द ने सेन्ट्रल चर्च में भाषण दिया। शिकागो में विश्व-मेला के अवसर पर आयोजित हाल के धर्म-सम्मेलन में वे अपने देश और धर्म के प्रतिनिधि थे। रेवरेण्ड एच. ओ. ब्रीडन ने श्रोताओं से उनका परिचय कराया। वे उठे और उन्होंने श्रोताओं को नमस्कार करके अपना भाषण प्रारंभ किया, जिसका विषय ''हिंदू धर्म'' था। उनका भाषण किसी विचारधारा से सीमित नहीं था, किंतु उसमें अधिकतर उनके धर्म तथा दूसरों के धर्मों से संबंधित दार्शनिक विचार थे। उनका मत है कि पूर्ण ईसाई बनने के लिए व्यक्ति को सभी धर्मों को अंगीकार करना चाहिए। जो एक धर्म में प्राप्य नहीं है, उसकी दूसरे धर्म के द्वारा पूर्ति होती है। सच्चे ईसाई के लिए वे सब ठीक और आवश्यक हैं। जब तुम हमारे देश को कोई धर्मप्रचारक भेजते हो, तब वह हिंदू ईसाई बन जाता है और मैं ईसाई हिंदू। मुझसे इस देश में बहुधा पूछा गया है कि क्या मैं यहाँ लोगों का धर्म-परिवर्तन करूँगा। मैं इसे अपमानजनक समझता हूँ। मैं धर्म-परिवर्तन जैसे विचार में विश्वास नहीं रखता। [5] आज एक पापी मनुष्य है, तुम्हारे विचारानुसार कल वह धर्मात्मा हो सकता है और क्रमश: वह पवित्रता की स्थिति तक पहुँच सकता है। यह परिवर्तन किस कारण होता है? तुम इसकी व्याख्या किस प्रकार करोगे। उस मनुष्य की नयी आत्मा तो नहीं हुई, क्योंकि ऐसा होने पर आत्मा के लिए मृत्यु आवश्यक है। तुम कहते हो कि ईश्वर ने उसका रूपांतर कर दिया। ईश्वर पूर्ण, सर्वशक्तिमान और स्वयं शुद्ध है। तब तो इस मनुष्य के धर्म-ग्रहण के पश्चात् उस इर्श्वर में ओर सब कुछ रहता है परंतु पवित्रता का उतना अंश, जितना उसने उस व्यक्ति को पवित्र करने के लिए प्रदान किया, कम हो जाता है। हमारे देश में दो ऐसे शब्द हैं, जिनका इस देश में वहाँ की अपेक्षा बिल्कुल भिन्न अर्थ है। वे शब्द 'धर्म' और 'पंथ' है। हम मानते हैं कि धर्म के अंतर्गत सभी धर्म आ जाते हैं। हम असहिष्णुता के अतिरिक्त सब कुछ सहन कर लेते हैं। फिर 'पंथ' शब्द है। यहाँ यह उन सुह्दों को अपने अंतर्गत लेता है, जो अपने को उदारता के आवरण से ढक लेते हैं और कहते है ''हम ठीक हैं, तुम गलत हो।'' इस प्रसंग में मुझे दो मेढकों की कहानी याद आती है। एक मेढक कुएँ में पैदा हुआ और आजीवन उसी कुएँ में रहा। एक दिन एक समूद्र का मेढक उस कुएँ में आ पड़ा और उन दोनों के बीच समुद्र के बारे में चर्चा होने लगी। कुएँ के मेढ़क ने आगंतुक से पूछा कि समुद्र कितना बड़ा है, किंतु वह कोई बोधगम्य उत्तर पाने में समर्थ न हुआ। तब कुएँ के मेढक ने कुएँ के एक छोर से दूसरे छोर तक उछलकर पूछा कि क्या समुद्र इतना बड़ा है। उसने कहा, ''हाँ''। वह मेढक फिर उछला और बोला, ''क्या समुद्र इतना बड़ा है?'' और स्वीकारात्मक उत्तर पाकर वह अपने आप कहने लगा, ''यह मेढक अवश्य ही झूठा है। मैं इसे अपने कुएँ से बाहर निकाल दूँगा।'' पंथों के संबंध में भी ऐसी ही बात है। वे अपने से भिन्न विश्वास करनेवालों को पददलित और बहिष्कृत करने के लिए कटिबद्ध रहते हैं।
* * *
हिंदू संन्यासी
(अपील-एवंलांश , 16 जनवरी , 1894)
हिंदू संन्यासी विवेकानन्द, जो आज रात को ऑडिटोरियम (मेमफि़स) में भाषण देंगे, इस देश में धार्मिक अथवा भाषण मंच पर उपस्थित होनेवालों में सर्वश्रेष्ठ वक्ता हैं। उनकी अप्रतिम वक्तृता, रहस्यमय बातों में गंभीर अंतदृष्टि, तर्ककुशलता एवं महान् निष्ठा ने विश्व-मेला के धर्म-सम्मेलन में भाग लेनेवाले संसार के सभी विचारवान व्यक्तियों का विशेष ध्यान आकृष्ट किया और उन हज़ारों लोगों ने उनकी सराहना की, जिन्होंने यूनियन के विभिन्न राज्यों में उनकी भाषण-यात्राओं में उन्हें सुना था।
वार्तालाप में वे अत्यधिक आनंददायक सभ्य व्यक्ति हैं, उनके शब्द-चयन में अंग्रेजी भाषा के रत्न दृष्टिगोचर होते हैं और उनका सामान्य व्यवहार उन्हें पश्चिमी शिष्टाचार और रीति-रिवाज़ के अन्यतम सुसंस्कृत लोगों की श्रेणी में ला देता है। साथी के रूप में वे बड़े मोहक व्यक्ति हैं और संभाषणकर्ता के रूप में शायद पश्चिमी देशों के शहरों की किसी भी बैठक में उनसे बढ़कर कोई भी नहीं निकल सकता। वे केवल स्पष्टतापूर्वक ही अंग्रेजी नहीं बोलते, धाराप्रवाह भी बोलते हैं और उनके भाव, स्फुलिंग के समान नए होते हुए भी, उनकी जिह्वा से आलंकारिक भाषा के आश्चर्यजनक प्रवाह में निकलते हैं।
स्वामी विवेकानन्द अपने पैतृक धर्म अथवा प्रारंभिक शिक्षा द्वारा एक ब्राह्मण के रूप में बड़े हुए। किंतु हिंदू धर्म में दीक्षित होकर उन्होंने अपनी जाति को त्याग दिया और हिंदू पुरोहित अथवा जैसा कि हिंदू आदर्श के अनुसार उनके देश में विदित है, वे संन्यासी हुए। ईश्वर के उच्च भाव से उद्भूत प्रकृति के आश्चर्यजनक और रहस्यमय क्रिया-कलापों के वे सदैव अन्यतम विद्यार्थी रहे हैं और उस पूर्वीय देश के उच्चतर विद्यालयों में शिक्षक और विद्यार्थी दोनों रूपों में अनेक वर्ष बिताकर उन्होंने ऐसा ज्ञान प्राप्त किया है, जिससे उनको युग के सर्वश्रेष्ठ विचारक विद्वानों में गिने जाने की विश्वविश्रुत ख्याति प्राप्त हुई है।
विश्व-मेला सम्मेलन में उनके प्रथम आश्चर्यजनक भाषण ने तुरंत उनके धार्मिक विचारकों की उस महान् संस्था के नेता होने की मुरह लगा दी। अधिवेशन में बहुधा उन्हें अपने धर्म का समर्थन करते हुए सुना गया और मनुष्य के मनुष्य के प्रति तथा सृष्टिकर्ता के प्रति कर्तव्यों का चित्र खींचते समय उनके ओठों से अंग्रेज़ी भाषा की शोभा बढ़ानेवाले सर्वश्रेष्ठ सुंदर और दार्शनिक रत्नों में से कुछ प्राप्त हुए। वे विचारों में कलाकार, विश्वास में आदर्शवादी और मंच पर नाटककार हैं।
जब वे मेमफि़स आए, तब से मि. हु एल. ब्रिन्कले के अतिथि हैं, जहाँ पर अपने प्रति श्रद्धा प्रकट करने की इच्छा रखनेवाले बहुत से लोगों से उन्होंने दिन में और संध्याकाल भेंट की है। वे टेनेसी क्लब के भी अनौपचारिक अतिथि हैं और शनिवार की शाम को श्रीमती एस. आर. शेपार्ड द्वारा आयोजित स्वागत में अतिथि थे। रविवार को कर्नल आर. बी. स्नोडेन ने एनेसडेल में अपने घर पर विशिष्ट अतिथि के सम्मान में एक भोज दिया, जहाँ पर सहायक विशप टामस एफ. गेलर, रेवरेण्ड डॉ. जॉर्ज पैटर्सन और अनेक दूसरे पादरियों से उनकी भेंट हुई।
कल अपराह्न उन्होंने रानडॉल्फ बिल्डिंग में 'नाइन्टीन्थ सेंचुरी क्लब' के कमरों में उसके सदस्यों के एक बड़े और शौक़ीन श्रोता-समूह के सम्मुख भाषण दिया। आज रात को ऑडिटोरियम में 'हिंदुत्व' पर उनका भाषण होगा।
सहिष्णुता के लिए युक्ति
(मेमफिस कर्मीशयल , 17 जनवरी , 1894)
कल रात प्रसिद्ध हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द के हिंदूत्व पर होनेवाले भाषण में उनका स्वागत करने के लिए ऑडिटोरियम में पर्याप्त संख्या में श्रोता उपस्थित हुए। न्यायाधीश आर. जे. मारगन ने उनका संक्षिप्त किंतु सूचनात्मक परिचय दिया और महान् आर्य जाति की, जिसके विकास से यूरोपीय जातियों तथा हिंदू जाति का समान रूप से आविर्भाव हुआ है, एक रूपरेखा प्रस्तुत की तथा इस प्रकार बोलने के लिए प्रस्तुत वक्ता और अमेरिकन जाति के बीच के जातीय संबंध का इतिहास बताया।
लोगों ने सुविख्यात पूर्वदेशीय का उदार करतल ध्वनि के साथ स्वागत किया और आद्योपांत ध्यानपूर्वक उनकी बात सुनी। वे सुंदर शारीरिक आकृतिवाले व्यक्ति हैं और उनका सुगठित काँसे के रंग का रूप और सुंदर अनुपातवाला शरीर है। वे गुलाबी रेशम की पोशाक पहने हुए थे, जो कमर पर एक काले बंद से कसी हुई थी, काला पतलून पहने थे और उनके मस्तक पर भारतीय रेशम की पीली पगड़ी सँवार कर बाँधी गयी थी। उनका उच्चारण अति सुंदर है और जहाँ तक शब्दों के चयन तथा व्याकरण की शुद्धता और रचना का संबंध है, उनका अंग्रेजी का व्यवहार पूर्ण है। उच्चारण में जो कुछ भी अशुद्धता है, वह केवल कभी कभी गलत शब्दांश पर बल दे देने की है। पर ध्यानपूर्वक सुननेवाले शायद ही कोई शब्द न समझ पाते हों, और उनके अवधान का सुंदर फल उन्हें मौलिक विचार, ज्ञान और व्यापक प्रज्ञा से परिपूर्ण भाषण के रूप में उपलब्ध हुआ। इस भाषण को सार्वभौम सहिष्णुता कहना उचित हो सकता है, जिसमें भारतीय धर्म से संबंधित कथनों के उदाहरण हैं। उन्होंने कहा कि यह भावना, सहिष्णुता और प्रेम की भावना, सभी अच्छे धर्मों की केंद्रीभूत प्रेरणा है और उनका विचार है कि उसको प्राप्त करना किसी भी मत का अभीष्ट लक्ष्य है।
हिंदूत्व के संबंध में उनकी परिचर्चा अधिकांशत: वृत्तानुमेय नहीं थी। उनका प्रयत्न उसकी पुराण-कथाओं और उसके रूपों का चित्र प्रस्तुत करने की अपेक्षा उसके भाव-तत्त्व का विश्लेषण करना था। उन्होंने अपने धर्मविश्वास या अनुष्ठानों की प्रमुख विशिष्टताओं पर बहुत कम विवेचन किया। किंतु उनको उन्होंने बड़ी स्पष्टता और पारदर्शिता के साथ समझाया। उन्होंने हिंदुत्व की उन रहस्यमय विशेषताओं का सजीव वर्णन किया, जिनसे बहुधा गलत समझा जानेवाला पुनर्जन्म का सिद्धांत विकसित हुआ है। उन्होंने समझाया कि किस प्रकार धर्म समय के विभेदीकरण की अवहेलना करता है, किस प्रकार सभी लोगों की आत्मा के वर्तमान और भविष्य में विश्वास करने के कारण 'ब्रह्मा का धर्म' (हिंदुत्व) अपने अतीत पर भी विश्वास करता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि किस प्रकार उनका धर्म 'मौलिक पाप' में विश्वास नहीं करता और सभी प्रयत्नों और अभीप्साओं को मानवता की पूर्णता पर आधारित करता है। उनका कहना है कि सुधार और शुद्धि का आधार आशा होनी चाहिए। मनुष्य का विकास उसका मूल पूर्णता की ओर लौटना है। यह पूर्णत्व पवित्रता और प्रेम की साधना से ही आ सकता है। यहाँ उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार उनके देशवासियों ने इन गुणों की साधना की है, किस प्रकार भारत उत्पीड़ितों की शरण देनेवाला देश रहा है। उन्होंने उदाहरण दिया कि जब टिटस ने जेरूसलम का विध्वंस किया, तब यहूदियों का हिंदुओं द्वारा स्वागत किया गया था।
बड़ी स्पष्टतापूर्वक उन्होंने बताया कि हिंदू लोग बाह्यकारों पर बहुत ज़ोर नहीं देते। कभी-कभी तो परिवार का प्रत्येक व्यक्ति संप्रदायों के अनुसरण में एक दूसरे से भिन्न होता है, किंतु सभी ईश्वर के केंद्रीय गुण प्रेम-भाव की उपासना करते हुए ईश्वर की उपासना करते हैं। वे कहते है कि हिंदू मानता है कि सभी धर्मों में अच्छाई है, सभी धर्म मनुष्य की पवित्रता की अंत:प्रेरणा के प्रतीक हैं और इसलिए सभी का सम्मान किया जाना चाहिए। उन्होंने वेद (?) से एक उद्धरण देते हुए इसे समझाया, जिसमें विभिन्न धर्म भिन्न-भिन्न रूप के बने हुए घड़ों के प्रतीक के रूप में कहे गए हैं, जिनको लेकर विभिन्न लोग एक झरने में पानी भरने आते हैं। घड़ों के रूप तो बहुत से हैं, किंतु जिस चीज को सभी लोग अपने घड़ों में भरना चाहते हैं, वह सत्य रूपी जल है, उनके अनुसार ईश्वर सभी प्रकार के विश्वासों को जानता है और चाहे जो भी कहकर पुकारा जाय, वह अपने नाम को अथवा मिलनेवाली श्रद्धा को,चाहे वह जिस ढंग की हो, पहचान लेगा।
उन्होंने आगे कहा कि हिंदू उसी ईश्वर की उपासना करते हैं, जिसकी ईसाई करते हैं। हिंदू त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु और शिव केवल सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और विनाशकर्ता ईश्वर के प्रतीक हैं। इन तीन को एक के बजाय तीन मानना केवल एक गलतफहमी है, जिसका कारण है कि सामान्य मानवता अपने नीतिशास्त्र को एक मूर्त रूप अवश्य प्रदान करती है। अत: इसी प्रकार हिंदू देवताओं की भौतिक मूर्तियाँ दिव्य गुणों की प्रतीक मात्र हैं। पुनर्जन्म के हिंदू सिद्धांत की व्याख्या करतेहुए उन्होंने कृष्ण की कहानी सुनायी, जो निष्कलंक गर्भाधान से उत्पन्न हुए और जिनकी कथा ईसा की कथा से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। उनका दावा है कि कृष्ण की शिक्षा प्रेम के लिए प्रेम की शिक्षा है और उन्होंने इस तथ्य को इन शब्दों में प्रकट किया है, 'यदि प्रभु का भय धर्म का प्रारंभ है, तो ईश्वर का प्रेम उसका अंत है।'
उनके समस्त भाषण को यहाँ अंकित करना कठिन है, किंतु वह बंधुता के प्रेम के लिए एक उत्कृष्ट प्रेरक और एक सुंदर मत का जोशीला समर्थन था। उनका उपसंहार विशेष रूप से सुंदर था, जबकि उन्होंने ईसा को स्वीकार करने के लिए अपने को तैयार बताया, परंतु वे कृष्ण और बुद्ध के सामने अवश्य शीश झुकायेंगे। उन्होंने सभ्यता की निर्दयता का एक सुंदर चित्र उपस्थित करते हुए प्रगति के अपराधों के लिए ईसा को जिम्मेदार ठहराने से इनकार कर दिया।
भारत के रीति-रिवाज़
(अपील-एवलांश , 21 जनवरी , 1894)
हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने कल अपराह्न 'ला सलेट एकेडमी' (मेमफि़स) में एक भाषण दिया। मूसलाधार वर्षा के कारण श्रोताओं की संख्या बहुत कम थी।
'भारत के रीति-रिवाज़' विषय का विवेचन हो रहा था। विवेकानन्द जिस धार्मिक विचार के सिद्धांत का प्रतिपादन कर रहे हैं, वह इस शहर तथा अमेरिका के अन्य शहरों के अधिकतर प्रगतिशील विचारकों के मन में सरलता से स्थान प्राप्त कर लेता है।
उनका सिद्धांत ईसाई शिक्षकों के द्वारा उपदिष्ट पुरातन विश्वास के लिए घातक है। अमेरिका के ईसाइयों की, मूर्तिपूजक भारत के अज्ञानावृत्त मस्तिष्क को प्रकाश प्रदान करने की सर्वाधिक कोशिश रही है, परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि विवेकानंद के धर्म के पूर्वीय तेज ने हमारे पूर्वजों द्वारा उपदिष्ट पुराकालीन ईसाई धर्म के सौंदर्य को अभिभूत कर लिया है और श्रेष्ठतर शिक्षा पाए हुए अमेरिका वासियों के मस्तिष्क में फलने-फूलने के लिए उसे एक उर्वर भूमि प्राप्त हो गयी है।
यह 'धुनों' का युग है और ऐसा प्रतीत होता है कि विवेकानंद एक 'चिरकाल से अनुभूत अभाव' की पूर्ति कर रहे हैं। वे संभवतः अपने देश के सर्वश्रेष्ठ विद्वान हैं और उनमें अद्भुत मात्रा में व्यक्तिगत आकर्षण है तथा उनके श्रोता उनकी वक्तृता पर मुग्ध हो जाते हैं। यद्यपि वे अपने विचारों में उदार हैं तथापि वे पुरातनवादी ईसाई मत में बहुत कम सराहनीय बातें देखते हैं। मेमफि़स में आनेवाले किसी भी धर्मोंपदेशक अथवा वक्ता की अपेक्षा विवेकानंद ने सर्वाधिक ध्यान आकृष्ट किया है।
यदि भारत में जानेवाले मिशनरियों का ऐसा ही स्वागत होता, जैसा कि हिंदू संन्यासी का यहाँ हुआ है, तो मूर्तिपूजक देशों में ईसा की शिक्षाओं के प्रचार का कार्य विशेष गति प्राप्त करता। कल शाम का उनका भाषण ऐतिहासिक दृष्टि से रोचक था। वे अति प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक स्वदेश के इतिहास और परंपरा से पूर्ण परिचित हैं और वहाँ के विभिन्न रोचक स्थानों और वस्तुओं का सुंदर और सहज शैली में वर्णन कर सकते हैं।
अपने भाषण में महिला श्रोताओं के प्रश्नों से बीच बीच में उन्हें अनेक बार रुकना पड़ा और उन्होंने बिना ज़रा भी हिचकिचाहट के उत्तर दिया, केवल एक बार को छोड़कर, जब एक महिला ने उन्हें एक धार्मिक विवाद में घसीटने के उद्देश्य से प्रश्न पूछा। उन्होंने अपने प्रवचन के मूल विषय से अलग जाना अस्वीकार कर दिया और प्रश्नकर्त्री से कहा कि वे किसी दूसरे समय 'आत्मा के पुनर्जन्म' आदि पर अपने विचार प्रकट करेंगे।
अपनी चर्चा में उन्होंने कहा कि उनके पितामह का विवाह तीन वर्ष की आयु में तथा उनके पिता का अठारह वर्ष की आयु में हुआ था, परंतु उन्होंने विवाह नहीं किया। संन्यासी को विवाह करने की मनाही नहीं; किंतु यदि वह पत्नी रखता है, तो वह भी उन्हीं अधिकारों और सुविधाओं से युक्त संन्यासिनी बन जाती है और वही सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करती है, जो उसका पति प्राप्त करता है। [6]
एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि भारत में किसी भी कारण तलाक की व्यवस्था नहीं थी, किंतु यदि चौदह वर्ष के वैवाहिक जीवन के पश्चात् भी परिवार में संतान न हुई हो, तो पत्नी की सहमति से पति दूसरा विवाह कर सकता था; किंतु यदि वह आपत्ति करती, तो वह विवाह नहीं कर सकता था। उनका प्राचीन स्मारकों और मंदिरों का वर्णन अनुपम था और इससे यह प्रकट होता है कि प्राचीन काल के लोग आजकल के कुशलतम कारीगरों की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ वैज्ञानिक ज्ञान रखते थे।
आज रात को स्वामी विवेकानन्द वाई. एम. एच. ए. हाल में इस शहर में अंतिम बार आएंगे। उन्होंने शिकागो के 'स्लेटन लिसेयम ब्यूरो' से इस देश में तीन वर्ष के कार्यक्रम को पूरा करने का अनुबंध किया है। वे कल शिकागो के लिए प्रस्थान करेंगे, जहाँ 25 की रात्रि में उनका एक कार्यक्रम है।
(डिट्राएट ट्रिब्यून , 15 फरवरी , 1894 ई.)
पिछली शाम को जब ब्राह्म समाज के प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने यूनिटी क्लब के तत्वावधान में यूनिटेरियन चर्च में भाषण दिया, तब श्रोताओं की एक बड़ी संख्या को उनका भाषण सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे अपने देश की वेशभूषा में थे और उनका सुंदर चेहरा तथा हष्ट-पुष्ट आकार उन्हें एक विशिष्ट रूप प्रदान कर रहा था। उनकी वक्तृता ने श्रोताओं को ध्यानमग्न कर रखा था और वे बारंबार बीच-बीच में सराहना प्राप्त कर रहे थे। वे भारतीय रीति-रिवाज़ पर बोल रहे थे। उन्होंने विषय को बड़ी सुंदर अंग्रेज़ी में प्रस्तुत किया था। उन्होंने कहा कि वे न तो अपने देश को भारत कहते हैं और न अपने को हिंदू। उनके देश का नाम हिंदुस्तान है और देशवासी ब्राह्मण हैं। प्राचीन काल में वे संस्कृत बोलते थे। उस भाषा में शब्द के अर्थ तथा हेतु की व्याख्या की जाती थी तथा उसे बिल्कुल स्पष्ट कर दिया जाता था, परंतु अब वह सब नहीं है। संस्कृत में 'जुपिटर' का अर्थ था- 'स्वर्ग में पिता'। आजकल उत्तरी भारत की सभी भाषाएँ व्यवहारत: एक ही हैं, किंतु यदि वे देश के दक्षिणी भाग में जाएं, तो लोगों से बात नहीं कर सकते। पिता, माता, बहन, भाई आदि शब्दों को संस्कृत से मिलते-जुलते उच्चारण प्रदान किए। यह तथा दूसरे तथ्य उन्हें यह सोचने को बाध्य करते हैं कि हम सब एक ही नस्ल के हैं- आर्य। प्राय: इस जाति की सभी शाखाओं ने अपनी पहचान खो दी है।
जातियाँ चार थीं - ब्राह्मण, भूमिपति और क्षत्रिय, व्यापारी और कारीगर, तथा श्रमिक और सेवक। पहली तीन जातियों में क्रमश: दस, ग्यारह और तेरह वर्ष की अवस्था से तीस, पच्चीस या बीस वर्ष की आयु तक बच्चों को विश्वविद्यालयों के आचार्यों के सिपुर्द कर दिया जाता था। प्राचीन काल में बालक और बालिका, दोनों को शिक्षा दी जाती थी, किंतु आज केवल बालकों के लिए यह सुविधा है। पर इस चिरकालीन अन्याय को दूर करने की चेष्टा की जा रही है। बर्बर जातियों द्वारा देश का शासन प्रारंभ होने के पूर्व प्राचीन काल में देश के दर्शनशास्त्र और विधि का एक बड़ा अंश स्त्रियों के द्वारा संपादित कार्य है। हिंदुओं की दृष्टि में अब स्त्रियों के अपने अधिकार हैं। उन्हें अब अपना स्वत्व प्राप्त है और कानून अब उनके पक्ष में है।
जब विद्यार्थी विद्यालय से वापस लौटता है, तब उसे विवाह करने की अनुमति प्रदान की जाती है और वह गृहस्थ बनता है। पति और पत्नी के लिए कार्य का भार लेना आवश्यक है और दोनों के अपने अधिकार होते हैं। क्षत्रिय जाति में लड़कियाँ कभी कभी अपना पति चुन सकती हैं, किंतु अन्य सभी में माता-पिता के द्वारा ही व्यवस्था की जाती है। अब बाल विवाह को दूर करने का निरंतर प्रयत्न चल रहा है। विवाह-संस्कार बड़ा सुंदर होता है, एक दूसरे का ह्रदय स्पर्श करता है और वे ईश्वर तथा उपस्थित लोगों के सामने प्रतिज्ञा करते हैं कि वे एक दूसरे के प्रति सच्चे रहैंगे। बिना विवाह किए कोई पुरोहित नहीं हो सकता। जब कोई व्यक्ति, किसी सार्वजनिक पूजा में भाग लेता है, तब उसकी पत्नी उसके साथ रहती है। अपनी उपासना में हिंदू पाँच संस्कारों का अनुष्ठान करता है- ईश्वर, पितरों, दीनों, मूक पशुओं तथा ज्ञान की उपासना। जब तक किसी हिंदू के घर में कुछ भी है, अतिथि को किसी बात की कमी नहीं होती। जब वह संतुष्ट हो जाता है, तब बच्चे, और तब पिता, फिर माँ भोजन ग्रहण करते हैं। वे दुनिया की सबसे गरीब जाति हैं, फिर भी अकाल के समय के सिवा कोई भी भूख से नहीं मरता। सभ्यता एक महान् कार्य है। किंतु तुलना में यह बात कही जाती है कि इंग्लैंड में प्रत्येक चार सौ में एक मद्यप मिलता है, जब कि भारत में यह अनुपात एक लाख में एक है। मृत व्यक्तियों के भी दाह-संस्कार का वर्णन किया गया। कुछ महान् सामंतों को छोड़कर और किसी के संबंध में प्रचार नहीं किया जाता। पंद्रह दिन के उपवास के बाद अपने पूर्वजों की ओर से संबंधियों द्वारा गरीबों को अथवा किसी संस्था की स्थापना के हेतु दान दिया जाता है। नैतिक मामलों में वे सभी जातियों से सर्वोपरि ठहरते हैं।
हिंदू दर्शन
(डिट़ाएट फ्री प्रेस , 16 फ़रवरी , 1894)
हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द का दूसरा भाषण कल शाम को यूनिटेरियन चर्च में बहुसंख्यक और गुणग्राही श्रोताओं के सम्मुख हुआ। श्रोताओं की यह आशा कि वक्ता उन्हें हिंदू दर्शन की जानकारी देंगे, जैसा कि भाषण का शीर्षक था, एक सीमित मात्रा में ही पूर्ण हुई। बुद्ध के दर्शन के प्रसंग उठाए गए और जब वक्ता ने कहा कि बौद्ध धर्म दुनिया का सर्वप्रथम मिशनरी धर्म है और उसने बिना रक्त का एक बूँद गिराए सबसे बड़ी संख्या में लोगों को धर्म-दीक्षा दी है, तब लोगों ने बहुत अधिक हर्षध्वनि की। किंतु उन्होंने श्रोताओं को बुद्ध के धर्म अथवा दर्शन की कोई बात नहीं बतायी। उन्होंने ईसाई धर्म के ऊपर बहुत से हल्के प्रहार किए और उन कष्टों और मुसीबतों की चर्चा की, जो मूर्तिपूजक देशों में उसके प्रचार के कारण उत्पन्न की गयी थीं किंतु उन्होंने कुशलतापूर्वक अपने देश के लोगों की तथा अपने श्रोताओं के देश के लोगों की सामाजिक दशा की तुलना करने से अपने को दूर रखा।
सामान्य ढंग से उन्होंने बताया कि हिंदू तत्त्ववेताओं ने निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की शिक्षा दी, जब कि नए ईसाई सिद्धांत को स्वीकार करने वाले व्यक्ति से कहा जाता है और आशा की जाती है कि वह अपने पूर्व विश्वास को छोड़ दे तथा नवीन को पूर्णरूपेण स्वीकार कर ले। उन्होंने कहा, ''यह एक दिवास्वप्न है कि हम लोगों में सभी के धार्मिक विचार एक ही हो जाएंगे। जब तक विरोधी तत्वों का मन में संघर्ष नहीं होता, तब तक मनोवेग की उत्पत्ति नहीं हो सकती। परिवर्तन की प्रतिक्रिया, नया प्रकाश और प्राचीन को नवीन का अनुदान ही संवेगों की उत्पत्ति करता है।''
(चूँकि प्रथम भाषण ने कुछ लोगों में विरोध-भाव पैदा कर दिया, 'फ्री प्रेस' के संवाददाता ने बहुत सावधानी बरती। तो भी सौभाग्यवश 'डिट्राएट ट्रिब्यून' ने स्वामी जी का निरंतर समर्थन किया और इस प्रकार उसकी 16 फरवरी की रिपोर्ट में हमें उनके द्वारा 'हिंदू दर्शन' पर दिए गए भाषण का कुछ आशय प्राप्त होता है, यद्यपि ट्रिब्यून संवाददाता ने कुछ रूपरेखात्मक विवरण ही लिखा था, ऐसा प्रतीत होता है:)
* * *
(डिट्राएट ट्रिब्यून , 16 फ़रवरी , 1894 ई.)
ब्राह्मण संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने कल शाम को यूनिटेरियन चर्च में पुन: भाषण दिया। उनका विषय 'हिंदू दर्शन' था। वक्ता ने कुछ समय तक सामान्य दर्शन और तत्त्वज्ञान की चर्चा की, परंतु उन्होंने बताया कि वे धर्म से संबंधित अंश की चर्चा के लिए अपने भाषण का उपयोग करेंगे। एक ऐसा संप्रदाय है, जो आत्मा में विश्वास करता है, किंतु वह ईश्वर के संबंध में अज्ञेयवादी है। बुद्धवाद (?) एक महान् नैतिक धर्म था, किंतु ईश्वर में विश्वास न करने के कारण वह बहुत दिन तक जीवित नहीं रह सका। दूसरा संप्रदाय 'जाइन्ट्स' (जैन) आत्मा में विश्वास करता है, परंतु देश के नैतिक शासन में नहीं। भारत में इस संप्रदाय के कई लाख लोग हैं। यह विश्वास करके कि यदि उनकी गर्म साँस यदि किसी मनुष्य या जीव को लगेगी, तो उसका परिणाम मृत्यु होगा, उनके पुरोहित और संन्यासी अपने चेहरे पर एक रूमाल बाँधे रहते हैं।
सनातनियों में सभी लोग श्रुति में विश्वास करते हैं। कुछ लोग सोचते हैं, बाइबिल का प्रत्येक शब्द सीधे ईश्वर से आता है। एक शब्द के अर्थ का विस्तार शायद अधिकांश धर्मों में होता है, किंतु हिंदू धर्म में संस्कृत भाषा है, जो शब्द के पूर्ण आशय और हेतु को सदैव सुरक्षित रखती है।
इस महान् पूर्वीय के विचार से एक छठीं इंद्रिय है, जो उन पाँचों से, जिन्हें कि हम जानते हैं, कहीं अधिक सबल है। वह प्रकाशनारूपी सत्य है। व्यक्ति धर्म की सभी पुस्तकें पढ़ सकता है और फिर भी देश का सबसे बड़ा धूर्त हो सकता है। प्रकाशना का अर्थ है, आध्यात्मिक खोजों के बाद का विवरण।
दूसरी स्थिति, जिसे कुछ लोग मानते हैं, वह सृष्टि है, जिसका आदि या अंत नहीं है। मान लो कि कोई समय था, जब सृष्टि नहीं थी। तब ईश्वर क्या कर रहा था? हिंदुओं की दृष्टि में सृष्टि केवल एकरूप है। एक मनुष्य स्वस्थ शरीर लेकर उत्पन्न होता है, अच्छे परिवार का है और एक धार्मिक व्यक्ति के रूप में बड़ा होता है। दूसरा व्यक्ति विकलांग और अपंग शरीर लेकर जन्म लेता है और एक दृष्ट के रूप में बड़ा होता है तथा दंड भोगता है। पवित्र ईश्वर एक को इतनी सुविधाओं के साथ और दूसरे को इतनी असुविधाओं के साथ क्यों उत्पन्न करता है? व्यक्ति के पास कोई चारा नहीं है। बुरा काम करनेवाला अपने दोष को जानता है। उन्होंने पुण्य और पाप के अंतर को स्पष्ट किया। यदि ईश्वर ने सभी चीजों को अपनी इच्छा से उत्पन्न किया है, तब तो सभी विज्ञानों की इतिश्री हो गयी। मनुष्य कितने नीचे जा सकता है? क्या मनुष्य के लिए फिर से पशु की ओर वापस जाना संभव है?
कानंद को इस बात की प्रसन्नता थी कि वे हिंदू थे। जब रोमनों ने जेरूसलम को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया, तब कई हज़ार यहूदी भारत में आक़र बसे। जब पारसियों को अरबवालों ने उनके देश से भगाया, तब कई हज़ार लोगों ने इसी देश में शरण पायी और किसीके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया गया। हिंदू विश्वास करते हैं कि सभी धर्म सत्य हैं, किंतु उनका धर्म और सभी से प्राचीन है। हिंदू कभी भी मिशनरियों के प्रति दुर्व्यवहार नहीं करते। प्रथम अंग्रेज़ मिशनरी अंग्रेजों के द्वारा ही उस देश में उतरने से रोके गए और एक हिंदू ही ने उनके लिए सिफ़ारिश की ओर सर्वप्रथम उनका स्वागत किया। धर्म वह है, जो सबमें विश्वास करता है। उन्होंने धर्म की तुलना हाथी और अंधे आदमियों से की। प्रत्येक अपने स्थान पर ठीक था, परंतु संपूर्ण रूप के लिए सभी की आवश्यकता थी। हिंदू दार्शनिक कहते है, 'सत्य से सत्य की ओर, निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर।' जो लोग यह सोचते हैं कि किसी समय सभी लोग एक ही तरह सोचेंगे, वे लोग एक निरर्थक स्वप्न देखते हैं, क्योंकि यह तो धर्म की मृत्यु होगी। प्रत्येक धर्म छोटे-छोटे संप्रदायों में विभक्त हो जाता है, प्रत्येक अपने को सत्य कहता है और दूसरों को असत्य। बौद्ध धर्म में यंत्रणा को कोई स्थान नहीं दिया गया है। सर्वप्रथम उन्होंने ही प्रचारक भेजे और वही एक ऐसे हैं, जिन्होंने बिना रक्त का एक बूँद गिराये करोड़ों लोगों को धर्म की दीक्षा दी। अपने तमाम दोषों और अंधविश्वासों के बावजूद हिंदू कभी यंत्रणा नहीं देते। वक्ता ने यह जानना चाहा कि ईसाइयों ने उन अन्यायों को कैसे होने दिया, जो ईसाई देशों में प्रत्येक जगह वर्तमान हैं।
* * *
चमत्कार
(इवनिंग न्यूज , 17 फ़रवरी , 1894 ई.)
इस विषय पर 'न्यूज' के संपादकीय के दिखाए जाने पर विवेकानन्द ने इस पत्र के प्रतिनिधि से कहा, ''मैं अपने धर्म के प्रमाण में कोई चमत्कार करके 'न्यूज' की इच्छा की पूर्ति नहीं कर सकता। पहले तो मैं चमत्कार करनेवाला नहीं हूँ और दूसरे जिस विशुद्ध हिंदू धर्म का मैं प्रतिपादन करता हूँ, वह चमत्कारों पर आधारित नहीं है। मैं चमत्कार जैसी किसी चीज को नहीं मानता। हमारी पंचेंद्रियों के परे कुछ आश्चर्य किए जाते हैं, किंतु वे किसी नियम के अनुसार चलते हैं। मेरे धर्म का उनसे कोई संबंध नहीं है। बहुत सी आश्चर्यजनक चीजें, जो भारत में की जाती हैं और विदेशी पत्रों में जिनका विवरण दिया जाता है, वे हाथ की सफाई और सम्मोहनजन्य भ्रम हैं। वे ज्ञानियों के कार्य नहीं हैं। वे पैसे के लिए बाजारों में अपने चमत्कार प्रदर्शित करते हुए नहीं घूमते। उन्हें वे ही देखते और जानते हैं जो सत्य के ज्ञान के खोजी हैं और जो बालसुलभ उत्सुकता से प्रेरित नहीं हैं।''
मनुष्य का दिव्यत्व
(डिट्राएट फ्री प्रेस , १८ फरवरी , १८९४ ई.)
हिंदू दार्शनिक और साधु, स्वामी विवेकानन्द ने पिछली रात को यूनिटेरियन चर्च में ईश्वर (?) [7] के दिव्यत्व पर बोलते हुए अपनी भाषणमाला अथवा उपदेशों को समाप्त किया मौसम खराब होने पर भी पूर्वीय बंधु- यही कहलाना उन्हें पसंद है-के आने के पूर्व चर्च दरवाजों तक लोगों से भर गया था।
उत्सुक श्रोताओं में सभी पेशों और व्यापारिक वर्ग के लोग सम्मिलित थे- वकील, न्यायाधीश, धार्मिक कार्यकर्ता, व्यापारी, यहूदी पंडित, इसके अतिरिक्त बहुत सी महिलाएँ, जिन्होंने अपनी लगातार उपस्थिति और तीव्र उत्सुकता से रहस्यमय आगंतुक के प्रति ड्राइंगरूम में श्रोताओं का आकर्षण उतना ही अधिक है, जितना कि उनकी मंच की योग्यता के प्रति।
पिछली रात का भाषण पहले भाषणों की अपेक्षा कम वर्णनात्मक था और लगभग दो घंटे तक विवेकानन्द ने मानवीय और ईश्वरीय प्रश्नों का एक दार्श-निक ताना-बाना बुना। वह इतना युक्तिसंगत था कि उन्होंने विज्ञान को एक सामान्य ज्ञान का रूप प्रदान कर दिया। उन्होंने एक सुंदर युक्तिपूर्ण वस्त्र बुना, जो अनेक रंगों से परिपूर्ण था तथा उतना ही आकर्षक और मोहक था, जितना कि हाथ से बुना जानेवाला अनेक रंगों तथा पूर्व की लुभावनी सुगंध से युक्त उनके देश का वस्त्र होता है। ये रहस्यमय सज्जन काव्यालंकारों का उसी प्रकार प्रयोग करते हैं, जिस प्रकार कोई चित्रकार रंगों का उपयोग करता है और रंग वहीं लगाए जाते हैं, जहाँ उन्हें लगना चाहिए। परिणामत: उनका प्रभाव कुछ विचित्र सा होता है, फिर भी उनमें एक विशेष आकर्षण है। तीव्र गति से निकलनेवाले तार्किक निष्कर्ष 'धूप-छाँव' की भाँति थे और समय समय पर कुशल वक्ता को अपने प्रयास की सिद्धि के रूप में उत्साहपूर्ण करतल ध्वनि प्राप्त हुई।
उन्होंने भाषण के प्रारंभ में कहा कि वक्ता से बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। उनमें से कुछ का उन्होंने अलग उत्तर देने के लिए स्वीकार किया, किंतु तीन प्रश्न उन्होंने मंच से उत्तर देने के लिए चुने, जिसका कारण स्पष्ट हो जाएगा। वे थे [8] :
'क्या भारत के लोग अपने बच्चों को घड़ियालों के जबड़ों में झोंक देते हैं?'
'क्या वे जगन्नाक (जगन्नाथ) के पहियों के नीचे दबकर आत्महत्या करते हैं?'
'क्या वे विधवाओं को उनके (मृत) पतियों के साथ जला देते हैं?
प्रथम प्रश्न का उत्तर उन्होंने इस ढंग से दिया, जिस ढंग से कोई अमेरिकन यूरोपीय देशों में प्रचलित न्यूयार्क की सड़कों पर दौड़नेवाले 'रेड इंडियंस तथा वैसी ही किंवदंतियों से संबंधित जिज्ञासाओं का समाधान करे। वक्तव्य इतना हास्यास्पद था कि उस पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती थी। जब कुछ नेकनीयत किंतु अनभिज्ञ लोगों के द्वारा यह पूछा गया कि वे केवल लड़कियों को ही क्यों घड़ियाल के आगे डाल देते हैं, तब वे केवल व्यंग्योक्ति में कह सके कि संभवतः यह इसलिए कि वे अधिक कोमल और मृदु होती थीं और अंध-विश्वासी देश की नदियों के जीवों द्वारा अधिक आसानी से चबायी जा सकती थीं। जगन्नाथ की किंवदंती के संबंध में वक्ता ने उस नगर की पुरानी प्रथा को स्पष्ट किया और कहा कि संभवतः कुछ लोग रस्सी पकड़ने तथा रथ खींचने के उत्साह में फिसलकर गिर जाते थे और इस प्रकार उनका अंत होता था. कुछ ऐसी ही दुर्घटनाओं को विकृत विवरणों में अतिरंजित किया गया है, जिनसे दूसरे देशों के अच्छे लोग संत्रस्त हो उठते हैं। विवेकानन्द ने यह अस्वीकार किया कि लोग विधवाओं को जला देते हैं। पर यह सत्य है कि विधवाओं ने अपने आपको जला दिया। कतिपय उदाहरणों में जहाँ यह हुआ है, वहाँ धार्मिक पुरुषों और पुरोहितों द्वारा, जो सदैव ही आत्महत्या के विरुद्ध रहे हैं, उन्हें ऐसा करने से रोका गया है। जहाँ पतिव्रता विधवाओं ने यह आग्रह किया कि इस होनेवाले देह-परिवर्तन में वे अपने पतियों के साथ जलने की इच्छुक हैं, उनहैं अग्नि-परीक्षा देने के लिए बाध्य होना पड़ा। अर्थात् उन्होंने अपने हाथों को आग में डाला और जल जाने दिया, तो आगे उनकी इच्छा-पूर्ति के मार्ग में कोइ बाधा नहीं डाली गयी। किंतु भारत ही अकेला देश नहीं है, जहाँ स्त्रियों ने प्रेम किया और अपने प्रेमी का तुरंत अमर लोक तक अनुसरण किया। ऐसी दशा में प्रत्येक देश में आत्महत्याएँ हुई हैं। यह किसी भी देश के लिए एक असाधारण कट्टरता है, जितनी असामान्य भारत में, उतनी ही अन्यत्र। वक्ता ने दुहराया, नहीं, भारत में लोग स्त्रियों को ही जलाते। न उन्होंने कभी डाइनों को ही जलाया है।
मूल भाषण की ओर आकर विवेकानन्द ने जीवन की भौतिक, मानसिक और आत्मिक विशेषताओं विश्लेषण किया। शरीर केवल एक कोश है, मन एक लघु किंतु विचित्र कार्य करनेवाली वस्तु है, जब कि आत्मा का अपना अलग व्यक्तित्व है। आत्मा की अनंतता का अनुभव करना 'मुक्ति' की प्राप्ति है, जो 'उद्धार' के लिए हिंदू शब्द है। विश्वसनीय ढंग से तर्क करते हुए वक्ता ने यह दर्शाया कि आत्मा एक मुक्त सत्ता है. क्योंकि यदि वह आश्रित होती, तो वह अमरता न प्राप्त कर सकती। जिस ढंग से व्यक्ति को उसकी सिद्धि प्राप्त होती है, उस ढंग को समझाने के लिए उन्होंने अपने देश की गाथाओं में से एक कथा सुनायी। एक शेरनी ने एक भेड़ पर झपट्टा मारते समय एक बच्चे को जनम दिया। शेरनी मर गयी और उस बच्चे को भेड़ ने दूध पिलाया। बच्चा बहुत वर्षों तक अपने को भेड़ समझता रहा और उसी तरह व्यवहार करता रहा। किंतु एक दिन एक दूसरा शेर उधर आया और उस शेर को एक झील पर ले गया, जहाँ उसने अपनी परछाई दूसरे शेर से मिलती हुई देखी। इस पर वह गरजा और तब उसे अपनी पूर्ण महिमा का ज्ञान हुआ। बहुत से लोग भेड़ों जैसा रूप बनाए सिंह की भाँति हैं और एक कोने में जा दुबकते हैं। अपने को पापी कहते हैं और हर तरह अपने को नीचे गिराते हैं। वे अभी अपने में अंतर्निहित पूर्णत्व और दिव्यत्व को नहीं देख पाते। स्त्री और पुरुष का अहंआत्मा है। यदि आत्मा है। यदि आत्मा मुक्त है, तब वह संपूर्ण अनंत से कैसे अलग की जा सकती है? जिस प्रकार सूर्य झील पर चमकता है और असंख्य प्रतिबिंब उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार आत्मा प्रत्येक प्रतिबिंब की भाँति अलग हैं, यद्यपि उसके महान् स्त्रोत को माना जाता है और उसके महत्व को समझा जाता है। आत्मा निर्लिंग है। वह जब पूर्ण मुक्ति की स्थिति प्राप्त कर लेती है, तब उसका भौतिक लिंग से क्या संबंध? इस संबंध में वक्ता ने स्वेडेनबर्ग के दर्शन अथवा धर्म की गहरी छानबीन की, जिससे हिंदू विश्वासों तथा एक आधुनिकतर धार्मिक व्यक्ति के विश्वासों की धार्मिक अभिव्यक्ति के बीच का संबंध पूर्णरूपेण स्पष्ट हो गया। स्वेडेनबर्ग प्राचीन हिंदू संतों के यूरोपीय उत्तराधिकारी से प्रतीत हुए, जिन्होंने एक प्राचीन विश्वास को आधुनिक वेशभूषा से सुसज्जित किया-वह विचारधारा, जिसे सर्वश्रेष्ठ फ्रांसीसी दार्शनिक और उपन्यासकार (बालजाक?) ने परिपूर्ण आत्मा की अपनी उद्बोधक कथा में प्रतिपादित करना उचित समझा। प्रत्येक व्यक्ति के भातर पूर्णत्व विद्यमान है। वह उसकी भौतिक सत्ता की अंध-कारपूर्ण गुहाओं में अंतर्निहित है। यह कहना कि कोई आदमी इसलिए अच्छा हो गया कि ईश्वर ने अपने पूर्णत्व का एक अंश उसे प्रदान कर दिया, ईश्वरीय सत्ता को पूर्णता के उस अंश से रहित ईश्वर मानना है, जिसे उसने पृथ्वी पर उस व्यक्ति को प्रदान किया। विज्ञान का अटल नियम इस बसत को सिद्ध करता है कि आत्मा आविभाज्य है और पूर्णता स्वयं उसी के भीतर होनी चाहिए, जिसकी उपलब्धि का अर्थ मुक्ति और व्यक्ति को अनंतता की प्राप्ति है, उद्धार नहीं। प्रकृति! ईश्वर! धर्म! यह सब एक है।
सभी धर्म अच्छे हैं। पानी से भरे हुए गिलास की हवा का बुलबुला बाहर की वायु-राशि से मिलने का प्रयास करता है। तेल, सिरका और भिन्न-भिन्न घनत्ववाले दूसरे पदार्थों में द्रव की प्रकृति के अनुसार उसका प्रयत्न कुछ न कुछ अवरूद्ध होता है। इसलिए आत्मा विभिन्न माध्यमों द्वारा अपनी व्यक्तिगत अनंतता की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करती है। जीवन के स्वभावों, संपर्क, वंशानुगत विशेषताओं और जलवायुगत प्रभावों के कारण कोई धर्म कुछ लोगों के सर्वाधिक अनुकूल होता है। दूसरा धर्म ऐसे ही कारणों से दूसरे लोगों के अनुकूल होता है। जो कुछ है, वह सब श्रेष्ठ है, यह वक्ता के निष्कर्षों का सारांश प्रतीत हुआ। अचानक किसी राष्ट्र का धर्म परिवर्तित करना, उस व्यक्ति की भाँति होगा, जो आल्प्स से कोई नदी बहती हुई देखकर, उसके मार्ग की आलोचना करता है। दूसरा व्यक्ति हिमालय से एक विशाल धारा गिरती हुई देखता है- वह धारा जो पीढ़ियों और सहस्त्रों वर्षों से बह रही है, और कहता है कि इसने सबसे छोटा और अच्छा मार्ग नहीं अपनाया। ईसाई स्वर्ग में तब तक निश्चय ही प्रसन्न नहीं हो सकता,जब तक कि वह सुनहली सड़कों के किनारे खड़ा होकर समय समय पर नीचे दूसरे स्थान देखकर अंतर का अनुभव नहीं कर लेता। स्वर्णिम नियम के स्थान पर हिंदू इस सिद्धांत पर विश्वास करता है कि अहं के परे सभी कुछ अच्छा है और सभी अहं बुरा है और इस विश्वास के द्वारा समय आने पर व्यक्तिगत अनंनता और आत्मा की मुक्ति प्राप्त हो जाएगी। विवेकानन्द ने कहा कि स्वर्णिम नियम कितना अधिक असंस्कृत है। हमेशा अहं ! हमेशा अहं ! यही ईसाई मत है। दूसरों के प्रति वही करना, जैसा तुम दूसरों से अपने प्रति कराना चाहो। यह एक भयावह, असभ्य और जंगली मत है, किंतु वे ईसाई धर्म की निंदा करना नहीं चाहते। जो इसमें संतुष्ट हैं, उनके लिए यह बिल्कुल अनुकूल है। महती धारा को बहने दो। जो इसके मार्ग को बदलने की चेष्टा करेगा, वह मूर्ख है। तब प्रकृति अपना समाधान ढूँढ लेगी। अध्यात्मवादी (शब्द के सही अर्थ में) और भाग्यवादी विवेकानन्द ने अपने मत के ऊपर बल देकर कहा कि सभी कुछ ठीक है और ईसाइयों के धर्म को परिवर्तित करने की उनकी इच्छा नहीं है। वे लोग ईसाई हैं, यह ठीक है। वे स्वयं हिंदू हैं, यह भी ठीक है। उनके देश में विभिन्न स्तर के लोगों की आवश्यकता के अनुसार विभिन्न मतों की रचना हुई है। यह सब आध्यात्मिक विकास की प्रगति की ओर निर्देश करता है। हिंदू धर्म अहं का, अपनी आकांक्षाओं में केंद्रित, सदैव पुरस्कारों के वादे ओर दंड की धमकी देनेवाला धर्म नहीं है। वह व्यक्ति का अहं से परे होकर अनन्तता की सिद्धि करने का मार्ग दिखाता है। यह मनुष्य को ईसाई बनने के लिए घूस देने की प्रणाली, जिसे उस ईश्वर से प्राप्त बताया जाता है, जिसने पृथ्वी पर कुछ मनुष्यों के बीच में अपने को प्रकट किया, बड़ी अन्यायपूर्ण है। यह घोर अनैतिक बनानेवाली है और अक्षरश: मान लेने पर ईसाई धर्म, इसे स्वीकार कर लेनेवाले उन धर्मांधों की नैतिक प्रकृति के ऊपर बड़ा शर्मनाक प्रभाव डालता है, आत्मा की अनंतता की उपलब्धि के समय को और दूर हटता है।
* * *
[ट्रिब्यून के संवाददाता ने, शायद उसी ने जिसने पहले 'जैन्स' (Jains, जैनों के लिए 'जाइन्टस' (Giants दैत्य) सुना था, इस समय 'बर्न' (Burn, जलाना) को 'बेरी' (Bury, गाड़ना) सुना। अन्यथा स्वामी जी के स्वर्णिम नियम संबंधी कथन को छोड़कर उसने लगभग सही विवरण दिया है:]
(डिट्राएट ट्रिब्यून, १८ फरवरी, १८९४ ई.)
कल रात को यूनिटेरियन चर्च में स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि भारत में विधवाएँ धर्मं अथवा कानून के द्वारा कभी जीवित दफनायी (जलायी) नहीं जाती, किंतु सभी दशाओं में यह कार्य स्त्रियों की ओर से स्वेच्छा का प्रश्न रहा है। इस प्रथा पर एक बादशाह ने रोक लगा दी थी, किंतु यह अंग्रेजी सरकार के द्वारा समाप्त किए जाने के पूर्व धीरे-धीरे पुन: बढ़ गयी थी। धर्मांध लोग हर धर्म में होते हैं, ईसाइयों में भी और हिंदुओं में भी। भारत में धर्मांध लोगों के बारे में यहाँ तक सुना गया है कि उन्होंने अपने दोनों हाथों को अपने सिर से ऊपर इतने समय तक तपस्या के रूप में उठाए रखा कि धीरे-धीरे हाथ उसी स्थिति में कड़े हो गए और बाद में वैसे ही रह गए। इसी प्रकार लोग एक ही स्थिति में खड़े रहने का भी व्रत लेते थे। ये लोग अपने निचले अंगों पर सारा नियंत्रण खो बैठते थे और बाद में कभी चलने में समर्थ नहीं रह जाते थे। सभी धर्मं सच्चे हैं और लोग इसलिए नैतिकता का पालन नहीं करते कि वह ईश्वरीय आज्ञा है, बल्कि इसलिए कि वह स्वंय अच्छी चीज है। उन्होंने कहा कि हिंदू धर्म-परिवर्तन में विश्वास नहीं करते, यह तो विकृति है। धर्मों की संख्या अधिक होने के लिए संपर्क, वातावरण और शिक्षा हो उत्तरदायी हैं और एक धर्म के व्याख्याता को दूसरे व्यक्ति के विश्वास को मिथ्या बतलाना नितांत मूर्खतापूर्ण है। इसे उतना ही युक्तिसंगत कहा जा सकता है, जितना कि एशिया से अमेरिका आनेवाले किसी व्यक्ति का मिसिसिपी की धारा को देखकर उससे यह कहना: 'तुम बिल्कुल गलत बह रही हो। तुम्हें उद्गम-स्थान को लौट जाना होगा और फिर से बहना प्रारंभ करना होगा।' यह ठीक उताना ही मूर्खतापूर्ण होगा, जितना कि अमेरिका का कोई आदमी आल्प्स को देखने जाय और एक नदी के मार्ग पर जर्मन सागर तक चलकर उसे यह सूचित करे कि उसका मार्ग बड़ा टेढ़ा-मेढ़ा है और इसका एक ही उपाय है कि वह निर्देशानुसार बहे। उन्होंने कहा कि स्वर्णिम नियम उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन स्वयं पृथ्वी है और वहीं से नैतिकता के सभी नियम उद्भूत हुए हैं (?)। मनुष्य स्वार्थ का पुंज है। उनके विचार से नारकीय अग्नि का सारा सिद्धांत बेतुका है। जब तक यह ज्ञान है कि दु:ख है, तब तक पूर्ण सुख नहीं प्राप्त हो सकता। उन्होंने कुछ धार्मिक व्यक्तियों की प्रार्थना के समय की मुद्रा का उपहास किया। उन्होंने कहा कि हिंदू अपनी आँखें बंद करके अपनी आत्मा से तादात्म्य स्थापित करता है, जब कि उन्होंने कुछ ईसाइयों को किसी बिंदु पर दृष्टि जमाये देखा है, मानों वे ईश्वर को अपने स्वर्णिम सिंहासन पर बैठा देख रहे हों। धर्म के सबंध में दो आतियाँ हैं, धर्मांध और नास्तिक की। नास्तिक में कुछ अच्छाई है, किंतु धर्मांध तो केवल अपने क्षुद्र अहं के लिए जीवित रहता है। उन्होंने एक अज्ञातनामा व्यक्ति को धन्यवाद दिया, जिसने उन्हें ईसा के हृदय का एक चित्र भेजा था। इसे वे धर्मांधता की अभिव्यक्ति मानते हैं। धर्मांधों का कोई धर्म नहीं होता। उनकी लीला अद्भुत है।
ईश्वर-प्रेम [9]
(डिट्राएट ट्रिब्यून २१ फ़रवरी , १८९४ ई.)
कल रात को फ़र्स्ट यूनिटेरियन चर्च विवेकाननद का भाषण सुनने के लिए लोगों से भरा हुआ था। श्रोताओं में जेफर्सन एवेन्यू और उडवर्ड एवेन्यू के ऊपरी हिस्से से आए हुए लोग थे। अधिकांश स्त्रियाँ थीं, जो भाषण में अत्याधिक रुचि लेती प्रतीत हो रही थीं, जिन्होंने ब्राह्मण के अनेक कथनों पर बड़े उत्साह के साथ करतल ध्वनि की।
वक्ता ने जिस प्रेम की व्याख्या की, वह प्रेम वासनायुकत प्रेम नहीं है, वरन् वह भारत में व्यक्ति के द्वारा अपने ईश्वर के प्रति रखा जानेवाला निर्मल पवित्र प्रेम है। जैसा कि विवेकानन्द ने अपने भाषण के प्रारंभ में बताया, विषय था 'भारतीय के द्वारा अपने ईश्वर के प्रति किया जानेवाला प्रेम' किंतु उनका प्रवचन उनके अपने मूल विषय के ऊपर नहीं था। उनके भाषण का अधिकांश ईसाई धर्म पर आक्रमण था। भारतीय का धर्म और उसका अपने ईश्वर के प्रति प्रेम भाषण का अल्पांश था। अपने भाषण की मुख्य बातों को उन्होंने इतिहास के प्रसिद्ध पुरुषों के सटीक दृष्टांतों से स्पष्ट किया। उन दृष्टांतों के पात्र देश के हिंदू राजा न होकर, उनके देश के प्रसिद्ध मुगल सम्राट् थे।
उन्होंने धर्म के माननेवालों को दो श्रेणियों में बाँटा, ज्ञानमार्गी और भक्ति मार्गी। ज्ञानमार्गियों का लक्ष्य अनुभूति है। भक्त के जीवन का लक्ष्य प्रेम है।
उन्होंने कहा कि प्रेम एक प्रकार का त्याग है। वह कभी लेता नहीं है, बल्कि सदैव देता है। हिंदू अपने ईश्वर से कभी कुछ माँगता नहीं, कभी अपने मोक्ष और सुखद परलोक की प्रार्थना नहीं करता, अपितु इसके स्थान पर उसकी संपूर्ण आत्मा प्रेम के वशीभूत होकर अपने ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है। उस सुंदर पद को तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब कि व्यक्ति को ईश्वर का तीव्र अभाव अनुभव होता है। तब ईश्वर अपने पूर्णतया के साथ उपलब्ध होता है।
ईश्वर को तीन भिन्न प्रकारों से देखा जाता है। कोई उसे एक शक्तिशाली व्यक्तित्व के रूप में देखता है और उसकी शक्ति की पूजा करता है। दूसरा उसको पिता के रूप में देखता है। भारत में पिता अपने बच्चों को सदैव दंड देता है और पिता के प्रति होनेवाले प्रेम और भाव में भय का तत्व मिला रहता है। भारत में माँ के प्रति सदैव ही सच्चा प्रेम और श्रद्धा रहती है। यही भारतीयों का अपने ईश्वर को देखने ढंग है।
विवेकानन्द ने कहा कि ईश्वर का सच्चा प्रेमी अपने प्रेम में इतना लीन हो जाता है कि उसके पास इतना समय नहीं रहता कि वह रुके और दूसरे संप्रदाय के सदस्यों से कहे कि वे ईश्वर को प्राप्त करने के लिए गलत मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं और फिर उन्हें अपनी विचारधारा में लाने का प्रयत्न करे।
(डिट्राएट जर्नल)
यदि ब्राह्मण संन्यासी विवेकानन्द को, जिनकी इस नगर में एक व्याख्यानमाला चल रही है, एक सप्ताह और यहाँ रहने के लिए प्रेरित किया जा सकता, तो डिट्राएट के सबसे बड़े हाल में भी उनको सुनने के लिए उत्सुक श्रोताओं को स्थान देना कठिन हो जाता। वास्तव में वे लोगों की एक धुन बन गए हैं, क्योंकि पिछली शाम को यूनिटेरियन चर्च खचाखच भरा हुआ था और बहुत से लोगों को भाषण के अंत तक खड़ा रहना पड़ा।
वक्ता का विषय 'ईश्वर-प्रेम' था। उनकी प्रेम की परिभाषा थी-'पूर्णरूपेण निस्वार्थ भाव, जिसमें प्रेम-पात्र के महत्व और उसकी आराधना के अतिरिक्त कोई दूसरा विचार नहीं आता।' उन्होंने कहा कि प्रेम ऐसा गुण है, जो झुकता है, पूजा करता है और बदले में कुछ नहीं चाहता। उनके विचार से ईश्वर का प्रेम भिन्न है। ईश्वर को हम इसलिए नहीं मानते कि हमें अपने स्वार्थ के परे उसकी वास्तव में आवश्यकता है। उनका भाषण उन कहानियों और दृष्टांतों से पूर्ण था, जो ईश्वर के प्रति प्रेम के पीछे स्वार्थपूर्ण उद्देश्य को स्पष्ट करते थे। वक्ता ने 'सालोमन के गीत' के उद्धरण दिए और कहा कि वे ईसाई बाइबिल के सुंदरतम अंश हैं, तथापि उन्होंने यह बात सुनकर बड़े खेद का अनुभव किया कि उनके हटाए जाने की संभावना है। उन्होंने अंत में एक अकाट्य तर्क के रूप में घोषणा की, ''ईश्वर का प्रेम 'मैं इससे क्या पा सकता हूँ!'सिद्धांत के ऊपर आधारित प्रतीत होता है।'' ईसाई अपने प्रेम में इतने स्वार्थी हैं कि वे निरंतर ईश्वर से कुछ देने के लिए प्रार्थना किया करते हैं, जिनमें सभी प्रकार की स्वार्थपूर्ण वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं। अत: आधुनिक धर्म एक मनोरंजन और फैशन छोडकर और कुछ नहीं है और लोग चर्च में भेड़ों के झुंड की भाँति एकत्र होते हैं।
भारतीय नारी
(डिट्राएट फ्री़ प्रेस , २५ मार्च, १८९४ ई.)
विवेकानन्द ने पिछली रात को यूनिटेरियन चर्च में 'भारतीय नारी' विषय पर भाषण दिया। वक्ता ने भारत की स्त्रियों के विषय पर पुन: लौटते हुए बतलाया कि धार्मिक ग्रंथों में उनको कितने आदर की दृष्टि से देखा गया है, जहाँ स्त्रियाँ ऋषि-मनीषी हुआ करती थीं। उस समय उनकी आध्यात्मिकता सराहनीय थी। पूर्व की स्त्रियों को पश्चिमी मानदंड से जाँचना उचित नहीं है। पश्चिम में स्त्री पत्नी है, पूर्व में वह माँ है। हिंदू माँ-भाव की पूजा करते हैं, और संन्यासियों को भी अपनी माँ के सामने अपने मस्तक से पृथ्वी का स्पर्श करना पड़ता है। पातिव्रत्य का बहुत सम्मान है।
यह भाषण विवेकानन्द द्वारा दिए गए सबसे अधिक दिलचस्प भाषणों में एक था और उनका बड़ा स्वागत हुआ।
(डिट्राएट इवनिंग न्यूज , २५ मार्च, १८९४ ई.)
स्वामी विवेकानन्द ने पिछली रात को 'भारतीय नारी-प्राचीन, मध्यकालीन और वर्तमान' विषय पर भाषण दिया। उन्होंने कहा कि भारत में नारी ईश्वर की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है और उसका संपूर्ण जीवन इस विचार से ओतप्रोत है कि वह माँ है और पूर्ण माँ बनने के लिए उसे पतिव्रता रहना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि भारत में किसी भी माँ ने अपने बच्चे का परित्याग नहीं किया और किसी को भी इसके विपरीत सिद्ध करने की चुनौती दी। भारतीय लड़कियों को यदि अमेरिकन लड़कियों की भाँति अपने आधे शरीर को युवकों की कुदृष्टि के लिए खुला रहने के लिए बाध्य किया जाय, तो वे मरना कबूल करेंगी। वे चाहते हैं कि भहारत को उसी देश के मापदंड से मापा जाय, इस देश के मापदंड से नहीं।
* * *
( ट्रिब्यून , १ अप्रैल , १८९४ ई.)
जब स्वामी विवेकानन्द डिट्राएट में थे, तब उन्होंने अनेक वार्तालापों में भाग लिया और उनमें उन्होंने भारतीय स्त्रियों से संबंधित प्रश्नों का उत्तर दिया। इस प्रकार दिए हुए उनके विवरण ने ही उनके द्वारा एक सार्वजनिक भाषण दिए जाने की बात सुझायी। परंतु चूँकि वे बिना किसी प्रलेख के बोलते हैं, कुछ बातें जो उन्होंने व्यक्तिगत वार्तालाप में बतायी, उनके सार्वजनिक भाषण में नहीं आयीं। तब उनके मित्रों को थोड़ी निराशा हुई। किंतु एक महिला श्रोता ने उनकी शाम की बातचीत में कही गयी कुछ बातों को कागज पर लिख लिया था और वे सर्वप्रथम समाचारपत्र में आ रही हैं।
उच्च हिमालय की पठारी भूमि में सर्वप्रथम आर्य आए और वहाँ आज के दिन तक ब्राह्मणों की विशुद्ध नस्ल पायी जाती है। वे ऐसे लोग हैं, जिनके संबंध में हम पश्चिम के लोग कल्पना मात्र कर सकते हैं। विचार, कार्य और क्रिया में पवित्र और इतने ईमानदार कि किसी सार्वजनिक स्थान में सोने से भरे थैले को छोड़ने के बीस वर्ष बाद वह सुरक्षित मिल जाएगा। वे इतने सुंदर हैं कि विवेकानन्द के शब्दों में 'खेतों में किसी लड़की को देखने पर रुककर इस बात पर चमत्कृत होना पड़ता है कि ईश्वर ने ऐसी सुंदर वस्तु की रचना की।' उनका शरीर सुडौल है, आँखें और बाल काले और चमड़ी उस रंग की है, जो रंग दूध के गिलास में डुबोयी अंगुली से गिरी हुई बूँदों से बनता है। ये शुद्ध नस्ल के हिंदू हैं, निर्दोष और निष्कलंक।
जहाँ तक उनके संपत्ति संबंधी कानूनों का संबंध है, पत्नी का दहेज केवल उसकी अपनी संपत्ति होती है, वह पति की संपत्ति कभी नहीं होती। वह बिना पति की स्वीकृति के दान कर सकती है अथवा उसे बेच सकती है। उसको जो भी उपहार दिए जाते हैं, यहाँ तक कि पति के भी, उसी के हैं। वह उनका जैसा चाहे, उपयोग करे।
स्त्री निर्भय होकर बाहर निकलती है। जितना पूर्ण विश्वास उसे अपने पास के लोगों से मिलता हैं, उतना ही वह मुक्त रहती है। हिमालय के घरों में कोई जनाना भाग नहीं होता और भारत के घरों का एक ऐसा भाग है, जहाँ धर्मप्रचारक भी नहीं पहुँचते। इन गाँवों तक पहुँचना कठिन है। ये लोग मुसलमानी प्रभाव से अछूते हैं और यहाँ तक पहुँचने के लिए बहुत कठिन दु:साध्य चढ़ाई चढ़नी पड़ती है तथा वे मुसलमानों और ईसाइयों दोनों के लिए अज्ञात हैं।
भारत के आदि निवासी
भारत के जंगलों में जंगली जातियाँ रहती हैं, अति जंगली, यहाँ तक कि नरभक्षी भी। यह भारत के आदिवासी हैं, वे कभी आर्य या हिंदू नहीं थे।
जब हिंदू भारत में बस गए और इसके विस्तृत क्षेत्र में फैल गए, उनमें अनेक प्रकार की संकरताएँ उत्पन्न हुईं। सूर्य की धूप झुलसानेवाली होती थी और जिन लोगों पर पड़ती थी, उनका रंग श्याम हो गया।
हिमालय पहाड़ पर रहनेवालों के गोरे रंग की पारदर्शक आभा को भारतीय हिंदू के काँसे के रंग का होने में पाँच पीढ़ियों का समय लगता है।
विवेकानन्द का एक भाई बहुत गोरा है और दूसरा उनसे अधिक साँवला है। उनके माता-पिता गोरे हैं। मुसलमानों से रक्षा करने के लिए स्त्रियों को पर्दे की कठोर प्रथा का पालन करना आवश्यक होने के कारण उन्हें घर के भीतर रहना पड़ता है अत: वे अधिक गौर वर्ण की होती हैं।
अमेरिकन पुरुषों की एक आलोचना
विवेकानन्द ने अपनी आँखों में एक आमोदयुक्त चमक के साथ कहा कि अमेरिका के पुरुष उन्हें विस्मित करते हैं। वे स्त्रियों की पूजा करने का दावा करते हैं, किंन्तु उनका (विवेकानन्द का) विचार है कि वे केवल यौवन और सौंदर्य की पूजा करते हैं। वे कभी झुर्रियों और पके बालों से प्यार नहीं करते। वास्तव में वे (वक्ता) इस विचार से प्रभावित हैं कि अमेरिका के पुरुषों के पास वृद्धाओं को जला देने का कोई चमत्कार है, जिसे निश्चय ही उन्होंने अपने पूर्वजों से प्राप्त किया था। आधुनिक इतिहास इसे डाइनों का जलाना कहता है। पुरुष ही डाइनों को दोषी ठहराते और दंड देते थे और दंडित की वृद्धावस्था ही उसे मृत्यु-स्थल तक ले जाती थी इसलिए यह देखा जाता है कि स्त्रियों का जीवित जलाना केवल हिंदू प्रथा ही नहीं है। उनका विचार है कि यदि यह याद रखा जाय कि ईसाई संघ सभी वृद्धाओं को जीवित जला देता था, तो हिंदू विधवाओं के जलाए जाने के ऊपर अपेक्षाकृत कम त्रास व्यक्त किया जाएगा।
जलाए जाने की तुलना
हिंदू विधवा समारोह और गीतों के बीच में, अपने बहुमूल्य वस्त्रों से सुसज्जित, अधिकांश में यह विश्वास करते हुए कि इस प्रकार के कार्य का फल उसके और उसके परिवार के लिए स्वर्ग का गौरव होगा, मृत्यु-यंत्रणा भोगने जाती थी। वह शहीद के रूप में पूजी जाती थी और परिवार के आलेखों में उसका नाम श्रद्धापूर्वक अंकित किया जाता था।
यह प्रथा हम लोगों को चाह जितनी बीभत्स प्रतीत होती हो, उस ईसाई डाइन से तुलना करने पर तो यह एक अधिक शुभ्र चित्र ही है, जिसे पहले ही से अपराधिनी समझकर दम घुटानेवाली काल-कोठरी में डाल दिया जाता था, दोष स्वीकार करने के लिए जिसे निर्दयतापूर्ण यंत्रणा दी जाती थी, जिसकी धिनौनी सी सुनवाई होती थी, जिसे खिल्ली उड़ाते हुऐ लोगों के बीच से खंभे (जिसमें बाँधकर आदमी को जिंदा जला दिया जाता था) तक खींच लाया जाता था, और जिसे अपने यातनाकाल में दर्शकों द्वारा यह सांत्वना मिलती थी कि उसके शरीर का जलाना तो केवल नरक की उस अनंत आग का प्रतीक है, जिसमें उसकी आत्मा इससे भी अधिक यंत्रणा भोगेगा।
माताएँ पवित्र हैं
विवेकानन्द कहते हैं कि हिंदू को मातृत्व के सिद्धांत की उपासना करने की शिक्षा दी जाती है। माता पत्नी से बढ़कर होती है। माँ पवित्र होती है। उनके मन में ईश्वर के प्रति पितृभाव की अपेक्षा मातृभाव अधिक है।
सभी स्त्रियाँ, चाहे वे जिस जाति की हों, शारीरिक दंड से मुक्त रहती हैं। यदि कोई स्त्री हत्या कर डाले, तो उसकी जान नहीं ली जाती। उसे एक गधे पर पूँछ की ओर मुँह करके बैठाया जा सकता है। इस प्रकार सड़क पर घुमाते समय डुग्गी पीटनेवाला उसके अपराध को उच्च स्वर में कहता चलता है, जिसके बाद बह मुक्त कर दी जाती है। उसके इस तिरस्कार को भविष्य के अपराधों की रोकथाम के लिए पर्याप्त दंड माना जाता है।
यदि वह प्रायाश्चित करना चाहे, तो उसके लिए धार्मिक आश्रमों के द्वार खुले हैं, जहाँ वह शुद्ध हो सकती है तथा इस प्रकार वह पवित्र स्त्री बन सकती है।
विवेकानन्द से पूछा गया कि उनके ऊपर बिना किसी वरिष्ठ अधिकारी के उन्हें संन्यास-आश्रम में इस प्रकार प्रविष्ट होने की स्वतंत्रता देने से, जैसा उन्होंने स्वीकार किया हैं, क्या हिंदू दार्शनिकों की पवित्रतम व्यवस्था में दंभ की उत्पत्ति नहीं हो जाती है? विवेकानन्द ने इसे स्वीकार किया, किंतु बताया कि जनता और संन्यासी के बीच में कोई नहीं आता। संन्यासी जातिगत बंधन को तोड़ डालता है। एक निम्नजातीय हिंदू को ब्राह्मण स्पर्श नहीं करता, किंतु यदि वह संन्यासी हो जाय, तो बड़े से बड़े लोग उस निम्नजातीय संन्यासी के चरणों में नत होंगे।
लोगों के लिए संन्यासी का भरण-पोषण करना कर्तव्य है, लेकिन तभी तक जब तक वे उसकी सच्चाई में विश्वास करते हैं। यदि एक बार भी उसके ऊपर दंभ का आरोप हुआ, तो उसे झूठा कहा जाता है, और वह अधमतम भिक्षुक मात्र बनकर रह जाता है-दर दर का भिखारी, आदर-भाव जगाने में असमर्थ।
अन्य विचार
एक राजपुत्र भी स्त्री को मार्ग देता है। जब विद्याकांक्षी यूनानी भारत में हिंदुओं के विषय में ज्ञान प्राप्त करने आए, उनके लिए सभी द्वार खुले थे, किंतु जब मुसलमान अपनी तलवार के साथ और अंग्रेज अपनी गोलियों के साथ आए, तब वे द्वार बंद हो गए। ऐसे अतिथियों का स्वागत नहीं हुआ। जैसा कि विवेकानन्द ने सुंदर शब्दों में कहा, "जब बाघ आता है, तब हम लोग उसके चले जाने तक द्वार बंद रखते हैं।''
विवेकानन्द कहते हैं कि संयुक्त राज्य ने उनके हृदय में भविष्य में महान् संभावनाओं की आशा उत्पन्न की है। किंतु हमारा भाग्य, सारे संसार के भाग्य के सदृश्य, आज कानून बनानेवालों पर निर्भर नहीं करता, वरन् स्त्रियों पर निर्भर करता है। श्री विवेकानन्द के शब्द हैं: 'तुम्हारे देश का उद्धार उसकी स्त्रियों के ऊपर निर्भर करता है।'
* * *
मनुष्य का दिव्यत्व
(एडा रेकार्ड , २८ फरवरी, १८९३ ई.)
गत शुक्रवार (२२ फ़रवरी) शाम को 'मनुष्य का दिव्यत्व' विषय पर हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द (विवेकानन्द ) का व्याख्यान सुनने के लिए संगीत-नाट्यशाला श्रोताओं से भर गयी थी।
उन्होंने कहा कि सभी धर्मों का मूलभूत आधार आत्मा में विश्वास करना है। आत्मा मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है और वह मन तथा जड़ दोनों से परे है। फिर उन्होंने इस कथन का प्रतिपादन आरंभ किया। जड़ वस्तुओं का अस्तित्व किसी अन्य पर निर्भर है। मन मरणशील है, क्योंकि वह परिवर्तनशील है। मृत्यु परिवर्तन मात्र है।
आत्मा मन का प्रयोग एक उपकरण के रूप में करती है और उसके माध्यम से शरीर को प्रभावित करती है। आत्मा को उसके सामर्थ्य के बारे में सचेत बनाना चाहिए। मनुष्य की प्रकृति निर्मल और पवित्र है, लेकिन वह आच्छादित हो जाती है। हमारे धर्म का मत है कि प्रत्येक आत्मा अपने प्रकृतिस्वरूप को पुन: प्राप्त करने १०-१८ की चेष्टा कर रही है। हमारे यहाँ जन-समाज का विश्वास है कि आत्मा की व्यक्तिगत सत्ता है। हमें यह उपदेश देने का निषेध है कि केवल हमारा ही धर्म सही है। अपना व्याख्यान जारी रखते हुए वक्ता ने कहा, "मैं आत्मा हूँ, जड़ नहीं हूँ। पाश्चात्य धर्म यह आशा प्रकट करता है कि हमें उपने शरीर के साथ पुन: रहना है। हम लोगों का धर्म सिखाता है कि ऐसी अवस्था हो नहीं सकती। हम उद्धार के स्थान पर आत्मा की मुक्ति का प्रतिपादन करते हैं।'' मुख्य व्याख्यान केवल ३० मिनट तक हुआ, लेकिन व्याख्यान-समिति के अध्यक्ष ने घोषणा की थी कि वक्तृता की समाप्ति के उपरांत वक्ता महोदय से जो भी प्रश्न पूछे जायँगे, वे उनका उत्तर देंगे। उन्होंने इस प्रकार जो अवसर दिया, उसका खूब लाभ उठाया गया। इन प्रश्नों को पूछनेवालों में धर्मोंपदेशक और प्रोफेसर, डॉक्टर और दार्शनिक, नागरिक और छात्र, संत तथा पातकी सभी थे। कुछ प्रश्न लिखकर पूछे गए थे और दर्जनों व्यक्तियों ने तो अपने स्थान पर खड़े होकर सीधे ही प्रश्न किया। वक्ता महोदय ने सभी के प्रश्नों का जवाब बड़ी भद्रतापूर्वक दिया-उनके द्वारा प्रयुक्त 'कृपया' शब्द पर ध्यान दीजिए-और कई दृष्टांत तो ऐसे मिले, जब प्रश्नकर्ता हँसी के पात्र बन गए। लगभग एक घंटे तक उन्होंने प्रश्नों की झड़ी लगाए रखी। तब वक्ता महोदय ने और अधिक श्रम से त्राण पाने की अनुमति माँगी। फिर भी एसे प्रश्नों की ढेरी कुशलता से टाल गए। उनके उत्तरों से हिंदू धर्म तथा उसकी शिक्षा के विषय में हम निम्नलिखित अतिरिक्त वक्तव्य संग्रह कर सके-वे मनुष्य के पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। उनके यहाँ एक यह भी उल्लेख है कि उनके भगवान् कृष्ण का जन्म उत्तर भारत में किसी कुमारी से ५००० वर्ष पूर्व हुआ था। बाइबिल में ईसा का जो इतिहास दिया गया है, उससे यह कथा बहुत मिलती-जुलती है, केवल अंतर यह है कि उनके भगवान दुर्घटना में मारे गए। विकास और आत्मा की देहांतर-प्राप्ति पर उनका विश्वास है अर्थात् हमारी आत्माओं का निवास किसी समय पक्षी, मछली और पशु शरीरों में था, हम कोई दूसरे लोकों में थीं। समस्त सत्ता का स्थायी आधार आत्मा है। कोई ऐसा काल नहीं है, जब ईश्वर नहीं था, इसलिए कोई ऐसा काल नहीं है, जब सृष्टि नहीं थी। बौद्ध लोग किसी सगुण ईश्वर में विश्वास नहीं करते; मैं बौद्ध नहीं हूँ। मुहम्मद की पूजा उस दृष्टि से नहीं होती, जिस दृष्टि से ईसा को होती है। ईसा में मुहम्मद की आस्था तो थी, परंतु उनके ईश्वर होने का वे खंडन करते थे। पृथ्वी पर प्राणियों का आविर्भाव विकासकम से हुआ और विशेष चयन (सृष्टि) द्वारा नहीं। ईश्वर स्रष्टा हैं, प्रकृति सृष्टि है। बच्चों के लिए प्रार्थना नहीं करते और वह भी केवल मन को सुधारने के लिए। पाप के लिए दंड अपेक्षाकृत तत्काल मिल जाता है। हमारे कर्म आत्मा के नहीं हैं और इसलिए वे अपवित्र हो सकते हैं। वह हमारी जीवात्मा है, जो पूर्ण और पवित्र बनती है। आत्मा के लिए कोई विश्राम स्थल नहीं है। उसमें जड़ तत्त्व के गुण नहींहैं। मनुष्य तब पूर्णावस्था प्राप्त कर लेता है, जब उसे अपने आत्मा होने का पक्का अनुभव हो जाता है। आत्मा की प्रकृति की अभिव्यक्ति धर्म है। जो अंत:करण की जितनी ही अधिक गहराई तक देखता है, वह अन्य की अपेक्षा उतना ही अधिक पवित्र है। ईश्वर की पावनता का अनुभव करना ही उपासना है। हमारा धर्म धार्मिक प्रचार पर विश्वास नहीं करता और वह सिखाता है कि मनुष्य को प्रेम के लिए ईश्वर-प्रेम करना चाहिए और स्वयं की अपेक्षा पड़ोसी के प्रति प्रेम रखना चाहिए। पश्चिम के लोग अत्यधिक संघर्ष करते हैं, विश्रांति सभ्यता का अवयव है। हम अपनी दुर्बलताओं को ईश्वर को अर्पित नहीं करते। हमारे यहाँ धर्मों के सम्मिलन की प्रवृत्ति रही है।
एक हिंदू संन्यासी
(बे सिटी टाइम्स प्रेस , २१ मार्च, १८९४ ई.)
कल रात उन्होंने संगीत-नाट्यशाला में रोचक व्याख्यान दिया। ऐसा बिरला ही अवसर मिलता है, जब बे सिटी की जनता को स्वामी विवेकानन्द की कल सायंकाल की सी वक्तृता सुनने को सुलभ होती हो। ये सज्जन भारतीय हैं, जिनका जन्म लगभग ३० वर्ष पूर्व कलकत्ते में हुआ था। जब वक्ता को डॉक्टर सी. टी. न्यूकर्क ने परिचित कराया, तब संगीत-नाट्यशाला की निचली मंजिल लगभग आधी भरी हुई थी। उन्होंने अपने प्रवचन में इस देश के लोगों की यह विशेषता बतायी कि वे सर्वशक्तिमान डालर देव की पूजा करते हैं। यह सच है कि भारत में जाति-व्यवस्था है। वहाँ कोई हत्यारा शीर्ष तक नहीं पहुँच सकता। यहाँ अगर वह सौ डालर पाता है, तो उतना ही भला माना जाता है, जितना अन्य कोई आदमी। भारत में यदि कोई एक बार अपराधी हो गया, तो सदा के लिए पतित मान लिया जाता है। हिंदू धर्म में एक बड़ी विशेषता यह है कि वह अन्य धर्मों तथा धार्मिक विश्वासों के प्रति अत्यधिक कठोर हैं, क्योंकि हिंदू सहिष्णुता के अपने आधारभूत विश्वास का परिपालन करते हैं और इस प्रकार उन्हें कठोर होने का अवसर प्रदान करते हैं। विवेकानन्द (स्वामी विवेकानन्द ) उच्च शिक्षा-प्राप्त और सुसंस्कृत सज्जन हैं। कहा जाता है कि डिट्राएट में उनसे पूछा गया कि क्या हिंदू अपने बच्चों को नदी में फेंक देते हैं, तो उन्होंने जवाब दिया कि वे वैसा नहीं करते, और न वे जादू-टोना करने वाली स्त्रियों को चिता में जलाते हैं।
भारत पर स्वामी विवेकानन्द के विचार
(बे सिटी डेली ट्रिब्यून , २१ मार्च, १८९४ ई.)
कल बे सिटी में विशिष्ट आगंतुक हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द का पदार्पण हुआ, जिनकी बड़ी चर्चा है। वे डिट्राएट से दोपहर में यहाँ पहुँचे और तुरंत फ्रेजर हाउस रवाना हो गए। डिट्राएट में वे सेनेटर पामर के अतिथि थे।
विवेकानन्द ने अपने देश का मनोरंजन वर्णन किया और इस देश के विषय में अपने अनुभव सुनाए। वे प्रशांत महासागर के मार्ग से अमेरिका आए और अटलांतिक के मार्ग से लौटेंगे। उन्होंने कहा, ''यह महान् देश है, लेकिन यहाँ रहना मुझे पसंद न होगा। अमेरिकन लोग पैसे के बारे में बहुत सोचते हैं। वे उसे और सब चीजों से बढ़कर मानते हैं। तुम्हारे देश के लोगों को बहुत कुछ सीखना है। जब तुम्हारा राष्ट्र उतना प्राचीन हो जाएगा, जितना हमारा है, तब तुम लोग आज की अपेक्षा अधिक विवेकशील हो जाओगो। मुझे शिकागो बहुत पसंद है और डिट्राएट बढ़िया स्थान है।''
जब उनसे पूछा गया कि आपका कब तक अमेरिका में रहने का इरादा है, तब उन्होंने उत्तर दिया, "मुझे मालूम नहीं। मैं तुम्हारे देश का अधिकांश देखना चाहता हूँ। यहाँ से मैं पूर्व जाऊँगा और कुछ समय बोस्टन तथा न्यूयार्क में बिताऊँगा। मैं बोस्टन गया हूँ, लेकिन ठहरने के लिए नहीं। जब मैं अमेरिका देख लूँगा, तब मैं यूरोप जाऊँगा। यूरोप जाने को मैं बहुत इच्छुक हूँ। मैं वहाँ कभी नहीं गया हूँ।''
पूर्वीय महोदय ने अपने विषय में बताया कि उनकी आयु ३० वर्ष है। उनका जन्म कलकत्ते में हुआ और उस नगर के कॉलेज में उन्हें शिक्षा मिली। अपने संन्यास धर्म के कारण उन्हें देश के सभी भागों में जाना पड़ता है और हर समय वे राष्ट्र के अतिथि के रूप में रहते हैं।
उन्होंने कहा, 'भारत की जनसंख्या २८,५०,००,००० है। इनमें से ६,५०,००,००० मुसलमान हैं और शेष अन्य में से अधिकांश हिंदू हैं। देश में केवल लगभग ६,००,००० ईसाई हैं और उनमें से २,५०,००० कैथोलिक हैं। हमारे देश के लोग आम तौर पर ईसाई धर्म को अंगीकार नहीं करते, वे स्वधर्म में ही संतुष्ट हैं। कुछ लोग धन के लोग से ईसाई बन जाते हैं। अपनी इच्छा के अनुसार चाहे जो कुछ करने के लिए वे स्वतंत्र हैं। हम लोगों का कहना है कि हर एक को स्वयं अपना अपना धर्म अपनाने दो। हम लोगों का राष्ट्र चतुर है। रक्तपात में हमारी आस्था नहीं है। हमारे देश में, तुम लोगों के देश की भाँति, खल लोग हैं, जो बहुसंख्या में हैं। यह आशा करना युक्तिसंगत नहीं है कि सब लोग देवदूत हैं।''
कल रात का भाषण
कल सायंकाल जब भाषण आरंभ हुआ, तब संगीत-नाट्यशाला निचला भाग काफ़ी भरा हुआ था। ठीक ८ बज कर १५ मिनट पर स्वामी विवेकानन्द मंच पर पधारे। वे सुंदर पूर्वी वेशभूषा में थे। डॉ. सी.टी. न्यूकर्क ने थोड़े से शब्दों में उनका परिचय दिया।
प्रवचन के पूर्वार्द्ध में भारत के विभिन्न धर्मों तथा आत्मा की देहांतर-प्राप्ति के सिद्धांत की व्याख्या थी। आत्मा की देहांतर-प्राप्ति के विषय में वक्ता महोदय ने कहा कि इसका आधार वही है, जो वैज्ञानिक के लिए जड़ पदार्थों के अविनाशत्व का है। इस दूसरे सिद्धांत का प्रथम प्रणेता, उनके कथनानुसार, उन्हींके देश का एक दार्शनिक था। वे सृष्टि-रचना में विश्वास नहीं करते। किसी सृष्टि-रचना के अंतर्गत बिना किसी उपादान के किसी वस्तु की रचना का भाव निहित है। वह असंभव है। जैसे काल का कोई आदि नहीं, वैसे ही सृष्टि का कोई आदि नहीं है। ईश्वर तथा काल दो रेखाएँ हैं-अनंत, अनादि और अ (?) समानांतर। सृष्टि के बारे में उनका सिद्धांत है कि 'वह है, थी, और रहेगी।' उनका विचार है कि दंड प्रतिक्रिया मात्र हैं। यदि हम अपना हाथ आग में डालते हैं, तो वह जल जाता है। वह क्रिया की प्रतिक्रिया है। वर्तमान दशा से जीवन की भावी दशा निर्धारित होती है। उनका यह विश्वास नहीं है कि ईश्वर दंड देता है। वक्ता ने कहा कि इस देश में तुम उस मनुष्य की प्रशंसा करते हो, जो कुद्ध हो जाता है। और फिर भी इस देश में नित्य हजारों व्यक्ति ईश्वर पर अभियोग लगाते हैं कि वह कुपित है। प्रत्येक व्यक्ति नोरो की भर्त्सना करता है, क्योंकि जब रोम जल रहा था, तब वह बैठा हुआ अपना बेला बजा रहा था, और आज भी तुम्हारे देश के लोग वैसा ही अभियोग ईश्वर पर लगाते हैं।
हिंदुओं के धर्मं में उद्धारवाद का कोई सिद्धांत नहीं है। ईसा केवल पथ-प्रदर्शक हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष दिव्य प्राणी है, पर मानो वह एक पर्दे से ढका है, जिसे उसका धर्म हटाने का प्रयत्न कर रहा है। उसे हटाने को ईसाई उद्धार कहते हैं, और वे मुक्ति कहते हैं। ईश्वर जगत् का रचयिता, पालक और संहारक है।
फिर वक्ता महोदय ने अपने देश के धर्म का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि यह सिद्ध किया जा चुका है कि रोमन कैथोलिक संप्रदाय की पूरी धर्म-व्यवस्था बौद्ध धर्मग्रंथों से ली गयी है। पश्चिम के लोगों को भारत से एक चीज सीखनी चाहिए-सहिष्णुता।
जिन अन्य विषयों पर उन्होंने अपना मत प्रकट किया और जिनकी सांगोपांग विवेचना की, वे निम्नलिखित हैं-ईसाई धर्मप्रचारक, प्रेसबिटेरियन चर्च का धर्मोंत्साह और उसकी असहिष्णुता, इस देश में डालर-पूजा ओर पुरोहित। उन्होंने कहा कि ये पुरोहित लोग डालरों के धंधे में हैं ओर उसी में लिप्त हैं और उन्होंने यह जानना चाहा कि यदि उन्हें अपने वेतन के लिए ईश्वर पर अवलंबित रहना पड़े , तो वे कितने दिनों तक चर्च में टिक सकेंगे। भारत की जाति-प्रथा, दक्षिण की हमारी सभ्यता और मनविषयक हमारे सामान्य ज्ञान तथा अन्य विविध विषयों पर संक्षेप में भाषण करने के बाद वक्ता महोदय ने उपसंहार किया।
धार्मिक समन्वय
(सैगिना इवनिंग न्यूज , २२ मार्च, १८९४ ई.)
कल सायंकाल संगीत एकेडेमी में छोटी सी, किंतु गहरी दिलचस्पी रखनेवाली श्रोतामंडली के समक्ष अधिक पर्यालोचित हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने 'धर्मों के समन्वय' विषय पर भाषण किया। वे पूर्वी वेशभूषा धारण किए हुए थे और उनका बड़ा ही हार्दिक स्वागत किया गया। माननीय रोलैंड कोन्नोर ने बड़े ललित ढंग से वक्ता महोदय का परिचय कराया, जिन्होंने अपनी वक्तृता के पूर्वार्द्ध में भारत के विभिन्न धर्मों की व्याख्या की। उन्होंने आत्मा के देहांतर-गमन के सिद्धांत की भी व्याख्या की। आर्यों ने भारत पर सर्वप्रथम आक्रमण किया, लेकिन उन्होंने भारत की जनता के मूलोच्छेदनका प्रयास नहीं किया, जैसा कि ईसाइयों ने हर नए देश में प्रवेश करने पर किया है; बल्कि उन व्यक्तियों को ऊपर उठाने का प्रयास किया गया, जिनका स्वभाव पाशविक था। हिंदू अपने ही देश के उन लोगों से खिन्न हैं, जो स्नान नहीं करते और मृत पशुओं का मां भक्षण करते हैं। उत्तर भारत के लोगों ने दक्षिण भारतीयों पर अपना आचार लादने प्रयत्न नहीं किया, लेकिन दक्षिणवालों ने उत्तरवालों की बहुत सी रीतियों को धीरे-धीरे अपना लिया। भारत के धुर दक्षिणी भाग में कुछ ईसाई हैं, जो उस धर्म में हजारों (?) वर्षों से रहे हैं। स्पेनी लोग ईसाई मत को लेकर लंका पहुँचे। स्पेनवाले सोचते थे कि उन्हें उनके भगवान का आदेश है कि गैर ईसाइयों को मार डालो और उनके मंदिरों को विध्वस्त कर दो।
यदि विभिन्न धर्म न हों, तो कोई धर्मजीवित नहीं रह सकता। ईसाई को अपने स्वार्थपरायण धर्म की आवश्यकता है। हिंदू को अपने धर्म की आवश्यकता है। जिनकी स्थापना किसी धर्मग्रंथ पर की गयी थी, वे आज भी टिके हैं। ईसाई लोग यहूदियोंको अपने धर्म में क्यों नहीं ला सके? वे फारस के निवासियों को ईसाई क्यों नहीं बना सके? वैसा ही मुसलमानों के साथ क्यों नहीं कर सके? चीन या जापान पर उस तरह का प्रभाव क्यों नहीं डाला जा सकता? प्रथम मिशनरी धर्म बौद्धों का था। उनके धर्म में अन्य किसी भी धर्म की तुलना में धर्म-परिवर्तन द्वरा आए हुए लोगों की संख्या दुगुनी है और उन्होंने एतदर्थ तलवार का प्रयोग नहीं किया था। मुसलमानों ने शक्ति का प्रयोग सर्वाधिक किया और तीन मिशनरी धर्मों में से इसलाम को माननेवालों की संख्या सबसे कम है। मुसलमानों के अपने वैभव के दिन थे। प्रतिदिन तुम रक्तपात द्वारा ईसाई राष्ट्रों के नए देशों पर आधिपत्य के समाचार पढ़ते हो। कौन से मिशनरी इसके विरोध में उपदेश देते हैं, जो ईसा का धर्मं नहीं था? यहूदी और अरब ईसाई मत के जनक थे और ईसाइयों द्वारा उनका कितना उत्पीड़न हुआ है। भारत में ईसाइयों की ठीक तोल हो गयी है और वे सदोष सिद्ध हुए हैं।
वक्ता महोदय ने ईसाइयों के प्रति अनुदार होने की इच्छा न होने पर भी यह प्रकट करना चाहा कि दूसरों की दृष्टि में वे कैसे दिखायी पड़ते हैं। जो मिशनरी प्रज्ज्वलित गर्त का उपदेश देते हैं, उनके प्रति लोगों में संत्रास का भाव है। मुसलमानों ने नंगी तलवारें नचाते हुए बारंबार भारत को पदाक्रांत किया, और आज वे कहाँ हैं? सभी धर्म जहाँ सुदूरतम देख सकते हैं, वह है एक आध्यात्मिक तत्व इसलिए कोई धर्म इस बिंदु से आगे की शिक्षा नहीं दे सकता। प्रत्येक धर्म में सारभूत सत्य होता है और असारभूत मंजूषा होती है, जिसमें यह रत्न रखा रहता है। यहूदी धर्मशास्त्र या हिंदू धर्मशास्त्र में विश्वास रखना गौण है। परिस्थितियाँ बदलती हैं, पात्र भिन्न हो जाता है; किंतु सारभूत सत्य बना रहता है। सारभूत सत्य वही रहते हैं, इसलिए प्रत्येक संप्रदाय के शिक्षित लोग सारभूत सत्यों को अपने पास बनाए रखते हैं। सीपी की खोल आकर्षक नहीं है, लेकिन मोती उसके भीतर है। दुनिया के छोटे से भाग के लोगों को धर्म-परिवर्तित कर ईसाई बनाने से पहले ही ईसाई धर्म कई पंथों में विभाजित हो जाएगा। प्रकृति का यही नियम है। पृथ्वी के महान् धार्मिक वाद्य-वृंद से केवल एक वाद्य-यंत्र क्यों हटा लिया जाय? हम इस महान् वाद्य-वृंद संगीत को जारी रहने दें। वक्ता महोदय ने जोर दिया कि पवित्र बनो, कुसंस्कार छोड़ो और प्रकृति का अद्भुत सत्य एक ही हैं, इसलिए सब धर्म अच्छे हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के पूर्ण प्रयोग की सुविधा होनी चाहिए। ये पृथक् पृथक् व्यक्तित्व मिलकर निरतिशय पूर्ण का निर्माण करते हैं। यह आश्चर्यजनक स्थिति पहले से ही विद्यमान है। इस अद्भुत निर्माणकार्य में प्रत्येक धार्मिक मत का कुछ योगदान है।
आद्योपांत वक्ता महोदय ने अपने देश के धर्म के समर्थन का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि यह सिद्ध हो चुका है कि रोमन कैथोलिक चर्च की पूरी धर्म-व्यवस्था बौद्ध धर्मग्रंथों से ली गयी है। बौद्ध आचार संहिता के अंतर्गत नैतिकता तथा जीवन की पवित्रता के उत्कृष्ट आचार-नियम की उन्होंने कुछ विस्तारपूर्वक समीक्षा की, लेकिन बताया कि जहाँ तक ईश्वर की सगुणता में विश्वास का प्रश्न है, उसमें अज्ञेयवाद प्रचलित रहा। अनुसरण के योग्य मुख्य बात थी, बुद्ध के सदाचार के नियमों का पालन। ये नियम थे-'अच्छे बनो, सदाचारी बनो, पूर्ण बनो।'
सुदूर भारत से
( सैगिना कूरियर-हेरल्ड , २२ मार्च, १८९४ ई.)
कल सायंकाल 'होटल विसेंट' के कक्ष में एक बलवान, सुडौल आकृति का भव्यमूर्ति पुरुष बैठा हुआ था, कृष्ण वर्ण होने के कारण जिसकी सम दंत-पंक्ति को मुक्ता जैसी श्वेत आभा और भी अधिक प्रस्फुटित हो रही थी। विशाल तथा उच्च मस्तक के नीचे नेत्रों से बुद्धि टपक रही थी। ये सज्जन थे हिंदू धर्मोंपदेशक स्वामी विवे कान्द (विवेकानन्द )। श्री विवेकानन्द बातचीत के समय जिन अंग्रेज़ी वाक्यों का प्रयोग करते हैं, वे शुद्ध तथा व्याकरण-संगत होते हैं और उच्चारण में थोड़ा विदेशीपन कटु होने पर भी रुचिकर लगता है। डिट्राएट के पत्रों के पाठकों को मालूम होगा कि श्री विवेकानन्द ने उक्त नगर में कई बार व्याख्यान दिए हैं और ईसाइयों की कटु आलोचना करने कारण उनके विरुद्ध कुछ लोगों में वैर भाव पैदा हो गया है। ये विद्वान बौद्ध (?) जब एकेडमी के लिए रवाना हुए, जहाँ भाषण का आयोजन था, उसके ठीक पहले 'कूरियर हेरल्ड' के प्रतिनिधि ने कुछ मिनट तक उनसे बातचीत की। श्री विवेकानन्द ने वार्तालाप के समय कहा कि ईसाइयों में नैतिक आचार से स्खलन सामान्य सी बात है और इस पर उन्हें आश्चर्य होता है; किंतु सभी धर्मों के अनुयायियों में गुण-दोष पाए जाते हैं। उनका एक वक्तव्य निश्चय ही अमेरिका-विरोधी था। जब उनसे पूछा गया कि क्या हमारी संस्थाओं की जाँच- पड़ताल करते रहे हैं, तो उन्होंने जवाब दिया, ''नहीं, मैं तो धर्मोंपदेशक मात्र हूँ।'' इससे कुतूहल का अभाव और संकीर्ण भावना दोनों प्रदर्शित होते हैं, जो किसी ऐसे व्यक्ति के लिए विजातीय प्रतीत होते हैं, जो धार्मिक विषयों में इस बौद्ध (?) उपदेशक जैसा निष्णात हो।
होटल से एकेडमी बस एक क़दम के फ़ासले पर है और ८ बजे रोलैंड कोन्नोर ने वक्ता महोदय का परिचय छोटी सी श्रोतृमंडली के समक्ष दिया। वे लंबा गेरूआ वस्त्र धारण किए हुए थे, जो एक लाल दुपट्टे से बँधा था और पगड़ी बाँधे हुए थे; जान पड़ता था कि शाल की पट्टी लपेट ली गयी हो।
आरंभ में ही वक्ता महोदय ने कहा कि मैं धर्मप्रचारक के रूप में नहीं आया हूँ और किसी बौद्ध का यह कर्तव्य नहीं होता है कि अन्य लोगों से धर्म-परिवर्तन कराकर उन्हें अपने धर्म में शामिल करे। उन्होंने कहा कि मेरे व्याख्यान का विषय होगा 'धर्मों का समन्वय।' श्री विवेकानन्द ने कहा कि प्राचीन काल में कितने ही धर्मों की नींव पड़ी और वे नष्ट हो गए।
उन्होंने कहा कि राष्ट्र के दो-तिहाई लोग बौद्ध (हिंदू) हैं तथा एक तिहाई में अन्य धर्मों के लोग हैं। उन्होंने कहा कि बौद्धों के धर्म में इसके लिए कोई स्थान नहीं है कि भविष्य में मनुष्यों को यातना सहनी पड़ेगी। इस प्रसंग में ईसाइयों से वे भिन्न हैं। ईसाई लोग किसी आदमी को इस लोक में पाँच मिनट के लिए क्षमा प्रदान कर देंगे और आगामी लोक में चिरंतन दंड के भागी बना देंगे। बुद्ध ने सर्वप्रथम सार्वभौम भ्रातृत्व का पाठ सिखाया। आज यह बौद्ध मत का आधारभूत सिद्धांत है। ईसाई इसका उपदेश तो देता है, पर अपनी ही सीख को व्यवहार में नहीं लाता।
उन्होंने दक्षिण के नीग्रो लोगों की दशा का दृष्टांत दिया, जिन्हें होटलों में जाने की अनुमति नहीं है और न जो गोरों के साथ एक ही कार में सवार हो सकते हैं और वह ऐसा प्राणी है, जिसके साथ कोई संभ्रांत व्यक्ति बातें नहीं करता। उन्होंने कहा कि मैं दक्षिण मे गया था और अपनी जानकारी तथा पर्यवेक्षण के आधार पर ये बातें कह रहा हूँ।
हमारे हिंदू भाइयों के साथ एक शाम
(नॉर्थम्प्टन डेली हेरल्ड , १६ अप्रैल १८९४ ई.)
चूँकि स्वामी विवेकानन्द ने निर्णयात्मक रूप से यह सिद्ध कर दिया कि समुद्र पार के हमारे सभी पड़ोसी, यहाँ तक कि जो सुदूरतम भागों में रहते हैं, हमारे निकट चचेरे भाई हैं, जिनसे केवल रंग, भाषा, रीति और धर्म जैसी छोटी छोटी बातों में भिन्नता है, इस मृदुभाषी हिंदू संन्यासी ने शनिवार की शाम (१४ अप्रैल) को अपने भाषण की भूमिका के रूप में स्वयं अपने राष्ट्र तथा पृथ्वी के अन्य प्रमुख राष्ट्रों के उद्भव की ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तुत की, जिससे यह सत्य प्रमाणित हुआ कि जातियों का पारस्परिक भ्रातृत्व, जितना बहुत से लोग जानते हैं या मानने के लिए प्रस्तुत हैं, उसकी अपेक्षा कहीं अधिक सरल तथ्य है।
उसके पश्चात हिंदुओं की कुछ रीतियों के बारे में उन्होंने जो अनौपचारिक वक्तृता दी, वह किसी बैठने के कमरे में होनेवाली रुचिकर बातचीत के समान अधिक थी। वक्तृत्व-पटुता की सहज स्वछंदता के साथ वह विचार व्यक्त कर रहे थे और उनके श्रोताओं में से, जिन लोगों में स्वाभाविक या अभ्यासवश उस विषय के प्रति अभिरुचि थी, उनके लिए उक्त व्यक्ति तथा उनके विचार, दोनों ही, कई कारणों से, जिन सबका उल्लेख यहाँ नही़ किया जा सकता, बड़े ही दिलचस्प थे। अन्य श्रोताओं को वक्ता महोदय से निराशा हुई, क्योंकि अमेरिकी व्याख्यान-मंच की दृष्टि से यद्यपि भाषण बहुत लंबा था, तथापि उन्होंने अपने शब्द-चित्र, अर्थात् भाषण में और अधिक विस्तृत क्षेत्र पर प्रकाश नहीं डाला। विचित्र समझे जानेवाले उन लोगों के बहुत कम रीति-रिवाजों ओर रहन-सहन का जिक्र किया गया। इस प्राचीनतम जाति के सर्वोत्तम प्रतिनिधियों में से एक के मुख से उस जाति के व्यक्तिगत, नागरिक, घरेलू, सामाजिक और धार्मिक जीवन के विषय में लोग और बहुत अधिक बातें प्रसन्नतापूर्वक सुनते। मानव-प्रकृति के औसत दर्जे के विद्यार्थी के लिए यह विशिष्ट अभिरुचि का विषय होगा, लेकिन वास्तव में उसे इस बारे में सबसे कम जानकारी है।
हिंदू जीवन के विषय में अप्रत्यक्ष चर्चा, हिंदू बालक के जन्म के चित्रण, उसके शिक्षण-प्रवेश, विवाह, घरेलू जीवन की संक्षिप्त चर्चा से आरंभ हुई, लेकिन जो आशा की गयी थी, वह सुनने को नहीं मिली। वक्ता महोदय बहुधा मुख्य विषय से दूर चले जाते थे और अपने देश के लोगों तथा अंग्रेज़ी बोलनेवाली जातियों की सामाजिक, नैतिक और धार्मिक रीतियों एवं भावनाओं की तुलनात्मक आलोचना करने लगते और सबका निष्कर्ष स्पष्टत: अपने ही देश के लोगों के पक्ष में निकालते, यद्यपि ऐसा करने में वह अत्यंत शिष्टता, उदारता और शालीनता से काम लेते थे। उनके कुछ श्रोताओं को हिंदुओं की सामाजिक और पारिवारिक दशाओं की साधारणत: अच्छी जानकारी थी तथा जिन बातों का वक्ता महोदय ने जिक्र किया, उन पर वे उनसे दो-एक चुनौती के प्रश्न पूछना पसंद करते। दृष्टांत के तौर पर, जब उन्होंने नारीत्व के प्रति हिंदू भावना को मातृत्व के आदर्श के रूप में धड़ल्ले से सुंदरतापूर्वक चित्रित किया और बताया कि वह सदा श्रद्धास्पद है, यहाँ तक कि इतनी आस्थामयी भक्ति के साथ उसकी पूजा की जाती है कि नारी के प्रति सर्वाधिक सम्मान की भावना रखनेवाले निःस्वार्थ तथा सच्चे अमेरिकी सपूत, पति एवं पिता उसकी कल्पना तक नहीं कर सकते, तब कोई व्याक्ति यह प्रश्न पूछकर उसका उत्तर जानना चाहता कि अधिकांश हिंदू घरों में, जहाँ पत्नियों, माताओं, पुत्रियों और बहनों का निवास है, यह सुंदर सिद्धांत कहाँ तक चरितार्थ होती है।
लाभ के प्रति लोभ, विलासपरायणता के राष्ट्रीय दुर्गुंण, स्वार्थपरायणता और 'डालर-उपासक जाति' के मनोभाव के विरुद्ध, जो दबंग गोरी यूरोपीय तथा अमेरिकी जातियों को नैतिक तथा नागरिक दृष्टि से घातक खतरे की ओर ले जानेवाली संक्रामक व्याधि है, उनकी फटकार बिल्कुल ठीक थी और अन्यतम प्रभावोत्पादक ढंग से उपस्थित की गयी थी। मंद, कोमल, धीमी, आवेशरहित संगीतमयी वाणी में जो विचार सन्निविष्ट थे, उनमें शब्दोच्चार की दृढ़ता शारीरिक चेष्टा की शक्ति और आग भरी थी, तथा वह पैगंबर के इस वचन के सदृश कि 'तू ही वह मनुष्य है', लक्ष्य पर सीधे पहुँचती थी। किंतु जब यह विद्वान् हिंदू, जो जन्म, स्वभाव तथा संस्कार से अभिजात है, यह सिद्ध करने का प्रयास करता है-जैसा कि बहुधा, और जान पड़ता है कि अर्द्ध अचेतन स्थिति में विशेष विचारणीय विषय से दूर हटकर उसने बार-बार किया-कि उसकी जाति का धर्म ईसाई धर्म की अपेक्षा विश्व के लाभ की दृष्टि से श्रेष्ठतर सिद्ध हुआ है, तो वह धर्म का भारी ठेका लेने का प्रयत्न करता है; यद्यपि हिंदू धर्म सबसे निराला, स्वकेंद्रित, निर्णयात्मक रूप से स्वात्मपरित्राणात्मक, निषेधात्मक और निष्किय है तथा उसके स्वार्थपरक आलस्यपूर्ण होने के बारे में तो न कहना ही ठीक है, और ईसाई धर्म जानदार, कर्मठ स्वार्थ-विस्मृत, आदि-मध्यान्त परोपकारपरायण और विश्व भर में व्याप्त हुआ क्रियात्मक धर्म है, जिसके नाम पर दुनिया के नब्बे प्रतिशत सच्चे व्यावहारिहक, नैतिक, आध्यात्मिक और लोककल्याणकारी कार्य हुए हैं तथा हो रहे हैं, चाहे उसके अविवेकी कट्टर अनुयायियों ने जो भी खेदपूर्ण और भद्दी भूलें क्यों न की हों।
परंतु जब हम लोग अपनी जाति की उम्र सैकड़ो वर्षों में गिनते हैं, तब उस जाति की, जो अपनी उम्र हजारों वर्षों में गिनती, मानसिक नैतिक और आध्यात्मिक संस्कृति की अत्यंत उत्तम विभूति की देदीप्यमान ज्योति का दर्शन करने की जिसे चिंता हो, उस प्रत्येक निष्पक्ष विचारवाले अमेरिकन को चाहिए कि वह स्वामी विवेकानन्द के दर्शन करने और उनके भाषण सुनने के अवसर को हाथ से न जाने दे। प्रत्येक मस्तिष्क के लिए वे अध्ययन योग्य संपन्न पात्र हैं।
रविवार (१५ अप्रैल) को दिन में तीसरे पहर इस विशिष्ट हिंदू ने स्मिथ कॉलेज के छात्रों के समक्ष सायंकालीन प्रार्थना के समय भाषण किया। 'ईश्वर का पितृत्व और मनुष्य भ्रातृत्व', वस्तुत: यह उनके भाषण का विषय था। प्रत्येक श्रोता ने जो विवरण दिया है, उससे प्रकट होता है कि भाषण का गंभीर प्रभाव पड़ा। उनकी पूरी विचारधारा की यह विशेषता थी कि उसमें सच्चे धार्मिक मनोभाव और उपदेश की सर्वाधिक विशद उदारता थी।
(मई , १८९४ की स्मिथ कॉलेज मासिक पत्रिका)
रविवार, १५ अप्रैल को हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने, जिनकी ब्राह्मणवाद (?) की विद्वत्तापूर्ण व्याख्या पर धर्म-सम्मेलन में अनुकूल टीकाएँ की गयीं, सायंकालीन प्रार्थना-सभा में अपने भाषण में कहा-हम मनुष्य के भ्रातृत्व और ईश्वर के पितृत्व के विषय में बहुत कहते हैं, लेकिन बहुत कम लोग इन शब्दों का अर्थ समझते हैं। सच्चा भ्रातृत्व तभी संभव है, जब आत्मा परम पिता परमात्मा के इतने सन्निकट खिंच आए कि द्वेष भाव और दूसरों की अपेक्षा वरिष्ठता के दावे मिट जाएं, क्योंकि हम लोग इनसे अत्यधिक अतीत हैं। हमें सावधान रहना चाहिए कि हम कहीं प्राचीन हिंदू कथा के उस कूपमंडूक के सदृश न बन जायँ, जो दीर्घ काल तक एक संकुचित स्थान में रहने के कारण अंत में बृहत्तर देश के अस्तित्व का ही खंडन करने लगा।
भारत और हिंदुत्व
(न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून , २५ अप्रैल, १८९४ ई.)
स्वामी विवेकानन्द ने कल सायंकाल वालडोर्फ़ में श्रीमती आर्थर स्मिथ के गोष्ठी-मंडल के समक्ष 'भारत और हिंदूत्व' विषय पर भाषण किया। मध्यम गानेवाली (Contralto) कुमारी सारा हम्बर्ट और उच्च कंठ की गायिका (Soprano) कुमारी एनी विल्सन ने कई चुने हुए गीत गाए। वक्ता महोदय गेरूआ रंग का कोट और पीली पगड़ी धारण किए हुए थे, जो भिक्षु की वेशभूषा कही जाती है। यह तब धारण किया जाता है, जब कोई बौद्ध (?) 'ईश्वर तथा मानवता के लिए सब कुछ' त्याग देता है। पुनर्जन्मवाद के सिद्धांत पर विचार-विमर्श किया गया। वक्ता महादय ने कहा कि बहुत से पादरी, जो विद्वान की अपेक्षा झगड़ालू अधिक हैं, पूछते हैं, 'यदि कोई पूर्व जन्म हुआ है, तो उसके प्रति कोई आदमी अचेत क्यों रहता है?'' उत्तर यह था "चेतना के लिए आधार की कल्पना करनी बच्चों जैसी चेष्टा है, क्योंकि आदमी को इस जीवन के अपने जन्म तथा वैसी ही अन्य बहुत सी बीती हुई घटनाओं की भी चेतना नहीं है।''
वक्ता महोदय ने कहा कि उनके धर्म में 'न्याय-दिव' जैसी कोई चीज नहीं है ओर उनके ईश्वर न तो किसी को दंडित करते हैं और न पुरस्कृत। यदि किसी प्रकार कोई बुरा कर्म किया जाता है, तो प्राकृतिक दंड तत्काल मिलता है। उन्होंने बताया कि जब तक वह ऐसी पूर्ण आत्मा नहीं बन जाती, जिसे शरीर का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता, तब तक आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती रहती है।
भारतीयों के आचार-विचार और रीति-रिवाज़
(बोस्टन हेरल्ड , १५ मई , १८९४ ई.)
वार्ड के षोडश दिवसीय नर्सरी (वस्तुत: टाइलर स्ट्रीट डे नर्सरी) के लाभार्य कल ब्राह्मण संन्यासी स्वामी विवेकानन्द की वार्ता 'भारत का धर्म' (वस्तुत: भारत की रहन-सहन और रीति-रिवाज़) विषय पर आयोजित थी, जिसे सुनने के लिए 'एसोसिएशन-हाल' महिलाओं से पूरा भरा हुआ था। पिछले वर्ष के शिकागो की भाँति बोस्टन में भी इस ब्राह्मण संन्यासी के दर्शन के लिए लोग बावले रहते हैं। अपने गंभीर, सच्चे और सुसंस्कृत व्यवहार से उन्होंने बहुतों को अपना मित्र बना लिया है।
उन्होंने कहा कि हिंदू राष्ट्र को विवाह का व्यसन नहीं है, इसलिए नहीं कि हम लोग नारी जाति से घृणा करते हैं, बल्कि इसलिए कि हमारा धर्म महिलाओं को पूज्य मानने की शिक्षा देता है। हिंदू को शिक्षा दी जाती है कि वह प्रत्येक स्त्री को अपनी माता समझे। कोई पुरुष अपनी माता से विवाह नहीं करना चाहता। ईश्वर हमारे लिए माता भगवती है। स्वर्गस्थ भगवान् की हम किंचित्त परवाह नहीं करते। वह तो हमारे लिए माता है। हम विवाह को निम्न संस्कारहीन अवस्था समझते हैं और यदि कोई आदमी विवाह करता ही है, तो इसका कारण यह है कि उसे धर्म-कार्य में सहायतार्थ सहचरी की आवश्यकता है।
तुम कहते हो कि हम लोग अपने देश की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। संसार का कौन सा ऐसा राष्ट्र है, जिसने अपनी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया है? यूरोप या अमेरिका में पैसे के लोभ में कोई पुरुष किसी महिला से विवाह कर सकता है और उसके डालरों को हाथिया लेने के बाद उसे ठुकरा सकता है। इसके विपरीत, भारत में जब कोई स्त्री धन के लोभ में किसी पुरुष से विवाह करती है, तो शास्त्रों के अनुसार उसकी संतानों को दास समझा जाता है और जब कोई धनी पुरुष किसी स्त्री से विवाह करता है, तब उसका सारा रुपया-पैसा पत्नी के हाथ में चला जाता है, जिससे ऐसा बहुत कम संभव होता है कि अपने खजाने की स्वामिनी को वह घर से बाहर निकाल सके।
तुम लोग कहते हो कि हमारे देश के लोग अधार्मिक, अशिक्षित और संस्कारहीन हैं किंतु ऐसी बातें कहने में शालीनता का जो अभाव है, उस पर हम लोगों को हँसी आती है। हमारे यहाँ गुण और जन्म के आधार पर जाति बनती है, धन के आधार पर नहीं। तुम्हारे पास कितनी भी दौलत क्यों न हो, उससे भारत में कोई उच्चता नहीं प्राप्त होगी। जाति में सबसे गरीब और सबसे धनी बराबर माने जाते हैं। यह उसकी सर्वोत्तम विशेषताओं में से एक है।
धन से विश्व में युद्धों का सूत्रपात हुआ है। धन के कारण ईसाइयों ने एक दूसरे को पावों तले कुचला है। द्वेष, घृणा और लोभ का जनक धन है। यहाँ तो बस काम ही काम और धक्कमधुक्का है। जाति मनुष्य को इन सबसे बचाती है। कम धन में जीवन-यापन इसके कारण संभव है और इससे सबको रोज़गार मिलता है। वर्ण-धर्म माननेवाले व्यक्ति को आत्म-चिंतन के लिए समय मिलता है और भारतीय समाज में यही हमें अभीष्ट है।
ब्राह्मण का जन्म ईश्वरोपासना के लिए हुआ है। जितना उच्चतर वर्ण होगा, उतने ही अधिक सामाजिक प्रतिबंधों का निर्वाह करना पड़ेगा। वर्ण-व्यवस्था ने हमें राष्ट्र के रूप में जीवित रखा है और यद्यपि इसमें बहुत से दोष हैं, पर उनसे भी अधिक इससे लाभ हैं।
ब्राह्मण का जन्म ईश्वरोपासना के लिए हुआ है। जितना उच्चतर वर्ण होगा, उतने ही अधिक सामाजिक प्रतिबंधों का निर्वाह करना पड़ेगा। वर्ण-व्यवस्था ने हमें राष्ट्र के रूप में जीवित रखा है और यद्यपि इसमें बहुत से दोष हैं, पर उनसे भी अधिक इससे लाभ हैं।
श्री विवेकानन्द ने प्राचीन और आधुनिक, दोनों प्रकार के विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों का वर्णन किया, विशेषकर वाराणसी के विश्वविद्यालय का, जिसमें २०,००० छात्र तथा आचार्य थे।
उन्होंने कहा कि जब तुम लोग मेरे धर्म के बारे में अपना निर्णय देते हो, तब यह मान लेते हो कि तुम्हारा धर्म पूर्ण है और मेरा सदोष है; और जब भारत के समाज की आलोचना करते हो, तो उस हद तक उसे संस्कारहीन मान लेते हो, जिस हद तक वह तुम्हारे मानदंड से मेल नहीं खाता यह मूर्खतापूर्ण है।
शिक्षा के संदर्भ में वक्ता महोदय ने कहा कि भारत में शिक्षित व्यक्ति आचार्य बनते हैं तथा उनसे कम शिक्षित व्यक्ति पौरोहित्य करते हैं।
भारत के धर्म
(बोस्टन हेरल्ड १७ मई , १८९४ ई.)
कल अपराह्र में ब्राह्मण संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने 'वार्ड सिक्सटीन डे नर्सरी' की सहायता के लिए 'एसोसिएशन हाल' में भारत के धर्मं' विषय पर व्याख्यान दिया। श्रोता बड़ी संख्या मे उपस्थित थे।
वक्ता महोदय ने सर्वप्रथम बताया कि भारत में मुसलमानों की जनसंख्या पूरी आबादी का पंचमांश है। उन्होंने इसलाम की समीक्षा की और कहा कि वे 'प्राचीन व्यवस्थान' और 'नव व्यवस्थान', दोनों के प्रति आस्था (?) रखते हैं। लेकिन ईसा मसीह को वे केवल पैगंबर मानते हैं। उनका कोई धार्मिक संघ नहीं है, हाँ, वे कुरान का पाठ करते हैं।
एक और जाति पारसियों की है, जिनके धर्मग्रंथ को जेद-अवेस्ता कहते हैं। उनका विश्वास है कि दो प्रतिद्वंद्वी देवता हैं-एक शुभ, अहुर्मज़्द और दूसरा अशुभ, अहिर्मन। उनका यह भी विश्वास है कि अंत में अशुभ पर शुभ की विजय होती है। उनकी नीति-संहिता का सारांश है-'शुभ संकल्प, शुभ वचन और शुभ कर्म।'
खास हिंदू वेदों को अपना प्रामाणिक धर्मग्रंथ मानते हैं। वे प्रत्येक व्यक्ति को वर्ण के आचार-विचार के पालन के लिए बाध्य करते हैं, किंतु धार्मिक मामलों में विचार के लिए पूरी स्वतंत्रता देते हैं। उनके विधान का एक अंग यह है कि वे किसी महात्मा अथवा पैगंबर का वरण करते हैं, जिससे वे उससे नि:सृत आध्यात्मिक प्रवाह से अपने को कृतार्थ कर सकें।
हिंदुओं की तीन विभिन्न धार्मिक विचारधाराएँ थीं-द्वैतवादी, विशिष्टा द्वैतवादी और अद्वैतवादी-और इन तीनों को अवस्थाएँ समझा जाता हैं, जिनसे होकर प्रत्येक व्यक्ति को अपने धार्मिक विकास-कम के अंतर्गत गुजरना पड़ता है।
तीनों ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं, किंतु द्वैतवादियों का विश्वास है कि ब्रह्म तथा जीव पृथक् सत्ताएँ हैं, जब कि अद्वैतवादियों का कहना है कि ब्रह्मांड में केवल एक ही सत्ता है और यह एक सत्ता न तो ईश्वर है और न जीव, बल्कि इन दोनों से अतीत है।
वक्ता महोदय ने हिंदू धर्म के स्वरूप का दिग्दर्शन कराने के लिए वेदों के उद्वरण सुनाए और कहा कि ईश्वर के साक्षात्कार के लिए अपने ही हृदय को अवश्य ढूँढ़ना पड़ेगा।
पुस्तक-पुस्तिकाओं को धर्म नहीं कहते। अंतर्दृष्टि द्वरा मानव-हृदय में प्रवेश कर ईश्वर तथा अमरत्व संबंधी सत्यों को ढूँढ निकालने को धर्म कहते हैं। वेद कहते हैं, जो कोई भी मुझे प्रिय होता है, उसे मैं ऋषि या द्रष्टा बना देता हूँ, और ऋषि बन जाना धर्म का सर्वस्व है।'
वक्ता महोदय ने जैनों के धर्म के संबंध में विवरण सुनाकर अपने व्याख्यान का उपसंहार किया। जैन धर्मावलंबी लोग मूक जीव-जंतुओं के प्रति उल्लेखनीय दया का व्यवहार करते हैं। उनके नैतिक विधान का मूलमंत्र है- अहिंसा परमो धर्म:।
भारत के संप्रदाय और मत-मतांतर
(हॉर्वर्ड किमसन , १७ मई , १८९४ ई)
कल सांयकाल हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने 'हार्वर्ड रिलिजस यूनियन' के तत्वावधान में सेवर हाल में वक्तृता दी। भाषण बड़ा दिलचस्प था। स्पष्ट तथा धाराप्रवाह वाणी में मृदुता तथा गंभीरता के कारण वक्ता महोदय के व्याख्यान का अनुपम प्रभाव पड़ा।
विवेकानन्द ने कहा कि भारत में विभिन्न संप्रदाय तथा मत-मतांतर हैं। इनमें से कुछ सगुण ब्रह्म के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं। अन्य संप्रदाय तथा मतों का विश्वास है कि ब्रह्म तथा जगत् एक हैं किंतु हिंदू चाहे जिस संप्रदाय का अनुयायी क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि मेरा ही धार्मिक विश्वास सही है और अन्य सबका अवश्यमेव गलत है। उसकी धारणा है कि ईश्वर-साक्षात्कार के अनेक मार्ग है; जो सच्चा धार्मिक है, वह संप्रदायों तथा मत-मतांतरों के क्षुद्र विवादों से परे रहता है। भारत में जब किसी आदमी में यह विश्वास उत्पन्न हो जाता है कि वह आत्मा है और शरीर नहीं है, तब कहा जाता है कि वह धर्म परायण है-इसके पहले नहीं।
भारत में संन्यासी होने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति विशेष इस विचार को अपने मन से दूर भगा दे कि वह शरीर है; वह अन्य मनुष्यों को भी आत्मा समझे। अत: संन्यासी कभी विवाह नहीं कर सकता। जब कोई व्यक्ति संन्यासी बनता हैं, तब उसे दो प्रतिज्ञाएँ करनी पड़ती हैं। अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन करने का व्रत लेना पड़ता है। उसे धन ग्रहण करने या अपने पास रहने की अनुमति नहीं रहती। संन्यास धर्म की दीक्षा लेने पर प्रथम अनुष्ठान यह होता है कि उसका पुतला जलाया जाता है, जिसका अभिप्राय यह होता है कि उसका पुराना शरीर, पुराना नाम और जाति, सब नष्ट हो गए। तब उसका नया नामकरण होता है और उसे बाहर जाने तथा धर्मोंपदेश करने या परिव्राजक बनने की अनुमति मिलती है, किंतु वह जो भी कर्म करे, उसके लिए पैसा नहीं ले सकता।
संसार को भारत की देन
(ब्रुकलिन स्टैन्डर्ड यूनियन , फरवरी २७ , १८९५ ई)
हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने सोमवार की रात को ब्रुकलिन एथिकल एसोसिएशन के तत्वावधान में पियरेपोंट और क्लिंटन स्ट्रीटों के कोने पर स्थित लांग आइलैंड हिस्टोरिकल सोसाइटी के हाल में बहुसंख्यक श्रोताओं के सम्मुख एक भाषण दिया। उनका विषय था 'संसार को भारत की देन।'
उन्होंने अपनी मातृभूमि की अद्भुत सुंदरता का विवरण दिया, 'जहाँ सबसे पहले आचार-शास्त्र, कला, विज्ञान और साहित्य का उदय हुआ और जिसके पुत्रों की सत्यप्रियता और जिसकी पुत्रियों की पवित्रता की प्रशंसा सभी यात्रियों ने की है।' इसके बाद वक्ता ने तेजी से उन सब वस्तुओं का दिग्दर्शन कराया, जो भारत ने संसार को दी है।
"धर्म के क्षेत्र में", उन्होंने कहा, "उसने ईसाई धर्म पर अत्यधिक प्रभाव डाला है, क्योंकि ईसा द्वारा दी गयी सब शिक्षाएँ पूर्ववर्ती बुद्ध की शिक्षाओं में देखी जा सकती हैं।'' उन्होंने यूरोपीय और अमेरिका वैज्ञानिकों की पुस्तकों से उद्धरण देकर बुद्ध और ईसा में बहुत सी बातों में समानता दिखलायी। ईसा का जन्म, संसार से उनका वैराग्य, उनके शिष्यों की संख्या और स्वयं उनकी शिक्षा के आचार-शास्त्र वही हैं, जो उन बुद्ध के थे जो उनसे कई सौ वर्ष पहले हो चुके थे।
वक्ता ने पूछा, "क्या यह केवल संयोग की बात है, अथवा बुद्ध का धर्म सचमुच ईसा के धर्म का पूर्व बिंब था? तुम्हारे विचारकों में से अधिकांश पिछली व्याख्या से संतुष्ट जान पड़ते हैं, पर कुछ ने साहसपूर्वक यह भी कहा है कि ईसाई मत उसी प्रकार बुद्ध मत की संतान है, जिस प्रकार ईसाई धर्म के सर्वप्रथम अपधर्म-मैनिकीयन अपधर्म-को अब आम तौर से बौद्धों के एक संप्रदाय की शिक्षा माना जाता है। इस बात के अब और भी अधिक प्रमाण हैं कि ईसाई धर्म की नींव बुद्ध धर्म में है। ये हमें भारतीय सम्राट् अशोक, लगभग ३०० वर्ष ईसा पूर्व, के राज्यकाल के उन लेखों में मिलते हैं, जो अभी हाल में सामने आए हैं। अशोक ने समस्त यूनानी नरेशों से संधि की थी और उसके धर्मोंपदेशकों ने उन्हीं भूभागों में बुद्ध धर्म के सिद्धांतों का प्रचार किया था, जहाँ शताब्दियों बाद ईसाई धर्म का उदय हुआ। इस प्रकार, इस तथ्य की व्याख्या हो जाती है कि तुम्हारे पास हमारे त्रिदेव और ईश्वर के अवतार का सिद्धांत और हमारा आचार-शास्त्र कैसे पहुँचा; और हमारे मंदिरों की सेवा-पद्धति तुम्हारे वर्तमान कैथोलिक चर्चों की सेवा-पद्धति,'मास' (Mas) से लेकर 'चैंट'(Chant) और 'बेनीडिक्श'(Benediction) तक, से इतनी मिलती-जुलती क्यों है? बुद्ध धर्म में ये बातें तुमसे बहुत पहले विद्यमान थीं। अब तुम इन बातों के संबंध में अपनी निर्णय-बुद्धि का उपयोग करो। प्रमाणित होने पर हम हिंदू तुम्हारे धर्म की प्राचीनता स्वीकार करने की तैयार हैं, यद्यपि हमारा धर्म उस समय से लगभग तीन सौ वर्ष पुराना है, जबकि तुम्हारे धर्म की कल्पना भी उत्पन्न नहीं हुई थी।
"यही बात विज्ञानों के संबंध में भी सत्य है। भारत ने पुरातन काल में सबसे पहले वैज्ञानिक चिकित्सक उत्पन्न किए थे और सर विलियम हंटर के मतानुसार उसने विभिन्न रासायनिकों का पता लगाकर और तुम्हें विरूप कानों और नाकों को सुडौल बनाने की विधि सिखाकर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में भी योग दिया है। गणित में तो उसने और भी अधिक किया है, क्योंकि बीजगणित, ज्यामिति, ज्योतिष और आधुनिक विज्ञान की विजय-मिश्र गणित-सबका आविष्कार भारत में हुआ था, यहाँ तक कि वे दस अंक, जो संपूर्ण वर्तमान सभ्यता की मूल आधारिशिला हैं, भारत में आविष्कृत हुए हैं, और वास्तव में संस्कृत के शब्द हैं।
"दर्शन में तो, जैसा कि महान् जर्मन दार्शनिक शापेनहॉवर ने स्वीकार किया है, हम अब भी दूसरे राष्ट्रों से बहुत ऊँचे हैं। संगीत में भारत ने संसार को सात प्रधान स्वरों और उनके मापनक्रमसहित अपनी वह अंकन-पद्धति प्रदान की है, जिसका आनंद हम ईसा से लगभग तीन सौ पचास वर्ष पहले से ले रहे थे, जब कि वह यूरोप में केवल ग्यारहवीं शताब्दी में पहुँची। भाषा-विज्ञान में अब हमारी संस्कति भाषा सभी लोगों द्वारा समस्त यूरोपीय भाषाओं की आधार स्वीकार की जाती है, जो वास्तव में अनर्गलित संस्कृत के अपभ्रशों के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।
"साहित्य में हमारे महाकाव्य तथा कविताएँ और नाटक किसी भी भाषा की ऐसी सर्वोच्च रचनाओं के समकक्ष हैं। जर्मनी के महानतम कवि ने शकुंतला के सार का उल्लेख करते हुए कहा है कि यह 'स्वर्ग और धरा का सम्मिलन है।' भारत ने संसार को ईसप की कहानियाँ दी हैं। इन्हें ईसप ने एक पुरानी संस्कृत पुस्तक से लिया है। उसने 'सहस्त्र रजनीचरित' (Arabian Nights) दिया है और, हाँ, सिन्ड्रैला और बीन स्टाक्स की कहानियाँ भी वहीं से आयी हैं। वस्तुओं के उत्पादन में, सबसे पहले भारत ने रूई और बैगनी रंग बनाया। वह रत्नों से संबंधित सभी कौशलों में निष्णात था, और'शुगर'शब्द स्वयं तथा यह वस्तु भी भारतीय उत्पादन है। अंत में उसने शतरंज, ताश और चौपड़ के खेलों का आविष्कार भी किया है। वास्तव में सभी बातों में भारत की उच्चता इतनी अधिक थी कि यूरोप के भूखे सिपाही उसकी ओर आकृष्ट हुए, जिससे परोक्ष रूप से अमेरिका का पता चला।
"और अब, इस सबके बदले में संसार ने भारत को क्या दिया है? बदनामी, अभिशाप और अपमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं। संसार ने उसकी संतान के जीवन-रक्त को रौंदा है, उसने भारत को दरिद्र और उसके पुत्रों तथा पुत्रियों को दास बनाया है; और इतनी हानि पहुँचाने के बाद वह वहाँ एक ऐसे धर्म का प्रचार करके उसका अपमान करता है, जो अन्य सब धर्मों का विनाश करके ही फल-फूल सकता है। पर भारत भयभीत नहीं है। वह किसी राष्ट्र से दया की भीख नहीं माँगता। हमारा एकमात्र दोष यह है कि हम जीतने के लिए लड़ नहीं सकते, पर हम सत्य की नित्यता में विश्वास करते हैं। संसार के प्रति भारत का सबसे पहला संदेश उसकी सद्भावना है। वह अपने प्रति की गयी बुराई के बदले में भलाई कर रहा है और इस प्रकार वह उस पुनीत विचार को कार्यांवित कर रहा है, जो भारत में ही उदय हुआ था। अंत में, भारत का संदेश है कि शांति, शुभ, धैर्य और नम्रता की अंत में विजय होगी। क्योंकि वे यूनानी कहाँ हैं, जो एक समय पृथ्वी के स्वामी थे? समाप्त हो गए। वे रोमवाले कहाँ हैं, जिनके सैनिकों की पदचाप से संसार काँपता था? मिट गए। वे अरब वाले कहाँ हैं, जिन्होंने पचास वर्षों में अपने झंडे अटलांतिक (अंध) महासागर से प्रशांत महासागर तक फहरा दिए थे? और वे स्पेनवाले, करोंड़ों मनुष्यों के निर्दय हत्यारे, कहाँ हैं? दोनों जातियाँ लगभग मिट गयी हैं; पर अपनी संतान की नैतिकता के कारण, यह दयालुतर जाति कभी नहीं मरेगी, और वह फिर अपनी विजय की घड़ी देखेगी।"
इस भाषण के अंत में जिस पर खूब तालियाँ बजीं,स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय रीति-रिवाजों के बारे में कुछ प्रश्नों के उत्तर दिए। उन्होंने निश्चयात्मक रूप से उस कथन की सत्यता को अस्वीकार किया, जो कल (फरवरी २५) के स्टैंडर्ड यूनियन में प्रकाशित हुआ था और जिसमें कहा गया था कि भारत में विधवाओं के प्रति बुरा व्यवहार किया जाता है। उन्होंने कहा कि उनके लिए कानून द्वारा न केवल वह संपत्ति सुरक्षित है, जो विवाह से पहले उनकी थी, वरन् वह सब भी, जो उन्हें अपने पति से प्राप्त होती है, जिसकी मृत्यु के उपरांत, यदि कोई सीधा उत्तराधिकारी नहीं होता, तो संपत्ति उसकी हो जाती है। भारत में विधवाएँ, पुरुषों की कमी के कारण, बहुत कम विवाह करती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि पतियों की मृत्यु पर उनकी पत्नियों का आत्म बलिदान और जगन्नाथ के पहियों के नीचे उनका अंध आत्म-विनाश पूर्णतया बंद हो गया है, और इस संबंध में उन्होंने प्रमाण के लिए सर विलियम हंटर की 'हिस्ट्री ऑफ़ द इंडियन एम्पायर' का हवाला दिया।
भारत की बाल विधवाएँ
(डेली ईगल , फरवरी २७ , १८९५)
हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने सोमवार की रात को ब्रुकलिन एथिकल एसोसिएशन के तत्वाधान में हिस्टोरिकल सोसाइटी हाल में 'संसार को भारत की देन' पर एक भाषण दिया। जब स्वामी मंच पर आए, तो हाल में लगभग २५० व्यक्ति थे। श्रोताओं में विशेष रुचि का कारण यह था कि भारत में ईसाई धर्म के प्रचार में रुचि रखनेवाले ब्रुकलिन रामाबाई सर्कल की अध्यक्षा श्रीमती जेम्स मैक्कीन ने वक्ता के इस कथन का विरोध प्रकट किया था कि भारत में बाल विधवाओं की रक्षा की जाती है अर्थात् उनके प्रति दुर्व्यवहार नहीं किया जाता। उन्होंने अपने भाषण में इस विरोध की कहीं चर्चा नहीं की; पर जब वह अपना भाषण समाप्त कर चुके, तो श्रोताओं में से एक ने पूछा कि आप इस कथन के उत्तर में क्या कहना चाहते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने बताया कि यह बात गलत है कि बाल विधवाओं के प्रति किसी प्रकार का अपमानजनक अथवा बुरा व्यवहार किया जाता है। उन्होंने कहा : "यह सत्य है कि कुछ हिंदू बहुत छोटी आयु में विवाह कर लेते हैं। दूसरे उस समय विवाह करते हैं, जब वे काफ़ी बड़े हो जाते हैं और कुछ कभी विवाह ही नहीं करते। मेरे पितामह का विवाह उस समय हुआ था, जब वह बिल्कुल बालक थे। मेरे पिता ने चौदह वर्ष की आयु में विवाह किया था और मैं तीस वर्ष का हूँ और तो भी अविवाहित हूँ। जब पति की मृत्यु होती है,तो उसकी संपूर्ण संपत्ति विधवा को मिलती है। यदि कोई विधवा निर्धन होती है, तो वह वैसी ही होती है, जैसी कि किसी भी अन्य देश में गरीब विधवाएँ होती हैं। कभी कभी बूढ़े पुरुष बच्चियों से विवाह करते हैं, पर पति यदि धनवान होता है, तो विधवा के लिए यह अच्छा ही होता है कि वह जल्दी से जल्दी मर जाय। मैं सारे भारत में घूमा हूँ, पर मुझे ऐसे दुर्व्यवहार का एक भी उदाहरण नहीं मिला, जिसका उल्लेख किया गया है। एक समय था, जब लोग अंध धार्मिक थे, विधवाएँ थीं, जो आग में कूद जाती थीं और अपने पति की मृत्यु पर ज्वाला में भस्म हो जाती थीं। हिंदुओं को इसमें विश्वास नहीं था, पर उन्होंने इसे रोका नहीं; और जब अंग्रेजों ने भारत पर नियंत्रण प्राप्त किया, तभी इसका अंतिम रूप से वर्जन हुआ। ये नारियाँ संत समझी जाती थीं और अनेक दिशाओं में उनकी स्मृति में स्मारक बने हुए हैं।
हिंदुओं के कुछ रीति-रिवाज़
(ब्रुकलिन स्टैंडर्ड यूनियन , अप्रैल ८ , १८९५ ई.)
पिछली रात ब्रुकलिन एथिकल सोसाइटी की एक विशेष बैठक, क्लिस्टन एवेन्यू की पाउच गैलरी में हुई, जिसमें प्रमुख बात हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द का एक भाषण था। इस भाषण का विषय था 'हिंदुओं के कुछ रीति-रिवाज: उनका क्या अर्थ है और उनको किस प्रकार गलत समझा जाता है।' इस विशाल गैलरी में बहुत से लोगों की भीड़ थी।
अपने पूर्वीय वस्त्रों को धारण किए हुए, दीप्त नयनों और तेजस्वी चेहरेवाले स्वामी विवेकानन्द ने अपने लोगों, अपने देश और उसके रीति-रिवाजों के बारे में बताना आरंभ किया। उन्होंने केवल यह इच्छा प्रकट की कि उनके और उनके लोगों के प्रति न्याय किया जाय। प्रवचन के आरंभ में उन्होंने कहा कि वे भारत के विषय में एक सामान्य आभास उपस्थित करेंगे। उन्होंने कहा कि वह देश नहीं है, वरन् एक महाद्वीप है; और ऐसे यात्रियों ने, जिन्होंने उस देश को कभी देखा भी नहीं उसके बारे में भ्रामक धारणाएँ फैलायी हैं। उन्होंने कहा कि देश में नौ विभिन्न भाषाएँ और सौ से अधिक बोलियाँ हैं। उन्होंने उन लोगों की तीव्र आलोचना की, जिन्होंने उनके देश के बारे में लिखा हैं, और कहा कि उनके मस्तिष्क अंधविश्वास के रोगी हैं। उनकी यह धारणा है कि जो कोई भी उनके अपने धर्म की सीमा से बाहर है, वह महा असभ्य है। एक रिवाज, जिसको अकसर गलत रूप में उपस्थित किया गया है, हिंदुओं द्वारा दाँतों को साफ करना है। वे कभी बाल अथवा खाल को मुँह में नहीं डालते, वरन् पौधा इस्तेमाल करते हैं। वक्ता ने कहा,"इसलिए एक व्यक्ति ने लिखा है कि हिंदू प्रात: तड़के उठते हैं और एक पौधा निगलते हैं।"उन्होंने कहा कि विधवाओं द्वारा जगन्नाथ के पहियों के नीचे कुचले जाने के लिए लेटने का रिवाज न आज है, न कभी था, और पता नहीं, ऐसी कहानी किस प्रकार चल पड़ी।
जाति-व्यवस्था के विषय में स्वामी विवेकानन्द की वार्ता अत्यधिक व्यापक और रोचक थी। उन्होंने बताया कि यह जातियों की ऊँच-नीच की नियमित व्यवस्था नहीं है, वरन् ऐसा है कि प्रत्येक जाति अपने को दूसरी सब जातियों से ऊँची समझती है। उन्होंने कहा कि ये व्यावसायिक संगठन हैं, धार्मिक संस्था नहीं। उन्होंने कहा कि ये अनादि काल से चली आयी हैं और समझाया कि आरंभ में केवल कुछ विशेष अधिकार ही पैतृक थे, पर बाद में बंधन कठोर होते गए और विवाह तथा खान-पान के संबंध प्रत्येक जाति में ही सीमित हो गए।
वक्ता ने बताया कि हिंदू घर में किसी ईसाई अथवा मुसलमान की उपस्थित का क्या प्रभाव पड़ता है। उन्होंने कह कि जब एक गोरा हिंदू के सम्मुख जाता हैं, तो हिंदू मानो अपवित्र हो जाता है; और किसी विधर्मी से मिलने के बाद हिंदू सदा स्नान करता है।
हिंदू संन्यासी ने अंत्यजों की मोटे तौर से यह कहकर निंदा (?) की कि वे सब नीच कार्य करते हैं, मृत-मांस खाते हैं, और गंदगी साफ करनेवाले हैं। उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग भारत के विषय में पुस्तकें लिखते हैं, वे केवल ऐसे ही लोगों के संपर्क में आते हैं और वास्तविक हिंदुओं से नहीं मिलते। उन्होंने जाति के नियमों का उल्लंघन करनेवाले व्यक्ति का दृष्टांत दिया और कहा कि उसे जो दंड दिया जाता है, वह यह है कि जाति उसके और उसकी संतान के साथ विवाह और खान-पान का संबंध तोड़ देती है। इसके अतिरिक्त अन्य सब बातें गलत हैं।
जाति-व्यवस्था के दोष बताते हुए वक्ता ने कहा कि प्रतियोगिता को रोकने के कारण इसने कूपमंडूकता को जन्म दिया है और जाति की प्रगति को बिल्कुल रोक दिया है। उन्होंने कहा कि इसने पशुता का निवारण करके समाज के सुधार का मार्ग बंद कर दिया है। प्रतियोगिता को रोकने की क्रिया में इसने जनसंख्या को बढ़ाया है। उन्होंने कह कि इसके पक्ष में तथ्य यह है कि यह समानता और भ्रातृभाव का एकमात्र आदर्श रहा है। जाति में किसी की प्रतिष्ठा का संबंध उसके धन से नहीं होता। सब बराबर होते हैं। उन्होंने कहा कि सब महान सुधारकों ने यह गलती की है कि उन्होंने जाति-भेद का कारण केवल धार्मिक प्रतिनिधित्व को समझा है, उसके वास्तविक स्त्रोत, जातियों की विशिष्ट सामाजिक स्थितियों को नहीं। उन्होंने बहुत कटुता के साथ अंग्रेजों तथा मुसलमानों द्वारा संगीन, अग्नि और तलवार की सहायता से देश को सभ्य बनाने के प्रयत्नों की बात कही। उन्होंने कहा कि जाति-भेद को मिटाने के लिए हमें सामाजिक परिस्थितियों को पूर्णतया बदलना होगा और देश की पूरी आर्थिक व्यवस्था का विनाश करना होगा। पर इससे अच्छा तो यह होगा कि बंगाल की खाड़ी से लहरें आएं और सबको डुबो दें। अंग्रेज़ी सभ्यता का निर्माण तीन 'बीओं' (Three B's)-बाइबिल, बायोनेट (संगीत) और ब्रांडी-से हुआ है। यह सभ्यता है, जो अब ऐसी सीमा तक पहुँचा दी गयी है,'हम तनिक सभ्य बनें, और इंग्लैंड आगे बढ़ा ही जा रहा है।'
हिंदुओं के प्रति कैसा व्यवहार किया जा रहा है, इसका विवरण देते हुए तेजी से संन्यासी मंच पर इधर-उधर टहलने लगे और उत्तेजित हो गए। उन्होंने विदेशों में शिक्षाप्राप्त हिंदुओं की आलोचना की और कहा कि वे 'शैम्पेन और नवीन विचारों से भरे हुए' अपनी मातृभूमि को लौटते हैं। उन्होंने कहा कि बाल विवाह बुरा है, क्योंकि पश्चिम ऐसा कहता है, और यह कि सास स्वतंत्रतापूर्वक बहू पर इसलिए अत्याचार कर सकती है कि पुत्र कुछ बोल नहीं सकता। उन्होंने कहा कि विदेशी गैर ईसाई को लांछित करने के लिए प्रत्येक अवसर का उपयोग करते हैं,इसलिए कि उनमें ऐसी बहुत सी बुराइयाँ हैं, जिन्हें वे छिपना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि प्रत्येक राष्ट्र को अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं बनाना चाहिए और कोई दूसरा उसकी समस्याओं को नहीं सुलझा सकता।
भारत के उपकारकर्ताओं की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि क्या अमेरिका ने उन डेविड हेयर का नाम सुना है, जिन्होंने प्रथम महिला कॉलेज की स्थापना की है और जिन्होंने अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग शिक्षा-प्रचार को अर्पित किया है।
वक्ता ने कई भारतीय कहावतें सुनायीं, जो अंग्रेजों के प्रति तनिक भी प्रशंसात्मक नहीं थीं। भाषण समाप्त करते हुए उन्होंने सच्चे हृदय से अपने देश के लिए अनुरोध किया। उन्होंने कहा :
"पर तब तक भारत अपने प्रति और अपने धर्म के प्रति सच्चा है, इससे कुछ आता-जाता नहीं। इस भयावह निरीश्वरवादी पश्चिम ने उसके बीच में पाखंड और नास्तिकता भेजकर उसके हृदय पर प्रहार किया है। अब अपशब्दों की बोरियाँ, भर्त्सनाओं की गाड़ियाँ और दोषारोपणों के जहा़ज भेजने बंद हों, प्रेम की एक अनंत धारा उस ओर को बहे। हम सब मनुष्य बनें।"
धर्म-सिद्धांत कम , रोटी अधिक
(बाल्टीमोर अमेरिकन , अक्तूबर १५ , १८९४ ई.)
पिछली रात ब्रूमन बंधुओं की पहली सभा में लीसियम थियेटर खूब भरा हुआ था। विवेचन का विषय था 'गत्यात्मक धर्म'।
भारतीय संन्यासी स्वामी विवेकानन्द अंतिम वक्ता थे। वे संक्षेप में बोले और विशेष ध्यान के साथ सुने गए। उनकी अंग्रेजी और उनकी भाषण-शैली अति उत्तम थी। उनके शब्दांशों में एक विदेशी बलाघात है, पर इतना नहीं कि वे स्पष्ट समझ में न आएं। वे अपनी मातृभूमि की वेशभूषा में थे, जो निश्चय ही आकर्षक थी। उन्होंने कह कि उनसे पहले जो भाषण दिए जा चुके हैं, उनके बाद वे संक्षेप में ही बोलेंगे, पर जो कुछ कहा गया है, उस सबको वे अपनां समथ्रन देना चाहैंगे। उन्होंने बहुत यात्राएँ की हैं और सभी प्रकार के लोगों को उपदेश दिया है। उन्होंने कहा कि किसी विशेष प्रकार के सिद्धांत के उपदेश से कोई अंतर नहीं पड़ता। जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है व्यावहारिक कार्य। यदि ऐसे विचारों को कार्यांवित नहीं किया जा सकता, तो मनुष्य में उनके प्रति विश्वास का अंत हो जाएगा। सारे संसार की पुकार है 'सिद्धांत कम और रोटी अधिक।' वे समझते हैं कि भारत में मिशनरियों का भेजना ठीक है; उसमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। पर यह अच्छा होगा कि मनुष्य कम जायँ और धन अधिक। जहाँ तक भारत का संबंध है, उसके पास धार्मिक सिद्धांत आवश्यकता से अधिक हैं। केवल सिद्धांतों की अपेक्षा उन सिद्धांतों के अनुसार रहने की आवश्यकता आधिक है। भारत के लोगों को और संसार के अन्य लोगों को भी प्रार्थना करना सिखाया जाता है। पर प्रार्थना में केवल ओठ हिलाना ही काफी नहीं है, प्रार्थना लोगों के हृदय से उठनी चाहिए। उन्होंने कहा, "संसार में कुछ थोड़े से लोग वास्तव में भलाई करना चाहते हैं। दूसरे देखते हैं और तालियाँ बजाते हैं, और समझते हैं कि स्वयं हमने बहुत भला कर डाला है। जीवन प्रेम है, और जब मनुष्य दूसरों के प्रति भलाई करना बंद कर देता है, तो उसकी आध्यात्मिक मृत्यु हो जाती है।"
(अक्तूबर १५ , १८९४ ई.)
पिछली रात विवेकानन्द मंच पर अविचल शांत उस समय तक बैठे रहे, जब तक कि उनके भाषण की बारी नहीं आ गयी। तब उनका रंग-ढंग बदल गया और वह शक्ति तथा भावावेश में बोले। उन्होंने व्रूमन बंधुओं का समर्थन किया और कहा कि जो कुछ जा चुका है, उसमें 'पृथ्वी के दूसरी ओर के निवासी' की हैसियत से मेरे अनुमोदन के अतिरिक्त बहुत थोड़ा जोड़ा जा सकता है।
वे कहते गए,"हमारे पास सिद्धांत काफी हैं, हमें अब जो चाहिए, वह है, इन भाषणों में उपस्थित किए गए विचारों के अनुसार व्यवहार। जब मुझसे भारत में मिशनरियों के भेजने के बारे में पूछा जाता है, तो मैं कहता हूँ कि यह ठीक है, पर हमें आवश्यकता है मनुष्यों की कम, रुपयों की अधिक। भारत के पास सिद्धांतों से भरी बोरियाँ हैं और आवश्यकता से आधिक। आवश्यकता है उन साधनों की, जिनसे उन्हें कार्यान्वित किया जाय।
"प्रार्थना विभिन्न प्रकारों से की जा सकती है। हाथों से की गयी प्रार्थना ओठों से की गयी प्रार्थना की अपेक्षा ऊँची होती है और उससे त्राण भी अधिक होता है।
"सब धर्म हमें अपने भाइयों के प्रति भलाई करने की शिक्षा देते हैं। भलाई करना कोई विचित्र बात नहीं है-यह जीने की रीति ही है। प्रकृति में प्रत्येक वस्तु की प्रवृत्ति जीवन को विस्तृत ओर मृत्यु को संकीर्ण बनाने की है। यही बात धर्म पर भी लागू होती है। स्वार्थी भावनाओं को त्यागो और दूसरों की सहायता करो। जिस क्षण यह क्रिया बंद हो जाती है, संकोच और मृत्यु का पदार्पण होता है।''
बुद्ध का धर्म
(मार्निंग हेरल्ड , अक्तुबर २२ , १८९४ ई.)
कल रात व्रूमन बंधुओं द्वरा 'गत्यात्मक धर्म' के संबंध में की गयी दूसरी सभा में श्रोता लीसियम थियेटर, बाल्टीमोर, में नीचे से ऊपर तक भरे हुए थे। पूरे ३००० व्यक्ति उपस्थित थे। रेव. हिरम व्रूमन, रेव. वाल्टर व्रूमन और पूज्य ब्राह्मण संन्यासी विवेकानन्द, जो आजकल नगर में आए हैं, के भाषण हुए। वक्ता मंच पर बैठे थे। पूज्य विवेकानन्द सब लोगों के लिए विशेष आकर्षण के विषय थे। वे पीला साफा और लाल रंग का चोगा पहने हुए थे, जो उसी रंग के पटुके से कमर में कसा हुआ था। इससे उनके चेहरे की पूर्वी काट उभरती थी और उनका आकर्षण बढ़ गया था। उनका व्यक्तित्व उस सभा की प्रधान बात जान पड़ती थी' उनका भाषण सरल, अकृत्रिम रूप से दिया गया, उनका शब्द-चयन निर्दोष था और उनका उच्चारण लेटिन जाति के उस संस्कृत व्यक्ति के समान था, जो अंग्रेजी भाषा जानता हो। उन्होंने अंशत: कहा:
संन्यासी का भाषण
"बुद्ध ने भारत के धर्म की स्थापना ईसा के जन्म से ६०० वर्ष पूर्व आरंभ की थी। उन्होंने देखा कि भारत का धर्म उस समय प्रधान रूप से मानवात्मा की प्रकृति के संबंध में अनंत विवाद में फँसा हुआ है। उस समय जिन विचारों का प्रचार था, उनके अनुसार पशुओं के बलिदान, बलिवेदियों और इसी प्रकार के अनुष्ठानों के अतिरिक्त धार्मिक दोषों के निवारण का और कोई उपाय न था।
"इस परिस्थिति के बीच वह संन्यासी उत्पन्न हुआ, जो तत्कालीन एक महत्वपूर्ण परिवार का सदस्य था, और जो बुद्ध मत का प्रवर्तक बना। उनका यह कार्य, प्रथम तो, एक नए धर्म का प्रवर्तन नहीं था, वरन् एक सुधार-आंदोलन था। वे सबके कलयाण में विश्वास करते थे। उनका धर्म, जैसा कि उानहोंने बताया है, तीन बातों की खोज में है: प्रथम 'संसार में अशुभ है', दूसरे 'इस अशुभ का कारण क्या है?' उन्होंने बताया कि यह मनुष्य की दूसरों से ऊंचे चढ़ जाने की इच्छा में है। यह वह दोष है, जिसका निवारण नि:स्वार्थपरता से किया जा सकता है। तीसरे, इस अशुभ का इलाज नि:स्वार्थ बनकर किया जा सकता है। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि बल से इसका निवारण नहीं किया जा सकता; मल से मल को नहीं धोया जा सकता; घृणा से घृणा को नहीं मिटाया जा सकता।
"यह उनके धर्म का आधार था। जब तक समाज मानव-स्वार्थपरता की चिकित्सा उन नियमों और संस्थाओं के द्वारा करना चाहता है, जिनका उद्देश्य लोगों से उनके पड़ोसियों के प्रति बलात् भलाई करवाना है, तब तक कुछ किया नहीं जा सकता। उपाय बल के विरुद्ध बल और चालाकी के विरुद्ध चालाकी रखना नहीं है। एकमात्र उपाय है, नि:स्वार्थ नर-नारियों का निर्माण करना। तुम वर्तमान अशुभ को दूर करने के लिए कानून बना सकते हो, पर उनसे कोई लाभ न होगा।
"बुद्ध ने पाया कि भारत में ईश्वर और उसके सार-तत्त्व के विषय में बातें बहुत होती हैं और काम बहुत ही कम। वह सदा इस मौलिक सत्य पर बल देत थे कि हम शुद्ध और पवित्र बनें, और हम दूसरों को पवित्र बनने में सहायता दें। उनका विश्वास था कि मनुष्य को काम और दूसरों की सहायता करनी चाहिए; अपनी आत्मा को दूसरों में पाना चाहिए; अपने जीवन को दूसरों में पाना चाहिए। अपनी आत्मा को दूसरों में पाना चाहिए; अपने जीवन को दूसरों में पाना चाहिए; उनका विश्वास था कि दूसरों के प्रति भलाई करना ही अपने प्रति भलाई करने का एकमात्र उपाय है। उनका विश्वास था कि संसार में सदा ही आवश्यकता से अधिक सिद्धांत और अत्यल्प व्यवहार रहा है। आजकल भारत में एक दर्जन बुद्ध होने से बहुत अच्छा होगा और इस देश में भी एक बुद्ध का आविर्भाव लाभदायक सिद्ध होगा।
"जब आवश्यकता से अधिक सिद्धांत, अपने पिता के धर्म में आवश्यकता से अधिक विश्वास, आवश्यकता से अधिक बौद्धिक अंधविश्वास हो जाता है, तो परिवर्तन आवश्यक होता है। ऐसा सिद्धांत अशुभ को जन्म देता है और सुधार की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है।''
श्री विवेकानन्द के भाषण के अंत में तुमुल करतल ध्वनि हुई।
(बाल्टीमोर अमेरिकन, अक्तूबर २२, १८९४ ई.)
कल रात व्रूमन बंधुओं द्वारा 'गत्यात्मक धर्म' पर की गयी दूसरी सभा में लीसियम थियेटर दरवाज़े तक भरा हुआ था। प्रधान भाषण भारत के स्वामी विवेकानन्द का था। वह बुद्धधर्म पर बोले और उन्होंने उन बुराइयों की चर्चा की, जो भारत के लोगों में बुद्ध के जन्म समय विद्यमान थीं। उन्होंने कहा कि उस काल में भारत में सामाजिक असमानताएँ संसार के अन्य किसी भी स्थान की अपेक्षा हजार गुनी अधिक थीं।
उन्होंने कहा,"ईसा से छ: सौ वर्ष पहले, भारत के पुजारियों का प्रभाव वहाँ के लोगों के मन पर बुरी तरह छाया हुआ था और जनता बौद्धिकता तथा विद्वत्ता के उपर ले और निचले पाटों के बीच में पिस रही थी। बुद्ध धर्म, जो मानव परिवार के दो-तिहाई से अधिक का धर्म है, एक पूर्णतया नवीन धर्म के रूप में प्रवर्तित नहीं किया गया; वरन् एक सुधार के रूप में अया, जिससे उस युग का भ्रष्टाचार दूर हो गया। बुद्ध ही कदाचित ऐसे पैगंबर थे, जिन्होंने दूसरों के लिए सब कुछ और अपने लिए बिल्कुल कुछ भी नहीं किया। उन्होंने अपने घर संसार के सुखों का त्याग इसलिए किया कि वे अपने दिन मानव-दु:खरूप की भयानक व्याधि की औषधि खोजने में बिताए। एक ऐसे काल में, जिसमें जनता और पुजारी ईश्वर के सार-तत्त्व के संबंध में विवाद में लगे हुए थे, उन्होंने वह देखा, जो लोग नहीं देख सके थे-कि संसार में दु:ख का अस्तित्व है। अशुभ का कारण है: हमारी दूसरों से बढ़ जाने की इच्छा और हमारी स्वार्थपरता। जिस क्षण संसार नि:स्वार्थ हो जाएगा, सारा अशुभ तिरोहित हो जाएगा। जब तक समाज अशुभ का इलाज नियमों और संस्थाओं से करने का प्रयत्न करता है, अशुभ का निराकरण नहीं होगा। संसार ने हज़ारों वर्षों तक इस उपाय का असफल प्रयोग किया है। बल के विरुद्ध बल लगाने से निराकरण नहीं होता; अशुभ का एकमात्र इलाज नि:स्वार्थपरता है। हमें नए नए कानून बनाने के स्थान पर लोगों को कानून का पालन करना सिखाना चाहिए। बुद्ध धर्म संसार का सबसे पहला मिशनरी धर्म है; पर बुद्ध की शिक्षाओं में से एक यह भी थी कि किसी धर्म को विरोध न बनाया जाय। धर्म एक दूसरे से युद्ध करके अपनी शक्ति क्षीण करते हैं।''
सभी धर्म अच्छे हैं
(वाशिंगटन पोस्ट , अक्तूबर २९ , १८९४ ई.)
श्री विवेकानन्द ने कल प्युप्लस चर्च के पास्टर डॉ. कैट के निमंत्रण पर चर्च में एक भाषण दिया। उनकी प्रात: की वार्ता नियमित उपदेश थी, जिसका संबंध पूर्णतया धर्म के आध्यात्मिक पहलू से था, और जिसमें उन्होंने कट्टर संप्रदायों के सम्मुख एक मौलिक सी बात यह रखी कि शुभ प्रत्येक धर्म की नींव में है, और सब धर्म, भाषाओं की भाँति एक ही सामान्य मूल से उत्पन्न हुए हैं, और प्रत्येक धर्म अपने भौतिक और आध्यात्मिक पहलुओं में उस समय तक अच्छा रहता है, जब तक वह हठधर्मी और जड़ता से मुक्त रखा जाता है। तीसरे पहर का भाषण आर्य जाति पर एक लेक्चर के समान था; उसमें उन्होंने विभिन्न संबद्ध जातियों के विकास को उनकी भाषा, धर्म और रिवाजों द्वारा एक संस्कृत कुल के ही मूलस्त्रोत से निकला हुआ प्रदर्शित किया।
सभा के बाद श्री विवेकानन्द ने 'पोस्ट' के एक संवाददाता से कहा,"मैं किसी धार्मिक पंथ से संबंधित होने का दावा नहीं करता, वरन् मेरी स्थिति एक दर्शक की, और यथासंभव, मानव जाति के एक शिक्षक की है। मेरे लिए सभी धर्म अच्छे हैं। जीवन के उच्चतर रहस्यों और उसकी उपलब्धियों के विषय में मैं, दूसरों की भाँति, कल्पना से अधिक और कुछ नहीं कर सकता। धर्म के क्षेत्र में हम जिन अनेक प्रश्नों को अपने सम्मुख पाते हैं, उनकी निकटतम तर्कसंगत व्याख्या मुझे पुनर्जन्मवाद से ही होती जान पड़ती है। पर मै इसे सिद्धांत की भाँति उपस्थिति नहीं करता। अधिक से अधिक वह एक परिकल्पना मात्र है, और उसे व्यक्तिगत अनुभूति के अतिरिक्त और किसी प्रकार प्रमाणित नहीं किया जा सकता, तथा यह प्रमाण केवल उसी मनुष्य के लिए ठीक है, जिसके पास वह है। तुम्हारी अनुभूति न मेरे लिए कुछ है और न मेरी तुम्हारे लिए। मैं चमत्कारों में विश्वास नहीं करता -वे धर्म के प्रसंग में मुझे पसंद नहीं हैं। मेरे चारों संसार को नष्ट-भ्रष्ट और भूमिसात कर सकते हो, पर मेरे लिए यह इस बात का कोई प्रमाण नहीं होगा कि ईश्वर का अस्तित्व है, अथवा यदि वह है भी, तो तुमने उसके द्वरा यह चमत्कार किया है।
यह उनका अंधविश्वास है
"पर वर्तमान अस्तित्व को समझाने के वास्ते मेरे लिए यह आवश्यक होता है कि मैं उसके अतीत और असके भविष्य पर विश्वास करूँ। और यदि हम यहाँ से आग बढ़ते हैं, तो हमें दूसरे रूपों में जाना चाहिए और इस प्रकार पुनर्जन्म में मेरा विश्वास सामने आता है। पर मै कुछ प्रमाणित नहीं कर सकता। मैं ऐसे किसी भी व्यक्ति का स्वागत करूँगा, जो मुझको इस पुनर्जन्म के सिद्धांत से मुक्त कर दे, और इसके स्थान पर किसी अन्य तर्कसंगत वस्तु की स्थापना करे। पर अब तक ऐसी कोई बात मेरे सामने नहीं आयी है, जिससे इतनी संतोजनक व्याख्या होती हो।"
श्री विवेकानन्द कलकत्ते के निवासी और वहाँ के सरकारी विश्वविद्यालय के स्नातक हैं। उन्होंने अपनी विश्वविद्यालय की शिक्षा अंग्रेजी में पायी है और उसं भाषा को एक भारतीय की भाँति बोलते हैं। उन्हें भारतीयों और अंग्रेजों के बीच के सम्पर्कों को देखने का अवसर मिला है। वे जिस उदासीनता के साथ भारतीयों से धर्म-परिवर्तन कराने के प्रयत्नों की बात करते हैं, उसे सुनकर विदेशी मिशनरी कार्यकर्ताओं को बड़ी निराशा होगी। इस संबंध में उनसे पूछा गया कि पश्चिम की शिक्षाओं का पूर्व के विचारों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है।
उन्होंने कहा, ''निश्चय ही ऐसा नहीं हो सकता कि कोई विचार देश में आए और उसका कुछ प्रभाव न पड़े; पर पूर्वीय विचार पर ईसाई शिक्षा का प्रभाव यदि वह है तो, इतना कम है कि दिखायी नहीं देता। पश्चिम सिद्धांतों ने वहाँ उतनी ही छाप डाली है, जितनी कि पूर्वीय सिद्धांतों ने यहाँ, कदाचित्त इतनी भी नहीं। यह मैं देश के उच्च विचारवानों को बात कह रहा हूँ। सामान्य जनता में मिशनरियों के कार्य का प्रभाव दिखायी नहीं देता। जब लोग धर्म-परिवर्तन करते हैं, तो उसके फलस्वरूप वे देशी पंथों से तुरंत कट जाते है; पर जनसंख्या इतनी अधिक है कि मिशनरियों द्वारा कराए गए धर्म-परिवर्तनों का प्रकट प्रभाव बहुत कम पड़ता है।''
योगी बाजीगर हैं
जब उनसे यह पूछा गया कि क्या वे योगियों और सिद्धों के चमत्कारी करतबों के बारे में कुछ जानते हैं, तो श्री विवेकानन्द ने उत्तर दिया कि उन्हें चमत्कारों में रुचि नहीं है; और जब कि निश्चय ही, देश में बहुत से चतुर बाजीगर हैं, उनके करतब हाथ की सफाई हैं। श्री विवेकानन्द ने कहा कि उन्होंने आम का करतब केवल एक बार देखा है। और वह एक फकीर के द्वारा छोटे पैमाने पर। लामाओं की सिद्धियों के बारे में भी उनके विचार यही हैं। उन्होंने कहा, "इन घटनाओं के सब विवरणों में प्रशिक्षित, वैज्ञानिक, और निष्पक्ष दर्शकों का अभाव है, जिसके कारण सच को झूठ से अलग करना कठिन हो गया है।''
जीवन पर हिंदू दृष्टिकोण
(ब्रुकलिन टाइप्स , दिसंबर ३१ , १८९४ ई.)
कल रात पाउच गैलरी में ब्रुकलिन एथिकल एसोसिएशन ने स्वामी विवेकानन्द का स्वागत किया। स्वागत से पहले विशिष्ट अतिथि ने 'भारत के धर्म' विषय पर एक बहुत रोचक भाषण दिया। अन्य बातों के साथ उन्होंने कहा: "जीवन के विषय में हिंदू का दृष्टिकोण यह हैकि हम यहाँ ज्ञान प्राप्त करने के लिए आए है; जीवन का समस्त सुख सीखने में है; मनुष्य की आत्मा यहाँ ज्ञान से प्रेम करने, अनुभूति प्राप्त करने के लिए है। मैं अपने धर्मग्रंथों को तुम्हारी बाइबिल की सहायता से अच्छ तरह पढ़ सकता हूँ और तुम अपनी बाइबिल को मेरे धर्मग्रंथों की सहायता से अधिक अच्छी तरह पढ़ सकते हो। यदि केवल एक धर्म भी सच्चा है, तो शेष सब धर्म भी सच्चे होने चाहिए। एक ही सत्य ने अपने को विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया है और ये विभिन्न रूप विभिन्न जातियों की मानसिक और भौतिक प्रकृति की विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप हैं।
"यदि जड़ पदार्थ और उसके रूप-परिवर्तनों से हमारे सभी प्रश्नों की व्याख्या हो जाती है, तो आत्मा के अस्तित्व की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं हैं। पर यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि चेतन भावना का विकास जड़ पदार्थ में से हुआ है। हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीरों को पूर्वजों से कुछ प्रवृत्तियाँ प्राप्त होती हैं, पर इन प्रवृत्तियों का अर्थ केवल वह भौतिक स्वरूप होता है, जिसके द्वारा केवल एक विशिष्ट मन ही विशिष्ट रिति से कार्य कर सकता है। ये विशिष्ट प्रवृत्तियाँ उस जीवात्मा में पिछले कर्मों के द्वारा उत्पन्न होती हैं। एक विशिष्ट प्रकृतिवाली जीवात्मा, आकर्षण के नियम से, ऐसे शरीर में जन्म लेगीं, जो उसकी विशिष्ट प्रवृत्ति की अभिव्यंजना के लिए सर्वोत्तम साधन होगा। और यह पूर्णतया विज्ञान के अनुसार है, क्योंकि विज्ञान प्रत्येक वस्तु की व्याख्या स्वभाव के आधार पर करना चाहता है और स्वभाव अभ्यास से बनता है। इस प्रकार एक नवजात जीवात्मा के सहज स्वभावों की व्याख्या करने के लिए भी इन अभ्यासों की आवश्यकता होती है। इन्हें हमने अपने वर्तमान जीवन में प्राप्त नहीं किया है, इसलिए वे पिछले जन्मों से ही आए होंगे।
"सब धर्म इतनी सारी स्थितियाँ हैं। इनमें से प्रत्येक धर्म ऐसी स्थिति को बताता है, जिसमें होकर मानव जीवात्मा को ईश्वर की उपलब्धि के लिए गुजरना होता है। इसलिए इनमें से किसी एक के प्रति भी उदासीन नहीं होना चाहिए। कोई भी स्थिति खतरनाक अथवा बुरी नहीं है। वे अच्छी हैं। जिस प्रकार एक बालक युवक होता है और युवक वृद्ध होता है, उसी प्रकार वे उत्तरोत्तर सत्य से सत्य पर पहुँच रहे हैं! वे केवल उसी समय खतरनाक होते हैं, जब वे जड़ीभूत हो जाते हैं और आगे नहीं बढ़ते-जब उनका विकास रुक जाता है। जब बालक वृद्ध होने से इंकार करता है, तो वह रोगी होता है। पर यदि वे सतत विकसित होते रहते हैं, तो प्रत्येक ढंग उन्हें उस समय तक आगे बढ़ाता है, जब तक कि वे पूर्ण सत्य पर नहीं पहुँच जाते। इसलिए हम सगुण और निर्गुण, दोनों ही ईश्वरों में विश्वास करते हैं, और इसके साथ ही हम उन सब धर्मों में विश्वास करते हैं, जो संसार में थे, जो हैं और जो आगे होंगे। हमारा विश्वास यह भी है कि हमें इन धर्मों के प्रति सहिष्णु ही नहीं होना चाहिए, वरन् उन्हें स्वीकार करना चाहिए।
"इस जड़-भौतिक संसार में प्रसार ही जीवन है और संकोच मृत्यु। जिसका प्रसार रूक जाता है, वह जीवित नहीं रहता। नैतिकता के क्षेत्र में इसको लागू करें, तो निष्कर्ष होगा: यदि कोई प्रसार चाहता है, तो उसे चाहिए कि वह प्रेम करे, और जब वह प्रेम करना बंद कर देता है, तो उसकी मृत्यु हो जाती है। यह तुम्हारा स्वभाव है; यह अवश्य तुमको करना होता है, क्योंकि यही जीवन का एकमात्र नियम है। इसलिए हमें ईश्वर से प्रेम के लिए प्रेम करना चाहिए। इसी प्रकार, हमें कर्तव्य के लिए अपना कर्तव्य करना चाहिए, कर्म के लिए बिना फल की अभिलाषा किए, कर्म करना चाहिए-जानो कि तुम पवित्रतर और पूर्णतर हो, जानो कि यह ईश्वर का वास्तविक मंदिर है।''
(ब्रुकलिन डेली ईगल , दिसंबर ३१ , १८९४ ई.)
मुसलमानों, बौद्धो और भारत के अन्य धार्मिक संप्रदायों के मतों की चर्चा करने के बाद वक्ता ने कहा कि हिंदुओं का अपना धर्म वेदों के आप्तज्ञान द्वारा मिला है। वेब बताते हैं कि सृष्टि अनादि और अनंत है। वे बताते हैं कि मनुष्य एक आत्मा है, जो शरीर में निवास करती है। शरीर मर जाएगा, पर मनुष्य नहीं मरेगा। आत्मा जीती रहेगी। जीवात्मा की रचना किसी वस्तु से नहीं हुई है; क्योंकि सृष्टि का अर्थ है संयोजन, और उसका अर्थ होता है एक निश्चित भावी विलयन। इसलिए यदि जीवात्मा की सृष्टि की गयी है, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए। इसलिए जीवात्मा की सृष्टि नहीं की गयी है। मुझसे यह पूछा जा सकता है कि यदि ऐसा है, तो हमें पुराने जन्मों की कुछ बातें याद क्यों नहीं रहतीं? इसकी व्याख्या सरलता से की जा सकती है। चेतना केवल मानसिक महासागर के धरातल का नाम है, और हमारी सब अनुभूतियाँ इसकी गहराइयों में संगृहीत हैं। उद्देश्य ऐसी किसी वस्तु को प्राप्त करना था, जो स्थायी हो। मन, शरीर, संपूर्ण प्रकृति वास्तव में परिवर्तनशील है। किसी ऐसी वस्तु को, जो असीम हो, प्राप्त करने के इस प्रश्न की बहुत विवेचना की गयी है। एक संपदा, आधुनिक बौद्ध जिसके प्रतिनिधि हैं, बताता है कि वे सब वस्तुएँ, जिनका समाधान पाँच इंद्रियों के द्वरा किया जा सकता है, अस्तित्वहीन हैं। प्रत्येक वस्तु अन्य सभी वस्तुओं पर निर्भर है, यह एक भ्रम है कि मनुष्य एक स्वतंत्र सत्ता है। दूसरी ओर प्रत्ययवादियों का दावा है कि प्रत्येक व्यक्ति एक स्वतंत्रता सत्ता है। इस समस्या का सच्चा समाधान यह है कि प्रकृति परतंत्रत और स्वतंत्रता का, यथार्थ और आदर्श का एक मिश्रण है। इसमें से एक परतंत्रता की उपस्थिति इस तथ्य से प्रमाणित होती है कि हमारे शरीर की गतियाँ हमारे मन द्वारा शासित होती हैं, और हमारे मन हमारे भीतर स्थित उस आत्मा द्वारा शासित होते हैं, जिसे ईसाई 'सोल' कहते हैं। मृत्यु एक परिवर्तन मात्र है। जो आगे निकल गए हैं और ऊँचाइयों पर स्थित हैं, वे वैसे ही हैं, जैसे वे जो यहाँ पीछे रह गए हैं। और जो नीची स्थितियों में हैं, वे भी वैसे ही हैं, जैसे कि दूसरे यहाँ हैं। प्रत्येक मनुष्य एक पूर्ण सत्ता है यदि हम अंधेरे में बैठ जायँ और विलाप करने लगें कि इतना घना अँधेरा है, तो उसमें हमें कोई लाभ न होगा; पर यदि हम दियासलाई प्राप्त करें, उसे जलाएं तो अंधकार तुरंत नष्ट हो जाएगा। इसी प्रकार यदि हम बैठ रहैं और इस बात से दु:खी होते रहैं कि हमारे शरीर अपूर्ण हैं, हमारी आत्माएँ अपूर्ण हैं, तो इससे हमें कोई लाभ न होगा। पर जब हम तर्क के प्रकाश को लाते हैं तो संदेह का अंधकार नष्ट हो जाता है। जीवन का उद्देश्य है ज्ञान प्राप्त करना। ईसाई हिंदुओं से सीख सकते हैं और हिंदू ईसाइयों से सीख सकते हैं। वे हमारे धर्मग्रंथ पढ़ने के बाद अपनी बाइबिल अधिक अच्छी तरह पढ़ सकते हैं। उन्होंने कहा, "अपने बच्चों से कहो कि धर्म सकारात्मक है, नकारात्मक नहीं। वह विविध पुरुषों की शिक्षाएँ मात्र नहीं हैं, वरन् हमारे भीतर उस उच्चतर वस्तु की वृद्धि और विकास है, जो बाहर व्यक्त होना चाहती है। संसार में जो शिशु जन्म लेता है, वह कुछ संगृहीत अनुभूतियों के साथ आता है। हम जिस स्वतंत्रता के विचार के वशीभूत हैं, वह दर्शाता है कि हम मन और शरीर के अतिरिक्त कुछ और भी हैं। शरीर और मन परतंत्र हैं। वह आत्मा, जो हमें जीवन देती है, एक स्वतंत्र तत्त्व है, जो इस मुक्ति की इच्छा को उत्पन्न करती है। यदि हम मुक्त नहीं हैं, तो हम इस संसार को शुभ अथवा पूर्ण बनाने की आशा कैसे कर सकता हैं? हमारा विश्वास है कि हम स्वयं अपने निर्माता हैं, जो हमारा है, उसे हम स्वयं बनाते हैं। हमने इसे बनाया है और हम इसे बिगाड़ भी सकते हैं। हम ईश्वर में सबके पिता में, अपनी संतान के सर्जक और पालक में, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान में विश्वास करते हैं। हम तुम्हारी भाँति एक सगुण ईश्वर में विश्वास करते हैं; पर हम इससे आगे भी जाते हैं। हम विश्वास करते हैं कि हमी वह (ईश्वर) हैं। हम विश्वास करते हैं, उन सब धर्मों में, जो पहले हो चुके हैं, जो अब हैं और जो आगे होंगे। हिंदू सब धर्मों को शीश झुकाता है, क्योंकि इस संसार में असली विचार है जोड़ना, घटाना नहीं। हम ईश्वर के लिए, स्रष्टा, वैयक्तिक ईश्वर के लिए सब सुंदर रंगों का एक गुलदस्ता तैयार करना चाहते हैं। हमें ईश्वर के प्रेम के लिए प्रेम करना चाहिए; कर्तव्य के लिए उसके प्रति अपना कर्तव्य करना चाहिए और कर्म के लिए उसके निमित्त कर्म करना चहिए तथा उपासना के लिए उसकी उपासना करनी चाहिए।
"पुस्तकें अच्छी हैं, पर वे केवल मानचित्र मात्र हैं। एक मनुष्य के आदेश से मैंने पुस्तक में पढ़ा कि वर्ष भर में इतने इंच पानी गिरा हैं। इसके बाद उसने मुझसे कहा कि मैं पुस्तक को लूँ और उसे हाथों से निचोडूँ। मैंने वैसा किया, पर पुस्तक में से पानी की एक बूँद भी नहीं गिरी। पुस्तक ने जो दिया, वह केवल विचार था। इसी प्रकार, हम पुस्तकों से, मंदिर से, चर्च से, किसी भी वस्तु से जब तक वह हमें आगे और ऊपर, ले जाती हैं, लाभ उठा सकते हैं। बलि देना, घुटने टेकना, बुद-बुदाना, बड़बड़ाना धर्म नहीं है। यदि वे हमें उस पूर्णता का अनुभव करने में सहायता देती हैं, जिसकी उपलब्धि हमें ईसा के सम्मुख प्रस्तुत होने पर होती है, तभी वे सब लाभदायक हैं। ये हमारे प्रति कहे वे शब्द अथवा शिक्षाएँ हैं, जिनसे हम लाभ उठा सकते हैं। जब कोलंबस ने इस महाद्वीप का पता लगा लिया, तो वह वापस गया और उसने अपने देशवासियों से कहा कि उसने नयी दुनिया को खोज लिया है। उन्होंने उसका विश्वास नहीं किया, अथवा कुछ ने उसका विश्वास नहीं किया, और उसने उनसे कहा कि जाओ और स्वयं देखो। यही बात हमारे साथ है। हम सब सत्यों के विषय में पढ़ते हैं, अपने भीतर अन्वेषित कर स्वयं सत्य को प्राप्त करते हैं, और तब हम विश्वास प्राप्त करते हैं, जिसे हमसे कोई छीन नहीं सकता।''
नारीत्व का आदर्श
(ब्रुकलिन स्टैडंर्ड यूनियन , जनवरी २१ , १८९५ ई.)
एथिकल एसोसिएशन के प्रधान डॉ. जेम्स द्वरा श्रोताओं के सामने प्रस्तुत किए जाने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने अंशत: कहा : किसी देश की दरिद्र बस्तियों की आज के आधार पर हम उस देश के संबंध में किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते। हम संसार के प्रत्येक सेब के वृक्ष के नीचे से कीड़े लगे हुए खराब सेब इकट्ठे कर सकते हैं और उनमें से प्रत्येक के विषय में एक पुस्तक लिख सकते हैं और फिर भी सेब वृक्ष की सुंदरता और संभावनाओं के विषय में बिल्कुल अनजान रह सकते हैं। हम किसी राष्ट्र का मूल्यांकन उसके उच्चतम और सर्वोत्तम से ही कर सकते हैं-पतित स्वयं में एक पृथक जाति हैं। इस प्रकार यह न केवल उचित वरन् न्याययुक्त और सही है कि किसी परंपरा का मूल्यांकन उसके सर्वोत्तम से, उसके आदर्श से, किया जाय।
"नारीत्व का आदर्श भारत की उस आर्य जाति में केंद्रित है, जो संसार के इतिहास में प्राचीनतम है। उस जाति में नर और नारी पुरोहित थे, अथवा जैसा वेद उन्हें कहते हैं, वे सहधर्मी थे। प्रत्येक परिवार का अपना अग्निकुंड अथवा वेदी थी, जिस पर विवाह के समय विवाह की अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती थी और उसे उस समय तक जीवित रखा जाता था, जब तक कि पति-पत्नी में से किसी एक की मृत्यु नहीं हो जाती थी; और तब उसकी चिनगारी से चिता को अग्नि दी जाती थी। यहाँ पति और पत्नी एक साथ यज्ञ में बलि चढ़ाते थे और यह भावना यहाँ तक पहुँच गयी थी कि पुरुष अकेला पूजा भी नहीं कर सकता था, क्योंकि यह माना जाता था कि केवल वह अधूरा है, और इसी कारण कोई अविवाहित मनुष्य पुरोहित नहीं बन सकता था। यह बात प्राचीन रोम और यूनान के बारे में भी सत्य है।
"पर एक पृथक् और विशिष्ट पुरोहित-वर्ग के उदय हो जाने से, इन सब देशों में नारी का सह-पौरोहित्य पीछे पड़ जाता है। पहले यह सेमेटिक रक्तवाली असीरियन जाति थी, जिसने इस सिद्धांत की घोषण की थी कि लड़कियों को, विवाहित होने पर भी, न कोई हम और न कोई अधिकार है। ईरानियों ने बेबिलोनिया के इस विचार को विशेष गहराई के साथ हृदयगंम किया, और उनके द्वारा यह रोम में और यूनान में पहुँचाया गया और नारी की स्थिति का सभी स्थानों पर पतन हुआ।
"ऐसा होने का एक दूसरा कारण था-विवाह की प्रणाली में परिवर्तन। प्राचीनतम प्रणाली मातृकेंद्रिक थी, अर्थात् उसमें केंद्र माँ थी और जिसमें लड़कियाँ उसके पद पर प्रतिष्ठित होती थीं। इससे बहुपतित्व की एक विचित्र प्रथा उत्पन्न हुई, जिसमें प्राय: पाँच या छ: भाई एक पत्नी से विवाह करते थे। वेदों में भी इस प्रकार के संकेत मिलते हैं कि जब कोई पुरुष नि:संतान मर जाता था, तो उसकी विधवा को उस समय तक दूसरे पुरुष के साथ रहने की अनुमति थी, जब तक कि वह माँ न बन जाय। होने वाले बच्चे अपने पिता के नहीं, वरन् उसके मृत पति के होते थे। आगे चलकर विधवा को पुन:विवाह करने की अनुमति हो गयी थी, जिसका कि आधुनिक विचार निषेध करता है।
"पर इन उद्भावानाओं के साथ साथ राष्ट्र में वैयक्तिक पवित्रता का एक अति तीव्र विचार उदय हुआ। वेद प्रत्येक पृष्ठ पर वैयक्तिक पवित्रता की शिक्षा देते हैं। इस विषय में नियम अत्यंत कठोर हैं। प्रत्येक लड़का और लड़की विश्वविद्यालय भेजा जाता था, जहाँ वे अपने बीसवें अथवा तीसवें वर्ष तक अध्ययन करते थे। यहाँ तनिक सी अपवित्रता का दंड भी प्राय: निर्दयतापर्वक दिया जाता था। वैयक्तिक पवित्रता के इस विचार ने अपने को जाति के हृदय पर इतनी गहराई के साथ अंकित किया है कि वह लगभग पागलपन बन गया है। इसका ज्वलंत उदाहरण मुसलमानों द्वारा चित्तौड़-विजय के अवसर पर मिलता है। अपने से कहीं अधिक प्रबल शत्रु के विरुद्ध पुरुष नगर की रक्षा में संलग्न थे, और जब नारियों ने देखा कि पराजय निश्चित है, तो उन्होंने चौक में एक भीषण अग्नि प्रज्ज्वलित की, और जैसे ही शत्रु ने द्वार तोड़े ७४,५०० नारियाँ उस विशाल चिता में कूद पड़ीं तथा लपटों में जल गयीं। यह शानदार उदाहरण भारत में आज तक चला आया है। जब किसी पत्र पर ७४,५०० लिखा होता है, तो उसका अर्थ सह होता है कि जो कोई अनधिकृत रूप से उस पत्र को पढ़ेगा वह, उस अपराध के समान विशाल अपराध का दोषी होगा, जिसने चित्तौड़ की उन पवित्र नारियों को मौत के मुँह में भेजा था।
"इसके बाद भिक्षुओं, संन्यासियों का युग आता है। यह बौद्ध धर्म के उदय के साथ आया। यह धर्म कहता है कि भिक्षु ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है, जो ईसाई 'हैवेन' के समान कोई वस्तु है। फल यह हुआ कि संपूर्ण भारत एक अत्यंत विशाल मठ बन गया। केवल एक उद्देश्य था, एक सतत संघर्ष था-पवित्र रहना। सब दोष नारी के सिर मढ़ा गया; लोकोक्तियाँ भी उनके विरुद्ध चेतावनी देने लगीं। उनमें से एक थी, 'नरक द्वारा क्या है'? और इसका उत्तर था: 'नारी'। दूसरी थी, 'वह जंजीर क्या है, जो हमें मिट्टी से बाँधती हैं'?-'नारी'। एक और थी : 'अंधों में सबसे अंधा कौन है'?-'वह, जो नारी द्वारा ठगा जाता है।'
"पश्चिम के मठों में भी ऐसे ही विचार पाए जाते हैं। सब मठ-व्यवस्थाओं के विकास का अर्थ सदा नारियों की अवहेलना रहा है।
"पर अंतत: नारीत्व की एक दूसरी कल्पना का उदय हुआ। पश्चिम में उसे अपना आदर्श पत्नी में और भारत में माँ में मिला। पर यह न सोचो कि यह परिवर्तन पुरोहितों के द्वारा हुआ। मैं जानता हूँ कि वे संसार की प्रत्येक वस्तु पर सदा अपना दावा रखते हैं और मैं यह कहता हूँ, यद्यपि मैं स्वयं एक पुरोहित (?) हूँ। मैं प्रत्येक धर्म और देश के मसीहा के सामने नतजानु हूँ, पर निष्पक्षता मुझे यह कहने को बाध्य करती है कि यहाँ पश्चिम में नारी का उत्थान जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे लोगों और क्रांतिकारी फ्रांसीसी दार्शनिकों के द्वारा कि गया। धर्म ने नि:संदेह कुछ किया है, पर सब नहीं। ऐसा क्यों है कि एशिया माइनर में ईसाई पादरी आज तक हरम रखते हैं?
"ईसाई आदर्श वह है, जो ऐंग्लो-सैक्सन जाति में मिलता है। मुसलमान नारी अपनी पश्चिम की बहनों से इस बात में बहुत भिन्न है, उसका सामाजिक और मानसिक विकास उतना अधिक नहीं हुआ है। पर यह न साचों कि इस कारण मुसलमान नारी दु:खी है, क्योंकि ऐसी बात नहीं है। भारत में नारी को संपत्ति का अधिक हजारों वर्षों से प्राप्त है। यहाँ एक पुरुष अपनी पत्नी को उत्तराधिकार से वंचित कर सकता है, भारत में मृत पति की संपूर्ण संपत्ति पत्नी को प्राप्त होती है, वैयक्तिक संपत्ति पूर्णतया और अचल संपत्ति जीवन भर के लिए।
"भारत में माँ परिवार का केंद्र और हमारा उच्चतम आदर्श है। वह हमारे लिए ईश्वर की प्रतिनिधि है, क्योंकि ईश्वर ब्रह्मांड की माँ है। एक नारी ऋषि ने ही सबसे पहले ईश्वर की एकता को प्राप्त किया और इस सिद्धांत को वेदों की प्रथम ऋचाओं में कहा। हमारा ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों है; निर्गुण रूप में पुरुष है और सगुण रूप में नारी। और इस प्रकार अब हम कहते हैं: 'ईश्वर की प्रथम अभिव्यक्ति वह हाथ है, जो पालना झुलाता है।' जो प्रार्थना के द्वारा जन्म पाता है, वह आर्य है, और जिसका जन्म कामुकता से होता है, वह अनार्य है।
"जन्मपूर्व के प्रभाव का यह सिद्धांत अब धीरे- धीरे मान्यता प्राप्त कर रहा है और विज्ञान तथा धर्म भी, घोषणा कर रहा है: 'अपने को पवित्र और शुद्ध रखो'। भारत में इस बात ने इतनी गंभीर मान्यता प्राप्त कर ली है कि वहाँ यदि विवाह की परिणति प्रार्थना में न हो, तो हम विवाह में भी व्यभिचार की बात कहते हैं। मेरा और प्रत्येक अच्छे हिंदू का विश्वास है कि मेरी माँ शुद्ध और पवित्र थी, और इसलिए मैं जो कुछ हूँ, उस सबके लिए उसका ऋणी हूँ। यह है जाति का रहस्य-सतीत्व।
सच्चा बुद्धमत
(ब्रुकलिन स्टैडर्ड यूनियन , फ़रवरी ४ , १८९५ ई.)
एथिकल एसोसिएशन, जिसके तत्वावधान में ये भाषण हो रहे हैं, के अध्यक्ष डॉ. जेम्स द्वारा परिचय दिए जाने के बाद, स्वामी विवेकानन्द ने अंशत: कहा: "बुद्धमत के प्रति हिंदू की एक विशिष्ट स्थिति है। जिस प्रकार ईसाई ने यहूदियों को अपना विरोधी बनाया था, उसी प्रकार बुद्ध ने तत्कालीन भारत में प्रचलित धर्म को अपना विरोधी बनाया; पर जहाँ ईसा को उनके देशवासियों ने अंगीकार नहीं किया, बुद्ध ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार किए गए। उन्होंने पुरोहितों की भर्त्सना उनके मंदिरों के ठीक द्वार पर खड़े होकर की, फिर भी आज वे उनके द्वारा पूजे जाते हैं।
"पर वह मत पूजा नहीं पाता, जिसके साथ उनका नाम जुड़ा हुआ है। बुद्ध ने जो सिखाया, उसमें हिंदू विश्वास करता है, पर बौद्ध जिसकी शिक्षा देते हैं, उसे हम स्वीकार नहीं करते। क्योंकि इस महान् गुरु की शिक्षाएँ देश में चारों ओर व्याप्त होकर, जिन मार्गों में से गुजरीं, उनके द्वारा रँगी जाकर, फिर देश की परंपरा में लौट आयी हैं।
"बुद्धमत को पूर्णतया समझने के लिए हमें उस मातृधर्म में जाना होगा, जिससे वह प्रसूत हुआ था। वेदग्रंथों के दो खंड हैं-प्रथम, कर्मकांड में यज्ञ संबंधी विवरण है; दूसरा, वेदांत, जो यज्ञों की निंदा करता है, दया और प्रेम सिखाता है, मृत्यु नहीं। विभिन्न संप्रदायों ने उस खंड को अपना लिया, जो उन्हें पसंद आया। चार्वाक अथवा जड़वादियों ने अपने सिद्धांत का आधार प्रथम भाग को बनाया। उनका विश्वास है कि जगत् में सब कुछ जड़ पदार्थ मात्र है, और न स्वर्ग है, न नरक, जीवात्मा है और न ईश्वर। एक अन्य संप्रदाय वाले, जैन, बहुत नैतिक नास्तिक थे, जिन्होंने ईश्वर के सिद्धांत को तो अस्वीकार किया, पर एक ऐसी जीवात्मा के अस्तित्व में विश्वास किया, जो अधिक पूर्ण विकास के लिए प्रयत्नशील है। ये दोनों संप्रदाय वेद विरोधी कहलाए। तीसरा संप्रदाय आस्तिक कहलाया, क्योंकि वह वेदों को स्वीकार करता था, यद्यपि वह सगुण ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानता था और विश्वास करता था कि सब वस्तुएँ परमाणु अथवा प्रकृति से उत्पन्न हुई हैं।
बुद्ध के आगमन से पूर्व बौद्धिक जगत् इस प्रकार विभक्त था। पर उनके धर्म को ठीक-ठीक समझने के लिए उस जाति-व्यवस्था की चर्चा करनी भी आवश्यक है, जो उन दिनों प्रचलित थी। वेद कहते हैं कि जो ईश्वर को जानता है, वह ब्राह्मण है; वह जो अपने साथियों की रक्षा करता है, क्षत्रिय है; जब कि वह, जो वाणिज्य से जीविका उपार्जन करता है, वैश्य है। ये विभिन्न सामाजिक विभाग लौहकठोर जातियों के रूप में विकसित अथवा पतित हो गए और एक सुसंगठित पुरोहित वर्ग राष्ट्र की गर्दन पर पैर रखकर खड़ा हो गया। ऐसे समय में बुद्ध का जन्म हुआ, और इसलिए उनका धर्म एक सामाजिक और धार्मिक सुधार के प्रयत्न की संपूर्ति है।
वातावरण वाद-विवाद के कोलाहल से पूर्ण था; २०,००० अंधे पुरोहित २,००,००,००० (?) अंधे मनुष्यों का नेतृत्व करने के प्रयत्न में आपस में झगड़ रहे थे। ऐसे समय में बुद्ध की शिक्षाओं से अधिक और किसकी आवश्यकता हो सकती थी? 'झगड़ना छोड़ो, अपनी पुस्तकों को एक ओर फेंको, पूर्ण बनो'। बुद्ध ने कभी सच्ची जाति-व्यवस्था का विरोध नहीं किया, क्योंकि वे विशिष्ट प्राकृतिक प्रवृत्तियों के समुदायों के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं, और वे सदा मूल्यवान हैं। पर बुद्ध ने विशेष उत्तराधिकारों की परंपरावाली बिगड़ी जाति-व्यवस्था का विरोध किया और ब्राह्मणों से कहा: 'सच्चे ब्राह्मण, न लालची होते हैं, न अपराधी होते हैं, न क्रोध करते हैं। क्या तुम ऐसे हो? यदि नहीं, तो असली, वास्तविक लोगों का स्वांग न भरो। जाति एक स्थिति है, लौहजड़ित वर्ग नहीं, और प्रत्येक मनुष्य जो ईश्वर को जानता और प्रेम करता है, सच्चा ब्राह्मण है।' और बलि के विषय में उन्होंने कहा: 'वेद कहाँ कहते हैं कि बलि हमें पवित्र बनाती है? उससे कदाचित् देवता प्रसन्न हो सकते हैं, पर वह हमे कोई लाभ नहीं पहुँचती। इसलिए, इन छद्यवेशी खिलवाड़ों को छोड़ो-ईश्वर से प्रेम करो और पूर्ण बनने का प्रयत्न करो।'
"बाद के वर्षों में बुद्ध के ये सिद्धांत भुला दिए गए। वे ऐसे देशों को गए, जो इन महान् सत्यों को प्राप्त करने के लिए तैयार नहीं थे और वहाँ से वे उनकी दुर्बलताओं से रंजित होकर वापस आए। इस प्रकार शून्यवादियों का उदय हुआ। इस संप्रदाय का विश्वास था कि ब्रह्मांड, ईश्वर और जीवात्मा का कोई आधार नहीं है, वरन् प्रत्येक वस्तु निरंतर परिवर्तित हो रही है। वे तात्कालिक आनंद के उपभोग के अतिरिक्त और किसी में विश्वास नहीं करते थे, जिसके फलस्वरूप अंत में अत्यंत घृणास्पद भ्रष्टाचार का प्रचार हुआ। पर वह बुद्ध का सिद्धांत नहीं है, वरन् उसका भयावह पतन है, और उस हिंदू राष्ट्र की जय हो, जिसने उसका विरोध किया और बाहर खदेड़ दिया।
"बुद्ध की प्रत्येक शिक्षा का आधार वेदांत है। वह उन संन्यासियों में से थे, जो उन पुस्तकों और तपोवनों में छिपे सत्यों को प्रकट करना चाहते थे। मुझे विश्वास नहीं कि संसार उनके लिए आज भी तैयार है। इसे अब भी उन निम्न स्तर के धर्मों की आवश्यकता है, जो सगुण ईश्वर की शिक्षा देते हैं। इसी कारण, असली बुद्धमत उस समय तक जन-मन को नहीं पकड़ सका, जब तक कि उसमें वे परिवर्तन सम्मिलित नहीं हो गए, जो तिब्बत और तातार से परावर्तित हुए थे। मौलिक बुद्धमत किंचित् भी शून्यवादी नहीं था। वह केवल जाति-व्यवस्था और पुरोहित वर्ग को रोकने का एक प्रयत्न था; वह संसार में मूक पशुओं का सर्वप्रथम पक्षपाती था; वह उस जाति को तोड़नेवालों में सर्वप्रथम था, जो मनुष्य को मनुष्य से अलग करती है।''
स्वामी विवेकानन्द ने उन महान् बुद्ध के जीवन के कुछ चित्र उपस्थित करके अपना भाषण समाप्त किया, 'जिन्होंने दूसरों की भलाई के अतिरिक्त न कोई अन्य विचार और न कोई अन्य काम किया; जिनमें उच्चतम बुद्धि थी और जिनके हृदय में समस्त मानव जाति और सब पशुओं, सभी के लिए स्थान था और जो उच्चतम देवताओं के लिए तथा निम्नतम कीट के लिए भी अपना जीवन उत्सर्ग करने को तैयार रहते थे।' उन्होंने दिखाया कि राजा की बलि के निमित्त आए हुए भेड़ों के एक समूह की रक्षा के लिए किसी प्रकार बुद्ध ने अपने को वेदी पर डाल दिया और अपने अभीष्ट की प्राप्ति की। इसके बाद उन्होंने यह चित्र स्थित किया कि उस महान् धर्म-प्रवर्तक ने पीड़ित मानव जाति की पीड़ा भरी चीत्कार पर अपनी पत्नी और पुत्र का किस प्रकार परित्याग किया; और, अंत में, जब उनका उपदेश भारत में आम तौर से स्वीकार कर लिया गया, उन्होंने एक घृणा के पात्र चांडाल का निमंत्रण स्वीकार किया, जिसने उन्हें सूअर का मांस खिलाया, जिसके परिणामस्वरूप उनकी मृत्यु हुई।
[1] उन दिनों स्वामी विवेकानंद जी का नाम संयुक्त राज्य अमेरिका के समाचारपत्रों में कई प्रकार से गलत छपता था और विषय की नवीनता के कारण विवरण अधिकांशत: अशुद्ध होते थे।