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(बेलूड़ मठ की डायरी से)
प्रश्न - गुरु किसे कह सकते हैं ?
उत्तर - जो तुम्हारे भूत-भविष्य को बता सकें, वे ही तुम्हारे गुरु हैं।
प्रश्न - भक्ति-लाभ किस प्रकार होता है ?
उत्तर - भक्ति तो तुम्हारे भीतर ही है -केवल उसके ऊपर काम-कांचन का एक आवरण सा पड़ा हुआ है। उसको हटाते ही भीतर की वह भक्ति स्वयंमेव प्रकट हो जाएगी।
प्रश्न - हमें आत्मनिर्भर होना चाहिए-इस कथन का सच्चा अर्थ क्या है ?
उत्तर - यहाँ, पर निर्भरता का अभ्यास भी हमें धीरे धीरे सच्चे लक्ष्य पर पहुँचा देगा ; क्योंकि जीवात्मा भी तो वस्तुत: नित्यात्मा की मायिक अभिव्यक्ति ही तो है।
प्रश्न - यदि सचमुच एक ही वस्तु सत्य हो, तो फिर यह द्वैत-बोध, जो सदा-सर्वदा सबको हो रहा है, कहाँ से आया ?
उत्तर - किसी विषय के प्रत्यक्ष में कभी द्वैत-बोध नहीं होता। प्रत्यख के पुन: उपस्थित होने में ही द्वैत को बोध होता है। यदि विषय-प्रत्यक्ष के समय द्वैत-बोध रहता, तो ज्ञेय ज्ञाता से संपूर्ण स्वतंत्र रूप में तथा ज्ञाता भी ज्ञेय से स्वतंत्र रूप में रह सकता।
प्रश्न -चरित्र का सामंजस्यपूर्ण विकास करने का सर्वोत्तम उपाय कौन सा है ?
उत्तर - जिनका चरित्र उस रूप से गठित हुआ हो, उनका संग करना ही इसका सर्वोत्कृष्ट उपाय है।
प्रश्न -वेद के विषय में हमारा दृष्टिकोण किस प्रकार का होना चाहिए ?
उत्तर -वेदों के केवल उन्हीं अंशों को प्रमाण मानना चाहिए, जो युक्ति-विरोधी नहीं हैं। पुराणादि अन्यान्य शास्त्र वहीं तक ग्राह्य हैं, जहाँ तक वे वेद से अविरोधी हैं। वेद के पश्चात् इस संसार में जहाँ कहीं जो भी धर्म-भाव आविर्भूत हुआ है, उसे वेद से ही गृहीत समझना चाहिए।
प्रश्न-यह चार युगों का काल-विभाजन क्या ज्योतिषशास्त्र की गणना के अनुसार सिद्ध है अथवा केवल रूढिगत ही है ?
उत्तर - वेदों में तो कहीं ऐसे विभाजन का उल्लेख नहीं है। यह पौराणिक युग की निराधार कल्पना मात्र है।
प्रश्न -शब्द और भाव के बीच क्या सचमुच कोई नित्य संबंध है ? अथवा मात्र संयोग और रूढिगत ?
उत्तर-इस विषय में अनेक तर्क किए जा सकते हैं, किसी स्थिर सिद्धांत पर पहुँचना बड़ा कठिन है। मालूम होता है कि शब्द और अर्थ के बीच नित्य संबंध है, पर पूर्णतया नहीं; जैसा भाषाओं की विविधता से सिद्ध होता है। हाँ, कोई सूक्ष्म संबंध हो सकता है, जिसे हम अभी नहीं पकड़ पा रहे हैं।
प्रश्न-भारत में कार्य-प्रणाली कैसी होनी चाहिए ?
उत्तर-पहले तो, व्यावहारिक और शरीर से सबल होने की शिक्षा देनी चाहिए। ऐसे केवल बारह नर-केसरी संसार पर विजय प्राप्त कर सकते हैं; परंतु लाख-लाख भेड़ों द्वारा यह नहीं होने का। और दूसरे, किसी व्यक्तिगत आदर्श के अनुकरण की शिखा नहीं देनी चाहिए, चाहे वह आदर्श कितना ही बड़ा क्यों न हो।
इसके पश्चात् स्वामी जी ने कुछ हिंदू प्रतीकों की अवनति का वर्णन किया। उन्होंने ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग का भेद समझाया। वास्तव में ज्ञानमार्ग आर्यों का था, और इसलिए उसमें अधिकारी-विचार के इतने कड़े नियम थे। भक्तिमार्ग की उत्पत्ति दाक्षिणात्य से-आर्येतर जाति से हुई है, इसलिए उसमें अधिकारी-विचार नहीं है।
प्रश्न-भारत के इस पुनरुत्थान में रामकृष्ण मिशन क्या कार्य करेगा ?
उत्तर - इस मठ से चरित्रवान व्यक्ति निकलकर सारे संसार को आध्यात्मिकता की बाढ़ से प्लावित कर देंगे। इसके साथ साथ दूसरे क्षेत्रों में भी पुनरुत्थान होगा। इस तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति का अभ्युदय होगा। शूद्र जाति का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा-वे लोग आज जो काम कर रहे हैं, वे सब यंत्रों की सहायता से किए जाएंगे। भारत की वर्तमान आवश्यकता है-क्षत्रिय-शक्ति।
प्रश्न-क्या मनुष्य के उपरात्न अधोगामी पुनर्जन्म संभव है ?
उत्तर - हाँ, पुनर्जन्म कर्म पर निर्भर रहता है। यदि मनुष्य पशु के समान आचरण करे, तो वह पशु-योनि में खिंच जाता है।
एक समय (सन् 1898 ई.) में इस प्रकार के प्रश्नोत्तर-काल में स्वामी जी ने मूर्ति-पूजा की उत्पत्ति बौद्ध युग में मानी थी। उन्होंने कहा था-पहले बौद्ध चैत्य, फिर स्तूप, और तत्पश्चात बुद्ध का मंदिर निर्मित हुआ। उसके साथ ही हिंदू देवताओं के मंदिर खड़े हुए।
प्रश्न - क्या कुंडलिनी नाम की कोई वास्तविक वस्तु इस स्थूल शरीर के भीतर हैं ?
उत्तर -- श्री रामकृष्ण देव कहते थे, 'योगी जिन्हें पद्म कहते हैं, वास्तव में वे मनुष्य के शरीर में नहीं हैं। योगाभ्यास से उनकी उत्पत्ति होती है।'
प्रश्न - क्या मूर्ति-पूजा के द्वारा मुक्ति-लाभ हो सकता है ?
उत्तर - मूर्ति-पूजा से साक्षात् मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर भी वह मुक्ति-प्राप्ति में गौण कारणस्वरूप है-सहायक है। मूर्ति-पूजा की निंदा करना उचित नहीं, क्योंकि बहुतों के लिए मूर्ति-पूजा ही अद्वैत ज्ञान की उपलब्धि के लिए मन को तैयार कर देती है-और केवल इस अद्वैत-ज्ञान की प्राप्ति से ही मनुष्य मुक्त हो सकता है।
प्रश्न - हमारे चरित्र का सर्वोच्च आदर्श क्या होना चाहिए ?
उत्तर - त्याग।
प्रश्न - बौद्ध धर्म ने अपने दाय के रूप में भ्रष्टाचार कैसे छोड़ा ?
उत्तर - बौद्धों ने प्रत्येक भारतवासी को भिक्षु या भिक्षुणी बनाने का प्रयत्न किया था। परंतु सब लोग तो वैसा नहीं हो सकते। इस तरह किसी भी व्यक्ति के साधु बन जाने से भिक्षु-भिक्षुणियों में क्रमश: शिथिलता आती गयी और भी एक कारण था-धर्म के नाम पर तिब्बत तथा अन्यान्य देशों के बर्बर आचारों का अनुकरण करना। वे इन स्थानों में धर्म-प्रचार के हेतु गए और इस प्रकार उनके भीतर उन लोगों के दूषित आचार प्रवेश कर गए। अंत में उन्होंने भारत में इन सब आचारों को प्रचलित कर दिया।
प्रश्न -- माया क्या अनादि और अनंत है ?
उत्तर - समष्टि रूप से अनादि-अनंत अवश्य है, पर व्यष्टि रूप से शांत है।
प्रश्न -- ब्रह्म और माया का बोध युगपत् नहीं होता। अत: उनमें से किसी को भी पारमार्थिक सत्ता एक दूसरे से अद्भुत कैसे सिद्ध की जा सकती है ?
उत्तर - उसको केवल साक्षात्कार द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। जब व्यक्ति को ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है, तो उसके लिए माया की सत्ता नहीं रह जाती, जैसे रस्सी की वास्तविकता जान लेने पर सर्प का भ्रम फिर उत्पन्न नहीं होता।
प्रश्न - माया क्या है ?
उत्तर - वास्तव में वस्तु केवल एक ही है-चाहे उसको चैतन्य कहो या जड़। पर उनमें से एक को दूसरे से नितांत स्वतंत्र मानना केवल कठिन ही नहीं, असंभव है। इसीको माया या अज्ञान कहते हैं।
प्रश्न - मुक्ति क्या है ?
उत्तर - मुक्ति का अर्थ है पूर्ण स्वाधीनता-शुभ और अशुभ, दोनों प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाना। लोहे की श्रृंखला भी श्रृंखला ही है, और सोने की श्रृंखला भी श्रृंखला है। श्री रामकृष्ण देव कहते थे, पैर में काँटा चुभने पर उसे निकालने के लिए एक दूसरे काँटे की आवश्यकता होती है। काँटा निकल जाने पर दोनों काँटे फेंक दिए जाते हैं। इसी तरह सत्प्रवृत्ति के द्वारा असत् प्रवृत्तियों का दमन करना पड़ता है, परंतु बाद में सत्प्रवृत्तियों पर भी विजय प्राप्त करनी पड़ती है।'
प्रश्न - भगतत्कृपा बिना क्या मुक्ति-लाभ हो सकता है ?
उत्तर - मुक्ति के साथ ईश्वर का कोई संबंध नहीं है। मुक्ति तो पहले से ही वर्तमान है।
प्रश्न -- हमारे भीतर जिसे 'मैं'या 'अहं' कहा जाता है, वह देह आदि से उत्पन्न नहीं है, इसका क्या प्रमाण है ?
उत्तर - अनात्मा की भाँति 'मैं' या 'अहं' भी देह-मन आदि से ही उत्पन्न होता है। वास्तविक 'मैं' के अस्तित्व का एकमात्र प्रमाण है साक्षात्कार।
प्रश्न - सच्चा ज्ञानी और सच्चा भक्त किसे कह सकते हैं ?
उत्तर - जिसके हृदय में अथाह प्रेम है और जो सभी अवस्थाओं में अद्वैत तत्व का साक्षात्कार करता है, वही सच्चा ज्ञानी है। और सच्चा भक्त वह है, जो परमात्मा के साथ जीवात्मा की अभिन्न रूप से उपलब्धि कर यथार्थ ज्ञानसंपन्न हो गया है, जो सबसे प्रेम करता है और जिसका हृदय सबके लिए रूदन करता है। ज्ञान और भक्ति में से किसी एक का पक्ष लेकर जो दूसरे की निंदा करता है, वह न तो ज्ञानी है, न भक्त-वह तो ढोंगी और धूर्त है।
प्रश्न -- ईश्वर की सेवा करने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर - यदि तुम एक बार ईश्वर के अस्तित्व को मान लेते हो, तो उनकी सेवा करने के यथेष्ट कारण पाओगे। सभी शास्त्रों के मतानुसार भगवत्सेवा का अर्थ है 'स्मरण'। यदि तुम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हो, तो तुम्हारे जीवन में पग-पग पर उनको स्मरण करने का हेतु सामने आएगा।
प्रश्न -- क्या मायावाद अद्वैतवाद से भिन्न है ?
उत्तर - नहीं, दोनों एक ही हैं। मायावाद को छोड़ अद्वैतवाद की और कोई भी व्याख्या संभव नहीं।
प्रश्न -- ईश्वर तो अनंत हैं, वे फिर मनुष्य रूप धारण कर इतने छोटे किस प्रकार हो सकते हैं ?
उत्तर - यह सत्य है कि ईश्वर अनंत है परंतु तुम लोग अनंत का जो अर्थ सोचते हो, अनंत का वह अर्थ नहीं है। अनंत कहने से तुम एक विराट् जड़ सत्ता समझ बैठते हो। इसी समझ के कारण तुम भ्रम में पड़ गए हो। जब तुम यह कहते हो कि भगवान् मनुष्य रूप धारण नहीं कर सकते, तो इसका अर्थ तुम ऐसा समझते हो कि एक विराट् जड़ पदार्थ को इतना छोटा नहीं किया जा सकता परंतु ईश्वर इस अर्थ में अनंत नहीं है। उसका अनंतत्व चैतन्य को अनंतत्व है। इसलिए मानव के आकार में अपने को अभिव्यक्त करने पर भी उनके स्वरूप को कुछ भी क्षति नहीं पहुँचती।
प्रश्न -- कोई कोई कहते हैं कि पहले सिद्ध बन जाओ, फिर तुम्हें कर्म करने का ठीक-ठीक अधिकार होगा; परंतु कोई कहते हैं कि शुरू से ही कर्म करना, दूसरों की सेवा करना उचित है। इन दो विभिन्न मतों को सामंजस्य किस प्रकार हो सकता है ?
उत्तर - तुम तो दो अलग-अलग बातों को एक में मिलाए दे रहे हो, इसलिए भ्रम में पड़ गए हो। कर्म का अर्थ है मानव जाति की सेवा अथवा धर्म-प्रचार-कार्य। यथार्थ प्रचार-कार्य में अवश्य ही सिद्ध पुरुष के अतिरिक्त और किसी का अधिकार नहीं है, परंतु सेवा में तो सभी का अधिकार है; इतना ही नहीं, जब तक हम दूसरों से सेवा ले रहे हैं, तब तक हम दूसरों की सेवा करने को बाध्य भी हैं।
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(ब्रुकलिन नैतिक सभा, ब्रुकलिन, अमेरिका)
प्रश्न - आप कहते हैं कि सब कुछ मंगल के लिए ही है; परंतु देखने में आता है कि संसार सब और अमंगल और दु:ख कष्ट से घिरा है। तो फिर आपके मत के साथ इस प्रत्यक्ष दीखनेवाले व्यापार का सामंजस्य, किस प्रकार हो सकता है ?
उत्तर - आप यदि पहले अमंगल के अस्तित्व को प्रमाणित कर सकें, तभी मैं इस प्रश्न का उत्तर दे सकूँगा परंतु वैदांतिक धर्म तो अमंगल का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करता। सुख से रहित अनंत दु:ख कहीं हो, तो उसे अवश्य प्रकृत अमंगल कहा जा सकता है। पर यदि सामयिक दु:ख कष्ट हृदय की कोमलता और महत्ता में वृद्धि कर मनुष्य को अनंत सुख की और अग्रसर कर दे, तो फिर उसे अमंगल नहीं कहा जा सकता, बल्कि उसे तो परम मंगल कहा जा सकता है। जब तक हम यह अनुसंधान नहीं कर लेते कि किसी वस्तु का अनंत के राज्य में क्या परिणाम होता है, तब तक हम उसे बुरा नहीं कह सकते।
शैतान की उपासना हिंदू धर्म का अंग नहीं है। मानव जाति क्रमोन्नति के मार्ग पर चल रहा है, परंतु सब लोग एक ही प्रकार की स्थिति में नहीं पहुँच सके हैं। इसीलिए पार्थिव जीवन में कोई कोई लोग अन्यान्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक महान् और पवित्र देखे जाते हैं। प्रत्येक मनुष्य के लिए उसके अपने वर्तमान उन्नति-क्षेत्र के भीतर स्वयं को उन्नत बनाने के लिए अवसर विद्यमान है। हम अपना नाश नहीं कर सकते, हम अपने भीतर की जीवनी शक्ति को नष्ट या दुर्बल नहीं कर सकते, परंतु उस शक्ति को विभिन्न दिशा में परिचालित करने के लिए हम स्वतंत्र हैं।
प्रश्न - पार्थिव जड़ वस्तु की सत्यता क्या हमारे मन की केवल कल्पना नहीं है ?
उत्तर - मेरे मत में बाह्य जगत् की अवश्य एक सत्ता है-हमारे मन के विचार के बाहर भी उसका एक अस्तित्व है। चैतन्य के क्रमविकास-रूप महान् विधान का अनुवर्ती होकर यह समग्र विश्व उन्नति के पथ पर अग्रसर हो रहा है। चैतन्य का यह क्रमविकास जड़ के क्रमविकास से पृथक है। जड़ का क्रमविकास चैतन्य की विकास-प्रणाली का सूचक या प्रतीकस्वरूप है, किंतु उसके द्वारा इस प्रणाली की व्याख्या नहीं हो सकती। वर्तमान पार्थिव परिस्थिति में बद्ध रहने के कारण हम अभी तक व्यक्तित्व नहीं प्राप्त कर सके हैं। जब तक हम उस उच्चतर भूमि में नहीं पहुँच जाते, जहाँ हम अपनी अंतरात्मा के परम लक्षणों को प्रकट करने के उपर्युक्त यंत्र बन जाते हैं, तब तक हम प्रकृत व्यक्तित्व की प्राप्ति नहीं कर सकते।
प्रश्न - ईसा मसीह के पास एक जन्मांध शिशु को ले जाकर उनसे पूछा गया था कि शिशु अपने किए हुए पाप के फल से अंधा हुआ है, अथवा अपने माता-पिता के पाप के फल से-इस समस्या की मीमांसा आप किस प्रकार करेंगे ?
उत्तर - इस समस्या में पाप की बात को ले आने को कोई भी प्रयोजन नहीं दीख पड़ता। तो भी मेरा दृढ़ विश्वास है कि शिशु की यह अंधता उसके पूर्व जन्मकृत किसी कर्म का ही फल होगी। मेरे मत में, पूर्व जन्म को स्वीकार करने पर ही ऐसी समस्याओं की मीमांसा हो सकती है।
प्रश्न - मृत्यु के पश्चात् हमारी आत्मा क्या आनंद की अवस्था को प्राप्त करती है ?
उत्तर - मृत्यु तो केवल अवस्था का परिवर्तन मात्र है। देश-काल आपके ही भीतर वर्तमान है, आप देश-काल के अंतर्गत नहीं हैं। बस इतना जानने से ही यथेष्ट होगा कि हम, इहलोक में या परलोक में, अपने जीवन को जितना पवित्र और महान् बनायेंगे, उतना ही हम उन भगवान् के निकट होते जाएंगे, जो सारे आध्यात्मिक सौंदर्य और अनंत आनंद के केंद्रस्वरूप हैं।
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(ट्वेन्टिएथ सेन्चुरी क्लब, बोस्टन, अमेरिका)
प्रश्न - क्या वेदांत का प्रभाव इसलाम धर्म पर कुछ पड़ा है ?
उत्तर - वेदांत मत की आध्यात्मिक उदारता ने इसलाम धर्म पर अपना विशेष प्रभाव डाला था। भारत का इसलाम धर्म संसार के अन्यान्य देशों के इसलाम धर्म की अपेक्षा पूर्ण रूप से भिन्न है। जब दूसरे देशों के मुसलमान यहाँ आकर भारतीय मुसलमानों को फुसलाते हैं कि तुम विधर्मियों के साथ मिल जुलकर कैसे रहते हो, तभी अशिक्षित कट्टर मुसलमान उत्तेजित होकर दंगा-फसाद मचाते हैं।
प्रश्न - क्या वेदांत जाति-भेद मानता है ?
उत्तर - जाति-भेद वेदांत धर्म का विरोधी है। जाति-भेद एक सामाजिक प्रथा मात्र है और हमारे बड़े बड़े आचार्यों ने उसे तोड़ने के प्रयत्न किए हैं। बौद्ध धर्म से लेकर सभी संप्रदायों ने जाति-भेद के विरुद्ध प्रचार किया है, परंतु ऐसा प्रचार जितना ही बढ़ता गया, जाति-भेद की श्रृंखला उतनी ही दृढ़ होती गयी। जाति-भेद की उत्पत्ति भारत की राजनीतिक संस्थाओं से हुई है। वह तो वंश-परंपरागत व्यवसायों का समवाय (trade guild) मात्र है। किसी प्रकार के उपदेश की अपेक्षा यूरोप के साथ व्यापार-वाणिज्य की प्रतियोगिता ने जाति-भेद को अधिक मात्रा में तोड़ा है।
प्रश्न - वेदों की विशेषता किस बात में है ?
उत्तर - वेदों की एक विशेषता यह है कि सारे शास्त्र-ग्रंथों में एकमात्र वेद ही बारंबार कहते हैं कि वेदों के भी अतीत हो जाना चाहिए। वेद कहते हैं कि वे केवल बाल-बुद्धि व्यक्तियों के लिए लिखे गए हैं। इसलिए विकास कर चुकने पर वेदों के परे जाना पड़ेगा।
प्रश्न - आपके मत में प्रत्येक जीवात्मा क्या नित्य सत्य है ?
उत्तर - जीवात्मा मनुष्य की वृत्तियों की समष्टिस्वरूप है, और इन वृत्तियों का प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। इसलिए यह जीवात्मा अनंत काल के लिए कभी सत्य नहीं हो सकती। इस मायिक जगत्-प्रपंच के भीतर ही उसकी सत्यता है। जीवात्मा तो विचार और स्मृति की समष्टि है-वह नित्य सत्य कैसे हो सकती है ?
प्रश्न -- भारत में बौद्ध धर्म का पतन क्यों हुआ ?
उत्तर - वास्तव में भारत में बौद्ध धर्म का लोप नहीं हुआ। वह एक विराट् सामाजिक आंदोलन मात्र था। बुद्ध के पहले, यज्ञ के नाम से तथा अन्य विभिन्न कारणों से बहुत प्राणीहिंसा होती थी और लोग बहुत मद्यपान एवं आमिष-आहार करते थे। बुद्ध के उपदेश के फल से मद्यपान और जीव-हत्या का भारत में प्राय: लोप सा हो गया है।
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(अमेरिका के हार्डफ्रोर्ड में 'आत्मा, ईश्वर और धर्म' [1] विषय पर स्वामी जी का एक भाषण समाप्त होने पर वहाँ के श्रोताओं ने कुछ प्रश्न पूछे थे। वे प्रश्न तथा उनके उत्तर नीचे दिए गए हैं।)
प्रश्न -- दर्शकों में से एक ने कहा-अगर पुरोहित लोग नरक की ज्वाला के बारे में बातें करना छोड़ दें, तो लोगों पर से उनका प्रभाव ही उठ जाय।
उत्तर - उठ जाय, तो अच्छा ही हो। अगर आतंक से कोई किसी धर्म को मानता है, तो वस्तुत: उसका कोई भी धर्म नहीं। इससे तो मनुष्य को उसकी पाशविक प्रकृति के बजाय उसकी दैवी प्रकृति के बारे में उपदेश देना कहीं अच्छा है।
प्रश्न - जब प्रभु (ईसा) ने यह कहा कि स्वर्ग का राज्य इस संसार में नहीं है, तो इससे उनका क्या तात्पर्य था ?
उत्तर - यह कि स्वर्ग का राज्य हमारे अंदर है। यहूदी लोगों का विश्वास था कि स्वर्ग का राज्य इसी पृथ्वी पर है। पर ईसा मसीह ऐसा नहीं मानते थे।
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि मनुष्य का विकास पशु से हुआ है ?
उत्तर - मैं मानता हूँ कि विकास के नियम के अनुसार ऊँचे स्तर के प्राणी अपेक्षाकृत निम्न स्तर से विकसित हुए हैं।
प्रश्न -- क्या आप किसी ऐसे व्यक्ति को मानते हैं, जो अपने पूर्व जन्म की बातें जानता हो ?
उत्तर - हाँ, कुछ ऐसे लोगों से मेरी भेंट हुई है, जो कहते हैं कि उन्हें अपने पिछले जीवन की बातें याद हैं। वे इतना ऊपर उठ चुके हैं कि अपने पूर्व जन्म की बातें याद कर सकते हैं।
प्रश्न - ईसा मसीह के क्रूस पर चढ़ने की बात में क्या आपको विश्वास है ?
उत्तर - ईसा मसीह ईश्वर के अवतार थे। कोई उन्हें मार नहीं सकता था। देह, जिसको क्रूस पर चढ़ाया गया, एक छाया मात्र थी, एक मृगतृष्णा थी।
प्रश्न - अगर वे ऐसे छाया-शरीर का निर्माण कर सके, तो क्या यह सबसे बड़ा चमत्कारपूर्ण कार्य नहीं है ?
उत्तर - चमत्कारपूर्ण कार्यों को मैं आध्यात्मिक मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा मानता हूँ। एक बार बुद्ध के शिष्यों ने उनसे एक ऐसे व्यक्ति की चचा की, जो तथाकथित चमत्कार दिखाता था-वह एक कटोरे को बिना छुए ही काफी ऊँचाई पर रोके रखता था। उन लोगों ने बुद्ध को वह कटोरा दिखाया, तो उन्होंने उसे अपने पैरों से कुचल दिया और कहा-कभी तुम इन चमत्कारों पर अपनी आस्था मत आधारित करो, बल्कि शाश्वत सिद्धांतों में सत्य की खोज करो। बुद्ध ने उन्हें सच्चे आंतरिक प्रकाश की शिक्षा दी-वह प्रकाश, जो आत्मा की देन है और जो एकमात्र ऐसा विश्वसनीय प्रकाश है, जिसके सहारे चला जा सकता है। चमत्कार तो केवल मार्ग के रोड़े हैं। उन्हें हमें रास्ते से अलग हटा देना चाहिए।
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि 'शैलोपदेश' सचमुच ईसा मसीह के हैं ?
उत्तर - हाँ, मैं ऐसा मानता हूँ। और इस संबंध में मैं अन्य विचारकों की तरह पुस्तकों पर ही भरोसा कहता हूँ, यद्यपि मैं यह भी समझता हूँ कि पुस्तकों को प्रमाण बनाना बहुत ठोस आधार नहीं है। पर इन सारी बातों के बावजूद हम सभी 'शैलोपदेश' को नि:संकोच अपना पथप्रदर्शक मान सकते हैं। जो हमारी अंतरात्मा को जँचे, उसे हमें स्वीकार करना है। ईसा के पाँच सौ साल पहले बुद्ध ने उपदेश दिया था और सदा उनके उपदेश आशीषों से भरे रहते थे। कभी उन्होंने अपने जीवन में अपने कार्यों अथवा अपने शब्दों से किसी की हानि नहीं की, और न जरथुष्ट्र अथवा कन्फ्यूशस ने ही।
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(निम्नलिखित प्रश्नोत्तर अमेरिका में दिए हुए विभिन्न भाषणों के अंत में हुए थे। वहीं से इनका संग्रह किया गया है। इनमें से यह अमेरिका के एक संवाद-पत्र से संग्रहित है।)
प्रश्न - आत्मा के आवागमन का हिंदू सिद्धांत क्या है ?
उत्तर - वैज्ञानिकों का ऊर्जा या जड़-संधारण (conservation of energy of matter) का सिद्धांत, जिस भित्ति पर प्रतिष्ठित है, आवागमन का सिद्धांत भी उसी भित्ति पर स्थापित है। इस सिद्धांत (conservation of energy or matter) का प्रवर्तन सर्वप्रथम हमारे देश के एक दार्शनिक ने ही किया था। प्राचीन ऋषि 'सृष्टि' पर विश्वास नहीं करते थे। 'सृष्टि' कहने से तात्पर्य निकलता है-'कुछ नहीं' से 'कुछ' का होना, 'अभाव' से 'भाव' की उत्पत्ति। यह असंभव है। जिस प्रकार काल का आदि नहीं है, उसी प्रकार सृष्टि का भी आदि नहीं है। ईश्वर और सृष्टि मानो दो समानांतर रेखाओं के समान हैं-उनका न आदि है, न अंत-वे नित्य पृथक् हैं। सृष्टि के बारे में हमारा मत यह है-'वह थी, है, और रहेगी।' पाश्चात्य देशवासियों को भारत से एक बात सीखनी है-वह है परधर्म-सहिष्णुता। कोई भी धर्म बुरा नहीं है, क्योंकि सब धर्मों का सार एक ही है।
प्रश्न - भारत की स्त्रियाँ उतनी उन्नत क्यों नहीं हैं ?
उत्तर - विभिन्न समयों में अनेक असभ्य जातियों ने भारत पर आक्रमण किया था, प्रधानत: उसी के कारण भारतीय महिलाएँ इतनी अनुन्नत हैं। फिर, इसमें कुछ दोष तो भारतवासियों के निजी भी हैं।
किसी समय अमेरिका में स्वामी जी से कहा गया था कि हिंदू धर्म ने कभी किसी अन्य धर्मावलंबी को अपने धर्म में नहीं मिलाया है। इसके उत्तर में उन्होंने कहा, ''जैसे पूर्व के लिए बुद्धदेव के पास एक विशेष संदेश था, उसी प्रकार पश्चिम के लिए मेरे पास भी एक संदेश है।''
प्रश्न - आप क्या यहाँ (अमेरिका में) हिंदू धर्म के क्रियाकलाप, अनुष्ठान आदि को चलाना चाहते हैं?
उत्तर - मैं तो केवल दार्शनिक तत्त्वों का ही प्रचार कर रहा हूँ।
प्रश्न - क्या आपको ऐसा नहीं मालूम होता कि यदि भावी नरक का डर मनुष्य के सामने से हटा दिया जाय, तो किसी भी रूप से उसे काबू में रखना असंभव हो जाएगा ?
उत्तर - नहीं; बल्कि मैं तो यह समझता हूँ कि भय की अपेक्षा हृदय में प्रेम और आशा का संचार होने से वह अधिक अच्छा हो सकेगा।
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(स्वामी जी ने 25 मार्च, सन 1896 ई. को संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के हॉवर्ड विश्वविद्यालय की 'ग्रेजुएट दार्शनिक सभा' में वेदांत दर्शन के बारे में एक व्याख्यान दिया था। व्याख्यान समाप्त होने पर श्रोताओं के साथ निम्नलिखित प्रश्नोत्तर हुए।)
प्रश्न - मैं यह जानना चाहता हूँ कि भारत में दार्शनिक चिंतन की वर्तमान अवस्था कैसी है ? इन सब बातों की वहाँ आजकल कहाँ तक आलोचना होती है ?
उत्तर - मैंने पहले ही कहा है कि भारत में अधिकांश लोग द्वैतवादी हैं। अद्वैतवादियों की संख्या बहुत अल्प है। उस देश में (भारत में) आलोचना का प्रधान विषय है मायावाद और जीव-तत्व। मैंने इस देश में आकर देखा कि यहाँ के श्रमिक संसार की वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति से भली- भाँति परिचित हैं, परंतु जब मैंने उनसे पूछा, 'धर्म कहने से तुम क्या समझते हो, अमुक अमुक संप्रदाय का धर्म-मत किस प्रकार का है', तो उन्होंने कहा, 'ये सब बातें हम नहीं जातने-हम तो बस चर्च में जाते भर हैं।' परंतु भारत में किसी किसान के पास जाकर यदि मैं पूछूँ कि तुम्हारा शासनकर्ता कौन है, तो वह उत्तर देगा, 'यह बात मैं नहीं जानता, मैं तो केवल टैक्स (कर) दे देता हूँ।' पर यदि मैं उससे धर्म के विषय में पूछूँ, तो वह तत्काल बता देगा कि वह द्वैतवादी है, और माया तथा जीव-तत्व के संबंध में वह अपनी धारणा को विस्तृत रूप से कहने के लिए भी तैयार हो जाएगा। वे लिखना-पढ़ना नहीं जानते, परंतु इन बातों को उन्होंने साधु-संन्यासियों से सीखा हैं, और इन विषयों पर विचार करना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। दिन भर काम करने के पश्चात् पेड़ के नीचे बैठकर किसान लोग इन सब तत्त्वों पर विचार किया करते हैं।
प्रश्न - कट्टर या असल हिंदू किसे कह सकते हैं ? हिंदू धर्म में कट्टरता (orthodoxy) का क्या अर्थ है ?
उत्तर - वर्तमान काल में तो खान-पान अथवा विवाह के विषय में जातिगत विधि-निषेध का पालन करने से ही कट्टर या असल हिंदू हो जाता है। फिर वह चाहे जिस किसी धर्म-मत में विश्वास क्यों न करे, कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। भारत में कभी भी कोई नियमित धर्मसंघ या चर्च नहीं था। इसलिए कट्टर या असल हिंदूपन गठित तथा नियमित करने के लिए संघबद्ध रूप से कभी चेष्टा नहीं हुई। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जो वेदों में विश्वास रखते हैं, वे ही असल या कट्टर हिंदू हैं। पर वास्तव में, देखने में यह आता है कि द्वैतवादी संप्रदायों में से अनेक केवल वेद-विश्वासी न होकर पुराणों में ही अधिक विश्वास रखते हैं।
प्रश्न -आपके हिंदू दर्शन ने यूनानियों के स्टोइक दर्शन [2] पर किस प्रकार प्रभाव डाला था ?
उत्तर - बहुत संभव है कि उसने सिकंदरिया निवासियों द्वारा उस पर कुछ प्रभाव डाला था। ऐसा संदेह किया जाता है कि पाइथागोरस के उपदेशों में सांख्य दर्शन का प्रभाव विद्यमान है। जो हो, हमारी यह धारणा है कि सांख्य दर्शन ही वेदों में निहित दार्शनिक तत्त्वों का युक्ति-विचार द्वारा समन्वय करने का सबसे प्रथम प्रयत्न है। हम वेदों तक में कपिल के नाम का उल्लेख पाते हैं- ऋषि प्रसूर्त कपिलं यस्तमग्रे। [3]
--'जिन्होंने उन कपिल ऋषि को पहले प्रसव किया था।'
प्रश्न - पाश्चात्य विज्ञान के साथ इस मत का विरोध कहाँ पर है ?
उत्तर - विरोध कुछ भी नहीं है। बल्कि हमारे इस मत के साथ पाश्चात्य विज्ञान का सादृश्य ही है। हमारा परिणामवाद तथा आकाश: और प्राण तत्व ठीक आपके आधुनिक दर्शनों के सिद्धांत के समान है। आपका परिणामवाद या क्रमविकास हमारे योग और सांख्य दर्शन में पाया जाता है। दृष्टांतस्वरूप देखिए-पतंजलि ने बतलाया है कि प्रकृति के आपूरण के द्वारा एक जाति अन्य जाति में परिणत होती है- जात्यन्तरपरिणाम: प्रकृत्यापूरात। केवल इसकी व्याख्या के विषय में पतंजलि के साथ पाश्चात्य विज्ञान का मतभेद है। पतंजलि की परिणाम की व्याख्या आध्यात्मिक है। वे कहते हैं-जब एक किसान अपने खेत में पानी देने के लिए पास के ही जलाशय से पानी लेना चाहता है, तो वह बस पानी को रोक रखनेवाले द्वार को खोल भर देता है- निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु तत: क्षेत्रिकवत्। उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य पहले से ही अनंत है, केवल इन सब विभिन्न अवस्था-चक्ररूपी द्वारों या प्रतिबंधों ने उसे बद्ध कर रखा है। इन प्रतिबंधों को हटाने मात्र से ही उसकी वह अनंत शक्ति बड़े वेग के साथ अभिव्यक्त होने लगती है। तिर्यक् योनि में मनुष्यत्व गूढ़ भाव से निहित है; अनुकूल परिस्थिति उपस्थित होने पर वह तत्क्षण ही मानव रूप में अभिव्यक्त हो जाता है। उसी प्रकार उपयुक्त सुयोग तथा अवसर उपस्थित होने पर मनुष्य के भीतर जो ईश्वरत्व विद्यमान है, वह अपने को अभिव्यक्त कर देता है। इसलिए आधुनिक नूतन मतवादवालों के साथ विवाद करने को विशेष कुछ नहीं है। उदाहरणार्थ, विषय-प्रत्यक्ष के सिद्धांत के संबंध में सांख्य मत के साथ आधुनिक शरीर विज्ञान (Physiology) का बहुत ही थोड़ा मतभेद है।
प्रश्न - परंतु आप लोगों की पद्धति भिन्न है।
उत्तर - हाँ, हमारे मतानुसार मन की समस्त शक्तियों को एकमुखी करना ही ज्ञान-लाभ का एकमात्र उपाय है। बर्हिविज्ञान में बाह्य विषयों पर मन को एकाग्र करना होता है और अंतर्विज्ञान में मन की गति की आत्माभिमुखी करना पड़ता है। मन की इस एकाग्रता को ही हम योग कहते हैं।
प्रश्न - एकाग्रता की दशा में क्या इन सब तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान आप ही आप प्रकट होता है ?
उत्तर - योगी कहते हैं कि इस एकाग्रता शक्ति का फल अत्यंत महान् है। उनका कहना है कि मन की एकाग्रता के बल से संसार के सारे सत्य-बाह्य और अंतर दोनों जगत् के सत्य-करामलकवत् प्रत्यक्ष हो जाते हैं।
प्रश्न - अद्वैतवादी सृष्टि-तत्व के विषय में क्या कहते हैं ?
उत्तर - अद्वैतवादी कहते हैं कि यह सारा सृष्टि-तत्व तथा इस संसार में जो कुछ भी है, सब माया के, इस आपातप्रतीयमान प्रपंच के अंतर्गत है। वास्तव में इस सबका कोई अस्तित्व नहीं है। परंतु जब तक हम बद्ध हैं, तब तक हमें यह दृश्य जगत् देखना पड़ेगा। इस दृश्य जगत् में घटनाएँ कुछ निर्दिष्ट क्रम के अनुसार घटती रहती हैं। परंतु उसके परे न कोई नियम है, न क्रम। वहाँ संपूर्ण मुक्ति -संपूर्ण स्वाधीनता है।
प्रश्न - अद्वैतवाद क्या द्वैतवाद का विरोधी है ?
उत्तर - उपनिषद् प्रणालीबद्ध रूप से लिखित न होने के कारण जब कभी दार्शनिकों ने किसी प्रणालीबद्ध दर्शनशास्त्र की रचना करनी चाही, तब उन्होंने इन उपनिषदों में से अपने अभिप्राय के अनुकूल प्रामाणिक वाक्यों को चुन लिया है। इसी कारण सभी दर्शनकारों ने उपनिषदों को प्रमाण रूप से ग्रहण किया है,-- अन्यथा उनके दर्शन को किसी प्रकार का आधार ही नहीं रह जाता। तो भी हम देखते हैं कि उपनिषदों में सब प्रकार की विभिन्न चिंतन-प्रणालियाँ विद्यमान हैं। हमारा यह सिद्धांत है कि अद्वैतवाद द्वेतवाद का विरोधी नहीं है। हम तो कहते हैं कि चरम ज्ञान में पहुँचने के लिए जो तीन सोपान हैं, उनमें से द्वैतवाद एक है। धर्म में सर्वदा तीन सोपान देखने में आते हैं। पथम-द्वैतवाद। उसके बाद मनुष्य अपेक्षाक़त उच्चतर अवस्था में उपस्थित होता है-वह है विशिष्टाद्वैतवाद। और अंत में उसे वह अनुभव होता है कि वह समस्त विश्व ब्रह्मांड के साथ अभिन्न है। यही चमर दशा अद्वैतवाद है। इसलिए इन तीनों में परस्पर विरोध नहीं है, बल्कि वे आपस में एक दूसरे के सहायक या पूरक हैं।
प्रश्न -- माया या अज्ञान के अस्तित्व का क्या कारण है ?
उत्तर - कार्य-कारण संघात की सीमा के बाहर 'क्यों' का प्रश्न नहीं पूछा जा सकता। माया-राज्य के भीतर ही 'क्यो' का प्रश्न पूछा जा सकता है। हम कहते हैं कि यदि न्यायशास्त्र के अनुसार यह प्रश्न पूछ सका जाय, तभी हम उसका उत्तर देंगे। उसके पहले उत्तर देने का हमें अधिकार नहीं है।
प्रश्न -- सगुण ईश्वर क्या माया के अंतर्गत है ?
उत्तर - हाँ; पर यह सगुण ईश्वर मायारूपी आवरण के भीतर से परिदृश्यमान उस निर्गुण ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। माया या प्रकृति के अधीन होने पर वही निर्गुण ब्रह्य जीवात्मा कहलाता है, और मायाधीश या प्रकृति के नियंता के रूप में वही ईश्वर या सगुण ब्रह्म कहलाता है। यदि कोई व्यक्ति सूर्य को देखने के लिए यहाँ से ऊपर की ओर यात्रा करे, तो जब तक वह असल सूर्य के निकट नहीं पहुँचता, तब तक वह सूर्य को क्रमश: अधिकाधिक बड़ा ही देखता जाएगा। वह जितना ही आगे बढ़ेगा, उसे ऐसा मालूम होगा कि वह भिन्न-भिन्न सूर्यो को देख रहा है, परंतु वास्तव में वह उसी एक सूर्य को देख रहा हैं, इसमें संदेह नहीं। इसी प्रकार, हम जो कुछ देख रहे हैं, सभी उसी निर्गुण ब्रह्मसत्ता के विभिन्न रूप मात्र हैं, इसलिए उस दृष्टि से ये सब सत्य हैं। इनमें से कोई भी मिथ्या नहीं है, परंतु यह कहा जा सकता है कि ये निम्नतर सोपान मात्र हैं।
प्रश्न - उस पूर्ण निरपेक्ष सत्ता को जानने की विशेष प्रणाली कौन सी है ?
उत्तर - हमारे मत में दो प्रणालियाँ हैं। उनमें से एक तो अस्तिभावद्योतक या प्रवृत्ति मार्ग है और दूसरी नास्तिभावद्योतक या निवृत्ति मार्ग है। प्रथमोक्त मार्ग से सारा विश्व चलता है-इसी पथ से हम प्रेम के द्वारा उस पूर्ण वस्तु को प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हैं। यदि प्रेम की परिधि अनंत गुनी बढ़ा दी जाय, तो हम उसी विश्व-प्रेम में पहुँच जायँगे। दूसरे पथ में 'नेति', 'नेति' अर्थात् 'यह नहीं', 'यह नहीं' इस प्रकार की साधना करनी पड़ती है। इस साधना में चित्त की जो कोई तरंग मन को बहिर्मुखी बनाने की चेष्टा करती है, उसका निवारण करना पड़ता है। अंत में मन ही मानो मर जाता है, तब सत्य स्वयं प्रकाशित हो जाता है। हम इसी को समाधि या ज्ञानातीत अवस्था या पूर्ण ज्ञानावस्था कहते हैं।
प्रश्न - तब तो यह विषयी (ज्ञाता या द्रष्टा( को विषय (ज्ञेय या दृश्य) में डुबा देने की अवस्था हुई ?
उत्तर - विषयी को विषय में नहीं, वरन् विषय को विषयी में डुबा देने की। वास्तव में यह जगत् विलीन हो जाता है, केवल 'मैं' रह जाता है-एकमात्र 'मैं' ही वर्तमान रहता है।
प्रश्न - हमारे कुछ जर्मन दार्शनिकों का मत है कि भारतीय भक्तिवाद संभवतः पाश्चात्य प्रभाव का ही फल है।
उत्तर - इस विषय में मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। इस प्रकार का अनुमान एक क्षण के लिए भी नहीं टिक सकता। भारतीय भक्ति पाश्चात्य देशों की भक्ति के समान नहीं है। भक्ति के संबंध में हमारी मुख्य धारणा यह है कि उसमें भय का भाव बिल्कुल ही नहीं रहता-रहता है केवल भगवान् के प्रति प्रेम। दूसरी बात यह है कि ऐसा अनुमान बिल्कुल अनावश्यक है। भक्ति की बातें हमारी प्राचीनतम उपनिषदों तक में विद्यमान हैं और ये उपनिषद ईसाइयों की बाइबिल से बहुत प्राचीन हैं। संहिता में भी भक्ति का बीज देखने में आता है। फिर 'भक्ति' शब्द भी कोई पाश्चात्य शब्द नहीं है। वेद-मंत्र में 'श्रद्धा' शब्द का जो उल्लेख है, उसी से क्रमश: भक्तिवाद का उद्भव हुआ था।
प्रश्न - ईसाई धर्म के संबंध में भारतवासियों की क्या धारणा है ?
उत्तर - बड़ी अच्छी धारणा है। वेदांत सभी को ग्रहण करता है। दूसरे देशों की तुलना में भारत में हमारी धर्म-शिक्षा का एक विशेषत्व है। मान लीजिए, मेरे एक लड़का है। मैं उसे किसी धर्ममत की शिक्षा नहीं दूँगा, में उसे प्राणायाम सिखाऊँगा, मन को एकाग्र करना सिखाऊँगा और थोड़ी-बहुत सामान्य प्रार्थना की शिक्षा दूँगा; परंतु वैसी प्रार्थना नहीं, जैसी आप समझते हैं, वरन् इस प्रकार की कुछ प्रार्थना-'जिन्होंने इस विश्व-ब्रह्मांड की सृष्टि की है, मैं उनका ध्यान करता हूँ-वे मेरे मन को ज्ञानालोक से आलौकिक करें।' [4] इस प्रकार उसकी धर्म-शिक्षा चलती रहेगी। इसके बाद वह विभिन्न मतावलंबी दार्शनिकों एवं आचार्यों के मत सुनता रहेगा। उनमें से जिनका मत वह अपने लिए सबसे अधिक उपयुक्त समझेगा, उन्हीं को वह गुरु रूप से ग्रहण करेगा और वह स्वयं उनका शिष्य बन जाएगा। वह उनसे प्रार्थना करेगा, 'आप जिस दर्शन का प्रचार कर रहे हैं, वही सर्वोत्कृष्ट है; अतएव आप कृपा करके मुझे उसकी शिक्षा दीजिए।'
हमारी मूल बात यह है, कि आपका मत मेरे लिए तथा मेरा मत आपके लिए उपयोगी नहीं हो सकता। प्रत्येक का साधन-पथ भिन्न-भिन्न होता है। यह भी हो सकता है कि मेरी लड़की का साधन-मार्ग एक प्रकार का हो, मेरे लड़के का दूसरे प्रकार का, और मेरा इन दोनों से बिल्कुल भिन्न प्रकार का। अत: प्रत्येक व्यक्ति का इष्ट या निर्वाचित्त पथ भिन्न-भिन्न हो सकता है,--और सब लोग अपने अपने साधन-मार्ग की बातें गुप्त रखते हैं। अपने साधन-पथ के विषय में केवल मैं जानता हूँ और मेरे गुरु-किसी तीसरे व्यक्ति को यह नहीं बताया जाता; क्योंकि हम दूसरों से वृथा विवाद करना नहीं चाहते। फिर, इसे दूसरों के पास प्रकट करने से उनका कोई लाभ नहीं होता; क्योंकि प्रत्येक को ही अपना अपना मार्ग चुन लेना पड़ता है इसीलिए सर्वसाधारण को केवल सर्वसाधारणोपयोगी दर्शन और साधना-प्रणाली का ही उपदेश दिया जा सकता है। एक दृष्टांत लीजिए-अवश्य उसे सुनकर आप हँसेगे। मान लीजिए एक पैर पर खड़े रहने से शायद मेरी उन्नति में कुछ सहायता होती हो; परंतु इसी कारण यदि मैं सभी को एक पैर पर खड़े होने का उपदेश देने लगूँ, तो क्या यह हँसी की बात न होगी ? हो सकता है कि मैं द्वैतवादी होऊँ और मेरी स्त्री अद्वैतवादी। मेरा कोई लड़का, इच्छा करे तो ईसा, बुद्ध या मुहम्मद का उपासक बन सकता है, वे उसके इष्ट हैं। हाँ, यह अवश्य है कि उसे अपने जातिगत सामाजिक नियमों का पालन करना पड़ेगा।
प्रश्न -- क्या सब हिंदुओं का जाति-विभाग में विश्वास है ?
उत्तर - उन्हें बाध्य होकर जातिगत नियम मानने पड़ते हैं। उनका भले ही उनमें विश्वास न हो, पर तो भी वे सामाजिक नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते।
प्रश्न -- इस प्राणायाम और एकाग्रता का अभ्यास क्या सब लोग करते हैं ?
उत्तर - हाँ, पर कोई कोई लोग बहुत थोड़ा करते हैं-धर्मशास्त्र के आदेश का उलंघन न करने के लिए जितना करना पड़ता है, बस उतना ही करते हैं। भारत के मंदिर यहाँ के गिरजाघरों के समान नहीं हैं। चाहे तो कल ही सारे मंदिर गायब हो जाएं, तो भी लोगों को उनका अभाव महसूस नहीं होगा। स्वर्ग की इच्छा से, पुत्र की इच्छा से, अथवा इसी प्रकार की और किसी कामना से लोग मंदिर बनवाते हैं। हो सकता है, किसी ने एक बड़े भारी मंदिर की प्रतिष्ठा कर उसमें पूजा के लिए दो-चार पुरोहितों को भी नियुक्त कर दिया; पर मुझे वहाँ जाने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि मेरा जो कुछ पूजा-पाठ है, वह मेरे घर में ही होता है। प्रत्येक घर में एक अलग कमरा होता है, जिसे 'ठाकुर-घर' या 'पूजा-गृह' कहते हैं। दीक्षा-ग्रहण के बाद प्रत्येक बालक या बालिका का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह पहले स्नान करें, फिर पूजा, संध्या, वंदनादि। उसकी इस पूजा या उपासना का अर्थ है-प्राणायाम, ध्यान तथा किसी मंत्र विशेष का जप। और एक बात की ओर विशेष ध्यान देना पड़ता है; वह है-साधना के समय शरीर को हमेशा सीधा रखना। हमारा विश्वास है कि मन के बल से शरीर को स्वस्थ और सबल रखा जा सकता है। एक व्यक्ति इस प्रकार पूजा आदि करके चला जाता है, फिर दूसरा आकर वहाँ बैठकर अपना पूजा-पाठ आदि करने लगता है। सभी निस्तब्ध भाव से अपनी अपनी पूजा करके चले जाते हैं। कभी-कभी एक ही कमरे में तीन-चार व्यक्ति बैठकर उपासना करते हैं, परंतु उनमें से हर एक की उपासना-प्रणाली भिन्न-भिन्न हो सकती है। इस प्रकार की पूजा प्रतिदिन कम से कम दो बार करनी पड़ती है।
प्रश्न - आपने जिस अद्वैत-अवस्था के बारे में कहा है, वह क्या केवल एक आदर्श है, अथवा उसे लोग प्राप्त भी करते हैं ?
उत्तर - हम कहते हैं कि वह यथार्थ है-हम कहते हैं कि वह अवस्था उपलब्ध होती है। यदि वह केवल थोथी बात हो, तब तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं। उस तत्व की उपलब्धि करने के लिए वेदों में तीन उपाय बतलाए गए हैं-श्रवण, मनन और निदिध्यासन। इस आत्म-तत्व के विषय में पहले श्रवण करना होगा। श्रवण करने के बाद इस विषय पर विचार करना होगा-आँखें मूँदकर विश्वास न कर, अच्छी तरह विचार करके समझ-बूझकर उस पर विश्वास करना होगा। इस प्रकार अपने सत्यस्वरूप पर विचार करके उसके निरंतर ध्यान में नियुक्त होना होगा, तब उसका साक्षात्कार होगा। यह प्रत्यक्षानुभूति ही यथार्थ धर्म है। केवल किसी मतवाद को स्वीकार कर लेना धर्म का अंग नहीं है। हम तो कहते हैं कि वह समाधि या ज्ञानातीत अवस्था ही धर्म है।
प्रश्न - यदि आप कभी इस समाधि अवस्था को प्राप्त कर लें, तो क्या आप उसका वर्णन भी कर सकेंगे ?
उत्तर - नहीं; परंतु समाधि अवस्था या पूर्ण ज्ञान की अवस्था प्राप्त हुई है या नहीं, इस बात को हम जीवन के ऊपर उसके फलाफल को देखकर जान सकते है। एक मूर्ख व्यक्ति जब सोकर उठता है, तो वह पहले जैसा मूर्ख था, अब भी वैसा ही मूर्ख रहता है; शायद पहले से और भी ख़राब हो सकता है परंतु जब कोई व्यक्ति समाधि में स्थित होता है, तो वहाँ से व्युत्थान के बाद वह एक तत्वज्ञ, साधु, महापुरुष हो जाता है। इसी से स्पष्ट है कि ये दोनों अवस्थाएँ कितनी भिन्न-भिन्न हैं।
प्रश्न - मैं प्राध्यापक-के प्रश्न का सूत्र पकड़ते हुए यह पूछना चाहता हूँ कि क्या आप ऐसे लोगों के विषय में जानते हैं, जिन्होंने आत्म-सम्मोहन विद्या (self-hypnotism) का कुछ अध्ययन किया है? अवश्य ही प्राचीन भारत में इस विद्या की बहुत चर्चा होती थी-पर अब उतनी दिखायी नहीं देती। मैं जानना चाहता हूँ कि जो लोग आजकल उसकी चर्चा और साधना करते हैं, उनका इस विद्या के विषय में क्या कहना है, और वे इसका अभ्यास या साधना किस तरह करते हैं।
उत्तर - आप पाश्चात्य देश में जिसे सम्मोहन-विद्या कहते हैं, वह तो असली व्यापार का एक सामान्य अंग मात्र है। हिंदू लोग उसे आत्मापसम्मोहन' (self-de-hypnotisation) कहते हैं। वे कहते हैं, आप तो पहले से ही सम्मोहित (hypnostised) हैं-इस सम्मोहित-भाव को दूर करना होगा, अपसम्मोहित (de-hypnotised) होना होगा-
न तत्र सूर्यो भाति न चंद्रतारकम्
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्नि:।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वम्
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।।
--'वहाँ सूर्य प्रकाशित नहीं होता, चंद्र, तारक, विद्युत् भी नहीं-तो फिर इस सामान्य अग्नि की बात ही क्या ! उन्हीं के प्रकाश से समस्त प्रकाशित हो रहा है।' [5]
यह तो सम्मोहन (hypnostised) नहीं है - यह तो अपसम्मोहन (de-hypnotised) है। हम कहते हैं कि वह प्रत्येक धर्म, जो इस प्रपंच की सत्यता की शिक्षा देता है, एक प्रकार से सम्मोहन का प्रयोग कर रहा है। केवल अद्वैतवादी ही ऐसे हैं, जो सम्मोहित होना नहीं चाहते। एकमात्र अद्वैतवादी ही समझते हैं कि सभी प्रकार के द्वैतवाद से सम्मोहन या मोह उत्पन्न होता है। इसीलिए अद्वैतवादी कहते हैं, 'वेदों को भी अपरा विद्या समझकर उनके अतीत हो जाओ, सगुण ईश्वर के भी परे चले जाओ, सारे विश्वब्रह्मांड को भी दूर फेंक दो, इतना ही नहीं, अपने शरीर-मन आदि को भी पार कर जाओ-कुछ भी शेष न रहने पाए, तभी तुम संपूर्ण रूप से मोह से मुक्त होओगे ?
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान; न विभेति कदाचन।।
--'मन के सहित वाणी जिसे न पाकर जहाँ से लौट आती है, उस ब्रह्म के आनंद को जानने पर फिर किसी प्रकार का भय नहीं रह जाता।' [6] यही अपसम्मोहन है।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम्
न मंत्रों न तीर्थ न वेदा न यज्ञा:।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानन्दरूप: शिवोऽहं शिवोऽहम्।।
--'मेरे न कोई पुण्य हैं, न पाप; न सुख है, न दु:ख; मेरे लिए मंत्र, तीर्थ वेद या यज्ञ कुछ भी नहीं है। मैं भोजन, भोज्य या भोक्ता कुछ भी नहीं है-मैं तो चिदानंदरूप शिव हूँ, मैं ही शिव (मंगलस्वरूप) हूँ।' [7]
हम लोग सम्मोहन-विद्या के सारे तत्व जानते हैं। हमारी जो मनस्तत्त्व-विद्या हैं, उसके विषय में पाश्चात्य देशवालों ने हाल ही में थोड़ा-थोड़ा जानना प्रारंभ किया है; परंतु दु:ख की बात है कि अभी तक वे उसे पूर्ण रूप से नहीं जान सके हैं।
प्रश्न - आप लोग 'ऐस्ट्रल बौड़ी' (astral body) किसे कहते है ?
उत्तर - हम उसे लिंग-शरीर कहते हैं। जब इस देह का नाश होता है, तब दूसरे शरीर का ग्रहण किस प्रकार होता है ? जड़-भूत को छोड़कर शक्ति नहीं रह सकती। इसलिए सिद्धांत यह है कि देहत्याग होने के पश्चात् भी सूक्ष्म-भूत का कुछ अंश हमारे साथ रह जाता है। भीतर की इंद्रियाँ इस सूक्ष्म-भूत की सहायता से और एक नूतन देह तैयार कर लेती हैं; क्योंकि प्रत्येक ही अपनी अपनी देह बना रहा है-मन ही शरीर को तैयार करता है। यदि मैं साधु बनूँ, तो मेरा मस्तिष्क साधु के मस्तिष्क में परिणत हो जाएगा। योगी कहते हैं कि वे इसी जीवन में अपने शरीर को देव-शरीर में परिणत कर सकते हैं।
योगी अनेक चमत्कार दिखाते हैं। कोरे मतवादों की राशि की अपेक्षा अल्प अभ्यास का मूल्य अधिक है। अतएव मुझे यह कहने का अधिकार नहीं है कि अमुक अमुक बातें घटती मैंने नहीं देखी, इसलिए वे मिथ्या हैं। योगियों के ग्रंथों में लिखा है कि अभ्यास के द्वारा सब प्रकार के अति अद्भुत फलों की प्राप्ति हो सकती है। नियमित रूप से अभ्यास करने पर अल्प काल में ही थोड़े-बहुत फल की प्राप्ति हो जाती है, जिससे यह जाना जा सकता है कि इसमें कुछ कपट या धोखेबाज़ों नहीं है। और इन सब शास्त्रों में जिन अलौकिक बातों का उल्लेख है, योगी वैज्ञानिक रीति से उनकी व्याख्या करते हैं। अब प्रश्न यह है कि संसार की सभी जातियों में इस प्रकार के अलौकिक कार्यों का विवरण कैसे लिपिबद्ध किया गया ? जो व्यक्ति कहता है कि ये सब मिथ्या हैं, अत: इनकी व्याख्या करने की कोई आवश्यकता नहीं, उसे युक्तिवादी विचारक नहीं कहा जा सकता। जब तक आप उन बातों को भ्रमात्मक प्रमाणित नहीं कर सकते, तब तक उन्हें अस्वीकार करने का अधिकार आपको नहीं हैं। आपको यह प्रमाणित करना होगा कि इन सबका कोई आचार नहीं है, तभी उनको अस्वीकार करने का अधिकार आपको होगा। परंतु आप लोगों में तो ऐसा किया नहीं। दूसरी ओर, योगी कहते हैं कि ये सब व्यापार वास्तव में अद्भुत नहीं हैं और ये इस बात का दावा करते हैं कि ऐसी क्रियाएँ वे अभी भी कर सकते हैं। भारत में आज भी अनेक अद्भुत घटनाएँ होती रहती हैं, परंतु उनमें से कोई भी किसी चमत्कार द्वारा नहीं घटती। इस विषय पर अनेक ग्रंथ विद्यमान हैं। जो हो, यदि वैज्ञानिक रूप से मनस्तत्त्व की आलोचना करने के प्रयत्न को छोड़कर इस दिशा में अधिक और कुछ न हुआ हो, तो भी इसका सारा श्रेय योगियों को ही देना चाहिए।''
प्रश्न - योगियों का कथन है कि अन्य किसी विज्ञान की चर्चा करने के लिए जितने विश्वास की आवश्यकता होती हैं, योग विद्या के निमित्त उससे अधिक विश्वास की जरूरत नहीं। किसी विषय को स्वीकार करने के बाद एक भद्र व्यक्ति उसकी सत्यता की परीक्षा के लिए जितना विश्वास करता है, उससे अधिक विश्वास करने को योगी लोग नहीं कहते। योगी का आदर्श अतिशय उच्च है। मन की शक्ति से जो सब कार्य हो सकते हैं, उनमें से निम्नतर कुछ कार्यों की मैंने प्रत्यक्ष देखा है; अत: मैं इस पर अविश्वास नहीं कर सकता कि उच्चतर कार्य भी मन की शक्ति द्वारा हो सकते हैं। योगी का आदर्श है-सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता की प्राप्ति कर उनकी सहायता से शाश्वत शांति और प्रेम का अधिकारी हो जाना। मैं एक योगी को जानता हूँ, जिन्हें एक बड़े विषैले सर्प ने काट लिया था। सर्पदंश होते ही वे बेहोश हो जमीन पर गिर पड़े। संध्या के समय वे होश में आए। उनसे जब पूछा गया कि क्या हुआ था, तो वे बोले, 'मेरे प्रियतम के पास से एक दूत आया था।' इन महात्मा की सारी घृणा, क्रोध और हिंसा का भाव पूर्ण रूप से दग्ध हो चुका है। कोई भी चीज उन्हें बदला लेने के लिए प्रवृत्त नहीं कर सकती। वे सर्वदा अनंत प्रेमस्वरूप हैं और प्रेम की शक्ति से सर्वशक्तिमान हो गए हैं। बस, ऐसा व्यक्ति ही यथार्थ योगी है, और यह सब शक्तियों का विकास-अनेक प्रकार के चमत्कार दिखलाना-गौण मात्र है। यह सब प्राप्त कर लेना योगी का लक्ष्य नहीं है। योगी कहते हैं कि योगी के अतिरिक्त अन्य सब मानो गुलाम हैं-खाने-पीने के गुलाम, अपनी स्त्री के गुलाम, अपने लड़के-बच्चों के गुलाम, रुपये-पैसे के गुलाम, स्वदेशवासियों के गुलाम, नाम-यश के गुलाम, जलवायु के गुलाम, इस संसार के हजारों विषयों के गुलाम ! जो मनुष्य इन बंधनों में से किसी में भी नहीं फँसे, वे ही यथार्थ मनुष्य हैं-यथार्थ योगी हैं।
इहैव तैजित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् बह्मणि ते स्थित :।। [8]
--'जिनका मन साम्यभाव में अवस्थित हैं, उन्होंने यहीं संसार पर जय प्राप्त कर ली है। ब्रह्म निर्दोष और समभावापन्न है, इसलिए वे ब्रह्म में अवस्थित है।'
प्रश्न - क्या योगी जाति-भेद को विशेष आवश्यक समझते हैं ?
उत्तर - नहीं, जाति-विभाग तो उन लोगों को, जिनका मन अभी अपरिपक्व है, शिक्षा प्रदान करने का एक विद्यालय मात्र है।
प्रश्न - इस समाधि-तत्व के साथ भारत की गर्म जलवायु का तो कुछ संबंध नहीं है ?
उत्तर - मैं तो ऐसा नहीं समझता। कारण, समुद्र-धरातल से पंद्रह हजार फीट की ऊँचाई पर, सुमेरू के समान जलवायु वाले हिमालय में ही तो योगविद्या का उद्भव हुआ था।
प्रश्न - ठंडी जलवायु में क्या योग में सिद्धि प्राप्त हो सकती है ?
उत्तर - हाँ, अवश्य हो सकती है। और संसार में इसकी प्राप्ति जितनी संभव है, उतनी संभव और कुछ भी नहीं है। हम कहते हैं, आप लोग-आप में से प्रत्येक, जन्म से ही वेदांती है। आप अपने जीवन के प्रत्येक मुहूर्त में संसार की प्रत्येक वस्तु के साथ अपने एकत्त्व की घोषणा कर रहे हैं। जब कभी आपका हृदय संसार के कल्याण के लिए उन्मुख होता है, तभी आप अनजान में सच्चे वेदांतवादी हो जाते हैं। आप नीतिपरायण हैं, पर यह नहीं जानते कि आप क्यों नीतिपरायण हो रहे हैं। एकमात्र वेदांत दर्शन ही नीति-तत्व का विश्लेषण कर मनुष्य की ज्ञानपूर्वक नीतिपरायण होने की शिक्षा देता है। वह सब धर्मों का सारस्वरूप है।
प्रश्न -- आपके मत में क्या हम पाश्चात्यों में ऐसा कुछ असामाजिक भाव हैं, जिसके कारण हम इस तरह बहुवादी और भेदपरायण बन रहे हैं, और जिसके अभाव के कारण प्राच्य देश के लोग हमसे अधिक सहानुभूतिसंपन्न हैं ?
उत्तर - मेरे मत में, पाश्चात्य जाति अधिक निर्दय स्वभाव की है, और प्राच्य देश के लोग सब भूतों के प्रति अधिक दयासंपन्न हैं। परंतु इसका कारण यही है कि आपकी सभ्यता बहुत ही आधुनिक है। किसी के स्वभाव को दयालु बनाने के लिए समय की आवश्यकता होती है। आपमें शक्ति काफी है, परंतु जिस मात्रा में शक्ति का संचय हो रहा हैं, उस मात्रा में हृदय का विकास नहीं हो पा रहा है। विशेषकर मन:संयम का अभ्यास बहुत ही अल्प परिमाण में हुआ है। आपको साधु और शांत प्रकृति बनने में बहुत समय लगेगा। पर भारतवासियों के प्रत्येक रक्त-बिंदु में यह भाव प्रवाहित हो रहा है। यदि मैं भारत के किसी गाँव में जाकर वहाँ के लोगों को राजनीति की शिक्षा देनी चाहूँ, तो वे उसे नहीं समझेंगे। परंतु यदि मैं उन्हें वेदांत का उपदेश दूँ, तो वे कहैंगे, 'हाँ, स्वामी जी, अब हम आपकी बात समझ रहे हैं-आप ठीक ही कह रहे हैं।' आज भी भारत में सर्वत्र यह वैराग्य या अनासक्ति का भाव देखने में आता है। आज हमारा बहुत पतन हो गया हैं, परंतु अभी भी वैराग्य का प्रभाव इतना अधिक है कि राजा भी अपने राज्य को त्यागकर, साथ में कुछ भी न लेता हुआ देश में सर्वत्र पर्यटन करेगा।
कहीं-कहीं पर गाँव की एक साधारण लड़की भी अपने चरखे से सूत कातते समय कहती है-मुझे द्वैतवाद का उपदेश मत सुनाओ, मेरा चरखा तक 'सोऽहं' 'सोऽहं' कह रहा है। इन लोगों के पास जाकर उनसे वार्तालाप कीजिए और उनसे पूछिए कि जब तुम इस प्रकार 'सोऽहं' कहते हो, तो फिर उस पत्थर को प्रणाम क्यों करते हो ? इसके उत्तर में वे कहैंगे, 'आपकी दृष्टि में तो धर्म एक मतवाद मात्र है, पर हम तो धर्म का अर्थ प्रत्यक्षानुभूति ही समझते हैं।' उनमें से कोई शायद कहेगा, 'मैं तो तभी यथार्थ वेदांतवादी होऊँगा, जब सारा संसार मेरे सामने से अंतर्हित हो जाएगा, जब मैं सत्य के दर्शन कर लूँगा। जब तक मैं उस स्थिति में नहीं पहुँचता, तब तक मुझमें और एक साधारण अज्ञ व्यक्ति में कोई अंतर नहीं है। यही कारण है कि मैं प्रस्तर-मूर्ति की उपासना कर रहा हूँ, मंदिर में जाता हूँ, जिससे मुझे प्रत्यक्षानुभूति हो जाय। मैंने वेदांत का श्रवण किया तो है, पर में अब उस वेदांत प्रतिपाद्य आत्म-तत्व को देखना चाहता हूँ-उसका प्रत्यक्ष अनुभव कर लेना चाहता हूँ।'
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये।। [9]
--'धाराप्रवाह रूप से मनोरम सदवाक्यों की योजना, शास्त्रों की व्याख्या करने के नाना प्रकार के कौशल-ये केवल पंडितों के आमोद के लिए ही हैं, इनके द्वारा मुक्ति-लाभ की कोई संभावना नहीं है।' ब्रह्म के साक्षात्कार से ही हमें उस मुक्ति की प्राप्ति होती है।
प्रश्न - आध्यात्मिक विषय में जब सर्वसाधारण के लिए इस प्रकार की स्वाधीनता है, तो क्या इस स्वाधीनता के साथ जाति-भेद का मानना मेल खाता है ?
उत्तर - कदापि नहीं। लोग कहते हैं कि जाति-भेद नहीं रहना चाहिए; इतना ही नहीं, बल्कि जो लोग भिन्न-भिन्न जातियों के अंतर्गत हैं, वे भी कहते हैं कि जाति-विभाग कोई बहुत उच्च स्तर की चीज नहीं है। पर साथ ही वे यह भी कहते हैं कि यदि तुम इससे अच्छी कोई अन्य वस्तु हमें दो, तो हम इसे छोड़ देंगे। वे पूछते हैं कि तुम इसके बदले हमें क्या दोंगे ? जाति-भेद कहाँ नहीं है, बोलो ? आप भी तो अपने देश में इसी प्रकार के एक जाति-विभाग की सृष्टि करने का प्रयत्न सर्वदा कर रहे हैं। जब कोई व्यक्ति कुछ अर्थ संग्रह कर लेता है, तो वह कहने लगता है कि 'मैं भी तुम्हारे चार सौ धनिकों में से एक हूँ।' केवल हमीं लोग एक स्थायी जाति-विभाग का निर्माण करने में सफल हुए हैं। अन्य देशवाले इस प्रकार के स्थायी जाति-विभाग की स्थापना के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, किंतु वे सफल नहीं हो पा रहे हैं। यह सच है कि हमारे समाज में काफी कुसंस्कार और बुरी बातें हैं; पर क्या आपके देश के कुसंस्कारों तथा बुरी बातों को हमारे देश में प्रचलित कर देने से ही सब ठीक हो जाएगा ? जाति-भेद के कारण ही तो आज भी हमारे देश के तीस करोड़ लोगों को खाने के लिए रोटी का एक टुकड़ा मिल रहा है। हाँ, यह सब है कि रीति-नीति की दृष्टि से इसमें अपूर्णता है। पर यदि यह जाति-विभाग न होता, तो आज आपको एक भी संस्कृत ग्रंथ पढ़ने के लिए न मिलता। इसी जाति-विभाग के द्वारा ऐसी मजबूत दीवालों की सृष्टि हुई थी, जो शत-शत बाहरी चढ़ाइयों के बावजूद भी नहीं गिरीं। आज भी वह प्रयोजन मिटा नहीं है, इसीलिए अभी तक जाति-विभाग बना हुआ है। सात सौ वर्ष पहले जाति-विभाग जैसा था, आज वह वैसा नहीं है। उस पर जितने ही आघात होते गए, वह उतना ही दृढ़ होता गया। क्या आप यह नहीं जानते कि केवल भारत ही एक ऐसा राष्ट्र है, जो दूसरे राष्ट्रों पर विजय प्राप्त करने अपनी सीमा से बाहर कभी नहीं गया ? महान् सम्राट् अशोक यह विशेष रूप से कह गए थे कि उनके कोई भी उत्तराधिकारी परराष्ट्र विजय के लिए प्रयत्न न करें। यदि कोई अन्य जाति हमारे यहाँ प्रचारक भेतना चाहती है, तो भेजे; पर वह हमारी वास्तविक सहायता ही करे, जातीय संपत्ति-स्वरूप हमारा जो धर्म-भाव हैं, उसे क्षति न पहुँचावे। ये सब विभिन्न जातियाँ हिंदू जाति पर विजय प्राप्त करने के लिए क्यों आयीं ? क्या हिंदुओं ने अन्य जातियों का कुछ अनिष्ट किया था ? बल्कि जहाँ तक संभव था, उन्होंने संसार का उपकार ही किया था। उन्होंने संसार को विज्ञान, दर्शन और धर्म की शिक्षा दी, तथा संसार की अनेक असभ्य जातियों को सभ्य बनाया। परंतु उसके बदले में उनको क्या मिला ? -रक्तपात ! अत्याचार ! ! और दृष्ट 'काफिर' यह शुभ नाम ! ! ! वर्तमान काल में भी, पाश्चात्य व्यक्तियों द्वारा लिखित भारत संबंधी ग्रंथों को पढ़कर देखिए तथा वहाँ (भारत में) भ्रमण करने के लिए जो लोग गए थे, उनके द्वारा लिखित आख्यायिकाओं को पढिए। आप देखेंगे, उन्होंने भी हिंदुओं को 'हिदन' कहकर गालियाँ दी हैं। मैं पूछता हूँ, भारतवासियों ने ऐसा कौन सा अनिष्ट किया है, जिसके प्रतिशोध में उनक प्रति इस प्रकार की लांछनपूर्ण बातें कही जाती है ?
प्रश्न - सभ्यता के विषय में वेदांत की क्या धारणा है ?
उत्तर - आप दार्शनिक लोग हैं-आप यह नहीं मानते कि रुपये की थैली पास रहने से ही मनुष्य मनुष्य में कुछ भेद उत्पन्न हो जाता है। इन सब कल-कारखानों और जड़-विज्ञानों का मूल्य क्या है ? उनका तो बस एक ही फल देखने में आता है-वे सर्वत्र ज्ञान का विस्तार करते हैं। आप अभाव अथवा दारिद्रय की समस्या को हल नहीं कर सकें, बल्कि आपने तो अभाव की मात्रा और भी बढ़ा दी है। यंत्रों की सहायता से 'दारिद्रय-समस्या' का कभी समाधान नहीं हो सकता। उनके द्वारा जीवन-संग्राम और भी तीव्र हो जाता है, प्रतियोगिता और भी बढ़ जाती है। जड़-प्रकृति का क्या कोई स्वतंत्र मूल्य है ? कोई व्यक्ति यदि तार के माध्यम से बिजली का प्रवाह भेज सकता है, तो आप उसी समय उसका स्मारक बनाने के लिए उद्यत हो जाते हैं। क्यों ! क्या प्रकृति स्वयं यह कार्य लाखों बार नित्य नहीं करती ? प्रकृति में सब कुछ क्या पहले से ही विद्यमान नहीं है ? आपको उसकी प्राप्ति हुई भी, तो उससे क्या लाभ ? वह तो पहले से ही वहाँ वर्तमान है। उसका एकमात्र मूल्य यही है कि वह हमें भीतर से उन्नत बनाता है। यह जगत् मानो एक व्यायामशाला के सदृश है-इसमें जीवात्माएँ अपने अपने कर्म के द्वारा अपनी अपनी उन्नति कर रही हैं और इसी उन्नति के फलस्वरूप हम देवस्वरूप या ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं। अत: किस विषय में ईश्वर की कितनी अभिव्यक्ति है, यह जानकर ही उस विषय का मूल्य या सार निर्धारित करना चाहिए। सभ्यता का अर्थ है, मनुष्य में इसी ईश्वरत्व की अभिव्यक्ति।
प्रश्न - क्या बौद्धों में भी किसी प्रकार का जाति-विभाग है ?
उत्तर - बौद्धों में कभी कोई विशेष जाति-विभाग नहीं था, और भारत में बौद्धों की संख्या भी बहुत थोड़ी है। बुद्ध एक समाज-सुधारक थे। फिर भी मैंने बौद्ध देशों में देखा है, वहाँ जाति-विभाग की सृष्टि करने के बहुत प्रयत्न होते रहे हैं, पर उसमें सफलता नहीं मिली। बौद्धों का जाति-विभाग वास्तव में नहीं जैसा ही है, परंतु मन ही मन में स्वयं को उच्च जाति मानकर गर्व करते हैं।
बुद्ध एक वेदांतवादी संन्यासी थे। उन्होंने एक नए संप्रदाय की स्थापना की थी, जैसे कि आजकल नए-नए संप्रदाय स्थापित होते हैं। जो सब भाव आजकल बौद्ध धर्म के नाम से प्रचलित हैं, वे वास्तव में बुद्ध के अपने नहीं थे। वे तो उनसे भी बहुत प्राचीन थे। बुद्ध एक महापुरुष थे-उन्होंने इन भावों में शक्ति का संचार कर दिया था। बौद्ध धर्म का सामाजिक भाव ही उसकी नवीनता है। ब्राह्मण और क्षत्रिय ही सदा से हमारे आचार्य रहे हैं। उपनिषदों में से अधिकांश तो क्षत्रियों द्वारा रचे गए हैं, और वेदों का कर्मकांड भाग ब्राह्मणों द्वारा। समग्र भारत में हमारे जो बड़े-बड़े आचार्य हो गए हैं, उनमें से अधिकांश क्षत्रिय थे, और उनके उपदेश भी बड़े उदार और सार्वजनीन हैं; परंतु केवल दो ब्राह्मण आचार्यों को छोड़कर शेष सब ब्राह्मण आचार्य अनुदार भावसंपन्न थे। भगवान् के अवतार के रूप में पूजे जानेवाले राम, कृष्ण, बुद्ध-ये सभी क्षत्रिय थे।
प्रश्न - संप्रदाय, अनुष्ठान, शास्त्र-ये सब क्या तत्व की उपलब्धि में सहायक हैं ?
उत्तर - तत्व-साक्षात्कार हो जाने पर मनुष्य सब कुछ छोड़ देता है। विभिन्न संप्रदाय, अनुष्ठान, शास्त्र आदि की वहीं तक उपयोगिता है, वहाँ तक वे उस पूर्णत्व की अवस्था में पहुँचने के लिए सहायक हैं परंतु जब उनसे कोई सहायता नहीं मिल पाती, तब अवश्य उनमें परिवर्तन करना चाहिए।
सक्ता: कर्मध्याविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।
न बुद्धिभेदं जनयेदशानां कर्मसंगिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान युक्त: समाचरन्।। [10]
--अर्थात् 'ज्ञानी व्यक्ति को कभी भी अज्ञानी की अवस्था के प्रति घृणा प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए और न उनकी अपनी अपनी साधन-प्रणाली में उनके विश्वास को नष्ट ही करना चाहिए; बल्कि ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए कि वह उनको ठीक-ठीक मार्ग प्रदर्शित करे, जिससे वे उस अवस्था में पहुँच जाएं, जहाँ वह स्वयं पहुँचा हुआ है।'
प्रश्न - वेदांत व्यक्तित्व [11] (individual) और नीतिशास्त्र की व्याख्या किस प्रकार करता है ?
उत्तर - वह पूर्ण ब्रह्म यथार्थ अविभाज्य व्यक्तित्व ही है-माया द्वारा उसने पृथक-पृथक् व्यक्ति के आकार धारण किए हैं। केवल ऊपर से ही इस प्रकार का बोध हो रहा है, पर वास्तव में वह सदैव वही पूर्ण ब्रह्मस्वरूप है। वास्तव में सत्ता एक है, पर माया के कारण वह विभिन्न रूपों में प्रतीत हो रही है। यह समस्त भेद-बोध माया में है। पर इस माया के भीतर भी सर्वदा उसी एक की ओर लौट जाने की प्रवृत्ति चली हुई है। प्रत्येक राष्ट्र के समस्त नीतिशास्त्र और समस्त आचरणशास्त्र में यही प्रवृत्ति अभिव्यक्त हुई है, क्योंकि यह तो जीवात्मा का स्वभावगत प्रयोजन है। यह उसी एकत्व की प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर रही है-और एकत्व लाभ के इस संघर्ष को हम नीतिशास्त्र और आचरणशास्त्र कहते हैं इसीलिए हमें सर्वदा उन्हें अभ्यास करना चाहिए।
प्रश्न - नीतिशास्त्र का अधिकांश भाग क्या विभिन्न व्यक्तियों के पारस्परिक संबंध को ही लेकर नहीं है ?
उत्तर - नीतिशास्त्र एक़दम यही है। पूर्ण ब्रह्म कभी माया की सीमा के भीतर नहीं आ सकता।
प्रश्न - आपने कहा कि 'मैं' ही वह पूर्ण ब्रह्म है-मैं आपसे पूछनेवाला था कि इस 'मैं' या 'अहं' का कोई ज्ञान रहता है या नहीं ?
उत्तर - यह 'अहं' या 'मैं' उसी पूर्ण ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, और इस अभिव्यक्त दशा में उसमें जो प्रकाश-शक्ति कार्य कर रही है, उसी को हम 'ज्ञान' कहते हैं इसलिए उस पूर्ण ब्रह्म के ज्ञानस्वरूप में 'ज्ञान' शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है, क्योंकि वह पूर्णवस्था तो इस सापेक्ष ज्ञान के परे है।
प्रश्न - यह सापेक्ष ज्ञान क्या पूर्ण ज्ञान के अंतर्गत है ?
उत्तर - हाँ, एक दृष्टि से सापेक्ष ज्ञान को पूर्ण ज्ञान के अंतर्गत कहा जा सकता है। जिस प्रकार सोने की मुहर, भुनाने पर, रुपये, आने, पैसे में बदल ली जा सकती है, उसी प्रकार इस पूर्ण अवस्था से सब प्रकार के ज्ञान की उत्पत्ति की जा सकती है। इस अतिचेतना अवस्था को ज्ञानातीत या पूर्ण ज्ञान की अवस्था कहते हैं-चेतन और अचेतन दोनों उसके अंतर्गत हैं। जो व्यक्ति इस पूर्ण ज्ञानावस्था को प्राप्त कर लेता है, उसमें यह सापेक्ष साधारण ज्ञान भी पूर्ण रूप से विद्यमान रहता है। जब वह ज्ञान की इस दूसरी अवस्था अर्थात् हमारी परिचित सापेक्ष ज्ञानावस्था का अनुभव करना चाहता है, तो उसे एक सीढ़ी नीचे उतर आना पड़ता है। यह सापेक्ष ज्ञान एक निम्नतर अवस्था है-केवल माया के भीतर ही इस प्रकार का ज्ञान हो सकता है।
7
(योग, वैराग्य, तपस्या, प्रेम)
प्रश्न - क्या योग शरीर को पूर्ण स्वास्थ्य और जीवनी शक्ति प्रदान करने में सहायक होता है ?
उत्तर - हाँ, सहायक है, यह रोगों को दूर रखता है। स्वयं अपने शरीर को मन से बहिर्वस्तु समझना कठिन है, अत: दूसरों के संबंध में यह बड़ा कारगर है। फल और दूध योगियों के लिए सर्वोत्तम आहार हैं।
प्रश्न - क्या वैराग्य के साथ ही आनंद-लाभ होता है ?
उत्तर - वैराग्य का प्रथम सोपान बड़ा कष्टदायक होता है। जब वह पक्का हो जाता है, तब निरतिशय आनंद-लाभ होता है।
प्रश्न - तपस्या क्या है ?
उत्तर - तपस्या त्रिविध है-शरीर की, वाणी की और मन की। प्रथम है लोकसेवा, द्वितीय है सत्य बोलना और तृतीय हैं मन को जीतना और उसकी एकाग्रता।
प्रश्न - हमें यह क्यों नहीं सुझायी पड़ता कि एक ही चेतना चींटी और मुनि दोनों में है।
उत्तर - इस व्यक्त सृष्टि के एकत्व का ज्ञान होने में केवल समय की बात रहती है।
प्रश्न - सम्यक् ज्ञान के पूर्व क्या उपदेश देना संभव है ?
उत्तर - नहीं। प्रभु से मेरी प्रार्थना है कि मेरे गुरुदेव के सभी संन्यासी शिष्यों को सम्यक् ज्ञान हो जाय, जिससे वे धर्म-प्रचार के योग्य बन सकें !
प्रश्न - क्या गीता में श्री कृष्ण के विश्व रूप में जिस दिव्य ऐश्वर्य का दर्शन कराया गया है, वह श्री कृष्ण के रूप में निहित अन्य सगुण उपाधियों के बिना गोपियों से उनके संबंध में व्यक्त प्रेम भाव के प्रकाश से श्रेष्ठतर है ?
उत्तर - दिव्य ऐश्वर्य के प्रकाश की अपेक्षा निश्चय ही वह प्रेम हीनतर है, जो प्रिय के प्रति भगवद्भावना से रहित हो। यदि ऐसा न होता, तो हाड़-मांस के शरीर से प्रेम करनेवाले सभी लोग मोक्ष प्राप्त कर लेते।
8
(गुरु, अवतार, योग, जय, सेवा)
प्रश्न - वेदांत के लक्ष्य तक कैसे पहुँचा जा सकता है ?
उत्तर - श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा। किसी सद्गुरू से ही श्रवण करना चाहिए। चाहे कोई नियमित रूप से शिष्य न हुआ हो, पर अगर जिज्ञासु सुपात्र है और वह सद्गुरू के शब्दों का श्रवण करता है, तो उसकी मुक्ति हो जाती है।
प्रश्न -- सद्गुरू कौन है ?
उत्तर - सद्गुरू वह है, जिसे गुरु-परंपरा से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त हुई है। अध्यात्म गुरु का कार्य बड़ा कठिन है। दूसरों के पापों को स्वयं अपने ऊपर लेना पड़ता है। कम समुन्नत व्यक्तियों के पतन की पूरी आशंका रहती है। यदि शारीरिक पीड़ा मात्र हो, तो उसे अपने को भाग्यवान समझना चाहिए।
प्रश्न -- क्या अध्यात्म गुरु जिज्ञासु को सुपात्र नहीं बना सकता ?
उत्तर - कोई अवतार बना सकता है। साधारण गुरु नहीं।
प्रश्न --'प्रेम को पंथ कृपाण की धारा'-केवल उन लोगों के लिए आसान है, जिन्हें किसी अवतार के संपर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो। परमहंस देव कहा करते थे, ''जिसका यह आखिरी जन्म है, वह किसी न किसी प्रकार से मेरा दर्शन कर लेगा।''
प्रश्न -- क्या उसके लिए योग सुगम मार्ग नहीं है ?
उत्तर - (मज़ाक में) आपने खूब कहा, समझा ! - योग सुगम मार्ग ! यदि आपका मन निर्मल न होगा और आप योगमार्ग पर आरूढ़ होंगे, तो आपको कुछ अलौकिक सिद्धियाँ मिल जायँगी, परंतु वे रूकावटें होंगी। इसलिए मन की निर्मलता प्रथम आवश्यकता है।
प्रश्न - इसका उपाय क्या है ?
उत्तर - सुकृत द्वारा। सुकृत दो प्रकार के हैं; सकारात्मक और नकारात्मक। 'चोरी मत करो' -यह नकारात्मक निर्देश है, 'परोपकार करो'-यह सकारात्मक है।
प्रश्न - परोपकार उच्च अवस्था में क्यों न किया जाय, क्योंकि निम्न अवस्था में वैसा करने से साधक भवबंधन में पड़ सकता है ?
उत्तर - प्रथम अवस्था में ही इसे करना चाहिए। आरंभ में जिसे कोई कामना रहती है, वह भ्रांत होता है और बंधन में पड़ता है, अन्य लोग नहीं। धीरे-धीरे यह बिल्कुल स्वाभाविक बन जाएगा।
प्रश्न - स्वामी जी ! कल रात आपने कहा था, 'तुममें सब कुछ है।' तब यदि मैं विष्णु जैसा बनना चाहूँ, तो क्या मुझे केवल इस मनोरथ का ही चिंतन करना चाहिए अथवा विष्णु रूप का ध्यान करना चाहिए।
उत्तर - सामर्थ्य के अनुसार इनमें से किसी मार्ग का अनुसरण किया जा सकता है।
प्रश्न -- आत्मानुभूति का साधन क्या है ?
उत्तर - गुरु ही आत्मानुभूति का साधन है। 'गुरु बिनु होइ कि ज्ञान।'
प्रश्न -- कुछ लोगों का कहना है कि ध्यान लगाने के लिए किसी पूजा-गृह में बैठने की आवश्यकता नहीं है। यह कहाँ तक ठीक है ?
उत्तर - जिन्होंने प्रभु की विद्यमानता का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उनके लिए इसकी आवश्यकता नहीं है, लेकिन औरों के लिए है। किंतु साधक को सगुण ब्रह्म की उपासना से ऊपर उठकर निर्गुण ब्रह्म की उपासना की ओर अग्रसर होना चाहिए, क्योंकि सगुण या साकार उपासना से मोक्ष नहीं मिल सकता। साकार के दर्शन से आपको सांसरिक समृद्धि प्राप्त हो सकती है। जो माता की भक्ति करता है, वह इस दुनिया में सफल होता है; जो पिता की पूजा करता है, वह स्वर्ग जाता है; किंतु जो साधु की पूजा करता है, वह ज्ञान तथा भक्ति लाभ करता है।
प्रश्न -- इसका क्या अर्थ है क्षणमिह सज्जन संगतिरेका आदि --'सत्संग का एक क्षण भी मनुष्य को इस भवलोक के परे ले जाता है' ?
उत्तर - सच्चे साधु के संपर्क में आने पर सत्पात्र मुक्तावस्था प्राप्त कर लेता है। सच्चे साधु बिरले होते हैं, किंतु उनका प्रभाव इतना होता है कि एक महान् लेखक ने लिखा है, 'पाखंड वह कर है, जो दृष्टता सज्जनता को देती है।' दुष्ट जन सज्जन होने का ढोंग करते हैं किंतु अवतार कपाल-मोचन होते हैं, अर्थात् वे लोगों का दुर्भाग्य पलट सकते हैं। वे सारे विश्व को हिला सकते हैं। सबसे कम खतरनाक और पूजा का सर्वोत्तम तरीका किसी मनुष्य की पूजा करना है, जिसने मानव में ब्रह्म को होने का विचार प्रतिष्ठित कर लिया, उसने विश्वव्यापी ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया। विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार संन्यस्त जीवन तथा गृहस्थ जीवन दोनों ही श्रेयस्कर हैं। केवल ज्ञान आवश्यक वस्तु है।
प्रश्न - ध्यान कहाँ लगाना चाहिए-शरीर के भातर या बाहर ? मन को भीतर समेटना चाहिए अथवा बाह्य प्रदेश में स्थापित करना चाहिए ?
उत्तर - हमें भीतर ध्यान लगाने का यत्न करना चाहिए। जहाँ तक मन के इधर-उधर भागने का सवाल है, मनोमय कोष में पहुँचने में लंबा समय लगेगा। अभी तो हमारा संघर्ष शरीर से है। जब आसन सिद्ध हो जाता है, तभी मन से संघर्ष आरंभ होता है। आसन सिद्ध हो जाने पर अंग-प्रत्यंग निश्चल हो जाता है-और साधक चाहे जितने समय तक बैठा रह सकता है।
प्रश्न - कभी-कभी जप से थकान मालूम होने लगती है। तब क्या उसकी जगह स्वाध्याय करना चाहिए, या उसी पर आरूढ़ रहना चाहिए ?
उत्तर - दो कारणों से जप में थकान मालूम होती है। कभी कभी मस्तिष्क थक जाता है और कभी कभी आलस्य के परिणामस्वरूप ऐसा होता है। यदि प्रथम कारण है, तो उस समय कुछ क्षण तक जप छोड़ देना चाहिए, क्योंकि हठपूर्वक जप में लगे रहने से विभ्रम या विक्षिप्तावस्था आदि आ जाती है परंतु यदि द्वितीय कारण है, तो मन को बलात् जप में लगाना चाहिए।
प्रश्न - कभी-कभी जप करते समय पहले आनंद की अनुभूति होती है, लेकिन तब आनंद के कारण जप में मन नहीं लगता। ऐसी स्थिति में क्या जप जारी रखना चाहिए ?
उत्तर - हाँ, वह आनंद आध्यात्मिक साधना में बाधक है। उसे रसास्वादन कहते हैं। उससे ऊपर उठना चाहिए।
प्रश्न - यदि मन इधर-उधर भागता रहे, तब भी क्या देर तक जप करते रहना ठीक है ?
उत्तर - हाँ, उसी प्रकार जैसे अगर किसी बदमाश घोड़े की पीठ पर कोई अपना आसन जमाए रखे, तो वह उसे वश में कर लेता है।
प्रश्न -- आपने अपने 'भक्तियोग' में लिखा है कि यदि कोई कमजोर आदमी योगाभ्यास का यत्न करता है, तो घोर प्रतिक्रिया होती है। तब क्या किया जाय ?
उत्तर - यदि आत्मज्ञान के प्रयास में मर जाना पड़े, तो भय किस बात का ! ज्ञानार्जन तथा अन्य बहुत सी वस्तुओं के लिए मरने में मनुष्य को भय नहीं होता और धर्म के लिए मरने में आप भयभीत क्यों हों?
प्रश्न - क्या जीव-सेवा मात्र से मुक्ति मिल सकती है ?
उत्तर - जीव-सेवा प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं, परीक्ष रूप से आत्मशुद्धि द्वारा मुक्ति प्रदान कर सकती है। किंतु यदि आप समुचित रूप से किसी कार्य के करने की इच्छा रखते हैं, तो संप्रति उसे ही पूर्ण पर्याप्त समझिए। किसी भी पंथ में खतरा है मुमुक्षा के अभाव का। निष्ठा का होना आवश्यक है, अन्यथा विकास न होगा। इस समय कर्म पर जोर देना आवश्यक हो गया है।
प्रश्न - कर्म में हमारी भावना क्या होनी चाहिए-परोपकारमूलक करूणा या अन्य कोई भावना ?
उत्तर - करुणाजन्य परोपकार उत्तम है, परंतु शिव ज्ञान से सर्व जीव की सेवा उससे श्रेष्ठ है।
प्रश्न - प्रार्थना की उपादेयता क्या है ?
उत्तर - सोयी हुई शक्ति प्रार्थना से आसानी से जाग उठती है और यदि सच्चे दिल से की जाये, तो सभी इच्छाएँ पूरी हो सकती है; किंतु अगर सच्चे दिल से न की जाय, तो दस में से एक की पूर्ति होती है। परंतु इस तरह की प्रार्थना स्वार्थपूर्ण होती है, अत: वह त्याज्य है।
प्रश्न -नर-रूपधारी अवतार की पहचान क्या है ?
उत्तर - जो मनुष्यों के विनाश के दुर्भाग्य को बदल सके, वह भगवान है। कोई भी साधु, चाहे वह कितना भी पहुँचा हुआ क्यों न हो, इस अनुपम पद के लिए दावा नहीं कर सकता। मुझे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखायी पड़ता, जो रामकृष्ण को भगवान् समझता हो। हमें कभी कभी इसकी धुँधली प्रतीति मात्र हो जाती है, बस। उन्हें भगवान् के रूप में जान लेने और साथ ही संसार से आसक्ति रखने में संगति नहीं है।
9
(भगिनी निवेदिता के कुछ प्रश्नों के उत्तर [12] )
प्रश्न - पृथ्वीराज एवं चंद्र जिस समय कन्नौज में स्वयंवर के लिए जाने की प्रस्तुत हुए, उस समय उन्होंने किनका छद्मवेश धारण किया था-मुझे याद नहीं आ रहा है ?
उत्तर - दोनों ही भाट का वेष धारण कर गए थे।
प्रश्न -- क्या पृथ्वीराज ने संयुक्ता के साथ इसलिए विवाह करना चाहा था कि वह अलौकिक रूपवती थी तथा उसके प्रतिद्वंद्वी की पुत्री थी ? संयुक्ता की परिचारिका होने के लिए क्या उन्होंने अपनी एक दासी को सिखा-पढ़ाकर वहाँ भेजा था ? और क्या इसी वृद्धा धात्री ने राजकुमारी के हृदय में पृथ्वीराज के प्रति प्रेम का बीज अंकुरित किया था ?
उत्तर - दोनों ही परस्पर के रूप-गुणों का वर्णन सुनकर तथा चित्र अवलोकन कर एक दूसरे के प्रति आकृष्ट हुए थे। चित्र-दर्शन के द्वारा नायक-नायिका के हृदय में प्रेम का संचार भारत की एक प्राचीन रीति है।
प्रश्न -- गोप बालकों के बीच में कृष्ण का प्रतिपालन कैसे हुआ ?
उत्तर - ऐसी भविष्यवाणी हुई थी कि कृष्ण कंस को सिंहासन से विच्युत करेंगे। इस भय से कि जन्म लेने के बाद कृष्ण कहीं गुप्त रूप से प्रतिपालित हों, दुराचारी कंस ने कृष्ण के माता-पिता को (यद्यपि वे कंस की बहन और बहनोई थे) कैद में डाल रखा था तथा इस प्रकार का आदेश दिया कि उस वर्ष से राज्य में जितने बालक पैदा होंगे, उन सबकी हत्या की जाएगी। अत्याचारी कंस के हाथ से रक्षा करने के लिए ही कृष्ण के पिता ने उन्हें गुप्त रूप से यमुना पार पहुँचाया था।
प्रश्न -- उनके जीवन के इस अध्याय की परिसमाप्ति किस प्रकार हुई थी ?
उत्तर - अत्याचारी कंस के द्वारा आमंत्रित होकर वे अपने भाई बलदेव तथा अपने पालक पिता नन्द के साथ राजसभा में पधारे। (अत्याचारी ने उनकी हत्या करने का षड्यंत्र रचा था) उन्होंने अत्याचारी का वध किया। किंतु स्वयं राजा न बनकर कंस के निकटतम उत्तराधिकारी को उन्होंने राजसिंहासन पर बैठाया। उन्होंने कभी कर्म के फल को स्वयं नहीं भोगा।
प्रश्न -- इस समय की किसी नाटकीय घटना का उल्लेख क्या आप कर सकते हैं ?
उत्तर - इस समय का जीवन अलौकिक घटनाओं से परिपूर्ण था। बाल्यावस्था में वे अत्यंत ही चंचल थे। चंचलता के कारण गोपिका माता ने एक दिन उन्हें दधिमंथन की रस्सी से बाँधना चाहा था किंतु अनेक रस्सियों को जोड़कर भी वे उन्हें बाँधने में समर्थ न हुई। तब उनकी दृष्टि खुली और उन्होंने देखा कि जिनको वे बाँधने जा रही हैं, उनके शरीर में समग्र ब्रह्मांड अधिष्ठित है। डरकर काँपती हुई वे उनकी स्तुति करने लगीं। तब भगवान् ने उन्हें पुन: माया से आवृत्त किया और एकमात्र वही बालक उन्हें दृष्टिगोचर हुआ।
देवश्रेष्ठ ब्रह्मा को यह विश्वास न हुआ कि परब्रह्म ने ही गोप बालक का रूप धारण किया है। इसलिए परीक्षा के निमित्त एक दिन उन्होंने समस्त गायों को तथा गोप बालकों को चुराकर एक गुफ़ा में निद्रित कर रखा। किंतु वहाँ से लौटकर उन्होंने देखा कि वे ही गायें तथा गोप बालक कृष्ण के चारों और विद्यमान हैं। वे फिर उनको भी चुराकर ले गए एवं उन्हें भी छिपाकर रखा। किंतु लौटने पर फिर उन्हें वे ही ज्यों के त्यों दिखायी देने लगे। तब उनके ज्ञान-नेत्र खुले, उन्होंने देखा कि अनंतकोटि ब्रह्मांड तथा सहस्त्र ब्रह्मा कृष्ण की देह में विराजमान हैं।
कालिय नाग ने यमुना के जल को विषाक्त कर डाला था, इसलिए उन्होंने उसके फन पर नृत्य किया था। उनके द्वारा इंद्र की पूजा बंद किए जाने के फलस्वरूप कुपित होकर इंद्र ने जब इस प्रकार प्रबल वेग से जल बरसाना प्रारंभ किया कि समस्त ब्रजवासी मानो उसमें डूबकर मर जाएंगे, तब कृष्ण ने गोवर्धन धारण किया। कृष्ण ने एक अंगुली से छत्र की तरह गोवर्धन पर्वत को ऊपर उठाकर धारण किया, और उसके नीचे सभी ने आश्रय लिया।
बाल्यकाल से ही वे नाग-पूजा तथा इंद्र-पूजा के विरोधी थे। इंद्र-पूजा एक वैदिक अनुष्ठान है। गीता में सर्वत्र यह स्पष्ट है कि वे वैदिक अनुष्ठानों के पक्षपाती नहीं थे।
अपने जीवन में इसी समय उन्होंने गोपियों के साथ लीला की थी ! उस समय उनकी आयु ग्यारह वर्ष की थी।
[1] यह भाषण 'विवेकानन्द साहित्य', द्वितीय खंड में प्रकाशित हुआ है ।
१ संभवतः ईसा से 308 वर्ष पूर्व ग्रीस के दार्शनिक जीनो (zeno) ने इस दर्शन का प्रचार किया था। इनके मत से, सुख दु:ख, भला-बुरा, सब विषयों में समभावसम्पन्न रहता और अविचलित रहकर सबको सहना ही मनुष्य जीवन का परम पुरुषार्थ है।
[3] श्वेताश्वतरोपनिषद् ।।5।2।।
[4] ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।
[6] तैत्तिरीयोपनिषद् ।।2।4।1।।
[11] अंग्रेज़ी के individual शब्द में 'अ-विभाज्य' और 'व्यष्टि' दोनों भाव निहित हैं। स्वामी जी जब उत्तर में कहते हैं कि 'ब्रह्म ही यथार्थ individual है', तब प्रथमोक्त भाव को अर्थात् उपचय-अपचय-हीन अविभाज्यता को वे लक्ष्य करते हैं। फिर वे कहते हैं कि उस सत्ता ने माया के कारण पृथक व्यक्ति के आकार धारण किए हैं।
[12] ये उत्तर स्वामी जी ने सैन फ्रांसिस्को से मई 24,1900 ई; को एक पत्र में लिखे थे।