स्वामी विवेकानंद की प्रथम अमेरिका यात्रा में पश्चिमी शिष्यों से संवाद
योग के चार मार्ग
[1]
हमारी प्रधान समस्या मुक्त होना है। अतएव यह स्पष्ट है कि जब तक हम अपने
ब्रह्म होने की अनुभूति प्राप्त नहीं कर लेते, हम मोक्ष प्राप्त नहीं कर
सकते। इस सिद्धि को प्राप्त करने के अनेक मार्ग हैं। इन पद्धतियों का जातीय
नाम योग (जोड़ना, अपने को अपनी वास्तविकता से जोड़ना) है। विविध वर्गों में
विभक्त इन योगों को मुख्यतया चार में वर्गीकृत किया जा सकता है; और चूँकि
प्रत्येक ब्रह्म की सिद्धि का केवल परोक्ष मार्ग है, वे विभिन्न स्वभाव के
लोगों के अनुकूल हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि मिथ्या मनुष्य वास्तविक
मनुष्य या ब्रह्म नहीं हो जाता। ब्रह्म को लेकर 'होने' जैसा कुछ नहीं होता।
वह सदा मुक्त, सदा पूर्ण है; केवल उस अविद्या को दूर होना है, जितने संप्रति
उसके स्वरूप को आच्छन्न कर रखा है। अत: योग की सभी प्रणालियों (और
प्रत्येक धर्म ऐसी ही एक पद्धति का प्रतिनिधि है) का लक्ष्य इस अविद्या को
हटाना और आत्मा को अपने स्वरूप की पुन: स्थापना करने देना है। इस मोक्ष में
प्रमुख सहायक अभ्यास और वैराग्य हैं। वैराग्य जीवन से अनासक्त होना है,
क्योंकि भोग की इच्छा ही अपने साथ बंधनों को लाती है; और अभ्यास योगों में
से किसी एक की सतत साधना है।
कर्मयोग: कर्मयोग कर्म के द्वारा मन को शुद्ध करना है। शुभ या अशुभ कर्म किय
जाने पर शुभ या अशुभ परिणाम अवश्य उत्पन्न होता है; कारण विद्यमान होने पर
कोई भी शक्ति उसे रोक नहीं सकती। अतएव जब तक शुभ कार्य शुभ कर्म, और अशुभ
कार्य अशुभ कर्म उत्पन्न करते रहेंगे, कभी भी मोक्ष प्राप्त कर सकने की आशा
से रहित आत्मा शाश्वत बंधनों में पड़ी रहेगी। कर्म केवल शरीर या मन से
संबंद्ध है, आत्मा से नहीं; वह आत्मा के समक्ष एक पर्दा भर डाल सकता है।
अशुभ कर्म द्वारा डाला पर्दा अविद्या है। शुभ कर्म में नैतिक बल को पुष्ट
करने की शक्ति है। इस प्रकार वह अनासक्ति को उत्पन्न करता है, अशुभ कर्म के
प्रति प्रवृत्ति को नष्ट करता और फलस्वरूप मन को निर्मल करता है। किंतु
कर्म यदि मोक्ष की प्रेरणा से किया जाता है, तो वह केवल इस भोग को उत्पन्न
करता है, मन या चित्त को शुद्ध नहीं करता। अतएव समस्त कर्म उसके फलों को
भोगने की इच्छा से नितांत मुक्त होकर किया जाना चाहिए। कर्मयोगी के समस्त भय
तथा इहलोक या परलोक में भोग की इच्छा को सदा के लिए निकाल देना चाहिए। इसके
अतिरिक्त, प्रतिदान की इच्छा से रहित यह कर्म स्वार्थपरता को नष्ट कर
देगा, जो सारे बंधनों की जड़ है। कर्मयोगी का जीवन- मंत्र है 'मैं नहीं, वरन
तू', और आत्मोत्सर्ग का कोई भी परिमाण उसके लिए अधिक नहीं होता। किंतु ऐसा
वह स्वर्ग जाने, नाम और यश कमाने या इस संसार में कोई अन्य लाभ उपलब्ध कर
सकने की इच्छा से नितांत मुक्त होकर करता है। इस प्रकार के नि:स्वार्थ कर्म
की व्याख्या और हेतु यद्यपि केवल ज्ञानयोग में ही मिलते हैं, पर मनुष्य की
नैसर्गिक दिव्यता, बिना किसी प्रच्छन्न स्वार्थभाव के, दूसरों के हित
मात्र के लिए, उसका संप्रदाय या मत जो भी हो, उसे समस्त उत्सर्ग से प्रेम
करने के लिए विवश करती है। बहुतेरे लोगों धन का बंधन बहुत बड़ा होता है; और धन
के प्रति प्रेम के आस-पास जम गई पपड़ी को तोड़ने के निमित्त उनके लिए कर्मयोग
परमावश्यक है।
दूसरा है भक्तियोग : भक्ति अथवा पूजा अथवा किसी रूप में प्रेम मनुष्य के लिए
सबसे अधिक सरल, सुखद और स्वाभाविक मार्ग है। इस विश्व की नैसर्गिक स्थिति
आकर्षण की है; और अनिवार्य रूप से उसका अंत वियोग में होता है। यहाँ तक कि
मानव हृदय में प्रेम मिलन की नैसर्गिक प्रेरणा है; और यद्यपि वह स्वयं क्लेश
का एक बड़ा कारण है, सम्यक पात्र के प्रति सम्यक रूप से निर्दिष्ट होने पर
वह मुक्ति प्रदान करता है। भक्ति का आलंबन ईश्वर है। प्रेम बिना एक कर्ता और
आलंबन के नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त प्रेम का आलंबन पहले एक ऐसा प्राणी
होना चाहिए, जो हमारे प्यार का प्रतिदान दे सके। अतएव प्रेम का ईश्वर किसी न
किसी अर्थ में एक मानवीय ईश्वर होना चाहिए। वह प्रेम का ईश्वर होना आवश्यक
है। ऐसा ईश्वर है या नहीं, इस प्रश्न के बावजूद, यह एक तथ्य है कि जिनके
हृदय में प्रेम है, उनके प्रति यह ब्रह्म प्रेम के ईश्वर के रूप में,
व्यक्तित्व रूप में प्रकट होता है।
उपासना के वे रूप जो ईश्वर को एक न्यायाधीश, दंडदाता, अथवा भय के कारण जिसकी
आज्ञा पालन करना पड़े, ऐसा कुछ समझते हैं, प्रेम कहलाने के पात्र नहीं हैं,
यद्यपि ये उपासना के वे रूप हैं, जो शनै: उच्चतर रूपों में विकसित हो जाते
हैं। अब हम स्वयं प्रेम पर विचार करेंगे। प्रेम का प्रतिनिधान हम एक ऐसे
त्रिभुज द्वारा प्रस्तुत करेंगे, जिसके आधार का पहला कोण निर्भयता का है। जब
तक भय रहता है, प्रेम नहीं होता। प्रेम सारे भय का निराकरण कर देता है। माँ
अपने बच्चे की रक्षा करने के लिए एक बाघ का भी सामना करेगी। दूसरा कोण (इस
बात का) है कि प्रेम कभी कुछ चाहता नहीं, माँगना नहीं। तीसरा कोण अथवा शीर्ष
यह है कि प्रेम स्वयं प्रेम के निमित्त प्रेम करता है। प्रेम ही केवल वह रूप
है, जिसमें प्रेम को प्रेम किया जाता है। यह सर्वोच्च अमूर्तीकरण है और यह
वही है जो ब्रह्म है।
तीसरा है राजयोग। इस योग की संगति इन योगों में प्रत्येक से हो जाती है।
आस्थावान या आस्थारहित सभी वर्गों की जिज्ञासाओं से इसकी संगति हो जाती है,
और यह धार्मिक जिज्ञासा का यथार्थ उपकरण है। जिस प्रकार हर विज्ञान की
अनुसंधान करने की अपनी विशिष्ट पद्धति होती है, उसी प्रकार राजयोग धर्म की
पद्धति है। विविध शरीर-संरचनाओं के अनुरूप इस विज्ञान का व्यावहारिक उपयोग भी
विविध होता है। इसके मुख्य अंग प्राणायाम, ध्यान और धारणा हैं। जो लोग
ईश्वर में विश्वास करते हैं, किसी गुरु से प्राप्त कोई प्रतीकात्मक नाम,
जैसे ओ३म् या अन्य पवित्र शब्द इसमें बड़े सहायक सिद्ध होते हैं। ओ३म् इनमें
महानतम है और उसका अर्थ है ब्रह्म। इन पवित्र नामों का जप करते हुए उनके अर्थ
की धारणा करना मुख्य अभ्यास है।
चौथा है ज्ञानयोग। यह तीन अंगों में विभक्त है। पहला: इस सत्य का श्रवण कि
आत्मा ही एकमात्र वास्तविकता है और सब माया (सापेक्षता) है। दूसरा: इस दर्शन
पर सभी दृष्टिकोणों से मनन। तीसरा: इसके आगे सारे तर्क-वितर्क को वर्जित करके
सत्य की अनुभूति प्राप्त करना। यह अनुभूति इतने प्रकार से प्राप्त होती है:
(1) इस बात के निश्चय से कि ब्रह्म ही सत्य है, और सब मिथ्या है; (2) भोग
की समग्र इच्छा का त्याग; (3) मन और इंद्रियों का संयम; (4) मुक्त होने की
तीव्र आकांक्षा। इस सत्य की सतत धारणा और आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप का
सदैव स्मरण कराते रहना ही इस योग के मार्ग हैं। यह योग सर्वोच्च किंतु कठिनतम
है। इसको बुद्धि के द्वारा तो बहुत से लोग ग्रहण कर लेते हैं, लेकिन उसकी
सिद्धि बहुत कम लोग कर पाते हैं।
कल्प-विराम एवं परिवर्तन
यह समस्त विश्व खोये हुये संतुलन का एक दृष्टांत है
[2]
। समस्त गति क्षुब्ध विश्व द्वारा अपनी साम्यावस्था पुन: प्राप्त करने
के निमित्त संघर्ष है; वह (साम्यावस्था) गति नहीं हो सकती। अत: आंतरिक जगत
के संदर्भ में यह अवस्था विचार के परे होगी, क्योंकि विचार स्वयं ही एक गति
है। यद्यपि सारे संकेत प्रसार के द्वारा पूर्ण साम्यावस्था प्राप्त कर लेने
के पक्ष में हैं और समग्र विश्व उसीकी ओर दौड़ रहा है, हमें यह कहने का
अधिकार नहीं है कि वह अवस्था कभी प्राप्त ही नहीं की जा सकती। इसके
अतिरिक्त, उस साम्यावस्था में किसी भी विविधता का होना असंभव है। उसके लिए
समजातीय होना आवश्यक है; क्योंकि जब तक दो भी परमाणु शेष रहेंगे, वे एक
दूसरे को आकृष्ट और विेकृष्ट करते रहकर संतुलन को भंग करते रहेंगे। अतएव
साम्य की यह अवस्था एकत्व, विराम और समजातीयता की है। अंतस् की भाषा में,
साम्य की यह अवस्था न विचार है, शरीर, और न वह कुछ जिसे हम गुण कहते हैं।
एकमात्र वस्तु जिसके लिए हम कह सकते हैं वह बनाये रखेगी, है स्वयं उसका अपना
स्वरूप, सत्-चित-आनंद।
इसी प्रकार यह अवस्था दो नहीं हो सकती। अनिवार्य रूप से उसे एक इकाई होना
चाहिए, और मैं, तुम आदि के समस्त काल्पनिक भेद, विभिन्न विविधाताएँ
विलुप्त होनी चाहिए; क्योंकि वे सब परिवर्तन या माया की अवस्था के हैं। यह
कहा जा सकता है कि परिवर्तन की यह अवस्था आत्मा को अब प्राप्त हुई है, जो यह
सिद्ध करती है कि इसके पूर्व उसकी अवस्था विराम और मुक्त की थी; अब इस समय
विभेदीकरण की अवस्था ही यथार्थ है, समजातीयता की अवस्था आदिम अपरिपक्वता की
है, जिससे यह परिवर्तनशील अवस्था निर्मित हुई है; और उस विभेदरहित अवस्था
में पुन:लौट जाना अपकर्ष मात्र ही होगा। यदि यह सिद्ध किया जा सकता कि
सजातीयता और विजातीयता की दो अवस्थाएँ हैं, तो इस तर्क में बल हो सकता था। जो
एक बार घटित होता है, वह बारंबार घटित होता है। विराम का अनुगमन
परिवर्तन-विश्व-करता है। किंतु उस विराम के पूर्व अन्य परिवर्तन हुए होंगे,
और इस परिवर्तन के बाद विराम की अन्य अवस्थाएँ घटित होंगी। यह सोचना
उपहासास्पद होगा कि कभी विराम की अवधि थी, जिसके बाद यह परिवर्तन आया जा अब
सदा चलता रहेगा। प्रकृति में प्रत्येक कण यह दिखलाता है कि यह बारंबार एक
कल्पीय विराम और परिवर्तन को प्राप्त होता रहता है।
विराम की दो अवधियों के बीच के कालातंर को एक कल्प कहते हैं। किंतु यह
कल्पीय विराम (प्रलय) पूर्ण सजातीयता का नहीं हो सकता, अन्यथा भविष्य में
अभिव्यक्ति (सृष्टि) होना समाप्त हो जाएगा। यह कहना असंगत है कि परिवर्तन
(सृष्टि) की प्रस्तुत अवस्था विराम की पूर्वगामी अवस्था की तुलना में अधिक
श्रेष्ठ है, क्योंकि उस दशा में प्रलय या विराम की आगामी अवधि काल में अधिक
सुदूरवर्ती होने के कारण अधिक पूर्ण होगी ! प्रकृति में उन्नति या अवनति नहीं
होती। वह बारंबार उन्हीं रूपाकारों को व्यक्त करती रहती है। वस्तुत: नियम
शब्द का अर्थ ही यह है। लेकिन आत्माओं को लेकर एक उन्नति अवश्य होती है।
अर्थात, आत्माएँ अपने स्वरूप के निकटतर आती हैं, और प्रत्येक कल्प में वे
बड़ी संख्या मे इस प्रकार चक्कर काटते रहने से मुक्ति प्राप्त करती हैं। यह
कहा जा सकता है कि चूँकि जीवात्मा विश्व और प्रकृति का अंश है और बारंबार
वापस आती रहती है, आत्मा के लिए कोई मुक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उस दशा
में विश्व को विनष्ट करना आवश्यक हो जाता है। उत्तर यह है कि जीवात्मा
माया के माध्यम से एक मिथ्या वस्तु है, और स्वयं प्रकृति से अधिक सत्य
नहीं। वस्तुत: यह जीवात्मा निरूपाधिक निरपेक्ष (पर) ब्रह्म ही है।
प्रकृति में जो कुछ सत्य है वह ब्रह्म है, केवल वह माया के अध्यास से इस
विविधता या प्रकृति के रूप में भासित होता है। भ्रम होने के कारण माया को
सत्य नहीं कहा जा सकता; फिर भी वह इस गोचर प्रपंच की सृष्टि कर रही है। यदि
यह पूछा जाए कि स्वयं भ्रम होते हुए माया यह सब किस प्रकार उत्पन्न कर सकती
है, तो हमारा उत्तर यह है कि उत्पाद्य अविद्या होने के कारण उत्पादक भी वही
होना चाहिए। ज्ञान के द्वारा अज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। अत: यह
माया विद्या और अविद्या (सापेक्ष ज्ञान), इन दो रूपों में कार्य करती है; और
यह विद्या अविद्या या अज्ञान को नष्ट करने के उपरांत स्वयं नष्ट हो जाती
है। यह माया अपने को स्वयं नष्ट कर डालती है और जो निश्शेष रहता है, वह है
ब्रह्म, सत् का स्तर तत्व, ज्ञान और आनंद। अत: प्रकृति में जो भी
वास्तविकता है, वह यह ब्रह्म है, और हमें प्रकृति तीन रूपों में प्राप्त
होती है-ईश्वर, व्यक्तितायुक्त आत्माएँ, और अचेतन प्राणी। इन सबकी
वास्तविकता ब्रह्म है, यद्यपि माया के कारण वह विविध प्रतीत होता है। किंतु
ईश्वर का दर्शन वास्तविकता के निकटतम और उच्चतम है। (व्यक्तितायुक्त)
सगुण ईश्वर की धारणा मनुष्य के लिए सर्वोच्च संभव विचार है। ईश्वर में
आरोपित समस्त गुण उसी अर्थ में सत्य हैं, जिसमें प्रकृति के गुण सत्य हैं।
फिर भी हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सगुण ईश्वर माया के माध्यम से देखा
जानेवाला ब्रह्म ही है।
विकास के लिए संघर्ष
[3]
वृक्ष बीज के पहले होता है या बीज वृक्ष के पहले, यह पुराना विकल्प ज्ञान के
हमारे सभी रूपों में सूत्रवत् विद्यमान है। सृष्टि-क्रम में बुद्धि प्रथम है
या भौतिक द्रव्य; विचार भौतिक द्रव्य की सृष्टि करता है या भौतिक द्रव्य
विचार की; प्रकृति के अनवरत परिवर्तन विराम के पूर्व होते हैं या विराम का
विचार परिवर्तन के विचार के पूर्व--ये सभी प्रश्न उसी असमाधेय प्रकार के हैं।
लहरों की एक माला के उत्थान और पतन के सदृश वे एक अपरिवर्तनीय अनुक्रम में एक
दूसरे का अनुगमन करते हैं और लोग अपनी रुचि, शिक्षा, या स्वभाव की विशिष्टता
के अनुसार इस या उसका पक्ष-ग्रहण करते हैं।
जैसे यदि एक ओर यह कहा जाए कि प्रकृति के विभिन्न भागों के समायोजन को देखने
से यह स्पष्ट है कि वह बुद्धियुक्त कार्य का परिणाम है; तो दूसरी ओर यह
तर्क दिया जा सकता है कि विकास के दौरान में बुद्धि स्वयं ही भौतिक द्रव्य
और शक्ति के द्वारा उत्पन्न होने के कारण इस संसार के पूर्व नहीं हो सकती।
यदि यह कहा जाए कि प्रत्येक आकार की उतपत्ति के पूर्व मन में (उसका) भाव होना
अनिवार्य है, तो उतने ही बलपूर्वक यह तर्क किया जा सकता है कि स्वयं भाव की
सृष्टि अनेक बाह्म अनुभवों द्वारा होती है। एक ओर हमारे नित्य स्वतंत्र होने
के भाव से याचना की जाती है; दूसरी ओर, इस तथ्य से कि विश्व में कुछ भी
कारणरहित न होने के कारण, जड़ और चेतन प्रत्येक वस्तु, कारणता के नियम से
जकड़ी हुई है। यदि यह कहा जाए कि इच्छा के द्वारा शरीर में उत्पन्न
परिवर्तनों से स्पष्ट है कि विचार इस शरीर का स्त्रष्टा है; तो उतना ही
स्पष्ट यह है कि चूँकि शरीर में घटित परिवर्तनों से विचार में परिवर्तन
उत्पन्न हो जाता है, शरीर ने ही मन को उत्पन्न किया होगा। यदि यह तर्क
किया जाए कि विश्वव्यापी परिवर्तन किसी पूर्वगामी विराम का परिणाम है, तो
उतनी ही तर्कसंगत युक्ति यह सिद्ध करने के लिए दी जा सकती है कि
अपरिवर्तनशीलता का भाव, गति के तुलनात्मक अंतरों द्वारा प्रसूत एक भ्रामक
सापेक्ष धारणा है।
इस प्रकार अंतिम विश्लेषण में समस्त ज्ञान इस दुश्चक्र में--कारण और कार्य
की अनिश्चित अन्योन्याश्रितता में- विभक्त हो जाता है। तर्क के नियमों की
कसौटी पर कसने से इस प्रकार का ज्ञान अशुद्ध सिद्ध होता है; और सबसे विचित्र
बात यह है कि यह ज्ञान, सत्य ज्ञान से तुलना करने पर नहीं, वरन् उन्हीं
नियमों से अशुद्ध सिद्ध होता है, जो अपने आधार के लिए उसी दुश्चक्र पर
अवलंबित हैं। अत: यह स्पष्ट है कि हमारे समस्त ज्ञान की विशेषता यह है कि
वह अपनी अपर्याप्तता को स्वयं ही सिद्ध कर देता है। इसके अतिरिक्त हम यह भी
नहीं कह सकते कि वह मिथ्या है, क्योंकि हम जितनी भी सत्ता को जानते या सोच
सकते हैं, वह इसी ज्ञान के अंतर्गत है। न हम यह अस्वीकार कर सकते हैं कि वह
सभी व्यावहारिक कार्यों के लिए पर्याप्त है। मानवीय ज्ञान की यह दशा, जिसमें
बाह्य और अंतर्जगत् दोनों ही समाविष्ट हैं, माया कहलाती है। वह अपनी अशुद्धता
स्वयं ही प्रमाणित कर देती है, अत: वह मिथ्या है। वह पशु-मानव की समस्त
व्यावहारिक आवश्यकताओं के निमित्त पर्याप्त होने के अर्थ में ही सत्य है।
बाह्य जगत के क्रिया करने में माया अपने को आकर्षण और विकर्षण की दो शक्तियों
में व्यक्त करती है। अंत: (जगत) में उसकी अभिव्यक्तियाँ कामना और अ-कामना
(प्रवृत्ति और निवृत्ति) हैं। समस्त् विश्व बाहर की ओर भागने का प्रयास कर
रहा है। प्रत्येक अणु अपने केंद्र से उड़ जाने का प्रयत्न कर रहा है। अंत:
जगत में प्रत्येक विचार नियंत्रण के परे जाने की कोशिश कर रहा है। फिर, बाह्य
जगत का प्रत्येक कण एक अन्य शक्ति-केंद्रगामी से अवरुद्ध होता और केंद्र की
ओर खींचा जाता है। इसी प्रकार विचार-जगत में नियंत्रक शक्ति बाहर जाने-वाली इन
सभी कामनाओं को अवरुद्ध करती है।
भौतिकीकरण की अर्थात यांत्रिक क्रिया-कलाप के स्तर की ओर अधिकाधिक खींचते
जाने की इच्छाएँ, पशु-मानव की हैं। इंद्रियों के इन समस्त् बंधनों का
निराकरण कर देने की इच्छा उत्पन्न होने पर ही मनुष्य के हृदय में धर्म का
उदय होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म का समग्र अभिप्राय मनुष्य को
इंद्रियों के बंधनों में फँसने से बचाना और अपनी स्वतंत्रता को सिद्ध करने
में उसकी सहायता करना है। उस लक्ष्य की ओर निवृत्ति की इस शक्ति के प्रथम
प्रयास को नैतिकता कहते हैं। समग्र नैतिकता का अभिप्राय इस अध:पतन को रोकना और
इस बंधन को तोड़ना है। समस्त नैतिकता को विधायक और निषेधात्मक तत्त्वों में
विभक्त किया जा सकता है; या तो वह कहती है, 'यह करो', या कहती है, 'यह न
करो।' जब वह कहती है, 'न करो', तो स्पष्ट है कि वह मनुष्य को दास बना
डालनेवाली किसी इच्छा पर रोक है। जब वह कहती है, 'करो', तो उसका आशय
स्वतंत्रता का मार्ग-प्रदर्शन तथा उस अध:पतन को भग्न करना है, जिसने मानवीय
हृदय को पहले से ही जकड़ रखा है।
यह नैतिकता तभी संभव है, जब मनुष्य को कोई मुक्ति प्राप्त करानी हो। पूर्ण
मुक्ति उपलब्ध कर सकने के संयोगों के प्रश्न के अतिरिक्त यह स्पष्ट है कि
समस्त् विश्व प्रसार के निमित्त संघर्ष का, या दूसरे शब्दों में मुक्ति
प्राप्त करने का, एक दृष्टांत है। यह असीम देश एक परमाणु तक के लिए भी
पर्याप्त नहीं है। पूर्ण मुक्ति की सिद्धि हो जाने तक प्रसार के निमित्त यह
संघर्ष चिरंतन रूप से चलता ही रहता है। यह नहीं कहा जा सकता कि मुक्ति
प्राप्त करने के निमित्त यह संघर्ष दु:ख का वर्जन और सुख को प्राप्त करने के
लिए है। निम्नतम कोटि के प्राणी भी, जिनमें ऐसी कोई भावना नहीं हो सकती,
विकास के निमित्त संघर्ष कर रहे हैं; और अनेक लोगों के अनुसार स्वयं मनुष्य
इन्हीं प्राणियों का प्रसार है।
धर्म का जन्म
[4]
वन के वे बहुरंगी पंखुडियों वाले, अपने सिर झुकाये, कूदते, उछलते, हवा की हर
लहर से खेलते सुंदर फूल; शोभन पंखोंवाले वे सुंदर पक्षी, जिनके मुधर गीतों से
हर वन-वीथी गुंजाएमान थी--अभी कल वहाँ थे, मेरी सांत्वना, मेरे साथी, और आज वे
चले गए-कहाँ ? मेरे साथ खेलनेवाले, मेरे दु:ख-सुख के, विनोद ओर मनोरंजन के
साथी-वे भी चले गए--कहाँ ? वे जिन्होंने मेरे बचपन में मुझे पाला-पोसा,
जिन्होंने अपने जीवनपर्यंत मेरे प्रति एक ही विचार रखा--मेरे लिए सब कुछ
करना-वे भी चले गए--कहाँ ? हर कोई, हर चीज चली गई, जा रही है और चली जाएगी। वे
कहाँ चले जाते हैं ? यह प्रश्न आदिम मानव के मन में उत्तर पाने के लिए आग्रह
कर रहा था। तुम पूछ सकते हो, "ऐसा क्यों, क्या उसे अपने सम्मुख हर वस्तु
विघटित होती और धूल में मिल जाती नहीं दिखलायी पड़ती थी ? उसे अपना सिर इस बात
में जरा भी खपाने की क्या जरूरत थी कि वे कहाँ चले जाते हैं ?"
आदिम मनुष्य के लिए पहले तो हर वस्तु सजीव है, और उसके निकट पूर्ण विनाश के
अर्थ में मृत्यु कोई अर्थ नहीं रखती। लोग उसके पास आते हैं, चले जाते हैं,
फिर आते हैं। कभी कभी वे चले जाते और नहीं आते। अतएव संसार की प्राचीनतम भाषा
में मृत्यु को सदैव एक प्रकार के चले जाने के द्वारा व्यक्त किया गया है।
यही धर्म का आरंभ है। इस प्रकार आदिम मनुष्य अपनी कठिनाई के समाधान की खोज
सर्वत्र कर रहा था--वे तब कहाँ चले जाते हैं ?
अपनी गरिमा से प्रदीप्त प्रात:कालीन सूर्य एक सुषुप्त जगत के लिए प्रकाश और
ताप और हर्ष लाता है। वह मंद गति से यात्रा करता है और हाय, नीचे, नीचे गहरे
में विलुप्त हो जाता है; लेकिन अगले दिन वह फिर प्रकट होता है--गरिमामय,
सुंदर। और वह है कमल--नील, सिंधु और दज़ला, सभ्यता की जन्म-भूमियों, का
अद्भुत फूल-सुबह, जब और रश्मियाँ उसकी बंद पंखुडियों को स्पर्श करती हैं, वह
खुल जाता है और सूर्य के ढलने पर पुन: बंद हो जाता है। अतएव कुछ ऐसे थे जो
आते, चले जाते और पुनरुज्जीवित होकर अपनी कब्रों से उठ खड़े होते। यह पहला
समाधान था। अत: प्राचीनतम धर्मों में सूर्य और कमल प्रमुख प्रतीक हैं। यह
प्रतीक क्यों ?--क्योंकि अमूर्त अमूर्त विचार, अभिव्यक्त होने पर वह जो भी
हो, दृष्टिगम्य, स्पर्श्य और स्थूल परिधानों को धारण करके ही आने के लिए
विवश है। यही नियम है। सत्ता के परे चले जाने के रूप में नहीं, वरन् उसी में
चले जाने के रूप में, अपगत हो जाने के भाव को केवल एक परिवर्तन, एक क्षणिक
रूपांतर के द्वारा ही व्यक्त किया जा सकता था; और उस केंद्रक के रूप में
जिसके आस-पास नया विचार अभिव्यक्ति पाने के लिए फैलता है, प्रतिक्षेप के आधार
पर एक ऐसे विषय का लिया जाना अनिवार्य है, जो इंद्रियों को स्पर्श करे, कंपन
उत्पन्न करता मन तक पहुँचे, और एक नए विचार को जगाये। और इसीलिए सूर्य तथा
कमल प्रथम प्रतीक हुए।
सर्वत्र गहरे गड्ढे विद्यमान हैं--इतने अँधेरे, इतने उदास: नीचे सब अँधेरा और
भयानक है; पानी के नीचे हम देख नहीं सकते, हम अपनी आँखें भले ही खोल लें; ऊपर
प्रकाश है, प्रकाश ही प्रकाश, रात में भी सुंदर नक्षत्रीय चमक अपना प्रकाश
फैलाता रहता है। तब वे, जिनसे मैं स्नेह करता हूँ, कहाँ चले जाते हैं ?
निश्चय ही नीचे तमसाच्छन्न स्थान को नहीं, वरन् ऊपर, शाश्वत प्रकाश के
राज्य में। इसको एक नए प्रतीक की आवश्यकता पड़ी। यहाँ अग्नि है, अपनी
ज्वालाओं की अद्भुत भास्वर जिह्वाओं से युक्त--एक वन को अल्प समय में खा
जानेवाली, भोजन पकानेवाली, गर्मी देनेवाली, और वन्य पशुओं को दूर भगा
देनेवाली--प्राणदायक, प्राणरक्षक अग्नि; और फिर उसकी लपटें--जो सबकी सब ऊपर
जाती हैं, नीचे कभी नहीं। अब यहाँ एक दूसरा विद्यमान था--यह अग्नि जो उन्हें
ज्योति के स्थलों में ऊपर ले जानेवाली अग्नि--हमें और ज्योति क्षेत्रों में
अपगत लोगों को जोड़नेवाली मध्यस्थ कड़ी। मनुष्य के प्राचीनतम आलेख का आरंभ
इस प्रकार होता है, 'हे अग्नि, तू ज्योतिर्मयों के प्रति हमार दूत।' अतएव वे
खाद्य तथा पेय पदार्थ, और उनकी समझ में इन 'ज्योतिर्मयों' को जो जो प्रिय हो
सकता था, उसे अग्नि में रखने लगे। यज्ञ का यह आरंभ था।
इस सीमा तक पहले प्रश्न का समाधान हो गया, कम से कम इन आदिम मानवों की
आवश्यकताओं को संतुष्ट कर सकने की सीमा तक। तब दूसरा प्रश्न उठा: कहाँ से
यह सब आया है ? यह पहले क्यों नहीं आया ? चूँकि हम किसी आकस्मिक परिवर्तन को
अधिक याद रखते है; सुख, हर्ष, प्राप्ति, भोग हमारे मन पर उतना गहरा प्रभाव
नहीं डालते, जितना दु:ख, शोक और हानि। हमारी प्रकृति है हर्ष, आनंद, परितोष और
सुख की। जो भी उसे वेग से भंग करता है, स्वाभाविक गतिविधि की अपेक्षा अधिक
गहरा प्रभाव डालता है। अतएव मृत्यु की समस्या का समाधान पहले एक प्रबल
क्षोभक के रूप में हुआ। तदुपरांत अधिक प्रगति के साथ दूसरा प्रश्न उठा: वे आए
कहाँ से ? हर प्राणवान वस्तु गतिशील है; हम गतिशील हैं, हमारा संकल्प हमारे
अंगों को गति देता है, हमारे अंग हमारे संकल्प के अधीन विविध आकार की रचना
करते हैं। अतएव जो जो गति देता है, उसमें प्रेरक के रूप में संकल्प है। यह
बाद पुरातन काल के मानव-शिशु के लिए उतनी ही सत्य थी, जितनी आजकल के
शिशु-मानव के लिए। वायु में संकल्प या इच्छा है; बादल, संपूर्ण प्रकृति, पृथक
इच्छाओं, मनों और आत्माओं से पूर्ण हैं। वे इस सबका सर्जन उसी प्रकार कर रहे
हैं, जैसे हम विविध वस्तुओं का निर्माण करते हैं; वे--'देव', 'एलोहिम' इस
सबके स्रष्टा हैं।
इसके साथ ही साथ समाज का भी विकास हो रहा था। समाज में एक राजा होता था--तो
ज्योतिर्मयों, एलोहिमों में क्यों न हो ? अत: एक परम 'देव', एक एलोहिम-जहवेह,
देवताओं का देवता है, वह एक ईश्वर जिसने अपने संकल्प से इस सबकी, इन
ज्योतिर्मयों की भी सृष्टि की है। लेकिन जैसे उसने विभिन्न नक्षत्रों और
ग्रहों को नियुक्त किया है, उसी प्रकार उसने विभिन्न 'देवों' या देवदूतों को
प्रकृति के विभिन्न व्यापारों का अधिपति नियुक्त किया है--किसी को मृत्यु
का, किसी को जन्म का इत्यादि। शेष सबसे अनंत शक्तिशाली होने के कारण एक परम
सत्ता की धारणा, समस्त धर्मों के दो महान स्रोतों, आर्य और सेमिटिक जातियों
में, उभयनिष्ठ रही है। किंतु यहाँ से आर्य एक नूतन आरंभ और विशाल नया पथ
ग्रहण करते हैं। उनका ईश्वर एक परम सत्ता मात्र ही नहीं था, वह द्योस पितर,
स्वर्गनिवासी पिता भी था। यही प्रेम का आरंभ है। सेमिटिक ईश्वर केवल वज्रपात
करनेवाला, मात्र भीषण, विक्रांत चमूपति है। इन सबमें आर्यों ने पिता का नया
भाव जोड़ दिया। आगामी प्रगति के साथ यह भेद और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है;
मानवता की सेमिटिक शाखा में प्रगति इस बिंदु पर रुक गई। सेमिटिक के ईश्वर का
दर्शन नहीं किया जा सकता, उसको देखना मृत्यु है; लेकिन आर्यों के ईश्वर का
केवल दर्शन ही नहीं किया जा सकता, वरन् वह सत्ता का लक्ष्य है, जीवन का
एकमात्र ध्येय उसका दर्शन करना है 1 सेमिटिक अपने देवाधिदेव की आज्ञा का पालन
दंड के भय से करता है और उसके आदेशों का अनुसरण करता है। आर्य अपने पिता से
प्रेम करता है; और फिर वह माँ और अपने मित्र को जोड़ देता है। और वे कहते हैं,
"मुझे प्रेम करो, मेरे कुत्ते को प्रेम करो।" अत: उसकी हर कृति से प्रेम करना
चाहिए, क्योंकि वे उसके हैं। सेमिटिक के लिए यह जीवन एक चौकी है, जहाँ हमारी
नियुक्ति हमारी स्वामिभक्ति की परीक्षा के निमित्त हुई है; आर्य के लिए यह
जीवन हमारे लक्ष्य के मार्ग में (एक स्थल) है। सेमिटिक के अनुसार यदि हम
अपना कर्तव्य भली-भाँति करते रहें, तो हमें स्वर्ग में सुख से सदा पूर्ण
रहनेवाला निवास प्राप्त होगा। आर्य के लिए वह निवास-स्थल स्वयं ईश्वर ही
है। सेमिटिक के लिए ईश्वर की सेवाएँ एक साध्य के निमित्त एक साधन है और वह
है आनंद तथा भोग के रूप में प्राप्त होनेवाला प्रतिदान। आर्य के लिए दु:ख और
सुख, प्रत्येक वस्तु साधन है ओर साध्य है ईश्वर। सेमिटिक ईश्वर की उपासना
स्वर्ग जाने के निमित्त करता है। आर्य ईश्वर को प्राप्त करने के निमित्त
स्वर्ग को त्याग देता है। संक्षेप में मुख्य अंतर यही है। आर्य जीवन का
लक्ष्य और साध्य ईश्वर का दर्शन करना, प्रेमपात्र का मुखड़ा देखना है,
क्योंकि उसके बिना वह जी नहीं सकता। 'तेरे बिना सूरज, चाँद और तारे अपनी
ज्योति से रहित हो जाते हैं।'
शिव जी का भूत
(स्वामी जी के देहावसान के बहुत समय उपरान्त उनके कमरे में काग़ज़ इत्यादि
सँभालते समय उनके हाथ की लिखी हुई यह अपूर्ण कहानी मिली थी।)
जर्मनी के एक जिले में बैरन (Baron) 'क' रहते थे। अभिजात वंश में जन्म लेकर
बैरन 'क' यौवनावस्था में उच्च पद, मान, धन, विद्या एवं अनेकानेक गुणों से
संपन्न हुए। अनेक सुंदरी, धनाढ्य, उच्च कुलवाली युवतियाँ बैरन 'क' के प्रणय
की आकांक्षिणी थीं। सुंदर रूपवाले, गुणवान तथा उच्च वंशवाले विद्वान युवक को
दामाद के रूप में पाने के लिए कौन माता-पिता लालायित न होंगे ? उच्च वंश की
एक सुंदरी युवती ने युवक बैरन 'क' के मन को आकर्षित कर लिया था, किंतु विवाह
में अभी देरी थी। बैरन के पास धन, मान सब कुछ था; किंतु एकमात्र बहन छोड़कर
अपना कहने को उनके और कोई न था। वह बहन परम सुंदरी एवं विदुषी थी। बैरन का यह
संकल्प था कि पहले वे अपनी बहन के इच्छानुसार उसका किसी सुपात्र से विवाह कर
देंगे, बहुत सा धन-धान्य देकर उसे विदा कर देंगे और फिर उसके बाद अपना विवाह
करेंगे। माता, पिता और भाई सभी का स्नेह उसी एक बहन पर था; उसकी शादी किए
बिना स्वयं विवाह करने बैरन सुखी नहीं होना चाहते थे। उस पर पाश्चात्य देश
का यह नियम है कि विवाह के उपरांत वर अपने माता-पिता, भाई-बहन--किसी के साथ
नहीं रहता; उसकी स्त्री अपने पति को लेकर स्वतंत्र रहती है। पति का स्त्री
के साथ श्वशुर-गृह में रहना समाज सम्मत है, किंतु पत्नी स्वामी के
माता-पिता के साथ रहने कभी नहीं आती। इसीलिए उन्होंने अपना विवाह बहन के
विवाह होने तक स्थगित रखा था।
आज कई महीनों से उसकी बहन की कोई खबर नहीं मिली है। नाना प्रकार के विलासपूर्ण
और नौकर-नौकरानियों से युक्त अपने प्रासाद को छोड़कर, यहाँ तक कि एकमात्र भाई
के प्रेम की भी उपेक्षा करके उनकी बहन चुपके से न जाने कहाँ चली गई है। बहुत
खोज की गई, किंतु सब चेष्टाएँ असफल हुईं। यह बैरन 'क' के हृदय में शूल की तरह
चुभा हुआ है। भोजन एवं मनोरंजन में अब उन्हें किसी प्रकार की रुचि नहीं रह
गई। सदैव खिन्न ओर उदासीन रहते हैं। उनके आत्मीय लोग उनकी बहन की आशा छोड़कर
बैरन 'क' का मानसिक स्वास्थ्य सुधारने के लिए विशेष चेष्टा करने लगे। उनके
आत्मीय लोग उनके लिए विशेष चिन्तित रहते हैं, उनकी प्रणयिनी भी अब विशेष
शंकित रहती है।
पेरिस में एक बड़ी प्रदर्शनी है। यहाँ विभिन्न देशों और दिशाओं से अनेक गुणी
आकर इकट्ठे हुए हैं--अनेक देशों की शिल्प-रचना, कारीगरी का काम आज पेरिस में
केंद्रित हुआ है। शायद इस आनंद-तरंग में शोक से जर्जरित हृदय पुन: स्वाभाविक
स्वास्थ्य लाभ कर सके, दु:ख-चिंता छोड़कर मनोरंजन विषयों में शायद आकृष्ट
हो सके--इसी आशा से, आत्मीयों की राय से, मित्रों के साथ बैरन 'क' पेरिस
रवाना हुए।
ईसा-अनुसरण
(स्वामी जी ने अमेरिका जाने के बहुत पहले 1889 ई. में 'साहित्य-कल्पद्रुम'
नामक मासिक-पत्रिका (अब बंद) में Imitation of Christ नामक विश्वविख्यात
पुस्तक का अनुवाद करना आरंभ किया था। इस अनुवाद का शीर्षक उन्होंने
'ईसा-अनुसरण' दिया था। इस पत्रिका क प्रथम भाग के प्रथम अंक से लेकर पंचम अंक
तक में इस पुस्तक के छ: अध्याय प्रकाशित हुए थे। यहाँ वे अध्याय दिए जा रहे
हैं। इसकी 'भूमिका' स्वामी जी की मौलिक रचना है।)
भूमिका
'ईसा-अनुसरण' समस्त् ईसाई-जगत की एक अत्यंत आदरणीय निधि है। यह ग्रंथ किसी
रोमन कैथलिक संत द्वारा लिखा गया-लिखित कहना तो भूल होगी--इस पुस्तक का
प्रत्येक अक्षर ईसा-प्रेम में मस्त इन सर्वत्यागी महात्मा के हृदय के
रक्त-बिन्दुओं से अंकित है। जिस महापुरुष की ज्वलंत सजीव वाणी ने आज चार सौ
वर्ष तक करोड़ों नर-नारियों के हृदय को अद्भुत मोहिनी शक्ति के बल से आकृष्ट
कर रखा है, कर रहा है तथा करेगा, जो महापुरुष आज प्रतिभा एवं साधन की शक्ति से
सहस्रों सम्राटों द्वारा भी पूजित हुए हैं तथा जिनकी अलौकिक पवित्रता के
सामने, आपस में सदैव से लड़नेवाला असंख्य संप्रदायों के विभक्त ईसाई-समाज
अपने बड़े पुराने वैषम्य को छोड़कर नतमस्तक हो रहा है--उन्होंने इस पुस्तक
में अपना नाम तक नहीं दिया। और देंगे क्यों ? और देंगे क्यों ? जिन्होंने
समस्त पार्थिव भोग-विलास को, इस जगत की समस्त मान-प्रतिष्ठा को विष्ठा की
भाँति त्याग दिया, वे क्या कभी क्षुद्र नाम के भिखारी हो सकते हैं ? बाद के
लोगों ने अनुमान करके 'टामस आ केंपिस' नामक एक कैथलिक संत को ग्रंथकार
निर्धारित किया है; इसमें कितना सत्य है, यह तो ईश्वर ही जानें, पर इसमें
संदेह नहीं कि वे जगत्पूज्य हैं।
इस समय हम ईसाई राजा की प्रजा हैं।
[5]
राज-अनुग्रह से अनेक प्रकार के स्वदेशी एवं विदेशी ईसाइयों को हमने देखा है।
आज हम ऐसे मिशनरी महापुरुष देख रहे हैं, जो इस प्रकार तो करते हैं कि 'आज जो
कुछ है खाओ, कल के लिए चिंता न करो'; किंतु वे स्वयं आगामी दस साल के हिसाब
एवं संचय में व्यस्त हैं ! हम यह भी देख रहे हैं कि 'जिन्हें सिर टेकने तक
को स्थान न था' उनके शिष्य, उनके प्रचारक दूल्हे की तरह विलासिता में
सज-धजकर ईसा के ज्वलंत त्याग एवं नि:स्वार्थता के प्रचार में संलग्न हैं!
किंतु प्रकृत ईसाई एक भी नहीं दिखलायी दे रहा है। इस अद्भुत विलासी, अत्यंत
दांभिक महा अत्याचारी तथा ठाठ-बाट से रहनेवाले प्रोटेस्टेंट ईसाई संप्रदाय
को देखकर ईसाईयों के बारे में हमारी जो अत्यंत कुत्सित धारणा हो गई है, वह इस
पुस्तक को पढ़ने से सम्यक रूप से दूर हो जाएगी।
'सब सयानों का एक मत'--समस्त यथार्थ ज्ञानियों का एक प्रकार का ही मत होता
है। पाठक इस पुस्तक को पढ़ते पढ़ते गीता में भगवदोक्त सर्व धर्मात् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज इत्यादि उपदेशों
की शत शत प्रतिध्वनि देख सकेंगे। दीनता, आर्त एवं दास्य-भक्ति की पराकाष्ठा
इस ग्रंथ की प्रत्येक पंक्ति में अंकित है और इसका पाठ करते करते तीव्र
वैराग्य, अत्यद्भुत आत्मसमर्पण और निर्भरता के भाव से हृदय उद्वेलित हो
जाता है। जो अंध कट्टरता के वशीभूत होकर, ईसाइयों का लेख समझकर इस पुस्तक को
अश्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, उनके लिए हम वैशेषिक दर्शन के एक सूत्र का
केवल उल्लेख करते हैं--आप्तोपदेशवाक्य: शब्द:।
अर्थात सिद्ध पुरुषों के उपदेश प्रमाणस्वरूप हैं और इसी का नाम शब्द-प्रमाण
है। इस स्थान पर टीकाकार ऋषि जैमिनि कहते हैं कि आर्य और म्लेच्छ दोनों का
ही आप्त पुरुष होना संभव है।
यदि 'यवनाचार्य' इत्यादि ग्रीक ज्योतिष-पंडितों ने पुरातन काल में आर्यों के
समीप इस प्रकार का प्रतिष्ठा-लाभ किया था, तो फिर इस पर विश्वास नहीं होता
कि इस भक्तशिरोमणि की यह पुस्तक इस देश में सम्मान प्राप्त न करेगी।
जो कुछ भी हो, इस पुस्तक का अनुवाद हम पाठकों के सामने क्रमश: उपस्थित
करेंगे। आशा है कि जो बहुमूल्य समय पाठकगण हजारों सारहीन उपन्यास तथा नाटकों
में नष्ट करते हैं, उसका कम से कम एक शतांश तो वे इसके अध्ययन में अवश्य
लगायेंगे। जहाँ तक संभव हो सका है, अनुवाद को ज्यों का त्यों बनाये रखने की
चेष्टा की गई है--कहाँ तक सफल हुआ हूँ, कह नहीं सकता। जो वाक्य बाइबिल से
संबंधित किसी विषय का उल्लेख करते हैं, उनकी नीचे टीका दे दी गई है।
किमधिकमिति।
प्रथम अध्याय
प्रथम परिच्छेद
'ईसा-अनुसरण' तथा संसार और समस्त सांसारिक असार वस्तुओं के प्रति
वैराग्य
१. प्रभु कह रहे हैं, "जो कोई मेरा अनुगमन करता है, वह अंधकार में पैर नहीं
रखता।"
[6]
यदि हम सचमुच आलोक पाने के इच्छुक हैं एवं हृदय के सब प्रकार के अंधकार से
मुक्त होने की आकांक्षा करते हैं, तो ईसा की ये बातें याद दिला रही हैं कि
उनके जीवन और चरित्र का अनुसरण हमें अवश्य ही करना चाहिए।
अतएव ईसा के जीवन पर मनन करना हमारा प्रधान कर्तव्य है।
[7]
२. उन्होंने जो शिक्षा प्रदान की है, वह अन्य सब महात्माओं द्वारा दी हुई
शिक्षा से बढ़कर है एवं जो व्यक्ति पवित्र आत्मा द्वारा संचालित हैं, वे
इसके अंदर छिपी हुई 'मान्ना'
[8]
प्राप्त करेंगे। किंतु ऐसा अनेक बार होता है कि बहुत से लोग ईसा के शुभ
समाचार को बारम्बार सुनकर भी उसकी प्राप्ति के लिए किसी प्रकार की चेष्टा
नहीं करते, क्योंकि वे ईसा की आत्मा से अनुप्राणित नहीं हुए हैं। अतएव, यदि
तुम आनन्दित हृदय से एवं संपूर्ण रूप से ईसा के वाक्य-तत्त्व में डूबना चाहते
हो, तो उनके जीवन के साथ अपने जीवन का संपूर्ण सादृश्य स्थापित करने के लिए
अधिक सचेष्ट हो जाओ।
[9]
३. 'त्रित्ववाद'
[10]
के संबंध में गंभीर गवेषणा करने से तुम्हें क्या लाभ होगा, यदि तुममें
नम्रता का अभाव उस ईश्वरीय त्रित्व को असंतुष्ट करता है ?
निश्चय ही उच्च वाक्य-सौंदर्य मनुष्य को पवित्र एवं निष्कपट नहीं बना
सकता; किंतु धार्मिक जीवन उसे ईश्वर का प्रिय बनाता है।
अनुताप में हृदय-वेदना सहन करूँगा,--उसका सर्वलक्षणयुक्त विवरण नहीं जानना
चाहता।
[11]
यदि संपूर्ण बाइबिल तथा समस्त दार्शनिकों के मत तुम जानते हो, तो उससे
तुम्हें क्या लाभ होगा, यदि तुम भगवत्प्रेम तथा ईश्वर-कृपा से वंचित हो ?
[12]
'असार से भी असार, सभी असार है, केवल उनसे प्रेम करना ही सार है, एकमात्र उनकी
सेवा करना ही सार है।'
[13]
तभी सर्वोच्च ज्ञान तुम्हारा होगा, जब तुम स्वर्गराज्य प्राप्त करने के
लिए संसार से घृणा करोगे।
४. अतएव धन ढूँढ़ना एवं उस नश्वर वस्तु में विश्वास स्थापित करना असार है।
मान ढूँढ़ना अथवा उच्च पद प्राप्त करने की चेष्टा करना भी असार है। अंत:
में कठिन दंड-भोग कराने वाली शारीरिक वासनाओं के वश में होना तथा उनके लिए
व्याकुल होना आसान है।
जीवन का सद्व्यवहार करने की चेष्टा न करके दीर्घ जीवन प्राप्त करने की
इच्छा असार है। पर-काल के संचय की चेष्टा न कर केवल इह-जीवन के विषय में
चिंता करना असार है। जहाँ अविनाशी आनंद विद्यमान है, उस स्थान पर शीघ्र ही
पहुँचने की चेष्टा न करके अत्यंत शीघ्र विनाशशील वस्तु से प्रेम करना असार
है।
५. उपदेशक के इस वाक्य का सर्वदा स्मरण करो--'नेत्र देखकर तृप्त नहीं होते,
कर्ण सुनकर तृप्त नहीं होते।'
[14]
परिदृश्यमान पार्थिव पदार्थ से मन के अनुराग को हटाकर अदृश्य राज्य में
हृदय के समुदय प्रेम को प्रतिष्ठित करने की विशेष चेष्टा करो, क्योंकि यदि
तुम समस्त इंद्रियों के वश में हो जाओगे, तो तुम्हारी बुद्धिवृत्ति कलंकित
हो जाएगी और तुम ईश्वर की दया को खो बैठोगे।
[15]
द्वितीय परिच्छेद
१. स्वभावत: सभी लोग ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा करते है; किंतु, ईश्वर से न
डरने पर, उस ज्ञान से क्या लाभ है ?अपनी आत्मा की कल्याण-चिंता छोड़कर, जो
नक्षत्र-मंडल की गतिविधि का निरीक्षण करने में व्यस्त हैं, ऐसे अहंकारी
पंडित की अपेक्षा वह दीन कृषक, जो विनीत भाव से ईश्वर की सेवा करता है, क्या
निश्चय ही श्रेष्ठ नहीं है ? जिन्होंने अपने आप को अच्छी तरह से पहचान
लिया है, वे अपनी दृष्टि में अति निम्न हैं और मनुष्यों की प्रशंसा से वे
किंचिन्मात्र भी आनंदित नहीं हो सकते। मैं जगत के समस्त् विषयों को भले ही
जान लूँ, पर यदि मेरी नि:स्वार्थ सहानुभूति न हो, तो फिर जो ईश्वर मेरे
कर्मानुसार मेरा विचार करेंगे, उनके सम्मुख मेरे ज्ञान की उपयोगिता ही क्या
?
२. अत्यंत ज्ञान-लालसा को त्याग दो; क्योंकि उससे चित्त अत्यंत विक्षिप्त
हो जाता है और भ्रम आ घुसता है।
पंडित होने से ही विद्या प्रदर्शित करने तथा प्रतिभाशाली कहलाने की वासना आ
जाती है।
इस प्रकार के अनेक विषय हैं, जिनके ज्ञान से किसी प्रकार का आध्यात्मिक लाभ
नहीं होता; और वे अत्यंत मूर्ख हैं, जो अपने परित्राण में सहायता करनेवाले
विषयों का परित्याग कर इन सब विषयों में मन को लगाये रहते हैं।
वाक्यबाहुल्य से आत्मा की तृप्ति नहीं होती, परंतु साधु-जीवन अंत::करण में
शांति प्रदान करता है और पवित्र बुद्धि ईश्वर में निर्भरता स्थापित करती है।
३. यदि समधिक ज्ञान के साथ ही साथ तुम्हारा जीवन भी समधिक पवित्र न हो, तो
तुम्हारा ज्ञान एवं धारणा-शक्ति जितनी अधिक होगी, तुम्हारा उतना ही अधिक
कठोर विचार होगा।
अतएव अपनी दक्षता एवं विद्या के लिए बहु-प्रशंसित होने की इच्छा न करो; बल्कि
जो ज्ञान तुमको दिया गया है, उसको भय का कारण समझो।
यदि इस प्रकार का विचार तुम्हारे अंदर आए कि 'मुझे बहुत से विषयों का ज्ञान
है एवं मेरी बुद्धि विलक्षण है', तो स्मरण रखो कि ऐसे अनेक विषय हैं, जिनका
तुम्हें ज्ञान नहीं।
ज्ञान के अहंकार में फूलो मत; बल्कि अपनी अज्ञता को स्वीकार करो। तुम्हारी
अपेक्षा कितने ही अभिज्ञ लोग मौजूद हैं। इस सबको देखते हुए भी फिर क्यों तुम
अपने को दूसरों की अपेक्षा उच्च समझते हो ?
यदि अपने लिए कल्याणप्रद कोई विषय जानना अथवा सीखना चाहते हो, तो संसार में
अपरिचित एवं नगण्य होकर रहना पसंद करो।
४. स्वयं को अपने यथार्थ रूप में जानना अर्थात अपने को अत्यंत छोटा समझना
सबसे अधिक मूल्यवान तथा उत्कृष्ट शिक्षा है। अपने को छोटा समझना एवं दूसरों
को श्रेष्ठ समझना और उनकी मंगल-कामना करना ही श्रेष्ठ ज्ञान तथा संपूर्णता
का लक्षण है।
यदि यह देखो कि कोई प्रत्यक्ष रूप में पाप कर रहा है अथवा कोई किसी प्रकार का
अपराध कर रहा है, तो भी अपने को श्रेष्ठ न समझो।
हम सबका पतन हो सकता है; फिर भी, तुम्हारी यह दृढ़ धारणा रहनी चाहिए कि
तुम्हारी अपेक्षा अधिक दुर्बल और कोई नहीं है।
तृतीय परिच्छेद
सत्य की शिक्षा
१. सुखी तो वही मनुष्य है, जिसे सत्य स्वयं ही शिक्षा देता है--नश्वर
शब्दों अथवा सांकेतिक चिह्नों द्वारा नहीं, वरन् अपने स्वरूप द्वारा।
हमारा मत एवं हमारी समस्त इंद्रि हमें अत्यधिक धोखा देती हैं; क्योंकि
वस्तु का प्रकृत तत्त्व पहचानने में हमारी दृष्टि की गति अत्यंत अल्प है।
गुप्त एवं गूढ़ विषयों का निरंतर अनुसंधान करने से क्या लाभ होगा ? उनको यदि
न जाना, तो भी अंतिम विचार के दिन
[16]
हम निंदित न होंगे।
उपकारी एवं आवश्यक वस्तु को त्यागकर स्वेच्छा से केवल उत्सुकता
उत्पन्न करनेवाले और अपकारी विषय का अनुसंधान करना अत्यंत निर्बुद्धि का
कार्य है। नेत्र रहते हुए भी हम नहीं देख रहे हैं !
२. न्याय-शास्त्र संबंधी पदार्थों का विचार करने में हम क्यों व्यस्त
रहते हैं ? अनेक संदेहपूर्ण तर्कों से वे ही मुक्त होते हैं, जिन्हें सनातन
वाणी
[17]
उपदेश देती है।
उस अद्वितीय वाणी से सब पदार्थ नि:सृत हुए हैं, समस्त पदार्थ उसी वाणी का ही
निर्देश कर रहे हैं; वह आदि है और वही हमें उपदेश प्रदान करती है।
उस वाणी के बिना न तो कोई कुछ समझ सकता है और न किसी विषय पर यथार्थ रूप से
विचार ही कर सकता है।
वे ही अचल रूप से प्रतिष्ठित हैं, वे ही ईश्वर में संस्थित हैं, जिनका
उद्देश्य केवल एक है, जिनके समक्ष समस्त पदार्थ एक अद्वितीय कारण का निर्देश
करते हैं और जो एक ज्योति में ही समस्त पदार्थों का दर्शन करते हैं।
हे ईश्वर, हे सत्य, मुझे अपने साथ अनंत प्रेम में एक कर लो।
बहुत से विषयों को सुनकर तथा उनका पठन कर मैं तो अत्यंत क्लांत हो जाता हूँ;
मेरा समस्त अभाव, मेरी सब वासनाएँ तुम्ही में निहित हैं।
सब आचार्यगण निर्वाक् हो जाएं, संसार तुम्हारे सामने स्तब्ध हो जाए; हे
प्रभो केवल तुम्हीं बोलो।
३. मनुष्य का मन जितना ही संयत एवं अंत:स्तल से सरल होता है, उतना ही वह
गंभीर विषयों में सहज में प्रवेश कर सकता है; क्योंकि उसका मन आलोक पाता है।
पवित्र, सरल एवं अटल व्यक्ति अनेक कार्य करने पर भी विचलित नहीं होता,
क्योंकि वह ईश्वर के माहात्म्य को प्रकाशित करने के लिए ही सब कार्य करता
है तथा अपने संबंध में क्रियाहीन होने के कारण सब प्रकार से स्वार्थशून्य
होता है। हृदय के भीतर पैठी हुई आसक्ति से बढ़कर और कौन पदार्थ तुम्हें अधिक
सताता या बाधा पहुँचाता है ?
ईश्वरानुरागी साधु पहले से ही अपने मन में निर्धारित कर लेते हैं कि उन्हें
कौन कौन से कार्य करने होंगे। उन सब कार्यों के करने में वे कभी भी विकृत
आसक्तिजनित इच्छा द्वारा प्रेरित नहीं होते; परंतु सम्यक् विचार द्वारा अपने
समस्त कार्यों को नियमित करते हैं।
जो आत्म-विजय के लिए चेष्टा कर रहे हैं; उनकी अपेक्षा और अधिक कठिन संग्राम
कौन करता है ?
स्वयं पर विजय प्राप्त करना, दिन पर दिन अपने ऊपर आधिपत्य जमाते जाना तथा
धर्म में आगे बढ़ते जाना--यही हमारा एकमात्र कर्तव्य है।
४. इस जगत में समस्त पूर्णता में ही अपूर्णता विद्यमान है। हमारा कोई भी
तत्त्वानुसंधान पूर्णतया संदेहरहित नहीं होता।
गंभीर वैज्ञानिक तत्त्वानुसंधान की अपेक्षा अपने को नगण्य समझना
ईश्वर-प्राप्ति का निश्चित पथ है।
किंतु विद्या के गुणमात्र अथवा किसी विषय के ज्ञानवर्द्धक विवेचित होने पर, वह
निंदित नहीं है, क्योंकि वह कल्याणप्रद एवं ईश्वरादिष्ट है।
किंतु सद्बुद्धि और साधु-जीवन विद्या की अपेक्षा अधिक वांछनीय हैं।
बहुत से लाग साधु होने की अपेक्षा विद्वान होने की अधिक चेष्टा करते हैं,
इसका फल यह होता है कि वे बहुधा कुमार्ग में विचरण करने लगते हैं, ओर उनका
सारा परिश्रम या तो अत्यल्प फल उत्पन्न करता है या बिल्कुल निष्फल हो
जाता है।
५. अहो ! संदेह पैदा करने में मनुष्य जिस प्रकार यत्नशील रहता है, पाप दूर
करने या पुण्य बोने में यदि उसी प्रकार रहता, तो आज पृथ्वी पर इस प्रकार के
अमंगल और पाप-कार्य न होते; धार्मिक लोगों में इस प्रकार की उच्छृंखलता भी न
रहती।
अंतिम विचार के दिन निश्चय ही यह न पूछा जाएगा कि तुमने क्या पढ़ा है; पूछा
यही जाएगा कि तुमने क्या किया है। यह न पूछा जाएगा कि तुमने किस कुशलता से
वाक्य-विन्यास किया है; बल्कि धर्म में कहाँ तक जीवन-यापन किया है --यही
पूछा जाएगा।
जिनके साथ तुम अच्छी तरह परिचित थे एवं जिन्होंने अपने अपने व्यवसायों में
विशेष उन्नति प्राप्त कर ली थी, व सब पंडित और अध्यापकगण आज कहाँ हैं, बता
सकते हो ?
आज तो अन्य व्यक्ति उनके स्थान पर अधिकार ग्रहण कर रहे हैं; और यह निश्चित
रूप से कहा जा सकता है कि वे लोग उनके बारे में तनिक भी चिंता नहीं करते।
जब तक वे जीवित थे, तभी तक उनकी कुछ गिनती थी; अब कोई उनकी बात भी नहीं करता।
६. अहो ! सांसारिक गरिमा कैसे शीघ्र नष्ट हो जाती है ! अहा ! उनका जीवन यदि
उनके ज्ञान की भाँति होता, तो हम समझते कि उनके अध्ययन और मनन सफल हुए हैं।
ईश्वर की सेवा के लिए किसी प्रकार की चेष्टा न कर, विद्या के कोरे अहंकार
में कितने ही लोगों का विनाश हो जाता है ! संसार में वे दीन-हीन होना नहीं
चाहते, वे बड़े कहलाना चाहते हैं; और इसीलिए तो वे इतने अहंकारी होते हैं !
वे ही वास्तविक महान हैं, जिनकी सहानुभूति नि:स्वार्थ है।
वे ही वास्तविक महान हैं, जो अपनी दृष्टि में स्वयं अत्यंत छोटे हैं तथा
उच्च पद द्वारा प्राप्त होनेवाले सम्मान को भी बहुत ही तुच्छ समझते हैं।
वे ही यथार्थ ज्ञानी हैं, जो ईसा को पाने के लिए समस्त पार्थिव वस्तुओं को
विष्ठा की भाँति समझते हैं।
वे ही यथार्थ पंडित हैं, जो ईश्वर की इच्छा से अपने को संचालित करते हैं और
अपनी स्वयं की इच्छा त्याग देते हैं।
चतुर्थ परिच्छेद
कार्य में बुद्धिमत्ता
१. प्रत्येक प्रमाद अथवा मनोवेगजनित इच्छा पर ही हमें विश्वास न कर लेना
चाहिए, परंतु सतर्कता एवं धैर्य के साथ उक्त विषय का ईश्वर के साथ जो संबंध
है, उस पर विचार करना चाहिए।
अहा ! हम इतने दुर्बल हैं कि प्राय: बहुत जल्द दूसरों की प्रशंसा की अपेक्षा
उनकी निंदा पर अधिक विश्वास कर लेते हैं और फिर जगह जगह उसका वर्णन करते
फिरते हैं।
जो लोग पवित्रता में उन्नत हैं, वे बुरे प्रवादों पर सहसा विश्वास नहीं
करते; क्योंकि वे जानते हैं कि मनुष्य की दुर्बलता उसे दूसरों की निंदा करने
और झूठ बोलने में अत्यंत प्रबल बना देती है।
२. जो कार्य में हठी नहीं हैं तथा विशेष विपरीत प्रमाण होने पर भी अपने ही मत
को पकड़े रहने का जिनका स्वभाव नहीं है, जो लोग जो कुछ सुनते हैं उसी पर
विश्वास नहीं कर लेते और सुनने पर भी उसे तुरंत बताते नहीं फिरते, वे अत्यंत
बुद्धिमान हैं।
३. बुद्धिमान एवं सद्विवेकी लोगों के समीप उपदेश ग्रहण करो, और केवल अपनी
बुद्धि का ही अनुसरण न करके, तुम्हारी अपेक्षा जो अधिक जानते हैं, उनसे ज्ञा
प्राप्त करके उत्तम विवेचना करो।
साधु-जीवन मनुष्य को ईश्वर की दृष्टि में बुद्धिमान बनाता है, और इस प्रकार
का व्यक्ति यथार्थ में बहुदर्शन प्राप्त करता है। जो अपने को जितना ही
नगण्य समझेगा तथा जितने अधिक परिमाण में ईश्वर के इच्छाधीन रहेगा, वह सदैव
उसी परिमाण में बुद्धिमान एवं शांतिपूर्ण बना रहेगा।
पंचम परिच्छेद
शास्त्र-पाठ
१. सत्य का अनुसंधान शास्त्र में करना होगा, वाक्चातुर्य में नहीं। जिस
परमात्मा की प्रेरणा से बाइबिल लिखी गई है, उसीके सहारे बाइबिल पढ़ना उचित
है।
[18]
शास्त्र पढ़ने के समय कूट तर्क त्यागकर हमें कल्याण का ही अनुसंधान करना
चाहिए।
जिन ग्रंथों में विद्वत्ता एवं गंभीरतापूर्ण अनेक गहन विषयों का वर्णन है,
उन्हें पढ़ने के लिए हमारी जिस प्रकार रुचि होती है, उसी प्रकार अत्यंत सरल
रूप से लिखे हुए किसी भक्ति-ग्रंथ में भी हमारी रुचि होनी चाहिए।
ग्रंथकार की ख्याति अथवा अप्रसिद्धि देखकर अपने मन को विचलित न करो। केवल
सत्य के प्रति अपने प्रेम द्वारा प्रेरित होकर तुम अध्ययन करो।
[19]
किसने लिखा है इस बात पर ध्यान न देकर, क्या लिखा है उसी पर सावधानी से
विचार करना चाहिए।
२. मनुष्य चले जाते हैं, किंतु ईश्वर का सत्य चिरकाल तक रहता है। विभिन्न
रूपों में ईश्वर हमसे कह रहे हैं कि उनके पास किसी व्यक्ति विशेष का आदर
नहीं है।
शास्त्र पढ़ते जिन सब बातों को केवल उड़ती नजर से ही देखना उचित है, बहुधा
उन्हीं बातों का मर्म जानने तथा उनकी आलोचना करने में हम व्यग्र हो जाते
हैं। इस प्रकार हमारी उत्सुकता हमें अनेक बार बाधा पहुँचाती है।
यदि भलाई की इच्छा करते हो, तो नम्रता, सरलता एवं विश्वास के साथ अध्ययन
करो। और कभी भी पंडित कहलाकर परिचित होने की वासना न रखो।
षष्ठ परिच्छेद
घोर आसक्ति
१. जब कोई मनुष्य किसी वस्तु के लिए अत्यंत उत्सुक हो जाता है, तब उसकी
आभ्यन्तरिक शांति नष्ट हो जाती है।
[20]
अभिमानी और लोभी लोग कभी शांति नहीं पाते, किंतु नगण्य और विनीत लोग सदैव
शांति से जीवन-यापन करते हैं। जो मनुष्य स्वार्थ के बारे में अब भी पूर्ण
रूप से उदासीन नहीं हुआ है, वह शीघ्र ही प्रलोभित हो जाता है और अत्यंत साधारण
तथा नगण्य विषय भी उसे पराजित कर देते हैं।
[21]
जिसकी आत्मा दुर्बल है तथा जो अब भी इंद्रिय-भोगों में आबद्ध है, उसके लिए
काल में उत्पन्न और नष्ट होनेवाले इंद्रियगत विषयों में आसक्तिपूर्ण
पार्थिव वासना से अपने को विच्छिन्न करना अत्यंत कठिन है। इसीलिए जब वह
अनित्य पदार्थो को किसी तरह त्यागने की चेष्टा करता है, तो उसका मन दु:खी
हो जाता है और किसी के तनिक भी बाधा पहुँचाने से वह क्रुद्ध हो उठता है।
इसके अतिरिक्त यदि वह कामनाओं के पीछे दौड़ता है, तो फिर उसका मन पाप के भार
का अनुभव करता है और उसके फलस्वरूप वह अशांति-भोग करता है, क्योंकि जिस
शांति को वह ढूँढ़ रहा था, इंद्रियों द्वारा आबद्ध होने के कारण, वह उस ओर
अग्रसर न हो सका।
अस्तु, मन में यथार्थ शांति इंद्रियों पर विजय-लाभ से ही मिलती है, इंद्रियों
का अनुगमन करने से नहीं। अत: जो व्यक्ति सुख के अभिलाषी हैं, उनके ह्रदय में
शांति नहीं है; जो व्यक्ति अनित्य बाह्य विषयों का अनुसरण करते हैं, उनके मन
में भी शांति नहीं है; किंतु जो आत्माराम हैं एवं जिनका अनुराग तीव्र है, वे
ही शांति के अधिकारी होते हैं।
[22]
[1]
. स्वामी जी की प्रथम अमेरिका यात्रा में एक पश्चिमी शिष्य के
प्रश्नों के उत्तर के रूप में उनके द्वारा लिखित।
[2]
स्वामी जी की प्रथम अमेरिका यात्रा में एक पश्चिमी शिष्य द्वारा
पूछे प्रश्नों के उत्तर में उनके द्वारा लिखित।
[3]
स्वामी विवेकानन्द की पहली अमेरिका यात्रा में एक शिष्य के
प्रश्नों के उत्तर के रूप स्वामी जी द्वारा लिखित।
[4]
स्वामी जी की पहली अमेरिका यात्रा में एक पश्चिमी शिष्य द्वारा पूछे
गये प्रश्नों के उत्तर में उनके द्वारा लिखित।
[5]
जिस समय यह लेख लिखा गया था।
[6]
जोहन ८।१२।।
He that followeth me &c.
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।गीता।।७।१४।।
--'मेरी सत्त्वादि त्रिगुणमयी माया नितान्त दुरतिक्रम्य है; जो
व्यक्ति केवल मेरी ही शरण में आकर भजन करता है, केवल वही इस दुस्तर
माया के पार जाता है।'
[7]
To mediate & c.
धात्वैवात्मानमहर्निशं मुनिः।
तिष्ठेत सदा मुक्तसमस्तबंधनः।। रामगीता।।
---'मुनि इस प्रकार रात-दिन परमात्मा के ध्यान द्वारा समस्त संसार-
बन्धनों से मुक्त होते हैं।'
[8]
इज़रायल के निवासी जब रेगिस्तान में आहार की कमी से कष्ट पा रहे थे,
उस समय ईश्वर ने उनके लिए एक प्रकार की खाद्य-सामग्री बरसायी
थी--उसका नाम 'मान्ना' था।
[9]
But it happens &c.
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।गीता।।
--'सुनकर भी अनेक इसे नहीं समझ पाते।'
न गच्छति विना पारं व्याधिरौषधशब्दत:।
विनाऽपरोक्षानुवं ब्रह्मशब्दैर्न मुच्यते।। विवेकचूड़ामणि।।६४।।
--'औषधि शब्द उच्चारण करने से ही व्याधि दूर नहीं होती,
अपरोक्षानुभव के बिना ब्रह्म ब्रह्म कहने से ही मुक्ति लाभ नहीं
होता।'
श्रुतेन किं यो न च धर्ममाचरयेत्।। महाभारत।।
--'यदि धर्म-आचरण नहीं करते हो, तो वेद पढ़कर क्या होगा ?'
[10]
ईसाई मत में जनकेश्वर (पिता), पवित्र आत्मा एवं तनयेश्वर
(पुत्र)--ये एक में तीन, तीन में एक हैं।
[11]
Surely sublime language &c.
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये।। विवेकचूड़ामणि।।६।।
--'नाना प्रकार के वाक्यविन्यास एवं शब्छ-छटा-यह सब जिस प्रकार
शास्त्रव्याख्या का एक कौशल मात्र है, उसकी प्रकार पण्डितों का
पण्डित्य-प्रकर्ष केवल भोग के लिए है, मुक्ति के लिए नहीं।'
[13]
इक्लिजि़यास्टिक 1।२-Vanity of vanities, all ia vanity &c.
के सन्ति सन्तोऽखिलवीतरागा:।
अपास्तमोहा: शिवतत्त्वनिष्ठा:।। मणिरत्नमाला--शंकराचार्य।। 'जो लोग
समस्त सांसारिक विषयों में आशाशून्य होकर एकमात्र शिवतत्त्व में
निष्ठावान् हैं वे ही साधु हैं।'
[14]
इक्लिजि़यास्टिक।१।८।।
[15]
Striv therefore &c.
न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्ण्वर्त्मेव भय एवाभिवर्धते।। महाभारत।।
--'काम्य वस्तु के उपभोग द्वारा कामना की निवृत्ति नहीं होती, वरन्
अग्नि में घृत डालने की भाँति वह अत्यन्त बढ़ जाती है।'
[16]
ईसाई मत में महाप्रलय के दिन ईश्वर सबका विचार करेंगे एवं पाप या
पुण्यानुसार नरक या स्वर्ग प्रदान करेंगे।
[17]
यह वाणी बहुत कुछ वेदान्तियों की 'माया' की तरह है। इसीका ईसा के रूप
में अवतार हुआ था।
[18]
नैषा तर्केण मतिरापनेया--'तर्क के द्वारा भगवत्सम्बन्धी ज्ञान
प्राप्त नहीं किया जा सकता।' कठोपनिषद्।।१।२।९।।
[19]
आददीत शुभां विद्यां प्रयत्नादवरादपि।। मनु।।
--'नीच से भी यत्नपूर्वक उत्तम विद्या ग्रहण करो।'
[20]
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।। गीता।।२।६७।।
--'चंचल इन्दियों के पीछे जानेवाला मन उस मनुष्य की प्रज्ञा को उसी
प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे वायु नाव को जल में मग्न कर देती है।'
[21]
ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते।
संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधात्भवि सम्मोह: सम्मोहात् स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
गीता।।२।६२-६३।।
--'विषयों की चिन्ता करने से मनुष्य में उनके प्रति आसक्ति
उत्पन्न हो जाती है। आसक्ति से वासना की, तथा अतृप्त वासना से
क्रोध की उत्पत्ति होती है। क्रोध से मोह होता है एवं मोह से स्मृति
भ्रमित हो जाती है। स्मृतिभ्रंश होने से नित्यानित्यविवेक नष्ट हो
जाता है और विवेक नष्ट हो जाने से उसका पूर्णत: पतन हो जाता है।'
[22]
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:।।गीता।।२।६०।।
--'हे कौन्तेय, चंचल सबल इन्द्रियाँ संयमी धीर पुरुष के मन को भी
बलपूर्वक हर लेती हैं।'