अवाड़ ; गमनसगोचरम्
सूर्य भी नहीं है, ज्योति-सुंदर शंशाक नहीं,
छाया सा ब्योम में यह विश्व नजर आता है।
मनोआकाश अस्फुट, भासमान विश्व वहाँ
अहंकार-स्रोत ही में तिरता डूब जाता है।
धीरे-धीरे छायादल लय में समाया जब
धारा निज अहंकार मंदगति बहाता है।
बंद वह धारा हुई, शून्य में मिला है शून्य,
'अवाड़;गमनसगोचरम्' वह जाने जो ज्ञाता है।
सखा के प्रति
स्वास्थ्य रोग में, दु:ख में सुख है, अंधकार में जहाँ प्रकाश,
शिशु के प्राणों का साक्षी है रोदन [1] जहाँ वहाँ क्या आस
सुख की करते हो तुम मति मन ?- छिड़ा हुआ है रण अविराम
घोर द्वंद्व का, यहाँ पुत्र को भी न पिता देता है स्थान,
गूँज रहा रव घोर स्वार्थ का, कहाँ शांति का शुचि आकार
कहाँ ? नरक प्रत्यक्ष, स्वर्ग है [2] , कौन छोड़ सकता संसार?
कर्मपाश से बँधा गला, वह कीत दास जाए किस ठौर ?
(सोचा, समझा है मैंने, पर एक उपाय न देखा और)
योग-भोग, जप-तप, धन-अर्जन, गृह-आश्रम, कठोर, संन्यास,
त्याग-तपस्या-व्रत सब देखा, पाया है जो मर्माभास
मैंने, समझा है, न कहीं सुख है, यह तनुधारण ही व्यर्थ,
उतना ही दु:ख है, जितना ही ऊँचा है तब हृदय समर्थ।
हृदयवान नि:स्वार्थ प्रेम के ! इस भव में न तुम्हारा स्थान,
लौह-पिंड जो चोटें सहता, मर्म के अति कोमल प्राण
उन चोटों को सह सकते क्या? होओ जड़वत् नीचाधार,
मधु-सुख गरल-हृदय, निजता-रत, मिथ्यापर, देगा संसार
जगह तुम्हें तव विद्यार्जन के लिए प्राणपण से अतिपात
अर्ध आयु का किया, फिरा फिर पागल सा फैलाए हाथ
प्राणरहित छाया के पीछे लुब्ध प्रेम का; विविध निषेध
विधियाँ की थीं धर्म-प्राप्ति को, गंगातट, श्मशान गतखेद,
नदी तीर, पर्वत गह्वर, फिर भिक्षाटन में समय अपार
पार किया असहाय, छिन्न कौपीन, जीर्ण अंबर तनुधार
द्वार द्वार फिर, उदर-पूर्ति कर, भग्न शरीर तपस्या-भार
धारणा से, पर अर्जित क्या पाया सब मैंने अंतर-सार -
सुनो, सत्य जो जीवन में मैंने समझा है यह संसार
घोर तरंगाघात क्षुब्ध, बस एक नाव जो करती पार -
तंत्र, मंत्र, नियमन प्राणों का, मत अनेक, दर्शन विज्ञान,
त्याग, भोग, भ्रम घोर बुद्धि का,'प्रेम'-प्रेम' धन लो पहचान।
जीव, ब्रह्म, नर-ईश्वर, निर्जर, प्रेत-पिशाच, भूत-बैताल,
पशु-पक्षी, अणुकीट-कीट में यही प्रेम अंतर-तम-ज्वाल
'देव देव' वह और कौन है? कहो चलाता सबको कौन ?
माँ को पुत्र के लिए देता प्राण, दस्यु हरता है ! मौन
प्रेरण, एक प्रेरण, एक-प्रेम का ही ! वे हैं मन-वाणी से अज्ञात-
वे ही सुख-दु:ख में रहती हैं - शक्ति मृत्युरूपा अवदात,
मातृभाव से वे ही आतीं। रोग, शोक, दारिद्रय कठोर,
धर्म-अधर्म, शुभाशुभ से है पूजा उनकी ही सब ओर
बहुभावों से,कहो और क्या कर सकता है जीव विधान?
भ्रम में ही है वह, सुख की आकांक्षा में हैं डूबे प्राण
रहते जिसके, दु:ख की रखता है जो चाह-घोर उन्माद
मृत्यु चाहता है, पागल है वह भी, वृथा अमरता-वाद !
जितनी दूर-दूर चाहे जितना जाओ चढ़कर रथ पर
तीव्र बुद्धि के, वहाँ-कहाँ तक फैला यही जलधि दुस्तर
संसृति का, सुख-दु:ख-तरंगावर्त धूर्ण्य, कंपित, चंचल
पंखविहीन हो रहे हो तुम सुनो यहाँ के विहग सकल,
यह न कहीं उड़ने का पथ है, कहाँ भाग जाओगे तुम?
बार बार अतिघात पा रहे व्यर्थ कर रहे क्यों उद्यम ?
छोड़ो विद्या, जप-तप का बल, स्वार्थविहीन प्रेम-आधार
एक हृदय का, देखो शिक्षा देता है पतंग पर प्यार
अग्निशिखा को आलिंगन कर; रूप-मुग्ध वह कीट अधम
अंध, और तुम, मत प्रेम के, हृदय तुम्हारा उज्ज्वलतम,
प्रेमवत्स ! सब स्वार्थ-मलिनता अनलकुंड
कर दो, सोचो भिक्षुक-हृदय सदा का ही है सुख-वर्जित,
और कृपा के पात्र हुए भी तो क्या फल? तुम बारंबार
सोचो, दो न फेर कर लो यदि हो अंतर में कुछ भी प्यार।
अंतस्तल के तुम अधिकारी, सिंधु प्रेम का भरा अपार
अंतर में,'दो'- जो चाहे, हो बिंदु सिंधु उसका नि:सार।
ब्रह्म और परमाणु-कीट तक, सब भूतों का है आधार
एक प्रेममय, प्रिय, इन सबके चरणों में दो तन-मन वार।
बहु रूपों से खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ है ईश ?
व्यर्थ खोज। यह जीवन-प्रेम की ही सेवा पाते जगदीश।
गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को
गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को;
भले और बुरे की -
लोक-निंदा, यश-कथा की
नहीं परवाह मुझे;
दास हूँ तुम दोनों का,
सशक्तिक चरणों में प्रणाम है तुम्हारे देव।
पीछे खड़े रहते हो,
इसीलिए हँसते हुए सुख को
मैं देखता हूँ बार बार मुड़ मुड़कर;
बार बार गाता मैं - खौफ नहीं खाता कभी,
जन्म और मृत्यु मेरे पैरों पर लोटते हैं
दया के सागर तुम,
दास हूँ तुम्हारा जन्म जन्म का मैं;
गति मैं तुम्हारी नहीं जानता हूँ -
अपनी गति?- वह भी नहीं,
कौन चाहता भी है जानने को ?
भुक्ति-मुक्ति-भक्ति आदि जितने हैं
जप-तप-साधन-भजन सब
आज्ञा से तुम्हारी ही दूर मैंने कर दिए हैं,
एकमात्र आशा पहचान की है लगी हुई,
इससे भी करो पार !
नेत्र देखते हैं यह सारा ब्रह्मांड,
नहीं देखते वे अपने को [3] ,
देखें भी क्यों कहो?-
देखते अपना ही मुख
दूसरों का देख रूप
मेरे तुम नेत्र हो,
रूप तुम्हारा ही सब घटों में विराजमान
बालकेलि करता हूँ तुमसे मैं
और क्रोध करके देव
तुमसे किनारा कर जाना कभी चाहता हूँ
किंतु निशा-काल में
शय्या के शिरोभाग में,
देखता हूँ तुमको मैं खड़े हुए,
चुपचाप, आँखें छलछलाई हुई,
हेरते हो मेरे तुम सुख की ओर
उसी समय बदल जाता भाव मेरा,
पैरों पड़ता हूँ,
पर क्षमा नहीं माँगता;
तुम नहीं करते हो रोष
पुत्र हूँ तुम्हारा, कहो,
और कोई कैसे इस प्रगल्भता को
सहन कर सकता है ?
प्रभु हो तुम मेरे,
तुम प्राणसखा मेरे हो।
कभी देखता हूँ -
"तुम मैं हो, मैं तुम हूँ,
तुम वाणी, हो वीणापाणि मेरे तुम कष्ठ में -
तुम्हारी ही तरंगों से बह जाते नारी-नर।"
सिंधु-नाद जैसा तुम्हारा हुंकार है,
सूर्य और चंद्र में हैं वचन तुम्हारे देव,
मृदु मंद पवन तुम्हारा आलाप है,
ये सब हैं सच बातें,
किंतु फिर भी स्थूल भाव ही है यह,
तत्त्व-वेत्ताओं का प्रसंग यह है नहीं।
सूर्य चंद्र-तारा-ग्रहमंडल सब,
कोटि कोटि मंडली-निवास,
धूमकेतु, बिजली की चमक और
विस्तृत अनंत यह आकाश देखता है मन।
काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि,
इस तरंग-लोला का उत्थान जहाँ होता है,
विद्या-अविद्या का स्थान,
जन्म-जरा-जीवन-मरण जैसे
सुख-दु:ख-द्वंद्वों से भरा,
केंद्र जिसका अहं है,
दोनों भुज-बहि: और अभ्यतंर,
आसमुद्र आसूर्य-चंद्रमा,
आतारक अनंत आकाश,
मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार,
देव-यक्ष-मानव-दानवण-गण,
पशु-पक्षी-कृमि-कीट आदि,
अणुक-द्वयणुक-जड़जीव,
उसी समक्षेत्र में हैं विद्यमान
अति स्थूल ही तो किंतु यह बाह्य विकास है
केश जैसे मस्तक पर।
मेरूतट पर हिमाच्छादित पर्वत
है योजनों का उसका विस्तार;
निरभ्र नभ में उठे अभ्रभेदी बहु श्रृंग;
दृष्टि झुलसाती हैं हिमशिलाएँ,
बिजली के प्रकाश से सौगुणा बढ़ा है तेज
उत्तर अयन में
एकीभूत किरणों की हज़ारों ज्योति-रेखाएँ
कोटि-वज्र-सम-खर क-धरा जब ढालती हैं,
हर एक श्रृंग पर
मूर्च्छित हुए से भुवन-भास्कर नजर आते हैं,
गलता हिमश्रृंग जब टपकता है गुहा में,
घोर नाद करता हुआ
टूट जब पड़ता गिरि,
स्वप्न सम जलबिंब जल में मिल जाता है।
मन की सब वृत्तियाँ जब एक ही हो जाती हैं,
कोटि सूर्य से भी बढ़ा
फैलता है चित्प्रकाश,
गल जाते सूर्य-चंद्र-तारा-दल -
खमंडल-तलातल-पाताल भी,
ब्रह्मांड गोष्पद समान जान पड़ता तब।
बाह्य भूमि के बाहर जाता जब, शांतधातु होता,
मन निश्चल होता है स्थिर,
तंत्रियाँ हृदय की सब ढीली पड़ जाती हैं,
खुल जाते बंधनसमूह
और दूर होते माया-मोह,
गूँजता अनाहत नाद सुंदर तुम्हारा वहाँ,
भक्तिपूर्वक सुनता यह दास
है तत्पर सदा ही
पूर्ण करने को तुम्हारा काम।
"मैं ही विद्यमान हूँ,
प्रलय के समय में
अनंत ब्रह्मांड ग्रास करके जब
ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता मिट जाते हैं,
नामोनिशान नहीं रहते संसार के -
पार करता तर्क की भी सीमा को
नहीं रहते हैं जब सूर्य-चंद्र-तारा-ग्रह -
वह महानिर्वाण है -
नहीं रह जाता कर्म करण या कारण कुछ,
घोर अंधकार होता अंधकार-हृदय में,
(तब) मैं ही विद्यमान हूँ ।
"मैं ही विद्यमान हूँ,
प्रलय के समय में
अनंत ब्रह्मांड ग्रास करके जब
ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता मिट जाते हैं,
नामोनिशान नहीं रहते संसार के -
पार करता तर्क की भी सीमा को,
नहीं रहते हैं जब सूय-चंद्र-तारा-ग्रह
घोर अंधकार होता अंधकार-हृदय में,
दूर होते जगत् के तीनों गुण -
अथवा वे मिल करके शांत भाव धरते जब
एकाकार होते सूक्ष्म शुद्ध परमाणुकाय,
(तब) मैं ही विद्यमान हूँ।
"मैं विकसित फिर होता हूँ।
मेरी ही शक्ति धरती पहले विकार-रूप।
आदि वाणी प्रणव-ओंकार ही
बजता महाशून्य-पथ में,
अनंत आकाश है सुनता महानाद-ध्वनि
कारणमंडली की निद्रा छूट जाती है,
अनंत अनंत परमाणुओं में
प्राण भी आ जाते हैं,
नर्तन-आवर्त और उच्छ्वास
बड़ी दूर से
चलते केंद्र ही की ओर,
चेतन पवन है उठाती ऊर्मिमालाएँ
महाभूत-सिंधु पर,
परमाणुओं के आवर्त धन विकास और
रंग-भंग-पतन-उच्छवास-संग
बहती बड़े वेग से हैं वे तरंगराजियाँ
जिनसे अनंत - हाँ, अनंत खंड उठे हुए
घात-प्रतिघातों से
शून्यपथ में दौड़ते हैं -
खमंडल बन बनकर,
तारा-ग्रह घूमते हैं,
घूमती यह पृथ्वी भी - मनुष्यों की वास-भूमि।
"आदि कवि मैं ही हूँ
मेरी ही शक्ति के रचना-कौशल में हैं
जड़ और जीव सारे।
मैं ही खेलता हूँ शक्तिरूपिणी निज माया से
एक होता हूँ अनेक
मैं देखने के लिए सब अपने स्वरूपों को।
"आदि कवि मैं ही हूँ,
मेरी ही शक्ति के रचना-कौशल में हैं
जड़ और जीव सारे
मेरी ही आज्ञा से
बहती इस वेग से झंझा इस पृथ्वी पर,
गरज उठता है मेघ -
अशनि में नाद होता,
मृदु मंद वायु भी
आती और जाती है
मेरे ही श्वास के ग्रहण और त्याग में;
हिसकर सुख-हिमकर की धारा जब बहती है,
तरू औ लताएँ हैं ढकतीं घरा की देह,
शिशिर से धुले हुए सुख को उठा करके
ताकते रह जाते हैं
भास्कर को सुमनवृंद !"
नाचे उस पर श्यामा [4]
फूले फूल सुरभि-व्याकुल, अलि गूँज रहे हैं चारों ओर।
जगतीतल में सकल देवता भरते शशि-मृदु हँसी-हिलोर।।
गंध-मंद-गति मलय-पवन है खोल रही स्मृतियों के द्वार।
ललित-तरंग नदी-नद-सरसी, चल-शतदल पर भ्रमर-विहार।।
दूर गुहा में निर्झरिणी की तान-तरंगों का गुंजार।
स्वरमय किसलय-निलय [5] विहंगों के बजते सुहाग के तार।।
तरूण चितेरा अरुण बढ़ाकर स्वर्ण-तूलिका-कर सुकुमार।
पट-पृथिवां पर रखता है जब, कितने वर्णों का संचार।।
हो जाता है जगतीतल पर, खिलते कितने राग अपार।
देख देख भावुक-जन-मन में जगते कितने भाव उदार।।
गरज रहे है मेघ अशनि का गूँज़ा घोर निनाद-प्रमाद।
स्वर्ग-घरा-व्यापी संगर का छाया विकट-कटक-उन्माद।।
अंधकार उद्गीरण करता अंधकार घन घोर अपार।
महाप्रलय की वायु सुनाती साँसों में अगणित हुंकार।
तिस पर चमक रही है रक्तिम विद्युज्ज्वाला बारंबार।
फेनिल लहरें गरज चाहतीं करना गिरि-शिखरों को पार।।
भीम-घोष-गंभीर, अतल र्धेंस, टलमल करती घरा अधीर।
अनल निकलता छेद भूमितल, चूर ही रहे अचल शरीर।।
हैं सुहावने मंदिर कितने, नील-सलित-सर-वीचि-विलास।
वलयित कुवलय, खेल, खिलाती मलय वनज-वन-यौवन-हास।।
बढ़ा रहा है अंगूरों का हृदय-रूधिर प्याले का प्यार [6] ।
फेनशुभ्र-सिर उटे बुलबुले मंद मंद करते गुंजार।।
बजती है श्रुतिपथ में वीणा, तारों की कोमल झनकार।
ताल ताल पर चली बढ़ाती ललित वासना का संसार।।
भावों में क्या जाने कितना व्रज का प्रकट प्रेम-उच्छवास।
आँसू बहते, विह ताप से तप् गोपिकाओं के श्वास।।
नीरज-नील नयन, बिंबाधर जिस युवती के अति सुकुमार।
उमड़ रहा जिसकी आँखों पर मृदु भावों का पारावार।।
बढ़ा हाथ दोनों मिलने को बढ़तीं, प्रकट प्रेम-अभिसार।
प्राण-पखेरू, प्रेम-पिंजरा; बंद ! बंद है उसका द्वार।।
भेरी झरर झरर दमामें, घोर नकारों की है चोप।
कड़क कड़क सनसन् बंदूकें, अररर अररर अररर तोप।।
धूम धूम है भीम रणस्थल, शत शत ज्वालामुखियां घोर।
आग उगलती दहक दहक दह कँपा रहीं भू-नभ के छोर।।
फटते लगते हैं छाती पर घाती गोले सा सौ बार।
उड़ जाने हैं कितने हाथी, कितने घोड़े और सवार।।
थर थर पृथ्वी थर्राती है, लाखों घोड़े कस तैयार।
करे चढ़ते, बढ़ते अड़ते, झुक पड़ते हैं वीर जुझार।।
भेद धूमतल-अनल, प्रबल दल, चोर गोलियों की बौछार।
धँस गोलों-ओलों में, लाते छीन तोप कर बेड़ी मार।।
आगे फहराती जाती है ध्वजा, वीरता की पहचान।
झरती धारा-रूधिर दंड में, अड़े पड़े पर वीर जवान।।
साथ साथ पैदल-दल चलता, रण-मद-मतवाले सब वीर।
छूटी पताका, गिरा वीर जब, लेता पकड़ अपर रणधीर।।
पटे खेत अगणित लाशों से कट हजारों वीर जवान।
डटे लाश पर पैर जमाए हटे न वीर छोड़ मैदान।।
देह चाहती है सुख-संगम, चित्त-विहंगम स्वर-मधु-धार।
हँसी-हिंडोले झूल चाहता मन जाना दु:ख-सागर पार।।
हिम-शशांक का किरण-अंक-मुख कहो कौन जो देगा छोड़ -
तपन-तप्त-मध्याह्न-प्रखरता ने नाता जो लेगा जोड़?
चंड दिवाकर ही तो भरता दशधर में कर-कोमल प्राण।
किंतु कलाधर ही को देता सारा विश्व प्रेम-सम्मान [7] ।।
सुख के हेतु सभी हैं पागल, दु:ख पर किस पागल का प्यार।
सुख में दु:ख, गरल अमृत में, देखो बता रहा संसार।
सुख-दु:ख का यह निरा हलाहल भरा कण्ठ तक, सदा अधीर।
रोते मानव, पर आशा का नहीं छोड़ते चंचल चीर।।
रूद्ररूप से सब डरते हैं, देख देख भरते हैं आह।
मृत्युरूपिणी मुक्तकुंतला माँ की नहीं किसी को चाह।।
उष्ण धार उद्गार रूधिर का करती है जो बारंबार।
भीम भुजा की, बीन छीनती वह जंगी नंगी तलवार।।
मृत्यु-स्वरूपे माँ !है तू ही सत्यस्वरूपा सत्याधार।
काली ! सुख-वनमाली तेरी माया-छाया का संसार [8] ।।
अये कालिके !माँ करालिके ! शीघ्र मर्म का कर उच्छेद।
इस शरीर पर प्रेम भाव, यह सुख-सपना, माया कर भेद।।
तुझे मुंडमाला पहनाते, फिर भय खाते तकते लोग।
'दयामयी' कह कह चिल्लाते, माँ दुनिया का देखा ढोंग।।
प्राण काँपते अट्टहास सुन, दिगंबरा का लख उल्लास।
अरे भयातुर,'असुर विजयिनी' [9] कह रह जाता, खाता त्रास।।
मुँह से कहता है, देखेगा, पर माँ, जब आता है काल।
कहाँ भाग जाता भय खाकर तेरा देख वदन विकराल।।
माँ !तू मृत्यु, घूमती रहती, उत्कट व्याधि रोग बलवान।
भर-विष-घड़े, पिलाती है तू घूँट जहर के, लेती प्राण।।
रे उन्मत !भुलाता है तू अपने को, न फिराता दृष्टि।
पीछे भय से, कहीं दूख तू-भीमा महाप्रलय की सृष्टि।।
दु:ख चाहता, बता उसमें क्या भरी नहीं है सुख की प्यास।
तेरी भक्ति और पूजा में चलती स्वार्थ-सिद्धि की साँस।।
छागकण्ठ की रूधिर-धार से सहम रहा तू भ्रम-सचार।
अरे कापुरुष ! बना दया का तू आधार - धन्य व्यवहार ! [10]
फोड़ो वीणा प्रेमसुधा का पीना छोड़ो-तोड़ो वीर।
दृढ़ आकर्षण है जिसमें उस नारी-माया की जंज़ीर।।
बढ़ जाओ तुम उदधि-ऊर्मि से गरज गरज गाओ निज गान।
आँसू पीकर जीना, जाये देह, हथेली पर लो जान।।
जागो वीर ! सदा ही सिर पर काट रहा है चक्कर काल।
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों ? काटो-काटो यह भ्रमजाल।।
दु:खभार इस भव के ईश्वर जिनके मंदिर का दृढ़ द्वार।
जलती हुई चिताओं में है, प्रेत-पिशाचों का आगार।।
सदा घोर संग्राम छेड़ना उनकी पूजा के उपचार।
वीर ! डराए कभी न, आए अगर पराजय सौ सौ बार।।
चूर चूर ही स्वार्थ, साध, सब मान, हृदय ही महाश्मशान।
नाचे उस पर श्यामा, लेकर घन रण में निज भीम कृपाण।।
काली माता
छिप गए तारे गगन के,
बादलों पर चढ़े बादल,
काँपकर घहरा अँधेरा,
गरजते तूफ़ान में, शत
लक्ष पागल प्राण छूटे
जल्द कारागार से - द्रुम
जड़ समेत उखाड़कर, हर
बला पथ की साफ़ करके।
शोर से आ मिला सागर,
शिखर लहरों के पलटते
उठ रहे हैं कृष्ण नभ का
स्पर्श करने के लिए द्रुत,
किरण जैसे अमंगल की
हर तरफ से खोलती है
मृत्यु-छायाएँ सहस्त्रों,
देहवाली धनी काली।
आधि-व्याधि बिखेरती, ऐ
नाचती पागल हुलसकर
आ, जननि, आ जननि आ, आ !
नाम है आतंक तेरा
मृत्यु तेरे श्वास में है,
चरण उठकर सर्वदा को
विश्व एक मिटा रहा है,
समय तू है सर्वनाशिनि,
आ, जननि, आ, जननि, आ, आ !
साहसी, जो चाहता है
दु:ख, मिल जाना मरण से,
नाश की गति नाचता है,
माँ उसी के पास आई।
सागर के वक्ष पर
नील आकाश में बहते हैं मेधदल,
श्वेत कृष्ण बहुरंग,
तारतम्य उनमें तारल्य का दीखता,
पीत भानु माँगता है विदा,
जलद रागछटा दिखलाते।
बहती है अपने ही मन से समीर,
गठन करता प्रभंजन,
गढ़ क्षण में ही, दूसरे क्षण में मिटता है,
कितने ही तरह के सत्य जो असंभव हैं -
जड़ जीव, वर्ण तथा रूप और भाव बहु।
आती वह तुलाराशि जैसी,
फिर बाद ही लखो महानाग,
देखो विक्रम दिखाता सिंह,
लखो युगल प्रेमियों को,
किंतु मिल जाते सब
अंत में आकाश में।
नीचे सिंधु गाता बहु तान,
महीमान किंतु नहीं वह,
भारत, तुम्हारी अंबुराशि विख्यात है,
रूप-राग जलमय हो जाते है,
गाते है यहाँ किंतु
करते नहीं गर्जन [11]
शिव-संगीत
(ताल-सुर-फाँकताल)
हर हर हर भूतनाथ पशुपति।
योगेश्वर महादेव शिव पिनाकपणि।।
उर्ध्व ज्वलंत जटाजाल, नाचत व्योमकेश भाल,
सप्त भुवन धरत ताल, टलमल अवनी।।
श्रीकृष्ण-संगीत
(मुलतान-ढिमा त्रिताली)
मुझे बारि बनौयारी सैया
जाने को दे।
जाने को दे रे सैया
जाने को दे (आजु भला)।।
मेरी बनोयारी, बाँदि तुहारि
छोड़े चतुराइ सैंया
जाने को दे (आजु भला)
(मारे सैया)
जमुना किनारे भरों गागरिया
जोरे कहत सैया
जाने को दे।।
शिवस्तोत्रम्
ऊँ नम:शिवाय
निखिलभुवनजन्मस्थेमभंगप्ररोहा :
अकलितमहिमान: कल्पिता यत्र तस्मिन्।
सुविमलगगनाभे त्वीशसंस्थेप्यनीशे
मम भवतु भवेस्मिन् भासुरो भावबंध:।।१।।
जिनमें समस्त जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय, अगणित विभूतियों के रूप में कल्पित किए गए हैं, जो सुनिर्मल आकाश के समान हैं, जो जगत् के ईश्वर स्वरूप होकर स्थिर हैं, परंतु जिनका और कोई नियंता नहीं है, उन्हीं महादेव में मेरा दृढ़ और उज्ज्वल प्रेम हो।।१।।
निहतनिखिलमोहेधीशता यत्र रूढा
प्रकटितपरप्रेम्ना यो महादेवसंज्ञ:।
अशिथिलपरिरंभ : प्रेमरूपस्य यस्य
ह्रदि प्रणयति विश्वं व्याजमात्रं विभुत्वम्।।२।।
जिन्होंने समस्त अज्ञान का नाश किया है, जिनमें ईश्वरत्व (स्वाभाविक रूप से ) अवस्थित है, जो (हलाहल पान कर जगत् के जीवों के प्रति) परम प्रेम प्रकाश करने पर महादेव के नाम से पुकारे गए हैं, जिन प्रेमस्वरूप के दृढ़ आलिंगन से समस्त ऐश्वर्य ही हमारे हृदय में माया मात्र रूप से प्रतिभात होता है, उन्हीं महादेव में मेरा दृढ़ और उज्ज्वल प्रेम हो।।२।।
वहति विपुलवात: पूर्वसंस्काररूप:
प्रमथति बलवृंदं घूर्णितेवोमिमाला।
प्रचलति खलु युग्मं युष्मदस्मत्प्रतीतं
अतिविकलितरूपं नौमि चित्तं शिवस्थम्।।३।।
जिसमें पूर्वसंस्काररूपी प्रबल वायु बह रही है, जो घूर्णायमान तरंग-समूह की तरह बलवान व्यक्तियों को भी दलित कर रही है, जिसमें तुम और मैं के रूप में प्रतिभात होनेवाला द्वंद्व चल रहा है, शिव में संस्थापित उस अतिशय विकृतरूप चित्त की मैं वंदना करता हूँ।।३।।
जनकजनितभावो वृत्तय: संस्कृताश्च
अगणनबहुरूपा यत्र चैको यथार्थ:।
शमितविकृतिवाते यत्र नान्तर्बहिश्च
तमहह हरमोडे चित्तवृत्तेनिरोधम्।।४।।
कार्य-कारण भाव और तरह तरह की असंख्य निर्मल वृत्तियाँ रहने पर भी जहाँ एक ही यथार्थ वस्तु है, विकाररूपी वायु शांत होने पर जहाँ भीतर और बाहर नहीं रहता है, अहा ! उन्हीं चित्तवृत्ति के निरोधरूपी महादेव का मैं स्तवन करता हूँ।।४।।
गलिततिमिरमाल: शुभ्रतेज:प्रकाश।
धवलकमलशोभ: ज्ञानपुत्र्जाट्टहास:।
यमिजनहदिगम्यो निष्कलो ध्यायमान:
प्रणतमवतु मां स: मानसो राजहंस:।।५।।
जिनसे अज्ञानरूपी सारा अंधकार नष्ट हुआ है, शुभ्र ज्योति की तरह जिनका प्रकाश है, जो श्वेतवर्ण के पद्म की तरह शोभा धारण किए हुए हैं, ज्ञानराशि जिनका अट्टहासरूप है, जो संयमी व्यक्ति के हृदय में पाए जा सकते हैं, जो अखंडस्वरूप हैं, मेरे द्वारा ध्यात होकर वे मनरूपी सरोवर के राजहंसरूपी शिव, मुझ प्रणत की रक्षा करें।।५।।
दुरितदलनदक्षं दक्षजादत्तदोषं
कलितकलिकलंकं कम्रकह्लारकांतम्।
परिहितकरणाय प्राणप्रच्छेदप्रीतं
नतनयननियुक्तं नीलकंठ नमाम:।।६।।
जो पाप नाश करने में समर्थ हैं, दक्ष की कन्या सती ने जिनमें कभी दोष नहीं देखा, या सती ने जिन्हें अपना पाणि प्रदान किया, जो कलि-दोष-समूह का नाश करते हैं, जो सुंदर श्वेत पद्म मी तरह मनोहर हैं, दूसरे के कल्याण के लिए प्राण-त्याग करने में जिनकी सदा ही प्रीति रहती है, प्रणत व्यक्तियों का कल्याण करने के लिए जिनकी दृष्टि सदा उनकी ओर लगी रहती है, उन्हीं नीलकण्ठ महादेव को हम प्रणाम करते हैं।।६।।
अम्बास्तोत्रम्
का त्व शुभे शिवकरे सुखदु:खहस्ते
आधूणितं भवजल प्रबलोमिभंगै:।
शांति विधातुमिह किं बहुधा विभग्नां
मात: प्रयत्नपरमासि सदैव विश्वे।।१।।
हे कल्याणमयी माँ !सुख और दु:ख तुम्हारे दो हाथ है, तुम कौन हो ? संसाररूपी जल, प्रचंड तरंग-समूह के द्वारा घूर्णायमान हो रहा है । तुम क्या सदा नाना प्रकार से भग्न शांति को जगत् में प्रतिष्ठित करने के लिए यहाँ चेष्टा करने में मग्न हुई हो।।१।।
संपादयन्त्यविरतं त्वविरामवृता
या वै स्थिता कृतफलं त्वकृतस्य नेत्री।
सा मे भवत्वनुदिनं वरदा भवानी
जानाम्यहं ध्रुवमियं घृतकर्मपाशा।।२।।
जो नियत क्रियाशील देवी सदा कृतकर्म के फल को नियमित रूप से संयोजित करती हुई अवस्थित है, (जिनके कर्मों का क्षय हो गया है, उनको) जो मोक्ष-पद को ले जाती हैं, वही भवानी मेरे प्रति सदा वरप्रदायिनी हों। मैं निश्चित जानता हूँ, वे कर्मरूपी रज्जु को धारण किए हुए हैं।।२।।
किं वा कृतं किमकृतं क्व कपाललेख:
किं कर्म वा फलमिहास्ति हि यां विना भो:।
दच्छागुणैर्नियमित: नियमा: स्वतंत्रै-
र्यस्या: सदा भवतु सा शरणं मनाद्या।।३।।
हे (नरगण !) इस जगत् में जिनके बिना धर्म या अधर्म अथवा कपाल की भाग्य-रेखाएँ या कर्म या (उसका) फल-ये सब कुछ भी हो नहीं सकते हैं, जिनकी स्वाधीन इच्छारूपी रज्जु द्वारा सारे नियम परिचालित हो रहे हैं, वही आदि कारणस्वरूपा देवी सदा हमारी आश्रयस्वरूप हों ।।३।।
संतानयन्ति जलर्धि जनिमृत्युजालं
संभावयन्त्यविकृतं विकृतं विभग्नम्।
यस्या विभूतय इहामितशक्तिपाला:
नाश्रित्य तां वद कुत: शरणं व्रजाम:।।४।।
इस संसार में जिनकी अपरिमित शक्तिशाली विभूतियाँ जन्म-मृत्यु जालरूपी समुद्र का विस्तार कर रही हैं और अविकारी वस्तु को विकृत और भग्न कर रही हैं, बोलो, उनका आश्रय न लेकर किनकी शरण लेंगे।।४।।
मित्रे रिपौ त्वविषमं तव पद्मनेत्रं
स्वस्थेसुखे त्ववितथस्तव हस्तपात:।
छाया मृतेस्तव दया त्वमृतत्र्च मात:
मुत्र्चंतु मां न परमे शुभदृष्टयस्ते।।५।।
शत्रु और मित्र सबके प्रति ही तुम्हारे पद्मनेत्र समान भाव से निक्षिप्त हो रहे हें, सुखी और दु:खी सव व्यक्तियों को तुम समान भाव से हाथ दे रही हो; अयि माँ, मृत्यु की छाया और अमृत या जीवन- ये दोनों ही तुम्हारी दया है । अयि परमे, तुम्हारी शुभ दृष्टि मेरा परित्याग न करे ।।५।।
क्वाम्बा शिवा क्व गुणनं मन हीनबुद्धे:
दोर्भ्या विधर्तुमिव यामि जगद्विधात्रोम्।
चिन्त्यं श्रिया सुचरणं त्वभयप्रतिष्ठ
सेवापरैरभिनुतं शरणं प्रपद्ये।।६।।
वह कल्याणकारिणी माता कहाँ और हीनबुद्धि मेरे ये स्तव-वाक्य कहाँ ? मैं अपने इन (क्षुद्र) दो हाथों से जगत् की विधात्री को जैसे पकड़ने के लिए उद्यत हो रहा हूँ। लक्ष्मी जिनका चिंतन करती हैं, जिनमें मुक्ति प्रतिष्ठित है, सेवापरायण जनगण जिनकी वंदना करते हैं, मैंने उन्हीं सुंदर पादपद्मों का आश्रय लिया है।।६।।
या मां चिराय विनयत्यतिदु:खमार्गें
रासिद्धित: स्वकलितैलैलितैविलासै:।
या मे मर्ति सुविदधे सततं धरण्यां
साम्बा शिवा मम गति: सफलेफले वा।।७।।
जो सिद्धि-लाभ तक सदा सर्वदा मुझे अपनी मनोहर लीला द्वारा अति दु:खमय रास्ते से ले जा रही हैं, जो इस पृथ्वी पर सदा मेरी बुद्धि को उत्तम रूप से चला रही हैं, चाहे मैं सफल होऊँ या निष्फल, वे कल्याणमयी जननी ही मेरी गति हैं।।७।।
श्री रामकृष्ण-स्तोत्रम्
(१)
ऊँ ह्री ऋतं त्वमचलो गुणजित् गुणेड्यो
नक्तन्दिवं सकरूणं तव पादपद्म्।
मोहंकषं बहुकृतं न भजे यतोअहं
तस्मात्वमेव शरणं मम दीनबंधो।।१।।
ऊँ ह्रीं, तुम सत्य अचल, त्रिगुणजंयी और दिव्य गुणसमूहों के लिए स्तव के योग हो, मैं तुम्हारे मोहविनाशक पूजनीय चरण-कमलों का व्याकुल भाव से दिन-रात भजन नहीं करता, इसीलिए हे दीनबंधो, तुम्हीं मेरे आश्रय हो।।१।।
भक्तिर्भगश्च भजनं भवभेदकारि
गच्छन्त्यलं सुविपुलं गमनाय तत्त्वम्।
वक्त्रोद्धृतन्तु ह्रदि मे न च भात किंचित्
तस्मात्वमेव शरणं मम दीनबंधो।।२।।
संसारविनाशी भक्ति, वैराग्यादि और उपासना की सहायता से मनुष्य अति महान् ब्रह्मतत्त्व तक पहुँचने में समर्थ होता है, किंतु इस तरह के वाक्य मेरे मुख से उच्चारित होते हुए भी हृदय में कुछ भी आभास नहीं होता, इसीलिए है दीनबंधो, तुम्हीं मेरे आश्रय हो।।२।।
तेजस्तरंति तरसा त्वयि तृप्ततृष्णा:
रागे कृते ऋतपथे त्वयि रामकृष्णे।
मर्त्यामृतं तव पदं मरणोर्मिनाशं
तस्मात्वमेव शरणं मम दीनबंधो।।३।।
हे रामकृष्ण, सत्य के पथस्वरूप, तुम पर अनुराग होने से मनुष्य तुमको ही पाकर पूर्णकाम होता है, और शीघ्र रज़ोगुण से पार हो जाता है;मृत्युरूप तरंग के विनाशकारी तुम्हारे चरण मर्त्य जगत् में अमृतस्वरूप है; इसीलिए हे दीनबंधों, तुम्हीं मेरे आश्रय हो।।३।।
कृत्यं करोति कलुर्ष कुहुकान्तकारि
ष्णान्तं शिवं सुविमलं तव नाम नाथ।
यस्मादहं त्वशरणो जनदेकगम्य
तस्मात्वमेव शरणं मम् दीनबंधो।।४।।
हे नाथ, तुम्हारा मायासंहारी अति पवित्र 'ष्ण'अक्षर में अंत होनेवाला (रामकृष्ण) नाम पाप को भी पुष्प में परिणत करता है; तुम जगत् के एकमात्र आश्रय हो; क्योंकि मैं निराश्रय हूँ, इसीलिए हे दीनबंधों, तुम्ही मेरे आश्रय हो।।४।।
(२)
आचण्डालप्रर्तिहतरयो यस्म प्रेमप्रवाह:
लोकातीतोप्यहह न जहौ लोककल्याणमार्गम्।
त्रैलोक्येप्यप्रतिममहिमा जानकीप्राणबंध:
भक्त्या ज्ञानं वृतवरवपु: सोतया यो हि राम:।।१।।
जिनके प्रेम का प्रवाह, चांडाल तक अबाध गति से बहता था, अर्थात् जो चांडाल के प्रति भी प्रेम करने में कुंठित नहीं हुए, अहा! जिन्होंने मनुष्य-स्वभाव के अतीत होकर भी लोगों का कल्याण करने का पथ नहीं छोड़ा (अर्थात् जो सदा लोगों की कल्याण-चिंता और उसके अनुष्ठान में ही रत थे), स्वर्ग, मर्त्य और पाताल-इन तीनों लोकों में भी जिनकी महिमा की तुलना नहीं, जो सीता के परम प्रेमास्पद थे, जिन ज्ञानस्वरूप रामचंद्र जी की श्रेष्ठ देह भक्तिस्वरूपिणी सीता द्वारा आवृत्त थी।।१।।
स्तब्धीकृत्य प्रलयकलितं वाहवोत्यं महांतं
हित्वा रात्रि प्रकृतिसहजामन्धतामिस्त्रमिश्राम्।
गीतं शांत मधुरमपि य: सिंहनादं जगर्ज
सोयं जात: प्रथितपुरूषो रामकृष्णस्त्विदानीम्।।१।।
कुरूक्षेत्र के युद्ध के समय जो भयानक प्रलय-तुल्य (हुकीर) हुआ था, उसे जिन्होंने स्तब्ध किया एवं (अर्जुन की) स्वाभाविक घोर अंधतामिस्त्ररूप अज्ञान-रजनी को दूरकर जिन्होंने शांत और मधुर गीत अर्थात् गीता शास्त्र को सिंहनाद से गर्जन करके कहा था - उन्हीं विख्यात परम पुरुष ने इस काल में 'रामकृष्ण' रूप में जन्म लिया है।।२।।
(३)
नरदेव देव
जय जय नरदेव
शक्तिसमुद्र समुत्थतरंगं
दर्शितप्रेमविजृम्भितरंगम्।
संशवराक्षसनाशमहास्त्रं
यामि गुरूं शरणं भववैद्यम्
नरदेव देव
जय जय नरदेव।।१।।
हे नरदेव देव ! तुम्हारी जय हो ! जी शक्तिरूपी समुद्र से उत्थित तरंगस्वरूप हैं, जिन्होंने प्रेम की तरह तरह की लीला दिखाई है, जो संदेहरूपी राक्षस के विनाश के हेतु महा अस्त्रस्वरूप हैं, उन्हीं संसाररूपी रोग के वैद्य गुरु का आश्रय मैं लेता हूँ। हे नरदेव देव ! तुम्हारी जय हो।।१।।
अद्वयतत्त्वसमाहितचित्तं
प्राज्ज्वलभक्तिपटावृतवृत्तम्।
कर्मकलेवरमद्भुतचेष्टम्
यामि गुरूं शरणं भववैद्यम्
नरदेव देव
जय जय नरदेव।।२।।
एक अद्वितीय (ब्रह्म) तत्त्व में जिनका चित्त समाहित है, जिनका चरित्र अति श्रेष्ठ भक्तिरूपी वस्त्र से आच्छादित है (अर्थात् जिनके भीतर ज्ञान और बाहर भक्ति है), जिनकी देह कर्ममय है,अर्थात् जो देह के द्वारा लगातार लोगों के हित के लिए कर्म कर रहे हैं, जिनका कार्यकलाप अति अद्भुत है, उन्हीं संसाररूपी रोग के वैद्य गुरु का मैं आश्रय लेता हूँ। हे नरदेव देव ! तुम्हारी जय हो।।२।।
श्री रामकृष्ण-आरत्रिकम्
खंडन भव-बंधन , जगवंदन, बंदि तोमाय।
निरंजन , नररूपधर, निर्गुण, गुणमय।।
मोचन-अधदूषण , जगभूषण, चिट्घनकाय।
ज्ञानांजन-विमल-नयन , वोक्षणे मोह जाए।।
भास्वर भाव-सागर चिर-उन्मद प्रेम-पाथार।
भक्तार्जन-युगलचरण , तारण भव-पार।।
जृम्भित-युग-ईश्वर , जगदीश्वर, योगसहाय।
निरोधन , समाहित मन, निरखि तव कृपाय।।
भंजन-दु:खगंजन , करुणाधन, कर्मकठोर।
प्राणार्पण-जगत्-तारण , कृतन-कलिडोर।।
वंचन-कामकांचन , अतिनिंदित-इंद्रिय-राग।
त्यागोश्वर , हे नरवर, देहो पदे अनुराग।।
निर्भय , गतसंशय, दृढ़निश्चयमानसवान्।
निष्कारण-भक्त-शरण , त्यजि जाति-कुल-मान।।
सम्पद तय श्रीपद , भव-गोष्पद-धारि यथाय।
प्रेमार्पण , समदरशन, जगजन-दु:ख जाए।।
नमो नमो प्रभु वाक्य-मनातीत
मनोवचनैकाधार।
ज्योतिर ज्योति उजल ह्रदिकंदर
तुमि तमभंजनहार।
धे धे धे , लंग रंग भंग, बाजे अंग संग मृदंग।
गाइछे छंद भकतवृंद , आरति तोमार।।
जय जय आरति तोमार।
हर हर आरति तोमार।
(हिंदी अनुवाद)
हे भवबंधन को खंडन करने वाले, जगत् के वंदनीय, मैं तुम्हारी वंदना करता हूँ। तुम निरंजन हो, नर-रूप धारण किए हो, निर्गुण होकर भी गुणमय हो, तुम मनुष्य को दूषित करनेवाले पाप से मुक्त करते हो, जगत् के भूषणरूपी हो ज्ञानस्वरूप हो, ज्ञानरूपी अंजन से तुम्हारे नेत्र विशुद्ध हैं, तुम्हें देखने से ही मोह दूर भाग जाता है, तुम ज्ञानमय भाव-समुद्र हो, सदा मतवाले प्रेम-महावारिधि हो, तुम्हारे जो दोनों चरण भवसागर के पार उतार देते हैं, वे भक्तों द्वारा ही प्राप्त करने योग्य हैं। तुम युगावतार के रूप में प्रकट हुए हो, जगदीश्वर हो, योग के सहायक हो, तुम्हारी कृपा से देखता हूँ, मेरी इंद्रियाँ निरूद्ध और मन समाधिमग्न हुआ है। तुमने दु:ख के उत्पातों को दूर किया है, तुम दया की मूर्ति हो और दृढ़ कर्मवीर हो, तुमने जगत् के उद्वार के लिए प्राणों को अर्पण कर दिया है, कलियुग के बंधनों को छिन्न कर दिया है। तुमने कामिनी और कांचन को छोड़ा है और इंद्रियों के आकर्षणों को बहुत ही तुच्छ माना है, हे त्यागीश्वर, हे नरवर, मुझे श्री चरणों में प्रेम दो। तुम भयरहित हो, तुममें कोई संदेह नहीं रहा, तुम दृढ़निश्चय तथा उदार चित्तवाले हो। तुम जाति या कुल का विचार न करके बिना कारण ही भक्तों को शरण देते हो। तुम्हारे चरणकमल ही मेरी संपत्ति हैं,जिनकी तुलना में यह संसार गाय के एक पैर से दबी जमीन के छोटे गढ़े में आनेवाले जल जैसा है। तुम प्रेम के दाता हो, समदर्शी हो, तुम्हारे दर्शन से जगत् निवासियों के सभी दु:ख दूर होते हैं।
वाणी एवं मन से परे होकर भी वाणी और मन के एकमात्र आधाररूपी हे प्रभो ! तुम्हें बार बार नमस्कार ! तुम ज्योति की भी ज्योति हो, हृदयरूपी गुफा में उजाला करनेवाले तथा अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करनेवाले हो । भक्तगण छंद में तुम्हारी आरती का संगीत गा रहे हैं, जिसमें धे धे धे रंग लंग भंग रव से, अंगों के साथ-साथ मृदंग बज रहे हैं।
तुम्हारी आरती की जय हो, तुम्हारी आरती पापों का हरण करनेवाली तथा परमकल्याणदायिनी है।
श्री रामकृष्णप्रणाम:
स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे।
अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नम:।।
धर्म के प्रतिष्ठाता एवं सकल धर्मस्वरूप, सब अवतारों में श्रेष्ठ, हे रामकृष्ण, तुम्हें प्रणाम है।
[1] जहाँ रोना ही शिशु के जीवन के अस्तित्व का प्रमाणस्वरूप है, वहाँ बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी सुख की आशा नहीं करता, क्योंकि यह संसार माया का राज्य है, इसलिए सब विपरीत रूप से देखा जाता है - जैसे दु:ख में सुख का अनुभव इत्यादि । यहाँ बुरी वस्तु अच्छी प्रतीत होती है ।
[2] नरक बहुत ही कदर्य या जधन्य स्थान है - दु:ख का आगार होने पर भी स्वर्ग, सुंदर, स्थान, आनंद-भूमिस्वरूप प्रतीत होता है । इसमें भी वही भाव है -'दु:ख में सुख' इत्यादि ।
[3] पूरे विश्व को देखकर, आँखें अब अपने को देखना नहीं चाहती हैं । इसका कारण बाद में बतलाया गया है ।
[4] इस कविता में यथाक्रम कोमल और कठोर भावों के चित्र दिखलाये गये हैं । कोमलता सभी चाहते हैं, परंतु कोई कठोर भाव नहीं चाहता; सब उससे दूर रहना चाहते हैं । परंतु यदि कोमलप्राणता दारिद्य, दु:ख-रोग, व्याधि-आधि देखकर भयविह्वल होती हो, तो वह कोमलता वास्तव में दुर्बलता और कापुरूषता है । उसे दूर कर सदा मृत्यु को भर बाँह भेंटने के लिए तैयार रहना ही वीरत्व और मनुष्यत्व है । इसी तरह के कठोर भाव के उपासकों के ह्दय में श्यामा का नृत्य होता है । स्वामी जी ने बड़ी ही प्रांजल भाषा और गंभीर भावों में इसका वर्णन किया है ।
[5] पक्षियों का जैसे कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, वे जैसे कुछ स्वरों के समष्टिस्वरूप हैं ।
[6] द्राक्षाफल के रस (ह्दय-रूधिर) से मंदिरा बनायी जाती है, उसे गिलास में डालने से ऊसके ऊपर का भाग सफ़ेद फेनयुक्त हो जाता है और मंद मंद शब्द करता है ।
[7] चंद्र का प्राण सूर्य है । लेकिन सूर्य को छोड़कर चंद्र ही सबको अच्छा लगता है ! सबको कोमल भाव इतना प्रिय है !
[8] प्रचंड सूर्य-किरण ही जैसे सत्य है, स्निग्ध चंद्र-किरण जैसे उसीकी छाया मात्र है, रूद्र भाव भी वैसे ही यथार्थ सत्यस्वरूप, प्राणस्वरूप है और कोमल भाव (सुख-वनमाली) उस रूद्र भाव की छाया मात्र है । सुख-वनमाली दूसरे किसी भाव के न रहने से विलास के भाव की उद्दीपना करता है । ये सब भाव आपातमधुर होने पर भी प्राणदायी, बलदायी नहीं हैं ।
[9] सिर्फ 'सुखमय' भाव से कितनी कायरता आसकती है, यह दिखाया गया है । श्यामा माँ की साधना आरंभ करने पर, माँ की मुंडमाला देखकर,'भय खानेवाले लोग' बाद में 'दयामयी' कह कह चिल्लते हैं । और भी भय से, माँ को 'असुर-विजयिनी' कहते हैं । यहाँ साधक का, श्यामा माँ के ऊपर प्रेम, प्रीति नहीं है - उसके बदले भय और कापुरूषता है । श्यामा तब 'माँ' नहीं हैं, परंतु 'दयामयी' और 'असुर-विजयिनी' हैं ।
[10] बलि देते समय रक्त देखकर भय से देह काँप उठती है । भय, अवसाद इत्यादि दुर्बलता के लक्षण हैं । प्रेम मनुष्य को निडर बनाता है । इधर स्वार्थसिद्धि की आशा में, ऐसे तो किसीका सर्वनाश करने के लिए ही पूजा का आयोजन किया गया है; परंतु रक्त देखकर ही भय से अस्थिर हो जाता है ! !
[11] दूसरी बार पश्चिम से लौटते समय, स्वामी जी ने यह कविता लिखी थी । शायद इस समय वे भूमध्यसागर का पूर्व भाग पार कर रहे थे ।