प्राण
सृष्टि का सिद्धांत यह है कि पदार्थ की पाँच दशाएँ होती है आकाश, आग्न, वायु,
जल और पृथ्वी। इन सबकी उत्पत्ति एक मल तत्व से होती है, जो अत्यंत सूक्ष्मतम
आकाश (ether) है।
ब्रह्मांड में जो ऊर्जा है, उसका नाम है प्राण और वह इन भूतों में शक्ति के
रूप में निवास करती है। प्राण के प्रयोग का महान उपकरण मन है। मन भौतिक है। मन
के परे आत्मा है, जो प्राण को धारण करता है। प्राण ब्रह्मांड को गतिमान करने
की शक्ति है और जीवन की प्रत्येक अभिव्यक्ति में उसको देखा जा सकता है। शरीर
मरणधर्मा है, मन मरणधर्मा है; तत्त्वों के संघात के कारण दोनों का अंत
अवश्यंभावी है। इन सबसे परे आत्मा है, जो कभी नहीं मरती। आत्मा, विशुद्ध
बुद्धि है, जिससे प्राण नियंत्रित तथा निर्दिष्ट होता है। परंतु हम अपने
चतुर्दिक जो बुद्धि देखते हैं, वह सदा अपूर्ण रहती है। जब बुद्धि पूर्ण होती
है, तब हमें अवतार उपलब्ध होते हैं, जैसे ईसा। बुद्धि सदा अपने को अभिव्यक्त
करने का प्रयत्न कर रही है और एतदर्थ वह विभिन्न अंशों तक विकसित मन तथा
शरीरों की सृष्टि कर रही है। वास्तव में और मूलतः सभी प्राणी समान हैं।
मन अत्यंत सूक्ष्म भौतिक पदार्थ है। प्राण को अभिव्यक्त करने का उपकरण मन है।
अभिव्यक्ति के लिए शक्ति को भौतिक पदार्थ की आवश्यकता होती है।
आगे प्रश्न यह उठता है कि इस प्राण का प्रयोग कैसे किया जाए। हम सभी इसका
प्रयोग करते हैं, पर हाय, इसका कितना अपव्यय होता है ! साधना की आरंभिक अवस्था
में प्रथम सिद्धांत यह है कि सभी ज्ञान अनुभूति से होता है। जो अतींद्रिय है,
उसे तभी सचमुच अपना समझना चाहिए, जब उसकी अनुभूति हो जाए।
हमारा मन तीन स्तरों पर क्रियाशील है-अवचेतन, चेतन और अतिचेतन। मनुष्यों में
केवल योगी ही अतिचेतन अवस्था में रहता है। योग का पूरा सिद्धांत यह है कि मन
से परे कैसे पहुँचा जाए। प्रकाश या ध्वनि के कंपन पर विचार करने से इन तीनों
स्तरों को समझा जा सकता है। प्रकाश में जब अति मंद कंपन होते हैं, तब वे
दिखायी नहीं पड़ते, तीव्रता बढ़ने पर प्रकाश दिखायी पड़ता है। अत्यंत तीव्र हो
जाने पर हम उन्हें देख भी नहीं सकते। वही हाल ध्वनि का है।
स्वास्थ्य को क्षति पहुँचाए बिना कैसे अतींद्रिय बनें, यह हम सीखना चाहते हैं।
पाश्चात्य मन ने अंधे के हाथ बटेर लग जाने के सदृश कुछ मनस्तात्त्विक
सिद्धियाँ प्राप्त कर ली हैं। ये सिद्धियाँ अप्राकृत हैं, तथा बहुधा वे व्याधि
के लक्षण हैं। हिंदुओं ने उसका अध्ययन किया है और इस विज्ञान-विषय को पूर्ण
बना दिया है, जिसका अध्ययन अब सभी लोग बिना भय या खतरे के कर सकते हैं।
अतिचेतन अवस्था का उत्तम प्रमाण मानसिक उपचार है; क्योंकि जिस विचार से रोग
दूर होता है, वह प्राण का एक प्रकार का स्पंदन है। वह विचार के रूप में उद्भूत
नहीं होता, वरन् उससे उच्चतर कुछ और ही बन जाता है, जिसके लिए हमारे पास कोई
नाम नहीं है।
प्रत्येक विचार की तीन अवस्थाएँ होती हैं। प्रथम अवस्था वह है, जब उसका उदय या
आरंभ होता है, जिसका हमें भान नहीं होता; द्वितीय वह है, जब विचार ऊपरी सतह तक
पहुँच जाता है और तृतीय वह है, जब वह हमसे बाहर निकल जाता है। विचार ऊपरी सतह
की ओर उठ रहे एक बुदबुदे के समान है। जब विचार इच्छा से संयोग करता है, तब उसे
शक्ति कहते हैं। जिस रोगी की तुम सहायता करते हो, उसके लिए जिस विचार का
प्रयोग करते हो, वह विचार नहीं, शक्ति है। जो आत्मपुरुष इन सबके मध्य से
गतिमान हो रहा है, उसे संस्कृत में सूत्रात्मा कहते हैं।
प्राण की अंतिम तथा सर्वोच्च अभिव्यक्ति है प्रेम। जिस क्षण तुम प्राण से
प्रेम का निर्माण करने में सफल हो गए, उसी क्षण तुम मुक्त हो। यह सबसे कठिन और
सर्वोत्कृष्ट लाभ है। तुम दूसरों की आलोचना कदापि न करो, स्वयं 'अपनी आलोचना
करो। जब तुम किसी शराबी को देखो, तो उसकी आलोचना न करो; याद रखो, वह अन्य
रूपधारी तुम्हीं हो। जिसमें कलुष नहीं होता, वह दूसरों में भी कलुष नहीं
देखता। तुम दूसरों में जो कुछ देखते हो, वही तुम्हारे भीतर विद्यमान है। सुधार
का यह अचूक मार्ग है। यदि भावी सुधारकगण जो आलोचना करते है और दूसरों का
छिद्रान्वेषण करते हैं, वे यदि स्वयं बुरा धंधा त्याग दें तो दुनिया सुधर जाए।
यह विचार अपने में कूटकर भर लो।
योगाभ्यास
शरीर पर समुचित्त ध्यान देना चाहिए। जो लोग अपने शरीर को यातना देते हैं, वे
आसूरी स्वभाव के हैं। अपना मन सदा प्रसन्न रखो। यदि विषादपूर्ण भाव उठे, तो
उन्हें दुत्कार कर निकाल दो। 'योगी को अति भोजन नहीं करना चाहिए, लेकिन उपवास
भी नहीं करना चाहिए। उसे बहुत नहीं सोना चाहिए परंतु बिना सोये भी नहीं रहना
चाहिए। जो सभी कार्यों में मध्यम माग का अवलंबन करता है, वही योगी हो सकता है।
[1]
योगाभ्यास के लिए सबसे उपयुक्त समय क्या है ? ऊषा और संध्या की संधि का समय,
जब समस्त प्रकृति शांत हो जाती है। प्रकृति की सहायता लो। सुखासन पर बैठो।
पसलियों, कंधों और सिर, तीनों अंगों को सम रखो-मेरुदंड को उन्मुक्त और सीधा
रखो, आगे या पीछे को झुकाव नहीं होना चाहिए। तब मन में सोचो कि तुम्हारा
अंग-प्रत्यंग पूर्ण स्वस्थ है। फिर सारे विश्व के लिए प्रेम की एक लहर प्रेषित
करो; तत्पश्चात् ज्ञानालोक के लिए प्रार्थना करो। और अंत में मन को श्वास से
संयुक्त करो और क्रमशः उसके संचलन पर चित्त को एकाग्र करने की शक्ति प्राप्त
करो। इसके कारण का पता तुमको धीरे-धीरे लग जाएगा।
ओजस्
ओजस् उसे कहते हैं, जो एक मनुष्य को दूसरे से भिन्न बनाता है। जिस मनुष्य में
विपुल ओजस् होता है, वह जननेता होता है। ओजस् प्रबल आकर्षणशक्ति प्रदान करता
है। ओजस् का निर्माण नाड़ीय प्रवाहों से होता है। इसकी विचित्रता यह है कि
उसका निर्माण उस शक्ति द्वारा बड़ी सरलता से होता है, जिसकी अभिव्यक्ति यौन
शक्ति में होती है। यदि यौन केंद्रों की शक्तियों का व्यर्थ क्षय और अपव्यय न
हो, (भाव की स्थूलतर अवस्था ही क्रिया है) तो उनको ओज में परिणत किया जा सकता
है। शरीर के दो प्रमुख नाड़ीय प्रवाहों का उद्गम मस्तिष्क से होता है, वे
सुषुम्णा के दोनों ओर से नीचे, मस्तिष्क के पृष्ठ भाग में अंग्रेज़ी के अंक '8'
के आकार में परस्पर काटती हुई नीचे जाती हैं। इस प्रकार शरीर के वाम भाग का
नियंत्रण मस्तिष्क के दक्षिण भाग से होता है। इस नाड़ीय परिपथ के निम्नतम छोर
को यौन केंद्र या मूलाधार चक्र कहते हैं। इन दो नाड़ियों से शक्ति-प्रवाह नीचे
संप्रेषित होता है और निरंतर बहत बड़ी मात्रा में मूलाधार चक्र में संचित्त
होता रहता है। मेरुदंड की अंतिम हड्डी मूलाधार चक्र के ऊपर है और उसे लाक्षणिक
भाषा में त्रिकोण कहते हैं। चूंकि शक्ति उसके सन्निकट संचित्त होती है, इसलिए
इस शक्ति का प्रतीक सर्प (कुंडलिनी) माना जाता है। चेतना और अवचेतना इन्हीं दो
नाड़ियों के माध्यम से कार्य करती है लेकिन जब अतिचेतना परिपथ के निचले छोर
में पहुँच जाती है, तो नाड़ीप्रवाह को ऊपर जाने तथा परिपथ पूरा करने न देकर,
उसे रोक देती तथा मूलाधार से ओजस् के रूप में सुषुम्णा मार्ग से ऊपर जाने के
लिए विवश करती है। सुषुम्णा का द्वार स्वभावतः बंद है। लेकिन इस ओजस् का मार्ग
बनाने के लिए उसे खोला जा सकता है। ज्यों-ज्यों यह प्रवाह सुषुम्णा के एक चक्र
से दूसरे चक्र में पहुँचता है, त्यों त्यों तुम सत्ता की एक भूमिका से दूसरी
भूमिका की यात्रा कर सकते हो।। यही कारण है कि मनुष्य-शरीर अन्य सब शरीरों से
श्रेष्ठ है, क्योंकि मानव-शरीर में ही जीवात्मा के लिए सभी भूमिकाएँ और अनुभव
संभव हैं। हमें अन्य शरीर की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यदि मनुष्य चाहे तो
अपने शरीर में अपनी तैयारी समाप्त कर उसके पश्चात् निर्मल आत्मा बन सकता है।
जब ओजस् सभी चक्रों को पार करता हुआ सहस्रार या पीनियल ग्रंथि (मस्तिष्क का एक
भाग, जिसके बारे में विज्ञान यह निर्णय नहीं कर पाता कि उसका क्या काम है) में
पहुँच जाता है, तब मनुष्य न तो शरीर रह जाता है, न मन। वह सभी बंधनों से मुक्त
हो जाता है।
यौगिक शक्तियों का सबसे बड़ा खतरा यह है कि साधक उनमें मानो गिरकर उलझ जाता है
और वह नहीं जानता कि उसका समुचित्त उपयोग कैसे किया जाए। उसमें जो परिवर्तन
होता है, उसके निमित्त न तो वह प्रशिक्षित रहता है और न उसे कोई जानकारी रहती
है। खतरा यह है कि इन यौगिक शक्तियों का उपयोग करने में काम-प्रवृत्ति असाधारण
रूप में जाग्रत होती हैं, क्योंकि इन शक्तियों का निर्माण वस्तुतः यौन केंद्र
से होता है। सर्वोत्तम तथा सबसे निरापद मार्ग यह है कि शक्तियों की अभिव्यक्ति
के चक्कर में न पड़ें, क्योंकि ये शक्तियाँ अज्ञानी तथा अप्रशिक्षित साधक को
विकट नाच नचाती हैं।
अब प्रतीकों पर पुनः विचार करो। सुषुम्णा के मार्ग से ओजस् का आरोहण कुंडलित
प्रतीत होता है, इसलिए उसे सर्प कहते हैं। सर्प (या कुंडलिनी) अस्थि या
त्रिकोण पर सोयी रहती है। जब वह जगायी जाती है, तब वह सुषुम्णा के मार्ग से
ऊपर चढ़ती है; और ज्यों ज्यों वह एक चक्र से होकर दूसरे चक्र को जाती है,
त्यों-त्यों हमारे भीतर एक नये प्राकृतिक लोक का उद्घाटन होता है, अर्थात्
कुंडलिनी जाग जाती है।
प्राणायाम
प्राणायाम का अभ्यास अतिचेतन मन को प्रशिक्षित करना है। इसके शारीरिक अभ्यास
के तीन विभाग हैं, जो केवल श्वास-प्रश्वास से संबंधित हा श्वास को खींचना,
रोकना और उसे बाहर निकालना इसमें शामिल है। श्वास नासिका के एक छिद्र से चार
तक गिनने तक अंदर खींचना चाहिए (पूरक) और फिर सोलह गिनने तक उसे भीतर रोकना
चाहिए (कुंभक)। नासिका के दूसरे छिद्र से आठ गिनने तक बाहर निकाल देना चाहिए
(रेचक)। फिर पहले छिद्र को बंद रखकर विलोम रीति से नासिका के दूसरे छिद्र से
उसी प्रकार पूरक करना चाहिए। आरंभ में अँगूठे से एक नासा-छिद्र को बंद कर
पूरक-रेचक करना होगा, लेकिन कालांतर में प्राणायाम की क्रिया मन के आदेश का
पालन करने लगेगी। प्रातः तथा सायंकाल चार-चार प्राणायाम करो।
अज्ञयवाद से परे (
Met agnosticism)
Repent, for the Kingdom of Heaven is at hand. -'अनताप करो, क्योंकि स्वर्ग
का साम्राज्य आसन्न है।' यह 'Repent' शब्द यूनानी भाषा में 'Metanoeite' (Meta
का अर्थ है पीछे, पश्चात्, परे) है और उसका शाब्दिक अर्थ है 'ज्ञान-(पंच)
इंद्रिय ज्ञान'-के परे जाओ, और भीतर देखो, वहाँ तुम्हें- 'अपने भीतर स्वर्ग का
साम्राज्य मिलेगा।'
एक दार्शनिक ग्रंथ के अंत में सर विलिएम हैमिल्टन लिखते हैं, 'यहाँ दर्शन
समाप्त होता है, यहाँ से धर्म आरंभ होता है।' धर्म कभी बुद्धि के क्षेत्र में
न तो रहा है और न कभी रह सकता है। बौद्धिक तर्कना इंद्रियों द्वारा उपलब्ध
तथ्यों पर आधारित होती है। इधर धर्म का इंद्रियों से कोई सरोकार नहीं।
अज्ञेयवादी कहते हैं कि वे ईश्वर को नहीं जान सकते, और ठीक कहते हैं, क्योंकि
उन्होंने अपनी इंद्रियों के सामर्थ्य को थाह लिया और फिर भी ईश्वर-ज्ञान की
दिशा में रंचमात्र आगे न बढ़ सके। अतः धर्म को सिद्ध करने अर्थात् ईश्वर के
अस्तित्व. अमरत्व आदि को सिद्ध करने के लिए हमें इंद्रियगोचर ज्ञान से आगे
जाकर बढना पडेगा। सभी महान पैगंबरों और तत्वदर्शियों का दावा है कि 'ईश्वर का
साक्षात्कार कर लिया है।' कहने का तात्पर्य यह है कि इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ
है। बिना अनुभव के कोई ज्ञान नहीं होता और मनष्य को अपनी आत्मा में ईश्वर का
दर्शन करना है। जब मनुष्य जगत के उस एक महान तथ्य के सम्मुख आयेगा, तभी उसके
संशय मिटेंगे और गुत्थियाँ सुलझेंगी। यह तथ्य है 'ईश्वर का साक्षात्कार। हमारा
काम इसकी सत्यता का पता लगाना है, निगलना नहीं। अन्य विज्ञानों की भाँति धर्म
के लिए भी तथ्यों का संकलन करना और स्वयं अनुभव करना आवश्यक है और यह तब संभव
है, जब तुम पंच ज्ञानेंद्रियों की परिधि के पार पहुँचो। धार्मिक सत्यों की
प्रामाणिकता की जाँच प्रत्येक व्यक्ति को करनी आवश्यक है। ईश्वर का
साक्षात्कार करना ही एक लक्ष्य है। शक्ति लक्ष्य नहीं है। शुद्ध सच्चिदानंद ही
लक्ष्य है और प्रेम ही ईश्वर है।
विचार
,
कल्पना और ध्यान
कल्पना की जिस मानसिक शक्ति को हम लोग स्वप्नों और विचारों में लगाते है, वही
सत्य तक पहुँचने का भी साधन है। जब कल्पना अति शक्तिशाली होती है, तब ध्येय
दृश्यमान हो जाता है। अतएव इसके द्वारा हम शरीर को स्वास्थ्य अथवा व्याधि की
किसी अवस्था में पहुँचा सकते हैं। जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, तब मस्तिष्क
के कोष एक विशेष स्थिति में ठीक वैसे ही पहुँच जाते हैं, जैसे कैलीडोस्कोप के
रंग-बिरंगे शीशों के टुकड़े विशेष आकृति धारण कर लेते हैं। इसी संयोजन की पुनः
प्राप्ति और मस्तिष्कीय कोशिकाओं का वैसा ही विन्यास स्मृति है। जितनी अधिक
प्रबल इच्छा-शक्ति होगी, उतनी ही अधिक सफलता इन मस्तिष्कीय कोशिकाओं को पुनः
विन्यस्त करने में मिलेगी। शरीर को चंगा करने की एक ही शक्ति है और वह
प्रत्येक मनुष्य में है। औषधि उस शक्ति को जगा भर देती है। शरीर के भीतर जो
विष प्रविष्ट हो गया है, उसे बाहर निकाल फेंकने के लिए वह शक्ति जो संघर्ष
करती है, उसी का प्रकट रूप व्याधि है। यद्यपि विष को परास्त करने की शक्ति को
औषधि के द्वारा जगाया जा सकता है, तथापि वह विचार-शक्ति द्वारा अधिक स्थायी
रूप से जगायी जा सकती है। कल्पना में स्वस्थ और बलवान होने का भाव अवश्य होना
चाहिए, जिससे कि बीमारी की दशा में आदर्श स्वास्थ्य की स्मृति जगायी जा सके और
कोषिकाओं को उसी भाँति पुनर्विन्यस्त किया जा सके, जैसी वे स्वस्थ दशा में
थीं। तब मन का अनुसरण करना शरीर की प्रवृत्ति बन जाती है।
दूसरा कदम तब होता है, जब कोई दूसरा व्यक्ति हम पर अपने मन का प्रयोग कर वही
प्रक्रिया कर सके। उसके उदाहरण नित्य प्रति देख जा सकता है। शब्द एक मन पर
दूसरे मन के क्रियाशील बनने की एक विधि मात्र है। शुभ अशुभ विचारों में से
प्रत्येक प्रबल शक्ति है, जिससे जगत् व्याप्त है। स्पंदन बना रहता है, इसलिए
कार्यरूप में परिणत होने तक विचार विचार के रूप में बना रहता है। दृष्टांत के
तौर पर मनुष्य की भुजा में शक्ति तब तक अव्यक्त रहती है, जब तक वह कोई प्रहार
नहीं करता। तब वह शक्ति को क्रियाशीलता के रूप म परिणत करता है। हम शुभ और
अशुभ विचारों के उत्तराधिकारी हैं। यदि हम अपने को निर्मल बना लें और शुभ
विचारों का निमित्त बना लें, तो ये हममें प्रवेश करेंगे। पवित्रात्मा व्यक्ति
अशुभ विचारों को ग्रहण नहीं कर सकता। अशुभ विचारों को पापी जनों के यहाँ
सर्वोत्तम आश्रय मिलता है। वे बीजाणुओं जैसे हैं, जो उपयुक्त क्षेत्र मिलने पर
ही अंकुरित होते और पनपते हैं। केवल विचार लघु तरंगों जैसे हैं, उन्हें
स्पंदित करने के लिए नयी प्रेरणाएँ आती रहती हैं और अंत में एक बड़ी सी लहर
उठकर उन सबको आत्मसात कर लेती है। ये सार्वभौम लहरें प्रति पाँच सौ वर्षों पर
पुनरावर्तित होती प्रतीत होती हैं। तब कोई विशाल लहर अपरिहार्य रूप से संभूत
होती है और अन्य सबको अपने में समेट लेती है। इन्हीं को पैग़ंबर (अवतार) कहते
हैं। वह जिस युग में रहता है, उस युग के विचारों को अपने मानस में केंद्रीभूत
करता है और मानव-जाति को उन्हें सुस्पष्ट रूप में प्रदान करता है। कृष्ण,
बुद्ध, ईसा, मुहम्मद और लूथर इस प्रकार की विशाल लहरों के उदाहरण हैं, जो अपने
समय के लोगों से ऊपर रहे। (उनके काल में लगभग पाँच-पाँच सौ वर्षों का अंतर था।
जिस तरंग के पीछे सर्वाधिक पवित्रता और सबसे उदात्त चरित्र का बल होता है, वह
दुनिया में समाज-सुधार के रूप में व्याप्त होती है। एक बार फिर हम लोगों के
समय में विचार-तरंगों का स्पंदन हुआ है और केंद्रीय भाव यह है कि ईश्वर नित्य
सर्वव्यापी है और यह विचार प्रत्येक रूप और प्रत्येक संप्रदाय में घर कर रहा
है। इन तरंगों में विनाश तथा निर्माण बारी-बारी से आते हैं, फिर भी विनाश के
कार्यों का अंत सदा निर्माण करता है। जब मनुष्य अपने आध्यात्मिक स्वरूप तक
पहुँचने के लिए गहराई में गोता लगाता है, तब वह अपने को कुसंस्कारों में बंधा
हुआ नहीं अनुभव करता। अधिकांश संप्रदाय अल्पजीवी और पानी के बुदबुदे के समान
क्षणभंगुर होते हैं, क्योंकि बहुधा उनके प्रणेताओं में चरित्र-बल नहीं होता।
पूर्ण प्रेम और प्रतिक्रिया न करने वाले हदय से चरित्र का निर्माण होता है। जब
नेता में चरित्र तब उसमें निष्ठा की संभावना नहीं होती। चरित्र की पूर्ण
पवित्रता से स्थायी विश्वास और निष्ठा अवश्य उत्पन्न होती है। कोई विचार लो,
उसमें अनुरक्त हो जाओ, धैर्यपूर्वक प्रयत्न करते रहो, तो तुम्हारे लिए
सूर्योदय अवश्य होगा।
* * *
अब फिर कल्पना का प्रश्न लो।
हमें कुंडलिनी को दृश्यमान बनाना है। प्रतीक है एक सर्प, जो त्रिकोणात्मक
अस्थि पर कुंडली लगाये हुए है।
तब पूर्ववर्णित विधि से प्राणायाम करो और कुंभक करते समय कल्पना करो कि श्वास
ऐसी शक्ति की धारा के सदृश है, जो अंग्रेज़ी के अंक 8 (आठ) में नीचे की ओर
प्रवाहित हो रही है और जब वह अंक के निम्नतम बिंदु पर पहुँचती है, तब त्रिकोण
पर स्थित सर्प पर आघात करती है और उसे सुषुम्णा के भीतर मार्ग में ऊपर चढ़ाती
है। विचार द्वारा श्वास को उसी त्रिकोण में जाने का निर्देश दो। अब हम लोगों
ने शारीरिक प्रक्रिया समाप्त कर दी। यहाँ से यह मानसिक प्रक्रिया हो जाती है।
प्रथम अभ्यास को प्रत्याहार कहते हैं। अब मन को समेटना पड़ेगा अथवा इधर-उधर
भटकने से रोकना पड़ेगा।
शारीरिक अभ्यास के बाद मन को भागने दो, रोको मत; लेकिन उस पर निगाह रखो,
द्रष्टा के रूप में उसके कार्यों के साक्षी बने रहो। इस प्रकार मन दो भागों
में विभक्त हो जाता है-एक सक्रिय और दूसरा साक्षी। अब मन के उस भाग को सबल
बनाओ, जो द्रष्टा बना है और दूसरे भाग को भटकने से रोकने में अपना समय मत
गँवाओ। मन संकल्प-विकल्प करेगा ही, लेकिन शनैः शनैः ज्यों-ज्यों साक्षी मन
अपना कार्य करेगा, त्यों-त्यों सक्रिय मन अधिकाधिक वश में होने लगेगा और अंत
में सक्रियता या भटकना बंद हो जाएगा।
द्वितीय अभ्यास : ध्यान- इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। हमारे शरीर
की रचना मूर्त है और मन आकार के बारे में ही सोच सकता है। धर्म इस आवश्यकता को
स्वीकार करता है और बाह्य मूर्तियों तथा बाह्य पूजा की सहायता प्रदान करता है।
ईश्वर के किसी आकार के बिना तुम ईश्वर का ध्यान नहीं कर सकते। कोई न कोई आकार
तुम्हारे समक्ष उपस्थित होगा, क्योंकि विचार तथा प्रतीक, दोनों अभिन्न हैं। उस
आकार पर मन को एकाग्र करने का यत्न करो।
तृतीय अभ्यास : ध्यान से इसकी उपलब्धि होती है और वस्तुतः यही चित्त की
एकाग्रता-एक बिंदु पर स्थिरता है। साधारणतः मन की गति वर्तुलाकार है, उसे एक
बिंदु पर जमाओ।
अंतिम साधना तो परिणाम है। जब मन यहाँ तक पहुँच जाता है, तो सभी कुछ प्राप्त
हो गया-नीरोग करने की शक्ति, अतिदृष्टि ज्ञान और सभी यौगिक सिद्धियाँ। एक क्षण
में तुम इस विचारधारा को किसी पर प्रवाहित कर सकते हो, जैसा ईसा करते थे, और
तत्काल ही उसका परिणाम होगा।
पूर्व प्रशिक्षण के बिना भी लोग इन सिद्धियों को संयोगात् प्राप्त कर लेते
हैं, किंतु तुमको मेरी सलाह यह है कि इन सबका अभ्यास धीरे-धीरे करो, तब सब कुछ
तुम्हारे वश में रहेगा। यदि प्रेम से ही प्रेरित हो, तो निरोग करने का थोड़ा
अभ्यास किया जा सकता है, क्योंकि उससे क्षति नहीं पहुँच सकती। मनुष्य बड़ा
अदूरदर्शी और अधीर होता है। शक्ति सभी चाहते हैं, किंतु बिरले ही अपने लिए उसे
प्राप्त करने की प्रतीक्षा करते हैं। वह वितरण करना चाहता है, संचय नहीं।
कमाने में बहुत समय लगता है, बाँटने में बहुत कम। इसलिए जब शक्तियाँ प्राप्त
हों, तब उन्हें संचित्त करते जाओ और उन्हें नष्ट न करो।
जो भी आवेग-तरंग रोक ली जाए, वह लाभकारी है। इसलिए समस्त नैतिकता के पालन की
भाँति क्रोध के बदले क्रोध न करना भी एक अच्छी नीति है। ईसा ने कहा था,
"बुराइयों का प्रतिरोध मत करो", और हम इसको तब तक नहीं समझते, जब तक हमें यह
पता नहीं लग जाता कि ऐसा करना केवल नैतिक ही नहीं है, वरन् सर्वोत्तम नीति भी
है, क्योंकि जो आदमी क्रोध करता है, वह अपनी ही शक्ति नष्ट करता है। तुम अपने
मस्तिष्क में क्रोध और घृणा का गठबंधन न होने दो।
जब रसायन-विज्ञान में मूल तत्व का पता लग जाता है, तब रसायनशास्त्री का कार्य
पूरा हो जाता है। जब एकत्व का बोध हो जाता है, तब धर्म-विज्ञान में पूर्णता
प्राप्त हो जाती है और इसकी उपलब्धि हज़ारों वर्ष पहले हो चुकी है। निरतिशय
एकत्व की उपलब्धि तब होती है, जब मनुष्य कहता है, "मैं और मेरे परम पिता एक
हैं।"
एकाग्रता
एकाग्रता समस्त ज्ञान का सार है, उसके बिना कुछ नहीं किया जा सकता। साधारण
मनुष्य अपनी विचार-शक्ति का नब्बे प्रतिशत अंश व्यर्थ नष्ट कर देता के और
इसलिए वह निरंतर भारी भूल करता रहता है। प्रशिक्षित मनुष्य अथवा मन कभी कोई
भूल नहीं करता। जब मन एकाग्र होता है और पीछे मोड़कर स्वयं पर ही केंद्रित कर
दिया जाता है, तो हमारे भीतर जो भी है, वह हमारा स्वामी न रहकर हमारा दास बन
जाता है। यूनानियों ने अपने मन की एकाग्रता को बाह्य संसार पर केंद्रित किया
और परिणामस्वरूप उन्होंने कला, साहित्य आदि में पूर्णता प्राप्त की। हिंदुओं
ने मन की एकाग्रता को अंतर्जगत् पर और आत्मा के अगोचर क्षेत्र पर केंद्रित
किया और परिणामस्वरूप योगशास्त्र का विकास हुआ। इच्छा-शक्ति, मन और इंद्रियों
को वश में रखना योग है। इसके अध्ययन से यह लाभ है कि हम उनके द्वारा नियंत्रित
होने की जगह उनका नियंत्रण करना सीख लेते हैं। चित्त तह के ऊपर तह प्रतीत होता
है। हमारा वास्तविक लक्ष्य यह है कि इन सभी मध्यवर्ती तहों को पारकर ईश्वर को
प्राप्त करें। योग का साध्य और लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति है। ऐसा करने के लिए
हमें सापेक्ष ज्ञान और इंद्रिय-जगत् से परे जाना ही पड़ेगा। संसार ऐंद्रिक
सुखों के लिए जाग्रत रहता है, ईश्वर के पुत्र उस स्तर पर सोते रहते हैं। संसार
उस शाश्वत के प्रति सुषुप्त हैं, ईश्वर के पुत्र उस क्षेत्र में जाग्रत हैं।
ये ही ईश्वर के पुत्र हैं। इंद्रियों को वश में करने का केवल एक उपाय है-उसका
दर्शन करना, जो इस जगत् में सत्य है। बस, तभी हम सचमुच जितेंद्रिय हो सकते
हैं।
मन को लघु से लघुतर सीमाओं में समेटना एकाग्रता है। इस प्रकार मन को संयमित
करने के आठ अंग हैं। पहला यम है, जिसमें मन को बहिर्मुख होने से रोका जाता है।
इसमें सभी प्रकार की नैतिकता सम्मिलित है। कोई दुर्भाव न आने दो। किसी प्राणी
की हिंसा मत करो। यदि तुम बारह वर्ष तक कोई हिंसा न करो, तो सिंह और व्याघ्र
भी तुम्हारे सामने विनम्र हो जायँगे। सत्य के व्रत का पालन करो। बारह वर्ष तक
मनसा, वाचा और कर्मणा पूर्ण सत्य का अनुष्ठान करने से मनुष्य जो भी इच्छा करे,
वह पूरी हो जायेगी। विचार, वचन और कर्म से पवित्र बनो। पवित्रता सभी धर्मों का
आधार है। ब्रह्मचर्य नितांत आवश्यक है। दूसरा है नियम अर्थात् मन को किसी दिशा
में विचरण से रोकना। फिर है आसन, मुद्रा। आसन चौरासी हैं, लेकिन सर्वोत्तम वह
है, जो व्यक्तिविशेष को प्रकृति के अनुकूल हो, अर्थात् जिसमें वह व्यक्ति सबसे
आसानी से अधिकाधिक समय तक स्थिर रह सके। इसके पश्चात् आता है प्राणायाम, श्वास
पर नियंत्रण। तब है प्रत्याहार, इंद्रियों को उनके विषयों से हटा लेना। फिर है
धारणा, चित्त की एकाग्रता। तदुपरांत है ध्यान। (यह योगशास्त्र का अंतःस्थ सार
है)। और अंतिम है समाधि, अतिचेतना। शरीर और मन जितने अधिक पवित्र होंगे, उतना
ही शीघ्र अभीष्ट सिद्ध होगा। तुमको पूर्ण पवित्र होना पड़ेगा। किसी भी बुरी
वस्तु का विचार मन में मत लाओ। ऐसे विचार तुमको निश्चय नीचे घसीट लायेंगे। यदि
तुम पूर्ण पवित्र हो और निष्ठापूर्वक साधना करते हो, तो अंततः तुम्हारा चित्त
असीम शक्ति का दीपस्तंभ बन जाएगा। उसकी पहुँच की कोई सीमा नहीं है। किंतु
निरंतर अभ्यास तथा संसार के प्रति अनासक्ति अवश्य होनी चाहिए। जब कोई मनुष्य
समाधि अवस्था में पहुँच जाता है, तब उसकी शरीर-भावना निर्मूल हो जाती है। तभी
वह मुक्त और अमर होता है। बाहर से देखने में तो अचेतन और अतिचेतन अवस्थाएँ एक
प्रतीत होती हैं, पर उनमें वैसा ही अंतर है, जैसा मिट्टी की ढेरी और
स्वर्णराशि में है। जिसने अपनी संपूर्ण आत्मा ईश्वर को समर्पित कर दी है, वही
समाधि की भूमिका में पहुँचता है।
एकाग्रता और श्वास-प्रश्वास-क्रिया
मनुष्य और पशु में मुख्य अंतर उनकी मन की एकाग्रता किसी भी प्रकार के कार्य
में सारी सफलता इसी एकाग्रता का परिणाम के के बारे में कुछ न कुछ प्रत्येक
व्यक्ति जानता है। हम इसके परिणाम नित्य देखते हैं। कला, संगीत आदि में उच्च
उपलब्धियाँ मन की एकाग्रता के परिणाम हैं। पशु में मन की एकाग्रता की शक्ति
बहुत कम होती है। जो लोग पशुओं को कुछ सिखाते हैं, उन्हें पता है कि पशु को जो
बात सिखायी जाती है, उसे वह लगातार भूलता जाता है। वह एक बार में किसी एक
वस्तु पर देर तक चित्त को एकाग्र नहीं रख सकता। मनुष्य और पशु में यही अंतर
है-मनुष्य में चित्त की एकाग्रता की शक्ति अपेक्षाकृत अधिक है। एकाग्रता की
शक्ति में अंतर के कारण ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से भिन्न होता है। छोटे से
छोटे आदमी की तुलना ऊँचे से ऊँचे आदमी से करो। अंतर मन की एकाग्रता की मात्रा
में होता है। बस, यही अंतर है।
प्रत्येक व्यक्ति का मन कभी न कभी एकाग्र हो जाता है। हमें जो चीज़ें प्यारी
होती हैं, उन पर हम मन जमाते हैं और जिन चीज़ों पर हम मन जमाते हैं, वे हमें।
प्यारी होती हैं। कौन ऐसी माता होगी, जो अपने कुरूप से कुरूप बच्चे के चेहरे
को प्यार न करती हो? उसके लिए वह मुखड़ा दुनिया में सुंदरतम है। वह उससे प्रेम
करती है, क्योंकि उस पर अपने मन को एकाग्र करती है और यदि सब लोग उसी चेहरे पर
अपने मन को एकाग्र करें, तो सब उसे प्यार करने लगेंगे। सभी को वह चेहरा
सुंदरतम प्रतीत होने लगेगा। हम जिन्हें प्यार करते हैं, उन्हीं चीज़ों पर अपना
मन एकाग्र करते हैं। जब हम कोई मधुर संगीत सुनते हैं, तो हमारा मन उसमें
अनुरक्त हो जाता है और हम उसे वहाँ से हटा नहीं सकते। जो लोग अपना मन
शास्त्रीय संगीत पर एकाग्र करते हैं, उन्हें लोक-संगीत नहीं रुचता और जो
लोक-संगीत पर मन एकाग्र करते हैं, उन्हें शास्त्रीय संगीत पसंद नहीं। संगीत
में एक स्वर के बाद दूसरा स्वर जल्दी-जल्दी बदलता है, जिससे मन तत्काल स्थिर
हो जाता है। बच्चा जीवंत संगीत इसलिए पसंद करता है कि स्वरों के दूत परिवर्तन
के कारण उसके मन को इधर-उधर भागने का अवसर नहीं मिलता। जिस आदमी को सामान्य
संगीत पसंद है, वह शास्त्रीय संगीत को नापसंद करता है, क्योंकि वह अधिक गूढ़
है और उसे समझने में अधिक मात्रा में एकाग्रता की आवश्यकता पड़ती है।
ऐसी एकाग्रता में सबसे बड़ी अड़चन यह है कि हम अपने मन को वश में नहीं करते;
उसी के वश में हम रहते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि हमसे बाहर की कोई वस्तु मन को
अपने में खींच लेती है और जब तक चाहती है, तब तक उसे पकड़े रहती है। सुरीली
तान सुनने या सुंदर चित्र देखने पर हमारा मन उनकी पकड़ में दृढ़तापूर्वक आ
जाता है। हम वहाँ से उसे हटा नहीं सकते।।
जो विषय तुमको पसंद है, उस पर अगर मैं अच्छा भाषण करूँ, तो तुम्हारा मन, जो
मैं कहूँगा, उस पर एकाग्र हो जाएगा। तुम्हारी अनिच्छा के बावजूद में तुम्हारे
मन को तुमसे बाहर आकृष्ट कर उस विषय में जमा देता हूँ। इसी प्रकार हमारे न
चाहते हुए भी हमारा ध्यान खिंच जाया करता है और हमारा मन विभिन्न वस्तुओं पर
एकाग्र होता रहता है। हम इसे रोक नहीं सकते।
अब प्रश्न उठता है कि क्या यह एकाग्रता विकसित की जा सकती है और क्या हम मन के
स्वामी बन सकते हैं ? योगियों का कहना है, हाँ। योगी कहते हैं कि हम मन पर
पूर्ण नियंत्रण कर सकते हैं। मन की एकाग्रता बढ़ाने से नैतिक धरातल पर खतरा
है-किसी वस्तु पर मन एकाग्र कर लेना और फिर इच्छानुसार उससे हटा लेने में
अशक्त होना खतरा है। इस अवस्था से बड़ा कष्ट होता है। हमारे प्रायः सभी
क्लेशों का कारण हममें अनासक्ति के सामर्थ्य का अभाव है। अतएव मन की एकाग्रता
के सामर्थ्य के विकास के साथ-साथ हमें अनासक्ति के सामर्थ्य का विकास अवश्य
करना चाहिए। सब ओर से मन को हटाकर किसी एक वस्तु में उसे आसक्त करना ही नहीं,
वरन् एक क्षण में उससे अनासक्त कर किसी अन्य वस्तु में स्थापित करना भी हमें
अवश्य सीखना चाहिए। इसे निरापद बनाने के लिए इन दोनों का अभ्यास एक साथ बढ़ाना
चाहिए।
यह मन का सुव्यवस्थित विकास है। मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की
एकाग्रता प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं। यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा
आरंभ करनी हो और इसमें मेरा वश चले, तो मैं तथ्यों का अध्ययन कदापि न करूँ।
मैं मन की एकाग्रता और अनासक्ति का सामर्थ्य बढ़ाता और उपकरण के पूर्णतया
तैयार होने पर उससे इच्छानुसार तथ्यों का संकलन करता। बच्चे में मन की
एकाग्रता और अनासक्ति का सामर्थ्य एक साथ विकसित होना चाहिए।
सदा से मेरा विकास एकांगी रहा है। इच्छानुसार मन को अनासक्त करने के सामर्थ्य
के बिना मैंने मन की एकाग्रता का अभ्यास बढ़ाया और मुझे अपने जीवन की सबसे घोर
यातना इसी के कारण झेलनी पड़ी। अब मुझमें मन को अनासक्त कर लेने का सामर्थ्य
है, लेकिन मैं हो पाया।
हमें चाहिए कि हम अपना मन वस्तुओं पर नियोजित करें, न कि वस्तुएँ हमारे मन को
खींच लें। हमें बहुधा विवश होकर मन एकाग्र करना पड़ता है। हमारा मन विवश होकर
विभिन्न वस्तुओं पर उनके किसी आकर्षक गण के कारण जमने लगता है और हम उसका
प्रतिरोध नहीं कर पाते। मन को वश में करने, अभीष्ट स्थान पर उसे लगाने के लिए
विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है। दूसरे किसी तरीके से यह हो नहीं सकता।
धर्म की साधना में मन को वश में करना आवश्यक है। इस साधना में हमें मन को मन
में ही लगाना पड़ता है।
मन को प्रशिक्षित करने का श्रीगणेश श्वास-क्रिया से होता है। नियमित
श्वासप्रश्वास से शरीर की दशा समन्वित होती है, और तब मन तक पहुँचने में आसानी
होती है। प्राणायाम का अभ्यास करने में सबसे पहले आसन पर विचार किया जाता है।
जिस आसन में कोई व्यक्ति देर तक सुखासीन रह सके, वही उसके लिए उपयुक्त आसन है।
मेरुदंड उन्मुक्त रहना चाहिए और शरीर के भार का वहन पसलियों द्वारा होना
चाहिए। मन को वश में करने के लिए तरक़ीबों से काम लेने की कोशिश मत करो। उस
दिशा में साधारण श्वास-क्रिया पर्याप्त है। मन को एकाग्र करने में कोई कड़ा
नियम बरतना भूल है। उनका उपयोग मत करो।
मन की क्रिया शरीर पर होती है और इसी प्रकार शरीर की क्रिया मन पर। उनकी एक
दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है। प्रत्येक मानसिक अवस्था शरीर में
एक समानुरूप अवस्था उत्पन्न करती है और शरीर की प्रत्येक क्रिया का मन पर
समानुरूप प्रभाव पड़ता है। चाहे तुम मन और शरीर को दो भिन्न सत्ता समझो अथवा
दोनों को एक ही पिंड मानो, इससे कोई अंतर नहीं पडता- शरीर स्थूल अंश है और मन
सूक्ष्म अंश है। दोनों की एक दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है। मन
लगातार शरीर बनता जा रहा है। मन को प्रशिक्षित में शरीर के माध्यम से उसके पास
पहुँचना अपेक्षाकृत आसान है। मन की शरीर को पकड़ में रखना सरल है।
उपकरण जितना ही सूक्ष्म होगा, उतना ही अधिक वह शक्तिशाली होगा। मन अति अधिक
सूक्ष्म है और शरीर की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली शरीर से आरंभ करना अपेक्षाकृत
अधिक सरल है।
याम-विज्ञान शरीर द्वारा मन तक पहुँचने की क्रिया हम शरीर पर अपना नियंत्रण
स्थापित करते हैं और तब क्रिया का, जो सूक्ष्मतर है और गहराई में है, अनुभव
करने लगते है और इस प्रकार बढ़ते बढ़ते हम मन तक पहुँच जाते हैं। जब हम शरीर
की सूक्ष्मतर क्रियाओं का अनुभव करने लगते हैं, तब वे हमारे वश में होने लगती
हैं। कुछ समय बाद तुमको शरीर पर मन की क्रिया का अनुभव होने लगेगा। तुमको यह
भी अनुभव होने लगेगा कि मन के एक अर्द्धभाग की दूसरे अर्द्धभाग पर क्या क्रिया
हो रही है और यह भी अनुभव होगा कि मन नाड़ी केंद्रों को अपने कार्य के लिए
तैयार करने लगा, क्योंकि मन नाड़ी-तंत्र पर नियंत्रण रखता है और उस पर शासन भी
करता है। तुमको अनुभव होगा कि मन विभिन्न नाड़ी-प्रवाहों पर कार्य कर रहा है।
इस प्रकार मन वश में कर लिया जाता है-नियमित व्यवस्थित श्वासप्रश्वास द्वारा,
पहले स्थूल शरीर को और तब सूक्ष्म शरीर को शासित करने से वश में होता है।
श्वास-प्रश्वास की प्रथम क्रिया बिल्कुल निरापद है और बड़ी स्वास्थ्यप्रद है।
कम से कम वह तुमको उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करेगी और साधारणतः तुम्हारी दशा में
सुधार करेगी। प्राणायाम की अन्य क्रियाओं का अभ्यास धीरे-धीरे और सावधानी से
करना चाहिए।
मनोविज्ञान का महत्व
पाश्चात्य देशों में मनोविज्ञान को अत्यंत निम्न कोटि का स्थान दिया गया है।
मनोविज्ञान विज्ञानों का भी विज्ञान है, लेकिन पश्चिमी देशों में उसे अन्य
विज्ञानों की भाँति एक ही धरातल पर रखा गया है; अर्थात् उसे परखने के लिए भी
वही कसौटी रखी गयी है- उपयोगिता।
मानवता का इससे कितना व्यावहारिक लाभ होगा ? द्रुत गति से बढ़नेवाले हमारे
सुखों में इससे कितनी वृद्धि होगी ? तेज़ी से बढ़नेवाले हमारे कष्टों में इससे
कितनी कमी होगी ? यह है वह कसौटी, जिस पर पश्चिम में प्रत्येक वस्तु को परखा
जाता है।
जान पड़ता है कि लोग यह भूल जाते हैं कि हमारे ज्ञान के लगभग नब्बे प्रतिशत
अंश का स्वतः कोई ऐसा व्यावहारिक उपयोग नहीं हो सकता, जिससे हमारे सांसारिक
सुखों में वृद्धि हो और दुःखों का ह्रास हो। नित्य प्रति के जीवन में हमारी
वैज्ञानिक जानकारी के अल्पतम अंश का ही इस प्रकार का कोई व्यावहारिक उपयोग हो
सकता है। ऐसा इसलिए है कि हमारे चेतन मन का अत्यंत अल्प अंश ही संवेद्य धरातल
पर है। संवेद्य चेतना है तो रंच मात्र ही, लेकिन हम सोच लेते हैं कि वही हमारा
संपूर्ण मन और जीवन है, पर वस्तुतः वह अर्द्धचेतन मन के अपार समुद्र में एक
बूंद के समान है। हम जो कुछ हैं, यदि वह इंद्रियजन्य ज्ञान की गठरी मात्र
होता, तो हम जो कुछ ज्ञानार्जन करते, उनका उपयोग इंद्रिय-सुखों की तृप्ति में
हो सकता था। परंतु सौभाग्य से यह बात नहीं है। हम ज्यों-ज्यों पाशविक अवस्था
से दूर होते जाते हैं, त्यों-त्यों विषय-सुख कम होने लगते हैं और वैज्ञानिक
तथा मनोवैज्ञानिक ज्ञान की तेज़ी से बढ़नेवाली चेतना में तीव्रतर आनंद लाभ
होने लगता है। तब 'ज्ञान के लिए' ज्ञान प्राप्त करना मन को सर्वाधिक आनंददायक
हो जाता है, चाहे उससे कुछ इंद्रिय-सुख मिले, अथवा न मिले।
किंतु परख के लिए उपयोगिता की पाश्चात्य कसौटी स्वीकार कर लेने पर भी, इस
मानदंड से भी मनोविज्ञान विज्ञानों का विज्ञान है। क्यों ? हम सब अपनी
इंद्रियों के दास हैं, अपने चेतन तथा अवचेतन मन के दास हैं। कोई अपराधी इसलिए
अपराधी नहीं है कि वह वैसा बनना चाहता है, वरन् इसलिए है कि उसका मन उसके वश
में नहीं है और इस प्रकार वह अपने ही चेतन तथा अवचेतन मन का तथा अन्य प्रत्येक
व्यक्ति के मन का दास है। उसे झख मारकर अपने चित्त की बलवती प्रवृत्ति का
अनुसरण करना पड़ता है, उसे वह रोक नहीं सकता। अपनी अंतरात्मा, अपनी
अंतःप्रेरणा, अपनी सत्प्रवृत्तियों के बावजूद वह अग्रसर होता है। और स्वयं
अपने मन की प्रबल प्रवृत्ति के अनुसार चलने को विवश हो जाता है। वह बेचारा
अपने को रोक नहीं सकता। हम इसे लगातार अपने जीवन में भी देखते हैं। अपनी
सत्प्रवृत्तियों के विपरीत हम लगातार कार्य कर रहे हैं और बाद में इस करनी पर
अपने को ही कोसते हैं, आश्चर्य भी करते हैं कि भला कैसे हम ऐसी बातें सोचते थे
और कैसे हमने इस तरह का काम किया ! फिर भी हम उसे बार-बार करते हैं, बार- बार
उसके कारण कष्ट झेलते हैं और हम अपने को कोसते हैं। उस समय शायद हम सोचते हैं
कि वैसा करने की हमारी इच्छा है, लेकिन हम केवल इसलिए इच्छा करते हैं कि हमें
उसके लिए इच्छा करने को विवश होना पड़ा। हमें आगे चलने को विवश किया जाता है,
हम लाचार हैं ! हम लोग स्वयं अपने मन के और अन्य सब लोगों के मन के दास हैं;
हम चाहे भले हों या बुरे हों, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। हमें इतस्ततः नाच
नचाया जाता है, क्योंकि हम अपने को वश में नहीं रख पाते। हम कहते हैं कि हम
सोचते हैं, हम करते हैं आदि। ऐसी बात नहीं है। हम सोचते हैं, क्योंकि हमें
सोचना ही पड़ता है; हम कार्य करते हैं, क्योंकि हमें करना ही पड़ता है। हम
अपने दास हैं और दूसरों के भी। भीतर गहराई में हमारे अवचेतन मन में केवल इसी
जन्म के ही नहीं, वरन् भूतकाल के सभी जन्मों के विचार तथा कर्म संचित्त हैं।
आत्मनिष्ठ मन का यह बृहत् अपार सागर भूतकाल के सभी विचारों और कर्मों से भरपूर
है। इनमें से प्रत्येक विचार अपनी मान्यता के लिए प्रयत्न कर रहा है, व्यक्त
होने के लिए बाहर को ज़ोर मार रहा है, उद्वेलित हो रहा है, एक तरंग के बाद
दूसरी तरंग के रूप में वस्तुनिष्ठ मन से, चेतन मन से, टकरा रहा है। इन
विचारों, इस संचित शक्ति को, हम स्वाभाविक इच्छा, प्रतिभा आदि मानते हैं। यह
इसलिए है कि हम उसके सही उद्गम को नहीं समझते। हम बिना चूँ-चपड़ किए आँख
मूंदकर उनके आदेशों का पालन करते हैं; और दासता, निकृष्टतम कोटि की दासता,
हमारे मत्थे पड़ती है; और हम अपने को मुक्त कहते हैं। मुक्त ! हम एक क्षण तो
स्वयं अपने मन पर शासन नहीं कर सकते, यही नहीं, किसी विषय पर उसे स्थिर नहीं
कर सकते और अन्य सबसे हटाकर किसी एक बिंदु पर उसे केंद्रित नहीं कर सकते ! फिर
भी हम अपने को मुक्त कहते हैं ! ज़रा इस पर गौर तो करो ! काल की अत्यंत लघु
अवधि तक भी हम उसे नहीं कर पाते, जिसे हम जानते हैं कि हमें करना चाहिए। कोई
विषय-वासना उत्पन्न हो जाती है और हम उसकी आज्ञा पालन करते हैं। ऐसी दुर्बलता
पर हमारी अंतरात्मा हमें ताड़ित करती है, किंतु हम पुनः पुनः वही करते हैं, हम
सदा वही कर रहे हैं। अपने प्रयत्नों के बावजूद, हम जीवन को उच्च कोटि का नहीं
बना पाते। पूर्व संस्कारों और पूर्व जन्मों के प्रेत हमें नीचे गिराये रखते
हैं। समस्त सांसारिक दुःखों का कारण है, इंद्रियों की दासता। इंद्रियपरायण
जीवन से अतीत होने की हमारी असमर्थता-शारीरिक भोगों के लिए उद्यम ही संसार में
सभी आतंकों तथा दुःखों का कारण है।
यह मनोविज्ञान ही है, जो हमें चक्कर काटनेवाले निरंकुश मन को संयमित करना, उसे
इच्छा के नियंत्रण में रखना और इस प्रकार उसके अत्याचारी आदेशों से अपने को
मुक्त करना सिखाता है। अतएव मनोविज्ञान सब विज्ञानों का विज्ञान है और उसके
बिना अन्य सब ज्ञान व्यर्थ हैं।
अनियंत्रित और अनिर्दिष्ट मन हमें सदैव उत्तरोत्तर नीचे की ओर घसीटता रहेगा-
हमें चींथ डालेगा, हमें मार डालेगा; और नियंत्रित तथा निर्दिष्ट मन हमारी
रक्षा करेगा, हमें मुक्त करेगा। इसलिए वह अवश्य नियंत्रित होना चाहिए और
मनोविज्ञान सिखाता है कि इसे कैसे करना चाहिए।
किसी पार्थिव विज्ञान के अध्ययन और विश्लेषण के लिए पर्याप्त आँकड़े जुटाये
जाते हैं। इन तथ्यों का अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है और परिणाम होता है,
उस विज्ञान की जानकारी। किंतु मन के अध्ययन और विश्लेषण के लिए कोई आँकड़े
नहीं हैं, बाहर से उपलब्धि के लिए कोई ऐसे तथ्य नहीं हैं, जो समान रूप से
सर्वसुलभ हों। मन का विश्लेषण स्वयं उसी के द्वारा होता है। इसलिए सर्वश्रेष्ठ
विज्ञान है मन का विज्ञान अथवा मनोविज्ञान।
पश्चिम में मन की शक्तियों, विशेषतः असाधारण शक्तियों को जादू और रहस्यवाद
सरीखा मानते हैं। उच्चतर मनोविज्ञान का अध्ययन इस कारण कुंठित हो गया है कि
उसका तादात्म्य केवल तथाकथित मनस्तात्त्विक व्यापारों से, जैसी कुछ चमत्कार
दिखानेवाले हिंदू फ़क़ीर करते हैं, स्थापित कर दिया गया है।
भौतिक वैज्ञानिक दुनिया भर में प्रायः एक से परिणाम पर पहुँचते हैं। उन्हें
जिन साधारण तथ्यों का पता लगता है और उनके अनुगामी जो निष्कर्ष निकालते है,
उनके विषय में उनमें मतभेद नहीं होता। इसका कारण यह है कि भौतिक विज्ञान
संबंधी आँकड़े सर्वसुलभ हैं और उन्हें सार्वभौम मान्यता प्राप्त है तथा
सार्वभौम मान्य तथ्यों के आधार पर तर्कसंगत परिणाम निकाले गए हैं। मनोराज्य
में इससे भिन्नता है। यहाँ न तो कोई आँकड़े हैं, न शारीरिक इंद्रियों के
पर्यवेक्षण के योग्य कोई तथ्य हैं, और इसलिए सार्वभौम मान्यताप्राप्त कोई
सामग्री नहीं हो सकती कि, जिसके आधार पर मनोविज्ञान को तब कोई व्यवस्थित रूप
प्रदान किया जाता, जब मन के अध्ययन में लगे सब लोग समान रूप से परीक्षण कर
लेते।
गहन, गहन गहराई में वह यथार्थ मनुष्य है, आत्मा। मन को अंतर्मुख कर लो और उससे
संयुक्त हो जाओ। स्थायित्व की उस पीठिका से मन के इधर-उधर चक्कर काटने का
निरीक्षण और तथ्यों का पर्यवेक्षण किया जा सकता है, और यह हमें सभी व्यक्तियों
में मिलेंगे। जो काफ़ी गहराई तक पैठ सकते हैं, केवल उन्हीं को इन तथ्यों और इन
आँकड़ों का पता लग सकता है। उन तथाकथित बहुसंख्यक रहस्यवादियों में मन, उसके
स्वभाव, शक्ति आदि के बारे में बड़ा मतभेद है। इसका कारण यह है कि ऐसे लोग
काफ़ी गहराई तक नहीं पहुँचते। अपने तथा दूसरों के मन की छोटी-मोटी क्रियाओं का
अनुभव कर तथा इन सतही अभिव्यक्तियों के वास्तविक रूप को जाने बिना उन्होंने इन
सबको सार्वभौमिक सत्य के रूप में प्रकाशित किया है। प्रत्येक धार्मिक और
रहस्यवादी सनकी के पास तथ्य, आँकड़े आदि हैं, जिनके विश्वसनीय कसौटी होने का
वह दावा करता है, किंतु वस्तुतः जो कमोबेश उसकी कल्पना के अतिरिक्त और कुछ
नहीं है।
यदि तुम मन के अध्ययन का इरादा रखते हो, तो तुमको विधिवत् प्रशिक्षण प्राप्त
करना ही चाहिए। उस चेतना की उपलब्धि के लिए कि जिससे तुम मन के अध्ययन के
योग्य बन जाओ और उसकी किसी भी विकट उड़ान से अविचलित रह सको। तुम्हें मन को वश
में करने का अभ्यास अवश्य करना पड़ेगा। अन्यथा तुमसे निरीक्षित तथ्य विश्वसनीय
न होंगे, वे सब मनुष्य पर लागू नहीं होंगे; अतः वे सही अर्थों में तथ्य और
आँकड़े हो ही नहीं सकते।
जिस वर्ग के लोगों ने मन के अध्ययन की गहराई में प्रवेश किया है, उनके द्वारा
निरीक्षित तथ्य सर्वत्र एक जैसे रहे हैं, चाहे इस तरह के व्यक्ति दुनिया के
किसी भी भाग में क्यों न हों, या किसी भी धर्म के अनुयायी क्यों न हों। जो लोग
मन की गहराई में काफ़ी भीतर तक घुसते हैं, उन्हें जो निष्कर्ष उपलब्ध होते
हैं, वे एक जैसे होते हैं।
मन प्रत्यक्षीकरण और आवेग द्वारा क्रियाशील होता है। दृष्टांत के तौर पर,
प्रकाश की किरणें मेरे नेत्रों में प्रवेश करती हैं, ज्ञान-तंतुओं से वे
मस्तिष्क में पहुँचायी जाती हैं और फिर भी मैं प्रकाश नहीं देख पाता; तब मन
में प्रतिक्रिया होती है और प्रकाश मस्तिष्क के इस पार से उस पार तक कौंध जाता
है। मन की प्रतिक्रिया आवेग है और उसके परिणामस्वरूप आँख को वस्तु का बोध होता
है।
मन को वश में करने के लिए तुमको अवचेतन मन की गहराई में अवश्य जाना पड़ेगा,
वहाँ जो विभिन्न संस्कार, विचार आदि संचित हैं, उन्हें क्रमबद्ध करना पड़ेगा
तथा उन पर नियंत्रण रखना पड़ेगा। यह प्रथम सोपान है। अवचेतन मन पर नियंत्रण से
चेतन मन पर तुम्हारा नियंत्रण स्थापित हो जाएगा।
प्राणायाम
सर्वप्रथम हम प्राणायाम का थोड़ा अर्थ समझने का प्रयास करेंगे। अध्यात्म
विद्या में प्राण उस समग्र शक्ति के लिए आता है, जो इस ब्रह्मांड में विद्यमान
है। दार्शनिकों के सिद्धांत के अनुसार यह ब्रह्मांड तरंगों के रूप में संसरण
करता है। तरंग उठती है, फिर शांत हो जाती है और जान पड़ता है कि वह विलुप्त हो
गयी; तब फिर वह अपनी सारी विविधता के साथ संसरण करती है और पश्चात् धीरे- धीरे
लौट आती है। स्पंदन की भाँति यह चलता रहता है। समस्त ब्रह्मांड भौतिक द्रव्य
और ऊर्जा से बना है और संस्कृत के दार्शनिकों का कहना है कि हम जिसे भौतिक
द्रव्य कहते हैं, वह चाहे ठोस हो या द्रव, उसकी उत्पत्ति एक मूल तत्व से हुई
है, जिसे वे आकाश कहते हैं और प्रकृति में जो नाना शक्तियाँ अभिव्यक्त होकर
हमें दिखायी पड़ती हैं, वे एक ही आदि शक्ति से उद्भूत हुईं, जिसे वे प्राण
कहते हैं। इसी प्राण की क्रिया आकाश पर होती है, जिससे ब्रह्मांड की सृष्टि
होती है और काल की एक अवधि बीत जाने पर, जिसे कल्प कहा जाता है, प्रलय की अवधि
आती है। कार्यशीलता की अवधि के पश्चात् विश्राम की अवधि आती है, यही प्रत्येक
का स्वभाव है। जब प्रलय की कालावधि आती है, तब पृथ्वी, सूर्य, चंद्र और
नक्षत्रगण, जिनकी अभिव्यक्तियाँ हमें दृष्टिगोचर हैं, विगलित हो जाते हैं और
पुनः आकाश बन जाते हैं। वे आकाश के रूप में लुप्त हो जाते हैं। शरीर अथवा मन
में जो शक्तियाँ मध्याकर्षण, आकर्षण, गति, विचार के रूप में हैं, लुप्त होकर
आदि प्राण में विलीन हो जाती हैं। इससे हम प्राणायाम का महत्व समझ सकते हैं।
जिस प्रकार इस आकाश ने हमें चारों तरफ़ से आवृत्त कर रखा है और हममें व्याप्त
है, उसी प्रकार हम जो कुछ देखते हैं, वह सब इसी आकाश तत्व से निर्मित है और हम
इस आकाश में उसी भाँति तैर रहे हैं, जैसे किसी झील में हिमखंड तैरते हैं। वे
उसी झील के जल से निर्मित हैं और साथ ही उसमें तैरते भी हैं। उसी भाँति,
प्रत्येक वस्तु, जिसका अस्तित्व है, आकाश से बना है और इस महासागर में तैर रहा
है। उसी तरह हम प्राण- शक्ति और ऊर्जा- के महासागर में चारों तरफ़ से घिरे
हैं। इसी प्राण से हम साँस लेते हैं और इसके द्वारा रक्त-संचार-क्रिया होती
है, यही नाड़ियों तथा पेशियों में शक्ति है और मस्तिष्क में विचार है। जिस
प्रकार सभी भूत एक ही आकाश की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, उसी प्रकार सभी
शक्तियाँ एक ही प्राण की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। हमें सदैव स्थूल का कारण
सूक्ष्म में मिलता है। रसायनशास्त्री किसी कच्ची धातु का ठोस खंड लेता है और
उसका विश्लेषण करता है। वह उन सूक्ष्मतर तत्त्वों की खोज करना चाहता है, जिनसे
उस स्थूल का निर्माण हुआ है। वही हाल हमारे विचार और ज्ञान का है। स्थूलतर की
व्याख्या सूक्ष्मतर में विद्यमान रहती है। कार्य स्थूल है और कारण सूक्ष्म है।
जिसे हम देखते, अनुभव करते और स्पर्श करते हैं, हमारे उस स्थूल जगत् का कारण
और उसकी व्याख्या पीछे विचार में है। फिर उसका कारण और उसकी व्याख्या तो और भी
भीतर है। हम अपने मानव-शरीर में पहले स्थूल गति देखते हैं, हाथ हिलते हैं और
ओठ हिलते हैं, पर इनके कारण कहाँ हैं ? सूक्ष्मतर नाड़ियाँ, जिनकी गति हम
किंचित् भी नहीं देख सकते, जो इतने सूक्ष्म हैं कि जिनको हम न देख सकते हैं, न
स्पर्श कर सकते हैं और न इंद्रियों से पता लगा सकते हैं, और फिर भी हम जानते
हैं कि वे ही स्थूल गतियों की कारण हैं। फिर इन नाड़ियों की गति उनसे भी
सूक्ष्मतर गतियों द्वारा होती है, जिन्हें हम विचार कहते हैं। उसके भी पीछे,
उनसे भी सूक्ष्मतर एक और प्रेरक है, जिसे मनुष्य की आत्मा कहते हैं। अपने को
समझने के लिए पहले हमें अपनी बोधक्षमता को सूक्ष्म बनाना पड़ेगा। अंत:करण में
जो सूक्ष्म गतियाँ हो रही हैं, उन्हें किसी अणुवीक्षण अथवा कभी भी आविष्कृत
किसी यंत्र से देखना हमारे लिए संभव न होगा। हम ऐसे किसी साधन से उन्हें कदापि
नहीं देख सकते। अतएव योगी के पास एक विज्ञान है, जो अपने ही मन के अध्ययन के
लिए एक यंत्र का निर्माण करता है और वह यंत्र भी मन में ही है। मन इतनी
सूक्ष्म बोधक्षमता प्राप्त कर लेता है कि जितनी किसी भी यंत्र के लिए संभव
नहीं।
इस सूक्ष्मतम बोधक्षमता की शक्ति को प्राप्त करने के पहले हमें स्थूल से आरंभ
करना पड़ेगा। जब शक्ति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होने लगती है, तब हमारी प्रकृति
गहन से गहनतर होने लगती है। पहले हमें स्थूल गतियों का प्रत्यक्ष होगा और
तत्पश्चात् विचार की सूक्ष्म गतियों का। विचार उत्पन्न होने के पहले ही हमें
उसका पता लग जाएगा। वह कहाँ जाता है और कहाँ उसका अंत होता है, इसका भी पता लग
जाएगा। दृष्टांत के तौर पर किसी साधारण मन में कोई विचार स्फुरित होता है,
किंतु मन नहीं जानता कि उसका उद्भव कहाँ से और कैसे हुआ। मन समुद्र जैसा है,
जिसमें एक लहर उठती है, लेकिन यह मालूम होते हुए भी कि एक तरंग उठी है, आदमी
को यह पता नहीं लगता कि वह तरंग कैसे उठी, किससे वह उत्पन्न हुई या फिर विगलित
होकर वह कहाँ गयी। उससे आगे का पता वह नहीं लगा सकता। लेकिन जब अंतर्दृष्टि
सूक्ष्मतर हो जाती है, तब तरंग के सतह पर आने के बहुत पहले उसका पता हम लोगों
को लग सकता है और विलुप्त होने के बाद दूर तक उसके जाने का पता लगाने में भी
हम समर्थ होंगे और तभी हम मनोविज्ञान को यथार्थ समझ सकेंगे। आजकल लोग इधर-उधर
की सोचते हैं और कितनी ही पोथियाँ लिख डालते हैं, जो बिल्कुल भ्रामक होती हैं,
क्योंकि उनमें स्वयं अपने मन के विश्लेषण का सामर्थ्य नहीं है और वे ऐसे
विषयों पर मत प्रकट करते हैं, जिनका उन्हें ज्ञान ही नहीं होता था। वे केवल
परिकल्पना मात्र कर लेते हैं। सब विज्ञान तथ्यों पर आधारित होने चाहिए, इन
तथ्यों की प्रत्यक्षानुभूति होनी चाहिए और तब उनसे सामान्य निष्कर्ष निकालना
चाहिए। जब तक नियम निरूपित करने के लिए तुम्हारे पास तथ्य न हों, तब तक तुम
करोगे क्या ? अतः आम नियम बनाने के सभी प्रयास इस बात पर आधारित होते हैं कि
जिन वस्तुओं के बारे में हम नियम बना रहे हैं, उनकी हमें जानकारी हो। एक आदमी
कोई परिकल्पना प्रस्तुत करता है, और एक परिकल्पना में दूसरी परिकल्पना को जोड़
देता है, इस प्रकार पूरी पुस्तक परिकल्पनाओं का पैबंद बन जाती है और उनमें से
किसी एक में भी तिल मात्र सार नहीं होता। राजयोग विज्ञान कहता है कि पहले
स्वयं अपने मन के विषय में तथ्य संग्रह करो, और अपने मन के विश्लेषण, उसकी
सूक्ष्म विवेचना-शक्ति के विकास और यह कार्य अंतःकरण की गतिविधि के स्वयं
निरीक्षण से संपन्न किया जा सकता है। जब तुमको ये तथ्य प्राप्त हो जायँ, तब
उनसे सामान्य निष्कर्ष निकालो और तभी तुमको सच्चा मनोविज्ञान प्राप्त हो
सकेगा। जैसा मैं बता चुका हूँ, किसी सूक्ष्म विवेचना तक आने के लिए हमें उसके
स्थूल पक्ष से अवश्य सहायता लेनी चाहिए। जिस कर्म-प्रवाह की अभिव्यक्ति बाह्य
स्तर पर हो रही है, वह स्थूलतर है। यदि हम उसे अपने वश में कर लें और लगातार
आगे बढ़ते रहें, तो वह सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होने लगता है, और अंत में
सूक्ष्मतम हो जाता है। इस प्रकार यह शरीर और इसमें जो कुछ विद्यमान है, वे सब
विभिन्न सत्ताएँ नहीं हैं, बल्कि एक तरह से एक ही जंजीर की अनेक कड़ियाँ हैं,
जो सूक्ष्म से आरंभ होकर स्थूल तक पहुँच गयी हैं। तुम सर्वांगपूर्ण हो। यह
शरीर बाह्य अभिव्यक्ति है, अभ्यंतर की ऊपरी पर्त है। बाह्य स्थूल है, अभ्यंतर
सूक्ष्म है, इस प्रकार सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतर होते हुए तुम आत्मा तक पहुँच
जाते हो। और अंत में जब हम आत्मा तक पहुँच जाते हैं, तब हमें ज्ञात होता है कि
सभी अभिव्यक्तियाँ केवल उस आत्मा द्वारा हो रही थीं। वह आत्मा ही थी, जो मन
बनी और शरीर बनी। आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता नहीं है और ये अन्य
सभी वस्तुएँ विभिन्न अंशों में उसी आत्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं, जो उत्तरोत्तर
स्थूल से स्थूलतर होती गयी हैं।
इस प्रकार अनुमान प्रमाण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस पूरे
ब्रह्मांड में स्थूल अभिव्यक्ति है और उसके पीछे सूक्ष्मतर गति है, जिसे हम
ईश्वरेच्छा कह सकते हैं। उसके भी पीछे तुमको वह विश्वात्मा मिलेगा तब हम
देखेंगे कि वह विश्वात्मा ही ईश्वर बन जाता है और वही विश्व बन जाता है; और यह
बात नहीं है कि विश्व एक वस्तु है, ईश्वर दूसरी वस्तु है तथा परमेश्वर तीसरी
वस्तु है, वरन् मूल में स्थित उसी एकत्व की अभिव्यक्ति की वे विभिन्न अवस्थाएँ
हैं। प्राणायाम से यह सब होता है। शरीर के भीतर जो ये सूक्ष्मतर गतियाँ हो रही
हैं, उनका संबंध श्वास-प्रश्वास से है। यदि हम श्वास-क्रिया को वश में कर सकें
और उसे कौशलपूर्वक अनुकूल बनाकर उस पर नियंत्रण कर सकें, तो धीरे-धीरे
सूक्ष्मतर गतियों तक पहुँचकर एक प्रकार से उस प्राण को पकड़कर मन के क्षेत्र
में प्रविष्ट हो सकेंगे। पिछले पाठ में मैंने जो प्राणायाम तुम लोगों को
सिखाया, वह तो उसी समय के लिए एक अभ्यास था। फिर, इन प्राणायामों में कुछ
अत्यंत कठिन हैं और सब कठिन प्राणायामों को मैं छोड़ता जाऊँगा, क्योंकि जो
अधिक कठिन प्राणायाम हैं, उनका अभ्यास करने में बहुत से आहार संबंधी एवं अन्य
प्रकार के प्रतिबंधों की आवश्यकता पड़ती है, जिनके अनुसार चलना तुममें से
बहुतों के लिए असंभव होगा। इसलिए हम लोग धीरे-धीरे चलने का मार्ग अपनायेंगे और
सरल मार्गों का अनुसरण करेंगे। इस प्राणायाम के तीन भाग हैं। पहला है श्वास को
भीतर खींचना, जिसे संस्कृत में पूरक कहते हैं, भरना; द्वितीय भाग को कुम्भक
कहते हैं, रोकना-फेफड़ों में वायु भर कर उसे निकलने से रोकना; तृतीय को रेचक
कहते हैं, श्वास को बाहर निकालना। आज जो पहला अभ्यास मैं तुम लोगों को
बताऊँगा, वह है साधारण रूप से श्वास को भीतर खींचना, श्वास को रोकना और
धीरे-धीरे उसे बाहर निकालना। फिर श्वास-क्रिया का एक और सोपान है, जिसे मैं आज
तुम लोगों को नहीं बताऊँगा, क्योंकि तुम उन सबको याद न रख सकोगे; वह बहुत गूढ़
हो जाएगा। श्वास-क्रिया के इन तीनों भागों को मिलाकर एक प्राणायाम होता है। इस
श्वास-क्रिया का नियमन होना चाहिए, क्योंकि यदि यह न हो, तो स्वयं तुम्हारे
लिए मार्ग में खतरा है। इसलिए इसका नियमन गिनती से होता है और पहले मैं तुमको
सबसे छोटी गिनतियों से बताऊँगा। चार सेकण्ड तक पूरक करो, तब आठ सेकण्ड तक
कुम्भक करो और फिर धीरे-धीरे चार सेकण्ड तक रेचक करो। तब पुनः आरंभ करो और
प्रातः चार बार तथा सायं चार बार करो। एक बात और है। एक, दो, तीन और इस प्रकार
की निरर्थक गिनतियों के बजाए किसी ऐसे शब्द का उच्चारण करो, जो तुम्हारे लिए
पवित्र हो। हमारे देश में प्रतीकात्मक शब्द है, उदाहरणार्थ, 'ॐ', जिसका अर्थ
है ईश्वर। यदि एक दो, तीन, चार के स्थान पर उसका उच्चारण किया जाए, तो उससे
तुम्हारा काम भली भाँति चल जाएगा। एक बात और है। पूरक वाम नासापुट से आरंभ
होना चाहिए और रेचक दक्षिण नासापुट से होना चाहिए, फिर दूसरी बार दक्षिण से
नासापुट से पूरक और वाम नासापुट से रेचक होना चाहिए। फिर उसके विपरीत, वही
क्रम। प्रथम तुममें यह योग्यता होनी चाहिए कि इच्छानुसार, केवल इच्छा-शक्ति
द्वारा किसी भी नासापुट से श्वास-संचालन कर सको। कुछ काल बाद तुम्हारे लिए यह
सरल हो जाएगा, लेकिन शायद अभी वह सामर्थ्य तुममें नहीं है। इसलिए जब हम एक
नासापुट से पूरक करें, तब दूसरे को अंगुली से अवश्य बंद रखें और कुंभक के समय
निश्चय ही दोनों नासापुटों को बंद रखें। ये दोनों बातें भूलनी नहीं चाहिए।
पहली बात यह है कि अपने को सीधा रखो, दूसरी यह कि कल्पना करो कि तुम्हारा शरीर
नीरोग, निर्दोष, स्वस्थ तथा सबल है। फिर चतुर्दिक प्रेमोच्छ्वास प्रवाहित करो
और कल्पना करो कि सारा जगत् प्रसन्न है। यदि तुम आस्तिक हो, तो प्रार्थना करो।
तब प्राणायाम करो।
तुममें से बहुतों में कतिपय शारीरिक परिवर्तन होंगे। सारे शरीर में झटके से
लगेंगे, घबराहट होगी, तुम लोगों में से कुछ को रुलाई सी मालूम होगी, कभी कभी
जोरों से झकझोर उठोगे। डरो मत; ज्यों-ज्यों तुम अभ्यास बढ़ाओगे, त्यों-त्यों
ये सब होगा ही। एक तरह से सारे शरीर का पुनर्गठन होगा। मस्तिष्क में विचार के
नये मार्ग बनेंगे, जिन नाड़ियों ने आजीवन कार्य नहीं किया, वे कार्य आरंभ
करेंगी और स्वयं शरीर में नये सिरे से सारे परिवर्तन होंगे।
चित्त की एकाग्रता
(१६ मार्च, १९०० को सैनफ्रांसिस्को के वाशिंगटन-हॉल में दिया गया व्याख्यान)
यह तथा परवर्ती दो व्याख्यान 'वेदांत सोसाइटी ऑफ़ साउथ कैलिफ़ोर्निया' के
सौजन्य से 'वेदांत एंड दि वेस्ट' से यहाँ उद्धृत किए जा रहे हैं। अमेरिका में
इनके प्रकाशन का कॉपीराइट (सर्वाधिकार) 'वेदांत सोसाइटी ऑफ़ साउथ
कैलिफ़ोर्निया' ने अपने लिए सुरक्षित रखा है। इन वक्तृताओं को आइडा ऐंसेल ने
जिन परिस्थितियों में लिपिबद्ध किया, उनका उल्लेख वे स्वयं इस प्रकार करती हैं
:
"स्वामी विवेकानंद ने पश्चिम की अपनी दूसरी यात्रा सन् १८९९-१९०० में की। सन्
१९०० के पूर्वार्द्ध में उन्होंने कैलिफ़ोर्निया के सैन फ्रांसिस्को नगर में
तथा उसके आसपास कार्य किया। उस समय में उक्त नगर में रहती थी औरमैं बाईस वर्ष
की थी।... सन् १९०० के मार्च से मई तक मैंने उनके लगभग बीस व्याख्यान सुने और
उनके सत्तरह प्रवचनों को मैंने लिख लिएा।
"ये व्याख्यान सैन फ्रांसिस्को, ओकलैंड और अलामेंडा में गिरजाघरों में दि
अलामेंडा एंड सैन फ्रांसिस्को होम्स ऑफ़ ट्रुथ' में तथा किराये पर लिये गए
हॉलों में हुए। स्वामी जी प्रायः नित्य प्रश्नों का उत्तर देते और अनौपचारिक
तौर पर कक्षाएँ लेते थे और इनके अतिरिक्त मार्च, अप्रैल एवं मई के महीनों में
उन्होंने कम से कम तीस या चालीस प्रमुख व्याख्यान दिए।
"मेरे नोट अधूरे थे, इसलिए इन व्याख्यानों को शार्टहैंड से पूरा लिखकर प्रकाश
में लाने में लंबे अरसे तक मैं संकोच करती रही। जिन दिनों मैं इन व्याख्यानों
को नोट करती थी, उन दिनों मैं एक शौक़िया स्टेनोग्राफ़र मात्र थी। स्वामी जी
के धारा-प्रवाह भाषण को पूर्णतया लिपिबद्ध करने के लिए प्रति मिनट कम से कम
तीन सौ शब्द अंकित करने की गति अपेक्षित थी। मेरी गति अपेक्षित के आधे से भी
कम थी और उस समय मेरे मन में यह ख्याल तक नहीं आया कि मेरे अतिरिक्त दूसरे
किसी के लिए इस सामग्री का मूल्य होगा। वक्तृता की गति तेज़ होने के अतिरिक्त
स्वामी जी उच्च कोटि के अभिनेता थे। जब वह कोई कहानी सुनाते और नक़ल उतारते,
तब उन्हें देखने का आनंद लेने में लिखना हठात्रुक जाता। मैंने जो नोट तैयार
किए थे, यद्यपि वे स्फूट से थे, तथापि मुझे यह मत मानना पड़ा कि उनमें
अंतरनिष्ठ सामग्री बहुमूल्य है और उसे प्रकाशन के लिए अवश्य देना चाहिए।
"सामान्य बोलचाल की भाषा में और ताजगी से ओतप्रोत उनकी भाषण-शैली ज़ोरदार थी।
उसमें कोई हेर-फेर नहीं किया गया है; प्रकाशन के अभिप्राय से न तो उनके सहज
धारा-प्रवाह को श्रुति मधुर बनाया गया है और न क्रमबद्ध किया गया है। अर्थ न
समझ सकने के कारण जहाँ शब्द छूट गए थे, उनका संकेत रिक्त स्थान पर तीन बिंदु
देकर किया गया है। स्पष्टीकरण के उद्देश्य से यदि कोई शब्द बाहर से लिया गया
है, तो उसे कोष्ठक में रखा गया है। इन विशिष्टताओं के साथ स्वामी जी के भाषण
के शब्द ज्यों के त्यों रख दिए गए हैं।
"स्वामी जी जो कुछ बोलते थे, उसमें प्रबल शक्ति रहती थी। ये व्याख्यान पचास
वर्षों तक मेरी स्टेनोग्राफ़ नोटबुक में सुप्तावस्था में पड़े रहे। अब ये बाहर
आ रहे हैं, तो प्रतीत होता है कि उनमें अब भी शक्ति है।"
हमको जो भी ज्ञान है, चाहे वह बाह्य जगत् का हो अथवा अंतर्जगत्का, उसे प्राप्त
करने का केवल एक ही ढंग है-चित्त की एकाग्रता द्वारा। जब तक हम किसी विषय में
अपना मन एकाग्र कर न लगायें, तब तक तद्विषयक विज्ञान का कोई ज्ञान प्राप्त
नहीं कर सकते। ज्योतिर्विद् दूरवीक्षण-यंत्र द्वारा चित्त को एकाग्र करता
है... और इसी प्रकार अन्य भी। यदि तुम स्वयं अपने मन का अध्ययन करना चाहते हो,
तो उसकी भी वही विधि है। तुमको अपना चित्त एकाग्र करना पड़ेगा और उसे स्वयं
उसी (चित्त) पर लगाना होगा। इस दुनिया में एक मन से दूसरे मन के भेद का कारण
एकाग्रता की क्षमता की सीधी-सी बात है। जो एकाग्रता में अपेक्षाकृत अधिक समर्थ
होता है, वह दूसरे से अधिक ज्ञान अर्जित कर लेता है।
भूतकाल तथा वर्तमान काल के महान पुरुषों के जीवन में हमें उनकी चित्त की
एकाग्रता की अपार शक्ति का पता लगता है। तुम कहते हो कि वे प्रतिभाशालीपुरुष
हैं। योग-विज्ञान हमें बतलाता है कि हम सभी प्रतिभाशाली हैं, बशर्ते वैसा होने
के लिए हम कठिन प्रयत्न करें। कुछ लोग औरों से अधिक सक्षम होकर जीवन में
प्रवेश करते हैं और शायद अपेक्षाकृत अल्प समय में इसे संपन्न कर लेते हैं। हम
सब वैसा कर सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में वही शक्ति है। वर्तमान व्याख्यान
का विषय है, स्वयं मन के अध्ययन के लिए मन को किस प्रकार एकाग्र किया जाए।
योगियों ने कतिपय नियम निर्धारित किए हैं और आज रात मैं इनमें से कुछ नियमों
की रूपरेखा तुम लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।
निश्चय ही मन की एकाग्रता कई साधनों द्वारा प्राप्त होती है। इंद्रियों द्वारा
तुम मन को एकाग्र कर सकते हो। कुछ लोग सुंदर संगीत को सुनकर और अन्य लोग सुंदर
दृश्य देखकर एकाग्रमन होते हैं... कुछ लोग कीलों की शय्या पर, लोहे की तेज़
नोकदार कीलों पर लेटकर तथा दूसरे लोग तीक्ष्ण कंकड़ियों पर बैठकर मन को एकाग्र
करते हैं। ये असाधारण प्रयत्न हैं, जिनमें अत्यंत अवैज्ञानिक विधि का सहारा
लिया गया है। वैज्ञानिक विधि है, मन को शनैःशनैः प्रशिक्षित करना। कोई
ऊर्ध्वबाहु होकर मन को एकाग्र करते हैं। यातना उन्हें अभीप्सित एकाग्रता
प्रदान करती है। परंतु ये सभी असाधारण हैं।
भिन्न भिन्न दार्शनिकों के मतानुरूप सार्वभौम विधियों की योजना की गयी है। कुछ
का कहना है कि हम जिस अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं, वह है चित्त की
अतिचेतन अवस्था-देहजनित सीमाओं के परे पहुँचने की स्थिति। योगी के लिए नैतिकता
का मूल्य यह है कि वह मन को निर्मल बनाती है। मन जितना ही निर्मल होगा, उसे वश
में करना उतना ही सरल होगा। जो भी संकल्प मन में उठता है, प्रत्येक को ग्रहण
कर मन उसे कार्यान्वित करता है। मन जितना ही अशुद्ध होता है, (उसे) वश में
करना (उतना ही) कठिन होता है। अनैतिक पुरुष मनोविज्ञान के अध्ययन में कभी मन
को एकाग्र नहीं कर सकता। आरंभ करने पर संयम की थोड़ी सिद्धि प्राप्त हो जाएगी,
श्रवण-शक्ति भी थोड़ी उपलब्ध हो जाएगी... और ये सिद्धियाँ भी उसके पास से चली
जायँगी। कठिनाई यह है कि तुम बारीकी से अध्ययन करने पर देखोगे कि जो असाधारण
सिद्धि उपलब्ध हुई थी, उसकी प्राप्ति विधिवत् वैज्ञानिक प्रशिक्षण द्वारा नहीं
हुई थी। जो लोग जादू की शक्ति से साँपों को वश में करते हैं, वे सर्पों द्वारा
मृत्यु को प्राप्त होते हैं।... जो व्यक्ति किसी प्रकार की असाधारण सिद्धियाँ
प्राप्त कर लेते हैं, वे अंततोगत्वा उन्हीं सिद्धियों के शिकार हो जाते हैं।
भारत में ऐसे लाखों व्यक्ति हैं, (जो) नाना प्रकार से सिद्धियाँ प्राप्त कर
लेते हैं। उनमें से अधिकांश पागलपन का प्रलाप करते हुए मर जाते हैं। मस्तिष्क
असंतुलित (होने से) बहुत से तो आत्महत्या कर लेते हैं।
अध्ययन निरापद होना चाहिए-वैज्ञानिक, शनैः शनैः और शांतिपूर्वक। प्रथम
आवश्यकता है नैतिक बनने की। यदि ऐसा व्यक्ति चाहे कि देवगण आ जायें, तो वे आकर
उसे दर्शन देंगे। यह हमारे मनोविज्ञान और दर्शन का सार है, पूर्ण नैतिक (बनो)।
जरा सोचो कि इसका क्या अर्थ है ! अहिंसा,पूर्ण पवित्रता और पूर्ण संयम! ये
नितांत आवश्यक हैं। जरा सोचो कि कोई व्यक्ति इनका पूर्ण रूप से पालन कर सकता
है ! इससे अधिक तुम चाहते क्या हो ? यदि वह किसी भी जीव के प्रति सर्वभावेन
निर्वैर है... तो सब जीव (उसकी उपस्थिति में) वैर त्याग देंगे।
[2]
योगी बड़े कठिन नियम रखते हैं... कोई व्यक्ति दानी हुए बिना दूसरों की दृष्टि
में दानी नहीं हो सकता।...
मेरा विश्वास करें, मैंने एक ऐसे पुरुष को देखा है, जो एक गुफा में रहते थे।
उसमें उनके साथ नाग और मेंढक एक संग रहते थे।... कभी कभी वह (कई कई दिन और
महीनों) उपवास करते थे और तब बाहर निकलते थे। वह सर्वदा मौन रहते थे। एक दिन
एक लुटेरा पहुँचा।...
[3]
मेरे वृद्ध गुरुदेव कहा करते थे, "जब हृदय-कमल खिल उठेगा, तब मधुमक्खियाँ अपने
आप आ जायँगी। उस प्रकार के मनुष्य वहाँ अब भी हैं। उन्हें बोलने की ज़रूरत
नहीं।... जब कोई व्यक्ति हृदय से पूर्ण हो जाता है और उसमें घृणा का लेश भी
नहीं रह जाता, तब (उसके समक्ष) सभी प्राणी घृणा कात्याग कर देते हैं। शुचिता
का भी यही हाल है। साथ के सभी प्राणियों के प्रति व्यवहार में ये बातें आवश्यक
हैं। सबको हम प्यार करें। दूसरों के दोष देखना हमारा काम नहीं; इससे कुछ लाभ
नहीं होता। हमें उनकी कल्पना भी नहीं करनी चाहिए। गुणों से हमारा प्रयोजन है;
दोषों को ढूँढ़ना नहीं। अच्छा बनना हमारा काम है।
कुमारी अमुक-तमुक यहाँ आती हैं। वह कहती हैं, "मैं योगी बनने जा रही हूँ।" वह
इस समाचार को बीस बार सुनाती हैं, पचास दिन ध्यान का अभ्यास करती हैं और तब
कहती हैं, "इस धर्म में कुछ नहीं है। मैंने इसे आजमा लिया है। इसमें कुछ नहीं
है।"
यहाँ (आध्यात्मिक जीवन की) नींव ही नहीं है। पूर्ण नैतिकता को (ही) नींव बनाना
चाहिए। वह सबसे बड़ी कठिनाई है।…
हमारे देश में निरामिषभोजी (वैष्णव) संप्रदाय के लोग हैं। वे प्रातःकाल सेरों
चीनी लेकर निकलते हैं और चीटियों के निमित्त ज़मीन पर डालते जाते हैं। कथा यह
है कि जब एक व्यक्ति ने चीटियों के लिए ज़मीन पर चीनी डाली, तब दूसरे आदमी ने
चीटियों पर पाँव रख दिया। पहले ने कहा, "नीच ! तूने जीवों की हत्या की है !"
और यह कहते हुए उसने ऐसा प्रहार किया कि वह आदमी मर ही गया !
बाह्य शौच बड़ा आसान है। (उसकी) ओर सारी दुनिया टूटती है। यदि नैतिकता (का
पालन) एक विशेष प्रकार का बाना धारण करने से हो जाए, तो कोई भी मूर्ख वैसा कर
सकता है। जब साक्षात् मन को उससे संघर्ष करना पड़ता है, तब वह कठिन कार्य हो
जाता है।
जो लोग ऊपरी बाह्याचार करते हैं, वे अपने आप बड़े पुण्यात्मा बनते हैं ! मुझे
याद है कि जब मैं बालक था, तब मुझमें ईसा मसीह के चरित्र के प्रति बड़े आदर का
भाव था। (तब मैंने बाइबिल में विवाह के भोज के विषय में पढ़ा।) मैंने ग्रंथ
बंद कर दिया और कहा, "उन्होंने मांस खाया और शराब पी ! वह भले आदमी नहीं हो
सकते।"
वस्तु का सच्चा अर्थ हमारी आँखों से सदा ओझल होता रहता है। क्षुद्र खान-पान और
वस्त्र ! इन्हें तो हर मूर्ख देख सकता है। उसको कौन देखता है, जो सबसे परे है
? हृदय का संस्कार है, जिसे हम चाहते हैं।... भारत में हम एक समुदाय के
व्यक्तियों को कभी-कभी दिन में बीस बार स्नान करते देखते हैं, अपने को बहुत
पवित्र बनाते हैं। वे किसी को नहीं छूते।... स्थूल तथ्य, बाह्य वस्तुएँ ! (यदि
स्नान से ही कोई पवित्र हो जाए, तो) मछलियाँ सबसे बढ़कर पवित्र जीव हैं।
स्नान, और वस्त्र और आहार का नियमन- इन सबको तब सार्थक मानाजाता है, जब वे
आध्यात्मिक बनने में... सहायक हों। वह प्रथम है, और ये सब सहायक हैं। इसके
बिना तो कितनी भी घास खायी जाए... किंचित् लाभ प्रदान हीं। यदि उनको सही ढंग
से समझा जाए, तो वे सहायक हैं। किंतु ग़लत समझने से वे क्षतिकारक हैं।...
यही कारण है कि मैं इन बातों को समझा रहा हूँ- क्योंकि प्रथम तो सभी धर्मों
में प्रत्येक (वस्तु अज्ञानियों द्वारा) अभ्यास किए जाने पर भ्रष्ट हो जाती
हैं। बोतल में रखा हुआ कपूर तो उड़ गया और लोग बोतल के लिए झगड़ रहे हैं।
दूसरी बात... जब वे कहने लगते हैं, "यह ठीक है और वह ग़लत है"
तब(आध्यात्मिकता) उड़ जाती है। सभी विवाद (रूप तथा संप्रदाय को लेकर) हैं,
आत्मा में कदापि नहीं हैं। वर्षों तक बौद्धों ने अपने गौरवशाली उपदेश दिए;
धीरे-धीरे आध्यात्मिकता का लोप हो गया... (यही ईसाई मत में हुआ।) तब यह विवाद
उठा कि एक में त्रिदेव हैं या त्रिदेव में एक, जब कि ईश्वर क्या है, यह जानने
के लिए कोई ईश्वर के पास नहीं जाना चाहता। यह जानने के लिए कि वह एक में तीन
है अथवा तीन में एक है, हमें स्वयं ईश्वर के सान्निध्य में जाना होगा।
इस व्याख्या के साथ, अब आसन। मन को वश में करने के प्रयत्न में कोई आसन आवश्यक
है। जिस आसन में बैठना आसान हो, वही उस व्यक्ति के लिए आसन है। नियमतः मेरुदंड
को उन्मुक्त रखना चाहिए। वह शरीर के भार-वहन के लिए नहीं है। आसन लगाने में
केवल एक बात याद रखनी चाहिए, कोई भी आसन (लगाया गया) हो, शरीर के भार से
मेरुदंड पूर्णतया उन्मुक्त रहे।
फिर (प्राणायाम)... श्वास-प्रश्वास-क्रिया। श्वास-प्रश्वास...पर बहुत ज़ोर
दिया जाता है। मैं तुमको जो बात बता रहा हूँ, वह भारत के किसी संप्रदाय से
संगृहीत नहीं की गयी है। यह सार्वभौम सत्य है। जैसे इस देश में तुम अपने
बच्चों को कुछ प्रार्थनाएँ सिखाते हो, वैसे ही (भारत में) अपने बच्चों को लेकर
उन्हें कुछ तथ्यों से अवगत कराते हैं, इत्यादि।
भारत में बच्चों को दो-एक प्रार्थनाएँ सिखाने के अतिरिक्त किसी धर्म की शिक्षा
नहीं दी जाती। तब वे किसी ऐसे व्यक्ति की खोज आरंभ करते हैं, जिसे वे अपना
गुरु बना सकें। वे भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के पास जाते हैं और अंततः उन्हें एक
ऐसा आदमी मिलता है, जिसके बारे में वे कहते हैं, "मेरे लिए यही गुरु है," और
उससे दीक्षा लेते हैं। यदि मैं विवाहित हूँ, तो मेरी पत्नी शायद किसी दूसरे
व्यक्ति को गुरु के रूप में प्राप्त कर सकती है और मेरे पुत्र को कोई तीसरा
गुरु मिल सकता है, तथा मेरे और मेरे गुरु के बीच की बात सदा गोपनीय रहेगी।
पत्नी के धर्म को जानना पति के लिए आवश्यक नहीं है और उसे यह पूछने का साहस
नहीं पड़ेगा कि तुम अपना धर्म बताओ। यह भली भाँति विदित है कि वे कभी नहीं
बतायेंगे। केवल उस व्यक्ति तथा उसके गुरु को ज्ञात रहेगा।...
कभी कभी तुमको पता लगेगा कि जो वस्तु एक के लिए बिल्कुल हास्यास्पद है, वही
दूसरे के लिए उपदेश लायक हैं।... प्रत्येक व्यक्ति अपना अपना बोझा ढो रहा है
और रुचि-वैचित्र्य के अनुसार उसे सहायता मिलनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति का यह
अपना कार्य है, जिसका प्रयोजन उससे, उसके गुरु तथा ईश्वर से है। लेकिन कुछ
सामान्य नियम हैं, जिन्हें ये सभी गुरु सिखाते हैं। प्राणायाम और ध्यान
सर्वत्र सिखाये जाते हैं। भारत में यही उपासना है।
गंगा-तट पर तुम स्त्रियों, पुरुषों और बच्चों, सबको प्राणायाम (का अभ्यास)
करते हुए और तदुपरांत ध्यान लगाते हुए पाओगे उन्हें अन्य कार्य भी करने हैं।
इसमें वे बहुत समय नहीं लगा सकते। परंतु जिन लोगों ने इसे जीवन की साधना के
रूप में अंगीकार किया है, वे अनेक विधियों से इसका अभ्यास करते हैं। एक दूसरे
से भिन्न कुल चौरासी आसन हैं। जो किसी व्यक्ति की देख-रेख में अभ्यास शुरू
करते हैं, उन्हें शरीर के सभी विभिन्न अंगों में सदैव प्राणों की गति और
स्फुरण का अनुभव होता है।
तत्पश्चात् धारणा (एकाग्रता) का स्थान है... चित्त को एक जगह ठहराना धारणा है
(देशबंधचित्तस्य धारणा)।
हिंदू बालिका या बालक... दीक्षा ग्रहण करता है। वह अपने गुरु से एक शब्द पाता
है, जिसे मंत्र कहते हैं। यह मंत्र गुरु को (अपने गुरु से) प्राप्त रहता है।
और वह फिर अपने शिष्य को देता है। इसी प्रकार का एक मंत्र है ॐ। इन सभी
प्रतीकों का विशेष अर्थ है, वे उसे गुप्त रखते हैं और कभी लिखते नहीं।
मंत्रगुरु से कान में लिया जाता है- लिखित रूप में नहीं- और फिर उसे साक्षात्
परमेश्वर ही माना जाता है। तब वे मंत्र का ध्यान करते हैं।
एक समय था, जब में इसी प्रकार वर्षा ऋतु में चौमासे भर प्रार्थना करता था।
सबेरे उठकर नदी में गोता लगाता और गीले कपड़े पहने ही सूर्यास्त पर्यंत मंत्र
जपता था। तब मैं कुछ भोजन करता- थोड़ा सा चावल या दूसरी कोई चीज़। बरसात के
चार महीने।
भारतीय मन का विश्वास है कि विश्व में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है। इस देश में
व्यक्ति द्रव्य चाहता है, वह काम करने जाता है और उसका उपार्जन करता है। वहाँ
उसे एक सूत्र मिल जाता है, वह पेड़ के नीचे बैठता है और विश्वास रखता है कि
पैसा अवश्य आना चाहिए। उसकी (संकल्प) शक्ति द्वारा हर चीज़ आनी चाहिए। तुम
यहाँ धन कमाते हो। बात वही है। पैसा कमाने में तुम अपनी सारी शक्ति लगा देते
हो।
कुछ संप्रदाय ऐसे लोगों के हैं, जिन्हें हठयोगी कहा जाता है।... वे कहते हैं
कि सर्वोत्तम यह है कि शरीर को मरने से... बचाया जाए। उनकी सारी क्रिया
शरीरपरक है। बारह वर्ष का अभ्यास ! छुटपन से ही वे अभ्यास आरंभ कराते हैं,
अन्यथा यह असंभव है।... हठयोगियों के विषय में एक बात बड़ी विचित्र (है), पहले
जब वह शिष्य बनता है, तब जंगल में चला जाता है और ठीक चालीस दिनों तक बिल्कुल
एकांत में रहता है। उन चालीस दिनों में उन्हें जो कुछ सीखना रहता, वह सीख लेते
हैं।…
कलकत्ते में एक आदमी है, जिसका यह दावा है उसकी उम्र पाँच सौ वर्ष है। सब लोग
मुझे बतलाते हैं कि उनके पितामह ने उस व्यक्ति को देखा था।... बीस मील रोज
चलना उसकी कसरत है और वह कभी टहलता नहीं, वरन्दौड़ता है। जल में प्रवेश करता
है, नख-शिख (पर्यंत) कीचड़ पोत लेता है और इसके बाद वह पुनः जल में गोता लगाता
है और फिर कीचड़ का लेप करलेता है... मुझे इसमें कोई अच्छाई नज़र नहीं आती।
(कहते हैं कि सर्प दो सौ वर्ष जीवित रहता है।) वह बहुत वृद्ध होगा, क्योंकि
मैंने भारत में चौदह वर्ष भ्रमण किया और मैं जहाँ गया, वहीं के लोग उसे जानते
हैं। वह ज़िंदगीभर घूमता रहा है।... (हठयोगी) एक रबड़ का अस्सी इंच लंबा टुकड़ा
निगल जाएगा और फिर उसे बाहर निकाल लेगा। नित्य चार बार उसे शरीर के
बाह्याभ्यंतर प्रत्येक अंग का प्रक्षालन करना पड़ता है।...
दीवारें अपने शरीरों को हज़ारों वर्षों तक क़़ायम रख सकती हैं।... क्या ? मैं
उतने काल तक जीना नहीं चाहूँगा। 'एक दिन के लिए उसका दोष ही पर्याप्त है।'
अपनी तमाम भ्रांतियों एवं सीमाओं से युक्त एक ही क्षुद्र काया पर्याप्त है।
अन्य संप्रदाय भी हैं।... वे तुमको संजीवनी औषधि की एक बूँद दे देंगे और तुम
युवा बने रहोगे।... (सभी संप्रदायों के) नाम गिनने में मुझे महीनों लग जायँगे।
उनके सभी क्रिया-कलाप ऐहिक (भौतिक जीवन के) हैं नित्य नये-नये संप्रदाय।
सभी संप्रदायों की शक्ति का स्रोत मन है। मन को स्थिर रखना उनकी परिकल्पना है।
पहले मन को एकाग्र कर उसे किसी विशेष स्थान पर स्थिर करो। सामान्यतः उनका कहना
है कि धारणा में चित्त को शरीर के भीतर सुषुम्णा में अथवा किसी नाड़ी-केंद्र
में स्थिर करना चाहिए। केंद्रों में चित्त को स्थिर करने से (योगी को) शरीर पर
अधिकार प्राप्त होता है। शरीर के कारण उसकी मानसिक शांति में बड़ी बाधा
पहुँचती है, वह उसके सर्वोच्च लक्ष्य के विरुद्ध है, इसलिए वह उस पर अधिकार
चाहता है, (जिससे) शरीर किंकर का काम करे।
फिर ध्यानावस्था आती है। वह उच्चतम अवस्था है।... जब तक (चित्त में) संशय रहता
है, ऊँची अवस्था नहीं होती। समाधि उच्चावस्था है। वह द्रष्टा और साक्षी के रूप
में वस्तुओं को देखता है, परंतु उनके साथ तदाकार नहीं होता। जब तक मुझे दुःख
होता है, तब तक शरीर में मेंरी तादात्म्य वृत्ति है। जब तक मुझे मौज़ या खुशी
का अनुभव होता है, तब तक शरीर में मेंरी तादात्म्य वृत्ति है। परंतु जो
उच्चावस्था है, उसमें सुख-दुःख, दोनों में एक सा सुख अथवा आनंद प्रतीत
होगा।... प्रत्येक प्रकार का ध्यान प्रत्यक्ष समाधि है। चित्त के पूर्ण एकाग्र
हो जाने पर जीवात्मा स्थूल शरीर के बंधन से वस्तुत: मुक्त हो जाती है और उसके
वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। जिस वस्तु की इच्छा होती है, वह प्राप्त
होती है। सिद्धि और ज्ञान, दोनों हो जाते हैं। जीवात्मा शक्तिरहित जड़ पदार्थ
से तादात्म्य स्थापित कर लेती है, अतः रोती है। वह नाशवान रूपों से तादात्म्य
स्थापित करती है।.. परंतु वह विमुक्तात्मा यदि किसी सिद्धि का प्रयोग करना
चाहती है, तो उसे वह मिल जाएगी। यदि नहीं चाहती, तो नहीं आती। जिसने ईश्वर को
जान लिया, वह ईश्वर हो गया। ऐसी मुक्तात्मा के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। उसका
जन्म और मरण नहीं होता। वह सर्वदा के लिए मुक्त है।
ध्यान
(३ अप्रैल
,
१९०० को सैन फ्रांसिस्को में वाशिंगटन-हॉल में दिया गया व्याख्यान)
सभी धर्मों ने ध्यान पर ज़ोर दिया है। योगियों का कहना है कि ध्यानस्थ अवस्था
मन की उच्चतम संभव अवस्था है। जब मन किसी बाह्य वस्तु का अध्ययन करता है, तब
वह उससे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है और स्वयं लुप्त हो जाता है।
प्राचीन भारतीय दार्शनिकों द्वारा दी गयी उपमा का प्रयोग करें तो-मनुष्य की
आत्मा स्फटिक के एक खंड के समान है, जो अपने निकट की वस्तु का रंग ग्रहण कर
लेता है। आत्मा जिस वस्तु का स्पर्श करती है... उसी का रंग उसे लेना पड़ता है।
यही कठिनाई है। वह बंधन बन जाता है। रंग इतना प्रबल है कि स्फटिक अपने को भूल
जाता है और उसी रंग से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है। मान लो कि स्फटिक
के निकट एक लाल फूल है। और स्फटिक वह लाल रंग ग्रहण कर लेता है तथा अपने को
भूल जाता है एवं समझता है कि वह लाल है। हम लोगों ने शरीर का रंग ग्रहण कर
लिया है और भूल गए हैं कि हम क्या हैं। बाद में जो कठिनाइयाँ आती हैं, वे सब
केवल एक निर्जीव शरीरजन्य हैं। हमारे समस्त भय, परेशानियाँ, चिंताएँ, कष्ट,
भूलें, दुर्बलताएँ, बुराइयाँ केवल एक इस भारी भूल के कारण हैं- कि हम शरीर
हैं। यह साधारण व्यक्ति हैं। यह वह व्यक्ति है, जिसने अपने निकटस्थ फूल का रंग
धारण कर लिया है। हम उसी प्रकार शरीर नहीं हैं, जिस प्रकार स्फटिक लालफूल नहीं
है।
ध्यान का अभ्यास नियमित रूप से किया जाता है। स्फटिक जान जाता हैकि वह क्या
है, वह अपने रंग में आ जाता है। अन्य किसी वस्तु की अपेक्षा ध्यान हमें सत्य
के अधिक समीप लाता है।
भारत में दो व्यक्ति मिलते हैं। अंग्रेज़ी में कहते हैं, "आप कैसे हैं ?
"भारतीय कुशल प्रश्न है, "आप स्वस्थ अर्थात् अपने में स्थित हैं ?" जिस क्षण
तुम परस्थ हो जाते हो, उसी क्षण तुम दुःखी होने का जोखिम उठाते हो। ध्यान से
मेरा यही तात्पर्य है- आत्मा का अपने में स्थित होने के लिए यत्न करना। वह
अवस्था निश्चय ही आत्मा की स्वस्थतम अवस्था होगी, जब वह स्वचिंतन कर रही हो,
अपनी ही गरिमा में स्थित हो। नहीं, हमारे पास जो अन्य पद्धतियाँ हैं- संवेग को
उत्तेजित करना, प्रार्थना करना तथा अन्य सब-उन सभी का वस्तुत: एक यही लक्ष्य
है। तीव्र संवेगात्मक उत्तेजना (रस-विभोर होने) में आत्मा स्वस्थ होने का
प्रयास करती है। यद्यपि संवेग किसी बाह्य वस्तु से उदित हो सकता है तथापि मन
एकाग्र हो जाता है।
ध्यान के तीन सोपान होते हैं। प्रथम वह है, जिसे (धारणा) कहते हैं, किसी वस्तु
पर चित्त को ठहराना। मैं इस गिलास पर अपना चित्त एकाग्र करता हूँ और गिलास के
अतिरिक्त अन्य प्रत्येक वस्तु को उससे बाहर रखता हूँ। लेकिन मन चंचल है।... जब
वह दृढ़ हो जाता है और उतना अधिक चंचल नहीं रहता, तब (ध्यान) कहलाता है। और जब
मेरे तथा गिलास के बीच का भेद मिट जाता है, तब उससे भी उच्चतर अवस्था होती है-
(समाधि या स्वरूप शून्यता)। चित्त और गिलास में अभेद हो जाता है। मुझे कोई भेद
नहीं दिखायी पड़ता। सभी इंद्रियाँ रुक जाती हैं और अन्य इंद्रियों के अन्य
प्रवाह-मार्गों में सक्रिय शक्तियाँ (चित्त में केंद्रीभूत हो जाती हैं)। तब
यह गिलास पूर्णतः मन की शक्ति के अधीन हो जाता है। इसे ही प्राप्त करना है। यह
एक ज़बरदस्त खेल है, जिसे योगी खेलते हैं।... निश्चित मान लो कि बाह्य वस्तु
का अस्तित्व है। तब जो सचमुच हमसे बहिर्निष्ठ है, वह वह नहीं है, जिसे हम
देखते हैं। जिस गिलास को मैं देखता हूँ, वह निश्चय ही बाह्य वस्तु नहीं है। जो
कोई बाह्य वस्तु गिलास में है, उसे मैं नहीं जानता और न कभी जान पाऊँगा।
मुझे पर किसी वस्तु का संस्कार पड़ता है। तत्क्षण मैं उसकी तरफ़ प्रतिक्रिया
प्रेषित करता हूँ, इन दोनों के संयोग का परिणाम है गिलास। बाह्य से
क्रिया-'क'। अभ्यंतर की क्रिया- ख'। गिलास है 'क' + 'ख'। जब तुम 'क' पर
देखतेहो, तो उसे बाह्य जगत् कहते हो, 'ख' पर देखते हो, तो अंतर्जगत्।... यदि
तुम इस विभेद का पता लगाने का यत्न करोगे कि कौन तुम्हारा मन है और कौन जगत्
है-तो इस प्रकार का कोई विभेद नहीं हैं। जगत् तुम्हारा तथा किसी अन्य वस्तु का
संयोग है।...
हम एक और उदाहरण लें। तुम किसी झील के तरंगरहित धरातल पर पत्थर गिरा रहे हो।
प्रत्येक पत्थर के गिराने के बाद एक प्रतिक्रिया होती है। झील की छोटी तरंगों
से पत्थर ढक जाता है। इसी प्रकार बाह्य वस्तुएँ इस मनोह्रदय में गिरनेवाले
पत्थरों के समान हैं। अतः हम वस्तुतः बाह्य वस्तु नहीं देखते,... हम केवल तरंग
देखते हैं।
ये तरंगें जो मन में उठती हैं, बाहर की बहुत सी वस्तुओं का कारण बन जाती हैं।
हम लोग आदर्शवाद और यथार्थवाद (के गुणों) की चर्चा नहीं कर रहे हैं। हम इसे
सुनिश्चित मान लेते हैं कि बाह्य जगत् में वस्तुओं का अस्तित्व है, लेकिन जो
हम देखते हैं, वह उन वस्तुओं से भिन्न है, जिनका बाह्य जगत् में अस्तित्व है,
क्योंकि जिनका बाह्य जगत् में अस्तित्व है, उन्हें और स्वयं अपने को मिलाकर हम
देखते हैं।
मान लो, गिलास से मैं अपना योग हटा लेता हूँ। बचता क्या है ? प्रायः कुछ नहीं।
गिलास लुप्त हो जाएगा। यदि मेज से मैं अपना योग हटा लूँ, तो मेज़ में क्या
बचेगा ? निश्चय ही यह मेज नहीं रहेगी, क्योंकि वह बाह्य तथा मेरी देन का
मिश्रण है। (पत्थर) जब कभी झील में फेंका जाएगा, तब उसकी तरफ़ बेचारी झील को
तरंगें भेजनी पड़ेंगी। किसी भी संवेदना के होने पर मनको उधर तरंगें भेजनी ही
पड़ेंगी। मान लो... हम लोग मन को रोक लें। उसी क्षण हम लोग स्वामी बन जाते
हैं। इन सब इंद्रियगोचर विषयों को अपना योगदान देना हम अस्वीकार कर देते
हैं।... यदि मैं अपना अंश नहीं देता तो, उसे बंद होना ही पड़ेगा।
हर समय तुम बंधन की सृष्टि कर रहे हो। कैसे ? अपना अंश प्रदान करके हम लोग
अपनी शय्याओं का निर्माण कर रहे हैं, अपनी ही बेड़ियों की सृष्टि कर रहे
हैं।... जब बाह्य वस्तु और स्वयं मेरे अपने बीच की तादात्म्य वृत्ति का अंत हो
जाने पर मैं अपना भाग निकाल सकता हूँ और वह वस्तु लुप्त हो जाएगी।... तब मैं
कहूंगा, "यह गिलास है," और फिर अपना मन हटा लूँगा और वह लुप्त हो जाएगा।...
यदि तुम अपना भाग निकाल सको, तो तुम जल पर चल सकते हो। फिर वह तुमको क्यों
डुबाये ? विष है तो क्या ? अब और कठिनाइयाँ नहीं। प्रकृति की प्रत्येक
इंद्रियगोचर क्रिया में तुम्हारा योगदान कम से कम आधा होता है और आधा प्रकृति
का होता है। यदि तुम्हारा आधा निकाल लिया जाए, तो वस्तु का अंत अवश्य हो जाए।
प्रत्येक क्रिया की समान प्रतिक्रिया होती है।... यदि कोई आदमीमुझ पर प्रहार
करता है और मुझे चोट पहुँचाता है, तो वह उस आदमी की क्रिया और मेरे शरीर की
प्रतिक्रिया है।... मान लो, शरीर पर मेरा इतना अधिकार हो कि मैं उस स्वचालित
क्रिया का प्रतिरोध कर सकूँ। क्या ऐसा सामर्थ्य प्राप्त किया जा सकता है ?
शास्त्रों का कहना है कि हो सकता है।... यदि तुमको (यह) दैवात् मिल गया, तो
चमत्कार है। यदि तुम इसे वैज्ञानिक ढंग से अवगत करो, तो योग है।
मन की शक्ति द्वारा लोगों को चंगा होते हुए मैंने देखा है। चमत्कारी व्यक्ति
होता है। हम कहते हैं कि वह प्रार्थना करता है और आदमी चंगा हो जाता है। दूसरा
आदमी कहता है, "तनिक भी नहीं। यह तो केवल मन की शक्ति है। यह आदमी वैज्ञानिक
है। वह जानता है कि उसे क्या करना है।"
ध्यान की शक्ति हमें सब कुछ प्राप्त करा देती है। यदि तुम प्रकृति के ऊपर
अधिकार चाहते हो, (तो तुम ध्यान द्वारा उसे प्राप्त कर सकते हो।) ध्यान-शक्ति
द्वारा ही आज तमाम वैज्ञानिक तथ्यों की खोज की जाती है। वे विषय का अध्ययन
करते हैं और सब कुछ भूल जाते हैं, स्वयं अपनी सुध और प्रत्येक वस्तु को भूल
जाते हैं और तब वह महान तथ्य प्रकाश की तरह कौंधता हुआ आता है। कुछ लोग सोचते
हैं कि वह अंतःस्फुरण है। जैसे बहिःस्फुरण नहीं है, वैसे ही कोई अंतःस्फुरण
नहीं है और कभी कोई वस्तु मुफ़्त में नहीं मिली।
उच्चतम तथाकथित अंतःस्फुरण था ईसा का कार्य। पूर्व जन्मों में उन्होंने
युग-युग तक अध्यवसाय किया। यह उनके पूर्व कर्मों- अध्यवसाय पूर्ण कर्मों- का
परिणाम था। अंतःस्फुरण की बातें कहना एकदम मूर्खतापूर्ण है। यदि वैसा कुछ
होता, तो वह जलवृष्टि की भांति झड़ने लगती। किसी भी विचार-क्षेत्र में
अंतःस्फुरण संपन्न व्यक्ति केवल उन्हीं राष्ट्रों में मिलते हैं, जिनमें
सामान्य शिक्षा और (संस्कृति) होती है। कोई अंतःस्फुरण नहीं होता।... जिसे
अंत:स्फुरण मान लिएा जाता है, वह उन कारणों का परिणाम है, जो मन में पहलेसे ही
विद्यमान रहते हैं। एक दिन परिणाम के रूप में प्रकाश कौंध जाता है ! उनका
पूर्व कर्म (कारण) था।
उसमें भी तुमको ध्यान-शक्ति दिखायी पड़ती हैं-विचार-तीव्रता। ये लोग अपनी ही
आत्मा को मथ डालते हैं। महान सत्य सतह के ऊपर उठ आते हैं और व्यक्त हो जाते
हैं। इसलिए ध्यान का अभ्यास ज्ञान की महती वैज्ञानिक पद्धति है। ध्यान-शक्ति
के बिना कोई ज्ञान नहीं होता। ध्यान द्वारा हम अज्ञान, कुसंस्कार आदि रोगों से
संप्रति मुक्त हो सकते हैं, अधिक नहीं। (मान लो) एक आदमी ने मुझसे कहा है,
"अगर आप इस तरह का विष-पान करेंगे, तो आप मर जायँगे," और दूसरा आदमी रात में
आकर कहता है, "जाइए, विष पी लीजिए!" और मैं नहीं मरता (तो जो होता है, वह इस
प्रकार है-) मेरे मन ने विष तथा स्वयं मेरे बीच की तादात्म्य-वृत्ति को बस
उतने काल के लिएध्यान से काट दिया। दूसरी बार विष (पीने से) मैं मर जाऊँगा।
यदि मैं कारण जानता हूँ और वैज्ञानिक रीति से अपने को (ध्यान की) उस (अवस्था)
तक उठा सकूं, तो मैं किसी को भी बचा सकता हूँ। शास्त्रों का यही कहना है,
लेकिन यह कहाँ तक सही है, इसकी जानकारी तुम स्वयं करो। मुझसे पूछा जाता है,
"आप भारतीय जन इन चीज़ों पर क्यों नहीं विजय प्राप्त कर लेते ? हर वक्त आपका यह
दावा रहता है कि आप लोग अन्य देशों के लोगों से श्रेष्ठतर हैं। आप लोग
योगाभ्यास करते हैं और अन्य किसी की अपेक्षाशीघ्र करते हैं। आप लोगों में अधिक
पात्रता है। इसे कर डालिए। यदि आपका राष्ट्र महान है, तो आपकी व्यवस्था महान
होनी चाहिए। आपको सभी देवताओं को विदा करना पड़ेगा। जब आप महान दार्शनिकों को
लेते हैं, तब उन (देवताओं) को शयन करने दीजिए। आप लोग निरे बच्चे हैं। दुनिया
के शेष भाग के लोगों की भाँति आप लोग भी अंधविश्वासी हैं। और आपके सभी दावे
असफल हैं, यदि आपके दावे हैं, तो खड़े हो जाइए और वीर बनिए और सभी स्वर्ग,
जिनका किसी भी समय अस्तित्व रहा हो, आपके हो जाएंगे। कस्तूरी मृग होता है,
जिसके भीतर सुगंध होती है और वह नहीं जानता कि सुगंध (कहाँ से)आती है। तब
कितने ही दिनों बाद उसे पता लगता है, यह उसी के भीतर है। ये सभी देव और असुर
उनके भीतर हैं। युक्ति, शिक्षा और संस्कृति के सामर्थ्य से पता लगाइए कि यह सब
आपके भीतर है। अब न कोई देवता रहें और न अंधविश्वास। आप लोग विवेकवान होना
चाहते हैं, योगी होना चाहते हैं, और सच्चे आध्यात्मिक होना चाहते हैं।"
(मेरा उत्तर है- तुम लोगों की भी तो) प्रत्येक वस्तु भौतिक है। इससे बढ़कर
भौतिकता क्या होगी कि ईश्वर सिंहासन पर आरूढ़ है ? जो व्यक्ति मूर्ति-पूजा
करता है, उस बेचारे को तुम लोग हेय दृष्टि से देखते हो। तुम उनसे भले नहीं। और
तुम, कांचन के पुजारियों, तुम लोग क्या हो ? मूर्ति-पूजक अपने भगवान की पूजा
करता है, कुछ ऐसी वस्तु है, जिसे वह देख सकता है। परंतु तुम लोग तो वह भी नहीं
करते। तुम आत्मा या किसी ऐसी वस्तु की पूजा नहीं करते, जिसको तुम समझ सको।...
शब्द-पूजको ! 'ईश्वर आत्मा है !' ईश्वरआत्मा है और उसकी पूजा आत्मा में तथा
निष्ठापूर्वक होनी चाहिए। आत्मा का निवास कहाँ है ? किसी वृक्ष पर ? किसी बादल
पर ? ईश्वर हमारा है, इसमें तुम्हारा क्या तात्पर्य है ? तुम आत्मा हो। वह
प्रथम आधारभूत प्रत्यय है, जिसका तुम कभी परित्याग न करो। मैं आध्यात्मिक
प्राणी हूँ। यह वहाँ है। योग के इस सारे कौशल और ध्यान की इस प्रणाली और
प्रत्येक वस्तु का उद्देश्य उस (ईश्वर) को वहाँ प्राप्त कर लेना है।
यह सब मैं अभी क्यों कह रहा हूँ? जब तक तुम ठीक स्थान (लक्ष्य) निर्धारित नहीं
कर लेते, तब तक तुम बात नहीं कर सकते। ठीक स्थान निर्धारित न कर तुम उसे
स्वर्ग में तथा सारी दुनिया में निर्धारित करते हो। मैं जीवात्मा हूँ और इसलिए
सभी जीवों की आत्माओं का निवास मेरी आत्मा में अवश्य होगा। जो सोचते हैं कि वह
कहीं अन्यत्र है, वे अनजान हैं। इसलिए उसको यहीं इसी स्वर्ग में ढूंढ़ना
चाहिए; किसी भी काल में जिस किसी स्वर्ग का अस्तित्व रहा होगा, वह (स्वयं मेरे
भीतर है)। कुछ ऐसे ऋषि हैं, जो इसे जानकर, अपनी दृष्टि को अंतर्मुखी कर देते
हैं और अपनी ही आत्मा के भीतर सभी आत्माओं की आत्मा को प्राप्त करते हैं।
ईश्वरविषयक और आत्मविषयक सत्य का पता लगाओ और इस प्रकार मुक्त हो जाओ।...
तुम सब जीवन के पीछे दौड़ रहे हो और हम देखते है कि यह मूर्खता है। जीवन से भी
बहुत ऊँची कोई वस्तु है। यह जीवन उससे घटकर और भौतिक है। मैं जीवित ही क्यों
रहूँ? मैं जीवन से उच्चतर कोई वस्तु हूँ। जीवन सदैव दासता है। हम सदा घुल-मिल
जाते हैं।...प्रत्येक वस्तु दासता की अजस्र श्रृंखला है।
तुम्हीं कुछ प्राप्त करते हो, और कोई आदमी दूसरे को सिखा नहीं सकता। अनुभव से
(हम सीखते हैं)।... उस युवक को यह विश्वास नहीं दिलाया जा सकता कि जीवन में
कोई कठिनाई है। तुम उस वृद्ध पुरुष को यह विश्वास नहीं दिला सकते कि जीवन
बिल्कुल निरापद है। वह बहुत अनुभव कर चुका है। यही अंतर है।
ध्यान की शक्ति के द्वारा हमें इन सब वस्तुओं पर क्रमशः नियंत्रण स्थापित करना
है। हम लोगों ने दार्शनिक दृष्टि से देख लिया है कि इन सभी विभेदों की-आत्मा,
मन और भौतिक पदार्थों आदि की- (कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)।... जो कुछ सत्
है, वह एक है। अनेक नहीं हो सकते। विज्ञान और ज्ञानका यही अभिप्राय है। अज्ञान
अनेकता देखता है। ज्ञान एक का साक्षात्कार करता है। अनेक को एक में रूपांतरित
करना विज्ञान है।... समस्त जगत् कोएक सिद्ध किया गया है। उस विज्ञान को वेदांत
का विज्ञान कहा जाता है। समस्त जगत् एक है। इस समस्त प्रतीयमान विविधता में
वही एक व्याप्त है।
इस समय हमारे सामने ये सब विविधताएँ हैं और उन्हें हम देखते हैं-उन्हें हम
पंचभूत कहते हैं-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इसके परे सत्ता की अवस्था
मानसिक है और उसके भी परे है आध्यात्मिक। यह नहीं है कि आत्मा एक है, मन दूसरा
है, आकाश उससे भिन्न है आदि-आदि। सत्ता एक ही है, जो इन सभी विविधताओं में
दिखायी पड़ती है। विपरीत क्रम से विचार करें, तो ठोस अवश्य द्रव बनेगा। जिस
क्रम से (पंचभूतों का विकास हुआ, उसी के अनुसार) उनका प्रतिगमन होगा। पृथिवी
जल बनेगी, फिर आकाश। यही है ब्रह्मांड-भाव-विश्व-भाव। बाह्य विश्व है और
विश्वात्मा है, मन है, आकाश है, वायु है, अग्नि है, जल है और पृथिवी है।
वही मन के विषय में है। मैं पिंड में भी ठीक वही हूँ। मैं आत्मा हूँ, मैं मन
हूँ, मैं आकाश, पृथिवी, जल और वायु हूँ। मैं जो करना चाहता हूँ, वह यहहै कि
मैं अपनी उसी आध्यात्मिक अवस्था में वापस पहुँच जाऊँ। यह व्यक्ति-विशेष पर
निर्भर है कि वह एक ही अल्पकालिक जीवन में विश्व का जीवन व्यतीत कर ले। इस
प्रकार मनुष्य इसी जीवन में मुक्त हो सकता है। अपने ही छोटे से जीवन-काल में
जीवन के पूर्ण विस्तार का भोग करने की शक्ति उसमें है।...
हम सब संघर्ष करते हैं।... यदि हम पूर्ण तक न पहुँच सके, तो कहीं न कहीं
पहुँचेंगे ही, और हम जो आज हैं, उसकी अपेक्षा अच्छे ही रहेंगे।
ध्यान वह अभ्यास है (जिसमें सब कुछ उस परम सत्य-आत्मा में घुला दिया जाता है)।
पृथिवी जल में रूपांतरित होती है, जल वायु में, वायु आकाश में, तब मन और फिर
वह मन भी विलीन हो जाता है। सब आत्मा ही है।
कुछ योगियों का दावा है कि यह शरीर द्रव आदि बन जाएगा। तुम उसे कुछ भी बनाने
में समर्थ हो सकते हो-उसे छोटा या वायु बना सकते हो, दीवार में प्रवेश करा
सकते हो-ऐसा उनका दावा है।
मैं नहीं जानता। मैंने ऐसा करते किसीको नहीं देखा है। लेकिन ग्रंथों में ऐसा
लिखा है। उन ग्रंथों पर अविश्वास करने का हमारे पास कोई कारण नहीं है।
संभवतः हममें से कुछ इसको इसी जीवन में करने में समर्थ होंगे। हमारे पूर्व
कर्मों के परिणामस्वरूप वह प्रकाश की भाँति कौंध पड़ता है। कौन जानता है, पर
यहाँ कुछ प्राचीन योगी हैं, जिन्हें पूरे कार्य की समाप्ति में थोड़ा ही करना
शेष रह गया है। अभ्यास करो !
ध्यान, तुम जानते हो, कल्पना की प्रक्रिया से आता है, तुम तत्वशोधन कीइन तमाम
प्रक्रियाओं से होकर बढ़ो-एक को दूसरे में रूपांतरित करते जाओ,फिर उसको अपने
से ऊँचे में, फिर उसको मन में, फिर उसको आत्मा में और तब तुम आत्मा हो जाओ।
आत्मा नित्य मुक्त है, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। निश्चय ही ईश्वर के अधीन
है। बहुत से ईश्वर नहीं हो सकते। ये मुक्त आत्माएँ आश्चर्यजनक रूप से
शक्तिमान, प्रायः सर्वशक्तिमान होती हैं। (किंतु) ईश्वर जितनी शक्तिमान कोई
नहीं हो सकती। यदि कोई (मुक्त आत्मा) कहती है, "मैं इस ग्रह को इस मार्ग पर
चलाऊँगी", और दूसरी कहती है, "मैं इसे उस मार्ग पर चलाऊँगी",(तो गड़बड़ हो
जाए)।
क्या तुम यह ग़लती नहीं करते हो ! जब मैं अंग्रेज़ी में कहता हूँ, "मैं
ईश्वर(गॉड) हूँ !" तो इसका कारण यह है कि उससे उत्तम कोई शाब्द मेरे पास
नहींहै। संस्कृत में ईश्वर का अर्थ है, पूर्ण सत्ता, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण
बुद्धि, असीम, स्वप्रकाशित चेतना। सगुण नहीं। वह निर्गुण है।
मैं राम कभी नहीं हूँ (ईश्वर के साथ, ईश्वर के सगुण रूप के साथ कभी एकाकार
नहीं हूँ), परंतु ( ब्रह्मा के साथ, निर्गुण, सर्व्यापी संत्ता के साथ) मैं
एकाकार हूँ। यह मृक्तिका का विशाल पिंड है। उस मृक्तिका में से मैंने एक छोटा
(चूहा) बनाया और तुमने छोटा (हाथी)। दोनों ही मृक्ति का हैं। दोनों को बिगाड़
दो। दोनों अनिवार्यतः एक हैं। 'मैं और मेरे पिता एक ही हैं।' (लेकिन मिट्टी का
चूहा कभी मिट्टी के हाथी के साथ एकाकार नहीं हो सकता।)
मैं कहीं रुक जाता हूँ, मुझे थोड़ा ज्ञान है। तुमको थोड़ा अधिक ज्ञान है, तुम
भी कहीं रुकते हो। एक आत्मा ऐसी है, जो सबसे महान है। यह ईश्वर है, योगेश्वर
है (सृष्टिकर्ता ईश्वर, सोपाधिक)। वह सत्ताधारी है। वह सर्वशक्तिमान है। वह
प्रत्येक हृदय में निवास करता है। कोई शरीर नहीं है। उसे शरीर की आवश्यकता
नहीं है। ध्यान आदि से जो कुछ तुम पाते हो, उसे तुम ईश्वर, योगीश्वर का
ध्यानकर प्राप्त कर सकते हो।
किसी महात्मा का ध्यान करने से भी उसकी प्राप्ति हो सकती है, या जीवनके
सामंजस्य पर ध्यान करने से भी। इनको विषय या वस्तुनिष्ठ ध्यान कहते हैं। इस
प्रकार तुम कुछ बाह्य वस्तुओं का, बहिःस्थ या अंतःस्थ, ध्येयात्मक विषयों का
ध्यान करते हो। अगर तुम कोई लंबा वाक्य लो, तो वह कदापि ध्यान नहीं है। वह तो
जप से मन को एकाग्र करने का प्रयत्न मात्र है। ध्यान का अर्थ यह है कि मन को
मोड़कर मन में ही लगा दिया जाए। मन की सारी (विचार-तरंगें) रुक जायँ, तो संसार
रुक जाएगा। तुम्हारी चेतना विस्तृत होती है। जितनी बार तुम ध्यान करोगे, उतना
ही अधिक तुम्हारा विकास होगा।...थोड़ा और अध्यवसाय करो, निरंतर बढ़ाते जाओ, और
ध्यान जम जाएगा। तुमको शरीर या अन्य किसी वस्तु का भान न होगा। जब तुम
ध्यान-काल के बाद उससे उठोगे, तब तुमको प्रतीत होगा कि जीवन-काल की सर्वाधिक
सुंदर विश्रांति मिली है। तुम अपने शरीर को जब कभी विश्राम देते हो, तो उसका
वही एकमात्र तरीका है। गहरी से गहरी निद्रा से भी उतना विश्राम नहीं मिलेगा,
जितना उससे मिलेगा। मन प्रगाढ़तम निद्रा में भी उछलता-कूदता रहता है। (ध्यान
के) उन कुछ क्षणों में तुम्हारा मस्तिष्क लगभग रुक जाता है। थोड़ी सी
जीवनी-शक्ति बनी रहती है। तुम शरीर को विस्मृत कर देते हो। तुम बोटी बोटी काट
डाले जाओ, फिर भी तुमको लेशमात्र अनुभव न हो। उसमें तुमको इतना आनंद मिलेगा।
तुम इतने हल्के हो जाओगे। यह पूर्ण विश्रांति हमें ध्यान में मिलेगी।
तब विभिन्न वस्तुओं का ध्यान। सुषुम्णा के विभिन्न चक्रों पर ध्यान किया जाता
है। (योगियों के मतानुसार) मेरुदंड में इड़ा और पिंगला नाम की दो नाड़ियाँ
हैं। वे दो प्रमुख नाड़ियाँ हैं, जिनसे अभिवाही तथा अपवा ही नाड़ीय प्रवाह
होता रहता है। पोली (नाड़ी, जिसे सुषुम्णा कहा जाता है) मेरुदंड के मध्य भाग
से जाती है। योगियों का कहना है कि यह नाड़ी बंद है, लेकिन ध्यान के बल से उसे
खोलना है। शक्ति को (मेरुदंड के आधार तक) नीचे उतारना है और कुंडलिनी जाग जाती
है। संसार बदल जाएगा।...
हज़ारों दिव्य प्राणी तुम्हारे आसपास खड़े हैं। तुम उन्हें नहीं देख पाते,
क्योंकि हमारा जगत् इंद्रिय-निर्धारित है। हम केवल इस बाह्य को देख सकते हैं।
आओ, इसे 'क' की संज्ञा दें। हम अपनी मानसिक अवस्था के अनुसार 'क' को देखते
हैं। बाहर सामने जो वृक्ष खड़ा है, उसे लो। एक चोर आया और उसने तने में क्या
देखा ? पुलिस का एक आदमी। बच्चे ने एक बड़ा भूत देखा। युवक अपनी प्रेयसी की
प्रतीक्षा में था और उसने क्या देखा ? अपनी प्रेयसी को। परंतु पेड़का तना बदला
नहीं था। वह तो ज्यों का त्यों रहा। यह स्वयं ईश्वर है और हम अपनी मूर्खता के
कारण उसे मनुष्य, धूल, मूक और दु:खी समझते हैं।
जो लोग एक ही तरह से निर्मित हैं, वे स्वभावतः एक समुदाय बना लेंगे औरएक तरह
के लोक में रहेंगे। दूसरे प्रकार से कहा जाए, तो तुम एक ही स्थान पररहते हो।
सब स्वर्ग और सब नरक यहीं पर हैं। उदाहरणार्थ-बड़े वृत्तों (के रूप में
धरातलों को लो) जो कुछ बिंदुओं पर एक दूसरे को काटते हों।... एकवृत्त के इस
धरातल पर हम दूसरे (वृत्त) के किसी बिंदु के संस्पर्श में हो सकते हैं। यदि मन
केंद्र में पहुँच जाए, तो तुम सभी धरातलों के प्रति चैतन्य होने लगते हो।
ध्यान-काल में कभी कभी तुम किसी दूसरे स्तर को स्पर्श करते हो और तुमअन्य
प्राणी, अशरीरी जीवात्माएँ और इसी प्रकार की वस्तुएँ देखते हो। तुम वहाँ
ध्यान-बल से पहुँचते हो। यह बल हमारी इंद्रियों को बदल रहा है, तुम समझो कि वह
हमारी इंद्रियों को सूक्ष्म बना रहा है। यदि तुम आरंभ में पाँच दिन अभ्यासकरो,
तो तुम इन (चेतना के) केंद्रों के भीतर पीड़ा का अनुभव करोगे और श्रवण-शक्ति
(सूक्ष्मतर) हो जाएगी।... यही कारण है कि सभी भारतीय देवताओं के तीन नेत्र
होते हैं। वह यौगिक (दिव्य) चक्षु- है, जो खुल जाता है और तुमको आध्यात्मिक
वस्तुओं का दर्शन कराता है।
ज्यों ज्यों यह कुंडलिनी शक्ति उद्बुद्ध होकर सुषुम्णा के एक चक्र से
दूसरेचक्र में चढ़ती है, त्यों-त्यों वह इंद्रियों को बदलती है और तुम इस
विश्व को दूसरे विश्व के रूप में देखने लगते हो। यह स्वर्ग है। तुम बोल नहीं
सकते। तब कुंडलिनी नीचे के चक्रों में जाती है। तुम फिर तब तक मनुष्य हो, जब
तक कुंडलिनी मस्तिष्क (सहस्रार) में नहीं पहुँच जाती, सब चक्रों का भेदन नहीं
हो चुकता, सारा दृश्य लुप्त नहीं हो जाता और तुम कुछ नहीं, बल्कि एक सत्ता
का(साक्षात्कार नहीं करते) हो।... तुम ईश्वर हो। उसी से तुम सारे स्वर्गों का
निर्माण करते हो, उसी से सब लोकों का भी। वही एक सत्ता है। अन्य किसी का
अस्तित्व नहीं है।
योग-विज्ञान
(१३ अप्रैल
,
१९०० को टुकर हॉल
,
अलामेंडा
,
कैलिफ़ोर्निया में दिया गया भाषण)
(चित्तवृत्तिनिरोधः) कहकर प्राचीन संस्कृत शब्द 'योग' की परिभाषा की गयी है।
इसका अर्थ यह है कि योग वह विज्ञान है, जो हमें चित्त को परिवर्तनशील अवस्था
से निरुद्ध कर उसे वश में करने की शिक्षा देता है। चित्त वह वस्तु है, जिससे
हमारे मन का निर्माण होता है और जो निरंतर बाह्य तथा आंतरिक प्रभावों से
प्रमथित होकर (संकल्प-विकल्प की) तरंगें उछालता रहता है। योग हमें सिखाता है
कि मन का किस प्रकार नियमन किया जाए, जिससे वह संतुलन खोकर तरंगित न होने
पाये।...
इसका अर्थ क्या है ? धर्म के विद्यार्थी के लिए ९९ प्रतिशत धार्मिक ग्रंथ और
विचार केवल अटकलबाज़ी हैं। एक मनुष्य सोचता है कि धर्म यह है, तो दूसरा सोचता
है कि धर्म वह है। अगर एक व्यक्ति दूसरे से अधिक चतुर हुआ, तो वह दूसरे के
अटकलों का खंडन कर देता है और नये का सूत्रपात करता है। पिछले दो हज़ार, चार
हज़ार वर्षों से-ठीक कितने काल से, किसी को ज्ञात नहीं- लोग नयी-नयी
धर्म-व्यवस्थाओं का अध्ययन करते आ रहे हैं। जब वे तर्कों से समाधान नहीं कर
पाते, तो कहते हैं, "विश्वास करो।" यदि वे शक्तिशाली हुए, तो अपना विश्वास
उन्होंने बलात् लादा। आज भी ऐसा हो रहा है।
लेकिन कुछ ऐसे व्यक्ति है, जो इस स्थिति से पूर्ण संतुष्ट नहीं हो पाते। वे
पूछते हैं, "क्या निस्तार का कोई मार्ग नहीं है ?" भौतिक विज्ञान, रसायन-
विज्ञान और गणित में तो तुम इस प्रकार की अटकलबाजी नहीं करते। फिर क्या
धर्म-विज्ञान इतर विज्ञानों की भांति नहीं हो सकता? उन्होंने इसे इस रूप में
प्रस्तुत किया-यदि वास्तव में मनुष्य की आत्मा का अस्तित्व है, यदि वह अमर है,
यदि सचमुच ईश्वर की सत्ता है और वह जगत् का शास्ता है, तो उसका (बोध) यहीं
होना चाहिए और यह सब (बोध तुम्हारी ही) अंतश्चेतना में होना चाहिए।
मन का विश्लेषण किसी बाहरी यंत्र से नहीं किया जा सकता। मान लो, जब मै विचार
कर रहा हूँ, तब तुम मेरे मस्तिष्क को देख रहे हो। उस समय तुमको ४-१० उसमें कुछ
अणुओं का परस्पर विनिमय मात्र दिखायी देगा। तुम विचार, चेतना, मनोभाव और
मानस-प्रतिमाओं को नहीं देख सकते। तुम केवल कम्पनों की राशि देखोगे-रासायनिक
और भौतिक परिवर्तन। इस दृष्टांत से हम देखते है कि इस प्रकार के विश्लेषण से
काम नहीं चलेगा।
मन के रूप में मन के विश्लेषण का क्या कोई और तरीक़ा है ? यदि कोई तरीक़ा है,
तो सच्चा धर्म-विज्ञान संभव है। राजयोग के विज्ञान का दावा है कि इस प्रकार की
संभावना है। हम सब इसका अभ्यास कर सकते हैं और कुछ अंश तक सफल हो भी सकते हैं।
एक बड़ी कठिनाई यह है-इंद्रियगोचर विज्ञान में विषय-वस्तु को (देखना
अपेक्षाकृत सरल होता है)। विश्लेषण के उपकरण भी सुनिश्चित होते हैं और दोनों
ही स्थूल होते हैं। परंतु मन के विश्लेषण में साधन और साध्य, दोनों एक ही होते
हैं। कर्ता और कर्म एक हो जाते हैं।...
बाहरी विश्लेषण मस्तिष्क तक पहुँचेगा, तो उससे पता लगेगा कि भौतिक और रासायनिक
परिवर्तन क्या हुए। इससे (प्रश्न का हल निकालने में) कभी सफलता नहीं मिलेगी।
यह चेतना क्या है ? तुम्हारी कल्पना क्या है ? तुममें कहाँ से संकल्पों की यह
विपुल राशि आती है और फिर कहाँ चली जाती है ? हम उन्हें अस्वीकार तो नहीं कर
सकते। वे तथ्य हैं। मैंने कभी अपना मस्तिष्क नहीं देखा। मुझे निश्चय मानना
पड़ेगा कि मेरे मस्तिष्क है। परंतु आदमी अपनी चेतन कल्पनाओं को कभी अस्वीकार
नहीं कर सकता।
बड़ी समस्या हम लोग स्वयं हैं। क्या मैं एक ऐसी लंबी श्रृंखला हूँ, जिसे मैं
देख नहीं पाता-एक कड़ी के तत्काल बाद दूसरी कड़ी आती है, परंतु हैं वे बिल्कुल
असंबद्ध ? क्या मैं विज्ञान की ऐसी ही (परिवर्तन के सतत प्रवाह की) अवस्था
हूँ? या मैं उससे कुछ और अधिक हूँ- सार, सत् जिसे हम आत्मा कहते हैं ? दूसरे
शब्दों में, मनुष्य में आत्मा होती है या नहीं ? क्या वह असंबद्ध विज्ञान की
अवस्थाओं की गठरी है या एकीकृत तत्व है ? यह बड़ा विवादास्पद है। यदि हम केवल
विज्ञानों की गठरी हैं... तो अमरत्व जैसा प्रश्न भ्रम मात्र है।.. दूसरी ओर
यदि हमारे भीतर कोई ऐसी वस्तु है, जो इकाई है, सार है, तब तो मैं अवश्य अमर
हूँ। इकाई को नष्ट नहीं किया जा सकता और न उसे खंडों में विभाजित किया जा सकता
है। विभाजित तो संयुक्त पदार्थ ही किए जा सकते हैं।...
बौद्ध धर्म को छोड़ शेष सभी धर्मों का ऐसे किसी तत्व या द्रव्य में विश्वास है
और वे किसी न किसी रूप में इसके लिए संघर्ष भी कर रहे हैं। बौद्ध धर्म ऐसे
तत्व को अस्वीकार करता है और उससे पूर्ण संतुष्ट है। वह कहता है परमात्मा,
आत्मा, अमृतत्व आदि विषयक बातें-इस प्रकार के प्रश्नों में माथापच्ची मत करो।
किंतु दुनिया के अन्य सभी धर्म इस सार (तत्व) को अंगीकार करते हैं। उन सबका
विश्वास है कि सब परिवर्तनों के बावजूद मानव में आत्मा ही सार है, जगत् में
परमेश्वर ही सार है। उन सबका विश्वास है कि आत्मा अमर है। ये सब अनुमान हैं।
बौद्धों और ईसाइयों के इस विवाद का निपटारा कौन करे? ईसाई धर्म कहता है कि एक
सार वस्तु है, जो शाश्वत है। ईसाई कहता है, "मेरी बाइबिल का यह कथन है।" बौद्ध
कहता है, "आपके ग्रंथ में मेरा विश्वास नहीं है।"...
प्रश्न यह है कि क्या हम द्रव्य (आत्मा) हैं, या सूक्ष्म पदार्थ परिवर्तनशील,
तरंगायमान मन हैं? ...हमारे मन में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। भीतर वह
द्रव्य-तत्व कहाँ है ? हम उसे पाते नहीं। मैं इस समय कुछ हूँ और फिर और कुछ हो
जाता हूँ। यदि एक क्षण के लिए तुम इन परिवर्तनों को बंद कर दो, तो उस सार-तत्व
के प्रति मेरा विश्वास हो जाएगा।...
निश्चय ही ईश्वर तथा स्वर्ग संबंधी सभी विश्वास संगठित धर्मों के क्षुद्र
विश्वास हैं। कोई भी वैज्ञानिक धर्म इस तरह की प्रस्तावना कभी नहीं करता।
योग वह विज्ञान है, जो हमें चित्त (मनः पदार्थ) को इन परिवर्तनों में पड़ने से
बचना सिखलाता है। मान लो, तुम मन को पूर्ण योगयुक्त अवस्था तक पहुँचाने में
सफल हो गए। उस समय तुमने समस्या हल कर ली। तुमको बोध हो गया कि तुम क्या हो ?
सभी परिवर्तनों पर तुम्हारा प्रभुत्व हो गया। उसके पश्चात् तुम मन को विचरण
करने दो, पर अब वह पहले जैसा मन नहीं रह गया। वह पूर्णतया तुम्हारे वश में है।
वह उस जंगली घोड़े जैसा नहीं रह गया, जो तुमको पटकता रहता है।... तुमने ईश्वर
का दर्शन कर लिया। यह अनुमान का विषय नहीं रह गया। अब वह श्री अमुक नहीं रह
गया... किसी ग्रंथ या वेदों की नहीं, धर्मोपदेशकों का वितंडावाद या वैसी कोई
कोई चीज़ नहीं रही। तुमने स्वयं साक्षात्कार कर लिया-मैं इन परिवर्तनों से परे
आत्मा हूँ। मैं परिवर्तन नहीं हूँ, यदि मैं ऐसा होता, तो उन्हें रोक न सकता।
मैं परिवर्तनों को रोक सकता हूँ, इसलिए मैं स्वयं परिवर्तन कदापि नहीं हो
सकता। योग-विज्ञान की यह आधार-पीठिका है।
ये परिवर्तन हमें पसंद नहीं। परिवर्तनों को हम जरा भी नहीं चाहते। प्रत्येक
परिवर्तन हमारे ऊपर बलात् लादा जाता है। हमारे देश में बैल के कंधों पर जुआ
रखा जाता है (जो एक लट्ठे से तेल के कोल्हू में जुड़ा रहता है)। जुए के आगे
निकले हुए पट्टे में ललचाने के लिए (घास की पोटली बँधी रहती है), जो इतनी दूरी
पर होती है कि बैल वहाँ तक पहुँच नहीं पाता। वह घास खाना चाहता है और थोड़ा
आगे बढ़ता है (इस प्रकार कोल्हू घुमाता है)।... हम लोग इन्हीं बैलों के समान
है, जो सदैव घास खाने के प्रयत्न में रहते हैं और वहाँ तक पहुँचने के लिए
गर्दन बढ़ाते रहते हैं। इस प्रकार हम चक्कर पर चक्कर लगाते हैं। कोई ऐसे
परिवर्तनों को पसंद नहीं करता। निश्चय ही नहीं। ये सभी परिवर्तन हम पर हठात्
लादे गए हैं।... हमारा कोई चारा नहीं। एक बार जब हमने स्वयं अपने को मशीन में
डाल दिया, तो हम निरंतर चक्कर काटते ही रहेंगे। रुकने में आगे चलने की अपेक्षा
और अधिक अनिष्ट है।...
निश्चय ही हमारे ऊपर दुःख आते हैं। यह सब दुःख है, क्योंकि सब अनिच्छित है। यह
सब बेगारी है। प्रकृति आदेश देती है और हम उसका पालन करते हैं, किंतु प्रकृति
और हममें किंचित् भी सद्भाव नहीं है। हमारे सभी कार्यों में प्रकृति से
छुटकारा पाने का प्रयास रहता है। हम कहते हैं कि प्रकृति की मौज लूट रहे हैं।
यदि हम आत्मविश्लेषण करें, तो पता लगता है कि हम प्रत्येक वस्तु से बचने का
प्रयास करते हैं और किसी न किसी वस्तु के सुख-भोग का मार्ग आविष्कृत करते रहते
हैं।...(प्रकृति) उस फ्रांसीसी जैसी (है) जिसने अपने एक अंग्रेज़ मित्र को
आमंत्रित किया था और बताया था कि मेरे तहखाने में पुरानी शराब रखी हुई है।
उसने पुरानी शराब की एक बोतल मँगाई। इतनी बढ़िया शराब थी और बोतल के भीतर सोने
जैसी दमक रही थी। नौकर ने गिलास में शराब उड़ेली, तो अंग्रेज़ चुपचाप पी गया।
नौकर ले आया था अंडी के तेल की बोतल ! हम लोग हर वक्त अंडी का तेल पी रहे हैं,
इससे बच नहीं सकते।...
(प्रायः लोग)... इतने यंत्रवत् हो गए हैं कि वे... सोच भी नहीं पाते। कुत्तों,
बिल्लियों और अन्य पशुओं की भांति वे भी प्रकृति द्वारा चाबुक से हाँके जाते
हैं। वे कभी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते, कभी कल्पना तक नहीं करते। लेकिन जीवन
का उन्हें भी कुछ अनुभव है।...
(पर कुछ लोग) प्रश्न पूछने लगते हैं-यह क्या है ? ये सब अनुभव किसलिए हैं?
आत्म-तत्व क्या है ? क्या कोई निस्तार है ? जीवन का कुछ अभिप्राय है?...
सज्जन मरेंगे। दुर्जन मरेंगे। राजा मरेंगे, रंक मरेंगे। महादुःख मृत्यु है।...
हर वक्त हम उसको दूर रखने का प्रयत्न करते हैं। और यदि किसी सुखद धर्म में
रहकर मरे, तो हम कल्पना करते हैं कि बाद में हम जॉन और जैक को देख सकेंगे और
चैन की वंशी बजेगी।
तुम्हारे देश में कुछ लोग जॉन और जैक को नीचे उतारकर तुमको (प्रेत-विद्या
संबंधी गोष्ठियों में) दिखाते हैं। मैंने ऐसे व्यक्तियों को कई बार देखा है और
उनसे हाथ मिलाया है। तुममें से भी बहुतों ने उन्हें देखा होगा। वे पियानों
बजाते हैं और गाते हैं 'ब्यूलालैंड।' अमेरिका विशाल देश है। मेरा देश दुनिया
में उस पार है। लेकिन 'ब्यूलालैंड' कहाँ है, यह मुझे मालूम नहीं। तुम किसी
भूगोल में न पाओगे। हमारे सुखद धर्म को तो देखो! वही पुराने सड़ियल विश्वास !
वे लोग सोच नहीं सकते। उनके लिए क्या किया जा सकता है ? भवसागर ने उन्हें
उदरस्थ कर लिया है। उनमें सोचने की शक्ति शेष नहीं रह गयी है। वे अंदर से
खोखले हो गए हैं, उनका मस्तिष्क जम सा गया है।... मेरी उनके प्रति सहानुभूति
है। उनका चैन उन्हें मुबारक हो! देखने में आता है कि कुछ लोग ब्यूलालैंड से
आये हुए अपने पूर्वजों का दर्शन कर बड़े आश्वस्त होते हैं।
माध्यम बननेवालों में से एक ने मुझसे कहा कि कहिए, तो आपके पूर्वजों को आपके
पास बुला दूँ। मैंने कहा, "बस, रुक जा तुझे जो अच्छा लगे, वह कर। लेकिन अगर तू
मेरे पूर्वजों को लाया, तो मैं नहीं जानता कि मैं अपने को रोक पाऊँगा या
नहीं।" माध्यम ने बड़ी कृपा की, वह रुक गया।
हमारे देश में जब हम उलझनों में पड़कर चिंतित होते हैं, तो पुरोहितों को कुछ
देकर भगवान से सौदा पटाते हैं।... संप्रति भार हल्का हो जाता है, नहीं तो हम
पुरोहितों को दक्षिणा न देते। किंचित् सांत्वना तो मिलती है, पर शीघ्र वह
प्रतिक्रिया में (बदल जाती है)।... तो दुःख फिर आता है। यहाँ सदा वही दुःख है।
तुम्हारे यहाँ के लोग हमारे देश में कहते हैं, "यदि आप हमारे मत में आस्था
रखेंगे, तो आपका मंगल होगा।" हमारे यहाँ के निम्न वर्ग के लोग तुम्हारे
सिद्धांतों पर विश्वास करते हैं। अंतर इतना ही होता है कि वे भिखमंगे बन जाते
हैं।... पर क्या यह धर्म है? यह तो राजनीति है...धर्म नहीं। तुम इसे धर्म कह
सकते हो, पर धर्म शब्द की छीछालेदर करके ही। किंतु यह आध्यात्मिक नहीं है।
हज़ारों नर-नारियों में से कोई एक इस जीवन से परे के किसी विषय की दिशा में
प्रवृत्त होता है। अन्य लोग तो भेड़ जैसे हैं।... हज़ारों में से एक समझने का
यत्न करता है, कोई निस्तार का मार्ग ढूँढ़ता है। प्रश्न यह है कि क्या कोई
निस्तार का मार्ग है ? यदि निस्तार का कोई मार्ग है, तो वह आत्मा के भीतर है,
अन्यत्र कहीं नहीं। अन्य सूत्रों के मार्गों को क़ाफी आजमाया गया है और सबमें
(कमी पायी गयी है)। लोगों को संतोष-लाभ नहीं होता। ढेर के ढेर सिद्धांतों और
पंथों के होने से सिद्ध होता है कि लोगों को संतोष-लाभ नहीं हो रहा है।
योगशास्त्र एक मार्ग बतलाता है- उद्धरेदात्मनात्मानम्। हमें
स्वयं अपने को स्वत्वनिष्ठ करना पड़ेगा। अगर सत्य का लेश भी है, तो हम उसे
(अपने ही सार-तत्व के रूप में प्राप्त) कर सकते हैं।... दर दर प्रकृति द्वारा
मारा मारा फिरना बंद हो जाएगा।...
गोचर संसार निरंतर परिवर्तित हो रहा है-(वह परिवर्तनातीत तक पहुँचना चाहता
है)-वह हमारा लक्ष्य है। हम भी बनना चाहते हैं, हम उस चित् का और
(परिवर्तनातीत) ब्रह्मा का साक्षात्कार करना चाहते हैं। ब्रह्मा बनने में
हमारे मार्ग में बाधा क्या है ? यह सृष्टि का तथ्य है। सृजनात्मक मन सदैव
सृष्टि कर रहा है और अपनी ही सृष्टि के सरपंच में पड़ जाता है। (किंतु हमें यह
भी स्मरण रखना चाहिए कि) सृष्टि ने ही ईश्वर का अनुसंधान किया। सृष्टि ने ही
प्रत्येक आत्मा में उस ब्रह्मा का अनुसंधान किया।
अपनी परिभाषा पर हम पुनः लौट रहे हैं- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः- चित्त की
वृत्तियों को इन परिवर्तनों में पड़ने से रोक दिया जाए। जब यह समस्त सृष्टि
रोक दी जाए-यदि रोकना संभव हो- तो हम स्वयं देख लेंगे कि वास्तव में हम क्या
हैं... वह आज, वह सृष्टिकर्ता, जो अपने को व्यक्त करता है।
योगाभ्यास की भिन्न भिन्न विधियाँ हैं। उनमें से कुछ बड़ी कठिन हैं, जिनमें
सफलता के लिए दीर्घकालीन यम-नियम अपेक्षित है। जिनमें वैसे अभ्यास के लिए
दृढ़ता और बल होता है, उन्हें महती सफलताएँ मिलती हैं। जिनमें वे न हों, वे
सरल विधि अपनाकर उससे कुछ लाभ उठा सकते हैं।
जहाँ तक मन के समुचित्त विश्लेषण का प्रश्न है, हमें तत्काल मालूम हो जाता है
कि उसे वश में करना कितना कठिन है। हम शरीर बन गए हैं। हमने इसे पूरी तौर से
भुला दिया है कि हम आत्मा हैं। जब हम अपने को सोचते हैं, तो तुरंत शरीर की
कल्पना कर लेते हैं। हम शरीरवत् व्यवहार करते हैं, शरीरवत् वार्ता करते हैं।
हम सब शरीर हैं। इस शरीर से हमें आत्मा को पृथक् करना है। इसलिए शरीर से ही
यम-नियम का श्रीगणेश होता है। (यह तब तक चलता है, जब तक अंत में) आत्मा अपने
को व्यक्त नहीं कर देती।... इस सभी यम-नियम का प्रमुख अभिप्राय यह है कि चित्त
की एकाग्रता की वह शक्ति, जिसे ध्यान-शक्ति कहते हैं, उपलब्ध हो जाए।
अतींद्रिय अथवा मनस्तात्त्विक अनुसंधान का आधार
जब स्वामी विवेकानंद पश्चिम में थे, तब वे प्रायः वाद-विवादों में भाग नहीं
लेते थे। लंदन में एक बार 'क्या वैज्ञानिक आधार पर अतींद्रिय घटनाओं को सिद्ध
किया जा सकता है?' विषय पर व्याख्यान से संबंधित विचार-विमर्श के दौरान
उन्होंने वाद-विवाद में भाग लिया। इस वाद-विवाद के समय उन्होंने एक उक्ति
सुनी, जिसके पश्चिमी देशों में सुनने का यह पहला अवसर न था। उसके प्रसंग में
उन्होंने कहा-एक बात पर मैं टिप्पणी करना चाहता हूँ। हम लोगों के सम्मुख एक
भ्रांत वक्तव्य दिया गया है कि मुसलमानों का यह विश्वास है कि स्त्रियों के
आत्मा नहीं होती है। मुझे यह कहने में बड़ा दुःख हो रहा है कि ईसाई लोगों में
यह भ्रांत धारणा बहुत पुरानी है और ऐसा जान पड़ता है कि वे इस भूल को पसंद
करते हैं। यह मानव-स्वभाव की विचित्रता है कि वे दूसरों के बारे में, जिन्हें
वे पसंद नहीं करते, कुछ बहुत बुरी बात कहना चाहते हैं। अब तुम जानते हो कि मैं
मुसलमान नहीं हूँ, लेकिन फिर भी मुझे इस धर्म के अध्ययन का अवसर मिल चुका है
और क़ुरान का एक शब्द भी यह नहीं कहता कि महिलाओं के आत्मा नहीं होती, वस्तुतः
वह कहता है कि उनमें आत्मा होती है।
अतींद्रिय वस्तुओं को चर्चा का विषय बनाया गया है, जिनके बारे में यहाँ मुझे
बहुत कम कहना है, क्योंकि प्रथम तो प्रश्न उठता है कि क्या अतींद्रिय विषयों
का वैज्ञानिक प्रदर्शन संभव है। इस प्रदर्शन से तुम्हारा क्या अभिप्राय है?
सबसे पहले तो आत्मनिष्ठ पक्ष और वस्तुनिष्ठ पक्ष की आवश्यकता पड़ेगी। भौतिक
विज्ञान और रसायन विज्ञान को लो, जिससे हम बहुत परिचित्त हैं और जिनके बारे
में हम लोगों ने इतना पढ़ा है; तो क्या यह सच है कि केवल साधारणतम विषयों पर
ही किए गए प्रदर्शनों को दुनिया के सभी लोग समझ जाते हैं? किसी बर्बर को ले आओ
और उसे अपना एक प्रयोग दिखाओ। वह उसमें से क्या समझेगा? कुछ नहीं। किसी प्रयोग
के समझने योग्य बनाने से पहले पर्याप्त सिखाने-पढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है।
उसके पूर्व वह उसे रंचमात्र नहीं समझ सकता। मार्ग में यह बड़ी अड़चन है। यदि
वैज्ञानिक प्रदर्शन का यह अर्थ है कि कुछ वैज्ञानिक तथ्यों को ऐसे स्तर पर ले
आया जाए, जो समस्त मानव जाति के लिए सार्वभौम स्तर हो और जिस पर रहने से उसे
सभी लोग समझ सके, तो मैं इस बात का खंडन करता हूँ कि दुनिया के किसी भी विषय
का इस प्रकार का वैज्ञानिक प्रदर्शन हो सकता है। यदि ऐसा हो सकता, तो हमारे
सभी विश्वविद्यालय और प्रशिक्षण व्यर्थ होते। यदि प्रत्येक वैज्ञानिक विषय को
हम समझ सकते, तो हमें प्रशिक्षित क्यों किया जाता? इतने अधिक अध्ययन की क्या
आवश्यकता ? इससे किंचित् भी लाभ नहीं। इसलिए अगर वैज्ञानिक प्रदर्शन का यह
अर्थ है कि गूढ़ तथ्यों को उस स्तर पर लाया जाए, जिस पर हम लोग है, तब तो झट
कहा जा सकता है कि यह प्रदर्शन असंगत है। दूसरा अर्थ शायद सही होना चाहिए-कुछ
साधारण तथ्यों को प्रस्तुत किया जाए कि जिनसे अपेक्षाकृत अधिक कुछ गूढ़ तथ्यों
को सिद्ध किया जा सके। कुछ गोचर विषय अपेक्षाकृत अधिक उलझे हुए और गूढ़ हैं,
जिनकी व्याख्या हम उनसे कम गूढ़ गोचर विषयों के सहारे करते हैं और संभवतः उनके
अधिक समीप पहुँच जाते हैं; इस प्रकार वे धीरे-धीरे हमारी वर्तमान साधारण चेतना
के स्तर पर उतार लिये जाते हैं। किंतु यह भी बड़ा गूढ़ और कठिन है और उसके लिए
प्रशिक्षण की अत्यधिक शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। अतः मेरे कथन का अभिप्राय
यह है कि मनस्तात्त्विक क्रियाओं की वैज्ञानिक व्याख्या के लिए हमें क्रियाओं
के संबंध में केवल पूर्ण प्रमाण ही नहीं चाहिए, वरन् जो उन्हें देखना चाहते
हैं, उन्हें भी पर्याप्त परिमाण में प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ेगी। जब इतना हो
जाए, तब हमारे सामने जो क्रियाएँ प्रस्तुत की जाती हैं, उनके सत्यासत्य के
विषय में हम हाँ या नहीं कहने की स्थिति में हो सकते हैं। किंतु उसके पहले
सर्वाधिक उल्लेखनीय अथवा मनुष्य-समाज में घटित बार बार उल्लिखित क्रियाओं को
ऐरे-गैरे तरीके से भी सिद्ध करना बड़ा कठिन होगा, ऐसा मेरा मत है।
इसके पश्चात् उन त्वरित व्याख्याओं को लो कि धर्म स्वप्न जनित हैं-जिन्होंने
उनका विशेष रूप से अध्ययन किया है, उनके विचार से वे कोरे अनुमान हैं। इतनी
सरलता से जो व्याख्या कर दी गयी है कि धर्म स्वप्नजनित हैं, उसे मानने के लिए
हमारे पास कोई कारण नहीं है। तब तो अज्ञेयवादियों का मत मान लेना सचमुच बड़ा
आसान होगा, परंतु दुर्भाग्य से इस प्रश्न की व्याख्या इतनी सरलतापूर्वक नहीं
की जा सकती। वर्तमान काल में भी कितनी ही अन्य अतींद्रिय क्रियाएँ हो रही हैं
और उनकी छानबीन करनी पड़ेगी, करनी ही नहीं पड़ेगी, सदा से उनकी छानबीन होती
आयी है। अंधा कहता है, सूर्य नहीं है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि सूर्य नहीं
है। वर्षों पूर्व इन अतींद्रिय (आत्मिक) क्रियाओं की छानबीन की गयी है। तमाम
मानव जातियों ने नाड़ियों की सूक्ष्म क्रियाओं का पता लगाने के लिए अपने को
उपयुक्त पात्र बनाने के निमित्त शताब्दियों तक साधना की है। युगों पूर्व उनके
अभिलेख प्रकाशित हो चुके हैं, इन विषयों के अध्ययन के लिए महाविद्यालय स्थापित
हो चुके हैं और आज भी ऐसे स्त्री-पुरुष हैं, जो इन क्रियाओं के जीते-जागते
नमूने हैं। निश्चय ही मैं स्वीकार करता हूँ कि इन सबमें बहुत ढोंग है, बहुत
कुछ गलत और असत्य है, पर ऐसा कहाँ नहीं है ? कोई सामान्य इंद्रियगोचर
वैज्ञानिक क्रिया लो। दो-तीन बातों को वैज्ञानिकों या साधारण लोग पूर्ण सत्य
मानेंगे और शेष को बकवासपूर्ण कल्पना। अतएव अज्ञेयवादी अपने विज्ञान के लिए
वही कसौटी रखे, जो वह उन बातों की परख के लिए रखता है, जिन पर वह विश्वास नहीं
करना चाहता। तत्काल उसका आधार जड़ से हिल जाएगा। हमें कुछ परिकल्पनाओं को आधार
बनाना ही पड़ेगा। हम जिस स्थिति में हैं, उससे संतुष्ट नहीं रह सकते, यह मानव
की आत्मा के प्रकृत विकास का क्रम है। इस ओर तो हम अज्ञेयवादी बन जायँ और
दूसरी ओर यहाँ किसी वस्तु की खोज भी करते रहें, यह नहीं हो सकता। हमें चुनना
पड़ेगा। और इसके लिए हमें अपनी सीमाओं के पार जाना होगा, जो अज्ञेय प्रतीत
होता है, उसे जानने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा और यह संघर्ष जारी रखना पड़ेगा।
अतः मेरा ऐसा अनुमान है कि मैं व्याख्यान से एक क़दम और आगे बढ़कर यह राय
प्रस्तुत करता हूँ कि अधिकांश मनस्तात्विक क्रियाएँ-केवल प्रेत आत्माओं की मंद
खटखटाहट या तिपाइयों की खटखटाहट जैसी क्षुद्र वस्तुएँ ही नहीं, जो बच्चों के
खिलवाड़ मात्र हैं, केवल परचित्त-ज्ञान जैसी क्षुद्र वस्तुएँ ही नहीं, जिन्हें
मैंने बच्चों को भी करते देखा है-वरन वे अधिकांश अतींद्रिय क्रियाएँ भी, जिनका
वर्णन अंतिम वक्ता ने उच्चतर अतिदृष्टि-ज्ञान (clairvoyance) कहकर किया है, पर
जिनके विषय में मेरा विनम्र निवेदन यह है कि वे मन की अतिचेतन अवस्था की
अनुभूतियाँ हैं, वास्तव में मनोवैज्ञानिक शोध की सीढ़ियाँ हैं। पहले तो यह
देखना है कि मन उस अवस्था तक पहुँच सकता है या नहीं। उनकी व्याख्या से मेरी
व्याख्या अवश्य ही कुछ भिन्न होगी, लेकिन पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने
में हमें सहमत होना चाहिए। मृत्यु के उपरांत वर्तमान चेतना बनी रहती है या
नहीं, इस प्रश्न पर अधिक कुछ निर्भर नहीं है, क्योंकि हम देखते हैं कि वर्तमान
जगत् इस प्रस्तुत चेतना में आबद्ध नहीं है।
चेतना और सत्ता में सहअस्तित्व नहीं है। मुझको अपने शरीर में, सबको अपने अपने
शरीर में देह की चेतना बहुत कम है, उसके अधिकांश के प्रति चेतना नहीं रहती।
फिर भी उसका अस्तित्व है। दृष्टांत के तौर पर किसी को अपने मस्तिष्क की चेतना
नहीं रहती। मैंने कभी अपना मस्तिष्क नहीं देखा, और न मुझमें कभी उसके प्रति
चेतना रहती है। तथापि मैं जानता हूँ कि उसका अस्तित्व है। अतएव हम कह सकते हैं
कि हम चेतना नहीं चाहते, वरन् एक ऐसी वस्तु का अस्तित्व चाहते हैं, जो स्कूल
पदार्थ नहीं है और यह ज्ञान इसी जीवन-काल में प्राप्त किया जा सकता है। यह भी
सच है कि किसी अन्य विज्ञान की भाँति इस विज्ञान की भी जानकारी प्राप्त की गयी
है और उसका प्रदर्शन हो चुका है। हमें इनकी विवेचना करनी है। जो लोग यहाँ
उपस्थित हैं, उन्हें एक और बात की याद दिलाने पर मैं ज़ोर देता हूँ। यह स्मरण
रखना अच्छा होगा कि प्रायः इस विषय में हमें भ्रम होता रहता है। कुछ लोग हमारे
सामने किसी ऐसे तथ्य का प्रदर्शन करते हैं, जो आध्यात्मिक प्रकृति के लिए
साधारण नहीं प्रतीत होता और हम उसे इसलिए ठुकरा देते हैं कि उसे सत्य नहीं
सिद्ध कर सकते। कई मामलों में, हो सकता है, वह वस्तु सही न हो, पर कइयों में
हम यह विचारना भी भूल जाते हैं कि उस प्रदर्शन को समझने के लिए हम उपयुक्त
पात्र हैं अथवा नहीं, या अपने शरीर और मन को इस शोध के उपयुक्त पात्र बनने के
लिए हमने उन्हें अनुमति दी है अथवा नहीं।
श्वास-प्रश्वास-क्रिया
(२८ मार्च
,
१९०० ई० को सैन फ्रांसिस्को में दिया गया भाषण)
अत्यंत प्राचीन काल से ही श्वास-प्रश्वास संबंधी क्रियाएँ भारत में बड़ी
लोकप्रिय रही है। यहाँ तक (कि) ये अपने धर्म का एक अंग बन गयी हैं, जैसे
गिरिजा जाना या विशिष्ट प्रार्थनाओं की आवृत्ति करना।... उन बातों को तुम्हारे
सामने रखने का प्रयत्न करूंगा।
मैं बता चुका हूँ कि भारतीय दार्शनिक किस तरह संपूर्ण विश्व को आकाश और प्राण,
इन दो भागों में सीमित कर देता है। प्राण का अभिप्राय है शक्ति-जो सब गति या
सम्भाव्य गति, शक्ति या आकर्षण के रूपों में अपने को अभिव्यक्त करता
है।...विद्युत्, चुंबकत्व, शरीर की संपूर्ण गतिविधियाँ, मन की सारी
(क्रियाशीलताएँ)-ये सभी प्राणसंज्ञक एक ही वस्तु की बहुविध अभिव्यक्तियाँ हैं।
(ज्ञान के) प्रकाश के रूप में अभिव्यक्त होनेवाला प्राण का सर्वोत्कृष्ट रूप
मस्तिष्क में विद्यमान है। यह प्रकाश विचार-शक्ति से निर्दिष्ट होता है।
शरीर में क्रियाशील प्राण के अणु-अणु का नियंत्रण मन के द्वारा होना चाहिए।...
मन का शरीर पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए। यह (स्थिति) सभी के लिए संभव नहीं।
हममें से अधिकांश में इसका ठीक उल्टा है संकल्प मात्र से (शरीर) के प्रत्येक
अवयव का नियमन करने में मन को समर्थ होना चाहिए। यही तर्क है, दर्शन है; लेकिन
जब हम वास्तविकता में आते हैं, तो बात वैसी नहीं दीख पड़ती। दूसरी ओर,
तुम्हारे लिए तो गाड़ी आगे और घोड़ा पीछे है। शरीर ही मन को शासित करता है।
यदि मेरी उंगली दब गयी, तो मैं दुःखी हो जाता हूँ। शरीर मन को शासित करता है।
अगर ऐसी कोई बात हो जाती है, जिसे मैं नहीं चाहता हूँ, तो मैं बेचैन हो जाता
हूँ; मन संतुलन खो बैठता है। शरीर मन का स्वामी है। हम सब शरीर मानव बन गए
हैं। अभी हम शरीर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं।
यहीं पर दार्शनिक हमारा पथ-प्रदर्शन करने और यह बतलाने के लिए उपस्थित हो जाता
है कि हम यथार्थतः क्या हैं? तुम भले ही इसके विषय में तर्क करो और बुद्धि
द्वारा इसे जान लो, किंतु इसकी बौद्धिक जानकारी और वास्तविक अनुभति में महान
अंतर है। भवन-योजना और भवन-निर्माण में बहुत अधिक भेद है। अतः (धर्म के लक्ष्य
तक पहुँचने के लिए) कई मार्ग होने ही चाहिए। पिछले भाषण में हम दर्शन (ज्ञान)
का अध्ययन कर रहे थे, जो सबको नियंत्रण में लाने का प्रयत्न करता है और जो
आत्मा की स्वाभाविक मुक्ति पर ज़ोर देते हुए शरीर पर बिना उसकी सहायता के विजय
प्राप्त करता है। यह बड़ा कठिन है। यह साधन (सर्व) सुलभ नहीं है। देहबद्ध मन
बड़ी कठिनाई से इसके लिए प्रयत्न करता है।
थोड़ी सी शारीरिक सहायता मिलने से मन शांत हो जाता है। मन से ही यह कार्य
साधने की अपेक्षा दूसरी तर्कसम्मत बात क्या हो सकती है ? लेकिन यह नहीं हो
सकता। हममें से अधिकांश के लिए शारीरिक सहायता आवश्यक है। इसी शारीरिक सहायता
को उपयोग में लाने, शरीर की शक्ति-सामर्थ्य से किसी मानसिक स्थिति को उत्पन्न
करने और उत्तरोत्तर तब तक मन को शक्तिशाली बनाने के लिए, जब तक वह अपने खोये
हुए साम्राज्य को पुनः प्राप्त न कर ले, राजयोग का विधान हुआ है। केवल अपनी
इच्छा-शक्ति से ही यदि कोई यह स्थिति प्राप्त कर ले, तो कहना ही क्या ! किंतु
हम अधिकांश लोगों के लिए यह संभव नहीं है, अतः हम शारीरिक शक्ति का सहारा
लेंगे, और इच्छा-शक्ति के मार्ग को प्रशस्त बना सकेंगे।
...यह संपूर्ण विश्व विविधता में एकता का एक विराट् उदाहरण है। मन रूपी पिंड
केवल एक ही है, उसी की विभिन्न अवस्थाओं के विभिन्न नाम हैं। (वे) इस
मानस-सागर की विभिन्न लघु भँवरें हैं। हम एक ही साथ व्यष्टि और समष्टि, दोनों
हैं। इसी प्रकार यह क्रीड़ा चल रही है।... वास्तव में यह एकत्व कभी भी खंडित
नहीं होता। (जड़-द्रव्य, मन, आत्मा, ये तीनों एक हैं)।
ये केवल नाम-भेद मात्र हैं। विश्व में सत्य एक है और हम उसे विभिन्न दृष्टिकोण
से देखते हैं। एक दृष्टिकोण से देखा हुआ वही तथ्य जड़-तत्व है, दूसरे
दृष्टिकोण से वही मन। यहाँ दो वस्तुएँ नहीं हैं। रस्सी को भूल से साँप समझने
के कारण एक (आदमी) भयभीत हो उठा और इसलिए उसने साँप मारने के लिए दूसरे आदमी
को पुकारा। (उसका) सारा शरीर कांपने लगा, उसका दिल धड़कने लगा।...ये संपूर्ण
अभिव्यक्तियाँ भय के फलस्वरूप (हुईं), और जब उसने रस्सी का आविष्कार कर लिया,
तो ये सब अंतर्हित हो गयीं। वास्तव में हम इसी को देखते हैं। इंद्रियाँ भी जो
कुछ देखती हैं-जिन्हें हम जड़ कहते हैं-वे (भी) 'सत्य' हैं; वे केवल उस रूप
में नहीं हैं, जिस रूप में हम उन्हें देखते हैं। रस्सी को देखकर उसे साँप
सामने वाला मन भ्रम में नहीं था। अगर वह भ्रमित रहा होता, तो उसे कुछ भी दिखाई
नहीं देता। केवल एक वस्तु को दूसरी वस्तु समझ लिया गया है, अस्तित्वहीन वस्तु
को किसी दूसरे रूप में नहीं समझा गया। हम यहाँ केवल देह को देखते हैं एवं असीम
तत्व को जड़ के रूप में ग्रहण करते हैं।... हम तो केवल उस परम 'सत्य' की खोज
में लगे हैं। हमें कभी भ्रम नहीं होता। हम सदा सत्य ही जानते हैं, केवल
कभी-कभी हमारा सत्य-ग्रहण ही भ्रमपूर्ण हो जाता है। तुम एक समय में एक ही
वस्तु देख सकते हो। मैंने जब साँप देख लिया, तो रस्सी एकदम विलीन हो गयी। और
जब मैं रस्सी देखता हूँ, तो साँप अंतर्हित हो जाता है। (एक समय) एक ही वस्तु
होनी चाहिए।...
जब हम संसार देखते हैं, तब हम भगवान को कैसे देख सकेंगे? अपने मन में जरा
सोचो, संसार कहने से जो हमारा अभिप्राय है, वह हमारी इंद्रियों (द्वारा)
प्रत्यक्षीकृत समष्टि-पदार्थ के रूप में ईश्वर ही है। यहाँ जब तुम साँप देखते
हो, तब रस्सी नहीं रहती। जब तुम आत्मविद् होओगे, तो बाकी सब कुछ अदृश्य हो
जाएगा। तुम जब केवल आत्म-दर्शन करोगे, तो तुम्हें कोई जड़-पदार्थ नहीं दिखायी
देगा। तुम जिसे जड़ कहते हो, वही 'आत्मा' है। ये सारे भेद इंद्रियों द्वारा
(आरोपित) हैं। एक ही सूर्य हज़ारों छोटी तरंगों से प्रतिबिंबित होकर हमें
हज़ारों छोटे सूर्यों के समान लगता है। अगर मैं इंद्रियों के माध्यम से विश्व
को देखता हूँ, तो इसे जड़ और शक्ति के रूप में ग्रहण करता हूँ। वह एक ही साथ
एक तथा बहु है। विभिन्नता एकत्व को मिटा नहीं सकती। लाखों तरंगें सागर के
एकत्व का विनाश नहीं कर सकतीं। सागर सागर ही रहता है। विश्व को देखते समय
तुम्हें याद रहना चाहिए कि उसे हम जड़ या शक्ति के रूप में ग्रहण कर सकते हैं।
जब हम वेग बढ़ाते हैं, तो पिंड घटता है।... दूसरी ओर हम पिंड बढ़ा सकते हैं और
वेग घटा सकते हैं।... संभव है, हम एक ऐसे बिंदु पर पहुँचें, जहाँ पिंड की सारी
सत्ता ही मिट जाए।...
न तो जड़ को शक्ति का कारण बतलाया जा सकता है और न शक्ति को जड़ का। दोनों इस
प्रकार (संबद्ध) हैं कि एक दूसरे में विलीन हो सकता है। तीसरा कोई अन्य तत्व
होना चाहिए। और वह तीसरा तत्व मनस् है। विश्व का सृजन न जड़ से संभव है और न
शक्ति से ही। मन ऐसी वस्तु है, जो न शक्ति है, न जड़,फिर भी वह सदा शक्ति और
जड़ को प्रसूत करता रहता है। अंततोगत्वा मन सारी शक्ति का मूल है, और यही
विश्व-मन, समष्टि-मन आदि का अभिप्राय है। सबके द्वारा सृजन-कार्य हो रहा है और
इन सब सृजन की समष्टि से विश्व बनता है। बहुत्व में एकत्व है। एक ही साथ वह एक
भी है और बहु भी।
सगुण ईश्वर केवल सब की समष्टि है और साथ ही उसी प्रकार व्यक्तित्व युक्त है,
जैसे तुम एक व्यष्टि-शरीर हो, जिसकी प्रत्येक कोशिका का अपना व्यष्टिगत
अस्तित्व है। जो कुछ गतिशील है, वह प्राण या शक्ति में समाविष्ट है। (यही है
वह प्राण) जो नक्षत्र, चंद्रमा, सूर्य आदि को चालित कर रहा है। प्राण
गुरुत्वाकर्षण है।...
अतः प्रकृति की सारी शक्तियों को विश्व-मन से अवश्य ही उद्भूत होना चाहिए। और
हम, उस विश्व-मन के लघु अंश के रूप में, प्रकृति से उस प्राण को ग्रहण करते
हैं और फिर अपनी प्रकृति में उसे सक्रिय बनाकर शरीर-क्रिया जारी रखते हैं और
अपने विचार की सृष्टि करते हैं। यदि (तुम्हारा ख्याल) है कि विचार उत्पन्न
नहीं किए जा सकते, तो बीस दिन तक खाना बंद कर दो और देखो कि तुम कैसा अनुभव
करते हो। आज ही से शुरू करो और दिन गिनो।... विचार भी आहार से उत्पन्न होता
है। इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं।
सर्वत्र क्रियाशील प्राण एवं शरीर में स्थित प्राण के नियमन को ही प्राणायाम
कहते हैं। हमें इसका साधारण ज्ञान है कि श्वास ही सबको सक्रिय रखता है। अगर
मैं साँस लेना बंद कर दूँ, तो निर्जीव हो जाऊँगा। साँस चलने लगे, तो शरीर भी
गतिशील हो जाता है। हमें जिसकी आवश्यकता है, वह श्वास नहीं है; श्वास से भी
परे जो सूक्ष्म है, वही हमारा लक्ष्य है।
(एक महान राजा का एक मंत्री था।) एक बार राजा मंत्री से अप्रसन्न हो गया। उसने
(एक बहुत ऊँची मीनार के ऊपर मंत्री को कैद करने का आदेश दिया। ऐसा ही हुआ और
मंत्री वहीं मरने के लिए छोड़ दिया गया। उसकी स्त्री रात में मीनार के पास आयी
और पति का नाम लेकर उसे पुकारने लगी)। मंत्री ने उससे कहा, "रोने से कुछ नहीं
होने का।" उसने पत्नी से थोड़ा सा शहद, एक भृंग, महीन तागे का एक बंडल, मोटे
डोरे का एक गोला और एक रस्सी लाने को कहा। स्त्री ने भृंग के एक पैर में महीन
तागा बाँध दिया और उसके सिर पर शहद की बूँद टपकाकर उड़ा दिया। (भृंग
रेंगता-रेंगता शहद के लालच में ऊपर बढ़ता हुआ जब मीनार की चोटी पर पहुँच गया,
तब मंत्री ने झट उस भृंग को पकड़ा और क्रमशः रेशमी सूत, फिर डोरे, फिर मोटे
तागे और अंत में रस्सी को हाथ में ले लिया। रस्सी के सहारे वह मीनार से नीचे
उतरा और भाग गया। हमारे इस शरीर में श्वास-क्रिया रेशमी धागे के समान है, उस
पर अधिकार करके हम नाड़ी-प्रवाहरूपी डोरे को और उसके द्वारा विचार-रूपी मोटे
डोरे को और अंत में प्राण रूपी रस्सी को पकड़ लेते हैं। इस पर प्राण को वश में
कर लेने पर हम मुक्त हो जाते हैं।)
भौतिक स्तर की वस्तुओं की सहायता से हमें सूक्ष्मातिसूक्ष्म के प्रत्यक्षीकरण
की क्षमता प्राप्त करनी होगी। विश्व एक है, चाहे तुम किसी भी बिंदु का स्पर्श
करो। अन्य सारे बिंदु उसी एक के रूपांतर हैं। विश्व के (आधार) में सर्वत्र
एकत्व विद्यमान है। यहाँ तक कि मैं श्वास सदृश स्थूल क्रिया के माध्यम से
आत्मा को भी पकड़ सकता हूँ।
प्राणायाम के अभ्यास से हम उन सभी शारीरिक गतिविधियों का अनुभव करने लगते हैं,
जिनका अनुभव हम इस समय नहीं करते। ज्यों ही हमें उनका अनुभव होने लगता है,
त्यों ही हम उन्हें नियंत्रित करने लगते हैं। विचार के अंकुर हमारे लिए
स्फुटित हो जायँगे, और हम उन पर अधिकार कर लेंगे। निस्संदेह, इसकी साधना के
लिए, हम अधिकांश के पास न तो अवसर है, न संकल्प, न धैर्य और न आस्था ही। किंतु
सबको कुछ न कुछ लाभ तो होता ही है।
पहला लाभ है स्वास्थ्य। हममें से निन्यानबे प्रतिशत लोग ठीक से साँस भी नहीं
ले पाते हैं। हम अपने फेफड़ों को पर्याप्त फुलाते नहीं हैं।... नियमित (श्वास)
लेने से शरीर शुद्ध हो जाता है। इससे मन शांत होता है।... यदि तुम शांत हो, तो
तुम्हारी साँस भी शांत ढंग से चलती है, लयपूर्ण होती है। यदि साँस लयपूर्ण
होगी, तो तुम शांत रहोगे ही। मन के विचलित होने पर साँस की लय टूट जाती है।
यदि तुम साधना द्वारा बलपूर्वक साँस की लय ठीक कर सकते हो, तो क्यों शांत नहीं
हो सकते? यदि तुम विचलित हो जाते हो, तो कमरे में चले जाओ और उसे बंद कर लो।
मन को नियंत्रित करने का हठ न करो, केवल दस मिनट लययुक्त साँस लेना शुरू करो,
हृदय शांत हो जाएगा। ये बातें साधारण और सबके लाभ की हैं। अन्य जटिल प्रयोग
योगी के लिए ही संभव हैं।...
गहरी साँस लेने का अभ्यास (पहली सीढ़ी मात्र है)। भिन्न भिन्न अभ्यासों के
चौरासी (आसन) हैं। कुछ लोगों ने इस श्वास-प्रक्रिया को अपने जीवन का पूर्ण
ध्येय बना लिएा है। स्वर (साँस) का परामर्श लिये बिना वे कुछ भी नहीं करते। वे
सदैव उसी का (निरीक्षण) करते रहते हैं कि किस नासा-पुट में अधिक साँस है। यदि
दाहिने नथुने में अधिक साँस हो, तो वे कुछ विशिष्ट कार्य करते हैं, और बायें
में अधिक हो, तो कुछ। और यदि दोनों नथुनों में साँस बराबर आने-जाने लगे, तो वे
उपासना में लग जायँगे।
यदि दोनों नासा-पुटों से लयसहित साँस चल रही हो, तो इसे मन को नियंत्रित करने
का समय समझना चाहिए। उस के सहारे तुम इच्छानुसार शरीर के किसी भाग में शक्ति
की तरंगें ले जा सकते हो। अगर (कोई) अवयव विकारग्रस्त हो जाए, तो प्राण को
साँस के सहारे उस भाग में पहुँचाओ।
और भी कई कार्य किए जाते हैं। कुछ ऐसे संप्रदाय हैं, जो साँस लेना एकदम बंद कर
देते हैं। वे कोई भी ऐसा काम नहीं करते, जिससे उन्हें ज़ोर से साँस लेने के लिए
विवश होना पड़े। एक प्रकार की समाधि दशा में वे पहुँच जाते हैं;... शायद ही
शरीर का कोई अवयव क्रियाशील रहता हो। हृदय की (धड़कन) समाप्तप्राय हो जाती
है।... ऐसे अधिकांश अभ्यास बहुत ही खतरनाक होते हैं; कुछ उच्च श्रेणी के मार्ग
उच्चतर शक्ति प्राप्त करने के लिए हैं। ऐसे बहुत से संप्रदाय है, जिनके साधक
साँस को एकदम रोककर शरीर हल्का कर लेने की कोशिश करते हैं और वे हवा में ऊपर
उठ जाते हैं।... मैंने किसी को ऊपर उठते हुए नहीं देखा है।... मैंने किसी को
हवा में उड़ते हुए भी नहीं देखा है; लेकिन पुस्तकों में इनका उल्लेख मिलता है।
मैं सर्वज्ञ होने का ढोंग नहीं करता हूँ। मैं सदा ही अति आश्चर्यजनक वस्तुएँ
देखता रहा हूँ।... (एक बार मैंने देखा कि) एक साधु फूल-फल आदि शून्य से ही
उत्पन्न करने लगा।
...पूर्ण हो जाने पर योगी अपने शरीर को इतना सूक्ष्म बना सकता है कि यह शरीर
इस दीवार से होकर निकल जाएगा- हाँ, यही शरीर। वह इतना स्थूल भी हो सकता है कि
दो सौ आदमी भी मिलकर उसे नहीं उठा सकते। यदि वह चाहे, तो हवा में उड़ने में
समर्थ हो सकता है। (किंतु) कोई भी ईश्वर सा सर्वशक्तिमान नहीं बन सकता। यदि
ऐसा होता, तो एक सृष्टि कर सकता था, तो दूसरा प्रलय। ग्रंथों में इसका वर्णन
है। मैं उन पर शायद ही विश्वास कर पाऊँ, इन पर अविश्वास भी नहीं कर सकता। जो
मैंने आँखों देखा है, उसे ग्रहण किया है।
यदि इस विश्व में वस्तुओं का अध्ययन संभव है, तो वह मन के नियमन से ही संभव
है, प्रतियोगिता से नहीं। पाश्चात्य लोग कहते हैं, "यह हमारा स्वभाव है, हम
लाचार हैं।" अपनी सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करके भी तुम उनका हल नहीं निकाल
सकते। कुछ बातों में तुम हमसे गए-बीते हो।...और इन सबसे संसार कहीं भी नहीं
पहुँच पायेगा।
समर्थ सब कुछ पाते हैं, दुर्बल का सर्वनाश हो जाता है। ग़रीब इंतज़ार कर रहे
हैं।...छीन लेने में समर्थ सब कुछ छीन लेंगे। ग़रीब उनसे घृणा करते हैं।
क्यों? क्योंकि वे अपनी बारी की प्रतीक्षा में हैं। जो जो साधना-पद्धति वे खोज
निकालते हैं, उन सबकी यही शिक्षा है। मनुष्य के मन में ही समस्या का समाधान
मिल सकता है।... कोई क़ानून किसी व्यक्ति से वह कार्य नहीं करा सकता है, जिसे
वह करना नहीं चाहता है।... अगर मनुष्य अच्छा बनना चाहेगा, तभी वह अच्छा बन
पायेगा। संपूर्ण विधान एवं विधान के पंडित... मिलकर भी उसे अच्छा नहीं बना
सकते। सर्वशक्तिसंपन्न कहता है, "मैं किसी की परवाह नहीं करता।" हम सब अच्छे
बनें, यही समस्या का हल है। यह कैसे संभव हो सकता है।
सारा ज्ञान मन में विद्यमान है। पत्थर में ज्ञान या नक्षत्रों में ग्रह-विद्या
किसने देखी है ? यह सब मनुष्य में ही है। हमें यह सत्य प्राप्त करना है (कि)
हममें ही अनंत शक्ति है। मन की शक्ति कौन सीमाबद्ध कर सकता है ? हम इसका अनुभव
करें कि सब साक्षात् मन है। हर बूँद अपने में संपूर्ण सागर छिपाये हुए है। यही
दशा मनुष्य-मन की है। भारतीय मनीषी इन सब (शक्तियों एवं भावनाओं) का चिंतन
करता है और (उन) सबको प्रकाश में लाना चाहता है। वह अपनी कुछ भी परवाह नहीं
करता, चाहे जो कुछ भी उसे हो जाए। (पूर्णत्व-प्राप्ति) के लिए लंबे समय की
अपेक्षा है। अगर इसमें पचास हज़ार वर्ष भी लग जाये, तो उसकी क्या चिंता !...
समाज का मूल आधार ही, उसकी बनावट ही सब दोषों का जनक है। पूर्णत्व तभी संभव
है, जब मनुष्य के मन में परिवर्तन हो, जब मनुष्य स्वेच्छा से मन को परिवर्तित
कर सके; और इसमें इस बात की भी कठिनाई है कि वह मन के साथ ज़बरदस्ती नहीं कर
सकता है।
तुम राजयोग के सभी दावों पर विश्वास नहीं कर सकते हो। मनुष्य मात्र अपरिहार्य
रूप से दिव्य हो सकता है। यह तभी (संभव) है, जब हर व्यक्ति अपने विचारों पर
पूर्ण अधिकार प्राप्त कर ले।... (विचार, इंद्रिय) सबको मेरा दास होना चाहिए,
मेरा स्वामी नहीं। तभी अशुभ का नाश संभव हो सकेगा।
तथ्य-समूह से मन को भर देना ही शिक्षा नहीं है। (शिक्षा का आदर्श है) साधन को
योग्य बनाना और अपने मन पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना। यदि मैं किसी विषय पर
मन को केंद्रित करना चाहूँ, तो उसे वहाँ जाना चाहिए, और जिस क्षण कहूँ, वह
पुनः मुक्त हो जाए।
यही बड़ी कठिन समस्या है। बड़ी साधना के बाद हम एकाग्रता की कुछ शक्ति प्राप्त
करते हैं, तब किसी वस्तु से मन को अनुबद्ध करने की शक्ति आ पाती है। लेकिन
वहाँ अनासक्ति का अभाव हो जाता है। मैं उस विषय से मन को विलग करने के लिए
अपना आधा जीवन लगाने के लिए भले तैयार होऊँ, तो भी मैं यह नहीं कर पाता।
एकाग्रता के साथ साथ अनासक्ति की क्षमता का (विकास हमें करना होगा)। जो समान
रूप से दोनों में-प्रवृत्ति-निवृत्ति में-शक्तिशाली है, वही सच्चा पौरुष
प्राप्त कर सकता है। सारा विश्व डगमगा जाए, तो भी तुम उसे चिंतातुर नहीं
पाओगे। कौन पुस्तक ऐसी शिक्षा दे पायेगी ! तुम चाहे जितनी पुस्तकें पढ़
लो।...बच्चे के दिमाग में प्रतिपल पचास हज़ार शब्द ठूँसो, उसे सारे सिद्धांत
एवं दर्शन की शिक्षा दे दो,... केवल एक ही विज्ञान है, जो उसे यथार्थ की
शिक्षा दे सकता है, और यह है मनोविज्ञान... और श्वास-नियंत्रण से इस कार्य का
सूत्रपात होता है।
धीरे-धीरे क्रमशः तुम मन के कक्षों में पहुँचते हो, एवं शनैः शनैः मन पर
नियंत्रण कर लेते हो। इसके लिए दीर्घ एवं (कठिन संघर्ष) की आवश्यकता है। इसे
कौतूहलपूर्ण नहीं समझना चाहिए। जब कोई कुछ करना चाहता है, तो उसके पास एक
योजना होती है। (राजयोग) श्रद्धा, विश्वास, ईश्वर आदि में विश्वास करने के लिए
नहीं कहता। यदि तुम हज़ारों देवताओं में आस्था रखते हो, तो इस क्षेत्र में तुम
अपना प्रयत्न करते जाओ। क्यों नहीं?... लेकिन राजयोग में निर्गुण तत्व हैं।
सबसे बड़ी कठिनाई क्या है ? हम बात करते और सिद्धांत गढ़ते हैं। मानव समाज के
अधिकांश व्यक्तियों का संबंध मूर्त पदार्थ से होता है, क्योंकि अल्प मतिवाले
उच्च दर्शन को समझ नहीं सकते हैं। इस प्रकार यह समाप्त हो जाता है। विश्व के
समस्त विज्ञानों के स्नातक तुम भले ही हो जाओ... लेकिन तुमने यदि साक्षात्कार
नहीं किया है, तो अबोध शिशु बनकर तुम्हें यह सीखना होगा।
...यदि तुम उनके सामने अनंत या अमूर्त वस्तुएँ रखो, तो वे भ्रम में पड़ जाते
हैं। तुम एक बार में उन्हें कुछ ही वस्तुओं का ज्ञान दो। तुम इतनी साँस लो,
तुम यह करो। वे इसे समझते जाते हैं और इसमें उन्हें आनंद आने लगता है। ये
क्रियाएँ धर्म की नर्सरी के समान हैं। यही कारण है कि श्वास-प्रश्वास के
अभ्यास इतने लाभदायी हैं। तुम सबसे मेरा अनुरोध है कि तुम निरे जिज्ञासु न
रहो। कुछ दिन अभ्यास करो और यदि तुम्हें इससे कुछ लाभ नहीं होता, तो मुझे
कोसना।...
यह संपूर्ण विश्व एक ऊर्जा-पुंज है और वह सर्वत्र विद्यमान है। यदि हमें इसका
ज्ञान हो जाए कि उस स्थान में विद्यमान वस्तु को कैसे ग्रहण किया जाए, तो हम
सभी के लिए उसका एक कण ही पर्याप्त है।
'इसको करना ही है'- यह विष है, जो हमें मार रहा है।... जो (इंद्रियों के लिए)
आनंददायक है, वह बंधन पैदा करनेवाला है।... मैं मुक्त हूँ। जो मैं काम करता
हूँ, वह क्रीड़ा मात्र है।
मृतात्माएँ दुर्बल होती हैं और वे हमसे जीवन-संचय का प्रयास कर रही हैं।
अध्यात्म-बल एक मन से दूसरे को प्राप्त हो सकता है। जो यह देता है, वह गुरु
है, जो ग्रहण करता है, वह शिष्य है। विश्व में आध्यात्मिक सत्य उतारने का यही
एक उपाय है।
मृत्यु के समय समस्त इंद्रियाँ (मन) में चली आती हैं और मन प्राण में समा जाता
है। आत्मा बाहर चली जाती है और अपने साथ मन का अल्पांश ले जाती है। वह प्राण
अल्पांश तथा जड़-तत्व के कुछ सूक्ष्मतम भाग को लिंग शरीर के बीज-रूप में अपने
साथ ले जाती है। प्राण निराधार कभी नहीं रह सकता।... वह विचारों में निविष्ट
होता है और फिर बाहर व्यक्त हो जाता है। इस तरह इस नये शरीर एवं नये मस्तिष्क
का तुम निर्माण करते हो। इसी से प्राण अभिव्यक्त होगा।...
(मृतात्माएँ) शरीर-निर्माण में असमर्थ हैं, और जो बहुत कमज़ोर होते हैं, उन्हें
यह भी याद नहीं रहता कि वे मर गए हैं।... वे अन्य शरीरों में प्रवेश कर इस
जीवन से अधिकाधिक आनंद प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं और जो भी व्यक्ति
उन्हें शरण देता है, वह भयानक खतरा मोल लेता है। वे उसकी जीवनी-शक्ति के
आकांक्षी होते हैं।...
इस संसार में ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी शाश्वत नहीं है।... मुक्ति का अर्थ है
सत्य को जानना। हम कुछ नहीं बनते, जो हैं, वही रहेंगे। श्रद्धा से मुक्ति
मिलती है, काम करने से नहीं। यहाँ 'ज्ञान' का प्रश्न है। तुमको जानना होगा
कितुम क्या हो, और तब काम समाप्त होगा। स्वप्न नष्ट हो जाएगा-वह जिसे तुम तथा
अन्य जन यहाँ देख रहे हैं। 'मरने के बाद उन्हें स्वर्ग मिलेगा।' इसी सपने में
वे जी रहे हैं और जब वह समाप्त हो जाता है, तो उन्हें (यहाँ) दूसरा सुंदर शरीर
मिलता है और वे अच्छे व्यक्ति हैं (एवं दान देते हैं, परंतु यह ज्ञान का मार्ग
नहीं है। वे कब सीखेंगे) कि अस्पताल बनवाना मात्र दान का स्वरूप नहीं है।
ज्ञानी कहता है कि ये सब (वासनाएँ) मुझसे दूर हो गयी हैं। इस बार मैं इस झमेले
में नहीं पडूँगा। वह ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता है और कठिन संघर्ष
करता है। उसे इसका ज्ञान जाता है कि यह बहुरूपी संसार यथार्थतः एक स्वप्न है,
एक भ्रम है। वैसा ही है जगत् और स्वर्ग एवं इतर दोषों का प्रपंच। वह इन सब पर
हँसता है।
योग के सिद्धांत
(५ अप्रैल
,
१९०० ई० को सैन फ्रांसिस्को में दिया गया भाषण)
व्यावहारिकता धर्म क्या है, इस संबंध में हर व्यक्ति के विचार, व्यावहारिकता
संबंधी उसके सिद्धांत तथा अपने ऐसे दृष्टिकोण के अनुरूप होते है, जहाँ से वह
कार्यारंभ करता है। ज्ञान है, भक्ति है, कर्म है।
दार्शनिकों का मत है, मुक्ति तथा बंधन के अंतर का कारण ज्ञान तथा अज्ञान है।
उसके लिए लक्ष्य है, ज्ञान और उसकी व्यावहारिकता ज्ञान-प्राप्ति के लिए होती
है। भक्त का व्यावहारिक धर्म होता है प्रेम तथा श्रद्धा की अमित शक्ति।...
कर्ममार्गी सत्कर्म को ही अपना व्यवहार धर्म बनाता है। जैसा अन्यत्र भी देखा
जाता है, हम सदा दूसरे के आदर्श की अपेक्षा करने और सारे संसार को अपने आदर्श
के साँचे में ढालने के प्रयत्न में लगे रहते हैं।
प्रेम से परिपूर्ण व्यक्ति अपने सहजीवियों की भलाई को ही धर्माचरण मानता है।
यदि मनुष्य कोई अस्पताल आदि बनवाने में मदद न दें, तो वह यह सोचने लगता है कि
उनका कोई धर्म नहीं है। सभी एक सा ही करें, ऐसी कोई बात नहीं है। इसी प्रकार
दार्शनिक ज्ञान-साधना न करनेवाले की अवहेलना कर सकता है। भले ही लोग बीस हज़ार
अस्पताल बनवा दें, ज्ञानी उन्हें देवताओं के पशु मात्र सिद्ध करेगा। भक्त के
अपने ही विचार और मानदंड होते हैं। ईश्वर से प्रेम न करनेवाले जैसे भी कर्म
क्यों न करें, उनकी दृष्टि में, श्रेष्ठ नहीं हैं। (योगी का विश्वास) आत्म
(संयम) और (अंतः) चित्तवृत्ति-विजय पर रहता है। इस दिशा में आपकी सफलता कितनी
बढ़ी है? शरीर तथा इंद्रियों पर कितना नियंत्रण हुआ है ?' योगी के ये ही
प्रश्न रहते हैं। जैसा कहा गया है, हर व्यक्ति दूसरों को अपने आदर्श से ही
परखता है।मनुष्य लाखों डॉलर दान में क्यों न दे चुके हों या भारतीयों की भाँति
चूहों-बिल्लिएों को क्यों न अन्न खिला चुके हों! उनका कहना है कि मानव अपनी
चिंता स्वयं कर सकता है, लेकिन बेचारे जीव जंतु ऐसा नहीं कर सकते। यही उनकी
धारणा है। लेकिन योगी का चरम लक्ष्य (अंतः) चित्तवृत्ति-निरोध है और वह उसी
कसौटी पर मानव को कसता है।...
हम व्यावहारिक धर्म (के विषय) में सदैव बातें किया करते है। लेकिन मानते यह है
कि यह व्यावहारिकता हमारे अपने दृष्टिकोण के अनुरूप ही होनी चाहिए विशेषकर
पश्चिमी देशों में यही बात है प्रोटेस्टेंट (Protestants) का आदर्श सत्कर्म
है। वे भक्ति या दर्शन की ज़्यादा चिता नहीं करते हैं। वे सोचते है, इनकी कोई
विशेष उपयोगिता नहीं है। उनका तर्क है, "तुम्हारा ज्ञान है क्या? मानव को कुछ
न कुछ करना है !"... थोड़ा सा मानवतावाद ! गिरजे दिन-रात क्रूर अज्ञेयवाद के
विरुद्ध अपना अभियान चलाया करते हैं। परंतु स्वयं उसी ओर तेज़ी से झुकते
दृष्टिगोचर होते हैं निर्मम गुलाम ! उपयोगितावादी धर्म ! यही आज की स्थिति है।
यही कारण है कि पश्चिम में कुछ बौद्धों ने इतनी लोकप्रियता प्राप्त कर ली। लोग
यह नहीं जानते कि ईश्वर है या नहीं, कोई आत्मा है या नहीं! उनका विचार है,
संसार दुःख से परिपूर्ण है। दुखों संसार की सेवा करने का प्रयत्न करो।
योग-सिद्धांत का, जो आज के व्याख्यान का विषय है, दृष्टिकोण यह नहीं है। (उसकी
शिक्षा है कि) आत्मा की सत्ता है और इसमें सर्वशक्ति निहित है। इसमें यह शक्ति
पहले से ही है, और यदि हम शरीर को अपने अधीन कर लें, तो सारी शक्ति अभिव्यक्त
हो जाएगी। संपूर्ण ज्ञान आत्मा में ही है। सामान्य जन संघर्षरत क्यों है ?
दुःख घटाने के लिए ही तो... शरीर को वशीभूत न करने से ही सारे दुःख का स्वागत
होता है... हम घोड़े के आगे गाड़ी रखते हैं... उदाहरणार्थ कर्म-प्रक्रिया को
ही लो। हम गरीबों को आराम देकर उनकी भलाई करने का प्रयत्न करते हैं। हमें दुःख
के मूल कारण का ज्ञान नहीं है। यह तो सागर को बाल्टी से खाली करने के बराबर
है, और लगातार (पानी) भरता ही जाता है। योगी इसे मूर्खतापूर्ण समझता है। (वह
कहता है कि) दुःख से त्राण पाने का पहला उपाय दुःख का मूल कारण जान लेना है।
हम यथाशक्ति अच्छाई करने का प्रयत्न करते हैं! यह इसलिए? अगर कोई असाध्य रोग
है, तो हम क्यों संघर्षरत हों और अपनी रक्षा का प्रयास करें? यदि उपयोगितावादी
कहे, "ईश्वर और आत्मा के विषय में परेशान मत हो, तो उसका योगी पर या संसार पर
प्रभाव ही क्या पड़ेगा? (ऐसी मनोवृत्ति) से दुनिया का कोई भला नहीं होने का।
फिर भी दुःख की मात्रा अधिकाधिक बढ़ती जा रही है।…
योगी कहता है कि तुम्हें इन सबके मूल तक पहुँचना होगा। संसार में दुःख क्यों
है? योगी उत्तर देता है, "हमारी मूर्खता ही इसका कारण है शरीर पर हमारा कोई
नियंत्रण नहीं है। बस, और कुछ नहीं "वह इस दुःख पर (विजय दिलाने में) समर्थ
साधुओं की शिक्षा देता है अगर इस तरह अपने शरीर पर नियंत्रण कर लोगे, तो संसार
का सारा दुःख दूर हो जाएगा। हर अस्पताल यही मनाता होगा कि अधिक से अधिक बीमार
वहाँ आयें। जब भी तुम दान देने की इच्छा करते हो, तो तुम्हारे मन में रहेगा कि
हमेशा तुम्हारी दया का पात्र कोई भिखमंगा रहे। यदि तुम मनाओ, "हे भगवन्, संसार
दयालु लोगों से भरा रहे;" तो तुम्हारा आशय होगा कि संसार भिखमंगों से भी भरा
रहे। संसार दूसरों की भलाई के कार्य से परिपूर्ण रहे-संसार दुःखपूर्ण रहे। यह
निरी गुलामी है !
…योगी के अनुसार यदि तुम दुःख का मूल कारण जान जाओ, तो धर्म व्यावहारिक है।
संसार के समस्त दुःख का मूल इंद्रियाँ हैं। क्या सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र आदि
में कोई रोग है ? वही आग, जो रसोई में काम आती है, बच्चे को जलाती भी है। क्या
यह आग का दोष है ? बलिहारी है अग्नि की! इस बिजली को भी धन्य। वह प्रकाश देती
है!... दोष तुम किस पर मढ़ोगे? पंचभूतों पर नहीं ! संसार ना अच्छा है, न बुरा।
संसार संसार है। अग्नि अग्नि है, यदि तुम उसमें अपनी अंगुली जला लो, तो यह
मूर्खता है। तुम यदि (उससे रसोई बनाओ और इससे अपनी भूख मिटाओ), तो तुम
बुद्धिमान हो। इतना सा ही भेद है। परिस्थितियाँ न अच्छी होती हैं, न बुरी।
व्यष्टि-मानव ही अच्छा या बुरा हो सकता है। संसार को भला या बुरा कहने का
अभिप्राय क्या है ? दुःख और सुख केबल इंद्रियाँ शक्ति मनुष्य के लिए है।
योगियों की धारणा है कि प्रकृति भोग्या और आत्मा भोक्ता है। ये सारे दुःख और
सुख कहाँ हैं ? इंद्रियों में ही! इंद्रियों का संग ही हर्ष-शोक, शीत-उष्ण आदि
को जन्म देता है। यदि हम इंद्रियों को संयम कर सकें और उनके विषय को निर्दिष्ट
कर सकें- इस समय की भांति हम उनके आज्ञाकारी न रहें- वे यदि हमारा आदेश मानें,
हमारे दास बने रहें- तो तुरंत समस्या का समाधान हो जाए। हम इंद्रियों के जाल
में फंसे हैं; वे हमेंशा हमें नचाती हैं और बुद्ध बनाती है।
मान लो, यहाँ दुर्गन्ध है। मेरी नाक से स्पर्श करते ही वह मुझे क्लेश देने
लगेगी। मैं अपनी नाक का गुलाम हूँ। गुलाम न होता, तो कोई परवाह न करता। कोई
मुझे गाली देता है। उसकी गालियाँ कानों से प्रविष्ट हो मेरे मन और शरीर में
स्थिर हो जाती है, वहीं जमी रहती है। मैं यदि स्वामी हूँ, तो कहूँगा, "इन्हें
छोड़ो; इनसे मेरा कुछ नहीं बिगड़ने का ! मैं परेशान नहीं। मैं निश्चिंत हूँ।"
यह सीधा, सच्चा स्पष्ट सत्य है।
दूसरी समस्या, जो सुलझानी है, यह है : क्या यह व्यावहारिक है ? मानव अपने शरीर
पर नियंत्रण पा सकेगा? योग इसे व्यावहारिक-यत्न साध्य कहता है...मान लो, ऐसा
नहीं है, मन में कुछ संदेह है। तुम्हें इस दिशा में प्रयत्न करना होगा। कोई
दूसरा उपाय नहीं है। ...
तुम लोक हितकारी कार्य सदा करते रहो। तब भी, तुम अपनी इंद्रियों के दास रहोगे,
परेशान रहोगे, दुःखी रहोगे। तुम हर धर्म के दर्शन का अध्ययन कर सकते हो। यहाँ
के निवासी बोझ की बोझ पुस्तकें अपनी पीठ पर ढोते फिरते हैं। वे मात्र
शास्त्रज्ञ हैं, इंद्रियों के दास हैं, इसलिए एक साथ ही सुखी और दुःखी हैं। वे
दो हज़ार पोथियाँ पढ़ते हैं, सो ठीक है। लेकिन थोड़ा भी दुःख सिर पर पड़ गया,
तो वे बेचैन, आतुर हो उठते हैं।... तुम अपने को मानव कहते हो? तुम उद्यत होते
हो... और अस्पताल आदि बनवाते हो। तुम मूर्ख हो !
पशु और मनुष्य में भेद क्या है ?... आहार, (निद्रा), भय और प्रजनन आदि समान
रूप से दोनों में पाये जाते हैं। भेद इतना ही है कि मनुष्य इन सबका नियंत्रण
कर सकता है और वह ईश्वर-प्रभु बन सकता है। पशु यह नहीं कर पाते। पशु परोपकार
कर सकते हैं। चीटियाँ परोपकार करती हैं, कुत्ते भी करते हैं। ऐसी दशा में फिर
भेद कहाँ! मानव अपना प्रभु स्वयं हो सकता है। वे वासनाजन्य कोई भी विकार रोक
सकते हैं।... यह बात पशु के वश की नहीं रहती। चारों ओर वह... स्वभाव की
श्रृंखला से जकड़ा है। इतना ही अंतर है एक अपने स्वभाव का स्वामी और दूसरा
अपने स्वभाव का दास। स्वभाव है क्या? पांच इंद्रियाँ ही स्वभाव है।...
योगशास्त्र के अनुसार (अंतःचित्तवृत्ति पर विजय ही) एकमात्र उपाय है।...
.ईश्वर को पाने की उत्कट अभिलाषा ही धर्म है... लोकहितैषी कार्य आदि केवल मन
को किचित् शांत (भर) करते हैं ! यह योग-साधना-पूर्ण बनना-पूर्णतया हमारे अतीत
पर आश्रित है। मैं जीवन भर अध्ययन करता रहा हूँ और अब तक योड़ी सी ही प्रगति
कर पाया हूँ। लेकिन जो फल प्राप्त हुए हैं, उनसे विश्वास हो गया है कि यही
एकमात्र सच्चा मार्ग है। वह दिन दूर नहीं, जब मैं अपना स्वामी स्वयं बन
जाऊँगा। इस जन्म में न सही, (अगले जन्म में) ही सही। मैं लगातार संघर्ष जारी
रखूंगा, हार नहीं मानूंगा कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता। यदि इसी क्षण मैं देह छोड़
दूं, तो मेरे पिछले सारे संघर्ष मेरी सहायता करेंगे। क्या तुम्हें जन जन के
बीच अंतर उत्पन्न करनेवाली शक्तियों का पता नहीं है? यह उनका प्रारब्ध है।
अतीत के संस्कार एक को प्रतिभाशाली और दूसरे को मूर्ख बनाते हैं। तुम अतीत के
संस्कार के बल पर पांच मिनट में सफल हो सकते हो। क्षण भर में क्या घटित हो
सकता है, कोई नहीं बता सकता। हम सबको कभी न कभी (पूर्णत्व) प्राप्त करना ही
है।
योगी जो हमें व्यावहारिक पाठों की शिक्षा देता है, उसका अधिकांश मन, एकाग्रता
एवं ध्यान से संबंध रखता है।... हम इतना अधिक भौतिकवादी बन गए हैं। हम जब कभी
अपने ऊपर विचार करते हैं, तो हमें शरीर ही शरीर दृष्टिगोचर होता है। शरीर ही
हमारा आदर्श हो गया है और कुछ भी नहीं। अतः किसी सीमा तक भौतिक सहायता
अनिवार्य है।...
पहली बात है, स्थिर होकर उस आसन में बैठना, जिसमें देर तक निश्चल बैठे रह सको।
सभी सक्रिय नाड़ी-प्रवाह मेरुदंड के माध्यम से संचालित है। मेरुदंड शरीर का
स्थूल भार वहन करने के लिए नहीं है। अतः आसन ऐसा होना चाहिए, जिससे शरीर का
बोझ मेरुदंड पर न पड़े। सभी प्रकार के दबाव से उसे मुक्त रखना चाहिए।
कुछ और भी प्रारंभिक बातें हैं। खान-पान तथा व्यायाम का मुख्य प्रश्न है।...
खान-पान सादा हो और दिन में दो-एक बार की अपेक्षा, कई बार उसका सेवन हो। भूख
कभी भी ज़्यादा तेज़ न हो। 'न तो बहुत खानेवाला योगी हो सकता है और न बहुत अनशन
करनेवाला न अति शयन करनेवाला योगी बन सकता है और न तो अत्यंत जागनेवाला ही'।
कर्मशून्यता और कर्म की गति भी इसमें सहायक नहीं होती। योग सिद्धि के लिए
युक्ताहार, युक्तचेष्टा और युक्तस्वप्नाव-बोधता अति आवश्यक है।
युक्त आहार क्या है, उसका भेद क्या है, आदि का निर्णय स्वयं हमें करना होगा।
हमारे लिए दूसरा कोई इसका निर्णय नहीं कर सकता। साधारणतया हमें उत्तेजक आहार
से दूर रहना चाहिए।... अपने व्यवसाय के अनुरूप अपने आहार में अपेक्षित
परिवर्तन करना हम नहीं जानते हम यह सदैव भूल जाते हैं कि जो कुछ हमारे पास है,
उस सबका निर्माण अन्न से ही होता है। अतः हमारे लिए ईप्सित शक्ति के
प्रकार-परिणाम का स्वरूप खाद्यान्न ही स्थिर करेगा।…
अत्यंत वेगयुक्त व्यायाम कदापि आवश्यक नहीं है। तुम पेशी प्रधान शरीर चाहते
हो, तो तुम्हारे लिए योग नहीं है। अभी जैसा शरीर तुम्हारे पास है, उसकी
अपेक्षा कहीं सूक्ष्म शरीर की रचना तुमको करनी होगी। वेगयुक्त व्यायाम निसंदेह
हानिकारक हैं।... जो अत्यधिक व्यायाम नहीं करते, उनके साथ रहो। यदि तुम इन
व्यायामों से बचोगे, तो तुम्हारी आयु बढ़ेगी। केवल पुट्ठों में ही क्या तुम
अपना जीवन-दीप नष्ट कर देना चाहोगे? बुद्धिजीवी सबसे दीर्घायु होते हैं।
जीवन-दीप को जल्दी न जला डालो, उसे स्थिर और शांत होकर जलने दो।... हर चिंता,
हर वेगपूर्ण व्यायाम-मानसिक या शारीरिक-का अर्थ जीवन-दीप को शीघ्रता से जला
डालना है।
साधारणतः युक्ताहार का अर्थ है-ज़्यादा मसालेदार खाना न खाओ। योगी का कहना है
कि प्रकृति के गुणों के अनुसार मन तीन प्रकार का होता है। एक है तामसी मन, जो
आत्मा के अमर आलोक को ढक लेता है। दूसरा है राजसी, जो क्रियाशीलता बढ़ती है।
तीसरा है सात्त्विक, जो स्थिरता और शांति का मूल है।
कुछ लोगों की अत्यधिक सोने की प्रवृत्ति जन्म से ही होती है। उनकी रुचि सड़ते
हुए पनीर जैसे सड़े-गले आहार के प्रति होती है।... यह उनकी सहज प्रवृत्ति है।
राजसी प्रकृति वालों की रुचि तीखे और चरपरे पदार्थों, तेज़ शराब आदि के प्रति
होती है।...
सात्त्विकी प्रकृति वाले, अत्यंत विचारशील, स्थिर एवं शांत प्रकृति के होते
हैं। वे मिताहारी होते हैं और कभी भी दूषित आहार ग्रहण नहीं करते। मुझसे बराबर
यह प्रश्न किया जाता है-"मैं मांस खाना छोड़ दें?" मेरे गुरुदेव ने कहा था,
"कोई चीज़ छोड़ने का प्रयत्न तुम क्यों करते हो ? वही तुम्हें छोड़ देगी।
प्रकृति का कोई पदार्थ त्याज्य नहीं है। अपने को इतना तीव्र बना लो कि प्रकृति
स्वयं ही तुम्हें त्याग दे। एक समय आयेगा, जब कि तुमसे मांस खाते नहीं बनेगा।
उसे सामने देखते ही तुम घिना जाओगे। और भी ऐसा समय आयेगा कि आज तुम जो जो
चीज़ें छोड़ने के लिए संघर्ष कर रहे हो, वे ही अरुचिकर ही नहीं, घिनौनी लगने
लगेगी।
अब, प्राणायाम के कई विधान हैं। एक विधान के तीन भाग हैं-सांस लेना, साँस रोके
रहना-बिना श्वास लिए निश्चेष्ट रहना-और साँस निकालना। प्राणायाम के कुछ प्रयोग
कठिन ज़रूर है, और उचित्त आहार-सेवन के अभाव में कुछ जटिल क्रियाओं की साधना
खतरे से खाली नहीं है। सरल क्रियाओं की अपेक्षा मैं इन जटिल क्रियाओं की साधना
में रुचि लेने की सलाह तुमको नहीं दूँगा।
लंबी सांस लो एवं फेफड़ों को फुलाओ। धीमे धीमे श्वास बाहर फेंको। एक नथुने से
साँस खींचो और फेफड़ों को भरो। दूसरे नथने से उसे धीमें-धीमें बाहर फेंको।
हममें से कुछ लोग सांस भी उचित्त मात्रा में नहीं ले पाते हैं। कुछ सज्जन
फेफड़ों को ठीक रूप में भर नहीं पाते इस श्वास-प्रश्वास-क्रिया से यह कमी कुछ
हद तक दूर होगी। प्रातः आध घंटे, सायंकाल आध घंटे, यह प्रयोग जारी रखो, तो
तुम्हारा व्यक्तित्व ही बदल जाएगा। यह प्राणायाम हानिप्रद नहीं है। अन्य
क्रियाओं की साधना बहुत मंद गति से होनी चाहिए। पहले अपनी शक्ति का अनुमान
करो। यदि दस मिनट अधिक लगें तो पाँच ही मिनट सही।
योगी से आशा की जाती है कि वह अपना शरीर स्वस्थ रखे। प्राणायाम के ये विभिन्न
विधान शरीर के अवयवों को व्यवस्थित रखने में बड़े सहायक हैं। सभी भाग
प्राणवायु से प्लावित है। प्राण के सहारे ही हम उन अवयवों को वश में रख सकते
है। अवयवों में उत्पन्न असंतुलन को उनकी ओर प्राणवायु-तरंगें अधिक प्रेषित
करके ठीक कर सकते हैं। जब शरीर में कहीं पीड़ा हो, तो योगी को यह बताने में
समर्थ होना चाहिए कि वह प्राण की कमी से हुई आधिक्य से। योगी को उसका संतुलन
करना होगा।
योग-साधना की (सफलता के लिए) दूसरी शर्त ब्रह्मचर्य है। सभी साधनों की यही
आधारशिला है। विवाहित हो या अविवाहित पूर्ण रूप से ब्रह्मचारी होना चाहिए। यह
लंबा विषय ज़रूर है, लेकिन मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ: इस पर सार्वजनिक रूप
से चर्चा इस देश की प्रकृति के अनुकूल नहीं है। पश्चिमी राष्ट्रों में
प्रचारकों के रूप में ऐसे खतरनाक सज्जनों की संख्या कम नहीं है, जो स्त्री
पुरुषों में यह प्रचार करते हैं कि ब्रह्मचर्य हानिकारक है। ऐसी बातें उन्हें
कहाँ से सूक्ष्म हैं ? हर साल हज़ारों आदमी यही एक प्रश्न लेकर मेरे पास आते
हैं। किसी ने उनसे कह रखा है कि ब्रह्मचर्य शारीरिक स्वास्थ्य को हानि
पहुंचाता है। ये प्रचारक यह जान कैसे गए? वे ब्रह्माचारी रहे हैं ? ये लंपट,
अपवित्र, कामुक जीव सारे संसार को अपनी (सतह) पर खींच ले आना चाहते हैं ! ...
त्याग के बिना कोई सिद्धि संभव नहीं है।..: त्याग मानवीय चेतना का पवित्रतम,
सर्वोत्तम साधन है, उसे अपवित्र न बनाओ... उसे पशु-स्तर पर घसीटो नहीं।...अपने
को भद्र पुरुष बनने... शीलवान और पवित्र रहो।... दूसरा कोई चारा नहीं है। ईसा
मसीह ने दूसरा कौन मार्ग ढूँढ निकाला था? यदि तुम समुचित्त रीति से शक्ति का
संचय और विनिमय सीखो, तो वही ईश्वर तक पहुँचायेगा। यह विपरीत हो जाए, तो उसे
नरक ही जानो।…
बाह्य स्तर पर कुछ कर दिखाना आसान है, लेकिन दुनिया का महान से महान विजेता भी
अपने मन पर विजय पाने के प्रयास में अपने को शिशु अनुभव करता है। इसी जगत् को
उसे जीतना है जो बहुत बड़ा और कठिनता से जीता जा सकनेवाला है। निराश न होओ!उत्तिष्ठत, जाग्रत , प्राप्य वरान्निबोधत।…
मन की शक्तियाँ
(८ जनवरी
,
१९०० ई० को लॉस एंजिलिस
,
कैलिफोर्निया में दिया हुआ भाषण)
सारे युगों से, संसार के सब लोगों का अलौकिकता में विश्वास चला आ रहा है। हम
सभी ने अनेक अद्भुत चमत्कारों के बारे में सुना है और कुछ ने उनका स्वयं अनुभव
भी किया है। इस विषय का प्रारंभ आज मैं स्वयं देखी हुई घटनाओं को बतलाकर
करूंगा। मैंने एक बार ऐसे मनुष्य के बारे में सुना, जो किसी के मन के प्रश्न
का उत्तर प्रश्न सुनने के पहले ही बता देता था। और मुझे यह भी बतलाया गया कि
वह भविष्य की बातें भी बताता है। मुझे उत्सुकता हुई और अपने कुछ मित्रों के
साथ मैं वहाँ पहुँचा। हममें से प्रत्येक ने पूछने का प्रश्न अपने मन में सोच
रखा था। और गलती न हो, इसलिए हमने वे प्रश्न कागज़ पर लिखकर जेब में रख लिये
है। ज्यों ही हममें से एक को उसने देखा, त्यों ही उसने हमारे प्रश्न और उनके
उत्तर देना शुरू कर दिया! फिर उस मनुष्य ने कागज़ पर कुछ लिखा, उसे मोड़ा और
उसके पीछे मुझे हस्ताक्षर करने के लिए कहा, और बोला, "इसे पढ़ो मत, जेब में रख
लो, जब तक कि मैं इसे फिर न माँगू।" इस तरह उसने हर एक से कहा। बाद में उसने
हम लोगों को हमारे भविष्य की कुछ बातें बतलायीं। फिर उसने कहा, "अब किसी भी
भाषा का कोई शब्द या वाक्य तुम लोग अपने मन में सोच लो।" मैंने संस्कृत का एक
लंबा वाक्य सोच लिएा। वह मनुष्य संस्कृत बिल्कुल न जानता था। उसने कहा, "अब
अपने जेब का काग़ज़ निकालो।" कैसा आश्चर्य! वही संस्कृत का वाक्य उस काग़ज़ पर
लिखा था ! और नीचे यह भी लिखा था कि 'जो कुछ मैंने इस काग़ज़ पर लिखा है, वही
यह मनुष्य सोचेगा। और यह बात उसने एक घंटा पहले ही लिख दी थी! फिर हममें से
दूसरे को, जिसके पास भी उसी तरह का एक दूसरा काग़ज़ था, कोई एक वाक्य सोचने को
कहा गया। उसने अरबी भाषा का एक वाक्य सोचा। अरबी भाषा का जानना तो उसके लिए और
भी असंभव था। वह वाक्यांश था क़ुरान शरीफ़ का। लेकिन मेरा मित्र क्या देखता है
कि वह भी काग़ज़ पर लिखा है।
हममें से तीसरा था डॉक्टर। उसने किसी जर्मन भाषा का वाक्य अपने मन में सोचा।
उसके काराज पर वह वाक्य भी लिखा था।
यह सोचकर कि कहीं पहले मैं भ्रम में न रहा हूँ, कई दिनों बाद मैं फिर से
मित्रों को साथ लेकर वहाँ गया। लेकिन इस बार भी उसने वैसी ही आश्चर्यजनक सफलता
पायी।
एक बार जब मैं हैदराबाद में था, तो मैंने एक ब्राह्मण के विषय में सुना। यह
मनुष्य न जाने कहाँ से अनेक वस्तुएँ उत्पन्न कर देता था। वह उस शहर का
व्यापारी था, और ऊँचे खानदान का था। मैंने उससे अपने चमत्कार दिखलाने को कहा।
इस समय ऐसा हुआ कि वह मनुष्य बीमार था। भारतवासियों में यह विश्वास है कि अगर
कोई पवित्र मनुष्य किसी के सिर पर हाथ रख दे, तो उसका बुखार उतर जाता है। यह
ब्राह्मण मेरे पास आकर बोला, "महाराज, आप अपना हाथ मेरे सिर पर रख दें, जिससे
मेरा बुखार भाग जाए।" मैंने कहा, "ठीक है, परंतु तुम हमें अपना चमत्कार
दिखलाओ।" वह राजी हो गया। उसकी इच्छानुसार मैंने अपना हाथ उसके सिर पर रखा और
बाद में वह अपना वचन पूरा करने को आगे बढ़ा। वह अपनी कमर में केवल एक छोटा सा
चिथड़ा पहने था। उसके अन्य सब कपड़े हमने अपने पास रख लिये थे। अब मैंने उसे
केवल एक कंबल ओढ़ने के लिए दिया, क्योंकि ठंड के दिन थे, और उसे एक कोने में
बिठा दिया। पचास आँखें उसकी ओर ताक रही थीं। उसने कहा, "अब आप लोगों को जो कुछ
चाहिए, वह काग़ज़ पर लिखिए।" हम सब लोगों ने उन फलों के नाम लिखे, जो उस
प्रांत में पैदा तक न होते थे-अंगूर के गुच्छे, संतरे इत्यादि। और हमने वे
काग़ज़ उसके हाथ में दे दिए। कैसा आश्चर्य ! उसके कंबल में से अंगूर के गुच्छे
तथा संतरे आदि इतनी संख्या में निकले कि अगर वज़न किया जाता, तो वे सब उस आदमी
के वज़न से दुगुने होते ! उसने हमसे उन फलों को खाने के लिए कहा। हममें से कुछ
लोगों ने यह सोचकर कि शायद यह सम्मोहन हो, खाने से आपत्ति की। लेकिन जब उस
ब्राह्मण ने ही खुद खाना शुरू कर दिया, तो हमने भी खाया। वे सब फल खाने योग्य
ही थे।
अंत में उसने गुलाब के ढेर निकाले। हर एक फूल पूरा खिला था। पंखुड़ियों पर
ओस-बिंदु थे। कोई भी फूल न तो टूटा था और न दबकर ख़राब ही हुआ था। और उसने ऐसे
एक-दो नहीं, वरन् ढेर के ढेर निकाले। जब मैंने पूछा कि यह कैसे किया, तो उसने
कहा, "यह सिर्फ हाथ की सफ़ाई है !" यह चाहे जो कुछ था, परंतु केवल 'हाथ की
सफ़ाई' होना तो असंभव था। इस बड़ी संख्या में वह ये चीज़ें कहाँ से पा सकता था?
हाँ, तो मैंने इसी तरह की अनेक बातें देखीं। भारतवर्ष में घूमते समय भिन्न
भिन्न स्थानों में तुम्हें ऐसी सैकड़ों बातें दिखेंगी। ये चमत्कार सभी देशों
में हुआ करते हैं। इस देश में भी इस तरह के आश्चर्यजनक काम देखोगे। हाँ, यह सच
है कि इनमें अधिकांश चालबाज़ी होती है परंतु जहाँ तुम चालबाज़ी देखते हो, वहाँ
तुम्हें यह भी मानना पडता है कि यह किसी की नक़ल है। कहीं न कही कोई सत्य होना
चाहिए, जिसकी यह नक़ल की जा रही है। असत्य की कोई नकल नहीं कर सकता। किसी सत्य
वस्तु की ही नक़ल की जा सकती है।
प्राचीन समय में हज़ारों वर्ष पूर्व ऐसी बातें आज की अपेक्षा और भी अधिक परिमाण
में हुआ करती थीं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जब किसी देश की आबादी घनी होने
लगती है, तो मानसिक बल का ह्रास होने लगता है। जो देश विस्तृत है और जहाँ लोग
बिरले बसे होते हैं, वहाँ शायद मानसिक बल अधिक होता है। विश्लेषणप्रिय होने के
कारण हिंदुओं ने इन विषयों को लेकर उनके संबंध में अन्वेषण किया और वे कुछ
मौलिक सिद्धांतों पर जा पहुँचे, अर्थात् उन्होंने इन बातों का एक शास्त्र ही
बना डाला। उन्होंने यह अनुभव किया कि ये बातें यद्यपि असाधारण हैं, तथापि हैं
प्राकृतिक ही, अलौकिक नहीं हैं। अलौकिक नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। ये बातें
भी ठीक वैसी ही नियमबद्ध हैं, जैसी भौतिक जगत् की अन्यान्य बातें। यह निसर्ग
की कोई सनक नहीं कि एक मनुष्य इन सामर्थ्यों को साथ लेकर जन्म लेता हो। इन
शक्तियों के संबंध में नियमित रूप से अध्ययन किया जा सकता है, इनका अभ्यास
किया जा सकता है और ये शक्तियाँ अपने में उत्पन्न की जा सकती हैं। इस शास्त्र
को वे लोग 'राजयोग' कहते हैं। भारतवर्ष में ऐसे हज़ारों मनुष्य हैं, जो इस
शास्त्र का अध्ययन करते हैं, और यह संपूर्ण राष्ट्र के लिए दैनिक उपासना का एक
अंग बन गया है।
वे लोग जिस सिद्धांत पर पहुँचे हैं, वह यह है कि यह सारा अद्भुत सामर्थ्य
मनुष्य के मन में अवस्थित है। मनुष्य का मन समष्टि-मन का अंश मात्र है।
प्रत्येक मन दूसरे प्रत्येक मन से संलग्न है। और प्रत्येक मन, वह चाहे जहाँ
रहे, संपूर्ण विश्व के साथ संबद्ध है।
क्या तुम लोगों ने उस मानसिक व्यापार को देखा है, जिसे विचार-संक्रमण
(thought-transference) कहा जाता है। यहाँ एक मनुष्य कुछ विचार करता है और वह
विचार अन्यत्र किसी दूसरे मनुष्य में प्रकट हो जाता है। एक मनुष्य अपने विचार
दूसरे मनुष्य के पास भेजना चाहता है, इस दूसरे मनुष्य को यह मालूम हो जाता है
कि इस तरह का संदेश उसके पास आ रहा है। वह उस संदेश को ठीक उसी रूप में ग्रहण
करता है, जिस रूप में वह भेजा गया था। साधनाओं से यह बात सिद्ध होती है। यह
केवल आकस्मिक घटना नहीं है। दूरी के कारण कुछ अंतर नहीं पड़ता। यह संदेश उस
दूसरे मनुष्य तक पहुँच जाता है और वह दूसरा मनुष्य उसे समझ लेता है। अगर
तुम्हारा मन एक पृथक् वस्तु होता, जो वहाँ विद्यमान है, और मेरा मन एक पृथक्
वस्तु होता, जो यहाँ विद्यमान है, और इन दोनों मनों में यदि कोई संबंध न होता,
तो मेरे विचार तुम्हारे पास कैसे पहुँच पाते ? सर्वसाधारण व्यवहार में, मेरा
विचार सीधा तुम्हारे पास नहीं पहुँचता; पर प्रथम, मेरे विचार को आकाशतत्व के
स्पंदनों में परिणत होना पड़ता है। ये स्पंदन फिर तुम्हारे मस्तिष्क में
पहुँचते हैं। वहाँ फिर से इन स्पंदनों का तुम्हारे अपने विचार में रूपांतर
होता है। और इस तरह मेरा विचार तुम्हारे पास पहुँचता है। यहाँ पहले विचार
विघटित होकर आकाश-तत्व में मिल जाता है और फिर वही विचार वहाँ संघटित हो जाता
है--यह एक चक्राकार प्रक्रिया है। परंतु दूर-संवेदन (telepathy) में इस तरह की
कोई चक्राकार क्रिया नहीं होती; इसमें मेरा विचार सीधा सीधा तुम्हारे पास
पहुँच जाता है।
इससे स्पष्ट है कि मन एक अखंड वस्तु है, जैसा कि योगी कहते हैं। मन
विश्वव्यापी है। तुम्हारा मन, मेरा मन, ये सब विभिन्न मन उस समष्टि-मन के अंश
मात्र हैं, मानो समुद्र पर उठनेवाली छोटी छोटी लहरें हैं; और इस अखंडता के
कारण ही हम अपने विचारों को एकदम सीधे, बिना किसी माध्यम के, आपस में संक्रमित
कर सकते हैं।
हमारे आसपास दुनिया में क्या हो रहा है, यह तो तुम देख ही रहे हो। अपना प्रभाव
चलाना, यही दुनिया है। हमारी शक्ति का कुछ अंश तो हमारे शरीर-धारण के उपयोग
में आता है, और शेष का प्रत्येक कण दूसरों पर अपना प्रभाव डालने में रात-दिन
व्यय होता रहता है। हमारे शरीर, हमारे गुण, हमारी बुद्धि तथा हमारा आत्मिक बल-
ये सब लगातार दूसरों पर प्रभाव डालते आ रहे हैं। इसी प्रकार, उल्टे रूप में,
दूसरों का प्रभाव हम पर पड़ता चला आ रहा है। हमारे आसपास यही चल रहा है। एक
स्थूल उदाहरण लो। एक मनुष्य तुम्हारे पास आता है, वह खुब पढ़ा-लिखा है, उसकी
भाषा भी सुंदर है, वह तुमसे एक घंटा बात करता है, फिर भी वह अपना असर नहीं
छोड़ जाता। दूसरा मनुष्य आता है। वह इने-गिने शब्द बोलता है। शायद वे व्याकरण
शुद्ध और व्यवस्थित भी नहीं होते, परंतु फिर भी वह खूब असर कर जाता है। यह तो
तुममें से बहुतों ने अनुभव किया होगा। इससे स्पष्ट है कि मनुष्य पर जो प्रभाव
पड़ता है, वह केवल शब्दों द्वारा ही नहीं होता। शब्द, यही नहीं, विचार भी,
शायद प्रभाव का एक-तृतीयांश ही उत्पन्न करते होंगे, परंतु शेष दो-तृतीयांश
प्रभाव तो उसके व्यक्तित्व का ही होता है। जिसे तुम वैयक्तिक चुंबक कहते हो,
वही प्रकट होकर तुमको प्रभावित कर देता है।
हम लोगों के कुटुंबों में मुख्य संचालक होते हैं। इनमें से कोई कोई संचालक घर
चलाने में सफल होते हैं, परंतु कोई नहीं। ऐसा क्यों ? जब हमें असफलता मिलती
है, तो हम दूसरों को कोसते हैं। ज्यों ही मुझे असफलता मिलती है, त्यों ही में
कह उठता हूँ कि अमुक अमुक मेरी असफलता के कारण हैं। असफलता आने पर मनुष्य अपनी
कमज़ोरी और अपने दोष को स्वीकार करना नहीं चाहता। प्रत्येक मनुष्य यह दिखलाने
की कोशिश करता है कि वह निर्दोष है; और सारा दोष वह किसी मनुष्य पर, किसी
वस्तु पर, और अंततः दुर्भाग्य पर मढ़ना चाहता है। जब घर का प्रमुखकर्ता असफल
हो, तो उसे स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि कुछ लोग अपना घर किस प्रकार
इतनी अच्छी तरह चला सकते हैं तथा दूसरे क्यों नहीं। तब तुम्हें पता चलेगा कि
यह अंतर उस मनुष्य के ही कारण है--उस मनुष्य के व्यक्तित्व के कारण ही यह अंतर
पड़ता है।
मनुष्य जाति के बड़े बड़े नेताओं की बात यदि ली जाए, तो हमें सदा यही दिखलायी
देगा कि उनका व्यक्तित्व ही उनके प्रभाव का कारण था। अब बड़े-बड़े प्राचीन
लेखकों और विचारकों को लो। सच पूछो तो, असल और सच्चे विचार उन्होंने हमारे
सम्मुख कितने रखे हैं? अतीतकालीन नेताओं ने जो कुछ लिख छोड़ा है, उस पर विचार
करो; उनकी लिखी हुई पुस्तकों को देखो और प्रत्येक का मूल्य आँको। असल, नये और
स्वतंत्र विचार, जो अभी तक इस संसार में सोचे गए हैं, केवल मुट्ठी भर ही हैं।
उन लोगों ने जो विचार हमारे लिए छोड़े हैं, उनको उन्हीं की पुस्तकों में से
पढ़ो, तो वे हमें कोई दिग्गज नहीं प्रतीत होते, परंतु फिर भी हम यह जानते हैं
कि अपने समय में वे दिग्गज व्यक्ति थे। इसका कारण क्या है ? वे जो बहुत बड़े
प्रतीत होते थे, वह केवल उनके सोचे हुए विचारों या उनकी लिखी हुई पुस्तकों के
कारण नहीं था, और न उनके दिए हुए भाषणों के कारण ही था, वरन् किसी एक दूसरी ही
बात के कारण, जो अब निकल गयी है, और वह है उनका व्यक्तित्व। जैसा मैं पहले कह
चुका हूँ, व्यक्तित्व दो-तृतीयांश होता है, और शेष एक-तृतीयांश होता है-मनुष्य
की बुद्धि और उसके कहे हुए शब्द। सच्चा मनुष्यत्व या उसका व्यक्तित्व ही वह
वस्तु है, जो हम पर प्रभाव डालती है। हमारे कर्म हमारे व्यक्तित्व की बाह्य
अभिव्यक्ति मात्र हैं। प्रभावी व्यक्तित्व कर्म के रूप से प्रकट होगा ही-कारण
के रहते हुए कार्य का आविर्भाव अवश्यम्भावी है।
सारी शिक्षा तथा समस्त प्रशिक्षण का एकमेंव उद्देश्य मनुष्य का निर्माण होना
चाहिए। परंतु हम यह न करके केवल बहिरंग पर ही पानी चढ़ाने का सदा प्रयत्न किया
करते हैं। जहाँ व्यक्तित्व का ही अभाव है, वहाँ सिर्फ़ बहिरंग पर पानी चढ़ाने
का प्रयत्न करने से क्या लाभ ? सारी शिक्षा का ध्येय है मनुष्य का विकास। वह
मनुष्य, जो अपना प्रभाव सब पर डालता है, जो अपने संगियों पर जादू सा कर देता
है, शक्ति का एक महान केंद्र है, और जब वह मनुष्य तैयार हो जाता है, वह जो
चाहे कर सकता है। यह व्यक्तित्व जिस वस्तु पर अपना प्रभाव डालता है, उसी वस्तु
को कार्यशील बना देता है।
अब हम देखते हैं कि यद्यपि यह बात सच है, तथापि कोई भी भौतिक सिद्धांत, जो
हमें ज्ञात है, इसकी व्याख्या नहीं कर सकता। रासायनिक या भौतिक ज्ञान इसकी
व्याख्या कैसे कर सकता है ? कितनी ओषजन (oxygen), कितनी उद्जन वायु
(hydrogen), कितना कोयला (carbon) या कितने परमाणु और उनकी कितनी विभिन्न
अवस्थाएँ, उसमें विद्यमान कितने कोष (cells) इत्यादि इस गूढ़ व्यक्तित्व का
स्पष्टीकरण कर सकते हैं ? फिर भी हम देखते हैं कि यह व्यक्तित्व एक सत्य है,
इतना ही नहीं, बल्कि यही प्रकृत मानव है। यही मनुष्य की सब क्रियाओं को
अनुप्राणित करता है, सभी पर प्रभाव डालता है, संगियों को कार्य में प्रवृत्त
करता है तथा उस व्यक्ति के लय के साथ विलीन हो जाता है। उसकी बुद्धि, उसकी
पुस्तक और उसके किए हुए कार्य--ये सब तो केवल पीछे रह गए कुछ चिह्न मात्र हैं।
इस बात पर विचार करो। इन महान धर्माचार्यों की बड़े-बड़े दार्शनिकों के साथ
तुलना करो। इन दार्शानिकों ने बड़ी आश्चर्यजनक पुस्तकें लिख डाली हैं, परंतु
फिर भी शायद ही किसी के अंतर्मानव को-व्यक्तित्व को उन्होंने प्रभावित किया
हो। इसके विपरीत, महान धर्माचार्यों को देखो; उन्होंने अपने जीवन-काल में सारे
देश को हिला दिया था। व्यक्तित्व ही था वह, जिसने यह अंतर पैदा किया।
दार्शनिकों में यह प्रभाव डालनेवाला व्यक्तित्व, किंचिन्मात्र होता है, और
महान धर्मसंस्थापकों का वही व्यक्तित्व प्रचंड होता है। प्रथम में बुद्धि तथा
दूसरे में जीवन होता है। पहला मानो केवल एक रासायनिक प्रक्रिया है, जिसके
द्वारा कुछ रासायनिक उपादान एकत्र होकर आपस में धीरे-धीरे संयुक्त हो जाते हैं
और अनुकूल परिस्थिति होने से या तो उनमें से प्रकाश की दीप्ति प्रकट होती है,
या वे असफल ही हो जाते हैं। दूसरा एक जलती हुई मशाल के सदृश है, जो शीघ्र ही
एक के बाद दूसरे को प्रज्ज्वलित करता है।
योगशास्त्र यह दावा करता है कि उसने उन नियमों को ढूँढ निकाला है, जिनके
द्वारा इस व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है। इन नियमों तथा उपायों की ओर
ठीक ठीक ध्यान देने से मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और उसे
शक्तिशाली बना सकता है। महत्वपूर्ण व्यवहारोपयोगी बातों में यह भी एक है और
समस्त शिक्षा का यही रहस्य है। इसकी उपयोगिता सार्वदेशीय है। चाहे वह गृहस्थ
हो, चाहे ग़रीब, अमीर, व्यापारी या धार्मिक--सभी के जीवन में व्यक्तित्व को
शक्तिशाली बनाना ही एक महत्व की बात है। ऐसे अनेक सूक्ष्म नियम हैं, जो, हम
जानते हैं, इन भौतिक नियमों के परे है। मतलब यह कि भौतिक जगत्, मानसिक जगत् या
आध्यात्मिक जगत्-इस तरह की कोई नितांत स्वतंत्र सत्ताएँ नहीं हैं। जो कुछ है,
सब एक तत्व है। या हम यों कहेंगे कि यह सब एक ऐसी शुंडाकार वस्तु है, जो यहाँ
पर स्थूल है और जैसे जैसे यह ऊँची चढ़ती है, वैसे ही वैसे वह सूक्ष्म होती
जाती है; सूक्ष्मतम को हम आत्मा कहते हैं और स्थूलतम को शरीर। और जो कुछ छोटे
प्रमाण में इस शरीर में है, वही बड़े प्रमाण में विश्व में है। जो पिंड में
है, वही ब्रह्मांड में है। यह हमारा विश्व ठीक इसी प्रकार का है। बहिरंग में
स्थूल घनत्व है और जैसे-जैसे यह ऊँचा चढ़ता है, वैसे वैसे वह सूक्ष्मतर होता
जाता है और अंत में परमेश्वर रूप बन जाता है।
हम यह भी जानते हैं कि सबसे अधिक शक्ति सूक्ष्म में है, स्थूल में नहीं। एक
मनुष्य भारी वज़न उठाता है। उसकी पेशियाँ फूल उठती हैं और संपूर्ण शरीर पर
परिश्रम के चिह्न दिखने लगते हैं। हम समझते हैं कि पेशियाँ बहुत शक्तिशाली
वस्तु हैं। परंतु असल में जो पेशियों को शक्ति देती हैं, वे तो धागे के समान
पतली नाड़ियाँ (nerves) हैं। जिस क्षण इन तंतुओं में से एक का भी संबंध
पेशियों से टूट जाता है, उसी क्षण वे पेशियाँ बेकाम हो जाती हैं। ये छोटी-
छोटी नाड़ियाँ किसी अन्य सूक्ष्मतर वस्तु से अपनी शक्ति ग्रहण करती हैं, और वह
सूक्ष्मतर वस्तु फिर अपने से भी अधिक सूक्ष्म विचारों से शक्ति ग्रहण करती है।
इसी तरह यह क्रम चलता रहता है। इसलिए वह सूक्ष्म तत्व ही है, जो शक्ति का
अधिष्ठान है। स्थूल में होनेवाली गति हम अवश्य देख सकते हैं, परंतु सूक्ष्म
में होनेवाली गति हम देख नहीं सकते। जब स्थूल वस्तुएँ गति करती हैं, तो हमें
उनका बोध होता है और इसलिए हम स्वाभाविक ही गति का संबंध स्थल से जोड़ देते
हैं; परंतु वास्तव में सारी शक्ति सूक्ष्म में ही है। सूक्ष्म में होनेवाली
गति हम देख नहीं सकते। शायद इसका कारण यह है कि वह गति इतनी गहरी होती है कि
हम उसका अनुभव ही नहीं कर सकते। परंतु यदि कोई शास्त्र या कोई शोध इन सूक्ष्म
शक्तियों के ग्रहण करने में सहायता दे, तो यह व्यक्त विश्व ही, जो इन शक्तियों
का परिणाम है, हमारे अधीन हो जाएगा। पानी का एक बुलबुला झील के तल से निकलता
है, वह ऊपर आता है, परंतु हम उसे देख नहीं सकते, जब तक कि वह सतह पर आकर फूट
नहीं जाता। इसी तरह विचार अधिक विकसित हो जाने पर या कार्य में परिणत हो जाने
पर ही देखे जा सकते हैं। हम सदा यही कहा करते हैं कि हमारे कर्मों पर, हमारे
विचारों पर हमारा अधिकार नहीं चलता। यह अधिकार हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
यदि हम सूक्ष्म गतियों पर नियंत्रण कर सकें, और विचार के विचार बनने एवं
कार्यरूप में परिणत होने के पूर्व ही यदि उसको मूल में ही अधीन कर सकें, तो इस
सबको नियंत्रित कर सकना हमारे लिए संभव होगा। अब, अगर ऐसा कोई उपाय हो, जिसके
द्वारा हम इन सूक्ष्म कारणों और इन सूक्ष्म शक्तियों का विश्लेषण कर सकें,
उन्हें समझ सकें, और अंत में अपने अधीन कर सकें, तभी हम स्वयं पर अपना शासन
चला सकेंगे। और जिस मनुष्य का मन उसके अधीन होगा, निश्चय ही वह दूसरों के मनों
को भों अपने अधीन कर सकेगा। यही कारण है कि पवित्रता तथा नैतिकता सदा धर्म के
विषय रहे हैं। पवित्र, सदाचारी मनुष्य स्वयं पर नियंत्रण रखता है। और सारे मन
एक ही है, समष्टि-मन के अंश मात्र हैं। जिसे एक ढेले का ज्ञान हो गया, उसने
दुनिया की सारी मिट्टी जान ली। जो अपने मन को जानता है और स्व-अधीन रख सकता
है, वह हर मन का रहस्य जानता है और हर मन पर अधिकार रखता है।
यदि हम इन सूक्ष्म अंशों को नियंत्रित कर सकें, तो हम अपने शारीरिक कष्टों को
अधिकांश दूर कर सकते हैं; यदि हम सूक्ष्म हलचलों को वश में कर सकें, तो हम
अपनी उलझनों को दूर कर सकते हैं; यदि हम इन सूक्ष्म शक्तियों को अपने अधीन कर
लें, तो अनेक असफलताएँ टाली जा सकती हैं। यहाँ तक तो उपयोगिता के बारे में
हुआ; लेकिन इसके परे और भी कुछ उच्चतर है।
अब मैं तुम्हें एक सिद्धांत बतलाता हूँ, जिसके संबंध में मैं अभी विचारविमर्श
न करूँगा, केवल निष्कर्ष ही तुम्हारे सामने रखूंगा। प्रत्येक मनुष्य अपने
बाल्यकाल में ही उन उन अवस्थाओं को पार कर लेता है, जिनमें से होकर उसका समाज
गुज़रा है। अंतर केवल इतना है कि समाज को उसमें हज़ारों वर्ष लगे हैं, जब कि
बालक कुछ वर्षों में ही उनमें से पार हो जाता है। बालक प्रथम जंगली मनुष्य की
अवस्था में होता है--वह तितली को अपने पैरों तले कुचल डालता है। आरंभ में बालक
अपनी जाति के जंगली पूर्वजों सा होता है। जैसे-जैसे वह बढ़ता है, अपनी जाति की
विभिन्न अवस्थाओं को पार करता जाता है, जब तक कि वह अपनी जाति की उन्नतावस्था
तक पहुँच नहीं जाता। अंतर यही है कि वह तेज़ी से और जल्दी जल्दी पार कर लेता
है। अब संपूर्ण मानव-समाज को या संपूर्ण प्राणिजगत् और मनुष्य तथा निम्न स्तर
के प्राणियों की समष्टि को एक जाति मान लो। एक ऐसा ध्येय है, जिसकी ओर यह
समष्टि बढ़ रही है। उस ध्येय को हम पूर्णत्व नाम दे दें। कुछ पुरुष और महिलाएँ
ऐसी होती हैं, जो मानव-समाज के भविष्यकालीन संपूर्ण विकास की कल्पना पहले ही
कर लेती हैं। संपूर्ण मानव-समाज जब तक उस पूर्णत्व को न पहुँचे, तब तक राह
देखते रहने और पुनः पुनः जन्म लेने की अपेक्षा, वे जीवन के कुछ ही वर्षों में
इन सब अवस्थाओं का अतिक्रमण कर पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाते हैं। और हम जानते
हैं कि इन अवस्थाओं में से हम तेज़ी से आगे बढ़ सकते हैं, यदि हम अपने प्रति
ईमानदार हैं। असंस्कृत मनुष्यों को अगर हम एक द्वीप पर छोड़ दें और उन्हें
कठिनता से पर्याप्त खाने, ओढ़ने तथा रहने को मिले, तो वे धीरे-धीरे उन्नत हो
संस्कृति की एक एक सीढ़ी चढ़ते जायँगे। हम यह भी जानते हैं कि अन्य विशेष
साधनों द्वारा भी इस विकास की गति बढ़ायी जा सकती है। क्या हम वृक्षों के
विकास में मदद नहीं करते ? यदि वे निसर्ग पर छोड़ दिए जाते, तो भी वे बढ़ते,
अंतर यही है कि उन्हें अधिक समय लगता। निसर्गतः लगनेवाले समय से कम समय में ही
उनके विकास के लिए हम मदद पहुँचाते हैं। कृत्रिम साधनों द्वारा वस्तुओं का
विकास तीव्रतर करना--यही हम निरंतर करते आये हैं। तो फिर हम मनुष्य का विकास
शीघ्रतर क्यों नहीं कर सकते ? समस्त जाति के विषय में हम ऐसा कर सकते हैं।
परदेशों में प्रचारक क्यों भेजे जाते हैं ? इसलिए कि इन उपायों द्वारा जाति को
हम शीघ्रतर उन्नत कर सकते हैं। तो, अब क्या हम व्यक्ति का विकास शीघ्रतर नहीं
कर सकते ? अवश्य कर सकते हैं। क्या हम इस विकास की शीघ्रता की कोई मर्यादा
बाँध सकते हैं। यह हम नहीं कह सकते कि एक जीवन में मनुष्य कितनी उन्नति कर
सकता है। ऐसा कहने के लिए तुम्हारे पास कोई आधार नहीं कि मनुष्य केवल इतनी ही
उन्नति कर सकता है, अधिक नहीं। अनुकूल परिस्थिति से उसका विकास आश्चर्यजनक
शीघ्रता से हो सकता है। तो फिर, क्या मनुष्य के पूर्ण विकसित होने के पूर्व
उसके विकास की गति की कोई मर्यादा हो सकती है ? अतएव इस सबका तात्पर्य क्या
है? यही कि मनुष्य इस जन्म में ही पूर्णत्व-लाभ कर सकता है, और उसे इसके लिए
करोड़ों वर्ष तक इस संसार में आवागमन की आवश्यकता नहीं। और यही बात योगी कहते
हैं कि सब बड़े अवतार तथा धर्म-संस्थापक ऐसे ही पुरुष होते हैं। उन्होंने इस
एक ही जीवन में पूर्णत्व प्राप्त कर लिया है। दुनिया के इतिहास के सब कालों
में इस तरह के मनुष्य जन्म लेते आये हैं। अभी कुछ ही दिन पूर्व एक ऐसे
महापुरुष ने जन्म लिया था, जिन्होंने मानव-समाज के संपूर्ण जीवन की विभिन्न
अवस्थाओं का अनुभव अपने इसी जीवन में कर लिया था और जो इसी जीवन में पूर्णत्व
तक पहुँच गए थे। परंतु विकास की यह त्वरित गति भी कुछ नियमों के अनुसार होनी
चाहिए। अब ऐसी कल्पना करो कि इन नियमों को हम जान सकते हैं, उनका रहस्य समझ
सकते हैं और उनको अपनी आवश्यकताएँ पूर्ण करने के लिए उपयोग में ला सकते हैं,
तो यह स्पष्ट है कि इससे हमारा विकास होगा। हम यदि अपनी उन्नति तीव्रतर करें,
अपना विकास तीव्रतर करें, तो इस जीवन में ही हम पूर्ण विकसित हो सकते हैं।
हमारे जीवन का उदात्त अंश यही है, और मन तथा उसकी शक्तियों के अध्ययन का
विज्ञान इस पूर्ण विकास को ही अपना ध्येय मानता है। पैसा और भौतिक वस्तुएँ
देकर दूसरों की सहायता करना तथा उन्हें सुगमता से जीवन-यापन करना सिखलाना ये
सब तो जीवन की केवल गौण बातें हैं।
मनुष्य को पूर्ण विकसित बनाना-यही इस शास्त्र का उपयोग है। युगानुयुग
प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं। जैसे एक काठ का टुकड़ा केवल खिलौना बन
समुद्र की लहरों द्वारा इधर-उधर फेंका जाता रहता है, उसी प्रकार हमें भी
प्रकृति के जड़-नियमों के हाथों खिलौना बनने की आवश्यकता नहीं है। यह विज्ञान
चाहता है कि तुम शक्तिशाली बनो, कार्य को अपने ही हाथ में लो, प्रकृति के
भरोसे मत छोड़ो और इस छोटे से जीवन के उस पार हो जाओ। यही वह उदात्त ध्येय है।
मनुष्य के ज्ञान, शक्ति और सुख की वृद्धि होती जा रही है, हम एक जाति के रूप
में लगातार उन्नति करते जा रहे हैं। हम देखते हैं कि यह सच है, बिल्कुल सच है।
क्या यह प्रत्येक व्यक्ति के विषय में भी सत्य है ? हाँ, कुछ अंश तक सच है।
किंतु फिर वही प्रश्न उठता है कि इसकी सीमा-रेखा कौन सी है? मैं तो केवल कुछ
ही गज दूरी तक देख सकता हूँ; लेकिन मैंने ऐसा मनुष्य देखा है, जो आँख बंद कर
लेता है और फिर भी बता देता है कि दूसरे कमरे में क्या हो रहा है। अगर तुम कहो
कि हम इस पर विश्वास नहीं करते, तो शायद तीन सप्ताह के अंदर वह मनुष्य तुममें
भी वैसा ही सामर्थ्य उत्पन्न कर देगा। यह किसी भी मनुष्य को सिखलाया जा सकता
है। कुछ मनुष्य तो सिर्फ पाँच मिनट के अंदर ही यह जानना सीख सकते हैं कि दूसरे
मनुष्य के मन में क्या चल रहा है। ये बातें प्रत्यक्ष कर दिखलायी जा सकती हैं।
अब यदि यह बात सच है, तो सीमा-रेखा कहाँ पर खींची जा सकती है? अगर मनुष्य कोने
में बैठे हुए दूसरे मनुष्य के मन में क्या चल रहा है, यह जान सकता है, तो वह
दूसरे कमरे में बैठे रहने पर भी क्यों न जान सकेगा, और इतना ही क्यों, कहीं पर
भी बैठकर क्यों न जान सकेगा? हम यह नहीं कह सकते कि ऐसा क्यों नहीं होगा? हम
यह कहने का साहस नहीं कर सकते कि यह असंभव है। हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि
हम नहीं जानते, यह कैसे संभव है। ऐसी बातें होनी असंभव है, ऐसा कहने का भौतिक
वैज्ञानिक को कोई अधिकार नहीं। वे सिर्फ कह सकते हैं, "हम नहीं जानते।"
विज्ञान का काम केवल इतना है कि घटनाओं को एकत्र कर उनका सामान्यीकरण करे,
अनुस्यूत नियमों को निकाले और सत्य का विधान करे। परंतु यदि हम तथ्यों को ही
इंकार करने लगे, तो विज्ञान बन कैसे सकता है ?
मनुष्य कितनी शक्ति प्राप्त कर सकता है, इसका कोई अंत नहीं। भारतीय मन की यही
विशेषता है कि जब किसी एक वस्तु में उसे रुचि उत्पन्न हो जाती है, तो वह उसी
में मग्न हो जाता है और दूसरी बातों को भूल जाता है। तुम जानते हो कि कितने
शास्त्रों का उद्गम भारतवर्ष में हुआ है। गणितशास्त्र का आरंभ वहाँ ही हुआ। आज
भी तुम लोग संस्कृत अंक-गणना-पद्धति के अनुसार एक, दो, तीन इत्यादि शून्य तक
गिनते हो, और तुमको यह भी मालूम है कि बीजगणित का उदय भारत में ही हुआ। उसी
तरह, न्यूटन का जन्म होने के हज़ारों वर्ष पूर्व ही भारतीयों को गुरुत्वाकर्षण
का सिद्धांत अवगत था।
इस विशेषता की ओर ज़रा ध्यान दो। भारतीय इतिहास के एक समय में भारतवासियों का
चित्त मानव और उसके मन के अध्ययन में ही डूब गया था। और यह विषय अत्यंत आकर्षक
था, क्योंकि अपनी ध्येय-वस्तु प्राप्त करने का उन्हें यह सरलतम उपाय लगा। इस
समय भारतवासियों का ऐसा दृढ़ निश्चय हो गया था कि विशिष्ट नियमों के अनुसार
परिचालित होने से मन कोई भी कार्य कर सकता है। और इसीलिए मन की शक्तियाँ ही
उनके अध्ययन का विषय बन गयी थीं। जादू, मंत्र-तंत्र तथा अन्यान्य सिद्धियाँ
कोई असाधारण बातें नहीं हैं: ये भी उतनी ही सरलता से सिखलायी जा सकती हैं,
जितना कि इनके पहले भौतिक शास्त्र सिखलाये गए थे। इन बातों पर उन लोगों का
इतना दृढ़ विश्वास बैठ गया कि भौतिक शास्त्र क़रीब-क़रीब मरे से हो गए। यही एक
बात थी, जिसने उनका मन आकृष्ट कर रखा था। योगियों के विभिन्न संप्रदाय अनेक
प्रकार के प्रयोग करने लगे। कुछ लोगों ने प्रकाश के संबंध में प्रयोग किए और
यह जानना चाहा कि विभिन्न वर्गों की किरणों का शरीर पर कौन सा प्रभाव पड़ता
है। वे विशिष्ट रंग का कपड़ा पहनते थे, विशिष्ट रंग में वास करते थे और
विशिष्ट रंग के ही अन्न खाते थे। इस तरह सब प्रकार के प्रयोग किए जाने लगे।
दूसरों ने अपने कान बंद कर या खुले रखकर ध्वनि के विषय में प्रयोग करना आरंभ
किया, और अन्य योगियों ने घ्राणेन्द्रिय के संबंध में।
सभी का ध्येय एक था-वस्तु के मूल अथवा सूक्ष्म कारण तक किस प्रकार पहुँचना; और
उनमें से कुछ लोगों ने सचमुच ही आश्चर्यजनक सामर्थ्य प्रकट किया। बहुतों ने
आकाश में विचरने और उड़ने का प्रयत्न किया। मैं एक बड़े पाश्चात्य विद्वान की
बतलायी हुई एक कथा कहूँगा। लंका के गवर्नर ने, जिन्होंने यह घटना प्रत्यक्ष
देखी थी, उससे कही थी। एक लड़की उपस्थित की गयी, और वह पलथी मारकर 'स्टूल' पर
बैठ गयी। स्टूल लकड़ियों को आड़ी-टेढ़ी जमाकर बना दिया गया था। कुछ देर उसके
उस स्थिति में बैठने के पश्चात् वह तमाशा दिखाने वाला मनुष्य धीरे-धीरे एक एक
करके लकड़ियाँ हटाने लगा और वह लड़की हवा में, अधर में ही लटकती रह गयी।
गवर्नर ने सोचा कि इसमें कोई चालाकी है, इसलिए उन्होंने तलवार खींची और तेज़ी
से उस लड़की के नीचे से घुमायी। परंतु लड़की के नीचे कुछ भी नहीं था। अब कहो,
यह क्या है ? यह कोई जादू न था और न कोई असाधारण बात ही थी। यही वैशिष्टय है।
कोई भी भारतीय ऐसा न कहेगा कि इस तरह की घटना नहीं हो सकती। हिंदू के लिए यह
एक साधारण बात है। तुम जानते हो, जब हिंदुओं को शत्रुओं से युद्ध करना होता
है, तो वे क्या कहते हैं, "हमारा एक योगी तुम्हारे झुंड के झुंड मार भगायेगा।"
उस राष्ट्र का यह दृढ़ विश्वास है। हाथ या तलवार में ताक़त कहाँ ? ताक़त तो है
आत्मा में।
यदि यह सच है, तो मन के लिए यह प्राणपण से प्रयत्न करने के लिए काफ़ी प्रलोभन
है। परंतु कोई महान उपलब्धि प्राप्त करना जिस तरह प्रत्येक विज्ञान में कठिन
है, उसी तरह इस क्षेत्र में भी। इतना ही नहीं, बल्कि यहाँ तो और भी अधिक कठिन
है। फिर भी अनेक लोग समझते हैं कि ये शक्तियाँ सुगमता से प्राप्त की जा सकती
हैं। संपत्ति प्राप्त करने के लिए तुम्हें कितने वर्ष व्यतीत करने पड़ते हैं ?
जरा इसका विचार करो। बिजली या यंत्र संबंधी ज्ञान के अध्ययन में ही तुम्हें
कितने वर्ष बिताने पड़ते हैं ? और फिर सारे जीवन काम करते रहना पड़ता है।
पुनश्च, इतर विज्ञानों का विषय है स्थिर वस्तुएँ-ऐसी वस्तुएँ, जो गति नहीं
करतीं। तुम कुर्सी का विश्लेषण कर सकते हो, कुर्सी दूर नहीं भाग जाती। परंतु
यह मनोविज्ञान मन को अपना विषय बनाता है-वह मन, जो सदा चंचल है। ज्यों ही तुम
उसका अध्ययन करना चाहते हो, वह भाग जाता है, अभी मन में एक वृत्ति विद्यमान
है, फिर दूसरी उदित हो जाती है। इस तरह मन सर्वदा बदलता ही जाता है। उसकी
चंचलता में ही उसका अध्ययन करना पड़ता है, उसे समझना पड़ता है, उसका आकलन करना
पड़ता है, उसको अपन वश में लाना पड़ता है। अतएव देखो, यह शास्त्र कितना अधिक
कठिन है ! यहाँ कठोर अभ्यास की आवश्यकता है। लोग मुझसे पूछते हैं कि आप
प्रत्यक्ष प्रयोग कर क्यों नहीं सिखलाते ? यह कोई मज़ाक़ नहीं है। मैं इस मंच
पर खड़े-खड़े व्याख्यान देता हूँ और तुम सुनकर घर चल जाते हो; तुम्हें कोई लाभ
नहीं होता, और न मुझे ही। तब तुम कहते हो, "यह सब पाखंड है।" ऐसा इसलिए होता
है कि तुम्हीं इसे पाखंड बनाना चाहते थे। इस शास्त्र का मुझे बहुत थोड़ा ज्ञान
है, परंतु जो कुछ थोड़ा-बहुत जानता हूँ, उसके लिए तीस साल तक मैंने अभ्यास
किया है, और मैं छ: साल हुए लोगों को वह सिखला रहा हूँ। मुझे तीस साल लगे इसके
अभ्यास के लिए ! तीस साल की कड़ी कोशिश ! कभी कभी चौबीस घंटों में मैं बीस
घंटे साधना करता रहा हूँ। कभी रात में एक ही घंटा सोया हूँ। कभी रात रात भर
मैंने प्रयोग किए हैं। कभी कभी मैं ऐसे स्थानों में रहा हूँ, जहाँ किसी प्रकार
का कोई शब्द न था, साँस तक की आवाज़ न थी। कभी मुझे गुफाओं में रहना पड़ा है।
इस बात का तुम विचार करो। और फिर भी मुझे बहुत थोड़ा मालूम है, या कहो,
बिल्कुल ही नहीं ! मैंने कठिनता से इस शास्त्र की मानो किनार भर छू पायी है।
परंतु मैं समझ सकता हूँ कि यह सच है, अपार है और आश्चर्यजनक है।
अब यदि तुममें से कोई इस विज्ञान का सचमुच अध्ययन करना चाहता है, तो उसी
प्रकार के निश्चय से आरंभ करना होगा, जिस निश्चय से वह किसी व्यवसाय का आरंभ
करता है। यही नहीं, बल्कि संसार के किसी भी व्यवसाय की अपेक्षा उसे इसमें अधिक
दृढ़ निश्चय लगाना होगा।
व्यवसाय के लिए कितने मनोयोग की आवश्यकता होती है और वह व्यवसाय हमसे कितने
कड़े श्रम की माँग करता है ! यदि बाप, माँ, स्त्री या बच्चा भी मर जाए, तो भी
व्यवसाय रुकने का नहीं ! चाहे हमारे हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हों, फिर भी
हमें व्यवसाय की जगह पर जाना ही होगा, चाहे व्यवसाय का हर एक घंटा हमारे लिए
यंत्रणा क्यों न हो। यह है व्यवसाय, और हम समझते हैं कि यह ठीक ही है, इसमें
कोई अन्याय नहीं है।
यह शास्त्र किसी भी अन्य व्यवसाय से अधिक लगन माँगता है। व्यवसाय में तो अनेक
व्यक्ति सफलता प्राप्त कर सकते हैं, परंतु इस मार्ग में बहुत ही थोड़े;
क्योंकि यहाँ पर मुख्यतः साधक के मानसिक गठन पर ही सब कुछ अवलम्बित रहता है।
जिस प्रकार व्यवसायी, चाहे धन जोड़ सके या न जोड़ सके, कुछ कमाई तो ज़रूर कर
लेता है, उसी प्रकार इस शास्त्र के प्रत्येक साधक को कुछ ऐसी झलक अवश्य मिलती
है, जिससे उसका विश्वास हो जाता है कि ये बातें सच है और ऐसे मनुष्य हो गए
हैं, जिन्होंने इन सबका पूर्ण अनुभव कर लिया था।
इस विज्ञान की यह केवल रूपरेखा है। यह विज्ञान स्वतः प्रमाण तथा स्वयंप्रकाश
है, और किसी भी अन्य शास्त्र या विज्ञान को अपने से तुलना करने के लिए ललकारता
है। दुनिया में पाखंडी, जादूगर, धोखेबाज़ अनेक हो गए हैं और विशेषतः इस
क्षेत्र में। ऐसा क्यों ? इसीलिए कि जो व्यवसाय जितना अधिक लाभप्रद होता है,
उसमें उतने ही अधिक पाखंडी और धोखेबाज़ होते हैं। परंतु उस व्यवसाय के अच्छे न
होने का यह कोई कारण नहीं। एक बात और बतला देना चाहता हूँ। इस शास्त्र के अनेक
वादों को सुनना बुद्धि के लिए चाहे बड़ी अच्छी कसरत हो, और आश्चर्यजनक बातें
सुनने से चाहे तुम्हें बौद्धिक संतोष प्राप्त होता हो, परंतु अगर इससे परे
सचमुच तुम्हें कुछ सीखने की इच्छा है, तो सिर्फ़ भाषणों को सुनने से काम न
चलेगा। यह व्याख्यानों द्वारा नहीं सिखलाया जा सकता, क्योंकि यह अनुभव प्राप्त
जीवन की वस्तु है और अनुभव प्राप्त जीवन ही अनुभव दिला सकता है। यदि तुममें से
सचमुच कोई अध्ययन करना चाहता है, तो उसको सहायता देने में मुझे बड़ी प्रसन्नता
होगी।
मन की शक्ति
कारण कार्य बन जाता है। कारण का परिणामी कार्य उससे भिन्न वस्तु नहीं है।
कार्य सदा कारण का कृत रूप होता है। कारण ही सदा कार्य बन जाता है। आम तौर से
लोगों की धारणा है कि कार्य किसी कारण की क्रिया का परिणाम है और कारण कार्य
से कोई स्वतंत्र या पृथक वस्तु है। ऐसी बात नहीं है। कार्य सदैव एक अन्य दशा
में कार्यान्वित कारण ही होता है।
विश्व वास्तव में एकसम है। विषमता केवल दिखायी भर पड़ती है। प्रकृति में
सर्वत्र भिन्न पदार्थ तथा भिन्न शक्तियाँ इत्यादि प्रतीत मात्र होती है। किंतु
दो भिन्न पदार्थ ले लो, जैसे एक शीशे का टुकड़ा और एक लकड़ी का टुकड़ा। उन्हें
खूब महीन पीस डालो, इतना बारीक पीसो कि फिर और महीन न पीसा जा सके और तब जो
पदार्थ तुमको दिखायी पड़ेगा, वह एकसम प्रतीत होगा। अंतिम विश्लेषण में सब
पदार्थ एक है। एकसमता ही वस्तु है, सत्य है; विषमता बहुत सी वस्तुओं का ऐसा
आभास है कि मानो वे बहुत से पदार्थ हों। एक (ईश्वर) एकसमता है, परंतु उस एक का
बहुत्वाभास विषमता है। सुनना, देखना या चखना आदि कार्य की विभिन्न अवस्थाओं
में मन ही है।
किसी कमरे का वातावरण सम्मोहन से इस प्रकार प्रभावित किया जा सकता है कि उसमें
प्रवेश करनेवाले किसी भी व्यक्ति को नाना प्रकार की वस्तुएँ-हवा में उड़ते हुए
आदमी और पदार्थ दिखायी पड़ते हैं। प्रत्येक व्यक्ति सम्मोहित हो चुका है।
मुक्त होने, अपने वास्तविक स्वरूप के बोध होने का कार्य इसमें है कि सम्मोहन
का प्रभाव हटा दिया जाए।
एक बात याद रखने की है कि हम लोग कोई शक्ति कहीं से प्राप्त नहीं कर रहे हैं।
वे हममें पहले से ही हैं। विकास की पूरी प्रक्रिया है सम्मोहन का प्रभाव
हटाना।
मन जितना ही निर्मल होगा, उसे वश में करना उतना ही सरल होगा। यदि तुम उसे वश
में रखना चाहो, तो मन की निर्मलता पर ज़ोर देना होगा। केवल मानसिक सिद्धियों के
प्रलोभन में मत पड़ो। उन्हें जाने दो। जो मन की सिद्धियों के चक्कर में पड़ता
है, वह उन्हीं का शिकार बन जाता है। जो लोग सिद्धियाँ चाहते हैं, प्रायः उन
सबको वे सिद्धियाँ अपने जाल में फंसा लेती हैं।
मन को पूर्णतया वश में करने के लिए पूर्ण नैतिकता ही सब कुछ है। जो पुर्ण
नैतिक है, उसे कुछ करना शेष नहीं, वह मुक्त है। जो पूर्ण नैतिक है, वह संभवतः
किसी प्राणी या व्यक्ति की हिंसा नहीं करेगा। जो मुक्त होना चाहे, उसे अहिंसक
बनना पड़ेगा। जिसमें अहिंसा का भाव है, उससे बढ़कर शक्तिशाली कोई नहीं है।
उसकी उपस्थिति में न तो कोई लड़ सकता है और न झगड़ा कर सकता है। हाँ, वह जहाँ
कहीं होगा, वहीं उसकी उपस्थिति मात्र से शांति और प्रेम उद्भूत होगा, दूसरी
किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। उसकी उपस्थिति में न तो कोई क्रुद्ध होगा, न
लड़ेगा। उसके सामने पशु--हिंस्र पशु तक शांत रहेंगे।
एक बार मुझे एक योगी के बारे में मालूम हुआ, जो बहुत वृद्ध थे और जो अकेले एक
गुफा में रहते थे। उनके पास भोजन पकाने के लिए एक या दो तसले थे, बस, यही सब
कुछ था। वे बड़े अल्पाहारी थे, मुश्किल से कुछ पहनते थे और अधिकांश समय ध्यान
लगाने में व्यतीत करते थे।
उनकी दृष्टि में सभी प्राणी समान थे। उन्होंने अहिंसा सिद्ध कर ली थी।
प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक प्राणी में वह आत्मा अथवा
जगदीश्वर का दर्शन करते थे। उनके लिए प्रत्येक मनुष्य और प्रत्येक प्राणी
'मेरे प्रभु' थे। किसी व्यक्ति या पशु को वह किसी दूसरे नाम से संबोधित नहीं
करते थे। अच्छा, एक दिन एक चोर उनके यहाँ पहुँचा और उसने उनका एक तसला चुरा
लिया। उन्होंने चोर को देखा और उसका पीछा किया। पीछा दूर तक किया। चोर को थककर
रुक जाना पड़ा। योगी दौड़कर उसके पाँवों पर पड़ गए। उन्होंने कहा, "मेरे प्रभु
! मेरे यहाँ आकर तूने मेरा बड़ा सम्मान किया। मुझे इतना सम्मान और प्रदान कर
कि दूसरा तसला भी स्वीकार कर। यह भी तेरा है।" अब इन वृद्ध महापुरुष का देहांत
हो गया है। संसार की प्रत्येक वस्तु के लिए उनमें प्रेम भरा था। एक चींटी के
लिए भी अपना प्राणोत्सर्ग कर देते। वन्य पशु सहज बुद्धि से इस वद्ध व्यक्ति को
अपना मित्र समझते थे। सर्प तथा भयानक पशु उनकी गुफा में जाते और उनके साथ सोते
थे। वे सब उनसे प्रेम करते थे और उनकी उपस्थिति में कभी नहीं लड़ते थे।
चाहे कोई कितना भी बुरा क्यों न हो, उसके दोषों की चर्चा मत करो। उससे कभी कूछ
लाभ नहीं होता। किसी के दोषों की चर्चा कर तम उसकी सहायता नहीं करते, तुम उसे
ठेस पहुँचाते हो और स्वयं अपने को ठेस पहुँचाते हो।
आध्यात्मिक महत्वाकांक्षा की सिद्धि में सहायक के रूप में आहार, अभ्यास आदि का
नियमन ठीक है, पर वे स्वयं साध्य नहीं हैं, सहायक मात्र हैं।
धर्म के बारे में कभी झगड़ा मत करो। धर्म संबंधी सभी झगड़ा-फसादों से केवल यह
प्रकट होता है कि आध्यात्मिकता नहीं है। धार्मिक झगड़े सदा खोखली बातों के लिए
होते हैं। जब पवित्रता नहीं रहती, जब आध्यात्मिकता विदा हो जाती है और आत्मा
को नीरस बना देती है, तब झगड़े शुरू होते हैं, इसके पहले नहीं।
[1]
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥ गीता॥६।१६-७॥
[2]
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ साधनपाद, ३५॥
[3]
स्पष्टतः पवहारी बाबा के प्रसंग में उपर्युक्त बातें कही गयी हैं। इस
प्रसंग में वर्णित पवहारी बाबा के जीवन-चरित के लिए 'विवेकानन्द
साहित्य, नवम खंड, पृष्ठ २५८ द्रष्टव्य । ४-९