ज्ञानयोग (१)
सभी जीवात्माएँ खेल रही हैं-कोई जानते हुए तो कोई बिना जाने। धर्म हमें जानते
हुए खेलना सिखलाता है।
जो नियम हमारे सांसारिक जीवन में लागू होता है, वही हमारे धार्मिक जीवन तथा
विश्व-जीवन में भी लागू होता है। वह एक और सार्वभौम है। यह बात नहीं कि धर्म
एक नियम द्वारा परिचालित होता हो और संसार एक-दूसरे द्वारा। मानव और दानव-ये
दोनों ही भगवान् के रूप हैं-भेद है केवल परिमाण के तारतम्य में।
पाश्चात्य देशों के धर्मज्ञ, दार्शनिक और वैज्ञानिक यह सिद्ध करने के लिए कि
मृत्यु के बाद जीवन होता है, बाल की खाल खींच रहे हैं। छोटी सी बात के लिए
कितनी उछल-कूद मचा रहे हैं! सोचने के लिए इससे ऊँची और भी कितनी बातें हैं!
मेरी मृत्यु होगी' -यह सोचना कितना मूर्खतापूर्ण अंधविश्वास है! हमें यह
बतलाने के लिए कि हम नहीं मरेंगे, किसी पुजारी, देव या दानव की आवश्यकता नहीं।
यह तो एक प्रत्यक्ष सत्य है-सभी सत्यों से सर्वाधिक प्रत्यक्ष है। कोई भी
मनुष्य अपने स्वयं के नाश की कल्पना नहीं कर सकता। अमरत्व का भाव प्रत्येक
मनुष्य में अंतर्निहित है।
जहाँ कहीं जीवन है, वहाँ मृत्यु भी है। जीवन मृत्यु की छाया है, और मृत्यु
जीवन की। जीवन और मृत्यु के बीच की अत्यंत सूक्ष्म रेखा का निश्चय ग्रहण और
धारण कर सकता दुःसाध्य है।
मैं शाश्वत उन्नति-क्रम में विश्वास नहीं करता, मैं यह नहीं मानता कि हम
निरंतर एक सीधी रेखा में बढ़ते चले जा रहे हैं। यह बात इतनी अर्थहीन है, कि छस
पर विश्वास किया ही नहीं जा सकता। गति कभी एक सरल रेखा में नहीं होती। यदि एक
सरल रेखा अनंत रूप से बढ़ा दी जाए तो वह वृत्त बन जाती है। कोई भी
शक्ति-निक्षेप वृत्त पूरा करके प्रारंभ ही के स्थान पर लौट आता है।
कोई भी उन्नति सरल रेखा में नहीं होती। प्रत्येक जीवात्मा मानो एक वृत्त में
भ्रमण करती है, और उसे वह मार्ग तय करना ही पड़ता है। कोई भी जीवात्मा हल इतना
अधोगामी-नहीं हो सकती, उसे एक न एक दिन ऊपर उठना ही होगा। भले ही वह पहले एकदम
नीचे जाती दिखे, पर वृत्त-पथ को पूरा करने के लिए उसे ऊपर की दिशा में उठना ही
पड़ेगा। हम राभी एक साधारण केंद्र से निक्षिप्त हुए हैं-और यह केंद्र है
परमात्मा। अपना अपना वृत्त पूरा करने के बाद हम सब उसी केंद्र में वापस चले
जाएंगे जहाँ से हमने प्रारंभ किया था।
प्रत्येक आत्मा एक वृत्त है। इसका केंद्र वहाँ होता है जहाँ शरीर, और वहीं
उसका का प्रकट होता है। तुम सर्वव्यापी हा, यद्यपि तुम्हें जान पड़ता है कि
तुम एक ही बिंदु में केंद्रित हो। तुम्हारे उस केंद्र ने अपने चारों ओर
पंच-भूतों का एक पिंड (शरीर) बना लिया है, जो उसकी अभिव्यक्ति का पिंड है।
जिसके माध्यम से आत्मा अपने को प्रकट या प्रकाशित करती है, वह शरीर कहलाता है।
तुम सर्वत्र विद्यमान हो। जब एक यंत्र या शरौर काम के योग्य नहीं रह जाता तो
केंद्र वहाँ से हटकर पहले की अपेक्षा सूक्ष्मतर अथवा स्थूलतर पंचभूतकणों को
एकत्र करके दूसरा शरीर निर्माण कर लेता है और उसके द्वारा अपना कार्य करता है।
यह तो हुआ जीवात्मा का वृत्तान्त्ता-और परमात्मा क्या है? परमात्मा एक ऐसा
वृत्त है जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है और केंद्र सर्वत्र है। उस वृत्त का
प्रत्येक बिंदु सजीव, चैतन्य और समान रूप से क्रियाशील है। हमारी बद्ध आत्माओं
के लिए केवल एक ही बिंदु चैतन्य है, और वही आगे या पीछे बढ़ता या घटता रहता
है।
आत्मा एक ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, पर जिसका केंद्र किसी
शरौर में है। मृत्यु केंद्र का स्थानांतर मात्र है। परमात्मा एक ऐसा वृत्त है
जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है और जिसका केंद्र सर्वत्र है। जब हम शरीर के इस
असीम केंद्र से बाहर निकलने में समर्थ हो सकेंगे, तभी हम परमात्मा की-अपने
वास्तविक स्वरूप की-उपलब्धि कर सकेंगे।
एक प्रचंड धारा सागर की ओर प्रवाहित हो रही है, जिसके ऊपर यंत्र-तत्र कागज और
तृण के छोटे छोटे टुकड़े बहते चले जा रहे हैं। ये टुकड़े भले ही लौट जाने का
प्रयत्न करें, पर अंत में उन सबको सागर में मिल जाता ही होगा। इसी प्रकार,
तुम, मैं और यह समस्त प्रकृति जीवन-प्रवाह की मतवाली तरंगों पर बहते हुए
तिनकों की भाँति हैं, जो चैतन्य-सागर-पूर्णस्वरूप भगवान् की ओर खिंचे चले जा
रहे हैं। हम भले ही पीछे जाने की कोशिशें करें, प्रवाह की गति के विरुद्ध हाथ
पटकें और अनेक प्रकार के उत्पात करें, पर अंत में हमें जीवन और आनंद के उस
महासागर में जाकर मिलना ही होगा।
ज्ञान 'मतवादविहीन' होता है; पर इसका यह अर्थ नहीं कि ज्ञान मतवादों से घृणा
करता है। इसका मतलब केवल इतना ही है कि ज्ञान मतवादों से परे की अवस्था है।
यथार्थ ज्ञानी किसी का नाश नहीं करना चाहता, प्रत्युत वह सबकी सहायता के लिए
प्रस्तुत रहता है। जिस प्रकार सभी नदियाँ सागर में बहकर एक हो जाती है, उसी
प्रकार समस्त मतवादों को ज्ञान में पहुँचकर एक हो जाना चाहिए। ज्ञान संसार को
त्याग देने की शिक्षा देता है, पर वह यह नहीं कहता कि उसको तिलांजलि दे दो-वह
कहता है, उसमें रहो पर निर्लिप्त होकर। संसार में रहना, पर उसका होकर नहीं-यही
त्याग की सच्ची कसौटी है।
मेरी धारणा है कि प्रारंभ से ही हममें समस्त ज्ञान संचित है। मैं यह नहीं समझ
सकता कि इसका विपरीत कैसे सत्य हो सकता है। यदि तुम और मैं सागर की लघु तरंगें
हैं तो वह सागर ही हमारी पृष्ठभूमि है।
जड़ पदार्थ, मन और आत्मा में सचमुच कोई अंतर नहीं। वे उस 'एक' की अनुभूति के
विभिन्न स्तर मात्र हैं। इस संसार को ही लो-पंचेंद्रियों को यह पंचभूतमय दिखता
है, दुष्टों को नरक, पुण्यात्माओं को स्वर्ग और पूर्णत्व-प्राप्त ज्ञानियों को
ब्रह्ममय।
हम इंद्रियों द्वारा यह प्रत्यक्ष नहीं कह सकते कि एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है;
पर हम यह कह सकते हैं कि इसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है।
उदाहरणार्थ, प्रत्येक वस्तु में-यहाँ तक कि साधारण चीजों में भी-इस एकत्व का
होना आवश्यक है। जैसे, 'मानवोय सामान्यीकरण' (human generalisation) है। हम
कहते हैं कि समस्त विभिन्नता नाम और रूप से सृष्ट हुई है; पर जब हम चाहते हैं
कि इस विभिन्नता को पकड़ें, अलग करें तो यह कहीं दिखती नहीं। नाम या रूप या
कारणों को हम कभी भी अपना अलग अस्तित्व रखते हुए नहीं देख सकते-बिना किसी आधार
के उनका अस्तित्व रह ही नहीं सकता। यही प्रपंच या विकार "माया! कहलाता है,
जिसका अस्तित्व निर्विकार (ब्रह्म) पर निर्भर रहता है और जिसकी (इससे ब्रह्म
से) पृथक् कोई सत्ता नहीं। सागर की एक लहर को लो। उस लहर का अस्तित्व तभी तक
है जब तक सागर का उतना पानी एक लहर के रूप में है; और ज्यों ही वह रूप सिमटकर
सागर में मिल जाता है, त्यों ही लहर का अस्तित्व मिट जाता है। किंतु सागर का
अध्तित्व उस लघु लहर के रूप पर उतना निर्भर नहीं रहता। केवल सागर ही यथार्थ
रूप में बच रहता है, लहर का रूप तो मिटकर एकदम शून्य हो जाता है।
एक सत्-
'सत्य' केवल एक है। मत के ही कारण वह 'एक' बहु रूपों में प्रतिभासित होता है।
जब हमें बहुत्व का बोध होता है, तब एकत्व हमारे लिए नहीं रहता और ज्योंही हम
एकत्व को देखने लगते हैं, बहुत्व अदृश्य हो जाता है। दैनिक जीवन का ही उदाहरण
लो-जब तुम्हें एकता का बोध होता है, तब तुम्हें अनेकता नहीं दीख पड़ती।
प्रारंभ में तुम एकता ही को लेकर चलते हो। यह एक अनोखी बात है कि चीन का
मनुष्य अमेरिका निवासियों की आकृति के अंतर को नहीं पहचान पाता, और तुम लोग
चीन निवासियों की आकृति के अंतर को नहीं जान सकोगे।
यह प्रमाणित किया जा सकता है कि मन ही के द्वारा हमें वस्तुओं का ज्ञान होता
है। केवल गुणविशिष्ट वस्तुएँ ही ज्ञात और ज्ञेय की परिधि के भीतर आ सकती है।
जिसका कोई गुण नहीं, जिसकी कोई विशेषता नहीं, वह अज्ञात है। उदाहरण के लिए,
मान लो, एक बाह्य जगत् है 'क' जो अज्ञात और अज्ञेय है। जब मैं उसकी ओर देखता
हूँ तो वह हो जाता है 'क'+(मेरा) मन। जब मैं उसे जानना चाहता हूँ तो उसका
तीन-चौथाई मेरा मन ही निर्माण कर देता है। अतः बाह्य जगत् है 'क' + मत, और
उसी प्रकार अंर्तजगत् है 'खा' +मन। बाह्य या अंर्तजगत् में हमें जितने भी
विभेद दीख पड़ते हैं, वे सब मन ही की सृष्टि हैं। जिसका यथार्थ में अस्तित्व
है, वह तो अज्ञात और अज्ञेय है-वह ज्ञान की सीमा से परे है, और जो ज्ञान के
क्षेत्र के अतीत है, उसमें विभेद हो ही नहीं सकता, वहाँ विभिन्नता रह ही नहीं
सकती। अतएव यह सिद्ध हो जाता है कि बाह्य 'क' और आंतरिक 'ख' दोनों एक ही हैं,
और इसी लिए 'सत्य' केवल एक है।
ईश्वर तर्क नहीं करता। यदि तुम्हें किसी वस्तु का ज्ञान है तो तुम उसके लिए तक
क्यों करोगे? यह तो दुर्बलता का लक्षण है कि हमें कुछ तथ्यों के संग्रह के लिए
कीड़ों के समान इधर-उधर रेंगना पड़ता है-बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है, और बाद में
हमारे सब प्रयत्न घूल में मिल जाते हैं। आत्मा ही मन तथा प्रत्येक वस्तु में
प्रतिबिंबित होती है। आत्मा का प्रकाश ही मन को चैतन्य प्रदान करता है।
प्रत्येक वस्तु आत्मा का ही प्रकाश है; मन विभिन्न दर्पणों के समान है।
जिन्हें तुम प्रेम, भय, घृणा, सदुगुण और दुर्गुण कहते हो, वे सब आत्मा ही के
प्रतिबिंब हैं। जब दर्पण मैला रहता है तो प्रतिबिंब भी बुरा आता है।
वास्तविक सत्ता (ब्रह्म) अव्यक्त है। हम उसकी कल्पना नहीं कर सकते, क्योंकि
कल्पना हमें मन से करनी पड़ती है और मन स्वयं एक अभिव्यक्ति है। वह कल्पनातीत
है, यही उसकी महिमा है। हमें यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि जीवन में
हम न तो प्रकाश का उच्चतम स्पंदन ही देख पाते हैं, न निम्नतम; वे सत्ता के दो
विरोधी ध्रुव हैं। कुछ ऐसी वस्तुएँ हैं जिन्हें हम आज नहीं जानते, पर जिनका
ज्ञान हमें हो सकता है। अपने अज्ञान के कारण ही हम उन्हें आज नहीं जानते।
परंतु कुछ ऐसी भी बातें हैं जिनका ज्ञान हमें कभी नहीं हो सकता, क्योंकि वे
ज्ञान के उच्चतम स्पंदनों से भी उच्च हैं। हम सदा ही बही "सनातन पुरुष' हैं,
यद्यपि हम इसे जान नहीं सकते। उस अवस्था में ज्ञान असंभव है। विचार की ससीमता
ही उसके अस्तित्व का आधार है। उदाहरणार्थ, मुझमें अपनी आत्मा के अस्तित्व से
अधिक निश्चित और कुछ भी नहीं है; फिर भी, यदि मैं आत्मा के बारे में सोचना
चाहूँ तो केवल यही सोच सकता हूँ कि बहू या तो शरीर है या मन, सुखी है या
दुःखी, अथवा स्त्री है या पुरुष। यदि मैं उसे उसके यथार्थ स्वरूप में जानना
चाहूँ तो प्रतीत 'होता है कि इसके लिए उसे निम्न स्तर पर खींच लाने के
अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं है। फिर भी, आत्मा के यथार्थ अस्तित्व के बारे
में मुझे पूर्ण निश्चय है। "हे प्रिये, कोई स्त्री पति को पति के लिए प्रेम
नहीं करती, किंतु इसलिए कि वही आत्मा पति में भी अवस्थित है। हे प्रिये, कोई
मनुष्य पत्नी को पत्नी के लिए प्यार नहीं करता, किंतु इसलिए कि वही आत्मा
पत्नी में भी अवस्थित है। आत्मा के द्वारा और आत्मा के लिए ही प्रेम किया जाता
है।" और आत्मा ही एकमात्र ऐसी सत्ता है जिसे हम जानते हैं, क्योंकि उसी में से
और उसी के द्वारा हमें अन्य सब वस्तुओं का ज्ञान होता है; परंतु फिर भी हम
उसको कल्पना नहीं कर सकते। विज्ञातारमरे केन विजानीयात् ? ज्ञाता को हम कैसे जान सकते हैं? यदि हम उसे जान जायें तो
वह ज्ञाता न रह जाएगा-ज्ञेय हो जाएगा; वह विषय हो जाएगा।
जिसे सर्वोच्च अनुभूति हो गई है, वह कह उठता है, "मैं राजाधिराज हूँ; मुझसे
बड़ा राजा और कोई नहीं है। मैं देवदेव हूँ, मुझसे बड़ा देवता और कोई नहीं है!
केवल मैं ही वर्तमान हूँ -एकमेवाद्वितीयम्।" वेदांत का यह
अद्वैत भाव बहुतों को बड़ा भयानक दिखता ज़रूर है, परंतु वह केवल अंधविश्वास के
कारण है।
हम आत्मा हैं, सर्वदा शांत और निष्क्रिय हैं। हमें रोना नहीं चाहिए। आत्मा के
लिए रोना कैसा! हम अपनी कल्पना में सोचते हैं कि भगवान् करुणा-भिभूत हो अपने
सिंहासन पर बैठे हुए रो रहे हैं। ऐसे भगवान् की प्राप्ति से क्या लाभ ?
भगवान् रोयें ही क्यों! रोना तो दुर्बलता का चिह्न है-बंधन का लक्षण है।
सर्वोच्च को खोजो, सर्वदा सर्वोच्च को ही खोजो, क्योंकि सर्वोच्च में ही
शाश्वत आनंद है। यदि मुझे शिकार खेलना ही हो तो मैं शेर का शिकार करूँगा। यदि
मुझे डाका डालना ही हो तो राजा के खजाने में डाका डालूंगा। सदा सर्वोच्च को ही
ढूँढ़ो।
अहा ! जिन्हें सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता, मन और वाणी जिनका वर्णन नहीं कर
सकती, हृदय के हृदय में ही जिनका अनुभव किया जा सकता है, जो समस्त तुलना से
परे हैं, सीमा के अतीत हैं और नीलाकाश की भाँति अपरिवर्तनशील हैं, हे साधो,
उन्हीं सर्वस्वरूप को-उन्हीं उन्हीं 'एक' को जानो, और कुछ न खोजो!
हे साधो, प्रकृति के परिणाम जिन्हें स्पर्श नहीं कर सकते, जो विचार से भी परे
हैं, जो अचल और अपरिवर्तनशील हैं, समस्त शास्त्र जिनका निर्देश कर रहे हैं और
जो ऋषि-मुनियों के आराध्य हैं, केवल उन्हीं को खोजो!
वे अनंत एकरस हैं, तुलनातीत हैं। वहँ कोई तुलना संभव नहीं। ऊपर जल, नीचे जल,
दायीं ओर जल, बायीं ओर जल, सर्वत्र जल ही जल है; उस जल में एक भी तरंग नहीं,
एक भा लहर नहीं, सब शांत नीरव, सब शाश्वत आनंद! ऐसी ही अनुभूति तुम्हारे हृदय
में होगी। अन्य किसी की चाह न रखो!
तू क्यों रोता है, भाई ? तेरे लिए न मृत्यु है, न रोग। तू क्यों रोता है,
भाई? तेरे लिए न दुःख है, न शोक। तू क्यों रोता है, भाई? तेरे विषय में परिणाम
या मृत्यु की बात कही ही नहीं गई। तू तो सत्स्वरूप है।
मैं जानता हूँ कि ईश्वर क्या है-पर मैं तुम्हें बतला नहीं सकता। मैं नहीं
जानता कि परमात्मा क्या है-अतः मैं तुम्हें उसके विषय में कँसे बतला सकता हूँ?
पर भाई, क्या तू नहीं देखता कि तू 'वही' है, तू वही है- तत्त्वमसि ? परमात्मा को तू इधर-उधर ढूँढ़ता क्यों फिर रहा
है? खोज बंद कर, और वही परमात्मा है-अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जा।
तू ही हमारा पिता, माता एवं प्रिय मित्र है। तू ही संसार का भार वहन करता है।
अपने जीवन का भार वहन करने में हमें तू सहायता दे। तू ही हमारा मित्र है,
हमारा प्रियतम है, हमारा पति है-तू ही 'हम' है!
ज्ञानयोग (२)
पहले, ध्यान निषेधात्मक प्रकार का होना चाहिए। हर वस्तु को विचारों से निकाल
बाहर करो। मन में आनेवाली हर वस्तु का मात्र इच्छा की क्रिया द्वारा विश्लेषण
करो।
तदुपरान्त आग्रहपूर्वक उसका स्थापन करो, जो हम वस्तुतः हैं-सत्, चित्, आनंद
और प्रेम।
ध्यान, विषय और विषयी के एकीकरण का साधन है। ध्यान करो :
ऊपर वह मुझसे परिपूर्ण है, नीचे वह मुझसे परिपूर्ण है, मध्य में वह मुझसे
परिपूर्ण है। मैं सब प्राणियों में हूँ और सब प्राणी मुझमें हैं। ऊँ तत्
सत्, मैं वह हूँ। मैं मन के ऊपर की सता हूँ। मैं विश्व की एकात्मा हूँ। मैं
सुख हूँ न दु:ख।
शरीर खाता है, पीता है इत्यादि। मैं शरीर नहीं हूँ। मैं मन नहीं हूँ। मैं वह
हूँ। मैं द्रष्टा हूँ। में देखता जाता हूँ। जब स्वास्थ्य आता है, मैं द्रष्टा
होता हूँ। जब रोग आता है, मैं द्रष्टा होता हूँ!
मैं सत्, ज्ञान, आनंद हूँ।
मैं ज्ञान का अमृत और सार-तत्त्व हूँ। चिरंतन काल तक मैं परिवर्तित नहीं होता।
मैं शांत, देदीप्यमान और अपरिवर्तनीय हूँ।
ज्ञानयोग का परिचय
यह योग का बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष है और बहुत कठिन है, किंतु मैं आपको इससे
धीरे घीरे अवगत कराऊंगा।
योग का अर्थ है, मनुष्य और ईश्वर को जोड़ने की पद्धति। इतना समझ लेने के बाद
आप मनुष्य और ईश्वर की अपनी परिभाषाओं के अनुसार चल सकते हैं। और आप देखेंगे
कि योग शब्द हर परिभाषा के साथ ठीक बैठ जाता है। सदा याद रखिए कि विभिन्न
मानसों के लिए विभिन्न योग हैं और यदि एक आपके अनुकूल नहीं होता तो दूसरा हो
सकता है। सभी धर्म, सिद्धांत और व्यवहार में विभाजित हैं। पाश्चात्य मानस ने
सिद्धांत पक्ष को छोड़ दिया है और वह शुभ कर्मों के रूप में धर्म के केवल
व्यावहारिक भाग को ही ग्रहण करता है। योग धर्म का व्यावहारिक भाग है और
प्रदर्शित करता है कि धर्म शुभ कर्मों के अतिरिक्त एक व्यावहारिक शक्ति भी है।
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में मनुष्य ने बुद्धि के द्वारा ईश्वर को पाने
की चेष्टा की और फलस्वरूप ईश्वरवाद की उत्पत्ति हुई। इस प्रक्रिया से जो कुछ
थोड़ा-बहुत ईश्वर बचा, उसको डार्विनवाद और मिलवाद ने नष्ट कर दिया। लोगों को
तब तुलनात्मक और ऐतिहासिक धर्म की शरण में जाना पड़ा। वे समझते थे कि धर्म की
उत्पत्ति तत्त्वों की पूजा से हुई। (द्र.सूर्य संबंधी कथाओं आदि पर
मैक्समूलर)। दूसरे लोगों की धारणा थी कि धर्म पूर्वजों की पूजा से निकला है।
(द्र० हट स्पेंसर)। किंतु संपूर्णतः ये पद्धतियाँ असफल सिद्ध हुईं। मनुष्य
बाह्य पद्धतियों से सत्य तक नहीं पहुँच सकता।
"यदि मैं मिट्टी के एक टुकड़े को जान लूँ तो मैं मिट्टी की संपूर्ण राशि को
जान लूँगा।' सारा विश्व इसी योजना पर बना है। व्यक्ति तो मिट्टी के एक टुकड़े
के समान केवल एक अंश है। यदि हम मानव आत्मा के, जो कि एक अणु है, प्रारंभ और
सामान्य इतिहास को जान लें तो हम संपूर्ण प्रकृति को जान लेंगे। जन्म, वृद्धि,
विकास, जरा, मृत्यु-संपूर्ण प्रकृति में यही क्रम है और वनस्पति तथा मनुष्य
में समान रूप से विद्यमान है। भिन्नता केवल समय की है। पूरा चक्र एक दृष्टांत
में एक दिन में पूर्ण हो सकता है और दूसरे में ७० वर्ष में पर ढंग एक ही है।
विश्व के विश्वसनीय विश्लेषण तक पहुँचने का एकमात्र डर माँग स्वयं हमारे मन का
विश्लेषण है। अपने धर्म को समझने के लिए एक सम्यक् मनोविज्ञान आवश्यक है।
केवल बुद्धि से ही सत्य तक पहुँचना असंभव है, क्योंकि अपूर्ण बुद्धि स्वयं
अपने मौलिक आधार का अध्ययन नहीं कर सकती। इसलिए मन को अध्ययन करने का एकमात्र
उपाय तथ्यों तक पहुँचने का है, तभी बुद्धि उन्हें विन्यस्त करके उनसे
सिद्धांतों को निकाल सकेगी। बुद्धि को घर बनाना पड़ता है, पर बिना ईटों के वह
ऐसा नहीं कर सकती, और वह ईटें बना नहीं सकती। ज्ञानयोग तथ्यों तक पहुँचने का
सबसे निश्चित मार्ग है।
मन के शरीर-विज्ञान को लें। हमारी इंद्रियाँ हैं, जिनका वर्गीकरण
ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों में किया जाता है। इंद्रियों से मेरा
अभिप्राय बाह्य इंद्रिय-यन््त्रों से नहीं है। मस्तिष्क में नेत्र संबंधी
केंद्र दृष्टि का अवयव है, केवल आँख नहीं। यही बात हर अवयव के संबंध में है,
उसकी क्रिया आभ्यंतरिक होती है, केवल मन में प्रतिक्रिया होने पर ही विषय का
वास्तविक प्रत्यक्ष होता है। प्रत्यक्षीकरण के लिए पेशीय और संवेद्य नाड़ियाँ
आवश्यक हैं।
उसके बाद स्वयं मन है। वह एक स्थिर जलाशय के समान है, जो कि आघात किये जाने
पर, जैसे पत्थर द्वारा, स्पंदित हो उठता है। स्पंदन एकत्र होकर पत्थर पर
प्रतिक्रिया करते हैं, जलाशय भर में वे फैलते हुए अनुभव किये जा सकते हैं। मन
एक झील के समान है, उसमें निरंतर स्पंदन होते रहते हैं, जो उस पर एक छाप छोड़
जाते हैं। और अहं या व्यक्तिगत स्व या मैं का विचार इन स्पंदनों का परिणाम
होता है। इसलिए यह 'मैं' शक्ति का अत्यंत द्रुत संप्रेषण मात्र है, वह स्वयं
सत्य नहीं है।
मस्तिष्क का निर्मायक पदार्थ एक अत्यंत सूक्ष्म भौतिक यल्त्र है, जो प्राण
धारण करने में प्रयुक्त होता है। मनुष्य के मरने पर शरीर मर जाता है, किंतु
अन्य सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद मन का थोड़ा भाग, उसका बीज बच जाता है। यही
नए शरीर का बीज होता है, जिसे संत पॉल ने "आध्यात्मिक शरीर' कहा है। मन की
भौतिकता का यह सिद्धांत सभी आधुनिक सिद्धांतों से मेंल खाता है। जड़ व्यक्ति
में बुद्धि कम होती है, क्योंकि उसका मस्तिष्क पदार्थ-आहत होता है। बुद्धि
भौतिक पदार्थ में नहीं हो सकती और न वह पदार्थ के किसी संघात द्वारा उत्पन्न
की जा सक्रती है। तब बुद्धि कहाँ होती है? वह भौतिक पदार्थ के पीछे होती है,
वह जीव है, भौतिक यंत्र के माध्यम से कार्य करनेवाली आत्मा है। बिना पदार्थ के
शक्ति का संभव नहीं है, और चूँकि जीव एकाकी यात्रा नहीं कर सकता, मृत्यु के
द्वारा और सब कुछ ध्वस्त हो जाने पर मन का एक अंश संप्रेषण के माध्यम के रूप
में बच जाता है।
प्रत्यक्ष कैसे होता है? सामने की दीवार एक प्रभाव-चित्र मुझे भेजती है, किंतु
जब तक कि मेरा मन प्रतिक्रिया नहीं करता, मैं दीवार नहीं देखता। अर्थात् मन
केवल दृष्टि मात्र से दीवार को नहीं जान सकता। जो प्रतिक्रिया मनुष्य को दीवार
के प्रत्यक्ष की क्षमता देती है, वह एक बौद्धिक प्रक्रिया है। इस प्रकार
संपूर्ण विश्व हमारी आँखों और मन (प्रत्यक्षीकरण की आंतरिक शक्ति) द्वारा देखा
जाता है; वह हमारी अपनी व्यक्तिगत वृत्तियों द्वारा निश्चित रूप से रंग जाता
है। वास्तविक दीवार या वास्तविक विश्व, मस्तिष्क के बाहर होता है और अज्ञात
तथा वज्ञेय होता है। इस विदव को 'क' कहिए और हमारा कहना है कि दृश्य जगत्
होगा 'क' + मन।
जो बाह्य जगत् के लिए सत्य है, वही आभ्यंतर जगत् पर भी अवश्य लागू होना
चाहिए। मन भी अपने को जानना चाहता है, किंतु यह आत्मा केवल मन के माध्यम से
जाती जा सकती है और दीवार की ही तरह अज्ञात है। इस आत्मा को हम 'ख' कह सकते
-हैं और तब कथन इस प्रकार होगा कि 'ख'+ मन आभ्यंतर अहं है। सर्वप्रथम कांट
मस्तिष्क के इस विश्लेषण पर पहुंचे थे, किंतु वेदों में यह बहुत पहले कहा जा
चुका था। इस प्रकार चाहे जैसा भी वह हो, हमारे पास 'क' और 'ख' के बीच में मन
उपस्थित है और दोनों पर प्रतिक्रिया कर रहा है।
यदि 'क' अज्ञात है तो जो भी गुण हम प्रदान करते हैं वे हमारे अपने ही मस्तिष्क
से उद्भूत होते हैं। देश, काल और कारणता वे तीन उपाधियाँ हैं, जिनके मध्य मत
को प्रत्यक्ष होता है। काल विचार के संप्रेषण की उपाधि है और देश अधिक स्थूल
पदार्थ के स्पंदन के लिए है, कारणता वह अनुक्रम है, जिसमें वे स्पंदन आते हैं।
मत को केवल इन्हीं के द्वारा बोध हो सकता है। अतएव मन से परे की कोई भी वस्तु
देश, काल और कारणता से परे अवश्य होगी।
अंधे व्यक्ति को जगत् का प्रत्यक्ष स्पर्श और ध्वनि द्वारा होता है। हम
पंचेंद्रिय वाले लोगों के लिए यह एक भिन्न ही जगत् है। यदि हममें से कोई
विद्युत् संवेदना का विकास करे और विद्युत् लहरों को देखने की योग्यता
प्राप्त कर ले तो संसार भिन्न दिखायी देगा। तथापि 'क' के रूप में जगत् है, इन
सबके लिए समान है। चूँकि हर एक अपना पृथक मन लाता है, वह अपने विशेष संसार को
ही देखता है। 'क'+एक इंद्रिय, 'क'+ दो इंद्रियाँ और इसी प्रकार, जैसा कि हम
मनुष्य को जानते हैं, पाँच तक हैं। परिणाम निरंतर विविधतापूर्ण होता है, किंतु
'क' सदैव अपरिवर्तित रहता है। 'ख' भी हमारे मानसों से निरंतर परे होता है और
देश, काल तथा कारणता से परे है।
पर आप पूछ सकते हैं, 'हम कैसे जानते हैं कि दो वस्तुएँ हैं (क और ख), जो देश,
काल और कारणता से परे हैं ?' बिल्कुल सत्य है कि काल विभेदी-करण करता है जिससे
यदि दोनों वास्तव में काल से परे हैं, तो उन्हें वास्तव में अवश्य ही एक होना
चाहिए। जब मन इस एक को देखता है, वह उसे भिन्न नाम से पुकारता है, 'क' जब वह
बाह्य जगत् होता है और 'ख' जब वह आभ्यंतर जगत् होता है। इस इकाई का
अस्तित्व है और उसे मन के लैंस से देखा जाता है।
हमारे समक्ष सर्वत्र व्यापक रूप से प्रकट होनेवाली परिपूर्ण सत्ता ईश्वर,
ब्रह्म है। विभेदीकरण रहित दशा ही पूर्णता की दक्षा है, अन्य सब अस्थायी और
निम्नतर होती हैं।
विभेदरहित सत्ता मन को विभेदयुक्त क्यों प्रतीत होती है? यह उसी प्रकार का
प्रदन है, जैसा यह कि अशुभ और इच्छा-स्वातंत्र्य का स्रोत क्या है ? प्रश्न
स्वयं आत्मविरोधी और असंभव है, क्योंकि प्रश्न कार्य और कारण को स्वयंसिद्ध
मान लेता है। अविभेद में कारण और कार्य नहीं होता, प्रश्न यह मान लेता है कि
अविभेद उसी स्थिति में है, जिसमें कि विभेदयुक्त 'क्यों' और 'कहाँ से' केवल मन
में होतें हैं। आत्मा कारणता से परे है और केवल वही स्वतंत्र है। यह उसीका
प्रकाश है, जो मन के हर रूप से भरता रहता है। हर कार्य के साथ मैं कहता हूँ कि
मैं स्वतंत्र हूँ, किंतु हर कार्य सिद्ध करता है कि मैं बुद्ध हूँ। वास्तविक
आत्मा स्वतंत्र है, किंतु मस्तिष्क और शरीर के साथ मिश्रित होने पर वह
स्वतंत्र नहीं रह जाती। संकल्प या इच्छा इस वास्तविक आत्मा की प्रथम
अभिव्यक्ति है, अतएव इस वास्तविक आत्मा का प्रथम सीमाकरण संकल्प या इच्छा है।
इच्छा, आत्मा और मस्तिष्क का एक मिश्रण है। किंतु कोई मिश्रण स्थायी नहीं हो
सकता। इसलिए जब हम जीवित रहने की इच्छा करते हैं, हमें अवश्य मरना चाहिए। अमर
जीवन परस्पर विरोधी शब्द हैं, क्योंकि जीवन एक मिश्रण होने से स्थायी नहीं हो
सकता। सत्य-सत्ता अभेद और शाश्वत है। यह पूर्ण सत्ता सभी दूषित वस्तुओं,
इच्छा, मस्तिष्क और विचार से किस प्रकार संयुक्त हो जाते है ? वह कभी संयुक्त
या मिश्रित नहीं हुई है। तुम्हीं वास्तविक तुम हो (हमारे पूर्वकथन के 'ख'),
तुम कभी इच्छा न थे, तुम कदापि नहीं बदले हो, एक व्यक्ति के रूप में कभी
तुम्हारा अस्तित्व न था: यह भ्रम है। तब आप कहेंगे कि भ्रम के गोचर पदार्थ किस
पर आश्रित हैं? यह एक कुप्रश्न है। भ्रम कभी सत्य पर आश्रित नहीं होता, भ्रम
तो भ्रम पर ही आश्रित होता है। इन भ्रमों के पूर्व जो था, उसी पर लौटने के
लिए, सचमुच स्वतंत्र होने के लिए, हर वस्तु संघर्ष कर रही है। तब जीवन का
मूल्य क्या हैं? वह हमें अनुभव देने के निमित्त है। क्या यह विचार विकासवाद
की अवहेलना करता है? नहीं, इसके विपरीत यह उसे स्पष्ट करता है। विकास वस्तुतः
भौतिक पदार्थ के सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया है, जिससे वास्तविक आत्मा को अपनी
अभिव्यक्ति करने में सहायता मिलती है। वह हमारे और किसी अन्य वस्तु के बीच
किसी पर्दे या आवरण जैसा है। पर्दे के क्रमश: हटने पर, वस्तु स्पष्ट हो जाती
है। प्रश्न केवल उच्चतर आत्मा की अभिव्यक्ति का है।
ज्ञानयोग पर प्रवचन
[1]
[१]
ऊँ तत् सत् ! ॐ का ज्ञान विश्व के रहस्य का ज्ञान प्राप्त कर लेना है।
ज्ञानयोग का उद्देश्य वही है जो भक्तियोग और राजयोग का है, किंतु प्रक्रिया
भिन्न है। यह योग दृढ़ साधकों के लिए है; उनके लिए है जो न तो रहस्यवादी, न
भक्तिमान, अपितु बौद्धिक हैं। जिस प्रकार भक्तियोगी प्रेम और भक्ति के द्वारा
उस सर्वोपरि परम से पूर्ण एकता की सिद्धि का अपना मार्ग ढूँढ निकालता है, उसी
प्रकार ज्ञानयोगी विशुद्ध बुद्धि के द्वारा ईश्वर के साक्षात्कार का अपना
मार्ग प्रशस्त करता है। उसे सभी पुरानी मूर्तियों को, सभी पुराने विश्वासों और
अंधविश्वासों को और ऐहिक या पारलौकिक सभी कामनाओं को निकाल फेंकने के लिए
तत्पर रहना चाहिए और केवल मोक्ष-लाभ के लिए कृतनिश्चय होना चाहिए। ज्ञान के
बिना मोक्ष-लाभ नहीं हो सकता है। वह तो इस उपलब्धि में निहित है कि हम
यथार्थंतः क्या हैं और यह कि हम मय, जन्म तथा मृत्यु से परे हैं। आत्मा का
साक्षात्कार ही सर्वोत्तम श्रेयस है। वह इंद्रियों और विचार से परे है।
वास्तविक 'मैं' का तो ज्ञान नहीं हो सकता। वह तो नित्य ज्ञाता (विषयी) है और
कभी भी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान सापेक्ष का होता है,
निरपेक्ष पूर्ण का नहीं। इंद्रियों द्वारा प्राप्त सभी ज्ञान असीम है-वह कार्य
और कारण की एक अंतहीन श्रृंखला है। वह संसार एक सापेक्ष संसार है, यथार्थ सत्य
की एक छाया या आभास मात्र है; तथापि-चूँकि यह (संसार) संतुलन का ऐसा स्तर है
कि जिस पर सुख-दुःख प्रायः समान रूप से संतुलित हैं, इसलिए यही एक स्तर है
जहाँ मनुष्य अपने यथार्थ स्वरूप का साक्षात् कर सकता है और जान सकता है कि वह
ब्रह्म है।
यह संसार 'प्रकृति का विकास और ईश्वर की अभिव्यक्ति है। वह माया या नाम-रूप
के माध्यम से देखे हुए परमात्मा या ब्रह्म की हमारी व्याख्या है। संसार शून्य
नहीं है, उसमें कुछ वास्तविकता है। संसार केवल इसीलिए 'प्रतीय-मान' होता है कि
इसके पीछे ब्रह्म का अस्तित्व' है।
विज्ञाता को हम कैसे जान सकते हैं? वेदांत
[2]
कहता है, "हम वह (विज्ञाता) हैं, किंतु हम कभी उसे विषयतया जान नहीं सकते,
क्योंकि वह कभी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता।" आधुनिक विज्ञान भी कहता है कि
'वह' कभी जाना नहीं जा सकता। फिर भी समय समय पर हम उसकी झलक पा सकते हैं।
संसार-भ्रम एक बार टूट जाने पर वह हमारे पास पुनः लौट आता हैं, किंतु तब हमारे
लिए उसमें कोई वास्तविकता नहीं रह जाती। हम उसे एक मृगतृष्णा के रूप में ही
ग्रहण करते हैं। इस मृगतृष्णा के परे पहुँचना ही सभी धर्मों का लक्ष्य है।
वेदों ने निरंतर यही उपदेश दिया है कि मनुष्य और ईश्वर एक है, किंतु बहुत कम
लोग इस पर्दे (माया) के पीछे प्रवेश कर पाते और परम सत्य की उपलब्धि कर पाते
हैं।
जो ज्ञानी बनना चाहे, उसे सर्वप्रथम भय से मुक्त होना चाहिए। भय हमारे सबसे
बुरे शत्रुओं में से एक है। इसके बाद, जब तक किसी बात को 'जान न लो' उस पर
विश्वास न करो। अपने से निरंतर कहते रहो, 'मैं शरीर नहीं हूँ, मैं मन नहीं
हूँ, मैं विचार नहीं हूँ, मैं चेतना भी नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ' जब तुम सब
छोड़ दोगे तब यथार्थ आत्म-तत्त्व रह जाएगा। ज्ञानी का ध्यान दो प्रकार का होता
हैः (१) हर ऐसी वस्तु से विचार हटाना और उसको अस्वीकार करना जो हम 'नहीं हैं'।
(२) केवल उसी पर दृढ़ रहना जो कि वास्तव में हम 'हैं' और वह है आत्मा-केवल एक
सच्चिदानंद परमात्मा। सच्चे विवेकी को आगे बढ़ना चाहिए और अपने विवेक की
सुदूरतम सीमाओं तक निर्भयतापूर्वक उसका अनुसरण करना चाहिए। मार्ग में कहीं रुक
जाने से काम नहीं बनेगा। जब हम अस्वीकार करता प्रारंभ करें तो, जब तक हम उस
विषय पर न पहुँच जाये जिसे अस्वीकार किया या हटाया नहीं जा सकता-जो कि यथाथें
'मैं' है, शेष सब हटा ही देना चाहिए। वही 'मैं' विश्व का द्रष्टा है, वह
अपरिवर्तनशील, शाश्वत और असीम है। अभी अज्ञान के परत पर चढ़े परत ही उसे
हमारी दृष्टि से ओझल किये हुए हैं, पर वह सदैव वही रहता है।
एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे थे। शिखर पर बैठा हुआ पक्षी शांत, महिमान्वित,
सुंदर और पूर्ण था। नीचे बैठा हुआ पक्षी बार बार एक टहना से दूसरी पर फुदक रहा
था और कभी मधुर फल खाकर प्रसन्न तथा कभी कड़वे फल खाकर दुःखी होता था। एक दिन
उसने जब सामान्य से अधिक कटु फल खाता तो उसने ऊपरवाले शांत तथा महिमान्वित
पक्षी की ओर देखा और सोचा, 'उसके सदृश हो जाऊँ तो कितना अच्छा हो!' और वह उसकी
ओर फुदक कर थोड़ा बढ़ा भी। जल्दी ही वह ऊपर के पक्षी के सदृश होने की अपनी
इच्छा को भूल गया और पूर्ववत मधुर या कटु फल खाता एवं सुखी तथा दुःखी होता
रहा। उसने फिर ऊपर की ओर दृष्टि डाली और फिर शांत तथा महिमान्वित पक्षी के कुछ
निकटतर पहुँचा। अनेक बार इसकी आवृत्ति हुई और अंततः वह ऊपर के पक्षी के बहुत
समीप पहुँच गया। उसके पंखों की चमक से वह (नीचे का पक्षी) चौंधिया गया और वह
उसे आत्मसात् करता सा जान पड़ा। अंत में उसे यह देखकर बड़ा विस्मय और आश्चर्य
हुआ कि वहाँ तो केवल एक ही पक्षी है और वह स्वयं सदैव ऊपरवाला ही पक्षी था। पर
इस तथ्य को. वह केवल अभी समझ पाया?
[3]
मनुष्य नीचे वाले पक्षी के समान है, लेकिन यदि वह अपनी सर्वश्रेष्ठ कल्पना के
अनुसार किसी सर्वोच्च आदर्श तक पहुँचने के प्रयत्न में निरंतर लगा रहे तो वह
भी इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि वह सदैव आत्मा ही था, अन्य सब मिथ्या या
स्वप्न। भौतिक तत्व और उसकी सत्यता में विश्वास से अपने को पूर्णतया पृथक
करना ही यथार्थ ज्ञान है। ज्ञानी को अपने मन में निरंतर रखना चाहिए- ऊँ तत् सत्, अर्थात् ऊँ ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है।
तात्तविक एकता ज्ञानयोग की नींव है। उसे ही अद्वेतवाद (द्वेत से रहित) कहते
हैं। वेदांत जक्शन की यह आधारशिला है, उसका आदि और अंत। 'केवल ब्रह्म ही सत्य
है, शेष सब मिथ्या और मैं ब्रह्म हूँ। जब तक हम उसे अपने अस्तित्व का एक अंश न
बना लें, तब तक अपने से केवल यही कहते रहने से हम समस्त द्वैत भाव से, शुभ तथा
अशुभ से, सुख और दुःख से, कष्ट और आनंद दोनों ही से, ऊपर उठ सकते हैं। और अपने
को शाश्वत, अपरिवर्तनशील, असीम, 'एक अद्वितीय' ब्रह्म के रूप में जान सकते
हैं।
ज्ञानयोगी को अवश्य ही उतना प्रखर अवश्य होना चाहिए, जितना कि संकीर्णतम
संप्रदायवादी किंतु उतना ही विस्तीर्ण भी जितना कि आकाश। उसे अपने मन पर पूर्ण
नियंत्रण रखता चाहिए, बौद्ध या ईसाई होने का सामर्थ्य रखना चाहिए तथा अपने को
इन विभिन्न विचारों में सचेतन रूप से विभक्त करते हुए चिरंतन सामंजस्य में
दृढ़ रहना चाहिए। सतत् अभ्यास ही हमें ऐसा नियंत्रण प्राप्त करने का सामथ्यं
दे सकता है। सभी विविधताएँ उसी एक में है, किंतु हमें यह सीखना चाहिए कि जो
कुछ हम करें उससे अपना तादात्म्य न कर दें, और जो अपने हाथ में हो, उसके
अतिरिक्त, अन्य कुछ न देखें, न सुनें और न उसके विषय में बात करें। हमें अपने
पूरे जी-जान से जुट जाना और प्रखर बनना चाहिए। दिन-रात अपने से यही कहते रहो- सोअहं सोअहं।
[२]
वेदांत दर्शन के सर्वेश्रेष्ठ शिक्षक शंकराचार्य थे। ठोस तर्क द्वारा उन्होंने
वेदांत के सत्यों को वेदों से निकाला और उनके आधार पर उन्होंने ज्ञान के उस
आश्चर्यजनक दर्शन का निर्माण किया जो कि उनके भाष्यों में उपदिष्ट है।
उन्होंने ब्रह्म के सभी परस्पर विरोधी दर्शनों का सामंजस्य किया और यह दिखाया
कि केवल एक ही असीम सत्ता है। उन्होंने यह भी प्रदर्शित किया कि मनुष्य
ऊर्ध्व मार्ग का आरोहण शनै:-शनै: ही कर सकता है। इसलिए विभिन्न उपस्थापनाओं
की आवश्यकता उसकी क्षमता की विविधता के अनुसार पड़ती है। ईसा की वाणी में भी
हमें कुछ ऐसा ही प्राप्त है। उन्होंने अपने श्रोताओं की क्षमता की विभिन्नता
के अनुरूप अपने उपदेश को स्पष्ट ही समायोजित किया है। पहले उन्होंने उनके एक
स्वर्गस्थ परम पिता के विषय में और फिर उससे प्रार्थना करने की शिक्षा दी। आगे
चल कर वह एक पग और ऊपर उठे और उनसे कहा कि, 'मैं अंगूर की लता हूँ और तुम सब
उसकी शाखाएँ हो', और अंत में उन्होंने परम सत्य का उपदेश दिया-'मैं और मेरे
पिता एक हैं' और 'स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है।' शंकर ने शिक्षा दी कि ये
तीन बातें ईश्वर के महान् वरदान हैं : (१) मानव शरीर (२) ईश्वर-लाभ की प्यास
और (३) ऐसा गुरु जो हमें ज्ञानालोक दिखा सके। जब वे तीन महान् वरदान हमारे
अपने हो जातें हैं, तब हमें समझना चाहिए कि हमारी मुक्ति निकट है। केवल ज्ञान
हमें मुक्त कर सकता है और हमारा परित्राण भी कर सकता है, लेकिन ज्ञान होते ही
शुभ को भी अवद्य हट जाना चाहिए।
वेदांत का सार है कि सत् केवल एक ही है और प्रत्येक आत्मा पूर्णतया वही सत्
है, उस सत् का अंश नहीं। ओस की हर बूंद में 'संपूर्ण' सूर्य प्रतिबिंबित होता
है। देश, काल और निमित्त द्वारा आभासित ब्रह्म ही मनुष्य है, जैसा हम उसे
जानते हैं; किंतु सभी नाम-रूप या आभासों के पीछे एक ही सत्य है। निम्न अथवा
आभासिक स्व की, अस्वीकृति ही निःस्वार्थता है। हमें अपने को इस दुःखद स्वप्न
से मुक्त करना है कि हम यह देह हैं। हमें यह 'सत्य' जानना ही चाहिए कि 'मैं'
वह हूँ। हम बिंदु नहीं जो महासागर में मिलकर खो जायें, हममें प्रत्येक
"संपूर्ण सीमाहीन सिंधु है, और इसकी सत्यता की उपलब्धि हमें तब होगी, जब हम
माया की बेड़ियों से मुक्त हो जाएंगे। असीम को विभक्त नहीं किया जा सकता,
द्वेतरहित एक का द्वितीय नहीं हो सकता, सब कुछ वही एक 'है'। यह ज्ञान सभी को
प्राप्त होगा, किंतु हमें उसे अभी प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना चाहिए;
क्योंकि जब तक हम उसे प्राप्त नहीं कर लेते, हम मानव जाति की वस्तुतः उत्तम
सहायता नहीं कर सकते। जीवन्मुक्त (जीवित रहते हुए मुक्त अथवा ज्ञानी) ही केवल
यथार्थ प्रेम, यथार्थ दान, यथार्थ सत्य देने में समर्थ होता है और सत्य ही
हमें मुक्त करता है। कामना हमें दास बताती है, मानो वह एक अतृप्य अत्याचारी
शासिका है जो अपने शिकार को चैन नहीं लेने देती; किंतु जीवन्मुक्त व्यक्ति इस
ज्ञान तक पहुँचकर कि वह अद्वितीय ब्रह्म है और उसे अन्य कुछ काम नहीं है, सभी
कामनाओं को जीत लेता है।
मन हमारे समक्ष-देह, लिग, संप्रदाय, जाति, बंधन-आदि सभी श्रमों को उपस्थित
करता है; इसलिए जब तक मन को सत्य की उपलब्धि न हो जाए, तब तक उससे निरंतर सत्य
कहते रहना है ! हमारा असली स्वरूप आनंद है, और संसार में जो कुछ सुख हमें
मिलता है, वह उस परमानंद का केवल प्रतिबिंब, उसका अणुमात्र भाग है, जो हम अपने
असली स्वरूप के स्पर्श से पाते हैं। वहाँ सुख और दुःख दोनों से परे है, वह
विश्व का 'द्रष्टा' है, ऐसा अपरिवर्तनीय पाठक है, जिसके समक्ष जीवन-ग्रंथ के
पृष्ठ खुलते चले जाते हैं।
अभ्यास से योग, योग से ज्ञान, ज्ञान से प्रेम और प्रेम से परमानंद की प्राप्ति
होती है। 'मुझे और मेरा' एक अंधविश्वास हैं; हम उसमें इतने समय रह चुके हैं कि
उसे दूर करना प्रायः असंभव है। परंतु यदि हमें सर्वोच्च स्तर पर पहुँचना है तो
हमें इससे अवश्य मुक्त होना चाहिए! हमें सुखी और प्रसन्न होता चाहिए; मुंह
लटकाने से धर्म नहीं बनता। धर्म संसार में सर्वाधिक आनंद की वस्तु होना चाहिए,
क्योंकि वही सर्वोत्तम वस्तु है। तपस्या हमें पवित्र नहीं बना सकती। जो
व्यक्ति भगवत्-प्रेमी और पविश्न है, वह दु:खी क्यों होगा? उसे तो एक सुखी
बच्चे के समान होना चाहिए, क्योंकि वह तो सचमुच भगवान् की ही एक संतान है।
धर्म में सर्वोपरि बात चित्त को निर्मल करने की है। स्वर्ग का राज्य हमारे
भीतर है, पर केवल निर्मल चित्त व्यक्ति ही राजा के दर्शन कर सकता है। जब हम
संसार का चिंतन करते हैं, तब हमारे लिए संसार ही होता है, किंतु यदि हम उसके
पास इस भाव से जायें कि वह ईश्वर है तो हमें ईश्वर की प्राप्ति होगी। हमारा
ऐसा चिंतन प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति होता चाहिए-माता-पिता,
बच्चे, पति, पत्नी, मिश्र और शत्रु, सब के प्रति। सोचो तो, हमारे लिए समग्र
विश्व कितना बदल जाए, यदि हम चेतनापूर्वक उसे ईश्वर से भर सकें! ईश्वर के
अतिरिक्त और कुछ न देखो। तब हमारे सभी दुःख, सभी संघर्ष, सभी कष्ट सदैव के लिए
हमसे छूट जाएंगे।
ज्ञान 'मतवादविहीन' है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वह मतों से चुणा करता
है। इसका अर्थ सिर्फ़ यह है कि (ज्ञानद्वारा) मतों से परे और ऊपर की स्थिति को
प्राप्त कर लिया गया है। ज्ञानी विनाश करने की इच्छा नहीं रखता, अपितु सभी की
सहायता करता है। जिस प्रकार सभी नदियाँ अपना जल सागर में प्रवाहित करती हैं और
उससे एकीभूत हो जाती हैं, उसी प्रकार विभिन्न सम्प्रदायों से ज्ञान की
उपलब्धि होना चाहिए और उन्हें एक हो जाता चाहिए।
प्रत्येक वस्तु की सत्यता ब्रह्म पर निर्भर है और इस सत्य की यथार्थतः उपलब्धि
करने पर ही हम किसी सत्य को प्राप्त कर पाते हैं। जब हम कोई भेद-दर्शन नहीं
करते, तभी हम अनुभव करते हैं. कि 'मैं और मेरे पिता एक हैं।'
भगवद्गीता में कृष्ण ने ज्ञान का अतीव स्पष्ट उपदेश किया है। यह महान्काव्य
समस्त भारतीय साहित्य का मुकुटमणि माना जाता है। यह वेदों पर एक प्रकार का
भाष्य है। वह हमें दिखाता है कि आध्यात्मिक संग्राम इसी जीवन में लड़ा जाना
चाहिए; अतः हमें उससे भागना नहीं चाहिए, अपितु उसको विवश करना चाहिए कि जो कुछ
उसमें है, वह उसे हमें प्रदान करे। चूँकि गीता उच्चतर वस्तुओं के लिए इस
संघर्ष का प्रतिरूप है, इसलिए उसके दृश्य को रणक्षेत्र के मध्य प्रस्तुत करना
अतीव काव्यमय हो गया है। विरोधी सेनाओं में से एक के नेता अर्जुन के सारथी के
वेश में कृष्ण उसे दुःखी न होने और मृत्यु सेन डरने की प्रेरणा देते हैं,
क्योंकि वे जानते हैं कि वह वस्तुत: अमर है, और मनुष्य के प्रकृत स्वरूप में
किसी भी विकारशील वस्तु का स्थान नहीं है। अध्याय के बाद अध्याय में कृष्ण
दर्शन और धर्म की उच्च शिक्षा अर्जुन को देते हैं। यही शिक्षाएँ इस काव्य को
इतना अद्भुत बनाती हैं, वस्तुतः समस्त वेदांत दर्शन उसमें समाविष्ट है। वेदों
का उपदेश है कि आत्मा असीम है और किसी प्रकार भी शरीर की मृत्यु से प्रभावित
नहीं होती; आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है और जिसका केंद्र
किसी देह में होता है। मृत्यु (तथाकथित) केवल्ल इस केंद्र का परिवर्तन है।
ईश्वर एक ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है और जिसका केंद्र सर्वत्र है
और जब हम देह के संकीर्ण केंद्र से निकल सकेंगे, हम ईश्वर को प्राप्त कर
लेंगे जो हमारा वास्तविक आत्मा है।
वर्तमान, भूत और भविष्य के बीच एक सीमा-रेखा मात्र है; अतः हम विवेक-पूर्वक यह
नहीं कह सकते कि हम केवल वर्तमान की ही चिंता करते हैं, क्योंकि भूत और भविष्य
से भिन्न उसका कोई अस्तित्व नहीं है। वे सब एक पूर्ण हैं; काल की कल्पना तो एक
उपाधि मात्र है, जिसे हमारी विचार-शक्ति ने हम पर आरोपित किया है।
[ ३ ]
ज्ञान हमें शिक्षा देता है कि संसार को त्यागना चाहिए, किंतु इसी कारण से उसे
छोड़ना नहीं चाहिए। संन्यासी की सच्ची कसौटी है, संसार में रहना किंतु संसार
का न होना। त्याग की यह भावना सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में सामान्यतः
रही है। ज्ञान का दावा है कि हम सभी को समान भाव से देखें-केवल 'समत्व' का ही
दर्शन करें। निंदा-स्तुति, भला-बुरा और शीत-उष्ण सभी हमें समान रूप से ग्राह्य
होना चाहिए। भारत में ऐसे अनेक महात्मा हैं जिनके विषय में यह अक्षरशः सत्य
है। वे हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों पर अथवा मरुभूमि की प्रदाहमयी बालुका पर
पूर्ण विवस्त्र और तापमान के अंतरों से पूर्ण अचेतन जैसे विचरण करते हैं।
सर्वप्रथम हमें देह रूप कुसंस्कार को त्यागना है। हम देह नहीं हैं। इसके बाद
इस कुसंस्कार को भागना चाहिए कि हम मन हैं। हम मन नहीं हैं, यह केवल रेशमी
'देह' है, आत्मा का कोई अंश नहीं। लगभग सभी चीज़ों में लागू होनेवाले 'देह'
शब्द में ऐसा कुछ निहित है जो सभी देहों में सामान्यतः विद्यमान है। यह
'सत्ता' है। हमारे शरीर उन विचारों के प्रतीक हैं जो उनके पीछे हैं और वे
विचार भी अपने क्रम में अपने पीछे की किसी वस्तु के प्रतीक हैं, वही एक
वास्तविक सत्ता है-हमारी आत्मा की आत्मा, विश्व की आत्मा, हमारे जीवन का जीवन,
हमारी वास्तविक आत्मा। जब तक हममें विश्वास है कि हम ईश्वर से किंचित् भी
भिन्न हैं, भय हमारे साथ रहता है।
[4]
किंतु एकत्व का ज्ञान हो जाता है तो नहीं रहता। हम डरें किससे? ज्ञानी केवल
इच्छा-शक्ति से जगत् को मिथ्या बनाते हुए शरीर और मन से अतीत हो जाता है। इस
प्रकार बहू अविद्या का नाश करता है और वास्तविक आत्मा को जन लेता है। सुख और
दुःख केवल इंद्रियों में हैं, वे हमारे प्रकृत स्वरूप का स्पर्श नहीं कर सकते।
आत्मा देश, काल और निमित्त से परे है और इसी लिए सीमातीत तथा सर्वव्यापी है।
ज्ञानी को सभी नाम-रूपों से छुटकारा पाना ही है। उसे सभी नियमों और शास्त्रों
से परे होना है एवं स्वयं अपना शास्त्र बनना है। नाम-रूप के बंधन से ही हम जीव
भाव को प्राप्त होते और मरते हैं। तथापि ज्ञानी को कभी उसे निंदनीय न समझना
चाहिए, जो अब भी नामरूप के परे नहीं हो सका है। उसे कभी दूसरे के विषय में ऐसा
सोचना भी न चाहिए कि "में तुमसे अधिक पवित्र हूँ। सच्चे ज्ञानयोगी के ये लक्षण
हैं-(१) वह ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ कामना नहीं करता। (२) उसकी सभी इंद्रियाँ
पूर्ण नियंत्रण में रहती हैं वह चुपचाप सभी कष्ट सहन कर लेता है। उन्सुक्त
आकाश के नीचे नग्न वसुंधरा पर उसकी शैय्या हो या वह राजमहल में निवास करे, वह
समानरूपेण संतुष्ट रहता है। वह किसी कष्ट का परिहार नहीं करता, वरन् उसे
बरदाश्त और सहन कर लेता है। वह आत्मा के अतिरिवत और सभी वस्तु छोड़ देता है।
(३) वह जानता है कि एक ब्रह्म की छोड़कर अन्य सब मिथ्या है। (४) उसे मुक्ति की
तीव्र इच्छा होती है। प्रबल इच्छा-शक्ति द्वारा वह अपने मन को उच्चतर वस्तुओं
पर दृढ़ रखता है और इस प्रकार शांति प्राप्त करता है। यदि हम शांति को प्राप्त
न कर सकें तो हम पशुओं से किस प्रकार बढ़कर है? वह (ज्ञानी) सब कुछ दूसरों के
लिए प्रभु के लिए करता है; वह सभी कर्मफलों का त्याग करता है और इहलौकिक तथा
पारलौकिक फलों की आशा नहीं करता। हमारी आत्मा से अधिक विश्व हमें क्या दे सकता
है? उस आत्मा को प्राप्त करने से हम सब' प्राप्त कर लेते हैं। बेदों की शिक्षा
है कि आत्मा या सत्य एक अविभक्त सत् वस्तु है। वह मन, विचार या चेतना, जैसा
कि हम उसे जानते हैं, इनसे भी परे है। सभी वस्तुएँ उसी से हैं। वह वही है,
जिसके माध्यम से (अथवा जिसके कारण से) हम देखते, सुनते, अनुभव करते और सोचते
हैं। विश्व का लक्ष्य ऊँ या एकमात्र सत्ता से एकत्व प्राप्त करना है। ज्ञानी
को सभी रूपों से मुक्त होना पड़ता है; न तो वह हिंदू है, न बौद्ध, व ईसाई,
अपितु वह तीनों ही है। जब सभी कर्मफलों का त्याग किया जाता है, प्रभु को
अर्पित किया जाता है, तब किसी कर्म में बंधन की शक्ति नहीं रह जाती। ज्ञानी
अत्यंत बुद्धिवादी होता है, वह हर वस्तु अस्वीकार कर देता है। वह दिन-रात
अपने से कहता है, "कोई आस्था नहीं है, कोई पवित्र शब्द नहीं है, स्वर्ग नहीं,
धर्म नहीं, नरक नहीं, संप्रदाय नहीं, केवल आत्मा है।" सब कुछ निकाल देने पर जो
नहीं छोड़ा जा सकता, वहाँ जब मनुष्य पहुँच जाता है तो केवल आत्मा रह जाती है।
ज्ञानी किसी बात को स्वयंसिद्ध नहीं मानता; वह शुद्ध विवेक और इच्छा-शक्ति
द्वारा विश्लेषण करता रहता है, और अंततः निर्वाण तक पहुँच जाता है, जो समस्त
सापेक्षिकता की समाप्ति है। इस अवस्था का वर्णन या कल्पना मात्र तक संभव नहीं
है। ज्ञान को कभी किसी पाथिव फल से जाँचा नहीं जा सकता। उस गुद्ध के समान न
बनो, जो दृष्टि से परे उड़ता है, किंतु जो सड़े मांस के एक टुकड़े को देखते ही
नीचे झपटने को तैयार रहता है। शरीर स्वस्थ होने तथा दी्ध जीवन या समृद्धि की
कामना न करो; केवल मुक्त होने की इच्छा करो;
हम हैं सच्चिदानंद। सत्ता विश्व का अंतिम सामान्यीकरण है; अतः हमारा अस्तित्व
है, हम यह जानते हैं, और आनंद अमिश्रित सत्ता का स्वाभाविक परिणाम है। जब हम
आनंद के सिवा न तो कुछ माँगते हैं, न कुछ देते और न कुछ जानते हैं, तब कभी कभी
हमें परमानंद का एक कण मिल जाता है। किंतु वह आनंद फिर चला जाता है और हम
विश्व के दृश्य को अपने समक्ष चलते हुए देखते हैं और हम जानते हैं कि 'वह उस
ईश्वर पर किया हुआ एक पच्छकारी का काम है जो सभी वस्तुओं की पृष्ठभूमि है।'
(ज्ञान के बाद) जब हम पृथ्वी पर पुनः लौटते हैं और निरपेक्ष परम को सापेक्ष
रूप में देखते हैं, तब हम सच्चिदानंद को ही त्रिमूर्ति-पिता, पुत्र और पवित्र
आत्मा के रूप में देखते हैं। सत् = सर्जक तत्त्व; चित्=परिचालक तत्त्व; आनंद
= साक्षात्कारी तत्त्व जो हमें फिर उसी एकत्व के साथ सम्बद्ध करता है। कोई भी
सत् को ज्ञान (चित्) के अतिरिक्त अन्य उपाय से नहीं जान सकता। तभी ईसा के इस
कथन की गंभीरता समझ में आती है -'पुत्र के सिवाय कोई परम पिता को नहीं देख
सकता।' वेदांत की शिक्षा है कि निर्वाण अब और यहीं प्राप्त किया जा सकता है और
उसकी प्राप्ति के लिए मृत्यु की प्रतीक्षा महीं करनी है। निर्वाण आत्मानुभूति
है और एक बार, केवल एक ही क्षण के लिए यदि कोई इसको प्राप्त कर ले तो उसे
पृथक् व्यक्तित्व रूप मृग-तृष्णा द्वारा भ्रमित नहीं किया जा सकता है। चक्षु
होने पर तो हम मिथ्या को अवश्य देखेंगे, किंतु हम यह भी जान लेंगे कि वह किसके
लिए है-तब हम उसके यथार्थ स्वरूप को जान लेते हैं। केवल परदा (माया) ही है जो
उस अपरिवर्तनशील आत्मा को छिपाये रखता है। जब परदा हट जाता है, हम उसके पीछे
आत्मा को पा जाते हैं, पर सब परिवर्तन परदे में है। संत में परदा पतला होता है
और मानो आत्मा का प्रकाश दिखायी देता है; किंतु पापी लोगों में परदा मोटा होता
है और वे इस सत्य को नहीं देख पाते कि आत्मा वहाँ भी है, जैसे कि संतों के
पीछे।
केवल एकत्व में पहुँचकर ही सब तर्क समाप्त हो जाते हैं। इसलिए हम पहले
विश्लेषण करते हैं, फिर संश्लेषण। विज्ञान के जगत् में एक आधार-शक्ति की खोज
में दूसरी शक्तियाँ धीरे-धीरे संकीर्ण होती जाती हैं। जब भौतिक विज्ञान अंतिम
एकत्व को पूर्णतया समझ जाएगा तो वह एक अंत पर जा पहुँचेगा, क्योंकि एकत्व
प्राप्त करके हम विश्रांति या अंतिम को पाते हैं। ज्ञान ही अंतिम बात है।
सभी विज्ञानों में सर्वाधिक अनमोल विज्ञान, धर्म ने बहुत पहले ही उस अंतिम
एकत्व को खोज लिया था, जिसे प्राप्त करना ज्ञानयोग का लक्ष्य है। विश्व में
केवल एक ही आत्मा है, अन्य निम्त स्तर की जीवात्माएँ उसकी अभिव्यक्ति मात्र
हैं। लेकिन आत्मा अपनी सभी अभिव्यक्तियों से महती महीयान्
है। सभी कुछ आत्मा अथवा ब्रह्म ही है। साधु, पापी, शेर, भेड़, हत्यारे भी
यथार्थतः सिवा ब्रह्म के अन्य कुछ नहीं हो सकते। क्योंकि अन्य कुछ है ही नहीं।
एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। -'सहस्तु एक है, ब्रह्मविद् उसे तरह तरह से वर्णन
करते हैं।" इस ज्ञान से उच्चतर कुछ नहीं हो सकता और योग द्वारा लोगों के शुद्ध
अंत:करण में वह ज्ञान अचानक ही स्फुरित होता है। कोई जितना ही अधिक योग और
ज्ञान द्वारा शुद्ध और योग्य हो चुका है, उतना ही अनुभूति-स्फुरण स्पष्टतर
होता है। ४००० पूर्व इस योग का आविष्कार हुआ था, किंतु अब तक भी यह ज्ञान मानव
जाति की संपत्ति नहीं हो सका है। अब भी यह कुछ व्यक्तियों की ही संपत्ति है।
[ ४ ]
मनुष्य नामधारी सभी लोग अब भी यथार्थ मनुष्य नहीं है। प्रत्येक को इस संसार का
निर्णय अपने मन से करना होता है। उच्चतर बोध अत्यधिक कठिन है। अधिकतर लोगों को
साकार वस्तु भावात्मक वस्तु से अधिक जंचती है! इसके उदाहरण के रूप में एक
दृष्टान्त है। एक हिंदू और एक जैन बंबई के किसी धनी व्यापारी के घर में शतरंज
खेल रहे थे। घर समुद्र के निकट था खेल लंबा था, जिस छज्जे पर वे बैठे थे, उसके
नीचे जल-प्रवाह ने खिलाड़ियों का ध्यान आकृष्ट किया। एक ने उसे एक पौराणिक कथा
द्वारा समझाया कि देवगण अपने खेल में जल को एक बड़े गढ़े में डाल देते हैं और
फिर उसे वापस फेंक देते हैं। दूसरे ने कहा, "नहीं, देवता उसे एक ऊँचे पहाड़ पर
उपयोग के लिए खींचते हैं और जब उनका काम हो जाता है, वे उसे फिर नीचे फेंक
देते हैं।" एक नवयुवक विद्यार्थी, जो वहाँ उपस्थित था, उन पर हँसने लगा और
बोला, "क्या आप नहीं जानते कि चंद्रमा का आकर्षण ज्वार-भाटा उत्पन्न करता है?"
इस पर वे दोनों व्यक्ति, उससे क्रोधपूर्वक भिड़ गए और बोले कि क्या वह उन्हें
मूर्ख समझता है ? क्या वह मानता है कि चंद्रमा के पास ज्वार-भाटे को खींचने
के लिए कोई रस्सी है अथवा वह इतनी दूर पहुँच भी सकता है? उन्होंने इस प्रकार
की किसी भी मूर्खतापूर्ण व्याख्या को मानना अस्वीकार कर दिया। इसी अवसर पर
उनका मेंजबान कमरे में आया और दोनों पक्षों ने उससे पुनर्विचार की प्रार्थना
की। वह एक शिक्षित व्यक्ति था और सचमुच सत्य क्या है, यह जानता था, किंतु यह
देखकर कि शतरंज खेलनेवालों को यह समझाना अवश्य है, उसने विद्यार्थी को इशारा
किया और तब ज्वार-भाटे की ऐसी व्याख्या की जो उसके अज्ञ श्रोताओं को पूर्णतया
संतोषजनक मालूम हुई। उसने शतरंज खेलनेवाले से कहा, "आपको जानना चाहिए कि बहुत
दूर महासागर के बीच एक विशाल स्पंज का पहाड़ है। आप दोनों ने स्पंज देखा होगा
और जानते होंगे, मेरा आशय क्या है! स्पंज का यह पर्वत बहुत सा जल सोख लेता है
और तब समुद्र घट जाता है। धीरे-धीरे देवता उतरते हैं और स्पंज पर्वत पर नृत्य
करते हैं। उनके भार से सब् जल निचुड़ जाता है और समुद्र फिर बढ़ जाता है।
सज्जनो! ज्वार-भाटे का यही कारण है और आप स्वयं आसानी से समझ सकते हैं कि यह
व्याख्या कितनी युक्तिपूर्ण और सरल है। जो दोनों व्यक्ति ज्वार-भाटा उत्पन्त
करने में चंद्रमा की शक्ति का उपहास करते थे, उन्हें ऐसे स्पंज पर्वत में, जिस
पर देवता नृत्य करते हैं, कुछ भी अविद्वसनीय न लगा, देवता उनके लिए सत्य थे और
उन्होंने सचमुच स्पंज भी देखा था। तब उन दोनों का संयुक्त प्रभाव समुद्र पर
होना भी क्या असंभव था?
आराम सत्य की कसौटी नहीं है, प्रत्युत सत्य आरामदायक होने से बहुत दूर है। यदि
कोई सचमुच सत्य की खोज का इरादा करे तो उसे आराम के प्रति आसक्त न होना चाहिए।
सब कुछ छोड़ देना कठिन काम है, किंतु ज्ञानी को यह अवश्य करना पड़ता है। उसे
पवित्र बनना ही होगा, सभी कामनाओं को मारना होगा और अपने को शरीर के साथ
तादात्म्य से रोकना होगा | केवल तभी उसके अंत: करण में उच्चतर सत्य प्रकाशित
हो सकेगा। बलिदान आवश्यक है और निम्नतर जीवात्मा का यह बलिदान ऐसा आधारभूत
सत्य है, जिसने आत्म-त्याग को सभी धर्मों का एक अंग बना दिया है। देवताओं के
प्रति की जानेवाली सभी प्रसादक आहुतियाँ आत्म-त्याग की ही, जिसका कि कुछ
वास्तविक मूल्य है, अस्पष्ट रूप से समझी जानेवाली अनुकरण-हैं और अयथार्थ
आत्म-समर्पण से ही हम यथार्थ आत्म-साक्षात्कार कर सकते हैं। ज्ञानी को
शरीर-धारण के निमित्त चेष्टा न करनी चाहिए और न इच्छा करनी चाहिए। चाहे संसार
गिर पड़े, उसे दृढ़ होकर परम सत्य का अनुसरण करना चाहिए। जो 'धुनों' का अनुसरण
करते हैं, वे ज्ञानी कभी नहीं बन सकते। यह तो जीवन भर का का है; नहीं, सौ
जीवनों का कार्य है। बहुत थोड़े लोग ही अपने भीतर ईश्वर के साक्षात्कार करने
का साहस करते हैं और स्वर्ग, साकार ईश्वर तथा पुरस्कार की सभी आशाओं का त्याग
करने का साहस रखते हैं। उसे सिद्ध करने के लिए, दृढ़ इच्छा की आवश्यकता होती
है, आगा-पीछा करना भी भारी दुर्बलता का चिह्न है। मनुष्य सदैव पूर्ण है,
अन्यथा वह कभी ऐसा न बन पाता। किंतु उसे यह प्राप्त करना है। यदि मनुष्य
कार्य-कारणों से बद्ध हो तो वह केवल मरणशील हो सकता है। अमरत्व तो केवल
निरुपाधिक के लिए ही सत्य हो सकता है। आत्मा पर किसी वस्तु की किया नहीं हो
सकती-यह विचार सिर्फ भ्रम है; किंतु मनुष्य को उस तत् के साथ अपना तादात्म्य,
स्वात्मनि क्रियाभाव, करना ही होगा, शरीर या मन से नहीं। उसे यह बोध होना
चाहिए कि वह विश्व का द्रष्टा है, तब वह उस अद्भुत अस्थायी दृश्यावली का आनंद
ले सकता है, जो उसके सामने निकल रही है। उसे स्वयं से यह भी कहना चाहिए कि
'मैं विश्व हूँ, मैं ब्रह्म हूँ।' जब मनुष्य "वास्तव में" स्वयं का उस एक
आत्मा के साथ तादात्म्य कर लेता है, उसके लिए सभी कुछ संभव हो जाता है और सभी
पदार्थ उसके सेवक हो जाते हैं। जैसा श्री रामकृष्ण ने कहा है-जब मक्खन निकाल
लिया जाता है तो वह दूध या पानी में रखा जा सकता है और दोनों में से किसी में
न मिलेगा; इसी प्रकार मनुष्य जब आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है तो वह संसार
द्वारा दूषित नहीं किया जा सकता।
एक गुब्बारे से नीचे की स्वल्प भिन्नताएँ परिलक्षित नहीं होतीं; इसी प्रकार जब
मनुष्य अध्यात्म क्षेत्र में पर्यात ऊँचा उठ जाता है, वह भले और बुरे लोगों का
भेद नहीं देख पाता; एक बार घट पका दिए जाने पर उसका आकार नहीं बदला जा सकता।
इसी प्रकार, जिसने एक बार प्रभु का स्पर्श कर लिया और जिसे अग्नि की दीक्षा
मिल गई, उप्ते बदला नहीं जा सकता। संस्कृत में दर्शन का अर्थ है, सम्यक्
दर्शन और धर्म व्यावहारिक दर्शन है। भारत में केवल सैद्धांतिक और आनुमानिक
दर्शन का बहुत आदर नहीं है। वहाँ कोई संप्रदाय, मत और पंथ (dogma) नहीं है। दो
मुख्य विभाग हैं-दैतवादी और अद्वैतवादी। पहले पक्ष के लोग कहते हैं, 'मुक्ति
का भाग ईश्वर की दया से लभ्य है, कार्य-कारण का वियम एक बार चालू हो जाने पर
कभी तोड़ा नहीं जा सकता; केवल ईश्वर, जो नियम से बद्ध नहीं है, अपनी दया से,
हमें इसे तोड़ने यें सहायता देता है।' दूसरे पक्ष का कहना है, "इस सारी
प्रकृति के पीछे कुछ है, जो मुक्त है और उस वस्तु के मिलने से, जो सभी नियमन
से परे है, हम स्वतंत्र हो जाते हैं और स्वतंत्रता हा मुक्ति है। द्वैतवाद
केवल एक अवस्था है, लेकिन अद्वैतवाद अंत तक ले जाता है। पवित्रता ही मुक्ति का
सबसे सीधा मार्ग है। जो हम कमायेंगे, वही हमारा है। कोई शास्त्र या कोई आस्था
हमें नहीं बचा सकती। यदि कोई ईश्वर है तो 'सभी' उसे पा सकते हैं। किसी को यह
बताने की आवश्यकता नहीं होती कि गर्मी है। प्रत्येक उसे स्वयं जान सकता है।
ऐसा ही ईश्वर के लिए होना चाहिए। वह सभी की चेतना में एक तथ्य होना चाहिए।
हिंदू 'पाप' को वैसा नहीं मानते, जैसा कि पाश्चात्य विचार से समझा जाता है।
बुरे काम पाप नहीं है, उन्हें करके हम किसी शासक को (परम पिता को) अप्रसन्न
नहीं करते, हम स्वयं अपने को हानि पहुँचाते हैं और हमें दंड भी सहना होगा। आग
में किसी का अंगुली रखना पाप नहीं है, किंतु जो कोई रखेगा, उसे उतना ही दुःख
उठाना होगा। सभी कर्म कोई न कोई फल देते हैं और 'प्रत्येक कर्म कर्ता के पास
लौटता है।' एकेश्वरवाद का ही पूर्ववर्ती रूप त्रिमूर्तिवाद (जो कि द्वैतवाद है
अर्थात् मनुष्य और ईश्वर सदैव के लिए पृथक) है। ऊपर (परमार्थ) की ओर पहला कदम
तब होता है, जब हम अपने को ईश्वर की संतान मान लेते हैं और तब अंतिम क़दम होता
है, जब हम अपने को केवल एक आत्मा के रूप में अनुभव कर लेते हैं।
[ ५ ]
यह प्रश्न कि नित्य शरीर क्यों नहीं हो सकते, स्वयं ही अर्थहीन है, क्योंकि
'शरीर' एक ऐसा शब्द है, जो मौलिक द्रव्य के एक विशेष संघात के प्रति प्रयुक्त
होता है, जो परिवर्तनशील है और जो स्वभाव से ही अस्थायी है। जब हम परिवर्तनों
के बीच नहीं गुजरते, हम तथाकथित शरीरधारी जीव नहीं होते। 'जड़-पदार्थ' जो देश,
काल और निमित्त की सीमा के परे हो, जड़ हो ही नहीं सकता। स्थान ओर काल केवल
हममें विद्यमान हैं; लेकिन हम तो यथार्थंतः एक और नित्य आत्मा ही हैं। सभी
नाम-रूप परिवर्तनशील हैं, इसी लिए सब धर्म कहते हैं, 'ईश्वर का कोई आकार नहीं
है।'मिलिंद एक यूनानी बैक्ट्रियन राजा था, वह लगभग १५० वर्ष ईसा पूर्व एक
बौद्ध धर्म प्रचारक संन्यासी द्वारा बौद्ध कर्म में दीक्षित कर लिया गया और
उनके द्वारा उसे "मिलिंद' कहा गया। उसने अपने गुरु एक तरुण संन्यासी से पूछा,
"क्या (बुद्ध जैसे) सिद्ध मनुष्य कभी भूल कर सकते हैं?" तरुण संन्यासी का
उत्तर था, "सिद्ध मनुष्य ऐसी साधारण बातों में अज्ञान में रह सकते हैं, जो
उसके अनुभव में न आवें, किंतु वह ऐसी बातों में भूल नहीं" कर सकते, जो कि उसकी
अंतर्दृष्टि ने सचमुच प्रत्यक्ष पा ली हों। वह तो अब और यहाँ पूर्णतया सिद्ध
है; वे विश्व का सारा रहस्य या मूल तत्त्व स्वयं जानते हैं, किंतु वे केवल
बाह्य भिन्नताओं को नहीं जान सकते हैं, जिनके माध्यम से वह तत्त्व स्थान और
काल में प्रकट होता है। वे स्वयं मृत्तिका को जानते हैं, पर जिन-जिन रूपों में
उसे परिणत किया जा सकता है, उनमें से प्रत्येक का अनुभव नहीं रखते। सिद्ध
मनुष्य स्वयं आत्मा को तो जानता है, किंतु उसकी अभिव्यक्ति के प्रत्येक रूप और
संघात को नहीं। जैसा कि हम कहते हैं, उन्हें भी इसके लिए ऐसा और अधिक
सापेक्षिक ज्ञान प्राप्त करना होगा, यद्यपि अपनी महान् आध्यात्मिक शक्ति के
कारण वे उसे अत्यधिक शीघ्रता से सीख लेंगे।
पूर्णतया संयत मन का प्रकाशपुंज (सर्चलाइट) जब किसी विषय पर डाला जाता है तो
वह उसे शीघ्र ही आयत्त कर लेता है। इसे समझना बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है,
क्योंकि इससे इस प्रकार की अत्यंत मूर्खतापूर्ण व्याख्या का निरसन होगा कि एक
बुद्ध या ईसा साधारण सापेक्षिक (जागतिक) ज्ञान के संबंध में क्यों भूल में थे,
जो कि वे थे, जेसा कि हम भली-भाँति जानते हैं। उनके उपदेशों को गलत ढंग से
प्रस्तुत करने का दोष उनके शिष्यों पर नहीं मढ़ा जा सकता। उनके वक्तव्यों
में-यह कहना कि एक बात सत्य है और दूसरी असत्य, निरर्थक है। या तो पूर्ण विवरण
स्वीकार करो या अस्वीकार करो। 'हम' असत्य में सत्य को कैसे ढूंढ़कर निकालेंगे?
एक घटना यदि एक बार घटती है, तो वह फिर भी घट सकती है। यदि किसी मनुष्य ने कभी
पूर्णता प्राप्त की है तो हम भी ऐसा कर सकते हैं। यदि हम यहाँ अभी पूर्ण नहीं
हो सकते तो हम किसी स्थिति में या स्वर्ग में या ऐसी दशा में, जिसकी कि हम
कल्पना कर सकें, पूर्ण नहीं हो सकते हैं। यदि ईसा मसीह पूर्ण नहीं थे तो जो
धर्म उनके नाम पर चल रहा है, वह भूमिसात हो जाता है। यदि वे पूर्ण थे तो हम भी
पूर्ण बन सकते हैं। पूर्ण व्यक्ति उसी प्रकार से तक नहीं करते या 'जानते हैं,
जैसा हम "जानने" का अर्थ समझते हैं। क्योंकि हमारा सारा ज्ञान तुलना पर आधारित
है और असीम वस्तु में कोई तुलना, कोई वर्गीकरण संभव नहीं है। बुद्धि की
अपेक्षा मूल प्रवृत्ति कम भूल करती है, किंतु बुद्धि का स्तर उससे उच्च है, और
बुद्धि स्वस्फुरित ज्ञान की ओर ले जाती है। प्राणियों में तीन स्तर की
अभिव्यक्तियाँ हैं-(१) अवचेतन-यंत्रवत, भूल न करने वाले; (२) चेतन-जानने वाले,
भूल करने वाले; (३) अतिचेतन-अतींद्रिय-ज्ञान-संपन्न, भूल न करने वाले और उनका
दृष्टांत पशु, मनुष्य और ईश्वर में है। जो मनुष्य पूर्ण हो चुका है, उसके लिए
अपने ज्ञान-प्रयोग के अतिरिक्त और कुछ करना शेष नहीं रह जाता। वह केवल संसार
की सहायता करने के लिए जीवित रहता है, अपने लिए वह कुछ कामना नहीं करता। जिससे
भेद उत्पन्न होता है, वह तो निषेधात्मक है। भावात्मक तो सदैव अधिक से अधिकतर
विस्तृत होता जाता है। जो हममें सामान्य रूप से विद्यमान है, वह सबसे अधिक
विस्तृत है और वह है 'सत्' या अस्तित्व।
नियम घटनाओं की एक माला की व्याख्या के लिए एक मानसिक शार्ट-हैण्ड या सांकेतिक
लिपि है', किंतु एक सत्ता के रूप में, ऐसा कहना चाहिए, नियम का कोई अस्तित्व
नहीं है। गोचर संसार में कतिपय घटनाओं के नियमित क्रम को व्यक्त करने के लिए
हम इस (नियम) शब्द का प्रयोग करते हैं। हमें नियम को एक अंधविश्वास न बन जाने
देना चाहिए, कुछ ऐसे अपरिहार्य सिद्धांत न बनने देना चाहिए, जो हमें मानना ही
पड़े। बुद्धि से भूल तो अवश्य होती है, किंतु भूल को जीतने का संघर्ष ही तो
हमें देवता बनाता है। शरीर के दोष को निकालने के लिए रोग प्रकृति का एक प्रकार
से संघर्ष है, और हमारे भीतर से पशुत्व को निकालने के लिए पाप हमारे भीतर के
देवत्व का संघर्ष है। हमें ईश्वर त्व तक पहुँचने के लिए कभी-कभी भूल या पाप
करना होगा।
किसी पर दया न करो। सबको अपने समान देखो। अपने को असाम्य रूप आदिम पाप से
मुक्त करो। हम सब समान हैं और हमें यह न सोचना चाहिए, 'मैं भला हूँ और तुम
बुरे हो और मैं तुम्हारे पुनरुद्धार का प्रयत्त कर रहा हूँ।' साम्य भाव मुक्त
पुद्ध का लक्षण है। ईसा मसीह नातेदारों और पापियों के पास गए थे और उनके पास
रहे थे। उन्होंने कभी अपने को ऊँचा नहीं समझा। केवल पापी ही पाप देखता है।
मनुष्य को न देखो, केवल प्रभु क्रो देखो। हम स्वयं अपना स्वर्ग बनाते हैं और
नरक में भी स्वर्ग बना सकते हैं। पापी केवल नरक में मिलते हैं, और जब तक हम
उन्हें अपने चारों ओर देखते हैं-हम स्वयं वहाँ (नरक में) होते हैं। आत्मा न तो
काल में है और न देश में है। अनुभव करो, मैं पूर्ण सत्, पूर्ण चित् और पूर्ण
आनंद हूँ-सोअहमस्मि, सोअहमस्मि।
जन्म पर प्रसन्न हो, मृत्यु पर प्रसन्न हो, सदैव ईश्वर के प्रेम में आनंद
मनाओ, शरीर के बंधन से मुक्ति प्राप्त करो। हम उसके दास हो गए हैं और हमने
अपना श्रृंखलाओं को हृदय से लगाना और अपनी दासता से प्रेम करना सीख लिया
है-इतना अधिक कि हम उसे चिंतन करना चाहते हैं और सदा-सदा के लिए 'शरीर' के साथ
चलना चाहते हैं। देह-बुद्धि से आसक्त न होना और भविष्य में दूसरा शरीर धारण
करने की आजा न रखना। उन लोगों के शरीर से भी प्रेम न करो और न उनके शरीर की
इच्छा करो, जो हमें प्रिय हैं। यह जीवन हमारा शिक्षक है और इसकी मृत्यु द्वारा
केवल नए शरीर धारण करने का अवसर होता है। शरीर हमारा शिक्षक है किंतु आत्मघात
करना मूर्खता है, क्योंकि इससे 'शिक्षक' ही मर जाएगा और उसका स्थान दूसरा शरीर
ग्रहण कर लेगा। इस प्रकार जब तक हम शरीर-बुद्धि से मुक्त होना नहीं सीख लेते,
हमें उसे रखना ही होगा। अन्यथा एक को खोने पर हम दूसरा प्राप्त करेंगे। तथापि
हमें शरीर से तादात्म्य भाव न रखना चाहिए, अपितु उसे केवल एक साधन के रूप में
देखना चाहिए, जिसका पूर्णता प्राप्त करने में उपयोग किया जाता है। श्री
रामभक्त हनुमान जी ने इन शब्दों में अपने दर्शन का सारांश कहा, "मैं जब देह से
अपना तादात्म्य करता हूँ तो मैं आपका दास हूँ, आपसे सदैव पृथक् हूँ। जब मैं
अपने को जीव समझता हूँ तो मैं उसी दिव्य प्रकाश या आत्मा की चिनगारी हूँ, जो
कि तू है। किंतु जब अपने को आत्मा से तदाकार करता हूँ तो मैं और तू एक हो ही
जाते हैं।
[5]
इसलिए ज्ञानी केवल आत्मा के साक्षात्कार का ही प्रयत्न करता है और कुछ नहीं।
[ ६ ]
विचार बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि 'जो कुछ हम सोचते हैं, वही हम हो
जाते हैं।' एक समय एक संन्यासी एक पेड़ के नीचे बैठता था और लोगों को पढ़ाया
करता था। वह केवल दूध पीता था और फल खाता था और असंख्य प्राणायाम किया करता
था। फलतः अपने को बहुत पवित्र समझता था। उसी गाँव में एक कुलटा स्त्री रहती
थी। प्रतिदिन संन्यासी उसके पास जाता था और उसे चेतावनी देता था कि उसकी
दुष्टता उसे नरक में ले जाएगी। बेचारी स्त्री अपने जीवन का ढंग नहीं बदल पाती
थी, क्योंकि वही उसकी जीविका का एकमात्र उपाय था, फिर भी वह उस भयंकर भविष्य
की कल्पना से सहम जाती थी, जिसे संन्यासी ने उसके समक्ष चित्रित किया था। वह
रोती थी और प्रभु से प्रार्थना करती थी कि वे उसे क्षमा करें क्योंकि वह अपने
को रोक न पाती थी। कालान्तर में कुलटा स्त्री और संन्यासी दोनों ही मरे।
स्वर्ग-दूत आए और उसे स्वगें ले गए, जब कि संन्यासी की आत्मा को यमदूतों ने
पकड़ा। वह चिल्लाया, "ऐसा क्यों? क्या मैंने पवित्रतम जीवन नहीं बिताया है और
प्रत्येक मनुष्य को पवित्र होने की शिक्षा नहीं दी है? मैं नरक में क्यों ले
जाया जाऊँ, जब कि यह कुलटा स्त्री स्वर्ग ले जायी जा रही है।" यमदूतों ने
उत्तर दिया, 'क्योंकि जब वह अपवित्र कार्य करने को विवश थी, उसका मन सदैव
भगवान में लगा रहता था और वह मुक्ति माँगती थी, जो अब उसे मिली है। किंतु इसके
विपरीत तुम यद्यपि पवित्र कार्य ही करते थे, परंतु अपना मन सदैव दूसरों की
दुष्टता पर ही रखते थे, तुम केवल पाप देखते थे और केवल पाप का ही विचार करते
थे और इसलिए अब तुम्हें उस स्थान को जाना पड़ रहा है, जहाँ केवल पाप ही पाप
है। इस कहानी की शिक्षा स्पष्ट है। बाह्य जीवन कम महत्त्व का होता है, हृदय
शुद्ध होना चाहिए और शुद्ध हृदय केवल शुभ को ही देखता है, अशुभ को कभी तहीं।
हमें मनुष्य जाति के अभिभावक बनने का कभी चेष्टा न करनी चाहिए, न कभी पापियों
का सुधार करने वाले संत के रूप में वक्तृता-मंच पर खड़े होना चाहिए। अच्छा
हो, यदि हम अपने को पवित्र करें, और फलस्वरूप हम दूसरे की यथार्थ सहायता भी
करेंगे।
भौतिक विज्ञान की दोनों सीमाएँ (प्रारंभ और अंत) अध्यात्म विद्या द्वारा
आवेष्टित हैं। यही बात तक के विषय में है। वह अतक से प्रारंभ होकर फिर अत में
ही समाप्त होता है। यदि हम जिज्ञासा को इंद्रियजन्य बोध के क्षेत्र में बहुत
दूर तक ले जायें तो हम बोध से परे के एक स्तर पर पहुँच जाएंगे। तक तो वास्तव
में स्मृति द्वारा सुरक्षित, संगृहीत और वर्गीकृत बोध ही है। हम अपने
इंद्रिय-बोध से परे न तो कल्पना कर सकते हैं और न तर्क कर सकते हैं। तर्क से
परे कोई भी वस्तु इंद्रिय-ज्ञान का विषय नहीं हो सकती है। हम तर्क के सीमाबद्ध
रूप को अनुभव करते हैं, फिर भी वह हमें एक ऐसे स्तर पर ले जाता है, जहाँ हम
उससे कुछ परे की वरतु की भी झलक पाते हैं। तब प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य
के पास तर्कोपरि कोई साधन है? यह बहुत संभव है कि मनुष्य में तर्क से परे
पहुँचाने की सामर्थ्य हो, वास्तव में सभी युगों में संतों ने अपने इस सामर्थ्य
की अवस्थिति निश्चित रूप से कही है। किंतु वस्तुओं के स्वभावानुसार अध्यात्मिक
विचारों तथा अनुभव को तक की भाषा में अनूदित करना असंभव है और इन सभी संतों ने
अपने आध्यात्मिक अनुभव को प्रकट करने में अपनी असमर्थता घोषित की है। सचमुच
भाषा उन्हें शब्द नहीं दे सकती, ताकि केवल यह कहा जा सके कि ये वास्तविक अनुभव
हैं और सभी के द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं। केवल इसी प्रकार वे (अनुभव)
जाने जा सकते हैं, किंतु वे कभी वर्णित नहीं किये जा सकते। धर्म वह विज्ञान है
जो मनुष्य में स्थित अतींद्रिय माध्यम से प्रकृति में स्थित अतींद्रिय का
ज्ञान प्राप्त करता है। अब भी हम मनुष्य के विषय में बहुत कम जानते हैं, फलतः
विश्व के संबंध में भी बहुत कम जानते हैं। जब हम मनुष्य के विषय में और अधिक
ज्ञान प्राप्त करेंगे, तव हम विश्व के विषय में संभवतः और अधिक जान जाएंगे।
मनुष्य सभी वस्तुओं का सार-संग्रह है और उसमें संपूर्ण ज्ञान निहित है। विश्व
के केवल उस अति क्षुद्र भाग के विषय में, जो हमारे इंद्रिय-बोध में आता है, हम
कोई तक ढूँढ सकते हैं, हम किसी मूलभूत सिद्धांत के लिए कोई तर्क कभी नहीं उठा
सकते। किसी वस्तु के लिए तक उठाना केवल मात्र उस वस्तु का वर्गीकरण करना और
दिमाग़ के एक दरबे में उसे डाल लेना है। जब हम किसी नए तथ्य को पाते हैं तो हम
तुरंत उसे किसी प्रचलित प्रवर्ग में डालने की चेष्टा करते हैं और इसी प्रयत्न
का नाम तर्क है। जब हम उस तथ्य को किसी वर्ग विशेष में रख पाते हैं तो कुछ
संतोष मिलता है, किंतु इस वर्गीकरण के द्वारा हम भौतिक स्तर से ऊपर कभी नहीं
जा सकते। मनुष्य इंद्रियों की सीमा के परे पहुँच सकता है, यह बात प्राचीन
युगों में निश्चित रूप से प्रमाणित हुई थी। ५००० वर्ष पूर्व उपनिषदों ने बताया
था कि ईश्वर का साक्षात्कार इंद्रियों द्वारा कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता।
यहाँ तक तो आधुनिक अजेयवाद स्वीकार करता है, किंतु वेद इस नकारात्मक पक्ष से
और परे जाते हैं और स्पष्टतम शब्दों में दृढ़ता के साथ कहते हैं कि मनुष्य इस
इंद्रिय-बुद्ध जड़ जगत् के परे पहुँच सकता है एवं अवश्य पहुँचता है। वह मानो
इस विशाल हिमराशि रूप जगत् में एक रंध्र पा सकता है और उसके द्वारा निकलकर
जीवन के पूर्ण महासागर तक पहुँच सकता है। इंद्रिय संबंधी संसार का इस प्रकार
अतिक्रमण करके ही वह अपने सत् स्वरूप तक पहुँच सकता है और उसका साक्षात्कार
कर सकता है।
ज्ञान कभी इंद्रियजन्य ज्ञान नहीं होता। हम ब्रह्म को विषयतया 'जान' नहीं
सकते, किंतु हम पूर्णतया ब्रह्म ही हैं, उसके एक खंड मात्र नहीं। अशरीरी वस्तु
कभी विभाजित नहीं की जा सकती। आभासिक नानात्व काल और देश में दृष्टिगत होने
वाला है, जैसा हम सूर्य को लाखों ओस-बिंदुओं में प्रतिबिंबित देखते हैं,
यद्यपि हम जानते हैं सूर्य एक है, अनेक नहीं। ज्ञान में हमें नानात्व त्यागना
होता है और केवल एकत्व का अनुभव करना होता है। यहाँ विषयी, विषय, ज्ञान,
ज्ञाता, धेय, तू, वह अथवा मैं नहीं है, केवल एक पूर्ण एकत्व ही है! हम सदैव
वही हैं, सदैव मुक्त। मनुष्य कार्य-कारण द्वारा यथार्थतः नहीं बँधा है। दुःख
और कष्ट मनुष्य में नहीं हैं, वे तो भागते हुए बादल के समान होते हैं जो सूर्य
पर अपनी परछाई डालता है। बादल हट जाता है, पर सूर्य अपरिवर्तित रहता है, और
यही बात मनुष्य के विषय में है। यह उत्पन्न नहीं होता, वह मरता नहीं, वह देश
और काल में नहीं है। ये सब विचार केवल मन ही के प्रतिबिंब हैं, किंतु हम
उन्हें भ्रमवश यथार्थ समझ लेते हैं और इस प्रकार उस महिमान्वित प्रकृत सत्य को
जो विचारों से आच्छादित हुआ है, हम नहीं प्राप्त कर सकते। काल तो हमारे चिंतन
की प्रक्रिया है, परंतु हम तो यथार्थंतः नित्य वर्तमान काल ही हैं। शुभ और
अशुभ का अस्तित्व केवल हमारे संबंध से है। एक के बिना दूसरा नहीं प्राप्त किया
जा सकता है, क्योंकि दोनों में से किसी का भी दूसरे से पृथक् न तो अस्तित्व
है और न अर्थ। जब तक हम द्वैतवाद को मान्यता देते हैं अथवा ईश्वर और मनुष्य
को पृथक् करके मानते हैं, तब तक हमें शुभ और अशुभ-दोनों ही देखने पड़ेंगे,
केवल केंद्र में जाकर ही, केवल ईश्वर से एकीकृत होकर ही, हम इंद्रियों के
मोह-जाल से बच सकते हैं।
जब हम कामना के अनंत ज्वर को, उस अनंत तृष्णा को, जो हमें चैन नहीं लेने देती,
त्याग देंगे, जब हम सदा के लिए कामना को जीत लेंगे, तब हम शुभ-अशुभ-दोनों से
छूट पायेंगे, क्योंकि तब हम उन दोनों का अतिक्रमण कर जाएंगे। कामना की पूर्ति
उसे केवल और अधिक बढ़ाती है, जैसे कि अग्नि में डाला हुआ घी, उसे और भी
तीव्रता से प्रज्ज्वलित कर देता है। चक्र जितना ही केंद्र से दूर होगा, उतना
ही तीव्र चलेगा, और उतना ही उसे कम विश्राम मिलेगा। केंद्र के निकट जाओ, कामना
का दमन करो, उसे निकाल बाहर करो, मिथ्या वह को त्याग दो, तब हमारी दिव्य
दृष्टि खुल जाएगी और हम ईश्वर का दर्शन करेंगे, इहलौकिक और पारलौकिक जीवन के
त्याग द्वारा ही हम उस अवस्था पर पहुँचेंगे, जहाँ कि हम वास्तविक आत्म-तत्त्व
पर दृढ़तापूर्वक प्रतिष्ठित हो सकेंगे। जब तक हम किसी वस्तु की आकांक्षा करते
हैं, तब तक कामना हमारा शासन करती है। केवल एक क्षण के लिए वास्तव में
'आशा-हीन' हो जाओ और कुहरा साफ हो जाएगा। चूँकि जब कोई स्वयं सत्स्वरूप है तो
वह किसकी आशा करे? ज्ञान का रहस्य है सब कुछ का त्याग और स्वयं में ही
परिपूर्ण हो जाना। 'नहीं' कहो, और तुम 'नहीं' रह जाओगे, और है' कहो तो तुम है'
बन जाओगे। अंतःस्थ आत्मा की उपासना करो, और कुछ तो है ही नहीं, जो कुछ हमें
बंधन में डालता है, वह माया है, भ्रम-जाल है।
[ ७ ]
विश्व में आत्मा सभी का अधिष्ठान है, किंतु वह स्वयं कभी उपाधि-विशिष्ट नहीं
हो सकती। जब हम जानते हैं कि 'हम वह हैं', हम मुक्त हो जाते हैं। मृत्यु के
रूप में हम न कभी मुक्त थे और न हो सकते हैं। मुक्त मरण-शीलता परस्पर विरोधी
हैं। क्योंकि मरणशीलता में परिवर्तन निहित है और केवल अपरिवर्तनशील ही मुक्त
हो सकता है। आत्मा ही मुक्त है और वही हमारा यथार्थ सार-तत्त्व है। सभी
सिद्धांतों और विश्वासों के बावजूद, हम इस आंतरिक मुक्ति का अनुभव करते हैं,
हम उसके अस्तित्व को जानते हैं और हर कार्य यह सिद्ध करता है: कि हम उसे जानते
हैं। इच्छा स्वतंत्र नहीं है, उसकी आपातदृष्ट स्वतंत्रता आत्मा की एक
प्रतिबिंब मात्र है। यदि संसार कार्य और कारण की एक अनंत श्रृंखला होती तो
उसके हितार्थ कोई कहाँ खड़ा होता? रक्षक को खड़े होने के लिए सूखी भूमि का एक
टुकड़ा तो होता ही चाहिए, अन्यथा वह किसी को कार्य-कारण रूप तीव्र धारा से
खींचकर कैसे बाहर करेगा और उसे डूबने से बचायेगा। वह हठधर्मी भी, जो सोचता है,
मैं एक कीड़ा हूँ, समझता है कि वह एक संत बनने के मार्ग पर है। वह कीड़े में
भी संत को देखता हैं।
मानव-जीवन के दो उद्देश्य या लक्ष्य हैं-विज्ञान और आनंद। बिना मुक्ति के ये
दोनों असंभव हैं। वे समस्त जीवन की कसौटी हैं। हमें शाश्वत एकत्व का इतना
अधिक अनुभव करना चाहिए कि यह समझते हुए कि हम ही पाप कर रहे हैं, हम सभी
पापियों के लिए रोयें। शाइबत नियम आत्म-त्याग है, आत्म-प्रतिष्ठापन नहीं। जब
सभी एक हैं तो प्रतिष्ठापन किस आत्मा का? कोई 'अधिकार' नहीं है, सभी प्रेम है।
ईसा ने जिन महान् सत्यों का उपदेश दिया, उनको कभी जीवन में नहीं उतारा गया।
आओ, हम उनके मार्ग पर चलकर देखें, क्या संसार को बचाया जा सकता है या नहीं।
विपरीत मार्ग ने संसार को लगभग नष्ट कर दिया है। मात्र स्वार्थहीनता ही
प्रश्न को हल कर सकती है, स्वार्थपरता नहीं। 'अधिकार' का विचार एक सीमाकरण
है। वास्तव में 'मेरा और तेरा' है ही नहीं, क्योंकि मैं तू हूँ और तू मैं है।
हमारे पास 'दायित्व' है, 'अधिकार' नहीं। हमें कहना चाहिए, 'मैं विश्व हूँ न कि
'मैं जॉन हूँ या 'मैं मेरी हूँ। ये समस्त सीमाएँ भ्रमजाल हैं जो हमें बंधन में
डाले हुए हैं, क्योंकि जैसे ही मैं समझता हूँ, 'में जॉन हूँ' मैं कुछ वस्तुओं
पर अपवर्जित विशेषाधिकार चाहता हूँ, 'मुझे' और 'मेरा' कहने लगता हूँ और ऐसा
करने में निरंतर नए भेदों का सर्जन करता जाता हूँ। इस प्रकार हर नए भेद के साथ
हमारा बंधन बढ़ता जाता है और हम केन्द्रीय एकत्व और अविभक्त असीम से दूरातिदूर
होते जाते हैं। व्यक्ति तो केवल एक है और हममें से प्रत्येक वही है। केवल
एकत्व ही प्रेम है और निर्मंयता है, पार्थक्य हमें घृणा और भय की ओर ले जाता
है। एकत्व ही नियम का प्रतिपालन करता है। यहाँ पृथ्वी पर हम छोटे छोटे स्थानों
को घेर लेने तथा अन्य लोगों को अपवर्जित करने की चेष्टा करते हैं, पर हम आकाश
में ऐसा नहीं कर सकते। किंतु संप्रदायवादी धर्म, जब वह यह कहता है कि 'केवल
यही मुक्ति का मार्ग है और अन्य सब मिथ्या है' तो ऐसा ही करने की चेष्टा करता
है। हमारा लक्ष्य इन छोटे घरौंदों को हटाने का, सीमा को इतना विस्तृत करने का
है कि वह दिखायी ही न दे, और यह समझने का होना चाहिए कि सभी धर्म ईश्वर की ओर
ले जाते हैं। इस छोटे तुच्छ अहं का बलिदान अवश्य होना चाहिए। बपतिस्मा के
प्रतीक द्वारा एक नए जीव में इसी सत्य को लक्षित किया जाता है-पुराने आदमी की
मृत्यु और नए का जन्म, मिथ्या अहं का नाश और आत्मा, विश्व की एक आत्मा का
साक्षात्कार।
वेदों के दा प्रधान भाग हैं, कर्मकांड-कर्म या कार्य संबंधी भाग और
ज्ञानकांड-जानने के, सत्य ज्ञान के विषय का भाग। वेदों में हम धार्मिक विचारों
के विकास की संपूर्ण प्रक्रिया प्राप्त कर सकते हैं। यह इसलिए है क्रि उच्चतर
सत्य की प्राप्ति होने पर, उस तक पहुँचाने वाली निम्नतर अनुभूति को भी
सुरक्षित रखा गया। ऐसा ऋषियों ने यह अनुभव करके किया कि सृष्टिजन्य यह संसार
झाइवत है, अत: उसमें सदा ऐसे लोग रहेंगे जिन्हें ज्ञान के प्रथम सोपानों की
आवश्यकता रहेगी; सर्वोच्च दर्शन यद्यपि सभी के लिए सुलभ है, पर सभी उसे ग्रहण
तो नहीं कर सकते। प्रायः अन्य सभी धर्मों में सत्य के केवल अंतिम अथवा उच्चतम
साक्षात्कार को ही सुरक्षित रखा गया, जिसका स्वाभाविक फल यह हुआ कि प्राचीनतर
धारणाएँ विलुप्त हो गयीं। नवीन को केवल थोड़े से लोग ही समझ पाते हैं और
शनै:-शनै: अधिकांश जन के निकट उनका कोई अर्थ नहीं रह जाता। हम इस फल को
प्राचीन परंपराओं और अधिकारियों के विरुद्ध बढ़ते हुए विद्रोह के रूप में
स्पष्ट देखते हैं। उन्हें स्वीकार करने के स्थान पर आज का मनुष्य साहसपूर्वक
उन्हें चुनौती देता है कि वे अपने दावे के कारण बतायें और उन आधारों को स्पष्ट
करें, जिन पर कि वे उनकी स्वीकृति की माँग करते हैं। खीष्ट धर्म में बहुत कुछ
तो प्राचीन मूर्तिपूजकों की आस्थाओं और रीतियों को नए नाम और अर्थ देना मात्र
है। यदि प्राचीन स्रोत सुरक्षित रक्खे गए होते और परिवर्तन के कारणों की
व्याख्या पूर्ण रूप से कर दी गई होती तो बहुत सी बातें अधिक स्पष्ट हो जातीं।
वेदों ने पुराने विचारों को सुरक्षित रखा, और इस तथ्य ने उनकी व्याख्या तथा वे
क्यों सुरक्षित रखे गए, यह स्पष्ट करने के निमित्त विशाल टीकाओं की आवश्यकता
उत्पन्न कर दी। उनके अर्थ के विलुप्त हो जाने के बाद भी उनसे, पुराने रूपों
से, चिपके रहने के कारण अनेक अंधविश्वासियों की उत्पत्ति हुई। अनेक अनुष्ठानों
में ऐसे शब्द दुहराये गए हैं जो कि एक विस्मृत भाषा के अवशेष है और जिनका अब
कोई सच्चा अर्थ नहीं किया जा सकता। विकासवाद का विचार वेदों में खीष्ट युग से
बहुत पूर्व पाया जाता है, पर जब तक डारविन ने उसे सत्य नहीं माना, तब तक उसे
केवल हिंदू अंधविश्वास माना जाता था।
कर्मकांड में बाह्य प्रार्थना और उपासना के सभी रूप सम्मिलित हैं। यदि इन्हें
निःस्वार्थ भाव से संपन्न किया जाए और उन्हें मात्र रूढ़ि न बना दिया जाए तो
वे उपयोगी हैं। वे हृदय को निर्मल करते हैं। कर्मंगोगी स्वयं अपनी मुक्ति के
पूर्व अन्य सबकी मुक्ति चाहता है। उसकी मुक्ति दूसरों की मुक्ति में सहायता
देने मात्र में है। 'कृष्ण की सेवकों की पूजा ही सर्वोच्च पूजा है।' एक महान्
संत की यह प्रार्थना रहती थी, 'मैं समस्त संसार के पाप लेकर नरक में चला जाऊँ,
किंतु संसार मुक्त हो जाए।' यह सच्ची पूजा तीव्र आत्म-त्याग का मार्ग दिखाती
है। एक महात्मा के विषय में कहा जाता है कि वह अपने सब सदगुण अपने कुत्ते को
दे देना चाहते थे, जिससे वह स्वर्ग जा सके। वह कुत्ता दीर्घ काल तक उनका
स्वामिभक्त रहा था, और वे स्वयं नरक जाने में भी संतुष्ट थे।
ज्ञानकांड यह शिक्षा देता है कि केवल ज्ञान ही मुक्ति दे सकता है, अर्थात्
उसे मुक्ति-प्राप्ति की पात्रता की सीमा तक ज्ञानी होना चाहिए। ज्ञान, ज्ञात
का स्वयं अपने को जानना, पहला लक्ष्य है। एकमात्र विषयी आत्मा, अपने व्यक्त
रूप में केवल स्वयं को ही खोज रही है। जितना ही अच्छा दर्पण होता है, वह उतनी
ही अच्छी प्रतिच्छाया प्रदान करता है। इस प्रकार मनुष्य सर्वोत्तम दर्पण है और
जितना निर्मल मनुष्य होगा, उतना ही स्वच्छता से वह ईश्वर को प्रतिबिंबित कर
सकेगा। मनुष्य अपने को ईश्वर से पृथक् करने और देह से अपने को अभिन्न मानने
की भूल करता है। यह भूल माया से होती है, जो एकदम भ्रमजाल तो नहीं है, पर उसे
सत्य को जैसा कि वह है वैसा न देखकर किसी अन्य रूप में देखना कहा जा सकता है।
अपने को शरीर से अभिन्न मानने से असमता का मार्ग खुलता है, जिससे अनिवार्यतया
ईर्ष्या और संघर्ष की उत्पत्ति होती है। और जब तक हम असमता देखते रहेंगे, हम
सुख नहीं पा सकते। ज्ञान कहता है कि अज्ञान और असमता ही समस्त दुःख के स्रोत
हैं।
जब मनुष्य संसार की पर्याप्त ठोकरें खा चुकता है, तब वह मुक्ति-प्राप्ति की
इच्छा के प्रति जाग्रत होता है और पार्थिव अस्तित्व के निरानंद चक्र से बचने
के साधनों को खोजता हुआ वह ज्ञान खोजता है, इस बात को जान जाता है कि वह
वस्तुत: क्या है और मुक्त हो जाता है। उसके बाद वह संसार को एक विशाल यंत्र के
रूप में देखता है, किंतु उसके चक्कों से अपनी अँगुलियों को बाहर रखने के
प्रति काफी सावधान रहता है। जो मुक्त है, उसके लिए कर्तव्य समाप्त हो जाता
है। मुक्त प्राणी को कौन शक्ति विवश कर सकती है? वह शुभ करता है, क्योंकि यह
उसका स्वभाव है न कि इसलिए कि कोई काल्पनिक कर्तव्य उसे आदेश देता है। यह उन
पर लागू नहीं होता जो कि अब भी इंद्रियों के बंधन में है। यह मुक्ति उसी के
लिए, केवल उसी के लिए है जो अपने निम्नतर अहं से ऊँचा उठ चुका है। वह अपनी
आत्मा में ही प्रतिष्ठित है, कोई नियम नहीं मानता, स्वतंत्र और पूर्ण है।
उसने-पुराने अंधविश्वासों को उच्छिन्न कर डाला है। वह चक्र के बाहर निकल आया
है। प्रकृति तो हमारे अपने स्व का दर्पण है। मनुष्य की कार्यशक्ति की एक सीमा
है, किंतु कामनाओं की नहीं; इसलिए हम दूसरों की कार्यशक्ति को हस्तगत करने का
प्रयत्त करते हैं और स्वयं काम करने से बचकर उनके श्रम के फल का उपभोग करते
हैं। हमारे निमित्त कार्य करने के लिए यंत्रों का आविष्कार कल्याण की मात्रा
में वृद्धि नहीं कर सकता, क्योंकि कामना की तुष्ठि में हम केवल कामना ही पाते
हैं, और तब अधिक तथा और भी अधिक की अनंत कामना करते हैं। अतृप्त कामनाओं से
भरे हुए मरने पर, उनकी परितुष्टि की निरर्थक खोज में बारंबार जन्म लेना पड़ता
है। हिंदू कहते हैं कि मानव शरीर पाने के पूर्व हम ८० लाख बार शरीर धारण कर
चुके हैं। ज्ञान कहता है, 'कामना का हनन करो और इस प्रकार उससे छुटकारा पाओ।'
यही एकमात्र मार्ग है। सभी प्रकार की कारणता को निकाल फेंको और आत्मा का
साक्षात्कार करो। केवल मुक्ति ही सच्ची नैतिकता उत्पन्न कर सकती है। यदि
कारण और कार्य की एक अनंत श्रृंखला मात्र का ही अस्तित्व होता तो निर्वाण हो
ही नहीं सकता था। वह इस श्रृंखला से जकड़े आभासी अहं का उच्छेद करना है। यही
है वह जिससे मुक्ति का निर्माण होता है और वह है कारणता के परे जाना।
हमारा वास्तविक स्वरूप शुभ है, मुक्त है, विशुद्ध सत् है, जो न तो कभी अशुद्ध
हो सकता है और न अशुद्ध कर सकता है। जब हम अपनी आँखों और मस्तिष्क से ईश्वर
को पढ़ते हैं तो हम उसे यह या वह कहते हैं, पर वास्तव में केवल एक है, सभी
विविधताएँ उसी एक की हमारी व्याख्या है। हम 'हो' कुछ भी नहीं जाते, हम अपनी
वास्तविक आत्मा को पुनः प्राप्त करते हैं। बुद्ध के द्वारा दुःख को 'अविद्या
और जाति' (असमता) के फल से उत्पन्न मानने के निदान को वेदांतियों ने अपना लिया
है; क्योंकि वह अब-तक ऐसे किये गए प्रयत्नों में सर्वोत्कृष्ट है। उससे
मनुष्यों में इस महानतम व्यक्ति की आर्श्चजनक अंतर्दृष्टि व्यक्त होती है। तो
हम सब वीर और सच्चे बनें। जो भी मार्ग हम श्रद्धापूर्वक अपनायें, हमें निश्चय
ही मुक्ति की ओर ले जाएगा। श्रृंखला की एक कड़ी पकड़ लो और धीरे-धीरे क्रमश:
पूरी श्रृंखला अवश्य आती जाएगी। पेड़ की जड़ को जल देने से पूरे पेड़ को जल
मिलता है, हर पत्ती को जल देने में समय खराब करने से कोई लाभ नहीं।
अर्थात्,-हम-प्रभु को खोजें और उसे पाकर हम सब पा जाएंगे। गिरजे, सिद्धांत,
रूप ये सब तो धर्म के सुकुमार पौधे की रक्षार्थ झाड़ियों के घेरों के सदृश
हैं, किंतु आगे चलकर उनको तोड़ना ही पड़ेगा, जिससे वह छोटा पौधा पेड़ बन सके।
इस प्रकार विभिन्न धार्मिक संप्रदाय, धर्म-ग्रंथ, वेद और धर्म-शास्त्र इस छोटे
पौधे के केवल 'गमले' मात्र हैं; किंतु उसे गमले से निकलना और संसार को भरना ही
होगा।
जैसे हम अपने को यहाँ अनुभव करते हैं, वैसे ही सूर्य और नक्षत्रों में अनुभव
करना हमें सीखना चाहिए। आत्मा तो देश-काल से परे है, हर देखने वाली आँख मेरी
आँख है, प्रभु की स्तुति करनेवाला प्रत्येक सुख मेरा मुख है, हर पापी मैं हूँ।
हम कहीं भी परिसीमित नहीं हैं, हम शरीर नहीं हैं। विश्व हमारा शरीर है। हम तो
केवल वह शुद्ध स्फटिक हैं, जो अन्य सभी को प्रतिबिंबित करता है, किंतु स्वयं
सदैव वही रहता है। हम तो जादूगर हैं जो जादू के डंडे हिलाते हैं और इच्छानुसार
अपने समक्ष दृश्य प्रस्तुत कर लेते हैं, किंतु हमें इन आभासों के पीछे जाना है
और आत्मा को जानना है। यह संसार एक ऐसी बटलोई में जल के समान है जो उबलने वाली
हो। उसमें पहले एक बुलबुला उठता है, फिर दूसरा और फिर बहुत से, और अंततः सब
उबल उठता और वाष्प रूप में निकल जाता है। महान् धर्मोंपदेशक आरंभ में उठने
वाले बुलबुलों के रूप में होते हैं, एक यहाँ, एक वहाँ; किंतु अंत में हर जीव
को बुलबुला होना है और निकल भागना है। नित्य नूतन सृष्टि नया जल लाती रहेगी और
सारी प्रक्रिया की आवृत्ति फिर होगी। बुद्ध और ईसा संसार द्वारा ज्ञात दो
महत्तम 'बुलबुले' हैं। वे महान् आत्माएँ थीं, जिन्होंने स्वयं मुक्ति प्राप्त
करके, दूसरों को बच निकलने में सहायता दी। दोनों में से कोई पूर्ण नहीं था,
किंतु उन पर निर्णय उनके गुणों से करना है, उनकी कमियों से नहीं। ईसा कुछ छोटे
पड़ते हैं, क्योंकि वह सदैव अपने सर्वोच्च आदर्श के अनुरूप नहीं रह सके और
सबसे अधिक इसलिए कि उन्होंने स्त्री को पुरुष के साथ बराबर स्थान नहीं दिया।
स्त्री ने उनके लिए सब कुछ किया, किंतु एक को भी धर्मदूत नहीं बनाया गया। उनका
सेमेंटिक होना ही निस्संदेह इसका कारण था। महान् आर्यों ने तथा शेष में बुद्ध
ने स्त्री को सदैव पुरुष के बराबर स्थान में रखा हैं। उनके लिए धर्म में
लिंगभेद का अस्तित्व न था। वेदों और उपनिषदों में स्त्रियों ने सर्वोच्च
सत्यों की शिक्षा दी है और उनको वही श्रद्धा प्राप्त हुई है, जैसी कि पुरुषों
को।
[ ८ ]
सुख और दुख दोनों ही जंज़ीरें हैं, एक स्वर्णिम और दूसरी लौह; किंतु दोनों ही
हमें बाँधने के लिए एक समान दृढ़ हैं और अपने वास्तविक स्वरूप के तक ज्ञानयोग
पर प्रवचन साक्षात्कार करने में हमें रोकती हैं। आत्मा दुःख या सुख नहीं
जानती। ये तो केवल स्थितियाँ हैं और स्थितियाँ अवश्य सदैव बदलती रहती हैं।
आत्मा का स्वभाव आनंद और अपरिवर्तनीय शांति है। हमें इसे 'पाना' नहीं है, वह
हमें 'प्राप्त' है। आओ, हम अपनी आँखों से कीचड़ धो डालें और उसे देखें। हमें
आत्मा में सदैव प्रतिष्ठित रहकर पूर्ण शांति के साथ संसार की दृश्यावली को
देखना चाहिए। वह तो केवल शिक्षु का खेल मात्र है और उससे हमें कभी क्षुब्ध न
होना चाहिए। यदि मन प्रशंसा से प्रसन्न हो तो वह निंदा से दुःखी होगा।
इंद्रियों के या मन के भी सभी आनंद क्षणभंगुर हैं, किंतु हमारे अंतर में एक
सच्चा असम्बद्ध आनंद है, जो किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं है। 'यह आत्मा का
आनंद ही है, जिसे संसार धर्म कहता है।' जितना ही अधिक हमारा आनंद हमारे अंतर
में होगा, उतने ही अधिक आध्यात्मिक हम होंगे। हम आनंद के लिए संसार पर निर्भर
न हों।
कुछ दीन मछुआ स्त्रियों ते भीषण तूफ़ान में फँसकर एक संपन्न व्यक्ति के बगीचे
में शरण पायी। उसने उनका दयापूर्वक स्वागत किया, उन्हें भोजन दिया और जिनके
सुवास से वायुमंडल परिपूर्ण था, ऐसे पुष्पों से घिरे हुए एक सुंदर ग्रीष्मावास
में विश्राम करने के लिए छोड़ दिया। स्त्रियाँ इस सुगंधित स्वर्ग में लेटीं
तो, किंतु सो न सकीं। उन्हें अपने जीवन से कुछ खोया हुआ सा जान पड़ा और उसके
बिना वे सुखी न हो सकीं। अंत में एक स्त्री उठी और उस स्थान को गई जहाँ कि वे
अपनी मछली की टोकरियाँ छोड़ आयी थीं। वह उन्हें ग्रीष्मावास में ले आयीं और तब
एक बार फिर परिचित वास से सुखी होकर वे सब शीघ्र ही गहरी नींद में सो गयीं।
संसार मछली की हमारी वह टोकरी न बन जाए, जिस पर हमें आनंद के लिए निर्भर होना
पड़े। यह तामसिक या तीनों (गुणों) में से निम्नतम द्वारा बँधना है। इनके बाद
वे अहंवादी आते हैं जो सदैव 'मैं', 'मैं' की बात करते हैं। कभी-कभी वे अच्छा
काम करते हैं और आध्यात्मिक बन सकते हैं। ये राजसिक या सक्रिय हैं। सर्वोच्च
अंतर्मुख स्वभाव वाले (सात्त्विक) हैं, जो आत्मा में ही रहते हैं। ये तीन गुण
हर मनुष्य में भिन्न अनुपात में हैं और विभिन्न गुण विभिन्न अवसरों पर
प्रधानता प्राप्त करते हैं। हमें तमस् और रजस् को जीतने का और तब उन दोनों
को सत्त्व में मिला देने का अवश्य प्रयत्न करना चाहिए।
सृष्टि कुछ 'बना देना' नहीं है, वह ता सम-संतुलन पुनः प्राप्त करने का एक
संघर्ष है, जैसे किसी कॉर्क के परमाणु एक जल-पात्र की पेंदी में डाल दिए जाने
पर, वे पृथक्-पृथक् और गुच्छों में ऊपर की ओर झपटते हैं और जब सब ऊपर आ जाते
हैं और सम-संतुलन पुनः प्राप्त हो जाता है तो समस्त गति या 'जीवन' एक हो जाता
है। यही बात सृष्टि की है; यदि सम-संतुलन प्राप्त हो जाए तो सब परिवर्तन रुक
जाएंगे, जीवन नामधारी वस्तु समाप्त हो जाएगी। जीवन के साथ अशुभ अवश्य रहेगा,
क्योंकि संतुलन पुनः प्राप्त हो जाने पर संसार अवश्य समाप्त हो जाएगा,
क्योंकि समत्व और नाश एक ही बात है। सदैव बिना दुःख के आनंद ही पाने की कोई
संभावना नहीं है या बिना अशुभ के शुभ पाने की, क्योंकि जीवन स्वयं ही तो खोया
हुआ सम-संतुलन है। जो हम चाहते हैं, वह मुक्ति है, जीवन नहीं, न आनंद, न शुभ।
सृष्टि शाश्वत है, अनादि, अनंत, एक असीम सरोवर में सदैव गतिशील लहर। उसमें अब
भी ऐसी गहराइयाँ हैं, जहाँ कोई नहीं पहुँचा और जहाँ अन्य ऐसी निस्पंदता पुनः
स्थापित हो गई है; किंतु लहर सदैव प्रगति कर रही है, संतुलन पुनः स्थापित करने
का संघर्ष शाश्वत है। जीवन और मृत्यु उसी तथ्य के विभिन्न नाम हैं, वे एक
सिक्के के दो पक्ष हैं। दोनों ही माया हैं, एक बिंदु पर जीवित रहने के
प्रयत्न की अगम्य स्थिति और एक क्षण बाद मृत्यु इस सबसे परे सच्चा स्वरूप है,
आत्मा। हम सृष्टि में प्रविष्ट होते हैं और तब वह हमारे लिए जीवन हो जाती है।
वस्तुएँ स्वयं तो मृत हैं, केवल हम उन्हें जीवन देते हैं; और तब मूर्खों के
सदृश हम घूमते हैं और या तो उनसे डरते हैं या उनका उपभोग करते हैं। संसार न तो
सत्य है न असत्य, वह सत्य की छाया है।
कवि कहता है कि 'कल्पना सत्य की स्वर्णाच्छादित छाया' है। आभ्यंतर जगत्, सत्य
जगत् बाह्य से असीम रूप से बड़ा है। बाह्य जगत् तो वास्तविक जगत् का
छायात्मक प्रक्षेप मात्र है। जब हम 'रस्सी' देखते हैं, 'सर्प' नहीं देखते, और
जब 'सर्प' होता है, 'रस्सी' नहीं होती, दोनों का अस्तित्व एक साथ नहीं हो
सकता। इसी प्रकार जब हम संसार देखते, हैं, हम आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर
पाते, वह केवल एक बौद्धिक कल्पना रहती है। ब्रह्म के साक्षात्कार में
व्यक्तिगत अहं, और संसार की सब चेतना नष्ट हो जाती है। प्रकाश अन्धकार को नहीं
जानता, क्योंकि उसका प्रकाश में कोई अस्तित्व नहीं है; इसी प्रकार ब्रह्म ही
सब है। जब हम किसी ईश्वर को मानते हैं तो वास्तव में वह हमारी अपनी आत्मा ही
होती है, जिसे हम अपने से पृथक् कर देते हैं और उसकी इस प्रकार पूजा करते
हैं, जैसे कि वह हमसे बाहर हो; किंतु वह सदैव हमारी अपनी आत्मा ही होती है,
तथा वही एक और अद्वितीय ईश्वर है। पशु का स्वभाव, जहाँ वह है, वहीं रहने का;
मनुष्य का शुभ खोजने और अशुभ से बचने का, और ईश्वर का न तो खोजने का और न बचने
का, अपितु सदैव आनंदमय रहने का है। आओ, हम ईश्वर बनें, हम अपने हृदय महासागर
जैसे बनायें, ताकि हम संसार की छोटी-छोटी बातों से परे जा सकें और उसे केवल एक
चित्र की भाँति देखें। तब हम इससे बिता किसी प्रकार प्रभावित हुए इसका आनंद ले
सकेंगे। संसार में शुभ को क्यों खोजें, हम वहाँ क्या पा सकते हैं ? सर्वोच्च
वस्तुएँ जो वह दे सकता है, उन काँच की गोलियों के समान हैं, जो बच्चे कीचड़ के
पोखरे में खेलते हुए पा जाते हैं। वे उन्हें फिर खो देते हैं और नए सिरे से
उन्हें अपनी खोज प्रारंभ करनी होती है। असीम शक्ति ही धर्म और ईश्वर है। यदि
हम मुक्त हों, तभी हम आत्मा हैं; अमरता केवल तभी है, जबकि हम मुक्त हों; ईश्वर
तभी है, जब वह मुक्त हो।
जब तक हम अहं भाव द्वारा निर्मित संसार का त्याग नहीं करते, हम स्वर्ग के
राज्य में कभी प्रविष्ट नहीं हो सकते। न तो कभी कोई प्रविष्ट हुआ, न कोई कभी
होगा। संसार के त्याग का अर्थ है, अहं भाव को पूर्णतया भूल जाना, उसे बिल्कुल
न जानना; शरीर में रहना, पर उसके द्वारा शासित न होना। इस दुष्ट अहं भाव को
अवश्य ही मिटाना होगा। मनुष्य जाति की सहायता करने की शक्ति उन शांत
व्यक्तियों के हाथ में है, जो केवल जीवित है और प्रेम करते हैं तथा जो अपना
व्यक्तित्व पूर्णतः पीछे हटा लेते हैं। वे 'मेरा' या 'मुझे' कभी नहीं कहते, वे
दूसरों की सहायता करने में, उपकरण बनने में ही धन्य हैं। वे पूर्णतया ईश्वर से
अभिन्न हैं, न तो कुछ माँगते हैं और न सचेतन रूप से कोई काम करते हैं। वे
सच्चे जीवन्मुक्त हैं, पूर्णतः स्वार्थरहित; उनका छोटा व्यक्तित्व पूर्णतया
उड़ गया होता है, महत्त्वाकांक्षा का अस्तित्व नहीं रहता। वे व्यक्तित्व रहित,
पूर्णतया तत्त्व मात्र हैं। जितना अधिक हम छोटे से अहं को डुबोते हैं, उतना ही
अधिक ईश्वर आता है। आओ, हम इस छोटे से अहं से छुटकारा लें और केवल बड़े अहं को
अपने में रहने दें। हमारा सर्वोत्तम कार्य और सर्वोच्च प्रभाव तब होता है, जब
हम अहं के विचार मात्र से रहित हो जाते हैं। केवल निष्काम लोग ही बड़े बड़े
परिणाम घटित करते हैं। जब लोग तुम्हारी निंदा करें तो उन्हें आशीर्वाद दो।
सोचो तो, वे झूठे अहं को निकाल बाहर करने में सहायता देकर कितनी भलाई कर रहे
हैं। यथार्थ आत्मा में दृढ़ता से स्थिर होओ, केवल शुद्ध विचार रखो और तुम
उपदेशकों की एक पूरी सेना से अधिक काम कर सकोगे। पवित्रता और मौन से शक्ति की
वाणी निकलती है।
[ ९ ]
अभिव्यक्ति अनिवार्य विकृति है, क्योंकि आत्मा केवल 'अक्षर' से व्यक्त की जा
सकती है, और जैसा कि संत पॉल ने कहा था, 'अक्षर हत्या कर डालता है।' अक्षर
केवल प्रतिच्छाया मात्र है, उसमें जीवन नहीं हो सकता। तथापि 'जाना' जाने के
निमित्त तत्त्व का भौतिक जामा पहनाना आवश्यक है। हम आवरण में ही वास्तविक को
दृष्टि से खो बैठते हैं और उसे प्रतीक के रूप में मानने के स्थान पर उसी को
वास्तविक समझ ने लगते हैं। यह लगभग एक विश्वव्यापी भूल है। प्रत्येक महान्
धर्मोंपदेशक यह जानता है और उससे सावधान रहने का प्रयत्न करता है, किंतु
साधारणतया मानवता अदृष्ट की अपेक्षा दृष्ट की पूजा करने को अधिक उन्मुख रहती
है। इसीलिए व्यक्तित्व के पीछे निहित तत्त्व की ओर बारंबार इंगित करके और उसे
समय के अनुरूप एक नया आवरण देने के लिए पैगंबरों की परंपरा संसार में चली आयी
है। सत्य सदैव अपरिवर्तित रहता है, किंतु उसे एक 'रूपाकार' में ही प्रस्तुत
किया जा सकता है, इसलिए समय समय पर सत्य को एक ऐसा नया रूप या अभिव्यक्ति दी
जाती है जिसे मानव जाति अपनी प्रगति के फलस्वरूप ग्रहण करने में समर्थ होती
है। जब हम अपने को नाम और रूप से मुक्त कर लेते हैं, विशेषतया जब हमें अच्छे
या बुरे, सूक्ष्म या स्थूल किसी भी प्रकार के शरीर की आवश्यकता नहीं रह जाती,
तभी हम बंधन से छुटकारा पाते हैं। शाश्वत प्रगति शाश्वत बंधन होगी। हमें
समस्त विभेदीकरण से परे होना ही होगा और शाश्वत एकत्व या एकरूपता अथवा ब्रह्म
तक पहुँचना ही होगा। आत्मा सभी व्यक्तियों की एक है और अपरिवर्तनीय है-'एक और
अद्वितीय है।' वह जीवन नहीं है, अपितु वह जीवन में रूपांतरित कर ली जाती है।
वह जीवन और मृत्यु, शुभ और अशुभ से परे है। वह निरपेक्ष एकता है। नरक के बीच
भी सत्य को खोजने का साहस करो। नाम और रूप की, सापेक्ष की मुक्ति कभी यथार्थ
नहीं हो सकती। कोई रूप नहीं कह सकता 'मैं रूप की स्थिति में मुक्त हूँ।' जब तक
रूप का संपूर्ण भाव नष्ट नहीं होता, मुक्ति नहीं आती। यदि हमारी मुक्ति दूसरों
पर आघात करती है तो हम मुक्त नहीं है। हमें दूसरों को आघात नहीं पहुँचाना
चाहिए। वास्तविक अनुभव केवल एक होता है, किंतु सापेक्ष अनुभव अवश्य ही अनेक
होते हैं। समस्त ज्ञान का स्रोत हममें से प्रत्येक में है-चींटी में तथा
सर्वोच्च देवदूत में। वास्तविक धर्म एक है, सारा झगड़ा रूपों का प्रतीकों का
और दृष्टांतों का है। सतयुग खोज लेने वालों के लिए सतयुग पहले से ही विद्यमान
है। सत्य यह है कि हमने अपने को खो दिया है और संसार को खोया हुआ समझते हैं।
'मूर्ख' क्या तू नहीं सुनता? तेरे अपने ही हृदय में रात-दिन वह शाश्वत संगीत
हो रहा है, सच्चिदानंद सोअहम्, सोअहम्!'
मनोकल्पना को वर्जित करके विचार करना असंभव को संभव बनाना है। हर विचार के दो
भाग होते हैं, विचारणा और शब्द, और हमें दोनों की आवश्यकता है। जगत् की
व्याख्या न तो आद्शवादी (idealist) कर पाते हैं, न भौतिकवादी। इसके लिए हमें
विचार और अभिव्यक्ति दोनों को लेना होगा। समस्त ज्ञान प्रतिबिंबित का ज्ञान
है, जैसे हम अपने ही मुख को एक दर्पण में प्रतिबिंबित देखते हैं। अतः कोई अपनी
आत्मा या ब्रह्म को नहीं जान सकता, किंतु प्रत्येक वही आत्मा है और उसे ज्ञान
का विषय बनाने के लिए, उसे उसको प्रतिबिंबित देखना आवश्यक है। अदृश्य तत्त्व
के चित्रों का यह दर्शन ही तथाकथित मूर्ति-पूजा की ओर ले जाता है। मूर्तियों
या प्रतिमाओं का क्षेत्र जितना समझा जाता है, उससे कहीं अधिक विस्तृत है।
लकड़ी और पत्थर से लेकर वे ईसा या बुद्ध जैसे महान् व्यक्तियों तक फैली है।
भारत में प्रतिमाओं का प्रारंभ बुद्ध का एक वैयक्तिक ईश्वर के विरुद्ध अनवरत
प्रचार का परिणाम है। वेदों में प्रतिमाओं की चर्चा भी नहीं है, किंतु स्रष्टा
और सखा के रूप में ईश्वर के लोप की प्रतिक्रिया ने महान् धर्मोंपदेशकों की
प्रतिमाएँ निरभित करने का मार्ग दिखलाया और बुद्ध स्वयं मूर्ति बन गए, जिनकी
करोड़ों लोग पूजा करते हैं। सुधार के दुर्धर्ष प्रयत्नों का अंत सदैव सच्चे
सुधार को अवरुद्ध करने में होता है। उपासना करना, हर मनुष्य के स्वभाव में
अंतर्निहित है; केवल उच्चतम दर्शन शास्त्र ही विशुद्ध अमृत विचारणा तक पहुँच
सकता है। इसलिए अपने ईश्वर की पूजा करने के लिए मनुष्य उसे सदैव एक व्यक्ति
का रूप देता रहेगा। जब तक प्रतीक की पूजा-वह चाहे जो कुछ हो -उसके पीछे स्थित
ईश्वर के प्रतीक रूप में होती है, स्वयं प्रतीक की और प्रतीक के लिए ही नहीं,
वह बहुत अच्छी चीज़ है। सर्वोपरि हमें अपने को, किसी बात पर, केवल इसलिए कि वह
ग्रंथों में है, विश्वास करने के अंधविश्वास से मुक्त करने की आवश्यकता है। हर
वस्तु-विज्ञान, धर्म, दर्शन तथा अन्य सबको, जो किसी पुस्तक में लिखा हो उसके
समरूप बनाना एक भीषणतम अत्याचार है। ग्रंथ -पूजा मूर्ति-पूजा का निकृष्टतम रूप
है। एक बारहसिंगा था, गर्वीला-और स्वतंत्र। एक राजा के सदृश उसने अपने बच्चे
से कहा, 'मेरी ओर देखो, मेरे शक्तिशाली सींग देखो। एक चोट से मैं आदमी मार
सकता हूँ। बारहसिंगा होना कितना अच्छा है।' ठीक तभी आखेटक के बिगुल की ध्वनि
दूर पर सुनायी 'पड़ी और बारहसिंगा अपने चकित बच्चे द्वारा अनुचरित एकदम भाग
पड़ा। जब वे एक सुरक्षित स्थान पर पहुँच गए तो उसने पूछा, 'हे मेरे पिता, जब
तुम तने बलवान और वीर हो तो तुम मनुष्य के सामने से क्यों भागते हो?'
बारहसिंगे ने उत्तर दिया, 'मेरे बच्चे, मैं जानता हूँ कि मैं बलवान और
शक्तिशाली हूँ, किंतु जब मैं वह ध्वनि सुनता हूँ तो मुझ पर ऐसा छा जाता है, जो
मुझे भगाता है, मैं चाहूँ या न चाहूँ।' ऐसा ही हमारे साथ है। हम ग्रंथों में
वार्णित नियमों के 'बिगुल की ध्वनि' सुनते हैं, आदतें और पुराने अंधविश्वास
हमें जकड़े रहते हैं; इसका ज्ञान होने के पूर्व ही हम दृढ़ता से बँध जाते हैं
और अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाते हैं, जो कि मुक्ति है।
ज्ञान का अस्तित्व शाश्वत है। जो व्यक्ति किसी आध्यात्मिक सत्य को खोज लेता
है, उसे हम 'ईश्वर प्रेरित' कहते हैं और जो कुछ वह संसार में लाता है, वह
दिव्य ज्ञान या श्रुति है। किंतु श्रुति भी शाश्वत है, और उसका अंतिम रूप
निर्धारित करके उसका अंधानुसरण नहीं किया जा सकता। दिव्य ज्ञान की उपलब्धि ऐसे
हर व्यक्ति को हो सकती है, जिसने अपने को उसे पाने के योग्य बना लिया हो।
पूर्ण पवित्रता सबसे आवश्यक बात है; क्योंकि 'पवित्र हृदयवाला ही ईश्वर के
दर्शन पा सकेगा।' समस्त प्राणियों में मनुष्य सर्वोच्च है, और यह जगत् सबसे
महान्, क्योंकि यहाँ मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर की जो
सर्वोच्च कल्पना हम कर सकते हैं, वह मानवीय है। जो भी गुण हम उसमें आरोपित
करते हैं, वे मनुष्य में हैं-केवल अल्प परिणाम में। जब हम ऊँचे उठते हैं और
ईश्वर की इस कल्पना से निकलना चाहते हैं, हमें शरीर, मन और कल्पना के बाहर
निकलना पड़ता है और इस जगत् को दृष्टि से परे करना होता है। जब हम ब्रह्म
होने के लिए ऊँचे उठते हैं, हम संसार में नहीं रह जाते; सभी कुछ विषय रहित
विषयी हो जाता है। जिस एकमात्र संसार को हम जान सकते हैं, मनुष्य उसका शिखर
है। जिन्होंने एकत्व या पूर्णता प्राप्त कर ली है 'उनको ईश्वर में निवास करने
वाला' कहा जाता है। समस्त घृणा 'अपने का अपने द्वारा हनन है। अतः प्रेम ही
जीवन का धर्म है। इस भूमिका तक उठना पूर्ण होना है, किंतु जितने ही अधिक
पूर्ण' हम होंगे, उतना ही कम काम हम कर सकेंगे। सात्त्विक जानते हैं कि यह
संसार केवल बच्चों का खेल है और उसके विषय में चिंता नहीं करते। जब हम दो
पिल्लों को लड़ते और एक दूसरे को काटते हुए देखते हैं तो हम बहुत उद्विग्न
नहीं होते। हम जानते हैं, यह कोई गंभीर बात नहीं है। पूर्ण व्यक्ति जानता है,
यह संसार माया है। जीवन ही संसार कहा जाता है-वह हम पर क्रिया करने वाली
परस्पर विरोधी शक्तियों का परिणाम है। भौतिकवाद कहता है, मुक्ति की ध्वनि एक
अम मात्र है'; आदशंवाद (idealist) कहता है, जो ध्वनि बंधन के विषय में कहती
है, स्वप्न मात्र है।' वेदांत कहता है, 'हम एक ही साथ मुक्त हैं और मुक्त नहीं
भी।' इसका अर्थ यह होता है कि हम पार्थिव स्तर पर कभी मुक्त नहीं होते, किंतु
आध्यात्मिक पक्ष में सदैव मुक्त हैं। आत्मा मुक्ति और बंधन दोनों से परे है।
हम ब्रह्म हैं, हम अमर ज्ञान हैं, इंद्रियों से परे हैं, हम पूर्ण परमानंद
हैं।
सत्य और छाया (१)
जो एक वस्तु को दूसरी से भिन्न करता है, वह है देश, काल और कारणता। विभेद रूप
में है, तत्त्व में नहीं।
तुम रूप को नष्ट कर सकते हो और वह सदा के लिए:अंतर्ध्यान हो जाता है। किंतु
तत्त्व जैसा का तैसा रहता है। तुम तत्त्व को कभी नष्ट नहीं कर सकते।
विकास प्रकृति में है, आत्मा में नहीं-प्रकृति का विकास, आत्मा की अभिव्यक्ति।
माया की प्रायः जैसी व्याख्या की जाती है, वह भ्रमजाल नहीं है। माया सत्य है,
किंतु फिर भी सत्य नहीं होती। वह सत्य इसलिए है कि सत्य वस्तु उसके पीछे है और
वह उसे सत्यता का आभास प्रदान करती है। माया में जो सत्यता है, वह माया के
मध्य और माया में रहने वाली सत्य वस्तु है। तथापि सत्य वस्तु कभी दिखायी नहीं
पड़ती; और इसलिए जो दिखायी पड़ता है, वह असत्य है, उसका अपना कोई सत्य और
स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, अपितु अपने अस्तित्व के निमित्त वह सत्य वस्तु
पर निर्भर है।
तब माया एक विरोधाभास है, वह सत् है, फिर भी सत् नहीं है; एक भ्रम है, किंतु
फिर भी भ्रम नहीं है।
जो सत्य वस्तु को जान लेता है, वह माया में भ्रम नहीं वरन् सत्यता देखता है।
जो सत्य वस्तु नहीं जानता, वह माया में भ्रम देखता है और उसे सत्य समझता है।
सत्य
और छाया (२)
(ओकलैंड में ८ मार्च, १९०० को दिए गए एक भाषण का 'ओकलैंड ट्रिब्यून' की
टिप्पणियों सहित विवरण)
हिंदू दार्शनिक स्वामी विवेकानंद ने कल संध्या वेंड्ट हाल में दूसरा भाषण
दिया। उनका विषय था 'सत्य और छाया।उन्होंने कहा: 'मनुष्य की आत्मा किसी ध्रुव
वस्तु की खोज में, किसी ऐसी वस्तु को पाने के लिए, जो परिवर्तित न होती हो,
सदैव प्रयत्नशील रहती है। वह कभी संतुष्ट नहीं होती। धन, महत्त्वाकांक्षा या
भूख की तुष्टि, सब परिवर्तनशील हैं। एक बार इन्हें प्राप्त करके मनुष्य
संतुष्ट नहीं होता। धर्म वह विज्ञान है, जो हमें यह सिखाता है कि अपरिवर्तनशील
की यह आकांक्षा कहाँ से पूरी हो। स्थानीय रंगों और व्युत्पत्ति के होते हुए भी
वे एक ही बात सिखाते हैं कि सत्य केवल मनुष्य की आत्मा में ही है।
'वेदांत दर्शन यह शिक्षा देता है कि दो जगत् हैं, बाह्य या गोचर और आंतरिक या
भीतरी-विचार-जगत्। 'वह देश, काल और कारणता के तीन मूलभूत प्रत्ययों की
स्थापना करता है। इन्हींसे माया का निर्माण होता है, जो मानव विचार की आधार
भूमि है, विचार का उत्पाद्य नहीं। महान् जर्मन दार्शनिक कांट भी आगे चलकर इसी
निष्कर्ष पर पहुँचा था।
'प्रकृति और ईश्वर की तथा मेरी वास्तविकता एक ही है, अंतर केवल अभिव्यक्ति के
रूप में है। विभेदीकरण माया द्वारा उत्पन्न होता है। जिस प्रकार तटवर्ती परिधि
रेखा, महासागर को जल-संयोजक, खाड़ी या छोटी खाड़ी बना देती हैं, किंतु जब रूप
देने वाली शक्ति या माया हटा ली जाती है, पृथक् रूप अंतर्हित हो जाता है,
विभेदीकरण नष्ट हो जाता है और फिर सब महासागर हो जाता है।'
इसके उपरांत स्वामी जी विकासवाद के सिद्धांत का मूल वेदांत दर्शन में पाया
जाया है, इस विषय पर बोले। वक्ता ने भाषण जारी रखते हुए कहा :
'सभी आधुनिक धर्म इस विचार से प्रारंभ होते हैं कि मनुष्य एक समय पवित्र था,
उसका पतन हुआ और वह पुनः पवित्र होगा। मैं नहीं समझता, उनको यह विचार कहाँ से
श्राप्त हुआ। ज्ञान का स्थान आत्मा है, बाह्य वातावरण केवल आत्मा को उद्दीप्त
करता है; ज्ञान आत्मा की शक्ति है। शताब्दियों से वह शरीर निर्माण करती रही
है। अवतार के विभिन्न रूप, आत्मा की जीवन-कथा के केवल क्रमगत अध्याय हैं। हम
निरंतर अपने शरीर का निर्माण कर रहे हैं। संपूर्ण विश्व प्रवाह, परिवर्तन,
प्रसार और आकुंचन की स्थिति में है। वेदांत मानता है कि तत्त्वतः आत्मा कभी
नहीं बदलती, किंतु वह माया द्वारा रूपांतरित होती है। प्रकृति, मन द्वारा
सीमित ईश्वर है। प्रकृति का विकास आत्मा का रूपांतर है। सभी प्रकार के जीवों
में आत्मा वही है। उसकी अभिव्यक्ति शरीर द्वारा रूपांतरित होती है। आत्मा की
यह एकता, मानवता का यह सामान्य तत्त्व नीति शास्त्र और नैतिकता का आधार है इस
अर्थ में सब एक हैं और अपने भाई को चोट पहुँचाना स्वयं अपने को चोट पहुँचाना
है।
'प्रेम केवल इस असीम एकता की एक अभिव्यक्ति है। किस द्वेत प्रणाली पर आप प्रेम
की व्याख्या कर सकते हैं? एक यूरोपीय दार्शनिक कहता है कि चुंबन, नरमांस भक्षण
का ही अवशेष है और यह व्यक्त करने का एक ढंग है कि 'आपका स्वाद कैसा अच्छा
है।' मैं इसमें विश्वास नहीं करता।
'वह क्या है, जो हम सब खोजते हैं? मुक्ति। जीवन का सारा प्रयत्न और संघर्ष
मुक्ति के लिए है। वह महाजातियों, संसारों और प्रणालियों की विश्वव्यापी
यात्रा है।
यदि हम बद्ध हैं तो हमें किसने बाँधा? असीम को स्वयं उसीके अतिरिक्त और कोई
शक्ति नहीं बाँध सकती।'
भाषण के बाद भाषणकर्ता से प्रश्न करने का अवसर दिया गया, उन्होंने उनका उत्तर
देने में आधे घंटे का समय लगाया।
एकता
(जून १९०० में वेदांत सोसाइटी, न्यूयार्क में दिए गए एक भाषण के अनुलेख)
भारत के विभिन्न संप्रदाय, द्वैत या अद्वैत की केंद्रीय धारणा से उद्भूत हुए
हैं।
वे सभी वेदांत के अंतर्गत हैं और सबकी व्याख्या उनके द्वारा की गई है। उनका
अंतिम सार एकत्व या अद्वैत की शिक्षा है। यह जिसे हम अनेक के रूप में देखते
हैं, ईश्वर है। हम भौतिक द्रव, जगत् तथा विविध संवेद्यों का प्रत्यक्ष करते
हैं। किंतु है केवल एक ही सत्ता।
ये विविध नाम, उस एक की अभिव्यक्ति में केवल परिमाण की भिन्नता को प्रकट करते
हैं। आज का कीट कल का ईश्वर है। ये भिन्नताएँ, जिनसे हम इतना प्रेम करते
हैं, एक असीम तथ्य के अंश हैं ओर उनमें भिन्नता केवल अभिव्यक्ति के परिमाण
में ही है। वह एक असीम तथ्य है-मुक्ति की उपलब्धि।
प्रणाली के विषय में हम चाहे जितनी भूल में क्यों न हों, हमारा सारा संघर्ष
वास्तव में मुक्ति के लिए है। मनुष्य की अतृप्त पिपासा का रहस्य यही लक्ष्य
है। हिंदू कहता है, बौद्ध कहता है कि मनुष्य की पिपासा की एक जलती हुई अतृप्ति
तथा अधिकाधिक के लिए है। आप अमरीकी लोग सदैव अधिक सुख, अधिक भोग की खोज में
रहते हैं। आप संतुष्ट नहीं किये जा सकते, यह सत्य है; पर अंतराल में, जो आप
खोजते हैं, वह मुक्ति ही है।
कामना का यह विस्तार वास्तव में मनुष्य की अपनी ही असीमता का चिह्न है। चूँकि
वह असीम है, इसलिए वह केवल तभी संतुष्ट किया जा सकता है, जब उसकी कामना असीम
हो और उसकी परितुष्टि भी असीम हो।
तब मनुष्य को क्या संतुष्ट कर सकता है ? स्वर्ण नहीं। भोग नहीं। सौंदर्य नहीं।
उसे केवल एक असीम ही संतुष्ट कर सकता है और वह असीम वह स्वयं है। जब वह यह
अनुभव कर लेता, तभी मुक्ति मिलती है।
'यह बाँसुरा, जिसके सुरों के छेद इंद्रियाँ है, अपनी समस्त उत्तेजनाओं,
प्रत्यक्षों ओर गीतों में केवल एक ही वस्तु गा रही है। वह उस लकड़ी में पुन:
जाना चाहती है, जिससे वह काटी गई थी। तू अपना अपने ही द्वारा उद्धार कर। बरे,
तू अपने को डूबने न दे। क्योंकि तू स्वयं ही अपना सर्वोत्तम मित्र है और तू
ही अपना महत्तम शत्रु।'
असीम की कौन सहायता कर सकता है! वह हाथ भी, जो तुम्हारे पास अन्धकार के बीच से
आएगा, तुम्हारा अपना ही हाथ होगा।
इन सबके दो कारण, भय और कामना हैं ओर कौन उनकी सृष्टि करता है? हम स्वयं।
हमारा जीवन केवल एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न को जाना ही तो है। असीम
स्वप्नद्रष्टा मानव ससीम स्वप्न देख रहा है। अहा, उसकी महिमा है कि कुछ भी
ब्रह्म वस्तु शाश्वत नहीं हो हो सकती ! जिनके हृदय यह सुनकर हिल जाते हैं कि
इस सापेक्ष संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं हो सकता, उनका आशय क्या है, यह वे
बहुत कम जानते हैं।
मैं असीम नीलाकाश हूँ। मेरे ऊपर से ये विभिन्न रंगों के बादल निकलते हैं, एक
क्षण रहते हैं, अंतर्धान हो जाते हैं। मैं वही शाश्वत नील हूँ। मैं द्रष्टा
हूँ, सबका वही शाश्वत द्रष्टा। मैं देखता हूँ, इसलिए प्रकृति का अस्तित्व है।
मैं नहीं देखता, इसलिए उसका अस्तित्व नहीं है। यदि यह असीम एकता एक क्षण के
लिए भी भंग हो जाए तो हममें से एक भी देख और बोल नहीं पायेगा।
माया का क्या कारण है
?
माया (भ्रम) का क्या कारण है-यह प्रश्न गत तीन सहस्त्र वर्षों से पूछा जा रहा
है। इसका केवल एक ही उत्तर दिया जा सकता है, और वह यह है कि जब संसार इस संबंध
में एक तर्कसंगत प्रश्न उठा सकेगा, तभी हम इसका उत्तर देंगे। उपर्युक्त
प्रश्न तो एक विरोधाभास है। हमारा कहना हैं कि निरपेक्ष केवल आपाततः सापेक्ष
बना दीख पड़ता है, निरुपाधिक केवल माया में ही सोपाधिक बना प्रतीत होता है।
निरुपाधिक को स्वीकार करने से ही हमें मानना पड़ता है कि निरपेक्ष पर अन्य
किसी की क्रिया नहीं हो सकती। वह कारणरहित है, तात्पर्य यह कि उस पर किसी
बाह्य वस्तु की क्रिया नहीं हो सकती। सर्वप्रथम यदि वह निरुपाधिक है-तो अन्य
किसी की क्रिया उस पर नहीं हुई है। असीम में देश, काल और निमित्त नहीं हों हो
सकते। यदि यह मान लिया जाए तो तुम्हारा प्रश्न यह रूप ले लेता है: 'कारण रहित
वस्तु (ब्रह्म) के इस रूप में परिवर्तित होने का क्या कारण है?' तुम्हारा
प्रश्न केवल ससीम में ही संभव है; पर तुम उसे ससीम या सापेक्ष की परिधि से
बाहर निकालकर असीम या निरपेक्ष के संबंध में प्रयुक्त करना चाहते हो। निरपेक्ष
जब सापेक्ष बन जाए और देश-काल-निमित्त-रूप उपाधियाँ आ जायें, तभी यह प्रश्न
पूछा जा सकता है। यह प्रश्न असंभव है। हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि अज्ञात
भ्रम का कारण है। निरपेक्ष पर किसी का कार्य नहीं हो सकता। कोई कारण नहीं था।
बात यह नहीं कि हम उसके विषय में जानते न हों, अथवा हम अज्ञानी हों; पर सच बात
तो यह है कि वह ज्ञान से परे है, और उसे ज्ञान के स्तर पर नहीं लाया जा सकता।
'मैं नहीं जानता', यह वाक्य हम दो अर्थों में प्रयुक्त कर सकते हैं। पहला तो
यह कि हम ज्ञान के स्तर से नीचे हैं; और दूसरा यह कि जिसे हम जानना चाहते हैं,
वह वस्तु ज्ञान से ऊपर है-परे है। आज हमें 'एक्स-रे' नामक किरणें ज्ञात हैं,
उनके कारणों के संबंध सें अभी विवाद है, पर कभी न कभी हम उसे जान ही लेंगे,
ऐसा हम निश्चित मानते हैं। यहाँ हम कह सकते हैं कि हम एक्स-रे के बारे में
नहीं जानते। पर निरपेक्ष के संबंध में हम नहीं जान सकते। हम एक्स-रे को नहीं
जानते, यद्यपि वह ज्ञान की सीमा के भीतर है; बात केवल इतनी ही है कि अभी तक हम
उन्हें जान नहीं पाये हैं। पर निरपेक्ष के संबंध में यह बात लागू नहीं होती,
वह तो ज्ञान के स्तर से इतना ऊँचा है-इतना परे है कि वह जानने का विषय ही नहीं
रह जाता। विज्ञातारमरे केन विजानीयात्?-
ज्ञाता को कैसे जाना जा सकता है? तुम सदा 'तुम' ही हो, तुम अपने आपको विषय
नहीं बना सकते। अमरत्व को सिद्ध करने के लिए हमारे दार्शनिकों के हाथ में अनेक
युक्तियों में से यह एक थी। यदि मैं सोचने का प्रयत्न करूँ कि मैं मरा पड़ा
हूँ तो मुझे क्या कल्पना करनी होगी? यही कि मैं खड़ा हूँ और अपने आपको-किसी एक
मृत शरीर को देख रहा हूँ। अतएव मैं अपने आपको विषय नहीं बना सकता।
बहु रूप में प्रतीयमान एक सत्ता
(न्यूयार्क, १८९६ ई० में दिया हुआ भाषण)
हमने देखा है, वैराग्य अथवा त्याग ही इन समस्त विभिन्न योगों की धुरी है।
कर्मी कर्मफल त्याग करता है। भक्त उन सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी प्रेम-स्वरूप
के लिए समस्त क्षुद्र प्रेमों का त्याग करता है; योगी जो कुछ अनुभव करता है,
उसका परित्याग करता है; क्योंकि उसके दर्शन की शिक्षा यही है कि प्रकृति
यद्यपि आत्मा की अभिज्ञता के लिए है, वह अंत में उसे समझा देती है कि वह
प्रकृति में अवस्थित नहीं है, किंतु प्रकृति से नित्य पृथक् है। ज्ञानी सब
कुछ त्याग करता है, क्योंकि उसके दर्शन शास्त्र का सिद्धांत यह है कि भूत,
भविष्यत्, वर्तमान किसी काल में भी प्रकृति का अस्तित्व नहीं है। हमने यह भी
देखा है, इन सब उच्चतर विषयों में उपयोगिता का प्रश्न किया ही नहीं जा सकता।
यह प्रश्न उठाना ही निरर्थक है, और यदि उसे पूछा ही जाए तो हम इस प्रश्न का
सम्यक् विश्लेषण करके क्या पाते हैं ? उपयोगिता का अर्थ क्या है ?-सुख। सुख
का आदर्श, वह जिससे मनुष्य को अधिक सुख प्राप्त होता है, उसके लिए इन उच्चतर
वस्तुओं की अपेक्षा कहीं अधिक उपयोगी हैं, जिनसे उसकी भौतिक परिस्थिति में कोई
उन्नति नहीं होती। समग्र विज्ञान इसी एक लक्ष्य-साधन में अर्थात मनुष्य जाति
को सुखी करने के लिए यत्न कर रहा है, तथा जिससे अधिक परिमाण में सुख उत्पन्न
होता है, मनुष्य उसे ही प्रहण करके जिसमें अल्प सुख है उसे त्याग देता है।
हमने देखा है, कैसे सुख देह में अथवा मन में अथवा आत्मा में अवस्थित है। पशुओं
का एवं पशुप्राय निम्नतम मनुष्यों का समस्त सुख देह में है। भूख से आर्त एक
कुत्ता अथवा भेड़िया जिस प्रकार सुखपूर्वक आहार करता है, कोई मनुष्य उस प्रकार
नहीं कर सकता। अतः कुत्ते अथवा भेड़िये के सुख का आदर्श संपूर्ण रूप से देहगत
है। मनुष्य में हम एक उच्चतर स्तर का, विचार-स्तर का, सुख देखते हैं। सर्वोच्च
स्तर का सुख ज्ञानी का है-बवे आत्मानंद में विभोर रहते हैं। आत्मा ही उनके सुख
का एकमात्र उपकरण है। अतएव ज्ञानी के पक्ष में यह आत्मज्ञान ही परम उपयोगिता
है; क्योंकि इससे ही वे परम सुख प्राप्त करते हैं। इंद्रियचरितार्थता उनके लिए
सर्वोच्च उपयोगिता का विषय हो नहीं सकता, क्योंकि वे ज्ञान में जिस प्रकार का
सुख प्राप्त करते हैं, विषय समूह अथवा इंद्रिय-भोग उस प्रकार नहीं पाते। तथा
वास्तव में ज्ञान ही सबका एकमात्र लक्ष्य है, तथा हम जितने प्रकार के सुख के
विषयों से परिचित हैं, उनमें से ज्ञान ही सर्वोच्च सुख है। जो अज्ञान में काये
किया करते हैं, वे 'देवगण के जलवाहक पशुओं के सदृश्य हैं।' यहाँ देव शब्द का
प्रयोग ज्ञानी व्यक्ति के अथ में किया गया है। वे सब जो व्यक्ति यंत्रवत कार्य
अथवा परिश्रम करते रहते हैं, वे वास्तव में जीवन का उपभोग नहीं करते, ज्ञानी
व्यक्ति ही जीवन का उपभोग करते हैं। एक धनी व्यक्ति एक लाख रुपये व्यय करके एक
चित्र मोल लेता है, किंतु जो शिल्प समझ सकता है, वही उसका रसास्वादन कर सकता
है, और धनी व्यक्ति यदि शिल्पज्ञान शून्य हो तो उसके लिए वह चित्र निरर्थक है,
वह केवल उसका मालिक मात्र है। जगत् में सर्वत्र ज्ञानी व्यक्ति ही जगत् का
सुख-भोग करते हैं। अज्ञानी व्यक्ति कभी सुख-भोग कर नहीं सकता, उसे अज्ञात
अवस्था में भी दूसरे के लिए परिश्रम करना होता है।
यहाँ तक हमने अद्वैतवादियों के सिद्धांतों को देख लिया, हमने देखा-उनके मत के
अनुसार आत्मा केवल एक है, दो आत्माएँ नहीं हो सकतीं। हमने देखा-समग्र जगत्
में केवल एक ही सत्ता विद्यमान है, तथा वही एक सत्ता इंद्रियों के माध्यम से
दिखायी पड़ने पर जगत् कहलाती है। मन के माध्यम से देखे जाने पर भाव-जगत्
कहते हैं तथा उसके यथार्थ स्वरूप को जानने पर वह एक अनंत सत् के रूप में
प्रतीत होती है। इस विषय को तुम विशेष रूप से स्मरण रखोगे-यह कहना ठीक नहीं है
कि मनुष्य के भीतर एक आत्मा है, यद्यपि समझाने के लिए पहले हमें इस प्रकार मान
लेना पड़ा था। वास्तव में केवल एक सत्ता विद्यमान है एवं वह सत्ता आत्मा है-और
वह जब इंद्रियों और इंद्रिय-बिंब-विधानों के माध्यम से अनुभूत होती है, तब उसे
ही देह कहते हैं; जब वह विचार के द्वारा अनुभूत होती है, तब उसे ही मन कहते
हैं तथा जब वह अपने स्व-स्वरूप में उपलब्ध होती है। तब वह आत्मा के रूप
में-उसी एक अद्वितीय सत्ता के रूप में प्रतीत होती है। अतएव ऐसा नहीं है कि एक
स्थान में देह, मन और आत्मा-ये तीनों वस्तुएँ विद्यमान हैं यद्यपि इस प्रकार
की व्याख्या करके समझाना सुविधाजनक था-किंतु सब वही आत्मा है तथा वह एक सत्
ही विभिन्न दृष्टियों के अनुसार कभी देह, कभी मन अथवा कभी आत्मा रूप में
अभिहित हुआ करता है। सत् तो केवल मात्र एक है, अज्ञानी लोग उसे ही जगत् कहा
करते हैं। जब वह व्यक्ति ज्ञान में अपेक्षाकृत उन्नत होता है, तब वह उस सत्
को ही भाव-जगत् कहने लगता है। तथा जब पूर्ण ज्ञान का उदय होता है तो सारा
भ्रम उड़ जाता है और तब मनुष्य देखता है कि यह सब आत्मा के अतिरिक्त और कुछ
नहीं है। 'मैं वही एक सत्ता हूँ।' यही अंतिम निष्कर्ष है। जगत् में दो-तीन
सत्ताएँ नहीं हैं, सब ही एक हैं। वह एक सत्ता ही माया के प्रभाव से बहु रूप
में दिखायी पड़ रही है, जिस प्रकार अज्ञानवश रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता
है। वह रस्सी ही साँप के समान दिखायी पड़ती है। यहाँ रस्सी अलग और साँप अलग-दो
पूथक् वस्तुएँ नहीं है। कोई यहाँ दो वस्तुएँ नहीं देखता। द्वैतवाद, अद्वैतवाद
अत्यंत सुंदर दार्शनिक शब्द हो सकते हैं, किंतु पूर्ण उपलब्धि की प्रक्रिया
में हम एक समय में ही सत्य और मिथ्या कभी देख नहीं पाते। हम सब जन्म से ही
अद्वैतवादी हैं, इस बात से भागने का उपाय नहीं है। हम सब समय एक को ही देखते
हैं। जब हम रस्सी देखते हैं, तब साँप बिल्कुल नहीं देखते, और जब साँप देखते
हैं, तब रस्सी बिल्कुल नहीं देखते-वह उस समय विलुप्त हो जाती है। जब तुमको
भ्रम-दर्शन होता है, तब तुम सत्य नहीं देखते। मान लो, दूर से मार्ग में
तुम्हारे एक बंधु आ रहे हैं। तुम उनसे बहुत अच्छी तरह परिचित हो, किंतु
तुम्हारे सम्मुख कुहरा और धुंध होने के कारण तुम उन्हें अन्य व्यक्ति समझ रहे
हो। जब तुम अपने बंधु को अन्य व्यक्ति समझ रहे हो, तब तुम अपने बंधु को नहीं
देखते, वे ग्रायब हो जाते हैं। तुम केवल एक को देख रहे हो। मान लो, तुम्हारे
बंधु को 'क' कहकर अभिहित किया गया। तब तुम जब 'क' को 'ख' के रूप में देखते हो,
तब तुम 'क' को बिल्कुल ही नहीं देखते। इस प्रकार सब स्थानों में तुमको एक की
ही उपलब्धि होती है। जब तुम अपने को देहरूप में देखते हो, तब तुम देह मात्र
हो, और कुछ नहीं हो, तथा जगत् के अधिकांश मनुष्यों को ही इसी प्रकार की
उपलब्धि होती है। वे आत्मा, मन आदि बातें मुँह से कह सकते हैं, किंतु देखते
हैं, यह स्थूल भौतिक आकृति ही-स्पर्श, दर्शन, आस्वाद इत्यादि। कोई कोई व्यक्ति
अपनी ज्ञानभूमि की विशेष प्रकार की अवस्था में अपने को विचार या भावरूप में
अनुभव किया करते हैं। सर हम्फ़े डेवी के संबंध में जो कथा है, उससे तुम परिचित
ही होगे। वे अपनी कक्षा में 'हास्यजनक गैस' (Laughing Gas) लेकर प्रयोग कर रहे
थे। हठात् एक नली टूट जाने के कारण वह गैस बाहर निकल आयी और निःश्वास के
संयोग से उन्होंने उसे ग्रहण किया। कुछ क्षणों तक वे पत्थर की मूर्ति के समान
निश्चल भाव से खड़े रहे। अंत में उन्होंने कक्षा के विद्याथियों से कहा, जब हम
उस अवस्था में थे, हम अनुभव कर रहे थे कि समस्त जगत् भावों अथवा प्रत्ययों से
निर्मित है। उस गैस की शक्ति से कुछ क्षणों के लिए उन्हें अपना देह-ज्ञान
विस्मृत हो गया था, और जिसे पहले वे शरीर के रूप में देख रहे थे, उसे ही इस
समय विचार अथवा भावसमूह के रूप में देख सके। जब चेतना और भी उच्चतर अवस्था में
जाती है, जब यह क्षुद्र चेतना सदा के लिए नष्ट हो जाती है, तब सबके पीछे जो
सत्य वस्तु विद्यमान है, वह प्रकाशित होने लगती है। उसका तब हम अखंड
सच्चिदानंद रूप में-उस एक आत्मा के रूप में-अनंत सर्वव्यापी रूप में दर्शन
करते हैं। 'वह जो स्वयं ज्ञानखूप है, वह जो स्वयं आनंदरूप है, तुलनातीत,
सीमातीत, नित्य मुक्त, सर्वदा अबद्ध, गगन सदृश असीम, गगनवत नित्य है, वह पूर्ण
समाधि की अवस्था में तुम्हारे हृदय में अपने को प्रकट करेगा।
[6]
अद्वैत सिद्धांत स्वर्गों और नरकों की विविध अवस्थाओं तथा सभी धर्मों में
मिलने वाली इस प्रकार की विविध कल्पनाओं की किस प्रकार व्याख्या करता है ? जब
मनुष्य की मृत्यु होती है, कहा जाता है कि वह स्वर्ग में अथवा नरक में जाता
है, यहाँ-वहाँ नाना स्थानों में जाता है अथवा स्वयं में या अन्य किसी लोक में
हूँ धारण करके जन्म ग्रहण करता है। यह सब मिथ्या कल्पना है। वास्तव में कोई
उत्पन्न भी नहीं होता, मरता भी नहीं है। वस्तुतः स्वर्ग भी नहीं है, नरक भी
नहीं है और इहलोक भी नहीं है। इन तीनों का ही किसी काल में अस्तित्व नहीं है।
एक बालक को अनेक भूतों की कहानियाँ सुनाकर संध्या के समय उसे बाहर जाने को
कहो। वहाँ कटे हुए पेड़ का एक छोटा सा तना है। बालक क्या देखता है? वह देखता
है-एक भूत हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ने को आ रहा है! मान लो, एक व्यक्ति मार्ग के एक
कोने से अपनी प्रेमिका के दर्शन करने के लिए आ रहा है-वह उस पेड़ के तने को
अपनी प्रणयिनी समझ लेता है। एक पुलिसवाला उसे चोर समझेगा, तथा चोर उसे
पुलिसवाला ठहरायेगा। वह एक ही तना विभिन्न रूप में दिखायी पड़ रहा है। पेड़ का
वही तना विभिन्न रूपों में दिखलायी पड़ा। सत्य तो पेड़ का तना ही है, उसके
विविध रूप विविध मानसों के अध्यास। एकमात्र सत्-यह आत्मा ही विद्यमान है। वह
न कहीं जाती है, न आती है। अज्ञानी मनुष्य स्वर्ग अथवा उस प्रकार के स्थान में
जाने की वासना करता है, समस्त जीवन उसने लगातार केवल उसकी ही चिंता की है। जब
उसका इस पृथ्वी का स्वप्न नष्ट हो जाता है, तब वह इस जगत् को ही स्वर्ग रूप
में देखता है-जिसमें देवतागण हैं, और देवदूत इधर-उधर उड़ रहे हैं, इत्यादि
इत्यादि। यदि कोई व्यक्ति जीवन भर अपने पूर्व पितरों को देखना चाहता रहा हो तो
वह आदम से आरंभ करके सबको ही देख लेता है, क्योंकि, वह स्वयं ही उन सबकी
सृष्टि करता है। यदि कोई और भी अधिक अज्ञाती हो और धर्मान्धों ने चिर काल तक
उसे नरक का भय दिखाया हो तो वह मृत्यु के पश्चात् इस जगत् को ही नरक के रूप
में देखता है। मृत्यु अथवा जन्म का अर्थ केवल दृष्टि का परिवर्तन है। तुम न
कहीं जाते हो, न वह जिसके ऊपर अपना दृष्टिक्षेप करते हो। तुम तो नित्य और
अपरिणामी हो। तुम्हारा फिर जाना-आना क्या है? यह असंभव है। तुम तो स्वव्यापी
हो। आकाश कभी गमन नहीं करता, किंतु उसके ऊपर से मेघ इस दिशा से उस दिशा की ओर
जाया करते हैं-हम समझते हैं, आकाश ही गतिशील हुआ है। रेलगाड़ी में चढ़कर
यात्रा करते समय जैसे पृथिवी गतिशील प्रतीत होती है, यह भी ठीक उसी प्रकार है।
वास्तव में तो पृथिवी डिग नहीं रही है, रेलगाड़ी ही चल रही है। इसी प्रकार तुम
जहाँ थे, वहीं हो, केवल ये सब विभिन्न स्वप्न हैं, मेघ समूह के समान इस-उस
दिशा में जा रहे हैं। एक स्वप्न के पश्चात् और एक स्वप्न आ रहा हैं-उनमें
परस्पर कोई संबंध नहीं है। इस जगत् में नियम अथवा संबंध जैसा कुछ भी नहीं है,
किंतु हम सोच रहे हैं, परस्पर प्रचुर संबंध है। तुम सबने ही संभवतः
'आश्चर्य-लोक में एलिस' (Alice in Wonderland) नामक ग्रंथ पढ़ा है। बालकों के
लिए इस शताब्दी में लिखी यह पुस्तक सबसे अद्भुत है। मैंने उस पुस्तक को पढ़कर
बहुत आनंद लाभ किया था-मेरे मन में बराबर बालकों के लिए उस प्रकार की पुस्तक
लिखने की इच्छा थी। हमें उसमें सबसे अधिक अच्छा यह लगा था कि आप जिसे सबसे
अधिक असंगत समझते हैं, वही उसमें है-किसी के साथ किसी का कोई संबंध नहीं है।
एक भाव आकर मानो दूसरे में कूद पड़ रहा है-उनमें परस्पर कोई संबंध नहीं है। जब
तुम लोग शिशु थे, तुम सोचते थे, उनमें परस्पर अद्भुत संबंध विद्यमान है। उस
व्यक्ति ने अपनी शैशवावस्था के विचारों को-शैशवावस्था में जो जो उसे संपूर्ण
संबंधयुक्त प्रतीत होता था, उन्हें ही लेकर शिशुओं के लिए उस पुस्तक की रचना
की है। किंतु वे सारी पुस्तकें व्यर्थ हैं जिन्हें वयस्क व्यक्ति लिखते हैं और
जिनमें वे अपने वयस्क विचारों को बच्चों के गले के नीचे उतार देना चाहते हैं।
हम भी वय:प्राप्त शिशु मात्र हैं, बस। हमारा जगत् भी उसी प्रकार की असंबद्ध
वस्तु मात्र है-वह सब एलिस का अद्भुत लोक है-किसी के साथ किसी का किसी प्रकार
का संबंध नहीं है। हम जब अनेक बार कुछ घटनाओं को एक निर्दिष्ट अनुक्रम में
घटित होते देखते हैं, हम उन्हें हो कार्य-कारण के नाम से अभिहित करते हैं, और
कहते हैं कि वे फिर भी घटित होंगी। जब यह स्वप्न बदल जाएगा तो उसका स्थान
ग्रहण करनेवाला दूसरा स्वप्न भी इसके ही समान संबंधयुक्त प्रतीत होगा।
स्वप्न-दर्शन के समय हम जो कुछ देखते हैं, वह सब परस्पर संबंधयुक्त प्रतीत
होता है, स्वप्न की अवस्था में हमें वह कभी असम्बद्ध अथवा असंगत नहीं
लगता-केवल जब हम जाग उठते हैं, तभी संबंध का अभाव देख पाते हैं। इसी प्रकार जब
हम इस जगद्रूपी स्वप्न-दर्शन से जाग उठकर इस स्वप्न की सत्य के साथ तुलना करके
देखेंगे, तव वह सब असंबद्ध और निरर्थक प्रतीत होगा-असंगति की ऐसी राशि जो
हमारे सम्मुख चली जा रही है, जिसके विषय में हम नहीं जानते कि वह कहाँ से आयी,
कहाँ जा रही है, किंतु हम यह जानते हैं कि उसका अंत होगा। इसे ही माया कहते
हैं और वह दल के दल गतिशील मेघजालों के समान है। यह इस परिवर्तनशील का
प्रति-निधि है और वह अपरिणामी सूर्य तुम स्वयं हो। जब तुम उस अपरिणामी सत्ता
को बाहर से देखते हो, तब उसे तुम ईश्वर कहते हो और भीतर से देखने पर उसे तुम
निज की आत्मा अथवा स्वरूप कहते हो। वह है, केवल एक ही। तुमसे पृथक् ईश्वर
नहीं है, तुमसे-यथार्थतः जो तुम हो-उससे श्रेष्ठतर ईश्वर नहीं है-सब ईश्वर
या देवता ही तुम्हारी तुलना में क्षुद्रतर हैं; ईश्वर और स्वस्थ पिता आदि की
समस्त धारणा तुम्हारा ही प्रतिबिंब मात्र है। ईश्वर स्वयं ही तुम्हारा
प्रतिबिंब या प्रतिमास्वरूप है। 'ईश्वर ने मासव की अपने प्रतिबिंब के रूप में
सृष्टि की-यह भूल है। मनुष्य ईश्वर की निज के प्रतिबिंब के अनुसार सृष्टि करता
है-यह बात ही सत्य है। समस्त जगत् में ही हम अपने प्रतिबिंब के अनुसार ईश्वर
अथवा देवगण की सृष्टि करते हैं। हम देवता की सृष्टि करते हैं, उनके पदतल पर
गिरकर उसकी उपासना करते हैं, और ज्योंही यह स्वप्न हमारे निकट आता है, तब हम
उससे प्रेम करने लगते हैं।
यह बात समझ लेना उत्तम होगा कि आज सुबह की वक्तृता का सार यह है कि, मात्र एक
ही सत्ता है तथा वह एक सत्ता ही विभिन्न मध्यवर्ती वस्तुओं के मध्य से होकर
दिखायी पड़ने पर, वही पृथिवी अथवा स्वर्ग अथवा नरक अथवा ईश्वर अथवा भूत-प्रेत
अथवा मानव अथवा दैत्य अथवा जगत् अथवा वह सब कुछ प्रतीत होती है। किंतु इन सब
विभिन्न वस्तुओं में-'जो इस मृत्यु के सागर में उस एक का दर्शन करता है, जो इस
संतरणशील विश्व में उस एक जीवन का दर्शन करता है, जो उस अपरिवर्तनशील का
साक्षात्कार करता है, उसीको चिरंतन शांति की उपलब्धि होगी, किसी अन्य को नहीं,
किसी अन्य को नहीं।'
[7]
उसी एक सत्ता का साक्षात्कार करना होगा। किस प्रकार-यह प्रश्न आगे का है। किस
प्रकार उसकी सिंद्धि हो? किस प्रकार यह स्वप्न भंग हो कि हम क्षुद्र क्षुद्र
नर-नारी हैं आदि। यह जो स्वप्न है-इससे किस प्रकार हम जागेंगे? हम ही समस्त
जगत् के वे अनंत सत् हैं तथा हमने जड़ भावापन्न होकर यह क्षुद्र कुद्र
नर-नारीरूप धारण किया है-हम एक व्यक्ति की मधुर बात से गल जाते हैं तथा दूसरे
एक व्यवित की कड़ी बात से गरम हो उठते हैं। कितनी भयानक निर्भरता है-कितना
भयानक दासत्व है! मैं-जो सकल सुख-दुःख के अतीत हूँ, समस्त जगत् ही जिसका
प्रति विश्व-स्वरूप है-सूर्य, चंद्र, तारा, जिसके प्राणों के लघु कण मात्र
हैं-वह मैं इस प्रकार भयानक दास-भावापन्न हो गया हूँ! हमारी देह में तुम्हारे
एक चिमटी के काटने पर हमें कष्ट होता है। कोई यदि एक मीठी बात करता है, त्यों
ही हमें आनंद होने लगता है। हमारी कैसी दुर्दशा है, देखो-हम देह के दास, मन.
के दास, जगत् के दास, एक अच्छी बात के दास, एक बुरी बात के दास, वासना के
दास, सुख के दास, जीवन के दास, मृत्यु के दास-हम सब वस्तुओं के दास हैं ! यह
दासत्व हटाना होगा कैसे? 'इस आत्मा के संबंध में पहले सुनना होगा, तत्पश्चात्
उस्ते लेकर मनन अर्थात् विचार करना होगा, तत्पश्चात् उसका निदिध्यासन
अर्थात् ध्यान करना होगा।'
[8]
अद्वैतज्ञानी की यही साधना-प्रणाली है। सत्य को पहले सुनना होगा, फिर उस पर
मनन करना होगा, उसके पश्चात् उसे निरंतर दृढ़ करते रहना होगा। सर्वदा ही
सोचो, 'हम ब्रह्म हैं। अन्य सब विचारों को दुर्बलताजनक मानकर दूर कर देना
होगा। जिस किसी विचार से तुमको अपने नर-नारी होने का ज्ञान होता है, उसे दूर
कर दो। देह जाए, मन जाए, देवता भी जायें, भूत-प्रेत आदि भी जाये, उस एक सत्ता
के अतिरिक्त सब जाये। 'जहाँ एक व्यक्ति अन्य का देखता है, एक व्यक्ति अन्य कुछ
सुनता है, एक व्यक्ति अन्य कुछ जानता है, वह क्षुद्र अथवा ससीम है; तथा जहाँ
एक व्यक्ति अन्य को देखता नहीं, एक व्यक्ति अन्य कुछ सुनता नहीं, एक व्यक्ति
अन्य कुछ जानता नहीं, वही भूमा अर्थात् महान् अथवा अनंत है।'
[9]
वही सर्वोत्तम वस्तु है, जहाँ विषयी और विषय एक हो जाते-हैं। जब हम ही श्रोता
और हम ही वक्ता हैं, जब हम ही आचार्य और हम ही शिष्य हैं, जब हम ही स्रष्टा और
हम ही सृष्ट हैं, केवल तभी भय का नाश होता है, क्योंकि हमें भयभीत करने वाला
और कोई अथवा कुछ नहीं है। हमारे अतिरिक्त जब और कुछ भा नहीं है, तब हमें भय्
दिखायेगा कौन? दिन-प्रतिदिन यही तत्त्व सुनना होगा। अन्य सब विचारों को दूर कर
दो-और सब दूर तोड़कर फेंक दो, निरंतर उसकी आवृत्ति करो। जब तक वह हृदय में न
पहुँचे, जब तक प्रत्येक स्नायु, प्रत्येक मांस-पेशी, यहाँ तक कि प्रत्येक
शोणित-बिंदु तक हम ही वह हैं, हम ही वह हैं, इस भाव से पूर्ण न हो जाए, तब तक
कान के भीतर से यह तत्त्व क्रमशः भीतर प्रवेश कराना होगा। यहाँ तक कि मृत्यु
के सामने होकर भी कहो-हम ही वह हैं। भारत में एक संन्यासी थे-वे शिवोअहं
शिवोअहं की आवृत्ति करते थे। एक दिन एक बाघ आकर उनके ऊपर कूद पड़ा और खींच ले
जाकर उसने उन्हें मार डाला। जब तक वे जीवित रहे, तब तक शिवोअहं, शिवोअहं ध्वनि
सुनी गई थी! मृत्यु के द्वार में, घोरतर विपद् में, रणक्षेत्र में, समुद्रतल
में, उच्चतम पर्वत शिखर में, गंभीरतर अरण्य में, चाहे जहाँ क्यों न पड़ जाओ,
सर्वदा अपने से कहते रहो-'मैं वह हूँ, मैं वह हूँ, दिन-रात बोलते रहो, 'मैं वह
हूँ।' यह सर्वोत्कृष्ट बल है, यही धर्म है। 'दुर्बल व्यक्ति कभी आात्मा को
लाभ नहीं कर सकता।'
[10]
कभी मत कहो हे प्रभो! मैं अति अधर्म पापी हूँ।! कौन तुम्हारी सहायता करेगा ?
तुम जगत् के साहाय्य-कर्ता हो-तुम्हारी इस बात में फिर कौन सहायता कर सकता
है? तुम्हारी सहायता करने में कौन मानव, कौन देवता अथवा कौन दैत्य सक्षम है ?
तुम्हारे ऊपर और किसकी शक्ति काम करेगी ? तुम्हीं जगत् के ईश्वर हो-तुम फिर
कहाँ सहायता ढूँढ़ोगे ? तुमने जो कुछ सहायता पायी है, अपने निज के अतिरिक्त और
किसी से नहीं पायी। तुमने प्रार्थना करके जिसका उत्तर पाया है, उसे अज्ञतावश
तुमने सोचा है कि अन्य किसी पुरुष ने उसका उत्तर दिया है, किंतु अनजान में
तुमने स्वयं उस प्रार्थना का उत्तर दिया है। तुमसे ही सहायता आयी थी, किंतु
तुमने आग्रह के सहित कल्पना कर ली थी कि अन्य कोई तुमको सहायता भेज रहा है।
तुम्हारे बाहर तुम्हारा साहाय्य-कर्ता और कोई नहीं है -तुम ही जगत् के
स्रष्टा हो। रेशम के कीड़े के समान तुम्हीं अपने चहुँओर जाल का निर्माण कर रहे
हो। कौन तुम्हारा उद्धार करेगा? तुम यह जाल काट फेंककर सुंदर तितली के रूप
में-मुक्त आत्मा-रूप में बाहर होकर आओ। तभो, केवल तभी-तुम सत्य का दर्शन
करोगे। सर्वदा अपने मन से कहते रहो, 'मैं वह हूँ।' ये शब्द तुम्हारे मन के
कूड़ा-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति
अवस्थित है, वह प्रकाशित हो जाएगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनंत शक्ति
सुप्त भाव से विद्यमान है, वह जग जाएगी। सवंदा ही सत्य-केवल मात्र सत्य-सुनकर
ही इस महाशक्ति का उद्बोधन करना होगा। जिस स्थान में दुर्बलता की चिंता
विद्यमान है, उस स्थान की और दृष्टिपात तक मत करो। यदि ज्ञानी होना चाहते हो
तो सब प्रकार की दुर्बलता का परिहार करो।
साधना आरंभ करने के पहले मन में जितने प्रकार के संदेह आ सकते हैं, सबका
निराकरण कर लो युक्ति, तक, विचार जहाँ तक कर सको, करो। इसके पश्चात् जब तुमने
मन में दृढ़ निश्चय किया कि यही, एवं केवल मात्र यही सत्य है, और कुछ नहीं है,
तब फिर तक न करो, तब मुँह एकदम बंद करो। तब फिर तर्क-युक्ति न सुनो, स्वतः भा
तक न करो। फिर तर्क-युक््ति का प्रयोजन क्या? तुमने तो विचार करके तृप्ति-लाभ
किया है, तुमने तो समस्या का समाधान कर लिया है, अब तो फिर शेष क्या है? अब
सत्य का साक्षात्कार करना होगा। फिर वृथा तर्क में अधिक अमूल्य कालहरण से फल
क्या है ? अब उस सत्य का ध्यान करना होगा, तथा जो कोई विचार तुमको तेजस्वी
बनाये, उसे ही ग्रहण करना होगा एवं जो दुर्बल बताये, उसका ही परित्याग करना
होगा। भक्त मूर्ति-प्रतिमा आदि और ईश्वर का ध्यान करते हैं। यही स्वाभाविक
साधना-प्रणाली है, किंतु उसकी गति मंद होती है। योगी अपनी देह के अभ्यंतर के
विभिन्न केंद्र अथवा चक्र पर ध्यान करते हैं और मन के भीतर के शक्ति समूह की
परिचालना करते हैं। ज्ञानी कहते हैं, मन का भी अस्तित्व नहीं है; देह का भी
अस्तित्व नहीं है। इस देह और मन के विचार को दूर कर देना होगा, अतएव उनका
विचार करना अज्ञानोचित कार्य है। वह मानो एक रोग को लाकर दूसरे रोग को आरोग्य
करने के समान है। अतएव उनका ध्यान ही सबकी अपेक्षा कठिन है-नेति, नेति; वे सकल
वस्तु के अस्तित्व का ही निरास करते हैं, तथा जो शेष रहता है, वही आत्मा है।
यही सबकी अपेक्षा अधिक विश्लेषणात्मक साधन है। ज्ञानी केवल मात्र विश्लेषण के
बल से जगत् को आत्मा से विच्छिन्न करना चाहते हैं। 'हम ज्ञानी हैं! यह बात
कहना अत्यंत सहज है, किंतु यथार्थ ज्ञानी होना बड़ा ही कठिन है। वेद कहते हैं-
'पथ अत्यंत दीर्घ है, यह मानो छुरे की तीक्ष्ण घार के ऊपर से चलना है; किंतु
निराश मत हो। उठो, जागो, जब तक उस चरम लक्ष्य को न प्राप्त कर लो, न रुको।
[11]
अतएव ज्ञानी का ध्यान किस प्रकार हुआ ? ज्ञानी देह-मन विषयक सब प्रकार के
विचारों को दूर करना चाहते हैं और वे इस विचार को निकाल बाहर करना चाहते हैं
कि हम शरीर हैं। दृष्टांतस्वरूप देखो, ज्यों ही हम कहते हैं, हम अमुक स्वामी
हैं, उसी क्षण देह का भाव आ जाता है।-तब क्या करना होगा? मन पर बलपूर्वक आघात
करके कहना होगा, 'हम देह नहीं हैं, हम आत्मा हैं।' रोग ही आए अथवा अत्यंत
भयावह आकार में मृत्यु आकर ही उपस्थित हो, कौन चिंता करता है? हम देह नहीं
हैं। देह को सुंदर रखने का यत्न क्यों है? भ्रम को एक बार फिर भोग करने के
लिए! इस दासत्व को जारी रखने के लिए ? देह जाए, हम देह नहीं हैं। यही ज्ञानी
की साधना-प्रणाली है। भक्त कहते हैं, 'प्रभु ने हमें इस जीवन-समुद्र को सहज ही
लाँघने के लिए यह देह दी है, अतएव जितने दिनों तक यात्रा शेष नहीं होती, उतने
दिनों तक इसकी यत्नपूर्वक रक्षा करनी होगी।'' योगी कहते हैं, 'हमें देह का
यत्न अवश्य ही करना होगा, जिससे हम धीरे धीरे साधना-पथ पर आगे बढ़कर अंत में
मुक्तिलाभ कर सकें।'' ज्ञानी सोचते हैं, हम अधिक विलंब नहीं कर सकते। हम इसी
क्षण चरम लक्ष्य पर पहुँचेंगे। वे कहते हैं, 'हम नित्यमुक््त हैं, किसी काल
में ही हम बद्ध नहीं हैं; हम अनंत काल से इस जगत् के ईश्वर हैं। हमें तब
पूर्ण कौन करेगा ? हम नित्य पूर्णस्वरूप हैं।' जब कोई मानव स्वयं पूर्णता को
प्राप्त होता है, तब वह दूसरे में भी पूर्णता देखने लगता है। लोग जब दूसरे में
अपूर्णता देखते हैं, तब यह समझना होगा कि अपने निज के सन की छाप दूसरे पर
पड़ने के कारण ही वे इस प्रकार देखते हैं। उनके निज के भीतर यदि अपूर्णता न
रहे तो वे किस प्रकार अपूर्णता देखेंगे ? अतएव ज्ञानी पूर्णता-अपूर्णता की कुछ
भी चिंता नहीं करते। उनके पक्ष में उनमें से किसी का भी अस्तित्व नहीं है।
ज्यों ही वे मुक्त होते हैं, वे फिर भला-बुरा नहीं देखते। भला-बुरा कौन देखता
है? वही जिसके निज के भीतर भला-बुरा होता है। दूसरे की देह कौन देखता है ? जो
अपने को देह समझता है। जिस क्षण तुम देहभावरहित होगे, उसी क्षण फिर तुम जगत्
नहीं देखने पाओगे। वह चिर काल के लिए अंतहित हो जाएगा। ज्ञानी केवल बौद्धिक
विचार स्वीकृति के बल से इस जड़-बंधन से अपने को विच्छिन्न करते हैं। यही
'नेति' 'नेति' या नकारात्मक मार्ग है।
[1]
मूलतः ये प्रवचन स्वामी जी की एक प्रमुख अमेरिकन शिष्या कुमारी एस. ई.
बाल्डो द्वारा लेखबद्ध किये गये थे। जिस समय स्वासी सारदानन्द अमेरिका
में थे, (1896) उन्होंने उनकी नोटबुक से इनको प्रतिलिपि कर ली।
[2]
विज्ञातारमरे केन विजानीयात् ॥ बु. उप. ॥2।4।14॥
[3]
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पले स्वाद्वत्त्यनश्नन्नयो अभिचाकशीति॥
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोअनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिसानमिति वीतशोक:॥
-मु. उप.॥3।11-2॥
[4]
यदा ह्येवैष एतस्सिन्नुदरमन्तरं कुरुते।अथ तस्य भय भदति॥ तै. उप.
॥2।॥
[5]
देहबुद्धया तु दासोअहं जीवबुद्धधा त्वदंशक:।
आत्मबुद्धया त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः॥
[6]
किमपि सततबोधं केवलानन्दरूपं
निरुपममतिवेलं नित्यमुक्तं निरीहम् ।
निरवधि गगनाभं निष्कलं र्निविकल्पं
हृदि कलयति विद्वान् ब्रह्म पूर्ण समाधौ।
-विवेकचूड़ामणि ॥410॥
[8]
बृहदारण्यक उपनिषद् ॥516॥
[9]
यत्र नान््यत् पश्यति नान्यच्छुणोति नान्यद् विजानाति स भूमा।
अथ यत्रान्यत् पश्यत्यस्यच्छृणोत्यन्यद विजानाति तदल्पम्॥
--छान्दाग्योपनिषद् ॥7।24।1॥
[10]
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ॥मुण्डकोपनिषद्॥3।2।4॥
[11]
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरात्रिबोधत ।
क्षुरस्य घारा निशिता दुरत्यया
दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति॥
कठोपनिषद् ॥1॥3।14॥