कभी एक ऊंची कद काठी की अमेघ और निष्कपट महिला हुआ करती थी। वह तरुण तो नहीं थी, और यह उसके उच्चतर धैर्य,अनुभव और अनुग्रह से परिलक्षित होता था। बीते बरसों में वह अपनी प्रज्ञा के लिए विख्यात थी और कालांतर में संसार के कई मनीषी उसकी चरणों में बैठते और उसके ज्ञान संदेश को सभी दिशाओं में संचारित करते रहे। लेकिन अब वह वृद्ध थी। थकी हुई थी। उसकी आंखों की ज्योति किसी ध्रुवतारे की तरह बस उन्हीं चंद सयानों को राह दिखा पा रही थी जो अब भी आभास के पीछे का यथार्थ देख पाने में सक्षम थे। साथ ही वह समृद्ध थीजिस कारण बहुतों ने उस पर अधिकार करने का हठ किया। इनमें से एक जिससे उसे रंचमात्र ही प्रेम था, बरसों तक उसके शरीर का स्वामी बना रहा। अब फिर एक और अनजान प्रणय-याचक स्वतंत्रता और शांति के वादे के साथ आया कि वह, उसकी संतानों की सुरक्षा करेगा; और उसने उस पर विश्वास करके उसे अपना हाथ सौंप दिया।
कुछ समय तक तो यह ठीक चला। उसका नया स्वामी उसके खजाने के धन-दौलत को पाकर संतुष्ट था। बदले में उसे तिरस्कार में रंगी हुई शांति के अलावा और कुछ नहीं मिलता था । लेकिन जल्दी ही उसने अपनी नव ब्याहता और उसकी संतानों में ज्यादा रुचि दिखानी शुरु कर दी और स्वयं से कहा, "इस स्त्री के आचार-विचार विचित्र जान पड़ते हैं जो ना तो मेरी तरह हैं और ना ही मेरे लोगों की तरह। उसके विचार मेरे विचार से मेल नहीं खाते; लेकिन उसे प्रशिक्षित और शिष्ट किया जाएगा ताकि जो मैं जानता हूं उसे वह भी जान सके और तब दुनिया कहे कि मैंने उसके मन को प्रगति की राह में ढाल दिया है।" वह उसकी प्राचीन ज्ञानराशि को नहीं जानता था। वह उसे दिमाग से सुस्त जान पड़ती थी और अपनी जिस व्यवहार कुशलता पर उसे गर्व था उसमें उसकी कमी जान पड़ती थी.
यह सब विचार अभी उसके मन में चल ही रहे थे कि उसके (स्त्री) कुछ बच्चे उसके (नये स्वामी) विरुद्ध इस कारण से उठ खड़े हुए कि उनकी ताकत छिनी जा रही है और जिन नियम-कायदों से उनके आपसी बात-व्यवहार संचालित होते रहें हैं, उनके साथ छेड़छाड़ की जा रही है। इन संतानों को भय था कि उनकी प्राचीन विरासत हमेशा के लिए खत्म हो जायेगी। लेकिन मां को अब भी शांति और आराम की आशा थी। उसने अपनी संतानों की पुकार को न केवल नजरंदाज किया अपितु उनके हठ के शमन में मददगार भी बनी। फलस्वरूप जल्दी ही शांति छा गई। लेकिन जिद्दी बच्चे अपने नये पिता से प्यार नहीं करते थे । वे अपनी माता की बात को भी नहीं समझ सके। उनके नये पिता ने दूसरा तरीका अपनाया । उसने बच्चों को स्कूल में भेजा जहां उन्हें उसकी भाषा और उसके विचार सिखाये गये। उन्हें बताया गया कि उसके लोग कितने महान और आत्म-दानी थे । उसने बिना किसी लाभ या लोभ के उनकी माता को अशांति और दुर्दशा से बचाया है। बच्चों को यह भी सिखाया गया कि वे अपने प्राचीन वैभव को भूल जायें और नई सीख की ऊंचाई से प्राचीन रंग-ढंग को उपेक्षित कर दें।
फिर अब एक और बात हुई, माँ ने नये स्वामी से एक संतान जना और वह इस कारण प्रसन्न था कि वह ( क्योंकि एक कन्या का जन्म हुआ था) उसके रंग-ढंग की होगी, ठीक उसके अपने लोगों की कन्या के समान। वह धनवान और रुपवान होगी और उसके अपने लोगों के पुत्र की दुल्हन बनेगी। लेकिन जब इस संतान का जन्म हुआ तो माता जैसे स्वप्न से जाग गई और अब वह सिर्फ अपनी बेटी की खातिर जीने लगी। बड़ी होती बेटी मां को उसके यौवन के दिनों की याद दिलाती और शायद ही वह विदेशी स्वामी की पक्ष लेती थी । तो भी उसमें उस (विदेशी स्वामी) जैसी ऊर्जा और व्यवहारिक मामलों की चतुराई थी। माता उससे खूब बतियाती और लाड़ करती ! विदेशी स्वामी ने इसे किंचित बुरे रूप में नहीं लिया। उसने सोचा कि मैं तो बहुत महान हूं और इस महानता का तकाजा है कि जैसा चल रहा है वैसा चलने दिया जाय। उसने उसके लिए शिक्षक रखे और उसको अपने लोगों के रंग-ढंग की शिक्षा दी। लेकिन मां चुपके से बेटी को प्राचीन ज्ञान सिखाती और बेटी का हृदय अपने पिता, उसके लोगों और उनके आचार-व्यवहार से दूर होता चला गया। वह अब तृप्तकाम थी, उसके केश धवल हो चले थे और समय के साथ वह कमजोर हो गई थी। और एक समय ऐसा आया जब वह नहीं रही । अब उसका काम पूरा हो चुका था । विदेशी स्वामी भी अब धीरे-2 निस्तेज हो चला था। उसके अपने देश में ही परेशानियाँ बढ़ चलीं थी। और अब कहा जाने लगा था कि वह पराई धरती पर एक आततायी की भांति रह रहा था । इस बात से उसे पीड़ा होती। वह सोचता कि क्या मैंने अपना जीवन दूसरों के हित के लिए नहीं जिया और क्या ये श्रमिक लोग उसकी ताबेदारी के ही लायक नहीं? लेकिन बेटी दृढ़ से दृढ़तर होती गई। उसे अपने पिता की निरंकुशता जरा भी बर्दाश्त नहीं थी और वह तो अपने से पहले जन्म लेने वाले बच्चों के बच्चों की भी मां थी। उसे सभी माता कहते थे और शायद वह और उसकी माता एक जैसी ही थीं। एक दिन संतानों में पुराने दिनों की तरह खुसफुसाहट हुई और उन्होंने कहा कि राजस्व वसूलने और हमारे मस्तिष्क पर तालीम उकेरने वाले इस विदेशी स्वामी की उन्हें जरुरत नहीं। लेकिन उन्हें बड़ी सख्ती से कुचल दिया गया। कुछ को जेल हुई। कुछ के साथ तो इससे भी बुरा हुआ क्योंकि पिता पुराने आचार-व्यवहार का था। उसे लगता था कि मातहत लोगों के जीवन और मृत्यु पर उसका अधिकार नहीं होना अनुचित है। लेकिन बच्चे अब उसकी निरंकुशता सहने को तैयार नहीं थे क्योंकि उसने(विदेशी स्वामी) अनजाने में उनको न केवल स्वतंत्रता का सपना देखना सिखा दिया था अपितु यह भी बता दिया था कि राजा-रजवाड़े के दिन तो अब लद गए ।.
ये सारी दुश्वारियां उस पर सवार थीं, वह बूढा होकर थक चला था और तरुणी माता( क्योंकि उसने कहा था कि वह सबकी मां होगी लेकिन ब्याहता किसी की नहीं) ने सब संतानों की मदद की और उसने सबको एक-दूसरे से प्रेम करने और एक-दूसरे की मदद करना तथा अपने को मां पुकारना सिखा दिया था । उसने विदेशी स्वामी को छोड़ दिया और अलग जाकर रहने लगी जहां बच्चे उससे राय-सलाह के लिए आते। और जब कभी विदेशी स्वामी इसे रोकता, तब वह वहां नहीं रहती बल्कि कहीं और चली जाती। ऐसा जान पड़ता है कि वह ना तो यहां है ना वहां, बल्कि वह सर्वत्र है।
यह कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है लेकिन अंत दूर नहीं है और उसे देखा जा सकता है।