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वैचारिकी संग्रह

दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन दर्शन खंड - 1

दत्तोपंत ठेंगड़ी


दत्तोपंत ठेंगड़ी

जीवन दर्शन

खंड 1

न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग न पुनर्भवम्।

कामये दु:ख तप्तानाम् प्राणिनामार्ति नाशनम्।।

(महाराज रन्तिदेव)

(मुझे राज्य की और न ही स्वर्ग सुख की कामना है। से मैं मोक्ष की भी कामना नहीं करता। इच्छा है तो केवल यह कि दु:ख से संतप्त प्राणियों के कष्टों का निवारण कर सकूं.....)

न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परां अष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा..

(श्रीमद्भागवत - ९.२१.१२)

अर्पण

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी

की

पूज्य माता

सौ. जानकी बाई ठेंगड़ी

की

पावन स्मृति को

सादर समर्पित


दत्तोपंत ठेंगड़ी

जीवन दर्शन

( खंड - 1)

नवयुग सूत्रपात - शून्य से सृष्टि (भाग - 1)

आदरांजलि - कृतज्ञ स्मरण (भाग - 2)

लेखन - संपादन

अमर नाथ डोगरा

सुरुचि प्रकाशन

केशव कुंज, झंडेवालान, नई दिल्ली - 110055

दत्तोपंत ठेंगड़ी

जीवन दर्शन

(खंड - 1)

प्रकाशक

सुरुचि प्रकाशन

केशव कुंज, झण्डेवाला

नई दिल्ली - 110055

दूरभाष : 011-23514672, 23634561

E-maill : suruchiprakashan@gmail.com

Website : www.suruchiprakashan.in

© सुरक्षित : भारतीय मजदूर संघ

प्रथम संस्करण : वि. सं. 2072

(जून, 2015)

मूल्य : ₹ 200

आवरण पृष्ठ : बलराज

पृष्ठ संयोजक : अमित कुमार

मुद्रक : गोयल एंटरप्राइजिज

ISBN : 978-93-84414-20-7

आशीर्वचन

जब रा.स्व. संघ के कार्यकर्ताओं ने सोचा कि मजदूर क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ स्वतंत्र रूप से काम करे और उसका संगठन दत्तोपंत ठेंगड़ी करें तो यह काम उन्हें सौंप दिया गया। उन्होंने बड़े परिश्रम किए, अपने कार्यकर्ताओं की सहानुभूति और सहायता थोड़ी बहुत होगी ही परंतु उन्होंने अकेले यह कार्य किया जिसको अंग्रेजी में 'सिंगल हैंडिड' कहते हैं। अब भारतीय मजदूर संघ का बोलबाला भी काफी हो गया है और श्रमिक क्षेत्र में यह एक शक्ति के रूप में खड़ा हो गया है।

अपनी परंपरा, अपने हिंदुत्व का स्वाभिमान और उसके साथ स्वतंत्र अस्तित्व इसी प्रकार से वे (भा.म.स.) चलने वाले हों तो उनकी प्रगति होगी, और होगी, बहुत अच्छी होगी।

प. पू. श्रीगुरुजी

1 नवंबर 1972

ठाणे


HE STILL WORSHIPS THE MOTHER

(A Poetic Tribute to Dr. Hedgewar, the founder of R.S.S.)

Thro' his tongue did speak to us,

Our ancient wisdom;

Thro' his feet did approach us

Our holy culture;

Thro' his life did inspire us,

Our best martyrdom;

Thro' his death did spring of life,

Our glorious future;

He still treads the globe,

With our million feet;

He still fights the evil,

With our million hands;

He still worships the mother,

Thro' our daily meet;

He still marches ahead,

Of our heroic bands.

D.B. Thengadi

I would prefer to remain a small stone dug and pressed in the foundation of our great National edifice.

( अपने महान राष्ट्र की आधारशिला का एक लघु पाषाण कण बनकर नींव में गड़े रहना ही मैं पसंद करूंगा)

खंड - 1

अनुक्रमणिका

भाग - 1

क्र. विषय

सोपान- 1

1. मा. मोहन भागवत जी का संदेश

2. प्रकाशकीय

3. प्रस्तावना (प्रथम खंड) - मा. रंगा हरि

4. प्राक्कथन

5. आत्म निवेदन - संपादकीय

6. वंशावली श्री ठेंगड़ी परिवार

7. दत्तोपंत ठेंगड़ी : परिचय

8. माता : परिचय

9. पिता : परिचय

10. पारिवारिक पृष्ठभूमि - बाल्यकाल - विद्यार्थी जीवन

11. संघ प्रचारक : केरल, बंगाल : संघ शाखा कार्य

12. निरासक्त कर्मयोगी : बहुआयामी व्यक्तित्व

सोपान- 2

1. संगठन स्थापना की पृष्ठभूमि : संदर्भ बिंदु

2. निर्माण की नींव

3. राष्ट्रभक्त मजदूरों की उमंग का प्रकट आविष्कार : भारतीय मजदूर संघ की स्थापना

4. मजदूर आंदोलन में नवयुग का सूत्रपात

5. शून्य से सृष्टि : दीप प्रकाश

6. निर्माण से प्रथम अधिवेशन तक

7. एक तपस : घोर तपस्या

खंड- 1

अनुक्रमणिका

क्र. विषय

सोपान- 3

1. प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन

2. दादा साहब गायकवाड़ के विचार

3. मा. भाऊ राव देवरस का मार्गदर्शन

4. श्री ठेंगड़ी द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन

5. सोवियत संघ प्रवास : रोचक प्रसंग

6. द्वितीय अखिल भारतीय अधिवेशन

7. मा. रज्जू भैय्या जी का उद्बोधन

8. श्री ठेंगड़ी द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन

सोपान- 4

1. भारत पाक युद्ध 1971 : परिवर्तित परिदृश्य

2. आपात्काल 1975 : लोक संघर्ष समिति

3. महामंत्री का दायित्व बड़े भाई को : श्री ठेंगड़ी जी का संदेश

4. भारतीय मजदूर संघ व एच एम एस विलय प्रस्ताव : श्री ठेंगड़ी का पत्र श्री मधु लिमये के नाम

5. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय मजदूर संघ

6. वामपंथी नेता बोले वंदे मातरम्

7. सत्य सिद्धांत की विजय

8. 'पदम् भूषण' अस्वीकार करते हुए राष्ट्रपति जी को लिखा पत्र

9. मृत्यु ही विश्रांति

10. महाप्रयाण

खंड- 1

अनुक्रमणिका

भाग - 2

आदरांजलि - कृतज्ञ स्मरण

क्र. विषय

सोपान- 5

1. हमारी कामना

2. नियति द्वारा मानवंदना

3. अंतिम यात्रा

4. शोक संदेश

5. श्रद्धांजलि सभा (दिल्ली)

6. राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी

7. शत नमन् हे महामानव

8. प्रखर विचारक, असाधारण संगठक

9. दत्तोपंत ठेंगड़ी : पथ चुना, और बढ़ते गए....

10. निश्चयाचा महामेरु

11. केरल में संघ-कार्य : बीज से वटवृक्ष तक

12. दत्तोपंत ठेंगड़ी - प्रथम पुण्य तिथि (2005) व्याख्यानमाला में मा. मोहन जी भागवत का उद्बोधन

सोपान- 6 संस्मरण

1. श्री अशोक सिंहल

2. श्री पी. परमेश्वरन

3. पू. प्रमिलाताई मेढ़े

4. डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी

5. श्री एस. गुरुमूर्ति

6. श्री के. आर. मल्कानी

7. श्री ना. बा. लेले

8. श्री चं. प. उपाख्य बापुसाहेब भिशीकर

9. श्री रामनरेश सिंह उपाख्य बड़े भाई

10. श्री गोविंद राव आठवले

11. श्री बैजनाथ राय

12. श्री आर. वेणुगोपाल

13. शब्द संकेत

14. लेखक परिचय

पारिभाषिक शब्द

आई.एल.ओ. (ILO) - अंतरराष्ट्रीय श्रम संस्था

बी.एम.एस. (BMS) - भारतीय मजदूर संघ (भा.म.स)

डब्लयु.टी.ओ (WTO) - विश्व व्यापार संगठन

इंटक (INTUC) - इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस

एटक (AITUC) - आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस

एच.एम.एस. (HMS) - हिंद मजदूर सभा

सीटू (CITU) - सेंटर आफ इंडियन ट्रेड युनियन्स

यू.टी.यू.सी. (UTUC) - यूनाईटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस

यू.टी.यू.सी.-एल.एस. (UTUC-LS) - यूनाईटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस- (लैनिन सारिणी)

ए.सी.एफ.टी.यू. (ACFTU) - आल चाईना फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियनन्स

ई.पी.एफ. (EPF) - इंप्लाईज प्रोविडेंट फंड

जे.सी.एम. (JCM) - संयुक्त परामर्शदात्री परिषद सदस्यता सत्यापन- प्रत्येक दस वर्ष के अंतराल पर केंद्र द्वारा

(Membership Verification) -सभी केंद्रीय श्रमिक संगठनों की सदस्यता जाँच

57- साऊथ एवेन्यू - राज्यसभा सदस्य के नाते श्री ठेंगड़ी जी का नई दिल्ली स्थित सांसद निवास

संघ (रा.स्व.संघ) - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

श्री गुरुजी - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक

सरसंघचालक - संघ के मार्गदर्शक

शाखा - किसी एक स्थान पर स्वयंसेवकों का दैनिक एक घन्टे के लिए एकत्रीकरण

स्वयंसेवक - संघ शाखा में उपस्थित रहने वाला कोई भी व्यक्ति

प्रचारक - संघ कार्य हेतु पूर्णतया समर्पित, पूरा समय देने वाला अवैतनिक कार्यकर्ता

खंड - 1 (भाग- 1)

सोपान- 1

1. मा. मोहन भागवत जी का संदेश

2. प्रकाशकीय

3. प्रस्तावना (प्रथम खंड) - मा. रंगा हरि

4. प्राक्कथन

5. आत्म निवेदन संपादकीय

6. वंशावली श्री ठेंगड़ी परिवार

7. दत्तोपंत ठेंगड़ी : परिचय

8. माता : परिचय

9. पिता : परिचय

10. पारिवारिक पृष्ठभूमि - बाल्यकाल - विद्यार्थी जीवन

11. संघ प्रचारक : केरल, बंगाल : संघ शाखा कार्य

12. निरासक्त कर्मयोगी : बहुआयामी व्यक्तित्व


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

प्रधान कार्यालय : हेडगेवार भवन , नागपुर- 440032

दूरभाष: 2723088, 2700150 0712-2721588

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य ईश्वरीय कार्य है, यह सभी स्वयंसेवकों की श्रद्धा है। उपेक्षा व विरोधों का सतत सामना कर अत्यंत विपरीत परिस्थितियों से होकर यह कार्य आज अनुकूलताओं की स्थिति का अनुभव ले रहा है। इस 90 वर्षों की विजययात्रा को जिनके बल पर संपन्न किया गया, वे ईश्वरीय कार्य का योग्य निमित्तमात्र बनकर काम करने वाले संघ के कार्यकर्ता, केवल स्वयंसेवकों के ही नहीं, समाज में अनेकों के श्रद्धाभाजन बन चुके हैं। सब प्रकार की परिस्थितियों में न केवल विचार व आचरण पर स्वयं स्थिर रहना, परंतु समूचा संगठन वैसा चले व उन विचारों तथा आचरण की देश-काल-परिस्थिति के साथ सुसंगतता समाज के भी ध्यान में आवे व उससे समाज में परिवर्तन का चक्र आगे बढ़े, यह उन्होंने करके दिखाया। उन जीवनों को देखकर व पढ़कर संत तुकाराम महाराज की यह उक्ति कि -

"आम्ही वैकुंठवासी, आलो याची कारणासी

बोलिलें जे ऋषि साच भावे वर्तावया।।"

(हम वैकुण्ठ के निवासी, इसी कारण आए

कह गए जो ऋषि, आचरण कर दिखाये।।)

विश्व में, भारत में तथा हम सभी के जीवन में सुख-शांतिकारक परिवर्तन की संभावना इसी व्यक्तिगत व सामूहिक आचरण के हम सभी के द्वारा अनुसरण पर टिकी है।

उन कार्यकर्ताओं की मालिका में स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का भी प्रमुख स्थान है। उनके देहावसान के पश्चात उनके शुद्ध, सहज, कर्मठ व आत्मीय भाव से परिपूर्ण जीवन का, निःस्वार्थ, लोकसंग्राहक व लोकहितकारी कर्तृत्व का, प्रखर ध्येयनिष्ठा, स्नेहपूर्ण आत्मीयता व अपार परिश्रमयुक्त आचरण पद्धति का आदर्श कार्यकर्ताओं में प्रचलित हो, इसलिए उनके बारे में बताने वाला एक समग्र संकलन प्रकाशित हो, यह सभी की स्वाभाविक इच्छा रही। स्व. ठेंगड़ी जी के द्वारा निर्मित भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं की पहल से वह कार्य अब संपन्न हो गया है और ग्रंथ रूप में आपके हाथों में है।

यह ग्रंथ पाठकों को ध्येयमार्ग पर निष्काम दृढ़तापूर्वक सतत अग्रसर होने में पथप्रदर्शक ग्रंथ है। आत्मविलोपी कार्यकर्ताओं के बारे में समग्र जानकारी एकत्र कर सकना बहुत ही कष्ट साध्य है, जिसे ग्रंथकर्ताओं ने सफलतापूर्वक किया है, उन सभी का अभिनंदन। अधिकाधिक संख्या में इसका नित्यपाठ कार्यकर्ताओं में व समाज में हो, तथा हम सब के जीवन का आलोक बनकर यह ग्रंथ पूज्या भारतमाता को विश्व-धर्मप्रवर्तन के कार्य का नेतृत्व प्रदान करने वाला पथ-प्रशस्त करे, यह शुभकामना।

(मोहन भागवत)

प्रकाशकीय

अपने देश में साम्यवादी विचार का वर्चस्व जब चरम पर था तब भारत की राष्ट्रवादी शक्ति ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी को मजदूर क्षेत्र में राष्ट्रवाद तथा भारतीय अर्थ चिंतन आधारित श्रमिक संगठन निर्माण का चुनौतीपूर्ण दायित्व सौंपा। श्री ठेंगड़ी ने वर्ष 1955 में भारतीय मजदूर संघ नाम से अखिल भारतीय श्रमिक संगठन की शून्य से स्थापना की। उस समय मजदूर क्षेत्र के रणक्षेत्र में श्री ठेंगड़ी की स्थिति 'रावण-रथी-विरथ रघुवीरा' वाली थी। पूर्व से स्थापित शासन सत्ता मान्यता प्राप्त विशेषकर साम्यवादी श्रम संघों से प्रतिस्पर्धा का अति कठिन कार्य था। श्री ठेंगड़ी 'सत्य सिद्धांत की विजय' का अटूट विश्वास तथा 'अपना ईश्वरीय कार्य' मानकर आगे बढ़े थे सो घनघोर संघर्षों, आपदाओं, अवरोधों को पार करते हुए उन्होंने अल्प अवधि में भारतीय मजदूर संघ को समस्त विरोधी संगठनों को पीछे छोड़ते हुए सर्वोच्च स्थान पर पहुँचा दिया।

उपरोक्त संघर्षपूर्ण गौरवगाथा को जानने, पढ़ने की ललक राष्ट्रप्रेमी जनों के मन में होना स्वाभाविक है। अतः भारतीय मजदूर संघ के वर्तमान नेतृत्व ने 'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' ग्रंथमाला के अंतर्गत श्री ठेंगड़ी जी के कर्मशील व्यक्तित्व, विशाल कर्तृत्व, तेजस्वी नेतृत्व तथा उनके विचारधन, उद्बोधन, लेखन आदि पर आधारित उक्त शीर्षक से ग्रंथमाला प्रकाशन की योजना बनाई है। ग्रंथमाला के नौ खंड प्रस्तावित हैं।

सुरुचि प्रकाशन का सद्भाग्य है कि ग्रंथमाला के प्रकाशन का कार्यभार भारतीय मजदूर संघ ने हमें सौंपा है। यह सूचित करते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है कि ग्रंथमाला का प्रथम खंड छपकर लोकापर्ण के लिए तैयार है। शेष खंड भी शीघ्र प्रकाशित होंगे।

प्रसन्नता की एक बात यह भी है कि ग्रंथ के प्रथम खंड की प्रस्तावना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख तथा गंभीर लेखन संपादन के लिए प्रख्यात मनीषी श्री रंगा हरि जी ने लिखी है जिससे ग्रंथ की गुणवत्ता व गरिमा में वृद्धि हुई है।

ग्रंथ के लिए प. पू. सरसंघचालक मा. मोहन जी भागवत का आर्शीवाद के रूप में संदेश निःसंदेह उत्प्रेरक है। संदेश वास्तव में गागर में सागर है। ग्रंथ की प्रतिष्ठा में इससे चार चाँद लग गए हैं ऐसा कथन कदाचित्त् अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है।

ग्रंथमाला का लेखन व संपादन भारतीय मजदूर संघ के ही ज्येष्ठ कार्यकर्ता श्री अमरनाथ डोगरा ने यथार्थ का चित्रण तटस्थ भाव द्वारा रोचकशैली में प्रस्तुत कर इसे पठनीय व संग्रहणीय बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

उक्त ग्रंथ अब आपके कर कमलों में सौंपते हुए हमारी हर्षानुभूति की आप कल्पना कर सकते हैं। श्री ठेंगड़ी जी से संबंधित साहित्य कोरा साहित्य नहीं अपितु ज्ञान गंगा है। विचार सागर और प्रेरणा का प्रकाशपुंज तथा जगत्जननी भारत माता के श्री चरणों में अर्पित श्रद्धा सुमन है।

सुधि पाठकवृंद इस ग्रंथमाला का सहर्ष स्वागत् करेंगे - इसी विश्वास के साथ।

सुरुचि प्रकाशन

प्रस्तावना

रंगा हरि

विस्तृत गहरा अध्ययन और बहुआयामी अनुसंधान की दृष्टि से किसी भी महान विद्वान व्यक्ति का समग्र वाङ्‌मय बहुत लाभकारी है। संबंधित व्यक्ति का जीवनकाल, उस समय के विचार प्रवाह, गतिविधियाँ, समस्याएं, चुनौतियाँ, प्रत्युत्तर, समकालीन जाने-माने लोग आदि उस से ज्ञात होते जाते हैं। तात्कालिक इतिहास की रचना हेतु उससे मूल्यवान जानकारी लभ्य होती है। भाषाशास्त्र की दृष्टि से उस कालखंड के प्रयोग, शैली, व्यंग्य एवं उनके विकास का क्रम उस से अवगत हो जाता है। सब से अधिक, उस वाङ्‌मय के धनी व्यक्तित्व की नैसर्गिक उत्क्रांति और उसके विचार प्रवाह का क्रमानुगत अनावरण अभिव्यक्त होता है। इस प्रकार किसी का, कहीं का समग्र साहित्य अनुसंधानियों के लिए वस्तुनिष्ठ तथा आत्मनिष्ठ संधान की खदान बन जाता है। उसका महत्त्व मात्र साहित्य क्षेत्र तक सीमित नहीं रहता।

और एक महत्त्व है, हमारी वंदनीय मातृभूमि भारतवर्ष के परिप्रेक्ष्य में। संप्रति भारत के इतिहास में उन्नीसवीं सदी से उदीयमान हिंदू पुनरुत्थान का प्रकाशमय अध्याय सुविदित है। उसको पुष्ट करने का उल्लेखनीय योगदान बीसवीं सदी के प्रारंभ में स्वामी विवेकानंद साहित्य समग्र का रहा। वर्तमान में वह परिवर्धित होकर दस खंडों का हुआ है। उसी के समकक्ष में सुश्री मेरी लुई बर्क (पश्चात साध्वी गार्गी) के संकलित 'स्वामी विवेकानंद पश्चिम में' के छः खंड हैं। सोने में सुगंध के नाते स्वामी अभेदानंद-समग्र के ग्यारह खंड हैं। इसके अतिरिक्त भगिनी निवेदिता-समग्र के पाँच खंड हैं। इसी श्रेणी में पुतुश्शेरी से प्रकाशित 30 खंडों की श्री अरविंद ग्रंथावली है। उस प्रकार का हो गया साधु-संत साहित्य। किंतु हिंदू पुनरुत्थान के अग्रगामी साधु-संत मात्र नहीं थे। उनमें शिखरस्थ हैं लोकमान्य तिलक और विनायक दामोदर सावरकर। इन दो दिग्गजों का समग्र साहित्य भी भारत के दो तीन भाषाओं में उपलब्ध है। हिंदू पुनरुत्थान के इतने विशाल महोदधि में इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में संगमित प्रबल सरिता हैं श्री गुरुजी समग्र के बारह खंड। सूची तो और लंबी है, यहाँ केवल सांकेतिक उल्लेख किया गया है।

संक्षेप में आज भारत में राष्ट्रीय पुनरुत्थान संबंधित साहित्य सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। भारत की सभी भाषाओं में उसको उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। उसके फलस्वरूप समूचे देश के आबालवृद्ध जनमन में राष्ट्र की अस्मिता संबंधित सही दृष्टिकोण खिलेगा। इस दिशा में सोच बढ़ाते समय विशेषतः दो प्रतिभावानों का समग्र वाङ्‌मय देखने और पढ़ने हेतु मन लालायित होता है। वे हैं पंडित दीनदयाल उपाध्याय और दत्तोपंत ठेंगड़ी। दोनों चिरंतन राष्ट्रचेतना को ओजस्वी बनाने वाले द्युस्थानीय अश्विनी कुमार हैं। जानकारी मिलने से आनंद हुआ कि अविलंब पंडितजी का साहित्य-सर्वस्व उपलब्ध होने वाला है। 'अकरणात् मन्दकरणं श्रेयस्करं।'

तुलना में दत्तोपंत के साहित्य का संकलन आसान है यद्यपि क्लेशकारी। उसका सिंहभाग प्रसंग उठने पर छप चुका है, काम उन सब को एकत्र लाने का है, अतः आसान। इसलिए क्लेशकारी है कि कृतियों की संख्या अधिक है और उनका प्रकार बहुआयामी है। उसका ठीक वर्गीकरण और सही विन्यास दत्तचित्त होकर करना पड़ेगा। उपलब्ध सूची के अनुसार दत्तोपंत की रचनाएं हिंदी में 35, अंग्रेजी में 10, मराठी में 3 हैं। इसके अलावा बारह लंबी ग्रंथ-प्रस्तावनाओं का संकलित ग्रंथ है। राज्यसभा में भाषण, छोटी कविताएं, पत्र-व्यवहार, वक्तव्य, बिखरी टिप्पणियां आदि संकलित सामग्री और भी होगी। इसके भी अतिरिक्त शकुंतला की अंगूठी के समान नदी में डूब पड़ी रत्नखचित मुद्राओं को डुबकी लगाकर उभारना होगा। खंडशः समग्र सामग्री का विन्यास और मुद्रण हो जाने पर उसका यथोचित इंडेक्स (शब्दों की संदर्भ सूची) तैयार करना होगा। वर्तमान प्रणाली में इंडेक्स के बिना ग्रंथ का संदर्भ मूल्य घट जाता है। अनुसंधानियों की सुविधा हेतु वह अनुपेक्षित है। स्वामी विवेकानंद समग्र तथा श्री अरविंद समग्र का इंडेक्सिंग अत्युत्तम एवं अनुकरणीय है। अर्वाचीन पुनरुत्थान साहित्य के निर्माताओं से यह कुशलता अपेक्षित है।

पंडित दीनदयाल जी द्वारा प्रतिपादित दर्शन जो आज एकात्म मानव दर्शन के नाम से जाना जाता है, यद्यपि उनका कार्यक्षेत्र भारतीय जनसंघ के संबंध में प्रासंगिक था फिर भी उस संगठन की कार्यपरिधि तक सीमित नहीं था। उसका व्याप उससे बहुत व्यापक है। अतः एकात्म मानव दर्शन पंडित जी द्वारा भारतीय जनसंघ के लिए आविष्कृत हुआ ऐसा अनुमान पूर्णतः गलत होगा। दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का विचार विश्व भी इसी दर्जे का है। उसका व्याप भारतीय मजदूर संघ की संगठनात्मक, वैचारिक परिधि से अधिक आकार प्रकार में विस्तृत है। अतएव ठेंगड़ी जी के विचार विश्व को भारतीय मजदूर संघ के परिप्रेक्ष्य में सीमित करके देखना और आंकना तथ्यात्मक नहीं होगा, न्याय संगत भी नहीं होगा। दोनों प्रज्ञापुरुषों का धैषणिक व्यक्तित्व दोनों के कार्यक्षेत्रों से बहुत विस्तृत है। यहाँ द्रष्टा और नेता - दोनों के बीच जो अंतर है उसको हमें पैनी बुद्धि से समझना होगा। देखने में भगवद्गीता का जन्मस्थान रणांगण है और उसका जन्महेतु रणवीर अर्जुन का विमूढ़भाव, विषाद तथा कार्पण्य दोष है किंतु उस गीता का दर्शन रणांगण या रणकाल तक सीमित नहीं, वह है त्रिकालाबाधित। उसी को दर्शन कहते हैं। अन्यथा उसका नाम होगा समस्या का हल अथवा शंका समाधान।

उपर्युक्त विचारकणों की पृष्ठभूमि में विश्वास है कि दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे बहुमुखी प्रतिभावान के बहुआयामी सृजनों के संकलन का गंभीर काम एक मस्तिष्क- दो हाथों का नहीं हो सकता। उसके लिए दत्तचित कार्यबद्ध एकाग्र टोली का सामूहिक श्रम आवश्यक है। यह काम है इतिहास की दृष्टि से चिरकालीन। आगामी पीढ़ियों के लिए होने के कारण उसको जल्दबाजी के बिना सर्वंकष सावधानी से करना होगा।

इन विचारों के मेरे हाथ में श्री अमरनाथ डोगरा जी ने 'दत्तोपंत ठेंगड़ी - जीवन दर्शन' की पाण्डुलिपि रख दी और आग्रह किया कि मैं उसकी प्रस्तावना लिखूँ। कथापुरुष स्व. दत्तोपंत, विषय उनका जीवन दर्शन, लेखक भारतीय मजदूर संघ का ज्येष्ठ समर्पित कार्यकर्ता-प्रेरणा के लिए और क्या चाहिए, मैंने सोत्साह माना। आगे चलकर मैंने पुस्तक पूरी पढ़ी।

अमरनाथ भाई ने मुझे बताया था कि यह संभावित काम का प्रथम खंड है और इस के बाद संभवतः 7-8 खंड आनेवाले हैं। सुनकर मन प्रफुल्ल हुआ। फिर भी मेरे सामने यह प्रथम खंड ही है और उसी का निरीक्षण मेरे लिए संभव है।

सर्व प्रथम मुझे महसूस हुआ कि यह मेरी अभीप्सा के अनुसार दत्तोपंत जी का समग्र वाङ्‌मय नहीं, वरन् उनके जीवन की पृष्ठभूमि में रेखांकित मुख्यतः भारतीय मजदूर संघ की विकास गाथा है। अतएव सिद्धहस्त लेखक संपादक ने इस खंड का विस्तारित नाम 'दत्तोपंत ठेंगड़ी - जीवन दर्शन खंड-1 - नवयुग सूत्रपात - शून्य से सृष्टि (भाग 1), आदरांजलि - कृतज्ञ स्मरण (भाग 2)' - ऐसा रखा।

भाग एक को चार सोपानों में विभाजित किया है। प्रथम सोपान दत्तोपंत जी के जीवन संबंधी है। उसमें हमें उनके माताजी-पिताजी संबंधित जानकारी प्राप्त होती है। स्मृतिकणों के रूप में बाल्यकाल का विवरण होता है। प्रचारक जीवन का विहंगम दृश्य तो मिलता है किंतु वह अधूरा है। 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के काल में दत्तोपंत केरल में और 1946-47 के स्वतंत्रता के उषः काल में बंगाल में प्रचारक थे। दोनों अत्यंत महत्वपूर्ण वेलाएँ। उस वेला के उनके मैदानी अनुभव क्या थे, भूमिका क्या थी, विषेशतः बंगाल में मोहम्मद अली जिन्ना की 'प्रत्यक्ष कार्रवाई' की घोषणा के परिणाम स्वरूप जब हिंदुओं का निर्मम व नृशंस नरसंहार हुआ तब उनकी घोर तपस्या किस प्रकार की थी? ..... खोज की आवश्यकता है। फिर भी इस सोपान के अंत में 'निरासक्त कर्म योगी' शीर्षक से जो जीवन पट प्रस्तुत किया गया वह अतीव बोध प्रद है। उसमें आम आदमी की आँखों के सामने दत्तोपंत का अमोघ व्यक्तित्व उजागर होता है।

द्वितीय और तृतीय सोपान भारतीय मजदूर संघ के उद्गम और विकास की रोमांचकारी कथा है। चौथा सोपान भारतीय मजदूर संघ की विजय यात्रा का पर्व है। इस सोपान के अंत में तीन बहुमूल्य दस्तावेज हैं। एक है 'सत्य सिद्धांत की विजय' शीर्षक का ठेंगड़ी जी का उद्बोधन। उसका अंतिम वाक्य है "ऐसे विश्व विजयी सिद्धांतों के अधिष्ठान पर खड़े हुए कार्य के साथ हम रहेंगे तो विजय की पताका हिमालय की तुंगशृंग पर फहराने को सिद्ध होगी।" किसी भी ध्येयवादी में आत्म विश्वास जगाने का वाक्य! दूसरा दस्तावेज है पद्मभूषण स्वीकार करने की अनिच्छा व्यक्त करते हुए ठेंगड़ी जी द्वारा महामहिम राष्ट्रपति को सादर सविनय लिखा पत्र। इस मूल्यवान पत्र में उनकी अव्यभिचारी संघ निष्ठा तथा दंभहीन अमानिता दृष्टिगोचर होती है। तीसरा दस्तावेज है ठेंगड़ी जी की मृत्युकल्पना, जिसको स्वयं मृत्युंजय ही लिख सकता है। वास्तव में यह तीनों दस्तावेज इस खंड के भाग - 1 की फलश्रुति हैं।

भाग दो स्मरणांजलि का है। इसके दो सोपान है। एक है स्मृति कणों का और दूसरा है स्मृति लेखों का। इस भाग के बारे में केवल एक विचार मन में आया कि ठेंगड़ी जी के देहावसान के बाद अनेक पत्र पत्रिकाओं ने अग्रलेख लिखे थे। उन लेखों के व्याप और नाप दिवंगत के व्यक्तित्व का परिचायक है जो इतिहास की दृष्टि में महत्वपूर्ण है। उनको भी संकलित करके यहाँ संलग्न किया होता तो बहुत अच्छा होता।

मान्यवर अमरनाथ डोगरा सिद्ध हस्त लेखक हैं। उन्होंने इस खंड में भारतीय मजदूर संघ को दत्तोपंत की पार्श्वभूमि में, और दत्तोपंत को मजदूर संघ की पार्श्वभूमि में प्रस्तुत किया है। आने वाले खंडों में वे कैसे आगे बढ़ने वाले हैं, दूसरा कोई नहीं कह सकता। इतना तो कह सकता हूँ कि सफलता पूर्वक आगे बढ़ेंगे। कुल मिलाकर देशवासियों को दत्तोपंत के विचार दर्शन का लाभ होगा, इसमें संदेह नहीं। संभव है कि उससे प्रेरित होकर, कोई प्रबुद्ध मण्डली सामने आएगी और दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का संपूर्ण वाङ्‌मय यथावत् प्रकाशित करेगी। विद्वान लोगों का कहना है कि भाष्य पढ़कर मनीषी मूल कृति की ओर बढ़ता है। अतः यह सुनिश्चित है कि निकट भविष्य में हिंदू पुनरुत्थान के समग्र वाङ्‌मय की श्रृंखला में दत्तोपंत - समग्र भी अधुनातन कड़ी बन जाएगा और राष्ट्रीय जीवनधारा के जिज्ञासु लाभान्वित होंगे। इति।

रंगा हरि

माधवनिवास

पेरण्डूर् रोड, एलमक्करा,

कोच्ची - 682026

फोन : 0484-2408424

ईमेल : keralarss@gmail.com

प्राक्कथन

समय के साथ जिन की स्मृति एवं छवि निखरती जाती है ऐसे महापुरुषों की श्रेणी में मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी का नाम आता है। आर्थिक, श्रमिक क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से उन्होंने जैसा युगांतरकारी महान कार्य किया, वह अतुलनीय है। भारतीय अर्थ चिंतन और एकात्म मानववाद की भारतीय विचारधारा का मा. ठेंगड़ी जी ने पुनरुत्थान किया। भारत माता का जयगान किया।

श्रीमद्भगवद्गीता के 'परित्राणाय साधुनां-विनाशाय च दुष्कृता' भाव को चरितार्थ करते हुए सज्जन शक्ति का संरक्षण तथा दुष्टवृत्ति का विनाश साधारण मानवरूप में यह जो असाधारण कार्य श्रमिक क्षेत्र में श्री ठेंगड़ी जी ने किया वैसा विश्व में अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता।

भारतीय मजदूर संघ केंद्रीय कार्यसमिति की बैठक दि. 25-27 अगस्त 2011 नागपुर में एक प्रस्ताव हमारे ज्येष्ठ कार्यकर्ता, पूर्व अखिल भारतीय मंत्री तथा अधिवक्ता नागपुर के श्री गोविंद राव आठवले का प्राप्त हुआ जिसमें उन्होंने दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का जीवन दर्शन, व्यक्तित्व और कार्य यथाशीघ्र प्रकाशित करने का आग्रह किया था। उक्त प्रस्ताव को कार्यसमिति ने सहर्ष उत्साहपूर्वक स्वीकार किया।

अतः केंद्रीय कार्यसमिति सदस्य और वरिष्ठ कार्यकर्ता नागपुर के श्री दिनकर राव जोशी तथा मा. ठेंगड़ी जी के अनन्य सहायक और वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री रामदास पांडे को संस्मरण व संबंधित साहित्य एकत्रीकरण का कार्य दिया गया। श्री गोविंदराव आठवले ने केवल प्रस्ताव ही नहीं दिया, अपितु श्री ठेंगड़ी जी के वैशिष्ट्यपूर्ण कर्मशील जीवन से संबंधित कुछ ऐतिहासिक भावपूर्ण संस्मरण स्वयं लिखित लेख के रूप में भी उपलब्ध कराए।

तदुपरांत जयपुर में अखिल भारतीय अधिवेशन 21-23 फरवरी 2014 को भा.म.सं. केंद्रीय कार्यसमिति ने अपने ज्येष्ठ कार्यकर्ता, भारतीय प्रतिरक्षा मजदूर महासंघ तथा भा.म.स. के पूर्व अखिल भारतीय उपाध्यक्ष जिन्होंने 'बड़े भाई स्मृति ग्रंथ' का लेखन संपादन किया है तथा 'प्रतिवद्ध कार्यकर्ता-प्रेरक प्रसंग' एवं 'स्वामी विवेकानंद-औद्योगिक, आर्थिक व श्रमिक चिंतन' आदि पुस्तकें लिखी हैं ऐसे श्री अमरनाथ डोगरा (नई दिल्ली) को मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के जीवन दर्शन ग्रंथ के लेखन तथा संपादन का दायित्व सौंपा गया।

तद्नुसार श्री डोगरा जी ने भावोत्कृष्टता व निष्पक्ष बुद्धि से उक्त ग्रंथ का लेखन संपादन किया है जिसके प्रस्तावित नौ खंडों में से प्रथम खंड का प्रकाशन हो रहा है जिसके कारण हम सभी हर्षित हैं। मा. रंगा हरि जी ने सुझाव दिया है कि दत्तोपंत जी का समग्र वाङ्‌मय तैयार किया जाए, जिस पर केंद्रीय कार्यसमिति में विचार हुआ है।

उक्त ग्रंथ संपादन में जिन महानुभावों ने सहकार्य किया है किसी भी रूप में योगदान दिया है उनके प्रति हम विनम्रतापूर्वक कृतज्ञता प्रकट करते हैं। पाठक इसका स्वागत करेंगे- इसी विश्वास के साथ।

विरजेश उपाध्याय भारतीय मजदूर संघ

महामंत्री

केंद्रीय कार्यालय

भारतीय मजदूर संघ

ठेंगड़ी भवन

27, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग

नई दिल्ली - 110002

दूरभाष - (011) 23222658

इमेल : bmsdtb@gmail.com

आत्म निवेदन

(संपादकीय)

महापुरुषों से संबंधित लेखन जटिल कार्य है। जटिलता न्यूनाधिक लेखन की, उपयुक्त अनुपयुक्त शब्द प्रयोग की, तथ्यात्मकता एवं प्रामाणिकता की तथा व्याप्ति व अतिव्याप्ति की। तनिक असावधानीवश थोड़ी भी भूल हुई तो ज्ञानी जनों की आलोचना सुनने की मानसिक तैयारी रहनी चाहिए। सो जटिलता तो है ही।

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के व्यक्तित्व की विराटता, कर्तृत्व की विशालता, विचारों की गहनता, कार्यकर्ता निर्माण की निपुणता और ध्येय के प्रति संपूर्ण समर्पण व प्रतिबद्धता को शब्दों में समेटना अति कठिन है। उनका व्यक्तित्व ही वैसा था। आकाश से ऊँचा, महासागर से गहरा, व्योम सा व्यापक। मानव विभूति। आदर्शवादिओं के आदर्श-महामानव।

एक बौद्धिक में उन्होंने कहा था "आकाश की तुलना नहीं हो सकती। महासागर महासागर जैसा ही है उस की भी तुलना नहीं हो सकती"। तुलसीदास जब श्री राम महिमा कहते कहते थक गए कि और तुलना किससे करें तो कहा कि श्री राम श्री राम जैसे ही हैं। अतुलनीय हैं। उसी प्रकार की विभूतियों में श्रद्धेय ठेंगड़ी जी ने जिस भारतीय आर्थिक चिंतन का श्रम क्षेत्र में बीजारोपण तथा उसे चरितार्थ किया और शून्य से सृष्टि निर्माण का श्रमिक क्षेत्र में यह जो अद्भुत कौशल श्री दत्तोपंत जी द्वारा फलीभूत और जीवंत हुआ है, उसकी भी तुलना नहीं हो सकती।

मा. ठेंगड़ी जी के जीवनकाल के कार्यकलाप को लेखनीबद्ध करते हुए 'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' की रचना की जाए यह विचार जब भारतीय मजदूर संघ ने किया और उसके लेखन कार्य के साथ मुझे जोड़ दिया तो गौरव की अनुभूति हुई किंतु दूसरे ही क्षण जब कार्य की विशालता का आभास हुआ तो लगा यह अत्यंत कठिन कार्य है किंतु कार्यकर्ता के नाते संगठन के आदेश को विनम्र भाव से शिरोधार्य कर लिया।

शिरोधार्य तो कर लिया पर स्थिति किं-कर्तव्य-विमूढ़ हो गई। कहाँ से प्रारंभ करें। दत्तोपंत जी के जीवन और व्यक्तित्व के सैंकड़ों आयाम हैं। दर्जनों पुस्तकों के सिद्धहस्त लेखक, एकात्म मानववाद के भाष्यकार, अनेक ग्रंथों पुस्तकों के प्रस्तावक, भारतीय अर्थ चिंतन के व्याख्याकार, अनेक संगठनों के संस्थापक, समाजशास्त्र, प्राणीशास्त्र, विज्ञान शास्त्र तथा संगठन शास्त्र के तत्त्वज्ञ, दार्शनिक, विचारक, देश विदेश में हजारों आख्यान, व्याख्यान, भाषण, जीवन के इस क्षितिज से उस क्षितिज तक हजारों घटनाएँ, सैंकडों आंदोलन, सैकड़ों कार्यकर्ताओं के संस्मरण, उन पर लिखे गए लेख, इस व्यापक महासागर में गहरे डूबकर मोती चुनना और उन्हें शब्दों द्वारा ग्रंथरूपी माला में पिरो देने का कार्य अत्यंत कठिन लगा।

संगठन में कार्यकर्ता के नाते प्राथमिक दीक्षा और प्रेरणा सदैव यही रही कि अपना ईश्वरीय कार्य है। अतः 'जीवन दर्शन' लेखन में यही प्रेरणा संबल बनकर साथ खड़ी हो गई। जिनका कार्य है वही संपन्न करवाएंगे-निमित्त एक तृण (तिनका) भी हो सकता है।

इसलिए जिनका कार्य है उन्हीं का पुण्य स्मरण व श्रद्धायुक्त नमन् करते हुए लेखन कार्य प्रारंभ कर दिया। 'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' प्रथमतः नौ खंडों में प्रकाशित करने का प्रस्ताव है। प्रत्येक खंड में चार अथवा पाँच सोपान और प्रत्येक खंड की पृष्ठ संख्या सामान्यतया साढ़े तीन सौ तक सीमित रखने का प्रस्ताव है।

प्रथम खंड 'नवयुग सूत्रपात-शून्य से सृष्टि' में व्यक्ति परिचय, बाल्यकाल, विद्यार्थी जीवन, प्रचारक निकलना, अन्यान्य सामाजिक संगठनों में कार्य, भारतीय मजदूर संघ निर्माण, प्रथम अखिल भारतीय व द्वितीय अधिवेशन तक एवं तदनंतर, आपातकाल, भारतीय मजदूर संघ की भूमिका, प्रथम जनता दल सरकार, नई आर्थिक नीति, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तथा विश्व व्यापार संगठन आदि का विरोध, आंदोलन, संगठन का प्रथम स्थान पर आसीन होना आदि भाग एक तथा भाग दो आदरांजलि-कृतज्ञ स्मरण को समर्पित है। अंतिम सोपान में विशिष्ट कार्यकर्ताओं के संस्मरण हैं।

द्वितीय से सप्तम तक छः खंड विचारधन को समर्पित हैं जिनमें मा. ठेंगड़ी जी के विभिन्न अवसरों, अधिवेशनों, आंदोलनों, कार्यशालाओं, कार्य समितियों, अभ्यास वर्गों में दिए गए बौद्धिक संकलित हैं। संसद में तथा विदेशों में दिए गए भाषणों के प्रमुख अंश, बुद्धिजीवियों के साथ विचार वार्ताएँ, कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन से संबंधित विचारों तथा उनके द्वारा लिखित प्रमुख पुस्तकों व प्रस्तावनाओं से चुने हुए अंश भी समाहित किए गए हैं।

अष्ठम खंड में मा.ठेंगड़ी द्वारा संस्थापित अथवा मार्गदर्शन प्राप्त विविध संगठनों यथा भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, सर्व पंथ समादर मंच, समरसता मंच, पर्यावरण मंच, अधिवक्ता परिषद आदि से संबंधित विचार, संस्थापन की पृष्ठभूमि आदि को प्रकाशित करने का प्रयास है। इसके अतिरिक्त मा. ठेंगड़ी जी के विश्व भ्रमण के दौरान अनेक विश्व स्तर के नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं विशिष्ट विभूतियों से चर्चाएँ तथा वार्तालाप हुए हैं-उन्हें भी संक्षिप्त रूप में इस खंड में प्रकाशित किया है। नौवें खंड में सामाजिक समरसता, डॉ. अंबेडकर संबंधित लेख, हस्तलिखित पत्र, टिप्पणियाँ तथा विविध सामग्री है। प्रत्येक खंड के अंतिम सोपान में विशिष्ट महानुभावों, कार्यकर्ताओं के संस्मरण हैं।

'जीवन दर्शन' के उक्त नौ खंडों में दत्तोपंत जी से संबंधित लिखने योग्य साहित्य सामग्री को समेट सहेज लिया गया है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति होगी। यथार्थ स्थिति यह है कि जितना उपरोक्त ग्रंथमाला में समा पाया है वह केवल टिप आफ आइसवर्ग है। शतांशमात्र है। जो छूट गया है वह विपुल है, व्यापक है। आश्वस्ति यह है कि प्रस्तुत ग्रंथमाला श्री गणेश है, इतिश्री नहीं।

स्वामी विवेकानंद, प. पू. डॉ. हेडगेवार, प. पू. श्री गुरुजी, पं दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. भीमराव अंबेडकर इत्यादि के विषय में आज भी लिखा जा रहा है और भविष्य में भी लिखा जाएगा। उसी प्रकार मा. ठेंगड़ी जी की पावन स्मृतियां भी अनेक विद्वानों को अपने अपने ढंग से लिखने के लिए प्रेरित करेंगी।

भारतीय वाङ्‌मय में वेदांत के जिस आर्थिक दर्शन को स्वामी विवेकानंद चरितार्थ होते हुए देखना चाहते थे, वही दर्शन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रतिपादित और पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानववाद से होते हुए श्री ठेंगड़ी जी तक पहुँचा, जिसे चरितार्थ करने का ऐतिहासिक दायित्व नियति ने उनके कंधों पर डाल दिया। श्री ठेंगड़ी जी ने किस प्रकार प. पू. श्री गुरुजी के मार्गदर्शन में सफलतापूर्वक इसे चरितार्थ किया उसका विवरण इस ग्रंथमाला में आया है। जब भारतीय मजदूर संघ की स्थापना हुई थी उस काल खंड में विश्व विजय यात्रा पर निकले साम्यवाद के रथ को रोकना बड़ी भारी चुनौती थी किंतु मां. ठेंगड़ी जी के चमत्कारिक व तेजस्वी नेतृत्व के सन्मुख साम्यवादी रथ टिक नहीं पाया और श्रम क्षेत्र, शोषित, पीड़ित, उपेक्षित जगत् में ठेंगड़ी जी वास्तव में युगानुकूल महा परिवर्तन के पुरोधा, युगपुरुष सिद्ध हुए।

ढलते दिनमान के साथ वृक्षों की छाया लंबी होती जाती है। उसी प्रकार व्यतीत होते जा रहे समय के साथ महापुरुषों की भविष्य पर छाया भी लंबी होती जाती है। मा. ठेंगड़ी जी द्वारा किए गए कार्यों की छाया भी निश्चित बढ़ने वाली है, जिसकी सुयोग्य संतुलित व्याख्या भविष्य में शोधकर्ता अवश्य करेंगे।

मा. ठेंगड़ी जी प्रथमतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक और पश्चात संगठन कार्यकर्ता थे। अपने को नेता उन्होंने कभी माना ही नहीं। कार्यकर्ताओं के साथ उठना बैठना, खाना पीना, हँसना बोलना, सहज सरल, निर्मल, पारदर्शी, वात्सल्य परिपूर्ण दिनचर्या, कोई आडंबर नहीं, कार्यकर्ताओं के लिए कभी भी समय का अभाव नहीं। हजारों कार्यकर्ताओं ही नहीं उनके परिवारजनों के नाम भी कंठस्थ, कैसा देवतुल्य जीवन, कैसी अनूठी साधना, घोर तपश्चर्या। अपने लिए कुछ नहीं। सब कुछ राष्ट्र के लिए। सचमुच में पारस, जिसे छू लिया वह सोना हो गया।

'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' लेखन कार्य में अनेकानेक कार्यकर्ताओं का सहयोग, प्रत्यक्ष योगदान है, जिन्होंने संबंधित साहित्य सामग्री, संस्मरण, लेख, आलेख, विचार संग्रह उपलब्ध किए, सामग्री को व्यवस्थित समायोजित करने में सहायता की जिसके फलस्वरूप ग्रंथ का प्रकाशन संभव हुआ।

हमारे लिए यह अत्यंत हर्ष एवं परम सौभाग्य का विषय है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च मार्गदर्शक प. पू. सरसंघचालक मा. मोहन भागवत जी ने प्रस्तुत ग्रंथ को स्नेहाशीष देकर इसे मान्यता, प्रामाणिकता व गरिमा प्रदान की है। उनके शुभ संदेश से वस्तुतः "दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन" ग्रंथ की प्राण प्रतिष्ठा हुई है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख मा. रंगा हरि जी ने प्रस्तुत ग्रंथ के प्रथम खंड की प्रस्तावना लिख कर हमें उपकृत किया है। संप्रति वे अनेक साहित्यिक कृतियों के यशस्वी रचनाकार तथा सफल संपादक हैं। उनकी प्रस्तावना से पुस्तक की प्रतिष्ठा में नि:संदेह अभिवृद्धि हुई है। उनके मूल्यवान व ज्ञानप्रद सुझावों के प्रकाश में ग्रंथ संरचना की दिशा में हमारा मार्ग सुगम व प्रशस्त हुआ है। वे कृपया हमारा विनम्र नमन स्वीकार करें।

भा. म. सं. के अध्यक्ष श्री बैजनाथ राय, महामंत्री श्री विरजेश उपाध्याय व संगठन मंत्री श्री कृष्णचंद्र मिश्र, ग्रंथ का प्रकाशन शीघ्र हो, यथारूप हो, महत्वपूर्ण विचारों एवं घटनाओं का उस में समावेश हो, इसकी चिंता बराबर करते रहे हैं और उन्हीं की योजनानुसार इस कार्य को गति मिली और प्रकाशन संभव हुआ है। संगठन के पूर्व अध्यक्ष श्री सी. के. सजीनारायणन जी के महत्वपूर्ण सुझावों से ग्रंथ लेखन व संपादन को उचित दिशा मिली है।

भा.म.सं. केंद्रीय कार्यसमिति के सदस्य एवं वरिष्ठ कार्यकर्ता सर्वश्री रामदास पांडे (दिल्ली) व दिनकर राव जोशी (नागपुर) ने देश भर में प्रवास करके ठेंगड़ी जी से संबंधित साहित्य, संस्मरण तथा सम्यक सूचनाएँ संकलित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने जो साहित्य सामग्री एकत्रित की है वह अमूल्य है। उक्त कार्यकर्ता द्वय का यह प्रयास सराहनीय है।

'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' की रचना में भा.म.सं. के पूर्व अखिल भारतीय मंत्री श्री गोविंद राव अठावले, अधिवक्ता (नागपुर) ने नानाविध दिशानिर्देश किया है। लेखन कार्य के वह वास्तव में मार्गदर्शक हैं।

रा.स्व.संघ के प्रचारक एवं 'संघ मार्ग' पत्रिका के पूर्व संपादक श्री सुशील कुमार जी के लेखन व दीर्घकालिक संपादकीय अनुभव का बहुविध लाभ हमें प्राप्त हुआ है। हमारी प्रार्थना स्वीकार कर उन्होंने अक्षर शुद्धि (Proof Reading) व अंग्रेजी भाषणों, संस्मरणों का सहर्ष हिंदी अनुवाद किया है उनके प्रति किन शब्दों में आभार व्यक्त करें।

टंकण पुनर्टंकण में किरण मुद्रण के अपने बंधु श्री चंद्र किरण जैन और उनके सुपुत्र श्री वरुण जैन का बहुत सहयोग मिला है। उन्हें जितना धन्यवाद दिया जाए उतना थोड़ा ही होगा।

यहाँ यह स्पष्टीकरण कदाचित संगत होगा कि 'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' मा. ठेंगड़ी जी का आत्म चरित्र (Biography) नहीं है और न ही यह स्थापित मान्यताओं व मर्यादाओं के अंतर्गत् इतिहास लेखन अथवा उस रूप में साहित्यिक कृति है। संगठन के किसी सामान्य कार्यकर्ता द्वारा उस कोटि का लेखन संभव भी नहीं है। मा. ठेंगड़ी जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'प्रस्तावना' में लिखा है कि "कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएँ तो सामान्यतः सार्वजनिक कार्यकर्ता सही अर्थ में साहित्यिक श्रेणी में आने की योग्यता नहीं रखता। परिस्थिति की अथवा संगठन की आवश्यकतानुसार उस को कुछ न कुछ लिखना पड़ता है किंतु वह लेखन है साहित्य नहीं। जन्मजात कवि की उत्स्फूर्त काव्यरचना और बच्चों के पाठयक्रम के लिए शिक्षा शास्त्री की यांत्रिकी काव्यरचना में अंतर होता है। वही अंतर साहित्य और लेखन में है। हाँ, कुछ प्रतिभाशाली व्यक्ति सव्यसाची, अष्ट-पहलू हुआ करते हैं किंतु उनको अपवादस्वरूप ही मानना चाहिए। पश्चिम के कुछ श्रेष्ठ पुरुषों ने उत्कृष्ट जननेता तथा उत्कृष्ट लेखक इन दोनों भूमिकाओं का सफलतापूर्वक निर्वाह किया उनमें ज्यूलियस सीजर, नेपोलियन, लेनिन, विन्सटन चर्चिल, मेझिनी, टेरेन्स मैक्स्वनी व चार्ल्स दिगाल आदि इस श्रेणी में आते हैं। भारत में समकालीनों में पंडित दीनदयाल उपाध्याय को छोड़कर इस स्तर का कोई दूसरा नाम आसानी से ध्यान में नहीं आता।"

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के साथ मा. ठेंगड़ी जी स्वयं भी अपवाद स्वरूप हैं। वे तेजस्वी एवं प्रभावशाली वक्ता के साथ साथ उत्कृष्ट मौलिक रचनाकार, लेखक भी हैं। उनकी रचनाएँ कालजयी हैं। लोकप्रिय जननेता के साथ उच्च कोटि का साहित्यिक होना यह विरल संयोग है। इस संयोग के दर्शन हमें मा. ठेंगड़ी जी के व्यक्तित्व में होते हैं। उनके व्यक्तित्व के विभिन्न निजी आयामों अथवा आत्मचरित्र जैसा कुछ लिखना सरल नहीं है। इस संदर्भ में मा. ठेंगड़ी जी ने स्वयं लियो टाल्स्टाय का निम्न कथन उद्धृत किया है "बीमार अवस्था में सोचते समय यह ध्यान में आया कि सामान्यतः चरित्र जिस प्रकार लिखे जाते हैं, उसी प्रकार मेरी क्षुद्रता तथा प्रमादों पर पर्दा डाल कर यदि कोई मेरा चरित्र लिखेगा तो वह पूर्णरूपेण असत्य होगा। जो कोई मेरा चरित्र लिखना चाहता है उसे संपूर्ण सत्य लिखना चाहिए। लेखक को ऐसा लिखने में कितना भी संकोच हुआ तो भी संपूर्ण सत्य पर प्रकाश डालने वाला चरित्र ही अंततोगत्वा पाठकों के लिए हितप्रद सिद्ध होगा।"

यह 'संपूर्ण सत्य' ज्ञात हो गया है, ऐसी स्वीकारोक्ति कोई विरल शोधकर्ता ही कर सकता है। अतः आत्म चरित्र कहना जितना सरल है लिखना उतना ही कठिन।

भारत के श्रेष्ठ महापुरुष जैसे स्वामी विवेकानंद, योगिराज अरविंद, प. पू. श्रीगुरुजी, पं. दीनदयाल उपाध्याय तथा दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के जीवन का जो प्रारंभिक सत्य है, वही अंत तक सत्य है। कहीं कोई विरोधाभास नहीं - लेशमात्र भी दोहरा जीवन नहीं किंतु आत्म विलोपी स्वभाव के कारण उनके निजी जीवन संबंधित पर्याप्त जानकारी अनुपलब्ध रहती है। कोई आत्म-चरित्र लिखना भी चाहे तो कैसे लिखे। स्वयं ठेंगड़ी जी ने कहा है "आत्म विकास करना और श्रेष्ठ गुणों का फल राष्ट्र देवता के श्री चरणों में अर्पित करके शांतिपूर्वक इस धरती से निकल जाना, यह आदर्श स्थिति है।"

वस्तुतः प्रस्तुत ग्रंथमाला मा. ठेंगड़ी जी द्वारा समाज और विशेषकर श्रमिक क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए महान कार्य का वृत्त है। उनके व्यक्तित्व, कर्तृत्व एवं भाषण, संभाषण, उद्बोधन, लेखन, निबंध, मार्गदर्शन, टिप्पणियाँ, चर्चाएँ, प्रस्तावनाएँ एवं पुस्तकों के प्रमुख अंश व विचारधन इसके नौ खंडों में समाहित हैं। इसे पढ़ते हुए पाठक के मस्तिष्क में मा. ठेंगड़ी जी की एक दिव्य, भव्य मौलिक चिंतक व असाधारण विचारक की आकृति उभरती है जो पाठक को भारत के गौरवशाली अतीत, सशक्त वर्तमान एवं विश्वविजयी उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है।

'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' ग्रंथमाला लेखन, संपादन, भाषा शैली, घटनाओं और विचारों के तारतम्य में अनेक त्रुटियाँ मिल सकती हैं - जिसकी संपूर्ण जिम्मेदारी एकमात्र मेरी है। सुधि पाठक केवल भाव, तथ्य एवं सार संक्षेप ग्रहण करते हुए त्रुटियों को उदारतापूर्वक क्षमा करने की कृपा करेंगे यही प्रार्थना है।

मा. ठेंगड़ी जी ने 'संकेत रेखा' में लिखा है "इस विपुला पृथ्वी पर मेधावी और विचारवान व्यक्तियों की कमी नहीं है। वे भूलों को सुधार लेंगे। असंबद्धताओं को सुसंबद्ध कर लेंगे। साधना, समर्पण और निर्माण के शब्द देवता के श्री चरणों पर अर्पित पुष्प समान होते हैं। महत्व बोलने, लिखने और शब्दों का नहीं आस्था का है। आस्था में शब्दों को अर्थ देने का अंतर्भूत सामर्थ्य होता है।"

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन।।

ऋग्वेद।। १०/१०/१६

और अंत में :

त्वदीयं वस्तु गोविंदम् तुभ्यमेव समर्पये।

सादर

अमर नाथ डोगरा

ठेंगड़ी भवन

27, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग

नई दिल्ली - 110002

वंशावली

गणेश ठेंगड़ी परपितामह (परदादा)

दाजीबा ठेंगड़ी पितामह (दादा)

बापुराव दाजीबा ठेंगड़ी पिता


दत्तात्रेय बापुराव ठेंगड़ी नारायण ठेंगड़ी अनुसूया

(उपाख्य) (पुत्र) (पुत्री)

दत्तोपंत ठेंगड़ी (पुत्र)

अविवाहित सतीश नारायण ठेंगड़ी (पुत्र)

(प्रचारक)


शांतनु सतीश (पुत्र) राधा सतीश (पुत्री)

पू. दादी : गोपिका बाई ठेंगड़ी

पू. माता : जानकी बाई ठेंगड़ी

छोटा भाई : नारायण बापुराव ठेंगड़ी

छोटी बहन : अनुसूया उपाख्य विजयाबाई देशपांडे

(मर्डिकर) - धर्मपत्नी विश्वनाथ नीलकण्ठ देशपांडे (मर्डिकर)

भाभी : नलिनि ठेंगड़ी (धर्मपत्नी नारायण ठेंगड़ी)

परिचय

नाम : दत्तात्रेय बापुराव ठेंगड़ी

उपाख्य दत्तोपंत ठेंगड़ी

पिता का नाम : श्री बापुराव दाजीबा ठेंगड़ी

जन्म : अश्विन मास, बुधवार,

अमावस्या (दीपावली),

शक् सम्वत् १९८२ (1982) तदनुसार

१० नवंबर १९२० (10 नवंबर 1920)

जन्म स्थान : आर्वी, जिला वर्धा (महाराष्ट्र)

शिक्षा : बी.ए., एलएल.बी., मॉरिस कॉलेज, नागपुर

प्रचारक : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (1942 से देहावसान तक)

भाषाओं की जानकारी : हिंदी, बंगाली, संस्कृत, मलयालम, अंग्रेजी, मराठी

देहावसान : १४ अक्टूबर २००४ (पुणे) (14 अक्टूबर 2004)

प्रारंभिक काल

1. अध्यक्ष : वानर सेना आर्वी तालुका कमेटी (1935)

2. अध्यक्ष : म्युनिसिपल हाईस्कूल, आर्वी विद्यार्थी संघ (1935-36)

3. सचिव : म्युनिसिपल हाईस्कूल, गरीब छात्र फंड समिति (1935-36)

4. संगठक : आर्वी गोवारी झुग्गी झोपड़ी मंडल (1936)

5. प्रोबेशनर : हिंदुस्तान समाजवादी रिपब्लिकन सेना, नागपुर (1936-38)

संस्थापक

1. भारतीय मजदूर संघ (बी.एम.एस.) (23 जुलाई 1955-भोपाल)

2. भारतीय किसान संघ (बी.के.एस.) (4 मार्च 1979-कोटा)

3. सामाजिक समरसता मंच (14 अप्रैल 1983)

4. सर्वपंथ समादर मंच (14 अप्रैल 1991-मुंबई)

5. स्वदेशी जागरण मंच (22 नवंबर 1991-नागपुर)

6. पर्यावरण मंच

मार्गदर्शक : उद्घाटनकर्ता

1. अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद (9 जुलाई 1949)

2. भारतीय विचार केंद्रम् (7 अक्टूबर 1982-थिरूवानंतपुरम)

संस्थापक सदस्य

1. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (9 जुलाई 1949)

2. सहकार भारती

3. अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत

संरक्षक

1. ऑल इंडिया रिटायर्ड रेलवे मेन्स फेडरेशन

2. ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ पेन्शनर्स एसोसिएशन

3. ऑल इंडिया रेलवे टेलिग्राफ स्टाफ काऊन्सिल

4. लोको मेकेनिकल आर्टीजन्स स्टाफ एसोसिएशन पूर्वी रेलवे

5. ऑल इंडिया स्टेनोग्राफर्स एसोसिएशन

6. ऑल इंडिया ड्राइविंग स्टाफ एसोसिएशन

7. तमिलनाडु प्रोविडेंट फंड इंप्लॉईज एसोसिएशन

8. वेलफेयर सोसायटी फतेहनगर, नई दिल्ली

9. उत्तर प्रदेशीय विश्वकर्मा विकास परिषद

10. भारतीय कारीगर सूचना केंद्र, विदर्भ

11. आंध्र प्रदेश चेतना बुनकर (वीवर्स) फोरम (1965)

12. उत्तर प्रदेश समाज, दिल्ली

13. भारतीय कैत्तरी नेसवु थोझीलालर यूनियन, तमिलनाडु

14. भारतीय शिक्षण मंडल

15. शिल्पकार कल्याण संघ, चुनार (उ.प्र.)

16. विश्वकर्मा समाज सभा, दिल्ली

17. आल इंडिया केंद्रीय स्कूल नॉन-टीचिंग स्टाफ एसोसिएशन (1973)

सहायक सदस्य

1. इंडियन एकेडमी ऑफ लेबर आर्बीट्रेटर्स

2. विश्वकर्मा प्रतिनिधि सभा, पंजाब

3. भारतीय आदिम जाति सेवक संघ, नई दिल्ली

4. अनुसूचित जाति फेडरेशन (पूर्व में एम.पी. यूनिट 1943-44)

5. पिंड ग्राम सुधार सभा (पंजाब) संत हरिचंद सिंह लोगोवाल

6. वनवासी कल्याण आश्रम, सेंधवा (मध्य प्रदेश)

7. दत्त विनायक मंदिर जनकपुरी, नई दिल्ली

अन्य संगठन (श्रम)

1. इंटक में संगठन मंत्री (मध्य प्रदेश राज्य 1950-51)

2. ट्रेड यूनियनों की राष्ट्रीय अभियान समिति के गठन में विशेष भूमिका

राजनितिक क्षेत्र

1. भारतीय जनसंघ, मध्य प्रदेश संगठन मंत्री 1951-53, एवं दक्षिणांचल संगठन मंत्री - 1956-57

2. राज्यसभा सदस्य, 1964-1976

3. राज्य सभा उपाध्यक्ष मंडल सदस्य, 1968 से 1970

4. सदस्य, संसदीय परामर्श समिति, सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम

5. सचिव लोक संघर्ष समिति, आपात्काल दिसंबर 1975 से मार्च 1977

6. जनता पार्टी गठन में विशेष भूमिका

अन्य

1. अध्यक्ष : भाषा प्रचार समिति, केरल

2. उपाध्यक्ष : श्रीमाँ जन्मशताब्दी समिति (पाँडेचरी) (पुदूचैरी)

3. अध्यक्ष : केरल राज्य भाषा प्रचार अधिवेशन, कोज़िक्कोड, केरल (1942)

4. अध्यक्ष : अखिल भारतीय विमुक्त जाति सेवक संघ, नई दिल्ली

1. भारतीय बुद्ध महासभा सदस्य

2. वनवासी कल्याण परिषद

3. भारतीय साहित्य परिषद

4. कर्मवीर हरिदासजी आवले स्मारक समिति

5. प्रज्ञाभारती/ प्रज्ञाप्रवाह

6. विज्ञान भारती

7. डॉ. हेडगेवार जन्म शताब्दी समारोह समिति

8. आरोग्य भारती

9. होलकर विज्ञान कला विद्यालय (इन्दौर)

10. रामभाऊ म्हालगी प्रबोधनी (मुंबई)

11. भारतीय कुष्ठ निवारक सेवक संघ (चांपा)

12. विकास भारती (बिशनपुरी, बिहार)

13. भारतीय घुमंतू जनसेवक संघ (दिल्ली)

14. महर्षि वेदव्यास प्रतिष्ठान (नागपुर)

15. डॉ. बाबा साहब अंबेडकर शताब्दी समारोह समिति

16. बैटल ऑफ पानीपत मेमोरियल सोसायटी, पानीपत

17. दीनदयाल शोध संस्थान, नई दिल्ली

विदेश यात्रा

मिश्र, केन्या, उगांडा, तंजानिया, मॉरिशस, दक्षिण अफ्रीका, सोवियत यूनियन, फ्रांस, स्वीट्जरलैंड, बेल्जियम, हंगरी, इटली, जर्मनी, लेक्जंबर्ग, यूगोस्लाविया, इंग्लैंड, हॉलैंड, डेनमार्क, कॅनाडा, संयुक्त राज्य अमरीका, मैक्सिको, चीन, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, बर्मा (म्यांमार), मलेशिया, नेपाल, थाईलैंड, सिंगापुर, इजराइल, फिजी, त्रिनिडाड, वेस्ट इंडीज

लिखित (पुस्तकें)

1. एकात्म मानव दर्शन

2. कम्युनिज्म अपनी ही कसौटी पर

3. प्रचार तंत्र

4. पश्चिमीकरण के बिना आधुनिकीकरण

5. राष्ट्रीय पुनर्निमाण का आधार

6. ध्येय पथ पर किसान

7. लक्ष्य एवं कार्य

8. अपनी राष्ट्रीयता

9. शिक्षा में भारतीयता परिचय

10. भारतीय किसान

11. प्रस्तावना

12. लोक-तंत्र

13. श्रमिक क्षेत्र के उपेक्षित पहलू

14. परम वैभव का संघ मार्ग

15. चिरंतन राष्ट्र-जीवन

16. राष्ट्रीय पुरुष छत्रपति शिवाजी

17. विचार सूत्र

18. पुरानी नींव नया निर्माण

19. कंप्यूटराईजेशन

20. हमारी विशेषताएं

21. हमारे डॉ. बाबा साहब अंबेडकर

22. सप्तक्रम

23. दलित समस्या पर एक विचार

24. संकेत रेखा

25. डॉ. बाबा साहब अंबेडकर, एक प्रेरक व्यक्तित्व

26. जागृत किसान

27. हमारा अधिष्ठान

28. एकात्म के पुजारी डॉ. बाबा साहब अंबेडकर

29. डॉ. अंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा

30. राष्ट्र-चिंतन

31. राष्ट्रीय श्रम दिवस

32. हिंदू मार्ग (थर्ड वे का अनुवाद)

33. कार्यकर्ता

34. राष्ट्रीयकरण या सरकारीकरण

35. पूर्व सूत्र (कृतज्ञ-कृतज्ञता)

अंग्रेजी पुस्तकें

1. परस्पेक्टिव

2. हिज लिगेसी, अवर मिशन

3. मॉडर्नाइजेशन विदाऊट वेस्टर्नाइजेशन

4. कंज्यूमर विदाउट सावरेंटी

5. थर्ड वे

6. फोकस ऑन सोशल इकॉनॉमिक प्रॉबलम्स

7. दि ग्रेट सेंटीनल

8. कंप्यूटराईजेशन

9. व्हाई भारतीय मजदूर संघ

10. स्पेक्ट्रम

मराठी पुस्तकें

1. चिंतन पाथेय

2. वक्तृत्वाची पूर्वतयारी

3. ऐरणीवरचे घाव

पुस्तकों की प्रस्तावना

1. कल्पवृक्ष

2. इंडियन प्लान्ड पॉवर्टी

3. पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन

4. स्वदेशी व्यूज ऑफ ग्लोबलाईजेशन

5. श्रम समन्वय विचार

6. राष्ट्र

7. बड़े भैय्या स्मृति ग्रंथ

8. हिंदू इकॉनॉमिक्स

9. राजकीय नेतृत्व

10. तेजाची आरती

11. सर्वधर्म समन्वय (समन्वय महर्षि श्री गुलाब राव जी महाराज शीर्षक से)

12. योर आफिस

विषय प्रस्तुतिकरण एवं भाषण

1. थर्ड वे विश्व हिंदू सम्मेलन, डरबन (साऊथ अफ्रीका)

2. (क)ग्लोबलाईजेशन : इकॉनॉमिक सिस्टम, वॉशिंग्टन में ग्लोबल कॉन्फरेन्स, ए हिंदू विजन-2000

(ख)ग्लोवली इकोनामिक सिस्टम फार ए पीसफुल वर्ल्ड - 6-8 अगस्त 1993 वाशिंगटन डी सी।

3. आपल्या समाजाचे भवितव्य, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर स्मृति समिति व्याख्यानमाला भाषण, मराठवाडा विद्यापीठ, औरंगाबाद (महाराष्ट्र)1985

महत्वपूर्ण योगदान

1. राष्ट्रीय श्रमनीति

2. भारत के श्रमिकों का राष्ट्रीय माँग पत्र

3. बद्रीनाथ, केदारनाथ एवं गंगोत्री में श्रीराम शिलापूजन का शुभारंभ

4. श्रीराम कारसेवा के अवसर पर कानपुर में सत्याग्रह

5. दीनदयाल मेमोरियल अस्पताल, पुणे

6. महामना मालवीय जयंती

7. 28 अप्रैल 1984 को बीजिंग (चीन) में रेडियो संदेश का प्रसारण

विविध संगठन में सहभागिता की सूची

1. समालोचन, विजयवाड़ा - भाषण दिनांक - 18.09.1988

2. प्रज्ञा भारती, लखनऊ - सेमिनार दिनांक 07.08.1980

3. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जन्म शताब्दी समारोह (नागपुर तथा दिल्ली)1989

4. डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर, स्मृति दिनांक 6 दिसंबर 1990

5. एकात्म यात्रा समारोह, नागपुर (बापूराव पाकिडे एडवोकेट हाईकोर्ट, दिल्ली)

6. भारत विकास परिषद सेमिनार पंचनद (चंडीगढ़)

7. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, अखिल भारतीय विज्ञान कांग्रेस सेमिनार, विक्रम सिंह, विद्यापीठ, उज्जैन 27 दिसंबर 1991

8. होलकर विज्ञान विद्यालय इंदौर शताब्दी समारोह समिति-1991 के अवसर पर भाषण

9. डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर, जन्मशताब्दी वर्ष (14.04.1997) कार्यक्रम

10. महामना मालवीय मिशन लखनऊ, उत्तर प्रदेश-25 दिसंबर 1998 (मालवीय जयंती)

11. अखिल भारतीय दलित साहित्य सम्मेलन इंदौर (मध्य प्रदेश) दिनांक 11-12 मई 1991

12. श्री राम कारसेवा-सत्याग्रह 1990 जेल यात्रा परेड ग्राउंड, कानपुर, उ.प्र.

13. श्री राम कारसेवकों पर अयोध्या में हुए अत्याचारों के विरोध में भाषण, 7 नवंबर 1990 को वोट क्लब (दिल्ली)

14. श्री राम कारसेवकों की ऐतिहासिक रैली/समारोप, बोट क्लब, दिल्ली, 4 अप्रैल 1991

15. विश्व हिंदू परिषद 1960 से 1975 (दो लेख हिंदी-अंग्रेजी)

16. विषय : एक उपेक्षित हिंदू ग्रंथ-छंद व्यवस्था, झिंदोवेस्ता-हिंदू लॉईफ (पारसी)

17. आदिम जाति सेवा संघ दिल्ली

18. श्री कुमार सभा, बड़ा बाजार, कोलकता

19. डॉ. हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार, 27 अप्रैल 1992

20. विकास भारती विशुनपुर गुमला (झारखंड)

21. मुंबई विश्वविद्यालय में मा. लक्ष्मणराव इनामदार मेमोरियल लेक्चर, सहकार भारती-कार्यक्रम मुंबई, भारत में सहकारिता आंदोलन-मुंबई

22. उत्तर प्रदेश हिंदी परिषद द्वारा पंडित दीनदयाल साहित्य पुरस्कार

23. सौराष्ट्र विश्वविद्यालय द्वारा मान उपाधि-राजकोट

24. सन्मित्र मंडल-नागपुर

25. विद्या भारती-ग्वालियर-मध्य प्रदेश

26. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आर्वी-(1935-36) स्वयंसेवक।

27. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक 1942 से, प्रथम नियुक्ति केरल में

28. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद-विदर्भ-क्षेत्र। (1949-50)

29. सरकारी कर्मचारी हड़ताल-1960

30. सरकारी कर्मचारी हड़ताल-1968

31. रेल कर्मचारी हड़ताल-8 मई 1974

32. जगाधरी पेपर मिल-हड़ताल नवंबर-1963 (हरियाणा)

जानकीबाई ठेंगड़ी

( माता)

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी की पू. माता सौ. जानकीबाई ठेंगड़ी का जन्म वर्ष 1898 ग्राम ब्याहाड़, जि. चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में हुआ था। उनके पिता श्री मुकुंदराव विट्ठलराव ईन्दापवार अध्यापक तथा माता सौ. वत्सलाबाई ईन्दापवार सद्गृहस्थ गृहिणी थीं। वामन मुकुंदराव ईन्दापवार और श्रीधर मुकुंदराव ईन्दापवार दो भाई थे। दादा श्री विठ्ठलराव पटवारी थे। इस परिवार के पूर्वज दक्षिण गोदावरी (आंध्र प्रदेश) से महाराष्ट्र आकर बस गए थे।

सौ. जानकीबाई के बाल्यकाल में माता का देहांत हो गया था। पिता अध्यापक थे। उन्होंने पुत्री का पालन पोषण स्नेहपूर्वक किया। शिक्षा दीक्षा की योग्य व्यवस्था की। जानकीबाई जन्म से ही शांत स्वभाव और गंभीर प्रकृति की थीं। धर्म कर्म में उन्हें स्वाभाविक रुचि थी। पिता पुस्तकालय से उसकी रुचि की धार्मिक पुस्तकें स्वाध्याय के लिए लाते थे। शिक्षण और स्वाध्याय ने उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति की दिशा में अग्रसर किया।

इनका विवाह ग्यारह वर्ष की आयु में छोटी आर्वी जि. वर्धा (महाराष्ट्र) के श्री बापुराव दाजीबा ठेंगड़ी से हुआ था। बापुराव उस समय नागपुर में विद्यार्थी थे और विधि स्नातक होने तक जानकीबाई मायके (पीहर) में ही रहीं।

वकालत की डिग्री लेकर बापुराव ठेंगड़ी अपने गाँव छोटी आर्वी आए। व्यवसाय (प्रैक्टिस) के लिए उन्होंने बड़ी आर्वी (तहसील) और वहीं निवास करने की योजना बनाई। इसी के दृष्टिगत् वह जानकीबाई को आर्वी लाने हेतु अपने ससुराल गए। जानकीबाई के मायके से विदाई के समय जो मार्मिक किंतु प्रेरणाप्रद प्रसंग उपस्थित हुआ उसका वर्णन दत्तोपंत जी की छोटी बहन अनुसया उपाख्य सौ. विजयाबाई देशपांडे (मर्डिकर) ने इन शब्दों में किया है "विदा के समय भाई ने कहा, अक्का! तू वहाँ जाकर क्या करेगी। न घर न द्वार - न चूल्हा, न बर्तन, फिलहाल हमारे पास ही रह। अभी इतने ही में क्या पैसा मिलेगा।" इस पर माता जी ने बड़ा मर्मस्पर्शी उत्तर दिया और कहा, "भाऊ! आज तक तुमने मेरा पालन संरक्षण किया। यही बहुत हुआ, अब इनको (पति) कुछ भी नहीं मिला तो भी चलेगा परंतु मैं अपने घर जाऊंगी। ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि भीख मांगेंगे तो मैं भी पल्लू पसार कर भीख मांगूगी पर पति के साथ ही रहूंगी।" माता जी की यही वृत्ति आखिर तक बनी रही।"

भारतीय नारी के पति परायण मानस का यह श्रेष्ठ उदाहरण है।

श्रीमति विजयाबाई बताती हैं कि "पिता जी जब वकालत के लिए आर्वी आए तो घर में एक भी वस्तु नहीं थी। धीरे-धीरे सामान जमा करने लगे। वकालत जोरों से चलने लगी। पहले ही महीने अच्छी खासी राशि प्राप्त हुई जिससे माता जी को घर का सामान जुटाना संभव हुआ। पिता जी समझते थे कि उनकी अनुपस्थिति में माता जी को अनेक कष्ट उठाने पड़े हैं। अतः उन्होंने थोड़े ही समय में घर में रसोई बनाने वाली बाई, घर के कामकाज में सहायता करने वाली बाई और नौकर चाकरों की व्यवस्था कर दी। परिणामस्वरूप माता जी का भगवान दत्तात्रेय, जिनकी वह उपासक थीं, की पूजा अर्चना में अधिक समय देना संभव हुआ किंतु इस कारण उन्होंने घर गृहस्थी की जिम्मेदारी को आँख से ओझल नहीं होने दिया।"

सौ. जानकीबाई मूलतः शांत स्वभाव, वात्सल्यमय, सहनशील और सुख-दु:ख समरस भाव रहती थीं। सबके प्रति उनका स्नेहपूर्ण आत्मीय व्यवहार रहता था। उँच-नीच, भेदभाव वह नहीं जानती थीं। सबके सुख-दुःख की चिंता करती थीं। दत्तोपंत जी में जिन गुणों को हम देखते हैं वह उन्हें उनकी माता से ही प्राप्त हुए थे। घर से बाहर वह कम ही जाती थीं, किंतु आसपास समाज में क्या घटित हो रहा है इसकी सम्यक जानकारी उन्हें रहती थी। सामाजिक, धार्मिक कार्यक्रमों में उनका यथायोग्य योगदान रहता था। दत्त भक्ति, देशभक्ति और निग्रही वृत्ति यह तीन तत्व उनके अंत:करण और चिंतन जगत् के मूलाधार थे। इसी वृत्ति के दर्शन हमें श्री ठेंगड़ी जी के चरित्र में भी होते हैं।

प. पू. श्री गुरुजी के प्रति उनके मन में श्रद्धाभाव था। दत्तोपंत जब सातवीं/आठवीं कक्षा के विद्यार्थी (1935-36) थे तो वह उन्हें संघ शाखा जाने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। श्री पालधीकर जी (जो बाद में उड़ीसा प्रांत में प्रचारक रहे) के साथ श्री ठेंगड़ी जी संघ शाखा पर जाते थे।

दत्तोपंत के जन्म से पूर्व माता जानकीबाई की सब संतान जन्मते ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई थीं। दत्तोपंत जीवित रहे, इसे वह भगवान दत्तात्रेय की अनुकंपा मानती थीं और इसीलिए उन्होंने बालक का नाम दत्तात्रेय रखा। यही दत्तात्रेय कालांतर में दत्तोपंत ठेंगड़ी नाम से विख्यात हुए।

सौ. जानकीबाई का आध्यात्मिक और भक्ति जगत् में प्रवेश था। ऐसा ज्येष्ठ महानुभाव बताते हैं। वह घर में स्थित पूजा स्थान (देवघर) में जब ध्यानावस्था में बैठती थीं तो उन्हें भविष्य की संभावित घटनाओं का पूर्वाभास होता था। उन्होंने बापुराव को बताया था कि इस बालक (दत्तू) का जन्म देशकार्य के लिए हुआ है और यह देश सेवा करेगा। उनकी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध होती थी किंतु उन्होंने इसे न तो कभी प्रचारित किया और न ही सार्वजनिक चर्चा का विषय बनने दिया। भक्ति परायणता और पारिवारिक दायित्वों के कारण जिस मर्यादा से वह बंधी थी उसका उन्होंने सदैव पालन किया। दत्तोपंत जी की अपनी माता के प्रति अगाध श्रद्धा थी।

घर की रसोई बनाने वाली नानीबाई की पुत्री को ज्वर (क्षय रोग) हुआ था। रोग अंतिम स्टेज पर था। डॉक्टर जवाब दे चुके थे। श्रीमति विजयाबाई देशपांडे (मर्डिकर) लिखती हैं कि "एक दिन नानीबाई माता जी के पास आकर रोने लगी। माता जी सेवाव्रती थीं सो उन्होंने रोगी के उपचार का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। माता जी के पास भक्ति साधना का बल था। अतः उन्होंने रोगमुक्ति का जप और रोग अपने ऊपर लेने का संकल्प किया। फलस्वरूप वह क्षयरोग ग्रस्त हो गईं। वर्ष 1950 में उन्हें चिकित्सा के लिए नागपुर ले जाया गया। वहाँ योग्य चिकित्सक डॉ. वी.जी. पांडे और डॉ. राजापुरकर (डीन मैडिकल कॉलेज, नागपुर) द्वारा समुचित चिकित्सा सेवा उपलब्ध किए जाने के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका और 11 मई 1951 को माता जी का देहावसान हो गया।"

नि:स्पृह त्याग और अखंड साधक जैसा सौ. जानकीबाई का जीवन वंदनीय है, प्रेरक प्रकाशपुंज है। इतिहास में जीजाबाई समान अतुलनीय मातृशक्ति का गौरवशाली परिचय मिलता है जिन्होंने अपनी संतान को दिव्य गुणों से युक्त किया। सौ. जानकीबाई ने अपने ज्येष्ठ पुत्र (दत्तोपंत) को शिक्षित दीक्षित करके प.पू.श्री गुरुजी को सौंप दिया जिन्होंने उन्हें संस्कारित करके संघ प्रचारक बनाकर राष्ट्र देवता के चरणों में अर्पित कर दिया। अखंड राष्ट्र आराधक व दृढव्रती कर्मयोगी बना दिया। सौ. जानकीवाई की मूक साधना और सर्वोपरि राष्ट्र भावना के अंतर्गत सर्वश्रेष्ठ त्याग का मूल्यांकन इतिहास अवश्य करेगा, जहाँ उनका विशिष्ट स्थान निश्चित है।

बापुराव दाजीबा ठेंगड़ी बाप

(पिता)

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी के पू. पिता जी का नाम बापुराव दाजीबा ठेंगड़ी था। इनका जन्म 2 अक्टूबर 1887 छोटी आर्वी (निकट आष्टी) जि. वर्धा (महाराष्ट्र) में हुआ था। पिता दाजीबा ठेंगड़ी गाँव में खेती-वाड़ी का काम सँभालते थे। उच्च शिक्षा के लिए यह नागपुर गए थे और वहाँ नागपुर विश्वविद्यालय से उन्होंने बी. ए., एलएल.बी. की शिक्षा प्राप्त की थी। विद्यार्थी जीवन में इनका विवाह ग्राम ब्याहाड़ जि. चंद्रपुर निवासी मुकुंदराव विट्ठलराव ईन्दापवार की सुपुत्री कु. जानकीबाई ईन्दापवार से हुआ था।

कुशाग्रबुद्धि बापुराव ने जब आर्वी न्यायालय में वकालत प्रारंभ की तो थोड़े ही समय में उन्होंने मुवक्किलों का विश्वास अर्जित कर लिया। अपने समय के वह ख्यातनाम और सफल अधिवक्ता थे। वह फौजदारी और दीवानी दोनों प्रकार के मुकदमे लड़ते थे। आय अच्छी होने के कारण घर परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी।

धर्मपत्नी जानकीबाई सौम्य, शांत और धैर्यवान थीं किंतु बापुराव स्वभाव से कार्य व्यवहार में थोड़ा कठोर थे। व्यवसाय में उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर सफलता पाई थी और आत्म विश्वास उनमें भरपूर था। जानकीबाई उनके क्रोध को शांत करने का भरसक प्रयास करती थीं, पर उन्हें ही सर्वाधिक सहन करना पड़ता था।

घर परिवार तथा कचहरी में बापुराव का वर्चस्व था। वह अपनी बात पर झुककर समझौता करना नहीं जानते थे किंतु उन्हें भी जिस प्रसंग में झुककर समझौता करना पड़ा उस का वर्णन करते हुए सौ. दीपा पुंडलिक, जलगांव (जामोद) जि. बुलढाणा (दत्तोपंत जी की भांजी) लिखती हैं कि "दत्तू (दत्तोपंत) अपनी आगे की पढ़ाई के लिए नागपुर आया था। आर्वी से ही संघ कार्य के प्रति लगाव, नागपुर का संघ कार्य, अनुकूल वातावरण और विशेषतया प.पू. श्रीगुरुजी का निकट संपर्क आदि बातों का ही परिणाम था कि दत्तोपंत का प्रचारक निकलना निश्चित् हो गया किंतु यह काम इतना आसान नहीं था। आर्वी में बापुराव को उपरोक्त समाचार से अवगत कराना और उनकी हाँ करवाना जितना आवश्यक था उतना ही कठिन भी था। महूर्त निकाला गया। आर्वी में विजय दशमी का उत्सव संपन्न हो रहा था। बापुराव भी उस कार्यक्रम में पूर्ण गणवेष में उपस्थित थे। कार्यक्रम समापन (शाखा विकिर) के पश्चात आर्वी तालुका के मा. संघचालक तथा दत्तोपंत के संघकार्य के प्रेरणास्रोत डॉ. अण्णा साहेब देशपांडे जी ने सूचना दी कि अपने आर्वी नगर के प्रसिद्ध अधिवक्ता श्री बापुराव ठेंगड़ी के सुपुत्र दत्ता ठेंगड़ी वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात केरल में संघ प्रचारक के रूप में जा रहे हैं।

इतना सुनते ही बापुराव पर मानो बिजली गिरी। वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला होनहार लड़का और घर में सबसे बड़ा- एक पिता की उससे स्वाभाविक अपेक्षाएँ थी, कि वह वकालत प्रारंभ करे - यथासमय विवाह हो और घर गृहस्थी सँभाले व माता-पिता का ऋण चुकाए किंतु आज संघ स्थान पर दी गई सूचना से उन्होंने जो सपने सँजोए थे वह ध्वस्त होते हुए लगे। तिलमिलाते हुए बापुराव घर पहुँचे-जानकीबाई घर के देवघर में उस समय दीप जलाकर प्रार्थना कर रही थीं। बापू जी ने आव देखा न ताव सीधे पदवेष सहित पूजाघर में प्रवेश कर गए और बरसने लगे - "सुना! तेरा दत्तू संघ का प्रचारक होकर केरल जाने वाला है - आजीवन और मुझे यह समाचार घर से नहीं बाहर से मिलता है। यह दत्तू घर गृहस्थी बसाने वाला नहीं है - आया समझ में" - जानकीबाई ने शांत रहते हुए बताया कि "दत्तू का तो जन्म ही देशकार्य के लिए हुआ है। इसकी क्षमता को नागपुर में श्रीगुरुजी ने पहचाना है तभी तो इसे केरल भेज रहे हैं जहाँ अभी तक संघ शाखा नहीं है" किंतु बापु जी पर कोई असर नहीं हुआ। वह दत्तू को प्रचारक न जाने देने की जिद पर अड़े थे।

जैसे-तैसे रात कट गई। जानकीबाई ने डॉ. अण्णा साहेब देशपांडे जी से संपर्क किया। बापु जी ने नागपुर संघ कार्यालय को टैलीग्राम करके वहाँ कार्यालय का काम सँभालने वाले श्री कृष्णराव जी मोहरील को तुरंत आर्वी भेजने का अनुरोध किया। अगले दिन प्रातः ग्यारह बजे कृष्णराव जी आर्वी पहुंच गए। आर्वी प्रस्थान करने से पूर्व नागपुर में कृष्णराव जी को प. पू. श्रीगुरुजी ने कहा 'ध्यान रखना, मेरा प्रचारक खोना नहीं है। बापु जी के गुस्से से सभी भलीभाँति परिचित थे। कृष्णराव जी बताते हैं कि "आर्वी आने के बाद सर्वप्रथम मैं वहाँ के संघचालक डॉ. देशपांडे जी के घर गया। उन्हें सारी स्थिति से अवगत करवाया। डॉ. जी ने कहा "अरे! बापुजी बड़े गुस्से में है। तुम जाओगे तो तुम्हारी पिटाई भी हो सकती है। मैंने डरते हुए बापु जी के घर में प्रवेश किया। अंदर जाते ही पहले बापुजी को साष्टांग दंडवत् किया। अपेक्षा थी प्रारंभ में कुछ औपचारिक बातें होगीं, परंतु बापुजी ने पहले ही कह दिया, "मैं उसको प्रचारक नहीं भेजूंगा। बस...विषय समाप्त!" मैने कुछ बोलने की कोशिश की तो बापुजी बरस पड़े, "वह अपने बाप की सुनता नहीं। कभी मेरे से पैसे भी माँगता नहीं। उसका नेता तो नागपुर में बैठा है। मैंने उसको पढ़ाया, उसकी दृष्टि से कारोबार इतना उन्नत किया, इतनी किताबें एकत्रित की, यह सब किसके लिए? अब परिवार की जिम्मेदारी उसी की है, उसकी छोटी बहन विवाह योग्य हो गई है, पर उसे तो किसी बात की चिंता ही नहीं है। वह खुद को क्या समझता है? और ऊपर से तू आया है, मुझे सिखाने'' बापुजी बोल रहे थे, सभी का उद्धार हो रहा था। दतोपंत जी की माताजी का भी उद्धार हो रहा था, क्योंकि वह समय-समय पर बच्चे की ढाल बन जाती थीं।

बड़ा कठिन प्रसंग था, पर मैंने हिम्मत न हारी, उनकी हाँ में हाँ नहीं मिलायी। प. पू. गुरुजी का आदेश जो था। थोड़ा सा साहस बटोर कर मैंने कहना प्रारंभ किया, "दत्तोपंत आपकी तो सुनते नहीं हैं, वे प्रचारक तो निकलेंगे ही फिर आपके इस रुद्रावतार का क्या लाभ! उन्हें घर-गृहस्थी धन में कोई आकर्षण नहीं। वे अब बड़े हो गए हैं, विद्वान हैं, क्या अच्छा और क्या बुरा यह समझ सकते हैं और अपने जीवन का ध्येय उन्होंने निश्चित कर रखा है। आप कितना ही विरोध करें वे प्रचारक तो निकलेंगे ही, फिर आप उन्हें आशीर्वाद देकर क्यों नहीं विदा करते।" मेरे कहने का कुछ असर होने लगा। अब बापुजी का क्रोध कुछ शांत होने लगा। घंटा भर काफी प्रश्नोत्तर चर्चा हुई। अब बापुजी कुछ ठंडे हुए। तब मैने कहा "बापुजी आप मेरे पिता समान हैं। मेरा यह कहना उदंड्ता होगी, फिर भी पूछता हूँ, आप दत्त-भक्त हैं। भगवान दत्त की प्रार्थना करते हैं। आपने ईश्वर से उनके समान बुद्धिमान पुत्र ही माँगा होगा न। भगवान दत्त ने आपकी प्रार्थना सुनी होगी। आपका यह बुद्धिमान पुत्र भगवान दत्त का प्रसाद है, अतः आपने उसका नाम भी दत्त रखा और अब इस दत्तात्रेय को चार दीवारों में क्या आप बंद रखना चाहते हैं? सतत संचार करने वाले दत्त क्या कभी ऐसे बंद रह सकते हैं? स्वयं की परवाह न करते हुए लोक-सेवा ही उनका कार्य है। कुत्ते, बिल्लियां, गाय, बछड़े, दीन, अनाथ, दुर्बल, अपंग इन सबका वे सहारा बनेंगे। क्या आपको नहीं लगता कि आपके घर में साक्षात दत्त भगवान ही अवतरित हुए हैं।"

यह सुनकर बापुजी गद्-गद् हो उठे। कुछ समय शांति रही। मैं जाने के लिए उठा। बापुजी ने पूछा 'कहाँ जा रहे हो? मैंने कहा 'आपके क्रोध से तो बच गया। अब भोजन के लिए डॉ. देशपांडे जी के घर जा रहा हूँ। बापुजी ने कहा "तू एक बजे यहाँ देशपांडे जी को साथ लेकर आएगा" तथा अपनी पत्नी से कहा "आज गाँव के सभी लोगों का यहीं भोजन होगा।" दत्तोपंत जी की माताजी को अतीव प्रसन्नता हुई। दोपहर को विशेष भोज का प्रबंध था। आर्वी की यात्रा सफल करके मैंने नागपुर आकर प.पू. श्रीगुरुजी को वृत्तांत निवेदन किया।

पंद्रह दिन बाद बापुजी व बाई (उनकी पत्नी) नागपुर पहुँचे। श्रीगुरुजी से मिले। बापुजी ने श्रीगुरुजी के गले में माला पहनायी। श्रीफल (नारियल) अहेर में दिया व कहा "मुझे भगवान का साक्षात्कार हुआ। अब मेरा बच्चा आपके अधीन है, वह अब आपका कार्य करेगा। पर एक इच्छा है कि वह घर पर भी आना जाना रखे, जिससे हमें भी संतोष मिले।"

दिनांक 22 मार्च 1942 के दिन श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी संघप्रचारक बन कर केरल के लिए रवाना हो गए। इस प्रकार उस दिन राष्ट्र को एक महान प्रचारक मिला।

सन 1948 में संघ प्रतिबंध हटाने हेतु जो सत्याग्रह हुए, उनमें आर्वी से एक सत्याग्रही थे, एडवोकेट बापुजी ठेंगड़ी जिन्हें छः मास का कारावास हुआ था।

जिस दिन दत्तोपंत संघ प्रचारक का दायित्व स्वीकार कर के केरल चले गए उस दिन बापुराव जी ने नियति के सम्मुख स्वयं को कदाचित् असहाय पाया होगा। जो अवश्यंभावी है उसे कौन टाल सका है। बापुराव जी ने भी परिस्थिति से समझौता कर लिया। सौ. जानकीबाई की मृत्यु (1951) उपरांत थोड़े समय के लिए वे अपनी बेटी के पास उसके ससुराल जाकर रहे। उनकी सक्रियता में शिथिलता आ गई थी। क्या मालूम मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ हो। एक योग्य व सफल अधिवक्ता, कर्मठ गृहस्थ तथा प्रौढ़ावस्था में संघ शाखा से जुड़े बापुराव दाजिबा ठेंगड़ी 5 जनवरी 1960 को ब्रह्मलीन हो गए।

दत्तोपंत ठेंगड़ी

पारिवारिक पृष्ठभूमि : बाल्यकाल : विद्यार्थी जीवन

दत्तोपंत जी के पिता श्री बापुराव दाजीबा ठेंगड़ी, आर्वी (जि. वर्धा) के विख्यात अधिवक्ता थे। माता सौ. जानकीबाई ठेंगड़ी सद्गृहस्थ सद्गृहिणी थीं। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। घर में सहायक-सेवादार आदि सभी पारिवारिक सदस्यों की भाँति मिलजुल कर रहते थे। दत्तोपंत जी का पूरा नाम दत्तात्रेय बापुराव था। बाल्यकाल में इन्हें दत्ता, दत्तू, बाबा, पंत आदि नामों से संबोधित किया जाता था।

दत्तोपंत के जन्म से पूर्व सभी संताने जन्मते ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई थीं। जो जीवित रहे उनमें दत्तोपंत, छोटा भाई नारायण उपाख्य नाना ठेंगड़ी और बहन अनुसूया उपाख्य विजयाबाई देशपांडे (मर्डिकर) थी। नाना ठेंगड़ी का जन्म 03 फरवरी 1935 को हुआ। आर्वी से हाईस्कूल शिक्षा उपरांत उन्होंने एम. ए. (फिलासफी) तक शिक्षा प्राप्त की। वह लेखक, समीक्षक तथा नागपुर से प्रकाशित दैनिक तरुण भारत (मराठी) के उपसंपादक थे। वर्ष 1988 में उनका निधन हो गया। दो छोटे भाई और भी थे किंतु उनका किशोरावस्था में ही देहाँत हो गया था।

बहन अनुसूया उपाख्य विजयाबाई देशपांडे (मर्डिकर) का जन्म 09 सितंबर 1940 को हुआ था। बी.ए. उत्तीर्ण कर लेने के उपरांत उनका विवाह ग्राम पहापल, जि. यवतमाल निवासी श्री विश्वनाथ नीलकंठ उपाख्य तात्या देशपांडे से हुआ था।

दत्तोपंत चार वर्ष आयु होने तक किसी भी शब्द का उच्चारण नहीं कर पाते थे। माता जानकीबाई को चिंता सताने लगी कि कहीं यह गूंगा न हो। दत्तोपंत को वह भगवान दत्तात्रेय की अनुकंपा और उनके वरदान परिणाम स्वरूप प्राप्त संतान मानती थीं। उन्हीं के नाम पर बालक का नाम 'दत्तात्रेय' रखा था। अतः वह भगवान दत्तात्रेय के प्रसिद्ध मंदिर (तीर्थ स्थान) गाणगापुर, जि. गुलबर्गा (कर्नाटक) परिवार सहित इस श्रद्धा और विश्वास से दर्शनार्थ पहुँचीं कि शिशु को वाणी प्राप्त हो जाए। पारिवारिक सदस्य (माने हुए चाचा) श्री वासुदेव प्रहलाद सोनक बताते हैं कि "गाणगापुर देवस्थान पर दत्तू का मुंडन संस्कार वर्ष 1924 को हुआ। माता जानकीवाई ने मनौती मानी कि दत्तू को वाक्शक्ति प्राप्त होने पर वह इसके यज्ञोपवीत संस्कार हेतु पुनः परिवार सहित गाणगापुर मंदिर में उपस्थित होंगे।" श्रीमति विजयावाई देशपांडे बताती हैं कि "गाणगापुर से वापिस लौटते हुए मार्ग में भुसावल रेलवे स्टेशन पहुँचने पर चमत्कारिक रूप से दत्तू की वाक्शक्ति जागृत हुई और उनके मुँह से पहला शब्द निकला 'बापु'। स्वाभाविक है यात्रा में सम्मिलित सभी कुटुंबजनों को इससे आनंद की अनुभूति हुई।"

दत्तोपंत जी की प्रारंभिक शिक्षा आर्वी स्थित म्युनिसिपल स्कूल में हुई। पढ़ने में दत्तोपंत सहपाठियों से आगे रहते थे। उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी। जिसे एक बार पढ़ लेते वह उन्हें कण्ठस्थ हो जाता था। वह मेधावी और प्रतिभाशाली विद्यार्थी थे।

विद्यार्थीकाल का स्मरण करते हुए, सौ. दीपा पुंडलिक ग्राम जलगाँव (जामोद) जिला-बुलढाणा (दत्तोपंत जी की भांजी) लिखती हैं कि "किशोरवय में ही दत्तू के अंदर छिपा हुआ संगठनकर्ता जागृत होने लगा था। वह स्वतंत्रता आंदोलन का जमाना था। चारों ओर गांधी जी की जय-भारत माता की जय नारे गँज रहे थे। आर्वी में भी सत्याग्रह की गूंज सुनाई दे रही थी। चौराहों पर कार्यक्रम हो रहे थे। दत्तू उक्त आंदोलन में कैसे सहभागी हो यह सोचने लगा। उसके इसी चिंतन का परिणाम था कि उसने वानर सेना, पुअर ब्वायज़ (Poor Boys) कमेटी, झुग्गी-झोंपड़ी मंडल एवं आर्वी विद्यार्थी संघ का गठन किया और सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी करने लगा।

सातवीं-आठवीं कक्षा का छात्र दत्तू उस समय 14-15 वर्ष की आयु का रहा होगा। मई मास प्रखर धूप की परवाह किए बिना सफेद टोपी पहने दत्तू चौराहे के चक्कर काटते रहता था। बाहर तनावपूर्ण वातावरण के दृष्टिगत बापु जी दत्तू को आंदोलन में भागीदारी से मना करते थे पर दत्तू कहाँ मानने वाले थे। एक दिन बापु जी चौराहे से दत्तू को बाँह से पकड़कर घर तक डाँटते फटकारते लाए और घर पहुँच कर सबके सामने दत्तू को चेतावनी दे डाली 'तू आज के बाद चौराहे पर नहीं जाएगा' दत्तू ने हाथ छुड़ाया और चौराहे की तरफ दौड़ लगा दी। बापु जी ने तुरंत जानकीबाई को चेतावनी दे डाली - 'यह दत्तू अपने पिता की बात नहीं मान रहा - उसे आज खाना नहीं मिलेगा' - मां का ममतामय हृदय हिल गया - ग्रीष्म के लंबे दिन और दत्तू सारा दिन भूखा कैसे रहेगा। दत्तू को समझाया कि जिद छोड़ दे। दत्तू ने जवाब दिया - 'मेरे देश को स्वतंत्र करना है - मैं आंदोलन करूंगा - भूखा रहूंगा - खाना नहीं खाऊंगा' भोजन में उस दिन दत्तू की पसंद पूरन पोली बनी थी। दत्तू बार-बार रसोई में जाते और पानी पीकर बाहर आ जाते किंतु खाना नहीं खाया। दिन भर भूखे ही रहे। उस दिन मां भी खाना कैसे खाती।

संध्या समय दत्तू जब घर आया तो बापु जी ने फिर धमकाया 'तू आंदोलन में नहीं जाएगा' दत्तू ने कहा 'मैं तो जाऊँगा' इतना सुनना था कि बापु जी का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। सो हाथ में जो आया उसी से दत्तू की जमकर पिटाई कर दी। दत्तू मार सहता रहा पर उसके मुँह से आखिर तक 'नहीं जाऊंगा' यह शब्द नहीं निकला।"

माता जानकीबाई धार्मिक आध्यात्मिक वृत्ति की सहज शांत स्वभाव वाली महिला थीं। उन्होंने उपाय किया। आंदोलन कार्यक्रम के पूर्व उन्होंने दत्तू को घर के उपासना स्थल (देवघर) में बुलाकर निकट बिठाया और ज्ञानेश्वरी, दासबोध, गुरु चरित्र पाठ सुनाने लगीं। यह क्रम कुछ दिन चला और एक दिन दत्तू ने घोषणा की अब मैं आंदोलन में नहीं जाऊंगा। जानकीबाई दत्तू से यही अपेक्षा कर रही थीं। उन्हें ज्ञात था कि दत्तू का जन्म देश कार्यहित ही हुआ है पर अभी विद्यार्जन का समय है। अतः उन्होंने बापुराव से कहा अब इसे संस्कारित करने हेतु किसी संस्था से जोड़ना चाहिए। फलस्वरूप दत्तोपंत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शाखा के स्वयंसेवक बने।

मित्रता करना दत्तोपंत जी का जन्मजात व स्वाभाविक गुण था। उनके घर की आर्थिक स्थिति सामान्य परिवारों से अच्छी थी किंतु दत्तोपंत जी की मित्रमंडली में निर्धन, वंचित परिवारों के किशोर ही अधिक संख्या में थे। सौ. दीपा पुंडलिक लिखती हैं कि "उन दिनों आर्वी स्थित होटल लक्ष्मीकांत में भुजिया तलने वाला बलवंत घांग्रेकर दत्तू के प्रिय मित्र हुआ करते थे। होटल में काम करने वाला उनका सबसे निकट मित्र बकाराम अंत तक मित्र बना रहा। बकाराम निर्धन गोंड आदिवासी परिवार के थे और स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भागीदारी की थी। दत्तू जब बड़े हो गए - सांसद बन गए तो बकाराम को स्वतंत्रता सेनानी पेंशन दिलाई। बकाराम को दिल्ली दर्शन के लिए बुलाया और उसे लेने स्वयं रेलवे स्टेशन पर उपस्थित रहे। बकाराम को संसद भवन-दिल्ली घुमाया। बड़े-बड़े नेताओं से मेरे आर्वी के बालसखा यह कह कर परिचय करवाया। वर्ष 2002 में जब दत्तोपंत आर्वी आए तो आर्वी निवासियों ने उनका भव्य अभिनंदन किया। शाल-स्मृतिचिह्न आदि भेंट किए। वह सब वस्तुएँ उन्होंने सप्रेम बकाराम को भेंट कर दीं। अनायास दत्तोपंत बोल उठे 'हो सकता है आर्वी का मेरा यह अंतिम प्रवास हो' और ऐसा ही हुआ। उसके बाद दत्तोपंत आर्वी कभी नहीं आए। ठेंगड़ी जी बकाराम की दोस्ती को आर्वी वाले आज भी कृष्ण सुदामा मित्रता के रूप में याद करते हैं।"

आर्वी स्थित विक्टोरिया लाइब्रेरी (अब लोकमान्य तिलक वाचनालय) मुंबई-पूणे के बाद महाराष्ट्र में तीसरे क्रमांक पर बड़ी लाईब्रेरी थी जिसमें दस हजार पुस्तकें थीं। दत्तोपंत ग्यारहवीं कक्षा तक हजारों पुस्तकों का अध्ययन कर चुके थे। पुस्तकें साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, इतिहास, उपन्यास, कविता आदि अनेक विषयों की हिंदी अंग्रेजी, मराठी भाषाओं में थीं। बहुत समय पश्चात (20 अप्रैल 1977) दिल्ली से एक बार किसी कार्यक्रम में दत्तोपंत आर्वी आए तो पुस्तकालय भी जाना हुआ। वहाँ रखे विज़िटर बुक में उन्होंने अपना अभिमत ऐसे लिखा :- (लोकमान्य वाचनालय आकर अपनी उत्कट भावनाओं को लिख पाना मेरे लिए असंभव है। यह ग्रंथालय मेरी प्रेरणा तथा जीवन की निदेशक शक्ति रहा है। यह देखकर मुझे अति प्रसन्नता है कि वर्तमान प्रबंधन ने निष्ठापूर्वक इस संस्थान की गौरवशाली परंपरा को बनाए रखा है।

म्युनिसिपल हाई स्कूल के प्रधानाचार्य श्री नेत्राम खिवराज हरजाल बताते हैं कि "वर्ष 1865 में स्थापित विक्टोरिया लाइब्रेरी विदर्भ प्रांत की सबसे बड़ी लाइब्रेरी थी। दत्तोपंत अत्यंत प्रखर बुद्धि के छात्र थे। उन्होंने हजारों पुस्तकें हाईस्कूल पास करने तक पढ़ ली थीं। बड़ी-बड़ी पुस्तकें कभी-कभी वह एक ही दिन में पढ़ लेते थे।"

दत्तू दत्तोपंत ठेंगड़ी हो गए - बड़े आदमी हो गए - संसद सदस्य बन गए - दिल्ली रहने लगे - देश विदेश यात्राएँ करने लगे किंतु वह आर्वी से दूर हो गए ऐसा आर्वी वालों को कभी नहीं लगा। आर्वी निवासी श्री विनायक राव देशपांडे बताते हैं "दत्तोपंत को भी आर्वी आने पर घर आने का आनंद मिलता था। वह चाहे रात बारह एक बजे आर्वी पहुँचे हों और किसी के भी घर जाकर कहते भाभी भूख लगी है तो भाभी बड़े स्नेह से अपने इस लाडले देवर को गरम-गरम खाना खिलाकर अपने को धन्य मानती थीं। दत्तोपंत कितने ही बड़े क्यों न हो गए हों, पर आर्वी आने पर अपने घर आने का दत्तोपंत का इंतजार सभी को रहता था।"

बकाराम ने बताया 'दत्तोपंत इतने बड़े हैं - विलायत भी होकर आए लेकिन अभी रास्ते में मिलते हैं तो कंधे पर हाथ रखकर बचपन के साथी की तरह चलते हैं। विलायत से भी पत्र लिखते हैं। आर्वी आने से पहले मुझे पत्र लिखते हैं - मैं आ रहा हूँ - भला मनुष्य, जरा भी खोटा नहीं - देव मनुष्य।"

दत्तोपंत जी के बचपन के साथी मोहरीर, पेंडके, देशपांडे, गौड़ बताते हैं दत्तोपंत का बाल्यकाल एक फास्ट ट्रेन था। वह हमेशा पढ़ते रहते थे। अत्याधिक स्मरण शक्ति से सभी अचंभित होते थे। बोर हो गया यह शब्द उन के शब्दकोष में था ही नहीं। हाईस्कूल के तत्कालीन प्रधानाचार्य श्री शंकरराव देशमुख दत्तोपंत को प्रोत्साहित करते रहते थे। कक्षा में दत्तोपंत सदा प्रथम अथवा कभी-कभार ही दूसरे स्थान पर आते थे।

आर्वी के निकटवर्ती ग्राम आष्टी से हरि भाऊ बुरंगे ने आर्वी म्युनिसिपल हाईस्कूल में वर्ष 1934 में नौंवी कक्षा में दाखिला लिया और स्कूल हास्टल में रहने का प्रबंध किया। वे बताते हैं "तब दत्तोपंत भी उसी कक्षा में पढ़ते थे। एक दिन वह मेरे कमरे पर आए और धीरे-धीरे हम दोनों में अच्छी मित्रता हो गई। दत्तोपंत रा.स्व.संघ की शाखा पर जाते थे और मुझे भी शाखा ले जाने लगे। दत्तोपंत को विद्यार्जन व संघशाखा में सक्रिय रहने के लिए उनकी माता का पूर्ण सहयोग व दिशा-निर्देश प्राप्त होता था।"

हरिभाऊ बुरंगे आगे लिखते हैं "दत्तोपंत में नए-नए मित्र बनाने का व्यसन (जुनून) एक जिद जैसी रहती थी। मित्र बनाना, अपनी ओर आकर्षित करना, मित्र के स्वभाव बुद्धि का निरीक्षण करते रहकर मित्र-मण्डली का दायरा बढ़ाते जाने का उनके अंदर स्वाभाविक गुण था। मित्र बनाने में उँच-नीच, अमीर-गरीब, विद्वान मूर्ख का उनके पास भेदभाव नहीं था। होटल मैनेजर से लेकर हमाल गोविंद या अखाड़े के पहलवान सब से बराबर व्यवहार और संपर्क करते हुए वह सबके और सब उनके मित्र बन जाते थे।"

"नागपुर में उन दिनों वक्तृता स्पर्धाएँ आयोजित की जाती थीं। दत्तोपंत अपने स्कूल की ओर से स्पर्धा में भाग लेने जाते थे। स्पर्धा में विषय चाहे जो हो दत्तोपंत ही प्रथम आते थे।

प्रात:काल अखाड़ा जाना, कुश्ती व्यायाम करना चालू रहता था - सायंकाल संघ स्थान पर खो-खो, कबड्डी खेलते थे। गर्मियों की छुट्टियों में जिनिंग फैक्ट्री के कुएँ में तैरने का अभ्यास प्रारंभ किया और दत्तोपंत तैरना सीख गए। जब दसवीं कक्षा में पढ़ते थे तो प्रातः एक मील की दौड़ लगाते थे। व्यायामशाला जाना अखाड़े कुश्ती का शौक था। व्यायामशाला के किसी दूसरे लड़के का नाम लेते हुए हमारे एक मित्र ने कहा वह बड़ा ताकतवर है - एक दम में जमीन पर हाथ रख कर एक सौ दंड लगाता है। उसी क्षण कुर्ता पायजामा पहने दत्तोपंत ने जमीन पर हाथ टेक कर एक ही दम में एक सौ दंड लगाकर दिखाए।"

श्री बुरंगे बताते हैं कि "नौवीं, दसवीं, ग्यारहवीं कक्षा के छात्रों के स्नेह सम्मेलन कमेटी के सचिव का चुनाव था। दत्तोपंत सचिव चुने गए किंतु भोजन के दिन व्यायामशाला और संघ शाखा से जुड़े छात्रों के दो गुटों में झगड़ा हुआ और मारपीट हो गई। दत्तोपंत उस समय वहाँ उपस्थित नहीं थे। मैंने बीच-बचाव किया तब कहीं जा कर शांति स्थापित हुई। मारपीट करने वालों को उचित सबक सिखाने हेतु योजना बनाई गई और दो वर्ष बाद मोटर स्थानक पर उन लड़कों को जबरदस्त टक्कर दी। उस गुट की करारी पराजय हुई। इस मारपीट में दत्तोपंत का भी नाम आया। पुलिस केस बना। पुलिस दत्तोपंत को ढूंढती हुई घर पर आई। दत्तोपंत के पिता जी न्यायालय में वकील थे। उन्होंने दत्तोपंत घर पर नहीं कह कर पुलिस को वापस भेज दिया और दत्तोपंत को बुलाकर कहा तू तीन महीने के लिए अज्ञातवास में चला जा। दत्तोपंत अकेले एक से दूसरे गाँव लुक-छिप कर घूमते रहे पर पुलिस को खबर नहीं हुई। विरोधी गुट भी उन्हें ढूंढने और पकड़वाने में सक्रिय रहा पर दत्तोपंत ने इस कुशलता से अज्ञातवास का संचालन किया कि किसी को भनक तक नहीं लगने दी। इस अवधि में वह कहाँ रहे कहाँ खाना खाते रहे - सब आश्चर्य चकित करने वाली बातें हैं। आगे चलकर पुलिस केस खारिज हुआ और दत्तोपंत अज्ञातवास से सकुशल वापिस घर लौट आए।"

दत्तोपंत जी के जीवन का यह पहला अज्ञातवास था। अनपेक्षित परिस्थितियों का सामना करने, संकटों को झेलने, भूख प्यास सहने और संगठन कौशल्य का नियति द्वारा कदाचित दत्तोपंत जी का यह प्रथम परीक्षण था जिसमें वह शत-प्रतिशत सफल हुए। आगे भविष्य में संघ पर प्रतिबंध (1948) तथा आपात्काल (1975) में उन्हें पुनः भूमिगत रहना पड़ा और संगठन द्वारा सौंपे गए दायित्व (लक्ष्य) को सिद्ध करके वह यशस्वी हुए।

श्री बुरंगे द्वारा वर्णित एक और प्रसंग का उल्लेख इस प्रकार है "परीक्षा निकट आने पर भी दत्तोपंत का निर्विकार निडर रहकर घूमना-फिरना चालू था जबकि अन्य विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी में जुटे थे। एक दिन मैंने कहा बाबा! परीक्षा सर पर आ गई है तैयारी शुरू करो। उन्होंने कहा अच्छा! चार-पाँच दिन बाद पुनः याद दिलाने पर वह घर के देवघर में ध्यान लगाकर बैठे और आधे घंटे पश्चात बताने लगे हरिभाऊ! इस बार हमारे स्कूल का कोई भी विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण नहीं होगा किंतु स्कूल में पहला नंबर मेरा ही होगा। उसकी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई।"

वेष अवलिया जैसा : हृदय में अनेक विध कलाएं : -

आर्वी मूल के (वर्तमान नागपुर) निवासी और ठेंगड़ी परिवार के निकटस्थ पंडित पिंपलकर श्री दत्तोपंत जी के बचपन का हृदयग्राही किंतु यथार्थ चित्रण करते हुए लिखते हैं :-

ई.सं. 1935-36 में मैंने उन्हें शालकीय मित्रों के जुगाड़ में देखा है। मेरे चाचा नारायण (आबाजी) उनके जानी दोस्त थे। वह उनका मैट्रिक का वर्ष था। फिर भी हमारे घर के सामने की गली में शिशु बाल स्वयंसेवकों के लिए नयी शाखा आरंभ करने की धुन दोनों में सवार थी। वही मेरा संघ का पहला परिचय था।

दत्तोपंत वानरसेना के अध्यक्ष थे और यह सेना आर्वी तालुका काँग्रेस कमेटी की उपज थी ऐसा काल्पनिक परिचय किसी पुस्तक या विशेषांक में लिखा है। वास्तव में इस वानरसेना ने कॉटनमार्केट मैदान में चल रही सर्कस का शो समाप्त होते ही बाहर आने वाले जिन दादाओं की सिर से खून टपकने तक पिटाई की थी वे सभी काँग्रेस प्रणीत व्यायामशाला से संबंधित थे। इसका मुझे अच्छा स्मरण है।

इतना ही नहीं तो यह क्रिमिनल केस वर्धा के जिला न्यायालय में कई महीनों तक चला, जिसकी हरेक पेशी में आर्वी से एक स्पेशल बस भर कर गुनहगार तथा स्थानीय वकील वर्धा की ओर जाते हुए मैंने देखा है। वानरसेना ही नहीं तो म्युनिसिपल हाईस्कूल के विद्यार्थियों का संगठन, गरीब विद्यार्थियों के लिए फंड कमेटी, गोवारी झुग्गी-झोंपड़ी मंडल ऐसे अनेक सामाजिक कार्यों का निर्माण तथा नेतृत्व दत्तोपंत जी ने किया, यह सबको ज्ञात है। वास्तव में उनके पिताजी स्व.बापुजी ठेंगड़ी उस जमाने में हाईकोर्ट प्रैक्टिशनर यानी एडवोकेट थे, जबकि अन्य सभी स्थानीय वकील तहसील तथा जिला बार में प्रैक्टिस करने वाले प्लीडर मात्र थे। अत: बापुजी की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। परंतु दत्तोपंत को देखने पर वे एडवोकेट पुत्र होंगे ऐसा कभी लगा ही नहीं। क्योंकि वे दरिद्रनारायण से समरस थे।

उनकी माताजी श्रीदत्त भक्त थीं और उन्हीं की साधना तथा संकल्प के कारण इनका नाम दत्तात्रेय रखा गया था। उस संकल्प के प्रतीक के नाते एक चाँदी का कड़ा पैर में पहना हुआ मैंने उन्हें मैट्रिक तक देखा है। पहने हुए कपड़े तो हमेशा अवलिया जैसे ही लगते थे। इसी कारण से कॉलेज में और वह भी उस जमाने के मॉडर्न मॉरिस कॉलेज में जाते हुए लोग उनकी हँसी उड़ाते थे, ऐसा उनके समवयस्कों का कहना है। बचपन यह भविष्य की निशानी है, यह कहावत सच्ची ही है।

ऐसा होते हुए भी बुद्धि की कुशाग्रता, चिंतन तथा वाचन की गहराई इसके कारण कॉलेज जीवन में बी.ए. तक वे माने हुए विद्यार्थी थे, लॉ की डिग्री तो उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की थी। इसी कारण से पिता बापुजी के मन में यह स्वाभाविक आकाँक्षा थी कि पुत्र गद्दी चलाएगा परंतु एल.एल.बी. पास करते ही संघ के लिए जीवन प्रदान करने हेतु वे प्रचारक बने।

मातृभाषा मराठी होते हुए भी हिंदी, बंगला, संस्कृत, मलयालम, गुजराती उन्हें आती थी। मैट्रिक पास होने के पूर्व ही आर्वी संघशाखा में उनका अंग्रेजी में बौद्धिक वर्ग मैंने सुना है। वक्तृत्व यही कारण है, कि 'वक्तृत्वाची पूर्वतयारी' यह उनकी पुस्तक बहुत पहले ही प्रकाशित हुई थी। वे अच्छे लेखक तथा साहित्यिक थे, यह बात तो पचास से अधिक उनकी पुस्तकें प्रकाशित होने से सिद्ध हुई है। इतना ही नहीं तो अंग्रेजी में कविताएँ उनके मुख से बाहर आते ही उन्हें लिखने का भाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। इस प्रकार दत्तोपंत विलक्षण बुद्धिमत्ता के धनी थे।

किंतु उनका जीवन सच्चे अर्थ में कृतार्थ हुआ, जब श्री गुरुजी ने उन्हें साम्यवाद का गहराई से अध्ययन कर फिर मजदूर आंदोलन में पदार्पण करने का आदेश दिया। श्री गुरुजी की अपेक्षाओं को तो मूर्त रूप उन्होंने दिया ही, साथ ही साथ इस देश में राष्ट्रवाद की नींव पर एक नया अलौकिक आर्थिक तत्वज्ञान तथा सामाजिक नीतिनिर्धारण 'थर्ड वे' नामक प्रबंधग्रंथ उन्होंने रचा है। इस काम में डॉ. म.गो.बोकरे जैसे प्रकांड अर्थशास्त्री का स्नेहभरा सहाय्य भी उन्हें प्राप्त हुआ था, यह इस देश का सद्भाग्य समझना चाहिए।"

पंडित पिपलकर बताते हैं कि 'श्री मनुस्मृति भाष्य' में पू.स्वामी वरदानंद भारती जी ने दत्तोपंत ठेंगड़ी का उल्लेख 'ति.प.ठे.' तीन सांकेतिक अक्षरों से किया है। इस विरले प्रसंग का वर्णन पंडित पिंपलकर जी के शब्दों में इस प्रकार है:-

"करीब दो वर्ष पूर्व पू. स्वामी वरदानंद भारती जी (पूर्वीश्रती के प्रा. अ.दा. आठवले) के महानिर्वाण पश्चात उनका संपादित ग्रंथ 'श्रीमनुस्मृति - सार्थ सुभाष्य' खरीदकर उसका वाचन शुरू किया। मनुस्मृति संबंधित सभी संभ्रम निरस्त करने की ताकत उस ग्रंथ में है। किंतु उस भाष्य को ग्रंथित करते समय स्वामीजी ने जो संदेश दिए हैं उसमें सर्वाधिक संदर्भ - पंक्तियाँ ति.प.ठे. इस 3 अक्षर युक्त हैं। इस ग्रंथ को आधे से अधिक पढ़ने के बाद इन तीन अक्षरों के बारे में उत्कंठा जागृत हुई इसलिए आखिरी पृष्ठ पर लिखी संदर्भसूची पढ़ते ही आश्चर्य लगा। क्योंकि वे थे 'तीसरा पर्याय ठेंगड़ी'। उसके बाद जब ठेंगड़ी नागपुर में आए, मैंने उन्हें इसकी जानकारी दी तो उन्हें भी सुनकर आश्चर्य लगा। वे कहने -लगे - 'यह स्वामी जी महाराज दो बार मुझे मिलने आए थे। उसमें से पुणे की पहली बारी में ऐसा लगा कि संघ के ज्येष्ठ अधिकारियों पर वे बहुत नाराज हैं। उन्होंने कहा-पूरी ताकत लगाकर मैं हिंदुत्व का प्रचार कर रहा हूँ किंतु कोई मुझे सुनने की मनःस्थिति में ही नहीं। इन स्वामीजी का समाधान कैसा करें यह प्रश्न खड़ा हुआ। तब मैंने इतना ही कहा - स्वामीजी! यह देश भगवान श्रीकृष्ण का है। उनकी मुरली का निनाद अखंड चालू रहे, यह इस देश की नियति है। एकबारगी मुरली में कुछ दोष उत्पन्न होकर उसका वादन यदि रुकनेवाला हो तो उसे फेंक देना और नई मुरली लेना श्रेयस्कर है। वादन शुरू रहना महत्वपूर्ण है, मुरली नहीं। मेरे मुख से यह सब सुनकर स्वामी जी गदगद हो उठे और अपनी दोनो भुजाओं में मुझे समेट लिया।"

"संघ के अनेक अधिकारियों पर नाराज रहे पू.स्वामी वरदानंद भारती (उत्तर काशी) दत्तोपंत जी पर मात्र बेहद खुश, अब इससे अधिक क्या लिखें?"

इस प्रकार के बहुत सारे किस्से, बहुतेरे संदर्भ आदरणीय दत्तोपंत जी के मिलने पर गपशप होने पर मन की गहराई पर छा गए हैं।

यह मेरा सद्भाग्य है कि उनकी ममता का मैं धनी हूँ। गत् 70 वर्षों से यानी मेरी शैशवावस्था से लेकर उनका मेरा ऋणानुबंध है। केरल में प्रचारक जाने के उपरांत कभी आर्वी में पधारे कि कहते थे- पंडित, कल सुबह आ जाओ और दिनभर हमारे घर में ही तेरा मुकाम। आते समय 20-25 पोस्टकार्ड ले आना, क्योंकि बहुत सारे पुराने पत्रों का उत्तर देना है। वर्ष 1966 से 1976 तक मैं मुंबई में था। वहाँ के मित्रों को मेरा परिचय गुरुबंधु है क्योंकि इसके पिताजी मेरे शिक्षक थे। आगे कहते थे हमारी आर्वी के लोग बिब्बे (बिबया) जैसे हैं। अनजाने में भी उसके साथ छेड़छाड़ हुई तो वह तुरंत आगबबूला होगा, परंतु धीरे से उसके अंदर का बीज निकालकर ग्रहण करो तो वह पौष्टिक मीठी गोडंबी!! इतना यथार्थ परिचय करा देने की गुणग्राहकता आदरणीय दत्तोपंत को छोड़कर अन्य किसी के बस की बात नहीं। उनका जीवन अथाह सागर जैसा भव्य तथा सूर्य तेज जैसा दिव्य था!! परंतु वह भव्यता, दिव्यता उनके संपर्क में आए हरेक व्यक्ति को ज्ञात होकर भी उसके कारण कोई दूर भागे यह दत्तोपंत को मंजूर नहीं था। क्योंकि आर्वी के करमरकर के हॉटेल में भुजिया तलने वाले मामूली लड़के से लेकर तो इस देश के प्रधानमंत्री राष्ट्रपति तक सभी के साथ समभाव से मित्रवत् सच्चा गहरा स्नेह जोड़ना यह दत्तोपंत का जीवनधर्म था। उसे उन्होंने अंतिम श्वाँस तक निष्ठा से निभाया, यही उनका श्रेष्ठत्व!"

दत्तोपंत जी के बाल मित्र त्र्यम्बक राव गिरधर बताते हैं कि "वर्ष 1931-32 में मा. अप्पा जी जोशी आर्वी आए थे और गाँव के सभी बच्चों को एकत्रित कर पूछा 'माता श्रेष्ठ है या पिता जी' बच्चे अपने अपने विचार व्यक्त करने लगे। दत्तोपंत ने कहा मां श्रेष्ठ है और फिर आधा घंटा माता महात्म्य सुनाया। ग्यारह बारह वर्ष के बालक से ऐसा पांडित्यपूर्ण प्रवचन सुनकर सभी मुग्ध हो गए। मा. अप्पा जी ने कहा बड़ा होकर यह बच्चा बहुत बड़ा बनेगा।"

दत्तोपंत जी के एक अन्य बालसखा मोतीसिंह गौड़ बताते हैं "एक भाषण प्रतियोगिता में 'शिवाजी' विषय था। प्रथम पुरस्कार दत्तू को ही मिला। कुछ नकद राशि भी थी। दत्तू पुरस्कार राशि लेकर सीधे संघचालक जी के घर गया। संघचालक जी ने कहा पैसे गुरु दक्षिणा के लिए अपने पास ही रख लो।"

दत्तोपंत ग्याहरवीं कक्षा उत्तीर्ण करने (1937) तक आर्वी में रहे। यहाँ उनका बचपन बीता-प्राथमिक एवं हाई स्कूल तक पढ़ाई हुई। तत्पश्चात उच्च शिक्षा के लिए वह नागपुर चले गए। आर्वी में अपने सत्रह वर्ष के अल्पकाल में वहाँ के समाज और जनमानस पर उन्होंने अमिट छाप छोड़ी। संगठन कुशलता और नेतृत्व यह प्रकृति प्रदत्त उनमें जन्मजात गुण थे। अपने सहपाठियों से बहुत आगे थे किंतु सब को साथ लेकर चलते थे। ख्यातनाम वकील पुत्र तथा घर में धन धान्य होने के बावजूद उनमें अभिजात्य अथवा दंभ या दर्प लेशमात्र भी नहीं था। उनकी मित्र मंडली में वंचित, उपेक्षित अभावग्रस्त छात्रों ही की अधिक संख्या थी। आर्वी से जुड़ी उनकी बालस्मृतियाँ अब वास्तव में राष्ट्र की धरोहर हैं।

विधाता का विधान कहें या नियति द्वारा रचित संयोग कि दत्तोपंत जी स्नातक शिक्षा के लिए नागपुर आए तो उन्हें रहने के लिए प.पू. श्री गुरुजी के निवास पर स्थान मिल गया। दत्तोपंत जी के लिए प.पू. श्री गुरुजी का सान्निध्य एवं संस्कारित व परिमार्जित होने का इससे बढ़कर सौभाग्य और भला क्या हो सकता था। उनकी शिक्षा-दीक्षा और दिनचर्या एक विशिष्ट साँचे में ढलने लगी।

दत्तोपंत जी विद्यार्जन और रहने के लिए नागपुर आए तो सर्वप्रथम दिनचर्या कैसी व्यवस्थित हो, व्यक्ति ने किन बातों की जानकारी रखना आवश्यक है - कार्यकर्ता कैसा हो - प्रचारक के लिए पथ्य परहेज क्या हैं किन बातों की सावधानियाँ आवश्यक हैं इस बारे में प.पू. श्री गुरुजी की वंदनीया माता जी का मौलिक चिंतन था। छोटी-छोटी बातें, किंतु अत्यंत महत्व की होती थीं। जिनका श्री ठेंगड़ी जी ने अपने एक भाषण में विस्तार से वर्णन किया है।

दत्तोपंत जी ने नागपुर के मौरिस कॉलेज में दाखिला लिया था - नागपुर विश्वविद्यालय से उन्होंने - स्नातक की परीक्षा पास की। पश्चात इसी विश्वविद्यालय से एलएल.बी. की डिग्री प्राप्त की। कॉलेज में भी संघ शाखा से संबंध बना रहा। विद्यार्थी संगठनों की कार्यप्रणाली को निकट से देखने जानने का दत्तोपंत जी के लिए अच्छा अवसर था।

दत्तोपंत जी जब एलएल.बी. के अंतिम वर्ष में थे तब उन्हें संघ के प्रचारक के रूप में संगठन कार्य भार सौंपने का विचार प.पू.श्री गुरु जी ने किया। दत्तोपंत सहमत थे किंतु उनके पिता जी का प्रबल विरोध था जिसे शांत करने और पिता जी की सहमति प्राप्ति हेतु प.पू. श्रीगुरु जी ने नागपुर संघकार्यालय से श्री कृष्णराव जी मोहरील को आर्वी भेजा। पिता जी सहमत हुए और तब वर्ष 1942 विजयदशमी उपरांत दत्तोपंत जी प्रचारक निकले और उन्हें केरल प्रांत का दायित्व सौंपा गया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध (1948) के दौरान दत्तोपंत जी भूमिगत रहकर नागपुर के जिस घर में रहते हुए संघ गतिविधियों में व्यस्त थे उस कार्यकाल के बारे में सौ. शकुन्तला बराडपांडे के वृत के कुछ अंश यहाँ उद्धृत करना प्रासांगिक होगा। सौ. बराडपांडे लिखती हैं :-

"मेरा भाई भालचंद्र संघ प्रचारक होकर गया था। इस कारण दत्तोपंत का हमारे घर (पीहर) आना जाना चालू हुआ। मेरे पीहर (मायके) और संघ का बहुत आत्मीयता का सबंध था। संघ बंदी के विरोध में प्रचार-पत्रक छापने का काम मैं, भालचंद्र और दत्तोपंत मेरे पीहर (पाराखी) के घर की ऊपरी मंजिल पर छिपकर करते थे। इस काम के समय पग-पग पर दत्तोपंत के महान व्यक्तित्व का परिचय मिलता रहता था।

दत्तोपंत का गुण ग्राहक स्वभाव अत्यंत कीमती गुण है। जन मानस में संगठन के प्रति प्रेम, निष्ठा और आत्मीयता के निर्माण का कठिन और अमूल्य काम वह सहजता से करते थे। अपने मिलने जुलने वालों में वह ज्येष्ठ, कनिष्ठ, साधारण, विद्वान, श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ, ऊँच-नीच ऐसा भेद भाव कभी भी नहीं करते थे। सब के साथ निश्चल निष्कपट प्रेम भाव से मिलते थे। कर्मों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि विकसित होती है। अभ्यासवृत्ति और समभाव यह उनके प्रशंसनीय और अनुकरणीय गुण हैं।

उनके कथन में सभी धर्म तत्त्वों की विस्तार से विवेचना रहती थी। उन्होंने साम्यवादी विचारधारा का सूक्ष्मता और गहराई से अध्ययन किया था। वे जिस विषय पर भाषण करना है उसका गहन अध्ययन करते। प्रातः उठकर याद करते, बार-बार घड़ी सामने रखकर बोलते और कितना समय लगा यह ध्यान रखते। उनके मन में अहंकार लेशमात्र भी नहीं था। सादे रहते, सादा कपड़ा पहनते परंतु उच्च विचारधारा, संस्कृति, मानवतावादी व्यवहार रहता था। समर्थ गुरु रामदास स्वामी विचारानुरूप 'वेश असावा बावला-परि अंतरी असाव्या नाना कला' जीवन-यापन करते थे। उन्होंने पू. रामदास स्वामी का दासबोध और भगवान श्री कृष्ण की गीता के कर्मयोग को अक्षरशः अपने जीवन में अपनाया और तद्नुसार आचरण किया।

संघ प्रचारक : केरल , बंगाल में संघ शाखा कार्य

नागपुर में स्नातक एवं एल.एल.बी. की शिक्षा के पश्चात वर्ष 1942 में दत्तोपंत रा.स्व.संघ के प्रचारक के नाते केरल प्रांत में संघ कार्य हेतु प्रचारक नियुक्त किए गए। दत्तोपंत जी का अंग्रेजी भाषा पर अधिकार होने के कारण केरल में संपर्क साधने में उन्हें सुविधा हुई किंतु थोड़े ही समय में उन्होंने मलयाली भी सीख ली और स्थानीय लोगों से संपर्क बढ़ाते हुए स्थान-स्थान पर संघ शाखाएं खोलने के कार्य में जुट गए।

प्रारंभिक दौर में उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किंतु दत्तोपंत कठिनाईयों से घबराने वाले नहीं थे। कठिनाईयों को अपनी शक्ति बनाकर सफलतापूर्वक आगे बढ़ जाने में वह दक्ष थे। उन दिनों को याद करते हुए वे एक संस्मरण में इस प्रकार लिखते हैं - "संघ कार्य करने हेतु मैं केरल में प्रचारक था। एक प्रतिष्ठित वकील साहब के घर पर रहता था। मुझे स्थान मिला था गैराज में। संघ शाखा कार्य चल रहा था। एक दिन वकील साहब ने मुझे बुलाया और पूछा - आप जिन्दगी भर अविवाहित ब्रह्मचारी रहेंगे, रह सकेंगे क्या? मैंने कहा - मेरे जीवन में-दैनन्दिन जीवन में संघ कार्य है तब तक मैं इसी प्रकार रहूँगा - रह सकता हूँ। अगर किसी कारण से मैं इस कार्य से दूर हो गया तो क्या होगा यह मैं नहीं कह सकता।

वकील साहब मेरा उत्तर सुनकर कुछ क्षण अवाक् रह गए और उस दिन से मेरा गेराज से बंगले के कमरे में स्थानांतरण हो गया।" यही वकील साहब आगे चलकर संघ कार्य से जुड़े और जीवन पयत संगठन कार्य में योगदान किया।

मार्च 1942 में जब श्री दत्तोपंत संघ प्रचारक के नाते केरल प्रांत पहुँचे तो प्रारंभकालीन स्वयंसेवक श्री पी. परमेश्वरन जी (ज्येष्ठ एवं वरिष्ठ प्रचारक, संप्रति भारतीय विचार केंद्रम, तिरूअनंतपुरम के निदेशक) ने दत्तोपंत जी के केरल में प्रारंभिक काल का सुंदर एवं योग्य रीति से "Glimpses of a great life' में वर्णण किया है जिसे इस खंड के (सोपान - 6) संस्मरण भाग में प्रकाशित किया है।

श्री पी. परमेश्वरन बताते हैं कि दत्तोपंत जब प्रचारक बनकर नागपुर से कालीकट (केरल) पहुँचे तो उन्होंने ख्यातनाम अधिवक्ताओं, समाज के जागरूक नागरिकों से मालाबार के उक्त नगर में संघ शाखा खोलने में सहयोग करने की अपील की। उनकी अपील जोरदार थी। सुनने वाले उनकी प्रतिबद्धता, योग्यता और प्रामाणिकता की प्रशंसा करने लगे किंतु हिंदुओं को संगठित कर पाने के प्रयास में नागपुर के यह युवा वकील (प्रचारक दत्तोपंत) अपनी ऊर्जा व्यर्थ गंवाएंगे, अतः उन्होंने नागपुर वापिस लौट जाने का श्री ठेंगड़ी को मशविरा दिया - कुछ ने तो नागपुर का वापसी रेल टिकट खरीदकर ला देने का भी भरोसा दिया किंतु ठेंगड़ी जी का उत्तर था जिस कार्य के लिए आया हूँ वह संपन्न हो जाने पर सोचूंगा कि आगे कहाँ जाना है। श्री ठेंगड़ी के दृढ़ निश्चय और धैर्य के फलस्वरूप शाखा कार्य धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा।

श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी 1942 से 1944 तक केरल में प्रचारक के नाते कार्यरत रहे तदुपरांत 1944 में उन्हें बंगाल (आसाम सहित) प्रांत प्रचारक का दायित्व मिला और वह कोलकता आ गए।

प्रारंभिक कठिनाईयाँ अन्य स्थानों की भाँन्ति बंगाल में भी विद्यमान थीं। शाखा लगाने का विरोध होता था। जिसके मूल में कारण वैचारिक कम और कुछ व्यायामशालाओं अथवा कुश्ती के अखाड़ों द्वारा शाखा को प्रतिस्पर्धी अथवा प्रतिद्वंदी मान लेने की अखाड़े के कर्ताधर्ताओं की मानसिकता ही थी। एक वरिष्ठ प्रचारक बताते हैं कि उन दिनों अखाड़ा चलाने वालों द्वारा पाढ़ी-अपाढ़ी (बंगाली-गैर बंगाली) प्रश्न उठाया जाता था। उन्हें आशंका रहती थी कि शाखा व्यवस्थित हो गई तो उनके अखाड़ों के सदस्य कदाचित शाखा की ओर आकर्षित हो जाएंगे, अतः अखाड़े दुर्बल होंगे। समाज में वैचारिक अथवा राजनीतिक कारणों से विरोध ज्यादा नहीं था।

कठिनाईयाँ और भी थीं। संगठन के कार्यकर्ता के लिए रहने, खाने, पीने तथा कार्यालय आदि की व्यवस्था में कमी थी। भा.म.सं. कार्यालय मंत्री श्री जगदीश जोशी बताते हैं कि उन दिनों (1944-47) का स्मरण करते हुए श्री ठेंगड़ी जी ने बताया था कि बंगाल पहुँचने के कुछ समय पश्चात वह संक्रामक (हारपिस) रोग की चपेट में आ गए। जिस परिवार के साथ वह रह रहे थे उन्होंने ठेंगड़ी जी को कमरे के भीतर ही लगभग बंद कर दिया। भोजन नाश्ते के लिए एक खिड़की खुलती थी और भोजन तथा पानी प्राप्त करने के पश्चात वहीं रहकर थाली कटोरी धो पोंछकर रखनी पड़ती थी। भयानक रोग और ऊपर से एकांतवास-स्थिति अत्यंत कष्टकर और पीड़ादायक थी। दिन बीतते गए और एक दिन श्री ठेंगड़ी जी को उनकी माता का पत्र मिला। पत्र में लिखा था कि वर्तमान समय तुम्हारे स्वास्थ्य के दृष्टिगत नेष्ट है। तुम कष्ट में हो किंतु घबराना नहीं - यह कष्ट समाप्त होने वाला है। उक्त पत्र प्राप्ति के पश्चात श्री ठेंगड़ी जी के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा और निरोग होकर वह पुनः शाखा कार्य में व्यस्त हो गए।

वर्ष 1944 से वर्ष 1947 तक दत्तोपंत जी ने बंगाल आसाम प्रदेश के संघ प्रचारक के नाते कार्य किया। संघ प्रतिबंध (1948) के काल में भूमिगत होकर कार्य करते रहे। पश्चात उन्हें नागपुर वापस बुला लिया गया और वर्ष 1949 में उनका कार्यक्षेत्र बदलकर सामाजिक संगठन कार्य का दायित्व दिया गया।

दत्तोपंत जी का जीवन वृत्त देखने से विदित होता है कि जब जब उनका संकट से सामना हुआ उनकी पू. माता जी के आशीर्वचन से संकट का निवारण हुआ। जहाँ तक कि संघ पर प्रतिबंध के दिनों (1948) में जब श्री दत्तोपंत भूमिगत रहकर संघ कार्य कर रहे थे तब उन्होंने ठेंगड़ी जी को बताया था कि संघ पर से प्रतिबंध एक मास पश्चात हट जाएगा। प.पू. श्रीगुरु जी तथा सभी स्वयंसेवक कारागारों से रिहा कर दिए जाएंगे। उन्होंने श्री ठेंगड़ी जी को (वर्ष 1949 में) यह भी बताया था कि तेरा कार्यक्षेत्र बदलने वाला है। एक राजनीतिक समाजिक पक्ष की स्थापना करने के बाद तू उस का मुखिया होगा। उनकी यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। वर्ष 1955 में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना के पश्चात श्री ठेंगड़ी उस के संरक्षक-संचालक बने। उसके पूर्व दक्षिणांचल में भारतीय जनसंघ का कार्यभार सँभाला।

ठेंगड़ी परिवार दत्त महाराज का भक्त था। श्री दत्तोपंत की पू. माताजी भगवान दत्तात्रेय की श्रद्धावान आराधक थीं। घर गृहस्थी के योग्य संचालन के पश्चात शेष समय वह घर के देवमंदिर में भगवान दत्तात्रेय की आराधना में लगाती थीं। अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनसे पता चलता है कि उन्हें भक्ति का विशेष बल प्राप्त था। यह उनकी भक्ति साधना और तपस्या ही का प्रतिफल था कि उन्हें दैवी संकेत प्राप्त होते थे।

भविष्य दृष्टा : तत्त्वदर्शी

इसी प्रकार श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी भविष्य दृष्टा के रूप में भी जाने जाते हैं। वह मनीषी, विचारक, सिद्धहस्त लेखक, उच्चकोटि के विद्वान, सफल संगठन कर्ता आदि अनेकानेक गुणों से युक्त थे किंतु भविष्य दृष्टा के नाते उनकी भविष्यवाणियाँ भी आश्चर्यजनक होती थीं। उन्होंने अमृतसर अधि वेशन अप्रैल 1975 में प्रतिनिधियों की आमसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि निकट भविष्य में देश पर घोर संकट आने वाला है। जून 1975 में आंतरिक आपात्काल लागू हुआ। आपात्काल में जब लाखों देशभक्त और तत्कालीन सत्ता विरोधी लोग जेलों में ठूंस दिए गए थे - देश में निराशा का वातावरण छा गया था, उस समय भूमिगत हो कर श्री ठेंगड़ी जी देश भर में आशा की अलख जगाए घूमते फिर रहे थे। उन्होंने कहा था कि अगले वर्ष (1977) के प्रारंभ में एमरजेंसी हटा ली जाएगी और वैसा ही हुआ। उनकी घोषणा कि वर्ष 1990 के पूर्व भारत ही नहीं विश्व भर में साम्यवाद समाप्त हो जाएगा, सच सिद्ध हुई। उन्होंने यह भी कहा था इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही भारत भगवामय हो जाएगा। केंद्र में सत्ता परिवर्तन (मई 2014) उपरांत पूरा भारत भगवा ही भगवा दिखने लगा है। तो क्या यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि श्री ठेंगड़ी के पास दिव्य दृष्टि थी या विशुद्धरूप से भविष्य के यथार्थ आकलन कर लेने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। अभी कहना कठिन है किंतु आगे चलकर शायद शोधकर्ता इस विषय पर शोध करें।

स्वामी राम कृष्ण परमहंस के स्वर्ग सिधार जाने के उपरांत भी समय-समय पर स्वप्न अथवा किसी अन्य विधि से स्वामी विवेकानंद को संकेत से सावधान करते थे। अमेरिका की ओर जाने का स्वामी विवेकानंद को उन्हीं का संकेत था। महर्षि अरविंद को योग विद्या के अभ्यास का संकेत करने उन के स्वप्न में स्वामी विवेकानंद आते थे। वीर सावरकर, स्वामी रामतीर्थ दिव्य संदेश प्राप्त करते थे। भक्ति और आध्यात्मिक जगत् के यह चमत्कारी प्रसंग हैं जो संबंधित साहित्य में पढ़ने से मिलते हैं किंतु उन्हें मानने अथवा न मानने की कोई बाध्यता नहीं है। इसी प्रकार श्री दत्तोपंत के जीवन में भी उन्हें समय-समय पर मार्गदर्शन तथा संदेश प्राप्त होते थे। उनकी गहरी आस्था और श्रद्धा के केंद्र में दो विभूतियाँ थीं - एक उनकी पू. माता जी और दूसरे प. पू. श्रीगुरुजी जिनके मार्गदर्शन में उन्होंने युगांतरकारी संगठन कार्य किया। भारतीय मजदूर संघ आज जिस उच्च आसन पर आसीन है, वह समय समय पर श्री दत्तोपंत जी को प. पू. श्रीगुरुजी द्वारा दिए गए प्रत्यक्ष मार्गदर्शन का ही प्रतिफल है।

मा. ठेंगड़ी जी भविष्य दृष्टा और उनके द्वारा आगत (भविष्य में घटित होने वाली घटना) की पूर्व सूचना दे देने के पीछे किन्हीं आध्यत्मिक शक्तियों का बल था इसके तो प्रमाण नहीं हैं किंतु इस के प्रमाण हैं कि उनको जिस विषय पर कुछ कहना होता था उसका वे अत्यंत गहनता से अध्ययन करते थे - विवेचन करते और प्रमाण जुटाते थे। गहन चिंतन के पश्चात ही अपनी बात रखते थे। अतः यहाँ यह स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि जब उन्होंने रूसी साम्राज्य टूट कर विखर जाने की बात कही तो साम्यवाद के अंतर्निहित विरोधाभास, तानाशाही राज्य व्यवस्था, मार्क्स द्वारा किसी भी प्रकार की अर्थ-व्यवस्था और समाज व्यवस्था नहीं देना, रूस की गिरती अर्थ व्यवस्था तथा मार्क्सवाद के तत्त्वज्ञान में वैश्विक चैतन्य तत्त्व को नकारना, इस गहन अध्ययन द्वारा श्री ठेंगड़ी जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे होंगे कि नकरात्मकता और प्रतिक्रियावादी प्रवृत्ति के दम पर कोई विचार अथवा राष्ट्र अधिक समय तक टिक नहीं सकता। अतः उन्होंने यह घोषणा की कि रूस टूटकर बिखर जाएगा। यह मात्र भविष्यवाणी नहीं थी। उनकी घोषणाओं की पृष्ठभूमि में गहन अध्ययन और निष्पक्ष चिंतन का आधार था।

भगवाध्वज सर्वोच्च स्थान पर होगा

श्री दत्तोपंत जी की अनेक पुस्तकों के संपादक, योग्य विद्वान, वरिष्ठ प्रचारक व पाञ्चजन्य साप्ताहिक के संपादक रहे श्री भानुप्रताप शुक्ल जी को श्री ठेंगड़ी जी के निकट संपर्क का सौभाग्य प्राप्त रहा है। उन्होंने दत्तोपंत जी के विषय में अनेक रचनाओं में विस्तार पूर्वक लिखा है। श्री भानु जी लिखते हैं :- "कौन सोच सकता था कि एक साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति ऊँचे सपने और राष्ट्र निर्माण का अपूर्व संगम है परंतु भविष्य की घटनाओं ने इस अपूर्व संगम को सच सिद्ध किया। कालचक्र ने गांधी जी की सहजता, डॉ. हेडगेवार जी का अनासक्त राष्ट्रवाद, अरविंद और विवेकानंद के अध्यात्म का अनुपम मिश्रण धरती पर उतारकर यह सिद्ध किया है। महान विभूतियों की इस श्रृंखला में स्वातंत्र्योत्तर काल में अगर दूसरा उदाहरण खोजें तो वह केवल पं दीनदयाल उपाध्याय का ही हो सकता है। दोनों पवित्र, प्रामाणिक, कुशल संघटक, मूलगामी चिंतक और तत्त्वज्ञानी रहे हैं। दोनों समानार्थी विभूतियाँ चुंबकीय व्यक्तित्व प.पू. श्रीगुरुजी की छत्र छाया में पले बढ़े। पं. दीनदयाल जी के बाद श्री ठेंगड़ी जी दूसरे श्रेष्ठ और चमकते हीरे की भाँति थे।"

मा. ठेंगड़ी जी की दूरदृष्टि, भविष्य को पढ़ लेने की उनकी अद्भुत क्षमता तथा प्रबल आत्म विश्वास के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रसंग का वर्णण करते हुए श्री भानु जी आगे लिखते हैं "श्री ठेंगड़ी कार्यकर्ता भी हैं और मार्गदर्शक भी। वह नेतृत्व करते हैं किंतु आधुनिक अर्थ में नेता नहीं हैं। भविष्य को भाँपने और देख लेने की उन में अद्भुत अंतर्दृष्टि है। अध्ययन और अनुभव के आधार पर वे अनागत को पूरी तरह पढ़ लेते हैं। वर्ष 1989 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक पू.डॉ. हेडगेवार जन्म शताब्दी के अवसर पर नागपुर में संपन्न हुए एक भव्य कार्यक्रम में उन्होंने घोषणा की "हिंदू राष्ट्र की इस छोटी सी प्रतिकृति के समक्ष राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं और परिदृश्य के आधार तथा वास्तविकता की ठोस धरती पर खड़े होकर मैं यह कह रहा हूँ कि अगली शताब्दी अर्थात एक जनवरी 2001 का सूर्योदय जब होगा तो सूर्य नारायण को यह देखकर प्रसन्नता होगी कि बीसवीं शताब्दी की समाप्ति के पूर्व ही हिंदुस्तान के आर्थिक क्षेत्र में गुलाबी लाल रंग से लेकर (From pink red to dark red) गहरे लाल रंग के सभी झंडे हिंदू राष्ट्र के सनातन भगवाध्वज में आत्मसात और विलीन हो चुके होंगे।"

उक्त घोषणा से पूर्व भा.म.सं. के द्वितीय अखिल भारतीय अधिवेशन कानपुर वर्ष 1970 में उन्होंने घोषणा की थी कि भारत ही नहीं अपितु समस्त विश्व से कम्युनिज्म का वर्ष 1990 तक विस्तर गोल हो जाएगा। उनकी यह दूरदृष्टि और अटूट आत्म विश्वास के ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो सत्य सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं।

मा. ठेंगड़ी हिंदू राष्ट्र के अनन्य साधक, चिंतक, परिव्राजक और श्रमशील व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनके ध्येय चिंतन को अगर समझना हो तो उन्हीं के शब्दों में "इस रणक्षेत्र में सक्रिय सभी लोग - सैनिक हों या सेनापति स्वयं को साधक-पथिक की भूमिका में ही रख रहे हैं और अविचल मन से विशुद्ध साधना के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। प.पू. श्रीगुरुजी के दिए हुए मार्गदर्शन के प्रकाश में वे यह साधना और संघर्ष चला रहे हैं। ध्येयवाद की पारस मणि का स्पर्श हृदयों को होने के कारण लोहे का परिवर्तन सोने में हो गया है। मनुष्य स्वभावगत दुर्बलताओं का स्पर्श इन हृदयों को नहीं हो रहा है। साधकों की इस विशाल एवं सर्वव्यापी सेना को देखकर तीन सौ पचास वर्ष पूर्व का दृश्य मनः चक्षुओं के सामने उभर आता है। समर्थ गुरु रामदास कहते हैं "त्रिखंडी चाल्या फौजा हरिभक्तांच्या" अर्थात हरिभक्तों की सेना त्रिखंड में संचार कर रही है। इस सेना का समबल साधन नहीं, साधना है। साधना जितनी बढ़ती जाएगी, विजयश्री उतनी ही निकट आती जाएगी।" (प्रस्तावना पृ-13)

साधना की सघनता उत्पन्न करने और विजय श्री को निकट लाने के उद्देश्य से आज रा.स्व.संघ से प्रेरित हजारों लाखों कार्यकर्ता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अहर्निश साधनारत हैं और अपेक्षित सफलता अर्जित कर रहे हैं।

साधना सघनता का ही प्रतिफल है कि आज (वर्ष 2014) रा.स्व. संघ द्वारा दीक्षित संस्कारित कार्यकर्ता संपूर्ण भारत में संचार कर रहे हैं। तेजोमय नक्षत्र की भाँति भारत सरकार, शासन, सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्षस्थ आसन पर विराजमान हैं। समाज जीवन के अनेक क्षेत्रों में संघ द्वारा प्रेरित संगठन शीर्ष पर हैं। आज अगर मा. ठेंगड़ी जी जीवित होते और भगवामय हो चुके भारत को अपने चक्षुओं से देखते तो कैसे अपने आनंद को प्रकट करते। ऐसे अवसरों पर महापुरुषों की प्रतिक्रिया कैसी संयत और कृतज्ञतापूर्ण रहती है उसका स्वयं ठेंगड़ी जी ने अपने एक संस्मरण में एक प्रेरक प्रसंग का वर्णन 'पूर्वसूत्र' पुस्तिका में इस प्रकार किया है :-

कृतज्ञता

"नागपुर के रेशीमबाग में 17 मार्च 1997 को प्रांत-प्रचारकों की बैठक चल रही थी। उसके पूर्व नागपुर महानगरपालिका के निर्वाचन में भाजपा को नेत्रदीपक यश प्राप्त हुआ था और भाजपा का एक तरुण कार्यकर्ता देवेन्द्र फणनवीस नागपुर का महापौर निर्वाचित हुआ था। नागपुर में अब तक जितने महापौर हुए उन सबमें वह कम आयु का था। देवेन्द्र संघ का नियमित स्वयंसेवक था। उसके पिता गंगाधरराव फणनवीस भी बाल्यावस्था से ही स्वयंसेवक थे। देवेन्द्र का सार्वजनिक सत्कार उस दिन एक विशाल सार्वजनिक सभा में श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा किया गया था। वह कार्यक्रम समाप्त करके श्री आडवाणी, महापौर तथा भाजपा के स्थानीय एवं प्रादेशिक नेता रेशीमबाग में आए थे। वहाँ सबका चायपान समाप्त होने के पश्चात श्री आडवाणी का सभी प्रांत-प्रचारकों के साथ अनौपचारिक रूप से बातचीत का कार्यक्रम था। उस अवसर पर नवनिर्वाचित महापौर का छोटा-सा भाषण हुआ। उसमें से उनका स्वयंसेवकत्व प्रकट हो रहा था। तत्पश्चात श्री आडवाणी का संक्षिप्त भाषण हुआ। इस तरह के विजयोत्सव की ओर संघ का सच्चा स्वयंसेवक रहते हुए राजनीतिक दल का अध्यक्ष पद संभालने वाले व्यक्ति ने किस दृष्टि से देखना चाहिए, यह उनके भाषण में से उत्तम रीति से प्रकट होता था। कुल मिलाकर वायुमंडल आनंद का था। सभी के मन में आनंद था। कुछ लोगों के मन में हर्षोन्माद भी था। इस समय हम यशस्वी हुए, अब इसके पश्चात "यावच्चन्द्रदिवाकरो" नागपुर नगर का नेतृत्व अपने दल के पास ही रहेगा, यह विश्वास उनके मन में था। इस तरह के हर्षोन्माद से ग्रस्त लोगों की संख्या कम थी। बाकी सबके मन में सात्विक आनंद था।

उस समय मेरे मन में अकस्मात् यह कल्पना आई कि यह समारोह देखने के लिए पू. डॉ. हेडगेवार यहाँ अशरीरी अवस्था में उपस्थित हैं और उनको भी इस अवसर पर बहुत आनंद हो रहा है। यह सब उनकी समाधि के निकट ही हो रहा था।

उनके आनंद का कारण? इसके पश्चात 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' नागपुर नगर संघ के लिए सुरक्षित हो गया है, इस कल्पना से उनको आनंद हुआ होगा क्या? यह तो संभव नहीं है। जो बात सर्वसाधारण नागरिक जानता है, वह पूज्य डॉक्टर जी नहीं जानते होंगे, यह कैसे संभव है? सभी अनुभवी लोग जानते हैं कि राजनीतिक क्षेत्र में यशापयश चिरकालिक नहीं हो सकता। दुनिया में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में कोई भी एक राजनीतिक दल सतत (Continuously) एक सौ वर्ष तक सत्ता में रहा है। सत्ताधारी दल समय-समय (Periodically) पर बदलते रहते हैं। लिबरल - कॉन्झर्वेटिव, लेबर-कॉन्शर्वेटिव्ह, रिपब्लिकन डेमॉक्रॉटिक रिपब्लिकन अदल-बदल होता रहता है। "यावच्चन्द्र-दिवाकरौ" वाक्यप्रयोग राजनीतिक क्षेत्र में नहीं चल सकता। आज यश, कल अपयश, परसों फिर से यश, तदनंतर फिर से अपयश, के परिवर्तन लगातार होते ही रहते हैं। इस कारण किसी भी एक विजय से हर्षोन्माद होना लड़कपन है।

यह वस्तुस्थिति होते हुए भी इस अवसर पर डॉक्टर जी को आनंद क्यों हुआ होगा?

इस आनंद के लिए संदर्भ राजनीतिक नहीं, अन्य कुछ है।

मुझे ऐसा लगा कि इस समय डॉक्टरजी को दिनांक 2 फरवरी 1948 को इस स्थान पर हुई घटना याद आई होगी।

गांधी हत्या के बाद सत्ताधारी दल ने जानबूझकर निर्लज्जातापूर्वक संघ के खिलाफ झूठा प्रचार करके जनता को भड़काया और सभी प्रचार माध्यमों का उपयोग कर जनता को गुमराह किया। हत्या की घटना घृणास्पद थी ही। इस कारण लोग उत्तेजित भी थे। तत्पश्चात जो दुःखदायी घटनाचक्र चला वह सर्वविदित है। संघ तथा संघ कार्यालयों पर आक्रमण किए गए।

इस पृष्ठभूमि के कारण डॉक्टरजी को इस अवसर पर आनंद होना स्वाभाविक ही था कि एकदम गलत छोर (Extreme) पर गया जनमानस का लंबक (पेंडुलम) 49 वर्षों के बाद प्रथम बार ही सुवर्णमध्य पर आया है। वह इस समय जिस बिंदु पर है उसी बिंदु पर वह हमेशा अखंड कायम रहेगा, ऐसा मानना डॉक्टरजी जैसे मानसशास्त्रज्ञों के लिए असंभव था। जनमानस अस्थिर, चंचल रहता है। विभिन्न घटनाओं का परिणाम उस पर होता रहता है। इस कारण आज सुवर्णमध्य बिंदु पर आया हुआ जनमानस का लंबक काल के प्रवाह में कभी इस ओर तो कभी उस ओर, तो कभी विपरीत दिशा में मार्गक्रमण करता रहेगा यह आकलन करने के लिए बहुत बुद्धिमानी की आवश्यकता नहीं थी। किंतु लगभग पाँच दशक की दीर्घकालावधि के पश्चात यह लंबक प्रथम बार सुवर्णमध्य बिंदु पर आया है, यह बात अति संतोषजनक थी।

इसके पश्चात मन में विचार आया कि ऐसे सात्विक आनंद के अवसर पर डॉक्टरजी ने किस-किसका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण किया होगा? क्योंकि ऐसा सार्वत्रिक अनुभव है कि ऐसे समय महापुरुष स्वयं विनम्र हो जाते हैं और उपकार करने वाले सभी छोटे-बड़े व्यक्तियों का हृदयपूर्वक स्मरण करते हैं।

आज की स्थिति में यह विषय अति औचित्यपूर्ण अतएव महत्वपूर्ण है। किंतु इस विषय को पूर्ण न्याय देना अब अथवा इसके पश्चात कभी भी संभव नहीं है। उल्टे, यह संभावना अधिक है कि जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा वैसे-वैसे अपने स्मरण में जो नाम हैं वे उत्तरोत्तर विस्मृति के गर्त में चले जाएंगे और डॉक्टरजी के जीवन का, कार्य का तथा संपर्क का संपूर्ण क्षेत्र शब्दबद्ध करना अधिकाधिक अव्यवहार्य हो जाएगा। मेकॉले ने ऐसा कहा है कि, "जिस पीढ़ी के लोग अपने पूर्वजों के श्रेष्ठ कार्यों का स्मरण नहीं रखते उस पीढ़ी के लोगों के हाथ से ऐसा कोई भी महान कार्य नहीं हो सकेगा जिसका स्मरण उनके वंशज करेंगे।" इसीलिए सभी जीवमान तथा विजीगीषु देशों में अपना संपूर्ण इतिहास उसकी सभी बारीकियों के साथ खोजने तथा उसे प्रकाशित करने का प्रयास अखंड चलता रहता है।"

उक्त प्रसंग समापन के पूर्व मा. ठेंगड़ी जी ने उन समस्त संस्थाओं, महानुभावों व कार्यकर्ताओं का सादर नामोल्लेख किया है जिन्होंने पूज्य डाक्टर जी द्वारा संघ निर्माण के प्रारंभिक कठिन कालखंड में किसी भी रूप में पू. डाक्टर जी का सहयोग, समर्थन या सहायता की थी। पू. डाक्टर जी की भाँति कृतज्ञता का यही देवी गुण श्री ठेंगड़ी जी में भी कूट-कूट कर भरा था। आज अगर ठेंगड़ी जी जीवित होते तो नामोल्लेख के लिए कदाचित सैंकड़ों कार्यकर्ताओं की एक लंबी सूची उनके पास होती। वह सभी का कृतज्ञतापूर्वक सादर स्मरण करते। कृतज्ञता के तो वे वास्तव में उत्तुंग श्रृंग महामेरू ही थे।

निरासक्त कर्मयोगी : बहु आयामी व्यक्तित्व

दत्तोपंत जी के नेतृत्व में शून्य से शिखर की ओर जो संगठन यात्रा प्रारंभ हुई उस के प्रारंभिक काल का परिवेश, परिदृश्य और सामाजिक परिप्रेक्ष्य अत्यंत प्रतिकूल था। श्री ठेंगड़ी जी के नेतृत्व की तेजस्विता, राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता, व्यवहार की शुद्धता, आत्मीयता और आदर्शवादिता का बल संगठन को प्राप्त था। अतः कदम आगे ही आगे बढ़ते चले गए। उस समय की स्थिति और श्री ठेंगड़ी जी के व्यक्तित्व के बारे में अगर सूत्ररूप में बताना हो तो उसे इस प्रकार कह सकते हैं :-

· वर्ष 1949 तक विश्व का एक तिहाई भाग लाल था और तब भारत में एक नारा था- लाल किले पर लाल निशान-माँग रहा है हिंदुस्तान। उस समय राष्ट्रीय शक्ति को श्रमिक क्षेत्र में पाँव रखने के लिए स्थान नहीं था।

· 1920 से 1947 तक के इस कालखंड में अनेकों श्रम संगठन बने, टूटे, फिर बने। परंतु जुलाई 1955 को भारतीय मजदूर संघ शून्य से प्रारंभ हुआ जो आज देश का प्रथम क्रमांक का केंद्रीय श्रमिक संगठन है। वह आई. एल. ओ. एवं भारत सरकार की विभिन्न समितियों में श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करता है।

· श्रमिक क्षेत्र में भारत माता की जय, वंदेमातरम् कहना अपराध माना जाता था। विरोधी मजाक करते थे। झगड़ा व मारपीट भी हो जाती थी। आज मजदूर क्षेत्र में चहुँओर भारत माता की जय का नारा लगाया जाता है।

· बी.एम.एस. की क्या पहचान, त्याग, तपस्या और बलिदान, लाल गुलामी छोड़कर बोलो वंदेमातरम्। यह उद्घोष प्रचलित किए।

· भगवा ध्वज को मान्यता नहीं थी। मजदूरों का झंडा लाल है यह मान्यता थी परंतु आज देश के मजदूरों ने भगवा ध्वज को मान्य किया है। यह सर्वविदित है।

· राष्ट्र, उद्योग, श्रमिकों का हित ध्यान में रखकर श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण, राष्ट्र का औद्योगीकरण व उद्योगों का श्रमकीकरण, यह विचार दिया।

· श्रमिक संगठनों की राष्ट्रीय अभियान समिति के गठन में मा. दत्तोपंत जी की मुख्य भूमिका रही। उन्होंने विचाराधारा से कभी समझौता नहीं किया। हमारे कम्युनिस्ट भाई आज भारत माता की जय, वंदेमातरम् कहकर देशभक्त मजदूरों से तालियाँ लेते हैं।

· दत्तोपंत जी एक आदर्श स्वयंसेवक थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक एवं भारत के श्रमिकों के नेता थे। 1964-1976 तक राज्यसभा सदस्य हेतु उनका चयन हुआ। इस कालखंड में संसदीय कार्य पर भी उन्होंने अपनी छाप छोड़ी। सभी पार्टी नेताओं तथा विभिन्न श्रमिक संगठनों से आत्मीय संबंध थे।

· दत्तोपंत जी ने आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड छोड़कर सारे विश्व का भ्रमण किया। इजराइल के नागरिक जो वर्षों तक भारत में रहकर गए थे उनसे पारिवारिक अच्छे संबंध बनाकर रखे।

· वर्ष 1893 शिकागो में स्वामी विवेकानंद उद्बोधन के शताब्दी 1993 वर्ष पर वाशिंगटन डी. सी. में उन्होंने प्रबुद्ध नागरिकों के सामने अर्थव्यवस्था का विश्लेषण किया। उन्हें भारत के अर्थ व वैश्विक चिंतन से अवगत किया।

· भारतीय मजदूर संघ देश सेवा का माध्यम है। राष्ट्र एवं समाज हित के अंतर्गत उद्योग हित, मजदूर हित सर्वोपरि है। यह दिशा उन्होंने संगठन के कार्यकर्ताओं को दी।

· वर्ष 1975 में भारतीय मजदूर संघ के 18-20 अप्रैल अमृतसर अखिल भारतीय अधिवेशन में अपने भाषण में उन्होंने संकेत दिया था कि आने वाला समय राष्ट्र के लिए संकटमय हो सकता है जिसका उदाहरण 25 जून 1975 का आपात्काल हम सबके सामने है।

· आपात्काल में संघर्ष समिति के सचिव श्री नानाजी देशमुख एवं तत्पश्चात श्री रवींद्र वर्मा की गिरफ्तारी के पश्चात दत्तोपंत जी ने इस दायित्व को निर्भय होकर निभाया और जनता पार्टी के गठन में पूरा योगदान दिया।

· उस समय कई वरिष्ठों द्वारा आग्रह किया गया कि दत्तोपंत मंत्री अथवा सांसद बनें परंतु उन्होंने शालीनता के साथ उक्त निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया।

· भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रस्तावित सम्मान 'पद्मभूषण' बड़ी शालीनता व विनम्रतापूर्वक अस्वीकार किया। कहा कि जब तक डॉ. हेडगेवार जी,संस्थापक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं परमपूजनीय श्री गुरुजी को 'भारत रत्न' सम्मान से सम्मानित नहीं किया जाता तब तक इसे स्वीकार करना मेरे लिए उचित नहीं है।

· सामाजिक कार्यकर्ताओं को पद का मोह नहीं करना चाहिए इसका आदर्श स्वयं उन्होंने अपने ऊपर लागू किया और आपात्काल 1975 में सभी पदों से मुक्त होकर बिना किसी पद के, मार्गदर्शक के नाते अंत समय तक समाज व संगठन कार्य किया। कई प्रमुख संगठनों को मार्गदर्शन देकर एक आदर्श स्वयंसेवक का उदाहरण प्रस्तुत किया। नये कार्यकर्ताओं को आगे लाना एवं पुराने कार्यकर्ताओं को एक मार्गदर्शक के नाते काम करना चाहिए। ऐसा आग्रह वे करते थे। उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत नाम से धन संग्रह न करना - संगठन निधि के नाते करना, व्यक्ति के नाम से नारे नहीं लगाना, भारत माता की जय, देशभक्त मजदूरों एक हो एक हो, आदि ऐसे आदर्श नारे प्रस्तुत किए।

· आर्थिक शुचिता का अंत तक पालन किया। किसी भी प्रकार का आर्थिक व्यवहार अनुचित नहीं होने दिया तथा कार्यकर्ताओं को भी इसका आग्रह किया।

· उनका आग्रह रहता था कि व्यक्तिगत निर्णय कितना भी ठीक हो, लेकिन सामूहिक निर्णय यदि ठीक न भी लगे तो भी उसे ही मानना चाहिए। इसका एक उदाहरण है - मा. दत्तोपंत जी भारतीय मजदूर संघ की स्थापना के लिए जब चले थे तो नाम सोचा था कि बैठक में चर्चा से "भारतीय श्रमिक संघ" नाम रखेंगे किंतु अधिकांश लोगों ने कहा कि हमें श्रमिक शब्द उच्चारण में कठिनाई आएगी अतः 'भारतीय मजदूर संघ' नाम ठीक रहेगा। दत्तोपंत जी ने सामूहिक निर्णय को ही स्वीकार किया।

· ठेंगड़ी जी के अनेक परिवारों व संगठनों के साथ मधुर संबंध थे। श्रमिक आंदोलन में हमारे विचारों के विरुद्ध रहने वाले संगठनों के नेताओं के बारे में वे कहते थे कि ये तलाक मैरिज है। दिन भर हमारे विरोधियों के साथ सभी प्रकार की मारपीट एवं संघर्ष के बाद रात्रि में वे सारे विरोधी बंधु दत्तोपंत जी के साथ मजदूर आंदोलन की समस्याओं पर दिशा निश्चित करने के लिए सलाह मशविरा करने के लिए साऊथ एवेन्यू निवास पर बैठक करते थे। दत्तोपंत जी कहते थे कि राष्ट्रहित एवं मजदूर हित के लिए हम शैतान से भी हाथ मिलाएंगे, ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं।

· दत्तोपंत ठेंगड़ी यह हमारे श्रमिकों के नेता हैं यह वामपंथी भाईयों ने स्वीकारा।

· दत्तोपंत जी के विचार, गैर राजनैतिक श्रम संगठन, को विश्व स्तर पर मान्य किया गया। रूस की राजधानी मास्को में वामपंथ समर्थक विश्व फैडरेशन आफ ट्रेड यूनियन की कांफ्रेंस में भा.म.सं. प्रतिनिधि ने गैर राजनीतिक श्रम संगठन का प्रस्ताव रखा। विश्व फैडरेशन ने राजनैतिक मोर्चा को खारिज किया और एक नया महासंघ बनाया जो गैर राजनैतिक था। नाम रखा जनरल कान्फैडरेशन ऑफ वर्ल्ड ट्रेड यूनियन। लाल के स्थान पर सफेद झंडा लहराया।

· वर्ष 1985 में प्रथम बार किसी राष्ट्रवादी श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ के प्रतिनिधि मण्डल को चीन ने दत्तोपंत जी के नेतृत्व में आमंत्रित किया। हमारे भारत के कम्युनिस्ट भाईयों को काफी कष्ट हुआ। आज भी हमारा प्रतिनिधि चीन के आमंत्रण पर प्रतिवर्ष वहाँ जाता है।

· देश संक्रमण काल से गुजर रहा है। दत्तोपंत जी देश की स्वतंत्रता पूर्व से ही हमेशा परिस्थिति की समीक्षा करते थे। समय-समय पर अपने विचारों को कार्यक्रम के माध्यम से प्रगट करते रहे। देश पर आए हुए संकट को देखकर मार्गदर्शन किया।

· वर्ष 1982 में ही विदेशियों एवं सरकार की मंशा को भाँप लिया और नीतियों का विरोध करना प्रारंभ किया। सरकार की 1991 की नई आर्थिक नीतियों के विरोध में भारत को आर्थिक गुलामी से बचाने एवं विदेशी शक्तियों को रोकने के लिए संघर्ष की घोषणा की।

· आर्थिक स्वतंत्रता की लड़ाई के रूप में भारत सरकार, विश्व के पूँजीपतियों, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, डंकल प्रस्ताव, विश्व व्यापार संगठन पर दबाव हेतु लगातार संघर्ष दत्तोपंत जी अपने जीवन के अंत तक करते रहे यह सर्वविदित है।

· दत्तोपंत जी कभी-कभी कहते थे कि हमारी संगठन शक्ति इतनी बढ़नी चाहिए कि सरकार किसी की भी रहे उसे हेडगेवार भवन मार्गदर्शन के लिए आना ही पड़े। इतना आत्मविश्वास।

· दत्तोपंत जी देवता के रूप में अपनी माताजी के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे। वैसे उनके जीवन में डॉ. हेडगेवार जी एवं परम पूजनीय गुरुजी का वैचारिक प्रभाव था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपना अधिष्ठान मानते थे।

· कई संगठनों के संस्थापक एवं मार्गदर्शक रहे। आज उनका इतना विपुल विचारधन, विविध विषयों पर 50 के लगभग पुस्तकें एवं दर्जनों किताबों की प्रस्तावनाएँ, शोध पत्र आदि लिखे हैं। जीवन के सांध्यकाल में लिखी उनकी कार्यकर्ता (अधिष्ठान, व्यक्तित्व), डॉ. अंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा और आज के आर्थिक नीति पर थर्ड वे (तीसरा विकल्प) पुस्तकें विशेष चर्चित हुई हैं।

· विश्व का भ्रमण करते समय दोनों विचार धाराओं का चिंतन किया। आखिर में, उन्होंने, तीसरा विकल्प दे सकते हैं, यह घोषणा की (थर्ड वे पुस्तक)। चुनौतियों का हमारे पास समाधान है यह बराबर अपने विचारों के माध्यम से प्रगट करते रहे। इसके लिए स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की जो हम सबकी जानकारी में है।

· दत्तोपंत जी कहा करते थे कि सरकार आएगी, जाएगी, परंतु राष्ट्र चिरंतन है तथा स्वयंसेवक और कार्यकर्ता यह स्थायी हैं। वे कहते थे कि कभी भी दूरदर्शन और समाचार पत्र देखकर अपनी शक्ति का आकलन न करें। वे कभी भी संकट से घबराए नहीं। आपात्काल में आत्मविश्वास के साथ बात रखते थे। कार्यकर्ता को विश्वास के साथ कार्य में लगाते थे।

· पंडित दीनदयाल उपाध्याय पर दो खंडों में विविध विषयों पर पुस्तक का लेखन हुआ है। उसकी श्री ठेंगड़ी द्वारा लिखी प्रस्तावना है 164 पृष्ठ की, विषय है 'अथातो तत्व जिज्ञासा'। पंडित दीनदयाल जी के जीवन की अनेकों प्रकार की घटनाएँ इस पुस्तक में समाहित हैं।

· भारतीय संस्कृति के इतिहास में राष्ट्र के लिए आत्म बलिदान की परंपरा रही है। अपने गुरुओं का इतिहास हम जानते हैं। वर्ष 1984 में इन्दौर में भारतीय मजदूर संघ का अभ्यास वर्ग था। वर्ग के एक सत्र में मा. दत्तोपंत जी ने कहा कि भारतीय मजदूर संघ को खड़ा करने में जिन कार्यकर्ताओं ने आत्म बलिदान किया ऐसे कार्यकर्ताओं की सूची बनाएं। उपस्थित कार्यकर्ता एक-एक नाम गिनाते गए और मा. बड़े भाई (रामनरेश सिंह) नाम लिखते गए, 120 की संख्या आई।

· श्री दत्तोपंत जी की Legacy और Mission पुस्तिका में उनकी नेतृत्व कुशलता अनुपम है, अत्यंत शक्तिशाली तर्क (मुद्दा) अत्यंत नम्र और सरल शब्दों में व्यक्त करने में वह महारथी थे। 1964-1976 की राज्यसभा में वे श्रमिकों के एकमात्र जागरूक रक्षक थे। राष्ट्र पुनरुत्थान की क्षमता हिंदू जीनियस (प्रतिभा) में ही संभव है। ऐसी ऋषि मुनियों की परंपरा के विषय में उनकी दृढ़ मान्यता थी।

· छठवीं राष्ट्रोत्थान व्याख्यान माला बंगलोर के चार व्याख्यान पुष्पों (4 अप्रैल से 8 अप्रैल 1973) में दिशादर्शन और अंतिम लक्ष्य विस्तार पूर्वक करते हुए "पाश्चिमात्यों की नकल व्यर्थ है" ऐसा सोदाहरण सिद्ध किया। इस व्याख्यान माला के संदर्भ में अपनी प्रामाणिक मान्यताओं को स्पष्ट करते हुए कहा कि :-

· हमारे द्रष्टाओं ने मानवता के प्रश्नों को मानवीय, तर्क शुद्ध और वैज्ञानिक दृष्टि से सुलझाने का प्रयत्न किया है।

· आज भी हिंदू (जीनियस) प्रतिभा में वे सब छिपी शक्तियाँ विद्यमान (मौजूद) हैं जो राष्ट्रोत्थान के लिए आवश्यक होती हैं।

· आज की विनाशी परिस्थिति का मूल कारण संकल्प और पुनरुत्थानी दृष्टि की स्पष्टता का अभाव है।

· भविष्य की संपन्नता (उज्जवलता) और वैभव के विषय में निराशा के लिए कोई स्थान नहीं है।

· "एकात्ममानववाद" के सिद्धांत को ठेंगड़ी जी ने मजदूर क्षेत्र में सिद्ध कर दिखाया। वर्ग संघर्ष को वर्ग समन्वय और वर्ग सहकार के विचार द्वारा परास्त किया। जिस क्षेत्र में भगवा रंग अवान्छनीय माना जाता था वहाँ अनगिनत श्रमिकों ने भगवा कंधे पर लेकर राष्ट्रोत्थान और उत्कर्ष की यात्रा प्रारंभ की। बाइबल, कुरान और अन्य धर्मों के ग्रंथों से उपयुक्त उदाहरण देकर "सर्वपंथ समादर" और समरसता का जागरण करते हुए एकता और एकात्मता के मूल मंत्र को आचरण द्वारा स्पष्ट किया।

· गजेंद्र गडकर श्रम आयोग से लेकर अन्य अनेक आयोगों, समितियों, लोकसभा, राज्यसभा आदि सभी स्तरों पर भारतीय मजदूर संघ का विचार-दर्शन प्रस्तुत करते हुए विदेशी प्रेरणा केंद्र वाली विचारधाराओं को परास्त किया।

· जहाँ-जहाँ ठेंगड़ी जी जाते या रहते वह उनका 'घर' हो जाता और उनका घर यह सभी कार्यकर्ताओं का अपना स्वयं का घर बन जाता। 57-साऊथ एवेन्यू देश भर के कार्यकर्ताओं का दिल्ली में 12 वर्ष तक अपना स्वयं का निवास स्थान रहा।

· मोर्चा हो, विराट प्रदर्शन हो, बैठकें हों, राष्ट्रीय अधिवेशन हो, किसी न्यायालयीन या ट्रिब्यूनल का केस हो, कार्यकर्ता पूर्ण विश्वास से निश्चित होकर साऊथ एवेन्यू ठहर सकते थे। एक बार तो कार्यकर्ताओं से पूरा 57 साऊथ एवेन्यू इतना भर गया कि रात को (ठंड होते हुए भी) कार्यकर्ता बाहर हरियाली (लॉन) पर भी सो रहे थे। श्री ठेंगड़ी जी रात को 2 बजे दौरे से वापिस आए तो उन्हें एक कोने में जगह खोजकर सोना पड़ा पर कोई शिकायत नहीं।

· गढ़ (किले) का सरदार (गढ़करी) प्रत्येक छः वर्ष के उपरांत बदल देना चाहिए। इस प्रकार तीन बार बदलने के पश्चात उसे एक बार पुनः स्वामी (सर्वोच्च राज्य अधिकारी) की सेवा में भेजना चाहिए जिससे उसका अहं पुष्ट न होने पाए ऐसा मराठा इतिहास के एक प्रसंग की श्री ठेंगड़ी चर्चा करते थे।

· श्री ठेंगड़ी ने कार्यकर्ताओं के लिए जितने भी पथ्य परहेज बताए उन्हें स्वयं के आचरण, जीवन में परिपालन के पश्चात ही बताया।

· साऊथ एवेन्यू , नई दिल्ली स्थित निवास पर कूलर नहीं लगाने दिया। कहते थे सभी मजदूरों के घर कूलर लगे हैं क्या?

· दिल्ली में आने-जाने के लिए कार्यकर्ताओं ने ड्राईवर सहित मोटर गाड़ी की व्यवस्था करने की बात कही तो श्री ठेंगड़ी जी ने मना कर दिया कि टैक्सी आदि उपलब्ध रहती है सो निवास पर गाड़ी बाँधने की क्या आवश्यकता है।

· कृतज्ञता का गुण उनमें कूट कूट कर भरा था। किसी ने कभी किंचितमात्र भी उपकार किया है तो उसे वह भूलते नहीं थे और समय आने पर यथेष्ट सत्कार करते थे।

· स्मरण शक्ति अद्भुत थी। चालीस वर्ष के अंतराल पर भी अगर अकस्मात् कोई कार्यकर्ता मिल गया तो उसे प्रेमपूर्वक नाम से ही बुलाते थे।

· वर्ष 1942 से वर्ष 2004 बासठ वर्ष निरंतर संघ सृष्टि के माध्यम से समाज में त्याग तपस्या के मोहमुक्त जीवंत प्रतीक, दिव्य प्रतिभा के धनी उच्च विचारों के साथ रहन सहन, सादगी, तत्व चिंतक, गहन अध्ययन-कर्ता, संघ के प्रचारक, अनेक संगठनों का सूत्रपात करने वाले, अजातशत्रु श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के आदर्शों पर चलने वाले लाखों कार्यकर्ता आज श्रमिक जगत् में भगवा झंडा कंधे पर लेकर उन्नतमस्तक सेवारत हैं। वह आदर्श पर अडिग रहे अतः लाखों कार्यकर्ताओं के लिए वह आज भी प्रेरणा पुंज हैं और आगे भी सदैव रहेंगे।

· सदस्यता सत्यापन आधार वर्ष 1989 के परिणाम स्वरूप भारत सरकार (श्रम मंत्रालय) ने भारतीय मजदूर संघ को देश का सबसे बड़ा केंद्रीय श्रमिक संगठन घोषित किया। शून्य से स्थापना (1955) से प्रारंभ कर के 35 वर्षों की कठिन संगठन यात्रा तय कर अन्य सभी श्रम संगठनों को पीछे छोड़ते हुए प्रथम क्रमांक पर पहुँचने पर देशभर के कार्यकर्ताओं में हर्षोल्लास का संचार स्वाभाविक था। यह श्री ठेंगड़ी जी के तेजस्वी नेतृत्व द्वारा संभव हुआ। अतः कार्यकर्ता उन का अभिनंदन करना चाहते थे। सम्मान समारोहों की योजना बनने लगी। श्री ठेंगड़ी जी को पता चला तो उन्होंने सख्ती से मना कर दिया, मानो कुछ हुआ ही न हो और कहा कि लक्ष्य की ओर यात्रा अभी जारी है। यात्रा का यह एक पड़ाव है, महत्वपूर्ण है, पर है एक पड़ाव ही। सर्वांगीण विकास और समरस समाज रचना का लक्ष्य अभी दूर है। चलते रहिए, आगे बढ़ते रहिए और कार्यकर्ता शिथिलता छोड़ उसी उर्जा और उत्साह के साथ पूर्ववत् पुनः संगठन कार्य में जुट गए। भा.म.सं. तब से लेकर आज (वर्ष 2014) तक अन्य समस्त प्रतिस्पर्धी श्रमिक संगठनों से कोसों आगे है और निरंतर आगे बढ़ते जा रहा है।

· वह शाहन्शाह - फकीर थे। शाहन्शाह इसलिए कि उनके एक इंगित पर हजारों लाखों रुपये देखते ही देखते एकत्रित हो सकते थे, प्राप्त कर सकते थे। फकीर इस दृष्टि से कि वे एक पैसा भी निजी रूप में अपने पास नहीं रखते थे। संग्रह का प्रश्न ही नहीं। दो चार धोती कुर्ता और हैंड बैग यही उनकी संपत्ति थी। सांसद के नाते उन्हें प्राप्त होने वाला मानधन भी संगठन कार्य ही में व्यय होता था। यहाँ तक अपनी पैतृक संपति अधिकार से भी उन्होंने स्वयं को मुक्त कर लिया था। निर्मोही, निर्लिप्त, ऋषि परंपरा के वे श्रेष्ठतम आदर्श और तपोनिष्ठ उनका त्यागमय जीवन सतत साधना का महायज्ञ था।


खंड - 1 ( भाग- 1)

सोपान - 2

1. संगठन स्थापना की पृष्ठभूमि : संदर्भ बिंदु

2. निर्माण की नींव

3. राष्ट्रभक्त मजदूरों की उमंग का प्रकट आविष्कार : भारतीय मजदूर संघ की स्थापना

4. मजदूर आंदोलन में नवयुग का सूत्रपात

5. शून्य से सृष्टि : दीप प्रकाश

6. निर्माण से प्रथम अधिवेशन तक

7. एक तपस : घोर तपस्या


संगठन स्थापना पृष्ठभूमि

संदर्भ बिंदु

भारतीय मजदूर संघ स्थापना से पूर्व का वातावरण, पृष्ठभूमि और तत्संबंधि घटनाओं का स्वयं श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी द्वारा 'आत्म कथन' में लिखित ऐतिहासिक विवरण इस प्रकार है :-

9 जुलाई 1949, इस दिन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना की घोषणा हुई। वास्तव में इस औपचारिक घोषणा के पूर्व ही विद्यार्थी परिषद यह नाम लेते हुए या न लेते हुए इसी तरह का कार्य कई प्रदेशों में चल रहा था। संघ पर लगी हुई पाबंदी हटने की उम्मीद समाप्त हो चुकी थी। इसलिए इस पाबंदी की अवधि में जगह-जगह अन्यान्य नामों से कारागार के बाहर रहने वाले स्वयंसेवकों ने दैनिक एकत्रीकरण चालू रखा था।

किंतु जून माह में एक घटनाचक्र बड़ी तेजी से चला। श्री वेंकटराम शास्त्री की मध्यस्थता से संघ पर लगाई हुई पाबंदी हटाने का सरकार ने निर्णय लिया। श्री बाबासाहेब खापर्डे, श्री मौलीचंद्रजी शर्मा आदि लोगों के प्रयास भी इसके लिए सहायक हुए। पाबंदी हटाई गई, नियमित शाखाएँ पूर्ववत चलने लगीं, परमपूजनीय श्री गुरुजी का सभी प्रदेशों में विजयी नेता के नाते जनता ने उत्स्फूर्त स्वागत किया और श्री गुरुजी ने स्थान-स्थान पर यह बात बताई कि अब पाबंदी हटी है, उधर दुनिया में कम्युनिज्म का प्रभाव बढ़ रहा है।, अपने देश में उसको रोकने के लिए सरकारी स्तर पर कांग्रेस और सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन दोनों संस्थाओं ने परस्पर सहकार्य करना चाहिए, इसलिए स्वयंसेवकों ने भी सरकार के प्रति सद्भावना रखनी चाहिए।

गांधी हत्या के पश्चात संघ पर पाबंदी आई और संघ के विरोध में प्रचंड वायुमंडल निर्माण किया गया। इस कारण सत्ताधारी कांग्रेस के भीतर जो संघ के प्रशंसक, समर्थक या सदस्य थे उनका भी संघ के समर्थन में खुलकर सामने आना संभव नहीं था। किंतु अभी न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट हुआ है कि गांधी हत्या में संघ का दूर से भी संबंध नहीं था, हमने भी बीच की अवधि में गलत-फहमी के कारण हमें जो कष्ट उठाने पड़े, कई परिवार बर्बाद हो गए, हजारों की संख्या में लोगों को जेल में डाला गया, यह सारी बातें भूलकर विशाल राष्ट्रहित की दृष्टि से कम्युनिज्म के विरोध में सरकार से सहकार्य करना चाहिए। इसके पूर्व जो भी कष्ट हुए उनको अपने ही होंठ और अपने ही दाँत ऐसा समझकर भूलना चाहिए। इस तरह से परम पूजनीय श्री गुरुजी ने सहकार्य के लिए हाथ आगे बढ़ाया। किंतु, जैसे सर्वविदित है, कोई भी राजनैतिक दल या नेता यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि देश में उनके अलावा दूसरा कोई शक्ति केंद्र निर्माण हो। इस कारण संघ के सहकार्य का लाभ सरकार ने नहीं लिया।

जैसे अभी बताया गया, 9 जुलाई 1949 को विद्यार्थी परिषद की स्थापना की औपचारिक घोषणा हुई, मुझे बंगाल से वापस बुलाया गया और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक सदस्य इस नाते और नागपुर विदर्भ के प्रदेशाध्यक्ष के नाते जिम्मेदारी लेने को कहा गया। नागपुर विदर्भ में मेरे सहकारी के नाते महामंत्री के रूप में श्री दत्ताजी डिंडोलकर और संघठन मंत्री के नाते श्री बबनराव पाठक इनकी नियुक्ति हुई।

विद्यार्थी परिषद ने नागपुर विदर्भ में सरकार के साथ अच्छे संबंध प्रस्थापित किए। मुख्यमंत्री, गृहमंत्री, अर्थमंत्री, राज्यपाल आदि सभी को अपने उत्सवों में बुलाने का क्रम विद्यार्थी परिषद ने जारी रखा। अन्नमंत्री श्री गोपालराव काले के नेतृत्व में जो अधिक अन्न उपजाओ आंदोलन चल रहा था, उसका पूरी शक्ति के साथ विद्यार्थी परिषद ने समर्थन किया। पूरे प्रदेशों में जनजागरण की दृष्टि से कार्यक्रम हुए। बड़ौदा, फेटरी और गुमथला में सरकारी योजना के अंतर्गत कंपोस्ट खाद तैयार करने के यशस्वी प्रयोग भी हुए। प्रादेशिक सरकार ने भी एक डॉक्युमेंटरी के द्वारा संगठन स्थापना पृष्ठभूमि विद्यार्थी परिषद के इन प्रयासों को उचित प्रसिद्धि दी।

विद्यार्थी परिषद कार्यकारिणी ने कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर सुयोग्य व्यक्तियों के भाषण विद्यार्थियों के लिए करवाने का विचार किया। नियमित अभ्यास क्रम में आने वाले महत्वपूर्ण विषयों पर सुयोग्य प्राध्यापकों के भाषण करवाये गए। अभ्यास क्रम के बाहर भी कुछ महत्वपूर्ण विषयों की जानकारी विद्यार्थियों को हो यह विचार कार्यकारिणी ने किया। इस हेतु जो विषय चुने गए उनमें एक था 'मध्यप्रदेश में मजदूर आंदोलन का इतिहास' इस विषय के संबंध में प्रादेशिक इंटक के अध्यक्ष श्री पी.वाय. देशपांडे इनके साथ मैं बात कॅरू यह तय हुआ। तद्नुसार मैं उनके पास गया, वैसे उनके साथ हमारा पारिवारिक संबंध भी था। (हरिजन सेवक संघ की अध्यक्षा और राज्यसभा सदस्य कुमारी निर्मला देशपांडे के वे पिताजी थे) मैंने अपना विषय उनके सामने रखा, उन्होंने गुस्से में आकर कहा कि यह सारी फिजूल बातें रहने दो, आज देश के मजदूर क्षेत्र पर सबसे बड़ा संकट कम्युनिस्टों का है। वे मॉस्को के पिटठू हैं। मजदूर क्षेत्र में उनके प्रभाव को रोकना अत्यावश्यक है। इस दृष्टि से तुम स्वयं इंटक में आ जाओ, और यहाँ कुछ जिम्मेदारी का वहन करो। मैंने कहा कि इस विषय में मैं गंभीरता से सोचूँगा।

वापस आने के बाद मैंने परमपूजनीय श्री गुरुजी को यह बात बताई। मैं तो व्यक्तिगत रूप से इंटक में जाना पंसद नहीं करता था क्योंकि इंटक के सभी नेता संघ को गांधी हत्यारे ऐसा कहते हुए निंदा करते थे। ऐसे लोगों में जाकर मैं कैसे काम कर सकूँगा? इसलिए इंटक में न जाना यह निर्णय मैंने मन में कर लिया था।

किंतु श्री गुरुजी की प्रतिक्रिया देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा कि श्री पी.वाय.देशपांडे का निमंत्रण यह हमारे लिए स्वर्ण अवसर है। मैं भी चाहता हूँ की अपने पास ऐसे भी कार्यकर्ता रहें जो मजदूर क्षेत्र में काम करने की पद्धति को जानते हों। इसलिए इस निमंत्रण को तुम स्वीकार कर लो और विद्यार्थी परिषद के साथ ही इंटक में काम करो।

कुछ दिनों के बाद श्री देशपांडेजी ने ही मुझे बताया, कि मुझे निमंत्रण देने का सुझाव गृहमंत्री श्री द्वारकाप्रसाद मिश्र का था। मेरे सभी कार्यों पर उनकी दृष्टि थी। इंटक में उस समय दो गुट हो गए थे। एक मिनिस्टेरियल और दूसरा एंटी मिनिस्टेरियल, एंटी मिनिस्टेरियल गुट के प्रमुख डॉ. डेकाते थे। वे कुशल संघठक थे। उन्होंने इंटक में अपना प्रभाव बढ़ाया था। उनकी तुलना में दूसरा कोई भी कुशल संघठक मिनिस्टेरियल गुट में नहीं था। इस कारण मिनिस्टेरियल गुट कमजोर हो गया था। इसके लिए क्या किया जाय यह चर्चा श्री देशपांडेजी और श्री द्वारका प्रसादजी इनमें हुई। इस चर्चा में द्वारका प्रसाद जी ने कहा कि, देशपांडेजी मुझे इंटक में निमंत्रित करें। उन्होंने यह भी विश्वास प्रकट किया कि यह व्यक्ति डॉ. डेकाटे का मुकाबला सफलतापूर्वक कर सकेगा। इस पार्श्वभूमि पर देशपांडेजी ने मुझे आमंत्रित किया।


इंटक में पदाधिकारी

श्री ठेंगड़ी आगे लिखते हैं कि आमंत्रित करना तो आसान था। किंतु संगठन में स्थान दिलाना आसान नहीं था। मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक हूँ यह सब जानते थे और इसलिए इंटक के सभी कार्यकर्ता मेरे नाम के विरोध में थे। ढाई महीने तक किसी भी यूनियन में पैर रखना संभव नहीं हुआ। उसके पश्चात व्यक्तिगत अच्छे संबंध होने के कारण, मध्यप्रदेश राष्ट्रीय मोटर कामगार संघ के महामंत्री श्री हरिभाऊ पुसतकर ने हिम्मत करके अपनी यूनियन में मुझे अध्यक्ष चुन लिया। पूरा मध्य प्रदेश इस यूनियन का कार्यक्षेत्र था और मैं इस नाते विदर्भ, नागपुर तथा महाकोशल का दौरा कर सका और विभिन्न स्थानों पर अपने लिए अनुकूल लोगों को संपर्क में ला सका।

इस यूनियन में अच्छा काम होता हुआ देखकर अन्य कुछ यूनियनों को मुझे पदाधिकारी बनाने की इच्छा हुई। खेतिहर मजदूर संघ के प्रधान श्री राजाराम महाले कट्टर संघ विरोधी थे। किंतु उन्होंने यूनियन के महामंत्री के नाते मुझे लिया। इसी तरह की बात टेक्सटाईल वर्कर्स फेडरेशन, आदि अन्य संस्थाओं में हुई। कुल मिलाकर नौ यूनियनों में मुझे पदाधिकारी बनाया गया। श्री देशपांडेजी ने प्रदेश के सभी यूनियनों की ओर से सरकार के साथ और मालिकों के साथ वार्ता करने की दृष्टि से बनायी गयी निगोसिएशन कमेटी में श्री गोपालराव पाठक को अध्यक्ष के नाते और मुझे मंत्री के नाते रखा। व्यवहारतः श्री पाठकजी अन्य विविध कार्यों में संलग्न होने के कारण निगोसिएशन कमेटी का पूरा काम मुझे करना पड़ा। इस तरह कार्य देखकर श्री देशपांडेजी, श्री द्वारका प्रसादजी मिश्र, श्री रविशंकरजी शुक्ल तथा राज्यपाल भी प्रसन्न थे।

पूजनीय श्री गुरुजी का यह आग्रह था कि केवल इंटक की कार्य पद्धति जानना पर्याप्त नहीं है। कम्यूनिस्ट यूनियनस् और सोशलिस्ट यूनियनस् की कार्यपद्धति भी जाननी चाहिए और इसके लिए उनके यूनियनों में प्रत्यक्ष कार्य करने का अनुभव लेना चाहिए। इस दृष्टि से हम प्रयत्न में लगे।

अन्य यूनियनों में अनुभव

पोस्ट ऐंड टेलिग्राफ में कई यूनियनें काम कर रही थीं। सरकार ने इस डिपार्टमेंट में एक ही फेडरेशन हो ऐसा निर्णय किया और इस दृष्टि से नेशनल फेडरेशन ऑफ पी एंड टी एम्प्लॉईज (NFPTE) की स्थापना की और यह एकमात्र मान्यताप्राप्त संस्था बन गई। सरकार का अंदाजा था कि इस फेडरेशन में स्वाभाविक रूप से कांग्रेस के नेताओं को नेतृत्व प्राप्त होगा। किंतु यह कल्पना गलत निकली। इस फेडरेशन और बहुसंख्य यूनियनों पर कम्युनिस्टों ने कब्जा जमाया। कांग्रेस या इंटक के किसी भी नेता को फेडरेशन में स्थान नहीं था। फेडरेशन के अध्यक्ष श्री दादा घोष और महामंत्री श्री दलवी थे।

नागपुर में आर.एम.एस क्लास III में स्वयंसेवकों की संख्या अच्छी थी। उन्होंने सोचा कि यद्यपि फेडरेशन पूर्ण रूपेण कम्युनिस्टों के हाथ में है तो भी आर.एम.एस III के डिव्हीजन पर हम अपना कब्जा जमाएं। इस दृष्टि से एक डिव्हीजन के पदाधिकारियों के चुनाव के समय अध्यक्ष के लिए उन्होंने मेरा नाम सूचित किया। तब तक श्री एन.जे. अय्यर इसके महामंत्री थे। (आगे चलकर ऑल इंडिया फेडरेशन के भी वे प्रमुख संचालक बन गए)। चुनाव के समय काफी संघर्ष हुआ किंतु मतदान के समय मुझे ज्यादा मत मिले इसके बाद अन्यान्य पदाधिकारियों का भी चुनाव करना था। किंतु श्री अय्यर बीच में ही खड़े हो गए, उन्होंने कहा कि हमने चुनाव के समय विरोध किया। किंतु यदि अध्यक्ष के नाते ठेंगड़ी जी चुनकर आए हैं तो अच्छा होगा कि हम अन्य पदाधिकारियों का चुनाव न करते हुए श्री ठेंगड़ी जी को ही अधिकार दें कि वे अब पदाधिकारी तथा कार्यकारिणी की नियुक्ति अपनी इच्छा से करें और कल की बैठक में इन नामों की घोषणा ठेंगड़ी जी को करनी चाहिए।

यह सब लोग जानते थे कि मेरी विजय के लिए सब स्वयंसेवकों ने और विशेष रूप से श्री भय्या जी कानगे ने परिश्रम किए थे। इसके कारण सब सोचते थे कि मैं श्री भय्याजी कानगो को ही महामंत्री के नाते नियुक्त करूंगा।

दूसरे दिन की सभा में मैंने पदाधिकारियों की घोषणा करते समय महामंत्री के पद की घोषणा की, सबको यह पहली ही घोषणा सुनकर आश्चर्य हुआ। क्योंकि मैंने इस पद के लिए श्री एन.जे. अय्यर का ही नाम घोषित किया। सबके लिए यह आश्चर्य की बात थी। और फिर जब कार्यकारिणी की घोषणा की उसमें कुछ कम्युनिस्ट कार्यकर्ता का नाम घोषित किया। यह उल्लेखनीय है कि श्री एन.जे.अय्यर मेरी अध्यक्षता की अवधि में हर तरह से मेरा साथ देते रहे। उनका और मेरा यह सहयोग कम्युनिस्टों के लिए तथा संघ के लोगों के लिए एक आश्चर्यकारक घटना प्रतीत होती थी। अगला अधिवेशन इटारसी में हुआ। वहाँ कांग्रेस के एक नेता श्री कोटक का नाम कांग्रेसियों ने अध्यक्ष पद के लिए सुझाया। इसमें भाषा के आधार पर उन्होंने प्रचार किया। मराठी विरुद्ध हिंदी यह आधार था। इसलिए सभी हिंदी सदस्यों ने श्री कोटक का समर्थन किया और मैं असफल रहा। किंतु इस चुनाव में यह देखकर सबको आश्चर्य हुआ कि श्री एन.जी. अय्यर तथा उनके कम्युनिस्ट साथियों ने मेरा समर्थन किया।

यहाँ एक बात उल्लेखनीय है आगे चलकर 1977 में पी. ऐंड टी में भी भारतीय मजदूर संघ की यूनियन स्थापित हुई। स्वाभाविक रूप से कम्युनिस्ट फेडरेशन और बी.एम.एस. की फेडरेशन इन दोनों में जगह-जगह संघर्ष चलता था। बी.एम.एस. के फेडरेशन के अध्यक्ष श्री आंबटकर के निवृत्त होने के पश्चात उनको विदाई देने का कार्यक्रम नागपुर में था। उनको विशेष रूप से निमंत्रित किया गया था। वे उपस्थित भी हुए। मैंने कार्यकर्ताओं को बताकर एक ज्यादा कुर्सी मंच पर लगाई। वास्तव में आंबटकरजी और अय्यर परस्पर विरोधी फेडरेशन नेता थे किंतु हमने उनको मंच पर एक साथ कुर्सी पर बिठाया। मैंने पहले से, किसी को न बताते हुए यह योजना की थी कि श्रीफल, शाल और फेटा परदे के पीछे लाकर रखा जाए। कार्यक्रम में प्रथम आंबटकरजी का सत्कार हुआ और उनका भाषण भी, उसके पश्चात मैंने खड़े होकर घोषित किया कि इसके बाद हम श्री अय्यर का भी ऐसा ही सत्कार करने वाले हैं। श्री अय्यर जिनको पहले से ही मंच पर बिठाया गया था, उनको भी आश्चर्य हुआ। बाद में उनका भी श्रीफल, शाल तथा फेटा देकर श्री आंबटकरजी के समान ही सत्कार किया गया।

प्रतिस्पर्धी फेडरेशन होने के कारण इन दोनों में जगह-जगह संघर्ष होते रहे किंतु इसके बावजूद श्री अय्यर तथा उनके साथियों का व्यक्तिगत रूप से हमारे साथ संबंध मधुर रहा।

(स्मृतिगंध, वि.प्र., पृ. 5-7)


निर्माण की नींव

राष्ट्रवादी शक्ति के मन में श्रमिक क्षेत्र में संगठन निर्माण का बीज कब निर्मित हुआ कहना कठिन है। किंतु नागपुर रा.स्व.संघ की एक बैठक में पं.दीनदयाल उपाध्याय ने मजदूर क्षेत्र में साम्यवादियों की बढ़ती हुई गतिविधियों के बारे में चर्चा छिड़ने पर इस बात पर बल दिया कि श्रमिक क्षेत्र में राष्ट्रवादी संगठन निर्मित किया जाना चाहिए। श्री उपाध्याय जी के इस सुझाव का बैठक में उपस्थित सभी ने अनुमोदन किया। प्रश्न था कि संगठन निर्माण का दायित्व किसे दिया जाए। इसके उत्तर में श्री उपाध्याय ने बैठक में उपस्थित श्री ठेंगड़ी की ओर इंगित करते हुए कहा कि इन्हें ट्रेड यूनियन का अनुभव प्राप्त है और इस कार्य को यह भली-भाँति संभाल सकते हैं। इस प्रकार इस ऐतिहासिक कार्य का बीज बो दिया गया जो 23 जुलाई तिलक जयंती के शुभ दिन 1955 को भोपाल में श्री दतोपंत ठेंगड़ी द्वारा भारतीय मजदूर संघ निर्माण घोषणा के साथ प्रस्फुटित हुआ।

राष्ट्र के सर्वाङ्गीण विकास और परम वैभव लक्ष्य प्राप्ति हेतु यह आवश्यक ही था कि राष्ट्रवादी शक्तियाँ देश के विशाल श्रमिक समुदाय की दयनीय स्थिति के दृष्टिगत उन के उत्थान हित कोई रचनात्मक कदम उठातीं। समूचे समाज को आगे ले जाने के कार्य में समाज के उपेक्षित वंचित दुर्बल पक्ष को उपेक्षित अथवा पीछे नहीं छोड़ा जा सकता अतः वहाँ राष्ट्रवादी सोच के आधार पर राष्ट्रवादी शक्ति की प्रेरणा से स्वायत्त स्वतंत्र श्रमिक संगठन का निर्माण अभिप्रेत है, इस विचार के चलते उक्त बैठक में श्रमिक संघ निर्माण की चर्चा आई। उस समय साम्यवाद अपने चरम पर था किंतु केवल मात्र किन्हीं पूर्व से कार्यरत श्रमिक संगठनों की प्रतिस्पर्धा हेतु भारतीय मजदूर संघ का निर्माण नहीं हुआ। इसके निर्माण के पार्श्व में जो भी तात्कालिक कारण रहे होंगे किंतु वास्तविकता यह है कि निर्माण के पीछे राष्ट्र पुनर्निर्माण और समरस समाज रचना जैसे उदात्त व ऐतिहासिक कारण थे।

स्थापना की ओर : -

भारतीय मजदूर संघ स्थापना के साथ ही इसके संस्थापक ने 'इदम् राष्ट्राय इदम् न मम' सब कुछ राष्ट्र के लिए अर्पित की घोषणा के साथ भारतीय मजदूर संघ निर्माण के उदेश्य को स्पष्ट किया है। भारतीय मजदूर संघ सर्व कल्प राष्ट्र निर्माण का एक अंग है और राष्ट्रहित चौखट के भीतर मजदूर हित की कल्पना साकार करना उसका उदेश्य है। यह मजदूरों का, मजदूरों द्वारा, मजदूर के लिए चलने वाला संगठन है, जो सभी प्रकार के प्रभावों यथा सरकार का प्रभाव, नियोजकों का प्रभाव, राजनीतिक दलों का प्रभाव, विदेशी विचारधारा का प्रभाव और व्यक्तिगत नेतागिरी के प्रभाव से ऊपर उठकर कार्य करेगा। राष्ट्रहित, उद्योगहित व मजदूरहित की त्रिसूत्री इस के विचार चिंतन की धुरी होगी। एक दीप जलने से जैसे अंधेरा स्वयंमेव छंट जाता है। दीप को और कुछ करना नहीं पड़ता इसी प्रकार एक प्रखर राष्ट्रवादी संगठन के मजदूर क्षेत्र में पदार्पण से अराष्ट्रीय तत्व छंटने लगे। राष्ट्रवादी श्रमिक संगठन निर्माण से श्रम क्षेत्र में राष्ट्रवाद का भाव प्रकाशित होगा कदाचित्त राष्ट्रशक्ति के मन में यही विचार रहा होगा।

भारतीय मजदूर संघ निर्माण के पूर्व श्रम क्षेत्र में जो चार केंद्रीय श्रमिक संगठन कार्यरत थे वह मान्यताप्राप्त थे, किसी न किसी राजनीतिक दल के मजदूर विंग और पूर्व में किसी न किसी प्रादेशिक अथवा औद्योगिक महासंघ में टूट के कारण पुनर्गठित होकर केंद्रीय श्रमिक संगठन का स्वरूप धारण किए थे। उन में से किसी का भी निर्माण भारतीय मजदूर संघ की भाँति शून्य से नहीं हुआ था। यह चार संगठन थे :-

एटक इण्टक

(क) स्थापना 31 अक्टूबर 1920 03 मई 1947

(ख) स्थापना समय यूनियनें: 64 200

(ग) सदस्यता: 1, 40, 584 5, 75, 000

एच.एम.एस. यू.टी.यू.सी.

(क) स्थापना 24 दिसंबर 1948 अप्रैल 1949

(ख) स्थापना समय यूनियनें: 119 254

(ग) सदस्यताः 1, 03, 790 3, 31, 991

स्थापना समय उक्त संगठनों के पास कोष, कार्यालय और कार्यकर्ता थे। राजनीतिक दलों का संरक्षण प्राप्त था। वर्ष 1920 के उपरांत से ही एटक ने आई. एल. ओ. में भारत के श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करना प्रारंभ किया था। इसके प्रथम अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे। एटक का निर्माण वास्तव में अंतरराष्ट्रीय श्रम संस्था (आई.एल.ओ.) की आवश्यकता के दृष्टिगत हुआ था। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात यू.एन.ओ. आदि संस्थाओं का निर्माण हुआ था। उसी परिप्रेक्ष्य में वर्ष 1919 में आई.एल.ओ. की स्थापना हुई। विश्व सम्मेलन के लिए उसे भारत से एक ऐसे श्रमिक संगठन से प्रतिनिधि चाहिए था जिसका अखिल भारतीय स्वरूप हो। भारत में उस समय क्षेत्रीय/प्रादेशिक संगठन तो थे किंतु अखिल भारतीय आकार का मान्यताप्राप्त कोई संगठन नहीं था। अतः जल्दबाजी में एयटक (आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस) का निर्माण किया गया। अंग्रेज सरकार ने मान्यता प्रदान कर दी और यह संगठन अंतरराष्ट्रीय श्रम संस्था (आई.एल.ओ) समेत विश्व के अन्य देशों में भी भारत के श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने लगा। भारत सरकार द्वारा निर्मित समितियों में तो इसे स्थान मिलना ही था, सो वह स्थान इसे प्रारंभ से ही प्राप्त हो गया। धीरे-धीरे यह संगठन साम्यवाद प्रभाव में चला गया और इस के कर्ताधर्ता, श्रमिक नेता भारत की बजाए रूस में अधिक समय बिताने लगे और संगठन को मास्को का पिछलग्गू बना दिया। स्पष्ट है, उक्त संगठन का निर्माण भारत के श्रमिकों का हित नहीं, अपितु आई एल ओ और साम्यवादी दल की आवश्यकता पूर्ति था।

03 मई 1947 को श्री गुलजारी नन्दा की अध्यक्षता और सरदार बल्लभ भाई पटेल के प्रयास से इंटक (इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस) की स्थापना की गई। उदेश्य था कि श्रमिक संगठन विदेशी विचारधारा आधारित न होकर अपने ही राष्ट्र की ओर देखे और राजनीतिक दल का श्रमिक विंग बन कर रहे। इंटक स्थापना के साथ ही बहुत से नेता कार्यकर्ता एटक से टूटकर इंटक के साथ आ गए। भारत की अंतरिम सरकार ने मान्यता तथा अन्य सुविधाएँ प्रदान कर दी। स्थापना का उदेश्य यहाँ भी श्रमिक हित नहीं अपितु सत्ताधारी दल की आकाँक्षा और आवश्यकता थी।

24 दिसंबर 1948 को प्रथमतः हिंद मजदूर पंचायत (एच एम पी) का निर्माण हुआ था जो बाद में इंडियन लेबर कांग्रेस के साथ मिलकर हिंद मजदूर सभा (एच एम एस) के नाम से स्थापित हुई। यह संगठन राजनीतिक उठापटक, नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और इंटक में मनमाफिक पद नहीं मिलने से नाराज तथाकथित समाजवादी विचार लेकर चलने वाले श्रमिक नेताओं का जमावड़ा था किंतु यहाँ भी श्रमिक हित के बजाए राजनीतिक महत्वाकाँक्षा का जोर था।।

अप्रैल 1949 कोलकत्ता में स्थापित यू टी यू सी कुछ चरमपंथी साम्यवादी ग्रुप के पुनर्गठन का परिणाम था जो समाज में क्रांति के लिए श्रमिक को अपने साथ लेकर चलने के उदेश्य से संगठन बना कर सामने आए थे। वैचारिक अवधारणा की अपनी सोच को कुछ चरमपंथी नेता चरितार्थ करने हेतु क्रांति के लिए श्रमिक को हथियार के नाते उपयोग करना चाहते थे। स्पष्टतया शुद्ध श्रमिक हित का उदेश्य इस संगठन के निर्माण की पृष्ठभूमि में भी नहीं था।

उक्त से स्पष्ट है कि श्रमिक हित, उद्योग हित और राष्ट्रहित के संकल्प का चारों श्रमिक संगठनों में पूर्णतया अभाव था। भारतीय मजदूर संघ एकमात्र भारत का श्रमिक संगठन है जिस का शून्य से निर्माण और विशुद्ध रूप में राष्ट्रहित के अंतर्गत उद्योग व मजदूर हित की दृष्टि से हुआ।

राष्ट्रभक्त मजदूरों की उमंग का प्रकट आविष्कार भारतीय मजदूर संघ स्थापना

भारतीय मजदूर संघ स्थापना की दृष्टि से देश के विभिन्न भागों से राष्ट्रभक्त सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रथम बैठक 23 जुलाई 1955 को भोपाल में आहूत की गई थी। बैठक में सामाजिक तथा आर्थिक संस्थाओं में रा.स्व.संघ से प्रेरित 35 कार्यकर्ता एकत्र हुए जिनकी सूची इस खंड के अंत (परिशिष्ट - अ) में है।

बैठक का प्रथम सत्र

बैठक प्रात: दस बजे प्रारंभ हुई, जिसमें सर्वप्रथम अनेक प्रदेशों से आए हुए प्रतिनिधियों का परिचय तथा किन्हीं कारणों से उपस्थित न हो सकने वाले कार्यकर्ताओं के संदेशों का वाचन हुआ। ऐसे संदेश बिहार के भागलपुर, राजस्थान के ब्यावर तथा बीकानेर आदि स्थानों से आए थे।

इसके उपरांत श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी ने प्रस्ताविक भूमिका बैठक के सम्मुख प्रस्तुत की। उन्होंने बताया कि श्रमिक क्षेत्र में राष्ट्रवादी श्रमिक संगठन की आवश्यकता है। संगठन राजनीतिक पक्ष से अलग होना चाहिए।

प्रस्ताविक भाषण के बाद विभिन्न प्रदेशों में ट्रेड यूनियन में काम करने वाले छोटे-बड़े कार्यकर्ताओं के संपर्क और संबंध के विषय में चर्चा हुई, जो किसी न किसी रूप से रा.स्व.संघ से जुड़े थे। बैठक में आए हुए प्रतिनिधियों से इस विषय पर काफी जानकारियाँ मिलीं। इसका महत्वपूर्ण कारण यह था कि भोपाल की इस स्थापना बैठक में उपस्थित प्रतिनिधियों में से अधिकांश ट्रेड यूनियन के सक्रिय कार्यकर्ता थे। इन कार्यकर्ताओं का वस्त्र उद्योग, सिल्क मिल्स, जूट मिल्स, इंजीनियरिंग वर्क्स, कोयला खदान, ऑयल मिल्ज़, पंजाब नेशनल बैंक, आर.एम.एस, रेहड़ी यूनियन, गुमास्ता मंडल, हार्ड बोर्ड फैक्ट्री से अच्छा संपर्क था, जहाँ राष्ट्रीय विचार के अन्य कार्यकर्ता भी मौजूद थे।

द्वितीय सत्र

संगठन का नामकरण

'भारतीय मजदूर संघ' की स्थापना बैठक में भाग लेने के लिए भोपाल जाने के पहले श्री ठेंगड़ी जी के मन में संगठन का जो नाम आया था, वह था - 'भारतीय श्रमिक संघ'।

श्री ठेंगड़ी ने भोपाल बैठक के लिए जो कागजात टंकित करवाए थे, उनमें भी संगठन का नाम 'भारतीय श्रमिक संघ' ही था। नागपुर से भोपाल जाते समय ठेंगड़ी जी के साथ यात्रा कर रहे कार्यकर्ताओं ने उनके वे कागजात देखे थे। जब सम्मेलन में श्रमिकों के नए संगठन के नाम पर परिचर्चा आरंभ हुई तो कई कार्यकर्ताओं ने संगठन का नाम 'भारतीय श्रमिक संघ' ही सुझाया लेकिन उत्तर भारत के कार्यकर्ताओं ने इसका काफी विरोध किया। उनका कहना था कि इनके क्षेत्र में 'श्रमिक' शब्द का उच्चारण ठीक से नहीं हो पाएगा और लोग इसे 'शरमिक' कहेंगे। यह ठीक नहीं।

श्री दत्तोपंत को 'भारतीय श्रमिक संघ' नाम जंच गया था, अतएव वे चाहते थे कि इसी नाम पर सहमति हो। वे यह भी जानते थे कि सम्मेलन में पश्चिम बंगाल के कार्यकर्ता बैठे हैं और बंगाल में 'श्रमिक' शब्द काफी लोकप्रिय है। सम्मेलन में सबसे वयोवृद्ध कार्यकर्ता थे- श्री कन्हैयालाल बनर्जी। ठेंगड़ी जी ने सोचा कि श्री बनर्जी जरूर इस नाम को पसंद करेंगे इसलिए उन्होंने कहा कि-"हम सबमें सबसे बड़े बनर्जी जी हैं - नामकरण के संबंध में हमें उनकी ही बात मान्य होगी।" श्री बनर्जी जब बोलने के लिए खड़े हुए तब तक श्री दत्तोपंत आश्वस्त थे कि वे उनके सोचे हुए नाम का ही समर्थन करेंगे परंतु आशा के विपरीत श्री बनर्जी ने कहा-"हमें एक महान कार्य करना है - राष्ट्रीय कार्य करना है, इसलिए किसी को भी संगठन के नाम के बारे में दुराग्रह नहीं करना चाहिए। मैं जानता हूँ कि बंगाल में श्रमिक' शब्द सभी को अच्छा लगता है, तो भी पंजाब और उत्तर भारत के बंधुओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रभक्त मजदूरों की उमंग का प्रगट आविष्कार 'भारतीय मजदूर संघ' नाम अच्छा रहेगा इसलिए संगठन का नाम हमें यही रखना चाहिए और यह नाम सर्व सहमति से स्वीकृत हो गया।

श्री ठेंगडी जी अगर उनके द्वारा सोचे गए 'भारतीय श्रमिक संघ' नाम पर आग्रह करते तो वह स्वीकृत हो जाता किंतु सामूहिक निर्णय पद्धति की परंपरा कदाचित् प्रथम दिन ही ध्वस्त हो जाती।

नामकरण के पश्चात संगठनात्मक स्वरूप पर चर्चा प्रारंभ हुई, जिसमें निर्णय लिया गया कि श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी इस संगठन के संयोजक रहेंगे। अखिल भारतीय संगठन की प्रारंभिक व्यवस्था के लिए पाँच सदस्यों की एक समिति का प्रावधान हुआ। इस अवसर पर यह सुझाव आया कि आवश्यकतानुसार राष्ट्रीय संयोजक को समिति के सदस्यों को बढ़ाने का अधिकार होगा। पाँच सदस्यीय समिति का स्वरूप निम्नलिखित प्रकार से रखा गया :-

श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी, दिल्ली

श्री कैलास प्रसाद भार्गव, उज्जैन

श्री कन्हैया लाल बनर्जी, हावड़ा

श्री राम प्रकाश, लखनऊ

श्री वसंतराव परचुरे, पुणे

द्वितीय सत्र के दूसरे चरण में दो महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा प्रारंभ हुई। वे थे -

1. संस्था का कार्यालय

2. संस्था का ध्वज

प्रतिनिधियों के विचार-विमर्श के उपरांत संगठन का कार्यालय अजमेरी गेट, दिल्ली-110006 तय हुआ, जबकि ध्वज के संबंध में कई सुझाव आने के बाद भी कोई निर्णय सामने नहीं आ सका। केवल इतना ही तय हो सका कि आवश्यकता होने पर बिना किसी चिह्न 2x3 का भगवाध्यज प्रयोग में लाया जाए।

द्वितीय दिवस

पहले सत्र में श्री ठेंगड़ी जी ने नए संगठन की आवश्यकता और संचालन के विषय में विस्तृत विचार रखे। उन्होंने उपस्थित प्रतिनिधियों को तत्कालीन अन्य चार कामगार संगठनों ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक), इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक), यूनाईटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (यू.टी.यू.सी) एवं हिंद मजदूर सभा (एच.एम.एस.) के बारे में जानकारी दी तथा विस्तृत विश्लेषण किया। उन्होंने अन्य संगठनों के वैचारिक धरातल और व्यवहार को देखते हुए भारत के मजदूरों के विकास और राष्ट्र के पुनरुत्थान की दृष्टि से नए संगठन की अर्हताओं के बारे में भी प्रकाश डाला। दृढ़ इच्छाशक्ति के उन निष्ठावान कार्यकर्ताओं ने श्री ठेंगड़ी जी की बातों को समझते हुए भी मजदूर आंदोलन में अपनी अनभिज्ञता प्रकट की। उन्होंने निवेदन किया कि यह कार्य कैसे करना होगा, इसकी जानकारी दी जाए।

श्री ठेंगडी जी ने विस्तार से उन्हें मजदूर आंदोलन एवं मजदूर नेतृत्व के विषय में जानकारी दी, क्योंकि वे स्वयं इस क्षेत्र में भा.म.संघ की स्थापना के छह वर्ष पहले से संगठन कार्य का अनुभव ले चुके थे।

श्री ठेंगड़ी जी के 24 जुलाई 1955 के उस अभिभाषण का वहाँ उपस्थित कार्यकर्ताओं पर बहुत असर हुआ। वे सूत्र वाक्य के रूप में इस भाषण के अनुभव को ग्रहण करके जीवन भर भा.म.संघ के लिए कार्यरत रहे।

संध्या समय एक जन सभा हुई, जिसका संचालन श्री गोपालराव ठाकुर ने किया। उक्त सभा में सर्वप्रथम श्री शिवकुमार त्यागी का भाषण हुआ। उसके पश्चात सभा को श्री ठेंगड़ी जी ने संबोधित किया। सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि "आज भारतीय मजदूर संघ नाम से एक अखिल भारतीय श्रमिक संगठन का निर्माण हुआ है। यह संगठन राष्ट्रभक्त मजदूरों द्वारा बलशाली बनेगा। भारत को वैभव संपन्न बनाने के मार्ग व भारतीयता पर आधारित राष्ट्र के पुनरुत्थान के इस साधन को हम शक्तिशाली करके रहेंगे। इस ईश्वरीय कार्य के लिए हमें देश की जनता की सहानुभूति एवं समाज की शुभकामनाओं की आवश्यकता है।'

(शून्य से सृष्टि-पृ.48-52)

अधिष्ठान मूल बिंदु

विशुद्ध भारतीय विचार व अर्थ चिंतन पर आधारित नव निर्मित मजदूर संगठन के आधार बिंदु श्री ठेंगड़ी जी ने इस प्रकार बताए :-

· राष्ट्रहित, उद्योगहित सर्वोपरि/मजदूरहित इसके अंतर्गत।

· गैर राजनीतिक मजदूर संगठन। मजदूरों का, मजदूरों द्वारा, मजदूरों के लिए, दलगत राजनीति से ऊपर।

· व्यक्तिगत नेतागिरि व जयजयकार से ऊपर।

· भारतीय अर्थ चिंतन संस्कृति आधारित।

· त्याग, तपस्या, बलिदान की भावना।

· वंदे मातरम् व भारत माता की जयकार।

· शोषणमुक्त, न्याययुक्त समरस समाज रचना।

· शोषित पीड़ित उपेक्षित दलित की सच्ची सेवा।

· विदेशी आचार विचार प्रभाव से मुक्ति।

· राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाने में सार्थक व रचनात्मक भूमिका।

उक्त बैठक के समापन के पश्चात श्री ठेंगड़ी ने पत्रकार परिषद में अखिल भारतीय स्तर पर नवनिर्मित केंद्रीय श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ का परिचय दिया और इस प्रकार देश को नए राष्ट्रवादी अखिल भारतीय श्रमिक संगठन के अस्तित्व में आ जाने की सूचना मिली।

आत्मीयता का भाव

साधारण रूप से लोकतंत्रानुसार हम लोग विरोध करें, अपनी बात रखें, सभी पहलुओं पर विचार करें, सबका मत लें, किंतु किसी पर छींटाकशी न करें। संगठन-शास्त्र का यही नियम है कि आत्मीय भाव से आत्मीयता से सबके साथ व्यवहार करें। कोई भी कार्यकर्ता जिम्मेदारी से, निस्वार्थ भाव से जब काम करता है तो सारी बातें जीवन में स्वतः आ जाती हैं।

श्री भाऊराव देवरस

मजदूर आंदोलन में : नवयुग सूत्रपात

भारतीय मजदूर संघ स्थापना की जिस समय घोषणा की जा रही थी वह समय तथा उससे थोड़ा पूर्व का समय (1947-55) राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण घटनाओं के घटित होने का कालखंड था। 15 अगस्त 1947 को देश परतंत्रता की जंजीरों से मुक्त हुआ। श्रमिक क्षेत्र में 14 मई 1947 को इंटक की स्थापना हुई। 24 दिसंबर 1948 को हिंद मजदूर सभा का निर्माण हुआ। 30 अप्रैल 1949 को यूटीयूसी की स्थापना हुई। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ। राष्ट्र एक लंबी पराधीनता के उपरांत अंगड़ाई ले रहा था। जनमानस नई आशाओं नई उमंगों से राष्ट्र नव निर्माण के स्वप्न को साकार होते देखने के लिए आतुर हो रहा था किंतु परकीयों की लंबी दासता ने राष्ट्रीय जनजीवन, जीवन मूल्यों, सभ्यता, संस्कृति और विचारधारा को जिस बाहुपाश में बाँध रखा था, उस जकड़न से मुक्त होना अभी शेष था।

दूसरी और विश्व पटल पर विश्व साम्यवाद अपने चरम पर था। भारत में भी लालकिले पर लाल निशान लहराने की वामपंथी अभिलाषा सर्वविदित है। वामपंथी रणनीति में श्रमिक क्षेत्र युद्ध भूमि और श्रमिक संघ उन के अग्रिम पंक्ति की युद्धक वाहिनी माने जाते हैं। उनकी राजनीति का उद्गम और सत्ताशीर्ष पर पहुँचने का श्रमसंघ माध्यम हैं। भारत में एटक स्थापना 31 अक्टूबर 1920 से वर्ष 1955 (भारतीय मजदूर संघ स्थापना) तक वामपंथ वर्चस्व का काल खंड कहा जा सकता है। वर्ष 1953-54 उपरांत विश्व साम्यवाद में गिरावट के लक्षण प्रकट होने प्रारंभ हो गए थे किंतु 1955 के पश्चात भारत के श्रमिक क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ जिस द्रुत गति से बलशाली हुआ उसी गति से वामपंथ दुर्बल होते चला गया।

शून्य से सृष्टि : दीप प्रकाश

मजदूर आंदोलन का कार्य श्री ठेंगड़ी जी की रुचि, दक्षता अनुरूप ही था। वह इसे ईश्वरीय कार्य और समरस समाज रचना की भारतीय अवधारणा को चरितार्थ करने का साधन मानते थे। इंटक में अपने मूल स्वभाव अनुसार उन्होंने सहज प्रामाणिकता तथा मनोयोग से संगठन कार्य करते हुए सभी का विश्वास अर्जित किया था। अत: अल्पकाल में वह कांग्रेस समर्थित इंटक से संबद्ध दस श्रमिक संघों के पदाधिकारी तथा अक्टूबर 1950 में इंटक राष्ट्रीय परिषद के सदस्य और मध्यप्रदेश के पूर्वकालिक संगठन मंत्री निर्वाचित हुए।

इन्हीं दिनों (1952 से 1955) श्री ठेंगड़ी साम्यवाद प्रभावित आल इंडिया बैंक इम्पलाईज एसोसिएशन (एआईबीए) के प्रांतीय संगठन मंत्री बने। वर्ष 1954-55 में आर.एम.एस इंप्लाइज यूनियन के सर्किल (मध्यप्रदेश, विर्दभ व राजस्थान) के अध्यक्ष रहे। इंटक राष्ट्रीय परिषद के सदस्य होने के कारण उनके संपर्क संबंध न्यूनाधिक आवश्यकतानुसार जीवन बीमा, रेलवे, वस्त्रोद्योग, कोयला आदि से बने व उनकी कार्य पद्धति, समस्याओं, श्रमिक नियमों, कानूनों, हड़ताल आदि की सम्यक जानकारी प्राप्त हुई। श्रमिक नेतृत्व के लिए जिस आधारभूत जानकारी की आवश्यकता रहती है, श्री ठेंगड़ी उससे युक्त होकर आगे राष्ट्रशक्ति द्वारा विचारित बड़े निर्माण कार्य की बड़ी भूमिका के लिए सन्नद्ध हुए।

विचारधारा अपरिवर्तनीय और ध्रुव तारे के समान अटल है। जिस क्षेत्र में श्री ठेंगड़ी जी को उत्तरदायित्व सौंपा गया वहाँ पूर्व से स्थापित श्रम संघों से लोहा लेते हुए स्वयं का मार्ग बनाना और उस पर चलते हुए लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना यह कठिन चुनौती थी। उस चुनौती से पार पाने के लिए राष्ट्रवादी विचारधारा का पूरा सहयोग, समर्थन व आशीर्वाद श्री ठेंगड़ी जी को प्राप्त था। अतः उसके दीप प्रकाश में अन्धेरे और कंटकाकीर्ण मार्ग पर द्रुत गति से आगे बढ़ना सहज और आसान हुआ।

श्रमिक क्षेत्र में अखिल भारतीय संगठन निर्माण हेतु श्री ठेंगड़ी जी को कार्य भार सौंपने के पूर्व रा.स्व.संघ ने उन्हें कांग्रेस समर्थित इंटक एवं वामपंथी संगठनों में सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया था। संगठन कार्य अनुभव दृष्टिगत इसी कालखंड में संघ प्रेरित अन्य सामाजिक राजनीतिक संगठनों का दायित्व भी श्री ठेंगड़ी को दिया गया था जिस का विवरण इस प्रकार है :-

· हिंदुस्तान समाचार के वे संगठन मंत्री थे।

· जनसंघ के मध्य प्रदेश का प्राथमिक कार्य करने का दायित्व उनके ऊपर था।

· 1955 में वे जनसंघ अध्यक्ष पंडित प्रेमनाथ डोगरा के निजी सचिव के नाते काम करते थे।

· 1955 से 1957 तक दक्षिणी प्रांतों में जनसंघ की स्थापना और जगह-जगह पर जनसंघ का बीजारोपण करने की जिम्मेवारी उन पर थी।

· वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं।

उपर्युक्त सभी काम तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए हैं लेकिन कई अन्य सार्वजनिक तथा सामाजिक संगठनों से भी श्री ठेंगड़ी जुड़े हुए थे। विशेष रूप से दलित समाज के साथ उनके संबंध प्रारंभ से ही आत्मीय थे।

भारतीय बुद्ध महासभा के वे प्रारंभ से सभासद थे।

डॉ. अंबेडकर जयंती उत्सव समिति और मध्य प्रदेश शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के भी वे सक्रिय कार्यकर्ता रहे।

इसके अतिरिक्त वे 'भाडेकरू संघ' (किराएदारों का संगठन), 'नागरिक स्वातंत्र्य आघाड़ी' (मोर्चा), 'वीणकर (बुनकर) कामगार संस्था आदि संस्थाओं के सक्रिय साथी रहे।

इसी कालखंड वर्ष 1949 से 1955 ई. तक श्री ठेंगड़ी जी ने कम्युनिज्म का गहराई से अध्ययन किया। कम्युनिज्म तत्वज्ञान और कम्युनिस्टों की कार्यपद्धति आदि विषयों पर श्री गुरुजी से वे कई घंटों तक विस्तृत चर्चा किया करते थे।

श्री दत्तोपंत ने इस प्रकार मजदूर आंदोलन में इंटक, एटक आदि के साथ प्रत्यक्ष काम करके अनुभव संग्रह किया और मजदूर क्षेत्र में जिनका बहुत प्रभाव और बोलबाला था, ऐसे कम्युनिस्टों का तत्वज्ञान और व्यवहार जान लिया। मजदूर जिस समाज से आते हैं ऐसे शोषित, पीडित, दलित समाज की सेवा की। तारुण्य में संसार सुख से दूर हटकर, विवाह आदि व्यक्तिगत जीवन से विमुख होकर अथक परिश्रम किए।

उपरोक्त से स्पष्ट है कि समाज के जिस रणक्षेत्र का श्री ठेंगड़ी के सेनापति सदृश्य दायित्व सौंपा गया वह अपने रणक्षेत्र की स्थिति, प्रत्येक गतिविधि, शत्रुसेना की मारक शक्ति व दुर्बलता, स्वयं का सैन्यबल, रणनीति तथा पूर्णतया प्रशिक्षण और अनुभव से युक्त थे। उनके अदम्य साहस, अपूर्व धैर्य, संकल्प की दृढ़ता, स्वयं की विजय पर अटूट विश्वास आदि ऐसे वीरोचित गुण थे जिन के कारण उन्हें दुर्गम मोर्चों पर एक के बाद एक विजय प्राप्त होती चली गई। उनके नेतृत्व और सत्य आधार होने के कारण उक्त न्याय युद्ध में उन्हें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई।

निर्माण से प्रथम अधिवेशन तक

23 जुलाई 1955 भारतीय मजदूर संघ निर्माण से प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन (अगस्त 1967) तक बारह वर्ष का कालखंड घोर तपश्चर्या का कालखंड कहा जा सकता है। ट्रेड यूनियन के विशाल सागर में हाथ पाँव मारने जैसी स्थिति कही जा सकती है। प्रारंभिक काल में संगठन को कैसी स्थितियों से गुजरना पड़ा उस का संक्षिप्त विवरण ठेंगड़ी जी ने स्वयं नागपुर में आयोजित एक अभ्यास वर्ग में निम्नलिखित शब्दों में दिया है :-

"उन दिनों साम्यवादिओं का लाल झंडा ही मजदूरों का झंडा है ऐसी मान्यता थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साम्यवाद अपनी चरम सीमा पर था। एक तिहाई दुनिया पर विजय पाने की वह तैयारी कर रहे थे। भारत में भी विकल्प के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी मानी जा रही थी। उस समय मान्यता प्राप्त इंटक, एटक, एच.एम.एस और यूटीयूसी चार केंद्रीय श्रमिक संगठन विद्यमान थे। चारों किसी न किसी राजनीतिक दल के विंग (मजदूर मोर्चा) के रूप में काम कर रहे थे। ट्रेड यूनियन की भूमिका किसी न किसी राजनीतिक दल के विंग के रूप में ही काम करने की हो सकती है, ऐसी मान्यता उस समय देश में थी।

गैर राजनीतिक संगठन

सर्वविदित है जब हमने भारतीय मजदूर संघ का कार्य प्रारंभ किया उस समय हमारे पास न तो कोई युनयिन थी और न ही कोई कार्यकर्ता तथा कोई पैसा भी नहीं था। शून्य से ही कार्य प्रारंभ हुआ। हम ने प्रारंभ से ही सच्चे ट्रेड यूनियन (जैनुइन ट्रेड यूनियनिज्म) पर बल दिया। हमारा यह संगठन, मजदूरों का, मजदूरों द्वारा और मजदूरों के लिए है। इस लिए यह गैर राजनैतिक ऐसा हमारा आग्रह रहा है। लोगों ने कहा यह नए मुल्ला हैं, इन्हें कुछ पता नहीं है। ट्रेड यूनियन चलाना यानी निकर पहन कर दक्ष आरम् करना नहीं है। ट्रेड यूनियन बड़ी टेढ़ी खीर है और हम ही इस के उस्ताद हैं, पर हम गैर राजनैतिक सिद्धांत ले कर चले। उस समय लगभग सभी लोगों ने हमें पागल कहा क्योंकि जो सिद्धांत हम ने लिया वैसा उस समय भारत में नहीं था।

विश्व ने माना

13 से 20 नवंबर 1990 तक मास्को में संपन्न हुई वर्ल्ड फेडरेशन आफ ट्रेड यूनियन कांफ्रेंस में 135 देशों के 400 साम्यवादी एवं गैर साम्यवादी श्रम संघों के 1250 प्रतिनिधि उपस्थित थे, उसमें एक प्रस्ताव पारित किया गया कि श्रमसंघ राजनीतिक दल से संबंधित रहने की सूरत में श्रमिकों का भला नहीं कर पाते हैं, अतः गैर राजनीतिक, स्वतंत्र, स्वायत्त होना चाहिए। स्मरणीय है उक्त कांफ्रेंस में भारतीय मजदूर संघ की ओर से तत्कालीन महामंत्री श्री प्रभाकर घाटे एवं श्री रामभाऊ जोशी ने भाग लिया था। श्री घाटे ने श्रम संघों को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कार्य करने का प्रस्ताव रखा था।

यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि जो कुछ हम लोग पहले से मानते और कहते आए थे और जिसे सभी लोग हमारा पागलपन मानते थे उसी को विश्वस्तर पर मान्य किया गया।

पहले कार्य , संगठन ढाँचा बाद में

साधारणतया ऐसा होते आया है कि किसी संस्था की स्थापना करनी है तो पहले अखिल भारतीय समिति बन जाती है और बाद में उसकी शाखाएँ निकलती हैं। परंतु हमारे यहाँ जब 23 जुलाई 1955 को स्थापना की घोषणा हुई तब अखिल भारतीय समिति नहीं बनी, कोई प्रादेशिक समिति भी नहीं बनी। अलग-अलग स्थानों पर छोटी-छोटी यूनियनें प्रारंभ की गई जैसे दुकान मजदूर संघ, रिक्शा मजदूर संघ आदि। फिर आगे बढ़ते हुए धीरे-धीरे प्रांतीय महासंघ, फिर औद्योगिक महासंघ और बाद में कुछ प्रांतीय समिति, अखिल भारतीय औद्योगिक महासंघ और इस प्रकार संगठन गठन करते हुए बारह वर्ष उपरांत अखिल भारतीय अधिवेशन और तत्पश्चात अखिल भारतीय समिति का निर्माण हुआ। यानी अखिल भारतीय संस्था निर्माण घोषणा तथा प्रत्यक्ष अखिल भारतीय समिति गठन इन दोनों में बारह वर्ष का अंतर रहा। क्या किसी अन्य संस्था के बारे में ऐसा हुआ है। यह वस्तुतः खोज का विषय है। बारह वर्ष निरंतर बिना किसी अखिल भारतीय कार्यकारिणी तथा महामंत्री व अध्यक्ष आदि के कार्य करना कितना कठिन रहा होगा इसकी कल्पना ही की जा सकती है। इस प्रकार की संगठन यात्रा संभवतया भारतीय मजदूर संघ को छोड़कर अन्य किसी की नहीं है।

राष्ट्रहित का प्रश्न

उन दिनों एक बड़ी समस्या थी कि राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता और भारत माता इन शब्दों के प्रति तथाकथित प्रगतिशील लोगों के मन में बड़ी चिढ़ थी। हम भारत माता की जय कहते तो प्रगतिशील नेता कहते इस नारे का यहाँ ट्रेड यूनियन क्षेत्र में क्या प्रयोजन है। यहाँ तो बोनस, महँगाई भत्ता, वेतन वृद्धि आदि का सवाल है। भारत माता को यहाँ क्यों घसीट लाते हो। नारे भी अलग लगते थे। उनका नारा था 'चाहे जो मजबूरी हो-माँग हमारी पूरी हो' के स्थान पर हम ने कहा 'देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम' यानी राष्ट्रवाद को प्रखरता से लाना और राष्ट्रहित चौखट में रहकर मजदूरों का हित करना यह हमारा ध्येय है। हमारी प्राथमिकता का क्रम है कि पहले राष्ट्रहित, फिर मजदूर हित और अंत में भारतीय मजदूर संघ का हित। इस में कोई संस्थागत अहंकार नहीं। राष्ट्र का कल्याण हो, मजदूरों का कल्याण हो यह हमारा सिद्धांत और लक्ष्य है।

प्रारंभिक दिनों में कितनी टीका टिप्पणी हम लोगों पर होती थी कि यह दकियानूसी लोग हैं। ट्रेड यूनियन क्षेत्र में भारत माता का क्या काम वगैरह कहते थे, किंतु आज इंटक, सीटू, एटक सभी भारत माता की बात करने लगे हैं। राष्ट्रवाद की भी बात कहने लगे हैं। साम्यवादियों की शायद यह रणनीति का अंग हो या हो सकता है कि दिल से कहने लगे हैं या परिस्थिति के दवाब में बोलना पड़ रहा हो मगर तात्पर्य यह कि तब और अब में यह अंतर आया है कि राष्ट्रवाद की बातों-भारत माता की जय से जहाँ तब उन लोगों को परहेज था - चिढ़ थी अब वही बात और नारे सबके गले उतर चुके हैं।

मजदूर आबाद-कार्यकर्ता बर्बाद हो

आज हम जिस पड़ाव तक पहुँचे हैं उसकी लंबी यात्रा कष्टप्रद किंतु सन्तोष जनक है। आपत्तियाँ-विपत्तियाँ बहुत आईं। कार्य का यह जो विकास आज दिखाई देता है वह कोई गुलाब की सेज पर या मखमली गलीचे पर चल कर प्राप्त नहीं हुआ है। इंदौर अखिल भारतीय अभ्यास वर्ग (1984) एक सत्र मात्र यह बताने के लिए रखा था कि भारतीय मजदूर संघ का कार्य करते करते जो शहीद हुए उनका एवं उनकी यूनियन व उद्योग का नाम प्राप्त हो। अस्सी मिनट तक यह कार्य चला। इसका अर्थ यह है कि अपने कार्य की यह वृद्धि मात्र शाब्दिक नहीं, व्यावहारिक है, प्रत्यक्ष है। मजदूरों ने, कार्यकर्ताओं ने इसकी नींव को अपने खून से सींचा है। आत्म बलिदान और शहादत के दम पर भारतीय मजदूर संघ का कार्य बढ़ा है। शहादत के अतिरिक्त कितने लोग सस्पैंड डिसमिस हुए और कितने परिवार बर्बाद हुए यह विचार करने की बात है। हमने आरंभ में ही कहा था और हमारा उद्देश्य भी था कि सामान्य मजदूर आबाद हो, इस हेतु मजदूर संघ कार्यकर्ता बर्बाद हो (दि बैस्ट शुड सफर-सो दैट दि रेस्ट शुड प्रोस्पर) जरा विचारें क्या ऐसा कोई दूसरा संगठन है जिसने कार्यकर्ता की बर्बादी का आह्वान किया हो। हमारा नारा ही था "बीएमएस की क्या पहचान-त्याग, तपस्या और बलिदान" हमारे प्रगतिशील कहलाने वाले लोग कहते थे इस क्षेत्र में लोग पैसा कमाने आते हैं - सुख सुविधा की अपेक्षा से आते हैं पर यह बीएमएस वाले कैसे पागल हैं त्याग, तपस्या, बलिदान की बातें कर रहे हैं।"

पागलों का टोला

संगठन निर्माण प्रारंभ काल में किन और कैसी कठिनाईयों से संगठन और कार्यकर्ताओं का सामना हुआ उसका लंबा इतिहास है। मानो आग का दरिया और तैर के जाना था अथवा काँटो भरे रास्ते और नंगे पाँव चलना था। पहले से मान्यता प्राप्त श्रमिक संगठन कहीं पैर ही नहीं रखने देते थे। जैसे रेलगाड़ी में पहिले से बैठे यात्री नए यात्रियों को भीतर आने से रोकने के लिए रेल डिब्बे की खिड़कियाँ दरवाजे बंद कर लेते हैं, उसी प्रकार भारतीय मजदूर संघ को रोकने, नई यूनियन गठित करने, फैक्ट्री गेट पर धरना देने अथवा झंडा लगाने से मना करने के लिए सभी विरोधी श्रम संघ एक हो जाते थे। मालिक भी अधिकांशतया मान्यता प्राप्त संगठनों का ही साथ देते थे। पुलिस बुला लेना, मजदूर संघ कार्यकर्ताओं पर मुकदमे दायर करवा देना, नौकरी से बाहर करवा देना जैसी घटनाएँ तब नित्य प्रति होती थीं।

आत्मोत्सर्ग

मजदूर संघ कार्यकर्ता इन घटनाओं से रत्तीभर विचलित नहीं होते थे। उनकी राष्ट्रवाद और अपने संगठन के प्रति प्रतिबद्धता व समर्पण भाव और बढ़ता जाता था। शाहजहाँपुर आर्डनैन्स फैक्ट्री भा.म.सं. यूनियन के तत्त्कालीन महामंत्री लवकुश सिंह पर विरोधियों और प्रबंधन ने भारतीय मजदूर संघ छोड़ देने का दवाब डाला। वह नौकरी से एक तरफा डिसमिस करवाए गए, गिरफ्तार किए गए-शारीरिक यातनाएँ दी गई-चिकित्सालय में उनका प्राणांत हो गया। उनके सामने मजदूर संघ छोड़ देने की सूरत में नौकरी बहाली, पदोन्नति दिए जाने आदि का प्रलोभन था दूसरी ओर नौकरी गँवाने, बर्बाद हो जाने का मार्ग था। उन्होंने बर्बादी का विकल्प चुना पर भारतीय मजदूर संघ अंतिम साँस तक नहीं छोड़ा। भारत माता की जय बुलाते हुए प्राणोत्सर्ग कर दिया। त्याग और बलिदान की यह पराकाष्ठा है। ऐसे आत्म बलिदानियों की मजदूर संघ में एक लंबी पंक्ति है। इस प्रकार का पागलपन उन दिनों भारतीय मजदूर संघ के एक एक कार्यकर्ता के रोम रोम में बसा था।

जादुई व्यक्तित्व : करिश्माई नेतृत्व

उक्त पागलपन के जो प्रणेता थे वह थे संगठन के जनक दत्तोपंत ठेंगड़ी। एक जादुई व्यक्तित्व, करिश्माई नेतृत्व। वह जिस श्रमिक अथवा कार्यकर्ता की पीठ पर हाथ रख देते थे वह उन्हीं का हो जाता था। उन दिनों आपसी चर्चा में यह बात थोड़े विनोद में अक्सर कही जाती थी कि जिसकी पीठ पर ठेंगड़ी जी हाथ रख दें समझो वह गया काम से। उनकी आकर्षण शक्ति विलक्षण थी। नेतृत्व अद्भुत था। मां की ममता-बुद्ध सी करुणा थी-भीष्म की संकल्प शक्ति-शौर्य था - दृढ़ता थी। अनगिनत कार्यकर्ताओं में देशभक्ति की प्रखर लौ जगा दी - कार्यकर्ता घर परिवार सब भूलकर दीवाने होकर रणक्षेत्र में निकल पड़े, जूझ मरे पर भगवा झंडे को ऊँचा फहरा के रहे। इस दीवानेपन का अन्यत्र उदाहरण मिलना कठिन है। यह था ठेंगड़ी जी के नेतृत्व का चमत्कार/पागलों की टोली के वह सिरमौर सच्चे सरदार थे।

आंदोलन , दिशा , गतिविधियां

आंदोलन के लिए शक्ति चाहिए। प्रारंभ में शक्ति संचय के ही प्रयास चर्तुदिक चल रहे थे। अन्याय के विरुद्ध स्थान-स्थान पर यथाशक्ति आंदोलन किए जाते थे। संघर्ष अनवरत चल रहा था। वस्त्रोद्योग, इंजीनियरिंग, पेपर उद्योग, दुकान कर्मचारी आदि अनेक क्षेत्रों में मजदूर संघ सक्रियता से आंदोलन चला रहा था। उन्हीं दिनों दिसंबर 1963 यमुना नगर (जगाधरी) पेपर मिल में श्री राजकृष्ण भक्त के नेतृत्व में भारतीय मजदूर संघ द्वारा एक बड़ा आंदोलन चला। आंदोलन पूर्णतया शांतिपूर्ण था फिर भी लगभग अस्सी कार्यकर्ता गिरफ्तार करके जेल में बंद कर दिए गए। उन पर तोड़-फोड़ आदि के लिए, धारा 120-बी एवं 107/151 के अंतर्गत मुकदमे दायर किए गए। पंजाब सरकार पूरी तरह मालिकों का साथ दे रही थी। प्रदेश सरकार में श्रम मंत्री प्रदेश इंटक के अध्यक्ष भी थे। भा.म.सं. को पूरी तरह कुचल देने की मानसिकता थी।

स्थिति की भीषणता के दृष्टिगत श्री ठेंगड़ी जी ने स्वयं नेतृत्व सँभाल लिया। श्रीराम लुभाया बावा जैसे वरिष्ठ कार्यकर्ता उसी आंदोलन की देन हैं, जिन्हें उनके साथियों सहित छः महीने जेल में बंद रखा गया था। नौकरी गँवानी पड़ी थी। श्री प्यारा लाल बेरी भी सक्रिय थे। श्री हुक्म चंद कुशवाहा (पूर्व सांसद) भी वहाँ धरने पर बैठे थे। सरदार प्रताप सिंह कैरों उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री व पं. भगवत दयाल शर्मा प्रदेश के श्रम मंत्री थे। वहाँ उन दिनों जेल में बंद कर दिए जाने के लिए भारतीय मजदूर संघ जिंदाबाद नारा लगाना ही पर्याप्त जुर्म था। चारों ओर भय का वातावरण था। मजदूर संघ के लोग डरे नहीं, डटे रहे और अंततः श्री ठेंगड़ी जी के अनथक प्रयासों व केंद्र सरकार में मंत्री श्री जयसुख लाल हाथी के हस्तक्षेप से सभी कार्यकर्ता जेलों से रिहा हुए और मुकदमे भी वापस हुए। यह पश्चिमोत्तर भारत में भा.म.सं. का प्रथम बड़ा आंदोलन था जो यशस्वी हुआ।

संगठन नींव : प्रारंभिक कार्यकर्ता

संगठन के प्रारंभिक काल में श्री ठेंगड़ी जी के साथ मिलकर जिन कार्यकर्ताओं ने देश भर में संगठन नींव को सुदृढ़ एवं विस्तारित करने का कठिन परिस्थितियों में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित करते हुए कार्य किया उनकी सूची इस खंड के अंत (परिशिष्ट-क) में जोड़ी गई है।

प्रथम सरकारी कर्मचारी हड़ताल

वर्ष 1960 में सरकारी कर्मचारियों में इंटक का काम सबसे ज्यादा था, पर वह प्रभावकारक नहीं था। समाजवादी व साम्यवादियों का काम थोड़ा पर कर्मचारियों पर अच्छी पकड़ थी। दोनों ने मिलकर जुलाई 1960 में आम हड़ताल की घोषणा कर दी। रेलवे में समाजवादी अन्यत्र पी एंड टी (पोस्ट एंड टैलीग्राफ) आदि में साम्यवादियों का अच्छा प्रभाव था। तब तक भारतीय मजदूर संघ की सरकारी कर्मियों में एक भी यूनियन नहीं थी।

आंदोलनकारियों को फिरोज गांधी (राजनेता और श्रीमती इंदिरा गांधी के पति) ने भरोसा दिया था कि वे प्रधानमंत्री से बात करके माँग मनवा देंगे किंतु हड़ताल पूर्व फिरोज गांधी के प्रयास असफल हो गए। तैयारी तो थी नहीं पर पूर्व घोषणानुसार हड़ताल पर यह जानते हुए भी जाना पड़ा कि हड़ताल असफल होगी। शक्ति तो थी पर आवश्यक मोबिलाईजेशन (जन जागरण) नहीं हुआ था। उधर सरकार ने सख्त रुख अपनाया। केंद्रीय गृहमंत्री उस समय श्री गुलजारी लाल नंदा थे। उन्होंने घोषित किया कि सरकारी कर्मचारियों का हड़ताल पर जाने का अधिकार हम समाप्त कर रहे हैं जो हड़ताल पर जाएंगे, उन्हें दंडित किया जाएगा।

जब यह घटनाचक्र चल रहा था उस समय का श्री ठेंगड़ी जी इस प्रकार वर्णन करते हैं "उन दिनों प.पू.श्री गुरुजी नागपुर में थे। उन्होंने पूछा कि इस आंदोलन के विषय में बी.एम.एस की भूमिका क्या होनी चाहिए? मैंने कहा सरकारी कर्मचारियों में हमारी एक भी यूनियन नहीं है तो हम क्या भूमिका ले सकते हैं। श्री गुरुजी ने कहा कि तुम्हारी यूनियन नहीं होगी किंतु जगह-जगह सरकारी कर्मचारियों में अपने स्वयंसेवक हैं। उनको पता चलना चाहिए कि क्या भूमिका लें क्योंकि आज नहीं तो कल सर्वत्र हमें यूनियन बनाना ही होगा। मैंने कहा अभी कुछ सोचा नहीं है।

प.पू. श्री गुरुजी ने कहा ठीक है - एक कागज पेन ले आओ और जो मैं बताऊंगा उसे लिख लो। उसके बाद उन्होंने डिक्टेट करना शुरू किया और मैंने जस का तस लिख लिया। उन्होंने पढ़कर देखा और कहा कि सरकारी क्षेत्र में बीएमएस का काम नहीं होने के कारण दैनिक समाचार पत्र तुम्हारे वक्तव्य का दखल नहीं लेंगे पर कम से कम आर्गेनाइजर और पाञ्चजन्य में यह स्टेटमैन्ट (वक्तव्य) आता है तो उसके कारण अपने कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन होगा।

वक्तव्य इस प्रकार था "भारतीय मजदूर संघ कट्टर राष्ट्रवादी यूनियन है। राष्ट्रवादी होने के कारण वामपंथी यूनियनों के समान सेवाओं या उत्पादन में बाधा डालना हम पसंद नहीं करते, किंतु साथ ही हमारी यह मान्यता है कि जैसे हम कहते हैं कि काम करने के अधिकार को मूलभूत अधिकारों की सूची में रखा जाए वैसे ही काम न करने के अधिकार को भी इस सूची में रखा जाना चाहिए। अवश्य, दोनों सूचियों में यह अधिकार रखते समय राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर कुछ Qualifying Clauses (विधि सम्मत अधिकार प्रदान करने वाली धाराएं) भी होनी चाहिए। किंतु मूलभूत अधिकार के नाते जैसे काम करने का, वैसे हड़ताल करने का भी अधिकार स्वीकार होना चाहिए।

इस प्रकार हमारी विचारधारा वामपंथियों से भिन्न होते हुए भी सरकारी कर्मचारियों के हड़ताल करने के अधिकार से वंचित रखने का सरकार का इरादा अलोकतांत्रिक (Undemocratic) है ऐसा हम मानते हैं और सरकार ने अगर ऐसा कदम उठाया तो हम उसका विरोध करेंगे। In stead govt. should introduce some legal mechanism which would render the right to strike a superfluity" (सरकार ने वास्तव में कोई विधिसम्मत प्रणाली विकसित करनी चाहिए जिससे हड़ताल करने का अधिकार अप्रयोजनीय हो जाए।) प.पू.श्री गुरुजी ने कहा कि आगे बीएमएस को भी इसी प्रकार के संघर्ष करने पड़ेंगे। संघर्ष कैसे करना इस है। अभ्यास हमारे कार्यकर्ताओं को होना चाहिए। इसलिए प्रयोग के नाते इस आंदोलन में आप सक्रिय हिस्सा लीजिए।"

उपरोक्त वक्तव्य के उपरांत जहाँ-जहाँ अपने स्वयंसेवक अच्छी स्थिति में थे जैसे नागपुर, ग्वालियर, इलाहाबाद आदि वहाँ हड़ताल साम्यवादी प्रभाव वाले क्षेत्रों से अच्छी चली। गृहमंत्री श्री गुलजारी लाल नंदा ने Joint Consultative Machinery (JCM) व्यवस्था बनाने का सुझाव रखा ताकि हड़ताल अधिकार छिनने के बाद सरकारी कर्मचारियों को न्याय मिलता रहे। हड़ताली नेताओं ने घोषित किया कि हम सरकार के JCM बनाने के सुझाव को मान लेते हैं। हड़ताल के पश्चात NFPTE प्रमुख श्री दादा घोष से मैंने पूछा आप ने सरकार का सुझाव एकदम क्यों मान लिया। दादा ने कहा कर्मचारी अब थक गए हैं। कदाचित बड़ी संख्या में दंडित कर्मचारियों के दवाब में रहने के कारण भी उन्होंने सरकारी सुझाव स्वीकार कर लेने में ही बेहतरी समझी होगी।"

स्पष्ट है भारतीय मजदूर संघ की सरकारी कर्मचारियों में संगठन शक्ति (उस समय) शून्य होने पर भी मूलभूत लोकतांत्रिक हड़ताल के अधिकार को अक्षुण्ण बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान किया। अन्यथा हड़ताल का अधिकार कदाचित सदा के लिए छिन जाता।

मुंबई बंदः भा.म.सं. की भूमिका

अगस्त 1963 ऐतिहासिक मुंबई बंद में भारतीय मजदूर संघ को सूत्रधार के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन का अवसर प्राप्त हुआ। यह श्री ठेंगड़ी जी के नेतृत्व की परख का कठिन दौर था। उन्हें उस समय तक भारतीय मजदूर संघ की पर्याप्त शक्ति न होते हुए भी अकेले अथवा संयुक्त आंदोलनों में स्वयं की ओर कनिष्ठ सहयोगी की भूमिका स्वीकार करते हुए कार्य करना पड़ रहा था। अनेक बार उन्हें अपमान के घूँट पीने पड़े किंतु संगठनहित दृष्टिगत वह सब मान-अपमान एक समान सहते हुए आगे बढ़ते रहे। मुंबई बंद का यह उदाहरण उस समय की श्रम क्षेत्र में स्थिति तथा भा.म.सं. की दूरदृष्टि के अंतर्गत सकारात्मक भूमिका का प्रेरणादायी उदाहरण है जिसे स्वयं श्री ठेंगड़ी जी ने इस प्रकार बताया है "वर्ष 1963 के जुलाई अंत में सोशलिस्ट नेता श्री मधु लिमये ने घोषणा की कुछ माँगों जैसे कि श्री जार्ज फर्नांडिस (हिंद मजदूर पंचायत) को जेल से रिहा किया जाए को लेकर अगस्त महीने मुंबई बंद का कार्यक्रम करेंगे और इसके साथ कुछ और माँगे भी जोड़ दीं।

अकेले हिंद मजदूर पंचायत के दम पर मुंबई बंद सफल नहीं हो सकता था और श्री लिमये ने श्रीपाद डांगे (एटक) से बंद में साथ देने का आह्वान भी नहीं किया तो भी श्री डांगे ने कहा कि उनका संगठन एटक मुंबई बंद के कार्यक्रम में हिंद मजदूर पंचायत का साथ देगी।

उन दिनों प.पू.श्री गुरुजी नागपुर में थे। उन्होंने मुझ से पूछा कि मुंबई बंद में बीएमएस की क्या भूमिका रहेगी। मैंने कहा कि मुंबई में हमारा काम नया है। कुल पंद्रह हजार से अधिक संख्या नहीं है जबकि साम्यवादी (एटक) एवं समाजवादी (हिंद मजदूर पंचायत) की संख्या लाखों में है अतः हमारी क्या भूमिका हो सकती है। श्री गुरुजी ने कहा तुम्हारी शक्ति नगण्य हो सकती है किंतु आगे मुंबई में काम बढ़ाना है ना, इस समय लगता है कि श्री लिमये और श्री डाँगे की युति हुई है और यह अगर कायम रहती है तो तुम्हारे लिए आगे काम बढ़ाना संभवनीय नहीं होगा। इस युति का लाभ कम्युनिस्ट ही उठाएंगे सोशलिस्ट लाभ नहीं उठा पाएंगे और कम्युनिस्टों का काम बढ़ता है तो बीएमएस को आगे कदम रखना कठिन हो जाएगा। इसलिए आप की दृष्टि से यह आवश्यक है कि कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों की यह युति भंग हो जाए। इसके लिए प्रयास करना चाहिए।

मैंने कहा हम यह प्रयास कैसे कर सकते हैं। हम एक प्रकार से नगण्य हैं। हमारा प्रभाव कैसे हो सकता है। श्री गुरुजी ने कहा कि तुम्हारी शक्ति नगण्य होने के कारण प्रभाव नहीं होगा। किंतु आप लोग मधु लिमये के सहकारी होने की भूमिका लेंगे तो वह आपका अपमान कर सकता है। किंतु किसी भी बड़े उद्देश्य पूर्ति हेतु व्यक्तिगत अपमान सहन करना पड़े तो सहन करना ही बुद्धिमानी है यदि इस अपमान सहन से आगे का रास्ता प्रशस्त हो सकता है। इस बातचीत के बाद मैंने मुंबई के लिए प्रस्थान किया।

मुंबई पहुँचकर श्री लिमये से मैंने कहा कि श्री डाँगे से युति फलस्वरूप कम्युनिस्टों को लाभ होगा। श्री लिमये ने कहा कि तुम्हारी बात सही है पर मैं स्वयं श्री डाँगे के पास सहायता के लिए नहीं गया था। श्री डांगे ने स्वयं पहल की है। उनके अलावा अन्य कोई भी हमें समर्थन नहीं दे रहा और ऐसे में श्री डाँगे की सहायता लेने से मेरे इंकार करने में कहाँ की बुद्धिमानी है। आप मुझ से बात करने आए हो पर मुंबई में बी.एम.एस. का काम कितना है। काम नगण्य है और फिर भी आप मुझसे इस तरह की बात कर रहे हो यह घृष्टता है। मैंने कहा इस घृष्टता के लिए मैं माफी माँगता हूँ किंतु यह सच है कि कम्युनिस्टों का आगे बढ़ना जितना बी.एम.एस. के लिए खतरनाक है उतना ही हिंद मजदूर पंचायत और सोशलिस्टों के लिए भी खतरनाक है। श्री लिमये ने कहा यह मैं जानता हूँ पर आप हमारी क्या सहायता कर सकते हैं।

मैंने कहा मैं मुंबई के अन्य सभी श्रम संगठनों से अगर आप मुझे अधिकार दें तो आपकी ओर से इस कार्यक्रम में शामिल होने की प्रार्थना कर सकता हूँ। श्री लिमये ने कहा मैंने यह करके देख लिया है। एक हिंद मजदूर सभा की शक्ति है पर उससे हमारा झगड़ा है। वह नहीं आएंगे फिर भी आप अगर प्रयास करना चाहते हैं तो मेरी अनुमति है।

मैंने अन्यान्य संगठनों से बातचीत प्रारंभ की। श्री लिमये के बारे में विभिन्न लोगों के मन में कुछ संकोच की भावना थी। हिंद मजदूर सभा के श्री एस. आर. कुलकर्णी ने समझदारी की बात की। उन्होंने कहा कि हिंद मजदूर पंचायत से हमारे अच्छे संबंध नहीं हैं किंतु आपके कहने के मुताबिक अगर बंद सफल होता है तो मुंबई ट्रेड यूनियन आंदोलन को बहुत लाभ होगा। श्री कुलकर्णी बंद में शामिल हो रहे हैं यह सुनकर अन्य बहुत से Non INTUC (गैर इंटक) संगठन भी बंद में शामिल होने के लिए तैयार हो गए। तत्पश्चात डिमेलो भवन पर इन सब की एक बैठक बुलाई गई जिसमें 20 अगस्त बंद की तारीख तय की गई। बैठक में एक समिति बनाई गई जिसके श्री एस. आर. कुलकर्णी अध्यक्ष, श्री मधुलिमये जनरल सेक्रेट्री और मुझे ट्रेजरार (वित्त सचिव) व संगठन मंत्री बनाया गया। बंद की समाप्ति पर कामगार मैदान पर एक आम सभा होनी थी जिस के लिए मजदूर शोभा यात्राएं विभिन्न दिशाओं से मैदान पर पहुँचने का कार्यक्रम था।

बंद को भारी सफलता मिली। मजदूर शोभा यात्राएँ लेकर कामगार मैदान के लिए निकले। उस समय मुंबई में सभी ओर एक ही कार्यक्रम चल रहा था यानी मजदूरों की शोभा यात्रा। मजदूर कामगार मैदान के पास पहुँचने के थोड़ा पहले मैं, श्री मधु लिमये और श्री कुलकर्णी मंच की बगल में खड़े होकर आपस में बातचीत कर रहे थे तभी सभा की अध्यक्षता करने के लिए जिन का नाम तय था वह श्री एन.जी.गोरे (प्रख्यात समाजवादी नेता) वहाँ आए। श्री गोरे हम सबके पास आ कर खड़े हो गए।

श्री गोरे ने मुझे वहाँ देखकर आश्चर्य व्यक्त किया। उन्होंने श्री लिमये से पूछा यह तो आर.एस.एस वाले हैं। यह यहाँ कैसे? श्री लिमये ने बताया कि सब यूनियनों को एकत्र लाने में इनका बड़ा योगदान है और हमारी समिति के यह संगठन मंत्री हैं।

श्री गोरे एकदम गुस्सा हो गए और कहा जो कुछ भी हुआ हो मैं इस कम्युनॅलिस्ट के साथ इस कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकता। मेरी अध्यक्षता में मैं इनका भाषण नहीं होने दूँगा। श्री लिमये ने उन्हें बहुत समझाया पर वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। इधर यह संकट खड़ा हो गया उधर मैदान पर शोभा यात्राएँ पहुँचनी प्रारंभ हो गई। पूरा मैदान झंडों और बैनर्स से भर गया। लोग बैठते जा रहे थे उस समय मंच के पास हमारी यह बातचीत चल रही थी।

श्री लिमये ने श्री गोरे को कहा कि आप अपने सिद्धांत के कारण यह पक्ष ले रहे हैं किंतु सोचिए जिस व्यक्ति के प्रयास से सब यूनियन इकट्ठा आए अब उसी को मंच पर न बिठाना, भाषण नहीं होने देना सबको अटपटा तो लगेगा यह अन्याय कारक भी होगा। श्री गोरे ने कहा एक मार्ग है - मेरे मंच पर जाने और अध्यक्ष का आसन ग्रहण करने के पूर्व यह मंच पर जाएँ, संक्षिप्त भाषण दें और अध्यक्षता के लिए मेरे नाम का सुझाव देकर यह मंच पर एक ओर बैठ जाएँ।

ऐसा ही हुआ। प्रारंभ में भाषण के लिए मैं खड़ा हुआ-पंद्रह मिनट बोला इस कार्यक्रम का प्रयोजन बताया। कार्यक्रम सफल बनाने के लिए मुंबई के समस्त श्रमिक बंधुओं का अभिनंदन किया, बधाई दी और सभा की अध्यक्षता के लिए श्रीमान नाना साहेब गोरे का नाम प्रस्तावित करते हुए श्री गोरे से प्रार्थना की वह अध्यक्ष का स्थान ग्रहण करें।

इतना बोलकर मैं मंच के एक ओर कुर्सी पर बैठ गया और नाना साहेब ने सभा की कार्यवाही प्रारंभ की। इधर यह ऐसा क्यों हुआ, क्यों हो रहा है आदि का अंदाजा सभा में बैठे आम मजदूरों को समझना कठिन था किंतु सभा में उपस्थित बी.एम.एस तथा आर.एस.एस कार्यकर्ताओं के लिए यह अंदाजा लगाना सरल था कि वास्तव में क्या हुआ होगा। सभा समाप्त हुई, शांति रही और सभा यशस्वी हुई। मजदूर दुगना उत्साह लेकर वापस गए। हम तीनों ने नाना साहेब को विदाई दी और श्री लिमये व श्री कुलकर्णी से छुट्टी ले मैं जिस होटल में ठहरा हुआ था वहाँ पहुँचा।

मेरे कमरे में मैंने देखा वहाँ बी.एम.एस के अपने दस बारह कार्यकर्ता पहले से ही बैठे मेरा इंतजार कर रहे थे। कमरे में प्रवेश करते ही उन्होंने अपना रोष व्यक्त किया और कहा कि सभा में बैठे दूसरे लोगों को भले ही यह ध्यान में नहीं आया होगा किंतु हम लोग तो समझ गए कि आप को अपमानित करने की यह सोशलिस्टों की चाल थी। उन्होंने अपने स्वभावानुसार यह किया किंतु आप ने स्वीकार क्यों किया। मैंने अपने इन कार्यकर्ताओं को समझाया कि वास्तव में श्री मधु लिमये ने बहुत प्रयास किया-प्रामाणिकता से प्रयास किया किंतु नाना साहेब गोरे नहीं माने। नाना साहेब गोरे की जिद और वहाँ परिस्थिति ठीक रखने के लिए श्री मधु लिमये को भी श्री गोरे का सुझाव मानना पड़ा। इतना सुनने के पश्चात श्री गोरे को दोष देते हुए हमारे कार्यकर्ता बाहर चले गए"।

(स्मृति गंध, वि.प्र., पृ. 15-22)

उपरोक्त से स्पष्ट है कि श्री ठेंगड़ी जी के अनथक प्रयास उस समय के प्रख्यात कम्युनिस्ट व एटक नेता श्रीपाद अमृत डाँगे को अलग थलग (Isolate) करने में सफल हुए और तदुपरांत बी.एम.एस का काम मुंबई में द्रुतगति से बढ़ा किंतु श्री ठेंगड़ी को अपमान बी.एम.एस का काम मुंबई घूँट भरना पड़ा।

एक तपस - घोर तपस्या

वर्ष 1955 से 1967 प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन तक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी एक यायावर की भाँति अलख जगाए समूचे देश की माटी छानते फिरे। साधन विहीन, धनहींन न कोई पदाधिकारी न कार्यसमिति न कार्यालय केवल एक नाम भारतीय मजदूर संघ और उसका ध्वज (भगवा) कंधे पर उठाए वह अडिग अविचल लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते रहे और काफिला बनता गया। राष्ट्रवाद एवं दत्तोपंत जी के नेतृत्व से आकर्षित होकर प्रारंभिक काल के कठिन दौर में जो अधिवक्ता आगे आए उन में श्री मनहर भाई मेहता (महाराष्ट्र) श्री गोविंदराव आठवले (विदर्भ) श्री नरेश चंद्र गांगुली (बंगाल) श्री बी.पी. जोशी (दिल्ली) थे।

वर्ष 1955 से 1967 बारह वर्ष का काल खंड एक तपस घोर तपस्या, अनजानी अनचाही विपदाओं और संकटों से भरपूर था किंतु ध्येय समर्पित कार्यकर्ता उक्त संकटों से बेपरवाह लक्ष्य की ओर निरंतर आगे बढ़ते रहे।

नागपुर बैठक

अखिल भारतीय अधिवेशन भले ही वर्ष 1967 में हुआ किंतु उसके पूर्व देशभर में श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी स्थान-स्थान पर छोटी-छोटी यूनियनों का गठन कर चुके थे और कुछ प्रांतीय स्तर की समितियों का भी गठन हुआ था। प्रांत स्तर पर तथा औद्योगिक क्षेत्र में अखिल भारतीय स्तर पर जो कार्यकर्ता उस समय सक्रिय थे ऐसे प्रमुख कार्यकर्ताओं की एक महत्वपूर्ण बैठक अक्टूबर 1964 में नागपुर में हुई थी। उस बैठक का संक्षिप्त विवरण नागपुर से श्री गो. का. आठवले के शब्दों में इस प्रकार है "इस बैठक में देशांतर्गत मजदूर आंदोलनों का समग्र इतिहास, ए. आई. टी. यू. सी. स्थापना से देश की साम्यवादी, समाजवादी, कांग्रेस प्रणीत इंटक, हिंद मजदूर सभा, हिंद मजदूर पंचायत आदि दर्शाया एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित राजनीतिक पक्षों से स्वतंत्र, देशभक्ति प्रेरित भारतीय मजदूर संघ की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से बताया गया। इस बैठक को बहुत महत्वपूर्ण माना गया। बैठक में मुख्यतया निम्न कार्यकर्ता उपस्थित थे : सर्व श्री दादासाहेब काम्बले, भाऊ साहेब वैद्य, रासबिहारी मैत्र, रामनरेश सिंह, किशोर देशपांडे, बाला साहेब साठ्ये, रमण भाई शाह, डॉ. किनरे, प्रभाकर घाटे, सुखनंदन सिंह, वामनराव पत्तरकिने, वसंतराव देवपुजारी, आठवले, आब्वा पुराणिक, चंद्रायण इत्यादि 30-35 कार्यकर्ता थे। वर्ष 1955 से 1964 तक श्री ठेंगड़ी जी के अथक प्रयासों से संगठन का अखिल भारतीय स्वरूप तो बन गया था किंतु राष्ट्रीय अध्यक्ष, महामन्त्री एवं कार्यकारिणी का गठन नहीं हुआ था। (श्री गोविंद राव जी आठवले के महत्वपूर्ण संस्मरण "मा. दत्तोपंत जी ठेंगड़ी की कार्यपद्धिति एवं कुछ संस्मरण" शीर्षक से इस खंड के सोपान-6 में प्रकाशित किए हैं)

लंबी छलाँग

प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन 1967 से द्वितीय अधिवेशन 1970 की मध्यावधि में मजदूर संघ ने लंबी छलाँग लगाई। सदस्य संख्या दुगनी बढ़ाई-अनेक प्रदेशों में संगठन को मान्यता प्राप्त हुई। निपुण निष्ठावान और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ी। आंदोलनात्मक तथा संगठनात्मक दोनों मोर्चों पर सक्रियता बढ़ी। कार्यकर्ताओं की दक्षता, जानकारी एवं समर्पण भाव पुष्ट हो, अतः वर्ष 1968 भुसावल (महाराष्ट्र) में प्रथम अखिल भारतीय अभ्यास वर्ग का आयोजन किया गया। पाँच दिवसीय अभ्यास वर्ग में 22 बौद्धिक वर्ग (भाषण) हुए जिसमें अखिल भारतीय स्तर के अनेक योग्य अधिकारियों तथा विद्वानों ने कार्यकर्ताओं का ज्ञानवर्धन किया।

वर्ष 1968 में एक और बड़ा ट्रेड यूनियन आंदोलन हुआ। 19 सितंबर 1968 के केंद्रीय कर्मियों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल हुई जिसमें भारतीय रेलवे मजदूर संघ व भारतीय प्रतिरक्षा मजदूर महासंघ ने सक्रिय भागीदारी की। परिणामस्वरूप अनेक कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए। निलंबन हुआ और सेवामुक्त भी कर दिए गए। श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी था श्री बी.एल.शर्मा प्रेम को भी जेल भेज दिया गया। भारत सरकार ने न्यायाधीश गजेंद्र गडकर की अध्यक्षता में प्रथम राष्ट्रीय श्रम आयोग का गठन किया। भारतीय मजदूर संघ ने जो प्रतिवेदन आयोग को दिया वह 'श्रम नीति' शीर्षक से पुस्तक के रूप में प्रकाशित की गयी है, जिसमें भारतीय आर्थिक वाङ्‌मय का विषद् विवेचन तथा समग्र चिंतन है। श्रम नीति का यह प्रामाणिक ग्रंथ है। आगे वर्ष 1999 में जब पूर्व केंद्रीय श्रम मंत्री श्री रवींद्र वर्मा की अध्यक्षता में द्वितीय राष्ट्रीय श्रम आयोग का गठन हुआ तो उसकी आठ श्रमिक विरोधी अनुशंसाओं पर केवल भा.म.सं. प्रतिनिधि श्री सी.के. सजीनारायणन ने लिखित विरोध किया। प्रथम अधिवेशन के उपरांत देश के महत्वपूर्ण उद्योगों, सरकारी विभागों आदि में भा.म.सं. संगठन तेजी से निर्मित होने लगे। वर्ष 1969 में राजनीतिक रणनीति के नाते श्रीमती इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। भा.म.सं. ने उस समय एक पुस्तिका Nationalisation or Governmentalisation (राष्ट्रीयकरण अथवा सरकारीकरण) शीर्षक से प्रकाशित की थी जिसे अन्य राष्ट्रीयकरण विरोधी संगठनों ने भी मुद्रित किया।

बैंकों में अच्छी संख्या में स्वयंसेवक होने के कारण सर्वप्रथम नागपुर के कुछ स्वयंसेवक बैंक कर्मचारियों ने श्री आबा जी पुराणिक के नेतृत्व में बैंकों में संगठन कार्यक्रम प्रारंभ किया और AIBEA की मध्यप्रदेश स्थित दो इकाईयों पर अपना प्रभुत्व जमाया। इस कारण साम्यवादी नेतृत्व में खलबली मच गई और भा.म.सं. को बैंकों में प्रवेश ही नहीं करने देना यह नीति उन्होंने बनाई।

वैसे NOBW (भा.म.सं.) की स्थापना दिल्ली के एक अधिवेशन में हुई किंतु उसकी पूर्व तैयारी के नाते कानपुर प्रदेश कार्यालय पर बड़े भाई (स्व.रामनरेश सिंह) ने अपने सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं की बैठक में निश्चित् किया कि बैंकों में अपना संगठन बनाया जाए और उसका नाम नेशनल आर्गेनाईजेशन आफ बैंक वर्कर्स (NOBW) रखा जाए। प्रारंभ में पंजाब नेशनल बैंक तथा विदर्भ की बैंक दो ही यूनिट NOBW के साथ आए किंतु अनेक झंझटों व कठिनाईयों के बावजूद कार्य आगे बढ़ते गया जिसमें श्री आबा पुराणिक (विदर्भ) तथा श्री राज कृष्ण भगत (पंजाब) ने कर्मचारियों को योग्य नेतृत्व प्रदान किया।

अज्ञान से ज्ञान की ओर, और ज्ञान से उच्च ज्ञान की ओर, अंधेरे से प्रकाश की ओर, विवादों से सौहार्द्र की ओर, घृणा से प्रेम की ओर, वस्तुओं के प्रति संकुचित से वृहद दृष्टिकोण की ओर, विभाजन से एकता की ओर, परतंत्रता से स्वतंत्रता की ओर, मूल्यहीनता से जीवन के अनंत जीवन मूल्यों की ओर, ज्ञात से अज्ञात की ओर सदैव उन्नति करते जाना। अंततः अभाव और भय से मुक्त होकर आत्म-ज्ञान के लक्ष्य की ओर किसी भी आध्यात्मिक अनुशासन के माध्यम से आगे बढ़ना।

दादा साहेब काम्बले


खंड - 1 ( भाग- 1)

सोपान - 3

1. अखिल भारतीय अधिवेशन

2. दादा साहब गायकवाड़ के विचार

3. मा. भाऊ राव देवरस का मार्गदर्शन

4. श्री ठेंगड़ी द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन

5. सोवियत संघ प्रवास : रोचक प्रसंग

6. द्वितीय अखिल भारतीय अधिवेशन

7. मा. रज्जू भैय्या जी का उद्बोधन

8. श्री ठेंगड़ी द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन


प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन

13-14 अगस्त 1967 ( दिल्ली)

प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन 13 व 14 अगस्त 1967 को नई दिल्ली स्थित पँचकुइयां रोड के कम्युनिटी हाल में संपन्न हुआ। प्रथम अधिवेशन के उद्घाटक थे श्री दादा साहेब गायकवाड़। उनका परिचय देते हुए श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने कहा - "भा.म.संघ के प्रथम अधिवेशन का उद्घाटन वयोवृद्ध सेनानी श्री दादा साहेब गायकवाड़ द्वारा होने जा रहा है। आप रिपब्लिकन पार्टी के प्रधान हैं। आप संविधान रचयिता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के दाहिने हाथ रहे हैं। आप के ही कंधों पर कार्य का पूरा बोझ सौंपकर बाबासाहेब इस दुनिया से चले गए। मैं प्रार्थना करता हूँ कि वे हमारा मार्गदर्शन करें।"

श्री गायकवाड़ ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा "आज भारत के करोड़ों मजदूर गरीबी तथा भुखमरी के शिकार हैं। करोड़ों लोग पूर्ण बेकार हैं, देहातों में रहने वाले करोड़ों खेतिहर मजदूरों को कुछ महीने का ही काम मिलता है, वर्ष के छह-सात महीने बेकार रहते हैं।"

इस अधिवेशन को तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री वी.वी.गिरि का शुभ संदेश आया था। उन्होंने अपने शुभ संदेश में कहा था - "लगभग अर्ध शताब्दी के मजदूर आंदोलन के बावजूद भारतवर्ष में श्रमिक वर्ग अच्छी तरह से संगठित नहीं है। इसके कारण खोजने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है - उदाहरणार्थ, कामगारों में निरक्षरता, संगठन का अभाव, राजनैतिक प्रतिद्वंदिता तथा औद्योगिक मतभेदों के सुलझाने के लिए बाहरी शक्तियों पर विश्वास-ये मजदूर आंदोलन की दैन्यपूर्ण स्थिति के लिए जिम्मेवार हैं।

"मुझे विश्वास है कि भारतीय मजदूर संघ का सम्मेलन, जो कि इस समय प्रथम बार अपने वार्षिक अधिवेशन के लिए हो रहा है, देश के लिए वैभव के एक नए युग को प्राप्त कराने में सहायक होगा।"

इसी प्रकार तत्कालीन केंद्रीय श्रम एवं नियोजन मंत्री श्री जयसुखलाल हाथी ने अपने शुभ संदेश में कहा था कि - "आर्थिक उत्पाद राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए अनिवार्य है और श्रमिक को उत्पादन चक्र को सतत चलाते रहने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होती है। मैं आशा करता हूँ कि भा.म.संघ इस रचनात्मक कार्य को करेगा।"

इनके अलावा अनेक नेताओं एवं गणमान्य व्यक्तियों के शुभ संदेश का वाचन भी उद्घाटन के समय हुआ। शानदार उद्घाटन समारोह के बाद पहले सत्र में ही प्रदेशशः और औद्योगिक महासंघशः प्रतिवेदन प्रस्तुत किए गए।

भारतीय मजदूर संघ के सभी प्रदेशों एवं अखिल भारतीय औद्योगिक महासंघों के महामंत्रियों ने अपने-अपने प्रदेश व महासंघ का वृत्त प्रस्तुत किया। प्रदेश के जो वृत्त दिए गए, उनमें श्री ओमप्रकाश अग्गी ने पंजाब, चंडीगढ़ व हिमाचल प्रदेश, डॉ. कृष्ण गोपाल ने हरियाणा प्रदेश, श्री चाँदरतन आचार्य ने राजस्थान, श्री रामकृष्ण भास्कर ने दिल्ली प्रदेश, श्री राम नरेश सिंह ने उत्तर प्रदेश, श्री रामदेव प्रसाद ने बिहार, श्री महात्मा मिश्र ने बंगाल, श्री सत्येन्द्र नारायण सिंह ने उत्कल प्रदेश, श्री रामभाऊ जोशी ने मध्य प्रदेश, श्री केशव भाई ठक्कर ने गुजरात, श्री गोविंदराव आठवले ने विदर्भ प्रदेश, श्री रमन भाई शाह ने महाराष्ट्र प्रदेश, श्री प्रभाकर घाटे ने मैसूर प्रदेश, श्री हरिराव ने आंध्र, श्री अरुमुगम् ने चेन्नई तथा श्री आर. वेणुगोपाल ने केरल के प्रभारी के नाते वृत्त प्रस्तुत किया। साथ ही भारतीय वस्त्र-उद्योग कर्मचारी संघ का श्री किशोर देशपांडे, भारतीय इंजीनियररिंग मजदूर संघ का श्री रामकृष्ण त्रिपाठी, भारतीय रेलवे मजदूर संघ का श्री अमलदार सिंह, अखिल भारतीय सुगर मिल मजदूर संघ का श्री सुधीर सिंह, भारतीय प्रतिरक्षा मजदूर संघ का श्री राम प्रकाश मिश्र, अखिल भारतीय खदान मजदूर संघ का श्री बद्रिकानाथ तथा अखिल भारतीय विद्युत मजदूर संघ का श्री वी.एन.साठ्ये ने वृत्त प्रस्तुत किया।

मा. भाऊराव देवरस जी का उद्बोधन

रा.स्व.संघ के वरिष्ठ प्रचारक मा.भाऊराव देवरस जी ने अपने बौद्धिक में कहा:- "कार्यकर्ताओं का आग्रह है कि संगठन के संबंध में और अन्य प्रासंगिक कुछ बातें मैं रखूँ, अतः अधिक समय न लेकर मैं सामान्य बातें ही रखूँगा। ऐसे अधिवेशनों में चुनौती भरे बड़े बड़े प्रस्ताव पारित करके हम समझते हैं कि काम पूरा हो गया। विघटन का वायुमंडल चल रहा है, प्रांत के नाम पर, भाषा के नाम पर, अलगाव की वृत्ति जागृत की जा रही है। यद्यपि यह प्रवृत्ति राजनैतिक क्षेत्र में अधिक है, तो भी ऐसे वातावरण के बीच हमें अपना कार्य खड़ा करना है।

हमारी प्रेरणा

यह कठिन कार्य अवश्य है पर हमें सोचना होगा कि हमारी प्रेरणा क्या है? व्यक्तिगत स्वार्थ, पदलिप्सा, मान सम्मान की भूख लेकर चलने वाले कार्यकर्ता, किसी महान लक्ष्य को लेकर नहीं चल सकते। हमने महान लक्ष्य रखा है, अतः पहले अपनी जीवन प्रेरणाओं का ज्ञान करें।

राजनीति से दूर

आजकल अनेक संगठन चलते हैं। नाम चाहे किसान का हो अथवा मजदूर का, पर वे किसी न किसी राजनैतिक दल के पिछलग्गू होते हैं। उनके उद्देश्य भिन्न और कार्य भिन्न होते हैं। ऐसे कार्य या संगठन खड़े नहीं हो पाते। आप सब कार्यकर्ताओं के सामने एक लक्ष्य चाहिए। राजनैतिक दलों से पृथक रहकर काम करना चाहिए। राजसत्ता पाने के लिए जो भी मंच सुगमता से मिल सके वह मंच पकड़ना यह अपने कार्यकर्ताओं की दृष्टि नहीं है। यद्यपि राजनीति के माध्यम से अन्य बहुत सी चीजें प्राप्त हो सकती हैं, किंतु उस दुर्बलता को त्याग कर बिना अन्य किसी और उद्देश्य के अपनाए अगर हम कार्य करेंगे तभी हमें सफलता मिलेगी।

आत्म निर्भरता आवश्यक

किसी भी संगठन को साधनों की आवश्यकता रहती है। पर संगठन में अर्थ की प्रधानता उसके निर्माण में बाधा उत्नन्न करती है। संगठन के कार्यकर्ता और अर्थ का योग कहीं और से प्राप्त होना यह कार्य को चौपट कर देने वाली बात है। साधन प्रधानता आते ही संगठन चला पाना संभव नहीं होता। जो संगठन स्वयं अपने प्रयास से साधन जुटाते हैं वे ही सफलतापूर्वक चल पाते हैं। संगठन को सदैव ही अपने पैरों पर खडे होने की सामर्थ्य की ओर ध्यान देना चाहिए। तभी उसकी नीति स्वतंत्र रह सकती है।

योग्य व्यवहार

संगठन के लिए योग्य व्यवहार भी बड़ा जरूरी है। बातचीत में शब्द प्रयोग का बड़ा भारी महत्व है। मन में कुछ न रहते हुए भी वाणी पर संतुलन रखना होगा। जहाँ कार्यकर्ता में यह भाव आ जाता है कि हम नेता हैं ओर अन्य अनुयायी - वहीं गड़बड़ी प्रारंभ हो जाती है। दूसरों के विचार सुनने की तैयारी चाहिए। मैं जो कहता हूँ, वही ठीक-अन्य जो कह रहे हैं वह ठीक नहीं हैं यह बात संगठन को खड़ा करने में बाधक होती है। हमारे अंदर सहनशीलता चाहिए और दूसरे की भावनाओं का आदर करने की तत्परता।

आत्मीयता का भाव

साधारण रूप से लोकतंत्रानुसार हम लोग विरोध करें, अपनी बात रखें, सभी पहलुओं पर विचार करें, सबका मत लें। किंतु किसी पर छींटाकशी न करें। संगठन-शास्त्र का यही नियम है कि आत्मीय भाव व आत्मीयता से सबके साथ व्यवहार करें। कोई भी कार्यकर्ता जिम्मेवारी से, निस्वार्थ भाव से जब काम करता है तो सारी बातें उसके जीवन में स्वतः आ जाती हैं।

रचनात्मक दृष्टि

मजदूर क्षेत्र का कार्य आंदोलनात्मक होने के बाद भी रचनात्मक दृष्टि आवश्यक है। अधिकारों और सुविधाओं के लिए जहाँ संघर्ष करना जरुरी है वहाँ रचनात्मक कार्यों की भी आवश्यकता है इसका आप सब विचार करें तभी संगठन पूर्ण होगा। आप इन सब बातों पर विचार करें और अपने अपने क्षेत्र में जाकर उसे अमल में लाएं यही मेरा आग्रह है।"

श्री ठेंगड़ी जी द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन

सम्माननीय अध्यक्ष महोदय और प्रिय प्रतिनिधि बंधुगण,

भारतीय मजदूर संघ का यह प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन भारत के श्रम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाएगा क्योंकि इस इतिहास के नए गौरवशाली पर्व के उद्घाटन की अधिकृत घोषणा यह सम्मेलन कर रहा है।

घोषणा आज हो रही है, परंतु इसकी पृष्ठभूमि बनाने में ठीक 12 साल की अवधि बीत गई। हमारी परंपरा में एक तपस की अवधि 12 साल मानी गई है। अतः आज उद्घोषित नूतन श्रम संगठन विधिवत् तप:पूत बन चुका है।

23 जुलाई 1955 को हम प्रथम बार भोपाल में एकत्र हुए थे। वह सम्मेलन मजदूर तथा देश का कल्याण चाहने वाले कार्यकर्ताओं का था। श्रम क्षेत्र की स्थिति के विभिन्न पहलुओं पर उस समय विचार-विमर्श हुआ। सर्व प्रथम यही विचार सामने आया कि नए संगठन का निर्माण नहीं किया जाए, क्योंकि उसके कारण मजदूर एकता में बाधा आएगी। साथ ही साथ यह सोचा गया कि यदि नया संगठन खड़ा नहीं किया तो, आदर्श श्रम संगठन संस्था के अभाव में देश और मजदूर जाति को बहुत नुकसान उठाना पड़ेगा। ट्रेड यूनियनें सही ट्रेड यूनियन के आधार पर चलें। उसका उद्देश्य मजदूर तथा देश का कल्याण रहे। मजदूर, उद्योग तथा राष्ट्र तीनों के हित एक ही दिशा में जाने वाले हैं।

नए संगठन की मान्यता, 'अधिकार और कर्तव्य' दोनों पर ट्रेड यूनियनें समान आग्रह रखें। व्यक्तिगत नेतागिरि, राजनीतिक दलगत स्वार्थ, मालिक, सरकार और विदेशी विचारधारा का प्रभाव-इन जैसी बातों से संगठन सर्वथा मुक्त रहे। संगठन राजनैतिक दल निरपेक्ष सभी राष्ट्रवादी तत्वों के लिए एक सामान्य मंच के नाते कार्य करे। राष्ट्र संस्कृति तथा परंपरा के आलोक में मजदूरों को, मजदूरों के लिए और मजदूरों द्वारा चलाई गई संस्था की भूमिका का वह निर्वाह करे और मजदूरों का संपूर्ण राष्ट्र के साथ मनोवैज्ञानिक एकात्म्य स्थापित करते हुए अधिकतम उत्पादन के द्वारा राष्ट्रोत्थान के कार्य में महत्वपूर्ण सहयोग देने में सहायक सिद्ध हो। इस कसौटी पर वर्तमान श्रम संस्थाएँ असंतोषजनक प्रतीत हुई। इस कारण उपरिनिर्दिष्ट तत्वों की पूर्ति करने वाले श्रम संगठन का निर्माण भारत की ऐतिहासिक आवश्यकता मानी गई।

यह स्वाभाविक ही था कि प्रारंभ में यत्र-तत्र खुदरा दुकानदारी ही हमें शुरू करनी पड़ी। उन दिनों हमारे कार्यकर्ताओं की संख्या बहुत धीरे-धीरे बढ़ रही थी और जो मैदान में आए, उनकी स्थिति चक्रव्यूह में घिरे अभिमन्यु के समान थी। एक तो लगभग सभी क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा रखने वाली अन्य यूनियनें पहले से ही व्याप्त थीं, दूसरी बात यह कि हमारे कार्यकर्ता इस क्षेत्र के अनभ्यस्त तथा मजदूरों के लिए अपरिचित थे और मुकाबला था प्रख्यात पुराने नेताओं से। साथ ही किसी भी नई संस्था को आरंभ से ही कुचल देने की मालिक तथा सरकार की प्रवृत्ति का भी मुकाबला करना पड़ा। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में, जबकि आशा की किरण कहीं भी दिखाई नहीं देती थी, धीरज के साथ निष्काम बुद्धि से प्रयास जारी रखने की क्षमता आदर्श निष्ठा के ही कारण हमारे कार्यकर्ताओं को प्राप्त हुई-इसमें संदेह नहीं।

प्रारंभिक प्रगति

हमारे प्रादेशिक महामंत्रियों, संगठन मंत्रियों तथा अखिल भारतीय महासंघों के मंत्रियों के प्रतिवेदनों से हमारी स्थिति-गति-प्रगति का संपूर्ण चित्र हमारे सामने उपस्थित हुआ है। (1) आज हमारे पास पूर्ण समय देकर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या 75 है। (2) सदस्य संख्या आज कुल मिलाकर 2,50,000 है। (3) संलग्न यूनियनों की संख्या 500 से ऊपर है (4) जगह-जगह कार्य को आर्थिक स्वयंपूर्णता प्राप्त हो रही है। (5) श्रम कानून में विशेषज्ञ कार्यकर्ता एवं वकीलों की संख्या भी पर्याप्त हो रही है। (6) अखिल भारतीय तथा प्रादेशिक कार्यालयों की सक्रियता एवं सूक्षमता उचित सीमा तक पहुँच रही है (7) भा.म.संघ के मुखपत्र के नाते बंबई से 'मजदूर वार्ता' का प्रकाशन आरंभ हुआ है और उसका प्रसारक्षेत्र विभिन्न प्रदेशों में बढ़ता जा रहा है। (8) श्रमिक वर्ग में मान्यता भी बढ़ रही है। बहुसंख्य प्रदेशों में एक प्रभावी श्रम संगठन के नाते भारतीय मजदूर संघ जनमानस में स्थान प्राप्त कर रहा है। (9) दिल्ली और उत्तर प्रदेश में राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त होने की निश्चित संभावना दिख रही है और (10) भारत सरकार ने भी इस वर्ष के (ऐन्नयुअल रिटर्न्स) के आधार पर हमारी मान्यता के प्रश्न का निर्णय करने का निश्चय किया है। रेलवे मंत्रालय के सम्मुख भारतीय रेलवे मजदूर संघ को मान्यता देने का प्रश्न विचाराधीन है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस संगठन के बढ़ते हुए प्रभाव और यशस्विता के विषय में देश के राष्ट्रवादी तत्वों के मन में अब दृढ़ विश्वास तथा आशा पैदा हो रही है। कार्य की प्रारंभिक अवस्था के नाते यह स्थिति संतोषजनक है। यद्यपि हम यह कदापि न भूलें कि यह संतोषजनक स्थिति प्रारंभिक अवस्था के नाते ही है।

हमारे कार्यकर्ता इसी लगन से कार्य में जुट गए तो अखिल भारतीय मान्यता हमें शीघ्र ही प्राप्त होगी, इसमें संदेह नहीं है। यहाँ मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि अखिल भारतीय मान्यता को हम उतना और उस ढंग का महत्व नहीं देते, जितना और जिस ढंग का महत्व इसको अन्य श्रम संस्थाएँ देती हैं। उनका अंतिम गंतव्य स्थान नजदीक का ही है। इसलिए अखिल भारतीय मान्यता और उसके द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ उनके लिए परमोच्च लक्ष्य हैं। हमारे लिए यह लक्ष्य परमोच्च नहीं। हमारा गंतव्य स्थान अतिदूर है, किंतु हाँ, वहाँ तक पहुँचने के लिए मान्यता के द्वार से भी गुजरने की आवश्यकता है।

यह बात स्पष्ट है कि भारत की अन्यान्य श्रम संस्थाओं की तरह केवल यही भूमिका भारतीय मजदूर संघ की नहीं है। अपने सिद्धांतों तथा पद्धतियों के कारण भा.म.संघ अपने ढंग की अकेली संस्था है। हमारे लिए यह गौरव का विषय है कि हम सबको इसके निर्माण का श्रेय है। क्योंकि यह संस्था सही अर्थ में अपौरुषेय है। यह भारत की राष्ट्रशक्ति के संकल्प का आविष्कार मात्र है।

भारत का नव जागृत मजदूर आशाभरी दृष्टि से इस अधिवेशन की ओर देख रहा है। आज वह जीवन-मरण के प्रश्न का मुकाबला कर रहा है। आसमान को छूने वाली महँगाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है और क्षतिपूर्ति शत-प्रतिशत न करने का निश्चय सरकार तथा मालिकों का है। बेकारी, अर्धबेकारी, छँटनी और मजदूर विरोधी नीतियों में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। मजदूरों की सेवा की सुरक्षा तथा असली वेतन निरंतर घटता जा रहा है। इन परिस्थितियों में मजदूरों को एक ओर साहसवाद का और दूसरी तरफ समर्पण का शिकार न बनाते हुए वास्तविकतावाद के आधार पर उनकी प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना आपका दायित्व है। यह विश्वास है कि इस दायित्व का निर्वाह यह अधिवेशन करेगा और अपने नए रचनात्मक नेतृत्व का परिचय देगा।"

(शून्य से सृष्टि पृ. 53-58)

पदाधिकारियों का चुनाव

श्री अमलदार सिंह के प्रस्ताव व श्री चाँदरतन आचार्य के समर्थन के उपरांत सर्वसम्मति से अध्यक्ष पद के लिए श्री दादा साहेब कांबले (नागपुर) निर्वाचित किए गए।

श्री अमलदार सिंह के प्रस्ताव व श्री गोविंदराव आठवले के समर्थन के उपरांत उपाध्यक्ष पद के लिए तीन नाम सर्वश्री गजाननराव गोखले, वी.पी.जोशी व रमाशंकर सिंह सर्वसम्मति से निर्वाचित किए गए।

श्री बी.एन.साठ्ये के प्रस्ताव व श्री राम नरेश सिंह के अनुमोदन के उपरांत सर्व-सम्मति से श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी महामंत्री चुने गए।

श्री पिंपलखरे के प्रस्ताव पर तथा श्री गजानन राव गोखले के समर्थन पर सर्वसम्मति से ये तीन नाम सर्वश्री रामनरेश सिंह, ओमप्रकाश अग्गी व प्रभाकर घाटे मंत्री पद के लिए निर्वाचित किए गए।

श्री बी.एन.साठ्ये के प्रस्ताव व श्री गजानन राव गोखले के अनुमोदन के उपरांत सर्वसम्मति से श्री मनहर भाई मेहता कोषाध्यक्ष पद के लिए चुने गए।

अखिल भारतीय कार्यसमिति के शेष सदस्यों के नामों की घोषणा नवनिर्वाचित अध्यक्ष श्री दादा साहेब कांबले ने की। श्री बी.एन.साठ्ये मुंबई, केंद्रीय कार्यालय में मंत्री नियुक्त किए गए।

केंद्रीय कार्यालय-राजन बिल्डिंग, पोईबावड़ी, परेल, मुंबई-12 निश्चित किया गया।

श्री दादा साहेब कांबले की अध्यक्षता में निर्मित प्रथम केंद्रीय सलाहकार समिति के निम्न सदस्य थे :-

1. श्री बी.के.मुखर्जी, लखनऊ

2. श्री रघुनाथ सहाय जैन, गाजियाबाद

3. श्री हंसदेव सिंह गौतम, कानपुर

4. श्री एस.कृष्णाय्या, बेंगलूर

5. श्री चमनलाल भारद्वाज, दिल्ली

6. श्री मोहनराव गवंडी, पुणे

7. श्री भाऊसाहेब वैद्य, नागपुर

सोवियत संघ प्रवास : रोचक प्रसंग

सोवियत संघ में श्री ठेंगड़ी जी का प्रवास काफी दिलचस्प रहा। श्री ठेंगड़ी कम्युनिस्ट रूस की आर्थिक नीतियों, औद्यौगिक माडल एवं सामाजिक स्थिति का अवलोकन, अध्ययन करके तत्कालीन उप राष्ट्रपति श्री वी.वी.गिरि को अनौपचारिक जानकारी देंगे इस हेतु श्री गिरि के आग्रह पर श्री ठेंगड़ी जी को रूस दौरे पर जाने वाले संसदीय प्रतिनिधि-मंडल में सम्मिलित किया गया था। उक्त प्रतिनिधिमंडल के वापस लौटने के उपरांत श्री गिरि को सरकारी दौरे पर रूस जाना था अतः वह वहाँ की प्रामाणिक जानकारी चाहते थे जिसके लिए उन्होंने श्री ठेंगड़ी को चुना। श्री ठेंगड़ी ने रूस की आर्थिक नीतियों आदि संबंधी जो जानकारी श्री गिरि को दी उसके अतिरिक्त उनके व्यक्तिगत अनुभव भी बड़े रोचक किंतु ज्ञानवर्धक हैं। रूस प्रवास के उनके कुछ संस्मरण स्वयं उनकी लेखनी से इस प्रकार है :-

राष्ट्रीय सम्मान के प्रतीक

"सन 1968 में भारतीय संसद का प्रतिनिधि मंडल सोवियत संघ गया था, उसका मैं सदस्य था। श्रीमान नीलम संजीव रेड्डी उसके प्रमुख थे। उस दौरे में हमारे अनुरक्षक (एस्कोर्ट) लेनिनग्राद (सेंट पीटर्सबर्ग) से पूरी टीम को स्टीमर से पेट्रोग्राड ले गए। पेट्रोग्राड सर्दियों में जार की राजधानी रहती थी। वहाँ जार का बड़ा पैलेस है। संपूर्ण क्षेत्र में देवताओं के पुतले वहाँ के बगीचे में नए सिरे से बनाए गए थे। हमने पूछा ये किसके पुतले हैं? उत्तर मिला ग्रीक देवताओं के, जैसे जूपिटर, वीनस आदि। हम लोगों ने पूछा, आप कम्युनिस्ट देवताओं पर विश्वास नहीं रखते फिर आपने ये पुतले कैसे और क्यों बनाए-उत्तर आया, हम पूरी तरह नास्तिक हैं। किंतु हिटलर की सेना ने यह क्षेत्र कब्जे में लेने के बाद, जानबूझकर हमारा राष्ट्रीय अपमान करने हेतु यहाँ के प्राचीन देवताओं के पुतले तोड़ डाले। उन पुतलों ने उनका क्या बिगाड़ा था? हमारे राष्ट्रीय सम्मान को वापस करने के लिए हम पुनः इन पुतलों का पुनरुद्वार करेंगे। इस पुनरुद्वार का संबंध राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना से है। हमारी आस्तिकता नास्तिकता इसमें प्रासंगिक नहीं है।

कम्युनिस्ट की आराधना

मास्को में एक दिन सुबह हमें इंस्टीट्यूट ऑफ ऑरिएंटल स्ट्डीज में ले गए। वहाँ कुछ रशियन विद्वान भी उपस्थित थे। कार्यक्रम था श्री हिरेन् मुखर्जी का भाषण। विषय 'रिलिजन एंड गॉड' (धर्म और ईश्वर) मार्क्सिजम के आधार पर हिरेन् बाबू ने धर्म की धज्जियाँ उड़ाई और सिद्ध किया कि 'God is Fraud' (ईश्वर धोखा है। जालसाजी है) अब इस विषय में हम लोगों के वाद-विवाद करने का कोई प्रसंग ही नहीं था।

होटल में वापस आने के बाद दोपहर के समय मैं हिरेन् बाबू की एक पुस्तक उन्हें वापस करने के लिए गया। दरवाजा बंद था। हमें बताया गया था किसी के भी कमरे में बिना रिंग किए प्रवेश नहीं करना है क्योंकि अकेला होने के कारण व्यक्ति Natural Dress (निर्वस्त्र) में भी हो सकता है। मैंने दरवाजे के सामने खड़े होकर रिंग बजाई। किंतु मालूम होता था कि हिरेन् बाबू ने अपने दोनों कानों के Hearing Aids (सुनने वाले यंत्र) निकालकर बाजू में रखे थे। इस कारण उनके सुनने का सवाल ही नहीं था। इधर मुझे वापस जाने की जल्दी थी। दरवाजा थोड़ा खुला था। उसमें से मैंने देखा कि दरवाजे की तरफ, पीठ करके हिरेन् बाबू सोफे पर पालथी मारकर बैठे थे, जैसे हम ध्यान के समय बैठते हैं। मैंने सोचा कि वे Natural Dress में तो नहीं है। इसलिए हिम्मत करके मैं आगे बढ़ा। मेरे आने की आहट भी उनको आना संभव नहीं था। मुझे आश्चर्य हुआ। वे ध्यान की मुद्रा में थे और मुखसे चल रहा था 'चिदानंदरूपः शिवोऽहम्'। मैं चुपचाप खड़ा रहा। दो-ढाई मिनट में ही वह स्त्रोत समाप्त हुआ और हिरेन् बाबू ने मुझे देखा। देखकर वो चौंक गए। अंग्रेजी में बोले "How long you are standing here" (तुम कब से यहाँ खड़े हो) मैंने कहा "Two or three Minutes" (दो तीन मिनट से)। उन्होंने कहा, "Mind you, I don't belive in God" (ध्यान रहे, मैं ईश्वर को नहीं मानता) मैंने कहा, "ठीक है।"

एक दिन गपशप करते समय श्री हिरेन बाबू ने कहा कि आप संघ वाले व्यक्तिगत रूप से तो अच्छे हैं, लेकिन आप लोगों के हाथ में देश का कारोबार आएगा तो देश में टाटा बिरला का शासन हो जाएगा। आप हिंदू धर्म का नाम लेते हो, किंतु आपको पता नहीं कि निजी संपत्ति के विषय में हिंदू धर्म की भूमिका क्या है। अपने शास्त्रों में कहा गया है :-"यावत् भ्रियेत जठरम्- तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्। अधिकं योऽभिमन्येत-सस्तेनो दंडमर्हति।"

(पेट पालने के लिए आवश्यक उतने पर ही तुम्हारा अधिकार है। इससे अधिक पर जो दावा करेगा वह चोर है, उसको दंड (सजा) देना चाहिए।) यह धर्म की भूमिका है।"

मैंने कहा - "हिरेन् बाबू! आप एक बात सुन लीजिए। हमारे बीएमएस को नेशनल लेबर कमीशन को एक ज्ञापन देना था। उनकी प्रश्नावली में एक प्रश्न था :- Your concept of private property. (निजी संपत्ति की आपकी धारणा क्या है) अब हम लोग इस विषय में अध्ययनशील तो नहीं थे। ऐसे समय हम पूजनीय श्री गुरुजी के पास पहुँचते थे। उनका मार्गदर्शन लेते थे। हमने यह प्रश्न उनके सामने रखा। उन्होंने निजी संपत्ति के लिए हिंदू धारणा के संदर्भ में हमें वही श्लोक बताया जो आपने अभी बताया। (यावद् भ्रियेत जठरम्)। उन्हें आश्चर्य का मानो धक्का लगा। उन्होंने पूछा- "इसका ठोस प्रमाण मैं आपको दे सकता हूँ दिल्ली वापस जाने के बाद। क्योंकि हमारे ज्ञापन में हमने यही श्लोक उसके अर्थ के साथ उद्धृत किया है मैं आपको दिखा दूँगा।" उन्होंने कहा, "दिखाने की क्या आवश्यकता है, जब स्वयं तुम यह बता रहे हो लेकिन यह सुनने के बाद मुझे लगने लगा है कि संघ के और गोलवलकर के विषय में मुझे पुनर्विचार करना होगा।"

वापस जाने के बाद परमपूजनीय श्री गुरुजी का दर्शन किया और यह सब उनको बताया। श्री गुरुजी ने कहा, यह बौद्धिक ईमानदारी का परिचायक है।

भविष्यवक्ता

हंगरी से हिरेन् बाबू लंदन जाने वाले थे। मुझे कैरों जाना था। परस्पर विदाई के समय वे गंभीर हो गए। बोले :- "Thengadi! You have found your place in the Universe. I Have not yet" (ठेंगड़ी! ब्रह्मांड में तुम्हारा स्थान निश्चित हो गया है जबकि मेरा अभी नहीं)। अभी तक मेरे ध्यान में नहीं आया था किंतु बाद में मुझे पता लगा कि कम्युनिज्म के बारे भ्रम निराश होना यह प्रक्रिया उनकी प्रारंभ हुई थी।"

(स्मृतिगंध, वि.प्र., पृ. 12-14)

आत्म-निर्भरता आवश्यक

किसी भी संगठन को साधनों की आवश्यकता रहती है, पर संगठन में अर्थ की प्रधानता उसके निर्माण में बाधा उत्पन्न करती है। संगठन के कार्यकर्ता के लिए अर्थ का योग कहीं और से प्राप्त होना कार्य को चौपट कर देने वाली बात है। साधन प्रधानता आते ही संगठन चला पाना संभव नहीं होता। जो संगठन स्वयं अपने प्रयास से साधन जुटाते हैं वही सफलता पूर्वक चल पाते हैं। संगठन को सदैव ही अपने पैरों पर खड़े होने की सामर्थ्य की ओर ध्यान चाहिए। तभी उसकी नीति स्वतंत्र रह सकती है।

श्री भाऊराव देवरस


द्वितीय अखिल भारतीय अधिवेशन

11-12 अप्रैल 1970 ( कानपुर)

अगस्त 1967 के प्रथम अधिवेशन में भारतीय मजदूर संघ के विधिवत गठन के बाद केंद्रीय कार्यकारिणी ने कार्यभार संभाला एवं कार्य को गतिशीलता दी। केंद्रीय कार्यकारिणी की प्रथम बैठक 14 अगस्त 1967 दिल्ली, दूसरी 16-17 मई 1969 रांची, 10-11 जुलाई 1969 व 16 नवंबर 69 दिल्ली में संपन्न हुई। इसके तीन वर्ष बाद 11-12 अप्रैल 1970 को कानपुर में भारतीय मजदूर संघ का द्वितीय अधिवेशन आयोजित किया गया।

भारतीय मजदूर संघ के इस अधिवेशन के लिए विशेष रूप से बनाए गए विश्वकर्मा नगर में यह अधिवेशन संपन्न हुआ। इस अधिवेशन में 1857 प्रतिनिधियों ने तथा 35 पर्यवेक्षकों ने भाग लिया।

उद्घाटन समारोह

उद्घाटन समारोह में उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष श्री विनय कुमार मुखर्जी और भा.म. संघ के संस्थापक महामंत्री श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी उपस्थित थे। प्रथम अध्यक्ष श्री दादासाहेब कांबले ने कहा कि "नई संस्था होते हुए भी भा.म.संघ सुयोग्य मार्गदर्शन कर सकता है"। उन्होंने कहा-हमारी केंद्रीय श्रम संस्था सही ट्रेड यूनियनिज्म के आधार पर चलने वाली संस्था है। राष्ट्रहित की परिधि के अंतर्गत मजदूरों का हित हमारा उद्देश्य है। यह संस्था मजदूरों की है और मजदूरों द्वारा संचालित है। यह पूर्णरूपेण स्वतंत्र संगठन है, जैसा किसी ट्रेड यूनियन का होना चाहिए, यह व्यक्तिगत नेतागिरी से स्वतंत्र, मालिकों से स्वतंत्र, सरकार से स्वतंत्र, राजनीतिक दलों से स्वतंत्र तथा वाद विशेष से स्वतंत्र है। इसी प्रकार से हम कार्य करते रहेंगे।"

मा. रज्जू भैय्या जी का उद्बोधन

(रा.स्व.संघ के पूर्व सरसंघचालक प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य मा. रज्जू भैय्या वर्ष 1970 में उ. प्र., बिहार प्रांत क्षेत्र प्रचारक थे-सं)

"आज अपने ही लोग स्वयं की बुद्धि और प्रतिभा का उपयोग न कर दूसरों की नकल कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में भारतीय मजदूर संघ भारतीय दृष्टिकोण लेकर चल रहा है, अपने पर उसे भरोसा है, विश्वास है, इसीलिए इस संस्था से मेरी आत्मीयता है।

हमारे यहाँ का दृष्टिकोण ही है, मनुष्य को ऊँचा उठाना। नर से नारायण बनाना। मजदूरों के हित के साथ ही संसार का भी हित साधन करना।

रूस ने यह विचार रखा कि हर एक आदमी से जितना काम लिया जा सकता है, लिया जाएगा और जितनी जिसकी आवश्यकता होगी, पूरी की जाएगी। परिणाम यह निकला कि संगीनों के बल पर जोर जबरदस्ती करके, यातनाएं देकर काम लिया जाने लगा। दिया कम और काम ज्यादा लिया।

हमारे यहाँ श्रम की महत्ता बतलाई गई है। कर्म ही पूजा है कहा गया है। अधिक से अधिक काम करना और कम से कम उपभोग करने को अपने यहाँ कहा गया है।

बाहर से विदेशों से कुछ अच्छी बातें लेना गलत नहीं है, आवश्यक होगा तो उसे भी लेंगे, पर अपनी दृष्टि से बनाकर उसे लेंगे। जिसमें व्यक्तिगत लाभ है पर राष्ट्रीयता का अभाव है, वह हमें नहीं चाहिए। सिद्धांत, नीति और मार्ग-इन सभी पहलओं को अपनाने में अपनी एक विशेषता है। वरिष्ठ, कनिष्ठ सभी में परिवार का भाव, आत्मीयता का भाव चाहिए।

जनतंत्र का अर्थ अनुशासनहीनता नहीं है। न अनुशासन का अर्थ जनतंत्र का अभाव है। अनुशासन और जनतंत्र दोनों का तारतम्य बैठाकर हमें चलना है।

सभी प्रकार के सामाजिक कार्यों के लिए 'व्यवहार' बड़े ही महत्व का अंश है। दूसरों की बातें सुनें, उसके विचार सुनें, खुले मस्तिष्क से सभी बातों को सोचने की गुंजाइश रखें। शब्दों का बड़ा भारी स्थान है। शब्दों का चयन बहुत सोच समझकर करें।

'कार्यकर्ता' का अर्थ है - सहयोगी को कार्य में लगाना। अकेले ही सब करना-यह कार्यकर्ता का लक्षण नहीं है। श्रेष्ठ नेतृत्व के लक्षण यही हैं कि सबको उसके गुण व सामर्थ्य के अनुसार योग्य दिशा में लगा देना।

हर कार्य के अंदर 'सिद्धांतवाद', ध्येयवाद की आवश्यकता है। साधन जुटाने में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं पर उससे जीवट पैदा होता है। सुविधाओं से संगठन गिरता है, ध्येयवाद नष्ट होता है।

'ध्येयवाद' को लेकर चलने वाले संगठन को कोई भी कठिनाई रोक नहीं सकती। वास्तव में कठिनाइयों के बीच चलने वाले संगठन ही निश्चित रूप से सफल होते हैं। आपके संगठन की सफलता का यही रहस्य है।"

(शून्य से सृष्टि पृ-65)

श्री ठेंगड़ी द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन

लगभग 2 साल के बाद हम यहाँ भारतीय मजदूर संघ के द्वितीय अखिल भारतीय अधिवेशन के अवसर पर एकत्रित हुए हैं। जैसे हमने तय किया था कि यह अधिवेशन बिजनेस सेशन के रूप में ही होगा इसीलिए संख्या पर बल न देते हुए संविधान के अनुसार विधिवत् निर्वाचित प्रमुख कार्यकर्ताओं का ही एकत्रीकरण यहाँ हो रहा है।

दिल्ली अधिवेशन के पश्चात हमारा कार्य प्रगति की ओर द्रुतगति से बढ़ा है, यह बात सबके ध्यान में है। मैं सोच रहा था कि इस अवधि में हमारी विभिन्न यूनियनों द्वारा की हुई प्रगति का सर्वकश विवरण मैं आपके सम्मुख कैसे प्रस्तुत कर सकूँगा। किंतु अभी विभिन्न राज्यों तथा औद्योगिक महासंघों के महामंत्रियों द्वारा जो विवरण पेश किया गया है उसके कारण मेरा कार्य बहुत आसान हो गया है। उस विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हमारे कार्यकर्ता ट्रेड यूनियनिज्म के सभी पहलुओं में अधिकाधिक निपुण होते जा रहे हैं, तथा औद्योगिक संघर्ष, समझौता, कानूनी कार्यवाहियाँ, प्रचार व संगठन आदि सभी मोर्चों पर हम आगे बढ़ते जा रहे हैं। कार्यकर्ताओं की भी संख्या में वृद्धि हुई है तथा उनकी गुणवत्ता भी बढ़ी हुई है। हमारा आत्मविश्वास तथा मजदूरों को हम पर विश्वास दोनों में वृद्धि हुई है।

यद्यपि यह बात सच है कि तरह तरह की कठिनाइयाँ हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं, आर्थिक संकट बढ़ता ही जा रहा है, विभिन्न क्षेत्रों में मजदूरों की हमारे कार्य के लिए जो माँग है उसे पर्याप्त मात्रा में पूरा करना हमारे लिए कठिन हो रहा है, तो भी ये सारी डेवलेपमेंट कठिनाईयों के बीच हुई है जो हमारे कार्य वृद्धि की परिचायक है। इनका निवारण कैसे करना-इसका विचार हम इस अधिवेशन में करेंगे। यद्यपि हम अपने अंतिम लक्ष्य से बहुत दूर हैं तो भी जितना समय हमें उपलब्ध हुआ, उसकी तुलना में कार्य की वृद्धि संतोषजनक है।

पिछले अधिवेशन के पश्चात हमने हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू कश्मीर में प्रवेश किया है जब कि उस समय हमने केरल, बंगाल, आसाम, चंडीगढ़ तथा उड़ीसा में प्रवेशमात्र ही किया था। इस समय इन सब प्रदेशों में कार्य बढ़ा है तथा उसका सुसूत्र संगठन भी हुआ है। अन्य प्रदेशों में हुई कार्य वृद्धि से हम परिचित ही हैं।

औद्योगिक महासंघों की दृष्टि से यह उल्लेखनीय है कि जहाँ दिल्ली अधिवेशन में विद्युत महासंघ की तदर्थ समिति का निर्माण किया गया था वहाँ आज उस महासंघ का विधिवत् गठन हो चुका है। परिवहन क्षेत्र में तदर्थ समिति का गठन इस बीच हुआ और इस अधिवेशन में परिवहन महासंघ का विधिवत निर्माण किया जाएगा। पिछले अधिवेशन में खदान मजदूर संघ की तदर्थ समिति निर्माण हुई थी। इस अधिवेशन में इस महासंघ का भी विधिवत् गठन होगा। भारतीय वस्त्रोद्योग कर्मचारी महासंघ ने अपनी संबद्ध यूनियनों की संख्या 57 से 100 तक बढ़ाई है तथा पिछले ढाई वर्ष में कपड़ा उद्योग के बंबई, दिल्ली, नागपुर तथा कानपुर आदि प्रमुख क्षेत्रों में इसकी यूनियनों की गतिविधियां तथा शक्ति काफी बढ़ चुकी है।

अखिल भारतीय शुगर मिल मजदूर संघ से संबद्ध यूनियनों की संख्या 27 से 37 तक बढ़ी है तथा उत्तर प्रदेश में चीनी उद्योग के आर्थिक संकट की अवस्था में इस महासंघ का तथा श्री ठाकुरदास साहनी के मार्गदर्शन में भारतीय चीनी अनुसंधान केंद्र द्वारा प्रस्तुत वैचारिक तथा सैद्धांतिक नेतृत्व इस प्रदेश के अन्य महासंघों ने भी स्वीकार किया है। इंजीनियरिंग क्षेत्र में यूनियनों की संख्या 47 से बढ़कर 57 हो चुकी है। टेक्सटाइल तथा इंजीनियरिंग दोनों वेज वोर्डों के सामने अपने महासंघों ने ठीक ढंग से प्रतिवेदन पेश किया है तथा उनके एवार्ड प्राप्त होने के पश्चात इन दोनों उद्योगों में मजदूरों की जो निराशाजनक स्थिति हुई उसमें उन्हें स्थान-स्थान पर संघर्ष के मार्ग पर आगे बढ़ाया है। सिक यूनिट्स के बारे में भी दोनों महासंघों ने ठीक ढंग से सलाह दी है। टैक्सटाइल तथा इंजीनियरिंग व चीनी उद्योग में संघर्ष के नाते जो विभिन्न कार्यक्रम अपनाए गए उनका विस्तृत विवरण यहाँ संभवनीय नहीं।

केंद्रीय सरकारी औद्योगिक क्षेत्र में रेलवे तथा प्रतिरक्षा के महासंघ एवं सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय मंच ये तीन संस्थाए कार्यशील हैं। इन तीनों संस्थाओं ने दिनांक 19 सितंबर 1968 की लाक्षणिक हड़ताल में सक्रिय हिस्सा लिया। इनके सैकड़ों कार्यकर्ता जेल गए, सस्पेंड तथा डिसमिस हुए। तो भी आखिर तक कर्मचारियों का हौसला बनाये रखने में ये संस्थाएं सफल रहीं। हड़ताल के पश्चात रेलवे तथा प्रतिरक्षा में जहाँ अन्य प्रतिस्पर्धी महासंघों के कार्य काफी पिछड़ गए हैं, वहीं हमारे महासंघों से संबद्ध यूनियनों की तथा सदस्यों की संख्या रेलवे में क्रमश 10 से 12 तथा 81 हजार से 2 लाख 8 हजार प्रतिरक्षा में क्रमशः 15 से 26 तथा 5 हजार से 22 हजार तक बढ़ गई है। फोरम का भी कार्य अब बढ़ा है, और एक शक्ति के नाते सरकारी क्षेत्रों में सभी इसका अस्तित्व मान रहे हैं। केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल में तथा उसके पश्चात हुई कार्यवाही में भारतीय मजदूर संघ इंटक के अलावा अन्य सभी केंद्रीय श्रम संस्थाओं के साथ संयुक्त मोर्चे में सक्रिय रहा है। दिनांक 4-5 जनवरी 1969 को दिल्ली में एतदर्थ हुए सम्मेलन में भारतीय मजदूर संघ एक पक्ष के नाते रहा तथा सम्मेलन के प्रेसेडियम में हमारी ओर से श्री वी.के.मुखर्जी ने कर्मचारियों का नेतृत्व किया।

(शून्य से सृष्टि)


खंड - 1 ( भाग- 1)

सोपान - 4

11. भारत पाक युद्ध 1971 : परिवर्तित परिदृश्य

12. आपात्काल 1975 : लोक संघर्ष समिति

13. महामंत्री का दायित्व बड़े भाई को : श्री ठेंगड़ी जी का संदेश

14. भारतीय मजदूर संघ व एच एम एस विलय प्रस्ताव : श्री ठेंगड़ी का पत्र श्री मधु

लिमये के नाम

15. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय मजदूर संघ

16. वामपंथी नेता बोले वंदे मातरम्

17. सत्य सिद्धांत की विजय

18. 'पदम् भूषण' अस्वीकार करते हुए राष्ट्रपति जी को लिखा पत्र

19. मृत्यु ही विश्रांति

20. महाप्रयाण


भारत पाक युद्ध 1971

परिवर्तित परिदृश्य

पाकिस्तान ने अकस्मात वर्ष 1971 में भारत पर आक्रमण कर दिया। भारत पाक युद्ध छिड़ गया। पंजाब, जम्मू कश्मीर सीमा पर युद्धरत सेना को रसद, अस्त्र शस्त्र गोलाबारूद पहुँचाने का दायित्व पठानकोट स्थित आयुध एवं गोलाबारूद भंडार पर था। रेल मार्ग द्वारा आयुध सामग्री सीधे पठानकोट पहुँचती थी। उसे सड़क मार्ग से आगे सीमा पर लड़ रहे सैनिकों तक द्रुत गति से निरंतर पहुँचाते रहना यह जोखिम भरी चुनौती पठानकोट स्थित उन सैनिक यूनिटों के श्रमिकों पर थी जो आयुध सामग्री आपूर्ति विभाग में सेवारत थे।

पठानकोट स्थित आयुध सामग्री एवं अस्त्र शस्त्र भंडार में उस समय लगभग 500 कर्मचारी कार्यरत थे। यह सभी के सभी आर्डीनैंस इंप्लाईज यूनियन, जो भारतीय मजदूर संघ से संबद्ध थी, के सदस्य थे। इन्होंने संकल्प किया कि जब तक युद्ध जारी है हम 24 घंटे अपने सैनिक भाईयों के साथ मिलकर काम करेंगे, घर नहीं जाएंगे और उन्होंने अपने उक्त संकल्प को पूरा किया। वह युद्धकाल (3 से 17 दिसंबर 1971) 14 दिन लगातार 24 घंटों ड्यूटी पर रहे और उन्होंने ओवरटाईम भत्ते के नाते पैसा नहीं लिया। उनका कथन था कि सैनिक देश के लिए प्राण न्योछावर कर देता है तो अपने राष्ट्र के लिए हम इतना सा काम तो कर ही सकते हैं।

शांति के दिनों और युद्ध के समय काम करने में बड़ा अंतर है। सामने तोप के गोले फट रहे हों, ऊपर से बम गिर रहे हों, रात को ब्लैक आऊट हो जाता हो उस समय जान जोखिम में डाल कर सेना की आपूर्ति लाइन को बनाए रखना यह उत्कट राष्ट्रभक्ति भाव के बिना असंभव है। मात्र वेतन के लिए कोई अपनी जान हथेली पर ले कर आगे नहीं आता। वर्ष 1962 में इन्हीं कर्मचारियों का नेतृत्व वामपंथियों के हाथ था और उसके चलते नेता और अधिकांश कर्मचारी छुट्टी पर चले गए थे। शेष जो ड्यूटी पर रहे वह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। देश को पराजय का मुँह देखना पड़ा किंतु इस बार (1971) कर्मचारियों का नेतृत्व भारतीय मजदूर संघ के पास था। कर्मचारियों ने कर्तव्यनिष्ठा और राष्ट्रहित का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। देश विजयी हुआ। निश्चित रूप में यह देश की सेना की विजय थी किंतु सैनिकों के साथ असैनिक कर्मचारियों ने भी कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया यह दृश्य प्रथम बार निर्मित हुआ। देश की विजय के लिए सबने एकजुट प्रामाणिकता से सर्वस्व न्योछावर कर देने की भावना से काम किया। यह भाव निर्मित करने में भारतीय मजदूर संघ की स्पष्ट भूमिका थी।

आपात्काल 1975 : लोकसंघर्ष समिति

भारतीय मजदूर संघ के चतुर्थ अधिवेशन अमृतसर में 19-20 अप्रैल 1975 को श्री ठेंगड़ी जी ने अपने संबोधन में कहा था कि "राष्ट्र पर तानाशाही का संकट आ सकता है" इसके लिए कार्यकर्ताओं को पहले से सावधान किया। 26 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने तानाशाह रूप में आकर देश में आपात्काल की घोषणा कर दी थी। विरोधी दलों के हजारों कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया। देश में भाषण, विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति और संगठनों की स्वतंत्रता को छीन लिया। मजदूरों के लिए यह संक्रमण काल था। आपात्काल से पूर्व जो वामपंथी और समाजवादी नेता अपने आपको लड़ाकू समझते थे वह बलहीन हो गए और सरकार के खिलाफ आंदोलन नहीं किया जाए उनके इस व्यवहार के कारण कार्यकर्ता और मजदूरों ने उनका साथ नहीं दिया। सरकार ने मजदूरों का बोनस छीन लिया।

ऐसे समय में भारतीय मजदूर संघ ने सरकार की मजदूर विरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई, जिसके कारण सैकड़ों कार्यकर्ता राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (DRI) के तहत जेल में डाल दिए गए और आंदोलन को चलाने के उद्देश्य से कई प्रमुख कार्यकर्ता भूमिगत हो गए और उन्होंने भिन्न-भिन्न तरीकों से मजदूरों को जाग्रत रखा और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई। इसी दौरान हजारों मजदूरों ने सत्याग्रह किया जिसके कारण 5 हजार मजदूरों को जेल जाना पड़ा जो कम से कम 6 माह व कुछ को साल भर से अधिक जेल में रहना पड़ा। यह सिलसिला मार्च 1977 तक चला। आपात्काल में आंदोलन को जिंदा रखकर आवाज को बुलंद करने के कारण इस कालखंड में सोने की भाँति अग्निपरीक्षा से गुजरकर भारतीय मजदूर संघ अन्य सभी केंद्रीय संगठनों से अलग एक जुझारू संगठन सिद्ध हुआ।

परीक्षा की घड़ी

लेकिन परीक्षा आती है तो सबकी परख हो जाती है। आपात्काल में श्री ए.के.गोपालन को यह कहना पड़ा कि "अरे, हम आर.एस.एस. को राइट विंग ऑर्गनाईजेशन या राइटिस्ट (दक्षिणपंथी-पर्याय से निकम्मे) कहते थे लेकिन वे लोग हजारों की संख्या में सत्याग्रह के लिए सामने आए और हम अपने आपको कम्युनिस्ट होने के नाते क्रांतिकारी, आंदोलनकारी (पर्याय से उग्रपंथी) मानते थे, इसी हेतु मजदूरों की संस्थाएँ चला रहे थे, उनकी आर्थिक लड़ाइयाँ लड़ रहे थे, और इस कारण यह भी हम सोचते थे कि लोग आंदोलन में हमारा साथ देंगे, लेकिन प्रत्यक्ष में हम आर.एस.एस. वालों का दसवाँ हिस्सा भी जेल में नहीं भेज सके। इसका अन्वेषण करना चाहिए, इसका कारण खोजना चाहिए। हमें इस पर पुनर्विचार करना चाहिए।" ऐसा ए.के.गोपालन ने एमरजेंसी के समय कहा।

मा. ठेंगड़ी जी बताते हैं कि "हमारे क्षेत्र में भी हमें ऐसा ही अनुभव आया। हमने सोचा कि आपात्काल का मुकाबला करने हेतु सभी श्रम संगठनों का एक साँझा मोर्चा हो। हम सबसे मिले। सभी ने कहा कि कोई बोनस का या ऐसा ही कोई जॉइंट स्टेटमेंट (संयुक्त वक्तव्य) दिया जा सकता है। सी.पी. रामास्वामी अय्यर रोड पर श्री राममूर्ति जी के यहाँ हम सब इकट्ठा बैठते थे। सभी भूमिगत थे लेकिन बारी-बारी से वहाँ जाते थे। वहाँ बोनस के बारे में संयुक्त वक्तव्य का मसौदा तैयार हुआ। सबके हस्ताक्षर इस वक्तव्य पर करने की बात आई। हमने सुझाव रखा कि हर संस्था का अध्यक्ष या महामंत्री या कोई प्रमुख प्रतिनिधि इस पर हस्ताक्षर करे। परंतु सीटू सहित हस्ताक्षर करने को कोई भी तैयार नहीं हुआ। सबने कहा कि हस्ताक्षर की क्या आवश्यकता है? हमने कहा कि हस्ताक्षर के बिना इसकी सत्यता कैसे प्रमाणित होगी, इसकी प्रामणिकता कैसे सिद्ध होगी? तो कहने लगे कि यूँ किया जाए कि मात्र अपने संगठनों के नाम दे देंगे। आयटक, सीटू, एच.एम.एस., बी.एम.एस. आदि। फिर भी हमने हस्ताक्षर पर जोर दिया तो बोलने लगे कि आपात्काल है, इसमें रणनीति के नाते ऐसा ही होना चाहिए। इसका अर्थ स्पष्ट है कि ये उग्रपंथी, आंदोलनकारी और क्रांतिकारी कहलाने वाले परीक्षा की घड़ी आने पर भाग खड़े होते हैं। उस समय भारतीय मजदूर संघ के हजारों मजदूरों ने साथ दिया और कानून तोड़कर वे जेल गए। यानी जब परीक्षा का समय आता है तो ध्येयवादी लोग मिलते कहाँ हैं? परीक्षा की कसौटी पर आपात्काल में भी भारतीय मजदूर संघ खरा उतर सका, वामपंथियों के कथित क्रांतिकारी संगठनों में से कोई भी खरा साबित नहीं हुआ।"

26 जून 1975 को देश में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने हेतु आपात्काल की घोषणा कर दी। फलस्वरूप नागरिकों को संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। समस्त विरोधी दलों व संगठनों के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके जेलों में ठूँस दिया गया। 4 जुलाई 1975 को रा.स्व.संघ पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। सरकारी दमन चक्र से राष्ट्र कराह उठा। लोकतंत्र की हत्या करके देश पर अधिनायकवाद थोप दिया गया। अत्याचारों से भय का वातावरण निर्मित हो गया तथाकथित बड़े-बड़े साम्यवादी क्रांतिवीर सत्ता सिंहासन की आरती उतारने में मग्न दिखे।

ऐसे घोर राष्ट्रीय संकटकाल में व्यापक राष्ट्रीय हित दृष्टिगत लोकनायक श्री जय प्रकाश नारायण ने लोकतंत्र पुनर्स्थापन हेतु लोक संघर्ष समिति का गठन किया और सर्वश्री नाना देशमुख व रवींद्र वर्मा की गिरफ्तारी के उपरांत श्री दतोपंत जी पर लोक संघर्ष समिति के सचिव का दायित्व सौंप दिया। श्री ठेंगड़ी ने भूमिगत रहकर घोर निराशा के वातावरण को आशा और विश्वास में बदलने के लिए जनजागरण का निर्भीकतापूर्वक बेमिसाल कार्य किया। भा.म.सं. महामंत्री का दायित्व बड़े भाई को सौंपा गया। स्मरणीय है कि इस काल में भय अथवा आशंका या अन्य किसी भी कारण से अपनी कोई भी यूनियन भा.म.सं. को छोड़कर संगठन से अलग नहीं हुई।

महामंत्री का दायित्व बड़े भाई को : श्री ठेंगड़ी जी का संदेश

श्री ठेंगड़ी जी ने लोक संघर्ष समिति के सचिव का दायित्व सँभालने के उपरान्त् भारतीय मजदूर संघ के महामंत्री पद का त्याग करते हुए महामंत्री का दायित्व रामनरेश सिंह उपाख्य बड़े भाई को सौंप दिया। बड़े भाई 9 जुलाई 1975 को (रासुका) में गिरफ्तार कर लिए गए थे। जेल से रिहा होने के पश्चात फरवरी 1976 में बड़े भाई भा.म.सं. के महामंत्री निर्वाचित घोषित किए गए। महामंत्री दायित्व सँभालने के उपरांत बड़े भाई ने श्री ठेंगड़ी जी को मार्गदर्शन हेतु पत्र लिखा जिसके उत्तर में श्री ठेंगड़ी जी ने जो संदेश बड़े भाई को भेजा वह अत्यंत प्रेरणा दायक है। "आदर्शवादियों के नाम एक आदर्शवादी का पैगाम" शीर्षक पत्र की प्रासंगिकता जितनी उस समय थी उतनी ही आज भी है। पत्र इस प्रकार है :-

प्रिय बड़े भाई,

आपने मुझसे कहा है कि मैं राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक की पूर्व संध्या पर अपना संदेश भेजूं। जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आदर्शवादियों को अपना संदेश दूँ। किंतु इस अवसर पर मैं आदर्शवादियों के नाम टेरेंस मैकस्वाइनी का संदेश भेज रहा हूँ जो स्वयं एक आदर्श आदर्शवादी थे।

"राजनीति के रंग में सराबोर वर्तमान् वातावरण में अवसरवादिता और स्वार्थसिद्धि का चारों ओर बोलबाला है। हो सकता है कि ऐसे वातावरण में माँ का संदेश ग्रहण करनेवाले हम अपने आपको आत्मसंशयी, भग्नमना और निराश अनुभव करें। इन परिस्थितियों में टेरेंस मैकस्वाइनी का यह स्वस्थ परामर्श सभी आदर्शवादियों के लिए बड़े काम का सिद्ध होगा :-

"नए उत्साही जनों, झण्डे तले एकत्र होने वाले नवागंतुकों! निराशा की उस घड़ी से सावधान, जो सर्वाधिक उत्साही, सर्वाधिक निर्भय और बलवान को भी ग्रस लेती है।'

हमारा कार्य ऐसे लोगों का कार्य है जो उन उतार-चढावों को झेलते हैं, जो समस्त मानवीय प्रयास के चारों ओर मंडराते रहते हैं, भर्ती किए गए प्रत्येक जन को संघर्षों एवं काली घड़ियों का डटकर सामना करना होगा। निराशा उस डरावने, ठंडे काले कुहरे की भाँति आ धमकती है जो हर सुंदर वस्तु और आशा की प्रत्येक किरण को ग्रस लेती है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं, संभवतः निर्बल शरीर, जिसे घोर मानसिक श्रम ने जर्जर कर दिया हो, संभवत: वर्षों के प्रयास की स्मृति जो विस्मृति और व्यर्थता के भँवर द्वारा निगली जाती दिखाई दे रही हो, संभवतः अपने पक्ष के ऐसे लोगों से संपर्क, जिनकी उपस्थिति एक पहेली हो, जो चरित्रहीन हों, और जिन्हें उद्देश्य की महानता का लेशमात्र बोध न हो। जिनके घटिया, तुच्छ और धूर्ततापूर्ण द्वेष-कर्मों से आपके प्राण सिहर उठते हों- जबकि आप सोचते हों कि जो इतने सुंदर ध्वज को प्रणाम करते हैं जितना कि हमारा है, उन्हें तो स्वतः, स्पष्ट वक्ता और उदार होना चाहिए, संभवतः प्रत्यक्षतः शत्रु की विराट संख्या और उन सहस्रों लोगों का निरुत्साह जो उन्मत्त होकर स्वाधीनता का स्वागत करने को आतुर हों, पर जो अब निराशा के नद में आकंठ डूबकर एक ओर खड़े हों तथा इस सब पर 'करेला और नीम चढ़ा' अपने उस आत्मतुष्ट व्यावहारिक मित्र की वाणी, जिसके पास इस घड़ी के लिए परमावश्यक उच्च-आवेग और अविकारी सिद्धांत के लिए व्यंग्य की बर्छी के अतिरिक्त कुछ न हो स्वाधीनता के सैनिक को ऐसे अनुभवों की बाढ़ को पार करना होगा।

किंतु यह ध्रुव सत्य है कि जब-जब ऐसी घड़ी आती है तो ऐसे घोर काले आकाश में अंधकार को चीरने वाला कोई तेजोमय नक्षत्र भी उदय होता है। वे, जो कभी-कभी युद्ध में थकान का अनुभव करते हैं, स्मरण रखें कि जब रणभूमि में केवल एक या दो ही योद्धा रह जाएं तो हो सकता है कि उन्हें कोई सार्थकता न दीख पड़े। फिर भी, उन्हें अपनी निष्ठा पर अडिग रहना चाहिए, उनकी संख्या बढ़ती जाएगी। सत्य का प्रेम संक्रामक बनकर फैलता है। जब प्रगति अवरुद्ध हो जाए तो वर्तमान की मत सोचो, वरन् इस बारे में सोचो कि हमने क्या पाया था, क्या कुछ बचा है और क्या कुछ हम अभी प्राप्त कर सकते हैं। यदि कुछ लोग ढीले पड़ गए हैं और अवसरवादिता दिखाने लगें तो अपनी ओर से और अधिक दृढ़ता से उनके प्याले में अपनी थोड़ी सी सहानुभूति उड़ेल दो। लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त करना कठिन कार्य है, पर सतत संघर्ष का जीवन जीना और भी दुष्कर है। उदार-वृत्तिवाले अधिकांश लोग सर्वोच्च घड़ी के लिए अपना पूरा साहस बटोरकर लक्ष्य के लिए मर मिटेंगे, किंतु बारंबार और बिना चेतावनी के उस सर्वोच्च घड़ी के लिए साहस जुटाते रहना महान व्रत के लिए जीवन का दायित्व है। और इस महान व्रत की जो प्राणों को सुखानेवाली कष्टसाध्य अनिवार्यतः है, उसी का प्रभाव है कि अनेक लोग असफल हो गए हैं। हमें ऐसे व्यक्ति चाहिए जो यह हृदयंगम कर सकें कि जीने में भी उतने ही साहस और वीरता की आवश्यकता है, जितनी कि मरने में। किंतु हमारे युग में इस सपाट युक्ति ने संभ्रम पैदा कर दिया है। आपसे यह नहीं कहा गया है कि आप आयरलैंड के लिए मरें, वरन् कहा गया है कि आप उसके लिए जीएं। कायरों की भाँति गिड़गिड़ाकर जीना कोई जीना नहीं हैं। यदि ऐसे घटिया जीवन की बात बाहर फैली तो हम शीघ्र ही देखेंगे कि यह देश गीदड़ों का देश बन जाएगा, जिसमें न तो आपदा से दृढतापूर्वक लड़ते हुए जीने की और न ही वीरतापूर्वक मरने की शक्ति रह जाएगी।

ये सभी परिस्थितियाँ निराशा की घड़ी को जन्म देती हैं और हो सकता है कि ऐसी घड़ी में, भावशून्यता और विश्वासघात के वातावरण में, निष्ठुर मित्रों और सक्रिय शत्रुओं के बीच आपका तन जर्जर हो जाए, आप किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाएं, आप पुराने महान व्रत का समर्थन करते समय ऐसा अनुभव करें कि आपकी वाणी तो अरण्यरोदन है और हो सकता है ऐसा अवसर आए कि रक्त फिर उबलने लगे, विचारों में फिर तडप आ जाए और सोचने पर विवश करे कि किस प्रकार एक वाणी, जो सहस्त्रों वर्ष पूर्व अरण्यरोदन प्रतीत होती थी, आज सशक्त और प्रेरक है, जबकि अवसरवादी 'व्यावहारिक' जनों की वाणी काल के गाल में समा गई।

"इस सुंदर दंभ के गर्भ में कि हम सहजता से उनका पालन कर सकते हैं, सुंदर सिद्धांत निहित नहीं है, वरन् इस पूर्ण सजगता के गर्भ में निहित है कि संभवतः हम उनसे दूर नहीं रह सकते :- कि मुट्ठी भर सत्यव्रती लोग अपयश का टीका लगाने वाली भीड़ से अधिक प्रभावशाली होते हैं।"

जून 1975 से 1980 का राजनैतिक परिदृश्य

1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपात्कालीन घोषणा कर दमन नीति अपनाई थी। फरवरी 1977 में चुनाव की घोषणा की गई, 22 मार्च 1977 को कांग्रेस को छोड़कर अन्य 4 दलों ने एकत्र होकर जनता पार्टी बनाई, चुनाव में बहुमत मिला, जनता पार्टी की सरकार बनी।

अन्य संगठनों का समय के साथ बदलना

इस राजनीतिक परिदृश्य में भारतीय मजदूर संघ को छोड़कर अन्य केंद्रीय श्रम संगठनों की नीतियों में जो परिवर्तन हुए उसे समाज ने देखा। आपात्काल में मजदूरों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात और बोनस के हक को छीने जाने पर भी इंटक ने इसके खिलाफ कोई भी आंदोलन नहीं किया, एच.एम.एस. ने भी नाममात्र के आंदोलन किए जबकि 1974 के पहले इनके तेवर बड़े तीखे रहे थे। जब जनता पार्टी सत्ता में आई तो एटक और इंटक सरकार पर गुर्राने लगे। जब 1980 में पुनः इंदिरा गांधी सत्ता में आई तो इंटक और एटक सरकार के साथ तालमेल करने लगे। कुल मिलाकर भारतीय मजदूर संघ को छोड़कर सभी संगठनों ने बदलते राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार अपनी कार्य पद्धति को अपनाया जबकि भारतीय मजदूर संघ ने मालिक और सरकार से उसी अनुपात में सहयोग की नीति अपनाई जिस अनुपात में उन्होंने मजदूरों के साथ सहयोग किया। सरकार ने विरोध किया तो भारतीय मजदूर संघ ने भी उसका विरोध किया। इसी नीति ने भारतीय मजदूर संघ की पहचान बनाई। आगामी वर्षों में अपनी नीति के अनुरूप आंदोलन किए।

(1) आपात्कालीन समय में भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता अग्नि परीक्षा से गुजरे।

(2) जनता पार्टी के शासन काल में बोनस के प्रश्न पर और रेलवे कर्मचारियों पर हो रहे आत्याचारों के खिलाफ आंदोलन किया।

(3) औद्योगिक संबंध विधेयक के खिलाफ संघर्ष किया।

(4) राष्ट्रीय अभियान समिति द्वारा किए गए संघर्ष में शामिल हुए।

भारतीय मजदूर संघ व एच.एम.एस. विलय का प्रस्ताव

श्री ठेंगड़ी का पत्र श्री मधु लिमये के नाम

वर्ष 1978 में BMS का HMS में विलय का प्रस्ताव श्री मधुलिमये ने श्री ठेंगड़ी जी को पत्र लिखकर जाहिर किया। श्री ठेंगड़ी द्वारा 5 सितंबर 1977 को दिया गया उत्तर इस प्रकार है :-

प्रिय मधु,

1. हमारे भारतीय मजदूर संघ के केंद्रीय कार्यालय से ज्ञात हुआ कि आपने मुझे 11 सितंबर को ट्रेड यूनियनिस्टों की बैठक के लिए आमंत्रित किया है। मैं आपकी इस कृपा के लिए आभारी हूँ।

2. इस समय मैं आपरेशन के उपरांत विश्राम कर रहा हूँ। लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है जिससे मैं आपकी बैठक में स्वयं उपस्थित होने में असमर्थ हो रहा हूँ।

3. जैसा कि आप जानते हैं कि भारतीय मजदूर संघ सहित सभी लोकतांत्रिक मजदूर संगठनों के कार्यकर्ताओं ने पिछले आम चुनाव में जनता पार्टी के प्रत्याशियों का समर्थन किया था, क्योंकि हम यह अनुभव करते थे कि तानाशाही और यथार्थ ट्रेडयूनियनिज्म साथ-साथ नहीं रह सकते इसलिए श्रीमती गांधी की तानाशाही को हटाना ही होगा। हम जनता पार्टी की सफलता निश्चित करने के लिए भी उत्सुक हैं क्योंकि अब यदि जनता 'जनता शासन' से निराश हो जाती है, तो वह केवल जनता पार्टी पर ही विश्वास नहीं खो बैठेगी बल्कि भारतीय परिस्थितियों में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की सामर्थ्य पर भी उसका विश्वास उठ जाएगा। यह भविष्य में तानाशाही का पक्ष मजबूत बनाएगा जैसा कि अतीत में हुआ है।

4. लेकिन मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सत्तारूढ़ होने के बाद अब जनता पार्टी के नेतागण जन संगठनों को पार्टी दायरे के भीतर लाने का प्रयास कर रहे हैं। मैं यह समझ पाने में असमर्थ हूँ कि यह किस प्रकार लोकतंत्र की आधारभूत मान्यताओं के अनुरूप है। निस्संदेह मैं आपकी जितनी राजनीति अथवा राजनीति शास्त्र नहीं जानता।

5. किंतु राजनीति शास्त्र के एक विद्यार्थी के नाते मैं समझता हूँ कि तर्कसंगत रूप से किसी राजनीतिक दल का विषयवार अधिकार क्षेत्र उसकी अवधारणा के राज्य के साथ सह-विस्तारी ही हो सकता है। संसार में ऐसे भी दल हैं जो स्पष्ट घोषणा करते हैं "सब कुछ राज्य के लिए, सब कुछ राज्य के अंतर्गत, राज्य के बाहर कुछ भी नहीं।" इस सिद्धांत का स्वाभाविक अनुसिद्धांत "सब कुछ दल के लिए, सब कुछ दल के अंतर्गत, दल के बाहर कुछ भी नहीं है।" अतः ये दल सभी जन संगठनों को अपने संप्रेषण माध्यमों में परिवर्तन करने में पूर्णतः न्यायानुमोदित हैं। उनकी अवधारणा है कि राज्य में सारे सामाजिक, आर्थिक संगठनों का राज्य यंत्र द्वारा नियंत्रण होता है। अतएव सभी सामाजिक राजनीतिक संगठनों पर दलीय नियंत्रण का यह औचित्य प्रतिपादन किया जाता है।

6. लेकिन यह लोकतांत्रिक जीवन पद्धति के अनुरूप नहीं है।

7. जनता पार्टी को वोट देकर सत्तारुढ़ करने वाले लोगों का यह दृढ़ विश्वास है कि यह दल लोकतंत्र के लिए खड़ा है और लोकतांत्रिक ढाँचे के मानकों और मापदंडों का अनुसरण करेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि किसी अनिच्छित चेष्टा के कारण वे संदेह करने लगे कि सर्वाधिकारवादी प्रवृत्तियाँ अभी भी जीवित हैं भले ही सावधानी से कार्यरत हैं। मुझे विश्वास है कि इस मुद्दे पर आप मुझसे सहमत होंगे। इसी पृष्ठभूमि में आप के द्वारा बुलाई गयी 11 सितंबर की बैठक का तर्क समझने में मेरी असमर्थता को आप कृपया अनुभव करें।

8. सत्तारुढ दल के एक महामंत्री एक स्वतंत्र संयुक्त मजदूर संगठन निर्माण के कार्य में तेजी लाने के लिए बैठक बुला रहे हैं, हमारी समझ में कम से कम यह परस्पर विरोधी बात है।

9. मजदूर संगठनों की एकता हमारा प्रियतम लक्ष्य है। लेकिन यह केवल शुद्ध ट्रेड यूनियनिज्म के आधार पर संबंधित केंद्रीय श्रम संगठनों के कार्यकर्ताओं के बीच घनिष्ठ संबंध से ही प्राप्त किया जा सकता है। हिंद मजदूर सभा, हिंदू मजदूर पंचायत, भारतीय मजदूर संघ ने इस प्रकिया का आरंभ पहले ही कर दिया है। हम समझते हैं कि हम वैज्ञानिक आधार पर बढ़ रहे हैं एकता की ठोस नींव रखने का प्रयास कर रहे हैं जिससे कहीं वह कहावत न पुष्ट हो 'जल्दबाजी' में शादी किया अब आराम से पछताइए।'

हम एक दूसरे को भली-भाँति जानते हैं और इनकी यथासंभव शीघ्रता से दूर करने में एक दूसरे की सहायता करने का प्रयास कर रहे हैं। श्री दंडवते हमारी मजदूर संगठन एकता समिति के संयोजक हैं। हमने उन्हें पिछले मास पूना में हुई भारतीय मजदूर संघ की राष्ट्रीय कार्य समिति की बैठक में उपस्थित रहने का अग्रह किया था। एकता के इस प्रयास में श्री बगाराम तुलपुले को हम सभी अपना मार्गदर्शक मानते हैं। उन्होंने बंबई के कपड़ा मिल मजदूरों की एक संयुक्त ट्रेड यूनियन खड़ा भी कर लिया है। बिना ढोल पीटे श्री तुलपुले ने जो सफलता प्राप्त की है उसने हम सभी मजदूर संगठन कार्यकर्ताओं का इस एकता प्रयास पर व्यावहारिकता में विश्वास दृढ़ किया है। इस दिशा में हमारी प्रगति धीमी लेकिन पक्की हुई है भले ही वह दर्शनीय न हो। एकता स्थायी होने के लिए यह नीचे से प्रेरित होनी चाहिए, ऊपर से थोपी गयी नहीं। आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इस अंतर्वर्ती काल में घनिष्ठ अनौपचारिक संपर्क के कारण तीनों संगठनों के प्रमुख कार्यकर्ता बिना किसी संकोच के एक दूसरे को स्नेह और आदर करने लगे हैं। यह मनोवैज्ञानिक वातावरण हमें एकता उपलब्ध करने के मार्ग की सभी बाधाओं को दूर करने में सहायक होगा।

10. हालाँकि मुझे आपकी प्रामाणिकता, बुद्धिमत्ता और सद्भाव के प्रति पर्याप्त आदर है, फिर भी मैं आपसे लोकतांत्रिक मजदूर संगठनों के नेताओं की योग्यता को कम न आँकने का अनुरोध करता हूँ। वे अपने मामलों की व्यवस्था करने में पूर्णतः समर्थ हैं।

11. जनता पार्टी के शुभेच्छु के नाते मैं आपसे इस मामले की मजदूर संगठनों के नेताओं के हाथों में छोड़ देने का आग्रह करता हूँ जिन्हें मजदूरों के सभी वर्गों का विश्वास प्राप्त है। यह सामान्य तौर पर लोकतंत्र और विशेष रूप से जनता पार्टी के लिए भारी उपकारक होगा यदि मजदूरों में यह भावना पैदा हुई कि यद्यपि पुरानी सत्ता उखाड़ फेंकी गई है तो भी पुरानी सर्वाधिकारवादी प्रवृत्तियाँ अभी भी जीवित हैं। ऐसी गलतफहमी पैदा न होने पाए इसलिए किसी भी प्रकार की अवधान चेष्टा नहीं होनी चाहिए।

12. मै आशा करता हूँ कि आप ऊपर लिखित विचारों की दिशा का यदि अनुमोदन न किया तो भी अनुभव करेंगे। शुभकामनाओं सहित।"

जब बात नहीं बनी तो श्री मोहन धारिया के यहाँ मा. बाला साहेब देवरस जी को चाय पर आमंत्रित किया गया। मोहन धारिया ने भी विलय का प्रस्ताव रखा। तब मा. बाला साहेब जी ने यह कहकर कि "संगठन स्विच ऑन और स्विच ऑफ की तरह नहीं चलते हैं" और वार्ता को वही विराम लगा दिया।

(ख) सत्ताधारीदल जनता पार्टी के तत्कालीन अखिल भारतीय अध्यक्ष श्री चंद्रशेखर ने यह पेशकश की कि अगर भारतीय मजदूर संघ जनता दल का उसी तरह मजदूर विंग बनकर चलना स्वीकार कर ले जैसे इंटक कांग्रेस सरकार के साथ चलती रही है तो भारतीय मजदूर संघ को भी मान्यता व वह समस्त सुविधाएँ प्रदान कर दी जाएँगी। जाहिर है भारतीय मजदूर संघ ने उक्त पेशकश को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करके अपने गैर राजनीतिक चरित्र और सिद्धांत को सिद्ध किया।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय मजदूर संघ

1980 सदस्यता सत्यापन में भारतीय मजदूर संघ भारत का क्रमांक-2 का संगठन बना। इस कारण अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलनों में भारतीय डेलिगेट और आब्जर्वर के रूप में मजदूरों के प्रतिनिधियों को चुनने की पद्धति में भारत सरकार को बदलाव करना पड़ा। 1984 के उपरांत आईएलओ के वार्षिक सम्मेलन में भारतीय श्रमिकों के प्रतिनिधि के रूप में भारतीय मजदूर संघ को प्रत्येक वर्ष सम्मिलित किया जा रहा है। 1984-1987 के बीच अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों-संगोष्ठियों में, समितियों में BMS कार्यकर्ता नियमित रूप से भाग ले रहे हैं। भारतीय मजदूर संघ के किसी अंतरराष्ट्रीय श्रमिक महासंघ से संबद्ध न होते हुए भी इसके अंतरराष्ट्रीय संबंध बढ़े हैं।

अखिल चायना ट्रेड यूनियन फेडरेशन के निमंत्रण पर भारतीय मजदूर संघ के पाँच सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल ने अप्रैल 1985 में चीन की सौहार्द यात्रा की। इसमें सर्वश्री दत्तोपंत ठेंगड़ी, मनहर मेहता, ओम प्रकाश अग्गी, आर. वेनुगोपाल और रासबिहारी मैत्र सम्मिलित हुए। चीन से वापसी के पहले श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने चीनी राष्ट्र और मजदूरों को एक संदेश दिया जो बीजिंग रेडियो से प्रसारित किया गया। श्री ठेंगड़ी जी के उक्त भाषण की व्यापक चर्चा एवं सराहना हुई। 2005, 2006 एवं 2008 एसीटीयूएफ के आमंत्रण पर भारतीय मजदूर संघ के प्रतिनिधि के रूप में श्री उदय पटवर्धन, श्री बैजनाथ राय, श्री हसु भाई दवे, चीन के दौरे पर गए।

(शून्य से शिखर तक, पृ. 15-18)

वामपंथी नेता बोले वंदे मातरम्

समस्त केंद्रीय श्रम संघों के संयुक्त मोर्चा के आह्वान पर आठ नवंबर 2011 नई दिल्ली के संसद मार्ग पर राष्ट्रव्यापी जेल भरो आंदोलन के अंतर्गत् एक विशाल रैली में वामपंथी ट्रेड युनियन के एटक के महामंत्री व संसद सदस्य श्री गुरुदास गुप्ता भाषण के लिए मंच पर आए। भाषण के पूर्व उन्होंने कहा "आज मैं वह काम करने जा रहा हूँ जो जिंदगी भर नहीं किया" और उन्होंने उपस्थित भीड़ से कहा "मैं तीन बार नारा लगाऊंगा-आप लोग जवाब दीजिएगा" और उन्होंने तीन बार बुलंद आवाज में नारा लगवाया "वंदे मातरम्" और "भारत माता की जय" भीड़ के जवाब से आकाश गुंजायमान हो गया। भगवे ध्वज ऊँचे लहराने लगे। उस संयुक्त मोर्चा भीड़ में हजारों की संख्या में उपस्थित भारतीय मजदूर संघ के सदस्य हर्ष विभोर हो रोमांचित हो उठे। यह वही कामरेड थे जो प्रारंभ के दिनों में उक्त नारे का विरोध किया करते थे। कामरेड का अब हृदय परिवर्तन हुआ हो या परिस्थिति की आवश्यकता अथवा राजनीति किंतु भारतीय मजदूर संघ ने कामरेड के उक्त कार्य का खुले दिल से स्वागत किया।

(प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन (1967) के समय भा.म.सं. की कुल सदस्यता परिशिष्ट-(ख) तथा वर्ष 2014 में कुल सदस्यता परिशिष्ट- (ग) पर - सं.)

सत्य सिद्धांत की विजय

"हमारा अधिष्ठान सत्य सिद्धांत पर निर्भर है और विजय तो सत्य सिद्धांत की ही होती है। इसलिए इसकी विजय तो निश्चित है। कारण उसमें अंतर्विरोध निर्माण नहीं होता है। आज ऐसे अंतर्विरोध के कारण असत्य सिद्धान्तों पर आधारित शक्ति टूट रही है। पाकिस्तान मजहब के आधार पर बना लेकिन मजहब के आधार पर राष्ट्र, यह एक असत्य सिद्धांत है। पाकिस्तान से बांग्लादेश टूटकर निकला। सिंध के लोग अपनी अलग अस्मिता जता रहे हैं। बादशाह खान के मन में तो पहले से ही पख्तूनी अस्मिता की यह बात थी। इस प्रकार सांस्कृतिक भिन्नता पर आधारित अलग-अलग राष्ट्रीय अस्मिता के अनेक आविष्कार, उभरकर आ रहे हैं। यहाँ तक कि पाकिस्तान की माँग के लिए सिंध की असेंबली में प्रस्ताव रखने वाले जी.एम. सईद को ऐसा प्रस्ताव रखने के लिए पश्चात्ताप हुआ। वे कह रहे थे कि 'मजहब के आधार पर राष्ट्रनिर्माण की बात गलत थी। यह खुदा का शुक्र है कि हमको अपनी गलती का अनुभव करने के लिए उन्होंने लंबी जिंदगी दी है। हिंदुस्तान के साथ हम लोगों ने कैसे भी क्या न हो इकट्ठा रहना चाहिए।"

स्टालिन के जीवनकाल में कम्युनिस्टों का बहुत ही बोलबाला हो गया था। दुनिया के एक तिहाई भाग पर उनका झंडा लहराता था। कम्युनिस्टों की प्रतिज्ञा थी- मॉस्को केंद्रित एक कम्युनिस्ट साम्राज्य संपूर्ण विश्व में फैलाने की। भारत में भी विकल्प के नाते कम्युनिस्टों के पक्ष में चुनाव परिणाम आ रहे थे। यह देखने के बाद अधिकांश लोग सोचने लगे कि भारत में अब तो राष्ट्रवाद समाप्त हो गया है लेकिन हम लोग उस समय भी कह रहे थे कि दुनिया में कम्युनिस्टों का प्रभावी शासन दिखाई देता है लेकिन सिद्धांत असत्य हैं तो उसमें अंतर्विरोध निर्माण होगा ही। यह प्रकृति का स्वभाव ही है। लोगों को मेरी बात नहीं जंची। मैंने कहा - 'यदि कम्युनिस्टों को खतम करना है तो प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।' कार्यकर्ताओं ने कहा कि, 'ये बातें तो आशावाद से कुछ ज्यादा हैं।'

और आज हम क्या देख रहे हैं? गत 8-10 वर्षों में रूस ने अपना साम्यवाद छोड़ दिया है। चीन भी साम्यवाद की जपमाला हाथ में होते हुए भी साम्यवादी विचारधारा छोड़ रहा है। जहाँ जहाँ कम्युनिस्ट शासन था उन सभी देशों ने साम्यवाद छोड़ दिया है। एककेंद्री कम्युनिस्ट साम्राज्य की कल्पना तो कभी की टूट गई है। कम्युनिस्ट देश तो पहले से ही एक दूसरे के विरुद्ध खड़े होने लगे थे। रूस के विरुद्ध चीन, चीन के विरुद्ध वियतनाम, वियतनाम के विरुद्ध कम्पुचिया जैसे खिश्चन राष्ट्र एक दूसरे के विरोध में हैं। भारत में भी एक ही कम्युनिस्ट पार्टी थी। उसमें से पहले दो टुकड़े हो गए। आज गृहमंत्रालय की सूचना के अनुसार इक्कीस अलग-अलग गुट हो गए हैं, जिनमें नक्सलवादी गुट अधिक हैं। संपूर्ण दुनिया को एक करने वाले लाल झंडे के नीचे अब गुट ही गुट हैं। रूस के नेता भारत में आने के समय पहले जमाने में भारत सरकार को सूचित करके सी.पी.आई. और सी.पी.एम. के नेताओं से मिलते थे। जब गोर्बाचेव भारत आए तब इन नेताओं को बुलाया तक नहीं। तो जो तत्त्वज्ञान, संस्थाएँ या रचनाएँ असत्य सिद्धांत पर खड़ी होती हैं वे टिकनेवाली नहीं रहती हैं।

हमारा अधिष्ठान सत्य सिद्धांत : विजय सुनिश्चित

हमारा सिद्धांत सत्य है तो उसकी विजय तो निश्चित ही है। फिर भी एक बात है। सत्य को मान्यता मिलने में बड़ा समय लगता है। कोपरनिकस को अस्सी सालों बाद मान्यता मिली किंतु वह भी नकारात्मक थी। जीजस क्राईस्ट को तीन सौ-तैंतीस वर्षों के बाद मान्यता मिली। जैसा अभी देखा, साम्यवाद के असत्य सिद्धांत में अंतर्विरोध आया, लेकिन यह अंतर्विरोध निर्माण होने में काफी समय लगा। जी.एम. सईद को, पाकिस्तान की माँग करने में गलती की, यह सत्य भी चालीस सालों बाद महसूस हुआ।

वैसे ही, हम जो सत्य सिद्धांत पर खड़े हमारे अधिष्ठान की बात कर रहे हैं, क्या सदैव इसी की विजय होती है? नहीं संत रामदास ने कहा है - 'उपाधि चे ऐसे असे। काही साधे, काही नासे।' कभी विजय हो रही है ऐसा दिखाई देता है और यह पीछे हट रहा है यह भी दिखाई दिया है। धर्म के बारे में भी अनुभव आता है, धर्म पीछे हट रहा है, अधर्म आगे बढ़ रहा है। हमारे इतिहास में ऐसे कई अवसर आए हैं। शिवाजी महाराज के काल की परिस्थिति का वर्णन समर्थ रामदास ने दासबोध में किया है। आज की तुलना में सौ गुना विपरीत परिस्थिति थी। लेकिन यह कहा गया है, कि Principle stands on its own legs अर्थात सत्य सिद्धांत की विजय होती ही है।

इस विषय में भगवान श्रीकृष्ण ने जो विवरण किया है वह, अधर्म का बढ़ावा देखकर शंकित होने वाले लोगों के ध्यान में नहीं आता। उन्होंने कहा है, 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।' भगवान ने कहा है कि धर्म की ग्लानि 'जब-जब' होती है। 'यदा' शब्द का दो बार उपयोग उन्होंने किया है वह ध्यान में लेना चाहिए। इसमें अभिप्रेत अर्थ यह है कि बारबार धर्म की ग्लानि होती है। नहीं तो भगवान सीधे कह देते कि जब धर्म की ग्लानि होगी, मैं आ जाऊँगा और हमेशा के लिए once for all (एक बार समूल) अधर्म का नाश करके वैकुंठ में जाकर सो जाऊँगा। आप भी कंबल ओढ़कर सो जाना लेकिन ऐसा नहीं कहा। तो 'यदा यदा' कहा है और पुनः कहा है 'संभवामि युगे युगे'। बार-बार अवतार धारण करने की बात भी भगवान ने कही है।

मोहम्मद इकबाल ने जो कहा है कि 'यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहाँ से।' इनके जैसी स्थिति हिंदुस्तान की नहीं होगी, इस का मतलब इस दृष्टि से ध्यान में लेना आवश्यक है। नहीं तो भगवान कहते, 'यदा यदाहि धर्मस्य मृत्युर्भवति भारत।' 'जब जब धर्म की मृत्यु होगी' ऐसा न कहकर भगवान ने ग्लानि कहा है। ग्लानि का यहाँ अर्थ है बेहोशी। धर्म नष्ट नहीं होता। वह बेहोशी में आ सकता है। जैसे सूर्यनारायण अखंड प्रकाशमान है किंतु बादल होते हैं, तो सूर्यदेवता दिखाई नहीं देते। इसका अर्थ यह नहीं कि सूर्य नष्ट हो गया। रात्रि के समय भी प्राकृतिक कारणों से सूर्य दिखाई नहीं देता। तो सूर्यनारायण तो अखंड है ही। किंतु हम कभी उनके दर्शन ठीक से कर सकते हैं, कभी नहीं कर सकते। इसी तरह धर्म में ग्लानि आती है। लेकिन यह सब होते हुए भी यह जो सत्य सिद्धांत है उसकी अंतिम विजय होती है।

फिर भी अपने कार्यकर्ताओं को कभी कभी ऐसा लगता हैं कि सत्य सिद्धांत की विजय निश्चित है और हम सत्य सिद्धांत पर खड़े हैं तो आज इसकी विजय क्यों नहीं हो रही है? इसका स्पष्ट अर्थ है कि अपने कार्यकर्ताओं के मन में अपने अधिष्ठान के बारे में सही धारणा कभी-कभी ठीक नहीं बनी रहती है। हमारे मजदूर क्षेत्र का उदाहरण है।

बैंकिंग क्षेत्र में हमारा काम प्रारंभ होने के पश्चात हमारे N.O.B.W. के कार्यकर्ता कहने लगे कि हम राष्ट्रवादी और चारित्र्यसंपन्न भी हैं। कम्युनिस्ट A.I.BE.A. के कार्यकर्ता राष्ट्रविरोधी भी हैं और भ्रष्टाचारी भी हैं। फिर भी उनकी सतत विजय हो रही है और हमें कष्ट झेलना पड़ रहा है। इसका मतलब है कि चारित्र्य का कोई महत्त्व नहीं, तिकड़मबाजी से ही यश प्राप्त होता है। मैंने कहा, 'क्या आप को पता है कि A.I.B.E.A. का प्रारंभ हुआ उस समय प्रारंभिक कार्यकर्ताओं ने कितनी आपत्तियाँ झेली, कितने कष्ट उठाए, कितनी तपश्चर्या की। आज आपको दीखता है कि श्री प्रभातकार जो A.I.B.E.A. के जनरल सेक्रेटरी हैं, हमेशा हवाई जहाज से यात्रा करते हैं, पंचतारांकित होटल में रहते हैं, मैनेजमेंट के विरोध में आवाज उठाने की हिम्मत जब किसी को भी नहीं थी, उस समय प्रभातकार तथा उनके मित्रों ने यह हिम्मत दिखाई। उसके कारण उन लोगों का victimisation भी हुआ।

किसी विचार के पूर्णतया विकसित होने में समय लगता है

कई वर्षों तक उनको दिन में दो बार खाना भी नहीं मिलता था। फिर भी वे डटे रहे। एक छोटे से कमरे में उन्होंने अपना कार्यालय बनाया। कार्यालय में झाडू लगाना, वहाँ के मटके में पानी भरना, ऐसे छोटे हलके काम भी स्वयं प्रभातकार करते थे। कालांतर से उनकी तपश्चर्या का फल मिला। तपश्चर्या कोई भी करे। राम करे या रावण करे। जो जो तपश्चर्या करता है उसको उसकी तपश्चर्या का फल तो मिलता ही है। कम्युनिस्टों ने तपश्चर्या की और इतने वर्षों के बाद आज उनको फल मिल रहा है। वह Period of gestation (गर्भावधि, किसी विचार के पूर्णतया विकसित होने में लगने वाला समय) है। आपने तो अभी-अभी तपश्चर्या शुरू की है। कालांतर से जैसे जैसे आपकी तपश्चर्या बढ़ेगी तब आप भी अपने काम में सफलता पाने लगेंगे और आप की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। किंतु यह period of gestation ध्यान में रखना ही पड़ेगा।'

संत रामदास ने कहा है -

आपणास जे जे अनुकूल। ते ते करावे तात्काळ।

साधे ना जे त्यासी निव्वळ। एकांत सेवावा।

इसलिए जो करने की दृष्टि से अनुकूल है, उसे तत्काल किया जाए और जो तत्काल होने वाला नहीं है उसके लिए धीरज रखकर एकांत में चिंतन करते जाएँ। उसके पीछे लगने से व्यर्थ शक्ति और समय नहीं गँवाया जाए।

कई बार कोई संस्था उसके कार्यक्रमों के कारण पनपने लगती है और उसके विरोध में काम करने वाले सदाचारी लोगों की संस्था पीछे हटती जाती है। ऐसे समय में सदाचारी लोग ऐसे ही शिकायत करते हैं। period of gestation की बात ध्यान में नहीं आती। श्रद्धा के साथ लगातार मैदान में पैर गाड़कर खड़े रहते हैं तो वे भी अवश्य सफल होते हैं किंतु वह period of gestation का सिद्धांत न समझने के कारण वे जल्दी हताश हो जाते हैं और मैदान छोड़कर भाग जाते हैं। मैदान में कायम रहते तो सफलता उनको अवश्य मिलती। अधैर्य के कारण मैदान छोड़ने के स्वरूप में उन्होंने ही प्रतिस्पर्धी संस्था को सफल बनाया, ऐसा कहीं नहीं होना चाहिए। तो यह ध्यान में लेना चाहिए कि किसी भी प्रक्रिया के पूर्ण होने में आवश्यक समय तो लगता ही है। कबीर ने कहा है -

धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।

आपने भी उसी तरह बीज बोया है। सींचा है। ऋतु आने पर फल प्राप्त होगा। आप चाहेंगे कि पानी डाला है, शाम तक फल आ जाए ऐसा नहीं होता है। गर्भधारण के नौ मास बाद ही बच्चा पैदा होगा। जचकी के लिए नौ महीनों तक राह देखनी ही पड़ती है। कोई कहेगा कि मैं इतनी प्रतीक्षा नहीं कर सकता। गर्भधारणा के पश्चात 2-3 महीनों में जचकी होनी चाहिए तो अनुभवी लोग बताएँगे कि इस तरह early delivery (सुख प्रसूति) नहीं हो सकती। जल्दबाजी से abortion (गर्भपात) होगा, delivery नहीं।

तो प्रत्येक कार्य के लिए समय लगता है। उस समय तक प्रतीक्षा करनी ही पड़ती है। प्रतीक्षा न करने के दुष्परिणामों का अनुभव देश के विभाजन के रूप में हमने किया है। म. गांधी, मौ. आजाद, और अंग्रेजों ने भी लिखा है कि कांग्रेस के नेता धीरज रखते और political power (राजसत्ता) की लालच में जल्दबाजी न करते, अखंड भारत के विशाल ध्येय में विश्वास रखते तो विभाजन न स्वीकार करते हुए भी स्वराज्य प्राप्त हो जाता। लेकिन पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा We are all tired. (हम सब थक चुके हैं) मरने से पहले कुछ उपभोग होना ही चाहिए और खंडित स्वराज्य स्वीकार कर लिया। अखंड भारत जैसे सत्य सिद्धांत की ही विजय होगी यह विश्वास खोकर बैठे थे ये सब लोग।

महान कार्य चालाकी से नहीं हो सकता

ऐसा चतुर व्यक्ति जल्द अपना काम पूरा कर सकता है परंतु जैसे स्वामी विवेकानंद ने कहा है, चालाकी से महान कार्य नहीं हो सकता है। हाँ, चालाकी से कार्य हो सकता है लेकिन तात्कालिक और छोटा। महान कार्य नहीं। जिस कार्य का राष्ट्रजीवन पर दूरगामी परिणाम होने वाला है वह काम चालाकी से नहीं हो सकता।

और हम तो पूरे देश की राष्ट्रीय जनचेतना जगाने का कार्य कर रहे हैं। तो धीरज रखने की आवश्यकता है। मान लें कि एक पत्थर तोड़ना है। उस पर पाँच दस हथौड़े मारने से कुछ होने वाला नहीं है। सौवें हथौड़े की चोट से ही टूटने वाला है। अब जिसे उसे तोड़ना है, उसे यह निश्चय करना ही होगा कि हमें सौ बार हथौड़ा मारना है। एक चतुर पुरुष ने कहा, आप यदि जानते हैं कि एक सौवें हथौडे से पत्थर टूटेगा तो फिर ऐसा क्यों न करें कि आप पहले हथौड़े के साथ एक सौंवा हथौडा मार दें लेकिन ऐसी जल्दबाजी से काम नहीं होगा।

तो यह बात तो समझ लेनी चाहिए कि कार्य का प्रारंभ और सिद्धि इनमें समय की खाई तो जरूर रहेगी ही और यह समय कितना होगा यह निश्चित् रूप से कह सकते हैं या नहीं, यह कार्य के स्वरूप पर निर्भर होता है।

हमारा कार्य तो बहुत ही कठिन है। जैसे हमने पहले कहा है, ग्यारह सौ वर्ष तक हम पराधीनता के कारण जिंदगी और मौत के संघर्ष के उलझन में थे। हमारी जीवनपद्धति, मूल्यश्रेणी आदि बातें इसी कालखंड में 'दुय्यम बनीं, उनको क्षीणता तथा क्षति प्राप्त हुई। कई बुनियादी तत्त्व या बातें तो हमारा समाज भूल भी गया। ऐसे आत्मविस्मृत समाज में परिवर्तन की उर्मि जगाना, उसे फिर क्रियाशील बनाना, संगठित करना, उसकी राष्ट्रीय चेतना जगाना यह काम बहुत ही कठिन है। अब अपने कार्य की सफलता का मापदंड का विचार करते समय देशकाल परिस्थिति का यह ऐतिहासिक संदर्भ आँखों से ओझल कर, चिंता करते रहेंगे और समाचार पत्र पढ़कर अपना मत बनाएँगे तो अपने काम का या किसी भी समाजसंबद्ध विषय का ठीक ढंग से, गहराई से सही मूल्यांकन हम नहीं कर पाएँगे और अपने काम में बाधा आएगी। यह ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ध्यान में लिया तो ही हम धीरज से, उचित मन:स्थिति से काम कर सकेंगे।

इसलिए यह ध्यान में लेना चाहिए कि हमारा कार्य तो ऐसा नहीं है कि उसकी सिद्धि की तिथि निश्चित है। उसकी सफलता तो निश्चित है क्योंकि वह भगवान का कार्य है। परिस्थिति कभी विपरीत, प्रतिकूल होगी, कभी थोड़ी सी अनुकूल रहती है।

आत्मनो मोक्षार्थ जगत् हिताय च

अब तक जो पूरा विचारव्यूह सामने रखा है उसको संक्षेप में फिर एक बार दोहराएंगे तो यह बात दृढ़ता के साथ स्पष्ट हो जाएगी कि सदियों से चलता आया हमारा जीवन तत्त्वज्ञान तथा राष्ट्रीय ध्येयव्रत यही हमारे कार्य का अधिष्ठान है। संघ जैसे व्यापक संगठन को व्यापक अधिष्ठान की आवश्यकता रहती है। हमारी संस्कृति में मनुष्य जीवन के साफल्य के चारे में जो सूत्र विकसित हुआ है उसी के आधार पर मनुष्यों के इस संगठन का अधिष्ठान निर्णीत होता है और मनुष्य जीवन का साफल्य बताया है - 'आत्मनो मोक्षार्थ जगत् हिताय च।' समूची जीवसृष्टि का, अतः मनुष्य का भी अंतिम प्राप्तव्य सुख ही है। यह सुख घनीभूत, निरामय, परिपूर्ण, निरंतर, अखंड हो इस दृष्टि से मनुष्य की चेतना का अखंड विकास होना आवश्यक है। इस विकसित चेतना के कारण ही व्यक्ति 'स्वयं' के परे, भौतिकता के परे जाकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयास करता है, जिससे उसे निरामय, अखंड आनंद प्राप्त होता है।

ऐसे विकसित चेतनायुक्त मानस को ही धर्मप्रवण व्यक्तिमानस कहा है और हमारी संस्कृति की परिभाषा में धर्मप्रवण व्यक्ति को प्राप्त होने वाले निरामय आनंद को ही 'मोक्ष' कहा है। लेकिन व्यक्ति की चेतना का विकास हो और हर व्यक्ति अपनी अपनी अंत:प्रेरणा के अनुसार अंतिम आनंद का अनुभव करे इस हेतु सुविधाएँ उपलब्ध हों ऐसी कुछ सामाजिक रचनाएँ (Institutional framework) होना भी आवश्यक है। ये रचनाएँ हमारी प्राचीन जीवनपद्धति तथा मूल्यश्रेणी के अनुसार लेकिन युगधर्म पर आधारित हो यह अपेक्षा है। इसी को धर्माधिष्ठित समाज रचना कहते हैं।

तो धर्मप्रवण व्यक्ति मानस और धर्माधिष्ठित मानव समाज वह हमारा अंतिम गंतव्य है। स्वयं भगवान भी कहते हैं धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।' इसका लक्ष्य बताया है, प्रभवायहि भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् इसी से समूचे विश्व का अंखड सुख प्राप्त होगा यह हमारा विश्वास है। यह जो महान ध्येय सर्वेऽपि सुखिनः संतु।' हमारे सामने है उसका Base of Operation (कर्मभूमि) है हिंदू राष्ट्र - इसलिए कहा है।

एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः। (मनुस्मृति 2.20)

अगर हिंदू राष्ट्र का पुनर्निर्माण हुआ, वह समर्थ, संपन्न, सुस्थित रहा तो ही विश्व का कल्याण हो सकता है। हिंदू राष्ट्र का कुछ नया निर्माण करना नहीं है। इस देश में एक सुस्थित, संपन्न राष्ट्रजीवन सदियों से विकसित होते आया है और इसी अधिष्ठान पर चलते आया है। यह अधिष्ठान इस राष्ट्र का जीवित हेतु है और अस्तित्वसूत्र भी है।

प्रारंभ में ही देखा है, रा.स्व.संघ की ध्येयसृष्टि, उसका नीतिनिर्धारण, कार्यपद्धति, साधन इन सभी पहलुओं का सूत्र पूर्णरूपेण संघ की प्रार्थना में अंतर्भूत है- परम वैभवं नेतुमेतत्स्वराष्ट्रम्। यह संघ का ध्येय है। वह ध्येय प्राप्त करने के लिए विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम् यह पूर्व शर्त है। और धर्मसंरक्षण का आधार इस नाते विजेत्री च नः संहता कार्यशक्ति सर्वत्र विजयी होकर हमारे धर्म का संरक्षण करके इस राष्ट्र को परम वैभव कर ले जाएगी।

विश्व कल्याण : हमारा संकल्प

हमारे हिंदू राष्ट्र को आधारभूमि बनाकर पूरे विश्व का कल्याण करने का भव्य इतिहासदत्त संकल्प हमारे सामने है। स्वयं के सुख से लेकर विश्वकल्याण तक जाने में यह राष्ट्रकार्य का सिद्धांत एक कड़ी के रूप में हमारे सामने हैं। आत्मनो मोक्षार्थ जगत् हिताय च'। उसमें पूरा विश्वास और श्रद्धा रखकर हमें कार्य करना है। इस सिद्धांत के हम समर्थक हैं। अगर हम नहीं करेंगे तो भी यह कार्य होने वाला है ही। जैसे जगन्नाथ जी का रथ आगे बढ़ने वाला ही है। ऐसा नहीं कि रथ को हाथ न लगाऊँ तो वह आगे नहीं बढेगा। मैं नहीं तो कोई और आकर आगे बढ़ाएगा। वैसे ही जिस सिद्धांत और अधिष्ठान को लेकर हम काम कर रहे हैं वह तो विजयी होने वाला ही है। यह एक सर्वंकष कार्य है। इसका यह स्वरूप ध्यान में लेते हुए पूर्ण विश्वास के साथ हम काम करें। कार्य भगवान का है। अगर इसे सफलता नहीं मिली तो भगवान ही देख लेंगे। हमें विचलित होने की आवश्यकता नहीं। सत्य संकल्प का दाता भगवान होता है। ऐसा हमारे यहाँ कहा है और भगवान ने कार्यसिद्धि के जो पाँच सूत्र बताए हैं उनमें जैसा अधिष्ठान यह बुनियादी सूत्र है वैसे ही आखिर में दैव यह पाँचवां सूत्र बताया है।

अधिष्ठान तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।

विविधाश्च पृथक् चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।

लेकिन यहाँ दैव यानी तकदीर ऐसा अभिप्रेत अर्थ नहीं है। दैव यानी दैवी परमेश्वरी। तो हमारा जो अधिष्ठान है उसे परमेश्वरी कृपा का आशीर्वाद है। हमारे कार्य का अधिष्ठान दैवी है तो कार्य विजयी होने वाला है ही। तो ऐसे विश्वविजयी सिद्धांतों के अधिष्ठान पर खड़े हुए कार्य के साथ हम रहेंगे तो विजय की पताका हिमालय की तुंगशृंग पर फहराने को सिद्ध होगी। द.बा. ठेंगड़ी ( कार्यकर्ता पृ. 82 )


D.B.Thengdi

Nagpur

D. 28-01-2003

Mahamahim Rashtrapati Mahodaya,

Rashtrapati Bhavan

New Delhi.

Most Respected Rashtrapatiji,

I am extremely thankful to you for the great honour you have bestowed upon me by awarding 'Padma Bhushan'. I sincerely doubt whether I deserve it.

I have highest regard for you. Not merely because of your present position, but because of your personal greatness. Greatness which is unconscious of itself.

It will, however be inappropriate on my part to accept the award, so long as revered Dr. Hedgewar and revered Shri. Guruji are not offered the Bharat Ratna'.

With sincerest regards,

Faithfully Yours,

DB the (Dattopant Thengdi)

(Letter addressed to Dr. APJ Abdul Kalam, the then Rashtrapati) ( राष्ट्रपति डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम को लिखे पत्र का हिंदी अनुवाद)

दा , ब. ठेंगड़ी

नागपुर

दि. 28 जनवरी 2003

महामहिम राष्ट्रपति महोदय

राष्ट्रपति भवन

नई दिल्ली

परम आदरणीय राष्ट्रपति जी,

'पद्म भूषण' जैसे उच्च अंलकरण से मुझे सम्मानित करने के लिए मैं आपके प्रति हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। ईमानदारी से विचार करता हूँ कि सचमुच क्या इसका मैं अधिकारी हूँ।

आपके प्रति मेरे मन में उच्च आदर भाव है। ऐसा आपके वर्तमान उच्चपद नहीं अपितु आपकी व्यक्तिगत महानता के कारण है। ऐसी महानता जिसे महानताबोध नहीं है।

किंतु उक्त सम्मान को स्वीकार करना मेरे लिए अनुपयुक्त है तब तक जब तक पू. डॉ. हेडगेवार एवं पू. श्री गुरुजी को 'भारत रत्न' से सम्मानित नहीं किया जाता।

सादर

आपका

हस्ताक्षर। Xxx

(दत्तोपंत ठेंगड़ी)


मृत्यु ही विश्रांति

कई लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि बाहय् आपत्ति, शारीरिक व्याधि या वृद्धावस्था के कारण नियत कार्य पर ध्यान केंद्रित करना कठिन हो जाता है। लेकिन यह सही है कि ध्येयसिद्धि का, सोना जैसा माध्यम बन जाता है। उसी ध्येयनिष्ठा के कारण जीवन के अंत तक कार्य करनेवालों की सूची बहुत ही बड़ी है। हमारे एक गीत में कहा है- 'कार्यमग्नता जीवन होवे, मृत्यु ही विश्रांति'

आंतरिक मनोबल के संदर्भ में चारु मजुमदार, चे ग्वेवारा ऐसे लोगों के साथ आपात्काल के समय संघ के सरकार्यवाह मा. माधवरावजी मुले का उदाहरण आया है। पूर्ण विश्राम की वैद्यकीय सलाह के बावजूद उन्होंने संपूर्ण आंदोलन का संचालन किया और उस परिश्रम के कारण ही उनकी मृत्यु हुई।

महाराष्ट्र प्रांत के संघचालक मा.बाबाराव भिड़े को दिल की बीमारी थी। डॉक्टर के मना करने पर भी नासिक के संघ शिक्षा वर्ग के उद्घाटन के लिए वहाँ तक स्वयं ड्राइविंग करते हुए रात को पहुँचे लेकिन दूसरे दिन उद्घाटन के पूर्व ही प्रातः पाँच बजे उनका देहाँत हुआ।

वैसा ही उदाहरण है विजयवाडा के विभाग कार्यवाह श्री आंजनेयलू का। 1986 में कार्यक्रम में मंच पर उपस्थित पू. बालासाहेब देवरस तथा अन्य महानुभावों का परिचय करा देने के बाद सभी गणवेशधारी स्वयंसेवक, बड़ी संख्या में उपस्थित नागरिक तथा संघ के अधिकारी इनके सामने ही वे गिर पड़े और उनकी मृत्यु हुई। 1984 के एकात्मता यज्ञ के एक सभा में शुचीन्द्रम में दक्षिणांचल के संघटक की ऐसी ही मृत्यु हुई।

भारतीय मजदूर संघ के इंदौर के अ. भा. अभ्यासवर्ग में एक सत्र इसलिए रखा था कि मजदूर संघ का काम करते करते जिनकी मृत्यु हो गई उनकी केवल नामोल्लेख सूची बनाना। केवल नाम, यूनियन का नाम और मृत्यु की तिथि। तो नामों का केवल उल्लेख करने में ही एक घंटा बीस मिनट बीत गए। केरल जैसे छोटे प्रदेश में संघ तथा संघसृष्टि के कार्यकर्ताओं के बलिदान की सूची के लिए शायद इतना ही समय लगेगा। और देश के विभाजन के समय के स्वयंसेवकों के बलिदान की तो गिनती ही नहीं हो सकती। कार्य मग्नता में ही देहाँत यानी, अपना कार्य करते करते जिनका जीवन समाप्त हुआ, जिनको हम शहीद कह सकते हैं और जिन्होंने किया है ऐसे अनगिनत कार्यकर्ता रहे हैं। द. बा. ठेंगड़ी (कार्यकर्ता पृ.198)

योग्य व्यवहार

संगठन के लिए योग्य व्यवहार भी बड़ा जरूरी है। बातचीत में शब्द प्रयोग का बड़ा भारी महत्व है। मन में कुछ न रहते हुए भी वाणी पर संतुलन रखना होगा। जहाँ कार्यकर्ता में यह भाव आ जाता है कि हम नेता हैं और अन्य अनुयायी-वहीं गड़बड़ी प्रारंभ हो जाती है। दूसरों के विचार सुनने की तैयारी रहनी चाहिए। मैं जो कहता हूँ, वही ठीक-अन्य जो कह रहे है - वह ठीक नहीं है, यह बात संगठन को खड़ा करने में बाधक होती है। हमारे अंदर सहनशीलता और दूसरों की भावनाओं का आदर करने की तत्परता चाहिए।

श्री भाऊराव देवरस


महाप्रयाण

जन्म मरण सब विधि हाथ। जन्म अनिश्चित किंतु मृत्यु तो निश्चित है। यही ध्रुव सत्य है। कालचक्र अपनी अबाध गति से अहर्निश चलता रहता है। आवागमन के चक्र में संसारिक प्राणी आते हैं, जाते हैं किंतु लाखों में कोई एक महापुरुष किसी विशिष्ट प्रयोजन हेतु इस संसार में जन्म लेते हैं और कार्यसिद्धि उपरांत परलोक लौट जाते हैं।

ऐसे ही महापुरुष थे दत्तोपंत ठेंगड़ी जिनका जन्म दीपोत्सव 10 नवंबर 1920 आश्विन मास के बुधवार सायं साढ़े सात बजे आर्वी नगर जिला वर्धा (विदर्भ) में श्री बापुराव दाजीबा ठेंगड़ी के घर हुआ था।

ठेंगड़ी जी के चाचा (माने हुए) भारसवाड़ा के सोनक काका (श्री वासुदेव प्रल्हाद सोनक, दत्त महाराज के भक्त और आध्यात्मिक पुरुष) अपने एक प्रसंग (आत्म चरित्र) में लिखते हैं कि "दत्तोपंत की माता जो स्वयं दत्त महाराज की आराधक और भक्ति में जिनका अपना एक स्थान था, उन्हें भगवान दत्तात्रेय का साक्षात्कार हुआ और महाराज ने कहा कि मैं अपनी पादुकाएँ (खड़ाऊँ) मानवरूप में तुम्हारे पास भेज रहा हूँ किंतु हर्षित न हो। इन्हें सँभालकर रखना - योग्य पालन पोषण करना। तत्पश्चात इन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम भगवान के नाम पर दत्तात्रेय रखा गया जो कालांतर में दत्तोपंत नाम से विख्यात हुए।"

श्री सोनक बताते हैं कि "पादुका सदा पैरों में रहती है और पैर घूमने का काम करते हैं। इस लिए दत्तोपंत हमेशा घूमते (प्रवास पर) रहते थे। यह दत्तोपंत नहीं अपितु स्वयं दत्तात्रेय भगवान ही विचरण कर रहे हैं ऐसी कई लोगों की धारणा थी।"

"चार वर्ष आयु (1924) तक दत्तोपंत की जिह्वा निशब्द थी। घर में विशेषकर माता को चिंता सताने लगी कि बालक कहीं गूँगा न हो। मेरे परामर्श पर दत्तोपंत को लेकर पूरा परिवार भगवान दत्तात्रेय के प्रसिद्ध मंदिर (गाणगापुर, कर्नाटक) दर्शन के लिए उपस्थित हुआ। श्रद्धाभाव से पूजन अर्चन के उपरांत दत्तोपंत की वाशक्ति जागृत हुई।"

वाल्यकाल से ही दत्तोपंत जी के गुणों का प्रकटीकरण होने लगा था। वे मेधावी छात्र थे। वाणी में अद्भुत माधुर्य व आकर्षण था। भाषण प्रतियोगिताओं में वह प्रथम पुरस्कार प्राप्त करते थे। मित्र मंडली गठित करने, नए-नए मित्र बनाने, नेतृत्व करने में वह दक्ष थे। ख्यात नाम अधिवक्ता सुपुत्र और घर में संपन्नता होने पर भी उनमें अभिजात्य का भाव लेशमात्र भी नहीं था। उनकी मित्र मंडली में सभी जाति-पाँति विशेष करके शोषित, वंचित, दलित परिवारों के अधिसंख्य बालक थे।

मा. ठेंगड़ी जी की वर्ष 1942 में संघ प्रचारक के नाते केरल प्रांत में नियुक्ति की गई और वहाँ उन्होंने सफलतापूर्वक संघ शाखाओं की स्थापना की। तदनंतर बंगाल प्रांत में भी उन्होंने संघ शाखा कार्य को सुदृढ़ करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। वर्ष 1950 से 1955 तक उन्होंने विभिन्न सामाजिक राजनीतिक संगठनों में अनेक दायित्व सँभालते हुए राष्ट्रहित दृष्टिगत कार्य किया।।

उनके जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और जो महान कार्य उनके द्वारा संपन्न हुआ वह श्रमिक क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ के माध्यम से हुआ। यह कार्य अद्वितीय, अद्भुत और ऐतिहासिक है। वर्ष 1955 में शून्य से प्रारंभ किए गए संगठन के प्रथम दिन ही ठेंगड़ी जी ने कहा था - अपना यह ईश्वरीय कार्य है। सत्य आधारित है और सत्य की विजय सुनिश्चित है। हम विजयी होकर रहेंगे। यह विश्वास। जिस क्षेत्र में उस समय चहुँओर वामपंथ, समाजवाद एवं अन्यान्य विचार वाले संगठनों का बोलबाला था वहाँ, उस रणक्षेत्र में एक अकेला योद्धा राष्ट्रवाद के अधिष्ठान पर दृढ़ता से खड़े होकर हुंकार भर रहा था कि हमारी विजय सुनिश्चित है।

सफलता का एक पड़ाव भारतीय मजदूर संघ ने ठेंगड़ी जी के तेजस्वी तृत्व में उस समय पार कर लिया जब वर्ष 1989 में भारतीय मजदूर संघ ने देश में पूर्व से प्रस्थापित सभी केंद्रीय श्रमिक संगठनों को पीछे छोड़ते हुए प्रथम स्थान प्राप्त किया। भारत ही नहीं अपितु विश्व के सभी श्रमिक संबंधी मंचों पर आज भारतीय मजदूर संघ प्रथम प्रतिनिधि की हैसियत से भारत के श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करता है।

शून्य से प्रथम स्थान प्राप्त करने तक 34 वर्ष के अल्पकाल में उक्त उपलब्धि आश्चर्यचकित करने वाली है। जिनके कुशल नेतृत्व में यह चमत्कार घटित हुआ वे ठेंगड़ी जी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। आपात्काल 1975 में भारतीय मजदूर संघ महामंत्री पद त्यागने के उपरांत उन्होंने कोई पद स्वीकार नहीं किया किंतु संगठन में उनकी हैसियत क्या थी इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके एक इशारे पर सैकड़ों कार्यकर्ता सर्वस्व बलिदान के लिए आगे आ सकते थे। वह कार्यकर्ताओं के मन-प्राण थे। उनकी धड़कनों में बसते थे। उनकी अनुपस्थिति में कोई भी बड़ा कार्यक्रम संपन्न नहीं होता था। भारतीय मजदूर संघ से इतर अन्य संगठनों में उक्त स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती, जहाँ कुर्सी (पद) से हटते ही व्यक्ति गुमनामी के अंधेरों में समा जाता है।

समय चक्र थमता नहीं है। अपने जिस शरीर से ठेंगड़ी जी ने निष्ठुरतापूर्वक अहर्निश कस कर काम लिया था वह अब अशत होने लगा था। नागपुर अखिल भारतीय अधिवेशन (15-17 फरवरी 1999) पश्चात केंद्रीय कार्यसमिति की देहरादून बैठक (3-4 मई 1999) पहली ऐसी बैठक थी जिसमें गंभीर अस्वस्थता के दृष्टिगत ठेंगड़ी जी उपस्थित नहीं रह सके। छः मास के अंतराल से संपन्न होने वाली केंद्रीय कार्यसमिति की इससे पूर्व सत्तर बैठकों में ठेंगड़ी जी सदैव उपस्थित रहे और उनके मार्गदर्शन से कार्यकर्ता नई स्फूर्ति नव उत्साह लेकर अपने अपने स्थान पर लौटते थे। यह पहला अवसर था जब कार्यकर्ता उनके प्रत्यक्ष मार्गदर्शन से वंचित रहे।

मा. ठेंगड़ी जी के सहायक कार्यकर्ता बताते हैं कि देहरादून कार्यसमिति बैठक में जाने के लिए भी ठेंगड़ी जी जिद कर रहे थे। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, पर वह मान ही नहीं रहे थे। विकट स्थिति थी। उधर पुणे दीनदयाल मैमोरियल अस्पताल के डॉ मुले (श्री भीमाशंकर मुले) जी का आग्रह था कि ठेंगड़ी जी को लेकर पुणे आइए जिससे उनके स्वास्थ्य की जांच की जा सके। ठेंगड़ी जी पुणे जाने के लिए राजी नहीं थे। साऊथ एवेन्यू निवास पर रसोई घर का काम सँभालने वाले शिवराज बताते थे कि ठेंगड़ी जी की भूख घट गई थी। जहाँ तक कि उन्हें चाय से भी अरुचि हो गई थी।

अंततः किसी प्रकार उन्हें दीनदयाल मेमोरियल अस्पताल, पुणे जाने के लिए मना लिया गया। अस्पताल में अनेक प्रकार के मेडिकल टेस्ट हुए - जाँच का दायरा बढ़ता जा रहा था। रुग्णता का प्रभाव ठेंगड़ी जी के शरीर व स्वभाव पर भी स्पष्ट दिखने लगा था। उन्हें कुछ दिनों के लिए गहन चिकित्सा कक्ष में रखा गया।

डाक्टर भी बताने की स्थिति में नहीं थे। ठेंगड़ी जी को शंका थी कि कदाचित कोई भयंकर (कैंसर जैसा) रोग है जिसे उनसे छिपाया जा रहा है किंतु वास्तव में ऐसा कुछ नहीं था। धीरे-धीरे उन के स्वास्थ्य में सुधार हुआ। अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ के पश्चात ठेंगड़ी जी पुनः कार्यक्षेत्र में सक्रिय हो गए।

मा. ठेंगड़ी जी के अस्पताल में रहते हुए उसी अवधि में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी का दीनदयाल मैमोरियल अस्पताल (हृदयरोग विभाग) उद्घाटन का कार्यक्रम हुआ। कार्यक्रम 26 जून 1999 को संपन्न हुआ। कार्यक्रम में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी, महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नारायण राणे, उप-मुख्यमंत्री श्री गोपीनाथ मुंडे उद्घाटन अवसर पर श्री अटल जी के साथ मंच पर आसीन थे। एक और हस्ती जिन्हें मंच पर आदरपूर्वक सम्मानित किया गया वह थे दत्तोपंत ठेंगड़ी। उद्घाटन उपरांत श्री अटल जी एक कमरे में चाय के लिए ठेंगड़ी जी के साथ बैठे और उन्होंने ठेंगड़ी जी के स्वास्थ्य की पूरी जानकारी लेते हुए अपनी शुभकामनाएँ दीं।

नागपुर अधिवेशन 1999 के उपरांत श्री रामदास पांडे भा.म.सं. उत्तर क्षेत्र के प्रभारी बनाए गए थे अतः ठेंगड़ी जी के सहायक का कार्य केंद्रीय कार्यालय मंत्री श्री जगदीश जोशी के जिम्मे दिया गया। जगदीश जी बताते हैं कि त्रिवेंद्रम अधिवेशन 22-24 फरवरी 2002 के समय ठेंगड़ी जी की तबियत बहुत बिगड़ गई थी। अधिवेशन के दो दिन पूर्व उन्हें स्थानीय अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा किंतु वह अधिवेशन में उपस्थित रहना चाहते थे। डाक्टर से किसी प्रकार उन्हें मात्र उद्घाटन अवसर पर मंच पर जाने की अनुमति मिली और उद्घाटन सत्र के तुरंत पश्चात उन्हें पुनः अस्पताल पहँचाया गया।

मा. ठेंगड़ी जी की अस्वस्थता निरंतर चल रही थी और दूसरी ओर उनके कार्यक्रम प्रवास भी निरंतर चल रहे थे। लगता था जैसे उनके और व्याधियों के मध्य जोरदार संघर्ष छिड़ा हो। ठेंगड़ी जी बीमारी से परास्त होने को तैयार नहीं थे। कठिनाई तब और बढ़ जाती थी जब खान पान में डाक्टरों के बताए पथ्य परहेज का पालन करवाना लगभग असंभव हो जाता था। आयुपर्यन्त उन्होंने अनेक मर्यादाओं व नियमों के साथ एक इस नियम का भी पालन किया कि कार्यक्रम में भोजन सामान्य कार्यकर्ताओं के साथ पंक्ति में बैठकर ही करते थे। वहाँ जो परोसा जाता उसे ही बड़े चाव से खाते थे, भले ही वह पकवान हो और डाक्टर ने उसके लिए मनाही की हो। जगदीश जी बताते हैं कि मार्च 2004 ठाणे (महाराष्ट्र) में आयोजित एक कार्यक्रम में ठेंगड़ी जी गए थे। उनके ठहरने की व्यवस्था एक स्वयंसेवक परिवार में की गई थी। घर की महिला को इस बात की जानकारी थी कि पूरन-पोली ठेंगड़ी जी का पसंदीदा भोज्य पदार्थ है। उन्होंने भिन्न-भिन्न व्यंजन ठेंगड़ी जी की पसंद के हिसाब से ही बनाए थे किंतु उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि ठेंगड़ी जी को तले हुए और गरिष्ठ व्यंजन खाना मना है। भोजन पर ठेंगड़ी जी ने किसी भी व्यंजन के लिए मना नहीं किया किंतु उस महिला की आँख बचाकर अधिकांश भोज्य पदार्थ मेरी थाली में सरकाते रहे। भोजनोपरांत कहने लगे उन्होंने कितने आदर और प्रेम भाव से वह सारे व्यंजन बनाए थे ऐसे में उन्हें मना कैसे किया जा सकता है। मैं मना करता तो बताओ उन्हें कितनी निराशा और कष्ट पहुँचता। भोज्य पदार्थों का अपमान होता सो अलग। मेजबान का आतिथ्य विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए।

ठेंगड़ी जी को अपना कष्ट छोड़कर सबके कष्ट की चिंता और ध्यान रहता था। वह सबका मान रखते थे। यह व्यवहार उनकी प्रकृति व मूल स्वभाव के अनुरूप था जिसका कष्ट उठाकर भी उन्होंने जीवन भर निर्वहन किया।

अपने जीवन के अंतिम चरण में ठेंगड़ी जी पुणे स्थित् विश्वकर्मा सोसायटी के एक फ्लैट में जहाँ उनके निवास की स्थानीय कार्यकर्ताओं ने व्यवस्था की थी वहाँ बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर पर अपनी अस्वस्थता की परवाह न करते हुए बापु केन्दूरकर जी के साथ मिलकर गंभीर लेखन में व्यस्त थे। ठेंगड़ी जी का स्वभाव था कि किसी भी भाषण अथवा लेखन के पूर्व वह उस विषय का पूरी तल्लीनता के साथ अध्ययन व शोध करने के उपरांत ही अपना मत व्यक्त करते थे। उक्त ग्रंथ लेखन में उन्हें लगभग दो वर्ष का समय लगा। लेखन कार्य उन्होंने जुलाई 2004 (अपने निधन से दो मास पूर्व) पूर्ण कर लिया।

लेखन कार्य संपन्न हो जाने के उपरांत जगदीश जी बताते हैं कि उन्होंने मुझे पुणे से फोन पर कहा कि आज डॉ अंबेडकर जीवन दर्शन किताब का काम पूरा हो गया है और अब मैं निश्चिंत हो गया हूँ। इस पुस्तक का लेखन कार्य पूरा होने की संतुष्टि और प्रफुल्लता का भाव उनके फोन से साफ झलक रहा था। उन्होंने अपने जीवन में दर्जनों पुस्तकें लिखी हैं किंतु इस एक पुस्तक के लिखे जाने का जैसे किसी बड़े ऋण से मुक्त हो गए हों, कुछ ऐसा भाव था।

ठेंगड़ी जी ने जिस दिन शरीर त्याग किया वह शरद नवरात्र का प्रथम गुरुवार यानी दत्त महाराज का दिन था। समय था अपराह्न बारह साढ़े बारह बजे का। लोकमानस के अनुसार गुरुवार दोपहर दत्त महाराज मानवरूप में फेरी के लिए भूलोक का भ्रमण करते हैं। कौन कहे कि उस पावन दिन दत्त महाराज स्वयं ठेंगड़ी जी को लेने आए थे।

सामान्यतया ठेंगड़ी जी प्रातः स्नान उपरांत अल्पाहार लेते थे। उस दिन उन्होंने स्नान से पूर्व लगभग दस बजे जलपान लिया और थोड़ी देर सोने के लिए शयनकक्ष में चले गए। बारह बजे दोपहर नींद से जागे और कहा अब हम स्नान करेंगे। वह एक बाल्टी पानी से स्नान कर लेते थे उस दिन पहली बार उन्होंने पानी की दूसरी बाल्टी मँगवाई और दो बाल्टी पानी से नहाए। स्नान के उपरांत स्नानघर से बाहर आने में पर्याप्त विलंब होते देखकर स्नानघर का दरवाजा खोलकर भीतर देखने पर ठेंगड़ी जी दीवार के सहारे टिककर सहज मुद्रा में बैठे दिखाई दिए। पुकारने पर उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। बैठे ऐसे थे जैसे गहन ध्यान अथवा समाधि अवस्था में हों। हिलाने-डुलाने से विदित हुआ कि वह अचेत हैं। समय था दोपहर साढ़े बारह और वर्ष 2004 की तिथि थी 14 अक्टूबर। तुरंत उन्हें पुणे के दीनदयाल मेमोरियल अस्पताल पहुंचाया गया जहाँ उनके अपराह्न साढ़े तीन बजे प्राणांत की अधिकृत सार्वजनिक घोषणा की गई।

उस दिन श्रम क्षेत्र और सामाजिक सांस्कृतिक विश्व आकाश से एक जाज्वल्यमान तेजोमयी नक्षत्र अस्त हुआ। ज्योति जोत समा गई।

(वरिष्ठ कार्यकर्ता सर्वश्री एस.एन. देशपांडे,

रामदास पांडे व जगदीश जोशी जी से भेंट मा

वार्ताओं पर आधारित.........)


खंड - 1 ( भाग- 2)

आदरांजलि : कृतज्ञ स्मरण

तथा

संस्मरण


उन्होंने कहा था : -

"संपूर्ण राष्ट्र के साथ मजदूरों का हित भी एकात्म है। राष्ट्र खड़ा रहेगा तो मजदूर गिर नहीं सकता। राष्ट्र गिर जाएगा तो मजदूर खड़ा नहीं रह सकता। वैसे ही जब तक मजदूर खड़ा है तब तक वह राष्ट्र को गिरने नहीं देगा। मजदूर गिर जाएगा तो राष्ट्र को कौन बचाएगा?"

द. बा. ठेंगड़ी

"हिंदू राष्ट्र की इस छोटी सी प्रतिकृति के समक्ष राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं और परिदृश्य के आधार तथा वास्तविकता की ठोस धरती पर खड़े हो कर मैं यह कह रहा हूँ कि अगली शताब्दी अर्थात एक जनवरी 2001 का सूर्योदय जब होगा तो सूर्यनारायण को यह देखकर प्रसन्नता होगी कि बीसवीं शताब्दी की समाप्ति के पूर्व ही हिंदुस्तान के आर्थिक क्षेत्र में गुलाबी लाल रंग से लेकर (From pink red to dark red) गहरे लाल रंग के सभी झंडे हिंदू राष्ट्र के सनातन भगवाध्वज में आत्मसात और विलीन हो चुके होंगे।"

द. बा. ठेंगड़ी

(पू. डॉ. हेडगेवार जन्म शताब्दी वर्ष 1989 के

अवसर पर नागपुर में श्री ठेंगड़ी जी की घोषणा)


खंड - 1 ( भाग- 2)

सोपान - 5

1. हमारी कामना

2. नियति द्वारा मानवंदना

3. अंतिम यात्रा

4. शोक संदेश

5. श्रद्धांजलि सभा (दिल्ली)

6. राष्ट्र ऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी

7. शत् नमन् हे महामानव

8. प्रखर विचारक असाधारण संगठक

9. दत्तोपंत ठेंगड़ी : पथ चुना, और बढ़ते गए....

10. निश्चयाचा महामेरू

11. केरल में संघ-कार्य : बीज से वटवृक्ष तक

12. दत्तोपंत ठेंगड़ी - प्रथम पुण्यतिथि (2005)

व्याख्यानमाला में मा. मोहन जी भागवत का उद्बोधन


हमारी कामना

- दत्तोपंत ठेंगड़ी

सुनता और पढ़ता आया हूँ कि इच्छाएँ 'इत्यलम' कहना नहीं जानती और चाहों का चक्र कभी नहीं थमता। मगर मैं तो कामनाओं के वृत्त में दौड़ने का रसिक हूँ। पाने का अपना आनंद होता होगा किंतु चाहने का सुख भी छोटा नहीं है - यदि चाह छोटी न हो। इसलिए चाहता हूँ :-

· मनुष्य को पंगु और बौना बनाने वाली गरीबी मिटे, जीविका के लिए जीवन रेहन न रखना पड़े, रोटी इंसान को न खाए।

· मशीनें श्रम की कठोरता को घटायें, उत्पादकता को बढ़ाएं, मगर वे श्रम का अवसर न छीनें, न आदमी को अपना पुर्जा बना पाएं।

· पृथ्वी का दोहन विवेक पूर्वक हो, प्रकृति से द्रोह न किया जाए।

· दरिद्रता, दैन्य व अत्याचार को मिटाने का वीरावेश भड़के, परंतु क्रूरता बहादुरी का मुखौटा पहनकर न घूमे।

· समाज और व्यक्ति, राष्ट्र और विश्व में परस्पराश्रय हो, परस्पर विरोध नहीं।

· धनी-निर्धन, विद्वान-अनपढ़ और शासक-शोषित का द्वैत मिटकर अद्वैत उभरे।

· सुख विलासिता का, सादगी रसहीनता और मनहूसियत का, तप वर्जनाओं का, कला कृत्रिमता का पर्यायवाची न बने।

· सत्य संख्या में न दब जाए, सौंदर्य अलंकरण में न छिप जाए, विज्ञान हिंसा का दास न हो।

· जीवन और जगत् पर प्रकाश, आनंद और करुणा का राज्य हो।

इन चाहों के चक्कर में मैं युग-युग भटकने को तैयार हूँ।


नियति द्वारा मानवंदना

दत्तोपंत को नियति ने ऐसी शांत गति देकर जैसे उनकी मानवंदना ही की है।

दत्तोपंत 84 वर्ष के हो चले थे, फिर भी उनके निधन को आकस्मिक ही कहा जा रहा है। आखिर उनके जाने का कुछ तो कारण होना चाहिए था। इतनी आयु होने पर भी वे निरोगी व सक्रिय थे। 60 वर्ष के कठोर प्रचारक जीवन के बावजूद मधुमेह, रक्तचाप अथवा हृदय रोग जैसी कोई भी बीमारी उनको छू भी नहीं गई थी। हालांकि शरीर अब कुछ-कुछ थकने लगा था। पहले जितना और पहले जैसा प्रवास अब कष्टकारी होता था। पर उत्साह तो अब भी अदम्य था, चिंतन अखंड था। उत्साह और प्रेरणा के वे कभी न खत्म होने वाले स्रोत थे। फिर भला उनके जाने की कल्पना कौन कर सकता था। पुणे में दत्तोपंत श्री एस. एन. देशपांडे के घर पर ठहरते थे। अपने अंतिम समय में भी वे वहीं थे। श्री देशपांडे ने बताया, 'दत्तोपंत अंतिम श्वाँस तक पूर्ण कार्यक्षम थे। बुद्धि, विवेक तथा वाणी पर उनका पूर्ण नियंत्रण था। स्मरण शक्ति भी उत्तम थी। हाल ही में उन्होंने डॉ. अंबेडकर की जीवनी पर एक विस्तृत ग्रंथ की रचना की थी, इस ग्रंथ का अभी विमोचन होना है। कुछ दिन पूर्व डॉ. मुरली मनोहर जोशी एवं प्रसिद्ध लेखक व चिंतक श्री च.प.भिशीकर उनसे भेंट के लिए आए थे। सामाजिक समरसता मंच के कार्यकर्ताओं को उन्होंने 15 अक्टूबर की प्रातः चर्चा के लिए बुलाया था। इतने कार्यमग्न दत्तोपंत अचानक चल देंगे, किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।

14 अक्टूबर को अपनी नियमित दिनचर्या के अनुसार दत्तोपंत स्नान के लिए गए थे। स्नान कर जब वे अंग पोंछने लगे तो अचानक नीचे बैठ गए, जैसे ध्यान लगा रहे हों। उन्हें न कोई चक्कर आया और न ही वे गिरे। बस सदा के लिए ध्यानस्थ हो गए। चिकित्सालय ले जाया गया, परंतु वे सबको छोड़कर चल दिए थे। स्थानीय दीनदयाल उपाध्याय चिकित्सा केंद्र के चिकित्सक डॉ. पराग मुले, जो उन्हें अपना दादा मानते हैं, का कहना था कि जीवन भर समाज के लिए कष्ट उठाने वाले दत्तोपंत को नियति ने ऐसी शांत गति देकर जैसे उनकी मानवंदना ही की है।

नवीन मराठी शाला में दिनभर स्वर्गीय ठेंगड़ी की पार्थिव देह पर पुष्पांजलि अर्पित करने का क्रम चलता रहा। पुणेवासियों ने मजदूर नेता के रूप में ख्यातनाम स्वगीय ठेंगड़ी को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की। इसके पश्चात शाम चार बजे एक पुष्पसज्जित वाहन में स्वर्गीय ठेंगड़ी की अंतिम यात्रा प्रारंभ हुई। पुणे के मुख्य मार्गों पर हजारों-हजार लोगों ने पुष्पांजलि अर्पित कर दिवंगत आत्मा की शांति हेतु प्रार्थना की। इस अवसर पर आयोजित शोक सभा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन, पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी एवं विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल ने स्वर्गीय ठेंगड़ी को श्रद्धांजलि अर्पित की। स्वर्गीय ठेंगड़ी के भतीजे श्री सतीश ठेंगड़ी ने उन्हें मुखाग्नि दी।

अविश्रांत पथिक की अंतिम यात्रा

दत्तोपंत ठेंगड़ी के निधन का समाचार उनके लाखों शुभचिंतकों एवं स्नेहीजन के हृदयों पर मानो वज्रपात कर गया। देश के कोने-कोने से श्रमिक, किसान, बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ तथा समाजसेवी पुणे पहुँचने लगे। 15 अक्टूबर की प्रातः वे सब एक अविश्रांत कर्मयोगी के अंतिम दर्शन हेतु उमड़ पड़े थे। स्वर्गीय दत्तोपंत की पार्थिव देह को अंतिम दर्शन हेतु नवीन मराठी शाला के सभागार में रखा गया था।

दत्तोपंत प्रचारक थे, बालपन से ही ब्रह्मचर्य के अखंड साधक। उनका अपना कोई व्यक्तिगत परिवार नहीं था। पर यहाँ का वातावरण देखकर लगता था जैसे वे एक बहुत बड़े परिवार के मुखिया थे। उनके अनगिनत भाई-बहन थे, उन्हें पितातुल्य मानने वाले पुत्र भी थे और उनसे मार्गदर्शन की इच्छा रखने वाले हजारों कार्यकर्ता भी। वे सब एक-दूसरे को ढाँढस बँधा रहे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री कुप्प.सी. सुदर्शन तथा सरकार्यवाह श्री मोहनराव भागवत दिनभर वहाँ उपस्थित रहे। विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल, रा.स्व. संघ के सहसरकार्यवाह श्री मदनदास, भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री हसुभाई दवे, स्वदेशी जागरण मंच के संयोजक श्री मुरलीधर राव व बाबासाहब तकवाले भी वहाँ उपस्थित थे। दिल्ली से पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी भी अंतिम संस्कार में सम्मलित होने पहुँचे। समाचार पाते ही अहमदाबाद में कार्यक्रम के लिए आए पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के साथ पुणे पहुँचे थे।

अंतिम यात्रा (पुणे)

अंतिमयात्रा - पुष्पसज्जित वाहन पर स्व. श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की पार्थिव देह के साथ मा. मोहनराव जी भागवत और भारतीय मजदूर संघ अध्यक्ष श्री हस्सुभाई दवे

पुष्पांजलि अर्पित करते हुए - प. पू. सुदर्शन जी, श्री अटल जी तथा श्री अशोक जी सिंहल

शोक संदेश

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प.पू. सरसंघचालक मा. कुप्प. सी. सुदर्शन जी ने श्रद्धेय श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा :-

पूणे से श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी के देहावसान का समाचार सुनकर अवसन्न हो गया। पिछले छह दशकों से संघ के गगनांचल में चमकने वाला देदीप्यमान नक्षत्र आज तिरोहित हो गया। यौवन में ही राष्ट्रदेव के चरणों में चढ़ा हुआ सुगंधित पुष्प अब निर्माल्य बन गया। दत्तोपंत जी ने संघ के प्रचारक जीवन को श्रेष्ठ आदर्श तो प्रस्तुत किया ही, अपने प्रगाढ़ अध्ययन एवं तल-स्पर्शी चिंतन के द्वारा समाज जीवन के अनेक क्षेत्रों को न केवल समृद्ध बनाया बल्कि अपने अप्रतिम संगठन कौशल्य से भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद, भारतीय किसान संघ, सामाजिक समरसता मंच, स्वदेशी जागरण मंच, सर्वपंथ समादर मंच, पर्यावरण मंच आदि अनेक संगठनों को हिंदुत्व के आधार पर प्रखर वैचारिक अधिष्ठान प्रदान किया, उन सब संगठनों को शीर्ष स्थान पर पहुँचाया। राज्यसभा के सदस्य के नाते कम्युनिस्ट समेत अनेक विचारधाराओं के शीर्ष नेताओं से उन्होंने आत्मीयतापूर्ण संबंध स्थापित किए जिसके कारण मार्क्सवादियों से संघर्ष के समय मध्यस्थ की भूमिका निभाने में यशस्वी हुए। भंडारा से जब माननीय बाबासाहेब अंबेडकर लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे तब उनके चुनाव अभिकर्ता के नाते उन्होंने कार्यभार संभाला था। मेरे सतत आग्रह पर उन्होंने अपने अंतिम दिनों में डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर पर पुस्तक लिखी। विभिन्न विषयों पर लिखी अनेक पुस्तक-पुस्तिकाओं के पश्चात यह उनकी अंतिम पुस्तक होगी, जो बाबासाहेब के अंतरंग की एक अनोखी झांकी प्रस्तुत करेगी।

अनेक देशों का भ्रमण कर उन देशों के जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण, अनेक अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलनों में भारत का प्रभावी प्रतिनिधित्व तथा हिंदुत्व के सर्वसमावेशक चिंतन के परिप्रेक्ष्य में भारत व विश्व की समस्याओं का निदान एवं समाधान प्रस्तुत कर इस सर्वमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति ने अपनी जीवन लीला संवरण की। उनकी स्मृति को मेरी शोकसंतप्त विनम्र श्रद्धांजलि।

कुप्प.सी.सुदर्शन

सरसंघचालक, रा.स्व.संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह मा. मोहन जी भागवत ने श्रद्धांजलि सभा में अपने मन के भाव इन शब्दों में व्यक्त किए :-

यद्यपि ठेंगड़ी जी के प्रत्यक्ष दर्शन तो अब नहीं हो सकते पर देश भर में फैले लाखों कार्यकर्ताओं के हृदयों में उनका स्थान सदैव रहेगा। हम सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वे सदैव अग्रणी रहे। चारु मजूमदार से लेकर खलील जिब्रान तक उनका सर्वगाती-मूलगामी अध्ययन था। तत्व के आचरण में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं। मूल तत्व पर आचरण कैसे करना चाहिए इसकी व्याख्या ठेंगड़ी जी बड़ी सरलता से करते थे। हिंदुत्व की विचारधारा वाले प्रत्येक संगठन को उनका मार्गदर्शन सदैव सुलभ रहता था। वे हमारे लिए केवल नेता, चिंतक या विचारक ही नहीं थे अपितु हिमालय की ऊँचाई वाले व्यक्तित्व के धनी ऐसे महापुरुष थे जो घास की पत्तियों सदृश्य व्यक्तित्व वालों से घुल-मिलकर उन्हें अपनत्व देते थे। एक बार प.पू.श्री गुरूजी ने उनसे पूछा, 'तुम मजदूरों के क्षेत्र में काम कर रहे हो। इस बात का प्रामाणिक उत्तर दो कि क्या तुम उनकी चिंता माता के समान करते हो?' ठेंगड़ी जी का उत्तर था, 'अभी तो नहीं'। इसके बाद उन्होंने अपनी आत्मीयता का क्षेत्र अत्यंत विशाल बनाया। कार्यकर्ताओं के व्यक्तिगत् एवं पारिवारिक जीवन की सदैव चिंता किया करते थे। पके फलों से लदी वृक्ष की झुकी हुई डाली के समान उन्होंने अर्जित अपना ज्ञान तथा अनुभव कार्यकर्ताओं के लिए सदैव सुलभ बनाए रखा। बातचीत में प्रामाणिकता तथा कथनी और करनी में समानता बनाए रखने पर बल देकर कार्यकर्ताओं का ध्यान सदा आकर्षित करते रहते थे। लोक संग्रही के लिए गलत लोक प्रचलन को रोकना वे आवश्यक मानते थे। इतना विशद् ज्ञान, अनुभव एवं ध्येयनिष्ठा के धनी होने के बाद भी उनकी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं थी। अपने संगठन को सशक्त बनाते हुए उन्होंने विरोधियों को भी गले लगाया था। 'पाप से घृणा करो, पापी से नहीं', इस प्रकार का व्यवहार उनका रहा। ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेना साधारण बात नहीं होती। वे एक आदर्श पुरुष थे और संपूर्ण जीवन आदर्शों पर आचरण करते हुए उन्होंने हम सभी को आदर्श जीवन जीने की कला सिखला दी। वे प्रायः कहा करते थे कि महापुरुषों की महानता का मापदंड वस्तुतः उनके चले जाने के बाद इतिहास में बची उनकी छाया की लंबाई से ही होता है। आज वे हमारे बीच नहीं रहे, किंतु उनके विचार उसी तत्परता से हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं और कार्य को चिरंजीविता प्रदान कर रहे हैं जैसा स्वयं वे सदा जीवन पर्यंत करते रहे।

मा. हो. वे. शेषाद्रि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख ने यह कहते हुए आदरांजलि दी कि "वे डॉ. हेडगेवार से जोड़ने वाली प्रेरक कड़ी थे" उन्होंने आगे कहा :-

"परम आदरणीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी अब नहीं रहे। केवल भारत के ही नहीं अपितु विश्व के क्षितिज से भी एक महान चिंतक यत्र अस्त हुआ। मजदूर क्षेत्र में ही नहीं, किसान, स्वदेशी आदि क्षेत्रों में भी उनका मौलिक चिंतन अब सर्वत्र स्वीकार हो रहा है। वे प्रमुख रूप से संघ तथा विविध संगठनों में कार्यरत स्वसंसेवकों, विशेष रूप से प्रचारकों के लिए - एक जीते-जागते आदर्शरूप में रहे। छोटों से लेकर बड़ों तक उनका अकृत्रिम मित्रवत् व्यवहार रहा है। उसी प्रकार साम्यवाद से लेकर डॉ. अंबेडकर आदि की विचारधाराओं से जुड़े हुए नेताओं के साथ भी उनका सहज व्यवहार था। डॉ. हेडगेवार के समय से लेकर अब तक वे लगातार एक प्रेरणादायी कडी के रूप में रहे हैं। मेरे सरकार्यवाह कार्यकाल में उनके मार्गदर्शक शब्द मेरे लिए बहुमूल्य पाथेय रहे हैं। किसी नन्दादीप की ज्योति का तेज आखिरी बूँद तक जिस तरह जलता रहता है, उसी प्रकार शारीरिक दृष्टि से पूरा थकने पर भी बौद्धिक दृष्टि से अपनी अंतिम श्वाँस तक उनका चिंतन चलता रहा। वैसे देखा जाए तो ठेंगड़ी जी जैसे महान चिंतक के पार्थिव रूप में न रहने पर भी चिंतन और आचरण रूपी उनका तेज सर्वत्र फैलता रहेगा। आज हजारों स्वयंसेवकों के साथ मैं भी उस परमस्नेही मार्गदर्शक की पुण्य-स्मृति में अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।"

श्री अशोक सिंघल , विश्व हिंदू परिषद के तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष ने श्री ठेंगड़ी जी को श्रमिक तथा किसानों का मसीहा बताते हुए कहा :-

"दत्तोपंत जी के जाने से आज हम अनाथ हो| गए हैं। दत्तोपंत श्रमिक तथा किसानों के मसीहा थे। कुछ महापुरुष ऐसे होते हैं जिनका अभाव कभी पूरा नहीं हो सकता है। वे ऐसे ही महापुरुष थे। दत्तोपंत का मौलिक मार्गदर्शन जीवन के हर क्षेत्र में मिलता था। उनकी माता जी और स्वयं श्री गुरुजी उनके मार्गदर्शक थे। आज देश, खासकर हिंदू समाज सभी दिशाओं में संकट से घिरा है। ऐसी स्थिति में दत्तोपंत जी के न रहने का अभाव बहुत खटकेगा।"

पू. प्रमिलाताई मेढ़े , तत्कालीन सहसंचालिका राष्ट्र सेविका समिति ने श्री ठेंगड़ी जी को अद्वितीय संगठनकर्ता बताते हुए कहा :- "दत्तोपंत जी के साथ बचपन से ही व्यक्तिगत संबंध रहा। संघ कार्य की दृष्टि से उनका जीवन एक ऋषि की भाँति था। वे संगठन का महत्व जानते थे। श्रमिक संगठन का काम जब उन्हें सौंपा गया, उस समय परिस्थिति बहुत अनुकूल नहीं थी। परंतु उन्होंने उस क्षेत्र में बड़ा संगठन खड़ा किया। उस समय वे जब भी मिलते यही कहते थे कि मैं तो संघ के गटनायक की तरह काम कर रहा हूँ। डॉ. बोकरे जैसे साम्यवादी व्यक्ति, जो हमेशा संघ की भर्त्सना ही करते थे, को अपने अनुकूल बनाना और हिंदू अर्थशास्त्र जैसा विषय उनके माध्यम से प्रस्तुत करवाना, वह दत्तोपंत के ही वश की बात थी।

आज ऐसा लगता है कि हमारे बड़े भैय्या हमसे बिछुड़ गए। राष्ट्र सेविका समिति के स्थापना काल से ही इस कार्य के साथ उनका बड़ा आत्मीय भाव रहा था। जब भी मन करता उसी वक्त अहिल्या मंदिर आते थे। एक बार कहीं जा रहे थे, विमान जाने में देरी थी, तो अहिल्या मंदिर आ गए। मैंने पूछा कि क्या कार्यक्रम है? बोले, कुछ नहीं, तुमसे बात करने आया हूँ, बस। हिंदू तत्वज्ञान के बारे में उनके भविष्यदर्शी विचार थे। व्यक्तिगत हानि की बात छोड़ दें, संगठन की दृष्टि से भी हमें उनके विचार न मिल पाना, एक बड़ी कमी की तरह रहेगा।

जून में मेरी उनसे भेंट हुई थी, मैं दो-तीन घंटे उनके पास बैठी। आज की असामंजस्यपूर्ण स्थिति के बारे में वे चिंतित थे। कैसी शक्ति खड़ी करें कि हम अपने अंदर और बाहर की उलझनों का सामना कर पाए, इस पर लंबी चर्चा हुई। दिल्ली में कार्यरत थे। स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था। शुद्ध सोने की जिस प्रकार बार-बार अग्निपरीक्षा होती है, उसी तरह हमें भी इस कठिन परीक्षा में खरा उतरना ही है। कैसे उतरेंगे? वह शक्ति कैसे आएगी। इसकी उन्हें बराबर चिंता थी।

अपने शोक संदेश में तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री भैरों सिंह शेखावत ने कहा :-

"ठेंगड़ी जी से मेरा संपर्क 1951 से रहा है। 1952 में भारतीय जनसंघ की जयपुर में हुई एक सभा में उन्होंने कहा था कि हिंदुस्थान की गुलामी पूरी तरह समाप्त तभी मानी जाएगी जब देश को मानसिक गुलामी से मुक्ति मिलेगी। अतः हमें मानसिक गुलामी एवं विदेशी प्रभाव से छुटकारा पाने के लिए शिक्षा पद्धति का समुचित विकास करना होगा। सौंपे सभी कामों को ठेंगड़ी जी भारतीयता का पुट देना नहीं भूले। WTO के प्रभाव से होने वाली आर्थिक गुलामी की पूर्व जानकारी देशवासियों को देने वाले ठेंगड़ी जी ही थे। वे एक तपस्वी थे। सिद्धांतों से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। ठेंगड़ी जी की यह दृढ़ धारणा थी कि स्वदेशी आचार, विचार एवं व्यवहार अपनाकर हम न केवल देश को भावी संकटों से बचा सकेंगे अपितु आज सर्वांगीण उन्नति भी कर सकेंगे।"

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने श्रद्धांलि अर्पित करते हुए कहा उनका लिखा हमारा मार्गदर्शन करेगा। उन्होंने आगे कहा :- "दत्तोपंत जी के साथ मेरा काफी पुराना परिचय था। भोपाल की जिस बैठक में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना का निर्णय हुआ था, उस बैठक में दत्तोपंत जी के साथ मैं भी उपस्थित था। नए संगठन के नाम पर सोच-विचार चल रहा था। उनके मन में श्रमजीवी संगठन' नाम था। पर संगठन का नाम सरल तथा अर्थपूर्ण होना चाहिए, ऐसा विचार किया गया और अंततः भारतीय मजदूर संघ नाम निश्चित हुआ। मुझे याद है, दत्तोपंत जी ने तुरंत यह सुझाव मान लिया था। दत्तोपंत अखंड चिंतन में रत रहते थे। वे तीसरे रास्ते की खोज में लगे थे। आज सारी दुनिया तीसरे रास्ते की खोज में लगी है। दत्तोपंत जी ने समय समय पर जो लिखा है, उसको हम सभी को फिर से पढ़ना चाहिए। उससे हमें मार्गदर्शन मिलेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।"

पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवानी ने दत्तोपंत जी को राष्ट्रसेवक बताते हुए कहा :- "दत्तोपंत जी के साथ मेरे गत् 50 वर्षों से घनिष्ठ संबंध रहे। दत्तोपंत जी का एक वाक्य में वर्णन करना हो तो कह सकते हैं कि वे समर्पित राष्ट्रसेवक थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन कर्मयोगी के रूप में बिताया। कोई भी काम उन्होंने हाथ में लिया तो वह यशस्वी कर दिखाया। अपने विचारों से समझौता किए बगैर उन्होंने व्यापक संपर्क स्थापित किया। उनका चिंतन केवल श्रमिक या आर्थिक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा, बल्कि संपूर्ण राष्ट्रजीवन का और दुनिया का उन्होंने मार्गदर्शन किया। उनके जाने से मेरी व्यक्तिगत क्षति हुई है। हमारे कार्य का एक प्रमुख स्तंभ अब नहीं रहा। पूरी दुनिया जब आर्थिक क्षेत्र में केवल दो पर्यायों का जिक्र कर रही थी तब दत्तोपंत जी ने भारतीय चिंतन से उपजे तीसरे समर्थ विकल्प का आग्रहपूर्वक प्रतिपादन किया था। उनके जाने से केवल संघ विचार परिवार ही नहीं, समूचे राष्ट्र की हानि हुई है।"

गुजरात के पूर्व राज्यपाल और प्रमुख समाजिक कार्यकर्ता श्री सुंदर सिंह भंडारी ने अपने शोक संदेश में कहा :- "श्री ठेंगड़ी जी प्रथम ऐसे स्वयंसेवक थे जिन्होंने संगठन का कार्य अन्य अनेक क्षेत्रों में किया। वह राज्य सभा के सदस्य रहे और वहाँ उनकी पूरी शक्ति श्रमिक सबंधी विषयों को उठाने में रहती जिसमें उन्होंने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था।"

सिक्किम प्रदेश के पूर्व राज्यपाल और प्रमुख समाज सेवी श्री केदारनाथ साहनी ने कहा :-

"वह एक महानायक की भाँति थे जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्रसेवा में बिताया। वे उन सभी के लिए प्रेरणा स्रोत थे जो भी उनके संपर्क में आए। सुमेधाशाली और मौलिक चिंतक तथा प्रभावशाली वक्ता थे।

भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता रहे उत्तराखंड प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री नित्यानंद स्वामी ने श्री ठेंगड़ी जी के निधन को अपूरणीय क्षति बताते हुए इन शब्दों द्वारा आदरांजलि दी :- "प्रख्यात चिंतक और विभिन्न श्रम संगठनों के माध्यम से देश की सेवा करने वाले दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का निधन हम सबके लिए एक अपूरणीय क्षति है। मृदुभाषी ठेंगड़ी जी ने अत्यंत सामान्य जीवन जीकर भारतीय मजदूर संघठन की स्थापना की और श्रमिक वर्ग के कल्याण के लिए नई आशा का संचार किया। मैंने श्री ठेंगड़ी के साथ तीन दशकों से भी अधिक समय तक श्रमिक संगठनों तथा अन्य संस्थाओं में काम किया। वे त्याग और समर्पण की मिसाल थे।

भाजपा के वरिष्ठ एवं प्रमुख कार्यकर्ता श्री जगदीश प्रसाद माथुर ने अपनी भावनाएँ इन शब्दों में व्यक्त की :- "वे कुशल संगठक थे। उन्होंने भा.म.सं. को थोड़े ही समय में लगभग अकेले दम पर महाशक्ति के रूप में स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।"

भाजपा (दिल्ली) के प्रमुख कार्यकर्ता डॉ. हर्षवर्धन ने शोक व्यक्त करते हुए कहा कि :-

"यह केवल रा.स्व.संघ की हानि नहीं अपितु समस्त विश्व की है क्योंकि वे वैश्विक स्तर के चिंतक और विचारक थे।"

दिल्ली विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष श्री जगदीश मुखी ने इन शब्दों में श्रद्धांजलि दी :-

"उनके लेख तथा पुस्तकें पढ़ते हुए ऐसे लगता था जैसे हमें कोई खजाना मिल गया हो।"

दिल्ली प्रांत के संघचालक और समाजसेवी श्री सत्यनारायण बंसल ने अपने श्रद्धा सुमन इन शब्दों द्वारा व्यक्त किए :-

"वे बड़े भाग्यवान स्वयंसेवक थे कि उन्हें सभी माननीय सरसंघचालक और उनके निकट संपर्क में रह कर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए संगठन कार्य करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उनके व्यक्तित्व को शब्दों द्वारा व्यक्त करना कठिन है।"

भारतीय मजदूर संघ के पूर्व अखिल भारतीय अध्यक्ष श्री हसुभाई दवे ने श्रद्धेय ठेंगड़ी जी को मार्ग दर्शक बताते हुए इन शब्दों में श्रद्धांजलि दी :-

"दत्तोपंत जी के अवसान से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक अपूर्णीय क्षति हुई है। वे भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच के संस्थापक ही नहीं, अपितु मार्गदर्शक भी थे। उनके निधन से न केवल संगठन की बल्कि मेरी भी व्यक्तिगत हानि हुई है। अब हम उनके मार्गदर्शन, उनकी सलाह से वंचित रह जाएँगे। ठेंगड़ी जी सदा ही स्वदेशी के आग्रही रहे हैं, उनका पूरा जीवन इसकी एक जीवंत मिसाल था। उनका स्वभाव, रहन-सहन, व्यवहार अत्यंत सादगी पूर्ण रहा। उनके आचार-व्यवहार पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बड़ा प्रभाव था। एकात्म मानव दर्शन को उन्होंने आत्मसात् किया था। स्वदेशी अर्थचिंतन में उन्होंने विशेष भूमिका निभाई थी। वैश्वीकरण के विरुद्ध 1984 में ही उन्होंने अपने विचार रखे थे यानी वे आने वाले समय को पहचानने की दृष्टि रखते थे। आज भारतीय मजदूर संघ भारत का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन बना, इसके पीछे दत्तोपंत जी की तपस्या ही है।"

भारतीय मजदूर संघ के तत्कालीन संगठन मंत्री श्री रमण भाई शाह ने दत्तोपंत जी को दूर दृष्टा बताते हुए अपनी श्रद्धांजलि में कहा :-

"दत्तोपंत जी भारतीय मजदूर संघ के जन्मदाता मात्र नहीं थे, अपितु सर्वेसर्वा थे। एक तिहाई दुनिया जब लाल रंग से रंगी थी और लाल किले पर लाल निशान की घोषणा बड़े उत्साह से की जा रही थी तब उन्होंने कम्युनिज्म के पतन की भविष्यवाणी की थी। वे सही अर्थों में दूरदृष्टा थे।"

भारतीय मजदूर संघ के तत्कालीन उपाध्यक्ष श्री सी.के.सजीनारायण ने 'सब को स्नेह-अपनापन' शीर्षक से अपने शोक संदेश में कहा :- "श्री गुरुजी के बाद श्री ठेंगड़ी ने संघ विचारधारा को सींचा था। वे बड़े सहज भाव से हर एक के साथ घुल-मिल जाते थे। सभी को उनका स्नेह समान रूप से प्राप्त होता था। उनकी योग्यता और निष्ठा के कारण अन्य विचारधाराओं के श्रमिक संगठन भी उनका आदर करते थे।

श्रमिक आंदोलन के प्रेरणांपुज बताते हुए श्री मुरलीधर राव , स्वदेशी जागरण मंच ने श्रद्धेय ठेंगड़ी जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा :- "ठेंगड़ी जी की मृत्यु से राष्ट्रवादी संगठनों को एक बड़ा आघात पहुँचा है। वे अंतिम समय तक पिछड़ों और गरीबों के लिए कार्यरत रहे। ठेंगड़ी जी पूँजीवादी विश्व व्यापार संगठन और वैश्वीकरण की ताकतों के विरुद्ध एक विशाल आंदोलन के प्रेरणापुंज रहे। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व के हित में आवाज गुँजाई थी। श्रमिक आंदोलन में उनका योगदान लंबे समय तक याद रखा जाएगा।

स्वदेशी जागरण मंच के प्रो. राजकुमार भाटिया ने शोक संदेश में कहा :-"ठेंगड़ी जी के निधन के कारण रा.स्व.संघ ने अपना एक योग्यतम स्वयंसेवक खो दिया है। आने वाला समय ही बता पाएगा कि जितना ठेंगड़ी जी ने संघ सृष्टि को दिया है क्या कोई उससे अधिक देने वाला होगा। उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति हेतु अत्यंत बुद्धिमत्ता पूर्वक कार्य किया। वह योग्य नेतृत्वकर्ता, प्रखर वक्ता तथा कुशल संगठन कर्ता ही नहीं अपितु प्रत्येक दृष्टि से एक परिपूर्ण स्वयंसेवक थे। उनका विशिष्ट स्थान हमारे प्राचीन राष्ट्र के श्रेष्ठ ऋषियों में आता है।

संघ भावना को जीवन में उतारा

- एम.ए.कृष्णन

वरिष्ठ संघ प्रचारक, संस्थापक

बालगोकुलम

डॉ. हेडगेवार और श्री गुरूजी से मिलने का विरला सौभाग्य श्री ठेंगड़ी को प्राप्त हुआ था। उन्होंने अपने जीवन में संघ भावना को पूरी तरह आत्मसात् किया था। उन्होंने पूँजीवाद और कम्युनिज्म के विरुद्ध भारतीय मूल्यों पर आधारित विकास का एक समानांतर प्रारूप रखा था। प्रदेश के विभिन्न सामाजिक संगठनों का उन्होंने बारीकी से अध्ययन किया था।

सभी वर्गों को संघ से जोड़ा

- ए.आर.मोहनन

प्रांत कार्यवाह, रा.स्व.संघ

केरल

ठेंगड़ी जी ने केरल में संघ कार्य की नींव डाली थी। वे समाज के सभी वर्गों को संघ से जोड़ पाए थे। उन्होंने बहुत पहले यानी 1980 में ही कम्युनिज्म के पतन की भविष्यवाणी कर दी थी।

संघ और माकपा में वार्ता की पहल

- पी.पी.मुकुंदन

भाजपा महासचिव

केरल

एक ऐतिहासिक विभूति थे ठेंगड़ी जी। '40 के दशक में जब वे केरल आए थे तो संघ कार्य विस्तार के लिए उन्होंने पहले यहाँ की भाषा और संस्कृति का अध्ययन किया था। '60 के दशक में जब संघ और माकपा में संघर्ष हुआ था तब ठेंगड़ी जी ने ही दोनों संगठनों के बीच वार्ता की पहल की थी। उन्होंने लोगों में सामाजिक-सांस्कृतिक एकजुटता के लिए अनथक प्रयास किया था।

वे महात्मा थे

- डॉ. डी. बाबू पाल

पूर्व मुख्य सचिव एंव पूर्व लोकपाल

केरल

स्व. ठेंगड़ी ने हमेशा ही ज्ञान का सम्मान किया। उनका दृष्टिकोण अत्यंत मानवीय था। तिरूअनंतपुरम में भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में मैं उपाध्यक्ष था और तभी उनसे मेरी भेंट हुई थी। उस समय मुझे विभिन्न विषयों पर उनके प्रखर विचारों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और उनके ज्ञान की गहनता ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया था। सच में वे महात्मा थे।

विरले महापुरुष

- पी.नारायणन

पूर्व संपादक, जन्मभूमि,

मलयालम दैनिक

केरल में संघ का संदेश गुँजाने वाले वे असाधारण व्यक्ति एक पूर्ण पुरुष थे। श्री गुरुजी और पं. दीनदयाल उपाध्याय के साथ श्री ठेंगड़ी ने हमारी विचारधारा को पुष्ट किया। श्रमिक आंदोलन में उनकी भूमिका भुलायी नहीं जा सकती। उन्होंने राज्यसभा की शोभा बढ़ाई, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अधिवेशनों और चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व पर अपनी छाप छोड़ी। ऐसे महापुरुष विरले ही होते हैं।

उत्तर प्रदेश के लखनऊ तथा जौनपुर में सपन्न हुए कार्यक्रम इस प्रकार रहे :-

लखनऊ : - 14 अक्टूबर को सायंकाल विश्व संवाद केंद्र, लखनऊ में एक शोकसभा का आयोजन किया गया। केंद्र की त्रैमासिक शोध पत्रिका के संपादक डॉ. गौरीनाथ रस्तोगी की अध्यक्षता में आयोजित हुई इस शोक सभा में रा.स्व.संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख श्री अधीश कुमार तथा संवाद भारती पत्रिका के संपादक श्री नंद किशोर सहित बड़ी संख्या में स्वयंसेवक व कार्यकर्ता उपस्थित हुए।

जौनपुर : - 15 अक्टूबर की शाम को खेतासराय, जौनपुर (उ.प्र.) में स्व. ठेंगड़ी को श्रद्धांजलि अर्पित की गई। इस अवसर पर संघ विचार परिवार के लगभग 150 कार्यकर्ताओं ने स्व.ठेंगड़ी के चित्र पर श्रद्धासुमन अर्पित किए।

रचनात्मक दृष्टि

मजदूर क्षेत्र का कार्य आंदोलनात्मक होने के बाद भी रचनात्मक दृष्टि आवश्यक है। अधिकारों और सुविधाओं के लिए जहाँ संघर्ष करना जरूरी है वहाँ रचनात्मक कार्यों की भी आवश्यकता है। इसका आप सब विचार करें, तभी संगठन पूर्ण होगा। आप इन सब बातों पर विचार करें और अपने-अपने क्षेत्र में जाकर उसे अमल में लावें यही मेरा आग्रह है।

श्री भाऊराव देवरस


श्रद्धांजलि सभा (दिल्ली)

31 अक्टूबर 2004

देश की राजधानी नई दिल्ली स्थित कॉन्स्टिट्यूशन क्लब के प्रांगण में भारतीय मजदूर संघ द्वारा श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने हेतु श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया। सभा में समाज के विभिन्न क्षेत्रों यथा धार्मिक, सांस्कृतिक व ट्रेड यूनियन संगठनों के प्रतिनिधियों ने भारी संख्या में उपस्थित होकर भावपूर्ण श्रद्धा सुमन अर्पित किए।

मंच पर श्रद्धेय श्री ठेंगड़ी जी के चित्र पर सर्वप्रथम रा.स्व.संघ के सरकार्यवाह मा. मोहन जी भागवत ने पुष्पांजलि दी। तत्पश्चात महामहिम उपराष्ट्रपति श्री भैरों सिंह शेखावत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उत्तर क्षेत्र मा. संघचालक डॉ. बजरंग लाल, दिल्ली प्रांत के मा. संघचालक श्री सत्य नारायण बंसल, पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह, सिक्ख संगत के सरदार चिंरजीव सिंह। अंतरराष्ट्रीय आर्य समाज के अध्यक्ष स्वामी सत्यम् जी महाराज, विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष श्री अशोक जी सिंघल, राष्ट्र सेविका समिति की सेवा प्रमुख सुश्री रेखा राजे, वनवासी कल्याण आश्रम के संगठन मंत्री श्री गुणवंत कोठारी, स्वदेशी जागरण मंच के श्री अश्विनी महाजन, भारतीय किसान संघ कार्यालय मंत्री श्री कृष्ण चंद्र सूर्यवंशी व भा.म.सं. संगठन मंत्री श्री ओम प्रकाश अग्गी ने चित्र पर पुष्प चढ़ाकर आदरांजलि दी।

मंच संचालन भा.म.सं. के तत्कालीन महामंत्री श्री उदय राव पटवर्धन ने किया। कार्यक्रम का प्रारंभ उदासीन आश्रम के प्रमुख एवं सनातन धर्म सभा दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष स्वामी राघवानंद जी द्वारा मंत्रोच्चार से हुआ। मा. गोपाल कृष्ण अरोड़ा द्वारा स्वरचित कविता 'ठेंगड़ी जी के चरणों में शत बार नमन' का कविता पाठ हुआ। कविता पाठ उपरांत गणयमान्य महानुभावों के उद्बोधन हुए।

इस के पूर्व पुष्पांजलि अर्पित करने वालों में रा.स्व.संघ दिल्ली प्रांत कार्यवाह श्री विजय कुमार जी, दिल्ली से ही मा. सोहन सिंह जी, श्री दिनेश जी, श्री अशोक प्रभाकर, श्री रमेश प्रकाश जी, श्री लक्ष्मण देव जी, श्री अनिल जी, श्री किशोर कांत जी, ठाकुर राम सिंह जी, श्री केदार नाथ साहनी, श्री विजय कुमार मल्होत्रा, श्री बी.एल.शर्मा प्रेम, श्री श्याम खोसला व श्री देवेन्द्र स्वरूप जी, श्री दीनानाथ बत्रा, डॉ. महेश चंद्र शर्मा, डॉ. बलराम मिश्र, सुंदर सिंह जी भंडारी, श्रीमति नजमा हेपतुल्ला, डॉ. साहिब सिंह वर्मा, एस.एस. अहलूवालिया, रामशंकर अग्निहोत्री, श्री यादव राव देशमुख, भानु प्रताप शुक्ल तथा अन्य अनेक गणयमान्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भावभीनी श्रद्धांजलियाँ दीं।

भारतीय मजदूर संघ की ओर से अखिल भारतीय अध्यक्ष श्री हसुभाई दवे, अखिल भारतीय महामंत्री श्री उदयराव पटवर्धन, अखिल भारतीय मंत्री श्री अमरनाथ डोगरा, श्री राजेंद्र सिंह चौहान, अखिल भारतीय संगठन मंत्री श्री ओमप्रकाश अग्गी, केंद्रीय कार्यालय मंत्री श्री प्रेमनाथ शर्मा, क्षेत्रीय मंत्री तथा श्रद्धेय ठेंगड़ी जी के सहायक रहे, श्री रामदास पांडे, कार्यालय प्रमुख श्री जगदीश जोशी, विश्वकर्मा संकेत के संपादक व वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री के एल पठेला तथा अन्य कार्यकर्ता एवं बंधुगण जिन्होंने श्रद्धा सुमन अर्पित किए उनमें श्री राम जी दास शर्मा, श्री अख्तर हुसैन, बी.के.जग्गी, पवन कुमार, राम लुभाया बाबा, डॉ. वी.के राय, श्री लक्ष्मी प्रसाद जायसवाल, विजय खुराना, महेन्द्र चावला, हरि (मधु रेस्टारेंट), श्री शब्बीर अहमद, श्री बल्देव सिंह (साऊथ एवं न्यू टैक्सी स्टैण्ड), डॉ. महेश अग्रवाल थे।

श्रद्धांजलि सभा में उपस्थित श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के भतीजे श्री सतीश ठेंगड़ी ने अस्थि कलश पर पुष्पमाला अर्पित करके श्रद्धांजलि दी।

श्रम संघ बिरादरी से लगभग समस्त केंद्रीय व प्रांत स्तरीय श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधि शोक सभा में उपस्थित थे। सभी का कहना था कि श्रम संघ आंदोलन की अपार क्षति हुई है। समूचे श्रम आंदोलन का एक महान अग्रदूत हमारे बीच से उठ गया है। वह हम सभी के मार्गदर्शक थे। बड़े भ्राता और सच्चे नेता थे। प्रख्यात वामपंथी विचारक सीटू के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री और अध्यक्ष कामरेड एम के पांधे ने श्री ठेंगड़ी के बारे एक पुस्तक लिखने का विचार प्रकट किया था। आयु ने उन का साथ नहीं दिया और वह अपनी इस इच्छा को पूरा नहीं कर पाए। वह कहते थे कि विरोधी विचारधारा के बावजूद ठेंगड़ी जी से हमारे प्रेम और आत्मीयतापूर्ण पारिवारिक सबंध थे। अनेक वामपंथी श्रमिक नेताओं की श्री ठेंगड़ी जी के बारे लगभग ऐसी ही भावनाएँ थीं। प्रख्यात वामपंथी श्रमिक नेता श्री पी. राममूर्ति अपने जन्म दिवस जिसे वह नितान्त व्यक्तिगत रूप से मना रहे थे के सह भोज पर केवल निकटस्थ चार नेता आमंत्रित थे - जिनमें तीन प्रसिद्ध साम्यवादी नेता और चौथे थे श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी। श्री ठेंगड़ी जी के संबंधों की प्रगाढ़ता और गहराई का उक्त उदाहरण से पता चलता है।

स्पष्टतया श्री ठेंगड़ी जी की श्रद्धांजलि सभा में उस दिन श्री एम के पांधे भाव विह्वल थे। लगता था जैसे अपनी भावनाओं को वह जबरदस्ती रोक रहे हों और प्रत्यक्ष संयत दिखने का प्रयास कर रहे हों। उन्होंने भावपूर्ण पुष्पांजलि दी और अपने उद्बोधन में कहा :- "दत्तोपंत ठेंगड़ी ने देश के श्रमिकों की एकता एवं मजदूर आंदोलन को बढ़ाने के लिए हमेशा बल दिया। अपनी पुस्तक WTO मोड़ो, तोड़ो, छोड़ो के माध्यम से उन्होंने WTO की सच्चाई से श्रमिक जगत् को अवगत कराया था। उन्होंने पार्टी लाइन से हटकर ट्रेड यूनियन प्रारंभ किया। मजदूर के वह सच्चे रहनुमा (पथप्रदर्शक) थे।" उन्होंने आगे कहा "श्री ठेंगड़ी मेरे परम मित्र थे। जब भी वह दिल्ली में होते तो उनका मेरे निवास पर आना जाना होता था और तब रात्रि भोजन वह हमारे साथ ही करते थे। आपात्काल में भी वह मुझ से मिलने आते थे। राष्ट्रीय अभियान समिति का वर्ष 1980 में गठन करने और भा.म.सं. को उसमें सम्मिलित करने में उनकी प्रमुख भूमिका थी। वर्ष 1977 उपरांत समस्त श्रम संगठनों को एक साथ लाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। हम उनके निकट संपर्क में रहते थे क्योंकि वह विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के वर्चस्व के विरुद्ध थे। वह वैश्विकीकरण, निजीकरण व उदारीकरण के कटु आलोचक थे। उन्होंने 'विश्व व्यापार संघ तोड़ो, मोड़ो, छोड़ो' जैसी पुस्तकें लिखीं। वह जन महत्व के अनेक मुद्दे उठाते थे। उनकी हमारी विचारधारा पर मतभेद के बावजूद हमसे मधुर सबंध थे। श्री ठेंगड़ी के इन्हीं गुणों के कारण व्यक्तिगत रूप में वह मेरी स्मृति में सदा रहेंगे। मैं उनसे अक्सर मिलता रहता था और श्रम संबंधी तथा राजनीतिक घटनाओं पर उनसे चर्चा करता था। उनके देहावसान से केवल भा.म.सं. ही नहीं अपितु समूचे श्रम आंदोलन की भारी क्षति हुई है।

हम आपस में बहु-राष्ट्रीय कंपनियों के भारत में प्रवेश पर देशव्यापी आंदोलन चलाने पर भी विचार विमर्श करते थे। उनकी सोच हमेशा सकारात्मक होती थी और इसी कारण उनसे हमारे सुदृढ़ संबंध थे। उनके चले जाने से निःसंदेह समूचे ट्रेड यूनियन जगत् का भारी नुकसान हुआ है।

एटक के अखिल भारतीय महामंत्री एवं संसद सदस्य कामरेड गुरुदास दासगुप्ता ने पुष्पांजलि अर्पित करने के उपरांत कहा :- "दत्तोपंत ठेंगड़ी के झंडे का रंग क्या था, सवाल यह नहीं है। हिंदुस्तान के श्रमिक वर्ग की एकता के लिए झण्डे का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है। जो बात सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वह यह है कि दत्तोपंत ठेंगड़ी श्रमिकों के एक सच्चे दोस्त थे। मुझे यह कहने में रत्तीभर भी संकोच नहीं कि ठेंगड़ी जी श्रमिक वर्ग के सर्वश्रेष्ठ नेताओं में से एक थे। उन्होंने राजनीति या किसी दल की नहीं बल्कि श्रमिक वर्ग की सदैव चिंता की। मैं अपनी ओर से, अपने लाल झंडे की ओर से अपने सभी कामरेडों की ओर से ठेंगड़ी जी के प्रति तहेदिल से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।"

हिंद मजदूर सभा (एच.एम.एस.) के राष्ट्रीय मंत्री श्री आर.ए. मित्तल ने अपने उद्गार इन शब्दों में व्यक्त किए :- "चहुँमुखी प्रतिभा के धनी ठेंगड़ी जी ने 1997 में कहा था कि मजदूरों को धोखा देकर संगठन नहीं बढ़ाना चाहिए। उनके साथ ईमानदारी से बात करनी चाहिए। अगर ईमानदारी के कारण कोई मजदूर संगठन के साथ नहीं जुड़ता है तो संगठन को शून्य से शुरू करना चाहिए। एक दिन ऐसा अवश्य आएगा कि मजदूर आपके साथ जुड़ेंगे। आज उनकी बात सही साबित हुई और भारतीय मजदूर संघ आज देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन बन चुका है।"

श्रद्धांजलि सभा में उपस्थित यू.टी.यू.सी.(एल. एस) के अखिल भारतीय पदाधिकारी कामरेड आर.के. शर्मा ने कहा :- "दत्तोपंत ठेंगड़ी का जाना संपूर्ण श्रमिक जगत् के लिए एक बड़ी क्षति है। वे अपने भाषण से नहीं, अपने जीवन-मूल्य बोध से, अपनी जीवन शैली से, अपने नैतिक बल से, श्रमिक वर्ग में श्रद्धा उत्पन्न करते थे। साम्राज्य-वादी ताकतों के WTO के भूमंडलीकरण का श्रमिक वर्ग पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा, वे भली-भाँति जानते थे, इसलिए उसका उन्होंने खुलकर विरोध किया था। मैं अपने श्रद्धा सुमन ठेंगड़ी जी के प्रति सादर समर्पित कर रहा हूँ।

उपरोक्त के अतिरिक्त ट्रेड यूनियन क्षेत्र के ही अनेक नेताओं जिनमें कामरेड डी.एल. सचदेव, कामरेड धर, कामरेड गोपेश्वर, कामरेड ओ.पी. वर्मा तथा भा.म.सं. दिल्ली प्रदेश एवं दिल्ली के आसपास गुड़गाँव, नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद, बहादुरगढ़, सोनीपत व पानीपत के औद्योगिक क्षेत्रों से श्रद्धांजलि सभा में पहुँचे विविध श्रम संगठनों के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने दिवंगत नेता के अस्थि कलश पर श्रद्धा सुमन अर्पित किए।

श्रद्धांजलि सभा में हजारों की संख्या में उपस्थित श्रमिक तथा सामाजिक संगठनों एवं शोकग्रस्त नागरिकों ने मौन खड़े हो कर सामूहिक श्रद्धांजलि दी। सभा का समापन संस्कृत भारती के आचार्य श्री रूप चंद्र जी मिश्र द्वारा शांति पाठ से हुआ। भारतीय मजदूर संघ के मुख पत्र 'विश्वकर्मा संकेत' ने अपने नवंबर 2004 अंक में "राष्ट्र ऋषि दत्तोपत ठेंगड़ी" शीर्षक के अंतर्गत श्रद्धा सुमन अर्पित किए।

इंडियन नेशनल ट्रेड युनियन कांग्रेस (इंटक) के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री संजीव रेड्डी ने 'श्रमिक वर्ग को समर्पित जीवन' के अंतर्गत अपने शोक संदेश में लिखा :- "श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी के अवसान का समाचार सुनकर बहुत दुःख हुआ। उन्होंने भारतीय मजदूर संघ नामक श्रमिक आंदोलन का गठन किया था। पहले वे 'इंटक' से जुड़े हुए थे। वे देश और श्रमिक वर्ग के प्रति अत्यंत समर्पित व्यक्तियों में से एक थे। वे सिद्धांतवादी एवं महान व्यक्तित्व के धनी थे। जब वे इंटक के साथ कार्यरत थे तो विशुद्ध गांधीवादी सिद्धान्तों पर चलते हुए उन्होंने अत्यंत सकारात्मक भूमिका निभाई थी। शुरुआत से ही वे श्रमिक वर्ग के प्रति बड़े समर्पित रहे थे और यह वर्ग हमेशा उन्हें प्रिय रहा। मैं जब 'इंटक' का अध्यक्ष बना तो उनकी बड़ी इच्छा थी कि 'इंटक' और बी.एम.एस. साथ मिलकर श्रमिक वर्ग के लिए काम करें। बी.एम.एस. के बड़ोदरा अधिवेशन के समय मैं उनसे मिला था तो उन्होंने अपनी यह इच्छा मेरे सामने रखी थी। उन्होंने मुझसे कहा, 'आप कोशिश कीजिए, हम आपको सहयोग देने को तैयार हैं।' वे सच में महान थे।

हिंद मजदूर सभा (एच.एम.एस.) के राष्ट्रीय महामंत्री श्री उमराव मल पुरोहित ने अपने शोक संदेश में कहा :- "उनके निधन से हमें भारी सदमा पहुँचा है। भारत का एक ऐसा महान श्रमिक नेता हमारे मध्य से उठ गया जिसने राष्ट्रहित के अंतर्गत श्रमिकहित का अनूठा कार्य किया। वह सीधे सच्चे। प्रतिबद्ध नेता थे जिन्होंने श्रमिक हित उत्थान के लिए कई आंदोलन चलाए बहुत कार्य और त्याग किया। हिंद मजदूर सभा की ओर से हम भा.म.सं. के अपने साथिओं से गहरी समवेदना व्यक्त करते हैं और दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं। हिंद मजदूर सभा में हम समझते हैं कि उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि उनके श्रम संघ एकता, मजदूरों के अधिकार, जीविका व सामाजिक सुरक्षा आदि कार्य को आगे बढ़ाया जाए जिससे भारत की संतुलित उन्नति व प्रगति हो।

नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन ट्रेड युनियन्ज (एन.एफ.आई.टी.यू.) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री ओम प्रकाश वर्मा ने अपनी संवेदना इन शब्दों में व्यक्त की "श्री ठेंगड़ी के दुःखद निधन का समाचार सुनकर भारी सदमा पहुँचा है उन्होंने श्रमिक वर्ग के लिए बहुत कार्य किया है। जिस भाँति प्रामाणिकता एवं ईमानदारी से उन्होंने श्रमिक संघों का गठन किया है, उस भाँति कोई बिरले व्यक्ति ही कर सकते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता मेरी दृष्टि में यह है कि उन्होंने श्रम संघ के साथ राजनीति का घालमेल नहीं किया। प्रारंभ में ऐसा लगता था कि भा.म.सं. भारतीय जनता पार्टी का ट्रेड यूनियन विंग है किंतु इसे उन्होंने गलत सिद्ध किया। भा.म.सं. विशुद्ध रूप से श्रमिकों का, श्रमिकों द्वारा संचालित संगठन है ऐसा उन्होंने अपने कार्य से सिद्ध किया। उनका दोहरा रूप या कार्यकलाप नहीं था। आज बहुत थोड़े लोग हैं जो ट्रेड यूनियन के प्रति सच्चे हैं। यह श्री ठेंगड़ी थे, जिन्होंने श्रम संघ आंदोलन को जीवंत बनाए रखा।"

यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (यू.टी.यू.सी.) के राष्ट्रीय मंत्री श्री अवनी राय ने इन शब्दों में अपनी पुष्पांजलि अर्पित की "हम उनके साथी थे क्योंकि हम सब ट्रेड यूनियन आंदोलन में एक ही लक्ष्य के लिए एक साथ काम कर रहे थे। उन्होंने श्रमिक हित संरक्षण के लिए बड़ा संघर्ष किया। वह पूर्णतया समर्पित थे। उनके निधन से भा.म.सं. को ही नहीं अपितु सारे श्रम संघ आंदोलन की जबरदस्त हानि हुई है।"

यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एल.एस.) के श्री अचिंत्य सिन्हा ने कहा "मेरा उनसे व्यक्तिगत परिचय तो नहीं था किंतु उनके बारे में हमने भा.म.सं. के कार्यकर्ताओं से बहुत सुन रखा था। मैं इतना समझ सका हूँ कि श्रम संघ आंदोलन को वह पूर्णतया समर्पित थे। श्रम संघ एकता के उनके आव्हान का हमें अच्छी तरह याद है। हम उनका बहुत सम्मान करते हैं।

पावन तीर्थ स्थलों एवं पवित्र नदी जल धाराओं में स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का अस्थि विसर्जन : -

15 अक्टूबर 2004 बैकुंठ धाम पुणे में अंतिम संस्कार होने के बाद 17 अक्टूबर प्रातः 8 बजे ठेंगड़ी परिवार के अतिरिक्त संघ सृष्टि के प्रमुख अधिकारियों एवं भारी संख्या में कार्यकर्ताओं ने अस्थि (शेष) संचित करके 5 अस्थि कलश बनाए।

सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने दो कलशों को हरिद्वार एवं प्रयाग में प्रवाह के लिए पुणे रेलवे स्टेशन पर पहुँचाया। मार्ग में प्रायः सभी स्टेशनों पर श्रद्धालुओं ने कलश के दर्शन किए। अस्थि कलश को पहाड़गंज केंद्रीय कार्यालय में दर्शनार्थ रखा गया। जो 31 अक्टूबर को श्रद्धांजलि सभा के बाद हरिद्वार ले जाया गया।

शेष दो कलश 19 अक्टूबर को ठेंगड़ी जी तथा परिवार के शोकाकुल सदस्य के नेतृत्व में विदर्भ भामसं कार्यालय (कांग्रेस नगर) लाया गया। एक कलश को कार्यालय में ही दर्शनार्थ रखा गया तथा दूसरा कलश श्री सतीश ठेंगड़ी (भतीजे) अपने निवास स्थान लक्ष्मी नगर ले गए जिसे 22 अक्टूबर को नासिक में गोदावरी में विसर्जित किया गया।

आलंदी: संचित किए गए 5 कलशों में से एक कलश को पौराणिक विधि से आलंदी तीर्थ स्थान पर प्रदेश भा.म.सं. के पदाधिकारी एवं कार्यकर्ताओं की उपस्थिति में इंद्रायणी नदी में विसर्जित किया गया।

नासिकः एक कलश को नासिक लाया गया जहाँ कुल की मान्यता के अनुसार गोदवरी तट पर स्व. ठेंगड़ी जी का दसवाँ, ग्यारहवाँ एवं बारहवीं (क्रिया कर्म) के सभी कार्यक्रम विधिपूर्वक संपन्न किए गए। इस अवसर पर प्रदेश भामसं के पदाधिकारी एवं सैकड़ों कार्यकर्ता भी उपस्थिति रहे। उक्त कर्मकांड कुल गुरु श्रीयुत खांडवे जी द्वारा संपन्न करवाया गया जिन्होंने स्व. ठेंगड़ी जी के पिता जी के निधन पर भी स्व.ठेंगड़ी जी के हाथों यही कर्मकांड वर्ष 1960 में संपन्न करवाया था।

दि. 26 अक्टूबर को सतीश ठेंगड़ी के आवास पर तेरहवाँ एवं चौदहवाँ संपन्न हुआ एवं सायं में संघ सृष्टि के सभी प्रमुख अधिकारियों ने वहाँ पहुँचकर प्रसाद ग्रहण किया।

नागपुरः विदर्भ प्रदेश भामसं द्वारा 27 अक्टूबर को स्व.दत्तोपंत जी ठेंगड़ी की पुण्य स्मृति में आयोजित विशाल श्रद्धांजलि सभा में रा.स्व.संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख श्री रंगा हरि ने ठेंगड़ी जी को मौलिक चिंतक एवं वाणी का तपस्वी बताया। उनसे प्रेरणा लेकर कार्य में जुटने का उन्होंने सभी कार्यकर्ताओं का आह्वान किया। शोक सभा परिवार की विभिन्न संगठनों के प्रभारियों ने भी श्रद्धांजलि अर्पित की।

रामटेकः 28 अक्टूबर को अस्थि विसर्जन से पूर्व रामटेक नगरवासियों की ओर से आयोजित श्रद्धांजलि सभा में अधिवक्ता श्री सदूभाऊ पांडे द्वारा श्रद्धांजलि अर्पित की गई एवं भारी संख्या में नगरवासियों ने पुष्पांजलि अर्पित की। अंत में शांति पाठ के बाद अस्थि विसर्जन किया गया।

प्रयाग: 22 अक्टूबर को प्रयाग में महान चिंतक एवं भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक स्व.दत्तोपंत ठेंगड़ी की अस्थियों को संगम में विसर्जित कर दिया गया। इस अवसर पर रा.स्व.संघ, भाजपा एवं विश्व हिंदू परिषद के वरिष्ठ पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं के साथ ही नगर के अनेक प्रतिष्ठित गणमान्य व्यक्ति भी उपस्थित थे।

स्व. ठेंगड़ी जी की अस्थियों के कलश को गंगा-यमुना के पावन संगम में विसर्जन से पूर्व जार्जटाउन स्थित संघ कार्यालय में जन साधारण के दर्शनार्थ रखा गया, जहाँ लोगों ने उनकी अस्थियों पर माल्यार्पण किया। इस अवसर पर आयोजित शोकसभा में विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष श्री अशोक सिंघल ने स्व. ठेंगड़ी को महान तपस्वी बताते हुए कहा कि वे आजीवन समाज सेवा के लिए समर्पित रहे। भाजपा के वरिष्ठ नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने मजदूरों को संगठित करने में स्व. ठेंगड़ी के योगदान को देश की एक बड़ी उपलब्धि बताते हुए उनके चिंतन की सराहना की। डॉ. जोशी ने कहा कि स्व. ठेंगड़ी की कार्यशैली से प्रभावित होकर चीन जैसे साम्यवादी राष्ट्र ने उन्हें अपने यहाँ आमंत्रित किया था। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष श्री केशरीनाथ त्रिपाठी ने उन्हें महान विधिवेत्ता बताया। कार्यक्रम में सर्वश्री गिरीश अवस्थी, श्री अशोक बेरी, डॉ. राजेंद्र अग्रवाल, डॉ. अमर सिंह आदि कई कार्यकर्ता उपस्थित थे।

हरिद्वार: स्व. ठेंगड़ी जी की अस्थियों का एक कलश हरिद्वार स्थित भामसं कार्यालय में 1 से 4 नवंबर तक अंतिम दर्शनार्थ रखा गया ताकि देशभर के जो प्रमुख पदाधिकारी एवं कार्यकर्ता श्रद्धासुमन अर्पित न कर पाए हों, वे भी पुष्पांजलि अर्पित कर सकें। 5 नवंबर को यह अस्थिकलश कच्छी आश्रम लाया गया, जहाँ रा.स्व.संघ के अ.भा.कार्यकारी मंडल की बैठक चल रही थी। यहाँ संपूर्ण देशभर से एकत्र हुए, सभी संगठनों के पदाधिकारियों ने भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की। अंत में सायंकाल गंगातट पर अस्थि विसर्जन कार्यक्रम श्री सतीश ठेंगड़ी (भतीजे) द्वारा संपन्न हुआ।


राष्ट्र ऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी

(विश्वकर्मा संकेत नवंबर 2004 अंक के संपादकीय में भा.म.सं. के पूर्व राष्ट्रीय मंत्री व संकेत के तत्कालीन संपादक स्व. श्री प्रेमनाथ शर्मा ने इन शब्दों में भावपूर्ण आदरांजलि प्रस्तुत की.........)

ठेंगड़ी जी की 84 वर्ष लंबी देहयात्रा एक ऋषि की जीवन यात्रा है। ऋषि अपने लिए नहीं, राष्ट्र और मानवता के लिए जीता है। 'आत्मवत् सर्व भूतेषु' और 'सर्व-भूत-हिते रतः' से अभिमंत्रित उसका अंत:करण समाज के दुर्बलतम अंतिम व्यक्ति के लिए छटपटाता है। उसकी काल भेदिनी दृष्टि सुदूर भविष्य पर केन्द्रित होती है। उसका मौलिक और गहन चिंतन भावी पीढ़ियों के लिए मंत्र बन जाता है। उसकी सृजनात्मक प्रतिभा और तपः साधना भावी कर्म की पगडंडियाँ छोड़ जाती हैं। ठेंगड़ी जी का ऋषि जीवन मैत्री, करुणा, चिंतन और रचनात्मक कर्म का अपूर्व संगम है।

वर्धा जिले के आर्वी नामक ग्राम में जन्मा दत्तात्रेय बापुराव ठेंगड़ी केवल 15 वर्ष की आयु में ही वानरसेना का सेनापति बनकर स्वातंत्र्य आंदोलन में कूद पड़ा। कॉलेज जीवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें अपनी गोद में खींच लिया। वकालत पास करके उन्होंने 1942 में संघ प्रचारक की भूमिका अपनायी तो अंतिम श्वाँस तक उस पर अटल रहे। 1942 से 1946 तक उन्होंने केरल, बंगाल और असम जैसे सुदूर प्रांतों में संघ के शाखा तंत्र को बोया, सींचा। तदुपरांत वे संघ की योजनानुसार राजनीति, श्रमिक, कृषि, सामाजिक समरसता आदि अनेक क्षेत्रों में गए, पर उनका जीवन सूत्र एक ही रहा कि संघ कुछ नहीं करता, स्वयंसेवक सब कुछ करता है।

स्वयंसेवक का आदर्श जीवन उन्होंने अंत तक जिया। असामान्य सादगी, अनिकेत, अपरिग्रही, निहतुक स्नेह, सरलता, सर्वजन सुलभता, निरहंकारी, प्रसिद्धि पराङमुखता जैसे गुणों से ओत-प्रोत उनका लोक जीवन युग-युगों तक प्रेरणादीप बना रहेगा। उनकी पुस्तक 'संघ कार्यकर्ता' उनके ऋषि जीवन का अनुभूत सारतत्व है। केशव सृष्टि जैसे मंत्र-वाक्यों के उद्गाता ठेंगड़ी जी ने 'डॉ. हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार' को तो केशव-प्रसाद के नाते सिर माथे लगाया किंतु वर्ष 2003 में भारत सरकार द्वारा प्रदत्त 'पद्म भूषण अलंकार' को विनम्रतापूर्वक यह कहकर ठुकरा दिया कि 'जब तक पूज्य डॉ. हेडगेवार और पूज्य श्री गुरुजी को 'भारत रत्न' नहीं दिया जाता मेरे लिए यह सम्मान स्वीकार करना अनुचित होगा।'

पर ठेंगड़ी जी का संवेदनशील अंत:करण राष्ट्रजीवन में व्याप्त गरीबी और सामाजिक विषमता को दूर कराने के लिए छटपटा रहा था। इसके लिए वे संघ की योजनानुसार राजनीति में गए। भारतीय जनसंघ के प्रारंभ में 1952-53 में मध्य प्रदेश में और 1956-57 में दक्षिणांचल क्षेत्र में संगठन मंत्री रहे। 1964 से 1976 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे। पर उनका मन राजनीति में रमा नहीं। वह श्रमिक क्षेत्र में जाने के लिए छटपटाता रहा। 1950-51 में उन्होंने कांग्रेस समर्थित इंटक में प्रवेश कर इस क्षेत्र का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त किया, और गहन चिंतन-मनन के पश्चात भोपाल में भारतीय मजदूर संघ नामक बेजोड़ श्रमिक संगठन का बीजारोपण किया।

पहली बार उन्होंने श्रमिक आंदोलन को वर्ग संघर्ष की मार्क्सवादी विचारधारा और राजनीतिक दलों के बंधन से ऊपर उठाकर भारतीय जीवन दर्शन को प्रतिबिंबित करने वाली दल निरपेक्षता पर खड़ा किया। उन्होंने 'राष्ट्र का औद्योगीकरण, उद्योगों का श्रमिकीकरण और श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण जैसा अभिनव ध्येय सूत्र प्रदान किया। श्रमिक क्षेत्र व कार्यकर्ताओं को उनका आह्वान रहा 'हम पागल हैं इसीलिए भारतीय मजदूर संघ है। हम गरीबों की गरीबी दूर करेंगे, रोने वालों के आँसू पोछेगे। आखिरी आदमी के उत्कर्ष तक हम काम करते रहेंगे। इसके लिए ही हमारा पागलपन है।' यह ठेंगड़ी जी के कुशल नेतृत्व का ही प्रमाण है कि भारतीय मजदूर संघ भारत के सबसे बड़े श्रमिक संगठन का स्थान प्राप्त कर सका और विश्व भर में भारतीय मजदूर आंदोलन का प्रतिनिधित्व कर सका यहाँ तक कि चीनी निमंत्रण पर बीजिंग पहुँचे भामसं प्रतिनिधि मंडल से 28 जून 1985 को कम्युनिस्ट चीन के बीजिंग रेडियो ने ठेंगड़ी जी को विश्व भर के श्रमिकों के नाम संदेश प्रसारित करने के लिए आमंत्रित किया। श्रमिक नेता के रूप में ठेंगड़ी जी राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन के अगवा रहे। 1968-69 में श्रम संगठनों की राष्ट्रीय अभियान समिति के पुरोधा रहे। आपात्काल के 19 महीने आपने भूमिगत रहकर, लोक संघर्ष समिति के सचिव का दायित्व निभाया। सौराष्ट्र विश्व विद्यालय ने ठेंगड़ी जी को डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया।

देश के आर्थिक विकास की चिंता उन्हें श्रमिक क्षेत्र एवं कृषि क्षेत्र में ले गयी और 4 मार्च 1979 को उन्होंने भारतीय किसान संघ का निर्माण किया। 1990-91 में जब गैट माध्यम से भारत की आर्थिक स्वतंत्रता के अपहरण का प्रयास शुरू हुआ तो ठेंगड़ी जी ने आर्थिक पराधीनता के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजा दिया और 22 नव. 1991 को स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की। उनकी कालभेदिनी दृष्टि ने सांख्यवाहिनी नामक योजना में विद्यमान अमरीकी षड़यंत्र को भाँप लिया और 19 जनवरी 2000 को केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकृत इस राष्ट्रघाती योजना के विरुद्ध संघर्ष का शंखनाद कर उसे वापस लेने को बाध्य किया। एक ऋषि के समान उन्होंने राग-द्वेष से ऊपर उठकर अपने सत्ताधारी अनन्य मित्रों से मत भिन्नता को राष्ट्रहित में निर्भीकता से व्यक्त किया।

आर्थिक विषमता के साथ ही ठेंगड़ी जी की चिंता का मुख्य विषय था सामाजिक विषमता। अप्रैल 1954 में ही उन्होंने भंडारा लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव में डॉ. भीमराव अंबेडकर के साथ काम करते उनके अंत:करण में वेदना और उनकी राष्ट्रभक्ति को निकट से समझा। 14 अप्रैल 1983 को उन्होंने सामाजिक समरसता मंच की स्थापना करके उनके स्वप्न को साकार करने का प्रयास किया और अपने जीवन के अंतिम ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय उन्होंने डॉ. अंबेडकर के कर्म और चिंतन को ही बनाया।

रचनात्मक और बौद्धिक क्षेत्र में इतने अधिक संगठनों से उनका संबंध रहा कि उनकी पूरी सूची देना भी यहाँ संभव नहीं है। अगस्त 1942 में ही वे कोझीकोड में केरल राष्ट्रभाषा प्रचार सम्मेलन के अध्यक्ष बनाए गए। प्रज्ञा भारती, राम भाऊ म्हालगी प्रबोधिनी मुंबई, दीनदयाल शोध संस्थान दिल्ली, भारतीय विचार केंद्रम् (केरल), भारतीय अधिवक्ता परिषद, महर्षि वेदव्यास प्रतिष्ठान जैसे बौद्धिक संगठनों, अखिल भारतीय विमुक्त जाति सेवक संघ, वनवासी कल्याण परिषद, स्वास्थ्य भारती, भारतीय कुष्ठ निवारक संघ, भारतीय घुमंतु जन-सेवक संघ जैसे रचनात्मक सेवा कार्यों, श्री माँ जन्म शताब्दी समिति (पांडीचेरी), कर्मवीर हरिदास स्मारक समिति, डॉ. हेडगेवार जन्म शताब्दी समारोह समिति, बाबा साहेब अंबेडकर शताब्दी समारोह समिति पानीपत, युद्धवीर स्मृति समिति आदि प्रेरक प्रयासों में ठेंगड़ी जी का मार्गदर्शन एवं सहयोग मिलता रहा।

बौद्धिक क्षेत्र में उनकी असामान्य प्रतिभा चमत्कृत करती है। मराठी, हिंदी, अंग्रेजी के अतिरिक्त उन्होंने मलयालम और बांग्ला भाषाओं में भी सम्भाषण की क्षमता अर्जित की। उनकी कालजयी बौद्धिक संपदा अपार है। उन्हें द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी का बौद्धिक उत्तराधिकारी एवं भाष्यकार कहा जाता है। उनकी छोटी-बड़ी मिलाकर 85 कृतियाँ हैं अंग्रेजी, मराठी और हिंदी में। लेबर पॉलिसी, भारतीय मजदूर संघ क्यों? विचार सूत्र, लक्ष्य और कार्य, भारतीय मजदूर संघ कार्यकर्ता की मनोभूमिका जैसे ग्रंथ श्रमिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के लिए गीता समान है। संकेत रेखा, राष्ट्र, कल्पवृक्ष, डेस्टिनेशन, फोकस, दि हिंदू व्यू आफ आर्ट्स, दि पर्सपेक्टिव, अवर नेशनल रेनेसी जैसे ग्रंथ सर्वांगीण राष्ट्र-निर्माण की दृष्टि को प्रस्तुत करते हैं। ठेंगड़ी जी ने अनेक ग्रंथों की जो विशद प्रस्तावनाएं लिखीं उनका संकलन प्रस्तावना नामक ग्रंथ में उपलब्ध है। उनकी मुख्य चिंता थी मार्क्सवाद और पूँजीवाद का विकल्प खोजना। इस दृष्टि से उन्होंने पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानव दर्शन के चिंतन को आगे बढ़ाया।

सोवियत संघ, पूर्वी यूरोपीय कम्युनिस्ट देशों, कम्युनिस्ट चीन और अमरीका जैसे पूँजीवादी देशों की यात्राओं के साथ-साथ विदेशी विचारकों के प्रभूत लेखों का अवगाहन करके उन्होंने विश्व के लिए तीसरा मार्ग खोजने की बौद्धिक साधना की, जिसका प्रतिफल हमें 'थर्ड वे' नामक पुस्तक के रूप में उपलब्ध है।

ठेंगड़ी जी व्यवहार, संगठन और चिंतन के क्षेत्र में इतनी विशाल विरासत हमारे लिए छोड़ गए हैं कि इस विरासत को आगे बढ़ा कर हम उनके आगे ऋषि-ऋण को चुका सकते हैं। उपनिषदों में ऋषि-ऋण से उऋण होने का एक ही सूत्र दिया है 'स्वाध्यायान्मा प्रमदः'। उनकी पावन स्मृति में यही हमारा नमन होगा।


शत नमन हे महामानव

(भारतीय मजदूर संघ के तत्कालीन अखिल भारतीय मंत्री तथा दिल्ली स्थित केंद्रीय कार्यालय प्रमुख श्री अमर नाथ डोगरा ने 'विश्वकर्मा संकेत' के नवंबर व दिसंबर 2004 अंकों में 'शत नमन हे महामानव' व 'पुण्य वाचन' लेखों द्वारा भावभीनी आदरांजलि दी। 'शत नमन हे महामानव' में श्री डोगरा ने इन शब्दों द्वारा अपने मन के भाव प्रकट किए......)

"दिनांक 14 अक्टूबर 2004, बृहस्पतिवार दोपहर 3 बजे पुणे के दीनदयाल अस्पताल में हम सबके परम श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने अपने पार्थिव शरीर को त्याग दिया है। ठेंगड़ी जी वर्ग संघर्ष पर आधारित देश के श्रम आंदोलन को बदलकर 40 वर्ष के अल्पकाल में राष्ट्र के प्रति उत्तरदायी श्रम आंदोलन बनाने में सफल रहे। वह वास्तव में युग प्रवर्तक व युग दृष्टा थे। उनके देहावसान के समाचार से समस्त मजदूर क्षेत्र में शोक की लहर फैल गई है।

10 नवंबर 1920 को आर्वी, जिला वर्धा (विदर्भ) में जन्मे श्री ठेंगड़ी जी नागपुर से बी.ए., एल.एल.बी. की शिक्षा के पश्चात 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक निकले और आजीवन राष्ट्र सेवा व्रत का गौरवशाली ढंग से निर्वाह किया।

वर्ष 1955 में आपने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की और तदनंतर मजदूर आंदोलन की दिशा ही नहीं सोच भी बदल दी। उस क्षेत्र में युगांतकारी परिवर्तन लाए और करोड़ों-करोड़ों श्रमिकों को राष्ट्रप्रेम की भावना से जोड़ दिया। उद्योगों को राष्ट्र हित से जोड़ा। वर्ग नहीं अपितु अन्याय के विरुद्ध संघर्ष तथा दुनिया के मजदूरों एक हो वामपंथी नारे के स्थान पर मजदूरों दुनिया को एक करो का नारा दिया। मजदूर आंदोलन में बहिष्कृत 'राष्ट्र' शब्द को प्रचलित किया - भारत माता की जय को प्रतिष्ठित किया।

पूजा पद्धति की भिन्नता के कारण समाज और संस्कृति नहीं बदल जाती, अतः सर्वपंथ समादर मंच का निर्माण किया। मनुष्य तो क्या प्रकृति का भी शोषण नहीं होना चाहिए अतः पर्यावरण मंच की स्थापना की।

शून्य से प्रारंभ किया गया भारतीय मजदूर संघ आज देश का सबसे बड़ा केंद्रीय श्रम संगठन है। केवल संख्याबल ही नहीं, शक्तिबल के आधार पर भी भा.म.सं. ने देश विदेश में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। इस विशिष्ट शक्ति के प्रणेता ठेंगड़ी जी के पंचतत्व में विलीन हो जाने से अनगिनित कार्यकर्ता शोकाकुल हैं किंतु वह जानते हैं कि जिस भाव, विचार के बीज ठेंगड़ी जी ने रोपे हैं उससे सुख, समृद्धि और समरसता की फसलें लहलहाएंगी और देश सर्वांगीण विकास की स्थिति को प्राप्त करेगा। यह उनके बताए मार्ग पर चलकर ही संभव हो सकता है।

दिनांक 15 अक्टूबर 2004 को पुणे के संघ कार्यालय से वैकुंठ धाम श्मशान भूमि तक अंतिम-यात्रा निकली जिसमें हजारों हजार कार्यकर्ता शामिल हुए। पार्थिव शरीर के साथ यात्रा में रथ पर मा. सरकार्यवाह श्री मोहन राव भागवत, भा.म.सं. के अध्यक्ष श्री हसुभाई दवे और ठेंगड़ी परिवारजन थे। यात्रा दोपहर 4 बजे निकली। शाम को दाह संस्कार के बाद शोक-सभा हुई, जिसमें उपस्थित हजारों कार्यकर्ताओं को परमश्रद्धेय श्री कुप्प. सी सुदर्शन, मा. सरसंघचालक रा.स्व.संघ, पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री अशोक सिंघल, अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष वि.हि.प., श्री सुनील अंबेकर संगठन मंत्री विद्यार्थी परिषद एवं श्री हसमुख भाई दवे ने संबोधित किया।

उनकी पुण्य स्मृति में देश भर में 23 से 31 अक्टूबर 04 तक श्रद्धांजलि सभाओं का सभी प्रदेशों द्वारा आयोजन किया गया है। श्रमिकों व नागरिकों के दर्शनार्थ व पुष्पांजलि अर्पण हेतु एक अस्थि कलश नागपुर कार्यालय में 27 अक्टूबर तक रखा गया और शोक सभा के पश्चात 28 अक्टूबर को रामटेक में अस्थि विसर्जन किया गया। दूसरा कलश दिल्ली केंद्रीय कार्यालय में 20 से 31 अक्टूबर तक रखा गया तत्पश्चात उसे हरिद्वार गंगाजी में विसर्जित किया गया। तीसरा कलश पुणे से सीधे कानपुर होते हुए प्रयाग (त्रिवेणी) में विसर्जित कर दिया गया। इन अवसरों पर हजारों श्रमिकों व नागरिकों ने अश्रुपूरित नेत्रों से अपने नेता को भावपूर्ण श्रद्धासुमन अर्पित किए।

मन के उत्कट भाव कैसे प्रकट करें। पीड़ा धनीभूत है। शब्दों में सामर्थ्य नहीं है। जख्म अभी ताजा है। लगता है आकाश से एक तेजोमय नक्षत्र टूट गया है। निश्छल अविरल आत्मीय संबंधों की गहराई को दिल वाले ही समझ सकते हैं। भारत माता के इस परम सपूत द्वारा किए गए महान कार्य को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा। सदियों याद करेगा यह जमाना। अभी मौन नमन-शत शत नमन हे महामानव।

प्रखर विचारक : असाधारण संगठक

श्री पी. परमेश्वरन वरिष्ठ प्रचारक व निदेशक, भारतीय विचार केंद्रम, तिरूअनंतपुरम ने इन शब्दों में भावांजलि दी "श्री ठेंगड़ी प्रखर विचारक-असाधारण संगठक' थे। दत्तोपंत जी संघ के वरिष्ठतम प्रचारकों में से एक थे। उन्होंने पं दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, एकनाथ रानाडे आदि की भाँति एक उच्च स्थान प्राप्त किया था। वे एक महान विचारक और विद्वान तो थे ही, एक महान कार्यकर्ता भी थे। स्पष्ट तथ्यात्मकता के साथ वे एक ऐसे सिद्धांतवादी थे जो कभी समझौता नहीं करते। भारत का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ उनके व्यावहारिक आदर्शवाद का जीता जागता उदाहरण है। ऐसे समय में जब प्रत्येक राजनीतिक दल का एक श्रम प्रकोष्ठ था, ठेंगड़ी जी ने बड़े साहस के साथ किसी राजनीतिक दल से बिल्कुल असंबद्ध रहने वाला, भारतीय मूल्यों के आधार पर श्रमिक संगठन खड़ा किया था। भारतीय मजदूर संघ की सफलता सिद्ध करती है कि भारत को एक राष्ट्रवादी आंदोलन खड़ा करने के लिए किसी विदेशी विचारधारा की जरूरत नहीं है। केरल के साथ ठेंगड़ी जी का बहुत आत्मीय रिश्ता रहा। उनका मार्गदर्शन केवल भा.म.संघ के कार्यकर्ताओं के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे संघ विचार परिवार के लिए प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत था। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि भारतीय विचार केंद्रम् की प्रेरणा भी ठेगडी जी ने ही दी। विचारों की स्पष्टता, अभिव्यक्ति की तीक्ष्णता और समझ की गहनता उनको अपने समय की एक महानतम विभूति बनाती है। प्रसिद्धि-पराङगमुखता उन्हें अन्य नेताओं, विभूतियों से बिल्कुल अलग एक देदीप्यमान व्यक्तित्व प्रदान करती थी। यही कारण है कि उनके व्यक्तिगत संपर्क में जो नहीं आया, वह उनकी महानता को जान नहीं सकता। केवल संघ परिवार में ही नहीं, उनके मित्र और प्रशंसक दुनिया भर में हैं।

दत्तोपंत ठेंगड़ी

पथ चुना , और बढ़ते गए....

सन 2003 में केंद्र सरकार ने दत्तोपंत जी को पद्म भूषण सम्मान देने की घोषणा की तो उन्होंने बड़ी विनम्रता से यह कहते हुए सम्मान लेने से इनकार कर दिया कि "जब तक पूज्य डाक्टर हेडगेवार और पूज्य श्री गुरुजी को 'भारत रत्न' नहीं दिया जाता, मेरे लिए यह सम्मान स्वीकार करना अनुचित होगा।' ये और ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे अपने दत्तात्रेय बापुराव ठेंगड़ी उपाख्य दत्तोपंत ठेंगड़ी के जीवन में। 10 नवंबर, 1920 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के आर्वी गाँव में जन्मे श्री ठेंगड़ी सन 1942 में रा.स्व.संघ के प्रचारक बने और प्रचारक के रूप में ही अंतिम श्वाँस ली। 62 वर्ष तक अनथक समाज की सेवा करते रहे। हालांकि उनके सार्वजनिक जीवन की यात्रा मात्र 15 साल की आयु में (1935 में) कांग्रेस समिति, आर्वी की वानर सेना के अध्यक्ष के रूप में हो गई थी। विलक्षण प्रतिभा के धनी ठेंगड़ी जी की मातृभाषा मराठी थी, पर वे हिंदी, संस्कृत, गुजराती, बांग्ला, मलयालम और अंग्रेजी भाषा पर भी समान अधिकार रखते थे। सादगी व सरलता की प्रतिमूर्ति, राष्ट्र समर्पित तपस्वी जीवन और कार्य की सफलता में अडिग विश्वास रखने वाले दत्तोपंत एक कुशल संगठक थे। उन्होंने समाज क्षेत्र में अनेक संगठनों की नींव रखी, उनके विचारों से प्रेरित होकर अनेक संगठनों का जन्म हुआ। वामपंथी मजदूर संगठनों की स्थापना के वर्षों बाद गठित भारतीय मजदूर संघ यदि भारत का पहले क्रमांक का मजदूर संगठन बन पाया तो वह ठेंगड़ी जी के ही कारण। रा.स्व.संघ के प्रचारक के नाते केरल में कार्य प्रारंभ करने के पश्चात उन्होंने असम एवं बंगाल में भी अपने कार्यों की छाप छोड़ी। राजनीतिक क्षेत्र में भी उन्होंने एक आदर्श स्थापित किया। 1952-53 में भारतीय जनसंघ (म.प्र.) और 1956-57 में दक्षिणांचल के संगठन मंत्री के रूप में उन्होंने जनसंघ को विस्तार देने का महत्वपूर्ण कार्य किया। 1964 से 76 तक (12 वर्ष) श्री ठेंगड़ी राज्यसभा के सदस्य रहे। अपनी प्रतिभा से उन्होंने न केवल देशवासियों को प्रभावित किया बल्कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के लोग भी उनके मौलिक विचारों के कायल थे। उन्होंने अनेक देशों की यात्रा की, अमरीका तथा चीन के मजदूर संगठनों ने उन्हें आमंत्रित किया। व्यस्त दिनचर्या और निरंतर प्रवास के बावजूद उन्होंने हिंदी, अंग्रजी व मराठी में 30 से अधिक पुस्तकें लिखी। अनेक पुस्तकों की प्रस्तावना भी लिखी। उनकी सभी पुस्तकें गहन चिंतन एवं मंथन का प्रतिफल हैं। ये समाज को दिशा देने वाली और कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करने वाली पुस्तकें हैं। ठेंगड़ी जी नायक थे- मजदूरों के, किसानों के, राष्ट्र के हितचिंतकों के। एक ओर उन्होंने प्रचार से दूर रहकर संगठन को मजबूत किया तो आवश्यकता पड़ने पर सड़क पर आकर आंदोलनों का नेतृत्व भी। इसके बावजूर पर भी उनके सहज, सरल व्यवहार का ही अधिक स्मरण किया जाएगा।

(पांचजन्य, 24 अक्टूबर 2004)


निश्चयाचा महामेरु

(पांचजन्य के पूर्व संपादक और वर्तमान में सांसद श्री तरुण विजय ने अपने एक अग्रलेख में श्रद्धेय ठेंगड़ी जी को 'निश्चयाचा महामेरु' शीर्षक के अंतर्गत श्रद्धा सुमन अर्पित किए। उनका पूरा लेख इस प्रकार है :-)

ठेंगड़ी जी भी चल दिए। इतना सब किया पर जब गए तो आहट तक न होने दी। उनको देखकर कई बार लगता था सारी दुनिया को परखने की ताकत है उन आँखों में। और उनकी बाँहों में दुनिया को समेटने की शक्ति। जहाँ कुछ भी नहीं था वहाँ उन्होंने अनेक हिमालय खड़े कर दिए। ऐसा अप्रतिम दृढ़ निश्चयी मन था उनका। खुरदुरे पाँव में वही मोटी सख्त चमड़े से बनी चप्पल, धोती कुर्ता और कंधे पर अंगोछा। जो भी साथ हुआ उसके कंधे पर हाथ रखकर वो मीलों तक चलते चले। कुछ साल पहले की बात है, कुछ साल यानी काफी साल पहले। पांचजन्य में आए थे। उनका स्वभाव था सीधे संपादक के कमरे में नहीं आते थे। संपादकीय विभाग में जाते। सबको नमस्कार करते तो हमारे साथी हड़बड़ाकर खड़े हो जाते, 'अरे ठेंगड़ी जी !!' कभी उन्होंने किसी को अपने पाँव छूने की अनुमति नहीं दी। जो उनसे जितना छोटा होता उतना ही उससे मित्रवत व्यवहार करते। सबसे परिचय हुआ, गपशप हुई। कौन क्या करता है, क्या लिखता है। और हमेशा की तरह अपनी बात किसी न किसी रोचक कहानी या दृष्टांत से खत्म करते। प्लेट में डालकर चाय पीना उन्हें बहुत भाता। सबके नाम याद रखना तो उनका स्वभाव था। छोटी-छोटी बात में भी सब कुछ ठीक-ठाक हो, सही हो, इसका बेहद ध्यान रखते। अपनी पुस्तकों के प्रति वे निर्मम परख के साथ काम करते थे। राम दास जी पांडे हर पुस्तक के हर पृष्ठ का इतिहास बता सकते हैं। उनसे अनेक बार साक्षात्कार लेने का भी मौका मिला। पर उनकी पहली शर्त होती थी राजनीतिक बातें नहीं और जितना मैं कहूँगा उसमें कुछ जोड़ना, घटाना नहीं। पैदल चलने का बहुत शौक। घूमते-घूमते ही उन्होंने बहुत-सी बातें तय कर डाली। मुझे याद है जब एक बार झंडेवालान आए तो कंधे पर हाथ रख कर सिर्फ यही कहा-चलो चलते हैं। मुझे लगा यही आसपास तक जा रहे होंगे पर जब एक-दो-तीन-चार सड़कें पार हो गई तो मैंने हैरान होकर पूछा 'क्या साऊथ ब्लाक तक पैदल ही जाएंगे?' तो हँसकर बोले, 'क्यों थक जाओगे? अरे कभी हमारे जैसे बूढ़े आदमी का भी साथ दिया करो।' और हम बातें करते-करते साऊथ ब्लाक कब पहुँच गए, सच में पता ही नहीं चला।

राजनीति और उसके आडंबरों से उन्हें बेहद चिढ़ थी। वे प्राय: दूसरे दर्जे में ही सफर करना पसंद करते थे। उन्होंने एक बार किस्सा सुनाया। उन्हें नागपुर से दिल्ली आना था और प्लेटफार्म पर एक परिचित मिले। वे भी दिल्ली जा रहे हैं। एक ही विचारधारा, एक ही पथ के पथिक, केवल क्षेत्र ही तो अलग था। उन नेता महाशय ने पूछा - आपका कौनसा डिब्बा है तो ठेंगड़ी जी ने बताया - एस 1 या एस 2, वे नेता चौंक गए, 'अरे आप अब भी स्लीपर क्लास में सफर करते हैं? इतनी भीड़ में तरह-तरह के लोग मिलते हैं। कम से कम सफर तो आराम से करना चाहिए। मैं तो कभी फर्स्ट एसी से कम में सफर नहीं करता। वरना इतने लोग मिलते हैं कि बैठना मुश्किल हो जाता है।' ठेंगड़ी जी कुछ नहीं बोले, सिर्फ हँसे। उन्हें नमस्कार किया और अपने डिब्बे की ओर चल दिए। बाद में ठेंगड़ी जी ने यह किस्सा सुनाते हुए कहा - राजनीतिक ऐसा व्यक्ति होता है। उसे लोगों के सिर्फ वोट चाहिए होते हैं, लोग नहीं। बाद में वह लोगों के बीच में बैठने से भी तब तक कतराता है जब तक ऐसा करने में कोई मतलब न सधता हो।

जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र, संगठन शास्त्र का ऐसा कोई पहलू और राज्य तथा अर्थशास्त्र का ऐसा कोई बिंदु नहीं था जो उनकी पैनी चिंतन धारा से अछूता रहा। अद्भूत स्मरण शक्ति और लगातार पढ़ी हुई पुस्तकों के पृष्ठ दो पृष्ठ उद्धृत किए जाने की महामेधा उन्होंने पाई थी। जब वे देश और आर्थिक व्यवस्था के बारे में बोलना शुरू करते तो लोग अवाक् होकर उनको सुनते चले जाते। इतना अधिक प्रवास, सुबह से शाम तक निरंतर मिलने-जुलने वालों का ताँता, इसके बावजूद वे पढ़ने का समय कब निकालते थे, कभी किसी को पता नहीं चलने दिया। इसके साथ ही सबसे बड़ी बात जो उनसे मिलने वालों को महसूस होती थी, वह यह थी कि उन्होंने कभी भी अपनी निस्सीम विद्वता का लेश मात्र भी बोझ दूसरे पर नहीं डाला। साधारण मजदूर, संगठन के काम में लगे कार्यकर्ता, बढ़ई, बिजली वाले या हम जैसे अपठित भी उनके साथ बैठते तो वे उतनी ही गंभीरता से अपनी बात सुनाते जितनी गंभीरता से वे किसी बड़े बुद्धिजीवी या लेखक के सामने।

उनके पास कोई अच्छी पुस्तक आती तो बताते, इसे जरूर पढ़ना। पर उनसे मिलकर छोटे से छोटा व्यक्ति भी अपना कद बढ़ा हुआ महसूस करके निकलता था। उन्होंने देश की स्थिति, खासकर संगठन के विभिन्न पहलुओं को देखकर प्रसन्नतापूर्वक या संतोष के साथ देह छोड़ी होगी, ऐसा लगता नहीं। उनके स्वभाव में था कि गलत बात सहन नहीं करनी इसलिए स्वदेशी, स्वभाषा और स्वधर्म के विषय में वे चुप न रह सके। वृद्धावस्था और अशक्तता के बावजूद सड़क पर उतरकर उन्होंने स्वदेशी आंदोलन को नई राह दी। वे सब कुछ छोड़ सकते थे, अन्याय के सामने एक हिमालय बनकर अड़ सकते थे। लेकिन विचार छोड़ना स्वीकार नहीं था। उन्होंने समस्त संघ विचार परिवार को बौद्धिक अधिष्ठान दिया। और यह बताया कि नितांत प्रसिद्धि पराङ्गमुख होकर भी प्रथम पंक्ति और प्रथम श्रेणी का संचालन किया जा सकता है।

उनकी जीवन कथा, उनके प्रसंग और उपलब्धियाँ आश्चर्यजनक हैं। पूरा वृत्त पढ़ें तो विश्वास नहीं होता कि अभी कुछ ही दिन पहले यह निश्चय का महामेरु हम सबके साथ था। बहुत से लोग उनके बारे में बहुत-सी बातें बहुत लंबे समय तक कहेंगे और लिखेंगे। उस सबके बाद भी बहुत कुछ अनकहा शेष रह जाएगा।

(पांचजन्य, 24 अक्टूबर 2004 अंक)


राष्ट्र निर्माता

( हिंदी में अनुदित)

(सप्ताहिक आर्गनाईजर के तत्कालीन संपादक श्री आर. बालाशंकर ने 24 अक्टुबर 2004 अंक के संपादकीय 'संपादक का पत्र' के अंतर्गत श्री ठेंगड़ी जी से संबंधित अनेक पक्षों पर प्रकाश डालते हुए एक भावपूर्ण लेख लिखा। उक्त लेख का हिंदी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है - )

कहा जाता है कि राजनीति संभव की कला है। एक राष्ट्र निर्माता का जीवन असंभव को संभव बनाना है। श्री ठेंगड़ी जी राष्ट्र निर्माता थे। संघ के अन्य श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं (Sangh Leaders) की भाँति ठेंगड़ी जी ने नीरस व शुष्क क्षेत्रों में कार्य किया। वह हिंदू एकता तथा राष्ट्रवाद का संदेश उन क्षेत्रों तक ले गए जिससे कि संपूर्ण सामाजिक जीवन में नव ऊर्जा और उत्साह का संचार किया जा सके।

बहुत वर्ष पहले दिल्ली स्थित दीनदयाल शोध संस्थान में एक बहु चर्चित व्याख्यान में ठेंगड़ी जी ने एक राजनेता (Politician), राजनीतिज्ञ (Statesman) और राष्ट्र निर्माता में अंतर को स्पष्ट करते हुए बताया कि पालिटिशियन अगले चुनाव और स्टेट्समैन अगली पीढ़ी (generation) किंतु राष्ट्रनिर्माता भविष्य की अनेक पीढ़ियों तक की सोचता है। एक राष्ट्र निर्माता के लिए उन्होंने कहा कोई मजबूरी (Compulsion) नहीं है। वह समझौते नहीं करता और सौदेबाजी (Deal) उसके सिद्धांतों को बदल नहीं सकती। वह अपने लिए कठिन मार्ग चुनता है।

ठेंगड़ी जी ने कुछ वर्ष पूर्व कार्यकर्ता' शीर्षक से जो पुस्तक लिखी वह उन सभी लोगों को अवश्य पढ़नी चाहिए जो सार्वजनिक अथवा सामाजिक क्षेत्र में संगठन का कार्य करते हैं।

ऐसा कहना ठेंगड़ी जी का सही मूल्यांकन नहीं होगा कि वह महान थे। एक बार मैंने भारतीय विचार केंद्रम, केरल के श्री पी. परमेश्वरन जी से पूछा कि भगवद्गीता में जो 'जीवनमुक्त' कहा गया है उसकी व्याख्या करेंगे क्या? तो उन्होंने उत्तर दिया श्री ठेंगड़ी इस के जीवंत उदाहरण हैं।

ठेंगड़ी जी का केरल प्रदेश से अपनत्वभरा दीर्घकालीन स्नेह सबंध रहा है। यह ठेंगड़ी जी ही थे जो संघ शाखा कार्य को सर्वप्रथम केरल में लेकर आए और उसे एक शक्ति के रूप में स्थापित किया। यहाँ तक कि वह मलयाली भाषा में बोलने लगे उन्हें खाने में केरल के व्यंजन बहुत पंसद थे। सैकड़ों परिवार वहाँ उन्हें अपने परिवार का ही सदस्य मानते थे। बड़े बजुर्ग ठेंगड़ी जी को प्रथम नाम ही से पुकारते थे। उन्होंने हजारों कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया। पश्चिमी बंगाल में भी कार्य किया। वहाँ भी उन्होंने संघ की बुनियाद रखी। वह बांग्ला भाषा धाराप्रवाह बोलने लगे। यहाँ उनका संपर्क 'रेडीकल ह्यूमनिज्म' एवं एम.एन. राय से हुआ। तत्पश्चात वह श्रमिक क्षेत्र में कार्य करने लगे। उन्होंने श्रम संगठन को प्रथम स्थान पर प्रस्थापित करने में सफलता पाई। श्रमिक क्षेत्र में कार्य करते हुए उन्होंने श्रम संघों को राजनीतिक दलों का दुमछल्ला नहीं बनने दिया। उन्होंने श्रमिक संगठनों में पंथ अथवा राजनीति का घालमेल नहीं होने दिया।

यह ठेंगड़ी जी की विशिष्टता थी कि वह प्रत्येक वस्तु को उसके योग्य स्थान पर ही रखते थे और मिक्स अप नहीं करते थे। उन्होंने आयु पर्यंत हिंदू समाज के पुनर्जागरण का कार्य किया किंतु मैंने उन्हें किसी मंदिर में जाते और न ही विश्वकर्मा के अतिरिक्त किसी और की पूजा करते देखा।

वे अपनी पू. माता का सदैव स्मरण करते थे। प.पू. गुरु जी के पश्चात उनकी माता ही उनकी दार्शनिक व आध्यात्मिक मार्ग दर्शक थीं। वह कहा करते थे मेरी माता सदैव मेरे साथ हैं। वह मेरा पथ प्रदर्शन करती हैं। संघ से मुझे उन्होंने ही जोड़ा। प.पू. श्रीगुरुजी के मिशन को पूरा करने में मैं अपना योगदान दूँ ऐसा वह मुझे कहती थीं। मैं समझता हूँ ठेंगड़ी जी भगवान शिव का ध्यान करते थे।

उनकी जानकारी अभूतपूर्व थी। उनके अध्ययन का दायरा इतना विस्तृत था कि ज्ञान की शायद ही कोई ऐसी धारा हो जिसमें उन्हें रुचि न हो। उनकी स्मरणशक्ति किसी को भी अचंभित कर सकने वाली थी। वह किसी भी शास्त्र, ग्रंथ अथवा कहीं से भी कुछ भी उद्धृत कर सकते थे। उन्हें हिंदी, मराठी एवं अंग्रेजी भाषा पर पूरा अधिकार था। अंग्रेजी भाषा पर पूर्ण अधिकार के कारण वह वैश्विक संदर्भ ढूँढने और जोड़ने में सफल हुए। उनके साथ बिताया हुआ एक एक क्षण बौद्धिक उत्सव (intellectual feast) लगता था। जब भी उनसे भेंट होती तो जिस भी किसी नई पुस्तक को उन्होंने पढ़ा होता उसका वह वर्णन करते और उसे पढ़ने के लिए कहते। ऐसा लगता है कि उनका मुझे अंग्रेजी पुस्तकों यथा 'फाउंडेशन आफ इंडियन कल्चर' व महर्षि अरविंद द्वारा गीता पर लिखे लेख आदि (अंग्रेजी में) पढ़ने के लिए प्रेरित करना कदाचित मेरी अन्य भाषाओं की अल्प जानकारी के कारण हो। उनको आत्म चरित्र विशेषकर नेपोलियन, हेनरी दी ग्रेट और एमिल लुडविग द्वारा लिखित बिस्मार्क आदि पढ़ने में विशेष रुचि थी। कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने मुझे 'सेविन हैबिटस आफ हाइली इफैक्टिव पीपुल' (Seven Habits of Highly Effective People), न्यू रियालटिज व Lincoln on Leadership पढ़ने को कहा।

ठेंगड़ी जी कल्पनाशील रूमानी तथा व्यावहारिक आर्दशवादी थे। निर्मोही थे। वह सादगी की प्रतिमूर्ति, किसी भी कारण से अप्रभावित तथा स्वतंत्र विचारक थे। वह किसी भी व्यक्ति, वह किसी भी जाति, पंथ, रुतवे, आयु का हो सहज सरल मित्रतापूर्ण सबंध बना लेते थे। मैंने साऊथ एवेन्यू (नई दिल्ली स्थित सांसद निवास) के केश कर्तनालय (नाई की दुकान) में केश कटवाते हुए घंटों केश विन्यासक से नाना प्रकार की कहानियाँ रुचिपूर्वक सुनते हुए देखा है। उस दुकान की दीवार पर केवल दो चित्र टंगे रहते थे एक ठेंगड़ी जी और दूसरे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर। बारबर राजू बताते हैं कि ठेंगड़ी जी का चित्र उसने करीब तीस वर्ष पूर्व प्राप्त किया था जब वह राज्यसभा के सदस्य हुआ करते थे। साऊथ एवेन्यू टैक्सी स्टैंड के सभी टैक्सी वाले ठेंगड़ी जी से भली-भाँति परिचित थे और ठेंगड़ी जी भी एक एक नाम ही नहीं उनके परिवारों से भी परिचित थे।

रूडयार्ड किपलिंग का कथन है कि 'वह बादशाहों के साथ चलता था पर उसके पैर सदा धरती पर रहते थे'। ठेंगड़ी जी बारह वर्ष तक राज्यसभा सदस्य रहे और इस कार्यकाल में उन्होंने वामपंथी श्रमिक नेताओं से इस प्रकार के सहज सबंध बना लिए कि आगे चलकर वे सभी को साथ लेकर श्रम संघों की राष्ट्रीय अभियान समिति (National Compaign Committee) का गठन कर सके जो कांग्रेस के सत्ताकाल में एक संयुक्त मोर्चा रूप में श्रमिक विरोधी कार्यों का सफल प्रतिरोध कर सकी।

उनकी मित्रता पार्टी लाईन से इतर अनेक महानुभावों से थी जिनसे उनकी निरंतर भेंट वार्ताएँ चलती रहती थीं। इनमें विशेषकर वामपंथी नेता एस.ए.डाँगे, हिरेन दा, चतुराजन मिश्र, पी.राममूर्ति, भूपेश गुप्ता, ज्योर्तिमय बसु, बेनी एवं रोजा देशपांडे और सीटू के एम.के.पांधे आदि प्रमुख थे। ठेंगड़ी जी ए.के.गोपालन, ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद तथा प्रमोद दासगुप्ता के आदर्शवाद के प्रशंसक थे। केरल में वामपंथ की नींव रखने के, दामोदरन तो ठेंगड़ी जी के निवास पर नियमित आया करते थे। दामोदरन तो एक प्रकार से ठेंगड़ी जी के अनुयायी ही बन गए थे। ठेंगड़ी जी इस बात से प्रसन्न होते थे कि संघ सृष्टि (परिधि) के बाहर भी कुछ ऐसे लोग हैं जो सामाजिक कार्य के प्रति निष्ठापूर्वक प्रतिबद्ध हैं।

आपात्काल में ठेंगड़ी जी ने जनता दल गठन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। वह एकमात्र नेता थे जिन्होंने भूमिगत रहकर 1975-77 में जन आंदोलन को संचालित किया और मीसा के अंतर्गत गिरफ्तार नहीं किए जा सके। उन्होंने भेष बदलकर लोक संघर्ष को गतिशील किया। वह लोकदल, कांग्रेस (ओ), समाजवादी पार्टी तथा अकालीदल के बराबर संपर्क में रहे। उनके चौधरी चरण सिंह, एन.जी. गोरे, मधु लिमये, मोरार जी देसाई, सुब्रह्मण्यम स्वामी, चंद्रशेखर, मधु दंडवते, मोहन धारिया, बी.एम.तारकुंडे, जार्ज फर्नांडीज, कृष्णकांत, रवींद्र वर्मा और सुरेन्द्र मोहन से निकट संबंधों के कारण आपात्काल के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष की लहर खड़ी करने में उन्हें कामयाबी मिली। उन्होंने जो आधार तैयार किया था उसी के फलस्वरूप जनता पार्टी का त्वरित गठन संभव हुआ। जिससे 1977 में श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा अकस्मात् आम चुनाव घोषित किए जाने पर जनता दल का चुनाव में जाना संभव हुआ।

जनता पार्टी द्वारा चुनाव में विजय प्राप्त कर लेने के उपरांत ठेंगड़ी जी पुनः श्रमिक क्षेत्र में वापिस लौट गए और भा.म.सं. विस्तार तथा भारतीय किसान संघ निर्माण कार्य में जुट गए और राजनीतिक क्षेत्र से हट गए। किसान संघ निर्माण से पूर्व उन्होंने दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में जाकर बहुत समय किसानों के साथ रहकर उनकी मूलभूत समस्याओं आवश्यकताओं को समझने जानने में बिताया। वहीं उन्होंने अपने स्वदेशी विचार दर्शन को विकसित किया। इसी प्रकार भा.म.सं. गठन के पूर्व भी वह मजदूर क्षेत्र में इंटक में अनुभव के दृष्टिगत कुछ अर्सा कार्य करते रहे जहाँ उनके पं. द्वारका प्रसाद मिश्र व रविशंकर शुक्ल सरीखे और भी अन्य कांग्रेसी नेताओं से निकट के सबंध स्थापित हुए।

ठेंगड़ी जी के बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर से भी घनिष्ठ संबंध थे और वह इस बात के लिए प्रयासरत थे कि डॉ. साहेब की सही जानकारी समाज को प्रस्तुत की जाए क्योंकि ठेंगड़ी जी व्यक्तिगत तौर पर डॉ. साहेब को बहुत निकट से जानते थे। उन्हें अरुण शौरी द्वारा डॉ. साहेब पर लिखी पुस्तक से बहुत पीड़ा हुई थी। ठेंगड़ी जी जानते थे कि डॉ. साहेब भारत भूमि को अत्यधिक आदर देते थे और उन्हें हिंदुत्व से लगाव था। ठेंगड़ी जी के मन में यह विचार उमड़ घुमड़ रहा था कि वह स्वयं डॉ. साहेब पर एक पुस्तक लिखें जिसमें बाबा साहेब अंबेडकर की सही और प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत की जा सके। उनके इस विचार को तब प्रत्यक्ष गति मिली जब तत्कालीन सरसंघचालक मा.श्री सुदर्शन जी ने पुस्तक लिखने को कहा। ठेंगड़ी जी ने अपनी गंभीर अस्वस्थता की परवाह न करते हुए दो वर्ष लगातार इस कार्य में लगाए और जुलाई 2004 में उन्होंने इस पुस्तक लेखन का कार्य संपन्न किया। ठेंगड़ी जी चाहते थे कि इस पुस्तक को उच्च कोटि की प्रामाणिक व अधिकारिक साहित्य रचना के रूप में मान्यता मिले (He was keen to make it all authoritive magnum opus.)

ठेंगड़ी जी को प्रेमपूर्वक अगर कोई भोजन पर आमंत्रित करता था तो कभी मना नहीं करते थे। उनका विचार था कि मना करने पर आमंत्रित करने वालों को बुरा लगेगा। एक बार वे प्रसाद नगर (दिल्ली) स्थित आरिफ बेग के निवास पर उनके बेटे के विवाह के उपलक्ष्य में बधाई देने गए। आरिफ साहिब अपनी मेहमान नवाजी के लिए प्रसिद्ध थे, सो एक के बाद एक कई प्रकार के शर्बत (पेय जल) वह मँगवाते गए। दो ग्लास पीने के उपरांत मैंने मना कर दिया किंतु उपरांत ठेंगड़ी जी ने मुझे प्यार से झिड़कते हुए कहा तुम भोज्य पदार्थ से इतने नाराज क्यों रहते हो। अरे भाई मेजबान इस प्रकार अपना प्रेम ही प्रकट करते हैं। मना करने पर उनका अनादर होता है अतः कभी मना नहीं करना।

लोक संग्रह की कला क्या है यह तो ठेंगड़ी जी ही से सीखा जा सकता था। उन्होंने इस संदर्भ में डॉ. हेडगेवार के सारे सबक (कथन) हृदयंगम कर रखे थे। जब भी वह दिल्ली में होते एक बार वे उन सभी परिवारों से मिलना नहीं भूलते जिन्हें वे जानते थे। वह टैक्सी लेते और देर रात तक मिलना जुलना जारी रखते। एक बार भा.म.सं. कार्यकार्ताओं ने उन्हें एंबेसेडर कार खरीद कर देने का अनुरोध किया जिसे उन्होंने यह कह कर ठुकरा दिया कि मैं एक श्रमिक कार्यकर्ता हूँ और मेरे निजी कार में यात्रा करने का परिणाम यह होगा अनेक कार्यकर्ता निजी कारें खरीद कर यात्राएँ करने लगेंगे। वे सदा अत्यंत सावधान रहते थे। उनका कहना था कि एक व्यक्ति अथवा राजनीतिक संगठन की, जनभावना सदा एक जैसी रहेगी, यह मान कर चलने की गलती नहीं करनी चाहिए।

उनके पास कोई भी कभी भी जा कर घन्टों बोलता रह सकता था। लोगबाग एक एक बात को पुनः पुनः दोहराते जाते थे किंतु ठेंगड़ी जी का धैर्य अपार था। वह कभी जल्दबाजी में नहीं होते थे। शांतिपूर्वक सुनते थे। बहुत अच्छे श्रोता थे। वह सैर पर निकलते तो चहलकदमी करते हुए मीलों निकल जाते और चलते चलते अपने अनुभव सुनाते जाते और अनेक जानकारियाँ सांझी करते। वह कर्मशील और विचारशील थे। उनका भरापूरा संपूर्ण जीवन था जैसा कि सरसंघचालक जी ने एक बार कहा था। ठेंगड़ी जी कभी शिकायत नहीं करते थे। मैंने कभी भी उनको क्रोध, अधीर और अप्रसन्न, निराश तथा झुंझलाहट या कुण्ठा में नहीं देखा। वह पूर्णरूपेण सकारात्मक सोच व व्यवहार वाले व्यक्ति थे जिनमें अथाह प्रेम था। विशेष बात यह है कि हजारों लाखों परिवारों को वह व्यक्तिगत रूप से जानते थे, हम सब जो उनके निकटस्थ होने का दावा करते हैं हम सभी से कहीं कई गुणा अधिक वह सबको भली-भाँति जानते थे और उनकी यही विशेषता हम सब से अलग थी।

एक वाक्य जो वे दोहराते थे का स्मरण हो रहा है 'प्रकृति सीधे खड़े हो कर कहेगी- वह एक मनुष्य (महापुरुष) था'। (Nature would stand up and say, here was a Man.)


केरल में संघ-कार्य

बीज से वटवृक्ष तक

रा.स्व.संघ के वरिष्ठ प्रचारक एवं भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तात्रेय बापुराव ठेंगड़ी के अवसान से केरल के सामाजिक-राजनीतिक जीवन से जुड़े अधिकांश जन आज एक खालीपन महसूस कर रहे हैं। '40 के दशक के आरंभ में श्री गुरु जी ने श्री ठेंगड़ी को संघ कार्य आरंभ करने के लिए केरल भेजा था। 1942 में कोझीकोड पहुँचे श्री ठेंगड़ी 1944 तक राज्य में शाखाओं के विस्तार में संलग्न रहे। उनके द्वारा उस समय केरल की धरती पर रोपा गया संघ-बीज आज विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर चुका है, जिसकी शाखाएँ प्रदेश के प्रत्येक कोने में फैली हुई हैं।

वकालत की उपाधि प्राप्त करने के बाद श्री ठेंगड़ी केरल पहुंचे थे और वहाँ कोझीकोड में उस समय के प्रख्यात वकील से पहला परिचय हुआ। हालाँकि उन वकील महोदय ने श्री ठेंगड़ी को कहा था कि यहाँ वे अपना समय व्यर्थ गँवाने आए हैं लेकिन वही वकील आगे चलकर युवा प्रचारक ठेंगड़ी जी के प्रशंसक बन गए थे। केरल में शुरुआत से ही श्री ठेंगड़ी को कम्युनिस्टों का घोर विरोध सहना पड़ा था। लेकिन उन्होंने अपने तीक्ष्ण और स्पष्ट तर्कों से कम्युनिस्ट विचारधारा का डटकर मुकाबला किया। 'सांप्रदायिकता' के विरुद्ध मार्क्सवादी नेता नम्बूदिरिपाद के अभियान का उचित उत्तर देते हुए श्री ठेंगड़ी ने मार्क्सवादी नेताओं के पाखंड और केरल में मुस्लिम सांप्रदायिकता के सामने घुटने टेक देने की उनकी मानसिकता को उजागर किया। 'नम्बूदिरिपाद्स एंटी-कम्युनलिज्म एक्स-रेड' पुस्तक में ठेंगड़ी जी ने लिखा, 'भारत में मार्क्सवादी पार्टी के लिए यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि इसके प्रेरणा-पुंज, मार्गदर्शक और विचारक धुर हिंदू विरोधी हैं। अन्यथा यह कल्पना करना संभव नहीं था कि पार्टी इतनी उग्रता के साथ मुस्लिम पक्षधर और हिंदू विरोधी क्यों है।"

श्री ठेंगड़ी ने राज्य के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य की पूरी तरह पहचान करके जाति, पाँति और रंग की परवाह न करते हुए हिंदुओं को संगठित करना शुरू किया। वे पूँजीवाद और कम्युनिज्म की खामियों को पहले ही जान चुके थे और इसीलिए उन्होंने 'तीसरे मार्ग' यानी विकास की भारतीय अवधारणा का आह्वान किया। हिंदुत्व की उनकी स्पष्ट, सुविचारित और प्रखर व्याख्या के कारण राज्य के अनेक बुद्धिजीवी संघ के निकट आए। आज श्री ठेंगड़ी के ही अनथक प्रयासों के कारण राज्य की हर पंचायत में शाखा चल रही है।

(तिरूअनंतपुरम से श्री प्रदीप कुमार द्वारा प्रेषित और पांचजन्य 24 अक्टूबर 2004 अंक में प्रकाशित एक रिर्पोट)


मा. दत्तोपंत जी ठेंगड़ी

कार्यरूपेण आज भी विद्यमान

(मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की प्रथम पुण्य तिथि 14 अक्टुबर 2005 को भारतीय मजदूर संघ, विदर्भ प्रदेश द्वारा नागपुर में आयोजित श्रद्धेय ठेंगड़ी जी स्मृति व्याख्यानमाला में रा.स्व.संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह मा.मोहन भागवत जी का संक्षिप्त किंतु अविस्मरणीय उद्बोधन)।

"हरिकथा जैसे नित्य स्मरण करने की होती है वैसे ही स्व. ठेंगड़ी जी का चरित्र बहुतेरे पहलुओं से भरा हुआ और सर्वस्पर्शी था। सहजरूप से वार्तालाप का उनका ढंग, चिंतन और वक्तृत्व इन विषयों पर बहुत कुछ बोलने लायक है। उनकी संवादशैली के कारण सर्व साधारण कार्यकर्ता भी खुलकर बोलने लगता था। यह उनकी विशेषता थी। हिमालय जैसे कद के महान व्यक्ति के साथ बातचीत चल रही है, ऐसा उनके साथ बातचीत करने वाले को कभी महसूस नहीं होता था। इसका कारण यह था कि ठेंगड़ी जी की बातों में अहम् किंचित मात्र भी नहीं होता था।

स्व.ठेंगड़ी जी की विचारशैली नित्य नूतन और ध्येय निष्ठा से ओत प्रोत थी। पू. डॉ. हेडगेवार जी के विचार सूत्र को प.पू. गुरुजी के विवरण के साथ सबके सम्मुख लाए। वैसे ही प.पू. गुरुजी के विचार सूत्रों को सब के लिए विविध रूप से स्पष्ट करने का काम ठेंगड़ी जी ने किया। किसी संस्था के निर्माण करने की पद्धति एकदम भिन्न प्रकार की रही। संघ परिवार के कई संघटनाओं का कार्य बहुत पूर्व शुरू होना था और उचित समय आने पर ठेंगड़ी जी उसका ठीक स्वरूप लोगों के लिए प्रकट करते थे। जल्दबाजी करने की उनकी आदत नहीं थी।

हमारा कार्य ईश्वरीय है और परमपिता परमेश्वर का आशीष हमें प्राप्त है। यह आशीष के लिए हम ने स्वयं को सिद्ध रखना चाहिए ऐसी ठेंगड़ी जी की धारणा थी। समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के लिए चिंता करना और इंसानियत का ख्याल करने, हर कार्यकर्ता में रुचि रखने वाले दत्तोपंत जी थे। वे शोषित तथा पीड़ितों के पक्षधर थे। बहुत संवेदनशील ठेंगड़ी जी अहंकारमुक्त होते हुए अपने संगठन के प्रति समर्पित थे। आप कार्यकुशल, विचारशील तो थे ही पर एक निष्ठावान स्वयंसेवक प्रथम, यह उनका सही परिचय था। वे एक ऋषि थे। संघ क्षेत्र से परे ऐसे बाहरी क्षेत्र में स्वयंसेवक का वर्ताव कैसा हो इसका जीता जागता उदाहरण यानी मा.ठेंगड़ी जी थे।

सब प्रकार के प्रलोभनों से दूर रहते हुए - अपने विचारों से कहीं भी समझौता न करते हुए संपन्न किया कार्य तथा सदूर सर्वव्यापी जनसंपर्क आदि अनेक विशेषताओं से ठेंगड़ी जी युक्त थे।

राजनीति से दूर

आजकल अनेक संगठन चलते हैं। नाम चाहे किसान का हो अथवा मजदूर का, पर वे किसी न किसी राजनैतिक दल के पिछलग्गू होते हैं। उनके उद्देश्य भिन्न और कार्य भिन्न होते हैं - ऐसे कार्य या संगठन खड़े नहीं हो पाते। आप सब कार्यकर्ताओं के सामने एक लक्ष्य होना चाहिए। राजनैतिक दलों से पृथक रहकर काम करना चाहिए। राजसत्ता पाने के लिए जो भी मंच सुगमता से मिल सके वह मंच पकड़ना अपने कार्यकर्ताओं की दृष्टि नहीं है। यद्यपि राजनीति के माध्यम से अन्य बहुत-सी चीजें प्राप्त हो सकती हैं, किंतु उस दुर्बलता को त्यागकर बिना किसी और उद्देश्य के अपनाए अगर हम कार्य करेंगे, तभी हमें सफलता मिलेगी।

श्री भाऊराव देवरस


खंड - 1 ( भाग- 2)

सोपान- 6

संस्मरण

1. श्री अशोक सिंहल

2. श्री पी. परमेश्वरन

3. पू. प्रमिलाताई मेढ़े

4. डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी

5. श्री एस. गुरुमूर्ति

6. श्री के. आर. मल्कानी

7. श्री ना. बा. लेले

8. श्री चं. प. उपाख्य बापुसाहेब भिशीकर

9. श्री रामनरेश सिंह उपाख्य बड़े भाई

10. श्री गोविंद राव आठवले

11. श्री बैजनाथ राय

12. श्री आर. वेणुगोपाल

13. शब्द संकेत

14. लेखक परिचय


महान विचारक

अशोक सिंहल

संरक्षक

विश्व हिंदू परिषद, नई दिल्ली

देशभर में स्वामी विवेकानंद जी की जन्मशताब्दी मनाई जा रही थी। कानपुर महानगर में उस समय मजदूर क्षेत्र में वहाँ के आयुध कारखाने के श्री एस.एन. बनर्जी कम्युनिस्ट पार्टी से सांसद थे। आयुध कारखाने के सभी मजदूर कम्युनिस्ट संगठन से ऐसे बंधे हुए थे कि वहाँ किसी का प्रवेश संभव ही नहीं था। एक मजदूर नेता के नाते कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर वहाँ किसी का भी प्रवेश संभव नहीं था।

उसी परिसर में एक महाविद्यालय के प्राचार्य उन्होंने विवेकानंद शताब्दी महोत्सव के लिए आयुध कारखाने में काम करने वाले कुछ प्रमुख बंगाली और वहाँ के अधिकारियों को लेकर विवेकानंद शताब्दी समारोह मनाने का निर्णय किया। ये प्राचार्य महोदय संघ के स्वयंसेवक थे। वहाँ के फैक्टरी के अधिकारियों से भी संबंध अच्छा था। बहुत बड़ी संख्या में फैक्टरी के लोग उस समारोह में सम्मिलित हुए। उस समारोह के प्रधान वक्ता श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी का भाषण जब पूर्ण हो गया उसी के बाद एस.एन. बनर्जी के लोगों को जानकारी लग सकी। उस समारोह में सबसे प्रभावी भाषण विवेकानंद के संबंध में जिनका हुआ वे भारतीय मजदूर संघ के जनक श्री दत्तोपंत ठेंगडी थे।

इस प्रकार कानपुर में भारतीय मजदूर संघ का प्रवेश ठेंगड़ी जी के द्वारा वहाँ के आयुध कारखानों के मजदूरों और अफसरों के बीच हुआ। कार्यक्रम के समापन के बाद कम्युनिस्ट केवल हाथ मलते रह गए। वे कुछ कर नहीं सके और ठेंगड़ी जी ने आयुध कारखाने के कर्मचारी और अफसरों का दिल जीत लिया। इस प्रकार से कानपुर में भारतीय मजदूर संघ का प्रवेश वहाँ के कर्मचारियों के बीच हुआ। सन 1962 में चीन की लड़ाई के बाद बहुत से मजदूरों का कम्युनिस्ट पार्टी से मोह भंग हो गया और भारतीय मजदूर संघ का कार्य प्रारंभ हुआ।

दूसरा प्रसंग है ठाकुर रामनरेश सिंह उस समय भारतीय मजदूर संघ के सचिव के नाते से कार्य देखते थे। दत्तोपंत जी ठेंगड़ी केवल भारतीय मजदूर संघ के जनक ही नहीं थे एक महान विचारक थे और ऐसा हम लोगों को लगता था कि एक ऐसा महान विचारक उसकी छाप संसद में पड़नी चाहिए और वे तभी सम्भव है जब ठेंगड़ी जी राज्यसभा में किसी प्रकार से पहुँचें। हमें मालूम था कि ठेंगड़ी जी किसी भी प्रकार राज्यसभा में जाने को तैयार नहीं होंगे क्योंकि यह उनके स्वभाव में भी नहीं था और अपने को किसी राजनीतिक दल से वे जोड़ना भी नहीं चाहते थे, फिर ये प्रश्न हमारे सामने उपस्थित हो गया कि आखिर किया क्या जाए।

सबसे पहला काम तो यह था कि उनका नाम कानपुर की चुनाव सूची में किसी प्रकार से आना चाहिए। उनको बिना पता लगे यह कार्य हम करवा सके। जब राज्यसभा के चुनाव का समय आया और अधिकारियों को पता लगा कि उनका नाम इलेक्टोरल सूची में है तो राज्यसभा के लिए उनका नाम प्रस्तुत कर दिया गया और दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की अनिच्छा होते हुए भी वे राज्यसभा में चुनकर पहुँच गए।

हम लोगों ने सुना है कि एक उत्कट विरोधी विचारधारा होते हुए भी संसद में उनके सभी प्रमुख कम्युनिस्ट मजदूर संगठनों के नेताओं से, समाजवादी नेताओं से और कांग्रेसी नेताओं से अत्यंत मधुर संबंध थे और यही कारण था कि भविष्य में वे जब सांझा संघर्ष करने का समय आया, मजदूर संघ के साथ कम्युनिस्ट यूनियन भी शामिल होने को तैयार हो गए।

भारतीय मजदूर संघ राष्ट्रवादी मजदूर संगठन के रूप में कैसे लोकप्रिय हुआ इसका एक उदाहरण है। इंश्योरेंस कंपनी में काम करने वाले सभी मजदूरों का आंदोलन शुरू हुआ जिसमें कम्युनिस्ट यूनियन के साथ-साथ राष्ट्रवादी मजदूर संघ भी शामिल था। आंदोलन के समय जो नारे लग रहे थे उनमें भारतीय मजदूर संघ के कर्मचारी भारत माता की जय का नारा लगाते थे। उस समय सीटू और अन्य कम्युनिस्ट समाजवादी यूनियन इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते थे।

पूरे देश में दो प्रकार के नारे मजदूर संगठनों में जब शुरू हुए तो कम्युनिस्ट यूनियनों ने कहा कि यह नारा बंद होना चाहिए। भारत माता की जय हमारा नारा नहीं हो सकता। बात यहाँ तक चली गई कि भारत माता के जय-जय कार के नारे का निषेध नहीं होता है तो हम इस आंदोलन से अलग हो जाएंगे। ठेंगड़ी जी ने आंदोलन करने वाले नेताओं के सामने बंबई में स्पष्ट कर दिया कि यदि भारत माता के जय-जयकार नारे का निषेध होता है तो वे आंदोलन से वापस हो जाएगे। ये चर्चा इंश्योरेंस के कर्मचारियों में आग के जेसा फैल गई और इंश्योरेंस के कर्मचारी भी नहीं चाहते थे कि भारतीय मजदूर संघ इस आंदोलन से अलग हो। अगर ऐसा होता है तो आंदोलन असफल हो जाएगा।

साथ ही बुद्धिजीवियों में इसकी चर्चा चल पड़ी कि कम्युनिस्ट यूनियन भारत माता की जय का विरोध क्यों कर रही है। क्या वे भारत माता का पुत्र अपने आपको नहीं मानती। इस विषय का अंतर मंथन हुआ कि कम्युनिस्ट यूनियन में हजारों लोग यह सोचने को बाध्य हुए जो भारत माता का विरोध करता है वे इस देश का सच्चा नहीं और वह गद्दार ही हो सकता है। वैचारिक धरातल पर कम्युनिस्ट यूनियन पिटने लगी। ठेंगड़ी जी का व्यक्तित्व था जिसने बुद्धिजीवी कर्मचारियों को सोचने के लिए पूरे देश में बाध्य कर दिया कि कम्युनिस्ट यूनियनों की भक्ति देश में न होकर देश के बाहर है और देशभक्तों ने राष्ट्रवादी भारतीय मजदूर संघ को अपना असली प्रतिनिधि माना।

ठेंगड़ी जी के संबंध में बहुत लिखा जा सकता है। वे संघ के प्रचारक थे। बहुत वर्षों तक दक्षिण भारत में एवं बंगाल में उन्होंने संघ का प्रचारक इस नाते से संगठन का कार्य किया। जब देश में आपात-स्थिति की घोषणा हुई उस समय संघ परिवार की अन्य संस्थाएं तो अंडर ग्राउण्ड काम कर रही थीं, ठेंगड़ी जी का मजदूर संघ उस पर कोई प्रतिबंध नहीं था। 1977 में जब इंदिरा जी ने इमरजेंसी के रहते चुनाव की घोषणा की उस समय सभी दल जो प्रतिबंधित थे, एक मंच पर चुनाव लड़ना चाहते थे, विशेष रूप से समाजवादी पार्टी, संगठन कांग्रेस, तथा भारतीय जनसंघ।

उस समय जनता पार्टी का गठन हुआ और उस पार्टी का प्रारंभिक अवस्था में पार्टी संविधान बनाने का कार्य संगठन के नेता केरल के श्री रवींद्र वर्मा के साथ बैठकर ठेंगड़ी जी ने किया, नई पार्टी के संगठन का सारा नक्शा बनाया। ठेंगडी जी को विश्वास था इस देश में इमरजेंसी अधिक दिन तक टिक नहीं सकती और होने वाले चुनाव में इंदिरा जी को मुंह की खानी पड़ेगी। प्रतिबंधित राजनीतिक दल निराश होकर बैठे थे उन्हें नई आशा का संचार हुआ। सभी राजनीतिक दलों के अभाव में उस समय ठेंगड़ी जी और भारतीय मजदूर संघ का सबसे महत्वपूर्ण रोल रहा है।

मृत्यु के पहले ठेंगड़ी जी ने मुझे एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व दिया था। भारतीय जनता पार्टी के संबंध में उनका कहना था कि पंडित दीनदयाल जी के 1968 मृत्यु के पश्चात अभी तीन वर्ष भी नहीं बीते होंगे, दीनदयाल जी के समय जो एकात्म मानववाद भारतीय जनसंघ को सिद्धांत के रूप में स्वीकृत हुआ था, उनके मृत्यु के पश्चात 1970 में अटल जी ने घोषणा की कि हम किसी सिद्धांत के साथ बंधे नहीं रह सकते। भारतीय जनता पार्टी जब बनी और जब पार्लियामेंट में केवल उसके दो सदस्य रह गए तो उसके हार के कारणों की विकट चर्चा हुई।

एक बड़ा वर्ग था जो कहता था हमने एकात्म मानववाद सिद्धांत छोड़ा यह हमारी विफलता का मुख्य कारण रहा। उस समय भी एक निश्चित सिद्धांत पर भारतीय जनता पार्टी नहीं खड़ी हो सकी। ठेंगड़ी जी इसको भविष्य के लिए उचित नहीं मानते थे। उन्होंने मुझे बताया कि श्री गुरुजी भी सत्ता को प्रधान नहीं मानते थे, सिद्धांत को प्रधान मानते थे और उस समय के जनसंघ के नेताओं को भी उन्होंने आगाह किया था कि उन्हें इंग्लैंड की लेबर पार्टी का इतिहास सामने रखना चाहिए। 1901 में राजनीतिक यात्रा शुरू की और अपने सिद्धांत पर वे अडिग बने रहे और अंततोगत्वा 1945 में वे सत्ता पर आरूढ़ हुए।

अगर सिद्धांत पर अडिग रहोगे तो समाज का विश्वास प्राप्त करके सत्ता पर आरूढ़ होने से कोई रोक नहीं सकता। ठेंगड़ी जी का कहना था कि सत्ता पर आरूढ़ रहने के लिए जिस प्रकार के समझौते हो रहे हैं वह कहीं का भी नहीं छोड़ेंगे। हमें सिद्धांत की राजनीति की ओर जाना चाहिए। मुझे विशेष रूप से इस दिशा में कुछ करने को कहा। सिद्धांतविहीन राजनीति किस चरित्र को जन्म दे रही है, राजनीतिक पार्टियों को झांककर देखें, सभी विश्वास खो चुकी हैं।

बड़े-बड़े स्कैंडल आज यू.पी.ए. के सरकार के द्वारा जनता के सामने आ रहे है और देश आज सोचने के लिए बाध्य है। क्या माफिया या जातीय द्वेष फैलाने वाले, थैलियाँ खोलने वाले ऐसे ही लोग क्या हमारे राजनीतिक क्षेत्र में हमारे भाग्य विधाता रहेंगे या इनसे हमें कभी छुटकारा भी मिलेगा और सदाचारी, धर्मभीरु महापुरुषों के हाथ में इस देश की सत्ता का भार उठाने का मौका इस भारतीय समाज को मिलेगा। ठेंगड़ी जी मुझसे आशाएं करके गए हैं।

मुझे लगता है कि यदि अन्ना हजारे किसी सिद्धांत की ओर राजनीतिक दलों को मोड़ने के लिए विवश कर सकते हैं तो निश्चय ही भारत के असंख्य सिद्ध एवं साधनारत महात्मा इस देश को सिद्धांत की दिशा देने में समर्थ हैं, केवल उन्हें अपनी समवेत शक्ति का परिचय देना होगा। तभी ठेंगड़ी जी की मनोकामनाओं की पूर्ति हो सकेगी और एक निश्चित् सिद्धांत पर देश की राजनीति आरूढ़ हो सकेगी। ठेंगड़ी जी के जीवन के बहुत से पहलू हैं मैं उनका बार-बार स्मरण करता हूँ और उनको नमस्कार करता हूँ। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच, सामाजिक समरसता, अधिवक्ता परिषद के संस्थापक को मैं कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ और अपनी लेखनी को यहीं विराम देता हूँ।


एक महान व्यक्तित्व की झलक

- वरिष्ठ प्रचारक पी. परमेश्वरन

(निदेशक : भारतीय विचार केंद्रम्, तिरूअनंतपुरम्)

(हिंदी में अनूदित)

(1)

विश्व के इतिहास में ऐसे व्यक्ति बहुत विरले हैं, जो गहन दार्शनिक विचारक होने के साथ ही जन आंदोलनों को संगठित करने की क्षमता भी रखते हों। दार्शनिक साधारणतः शांत एकांत स्थानों पर रहते हैं, जबकि जन आंदोलनों के संगठक सामान्य जनता के बीच भ्रमणरत होते हैं। मार्क्स एक मौलिक चिंतक थे, जिनकी विचारधारा ने लंबे समय तक विश्व के अनेक महाद्वीपों में अपना प्रभाव छोड़ा। पर वे एक कमजोर संगठक थे। लेनिन में दोनों प्रकार की प्रतिभाओं का एक अनोखा समन्वय था। उन्होंने एक क्रांतिकारी पार्टी बनाई और मजदूरों की विश्वव्यापी क्रांति का सूत्रपात किया। जब मैं दत्तोपंत ठेंगड़ी के जीवन और कार्यों का स्मरण करता हूँ तो दार्शनिक और जन संगठक के अद्भुत गुणों का आदर्श समावेश (समन्वय) उनमें देखता हूँ। भारतीय मजदूर संघ की स्थापना के पूर्व भी उनमें मौलिक विचारक और अद्वितीय संगठक के गुण स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं।

जब श्री गुरुजी ने उनको भारतीय श्रमिकों का संगठन खड़ा करने का कठिन काम सौंपा तो उनके दिमाग में ठेंगड़ी जी के इन दोनों गुणों का विचार अवश्य होगा। ठेंगड़ी जी में इन दोनों क्षमताओं के सुखद समन्वय के कारण ही श्री गुरुजी ने ऐसा निर्णय करने का आधार लिया जान पड़ता है।

उस समय भारत में श्रमिक क्षेत्र भरा पूरा था और वहाँ प्रवेश करना तथा प्रभाव निर्माण करना सरल नहीं था। देश में अनेक सुस्थापित मजदूर संगठन थे, जिनका अलग-2 क्षेत्रों में देशव्यापी प्रभाव था। इनमें से कुछ अंतरराष्ट्रीय स्वरूप के थे और आर्थिक दृष्टि से सुसंपन्न भी। ठेंगड़ी जी का मिशन भीड़भाड़ वाले इस श्रमिक क्षेत्र में प्रवेश करना और वहाँ राष्ट्रवादी शक्तियों के लिए विजय प्राप्त करने का था। श्रमिक क्षेत्र के अन्य प्रतियोगी संगठनों के पास बनी बनाई तैयार विचारधारा थी और नीतियाँ और कार्यक्रम भी। उन संगठनों के नेताओं को अपनी चल रही गतिविधियों को मात्र आगे बढ़ाने का काम था। जहाँ तक ठेंगड़ी जी का प्रश्न है उन्हें श्रमिकों के इस जटिल क्षेत्र में राष्ट्रीय विचारधारा को विकसित करना था, साथ ही विचारधारा के अनुरूप कार्यपद्धति भी खड़ी करनी थी। यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य था जिसे अंग्रेजी में कहते हैं Herculean Task वैसा। इस विशाल और अलग प्रकार के काम के लिए ठेंगड़ी जी ही सर्वाधिक उपयुक्त थे, परिणामस्वरूप आज हम श्रमिक क्षेत्र में सबसे बड़ा राष्ट्रीय आंदोलन देख रहे हैं। बी एम एस संपूर्ण लोकतांत्रिक विश्व में सबसे बड़े श्रमिक संगठन के रूप में हमारे सामने विद्यमान है।

ठेंगड़ी जी के विषय में यह बात सभी जानते हैं कि वे सदा आत्म प्रसिद्धि से दूर रहे, अन्यथा वे विश्व के महानतम दार्शनिकों में प्रतिष्ठित होते। इसी प्रकार वे श्रम आंदोलनों के भी सबसे बड़े आयोजक के रूप में मान्यता प्राप्त होते। ठेंगड़ी जी सदा कहा करते थे, 'आवश्यकता के अनुरूप कम से कम प्रसिद्धि ही वांछनीय है।' वे स्वयं भी इस विषय पर अंतिम समय तक अनुसरण करते रहे। जिस राष्ट्रीय श्रमिक आंदोलन को उन्होंने खड़ा किया वह आज वैश्विक स्तर पर मान्यता प्राप्त है। इसके प्रतिनिधियों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत के श्रम जगत का प्रतिनिधित्व करने के लिए बुलाया जाता है। अनेक बार तो वे संपूर्ण भारतीय श्रम आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसके बावजूद ठेंगड़ी जी का नाम इस संगठन का इतिहास जानने वाले थोड़े से लोग ही जानते हैं। भविष्य के प्रति उनकी दृष्टि तथा स्पष्ट राष्ट्रीय चिंतन के साथ कठिन परिश्रम और त्यागपूर्ण जीवन के कारण ही भारतीय मजदूर संघ आज इस स्थिति में खड़ा है। भारतीय मजदूर संघ का अस्तित्व विश्व पटल पर इस बात की घोषणा है कि आदर्शों से समझौता किए बिना भी श्रमिकों की भलाई के लिए एक स्पष्ट कार्यक्रम और कार्यपद्धति लेकर गैर मार्सी और गैर गांधीवादी आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। ठेंगड़ी जी की तपस्या की वीरगाथा विश्व इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जाएगी।

(2)

ठेंगड़ी जी से प्रत्यक्ष भेंट के काफी पहले कोझीकोड में उनके प्रचारक जीवन की अनेक बातें मुझ तक पहुंच गई थीं की किस प्रकार एक तेजस्वी स्नातक युवक कालीकट रेलवे स्टेशन पर उतरे और मालावार की इस राजधानी में संघ शाखा के बारे में वहाँ के प्रख्यात वकीलों से समर्थन मांगा। ठेंगड़ी जी के आकर्षक व्यक्तित्व, उनकी योग्यता और गहन निष्ठा से सभी लोग बहुत प्रभावित हुए, किंतु वे कुछ इस प्रकार के भाव प्रकट कर रहे थे कि अनेक संभावनाओं से भरा एक तेजस्वी युवक कोझीकोड़ के हिंदुओं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बैनर तले संगठित करने का निरर्थक प्रयास कर अपना जीवन बर्बाद कर रहा है। कुछ लोग उनको बड़ी गंभीरता से सलाह दे रहे थे कि वे अपनी जवानी के दिन यो ही कोझीकोड़ में व्यर्थ गंवाने की बजाय तुरंत पहली उपलब्ध ट्रेन से वापस नागपुर लौट जावें। वे नागपुर की वापसी यात्रा के लिए टिकट खरीदकर देने के लिए भी तैयार थे। उनकी बातों से उद्वेलित हुए बिना इस युवक प्रचारक ने शांत रहकर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की और कहा कि जब कभी मुझे लगेगा कि मुझे नागपुर लौट जाना चाहिए, उस समय मैं आपकी उदारता का अवश्य लाभ उठाऊंगा। उन्होंने कहा अभी तो मुझे सौंपे हुए काम को पूरा करने का मैं भरसक प्रयत्न करूंगा। केवल दो साल में ही ठेंगड़ी जी ने न केवल शाखाएं प्रारंभ कर दीं, बल्कि उन्हीं लोगों को, जो बहुत संदेहास्पद और निराश थे, आश्वस्त कर दिया कि ये युवक प्रचारक किसी और धातु का बना है। ठेंगड़ी जी उन वरिष्ठ वकीलों को नागपुर में संघ के प्रशिक्षण में ले जाने में भी सफल रहे। मालाबार में संघ कार्य का जिन्होंने नेतृत्व किया वे ठेंगड़ी जी के समय युवा छात्र थे और उनसे प्रभावित होकर शाखा में आए और संघ के समर्पित प्रचारक बन गए। उनके द्वारा संघकार्य की जो सुदृढ़ नींव रखी गई उसी के कारण संपूर्ण मालाबार क्षेत्र में संघकार्य का प्रभावी विस्तार हुआ।

यद्यपि मैंने ठेंगड़ी जी द्वारा मालाबार में (जहाँ बाद में मा. शंकर शास्त्री जी के गतिशील नेतृत्व में मुझे भी प्रचारक के नाते काम करने का सुअवसर मिला) संघ कार्य की सुदृढ़ नींव स्थापित करने के विषय में सुन रखा था पर ठेंगड़ी जी से मेरा व्यक्तिगत संपर्क उस समय बना जब मुझे भारतीय जनसंघ के संगठन मंत्री का कार्य सौंपा गया। उस समय तक वे भारतीय मजदूर संघ की स्थापना कर चुके थे। वे जनसंघ की कार्य समिति व अन्य नीति निर्धारण बैठकों में विशेष आमंत्रित हुआ करते थे।

उन्हीं दिनों मुझे उनके दुर्लभ गुणों का साक्षात्कार हुआ कि वे एक गंभीर चिंतक और कुशल संगठनकर्ता थे। सार्वजनिक सभाओं में वे एक प्रभावी वक्ता थे। एक या दो चुनावी अभियानों में उन्होंने केरल में सार्वजनिक सभाओं में अनेक भाषण दिए। मुझे एक चुनावी सभा का विशेष रूप से स्मरण होता है जब उन्होंने कोझीकोड़ के मुथालकुलम (Muthalkkulam) मैदान में प्रभावी भाषण दिया था। जनसंघ पहली बार चुनाव लड़ रहा था। कांग्रेस और मार्क्सवादी प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी थे। मार्क्सवादी बहुत आक्रमक मूड में थे, वे राजनीति के क्षेत्र में नवागत जनसंघ की मजाक उड़ा रहे थे। ठेंगड़ी जी ने उनको खुली चेतावनी देते हुए कहा कि उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि भविष्य में बूढ़ी और भ्रष्ट कांग्रेस की बजाय उन्हें जनसंघ के आदर्शवादी और शक्तिशाली कार्यकर्ताओं का सामना करना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्तर की मार्क्सवादी पार्टी सिकुड़कर बंगाल और केरल की क्षेत्रीय पार्टी बनकर रह गई है। एक जोरदार किक (Kick) उन्हें बंगाल की खाड़ी व अरब सागर में धकेलने के लिए काफी है। उस समय ये शब्द अव्यावहारिक लग रहे थे किंतु इस समय हम अनुभव कर सकते हैं कि वे एक भविष्यवेता थे।

जनसंघ के विचारों के प्रति एकदम दृढ़ रहने के साथ-साथ ठेंगड़ी जी केरल की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति से भी खूब परिचित थे। वे जनसंघ के सिद्धांतकार भी थे। जब कालीकट के बाहरी इलाके में जनसंघ का एक तीन दिन का अध्ययन शिविर लगा तब हमें उस समय के अखिल भारतीय नेताओं प.दीनदयाल उपाध्याय, दत्तोपंत ठेंगड़ी और जगन्नाथ राव जोशी के साथ रहने का सौभाग्य मिला। उस समय हमें न केवल जनसंघ के सिद्धातों को जानने समझने का अवसर मिला बल्कि यह भी अनुभूति हुई कि उन सिद्धांतों के अनुरूप किस प्रकार दैनिक जीवन यापन किया जा सकता है। हम बाहर के एक घर में एकत्र ठहरे थे जिसमें आवश्यक सुविधाएं कम से कम थी। यह एक प्रकार का गुरुकुल था जिसकी आज बदली हुई परिस्थिति में कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस अनुभव की अमिट छाप आज भी हमारे मस्तिष्क में अंकित है। ये आज के राजनीतिक दृश्य से एकदम भिन्न है, जहाँ सादा जीवन और सांस्कृतिक मूल्यों के दर्शन क्दाचित ही होते हैं। उस समय के उस प्रकार के अनुभवों को आज लोग अपनी मनगढन्त या कल्पना की बात ही मानेंगे।

(3)

अंग्रेजी में एक प्रसिद्ध कहावत है :-

"Heights by great men reached and kept

Were not attained by a sudden flight,

They while their companions slept

Were toiling upward in the night."

(हिमालय जैसी ऊंचाईयों पर महान व्यक्ति एकदम उड़कर नहीं पहुँचते हैं, बल्कि रात्रि के अंधकार में जब अन्य साथी सोते रहते हैं उस समय भी वे लगातार अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयत्न करते रहते हैं।)

माननीय ठेंगड़ी जी के जीवन की एक शानदार घटना है, जिसका मैं साक्षी हूँ। अपने विचार परिवार के प्रमुख बुद्धिजीवियों की एक बैठक होने वाली थी। इस बैठक में कुछ मौलिक, सामाजिक, आर्थिक नीतियों पर विचार विनिमय होकर कुछ निष्कर्ष निकालना था, ताकि वे नीतियां अपने सभी आंदोलनों पर लागू हो सके। यह बैठक नागपुर से कुछ किलोमीटर दूर एक ग्रामीण अंचल में आयोजित की गई थी। ठेंगड़ी जी को एक मूल दस्तावेज (Theme Paper) तैयार करना था जिसके आधार पर विचार विनिमय होकर कुछ निष्कर्ष पर पहुँचना था। पहले दिन कुछ प्रमुख लोग बैठकर ठेंगड़ी जी द्वारा तैयार प्रपत्र पर सविस्तार बारीकी से, प्रत्येक शब्द पर विचार करने वाले थे। यह एक श्रमसाध्य काम था और रात में बहुत देर तक चला। बैठक में कई सुझाव आए जिसे इस दस्तावेज में समाहित करना था, कुछ सुधार भी करने थे और कुछ हटाना भी था। यह प्रपत्र था भी काफी लंबा। अगले दिन अधिक संख्या में लोग बुलाए गए थे जिनके सामने ठेंगड़ी जी को संशोधित प्रपत्र पढ़ना था। संशोधित प्रपत्र को पुनः तैयार करने में कठिनाई से 12 घंटे का समय था। हम लोग चिंतित थे और कुछ उत्सुक भी कि यह कठिन काम समय पर कैसे पूरा होगा। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि प्रातः 9 बजे ठेंगड़ी जी संशोधित प्रारूप की कुछ प्रतियां विचार विनिमय के लिए तैयार करवाकर प्रस्तुत कर रहे थे वह भी ठीक प्रकार से टाईप की हुई। लगभग पूरी रात ठेंगड़ी जी टाईपिस्ट के पास बैठे रहे तभी यह कठिन काम पूरा हो सका। इससे हम सभी लोग बहुत संतुष्ट व प्रसन्न हुए। स्पष्ट था कि ठेंगड़ी जी सारी रात जागते रहे थे पर वह एक दम तरोताजा हमारे सामने विचार विनिमय की सामग्री लिए तैयार थे। उनके चेहरे पर थकान के कोई चिह्न नहीं थे। उन्होंने स्वयं संशोधित पत्र स्पष्टता और बुद्धिमानी से प्रस्तुत किया सभी ने उनका अनुमोदन किया।

उनके सुदीर्घ एवं श्रमशील जीवन में यह कोई एक अकेली घटना नहीं थी बल्कि ऐसा प्रायः होता रहता था। संगठनात्मक और बौद्धिक क्षेत्र में निष्ठापूर्वक बिना थके लगातार परिश्रम करते रहने के कारण ठेंगड़ी जी का सफल जीवन हम सबके लिए आदर्श के रूप में स्थापित है, सभी क्षेत्रों के कार्यकर्ता उनसे सतत प्रेरणा ग्रहण करते रहेंगे।

अनेक बार मैं ठेंगड़ी जी को विषय के समर्थन या विरोध में पूर्व और पश्चिम के अनेक विद्वानों को उद्धृत करते देखता हूँ। वे विद्वानों का मत पूरे अधिकार से शब्दशः रखते थे। यह वास्तव में बहुत आश्चर्यजनक होता था। कई बार मैं सोच सोचकर हैरान होता था कि इतना व्यस्त व्यक्ति किस समय अध्ययन करता होगा। अध्ययन भी इतनी गहराई से कि जब भी जैसी आवश्यकता होती थी वे उसे उद्धृत कर सकते थे। बाद में मुझे उनके विस्तृत ज्ञान का रहस्य ज्ञात हुआ। सामान्य कार्यकर्ताओं या बुद्धिजीवियों से बात करते समय उनके द्वारा व्यक्त विचार और सूचनाएं वह अपने मस्तिष्क में संजोते जाते थे। जब कभी मैं विभिन्न क्षेत्रों में विद्वानों की पुस्तकों से प्राप्त कोई नया विचार उनके सामने रखता था, तो वह तुरंत ही संदर्भित विषय की छायाप्रति या टाईप की हुई प्रति मांगते थे। वे उसे ध्यानपूर्वक अध्ययन कर उसे आवश्यकता पड़ने पर उद्धृत करते थे। जिस प्रकार से कोई मधुमक्खी विभिन्न पुष्पों से मधु (शहद) एकत्र कर उनका एक बड़ा भंडार बना लेती है, उसी प्रकार ठेंगड़ी जी विभिन्न विद्वानों के विचारों को संग्रहित कर लेते थे। वे वक्ता, प्रवक्ता और शिक्षक ही नहीं थे वे लगातार एक छात्र की भूमिका में भी बने रहे। उनके संपर्क का दायरा बहुत विस्तृत था और संपर्क भी बहुत खुला और गहन। इसलिए उनके लिए अपने ज्ञान का विस्तार करना बहुत सहज था जिसका वे अपने लेखन और उद्बोधन में प्रभावी उपयोग करते थे। वे इसके अभ्यस्त हो गए थे। इस प्रकार के उदाहरण विरल ही मिलते हैं।

(4)

मैं जब दिल्ली में दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक के नाते चार साल तक था, तब मुझे उनके साथ लगातार संपर्क में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे राज्यसभा सदस्य के नाते अपने सरकारी आवास साऊथ एवेन्यू में रहते थे। मैं झंडेवाला में संघ कार्यालय में रहता था, जहाँ वे प्रायः आते रहते थे। जब उन्हें सुविधा होती थी तो मैं भी उनके पास जाता था। हम विभिन्न विषयों पर लगातार लंबी बात करते थे। वास्तव में मेरे लिए यह बहुत ही शिक्षाप्रद था। उनकी रुचि सभी विषयों में बड़ी गहन थी चाहें वे बौद्धिक हो या व्यावहारिक। वे कठिन से कठिन विभिन्न विषयों पर भी प्रकाश डाल सकते थे। इस प्रकार के अवसर और विषयों की विविधता इतनी अधिक है कि किसी एक विषय का उल्लेख करना बहुत कठिन है। हमारे विमर्श में श्री देवेन्द्र स्वरूप, श्री भानु प्रताप शुक्ल (संपादक पांचजन्य) व श्री बी. के. केलकर भी शामिल हो जाते थे।

मैं केवल दो घटनाओं का उल्लेख करूंगा, क्योंकि इन घटनाओं ने मेरे जीवन को बहुत प्रभावित किया। एक बार जब हमारी भेंट झंडेवालान में हुई तो ठेंगड़ी जी ने अगले दिन कुछ लोगों से संपर्क करने चलने को कहा। मैंने प्रसन्नतापूर्वक उनकी बात मान ली। जैसा कि निश्चित् हुआ था ठेंगड़ी जी अगले दिन प्रातः झंडेवालान आ गए और हमारा संपर्क का कार्य प्रारंभ हुआ। हम बिना किसी वाहन के पैदल ही संपर्क के लिए निकल पड़े। ठेंगड़ी जी मुझे एक से दूसरे घर में ले जाते रहे। यद्यपि हम पूर्व सूचना के बिना गए थे तो भी हर घर में हमारा गर्मजोशी से स्वागत हुआ। ठेंगड़ी जी उन सभी परिवारों के सदस्य जैसे थे। यह शुद्ध संघ शैली का अनौपचारिक संपर्क का कार्यक्रम था। हम पैदल ही चल रहे थे इसलिए मुझे आशा थी कि ठेंगड़ी जी दोपहर भोजन के समय तक संपर्क कार्यक्रम पूरा कर लेंगे। मुझे दोपहर भोजन के बाद थोड़ा विश्राम करने का अभ्यास है। ठेंगड़ी जी को यह बात खूब अच्छी तरह विदित भी थी, इसलिए मैं सोचता था कि हम दोपहर भोजन तक अवश्य झंडेवालान में पहुंच जाएंगे, पर ठेंगड़ी जी ने बताया, हम दो मित्रों से और मिलने जाएंगे, उसी के बाद अपना संपर्क कार्यक्रम समाप्त होगा। मुझे उनसे सहमत होना ही था और हमने संपर्क जारी रखा। एक स्वयंसेवक ने हमें आग्रहपूर्वक भोजन करवाया। भोजन के बाद भी ठेंगड़ी जी विश्राम की मानसिकता में नहीं थे। अपने सज्जन स्वभाव के अनुरूप उन्होंने संकेत दिया कि हम एक या दो और परिवारों से संपर्क के बाद ही विश्राम करेंगे। संक्षेप में हमारा संपर्क का कार्यक्रम बिना किसी अंतराल के सायंकाल 4-5 बजे तक चलता रहा। सायंकाल उन्होंने बताया कि मुझे परसों बाहर जाना है, अत: कल फिर संपर्क के लिए चलना है। अगले दिन भी ठीक पहले दिन की भान्ति संपर्क हुआ। मेरे लिए यह एक बड़ा भारी सबक था कि भोजन के बाद संघ प्रचारक के लिए विश्राम करना बहुत आवश्यक नहीं है। यद्यपि मैं ठेंगड़ी जी की शिक्षा के अनुरूप स्वयं में परिवर्तन नहीं ला पाया और मेरा दोपहर में विश्राम करने का स्वभाव आज तक बना हुआ है। लेकिन मैं उस आयु में भी ठेंगडी नी की परिश्रमशीलता से चकित हूँ। वास्तव में यह एक बड़ा गुण था के कारण वे आदर्श प्रचारक के रूप में हमारे सामने हैं।

एक अन्य उल्लेखनीय घटना है जिससे मेरे जीवन में एक निर्णायक नोड़ आया। यह मेरे दिल्ली वास्तव्य के अंतिम दिनों की बात है। दिल्ली में रहते हुए मैं केरल में हो रहे घटनाक्रम की लगातार जानकारी रख रहा था। सी पी एम के कार्यकर्ता संघ के कार्यकर्ताओं पर लगातार हमले करते रहते थे। यह बहुत चिंताजनक बात थी। आपातकाल की समाप्ति और संघ से पाबन्दी हटने पर संपूर्ण केरल प्रांत में संघ कार्य का विस्तार तेजी से हुआ। सी पी एम के भी अनेक कार्यकर्ता संघ की शाखा में शामिल हो रहे थे। अपने इस ह्रास को रोकने के लिए सी पी एम बड़े पैमाने पर हिंसा पर उतारू हो गए। ई.एम.एस. नम्बूद्रीपाद व सी अच्युत मेनन जैसे वामपंथी बुद्धिजीवी नेता अपने आप में महत्त्वपूर्ण थे। इसलिए मुझे लगता था कि बौद्धिक स्तर पर व्यापक बहस प्रारंभ करना ठीक रहेगा। श्री नाना जी देशमुख तो पूरी तरह ग्राम विकास जैसे सेवा कार्यों में लगे हुए थे, इसलिए मुझे लगता था कि केरल में मार्क्सवादियों से सार्थक संवाद स्थापित करने के लिए मेरी उपस्थिति वहाँ ज्यादा श्रेयस्कर होगी। आपात्काल के पूर्व भी मैंने उपरोक्त नेताओं से संपर्क बनाया था। किंतु मेरी समस्या थी कि मैं दीनदयाल शोध संस्थान को बीच में कैसे छोड़ सकूँगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प. पू. बाला साहब देवरस ने मुझे दिल्ली आकर दीनदयाल शोध संस्थान का काम करने के लिए कहा था। उनकी अनुमति के बिना शोध संस्थान का काम छोड़ना अनुचित था। एक बात और थी मेरे जैसे प्रचारक के लिए सीधे उनके पास जाकर बदलाव के लिए कहना आसान नहीं था। इस स्थिति से उबारने में मुझे ठेंगड़ी जी का सहारा मिला। मैंने बहुत विस्तार से ठेंगड़ी जी के साथ इस विषय पर विचार विनिमय किया। उन्हें भी लगा कि सी.पी.एम. के साथ बात करने के विशेष उद्देश्य को सामने रखकर मेरा केरल वापस जाना अधिक उपयोगी था। उस समय दिल्ली में संघ का कैंप लगा हुआ था। उसमें बाला साहब आए हुए थे। ठेंगड़ी जी ने मुझे सुझाया कि मैं व्यक्तिगत रूप से उनसे मिलूं। मुझे इस बारे में थोड़ा संकोच था। ठेंगड़ी जी ने मुझे उनसे मिलने के लिए उत्साहित ही नहीं किया बल्कि वे स्वयं मुझे लेकर सरसंघचालक जी के आवास तक आए। यद्यपि ठेंगड़ी जी हमारी बातचीत में स्वयं शामिल नहीं हुए पर उन्होंने मुझे काफी नैतिक बल प्रदान किया। इस प्रकार मैंने अपनी बात सरसंघचालक जी के सामने रखकर दिल्ली छोड़ने के लिए उनकी स्वीकृति प्राप्त की। ठेंगड़ी जी की नैतिक और शारीरिक सक्रियता के बिना इस प्रकार का संवेदनशील निर्णय लेना आसान नहीं था। यह मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसमें ठेंगड़ी जी ने निर्णायक भूमिका अदा की।

बाद में एक सामूहिक निर्णय किया गया कि केरल में एक वैचारिक आंदोलन खड़ा किया जाए जैसा कि अब भारतीय विचार केंद्रम् है। ठेंगड़ी जी ने इस विचार को सफल बनाने में पूरा समर्थन दिया। 1982 में विजयदशमी के दिन इसका उद्घाटन तिरूअन्नतपुरम् में रखा गया। मैंने सोचा ठेंगड़ी जी उद्घाटन भाषण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति होंगे। वास्तव में उनका वह भाषण आज भी उतना ही उपयोगी है जितना कि उस समय था। उसी समय से उनका वह भाषण भारतीय विचार केंद्रम् के कार्यकर्ताओं के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में स्थापित है क्योंकि इस भाषण में वह सभी सैद्धांतिक पृष्ठभूमि और कार्यक्रम है जिनके आधार पर भारतीय विचार केंद्रम् को खड़ा करना था। जैसा कहा गया है कि जिस काम की शुरुआत अच्छी होती है, वह उसी समय आधा पूर्ण हो जाता है। (Well Begin is Half done) विचार केंद्रम् की सफलता का रहस्य वे स्पष्ट निर्देश हैं, जो ठेंगड़ी जी ने उस समय दिए थे। उस कार्यक्रम के बाद भी ठेंगड़ी जी लगातार विचार केंद्रम् से जुड़े रहे और जब कभी उन्हें किसी कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया जाता वे अवश्य उपस्थित हो जाते।

(5)

राज्यसभा के सदस्य या भारतीय मजदूर संघ के प्रमुख रहते हुए भी वे सदा सर्वदा एक साधारण स्वयंसेवक की तरह रहे जैसे कोई अन्य साधारण स्वयंसेवक होता है। वे कहा करते थे कि कोई व्यक्ति किसी भी ऊँचे पद पर आसीन हो या उसका कोई भी स्टेट्स हो, पर स्वयंसेवक होना सबसे बड़े सम्मान की बात है। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा आदि में वे बहुत सहज होते थे। ठेंगड़ी जी सदा अगली पंक्तियों में अन्य प्रतिनिधियों के साथ जमीन पर बैठते थे। वे हमेशा समय पर अपना स्थान ग्रहण कर लेते थे। कई बार ऐसा भी होता था कि कुछ कम आयु के प्रतिनिधि उन कुर्सियों पर जम जाते थे, जो बड़ी आयु के ऐसे लोगों के लिए होती थी जिन्हें नीचे बैठने में कठिनाई थी, लेकिन ठेंगड़ी जी ने कभी इस सुविधा का लाभ नहीं उठाया। वे सभी के लिए उदाहरण स्वरूप थे।

एक बार मुझे एक आश्चर्यजनक करने वाला अनुभव हुआ। भारतीय मजदूर संघ का एक अखिल भारतीय अधिवेशन था, इसमें मजदूर संघ के हजारों कार्यकर्ता सारे देश से आए हुए थे। पता नहीं क्यों, ठेंगड़ी जी ने मुझे उस अधिवेशन के सार्वजनिक सत्र की अध्यक्षता के लिए बुला लिया। मेरे लिए एक और कष्टकर बात यह थी कि यह अधिवेशन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में था। इस सत्र के लिए बड़ी संख्या में विशिष्ट लोगों को भी बुलाया गया था। यह एक बड़ी संख्या का विशाल कार्यक्रम था। सत्र के बाद सभी का भोजन था। लोग पंक्तियों में बैठ गए थे, पंडाल भर चुका था। सदा की भांति आमंत्रित विशिष्ट अतिथियों के लिए अलग पंक्ति में बैठने का स्थान रखा गया था। जब सभी लोग बैठ गए तो मेरी आंखें ठेंगड़ी जी को खोज रही थीं, पर वे कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे थे। मुझे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि ठेंगड़ी जी सामान्य प्रतिनिधिओं के बीच दूर कहीं बैठे हुए थे। वे मजदूर संघ के एक कार्यकर्ता के साथ किसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा कर रहे थे। ठेंगड़ी जी मजदूर यूनियन के एक सामान्य से कार्यकर्ता लग रहे थे। मैं प्रतिष्ठित अतिथियों के बीच में बैठा हुआ संकोच से गड़ा जा रहा था। वे हमेशा अपने को एक सामान्य कार्यकर्ता मानते थे और इसलिए वे मजदूरों की नब्ज खूब अच्छी तरह पहचानते थे। धरातल पर ठेंगड़ी जी जैसे महान नेता और सामान्य कार्यकर्ता के बीच कोई दूरी नहीं थी।

इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि किसी भी नेता की महानता इस बात पर निर्भर है कि वह कैसे अपने अनुयाईयों के साथ स्वयं को एकरूप कर लेता है। झूठी शान बघारने वाले नेताओं में और इस सामान्य व्यवहार में कितना बड़ा अंतर है। प्रत्येक कार्यकर्ता से जीवंत संपर्क के कारण ही ठेंगड़ी जी मजदूर संघ को एक वटवृक्ष के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत कर सके। यह केवल इसीलिए संभव हो सका क्योंकि ठेंगड़ी जी ने सदा सर्वदा यह स्मरण रखा कि वे प्रथमतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक सामान्य स्वयंसेवक हैं, भले ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें कितना ही सम्मानजनक स्थान क्यों न प्राप्त हो गया हो।

महान व्यक्ति इसलिए महान नहीं होता कि उसने कुछ बड़े कार्य किए होते हैं, बल्कि उसकी महानता इस बात में होती है कि वह सामान्य विषयों को किस प्रकार निस्पादित करता है। स्वामी विवेकानंद का कहना था कि भीड़ के सामने कोई भीरु भी बड़ा काम कर सकता है, पर प्रश्न है भीड़ सामने नहीं रहने पर कौन कैसा करता है। मुझे एक घटना का स्मरण है। यद्यपि यह घटना महत्वपूर्ण नहीं है पर इससे यह जरूर संकेत मिलता है कि ठेंगड़ी जी छोटी-छोटी बातों का कितना ध्यान रखते थे। एक बार दिल्ली में मैं समय लेकर उनसे मिलने गया। मैं साऊथ एवेन्यू में उनके निवास पर पहुंच गया। इसी बीच गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ महत्वपूर्ण नीतिगत विषयों पर मार्गदर्शन प्राप्त करने ठेंगड़ी जी के पास आ गए। वे आपस में बात कर रहे थे, स्वाभाविक ही उन्हें संभावना से कुछ अधिक समय विचार विमर्श में लग गया। ठेंगड़ी जी को जानकारी थी कि मुझे दोपहर बाद हल्का जलपान करने का अभ्यास है। क्योंकि मुझे ज्यादा देर प्रतीक्षा करनी पड़ी इसलिए उन्होंने अपने सहयोगी को बुलाकर निकट के एक स्थान से कुछ दक्षिण भारतीय व्यंजन लाकर देने के लिए कहा। गहन विचार विनिमय के बीच में भी वे इस प्रकार की बातों का अत्यधिक ध्यान रखते थे, ताकि दूसरे लोगों की आवश्यकता पूरी हो सके। वास्तव में इस प्रकार छोटी-छोटी घटनाएं जिसमें साथी कार्यकर्ताओं का ध्यान रखा जाता है, उसी कारण लोग ठेंगड़ी जी की ओर आकर्षित होते थे और इसलिए वे एक महान संगठनकर्ता के रूप में प्रतिष्ठित हो सके।

(6)

ठेंगड़ी जी से अंतिम बार भेंट उस समय हुई जब वे कोल्लम के आश्रमम् मैदान में एक राज्य स्तरीय तीन दिवसीय कैंप के लिए आए थे। मैदान में सैकड़ों की संख्या में तंबू लगाए गए थे। यह बात 25, 26, 27 जनवरी 2004 की है। (ठेंगड़ी जी का देहाँत 14 अक्तूबर 2004 को हुआ।) इस कार्यक्रम में पूजनीय सुदर्शन जी भी उपस्थित थे। यद्यपि ठेंगड़ी जी का स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था तो भी उन्होंने सदा की भांति हमारा निमंत्रण स्वीकार कर लिया। संभवतः वे केरल के प्रमुख कार्यकर्ताओं से मिलना चाहते थे, जहाँ से उन्होंने अपने प्रचारक जीवन की शुरुआत की थी। जहाँ तक हमारा संबंध है हम केरल में संघ कार्य के इतिहास में इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम में उनका आशीर्वाद चाहते थे। उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उनके निवास की व्यवस्था नगर संघचालक जी के घर पर की गई थी, जहाँ उन्हें उनकी आयु और स्वास्थ्य के लिए आवश्यक सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती थीं। उन्हें उस घर में ले जाया गया और उनके लिए एक आरामदायक कमरा, स्नान, भोजन आदि की व्यवस्था कर दी गई। भोजन के पश्चात उस घर के प्रत्येक सदस्य से अपने स्वभावानुसार अत्यंत स्नेहपूर्वक उन्होंने बातें की और वे विश्राम के लिए कमरे में आ गए। विश्राम के उपरांत उन्होंने हमको बुलाकर कहा कि अब आराम हो चुका है और मुझे कैंप के स्थान पर ले चलो। शेष समय मैं कैंप में रहूँगा। हमने उन्हें मनाने की कोशिश की कि वे संघचालक जी के निवास पर ही ठहरें और जब उनके लिए निर्धारित सत्र का समय होगा तो उन्हें कैंप में ले जाएगें। पर उन्होंने यह मानने से स्पष्ट मना कर दिया और कहा कि मैं कैंप के लिए आया हूँ और मुझे कैंप में ही रहना चाहिए। हमने लाख समझाने की कोशिश की कि कैंप में हजारों की संख्या है, वहाँ धूल और शोर दोनों ही हैं तथा आपके स्वास्थ्य के लिए आवश्यक विश्राम वहाँ सम्भव नहीं है, पर उन्हें नहीं मनाया जा सका। वास्तव में उनके लिए निर्धारित सत्र अगले दिन प्रातः काल था। हमने उनसे प्रार्थना की कि रात्रि में वे वहीं घर पर आराम करें और प्रातः समय से कार्यक्रम में ले चलेंगे किंतु उन्होंने हमारी बात मानने से स्पष्ट इंकार करते हुए कहा कि मेरा निवास सभी स्वयंसेवकों के साथ ही रहेगा। उन्होंने यह भी कहा कि सरसंघचालक जी भी वहाँ है, क्योंकि मैं कैंप के लिए आया हूँ तो मैं कैंप में ही परिवार के अन्य सभी स्वयंसेवक बंधुओं के साथ ही ठहरूंगा। कैंप का स्थान विश्राम की दृष्टि से अनुपयुक्त था। साथ के एक मकान में जहाँ सुदर्शन जी ठहरे थे एक अलग पलंग की व्यवस्था करके उनको ठहराया गया।

स्वयंसेवकों को जब पता चला कि ठेंगड़ी जी कैंप में ही है तो अनेक बंधु जो उनके पुराने परिचित थे उनसे मिलने आते गए। वे भी सभी से गपशप करते रहे, मानो कि उनका स्वास्थ्य सामान्य हो। यद्यपि हमने इसे रोकने की बहुत कोशिश की पर हम विवश हो गए। उन्होंने रात्रि विश्राम भी वहीं किया और हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि वे रात्रि में आवश्यकतानुसार विश्राम नहीं कर सके। अलबत्ता प्रातः उठकर वे समय पर कार्यक्रम के लिए तैयार हो गए। उस दिन उनका बौद्धिक असामान्य रूप से भावनाशील था मानो वे जानते हों कि उनके प्रिय केरल के स्वयंसेवकों के बीच उनका यह अंतिम संबोधन है। प्रत्येक श्रोता रोमांचित था और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को ऐसा आभास हो रहा था कि मानो ये ठेंगड़ी जी के अंतिम उद्गार हों, जो कि केरल में संघकार्य का श्रीगणेश करने वाले थे।

ठेंगड़ी जी का संपूर्ण जीवन कठिनाईयों से भरा हुआ एक कंटकाकीर्ण मार्ग था। उन्होंने सुविधाओं को अलविदा कह दिया था, वे परिश्रम करने में आनंद का अनुभव करते थे और विश्राम की कभी चिंता नहीं करते थे। उनका संपूर्ण जीवन पूरी तरह समर्पित था। उन्होंने प्रत्येक क्षण स्वयंसेवकों के बीच में गुजारा। सभी ये अनुभव करते थे कि वे उनके सबसे निकट हैं। वे एक या दूसरे स्वयंसेवक के साथ घूमना एवं अनौपचारिक तरीके से व्यक्तिगत या सैद्धांतिक बातें करना बहुत पसंद करते थे।

कोई भी व्यक्ति इसका अनुमान नहीं लगा सकता कि इस प्रकार के व्यक्तिगत घनिष्ठ संपर्क के द्वारा उन्होंने भारतीय मजदूर संघ व अन्य संघ संगठन के कितने कार्यकर्ताओं का निर्माण किया और उन्हें कार्यकर्ता के रूप में खड़ा किया। वास्तव में इस महान शिल्पी का यह अभिनव तरीका था कि वे अपने संपर्क में आए हुए व्यक्तियों को श्रेष्ठ कार्यकर्ता के रूप में तैयार कर देते थे।


अलौकिक व्यक्तित्व

प्रमिलाताई मेढ़े

सह संचालिका

राष्ट्र सेविका समिति

नागपुर

दत्तं मया सर्वस्वम्

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी, दत्तं मया सर्वस्वम् का प्रतीक रूप। एक अलौकिक व्यक्तित्व। मन में संघ के प्रति नितांत श्रद्धा एवं समर्पण का भाव। आडंबर रहित, अध्ययन-चिंतनशील, मिलनसार व्यक्तित्व के धनी। केवल संघ क्षेत्र में ही नहीं अपितु हिंदुत्व के कट्टर विरोधी साम्यवादी कार्यकर्ताओं के मन में भी उनके प्रति श्रद्धायुक्त आदर था। डॉ. बोकरे जैसे अर्थतज्ञ को भी हिंदू अर्थशास्त्र चिंतन लेखन करने की प्रेरणा मिली। अपना कट्टर विरोध वोथरा करने का यह चमत्कार था। उनका एक प्रिय वाक्य था - "मैं संघ का गटनायक हूँ। जहाँ भी जाऊँगा या मुझे भेजा जाएगा उसी भूमिका से कार्य करूँगा यह भान भी रखूँगा।"

किशोरी आयु से ही उनको मैं दूर से देखती थी परंतु धीरे-धीरे कार्यदृष्टि से अपनापन बढ़ता गया। समिति के बारे में उनके विचार जानने के भी अवसर प्राप्त होते गए।

संगठन को कैसी प्राथमिकता देना चाहिए, यह मुख्य बिंदु रहता था। संगठन के कारण व्यक्ति बड़ा बनता है, परंतु कभी-कभी मैं संगठन से बड़ा हूँ-मेरे कारण संगठन बड़ा बना है, यह अहंकार व्यक्ति में निर्माण हो सकता है - उससे बचना है, बचाना है।

कमल का फूल सुंदर-सुवासित होता है। उसकी पंखुडियों का रंग आकार सुगंध मन को आकर्षित करता है परंतु उसको अगर अहंकार होता है कि फूलों का सौंदर्य मेरे कारण है, मैं श्रेष्ठ हूँ क्या आवश्यकता है मुझे इस डंठल से जुड़ा रहूँ, इस मद में वह श्रेष्ठ से अलग हो जाने का विचार करता है। परंतु डंठल से अलग होने पर वहाँ से मिलने वाला जीवनरस मिलता नहीं। वह सूख जाता है। सुगंध भी नहीं रहती। सूखने के कारण वह पैरों तले कुचला जाता है या तो हवा के झोंके से दूर उड़ जाता है - अनिच्छा से व्यक्ति और संगठन के संबंध भी ऐसे ही होते हैं।

व्यक्ति सद्गुणी है, सुंदर है परंतु मेरे कारण संगठन बड़ा हुआ है ऐसे अहंभाव के कारण वह संगठन से हट जाता है तो महत्वहीन, अस्तित्वहीन होता है और संगठन को भी क्षति होती है। व्यक्ति और संगठन की पारस्परिकता वे ऐसे ही समझाते थे।

संघ का गटनायक एक महत्वपूर्ण कड़ी है। एक छोटे गट का वह प्रमुख है, अपने गट को संघ से जोड़े रखता है। विविध पद्धति से संघ में ढालता है। उसी प्रकार संघ का स्वयंसेवक दूसरे क्षेत्र में भेजा जाता है, तब वहाँ विविध उपायों से संघानुकूल वातावरण निर्माण करना यह उसका दायित्व है। अपने आचार विचार से संघ प्रकट करना, संघ के बारे में आस्था निर्माण करना उसका कर्तव्य है। 'मैं संघ का गटनायक' इसका भान सतत रखने से वह कभी भी विचलित नहीं होगा। स्वयंसेवकत्व यह गर्व का विषय है ऐसा वे मानते थे।

मा. दत्तोपंत का समिति के प्रति बड़ा आत्मीयता का, सम्मान का भाव था। राष्ट्रजीवन में समिति की महत्वपूर्ण भूमिका है, होनी चाहिए ऐसा वे कहा करते थे।

ऐसे अनौपचारिक स्नेह के कारण रेल या विमान देरी से आने की स्थिति में वे तुरंत अहिल्या मंदिर में आते थे या दिनभर के कार्यक्रमों से निवृत्त होकर आराम से आते थे। फिर घड़ी की सुई स्क जाती थी। वह भी यह चर्चा सुनते-सुनते कभी थकते नहीं थे। दुनिया भर के विषयों पर चर्चा होने के पश्चात भी अपना मूल बिंदु कभी भूलते नहीं थे। मराठी में 'हरदासाची कथा मूल पदावर' ऐसा कहते हैं न, समय का हिसाब नहीं होने के कारण कभी तो भी याद आती कि भोजन करना चाहिए।

एक बार ऐसा ही हुआ - स्वदेशी जागरण मंच के गठन हेतु यहाँ एक बैठक थी। वह समाप्त होने के पश्चात वे अहिल्या मंदिर में आए। इस बैठक में विविध क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं को आमंत्रित किया गया था पर समिति को नहीं - हमारे मन में वेदना थी, गुस्सा भी था। मा. दत्तोपंत ने आने के बाद बैठक के विषयों की जानकारी दी, चर्चा भी हुई। मैंने उनको बताया कि आपकी इन सभी योजनाओं की सफलता महिलाओं पर निर्भर है। वे यदि उनको व्यवहार में लायेंगी तो ही कुछ बात बनेगी। घर की सारी खरीददारी तो अधिकांशतः महिलाएँ ही करती हैं। उनके सहयोग के बिना यह विषय चरितार्थ होना कठिन है। आज हम इसका अनुभव भी ले रहे हैं।

समिति की ऐसी पद्धति रही है कि वर्ष प्रतिपदा तथा विजयदशमी के उत्सवों के लिए बौद्धिक का विषय दिया जाता था। पूरे देश में एक ही विषय विशिष्ट पद्धति से पहुँचता था - एक भूमिका बनती थी उस समय का विषय था - 'आर्थिक पराधीनता-राजनीतिक पराधीनता का प्रथम चरण' चित्राताई ने परिश्रमपूर्वक विविध समाचार पत्रों के लेख-साक्षात्कार आदि के कतरनों का संग्रह किया था। वह फाइल उनको दिखायी। उन्होंने वह बड़े गौर से देखी। वे जाने के लिए निकले तो लगभग मध्य रात्रि हो रही थी परंतु अहिल्या मंदिर से निकलने के पश्चात कार्यालय न जाते हुए संघ के एक ज्येष्ठ व्यक्ति के निवास पर गए, उनको नींद से जगाया और कहा कि अरे भाई हमसे एक बड़ी भूल हुई। समिति की बहनों ने इस विषय का काफी अध्ययन-चिंतन किया है और बौद्धिक के विषयों के बारे में भी बताया है। अहिल्या मंदिर में सुबह जल्दी जाकर वह संग्रह भी देखने के लिए सूचना दी।

दिल्ली में उनके निवास पर हमें बुलाया। डॉ. बोकरे जी से परिचय करने के हेतु। परिचय के बाद यह भी बताया कि समिति की बहनों ने अर्थचिंतन के बारे में बहुत किया है। हम वह कभी मानते नहीं, श्रेय देते नहीं, यह बात अलग है। उस दिन भी बातों में बहुत समय लग गया। मा. प्रमिलाबाई मुंजे और मैं - हमें अपने कार्यालय जाना था। उन्होंने श्री रामदासजी को टैक्सी लाने को कहा, टैक्सी आयी। हम दोनों पिछली सीटों पर बैठे। नमस्कार कहा टैक्सी वाले को इशारा किया चलने के लिए तो सामने वाला दरवाजा खोलकर वे गाड़ी में बैठे - तब मैंने कहा कि हमें कार्यालय का रास्ता पता है। चाहे तो टैक्सी का नंबर लिख लीजिए। वे उतरे नहीं और कहा कि अधिकारियों की चिंता करना, समिति में ही सिखाते हैं ऐसा नहीं, हमें संघ में भी यह सिखाया जाता है।

राजनीतिक क्षेत्र के बारे में उनकी स्पष्ट धारणा थी। वह स्वतंत्र विषय है। स्वतंत्र ही रहना चाहिए। राजनीति कभी भी संगठन पर हावी नहीं होनी चाहिए। संगठन की प्रतिभा अलग हो - राजनीतिक क्षेत्र से एक रूप होना दोनों के लिए हानिकारक है। उस क्षेत्र का अवांछित परिणाम हो सकता है। संगठन यानी ऋषि संस्था-निर्भीक, निर्मोही, संगठन यानी 'धर्मदंडयोऽसि' की भूमिका, व्यवस्था। संगठन और राजनीति अलग है पर आधार 'धर्म' ही है। संगठन को यह पथ्य अधिक रखना है। बातें हितकारी हों। संबंध मातृवत् सहज स्नेह के हों। लाड़ना कब, ताड़ना कब इसका विवेक संगठन करेगा। संगठन का श्रेष्ठ स्थान बनाए रखना यह बड़ी कठोर तपस्या, साधना है परंतु वह करते ही रहना है। सफलता भी प्राप्त करना है।

मा. दत्तोपंत, पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र, (पुराने मध्यप्रांत के तत्कालीन गृहमंत्री) का एक वाक्य हमेशा उद्धृत करते थे - कार्यकर्ता सुविधाभोगी होना एवं अधिकारी अपने अधिकार प्रतिष्ठा के प्रति सजग होना किसी भी संगठन को पतन, विनाश की दिशा में ले जा सकता है। दूसरी बात यह कि किसी अयोग्य-अक्षम कार्यकर्ता को उच्च पद देना भी स्खलन की दिशा में ले जा सकता है। इन दोनों बातों में सतर्क रहना है। अपना हिंदू संगठन देव (देश) कार्य के लिए ही निर्माण हुआ है। यह स्मरण सतत करेंगे-रखेंगे तो कोई भी हमें अपने रास्ते से विचलित नहीं कर सकेंगे। आपसी स्नेह, सद्भाव ही श्रद्धा निर्माण करता है जिससे दैवी कार्य हेतु सर्वस्वार्पण करने की प्रेरणा मिलती है। आपसी विश्वास के कारण वह दृढ़ होती जाती है। कोई भी संस्था संगठन आगे बढ़ता है या पिछड़ता है यह उसके कार्यकर्ताओं पर निर्भर करता है। बाहर का कोई भी व्यक्ति यह नहीं कर सकता है। इस लिए श्रद्धा-समर्पणभाव से ओतप्रोत कार्यकर्ताओं का निर्माण यह एक चुनौती ही है। उसको समर्थता से पार करना है। श्रद्धावान कार्यकर्ता केंद्रित कार्य रहना अनिवार्य है इसके बारे में दक्ष रहना वर्तमान परिस्थिति में आवश्यक है। उनके Third Way (तीसरा विकल्प) को सार्थक करना अपना कर्तव्य है।

परम मातृभक्त-परम मातृभूमिभक्त ऐसा यह अलौकिक जीवन दीपस्तंभ जैसा अखंड मार्गदर्शक रहेगा।


दत्तोपंत ठेंगड़ी मेरे प्रेरणा स्रोत

(हिंदी में अनुदित)

डॉ सुब्रमण्यम स्वामी

पूर्व मंत्री एवं सांसद, नई दिल्ली

दत्तोपंत जी से मेरा परिचय तीन चरणों में है। प्रथम परिचय वर्ष 1949 में उस समय हुआ जब वह जनसंघ में कार्य कर रहे थे। अत: उनसे एक परिचय, राजनीतिक क्षेत्र में एक साथ कार्य करते हुए मित्र के रूप में है। दूसरा परिचय आपात्काल में एक मित्र मार्गदर्शक, व दार्शनिक तथा तीसरा परिचय एक ट्रेड यूनियन नेता के रूप में जहाँ उन्होंने शून्य से एक सर्वाधिक शक्तिशाली श्रमिक संगठन जिसका नाम भारतीय मजदूर संघ है का गठन किया है।

आर्थिक विषयों पर गहरी पकड़ : भारतीय जनसंघ की अखिल भारतीय कार्यसमिति बैठक के अवसर पर आर्थिक प्रस्ताव तैयार करने के लिए उनके साथ काम करने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ। इसी दौरान दत्तोपंत जी की आर्थिक विषयों पर गहरी पकड़ और उनके व्यापक अध्ययन का मुझे पता चला। दत्तोपंत जी ने राष्ट्र की आर्थिक स्थिति से संबंधित विस्तृत लेखन और पुस्तकें लिखी हैं किंतु यह दु:खद है कि इनका यथेष्ठ प्रचार नहीं हुआ है। मेरी उनसे उनके साऊथ एवेन्यू निवास पर चाय के कप और तदनंतर मीठे पान तथा तीन मूर्ति भवन के आगे लंबे मार्गों पर चहल-कदमी करते हुए उनके आर्थिक दृष्टिकोण पर चर्चा होती थी। दत्तोपंत जी विरले नेता थे जो सच्चाई और पूरी ईमानदारी से दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानववाद के दर्शन को आगे बढ़ाना चाहते थे। वे उच्चकोटि के प्रज्ञा पुरुष थे अतः पश्चिम के नए विचारों और आधुनिक तकनीक को बड़ी सुगमता से एकात्म मानववाद के चौखट के भीतर ले आए। इससे एकात्म मानववाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता तथा उनके उच्च ज्ञान के स्तर का पता चलता है।

उनके सानिध्य के फलस्वरूप मैं इस बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि वह सार्वजनिक क्षेत्र में सर्वाधिक मौलिक चिंतक और प्रामाणिक व्यक्तित्व के धनी हैं। उन्होंने चूंकि संगठनात्मक संस्कृति के अनुरूप अपने को ढाल लिया है और अपने मैं को पीछे रखते हुए पूर्णतया समर्पित जीवन के कारण उनके विचार को जितनी प्रसिद्धि मिलनी चाहिए वह नहीं मिली है। कलियुग में अच्छे विचारों को स्वतः प्रचार नहीं मिलता किंतु बुरे विचार तुरंत विस्तार पा जाते हैं। इसमें सोचता हूँ कि दत्तोपंत जी की मित्रता का हक अदा करने के लिए आवश्यक है कि उनके विचारों तथा उनकी पुस्तकों के व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु रा.स्व. संघ और भारतीय मजदूर संघ स्थान स्थान पर कार्यशालाएँ आयोजित करे जिससे कि समाज के बड़े भाग तक उनके विचार पहँच सकें।

मेरे प्रेरणा स्रोत : दूसरे चरण में मैंने दत्तोपंत जी को भूमिगत रह कर आंदोलन का नेतृत्व करते हुए देखा है। वह फरवरी 1976 से लोकसंघर्ष समिति के अध्यक्ष थे। मैं राज्यसभा से पलायन (Escapade) के उपरांत 10 अगस्त से 20 नवंबर 1976 तक भारत ही में था और इस अवधि में मुंबई तथा पुणे में मेरी दत्तोपंत जी से अनेक भेंट वार्ताएँ हुई। हमारे आसपास कई राजनेता धीरे धीरे पीछे हट रहे थे किंतु हम सबके मध्य दत्तोपंत जी चट्टान की भाँति डटे हुए थे। उनमें जरा सी भी डगमगाहट नहीं आई। इसीलिए वह मेरे प्रेरणास्रोत थे। मेरे कई निकटस्थ मित्रों का जब मुझ पर इस बात का भारी दबाव था कि मैं आपात्काल के विरुद्ध संघर्ष से अपने को पृथक कर लूँ और इंदिरा गांधी को नाराज न करूं तब यह दत्तोपंत जी (और माधवराव मुले जी) ही थे जिन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया और संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। जहाँ तक कि दत्तोपंत जी ने मेरी धर्मपत्नी जिसे पुलिस बुरी तरह मानसिक यातना (Mental Torture) दे रही थी को अत्यंत सहानुभूति भरा पत्र लिखा जिससे पता चलता है कि दत्तोपंत जी किस प्रकार सबका ध्यान रखते थे और पारिवारिक बारीकियों व भावनाओं को किस कदर गहराई से जानते थे।

यह किसी आंदोलन ही में समझ आता है कि कौन आदमी (Men) और कौन लड़के (Boys) अथवा कौन भेड़ (Sheep) और कौन बकरी (Goat) है।

मेरी दृष्टि में आपात्काल के दत्तोपंत जी वास्तविक महानायक हैं किंतु फिर वही बात कि उनके आत्म विलोपी स्वभाव और प्रचार से दूर रहने के कारण उनकी आपात्काल हटवाने और देश में पुनः लोकतंत्र स्थापना में देश को कितनी बड़ी देन है इससे देशवासी आज भी अनभिज्ञ हैं। लोग बाग मुझे आपात्काल के नायक (Hero) के रूप में जानते पहचानते हैं किंतु मुझे यहाँ यह स्पष्ट करने दें कि दत्तोपंत जी और माधवराव मुले जी, वह दो महापुरुष थे जिन्होंने मुझे मनोवैज्ञानिक तथा मानसिक रूप में संघर्ष की भूमिका के लिए सन्नद्ध किया।

वर्ष 1947 के पश्चात कालखंड के वह युगपुरुष थे : तीसरे चरण का मेरा उनसे परिचय तब प्रारंभ हुआ जब जनता पार्टी सरकार केंद्र में सत्तासीन हुई। भारतीय मजदूर संघ से संबद्ध अनेक श्रम संघों के अध्यक्ष के नाते मुझे दायित्व मिला। उस दौरान श्रम संघों की कार्यविधि रणनीति आदि संबंधित अनेक विषयों पर उनसे अनौपचारिक औपचारिक खुली भेंट वार्ताएं होती थीं। दत्तोपंत जी का मार्गदर्शन सदैव ज्ञानवर्धक और उच्चकोटि का होता था। श्रमिक जगत का यह चमत्कार ही माना जाना चाहिए कि शून्य से प्रारंभ कर के भारतीय मजदूर संघ पच्चीस वर्ष की अल्प अवधि में विभिन्न प्रदेश सरकारों (केंद्र की जनता पार्टी सरकार सहित) के अवरोधों के बावजूद देश के समस्त श्रमिक संघों से आगे प्रथम स्थान पर पहँच गया। केवल यही एक हकीकत दत्तोपंत जी को सन 47 उपरांत के युगपुरुष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। दत्तोपंत जी के नेतृत्व का एक यह भी आश्चर्यजनक पहलू है कि जब रा.स्व.संघ से जुड़े अन्य आनुषांगिक संगठनों के साथ अछूत जैसा व्यवहार हो रहा था तब श्रमिक क्षेत्र के संयुक्त मोर्चों में भारतीय मजदूर संघ की सहभागिता का स्वागत हो रहा था।

पाखंड से कोसों दूर : दत्तोपंत जी की सर्व स्वीकार्यता का रहस्य क्या है। सर्वप्रथम वे पूर्णतया निष्कपट और ईमानदार हैं। जो कुछ उनके दिल में होता है वही जुबान पर होता है और उसी का उनके दिमाग में तानाबाना होता है। उनमें ढोंग और कपट लेश मात्र भी नहीं है। दूसरी बात यह कि किसी विषय पर आप उनसे सहमत या असहमत हों उनकी मित्रता पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अतः उन्हें आप कैसी भी रहस्य की बात बता सकते हैं और यह पक्का भरोसा कर सकते हैं कि वह इसे अपने तक ही सीमित रखेंगे। तीसरे वह आदर्श चरित्रवान है। उनका व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक चेहरा दोनों एकरूप हैं। दिखावटीपन नहीं है। उनके उद्देश्य और तौर तरीके, उनके वचन और कर्तृत्व एक समान हैं, निर्मल हैं। चौथे वह सुमेधाशाली, प्रज्ञाशील और अध्ययनशील हैं जो इतिहास को भली-भाँति जानते हैं।

दत्तोपंत जी से मुझे एक ही शिकायत है कि वे राजनीतिक क्षेत्र में क्यों नहीं आए। अगर गंगोत्री प्रदूषित है तो फिर नीचे वाराणसी में गंगा को मैली होने से कैसे बचाया जा सकता है।

(वर्ष 1981 में लिखा गया लेख )


मौन देह त्याग

एक तपस्वी का शांत अवसान

(हिंदी में अनूदित)

एस. गुरुमूर्ति

स्वदेशी जागरण मंच

उन्होंने भारत के सब से बड़े श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ का निर्माण किया। वर्ष 1955 में इस की स्थापना के केवल तीन दशक में यह उस समय के सबसे बड़े संगठन इंटक से आगे निकल गया। वर्ष 1989 में इसकी सदस्य संख्या 31 लाख थी जो सीटू एवं एटक जिनका उस समय श्रम क्षेत्र में एकाधिकार था, की संयुक्त संख्या से अधिक और आज 83 लाख है जो कि अन्य अनेक श्रमिक संगठनों की कुल संख्या से भी अधिक है। निःसंदेह उन्होंने एक शक्तिशाली श्रम संघ का निर्माण किया। फिर भी वे साम्यवादी नहीं थे। उन्होंने वास्तव में साम्यवाद को ललकारा, उनके सुरक्षित दुर्गों को ध्वस्त करते हुए उस पर विजय प्राप्त की।

वे समाजवादी भी नहीं थे किंतु उन्हें भी उन्होंने उनके क्षेत्र में ही परास्त किया। उन्होंने उनके विरुद्ध एक वैचारिक संघर्ष प्रारंभ किया और गुरिल्ला युद्ध नहीं अपितु रणक्षेत्र में सीधे उनके सम्मुख खड़े रहकर उन पर विजय पाई। उन्होंने (मा. ठेंगड़ी जी ने) अपनी शक्ति का उपयोग उस ढंग से भी नहीं किया जैसा कि सामान्यतया श्रमिक संगठन प्रतिदिन 'बंद' आदि आयोजित करके करते हैं। उन्होंने कभी किसी महानगर को बंद द्वारा बंधक नहीं बनाया।

वे ट्रेड यूनियन लीडर थे किंतु अन्य अधिकांश श्रम संघ नेताओं की भाँति 'शहरी' (urbanite) नहीं थे। उन्होंने किसानों का भी भारतीय किसान संघ नाम से बहुत बड़ा संगठन खड़ा किया किंतु वह ग्राम बनाम नगर अथवा कृषि बनाम औद्योगिक व्यक्ति नहीं थे। उनके लिए राष्ट्रवाद आंचलिक हितों और भावनाओं का सर्वसमावेशी केंद्र स्थान था (melting pot of sectional views and interests.) वे वर्ग-संघर्ष में विश्वास और गरीब-अमीर में भेद नहीं करते थे। अपितु राष्ट्रीय सामूहिक हित के पैरोकार थे।

वे राष्ट्रवाद के विचार को वर्ग-घृणा और वर्ग संघर्ष के उन क्षेत्रों तक ले गए जिन पर वर्ग-संघर्ष आधारित विचारों का एकाधिकार था और जहाँ वर्ग समन्वय जैसे विचार को अप्रासंगिक बना दिया गया था। नब्बे के दशक के प्रारंभिक दिनों में जब वैश्वीकीकरण का आह्वान भारत के सम्मुख था तब किन्हीं लोगों ने उसका अंधाधुंध स्वागत तो कुछ ने विरोध किया। तब उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन का पुन:स्मरण करते हुए स्वदेशी का विचार दिया और स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की। इस मंच के माध्यम से उन्होंने स्वदेशी आर्थिक ढाँचे की रूपरेखा प्रस्तुत की। स्वदेशी जागरण मंच वैश्वीकरण के अंधानुकरण के विरुद्ध सशक्त रक्षक के रूप में उभरा और भारतीय आर्थिक विचार दर्शन को जागतिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। उनके द्वारा संस्थापित भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच अपने अपने क्षेत्र में शक्तिशाली हैं। कार्य, गतिविधि और विचार के नाते जाने जाते हैं। किंतु जिसने इन्हें संस्थापित किया, उस संस्थापक को बहुत थोड़े लोग जानते हैं और पूछते हैं वे कौन थे।

दत्तोपंत ठेंगड़ी जिन्होंने लोकप्रिय शक्तिशाली संगठनों का निर्माण किया किंतु वह स्वयं अनजान (unknown) ही रहे। बहुत से लोग उन्हें नहीं जानते। उनका 84 वर्ष की आयु में जब निधन हुआ तब भी उनमें 48 वर्ष आयु के समान ऊर्जा एवं कार्य करने की क्षमता थी। एक ट्रेड यूनियन नेता के रूप में उन्हें असाधारण सफलता मिली किंतु यह उनके सिर पर नहीं चढ़ी और न ही कभी उन्हें थकान महसूस हुई। देने के लिए अब और कुछ शेष नहीं है ऐसा कभी नहीं लगा। उनके पास देने के लिए अभी और बहुत कुछ था (He was more)। वह असाधारण बुद्धिजीवी थे जिनकी इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र व राजनीति पर गहरी पकड़ थी। फिर भी सार्वजनिक तौर पर उन्होंने कभी स्वयं का प्रदर्शन अथवा फोटो उतारने या जनसंचार माध्यमों (Mass media) को साक्षात्कार आदि की अनुमति नहीं दी।

उनका विचार था कि कैमरों के सम्मुख खड़े रहने से बेहतर कार्य राष्ट्रनिर्माण की भूमिका का निर्वहन है। हालाँकि वह राजनीति में भी थे-वे दो अवधियों (Terms) के लिए राज्यसभा के सदस्य थे किंतु इससे उनमें और उनकी स्वयं के विषय की परिभाषा में कहीं कोई अंतर नहीं आया। वह एक ऐसे सक्रिय कार्यकर्ता थे जिन्होंने दस जन्मों में जितना कार्य किया जा सकता है उसे एक ही जीवन में संपन्न कर दिया (what was doable in ten lives he did only in one)| उनकी अति सक्रियता का उनकी चिंतन मननशील प्रतिभा पर किसी प्रकार का कोई हानिकारक प्रभाव नहीं हुआ। ऐसी अति व्यस्त गतिविधियों के मध्य भी वे सोचने, पढ़ने और लिखने के लिए समय निकाल लेते थे। उन्होंने उच्च बौद्धिक स्तर की मौलिक पुस्तकों की रचना की, जिसमें 27 हिंदी, 10 अंग्रेजी तथा 10 मराठी में हैं। इस के अतिरिक्त सैकड़ों लेख एवं प्रस्तुतीकरण जिन्हें अधिकारपूर्वक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रस्तुत किया। मराठी व अंग्रेजी के साथ उन्होंने पाँच और भाषाओं को भी सीखा। लगभग एक सौ संस्थाओं, संगठनों व प्रतिष्ठानों को उन्होंने प्रेरणा प्रदान की, उनका मार्गदर्शन किया तथा उनकी प्रबंध व्यवस्था की। इस सबके बावजूद सैकड़ों हजारों सामान्य कार्यकर्ताओं तक से बातचीत करने के लिए उनके पास समय का कहीं कोई अभाव नहीं था। (He could discover the 25th hour in a day and the thirteenth month in the year.) (वे एक दिन में 25 घंटे और वर्ष में 13 महीने काम करने के लिए संजो लेते थे)।

मानव की शक्ति, क्षमताओं की विदित सीमाओं से भी आगे जा कर वे आश्चर्यजनक रूप से शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक गतिविधियों में अहर्निश तल्लीन रहते थे। उन्होंने उस प्रकार के असंभव कार्य संभव किए जिन्हें करने का पूर्व में कोई प्रयास ही नहीं किया गया था। आखिर उनकी प्रेरणा का स्रोत क्या था। स्रोत था रा.स्व.संघ, जो कि राष्ट्रभक्तों के प्रशिक्षण और देशप्रेम के प्रति प्रतिबद्धता के भाव जगाने का खुला विश्वविद्यालय है किंतु उसी के लिए अपने देश में भ्रम फैलाए गए हैं और उसकी छवि धूमिल करने के प्रयास किए गए हैं। वे बाईस वर्ष की आयु में इसी रा.स्व.संघ के पूरे समय के प्रचारक बने और अंतिम श्वाँस तक उसी नाते कार्य करते रहे। उन्हें किसी पद की कभी कोई लालसा नहीं थी। उन्हें कई पद मिल सकते थे किंतु उन्हें किसी पद के प्रति कोई आकर्षण ही नहीं था। वह दृष्टा थे - संत थे।

उनके पास निजी कुछ भी नहीं था। न स्वयं का घर, न गाड़ी - सैल फोन अथवा ऐसा ही और कुछ भी नहीं। वह दिल्ली में भारतीय मजदूर संघ द्वारा एक छोटे कमरे की व्यवस्था के अंतर्गत तथा अन्य स्थानों पर उपलब्ध व्यवस्था के अनुसार कार्यकर्ताओं के घर पर ही ठहरते थे। उनकी आवश्यकता कुछ कुर्ते और कुछ धोतियाँ बस इतनी ही थी जो कि एक छोटे सूटकेस में समा सके। वे रात्रि बसों से लेकर रेलगाड़ी के द्वितीय श्रेणी के स्लीपर कोच में बिना किसी परेशानी के यात्राएँ करते थे। जीवन में जो लक्ष्य और संकल्प उन्होंने धारण किया था उसके दृष्टिगत वे विवाह बंधन में नहीं बँधे। वे ऋषि थे - तपस्वी थे। अन्य तपस्वियों की भाँति वे भी अल्प ज्ञात (Lime Known) हैं।

राष्ट्रीय समाचार पत्रों जो फिल्मी सितारों की रंगीनियों और उनके दिन रात पर दर्जनों पृष्ठ काले करते रहते हैं उन्होंने उक्त तपस्वी व महान व्यक्ति के महान कार्य पर कभी कुछ नहीं लिखा। कम से कम उनके महान व्यक्तित्व के बारे में ही कभी कुछ लिखते किंतु ऐसा नहीं हुआ। मुझे उन्हें निकट से देखने, जानने, समझने और उनसे सीखने का भरपूर सौभाग्य मिला है और इस आधार पर जिसे मैं जानता हूँ और चाहता हूँ कि दूसरे भी जानें वह यह कि एक तपस्वी ने 14 अक्तूबर 2004 को चुपचाप शांतिपूर्वक देह त्याग किया जिसे मीडिया में उचित प्रचार ही नहीं मिला (a tapasvi died on 14 oct 2004, unnoticed by the media)।

(वर्ष 2004 में लिखा गया लेख - सं)


दत्तोपंत ठेंगड़ी - विशुद्ध हीरा

(हिंदी में अनूदित)

- के. आर. मल्कानी

पूर्व संपादक,

साप्ताहिक आर्गनाईजर, नई दिल्ली

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में एक से बढ़कर एक हीरे मोती हैं किंतु जिसकी चमक कोहिनूर की भाँति प्रखर है उसका नाम है - दत्तोपंत ठेंगड़ी।

मेरा उनसे परिचय जब से मुझे स्मरण है उससे भी पूर्व से है। मैं 1955 में उनके निकट संपर्क में उस समय आया जब हम दोनो संयुक्त रूप से "श्री गुरु जी - दि मैन एंड दि मिशन" पर उस युग पुरुष की पचासवीं जयंती के उपलक्ष्य में कार्य कर रहे थे। अनेक सप्ताह तक एक साथ काम करने का वह अनमोल अनुभव, जब हम छिपी हुई सच्चाईयों का अनावरण और अनेक तथ्यों को उजागर करने के गंभीर प्रयास के दौरान आपस में हल्की फुल्की मनोरंजक गपशप भी कर लेते थे, मेरे लिए एक प्रकार का स्मरणीय पुरस्कार है।

केरल तथा बंगाल प्रान्तों में संघ शाखा कार्य करने के उपरांत दत्तोपंत संगठन कार्य के लिए श्रमिक क्षेत्र में आए। उनके द्वारा संस्थापित भारतीय मजदूर संघ आज देश में सत्ताशासन प्रभावित इंटक के पश्चात दूसरे क्रम का बड़ा राष्ट्रव्यापी श्रमिक संगठन है। भारतीय मजदूर संघ की यह विशेषता है कि वह राष्ट्रहित के भीतर श्रमिक हित को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है किंतु न तो हिंसा और न ही गुण्डागर्दी अथवा गालीगलौज का सहारा लेता है। वह किसी राजनैतिक दल का पिछलग्गू भी नहीं है। यह सब शांतचित्त रहकर कठोर परिश्रम का ही सुपरिणाम है। भारतीय मजदूर संघ की जो उन्नति प्रगति हुई है वह उस क्षेत्र की स्थिति के दृष्टिगत अभूतपूर्व है। स्पष्टतया इसके पीछे एक दार्शनिक और श्रेष्ठ विचारक दत्तोपंत की सतत साधना तथा निष्ठापूर्वक किया गया परिश्रम है।

प्रत्यक्ष रूप में दत्तोपंत की सेवाएं मजदूर क्षेत्र के लिए हैं और उसके लिए वह पूर्णतया सन्नद्ध और समर्पित हैं किंतु उनकी सेवाएँ अन्य अनेक क्षेत्र के लिए भी उपलब्ध हैं। जब भी परिस्थिति की जैसी माँग हुई दत्तोपंत वहाँ उपस्थित मिले। आपात्काल के घनघोर अंधकारयुक्त कालखंड में कदाचित बहुत थोड़े लोगों को ज्ञात होगा कि जब नाना जी देशमुख व रवींद्र वर्मा को गिरफ्तार कर लिया गया तो यह दत्तोपंत ही थे जिन्होंने संघर्ष समिति का कार्य संभाल लिया और भूमिगत रह कर उन काले दिनों में समिति का सफल संचालन किया।

उन दिनों की एक मनोरंजक घटना का मुझे स्मरण है। उस समय जनता पार्टी अभी निर्माण प्रक्रिया में थी। दुविधापूर्ण समय था। जयप्रकाश नारायण जनता पार्टी निर्माण की घोषणा कर चुके थे किंतु पार्टी का विधिवत गठन नहीं हुआ था। इसी मध्य दत्तोपंत ने जे.पी. को पत्र लिखा कि क्या इस प्रकार की घोषणा की जा सकती है कि जे.पी. जनता पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए श्री एस.एम. जोशी के नाम के सुझाव का स्वागत करेंगे। यह बात जब श्री देवीलाल और बी. एल. डी. के. उनके अन्य सहयोगी जो सभी उस समय रोहतक जेल में थे के कानों तक पहुँची तो देवीलाल अत्यंत कोधित हुए। उन्हें लगा कि चौधरी चरण सिंह की उपेक्षा हुई है और उनका नाम दरकिनार किया जा रहा है। उनकी नाराजगी इस बात पर कहीं अधिक थी कि चौधरी साहब के नाम को उपेक्षित करने का काम एक ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जा रहा है जिसका नाम उन्होंने पहले कभी सुना भी नहीं और जिसके उच्चारण तक में उन्हें कठिनाई होती है। इसी उत्तेजना में वह अक्सर पूछते कि आखिर यह दत्तोपंत ठेंगडी है कौन?

अभी कुछ समय पूर्व केरल में वामपंथियों द्वारा जब राष्ट्रीय स्वसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की हत्याओं ने जोर पकड़ लिया तो दत्तोपंत ने पी० राममूर्ति के साथ युद्धविराम का मसौदा तैयार किया। पश्चात राममूर्ति जी ने स्वीकार किया कि उनका उनके कार्यकर्ताओं पर कोई नियंत्रण नहीं है।

मैं समझता हूँ कि मैं किसी गुप्त बात को उजागर करने का विश्वासघात नहीं कर रहा हूँ कि वर्ष 1969 में सभी वामपंथियों समेत विपक्ष ने सर्वसहमति से राज्यसभा के उपाध्यक्ष पद के लिए दत्तोपंत ठेंगड़ी के नाम का प्रस्ताव किया था। यह प्रस्ताव सत्ताधारी दल की इस मानसिकता के कारण अस्वीकृत हो गया कि शासक दल उपाध्यक्ष पद पर विपक्ष से किसी ऐसे लचीले प्रकार के व्यक्ति को चाहता था जो उनके अनुसार चल सके।

साधारणतया किसी भी बड़ी मूवमेंट अथवा बड़े संगठन में जन नेतृत्व, संगठन कार्य, ब्यूह रचना आदि दायित्व भिन्न-भिन्न कार्यकर्ताओं के कंधों पर रहते हैं। किंतु यहाँ दत्तोपंत एक में (आल इन वन) सभी थे। उन में सभी गुणों का अदभुत संगम हुआ है। उनके सर्वश्रेष्ठ गुणों में एक यह है कि वह धरती स्तर के कार्यकर्ताओं के साथ एक साथ चल सकते थे वहीं पर श्रम की गरिमा और मर्यादा को गिराए बिना वह सर ऊँचा रख कर औद्योगिक जगत् की बड़ी बड़ी हस्तियों तथा विश्व स्तर के श्रमिक नेताओं के साथ भी बराबरी पर कदम मिलाकर आसानी और सहजता से चल सकते हैं।

सबसे ऊपर उनका बड़ा गुण उनकी सहजता व अनौपचारिकता है। वह समय और परिस्थिति के अनुरूप वज्र से भी कठोर तो वहीं नवनीत से भी कोमल है।

संस्कृति के विषय में मैथ्यु अर्नाल्ड का कथन है - मिठास और आलोक (Sweetness and light)।

दत्तोपंत में उक्त कथन का मिश्रण भरपूर मात्रा में है। मैंने उन्हें रेल के तृतीय श्रेणी के खचाखच भीड़ भरे कोच और हवाई जहाज की यात्रा एक समान आनंद भाव से करते देखा है। इन दोनों में उनके लिए कोई अंतर नहीं है। इस संदर्भ में उन्हें स्थितप्रज्ञ कह सकते हैं जिन्हें हर्ष और विषाद दोनों एक समान हैं।

दत्तोपंत में, किंतु एक प्यारी सी कमजोरी भी है - उनकी वह कमजोरी है चाय। हेनरी एल्डरिच के अनुप्रास (प्रसिद्ध कविता) में शराब के स्थान पर अगर शब्द चाय रख दें तो ये उसमें फिट बैठते हैं। शायर कहता है "शराब पीने के लिए पाँच वजहें होनी चाहिएँ। अच्छी शराब - अच्छा दोस्त - शुष्कता (उदासी) - एक के बाद एक मनोवेग (गहन भावुकता)-या-या-या फिर और कोई कारण-क्यों ठीक है न।"

मैं एकदम प्रसन्न हूँ किंतु उतना प्रसन्न भी नहीं (I am at once happy and not so happy)।

हम दत्तोपंत की इकसठवीं जयंती (षष्ठिपूर्ति) समारोहपूर्वक मना रहे हैं। इसमें प्रसन्नता का कारण यह है कि एक विशिष्ट जीवन को हम मान्यता प्रदान कर रहे हैं। उतने प्रसन्न नहीं होने (not so happy) का कारण यह है कि अरे ये साठ वर्ष को इतनी जल्दी पार कर गए।

मैं आशा और प्रार्थना करता हूँ कि वे एक सौ एक वर्ष जिएं और अपनी खुशनुमा संगत से अपने संगी साथियों को प्रसन्नता तो वहीं अपने सहयोगियों का अपने ज्ञान से मार्गदर्शन करते रहें।

(मा 0 ठेंगड़ी जी की षष्ठिपूर्ति वर्ष 1981 में लिखा गया लेख )

पारदर्शी श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी

ना. बा. लेले

पत्रकार

दिल्ली

श्री समर्थ रामदास, श्री रामकृष्ण परमहंस, ईसामसीह आदि महापुरुषों के सानिध्य में जो कोई विशेष लोग रहते थे उन भाग्यवान लोगों को ही परम शिष्य, शिष्योत्तम तथा अंतरंग अनुयायी कहा जाता है। विगत 25 वर्षों से मजदूर नेता के रूप में विख्यात मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी भी वैसे ही भाग्यवानों में से एक हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के 33 वर्ष के कर्तृत्व पूर्ण कालखंड में उनके अत्यंत निकटस्थों में थे श्री ठेंगड़ी जी। श्री गुरुजी से जिन्होंने अक्षरशः वरदान पाया है, जिसके सिर पर श्री गुरुजी का वरद हस्त था ऐसे प्रमुख कार्यकर्ताओं में से मा.ठेंगड़ी जी एक हैं। श्री गुरुजी की असीम संस्कारक्षमता में ऐसे असाधारण कार्यकर्ताओं की परंपरा निर्माण हुई है। सद्यस्थिति में समाज ऐसे कार्यकर्ताओं के कर्तृत्व का मूल्यमापन कर रहा है यह शुभ लक्षण ही मानना चाहिए।

मा.ठेंगड़ी जी व पूना से श्री मोहन धारिया दोनों राज्य सभा में इकट्ठे ही प्रविष्ट हुए और दोनों की संसद-निपुणता का परिचय शुरू से ही मिल रहा था। साथ ही दोनों के गंतव्य स्थान अलग हैं इसका भी अनुभव हो रहा था। श्री मोहन धारिया जी का 'सफर' (आपके लिखे हुए ग्रंथ का नाम) उनको ज्ञात है ही। उस विषय में और क्या लिखें? लेकिन खासदार ठेंगड़ी जी के संपर्क में जो-जो व्यक्ति आया उस हरेक ने यह अनुभव किया कि यह व्यक्तित्व कुछ अलग ही है।

दीनदयाल बिरुद संभारी

उस समय मा. दत्तोपंत जी ठेंगड़ी दिल्ली में साउथ एवेन्यू में रहते थे। इससे पहले भी आप कई बार खासदार प्रेमजी भाई आसर के आश्रय से रहे थे। साऊथ एवेन्यू में एक नाई की दुकान है उसमें नट-नटनियों के चित्र नहीं हैं। वहाँ भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद, भू०पू० स्थल सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी, भू०पू० विधि मंत्री श्री अशोक सेन आदि प्रमुख व्यतियों के चित्र लगे हुए हैं और उन्हीं के साथ एक और चित्र है अपने श्री ठेंगड़ी जी का।

दीन दुखियों की सहायता करना दीनदयाल विरुद संभारी यह उक्ति अपने दैनंदिन व्यवहार में सार्थक करने का यह अनुपम व्यवहार मा. ठेंगड़ी जी के साऊथ एवेन्यू निवासकाल में कितने लोग अनुभव कर चुके हैं। उपरिनिर्दिष्ट केशकर्तनालय का मालिक पैगंबर मोहम्मद साहिब का उपासक है। उससे मा. दत्तोपंत जी के विषय में बात की जाए तो उसकी आँखों में कृतज्ञता तथा आत्यन्तिक आनंद से आँसू भर आते हैं। वह अभिमान से मा. ठेंगड़ी जी के संस्मरण बताने लगता है। वह कहता है कि वह फाँसी के फंदे पर चढ़ा दिया गया होता। लेकिन मा. ठेंगड़ी जी की दुआ से बच गया। वह हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करता है "ठेंगड़ी जी को सदा सुखी रखो, चिरायु करो''।

सभी लोगों का आदर स्थान

ऊपर लिखी हुई बात कुछ लोगों को अच्छी नहीं भी लगी हो लेकिन फिर भी यह प्रसंग इसलिए लिखा है कि चाहे ठेंगड़ी जी संसद सदस्य रहे या न रहे उनका स्वभाव या स्थायी भाव का पता चले।

मा. ठेंगड़ी जी के स्थायी भाव का आधार है उनकी अकृत्रिम आत्मीयता। इसी कारण केवल किताबों में पढ़कर (हाऊ टू विन फ्रेंडस) आपको व्यवहार नहीं करना पड़ता। आपके अकृत्रिम आत्मीयतापूर्ण व्यवहार के कारण आप सदा ही सुहृदों से घिरे रहते हैं। इस स्वभाव के कारण आपको कई कष्ट उठाने पड़े हैं। साऊथ एवेन्यू में आपका निवास स्थान पूर्णतया मेहमानों से भरे रहने के कारण कई बार आप अपने ही निवास के किसी कोने में या बाहर लॉन में बिना कुछ ओढ़े हुए सोते देखे गए हैं। तेज बुखार में भी लेटे-लेटे आपका सभी से मिलना-जुलना चलता रहता है। मिलने वालों को चाय नाश्ता भी कराया जाता है। आखिर कभी-कभी मेरे जैसे को विधि-निषेध एक तरफ रखकर मा. दत्तोपंत जी की नाराजगी को भी नजर अन्दाज करके यह बीमारी में मिलना-जुलना, चाय-नाश्ता जबरदस्ती बंद करना पड़ता था। फिर भी स्वयं के वहाँ से 'ते ही यह सारा उद्योग फिर शुरू हो जाता था। उनका स्थायी-भाव दिखाई देता और अपनी हार। अनुभव होता है यह असाधारण व्यक्तित्व है। ऐसे अंदर बाहर से स्वच्छ अकृत्रिम "पारदर्शक" सहज व्यवहार के कारण राजकीय मतभेद, पक्षभेद आदि दीवारें लाँघकर सभी पक्षों के, सभी मतों के तथा सभी स्तरों के व्यक्ति आपके स्नेही तथा सहकारी भी हैं। चाहे वे डॉ. वी.वी. गिरि हों, श्री बी.डी.जती हों या इंदिरा कांग्रेस के श्री गुलाबराव पाटिल हों। सभी नामों का उल्लेख करना हो तो सहस्त्रनामावलि लिखी जाएगी।

रशिया प्रवास

उपराष्ट्रपति श्री गिरि के उल्लेख में एक बात याद आई। 1968 में एक संसदीय प्रतिनिधि मंडल रशिया भेजना था। उपराष्ट्रपति श्री गिरि ने राज्य सभा अध्यक्ष के नाते सांसद श्री ठेंगड़ी जी से कहा कि आप वहाँ अवश्य जाएंगे और वहाँ की परिस्थिति का अध्ययन करके उसकी सम्यक जानकारी मुझे देंगे।

क्योंकि इसके कुछ ही दिनों बाद श्री गिरि स्वयं रशिया जाने वाले थे। संसदीय प्रतिनिधि मंडल में दूसरे अनेक सदस्य होते हुए भी उपराष्ट्रपति ने मा. ठेंगडी जी से ही रशिया जाने का आग्रह किया क्योंकि श्री गिरि मजदूर नेता थे श्री ठेंगड़ी भी मजदूर नेता हैं। श्री गिरि को विश्वास था कि श्री ठेंगडी जो परिस्थिति अवलोकन करके मुझसे विचार करेंगे वही श्री गिरि को उपयुक्त रहेगा। इससे पता चलता है कि मा. ठेंगड़ी जी ने कैसे-कैसे लोगों का विश्वास संपादन किया है। मा.ठेंगड़ी जी के इस रशिया प्रवास के दौरान इस संसदीय प्रतिनिधि मंडल में प्रकांड पंडित कम्यूनिस्ट नेता श्री हिरेन मुखर्जी भी साथ थे। इस यात्रा में दोनों की अच्छी दोस्ती हो गई। दोनों ही संस्कृत तथा अंग्रेजी साहित्य भक्त और दोनों के स्वभाव में समान ऋजुता।

मार्क्सवाद प्रत्यक्ष देखा

रशिया प्रवास के बाद "जनता राज्य" में उस समय के केंद्रीय श्रम मंत्री श्री रवींद्र वर्मा जी के आग्रह से श्री ठेंगड़ी अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) की बैठक में भारत के प्रतिनिधि के रूप में ठोस कार्य करके आए हैं। इस समय आप सांसद नहीं थे लेकिन विधायक विचार करने वाले मजदूर नेता होने से आप जिनेवा में हुए इस महत्वपूर्ण सम्मेलन में सम्मिलित हो सके। पहले रशिया प्रवास से भी अब के इस विदेश यात्रा से ठेंगड़ी जी की भाव-निधि में वृद्धि हुई। विशेषतः कम्युनिस्ट रशिया के साथ अलगाव रखने वाले पूर्वी योरोप के मार्क्सवादियों के मर्मस्थान पर अंगुली निर्देश करके आपने सहकारियों को भी चकित किया। सांसद के नाते आपने राज्यसभा में कितने प्रश्न पूछे या कितने भाषण दिए इससे भी अधिक महत्व इस बात का है कि आपने अपने अंगीकृत कार्य के लिए अपनी अनुभव निधि को कितना समृद्ध किया।

कांग्रेस पक्ष के वरिष्ठ सदस्य श्री जयसुखलाल हाथी जब केंद्रीय श्रम मंत्री थे तब वे श्री ठेंगड़ी जी से अनोपचारिक रीति से औद्योगिक, संबन्धों के बारे में विचार-विमर्श करते थे। अपने निवास स्थान पर श्री ठेंगड़ी जी को बुलाकर घंटों तक बातचीत करके विचारों का आदान-प्रदान होता था।

इन सब बातों से आपके व्यवहार का जो एक दृढ़ सूत्र है उसकी झलक पाठक वर्ग को विशेषतः आपके चाहने वाले तथा समर्थकों को ज्ञात हो इसी उद्देश्य से यह लेख है।

स्थितप्रज्ञ श्री दत्तोपंत जी

मा. दत्तोपंत जी के जीवन का अर्द्ध शतक ऐसे विविध अनुभवों से समृद्ध है। आज की परिस्थिति में इतना कह सकते हैं कि अतिशय व अमर्याद परिश्रमों का परिपाक है मा.ठेंगडी जी। सतत संघमय मजदूर संगठन ऐसा समीकरण जब दृढ़ था तब अपने अविश्रांत परिश्रम व प्रमिभा से मजदूर संघठन को विधायक रूप देकर मजबूत नींव डालते समय भी ठेंगड़ी जी को विरोधियों से शारीरिक आघात भी सहने पड़े हैं। मा. ठेंगड़ी जी ने यह बात शायद किसी से न कही हो। ये विरोधक पूँजीपति नहीं थे, तो भारतीय मजदूर संघ की सफलता से जिनके पैरों के नीचे से धरती खिसक गई थी ऐसे मजदूर नेता थे।

देर रात तक मा. ठेंगड़ी जी कार्यवृद्धि के लिए घूमते रहते हैं। कुछ वर्ष पूर्व उनका पीछा करके अंधेरी रात में नागपुर की गलियों में उनपर हमला किया गया। लोहे की सलाख से आपकी गरदन पर, कंधे पर चोटें आई। हम सबके भाग्य से ही मा. ठेंगड़ी जी उस दिन बच गए।

एक समय के उनके सहाध्यायी, बाद में जो आपके पालक भी (आज दिवंगत) ऐसे व्यक्ति से विश्वसनीय रूप से पता चला इस घटना का। उल्लेख इसलिए किया है कि यह भी एक ईश्वरीय योजना थी ऐसा सोचकर माननीय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी आध्यात्मिक दृष्टि से इस घटना को भूल गए होंगे लेकिन उनके सहकारी तथा समर्थक इस घटना से बोध ले सकते हैं।

श्री दत्तोपंत जी के मन का संतुलन कभी भी बिगड़ता नहीं है। आप अनन्य साधारण हैं। स्थितप्रज्ञ हैं।


बापूसाब , समय की क्या कमी है

चं. प. उपाख्य बापूसाहेब भिशीकर

पूर्व संपादक पुणे तरुण भारत, पुणे

1962-63 की बात है। पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय विचारदर्शन, दो खंडों में प्रकाशित करने का प्रकल्प कै.राजाभाऊ नेने जी के संयोजकत्व में प्रारंभ हुआ था। पंडित दीनदयाल जी के राष्ट्रवाद विषयक विचार' प्रस्तुत करने का दायित्व, राजाभाऊ नेने जी ने मुझ पर सौंपा था। इस प्रकल्प का मार्गदर्शन मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी द्वारा हुआ था।

लगभग 200 पृष्ठ मैंने लिखकर पूरे किए थे। संयोगवश ठेंगड़ी जी पूना में आए। हमेशा जैसा उनका निवास श्री विनायकराव जी साठे के घर पर था। मैं उनसे मिलने गया और, "इस विषय पर मेरा लेख आप देख लेंगे तो बहुत अच्छा होगा, ऐसा कहा। यह आपको ठीक लगने पर ही आगे का विचार करना उचित होगा, ऐसा मुझे लगता है। इस काम के लिए अब की बार आप समय दे सकेंगे क्या? क्योंकि इसके लिए अधिक समय लग सकता है।"

मा. दत्तोपंत जी ने जवाब दिया - "बापूसाब, समय की कहाँ कमी है? दिनभर की दौड़धूप और कामधाम के बाद, रात अपनी ही है। आज ही रात को 11 बजे आप आइये और इस विषय का निपटारा हो जाएगा।"

मैं इस सुअवसर का लाभ उठाने हेतु श्री विनायकराव जी साठे के निवास पर रात्रि ठीक 11 बजे पहुँच गया। दत्तोपंत जी बाट जोह रहे थे। साठे भाभीजी भी प्रतीक्षा कर रही थीं। एक एक प्याली चाय के बाद मैंने अपना लिखा हुआ, पढ़ने को शुरुआत की। दत्तोपंत जी सतर्कता से सुनते हुए कुछ दुरुस्तियाँ, थोड़ा बदलाव सुझाते चले। दोनों का ध्यान घड़ी की ओर नहीं था। किंतु इसे पढ़ने के दरम्यान झपकी तक नहीं आयी। आखिरी पन्ना पढ़कर समाप्त हुआ और घड़ी में भोर के पाँच बजे थे। मा. ठेंगडी जी के चेहरे पर प्रसन्नता की मुस्कान थी।

दिनभर अनेक कामों की - विषयों की व्यस्तता के बाद, सारी रात ऐसे गंभीर विषय के लिए बिताना और विषयों को उचित न्याय देना कितना दुःसह, और सब होने के बाद अपनी दिल की प्रसन्नता कायम रखना, ये उससे भी दुष्कर कर्म।

"बापूसाहेब, समय की क्या कमी है"? इसका सही मतलब उस समय मेरे दिमाग में हमेशा के लिए अंकित हुआ।

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी

भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक

एक चुंबकीय व्यक्तित्व

रामनरेश सिंह

उपाख्य बड़े भाई

पूर्व महामंत्री

भारतीय मजदूर संघ

(बड़े भाई जी द्वारा वर्ष 1980 में लिखा गया लेख - )

भारतीय मजदूर संघ के रजत जयन्ती के पूरा होने के उपरांत उसके संस्थापक श्री दत्तोपंत बापुराव ठेंगड़ी के जीवन का 60 वर्ष भी पूर्ण होने जा रहा है। उनका जन्म दीपावली सन 1920 को हुआ है।

इस अवसर पर उनके कुछ विचार एवं उनके सान्निध्य के कुछ प्रेरक प्रसंग यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

आज की राजनीतिक कोलाहल में लोग जब वोट, मतदाता, वातावरण अनुकूल बनाना, चुनकर आना तथा सरकार बनाना ही देश व देशभक्ति का वास्तविक कार्य समझ बैठे हैं, उस समय राष्ट्र निर्माण करने, राष्ट्र निर्माता तैयार करने तथा मतदाता बनाने के अंतर को जितनी खूबी के साथ श्री दत्तोपंत बताते हैं, बिरले लोग ही इस ओर दिशा निर्देश करने में सक्षम हैं।

'समग्र क्रांति' का नारा हो अथवा 'भारतीय' शब्द के प्रयोग द्वारा उदार बनकर लोकप्रिय बनने की लालसा हो, 'हिंदुत्व', 'हिंदुराष्ट्र', तथा 'हिंदू' शब्द के साथ किंचित भी समझौता न करने वालों में श्री ठेंगड़ी जी सर्वोपरि नेता हैं।

आज राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने वाले अपने कुछ मित्र जब सिद्धान्तों की उपेक्षा करके मात्र जन समर्थन प्राप्त करने हेतु तथाकथित व्यवहार व व्यवहारवाद की बात करते हैं, तो ऐसी बातों से मर्माहत हो उठनेवाले श्री ठेंगड़ी जी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि इस प्रकार से लोगों को भले ही कुछ वोट व सीट मिल जाय, पर देश व समाज को आगे ले जाने वाला वह मार्ग कदापि नहीं है।

सामाजिक व राष्ट्र निर्माण के कार्य में उनका स्पष्ट कहना है कि 'Short cut will cut you short' (छोटा मार्ग, आपको छोटा बना देगा।)

श्री ठेंगड़ी जी का स्पष्ट मत है कि किसी भी जन संगठन, वर्ग संगठन अथवा व्यवसाय संगठन आदि को राजनीतिक दल का अंग नहीं बनना चाहिए। राजनीति सर्वग्रासी है, सर्व सत्ताधारी है, वह निरंकुश व उन्मत होकर समाज व देश को चाहे जब उत्पीड़ित कर सकती है, ऐसी अवस्था में ये ही संगठन उस पर अंकुश लगाकर देश को उत्पीड़न से बचा सकते हैं।

श्री ठेंगड़ी जी निरंतर 25 वर्षों से पूरे देश का भ्रमण कर रहे हैं। इस भ्रमण मंथन में किसी के साथ परिचय हुआ है या उनके घर जाने व ठहरने का अवसर मिला है तो दुबारा उस नगर में जाने पर उनके घर जाने का एक कार्यक्रम अवश्य रखना चाहते हैं। आपात्स्थिति के समय के तो ऐसे सैकड़ों परिवार हैं, जिन्होंने सब प्रकार का खतरा उठाकर उन्हें ठहरने व छिपने का स्थान दिए हैं। अब तो ऐसे परिवार में जाने का उनका एक निश्चित कार्यक्रम सा बन चुका है। इस प्रकार का पारिवारिक व्यवहार ही संगठन का मूलमंत्र है।

विनम्रता की कोई मिसाल नहीं, वहीं ध्येयवादिता की कोई तुलना नहीं। जनता पार्टी की प्रथम कार्यसमिति में इनका नाम डाला गया। राजनीतिक दल का पदाधिकारी अथवा उसमें महत्वपूर्ण स्थान रखकर भारतीय मजदूर संघ को गैर राजनीतिक संगठन रखना मुश्किल समझकर उससे हट गए। लोकसभा व राज्यसभा के लिए क्रमशः टिकट देने की पेशकश की गयी। उन्होंने राजनीतिक दल की ओर से प्रत्याशी बनने से साफ इंकार किया।

देश के किसी कोने में कहीं जाओ, बड़ा हो, छोटा हो, पार्टी के हों, श्रम संगठन के हों, आफिसर व मिनिस्टर हों, प्रसंग उपस्थित होने पर लोग श्री ठेंगड़ी जी के ही बारे में पूछते हैं।

सारे समाज को बांधकर रखनेवाला मन व हृदय दोनों उनके पास हैं। चाहे किसी भी विचारधारा के लोग क्यों न हों, श्री ठेंगड़ी जी के आत्मीय व्यवहार से सभी उनके मित्र हैं।

कुछ दिनों पूर्व सीटू के महामंत्री श्री पी.राममूर्ति ने अपनी आयु के 75 वर्ष पूरे किए। 76वे जन्म दिवस के उपलक्ष्य में उन्होंने दिल्ली स्थित् अपने घर पर मार्क्सवादी पार्टी के 3 दिग्गजों सर्वश्री सुंदरैय्या, रणदिवे तथा नम्बूदरीपाद को भोजन पर बुलाया, इनके साथ चौथे कोई व्यक्ति आमंत्रित थे, तो वे श्री ठेंगड़ी जी ही थे।

आज तो भारतीय मजदूर संघ कुछ बड़ा हो गया है। उसके कार्यकर्ताओं को ठौर मिलने लगी है, किंतु श्री ठेंगड़ी जी इसके अपवाद रहे हैं। बंगाल जैसे प्रदेश में सोशलिस्ट संसद सदस्य श्री डी.एल.सेनगुप्त इन्हें वर्ष 1964 से ही अपने घर पर ठहराते और पूरी चिंता करते हैं।

आपात्स्थिति में इन्हें संघर्ष समिति के संयोजक का दायित्व दिया गया। इन्हें 'रा' व सी.बी.आई. आदि की आंखों से केवल बचना ही नहीं था, अपितु घुटन भरे वातावरण में देशवासियों के साहस व हिम्मत को भी बरकरार रखना था। संघर्ष समिति की प्रत्येक बैठक में देश की अद्यतन स्थिति की जानकारी देने हेतु उस समय के मुख्यमंत्रीगण शेख अब्दुल्ला, करूणानिधि, बाबूभाई पटेल तथा सर्वोदय, अकाली दल, श्रम संगठन व राजनीतिक दल (मार्क्सवादी पार्टी सहित) तथा अन्य सामाजिक संगठनों के प्रमुख नेताओं से बराबर मिलते रहना एवं व्यूह रचना में उन्हें सम्मिलित कराने हेतु प्रयास भी करते रहना था।

श्री ठेंगड़ी जी की दृढ़ता व कट्टरता की जानकारी तो बंबई में आयोजित भारतीय मजदूर संघ की आपातस्थिति में वर्ष 76 की दिसंबर में अखिल भारतीय कार्यसमिति की बैठक में व्यक्त विचारों से किसी को भी हो सकती है। उस समय अनेक गणमान्य नेता इतनी लंबी घुटन की अवधि से ऊव कर इंदिरा जी से कुछ न कुछ समझौते तथा आश्वासन देकर मार्ग निकालने की मनस्थिति में आ गए थे, यहीं इनका स्पष्ट कहना था कि हम झुककर कुछ भी करने के लिए तैयार नहीं हैं। हम अपने देशवासियों को चाहे वे किसान, मजदूर, व्यापारी अथवा छात्र हों, इस सरकार का सब प्रकार से बहिष्कार करने का आंदोलन चलाने हेतु तैयार करेंगे। गुलामी से मुक्ति के लिए टैक्स, स्कूल, दूकान, फैक्ट्री व रेल तक के बहिष्कार का कदम भी उठाने की दिशा में प्रयास किया जाएगा।

श्री ठेंगड़ी जी के पास वह कौन सा चुंबक है, जिसमें सभी खींचे चले आते हैं - निश्चय ही वह उनका निश्छल, निस्वार्थ, आत्मीय तथा परिवारतुल्य व्यवहार ही तो है।

देश के जाने माने सोशलिस्ट मजदूर नेता श्री मकबूल साहब जब भी दिल्ली जाते बिना श्री ठेंगड़ी जी से मिले, वापस कानपुर न आते। वे कहते, 'ऐसा आला इंसान, काबिलियत में जिसका कोई सानी नहीं, अपनेपन में तो मुझे खरीद लिया है।"

डॉ. लोहिया के निर्देश पर बस्ती जिले में केरल से आयी हुई दोनों अम्माल बहनों (इस समय तो दोनों कांग्रेस (आई) की विधायिका हैं) से गोरखपुर जाते समय स्टेशन पर श्री दत्तोपंत से परिचय हुआ। वे आज 15 वर्षों से भाई बहन का रिश्ता निभाती चली आ रही हैं। केवल हालवाल ही नहीं, सौगात भी भेजती हैं।

साउथ एवेन्यू के टैक्सीवाले तो आज इतने वर्षों बाद जब श्री ठेंगड़ी जी संसद सदस्य 1976 से ही नहीं है, तो भी उनके नाम पर कहीं पर भी जाने के लिए हर समय तैयार रहते हैं।

कैंटीन वाले 'हरी' का तो क्या कहना? दस भोजन करो, 20 खाओ, श्री ठेंगड़ी जी के नाम पर बंद मुट्ठी ही वह तिजोरी में डालेगा। हमारे जैसे लोगों के लिए तो वह मुसीबत बना है - अधिक देने के लिए पैसे नहीं, कम पैसा देने का संस्कार नहीं तथा हरी बताने के लिए तैयार नहीं।

साउथ एवेन्यू के बशीर नाई की दुकान पर उत्तर प्रदेश के सोशलिस्ट पार्टी के संसद सदस्य चौधरी साहब (अब दिवंगत हो चुके हैं) दाढ़ी बनवाने जाते हैं, वहाँ उसकी दुकान में जहाँ मसजिद आदि के चित्र टंगे हैं, वहीं श्री ठेंगड़ी जी का फोटो टंगा देखकर वे आग बबूला हो उठते हैं और कहते हैं कि "जानते हो, ये कौन हैं? आर.एस.एस. वाले हैं, तुम लोगों ............ हैं!" वह नाई उनकी दाढ़ी बनाने से सदैव के लिए इंकार कर देता है, और कहता है कि "आपने हमारे ....... को गाली दी है, मैं माफ नहीं कर सकता।"

आज वे गरीबों व मजदूरों के सच्चे हमदर्द के साथ केवल देश के ही नहीं, अपितु विदेश में भी प्रमुख अर्थशास्त्री तथा मजदूर आंदोलन के एक विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते हैं।


माननीय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी की कार्यपद्धति एवं कुछ संस्मरण

गोविंद राव आठवले

अधिवक्ता एवं पूर्व राष्ट्रीय मंत्री,

भा.म.संघ, नागपुर

मा. दत्तोपंत ठेंगडीजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे। सन 1942 से संघ के प्रचारक थे। परम पूजनीय डॉ. हेडगेवार जी ने हिंदू राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए रा.स्व.संघ की स्थापना की तथा यही ध्येय मा. दत्तोपंतजी सहित हजारों स्वयंसेवकों को जीवन समर्पण करने की प्रेरणा देनेवाला था। संघ की ध्येयपूर्ति हेतु डाक्टरजी ने दिखने में अत्यंत सादा-छोटा सा किंतु अति प्रभावी सिद्ध हुआ दैनंदिन शाखा का तंत्र खोज कर विकसित किया। शाखा के माध्यम से, ध्येय के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं को निर्मित करने वाली एक पद्धति/रीति उन्होंने विकसित की। इसी आदर्श को अपने सम्मुख रखकर कालांतर में संघ प्रेरणा से जो विविध प्रकार के कार्य देश में प्रारंभ हुए उन सबकी कार्यपद्धति लगभग इसी पद्धति से मेल रखनेवाली हो इसका ध्यान रखकर बनाई गई परंतु प्रत्येक कार्य का अपना एक स्वभाव रहता है। यानी राजनीति क्षेत्र, शिक्षा क्षेत्र, मजदूर क्षेत्र, वनवासी क्षेत्र, औद्योगिक तथा व्यावसायिक ऐसे अनेकों क्षेत्रों के कार्यों के लिए आवश्यक गुणों से परिपूर्ण कार्यकर्ता के गठन हेतु संघ कार्यपद्धति का आधार लेकर किंतु उसमें आवश्यक उतना परिवर्तन कर मा. दत्तोपंत, मा. दीनदयाल जी आदि प्रमुखों ने अपनी अपनी कार्यपद्धति को सुनिश्चित किया। इस दृष्टि से भा.म.संघ के लिए आवश्यक ऐसा नेतृत्व तथा कार्यकर्ता-गण गठित करने हेतु मा. दत्तोपंत ने भी कार्य की विशिष्ट शैली को तैयार किया। इसी का आकलन करने का यह छोटा सा प्रयत्न है।

हिंदू-सांस्कृतिक अस्मिता जाग्रत कर राष्ट्र पुनर्निमाण करने के कार्य के अंगभूत संगठन के माध्यम से देश की आर्थिक, औद्योगिक एवं मजदूर क्षेत्र की पुनर्रचना करना तथा उसे राष्ट्र विघातक तत्वों और शक्तियों का ध्वंस कर सुरक्षा प्रदान करना ऐसे द्विविध ध्येय की पूर्ति हेतु भा.म.सं. की स्थापना की गई थी। उसके अनुरूप नए नए सिद्धांत-जैसे Nationalise the Labour; From Slavery to ownership इत्यादि मा. दत्तोपंतजी ने आग्रहपूर्वक प्रतिपादित किए यह सर्वविदित है। इस ध्येय की सफलता हेतु कार्यकर्ताओं का गठन करना, उनको गढ़ना, यह उनके कार्यपद्धति की विशेषता थी। इसी को थोड़े में अब देखें -

एक संस्मरण

1. भारतीय रेलवे मजदूर संघ का प्रथम अधिवेशन मुलुंड में हुआ। संगठन का मुख्यालय किस स्थान पर रहे इस पर करीब पाँच घंटे चर्चा चली। अंत में मुंबई में ही मुख्यालय रहे यह निर्णय एकमत से लिया गया। (मैं उसमें उपस्थित था, 1965 में) यह निर्णय अर्थात सर्वसम्मति से लिया गया था। मा. ठेंगड़ी जी यह चाहते थे किंतु उन्होंने अपना मत कार्यकर्ताओं पर थोपा नहीं।

2. सन 1964 के अक्टूबर मास में विभिन्न प्रांतो के प्रांत स्तरीय कार्यकर्ताओं की प्रथम बैठक नागपुर के सीताबर्डी स्थित बलदेव धर्मशाला में आयोजित की थी। इस बैठक की विषयपत्रिका आमंत्रित कार्यकर्ताओं को भेजी नहीं गई थी। शायद ऐसी ही योजना मा. दत्तोपंत जी के मन में होगी। इस बैठक में देशांतर्गत मजदूर आंदोलनों का समग्र इतिहास (स्व. लाला लाजपतरायजी की ए.आय.टी.यू.सी. की स्थापना से देश के साम्यवादी, समाजवादी, कांग्रेसप्रणित आय.एन.टी.यू.सी. हिंदू मजदूर पंचायत, हिंद मजदूर सभा, इत्यादि) दर्शाया एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित राजनीतिक पक्षों से स्वतंत्र, देशभक्त प्रेरित भारतीय मजदूर संघ की आवश्यकता को स्पष्ट किया गया। इस बैठक को बहुत महत्वपूर्ण माना गया। इस बैठक में मेरे स्मरण के अनुसार निम्न कार्यकर्ता उपस्थित थे -

मा. दादासाहेब कांबले, भाऊसाहेब वैद्य, दादा मुखर्जी, राशबिहारी मैत्र, रामनरेश सिंह, गुजरात के एक कार्यकर्ता, मुंबई के सर्वश्री किशोर देशपांडे, बालासाहेब साठ्ये, रमणभाई शहा, डॉ. किनरे, जी प्रभाकर, पंजाब के प्रो. सुखनंदन सिंह, नागपुर के वामनराव पत्तरकिने, वसंतराव देवपुजारी, आठवले, कवीश्वर पुराणिक, चांद्रायण इत्यादि साधारणतः 30-35 कार्यकर्ता बैठक में थे। सन 1955 से 1964 तक के दीर्घ कालावधि में मा. दत्तोपंत जी ने अथक परिश्रम कर अनेक प्रांतों में भा. म.संघ की शाखाएं स्थापित की थी किंतु भा.म.संघ को अ.भा.स्वरूप (अध्यक्ष, महामंत्री, कार्यकारिणी) ऐसा नहीं दिया गया था। प्रत्यक्ष व्यक्तिगत परिचय में से मा. दत्तोपंत जी ने भा.म.संघ के कार्य हेतु सुयोग्य ऐसे प्रमुख कार्यकर्ताओं को ही इस बैठक में आमंत्रित किया था। इस बैठक में उपस्थित सभी के आत्मविश्वास में प्रचंड वृद्धि हुई यह बात अनुभवसिद्ध है।

महत्त्व का संस्मरण

बैठक के प्रथम सत्र में डॉ. कामदारजी के घर में परिचय तथा चायपान का कार्यक्रम हुआ। मा. भैय्याजी दाणी की प्रमुख उपस्थिति थी। अत्यंत मेलजोल व हास्यविनोदपूर्ण वातावरण में यह बैठक संपन्न हुई थी।

परिवर्ती (आगे के) दो दिनों में जो उद्बोधन हुआ उसका उल्लेख ऊपर स्पष्ट किया गया है। समारोप कार्यक्रम सीताबर्डी के एक सभागृह में संपन्न हुआ। इस में मा. दादासाहेब कांबले अध्यक्ष थे तथा प्रमुख मार्गदर्शक मा. बालासाहब देवरस थे। अध्यक्षीय भाषण में मा. कांबलेजी ने कहा-अपने देश के राष्ट्रभक्तों के भा.म.संघ की यह अ.भा.स्तर की प्रथम बैठक है। इस प्रकार का मजदूर संगठन स्थापित करने का अलौकिक कार्य मा. दत्तोपंतजी ने किया हैं। यह समय की आवश्यकता है। मा. दत्तोपंत मजदूरों के मसीहा ही है। He is the First Man to explode the theory of communism which is totally antinational and we must throw it out lock, stock and barrel from the workers' field of our country. (वे प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने साम्यवादी सिद्धांत का खंडन किया जो पूर्णतया राष्ट्र विरोधी है। अतः श्रमिक क्षेत्र से इसे जड़ मूल से उखाड़ फेकना चाहिए) साम्यवाद का-मार्क्सवाद, का खोखलापन और राष्ट्रविघातक तत्वों का पर्दाफाश करने वाले विश्व के वे प्रथम तत्वज्ञ है। उनके नेतृत्व में भा.म.संघ के माध्यम से यह जहर देश में से मूलतः नष्ट करके राष्ट्रोत्थान का ऐतिहासिक कार्य हमें करना है।

मा. बालासाहेब देवरस जी ने कहा - राष्ट्रभक्ति की नींव पर गठित भा.म.संघ यह एक मजदूर संगठन स्थापित किया जाना ऐतिहासिक कार्य है। यह समय की मांग थी। भा.म.संघ ने तीन महत्वपूर्ण पथ्यों का पालन करना चाहिए।

1. संगठन आत्मर्निभर यानी आर्थिकदृष्टया स्वावलंबी रहना चाहिए। जिस उद्योग में संगठन/यूनियन होगा उसके मालिक से धन कभी भी न लिया जाए।

2. संगठन राजनीतिक पक्ष से स्वतंत्र रहे।

3. संगठन किसी भी 'वाद' से स्वतंत्र रहे। संगठन की कार्यप्रणाली ही संगठन के लिए आवश्यक कार्यकर्ता गढ़नेवाली होनी चाहिए।

मा. दत्तोपंतजी का निर्धारण बैठक के बाद बैठक के लिए कितना रुपया खर्च हुआ यह उन्होंने पूछा और कहा कि मुझे संसद सदस्य के नाते मिलने वाला मानधन मैं भा.म.संघ के लिए खर्च करूँगा (निःस्वार्थता का आदर्श)। यह बात अलग है कि नागपुर के कार्यकर्ताओं ने बैठक हेतु निधि संकलन कर व्यवस्था की थी इसलिए मा. दत्तोपंत जी से कुछ भी रकम नहीं ली गई। इस बैठक का व्यवस्थापक मैं ही था। मेरे पास लिखित जानकारी तथा कुछ स्मरण में से यह लिखा गया है।

अपने देश के राष्ट्रवादी मजदूरों की अर्थात भा.म.संघ के अ.भा.स्तर की यह प्रथम बैठक है। जो विविध कार्य मजदूर संघ को करना है, उसका पहला कार्य यानी राष्ट्रविघातक तत्वों को मजदूर क्षेत्र से हटाना यह राष्ट्रभक्त मजदूरों एक हो-इस घोषणा से उन्होंने आरंभ कर दिया। हमने अनुभव किया इस घोषणा मात्र से ही साम्यवादी विचारों से चलने वाले संगठन अलग-थलग पड़ गए। आगे चलकर कार्य का जैसा विस्तार हुआ अनेक शासकीय समितियों पर कार्यकर्ता नियुक्त होते गए, तो उनके लिए यह नियम बना दिया की समिति की बैठकों में उपस्थित रहने पर जो मानधन मिलता होगा उससे आवश्यक खर्च कर बची हुई राशि भा.म.संघ कोष में जमा करनी चाहिए। मा. स्व. बड़ेभाई इसके आदर्श थे। यह नियम स्व. घाटेजी, मा. अग्गी जी कठोरता से अमल में लाए।

परिपक्व कार्यकर्ताओं का समूह : (Master Mind Group) यह प्रत्येक प्रांत तथा जिला स्तरीय भा.म.संघ की शाखा में रहना चाहिए। इसमें चरित्र संपन्न कार्यकर्ता, विधिज्ञ, तत्वज्ञ, तंत्रज्ञ, संगठनकुशल तथा दूरदृष्टिवाले कार्यकर्ता रहें। केंद्रीय स्तर पर मा. दत्तोपंतजी ने सन 1967 से संचालन समिति स्थापित की थी उसमें क्षेत्रीय प्रभारी का भी आगे चलकर समावेश किया गया था।

संवाद दुतरफा होः यानी Two way communication रहे। संगठन का नेतृत्व और संगठन का सामान्य कार्यकर्ता इन दोनों में दुतरफा संवाद होना यह संगठन के प्रगति के लिए महत्वपूर्ण ऐसी योजना रखी गई थी।

अनौपचारिक मिलनः नगर, महानगर तथा प्रांतीय स्तर की विभिन्न युनियनों में जो पदाधिकारी होंगे उनके अनौपचारिक मिलन (without agenda यह मा. दत्तोपंत जी के शब्द हैं) के कार्यक्रम हों। दो-तीन दिन तक कार्यकर्ता एक साथ रहें, आपस में देश की परिस्थिति, मजदूर क्षेत्र इत्यादि विषयों पर चर्चा होवे क्योंकि इसी में से कार्यकर्ताओं का मनोमिलन होगा तथा फलस्वरूप संगठित शक्ति दृढ़ होगी। ऐसी कतिपय बैठकें नागपुर में होती थीं। नागपुर के कार्यकर्ताओं के इस प्रकार मिलन का सूत्रपात आठवलेजी ने किया, जिसको मा. ठेंगडी ने केंद्रीय कार्यसमिति द्वारा अन्य स्थानों पर शुरू करवाया।

इस संबंध में मा.ठेंगडीजी द्वारा लिखित Your Office इस छोटी सी पुस्तिका में भा.म.संघ कार्यकर्ता ने समाज के विभिन्न क्षेत्र के प्रमुखों, पत्रकारों, पुलिस प्रमुखों, राजनीतिक दलों के नेता, दलित नेताओं, विश्वकर्मा समाज के प्रमुखों तथा अन्य ट्रेड यूनियनों के नेताओं से संबंध रखने का सुझाव दिया है। कई बार व्यवस्थापन में (मैनेजमेंट में) अपने ही विचारों के पदाधिकारी रहते थे किंतु इस प्रकार की नीति अपनाने के कारण जब भा.म.संघ की यूनियनों के आंदोलन होते थे, तो समस्या सुलझाने में आसानी होती थी।

एक संस्मरणः सन 1972 में तीन दिनों के लिए होने वाली बैठक में महाराष्ट्र प्रांत के करीब 30-35 कार्यकर्ता 'पाचगनी' में निमंत्रित थे। प्रमुखतः मा. मोहनराव गवंडी, बालासाहेब साठ्ये, रमणभाई, नामदेवराव घाटगे, श्रीकांत धारप इत्यादि उस बैठक में उपस्थित थे। तीन दिनों में अनेकविध कार्यक्रम संपन्न हुए। उदाहरण के लिए द्वारसभा (gate meeting) का प्रात्यक्षिक, आरोपपत्र का दिया जानेवाला उत्तर, जाहीर सभा (public meeting), मजदूर-गीतों का गान, मुक्त चिंतन। इस बैठक में मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का उद्बोधन होने के कारण अनेक बार मन में उठने वाले सवालों का कार्यकर्ताओं को उत्तर मिल जाने से कार्यकर्ताओं का मनोबल वृद्धिगत होता था। मैं इस बैठक में उपस्थित था। अन्य प्रांतों में इस प्रकार होने वाली बैठकों में से मध्यप्रदेश तथा गुजरात प्रांत के मिलन कार्यक्रमों में मैं उपस्थित था। ऐसी बैठकों द्वारा संगठन के सभी कार्यकर्ताओं को एक बड़े परिवार में रहने का-पारिवारिक आत्मीयतापूर्ण वायुमंडल में रहने का अत्यंत सौहार्दपूर्ण अनुभव होता था। वास्तव में अपनी इस प्रकार की बैठक लेने के पीछे यही मुख्य हेतु साध्य करने का विचार रहता है, ऐसा मा. दत्तोपंतजी कहते थे।

6. व्यक्तिगत संबंध - संगठन के प्रमुखों ने व्यक्ति-व्यक्तिगत विशाल जनसंपर्क करना चाहिए ऐसा मा. दत्तोपंतजी कहते थे। भा.म.संघ समाज से कटकर अलग थलग न रहे यही उनका इस कथन के पीछे प्रमुख उद्देश्य था। मा. दत्तोपंतजी के संघ कार्यकर्ताओं से, अन्यान्य मजदूर संगठनों के नेताओं से, उदाहरण के लिए डॉक वर्कर्स के एस. आर कुलकर्णी, आर.जे.मेहता, जॉर्ज फर्नांडिस, पूना के मा. आपटे जी, कतिपय वकील बंधु तथा इंटुक नेता स्व.मनोहर कोतवाल इन सभी व्यक्तियों से मित्रता के संबंध थे। नागपुर के कोष्टी समाज के नेता कुंभारे, बाबु आवले, रामरतन जानोरकर, बॅ.खोब्रागडेजी, रा.सु.गवई, गाणारजी से ठेंगडी जी के घनिष्ट संबंध थे। मुंबई, पुणे, धामणगांव, पुलगांव, वर्धा, यवतमाल आदि स्थानों पर मैं कई बार उनके साथ रहा हूँ।

7. सहयोगी अनुक्रिया - (Responsive Cooperation) शासन के साथ व्यवहार करते समय तथा उद्योगपतियों से भी ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए ऐसा मा. दत्तोपंत जी का मानना था।

8. आक्रमक नीति - तत्त्व के बारे में भा.म.संघ ने नित्य आक्रमक भूमिका रखनी चाहिए लेकिन व्यवहार में समन्वय की नीति ही रहनी चाहिए, ऐसी मा. दत्तोपंत जी की मान्यता थी।

एक स्मृति संस्मरण- सन 1968 में केंद्रीय कर्मचारियों के अखिल भारतीय हड़ताल के संबंध में केंद्रीय मजदूर संगठनों ने National Campaign Committee (राष्ट्रीय अभियान समिति) की स्थापना की। समिति की प्रथम सभा दिल्ली के ए.आय.टी.यू.सी. के कार्यालय में आयोजित की गई। उसमें हड़ताल के मामले में नीति-कार्यक्रम इत्यादि तय किया जाता था। अर्थात इस विषय में साम्यवादियों की पहल तथा उनका राजनीतिक स्वार्थ साधने का वर्ग कलह का सिद्धांत प्रखरता से प्रतिपादित करने का अंतस्थ हेतु स्पष्ट था। सभी केंद्रीय मजदूर संगठनों के Central office (केंद्रीय कार्यालय) के पदाधिकारी इस सभा में अपेक्षित थे। किंतु मा. दत्तोपंत जी ने भा.म.संघ के सब प्रांतीय कार्यकारिणीयों के सदस्यों को उपस्थित करने की योजना बनाई। तदनुसार साधारणतः दो सौ कार्यकर्ता इस सभा में उपस्थित हुए। A.I.T.U.C. के सभागृह में भा. म.संघ की ही उपस्थिति बहुसंख्या में रही। सभा आरंभ करने में हाँ-ना के अनिश्चित माहोल में अधिक देर हो रही देख भा.म.संघ के कार्यकर्ताओं ने संघ गीतों, मजदूर गीतों, भारत माता का सुख गौरव यह मजदूर संघ के गीत को सभी सांघिक रूप में गाना प्रारंभ किया। फलतः सभागृह में भा.म.संघ का जोश भरा प्रभाव छा गया। इस सभा में प्रमुखता से कामरेड डांगे, कामरेड मिरजकर, ए.बी. बर्धन, हिंद मजदूर सभा के बगाराम तुलपूले, दत्तोपंत ठेंगडी और शायद जॉर्ज फर्नांडिस आदि महानुभाव उपस्थित थे। सभा में जब नेतागण मंच पर विराजमान हो रहे थे तब भी मातृभूमि का गुणगान करने वाले संघ गीतों का सांघिक गान चल ही रहा था। साम्यवादी नेतागण भी गीत सुनने में तल्लीन हो गए थे। A.I.T.U.C. के आयोजक इस वजह से त्रस्त हो गए थे। लेकिन आश्चर्य की बात तो यह थी की एक सांघिक गीत पूरा होने पर उस गीत को once more (पुनः) देनेवाले A.I.T.U.C. के ही नेतागण थे।

आगे बैठक में, हड़ताल के समर्थन में जो भी सभाएँ ली जाएगी उन सभी सभाओं में 'भारतमाता की जय' यह घोषणा प्रमुखता से की जाएगी यह निर्णय भी लिया गया। सभा का ऐसा वातावरण देखकर सभी कार्यकर्ताओं में प्रचंड आत्मविश्वास जागृत हुआ। फलस्वरूप सभी ने 'विनाशाय च दुष्कृताम्' का उत्साहपूर्ण अनुभव लिया। आगे चलकर बने Joint Front (ज्वाईंट फ्रंट) में अपना ध्वज, 'भारतमाता की जय' यह घोषणा तथा राष्ट्रभक्त मजदूरों एक हो' यह भी घोषणा निश्चितरूप से आग्रहपूर्वक देने की नीति निर्धारित की गई।

एक विनोदभरा संस्मरण : नागपुर के एक ज्येष्ठ नेता, सभा का ऐसा वृत्त जानने के बाद, मुझसे कहे कि आप BMS वाले कम्युनिस्टों की जॉईंट फ्रंट में शामिल हो रहे हो तो आप समाप्त हो जाओगे। यह पराभूत मनोवृत्ति देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। उत्तर में मैंने कहा हमारी सीख ऐसी है कि कम्युनिस्टों के साथ जॉईंट फ्रंट करने से अगर हम समाप्त होंगे तो हम उसी के योग्य हैं यह प्रमाणित हो जाएगा। किंतु हमें विश्वास है कि समाप्त नहीं होंगे। हुआ भी वैसा ही। भा.म.संघ स्थायी हुआ किंतु कम्युनिस्ट ही समाप्त हुए।

9) संगठन सर्वश्रेणी समावेशक रहे : वर्ग नहीं किंतु श्रेणी का विचार भारतीय विचार है। किंतु फिर भी श्रेणी के अनुसार अलग अलग यूनियनस् न किए जाएँ। यानी चालकों की, वाहक की, लिपिकों की, तंत्रज्ञों की, रेल ड्राइवरों की, गार्डस् की ऐसी अलग अलग यूनियनस् न बनाइ जाएँ। यूनियनस् बनाते समय सर्व समावेशकता पर ध्यान रखा जाए।

10) अभ्यास वर्गों की योजना : अ.भा. स्तर पर, प्रांत स्तर पर तथा औद्योगिक स्तर पर अभ्यास वर्ग संचालित किए जाएँ। सन 1968 में भुसावल में अ.भा. स्तर के कार्यकर्ताओं का प्रथम अभ्यास वर्ग हुआ। मा. भाऊसाहेब वैद्य ने वर्ग का उद्घाटन किया। 'रामायणकालीन मजदूरों की स्थिति' इस विषय पर उनका उद्घाटन भाषण हुआ। इस वर्ग में हुए भाषणों का संकलन कर 'श्रम स्वाध्यायान्मा प्रमद' नामक एक ग्रंथ का प्रकाशन हुआ है।

11) समय समय पर सभाएँ, बैठकें, अनौपचारिक मिलन अथवा वार्तालाप के प्रसंगों पर मा. दत्तोपंत जी ने सूत्ररूप से अपनी कार्यपद्धति, कार्यकर्ता - गठन, भा.म.संघ के सिद्धांत आदि विषयों पर जो भाष्य किया है, उसका एक अलग ग्रंथ होगा।

उदाहरण के लिए कुछ सिद्धांत निम्नानुसार है :

11) बैठकों में, अनौपचारिक मिलनों में कार्यकर्ताओं को विचारप्रवण करने की मा. दत्तोपंत जी की विशेष पद्धति थी। जैसे-

1) Unity is different from uniformity. (एकता और एकरूपता में अंतर होता है।) अपनी जीवन प्रणाली सामाजिक समरसता की है।

2) हिंदुत्व is not "ism". (हिंदुत्व 'ईज्म' वाद नहीं है।)

3) परिस्थिति का आकलन करने 3-4 बातों की आवश्यकता है।

i. वृत्त देनेवाला कार्यकर्ता नि:स्वार्थ तथा विश्वासनीय हो।

ii. हमारी दृष्टि वस्तुनिष्ठ pragmatic हो।

iii. राष्ट्रहित तथा मजदूर हित सदा ही मद्देनजर रखना चाहिए।

4) हम पूर्णतः संघ विचारों के है। किंतु हम भा.म.संघ का उद्दिष्ट साध्य करने के लिए निर्णय लेने में स्वतंत्र है। संघ हमारा नियंत्रण नहीं करता।

5) राष्ट्र के प्रति हमारी अव्यभिचारी भक्ति होनी चाहिए। वे कहते थे 'प्यार की गति अति न्यारी - जामे दो न समायें' (कबीर) ।

6) Socialism is a vague term. समाजवाद यह संदिग्ध शब्दावली है।

7) अनौपचारिक बैठकों में सहज मार्गदर्शन- अखिल भारतीय स्तर पर भा.म.संघ की महिला शाखा स्थापन करना उचित नहीं। स्थानिक स्तर पर शाखा हो सकती है।

12) प्रमुख कार्यकर्ताओं से बैठक पूर्व बातचीत होनी चाहिए : कार्यकारी मंडल द्वारा लिए गए निर्णय कार्य के लिए अनूकुल हों इसलिए बैठक के संभाव्य विषयों के बारे में प्रमुख कार्यकर्ताओं से, जो बैठक में बैठने वाले होंगे, बैठक के पूर्व ही बातचीत कर लेनी चाहिए।

एक शिक्षाप्रद संस्मरण : सन 1970 में जालंधर के केंद्रीय कार्यकारी समिति में मा. दादा मुखर्जी (अध्यक्ष) ऐसा प्रस्ताव स्वयं रखने वाले थे कि ITUC नाम के जागतिक संगठन से भा.म.संघ को सलंग्न किया जाए। मा. दत्तोपंत जी ने मुझे यह पूर्व सूचना दी कि अध्यक्ष उपरोक्त प्रस्ताव स्वयं समिति के विचार तथा निर्णय हेतु रख सकते हैं। मैंने मा. दत्तोपंत जी से पूछा कि संलग्नता शुल्क कितना देना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि आप ही अध्यक्ष जी से पूछ लीजिए।

सभा में जब वैसा प्रस्ताव रखा गया तब मैंने संलग्न शुल्क के बारे में उनसे पूछा। उन्होंने मुझसे कहा कि शुल्क कुछ हजार डॉलर्स लगेगा। तब मैंने सभा में कहा कि इतने रुपये तो हमें सलंग्नता शुल्क ही नहीं मिलता। बाद में अनेकों ने अनेक प्रश्न पूछे। प्रस्ताव अंत में अप्रभावित रहा और पारित नहीं हुआ।

13) छोटे छोटे आंदोलनों की योजना अवश्य हो। उनका मानना था कि आंदोलनों के कारण संघर्ष क्षमता बढ़ती है। ध्येयनिष्ठा की परीक्षा हो जाती है। इस दृष्टि से आरंभिक काल में किसी यूनियन की बैठक में वे पहला प्रश्न पूछते थे, कितने सस्पेंशन हुए, कितने लोगों को चार्जशीट मिली, कितने डिसमिस हुए? किंतु सामूहिक प्रश्नों के लिए ही आंदोलन हो इस पर ठेंगड़ी जी का आग्रह रहता था, न कि व्यक्तिगत प्रश्नों के लिए। आंदोलन की यशस्विता के लिए small tricks (छोटी छोटी चतुराई-चलाकी) का उपयोग न करें। संघर्ष हमेशा न्याय के लिए ही हो।

14) भा.म.संघ हिंदू राष्ट्र पुर्नस्थापना के राष्ट्र निर्माण के कार्य का- अंगभूत संगठन है - यह ध्यान में रहे- 1972 में ग्वालियर में आयोजित भा.म.संघ के जनरल कौंसिल के समय आम सभा में मा. ठेंगड़ी का भाषण देखिए :-

15) लोकसंग्रह के लिए आवश्यक मनोरचना कार्यकर्ता की हो। जैसे - अपने साथियों के गुणों का appreciation (प्रशंसा) कार्यकर्ताओं को सम्हालना चाहिए। कार्यकर्ता की क्षमतानुसार अधिकाधिक दायित्व देकर कार्यक्षमता बढ़ाना, बैठकों का वातावरण तनाव मुक्त ही नहीं बल्कि प्रसन्नता से पूर्ण हो इस संबंध में कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।

हँसते हँसते राष्ट्रकार्य एक संस्मरण- हैदराबाद के अधिवेशन की पूर्व संध्या पर केंद्रीय कार्य समिति की बैठक में आगामी 3 वर्षों के लिए अध्यक्ष के नाम पर चर्चा होनी थी। आचानक स्व. साठ्येजी ने मनहरभाई मेहता के नाम का अत्याधिक आग्रह से सुझाव दिया और कहा We must be cruel to him- (हमें उनके प्रति निर्दय होना चाहिए) अर्थात मेहता जी को चाहे जो कष्ट हो उन पर यह दायित्व दे दिया जाए। वातावरण में बहुत तनाव सा छा गया। मा. ठेंगड़ी जी भी आवाक् हो गए। क्योंकि साठ्ये जी के बोलने में एक प्रकार का दुराग्रह था। मैंने तुरंत कहा "But Sathayeji be kind in cruelty!" (किंतु साठे जी निर्दयता में भी दयालुता रखें) मा. ठेंगड़ी जी सहित सभी ने जोरदार हंसी लगाई, और पुनः शांति से चर्चा शुरू हुई। इस पर ठेंगडी जी ने मेरी बहुत सराहना की। (यद्यपि इसमें मेरा अहम् दिखाई पड़ता है किंतु वह दोष स्वीकार कर यह संस्मरण लिखा है)।

मा. ठेंगड़ी जी गुणों की कैसी सराहना सबके समुख करते थे (कार्यकर्ता के दोष कभी उसे एकांत में ही कहना चाहिए यह उनकी पद्धति थी) इसका एक छोटा सा प्रसंग-श्रमनीति (लेबर पॉलिसी) पुस्तक (1968) का मुखपृष्ठ कैसा हो यह उनसे चर्चा कर-नागपुर के (स्व. श्री मधुकर वैद्य के मधुकर आर्टस् में बनवाकर मैं दिल्ली में कार्यसमिति के समय ले गया। उसे देखते ही मा. ठेंगड़ी जी अत्यंत प्रसन्न हुए।

16) अंततोगत्वा कार्य का आधार स्नेह ही हो और संगठन में पारिवारिक वायुमंडल बढ़ता रहे इस प्रकार यूनियन का संचालन किया जाए, इस प्रकार वे मार्गदर्शन करते थे।


इच्छाशक्ति (Wil Power)

बैजनाथ राय

अध्यक्ष

भारतीय मजदूर संघ

24 अक्टूबर 2003 को मेरी पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। लगभग 4 महीने बाद श्री ठेंगड़ी जी से रायपुर केंद्रीय कार्यसमिति में मुलाकात हुई। वे मुझे बार-बार व्यक्तिगत मिलने का आग्रह करते रहे, मैंने पता किया कि क्या बात है तो पता चला कि मेरी पत्नी के निधन पर श्री ठेंगड़ी जी बात करना चाह रहे थे। इसलिए मैं और भी टालने लगा। पत्नी शोक के बारे में किसी से भी सांत्वना मुझे पसंद नहीं थी। इसलिए टालता रहा किंतु वे जिद्द कर लिए और अंततः मुझे उनसे मिलना पड़ा।

अपराह्न का समय था। श्री ठेंगड़ी जी ने कहा अपनी पत्नी की मृत्यु के बारे में मुझे जरा विस्तार से बताइए। मैं हैरान था कि उनको इतनी दिलचस्पी क्यों है और ऐसे चर्चा से लाभ तो कुछ नहीं उल्टे मुझे दुःख ही होगा फिर भी ये ऐसी चर्चा क्यों करना चाहते हैं। मैंने उनसे कहा जो बीत गया सो बीत गया अब उसे कुरेदने से तो लाभ कुछ भी नहीं होगा उल्टे पुनः स्मरण से मुझे दुःख ही होगा। श्री ठेंगड़ी जी ने कहा कि मैं जानता हूँ कि आपको दुःख होगा फिर भी मैं आपके मुँह से विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ।

बाध्य होकर मैने बताना शुरू किया कि वह लगभग छ:-सात वर्ष से लगातार बीमार थी, अस्पताल में भर्ती होने पर ठीक हो जाती किंतु घर आने के कुछ महीने बाद ही पुनः बीमार पड़ जाती रही। वैसे तो मूलतः मधुमेह रोग (Diabitic) से ग्रसित थी किंतु बार-बार तरह-तरह की बीमारी हो जाती थी इसलिए प्रति वर्ष बड़े-बड़े अस्पतालों में ले जाते रहे। कलकत्ता के बाहर भी कई बड़े अस्पतालों में इलाज चलता रहा। अंत में वेल्लूर (तामिलनाडु) के CMH अस्पताल में 15 अक्टूबर 2003 को यह पता चला कि उनको सर्विक कैंसर है, जो ला-इलाज है। यह सुनते ही वह कलकत्ता ले चलो, घर ले चलो की रट लगाने लगी। अंततः हम लोग 20 अक्टूबर को वहाँ से उनको लेकर चल दिए किंतु चेन्नई आते-आते अवस्था और बिगड़ गयी और पुन: Apollo अस्पताल में भर्ती करना पड़ा जहाँ डाक्टरों ने कहा कि कलकत्ता जाना मुश्किल है, यह केवल दो-चार घंटों की मेहमान है। इन सबके बावजूद मेरी पत्नी की एक ही जिद्द थी कलकत्ता ले चलो। उधर डाक्टर कलकत्ता जाने देने की अनुमति नहीं दे रहे थे। अजीब कसमकस की स्थिति मेरी थी। रेल से जाना कठिन था और हवाई जहाज तैयार नहीं था।

किसी तरह बहुत सर-सिफारिश से हम लोग उन्हें 23 अक्टूबर को संध्या समय हवाई जहाज से लेकर कलकत्ता के लिए चल दिए। 23 अक्टूबर को करीबन रात्रि 8 बजे कलकत्ता घर पहुंचे। सारा परिवार एकत्रित था। वे सबसे ऐसे बात कर रही थी जैसे उसे कुछ हुआ ही नहीं हो। पूरा परिवार बड़ा खुश हो गया। खुशी का माहौल छा गया। सब लोग खा-पीकर सो गए। रात के लगभग 2 बजे उसने मुझे बुलाया और कहा अब नहीं सह पा रही हूँ। मुझे गंभीरता से देखते हुए कहा मैं चलती हूँ और प्राण पखेरु उड़ गए।

इतना बताकर मैं गंभीर हो गया और श्री ठेंगड़ी जी भी गंभीर हो गए। एकदम से चुप्पी हम दोनों ने धारण किया। थोडी देर के बाद श्री ठेंगड़ी जी के मुँह से हठात् निकला Will Power (इच्छा शक्ति)।

मैंने पूछा वह क्या तो वे बड़े इत्मीनान से बोलने लगे कि मुझे यह घटना जब से जानकरी में आई तभी से मैं जानना चाहता था कि आखिर क्या और कैसे मृत्यु हुई। इसलिए मैं बार-बार आपसे आग्रह करता रहा। अब तसल्ली हो गई कि आपकी पत्नी में बहुत जबरदस्त इच्छा शक्ति थी। उन्होंने अपने आधार और पसंदगी के आधार पर मृत्यु प्राप्त की। उनका यह Will Power (इच्छा शक्ति) हम सबके लिए पाथेय है।

इस प्रकार श्री ठेंगड़ी जी सबके सुख-दुःख में सहभागी बनना चाहते थे। प्रेरणा लेते भी थे प्रेरणा देते भी थे। इतना अपनत्व कहाँ मिलेगा।

कार्यकर्ता के साथ-साथ पैदल चले

18-19 दिसंबर 1994 को पश्चिम बंगाल प्रदेश का सम्मेलन नवद्वीप (कृष्ण नगर) में था। 17 दिसंबर संध्या तक सभी को पहुँचने के लिए कहा था, इसलिए संध्या के ट्रेन से अधिकांश प्रतिनिधि रात्रि 7 बजे नवद्वीप स्टेशन उतरे, उसी में श्री ठेंगड़ी जी थे, वे भी स्टेशन पर उतरे।

मैं उन दिनों प्रदेश का महामंत्री था इसलिए गाड़ी लेकर उन्हें लाने गया था। स्टेशन से सम्मेलन स्थल लगभग 5 कि.मी. था। मैंने श्री ठेंगड़ी जी को लेकर गाड़ी में बिठाया और चलने वाला ही था कि सभी प्रतितिनिधियों ने नारा देना शुरू किया और नारा देते हुए वे लोग सम्मेलन स्थल पैदल चलना शुरू कर दिए।

उन दिनों श्री ठेंगड़ी जी का आपरेशन हुआ था, शरीर से कमजोर दिख रहे थे। चुंकि अँधकार था इसलिए नारा सुनते ही उन्होंने पूछा ये लोग कौन हैं, कहाँ जा रहे हैं। मैंने बताया कि अपने प्रतिनिधि हैं, पैदल सम्मेलन स्थल जा रहे हैं।

थोड़ी देर चुप्पी के बाद ठेंगड़ी जी हठात् गाड़ी से जबरदस्ती उतर गए और प्रतिनिधियों की ओर पैदल चलने लगे। हम लोगों ने बहुत समझाया कि सम्मेलन स्थल 5 कि.मी. और रास्ते में कहीं-कहीं अँधकार है, उनका शरीर कमजोर है इसलिए वे पैदल न चलें। किंतु कौन सुनता वे पैदल ही चलते रहे-चलते रहे। हमें डर था अँधकार का तथा कमजोरी के कारण ये कही रास्ते में गिर न पड़ें। किंतु भगवान की दया से पैदल ही वे अंततः सम्मेलन स्थल पहुँच गए। दूसरे दिन बीमार भी हो गए किंतु फिर Normal (सामान्य) हो गए और सम्मेलन में योजना के अनुसार भाग लिए।

कार्यकर्ता के प्रति उनका आदर, विश्वास व जिद्द भरपूर था। वे जलते हुए आग में भी कार्यकर्ता के साथ रहना पसंद करते थे। हर परिस्थिति में वे कार्यकर्ताओं के साथ-साथ रहना चाहते थे।

- Minute Detail - (सूक्ष्मतापूर्वक पूरा विवरण)

26-27 जनवरी 1995 को बंगाल स्थित कांकिनारा में जूट का सम्मेलन था। मा. ठेंगड़ी जी एक दिन पहले 25 जनवरी को ही पहुँच गए। उन दिनों श्री ठेंगड़ी जी जहाँ जाते थे उनके चाय के लिए चायपत्ती, स्टोव व बिस्कुट्स वगैरह रखा जाता था।

प्रातः ठेंगड़ी जी शौच के लिए गए तो शौचागार में पानी टपक रहा था जो कि उनके पूरे शरीर पर पड़ा। बाहर आने पर उन्होंने कई बार स्नान किया। उनके मन भिनक गए थे, कुछ घबड़ाहट सी उनको लग रही थी। सभी कार्यकर्ता पूछने लगे तो भी वे शांत ही रहे और उस दिन इस विषय पर कुछ नहीं बोले। जूट के एक कार्यकर्ता श्री भगवान जी ठाकुर जूट कार्यक्रम में सदैव उनके साथ ही रहते थे। रात्रि के समय उनको बिठाकर पूछा, "क्या आप शौचागार देखे थे।" भगवान जी ठाकुर ने कहा "नहीं"।

फिर ठेंगड़ी जी ने पानी टपकने व मन भिनकने वाली बात बतायी। उन्होंने कहा "मान लो आपने चाय के लिए स्टोव, चायपत्ती वगैरह रखा किंतु साफ बर्तन नहीं रखा या दियासलाई नहीं रखा तो क्या होगा? कार्यक्रम में छोटी-छोटी बातों पर ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। इन छोटी बातों पर प्रमुख कार्यकर्ता को स्वयं ही ध्यान रखना होता है। उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य और सफाई पर सबको ध्यान रखना आवश्यक हैं। छोटी-छोटी बातों पर ध्यान हेतु उन्होंने उसी दिन की अपनी व्याख्यान में एक कविता कही :-

For want of a nail (एक कील के अभाव से)

A horse shoe was lost (एक नाल व्यर्थ हो गई)

For want of a horse shoe (एक नाल के अभाव से)

A horse was lost (एक घोड़ा व्यर्थ हो गया)

For want of a horse (एक घोड़े की कमी के कारण)

A king was lost (एक राजा असमर्थ हो गया)

For want of a king (एक राजा की असमर्थता के कारण)

A battle was lost (एक युद्ध में पराजय हुई)

For want of a battle (एक युद्ध में पराजय के कारण)

A kingdom was lost. (एक राज्य परास्त हो गया)

And All was lost for a tiny nail. (और एक मामूली नाल के कारण सर्वस्व खो गया)

युद्ध में जाते समय राजा के घोड़ा पोषक ने यह ध्यान नहीं दिया कि घोड़े के एक पैर का नाल ढीला है परिणामतः युद्ध में उसका नाल गिर जाने से घोड़ा गिर पड़ा। घोड़े के गिरने से राजा गिर पड़े और वह युद्ध हार गया। थोड़ी सी भूल का भयानक परिणाम होता है इसलिए सदैव छोटी-छोटी चीजों पर Minute Detail (मामूली से मामूली बात) का ध्यान रखना चाहिए। साफ-सफाई स्वास्थ्य के लिए जरुरी है।

उन्होंने कार्यकर्ताओं की एक माला तैयार की

आर. वेणुगोपाल

पूर्व उपाध्यक्ष

भारतीय मजदूर संघ

1955 का साल था। हम प्रचारक व अन्य कार्यकर्ता कालीकट में एक बैठक कर रहे थे। प. पू. श्री गुरूजी की 51वीं जयंती पर उन्हें सम्मान निधि अर्पित करने का विषय हमारे सामने था।

अचानक माननीय ठेंगड़ी जी हमारे सामने प्रगट हो गए, मानो कि वे कहीं बाहर से न आकर पहले से ही वहाँ उपस्थित हो। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के बिना उनके वहाँ आने से हम सभी को आश्चर्य हो रहा था। हमारे जिला प्रचारक श्री शंकर शास्त्री ने उनसे कालीकट आगमन का हेतु जानने की उत्सुकता प्रकट की। उन्होंने बताया कि उन्हें फेरोक (Feroke) निवासी एक स्वयंसेवक का पत्र मिला है। फेरोक कालीकट के पास एक औद्योगिक क्षेत्र है। वह स्वयंसेवक वहाँ टाईल फैक्ट्री के मजदूरों में यूनियन बनाना चाहता है। उसी काम के लिए वे सीधे बंबई से चले आ रहे थे। उसी बीच वह कार्यकर्ता वहाँ आकर ठेंगड़ी जी को फेरोक ले गया।

लगभग तीन घंटे बाद ठेंगड़ी जी वापस आए। मैंने ठेंगड़ी जी से पूछा क्या वहाँ यूनियन शुरू हो गई। उन्होंने बताया कि एक तदर्थ (Ad hoc) कमेटी का गठन हो गया है। फिर मैंने जानकारी ली कि कालीकट के आस-पास और कहाँ यूनियन है। उन्होंने बताया कि एक मद्रास में है, एक हैदराबाद में और अन्य बंबई, पूना, भोपाल व दिल्ली में है। फिर मैंने पूछा कि यदि विभिन्न यूनियनें इतनी दूरी पर हैं तो उनमें समन्वय और उनकी देखभाल कैसे हो सकेगी। ठेंगड़ी जी ने शांति से उत्तर दिया, "मैं अभी केवल पुष्प बीन कर एकत्र कर रहा हूँ, जब हमारे पास पुष्पों की संख्या पर्याप्त हो जाएगी तो हम उन्हें माला के रूप में गूथंना शुरू करेंगे।"

संयोगवश 1967 में मुझे केरल में भारतीय मजदूर संघ का काम करने का दायित्व सौंपा गया। इसी वर्ष दिल्ली में अगस्त 1967 में भारतीय मजदूर संघ का प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। मैं कालीकट की दो छोटी यूनियनों के प्रतिनिधि के नाते अधिवेशन में शामिल हुआ। भारतीय मजदूर संघ की पहली यूनियन भोपाल में 1955 में प्रारंभ हुई थी। परंतु प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन 12 साल बाद 1967 में आयोजित किया गया। तब तक ठेंगड़ी जी सारे देश में दौड़ लगाते रहे और छोटी बड़ी यूनियनों का गठन करते रहे अर्थात पुष्प एकत्र करते रहे है जैसा कि वे कहते थे। सम्मेलन में मंच पर भारत माता का चित्र शोभायमान था। चित्र पर पुष्पों की माला सुशोभित थी। माला के दोनों छोरों का आपस में बांधा नहीं गया था और अधिक पुष्पों की प्रतिक्षा थी। ठेंगड़ी जी और उनके अन्य सहायक जो अभी तक सैकड़ो की संख्या में तैयार हो गए थे सारे देश से पुष्पों का एकत्र करने में व्यस्त थे।

यह महान मालाकार (माला बनाने वाला माली) हमें अचानक छोड़कर अपने प्रेरणास्रोत प.पू. डाक्टर जी, प.पू. श्री गुरुजी, पं. दीनदयाल जी के पास चले गए। ये सभी महापुरुष बैकुंठ में अपने स्थान से वर्षों तक उनका मार्गदर्शन करते रहे।

हमारे द्वारा अधिकाधिक पुष्प एकत्र किए जाते रहे। उनके द्वारा चुने गए पुष्प मुरझा न जाए। जिस माला में वे पुष्प पिरोते जा रहे थे, उसमें पुष्प पूरे होकर उसके दोनों छोर बांध दिए जाए यही कामना है। केवल तभी उनकी आत्मा को स्वर्ग में शांति मिलेगी। उन्होंने प.पू. श्रीगुरुजी, दीनदयाल जी और स्वयं की बड़ी भारी विरासत हमारे लिए छोड़ी है। हमें बिना रोए धोए उनकी विरासत को सम्भालने का अपना कर्तव्य पूरा करना है। (ठेंगड़ी जी की श्रद्धांजलि के अवसर पर)

परिशिष्ट क्र. (अ)

23 जुलाई 1955 स्थापना (प्रथम) बैठक में सम्मिलित कार्यकर्ताओं के नाम इस प्रकार हैं :-

श्री जगदीश प्रसाद माथुर, मध्यप्रदेश

श्री वामनराव परब, मुंबई

श्री कुशाभाउ ठाकरे, मध्यप्रदेश

इनके अलावा उपस्थित होने वाले कार्यकर्ता जिन्होंने भारतीय मजदूर संघ में विभिन्न दायित्वों का निर्वाह कर इसे प्रथम क्रमांक पर पहुंचाने और परम वैभव लक्ष्य प्राप्ति की ओर पहला कदम उठाने का कार्य किया उनकी सूची -

श्री रमण भाई शहा, मुंबई

श्री बाला साहेब कुलकर्णी, मुंबई

श्री माधव राव पालांडे, मुंबई

श्री भाऊराव बेलवलकर, मुंबई

श्री कान्हेरे, मुंबई

श्री सबनीस, मुंबई

श्री माधवराव वापट, पुणे

श्री वसंतराव परचुरे, पुणे

श्री नरसैय्या चिप्पा, पुणे

श्री दत्तात्रेय वैद्य, पुणे

श्री पिंगले, औंध

श्री गोवर्धन लाल मेहता, उज्जैन

श्री बाबू लाल मेहरे, उज्जैन

श्री कैलास प्रसाद भार्गव, उज्जैन

श्री कन्हैया लाल बनर्जी, कलकत्ता

श्री रामकृष्ण त्रिपाठी, कानपुर

श्री यज्ञदत्त शर्मा, कलकत्ता

श्री शिवकुमार त्यागी, मेरठ

श्री रामप्रकाश, लखनऊ

श्री वसंत राव शेवाले, बुरहानपुर

श्री शारदा प्रसाद त्रिपाठी, इलाहाबाद

श्री नारायण प्रसाद गुप्ता, भोपाल

श्री राजनाथ शर्मा, भोपाल

श्री मानकचंद्र चौबे, सिहोर (म.प्र.)

श्री नरेंद्र चौरसिया, सिहोर (म.प्र.)

श्री सरदार भगत सिंह, दिल्ली

श्री राजमोहन अरोड़ा, आगरा

श्री राजनारायण, हरियाणा


परिशिष्ट क्र. (क)

प्रारंभिक कायकर्ता और

प्रथम अखिल भारतीय कार्यसमिति ( 1967)

श्री दादा साहेब कांबले अध्यक्ष नागपुर

श्री गजाननराव गोखले उपाध्यक्ष मुंबई

श्री वी.पी.जोशी उपाध्यक्ष दिल्ली

श्री रमाशंकर सिंह उपाध्यक्ष सिंदरी (बिहार)

श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी महामंत्री दिल्ली

श्री राम नरेश सिंह मंत्री कानपुर

श्री ओमप्रकाश अग्घी मंत्री लुधियाना

श्री प्रभाकर घाटे मंत्री मंगलौर

श्री मनहर मेहता कोषाध्यक्ष मुंबई

श्री अरूमुगम् सदस्य चेन्नई

श्री हरि राव सदस्य गुंटूर (आंध्र)

श्री गोविंदराव आठवले सदस्य नागपुर

श्री रमण शाह सदस्य मुंबई

श्री रामभाऊ जोशी सदस्य इंदौर

श्री चांदरतन आचार्य सदस्य जयपुर

श्री डॉ. कृष्ण गोपाल सदस्य फरीदाबाद

श्री रामकृष्ण भास्कर सदस्य दिल्ली

श्री रामदेव प्रसाद सदस्य दिल्ली

श्री नरेश चंद्र गांगुली सदस्य कलकत्ता

श्री राम प्रकाश मिश्र सदस्य कानपुर

श्री अमलदार सिंह सदस्य मुंबई

श्री किशोर देशपांडे सदस्य मुंबई

श्री सुधीर सिंह सदस्य गोरखपुर

श्री रघुनाथ तिवारी सदस्य गुवाहाटी

श्री आर.वेणुगोपाल सदस्य कालीकट (केरल)

श्री सत्येन्द्र नारायण सदस्य सदस्य संभलपुर (ओडिशा)

श्री केशव भाई ठक्कर सदस्य बड़ोदरा (गुजरात)


परिशिष्ट क्र (ख)

प्रथम अधिवेशन ( 1967) के समय भा म स की कुल सदस्यता

क्र. प्रदेश यूनियन की संख्या सदस्य संख्या अधिवेशन में उपस्थित प्रतिनिधि

1. दिल्ली 40 45,143 150

2. पंजाब 40 1,075 57

3. हरियाणा 25 6,000 95

4. राजस्थान 41 23,100 46

5. गुजरात 13 1,000 35

6. विदर्भ 54 9,500 175

7. महाराष्ट्र 61.8 51,143 229

8. कर्नाटक 20 6,000 30

9. आंध्र 10 12,000 5

10. मद्रास 5 500 2

11. केरल 1 50 1

12. उड़ीसा 1 800 1

13. मध्य प्रदेश 32 8,757 40

14. उत्तर प्रदेश 149 43,000 203

15. बिहार 21 25,000 253

16. बंगाल 14 1,300 25

17. आसाम 1 2,000 -

18. चंडीगढ़ 6 850 5

योग 541 2,46,902 1352

(अट्ठारह प्रदेशों में पाँच सौ इक्तालीस यूनियनों तथा कुल सदस्यता दो लाख, छियालीस हजार, नौ सौ दो)


परिशिष्ट क्र (घ)

दिसंबर 2012 में भा. म. स. यूनियनें व सदस्यता

क्र. प्रदेश यूनियन संख्या सदस्य संख्या

1. अंडमान निकोबार 5 572

2. आंध्र प्रदेश 380 29,52,225

3. अरूणांचल प्रदेश 1 2,765

4. आसाम 23 1,35,027

5. बिहार 118 19,03,203

6. चण्डीगढ 19 9,733

7. छत्तीसगढ़ 55 5,50,956

8. दिल्ली 136 3,62,727

9. गोवा 21 50,228

10. गुजरात 143 6,84,370

11. हरियाणा 167 1,96,842

12. हिमाचल प्रदेश 135 1,30,458

13. जम्मू कश्मीर 36 24,593

14. झारखंड 99 4,10,569

15. कर्नाटक 104 2,89,440

16. केरल 175 5,18,507

17. मध्यप्रदेश 571 29,65,839

18. महाराष्ट्र 266 9,67,403

19. विदर्भ 90 1,14,613

20. मणीपुर 15 58,742

21. मेघालय 1 1,701

22. मिजोरम 4 10,947

23. ओडिसा 143 17,41,040

24. पाडुंचेरी 4 3,181

25. पंजाब 298 3,56,972

26. राजस्थान 247 8,05,776

27. तमिलनाडु 130 3,37,890

28. त्रिपुरा 3 209

29. उत्तराखंड 90 1,83,112

30. उत्तरप्रदेश 692 8,88,892

31. पश्चिम बंगाल 146 4,88,100

कुल 4,317 1,71,46,632

(ईक्कतीस प्रदेशों में चार हजार तीन सौ सत्रह यूनियनें तथा एक करोड़ ईक्तहर लाख, छियालिस हजार, छ: सौ बतीस की कुल सदस्य संख्या)


लेखक-परिचय

जन्म 21 जुलाई 1939 ग्राम घगवाल (जम्मू)। वर्ष 1957 में हाई स्कूल के उपरांत एम. जी. सांईस कालेज, जम्मू में दाखिला। वहीं 1959 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रवेश। संघ शिक्षण तृतीय वर्ष। स्वयंसेवक के नाते नगर, जिला व विभाग स्तर संघ शाखा दायित्वों का निर्वहन। केंद्र सरकार प्रतिरक्षा उत्पादन विभाग में सर्विस के दौरान 1966 में भारतीय मजदूर संघ से जुड़ना हुआ। वर्ष 1997 राजपत्रित अधिकारी पद से सेवानिवृत्त।

भारतीय मजदूर संघ में दायित्व - भारतीय प्रतिरक्षा मजदूर महासंघ के अखिल भारतीय मंत्री (1968) तदुपरांत उपाध्यक्ष। पंजाब प्रदेश भा.म.सं. मंत्री (1970)। दिल्ली प्रदेश मंत्री (1978) तदुपरांत प्रदेश अध्यक्ष। भा.म.सं. केंद्रीय कार्यसमिति सदस्य (1981) तदुपरांत केंद्रीय मंत्री व उपाध्यक्ष। सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सहभागिता और सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों, समितियों में प्रतिनिधित्व। देश-विदेश प्रवास। सेवानिवृत्ति उपरांत दिल्ली में स्थायी निवास।

पुस्तक लेखन - डब्ल्यु टीओ तोड़ो मोड़ो छोड़ो, भा.म.सं. बढ़ते चरण, प्रतिबद्ध कार्यकर्ता : प्रेरक प्रसंग, स्वामी विवेकानंद : औद्योगिक आर्थिक चिंतन, सौगात (कविता संग्रह) तथा बड़े भाई स्मृति ग्रंथ का संकलन संपादन।

सम्प्रति सेवा निवृत्ति वर्ष 1997 पश्चात स्वैच्छिक 'वन लाईफ-वन मिशन' भावना के अंतर्गत अवैतनिक पूरा समय भा.म.सं. संगठन कार्य में लगा रहे हैं।


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हिंदी समय में दत्तोपंत ठेंगड़ी की रचनाएँ