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वैचारिकी संग्रह

दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन दर्शन खंड - 2

दत्तोपंत ठेंगड़ी


दत्तोपंत ठेंगड़ी

जीवन दर्शन

(खंड - 2)

( विचारधन)

अर्थनीति , राष्ट्रनीति-राजनीति

चिंतन के विभिन्न आयाम

संपादन - प्रस्तुतीकरण

अमर नाथ डोगरा

प्रकाशक

सुरुचि प्रकाशन

केशव कुंज, झंडेवाला,

नई दिल्ली - 110055

दूरभाष : 011-23514672, 23634561

E-mail : suruchiprakashan@gmail.com

Website : www.suruchiprakashan.in

© सुरक्षित : भारतीय मजदूर संघ

ISBN : 978-93-84414-24-5

मूल्य : ₹ 200

आवरण पृष्ठ : बलराज

पृष्ठ संयोजक : अमित कुमार

मुद्रक : गोयल एण्टरप्राइजिज

"Thus let me live unseen, unknown,

Thus unlamented let me die

steal from The world and not a stone

Tell where I lie!"

Alexander Pope

(मुझे जगत की दृष्टि से ओझल और अनजान ही रहने दो।

मेरी मृत्यु भी ऐसी हो जिस पर कोई शोक न कर सके।

लोगों को पता ही न चले। जहाँ मुझे गाड़ दिया जाए वहाँ वैसा

मालूम करा देने वाला कोई पत्थर भी न लगाया जाए और

फिर कोई बताए कि मैं कहाँ हूँ।)

दलगत राजनीति से ऊपर

भारतीय मजदूर संघ जिस समय बन रहा था, यह बात तो स्पष्ट हो गई थी कि यह मजदूरों का क्षेत्र है। मजदूरहित की दृष्टि से प्रयत्न करने वाले और मजदूरहित के साथ, जिस राष्ट्र का मजदूर घटक है, उस राष्ट्र का समग्र विचार करने वाला यह काम है। अन्यान्य क्षेत्रों में जैसे केवल अपना ही स्वार्थ विचार में लिया जाता है, वैसा न लेते हुए, राष्ट्र की संपदा बढ़ाने की दृष्टि से विचार करते हुए उसमें अधिकाधिक मात्रा में अपने श्रमिकों की सुख सुविधा का विचार करते हुए चलें, ऐसा विचार उस समय हुआ और यह भी विचार हुआ कि किसी भी राजनितिक दल की टांग से टांग बांध कर 'थ्री लेग्ड' रेस नहीं करना। इस विचार को लेकर वे (भारतीय मजदूर संघ) चल रहे हैं। और मैं समझता हूँ कि वे ठीक ही कर रहे हैं।

प. पू. श्रीगुरुजी

01 नवंबर 1972

ठाणे

हम पागल हैं

हम पागल हैं इसीलिए भारतीय मजदूर संघ है। हमने प्रारंभ से ही चेतावनी दी थी कि जो चतुर हैं उनको भारतीय मजदूर संघ में आना ही नहीं चाहिए। जो पागल हैं, जिनका जरा दिमाग का पेंच कुछ ढीला है वही भारतीय मजदूर संघ में आएँ।

किंतु हम राष्ट्र को आश्वासन देना चाहते हैं कि राष्ट्र के पुर्नर्निमाण का, गरीबों की गरीबी दूर करने का, रोने वाले लोगों के आँसू पोंछने का, अंत्योदयदय (unto the last) का, माने देश के छोटे-से-छोटे और गरीब-से-गरीब व्यक्ति के उत्कर्ष सिद्ध करने का जो प्रमुख साधन है उस साधन के रूप में भारतीय मजदूर संघ रहेगा। और इसीलिए जो व्यवहार-चतुर लोग हैं उनको हम कहेंगे कि साहब! आप भारतीय मजदूर संघ के बाहर हट जाइये। आप प्रधानमंत्री बनिए। आप दुनिया के प्रेसीडेंट बनिए। लेकिन हमने परम वैभव सिद्ध करना है। आप आएँगे, और जाएंगे। हम तो राष्ट्र के परम वैभव के लिए काम कर रहे हैं। और वह हम करके रहेंगे।

गरीबों की गरीबी दूर करेंगे। रोने वालों के आँसू पोछेंगे। आखिरी आदमी के उत्कर्ष तक हम काम करते रहेंगे और इसके लिए ही हमारा यह पागलपन है।

- द.बा.ठेंगड़ी

दो शब्द

'दत्तोपंत ठेंगड़ी - जीवन दर्शन' (खंड-2) मा. ठेंगड़ी जी द्वारा भुसावल (1968) व पुणे (1980) अखिल भारतीय कार्यकर्ता अभ्यास वर्गों में दिए गए उद्बोधनों पर आधारित है। प्रारंभिक दो अभ्यास वर्गों में मा. ठेंगड़ी जी के भाषणों को इस खंड में यथावत समाहित किया गया है।

प्रस्तुत उद्बोधनों में मा.ठेंगड़ी जी के मौलिक चिंतन की सरिता अविरल प्रवाहित हुई है। चिंतन के कई आयाम हैं। समाज रचना, अर्थ चिंतन, उद्योगों का स्वामित्व, मजदूर मालिक संबंध, राजनीति-राष्ट्रनीति, वैश्विक परिदृश्य, श्रमिक-श्रमिकीकरण, संगठन की अवधारणा, राष्ट्रवाद, साम्यवाद का खोखलापन, वेदांत दर्शन, चिरंतन सुख, कार्य-कार्यकर्ता, आदि अनेक विषयों का उन्होंने प्रभावकारी ढंग से सुंदर विवेचन किया है।

सोपान-1 से 3 तक श्री ठेंगड़ी जी के उद्बोधन हैं और सोपान-4 में उनके दो महत्वपूर्ण लेख हैं। सोपान-5 में ज्येष्ठ श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं के संस्मरण हैं।

उपरोक्त अभ्यास वर्गों में मा.ठेंगड़ी जी के उद्बोधन जो विभिन्न पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं, उन सभी को एकत्रित करते हुए इस खंड में एक स्थान पर एक साथ प्रकाशित किया गया है। आशा है पुस्तक के अध्ययन से पाठकों तथा जिज्ञासुओं की ज्ञान पिपासा शांत होगी। इसी विश्वास के साथ...

सादर।

संपादक

ठेंगड़ी भवन

केंद्रीय कार्यालय, भा. म. संघ

27, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग

नई दिल्ली - 110002

दूरभाष : 011-23222658

इमेल : bmsdtb@gmail.com

खंड- 2

अनुक्रमणिका

क्र. विषय

सोपान - 1 ( भुसावल , अभ्यास वर्ग)

1. शून्य से प्रारंभ - उद्घाटन उद्बोधन

2. भारतीय मजदूर संघ - अवधारणा

3. अच्छा कार्यकर्ता कौन

4. मार्क्सवाद - वैचारिक विश्लेषण

5. जीवन मुल्य

6. भारतीय तत्व चिंतन

7. समाज रचना - चिंतन के विभिन्न आयाम

8. मार्क्स की कास्मोलाजी गलत थी

9. राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया

10. राष्ट्रवाद

सोपान - 2 ( पुणे , अभ्यास वर्ग - 1)

1. राष्ट्रहित चौखट अंतर्गत मजदूरहित

2. औद्योगिक स्वामित्व

3. संगठन, कार्यकर्ता व सामूहिक नेतृत्व

4. राष्ट्रनिर्माण कार्य का अंग भारतीय मजदूर संघ

5. अनुशासन

6. राजनीति नहीं, लोकनीति व राष्ट्रनीति के हम अंग

7. विश्व साम्यवाद केवल मर ही नहीं चुका उसे दफनाया भी जा चुका है

सोपान - 3 ( पुणे , अभ्यास वर्ग - 2)

1. राष्ट्रनीति, राजनीति

2. जनसंगठन स्वतंत्र रहने दीजिए

3. हम रेसपान्सिव कोओपरेशन वाले हैं

4. कुशल संगठनकर्ता : आदर्शवादी जीवन मूल्य

5. आदर्शवाद जितना बड़ा होगा उतना अहं छोटा होगा

6. मार्क्स के बारे में

7. वर्ग रहित समाज (क्लासलैस सोसायटी)

8. कार्यकर्ता स्वयं अपना संगठन करे

9. कार्य का प्रारंभ स्वयं से करो

10. हमारी विजय निश्चित है

सोपान - 4 ( लेख)

1. आदर्शवादियों के आदर्श - हसुभाई दवे

2. एक आदर्श संघ स्वयंसेवक - राजकुमार भाटिया

3. नश्वरता से अनश्वरता - कृष्ण लाल पठेला

4. वे माटी की पीड़ा जानते थे - प्रभात झा

5. जीवन-मूल्य : मानदंड - द. बा. ठेंगड़ी

6. अंतिम रूपरेखा नहीं : केवल दिशादर्शन - द. बा. ठेंगड़ी

सोपान - 5 ( संस्मरण)

1. प्रभाकर घाटे

2. दत्ता रावदेव

3. सरोज मैत्र

4. बाबा साहेब तकवाले

5. आर. वेणुगोपाल

6. केशव भाई ठक्कर

7. कृष्ण लाल पठेला

8. शब्द संकेत

पारिभाषिक शब्द

भा.म.स (BMS) - भारतीय मजदूर संघ

दादा साहेब - दादा साहेब काम्वले (भा.म.स के प्रथम अखिल भारतीय अध्यक्ष)

एन.ओ.बी.डब्लयु. (NOBW) - नेशनल आर्गेनाईजेशन आफ बैंक वकरर्स (भा.म.स)

ए.आई.बी.ई.ए. (AIBEA) - आल इंडिया बैंक ईम्पलाईज एसोशिएशन (साम्यवाद समर्थित)

एन.एफ.पी.टी.ई. (NFPTE) - नेशनल फेडरेशन आफ पोस्ट एण्ड टैलीग्राफ ईम्पलाईज (साम्यवादी वर्चस्व)

सन 1955 - भा.म.संघ स्थापना वर्ष

अमृतसर में सेक्रेटरी की रिपोर्ट - भा.म.संघ के चौथे अखिल भारतीय अधिवेशन अमृतसर (अप्रैल 1975) में महामंत्री श्री ठेंगड़ी जी का प्रतिवेदन

सी.आई.टी.यू. (CITU) - सेंटर आफ इंडियन ट्रेड युनियन्ज (मार्क्सवाद समर्थित)

ए.आई.टी.यू.सी. (AITUC) - आल इंडिया ट्रेड युनियन कांग्रेस (वामपंथ समर्थित)

इंटक (INTUC) - इंडियन नेशनल ट्रेड युनियन कांग्रेस (कांग्रेस (आई) समर्थित)

पी.एस.पी. (PSP) - प्रजा समाजवादी पार्टी

एच.एम.एस. (HMS) - हिंद मजदूर सभा (समाजवादी समर्थित)

प.पू. श्री गुरुजी - रा.स्व.संघ के द्वितीय सरसंघचालक

भा.र.म.संघ (BRMS) - रेलवे कर्मचारीओं का अखिल भारतीय महासंघ (भारतीय रेलवे मजदूर संघ (भा.म.संघ)

सोपान - 1

' स्वाध्यायान्मा प्रमदः '

अखिल भारतीय कार्यकर्ता

अभ्यास वर्ग

27-31 अक्टूबर 1968

भुसावल (महाराष्ट्र)

( मा. ठेंगड़ी जी के उद्बोधन)

हमारे

यहाँ विपुलता

की अर्थव्यवस्था है।

अधिकाधिक उत्पादन करो - -

"शतहस्त समाहर , सहस्रहस्त संकिर"

(सौ हाथों से संग्रह करके हजार हाथों से बाँट दो)

यह आदेश है। इसमें अधिकाधिक लोगों

को उपभोग्य वस्तुएँ प्राप्त होती हैं ,

किंतु वस्तुओं के भाव घटते हैं।

हमारी वैदिक अर्थव्यवस्था

बाजार भाव लगातार

कम होने की

व्यवस्था

है।

सोपान - 1

प्रथम अखिल भारतीय कार्यकर्ता अभ्यास वर्ग

27-31 अक्तूबर 1968 भुसावल (महाराष्ट्र)

उद्घाटन सत्र

शून्य से प्रारंभ

उद्घाटन के निमित्त मुझे यहाँ खड़ा किया गया है। हमने भारतीय मजदूर संघ का कार्य शून्य से प्रारंभ किया था। क्षेत्र खाली नहीं था। हम जहाँ कहीं गए वहाँ पहले से यूनियनें और नाम प्राप्त नेता थे और गुडविल भी था। हमारे पास न नेता, न प्रसिद्धि और न पैसा। ऐसी विषम परिस्थिति में बुद्धि व्यवहार कुशलता के कारण काम बढ़ा।

ऐतिहासिक मांग

यह काम आवश्यक था इसलिए प्रारंभ किया। बाजार का यह सिद्धांत है कि मांग नहीं है तो माल नहीं बिकेगा। यदि माल बिकता है तो मांग थी यह बात स्पष्ट हो जाती है। यह भी एक ऐतिहासिक मांग थी। इसकी पूर्ति के लिए हम इमानदारी से आगे आए। दिल्ली में एक बड़े प्रतिष्ठान के उद्योगपति हमेशा कम्युनिस्टों को बढ़ावा देते थे और भारतीय मजदूर संघ के खिलाफ रहते थे। उनसे जब इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हमें किसी के सिद्धांत से प्रयोजन नहीं। हाँ एक बात जरूर है कम्युनिस्ट व्यवहार कुशल हैं और भारतीय मजदूर संघ बुद्ध। बात सही थी। उद्योगपति को कम्युनिस्टों से व्यवहार करना आसान था। हमारे से खरीददारी करना कठिन।

आदर्शवाद

हम आदर्शवाद को लेकर बढ़े। काम की आवश्यकता थी। हमारे पास आदर्शवादी लोग थे। पुराने अनुभवशील कार्यकर्ता के अभाव में भी हमने अपने आदर्श के माध्यम से आज तीन लाख से ऊपर की सदस्य संख्या कर लिया है।

विश्वकर्मा जयंती

हम नेतागिरी बनाने के कारण या 'निगेटिव्ह अॅप्रोच' (नकारात्मक सोच) लेकर नहीं आए हैं। हम दूसरों को खतम करने के लिए भी यहाँ नहीं आए हैं। हम 'पॉझिटिव्ह अॅप्रोच' (सकारात्मक सोच) अपनाकर मजदूरहित, उद्योगहित, राष्ट्रहित तीनों एक ही दिशा में जाते हैं - यह अच्छी तरह समझकर आगे आए हैं। देश रहेगा तो मजदूर का हित होगा, देश डूबेगा तो मजदूर भी डूबेगा यह भावना लेकर तथा मजदूर क्षेत्र में आवश्यकताओं और परंपरा का विचार कर के हम आए। आज की परिस्थिति में भारतीयत्व का प्रवेश मजदूरों में कैसे लाया जाए इसका भी प्रयास हमने किया है। सही न्यायपूर्ति करा देने के लिए हम आगे आए। जहाँ परंपरा और कानून के चौखट में काम करना है वह भी भारतीय मजदूर संघ ने किया। इतने दिनों से चलने वाले ट्रेड यूनियन आंदोलन में लोग 'अंतरराष्ट्रीय श्रम दिवस' मई दिवस मनाते रहे। हमारा 'राष्ट्रीय श्रम दिवस' कोई होना चाहिए किसी ने विचार ही नहीं किया। जब हमने देखा कि हजारों वर्षों से हमारा मजदूर 'विश्वकर्मा जयंती' मनाता चला आ रहा है तो हमने इसे ही 'राष्ट्रीय श्रम दिवस' के रूप में अपनाया और मनाया।

कॉस्ट ऑफ लिव्हिंग इन्डेक्स था (मूल्य सूचकांक था)। अन्य लोगों ने उसे ठीक कहा। किंतु सर्वप्रथम हमने कहा यह गलत है। विस्तृत विवरण पेश किया। आज उसी का फल है कि रिकंपाइलेशन (पुर्नसंकलन) ऑफ इन्डेक्स नंबर हो रहा है।

न्यूनतम वेतन

वेजेज क्या हो इसका शास्त्रीय आधार या विचार किसी ने नहीं रखा। भारतीय मजदूर संघ ने कहा सर्वप्रथम न्यूनतम वेतन निश्चित हो फिर विभिन्न कामों का जॉब इव्हॅल्युएशन होना चाहिए और संपूर्ण वेतन को महंगाई भत्ते से जोड़कर इसका संबंध वैज्ञानिक आधार पर निकाले गए जीवन निर्देशांक से कर देना चाहिए।

भारतीय मजदूर संघ : स्वतंत्र संगठन

मास्कों की आंखों से देखने के कारण कम्युनिस्ट मजदूर विरोधी नीति लेकर चल रहे हैं। भारतीय मजदूर संघ का कोई 'इझम' नहीं है। अब तो सभी इझम आऊट ऑफ (ईज्म कालवाह्य) डेट हो चुके हैं। राष्ट्रहित के चौकट पर कोई इझम नहीं है। व्यक्तिगत-नेतागिरी, वाद विशेष से परे, राजनीति व राजनीतिक दलों से स्वतंत्र, मजदूरों द्वारा, मजदूरों के लिए, मजदूरों के हित में काम करने वाला संगठन भारतीय मजदूर संघ है। कम्युनिस्ट ट्रेड युनियनिज्म चाहते भी नहीं और न ही वे समाधान चाहते हैं। रक्तिम क्रांति की बात मार्क्स ने कही, जिसे लेनिन ने दुहराया। बाकी ने भी कोई शास्त्रीय आधार नहीं दिया था। वैचारिक नेतृत्व की क्षमता भारतीय मजदूर संघ में है, जो हमारे विचार स्वातंत्रय के कारण है।

सर्वस्पर्शी मूल्य व वेतन नीति

हमें संकीर्ण कहा गया। इंटर-नेशनल बनना बड़ा आसान है। उत्तरदायित्वहीनता ही इंटरनेशलिजिम है। हम दुनिया के मजदूरों के एक होने की बात कहते हैं। किंतु पड़ोस के बीमार बालक का बुखार देखने को थरमामीटर नहीं देते हैं - तो इंटर-नेशनल बात कहाँ हुई। जहाँ कहीं भी नेशनैलटी है वहाँ इंटरनेशनल की बात कहकर आज कम्युनिस्ट दरार डाल रहे हैं। कम्युनिस्टों में दक्षिणपंथी और वामपंथी कम्युनिस्ट दो ग्रुप हो गए हैं। एक रामलीला के अवसर पर तो यहाँ तक देखने में आया है कि रामलीला समिति दो गुटों में बंट गई और उसी अनुसार भगवान राम का भी बंटवारा हुआ। जब कि भगवान राम तो एक हैं। एक दूसरे के राम को झूठ बतलाने वाले कम्युनिस्ट कैसे एकता की बात करते हैं? इसीलिए भारतीय मजदूर संघ का स्वागत हुआ। हम यहाँ राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार करेंगे। राष्ट्रीय आयनीति, राष्ट्रीय उत्पादन नीति, राष्ट्रीय वेतन नीति, राष्ट्रीय मूल्य नीति तय होनी चाहिए जिसके लिए सभी आर्थिक हित पक्षों की एक गोलमेज कांफ्रेंस बुलाकर चौथी पंचवर्षीय योजना के समय सभी पक्षों की बात समझने की आवश्यकता है। इससे एक सर्वस्पर्शी उत्पादन नीति, आय नीति, मूल्य नीति एवं वेतन नीति निर्धारित हो सकेगी।

संतुलित अर्थव्यवस्था

आज देश की संपूर्ण संपत्ति 75 औद्योगिक परिवारों के पास है जिससे सारी अर्थव्यवस्था असंतुलित है। असंतुलित अर्थव्यवस्था को व्यवस्थित किया जाना है। यह मार्ग दर्शन आप दे सकते हैं, यह हमें विश्वास है। एक परिवार के सदस्य के रूप में हम 5 दिन यहाँ रह कर नये अस्त्र शस्त्र धारण कर यहाँ से जाकर सब काम करेंगे यह हमें विश्वास है।

प्रथम सत्र

भारतीय मजदूर संघ-अवधारणा

यह बात सबके ख्याल में आई हुई है कि हमारा कार्य निश्चित रूप से बढ़ रहा है। अपने प्रयास के कारण हो, परिस्थिति की अनुकूलता के कारण हो। अन्य संस्थाओं की कमजोरियों के कारण हो या भगवान के आर्शीवाद के कारण हो, या सभी कारणों का फल इस नाते से हो किंतु कार्य बढ़ रहा है। इस परिस्थिति में मैं समझता हूँ कि यहाँ बैठे हुए हम लागों ने कार्य की रचना के विषय में कुछ गहराई में जाकर सोचने की आवश्यकता है। वैसे, यह भी बात ठीक है कि सबसे नये संगठन के नाते हम श्रमिक क्षेत्र में आए हैं और यह भी बात ठीक है कि सबसे नये संगठन के नाते आते हुए भी हमारा काम बढ़ा है। कुछ कठिनाईयाँ हैं, कुछ विजय भी है - कुछ पराजय भी है। सब तरह की परिस्थितियों में से हम लोग जा रहे हैं। तो हम एक बात ठीक तरह से समझते हैं कि यूनियन के काम में घटना और बढ़ना यह चलता रहता है। और इस दृष्टि से यदि किसी लड़ाई में हमारी विजय हुई हो तो उससे बहुत आनंदित होने की आवश्यकता नहीं। और किसी लड़ाई में हमारी पराजय हुई हो तो उसके कारण बहुत दु:खीं होने की भी आवश्यकता नहीं। War and battle लड़ाई यह एक चीज है युद्ध यह दूसरी बात है।

हमें युद्ध जीतना है। हमें जो जीतना है वह युद्ध जीतना है। और युद्ध जीतना है इसलिए एकेक लड़ाई में भी जीतें यह भी आवश्यक हो जाता है। जरूर हो जाता है लेकिन लड़ाइयों में हो सकता है कई बार विजय प्राप्त होगी कई बार पराजय प्राप्त होगी। इस सबका जो सर्व साधारण अपना सदस्य है उसके मन पर तो असर होता ही है। एकादबार अपनी विजय हो जाएगी तो वह बड़ा आनंदित हो जाएगा, आप कभी हार गए तो वह एकदम दु:खी हो जाएगा। कभी उसका आत्मविश्वास बहुत बढ़ जाएगा, कभी एकदम वह सोचेगा कि हम सब खत्म हो गए। खासकर कुछ ऐसी मनोवृत्ति भी हमने देखी है कि कोई थोड़ी सी एक दो मांग पूरी हो गई तो फिर इतना आत्मविश्वास बढ़ जाना कि अब तो कुछ नहीं मास्को पर झंडा लगाएंगे, अब बीच में रुकने की कोई आवश्यकता नहीं। समझता है हमारी क्या ताकत है। और मान लीजिए कि थोड़ा सा 'सेटबॅक' मिल गया, कि वह एकदम अपने नेताओं को गाली देते हुए दिखाई देता है, कहता है, आपने ही हमको पिटाया-मरवाया खतम कर दिया, अच्छा होता हम आपके साथ न आते। तो ये दोनों एक्स्ट्रीम्स (चरम, अतिवाद), जहाँ तक सर्व साधारण सदस्य है, उनके अंदर पाये जाते हैं।

मजदूर क्षेत्र में तो कभी फूलों की माला कभी जूतों की माला पड़ती है। और इस दृष्टि से सर्वसाधारण सदस्य की मनस्थिति क्या है, यह एक अलग बात है। किंतु यहाँ आए हुए हम लोग प्रमुख कार्यकर्ता हैं। हम लोगों ने समझना चाहिए कि युद्ध जीतना यह एक बात है, लड़ाई जीतना और हारना यह दूसरी बात है। लड़ाई यदि हम जीतते या परिस्थिति अनुकूल आती, तो उसके कारण बहुत हर्ष न रखते हुए हम केवल कॅलक्युलेशन करें, विचार करें, कि इस अवसर का अपना काम बढ़ाने की दृष्टि से किस तरह अधिक से अधिक उपयोग हो सकता है। उसमें हर्ष विषाद की कोई बात नहीं। एक लड़ाई जीत ली या कोई अच्छा अवसर प्राप्त हुआ तो इसमें अधिक शांत चित्त से विचार करें कि आज की परिस्थिति के कारण हमारे सर्वसाधारण सदस्य, बाहर की यूनियन के सदस्य, सर्वसाधारण इसकी जो मनस्थिति है इसमें ज्यादा से ज्यादा काम बढ़ाने के लिए हम क्या कर सकते हैं।

मान लीजिए कि वह लड़ाई हम हार गए, फिर अपने लोगों की भी एक मनस्थिति है, बाहर के लोगों की भी एक दूसरी मनस्थिति है। दोनों का विचार करते हुए इसमें से भी काम बढ़ाने के दृष्टि से कैसे रास्ता निकाला जा सकता है। याने Difficulty रहे Opportunity रहे। एक के कारण हर्ष नहीं, दूसरे के कारण दुख नहीं। लेकिन दोनों का उपयोग काम की दृष्टि से कैसे किया जा सकता है यही विचार यहाँ बैठे हुए हम लोगों ने करना है। याने अवसर को ही केवल अक्स्पलाइट (उपयोग) करना है ऐसा नहीं difficulty को भी अक्स्प लॉइट किया जा सकता है। दोनों को अक्स्पलाइट करते हुए हमें आगे बढ़ना है। दोनों मान लीजिए कि हमारे कार्य के माध्यम है। Opportunity भी माध्यम है difficulty भी माध्यम है। और इसके कारण यह भी बात हम समझ लें कि यह जो आनंद और दु:ख की लहर अपने अनुयायियों में समय समय पर आती है उसका परिणाम हमारे मन पर न हो। मानो नेताओं के मन पर भी कार्यकर्ताओं के मन पर भी उसका असर हुआ, तो फिर वो नेतृत्व नहीं कर सकेंगे। तो हमारा मन स्थिर रहे शांत चित से हम विचार करें। और हम परिस्थिति में यह सोचें कि युद्ध जीतना है और लड़ाईयाँ जीतना इसलिए आवश्यक है कि युद्ध जीतने में सहायता हो। लेकिन यह भी समझ लें कि We may loose battles but we have to win the war (हम छोटी लड़ाईयां भले हार जाएं किंतु हमें युद्ध जीतना है) यह भी बात हम ख्याल में रखें और इसके कारण कहीं कुछ सेटबँक (नुकसान) आता है तो उस समय बहुत निराश होने की आवश्यकता नहीं। और इस दृष्टि से हम कार्य करते रहें इसकी आवश्यकता है।

सावधानी रखें

मुझे तो ऐसा लगता है कि पराजय की परिस्थिति में शायद इतनी सावधानी की आवश्यकता नहीं है जितनी विजय की स्थिति में है। क्योंकि पराजय की स्थिति में आपको जबरदस्ती से परिस्थितियाँ सावधान रखती हैं। हम जानते ही है कि पराजय हो रही है हम सावधान न रहेंगे मार खाएंगे। गफलत हो जाती है, गड़बड़ हो जाती है वह विजय की परिस्थिति में होती है। और इस दृष्टि से दोनों परिस्थिति में हम लोग समान सावधानी रखें यह आवश्यक हो जाता है। अब हमारा काम बढ़े, हमारी प्रगति हो यह हम सब चाहते ही हैं।

प्रगति का मापदंड

किंतु सवाल यह आता है कि भाई प्रगति का मापदंड क्या है? कैसे उसको तोलना है? कोई कह सकता है, कि हमने industrial डिसप्यूटस (औद्योगिक झगड़े) कितने हल किए इस पर उसको नापा जाए। इंडस्ट्रियल डिसप्यूटस में हम जीत भी सकते हैं हार भी सकते हैं। दोनों हो सकता है। भगवान ने किसी को यह नहीं लिख दिया कि बेटा हरेक डिसप्यूट में जीत ही करोगे। ऐसा नहीं। जीत भी सकते हैं हार भी सकते हैं। फिर हम लोगों ने विवरण सुना है हमेशा, उसका विचार करना है। सरकार, जनता, प्रेस सबकी दृष्टि से उसका महत्व है। वह है मेंबरशिप! इस मेंबरशिप की दृष्टि से हम प्रयत्नशील हैं ही।

किंतु हम यह भी बात समझ लें कि जहाँ एक युनियन का संबंध है वहाँ मेंबरशिप बढ़ भी सकती है घट भी सकती है। आपने तो यह अनुभव किया ही होगा, कि एकाद बार आप के कारण बोनस मिलता है तो आपकी मेंबरशिप बढ़ जाएगी। एकाद बार दूसरे के कारण बोनस मिलता है तो अपनी मेंबरशिप घट जाएगी। तो क्या हम समझें कि हमारी प्रगति या हमारी मेंबरशिप यह हमेशा एकदम बढ़ने वाली या एकदम घटने वाली ऐसी ही है। कुछ स्थायी मापदंड, कुछ क्रायटेरिया, जो स्थिर हो, स्थायी हो, ऐसा भी हमारे प्रगति का है, या केवल हमेशा घटने वाली या बढ़ने वाली मेंबरशिप को ही हम केवल मापदंड मानते हैं। तो भाई यह जो मापदंड है वह सरकार के लिए है। जनता के लिए है। अपना मापदंड जो होना चाहिए वह उससे अलग ही होगा। और वह क्या होगा?

जब मेंबरशिप बहुत बढ़ या घट जाए, इन्डस्ट्रियल डिसप्यूट हम जीतें या हारें यह न होते हुए, हमारी प्रगति हुई या नहीं इसका मापदंड एक ही होगा कि हमारा मास्टर माईंड ग्रुप (टोली) बढ़ता है या घटता है। क्वाटटी के (संख्या) हिसाब से बढ़ता है या घटता है। याने नंबर और क्वॉलिटी के (गुणवत्ता) नाते घटता है या बढ़ता है। यही एक स्थायी क्रायटेरिया है। बाकी सब अस्थायी बातें हैं। हम प्रयत्नशील जरूर रहें कि मेंबरशिप बढ़ती रहे। इंडस्ट्रियल डिसप्यूटस में हमारी जीत हो यह सब हम हमेशा करते रहेंगे लेकिन कोई स्थायी मापदंड होगा तो हमारा वर्किंग ग्रुप जो है वह संख्या की दृष्टि से कहाँ तक घटता है या बढ़ता है यही हमारा मापदंड है। यह जो वर्किंग ग्रुप है वह गुणात्मक दृष्टि से कैसा है यह कैसे समझा जा सकता है। आजकल तो और गुणात्मक दृष्टि से कहाँ तक घटता है या बढ़ता है यह अंदाज लगाना भी बड़ा कठिन हो गया है।

अच्छा कार्यकर्ता कौन

बाहर के लोगों के लिए प्रायः लेबर फील्ड में जैसे राजनीति में और दूसरे क्षेत्रों में अच्छा कार्यकर्ता वह ही माना जा सकता है जो जोरदार भाषण दे सकता है। भाषण के पहले या भाषण के बाद क्या है यह देखने का कोई ख्याल ही नहीं। जो अच्छा भाषण देगा उसको अच्छा कार्यकर्ता माना जाएगा। जैसे कार्यकर्ता के गुण क्या रहे क्या नहीं इसके बारे में बातचीत बाद में होगी ही लेकिन अच्छा कार्यकर्ता किसको समझें इसका सर्वप्रमुख क्रायटेरिया अगर कुछ होगा तो अपने कार्य के साथ उसकी एकात्मता कितनी, मैं और भारतीय मजदूर संघ और भारतीय मजदूर संघ और मैं, इस एकात्मता का विचार किसके मन में है यही सर्वश्रेष्ठ क्रायटेरिया है। हालांकि बाकी गुण समुच्चय यह उसका विचार बाद में हो सकता है लेकिन यहाँ सबसे श्रेष्ठ बात या यदि कुछ होगी तो यह कि भारतीय मजदूर संघ के साथ पूर्ण एकात्मता। यह बगैर आदर्श के नहीं आ सकती। इस तरह से हमारा हरेक कार्यकर्ता जो वर्किंग ग्रुप में हैं, वह कितना आदर्शवादी है कितना आयडेंटिफाइड (एकात्म) है अपने कार्य के साथ यह हमारी प्रगति की श्रेष्ठ कसौटी है। इस विषय में प्रगति हो।

आदर्शवाद और एकात्मता

हमारे साथ आने वाले जो लोग हैं उनकी प्रगति हो यह हम चाहते हैं। आदर्शवाद और एकात्मता जहाँ रहती है वहाँ बहुत फरक पड़ जाता है। मानों उसके अंदर जितने जितने गुण होंगे उनके फलस्वरूप जितना कार्य करना चाहिए, होना चाहिए उससे भी ज्यादा कार्य वह करता है ऐसा आपको दिखेगा। जो एकात्म नहीं हुआ वह कार्यकर्ता और जो एकात्म हुआ है वह कार्यकर्ता दोनों में बहुत अंतर दीखेगा। आदमी बड़ा श्रेष्ठ है बहुत बुद्धिमान है, चालाक है, खतरनाक है, सबकुछ है लेकिन कार्य के साथ एकात्म नहीं, उसको विश्वसनीय कहना बड़ा कठिन है। सबकुछ है लेकिन कार्य के साथ एकात्म नहीं है। भरोसेमंद कार्य के अलावा अपना व्यक्तित्व कुछ अलग ही रखता है तो उसको भरोसेमंद डिपेंडेबल, विश्वसनीय समझना बड़ा कठिन है। जो कार्य के साथ पूर्ण एकात्म है, कार्य का सुख याने मेरा सुख, कार्य का दुख याने मेरा दुख, कार्य का सम्मान माने मेरा सम्मान, कार्य का अपमान माने मेरा अपमान, इतना आयडेंटिफिकेशन (एकात्मता) जिसके मन में है, फिर उसमें गुण कम रहे, उसमें कोई आपत्ति नहीं, वह कम बुद्धिमान रहे, वक्ता रहे न रहे, इसकी फिकर नहीं किंतु संस्था की दृष्टि से कार्य की दृष्टि से उसकी डिपोंडिबेलिटी, विश्वसनीयता, यह मौलिक चीज है। कोई बहुत अच्छा वक्ता बुद्धिमान है, बहुत चतुर है फिल्ड वर्क भी अच्छा करता है लेकिन कार्य के साथ आडटेंटिफिकेशन नहीं तो उसकी डिपेंडिबिलिटी कम हो जाएगी। इसलिए हम स्वयं आयडेंटिफाइड हों, कार्य के साथ पूरी तरह एकात्म हो, और अपने साथीयों को कार्यकर्ताओं को भी हम आयडेंटिफाइड करें। यह बात आवश्यक हो जाती है।

कार्य के साथ एकात्मता

जहाँ एकात्मता है वहाँ कार्य करने का जो ढंग है वह बदल जाता है। हम देखें एक छोटा सा उदाहरण, कि भाई यह एक जो समिति है उसका मैं कुछ काम कर रहा हूँ, चैरिटेबल वर्क के नाते कर रहा हूँ यह सोचने वाले में और मैं याने भारतीय मजदूर संघ है यह सोचकर कार्य करने वाला इन दोनों में बहुत अंतर है। जैसे हम जानते हैं कि बड़े श्रीमान जो लोग होते हैं उनके यहाँ बच्चों को संभालने के लिए आया रखी जाती है। मानो कुछ महिला को रखते हैं। वह अपने मालिक के बच्चों को संभालती है। ज्यादा पैसा मिले इसलिए रखने की शायद ज्यादा कोशिश भी करेगी लेकिन जब वह बच्चों को यहाँ कपड़ा पहनाती है उसका दिल दूसरी तरफ रहता है। सोचती है कि मेरा बच्चा मेरी झोंपड़ी में जो सोआ हुआ है उसका इस समय क्या होता होगा। तो यहाँ जो काम करेगा तो आठ घंटे का काम है ज्यादा काम करूं तो मुझे ओवर टाईम चाहिए ये विचार उसके मन में जरूर आएँगे। लेकिन अपना बच्चा है तो ओवर टाइम का सवाल उसके सामने नहीं आएगा। बच्चा बीमार हो गया रात जागना पड़ता है। इसलिए ओवर टाईम देना चाहिए, नाइट अलाउन्स देना चाहिए ये बात अपने बच्चे की परवरिश करते समय नहीं आएगी। तो यह जो एकात्मता है, इस एकात्मता के साथ कार्य करने वाला जो कार्यकर्ता और केवल उस आया के समान काम करने वाला कार्यकर्ता दोनों में बड़ा ही अंतर है। गुणात्मक दृष्टि से हम यह सोचें कि हम एकात्म होकर आयडेंटिफाइड होकर स्वयं भारतीय मजदूर संघ का कार्य करें और लोगों को इस ढंग से आगे बढ़ाने की कोशिश करें।

पारिवारिक भावना

यह एक बात ख्याल में रखें और दूसरी बात कि यह जो एकात्म हुए हैं, आदर्शवादी हैं, किसी यूनियन में दो होंगे, चार होंगे, पाँच होंगे, दस होंगे, परिस्थिति के अनुसार नंबर बढ़ता जाएगा। तो उनका लक्ष्य एक हो ध्येय एक हो आदर्श एक हो और उन सब लोगों में सुसंवाद निर्माण हो यह भी बात हमने ध्यान में रखना चाहिए। मानों दोनों आदर्शवादी कार्यकर्ता हैं दोनों बहुत बुद्धिमान हैं, लेकिन सुसंवाद नहीं, आपस में पारिवारिक भावना नहीं, अलग अलग रीति से जाना चाहते हैं, तो कार्य नहीं होगा। हम वहाँ जो एक पारिवारिक वर्किंग ग्रुप निर्माण करना चाहते हैं वह निर्माण नहीं होगा। तो हमसे एकात्मता परस्पर सुसंवाद, होमिजेनटी (परिवार भाव) हार्मनी रहे।

सब कार्यकर्ता मिल कर एक मन

तरह तरह के आदर्शवादी कार्यकर्ता भी तरह तरह के हो सकते हैं। गुणवत्ता, बुद्धिमानी की बात छोड़ दीजिए लेकिन स्वभाव की हरेक की अलग अलग हो सकती है किंतु सब लोगों के स्वभाव की आपस में adjustment (तालमेल) हो आदर्श एक होने के कारण, लक्ष्य एक होने के कारण और इतना सुसंवाद कि मानों सब मिलकर एक मन तैयार हुआ है। जब थिंकिंग प्रोसेस (सोच विचार प्रक्रिया) चलेगी तो सब कार्यकर्ता मिलकर एक मन है, ऐसी परिस्थिति जब आ जाए, तब हम कहेंगे कि यह वर्किंग ग्रुप अच्छा है। संख्या बढ़ सकती है किंतु गुणात्मक दृष्टि से कि हरेक कार्यकर्ता आयडेंटिफाइड, आदर्शवादी, एकात्म और सब कार्यकर्ता पारिवारिक सुसंवाद लेकर आगे आगे बढ़ते हुए।

मास्टर माईंड ग्रुप

इसी को कुछ लोगों ने एक नामकरण किया है मास्टर माइंड ग्रुप - ऐसा हो, तो हरेक यूनियन में इस तरह का मास्टर मांडट ग्रुप निर्माण हो, वह गुण की और संख्या की दृष्टि से बढ़े। तो यह जो ग्रुप है यही हमारे घटने का या बढ़ने का क्रायटेरिया है, कसोटी है। मेंबरशिप कसौटी नहीं। तात्कालिक विजय ओर पराजय कसौटी नहीं। यह मास्टरमांइड ग्रुप हमारे बढ़ने का एकमेव क्रायटेरिया है और इस दृष्टि से जहाँ एक तरफ हम बाकी सब बातें करते, कन्सीलिएशन होता रहेगा निगोशिएशन्स होते होंगे। आर्बिटरेशन है अँडज्यूडीकेशन है, भाषण है सब कुछ है, किंतु हम ध्यान में रखें कि ये सब ऊपर जा सकता है नीचे आ सकता है किंतु एक बात स्थिर रूप से बढ़ाना है वह याने मास्टरमाईड ग्रुप नहीं बढ़ेगा तो आपको अखिल भारतीय मान्यता मिल जाए या अखिल विश्व की मान्यता मिल जाए इन अबसेंस ऑफ मास्टर माइंड ग्रुप-आप ज्यादा दिन चलने वाले नहीं। यह कार्य चल नहीं सकता। मास्टर मांइड ग्रुप के आधार पर कार्य चलता है।

एक समान कार्य

आपके हरेक कार्यकर्ता के पीछे बहुत काम है इसका मुझे ज्ञान है। और मैं यह जानता हूँ कि चौबीस घंटे भी आपके लिए पर्याप्त नहीं। कल जैसे हमारे सन्माननीय दादा साहेब ने कहा, उन्होंने दूसरे हेतु से कहा कि हमारे यहाँ सब समान हैं, प्रेसिडेंड और सामान्य सदस्य जब तक जैसे हैं कार्य व्यस्तता की दृष्टि से भी सब एक जैसे हैं। मैं जानता हूँ कि जितनी परेशानी मैं उठा रहा हूँ दादा साहेब उठाते हैं उतनी ही परेशानी छोटे यूनियन का सेक्रेटरी उठाते हैं और इस दृष्टि से दोनों में कोई अंतर नहीं। अमाउंट ऑफ वर्क (कार्य की मात्रा) दोनों में समान है। टाइप ऑफ बर्क (कार्यस्तर) डिफरेन्ट है। अमाउंट ऑफ वर्क ईक्वल टु ऑल (कार्य की मात्रा सब के पास एक समान है।) तो बहुत झंझटे हैं। हम जानते हैं, भाषण के लिए जाना पड़ता है, कई लोगों के साथ बातचीत करनी पड़ती है जो रुठ गए उनको मनाना पड़ता है, जो ज्यादा खुश हुए हैं उनको नीचे लाना पड़ता है।

कन्सिलिएशन के लिए जाना पड़ता है, अर्बिटरेटर के सामने जाना पड़ता है हजार झंझटे हमारे कार्यकर्ता के सामने हैं। लेकिन इन सब बातों को संभालते हुए हम अपना ध्यान इस बात पर केंद्रित करें कि हम कार्यकर्ताओं का ग्रुप किस तरह बना रहे हैं। मैं समझता हूँ कि यह यदि हुआ, तो फिर जो कुछ भी गड़बड़ होगी, सरकार के दृष्टि से हमें मान्यता है या नहीं इसकी फिकर न करते हुए हम इधर ध्यान केंद्रित करे। हर यूनियन का अपना अपना मास्टर माइंड ग्रुप हो, हर फेडरेशन का स्थान का हर प्रांत का अपना अपना मास्टर माइंड ग्रुप हो।

प्रत्येक कार्यकर्ता आदर्शवादी हो

जिसका मतलब यह होगा कि हरेक कार्यकर्ता आदर्शवादी हो, एकात्म हो, आयडेंटिफाइड हो, और इस तरह के सभी कार्यकर्ताओं का आपस में इतना-सुसंवाद, सामंजस्य पारिवारिक भाव हो कि मानो सब मिलकर एक मन हो गया है। इस तरह का ग्रुप निर्माण करने की हम कोशिश करें। और उसकी संख्या बढ़ाने की गुणवत्ता बढ़ाने की कोशिश करें तो स्थायी रूप से हमारा कार्य बढ़ाने का रास्ता हमने लिया है ऐसा सोचा जाएगा।

द्वितीय सत्र

मार्क्सवाद : वैचारिक विश्लेषन

समाज पुनर्रचना - हमारा लक्ष्य

हमारा एक भावात्मक दृष्टिकोण है और यह दृष्टिकोण है कि भारतीयता के आधार पर पुनर्रचना हो। जब हम भारतीयता के आधार पर पुनर्रचना का विचार करते हैं तो स्वाभाविक रूप से इसके प्रतिकूल जितनी भी बातें होंगी, सिद्धांत होंगे, जो विचार होंगे, उनका विरोध हमारे द्वारा होता है। इसके कारण कभी कभी गलतफहमी भी होती है। यह भारतीय मजदूर संघ क्यों पैदा हुआ? तो केवल कम्युनिस्टों का विरोध करने के लिए पैदा हुआ ऐसा भी सोचने वाले लोग हैं। अब यह बात तो सत्य नहीं, कम्युनिज्म और राष्ट्रद्रोह हम किसी का विरोध करने के लिए निर्मित नहीं हुए। हम तो अपने समाज की पुनर्रचना करने की दृष्टि से, उसका एक महत्वपूर्ण अंग इस नाते मजदूर क्षेत्र की रचना करने के लिए आगे बढ़े हैं। फिर भी विरोध होता है। जैसे कि किसी कमरे में अंधेरा हो और वहाँ यदि हमने अपना दीया जलाया, तो हम तो कोई नारा नहीं देते कि अंधेरे ने कमरे में से हटना चाहिए किंतु साधारण परिणाम के रूप में जैसे ही हमारा दीया जल जाता है अंधेरा हट जाता है। तो यह सोचा जा सकता है, कि भाई ये अंधेरे का विरोध करने वाले लोग हैं। इस अर्थ में यदि देखें तो हम विरोधक हैं। अपना पॉझिटिव्ह (सकारात्मक) काम करते हुए भी, क्योंकि उसके प्रतिकूल, विरोधी विचार रचनाएं आज काम कर रही हैं। हमें अपनी पुनर्रचना करते-करते स्वाभाविक रूप से उनको पीछे हटाने का काम करना पड़ेगा। ऐसे जो विचार है उनमें प्रमुख विचार याने मार्क्स ने दिया हुआ विचार है।

कम्युनिज्म के कारण राष्ट्रद्रोह फैलता है

उनके विचारों के विषय में हमारी भावनाएं इस तरह की प्रतिकूल क्यों? यह समझ लेना भी बड़ा आवश्यक है। क्या हम माक्सवाद के प्रतिकूल केवल इसलिए हैं कि वह राष्ट्रद्रोह का प्रचार करता है? कम्युनिज्म के कारण राष्ट्रद्रोह फैलता है यह बात साफ ही है। उदाहरण के लिए ही केवल बताया जाए तो दूसरे महायुद्ध के समय जैसे ही हिटलर की फौज फ्रांस में घुस गई तो चूँकि हिटलर ओर स्टॅलिन का उस समय समझौता था फ्रांस के डिफेन्स इंडस्ट्रियों में काम करने वाली कम्युनिस्टों की यूनियनों ने अपने मातृभूमि के विरोध में जाते हुए आक्रामक हिटलर की फौजों का स्वागत किया। हमारे देश में भी 1942 के समय सारी जनता स्वातंत्र्य संग्राम में जुटी हुई थी और चूँकि रूस और ग्रेट ब्रिटेन का समझौता हो गया था यहाँ के कम्यूनिस्टों ने ग्रेट ब्रिटेन के युद्ध को पीपल्स वॉर घोषित करते हुए स्वातंत्र्य संग्राम के पीठ में छुरा घुसाने का काम किया। यह हम जानते हैं। चीनी आक्रमण के समय यह आक्रमण है या नहीं और अगर होगा तो उनका हमारे ऊपर है या हमारा उनके ऊपर है यह भी चर्चा जिन लोगों ने चलाई उनके राष्ट्रद्रोहिता के विषय में और कुछ कॉमेंट्स करने की आवश्यकता नहीं। किंतु क्या वह राष्ट्रद्रोही हैं इसीलिए हम उनका विरोध करें?

कम्युनिज्म श्रमसंघ विरोधी

दूसरा विचार आता है। हम सब लोग जानते हैं कि कम्युनिज्म ट्रेड यूनियन के भी विरोधी है। वह मजदूरों के भी विरोध में है। यहाँ हमारे कुछ भोले-भाले लोग भले ही समझते हों कि भाई मजदूरों का कॉज याने कम्युनिज्म! वास्तव में यह बात नहीं यह सब लोग जानते हैं। परसों मैंने जैसे निर्देश किया था - कार्लमार्क्स ने स्पष्ट रूप यह लिखा है कि 'जेन्युइन' ट्रेड यूनियन को नहीं चलने देना चाहिए। क्योंकि हमारा उद्देश्य है अंतिम कम्युनिस्ट क्रांति। यह तभी हो सकता है जब मजदूर भूखा रहेगा, प्यासा रहेगा, असंतुष्ट रहेगा तभी तो वह क्रांति के लिए मरने की तैयारी करेगा। जेन्युइन ट्रेड यूनियन के द्वारा उसकी जो तात्कालीन भौतिक आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति होती है, और जिनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती हैं वे फिर हमारी क्रांति के लिए मरने को क्यों तैयार होंगे? इस दृष्टि से जैसे हर संस्था में कम्युनिस्टों ने घुसना चाहिए चाहे ट्रेड यूनियन हो या भजन मंडल हो और उसको अपने पार्टी के माध्यम के नाते उपयोग में लाना चाहिए - वैसे ट्रेड यूनियन में जरूर घुस जाइये, इनफिल्ट्रेट कीजिए इसको डॉमिनेट (वर्चस्व) करने का प्रयास कीजिए! किंतु वह सही ट्रेड यूनियनज्म के आधार पर नहीं चले यह भी देखिए। और उसके द्वारा असंतुष्ट मजदूरों को भड़काने का काम किया जाएगा यह देखिए यह स्पष्ट बात कार्ल मार्क्स ने कही है।

इसी को आगे बढ़ाते हुये लेनिन ने स्पष्ट रूप से कहा कि भाई पार्टी के लिए स्कूल ऑफ कम्युनिज्म के नाते हमें यूनियन में घुसना है। फिर जो कम्युनिस्ट नहीं है उनके खिलाफ झूठा प्रचार करो, गलत बातें कहो, लोगों को मिसलीड करो इत्यादि सारी बातें 'लेफ्ट इन कम्युनिज्म' नाम के किताब में आपको पढ़ने को मिलेगी। उनकी अच्छाई इतनी ही है कि जो उनके मन में था उन्होंने ब्लॅक अॅन्ड व्हॉईट में लिख दिया। तो इस तरह से ट्रेड यूनियन के विषय में कम्युनिस्टों की धारणा हैं! आज जो लोग समझते हैं कि ट्रेड यूनियन उनका सही हथियार हैं वह गलत है! उल्टा कहा जा सकता है कि जहाँ-जहाँ ट्रेड यूनिअॅनिझम पहले से आया वहाँ कम्युनिज्म नहीं आ सका। जैसे मार्क्स ने कहा था कि जहाँ इंडस्ट्रीयालयझेशन ज्यादा हो इसके कारण इंडस्ट्रीअल वर्कर्स की संख्या ज्यादा हो, वहाँ कम्युनिस्ट क्रांति पहले होगी! तीन देश इस तरह के थे जर्मनी, ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका! किंतु तीनों देशों में अभी तक क्रांति नहीं आई! और क्रांति पिछड़े हुए देशों में आई! कहीं चायना कहीं रूस! मानों यह मास के भविष्यवाणीके प्रतिकूल बात हुई। और इसका कारण अगर कुछ होगा तो ट्रेड यूनियन और को-ऑपरेटिव्ह ये दो आंदोलन जर्मनी ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका में बद्धमूल हुए थे। तो ट्रेड यूनिअॅनिझम और को-ऑपरेटिव्ह आंदोलन पहले से जहाँ अच्छा चलता है वहाँ कम्युनिज्म नहीं आ सकता है, यह बात स्पष्ट है। जहाँ कम्युनिज्म आया मानों रूस और चाईना वहाँ ट्रेड यूनिअॅनिझम नहीं था यह भी आपको देखने के लिए मिलेगा। कोई बड़ी औद्योगिक मजदूरों की संख्या नहीं थी, रूस और चाइना का उन दिनों में बड़ा इंडस्ट्रियलायझेशन नहीं हुआ था, और यूनियन्स के आधार पर क्रांति हुई ऐसा कहने के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। क्रांति के बाद भी कम्युनिस्ट देशों में ट्रेड यूनियनिज्म पनप रहा ऐसा नहीं दिखता। उलटे यही दृश्य दिखता है कि ट्रेड यूनियनिज्म को खत्म करने का प्रयास चल रहा।

रूस में हड़ताल का अधिकार नहीं

रूस में ट्रेड यूनियन को आज कोई भी स्वातंत्र्य नहीं - अपने पदाधिकारियों का स्वयं चुनाव करने का स्वातंत्र्य नहीं। पार्टी की ओर से जो संकेत आएगा उसी के अनुसार पदाधिकारियों को चुनना पड़ता है। हमारे यहाँ बैंक कर्मचारी आंदोलन चला रहे हैं। हमने कम्युनिस्ट भाईयों को कहा कि भाई आपको आंदोलन चलाने का कोई अधिकार नहीं वह तो हमें ही है। आपको अधिकार नहीं इसलिए कि आपके देशों में, चाहे वह मातृदेश रहे या पितृदेश रहे रूस देश या चाइना रहे तो आपके देशों में ऐसा कोई अधिकार मजदूरों को नहीं। रूस के भी और चाइना के भी बैंक कर्मचारी उस तरह डिमेनस्ट्रेशन (प्रदर्शन) नहीं कर सकते, जिसको 46 ए.डी. के द्वारा प्रोहिविड किया गया है। रूस में हम जानते हैं कि कम्युनिस्ट क्रांति के पश्चात मजदूरों ने लगभग प्रतिसाल विद्रोह किया, लाखों की संख्या में उनको मारा गया। हम लोग यह जानते हैं मजदूरों को स्ट्राइक करने का कोई स्वातंत्र्य नहीं। अपनी मांग के लिए क्लेक्टिव्ह बार्गेनिंग (सामूहिक सौदेबाजी) के लिए कोई प्रेशर टेक्टिक्स का स्वातंत्र्य नहीं। सरकार और मजदूर के बीच में लियासन (बिचौलिए) नाते ही यूनियन को काम करना पड़ता है।

याने सरकार की जो प्लॅनिंग होगी उसको कार्यान्वित करवाने की दृष्टि से यूनियन के पदाधिकारियों का उपयोग होता है। मुझे स्मरण है कि अभी के हमारे दौरे में हम लोग ताश्कंद गए थे। वहाँ लेनिन क्लेक्टिव्ह फार्म पर हमको ले गए। तो वहाँ हमने चेयरमैन साब को पूछा कि साहब आप यह बताइये कि आप चेयरमैन बने कैसे? यूवेअर इलेक्टेड, सिलेक्ड या अपॉइंटेड अथवा नॉमिनेटेड-ऑर व्हॉट? तो उन्होंने कहा इलेक्टेड! हमने कहा, भाई किसने आपको इलेक्ट किया? तो उन्होंने कहा हमारे फार्म पर यह 1600 फार्मर्स हैं उन्होंने हमको इलेक्ट किया? फिर आधा घंटा इधर-उधर की बातें की फिर धीरे से पूछा कि यहाँ कुछ ट्रेड यूनियन्स भी चलती हैं? बोले हाँ हाँ। यहाँ के फार्मर्स की यूनियन हैं। तो हमने कहा, यूनियन के पदाधिकारी जो है उनका चुनाव कौन करता है? वे भूल गए कि आधे घंटे के पहले हमने क्या कहा था? बोले हमारे फारमर्स! तो फिर हमने पूछा कि क्या इसका मतलब यह होता है कि मैंनेजमेंट के पर्सनल का चुनाव करने वाला जो इलेक्टोरेट है वह और ट्रेड यूनियन के पदाधिकारियों का चुनाव करने वाला इलेक्टोरेट दोनों आयडेन्टिकल हैं? तो उसमें से वह कोई ज्यादा फर्क नहीं कर सका? तो वास्तव में कोई स्वातंत्र्य नहीं और यूरोप में भी जहाँ आज मजदूरों का शासन हैं वहाँ मजदूरों ने भी अपनी इच्छा से इन शासनों का स्वागत नहीं किया।

उल्टा हम देखते हैं कि हंगरी में ईस्ट जर्मनी में लड़ाईयां हुई, वहाँ के किसानों ने, मजदूरों ने कम्युनिस्टों के खिलाफ लड़ाईयां की, हां! यह बात ठीक है कि रशियन टैंक्स ॲन्ड रशियन बुलेटस वेअर मोअर पॉवरफुल! और आज भी वहाँ कोई बड़ी स्वस्थता है ऐसा दिखाई नहीं देता। चाइना की तो बात ही छोड़ दीजिए। चाइना में जेन्युइन ट्रेड यूनॅनिझम अब न चले इसलिए कम्युनिस्टों में भरसक प्रयास किए, वहाँ ट्रेड यूनियन के नेताओं ने कम्युनिस्ट शासकों का विरोध किया फलस्वरूप दस साल पहले उन्होंने ऑल चाइना ट्रेड यूनियन्स को डिझॉलव (विसर्जित) कर दिया। और झंझट से मुक्त हो गए। माने इस तरह से अंटी लेबर पॉलिसीज को लेकर कम्युनिज्म चल रहा है यह बात स्पष्ट है।

हमारे विरोध का कारण

क्या हम इसी के लिए उसका विरोध कर रहे हैं? यह बात ठीक है कि वह अंटी नेशन है, यह बात ठीक है कि वह अॅन्टी लेबर है किंतु केवल इसीलिए हम विरोध नहीं कर रहे हैं। विरोध जो हमारा है वह इसीलिए है कि उसके द्वारा समाज की धारणा नहीं हो सकती। चाहे हमारा समाज रहे रूस का समाज रहे, चाइना का समाज रहे जहाँ-जहाँ मनुष्यों का समाज है उसकी धारणा इसके द्वारा नहीं हो सकती। हम थोड़ा सोचें, बहुत ज्यादा गहराई में न जाते हुए भी कि उनके सिद्धांतों का आधार क्या है? मटीरिअॅलिझम है। भौतिकतावाद है। अब मैटीरिअॅलिझम का मतलब मैंने आपको बताया कि सारा अस्तित्व जो निकला है वह मैटर से निकला है, और मन वगैरा जो बात है, बुद्धि वगैरह जो बात है यह कोई भी बेसिक फंडमॉटल चीज नहीं है। माइंड इज ओन्ली ए सुपर स्ट्रक्चर ऑफ मॅटर और जो कुछ भी है मैटर हे, इस आधार पर सारी फिलॉसफी निर्माण हुई है।

भौतिकवाद बनाम अध्यात्मवाद

अब हम लोग जानते हैं कि मैटीरिअॅलिझम हमारे लिए तो बिल्कुल नया नहीं है। हमारे देश में स्पिरीच्युअॅलिझम (अध्यात्मवाद) की बात तो बहुत चलती है। इसलिए लोग मानते हैं कि हमें मैटीरिअॅलिझम (भौतिकवाद) का पता नहीं। गलत बात है। वास्तव में मैटीरिअॅलिझम का प्रारंभ ही हिंदुस्तान में हुआ। पाश्चिमात्य जगत में तो 2000 वर्ष पहले डेमाक्रॉटस नामक का जो एक ग्रीक तत्ववेत्ता हो गए उन्होंने मैटीरिअॅलिझम का प्रारंभ किया। किंतु हमारे यहाँ तो बिल्कुल प्राचीन काल में बृहस्पति ने मैटीरिअॅलिझम का पहला सूत्र कहा है जो सूत्र सुप्रसिद्ध है - 'असतो सत् अजायत' - अनस्तित्व से अस्तित्व आया और ऑफ नॉन अॅक्झिस्टंन्स इमर्जड अक्झिस्टन्स-इस प्रकार का एक बड़ी ही धृष्टता की बात कही और उसके बाद धीरे-धीरे मैटीरिअॅलिस्टिक फिलॉसाफी के बड़े-बड़े श्रेष्ठ लोग तैयार हुए, उन्होंने प्रचार किया। उनके अंतिम आचार्य चार्वाक बड़े ही प्रसिद्ध है, और आज के जो प्रोग्रेसिव्ह हमारे कम्युनिस्ट लोग, हमारे धर्म और उसके खिलाफ बोलते हैं, उनसे कम बोलने वाले तो चार्वाक नहीं थे। कितने अश्रद्धामय थे इसका भी उदाहरण देना हो तो 12 उदाहरण दूंगा।

चार्वाक का चिंतन

चार्वाक ने कहा, कि भाई ये जो सारे धर्म और वगैरह बात बोलते हैं झूठ है। उन्होंने कहा कि "न स्वर्ग नापवर्गोवा नवाप्ता पारमार्थिकाः नैव वर्णाश्रमादीनाम् क्रियाश्च फलदायिका" यहाँ स्वर्ग नहीं है, अपवर्ग नहीं है कोई यहाँ से ऊपर आत्मा है यह बात भी गलत हैं। और यह जो वर्ण बोलते हैं आश्रम बोलते हैं, धर्म बोलते हैं, इससे कोई भी फल प्राप्त होने वाला नहीं है। श्राद्ध के समय जो पिण्डदान करते हैं उनके बारे में कहा, यदि यहाँ पिण्ड देने से पितर स्वर्ग में तृप्त हो जाते हैं, तो ब्राह्मण लोगों ने ऊपर स्वर्ग में बैठना चाहिए हम यहाँ उनको नैवद्य देते हैं, पिण्डदान करते हैं; उनको वहाँ से ही तृप्त होना चाहिए यह कहा, चूँकि बली देने के कारण यदि पशु स्वर्ग में जाता है, और यज्ञ करने वाले लोगों को पशु को स्वर्ग में भेजने की इतनी जल्दी है तो वही जल्दी अपने पिताजी के बारे में क्यों नहीं दिखाते? तो उन्होंने कहा कि 'स्वपिता-यजमानेन तत्रं कस्मान न हिंसते'-माने इस तरह से, उन्होंने यहाँ तक कहा कि आप वेद वगैरह क्या बोलते हैं? 'त्रय वेदस्य कर्तारः तीन लोगों ने वेद बनाया! भाई कौन? धूर्त, भण्ड, निशाचराः! ऐसा बोला! माने यह सब कहने वाले लोग अपने यहाँ थे।

यह कोई आज के प्रोग्रेसिव्ह लोगों की ठेकेदारी नहीं है कि वोही कहे। यह पहले भी कहा गया। इसका एक बड़ा सिस्टिमॅटिक सायन्स निर्माण हुआ जिसको लोकायतशास्त्र कहा गया। जिसका सूत्र है 'लोकायतमेवशास्त्रम्' यही सायन्टिफिक है बाकी अब अन्-सायन्टिफिक है। और इसकी विशेषता क्या है? 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्' जो प्रत्यक्ष है वही प्रमाण है, 'अनुमानम् अप्रमाणम्' अनुमान से जो बोलते हैं कि भगवान है; नहीं है वगैरे सारी चर्चा जो चलती है वह अप्रमाण है! बड़ा एक अच्छा सायन्स मटीरिअॅलिझम अपने यहाँ निर्माण हुआ। अब यदि वह चला नहीं इसका मतलब यही है कि 'इन फ्री अॅन्ड फेअर बॅटल, मैटीरिअॅलिझम बॉज डिफीटेड' (स्वतंत्र व न्यायपूर्ण युद्ध में भौतिकवाद का पराभव हुआ) तो हमारे लिए यह कोई नई चीज नहीं है। किंतु कोई कहेगा कि भाई भारतीयता जब नाम लेते हैं तो भाई आप अॅन्टिमटीरिअॅलिस्ट है। तो भाई हम अॅन्टिमटीरिअॅलिस्ट नहीं। अॅकॅडमिक ओपीनियन के नाते कोई मटीरिअॅलिझम को लेकर चलेगा हमें कोई आपत्ति नहीं। क्योंकि हमारे यहाँ तो विचार स्वातंत्र्य है। मानो जितने षडदर्शन हैं वो भी सभी कोई अस्तिकतावादी हैं ऐसी बात नहीं।

आचार्य कणाद का चिंतन

बड़े प्रसिद्ध आचार्य जो 'कणाद' थे उनके विषय में तो प्रसिद्ध है कि वे सायन्टिफिक अॅनॉलॉजी करते ॲटम (अणु) तक पहुंचे। ॲटमका नॅलिसीस (विश्लेषण) वे कर नहीं पाये। तो ही उनको मृत्यु आई। मृत्यु के पहले पत्नी ने कहा, कि भाई सारे जीवन में तो भगवान का विरोध किया अब मृत्यु की बेला आ गई हैं, अब तो कम से कम भगवान का नाम लेकर स्वर्ग में जाइये! तो उन्होंने कहा, भगवान का मुझे तो पता नहीं, मैं उसका कैसे नाम लूं? तो 'किलवः किलव' कहते हुये उनकी मृत्यु हुई! किलवः याने अँटम्स। अब इससे अधिक सायन्टिफिक थिंकिंग, मैं नहीं समझता दूसरे कहीं हो सकती है। तो इस तरह के लोग थे जिन्हें हमने आचार्य कहा! अब भगवान बुद्ध थे, उन्होंने कहा भाई भगवान है। नहीं, ईश्वर है, नहीं इस झंझट में मैं जाता ही नहीं! पॅक्टिकल क्या क्या करना है इतना ही बताऊंगा। उनको भी हम भगवान मानते हैं। श्रेष्ठ मानते हैं। तो इस तरह से मैटीरिअॅलिझम एक अपना अॅकॅडमिक ओपीनिअन के नाते व्यक्ति ने रखने में कोई आपत्ति नहीं। किंतु मैटीरिअॅलिझम को यदि कोई समाज रचना का आधार बनाएं तो हम उसका विरोध करते हैं। व्यक्तिगत ओपीनिअन के नाते विरोध नहीं करते। यहाँ मैटीरिअॅलिस्ट बनने का पूरा स्वातंत्र्य है। आप हिंदुस्थान में कुछ भी बन सकते हैं। और सब कुछ बनने के बाद भी आप भारतीय ही हैं और कुछ भी नहीं। तो सबको विचार स्वातंत्र्य है, लेकिन कोई यदि आग्रह करेगा कि समाजरचना चाहे हिंदुस्थान की हो, चाहे रूस की हो मैटीरिअॅलिझम के आधार पर ही हो सकती है - तो फिर उसका विरोध करना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि यह समाज की धारणा का सवाल है।

मनुष्य क्या केवल आर्थिक प्राणी है

अब हम यह सोचें कि वास्तव में मैटीरिअॅलिझम के आधर पर समाज रचना हो सकती है क्या?और स्वयं मार्क्स ने भी अपने सामने जो लक्ष्य, जो टार्जेटस् जो उद्देश्य रखे थे वे पूरे हो सकते हैं क्या? हम उदाहरण के तौर पर इसका विचार करें। जहाँ मैटीरिअॅलिझम आ जाता है वहाँ 'मैटीरिअॅलिस्टिक व्हॅल्यूज ऑफ लाइफ आ जाती हैं। भौतिक जीवनमूल्य आ जाते हैं। मानो यह सोचा जाता है, जैसा मार्क्स ने सोचा, कि मनुष्य यह आर्थिक प्राणी है। मॅन ईज अॅन इकोनॉमिक बीईग। और कुछ भी नहीं! आर्थिक प्राणी है। माइंड इज ए सुपरस्ट्रक्चर ऑफ मॅटर। इस दृष्टि से जो विचार है, भावना है, साहित्य है, कला है, रिलिजन है, एथिक्स है, यह सारा मॅटर का सुपरस्ट्रक्चर है। जैसे विशिष्ट कॉम्बिनेशन में यदि कुछ पदार्थ आ जाते हैं तो फर्मेंटेशन होता है। तो फर्मेंटेशन इटसेल्फ इज नॉट ओ फंडामेंटल थिंग! कुछ कॉम्बिनेशन के कारण, फंडामेंटल के कॉम्बिनेशन के कारण फर्मेंटेशन हो गया। वैसे मॅटर के जो अणू हैं उनके विशिष्ट कॉम्बिनेशन के कारण आपके मन में कोई कविता आ जाएगी, कोई सायन्टिफिक इन्व्हेन्शन्स आ जाएगा किंतु जो कुछ भी है मॅटर है, ऐसा यदि सोचा जाए, तो मनुष्य केवल भौतिक प्राणी है, आर्थिक प्राणी है यह मानना पड़ेगा। बाकी कुछ नहीं। इमोशनल बीईग नहीं, इंटलेक्च्युअल बीईग नहीं, सिपरीच्युअल बीईग नहीं, बाकी कुछ भी नहीं, नथिंग बट इकॉनॉमिक बीईग। और फिर इस दृष्टि से इतिहास का उन्होंने इंटप्रिंटेशन किया। कहा कि इतिहास जो कुछ भी हुआ है वह सारा मटीरिअल कन्सीडरेशन्स के कारण हुआ। जो कुछ भी इतिहास हो भौतिक घटनाओं के कारण ही हुआ है। और फिर जीवनमूल्य भी भौतिकता के कारण ही आ जाते हैं। तो भाई मामूली बात का भी विचार करें तो यह सबकुछ ख्याल में आ सकता है। बहुत बड़े सिद्धांत की ओर जाने की कोई आवश्यकता नहीं। अब यदि हमने कहा कि मटीरिअॅलिझम सही है या गलत है इसका निर्णय करने का ठेका हमने नहीं लिया। यह बड़े विद्वान लोगों का काम है।

भौतिकवाद सही या गलत

यद्यपि मार्क्स ने न्यूटन के फिजिकल सायन्स के आधार पर मॅटर (पदार्थ) को फंडमेंटल (आधार) माना तो जैसे ही आइनस्टाइन ने यह खोज की कि मॅटर एनर्जी में परिणत हो सकता है, एनर्जी मॅटर में परिणत हो सकती है, दोनों इंटर कन्व्हर्टेबल हैं, तो इसके कारण फंडमेंटल ऑफ मॅटर इज लॉस्ट! और सायन्स आज मटीरिअॅलिझम को स्वीकार नहीं करता। किंतु हम आज इस झंझट में जाते नहीं क्योंकि हम न न्यूटन हैं न आइनस्टाइन! हम इतना कहेंगे कि भाई जो विद्वान लोग हैं, वे अपनी लड़ाई लड़ते रहें हमें कुछ करना नहीं! आज मटीरिअॅलिस्ट हैं या नहीं इसके बारे में हमें संशय थोड़ा ही लेना है? इन्डीव्हिजुअली आप मटीरिअॅलिस्ट चाहे तो हो सकते हैं। किंतु यह आग्रह हम नहीं चलने देंगे कि मैटीरिअॅलिझम के आधार पर समाजरचना हो! क्यों? हम मामूली विचार करें, हम सारे मैटीरिअॅलिस्ट हैं, जो हमारे जीवनमूल्य कौन से होंगे-जैसे आज होते जा रहे हैं। वैसे केवल भौतिक जीवनमूल्य होंगे क्या? मानो रुपये की परिभाषा में ही हर चीज का विचार होगा क्या? और इसके कारण क्या होगा? कि यदि रुपये की परिभाषा में हर चीज का विचार होता है तो मार्क्स ने जो कहा है कि भाई ईक्वलिटी आनी चाहिए वह कभी आ भी नहीं सकती! और इक्वलिटी आएगी तो ह्यूमन प्रोग्रेस नहीं हो सकता! दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। मानो इक्वलिटी भी आ जाए, ह्यूमन प्रोग्रेस भी हो और जीवनमूल्य भौतिक ही रहें-तीनों का इक्ट्ठा रहना असंभव है। आप कहेंगे-कैसे असंभव है?

अब मामूली उदाहरण लीजिए। आपने केवल भौतिक जीवनमूल्य रखे, मनुष्य आर्थिक प्राणी है, यह मान लिया। अब उस दृष्टि से सोचने लगे। अब मैं स्कूल में जा रहा हूँ तो पढ़ाई करने में, अध्ययन करने में, कला प्राप्त करने में, व्होकेशनल ट्रेनिंग में मैं ज्यादा मेहनत कब उठाऊंगा? यदि मुझे ऐसा लगेगा कि भाई इसमें मेरे आत्मा को भी संतोष है - स्वान्तःसुखाय है - और दूसरा कि इससे मेरा विकास होगा। मैं यदि भौतिक प्रगति वाला हूँ तो मैं यह सोचूंगा कि यह विकास वगैरे क्या चीज है? इसमें से ज्यादा पैसा मिलेगा तब तो मैं काम करूंगा। अब आपने कहा इक्वॉलिटी भी आ जाए। तो कैसी इक्वॉलिटी आ जाएगी?

एक और दस का अंतर

भारतीय मजदूर संघ का सिद्धांत है कि कम से कम आमदनी और ज्यादा से ज्यादा आमदनी में कितना फर्क रहे? हमने कहा एक और दस का रहे! हालाँकि कम्यूनिस्ट रूस में एक और अस्सी का अंतर है। हमने कहा एक और दस का अंतर होना चाहिए। अब 1 और 10 का भी अंतर रहा और मान लीजिए कि बड़े आदमी डॉ. राधाकृष्णन है गजेन्द्रगडकर हैं, वह जो बड़े बन गए तो उसके लिए उनको बहुत मेहनत करनी पड़ी। बहुत अध्ययन करना पड़ा। और यदि मेरे जीवनमूल्य केवल आर्थिक भौतिक हैं और मुझे यही इक्वॉलिटी चाहिए तो क्या मुझे पागल कुत्ते ने काटा है जो मैं इतनी मेहनत करूंगा कि जिसके फलस्वरूप राधाकृष्णन और गजेंद्र गडकर और विश्वेश्वरय्या जैसा आदमी बन सकूं? मैं काहे के लिए कोशिश करूंगा? मैं सोचूंगा कि मैंने कुछ भी काम नहीं किया तो भी स्टेट की ओर से मिनिमम नीड्स् (न्यूनतम आवश्यकताओं) की तो पूर्ति होने वाली है। और बहुत कुछ काम किया तो भी एक और दस के अनुपात से ज्यादा पैसा मिलने वाला नहीं। तो फिर आइनस्टाइन बनने की कोशिश क्यों की जाए? मानों ह्यूमन प्रोग्रेस के लिए जो इन्सेंटिव्ह चाहिए वह क्या हो? हम यदि कहें, स्वान्तःसुखाय तो स्वान्तःसुखाय नाम की कोई बात कम्युनिज्म में नहीं है। क्योंकि माइंड ही नहीं। माइंड होगा तो स्वान्तःसुख होगा। माइंड यदि केवल सुपरस्ट्रक्चर ऑफ मॅटर है तो केवल स्वान्तःसुख वाली बात नहीं! तो फिर आदमी प्रयास क्यों करेगा? और इसलिए रूस में यह देखा गया कि लोगों का काम करने का इन्सेटिव्ह (प्रोत्साहन) खत्म हो गया!

अब आप कहेंगे कि इन्सेंटिव्ह दिया तो क्या होगा? आदमी यदि केवल आर्थिक प्राणी रहा और उसको प्रोग्रेस के लिए इन्सेंटिव्ह मिला तो वह प्रोग्रेस बहुत करेगा। इन्सेंटिव्ह आर्थिक रहेगा, इसके कारण डिस्पॉरिटी (अंतर) ऑफ इन्कम बढ़ जाएगी। फिर एकाद बड़ा व्यापारी बन सकता है, इण्डस्ट्रिअॅलिस्ट बन सकता है, रॉकफेलर बन सकता है, थोर बन सकता है। लेकिन इक्वलिटी नहीं आ सकती, आप समझ लीजिए कि दोनों में सायकॉलोजिकली बड़ा फर्क है। यदि हम इक्वलिटी का आग्रह रखे हैं तो फिर आइनस्टाइन और राधाकृष्णन बनने का कोई संभव नहीं। क्योंकि कोई इन्सेंटिव्ह नहीं क्योंकि जो बाकी इन्सेंटिव्ह, आर्थिक और भौतिक छोड़कर-बीइंग ए मटिरिऑलिस्ट आप मानते ही नहीं। और यदि आर्थिक भौतिक हैं तो जब तक मुझे ज्यादा पैसा नहीं मिलेगा तब तक मैं ज्यादा काम क्यों करूं? और यदि ज्यादा पैसा देंगे, याने पर्याप्त ज्यादा पैसा देंगे तो रेशो जो है वह बढ़ जाएगा।

रेशो (अनुपात)

अब हमारे यहाँ एक शिकायत आती है कि भाई यहाँ के टेक्नीशियन इंजीनियर्स सायन्टिस्ट, डॉक्टर्स, आदि इंग्लैंड, अमेरिका पढ़ने के लिए जाते हैं और वही प्रॉक्टिस शुरू कर देते हैं। नौकरी ले लेते हैं! क्यों नौकरी लेते? अब अपने नोबल प्राइज विनर जो खुराणा साहब, वे बाहर गए, क्यों गए? यहाँ हम लोगों ने उनको अच्छी ट्रीटमेंट नहीं दी यह तो बात सही है। किंतु दूसरी भी बात है कि केवल मटीरिअॅसिस्टिक इन्सेंटिव्ह होने के कारण उनको लगा कि भाई यह मेरी मातृभूमि होगी लेकिन इससे क्या ज्यादा फर्क पड़ता है? हम कहीं भी जाएंगे, स्वयं आराम से रहेंगे अमरीका में जाकर बसेंगे। शायद अपने प्रोग्रेस के लिए वे बसे हो, हम मानते हैं। चाहे मातृभूमि में इतना पैसा नहीं मिलता जितना अमरीका में मिलता है, इसलिए अमरीका में चले गए। याने फिर डिस्पॅरिटी बढ़ जाएगी। माने केवल आर्थिक और भौतिक जीवन-मूल्य यदि रहे और आपने कहा हम डिस्पॅरिटी नहीं बढ़ने देंगे तो इन्सेंटिव्ह फॉर प्रोग्रस ईज फिनिश्ड - और आप इन्सेंटिव्ह फॉर प्रोग्रेस रखेंगे, तो डिस्पॅरिटी विल बी देअर! दो में से एक हो सकता है। और यदि कम्युनिस्ट कहें कि प्रोग्रेस भी होगा और इक्वॉलिटी भी होगी तो दोनों साथ-साथ हो नहीं सकती। अब इसका अनुभव रूस में भी आ रहा है।

आपको यह पता होगा कि पहला स्फुटनिक जब अंतरिक्ष में गया उस समय क्रुश्रेव्ह साहब का स्टेटमेंट आया - कम्युनिस्ट होने के कारण ॲरोगण्ट होना स्वाभाविक ही था 'यह जो स्फुटनिक है यह कम्युनिज्म की यशस्विता का परिचायक है।' तो बट्रान्ड रसेल ने दूसरे ही दिन उसको अच्छा रिटॉर्ट किया। उन्होंने कहा कि यह कम्युनिज्म फेल्युअर का परिचायक है। और कारण उन्होंने बताया कि कम्युनिज्म के इक्वलिटी के सिद्धांत के अनुसार बाकी सब रशियन नागरिकों के समान ही आपने सब सायन्टिस्टों को ट्रीटमेंट दी होती, और उनको प्रिव्हिलेज्ड के नाते कोई अक्स्ट्रॉ फॅसिलिटीज न दी होती, कभी उनको स्फुटनिक तब पहुंचने का इन्सेंटिव्ह प्राप्त न होता तो आपका स्फुटनिक नहीं निकल सकता! आपने यह जो प्रिफरेन्शियल ट्रीटमेंट दी है इससे स्पष्ट होता है कि कम्युनिज्म के सिद्धांतों को छोड़ने के कारण सायन्टिफिक प्रोग्रेस हआ। इस तरह का बडा ही अच्छा रिटार्ट रसेल साबने दिया। तो इसमें ह्यूमन प्रोग्रेस का इन्सेंटिव्ह और समानता कैसे आ सकती है? इसकी किसी ने भी अभी तक कोई सुलझन नहीं दी।

पुराने वर्ग टूटे - नए वर्ग निर्मित हो गए।

आज वहाँ भी कोई इक्वलिटी की ओर सब लोग बढ़ना चाहते हैं ऐसा दिखता नहीं! जैसा मैंने कहा कि वहाँ एक और अस्सी का रेशियो है, वह तो है ही। इसके अलावा भी इन्होंने यह कहा था कि हम क्लासेस खत्म करेंगे। इक्वलिटी हो जाने से क्लासेस खत्म हो जाते हैं। अब ऐसा दिखता है कि पुराने क्लासेस तो खत्म किए गए किंतु नये रिजिम के अंतर्गत नये क्लासेस आए है। अॅडमिनिस्ट्रेटर्स और टेक्नीशिअन्स इन लोगों के अलग क्लास, बाकी सामान्य जनता का अलग क्लास वहाँ दिखता है। यहाँ तक कि यूगोस्लोवाकिया के डेप्युटी प्राइम मिनिस्ट जिलास ने न्यू क्लास नाम की एक किताब लिखी है। इस किताब में उन्होंने यह स्पष्ट कहा है कि पुराने क्लासेस को हमने खत्म किया और न्ये क्लासेस हमने निर्माण किए।

अधिकार पर रहते हुए क्रुश्रचेव्ह ने एक आर्टिकल लिखा था जो उस समय के लगभग सभी अखबारों में आया था, उसमें उन्होंने कहा कि 'मेरे सामने समस्या है नये आने वाले जनरेशन की। वह बोले, स्कूल कॉलेजेस में हम देखते हैं कि अॅडमिनिस्ट्रेटर्स अॅन्ड टेक्नीशियन्स के जो बच्चे होते हैं वे अलग ग्रुप करके इंटरव्हल में बैठते हैं। और वे सामान्य कुली और बाकी लोगों के, किसानों के साथ मिक्सअप करना भी बिलो डिग्निटी मानते हैं। तो यह जो डिस्पॅरिटी आती है यह कैसे दूर किया जाए यह मेरे सामने विचार है।' क्लासेस (वर्ग) कहाँ नष्ट होंगे, कैसे नष्ट होंगे कुछ पता नहीं चलता। वास्तव में बड़ा क्लासमिक्स का प्रचार किया जाता है किंतु क्लासेस हैं। वास्तव में, श्मशानभूमि में - जहाँ वे लोग हम लोगों को ले गए थे वहाँ पर पता चला कि जिंदा लोगों के क्लासेस हैं या नहीं बगैरा विवाद के विषय छोड़े तो भी मृत्यु के पश्चात भी क्लास सिस्टम है। मानो लेनिन मासोलियम पास-जो हायक्लास लोग हैं उनको ही गाड़ा जाता हैं। बाकी लोगों के सिमेट्री अलग है। भाई ये क्लासेस भी आपने लाये। केवल भौतिक रहने के कारण यह आपत्ति आ जाती है।

मूल आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए

अब आप कहेंगे कि इसके लिए भाई इलाज क्या है? इलाज एक है कि आप जरा भौतिकवाद के आधार पर समाज रचना की बात मत करो। अब डिक्शन करें, आर्टिकल लिखें, भाषण दें कि हाँ भौतिकतावाद ही सही है हमें कोई आपत्ति नहीं। अब कितने ही लोग कितनी ही बातें बोलते हैं। अपने हिंदुस्थान में साधु लोगों के आश्रम भी हैं और मेंटल असायलमस (पागलखाने) भी हैं तो किसी ने भी कुछ भी बात कही तो उसमें हमें कोई आपत्ति नहीं। विचार स्वातंत्र्य है, वाक्स्वातंत्र्य है सब कुछ है। लेकिन समाज रचना का आधार मैटीरिअॅलिझम को मत बनाईए।

हमारे यहाँ क्या था कि मनुष्य को केवल इकॉनॉमिक बीइंग (आर्थिक प्राणों) नहीं माना गया। मानों वह इकॉनॉमिक बीइंग है, वैसे इमोशनल बीइंग है, इंटलेक्युअल बीइंग, स्पिरीच्युअल बीइंग है और उसकी जो इकॉनॉमिक बीइंग के नाते आवश्यकता है उनको तो पूर्ति होनी ही चाहिए ऐसा माना गया था। क्योंकि जब तक प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती तब तक वह आगे का विचार कैसे कर सकेगा? यह कहा गया कि आहार, निद्रा, भय, मैथुन जो है वह तो होना ही चाहिए। इसके सिवा आदमी बढ़ नहीं सकेगा। लेकिन यह सोचा गया कि यह प्राथमिक आवश्यकतायें हैं। अंतिम आवश्यकता नहीं है! और इनकी पूर्ति होने के पश्चात उनको सारे सुख साधन इसलिए उपलब्ध किए जाए कि जिसके कारण उसको शांतता मिले, फुरसत मिले जिससे कि वो विकास की ओर संस्कृति की ओर बढ़ सके।

मानो सांस्कृतिक बातों की और ख्याल करने की दृष्टि से, पर्याप्त फुरसत और मनशांत होना चाहिए। इस दृष्टि से, सारी भौतिक आवश्यकताओं की उसकी पूर्ति होनी चाहिए। फिर यह सोचा गया कि जैसे भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति न होने के कारण भौतिक आवश्यकताओं के पीछे ही दौड़ने में सारा जीवन गुजारना पड़े यह भी बात मनुष्यता के लिए प्रतिकूल है। वैसे भौतिक आवश्यकता और भौतिक उपभोगों में ही उलझ जाना यह भी बात प्रगति के लिए बाधक है। तो इस तरह से आवश्यकताओं की पूर्ति होने के पश्चात मनुष्य ने देवतत्व के ओर बढ़ना चाहिए, संस्कृति की ओर बढ़ना चाहिए यह एक विचार अपने यहाँ रखा गया।

सर्वांगीण उन्नति

इसके कारण जीवनमूल्य दूसरे तरह के थे। अब उनको मैं एकदम 'स्पिरीच्युअल' बोलना या न बोलना इसका फैसला नहीं दे सकता - लेकिन मटिरिअॅलीस्टीक नहीं थे इतना कह सकता हूँ बाकी नाम कुछ भी दीजिए। 'नो फाईट फॉरवर्डस' इसके कारण क्या हुआ कि हमारे यहाँ यह सोचा गया कि हर एक मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होनी चाहिए। अब मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति कैसे हो सकती है? तो लोगों ने देखा कि प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति यह तो मामूली बात है। वह पूर्ति होनी ही चाहिए। पूर्ति हो जाएगी किंतु इसका विकास का मतलब यह है कि उसकी जो प्रकृति है, प्रवृत्ति है, टेंडन्सीज है अॅप्टीट्यूड है उनके अनुसार काम करने का उसको आनंद मिलना चाहिए। और इस दृष्टि से समाज की रचना इस तरह की होनी चाहिए कि अॅप्टियुड वाइज अरेंजमेंट ऑफ जॉब, जिसकी जैसी प्रवृत्ति होगी, इच्छा होगी उस तरह से उसको जॉब मिले।

गुणकर्म अनुसार काम

गुणकर्म के अनुसार जॉब मिले। और इस तरह से गुणकर्म के अनुसार यदि काम मिलेगा तो स्वान्तः सुखाय वह काम भी करेगा यह बात स्पष्ट है। आदमी बहुत काम करता है। जिस समय इच्छा के अनुकूल काम रहता है तो फिर Work and Rest का जो लाइन ऑफ डिमोर्केशन है वह भी खत्म होती है। वर्क बिकमस् रेस्ट ये भी अवस्था आती है जो इस तरह से मनुष्य का एक विकास भी हो उसके गुणकर्म के अनुसार ही हो, और इस तरह से हरेक व्यक्ति अपना विकास करते हुए, एक समाज के अंग के नाते रहे, यह बात हमारे यहाँ सोची गई। और इसमें यह सोचा गया कि इन्सेटिव्ह के बारे में क्या व्यवस्था की जाए? हमारे यहाँ बड़ी पिक्यूलिअर व्यवस्था की गई है। पाश्चिमात्य देश वेज डिफरन्शिअल विचार करता है, हमारे यहाँ वेज डिफरन्शिअल के साथ स्टेटस डिफरन्शिअल का विचार किया गया। दोनों का इकट्ठा विचार! और यह सोचा गया कि जैसे वेज आदमी को इन्सेन्टिव्ह देता है वैसे जो विशुद्ध भौतिकतावादी नहीं उसको स्टेटस से भी इन्सेंटिव्ह मिलता है। सोशल रेकगिन्शन भी इन्सेंटिव्ह देता है।

उपभोग का दायरा

और इस दृष्टि से यह भी सोचा गया कि जिस मात्रा में सोशल स्टेटस बड़ा होगा उस मात्रा में उसका चिअर अप, एन्जॉयमेंट छोटा होना चाहिए, उपभोग का दायरा छोटा होना चाहिए। जितना उपभोग का दायरा बड़ा होगा उतनी सामाजिक प्रतिष्ठा कम होगी। आप वेज डिफरन्शिअल और स्टेटस डिफरन्शिअल में आपको जो कुछ चाहे वह चुन लीजिए। कुछ भी हो। समाज का नियम की जिसकी सामाजिक प्रतिष्ठ सबसे ज्यादा उसका उपभोग का दायरा सबसे कम, और जिसका उपभोग का दायरा सबसे ज्यादा उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा सबसे कम।

अपने अपने प्रवृत्ति के अनुसार आपको समाज में कहाँ बैठना हैं आप सोच लीजिए। मानों आप सभी उपभोग ले सकते हैं लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा कम रहेगी। सामाजिक प्रतिष्ठा हाय्येस्ट हो सकती है उपभोग का दायरा छोटा होगा। और इसके कारण हमारे यहाँ इन्सेंटिव्ह रहते हुए भी झगड़े नहीं हुए। क्योंकि जिन लोगों की प्रतिष्ठा में सोशल रेकगिन्शन में महत्व मालूम होता था - बीइंग नॉन मटीरिअॅलिस्टिक तो वो ज्यादा वेतन मिलेंगे तब मैं अन्वेषण का कार्य करूंगा ऐसा नहीं कहते थे। लंगोटी लगाते थे, जंगल में जाते थे लेकिन संपूर्ण समाज को जिन्होंने दिया है वे लंगोटी वाले थे। तो हाय्येस्ट स्टेटस-लोएस्ट वेजेस, हाय्येस्ट वेजेस-लोएस्ट स्टेटस यह हमारे यहाँ रखा गया। और इसके कारण समाज में संतुलन आया।

जीवन मूल्य

पाश्चिमात्य जगत में संतुलन नहीं है। आज हमारे यहाँ पिछले बीस इक्कीस सालों में संतुलन नहीं इसका कारण क्या है? इसका कारण स्फिअर ऑफ अंजॉयमेंट अॅन्ड सोशल स्टेटस गो टुगेदर। पैसे के द्वारा स्फिअर ऑफ अंजॉयमेंट बढ़ सकता है और जिसकी सामाजिक प्रतिष्ठा बड़ी होगी उसको ही ज्यादा पैसा मिलता है उसको अंजॉमेंट ज्यादा मिलती है इसलिए सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए झगड़ा है। आदमी सोचता है कि प्रतिष्ठा भी मिलेगी, उपभोग भी मिलेगा किंतु प्रतिष्ठा और उपभोग यदि हम लोगों ने इन्व्हर्स रेषो में रखा, मान लीजिए कि हमने कहा कि तुमको प्राइम मिनिस्टर बनाया जाएगा-लेकिन दो सौ दिन तक व्रत रखना पड़ेगा, शादी-ब्याह नहीं कर सकते, कुटिया में चाणक्य के समान रहना होगा, अच्छे फॅन्सी कपड़े नहीं पहन सकते, हर दिन दाढ़ी नहीं बना सकेंगे ऐसे सारे अपने नियम बनाये जाएंगे तो मेरा ख्याल है कि आज जो प्राइम मिनिस्टरशिप के लिए कांटेस्ट है उसमें से 99% लोग पीछे आ जाएँगे।

आप उनको दूसरी भी बात बताइये कि प्राइम मिनिस्टर मत बनो - सामान्य व्यक्ति के नाते रहो - यह सारा मिलेगा - दस शादियां आप कर सकते हैं कोई आपत्ति नहीं। लेकिन तुमको प्राइम मिनिस्टर नहीं बनाया जाएगा। मेरा ख्याल है कि सब लोग सोचेंगे कि ब्रह्मचारी रहते हुए प्राइम मिनिस्टर होना इससे दस शादियां करते हुए सामान्य नागरिक रहने में क्या आपत्ति है? ऐसा भी लोग सोच सकते हैं! क्योंकि "भिन्न रुचिर्हि लोकाः।" अलग-अलग लोगों की अलग प्रवृत्ति रहती है। तो इस तरह से सामाजिक प्रतिष्ठा और स्फिअर ऑफ एन्जॉयमेंट अिनव्हर्स रेशियों में, व्यस्त प्रमाण में रखा गया और जो इन्सेंटिव्ह है यह केवल भौतिक नहीं तो भौतिक के अलावा उसको नाम कुछ भी दीजिए - मैं जानबूझकर स्पिरीच्युअल्स का उपयोग नहीं कर रहा-क्योंकि बिटवीन स्पिरीच्युअल्स अॅण्ड मटीरिअल, देअर आर व्हेरिअस स्टेजेस - किंतु नॉन मटीरिअल इस तरह के इन्सेंटिव्ह यह यदि रहा तो समाज में संतुलन आ सकता है। फिर इन्सेंटिव्ह के कारण डिस्पॅरिटी बढ़नी चाहिए यह आवश्यक बात नहीं। डिस्पॅरिटी न बढ़ते हुए भी समाज का संतुलन आता है। क्योंकि जीवनमूल्य अलग हो गया।

जहाँ वेज डिफरन्शिअल का विचार होता है - जब मूल्यांकन होगा तो वेज अॅण्ड स्टेटस दोनों को मिलकर इव्हॅल्युएशन होगा इसके कारण समाज का संतुलन हमारे यहाँ रहा। यह बात जब तक नहीं होती, आपने सोशलिझम का नारा दिया तो भी या तो ह्यूमन प्रोग्रेस रुक जाएगा या इक्वालिटी खत्म हो जाएगी तो इस तरह से मामूली एक उदाहरण से सिद्ध होता है कि बड़ा इन्क्व्यलिटीक विचार किया जाता है किंतु यदि हम मटीरिअॅलिझम लेकर चलते हैं, केवल मटीरिअॅलिस्टिक लाइफ का विचार लेकर चलते हैं तो उन्होंने जो एक उद्देश्य रखा वह उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता। जब तक मटीरिअॅलिझम है तब तक क्लासेस रहने ही वाले हैं। और इसके कारण जब तक हम मटीरिअॅलिस्टिक व्हॅल्यूज को नहीं छोड़ते तब तक मार्क्स ने उद्देश्य अपने सामने रखे वह भी पूरे नहीं होते।

राज्यविहीन समाज

हम दूसरा उदाहरण देते हैं। उन्होंने कहा कि भाई हमारा अंतिम जो चीज है समाज का, वह कैसा है? जैसे क्लासलेस सोसायटी कहा वैसे स्टेटलेस सोसायटी भी कहा। देअर विल बी नो स्टेट-स्टेट बिल विदर अवे! बहुत अच्छी कल्पना है। क्योंकि हमारे यहाँ वैसा ही था। उस आदर्श अवस्था में हम लोग थे-हमारे यहाँ भीष्माचार्य को - युधिष्ठिर के द्वारा जब पूछा गया कि क्या यह स्टेट इन्टियूशन हमेशा ही थी? उन्होंने कहा कि स्टेट इंस्टिट्यूशन हमेशा नहीं थी। "न राज्यं नैव राजासीत न दंडयो नच दांडिकाः धर्मेणैव प्रजाः सर्वे रक्षन्तिस्म परस्परम्!"

पाश्चिमात्य और भारतीय समाज रचना में अंतर

भाई अपने यहाँ एक समय कोई स्टेट ऑफीशिअल्स नहीं थे। और कोई स्टेट नाम की संस्था नहीं थी। जिसको दंड देना है ऐसा भी कोई नहीं था दंड देने वाला भी कोई नहीं था - प्रिझन्स नहीं थे पोलिस ऑफीशिअल्स नहीं थे ज्यूडीशिअरी नहीं थी। फिर लोग एक दूसरे का संरक्षण कैसे करते थे? उन्होंने कहा - धर्म! धर्म के आधार पर करते थे। अब इसका मतलब क्या है, क्या इसके गहराई में जाने की आवश्यकता नहीं। इतना पर्याप्त है कि देअर वॉज अ स्टेटलेस सोसायटी। और दिस ईज ऑथेंटिकेटेड बाय भीष्म! उनको अॅथॉरिटी मानने में कोई आपत्ति नहीं। हालाँकि वो पाश्चिमात्य नहीं है। तो इस तरह से मानने में आपत्ति नहीं! किंतु इस स्टेटलेसनेस में से स्टेट संस्था कैसे आई इसका जो उन्होंने विवरण किया और आज पाश्चिमात्य जगत में हम जो दृश्य देखते हैं, दोनों की तुलना करना बड़ा उपयुक्त होगा। स्टेट विल विदर अबे जैसा तो पाश्चिमात्य जगत में कम्युनिस्टों ने कहा! क्या कहीं एक भी जगह आपको ऐसी कोई आशा दिखाई देती है कि स्टेट विल विदर अवे? नो! ऑन दि कांटररी स्टेट इज बिकमिंग अथॉरिटीरिअन। बहुत अथॉरिटीरिअन होते जा रहे हैं। मानो मनुष्य जीवन के सभी क्षेत्रों पर अपना ही प्रभाव रहे यही स्टेट की प्रवृत्ति है। फिर कला हो या और कुछ हो। ज्यादा इन्युमरेट करने की आवश्यकता नहीं। ईव्हन इन युवर प्रायव्हेड लाईफ स्टेट डिक्टेट करने जा रहा है।

ऐसी अवस्था कम्युनिस्ट देशों में आपको दिखेगी। तो इसका मतलब है कि विदरिंग अवे की कोई साइन्स नहीं। और मटीरिअॅलिस्टिक व्हॅल्यूज को लेकर जब हम चलते हैं तो स्टेट रॉल नेव्हर विदर अवे। क्यों न विदर अवे होगा? तो स्टेट आया क्यों? इसका हम कारण खोजें! तो ऐसा दिखेगा कि, भीष्म के कहने में ही आता है, शान्ति पर्व में आता है, बड़ा अच्छा विवरण है, युधिष्ठिर ने पूछा कि भाई ऐसी बात है तो फिर स्टेट आया क्यों? तो उन्होंने कहा कि, "मोहवश मात्रे न मनुजा मनुजर्षभ प्रति पत्ति विमोहाच्च धर्मस्तेषां अनीभषम्" - वो जो लोग थे वे मोहवश हो गए। मोह का मतलब टेम्टेशन नहीं, तो कन्फुजन! कन्फुजन ऑफ थॉट वहाँ पैदा हुआ। और इसके कारण उनका जो प्रतिपत्ति विमोहाच्च - उनका जो ओरिजिनल नॉलेज था वह नष्ट हुआ। और इसके कारण उनका जो धर्म था विघटित हुआ। फिर अपने यहाँ जैसी एक कहने की पद्धति है कि - दे वेटेड ऑन लॉर्ड विष्णु इन डेप्युटेशन - वैसे लोग गए। उनको बताया। और जो बताया है वह भी अच्छा है। उसमें आता है कि प्रश्न पूछा गया-व्हाय स्टेट वॉज नेसेसिटेड-व्हाय स्टेट वॉज इन्स्टिटयूटेड-उन्होंने कहा 'भगवन्नरलोकस्थं नष्टं ब्रह्म सनातनम्'। यह जो हमारा सनातन समाज है वह डिसइंटिग्रेट हो रहा है! क्यों?

समरस समाज रचना और भौतिकवाद

लोभ मोह आदि 'विर्भावैः तन्नोभव भुपाविश' - लोभ आदि भावों के कारण यह डिसइंटिग्रेट हो रहा है इसके कारण वुइ हॅव बिकम ॲप्रिहेन्सिव्ह! अब क्या किया जाए? तो भगवान ने कहा की-स्टेट इन्स्ट्टियूट कर लो तुमको राजा दे दूं। मानो स्टेट इस्ट्टियूट आई क्यों? तो समाज डिसइन्टिग्रेट होने लगा था धर्म की प्रवृत्ति नष्ट हो गई थी। याने समाज की धारणा जिन तत्वों पर होती है वे तत्व नष्ट हो रहे थे। और यह जो मटीरिअॅलिस्टिक टेन्डन्सीज है, लोभ मोह आदि जो भाव है ये बलवान हो रहे थे और इसी के कारण स्टेट आई! अब कम्युनिज्म यदि दावा करेगा की इसका फल क्या मिलेगा? तो विदरविंग अवे ऑफ दि स्टेट होगा तो यह हो नहीं सकता-मटीरिअॅलिस्टिक टेडन्सीज की बीज यदि आप बोते हैं तो उसमें से स्टेट इन्सिट्टयूट खत्म हो जाएगी यह आशा नहीं है। तो उनका ही जो उद्देश्य है - स्टेटलेसनेस आना चाहिए वह उनके मटीरिअॅलिझम के आधार पर नहीं आ सकता? तो ऐसा यदि हम विचार करते हैं तो दिखेगा कि क्लासलेस सोसायटी के बारे में, स्टेटलेस सोसायटी के बारे में, इक्वलिटी के बारे में, जो भी उन्होंने अपने उद्देश्य रखे हैं वहाँ सोचने के लिए रास्ता याने उनका मटीरिअॅलिझम नहीं। इतना हम समझ सकते हैं।

मार्क्स की भविष्यवाणी गलत सिद्ध हुई

और जैसा हम समझ सकते हैं वैसा कम्युनिस्ट भी थोड़ा बहुत समझने लगे हैं। और इसके कारण बड़ा रीथिंकिंग उनके मन में हो रहा है। इधर तो लोग हमको कहते हैं कि भाई आप कम्युनिज्म क्यों ले रहे हैं! उधर कम्युनिस्टों के मन में बड़ा रीथिंकिंग हो रहा हैं। रीथिंकिंग के कुछ उदाहरण यदि मैं बताऊं। तो क्या बी ऑल अन्ड अन्डॉल जो है वह मॅटरही है। आदि और अंत में मॅटरही है इसके विषय में बड़ा सन्देह निर्माण हुआ। मार्क्स की जो भविष्यवाणी थी वह गलत सिद्ध हुई यह मानना पड़ा। मास ने जो प्रक्रियायें बताई थी वैसा इतिहास ने मोड़ नहीं लिया इसको स्वीकार करना पड़ा। जो कहा गया था कि -रिच विल बिकम रचिर, पुअर विल बिकम पुअरर-पोलरायझेशन हो जाएगा - थोड़े लोग ऊपर रहेंगे बाकी सब नीचे रहेंगे जो माल पैदा होगा उसको खरीदने वाले कोई नहीं मिलेंगे और इसके कारण कॅपिटॅलिझम विल टंबल डाउन अंडर द बर्डन ऑफ इटस ओन सेल्फ काँट्रॅडिक्शन .... आदि जो कहा गया यह दृश्य कहीं भी दिखाई नहीं देता। - मिडल क्लास क्लास कहा है और जो लेबर क्लास कहा जाता है ये दोनों ऑलवेज अॅट लॉगर हेड्स रहेगा और क्रांति होगी ऐसा कहा लेकिन पश्चिम के कॅपिटॅलिझम कहाँ गए? अमेरिका में क्रांति की कोई आशा नहीं दिखाई देती। आज कॅपिटॅलिझम जो ही स्वरूप माक्स ने कहा था वैसा कहीं दुनिया में नहीं दिखाई देता और कम्युनिज्म का भी स्वरूप यदि कुछ उन्होंने कहा होता-कहा या नहीं इसके बारे में बाद में कहेंगे - वह भी दिखाई नहीं देता।

तीसरे प्रकार की समाज रचना

मानों कॅपिटॅलिझम इज नॉट सो कॅपिटॅलिस्टिक अॅन्ड कम्युनिज्म इज नॉट सो व्हेरी कम्युनिस्टिक इस तरह की विचित्र अवस्था आज दिखाई देती है। और यह भी दिखाई देता है कि जो कॅपिटॅलिस्टिक हैं, वे अपनी ही मनमानी चलाएंगे ऐसी कोई अवस्था अमरिका में नहीं है और मजदूरों के द्वारा शासन चल रहा है यह अवस्था रूस में भी नहीं है तो तीसरी ही अवस्था दोनों देशों में आती जा रही है यह दिखाई देता है। आगे चलकर यह भी सब लोग कह देते हैं कि कॅपिटॅलिस्ट कंट्री रहे या कम्युनिस्ट कंट्री रहे, आजकल तो टेक्नॉलॉजी का यह जो अनप्रिसिडेंटेड अॅडव्हान्स है इसके कारण ऐसी पोजिशन आ रही है कि जो वास्तव में इंडस्ट्री का कंट्रोल रहेगा वह शेअर होल्डर्स के हाथ में नहीं रहेगा। प्रोप्रायटर्स के हाथ में नहीं रहेगा। एक तरफ वह कॉपिटॅलिस्टों के हाथ में नहीं रहेगा। या दूसरी तरफ वह कम्युनिस्ट पार्टी के सेक्रेटरी के हाथ में भी नहीं रहेगा। तो जो टेक्नोक्रॅटस हैं उनके हाथ में रहेगा। वे जैसा डिक्टेक्ट करेंगे वैसा करना पड़ेगा। इतनी टेक्नॉलॉजी अॅडव्हान्स हो गई है। और एक नई रचना-जिसको बर्नहॅम ने मॅनेजरीयल स्टेटस कहा वह आ सकती जिनका विचार सभी देशों में आज हो रहा है। इस तरह से अभूतपूर्व घटना-अभूतपूर्व माने जिनका विचार मार्क्स ने नहीं किया था - ऐसी हो रही है। ए न्यू ट्रेंड-अनप्रेडिक्टेड बाय मार्क्स ऐसा आ रहा है। ये सब बातें कम्युनिस्ट देखते हैं। आपके साथ बातचीत करते समय वो बड़े असर्टिव्हली बात करें लेकिन मन में तो आखिर मन के दरवाजे कम्युनिस्ट भी हुआ तो कहाँ तक बंद करेगा?तो इस तरह से सारे विचार आते हैं? और यह जो री थिकिंग कम्युनिस्टों के मन में हो रहा है उसके कुछ कारण है।

भारतीय विचार दर्शन

पहले यह सोचा गया था कि कम्युनिज्म याने इंटरनेशनल या सारे दुनिया के कम्युनिस्ट एक है नैशनल आदि सारा झूठ है यह सोचा गया था। इसी के आधार पर तो हमारे यहाँ लोगों ने गद्दारी की। कहा कि नेशनल आदि सारी झूठ है। सारी मनुष्य जाति जो है वह एक है। अब वैसे देखा जाए तो हमारे यहाँ का वह सिद्धांत रख गया था। इतना ही नहीं इससे भी बढ़िया बात कही गई। माने हमारे यहां-यहां तक लोगों ने साक्षात्कार किया कि कम्युनिस्ट तो केवल इंटरनेशनल की बात करते, सारी सारी मनुष्य जाति एक है - कहते हैं लेकिन हमारे यहाँ कहा गया कि सारी मनुष्य जाति एक है इतना ही नहीं सारे मनुष्यप्राणी एक है इतना ही नहीं तो अॅनिमेट अॅन्ड इन अॅनिमेट सारा वर्ल्ड एक है। इतना ही नहीं तो सारे वर्ड्स मिलकर जो सारा युनिव्हर्स होता है वह एक है। माने इसमें यह बात नहीं है कि ऑल आर वन! ऑल आर वन का मतलब होता है कि दे आर डिफरन्ट एन्टिटीज और ऑल दे आर यूनाइटेड। ऐसी बात नहीं, सोचा गया आल ईज वन। तो इस तरह का अद्वैत का साक्षात्कार हमारे यहाँ द्रष्टाओं ने किया है।

भारतीय तत्त्व चिंतन

सब मिलकर एक ही तत्व है! सारे विभिन्न पदार्थ मिट्टी से लेकर मनुष्य तक जो दिखते हैं दे आर डिफरेन्ट प्रोजेक्शन्स ऑफ दि सेम मॅटर। जैसे विभिन्न गहने हैं! लेकिन मॅटर एक ही है। जो सोना है उसी को ही मानो भिन्न-भिन्न अलंकार हैं। रोटियां भिन्न-भिन्न दिखाई देती हैं लेकिन मॅटर एक ही है। वह जो आटा है उसी के अलग-अलग प्रोजेक्शन्स की ये रोटियां हैं। उसी तरह से एक ही अस्तित्व तत्व का यह सारा प्रोजक्शन है। इसका यहाँ के लोगों ने साक्षात्कार किया। भाषण नहीं दिया साक्षात्कार किया। दोनों में बड़ा अंतर है। रियलायझेशन यहाँ तक हुआ। किंतु साथ ही साथ हमारे यहाँ कहा गया कि भाई जिसकी जितनी जागृति की प्रगति हुई होगी, प्रोग्रेस ऑफ कॉन्शसनेस उसी अवस्था में उसने सोचना चाहिए। मानो हरेक ने कहना शुरू किया कि, ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या-नहीं चलेगा। जो वास्तव में ब्रह्मसत्यं जगनन्मिथ्या का साक्षात्कार कर सकता है वह तो अधिकारी पुरुष है। ब्रह्मसत्यं जगनन्मिथ्या मैं नहीं कह सकता क्योंकि मैंने साक्षात्कार नहीं किया है। और इसलिए कहा गया कि जिसके कॉन्शसनेस की, जागृति की जितनी प्रगति नहीं हुई होगी उतनी ही बात उसने बोलनी चाहिए। अनाधिकार चर्चा नहीं करना चाहिए।

और फिर इसके कारण यह सोचा गया कि जो विभिन्न ऑर्गनिझम्स हैं इनके अंदर-कम्युनिस्टों के समान हम नहीं मानते कि बड़ा विरोध है। जैसे उनका फॅमिली का विरोध है! उन्होंने फॅमिली को तोड़ डाला! हम कहते हैं कि ऐसा कोई विरोध नहीं है। इंडिव्हिजुअल, फॅमिली, नेशन, मनकाइंड, अॅन्ड यूनिव्हर्स यह जो सारा है दे आर दी ग्रोइंग स्टेजेस ऑफ दि डेव्हलपमेंट ऑफ कॉन्शसनेस। मनुष्य के जागृति की यह बढ़ती हुई सीढ़ी है! एक के बाद एक आती है। छोटा-सा बच्चा रहता है। वह अपने को ही पहचानता है। माँ को भी नहीं पहचानता तब उसके लिए 'अहं' यही केवल सत्य है बाकी सारा मिथ्या है। थोड़ा बड़ा होता है बाबा, मां, भाई, बहन का परिचय होता है वह अपनी फॅमिली के साथ एकात्म हो जाता है। उस अवस्था में फॅमिली यह ही उसके लिए हाय्येस्ट ग्रुप है। लेकिन और भी कॉन्शसनेस की प्रोग्रेस होती है वह सारा नेशन मेरा है समझने लगता है तो उसके लिए नेशन ही केवल सत्य है। नेशन सत्य है याने फॅमिली असत्य है ऐसा हमारे यहाँ नहीं माना गया। फॅमिली सत्य है याने इडिव्हुजल असत्य है यह भी नहीं माना गया।

उसी तरह से उससे भी ज्यादा प्रगति हो जाती है तब मनुष्य यह सोचता है कि सारी मनुष्य जाति मेरी है और इसलिए स्वदेशोभुवन त्रयम्। ऐसा हमारे यहाँ सन्यासी कह सकता है लेकिन हरेक आदमी नहीं कह सकता। जो सन्यासी बना हुआ है वही कह सकता है लेकिन हरेक आदमी नहीं कह सकता। कि 'स्वदेशो भुवन त्रयं-सारा विश्व मेरा है। He is the citizen of the universe... not only the citizen of the world but citizen of the universe सारा युनिव्हर्स इसका है। इंडिव्हिज्यूअल फॅमिली-नेशन-मनकाइंड-वर्ल्ड और यूनिव्हर्स ये तो परस्पर विरोधी बातें नहीं है। तो ये मनुष्य के जागृति की कॉन्शसनेस की बढ़ती हुई अवस्था है।

जैसे बीज है, बीज से अंकुर से पौधा उससे फिर शाखाएं उससे फिर पल्लव, उससे फूल और उससे फल, दीज आर डिफरेन्ट स्टेजेस ऑफ डेव्हलपमेंट। कोई कहेगा कि भाई बीज अलग दिखता है, पौधा अलग दिखता है शाखा अलग दिखती हे, फूल अलग, फल अलग इनके अंदर बड़ा झगड़ा है - तो बात गलत होगी - कहना चाहिए आपने गलत देखा है, इनके अंदर झगड़ा नहीं है। ये तो एक प्रगति की विभिन्न अवस्थाएं हैं। तो एक ही कॉन्शसनेस की विभिन्न अवस्थाएँ हैं।

मनुष्य अहं से लेकर बिल्कुल चराचर तक स्वयं अपने को एकात्म समझ सकता है - और इसके कारण इसमें कोई झगड़ा नहीं। वैसे ही हमारे यहाँ इंडिव्हिज्युअल व्हर्सेस फॅमिली कोई झगड़ा नहीं - फॅमिली व्हर्सेस नेशन कोई झगड़ा नहीं, नेशन व्हर्सेस मनकाइंड झगड़ा नहीं मनकाइंड व्हर्सेस यूनिव्हर्स कोई झगड़ा नहीं, हम मानते हैं कि ये हमारे प्रगति की विभिन्न अवस्थाएँ हैं।

कम्युनिज्म असत्य राष्ट्र सत्य

अब उन्होंने वैसे नहीं माना और न मानने के कारण उन्होंने कहा कि नेशन वगैरे सब झूठ है! ऐसा क्योंकि, किन्हीं भी कारणों से हो-इसकी विस्तृत चर्चा करने का यहाँ कोई कारण नहीं! उनके यहाँ नॅशनॅलिझम का एक प्रतिक्रियावादी स्वरूप ऐसा आया कि जो नॅशनॅलिस्ट हो सकता है वह इंटरनॅशनॅलिझम के विरोध में हैं - ये किसी कारण से हो-चर्चा की आवश्यकता नहीं। उन्होंने कहा नॅशनॅलिझम या इंटरनॅशनॅलिझम। हम इंटरनॅशनॅलिस्ट हैं इसलिए नो नेशन। अब हमारे कम्युनिस्ट कहने लगे कि नेशन तो खत्म हो गया क्योंकि मास ने कहा-किंतु यह नेशन जो है, राष्ट्र जो है यह इस तरह से थिअरी से खत्म होने वाली चीज नहीं है! आज तक कितनी ही इंटरनॅशनल फिलॉसफीज इस दुनिया में आई है जैसे की दोज हू हॅब जम्प्ड फ्रॉम मॅन टु मनकाईड मनुष्य से मनुष्य जाति तब एकदम कूदने वाली फिलॉसॉफीज आ गई। इसमें उनके टांग को चोट पहुंची राष्ट्र को इग्नोअर करने की जो बात थी, खत्म करने की जो बात थी सिद्ध नहीं हो सकी बाकी इंटरनेशनल थिअरीज जैसे असफल हुई वैसे ही कम्युनिज्म भी असफल हुआ ऐसा ही हम देखते हैं!

राष्ट्रवाद है और सदा रहेगा

और फिर हम यह देखते हैं कि आज दुनिया में जो चित्र है वह बड़ा विचित्र है। यह विचित्र क्या है? अब वह अभी तक माना जाता था। कि वर्ल्ड कम्युनिज्म का एक सेंटर है। 'कम्युझिम ईज यूनिसेंटर' मास्को उसका सेंटर है - तो उसमें कम्युनिस्टों को जरा आत्मिक समाधान था। बाकी दुनिया के कम्युनिस्टों से हिंदुस्थान के कम्युनिस्ट ज्यादा रिलीजस है। उनका रिलिजन कम्युनिज्म है। वे ज्यादा रिलीजस हैं। हमारे यहाँ जो पतिव्रता धर्म है। बाकी दुनिया में कहीं भी इतना कट्टर प्रतिव्रता धर्म नहीं दिखाई देता। उसका असर इनके भी हृदय पर हुआ है। यहाँ के कम्युनिस्टों ने माना कि नेशन सारा खत्म हो गया। किंतु हम देखते हैं कि नेशन को खत्म करते हुए जो यूनिसेंट्रिक कम्युनिज्म बना था, वह धीरे-धीरे बायसेंट्रिक हो गया। उसके दो केंद्र हो गए। मॉस्को और पेकिंग! अब आज तो आप कह सकते हैं कि यह मल्टिसेंट्रिक कम्युनिज्म होने वाला है। ओव्हरी नेशन विल बी सेंटर। और धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आ रही है। जैसे किसी समय वर्ल्ड इस्लाम वॉज वन-कोई नेशनल वगैरे की झंझट नहीं थी - नॅशनॅलिझम वॉज सबमडि अंडर इस्लाम-लेकिन धीरे-धीरे नॅशनॅलिझम ने अपना सर ऊपर उठाया और आज हम देखते हैं कि अलग-अलग इस्लामी राष्ट्र या देश हैं। वे आपस में अपने देश के लिए झगड़ते हैं, राष्ट्रहित के लिए झगड़ते हैं। एक समय क्रिश्चैनिटी के अंतर्गत विभिन्न देशों का नॅशनॅलिझम सबमर्ज हुआ था। किंतु नॅशनॅलिझम फिर से ऊपर आया और हम यह देखते हैं कि ये दोनों बड़े महायुद्ध इंग्लैंड और जर्मनी जैसे क्रिश्चैन और प्रॉटिस्टंट राष्ट्र में ही लड़े गए।

कम्युनिस्टों के आपसी विवाद

उसी तरह से मार्सीझम का भी हाल होने वाला है। क्योंकि यह भी एक रिलीजन है परफेक्ट रिलीजन है! रिलीजन की कितनी ही प्रीरिक्वीझिटस है सारी मार्क्सझम है। रिलीजन के लिए प्रशिज चाहिए प्रॉफेट चाहिए। महंमद और ईसा के स्थान पर मार्क्स है। इसके लिए किताब चाहिए बुक चाहिए तो कुरान के स्थान पर दास कॅपिटल है। उसके लिए कोई सप्तम स्वर्ग चाहिए तो लेक्टिसिझम सबका नियंता है। इस हायर फेझ ऑफ कम्युनिज्म है। और सभी बातों का नियंता इस तरह का भगवान चाहिए तो डायतरह से कम्युनिज्म पूरा रिलिजन है। किंतु अब वह मल्टिसेंट्रिक हो जाएगा। बाकी रिलिजन्स की तरह इसकी भी वैसी अवस्था होगी ऐसा दिखाई देता है। अब ये आपस में झगड़ रहे हैं। और झगड़ते समय एक-दूसरे को जो गाली देते हैं बड़ी इंपॉर्टट है। रूस का कहना है कि युगोस्लाव्हिया डेव्हिअशनिस्ट है। युगोस्लाव्हिया का कहना है रशिया डेव्हिअशनिस्ट है। हम अपने ही देश में यदि पिछले दो साल में देखें तो नंबुद्रिपाद ने कहा-डांगे ईज डेव्हिअशनिस्ट। डांगे ने कहा नंबुद्रिपाद ईज डेव्हिअशनिस्ट। मुजुमदार ने कहा कि दोनों डेव्हिअशनिस्ट है - मानो इस तरह से विभिन्न कम्युनिस्टों ने एक-दूसरे की जितने सर्टिफिकेट दिए उनको यदि इक्ट्ठा किया तो हिसाब यही लगेगा कि कम्युनिज्म डेव्हिअशन। यह तो हम नहीं बोलते हैं। वे ही आपस में सर्टिफाय कर रहे हैं।

माकर्सिज्म का अर्न्तविरोध

अब विचार आता है कि ऐसा क्यों? किसी भी सिद्धांत में इतना डेव्हिअशन कैसे हो सकता है? इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है जो कम्युनिस्ट छिपाते हैं। जहाँ कार्ल मार्क्स ने कॅपिटॅलिझम कैसे निर्माण हुआ? इसकी आज आवश्यकता क्या है? आगे उसमें सेल्फ काँट्रॅडिक्शन अंतर्विरोध कैसे आएगा और अपने ही अंतर्विरोध के बोझ के नीचे कॅपिटॅलिझम अंततोगत्वा कैसे खत्म होगा। बहुत देर से खत्म होगा और इसमें मनुष्य जाति का समय नष्ट होगा इसलिए ऑपरेशन करते हुए ब्लडी रेव्हुल्युशन के माध्यम से इसे अॅकिसुलरेट करना चाहिए यह सारा बताया और कॅपिटॅलिझम खत्म होगा यह कहा! उसके बाद सोशलिझम आएगा यह कहा। और सोशलिझम आएगा, तो इसके बारे में पायस प्लॅटिटयूड जिसे कहते हैं वैसा कहा-कि टु एवरी वन, अॅकॉडिंग टु हिज नीड, फ्रॉम ईच-अकॉर्डिंग टु हिज कपॅसिटी-ऐसी व्यवस्था होगी। लेकिन अॅक्चुअली सोशीओ इकॉनॉमिक ऑर्डर क्या होगा इसका कोई विवरण नहीं! वह तो पायस अॅप्टिट्यूड हँ-टु ईंच अॅकॉर्डिंग टु हिज नीड फ्रॉम ईच अॅकॉर्डिंग टु हिज कपॅसिटी। यदि हमारे यहाँ कोई आदमी कहे कि भाई, सर्वोपि सुखिनः संतु... हमारा इकॉनॉमिक्स है, तो बात गलत होगी। यह अक पायस विश है (Pious Wish) यह इकॉनॉमिक्स नहीं। इकॉनॉमिक्स का मतलब होता है कि यू हॅव टु गिव्ह कंप्लीट ऑर्डर। अजन्सीज ऑफ प्रॉडक्शन क्या रहेगी? ओजन्सीज ऑफ डिस्ट्रिब्यूशन क्या रहेगी?उनके परस्पर संबंध कैसे रहेंगे? कौन उसका नियमन करेगा? यह सब देना पड़ता है। और इसलिए ऐसा कहा गया कि कार्ल मार्कस हॅज नॉट रिटन ए सिंगल वर्ड अबाउट इकॉनॉमिक्स ऑफ सोशलिझम। पायस अॅप्टिटयूड की बात छोड़ दीजिए। लेकिन जो इकॉनॉमिक्स ऑफ सोशलिझम। है वह कार्ल मार्क्स ने वैसा ही छोड़ दिया। मैं यह लेनिन साब का कोटेशन दे रहा हूँ। और दूसरे का नहीं! क्योंकि हम जो कहेंगे उसको, झूठ माना जाएगा। यह जो कहा वह लेनिन ने कहा इसलिए सच मानने वाले लोग हैं।

लेनिन ने कहा

लेनिन ने यह कहा कि कार्ल मार्क्स हॅज रिटन नथिंग अबाउट दि इकॉनॉमिक्स ऑफ सोशलिझम। जैसे ही लेनिन ने पॉवर हाथ में लेने के बाद न्यू इकॉनॉमिक प्रोग्रॅम हाथ में लिया वैसे ही लोगों ने कहा कि वह डेव्हिएशन है। तो तभी से शुरूआत हो गई है। अपने सेल्फ डिफेन्स में लेनिन ने इस वाक्य का उच्चारण किया। कहा कि कार्ल मार्क्स हॅज नॉट रिटन ए सिंगल वर्ड अबाउट इकॉनॉमिक्स ऑफ सोशलिझम। और इसी के लिए आप देखते हैं कि वे माक्स का नाम लेते हैं लेकिन रचना अपनी अपनी करते हैं। चायना की रचना अलग है, युगोस्लाव्हिया की अलग है, रूस की अलग है। तो इस महत्वपूर्ण बात से हम यह समझ सकते हैं कि कार्ल मार्क्स श्रेष्ठ पुरुष था; हम मानते हैं। उनके सिन्सिरिटी के बारे में हमें बिल्कुल शक नहीं। मनुष्य जाति के वह अच्छे हितचिंतक हैं यह हम मानते हैं। अब कुछ लोगों का कहना है कि यदि मार्क्स की श्रेष्ठता आप मानते हैं तो मार्क्सवाद क्यों नहीं मानते?

भारतीय पद्धति

हमारी भारतीय परंपरा यह नहीं है कि मार्क्स की परंपरा नहीं मानते इसलिए मास बड़ा झूठ और गलत आदमी था यह भी हम नहीं कहें। वह बड़ा श्रेष्ठ पुरुष था इसीलिए उसने कहा हुआ सबकुछ श्रेष्ठ था यह भी हम नहीं मानते हैं। क्योंकि हमारी परंपरा अलग है। भगवान बुद्ध के सारे मत का खंडन करने वाले शंकराचार्य ने यह कहा कि 'यआस्ते कलो योगिना चक्रवर्ती सबुद्धः प्रबुद्धो सुनिश्चित्तवत्' कि वह बुद्ध भगवान हमारे हृदय में जागृत रहें जिन्होंने बुद्ध के मतों का खंडन किया वे शंकराचार्य यह कहते हैं। उन्होंने कहा कि जो कलियुग में योगियों के चक्रवर्ती हुए वे बुद्ध भगवान हमारे हृदय में सदैव जागृत रहे। तो व्यक्ति और उसके मत दोनों को बायरफरकेट करते हुए दोनों का अलग-अलग मूल्यांकन करना यह हमारी भारतीय पद्धति है। मार्कस बड़े है हमें उसमें कोई शक नहीं किंतु उनका माक्सवाद जो है उसके बारे में हम जब इव्हॅल्युलेशन करते हैं तब एक बात ख्याल में आती है कि मार्क्स वॉज नॉट ओ लॉ गिव्हर। हम इस बात को समझ लें। यह बहुत महत्व की बात है। मार्क्स वॉज नॉट ओ लॉ गिव्हर - लॉ गिव्हर मतलब समझ लीजिए - कि जिन्होंने सोशिओ इकॉनॉमिक ऑर्डर दिया हैं.. प्रिस्क्राइव किया है उसको लॉ गिव्हर कहते हैं। जैसे पाश्चिमात्य जगत में 'मोझेस' यह बड़ा लॉ गिव्हर हो गया, महंमद बहुत बड़ा लॉ गिव्हर हो गया, हमारे यहाँ मनु आदि लोग लॉ गिव्हर हो गए - किंतु मार्क्स ने लॉ नहीं दिया, याने सोशियो इकॉनॉमिक ऑर्डर नहीं दिया। और क्योंकि उन्होंने लॉ नहीं दिया। उनके मत का-अभिप्राय का तरह-तरह का इंटरप्रिटेशन करना बाकी लोगों को संभव हुआ। कम्युनिज्म याने डेव्हिअशनिझम है ऐसा लोग कह सकते हैं।

रूस प्रवास का संस्मरण-राष्ट्रवाद की बात

तो इसके कारण समाज की धारणा कैसे हो इसका कोई विचार करेगा तो ये सारी बातें उसके ख्याल में आएगी। कार्ल मार्क्स ने स्वयं कोई भी लॉ दिया नहीं, सोशिओ इकॉनॉमिक ऑर्डर प्रिस्काइब किया नहीं यह एक बात। उन्होंने स्वयं जो अपने उद्देश्य सामने रखे हैं उनकी पूर्ति के लिए, सिद्धि के लिए उन्होंने जो मटीरिअॅलिझम का रास्ता बनाया है वह बिल्कुल गलत है वह दूसरी बात। और इसके कारण कम्युनिस्ट देशों में विभिन्न दृश्य दिखते हैं। नॅशनॅलिझम की बात तो यही है कि जगह-जगह नॅशनॅलिझम ऊपर आ रहा है। हमारे यहाँ लोग हमको बताते हैं कि आप बड़े नॅरो माइंडेड हैं क्योंकि आप राष्ट्र की बात करते हैं। अभी जब मैं रूस गया था मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। इतना प्रखर राष्ट्रवाद रूस में है कि कम्युनिज्म के सिद्धांत के अनुकूल जिनको ठोकर लगनी चाहिए ऐसे पुराने राजा महाराजा उनके स्टॅच्यूज वहाँ हैं। बड़े इज्जत के साथ हैं। हमे वे दिखाए गए। पीटर दि ग्रेट है। कॅथॉरिन दि ग्रेट है, उनका मार्शल हो गया, इसने नाना लड़ाईयाँ जीत ली थी। केवल अक लड़ाई ये मार्शल हार गए थे वह याने अपनी पत्नी के साथ। शी डायव्हर्ल्ड। बाकी सारी लड़ाईयाँ आपने जीत ली थी। कहीं भी उन्होंने अपयश नहीं पाया था।

तो इस तरह से उनके थे राष्ट्रपुरुष याने नेशनबिल्डर्स! किंतु जो कम्युनिज्म के सिद्धांतों के अनुसार कंडम करने योग्य हैं। उनकी राष्ट्रपुरुष याने नेशनबिल्डर्स! किंतु जो कम्युनिज्म के सिद्धांतों के अनुसार कंडम करने योग्य हैं। उनकी राष्ट्रपुरुषे के नाते इज्जत होती हैं। अपनी हरेक चीज बहुत पुरातन है यह दिखाने का प्रयास हो रहा है। हालाँकि हमारे यहाँ यह बताया जाता है कि 'डोन्ट लुक ॲट दि पास्ट'! हम लोगों की लेनिनग्राड में वे ले गए। वहाँ नौ सो दिन तक लेनिनग्राड ने हिटलर के साथ संग्राम किया था। और वहाँ पाँच लाख लोग मर गए थे उसकी सिमेट्री है। उसके बीच में एक रेज्ड प्लेटफॉर्म है। यहाँ अखंड ज्वाला जलती है। मैंने पूछा यह क्या है? तो बोले अखंड ज्वाला अपने मदरलैंड के लिए जो मर गए उनकी स्मृति में। और उसके सामने ही मातृभूमि का ब्रांझ का बड़ा स्टॅच्यू है। उसके हाथ में पुष्पमाला है। कल्पना यह है कि मातृभूमि अपने शहीद पुत्रों को, वीर पुत्रों को माला अर्पण कर रही है। हर दिन सुबह शाम बड़े रिच्युअल के साथ रिलीजिअसली वहाँ बड़ा गार्ड ऑफ ऑनर होता है।

साम्यवादी भी पुरातन का गौरवगान करता है

वहाँ कुछ हमने स्टॅच्यूज देखें जो देवताओं के थे। हिटलर ने उनको नष्ट किया था। उन्होंने वे सब दुबारा जैसे के वैसे खड़े किए। हमने कहा आपका तो ग्रीक देवताओं पर विश्वास नहीं। इसमें जो ज्यूपिटर है, व्हीनस है - ये कैसे? उन्होंने कहा हमारा विश्वास हो या न हो हिटलर ने इनको क्यों तोड़ा? हमारा नॅशनल इनसल्ट करने के लिए! तो अपने नॅशनल इन्सल्ट को धोने के लिए हमारा यह कर्तव्य हैं कि हम जैसे के वैसे इन स्टच्यूज को खड़े करें। मानों यहाँ तक कि हर चीज अपनी कितनी पुरातन है यह दिखाने का और अपना बड़प्पन दिखाने का वे इतना प्रयास करते हैं कि हम लोग जब बैकाल लेक पर गए, वहाँ एक घंटा उन्होंने भाषण दिया। टेक्निकल होने से हम समझ नहीं सके लेकिन मतलब समझ गए कहने का मतलब यह था। कि बॅकॉल यह दुनिया का ओल्डेस्ट लेक हे, स्वीटेस्ट है, डीपेस्ट है, ग्रेटेस्ट है, बिग्गेस्ट है, सुपरलेटिव्ह है। तो उनका यह जो पेट्रिऑटिझम का 'फॅर्मटिझम' था यह देखकर हम तो ऊब गए और हममें से एक आदमी ने एकदम उद्गार निकाला, इट में बी बिगेस्ट अॅन्ड डीपेस्ट बट आफ्टर ऑल इट्स् नेम इज इंडियन। इन्होंने पूछा इस नाम का क्या मतलब होता है? उन्होंने कहा, इट्स् नेम ईज बॅकॉल, बंगाल में उसका मतलब लेट आफटरनून होता है। बोलने वाले हीरेन मुखर्जी थे मानो इनका भी नॅशनॅलिझम उनके कारण ऊपर उठ आया।

हंगेरी में हम लोगों को एक आर्ट गैलरी दिखाई गई। आर्ट गैलरी में तुर्क लोगों में लड़ाई हो गई उसमें उनका एक राजा मर गया ऐसा एक चित्र था। तो वो लोग उसका बहुत बड़ा विवरण करते थे। उनको ऐसा लगा की, हम लोग उस लड़ाई का महत्व नहीं समझ रहे हैं। तो उन्होंने पूछा 'यू हॅव नॉट अंडरस्टूड ह द क्रिटीकल वॉज दि बॅटल' तो हम उनकी ओर देखते रहे। उन्होंने कहा कि व्हॉट दि थर्ड बॅटिल ऑफ पानीपत वॉज फॉट टॅट लॉग फॉर अस। मैंने सोचा कि इनका राष्ट्रीयत्व जागृत है ही किंतु कम से कम इन्होंने हमारे साथियों से कहा कि पानीपत वॉर वॉज दि नॅशनल बॅटल। ये तो कम से कम लाभ हुआ। क्योंकि हमारे साथियों को इसका पता नहीं था।

राष्ट्रवाद , संस्कृति , मजहब की बात

जो नॅशनॅलिझम आ रहा है। हम उसको रोक नहीं सकते। जो इंटरनॅशनॅलिझम की बात करते थे ऐसे कम्युनिस्टों को अनथिंकींग करना पड़ता है। अब दूसरा रीथिंकींग रिलीजन के बारे में चल रहा हैं। इटालियन कम्युनिस्ट पार्टी, ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी, जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी और फ्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी ने ऐसा निर्णय लिया है कि रिलिजन इन अॅन ओपिनयन ऐसा मार्क्स ने जो कहा था वो उनके समय उन्होंने जो चर्च का दृश्य देखा उसके पृष्ठभूमि पर वह सही था। लेकिन उसके जनरलायझेशन न किया जाए। और जब हम किसी भी रिलीजन के बारे में बोलेंगे तब उस विशेष परिस्थिति में उस विशेष कालखंड में विशेष देश में रिलीजन का कौनसा रोल है यह हमें देखना पड़ेगा। और टॅट रोल में बी डिफरंट अॅकॉरडिंग टू दि टाईम। यह भी उन्होंने निर्णय लिया। रिलीजन क्या है यह समझ लेना चाहिए यह भी इच्छा निर्माण हुआ। और उसी के फलस्वरूप पिछले फरवरी में दस दिन तक ग्रेट ब्रिटेन में कम्युनिस्ट पार्टी के सेक्रेटरीज और बिशप लोगों का एक सेमिनार हुआ। बाद में उसका क्या हुआ इसका रिपोर्ट आया नहीं लेकिन एक-दूसरे को समझने की कोशिश चल रही है।

इतना ही नहीं तो हमारे देश में भी इसका प्रभाव हो रहा है। यहाँ के सब लोगों ने डांगे साहब के आर्टिकल्स पढ़े होंगे। उन्होंने कहा था कि राणा प्रताप और शिवाजी क्या है? यह तो किसान मजदूरों की भावना का एक प्रगटीकरण है। लेकिन अभी उनके एक साथी ने जो किताब लिखी उसमें उन्होंने रिलिजन के बारे में 'भक्तिकलह' इस नाम से एक अलग चप्टर लिखा। और उसमें यह स्पष्ट रूप से कहा कि शिवाजी यह रामदास और तुकाराम को मानते थे। और यह कहा कि भक्तिकलह के कारण सेंट्रल इंडिया में, पंजाब में, महाराष्ट्र में पोलिटिकल इव्होल्यूशन्स हुई है। तो इस प्रकार इस बात को कम्युनिस्टों को द्वारा पहली ही बार स्वीकार किया गया। इतना ही नहीं तो मेटर सब कुछ है यह कहने के कारण कम्युनिस्टों का जो मटीरिअॅलिस्टिक इंटरप्रिटेशन ऑफ हिस्ट्री था जिसमें यह कहा गया था कि रिलिजन, कल्चर, अथिक्स सारे सुपर स्ट्रक्चर हैं। रिलीजन, कल्चर अथिक्स अॅन्ड एव्हिरीथिंग इज मोल्डेड बाय सोशिओ इकॉनॉमिक कन्डिशन्स। ह्यूमन माइंड इज दी प्रॉडक्ट ऑफ सोशिओ इकॉनॉमिक कन्डिशन्स। ये सारी बातें जो मटीरिअॅलिस्टिक इंटरप्रिटेशन ऑफ हिस्ट्री के अनुसार कही जाती थी। आज वहाँ उन्होंने ही उसी किताब में कहा है कि ये बात तो ठीक है लेकिन यह भी बात ठीक है वैसे यह बात ठीक है कि रिलीजन, कल्चर अॅथिक्स, सोशिओ इकॉनॉमिक कन्डिशन्स पर अॅक्शन करती है। दे अॅक्ट अॅन्ड अॅक्ट अपॉन ईच अदर। और इसी तरह से इतिहास है ऐसा उन्होंने कहा।

कम्युनिस्टों की कम्युनिज्म बारे निष्ठा टूट रही है

और यहाँ तक बात है कि जो सबसे बड़ी चीज माक्स ने कही थी कि ह्यूमन हिस्ट्री का इतना लंबा पीरियड पढ़ने में हम फिजूल समय खर्च क्यों होने दे? इट शुड बी अॅक्सिलरेटेड, और इसलिए जैसे ऑपरेशन करके बच्चे को निकाला जाता है वैसे ब्लडी रेव्हुल्यूशन के द्वारा कम्युनिस्ट सोसायटी की स्थापना हुई ऐसा उल्लेख उसमें होना चाहिए। जिन चार कम्युनिस्ट पार्टीज का मैंने नाम लिया। इन फ्रेंच, ब्रिटिश, जर्मन और इटालियन कम्युनिस्ट पार्टीज ने अधिकृत नीति के नाते यह कहा कि हम इस बात पर आज कन्व्हिन्स्ड नहीं है कि ब्लड रिव्होल्यूशन ईज ए मस्ट! हमें लगता हैं कि आज की जो डेमॉक्रॅटिक सिस्टम है उसके द्वारा भी कम्युनिस्ट सोसायटी आ सकती है। तो हमें इसके बारे में कोई फायनल अभिप्राय देने के पहले कोई एक्सपरिमेंट करने के लिए टाईम चाहिए ऐसा उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा!

फ्युडॅलिझम के बारे में आपने देखा होगा। फ्युडॅलिझम के बारे में हमारे यहाँ वैसे यह भी बिल्कुल कहा गया था कि मार्क्स ने जैसे एक लाइन दी है कि 'फ्रॉम प्रिमिटिव्ह कम्युनिज्म टु स्लेव्हरी' उसी पद्धति से और यहाँ फ्युडॅलिझम था ऐसा अभी-अभी तक कम्युनिस्ट कहते थे। अब यहाँ के विचारक कम्युनिस्टों ने, राइट कम्युनिस्टों ने यह कहना शुरू किया कि मुगल पीरियड तक यहाँ फ्युडॅलिझम नाम की कोई पद्धति नहीं थी। बाद में आ गई। तो हमने उनको कहा कि आप यदि कहते हैं कि यहाँ फ्युडलिझम नहीं था फिर यहाँ पद्धति कौन सी थी? उन्होंने कहा कि भाई देखिए - कौन सी पद्धति थी। यह अध्ययन करके निश्चित करना पड़ेगा। हम अध्ययन कर रहे हैं। लेकिन हां। अभी कुछ न कुछ मान लेने के लिए तो मार्क्स ने एक जगह शब्द प्रयोग किया है - 'अशियाटिक ऑर्डर ऑफ सोसायटी'। तो अभी सुविधा के लिए कहते हैं कि, 'बिफोर मुगल पीरियड देअर वॉज अशिअटिंक ऑर्डर ऑफ सोसायटी इन इंडिया'। ओशियाटिक ऑर्डर ऑफ सोसायटी का विवरण बाद में अध्ययन के बाद करेंगे। माने इस तरह से बड़े पैमाने पर रीथिंकिंग चल रहा है। माने उन्होंने अपने सारे सॉस चेंज कर दिए यह तो कहने का मतलब नहीं? किंतु कम्युनिस्टों को रीथिंकिंग करना पड़ा। कम्युनिस्टों की अपने सिद्धांतों के बारे में ही श्रद्धा टूट रही है।

तृतीय सत्र

समाज रचना : चिंतन के विभिन्न आयाम

अपना यह भारतीय मजदूर संघ आर्थिक क्षेत्र में काम कर रहा है। आजकल बहुत लोगों का ऐसा ख्याल है कि आर्थिक विचार, आर्थिक चिंताएं यह एक नई प्रक्रिया है, मॉडर्न प्रोसेस है। और हम लोग मॉडर्न प्रोग्रेसिव्ह (Modern Progressive) होने के कारण इसको स्वीकार कर रहे हैं। जबसे इस दुनिया में प्रोग्रसिव्ह लोग आए तब से यह विचार शुरू हुआ, पहले यह नहीं था, ऐसा कुछ सोचा जाता है। वास्तव में यह बात गलत है। बिल्कुल प्रारंभिक काल से भी सामाजिक, आर्थिक रचना किस तरह की हो इसका विचार हरेक समाज में अपने-अपने ढंग से किया जाता था। जहाँ तक भारतवर्ष का संबंध है, आज अपने भाई साहब वैद्य ने कुछ बातें आपके सामने रखी। जिससे प्राचीन काल के विषय में कुछ निष्कर्ष आपको निकालने हैं, वे आप निकाल सकते हैं। यह तो एक भारत की विशेषता है। किंतु उसके अलावा भी ऐसा दिखेगा कि जिस समय (civilization) सिव्हिलिझेशन बहुत ज्यादा बढ़ी हुई थी उस समय भी और आज भी जो अनसिव्हिलाइज्ड लोग माने जाते हैं ऐसे लोगों में भी उनकी अपनी सामाजिक आर्थिक रचना, उनके अपने परिस्थितियों के, आवश्यकताओं के अनुकूल हमेशा कुछ न कुछ रहती थी ऐसा इतिहास बताता है। अफ्रीका आज भी अनसिव्हिलाइज्ड माना जाता है। तो भी वहाँ के जो (Tribal) ट्रायबल्स हैं उनकी भी अपनी एक रचना है। जिसमें आपस में उनके परस्पर संबंध क्या रहें? सामाजिक और आर्थिक संबंधों का नियमन कैसा हो? अब वह बिल्कुल प्राथमिक अवस्था होगी, प्रिमिटिव्ह टाइप की होगी। लेकिन कुछ न कुछ उनकी व्यवस्था है। वैसे ही संसार में जो ही श्रेष्ठ पुरुष, विचारक, लॉ-गिव्हर्स, समाज के बारे में विचार करने वाले निकले, उन्होंने अपने-अपने परिस्थिति और आवश्यकताओं के अनुकूल कुछ न कुछ रचना बताई। केवल उदाहरण के लिए थोड़ी-सी बातें हम बताएं।

पंथ प्रवर्तक-लॉ गिव्हर्स

वैसे तो अपने भारतवर्ष के बारे में कहा गया कि, हमारे यहाँ एक रचना थी। विभिन्न समाजों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि जिनको आर्थिक विचारक नहीं माना जाता, किंतु जो समाज कल्याण का विचार करने वाले थे ऐसे लोगों ने सब बातों के साथ आर्थिक पहलु पर भी कुछ विचार किया था, कुछ कानून दिया था। उदाहरण के लिए हम जानते हैं कि पाश्चिमात्य जगत में सबसे पहला रिलीजन यदि कोई होगा तो वह ज्यू लोगों का, यहूदी लोगों का है। उनके अंदर लॉ गिव्हर के नाते 'मोझेस' का महत्व है। और कोई लोग इस बात को जानते हैं कि 'विकली पेड हॉलिडे' यह जो कल्पना है वह कल्पना पाश्चिमात्य जगत में मोझेस के विचार से निकली। हम लोग यह जानते हैं कि दूसरे श्रेष्ठ विचारक 'जीझस क्राइस्ट' थे। कई बातें उन्होंने कही। किंतु वे कुछ रचना नहीं दे पाये। किंतु जिस ढंग से उन्होंने शिक्षा-दीक्षा की, उसके कारण, उनके मृत्यु के तुरंत पश्चात उनके अनुयायियों ने एक 'कम्युनिटी ऑफ गुड्स' की स्थापना की। इस कम्युनिटी ऑफ गुड्स की विशेषता यह थी कि उसमें का हरेक सदस्य चाहे जितनी प्राप्ति करें, आमदनी ले आए; जो भी हरेक की आमदनी होगी वह कम्युनिटी की होगी, संपूर्ण ग्रुप की होगी। और वह जो ग्रुप का पल होगा, 'पूल ऑफ प्रॉपर्टी' उसमें अपनी-अपनी आय हरेक डालें और उसमें से हरेक की आवश्यकता के अनुसार उसको जो कुछ दिया जाए, वह ले सके। इस तरह की 'कम्युनिटी ऑफ गुड्स' की स्थापना जीझस के मृत्यु के तुरंत पश्चात हुई थी। इसका मतलब यही है कि यह जो संभव हो सका वह उनकी ही शिक्षा-दीक्षा का जो स्पिरिट था उसके कारण हो सका, यह बात स्पष्ट है।

महमुद साहब के बारे में भी हम लोग जानते हैं कि उनके समय मानों चौदह सौ साल पहले, उनके सामने जो समाज का दृश्य था, उसके अनुकूल उन्होंने कुछ नियम दिए। धन प्राप्त करने के जाएज और नाजायज रास्ते कौन से हैं यह भी प्रिस्काइब किया। खर्चा करने के जाएज और नाजायज रास्ते कौन से हैं यह भी प्रिस्काइब किया। लॉ ऑफ इनहेरेटन्स इस तरह से बनाया, कि जिसके कारण ज्यादा से ज्यादा संपत्ति का विकेंद्रीकरण, डी सेंट्रलाइझेशन ऑफ वेल्थ हो सके। हरेक ने पब्लिक एक्सचेकर को ढाई परसेंट अपने आय से देना चाहिए इस तरह की एक जमात की पद्धति बिठाई। स्वेच्छा से समाज को कुछ देने के लिए एक 'सदाकत' नाम की पद्धति बिठाई। और यह नियम बनाया कि भाई अपने समाज में जो नये-नये उद्योगशील लोग सामने आते हैं उनको जो कर्जा दिया जाता है उसको ज्यादा बोझ न हो इस दृष्टि से किसी से सूद नहीं लेना चाहिए। इंटरेस्ट चार्ज नहीं करना चाहिए। मानो इस बात पर उन्होंने आगाह दिया जो उस समय आवश्यकता थी। किसी ने उनको पूछा, कि यदि कोई आदमी नमाज नहीं पढ़ता तो वह स्वर्ग में जा सकेगा क्या? महमदसाहब ने कहा कि भाई वह नहीं जा सकता। फिर पूछा गया कि भाई कोई नमाज पढ़ता तो है लेकिन कर्जे पर इंटरेस्ट चार्ज करता है, तो क्या वह स्वर्ग में जा सकेगा? तो उन्होंने कहा कि वह कितना भी नमाज पढ़ने वाला हो उसके लिए स्वर्ग के द्वार खुले नहीं है। मानों इस तरह से कुछ निश्चित विचार 1400 साल के पहले, जो वहाँ की परिस्थिति थी, आवश्यकताएं थी, उनके अनुकूल उन्होंने रखे और एक रचना दी। अपने यहाँ भी जो पारसी लोग हैं उनकी परिस्थिति के अनुकूल झरथुष्ट्र ने कुछ रचना बताई। उनका एक नियम बहुत ही सुप्रसिद्ध है। हुमत, हुकत, हवष्ट, याने 'थॉट वेल थॉट वर्ड्स वेलस्पोकन् डीड वेल डन' इसके आधार पर उन्होंने एक रचना बताई। जिसके कारण बहुत अच्छी तरह से वहाँ कई सालों तक-शतकों तक उनकी सामाजिक, आर्थिक धारणा हो सकी ऐसा दिखता है।

भारतीय संप्रदायों की रचनायें

ऐसे कई उदाहरण अपने देश में भी है। अर्वाचिन इतिहास में भी है। भगवान बुद्ध के बारे में हम लोग जानते हैं कि सारी जो उनकी शिक्षा है उसकी (स्पिरीच्युअल) अध्यात्मिक बातें छोड़कर भी नौकरों के साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए इसके संबंध में स्पष्ट सूचनाएं उनके लेखन में हमें प्राप्त होती हैं। जैनझिम के बारे में शायद कुछ लोग जानते होंगे, कि उन्होंने तो यहाँ तक रचना दी है कि जो श्रेष्ठ पुरुष माना जाता है, उनके लिए कहा कि उन्होंने 'परिग्रह परिमाण व्रत' का पालन करना चाहिए। परिग्रह परिमाण व्रत का मतलब होता है कि आप चाहें जितनी प्रॉपर्टी अर्जन करें किंतु जितना अपने लिए अति आवश्यक है उतना ही केवल अपने पास रखा जाए। और बाकी सारा उदरभरण के लिए आवश्यक है उतनी छोड़कर, बाकी संपूर्ण संपत्ति समाज को देनी चाहिए। मानों चाहे जितना अर्जन करें, लेकिन अति आवश्यक छोड़कर, सारा समाज को देना चाहिए। यह 'परिग्रह परिणाम व्रत' उन्होंने बताया। सिक्ख संप्रदाय के बारे में भी लोगों को पता होगा, कि जहाँ उन्होंने लड़ाईयां की वहाँ रिलिजन का भी प्रचार किया। यह जो आर्थिक पहलू है वह उनके आंखों से ओझल नहीं हुआ। केवल उदाहरण के लिए एक ही बात मैं कहूंगा। बंदा बैरागी ने जैसे ही अपना एक छोटा-सा स्थापन किया पहली बात यदि कुछ की होगी, तो लँड रीडिब्यूस्ट्रिशन किया। जो लँडलेस लेबर था उनके बीच में सारी जमीन उन्होंने बांट दी। माने यह पहलू कोई आंखों से ओझल हो गया था ऐसा नहीं दिखता।

प्राइवेट प्रापर्टी कितनी हो

अपने यहाँ तो प्राचीन काल से यह सारी बातें आई हुई हैं। प्राइवेट प्रापर्टी हरेक की कितनी क्या रहे हमारे यहाँ तो स्पष्ट कहा गया कि 'यावद् भ्रियेत जठरम्, तावद् स्वत्वम् हि देहिनाम्। अधिकम् योऽमि मन्येत सस्तेनो दंड मर्हति।' याने आपके उदर में जितनी भी समाविष्ट हो सकता है उतना ही आपका, याने प्राइवेट प्रापर्टी के नाते हो सकता है। उस से ज्यादा जो क्लेम करेगा वह चोर है, और उसको दंड देना चाहिए। इस तरह की बात कही। प्रॉडक्शन बहुत करो लेकिन सारा डिस्ट्रिब्यूट करो इस तरह की आज्ञा अर्थर्वद में भी आती है। 'शतहस्तसमाहर, सहस्रहस्त वीकिर' प्रोडयूस बाय हंड्रेड हॅन्डस् डिस्ट्रिब्यूटबाय थउजन्ड हँन्ड्स। इस में एम्फसिस क्या है हम भी देख सकते हैं। ईशावास्य की पंक्तियाँ तो सुप्रसिद्ध ही है। जो कुछ है वह भगवान का ही है, 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा'। इससे ज्यादा विवरण की कोई आवश्यकता नहीं। तो इस तरह से जो भी सारे श्रेष्ठ विचारक हो गए, उन्होंने जहाँ संपूर्ण समाज का विचार किया वहाँ आर्थिक पहलू का भी विचार किया और अपनी अपनी परिस्थिति में जो उन्हें आवश्यक और उचित लगा वह उन्होंने समाज के सामने रखा ऐसा हम देखते हैं। इस दृष्टि से हम लोगों का यह अहंकार शायद वृथा है कि बस भाई हम प्रोग्रेसिव हैं, मॉडर्न हैं, हमने ही यह विचार शुरू किया है यह वृथा अहंकार है।

आज की गलत धारणा

प्राचीन काल से हरेक समाज में, हरेक जाति में, जाति का, मेरा मतलब कम्युनिटी है, हरेक राष्ट्र में इस तरह से समाज धारणा की चिंता रखने वाले लोग थे। और इसी दृष्टि से समाज धारणा होती रही। अब आज हम मॉडर्न टाइम्स में आ गए। और इस दृष्टि से अब दूसरा विचार हमारे देश में शुरू हुआ कि भाई, जो प्राचीन व्यवस्था होगी उसका विचार छोड़े। अभी हम लोगो ने भूतकाल का विचार छोड़ना चाहिए। केवल भविष्य की ओर देखना चाहिए। और भविष्य की और देखना होगा याने आजकल जिस तरह से सारे देश में एक लहर फैली है कि पाश्मिात्यों का अनुकरण करना चाहिए, वहाँ की विचारधाराओं को उठाकर यहाँ ले आना चाहिए, तभी हम लोगों का उद्धार हो सकता है ऐसा एक विचार आजकल चल रहा है। यह कुछ स्वाभाविक भी है क्यों कि हमलोग बहुत साल तक पराधीन थे, और भौतिक दृष्टि से पाश्चिमात्य जगत बहुत प्रगत है। सब लोगों के मन पर ऐसा कुछ प्रभाव भी हआ है कि भाई वहाँ की जो भी चीज है वह अच्छी होनी चाहिए। क्योकि वह वहाँ की है। हमारी जो भी चीज है वह खराब होनी चाहिए क्योंकि वह हमारी है। लगता है कि इस तरह का निश्चय कई लोगों के मन में हुआ है। और इसलिए अब एक दूसरी तरह से भी सोचा जाता है। वह याने पाश्मिात्य जगत में एक नई फैशन चल पड़ी, वह फैशन क्या है कि सामाजिक, आर्थिक जीवन का विचार ईझम की परिभाषा में होना चाहिए। हरेक को कोई न कोई ईझम होना ही चाहिए। मानो जैसे, प्रतिष्ठित होने के लिए जो आवश्यकता होती है, प्ररिक्वझिट्स होती है जैसे कि टाय पहनना चाहिए; बगैर टाय के आप रहेंगे तो फिर आप कम प्रतिष्ठत माने जाओगे। तो वैसे ईझम भी हरेक का होना चाहिए। आपका ईझम नहीं रहेगा तो आपकी प्रतिष्ठा कम है, यह एक धारणा होने लगी है। इस दृष्टि से पाश्मिात्य जगत में कई ईझम्स हैं। हम लोगों को भी पूछा जाता है कि भाई आपका ईझम क्या है? और जिस समय हम लोग बताते हैं कि हमारा कोई ईझम नहीं। तो अपने भी कुछ लोगों को लगता है कि यह बड़ी कमी है। ईझम तो होना ही चाहिए था। जैसे बगैर टाय का आदमी रहे तो कुछ कमी मालूम होती है वैसे बगैर ईझम के आदमी रहे तो ठीक नहीं, कुछ न कुछ तो ईझम होना ही चाहिए। इस तरह का एक प्रभाव लोगों के मन पर दिखाई देता है।

ईझम का मतलब एक रास्ता

तो इस दृष्टि से अपना विचार क्या है? हम जरा सोचें! एक एक ईझम का विचार यदि छोड़ दिया तो भी सर्वसधारण दृष्टि से, ईझम के विषय में हमारी प्रतिक्रिया क्या है? ईझम का मतलब यही होता है कि एक विशेष परिस्थिति में विशेष समाज के सामने जो समस्यायें हैं, उनको सुलझाने के लिए निकाला हुआ रास्ता। वह रास्ता अच्छा रहे, बुरा रहे, सही रहे, गलत रहे, किंतु एक रास्ता। काहे के लिए? तो एक विशेष कालखंड में एक विशेष समाज के सामने जो समस्याएँ रही हैं उनको सुलझाने के लिए निकाला हुआ रास्ता, वह रास्ता याने ईझम है।

हरेक की उपयोगिता

अब दुनिया में जो भी चीज निकलती हैं उसकी कुछ तो उपयोगिता होती है। हमारे यहाँ कहा गया 'अमंत्रमक्षरम् नास्ति' कोई अक्षर नहीं है जिससे मंत्र नहीं बन सकता है। और 'नास्ति मूलमनौषधम्'। कोई वनस्पति नहीं है जिससे औषधी नहीं बन सकती। अब इस अर्थ में देखा जाए तो हरेक चीज की कोई उपयोगिता होती ही है। भगवान ने यहाँ जो संसार बनाया है, इसमें साधु पुरुषों की भी उपयुक्तता है और जो सांप है, शेर है, उनकी भी कुछ उपयोगिता है। चुहे की भी उपयोगिता है, बिल्ली की भी उपयागिता है। माने बिलकुल जिसकी उपयोगिता नहीं है ऐसी कोई वस्तु नहीं। कोई विचार यदि निकलता है तो इसका मतलब यही है कि परिस्थितियाँ ऐसी है, आवश्यकताएं ऐसी है, जिनके फलस्वरूप यह विचार लोगों के मन में आया यह तो बात स्पष्ट है। और इस दृष्टि से कोई भी ईझम हो, कोई भी विचार हो, उनकी कुछ ना कुछ सीमित उपयोगिता है यह बात भी ठीक है। किंतु कोई भी ईझम ऐसा है कि जो पॅनेशिया है सभी बीमारियों के लिए रामबाण इलाज है, सभी देशों में, सभी समाजों के लिए, सभी परिस्थिति में उसकी उपयोगिता है, यह मान लेना कुछ गलत मालुम होता है। क्योंकि हम सोचें की एक विशेष परिस्थिति में एक विशेष समाज के लिए जो चीज उपयुक्त होगी वह उसी समाज के लिए विभिन्न परिस्थिति में शायद उपयुक्त नहीं होगी। या उसी काल खंड में विभिन्न समाजों के लिए उपयुक्त नहीं होगी। उदाहरण के लिए आप देखिए। लोग हमें बताते हैं जैसे कि हमने कैलेंडर कभी देखा नहीं - कि साब अब यह बीसवीं शताब्दी है हम कहते हैं कि अच्छा आपने यह बड़ी न्यूज हमें दी। लेकिन उनके कहने के अनुसार आपका भी यदि विचार करें, सोचें कि क्या ऐसा कोई ईझम निकाला जा सकता है कि जो बीसवीं शताब्दी के 1968 साल के लिए उपयुक्त होगा तो लगता है, ऐसा एक ईझम निकालना बड़ा कठिन है। क्योंकि एक ही कालखंड में रहने वाले, विभिन्न समाजों के सामने जो समस्याएं हैं उनका स्वरूप ही भिन्न है। अब हमारे सामने समस्या है कि साधन कम है खाने वाले लोग ज्यादा हैं। अमरिका के सामने सवाल है, कि पैसा बहुत ज्यादा है खाने वाले कम हैं। इसलिए उनका ईझम है, 'कन्झ्यूम मोअर' हमारा है याने दोनों 1968 में रहते हैं, किंतु यहाँ की परिस्थिति हमें ऐसा कहने के लिए बाध्य करती है कि 'कर्टेल दि बॉन्टस' ऑस्टेरिटी आनी चाहिए और अमरिका में ईझम चल रहा किदो साल से ज्यादा किसी ने अपनी मोटर उपयोग में नहीं लानी चाहिए उसको बदल देना चाहिए।

ईझम-रामबाण इलाज नहीं

तो एक ही कालखंड में यदि विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न समाज हैं तो उनके लिए एक कोई ईझम उपयुक्त नहीं हो सकता। वैसे एक ही समाज के लिए विभिन्न कालखंड में एक ही विचार उपयुक्त नहीं हो सकता। जैसे हम उदासी के लिए यह सोचें - मुझे स्मरण है कि जब मैं छोटा बच्चा था, मराठी की कुछ पाठ्यक्रम की पुस्तक पढ़ता था, उस में इधर के बम्बई पूना के लोगों के लेख आदि रहते थे। तो उस में रहता था कि बाल विवाह नहीं होने चाहिए। और बाल विवाह क्यों नहीं होने चाहिए इसके बारे में बड़े तर्क उसमें आते थे। तो बचपन में हम इतना तो समझ गए कि जिस समय ये लेख लिखे गए उस समय बाल विवाह चलते होंगे। अब 75 साल हो गए। अब मान लीजिए कि कोई आदमी पूना में जाकर भाषण देगा कि बाल विवाह नहीं होने चाहिए - और क्यों नहीं होने चाहिए इसके बारे में मेरे तर्क हैं। उसको लोग ठाणा में भेजेंगे, पागलखाने में भेजेंगे। क्योंकि आज परिस्थिति बिलकुल उलटी है। बाल विवाह यह आज की समस्या नहीं तो बम्बई पूना में यह समस्या है। तो इस दृष्टि से हो भी विचार शायद 75 साल के पहले वहाँ के समाज के लिए बड़ा ही उपयुक्त मालूम होता था आज उसी ढंग से वह विचार उपयोगी नहीं हो सकता। और इस दृष्टि से कोई भी विचार या कोई भी एक ईझम यह रामबाण इलाज है यह समझना गलत है। इसका एक तो कारण ऐसा है कि परिस्थितियों में फरक पड़ता है। दूसरा भी कारण है - जो कोई विचार या ईझम बनता है - मत बनता है, वह उसके निर्माण के समय मनुष्य समाज की जो टोटल जानकारी होगी, टोअल नॉलेज होगा, उसके के आधार पर बनता है।

मार्क्स की कॉस्मॉलॉजी गलत थी

अब हम यह देखते हैं कि मनुष्य का ज्ञान बढ़ता जा रहा है 'फ्राँटिर्य ऑफ ह्यूमन नॉलेज आर एक्स्पांडिंग, और इसके कारण तो बात कल सही मानी जाती थी वह आज गलत मानी जाती है। हम उदाहरण के लिए एक दो ही बातें लें। हम जानते हैं कि मार्क्स ने अपना एक वैश्विक दर्शन दिया - कॉस्मॉलॉजी दी। कॉस्मॉलॉजी में क्या होता है यह अस्तित्व कहाँ से आ रहा है? किधर जा रहा है? जाने की प्रक्रिया क्या है? तीन बातों का विवरण किया था। उन्होंने उस आधार पर ही उनको जवाब दिया। उसमें कोई दोष नहीं। उस समय जो कोई सायन्स की प्रगति थी उसके आधार पर उन्होंने कहा कि फिजीक्स में, फिजिकल सायन्स में न्यूटन ने जो आखिरी शब्द उस समय कहा था कि सारा जो कुछ भी निकला है - वह मॅटरसे निकला है। माक्स ने भी कहा कि सारा जो कुछ निकला है मॅटरसे निकला है। उस समय के बायोलॉजी में आखिरी शब्द के नाते डार्विन ने कहा था कि सारा यह तो प्राणिमात्र है वह उत्क्रांति की, इव्होल्यूशन की ओर जा रहा है। उसकी को सोशलॉजी पर अॅप्लाय करते हुए मार्क्स ने कहा कि यह सारा इव्होत्यूशन की ओर जा रहा है। इव्होल्यूशन याने अपवर्ड मूव्हमेंट ऑफ मॅटर। अब उसका जो सायन्स का ज्ञान था, उसके आधार पर यह ठीक था। लेकिन अब हम देखते हैं कि डार्विन के बाद अब लोग सोचने लगे कि सारा जो वुछ जा रहा है वह केवल इव्होल्यूशन की ओर नहीं। तो उसमें इव्होल्यूशन भी है डव्होल्यूशन भी है। उत्क्रांति भी है अपक्रांति भी है।

इव्होल्यूशन, डव्होल्यूशन और प्रोजेक्शन जिसको हमारे यहाँ सृष्टि कहा गया यह कन्टीन्यूअली, सायमल्टिनिअसली चल ही रहा है तो सबकुछ इव्होल्यूशन की और जा रहा है यह कहना बड़ा गलत होगा। तो यही कहा जा सकता है कि इव्होलूशन और डव्होलूशन ये दोनों प्रक्रियाओं सायमल्टेनिअसली चलती जा रही है। अब यह नया विचार है सायन्स का है किंतु इसके कारण डार्विन का जो विचार था वह इनऑडिक्वेट याने अपर्याप्त था यह सिद्ध हुआ। और उसके आधार पर फिर जो माक्स ने कहा था वह भी इनऑडिक्वेट था, अपर्याप्त था। पूरा, सही नहीं था यह सिद्ध हो जाता है। फिजिकल सायन्सेस की दृष्टि से आइनस्टाइन ने एक बात खोज के निकाली कि मैटर कैन बी कनव्हर्टेड अिन्टु अनर्जी, अनर्जी अिन्टु मैटर दोनों इंटर कन्व्हर्टिबल है। तो इसके कारण मैटर का जो प्रायमरी फन्डमैटल स्वरूप था वह नष्ट हुआ। और इसके कारण सारा मटिरिअॅलिझम का बेस था वह भी खतम हुआ। और इसके कारण मार्क्स ने जो एक मौलिक बात कही थी वह बात ठीक नहीं थी ऐसा आज सायन्स के आधार पर कहा जा सकता है।

परिस्थितियाँ परिवर्तनशील हैं

अब यह तो कालेज स्टूडेंट भी कह सकता है लेकिन आइनस्टाइन ने जो भी संशोधन किया और उसके कारण, मार्क्स ने जो आखिरी शब्द इस नाते लिखा, वह यदि गलत सिद्ध होता है, तो आज का कालेज स्टूडैन्ट भी मार्क्स से बड़ा विद्वान होता है ऐसा इसका मतलब नहीं। यह एक स्वाभाविक बात है। हमारे यहाँ द्रष्टा नाम की जो कैटेगरी है उसको छोड़कर, कोई भी श्रेष्ठ पुरुष जब विचार करेगा, निष्कर्ष निकालेगा, सिद्धांत का प्रतिपादन करेगा, तो वह उसके जीवन काल में जो 'लास्ट वर्ड ऑफ विस्डम' होगा वैज्ञानिक क्षेत्र की लास्ट इन्फर्मेशन जो होगी उसी के आधार पर करेगा। और यह जो उसके विचारों का, सिद्धांत का ईझम का फाउंडेशन है उसी में ही यदि परिवर्तन हो जाता है, बढ़ते हुए जानकारी के कारण उसमें बदल हो तो फिर वह जो ईझम है वह भी उस मात्रा में अपर्याप्त या गलत सिद्ध होगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं। तो दोनों कारण ऐसे है, कि एक तो परिस्थितियां परिवर्तनशील है, और सभी परिस्थिति में उपयुक्त ऐसा कोई सिद्धांत हो नहीं सकता। इस दृष्टि से, और दूसरा कि फ्रांटिअर्स ऑफ ह्यूमन नॉलेज आर ओव्हर अक्सपांडिंग। और कोई भी सिद्धांत निकलेगा तो आज की परिस्थिति के आधार पर निकलेगा, दोनों बातों के कारण हम ईझम को 'पौनेशिया' मानने के लिए तैयार नहीं।

मेमोरैण्डम ऑफ कलेक्टिव्ह थिंकिंग

(सामूहिक सोच का प्रतिवेदन)

हम किसी ईझम के है यह कहने में गर्व की अनुभूति हो ऐसा तो हम नहीं समझते। अब लोगों का उदाहरण क्या लें? हमने तो कहा कि केवल विचार की दृष्टि से यदि कहा जाए तो अभी भारतीय मजदूर संघ की ओर से जो मेमोरेण्डम नॅशनल कमिशन ऑन लेबर को सबमिट हुआ है वह सब लोगों की सलाह से, सबको पूछते हुए तैयार हुआ। कहा गया कि इट इज ए डाक्युमेंट ऑफ अवर कलेक्टिव्ह थिंकिंग अॅन्ड कलेक्टिव्ह विस्डम। (यह हमारा सामूहिक सोच व दूरदृष्टि पर आधारित दस्तावेज है) तो इस तरह से यह सबमिट हुआ। हमने वह सोच समझकर दिया। कोई यदि हमें पूछे तो मैं कहूंगा कि इसकी बहुत उपयोगिता है, बहुत महत्व है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन कोई यह कहेगा कि 'दिस इज द लास्ट वर्ड ऑन लेबर प्रॉब्लेम' (मजदूर समस्या का यह अंतिम समाधान है) तो समझना चाहिए की यह बात गलत है। जब परिस्थितियाँ बदल जाएंगी इसकी उपयोगिता कम हो जाएगी। हम यह कहें कि 1968 में हमारी दृष्टि से यह मोस्ट व्हेल्युएबल डॉक्युमेंट है। किंतु 1990 में यही मोस्ट व्हेल्युएबल डॉक्युमेंट रहेगा ऐसा आज कहना याने-मानों परिस्थितियाँ परिवर्तनशील हैं इस बात को आंखों से ओझल करना है।

ईझम-क्लोज्ड बुक ऑफ थॉट

(ईज्म-सोच की बंद किताब)

तो इस दृष्टि से ईझम यह पैनेशिया हो नहीं संकता। क्योंकि ईझम की एक विशेषता है। कोइ भी ईझम रहे, इधर का रहें, उधर का रहे - ईझम का मतलब ही होता है कि इट इज ए क्लोज्ड बुक ऑफ थॉट। ईझम का मतलब ही है कि इट इज ए फायनैलिटी, आखिर शब्द है। जो है वह माने क्लोज्ड बुक ऑफ थॉट। ये क्लोज्ड नहीं है ऐसा कहा जाए तो यह ईझम नहीं रहता। अब परिस्थितियाँ डायनॉमिक है, सभी ईझम स्टैटिक है, तो डायनॉमिक परिस्थितियों के साथ स्टैटिक ईझम मुकाबिला नहीं कर सकते। जानकारी 'एव्हर एक्स्पांडिंग है - ज्ञान 'एव्हर एक्स्पांडिग' है और ईझम क्लोज्ड बुक ऑफ थॉट है, तो वह 'एव्हर एक्स्पांडिग' 'नॉलेज' के साथ मेल नहीं खा सकता। और इसी दृष्टि से हम लोगों ने कहा कि हम यह नहीं कहते कि इस संसार में निर्माण होने वाला कोई भी विचार एकदम अनुपयुक्त है। हरेक की अपनी अपनी उपयोगिता है। जहाँ हम जानते हैं कि बिलकुल जहर है, और सांप हैं, और शेर है उनकी भी अपनी उपयुक्तता है। जंगल में से शेर हट जाएँगे तो जंगल भी हट जाएगा। इस दृष्टि से हरेक की अपनी अपनी उपयोगिता है। वहाँ किसी भी ईझम को एकदम हम लोग जैसा क्लिंग करें, चिपक जाए, बस जो होगा वह इसी के आधार पर होगा ऐसा भी हम मानने के लिए तैयार नहीं।

सायंटिफिक सोशैलिझम से स्टेट कैपिटॅलिझम

(वैज्ञानिक समाजवाद से राज्य पूंजीवाद)

फिर दूसरी भी बात हम जानते हैं कि बहुत बार जब ईझम की परिभाषा में लोग बोलते हैं तो शब्दों को लेकर झगड़े ज्यादा होते हैं, अर्थ को लेकर ईसा मसीह ने कहा है कि 'दि लेटर किलेथ'। माने शब्द बडी गडबड़ कर सकता है मरवा सकता है। 'दि लेटर किलेथ' इसका मतलब क्या है? लोग बहुत बार जो ऊपर के शब्द हैं उसी पर बड़े झगड़े खड़े कर देते हैं। गहराई में जाकर अभिप्राय क्या है यह देखने की झंझट नहीं करते। अब जैसे हम उदाहरण के लिए देखें, हम तो किसी के ईझम के पक्षपाती नहीं। लेकिन कुछ मॉडर्न लोगों के साथ मुलाकात हो जाती है। हमें कुछ लोगों ने कहा कि भाई हम सोशलिस्ट, और हम आपके विरोध में हैं। हमने कहा कि भाई क्यों? उन्होंने कहा कि आप सोशलिझम को नहीं मानते। हमने कहा कि भाई यह तो बात सही है कि हम सोशलिज्म को नहीं मानते। हालांकि यह भी बात सही है कि हम किसी भी ईझम को नहीं मानते। तो बोले हमारा यह निर्णय है कि जो सोशलिज्म को मानते नहीं वे प्रतिक्रियावादी हैं रीअॅक्शनरी हैं। हमने कहा कि भाई हमारा भी यह अभिप्राय है कि जो सोशलिज्म को मानते हैं वह मनुष्यता को नहीं मानते। अब यह हमने बोल दिया। वास्तव में हम दोनों बातचीत के लिए बैठे थे। आखिर उनके ख्याल में आया कि शब्द के लिए झगडा बहुत चल रहा लेकिन अभिप्राय में दोनों में ज्यादा अंतर नहीं।

अब यह भी हम देखें कि कुछ लोग कहते हैं कि भाई हम सोशलिज्म के समर्थक हैं, कुछ लोग कहते हैं कि हम सोशलिज्म के विरोधक हैं। तो जो समर्थक है उनमें से सभी लोग सोशलिज्म के नाम पर जो स्टेट कैपिटेलिज्म आता है उसका समर्थन करने वाले नहीं है। वास्तव में सायन्टिफिक सोशलिज्म के अंतर्गत तो स्टेट कैपिटैलिज्म ही आता है तो भी सभी सोशलिज्म कोई स्टेट कैपिटलिज्म के समर्थक नहीं हैं। उनमे से बहुत सारे तो ऐसे सज्जन पुरुष हैं कि जिनको यह देखकर बड़ा दुख होता है कि कुछ लोग शोषित हैं, कुछ शोषक हैं। उनको यह अच्छा नहीं लगता। शोषण समाप्त हो, विषमता समाप्त हो, संसार में सुख रहे ऐसा सभी सज्जन लोगों को लगता है इनको भी लगता है। इनकी धारणा है कि शायद इसी का नाम सोशलिज्म है। और यही सोचकर वे अपने को सोशलिस्ट बताते हैं। वे समझते हैं कि सोशलिज्म माने इतना ही होगा कि असमानता को हटा दिया जाए, सब सुखी रहें। अब इस दृष्टि से यदि देखा जाए तो विषमता और शोषण खत्म हो जाना चाहिए। यह निगेटिव्ह आस्पेक्ट है। तो मैं समझता हूँ कि जो सोशलिज्म का विरोध करने वाले हैं उनमें भी ऐसे लोग हैं। हम भी वैसे हैं। हमें भी लगता है कि भाई विषमता खतम हो, शोषण नहीं होना चाहिए। इतना विचार तो सबको स्वीकार है। किंतु सोशलिज्म का जो विरोध करते हैं उनका मतलब यह नहीं है कि विषमता रहे, टाटा-बिरला दालमिया यहीं रहें। विरोधक विरोध करते हैं उसका कारण यह है कि वे जानते हैं कि सोशलिज्म नाम पर केवल विषमता समाप्त होगी इतना ही नहीं तो स्टेट कैपिटैलिज्म आएगा, स्टेट मोनोपोली आएगी और एक तरह से डिक्टेटरशिप तानाशाही शुरू हो जाएगी। लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा। मनुष्य के मौलिक अधिकार समाप्त हो जाएँगे। इस तानाशाही का विरोध करने के नाते लोग सोशलिज्म का विरोध करते हैं।

सोशलिस्ट क्यों बनें ?

अब हम देखें कि सोशलिज्म के कई समर्थक ऐसे हैं जो सोशलिज्म का निगेटिव आस्पेक्ट देखकर सोशलिस्ट बन गए हैं। विषमता और शोषण समाप्त हो इसलिए वे सोशलिस्ट बन गए हैं। इनमें वे तानाशाही के समर्थक नहीं। सोशलिज्म का विरोध करने वालों में भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो तानाशाही का विरोध करते हैं। विषमता और शोषण का समर्थन नहीं करते। अब दोनों का मन्तव्य, अभिप्राय देखा जाए तो वह एक ही है। किंतु शब्द को लेकर बड़े झगड़े हो जाते हैं और इसलिए कहा कि दि लेटर किलेथ यह बात सही है। यदि ठंडे दिमाग से आपस में बैठेंगे तो इस बात का पता चलेगा कि 'कॉमन डिनॉमिनेटर' बहुत ज्यादा हैं।

कितने प्रकार

अब जहाँ तक ईझम का सवाल है हम तो किसी भी ईझम को मानते नहीं। तो भी आज ज्यादातर 'ईझम' चलता है। लोग पूछते हैं इसके बारे में आपकी प्रतिक्रिया क्या है?मैंने तो कहा कि विषमता, शोषण समाप्त हो, यह हम जरूर चाहते हैं, और स्टेट मोनापोली, कैपिटलिज्म, डिक्टेटरशीप न आय यह भी हम चाहते हैं। अब यह कौन सा सोशलिज्म है यह सारा हम जानते नहीं। क्योंकि हमारे लिए यह बड़ी मुश्किल है। हम तो पुराने ढंग से विचार करने वाले लोग हैं। हमारे देश में ऐसा एक विचार था कि भाई एक शूद्र का एक ही अर्थ हो और अर्थ में भी यदि फरक हो जाता है तो शूद्र में परिवर्तन होना चाहिए। शूद्र एक अर्थ अनेक यह अशास्त्रीय बात है। अर्थ एक शब्द अनेक यह भी अशास्त्रीय बात है। एक एक शब्द का एक एक निश्चित अर्थ होना चाहिए ऐसा हमारे यहाँ माना गया। किंतु सोशलिज्म जो शब्द है उसके बारे में कुछ कहना बड़ा मुश्किल है। यह शब्द एक है उसके अर्थ कितने है हमें पता नहीं। क्योंकि एक दूसरे से मतभेद रखने वाले सभी सोशलिस्ट ही है। अब अपने ही देश में यदि विचार करें तो जवाहरलाल जी सोशलिस्ट, जय प्रकाश बाबू सोशलिस्ट है फिर डांगेजी सोशलिस्ट है। नंबुद्रीपाद भी सोशलिस्ट हैं। सायंटिफिक सोशलिज्म भी है ऐसा कहा जाता है। विनोबाजी भी कभी कभी अपने को सर्वोदयी सोशलिस्ट कहते हैं। लोहिया भी सोशलिस्ट है। फिर बहुत तो हिंदु सोशलिस्ट भी है। नासेर साहब ने अरब सोशलिज्म निकाला। हिटलर नैशनल सोशलिस्ट था। स्टैलिन सायंटिफिक सोशलिस्ट था। औटली भी सोशलिस्ट है। अब ये जो सारे सोशलिस्ट हैं तो हम इसमें से किसी को सोशलिस्ट सही माने यहा हमारे लिए बड़ी समया है। जैसे हमारे यहाँ पुराने लोग परब्रह्म के बार म कहते हैं 'एक सद विप्रा बहधा वदंति' कि ब्रह्म तत्व है वह तो एक है, लेकिन विभिन्न विद्वान विभिन्न नामों से उसको पुकारते हैं। इसके ठीक विपरीत बात सोशलिज्म की है। कि बातें अनेक हैं नाम एक है। और इस दृष्टि से कोई फिर यदि कहेगा कि सोशलिज्म के बारे में आपकी प्रतिक्रिया क्या है? तो हमें भी बाध्य होकर पूछना पड़ेगा कि विच व्हरायटी ऑफ सोशलिज्म? या अभी कांग्रेस सोशलिज्म में भी तरह तरह के सोशलिज्म आ रहे हैं उनके बारे में आप पूछ रहे हो? तो इसके कारण हम ऐसा समझते हैं कि बहुत ज्यादा शब्द के झंझट में न जाएं। जिसमें से कुछ निकलने वाला नहीं।

ट्रेड युनियनिझम का जन्मस्थान

तो हम सीधे ही इतना विचार करें कि भाई आज की रचनाएं क्या हैं। और उन रचनाओं में हमें अभिप्रेत क्या है? इसका हम विचार करें। जैसा कि मैंने कहा कि सोशलिज्म के नाम पर जहाँ एक सही और अच्छा विचार आया कि भाई शोषण समाप्त हो जाए विषमता समाप्त हो जाए। वहाँ अपने को सोशलिस्ट कहने वाले लोगों को भी समय समय पर अपने अनुभवों के आधार पर ही अपने विचारों में परिवर्तन करना पड़ा है ऐसा दिखाई देता है। उदाहरण के लिए थोड़ा ग्रेट ब्रिटन का ही विचार करे। हम जानते हैं कि ग्रेट ब्रिटेन की एक विशेष पोजिशन है। ट्रेड यूनियनिज्म का जन्म स्थान है। वेस्टर्न पार्लमेंटरी डेमॉक्रासी का भी वह जन्म स्थान है और वहाँ बड़ी यूनिक प्रोसेस ऐसी हुी है कि पहले ट्रेड यूनियन्स का जन्म हुआ, और उसके बाद उनके कुछ लोगों को लेकर सोशलिस्ट पार्टी का, लेबर पार्टी का जन्म हुआ। सोशलिज्म वहाँ बहुत चलता है। कुछ अटल सिद्धांत सोशलिज्म के हैं यह मानकर वह चले हैं। लेकिन हम ऐसा देखते हैं कि परिस्थिति के आधार पर सबको यह बात ख्याल में आ गई की ईझम को लेकर चलने से कुछ होगा नहीं। व्यवहार देखना पड़ेगा, वास्तविकताएं देखनी पड़ेगी। उदाहरण के लिए केवल ग्रेट ब्रिटन का ही संक्षेप में उदाहरण देना चाहता हूँ। ईझम का मतलब होता है किताबी रिलिजन तो यह जो किताबी रिलिजन है वह वास्तविकता से मेल नहीं खाती इसका अच्छा उदाहरण हमारे सामने वहाँ के अनुभव से खड़ा होता है।

ब्रिटन के अनुभव

हम हिंदुस्तान में उनके बारे में समझते हैं कि भाई वहाँ एक ग्रुप सोशलिस्ट है, एक ग्रुप कार्व्हेटिव्ह है। वहाँ भी कांझव्हेटिव्ह पार्टी है, सोशलिस्ट पार्टी है। अब हम सोचें कि नेशनलाईजेशन यह एक बड़ा भारी सिद्धांत है। आजकल हमारे देश में उसकी चर्चा चलती है। हमारे देश के जो प्रोग्रेसिव्ह लोग हैं जो स्वयं विचार करने की दृष्टि से अपने ब्रेन को तकलीफ नहीं देना चाहते, उन्होंने यह प्रचार करना शुरू कर दिया है कि कोई भी आर्थिक, औद्योगिक बीमारी रहे उसका रामबाण इलाज हमारे पास है, वह याने नैशनलाइजेशन कर दें। अब यह इन्होंने अपने दिमाग से बड़ा सोचकर निकाला ऐसा बात नहीं। वह किताब में है। यह जो किताबी मजहब है उसका नैशनलाईजेशन यह एक सिद्धांत है। हमें पूछा जाता है कि हमारी भूमिका क्या है? वह तो हमने स्पष्ट की है। हम सोचते हैं कि भाई उद्योग के स्वामित्व के कई ढांचे हो सकते हैं। हरेक उद्योग की अपनी अपनी विशेषता है। उसके अनुसार उसके स्वामित्व के ढांचे में भी परिवर्तन होना चाहिए। कोई भी एक स्वामित्व का ढांचा ऐसा नहीं कि जो सभी उद्योग पर लागू हो सकता है। जैसे प्रयाग में नाई लोग एक ही उस्तरे से सब हजामत करते हैं। वैसे एक ही सिद्धांत से सब उद्योग बराबर स्वामित्व का अपना ढांचे की अपनी अपनी उपयोगिता है। अलग अलग परिस्थितियों में नैशनलाइजेशन भी हम पैनेशिया के नाते नहीं मानते। एक रामबाण इलाज के नाते नहीं मानते। किंतु हां। एक अपरिहार्य बुराई के नाते, इनएव्हिटेबल इव्हिल के नाते हम जरूर उसको थोड़ा बहुत मानते हैं। जैसे कि दाल चावल आटा यह स्थायी अन्न होता है। किंतु स्ट्रिकलिम है, आर्सेनिक है यह तो किसी का स्थायी खाद्य नहीं हैं। तो भी जब रोमैटिज्म हो जाता है कोई बीमारियां होती है तो उसके लिमिटेड डोसेस दिए जाते हैं। उसी तरह से लिमिटेड मात्रा में कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों में हम नैशनलाइजेशन का भी कुछ उद्योगों के बारे में जरूर विचार कर सकते हैं। तो इस तरह का संतुलित विचार हम लोगों ने रखा। किंतु संतुलित रहे तो फिर प्रोग्रेसिव्ह कैसे होंगे? इस दृष्टि से सभी उद्येगी के लिए स्वामित्व का एक ही ढांचा लागू हो और वह नैशलाइजेशन का ही रहे यह विचार आजकल चल रहा है। अब ग्रेट ब्रिटेन का उदाहरण हम देखे। मैंने कहा कि संक्षेप में मैं निर्देश करूंगा। वहाँ दो पार्टियां हैं - कांझहेटिव्ह पार्टी और लेबर पार्टी। कांझव्हेटिव्ह पार्टी सोशलिज्म विरोध में है। सोशजिल्म विचारों का केंद्र बिंदू नेशनलायजेशन है इस नाते से और कांझव्हेटिव्हज नैशलाइजेशन लिए सिद्धांत के रूप में खिलाफ है यह दोनों बातें हम ले। किंतु वहा एक विचित्र बात दिखती है।

राष्ट्रीयकरण (नॅशनलाइजेशन) की प्रक्रिया

नैशनलाइजेशन की प्रक्रिया का प्रारंभ जो हुआ वह नॉन सोशलिस्ट और अन्टि सोशलिस्ज्ञट गव्हर्नमेंट के रहते हुए हुआ। 1888 में वहाँ के हायकोर्ट ने यह जजमेंट दिया कि भाई टेलिफोन सर्विसेज जो है वह सरकार अपने हाथ में ले सकती है। 1888 से लेकर तो लगभग 1912 तक सारे टेलीफोन सर्विसेस का नैशनलाईजेशन हुआ। इस संपूर्ण अवधी में नॉन सोशलिस्ट, अंटी सोशलिस्ट गव्हन्मेंट थी। अभी भी नेशनलाइज उद्योगों का एक मेनेजमेंट का पैटर्न है उसका आधार लंदन पोर्ट ट्रस्ट अथोरिटी का मैंनेजमेंट का जो ढांचा पहले बना था वही है। 1908 में लंडन पोर्ट ट्रस्ट अथारिटी का यह ढांचा बना। और उस समय कांझव्हेटिव्ह पार्टी के हाथ में अधिकार थे। माने नॉन सोशलिस्ट अन्टि सोशलिस्ट लोगों के हाथ में अधिकार थे। माने कई उद्योगों का नैशनलाइजेशन कांझव्हेटिव्हज ने किया। यही कहते हुए किया कि भाई व्यवहार के लिए हमें यह ठीक लगता है कि इनका नैशनलाइजेशन होने से हमारे समाज का लाभ होगा। यह एक बात देख ली। अब दूसरी बात हम देखें। उधर सोशलिस्ट हैं। हमारे समाज की उनकी दो विंग्ज है। ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस और लेबर पार्टी इन दोनों ने 1913 में बहुत हो हल्ला चलाया, कि उद्योगों का नैशनलाइजेशन हो। बहुत कुछ शोर मचाया। जैसे अपने यहाँ है। वहाँ भी सब बंकों का नैशनलाइजेशन हो यह नारा लगा। बाकी के उद्योगों के बारे में भी लगा। 1945 में भी लेबर पार्टी फॉर दी फर्स्ट टाइम क्लीयर मेजॉरिटी में आ गई। स्पष्ट रूप से उनकी ही गव्हर्नमेंट 45 में आ गई। उनके बाद जब उनका विचार हुआ तब बैंकस के बारे में ही उन्होंने कहा कि बैंकों का नैशनलाइजेशन करना क्यों आवश्यक है? उनकी कॉन्फेरेन्सेस हुई। बताया गया कि 'डयुरिंग वॉर पीरिएड' जो इंग्लैंड की बंकिंग सिस्टम थी। उन्होंने नैशनल टार्जेट्स पूरे किए हैं नैशनल डिसिप्लीन को मान लिया है। और इसलिए उनके नैशनलाइजेशन के लिए कोई वास्तव में आवश्यकता है ऐसा उनके प्रवृत्ति को देखकर नहीं लगता। किंतु हां, विचार सामने आया कि कम से कम एक जो सेंट्रल बैंक है उसकी तो नैशनलाइजेशन किया जाए। जो कमर्शियल बैंक हैं उनको छोड़ दिया जाए। इस एक का तो कम से कम नैशनलाइजेशन करना होगा। माने इन अपॉलोजिटिक टर्म में उस कॉन्फ्रेरेन्स ने सोचा।

बाद में उनके कालावधी में कुछ उद्योगों का नैशनलाइजेशन हुआ। उसमें से एक उद्योग, कोयला उद्योग थी। चुनाव के पहले कांझव्हेटिव्ह पार्टी की जो कान्फरेन्स हुई थी, का उसमें कन्जरव्हेटिव पार्टी ने पहले ही निर्णय लिया कि था कि कोयला उद्योग का हम नैशनलाइजेशन करेंगे। क्यों? क्योंकि वह लॉसेस में जा रहा था। प्राईवेट ऐप्लायर्स उसको चलाने के लिए तैयार नहीं थे। जहाँ मुनाफा नहीं वहाँ ऐप्लॉयर जाएगा कायके लिए? तो सरकार ने हाथ में लेने की परिस्थिति थी। उसी का उन्होंने पहले नैशनलाइजेशन किया। लेकिन नैशनलाइजेशन करने के बाद जो व्यवहारिक अनुभव आया उसके कारण ब्रिटिश ट्रेड युनियन कांग्रेस को और लेबर पार्टी को अपने विचारों में कुछ परिवर्तन करना पड़ा। अनुभव कैसे आया। 1913 में यह बात सोची गई थी कि नैशनलाइजेशन यदि पॅनेशिया है क्योंकि नैशनलाइजेशन का मतलब क्या है? उद्योग राष्ट्र का हो जाएगा। ग्रेट ब्रिटन के जो आठ करोड़ नागरिक हैं उनका हो जाएगा। अब उससे अधिक अच्छी अवस्था कौन सी हो सकती है? कोई भी उद्योग सभी जनता का हो जाए इससे अधिक अच्छी अवस्था वांछनीय अवस्था कौन सी हो सकती है? तो नैशनलाइजेशन का विचार सोचा गया। अब सभी जनता का उद्योग हो इस दृष्टि से कोई माध्यम होना चाहिए तो भाई सरकार माध्यम है। क्योंकि इलेक्टेड सरकार है। और फिर यह सोचा गया कि इलेक्टेड जो है याने पार्लमेंट है उसको हरेक नैशनलाइजेड इंडस्ट्री जिम्मेवार होनी चाहिए। कागज पर यह सारा ठीक रहा। अब वह लेबर पार्टी ने नैशनलाइजेशन किए हुए उद्योगों में समस्याएं खड़ी हुई।

समस्याएँ

सबसे पहली समस्या तो यह खड़ी हुई कि भाई उद्योग का नैशनलाइजेशन किया, जैसे मान लीजिए, रोड ट्रान्सपोर्ट है नैशनलाइजेशन किया। नैशनलाइजेशन करने के बाद उसकी मैनजमेन्ट कौन करेगा?बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट करेगा। बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट में किसको लेना चाहिए? तो एक विचार यहाँ आया कि उद्योग से संबंधित जितने ही हित संबंध है, इंटरेस्ट है, उनका प्रतिनिधित्व बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में होना चाहिए। माने बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट में होना चाहिए। अब रोड ट्रान्सपोर्ट के संबंधित कौन है? हिसाब कीजिए तो जो इधर उधर से माल भेजते हैं - कमर्शियल इंटरेस्ट, वे उसमें है। ऑग्रिकल्चरिस्ट जो अपना माल भेजते हैं वे उसमें हैं। इंडस्ट्रियलिस्ट जो अपना माल भेजते हैं वे उसमें है। गिनती करते करते यह पता चला कि आठ करोड़ में कोई भी ऐसा आदमी ग्रेट ब्रिटन में नहीं कि जो रोड ट्रान्सपोर्ट से संबंधित न हो। तो कन्सर्नड इंटरेस्ट बोलने के बाद जिसको छोड़ा जा सकता है ऐसा कोई भी नहीं। अब सबका प्रतिनिधित्व कैसा होगा?जिसको छोड़ा जा सकता है ऐसा कोई भी नहीं। अब सबका प्रतिनिधित्व कैसा होगा? फिर सोचा गया जो टैक्निशिअन्स है उनको रखा जाए। किंतु जो अपने यहाँ डिफिकल्टी है वहाँ भी डिफिकल्टी है। हरेक वेस्टर्न पार्लमेंटरी इंटरेस्ट का प्रतिनिधित्व करे इसकी भी गारंटी नहीं। डेमॉक्रासी के अंतर्गत वह डिफिकल्टी आती है। कि जो टेक्नीशियन्स है वह किसी भी क्योंकि हम लोग जानते हैं कि अपने देश में भी वह कठिनाई है कि टेक्निशियन बनने के लिए पूरा समय देना पड़ता है। बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। तो यह टेक्निशियन वहाँ जाएँगे तो किसी का भी प्रतिनधित्व नहीं करेंगे। फिर यह सोचा कि चलो एक वर्किंग कॉप्रमाइज कुछ निकाला जाए। कुछ टेक्निशियन को लिया जाए, कुछ इनको भी लिया जाए। तो यह बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट बन गई। अब उसमें राष्ट्रीयकरण किया हुआ उद्योग पार्लमेंट को जिम्मेदार होना चाहिए। यह सवाल जैसे आया वैसे राष्ट्रीयकरण किए हुए उद्योग में मालिक मजदूर संबंध प्राईवेट सेक्टर से तो अच्छी होने चाहिए यह भी विचार आया। लोगों को लगना चाहिए कि भाई यह तो मैं ही चला रहा हूँ और इसलिए फैक्टरीज में यह बड़ा प्रयास चल रहा था कि वर्क्स पार्टिसिपेशन होना चाहिए।

राष्ट्रवाद

अब यहाँ मैं एक बात कहूं कि हम भारतीय मजदूर संघ के लोग राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयत्व पर बहुत आग्रह देते हैं। बहुत लोग इसका व्यावहारिक अर्थ, आर्थिक अर्थ नहीं समझते। लोग तो सोचते हैं कि राष्ट्र का मतलब तो यही है कि चायनीज फ्रंटियर पर या पाकिस्तानी फ्रंटियर आप लड़ने को जाएं। मेरा मतलब यह नहीं है कि राष्ट्र का आर्थिक परिभाषा में भी एक अलग अर्थ है। वह अर्थ क्या है? वह है नियरेस्ट इक्विहैलंट टु नैशनल इंस्टरेस्ट इन इकोनॉमिक टर्स, इन कन्ज्यूमर्स इंटरेस्ट ...। आर्थिक परिभाषा में राष्ट्र हित का बिलकुल नजदीक का, पर्यायवाची शब्द, याने उपभोक्ताका हित संबंध! अब इस दृष्टि से पूरा राष्ट्रवाद यदि किसी जगह है तो वहाँ सब लोग आर्थिक क्षेत्र में उपभोक्ता का विचार करेंगे। मालिक भी उपभोक्ता का विचार करेंगे, मजदूर भी उपभोक्ता का विचार करेंगे - सरकार भी उपभोक्ता का विचार करेगी और उपभोक्ता जागृत रहेगा। ये तो बात नहीं कि कन्ज्यूमर्स तो स्वयं कॉन्शसन रहे और बेशिस्त गवाह के बाकी लोग उसके बारे में सोचे ऐसा नहीं हो सकता। तो कन्ज्यूमर्स इंटरेस्ट जो है उसके साथ आयडेन्टिफिकेशन लेबर का भी हो अंप्लॉयर्स का भी हो, गव्हर्नमेंट का भी हो। अब वहाँ ऐसी परिस्थिति नहीं थी। आयडेन्टिफिकेशन नहीं था। माने राष्ट्रवाद की मात्रा कुछ कम थी। और इसके कारण वर्क्स पार्टिसिपेशन के सिद्धांत के अनुसार जब कार्यवाही होने लगी, कुछ कठिनाईयां आई। कोयला के उद्योग में इस दृष्टि से सोचा गया।

अब मान लीजिए बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट पर युनियन के जनरल सक्रेटरी को लेने का सोचा अब किसी भी उद्योग में युनियन के जनरल सेक्रेटरी बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट पर लिया जाता है तो उसका अनुभव ऐसा है कि उसमें दिक्कतें आती हैं। मान लीजिए कि उद्योग यदि प्रॉस्परस है तब तो कोई दिक्कत नहीं। बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट वह कहेगा कि हमको ज्यादा तनखा मिलना चाहिए, बोनस ज्यादा मिलना चाहिए, यह होना चाहिए। दस बातें कह सकता है। लेकिन मान लीजिए जनरल रिसेशन है, उद्योग नीचे जा रहा है। अब यह क्या कहेगा? वक्स के मीटिंग में भाषण देना तो बड़ा सुविधा का होता है क्योंकि वहाँ जिम्मेदारी ज्यादा नहीं रहती। जो ज्यादा से ज्यादा डिमांड करेगा उसको प्रोग्रेसिव लीडर कहा जाएगा। किंतु बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट में टेबल पर जब सारे इंटरेस्ट के प्रतिनिधि बैठे हैं वहाँ सारे आंकड़े तथ्य, फैक्ट्स फिगर्स आप के सामने रखे जाते हैं और आपको सब लोग पूछते हैं कि इस में आप का वेज इन्क्रीज कैसे अडजेस्ट होगा बताइये। इसमें आपका बोनस कैसे अडजेस्ट होता है ये बताइये। और अब वहाँ तो भाषण बाजी नहीं चलेगी न।

वहाँ तो तथ्य और आंकड़ों के आधार पर बोलना पड़ेगा - मानो जिम्मेदारी आ गई। तो अनुभव आया कि उद्योग में इस तरह से रिसेशन है, वहाँ सारे तथ्य और आंकड़े टेबल पर आते हैं। और उन सब को देखकर जनरल सक्रेटरी ज्यादा वेज दो यह कह नहीं सकता। फिर जनरल सेक्रेटरी को वहाँ वेज फ्रीज की बात लेनी पड़ती है। क्योंकि तथ्य और आंकड़े ऐसे हैं। अब हर युनियन में आप जानते हैं कि झगड़े थोड़े बहुत होते ही हैं। फ्रैक्शनलिज्म होता है। आज एक जनरल सेक्रेटरी है उसके विपक्ष में भी थोड़े बहुत लोग होते हैं। तो वहाँ यदि किसी ने वेज फ्रीज की बात मान ली तो पहले ही उसके खिलाफ प्रोपैगांडा शुरू होता है कि भाई दाल में कुछ काला है। कुछ गड़बड़ है। यह खरीदा गया है। बात शुरू हो जाती है। अब जनरल सेक्रेटरी को युनियन की जनरल कौन्सिल के, महासमिति के सामने लाया जाता है। एक्झामिन करने के लिए क्रॉस होते हैं। वह सारे तथ्य बताता है, आंकड़े बताता है। उसके जो विपक्षी हैं वह सब उसको क्रॉस जैक्झामिन करते हैं। अब बड़ी मुश्किल में यूनियन आ जाती है। क्योंकि वहाँ जररल सेक्रेटरी दूसरा कुछ बोल नहीं सकता क्योंकि तथ्य और आंकड़े उसके खिलाफ है। इसलिए ये वहाँ अगर कोई चीज को कमिट करता है, तो उसी डिमांड को लेकर युनियन स्ट्राइक पर नहीं जा सकती। क्योंकि जनरल सेक्रेटरी का कमिटमेंट है। अब युनियन तो स्ट्राइकपर जाना चाहेगी। तो यह जब बहुत बात हुई तो युनियन ने भी सोचा कि हमारा अधिकृत पदाधिकारी वहाँ न रहे।

नयी सिस्टम

बाद में यह सिस्टम शुरू हो गई कि युनियन का जो पदाधिकारी है वह बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट पर नियुक्त न किया जाए और पदाधिकारी को वहाँ नियुक्त किया तो उसको यहाँ से हटाया जाए, और उसकी जगह दूसरे को लाया जाए। मानो अक्च्युअली युनियन का जो पार्टिसिपेशन होना चाहिए वह नहीं। इसलिए कि वहाँ यदि यूनियन का प्रतिनिधि रहता है तो उसका जो शब्द होगा, वह कमिटमेंट होगा, बाइंडिग होगा। फिर उसके खिलाफ कोई कार्रवाई यूनियन नहीं कर सकती। यूनियन अपने को इस तरह से बांध लेने के लिए तैयार नहीं। और इस दृष्टि से वर्क्स पार्टिसिपेशन का आग्रह छोड़ दिया। वहाँ जो आदमी आएगा उसको आप नॉमिनेट कर लीजिए वह हमारे यूनियन का प्रतिनिधि नहीं लेकिन हम मजदूरों की ओर से आपने एक आदमी लिया है इतना ही हमें मान्य है। मानो वर्क्स पार्टिसिपेशन वाली बात कम हो गई। और उधर वर्क्स के नाते जो प्रतिनिधि रहता है वह यदि एक बात को स्वीकार करता है तो इधर उसके खिलाफ स्पीच होती है। इस प्रकार का दृश्य वहाँ दिखाई देने लगा। तो वहाँ कौन जाए इसके बारे में भी कोई फाइनल डिसिजन अब तक बराबर नहीं हो सका। यह एक बात हम ख्याल में लें।

स्टेट विदिन दी स्टेट

(राज्य अंतर्गत राज्य)

दूसरी बात कि हरेक उद्योग पार्लमेंट को अन्सरेवल रहें। बात दिखने में अच्छी है। कागज पर जब लिखी गई तो ब्रिटिश ट्रेड युनियन कांग्रेस को और ब्रिटिश लेबर पार्टी को ऐसा लगा कि इससे अच्छा रास्ता कौनसा हो सकता है? प्रॉक्टिकल में आई तो वहाँ कुछ दिक्कतें आई। दिक्कतें ऐसी हैं कि आप मान लीजिए एक टेक्स्टाइल मिल है, उसका नैशनलाइजेशन हुआ। उसका एक बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट रहा और बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट में कुछ आपके कुछ बाकी लोगों के प्रतिनिधि रहे यह सब सारा ठीक रहा। लेकिन फिर दूसरा प्रश्न आया कि यह को रिस्पॉन्सिव कैसे रहेगी। उसका मतलब क्या है? क्योंकि मान लीजिए, आपके टैक्स्टाइल मिल में मैंनेजर ने किसी को गाली दी, लोगों ने मैंनेजर को घेराओ किया, अब उस समय क्या करना चाहिए यह बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट का पार्लमेंट ने बताना चाहिए। अब वो कैसे, कब और कहाँ बताएंगी? माने एक तो यह घेराओ होता है तब पार्लमेंट सेशन में रहे। दूसरा पार्लमेंट के लिए सेशन में रहते हुए उतना पर्याप्त समय रहे, कि बाकी सारे झगड़े छोड़ कर अपने घेराओ के बारे में पार्लमेंट सोचे। फिर तीसरी बात यही है कि यदि पार्लमेंट.... नहीं है तो पार्लमेंट का सेशन केवल घेराओ के लिए बुलाना कहाँ तक संभव है? ... बात है कि हरेक इंडस्ट्रियल कन्सर्न में डे टुडे अडमिनिस्ट्रेशन जो चलती है उसकी इतनी देरी होना कहाँ तक हम एफोर्ड कर सकते हैं? हरेक छोटे बड़े चीज का निर्णय एकदम पार्लमेंट में ही देना हो तो कुछ देर तक हरेक उद्योग बंद रहेगा? तो डे टुडे अॅडमिनिस्ट्रेशन पार्लमेंट के सलाह के अनुसार चलना असंभव है, यह बात लोगों के ख्याल में आई। किंतु सोचा कि, किताब में लिखा है कि हर एक उद्योग अॅन्सारेबल टु पार्लमेंट हो। फिर क्या रास्ता निकालें। फिर दूसरा रास्ता निकला है कि इस विषय को दो हिस्सों में बांट दिया जाए।एक डे टुडे जैडमिनिस्ट्रेशन और दूसरा जनरल पॉलिसी ऑफ इंडस्ट्री विद्इन द फ्रेम ऑफ नैशनल इंटरेस्ट। तो इस तरह से दो विषयों में बांट दिया और कहा कि डे टुडे अडमिनिस्ट्रेशन जो है वह बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट का विषय है उनको पूरा अधिकार है। लेकिन जनरल पॉलिसी ऑफ द इंडस्ट्री विद्इन द फ्रेम ऑफ नैशनल इंटरेस्ट, जो है वह पार्लमेंट तय करें। अब उसमें भी एक इंडस्ट्री का विषय पार्लमेंट के सामने आता है।

एक एम.पी. महोदय उठकर खड़े होते हैं वे कहते हैं कि साहब यह तो फलानी फलानी कैटेगरी है, उसका ऐसा ऐसा झमेला है उसके बारे में हम यह बोलना चाहते हैं। पार्लमेंट ने कुछ इसका फैसला करना चाहिए। उस उद्योग के जो मंत्री होते हैं वे कहते हैं कि यह डे टुडे अॅडमिनिस्ट्रेशन का सवाल है, पार्लमेंट के सामने नहीं आ सकता। यह एम.पी. साहब कहते हैं कि यह विषय आठ ही लोगों का होगा, लेकिन इसमें प्रिन्सिपल इन्व्हॉल्हड है। यह टेस्ट केस बन जाती है। इसलिए इसको जनरल पॉलिसी समझनी चाहिए। और फिर अध्यक्ष महोदय को कहना पड़ता है कि भाई यह विषय जनरल पॉलिसी का है या डेटुडे अॅडमिनिस्ट्रेशन का है। मैं सोचकर कल उसका व्हड्रिक्ट दूंगा। माने यह बड़ी कठिन बात है। हरेक चीज को प्रिन्सिपल माना जा सकता है। इस तरह से दिखाई दिया कि जररल पॉलिसी क्या है? डे टुडे ॲडामिनिस्ट्रेशन क्या है?यह बराबर डिमार्केट करना कठिन है। और इस दृष्टि से हरेक उद्योग और पार्लमेंट को अन्सरेबल बनाना भी कठिन है। हरेक उद्योग और उसका बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट, उसके चेयरमैन बगैरह वह एक स्टेट विद्इन द स्टेट बन जाते हैं वह अनुभव वहाँ भी आने लगा।

ब्रिटिश ट्रेड युनियन कांग्रेस का निर्णय

और भी एक दूसरी बात हुई, कि बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट तैयार हुआ लेकिन यदि वह पार्लमेंट को अॅन्सरेबल है तो कोई न कोई मिनिस्टर उसका इन्चार्ज होना चाहिए। हरेक नैशनालाइज्ड किया। इन्डस्ट्री का एक विचार जैसा, इन्चार्ज एक मिनिस्टर रहे यह विचार तो ठीक है। किंतु अब मिनिस्टर और बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट के परस्पर संबंध कैसे रहें? तो यह तय हुआ कि बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट को स्वतंत्रता है, किसी भी प्रकार का प्रेशर मिनिस्टर की ओर से बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट पर नहीं आना चाहिए। कोई पार्टी पॉलिटिक्स उस में नहीं आना चाहिए। बात ठीक है। अब व्यवहार में ऐसा हुआ, अगला चुनाव आ गया। अगले चुनाव के पहले कोयले की कीमतें यदि बढ़ जाती है तो पार्टी इन पॉवर बदनाम हो जाएगी, उनके व्होट कम हो जाएँगे और सर्व साधारण कन्व्हेन्शन है कि इंडस्ट्री वह कम से कम घाटे में न जाए। इसलिए कोयले की कीमत न बढ़े। किंतु यदि कोयले की कीमत न बढ़ती तो नैशनलाइजेज्ड कोल इंडस्ट्री घाटे में जाएगी। कोल इंडस्ट्री घाटे में जाएगी। और सर्वसाधारण कन्व्हेन्शन है कि इंडस्ट्री वह कम से कम घाटे में न जाएं। और यदि प्रॉफिट में नहीं तो भी अब घाटा न हो तो कीमतें बढ़ानी पड़ेगी। कीमतें बढ़ जाएंगी तो रुलिंग पार्टी को व्होट कम मिलेंगे। कीमतें न बढ़े तो रुलिंग पार्टी का, जिस पार्टी का वह मिनिस्टर है उसके वोट्स बढ़ जाएँगे। किंतु इधर घाटा आएगा। और यह तो कन्व्हेन्शन के खिलाफ है। समस्या खड़ी हो गई क्या किया जाए? अब मिनिस्टर सीधे 'औज मिनिस्टर' नहीं कह सकता, डायरेक्टिव्ह नहीं दे सकता। लेकिन प्राईवेट इनफॉर्मल बात-चीत पर तो कोई बन्धन नहीं। चेअरमेन को चाय के लिए तो बुलाया जा सकता है। वे उसके यहाँ चाय के लिए जा सकते हैं। इन्फॉर्मली ऐसा कह सकते हैं कि भाई ऐसा है, यह हमारी ऑफिशियल तो कोई बात नहीं है। लेकिन कई लोगों ने तो हमको ऐसा कहा कि भाई कोयले की कीमत तो नहीं बढ़नी चाहिए। अब इन्फॉर्मली कह दिया। जिसमें मिनिस्टर साहब की इच्छा तो व्यक्त हो गई। अब चेअयरमेन साहब के सामने भी विचार आता है कि कीमत में बढ़ाता हूँ तो मिनिस्टर साहब नाराज हो जाएँगे और यदि न बढ़ाता हूँतो इंडस्ट्री घाटे में आ जाएगी। मानों इस तरह से मिनिस्ट्री और बोर्ड ऑफ मैंनेजमेंट में परस्पर संबंध कैसे होना चाहिए इस विषय में बड़ी व्यावहारिक कठिनाईयां आती है ऐसा दिखाई दिया।

इन सब बातों का विचार करते हुए वहाँ सोशलिस्ट है उन्होंने एक विचार करने के लिए क्लब बनाया। उन्होंने यह कहा कि हमें नैशनलायजेशन के बारे में पुनर्विचार करना होगा। नैशनलायजेशन याने 'सोशलिज्म का केंद्र बिंदु' है इस विचार को छोड़ देना पड़ेगा। उन्होंने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया कि हम लोग पार्लमेंट को अन्सरेबल हरेक नैशनल इंडस्ट्री नहीं बना सकेंगे। हम लोगों ने एक मशीनरी सेटअप तो की है लेकिन उसको हम कंट्रोल नहीं कर पाएंगे इस तरह का विचार उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा। अब मालिक मजदूर संबंध के विषय में वहाँ के ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने 1953 में एक कमिटी अपांईट की। उसका काम ही यही था कि प्राईवेट सेक्टर में मालिक मजदूर संबंध कैसे हैं, दोनों में क्या फर्क है यह देखा जाए। और सारा अध्ययन करने के पश्चात ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस के इस स्वाध्याय मंडल ने रिपोर्ट दी है जो पब्लिश हुई है जिसमें कहा है कि इंडस्ट्रियल रिलेशन्स इन पब्लिक सेक्टर आर औज गुड एण्ड बैड एज दोज इन प्राइवेट सेक्टर - दोनों में कोई अंतर नहीं। तो फिर इन सोशलिस्ट ग्रुप ने यह कहा कि हम उसको पार्लेमेंट को भी अन्सरेबल नहीं कर सके। मालिक मजदूर के संबंध में भी कोई अच्छाई हम नहीं ला सके। तो इस दृष्टि में नैशनलायजेशन का विचार एक-एक केंद्र बिंदु बनाना यह ठीक नहीं है। यह विचार कुछ सोशलिस्ट के क्लब के माध्यम से आया है। बीसवीं सेंचुरी सोशलिज्म नाम की उनकी किताब है उसमें उन्होंने दिया है। अब यह एक छोटा सा उदाहरण आपके सामने रखा।

प्रैग्मैटिज्म (व्यवहारवाद)

ईझम नाम पर जो रिजिड एटिट्यूड ली जाती है बहुत 'रिजिड ऑटेटयूड' जिसको हम किताबी मजहब कहना चाहते हैं। वह व्यवहार में कहाँ तक सही उतरतीहै यही सबसे ज्यादा महत्व की बात होती है। किताब में हमारे कौन सा रिलिजन है इसका महत्व इतना नहीं। और इस दृष्टि से ऐसा दिखेगा कि तरह तरह की परिस्थिति में तरह तरह की बातें उपयुक्त हो सकती है। कोई बहुत बड़ा रिजिड जो हो ऐसा नियम बनाया नहीं जा सकता। यही होना चाहिए या नहीं होना चाहिए ऐसा भी हमेशा के लिए कोई कानून डालने की आवश्यकता नहीं। हम सोचते हैं कि ईझम नाम से कोई न कोई एक होना ही चाहिए, वह पूँछ यदि हमारे पीछे न रही तो फिर हमारी प्रतिष्ठा क्या है? ऐसा समझने की आवश्यकता नहीं। हम यह सोचकर चलें कि हम सभी बातों का अध्ययन करें, सभी ईझम का अध्ययन करें। अध्ययन सबका होना चाहिए। लेकिन सबका अध्ययन करने के पश्चात अपनी परिस्थितियों का, अपनी आवश्यकताओं का स्वतंत्र रूप से विचार करे। और सभी ईझम्स के अध्ययन की पृष्ठभूमि पर, किंतु अपनी परिस्थितयों और आवश्यकताओं को ख्याल में रखते हुए हम अपना रास्ता खोजें यही ज्यादा उपयुक्त होगा। और इस दृष्टि से हम हमेशा यह कहते हैं कि हम किसी भी ईझम के पीछे नहीं, हम किसी भी ईझम के अनुयायी नहीं। लेकिन अब लोग पूछते हैं कि नहीं, साहब, ईझम तो होना ही चाहिए तो हम कौन सा ईझम बताएं। क्योंकि नैशनालिज्म जो है वह ईझम नहीं। अंग्रेजी में शब्द रचना कुछ अपर्याप्त होने के कारण ऐसे गलत शब्द भी अंग्रेजी में चलते हैं। तो नैशनालिज्म यह कोई ईझम नहीं है। यह तो उनकी भावना है। फिर कौन सा ईझम बताएं।

तो इस दृष्टि से एक तो हम कहते हैं कि हम किसी भी ईझम के नहीं और यदि कोई कुछ ईझम पूछना ही चाहता है, और ईझम के बगैर उसके दिमाग में हमारी बात नहीं आती तो हमारा ईझम है प्रैग्मैटिझम। प्रैग्मैटिझम मतलब होता है 'व्यवहारवाद' राष्ट्रहित के चौखट के अंदर होते हुए, 'व्यवहारवाद'। किसी भी ईझम के साथ अपने को न बांधते हुए, आखें खुली रखते हुए, कान खुले रखते हुए, दिमाग खुला रखते हुए, सभी का अध्ययन करते हुए किंतु किसी का भी अंधानुकरण न करते हुए, अपनी परंपरा, आज की परिस्थिति, इसका विशेष विचार करते हुए आज एक भविष्य का रास्ता हम सोचेंगे। यह ईझम के बगैर होता है। ईझम के साथ नहीं हो सकता। लेकिन नाम ही यदि ईझम की परिभाषा में चाहिए, तो उसको हम प्रैग्मैटिझम कहें यही विचार हम ईझम के बारे में आज रखते हैं।

(' स्वाध्यायान्मा प्रमदः '

पुस्तिका से .......सं)

सोपान - 1

( कुछ प्रमुख बिंदु)

v हम नेतागिरी बनाने के कारण या निगेटिव्ह अप्रोच (नकारात्मक सोच) ले कर नहीं आए हैं। हम दूसरों को खत्म करने के लिए भी यहाँ (श्रमिक क्षेत्र) में नहीं आए हैं। हम पाजीटिव्ह एप्रोच (सकारात्मक सोच) अपना कर राष्ट्रहित, उद्योगहित, मजदूरहित तीनों एक ही दिशा में जाने वाले हैं यह अच्छी तरह सोच कर आगे आए हैं।

v व्यक्तिगत् नेतागिरी से स्वतंत्र, मालिकों से स्वतंत्र, राजनितिक दलों से स्वतंत्र, राष्ट्रहित चौखट के भीतर, मजदूरों का, मजदूरों द्वारा, मजदूरों के लिए चलने वाला श्रमिक संगठन याने भारतीय मजदूर संघ है।

v हम में एकात्मता, परस्पर सुसंवाद, होमिजेन्टी (परिवारिकता), हार्मौनि (मेलमिलाप), रहे। तरह तरह के आर्दशवादी कार्यकर्ता भी तरह तरह के हो सकते हैं। गुणवत्ता, बुद्धिमानी की बात छोड़ दें लेकिन स्वभाव हरेक की अलग अलग हो सकती है किंतु सब लोगों के स्वभाव की एडजस्टमैन्ट एक लक्ष्य एक आदर्श होने के कारण और इतना सुसंवाद की मानों सब मिल कर एक मन तैयार हुआ है। इसे ही हम एक अच्छा मास्टर माइंड ग्रुप कहेंगे। तो यह जो ग्रुप है हमारे घटने बढने का यही मापदंड क्रायटेरिया है। मिम्बरशिप नहीं। जय पराजय भी नहीं।

v कम्युनिज्म ट्रेड युनियन विरोधी है। मजदूर विरोधी है। कार्ल मार्क्स ने स्पष्ट लिखा है "जेन्युइन ट्रेड युनियन नहीं चलने देना चाहिए। हमारा उदेश्य है अंतिम कम्युनिष्ट क्रांति जो तभी हो सकती है जब मजदूर भूखा प्यासा रहेगा। असंतुष्ट रहेगा तभी तो क्रांति में मरने की तैयारी करेगा।

v अच्छा कार्यकर्ता कौन इस का अगर क्रायटेरिया कुछ होगा तो वह यह कि अपने कार्य के साथ उसकी एकात्मता कितनी है। मैं और भारतीय मजदूर संघ और भारतीय मजदूर संघ और मैं इस एकात्मता का विचार जिसके मन में है वही सर्वश्रेष्ठ क्रायटेरिया है।

v हम किसी भी ईज्म के नहीं। अगर ईज्म के बिना किसी को हमारी बात समझ नहीं आती तो हम कहेंगे हमारा ईज्म है प्रैग्मैटिज्म याने व्यवहारवाद। राष्ट्रहित चौखट के अंतर्गत आंख नाक दिमाग खुला रखते हुए किसी का भी अंधानुकरन नहीं करते हुए अपनी परंपरा परिस्थिति अनुसार हम अपना रास्ता खोजगें यही है व्यवहारवाद।

...............................................

ü प्रत्येक नागरिक (राष्ट्रिक) की जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ अनिवार्यतः पूरी होनी चाहिएँ।

ü भौतिक संपदा का अर्जन परमेश्वर के व्यक्त रूप समाज की सेवा के उद्देश्य से, सर्वोत्तम नैतिक पद्धति से किया जाए और उस धन या संपत्ति में से अपने ऊपर न्यूनतम अंश ही व्यय किया जाए। स्वयं उतना ही स्वीकार करिए, जितना आपको सेवा कर सकने योग्य बनाये रखने के लिए आवश्यक हो। उससे अधिक का स्वयं व्यक्तिगत उपयोग करना अथवा उस पर अपना स्वत्व बताना (अधिकार जताना) समाज की चोरी करना है।

ü इस प्रकार हम समाज के न्यासी (रखवाले) मात्र हैं। समाज के सच्चे न्यासी बनकर ही हम उसकी सर्वोत्तम सेवा कर सकते हैं।

ü परिणामतः व्यक्तिगत संग्रह की कुछ सीमा अवश्य निर्धारित की जानी चाहिए। निजी लाभ के लिए किसी अन्य के श्रम का शोषण करने का अधिकर किसी को नहीं है।

पू. श्री गुरुजी

हमारे

प्रोद्योगिकीविदों

का यह दायित्व होना चाहिए

कि वे शिल्पियों के हित के लिए

उत्पादन की परंपरागत प्रविधियों में ऐसे

ग्राह्य परिवर्तन समाविष्ट करें, जिनसे कामगारों

के नियुक्ति (रोजगार) खो बैठने, उपलब्ध प्रबन्धकीय

एवं प्राविधिक निपुणता के व्यर्थ हो जाने तथा उत्पादन के

वर्तमान साधनों के पूर्ण विपूंजीकरण का जोखिम न हो;

उत्पादन-प्रक्रिया के विकेंद्रीकरण पर अत्यधिक बल

देते हुए वे ऐसी स्वदेशी प्रौद्योगिकीविकसित करें,

जिसमें विद्युत् शक्ति का उपयोग हो, किंतु

उत्पादन का केंद्र कारखाना नहीं वरन

घर को बनाया जाए अर्थात

उत्पादन कार्य घर-घर

में हो केंद्रीकत

कारखानों

में नहीं।

सोपान - 2

' विचार सूत्र '

अखिल भारतीय कार्यकर्ता

अभ्यास वर्ग

13-17 जनवरी 1980

पुणे (महाराष्ट्र)

करोड़ों लोग जब भुखमरी से ग्रस्त हैं, तब अभद्र, आडम्बरयुक्त एवं दुरुपयोगपूर्ण व्यय पाप है। सभी प्रकार के उपभोग पर समुचित मर्यादाएँ अवश्य होनी चाहिएँ। उपभोक्तावाद हिंदू संस्कृति की भावना (अंतश्चेतना) से मेल नहीं खाता।

v हमारा आदर्शवाक्य 'अधिकतम उत्पादन और समतायुक्त वितरण' होना चाहिए तथा 'राष्ट्रीय स्वावलम्बन' हमारा तात्कालिक लक्ष्य।

v अनाजीविका और अपूर्ण जीविका (बेकारी तथा अर्धबेकारी) की समस्या से युद्ध स्तर पर निपटा जाना चाहिए।

v यद्यपि औद्योगीकरण अपरिहार्य है, तो भी उसमें पश्चिम के अंधानुकरण की आवश्यकता नहीं है। प्रकृति का दोहन करना चाहिए, हत्या नहीं। पर्यावरण के घटक, प्रकृति का संतुलन तथा भावी पीढ़ियों की आवश्यकताएँ कभी दृष्टि से ओझल नहीं होनी चाहिएँ। शिक्षा, पर्यावरण, अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र का समेकित (एक साथ, समग्र) विचार किया जाना चाहिए।

v पूंजीपरक उद्योगों की अपेक्षा श्रमाभिमुख उद्योगों पर अधिक बल देना चाहिए।

पू. श्री गुरुजी

सोपान - 2

तृतीय अखिल भारतीय कार्यकर्ता अभ्यास वर्ग

13-17 जनवरी , 1980 पुणे (महाराष्ट्र)

उद्घाटन सत्र

राष्ट्रहित चौखट अंतर्गत मजदूरहित

हम सभी लोग जानते हैं कि भारतीय मजदूर संघ एक राष्ट्रवादी विशुद्ध ट्रेड यूनियन है। हमारा काम जेन्युइन ट्रेड यूनियन के आधार पर चलनेवाला है। जेन्युइन ट्रेड यूनियन्स से हमारा मतलब है वह संगठन जो मजदूरों का है, मजदूरों के लिए है, मजदूरों द्वारा चलाया गया है और राष्ट्रहित चौखट अंतर्गत मजदूरों का हित एकमात्र उद्देश्य लेकर जो चल रहा है। इसी कारण हर तरह के बाहरी प्रभाव से जो मुक्त है, मालिकों का प्रभाव, सरकार का प्रभाव, राजनैतिक दलों का प्रभाव, व्यक्तिगत नेतागिरी का प्रभाव और हर तरह के बाहरी प्रभाव से जो मुक्त है इस तरह का विशुद्ध ट्रेड यूनियन संगठन याने भारतीय मजदूर संघ है।

हम लोग पेलिटिकल युनियनिज्म के पक्ष में नहीं

भारतीय मजदूर संघ के निर्माण के पूर्व ऐसा माना गया था कि विशुद्ध ट्रेड यूनियन संगठन चल नहीं सकता। मजदूरों के दो ही तरह के संगठन हो सकते हैं: एक 'पोलिटिकल यूनियनिज्म, तो दूसरे का आधार होगा इकॉनॉमिज्म। पोलिटिकल यूनियनिज्म का सीधा मतलब है कि किसी-न-किसी राजनैतिक दल के अंग के रूप में काम करने वाला संगठन, और इकॉनॉमिज्म का मतलब है ब्रेडबटर युनियनिज्म केवल रोजी-रोटी का विचार करनेवाला, और कुछ नहीं। ये दो ही प्रकार हो सकते हैं। हम लोग पोलिटिकल युनियनिज्म के पक्ष में नहीं। हमारा विचार है कि कोई भी एक समूह दो मालिकों की सेवा ईमानदारी से नहीं कर सकता। (Thou shall not serve two masters.) ट्रेड युनियन यदि पोलिटिकल पार्टी के अंग के रूप में रहता है तो वह पोलिटिकल बॉसेस की सेवा करेगा या मजदूरों की सेवा करेगा? यह सवाल हमेशा रहेगा। इस दृष्टि से यदि मजदूरों के लिए काम करना है तो वह नॉन-पोलिटिकल होना आवश्यक है। उसको जेन्युइन ट्रेड युनियनिज्म कहा गया है। कितु इसका मतलब केवल इकॉनॉमिज्म या ब्रेडबटर युनियनिज्म नहीं।

राष्ट्र हित और मजदूर हित दोनों एक

जहाँ हम राजनीति में ट्रेड युनियन के नाते भाग लेना उचित नहीं समझते वहाँ मजदूर केवल अपनी रोजी-रोटी का ही विचार करें और कुछ न करें, केवल एक आर्थिक प्राणी के नाते अपना जीवन बिताये, इस विचार को भी हम स्वस्थ विचार नहीं समझते। हर एक मजदूर जैसे मजदूर हैं और अपने मजदूर संगठन का एक अंग है वैसे ही सब मिलाकर वह राष्ट्र का अंग है, अविभाज्य अंग है। राष्ट्र हित और मजदूर हित दोनों एक ही दिशा में जाने वाले हैं। और इस दृष्टि से जहाँ हमारा विचार है कि राजनैतिक दलों से मजदूर संगठन स्वतंत्र होना चाहिए वहाँ राष्ट्रनीति से मजदूर संगठन अलग नहीं हो सकता। वह राष्ट्रनीति का एक अंग है, यह भी हमारी धारणा रही; और केवल धारणा रही इतनी ही बात नहीं, तो जब कभी राष्ट्रनीति के नाते आव्हान प्राप्त हुआ तो भारतीय मजदूर संघ ने राष्ट्रवाद के आधार पर उचित कार्रवाई की। यह आज तक के इतिहास के आधार पर हम कह सकते हैं। विस्तृत न कहते हुए 1962 ई. के चीन के आक्रमण के समय, 1965 ई. के पाकिस्तान के आक्रमण के समय, 1971 ई. के बंगला देश की लड़ाई के समय देश में क्राइसिस आया था। इस तरह का क्राइसिस केवल बाह्य आक्रमण के कारण नहीं, अंतर्गत अर्थव्यवस्था के कारण उत्पन्न हो सकता है। इस दृष्टि से इमरजेन्सी के समय देश को डिक्टेटरशिप से बचाने के लिए भारतीय मजदूर संघ और उसके कार्यकर्ताओं ने जो कार्य किया वह सबके सामने है। यह सब राष्ट्रनीति के अंग के रूप में ही किया गया है।

जेन्युइन ट्रेड युनियनिज्म

खेतीहर मजदूर और ग्रामीण क्षेत्र के हमारे देसी कारीगर भूखे रहते हैं तो इसके लिए 800रु. - 100रु. मिलने वाला Wage-island (वेतन क्षेत्र) जिम्मेदार है या 1000 करोड़, 1300 करोड़ वाला High income island (उच्च आय क्षेत्र) जिम्मेदार है सामान्य से विचार नहीं होता तब तक जो भी विचार होगा lopsided (एकतरफा) होगा। अब केवल संगठित मजदूरों के खिलाफ असंगठित मजदूरों को भड़काने की चेष्टा इतना ही उनका महत्व रहेगा। भारतीय मजदूर संघ चाहता है कि - पाप्युलेशन के सभी विभागों का विचार करना है। इस दृष्टि से संपूर्ण राष्ट्र एक इकाई समझकर विचार होना चाहिए। लेकिन यह विचार उस तरह ही नहीं हो सकता जिस तरह से आज चल रहा है। वह जो प्लॅनिंग स्टाईल है वह बदलनी चाहिए, और इस दृष्टि से विभिन्न आर्थिक हितों की (Economic Interest) की राऊंड टेबल कान्फरेन्स बुलानी चाहिए। आर्थिक हितों से हमारा मतलब है, जैसे मजदूरों का हित है, मालिकों का, किसानों का, खेतीहर मजदूरों का हित है, व्यापारियों का हित है जिनके अलग-अलग Economic Interest (आर्थिक हित) हैं। राष्ट्रनीति के अंग के रूप में जेन्युइन ट्रेड युनियनिज्म विशुद्ध ट्रेड युनियनिज्म के आधार पर काम करने वाला संगठन अपना भारतीय मजदूर संघ है।

यहाँ का जो औद्योगिक ढाँचा है पश्चिम से लाया हुआ है

अब इस तरह से काम करने में कई कठिनाइयाँ हैं। दोनों तरफ से कठिनाइयाँ हैं। मजदूर क्षेत्र में अब तक जिन लोगों ने काम किया, दशकों तक काम किया उन्होंने जो विचार पद्धतियाँ, जो परंपराएं डालीं, उनका जो प्रभाव हुआ है उसमें मजदूरों को मुक्त करते हुए स्वस्थ विचारधारा के प्रभाव में लाना यह एक बात कठिनाई की है। मजदूर क्षेत्र के विषय में सर्वसाधारण जनता में और राष्ट्रवादी लोगों में भी जो कुछ उदासीनता का भाव है उसका कारण यह है कि -समस्याएँ तथा उनके सुलझाव के उपाय आदि के विषय में जनता में और राष्ट्रवादी शक्तियों में भी अनुकूल वातावरण उत्पन्न करना आवश्यक है। यह भी एक समस्या आ जाती है। इसके कारण काम में जो कठिनाइयाँ आती हैं उनकी कल्पना आप कर सकते हैं। वास्तव में जिस ढंग से ट्रेड यूनियन का काम हिंदुस्थान में चल रहा है, जो राष्ट्रवादी संगठन है, भारतीय संस्कृति, परंपरा, प्रतिभा के आधार पर चलने वाला है, उसके लिए परिस्थिति से भी पैदा होने वाली कठिनाइयाँ आ जाती हैं। यहाँ का जो औद्योगिक ढाँचा है पश्चिम से लाया हुआ है। औद्योगिक संबंधों का नियमन करने वाली जो मशीनरी है और जो कानून हैं वे तो पश्चिम की नकल करते हुए लाए गए हैं। और इसके कारण पश्चिम में जिस तरह के बिषैले औद्योगिक संबंध हैं उनका निर्माण यहाँ होना भी स्वाभाविक है।

Bi-focalVision ( निकट व दूरदृष्टि)

इस वायुमंडल में जो एक तरह से पश्चिमी की नकल करने के कारण हैं, भारतीय संस्कृति को लेकर काम करना यह बहुत कठिन हो जाता है। इसके कारण आज की परिस्थितियाँ और अंतिम लक्ष्य दोनों को एक साथ ख्याल में रखते हुए भारतीय मजदूर संघ को काम करना पड़ रहा है। माने आज की जो परिस्थितियाँ हैं उनमें से रास्ता निकालना यह एक काम और जिस अंतिम लक्ष्य पर पहुँचना है वहाँ किस तरह पहुँचा जा सकता है इसका विचार दूसरा काम हमारे सामने है। इस तरह से Bi focal Vision लेकर काम करने पर भारतीय मजदूर संघ बाध्य हो रहा है। जिसमें नजदीक का भी बराबर दिख सके और दूर का भी, जो हमारा लक्ष्य है, वह भी हम देख सकें। Bi-focal Vision लेकर भारतीय मजदूर संघ काम कर रहा है। अब इस परिस्थिति के कारण जो गलतफहमियाँ पैदा होती हैं, तरह-तरह की, उनको भी बरदाश्त करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए एक बात बताऊंगा।

गलत प्रचार पिछले 30 साल से चला आ रहा है

सन 1947 ई. के बाद लगातार यह प्रचार चला रहा है कि "यह जो संगठित मजदूर है वह बड़ा Irresponsible (गैर जिम्मेदार) है, Indisciplined (अनुशासनहींन) है। अपनी पैसे की ही माँग बढ़ाता जा रहा है। जब कि इस देश में करोड़ों लोग दो समय भोजन भी नहीं कर पा रहे हैं। दारिद्रय रेखा के नीचे 60% लोग इस देश में हैं। बेकार और अर्ध बेकारों की संख्या इतनी बड़ी है। ऐसे लोगों की राहत दिलाने के लिए कुछ व्यवस्था नहीं करते हुए कुछ निश्चित तनखा पाने वाले लोग अपना ही पैसा बढ़ाने की कोशिश करें यह क्या शोभा देनेवाली बात है?' इस तरह का गलत प्रचार पिछले 30 साल से चला आ रहा है। इसका परिणाम सर्वसामान्य व्यक्ति के मन पर ऐसा हुआ मानो संगठित मजदूर कह रहे हैं "महाराज! गरीब और भूखे ग्रामीण खेतीहर मजदूरों के मुँह में जाने वाला अनाज वहाँ से छिनकर हमारे मुँह में डालिए।" अब यह सोचने की बात है कि, एक तरफ इतने लोग भूखे रहें और दूसरी तरफ कुछ लोगों को 800रु. मिले यह तो बात ठीक दिखती नहीं। इस स्थिति को अंग्रेजी में high wage island कहा गया है।

राऊंड टेबल कान्फरेन्स होनी चाहिए

निःसन्देह इसमें न्याय की अपेक्षा करनी है, समानता की अपेक्षा करनी है या equitability (न्यायसंगतता) की अपेक्षा करनी है तो वह संपूर्ण देश को लागू होना चाहिए। कई विचारकों ने, राजनैतिक नेताओं ने भी हर चुनाव के पहले यह विचार रखा है कि संपत्ति का समान वितरण होना चाहिए। कम-से-कम और ज्यादा आमदनी में कुछ अनुपात निश्चित होना चाहिए। कुछ लोगों ने 1 से 20, 1 से 40 के आँकड़े रखे हैं। कहा जाता है कि संपत्ति के वितरण में कुछ अनुपात होना चाहिए। सोचने का विषय यह है कि अनुपात की बात किसके बीच में रखी गई है? खेतीहर मजदूर ओर बैंक एम्प्लाईज के बीच में, या खेतीहर मजदूर और टाटा-बिर्ला के बीच में है? समान वितरण यदि हम चाहते हैं तो वह खेतीहर मजदूर और केवल बैंक एम्प्लॉईज के बीच में चाहते हैं या खेतीहर मजदूर और टाटा-बिर्ला के बीच में हम चाहते हैं? इनके प्रतिनिधियों की राऊंड टेबल कान्फरेन्स होनी चाहिए। इस कान्फरेन्स में इंटिग्रेटेड इकॉनॉमिक पॉलिसी के बारे में खुली चर्चा होनी चाहिए। इंटिग्रेडेड कहने का कारण है कि अलग अलग पॉलिसीज तय नहीं हो सकतीं। एक का दूसरों पर असर होता है।

औद्योगिक स्वामित्व

कुछ बातें व्यवस्था पर भी अवलंबित होती हैं। सिस्टिम पर भी कुछ बातें अवलंबित होती हैं। सिस्टिम ही कुल मिलकर ऐसी है कि जब तक उसमें संशोधन नहीं होता, जब तक उसका पुनर्विचार और पुर्नरचना नहीं होती तब तक जो बीमारियाँ हैं उनको दूर करना कठिन काम है। इतना ही नहीं तो संपूर्ण राष्ट्र के भवितव्य का विचार किया तो भी आज की स्थिति को परिवर्तित किए बिना राष्ट्र को आगे बढ़ाना असंभव दिखायी देता है। जहाँ तक औद्योगिक क्षेत्र का संबंध है, हम जिसे औद्योगिक स्वामित्व का ढाँचा समझते हैं, उसके विषय में मौलिक विचार होने की आवश्यकता है। आज तो समझा जाता है कि 'केवल दो ही औद्योगिक संबंध के ढाँचे हो सकते हैं। या तो प्राइव्हेट एन्टरप्राइजेस रहेगा या राष्ट्रीयकरण होगा।' यह गलत विचार है। राष्ट्रीयकरण की दृष्टि से हम लोगों ने कहा है कि केवल Extremist (चरमपंथी) विचार लेकर नहीं चलेगा। और AII Nationalisation (संपूर्ण राष्ट्रीयकरण) भी गलत है। No Nationalisation भी गलत है। तो नॅशनल कमिशन इसके बारे में नियुक्त होना चाहिए। औद्योगिक स्वामीत्व के ढाँचे में हर एक उद्योग पर स्वाभाविक विचार करते हुए कुछ निर्णय किया जाए। उसकी कसौटी तय की जाए। तरह तरह के ढाँचे हो सकते हैं। को-ऑपरेटिव्हायजेशन हो सकता है। म्युनिसिपलायजेशन हो सकता है। सेल्फ एम्प्लॉयमेंट तो हमारे सेक्टर में भी हो सकता है। हर एक प्रकार हो सकता है, जिसमें छोटे इनकमवाले लोगों को शेअरहोल्डर बनाया जा सकता है। ऐसा डेमोक्रटायजेशन भी हो सकता है।

नॅशनल कमिशन नियुक्त हो

तरह तरह के स्वामित्व के ढांचे हो सकते हैं। किस उद्योग की क्या प्रकृति है, उसकी विशेषताएँ क्या हैं, उसको ख्याल में रखते हुए जो कसौटियाँ तय की जाएँ और इस तरह ही नॅशनल कमिशन नियुक्त हो, यह भी सुझाव हम लोगों ने दिया है। वैसे ही हम समझते हैं कि औद्योगिक क्षेत्र के देश की दृष्टि से आवश्यक है जो कि औद्योगीकरण हो रहा है वह किस तरह होता रहे, किस टेक्नॉलॉजिक का उसमें उपयोग है। उद्योगों का लोकेशन कहाँ हो, उसका साइज क्या हो, इसके भी बारे में केवल पश्चिम की नकल न करते हुए अपनी आवश्यकताओं का विचार करते हुए निर्णय लेने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से भी कुछ कमेटी नियुक्त होनी चाहिए। इस तरह से कई सुझाव भारतीय मजदूर संघ ने दिए हैं। इसका मतलब एक ही होता है कि आज की हमारी यह व्यवस्था सिस्टिम और कल की जो आकांक्षाएं हैं उनके आधार पर यह भेद मिटाने के लिए जो जो करना आवश्यक है वह सारा करना चाहिए। उसमें भारतीय मजदूर संघ के नाते जितना ही सहयोग देना है, ध्यान देना है, अवश्य हम दे सकते हैं; लेकिन यह बात पूरी तरह से मजदूरों के ऊपर या एक संस्था के ऊपर अवलंबित नहीं है। संपूर्ण समाज का जो वायुमंडल होगा उसका असर समाज के हर एक सेक्शन पर होना स्वाभाविक है। बहुत लोगों के द्वारा सोचा जाता है कि मजदूरों में राष्ट्रवाद की भावना नहीं है। वे गड़बड़ी मचाना चाहते हैं। केवल हड़ताल करना चाहते हैं। वास्तव में ऐसी स्थिति नहीं है। आजकल मजदूर हड़ताल पर जाना नहीं चाहता क्योंकि हड़ताल पर जाना इतना सस्ता काम नहीं, जैसा राजनैतिक क्षेत्र में व्होट डालना सस्ता है।

हड़ताल पर पाबंदी की व्यवस्था खतरनाक

आपने किसी को भी वोट डाला वह जीते या हारे, मकान में आने के बाद आप रोटी खा सकते हैं, लेकिन हड़ताल का निर्णय लिया और हड़ताल यदि फेल हो जाती है तो सैकड़ों परिवार बेघरबार हो जाते हैं। तो हड़ताल इतना सरल काम नहीं है। इसके कारण लोग हमेशा हड़ताल पर जाते हैं यह सोचना ठीक नहीं होगा। सर्वसाधारण समाज के लोग केवल जब उनको हड़ताल के कारण कुछ तकलीफ होती है तब औद्योगिक संबंध के बारे में सोचते हैं। वरना औद्योगिक क्षेत्र में क्या चल रहा है? मॅनेजमेंट क्या कर रही है? गव्हर्नमेंट क्या करती है? वास्तव में हड़ताल के बारे में भी राष्ट्रवादी लोगों को भी शांत चित्त से सोचने की आवश्यकता है, क्योंकि जो हमारा लक्ष्य है उसके अनुकूल आज ही टोटल सिस्टम नहीं है। इसलिए ऐसा सोचना गलत है कि हड़ताल पर पाबंदी लगानी चाहिए। हड़ताल एक outlet है। हड़ताल यह कानूनी हो, शांततापूर्ण रीति से चलाया जाए, गालियाँ न दी जाएँ। हड़ताल का इस्तेमाल केवल इस नाते हो कि व्यवस्था, नीति अथवा कार्यवाही के प्रति अपनी आपत्ति जाहिर कर न्याय पाने का आग्रह किया जाए। इसके कारण औद्योगिक वायुमंडल स्वस्थ रह सकता है। जब तक अन्याय है तब तक समाज के लिए और राष्ट्र के लिए हड़ताल पर पाबंदी की व्यवस्था खतरनाक हो सकती है। इस दृष्टि से हड़ताल का अधिकार कायम रखते हुए उसे किस तरह से Regulate (संचालित) किया जा सकता है, स्वस्थ किस तरह रखा जा सकता है, ताकि वायुमंडल में हमेशा के लिए विषैलापन निर्माण न हो इस दृष्टि से सोचने की आवश्यकता है। ये तरह तरह की बातें हैं। इस दृष्टि से भारतीय मजदूर संघ अपनी ओर से कुछ सोच विचार भी कर रहा है। कुछ सुझाव भी दे रहा है। यह बात तो ठीक है कि भारतीय मजदूर संघ आप सब लोगों के आशीर्वाद से दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है। 23 जुलै 1955 को जब हमने कार्य का प्रारंभ किया उस समय हमारे पास एक भी रजिस्टर्ड ट्रेड युनियन नहीं थी। एक भी सदस्य नहीं था। और आज करीब करीब 15 लाख के नजदीक हमारी मेंबरशिप हो गई है।

सामंजस्य और समग्रता से विचार

यह कार्य प्रगति कर रहा है। इस प्रगति के लिए हिंदुस्तान की राष्ट्रवादी शक्ति का आशीर्वाद उसके लिए कारण है, यह बताने की जरूरत नहीं है। यह बात स्पष्ट है। हमारी भी यह आकांक्षा है कि हिंदुस्थान की राष्ट्रवादी शक्ति की अपेक्षाएँ हम पूरी कर सकें। लेकिन उसके लिए आज जो हमारी ताकत है उससे अधिक ताकत की आवश्यकता है। आज जो व्यवस्था है उसमें परिवर्तन लाने की भी आवश्यकता है। बहुत लोग compartmentalised thinking (टुकड़ों टुकड़ों में विचार) करते हैं। यह ठीक नहीं है। सही हल निकालने के लिए करते हैं। सामंजस्य और समग्रता से विचार होने की आवश्यकता है। यदि ऐसा किया जाए तो दिखेगा कि कुल मिलकर जो हमारे यहाँ व्यवस्था है उस व्यवस्था में जब तक परिवर्तन नहीं होता तब तक कुछ नहीं हो सकता। विद्यार्थियों के लिए अलग, मजदूरों के लिए अलग, किसानों के लिए अलग इलाज, इस तरह से अलग अलग इलाज नहीं हो सकते। जो अभारतीय सिस्टिम थी उसका हमने transplantation (प्रतिरोपण) किया है। हमारी तरफ से निर्माण हुई organic growth (जैविक विकास) वाली आज की व्यवस्था नहीं। यह जो transplantation है और उसमें जो प्रेरणा है उसका हमारी समस्याओं के साथ मेल न बैठना यह एक स्वाभाविक बात है। इस दृष्टि से हम नहीं चाहते कि केवल भूतकाल में जो व्यवस्था थी उसीका Revival (पुनरूत्थान) होना चाहिए। यह तो नहीं हो सकता। किंतु साथ यह भी बात गलत होगी कि पश्चिम में जो पद्धति है उसके जैसे का तैसे उठा कर लें।

जैसे मैंने प्रारंभ में कहा कि इस अवसर पर अधिक बोलना उचित नहीं। यह वर्ग पाँच दिन यहाँ चलनेवाला है। सारे देश से यहाँ कुछ प्रतिनिधि आए हैं। कुछ और भी दोपहर तक पहुँच जाएँगे। लगभग 500 प्रतिनिधि इसमें हिस्सा लेने वाले हैं। हम ऐसी आशा रखते हैं कि सब लोगों का आशीर्वाद, मार्गदर्शन, सलाह के आधार पर जो हम प्राप्त करना चाहते हैं वह हम प्राप्त करने में सफल रहेंगे।

द्वितीय सत्र

संगठन , कार्यकर्ता , अनुशासन व सामूहिक नेतृत्व

यह अपना अखिल भारतीय स्तर का तीसरा स्वाध्याय वर्ग है। इसी प्रकार सन 1968 में भुसावल में और सन 1977 में बड़ौदा में वर्ग हो चुके हैं।

यहाँ एकत्रित हुए कार्यकर्ताओं के सामने अपने अपने क्षेत्र की कई समस्यायें हैं। स्वाभाविक ही हम अपने क्षेत्र की समस्याओं से चिंतित होंगे। मजदूर साथियों के निजी मसलों से लेकर यूनियन स्तर के संघर्ष और नेशनल इंडस्ट्रियल फेडरेशन स्तर के संघर्ष तक अनेक प्रश्न हमारे सामने हैं।

हमारा हर एक कार्यकर्ता सर्वप्रथम भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता है

ये औद्योगिक क्षेत्र की समस्यायें हैं। इनका विचार हम उस स्तर पर करते हैं। इस स्वाध्याय वर्ग का आयोजन इनसे कुछ अलग स्तर का है। यहाँ भारतीय मजदूर संघ के नाते विचार करने के लिए हम एकत्रित हुए हैं। वैसे यूनियन, फेडरेशन और भारतीय मजदूर संघ का जो परस्पर संबंध है वह दुबारा समझाने की आवश्यकता नहीं। दिल्ली अधिवेशन में भारतीय मजदूर संघ की अखिल भारतीय कार्यसमिति का निर्माण हुआ। उसीमें इस बात को आग्रहपूर्वक रखा गया था, कि अन्य श्रमसंस्थाओं की तुलना में हमारी विशेषता यह है कि हमारा हर एक कार्यकर्ता सर्वप्रथम भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता है। क्योंकि वह भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता है और इस कारण से भारतीय मजदूर संघ की जो यूनियन या फेडरेशन उसके क्षेत्र में काम करती है उस यूनियन का वह कार्यकर्ता हो जाता है। भारतीय मजदूर संघ द्वारा वह अपनी यूनियन या फेडरेशन का कार्यकर्ता हो जाता है। यहाँ की अन्य संस्थाओं में कार्यकर्ता सर्वप्रथम अपने यूनियन फेडरेशन का कार्यकर्ता हुआ करता है। क्योंकि उसकी यूनियन फेडरेशन सेंट्रल लेबर ऑर्गनाइझेशन के साथ संबंधित है। इस कारण से indirectly अप्रत्यक्ष रूप से through his union or federation वह अपने सेंट्रल लेबर ऑर्गनायझेशन का अप्रत्यक्ष कार्यकर्ता हो जाता है। यहाँ हर एक कार्यकर्ता प्रत्यक्ष भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता है, और इसी कारण अपने युनियन/फेडरेशन का कार्यकर्ता है। वहाँ हर एक कार्यकर्ता प्रत्यक्ष (directly) अपने यूनियन/फेडरेशन का कार्यकर्ता है। और फिर indirectly through union federation अपने लेबर ऑर्गनायझेशन का कार्यकर्ता है। तो वहाँ यूनियन कॉन्शसनेस है। और हमारे यहाँ बी.एम.एस. कॉन्शसनेस है। यह बात हम आग्रहपूर्वक रखते आ रहे हैं। यह आनंद की बात है कि सभी कार्यकर्ताओं ने वह स्पिरिट बराबर आत्मसात भी की है। इसी कारण कार्य सुचारु रूप से बढ़ रहा है। यह आनंद की बात है कि उस बी.एम.एस. के स्तर पर और बी.एम.एस. के नाते काम करने के लिए स्वाध्याय वर्ग की योजना समय समय पर हुआ करती है। इस प्रकार के वर्ग आयोजित करने की आवश्यकता भी साफ है।

संख्यात्मक वृद्धि के साथ साथ गुणात्मक दिशा

पहली आवश्यकता यह है कि अपने काम के लिए संख्यात्मक वृद्धि के साथ साथ गुणात्मक दिशा की ओर भी ध्यान देना जरूरी है। आप सबके प्रयासों, सिद्धांतों की आंतरिक शक्ति के और भगवान की कृपा के कारण काम बढ़ रहा है यह आनंद की बात है। हम इस बात की भी सतर्कता रखते हैं कि काम बढ़ने का केवल एक ही आयाम या डायमेन्शन यानी संख्याबल ही सबकुछ नहीं है। जब हम सरकार से डील करते हैं, प्रेसवालों से बात करते हैं, जनता के सामने अपनी बात रखते हैं, तो वे यही पूछते हैं, कि तुम्हारी संख्या क्या है, इसलिय इसका तो महत्त्व है। किंतु इतना ही एकमात्र डायमेन्शन ध्यान में रखकर भारतीय मजदूर संघ का काम होनेवाला नहीं है। प्रारंभ से जो दूसरी बात हम कहते आए उसकी भी याद दिलाना चाहता हूँ कि हम किस दिशा में प्रगति करना चाहते हैं? प्रारंभ में कुछ काम ही नहीं था तो जैसे वैसे इधर उधर से जो कुछ साथी मिले उन्हें साथ लेकर अपनी संस्था खड़ी की, काम खड़ा किया, छोटीमोटी युनियन खड़ी हुई। काम शुरू करना यह पहली अवस्था थी। काम शुरू हो गया और अपनी यह विशेषता रही कि प्रारंभ में कोई सेंट्रल लेबर ऑर्गनायझेशन ऐसी स्थिति नहीं रही।

हमने नीचे से ही संगठन कार्य प्रारंभ किया

सामान्यतः अखिल भारतीय संस्था का निर्माण करने का ढंग यह होता है कि पहले कुछ लोग एकत्रित आते हैं। अपनी अखिल भारतीय कार्य समिति बना देते हैं, अस्थायी समिति बना देते हैं। फिर उस अस्थायी समिति के तत्त्वावधान में प्रादेशिक (तदर्थ स्तरपर जिला या नीचे की इकाइयों का गठन किया जाता है। अखिल भारतीय Adhoc) कमिटी के निर्माण की यह पद्धति है। हमारे यहाँ उलटा हुआ। हम ऊपर से नीचे नहीं आए। हमने नीचे से ही संगठन कार्य प्रारंभ किया। पहले स्थानीय स्तरपर छोटी समस्याओं को हाथ लगाया। शॉप एम्प्लॉईज और रिक्शावालों की युनियन बनाने से प्रारंभ हुआ। जब दिखायी दिया कि अब छोटी छोटी यूनियनें सफलतापूर्वक काम करने लगी तो हिम्मत के साथ थोड़े बड़े उद्योग में प्रवेश किया; और भी थोड़ी हिम्मत बढ़ी तो उससे बड़े उद्योग में प्रवेश किया। फिर लगा कि प्रदेश में अब पर्याप्त मात्रा में ताकत हो गई तो फिर प्रादेशिक गठन हुआ। उद्यागों में अपनी शक्ति हो गई तो प्रादेशिक स्तर पर, अखिल भारतीय स्तरपर औद्योगिक महासंघों का निर्माण हुआ। और इस सारे परिवार का निर्माण होने के पश्चात बारह साल के बाद अखिल भारतीय संस्था का निर्माण हुआ।

लगातार धीरज के साथ

यह प्रक्रिया कितनी कठिन है यह आपको अन्य लोगों की प्रतिक्रियाएँ यदि मैं बता दूं तो पता चलेगा। बम्बई में एक बड़े सोशलिस्ट नेता हैं। उनसे बात हो रही थी। वे हमसे कह रहे थे कि आप हमारे जैसा विचार करते तो बात ठीक है। लेकिन आपकी काम करने की जो गति है बड़ी धीमी है। हमने उनसे कहा कि हमने कोई भी अच्छा काम जल्दी में नहीं किया। हमारे सब काम आराम से ही होते रहे। हिंदुस्थान में बाकी सब ग्रुप को जल्दी है, हमको जल्दी नहीं। आराम से ही काम होगा और उदाहरण रूप में जब मैंने कहा कि क्या आपको पता है कि हमारा अखिल भारतीय संस्था का निर्माण बारह साल के बाद हुआ तो उनको आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा, "बारह साल के बाद?'' तो हमने कहा, "हाँ।" "अखिल भारतीय बॉडी नहीं, कुछ नहीं। आप लोग काम करते रहें?" हमने कहा, "काम करते रहे।" तो वे बोले, "कमाल है! इतनी दीर्घ अवधि यदि हम अपने लोगों को काम करने के लिए कहते तो हमारे सोशालिस्ट बंधुओं ने बारह साल में बारह बार यूनिटी की होती और बारह बार डिसयूनिटी की होती। अखिल भारतीय आधार न होते हुए आपके लोग लगातार काम कैसे करते रहे?" तो हमने कहा, "हम इतने प्रोग्रेसिव्ह न होने के कारण हममें लगातार धीरज के साथ काम करने की कुछ क्षमता है।" केवल उदाहरण के रूप में मैंने कहा, लेकिन यह ध्यान में रखने योग्य बात है कि भारतीय मजदूर संघ का गठन अन्य संस्थाओं से अलग ढंग से हुआ है। इस तरह धीरे धीरे काम बढ़ा। अब, काम जब बढता है तो कुछ कठिनाइयाँ भी आती हैं। यह ठीक है कि ऐसे वक्त पर दूरदर्शिता से विचार करना चाहिए, तो भी हरओक अवस्था में छोटी-छोटी कठिनाइयाँ कितनी आएँगी यह सारा सोचना संभव किसीके लिए नहीं। एक मोटी रूपरेखा के तौर पर विचार हो सकता है। लेकिन उसके जो डीटेल्स हैं वे तो जैसे जैसे समस्या आती है वैसी सोचनी पड़ती है। जैसे काम छोटा या उस समय अखिल भारतीय संस्था का निर्माण करते समय दिल्ली में हम लोग दो दिन पहले बैठे थे। सवाल आया कि संविधान का निर्माण होना चाहिए। हमारे स्वर्गीय श्रद्धेय दादा मुखर्जी इन मामलों में बहुत ही तेज और योग्यता रखनेवाले थे।

हमारी संस्था का मूल आधार पारिवारिकता है

संविधान के मामले में हम सबने उन्हें कहा कि दादा, आप यह कर लें। तो वे बोले, "नहीं! दस लोग बैठकर करें।" हमने कहा, ठीक है। दस लोग बैठकर करें। उस समय संविधान बना। यह ठीक है कि हम अपने कॉन्स्टिट्यूशन (संविधान) का पालन करते हैं। फिर भी कॉन्स्टिट्यूशन की ओर देखने का हमारा दृष्टिकोण कुछ भिन्न है। हमारी संस्था का मूल आधार पारिवारिकता है। प्रारंभ से हमें यह कहा गया है कि केवल Constitution के आधार पर यदि कोई संस्था चलती है तो वह Constitution के ही बोझ के नीचे दबकर खत्म हो जाएगी और Constitution में प्रदान की गई व्यवस्थाओं और उसकी एक एक धारा का उपयोग संस्था को तोड़ने के लिए कैसे किया जाए इस चक्कर में लोग रहेंगे। हम जेन्युइन ट्रेड यूनियन हैं। वैसे ही हम मजदूरों का एक परिवार है। राष्ट्रभक्त मजदूरों का एक परिवार है। और इस पारिवारिकता के आधार पर ही अपना काम चल रहा है, बढ़ रहा है। केवल Constitution के आधार पर नहीं चला। फिर Constitution का स्थान क्या है?

परिवार में भी व्यवस्था तो हुआ करती है

तो परिवार में भी कुछ व्यवस्था तो हुआ ही करती है। उसी व्यवस्था को कागज पर लिख दिया और कहा कि यह हमारी कॉन्टीट्यूशन है। मानो जो व्यवस्था चल रही है या चलनी चाहिए ऐसा हम सोचते हैं उसको लिपिबद्ध और शब्दांकित किया तो वह Constitution हो गई। जो भाषा चल रही है उसके मुताबिक व्याकरण बनेगा, व्याकरण के मुताबिक भाषा नहीं। पहले व्याकरण का निर्माण हो गया, बाद में उसके चौखट में बैठने वाली भाषा का निर्माण हो, यह गलत प्रक्रिया है। भाषा का विकास स्वाभाविक रूप में होता है। भाषा का विकास होने पर खोजा जाता है कि इसके विकास के नियम क्या हैं? उसको फिर 'व्याकरण' नाम दिया जाता है। इसी स्वाभाविक ढंग से अपने संगठन का विकास हुआ। उसकी जो स्वाभाविक व्यवस्था उसमें से निकली उसीको कागज पर लिखा गया और कहा गया कि यह कॉन्स्टिट्यूशन है। परिवार में भी व्यवस्था तो हुआ करती है। परिवार में लिखित Constitution नहीं, इसलिए ऐसा तो होता नहीं कि जिन्हें दफ्तर जाना है वे रसोईघर में रसोई बना रहे हैं और जिन्हें रसोई बनानी है वे दफ्तर में जा रहे हैं। ऐसा नहीं होता। हर एक अपना अपना काम करता है। तो यह जो व्यवस्था है, पारिवारिक, उसीको लिपिबद्ध करते हुए उसको Constitution कहा गया। तो इस नाते कॉन्स्टिट्यूशन बनी।

आवश्यकतानुसार व्यवस्था तय करनी होती है

उस समय आवश्यकतायें क्या थीं? छोटी छोटी यूनियनें थीं, छोटी छोटी प्रादेशिक इकाइयाँ थीं, कुछ फेडरेशन बने थे। तो भी कोई उनमें खास flesh and blood (बल) नहीं था। उस समय की जो विकास प्रक्रिया है वह सोचकर और व्यवस्था जो बन रही थी उसको लिपिबद्ध किया गया। लेकिन बाद में ऐसा पाया गया कि काम बढ़ा है। अब काम जब बढ़ता है तो रचनाओं में कुछ परिवर्तन करना पड़ता है। यह कोई कठिनाई नहीं है। इसे कठिनाई नहीं कहा जा सकता। जैसे जैसे विकास होता है, आवश्यकतायें बदलती हैं। आवश्यकतानुसार व्यवस्था तय करनी होती है। उदाहरणार्थ, बच्चा जब जन्म लेता है तभी क्या उसकी आयुभर की सभी पोशाक तैयार कर रखी जाती हैं? दूरदर्शी कहलाने वाला कोई व्यक्ति यदि ऐसा करे तो लोग उसे पागल कहेंगे। स्वाभाविक ही आयु के साथ उसकी पोशाक बदलती जाती है। बड़ी आयु होने पर भी यदि कोई बचपन की पोशाक में उसे फिट करना चाहे तो अजीब होगा। कोई नहीं कहता कि नया कपड़ा सिलाना पड़ेगा इसलिए बड़ी समस्या निर्माण हुई। तो developmental difficulties (विकास क्रम की कठिनाईयां) इसी नाते केवल व्यवस्थाओं में अंतर करना पड़ता है। हाँ, जिस प्रकार बालक की आयु बढ़ने पर भी जन्मपत्री नहीं बदलती उसी प्रकार उद्देश्य आदि की मूलधारा नहीं बदलती। नहीं बदलनी चाहिए। Development & difficulties के नाते एक बार इस तरह का भी थोड़ा सा परिवर्तन, संशोधन, या विस्तार अपनी व्यवस्था में किया गया। और जो किया गया उसको लिपिबद्ध किया, यानी कॉन्स्टिट्यूशन तैयार हुआ, ऐसा कहना चाहिए। उसे भी कई साल हो गए। काम और भी बढ़ा। काम बढ़ने के कारण नये काम की अवस्था में अपनी व्यवस्था कैसी रहे इसके बारे में सब लोग बैठकर आपस में विचार विमर्श करने की आवश्यकता सामने आ गई। इस तरह का विचार विमर्श कान्फरेन्स में नहीं हो सकता। शांत चित्त से अब जैसे हम लोग यहाँ बैठे हैं और अनौपचारिक ढंग से आपस में जो बातें रात में या दोपहर में कहते हैं, उसमें से ही नई व्यवस्थाओं का विचार उत्क्रांत होता जाता है।

संख्यात्मक वृद्धि भी होनी चाहिए और गुणात्मक वृद्धि भी होनी चाहिए

अब यह सोचना क्यों आवश्यक होता है? वृद्धि में से निकलनेवाली समस्याएँ या कठिनाइयाँ क्या होती हैं? एक बात हम जानते हैं कि पिछले कुछ सालों में अपना काम बढ़ा है। अब काम बढ़ा याने क्या? तो जब मैंने प्रारंभ में कहा कि हम यह नहीं मानते कि वद्धि का एक ही डायमेन्शन या आयाम है और वह quantitative याने संख्यात्मक है। इसका दूसरा भी आयाम या dimension हम मानते हैं और वह है qualitative यानी गुणात्मक वृद्धि। संख्यात्मक वृद्धि भी होनी चाहिए और गुणात्मक वृद्धि भी होनी चाहिए। दोनों तरह से वृद्धि की अपेक्षा है। इसलिए दिल्ली अधिवेशन में यह कहा गया था कि हम आगे बढ़ना चाहते हैं। किस दिशा में आगे बढ़ना चाहते हैं? पहले हमारा कुछ संगठन खड़ा हो। अखिल भारतीय संस्था का निर्माण हो। वहाँ तक पहुँच गए तो बाद में हमने चाहा कि अखिल भारतीय संस्था के नाते हमें मान्यता भी जनमानस में प्राप्त हो। One of the central organizations (केंद्रीय संगठन) यह स्थान प्राप्त हो। फिर क्रमांक एक की सेंट्रल लेबर ऑर्गनायझेशन यह स्थान प्राप्त हो। और फिर the only of its type चार-पाँच-दस सेंट्रल लेबर ऑर्गनायजेशन से एक इतना ही नहीं, one of the many नहीं, बल्कि the only of its type यानी अपने ढंग का अकेला संगठन, यह स्थान अपने को प्राप्त हो। अपने ढंग का अकेला संगठन जब हम कहते हैं तो उसका मतलब यह है कि जो हमारा ध्येय है उसको ध्यानमें रखते हुए अपने ढंग का अकेला संगठन याने जैसे प्रारंभ में कहा कि हम Genuine ट्रेड यूनियन है। केवल Genuine Trade Union हम नहीं है, तो हम मजदूरों का परिवार है। केवल मजदूरों का परिवार ऐसी बात नहीं है। तो राष्ट्रवादी होने के नाते राष्ट्र और मजदूर, राष्ट्र और राष्ट्र के विभिन्न अंग, जिनके अंदर जो संबंध है उस एकात्मता का हम अनुभव करते हैं।

राष्ट्र-निर्माण कार्य का एक अंग इस नाते ही भारतीय मजदूर संघ

मजदूरों का विचार हम अलग से नहीं करते। और इस दृष्टि से हम यद्यपि मजदूर क्षेत्र में काम कर रहे हैं, तो भी अखिल भारतीय दृष्टिकोण धारण करते हुए काम कर रहे हैं। और यह जो अपना प्रयास है वह केवल एक sectional organisation जैसे वैसे खड़ा करना इतना ही नहीं है। संपूर्ण भारत के स्तर पर राष्ट्र निर्माण का जो एक बृहत् प्रयास चल रहा है उसका एक अंग इस नाते, जो बृहत् व्यूह रचना है उसका एक मोर्चा इस नाते भारतीय मजदूर संघ का कार्य है। माने हम क्या हैं? तो मजदूर परिवार के सदस्य हैं, Genuine Trade Union है। इतना ही केवल नहीं तो राष्ट्र निर्माता हैं और मजदूर क्षेत्र में काम करने वाले राष्ट्र निर्माताओं का संगठन याने भारतीय मजदूर संघ है। यह विचार लेकर प्रारंभ से काम शुरू हुआ। जब हम ऐसा कहते हैं कि the only of its type, तो हमारा अंतिम ध्येय यह है कि मजदूर क्षेत्र में कार्य करने वाले हम लोगों को राष्ट्र-निर्माण की इस भूमिका को ध्यान में रखते हुए काम करना है। मतलब राष्ट्र-निर्माण कार्य का एक अंग इस नाते ही भारतीय मजदूर संघ को आगे बढ़ना है। इसके लिए जो जो qualities आवश्यक हैं वह qualities हमारे पास रहे। तभी तो हम राष्ट्र-निर्माण कार्य के उपयुक्त साधन हो सकते हैं। नहीं तो संख्या बढ़ेगी और हो सकता है हमारी उपयोगिता समाप्त होगी। उपयोगिता समाप्त होगी तो हमारा प्रयोजन भी समाप्त होगा। इस तरह से qualitative भी वृद्धि होनी चाहिए। यह दूसरा dimension, दूसरा आयाम प्रारंभ से अपने सामने रहा। अब quality और quantity दोनों का साथ साथ विचार करना बड़ा कठिन है। quantity बढ़ाने की लालसा तो रहती है। हर एक को है, हमको भी हैं। लेकिन quantity बढ़ जाती है तो quality डायल्यूट हो जाती है। और quality हम अच्छी रखने का प्रयास करते हैं। तो quantity ज्यादा बढ़ नहीं पाती। माने केवल quality के पीछे लगेंगे तो बहुत संख्या अलग अलग प्रकार से बढ़ाई जा सकती है। quality का विचार यदि छोड़ दिया तो संख्या तो बहुत तेजी से बढ़ सकती है।

गुणात्मकता वृद्धि में बाधा न आए

आज संख्या बढ़ने के लिए काफी scope है, काफी गुंजाइश है। लेकिन सिर्फ quality (गुणवत्ता) खतम हो जाएगी। ऐरे गैरे नत्थू खैरे ऐसे इकट्ठा होकर भानुमती का कुनबा बन जाएगा। अब quality का विचार किया तो लोगों ने कहा कि बस पाँच-पचास-सौ साधु संतों को लेकर ही बैठिए। कोई मास ऑर्गनायजेशन खड़ी नहीं हो सकती। विचार करना है कि क्या केवल भानुमती का कुनबा खड़ा करना है या दस-पाँच लोगों का एक मठ महंतीवाला ढांचा खड़ा करना है? हमें दोनों नहीं करना है। संख्या भी बढ़ानी है quality का भी विचार करना है। यह समझकर ही चलना चाहिए कि संख्या जब बढ़ रही तो गुणवत्ता घटे नहीं। इसके लिए विशेष सतर्कता रखनी चाहिए। यदि हम quality की फिक्र करते हैं तो फिर quantitative growth याने संख्यात्मक वृद्धि में कुछ मर्यादा आ जाएगी। जो मर्यादा आती है उसको स्वीकार करना पड़ेगा। दोनों जो सीमा रेखाएँ हैं उनको हमें ख्याल में रखना है। संख्या में हम बहुत वृद्धि चाहते हैं। लेकिन इस दक्षता के साथ कि इसके कारण गुणात्मक वृद्धि में बाधा न आए।

अच्छी पद्धतियों की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं रहती

इसके कारण जहाँ जहाँ वृद्धि होती है वहाँ वहाँ बार बार आपस में सोच विचार करने की आवश्यकता हुआ करती है कि - 'भाई, वृद्धि कितनी हुई इसके कारण quality का डायल्यूशन कहाँ होने की संभावना है? उसको कैसे रोका जाए?' ऐसा बार बार विचार विमर्श करने की आवश्यकता हुआ करती है। इसका भी एक कारण है। संख्या वृद्धि होती है। इसका मतलब क्या है? बाहर से लोग आते हैं। जो पहले नहीं थे वह आते हैं। कहाँ कहाँ से आते हैं? एक तो तटस्थ लोग हो गए। किसी भी दूसरे यूनियन का सेंट्रल लेबर ऑर्गनायजेशन से संबंद्ध न होंगे वे आएंगें। वे आएँगे तो बिलकुल ही नए होंगे। उनको आप जैसा चाहे वैसे तराश सकते हैं। लेकिन दिशा देने के लिए विशेष कोशिश करनी पड़ेगी। वह स्वाभाविक रूप से नहीं होगा। स्वाभाविक रूप से पानी जैसे नीचे से ऊपर पहाड़ी पर नहीं चढ़ता, ऊपर से नीचे आता है, उसी तरह स्वाभाविक रूप से अच्छी बातों की ओर, अच्छी पद्धतियों की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं रहती। बुराइयों की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति है। इसके कारण बिलकुल जो किसी संस्था में नहीं रहे ऐसे भी लोग आएँ तो भी उनको अपनी पद्धति, अपनी quality, अपनी परंपराएँ, अपनी मान्यताएँ, अपने norms and standards इन्हें acclaimatize (नई परिस्थितियों में ढालने) के लिए विशेष प्रयास करना पड़ेगा। और बाहर से जो लोग आते हैं वे अन्य संस्थाओं में से जिन्होंने अनुभव प्राप्त किए हुए लोग हों तो अच्छा होगा। अब मान लीजिए कि अन्य सेंट्रल लेबर ऑर्गनायझेशन से संबंधि त कोई national federation हैं उससे संबंधित पाँच सदस्य हमारे पास आए तो हमें आनंद होगा। लेकिन उनके पाँच अखिल भारतीय पदाधि कारी यदि आते तो ज्यादा आनंद होगा कि नहीं? होगा। अब अच्छे पदाधिकारी यदि आते हैं तो बड़ा asset है। इज्जत बढ़ेगी, अनुभवी कार्यकर्ता मिलेंगे। साथ ही साथ कठिनाइयाँ भी हैं।

वहाँ की आदतें भूलना और यहाँ की आदतें सीखना यह बड़ा कठिन काम

कठिनाई यह है कि अन्य संस्थाओं से आने वाले लोग वहाँ की पद्धतियों, वहाँ की आदतों आदि को लेकर ही आएंगे। यह स्वाभाविक है। अब वे पद्धतियाँ, वे आदतें हमारी पद्धतियों और आदतों से मेल न खाने वाली हैं। वहाँ की आदतें भूलना और यहाँ की आदतें सीखना यह बड़ा कठिन काम है। यह इतना सरल नहीं है। माने हम यह चाहते हैं कि विभिन्न संस्थाओं में जो अच्छे अच्छे पदाधिकारी हैं उन्हें भी हमारे पास खींचकर हम ला सकें। वह हमारे लिए asset होगा इसमें तो कोई शक नहीं। लेकिन इस अच्छाई को हजम करने के लिए ताकत लगती है। ताकत इसलिए लगती है कि वे जब आते हैं तब अपनी गुणवत्ता लेकर आते हैं, अपने अनुभव लेकर आते हैं। अपनी आदतों को भी लेकर आते हैं। Prestige और Status को लेकर आते हैं।

आदतों में योग्य बदल जरूरी है

अब वह संस्थाएँ तो चल रही हैं, वे विशेष उद्देश्यों को लेकर चल रही हैं और उसके मुताबिक उनकी गुणवत्ता है। उससे यहाँ काम चलने वाला नहीं। शायद उससे यहाँ कभी कभी नुकसान भी हो सकता है। उनकी पुरानी आदतें छूट जाएँ और हमारी नई आदतें वे अपना लें, इस तरह का प्रयत्न यदि हम न कर पाएंगे तो हम जो क्वालिटी (quality) रखना चाहते हैं वह नहीं रख पाएंगे। और शायद हमारी संस्थाओं में वे सारी बुराइयाँ आ सकती हैं जो अन्य संस्थाओं में हैं। माने, संख्या बढ़ गई तो quality बिगड़ गई। इसलिए आदतों में योग्य बदल जरूरी है। ऐसा नहीं किया गया तो परिणाम विपरीत होंगे। यह किसी के दोष दिखाने के लिए मैं नहीं कह रहा हूँ। क्योंकि मैं स्वयं अनुभव करता हूँ कि मजदूर क्षेत्र के प्रारंभ में अढ़ाई तीन साल में इंटक में रहा। उसके पहले अपने मजदूर क्षेत्र से लगभग संपर्क ही नहीं था। अढ़ाई तीन साल वहाँ रहने के कारण और पदाधिकारी के नाते रहने के कारण बाद में यद्यपि इंटक छोड़ भी दी और बी.एम.एस. (B.M.S.) का भी काम शुरू किया तो भी स्वयं मैंने देखा कि सोचते समय वही सोचने का ढंग आता था जो इंटक का था। हालाँकि हमारा ध्येय स्पष्ट था, तो भी सोचते समय वही सोचने का ढंग आता था।

व्यक्तिगत रूप में एक-एक कार्यकर्ता की फिक्र

अब हमारे विभिन्न फेडरेशन हैं। जैसे NOBW है। अच्छे कार्यकर्ताओं का क्या ध्येय है, यह भी स्पष्ट हो। ध्येयनिष्ठा भी हो, किंतु वहाँ यदि AIBEA से टूटकर आते हैं तो उनका सारा सोचने का ढंग वही रहेगा, जैसे AIBEA में रहते हुए था। NFPTE से कुछ लोग इधर आते हैं। सारा ध्येयवाद है, sincerity है, आत्मसमर्पण है, dedication है। मैं भी कुछ दिन तक जब NFPTE में रहा। और उसके बाद अपनी फेडरेशन निकालने का सवाल आया (याने मैं दूसरों की बात नहीं कर रहा, मैं स्वयं की बात कर रहा हूँ) तो प्रश्न उठा कि अपनी नई फेडरेशन की constitution बनाई जाए। माने सोचिए कि कैसे unconsciously (अवचेतन) परिणाम होता है। उसकी constitution बनाई गई। हमारी सलाह लेने के लिए जब आए तो ज्यादा सोचा तो नहीं था। एक तरफ से बहुत सोच-समझकर उस समय बोलने के लिए टाईम भी न था। तो मैंने वही, उस ढंग की बात बतायी जो NFPTE में हमने सीखी थी। अब उस समय सोचने को टाईम नहीं था कि इसके हर एक (क्लॉज) clause का क्या परिणाम होगा क्या नहीं। लेकिन स्वाभाविक रूप से क्या आया कि NFPTE में रहते हुए जिस constitution से हमारा संबंध था और जिसके अंतर्गत हमने काम किया था, स्वाभाविक रूप से वही सामने आई। आगे ऐसा दिखता है कि उसके कारण कुछ कठिनाइयाँ पैदा हुई। उसमें से कुछ clause हमारी प्रकृति में बैठने वाले नहीं थे। अभी पता चलता है, लेकिन उस समय सोचने के लिए भी टाईम नहीं था। लेकिन स्वाभाविक रूप से वह आया। जैसे नींद में से किसी को यदि हमने पानी डालकर जागृत किया तो स्वाभाविक रूप से जो instincive reaction होती है, उसी तरह की instinctive reaction यह रही जो हमने अढ़ाई तीन साल तक वहाँ सीखी थी। अगर ऐसा अभी हमारा हो सकता है तो अन्य लोगों का भी हो सकता है। इसलिए एक बराबरी के ढाँचे में बिठाने की दृष्टि से व्यक्तिगत रूप में एक-एक कार्यकर्ता की फिक्र करना यह भी तो एक बात है। वैसे संगठन के नाते अपना ढाँचा अपने ढंग का खड़ा हो उस दृष्टि से हर स्तर पर आपस में सोच-विचार की आवश्यकता है।

Two-way communication ( द्विमार्गी संप्रेषण)

हर स्तरपर अब कई कठिनाइयाँ व्यवहार के समय आती हैं जो पहले नहीं थीं। पहले नहीं थीं, क्योंकि पहले काम भी नहीं था। अब यूनियन के स्तर से लेकर, अखिल भारतीय मजदूर संघ के अनेक स्तर हैं। इनके बीच में communication बराबर रहे। माने, नीचे के स्तरपर की सारी जानकारी नियमित रूप से बराबर ऊपर के हर एक विभिन्न स्तर पर पहुँचे और ऊपर से जानकारी, ऊपर के निर्णय और उसका explanation ऊपर से नीचे तक पहुँचे। याने two-way communication हुआ। ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर। नीचे की जानकारी और नीचे के लोगों के सुझाव, स्थानिक परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए किए गए सुझाव ये ऊपर तक पहुँचे। ऊपर की जानकारी, ऊपर की समस्याएँ और तदानुसार निर्णय लिए गए। यह Constitution जैसे जैसे संस्था बढ़ती है वैसे वैसे बहुत कठिन हो जाता है। अपने यहाँ यह हो रहा है। इसकी कोई हमारी व्यवस्था है और वह पूरी तरह ठीक है ऐसा नहीं है। Constitution व्यवस्था के मुताबिक लिखी गई यह ठीक है, लेकिन ऐसी बात नहीं है कि यह इसके लिए पर्याप्त है। किंतु जिस अखाड़े से हम लोग आए उस अखाड़े में सब लोगों के साथ कोई कठिनाई महसूस नहीं हो रही, लेकिन नियमित कुछ व्यवस्था करने की आवश्यकता है। आवश्यकता इसलिए भी है कि देश लंबा-चौड़ा है। हरएक उद्योग विभिन्न विभागों में फैला हुआ है। हमारा काम, हमारी प्रतिस्पर्धी यूनियनों का काम uneven या असमान विस्तार रखने वाला है, और इसके कारण यह तो ठीक है कि हमारा संघटन सबसे अधिक अनुशासनबद्ध है। यह ठीक है, लेकिन इसके साथ साथ यदि इस तरह का communication बराबर न रहा तो विभिन्न स्तरों पर कठिनाइयाँ आ सकती हैं। कैसी आ सकती हैं? मैं उदाहरण के लिए केवल एक ही बात बताता हूँ। कोई बड़ा फला हुआ उद्योग है। National Industrial Federation अपना काम कर रही है। उसकी strength मान लीजिए कि दिल्ली में बहुत ज्यादा है, मद्रास में बहुत कम है, कलकत्ता में समसमान है। और कोई मौका आता है, सवाल खड़ा हो जाता है कि हडताल का कॉल देना या नहीं देना। दूसरी प्रतिस्पर्धी यूनियन ने तय किया कि हडताल का call देना है। अब सवाल आता है कि हमारी पॉलिसी क्या रहे? हर स्तर पर यदि understanding ठीक न रहा तो आगे चलकर गड़बड़ियाँ पैदा होने की संभावनाएँ हैं। आज गड़बड़ी नहीं है, इसका कारण मैंने बताया कि जिस अखाड़े से हम आए हैं वहाँ जो अनौपचारिक संपर्क रखने का ढंग है, उसके कारण आज सब चीजों को हम समेटकर आगे बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन two-line communication यदि हर जगह न रहा, ठीक ढंग का न रहा और अपना संगठन बढ़ता गया तो इसके कारण कठिनाइयाँ आ सकती हैं।

अनुशासन

मान लीजिए कि दूसरी यूनियन ने हड़ताल करने का तय किया। अब इसमें हर एक इकाई में अपने सुख-दुःख का भी विचार करना है। लेकिन सबसे ज्यादा भारतीय मजदूर संघ का विचार करना है। अब भारतीय मजदूर संघ का ही विचार करना है यह सबको मालूम है। BMS consciousness तो सबके अंदर है। लेकिन communication, mutual communication के अभाव में अलग अलग मत निर्माण हो सकते हैं। मान लीजिए, दिल्ली में प्रतिस्पर्धी यूनियन का बड़ा जोर है। मद्रास में हमारी यूनियन का जोर है। अब मद्रासवाले हमारे कार्यकर्ता और दिल्लीवाले कार्यकर्ता दोनों समान sincerity रखते हैं। sincerity में अंतर नहीं है। दोनों समान dedication रखते हैं, आत्म-समर्पण रखते हैं। किंतु अच्छे कार्यकर्ता के नाते स्थानिक परिस्थिति के प्रकाश में सोच विचार भी कर सकते हैं। अब पूरे BMS का consciousness रखते हुए भी यदि दोनों जगह के कार्यकर्ताओं को दोनों स्थानों की जानकारी नहीं होगी तो कठिनाई यह पैदा होगी कि, मद्रास, जहाँ हमारा बहुत अच्छा काम है, वहाँ लोग कहेंगे कि नहीं, हम इस हडताल में शामिल नहीं होंगे। इसका विरोध करना चाहिए। विरोध के कारण जो भी झगड़ा पैदा होगा, देख लेंगे। दिल्ली वाले कहेंगे, नहीं, हम साथ तो नहीं हैं, लेकिन झगड़ा लेने से ठीक नहीं रहेगा। विरोध हुआ तो हम संभल नहीं पाएंगे। अच्छा है, इस समय कुछ न बोला जाए। तरस्थ रहा जाए।

अब वहाँ की परिस्थितियों को देखा तो वह ठीक है। केवल मद्रास का विचार किया तो उनका कहना ठीक है। लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर यदि Industrial Federation है तो उसको कुछ न कुछ एक निर्णय लेना पड़ेगा कि नहीं? यदि हमने उन पर छोड़ दिया तो फिर हमारी भी Socialist Party हो जाएगी। जिसके मन में जो आया वह करता जाए, ऐसा तो ठीक नहीं। तो कुछ एकसूत्री, एक अनुशासन में चलने वाला कुह एक निर्णय होना आवश्यक है। ऐसा यदि निर्णय होगा तो आप समझ लीजिए कि आज वास्तव में realities ऐसी हैं कि सबको प्रसन्न रखने वाला निर्णय हो ही नहीं सकता। बहुत लोगों के खयाल में यह आता नहीं। Line of communication two-way (दोतरफा बातचीत) न होने के कारण, जगह जगह की जानकारी न होने के कारण बहुत बार यह होता है कि, अपने स्थान की सुविधा-असुविधा ध्यान में रखकर निर्णय ऐसा ही होना चाहिए, ऐसा आग्रह रखा जाता है। अब निर्णय ऐसा हो होना चाहिए, यह विचार स्थानिक परिस्थितियों के प्रकाश में मन में आना तो योग्य है। लेकिन ऐसा आग्रह तो ठीक नहीं कि All India (अखिल भारत) का विचार होगा तो भी हमारी स्थानीय परिस्थिति ऐसी है, अखिल भारतीय महासंघ क्या जानता है? ऐसा बाकी संस्थाओं में कहा जाता है।

हर जगह की सुविधा-असुविधा का विचार करते हुए ही निर्णय लेना चाहिए

अन्य संस्थाओं में हमने सुना भी है कि, हाँ, ठीक है। वह क्या अखिल भारतीय लोग हैं, अपने Ivory Tower (ऊंचे सुरक्षित कक्ष) में बैठे हैं। उनका क्या पता है कि नीचे हमारी क्या कठिनाइयाँ होती हैं। उनको मालूम थोड़े ही है? और वास्तव में भी अखिल भारतीय अधिकारियों को मालूम नहीं होगा तो वह तो दोष है। वह भी इसी का निदर्शक है कि line of communication ठीक नहीं है। अखिल भारतीय स्तरपर जो निर्णय होता है, वह निर्णय लेते समय हर जगह का सुख-दुःख, हर जगह की सुविधा असुविधा का विचार करते हुए ही निर्णय लेना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ होगा तो वह lop-sided (एकतरफा) होगा। उसके कारण गलतियाँ हाँगी। यह तो ठीक है। किंतु ऊपर संपूर्ण परिस्थिति का विचार करते हुए निर्णय लेने की क्षमता केंद्र में निर्माण हो, इसके लिए भी communication की आवश्यकता है, जानकारी की आवश्यकता है। वैसे ही अपने यहाँ की स्थिति तथा अन्य स्थान की स्थिति कुछ अलग है, यह जानकारी विभिन्न कार्यकर्ताओं को यदि रही तो मैं समझता हूँ कि attitude (वृत्ति) में अंतर आएगा और फिर यह देखते हुए कि, uneven distrubition of strength (असंतुलित शक्ति विभाजन) होने के कारण सब जगह एक ही निर्णय सुविधाजनक ही होगा ऐसा नहीं। तो कहीं की सुविधा, कहीं की असुविधा, कहीं का दुःख कहीं का सुख, सारा कुल मिलाकर विचार करते हुए एक ही निर्णय लेना है। उसके कारण कुछ न कुछ इकाइयों को तो असुविधा बरदाश्त करनी ही पड़ेगी। लेकिन हम लोग अपनी डफ्ली और अपना राग ऐसा व्यवहार कर नहीं सकते। एकसूत्री निर्णय लेना है, अनुशासनबद्ध चलना है तो फिर कितना भी अच्छा निर्णय लिया तो भी सबके लिए सुविधाजनक हो नहीं सकता, यह understanding लोगों में आ जाएगी। केंद्र में यदि निर्णय लिया गया है, और वह निर्णय मेरे लिए स्थानिक स्तर पर अगर सुविधाजनक नहीं है, तो भी केंद्र में निर्णय क्यों लिया गया इसका understanding मुझे आ सकता है।

ऊपर जो निर्णय हुआ है वह निर्णय क्यों हुआ है यह नीचे समझाना भी चाहिए

यदि जगह जगह की जानकारी मेरे पास हो और इस तरह mutual communication यदि रहा तो निर्णय जो आते हैं वे निर्णय लेने की प्रक्रिया में हमारा भी योगदान होता है। इसलिए मैंने कहा कि two-line of communication और from bottom to top communication (नीचे से ऊपर संप्रेषण) होना चाहिए। जानकारी केंद्र के पास होनी चाहिए। उसके आधार पर निर्णय होना चाहिए। वैसे ही ऊपर जो निर्णय हुआ है वह निर्णय क्यों हुआ है यह नीचे समझाना भी चाहिए। यह समझाने के लिए समय न रहा तो इतनी पर्याप्त जानकारी पूरे बिंदुओं के बारे में हर स्तर पर होनी चाहिए, कि जिसके कारण वहाँ का स्थानिक कार्यकर्ता भी समझ सके, कि मेरे स्थान के लिए, मेरे युनिट के लिए यह निर्णय असुविधाजनक है, लेकिन यदि अखिल भारतीय स्तरपर निर्णय लिया गया है तो उसके अमुक कारण हो सकते हैं। इतना अंदाजा वह कर सके ऐसा understanding तो उसको आना चाहिए।

यानी केवल सदस्यता बढ़ना ही पर्याप्त नहीं है। साथ आए सदस्य के साथ ऊपर नीचे एकरस पहुँचने वाली परस्पर विचारविनिमय की धारा जुडना चाहिए। संगठन की हर एक इकाई में यह समझ पैदा होना जरूरी है कि एक संपूर्ण भारतीय मजदूर संघ की सुविधा किस बात में है? कठिनाई किस बात में है? एकता किस पर रहेगी?

आज जो अनौपचारिक हो रहा है उसमें कोई कमी नहीं यह मैं जानता हूँ लेकिन जो informally (अनौपचारिक) हो रहा है उसको भी एक व्यवस्था के रूप में कुछ उत्क्रांत करना आवश्यक है। और इस दृष्टि से परस्पर विचार विमर्श जब यह क्लास वगैरह नहीं रहता तो आपस में बैठकर रात के समय भोजन के बाद इस तरह का विचार हम आपस में कर सकते हैं। क्योंकि हमारी एक विशेषता यह भी है कि quality के कारण हम अनुशासनबद्ध हैं। Mass organisation (जनसंगठन) के बारे में यह सोचा जाता है कि Mass organisation याने हो हल्ला। Mass organisation याने शोरगुल। तो हो हल्ला तो करना ही है, क्योंकि it is a part of the game. कोई दुकान खोले और कहे कि मैं यहाँ माला ही जपता रहूँगा तो वह दूकान नहीं चलेगी, हो हल्ला करना है, शोरगुल मचाना है। यह तो ठीक है। लेकिन जहाँ तक अंतर्गत व्यवस्था का प्रश्न है, वहाँ अनुशासनबद्ध होना है।

यह अनुशासन शत प्रतिशत कैसे रखा जा सकता है, इस दृष्टि से कार्यकर्ताओं की तैयारी होनी चाहिए। कोई कहेगा, इसमें कठिनाई क्या है? हमारा एक ढाँचा है, कोई अखिल भारतीय प्रेसिडेन्ट है, अखिल भारतीय जनरल सेक्रेटरी है। इनके जो आदेश होंगे उनका पालन किया जाएगा। यह ठीक है। इससे लोग काम करेंगे। यह भी ठीक है कि आज का तथाकथित प्रोग्रेसिवनेस, जिसमें ऊपर आए आदेश की अवहेलना करना एक फैशन बना है, हमारे यहाँ नहीं है। हम ऐसे प्रोग्रेसिव (प्रगतिवादी) बनने को तैयार नहीं हैं। परंतु इस प्रकार केवल ऊपर से आए आदेश के लिए ही काम करने से गुणात्मकता कम होने का खतरा भी है। स्वयं अनुभव न कर पाने की स्थिति में काम के प्रति तन्मयता भी घटती है। अनुशासन, वास्तव में उत्तम वही है जिसमें आपस की अच्छी समझ हो। एक दूसरे की स्थिति और विचार को खूब जानते हों।

यानी directive (निर्देश) देने वाला और directive रिसीव करने वाला इनके बीच मानसिक सुसंवाद होना चाहिए तभी तो उसे संघटन कहा जाएगा। Directive रिसीव करने वाला जो है उसको यदि अंदाजा ही नहीं लग सके कि ऊपर से ऐसा directive क्यों आता है, तो इसका मतलब है कि communication में कहीं न कहीं खोट है। यहाँ अनुशासन आवश्यक है। लेकिन वह केवल मिलिटरी का अनुशासन नहीं चाहिए। उससे काम कहीं नहीं चलता। किसी भी संस्था में नहीं चलता।

अनुशासन ऐसा होना चाहिए कि जिससे गुणात्मकता में कोई अंतर नहीं आए। कोई गडबड़ी होने पर प्रत्येक घटक को लगे कि उपाय योजना तुरंत होनी चाहिए। यदि देर हो रही हो तो बेचैनी पैदा हो। इस प्रकार का अनुशासन पैदा करने में देर लग सकती है। कुछ लोग अधीर हो उठते हैं। मैं सोचता हूँ कि शायद discipline का सही जो मर्म है वह हम नहीं समझ रहे। हम लोग undiscipline टॉलरेट करें ऐसा नहीं। लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी निर्माण करें जिसके कारण अनुशासन का पालन स्वाभाविक रूप से लोग करें। ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होना चाहिए, यही आदर्श अवस्था है। Discipline शब्द मिलिटरी का नहीं। डिसायपल से डिसिप्लिन शब्द निकला है। डिसायपल याने शिष्य। डिसीप्लिन का मतलब होता है शिष्यत्व। और शायद दुनिया में इसका सबसे आदर्श उदाहरण भगवद्गीता का है। अर्जुन प्रारंभ में ही पूछते हैं कि मेरे मन में सम्मोह पैदा हुआ है।

यच्छेयः स्थानिश्चितं ब्रूहि तन्मे।

शिष्यस्ते हं शाधि माँ त्वां प्रपन्नम्॥

क्या करना, नहीं करना इसके बारे में मेरे मन में संभ्रम पैदा हुआ है। मुझे निश्चित बताइये क्या करना है। माने वह definite directive की माँग कर रहा है। भगवान ने definite directive दिया क्या? नहीं। चर्चा छेड़ी। और कितनी लंबी चर्चा है! अठारह अध्याय तक चर्चा चली। प्रश्न का उत्तर देना, फिर उत्तर में से शंका निर्माण होना, उसका समाधान करना, उसमें से नया संदेह निर्माण होना। अठारह अध्याय तक सारी चर्चा हुई। और सारी चर्चा होने के बाद directive क्या दिया? तो उन्होंने कहा, कि भाई, सबकुछ मैंने तुमको बताया है। और यह सारा सुनने के पश्चात... "विमृश्यै तदशेषेण" जितना कहा गया उसपर विचार करो। और विचार करते हुए कहा कि

विमृश्यैतदशेषेण

यथेच्छसि तथा कुरु॥

आदर्श अवस्था

जैसी फिर तुम्हारी इच्छा होगी वैसा करो। यह दिखने में बड़ा विचित्र दिखता है कि वह कह रहा है कि, मुझे directive दो। यह directive नहीं दे रहे हैं, चर्चा कर रहे हैं। उसके मन में जितने ही प्रश्न और आशंकाएँ आती हैं उनका समाधान कर रहे हैं। और सारा होने के बाद भी नहीं कह रहे कि मैंने यह कहा इसलिए तुम अब ऐसा करो, ऐसा नहीं। तो कह रहे हैं कि मैंने जितना कहा उसपर तुम पूरा विचार करो। और पूरा विचार करने के बाद तुम्हारी जैसी इच्छा है वैसा करो। यह एक आदर्श अवस्था है। और इसमें से जो आती है वह वास्तव में discipline है। Understanding (समझदारी) के आधार पर जो आती है वही discipline (अनुशासन) है।

कार्यकर्ता का understanding यही discipline का आधार होता है

लेकिन अब इतना व्यवहार तो हम लोग ऊँचे स्तरपर नहीं रखते, नहीं रख सकते। इसका कारण भी है। न तो कोई अर्जुन है और न कोई भगवान कृष्ण है। अब जितनी मात्रा में हम उन दोनों से नीचे हैं उतनी मात्रा में इस व्यवहार का स्तर भी हमारा नीचे आएगा। इसी के कारण कुछ संस्थाओं की जरूरत पड़ती है। इसीके कारण कुछ व्यवस्था बनानी पड़ती है। वरना व्यवस्था की वैसी आवश्यकता नहीं। किंतु आदर्श क्या है यह इससे पहले ख्याल में आता है। आखिर डिसिप्लिन क्या है? वह कॉन्स्टिट्यूशन नहीं है। कार्यकर्ता का understanding यही discipline का आधार होता है। यह under standing बढ़ाते रहना आवश्यक है। और यह भी देखना जरूरी है कि इस दृष्टि से अभी जो काम बढ़ा है उसमें नई संस्थाओं से भी जो लोग आए हैं वे अपनी परिपाटियाँ, पद्धतिया, आदतें सब साथ लाएंगे। उनका मोल्डिंग किस तरह होगा? और फिर जो देह, शरीर नई रचना में बढ़ा है, उसको ठीक तरह से बैठ सके ऐसा कपड़ा होना चाहिए, यह व्यवस्था का पूर्व विचार आपस में बैठकर भी करने की आवश्यकता है। इसमें कौन कौन से पहलु और कौन से कौन से विचार लेने हैं यह तभी तय हो सकेगा, जब हम आपस में अनौपचारिक ढंग से सोच विचार करने हैं यह तभी तय हो सकेगा, जब हम आपस में अनौपचारिक ढंग से सोच विचार करेंगे। केवल ऐसा नहीं जैसा कि अन्य संस्थाओं में चलता है। यहाँ एक फेडरेशन का आदमी आया। उसने एक भाषण झाड़ दिया। दूसरे यूनियन का आया। उसने भाषण दिया। स्टेट B. M. S. का प्रेसिडेन्ट आया। उसने भाषण दिया। उसमें से कुछ बात निकलेगी नहीं। अनौपचारिक ढंग से जो अपनी सारी चर्चा होती है उसमे से सबको ख्याल में आएगा कि किस ढंग की व्यवस्था होनी चाहिए।

संघटनात्मक एकात्मता

संघटनात्मक एकात्मता कायम रहे इसका भी विचार है। आर्थिक एकात्मता कायम रहे इसका भी विचार है। सब तरह का विचार होना आवश्यक है किंतु, सब को परस्पर की कठिनाइयों का जब तक अनुभव नहीं आता तब तक एक दूसरे का understanding बढ़ नहीं सकेगा। सबकी समझदारी का स्तर बढ़ने की आवश्यकता है। माने छोटे रिक्शा यूनियन सेक्रेटरी का भी understanding बढ़ने की आवश्यकता है। All IndiaExecutive का understanding बढ़ने की आवश्यकता है। परस्पर की पूरी जानकारी होने से यह understanding बढ़ सकता है। इस तरह का जो अनौपचारिक काम है वह केवल सम्मेलन में नहीं हो सकता है। इसके लिए एकत्रीकरण जैसे किसी कार्य की आवश्यकता है। इसलिए भी समय-समय पर अपना यह एकत्रीकरण होता है। उसको हम स्वाध्याय वर्ग कहते हैं। कुछ तो भी नाम देना चाहिए इसलिए नाम दिया है। वास्तव में यह एकत्रीकरण है, कुछ विशेष उद्देश्यों को लेकर किया गया। स्वाध्याय उसका एक अंगमात्र है यह एक बात। दूसरा विचार संगठन यह एक शरीर हुआ। लेकिन उसकी जो आत्मा है वह अपना ध्येय है, आदर्श है, सिद्धांत है। उसकी दृष्टि से भी बारबार मिलने की आवश्यकता है।

प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट (क्रमिक प्रकटीकरण)

जैसे-जैसे ताकत बढ़ती है और अपनी कल्पना के काम को साकार स्वरूप देने की क्षमता बढ़ती है, साधन उपलब्ध होने लगते हैं तो योजनायें बनने लगती हैं। प्लानिंग होता है। कल का वह गरीब आदमी कुछ करता नजर आता है। मानो वह सोचता हो कि उसका अपना प्रासाद होगा। उसके कमरे कितने होंगे, आर्किटेक्ट कौन होगा आदि प्रश्न उपस्थित होने लगते हैं। जैसे जैसे हैसियत बढ़ती है यह सब होता ही है। उदाहरण के लिए यदि चित्रकार है तो उसके चित्र के रंग उभरने लगते हैं। चित्र की कल्पना नई नहीं रहती। चित्र वही है। परंतु क्या वह सब रंग एकसाथ भरता है? नहीं, ऐसा नहीं होता। पहले वह आउटलाइन खींचता है। क्या कोई ऐसा कहेगा कि आउटलाइन के आगे उसके सामने कुछ नहीं है। सो बात नहीं। धीरे-धीरे कल्पना साकार होती है। अंग्रेजी में इसे प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट कहा गया है वैसा होता है। सबेरे चार बजे हम अपनी खिड़की के बाहर झांकते हैं तो सामने का वृक्ष अंधेरे में दिखाई देता है; परंतु साफ नहीं। धीरे-धीरे जैसे प्रकाश फैलता है। वृक्ष स्पष्ट दिखाई देने लगता है। वृक्ष वही है। कोई ऐसा नहीं कह सकता कि पेड़ उत्क्रांत हुआ। पहले जो नहीं था वैसा एकाएक हो गया, सो बात भी नहीं। पेड़ में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बस, प्रकाश अधिक होने से डाली, पत्ते, फूल सभी कुछ दिखाई देने लगे हैं। 'अनफोल्डमेंट' का मतलब यही है, कि चीज वही है फिर भी उसका दर्शन क्रमशः प्राप्त हो गया। इसी प्रकार ध्येय साकार होता है। कुछ सिद्धांतों पर आधारित ध्येय लेकर हम प्रारंभ करते हैं। जैसे जैसे शक्ति बढ़ती है यह प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट होता है। यह आवश्यक भी है। बिना शक्ति के जिस कल्पना को पागलपन करार दिया जाता वही अब बुद्धिमानी मानी जाती है। इसलिए क्षमता बढ़ने के साथ साथ कल्पना साकार होना ही ठीक है।

सामूहिक नेतृत्व

इस दृष्टि से 1967 के दिल्ली अधिवेशन में हमने जो कुछ कहा उससे कुछ अधिक अनफोल्डमेंट भुसावल अधिवेशन में हुआ। भुसावल के बाद बड़ौदा में जब हम एकत्रित हुए तो अपनी बढ़ी हुई शक्ति के आधार पर काम में नये रंग भरे गए। फिर उसी सिद्धांत को लेकर आगे बढ़ने की दिशा में हम यहाँ एकत्रित हुए हैं। अब अपनी क्षमता के अनुसार आवश्यकताएँ बढ़ी हैं। उनकी पूर्ति के लिए रास्ते खोजने का प्रयास हम सब कर रहे हैं। वैसे भाषण में यह सब कहा जा रहा है, फिर भी महत्त्व अनौपचारिक चर्चा को है। क्योंकि हममें से प्रत्येक के अनुभव है। हर एक के मन में बहुत कुछ नया करने का भाव उमड़ रहा है। कठिनाइयों की जानकारी भी है। इसलिए एक दूसरे से जब अनौपचारिक चर्चा करेंगे तो अनुभवों का आदान प्रदान होगा। सबका सम्मिलित विचार होगा। मंथन में से कुछ निश्चय होंगे। यही योग्य प्रक्रिया है। कारण यह काम एक व्यक्ति का नहीं, कुछ सौ अथवा हजार व्यक्तियों का भी नहीं, सबका है। भारतीय मजदूर संघ के जितने प्रमुख कार्यकर्ता हैं उन सभी का मिलकर यह विचार होना चाहिए। यही विचार पद्धति अपनी पहले से रही है। हम सामूहिक नेतृत्व की कल्पना लेकर चले हैं।

इस प्रकार संघटनात्मक और वैचारिक दृष्टि से अपनी जिम्मेदारियों का वहन करने के लिए अपना सामूहिक नेतृत्व समर्थ हो। इस उद्देश्य को सामने रखकर औपचारिक तथा अनौपचारिक चर्चा हम यहाँ करेंगे। यही सोचकर पाँच दिनों का यह स्वाध्याय वर्ग आयोजित किया गया है।

तृतीय सत्र

राजनीति नहीं , लोकनीति व राष्ट्रनीति के हम अंग

कल दिनभर की हुई अपनी कार्यवाही के सिलसिले में रात को कई लोगों के साथ बातचीत करने का मौका मिला तो हमारे एक बंधु ने कहा कि यह प्रशिक्षण वर्ग की योजना आदि सब ठीक है और होना ही चाहिए। आपने जो बताया वह भी ठीक है। लेकिन जो पोलिटिकली कान्शस लोग हैं, वे यदि हमारे इस वर्ग में रहें तो सोचेंगे कि ये पागल लोग हैं, क्योंकि देश में कितनी उठापटक हो रही है लेकिन इन्हें मानो कोई चिंता नहीं है। सन 1955 से जो रट लगाते आए हैं वही फिर से दोहरा रहे हैं। प्राप्त परिस्थिति के विषय में उदासीन जैसे, और अपनी ही धुन में मस्त पागल लोग यहाँ एकत्रित हुए हैं ऐसा ही आज कहा जाएगा।

यह पागल लोगों की टोली है

हमने उनसे कहा, कि भाई, भारतीय मजदूर संघ पागल लोगों की एक टोली है यह समझने में आपको इतनी देर लगी। शुरू से ही सब जानते हैं कि यह पागल लोगों की टोली है, और हमारा आवाहन भी यही रहता है कि स्वार्थ की खींचतान में जो बहुत बुद्धिमान हैं वे भारतीय मजदूर संघ में न आए। हम उन्हें चाहते भी नहीं। आज जिसे दुनियादारी कहा जाता है उस पटरी से जिनका दिमाग थोड़ा उतरा हुआ है ऐसे लोगों को हम भारतीय मजदूर संघ में चाहते हैं। कारण साफ है कि आज की राजनीति सस्ती हो गई है। नेतागिरी के किए थोडासा वक्तव्य कर दिया, बात कोई भी हो, सब्जी के दाम बढ़ गए इससे लेकर तो अमरीका और रूस के संबंधों तक किसी भी विषय पर वक्तव्य जारी किया, भाषण दिया, लीडर बन गए, अखबार में नाम आ गया, तो बस संतोष मानने लगे। इससे प्रसिद्धि मिलती है, बाकी भी कई लाभ होते रहते हैं। नाम कमाने का यह आम रास्ता छोड़कर भारतीय मजदूर संघ में आने का मतलब ही क्या है? यहाँ सुबह से रात तक मेहनत करनी पड़ती है। मजदूर हमें सुबह पाँच बजे पकड़ लेता है। एक ड़ेढ़ बजे तक जागना पड़ता है। इतनी मेहनत करने के बाद मिलता क्या है? जिसका काम हम करते हैं वह कई बार अपना मुँह नहीं दिखाता, और जिसका काम होता नहीं वह भी हमारा मुँह देखना नहीं चाहता। जिसका काम हो नहीं पाता वह सोचता है कि इनके पास जाकर क्या लाभ? जिसका काम होता है वह इसलिए कतराता है कि पता नहीं इनसे मुलाकात हो तो कहीं चंदा, सदस्यता शुल्क आदि न माँगे।

इस प्रकार दोनों टालते हैं। कुछ लोग ऐसा भी सोचते हैं कि यहाँ प्रसिद्धि भी नहीं मिलती। यदि राजनीति में इससे एक बटे दस हिस्सा भी काम करते तो जोर से ढोल पीट जाता। यहाँ ऐसा कुछ नहीं। इस हाथ लें, उस हाथ दे वाली व्यवहारचतुरता में पीछे होने के कारण पैसा भी हाथ नहीं लगता। और यह सच है कि ऐसी कोरी व्यवहार चतुराई से दूर रहने का निश्चय भी भारतीय मजदूर संघ ने किया है। यहाँ की सीख भी अलग है। अपने ही जेब से पैसा खर्च करना पड़ता है। इस वर्ग में आप जो लोग आए हैं अपने जेब से पैसा खर्च करके आए हैं। इस प्रकार नाम नहीं, नेतागिरी नहीं, जोड़तोड़ का पैसा नहीं। जो अच्छे कार्यकर्ता हैं उसे अपने घर परिवार को संतुष्ट रखना भी कठिन होता है। वह दिनभर मेहनत करता है और घर जाता है, तो वहाँ भी घोर असंतोष दिखाई देता है। तो घर में जाने के बाद भाभीयाँ असंतुष्ट। तो इतनी मेहनत लेना, मानसिक कष्ट बरदाश्त करना और लेना देना कुछ नहीं। हमने तो एक Criteria बना रखा है। हम तो समझते हैं कि जिसके परिवार में असंतोष नहीं हो वह अच्छा कार्यकर्ता ही नहीं। जब तक आदमी थोड़ा-सा पागल नहीं है तब तक इस तरह का धंधा चलेगा नहीं। ऐसे पागल लोगों की यह टोली है। इसीलिए मैंने कहा, कि भाई, आपको यह समझने में इतना समय लग गया यह बड़ी दुख की बात है।

Responsive Co-operation ( परस्पर सहयोग)

यह बात तो स्पष्ट है कि हमारा राजनीति से संबंध नहीं है। जब किसीने पूछा कि सरकार अब बदल गई है तो आपकी पॉलिसी क्या होगी? हमने कहा कि 1955 के बाद जो पॉलिसी रही वही रहेगी। हमने कहा, कोई भी पार्टी सत्ता में आए, यदि वह प्रजातांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार है तो उसके साथ हमारी नीति एक ही रहेगी, परस्पर सहयोग की। अंग्रेजी में इसे Responsive Co-operation कहा जाता है। इसका मतलब भी हम लोगों ने बताया, कि जितनी मात्रा में सरकार मजदूरों के साथ सहयोग करती है उतनी मात्रा में मजदूर सरकार के साथ सहयोग करेगा। जितनी मात्रा में असहयोग करती है उतनी मात्रा में मजदूर सरकार के साथ असहयोग करेगा। जितनी मात्रा में सरकार मजदूरों का विरोध करती है उतनी मात्रा में मजदूर सरकार का विरोध करेगा। यह भी बार बार कहा गया है। हर एक जनप्रतिनिधि सरकार के बारे में यही पॉलिसी लेकर हम चल रहे हैं। आपको पता होगा कि बीच के अढ़ाई साल के जनता पार्टी के राज्य में भी हमारी इस नीति में परिवर्तन नहीं हुआ। इसके कई उदाहरण हैं। सुप्रसिद्ध उदाहरण, जिसे जागतिक प्रसिद्धि मिली, जिसके कारण चारों ओर भारतीय मजदूर संघ को गालियाँ भी मिली, वह दिल्ली का वाटर वर्क्स का स्ट्राईक है। एक ही पॉलिसी लेकर हम चल रहे हैं। हमारी नीति में परिवर्तन आने की कोई बात नहीं।

हम राजनीति में नहीं किंतु राष्ट्रनीति के अंग के रूप में हैं

दूसरा यह है कि राजनैतिक प्रश्न पर राजनैतिक दृष्टिकोण से विचार करना हमारा काम भी नहीं। एक तो यह हमारे दायरे के बाहर की बात है, और दूसरा उसमें से अनावश्यक झंझटें भी खड़ी होती हैं। क्योंकि ये सारे प्रश्न ऐसे रहते हैं कि इनका एक विचार करना है तो समग्रता से यानी पूरे चित्र का विचार हो सकता है। और लोगों को समग्रता से विचार करने की आदत नहीं रहती। इस कारण यदि कोई भी विषय रखा तो उसका समग्रतापूर्वक विचार न करते हुए बीच में एकाध प्रश्न पूछने की आदत लोगों की रहती है। वे यह नहीं समझते कि यदि किसी भी एक प्रश्न का उत्तर देना हो तो सबकुछ बताना पड़ेगा। यदि एक घंटा भाषण हुआ हो और बीच में कोई प्रश्न आया तो पूरे एक घंटे का भाषण फिर देना पड़ेगा। इसलिए किसी एक प्रश्न का कटाछटा उत्तर नहीं हो सकता। सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। मानो एक दूसरे के हिस्से हैं। यह न जानने के कारण एकाध असुविधा भी पैदा हो सकती है। इसलिए राजनैतिक प्रश्नों का विचार राजनैतिक दृष्टिकोण से करना हमारे लिए आवश्यक नहीं, उचित भी नहीं और सुविधाजनक भी नहीं। किंतु हाँ - जैसे अमृतसर कांफ्रेंस में हम लोगों ने कहा था कि हम राजनीति में शरीक होनेवाले नहीं हैं। केवल रोजी रोटी श्रम संघ (Bread-butter unionism) भी हम लोग नहीं चला रहे हैं। मजदूरों को केवल हम आर्थिक प्राणी नहीं समझते। हम भारतीय मजदूर संघ को केवल रोजी रोटी दिलानेवाली संस्था नहीं समझते। उसे हम ट्रेड युनियन केवल नहीं समझते। वह तो संपूर्ण राष्ट्रनिर्माण का जो एक व्यूह है उसका एक अंग और संपूर्ण राष्ट्रनिर्माण का जो एक कार्य है उसका एक अंग है। इसी नाते हम भारतीय मजदूर संघ की ओर देखते हैं, और इस दृष्टि से अमृतसर में यह कहा गया था कि हम राजनीति में नहीं किंतु राष्ट्रनीति के अंग के रूप में हैं। राजनीति अलग बात है, राष्ट्रनीति अलग बात है। उसको राष्ट्रनीति कहिए या लोकनीति कहिए। और मुझे स्मरण है कि राजनीति और लोकनीति में अंतर है - यह प्राचीन काल से हमारे देश में माना गया है। अमृतसर में सेक्रेटरी की जो रिपोर्ट पेश की गई थी उसमे यह उद्धरण दिया गया था कि 'राजवृत्तात लोकवृत्तम् अन्यदाह बृहस्पतिः' स्मतिकार बृहस्पति ने कहा है कि राज्यवृत्त एक अलग बात है, लोकवृत्त एक अलग बात है। दोनों में अंतर है।

जो यह लोकवृत्त है, लोकनीति है, राष्ट्रनीति है उसके हम अंग हैं। इस नाते हमें राष्ट्रनीति का विचार करने की आवश्यकता है, राजनैतिक दष्टिकोण से नहीं। किंतु राजनीति का भी राष्ट्रनीति के दृष्टिकोण से जितना आवश्यक है उतना विचार करने की हमारी जिम्मेदारी है। दूसरा यह समझना भी जरूरी है कि हम जिस वायुमंडल और परिस्थिति में काम कर रहे हैं वह परिस्थिति क्या है - क्योंकि हमारा जो काम है वह शून्य में नहीं हो रहा। एक विशेष परिस्थिति में हम काम कर रहे हैं। परिस्थिति में परिवर्तन होने से अच्छा या बुरा असर हमारे काम पर भी हो सकता है। इस दृष्टि से परिस्थिति का आकलन करना, अपने कार्य को विस्तारित करना हमारी जिम्मेदारी है। अपने काम की दृष्टि से यह मैंने इसलिए कहा कि परिस्थिति में राजनैतिक परिस्थिति भी एक हिस्सा है। राजनैतिक परिस्थिति का विचार राजनैतिक नेता, राजनैतिक दल अलग ढंग से करेंगे। हमें यह विचार राष्ट्रनीति के रूप में और मजदूर नीति के रूप में करना है। दृष्टियों में अंतर है। इस दृष्टि से जो परिस्थिति है उसके बारे में कुछ न कुछ कहना, अपनी क्या प्रतिक्रिया है, किस ढंग से हमें सोचना है, परिस्थिति का विश्लेषण सब कार्यकर्ताओं के पास रहे - यह आवश्यक बात है। इसी दृष्टि से कुछ बातें इस समय कहने का विचार है।

ऐसा दिखता है कि पिछले चुनाव के पश्चात लोकतंत्रवादी लोगों के मन में चिंता उत्पन्न हुई है। भारतीय मजदूर संघ ने भी, और यह हमारे लिए एक सम्मानजनक बात है, 1975 अप्रैल में जब हम लोग अमृतसर में मिले थे तब यह कहा गया था कि हमें खतरा दिखता है कि यहाँ तानाशाही लाने का प्रयास होगा; और यदि ऐसा प्रयास हुआ तो हम राजनीति के पक्ष में नहीं बल्कि राष्ट्रनीति के पक्ष में हैं। इस तरह की तानाशाही स्थापित किए जाने का भारतीय मजदूर संघ पूरी ताकत के साथ मुकाबला करेगा। यह बात अमृतसर में अप्रैल में कही गई थी। आपात स्थिति की घोषणा जून में हुई। भविष्य के विषय में कुछ न कुछ सोचने की क्षमता भारतीय मजदूर संघ में है यह बात उस समय स्पष्ट हुई। तो परिस्थिति का विश्लेषण हमेशा करते रहने की आवश्यकता है। अब फिर लोगों के मन में चिंता पैदा हो रही है। लोग सोचते हैं कि बस इंदिरा गांधी आ गई। अब तो मामला खतम हुआ। अब फिर से आपात स्थिति आ जाएगी, तानाशाही आ जाएगी। ऐसी ही बातें हैं जो आप लोगों ने सुनी ही हैं। राजनीतिक लोग किसी भी बात को बहुत बढ़ाचढ़ाकर रखने में कुशल हुआ करते हैं। तो ये सब बातें आपने सुनीं।

श्रमिक वर्ग का हित चिंतन

मजदूर क्षेत्र के हम लोगों में चिंता का और एक कारण है कि जहाँ इंदिरा गांधी की विजय हुई है वहाँ गैर कम्युनिस्ट पार्टियाँ बहुत पीछे हटी हैं। वामपंथी काफी आगे बढ़ चुके हैं, और उसमें भी मार्क्सवादी कम्युनिस्टों की शक्ति बढ़ी है। आप यह जानते हैं कि सी.पी. एम की जो सी. आई. टी. यू. है उसके साथ हमारी स्पर्धा प्रारंभ से ही चल रही है। ए. आई. टी. यू. सी. के साथ तो स्पर्धा थी ही। लेकिन ए. आई. टी. यू. सी. अब पिछड़ गई है। इस कारण यदि राजनीतिक स्तरपर मार्क्सवादियों को यानी कम्युनिस्टों को बढ़ावा मिलता है तो हमारे लिए मजदूर क्षेत्र में हमें जो तकलीफ होगी सो होगी, लेकिन कुल मिलाकर राष्ट्र के नाते भी कम्युनिझम का खतरा बढ़ा है। हमारी जिम्मेवारी है कि अपने कार्यक्षेत्र की दृष्टि से और समूचे राष्ट्र की प्रगति और सुरक्षा की दृष्टि से हम ठीक ठीक विचार करें। देश के समस्त श्रमिक वर्ग का हित चिंतन करना हमारा काम है। यह पूरी तरह व्यावहारिक कार्य है। राजनीतिक नेता वायदे करते हैं और चुनाव जीतने के बाद भूल जाते हैं। उनके विचार करने की एक शैली है। हम वैसा नहीं कर सकते। हमें गहराई से विचार करना होगा और यह भी नहीं भूलना होगा, कि हम राष्ट्र के प्रति भी जिम्मेवार हैं।

कम्युनिज्म की चर्चा करना अब बेकार है

अपने क्षेत्र से अधिक संबंधित होने के कारण हम पहले कम्युनिज्म का विचार करेंगे। यह स्पष्ट है कि कम्युनिज्म का विचार सैद्धांतिक दृष्टि से करने की आवश्यकता नहीं और वैसी आवश्यकता भी नहीं। कम्युनिस्ट पार्टी की विजय इतनी मात्रा में न होती, तो भी सैद्धांतिक दृष्टि से कम्युनिज्म आगे बढ़ रहा है ऐसा कोई कहता नहीं। जो ताकत आगे बढ़ती दिखाई दे रही हैं वह कम्युनिज्म नहीं है। वह रशियन नेशनल इम्पीरियलज्म की और चीनी नेशनल इम्पीरियलज्म की शक्तियाँ हैं। सिद्धांत के नाते कम्युनिज्म पहले ही पिछड़ गया है। वर्ल्ड कम्युनिज्म का विचार किया तो सिद्धांत के नाते उनकी 1953 तक प्रगति हुई। माने सिद्धांत के नाते वर्ल्ड कम्युनिज्म का उठाव और उसका चरम बिंदु 1953 तक था। उसके पश्चात नहीं रहा। वह नीचे खिसकने लगा। इसके बाद कम्युनिज्म के नाम से जो कुछ बढ़ा वह रशियन और चीनी साम्राज्यवाद है। इसी दृष्टि से इसका विचार करना उचित है। विश्व में सिद्धांत के नाते कम्युनिज्म की चर्चा करना अब बेकार है। साम्राज्यवाद यानी राजनीतिक सत्ता के तौर तरीके के नाते ही उनका काम रहा है। इस दृष्टि से उनका सोचने का तरीका और रणनीति क्या रही, अनुभव क्या रहा है यह देखना चाहिए।

खूनी क्रांति

जहाँ तक हिंदुस्थान का संबंध है संपूर्ण विश्व में कम्युनिस्टों के अलग अलग देशों में क्या अलग अलग विचार है यह इस समय यहाँ उचित नहीं। अपने देश में जो कम्युनिस्ट हैं उनका विचार और रीति नीति का थोड़ासा इतिहास हम देखेंगे। 1950 तक विश्व में और हिंदुस्थान में भी कम्युनिस्ट का यह विचार रहा कि जो खूनी क्रांति के माध्यम से कम्युनिज्म लाना है, सन 1950 के पश्चात विश्व के कुछ देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों के विचार में परिवर्तन आया। इटली, फ्रांस, ब्रिटेन तथा इसी प्रकार कुछ अन्य देशों में यह सोचा जाने लगा कि खूनी क्रांति की आवश्यकता नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टियाँ सोचने लगीं कि संसदीय प्रजातांत्रिक ढांचे के अंदर ही घुसपैठ की जा सकती है। वहाँ काम करते हुए मत. पत्रों को हासिल करते हुए कब्जा किया जा सकता है। बंदूक की नली के स्थान पर मतपेटियों के रास्ते कम्युनिज्म लाया जा सकता है। इन देशों में हुए इस विचार परिवर्तन का असर भारत के कम्युनिस्टों पर भी हुआ। फिर भी इसका अर्थ कदापि नहीं है कि कम्युनिस्टों ने भारत में खूनी क्रांति का विचार एकदम छोड़ दिया। संसदीय प्रजातंत्र का रास्ता स्वीकार करते समय भी उन्होंने यह स्पष्ट विचार किया था कि संसद और विधान मंडलों का उपयोग अपने पक्ष में जनमत जागृत करना और खूनी क्रांति के लिए जनता को तैयार करना है। खूनी क्रांति के लिए जैसे अन्य संस्थाओं का उपयोग किया जाता है वैसे ही एक मंच के नाते संसदीय संस्थाओं का उपयोग भी करना चाहिए। यही विचार उनके मन में रहा। यही कारण है कि संसदीय पद्धति में विश्वास की घोषणा करते हुए जैसी कई देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने खूनी क्रांति का रास्ता नहीं अपनाने की बात कही वैसी स्पष्ट घोषणा हिंदुस्थान की कम्युनिस्टों पार्टी ने कभी नहीं की। उन्होंने कहा कि हमारा संसदीय पद्धति पर विश्वास है। फिर भी आवश्यकता हुई तो खूनी क्रांति का रास्ता अपनाया जा सकता है। इसलिए साथ साथ खूनी क्रांति की तैयारी करनी चाहिए। याने बीच की भूमिका ली गई है संसदीय प्रजातंत्र के माध्यम से।

सार्वजनिक विद्रोह

खूनी क्रांति की दृष्टि से पहला जो उल्लेखनीय सामूहिक प्रयास हुआ वह तेलंगना में हुआ था। इसके पहले भी आतंकवादी कार्यवाहियां उन्होंने की थीं। परंतु वे उनका स्वरूप व्यक्ति अथवा गुट तक सीमित था। पूर्वनियोजित और संगठित ढंग से खूनी क्रांति का पहला प्रयोग तेलंगणा में हुआ। इस संबंध में जो कार्य पद्धति अपनाई गई वह उनकी पुस्तकों में लिखी हुई है। उनका सोचने का ढंग यह है कि लोग मार्क्सवाद, साम्यवाद आदि के सिद्धांत तो समझ नहीं सकते। ये सिद्धांत समझाकर लोगों को प्रवृत्त करना कठिन है। इसके लिए शीघ्र परिणाम देनेवाला रास्ता अपनाना चाहिए। यह रास्ता है लोगों की रोजमर्रा की समस्याओं, खासकर आर्थिक कठिनाइयों को लेकर असंतोष भड़काना। इस तरह के आर्थिक संघर्ष देश में जगह जगह यदि खड़े किए गए तो फिर उसी असंतोष को सार्वजनिक विद्रोह में बदला जा सकता है। यानी इस बात की कोई आवश्यकता नहीं कि जो लोग सार्वत्रिक विद्रोह के लिए तैयार हों उन्हें "दास केपिटल" ग्रन्थ का अध्ययन हो अथवा मार्क्सवाद की सैद्धांतिक प्रक्रिया के जानकार हों। विद्रोह के सूत्रधार कार्यकर्ता अवश्य इन सिद्धांतों से परिचित हों।

चीन , माओ और लांग मार्च

विचार करने का ढंग हरएक पार्टी का अलग होता है। कम्युनिस्ट विश्व के अन्य देशों में हुए कम्युनिस्ट आंदोलनों का अध्ययन कर रास्ता चुनते हैं। तेलंगना में हुई पराजय होने पर उनका ध्यान चीन की ओर हुआ। चीन में ऐसा ही हुआ था। माओ ने चायना के मध्य में अपना एक पॉकेट शक्ति केंद्र खड़ा किया था। लेकिन चारों ओर से सैनिकी शक्ति का आक्रमण होने के कारण वह शक्ति केंद्र टूट गया। यह एक historial parallel उनके सामने था। वैसे भी जिनको देश का विचार करना है उनको historial parallel का विचार करना ही पड़ता है। उन्होंने भी चीन के उदाहरण को सामने रखकर विचार किया।

माओ-त्से-तुंग ने यह निष्कर्ष निकाला था कि देश के मध्य में यदि कोई विद्रोह भड़काया जाता है तो वह सफल नहीं होता। सैनिक कार्यवाही से वह कुचल दिया जाता है। इसलिए माओ ने सोवियत रूस की सीमा से सटा हुआ सेनान प्रान्त अपनी कार्यवाही के लिए चुना। ऐसा करने से सोवियत रूस से सैनिक तथा अस्त्रशस्त्र की सहायता भी मिली। उसके बाद माओ के नेतृत्व में 800 (आठ सौ) मील लम्बा मोर्चा आयोजित हुआ। यह सुप्रसिद्ध "लांग मार्च" एक वर्ष चला और कार्यवाही का केंद्र मित्र देश की सीमा से सटा होने के कारण सुरक्षित रखते हुए जो आंदोलन भड़का वह सफल हुआ। माओ-त्से-तुंग का शासन स्थापित हो सका।

चारु मुजुमदार के नेतृत्व में नक्षलवाद

भारत में कम्युनिस्टों ने भी यही सोचा। कम्युनिस्ट देश की सीमा से सटे हुए इलाके को कार्यवाही का अड्डा बनाने के लिए चुना गया। कई साल के पश्चात चारु मुजुमदार के नेतृत्व में नक्षलवाद लोगों ने बेरुबाड़ी में जो कार्य प्रारंभ किया वह इसी विचार में से आया हुआ है यह हम समझ सकते हैं। यह बात अवश्य है कि हिंदुस्थान में जितने कम्युनिस्ट हैं वे सब एक झंडे के नीचे नहीं हैं। सर्वसाधारण विचारपद्धति उनकी एक है किंतु उसमें कुछ अंतर भी है, सी.पी.आई. है, सी.पी.एम. है, फिर महाराष्ट्र में एक अलग कम्युनिस्ट पार्टी है - सत्यशोधक कम्युनिस्ट। कर्नाटक में एक अलग दल है - केरला में एक अलग दल है - काफी छोटी छोटी पार्टियाँ हैं। तेलंगना के पश्चात उनके मन में यह विचार आया है कि संसद का उपयोग आम लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए करना चाहिए। इस दृष्टि से चुनाव में हिस्सा लेने का उन्होंने निर्णय लिया और अमृतसर कान्फ्रेस में पहली बार यह निर्णय लिया गया कि कम्युनिस्ट पार्टी को आम लोगों की पार्टी बनाया जाए। अभी तक केवल कार्डहोल्डर लोगों तक पार्टी का ढांचा था। अब तक यह हुआ इसकी सदस्यता खुली कर दी जाए। केवल कार्डहोल्डरवाली पार्टी नहीं तो मेंबरशिपवाली पार्टी बनाई जाए। इस प्रकार वे चुनाव के मैदान में आ गए।

यह ठीक है कि चुनाव के मैदान में आने के कारण उन्हें कुछ लाभ हुए। लेकिन कुछ नुकसान भी हुए। उन्हें चुनावी अखाड़े में उतरने के कारण जो नुकसान हुए वे प्रायः जो anti-communist लोग हैं उनके खयाल में आते नहीं। कम्युनिस्टों के खयाल में खूब है - अच्छी तरह से है। Disadvantages प्रमुख रूप से दो तरह के हुए हैं। एक यह कि जो भी दल चुनाव की राजनीति में आता है उसपर चुनावी राजनीति के बंधन भी आ जाते हैं। ये बंधन अन्य पार्टियों की तुलना में कम्युनिस्टों को ज्यादा अखरनेवाले थे। इसका कारण यह है कि चुनावी राजनीति में आने के बाद सोचना पड़ता है कि अपने cadre का मनोबल रखने के लिए ऐसा दृष्य उपस्थित करना जरूरी होता है कि हम निरंतर प्रगति कर रहे हैं। और इस दृष्टि निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या हरएक स्तरपर बढती रहे। यानी वोट बढ़ते रहें। उनके ध्यान में आया कि शहरों की बातें तो छोड़ दीजिए, लेकिन जहाँ तक देहातों का प्रश्न है - देहातों में जिस तरह से उन्होंने काम अब तक चलाया था, माने election politics में आने से पहले तक, अब उसी ढंग से काम चलाना संभव नहीं। पुरानी सैद्धांतिक रणनीति और चुनाव राजनीति दोनों में से किसी एक को चुनने का प्रश्न उनके सामने उपस्थित हुआ।

हैव और हैव नाट ( Haves and have nots)

सिद्धांत क्या है? classes है haves and have nots (पैसे वाले और पसीने वाले) और haves के खिलाफ have nots को उभाड़ना सीधी बात है। इस दृष्टि से किसान सभा जो उनके कब्जे में दूसरे महायुद्ध के समय आई थी, इस किसान सभा का उपयोग करते हुए और कुछ agricultural labour union जो उन्होंने बनाई थी उसका उपयोग करते हुए देहाती क्षेत्र में वर्ग संघर्ष बढ़ाया। और इसके आधार पर किसान सभा में काफी प्रगति हुई। पंजाब में, बंगाल में, मद्रास में किसान सभा का काम बहुत बढ़ गया। आपको आश्चर्य होगा कि उनकी किसान सभा का काम उस समय जो था, पहले election के पूर्व election politics में आने के बाद एक अजीब बात उनके ख्याल में आ गई कि haves and have nots तो हैं लेकिन किताबों में लिखा हुआ जो समाज का विश्लेषण है वह विश्लेषण हिंदुस्थान में लागू नहीं होता। हिंदुस्थान में जो विभाजन है वह केवल आर्थिक आधार पर नहीं है। आर्थिक भी है, सामाजिक भी है, जिसमें जातियाँ वगैरह हैं। सारे 'haves' एक तरफ और have nots एक तरफ यह बात नहीं। तो पहली बात उनके ख्याल में आई कि यह बड़ी अजीब स्थिति हिंदुस्तान में है जो मार्क्स के किताबों में बैठती नहीं। एक ही जाति के haves और 'haves nots' है। उन्हें आर्थिक प्रश्नों पर तो एक दूसरे के खिलाफ लड़ाया जा सकता है। लेकिन चुनाव का जब मौका आता है तो मतदान जाति के आधार पर होता है, have and have nots के आधार पर होता नहीं। माने एक ही जाति के 'haves' and 'have nots' दोनों के votes एक ही पक्ष में जाते हैं। आर्थिक संघर्ष हो सकता है, लेकिन चुनावी राजनीति में आर्थिक विषमता के आधार पर उतना विभाजन नहीं होता, जितना चुनाव के समय जातिवाद के आधार पर होता है।

क्रांति के लिए संघर्ष

यह एक बात उनके खयाल में आई। दूसरी बात उनके खयाल में यह आई कि भले ही हम आर्थिक संघर्ष के लिए लोगों को प्रवृत्त करें, लेकिन हिंदुस्थान में medium peasant और rich peasant (Landlords as institution के रूप में खत्म हुआ है) पर इनका प्रभाव अब भी गांवों में है। किताबों में जो कुछ लिखा गया है, यह परिस्थिति अब भी गाँवों में है और इसके कारण चुनाव में यदि यह संपन्न और मध्यम किसान पार्टी के खिलाफ जाते हैं तो उनके खिलाफ आर्थिक संग्राम करने वाले जो बाकी लोग हैं वे कम्युनिस्टों को वोट देंगे सो बात नहीं। Rigging होगा, और कुछ होगा, डंडे चलेंगे, murders होंगे और कुछ होगा, लेकिन आखिर जिसके पक्ष में संपन्न और मध्यम किसान है उसी का वोटिंग ग्रामीण क्षेत्र में ज्यादा होता है। यह एक और बात उनके खयाल में आई। फिर उन्होंने देखा कि चुनाव में यदि हमारे निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढ़ानी है तो election strategy की दृष्टि से यह नहीं हो सकता कि संपन्न और मध्यम किसान को अपना दुश्मन बनाया जाए। अब election की दृष्टि से आवश्यकता हुई कि संपन्न और माध्यम किसान खिलाफ न जाएँ। किताबों की दृष्टि से आवश्यकता है कि उनके खिलाफ संघर्ष किया जाए। तो उसमें क्या किया जाए, क्या न किया जाए?

मैं आपको बताना चाहता हूँ कि अभी अभी जो पिछला चुनाव हुआ इस समय जो कुछ भी उन्होंने कहा और लिखा उसमें यह सतर्कता बरती है कि माध्यम और संपन्न किसान खिलाफ न जाएँ। इसलिए कहा कि किसान मजदूरों का संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए। क्रांति के लिए संघर्ष करना है, मजदूरों को लेकर करना है, छोटे किसानों को लेकर करना है। लेकिन उसमें समपन्न किसानों को भी साथ लाना है, मध्यम किसान को भी साथ लाना है। लोगों को दिखने में यह Paradoxical दिखता है। Paradoxical है नहीं, election politics की अपनी कुछ limitations कुछ compulsions आ जाती हैं। उसमें से यह compulsion उनके ऊपर आ गई है। इसके परिणामस्वरूप किसान सभा का काम कम हुआ और एक स्पष्ट strategy लेकर कम्युनिस्ट पार्टी का काम rural area में चलाना उनके लिए मुश्किल हो गया।

सरकार की सुविधा के लिए CITU ( सीटू) को अपनी मिलिटैन्सी कम करनी पड़ी

अब कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि पश्चिम बंगाल वगैरह में उनका काम बढ़ गया; और बढ़ा है यह बात सही है। सी. पी. एम. सरकार आने के पश्चात अखबारों में भी बहुत आया। सी. पी. एम. की सरकार आने के पश्चात सरकार की सुविधा के लिए CITU को अपनी मिलिटैन्सी कम करनी पड़ी, इसलिए कि पश्चिम बंगाल से पूंजी बाहर भाग न जाए। इस दृष्टि से उनको mid-politics लेनी पड़ी। इसके कारण शहरी क्षेत्रों में उनका काम उतना न बढ़ा। लेकिन उन्होंने पूरी शक्ति जुटाकर ग्रामीण क्षेत्र में काम बढ़ाया, ऐसा अखबार में आया है। लेकिन यह जो काम बढ़ाया है वह किस पॅटर्न का है यह जरा देखने की बात है। जहाँ उनकी सरकार है वहाँ भी उस पॅटर्न का काम नहीं है जिसका आदर्श उनके किताबों में लिखा हुआ मिलता है। वह तो उस पॅटर्न का है जो नेहरू सरकार के समय काँग्रेस के द्वारा बढ़ा था या इंदिरा गवहर्नमेंट के समय काँग्रेस (आई) के द्वारा बढ़ने वाला है। माने कोई idealistic लोगों का cadre है और उसके आधार पर काम बन रहा है ऐसी कोई बात नहीं।

इंटक के कार्यकर्ता हम लोगों के पास आए

हमेशा ज्यादा संख्या में लोग ऐसे ही रहते हैं कि जो सत्ता के साथ जाते हैं, पार्टी के साथ नहीं जाते। जैसे इंटक का उदाहरण हमने पिछली बार दिया था, कि इंटक के कार्यकर्ता हम लोगों के पास आए तो किसी ने पूछा कि, यह क्या है आप दल बदलकर रहे हैं? पहले उधर थे, अब सरकार बदल गई तो आप इधर आए। उन्होंने कहा, कि हमने दल बदल नहीं किया। हम हमेशा एक ही दल के रहे। हमारा दल निश्चित है। जो सत्ताधारी दल है वह हमारा दल है। अब ऊपर गड़बड़ हो गई, जो बदल हुआ है वह ऊपर हुआ है। हमारे अंदर बदल नहीं हुआ। हम हमेशा ruling पार्टी के रहे। तो ऐसा एलिमेंट हमेशा रहता है। इस समय जो भी काम इतना तेजी से उनका बढ़ा और ग्रामीण क्षेत्रों में उनका फैलाव हम देखते हैं, तो उसमें सत्ता के कारण आए हुए काफी व्यक्तिवादी और अवसरवादी लोगों की भरती है। कल जो मैंने प्रारंभिक भाषण में कहा था कि quantity और quality इसमें मेल बिठाना कठिन है। ये चुनाव बहुत जल्दी आ गए इसलिए वह position crystalise नहीं हुई। किंतु आगे चलकर पता लगेगा कि ये Congress type काम बढ़ा है, कम्युनिस्ट टाईप काम नहीं बढ़ा है। इसके कारण idealistic पार्टी होने के नाते कम्युनिस्टों को भी अंतर्गत कठिनाइयों का मुकाबला आगे चलकर करना पड़ेगा यह आपके ध्यान में आएगा। इस तरह से Parliamentary politics में आने के कारण कुछ compulsions उनके ऊपर आए हैं उसमें से एक compulsion यह रहा।

कॉमरेड ए. के. गोपालन ने अपना आत्मचरित्र लिखा है

दूसरा एक disadvantage था। कॉमरेड ए. के. गोपालन ने अपना आत्मचरित्र लिखा है उसमें उसका वर्णन है। वह ए. के. गोपालन ने दिया है इसलिए हम लोग समझ गए ऐसा नहीं। हमारे भी खयाल में यह बात आती थी। उनके आत्मचरित्र से क्या पता चलता है? वे एक विशेष उद्देश्य को लेकर Parliament में गए थे। Parliament में जाकर हम यह करेंगे, वह करेंगे ये सारा उन्होंने कहा। परंतु संसद में पहुँचने के बाद उन्हें कुछ अलग ही अनुभव आए।

जब संसद में नहीं पहुंचे थे तब मजदूरों, किसानों से मिलते थे। घंटों सुखदुख की चर्चा होती थी। मजदूरों के यहाँ भोजन करते थे, गंदी बस्ती में सो सकते थे। दिल्ली में पहुँचे। अच्छे फ्लैट मिल गए। पंखे, फर्निचर, गलिचे की व्यवस्था हो गई। मिनिस्टरों के यहाँ दावतें होने लगीं, प्राइम मिनिस्टर, प्रेसिडेंट से मुलाकातें होने लगीं। नई दिल्ली की हवा भी अच्छी है, रास्ते भी साफ सुथरे हैं। अब वहाँ की आदत लग गई। संसद सदस्य बने इन कार्यकर्ताओं के मन में आने लगा कि यहीं दिल्ली में रहना थोड़ा अच्छा है। फिर विचार आने लगा कि Constituency में मजदूरों के पास जाना, उनकी गंदी बस्ती में सोना जहाँ तक टल सकता हो उतना ही अच्छा।

माने मनोवृत्ति में परिवर्तन आने लगा। पार्लमेंटरी सिस्टम में जाकर उसे exploit करना तो दूर रहा, पार्लमेंटरी सिस्टम में उनके अंदर ही कुछ फर्क आया है। ऐसी एक बात उससे दिखाई देती है। यह हमेशा की बात है। CPI और CPM का जिस समय विभक्तिकरण हुआ उस समय काफी लंबी चर्चाएँ इस विषय पर कम्युनिस्ट पार्टी में हुई। उस समय एक पक्ष यह कहनेवाला था आग्रहपूर्वक, कि हम पार्लमेंटरी पॉलिटिक्स में जा रहे हैं इसके दुष्परिणाम होने वाले हैं और हमारी revolutionary zeal कम हो जाएगी। यह कहनेवाला एक पक्ष उस समय भी था। यहाँ केवल कम्युनिस्टों तक सीमित विचार है ऐसा नहीं। जो विचारक है वह किसी भी परिस्थिति में सही ढंग से सोच सकते हैं। कांग्रेस के जीवन के इतिहास में भी यह समस्या आई। माँटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिफार्मस आए। उनके कारण Legislative Councils तैयार हुए।

महात्मा गांधी का विचार

काँग्रेस में भी यह विचार आया उस समय, कि इस मंच का जन-जागरण के लिए उपयोग किया जाए-बाद में हम आंदोलन कर सकेंगे। तो उस समय एक विचारक ऐसे थे जिन्होंने कहा कि यह होगा नहीं। आप Legislative Councils में जाएँगे, वहीं के हो जाएँगे। फिर जन-जागरण वगैरह का विचार छूट जाएगा और इस दृष्टि से Council में नहीं जाना चाहिए। यह विचार आग्रहपूर्वक रखने वाले एक विचारक थे जिनका नाम था महात्मा गांधी। बेलगाँव में जब काँग्रेस हुई, जिसकी अध्यक्षता उन्होंने की थी, उस समय इसी बात पर उनकी majority थी कि Council entry नहीं लेना क्योंकि इससे हमारा जो आंदोलन का स्पिरीट है वह निकल जाएगा। बाद में फिर जन-साधारण की प्रवृत्ति है उसके अनुसार गांधी जी भी minority में आ गए यह बात अलग है। तो इस तरह दो disadvantages कम्युनिस्टों की दृष्टि से election politics के कारण हुए। कौन्सिल में जाते हैं उनकी revolutionary zeal कम हो जाना, और rural area में एक तरह का compulsion जिसके कारण वर्ग संघर्ष के आधार पर सीधी कार्रवाई नहीं कर सकते। तो भी सारे के सारे disadvantages बर्दाश्त करते हुए काम आगे चला। चुनाव भी लड़ाए गए। अब क्रांति की दृष्टि से अलग अलग लोगों के जो विचार हैं उन्हें हम जरा देखें।

चारु मुजुमदार का विचार

हम जानते हैं कि "क्रांति" शब्द अब आता है तो सबसे पहले हमारे मन में विचार नक्षलवादियों का Naxalites आता है। क्योंकि तेलंगना के पश्चात सशस्त्र क्रांति करने का प्रयास उन्होंने ही हाथ में लिया। अब उनके मन के सामने कुछ विचार थे और उस समय भी चारु मुजुमदार का जो ग्रुप था, जिसमें आज कई हिस्से हो गए हैं - कई बातों पर चर्चा हुई। जिन बातों पर चर्चा हुई वे सारे प्रश्न संक्षेप में मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ। पार्लमेंट के बारे में यह सोचा गया कि इसमें यदि हम जाएँगे तो अपना काम इससे नहीं होगा आदि आदि। इसकी चर्चा हुई। हालाँकि अभी एक नक्षलवादी ग्रुप है जो चुनाव में भी आया है, क्योंकि उनके विचारों में बाद में काफी परिवर्तन हुआ। Mass organisation के बारे में भी उन्होंने बारीकी से विचार किया। एक पक्ष यह था कि mass organisation को initiate करना चाहिए dominate करना चाहिए। अपनी खुद की mass organisation बनानी चाहिए। लेकिन चारु मुजुमदार का विचार था कि इस झंझट में यदि हम जाएँगे तो यह बड़ा लंबा काम है। इसी काम में लोग लग जाएँगे तो आज तुरंत individual terrorism यानी व्यक्तिगत आतंकवाद के आधार पर China सटे हुए विभाग में कुछ गड़बड़ी पैदा करना और लागों को क्रांति के लिए तैयार करने का जो immediate programme हाथ में लेना है उसे postpone करना पड़ेगा। और यह postpone होगा तो आज जो हम individual terrorism करते हैं उसके कारण पैदा होने वाली जो गर्मी है वह तो ठंडी हो जाएगी। यह हिसाब नहीं जमता। ऐसा एक विचार था।

नक्सलाइट्स की सोच

मैंने कहा कि उस समय भी चर्चा चल रही थी और इसके कारण आज एक नक्षलवादी section ऐसा है कि जो mass organisation भी चला रहा है और Eastern region में, पूर्वांचल में, Trade Union में भी उनका काम है, किसान क्षेत्र में भी उनका काम है। इस प्रकार दोनों विचार प्रारंभ से रहे। तो भी जो यह कहते थे कि 'नहीं, mass organisation में काम करना चाहिए' वे भी इस मत से तो सहमत थे कि चायना के बॉर्डर से सटे हुए इस प्रदेश में विद्रोह का वायुमंडल खड़ा किया जाए और इस विद्रोह को आगे बढ़ाया जाए। अब विद्रोह को आगे बढ़ाने की क्या प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं? क्या क्या strategy हो सकती है? तो उनके अंतर्राष्ट्रीय अनुभव के आधार पर दो ही strategies उनके सामने थी। एक था Russian experience, एक था Chinese experience. Russian experience यह था कि पहले शहरों में संघटित मजदूरों के आधार पर क्रांति की जाए और शहरों से गाँव में फिर क्रांति पहुँचाई जाए। China experience अलग था। China ने ग्रामीण क्षेत्र में पहले क्रांति की और गाँवों में से फिर शहरों में वे क्रांति को लाए। दो अलग-अलग strategies हैं। शहर से गाँव में क्रांति ले जाना, पहले गाँव में क्रांति करते हुए शहरों को encircle करते हुए फिर शहर में क्रांति लाना, ये दोनों experiments उसके सामने थे। नक्सलाइट्सने सोचा कि दूसरा जो चायना का है वही हमारे लिए उपयुक्त है। और यह विचार लेकर उन्होंने काम किया। लेकिन नक्सलाइट्स जो सोच रहे हैं वह होगा ऐसा नहीं। यह गलत बात है। यह विचार कम्युनिस्टों के rank and file में भी उस समय था। आज भी है। और उसका एक कारण है। Naxalites ने पूरी तरह से China का अनुकरण करने का सोचा; strategy के मामले में और सिद्धांत के भी मामले में। लेकिन strategy के मामले में क्रांतिपूर्व चायना की परिस्थितियाँ और आज की हिंदुस्थान की परिस्थितियाँ इनमें कुछ महत्त्वपूर्ण strategic अंतर है यह बात उन्होंने आँखों से ओझल की। यह अंतर क्या है?

पहली बात यह है कि China में centralised state apparatus नहीं था। केंद्रित सरकार नहीं थी। नाम के वास्ते चंग-कै-शेक था। तो भी एक तरह से फेडरल फोर्सेस का प्रमुख उनको मानना चाहिए। केंद्रीकरण केंद्रीय सरकार का नहीं था। अलग अलग सूबेदार थे। जैसे मराठा कॉनफेडरेशन के बारे में कहा जाता है वैसे अलग अलग सूबेदार थे। अपने ढंग से अलग अलग चलते थे। सब पर केंद्र का नियंत्रण नहीं था। भारत में यह बात नहीं। किसी भी दल का राज्य रहे, यहाँ केंद्रित सरकार है। भले ही कुछ स्टेटों में सेसेशन की माँग आती हो, तो भी ऐसी हालत नहीं है कि केंद्र सरकार टूट गई और एक फेडरल स्ट्रक्चर आ गया। यह एक बात। दूसरी बात यह थी कि कम्युनिस्टों की कोई भी क्रांति तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक आर्मी में infiltration न हो। आर्मी उनके पक्ष में न हो, आर्मी में असंतोष न हो या कम से कम आर्मी निष्क्रिय न हो जाए। जब तक गॉरंटी नहीं है तब तक क्रांति नहीं हो सकती।

लेनिन ने स्पष्ट रूप से कहा

लेनिन ने इस विषय का बहुत आग्रह रखा। लेनिन ने स्पष्ट रूप से कहा कि जहाँ मजबूत केंद्र सरकार है और सेंट्रलाइज्ड् आर्मी है, वहाँ क्रांति का प्रयास करना आत्महत्या के समान है। वहाँ क्रांति हो नहीं सकती। चायना में अलग अलग आर्मीज थीं। ये सारी आर्मी चंग-कै-शेक को Commander-in-Chief जरूर मानती थी, लेकिन ऐसी हालत यहाँ नहीं थी। हमारे देश में एक आदेश दिल्ली से जारी होता है तो समूचे देश में सभी सैनिक टुकड़ियाँ उसका पालन करती हैं। चीन में चँग-कै-शेक की हालत यह नहीं थी। वहाँ एक एक जो सूबेदार था वह एक एक war-lord था - और एक एक war-lord को मनवाना पड़ता था, तब कुछ आर्मी की movements होती थी। केंद्रित सेना होने के कारण जो advantages होते हैं वे चायना में नहीं थे। हमारे यहाँ वे हैं। और by and large हमारी जो आर्मी है वह non-political ही रही है। और आज भी क्या यह तो CID वाले ही कह सकते हैं। लेकिन ऐसा समझने के लिए आज कोई खास गुंजाइश नहीं है कि आर्मी में बड़ा ideological infiltration हुआ है। तीसरी बात यह है कि चायना में पार्लमेंटरी सिस्टम किसी भी फॉर्म में नहीं थी। यह मानी हुई बात है कि पार्लमेंटरी डेमोक्रेटिक सेटअप कायम रखते हुए भी उसके अंदर से dictatorial power खड़ी हो सकती है, जैसे हिटलर की हुई। यह सही है, लेकिन Structure भी तो कम से कम नाम के वास्ते रहे। structure रहा तो भी जनसाधारण को क्रांति के लिए, मर मिटने के लिए तैयार करना बड़ा मुश्किल हो जाता है।

चेग्वेवारा ने लिखा है

कम्युनिस्टों के दूसरे सुप्रसिद्ध strategist चेग्वेवारा ने लिखा है कि यदि पार्लमेंटरी डेमोक्रेटिक सेटअप होगा, वह अच्छा न चलता होगा ओर लोगों में असंतोष होगा तो भी ऐसा अंदाजा लगाना गलत होगा कि लोग क्रांति के लिए तैयार हैं। उन्होंने यह कहा कि यदि लोगों के मन में एक remote hope भी होगी, distant hope भी होगी कि पार्लमेंटरी डेमोक्रेटिक सेटअप तो अच्छा है। आज गलत ढंग से चल रहा है, लेकिन आज के राज्यकर्ताओं को हटाकर अच्छे राज्यकर्ता लाएँ तो यह सेटअप काम दे सकता है। मानो गलती सेटअप की नहीं है। पार्लमेंटरी सिस्टम जो है वह अच्छी है। गलत लोगों के हाथ में यहाँ राज्य जाने के कारण हमें तकलीफ हो रही है। इनको हटाकर अच्छे लोगों को लाया जाए तो under the present system हम अच्छा फल प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी आशा उनके मनमें रही तो भी क्रांति के लिए जन-साधारण मरने को तैयार नहीं होगा। इस parliamentary system पर से ऐसे ही जब विश्वास हट जाएगा कि सिस्टम ही ऐसी है कि हमें फल नहीं दे सकती। याने इतना अविश्वास जब लोगों के मन में होगा तभी लोग क्रांति के लिए तैयार होंगे।

पार्लमेंटरी डेमोक्रेटिक सेटअप

हमारे देश में पार्लमेंटरी डेमोक्रेटिक सेटअप है इसका असर जनसाधारण पर होता है। चायना में वह distant hope ही नहीं थी। इसके कारण इस तरह का industrialisation रखना कि केवल शासक बदल गए, सिस्टम अच्छी है तो वह हमें लाभदायक होगी ऐसी गुँजाइश भी उस समय चायना में नहीं थी। और एक बात-हमारे यहाँ अंग्रेजों के समय से industrialisation हुआ। 1947 के बाद भी industrialisation काफी बढ़ा। सरकार के और कुछ दोष होंगे, लेकिन industrialisation बढ़ा यह तो मानना पड़ेगा। और industrialised सोसायटी का एक अलग सोचने का ढंग होता है। जिसमें vested interest ज्यादा पैदा हुआ करते हैं। इस तरह का industrialisation चँग-कै-शेक के समय नहीं था। दूसरी बात यह कि चायना में जिस ढंग से क्रांति हुई उसकी सफलता के प्रमुख कारणों में centralised state, centralised army नहीं होता और absence of parliamentary system इनको गिना जा सकता है। वैसे ही सहायक के नाते एक दूसरी बात थी - transport रोड और communication system वहाँ बड़ी शिथिल थी। मतलब सेना की movement खटाक से हो सके इतने roads, rails आदि वहाँ नहीं थे। हमारे यहाँ rail transport, road transport बाकी communication की जो सिस्टम है वह सारी सिस्टम centralised movement के लिए बहुत ही उपयुक्त है। इस तरह की developed system वहाँ नहीं थी। परिस्थितिों में ये जो अंतर है उन्हें ख्याल में न रखते हुए केवल चायना के strategy का हम अनुकरण करेंगे; और चूँकि हम चायना में सफल हो गए तो हिंदुस्थान में भी सफल हो सकते हैं, ऐसा विश्वास करेंगे तो वह बड़ी गलती होगी। ये विचार चारु मुजुमदार जीवित थे उस समय भी कम्युनिस्टों के मन में थे। कुछ नेताओं ने ये विचार प्रकट किए थे।

CPI की revolutional zeal खतम हो चुकी है

इस तरह से जहाँ तक Naxalites का सवाल है, खूनी क्रांति का स्पष्ट रूप से घोषित प्रयास उन्होंने किया। उसमें जो उनके विचार की पद्धति रही वह पद्धति हिंदुस्थान की परिस्थिति के लिए अनुकूल नहीं थी, भारत की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर नहीं थी यह सबके खयाल में आया। और इसके फलस्वरूप हम देखते हैं कि आज नक्सलवादी अलग अलग ग्रुप्स में बँटे हुए हैं। अलग अलग points को लेकर उनके अंतर में मतभेद हैं। Trade Union, किसान सभा आदि organisations के बारे में भी मतभेद हैं। कुछ मतभेद तो parliamentary election politics के बारे में भी हैं। यह जो deviation 'चारु लाइन' से हुआ है वह आज हम देख रहे हैं। अब इसके पश्चात प्रमुख रूप से हमारे सामने दो ग्रुपस् - CPI, CPM - आते हैं। लेकिन जहाँ तक सोचने का सवाल है, मैं समझता हूँ कि कोई भी देश की स्थिति को जाननेवाला CPI का विचार अंतर्गत परिस्थिति के नाते बहुत सिरिअसली करता नहीं। इसका एक कारण है कि दोनों में अंतर है। CPI की revolutionary zeal खतम हो चुकी है। कई साल तक राजाश्रित रहने के कारण organisation भी ढीला हो चुका है। राजाश्रित संस्थाओं में जो दोष आते हैं वे सारे दोष उनके अंदर आए हैं। अब राजाश्रय तो निकल गया, लेकिन दोष कायम रहे, ऐसी बड़ी विचित्र परिस्थिति, 'गुनाह बेलज्जत वाली', आज उनकी है। और इसके कारण उनके बारे में बहुत सीरिअसली सोचने की आवश्यकता है ऐसा कोई भी नहीं समझता।

CPM की सोचने की लाईन

CPM की सोचने की लाईन क्या है वह जरा हम देखें। ये जो सारे considerations हमने बताये, चायना के बारे में, वे CPM के नेताओं के खयाल में है। और इस दृष्टि से खूनी क्रांति भी लानी हो तो हम चायना के ढंग पर चलते हुए लाएँगे ऐसा वे नहीं सोच रहे। अपने लिए अलग strategy सोचनी पड़ेगी, जो हिंदुस्थान की परिस्थिति के अनुकूल हो, यह उनका विचार है। यहाँ Russian strategy का मॉडेल भी नहीं चल सकता, चायनीज strategy का मॉडेल भी नहीं चल सकता। अलग ढंग से अपना विचार करना चाहिए, ऐसा वे समझते हैं। ऐसा सोचना बुद्धिमानी का भी लक्षण है ऐसा मैं मानता हूँ। उन्होंने अपनी दृष्टि से इस समय क्या strategy सोची? उन्होंने पहली बात तो स्पष्ट रूप से यह सोची कि Russia का मॉडेल एकदम ही हमारे लिए उपयुक्त नहीं। मतलब शहरों पर विश्वास रखते हुए संघटित मजदूरों के भरोसे क्रांति का प्रारंभ करना और फिर क्रांति गाँवों में फैलेगी, यह सोचना हमारे लिए बिलकुल ही उपयुक्त नहीं, ऐसा उनका विचार है। चायना का मॉडेल एकदम अनुपयुक्त है ऐसा वो नहीं मानते। लेकिन जैसे के वैसे उसका उपयोग नहीं हो सकता, तो दोनों का कुछ मेल यहाँ की परिस्थिति में बिठाना होगा, इस दृष्टि से कुछ बातें स्पष्ट रूप से उन्होंने सोची।

एक यह कि संघटित मजदूर हिंदुस्थान में क्रांति का प्रारंभ नहीं कर सकता। अपने क्षेत्र से संबंधित बात है, इस दृष्टि से आज जो उनका thinking है वह आपके सामने रख रहा हूँ। संघटित मजदूरों के आधार पर क्रांति का प्रारंभ हिंदुस्थान में आज नहीं हो सकता यह उनका विचार है। मजदूरों की क्रांति कार्य में कुछ भूमिका है या नहीं है? महत्त्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन आज जो क्रांति का प्रारंभ होगा वह ग्रामीण क्षेत्र के आधार पर हागा, और ग्रामीण क्षेत्र के आधार पर भी छोटे छोटे pockets यहाँ-वहाँ रहने से काम नहीं होगा। तो ऐसे विस्तृत फैले हुए pockets या तो सारे देश में प्रभावी रहे, और सारे देश में प्रभाव जल्दी उत्पन्न करना कठिन होगा तो भी छोटे छोटे pockets चारों ओर scattered रहें, मानो बाद में उनका co-ordination किया जा सकता है। ऐसे pockets ग्रामीण क्षेत्र में बनाना यह पहली आवश्यकता वे मानते हैं। इस तरह के pockets यदि बन जाते हैं - छोटा किसान, marginal, farmer, agricul tural labour, village artisans इनके ऐसे छोटे छोटे pockets हैं वे केवल बंगाल और केरल में नहीं, तो देश के विभिन्न प्रदेशों में फैले हुए हैं। ऐसे पॉकेट्स यदि पहले बन जाते हैं तो अलग विचार किया जा सकता है। अगला जो विचार है, उसमें वो सोच रहे हैं कि जहाँ तक यह बात सही है कि शहरों में संघटित मजदूरों के सार्वत्रिक विद्रोह के आधार पर यहाँ क्रांति नहीं हो सकती, वहाँ उनका विचार यह है कि शहरों के मजदूरों के सार्वत्रिक विद्रोह के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में फैली हुई उनकी जो pockets हैं उनके विद्रोह को यदि नहीं सफलता मिलेगी तो ग्रामीण क्षेत्र में पैदा किए हुए विद्रोह भी सफल नहीं हो सकते। तो दोनों का synchronisation करना होगा, याने ग्रामीण क्षेत्रों में चारों ओर फैला हुआ विद्रोह, उसका synchronisation शहरी क्षेत्रों में संघटित मजदूरों का विद्रोह इसके साथ यदि होता है मतलब प्रमुख सहायक शक्ति के नाते यदि संघटित मजदूर खड़ा हो जाता है तो दोनों के सहयोग से क्रांति हो सकती है यह उनका विचार है।

इस दृष्टि से वे सोचते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में किसान सभा का और खेतिहर मजदूरों का काम बढ़े। लेकिन so far as near future is concerned जहाँ तक immediate future का प्रश्न है, तो उनके लिए सबसे बड़ी कठिनाई यह है और उस पर उन्होंने बहुत दुख प्रकट किया है कि काम का विस्तार करते हुए एक disparity आ गई है। किसान सभा का काम कम हो गया, यह बात सही है। लेकिन काम है, कुछ तो है। लेकिन उनके लिए disparity यह है कि जहाँ किसान क्षेत्र में वे प्रबल हैं वहाँ नजदीक के संघटित मजदूरों में वे प्रबल नहीं। और जहाँ संघटित मजदूरों में वे प्रबल हैं वहाँ नजदीक के ग्रामीण क्षेत्रों में वे प्रबल नहीं। याने ग्रामीण क्षेत्र में उनके प्राबल्य का क्षेत्र अलग है, शहरी मजदूरों के प्राबल्य के क्षेत्र अलग हैं। इस कारण उनके सामने प्रश्न है कि अपनी strategy in the near future हम कैसे जमा सकेंगे? यह चिंता उनके मन में है। CITU का इतना काम है - बंगाल में उनकी सरकार भी है - फिर भी वे चिन्तित हैं। आपने देखा होगा कि जैसे ही इंदिरा काँग्रेस की विजय हुई वैसे पहले यदि कोई भावना बंगाल की CPM सरकार के मन में पैदा हुई होगी तो वह भावना साहस की उतनी नहीं थी जितनी भय की थी। जिस ढंग से केंद्र सरकार के सारे dues clear करने चाहिए, Reserve bank के पैसे दे देना चाहिए, पंचायतों के व परिषदों के जो accounts हैं वे सारे बराबर clear करने चाहिए, यह जो सारी दौड़-धूप शुरू हुई है वह आत्मविश्वास के अभाव के कारण।

कॉमनवेल्थ ऑफ कम्युनिस्ट पार्टीज

इस प्रकार CPM का यदि हम विचार करते हैं तो निष्कर्ष है कि उन्होंने अपने ढंग से खूनी क्रांति लाने के उद्देश्य से जो कार्य चला रखा है वह पर्याप्त मात्रा में सफल होने में अभी काफी समय लगेगा। वे भी यही सोचते हैं, उनकी strategy को पर्याप्त मात्रा में सफलता success मिलने में समय लगेगा यह एक परिस्थिति है। CPM के अलावा CPI का अंतर्गत दृष्टि से अधिक विचार करने की आवश्यकता नहीं। लेकिन विचार ही करना ऐसी स्थिति भी नहीं। पहले भी CPI की स्थिति बहुत मजबूत नहीं थी। फिर भी CPM से अलग उनका विचार पहले भी करना पड़ता था। इसका कारण भी है। CPM के बारे में हम यह कह सकते हैं कि वे किसी के भी एजेन्ट के रूप में नहीं हैं। न चीन के और नहीं रशिया के agent के रूप में। अब तक हमने यह भी कहा है कि वे यद्यपि चीन के नजदीक हैं फिर भी एजेन्ट की भूमिका नहीं निभा रहे। उनके मत में मार्क्सवाद का सही interpretation चीन का अधिक ठीक है और रशिया का कम ठीक है। इसीलिए वे चायनीज लाईन के माने गए थे। इधर सी॰पी॰आई॰ और सी०पी०एम० को मिलाकर एक करने की कोशिश की जा रही है। यह कोशिश सोवियत रूस के नेतृत्व में हो रही है। इसका एक कारण यह भी है कि रशिया समझ रहा है कि भारत में सी०पी०आई० अब बिल्कुल निकम्मी हो चुकी है। उससे बहुत आशा नहीं की जा सकती। इसलिए कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए दोनों पार्टियों को मिलाना ठीक होगा। वैसे यह एकीकरण की चर्चा काफी पुरानी है। बहुत समय से चल रही इस चर्चा में दो प्रकार की बाधायें रहीं। एक व्यक्तिगत स्तर की यानी कामरेड डांगे बीच में अडंगे बनते रहे। अब डांगे काफी बूढ़े हो चुके हैं इसलिए और इस कारण भी कि खुद सी०पी०आई० में कामरेड डांगे को किनारे हटाया जा रहा है। यह बाधा अब नहीं रहेगी। दूसरी बाधा जो अधिक महत्त्व की है - सी०पी०एम० का इस बात पर जोर देना है कि सभी कम्युनिस्ट पार्टियों का एक मंडल, अंग्रेजी में जिसे 'कॉमनवेल्थ ऑफ कम्युनिस्ट पार्टीज' कहा गया है, बनाया जाए।

मॉस्को की दखल नहीं

आपात स्थिति लागू होने के पहले के दिनों में सी०पी०एम० ने इस मांग पर काफी जोर दिया था। इस कॉमनवेल्थ की कल्पना के पीछे सी०पी०एम० का कहना यह है कि सोवियत रूस का अभी तक जो मोनोलिथिक स्ट्रक्चर रहा है वह नहीं रहना चाहिए। हर एक Communist पार्टी autonomous रहेगी। अपने अपने देश की परिस्थिति के मुताबिक काम करेगी। किसी भी Communist पार्टी के अंतर्गत कारोबार में मॉस्को की दखल नहीं रहेगी। सी.पी.एम. का कहना है कि सारी दुनिया की Communist partie "सब समान" के आधार पर एक Common wealth of Communist parties के रूप में एकत्रित आती हैं तो हम उसमें आने के लिए तैयार हैं। इस तरह की बात emergency के पहले हुई थी। आज भी उनकी बातें चल रही हैं। किस सीमा तक बातें चल रही हैं? इसके बारे में अपने को पता नहीं। किंतु emergency के पहले उन्होंने ये घोषणाएं की हैं कि हम Russian stooges के नाते रहने को तैयार नहीं। autonomy होनी चाहिए, स्वायत्तता होनी चाहिए, equal footing का रिश्ता होना चाहिए। सी.पी.एम. के द्वारा emergency के पश्चात एक और प्रयास प्रारंभ हुआ कि कम्युनिस्ट जगत में चीनी गुट और रूसी गुट के नाम पर जो दो ब्लॉक हैं उसीके साथ तीसरा ब्लॉक खड़ा किया जाए। इस दृष्टि से हिंदुस्थान की CPM की ओर से यह प्रयास हुआ कि पश्चिम के प्रजातांत्रिक देशों यानी इटली, फ्रान्स, यु. के. स्कँडे नेव्हीअन कंट्रीज आदि देशों में उनकी जो autonomous communist parties है उन सबको मिलाकर दुनिया में एक थर्ड ब्लॉक बना दिया जाए। किंतु इस दिशा में कुछ सफलता प्राप्त नहीं हुई है। सी. पी.एम. का विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में सोवियत रूस की दादागिरी से मुक्ति का जो आव्हान है उसे देखते हुए कहना कठिन है कि दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को एक करने के प्रयास का क्या होगा?

सी.पी.एम. इस तरह रूस के पिठू की भूमिका स्वीकार नहीं करेगी

आज जो CPI और CPM की बात चल रही है इसमें CPM क्या अपनी original भूमिका छोड़ देगी? जिस तरह सी॰पी॰आई॰ पतिव्रता स्त्री के समान मॉस्को के साथ रहती आई है उसी प्रकार रहना क्या CPM स्वीकार करेगी? इस प्रश्न का उत्तर हम आज नहीं दे सकते। यह ऐसी मूलगामी बाधा है कि शायद उनके talks ज्यादा बढ़े भी नहीं। अभी तक के अनुभवों के आधार पर यह जरूर कहा जा सकता है कि सी.पी.एम. इस तरह रूस के पिठू की भूमिका स्वीकार नहीं करेगी। इस दृष्टि से यद्यपि internal परिस्थिति के नाते CPI का विचार करने की आवश्यकता नहीं तो भी यह बात जरूर है कि सोवियत रूस के साथ नजदीकी संबंधों के कारण सी॰पी॰आई॰ की उपेक्षा नहीं की जा सकती। आज की विश्व परिस्थिति में रशिया का अपना स्थान है। अभी अभी अपनी सेना में उतारकर समूचे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेने जैसी जो कार्यवाही सोवियत रूस ने की है उससे तो और भी यह बात साफ झलक उठी है कि रशिया की हलचल को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। सभी लोगों के मन में यह आशंका भी है कि यह खतरा आगे तो नहीं बढ़ेगा? तो हमें CPI के नाते नहीं किंतु Russian imperialism के नाते इस पहलू पर विचार करने की आवश्यकता है।

Russian imperialism और World communism ( रूसी साम्राज्यशाही और वैश्विक साम्यवाद)

अब यह वैदेशिक मामलों का विषय है। जितनी बारीकी से जानकारी सरकार रख सकती है - रखती है या नहीं पता नहीं हैं इन सब बातों के बारे में जानकारी रखने के लिए आवश्यक उतना समय और मन:स्थिति शासन चलाने वाले लोगों में थी या है या नहीं इसका भी अपने को पता नहीं। यह सरकार के वैदेशिक मामलों के विभाग का विषय है। वे ही पूरी बारीकी से ध्यान रख सकते हैं। जो सरकार में नहीं हैं उनके लिए यह कहना असंभव है कि संकट आएगा या नहीं? हाँ उस संकट का स्वरूप क्या है इसका विचार आपके सामने रखने की आवश्यकता है। पहले तो हम यह समझ लें कि Russian imperialism का खतरा और World Communism का खतरा ये बिल्कुल अलग अलग बातें हैं। आप कहेंगे, बात तो वही है - शब्द में बदल करने से क्या होता है? ऐसा नहीं। शब्द में बदल करने से बहुत अंतर होता है। सारे thinking का pattern बदल जाता है। मुझे स्मरण है कि 1953 के पहले जिस समय unicentral communist की कल्पना dominate कर रही थी उस समय जिस प्रकार दुनिया के मजदूर एक हो जाओ का नारा था उसी प्रकार सारे कम्युनिस्ट मिलकर एक आंतर्राष्ट्रीय राज्य होगा, शासन होगा यही सबके दिमाग में कल्पना थी। ऐसे समय व्हिएटनाम में संग्राम चल रहा था। हमारे भी राजनैतिक मित्रों के साथ हमारी उस समय बातचीत हो रही थी। उस समय जब हम लोग कहते थे कि विएटनाम में यह ठीक है कि कम्युनिस्टों का नेतृत्व होगा, लेकिन जो सारी शक्ति विएटनाम के राष्ट्रीय स्वातंत्र्य संग्राम में अमरीका के खिलाफ लड़ रही है, वह सारी शक्ति communism की शक्ति नहीं है। यह राष्ट्रभक्ति की शक्ति है। उस समय हमारे राजनैतिक मित्र कह रहे थे कि यह सब बाल की खाल निकालना है। आखिर तो सब communism का ही होनेवाला है।

विश्व साम्यवाद केवल मर ही नहीं चुका , उसे दफनाया भी जा चुका है

अब जब 1953 के बाद world communism नाम की बात disintegrate हो रही है तब इसका कारण खोजते हुए यह बात सबके ध्यान में आ रही है कि ये patriotic फोर्सेस हैं। इसी कारण उन्होंने अभी-अभी मार्क्सवादी व्यवस्था की जो नई व्याख्या दी है और पता नहीं कि उसे भारत में लागू करने की कितनी क्या कोशिश हो रही है। वह इसी बात को ध्यान में रखकर है कि world communism वाली जो बात थी, वह बात विएटनाम आज की स्थिति में आज के स्वरूप में tolerate नहीं कर सकता, कारण है विएटनाम में उभरी हुई देशभक्ति की ताकत। चीनी साम्राज्यवाद का जिस ढंग से मुकाबला विएटनाम ने किया उससे यह स्पष्ट होता कि वहाँ patriotism है। जो विजय हुई वह nationalism के कारण हुई है। कहने का अर्थ यह है कि चीनी या रूसी साम्राज्यवाद अलग बात है और विश्व साम्यवाद की विचारधारा बिलकुल भिन्न बात है। दोनों शब्दों में अंतर है इसीलिए विचार करते समय अलग ढंग से सोचना जरूरी है। स्पष्ट रूप से हमें समझना चाहिए कि यह जो विस्तार हो रहा है उस विस्तार का संबंध रशियन अथवा चायनीज imperialism के साथ है। World communism की जो original कल्पना थी उसके साथ इसका संबंध नहीं है। वह बात पहले ही समाप्त हो चुकी है। विश्व साम्यवाद केवल मर ही नहीं चुका, उसे दफनाया भी जा चुका है। इस बात को हमें स्पष्ट रूप से समझना चाहिए। उसे फिर से जिंदा करना अब किसी के बस की बात नहीं। हाँ, Russian imperialism और Chinese imperialism दुनिया की छाती पर जरूर सवार हैं और उसका हमें विचार करना है। वैसे ही अमेरिकन imperialism का भी विचार करना है। जो राष्ट्रवादी है वह हर चीज का विचार करेगा। Imperialism वह चाहे दुनिया के किसी देश का हो, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा होता है। इसलिए वह रशियन रहे, चायनीज रहे या अमेरिकन रहे। सभी का विचार करना पड़ेगा। इतना ही नहीं, इन विभिन्न साम्राज्यवादियों की बहिशयाना दौड़ में कौन कहाँ कितना खींचता और पीसता है इसका भी राष्ट्रीय हित की दृष्टि से विचार करते रहना होगा।

इसलिए जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि अफगानीस्तान के रास्ते आता दिखाई देने वाला खतरा रूसी साम्राज्यवादी खतरा है। इसका विश्व साम्यवाद से कोई संबंध नहीं। इस खतरे की पूरी जानकारी सरकार के ही पास हो सकती है। ठीक-ठीक कह पाना हमारे लिए असंभव है, फिर भी कुछ तथ्य निश्चित रूप से सामने आ चुके हैं। अफगानीस्तान में हुई सोवियत रूस की कार्यवाही का ठीक ठीक कारण भले ही तय नहीं किया जा सकता हो, परंतु जो बातें कई सालों से चल रही हैं उनका पता जरूर है। वे बातें हैं कि सोवियत रूस की अपनी आवश्यकतायें क्या हैं? पहली आवश्यकता रशिया कई वर्षों से महसूस कर रहा है कि उसके लिए बारह महीने खुला रहने वाला कोई बंदरगाह चाहिए। केवल एक छोड़कर बाकी जो उसके बंदरगाह हैं वे बारह महीने उपयोग में नहीं आ सकते। ज्यादातर बरफ ही वहाँ रहती है। रूस जैसी विश्व ताकत बिना ऐसे खुले बंदरगाह के रहे यह बात ठीक नहीं। उनके पास बारह महीने उपयोग में आने वाला जो बंदरगाह है वह बास्कोरस की सामुद्रधुनी में है। सैनिक टुकड़ियों के संचालन में इसका ज्यादा उपयोग नहीं हो सकता। बड़े विशाल महासागर में कहीं न कहीं opening लेना यह बड़ी power के लिए आवश्यक है। उनके लिए सबसे सुविधाजनक पाकिस्तान का बंदरगाह है। वहाँ तक पहुँचने के लिए नजदीक का रास्ता अफगानिस्तान से है। यह एक बात। आपको आश्चर्य होगा कि सोवियत रूस की इस आवश्यकता को ध्यान में रखकर अपने भी कुछ सैनिकी शास्त्र जानने वाले लोगों ने बहुत पहले से - यानी मैंने सन 1972 में पहले पढ़ा था - कहा था कि रूस आवश्य अफगानिस्तान पर हमला करेगा क्योंकि सोवियत रूस को बारह महीने खुला रहने वाला सबसे नजदीक का गादर बंदरगाह है और इस तक पहुंचने का रास्ता अफगानिस्तान से होकर है। इस तरह का अनुमान कुछ military strategist ने 1972 में बताया था। उनमें से एक पूना के ही थे। उनका नमा मेजर जनरल परांजपे है। यह बात अभी नहीं, 1972 में कही गई थी।

हिंद महासागर तक चीन आ पहुँचा है

दूसरी बात यह कि हिंद महासागर का सागरिक महत्त्व सभी लोगों के लिए है। सभी विश्व ताकतें इस ओर आँख लगाये हैं। सोवियत रूस भी यही चाहता रहा है। परंतु जल्दबाजी में कुछ नहीं कर रहा था। परंतु चीन के साथ उसकी प्रतिद्वन्द्विता ने उसे अब मजबूर किया है। चीन ने काराकोरम का रास्ता बनाकर ठेठ कराची बंदरगाह तक अपनी पहुँच कर ली है। यानी हिंद महासागर तक चीन आ पहुँचा है। रूस के लिए यह स्थिति कष्ट देने वाली है कि चीन हिंद महासागर में जा पहुँचे और वह नहीं पहुंचे। इसलिए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि रूस ने अफगानिस्तान में कार्यवाही क्यों की? तीसरे भी बात है - अरब देश समूह के नजदीक भी वही बंदरगाह आता है। केवल 1000 कि.मी. का अंतर है। यानी गल्फ कंट्रीज के नजदीक चायना पहुँच जाए और रूस वहाँ से दूर रहे यह बात उनके लिए ठीक नहीं थी।

इस्लामिक फन्डामेन्टलिज्म

इससे भी ज्यादा इस कार्यवाही के लिए मजबूर करने वाली एक बात है जिसकी ज्यादा चर्चा अखबारों में हुई या न हुई यह मैं जानता नहीं। वह बात है रूस में इस्लाम मतावलंबियों की समस्या। पिछले पाँच-सात वर्षों में यह समस्या उग्र हुई है। इरान में खोमेनी के उदय के साथ उसने और भी जोर पकड़ा है। अयातुल्ला खोमेनी के नेतृत्व में 'इस्लामिक फन्डामेन्टलिज्म' नाम का एक सिद्धांत सामने आ रहा है। सोवियत रूस में काफी समय से मुस्लिम जनसंख्या को पूरा कम्युनिस्ट बनाने का प्रयास किया गया है। इसके लिए सबसे पहले उन्हें डिमोहम्मेडमाइज्ड करना जरूरी था। वैसा प्रयास हुआ कि ये गैर मुसलमान होकर कम्युनिस्ट धारा में घुलमिल जाएं। इसकी प्रतिक्रिया हुई। इस्लाम की ताकतें अधिक निश्चयी हो उठीं। वहाँ की विशेषज्ञता यह है कि रूस की कुल जनसंख्या में मुसलमान एक बटे छः हिस्सा है। इधर जब अयातुल्ला खोमेनी का दबदबा हुआ तो रूस के मन में चिंता हुई। क्योंकि रूस में 'इस्लामिक फन्डामेन्टलिज्म' की शक्तियां सक्रिय हुई। चिंता यह भी हुई कि यदि इरान के समान अफगानिस्तान में भी खोमेनी का प्रभाव फैलता है तो रूस के लिए सिरदर्द बढ़ेगा। इसलिए भी उन्हें अफगानिस्तान की ओर ध्यान देना पड़ा। वैसे अफगानिस्थान का विचार पहले से वे कर रहे थे। अफगानिस्थान की Communist party पंद्रह साल पुरानी है। पंद्रह साल पहले वहाँ कम्युनिस्टों का काम शुरू हुआ। लेकिन पहले ही साल में उन्होंने military में infiltration शुरू किया और उस समय military में infiltration करने का काम जिनके पास था उन्होंने दो साल पहले यह रिपोर्ट दी थी कि infiltration पूरा हुआ है और असंतोष है। अफसर भी अपने पक्ष में है। ये सारी परिस्थितियाँ थीं। इतना हम ख्याल में रखें और यह भी ख्याल में रखें कि इनमें से कौन सी परिस्थिति अफगानिस्थान में कार्यवाही के लिए प्रमुख रूप से कारण हुई यह नहीं कहा जा सकता। फिर भी ऐसा कहा जा सकता है कि सभी का यह एक संकलित परिणाम comulative effect हुआ है।

चायना और अमरीका नजदीक आ रहे हैं

World communism और Russian imperialism की बात का एक उदाहरण यहाँ भी मिलता है। आपने देखा होगा, आज अफगानिस्थान में सत्ता पर श्री कारमेल आए हैं। इनके पहले श्री अमीन थे। वे भी कम्युनिस्ट थे। ऐसा नहीं है कि एक non-communist था अथवा anti-communist था। अमीन भी कम्युनिस्ट थे। लेकिन उनको हटाना और कारमेल को लाना यह कार्रवाई रूस को क्यों करनी पड़ी? इसका कारण यह है कि अमीन एक nationalist थे। यह दूसरी बात है कि economic structure के नाते communism का उसने broadly स्वीकार किया और रशिया की उसने मदद ली; यह सोचकर कि रशिया की सहायता से शासन चलाएँगे और बाद में अपनी ढंग की रचना करेंगे। लेकिन जब यह देखा कि यह अमीन तो स्वतंत्र रूप से विचार कर सकता है, as a stooge of Russian imperialism होने के लिए तैयार नहीं है, तो अमीर कम्युनिस्ट होते हुए भी उसे मरवाया गया, उसको हटाया गया। अपने stooge को वहाँ लाया गया जो रशियन imperialism के एजंट के रूप में काम करेगा। उसकी शक्ति की पकड़ यदि वहाँ अच्छी हो जाती है तो रशिया को अपने forces वहाँ रखने की आवश्यकता नहीं रहेगी। अफगानिस्थान में जो करवाना है वह उसीके द्वारा किया जा सकेगा। World communism और Russian imperialism में यही अंतर है। इन घटनाओं से यद्यपि चिन्तित होने की बात नहीं है फिर भी सतर्कता जरूरी है। पाकिस्तान में भी अमेरिकन आर्मस् आ रहे हैं। वो हमारे खिलाफ जा सकते हैं। यह भी एक परिस्थिति है। इसके कारण चायना और अमरीका नजदीक आ रहे हैं। यह भी हमारे लिए ज्यादा खतरा बढ़ाने वाली बात है।

अभी तक चाहे रूस हो, चीन हो अथवा अमरीका हो, किसी की भी इतनी मानसिक तैयारी नहीं है कि तीसरा विश्वयुद्ध शुरू हो जाए। सोवियत रूस का अफगानिस्थान में हस्तक्षेप ऐसी बात नहीं है जो पहली बार ही हुई हो। क्यूबा में जो हुआ था, केनेडी के समय में, हुआ। आपके ख्याल में है। वैसे अंगोला, इथिओपिया, सोमालिया, येमेन इन सब देशों में भी रूस ने हस्तक्षेप किया था। विएटनाम में भी सहातया पहुँचायी। लेकिन हर समय यह होता है कि war is localised. Localised-wars यदि नहीं हो तो Third World War हो जाएगा। और थर्ड world war के क्या consequences होंगे, हम कहाँ तक बर्दाश्त करेंगे, War लेना या नहीं लेना इस विषय में किसी भी एक world power के मन में निश्चय हुआ है, ऐसा अब तक नहीं लगता। यदि Russian imperialism का advance हिंदुस्थान की तरफ होता है, तो उसका मतलब it will be nothing short of Third World War. क्योंकि विएटनाम, अफगानिस्थान, येमेन जैसा छोटा देश हिंदुस्थान नहीं है। वास्तव में Third World War करने का निश्चय यदि world powers ने किया तो Third World War के थिएटर के नाते हिंदुस्थान का ही selection होगा। क्योंकि Third World War के थिएटर के नाते सुविधाजनक हिंदुस्थान के जैसा undeveloped countries में आज दूसरा देश उपलब्ध नहीं है। वैसे विस्तृत भूमि तो तीनों world powers के पास है। लेकिन कोई भी सुपर पॉवर अपनी भूमि पर युद्ध लाना पसंद नहीं करेगा।

वामपंथी शक्तियाँ और खूनी क्रांति

दूसरे की ही भूमि को वे रणक्षेत्र बनाने का प्रयास करेंगे। जो developing countries हैं उनमें Third World War का थिएटर बनने की क्षमता केवल हिंदुस्थान में है। हमारी ऐसी लंबी चौड़ी भूमि है। और हिंदुस्थान में एक बार यदि confrontation शुरू हो जाता है, किसी भी world power के साथ, तो nothing short of Third World War. यह उसका consequence होगा। क्योंकि हिंदुस्थान जैसा बड़ा देश किसी भी एक सुपर पॉवर के कब्जे में जाने से दुनिया का balance of power बिगड़ जाता है। परंतु आज यही लगता है Third World War की immediate तैयारी किसी की भी नहीं है। हाँ, यह ठीक है कि सोवियत रूस अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की कोशिश करेगा और उसे राजनीतिक तथा राजनयीक स्तरों पर विफल करने की सावधानी रखनी होगी। ये सारी बातें हैं। सतर्कता रखनी है। किंतु एकदम 'मर गया रे बाप! अब क्या होगा?' ऐसी चिंता करने लायक परिस्थिति नहीं है। इस सारे मामले में सी०पी०आई० का कोई बड़ा रोल नहीं है। उसकी चिंता की आवश्यकता भी नहीं है। विचार करने योग्य बात यही है कि वामपंथी शक्तियाँ जो इधर-उधर बढ़ती और शक्ति बटोरती नजर आ रही हैं, क्या वे अपने उद्देश्य के अनुसार देश में खूनी क्रांति का रंग भरने में सफल हो सकेंगी? खासकर मजदूर क्षेत्र में जिस ओर तत्काल ध्यान देना है कि चिंता कितनी और किस स्तर की करना है। इसीलिए कम्युनिस्ट स्ट्रेटजी का कुछ वर्णन किया ताकि इधर उधर कोई घटना होने पर उसका ठीक अनुमान लगाने और समझने में सुविधा हो।

(' विचार सूत्र ' पुस्तिका से ... सं)

" भारतीय मजदूर संघ एक राष्ट्रवादी

विशुद्ध ट्रेड युनियन है। हमारा काम

जेन्युन ट्रेड युनियन के आधर पर चलने

वाला है। जेन्युन ट्रेड युनियन से हमारा

मतलब है वह संगठन जो मजदूरों का

है , मजदूरों के लिए है , मजदूरों द्वारा

चलाया गया है और राष्ट्रहित चौखट

अर्न्तगत् मजदूरहित एकमात्र उद्देश्य ले

कर चल रहा है।

. बा. ठेंगड़ी

सोपान - 2

( कुछ प्रमुख बिंदु)

· हमारे यहाँ प्रत्येक कार्यकर्ता प्रत्यक्ष और प्रथम भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता है और इस लिए वह अपनी युनियन अथवा फेडरेशन का कार्यकर्ता हो जाता है। यहाँ युनियन या महासंघ नहीं अपितु वी. एम.एस. कान्शंसनैस (चेतना) है।

· संख्या में हम वृद्धि चाहते हैं किंतु इस दक्षता के साथ कि संख्यात्मक वृद्धि के कारण गुणात्मक वृद्धि में बाधा न आए।

· ऊपर जो निर्णय हुआ है वह क्यों हुआ है यह नीचे समझना भी चाहिए। दोतर्फा (two way) संवाद हो। From bottom to top (नीचे से ऊपर) सुसंवाद होना चाहिए। Directive (निर्देश) देने वाले और प्राप्त करने वाले के बीच मानसिक सुसंवाद होना चाहिए तभी तो इसे संगठन कहा जाएगा।

· केवल Constitution (संविधान) के आधार पर यदि कोई संस्था चलती है तो वह Constitution के ही बोझ के नीचे दब कर खत्म हो जाएगी। हम जेन्युइन ट्रेड युनियन हैं। हमारा मजदूरों का एक परिवार है। राष्ट्रभक्त मजदूरों का यह परिवार है और पारिवारिक भाव ही से इस का काम चल रहा है किंतु परिवार में भी व्यवस्था होती है। उसी को हम ने कागज पर लिख लिया और वही हमारा संविधान है।

· हर तरह के बाहरी प्रभाव से जो मुक्त है, मालिकों का प्रभाव, सरकार का प्रभाव, राजनितिक दलों का प्रभाव, व्यक्तिगत नेतागिरी के प्रभाव से मुक्त याने विशुद्ध ट्रेड युनियन तो वह अपना भारतीय मजदूर संघ है।

सोपान - 3

' विचार सूत्र '

अखिल भारतीय कार्यकर्ता

अभ्यास वर्ग ( 2)

13-17 जनवरी 1980

पुणे (महाराष्ट्र)

प्रत्येक उद्योग में श्रम भी एक प्रकार की पूँजी है। प्रत्येक कामगार के श्रम का मूल्यांकन अंशपूँजी (शेयर) के रूप में होना चाहिए और कामगारों को श्रम के रूप में अंशदान करने वाले अंशधारियों (शेयरहोल्डर) के स्तर पर उन्नत किया जाना चाहिए।

® उपभोक्ता का हित राष्ट्रीय हित का निकटतम आर्थिक समतुल्य है। सभी औद्योगिक संबंधों में समाज तीसरा और अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। ' सम्मिलित सौदेबाजी ' की वर्तमान पाश्चात्य संकल्पनाइस दृष्टिकोण से संगत नहीं है। इसके स्थान पर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता ' जैसी किसी अन्य शब्दावली का प्रयोग किया जाना चाहिए , जिसका अर्थ होगा नियोक्ता और नियुक्त (मालिक और कामगार) दोनों की राष्ट्र से प्रतिबद्धता।

® उद्योगों के स्वामित्व के बारे में किसी प्रकार की अनम्य रूढ़िवादिता की आवश्यकता नहीं है। निजी उद्यम , राज्य-स्वामित्व , सहकारिता , नगरपालिका-स्वामित्व , स्वनियोजन (स्वरोजगार) , संयुक्त स्वामित्व (राज्य तथा निजी) , जनतंत्रीकरण इत्यादि जैसे उसके अनेक प्रकार हैं। प्रत्येक उद्योग के स्वामित्व का प्रकार उसकी स्वगत विशिष्टताओं तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की समस्त आवश्यकताओं के अनुरूप निर्धारित किया जाना चाहिए।

पू. श्रीगुरुजी

सोपान - 3

तृतीय अखिल भारतीय कार्यकर्ता अभ्यास वर्ग ( 2)

13-17 जनवरी 1980 पुणे (महाराष्ट्र)

राष्ट्रनीति-राजनीति : श्रेष्ठ जीवन मुल्य

कल एक विषय प्रारंभ किया था और उस समय यह भी कहा था कि वास्तव में यह विषय इस वर्ग का विषयान्तर नहीं है। पहले ही अपने पास समय कम है, फिर भी परिस्थिति की आवश्यकता के, और अपनी नैतिक भूमिका के नाते विचार कर रहे हैं। यह सच है कि राजनीति अपने क्षेत्र में नहीं आती। हम राजनीति से दूर हैं। इतना ही नहीं, हम राजनीति के योग्य भी नहीं। राजनीति के लिए बड़ी योग्यता की आवश्यकता है। कई उसके क्वालिफिकेशन्स बताये गए हैं। अब ये सारे क्वालिफिकेशन्स हम लोगों के पास नहीं इसलिए ये अव्यापारेषु व्यापार हो जाता है।

यह जो कला है वह यहाँ बैठे किसी कार्यकर्ता में नहीं

जैसे मुझे स्मरण होता है कि किसी ने अच्छा पॉलिटिशियन कौन है इसके बारे में कहा है कि अच्छा पॉलिटिशयन वह है जो निश्चित रूप से आज बता सकता है कि कल क्या होगा, और जब वह बात कल नहीं होती तो परसों यह भी बता सकता है कि क्या-क्या कारण थे जिनके कारण यह बात नहीं हो सकी, पूरा एक्सप्लनेशन दे सकता है। अब यह जो कला है वह यहाँ बैठे किसी कार्यकर्ता में नहीं। किसी ने पॉलिटिक्स की एक परिभाषा इस प्रकार दी कि Politics is a gentle art of getting votes from the poor and collecting funds from the rich by promising to protecteach from the others. अब यह जो कला है, उसे हममें से कितने लोग आत्मसात कर सकते हैं? कई व्वालिफिकेशन्स की आवश्यकता है। हमारी वह योग्यता नहीं है। फिर भी परिस्थिति की आवश्यकता और राष्ट्र नीति के एक अंग के नाते जितना उचित है उतना विचार करने का सोचा है।

जन संगठन (मास ऑर्गनाइझेशन्स) उनको स्वतंत्र रहने दीजिए

कल यह भी कहा कि नीति अलग बात है, राजनीति अलग बात है, और राजनीति का राजनीति के नाते से विचार करना ये अलग-अलग बातें हैं। दृष्टिकोण अलग-अलग हो जाते हैं, एक ही समस्या पर और अलग-अलग दृष्टि से राजनैतिक, राष्ट्रनैतिक विचार हो सकता है। उदाहरण के रूप में यदि मैं बताऊं जो अपने भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं के लिए ज्यादा संबंधित है कि मास ऑर्गनाइझेशन, खास कर ट्रेड यूनियन जैसे राजनैतिक दल के अंग रहें या न रहें। पहली बार यह सवाल 1936 में लखनऊ कांग्रेस के समय आया। जवाहरलालजी और कुछ लोगों ने यह प्रस्ताव लाने का सोचा कि ए.आई.टी.यू.सी. और किसान सभा कांग्रेस के विंग्स के रूप में काम करें। किंतु पद्धति ऐसी थी कि पहले महात्माजी से चर्चा कर लेना। महात्माजी ने इस बात को रिजेक्ट किया। उन्होंने कहा कि जो मास ऑर्गनाइझेशन्स हैं, उनको इंडिपेंडेंट रहने दीजिए।

अब जवाहर लाल जी और महात्माजी दोनों एक ही संस्था के थे, लेकिन दोनों के दृष्टिकोण में अंतर था। यहाँ तक कि जो संस्थाए रचनात्मक कार्यों के लिए स्वयं महात्माजी ने शुरू की थीं, माने जिनका नेतृत्व केवल महात्माजी का था, उन संस्थाओं को भी कांग्रेस के अंडर उन्होंने कभी नहीं, रखा। अलग, स्वायत्त, स्वतंत्र रखा। किसान मजदूर प्रजा पार्टी और सोशालिस्ट पार्टी का जब विलय हुआ और पी.एस.पी. बनी तो प्रश्न उठा कि हिंद मजदूर सभा का क्या होगा? क्योंकि सोशालिस्ट पार्टी की विंग के रूप में वह सीधी थी। डॉक्टर लोहियाजी ने कहा कि भाई, यह हमारा सिद्धांत है कि Trade Union must be awing of political party. (श्रम संघ राजनितिक दल का घटक होना चाहिए) आचार्य कृपलानी ने कहा कि ऐसा होगा तो मैं आपके साथ नहीं रह सकता। क्योंकि हमारा सिद्धांत है कि ये मास ऑर्गनाइझेशन्स अलग होने चाहिए। कृपालानीजी का बल ज्यादा था इसलिए पी.एस.पी. से, एच.एम.एस. का स्वतंत्र अस्तित्व रहा।

भारतीय मजदूर संघ के बारे में भी चर्चा हुई थी। राजनीतिक लोगों को यह लगना तो स्वाभाविक है कि रेडीमेड मटीरियल कहीं मिलता है तो अच्छा ही होगा। किंतु हम लागों ने मार्गदर्शन के लिए परम पूजनीय गुरुजी से जब पूछा तो उन्होंने भी कहा कि इंडिपेंडेंट ही रहना चाहिए। महात्मा गांधी, श्री लोहिया और श्री गुरुजी ये तीनों तो एक दूसरों से बात करते हुए कोई निष्कर्ष निकालते थे ऐसा नहीं। अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग परिस्थिति में लेकिन एक ही बात कही। इसका मतलब यह निकलता है कि जो राष्ट्रनैतिक दृष्टि से विचार करते हैं उनका सोचने का एक ही ढंग होता है। आज की परिस्थिति में विशुद्ध राजनैतिक प्रश्न भी लिया तो भी राजनैतिक विचार, राष्ट्रनैतिक विचार एक ही होगा ऐसा नहीं।

प्रपोर्शनल रिप्रेजेंटेशन है

उदाहरण के रूप में आपने यह पढ़ा होगा कि अभी जो चुनाव हुआ उसमें, जैसा हर चुनाव में होता है, वोट्स और सीट्स में कोई तालमेल (प्रपोरशन) नहीं रहता। कम वोट मिलते हुए ज्यादा सीटें मिलती हैं। और जितना वोट मिलता है उसके अनुपात में सीटें कम मिलती हैं। दोनों तरह के अनुभव आते हैं। यह बात नई नहीं थी। ग्रेट ब्रिटेन में भी इस तरह का अनुभव था। अपना कॉनिस्ट्यूशन जब बना उस समय भी यह विचार अपने लोगों के सामने था। कई कंसीडरेशन्स हुए जिसके कारण ब्रिटिश सिस्टम अपने यहाँ लाया गया। अब हाल के हर चुनाव में यह बात थोड़ी-बहुत अखरती है। हो सकता है कि हाल के इस चुनाव में बहुत ज्यादा अखरे क्योंकि यह आउट ऑफ प्रपोरशन बहुत ज्यादा हुआ।

इंदिरा कांग्रेस को 8 करोड़ 50 लाख वोट हैं, जनता को 3 करोड़ 72 लाख है, माने आधे से तो ज्यादा है। और वोटों के मुताबिक यदि सीटों का बँटवारा होता तो लगभग 255 इंदिरा कांग्रेस, 127 जनता को मिलना चाहिए था। यह प्रपोरशन में आनेवाली बात थी। परंतु ऐसा नहीं हुआ। जनता पार्टी का सफाया हो गया। ऐसा हमेशा होता है। इस समय बहुत ज्यादा हुआ। अब राजनैतिक प्रतिक्रिया क्या होगी? जो विशुद्ध राजनैतिक है उनकी प्रतिक्रया क्या होगी? यह होगी कि सिस्टम डिफेक्टिव है। यह बदलना चाहिए। अब यहाँ तक तो हम लोग असहमत नहीं। किंतु हमारे उनके भिन्न कारण हैं। इस चुनाव को देखकर खटाक से यह भी सुझाव आ सकता है कि न्यायसंगत बात तो प्रपोर्शनल रिप्रेजेंटेशन है। इसमें बहुत ज्यादा पूर्व विचार नहीं है। क्योंकि न्याय की ही मांग होती तो 30 साल तक सोने की आवश्यकता क्या थी? इस समय ज्यादा अखरा, इसलिए कि वह न्याय की बात याद आ सकती है।

अब राष्ट्रनीतिज्ञ आदमी विचार करेगा तो केवल अगले चुनाव में मेरे वोट्स बढ़े या सीटें बढ़े इतना ही विचार नहीं करेगा। वह सोचेगा कि भाई आज की जो बीमारी है, उसको तो दूर करना है, और दूर करने के लिए यह उपाय है। यह ठीक है। लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि 'रिमेडी इज वर्ट देन दि डिसीज'। क्योंकि हिंदुस्थान यह एक प्लुरलिस्टिक सोसायटी है। प्लुरलिस्टिक सोसायटीका मतलब होता है कि जो अलगअलग कारणों से विभक्त हो सकती है। सामाजिक कारणों से, आर्थिक कारणों से, कई कारणों से विभक्त हो सकती है। और इस तरह की जो प्लुरलिस्टिक सोसायटी है उसमें प्रपोर्शनल रिप्रेजेंटेशन यदि एक बार आ जाता है तो आज के भी सिस्टम में कुल मिलाकर विभाजनकारी प्रवृत्तियाँ बहुत हैं। प्रपोर्शनल रिप्रेजेंटेशन में वे बढ़ेगी यह कहने के लिए ज्योतिषी की आवश्यकता नहीं है।

राष्ट्रनीति का समग्र विचार

उसके कारण इंस्टैबिलिटी बहुत बढ़ जाती है। जब इंस्टैबिलिटी बढ़ती है, जो हम लोगों से जुदा वेस्टर्नाइज्ड कंट्रीज हैं वहाँ भी लोग सोचते हैं कि इतने इंस्टैविलिटी से डिक्टेटरशिप अच्छी। जैसे दिगाल को उन्होंने 1967 में बुलाया। डिक्टेटरशिप को जनता पसंद करने लगती तो यह एक उसका पहलू। उसका पूरा विचार किए बगैर, छानबीन। किए बगैर रिफलेक्शन के नाते केवल कहना कि यह सिस्टम हमें लाभदायक नहीं; चलो दूसरा सिस्टम उठा लो। उसमें लाभ रहेगा। यह तात्कालिक विचार करना यह राजनैतिक तबीयत में बैठता है, राष्ट्रनैतिक तबीयत में नहीं बैठता। वहाँ कुछ छानबीन करनी पड़ेगी, विचार करना पड़ेगा। इसलिए यह समझना कठिन नहीं कि राजनैतिक विचार और राष्ट्रनैतिक विचार, राजनैतिक प्रश्नों के विषय में अलग-अलग हो सकते हैं, दृष्टिकोण अलग-अलग हो सकते हैं। इसलिए राजनैतिक प्रश्नों का विचार हम राजनैतिक दृष्टिकोण से नहीं कर रहे। हाँ, भारतीय मजदूर संघ राष्ट्र-निर्माण कार्य का एक अंग है, और इस दृष्टि से राष्ट्रनीत का समग्र विचार अपने सामने रहना चाहिए। उसमें राजनीति का भी एक हिस्सा है, इसी दृष्टि से केवल हम यह विचार कर रहे हैं।

जनता पार्टी दुनिया के इतिहास में पहली ही ऐसी पार्टी है जिसका गठन सत्ता में आने के बाद हुआ

आज हम विचार कर रहे हैं तो पहले यह कहना उचित होगा कि इसके विषय में पिछले चुनाव के बाद भारतीय मजदूर संघ ने अपनी प्रतिक्रिया क्या दी थी? इसका कारण यह कि बहुत लोगों की एक सस्ती आदत हुआ करती है। कुछ भी हुआ तो वे कहते हैं कि ये तो हमने पहले ही कहा था, या कहते हैं, हम सोच रहे थे। किसी को कहा भी न होगा लेकिन दिल में कहा। यह बड़ी सस्ती आदत है। इसको अंग्रेजी में 'after thought' कहते हैं। इसके बजाय पिछले चुनाव के पश्चात बड़ौदा में हम लोग जब मिले थे, उस समय तत्कालीन परिस्थिति के विषय में जो कहा गया था उसे संक्षेप में मैं दोहराना चाहता हूँ। उस समय पहली बात यह कही गई थी कि जनता पार्टी दुनिया के इतिहास में पहली ही ऐसी पार्टी है जिसका गठन सत्ता में आने के बाद हुआ। शायद आखिरी भी हो सकती है कि जो बनने से पहले ही पॉवर में आ गई। बनने से पहले पॉवर में आने की जो प्रक्रिया है, यानी संघटनात्मक ढाँचा बनाया नहीं और पॉवर में आ गए यह प्रक्रिया दुनिया के पार्लमेंटरी डेमाक्रेसी के इतिहास में अनोखी है।

इसकी क्या क्या प्रतिक्रियाएं होती हैं यह देखना पड़ेगा। यह एक बात कही थी। दूसरा कहा था कि राजनीति में लोकतंत्र में भी पार्टियाँ बदलती रहती हैं। और हम यदि किसी भी पार्टी के साथ अंग के रूप में रहेंगे और कल यदि जनता पार्टी जाती है तो हमारा क्या होगा? कांग्रेस जाने के बाद इंटक की दुर्गति हुई, वैसी हमारी दुर्गति होगी कि नहीं? और इस दृष्टि से जो हमेशा एक बात मैं बताता हूँ, वह बड़ौदा में भी बतायी थी; कहा था, कि अध्यात्म के क्षेत्र में जो नियम भगवान ने बताया, वह राजनीतिक क्षेत्र के लिए भी उतना ही लागू है, और वह नियम यह था कि

त्रैविद्या माँ सोमपाः पूतपापाः

यज्ञैरिश्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम्

अश्नन्ति दिव्यान् दिविदेवभोगान्॥

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालम्

क्षीणे पुण्ये मर्त्य लोकं विशन्ति।

जो सुविद्य हैं, अच्छे हैं, यज्ञ करनेवाले हैं, तपश्चर्या करने वाले हैं, देवपूजन करते हैं, जनसेवा करते हैं वे स्वर्ग में पहुँच जाते हैं। तपश्चर्या के कारण और स्वर्ग में पहुँचने के बाद वहाँ उनके सामने उपभोग्य वस्तुएँ बहुत-सी दिखती हैं। जैसे जसे वे उपभोग लेना प्रारंभ करते हैं वैसे वैसे तपश्चर्या का जो उनका पुण्य है वह क्षीण होने लगता है। और आखिर में इतना क्षीण होता है कि "क्षीणे पुण्ये" याने जब यह सारा पुण्य क्षीण हो जाता है तब फिर से "मर्त्य लोक विशंति" - फिर से मृत्यु लाक में आ जाते हैं। 'स्वर्गलोक से बैक टू दि कंस्टीट्यूएन्सी' ऐसा कहा। उस समय भी यही वाक्य कहा था 'बैक टू दि कंस्टीटयूएन्सी' ऐसा होता है। इसलिए यह ठीक नहीं कि राजनीतिक क्षेत्र में जो जय-पराजय होता है उस पर बहुत ज्यादा भरोसा रखते हुए मास ऑर्गनाइझेशन अपनी पॉलीसीज तय करें।

लोगों ने जनता को पॉजिटिव वोट नहीं दिया

यह भी बात उस समय कही गई थी और तीसरी बात जो कही गई थी जो आपमें से सब लोगों के ख्याल में होगी, क्योंकि उस वाक्य के बारे में बड़ी चर्चा हुई, वह यह थी कि जैसे हमारे इंडस्ट्रियल फिल्ड में है कि रिक्रूटमेंट तो हो जाती है। कनफरमेंशन नहीं होता, प्रोबेशन पीरियड रहता है। तो उस समय कहा गया था कि जनता पार्टी का पॉवर में रिक्रूटमेंट हुआ है, लेकिन अभी प्रोबेशन में चल रही है; और प्रोबेशन में किस तरह से यह मजदूर काम करता है यह देखकर कनफरर्मेशन करना न करना मालिक तय करेगा। यह तीसरी बात भी बड़ौदा में कही गई थी। मैं तीनों बातें इसलिए कह रहा हूँ कि ये आफ्टर थाट नहीं है, ठीक चुनाव के बाद उस समय कही गई जब चारों ओर स्वागत समारोह चल रहे थे। जो कही गई थी उसे केवल मैंने संक्षेप में दोहराया है। यानी हम इस बात पर ध्यान दें कि पहले से अपना एक अंदाजा, विचार का ढंग रहा है। अब आज की परिस्थिति पर जब हम आते हैं तो जैसे पिछली बार हुआ कि लोगों ने जनता को पॉजिटिव वोट नहीं दिया, डिक्टेटरशिप के खिलाफ निगेटिव वोट दिया। इस समय इंदिरा को पाजिटिव वोट नहीं दिया गया। तो अस्थिरता और बाकी बातों के खिलाफ निगेटिव वोट इंदिरा गांधी को मिला है यह तो बात ठीक है।

सत्ता में आना याने पॉवरफुल होना

लेकिन दूसरी बात भी है, कि श्रीमती इंदिरा गांधी आई हैं और इसके विषय में तरह तरह के विचार अलग अलग क्षेत्रों में व्यक्त किए जाते हैं। जो जितना राजनैतिक होगा उतना अधिक विविध शब्दों में विचार प्रकट करता है। इंदिरा गांधी आई हैं इसके क्या क्या मतलब निकलते हैं, इम्पलिकेशन्स क्या क्या हैं, यह पहले देखा जाए। पहले भी वह सत्ता पर थीं। आज भी है। किंतु जो पहले थीं वही आज है क्या? सत्ता में आना याने पॉवरफुल होना। उस समय भी 'She was powerful, today also she is powrful.' सवाल इतना है कि क्या 'पावरफल' की डिगरी एक ही है? Is she that powerful today? अब यह एकाएक सोचने में समझ नहीं आता। आम तौर पर सोचा जाता है कि उस समय भी वो प्रधानमंत्री थीं, इस समय भी प्रधानमंत्री हैं। अंतर क्या है? परंतु बहुत अंतर है। सायकॉलॉजिकली जनता के, और जो ऑर्गन आफ दि स्टेट हैं उनकी दृष्टि से बहुत अंतर आ जाता है। सायकॉलॉजिकली दृष्टि से हम विचार करें।

जो बात उस समय थी कि एक ही दल का, कांग्रेस का, शासन स्वातंत्र्य प्राप्ति के पश्चात लगातार चल रहा था। इनके पिताजी की प्रथम प्राइम मिनिस्टर के नाते सालों तक थे। बीच में थोड़ी सी इंटरवल छोड़ दी, तो तुरंत इनका आगमन हुआ। इसके कारण यह दल राजवंशी है और यह कुल भी राजवंशी है, इस तरह की धारणा जनमानस में थी। और जब तक है तब तक इन्हीं को रहना है, यह भी एक भावना लोगों के मन में थी। शासन चलाने के लिए ही इस परिवार का जन्म है। जैसे स्वाभाविक प्रक्रियाएँ शरीर की चलती हैं। उदाहरणार्थ, श्वासोच्छ्वास करना, जैसे इस परिवार की स्वाभाविक प्रक्रिया याने हिंदुस्थान का शासन चलाना है, इस तरह की भावना जनमानस में थी। इस कारण लोगों का व्यवहार भी उसी ढंग का था। लगातार शासन में चलते आने के कारण एक तरह की अजेयता इन्विन्सीबिलिटी इस व्यक्ति और परिवार की है, इसके कारण एक तरह की श्रद्धा, जो अजेयता के कारण निर्माण होती है, जनमानस में और बाकी जो ऑर्गन्स हैं उनके अंदर भी थी। यह सायकालॉजी निर्माण हुई थी।

नौकरशाही का सोचने का ढंग

जैसे ब्यूरोक्रेसी को ही लें। नौकरशाही का सोचने का ढंग यह था कि इन्हें ही हमेशा के लिए रहना है। यह सोचकर निश्चिंत होकर इनको खुश करने के लिए चाहे जो अन्याय किया जा सकता है। एक ही तरीका सोचा जाता था कि ये खुश हो जाएँगे, क्योंकि आखिर जीवन भर पाला तो इनसे ही पड़ना है। यह सोचकर अफसर लोगों का व्यवहार था। जुडिशिअरी के मन में भी इस तरह की हिचकिचाहट थी कि स्वतंत्र रूप से जजमेंट कहाँ तक देना? प्रेस पर भी इसी तरह का एक प्रभाव। ये सारी बातें स्वाभाविक थीं। बीच में का जो कालखंड गया है उसमें हुई बातें नलिफाई हो सकती हैं। स्पेशल कोर्ट बिठाए गए उनको खतम किया जा सकता है, यह सारा होगा। लेकिन ये दल, परिवार, व्यक्ति, पॉवर से हटाए जा सकते हैं, अजेय नहीं हैं, इन्विन्सिबल नहीं हैं, वन्स फार ऑल रहनेवाले नहीं हैं। इनको भी हटाया जा सकता है, दूसरा कोई दल आ सकता हैं। और दूसरा दल यदि आया तो फिर पीछे जो गलतियाँ हुई उनकी जाँच भी हो सकती है, और जाँच के बाद कड़ी सजा भी हो सकती है, ये सारी संभावनाएँ एक बार यदि लोगों के ख्याल में आती हैं तो अजेयता के कारण निर्माण होनेवाली जनता की सायकॉलॉजी बदलती है।

अफसरशाही की भी सायकॉलॉजी बदलती है। आज भी अफसरशाही इनको खुश करने के लिए काम करेगी, यह तो सही है। लेकिन कुछ भी अन्याय किया तो भी चल सकता है, यह जो पहले भावना थी, अब नहीं है। आज उनको भी सोचना पड़ेगा कि वे आज जो अन्याय करेंगे, पता नहीं 77 में जैसे जनता ने हटाया वैसा आगे भी हो सकता है। दो बार हटाने का प्रयोग हुआ है। इंदिराजी को भी हटाया गया और जनता को भी हटाया गया। 'ऐसी कोई वेव आ जाती है, और वे हटाई जाती है तो फिर हमारा क्या होगा? हम गरीब आदमी बीच में मारे जाएंगेः। यह एक नया विचार जो 1977 के पहले अफसरशाही के मन में नहीं था, पैदा हो सकता है। यह विचार जुडिशिअरी, प्रेस आदि के लोगों में भी आ सकता है। इसके कारण बिल्कुल नि:शंक होकर जिस तरह से से कारोबार चलता था उस तरह का कारोबार और आगे चलना, इतनी मजबूत पकड़ होने में काफी समय है, यह जल्दी होनेवाली बात नहीं। सायकालॉजी में बड़ा अंतर रहता है। माने व्यक्ति वही है, दल वही है, पॉवर वही है, पोस्ट वही है। लेकिन पॉवर में, पॉवर की दृढता में अंतर है।

नेपोलियन की हार

अनालॉजी के नाते बोलता हूँ। नेपोलियन का यही हुआ। नेपोलियन का सार्वजनिक जीवन जब से शुरू हुआ तब से एक के बाद एक विजय ही प्राप्त करता रहा; और इसके कारण फ्रेंच लोगों के मन में यह धारणा घर कर गई थी कि विजय प्राप्त करने के लिए ही इसने जन्म लिया है। धारणा फ्रेंच के मन में थी इस कारण एक बड़ी श्रद्धा, जो एक तरह की जो इनविन्सिबिलिटी के बारे में निर्माण होती है, वह नेपालियन के बारे में थी। लेकिन एक बार नेपोलियन की हार हो गई, एल्वा में जाना पड़ा, और एल्बा से वह छूटकर आए। आने के बाद जो पर्सनल चारिस्मा था वह नेपोलियन का था ही। इसके कारण बाकी सब लोगों को ओवर शैडो करते हुए पीछे खदेड़कर फिर से पॉवर भी हाथ में ले ली। किंतु इतिहास बताता है कि यद्यपि फिर से पॉवर हाथ में ले ली तो भी अजेयता का विश्वास जनमानस में कम होने के कारण नेपोलियन आफ्टर एल्बा वॉज नॉट दि सेम पॉवर एज बीफोर एल्वा।

इंदिरा गांधी बीफोर 1977 एंड इंदिरा गांधी आफ्टर 1977

जिन परिस्थितियों का मुकाबला नेपोलियन को करना पड़ा, वे परिस्थितियां यदि एल्बा में जाने का प्रसंग इनके ऊपर न आता और एक के बाद एक विजय प्राप्त होने के पश्चात यदि वाटरलू की लड़ाई हो जाती और फिर उस लड़ाई की हार के पश्चात यदि पीछे हटकर अपनी जो बचीखुची सेना है उसको लेकर बाकी फ्रेंच राष्ट्र को वे आवाहन करते, कि मेन एड मटीरियल सप्लाई कीजिए, तो फ्रेंच राष्ट्र ने जो सहयोग दिया होता वह वाटरलू के बाद मिला नहीं। माने एल्बा में जाने की बारी न आती तो सेंट हेलिना में जाने की बारी न आती। क्योंकि अजेयता पर का विश्वास जब टूट गया तब वाटरलू का सेटबैक मिलते ही जैसी सहायता पहले की अवस्था में करना लोगों के लिए स्वाभाविक था, वैसी अवस्था नहीं रही। इस स्थिति को व्यक्त करने के लिए अंग्रेजी में एक वाक्य भी उनके नाम से बनाया है, जो नेपोलियन ने कहा नहीं, लेकिन अंग्रेजों ने कहा, कि यही वाक्य उनके मन में आया होगा और वह वाक्य इसलिए एकदम प्रसिद्ध हो गया। वह वाक्य है कि "Able was Tere I saw Elba." अर माने बीफोर। एल्बा में जाने से पहले मैं ज्यादा क्षमता रखता था। तो आप यह समझ लीजिए कि नेपोलियन बीफोर एल्बा, नेपोलियन आफ्टर एल्बा दोनों एल्बा दोनों में जो अंतर है वही 'इंदिरा गांधी बीफोर 1977 एंड इंदिरा गांधी आफ्टर 1977' में आ जाता है। उसके कारण वह पॉवरफुल हैं यह मानने के पश्चात भी कितनी पॉवरफुल हैं इसका भी थोड़ा विचार करना चाहिए।

हम लोगों को ज्यादा बारीकी से विचार करने की आवश्यकता है। किंतु यह तो बात है ही कि पॉवर है। She may not be that powerfull but after all she is powerfull. यह भी बात है। 'that powerfull' नहीं है, इसका मतलब पॉवरफुल नहीं है ऐसा नहीं है। डिग्री का, एक्सटेंट का फर्क हो जाता है लेकिन पॉवर है। अब पॉवर हाथ में आई। बीच में पराजय हुई थी इसके कारण कुछ सबक सीखने की गुंजाइश है कि नहीं इसके विषय में भी हम तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं पढ़ते हैं। अब सही उत्तर जानना तो अपने लिए इसलिए कठिन है कि न हम राजनीति में हैं, ना इंदिराजी से कोई ऐसा पर्सनल कांटैक्ट है। वैसे तो जिनका पर्सनल कांटैक्ट रहा वे लोग बड़े दुखी हैं। उनमें से कुछ लोगों से बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि शी इज अन्प्रेडिक्टेबल। तो पर्सनल कांटैक्ट भी उनके साथ होता तो हम कहाँ तक अंदाजा लगा सकते? इस कारण यह कहना तो हमारे लिए बहुत ही कठिन है कि आफ्टर आल वो क्या करेंगी? ये कहना कठिन है, कि सबक सीखेंगी या नहीं?

योगी पुरुष पॉलिटिक्स में आते नहीं।

जहाँ तक इच्छा, आकांक्षा, विचार की पद्धति है, उसमें अब इतनी बढ़ी हुई उम्र में फर्क होना बड़ा कठिन हो जाता है, ऐसा सर्वसाधारण अनुभव है। सर्वसाधारणतः एक उम्र के बाद, और जीवन भर जो आकांक्षाएँ धारण की हैं, उनमें परिवर्तन लाना बड़ा कठिन होता है। कोई योगी पुरुष कर सकते हैं। लेकिन जो कर सकते हैं, ऐसे योगी पुरुष पॉलिटिक्स में आते नहीं, और जो आते हैं के योगी रहते नहीं ऐसा दिखाता है - थोड़े राजर्षियों का अपवाद छोड़कर। आदतों के बारे में किसी ने यह कहा है कि "Sow a thought and reap an action, sow an action and reap habit, sow a habit and reap a character, sow a character and reap a destiny."

[एक विचार का वीजारोपण करो और कर्मशीलता प्राप्त करो, कर्मशीलता का वीजारोपण करो और एक आदत प्राप्त करो, एक आदत का वीजारोपण करो और एक चरित्र की प्राप्ति करो, चरित्र निर्माण करो और नियति (प्रारब्ध) बन जाएगी।]

इसलिए दूसरा सबक सीखने की कुछ संभावना जरूर है कि जो आकांक्षा पिछली बार पूरी नहीं हुई, तो जिन गलतियों के कारण पूरी नहीं हुई उन गलतियों को फिर से दोहराया न जाए और इस समय इस तरह की व्यूहरचना की जाए कि आगे बढ़कर पीछे हटने का मौका, जैसा पिछले बार आया, वैसा दुबारा न आए। इस तरह का विचार मन में आने की संभावना है। क्योंकि कामनसेंस के लिए तो वह प्रसिद्ध हैं। व्यक्तिगत संबंध न होते हुए भी सब लोग जानते हैं कि उसका कामनसेंस काफी अच्छा है। बाकी भी कई गुण उनके अंदर हैं। तो यह आ सकता है, और जो पिछली गलतियों का विचार होता है तो सबके मन में, जो थोड़ा भी बुद्धिमान है, एक बात आएगी कि उस समय जल्दबाजी से गड़बड़ हुई। कभी भी जल्दबाजी से काम में गड़बड़ हो जाती है। फिर हमारे कुछ साथी कहने लगे कि भाई, ये कहाँ तक अब दमनचक्र चलायेंगी? पता ही नहीं चलता। तो हमको एक वाक्य स्मरण है।

स्टालिन ने कहा कि मैं फिफ्र में नहीं हूँ

हिटलर की सेना रूस में घुस गई थी। मॉस्को से साठ मील की दूर पर उन्होंने कैम्प लगाया था। उस समय एक रिपोर्ट आई थी कि स्टालिन वैसे तो बहुत कम लोगों से मिलता था और पब्लिक स्टेटमेंट भी कम ही देता था, तो भी एक कोरेस्पौंडेण्ट ने उनकी मलाकात ली थी। कारेसपौंडेंट ने उनसे पूछा कि आप तो इन दिनों बहुत फिक्र में होंगे। तो स्टालिन ने कहा कि मैं फिक्र में नहीं हूँ। "बिकाज, हिटलर नोज हाउ टु एडवांस, वट ही डज नॉट नो वेयर टु स्टॉप" (हिटलर आगे बढ़ना तो जानता है किंतु कहाँ रुकना है वह नहीं जानता) इसके कारण मैं चिंता नहीं कर रहा। एक मन में बात आ गई, स्मरण हो गया। इसका अनुभव पिछली इमरजेंसी के समय हुआ है। शी नोज हाउ टु एडवांस, शी डज नॉट नो वेयर टु स्टॉप" और इसके कारण कुछ जल्दबाजी भी हो गई थी और यह जल्दबाजी अपने लिए पेइंग नहीं रही, यह समझने के लिए आवश्यक बुद्धिमानी उनमें अवश्य है, वैसे भी जो अपने हाथ में ज्यादा देर तक अधिकतम सत्ता का केंद्रीकरण करना चाहता है वह जल्दबाजी नहीं करता - धीरे-धीरे अपनी सत्ता कंसोलिडेट करता जाता है।

दुर्योधन की लोकप्रियता

पांडवों के इतिहास में एक घटना आती है कि पांडव वनवास में गए। अभीअभी वनवास उनका शुरू हुआ। वनवास में गए तो भी आखिर राज्य प्राप्त करना है यह तो है ही। और इस दृष्टि से उन्होंने अपने कुछ गुप्तचर दुयोधन के राज्य में रखे। वो बीच बीच में आकर रिपोर्ट देते थे। तो प्रसंग ऐसा आता है कि ये पाँचों पांडव और द्रौपदी बैठी हैं। गुप्तचर आया है। वह रिपोर्ट दे रहा है। उसमें आता है कि एक एक प्रश्न ये पूछते हैं, वह एक-एक का उत्तर देता है। कुल मिलाकर उसमें आता है कि दुर्योधन की लोकप्रियता बहुत बढ़ रही है। वह सब लोगों से मिलता है। जो बड़े शक्ति संपन्न ऐसे लोग हैं उनके साथ व्यक्तिगत संबंध भी उसने स्थापित किए हैं।

उसने धनी लोगों के साथ व्यक्तिगत संबंध प्रस्थापित किए हैं सर्वसामान्य व्यक्ति के साथ भी उसके संबंध हैं। जो शासन चल रहा है वह भी निष्पक्ष चल रहा है। जनता प्रसन्न है। उन दिनों में गुप्तचर जो सत्य होगा उसीकी रिपोर्ट देते थे। सुननेवालों को कैसा लगेगा यह सोचकर रिपोर्टिंग नहीं होती थी। तो इसलिए उसने रिपोर्टिंग कर दी कि लोकप्रियता उसकी बढ़ रही है, शक्ति इसकी बढ़ रही है। यह जैसे ही सुना तो द्रौपदी युधिष्ठिर पर एकदम नाराज हो गई - उसने कहा, कि बस तुम्हारी नीतियों का यह परिणाम है। हम पहले से कह रहे थे तुमने एकदम भोलापन ले लिया। इसका यह नतीजा हो रहा है। अब तो दुर्योधन दृढमूल हो रहा है। अब उसको उखाड़ना बहुत कठिन होगा। ये सारी चीजें उल्टी हो रही हैं, फिर भीम भी गुस्सा हो जाता है।

युधिष्ठिर ने जो उत्तर दिया था वह अच्छा था

हर परिवार, जैसे हर संस्था में, अपने भारतीय मजदूर संघ में भी, अलग अलग टैम्परामेंट के लोग हुआ करते हैं। तो यह सारा गुस्सा वगैरह प्रकट होने के पश्चात युधिष्ठर ने जो उत्तर दिया था वह अच्छा था। उसने कहा कि इतना अधीर होने की क्या आवश्यकता है? यह जो कह रहा है सारा सच होगा। वह लोकप्रिय बन गया होगा। उसने अपने व्यवहार का तरीका बदल दिया होगा, यह सब ठीक है। लेकिन यह तात्कालिक है। जो प्रकृति है, स्वभाव है वह बदलनेवाला नहीं है। एक स्ट्राटेजी के नाते, आवश्यकता के नाते उसने यह परिवर्तन किया। लेकिन जैसे वह देखेगा कि अपनी पॉवर कंसोलिटेड हो रही है, अब यह सारा करने की आवश्यकता नहीं है, तो अपनी मूल प्रकृति पर वह आ जाएगा। और जैसे मूल प्रकृति पर आ जाएगा, वैसे फिर सारी चीजें भी बदलने लगेंगी। असंतोष भी भड़कने लगेगा। इस तरह का विचार उस समय युधिष्ठिर ने प्रकट किया। किंतु पॉवर कंसोलिडेट होने तक जल्दबाजी न करना यह सर्वसाधारण तथा सभी डिक्टेटर्स के बारे में लगभग सच है। कम से कम वेस्टर्न डिक्टेटर्स के बारे में तो है ही। ये जो अफ्रीकन वगैरह हैं वो तो ज्यादा सिविलाइज्ड नहीं, किंतु वेस्टर्न कंट्रीज में जहाँजहाँ डिक्टेटरशिप आई हैं, वहाँवहाँ जल्दबाजी नहीं हुई। धीरेधीरे पॉवर कंसोलिडेट करने का प्रयास हुआ। उसके बाद फिर तानाशाही का नंगा नृत्य शुरू हुआ, ऐसा हर जगह दिखाई देता है।

भानमति का कुनबा

अब वह पॉवर कंसोलिडेट करने की दृष्टि से यदि हम देखें तो दो बातें ख्याल में आती हैं। परिस्थितियों की अनुकूलता हो और अंतर्गत जो दल का ढांचा है वह ठीक रहे। अंतर्गत भी पॉवर कैसोलिडेट हो, बाहर की परिस्थिति भी अनुकूल रहे। अब इस दृष्टि से क्या क्या बारीकिया हैं, आप और हम क्या जान सकते हैं? जो राजनीतिज्ञ हैं वे भी पूरी जानकारी नहीं रखते। तो यहाँ बैठकर हम बाहर के लोग कहें कि सब बारीकियों को हम जानते हैं, यह तो गलत होगा। लेकिन सामान्य तौर पर इतना तो रास्ते का आदमी भी समझता है, और रास्ते का कॉमन मैन जितनी अकल रखता है उतनी अकल रखना हमारे लिए कोई तकलीफ की बात नहीं। तो वह समझता है कि जिस ढंग से चुनाव जीता गया है उसका अपना एक ढंग है। उसको रिटेन करने का ढंग वही नहीं हो सकता। क्योंकि दुबारा चुनाव जीतने के लिए यह बात स्पष्ट है कि तरह तरह के लोगों को इकट्ठा करना पड़ा, अलग अलग लोगों को अलग अलग आश्वासन देकर भी इकट्ठा करना संभव था। केवल पैसा देकर सब बातें होती हैं ऐसा नहीं है। मनुष्य स्वभाव में पैसे के लिए जैसा आकर्षण है अन्य चीजों के लिए भी आकर्षण है। पदों के लिए भी आकर्षण है। तरह तरह के लोग तरह तरह की इच्छा लेकर आश्वासन पाते हुए या आश्वासन न पाते हुए भी इच्छा लेकर माताजी के पास पहुंचे होंगे। इस तरह का यह एक भानमति का कुनबा है। यह ऑरगौनिक ग्रंथ नहीं है, संघटन नहीं है, तो यह भानमती का कुनबा है। मार्केट की भीड़ है, खरीदने के लिए इकट्ठा हुए हैं। इतना तो सभी समझते हैं। इतना कहने में हम बहुत ज्यादा बुद्धिमानी का परिचय नहीं दे रहे। कॉमन मैन भी ये चीजें समझता है।

मेरी तो जब कभी इधर उधर बातचीत होती है तो मुझे यह भी पता चलता है कि कॉमन मैन दूसरी भी बात जानता है कि कोई भी पार्टी शासन में आए, लेकिन भोजनगृह में थालियाँ सीमित और थालियों पर बैठनेवालों की संख्या असीमित है। यहाँ तो और भी भीड़ बढ़ गई। तो यह भी सब जानते हैं - लोग जिसको फसेज एंड लोव्स कहते हैं वे हम हैं। सीमित संख्या में हैं, लेकिन उसकी वांछा रखनेवालों की संख्या बहुत ज्यादा है। अब ऐसी परिस्थिति में एकदम कोई बड़ा विद्रोह होगा ऐसा कोई बात नहीं। तो भी आज भी जो एक एपरेण्ट सोलिडैरिटी दिखाई देती है वह रहना ज्यादा देर तक संभव नहीं है। किंतु आज इसके कारण कोई बड़ा चिंताजनक विषय इंदिराजी के लिए आज भी नहीं है। लेकिन असंतोष होगा, यह तो सोचा जा सकता है। अब ऐसा यदि होता है तो उस परिस्थिति में पार्टी मशिनरी जो कुछ भी होगी, मशिनरी है या नहीं उसका पता नहीं, लेकिन मशिनरी या मशिनरी के समान जो भी व्यवस्था होगी, उसको ठीक रखना, उसको बराबर पकड़ में रखने की दृष्टि से काम करते रहना, यह कोई सरल काम नहीं है।

डिक्टेटरशिप (अधिनायकवाद)

दूसरी एक कठिनाई है और यह दूसरी कठिनाई और सबसे बड़ी कठिनाई कोई भी पार्टी पॉवर में आती तो उसके लिए रहती है। इंदिराजी आईं इसलिए है ऐसा नहीं। यदि जनता पार्टी आती, लोकदल आता, कोई भी आता तो भी उसके लिए यह कठिनाई थी। इसे बहुत ही इन्सरमाउंटेबल तो नहीं लेकिन लगभग उसी तरह की यह कठिनाई आर्थिक क्षेत्र की है। उसका बहुत विश्लेषण करने की आवश्यकता मैं यहाँ नहीं समझता। इस समय कोई भी पार्टी पॉवर में आती तो भी हिंदुस्थान को आर्थिक दृष्टि से ठीक रखना, उसके लिए बहुत कठिन था। अब इसका मुकाबला कहाँ तक कर सकेंगे यह एक दूसरा सवाल है। जो सारी चीजें हैं उनके बारे में प्रत्यक्ष, डाइरेक्ट, व्यक्तिगत, पर्सनल जानकारी न होने के कारण निश्चित कह पाना कठिन है। तो भी इन या इस तरह की कठिनाइयों का मुकाबला पर्सन इन पॉवर किस ढंग से कर सकेगा यह इस पर भी अवलंबित है। खासकर जब डिक्टेटरशिप जैसी स्थिति का सवाल है, इस बात का भी विचार करना होगा कि उसका स्वरूप क्या है? अब आपको लगेगा कि यहाँ क्या सवाल है? डिक्टेटर इज डिक्टेटर। एक बार डिक्टेटर बन गए तो सब समान ही हैं, और समान पॉवरफुल हैं।

पर्सनल डिक्टेटरशिप और आइडियोलाजिकल डिक्टेटरशिप

पर्सनल डिक्टेटरशिप और आइडियोलाजिकल डिक्टेटरशिप ये दो कामन पैटर्न्स माने जाते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी की डिक्टेटरशिप आई तो उसका आइडियोलॉजिकल डिक्टेटरशिप कहा गया। फासिस्ट और नाजी की डिक्टेटरशिप आई तो उसे आइडियोलॉजिकल डिक्टेटरशिप कहा गया। क्योंकि एक आइडियोलॉजिकल बेसिस की पार्टी खड़ी हुई थी। एक संगठन खड़ा हुआ था। उनकी आइडियालॉजी में जो कुछ भी बातें हैं उनको कार्यान्वित करने का विचार था। इसलिए पॉवर लेना था। यानी पॉवर साध्य नहीं, पॉवर साधन है। साध्य कुछ और होगा। तो उनके सामने कई लोग, रैंज विजन्स थीं। यह फॉसीस्ट, नाजी, कम्युनिस्ट, सबके बारे में सही था। यह आइडियोलॉजीकल डिक्टेटरशिप है। लेकिन जहाँ आइडियोलॉजी कुछ नहीं, पॉवर में रहना ही सबकुछ है, Power is the be all and end all और व्यक्तिगत पॉवर जैसी जहाँ परिस्थिति है वहाँ पर्सनल डिक्टेटरशिप कही जाती है। पर्सनल डिक्टेटरशिप के अंतर्गत पर्सनल डिक्टेटर के बारे में लोगों के मन में निर्माण होनेवाली श्रद्धा का प्रकार और आइडियोलॉजिकल डिक्टेटरशिप के अंतर्गत आइडियोलॉजिकल डिक्टेटर के बारे में लोगों के मन में निर्माण होनेवाली श्रद्धा का प्रकार, दोनों की भावनायें समान नहीं हैं। इसके कारण क्या अंतर आता है, इसका भी विचार बारीकी से करने की आवश्यकता है। फिर दूसरी बात डिक्टेटरशिप तो है। सारी पॉवर कॉन्स्टिट्यूशनली उनके पास है। कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथा कर्तुम समर्थः जैसी स्थिति है। लेकिन जो पॉवर हाथ में आती है उसका उपयोग करने की ताकत कितनी है?

पोटेंसी आफ डिक्टेटर (तानाशाह की सामर्थ्य)

तो पोटेंसी आफ डिक्टेटर क्या है, इस पर भी बहुत कुछ अवलंबित होता है। आप कहेंगे कि इसमें क्या बात है? पोटेंसी आफ डिटेक्टर क्या है? इंदिराजी के बारे में यह कहा गया। और यह बात मानने में कोई आपत्ति नहीं, कि राजनीतिक क्षेत्र का अकेला विचार किया तो उनको स्ट्राँग मैन जैसी संज्ञा दी जा सकती है। स्ट्राँग मैन ये बिल्कुल सही बात है। तो फिर पोटेंसी का विचार क्या करना है? नहीं, पोटेंसी का विचार इसलिए करना है के अन्यान्य पॉलिटिक्स पर उसका असर होता है। पोटेंसी कितनी है इस बात का असर अन्यान्य पॉलिटिक्स पर होता है, इप्लिमेंटेशन पर होता है। अब उदाहरण के रूप में हम यहाँ ले। मैंने कहा कि इकनामिक फील्ड यह सबसे कठिन फील्ड है। डिक्टेटरशिप रही, स्ट्राँग रही। लेकिन कीमतें बढ़ रही हैं। शौर्टेजेज हैं, असंतोष भड़केगा। लोग कहेंगे कुछ नहीं फिर भी असंतोष भड़केगा यह निश्चित है। तो डिक्टेटरशिप के लिए भी जरूरी है कि इस परिस्थिति को काबू में करना है। कोई डिक्टेटर ये नहीं कह सकता कि प्राइसेज कितनी भी बढ़ती रहें, शोर्टेज कितना भी रहे, लोग भूखे रहें, अनइम्प्लायमेंट बढ़ती रहे, हमें क्या करना है? मेरे हाथ में पॉवर है, इसलिए कोई चिंता की बात नहीं। ऐसा कोई डिक्टेटर नहीं कह सकता। पोटेंसी आफ डिक्टेटर का असर इकानामिक पॉलिसीज पर बहुत होता है; इंटरनली, एक्सटरनली। आप कहेंगे, "भई, इकानामिक पॉलिसी से इसका क्या संबंध है? संबंध है पोटेंसी आफ डिक्टेटरशिप से। मेरा मतलब है कि जो निर्भय है, किसी भी तरह का भय नहीं इसके कारण निश्चिंत है।

कैपिटेलिस्टों को नाराज करके चल नहीं सकता

निश्चिंत होकर एक-एक कदम आगे बढ़ रहा है। अंदर की जनता क्या कहेगी, बाहर की दुनिया क्या कहेगी, इसकी फिकर नहीं। यह एक तरह का डिक्टेटर है। जो जनता पर निगरानी रखता है। सी. आई. डी. डिपार्टमेंट अच्छा रखता है, इतना ही नहीं, तो समय-समय पर भय ग्रस्त हो जाता है, और बाहर की दुनिया में याने दुनिया मेरे बारे में क्या सोचती है, यह भी जिसको देखना पड़ता है, वह एक अलग ढंग का डिक्टेटर है। अब अंतर्गत तो सशक्त होना संभव है। जहाँ तक पोटेंसी का सवाल है इंदिराजी के बारे में कोई शक करने की आवश्यकता नहीं। शी इज क्वाइट स्ट्राँग इसमें कोई शक नहीं। यदि दमन करना है, कुचलना है, तो यह वह कर सकती हैं। और इस दृष्टि से जिसे डिक्टेटर बनना नहीं, फिर से चुनाव जिसे लड़ना है, ऐसी पार्टी और व्यक्ति की जो दुर्बलता रहती है, उस दुर्बलता से इंदिराजी अपने को मुक्त कर सकती हैं। अंतर्गत कारोबार की दृष्टि से डेमोक्रेसी में कोई भी पार्टी चुनकर आए, एक दुर्बलता पार्टी में जरूर रहती है। क्योंकि चुनाव का जो पूरा ढाँचा है वह बहुत खर्चीला है। इतना खर्चीला है कि बगैर पैसे से कोई जीत नहीं सकता। पैसा आएगा कहाँ से? जिनके पास पैसा है उन्हीं के पास से पैसा आएगा। पैसा आता है तो उनका आलिगेशन भी आ जाता है, और आब्लिगेशन आने के बाद ऐसा नहीं है कि पिछले चुनाव का आब्लिगेशन है तो क्या? फिक्र करने की आवश्यकता नहीं। आगे चलकर हम डिक्टेटरशिप ही लाएंगे। ऐसा सोचते हैं तो फिकर नहीं करेंगे। जिसको आगे का चुनाव लड़ना है उसको यह भी देखना पड़ता है कि इस समय पैसा लेना पड़ा कैप्टीलिस्टों से, अगला भी तो चुनाव आ रहा है। फिर से उन्हीं से पैसा लेना है। इस दृष्टि से फिर कैपिटेलिस्टों को नाराज करके चल नहीं सकता। इसी दृष्टि से आप देखें कि मैनिफेस्टों में चाहे जो लिखा हो, लेकिन कोई भी सोशलिस्ट, एक्स्ट्रा सोशलिस्ट, कोई भी पार्टी हो, ड्रास्टिक ऐक्शन नहीं ले सकती। लेकिन हाँ, जिसको फिर से चुनाव लड़ना ही नहीं, देट पर्सन केन एफोर्ड एनी ड्रास्टिक ऐक्शन। इस दृष्टि से अंतर्गत एक कम्पलशन आता है जिसका इकानामिक्स पर असर होता है।

डिक्टेटर जनमानस की फिक्र नहीं करता

क्योंकि पेसेवालों का आब्लिगेशन मानने के बाद फिर सारी पॉलिसी पैसेवालों के अनुकूल रखना पड़ती है। उस दृष्टि से कामन मॅन की पूरी फिकर करना संभव नहीं होता। यह जो एक कम्पलशन है, यह कम्पलसन तो डिक्टेटर होनेवाले व्यक्ति के लिए नहीं। इससे वह व्यक्ति मुक्त है। इससे इंदिराजी मुक्त हो सकती हैं। सेंस आफ आब्लिगेशन वगैरह रखने का उनको कितना अभ्यास है, अपने को पता नहीं। लेकिन सेंस आफ आब्लिगेशन भूल जाना यह मनुष्य की प्रकृति में एकदम नहीं, ऐसा नहीं है। लोग भूल भी सकते हैं। तो यह हो सकता है। लेकिन दूसरी बात कि स्ट्राँग डिक्टेटर जो होता है वह जैसे अंतर्गत जनमानस की फिक्र नहीं करता। सोचता है कि दबाकर मैं ले चलूंगा। वैसे वर्ल्ड ओपिनियन की भी फिक्र नहीं करता। दुनियावाले मेरे बारे में क्या सोचते होंगे, इसकी भी फिक्र नहीं करता। जिस समय माओ ने तिब्बत हड़प लिया, कितना शोरगुल मच गया था! किंतु उसने फिकर नहीं की। जिस समय स्टालीन ने अपनी सेनाएँ ईस्टर्न यूरोपियन कंट्रीज में डाली, वेस्टर्न डेमोक्रेसीज ने कितना उसके बारे में कहा था! लेकिन स्टालिन ने कुछ फिकर नहीं की। चिल्लाते रहे। जिस समय मुसोलनी ने कहा कि मीडिटरेनियन इज ऐन इटालियन लैक, तो यह सबको नाराज करनेवाला वाक्य था। भूमध्य सागर को कहा जाए कि वो हमारा सरोवर है। लेकिन हिम्मत के साथ कहा। फिकर नहीं की कि लीग आफ नैशन्स में उसके बारे में क्या क्या भाषण होंगे। हिम्मत के साथ सारी बातें की। तो वर्ल्ड ओपिनियन की फिकर न करते हुए चलना, यह भी एक स्ट्रैङ्थ है, पोटेन्सी है। और यह यदि न रही और वर्ल्ड ओपिनियन के बारे में चिंता करने की यदि आवश्यकता या प्रवृत्ति रही, तो फिर स्ट्रांग डिक्टेटरशिप लाने में कई कठिनाइयां आती हैं। अब आर्थिक क्षेत्र का जहाँ हम विचार कर रहे हैं आज तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि आर्थिक क्षेत्र में यदि सुधार लाना है तो इतनी ड्रास्टिक ऐक्शन तुरंत लेनी पड़ेगी जो ड्रास्टिक ऐक्शन एंटी रिच, प्रो-पुअर होगी। इस तरह की यदि ड्रास्टिक ऐक्शन नहीं ले सकते और इकानामी को संभालना है जैसे वैसे, तो इतने दिन तक जो किया वह करना पड़ेगा। वह माने फारेन लोन के भरोसे या फारेन पैसे के भरोसे अपनी इकानामी को चलाते रहना। डिक्टेटर हिटलर

यह आप समझ लीजिए कि ड्रास्टिक ऐक्शन इस तरह की लेना इस सरकार के लिए तुरंत असंभव है। पॉवर कंसोलिडेट नहीं हुई इसके कारण भी संभव नहीं, प्रवृत्तियों के कारण भी संभव नहीं, व्यक्तिगत ताल्लुकात के कारण भी यह संभव नहीं, इमिजियेटली इस तरह की कोई ड्रास्टिक इकानामिक ऐक्शन लेना, इस सरकार के लिए संभव नहीं। और इमीजियेट संकट के आगे क्या ऐक्शन लेंगे या नहीं लेंगे, उसको टाईम है। इमीजियेट संकट यहाँ अनिवार्य है; लेकिन यदि फारेन डिपेंडेंस रहता है तो संकट कभी दूर हो नहीं सकता, पैचवर्क हो सकता है। आज का दिन आया, जैसे वैसे दो समय रोज रोटी खा ली, इतना हो सकता है। इकानामिक कंडीशन में कोई स्थायी इलाज नहीं निकल सकता। पर्याप्त इलाज तो नहीं निकल सकता, तो वर्ल्ड ओपिनियन की जिन्हें फिकर करनी है उनके ऊपर आर्थिक क्षेत्र में कंपलशन आ जाता है। कंपलशन कैसे आते हैं? डिक्टेटर के नाते हिटलर का नाम प्रसिद्ध है, इसलिए उसीका उदाहरण मैं ले रहा हूँ। हिटलर ने जब सत्ता हाथ में ली तब देश गरीब था। प्राडक्शन वगैरह कुछ नहीं था, इंडस्ट्रिज नहीं थी। इंडस्ट्रियलाइजेशन करना था। उसने जगह जगह से पैसा लिया ब्रिटिश कैपिटेलिस्टों से। ब्रिटिश कैपिटेलिस्टों को पूछा कि हमारे ऊपर जो है वह हम वापिस करेंगे या नहीं करेंगे, आपको चाहिए या नहीं चाहिए?वह कर्जा ब्रिटिशों को तो वापिस चाहिए था। वह कर्जा देंगे कहाँ से? पैसा ही नहीं। तो वह कर्जा हम आपको वापिस कर सकें इतनी हमारी क्षमता बढ़ाने में आप हमारी सहायता कीजिए। तो आपका पैसा हमको दीजिए! उसके द्वारा हम इंडस्ट्रीज खड़ी करेंगे। इंडस्ट्रीज जैसी जैसी खड़ी होंगी, वैसेवैसे हम आपको आपका पैसा वापिस करेंगे। लालच में आकर पैसा दे दिया। इधर इंडस्ट्रीज खड़ी हो गई। और बाद में दुनिया क्या कहेगी इसकी फिकर न करते हुए हिटलर ने कहा कि भाई, हम तो इनसोलवेंट हैं, दिवालिया हैं। पैसा नहीं है। आपका पैसा डूब गया।

वर्ल्ड ओपिनियन की फिकर

अब यह कहने के लिए हिम्मत चाहिए। हमारी इकानामिकल दृष्टि से यदि विचार किया तो क्या यही हिम्मत होगी कि जो फॉरेन डेट (कर्जा) है उसको हिटलर के उस स्टेज पर नहीं गए तो भी दो-चार साल के लिए मरिटोरियम डिक्लेयर कर दिया? हिम्मत की बात है जो फारेन कोलेबोरेशन एग्रीमेंट हैं इनमें रेस्ट्रेक्टिव क्लाजेज हैं जो हमारी इकानामी के खिलाफ जानेवाले हैं। ये रि स्ट्रक्टिव क्लाजेज सब डिलीट करने के लिए बातें करना, नहीं तो तुम्हारा कारोबार नहीं चलने देंगे, ऐसा फारेन कंसन्स को कहने की हिम्मत है?जो फारेन बैंक यहाँ है उनका सीधा राष्ट्रीयीकरण कर लेना। क्या रिपरकेसंस उन देशों पर होगी, कोई देखने की आवश्यकता नहीं। क्या इतनी हिम्मत है? जो मल्टी नैशनल्स यहाँ है उनको यह कहना कि ऑन आवर टर्स तुम्हारे हमारे एग्रीमेंट्स होंगे। यहाँ यदि आपको उद्योग चलाना है, व्यापार चलाना है, आन आवर टर्स चलाना पड़ेगा। इस तरह डिक्टेट करने का साहस है? यह साहस उन लोगों में नहीं हो सकता जिन लोगों को उनके लोन के भरोसे ही अपनी इकानामी को सँभालना है और वर्ल्ड ओपिनियन की फिकर करना हैं। वर्ल्ड ओपिनियन की फिकर न करने की वजह से कई बातें हो सकती हैं। डिक्टेटर की ये बातें अच्छी हैं ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ। कई बातें डिक्टेटर कर सकता है, लेकिन वर्ल्ड ओपिनियन की फिकर करना है ऐसा यदि सोचा तो इनमें से एक भी बात नहीं हो सकती।

और यह बात यदि नहीं हो सकती तो हमारी इकानामी में भी सुधार नहीं हो सकता। आर्थिक संकट जो है वह निरंतर बढ़ता हुआ ही रहेगा। यह है एक असर जो वर्ल्ड ओपिनियन कि फिकर करने के कारण निर्माण होता है। इसलिए जो बड़े डिक्टेटर हो गए, स्ट्रांग डिक्टेटर हो गए, उन सबका एक कॅरेक्टरिस्टिक आप देखेंगे - चाहे मुसोलिनी, स्टालिन रहे, पँको रहे, सालाजार रहे या चाहे इधर माओ रहे या कमालपाशा रहे-हर एक को आप देखेंगे कि दे डिड नॉट केयर फॉर वर्ल्ड ओपिनियन। हाँ, उन्होंने मिलिट्री स्ट्रैटेजी का जरूर विचार किया होगा। वर्ल्ड ओपिनियन की फिकर नहीं की। वर्ल्ड ओपिनियन की फिकर करने की प्रवृत्ति रही तो उसके कारण होम अफेयर्स में भी गड़बड़ आ जाती है।

डिक्टेटर की इमेज अच्छी नहीं होती

अभी थोड़ा-सा आपको लगेगा कि भाई इसका संबंध क्या है? उन्हें तो अपना घर संभालना है। तो वर्ल्ड से क्या संबंध आता है? ऐसा नहीं। वर्ल्ड ओपिनियन की फिक्र करना इसका मतलब यह है कि जिनको यह इच्छा है कि इधर तो हम डिक्टेटरशिप चलाएँ, लेकिन हमारी इमेज अच्छी रखें। क्योंकि आखिर डिक्टेटर की इमेज अच्छी नहीं होती। दुनिया में तो हमारी इमेज अच्छी रहे, ऐसा जो सोचते हैं उनके व्यवहार पर भी कुछ नियंत्रण आ जाता है। नियंत्रण ऐसे आता है कि भाई हम डेमाक्रटिक हैं, यह एक फसाद, यह एक नाटक, चलाना ही पड़ता है। नहीं तो वर्ल्ड इमेज बिगड़ जाएगा और यदि एक बार एपियरन्स आफ डेमोक्रेटिक सेटअप देते रहना आवश्यक है। ऐसा यदि सोचा तो उसके कारण कई नियंत्रण, कई कंपलशनस डिक्टेटर पर आ जाते हैं।

लॉ एंड ऑर्डर सिच्युएशन है। विरोधी दलों के साथ व्यवहार आ रहे हैं। तरह तरह के कंपलसन हैं। लोग राजनैतिक क्षेत्र में बड़ा ग्रास थिंकिंग करते हैं ऐसा मुझे लगता है। अन्याय हुआ, अत्याचार हुआ। अब अन्याय-अत्याचार कॉमन शब्द हैं उसका आप चाहे जो अर्थ निकालें। मुझसे जबरदस्ती से पाँच रुपये ले लिए ये भी अन्याय, अत्याचार है और मेरे घर में अंगार लगा दिया यह भी अन्याय, अत्याचार है। इसमें कोई अंतर है कि नहीं?डिग्री में अंतर है। अब स्टालिन, माओ और हिटलर ने भी लोगों के खिलाफ हथियार उठाये। अंग्रेज सरकार ने भी हथियार उठाये। दोनों में अंतर था कि नहीं? अंतर था। लुई फिशर ने 'योगी और कोमीसार' विषयक एक चर्चा में बड़ा अच्छा कहा। उन्होंने कहा कि महात्माजी ने आंदोलन चलाये, तो ठीक है। और अंग्रेज अन्याय अत्याचार कर रहे हैं, ये भी ठीक है। लेकिन उन्होंने कहा कि रशिया में यदि महात्माजी होते तो रशिया भी अन्याय करता और वे आंदोलन चलाते यहाँ तक ठीक है। लेकिन रशियन साम्राज्य यदि यहाँ होता और महात्माजी यदि आंदोलन चलाते तो आज जो दृश्य दिखता है कि आंदोलन चलानेवाले को जेल में से निकालकर वाइसराय लॉर्ड इर्विन के पास लाया जाता है, और बराबरी के नाते निगोशियेन्स चलते हैं, यह दृश्य नहीं दिखता। फिर से लॉर्ड इर्विन के पास बराबरी के नाते बात करने के लिए जिंदा ही रखा नहीं जाता। तो रूस में जैसा हुआ है, इनको वहीं कत्ल किया जाता। तो अन्याय, अत्याचार दोनों जगहों पर है, लेकिन दोनों में फर्क है। इस तरह का थोड़ाथोड़ा सा विश्लेषण 'योगी और कोमीसार' में लुई फिशर ने किया है।

इस तरह का व्यवहार यहाँ करना तब तक संभव नहीं, करने की क्षमता है कि नहीं, सबको फांसी देने की क्षमता है डिक्टेटर में, लेकिन तब तक यह करना संभव नहीं, जब तक उसको महसूस होता है कि दुनिया में मेरी इमेज ऐज डेमोक्रेटिक रूलर रहनी चाहिए। यह आवश्यकता महसूस होती है, तब तक इस तरह का व्यवहार नहीं होता। ऐसे कुछ नियंत्रण आ जाते हैं, इसके कारण हम लोग देखते हैं। नहीं तो पिछले इमरजेंसी के समय वर्ल्ड ओनियन की फिक्र न करते हुए चलने का साहस यदि दिराजी में होता तब तो ये सारे लीडर्स वापस आते ही नहीं। कोई वापस आने की आवश्यकता ही नहीं। लेकिन परिस्थिति ऐसी है, पिताजी ने इनहेरिट किया हुआ यह भी एक गुण है कि दुनिया में मेरी प्रशंसा हो। इधर डिक्टेटोरियल पॉवर भी रहे। दुनिया में भी मेरी प्रशंसा हो रही और फिर वर्ल्ड लीडर के नाते भी इतिहास में मेरा स्थान कहीं न कहीं आ जाए, यह भी एक सुप्त भावना रहती है। इसके कारण होम अफेयर्स में बहुत नियंत्रण आ जाता है। अब पिछली बार आपने देखा होगा कि इमरजेंसी के रहते हुए आज मजदूर और विद्यार्थी दोनों वर्ग ऐसे माने जाते हैं कि ये यदि किसी के ज्यादा खिलाफ हो जाएँ तो इनके ऊपर दमन चलता है। तो फिर प्रोग्रेसिव कंट्री भी ऐसा समझती है कि इनको प्रोग्रेसिव्ह इनव्हरटेड कॉमा से कहा जाए। ऐसी कंट्री जो सोचती है कि यहाँ कुछ गड़बड़ है, वह रिऐक्शनरी गवर्नमेंट है।

भारतीय मजदूर संघ और इमरजैन्सी (आपात्काल)

तो जगह-जगह आपको अनुभव आया होगा कि अन्य सत्याग्रहियों के साथ होनेवाले व्यवहार और मजदूर क्षेत्र के साथ होनेवाले व्यवहार में कुछ अंतर था। मतलब अपने भारतीय मजदूर संघ और इमरजेन्सी का हमने उदाहरण लिया, तो 60 हजार लोगों से कानून का उल्लंघन किया, और गिरफ्तारी दी। परंतु छोड़ दिया और पाँच हजार लोगों को ऐक्चुअली अरेस्ट किया गया। बाद में जब हमने इन्क्वायरी की तो ये पता चला कि विद्यार्थी और मजदूरों की दृष्टि से कुल मिलाकर देश में यह नीति चलाई थी कि इनको और ज्यादा ओफेंड न किया जाए। इसी दृष्टि से यदि पचास आदमी का डीमास्ट्रेसन है तो प्रमुख दो तीन लोगों को पकड़ना और बाकी लोगों को वैसे ही रहने देना, यह पॉलिसी ली गई। इसका कारण मजदूर और विद्यार्थी दोनों सेक्शन के बारे में सो काल्ड प्रोग्रेसिव कंट्रीज में बेस्ट जो हैं उनका अपना दृष्टिकोण तय है। वे समझते हैं कि ये प्रोग्रेसिव नहीं। माने एक बार यदि वर्ल्ड ओपिनियन की चिंता करने का विचार किया जाए तो उसके कारण ये आर्थिक क्षेत्र में, उसी प्रकार अंदरूनी मामलों में तरह-तरह के कंपलशन आ जाते हैं। यानी डिक्टेटरशिप कहने मात्र से काम नहीं चलता। तफसील में जाकर यह भी देखना पड़ेगा कि क्वालिटी आफ डिक्टेटरशिप क्या है? वेरायटी आफ डिक्टेटशिप क्या है? पोटेंसी आफ डिक्टेटरशिप क्या है?

पार्टी-मशिनरी के अभाव में डिक्टेटरशिप

पार्टी-मशिनरी के अभाव में डिक्टेटरशिप का अर्थ क्या होता है?और पार्टी-मशिनरी के साथ डिक्टेटर का मतलब क्या होता है? इसके प्रैक्टिकल इम्पलीकेशन क्या है? दूसरे महायुद्ध में हमने दो डिक्टेटोरियल रेजीमस में इसका उदाहरण देखा। देखिए, दोनों पराजित हुए। हिटलर भी पराजित हुआ, मुसोलिनी भी पराजित हुआ। मुसोलिनी के बारे में यह कहना पड़ेगा कि शुरू में बिल्कुल अच्छा था। स्वयं आइडिया-लिस्ट था, लेकिन बाद में भ्रष्ट हो गया। उसके कारण केडर भी भ्रष्ट हो गई। हिटलर के बारे में यह बात नहीं थी। आखिर तक उसकी केडर थी। कुल मिलाकर नतीजा क्या हुआ? केवल एक दिशा-दर्शन के नाते मैं बता रहा हूँ। पराजय दोनों की हुई। लेकिन अलग अलग परिस्थिति में हुई। हिटलर की पराजय हुई। लेकिन किसीने विद्रोह नहीं किया। किसीने हिटलर का मुर्दाबाद नहीं कहा। अखिर तक बर्लिन में शत्रु की सेना घुस गई। तो भी बड़े बड़े वेटेरन्स अरेस्टेबल नहीं थे। तो 15-16 साल के बच्चे रायफल हाथ में लेकर रास्ते में खड़े हो गए हेल हिटलर कहते हुए उसकी जयजयकार करते हुए खड़े हो गए। ये जानते हुए भी कि हम मरनेवाले हैं। बर्लिन भी खत्म होनेवाला है। तो भी उसका जयजयकार करते हुए लड़के भी खड़े हो गए। सर्वनाश का दृश्य सामने देखते हुए भी। और इटली में दूसरा दृश्य था कि डिक्टेटर मुसोलिनी। यह बात नहीं थी कि पूरा देश उसके हाथ से निकल गया था। कुछ न कुछ हिस्सा बेस ऑफ आपरेशन के नाते उसके हाथ में था। तो भी जनता के द्वारा 'ही वाज हंटेड एंड शॉट डाउन।' विदेशियों ने उसका साथ दिया होगा, लेकिन अपनी जनता के द्वारा ही 'ही वाज शॉट डाउन'। तो बड़ा अंतर केडर रहने का और न रहने का होता है।

साधु कभी दुष्ट पुरुष और दुष्ट पुरुष साधु हो गए

केडर्स रहने, न रहने इसके कारण बहुत अंतर आ जाता है। आज इनके पास केडर नहीं, यह बात हम स्पष्ट रूप से जानते हैं। तो वर्ल्ड ओपीनियन की जिन्हें फिक्र करनी है, उनके ऊपर एक तो कंपलशन आ जाते हैं। फिनान्शियल अफेयर्स में भी आ जाते हैं। फिर ब्यूरोक्रेसी के साथ कैसे व्यवहार करना, ब्यूरोक्रेसी का इम्पलीमेंटेशन, इस पर भी उसका असर होता है। यदि पार्टी मशिनरी साथ में न रही तो ये सारी कठिनाइयां हैं और इन सब कठिनाइयों को देखते हुए केवल ग्रौस थिंकिंग करनेवाली डिक्टेटरशिप आ गई तो हम खत्म हो गए। इसकी आवश्यकता नहीं। अब कोई कहेगा कि यह सारा ठीक है। थ्योरी वगैरह सब आपने बताया यह तो ठीक है। व्यवहार में क्या डिक्टेटरशिप अत्याचार शुरू नहीं करेगी? इसके विषय में एक ज्योतिषी के अलावा कौन बता सकता है? लेकिन इतिहास में ऐसे उदाहरण हैं कि साधु कभी दुष्ट पुरुष और दुष्ट पुरुष साधु हो गए। कहा जाता है कि एवरी सैंट हैज हिज पास्ट एंड एवरी सिनर हैज हिज फ्यूचर। तो कल जो व्यक्ति थे वे आज अच्छा आचरण नहीं रखेंगे इसकी गारंटी नहीं हो सकती।

होप फॉर दि बेस्ट एंड बी प्रिपेयरड फॉर दि वर्स्ट

हो सकता है। लेकिन मान लीजिए कि जैसे अपनी हमेशा की पद्धति है, रीति है, कि होप फॉर दि बेस्ट एंड बी प्रिपेयरड फॉर दि वर्ट। तो दोनों दृष्टियों से यही विचार करते हैं कि इफ वर्स्ट कम्स टु दि वर्स्ट तो जैसा अभी कहा कि पुराना स्वानुभव ख्याल में रखते हुए अब तो डिक्टेटरशिप पॉवर हाथ में आ रहे हैं वह फिर से हाथ से खिसक न जाए इस दृष्टि से कैसी ऐप्रोचेज होगी? ऐसा सोचा जा सकता है। अपनी पॉवर कंसोलिडेट करने का प्रयास होगा। इकनामिक सिच्युएशन को कंट्रोल में लाने का पहले प्रयास होगा। इकानामिक सिच्युएशन आउट आफ हैंड जा रही है। अपनी मशिनरी पर कंट्रोल नहीं, और हाउट आफ विडिकटिवनेस, केवल बदला लेने की भावना से और 'यह दुश्मन है, उसको खत्म करो; वह दुश्मन है, उसे खत्म करो,' वाली बात याने दुश्मनों को खत्म करने का ढंग है। पहला फैज्ड प्रोग्राम लिया जाएगा। ये कॉमनसेंस में बैठनेवाली बात नहीं। यह लेना भी हो। लेगी या नहीं लेंगी, यह भगवान ही कह सकता है। लेकिन यह लेना भी हो और हम प्रिपेयर फॉर दि वर्स्ट इसके नाते सोच लेना भी हो तो उसको टाईम लगेगा। और वह टाईम कितना लगेगा? जब तक ये सारी सिचुएशन ग्रिप में नहीं आती, पकड़ में नहीं आती तब तक यह देखने से उनके लिए सर्वनाश की बात आ जाती है। तो इस दृष्टि से कुछ देर तक राह देखकर जैसे जैसे इंटरनल ग्रिप कंसोलिडेट हो जाती है, मशिनरी पर, इकानामिक सिचुएशन पर, वैसे वैसे यहाँ फिर बाकी जो विरोध और बदला लेना या अत्याचार करना है वह सारी चीजें बढ़ सकती हैं। यह बात जल्दी होना असंभव है। कुछ समय इसमें है। तो हम एकदम से अच्छे अच्छा क्या होगा इतना ही केवल विचार न करते हुए, या बुरे से बुरा क्या होगा इतना ही विचार न करते हुए, क्या क्या होगा वह देखेंगे। लेट अस वेट एण्ड वाच। इट इज नॉट ए क्वेश्चन आफ होप। बी आर कान्फिडेंट आफ आवर अल्टीमेट विक्टरी, यह तो हम हमेशा कहते हैं।

फेल्योर के लिए किसी न किसी की स्केप गौट बनाना

क्योंकि हम लोग आर्थाडेक्स हैं। बहुत प्रोग्रेसिव वगैरह नहीं हैं। तो वेट एंड वाच की पॉलिसी कुछ लेनी पड़ेगी। लेट अस नॉट रश टु दि कनक्लूजन, लेकिन एक वन-क्लूजन ऐसा भी है, जो इनइविटेबल है। किसी भी परिस्थिति में विरोधी शक्तियों के लिए घातक नीतियों को तो स्वीकार करना होगा तो भी उसमें जल्दबाजी नहीं होगी। जल्दबाजी नहीं होगी, यानी कितनी राह देखी जाएगी तो इसका भी हिसाब लगाया जा सकता है कि इंटरनल कंसोलिडेशन आर्थिक स्थिति पर काबू पाने तक तो राह देखनी पड़ेगी। इकानामिक कंडीशन को आँखों से ओझल करते हुए कोई कैंपेन शुरू नहीं किया जा सकता। इसका एक कारण है - स्पेशल काज है। हमेशा क्या होता है? जब कभी फेल्योर आ जाता है तो हर पालिटिशियन की यह स्ट्रैटेजी रहती है। इंदिरा गांधी की भी हमेशा रही है। यही नेहरूजी की भी पॉलिसी थी। फेल्योर के लिए किसी न किसी की स्केप गौट बनाना। आज परिस्थिति ऐसी है कि इकानामिक फेल्योर के लिए स्केप गौट किसी को बनाया नहीं जा सकता। विथ दिस पावर इन हैंड किसी को बनाया नहीं जा सकता। वैसे आर. एस. एस. को किसी भी बात के लिए जिम्मेदार बनाना अभी तक का उनका एक स्वभाव है। लेकिन मुश्किल की बात ऐसी है कि आर. एस. एस. को दुनिया भर की और किसी बात के लिए स्केप गौट बनाना संभव नहीं है।

इकानामिक कंडीशन का एक क्षेत्र ऐसा है कि उसके लिए संघ को स्केप गौट बनाया नहीं जा सकता। माने इस समय संघ उनको सहारा नहीं दे सकता। तो इस दृष्टि से इसमें देर लगनेवाली है। यदि ऐसा भी हो जाता कि इकनामिक कंडीशन बिगड़ गई कहकर यह कहना कि यह सब संघवालों के कारण हुआ, तो एक स्केप गौट मिल जाता। अगला कदम उठाने में वो फिर हिचकिचाहट नहीं करतीं। तो इसमें टाईम लगेगा। क्योंकि स्केप गौट इज नॉट एवेलेबल। जो एवलेबल है, वो पिक्चर में नहीं रहा तो इसके कारण थोड़ा समय लगेगा। अब समय लगेगा इसके कारण वो आघात नहीं करेगी।

हम रेसपान्सिव को - ऑपरेशनवाले हैं

अंग्रेजी में एक कहावत है cross the bridge when we reach it माने जो जा रहे हैं और सोच रहे हैं कि वह लम्बा ब्रिज है, भई कैसे क्रॉस करेंगे? माने ब्रीज तो दस मील दूर है, लेकिन वो अभी से चिंतामग्न हो गए कि इस ब्रिज को कैसे क्रॉस करेंगे? फिर वह पटरियाँ कहाँ रहेगी? कोई पकड़ने के लिए सहारा रहेगा या न रहेगा? तो दूसरा आदमी कहता है कि भई, Let us cross the bridge when we reach it जब वहाँ पहुँचेंगे तो सोचेंगे कैसा पार करना। इसका मतलब भविष्य के बारे में विचार नहीं करना ऐसा नहीं है। जितना विचार किया जा सकता है उतना करना चाहिए। लेकिन भविष्य के बारे में केवल चिंता ही करते रहना यह भी बात बराबर नहीं। तो जितना प्रेडिक्ट किया जा सकता है उतना करते हुए अगला कदम उठाया जा सकता है। इफ वर्स्ट कम्स टु दि वर्स्ट - जितनी लोकतंत्रवादी शक्तियाँ हैं, उनके ऊपर आघात करने का उन्होंने सोचा, तो भी उसमें कुछ टाईम है। कितना टाईम है यह अपने अपने स्थान की परिस्थितियों को देखकर समझ सकते हैं। और प्रिप्रेयर फॉर दि वर्स्ट के नाते सोचना है कि जो समय मिलनेवाला है - परिस्थिति के कारण - उस समय के अंदर ज्यादा से ज्यादा हम अपनी संघटनात्मक शक्ति कैसे बढ़ा सकते हैं? और यह संघटनात्मक शक्ति बढ़ाते हुए यदि उनके मन में योग्य परिवर्तन हुआ, राजर्षि के समान उन्होंने व्यवहार शुरू किया - पता नहीं भगवान किसको क्या बुद्धि देगा, तो उनके साथ को-ऑपरेशन करेंगे। क्योंकि हम रेसपान्सिव को - ऑपरेशनवाले हैं। राजनीतिक दल थोड़े ही हैं? अच्छा व्यवहार रहा तो उसके साथ को - ऑपरेशन करने के लिए भी तैयार हैं।

अपना संघटनात्मक कार्य बढ़ाएँ

राष्ट्र के नाते ज्यादा शक्ति की आवश्यकता है। यदि दुर्व्यवहार रहा तो उसका मुकाबला करने के लिए भी ज्यादा शक्ति की आवश्यकता है। माने सहयोग के लिए ज्यादा शक्ति चाहिए यदि सहयोग इफेक्टिव होना हो और संघर्ष के लिए भी ज्यादा शक्ति चाहिए, यदि संघर्ष इफेक्टिवली करना हो। जितना हमें परिस्थितियों के कारण अपरिहार्य रूप से समय मिलनेवाला है, उस समय में ज्यादा से ज्यादा तेजी के साथ हम अपना संघटनात्मक कार्य बढ़ाएँ। यह एक बात हम तय कर सकते हैं। हां, एक बात साथ साथ मैं बता दूं कि जो उनका भी स्वभाव है, और जो हर एक डिक्टेटर का स्वभाव हो सकता है कि ये बीच में का समय हमारे लिए एकदम निर्विघ्न रहेगा, ऐसा समझने की आवश्यकता नहीं। आघात नहीं होगा, लेकिन पीपल बिल बी केप्ट ऑन दीयर टोज फॉर इफ पीपुल आर नाट केप्ट आन दीयर टोज, तो फिर अननीसेसरी झंझट खड़ी हो सकती है। तो उसके कारण कुछ तकलीफ तो होगी। तकलीफ का जो ढंग है वह अलग प्रकार का रहेगा। जैसे कोई धातु है, और उसको काटना है तो हथौड़ी मारकर भी काटा जा सकता है, वह काटने का, तोड़ने का एक ढंग हुआ। और दूसरा है सैंड पेपर-उसको घिसते हैं। अब सैंड पेपर घिसते-घिसते बहुत घिसा जाए तो आगे घिसा भी नहीं जाता। लेकिन वह धातु बेचारा स्वस्थचित्त से बैठ भी नहीं सकता। कुछ न कुछ तकलीफ उसको चलती ही रहती है। तो इस तरह का यह जो सैंड पेपर का प्रयोग सबके लिए किया जाएगा। और इस ढंग से किया जाएगा कि एकदम से कोई विद्रोह न हो। लेकिन आपको एकदम स्वस्थ चित्त से रखा जाएगा, ऐसी भी बात नहीं।

अपने प्रयत्नों का केंद्रीकरण करें

और जो समय मिलनेवाला है और यदि उस समय में हमने भी ज्यादा तैयारी नहीं की - संघटनात्मक और यदि आवश्यकता हुई मुकाबला करने की तो क्या असुविधा होगी? यह जानते हुए, वैसे भी हम अपना काम बढ़ा ही रहे थे। वैसे ही अपना काम बढ़ा रहे हैं। वैसी भी अपने काम में वृद्धि हो रही थी। उसमें भी गति थी, एक स्पीड थी। लेकिन उसको ज्यादा ऐक्सीलिरेट करना पड़ेगा। ज्यादा एक्सपिडाइट करना पड़ेगा। तो ज्यादा समय, ज्यादा शक्ति हर एक अपना कार्यकर्ता अपने भारतीय मजदूर संघ से कार्य में डाले, माने परिस्थिति जैसे आएगी वैसे उसको हम समझ सकेंगे। वी शेल टेक इट इन अवर स्ट्राइड चिंता की बात नहीं। वी शैल टेक इट इन अवर स्ट्राइड और एक बार वी हैव टेकेन दि होल थिंग इन 'ए स्ट्राइड, कोई चिंता की बात नहीं। किंतु बुद्धिमानी के नाते एक स्ट्रैटेजी के नाते यह जो हमें समय उपलब्ध होनेवाला है, उसके बीच में हम अपनी पोजीशन ज्यादा से ज्यादा स्ट्रांग करने की दृष्टि से कसेंट्रेसन आफ एफर्टस् करें, अपने प्रयत्नों का केंद्रीकरण करें। इतना ही कहना इस समय पर्याप्त है।

पंचम सत्र

कुशल संगठनकर्ता : आदर्शवादी जीवन मूल्य

अपने देश में और देश के बाहर भी कुछ लोग ऐसे हुए हैं जिन्हें इतिहास में कुशल संघटक कहा गया है। ऐसे लोगों में एक नाम मुहम्मद पैगंबर साहब का भी आता है। उनके जीवन की एक घटना है। उनके यहाँ भी परिवार में असंतोष रहता था। असंतोष का कारण उनका अपने लिए कुछ भी एकत्रित कर नहीं रखने का स्वभाव था। जब कभी लड़ाई हो जाती थी, जीत भी हो जाती थी। जो संपत्ति मिलती थी, उसे सरदार आपस में बाँट लेते थे। मुहम्मदसाहब उसमें अपना हिस्सा कुछ नहीं लेते थे। इस कारण वे गरीब थे। उनके सरदार उनकी तुलना में धनी थे। गरीबी इतनी थी कि रात के समय दीया भी नहीं जला सकते थे। इसलिए ऐसा ही भोजन रखते थे जो अंधेरे में किया जा सके। जैसे खजूर है। ऐसी कई बातें थीं। इनके कारण परिवार में असंतोष था।

मुहम्मद साहब ने कहा

बाद में उनके जीवन की सबसे बड़ी पहली यशस्वी लड़ाई हुई, जिसको बैटल ऑफ बद्र (Battle of Badr) कहा जाता है। इस लड़ाई में विजय प्राप्त हुई और लूट भी काफी प्राप्त हुई। उसे देखकर उनकी पत्नियों में चर्चा हुई कि हमेशा ये अपना हिस्सा नहीं ले रहे हैं। लेकिन कम से कम अब तो एक बार उनको कहा जाए कि कम से कम एक बार तो वह अपना हिस्सा ले। माने हम लोगों को पारिवारिक सुविधा होगी। इसलिए उनकी जो सबसे प्रिय पत्नी आएशा थी उसके नेतृत्व में उनकी पत्नियाँ उनसे मिलीं, और उनसे कहा कि इस बार आप अपना हिस्सा लूट में से ले लीजिए। तो मुहम्मदसाहब ने कहा कि एक हिस्सा लेने की क्या बात है, जितनी संपत्ति है, वह सारी मैं अपने पास रख लूँ तो भी कोई आपत्ति उठानेवाला नहीं। मैं अपना हिस्सा ले लेता हूँ। पूरी संपत्ति ले लेता हूँ। आपके जिम्मे दे देता हूँ। आप आपस में बँटवारा कर सकती हैं। केवल एक शर्त है, कि एक बार मैंने यह सारी संपत्ति उठा ली, आपको दे दी, आपने आपस में बाँट ली, तो उसके बाद "पैगंबर की मैं पत्नी हूँ" ऐसा कहने का अधिकार आपमें से किसी को भी नहीं रहेगा। जैसे ही यह कहा तो वे सब असमंजस में आ गयीं। थोड़ा विचार किया, और कहा, कि नहीं। हमें संपत्ति नहीं चाहिए। हम हमारी जो माँग थी वह वापिस लेते हैं।

जीवनमूल्य

अब यह छोटा-सा उदाहरण जिन्हें संघटन करना है, बड़ा काम करना है उनके लिए विचार की अच्छी प्रेरणा दे सकता है। ऐसा लगता है कि संसार में अलग अलग तरह के जीवनमूल्य हैं, और उनमें से कार्यकर्ताओं को अपने लिए कौनसा जीवनमूल्य स्वीकार करना चाहिए यह एक सोचने की बात है। हमेशा ही सोचने की बात है। आज की ही बात नहीं। लेकिन आज की परिस्थिति में तो विशेष रूप से है क्यों कि आज हमारे सार्वजनिक जीवन में कुछ अलग प्रकारके मापदंड ही प्रभावी हैं। विशेष रूप से राजनैतिक क्षेत्र में इस बात की होड़ लगी है कि ज्यादा से ज्यादा ऊंचा ओहदा कौन प्राप्त कर सकता है? बड़ी पोजिशन कौन प्राप्त कर सकता है? ओर चालाकी करते हुए कई प्रकार के ऊँचे नीचे हथकंडे अपनाते हुए, जो ऊँचा पद ज्यादा संपत्ति प्राप्त करेगा, उसीको आजकल व्यवहारचतुर माना जाता है। किंतु ऐसा दिखता है कि जिन्होंने कुछ काम खड़ा करके दिखाया, उनपर एक अलग प्रकार का पागलपन ही सवार था। उनके अंदर यह व्यवहारचातुर्य नहीं था।

व्यवहारचतुर कहे जानेवाले लोगों के अपने मापदंड हैं, उसी प्रकार जिनपर पागलपन सवार होता है उनके भी जीवनमूल्य हैं। दुनिया जिसे पागलपन कहती है उसे लेकर जो काम कर रहे हैं, वे बड़प्पन को, जीवन की सार्थकता को दूसरे ढंग से देखते हैं। नेपोलियन जब आदर्शवाद खो बैठे, पोजिशन के पीछे लगे और फलस्वरूप उनकी विचार पद्धति में परिवर्तन हुआ, तो उन्होंने एक बात कही जो बहुत प्रसिद्ध है। और शायद उसीका अनुकरण आज हमारे सार्वजनिक क्षेत्र में हो रहा है। उन्होंने कहा कि "Men are like Figures. They are valued according to the position they occupy". याने जो व्यक्ति है वह आँकड़ों के समान हैं। कौन सी पोजिशन वह आक्युपाय करते हैं इसपर उनका बड़प्पन, greatness अवलंबित है। और उन्होंने उदाहरण दिया 1111 का 1111 में चार बार 1 आता है। लेकिन हर एक का मूल्य अल अलग है। आखिर में जो आता है उसका मूल्य एक है। Last but one का दस है। उसके पीछे जो है उसकः सौ है। उसके पीछे है उसका हजार। तो intrinsic worth जो है वह सबकी एक ही है। लेकिन पोजिशन के बदल जाते ही एक की पोजिशन एक, एक की कीमत दस, एक की कीमत सौ, एक की कीमत हजार हो गई। तो उन्होंने कहा कि एक ही व्यक्ति ऊँच पोजिशन पर जाएगा तो उसका बड़प्पन बढ़ेगा।

राजाप्रसाद के शिखरपर बैठा कौवा गरुड नहीं बन सकता

हमारे यहाँ उलटा कहा गया है। हमारे यहाँ कहा गया है कि, "प्रासादशिखरस्थोऽपि काको न गरुडायते"। गरुड है और कौवा है। अब गरुड जमीनपर बैठा या पेड़पर बैठा है, और कौवा राजप्रासाद के शिखरपर जाकर बैठा है तो भी हमारे यहाँ कहा गया कि, राजप्रासाद के शिखरपर बैठा, कौवा गरुड नहीं बन सकता। तो केवल पोजिशन के आधारपर बड़प्पन नहीं। बड़प्पन एक intrinsic worth है, अंतर्गत मूल्य है। ऐसी धारणा अपने यहाँ रही। अब ये दो अलग अलग विचार के ढंग हैं। इसके कारण दो अलग अलग आचार, व्यवहार हम इतिहास में देखते हैं। अब अपने यहाँ पिछले दिनों में कुर्सी की लड़ाई कितनी चली आप सब लोग जानते हैं। बड़प्पन का अर्थ ही जिन्होंने "कुर्सी" लगाया उन्होंने कुर्सी से चिपके रहने में अपने जीवन की सार्थकता आँकी। लेकिन यदि हम इतिहास के कुछ उदाहरण देखें तो सत्य इसके विपरीत नजर आता है।

अमरीका का स्वातंत्र्यसंग्राम

आज जो देश दुनिया के संपन्न राष्ट्र के नाते गिने जाते हैं उनमें एक है अमरीका। अमरीका के founding fathers में बड़ा स्थान जॉर्ज वॉशिंग्टन का रहा है। उनके जीवन में एक घटना ऐसी आती है कि अमरीका का स्वातंत्र्य संग्राम अंग्रेजों के खिलाफ वॉशिंग्टन के नेतृत्व में लगभग समाप्त होता आया था। अब वॉशिंग्टन लड़ाई जीत जाएँगे यह दिखता था। जैसे इधर लड़ाई जीतने की संभावना दिखने लगी, वैसे राजनैतिक सूत्र-संचालकों के मन में एक ईर्ष्या यानी जलन पैदा हुई। उन्होंने सोचा कि, अरे! हमने इसको कमांडर-इन-चीफ के नाते नियुक्त किया; लेकिन आज जनता के सामने हमारा नाम तो नहीं आ रहा, इसीका नाम आ रहा है। कहीं यही बाजी न मार ले जाए। आगे चलकर इसीके हाथ में सत्ता न चली जाए। तो इसकी popularity कम करने के लिए क्या किया जाए? इस दृष्टि से छोटा मन रखते हुए उन्होंने वाशिंग्टन के युद्ध प्रयत्नों को sabotage करना शुरू किया। वास्तव में देश का स्वातंत्र्य संग्राम है। जितना जल्दी और अच्छी तरह से समाप्त हो सकता है उतना करना चाहिए। यह बड़ा विचार उन्होंने नहीं किया।

इसकी popularity न बढ़े, इस दृष्टि से sabotage ढंग क्या था? तो सिपाहियों के लिए जो सामान ये मँगवाया जाता था जूते हैं, कपड़े हैं, अनाज हैं - तो यह सामान भेजने में देर करना। देर हो जाएगी तो फिर लड़ाई जीतने में भी देर होगी। इसके खिलाफ सिपाहियों में असंतोष भी होगा। उन्होंने इस तरह से सप्लाई में देर करना शुरू किया। किंतु सिपाहियों को यह खबर लग गई कि राजनैतिक नेता यह गंदा काम कर रहे हैं। घोर असंतोष सेना में हुआ। उनके नेताओं ने आपस में कुछ चर्चा की और वे वॉशिंग्टन के पास पहुँचे। वॉशिंग्टन से कहा कि ये जो राजनैतिक नेता हैं, बड़े गंदे हैं। देश की चिंता नहीं। अपनी व्यक्तिगत पोजिशनका विचार कर रहे हैं। अब लड़ाई तो समाप्त होनेवाली है। हम जीतनेवाले हैं। लेकिन क्या लड़ाई समाप्त होने के बाद इनके हाथ में हम देश का कारोबार सौंप देंगे? ऐसे गद्दार लोगों के हाथ में क्या बागडोर देंगे? यह अच्छा नहीं होगा। तो जैसे ही लड़ाई समाप्त हो जाएगी आप देश का कारोबार हाथ में ले लीजिए। आज देश में सेना के अलावा दूसरा कोई भी शक्तिकेंद्र Rival Power Centre नहीं है। आपने यदि सोचा तो आपका विरोध करने के लिए कोई भी खड़ा नहीं हो सकता। आप सारी सत्ता हाथ में ले लीजिए। हम आपके साथ हैं। सेना आपके साथ है। ऐसा उन्होंने कहा। अब कितना अच्छा मौका था।

किंतु वॉशिंग्टन ने कहा

वास्तव में उस समय अमरीका में दूसरा कोई शक्ति केंद्र - Rival Power Centre नहीं था। किंतु वॉशिंग्टन ने कहा कि, नहीं, ऐसा नहीं। ये अपने सिद्धांत के अनुकूल बात नहीं होगी। उन्होंने इस सुझाव को अमान्य कर दिया और आगे चलकर एक Constitution Committee एपाइण्ट की। बाकायदा चुनाव कराया। अब यह बात अलग है कि उन चुनावों में प्रेसिडेंट के नाते First President वॉशिंगटन को जनता ने चुन लिया। लेकिन चुनाव का झंझट न करते हुए सीधे हाथ में सत्ता लेने का एक मौका था। यह मौका उन्होंने स्वयं छोड़ दिया। आज जो हमारे सार्वजनिक क्षेत्र में जीवनमूल्य हैं उनको देखा, तो यह एक पागलपन की ही बात उन्होंने की, ऐसा कहना होगा। जिन्होंने कुछ बड़ा काम किया है ऐसे लोगों के जीवन में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो आज के हमारे सार्वजनिक जीवन में पागलपन जैसे लग सकते हैं।

इटली का राष्ट्रपिता

इटली का बड़ा अच्छा उदाहरण इस दृष्टि से हमारे सामने है। इटली ऑस्ट्रियन साम्राज्य के अन्डर था। उस समय लोगों में इटालियन राष्ट्रीयत्व की भावना जागृत करना, जागृत लोगों का संगठन करना, साम्राज्य के खिलाफ लड़ने के लिए लोगों को प्रवृत्त करना यह सारा काम जोसेफ मैजिनी ने किया। उसको 'इटली का राष्ट्रपिता' कहा जाता है। तो सारा संगठन उन्होंने खड़ा किया। जागृति उन्होंने दी। लेकिन फिर मौका ऐसा आया कि प्रत्यक्ष लड़ाई ऑस्ट्रिया के साथ करने की स्थिति पैदा हो गई। यह लड़ाई का जब मौका आया, तब उन्होंने अपने सब साथियों से कहा कि, ठीक है कि मैं आपका नेता हूँ ऐसा आप मानते हैं। लेकिन अब जो मौका है वह लड़ाई का है। इस समय नेता के नाते ऐसा ही व्यक्ति होना चाहिए जो लड़ाई का तंत्र जानता हो। मैं वह तंत्र नहीं जानता हूँ। और कुछ काम मैं अच्छी तरह से कर सकता हूँ। लेकिन लड़ाई का जो तंत्र है वह मैं नहीं जातना। वह तो गॅरिबाल्डी जानता है। तो हम सबको गॅरिबाल्डी को इस समय अपना नेता इस नाते स्वीकार करना चाहिए। इतना ही नहीं, जिस गॅरिबाल्डी को इतनी लोकप्रियता उस समय प्राप्त नहीं थी, उसको अपना नेता बनाया और स्वयं गणवेष पहनकर, हाथ में राइफिल लेकर, एक सिपाही के नाते गॅरिबाल्डी की कमांड के अंडर जोसेफ मॅझिनी खड़े हो गए। क्या, हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारी आजकी जो सायकॉलॉजी सार्वजनिक जीवन की है, उसमें आज का कोई नेता इस तरह का व्यवहार कर सकता है?

मैं तो घर जा रहा हूँ

गॅरिबाल्डी ने लड़ाई की। शत्रुको परास्त किया। रोम को जीत लिया। रोममें विजय प्रवेश किया। जैसे पहले से तय हुआ था, पिडमांट के (Pidmant) विक्टर इमॅन्युअल को गद्दीपर बिठाया, राज्याभिषेक कराया। और राज्याभिषेक के पश्चात अब नई सरकार कैसी बनाना इसकी जब चर्चा चली, तो गॅरिबाल्डी ने कहा कि मैं छुट्टी माँगने को आया हूँ। विक्टर इमॅन्युअल को बड़ा आश्चर्य हुआ, कि जितनी विजय हुई है, वह सारी इसीके कारण हुई है, और यह कह रहा है कि मैं तो घर जा रहा हूँ। गॅरिबाल्डी ने कहा, कि यह आप ठीक कहते हैं कि अब तक का काम था वह लड़ाई का काम था। वह मैं जानता था। इसलिए मैंने किया। इसके पश्चात जो काम आनेवाला है वह राजनीति का काम है। कूटनीति का, डिप्लामसी (Diplomacy) का काम है। उसमें मेरी गति नहीं। उस दृष्टि से इटली का नेतृतव अब आपके जो प्रधानमंत्री 'कैहूर' हैं, वे ही कर सकते हैं। आप उनके हाथ में शासन की बागडोर दे दीजिए। मैं अपने गाँव कॅपरी में खेती करने के लिए (उनकी कॅप्री नाम का एक छोटासा द्वीप था, वहाँ खेती थी) जाता हूँ। मुझे छुट्टी दे दीजिए। उन्होंने छुट्टी ली और खेती पर चले भी गए। याने सारी विजय इन्होंने संपादन की। परंतु देश के व्यापक हित में आगे की जिम्मेदारी के लिए कहा कि, अभी जिन गुणों की आवश्यकता है वे गुण अलग हैं। वे मेरे अंदर नहीं। दूसरों के अंदर हैं। उनको नेता बना दीजिए। और स्वयं निर्मोह अपने गाँव वापिस चले गए।

श्रेष्ठतम जीवनमूल्यों की आराधना

क्या हम ऐसी कल्पना कर सकते हैं कि हमारे देश में आज यह हो सकता है? मैं 'आज' इस शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ कि हमारा सारा इतिहास आज जैसा नहीं रहा है। वास्तव में श्रेष्ठतम जीवनमूल्यों की आराधना की हमारी परम्परा है। कितने ही उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए एक प्रसंग बताते हैं। पांडव बनबास में थे। माता कुंती के हाथ से कुछ अच्छा काम हुआ होगा। भगवान प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि वर मांग लो। वस्तुतः इनके सामने पहला सवाल यही था कि राज्य कैसे प्राप्त हो सकता है? स्वाभाविक ही कुंती चाहती तो सीधे वरदान माँग लेती। लेकिन जो उन्होंने माँगा वह बड़ा आश्चर्यजनक था। उन्होंने कहा कि, "विपदः सन्तु नः शश्रद् यासु संकीर्तने हरिः"। हमारे ऊपर हमेशा आपत्तियाँ रहें ताकि तुम्हारा स्मरण हमें हमेशा होता रहे। जब राज्य प्राप्त करने के चक्कर में सब पड़े हुए हैं, उस समय इस तरह का वरदान माँगना और जब युद्ध समाप्त हुआ, जीत हुई, राज्य प्राप्त हुआ, तो उस समय की घटना बताते हैं कि धृतराष्ट्र बनवास में जाने के लिए निकले। पांडवों ने रुकने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने माना नहीं। उन्होंने कहा कि, अब मैं भी बनवास में जाऊँगा। उनके साथ जाने के लिए कुंती भी तैयार हुई।

धर्मपालन के लिए राज्यप्राप्ति आवश्यक थी

पांडवों ने कहा कि, माँ, तुमने आग्रह किया इसलिए हमने यह युद्ध लड़ा। अब राज्य प्राप्त होने के पश्चात तुम जा रही हो। तो कुंती माता ने कहा कि, मैंने राज्य प्राप्त करने का तुमको आदेश दिया वह इसलिए नहीं कि हम लोग राज्य का उपभोग करें, बल्कि इस लिए कि तुम क्षत्रिय हो। तुम्हारा कर्तव्य है अन्याय का प्रतिकार करना। धर्मपालन के लिए राज्यप्राप्ति आवश्यक थी। वह मैंने तुम्हें बताया। अब धर्म का आदेश मुझे है कि जब मेरे देवर वनवास जाने के लिए निकलेंगे, तो उनकी सेवा में मैं भी वनवास ही स्वीकार कर लूँ। मेरा धर्म मुझे यही बताता है। इसलिए मैं अभी वनवास जा रही हूँ।

आदर्शवादी जीवनमूल्य

याने सारा प्रयास करते हुए राज्य प्राप्त करने के बाद जंगल में जाने की बात सोचना यह एक आदर्शवादी जीवनमूल्य उनके जीवन में हमें दिखाई देता है।

पुराने इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं। भरत का है, चाणक्य का है। कितने ही उदाहरण हैं। किंतु कोई सोचेगा कि ये केवल पुराने उदाहरण हैं। हमारे नये इतिहास में ऐसे उदाहरण नहीं, सो नहीं। यह जो स्वयं अपनी ओर से नेतृत्व छोड़ने की बात है। उसकी अभी अभी से इतिहास में कुछ घटनाएँ मिलती हैं। लोकमान्य तिलकजी 1916 के पश्चात एक तरह से संपूर्ण देश के नेता थे। सब लोग उन्हींको मानते थे। और उस समय महात्माजी दक्षिण आफ्रिका से हिंदुस्थान में आए। दक्षिण आफ्रिका में उन्होंने जो सत्याग्रह किया था उसकी बड़ी चर्चा थी। और शांतिपूर्ण असहयोग का जो उनका प्रयोग है वह प्रयोग काँग्रेस ने भी करके देखना चाहिए, यह एक विचार काँग्रेस के लोगों के मन में आ रहा था। तिलकजी ने जब देखा कि शायद काँग्रेस इस तरह का आंदोलन छेड़ने का विचार कर सकती है, तो उन्होंने गांधीजी से कहा कि ठीक है, ये लोग मेरा मानते हैं। मैं नेता हूँ। किंतु यदि यही निर्णय हुआ कि, आपके ढंगसे आंदोलन चलाना, तो इसका जो तंत्र है, वह मैं नहीं जानता, आप जानते हैं। तो उसका नेतृत्व आपको करना होगा। ऐसा तिलकजी ने कहा। यह बात ठीक है कि उसके बाद उनकी मृत्यु हुई। किंतु उनकी बात से यह स्पष्ट होता है कि यदि उनकी मृत्यु न हुई होती तो एक सिपाही के नाते वह गांधीजी के नेतृत्व में खड़े होने की मानसिक तैयारी रखते थे।

गांधीजी के भी जीवन में ऐसा उदाहरण आता है

गांधीजी के भी जीवन में ऐसा उदाहरण आता है। जो आज के राजनैतिक वायुमंडल के परिप्रेक्ष्य में बड़ा ही उद्बोधक है। 1924 में बेलगाँव काँग्रेस की उन्होंने अध्यक्षता की। जीवन में एक ही बार यह बड़ा सम्मान उन्होंने ले लिया। उस समय चर्चा चल रही थी कि कौन्सिल में जाना या नहीं जाना। गांधीजी इस मत के थे कि नहीं जाना चाहिए। और जो इस मत के थे कि जाना चाहिए, उन्होंने एक अलग, काँग्रेस के अंतर्गत, ग्रुप तैयार किया था, जिसका नाम था 'स्वराज्य पार्टी'। 'स्वराज्य पार्टी' का नेतृत्व बॅ. चित्तरंजनदास, मोतीलाल नेहरू आदि कर रहे थे। ऑल इंडिया काँग्रेस कमिटी की जब मीटिंग हुई तो उस समय गांधीजी का विचार बहुमत में था। छह महीनों तक गांधीजी ने जब दौरा किया, लोगों के साथ बातचीत की, तो उनको दिखाई दिया, कि यद्यपि काँग्रेस सेशन के समय उनका विचार बहुमत में था, तो भी धीरे धीरी लोगों की वृत्ति में परिवर्तन आ रहा था। और अब लोगों को ऐसा लग रहा है कि कौन्सिल में एक बार जाकर देखना ही चाहिए कि उसका भी उपयोग क्या हो सकता है? अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्यों के मन में यह विचार-परिवर्तन आ रहा है इस बात का पता और किसी को नहीं था। क्यों कि अलग अलग लोग अपने अपने स्थानपर विचार कर रहे थे। स्वराज्य पार्टी के लोगों को भी इस बात का पता नहीं था, लेकिन गांधीजी को पता जरूर था। यह पता होने के पश्चात उन्हें लगा कि, मेरा कुछ नैतिक कर्तव्य है।

काँग्रेस की अध्यक्षता

तो जुलाई महीने में उन्होंने स्वराज्य पार्टी के उस समय के जो नेता थे - क्योंकि चित्तरंजनदास की तो मृत्यु हो चुकी थी - -मोतीलालजी नेहरू - उनको एक पत्र लिखा और उस पत्र में कहा कि आप शायद जानते नहीं हैं कि A.I.C.C. में उस समय तो मेरा बहुमत था। लेकिन अब मेरा बहुमत नहीं रहा। अब वह बहुमत आपके ही विचार को पसंद कर रहा है। इस दृष्टि से मैं त्यागपत्र दे रहा हूँ। आप काँग्रेस की अध्यक्षता स्वीकार कर लीजिए। इस तरह का एक पत्र महात्माजी ने लिखा। याने जनता को भी मालूम नहीं था कि विचार परिवर्तन हुआ है। स्वराज्य पार्टी को और मोतीलालजी को भी पता नहीं था कि वास्तव में उनका बहुमत हो रहा है। केवल गांधीजी को ही पता था। किंतु पता चलने के पश्चात स्वयं होकर (और उन दिनों काँग्रेस का अध्यक्षपद सार्वजनिक क्षेत्र में उतना ही महत्त्वपूर्ण माना जाता था जितनी Prime Ministership आज मानी जाती है।) इतना महत्त्वपूर्ण पद छोड़ना इसकी कल्पना करना आज के जीवन में कुछ कठिन हो जाता है।

हमारे सोचने का ढंग

ऐसा लगता है कि, आदर्शवादी जीवनमूल्य जिनके हैं वे अलग ढंग से सोचते हैं। और केवल व्यक्तिवादी 'personal ambition' मेरा बड़प्पन, मेरा गौरव, मेरा नाम, ऐसा जिनका विचार है वे कुछ अलग ढंग से चलते हैं। हम लोग भारतीय मजदूर संघ के सामूहिक नेतृत्व के नाते जब यहाँ इकट्ठा हुए हैं, तो जीवनमूल्य हमारे क्या होने चाहिए? और उसके मुताबिक हमारा व्यवहार क्या होना चाहिए, सोचने का ढंग क्या होना चाहिए इसके बारे में बारीकी से सोचें यह आवश्यक हो जाता है। क्यों कि यहाँ जो हम लोग बैठे हैं, हम सब मिलकर ही मजदूर क्षेत्र का सामूहिक नेतृत्व करनेवाले हैं। हमारे नेतृत्व की जो quality रहेगी उसका असर हमारे क्षेत्र पर और देश पर होने वाला है। हमारे सोचने का ढंग क्या रहे? विचार का ढंग क्या रहे? भावना हमारी कैसी रहे? इसका बहुत महत्त्व है। आज हम 'नेतृत्व' के बारे में जब सोचते हैं तो राजनैतिक क्षेत्र में 'नेताजी' शब्द बड़ा प्रचलित हो गया है। कई लोगों को 'नेताजी' यह उपाधि प्राप्त हो गई है। सुभाषचंद्र बोस को यह उपाधि प्राप्त करने के लिए आत्म-बलिदान करना पड़ा। आज वैसा कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। आप आसानी से नेताजी बन सकते हैं! और जब नेताजी बन सकते हैं, तो नेता का व्यवहार कैसा रहना चाहिए यह भी एक pattern आज तय हुआ है।

देश की सेवा करनी है

हर एक व्यक्ति नेता बनने की कोशिश कर रहा है। और नेता का व्यवहार कैसा होना चाहिए यह pattern भी तय हो चुका है। नेता याने वह है जो कमांड command करता है। लोगों को आदेश देता है। स्वयं काम नहीं करेगा। लोगों को आदेश देगा। मीटिंग है तो दरिया उठाने का काम नहीं करेगा। भाषण देने के लिए आएगा। एक pattern लोगों का तय हुआ है। बाहर निकलेगा। सीना तानकर, गर्दन ऊँची करते हुए किसी ने प्रणाम किया तो उसको पूरा प्रणाम नहीं करेगा। जरा यों गर्दन झुकाकर प्रणाम का स्वीकार करेगा। याने 'मैं कुछ हूँ। मैं कम नहीं हूँ। मैं तुम्हारा नेता हूँ।' यह complex लेकर चलनेवाले नेताओं की बड़ी फसल आज हिंदुस्थान में आ रही है। नये नये लोग भी जो राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं। उनके ऊपर यह संस्कार नहीं है कि देश की सेवा करनी है। उनके ऊपर यही संस्कार है, कि यह जो बुड्ढे लोग हैं, उनके अंदर कौनसी बड़ी qualifications हैं? हम क्या कम हैं? यही संस्कार उनके ऊपर हो रहा है। अब ऐसे वायुमंडल में हमारा व्यवहार, हमारा विचार और भावना का ढंग यदि 'नेताजी' का ही रहा तो क्या हम कोई बड़ा काम कर सकेंगे? आज के नेता कहलानेवाले लोगों का व्यवहार जरा देखिए। और जिनके आदर्शवादी जीवनमूल्य थे, इस तरह के लोगों के व्यवहार के साथ जरा तुलना कीजिए, इसका थोड़ासा दर्शन लीजिए। दिखेगा कि व्यवहार बिलकुल अलग ढंग का था, जो आज के नेताओं के व्यवहार से मेल नहीं खाता। अभी जब चुनाव वगैरह की चर्चा हुई, जगह जगह से रिपोर्ट आई तो लोगों ने कहा कि इस चुनाव में एक बड़ा विचित्र दृश्य दिखाई दिया।

तिलकजी चूल्हा जला रहे थे

इसके पूर्व तो कार्यकर्ता छोटा छोटा काम करते थे। वोटर्स का नाम लिखना और फिर चिठियाँ बाँटना, दरियाँ उठाना, कुर्सियाँ उठाना। इस समय तो ऐसा है कि जो कार्यकर्ता के नाते आते हैं वह नेता बन जाते हैं। General Management and Supervision सभी को प्रिय है। जो प्रत्यक्ष फील्ड वर्क है, छोटा दिखनेवाला काम है, वह कौन करेगा इसकी फिक्र नहीं। तो हमने कहा कि भाई, आपने जो बीज बोये हैं उसीका यह फल है। लेकिन आदर्शवादी जीवनमूल्य रखनेवाले लोगों का व्यवहार, उनके जीवन की छोटी छोटी घटनाओं से हमारे सामने किस तरह आता है? मैंने तिलकजी का उदाहरण दिया। तो एक बिलकुल छोटी घटना उनके जीवन में ऐसी बताई जाती है, कि 1916 लखनऊ में काँग्रेस थी। अब महाराष्ट्र और दक्षिण से भी उसमें प्रतिनिधी गए थे। चर्चा चल रही थी। रात में बड़ी देरी से सो गए। लेकिन सुबह हुई और लोग प्रात:विधि हाथमुँह धोने आदि के लिए निकले, तो उन्होंने देखा कि तिलकजी पानी गरम करने की दौड़धूप में लगे हैं। बड़े बड़े बरतन पानी गरम करने के लिए थे। तिलकजी चूल्हा जला रहे थे। लोगों ने उनसे पूछा कि आप क्यों चूल्हा फूक रहे हैं? तिलकजी ने कहा कि भाई, लखनऊ के लोग शायद इस बात को समझ नहीं पाएंगे कि जो प्रतिनिधि दक्षिण प्रदेशों से यहाँ आए हैं वे इस सर्दी को सह नहीं सकेंगे। उत्तर का जाड़ा उन्हें बरदाश्त नहीं होता। नहा धोकर बैठक में जल्दी पहुँचना है। इसलिए पानी गरम कर रहा हूँ। आज के नेता क्या व्यवस्था सम्बन्धी इतनी चिंता कर सकते हैं? छोटी छोटी बातों की ओर स्वयं परिश्रम करने का इतना ध्यान रखना क्या उन्हें जम सकेगा? नेताजी तो जोड़ तोड़ में इतने फंसे हैं कि ये बातें उनके लिए निरर्थक हैं।

मालिश करने का काम गांधीजी ने स्वयं अपने पास लिया

गांधीजी के जीवन में आता है कि उनका एक अनुयायी था। अच्छा विद्वान शास्त्री पंडित था। उसे कोड़ हो गई। गांधीजी ने उसको अपने पास आश्रम में रहने बुलाया। स्वयं कुश्टरोग से संबंधित साहित्य भी पढ़ना शुरू किया। उसमें एक बात आई कि olive oil का मालिश करने से कोढ़ कुछ कम हो सकती है। अब मालिश करने का काम गांधीजी ने स्वयं अपने पास लिया। हर तीसरे दिन उसका मालिश वे करते थे। उस समय सत्ता के हस्तान्तरण की चर्चा अंग्रेजों के साथ शुरू हुई थी। दिल्ली में लॉर्ड मौन्टबॅटन के साथ चर्चा करने के लिए गांधीजी आए थे। उस अनुयायी का मालिश करने का टाइमटेबल तय था उसके अनुसार दिल्ली से वापसी का रिजर्वेशन गांधीजी ने करा रखा था। परंतु इसमें शक था कि ट्रेन के समय तक यह चर्चा पूरी होगी या नहीं होगी। सत्ता हस्तान्तरण जैसी महत्त्वपूर्ण बातचीत के लिए दिल्ली जाते हुए भी महात्मा गांधी स्वंय के लिए निर्धारित मालिश के इस काम को नहीं भूले। इतना ही नहीं, दिल्ली पहुँचकर उन्होंने लार्ड माऊन्टबटन को कहा कि मुझे इस ट्रेन से वापस वर्धा जाना है। इस समय तक चर्चा पूरी हुई तो ठीक है, वरना इसे पोस्टपोन करना होगा।

अब सोचने की बात है कि गांधीजी ने अपने एक अनुयायी की मालिश को इतना महत्त्व क्यों दिया? सत्ता पर हावी होने की लालसा उन्हें होती तो उनका व्यवहार अलग होता। क्या आज के नेतागण इसी प्रकार व्यवहार करते दिखाई देते हैं?

सिरपर पत्थर उठाकर ले जाने का काम स्वयं मुहम्मदसाहब करते थे

गांधीजी ने अपना स्वाभाविक कर्तव्य समझकर यह जो कार्य किया उसके पीछे जीवन-मूल्य की ही महत्वपूर्ण बात है। फोटो खिंचवाने और नाम कमाने की भावना इसमें नहीं है। मैंने जो प्रारंभ में जीवनमूल्य के नाते मुहम्मद पैगंबर का नाम लिया था, उनके जीवन में आता है कि मदीना में पहली बार बड़ी मसजिद बनाने का जब उपक्रम शुरू हुआ, तो उस समय अपने अन्य साथियों के साथ सिरपर पत्थर उठाकर ले जाने का काम स्वयं मुहम्मदसाहब करते थे। उन्होंने यह नहीं सोचा कि मैं नेता हूँ, बाकी लोग काम करें। मैं जनरल मॅनेजमेंट और सुपरविजन का काम करूँगा। यदि वह ऐसा करते तो किसी के मन में उनके प्रति नाराजी आ जाती, सो बात भी नहीं थी। लेकिन स्वयं अपने सिर पर बोझ उठाने का काम अन्य लोगों के साथ उन्होंने किया।

जीजस क्राइस्ट का उदाहरण

जीजस क्राइस का उदाहरण जीवन में अंतिम दिनों की घटनाएँ हैं, उसमें आता है कि वह किसी के यहाँ अपने सब शिष्यों के साथ भोजन के लिए गए। उनका यह lastsupper बहुत प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर भोजन के लिए बैठे तो एक बात उनके खयाल में आई कि लीडर के पास पहुँचने की जरा होड़ थी। भोजन के समय लीडर के साथ मैं बैठूँगा, यह होड़ थी। इस कारण लिए जैसे सार्वजनिक जीवन में होता है, वैसा दृश्य वहाँ भी उपस्थित हुआ। याने elbowing out- एक दूसरे को खदेड़कर सामने घुसना। यह जब देखा तो उनको दुःख हुआ। उन्होंने कहा कि भाई, जरा हम सब लोग खड़े हो जाएं। और जिसका मकान था उसे कहा कि, पानी की बाल्टी ले आइये, टॉवेल ले आइये। और फिर अपने एक एक शिष्य को बुलाया, पानी से उसके पैर स्वयं अपने हाथों से धोए, टॉवेल से अपने हाथ से हर एकके पैर पोंछे, और फिर कहा कि, यह मैंने क्यों किया इसका आपको पता है क्या? मैंने इसलिए किया है कि आप सबक सीख सकें कि जिस तरह का प्रेम मैं आपके साथ करता हूँ, जिस तरह का व्यवहार मैं आपके साथ करता हूँ, उसी तरह का प्रेम और व्यवहार आप आपस में रखें, ताकि दुनिया पहचान सके कि आप मेरे हैं।

तो हम सोचें कि किस तरह का व्यवहार स्वाभाविक रूप से ऐसे लोगों के द्वारा होता है कि जिनके आदर्शवादी जीवनमूल्य हैं।

प. पू. श्री गुरुजी का तो मेरे जीवन का एक छोटा सा अनुभव

परमपूजनीय गुरुजी का तो मेरे जीवन का एक छोटासा अनुभव ऐसा ही है कि जो बताने में मुझे शरम मालूम होती है। मैं उनके यहाँ रहता था और लॉ कॉलेज में जाता था। आदतें तो बिगड़ गई थीं कॉलेज लाईफ में। सुबह का कॉलेज था। नीचे टट्टी जाने के लिए आना और फिर उधर से ही चाय लेकर सीधे कॉलेज चले जाना। बाद में याद आती थी कि अरे, अपना बिस्तरा तो वैसे ही फैला रहा। लेकिन वापस आनेपर विस्तरा अपने स्थानपर ठीक से रखा मिलता था। सोचा कि यह बिस्तर फोल्ड करने का काम कौन करता है? मेरे जैसा एक अन्य साथी भी वहाँ सोता था। मैंने सोचा, वही रोज मेरा इतना काम कर देता है। इसलिए मैंने उससे कहा कि, भाई माफ करना मैं तुम्हें तकलीफ दे रहा हूँ। हर दिन मेरा बिस्तर तुमको गोल करना पड़ता है। उसने कहा कि मैंने तो तुम्हारा बिस्तर कभी उठाया नहीं। फिर मुझे डर हुआ।

एक दिन कॉलेज में न जाते हुए मैं पीछे से उधर टेरेस पर चला गया। देखता रहा कि मेरे बिस्तर का होता क्या है। तो उधर से परम पूजनीय गुरुजी आए। वे बिस्तर गोल करके नीचे चले गए। और कभी इस बातका उलहना तक नहीं दिया कि तुम्हारा यह बर्ताव ठीक नहीं।

हमारे इतिहास में नेतृत्व का सबसे अच्छा उदाहरण भगवान श्रीकृष्ण का बताया जाता है। पांडवों को चक्रवर्ती बनाने का काम भगवान श्रीकृष्ण के कारण ही हआ था। लेकिन जिस समय पांडवों के यहा राजसूय यज्ञ हुआ तब की घटना है। इतना बड़ा समारोह था, उसमें तरह तरह के डिपार्टमेंट्स सम्हालने की आवश्यकता थी। पांडवों ने सबसे पूछा कि भाई, तुम कौनसा डिपार्टमेंट देखोगे? हर एक ने अपनी इच्छा का डिपार्टमेंट ले लिया। कृष्ण से जब पूछा गया तो उन्होंने कहा, कि भोजन होने के पश्चात जो जूठी पत्तलें रहती हैं वे झूठी पत्तले उठाने का काम मैं करूंगा। यानी चक्रवर्तियों का नेतृत्व करनेवाला पुरुष जूठी पत्तलें उठाने का काम स्वयं माँग लेता है। इस तरह का एक आदर्शवादी व्यवहार हम अपने इतिहास में देखते हैं।

तो दो तरह के जीवनमूल्य हैं। और इसमें से हमें यह देखना है कि जो एक बड़ा विस्तृत ऐसा ध्येय हमने अपने सामने रखा है, उसको यदि प्राप्त करना है, राष्ट्र निर्माण करना है, तो 'सामूहिक नेतृत्व' के नाते हममें से हरएक का जीवनमूल्य क्या हो? किस तरह के नेतृत्व की अपेक्षा बड़े काम में हुआ करती है?'

अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोक धृत

भारतीय मजदूर संघ के नाते इसका बारीकी से विचार हममें से हरेक को करना चाहिए। जो केवल पोजिशन के कारण बड़प्पन मिलता है वह सही बड़प्पन नहीं। सही बड़प्पन वही है जो पोजिशनपर अवलंबित नहीं। वह intrinsic worth है। अपनी अंदर की योग्यता है। सही बड़प्पन कैसे प्राप्त हो सकता है, इसके बारे में एक बहुत छोटासा सूत्र अपने यहाँ विष्णुसहस्रनाम में है। विष्णु के उसमें हजार नाम दिए हैं, लेकिन एक एक विशेषण गुणावाचक है। उसमें कहा गया, 'अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोक धृत।' त्रिलोक धृत यह भगवान के लिए है। तीनों लोकों को जो धारण करते हैं वह त्रिलोकधृत हैं। लोकस्वामी याने जो लोक का नेतृत्व करते हैं। लेकिन वहाँ तक कैसे पहुँचते हैं? तो कहा, 'अमानी मानदो मान्यो।' अमानी यानी जो स्वयं अपने लिए सम्मान की अपेक्षा नहीं करता। मानदो - जो दूसरों को मान देता है। स्वयं अपने लिए सम्मान लेने की अपेक्षा नहीं रखता बल्कि दूसरों का सम्मान करता है। फिर तीसरा शब्द आता है मान्यो। जिसके कारण वह सर्वमान्य हो जाता है। सर्वमान्य होने की जो प्रक्रिया है वह इस तरह बतायी है कि अमानी-याने अपने लिए मान की अपेक्षा न रखनेवाला। मानदो - याने जो दूसरों को सम्मानित कर रहा हो और इसलिए सर्वमान्य हो रहा हो।

आदर्शवाद जितना बड़ा होगा उतना अहम् छोटा होगा

"अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोक धृत" यह प्रक्रिया बतायी है। वास्तव में जो सही लोक नेतृत्व है वह इसी प्रक्रिया में से आता हैं। जो स्वयं अपने को भूल जाता है। अपना बड़प्पन, अपना यश, अपना सम्मान आदि विचार जिसके मन में आता ही नहीं, बल्कि आदर्श का यश, ध्येय की प्राप्ति का विचार जिसके मन में रहता है, जो अहम् को भूल गया है, वही वास्तव में आदर्श नेता है। क्योंकि जैसे ईसा ने कहा है कि हृदय के सिंहासन पर भगवान और शैतान दोनों एक साथ बैठ नहीं सकते। अहम् जितना बड़ा होगा उतना आदर्शवाद छोटा होगा। आदर्शवाद जितना बड़ा होगा उतना अहम् छोटा होगा। मानो एक ही सर्कल है जिसमें दो कलर दिए हैं। एक लाल, दूसरा हरा है। सर्कल निश्चित है। सर्कल यदि constant रहा तो हरे रंग का दायरा बढ़ेगा और लाल का दायरा छोटा होगा। लाल का दायरा बढ़ेगा तो हरे का छोटा होगा। वैसे हमारे हृदय का, मन का जो सर्कल है वह constant है। उसमें दो कलर है। एक अहम है, एक आदर्शवाद है। आदर्शवाद के कलर का दायरा बढ़ेगा तो अहम् का छोटा होगा। अहम् का दायरा बढ़ेगा तो आदर्शवाद का छोटा होगा। और जिसका आदर्शवाद का ही दायरा संपूर्ण सर्कल बन गया है ऐसा ही व्यक्ति वास्तव में सही लोकनृत्व कर सकता है। इसके माध्यम से कुछ बड़ा काम हो सकता है।

मैं नहीं , तू ही

एक बार 'धर्मयुग' (पत्रिका) ने अलग अलग नेताओं के हस्ताक्षर इकट्ठा किए। हस्ताक्षर के साथ कुछ संदेश मांगे। सबसे छोटा संदेश प. पू. गुरुजी का था। तीन ही शब्द उसमें थे। "मैं नहीं, तू ही।" जहाँ "मैं" का संपूर्ण लोप है। केवल ध्येय, केवल आदर्श यही संपूर्ण हृदय को, मन को, आत्मा को व्याप्त करता है, वहीं सही लोकनेतृत्व प्राप्त हो सकता है। हृदय में दो बातें नहीं रह सकतीं। "जब मैं था तब हरि नहीं - अब हरि है, मैं नाही"। प्रेम गली अति साँकरी - जामें दो न समाहीं। हृदय में एक ही समय दो नहीं रह सकते। इस तरह जो स्वयं अपने को भूल जाता है, और इसके कारण फिर नेतागिरी की भावना भी नहीं। मैं कोई हूँ यह बात नहीं। एक विनम्रता है। और इतनी विनम्रता है कि 'सबसे छोटा मैं हूँ' यह भावना है। सबकी सेवा करना यह स्वभाव बन जाता है। उस अवस्था में से सही लोकनेतृत्व पैदा होता है। वही व्यक्ति 10, 100, 1000 लोगों को इकट्ठा कर सकता है। सबको प्रेरणा दे सकता है। सर्वसंग्राहक बन सकता है।

प्रकृति हमारा एक शिक्षक है

सबसे सर्वसंग्राहक कौन बन सकता है इसका बहुत अच्छा उदाहरण कुदरत या प्रकृति ने हमारे सामने रखा है। प्रकृति हमारा एक शिक्षक है। प्रकृति ने हमारे सामने वह उदाहरण रखा है कि ज्यादा से ज्यादा सर्वसंग्राहक, ज्यादा से ज्यादा सर्वसमावेशक कैसे बना जा सकता है। सृष्टि में इस धरती पर जमीन कम है, पानी ज्यादा है। किसी ने मजाक से कहा है, कि इसे पृथ्वी कहना गलत है, पानी ही कहना चाहिए। पानी ज्यादा है। और यह जो पानी है वह अलग अलग लेव्हल से निकलता है। यह तो सबने देखा है। कोई नदी का प्रवाह पूना में बहता होगा। उससे अधिक ऊंचाईपर सह्याद्रि से निकलनेवाला कोई पानी का प्रवाह होगा। उसके भी ऊपर हिमालय से निकलनेवाला कोई प्रवाह होगा। उसके भी ऊपर कोई प्रवाह होगा जो माऊंट एव्हरेस्ट से निकल रहा है। तो उनकी रिस्पेक्टिव पोजिशन क्या है? पूना में जो जलप्रवाह बह रहा है उससे सह्याद्रि से निकलनेवाला जलप्रवाह अधिक ऊंचाईपर, हायर पोजिशन पर। उससे भी अधिक ऊंचाईपर हिमालय से निकला हुआ, और उससे भी अधिक ऊंची पोजिशन उसकी होगी जो ऐसी किसी ऊँचाई से जहाँ कोई ऊंची चोटी होगी वहाँ से निकला हुआ है। अलग अलग पोजिशन से, अलग अलग ऊंचाई से जलप्रवाह निकलते हैं। जो प्रवाह बड़ी पहाड़ियों की चोटियों पर से निकलते हैं उनकी पोजिशन ऊंची है इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन अंत में क्या होता है? पहाड़ी की चोटी पर से भी निकला हुआ जलप्रवाह अब वहाँ नहीं रहता। प्रकृति ने यह नियम बनाया है कि वह प्रवाह नीचे आता है। नीचे आकर नदी का रूप लेता है। गंगा-जमुना बहती है। वह आखिर में पहुंचकर महासागर में मिलती है। महासागर तो सबसे नीचा है।

सारे जल प्रवाह भी आखिर शरण महासागर की गोद में लेते हैं

सबसे नीचा होने का मापदंड ही महासागर को माना गया है। यहाँ तक कि जब वैज्ञानिक किसी स्थान की ऊंचाई कितनी है इसका हिसाब करते हैं, तो कहते हैं कि समुद्र तल से चार हजार फूट ऊपर, समुद्र के सरफेस से तीस हजार फूट ऊपर। मानो सबसे नीचा कोई होगा तो वह महासागर माना जाता है। बड़ी बडी ऊंचाई पर निर्माण हुए सारे जलप्रवाह भी आखिर शरण महासागर की गोद में लेते हैं। और इसका कारण यही है कि वह सबसे नीचा स्थान रखता है। अपने को सबसे छोटा मानता है। उदार है, सर्वसमावेशक है, विशाल है। बहुत गहराई रखता है। इसलिए इतना पानी उसमें समा सकता है। इतनी गहराई न होती तो इतना पानी समाना संभव नहीं।

यह लोकनेतृत्त्व है

इस तरह से महासागर है जो सबसे नीचा है और इसी कारण दुनियाभर के सारे जलप्रवाह उसीके अंदर और अंततोगत्वा उसीकी शरण में आते हैं। यह एक अच्छा उदाहरण प्रकृति ने हमारे सामने रखा है। यह लोकनेतृत्व है। इस तरह की अपनी मन की धारणा रही तो जिस काम का भारतीय मजदूर संघ करना चाहता है वह हो सकता है। आज तो सार्वजनिक जीवन में, राजनैतिक जीवन में नेताजी की भावना है। इस भावना से जो कुछ काम हो सकता है वह हुआ है। यानी पिछले दो अढाई वर्षों में देश का जो चित्र सामने आया है वह इसी भावना का परिणाम है। यह कल्याणकारी नहीं कहा जा सकता। इससे कुछ अलग चित्र बनाना है तो उसके लिए अलग जीवनमूल्यों की आवश्यकता है। इस कारण से स्वाभाविक रूप से निर्माण होनेवाले अलग व्यवहार की आवश्यकता है। ये बाते हम खयाल में भी रखते हैं। उसके अनुसार हम अपने जीवन को टालते हैं। अपने मन को, हृदय को ढालते हैं। उसके स्वाभाविक परिणामस्वरूप अपना कार्यकर्ताओं का समूह बढ़ सकेगा। मास्टर माइंड ग्रुप हम जगह जगह तैयार कर सकेंगे।

मजदूरों में भी हमारा नेतृत्व स्वीकार करनेवालों की संख्या स्वाभाविक रूप से बढ़ती रहेगी। मजदूर अनपढ़ हैं। जैसे बच्चा बिलकुल कुछ नहीं जानता तो भी भगवान ने ही बच्चे के मन में इतनी अकल दी है कि माँ कौन है इसे वह स्वाभाविक रूप से समझ सकता है। वैसे वास्तव में अपना कौन है और कौन केवल दिखावा करनेवाले हैं, अनपढ़ मजदूर भी अंततोगत्वा समझेगा। ज्यादा देर तक किसी को गुमराह करना सम्भव नहीं है। थोड़ समय के लिए थोड़े लोगों को गुमराह किया जा सकता है। बाकी बातें स्वाभाविक रूप से होंगी। हमारे जीवनमूल्य और उसके कारण हमारा मन, हृदय, आत्मा यदि ठीक ढंग का रहा तो बाकी सारी चीजें स्वाभाविक रूप से उपस्थित होंगी। इस दृष्टि से सामूहिक नेतृत्व करनेवाले हम सब लोग जो यहाँ इकट्ठा बैठे हैं, अपने अपने कार्यक्षेत्र को ध्यान में रखकर आत्मचिंतन करना चाहिए। इतना ही कहना इस समय पर्याप्त होगा।

षष्ठ सत्र

साम्यवाद सेल्फ डिफीटिंग थ्योरी है

इस वर्ग की योजना में पहले से ही यहाँ विचारार्थ विषय जानबूझकर थोड़े ही रखे गए थे जो औद्योगिक क्षेत्र से संबंधित थे। बाकी यह सोचा गया था कि कार्यकर्ताओं के मन में जो कई विषय महत्त्वपूर्ण प्रतीत हों उन्हें औपचारिक, अनौपचारिक वार्ता में लिया जाए।

कम्युनिझम के बारे में

दूसरी भी बात कि हरएक विषय बहुत विस्तृत हुआ करता है। किसी भी विषय के बारे में पूरी जानकारी यहाँ देना यह संभव नहीं हो सकता। लोगों की अलग अलग विषयों में रूचि है। तो यहाँ उतनी जानकारी दी जाए जिसके कारण अपने स्थान पर वापिस जाने के पश्चात यदि कोई चाहे तो अपनी रुचि के विषय का अध्ययन करने में उसको सरलता, सुविधा हो सके। इसी ढंग से अभी तक के विषय लिए गए। इसी औपचारिक वार्ता में से एक और बात निकली कि कम्युनिझम के बारे में थोड़ा बहुत विवरण दिया जाए। अभी तक इस विषय में कुछ विवरण नहीं किया गया, क्योंकि बाह्य परिस्थिति को देखते हुए कोई बड़ी आवश्यकता है ऐसा महसूस नहीं होता। तो भी अब तक जो कुछ भी कहा गया है उसीको संक्षिप्त में थोड़ा दोहराया जाए ऐसा एक सुझाव आया है। इस दृष्टि से इस सत्र में इस विषय के बारे में पूरी जानकारी तो नहीं, किंतु अब अपने स्थानपर जाकर यदि अध्ययन करना चाहेंगे - कहना ही चाहिए ऐसा आग्रह नहीं, लेकिन यदि करना चाहे - तो थोड़ी सहायता हो सके इतनी जानकारी देने का प्रयास कर रहा हूँ।

मार्क्स के बारे में

एक बात हम ख्याल में रखें कि मासिजम के बारे में जब हम बोलते हैं तब या किसी भी विचार प्रणाली के बारे में बोलते समय उसके जो प्रणेता होंगे उनके व्यक्तित्व का evaluation एक अलग बात है। विचारप्रणाली का evaluation एक अलग बात है। अपने यहाँ संस्कृति अधिक विकसित होने के कारण हम लोग व्यक्तित्व का evaluation व्यक्तित्व के नाते करते हैं। इस दृष्टि में हम लोगों के मन में तुच्छता की भावना नहीं - आदरकी ही भावना है। वे अच्छे श्रेष्ठ विचारक हुए - मानवतावादी रहे, यही विचार हम लोगों का है। अपने देश में जो श्रेष्ठ पुरुष हो गए उनमें से दो का नाम आप जानते हैं। भगवान बुद्ध और श्रीमत् शंकराचार्य। शंकराचार्य की विचारधारा बुद्ध की विचारधारा का खंडन करनेवाली थी। तो भी स्वयं बुद्ध के बारे में शंकराचार्य ने कहा कि -

आस्ते कलौ योगिनां चक्रवर्ती।

स बुद्धः प्रबुद्धोऽस्तु नश्चित्तवर्ती॥

इतना श्रेष्ठ वर्णन भगवान बुद्धका उन्होंने किया है। यह अपनी भारतीय परम्परा है। मासिस्ट जिस ढंग से मार्क्स को पेश करते हैं वह हमें स्वीकार नहीं है। और परमपूज्य गुरुजी ने भी यह कहा था कि Marx was not a crude materialist. जैसा कम्युनिस्ट यहाँ हमें हमें बताते हैं, मार्क्स का चिंतन वैसा नहीं था। एक बार पार्लमेंट की लॉबी में चर्चा करते समय हमारे एक कम्युनिस्ट संसद सदस्य मित्र ने कहा और बड़ा अच्छा है कि To be a materialist one must be a convinced materialist. But to be a philosopher of materialism one must be a something more than a materialist. संयोग की बात है कि उस समय श्री गुरुजी दिल्ली में थे। हमने उनसे कहा कि ऐसा इस एम.पी. ने कहा है। तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि लगता है इसके पूर्वजन्म के संस्कार अभी बाकी हैं।

मार्क्स की कई भविष्यवाणियाँ गलत निकलीं

यह एक बात पहले हम ख्याल में रखें। दूसरी बात है कि कई चीजें ऐसी हो गई हैं कि जिनका खंडन मंडन करने की आवश्यकता ही नहीं। जैसे मार्क्स की कई भविष्यवाणियाँ गलत निकली। यह तो कम्युनिस्टों को भी मानना पड़ता है। वैसे कई विषय ऐसे थे जिनके बारे में मार्कस अपने जीवनकाल में कोई निर्णायक बात नहीं कह सके। यह भी सब लोग जानते हैं। उदाहरण के लिए - Haves and have nots ऐसे दो कॅम्पस् की जब उन्होंने कल्पना की तो ईस्ट युरोपियन कंट्रीज के उनके शिष्यों ने उनसे पूछा कि इसमें दिक्कत हम महसूस कर रहे हैं। हमारे यहाँ जमीन के छोटे छोटे टुकड़ों पर खेती करने वाले लोग हैं। उनके पास कुछ जमीन है इसलिए उन्हें haves के कॅम्प में डाला जा सकता है। लेकिन जमीन इतनी थोड़ी है उस पर उनका गुजारा नहीं हो सकता। अपनी जमीन पर काम करते हुए गुजारा नहीं होता इसलिए दूसरे किसी की बड़ी जमीन पर खेतीहर मजदूर के नाते काम करना और अपनी आवश्यकता की पूर्ति करना उनके लिए आवश्यक हो जाता है। अब ऐसे जो लोग हैं उनको कौन से कॅम्प में डाला जाए? Haves के कॅम्प में या have nots के कॅम्प में? मृत्यु तक मार्क्स ने इसका जवाब नहीं दिया। कई प्रश्न थे जिनका जवाब उन्होंने नहीं दिया। और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। वे एक Scientific thinker थे। और इस कारण उनके भी विचारों में धीरे धीरे उत्क्रांति होती गई। यदि और अधिक समय उनको मिलता तो शायद आज जिस ढंग से उन्होंने विचार प्रस्तुत किए उसमें काफी परिवर्तन आ सकता था ऐसा समझने के लिए गुंजाइश है। फिर एक बात, कि यद्यपि वे सायंटिफिक्ली विचार करने वाले थे तो भी उनके दुर्भाग्य में भारतीय विचार पद्धति से उनका जितना चाहिए उतना संबंध नहीं आया था। यदि संपर्क आता तो उनके ही विचारों में और परिवर्तन होता ऐसा समझने के लिए अब पर्याप्त गुंजाइश है।

Universe in Vedanta ( युनिर्वस इन वेदांत)

अभी अभी माने पाँच-छ: साल के पहले एक पुस्तक प्रकाशित हुई। Universe in Vedanta इस नाम की पुस्तक डांगेजी के जमाई ने लिखी है। और उसकी प्रस्तावना डांगेजी की है। उसमें कामरेड डांगे ने ऐसा कहा है कि Almost all basic tenets of Marxism were anticipated by Vedantsa-केवल एक Basic Tenet छोड़कर Historic materialism, जिसकी Industrial Revolution के पहले आवश्यकता नहीं थी। संभव भी नहीं था। उतना एक यदि Basic Tenet छोड़ दिया तो मार्किसझम के Basic Tenet को वेदांत ने अँटीसिपेट किया था। ऐसा उन्होंने उसमें कहा। अब उन्होंने यह सारा क्यों कहा यह हम नहीं जानते। लेकिन उसके पश्चात सी.पी.आय. में बड़ी हलचल हो गई। इतनी चर्चा हुई कि यह तो बड़ा खतरनाक लिखा गया है। पार्टी की एक्जिक्यूटिव्ह की दो दिन मीटिंग हुई। उसमें चर्चा हुई। उस समय चेअरमन श्री डांगे ही थे। सी. पी.आय. के चेअरमन होते हुए भी सी.पी.आय. ने यह प्रस्ताव पारित किया कि यह जो हमारे चेअरमन का सिद्धांत है उससे पार्टी अपने को disassociate करती है। तो रेजोल्यूशन से पार्टी disassociate तो कर सकती है, किंतु यदि सिद्धांत में तथ्य होगा तो उस सिद्धांत को कम या अधिक करना उनके अपने बस की बात नहीं। हमारे भारतीय विचारों से यदि मार्क्स का संबंध आता तो उसमें कुछ परिवर्तन होता, इतना समझने के लिए अभी इस समय गुंजाइश है। दूसरी एक बात कि मार्क्स वास्तव में किस विचार के थे इसके संबंधमें आज मार्क्सवादियों में भी एकमत नहीं। इसका एक कारण यह हुआ है कि उनका लिखा हुआ एक महत्त्वपूर्ण डॉक्युमेंट बड़ी देरी से प्रसिद्धि के प्रकाश में आया। उस डॉक्युमेंट का नाम है "Philosophical and Economic Manuscript 1844".

मासिजम क्या है इस विषय में सभी मार्क्सवादियों का एकमत नहीं है

यह डॉक्युमेंट यदि कोई पढ़ेगा तो उसको यह पता चलेगा कि यद्यपि केवल आर्थिक दृष्टि से ही उन्होंने विचार किया ऐसा लगता है तो भी वास्तव में उनकी जो प्रेरणा थी वह एथिक्स में थी - नीतिशास्त्र में थी। किंतु ऐसा स्पष्ट कहने में उन्हें हिचकिचाहट लगती थी। क्योंकि उन दिनों में एथिक्स और रिलीजन दोनों एक ही माने जाते थे। रिलीजन याने उस समय उनके सामने युरोप में जो खिश्चन 'चर्चानिटी' का दृश्य या उसीके साथ आयडेंटिफिकेशन रिलीजन का था। वह जा चर्चानिटी का दृश्य था उसमें तरह तरह के दोष दिखाई देते थे। इसके कारण एथिक्स को यदि महत्त्व दिया तो चर्चानिटी को महत्त्व देना ऐसा इसका मतलब होगा - जो गलत बात थी। इस कारण यद्यपि बात अपनी रखते समय उन्होंने इकॉनॉमिक्स पर बहुत आग्रह दिया और इकॉनॉमिक्स को एक instrument के नाते पूरा महत्त्व दिया तो भी उनकी प्रेरणा एथिक्स में थी, यह उस डाक्युमेंट से स्पष्ट होता है। यह डाक्युमेंट 1926 में पहली बार प्रकाशित हुआ। तब तक कम्युनिस्ट जगत के श्रेष्ठ विचारक लेनिन की मृत्यु हो चुकी थी। यह डॉक्युमेंट पब्लिश होने के पश्चात जो पुनर्रचना विचार की होनी चाहिए वह करने की क्षमता रखनेवाले कोई नहीं थे। 'on the contrary यदि डॉक्युमेंट जैसा का वैसा, without comments यदि दिया जाता है तो शायद अपने लिए नुकसान होगा ऐसा स्टॉलीन ने सोचा और काफी देर तक उसको जो उचित महत्त्व है वह नहीं दिया गया। इसके कारण अब स्टॉलीन की मृत्यु के पश्चात जब फिर से मार्क्सवादी संशोधन करने लगे तो मार्क्स की प्रेरणा के बारे में motivation के बारे में और बाकी चीजों के बारे में तरह तरह के विचार उनके ही विचारकों ने प्रस्तुत किए। तो मार्किसस क्या है इस विषय में सभी मार्क्सवादियों का एकमत नहीं है। यह एक बात हम ध्यान में रखें। दूसरी बात - अपने यहाँ के कम्युनिस्ट जिस ढंग में मासिजम को पेश करते हैं उसमें से ऐसा प्रतीत होता है कि मार्क्स ने आदर्श समाज का कोई पूरा 'ब्लू प्रिंट' दिया होगा, ऐसी परिस्थिति नहीं। उन्होंने 'ब्लू प्रिंट' नहीं दिया था।

मार्क्स ने तो एक बार ऐसा कहा भी था कि Thank God, I am not a Marxist.

ब्लू प्रिंट देना यह बुद्धिमानी का लक्षण भी नहीं। केवल Guiding Principles ही दिए जा सकते हैं। 'ब्लू प्रिंट' in course of implementation ही evolve हो सकता है। लेनिन ने भी यह कहा है कि Karl Marx has not written a single word about economics of socialism. इकॉनॉमिक्स जो है उसके बारे में उन्होंने लिखा नहीं। यानी पूरा चित्र नहीं दिया। किंतु हमारे यहाँ के कम्युनिस्टों की प्रारंभ से ही यह पद्धति रही है कि मार्क्स जितना मासिस्ट था उससे भी ज्यादा वे मासिस्ट हैं। 'More loyal than his Majesty' जैसी उक्ति वाली यह बात है। मार्क्स ने तो एक बार ऐसा कहा भी था कि Thank God, I am not a Marxist वे इझम् बनाना नहीं चाहते थे। मार्क्स चाहते थे कि लोगों को scientific thinking स्वीकारना चाहिए। लेकिन भारतीय कम्युनिस्टों की प्रकृति वाद से बंधी है। वे मार्क्स को इसके ऊपर उठाकर देखना नहीं चाहते।

श्री एम.एन.राय ने जो अपने Memoirs लिखे हैं उसमें कहा कि जब मॉस्को में उनका निवास था और कम्युनिस्ट इंटरनॅशनल में उनका स्थान था, लेनिन के साथी के नाते - सहयागी के नाते जब चर्चायें चलती थीं तो उनकी बातचीत सुनकर रशियन कम्युनिस्ट साथी कहते थे कि भाई, तुम हमसे भी अधिक कट्टर मार्क्सवादी हो। यही प्रकृति हमारे यहाँ के कम्युनिस्टों की होने के कारण यह एक गलत बात बताई गई कि मार्क्स ने ब्लू प्रिंट दिया है। वास्तव में ऐसा ब्लू प्रिंट उन्होंने नहीं दिया। कुछ Guiding Principles अवश्य दिए हैं। उतने ही जितने कोई बुद्धिमान आदमी देगा और जादा नहीं बोलेगा। उतना उन्होंने अवश्य दिया। अब आपने यहाँ देखा होगा कि भारतीय मजदूर संघ के प्रारंभिक दिनों में कम्युनिजमके बारे में अपने मंचसे काफी कुछ कहा जाता था। अब धीरे धीरे वह कहना कम हुआ और आजकल तो बिलकुल ही बंद हुआ है। तो क्या हमारे attitude में कोई अंतर है? ऐसा नहीं, हमारा जो attitude था वही है।

अपने को नष्ट करने का काम कम्युनिजम स्वयं ही अच्छी तरह से कर सकता है

इतना ही अंतर है कि हम लोगों ने अनुभव किया कि अब बोलने की आवश्यकता नहीं है। Communism can manage to finish itself अपने को नष्ट करने का काम कम्युनिजम स्वयं ही अच्छी तरह से कर सकता है। फिर हम उस झंझट में क्यों जाएँ? यह सोचकर हम उसके विषय में कम बोलते जा रहे हैं और परिस्थितियों उस समय की और इस समयकी इसमें अंतर इसलिए आया है। पहले कम्युनिजम केवल एक थ्योरी रूप में था। ज्यादा से ज्यादा एक देश रशिया में जो प्रयोग चल रहे थे उसके आधारपर कम्युनिजम के बारे में हम बोल सकते थे। अब उस देश का प्रयोग भी प्रौढ़ावस्था में आया है। अन्य देशों में भी कम्युनिजम का शासन स्थापित हुआ है। विभिन्न देशोंका शासन चलाने के कारण जब practical implementation का सवाल आता है तब कम्युनिजम की क्या हालत होती है यह बात हम कुछ न कहें तो भी दुनिया के और कम्युनिस्टों के सामने आ रही है।

वर्गरहित समाज ( Classless Society)

केवल उदाहरण के लिए यदि कहना हो तो Classless Society का निर्माण करना उनका एक अलग उद्देश्य था। लेकिन अब उनके ही श्रेष्ठ विचारकों ने यह बात स्वीकार की है कि हम लोग Classless Society का तो निर्माण कर नहीं सके, इतना ही नहीं तो हमारे अंदर भी-जहाँ पुराने क्लासेस को हमने नष्ट किया वहाँ उनके स्थान पर नये classes का निर्माण हुआ है। ऐसा उनके विचारकों ने कहा है। तरह तरह से जो घटनाएँ वहाँ हो रही हैं उसके कारण ज्यादा Theoretical discussion करने की आवश्यकता नहीं रही। प्रैक्टिकल जो दृश्य है उसके आधारपर कई बातें वहाँ स्पष्ट दिखाई देता है जिनके विषय में पहले बहुत लंबाचौड़ा विवरण शब्दों में करना पड़ता था।

न्यूटन का सायन्स और आइनस्टाइन का मत

एक और बात हुई है कि जहाँ तक उनके आधारभूत सिद्धांतों का प्रश्न है तो वे scientific thinker होने के कारण, सायन्सके आधारपर विचार करते थे। किंतु यह हुआ कि सायन्स में प्रगति हुई। जसे मॅटर को उन्होंने बेसिक माना। उन्होंने माना-याने उनकी खोज नहीं थी। उनके समय जो न्यूटन का सायन्स और आइनस्टाइन का मत था उसने यह establish किया था कि मॅटर ही बेसिक है। इस बात को उन्होंने लिया। अब सायन्स में प्रगति हुी और आइनस्टाइनने कहा कि मॅटर यह बेसिक नहीं हो सकता। मॅटर और ऐनर्जी दोनों inter convertable हैं। एक दूसरे में परिवर्तित हो सकते हैं। इस तरह से जब सायन्स ने ही basic character of matter को अस्वीकार किया तो स्वाभाविक रूप से अब यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मास का कथन हमारे भारतीय सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है। ऐसा है कि Frontiers of human knowledge are ever expanding और इस कारण कल के level of knowledge के आधार पर जिस बात को सत्य माना जाता है उसको expanded knowledge के आधार पर असत्य माना जाता है।

स्वयं कम्युनिस्टों का भी कम्युनिजम के बारे में विश्वास कम होता जा रहा है

इस तरह की कोई बेसिक बातें थीं वह सायन्स के आधार पर ही अब अस्वीकार्ह्य या गलत हैं ऐसा सिद्ध होता है। ये सभी कारण थे। इसके विषय में बहुत ज्यादा चर्चा करना आवश्यक नहीं है, उपयुक्त नहीं है। इसका और भी एक फैक्टर है कि यह सारा जो परिवर्तन हो रहा है, उसके कारण स्वयं कम्युनिस्टों का भी कम्युनिजम के बारे में विश्वास कम होता जा रहा है। श्रद्धा की intensity में काफी अंतर आता जा रहा है। 1953 की जो intensity थी वह आज नहीं। इसी के कारण हम दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियों के व्यवहार में तरह तरह का परिवर्तन भी देख रहे हैं। केवल उदाहरण के लिए यदि बताया जाए तो 1953 के पहले Unicentral communism की कल्पना सबके दिमाग में थी। माने वे सोचते थे कि कम्युनिस्ट वर्ल्ड रहेगा। कम्युनिस्ट वर्ल्ड का एक ही केंद्र रहेगा और स्वाभाविक रूप से क्योंकि कम्युनिस्ट क्रांति सब से पहले रूस में हुई तो मॉस्को यही उनका केंद्र रहेगा। इस तरह का एक केंद्रित Unicentral Communist रहेगा। वह कल्पना थी। आज वह कल्पना टूट गई है। लगभग हर एक कम्युनिस्ट राष्ट्र की पार्टी है और अपनी पार्टी के लिए autonomy, independence माँग रही है। कई लोगों ने वह प्राप्त किया है। अब multi central कम्युनिस्ट पार्टियाँ आज दुनिया में हैं। उसमें भी कुछ ब्लॉक्स निर्माण करने की कोशिश चायना के द्वारा हो रही है, ऐसा ही विचार सी.पी.एम. जैसे लोगों के द्वारा हो रहा है।

कम्युनिस्टोंने मूल रूप में जो विचार किया और कहा था वह स्वयं भी नहीं कर सके

यह भी बात सामने आई जिसका मैंने जिक्र किया था कि Unicentral Communist World की बात नहीं लेकिन Commonwealth of Communist Parties का निर्माण हो सकता है। तो करना चाहिए। परिस्थिति के कारण और अनुभव के आधार पर यह सारा जो परितर्वन हुआ और हो रहा है इस कारण कम्युनिजमकी बहुत चर्चा करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इस तरह से यह साफ है कि कम्युनिस्टों ने मूल रूप में जो विचार किया और कहा था वह स्वयं भी नहीं कर सके। इसके उदाहरण थोड़े से प्रस्तुत करना पर्याप्त होगा। मैंने कहा कि उन्होंने ब्लू प्रिंट भले ही न दिया हो किंतु Guiding Principles कुछ दिए थे। उनमें से जो प्रमुख Negative Guiding Principles थे वे व्यावहारिक दृष्टि से पाँच हैं। मैं जो बात कर रहा हूँ वह सैद्धांतिक बात नहीं कर रहा जो cosmology वगैरह से संबंधित है। लेकिन जिनका practical implementation करना है ऐसे ही क्षेत्र के बारे में मैं अपने को सीमित रखता हूँ।

पाँच Guiding Principles जो Negative Guiding Principle थे, इस प्रकार दिए गए थे। Positive या केवल academic discussion के नाते और कई है जैसे मैंने कहा कि संपूर्ण चर्चा यहाँ नहीं हो सकती। केवल उदाहरण के लिए यहाँ एक सीमित क्षेत्र लेकर हम लोग विचार कर रहे हैं। तो जिन पाँच बातों का निषेध किया गया था उनमें एक था कि :-

1. मॅरेज इन्स्टिट्यूशन - विवाहसंस्था कम्युनिजम को स्वीकार नहीं है। हिंदुस्थान के कम्युनिस्ट इस बात को छिपाते हैं। वे पता ही नहीं लगने देते कि विवाहसंस्था original communism को स्वीकार नहीं है। वह उसको नष्ट करना चाहता है। क्योंकि वे जानते हैं कि ऐसा यदि हिंदुस्थान में कहा जाएगा तो कोई उनके साथ नहीं जाएगा। लेकिन कम्युनिस्ट Manifesto में यह स्पष्ट रूप से कहा गया।

2. family organism - परिवारसंस्था को नष्ट करना। No marriage, no family. (शादी नहीं - परिवार नहीं)

3. No Religion (पंथ (धर्म) नहीं)

4. No Nation, (राष्ट्र नहीं)

5. no private property (निजी संपत्ति नहीं) ऐसी पाँच बातों का निषेध किया गया था।

जहाँ पुराना कम्युनिस्ट शासन है वहाँ भी मॅरेज इन्स्टिट्यूशन का abolition नहीं हो सका

इन पाँच बातों के निषेध के बारे में क्या हम ऐसी आशा रख सकते हैं कि कॉपटॅलिस्ट देशों में न हो - नॉन कम्युनिस्ट देशों में भी नहीं, लेकिन कम्युनिस्ट देशों में तो कम से कम इस पर अमल हुआ होगा? लेकिन प्रत्यक्ष में क्या अनुभव आता है? अनुभव यह आता है कि रूस में भी और चायना में भी, जहाँ पुराना कम्युनिस्ट शासन है वहाँ भी मॅरेज इन्स्टिट्यूशन का abolition नहीं हो सका। हाँ, यह ठीक है कि उसकी जो formality थी वह उन्होंने नष्ट की। किंतु पति-पत्नी संबंध के निषेध की जो बात थी वह वहाँ भी सफल नहीं हो सकी। यह बात कितनी बेसिक मानी जाती थी इसका एक उदाहरण मैं आपको देता हूँ।

वहाँ कम्युनिस्ट एक संप्रदाय है

आपने अखबार में पढ़ा होगा कि 1970-71-72 में जापान में कुछ murders हुए थे। ये हत्याएं कम्युनिस्ट कार्ड होल्डर्स की थीं और उसकी जब जाँच अदालत में हुई तो पता चला कि ये मर्डर्स क्यों हुए? जिनका मर्डर हुआ उनके बेलवेड्स ने ये मर्डर्स किए थे। क्यों किया था? तो वहाँ कम्युनिस्ट एक संप्रदाय है। जिसको ट्रॉस्टोकाइस्ट्स कहते हैं। ये उसी संप्रदाय के सदस्य थे। उस संप्रदाय ने सोचा था कि यद्यपि जापान में अपना शासन नहीं है तो भी अपने व्यक्तिगत व्यवहार में तो मार्किसज्म का पूरा अवलंबन हमें करना चाहिए, आचरण करना चाहिए। इस कारण जो मेंबर हैं उनके बीच में तो पतिपत्नी संबंध नहीं आना चाहिए। ऐसा प्रारंभ हुआ। जिनकी हत्या की गई उनके हत्यारे यानी बेलवेड्सने कहा था कि he behaved with me like a husband. यह उनके ऊपर चार्ज था, He behaved like a husband इस आरोप पर 1970-71-72 में जापान में ये हत्या की गई। आपने शायद अखबार में पढ़ा होगा।

सिद्धांत पर रूस में और चायना में भी अमल नहीं हो सका

लेकिन इस सिद्धांत पर रूस में और चायना में भी अमल नहीं हो सका। विवाह के समय ईसाई पद्धति से जिन रीति रिवाजों का पालन किया जाता था वे अवश्य बंद कर दिए गए, किंतु पतिपत्नी संबंध रहे। इस कारण फॅमिली ऑर्गनायझेशन भी रहा। उनकी यह कल्पना थी कि फॅमिली ऑर्गनायझेशन यह बुर्ज्वा कनसेप्ट है, इसे नष्ट करना चाहिए।

मार्क्स ने दास कापिताल का प्रथम प्रकाशन 1867 में किया

जहाँ तक परिवारविहीन समाज की कल्पना का प्रश्न है यह कोई हमारी भारतीय प्रतिभा के लिए एकदम नई बात नहीं है। आपकी जानकारी के लिए मैं यह बात बताना चाहता हूँ कि जिस समय माक्स ने दास कापिताल का प्रथम प्रकाशन 1867 में किया उसी साल यहाँ महाराष्ट्र में एक छोटासा डॉक्युमेंट पब्लिश हुआ। दोनों में ऐसा कुछ साम्य है कि मानो दोनों ने एक दूसरे को पढ़कर कुछ लिखा होगा। सायमलटेनियस पब्लिकेशन दोनों डॉक्युमेंट्स का है। इन डॉक्युमेंट्स में कॉम्युन्स की व्यवस्था दी गई है। कॉम्युन्स का नाम नहीं दिया लेकिन कॉम्युन्स की व्यवस्था बतायी। आपको आश्चर्य होगा कि कॉम्युन शब्द से कार्ल मार्क्स को जो अभिप्रेत था वह इस डॉक्युमेंट में पाया जाता है। यह डॉक्युमेंट लिखनेवाले का नाम श्री विष्णुबुवा ब्रह्मचारी है। उसके कुछ अंश अंग्रेजी में भी पब्लिश हुए हैं। आप उनको देख सकते हैं। यह एक अभिनव कल्पना थी सो बात नहीं, और यह भी नहीं कि भारतीय प्रतिभा कल्पना नहीं कर सकती। लेकिन हमने उसको स्वीकार नहीं किया। बताने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि फॉर अस इट वॉज नॉट समथिंग इनकन्सिएवल।

फॅमिली organism को भी वह नष्ट नहीं कर पाये

इस प्रकार फैमिली ऑर्गनायझेशन नष्ट करने का जो विचार कम्युनिस्टों ने रखा था वह भी नहीं हो सका। आज वहाँ फैमिलीज हैं। और इतना ही नहीं तो कुछ 12 साल पहले रशिया में तो उसको लेजिटिमेट भी बना दिया गया है। इनहेरिटन्स का भी अधिकार दिया गया है। उन्होंने यह भी कहा है कि जो लेजिटिमेट चाइल्ड होगा वह पिता की मृत्यु के बाद इनहेरिट करेगा। तो फॅमिली organism को भी वह नष्ट नहीं कर पाये।

हम गॉडलेस हैं यह दिखानेमें कम्युनिस्टों में बड़ी स्पर्धा रहती है

रिलीजन की बात आई तो यह कहा गया कि रिलीजन को नष्ट करना चाहिए। इतना ही नहीं तो रिलीजन नष्ट करने के लिए खूब सोच समझकर प्रयत्न रूस में किए गए। 1932 में जो पंचवार्षिक योजना का उद्घाटन रूस में हुआ उस योजना को 'गॉडलेस फाइव इयर प्लॅन' कहते हैं। 'गॉडलेस फाइव इयर प्लॅन। हम गॉडलेस हैं यह दिखानेमें कम्युनिस्टों में बड़ी स्पर्धा रहती है। उनको देखकर अब नॉन कम्युनिस्टों में भी यह स्पर्धा शुरू हुई है। यद्यपि सारे कम्युनिस्ट भगवान पर विश्वास न रखने वाले हैं तो भी हम ज्यादा कट्टर हैं यह दिखाने के लिए अल्बानिया में घोषित किया गया है कि We are the first ethiest country of the world. हम दुनिया के पहले नास्तिक देश हैं। स्टेट रिलीजन जैसा होता है वैसा Etheism उन्होंने बनाया। इस बात की इतनी स्पर्धा 1932 में थी।

सभी गिरिजाघर बंद कर दिए जाएंगे

उपरोक्त पंचवार्षिक योजना के उद्घाटन के समय रूस ने यह कार्यक्रम बनाया था कि 1936 तक सारे चर्चेस को नष्ट किया जाएगा। सभी गिरिजाघर बंद कर दिए जाएंगे। यानी 1937 में भगवान को रशिया से एक्सपेल किया जाएगा, बाहर निकाला जाएगा। ऐसा प्रोग्राम बना था। अब देखने की बात है कि यदि इतना पुराना प्रोग्राम था तो रसका कितना इंप्लिमेंटेशन रूस में अथवा अन्य देशों में हुआ? चर्चेस कुछ दिन बंद हुए-फिर से खुले। चर्च में जानेवालों की संख्या बढ़ने लगी। इतना ही नहीं, वहाँ वैज्ञानिक क्षेत्र में जो खोज हुई - अन्वेषण हुआ उसके कारण वहाँ के वैज्ञानिकों ने भी यह बताया कि हालाँकि हम कहते हैं कि यह सारा मैटर है, लेकिन जो मनुष्य का शरीर है वह जितना दिखता है इतना ही नहीं है। कुछ वलय भी शरीर के होंगे ऐसा लगता है। उसके फोटो लेने का भी उन्होंने प्रयास किया। यद्यपि धुंधला-धुंधला ऐसा फोटो आया होगा तो भी इन वलयों का भी कुछ अस्तित्व हैं इतना दिग्दर्शन करनेवाले फोटो तो कई आए। पब्लिश भी हुए। इसके कारण जो दिखता है उससे अलग कुछ चीज है। वह क्या है यह विचार वहाँ भी शुरू हुआ।

फिर से चर्चेस शुरू हुए

रिलीजन नष्ट होने के बजाय फिर से चर्चेस शुरू हुए। आज तो हम लोग यह जानते हैं कि कुछ ही महिने पूर्व शायद तीन या चार महिने पूर्व एक घटना हुई जिससे परिस्थिति पर प्रकाश पड़ता है। कॅथालिक पोप एक कम्युनिस्ट देश-पोलैंड में-जो उनका होम कंट्री है, गए। उनका दर्शन लेने के लिए कितने लोग आए? कुल मिलाकर अपने पोलंड की जनसंख्या 6 करोड़ है। इसमें से 3 करोड़ लोग दर्शन-लेने आए। होम टाऊन को (Crakow) में वे जब गए और वहाँ सामूहिक प्रार्थना का आयोजन किया तो दस लाख से ज्यादा लोग उसमें शामिल हुए। आज पौलंड में इतने दर्शकों से कम्युनिजम चल रहा है। रिलीजन को नष्ट करने की प्रतिज्ञा का क्या हुआ? लेकिन उनके क्रको होम टाऊन में दस लाख से ज्यादा लोगों ने उस सामुदयिक प्रार्थना में हिस्सा लिया।

पोप ने यह घोषित किया कि मास के इस सिद्धांत का मैं खंडन करता हूँ कि मनुष्य माने और कुछ नहीं, केवल उत्पादन का साध न मात्र है

यह सब कुछ कम्युनिस्ट शासित भूमि पर खड़े होकर पोप ने यह घोषित किया कि मास के इस सिद्धांत का मैं खंडन करता हूँ कि मनुष्य माने और कुछ नहीं, केवल उत्पादन का साधन मात्र है। Man is nothing more than means of production. इस कम्युनिस्ट सिद्धांत की निंदा करने की हिम्मत के साथ पोप ने कम्युनिस्ट भूमिपर घोषणा की। आज चायना और रशिया की जो संशोधित कॉन्स्टिट्यूशन - अॅमेडेड कॉन्स्टिट्यूशन है, दोनों में Man is nothing more than को स्थान दिया गया है। यह एक बात सुनकर आपको आश्चर्य होगा। मानो रिलीजन को नष्ट करने की प्रतिज्ञा की - 1932 से कार्यक्रम रखा और आज Freedom of Religion को एक मौलिक अधिकार के नाते स्वीकार करना पड़ा है। हम देख सकते हैं कि इस दिशा में वे कहाँ तक अपने ही शासन के अंदर जो देश हैं वहाँ प्रगति कर सके।

साम्यवादियों का फादरलैंड

अब उनके No Nation के सिद्धांत को लें। लेनिन ने तो Nationalism याने राष्ट्रवाद को नष्ट करना अपरिहार्य बताया। लेनिन ने कहा कि यह अपनी केवल नीति ही नहीं तो एक मौलिक सिद्धांत है। इस नाते प्रतिज्ञा घोषित की थी कि हम राष्ट्रवाद को नष्ट करके ही रहेंगे। क्या यह नष्ट हुआ? जिस समय अकेले रूस में कम्युनिजम था तब World War शुरू हुई और जर्मन सेनाएँ मॉस्को के पास पहुँची। स्टैलीन ने लोगों को आवाहन किया। लेकिन कम्युनिजम और इंटरनॅशलिजम के नाम पर लोगों को प्रेरणा मिलती दिखाई नहीं दी तब लोगों की भावनाओं को स्पर्श करने के लिए नॅशनॅलिजम के नाम पर उन्हें आवाहन करना पड़ा। तब तक इंटरनॅशनल गीत फ्रेंच में था। उसके स्थान पर नया रूसी राष्ट्रगीत बनाना पड़ा। उस समय स्टैलीन का वाक्य था - To defend the frontiers of your sacred father land - जो कम्युनिस्ट है, इंटरनॅशलिस्ट है उनके लिए। यह "फादरलैंड" कहाँ से आ गया?

रशियन राष्ट्र पुरुषों का पुनर्ज्जीवन हुआ

कम्युनिस्ट मित्रों के साथ हमारी बातचीत होती थी। तब हमने उनसे कहा कि भाई, तुम तो बड़े दिलवाले हो। तुम्हारा हृदय बहुत बड़ा है। तो तुम्हारे लिए यह फ्राँटिअर्स ऑफ फादरलैंड कहाँ से आया? तुम्हारी तो फ्रॉटिअर North Pole to the South Pole होनी चाहिए। उन्होंने कहा नहीं - यह तो व्यवहारिक बात है। इसे आप समझ नहीं पाते। हमने कहाकि यह ठीक है कि हम समझ नहीं पाते। और तब से रशियन नॅशलिजम इतना बढ़ा है, अपनी परंपरा के साथ संबंध जोड़ने का प्रयास इतना चला है कि पहले Feudal Lords के नाते या मोनार्क के नाते जिनको कंडेम किया गया ऐसे रशियन राष्ट्रपुरुषों का पुनरुज्जीवन हुआ। नगरों को उनका नाम दिया जाता है और वाचनालयों को उनका नाम दिया जाता है। यह सब इतने बड़े प्रमाण पर है कि प्रश्न उठता है कि और जो वास्तव में वहाँ रशियन नॅशलिजम चल रहा है या कम्युनिजम? मैं जब इधर देखने के लिए गया था तो सोचा कि कसौटी क्या मानी जाए?

नॅशलिजम वहाँ काफी प्रबल है

लेनिन यह उनका नेशन बिल्डर था। लेनिनिजम और माक्सिजम। तो माक्स का महत्त्व जनमानस में कितना है और लेनिन का कितना है? तो पुतले हैं, रास्तों के नाम है, नगरों के नाम है। इसी तरह से पता चलता है कि जो अलग अलग नाम दिए उसमें ऐसा दिख रहा कि यदि सौ जगह लेनिन के नाम होंगे तो दस बारह जगह मास के नाम दिए गए थे। नॅशलिजम वहाँ काफी प्रबल है। यहाँ तक कि समूचे सोवियत रूस का एक नॅशलिजम नहीं है, क्योंकि वहाँ नॅशनल इंटिग्रेशन हुआ नहीं। व्हाइट रशियन का नॅशलिजम है। बाकी लोगों का रूसिफिकेशन करने की प्रक्रिया चल रही है, जिसके खिलाफ विद्रोह की भावना भी है। ये जो चौदह-पंद्रह उनके फेडरल रिपब्लिक हैं वहाँ असंतोष और विद्रोह की भावना है। रूसिफिकेशन के बारे में जो नॉन व्हाइट रशिया है वहाँ भी और यहाँ तक कि व्हाइट रशिया में जो जार्जिया का हिस्सा है वहाँ भी व्हाइट रशियन नॅशलिजम के बारे में एक प्रतिक्रिया है। जो भी वहाँ का दौरा करेगा उसके ख्याल में यह सब आ सकता है।

चायनीज नैशनलिजम

विभिन्न देशों में भी नॅशलिजम प्रबल होता जा रहा है। ठीक है कि चायना में रूस की सहायता लेकर कम्युनिस्ट क्रांति लायी गई और अपने पैर धरतीपर लगने से पहले रूस की सहायता ली गई। किंतु जैसे ही वह (चायना) अपने पैरों पर खड़ा हुआ तो चायनीज नॅशनलिजम प्रगट हुआ। आज रूस और चायना का संघर्ष चल रहा है। यह हम देखते हैं। रूस ओर युगोस्लाविया एक दूसरे से मेल नहीं खाते - यह दृश्य हमने पहले देखा है। नॅशनलिजम के कारण हर एक कम्युनिस्ट कंट्री में जो पार्टियाँ हैं वे अपनी अपनी राष्ट्रीय संस्कृति और परंपरा के साथ कैसे संबंध जोड़ा जाए इस दृष्टि से अध्ययन कर रहे हैं।

आज कम्युनिस्ट देशों में भी कम्युनिजम से नॅशलिजम अधिक प्रबल है

आज ऐसा दृश्य दिखता है कि एक तरफ जहाँ कम्युनिस्टों का शासन नहीं है वहाँ भी कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपनी ऑटॉनॉमी-स्वायत्तता, इंडिपेंडस, स्वतंत्रता भी घोषित की है। जहाँ कम्युनिस्टों का शासन है वे देश एक दूसरे से लड़ रहे हैं, ऐसा भी हम देखते हैं। रूस और चायना का संघर्ष है, रूस और युगोस्लाविया का संघर्ष है और चायना और व्हिएटनाम आपस में लड़ रहे हैं। व्हिएटनाम और कंबोडिया आपस में लड़ रहे हैं। माने हालाँकि सारा युरोप क्रिश्चन है किंतु Christianity is not force in Europe. क्योंकि एक क्रिश्चन राष्ट्र दूसरे क्रिश्चन राष्ट्र के खिलाफ लड़ता है यह दृश्य दोनों जागतिक महायुद्ध के समय हमने देखा है। यानी जिस प्रकार वहाँ क्रिश्चनिटी की तुलना में सभी क्रिश्चन रहते हुए भी नॅशलिजम अधिक प्रबल है। यह बात हमें स्पष्ट दिखाई देती है। मैंने अफगाणिस्तान का भी उदाहरण दिया था कि अमीन को हटाया गया इसी कारण की वह रशियन इंपिरियॅलिजम मानने के लिए तैय्यार नहीं था। कुछ दिन पहले ईस्ट युरोपियन कंट्रीज में रशिन टैंकों के सहारे नॅशनलिजम की भावना को कुचल दिया गया। किंतु भावनायें हैं। फिर उभरती हैं। यह बात स्पष्ट है।

नो नेशन थ्योरी

तो यह कम्युनिस्टों की जो नो नेशन थ्योरी थी - और जिसे मूलगामी गायडिंग प्रिंसिपल कहा गया था वह भी चल नहीं सका। पाँचवा जो उनका सिद्धांत था कि 'नो प्राइव्हेट प्रॉपर्टी'। जहाँ तक हम भारतीय लोग हैं, हमारे लिए तो इसमें कोई दिक्कत नहीं। बहुत लोग ऐसा सोचते हैं कि जो अँटी कम्युनिस्ट हैं वे शायद प्राइव्हेट प्रॉपर्टी अँड कॅपिटॅलिजम के समर्थक होंगे। ऐसी बात नहीं। हम लोग न कॅपिटॅलिजम चाहते हैं न कम्युनिजम चाहते हैं।

पेट पालने के लिए जितनी वस्तु की आवश्यकता है उस पर ही तुम्हारा अधिकार है

प्रॉपर्टी के बारे में हमारे यहाँ प्राचीन काल से जो कन्सेप्ट है वह सब के सामने है। जिस समय भारतीय मजदूर संघ को नॅशनल लेबर कमिशन के सामने मेमोरेंडम पेश करना था, उसकी प्रश्नावली का जवाब देना था तो प्राइव्हेट प्रॉपर्टी के बारे में क्या सैद्धांतिक भूमिका होनी चाहिए, यह प्रश्न हमारे सामने था। इस संबंध में हम प. पू. गुरुजी के पास पहुँचे तब उन्होंने कहा कि अपनी ट्रॅडिशनल भूमिका तो यह है -

यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।

अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दंडमर्हति॥

अपना पेट पालने के लिए जितनी वस्तु की आवश्यकता है उस पर ही तुम्हारा अधिकार है। इससे अधिक पर अधिकार जमाने का दावा जो करेगा वह चोर है। उसको सजा देनी चाहिए। वही हमारे मेमोरैंडम में डाला है। इस तरह से हमारे लिए कोई तकलीफ नहीं। हमारे यहाँ तो कहा ही गया है -

इशावास्यमिदं सर्व यत्किच जगत्यां जगत्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद् धनम्॥

यह भी कह गया है कि -

भौमं दिव्यं चान्तरिक्ष।

वित्तं अच्युत निर्मितम्॥

हमारे यहाँ लक्ष्मीपति तो केवल भगवान को ही कहा गया है। टाटा, बिर्ला को भी लक्ष्मीपुत्र कहा जाता है - लक्ष्मीपति नहीं। पति भगवान को ही कहा जाता है। हमारे लिए इसमें कोई दिक्कत नहीं।

व्यक्तिगत संपत्ति समाप्त करने का सिद्धांत

लेकिन जिन्होंने प्राइवेट प्रॉपर्टी के अॅबॉलिशन का सुझाव दिया वे कहाँ तक उसको अॅबॉलिश कर सके? हिंदुस्थान के कम्युनिस्ट बड़े उत्साह से कहते हैं कि कार्ल मार्क्स ने व्यक्तिगत संपत्ति समाप्त करने का सिद्धांत दिया है वह बहुत क्रांतिकारी और अभिनव है। परंतु उनका यह दावा भी गलत है। मार्कस के पूर्व सन 1796 में पेरिस में एक गुप्त संस्था थी। नाम था The Union of the Equals उसके सिद्धांतों में एक सिद्धांत था - "अॅबॉलिशन ऑफ प्राइव्हेट प्रॉपर्टी।" सन 1652 में एक ब्रिटिश विचारक Winstanley ने एक किताब लिखी- "The Law of Freedom in Platform". इसमें 'अॅबॉलिशन ऑफ प्राइवेट प्रॉपर्टी' का प्रतिपादन हुआ है। उसके पूर्व 1602 में एक इटालियन ईसाई भिक्षु केम्पानेवाला ने एक किताब लिखी - 'City of the Sun'. इसमें 'अॅबॉलिशन ऑफ प्राइवेट प्रॉपर्टी' का प्रतिपादन किया गया था। उसके पूर्व 1615 में एक बड़ी प्रख्यात पुस्तक लिखी गई-'Utopia' श्री थामस मोर उसके लेखक थे। उस युटोपिया ने जो समाजरचना का वर्णन दिया उसमें भी प्राइवेट प्रॉपर्टी अॅबॉलिश की बात की गई थी। उसके भी पूर्व मध्ययुग के अंत में विद्रोही ईसाई संप्रदाय निर्माण हुए। उन्होंने भी अॅबॉलिशन ऑफ प्राइवेट प्रॉपर्टी का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। उसके भी पूर्व याने 2000 साल के पूर्व प्लेटो ने जो लिखा उसमें यद्यपि संपूर्ण समाज के लिए नहीं तो भी दो सेक्शन्स सैनिक और रूलर्स याने सत्ताधारियों के लिए लिखा कि अॅबॉलिशन ऑफ प्राइवेट प्रॉपर्टी होनी ही चाहिए। यह बात प्लेटो ने 2000 साल पहले लिखी है। तो प्रतिपादन के नाते यह सिद्धांत बड़ा अभिनव है - बड़ा क्रांतिकारी है ऐसा समझने की आवश्यकता नहीं। किंतु केवल प्रतिपादन की बात छोड़ दें तो व्यवहार में लाने की दृष्टिसे भी ऐसा कहा नहीं जा सकता कि यह कोई चीज एकदम नई है और मास ही उसे लाए हैं।

सारी संपत्ति और जमीन वहाँ स्टेट की थी

17 वीं शताब्दि के प्रारंभ में लैटिन अमरीका के एक देश पॅराग्वे के कोने में ईसाइयों का जो जेजूईट संप्रदाय है उस जेजूईट संप्रदाय के लोगों का उन्हांने वहाँ एक अपना शासन निर्माण किया। जिसमें common ownership थी। प्राइवेट ओनरशिप समाप्त की गई थी। उसके पूर्व लैटिन अमरीका के उत्तर हिस्से में एक बहुत बड़ासाम्राज्य चल रहा था। जिस साम्राज्य का नाम था इंका साम्राज्य। और इस साम्राज्य में प्राइवेट प्रॉपर्टी को अॅबॉलिश किया गया था। प्रत्यक्ष व्यवहार में अॅबॉलिश किया था और जो कुछ संपत्ति और जमीन थी वह सारी स्टेट के ओनरशिप में थी। उसके भी पूर्व याने ईसा पूर्व B.C. 22 और 21 शताब्दि में मेसापोटेमिया में जो राज्य था वहाँ प्राइवेट प्रॉपटी को अॅबॉलिश किया गया था। सारी संपत्ति और जमीन वहाँ स्टेट की थी। उसके भी पूर्व याने ईसा पूर्व 3000 साल - याने आज से लगभग 5000 साल पूर्व इजिप्त में फारोहा किंग्ज थे। उनके द्वारा भी प्राइवेट प्रॉपटी का अॅबॉलिशन किया गया था। इस तरह अब ये सारे प्रयोग हो चुके थे। इसलिए यह जो सिद्धांत अॅबॉलिशन ऑफ प्राइवेट प्रॉपर्टी का है, बड़ा अभिनव और क्रांतिकारी है और कर्काल मार्क्स के दिमाग की उपज है ऐसा समझने की आवश्यकता नहीं।

प्रिंसिपल ऑफ प्राइवेट प्रॉपटी को किसी भी कम्युनिस्ट कंट्री ने रिजेक्ट नहीं किया

इंडियन कम्युनिस्ट जो बताते हैं वह गलत बात है, इतना केवल हम ख्याल में रखें। किंतु यह जो सिद्धांत है क्या इस सिद्धांत पर किसी भी कम्युनिस्ट कंट्री में अमल हो रहा है? आज इतने देशों में कयुनिस्टों का राज्य है - क्या वहाँ अमल हो रहा है? नहीं हो रहा। आज रशिया में - चायना में भी और अन्य देशों में भी प्राइवेट प्रॉपर्टी कुछ न कुछ मात्रा में है। यह बात ठीक है कि उस पर लिमिटेशन्स डाली गई हैं। तो लिमिटेशन्न - रेस्ट्रिक्शन्स - कर्बज जो हैं वे तो कॅपिटॅलिस्ट कंट्रीज में भी हैं। डिग्री का अंतर होगा। प्रिंसिपल का अंतर नहीं। प्रिंसिपल ऑफ प्राइवेट प्रॉपर्टी को किसी भी कम्युनिस्ट कंट्री ने रिजेक्ट नहीं किया। हाँ, लिमिटेशन्स डाली हैं। वहाँ लिमिटेशन्स ज्यादा होंगी। कॅपिटॅलिस्ट कंट्रीज में टॅक्सेशन के रूप में लिमिटेशन डाला जाता है। किंतु प्रिंसिपल के रूप में सभी ने इसको माना है। प्रिंसिपल के रूप में प्राइवेट प्रॉपटी को कम्युनिस्ट कंट्रीज में भी रिजेक्ट नहीं किया। उनके भी कॉन्स्टिट्यूशन में सीमित मात्रा से क्यों न हो किंतु प्राइवेट प्रॉपर्टी रखने का अधिकार हरएक को है। इतना ही नहीं तो प्राइवेट प्रॉपर्टी बाप की है, वह लड़को को जा सकती है - यह इनहेरिटन्स की व्यवस्था भी आज रशिया के कॉन्स्ट्टियूशन में की गई है।

प्रैक्टिकल गाइडिंग प्रिंसिपल जो मार्क्स ने दिए थे उनपर मार्क्स को माननेवाले देशों में भी अमल नहीं हो रहा

तो यह दिखाई देता है कि इस सिद्धांत के नाते भी वह पीछे ही हटते गए। ये कुछ उदाहरण मैंने केवल आपके सामने इसलिए रखे कि व्यवहारिक स्तर पर उनके कथन को देखा जाए सैद्धांतिक स्तर पर उनकी कई भविष्यवाणियाँ गलत निकलीं। उनके कई सिद्धांत गलत निकले। उनकी जो रचना है - कॉसमॉलॉजी है वह आज के सायन्स के साथ मेल नहीं रखती। यह सारी जो थ्योरॉटिकल बातें हैं उनको छोड़ दिया तो भी प्रैक्टिकल गाइडिंग प्रिंसिपल्स जो मार्क्स ने दिए थे उन पर माक्स को माननेवाले देशों में भी अमल नहीं हो रहा। यह बताने की दृष्टि से केवल पाँच नेगेटिव गाइडिंग प्रिंसिपलस् का थोडासा विवरण मैंने किया।

कम्युनिज्म यह पहले ही फेल हो चुका है

इस दृष्टि से हम इस बात को समझ लें कि एक सिद्धांत के नाते कम्युनिज्म यह पहले ही फेल हो चुका है। कम्युनिस्ट पार्टी का बढ़ना और कम्युनिजम का बढ़ना अलग अलग बातें हैं। आज सारे यूरोप में सभी देश क्रिश्चन हैं और उनमें से एकाध देश में शायद डिफेंडर ऑफ द क्रिश्चन फेथ भी हैं। किंतु इसका मतलब यहाँ क्रिश्चनिटी चल रही है ऐसा नहीं होता क्रिश्चनिटी एक अलग चीज है। केवल क्रिश्चन के नाते वे लोग रहते हैं यह अलग बात है। सिद्धांत और व्यवहार में अंतर हो सकता है। केवल लेबल लगाने से यदि वह चीज हो जाती तब तो हमारे देश में 1947 से लेकर आजतक गांधीवादका ही राज्य रहा होता। पहले भी जो पार्टी शासन में थी वह भी गांधीवादी थी। आज जो पार्टी शासन में आनेवाली है वह भी गांधीवादी है। किंतु गांधीवाद का नामोनिशान 1947 के बाद देखा है क्या? गांधीवाद का लेबल लगाना अलग बात है और वास्तव में गांधीवाद का शासन अलग बात है। वैसे ही केवल मार्क्स का लेबल लगाना अलग बात है और वास्तव में मार्क्स के मुताबिक समाज रचना करना यह अलग बात है। केवल लेबल देखकर संभ्रम में आने की कोई आवश्यकता नहीं।

फिर भी आप कम्युनिस्ट है

हमने एक कम्युनिस्ट को कहा कि तुम्हारा तो ऐसा ही दिखता है कि मार्क्स ने कहा था, नो मॅरेज। मॅरेज आ गया। बोला हाँ! उसमें क्या है थोड़ासा हो ही जाता है। नो फैमिली - फॅमिली भी आ गई। प्राइवेट प्रॉपर्टी को भी आपने नष्ट नहीं किया। रिलीजन भी चलता है। नॅशनॉलिजम भी आ गया। सिद्धांत में भी परिवर्तन कर रहे हो। यह सारा हो रहा है फिर भी आप कम्युनिस्ट है। माने यह प्राणी कौनसा है? यह घोड़ा है। हालाँकि इसके पैर घोड़े के समान नहीं है। उसका पेट घोड़े के समान नहीं - गधे के समान है। इसका हर एक अवयव घोड़े के समान नहीं - गधे के समान है। लेकिन यह घोड़ा ही है। क्योंकि 'घोड़ा' यह लेबल लगा हुआ है। इस लेबल पर जाने की आवश्यकता नहीं है। वास्तविकता क्या है यह देखकर चलना चाहिए। इस दृष्टि से कम्युनिजम के बारे में बहुत चिंता करने की आवश्यकता नहीं।

कम्युनिज्म पहले ही सेल्फ डिफीटिंग थ्योरी है

पहले हम कहते थे - यानी 1955 से लगभग दस पन्द्रह वर्ष तक कहते थे कि भाई कम्युनिझम का अच्छा अध्ययन करो। उनके साथ चर्चा करनी पड़ेगी। आजकल कहते हैं कि अब इसमें अपना समय बरबाद मत करो। आपकोही कहते हैं ऐसा नहीं - बाकी लोगों को भी कहते हैं। ऐसा है कि पी. एचडी. का थीसिस लिखनेवाला विद्यार्थी कुछ दिन पहले याने पाँच छह साल पहले दिल्ली में हमारे पास आ गया। उसको किसी ने कहा था कि हमें कम्युनिजम के बारे में कुछ जानकारी है। इसलिए वह हमारे पास आया। तो हमने उससे कहा कि काहे के लिए पूछ रहे हो? उसने कहा, मुझे थीसिस लिखना है। मैंने कहा कि फिर जल्दी करो। उसने कहा-'क्यों? मैंने कहा, ऐसा न हो कि तुम्हारा थीसिस लिखते लिखते देर हो और तब तक कम्युनिजम ही टूट जाए ऐसा कहीं न हो इस तरह कम्युनिज्म पहले ही सेल्फ डिफीटिंग थ्योरी है। वह स्वयं अपने को नष्ट करने का काम ठीक ढंग से कर लेगी। ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी जिनके पास अध्ययन के लिए समय हो और कम्युनिजम के बारे में पढ़ने की इच्छा हो तो अपने अपने स्थान पर पढ़ते समय कौन सी बातें ख्याल में रखकर पढ़ना चाहिए इसका थोड़ा सा दिग्दर्शन इस समय किया है।

कार्यकर्ता स्वयं अपना संगठन करे

हमारी विजय निश्चित है

हम सब कार्यकर्ता बहुत प्रसन्न हैं कि अपना यह परस्पर विचार विनिमय का वर्ग बहुत सुचारु रूप से चला। अब आज उसका समापन है। इस अवसर पर श्री० अच्युतराव देशपांडे ने वर्ग की व्यवस्था करनेवाले कार्यकर्ताओं की ओर से क्षमायाचना की है। यह सज्जनता की बात है। वैसे वर्ग की व्यवस्था इतनी अच्छी रही कि सब साथी प्रसन्न रहे। इतने प्रसन्न कि अखिल भारतीय बैठक भी पूना में ही आयोजित करने के सुझाव आए हैं। यह सही है कि कुशल और समझदार लोगों की ही जिम्मेवारियाँ बढ़ती हैं। इसके लिए मैं आभार प्रदर्शन क्या करूं। इतने दिनों हम सब साथ रहे, बातचीत की। अब बिदाई के अवसर पर अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। वैसे भी यहाँ संपूर्ण देश से अच्छे समझदार कार्यकर्ता आए हैं। थोड़ा कहने पर भी पूरी बात समझ पाने वाले लोग हैं।

दूसरी भी बात है कि आखिर बातचीत का उद्देश्य परस्पर मनों की एकता करना ही होता है। जहाँ मनों की एकता पहले से ही है, ऐसा प्रतीत होता है, वहाँ शब्द, भाषा सुपरफ्लुअस (Superfluous) हो जाते हैं। जहाँ चारों ओर से अनुभव यही आता हो कि सुसंवाद है, वहाँ शब्द अप्रयोजनीय (सुपरफ्लुअस) हो जाते हैं।

एक अच्छी घटना याद आई है कि, दो श्रेष्ठ पुरुष Emerson और Cartule एक दूसरे को मिलने के लिए आतुर थे। उन्होंने पहले पत्रव्यवहार करते हुए एंगजमेंट तय की। एक घंटे का समय निश्चित किया। जो उनके नजदीकवाले थे उनको उत्सुकता थी कि आखिर ये इतने बड़े श्रेष्ठ पुरुष आपस में क्या क्या बातें करते हैं? उस भेंट का वर्णन आता है कि वे दोनों मिले। एक दूसरे की तरफ देखकर कुर्सी पर बैठ गए। एक घंटे तक शांत चित्त से दोनों एक दूसरे की तरफ देखते रहे। कोई किसी के साथ कोई बात बोला नहीं। दोनों ने अपनी घड़ी देखी। एक घंटा हो गया था। एंगेजमेंट का टाइम पूरा हुआ। दोनों उठें, और केवल एक ने दूसरे को 'श्रीमद्भगवद्गीता' का अनुवाद भेंट के रूप में दिया। दोनों एक दूसरे से अलग हो गए। कहते हैं कि उन दोनों का उनके निकटवर्तियों ने पूछा कि भाई, आप एक घंटे तक बैठे लेकिन आपने कुछ बात ही नहीं की।

तो दोनों ने कहा कि बातें तो बहुत हुईं। आपको पता नहीं चला। हम दोनों जानते थे इसलिए खुश थे। 'सायलेन्स इज मोअर इलोक्वंट', ऐसे भी कुछ प्रसंग होते हैं। कहने का मतलब यह कि जहाँ सुसंवाद है वहाँ वास्तव में भाषा का कोई प्रयोजन नहीं। इन सब बातों के कारण इस समय कुछ बोलना चाहिए ऐसी इच्छा नहीं हो रही है। अपने ढंग का यहाँ जो एकत्रीकरण है वह यदि छोड़ दिया तो जहाँ कहीं सार्वजनिक संस्थाओं का एकत्रीकरण होता है वहाँ लोग पूछते हैं कि भाई, यह एकत्रीकरण क्यों था? कहाँ तक अपने उद्देश्य में आप सफल हुए, वगैरह वगैरह। उनका कुछ अलग ही मापदंड रहता है। अब अपने यहाँ इतना सिस्टिमेटिक काम तो नहीं, इव्हॅल्युएशन भी क्या करेंगे? किसी बड़े उद्देश्य को लेकर यदि कोई उपक्रम किया गया तो वहाँ इव्हॅल्युएशन हो सकता है। जहाँ तक स्वाध्यायवर्ग की बात है ऐसा तो कुछ नहीं था।

भारतीय मजदूर संघ का उद्देश्य बहुत बड़ा है

भारतीय मजदूर संघ का उद्देश्य बहुत बड़ा है इसमें कोई शक नहीं। इसके विषय में बातचीत हो चुकी है, लेकिन जहाँ तक इस वर्ग के एकत्रीकरण का संबंध है, कोई बहुत बड़ा उद्देश्य नहीं था। अब बड़ा उद्देश्य याने क्या है? मजदूर क्षेत्र के बाहर का एक एकत्रीकरण था। वहाँ कुछ हमारे मित्रों ने हमें बुलाया। कहा कि आपका भी भाषण हम रखना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि बहुत ही ऊँचा उद्देश्य है। समग्र राष्ट्र में समग्र क्रांति कैसे लायी जा सकती है यह बताना है। हमने कहा कि भाई, इसके लिए तो हम एकदम ही अनुपयुक्त हैं। हम तो अपने व्यक्तिगत जीवन में क्रांति नहीं ला सके। छोटी सी आदतों में भी क्रांति नहीं ला सके तो समग्र राष्ट्र को समग्र क्रांति की दिशा बताने का नैतिक अधिकार कहाँ हमें प्राप्त हो सकता है? लेकिन हाँ, ऐसा कोई बहुत बड़ा उद्देश्य किसी एकत्रीकरण का हो कि Total revolution कैसे लाया जा सकता है? तो फिर कहाँ एसेसमेंट हो सकता है, evaluation हो सकता है। यह सोचा जा सकता है कि revolution के कितने इंच या फूट हम नजदीक पहुँचे।

कार्यकर्ता स्वयं अपना संगठन करें

अपना यह जो एकत्रीकरण था वह कोई खास तौर पर समग्र वगैरह के लिए नहीं था। इतना ही था कि हम आत्मनिरीक्षण करें, आत्मचिंतन करें। रोमँटिक शब्द का प्रयोग करना हो तो कह सकते हैं कि हम स्वयं अपना संगठन करें। हर एक कार्यकर्ता स्वयं अपना संगठन करें, बस इतना ही उद्देश्य था। Self organisation का विचार अपने सामने है। यानी एक एक व्यक्ति, एक एक कार्यकर्ता अपना सेल्फ ऑर्गनायझेशन करे और इस तरह स्वयं अपना संगठन करने में कार्यकर्ताओं को थोड़ीसी सहायता हो। स्वयं अपना संगठन बहुत कठिन काम है। अपना शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों का बराबर संगठन हो। चारों का तालमेल बराबर हो। यह बहुत कठिन काम है। हम तो सोचते हैं कि भाई, संस्था में तालमेल कैसा रहेगा? यह शायद इतनी कठिन बात नहीं, जितनी अपने ही जो चार अंग हैं - शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा - इनमें संगठन करना, तालमेल बराबर बिठना, सुसंवाद रखना। याने स्वयं अपना ही संगठन करना बहुत कठिन काम है।

Integrated personality ( एकात्म व्यक्तित्व) यह बहुत कठिन काम है

हर दिन हर एक को अनुभव आता है। जिव्हा कहती है कि रसगुल्ला खाया जाए। बुद्धि कहती है कि बेटा, तुम डायबेटिक पेशंट हो, यह अच्छा नहीं। इसीलिए श्रेष्ठ लोगों ने कहा है कि हमारे लिए तो हर क्षण लड़ाई का झण है। लड़ाई का मतलब उनकी स्वयं अपने साथ ही लड़ाई। Integrated personality यह बात कठिन काम है। आजकल तो शब्द ही चला है। Personality तो हर एक की होती है, ऐसा उनका कहना है। तो अपना ही स्वयं अपने साथ संगठन करने की प्रक्रिया में कार्यकर्ताओं को थोड़ी बहुत जितनी सहायता हो सकती है उतनी सहायता करना, इतना ही छोटा सा उद्देश्य लेकर हम लोग यहाँ एकत्रित हुए हैं। इस दृष्टि से मैं समझता हूँ कि यह वर्ग न होता तो भी भारतीय मजदूर संघ का हर एक कार्यकर्ता वैसे भी अपना स्वयं संगठन करने के प्रयत्न में जुटा हुआ रहता ही है। क्योंकि वह ध्येयवादी है, आदर्शवादी है।

ध्येय का अखंड चिंतन है

अन्य लोगां के समान उसमें बाकी बुराइयाँ हैं, त्रुटियाँ है ऐसा नहीं। और इसके कारण अपने ध्येय के साथ उसकी एकात्मता है, ध्येय का अखंड चिंतन है। इस कारण वह केवल स्वयं के विषय में विचार करना भी भूल गया है। "मैं" "मेरी" आदि बातें उसकी नष्ट हुई हैं। और ऐसे व्यक्ति यदि हैं तो फिर स्वाभाविक रूप से भा.म.संघ का काम आगे कैसे बढ़ाया जाए यह ज्यादा बताने की आवश्यकता नहीं। ध्येय अच्छा होते हुए भी कार्यकर्ता में ध्येय के प्रति आत्मसर्मपण की भावना न रही तो जिस तरह के दोष पैदा हो सकते हैं उस तरह के दोष पैदा होने की संभावना रहती है। Good cause lost by bad advocacy आदर्श 'एडव्होकेसी' में ऐसा होने की संभावना नहीं होती और फिर ऐसे व्यक्ति चार लोगों को साथ लेकर भी चल सकते हैं, संगठन भी खड़ा कर सकते हैं।

मास्टर माइंड ग्रुप

जिसको भारतीय मजदूर संघ ने 'Master Mind Group' कहा है। याने कि ऐसा ग्रुप, जिसमें हर एक व्यक्ति के सामने एक ही लक्ष्य है। एक ही ध्येय से सभी प्रेरित हैं। एक ही पथ के सब राही हैं। इसी कारण आपस में पूर्ण विश्वास, परस्पर प्रेम भी है। विभिन्न व्यक्ति विभिन्न गुण के वाहक हैं। और आपस में व्यूहरचना इस ढंग से की गई है कि हर एकके गुण का उपयोग संगठन बनाने के लिए हो। जो त्रुटियाँ होंगी, अवगुण होंगे, दोष होंगे वे फैलने न पाये। उन कमियों की पूर्ति के लिए अन्य लोग अपने गुणों से सहायता करें। इसी तरह से 'फ्रंट' की रचना की जाए कि हर एक के अवगुण और त्रुटियाँ पीछे रहें। सब के गुणों को आगे लाया जाए और एक दूसरों की कमियों की पूर्ति एक दूसरे के गुणों के कारण हो सके। इस तरह विभिन्न गुण धारण करनेवाले एक दूसरों के साथ टीमवर्क के समान काम कर सकते हैं। सबमें परस्पर विश्वास और स्नेह है। सभी एक ही ध्येय से, आदर्श से प्रेरित है। इस तरह की जो टीम है उसको 'मास्टर माइंड ग्रुप' कहा गया।

आदर्शनिष्ठ कार्यकर्ता

यही ग्रुप आदर्शनिष्ठ कार्यकर्ता निर्माण कर सकता है। इसी ग्रुप के कारण, यद्यपि परिस्थिति में कम अधिक हो सकता है, अच्छी-बुरी परिस्थितियाँ आ सकती हैं, तो भी हर अनुकूल परिस्थिति में गुणात्मक वृद्धि, प्रतिकूल परिस्थिति में संख्यात्मक वृद्धि, किंतु दोनों परिस्थितियों में अपने कार्य की वृद्धि हम लोग करते जा रहे हैं। यह होता ही रहा है, इसके कारण इस विषय में लंबा चौड़ा बोलने की आवश्यकता नहीं। इस तरह इस वर्ग का जो उद्देश्य था वह बहुत सीमित था। इसमें हर एक व्यक्ति अपने बारे में आत्मचिंतन करते हुए स्वयं अपने को संगठित करने का कैसा प्रयास करेगा यही सोचा जाए। अन्य लोगों के समान हम ऐसा नहीं सोचते कि सारी दुनिया को कैसे दुरुस्त करना इसका विचार पहले किया जाए। हम तो यही सोचते हैं कि पहले स्वयं अपने को ठीक केसे किया जाए? जो कार्य का साधन है वह ठीक रहेगा तो साध्य कि चिंता करने की आवश्यकता नहीं। वह स्वयं ही प्राप्त होगा।

कभी-कभी आत्मविश्वास और अहंकार दोनों बातें एक ही होती हैं

मुझे एक छोटीसी घटना का स्मरण होता है - यही पुणे की घटना। काफी साल हो गए। यहाँ एक श्रेष्ठ पुरुष पूजनीय श्री. वामनराव गुळवणी अभी अभी तक थे। उनके एक शिष्य थे। वे हमें उनके पास दर्शन के लिए ले गए। उन्होंने श्री गुळवणीजी से कहा कि ये आपके दर्शन के लिए आए हैं। आप कुछ उपदेश दीजिए, मार्गदर्शन कीजिए। मेरी उमर उस समय आज से 15/20 साल छोटी थी। और इसके कारण जो कुछ उस उमर के लिए आवश्यक या स्वाभाविक इस तरह का कुछ अहंकार का भाव कहिए, आत्मविश्वास कहिए, (कभी कभी आत्मविश्वास और अहंकार दोनों बातें एक ही होती हैं।) बोलनेवाले के शब्दरचना पर अवलंबित होता है, ऐसा कुछ होगा। तो उन्होंने कहा कि, नहीं, इनको हमारे मार्गदर्शन की कोई आवश्यकता नहीं है। ये तो मजदूरों का मार्गदर्शन करनेवाले हैं। सब मजदूरों का कल्याण किस बात में है इसे ये जानते हैं। वे बोले कि मैं समझता हूँ कि जो इतने मजदूरों का मार्गदर्शन करनेवाले हैं और उनका कल्याण किसमें है यह जानते हैं तो निश्चित ही अपना स्वयं आत्मकल्याण किसमें है यह उन्होंने पहले पहचान ही लिया होगा। ऐसे आदमी के लिए मैं काहे का कुछ मार्गदर्शन करने का कष्ट उठाऊँ? हम वापिस आए तो हमें साथ ले जानेवाले सज्जन कहने लगे कि माफ करना, उन्होंने कुछ भी कहा नहीं। आपको निराशा हुई होगी। हमने कहा कि नहीं, उन्होंने काफी कुछ कहा है। तो इस तरह से स्वयं से विचार करना इतना यदि हो सका तो शेष सब अपने आप लेगा।

कार्य का प्रारंभ स्वयं से करो

हमारे एक माननीय अधिकारी थे। वह हमेशा कहते थे कि Begin with first person, singular यानी कार्य का प्रारंभ स्वयं से करो। अपना संगठन यदि हम ठीक करें अपनी ध्येयनिष्ठा ठीक रखें तो बाकी सब बातें ठीक हो सकती हैं। मास्टर माइन्ड ग्रुप बराबर बन सकता है। एक दूसरे के साथ तालमेल बराबर बैठ सकता है। आपने नाम सुना होगा-नील आर्मस्ट्राँग, जिन्होंने चंद्रमा पर सर्वप्रथम पदार्पण किया। उनके कार्यक्रम का नाम 'अपोलो प्रोग्रॅम' ऐसा था। उनका बड़ा अभिनंदन हुआ। अपने डॉ. विक्रम साराभाई ने उनसे प्रश्न किया कि, भाई, इतना बड़ा काम आप कैसे कर सके? तो आर्मस्ट्राँग ने साराभाई को जवाब दिया कि एक तो हम निश्चित रूप से जानते थे कि हमारा लक्ष्य क्या है, और दूसरा हमारे अपोलो प्रोग्रॅम की टीम में जितने लोग थे उनमें से हर एक को पता था कि कुल मिलाकर प्रोग्रॅम क्या है, लक्ष्य क्या है। और उस लक्ष्यप्राप्ति की दृष्टि से कौन-कौन सी भूमिका निभाना है। हर एक को बिलकुल ठीक निश्चित पता था, इसी कारण हम लोग सफल हो सके।

जिनको ध्येयदर्शन नहीं वे काम नहीं कर सकते

मैं समझता हूँ, इस तरह की अवस्था अच्छे कार्यकर्ता की ही हो सकती है। स्वयं हम संगठित रहे (self organised) तो बाकी बातें स्वाभाविक रूप से उत्क्रांत होंगी। जैसे केमिकल एक्शन में होता है। स्वामी विवेकानंदजी ने कहा कि Ours is to put chemical together, crystalisation will follow by the law of nature. वैसे हम स्वयं अपने को दुरुस्त रख सके तो दुनिया को दुरुस्त करने का कार्यक्रम बराबर हो सकता है। जिनके सामने एक निश्चित लक्ष्य है, जो ध्येय के लिए आत्मसमर्पित है ऐसे लोग यदि self organised हैं तो अच्छी और बुरी दोनों परिस्थितियों में समान हिम्मत से, समान साहस से, समान उत्साह से काम कर सकते हैं। जिनको ध्येयदर्शन नहीं वे काम नहीं कर सकते। वे बीच में ही कहीं छोड़ जाएँगे। कहीं आपत्ति आई, प्रलोभन मिला तो छोड़ जाएंगे। देवताओं ने जब समुद्रमंथन किया तो उसके बारे में कहा गया है कि,

रत्नैः महार्है: स्तुतुषुः न देवाः।

न भेजि रे भीम विषण भीतिम्।

सुधां विनान प्रभयुर्विराम।

न निश्चितार्थत् विरमंति धीरः।

अमृत निकलना था। परंतु इसके बीच समुद्र ने तरह तरह के रत्न दिए, ताकि ये रत्न पाने के कारण खुश हो जाएँगे और अगला प्रोग्रॅम छोड़ देंगे। किंतु रत्न प्राप्त होने के पश्चात भी वे अपने ध्येय को भूल नहीं गए। उन्होंने मंथन जारी रखा। समुद्र ने सोचा कि ये प्रलोभन के कारण वश नहीं होते, तो भीषण कालकूट जैसा विषय यह बाहर फेंका। लेकिन उसके कारण भी वे डरे नहीं। मंथन का कार्यक्रम तब तक जारी रखा जब तक अमृत प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए कहा कि 'न निश्चितार्थात् द्विरमंति धीरः'। ऐसे लोग अपने ध्येय से विचलित नहीं होते। न प्रलोभन के कारण, न भय के कारण। इस तरह का धैर्य, जिसको धर्मधैर्य कहा जाए, आदर्शवादी व्यक्तियों में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है। इसके लिए अलग कोशिश करने की आवश्यकता नहीं होती, जो सामाजिक राष्ट्रीय ध्येय, ध्येय के साथ तादात्म्य है, एकात्मता है और स्वयं अपना ऑर्गनायझेशन है तो व्यक्ति बहुत धीरज रख सकता है। अन्यथा बाकी लोगों का धीरज टूट जाता है। कोलंबसने ध्येय सामने रखा। ध्येय के साथ एकात्मता थी कि पश्चिम दिशा में समुद्र में आगे और आगे ही बढ़ जाऊँगा। वहाँ जमीन मिलेगी। यह पूरा विश्वास था। इस विश्वास के साथ अपना जहाज लेकर आगे बढ़ा। अब सबके मन में यह ध्येयदर्शन नहीं था, एकात्मता नहीं थी। इस कारण धीरज नहीं था। सप्ताह के पश्चात सप्ताह बीत गया, महीने बीत गए, कहीं जमीन दिखाई नहीं देती थी। निराशा ही निराशा छाने लगी। ऊपर नीला आकाश, नीचे नीला पानी। जीवमान सृष्टि का कोई लक्षण इधर-उधर नहीं दिखाई देता था। इधर जो खाने-पीने की सामग्री थी वह भी समाप्त होने लगी थी। पता नहीं कि जमीन मिलेगी या नहीं मिलेगी। इस तरह का संदेश लोगों को होने लगा। वे बचैन हो गए। कोलंबस से कहने लगे कि अब वापस ही जाएँगे। पता नहीं आगे कुछ मिलेगा या नहीं मिलेगा। फिर भी ध्येय-दर्शन किया हुआ, ध्येय के साथ एकात्म ऐसा व्यक्ति था जो बिलकुल विचलित नहीं हुआ। वह लोगों का साहस बढ़ाने की कोशिश करता था। होते होते एक समय आ गया कि वह अमरीका पहुँच गया। नई भूमि पर पहुँच गया। जो ध्येय के साथ एकात्म नहीं हैं उनका धीरज जल्दी टूटता है। लेकिन ध्येय के साथ जिनका आत्मसमर्पण हैं वे बहुत धीरज रख सकते हैं, सालों तक जुट सकते हैं। अपनी सारी उमर इस तरह के संग्राम में वे बिता सकते हैं।

डिटरमाइण्ड मायनोरिटी (संकल्पित अल्पसंख्या) ऐतिहासिक परिवर्तन लाती है

सभी जो गुण हैं वे ध्येय के साथ एकात्म होने से उत्पन्न होते हैं। ऐसे व्यक्ति यह भी चिंता नहीं करते की जनता हमारे साथ है या नहीं। क्योंकि विश्व में जब कोई ऐतिहासिक परिवर्तन हुआ तो वह कुछ गिने चुने लोगों ने अपने आत्मविश्वास से ही कर दिखाया। लेकिन ने इसे determined minority कहा है। आज तक इतिहास में determined minority ही परिवर्तन लाने में सफल हुई है। डिटरमाइण्ड मायनोरिटी ऐतिहासिक परिवर्तन लाती है ऐसा उनका कहना है। और यह दिखाता है कि यशापयश जो है वह केवल संख्याबल पर अवलंबित नहीं है। कार्यकर्ता की आदर्श निष्ठा पर, निश्चय पर, धीरज पर, साहस पर अवलंबित है। इतिहास में तो ऐसे कितने ही उदाहरण हैं कि बहुत थोड़े लोगों ने संघर्ष करते हुए अपनी इच्छा के अनुकूल परिवर्तन ऐतिहासिक क्रम में ला दिए हैं। ऐसे कितने ही उदाहरण हैं, आप सब लोग जानते हैं। इस तरह के ऐतिहासिक लाने की क्षमता रखनेवाले आदर्शनिष्ठ लोग साथ होना ही जरूरी है।

व्यक्ति जब ' अहं ' को भूल जाता है , स्वयं को ध्येय में विलीन कर देता है तब उसकी शक्ति असीम होती है

ये बड़े सौभाग्य की बात है कि ऐसे लोग भारतीय मजदूर संघ के पास हैं। इसी कारण मैंने कहा कि, यहाँ बहुत बातचीत की आवश्यकता नहीं है। स्वयं अपने मन से ही जिनको प्रेरणा प्राप्त हो रही है उस प्रेरणा के कारण आगे क्या करना इसका मार्गदर्शन भी जिनको प्राप्त हो रहा है ऐसे कार्यकर्ता यहाँ एकत्रित हुए हैं। अपने अपने क्षेत्र में ठीक ढंग से काम चला रहे हैं। व्यक्ति जब 'अहं' को भूल जाता है, स्वयं को ध्येय में विलीन कर देता है तब उसकी शक्ति असीम होती है। अगर व्यक्ति सेल्फ कॉन्शस हो और अपने अहं को लेकर चल रहा हो तो उसकी शक्ति सीमित होती है। उसकी अपनी शक्ति ही काम आती है। परंतु जब व्यक्ति अहंकार को त्यागकर स्वयं को कार्य में विलीन कर देता है तो ध्येय की जो intrinsic strength है, जो आंतरिक शक्ति है, आदर्श की शक्ति है, उसका वह वाहक बन जाता है। इस कारण असीम शक्ति का वाहक बनता है। जैसे बिजली का बल्ब है, फ्यूज हो गया यानी पॉवर हाऊस से संबंध कट गया तो वह प्रकाश नहीं दे सकता। यदि बल्ब फ्यूज नहीं है तो वह पॉवर हाऊस की शक्ति का वाहक है। बल्ब की candle power जितनी बढ़ाना चाहे बढ़ सकती है। आत्मसमर्पण के कारण व्यावहारिक दुनिया में भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं। जब थोड़े लोग बहुत विशाल परिवर्तन लाते हैं तो लोगों को आश्चर्य होता है कि इतनी शक्ति इनके अंदर कैसे आई? ये साहस कैसे कर सके? लोग कहते हैं जिनके कार्यों को पागलपन की दृष्टि से देखा जाता था उन्होंने इस तरह का साहस किया है। ऐसे कितने ही उदाहरण इतिहास में हैं। उनके अंदर यह शक्ति कैसे आई, यह हिम्मत कैसे आई?

श्री छत्रपति शिवाजी महाराज के इतिहास में एक घटना

श्री छत्रपती शिवाजी महाराज के इतिहास में एक घटना बाजी प्रभू देशपांडे के बारे में है। पूरी बताने की आवश्यकता नहीं। शिवाजी का पीछा करनेवाली शत्रुसेना बहुत थी, और प्रसंग ऐसा था कि यदि शिवाजी उस समय उनके हाथ में आ जाते तो हिंदवी स्वराज्य वहीं समाप्त होता। शिवाजी के साथ सेना भी इतनी नहीं थी कि शत्रु से लड़कर परास्त कर सके। क्या किया जाए यह उस परिस्थिति में सोचा गया। एक छोटी सी घाटी (Pass) थी। उसमें से गुजरना था। सोचा गया कि शिवाजी कुछ सैनिकों के साथ आगे बढ़ें और पीछा करने वाली शत्रुसेना को अपने गिने चुने साथी सैनिकों की हिम्मत पर बाजी प्रभु इस घाटी में रोकें। जानते थे कि ज्यादा देर तक रोकना संभव नहीं। जो इस कार्य के लिए खड़े होंगे उन सभी को मरना पड़ेगा। किंतु जब तक शिवाजी महाराज सुरक्षित विशालगढ़ नहीं पहुंचते तब तक आखिरी आदमी मरते दम तक शत्रु से जूझेगा और उन्हें घाटी पार नहीं करने देगा ऐसा तय हुआ। वास्तव में यह प्रसंग ऐसा था कि हिंदवी स्वराज्य का स्वप्न वहीं खत्म हो जाता। वीर बाजी प्रभु थोड़ेसे लोगों को लेकर वहाँ रुक गए और लड़ते रहे। सबको पता था कि यहाँ अपनी मृत्यु होगी। एक एक साथी धराशायी होने लगा फिर भी अंतिम साँस तक लड़ते रहे। कहते हैं जो घायल हो गए वे भी बचे हुए लोगों को उत्साह दे रहे थे। यह तय हुआ था कि शिवाजी विशालगढ़ पहुँचते ही तोपों की आवाजें होंगी। वह एक संकेत था कि वे पहुँच गए। इसलिए घाटी में लड़ने वाला हर सैनिक तोपों की आवाज की ओर कान लगाये था, और तब तक घायल होने के बाद भी मरने को तैयार नहीं था। स्वयं बाजी प्रभु लोहूतुहान थे। परंतु उनका शरीर भी तभी गिरा जब विशालगढ़ पर शिवाजी के पहुँचने की सूचना देनेवाली तोपें सुनाई दी। यदि उस समय यह साहस का काम थोड़े लोग न करते तो हिंदवी स्वराज्य का सपना वहीं खत्म होता। थोड़े लोगों ने इतिहस में परिवर्तन ला दिया।

रोम के इतिहास का एक प्रसंग

रोम के इतिहास में एक बार ऐसा प्रसंग आता है कि रोम पर हमला हुआ। हमला करनेवाली सेना बहुत बड़ी थी। रोम की सेना उसका मुकाबला नहीं कर सकी। अब क्या किया जाए? वहाँ टायबर नदी बहती है। तो उन्होंने सोचा कि किसी भी हालत में शत्रुओं को टायबर पार नहीं करने देंगे। अब प्रश्न था कि शत्रुओं को रोकेगा कौन? क्योंकि कुल मिलाकर उनके पास सिपाही ज्यादा नहीं थे। टायबर नदी का जो पुल था उस पार से शत्रुसेना पार कर सकती थी। सोचा गया कि पुल उड़ाया जाए। लेकिन उसे तोड़ने में समय लगेगा। शत्रुसेना तो नजदीक पहुँच गई थी। तब तक पुल उड़ाने की व्यवस्था में ही शत्रुसेना पुल पार कर जाएगी। इसलिए तया हुआ की जब तक ब्रिज तोड़ा नहीं जाता, शत्रुओं को पुल के उस पार ही रोक रखा जाए। यह काम तीन वीरपुरुषों को सौंप गया। नेतृत्व व्हेटॅशियस कर रहा था। यह ईसा पूर्व 488 की घटना है। व्हेटॅशियस बड़ा ही वीरपुरुष था। अब हम कल्पना कर सकते हैं कि इतनी बड़ी संख्या में शत्रुसेना और ये तीनों ही उनको रोक रहे हैं। उनमें से एक की मृत्यु हो गई, दूसरे की भी मृत्यु हुई। अकेला व्हेटॅशियस लड़ता रहा। लेकिन जब तक ब्रिज नहीं टूटा और विश्वास नहीं हो गया कि अभ किसी भी हालत में शत्रुसेना रोम में प्रवेश नहीं कर पायेगी, तब तक वह लड़ता रहा। इस तरह तीन लोगों के पराक्रम के कारण 'रोम' का विध्वंस उस समय बच गया। वरना इतिहास में परिवर्तन आ जाता। रोमन साम्राज्य वहीं नष्ट हो जाता। संख्या थोड़ी हो फिर भी पक्के ध्येयवादी और उस कारण निश्चय पर अटल रहनेवाले हो तो थोड़े लोग भी इतिहास को मोड़ दे सकते हैं, घटनाक्रम बदल सकते हैं। इसी कारण ऐसे व्यक्ति अपने अंदर महान शक्ति का अनुभव करते हैं। उनको नहीं लगता कि हम अकेले हैं, थोड़े हैं, हमसे यह कैसे होगा? उन्हें यह विश्वास रहता है कि हम विजयी होनेवाले हैं। हमारा ध्येय ठीक है। हमें कौन परास्त कर सकता है?

मैंने केवल निश्चय किया था कि मैं पराजित होनेवाला ही नहीं। इसलिए मैं विजयी हुआ

मैंने बड़ोदा में आपको एक उदाहरण बताया था कि जिस समय फ्रान्स के सभी लोग हार मान बैठे थे, सेनापति और मार्शल फॉक पराभूत नहीं हुए। प्रेस संवाददाताओं ने उनसे पूछा कि तुम्हारे साथ उन्नीस अॅडज्यूटंटस थे वे सब परास्त हुए, फिर तुम कैसे विजयी हुए? इस वीर ने सीधा इतना ही जवाब दिया, कि भाई, इसका एक ही कारण दिखता है कि I was simply determined not to be defeated, मैंने केवल निश्चय किया था कि मैं पराजित होने वाला ही नहीं। इसलिए मैं विजयी हुआ। इसमें आश्चर्य की क्या बात है? उनको तो आश्चर्य की बात नहीं लगी, लेकिन सामान्यजनों को वह आश्चर्य की ही बात हो सकती है।

नेपोलियन बोले , मैं 1,50,000 हूँ

Lipzig की लड़ाई में नेपोलियन के पास उनके असिस्टंटस् पहुँचे और बड़ी चिंतावाली खबर बताई कि शत्रु की सेना की संख्या हमारी सेना से तीन गुना है। नेपोलियन ने जवाब दिया, फिर उसमें चिंता की क्या बात है? तुम्हारी भी उतनी ही संख्या है।' उनकी संख्या 50,000 थी और शत्रु की 1,50,000 थी। तो नेपोलियन ने कहा कि, देखिए आपके पास कितनी सेना है?बोले, 50,000 तो नेपोलियन बोले' मैं 1,50,000 हूँ।' इस तरह 1,00,000 तो तुम्हारे ही हो गए। अब जो लड़ाई के मैदान में हिम्मत के साथ और आसानी से यह कह सकता है तो उसके पास कितना प्रचंड आत्मविश्वास होगा इसका विचार हम लोग कर सकते हैं।

यदि सारा टूट जाए तो मैं प्रारंभ से प्रारंभ करूंगा

प. पू. गुरुजी के जीवन में एक घटना हुई थी। जब उनसे कहा गया कि आपकी अपनी कार्यपद्धति में परिवर्तन करना चाहिए। कुछ लोग उनसे बोले कि यह जो आर.एस.एस. है यह सारा टूट जाएगा। It will crumble down. पूरी बात सुनने के बाद भी गुरुजी एक मिनिट के लिए चुपचाप रहे। सामने देख रहे थे। ऐसा लगता था कि वे और लोगों की तरफ देख ही नहीं रहे हैं। कहीं तो भी दूर देख रहे हैं। मानो स्वयं अपने को ही भूल गए हो। और फिर उनके मुँह से शब्द निकले कि, Well, if everything crumbles down, I will begin from the begining.' यदि सारा टूट जाए तो मैं प्रारंभ से प्रारंभ करूंगा। अब यह आत्मविश्वास कैसे निर्माण होता है?आत्मसमर्पण के कारण यहाँ छोटा-बड़ा यह भावना नहीं है। इस तरह के हम कार्यकर्ता हैं। फिर आज तो इतनी निराशा के साथ सोचने की आवश्यकता नहीं। We are prepared for the worst ये तो बात ठीक है, लेकिन ऐसी तो बिलकुल आवश्यकता नहीं। क्योंकि पिछले कई दशकों से हिंदुस्थान की राष्ट्रवादी शक्ति हर क्षेत्र में प्रगति कर रही है। अन्य लोगों को चिंता उत्पन्न हो इतनी तेजी से प्रगति हो रही है। जब इतनी शक्ति नहीं थी तब भी किसी ने ये नहीं सोचा कि चिंता की बात है। अपनी ही मस्ती में काम करते जा रहे थे। ध्येय के प्रति अविचल निष्ठा ही हमारी स्वाभाविक प्रकृति बन चुकी है। इसी ध्येयनिष्ठा, एकात्मता, आत्मसमर्पण को हम हिफाजत के साथ कायम रखें तो बाकी सब ठीक हो जाएगा। Everything will take care of itself. स्वयं हम अपनी फिफ्र करें इतनी ही बात है। इसीलिए हम लोगों का यहाँ एकत्रीकरण था। स्वयं अपनी चिंता करने में हम एक दूसरे की थोड़ी सहायता करें, इसीलिए अपना यहाँ अपना एकत्रीकरण रहा।

संकल्प में शक्ति है

हमें चिंता करनी पड़ती है, अखंड चिंता करनी पड़ती है। स्वयं अपनी भी। क्योंकि मनुष्य का मन बहुत चंचल है। घोड़े पर ठीक से कसकर सवारी नहीं करते तो घोड़ा आपको कब उछालकर फेंक देगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। उसे हमेशा नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है। इसी दृष्टि से यह आवश्यक हो जाता है कि बाहर की परिस्थिति को देखते हुए, अन्य लोगों का जीवन देखते हुए उसके बुरे परिणाम हम अपने मनपर न होने दें, और अपने जो अच्छे संस्कार हैं उन्हें हम कायम रखें। इस दृष्टि से एक संकल्प करने की बहुत आवश्यकता है। संकल्प में शक्ति है। मनुष्य के मन में तरह तरह की त्रुटियाँ, कमजोरियाँ जरूर आ सकती हैं। लेकिन हम त्रुटियों को नहीं आने देंगे, गलतियाँ नहीं होने देंगे, कमजोरियाँ नहीं आने देंगे। ऐसा दृढनिश्चय, संकल्प यदी हम करते हैं तो कहा जाता है कि संकल्प का दाता भगवान होता है। इस समय हममें से हर एक को इस तरह का दृढ़ संकल्प, निश्चय, प्रतिज्ञा करने की आवश्यकता है।

कठिनाई और अवसर ये दोनों अलग अलग बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं

इग्लैंड की भूमि पर आक्रमण करने के लिए विल्यम 'The Conqueror' आए। हॉलंड से सेना लेकर आए। वे जैसे ही आए और समुद्र से बाहर जमीन पर पाँव रखा, पहला ही कदम रखा, तो अपशकुन हुआ। हुआ यह कि जैसे उन्होंने कूद लगायी तो पैर फिसल गया। एक हाथ के बल पर उन्होंने अपने को सँभाला। एकदम कानाफूसी होने लगी, आपस में लोग चर्चा करने लगे। उन्होंने भी भाँप लिया कि लोग इसे अपशकुन समझ रहे हैं। इस कारण मनोबल कमजोर होगा। तब उन्होंने खड़े होकर कहा, कि भाई, सामने वह जो पहाड़ी है उसकी चोटी के पास हम लोग पहुँच जाएंगे और वहाँ मैं बात करना चाहता हूँ। सब आगे मार्च करेंगे। इधर उहोंने कुछ अपने विश्वस्त लोगों को रख दिया और कहा कि जिन जहाजों से हम लोग आएँ हैं उन सब जहाजों में आग लगा दो। ऐसा कहकर अपने अन्य सिपाहियों के साथ मार्च करते हुए उस पहाड़ी की चोटी के पास पहुँचे। सिपाहियों की पीठ समुद्र की तरफ थी विल्यम देख रहे थे, उनका मुँह समुद्र की तरफ था। अब हारजीत को देखने का ढंग होता है। पहली बात विल्यम ने कही, कि यहाँ भगवान ने आते ही हमें बड़ा आशीर्वाद दिया। जैसे ही मैंने यहाँ कदम रखा तो मेरी हस्तमुद्रा इस भूमि पर लग गई। भगवान की बड़ी कृपा हुई। आखिर कठिनाई और अवसर ये दोनों अलग अलग बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रश्न यह है कि देखनेवाला उसे किस प्रकार देखता है। कमजोर है वह हिम्मत हार बैठता है। ऐसे कठिन प्रसंगों में ही नई आशा के फूल खिलते नजर आते हैं।

हमारी विजय निश्चित है

इसलिए विल्यम ने कहा कि, मेरी हस्तमुद्रा पहला कदम रखते ही इस भूमि पर हुई। तो हमारी विजय निश्चित है। फिर दूसरी बात कही कि, अब पीछे देखिए। सबने पीछे देखा तो वहाँ ज्वालाएँ ऊपर जा रही थीं। सारे जहाज जल रहे थे। तो सेना में एक बेचैनी फैल गई। विल्यम The conqueror ने कहा कि, आप देखिए, कि जिन जहाजों में से हम आए हैं वे सारे जहाज जलाएँ जा रहे हैं और वापिस जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है। अब हमें इस भूमि पर रहना है। आप यहाँ से वापिस नहीं जा सकते। तो हम बहादुरी के साथ यहाँ लड़ेगे, विजय प्राप्त करेंगे, अथवा यहाँ हमारी मृत्यु होगी। वापिस जाना अब असंभव है। लोगों ने यह तय कर लिया कि कोई दूसरा alternative नहीं है। अब लड़ना ही है। पूरी ताकत और बहादुरी के साथ लड़ेंगे। उन्होंने विजय प्राप्त की। इंग्लैंड को जीत लिया।

सिंहगढ़ विजय की घटना

अपने इतिहास में भी सिंहगढ़ विजय की घटना ऐसी ही है। रस्सियों के सहारे सैनिक किले में पहुँच गए थे। रात्रि में घमासान युद्ध हुआ और तानाजी मालुसरे की मृत्यु हुई। उस समय घबराकर कुछ सैनिक रस्सियों की ओर भागे। परंतु शेलारमामा ने ललकार कर सैनिकों को कहा कि रस्से पहले ही काटे जा चुके हैं। शत्रुओं पर विजय हासिल करने के अलावा अब यहाँ से भाग पड़ने का कोई रास्ता नहीं है। जीतना है या मरना है। यह जब सुन लिया तब जिनके मन में कमजोरी आई थी वे सब वापिस आ गए। उन्होंने बहादुरी का परिचय दिया। किला उन्होंने जीत लिया। उन्होंने लड़ाई जीत ली।

हमें अपनी रस्सियाँ काटने का काम स्वयं करना होगा

इन उदाहरणों से कहने और समझने की बात केवल इतनी है कि कठिनाई और अवसर एक ही स्थिति के दो नाम हैं। कौनसा पहलू हम स्वीकार करते हैं उस पर ही सबकुछ निर्भर हैं। दोनों उदाहरणों में यही साफ होता है कि जो कायारता दिखा रहे थे वे ही बहादुरी की चोटी पर जा पहुँचे। हमारे लिए सोचने की बात केवल इतनी है कि इन उदाहरणों में जहाजों को आग लगानेवाला विल्यम द कान्करर था और रस्सियाँ काटने-वाला शेलारमामा था। यह काम सेना ने नहीं किया। लेकिन जो हम कार्यकर्ता हैं, हमें अपनी रस्सियाँ काटने का काम स्वयं करना होगा। अपने जहाज जलाने का काम स्वयं करना होगा। स्वयं अपने ब्रिज या पुल तोड़ना, स्वयं अपनी रस्सियाँ काटना इसी को कहते हैं - संकल्प करना, प्रतिज्ञा करना।

अपना ही अपने साथ बराबर सुसंवाद हो , संगठन हो

पाँच दिन तक हम यहाँ एक दूसरे के संपर्क में रहे, विचारविमर्श करते रहे, आत्मचिंतन करते रहे। इस अवसर पर यदि self organisation की दृष्टि से स्वयं अपना ही अपने साथ बराबर सुसंवाद हो, संगठन हो, इस हेतु से हम ध्येय के प्रति आत्मसमर्पण की प्रतिज्ञा और संकल्प यहाँ से लेकर चलें तो अपने अपने स्थान पर वापिस जाते समय आगे क्या होगा क्या न होगा इसकी बिलकुल चिंता करने की आवश्यकता नहीं रहेगी।

( पुस्तिका ' विचार सूत्र ' से .... सं)

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Ø मनुष्य को पंगु और बौना बनाने वाली गरीबी मिटे, जीविका के लिए जीवन रेहन न रखना पड़े, रोटी इन्सान को न खाए।

Ø मशीनें श्रम की कठोरता को घटायें, उत्पादकता को बढ़ायें, मगर वे श्रम का अवसर न छीनें, न आदमी को अपना पुर्जा बना पाएं।

Ø पृथ्वी का दोहन विवेक पूर्वक हो, प्रकृति से द्रोह न किया जाए।

Ø दरिद्रता, दैन्य व अत्याचार को मिटाने का वीरावेश भड़के, परंतु क्रूरता बहादुरी का मुखौटा पहनकर न घूमे।

Ø समाज और व्यक्ति, राष्ट्र और विश्व में परस्पराश्रय हो, परस्पर विरोध नहीं।

सोपान - 3

( कुछ प्रमुख बिंदु)

w आदतों के बारे में किसी ने कहा है "Sow a thought and reap an action, Sow an action and reap habit, sow a habit and reap a character, sow a character and reap a destiny."

w इतिहास में ऐसे उदाहरण हैं कि साधु पुरूष कभी दुष्ट और दुष्ट पुरूष साधु हो गए। कहा जाता है, "Every saint has his past and every sinner has his future."

w पांडव वनवास में थे। माता कुंती की भाक्ति से भगवान प्रसन्न हुए और वरदान मांग लेने को कहा। स्वाभविक था कुंती अपने पुत्रों (पांडवों) के खोए हुए राज्य को पुनः प्राप्त कर लेने का वरदान मांगती किंतु उन्होंने जो मांगा वह बड़ा आश्चर्यजनक था। उन्होंने मांगा 'विपदः सन्त नः शश्रद् यासु संकीतर्ने हरिः'। हमारे उपर सदा विपत्तियां रहें ताकि तुम्हारा स्मरण सदा होता रहे।

w पांडवों को चक्रवर्ती बनाने का काम श्री कृष्ण के कारण ही हुआ था। राजसूय यज्ञ में उनसे कोई एक दायित्व संभालने का जब प्रसंग आया तो उन्होंने कहा मैं जूठी पत्तलें उठाने का काम करूंगा। जीजस क्राईस्ट ने अपने शिष्यों के पैर धोने का काम किया। मदीना में पहली बड़ी मस्जिद बनी तो पैगम्बर मुहम्मद साहेब सर पर पत्थर ढोने का काम करते रहे। गांधी जी अपने अनुयायी की मालिश स्वयं करते थे। तिलक जी कार्यकर्ताओं के लिए पानी गर्म करने के लिए चुल्हा जलाते रहे। राष्ट्र निर्माण और सामूहिक नेतृत्व के नाते हममें से हरेक का जीवन मुल्य क्या है। बड़े काम के लिए उपरोक्त जीवन आदर्शों की अपेक्षा होती है। 'मैं नहीं तू ही' उच्च आदर्श हैं।

w जो स्वयं अपने को भूल गया है - अपना यश अपना बड़प्पन अपना सम्मान आदि का विचार जिसके मन में आता ही नहीं अपितु आदर्श का यश ध्येय की प्राप्ति का विचार जिसके मन में रहता है - जो अहम को भूल गया है वही वास्तव में आदर्श नेता है। अहम जितना बड़ा होगा उतना आदर्शवाद छोटा होगा - आदर्शवाद जितना बड़ा होगा अहम उतना ही छोटा होगा।

w फ्रांस के अन्य सभी सेनापति परास्त हुए किंतु एक मार्शल फाक विजयी हुए। उनसे जब पूछा गया कि आप कैसे विजयी हुए तो उन्होंने कहा 'I was simply determind not to be defeated.' मैं परास्त नहीं हूँगा यह प्रबल विश्वास अतः मैं विजयी हुआ।

w जैसे पैसे का स्वामित्व है वैसे ही पसीने का हो। पसीना भी उद्योग की पूंजी का एक अंग है। इस दृष्टि से जैसे पैसा देने वाला वैसे ही पसीना बहाने वाला भी अपने उद्योग का भागीदार है। इस कारण पसीना बहाने वाले भागीदार को भी उद्योग का स्वामी मानना चाहिए।

w आर्थिक स्वतंत्रता के लिए युद्ध (Second war of Economic independance) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम भारतीय मजदूर संघ ही ने किया है।

w मास अर्गेनाईजेशन्ज (जन संगठन) स्वतंत्र रहने दिजिए। लखनऊ कांग्रेस 1936 पं. नेहरू ए.आई.टी.यू.सी., किसान सभा आदि को कांग्रेस का विंग (अंग) बनाना चाहते थे पर गांधी जी ने मना कर दिया। डॉ. लोहिया एच.एम.एस. को प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विंग बनाना चाहते थे पर आर्चाय कृपलानी ने मना कर दिया। हम लोगों ने भी जब प. पू. श्री गुरूजी से पूछा तो उन्होंने भी कहा इडिपेंडेंट (स्वतंत्र) ही रहने चाहिए। तो गांधी जी आचार्य कृपलानी और प. पू. श्री गुरूजी आपस में बात करके कोई निष्कर्ष निकालते थे ऐसा नहीं। राजनितिक सोच और राष्ट्रनितिक सोच में अंतर होता है।

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किंतु यदि प्रत्येक नागरिक का व्यक्तिगत मानस समुचित रूप से न ढाला जाए तो समाज की बाहरी संरचना में लाये गए परिवर्तन व्यर्थ जाएंगे। वस्तुतः किसी भी प्रणाली का सफल या असफल होना उसमें कार्य करने वालों पर निर्भर है।

व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंधों के बारे में हमारा दृष्टिकोण संघर्ष का नहीं है वरन सदा ही सामंजस्य एवं सहयोग का रहा है। ऐसे भावों का सृजन इस अनुभूति से होता है कि सभी व्यक्तियों का अंतर्यामी सत् एक ही है। एकल व्यक्ति संयुक्त सामाजिक व्यक्तित्व का एक जीवित अंग है।

संपूर्ण राष्ट्र के साथ तादात्म्य (एकात्मता) के संस्कार किसी भी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के वास्तविक सामाजिक ताने-बाने का निर्माण करते हैं। सभी हिंदू संस्कारों में यज्ञ (अर्पण) सर्वाधिक महत्वपूर्ण है....बाह्य भौतिक जगत् में परिवर्तन आने से पूर्व मनुष्य की अंतश्चेतना का उपयुक्त विकास होना आवश्यक है।

पू. श्री गुरुजी

सोपान - 4

लेख

(मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी व अन्य प्रमुख कार्यकर्ता)

"जहाँ इतनी गरीबी है, वहाँ शासन-सत्ता में आने के लिए सबसे सरल साधन पैसा है। पैसे से 'वोटों' को खरीदा जा सकता है। लेकिन पैसा तो पैसे वालों से आता है। वे राजा हर्ष या कर्ण तो हैं नहीं कि दान की दृष्टि से देंगे। पैसा देनेवाला यह तो कहेगा नहीं कि 'आइए नेताजी, मेरा खजाना लूट ले जाइए। मैं तो मायाजाल से मुक्त होना चाहता हूँ।' जो पैसा देगा वह एक-एक पैसे की कीमत माँगेगा। 'यदि आप हमारे पैसे के बल पर राजसत्ता में आते हैं तो आपकी सत्ता का उपयोग हमारा पैसा बढ़ाने के लिए होना चाहिए'। इस समझौते के साथ पैसा दिया और लिया जाता है। जिनसे पैसा लिया जाता है, उनके सामने शासकों की आँखें शर्म से झुकी रहती हैं। पैसे वालों के ये कबूतर नेता उनके सम्मुख गुटर - गूँ नहीं कर सकते। भले ही वे बातें समाजवाद की करें, लेकिन व्यवहार में उनका ही साथ देंगे। यहाँ हमारे नेता राह देखते बैठते हैं कि उन्हें खरीदने के लिए अभी तक कोई क्यों नहीं आ रहा है? इसके लिए बेचैन रहते हैं।

द. बा. ठेंगड़ी

आदर्शवादियों के आदर्श मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी

हसुभाई दवे

पूर्व अध्यक्ष ,

भारतीय मजदूर संघ

राजकोट (गुजरात)

स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का निधन दिनांक 14.10.2004 पूना में हुआ। उस समय मैं भारतीय मजदूर संघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष था। थोड़े समय बाद सन 2005 में भारतीय मजदूर संघ का राष्ट्रीय अधिवेशन दिल्ली में हुआ। स्वभाविक तौर पर माननीय ठेगड़ी जी की याद सबको सतायी। जब तक वे जीवित थे तब तक कोई चिंता नहीं थी। जरूरत लगे तो "साऊथ एवेन्यु" जाकर किसी भी शंका का समाधान हो जाता था और स्पष्ट मार्गदर्शन मिलता था। इसका कारण यह था कि मजदूर संघ की शुरूआत उन्होंने ही की थी और उनको किसी को पूछने की जरूरत नहीं थी। दूसरा पूरे देश का दौरा चलता रहता था और कौन कार्यकर्ता कैसा है और क्या कर रहा है उसकी समझ शक्ति, काम करने का तरीका, संगठन में उसका काम यह सब जानकारी उनके पास रहती थी। इसलिए उनमें निर्णय लेने की क्षमता अद्भुत थी। मुझे याद है जब मैं 1990 में गुजरात प्रदेश का महामंत्री था और उन्होंने मुझे भारतीय मजदूर संघ की स्टेयरिंग कमिटी में लिया था। यह निर्णय उनकी दीर्घदृष्टि का परिचायक है।

अभी तक जो संस्कार, संगठनशक्ति वगैरा जो हमको मिले हैं वह एक व्यक्ति के जाने से संगठन में शुन्यावकाश का निर्माण क्यों होता है। माननीय दत्तोपंतजी हमेशा एक उदाहरण देते थे। जब भी किसी व्यक्ति का देहांत होता है तो ऐसा कहने में आता है कि व्यक्ति के जाने से बहुत बड़ा नुकसान हुआ है और उनकी यह जगह भरी नहीं जाएगी। इसका उत्तर भी वे ही देते थे कि यह हकीकत सही नहीं है। वह कहते थे कि समुद्र में जब जहाज डूबता है तो वहाँ बड़ा गड्ढ़ा होता है और थोड़े समय बाद जब समुद्र स्थिर हो जाता है तो गड्ढा कहाँ था उसका पता नहीं चलता है। पहले के मूल्य और अभी-अभी के मूल्य में काफी बदलाव आया ह। बाहर की परिस्थिति आज के वातावरण में हावी हो गई है जिसका परिणाम देखने को मिल रहा है। ऐसी परिस्थिति हमेशा के लिए रहेगी ऐसा नहीं है।

हाल में 2014 में लोकसभा के आम चुनाव हुए थे इसमें भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला। यह स्वाभाविक है कि सबको बहुत खुशी हुई। एक बैठक में रिपोर्टिग देते समय भाजपा के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने उत्साह में यह कहा कि हाल की परिस्थिति के कारण भाजपा में आने के लिए लोग लाईन लगा रहे हैं। एक सुनामी जैसा वातावरण पैदा हुआ है और स्वाभाविक तौर पर हर व्यक्ति चलती गाड़ी में चढ़ना चाहता है। यह रिपोर्टिग सुनकर तुरंत ही मेरे मन में एक सवाल आया कि पुराने कार्यकर्ता कहते हैं कि अभी हमारे जैसे पुराने लोगों का कौन भाव पूछेगा। यह एक दूसरा दृश्य है। मैं सुनामी शब्द सुनकर खड़ा हो गया।

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी बहुत बार उदाहरण देते थे कि जब दूसरी कंपनी से एक साथ मजदूर जब भा.म.संघ में शामिल होते हैं तब जल्दबाजी न कर यह विचारना चाहिए कि वे क्यों शामिल हो रहे हैं। सभ्य संख्या बढ़ाने का यह एक ही उपाय नहीं है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वे सब पुराने संस्कारों के साथ आए हैं और यह भी कहते थे कि कहीं उन्हें सुधारने की जगह वे अपने यानि (भा.म.सं.) संस्कारी कार्यकर्ता को न बिगाड़ दें। वह देखने की हमारी प्राथमिक जबाबदारी है। संगठन इस तरह से दरवाजे खुल्ला रखना जिसको आना है वो आए जिसको जाना है वह जाए इससे संगठन का और कार्यकर्ता का विकास नहीं होता है। कार्यकर्ता को संस्कारित करने के लिए बार-बार अभ्यास वर्ग का आयोजन करना पड़ेगा और अपनी नीति, रीति, पद्धति और विचारों के बारे में जानकारी देनी पड़ेगी। मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी इसी लिए पीतल के बरतनों का उदाहरण देते थे कि उन्हें दैनिक साफ करना चाहिए।

परिस्थिति के अनुसार पद्धति बदलने की जरूरत है। इसमें कोई मत नहीं की परिवर्तन आवश्यक है। मगर अभी तक संगठन जिन सिद्धांतों को लेकर चल रहा था और उसी कारण परिस्थिति के हिसाब से कोई रास्ता निकाला जाए तो कोई तकलीफ नहीं। परंतु अपने मूल सिद्धांतों के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहिए। यह मर्यादा को ध्यान में रखकर अगर कोई निर्णय लिया जाए तो कोई तकलीफ नहीं होती। मा. दत्तोपंत जी सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों की बात करते थे कि आजादी से पहले और आजादी के बाद जीवन मूल्यों में बदलाव आया है। पहले जो आदर्श था वो अब व्यवहार बन गया है। पहले कर्म-फल के त्याग की भावना थी अब फल की आशा रखते हैं। इस बारे में उन्होंने राजर्षि टंडन, राम-भरत, चाणक्य-चन्द्रगुप्त, महाभारत का माता कुंती वाला प्रसंग, जिसमें धृतराष्ट्र के साथ जंगल में जाने को तैयार, दीनदयाल जी वगैरह उदाहरण हम समझते हैं। यह सभी उदाहरण हमारे मार्गदर्शक हैं।

संगठन में बहुत चीजें परिवर्तनीय एवं अपरिवर्तनीय होती है जैसे भारतीय मजदूर संघ में अपरिवर्तनीय के बारे में विचार किया जाए तो विचारधारा, राष्ट्रप्रेम, उत्सवों, कार्यक्रमों, सादगीपूर्ण जीवन, संघर्ष करने की क्षमता, लचीलापन, कालधर्म की याद करना, अपने बाद दूसरी लाईन खड़ी करनी (Second Line of Defence) और समय पालन का महत्व है। मगर जब परिवर्तन करने का विचार होता है तब समय अनुसार आंतरिक हो सकता है। जैसे सिद्धांत को कायम रखकर परिवर्तन जरूरी है। मगर पद्धति से नहीं। प्रसिद्धि व्यक्ति की नहीं मगर संगठन की, विवेक नम्रता का कब उपयोग करना चाहिए, नीचे के कार्यकर्ता में श्रद्धा और विश्वास तभी निर्माण होगा जब उपरी लोग स्वयं से आदर्श बताएंगे। परस्पर विश्वास-अविश्वास नहीं, सामुहिकता - जिसमें लाईकिंग और डिसलाईकिंग नहीं, पद ही जबाबदार है। संगठन की संस्कृति और परंपरा को हमेशा याद रखना पड़ेगा।

इस तरीके से ऊपर दर्शायी गई हकीकतों से हम सबको मार्गदर्शन मिलता था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक के तौर पर ठेंगड़ी जी ने बहुत सारी पुस्तकें लिखी हैं। उनके द्वारा उन्होंने अपने विचार प्रगट किए है मगर इनमें से "थर्ड वे" और "कार्यकर्ता" दोनों पुस्तक बहुत उपयोगी एवम् मार्गदर्शक है। कार्यकर्ता पुस्तक कार्यकर्ता के लिए "गीता" समान है। इस पुस्तक में सभी क्षेत्र में काम कर रहे कार्यकर्ताओं के लिए बहुत उपयोगी बाते कहीं गई है, उदाहरण एवम् दृष्टान्त दिए हैं जिसे सैद्धांतिक और व्यवहारिक सभी बातों का आकलन किया गया है। उनके जिन्दगी के बारे में अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं मगर लिखने की मर्यादा के कारण अभी यह संभव नहीं है।

अंत में मैं यह कहना चाहता हूँ कि अगर ऊपर की परिस्थिति से बाहर आना है तो गीता में कृष्ण और दुर्योधन के संवाद में दुर्योधन के शब्द थे उसे याद करना जरूरी है:-

"धर्म क्या है वह मैं जानता हूँ, परंतु उसका अमल नहीं कर सकता और अधर्म क्या है वह भी मैं जानता हूँ परंतु उसमें से मैं निवृत नहीं हो सकता।"

इस बारे में मा. ठेंगड़ी जी बार-बार कहते थे कि पुनः आत्मचिंतन करना ही एकमात्र उपाय है।

एक आदर्श संघ स्वयंसेवक

प्रो. राजकुमार भाटिया

पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष

अ. भा. विद्यार्थी परिषद्

नई दिल्ली

यद्यपि श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ एवं स्वदेशी जागरण मंच के संस्थापक थे तथा कुछ अन्य संस्थाओं की स्थापना में उनकी मुख्य भूमिका थी पर तो भी वे उन संस्थाओं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ऊपर नहीं मानते थे। उनकी संघनिष्ठा व संघशरणता असंदिग्ध थी तथा संघ स्वयंसेवक के अपने दायित्व को वे कभी नहीं भूलते थे। प्रचलित अर्थो में आज जिसे संघ परिवार कहा जाता है उसे वे संघ सृष्टि कहते थे। संघसृष्टि के ही एक संगठन भारतीय मजदूर संघ (भा.म.संघ) के निर्माण में उनकी सर्वाधिक शक्ति लगी थी पर उस संस्था के अभिनिवेश से वे सर्वथा मुक्त रहे। संस्था की उपलब्धियों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी उन्होंने कभी नहीं किया।

1987 में नागपुर में हुई संघ की एक चिंतन बैठक में संघ उद्देश्य की पूर्ति में भारतीय मजदूर संघ के योगदान के विषय पर बोलते हुए उन्होंने तत्कालीन संदर्भ में कहा था, कि मजदूर संघ इस संबंध में बहुत कुछ नहीं कर पाया। उन्होंने कहा कि रोजी रोटी के साथ स्वार्थ से ऊपर उठ कर मजदूर कुछ करे यह अत्यंत कठिन कार्य था। मजदूर तो केवल इतना ही कर पाया कि मजदूरों का एक बड़ा वर्ग उसे अपना हितरक्षक मानता था तथा लाल झण्डे की बजाय भगवा झण्डे तले खड़ा होने लगा था। स्मरण रहे कि 1987 में मजदूर संघ प्रायः देश का अग्रणी संगठन बन चुका था।

यह स्मरण रखना आवश्यक है कि ठेंगड़ी जी रा. स्व. संघ के 1942 से प्रचारक थे यद्यपि उनके जीवन का बहुत बड़ा भाग सीधे संघ कार्य (शाखा कार्य) के बाहर बीता था जिसका प्रारंभ वर्ष 1949 में हो गया था। प्रारंभ में उनका लंबाकाल भारतीय मजदूर संघ में बीता तो अंतिम 20-22 वर्षों में स्वदेशी जागरण मंच उनकी पहली प्राथमिकता बन गया था। संघ प्रचारक के रूप में ठेंगड़ी जी उन थोड़े से प्रचारको में से एक थे जिनका व्यक्तिगत मार्गदर्शन संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी स्वयं करते थे। यह उसी मार्गदर्शन का परिणाम था कि ठेंगड़ी जी संघ विचार एवं कार्यपद्धति के प्रति अपने समर्पणभाव से कभी नहीं डिगे।

ठेंगड़ी जी की संघ निष्ठा के अनेक उदाहरण मुझे देखने को मिले। यह तो सर्वविदित है कि संघ की मान्यताओं में सबसे प्रमुख मान्यता है कि 'भारत हिंदू राष्ट्र है'। इसी मान्यता के कारण संघ को सबसे अधिक विरोध झेलना पड़ता है। संघ सृष्टि अथवा संघ परिवार के विविध संगठनों के प्रमुख लोग कई बार इस मान्यता के संबंध में बचाव की मुद्रा अपना लेते हैं। ठेंगड़ी जी ने ऐसा कभी नहीं किया।

इसी प्रकार संघ सृष्टि के विविध संगठनों में एक विषय बहुत महत्वपूर्ण बन जाता है कि वह संगठन संघ से अपने संबंधों को कैसे व्यक्त करे। चूँकि मैं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (आभाविप) में काम करता था इसलिए अभाविप में भी यह प्रश्न खड़ा होता था। भाजपा और संघ के संबंधों का विषय तो भारतीय सार्वजनिक जीवन में चर्चा का एक स्थायी विषय बना रहा है। वास्तव में यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण बन जाता है क्योंकि संघ की कुछ मान्यताओं एवं संघ पर लगने वाले कुछ आरोपों के कारण संगठनों से सीधे जुड़ने वालों के मन में कुछ शंकाएँ पैदा होती हैं। मीडिया एवं संघ विरोधी तो शंकाएँ उठाते ही रहते हैं जिनके उत्तर विविध संगठन अपने ढंग से देते हैं। ठेंगड़ी जी ने भा.म.संघ में संघ संबंधी शंकाओं को कभी महत्वपूर्ण नहीं बनने दिया। प्रारंभ से ही उन्होंने मजदूर संघ में यह मानसिकता बनाई कि वह संघ से पृथक नहीं है।

ठेंगड़ी जी से मेरा संबंध 1970 में किसी समय बना था। लगभग 25-30 वर्ष मेरी उनसे निकटता भी रही। मैं उन भाग्यशाली कार्यकताओं में से एक था जिन्हें ठेंगड़ी जी से अंतरंग चर्चाओं का अवसर मिलता था।

सार्वजनिक जीवन में बड़े लोगों के मतभेद व मनभेद प्रायः खुलकर सामने आ जाते हैं। प्रायः यह माना जाता है कि मतभेद आपत्तिजनक नहीं होते जितने मनभेद। पर अच्छे संगठनों में मतभेद व्यक्त करने के भी नियम होते हैं। ठेंगड़ी जी के जीवन में मैंने पाया कि उनके व्यवहार में मनभेद का कोई स्थान नहीं था। मतभेदों के संबंध में भी विधि निषेध का ध्यान रखते थे। इस संबंध में मुझे 2-3 अनुभव आए।

ठेगड़ी जी श्री गुरुजी से 14 वर्ष छोटे थे। व्यक्तियों के जीवन में आयु का यह अंतर बहुत बड़ा नहीं होता। परंतु ठेंगड़ी जी सदा ही श्री गुरुजी को अपना मार्गदर्शक बताते थे। श्री दीनदयाल उपाध्याय तो ठेंगड़ी जी से मात्र 4 वर्ष बड़े थे पर ठेंगड़ी जी के मुख से उनके संबंध में सदा आदरभाव व्यक्त होता था। दीनदयाल जी को विचारक के नाते ठेंगड़ी जी सदा सम्मान देते थे पर हमारी अंतरंगता में कुछ ऐसे मुद्दे भी प्रकट हुए जिन पर उनका मत बड़े संघ अधिकारियों के मत से भिन्न था। मेरे यह पूछने पर कि वे अपना मत कार्यकर्ताओं के समक्ष क्यों नहीं व्यक्त कर देते, वे कहते थे कि कार्यकर्ताओं में बुद्धिभेद पैदा करना संगठन हित में नहीं होगा।

बुद्धिभेद की एक गंभीर परिस्थिति को उन्होंने कुशलता से समाप्त किया था। मार्च 1998 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकार को अभी 8-9 मास ही बीते थे कि विविध कारणों से संघ विचार के कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार की आलोचना की गई। इनमे से एक श्री ठेंगड़ी जी भी थे। स्थिति ऐसी बनी कि संघ विचार परिवार में बुद्धिभेद पैदा हुआ तथा सामान्य तौर पर यह धारणा निर्मित होने लगी कि संघ विचार के लोग ही सरकार गिराने पर उतारू हैं। उसी वातावरण के दौरान भा.म.संघ की एक बड़ी रैली रामलीला मैदान में होने वाली थी। संघ विचार के कुछ शुभेच्छुओं को भय हुआ कि ठेंगड़ी जी द्वारा रैली में सरकार की आलोचना से स्थिति और बिगड़ेगी। यह भय व्यक्त करने वालों में कुछ साथीओं सहित मैं भी था। ठेंगड़ी जी ने हमें आश्वस्त किया कि वे स्थिति को संभालेंगे। रैली में सरकार की आलोचना उपयुक्त शब्दों में करने के साथ ही उन्होंने यह आशा व्यक्त की कि सरकार उनकी मांगों के प्रति साकारात्मक रुख अपनायेगी। हवा का रुख एकदम बदल गया। बुद्धिभेद समाप्त हुआ। आम धारणा परिवर्तित हुई तथा संघ विचार के अन्य क्षेत्रों में हितैषियों ने चैन की सांस ली।

मतभेद संबंधी एक भिन्न अनुभव भी मुझे आया। किन्हीं बड़े व्यक्ति के साथ ठेंगड़ी जी के मतभेद भी बड़े हो गए थे इसलिए दोनों में संवाद नहीं होता था। मैं यह मान बैठा कि समस्या मात्र संवाद की थी जो दोनों के बीच मनभेद के कारण पैदा हुई थी। मैंने ठेंगड़ी जी को बताया कि उन्हें संवाद करना चाहिए। तब उन्होंने मुझे समझाया की मूल विषय मतभेदों का था न कि मनभेद का तथा मतभेद दूर होने की संभावना नहीं थी।

हमारी परस्पर बातचीत में राजनीति की चर्चा भी होती थी। एक समय पर उन्होंने यह मत व्यक्त किया कि एक जनसंगठन के नाते सामान्य जन के बीच संघ को अपनी शक्ति इस सीमा तक बढ़ानी चाहिए कि सत्ता किसी की भी हो वह संघ की उपेक्षा न कर सके। उनका कहना था कि यह संभव है और उनका मत था कि संघ द्वारा इस प्रकार से समाज में पैठ बनाने के पश्चात यदि संघ विचार के घोर विरोधी साम्यवादी भी सत्ता में आ जाएं तो वे भी संघ की बात मानने को बाध्य हो जाएं। संघ के संबंध में ठेंगड़ी जी की सोच मौलिक और बहुत गहरी थी। वे चाहते थे कि संघ राष्ट्रीय समाज के एक भाग का संगठन न हो कर संपूर्ण समाज का संगठन बने। वे चाहते थे कि समाज के सभी वर्गों को समेटते हुए संघ इतना बड़ा हो जाए कि संघ और समाज में अंतर ही न रहे। हिंदू राष्ट्र की मान्यता को व्यवहार में लाने के लिए हिंदुत्व की आधारभूत शक्ति को वे संघ की पूंजी मानते थे। इस पूंजी में वे उन्हें भी जोड़ते थे जो संघ के विरोधी हैं पर जिनके जीवन में हिंदुत्व प्रगट होता है।

1996 के दिल्ली प्रांत के संघ शिक्षा वर्ग के दीक्षांत समारोह में अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि हिंदुत्व की शक्ति भारत में तीन रूपों में विद्यमान है - संघ स्वयंसेवकों, संघ समर्थकों तथा संघ विरोधी पर निजी जीवन में हिंदुत्व को जीने वालों के रूपों में। तीसरे प्रकार के कुछ वामपंथी व्यक्तियों के उदाहरण भी उन्होंने दिए।

ठेंगड़ी जी की संघ निष्ठा एक और अवसर पर तब प्रगट हुई जब सत्तर के दशक के प्रारंभ में अभाविप का ध्वज निधार्रित करने के लिए एक समिति बनी जिसका मुझे संयोजक बनाया गया। प्रसार माध्यमों एवं प्रचलित धारणा के अनुसार अभाविप को संघ अथवा जनसंघ की शाखा का माना जाता था। मेरे मन में आया कि अभाविप के ध्वज का रंग ऐसा हो जिससे उसे संघ से न जोड़ा जा सके। जब ठेंगड़ी जी से परामर्श किया तो उन्होंने आग्रह पूर्वक व तर्कपूर्वक मुझे समझाया कि भगवा रंग के अतिरिक्त किसी और रंग का विचार योग्य नहीं होगा।

इसे एक आश्चर्य ही कहना पड़ेगा कि विचारधारा के रूप में साम्यवाद् के प्रखर आलोचक ठेगड़ी जी के अनेक साम्यवादियों के साथ मधुर संबंध थे। साम्यवादी व्यक्ति व साम्यवादी चिंतन के बीच के अंतर को रेखांकित करते हुए वे मानते थे कि व्यक्तियों के साथ तालमेल रखते हुए भी उनके चिंतन से संघर्ष किया जा सकता है। मजदूर हितों के लिए साम्यवादियों के साथ चलने में उन्हें परहेज नहीं था परंतु विचारधारा के संघर्ष में उनके साथ मारपीट भी करनी पड़ सकती है यह वे मानते थे।

स्वदेशी जागरण मंच के प्रारभिक वर्षों में मैं भी उसमें काम करता था। उसी दौरान 90 के दशक के प्रारंभ में विश्वव्यापार संगठन के अनेक आपत्तिजनक प्रावधानों में से एक पेटैंट कानूनों का अध्ययनपूर्वक विरोध करने वाले एक वयोवृद्ध कानूनविद श्री बी. के कैला से मेरा कहीं परिचय हो गया। मुझे लगा कि ठेंगड़ी जी का उनसे परिचय होना चाहिए। ठेंगड़ी जी ने मेरा सुझाव सहर्ष स्वीकार किया। मैंने दोनों की भेंट कराई। ठेंगड़ी जी ने कैला जी के अभियान को पूरा समर्थन दिया। तत्पश्चात् दोनों इतने निकट आ गए कि कैला जी स्वदेशी जागरण मंच में सम्मिलित हो गए।

एक रोचक घटना भी घटी। पेटैंट कानूनों के संबंध में कैला जी समय समय पर सम्मेलन आयोजित किया करते थे। कैला जी की विषय पर पूरी पकड़ थी। यद्यपि व्यक्तिशः वे वामपंथी नहीं थे पर विषय के कारण वामपंथी उनका समर्थन करते थे। ऐसे ही एक सम्मेलन में ठेंगड़ी जी ने पूरे दिन भाग लिया। एक वामपंथी महिला को ठेंगड़ी जी का सहभागी होना हजम नहीं हुआ। उसे लगा कि ठेगड़ी जी दिखावा कर रहे थे और वामपंथियों को पूरा श्रेय नहीं लेने दे रहे थे। भावुक होकर रोते हुए उस महिला ने ठेंगड़ी जी को अपना विरोध दर्ज कराया।

'सादा जीवन-उच्च विचार' के ठेंगड़ी जी प्रत्यक्ष प्रमाण थे। दिल्ली में वर्षानुवर्ष वे साउथ एवेन्यू में रहते थे। जिस घर में वे रहते थे उसमें सादगी चारों ओर बिखरी दिखाई देती थी। केवल एक उदाहरण देना पर्याप्त है। ठेंगड़ी जी ने उस घर में कभी एयर कंडीशनर नहीं लगाने दिया।

ठेगड़ी जी की दिल्ली में अपनी कोई गाड़ी नहीं थी। या तो वे कार्यकर्ताओं की गाड़ियों में यात्रा करते थे अथवा टेक्सी ही उनका वाहन होता था।

ठेंगड़ी जी के साथ मेरे जैसी निकटता अभाविप के कुछ और कार्यकताओं को भी प्राप्त थी। यह निकटता संघ की प्रतिनिधि सभा के दौरान नागपुर में एक विशेष प्रकार से होती थी जब हम 2-4 लोगों के साथ वे रेशिमबाग के आसपास किसी चाय की दुकान पर चाय पीने के लिए जाते।

ऐसे गंभीर विचारक ठेंगड़ी जी का मजदूर नेता का अवतार मुझे आश्चर्यचकित करता था। मजदूर संघ के मंचों से मजदूरों के बीच वे जब बोलते थे तो किसी मंजे हुए राजनीतिक नेता से कम नहीं लगते थे।

ठेंगड़ी जी प्रबल आत्मविश्वास व इच्छा शक्ति के धनी थे। बढ़ती आयु से उनके व्यक्तित्व के यह पहलु क्षीण नहीं हुए। बात तब की है जब उनकी आयु 79-80 की थी। किसी एक संदर्भ में मैंने जब हताशा व्यक्त की तो योग्य स्थिति लाने के अपने दायित्व को मैं अवश्य निभाऊँगा। उनके कथन में लाचारी का लेशमात्र भी प्रगट नहीं हुआ। ऐसी इच्छा शक्ति ही हताश कार्यकताओं को प्रेरित करती रहती थी।

काल का पहिया ऐसा चला कि ठेंगड़ी जी की आयु के अंतिम वर्षों में मेरा उनसे मिलना नहीं होता था। उन्होंने दिल्ली छोड़ दी थी और अकारण उनसे मिलने की आवश्यकता मुझे नहीं पड़ती थी।

विकेंद्रीकरण।

शोषण की समाप्ति।

ब्याजमुक्त आर्थिक सहकार।

सुस्थिर आर्थिक अनुशासन।

सबके लिए आजीविका (रोजगार)।

मुद्रा की बाढ़ रोकने की पक्की व्यवस्था।

उत्पीड़नरहित सशक्त राज्य।

उपयुक्त प्रौद्योगिकी।

न्यूनतम कराधान।

निर्धनता का अंत।

नश्वरता से अनश्वरता

कृष्ण लाल पठेला

संपादक

विश्वकर्मा संकेत

नई दिल्ली

(अनुदित)

(श्रीकृष्ण लाल पठेला पी एण्ड टी महासंघ के पूर्व महामंत्री और भा.म.संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं। वर्तमान में भा.म.संघ के मुखपत्र 'विश्वकर्मा संकेत' के संपादक हैं.........सं)

व्यक्ति नश्वर है। जीवन-मरण के चक्र को रोका नहीं जा सकता। संसार के श्रेष्ठतम संतो फकीरों की प्रार्थना भी इस प्रक्रिया को बाधित नहीं कर सकती किंतु यह भी सत्य है कि किन्हीं महापुरुषों ने इस प्रकार के असंभव लगने वाले कार्य संभव कर दिखाए जिन के फलस्वरूप वे अनश्वरता को प्राप्त हुए। 'दत्तोपंत वापुराव ठेंगड़ी' का नाम इसी श्रेणी के महापुरुषों में आता है।

वर्ष 1949 में उन्हें वंचित, शोषित, गरीब मजदूरों में सेवाकार्य करने के लिए कहा गया था। उस के उपरान्त उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वर्ष 1955 में उन्होंने दूसरों से भिन्न भारतीय मजदूर संघ नामक श्रमिक संगठन की स्थापना की। उस समय यह किसी की भी कल्पना से परे की बात थी कि वामपंथियों के पूर्ण वर्चस्व वाले क्षेत्र में कोई भगवाध्वज उठा कर पदार्पण कर सकता है किंतु मा. ठेंगड़ी जी के नेतृत्व में भारतीय मजदूर संघ ने उक्त धारणा को गलत सिद्ध कर दिखाया। पच्चीस वर्ष के अल्पकाल वर्ष 1980 में इस ने राष्ट्रीय स्तर पर दूसरा तो अगले दस वषों से भी कम अवधि में इस ने प्रथम स्थान प्राप्त किया।

श्री ठेंगड़ी जी ने श्रम आन्दोलन को नई दिशा नया विचार दिया। उन के विचार दर्शन का प्रकटीकरण भारतीय मजदूर संघ के नारों द्वारा होता है। वामपंथी नारे यथा 'हर जोर जुल्म की टक्कर में - हड़ताल हमारा नारा है' और 'माँग हमारी पूरी हो - चाहे जो मजबूरी हो' के विपरीत - देश के हित में करेंगे काम-काम के लेंगे पूरे दाम' तथा - 'पैसे और पसीने की - कीमत जानो एक समान' भारतीय मजदूर संघ नारों के सम्मुख वामपंथी नारे फीके पड़ गए।

श्री ठेंगड़ी जी द्वारा राष्ट्रहित को सर्वोच्च वरीयता देना और उसी क्रमानुसार उद्योगहित और अंत में मजदूरहित को रखने के कारण वामपंथ द्वारा प्रचारित कि हड़ताल ही सर्व समस्याओं का समाधान है का विचार असंगत हो गया। श्री ठेंगड़ी की मान्यता थी कि औद्योगिक विवाद के केवल मालिक-मजदूर दो ही पक्ष नहीं हैं अपितु एक तीसरा उपभोक्ता पक्ष भी है जिस के हित की भी रक्षा की जानी चाहिए। वे आर्थिकहित से जुड़े सभी पक्षों के विचार विमर्श के पक्षधर थे। 'राष्ट्रीय प्रतिवद्धता' द्वारा उक्त जटिल समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है ऐसा वे मानते थे।

बोनस के विषय वे कहते थे जब तक मजदूर को 'फेयर-वेज' प्राप्त नहीं होता तब तक बोनस को मुनाफे का अंश मानना सही नहीं होगा। अतः उन्होंने बोनस को 'डैफरड-वेज़-विलंबित वेतन अथवा तेरहवीं तनख्वाह कहा और इसे सभी वेतन भोगीओं, सरकारी कर्मचारीओं को भी दीए जाने की माँग उठाई।

श्री ठेंगड़ी जी की राष्ट्रीय मुद्धों पर गहरी सोच और दूरदृष्टि थी। जब उन्हें लगा कि अकेले श्रम संघ द्वारा विश्व व्यापार संगठन और वैश्विक उदारीकरण जैसे घातक विचार का सामना करना कठिन होगा तो उन्होंने 'स्वदेशी जागरण मंच' की स्थापना की जिस से कि श्रम संघ गतिविधियों को वैचारिक स्तर पर शक्ति प्राप्त हो सके। इसी प्रकार बिना किसी शोर-शराबे के उन्होंने 'सर्व पंथ समादर मंच' और 'पर्यावरण मंच' की स्थापना की। उन्होंने सरकार को इस बात के लिए मजबूर किया कि विश्व व्यापार संगठन की बैठकों में सरकार राष्ट्रहित दृष्टिगत् सख्त रवैया अपनाए अथवा विश्व व्यापार संगठन से वाहिर आ जाए।

वर्ष 1951 में जब श्री ठेंगड़ी जी 31 वर्ष आयु के तब उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि वामपंथ अपने ही अतविरोधों के कारण नष्ट हो जाएगा जबकि वामपंथ उस समय अपने उत्कर्ष पर था। उन्होंने अमेरिकन वर्चस्वता के ह्रास की भी चर्चा की थी।

ठेंगड़ी जी महाराष्ट्र में उच्चकुलीन घराने की संतान थे जो 22 वर्ष की आयु में रा. स्व. संघ के प्रचारक बने और जीवन के अंतिम श्वास तक अपने आदर्शों पर अडिग रहे। वे सदा पारदर्शी जीवन जिए और जिन आदर्शों को प्रचारित किया उन का प्रथम स्वयं आचरण और पालन किया। उन के लाखों मित्र और चाहने वाले थे।

उनका जीवन और प्रवचन हम सभी के लिए दिशाकारक प्रकाश-स्तंभ समान है।

( विश्वकर्मा संकेत

नवंबर 2004 अंक से.....सं)

वे माटी की पीड़ा जानते थे

प्रभात झा

दत्तोपंत ठेंगड़ी नहीं रहे। वे शरीर नहीं विचार थे। विचार की मृत्यु नहीं होती। विचार अजर-अमर होता है। आनेवाला कल दत्तोपंत ठेंगड़ी पर उसी तरह शोध करेगा जैसे कबीर के एक-एक दोहे पर लोग आज तक पीएचडी कर रहे हैं। जब शताब्दी का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें विचारकों की गणना में दत्तोपंत ठेंगड़ी का नाम सबसे ऊपर की पंक्ति में होगा।

विषय के विद्वान बहुत लोग हो सकते हैं, पर अपने विचार अधिष्ठान के अधिष्ठाता और नवविचारों के जनक बिरले होते हैं। उन्हें अर्थ चिंतन कहें या वैज्ञानिक कहें, संस्स्रति पुरोधा कहें, हिंदू दार्शनिक कहें या उन्हें मजदूरों का मसीहा या किसानों का हमदर्द या फिर विचारकों का विचारक या आम नागरिकों के चिंतक दत्तोपंत जी जैसे बहुत लोग नहीं हैं।

हर संगठन में एक ऐसा व्यक्ति होता है जो रास्ता खोजता है या फिर रास्ता बनाता है। दत्तोपंत जी रास्ता बनाते थे और पुनः नए रास्ते की खोज में लग जाते थे। उनका सबसे बड़ा गुण था कि हर विषय की जड़ तक जाना। वे शिखर नहीं नींव के यज्ञ में ही आहुति देने में विश्वास करते थे। वे माटी की पीड़ा जानते थे।

आने वाले समय और घटने वाली घटनाओं के बारे में उन्हें वर्षों पूर्व आभास हो जाता था। वे अदम्य साहस, अपरिमित तेज के स्वामी और भारत की कुल परम्परा के पूर्ण जानकार थे। वे कश्मीर की पीडा को केरल में रहने के बाद भी अपनी पीड़ा समझते थे। वे मातृभूमि की समस्याओं से एक पुत्र की भांति परिचत थे। संकटों और विपदाओं को उन्होंने गले लगाया। वे धुन के धनी थे। अपने काम को समझने के लिए अंतिम बिंदु तक जाते थे।

10 नवंबर 1920 को दीपावली के पुण्य पर्व पर उनका जन्म महाराष्ट्र के वर्धा जिले के आर्वी ग्राम में हुआ था। वे संघ के स्वाभाविक विकास क्रम के साक्षी थे। गत 60-65 वर्षों से संघ के कार्य से सतत् जीवंत जुड़े ही नहीं रहे संघ और बल्कि हिंदू जीवन दर्शन को समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों में ले गए। वे नेता नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन के संवाहक थे। मजदूर आंदोलनों का अध्ययन करने वे अनेक बार विदेश गए। वहाँ भी उन्होंने देश की आम समस्याओं और जन संगठनों के प्रतिनिधि की भूमिका निभाई।

सन 1955 में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना भोपाल में हुई। उसके बाद उन्होंने इस हेतु संपूर्ण भारत का भ्रमण एक बार नहीं अनेक बार किया। वे विषय प्रतिपादित ही नहीं करते थे बल्कि समाज की मानसिकता पर अपने वचन और कर्म से जबर्दस्त प्रभाव डालते थे। वे कहते थे मजदूर जब अपना मांग पत्र प्रस्तुत करता है तो देखने में आता है कि उसकी 30-40 माँगे हैं। लेकिन वास्तव में देखा जाए तो कुल मिलाकर उसकी एक ही माँग होती है जो हर मनुष्य की होती है। माँग क्या हैं? वह माँग है मैं मनुष्य हूँ और मनुष्य के नाते जिंदा रहने का मुझे हक चाहिए।

दत्तोपंत जी कहते थे कि मुझे काम और काम की सुरक्षा चाहिए। उनका मानना था कि भारतीय मजदूर संघ ने यही माँग सदैव की। काम करने का हक मौलिक अधिकारों में जोड़ देना चाहिए। इस देश में जो पैदा हुआ है उसको काम मिलना चाहिए। दत्तोपंत जी के अथक प्रयत्नों से भारतीय मजदूर संघ निरंतर एक-एक पग बढ़ाते हुए देश में मजदूरों का सर्वश्रेष्ठ संगठन बन गया है। वे कहते थे कि भारतीय मजदूर संघ, मजदूर हित, उद्योगहित तथा राष्ट्रहित तीनों एक ही दिशा में जाने वाले मार्ग हैं।

'अखिल भारतीय मजदूर संगठन' के संस्थापक के रूप में दत्तोपंत ठेंगड़ी को हमेशा याद किया जाएगा। वे मजदूरों तथा श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए जीवन भर प्रयास करते रहें।

( वन एवं वनवासी श्रमिक स्मारिका से.....सं)

जीवन मूल्य : मानदंड

द. बा. ठेंगड़ी

संसार में अलग-अलग और तरह-तरह के जीवन मूल्य हैं। यह सोचने की बात हैं कि उनमें से कार्यकर्ताओं को अपने लिए कौन सा जीवन-मूल्य स्वीकार करना चाहिए। यह आज की ही नहीं, हमेशा की सोचने की बात है। आज की परिस्थिति में विशेष रूप से यह सोचने की इसलिए जरूरत है कि हमारे सार्वजनिक जीवन में कुछ अलग प्रकार के मापदंड प्रभावी हैं। विशेष रूप से राजनीतिक क्षेत्र में इस बात की होड़ लगी है कि ज्यादा से ज्यादा ऊँचा ओहदा कौन प्राप्त कर सकता है। बड़ी "पोजीशन" पर कौन पहुँचता है। चालाकी और कई प्रकार के ऊँचे-नीचे, हथकंडे अपनाते हुए जो ऊँचा पद और ज्यादा संपत्ति प्राप्त कर लेता है उसी को आजकल व्यवहार चतुर माना जाता है।

यह भी कहा जा रहा है कि राजनीतिक वायुमण्डल के कारण लोगों को कुछ बुरी आदतें लग रही हैं और उनमें कुछ बुरे संस्कार आ रहे हैं। इसमें सबसे बुरी आदत यह है कि चतुराई से सब कार्य जल्दी किए जा सकते हैं। इसे राजनीतिक भाषा में गोटियाँ बिछाना कहते हैं। इस कारण किसी काम को निष्ठापूर्वक सतत् और अधिक दिनों तक करते रहने को मूर्खता समझी जाती है। चतुर व्यक्ति जल्दी से अपना काम पूरा कर लेता है। परंतु स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है, "चालाकी से महान कार्य नहीं हो सकते।" हाँ, चालाकी से कार्य हो सकते हैं, पर महान कार्य नहीं हो सकते। राष्ट्र जीवन पर पड़ने वाला विधायक परिणाम और प्रभाव डालने वाला कार्य चालाकी से नहीं हो सकता।

कहा गया है कि कुछ लोगों को कुछ समय के लिए बेवकूफ बनाया जा सकता है, पर सब लोगों को, सब समय के लिए बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। इसलिए महान कार्य धीरज से और समझकर लगातार करना पड़ता है। लेकिन राजनीतिक वायुमण्डल के कारण धीरज छूट चुका है। मान लें कि एक पत्थर तोड़ना है। उस पर पाँच-दस हथौड़े मारने से कुछ नहीं होना है। सौवें हथौड़े की चोट से ही उसे टूटना है। अब जिसे वह पत्थर तोड़ना है, उसे यह निश्चय करना ही होगा कि हमें सौ बार हथौड़ा मारना ही है। जल्दबाजी से काम नहीं होगा। एक कहावत है कि 'छोटा मार्ग तुम्हें ही छोटा कर देगा।' समय आने पर काम पूरा होकर ही रहेगा।

राजनीतिक लोगों का अधिक जोर प्रसिद्ध तथा हवा पर रहता है। इस तरह का चतुरतापूर्ण विचार राजनीतिक क्षेत्र में आज प्रबल हो गया है कि वे प्रसिद्धि को ही संगठन का विकल्प मानते हैं। उनका कहना है कि "यदि प्रसिद्धि जोरदार रही तो अपने पक्ष में हवा निर्मित होगी और उस हवा के कारण हम जीत जाएंगे और कार्य करने के लिए कार्यकर्ताओं की जो आवश्यकता हुआ करती है वह भी स्वयं पूरी हो जाएगी। हवा के प्रभाव से पोस्टर चिपकाने वाले स्वयं ही सामने आ जाएंगे। इसलिए केवल हवा निर्माण करना और इस हेतु हवादार प्रचार प्रसिद्धि की व्यवस्था करना यश प्राप्ति के लिए पर्याप्त है।

किंतु इतना चतुर बनना उचित नहीं है। प्रचार और प्रसिद्धि का महत्व है, किंतु वह बहुत ही सीमित है। प्रसिद्धि वर्षा के समान है। वर्षा आवश्यकता से कम हुई तो सूखा अकाल आता है, किंतु आवश्यकता से अधिक हुई तो गीला अकाल आता है। इष्टतम बिंदु से कम या अधिक वर्षा घातक है। यही नियम प्रसिद्धि के लिए भी लागू होता है। आवश्यकता से अधिक प्रसिद्धि के कारण लोकप्रियता बढ़ने की कुछ संभावना रहती है, किंतु उसका दूसरा भी परिणाम ध्यान में रखने योग्य है। आवश्कता से अधिक प्रसिद्धि के कारण प्रतिस्पर्धियों की जिद बढ़ती है और अपने आस-पास आत्मसंतोष का भाव और प्रभाव बढ़ता है। प्रचार के कारण लोग आत्मवंचना के शिकार हो जाते हैं कि बहुत काम कर लिया है। यह विचार मन में दृढ़ होने लगता है कि प्रसिद्धि ही कार्य का विकल्प है। इतना ही नहीं, यह भी सोचा जाता है कि धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा करके अपना आधार बढ़ाते रहना एक मूर्खतापूर्ण प्रक्रिया है। बुद्धिमानी का सरल मार्ग यही है कि एक-एक व्यक्ति या सदस्य को तैयार करने में अपना समय तथा शक्ति नष्ट करने के बजाय प्रसिद्धि के माध्यम से खटाक से अपनी प्रतिमा उज्जवल बनाई जाए।

प्रसिद्धि की इच्छा किसी भी समूह में यदि एक बार उत्पन्न हो जाती है तो उसके कारण प्रत्यक्ष ठोस करने की प्रवृत्ति समाप्त होने के साथ ही जीवन-मूल्य भी बदल जाते हैं। इसके कारण नेतृत्व प्राप्त करने का सस्ता आसान मार्ग सामने दिखायी देता है। प्रत्यक्ष काम की दृष्टि से स्पर्धा करना मेहनत का काम है। किंतु प्रसिद्धि प्रज्ञपत करने के लिए उतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती। प्रसिद्धि के काम के लिए वास्तविक योग्यता की आवश्यकता नहीं हुआ करती। प्रसिद्धि के साधनों से संपर्क कायम करने में परिश्रम तथा योग्यता की आवश्यकता अधिक नहीं होती, लाभ बहुत दिखायी देता है। इस कारण प्रसिद्धि के लिए आपस में ही स्पर्धा प्रारंभ हो जाती है। जो व्यक्ति पूर्णस्पेण ध्येयवादी है उसके ऊपर यह परिणाम भले ही न हो, किंतु इस तरह के व्यक्ति स्वाभाविक ही कम संख्या में रहते हैं। लेकिन अन्य सभी व्यक्ति अवसरवादी होते हैं, यह कहना भी गलत होगा। वे भी ध्ययवादी ही होते हैं, किंतु ध्येयवादी की मात्रा कम-अधिक हुआ करती है। उन पर प्रयासपूर्वक अच्छे संस्कार अंकित किए गए तो वे भी थोड़े ही समय में शत-प्रतिशत ध्येयवादी भले ही न हों, परंतु अच्छे संस्कार प्रज्ञपत हुए तो ध्ययनिष्ठ बन सकते हैं।

यह ठीक है कि कार्य की वृद्धि के लिए प्रचार की आवश्यकता होती है किंतु जब धीरे-धीरे प्रचार होने लगता है तो फिर यह भावना जागृत होने लगा है कि अपनी खबर नित्य पढ़ने को मिले और धीरे-धीरे अपनी फोटो अखबार में देखने का शौक हो जाता है। अपनी आवाज कैसेट में सुनने की इच्छा जागृत होती है। इसको कहते हैं "नार्किसस् भाव"। ग्रीक पुराण में एक कहानी है : "नार्किसस नाम का एक अठारह-उन्नीस साल का लड़का था। वह अतीव सुंदर था। उसका सौंदर्य नारी-स्वरूप का था। उन दिनों आईने नहीं होते थे, झलिए उसने अपना रूप कभी देखा ही नहीं था। एक बार वह एक निर्झर के पास होकर जा रहा था तो लकड़ी की पट्टी पर से उसने नीचे से शांत पानी में अपना स्वरूप देखा और अपने सौंदर्य पर आसक्त हो गया। उसकी इच्छा हुई की अपनी सुंदरता के साथ अपना मिलन होना चाहिए। स्वयं का स्वयं के साथ में मिलन संभव नहीं हो सका, तो अपना ही चिंतन करते-करते विरह वेदना के कारण उसकी मुत्यु हो गई। यूरोप में उन विशिष्ट फूलों को, जो नदी के किनारे रहते हैं और जिनका प्रतिबिंब नदी में पड़ता है "नार्किसस" का फूल कहते हैं। अपने ही प्रतिबिंब पर आसक्त और उसके साथ अपना विलीनीकरण होने की बेचैनी को "नार्किसस भाव" कहते हैं। अपनी फोटो देखी जाए, अपनी खबर पढ़ी जाए, अपनी आवाज सुनी जाए - यह नार्किसस भाव का ही एक रूप है। फिर धीरे-धीरे यह मूल बात भूल जाती है कि प्रचार कार्य की वृद्धि के लिए किया जाना चाहिए। होता यह है कि प्रचार के लिए जितना आवश्यक होता है उतना ही कार्य किया जाता है। वक्तव्य छपता रहे, केवल इतना ही बाकी बच जाता है। धीरे-धीरे अनजाने में ही यह परिवर्तन हो जाता है।

कहने का अर्थ यह है कि कोई भी बड़ा काम करने के लिए जल्दबाजी अच्छी बात नहीं। यदि हम आनंद से, धीरज से सोच-समझकर काम में लगे तो अगाध आत्मसंतोष प्राप्त होगा। अपने यहाँ कहा गया है -

शनैः पनथा शनैः कन्था शनैः पर्वतमस्तके।

शनैः विद्या शनैः वित्तम् पंचैतानी शनैः शनैः॥

मार्ग चलना, कम्बल बनाना, पर्वतारोहण, विद्या और धन, ये पाँचों धीरे-धीरे आते हैं। इसलिए यह न सोचें कि राजनीतिक ढंग से गोटी बिछाने, चालाकी या बेईमानी से काम होगा। कार्य प्रामाणिकता से और धीरे-धीरे करने से होगा। महान कार्य के लिए धीरज की आवश्यकता होती है। पर धीरज कौन रख सकता है? अहंकारी आदमी धीरज नहीं रख सकता। स्वार्थी आदमी धीरज नहीं रख सकता। ध्येयवादी आदमी ही धीरज रख सकता है। धीरज के कारण ध्येयवादी की शक्ति असीम हो जाती है। उसका आत्मविश्वास बढ़ जाता है। जिसमें आत्मविश्वास नहीं होता, वह लड़ाई हारता है। वह लड़ाई में जाने से पहले ही हार जाता है।

आचार्य चाणक्य के विषय में सम्यक् जानकारी रखने वाले साहित्यिक ने "मुद्राराक्षस" में एक प्रसंग दिया कि "प्रातः स्नान-सन्ध्या के पश्चात चाणक्य अपने गुप्तचर से पूछताछ कर रहे हैं। उस दिन केवल यह सुनने का अवसर आया कि वह राजा उनको छोड़कर शत्रुपक्ष में शामिल हुआ है, वह सेनापति शत्रु पक्ष में गया है, वह वीर भी उनको छोड़ गया है," आदि-आदि। सभी समाचार साथ छोड़कर जाने को ही थे। यह सब सुनकर चाणक्य कहते हैं कि -

" एका केवलमर्थ साधन विधौ सेना शतेभ्योऽधिका।

नन्दोन्मूलन दृष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा यातुमाम्॥"

जिन्होंने छोड़कर जाना था, वे पहले ही चले गए हैं। जो भविष्य में छोडकर जाना चाहते हैं वे भी चले जाएं। कोई चिंता की बात नहीं। केवल मेरी बुद्धि मुझे छोड़कर न जाए। इच्छित प्राप्त करने में जो सैकड़ो सेनाओं से भी अधिक बलवान है और नंद साम्राज्य के निर्मूलन के कार्य में जिसके शौर्य की महिमा दुनिया ने देख ली है केवल यह मेरी बुद्धि मुझे छोड़कर न जाए।"

कितना प्रचण्ड आत्मविश्वास है। ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता के लिए आत्मविश्वास का यह आदर्श उदाहरण हो सकता है।

केवल जय-पराजय, नेतृत्व को आंकने की एकमात्र कसौटी नहीं मानी जा सकती। कभी-कभी तो पराजय भी विजय से अधिक शानदार मानी जाती है। कहा गया है कि "दन्तच्छेदो हि नागानाम् श्लाध्यो गिरिविदारणे" यदि पहाड़ को फोड़ने के प्रयास में टूट गए हों तो हाथियों के टूटे हुए दांत भी सराहनीय माने जाते हैं। इस पृष्ठभूमि में हम कल्पना कर सकते हैं कि उकर्क की भीषण पराजय के पश्चात उस संकट में से अधिकाधिक सिपाहियों तथा युद्ध साहित्य को बचाकर वापस ले आने वाले सेनापति की सफल वापसी के लिए चर्चिल ने सराहना क्यों की होगी। मतलब यह कि एकाध पराजय के कारण नेतृत्व की निंदा करने, निराश होने या कुण्ठित होने और एकाध विजय के लिए आत्मश्लाधा की भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जय-पराजय कई परस्पर सम्बन्धित बातों पर अवलंबित रहती है, जिनमें से एक बात नेतृत्व की क्षमता भी है।

व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के इतिहास में ऐसा देखा गया है कि जो लोग संकट के समय आगे आकर उसका सामना करते हैं, विजयकाल या प्रमादकाल या यश प्राप्त होने पर जब उनमें थोड़ा "उपलब्धि का संतोष" आ जाता है तो वे सोचते हैं कि हम सब बन गए, पूर्ण हो गए। इस कारण स्वयं अपने को पता न लगते हुए पहले की लगन धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है।

सत्रहवीं शताब्दी के फ्रांस के लुई का उदाहरण हमारे सामने है। लुई के सरदार बड़े बहादुर थे। सभी यूरोपीय राष्ट्रों पर फ्रांस का प्रभाव था। राजा लुई को चिंता हुई कि ये सरदार जिस प्रकार बाहर के राष्ट्रों के लिए आतंक बन गए हैं उसी प्रकार किसी दिन उन्हें भी तकलीफ दे सकते हैं। राजा को उनके प्रधानमंत्री ने सलाह दी कि यदि आप चाहते हैं कि ये सरदार आपको तकलीफ न दें तो इनको दबाने की कोशिश मत करो। इन्हें आराम दो। अतः उन्होंने एक बड़ा महल बनवाया। उसको "पैलेस आफ बर्सेल्स" कहते हैं। उस महल में एक बड़ा दरबार बनाया गया। सबके रहने की यथोचित सम्मानजनक व्यवस्था की गई। उन पराक्रमी सरदारों को बड़े-बड़े पदक बगैरह देकर वहाँ बुलाया गया। राजा के समान उनको भी बड़ा स्थान प्रदान किया गया। वहीं ऐशो-आराम की सब तरह की सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करा दी गई। सभी आराम से रहने लगे। परिणाम यह हुआ कि दस साल के अंदर-अंदर उन बहादुर कर्तृत्ववान और बुद्धिमान लोगों का इतना पतन हुआ कि सत्रहवीं शताब्दी के फ्रांस की एरिस्टोक्रेसी और सरदार वर्ग में कोई कर्तृत्ववान पुरुष निर्माण ही नहीं हुआ। यह कितने आश्चर्य की बात है कि यह सभी बहादुर, कर्तृत्ववान, बुद्धिमान लोग थे, लेकिन पैलेस आफ बर्सेल्स की विलासितापूर्ण व्यवस्था, पद और पदक की मान्यता प्राप्त होने के परिणामस्वरूप उनकी सारी प्रेरणा और कर्तृत्व समाप्त हो गया। उन्नीसवीं सदी में इटली के सरदार वर्ग में से इस भी प्रक्रिया के कारण कोई भी कर्तृत्वान, बहादुर पुरुष निर्माण नहीं हुआ। अर्थात सुख और वैभव की असीमता ने उनका पराक्रम ठंडा कर दिया।

सुख-दुःख क्या है? इसकी भी वास्तविक कल्पना सामान्य व्यक्ति कर सकता है या नहीं कर सकता, एक प्रश्न अपने मन में निर्माण होता है। सुख चाहिए, यह बात ठीक है। केवल पाश्चात्य लोगों ने ही नहीं, हमारे द्रष्टाओं, ऋषियों और मुनियों ने भी यह कहा है कि संपूर्ण जीवन का लक्ष्य सुख है। इसमें कोई शक नहीं हैं। महत्व इस बात का है कि वह सुख कैसे प्राप्त हो। इसी के बारे में हमारे संपूर्ण जीवन का तत्वज्ञान है।

जीवन को टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं बांटा जा सकता। जीवन एक और एकात्म है। उसको देखने के अलग-अलग पहलु हैं। एक पहलु को व्यावहारिक और दूसरे को सैद्धांतिक कहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि सैद्धांतिक दृष्टि से तो आप ठीक हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से दुनिया में यह नहीं चलता। किंतु यह सच नहीं है। अपने यहाँ सुख-दुःख की बड़ी सरल परिभाषा की गई है।

अनुकूल संवेदनात्मकम् सुखम्

प्रतिकूल संवेदनात्मकम् दुखम्।

अर्थात जिसके कारण अनुकूल संवेदना होती हो तो वह सुख और प्रतिकूल संवेदना होती है वह दुःख है। यह इतनी सरल परिभाषा है कि बुद्धिहीन प्राणी भी इसको समझ सकते हैं।

रूस के तानाशाह स्टालिन की लड़की श्वेतलाना भारत आई थी। हम अनुमान लगा सकते हैं कि स्टालिन की लड़की के पास संपत्ति और बाकी सब चीजों का अभाव नहीं रहा होगा। यहाँ संवाददाताओं ने जब उससे पूछा कि, "तुम यहाँ क्यों आई हो, क्या चाहती हो, तुम्हारी इच्छा क्या है?" तो उसने कहा, "मेरी एक ही इच्छा है कि पवित्र गंगा नदी के किनारे कुटिया बनाकर आराम से अपने जीवन का अंतिम काल बिताऊँ।" क्या हमारे देश का 'प्रगतिवादी' और 'आधुनिक आदमी' यह कल्पना कर सकता है कि स्टालिन की लड़की यह कहे कि "मेरी अंतिम इच्छा है कि मैं गंगा के किनारे कुटिया बना अपने जीवन का अंतिम काल बिताऊँ।" अभी-अभी लगभग एक दशक पूर्व विश्व प्रसिद्ध पूंजीपति हेनरी फोर्ड का नाती भारत आया तो उससे भी संवाददाताओं ने पूछा, "आप हरे राम, हरे कृष्ण आंदोलन के चक्कर में कैसे आ गए?" वह बोले, "इसी से मुझे शांति मिलती है" फिर आपके पास जो अकूत संपत्ति है उसका क्या होगा?" उसने उत्तर दिया, "संपत्ति मात्र संपत्ति है, वह तो भगवान कृष्ण की है।" हमारे भारत का 'प्रगतिवादी आदमी' इसे मूर्खतापूर्ण बात कहेगा। लेकिन हेनरी फोर्ड का नाती यह बात स्पष्ट शब्दों में कहता है। यह विचार करने की बात है कि अमरीका जैसे भौतिक दृष्टि से समृद्ध देश के धनपति का नाती और रूसी तानाशाह स्टालिन की लड़की श्वेतलाना ऐसा क्यों सोचते और कहते हैं। कोई गंगा के किनारे कुटिया में रहकर अपना अंतकाल बिताना चाहता है, तो कोई यह कहता है कि सब कुछ भगवान कृष्ण का है। इस प्रकार की भावना क्यों पैदा होती है?

केवल अर्थ और काम के प्रभाव से मनुष्य सुखी नहीं हो सकता। इससे दुःख ही बढ़ता है। इस कारण हमारे यहाँ यह कहा गया कि अर्थ और काम का अभाव नहीं लेना चाहिए तो अर्थ और काम के प्रभाव में भी नहीं आना चाहिए, तभी सुखी हो सकता है और वह सुख अखण्ड चिरंतन निरंतन घनीभूत होगा। वह सुख आने-जाने वाला सुख नहीं होगा। इसे ही हमारे द्रष्टाओं ने मोक्ष कहा है। घनीभूत, चिरंतन, निरंतन सुख अर्थात मोक्ष मनुष्य जीवन कर लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य को अपनी रुचि, प्रतिभा, प्रकृति, परिस्थिति, अपने-अपने शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक स्तर आदि सभी बातों का विचार करते हुए अपने मार्ग का निर्धारण करना चाहिए।

अर्थ और काम का किसी को भी अभाव न हो, यह जिम्मेदारी समाज रचना की है। अर्थ और काम का प्रभाव मन पर न हो यह जिम्मेदारी व्यक्ति की मनोरचना की है। इसलिए राष्ट्रीय श्रम आयोग के सामने हमने अपना जो प्रतिवेदन दिया था उसमें जहाँ लाभांश, महंबाई भत्ता, पेंशन के नियम आदि विषय हैं, वहीं पहले ही पृष्ठ पर यह दिया गया है "आभावों वा प्रभावों वा यत्र नास्ति' अर्थात अर्थ और काम का अभाव भी न हो और अर्थ और काम का प्रभाव भी न हो। जब ऐसी अवस्था आती है तो समाज स्वात्मरूप में आ जाता है और फिर धर्मचक्र प्रवर्तन शुरु हो जाता है।

आज देश बहुत आगे बढ़ चुका है। सभी लोग चतुर हो गए हैं। "सत्तातुराणाम् न दलम् न राष्ट्रम्" वाली अवस्था है। 1947 के पहले जीवन-मूल्य दूसरे थे। रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने फांसी दिए जाने के पूर्व जेल में कहा कि :

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ,

देखना है ज़ोर कितना बाजु-ए-कातिल में है।

खींचकर लाई थी सबको कत्ल होने की उम्मीद ,

आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-कातिल में है॥

वे कत्ल होन की आशा से ही यहाँ आए थे। आज यदि देश का कोई आदमी ये पंक्तियाँ कहेगा तो उसको जरूर पागलखाने भेजा जाएगा। और यदि ये पंक्तियाँ कहनी ही हों तो जरा सुधार कर कहेंगे। वे यह नहीं कहेंगे कि "खीचकर लाई थी सबको, कत्ल होने की उम्मीद", वे कहेंगे, "खींचकर लाई थी सबको, मंत्री होने की उम्मीद।" अब अस्सी करोड़ में से अस्सी करोड़ लोग प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। सन 47 के पहले की भावना लेकर चलने वाले को अब पागल कहा जाता है। हम लोग तो ढूंढ रहे हैं कि देश में ऐसे "पागल" लोग कहाँ मिलेंगे? मिलते ही नहीं।

अपने देश में एक ऐसे संत हो गए हैं जिनको बादशाह अकबर ने अपने दरबार में बुलाया तो उन्होंने कहा कि मैं वहाँ नहीं जाता। क्योंकि "आवत-जात पनहियाँ टूटे, बिसरि जाए हरि नाम।" आते-जाते जूता घिसता है और भगवान का नाम भी भूल जाता है। इसलिए मैं तुम्हारे पास नहीं आता, आना है तो मेरे पास आओ।" वे नहीं गए। संत तुकाराम का भी ऐसा ही एक उदाहरण है। उन्हें शिवाजी राजा ने बुलाया था। वे नहीं गए। शिवाजी राजा ने उनके लिए पालकी भेजी तो उन्होंने कहा -

तुम्हापासी येण्या थेकोनिया काया।

व्यर्थ शीण आहे चालण्याचा॥

"तुम्हारे पास आकर मुझको क्या लाभ है? फिजूल चलने का कष्ट होगा, मैं कष्ट नहीं उठाना चाहता।" तीसरा एक उदाहरण है सिकंदर के समय का। डायजेनिस नाम के एक बड़े दार्शनिक थे। वे हमेशा हौज में बैठकर सूर्य-स्नान किया करते थे। सिकंदर ने उनका नाम सुना तो यह सोचा कि उसके राज्य में दुनिया का सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक है। यह उसका बड़प्पन है। इसलिए उसको दरबार में बुलाना चाहिए। राजा के दूत उन्हें बुलाने गए तो उन्होंने कहा कि "मैं नहीं आता। मैं तो हमेशा हौज में बैठकर सूर्य-स्नान करता हूँ। राज दरबार में जाने से यह क्रम टूट जाएगा।" विश्वविजय सिकंदर यह सुनकर पहले तो गुस्सा हुआ। फिर सोचा कि दार्शनिक ऐसे ही पागल होते हैं, चलो मैं ही उसको मिलने चलता हूँ। डायजेनिस को बताया गया कि सिकंदर बारशाह खुद आ रहे हैं। बोले "आने दो, मैं क्या उसको रोक सकता हूँ?" बादशाह सिकंदर सुबह-सुबह उनके यहाँ पहुँच गया। उस समय सुबह का सूरज ऊपर आया ही था। सूरज की किरणें वहाँ आ ही रही थीं। "बादशाह आ गए, बादशाह आ गए" का शोर मचा। फिर भी वे आराम से लेटे रहे, उठे नहीं। बादशाह की तरफ देखा भी नहीं। लोगों को यह देखकर बड़ा अजीब-सा लगा कि दुनिया का सबसे बड़ा बादशाह आया है और उन्होंने उसकी तरफ देखा भी नहीं। बादशाह ने बोलना शुरु किया कि "साहब, मैं आ गया हूँ। मैं एलेक्जेंडर (सिकंदर) हूँ।" वे बोले नहीं। केवल "हाँ" सूचक सिर हिलाया। उस ओर देखा भी नहीं। स्मित-हास्य भी नहीं किया। फिर सिकंदर ने कहा कि "मुझे इसका बड़ा गर्व है कि आपके जैसे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक मेरे प्रजाजन हैं।" फिर भी वे कुछ नहीं बोले। बादशाह बोलता रहा, वे चुप रहे। आखिर में सिकनदर ने कहा, "मैं आपसे बहुत प्रसन्न हूँ। इस दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं जो मैं आपको नहीं दे सकता। आप दुनिया की कोई भी चीज मुझसे माँग लजिए। मैं आपको दे दूँगा।" तब डायजेनिस ने सिकंदर की तरफ थोड़ा देखकर स्मित हास्य किया और कहा, "बादशाह, मैं जो माँगूंगा, आप देंगे?" वे बोले, "हाँ मैं दूँगा।" डायजेनिस ने कहा कि "आपके शायद ख्याल में नहीं है कि आपकी छाया मेरे शरीर पर आ रही है। इसके कारण मेरा सूर्य-स्नान नहीं हो पा रहा। आप एक ही बात कीजिए कि जरा एक ओर हट जाइए ताकि सूर्य की किरणें सीधे मेरे शरीर पर आ सके।" एक ओर दुनिया का बादशाह कह रहा है कि मुझसे कुछ माँग लीजिए और दूसरी ओर यह आदमी कह रहा है कि जरा अलग हट जाइए ताकि सूर्य की किरणे सीधे मेरे शरीर पर आ सकें।

दुनिया में इसका सबसे बड़ा उदाहरण रोमन साम्राज्यवाद का है। जब रोमन साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था सारा सूरोप उसके अंतर्गत था। क्राइस्ट के पश्चात तीन सौ साल तक इस महान साम्राज्य का बर्चस्व बना रहा। संपूर्ण वैभव सारे यूरोप की संपत्ति रोम में इकट्ठी थी। तीन सौ साल तक यह अवस्था चली और इसका परिणाम यह रहा कि इस तीन सौ साल के कालखण्ड में लोग इतने विालसी हो गए कि उनका कर्तव्य समाप्त हो गया। बहादुरी समाप्त हो गई। इन तीन सौ साल में किसी भी महान व्यक्ति का वहाँ उदय नहीं हुआ। वैभवशाली इटली का पूर्व काल जब चुनौतियों और संकटों से ग्रस्त था, वहाँ के बहादुरों ने उन चुनौतियों को स्वीकार किया, बुद्धिमान लोगों ने अपनी प्रतिभा का प्रगटन किया और इटली का यह कालखण्ड इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया। एलिजाबेथ के काल में इंग्लैण्ड के सामने बहुत बड़ी चुनौती आई। वहाँ के बहादुरों ने उसका उचित प्रत्युत्तर दिया। एलिजावेथ का युग इंग्लैण्ड के इतिहास में 'स्वर्णाक्षरों' में लिखा गया है। फ्रांस की राज्य क्रांति के काल में फ्रांसीसी इतिहास के पृष्ठ भी स्वर्णाक्षरों में लिख गए हैं। जैसे-जैसे अवाहन, संकट, आपत्तियाँ आती गई, उन लोगों की कहादुरी, पराक्रम, कर्तृत्व निखर उठा और उनका नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया।

किंतु इसी के साथ यह कभी अनुभव में आया कि संकटों के समय जिनकी बहादुरी का थोड़ा प्रकाश दुनिया को दिखाई देता है, उन्हें थोड़ी विजय प्राप्त होती है और कुछ अच्छी व्यवस्था तैयार हो जाने पर धीरे धीरे स्वयं को पता न चलते हुए उन्नीसवीं शताब्दी की इटली और सत्रहवीं शताब्दी के फ्रांस की तरह लोग निष्प्रभावी हो जाते हैं। यह मनुष्य का स्वभाव है। यह परिवर्तन इतना आहिस्ता-आहिस्ता होता है कि यदि व्यक्ति स्वयं अपने बारे में सचेत नहीं तो उसका संभलना बहुत कठिन होता है। इसका और भी एक कारण है। हम अच्छे हैं तो लोगों के मन में हमारे प्रति आदर भी रहता है और इस आदर के कारण वे हमारी सेवा करने के लिए भी तत्पर रहते हैं। धीरे-धीरे वे सेवाभावी हो जाते हैं। यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन इसके कारण नेताजी को भी सेवाएँ लेने की आदत पड़ जाती है। उनका भी स्वावलम्बन समाप्त हो जाता है। लोग उपहार देते हैं तो स्वीकार कर लेते हैं। लेते-लेते वे उसका औचित्य सिद्ध करने लगते हैं। कहने लगते हैं कि उन्होंने दिया है तो प्रेम से दिया है, मैं कैसे मना कर सकता हूँ, बेचारा नाराज हो जाता। धीरे-धीरे स्वयं को पता न लगते हुए यह गिरावट आती जाती है। इसके बारे में स्वयं यदि सतर्क न रहे तो खुद को बचाना बड़ा मुश्किल होता है। आरंभ में उसके सद्गुणों में कमी नहीं आती है। लेकिन जब नेतृत्व स्थापित हो जाता है तो धीरे-धीरे गिरावट आने की गुंजाइश होने लग जाती है। यह विचार आने लगता है कि अब तो नेतृत्व स्थापित हो गया इसलिए अब कुछ करने और सोचने की आवश्यकता नहीं है। जो कुछ पाना चाहता था, वह मैं पा चुका हूँ। काम करने की उनकी इच्छा और चिंता धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। नेतृत्व के कारण जो सुविधाएँ एवं विशेषाधिकार प्राप्त हो जाते हैं, उनका अधिक से अधिक उपयोग करने के उपायों और रास्तों की खोज शुरू हो जाती है।

हिंदु स्थान की राष्ट्रभक्ति से प्रेरणा और संस्कार पाकर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पुनः एक नई शक्ति का जागरण हो रहा है। इस जागरण की वेला में यशस्वी होने के बाद हमारी मनोवृत्ति कैसी रहनी चाहिए इस दृष्टि से प्रथम बाजीराव पेशवा का उदाहरण अनुकरणीय है।

वे उत्तर दिग्विजय करना चाहते थे। किंतु हिंदवी स्वराज्य नया-नया था और दिग्विजय के लिए आवश्यक साधन-सामग्री स्वराज्य में उपलब्ध नहीं थी। इस कारण छत्रपति बाजीराव को उत्तर दिग्विजय करने की अनुमति नहीं दे रहे थे। उस समय छत्रपति को बाजीराव ने लिखा कि "आप हमें दिग्विजय करने की केवल अनुज्ञा दीजिए। सेना खड़ी करने और आवश्यक कोष निर्माण करने का काम हम कर लेंगे। श्रेष्ठ पूर्वजों का नाम लेना और उनके समान पराक्रम न करना, यह बात हमारे लिए शोभादायक नहीं है। हम सब कुछ कर लेंगे। आपके आशीर्वाद से हम हिंदुस्तान जीत लेंगे।"

दिग्विजय के पश्चात भी वे अपनी मूल भूमि को भूले नहीं। वे कहते हैं, यहाँ के लोग हमें "स्वामी", "स्वामी" ऐसा पुकारते हैं। हम "स्वामी" कैसे? हमारे जो स्वामी है वहाँ (सतारा में) बैठे हैं। जब तक यह भूमिका कायम रही, तब तक हिंदवी स्वराज्य का विस्तार होता गया। जिस दिन यह मनोवृत्ति बदली, उसी दिन साम्राज्य का विघटन प्रारंभ हुआ।

जब अहंकार रहता है, शक्ति भी एकत्र नहीं की जा सकती। यदि दो निरअहंकारी व्यक्ति की शक्ति 1+1=11 हो जाती है तो अहंकार के कारण यही शक्ति दशमलव एक-एक (.11) अर्थात एक से भी कम हो जाती है। कुशल संगठन सदा इस विचार को ध्यान में रखता है।

आदर्शवादी व्यक्ति को अपने वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन का ध्यान नहीं रहता। उसके पास अपना काम करने के लिए समय ही नहीं होता। अपना निज कुछ करने की इच्छा ही नहीं होती। वह पूरी शक्ति से यह प्रयास करता है और उसकी यह इच्छा होती है कि दूसरों का जीवन सफल हो, उनको सुविधाएँ मिलें, उनका आर्थिक जीवन उन्नत हो। अपने लिए कठोर, लेकिन दूसरों के लिए मृदु। जब दूसरों का दुःख देखकर उसके हृदय में पीड़ा होगी तभी वह यह काम कर सकेगा। "वैष्णव जन तो तेणे कहिए जो पीर पराई जाणे रे"। पराई पीर समझने वालों को अपनी पीड़ा मालूम नहीं होती, क्योंकि अपने प्रति उनके जीवन का व्यवहार कठोर होता है। अपने साथ अपना व्यवहार कठोर होना कितनी बड़ी बात है। हम तो अपना कार्य करते हैं, दूसरों का क्या होता है उसकी चिंता क्या करना, ऐसा सोचने वाला वैष्ण जन नहीं कहलाता। वैष्णव जन वह होता है जो खुद के बारे में इतीव कठोर हो और दूसरों के बारे में अति मृदु। "वज्रादपि कठोराणिमृदुनि कुसुमादपि" - फूल से भी मृदु, वज्र से भी कठोर व्यक्ति ही महान कार्य कर सकता है।

हमारे सामने ये दो तरह के जीवन-मूल्य हैं। इनमें से हमें यह देखना है कि जो एक विशाल ध्येय हमने सामने रखा है, उसको यदि प्राप्त करना है, राष्ट्रनिर्माण करना है तो इन दोनों जीवन-मूल्यों में से कौन-सा जीवन-मूल्य हम अपनायें? हमें यह देखना होगा कि "सामूहिक नेतृत्व के नाते हममें से हर एक का जीवन-मूल्य क्या हो? किस तरह के नेतृत्व की अपेक्षा बड़े काम में हुआ करती है? केवल पद और स्थान के कारण मिलने वाला बड़प्पन वास्तविक बड़प्पन नहीं है। वास्तविक बड़प्पन पद और स्थान पर अवलंबित नहीं होता। वह अंतर्गत मूल्यों पर आधारित है। उसका आधार है व्यक्ति की अंतरिक योग्यता, वही व्यक्ति के कार्य, विचार और व्यवहार का वास्तविक मानदंड होता है।

( संकेत रेखा , से......सं)

अंतिम रूपरेखा नहीं , केवल दिशादर्शन

द. बा. ठेगड़ी

अनेक लोगों के मन में यह भाव है कि हम करते तो हैं कि 'यह पद्धति या तंत्र अनुपयुक्त है' परंतु क्या केवल इतना कह देने से हमारा दायित्व पूरा हो जाता है? या दूसरी पद्धति क्या होनी चाहिए - कैसी अंतिम रूपरेखा (blue print) हमें प्रस्तुत करनी चाहिए, ये बातें भी विचारणीय हैं?

जहाँ तक अंतिम रूपरेखा (blue print) का प्रश्न है, यह सब लोग जानते हैं कि वह इस प्रकार नहीं दी जाती; जो बुद्धिमान थे उन्होंने कभी दी नहीं। इसका कारण यह है कि रूपरेखा विकसित होती है जब उसके कार्यान्वयन की परिस्थिति उपलब्ध रहती है। उसके लिए आवश्यक है कि एक मार्गदर्शक सिद्धांत हमारे पास हो जिसके आधार पर, प्राप्त परिस्थित की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए, धीरे-धीरे रूपरेखा विकसित होती है।

जहाँ तक राजनीतिक-शासकीय तंत्र का प्रश्न है, हम देखें कि आज की परिस्थिति क्या है। उसमें कौन सी त्रुटियाँ हम देखते हैं, इतना बताने से ही काम नहीं चलेगा। किस दिशा में जाना है, इसके बारे में यद्यपि अंतिम रूपरेखा न हो, तो भी कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत क्या हमारे पास है? या केवल टीका-टिप्पणी करने की नाकारात्मक भूमिका हमारी है? यह एक प्रश्न है। अपना यह प्राचीन राष्ट्र है। सनातन राष्ट्र है। इस राष्ट्र का निर्माण कब हुआ, किसी को पता नहीं। राष्ट्र जीवन के विविध अंगों की सुव्यवस्था के लिए हमारे इस अति प्राचीन राष्ट्र में मूलगामी सिद्धांतों का अभाव रहा हो - ऐसा कहना सत्य नहीं है। यह असम्भव भी है। इसलिए यह स्वीकार करके चलना होगा कि जीवन के सभी पक्षों पर सुविचारित सामग्री है। परंतु इस दृष्टि से जब हम विचार करने लगते हैं तो कुछ कठिनाइयाँ आती है। प्रथम कठिनाई यही है कि हम भारतीय के नाते विचार करना छोड़ चुके है। इनकी योजना 150 वर्ष से क्रमशः चली आ रही कि भारतीय लोग भारतीय पद्धति से विचार करने में असमर्थ हो जाएं। इसकी दृष्टि से हमें शिक्षा-दीक्षा दी गई। हमारा इतिहास अवास्तविक रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया। हमारे अंदर पश्चिमी लोगों की तुलना में पिछड़े होने की ग्रंथि उत्पन्न हो जाए, हम अपने को भूल जाएं - आत्म विस्मृत हो जाएं और पश्चिमात्यों को उन्नत मानें, ऐसा प्रयास 150 से भी अधिक वर्षों से यहाँ चला है और असत्य बातें हमें बतायी गई हैं। जो शिक्षा-पद्धति लॉर्ड मेकाले लाया, उसका भी यही उद्देश्य था। अंग्रेज जानते थे कि भारत लम्बा-चौड़ा देश है, इस पर शासन चलाना है तो आवश्यक है कि उनको आत्म-विस्मृत करना चाहिए। जिन्हें अपने स्वत्व का स्मरण रहता है, उन्हें कभी दास बनाकर नहीं रखा जा सकता। वास्तव में राष्ट्रीय स्वाभिमान की दृष्टि से ऐतिहासिक जानकारी का महत्व मेकाले ने समझ लिया। उसका एक बड़ा अच्छा वाक्य है जो विशेषतः 'प्रगतिवादी' लोगों के स्मरण रखने योग्य है। हमारे लिए वह कहता है - "सुदूर अतीत के पूर्वजों की महान उपलब्धियों में जिनको गर्व का अनुभव नहीं होता-अभिमान का अनुभव नहीं होता-वे कोई भी ऐसा बड़ा काम नहीं कर सकेंगे जिसके बारे में बहुत समय बाद आने वाले वंशज अभिमान रख सकें, गौरव कर सकें।" इस दृष्टि से हमारी शिक्षा-संस्था अंग्रेजों ने बनाई और असत्य बातें हमें सिखयीं। पर्याप्त लम्बे समय तक उनका यह योजनाबद्ध प्रयास चला। भारतीयों के मस्तिष्क में अनेक ऐसी बातें ठूँस दी गयीं कि जिससे वे अपने प्राचीन काल से कट जाएं। ऐसा बहुत कुछ हमें सिखाया गया कि जिससे हम अपने आपको भूल जाएं। इसलिए आज यदि हमें अपने राष्ट्रीय स्वरूप का सही ज्ञान आत्मसात् करना है तो पहले हमें उससे छुटकारा पाना होगा जो अंग्रेजों ने जानबूझकर सिखाया है।

हमारे अपने देश के बारे में हमारा अज्ञान बढ़ाने वाली परकीयों द्वारा दी गई जानकारियों को भूलना ही होगा। पहले अपनी पट्टी (स्लेट) साफ करनी होगी, तभी स्वाभिमान के अक्षर स्पष्ट उभर सकेंगे। ऐसा करने की अवश्कयता का एक और कारण भी है। युरोपीय विचारकों की और राज्य-कर्ताओं की मानव के ऐतिहासिक विकास-क्रम के आकलन की एक विशेष प्रकार की पद्धति रही है। वे यह मानकर चले के यूरोपीय समाज का विकास जिस ऐतिहासिक प्रक्रिया में से हुआ वह संपूर्ण मानव-समाज की कहानी है। इसी पूर्वाग्रह से ग्रसित उनकी दृष्टि रही। इसी आधार पर उन्होंने हमारे इतिहास को भी समझने का यत्न किया। गोरे लोगों ने जो कुछ कहा उसे सच मानने का पराभूत विचार हमारे यहाँ रहने के कारण वह दोषपूर्ण पद्धति हमारे मस्तिष्क में बैठ गई। पाश्चात्य लोगों की यह धारणा रही कि संसार में कोई भी समाज ऐसा नहीं हो सकता जिसका ऐतिहासिक विकास-क्रम युरोपीय ऐतिहासिक विकास-क्रम से भिन्न हो। इस प्रकार का दुराग्रह उनका रहा। इसके कारण हुआ यह कि जहाँ-जहा विश्व के इतिहास का अध्ययन उन्होंने किया, वहाँ-वहाँ युरोपीय परिस्थितियों, युरोपीय संस्थाओं, युरोपीय अवधारणाओं आदि का हठात् आरोप वहाँ की परिस्थितियों, संस्थाओं, अवधारणाओं पर किया जो वास्तविकता से दूर है। यूरोप का जो क्रम है उसी में सारे इतिहास को बलात् बिठाने का काम उन्होंने किया। यहाँ हमारे देश के बारे में भी यही हुआ। और इस कारण, जो बातें यहाँ बिल्कुल नहीं थी, उनका आरोप यहाँ की स्थितियों पर हुआ। कितनी त्रुटियाँ हुई यह एक अलग विषय है। यहाँ उसे लेने की आवश्यकता नहीं।

हम जानते हैं कि हमारे यहाँ धर्म एक बहुत ही बृहत् कल्पना है जिसे समझते-समझते युरोपीय व्यक्ति को 40-50 वर्ष लग जाएंगे। परंतु अपनी सुविधानुसार उसने धर्म माने रिलीजन, ऐसा भाषान्तर कर लिया। इसी प्रकार संस्थाओं के बारे में जानकारी न होने के कारण अपनी पद्धति में उनको बिठाने के लिए कई आरोप हमारे इतिहास पर किए। यह उदाहरण के लिए कह रहा हूँ। तो इसे विस्मृत करना आवश्यक है। युरोप में पिछले चार-पाँच सौ वर्षों में जो प्रगति हई है उसमें विद्रोह की भूमिका रही है। यह वैचारिक विद्रोह, और आवश्यकता होने पर शारीरिक विद्रोह तीन संस्थाओं के विरूद्ध हुआ। यह विद्रोह ही उनके इतिहास के पिछले चार सौ वर्षों का प्रमुख सूत्र है। ये तीन संस्थाएँ कौन सी रहीं? एक चर्च, दूसरा आभिजात्य और तीसरा राजतंत्र। यहाँ की रचना जब उन्होंने देखी तो कहा कि यहाँ भी ये तीनों संस्थाएँ - जहाँ-जहाँ मनुष्य है वहाँ कभी न कभी ये तीनों संस्थाएँ आनी ही चाहिए। इसके कारण उनके समक्ष अन्य संस्थाएँ या संस्थाविहीन स्थित भी यहाँ जब उन्होंने देखी तो अपनी अवधारणाओं का-अपनी संस्थाओं का आरोप यहाँ किया। यथा - युरोप की 'नोबिलिटी' है - 'एरिस्टोक्रेसी' (आभिजात्य) जिसे कहते हैं। भारत में उस प्रकार की एरिस्टाक्रेसी नहीं थी। संगठित चर्च भारत में नहीं था। पुरोहित अवश्य हैं, किंतु 'चर्च' नहीं था - पुरोहितशाही नहीं थी। और, दोष तो किसी भी पद्धति में उत्पन्न हो ही जाते हैं, यह सत्य है, किंतु चर्च के कारण निर्मित होने वाले दोष अलग हैं और व्यक्तिगत पुरोहित के कारण निर्मित होने वाले दोष अलग हैं। उसका आरोप इसके ऊपर नहीं किया जा सकता। इसका विश्लेषण होना चाहिए। यहाँ भी सामन्त थे, जमींदार थे। बात ठीक है। किंतु वहाँ जैसी एरिस्टोक्रेसी थी उसके समकक्ष ऐसी कोई भी संस्था हमारे हिंदुस्थान में नहीं थी, यूरोप की 'मोनार्की' (निरंकुश राजतंत्र) जैसे पद्धति तो भारत में कभी नहीं रही। जब कभी अपवादस्वरूप वेसा निरंकुश राजा यहाँ उत्पन्न हुआ तो उसे हटाया गया, समाप्त किया गया। अर्थात हमारी प्रकृति में ही 'मोनार्की' नहीं थी। किंतु यह सारा विचार न करते हुए उन्होंने भारतीय परिस्थितियों को यूरोपीय मानदंड से मापने का प्रयास किया और हमारे विद्वान इस चक्कर में आ गए। इसके कारण यहाँ जो एक भ्रान्ति है उसको दूर करना होगा अन्यथा जब आप स्वतंत्र रूप से अपने-अपने स्थान पर विचार करेंगे तो उसमें कठिनाइयाँ आएँगी। इस्लामिक इतिहास के एक विद्वान मुहम्मद कुतुब ने जो विचार प्रकट किया है वह विस्मृतिकरण की प्रक्रिया में उपयोगी रहेगा। वह कहते हैं, "आर्थिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में साम्यवाद और दासता, पूँजीवाद और जब अंतिम कम्यूनिज्म अर्थात अंतिम कम्युनिस्ट समाज की परिकल्पना की गई है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का वर्णन जब मानव-जाति के इतिहास की साझी घटना के रूप में किया जाता है तो वास्तविकता यह है कि युरोपीय इतिहास के बाहर इसका कोई अस्तित्व नहीं है। युरोप से बाहर की किसी जाति के लोग इन अवस्थाओं में से होकर नहीं निकले।" इस्लामी जगत् के महत्वपूर्ण माने जाने वाले इतिहासकार का यह कथन सभी अयुरोपीय समाजों पर लागू होता है - हम पर भी। इस बात को ध्यान में रखकर युरोपीय धारणाओं पर हम विचार करें।

विशेषतः अपना संबंध लोकतंत्र से है। यूरोप में लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) का प्रारंभ ग्रीक राजाओं से हुआ। नगर-राज्य, जैसे - स्पार्टा, एथेन्स आदि, छोटे राज्य थे। 'प्रत्यक्ष लोकतंत्र' का अर्थ है प्रत्येक नागरिक सरकार के निर्माण लेने की प्रक्रिया में सीधे भाग लेता था। उस समय छोटे नगर-राज्य थे - एक नगर, एक राज्य। शासन द्वारा भी निर्णय लिया जाना हो तो सबको बीच बाजार के स्थान पर बुला लिया जाता था। वहाँ पर समस्या सबके सामने रखी जाती थी और फिर हाथ उठाकर बहुमत से निर्णय लिया जाता था। यह प्रत्यक्ष प्रजातंत्र था। अपने वहाँ भी प्रत्यक्ष लोकतंत्र कुछ रहा है; जैसे - लिच्छवि, वृष्णि, अधक, गोधेय आदि गणराज्यों में। जो भी हो, ग्रीस में प्रत्यक्ष लोकतंत्र था। इसका उदाहरण लेकर सुप्रसिद्ध विचारक प्लेटो ने लोगों के समक्ष विचार रखा कि लोकतंत्र को एक पद्धति के रूप में कैसे विकसित किया जा सकता है। किंतु इसके साथ-साथ प्लेटो ने यह भी कहा कि लोकतंत्र तभी यशस्वी हो सकता है जब लोकतंत्र में भाग लेने वाले सभी नागरिक शिक्षित हों। अन्यथा उसका दुरुपयोग होगा और इस दृष्टि से जहाँ एक और लोकतंत्र लागू करने का प्रत्यन करना चाहिए। वहीं प्रत्येक को शिक्षित करने का भी प्रयास होना चाहिए। यह बात आग्रहपूर्वक सवा दो हजार वर्ष पूर्व प्लेटो ने कही थी। उसके पश्चात यद्यपि इस बारे में यत्र-तत्र विचार चले, तो भी व्यवस्थितरूप में, आग्रहपूर्वक, तर्कपूर्ण एवं प्रभावी रीति से यदि किसी ने लोकतंत्र का विचार किया तो रूस ने। उन्हें फ्रेंच राज्यक्रांति के जनकों में माना जाता है। फ्रेंच राज्यक्रांति के पूर्व आज की जैसी संसदीय पद्धति कहीं भी अस्तित्व में नहीं थी, यूरोप में भी नहीं। इसका प्रारंभ 18वीं शती से हुआ था। तो भी रूसो ने सुविचारित और प्रभावी रीति से प्रथम बार बात को सामने रखा। तत्पश्चात् 18वीं-19वीं शती में संसदीय लोकतांत्रिक पद्धति का धीरे-धीरे आरंभ हुआ। हर स्थान पर एक ही प्रकार से नहीं; ब्रिटेन में अलग ढंग से, फ्रांस में आनुपातिक प्रतिनिधित्व और अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग प्रकार से यह चला। इसके बारे में आकर्षण तो प्रारंभ से इसलिए रहा कि वहाँ निरंकुश राजतंत्र था। अर्थात वहाँ तानाशाही की प्रतिक्रियास्वरूप इस लोकतंत्र का वरण किया गया। साथ ही साथ विचारकों ने यह भी सोचा कि उनकी जो पद्धति है, वह दोषपूर्ण है। सच्चा लोकतंत्र उसके द्वारा प्राप्त नहीं होता। इसमें कठिनाईयाँ कौन सी हैं? प्रत्यक्ष लोकतंत्र सर्वोत्कृष्ट प्रकार का लोकतंत्र है। परंतु यह केवल नगर-राज्य में ही चल सकता है जहाँ कोई भी सरकारी निर्णय लेते समय लोगों को एक स्थान पर एकत्र किया जा सकता है। उनके मत ले सकते हैं। जहाँ बड़े विस्तृत राज्य हों - और आज जो राज्य बड़े विस्तृत हो ही गए हैं - वहाँ प्रत्यक्ष लोकतंत्र लागू करने के लिए राज्य के सब लोगों को एक स्थान पर कैसे बुलाएंगे? सबके मत कहाँ लेंगे? यह तो सम्भव नहीं। इस कारण कुछ न कुछ व्यवस्था आवश्यक थी। जो व्यवस्था उभर कर सामने आई, उसीको 'शासन का प्रतिनिधिक स्वरूप' (Representative form of Government) कहते हैं। प्रतिनिधि सरकार का अर्थ है कि विस्तृत देश में हम हर नागरिक को निर्णय लेने की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष भाग लेने का अवसर नहीं दे सकते, किंतु वह अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजे। उनके प्रतिनिधि हैं वे शासन चलाएंगे। अर्थात फिर जनता ने ही शासन चलाया, ऐसा माना जाएगा। यह एक कल्पना है। ऐसा अपरिहार्य भी था। किंतु इस पद्धति में कुछ स्वाभाविक दोष है। कुछ मनुष्य निर्मित दोष भी इसमें घुसा दिए गए हैं। आज चाहे आनुपातिक प्रतिनिधित्व हो, चाहे इंग्लैंड की पद्धति हो, जो संसदीय लोकतांत्रिक पद्धति चल रही है उसमें कुछ दोष दिखाई देते हैं।

प्रथम दोष यह है कि प्रतिनिधिक शासन में हम प्रतिनिधियों को चुनकर भेजते हैं, परंतु बीच में अधिकारीतंत्र आ घुसता है। सत्ता और जनता के बीच में केवल जनता का प्रतिनिधि ही होता तो शायद इतनी कठिनाई नहीं आती। और भी एक बात है। वह है राजनीतिक दल। राजनीतिक दन नाम की जो संस्था है उसके कारण हमारे अधिकारों का चित्र कुछ विकृत हो जाता है। विकृत कैसा होता है, यह हम थोड़ा समझ लें।

जिस संविधान के द्वारा हमने संसद में अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजा है, उसके अनुसार प्रतिनिधित्व करता है या नहीं? क्या सही अर्थ में वह हमारा प्रतिनिधित्व करता है? संसद में जो कार्यवाही होती है, चाहे कोई विधेयक या प्रस्ताव, उस पर मत देना होता है। परंतु क्या हमारा चुना हुआ प्रतिनिधि अपने निर्वाचन-क्षेत्र के अधिसंख्य मतदाताओं की इच्छा का अनुमान लगाकर वहाँ मत प्रकट करता है? यदि वह हमारा प्रमिनिधि है तो हमारी इच्छा का प्रतिनिधित्व करे - निर्वाचन क्षेत्र के बहुमत की इच्छा का प्रतिनिधित्व करें। क्या ऐसा होता है? या दल-पद्धति के कारण ऐसा नहीं हो पाता? हमें तो एक संतोष मिल जाता है कि जिसे चुनकर भेजा वह हमारा प्रतिनिधि है। उसके द्वारा हम शासन चला रहे हैं, ऐसा हम कहते हैं। किंतु संसद में जब प्रश्न आते हैं और हमारा प्रतिनिधि उन पर मत व्यक्त करता है तो दिखाई देता है कि एक बार चुने जाकर आ जाने के बाद वह अपने मतदाताओं की चिंता नहीं करता। साढ़े चार वर्ष तक अर्थात दूसरा चुनाव सिर पर आने से कुछ पूर्व तक हमारा वह प्रतिनिधि इस बात को अनदेखा करता है कि उसके मतदाता किस विषय में क्या सोच रह हैं और उसको कैसे अपना मत देना चाहिए।

वहाँ (संसद या विधानमण्डल में) मतदान कैसे होता है? उस 'प्रतिनिधि' का जो राजनीतिक दल होता है उसके निर्देश के अनुसार वहाँ मतदान होता है। और यह आवश्यक नहीं कि किसी भी प्रश्न पर उसके निर्वाचन-क्षेत्र के मतदाताओं के बहुमत की जो इच्छा रहेगी उसी प्रकार का निर्देश उसका राजनीतिक दल दे। सदैव ऐसा नहीं होता। बहुत बार उसके निर्वाचन क्षेत्र का बहुमत एक ओर और उसके राजनीतिक दल का निर्देश दूसरी दिशा में रहता है। वर्षों पूर्व जो गोहत्या-विरोधी आन्दोलन चला था, उस समय आपने देखा होगा कि यदि संसदसदस्यों को अपने निर्वाचन क्षेत्रों की इच्छा के अनुसार मतदान का अधिकार होता तो वह विधान पहले ही पारित हो जाता। परंतु जो इन प्रतिनिधियों को चुनकर भेजने वाले मतदाता हैं, उनका अधिकार तो केवल चुनने तक है। एक बार वह चुना गया तो उसके पश्चात उसे संसद में मतदान कैसे करना है, इस बात पर उसके मतदाताओं का कोई अधिकार नहीं - कोई नियंत्रण नहीं। वाद में तो वह अपने राजनीतिक दल के निर्देशानुसार मत देगा। इस कारण राजनीतिक दल जन-प्रतिनिधि और जनता के बीच एक अड्गा बन जाते हैं - बाधा बन जाते हैं। ऐस लोगों ने अनुभव किया।

इसलिए विचारकों ने कहा कि हम जो यह कह रहे हैं कि प्रतिनिधिक प्रकार की पद्धति में शक्ति का प्रतिनिधान (delegation of power) है, वह वास्तव में पाँच वर्ष के लिए शक्ति का प्रतिनिधान है या मतदाता की शक्ति का समपर्ण? क्योंकि एक बार चुनने के बाद आपका कोई नियंत्रण तो उसके ऊपर रहता नहीं। यह विचार लोगों के मनों में आया और इस कारण विचारकों ने कहा कि यद्यपि अब्राहम लिंकन ने अपने गेटीसबर्ग भाषण में लोकतंत्र की परिभाषा दी - "जनता का शासन, जनता के द्वारा, जनता के लिए", परंतु वास्तव में ऐसा है नहीं। लोकतंत्र जनता के लिए तो सरकार देता है, परंतु जनता का शासन, जनता के द्वारा नहीं। आनुपातिक प्रतिनिधि त्व और ब्रिटिश में जो अंतर है उसमें जाने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जो आधारभूत दोष है, वे दोनों पद्वतियों पर लागू हैं।

फिर जो चुनाव-पद्धति है उसके कारण अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। सारी पद्धति धीरे-धीरे इतनी व्ययासाध्य हो जाती है कि उसमें पैसा ही 'वोट' पाता है। गुण या योग्यता के आधार पर मतदान नहीं होता, यह तो सभी जानते हैं। इसपर अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। दूसरा अंतर्निहित दोष यह भी आ जाता है कि प्रत्येक चार-पाँच या छः वर्ष बाद यदि चुनाव होता है तो प्रतिनिधि को यह भी सोचना पड़ेगा कि अगले चुनाव में फिर से चुने जाने के लिए कौन सी नीति तुरंत लोकप्रिय हो सकती है। इसलिए जन-प्रतिनिधि उन बातों में, जहाँ राष्ट्र-निर्माण जैसे कार्यों के लिए लम्बा विचार करना आवश्यक होता है, उदासीन दिखाई देता है। क्योंकि लम्बा विचार रखा और तात्कालिक अलोकप्रियता आ गई तो अगला चुनाव हाथ से चला जाएगा। इस कारण पश्चिम में भी कोई दल लोकतांत्रिक व्यवस्थाके अंतर्गत अपने देश के बारे में बहुत दीर्घकालिक दृष्टि लेकर काम नहीं करता। ऐसा अनुभव है। इंग्लैण्ड और फ्रांस जैसे देशों का ऐसा दु:खद अनुभव है, हमारे देश में तो अभी ये सब नई बातें हैं।

उन लोगों का दूसरा अनुभव यह रहा कि राजनीतिक दलों या राजनीतिक नेताओं के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है। प्लेटों ने कहा था कि लोकतंत्र ठीक से चलाना हो तो शिक्षा देने की आवश्यकता है। परंतु यहाँ मतदाता तो क्या, नेताओं के बारे में भी उल्टा होता है। वे इस बात को आँखों से औझल करते हैं। इतना ही नहीं, अपितु लोग प्रशिक्षित न हो जाएं-मतदाता जागरूक न हो बैठें - इस विषय में सतर्कता बरती जाती है। इसमें हम ध्यान में रखें कि राजनीतिक प्रचार (political propa ganda) और राजनीतिक शिक्षा में बहुत अंतर है। ऐसे प्रचार का कार्य होता है कि हम अच्छे है, और सब बुरे हैं। प्रचार तो बहुत चलता है। वस्तुनिष्ठ राजनीतिक समाचार के बारे में शिक्षित करने का प्रयास होता नहीं। वह न हो, इस प्रकार की इच्छा दलों की रहती है। लोग गहराई से सोचने लगेंगे तो हवा में नहीं बहेगे।

लोकप्रियता की प्रतियोगिता प्रारंभ होने पर प्रचार आवश्यक है और जनता शिक्षित हो जाएगी तो फिर प्रचार की कैसे चलेगी? नेताओं के कोरे आश्वासनों पर वे विश्वास कैसे रखेंगे? आश्वासनों की दौड़ चल नहीं सकेगी। इस दृष्टि से राजनीतिक शिक्षण की केवल उपेक्षा ही नहीं की जाती, अपितु दलों की यह इच्छा रहती है कि मतदाता-प्रशिक्षण और लोकमत-परिष्कार रुका रहे। ऐसा फ्रान्स, इंग्लैण्ड, इटली जैसे प्रगत देशों के विचारकों का अनुभव है।

अपने यहाँ इससे कुछ भिन्न होगा तो अच्छा होगा। फिर जैसे शिक्षा नहीं होती, प्रत्यक्ष लोकतंत्र आता नहीं, प्रति-निधिक शासन में राजनीतिक दलों के कारण लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं होता। इतना ही नहीं, वहाँ तो ऐसा अनुभव है कि दल के अंदर भी लोकतंत्र नहीं चलने देते। यदि ऐसी स्थिति रही कि दो दल है, शासक दल और विरोधी दल सन्तुलन में हैं 51% और 49% । उस समय यदि कोई बहुत मतत्त्व का विषय हो, सिद्धांत का विषय हो, तो भी दल का कोई सदस्य अपनी इच्छा के अनुसार संसद में मत नहीं दे सकेगा। और सबसे गर्हित बात तो यह है कि इस प्रकार की लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो अस्थिरता आती है, उसके कारण उच्च स्तर पर हेराफेरी बहुत चलती है। हमारे यहाँ ही चलती हो, ऐसी बात नहीं है। जनता को बाद में पता चलता है। इस कारण जनता में नेताओं के बारे में तुच्छता की भावना निर्मित होती है और अस्थिरता को देखते हुए जनता सोचने लगती है कि उसे अनुचित प्रकार के लोकतंत्र से तो अच्छा है कि सबल सर्वाधिकारवादी (तानाशाह) आ जाए। और वह सबल तानाशाह भी मतपेटी में से निकलता है। यह भी इतिहास यूरोप का है। इस प्रकार के अनेक दोष पद्धति में हैं, यहाँ सबका विवरण देना अनावश्यक है। अलेक्जेंडर सोल्जेनित्सिन ने कहा है:

"जिस समाज में राजनीतिक दल सक्रिय रहते हैं वह नैतिक मापदंड पर कभी ऊपर नहीं उठता। विश्व में आज जबकि हम धुँधले रूप में झलकते लक्ष्य की ओर शंका के साथ बढ़ रहे हैं, हमें आश्चर्य है कि क्या हम द्विदल या बहुदल पद्धति से ऊपर नहीं उठ सकते? क्या राष्ट्रीय विकास के दलेतर या सर्वथा 'निर्दल' मार्ग नहीं हैं?"

कुछ पश्चिम यूरोपीय देशों में द्विदतीय लोकतांत्रिक पद्धति शताब्दियों रह चुकी है, परंतु इसके संकटपूर्ण और सम्भवः घातक दोष हाल के दशकों में आधिकाधिक प्रकट हुए हैं जब महाशक्तियाँ नैतिक आधाररहित दलीय संघर्षों से हिल उठी हैं। पश्चिमी लोकतंत्र आज राजनीतिक संकट और आत्मिक विभ्रम की अवस्था में है। हमें अपने देश के लिए पश्चिमी लोकतंत्र में से कोई मार्ग ढूँढ़ने की आवश्यकता आज गत शताब्दी के किसी भी समय की तुलना में अधिक होगी।

इस पश्चिमी लोकतंत्र का हमने अनुकरण किया। हमारे देश का संविधान बनाते समय भी हम लोगों ने उनका ही अनुकरण करते हुए ऐसा संविधान अपनाया है जिसके अंदर भारतीय प्रकृति और भारतीय प्रतिभा का दर्शन नहीं होता। जो दोष है, वे कुछ तो मनुष्य-स्वभाव के होते हैं। मनुष्य-स्वभाव को स्वस्थ करने की आवश्यकता है, उसे प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है, राष्ट्रीय चेतना के स्तर को ऊपर ले जाने की आवश्यकता है। यह सब तो है, परंतु आज जो पतन दिखाई देता है उसका बड़ा कारण है कि हमारा संविधान भारतीय पद्धति का नहीं है। लोग धीरे-धीरे इस बात का अनुभव करते जा रहे हैं।

सच्चाई यह है कि जिन लोगों ने यह संविधान बनाया वे 100% भारतीयों का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। आज बहुत से लोग इस बात को भूल गए हैं। वे समझते हैं कि भारत का संविधान भारतीय जनता ने बनाया है। वह जनता का बनाया हुआ नहीं है - इस अर्थ में कि आज जैसे चुनाव में 100% के प्रतिनिधित्व का अधिकार है, वैसा उस समय नहीं था। जिन्होंने संविधान बनाया, वे कितने लोगों का प्रतिनिधित्व करते थे? उस समय चुनाव की पद्धति अलग थी। मतदान का अधिकार कुछ ही लोगों को था। बारह प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले संविधान-सभा में बैठे थे। उन्होंने इस संविधान की रचना की।

संविधान जब बन रहा था तब संविधान-सभा के अंदर और बाहर यह बात कही जा रही थी कि इसमें बहुत से भाग 1945 के 'गवर्नमेंट आफै इंडिया एक्ट' (भारत-शासन अधिनियम) से लिए गए हैं। यह 'गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट' अंग्रेजों ने बनाया था। 'फूट डालो और राज्य करो' उनकी नीति थी। इस नीति के अनुकूल अनेक प्रावधान उस अधिनियम में थे। हुआ यह कि छानबीन न करते हुए उस अधिनियम के अनेक भाग हमारे संविधान में लाये गए- जो विभाजनकारी स्वरूप के थे। यह बात तब भी कही गई थी कि इसके दुष्परिणाम होंगे। किंतु राजनीतिक लोगों को सदा ही किसी बात की शीघ्रता रहती है जिसे हम नहीं जानते। तो इस पर अधिक गहराई से विचार नहीं हुआ, किंतु यह बात तब भी अनुभव की गई थी कि संविधान में विभाजनकारी तत्त्व हैं। इसमें यह दोष है कि यह भारत के मूल स्वरूप को व्यक्त नहीं कर पा रहा। दो-तीन उदाहरण मैं रखना चाहता हूँ।

डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा कुछ समय तक संविधान-सभा के अध्यक्ष थे। उनका कथन है:-

"तथापि, अपने एकमात्र रक्षक-लोगों (जनता)-की मूर्खता या भ्रष्टाचार अथवा असावधानी से संविधान एक घण्टे में ही नष्ट हो सकता है। जो शब्द मैं आपसे कह रहा हूँ वे आपके विचार करने के लिए हैं कि गणतंत्र का सृजन जनभावना और नागरिकों की बुद्धिमत्ता के बल पर होता है। उनका पतन हो जाता है जब जन-परिषदों से बुद्धिमान निष्कासित कर दिए जाते हैं। वे सच्चरित्र कहलाने का दुस्साहस करते हैं और दुश्चरित्र पुरस्कृत होते हैं, क्योंकि वे लोगों से छल करने के लिए उनकी चाटुकारी करते हैं।"

संविधान के मुख्य शिल्पकार माने जाने वाले डॉ. अम्बेडकर ने टिप्पणी की:

"नवंबर, 1949 में लोगों ने स्वयं को जो संविधान दिया, यदि वह संतोषजनक रीति से कार्य न करे तो भविष्य में हमें कहना होगा कि संविधान असफल नहीं हुआ है, वरन मनुष्य ही दुष्ट हैं।"

हमारे प्रथम राष्ट्रपति और संविधान-सभा के सभापति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने अपनी विदाई के समय कहाः

"मैं विधान-सभा के सदस्यों के लिए कुछ योग्यता निर्धारित किया जाना पसन्द करता। यह विसंगतिपूर्ण है कि जो विधि (Law) का प्रशासन लागू करें या प्रशासन करने में सहायता करें उनके लिए तो हम उच्च योग्यताओं पर बल दें, परंतु जो विधान बनायें उनके लिए कुछ नहीं अतिरिक्त इसके कि वे चुने गए हों। स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए विधि-निर्माता को संतुलित विचार करने की क्षमता से भी कहीं अधिक बौद्धिक साधक की आवश्यकता होती है और सबसे बढ़कर आवश्यकता होती है चरित्रसंपन्न जीवन के लिए आधारभूत बातों के प्रति सच्चा होने की। मनुष्य के नैतिक गुणों को मापने के लिए मापदंड का निर्माण करना सम्भव नहीं है और जब तक वह सम्भव नहीं होता, हमारा संविधान दोषपूर्ण रहेगा।" ये कितने भविष्यवक्ता शब्द हैं! इस विषय के अधिकारी व्यक्तियों में से एक श्री पी. कोटेश्वरराव का भी एक छोटा-सा उदाहरण दे रहा हूँ। उन्होंने कहा:-

"हमारा संविधान न भारतीय है न गांधीवादी। यह जनता का संविधान नहीं है। अपनी व्यवस्थाओं में जन-प्रतिभाऔर राष्ट्र के स्वभाव को व्यक्त करने के लिए यह जटिल, भ्रामक और विसंगतपूर्ण है। वह अग्राह्य प्रकार का बन गया है। संविधान निर्माण के लिए कच्ची सामग्री स्वदेशी-भूमि से नहीं प्राप्त की गई है। इसकी प्रेरणा प्राचीन मनीषा से नहीं ली गई है। सामान्य जन की आवश्यकताएँ और आकाँक्षाएँ उन्हें साकार करने वाले किसी तंत्र की रचना किए बिना केवल घिसे-पिटे शब्दाडम्बर और खोखले प्रावधानों में व्यक्त कर दी गई हैं। संविधान निर्माण में जन-सहभागिता थी ही नहीं। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विचारधाराओं की पाश्चात्य अवधारणाओं का परिस्थितियों से किसी प्रकार की प्रासंगिकता के बिना ही आयात कर लिया गया है। इसमें प्राथमिकताओं का उचित विवेक नहीं है। इसके अनेक भागों में संशोधन, अनेक भाषाओं को इससे निकाल देने तथा बहुत से नये प्रावधानों को इसमें सम्मिलित करने की आवश्यकता है। अतः यह उपयुक्त समय है कि सब बातों का वस्तुनिष्ठ विचार किया जाए और इस संविधान को निरस्त कर दिया जाए। स्वदेशी समाजवादी सच्चे लोकतांत्रिक संविधान से इसे प्रतिस्थापित करके इसका बस्ता बाँध दीजिए।"

ये केवल उदाहरणस्वरूप कुछ बातें आपके समक्ष रखीं। कहने का अभिप्राय यह है कि जिनका संसदीय लोकतांत्रिक पद्धति में हम लोग अनुकरण कर रहे हैं वे बेचारे स्वयं त्रस्त हैं कि उसमें जो त्रुटियाँ है उनको कैसे दूर किया जाए। वैसे उनके वर्तमान विचारकों ने कहा है कि उन्होंने इस पद्धति को इसलिए नहीं अंगीकार किया कि यह सर्वश्रेष्ठ है, वरन इसलिए लिया कि यह सबसे कम दोषपूर्ण है। उन्होंने अलग-अलग देशों में कुछ प्रयोग भी किए।

'प्रतिनिधिक स्वरूप की सरकार' और 'प्रत्यक्ष लोकतंत्र' में जो खाई है उसे पाटने के लिए कुछ उपायों का कहीं-कहीं प्रयोग किया गया है, यथा - वापस बुलाने का अधिकार, जनमत जाग्रत करने का अधिकार, जनमत-संग्रह आदि। किंतु ये उपाय भी प्रतिनिधिक प्रणाली और प्रत्यक्ष लोकतंत्र की खाई को मिटा नहीं सकते, ऐसा उनका अनुभव है। तो, जिनका हम अनुकरण कर रहे हैं उनकी व्यवस्था कोई विशेष अच्छी नहीं है। उनके अनुभवों पर ध्यान न देते हुए हमने उनका अंधानुकरण किया।

अब दूसरे पक्ष की बात को लें कि हमारे यहाँ कोई लोकतांत्रिक पद्धति ही नहीं थी, केवल निरंकुशता थी, राजतंत्र था। ये राजा निरंकुश मनमानी करते थे। राजनीतिक चिंता यदि कुछ आया तो पश्चिम से आया, ऐसा हमें बताया गया। पिछती शती में यह विचार सुशिक्षित लोगों में भी प्रचलित हुआ था। किंतु कुछ लोगों को अपने इतिहास का अपनी रीति से अध्ययन करने की इच्छा हुई। इससे यह पता चला कि वे बातें असत्य थीं। यह जो हमारा प्रचीन राष्ट्र है, यह पर्याप्त विकसित था। जब युरोप के आज के प्रगत राष्ट्र पिछड़े हुए थे, तब राजनीतिक और संविधानिक दृष्टि से हमारे यहाँ के लोग पर्याप्त प्रगत थे। यह देखकर हमारे विद्वानों को आश्चर्य हुआ।

एक छोटा सा मापदंड बनाना हो तो उधर के एरिस्टोटल और हमारे कौटिल्य लगभग समकालिन थे। उस समय क्या स्थिति थी दोनों की? एरिस्टोटल सिद्धांत रूप में एक पद्धति के निर्माण का प्रयास कर रहे थे और उनका विचार इस बात पर केन्द्रित था कि राज्य कितने प्रकार के हो सकते हैं। इस पर वे सैद्धांतिक चिन्तन कर रहे थे। उसी समय भारत में कौटिल्य राज्य के विभाग कितने रहें, उसके अवयव कितने हों, इसका केवल विचार ही नहीं कर रहे थे, अपितु इसे लागू कर रहे थे। उन्होंने राज्यतंत्र को 18 विभागों में बाँटा था। उसके सात अवयव उन्होंने बनाये जिनको 'प्रकृति' कहा। राजा को सर्वेसर्वा नहीं बनाया, वरन सात में से एक प्रकृति उसको रखा। तो जब वास्तविक प्रशासन और राज्य-संगठन पर केवल विचार ही नहीं, अपितु आचरण भी भारत में हो रहा था, उस समय पश्चिम में केवल राज्य कैसे - कितने प्रकार के-हो सकते हैं, इस पर सैद्धांतिक विचार-विमर्श ही चल रहा था। इतना दोनों में अंतर था। इससे पश्चिमात्य लोगों का यह प्रचार असत्य सिद्ध होता है कि हमारे यहाँ कुछ नहीं था और जो पश्चिम से आया हुआ विचार है उसी के कारण हमारे लोग थोड़ा-बहुत पढ़ सके हैं। यह विचार करते ही सारा भ्रम दूर हो जाएगा।

एक ही बात है कि अपनी रचना का विचार करना हो तो उसमें हमारी प्रकृति क्या है, यह देखना चाहिए और प्रकृति ऐतिहासिक विकासक्रम के आधार पर ही निश्चित की जा सकती है। एक प्रश्न आता है कि जिस लोकतंत्र का गुणगान पश्चिम में किया जाता है और जिसके नाम पर जो भी सही-गलत मान्यता है, एक अर्थ में हम उसका उपयोग कर रहे हैं, क्या उसका भाव हमारे यहाँ था? इसके लिए पहले यह देखा जाए कि हमारी प्रकृति क्या है। उसके अनुसार यह भी विचार हो सकता है कि आज हम क्या कर सकते हैं और उसकी दिशा क्या हो सकती है। यहाँ विस्तार में न जाकर केवल दिशा-दर्शन के नाते अपनी प्रकृति क्या है, उसका विकास कैसे हुआ, विकास का क्रम क्या रहा, इसका संक्षेप में विचार करके इस दिशा में आज के दोषों को टाल कर आगे जाने के क्या कोई सुझाव आए हैं, यह हम देखेंगे।

ऐसा दिखता है कि सर्वथा प्रारंभ में यहाँ केवल लोग थे, किंतु संस्थाएँ नहीं थीं- "विराड्वा इदमग्र आसीत्", ऐसा कहा गया है। आज लोग कहते हैं कि हमारे सामने बड़ी राजनीतिक समस्या है। वैविध्यपूर्ण समाज है। भाषा के भेद, प्रान्त के भेद, जातियों के भेद, आदि-आदि है। उस समय का यदि मैं आपको बताऊँ तो आपको आश्चर्य होगा। अर्थर्ववेद का उदाहरण है:

जनं विभ्रती बहुधा विवाचसम्

नाना धर्माणां पृथिवी यथौकसम्

सहस्र धारा द्रविणस्य में दुहाम्

ध्रुवेन धेनुं रनप्रस्फुरत्नी॥ (अथर्व. 12-1-45)

अर्थात विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले, विभिन्न धर्मों के - माने स्वभाव- धर्म के - लोगों को विभिन्न प्रकारों से एक ही घर में रहने वाले एक परिवार के लोगों के समाज जो धारणा करती है वह हमारी मातृभूमि बिना हिचकिचाहट के दूध देने वाली गाय के समान धन की सहस्रों धाराएँ प्रदान करे। यह अथर्व की बात है। अर्थात तभी से हमारा वैविध्यमय स्वरूप चला आ रहा है। कोई नई बात नहीं है। उस विशेषता को समेटकर एकात्मता का निर्माण उस समय हो सका। आज उसको तोड़ने की चिंता में हम लोग हैं। इतना ही अंतर है। अलग-अलग लोग थे। अर्थव के अनुसार सर्वप्रथम परिवार संस्था का निर्माण हुआ। 'सा उदक्रामत्-सा गार्हपत्ये न्यक्रामत्।' (अथर्व 8-10-2) इसका अर्थ है कि विराट स्थिति से उत्क्रान्ति हुई गार्हपत्य स्थिति में। अर्थात विवाह संस्था तथा परिवार संस्था का निर्माण हुआ। इस प्रकार सर्वप्रथम गृहपति का निर्माण हुआ। उत्क्रान्ति की अगली अवस्था भी अथर्व में है। 'या उदक्रामत्-सा आहव-नीये न्यक्रामत्।' उस संस्था की उत्क्रान्ति आहवनीय संस्था में हुई जहाँ एक ही क्षेत्र में रहने वाले सब पीवारों के लोग एकत्रित होकर सामूहिक कार्य-यज्ञ आदि-करने लगे तथा एकत्रित विचार-विमर्श करने लगे।

इससे अगली अवस्था सभा की भी जिसके सदस्य को -'सम्भ' कहा जाता था - 'सा सदक्रामत्, सा सभायां न्यक्रामत्। यन्ति अस्य सभा सभ्यो भवति।।' इस प्रकार स्थान-स्थान पर ग्राम सभाओं का निर्माण हुआ। उसकी उत्क्रान्ति राष्ट्र-समिति में हुई। राष्ट्र-समिति के सदस्य की 'सामित्य' संज्ञा थी। 'सा उदक्रामत्, सा समितौ न्यक्रामत्। यन्ति अस्त समिति सामित्यो भवति।।' जो राष्ट्रसमिति रहती थी उसकी उत्क्रान्ति आमन्त्रण-परिषद् में हुई। मन्त्रिमण्डल का निर्माण उसमें से हुआ, जिसके सदस्यों को 'आमन्त्रिणी' संज्ञा दी गई थी। 'सा उदक्रामत् साऽऽमन्त्रणे न्यक्रामत्। यन्ति अस्य आमन्त्रणं आमन्त्रणीयों भवति।।' इस प्रकार विभिन्न शासन-प्रणालियों का हमारे यहाँ इस अवस्था के पश्चात उद्भव हुआ।

पश्चिम में जैसे एक दुराग्रह रहता है कि एक शासन-प्रणाली यदि कोई चुन लेता है तो कहता है कि सारे संसार में, सारे संसार के लिए उपयुक्त कोई पद्धति है तो उसीकी है। किंतु हमारे यहाँ ऐसा नहीं माना गया। यह माना गया कि एक तो परिस्थिति और फिर मनोरचनाके अनुसार अलग-अलग कालखण्डों में या एक ही समय अलग-अलग भूभागों में अलग-अलग शासन-प्रणालियाँ चल सकती हैं। इस प्रकार बारह-तेरह प्रकार की शासन-प्रणालियाँ अपने यहाँ प्राचीन काल में चलती थीं। उनमें अब और भी कोई प्रकार जुड़ सकता है। अपने यहाँ जो हम सुनते हैं 'स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वराज्यं वैराज्यं पारमेंष्ठ्यं राज्य महाराज्यमाधिपत्यमयम् समन्तपर्यायी स्थात् सार्वभौम् सार्वायुष आन्ताद्दापराध ति पृथव्यै समृद्रपर्यन्ताय एकराटिति।।' ये सब शासन-प्रणालियाँ हैं। मनुष्य की प्रतिभा के अनुसार तथा परिस्थिति की आवश्यकता के अनुकूल उनमें और भी वृद्धि की जा सकती है।

ये भाँति-भाँति की शासन-प्रणालियाँ अलग-अलग समयों तथा विभागों में निर्मित हुई। किंतु यह निर्माण-यह विकास-किसने किया? अगुआ कौन थे? सूत्रपात् करने वाले कौन थे? अपने यहाँ की विशेषता यह दिखती है कि राज्य-सत्ता के पीछे रहने वाले राजनीतिक लोगों ने इनका सूत्रपात् इनका गठन नहीं किया। जो राज्यसत्ता के पीछे नहीं थे, ऐसे लोगों ने उनके निर्माण में अगुवाई की।

भद्रम् इच्छन्तः ऋषयः स्वर्णिदः

तपो दीक्षां उपसेदुरग्रे।

ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम्

तदस्मै देवा उपसनयन्तु॥

इसका अर्थ यह है कि आत्मज्ञानी ऋषियों ने प्रारम्भिक काल में जो तप किया उससे राष्ट्र का, बल का तथा ओज का निर्माण हुआ। यह राष्ट्र देवताओं की सेवा करने योग्य है। उन्होंने उदाहरण भी दिया है कि यह जो राष्ट्र था, यह विशृंखल हुआ था। कोई किसी की मानता नहीं था। यह दुर्बल हो गया था। यहाँ उपमा दी है कि ऋषियों ने किस प्रकार का काम कियाः

दण्डा इवेद् गो आत्रनास आसन

परिच्छिन्ना भरता अर्भकामः।

अभवच्च पुरएता वसिष्ठ

आदित् तृत्सूनां विशो अप्रथन्त॥

अर्थात गायों को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग में लाये जाने वाते दंड जैसे निर्बल और पृथक् हुआ करते हैं वैसे ही निर्बल और पृथक्-पृथक् भारत लोग बालिश (बच्चों जैसे) तथा परिच्छिन्न थे। किंतु उनके नेता ऋषि वशिष्ठ हुए, तब ये ही भारतीय लोग प्रख्यात एवं समृद्ध हुए। अभिप्राय यह कि राजसत्ता के पीछे भागने वाली राजनीतिक पद्धति यहाँ गठित नहीं की गई। जो उससे अलग हैं, पद्मपत्रमिवाम्भसि जिनकी भूमिका है, इन लोगों ने स्वयं कोई आकाँक्षा न रखते हुए, जन-कल्याण के लिए कौन-सी प्रणाली उचित हो सकती है, इसका वस्तुनिष्ठ निष्पक्ष विचार करते हुए अलग-अलग विभागों में अलग-अलग शासन-प्रणालियों का निर्माण किया था। यह ध्यान देने योग्य बात है कि इनमें एक प्रणाली राजप्रणाली है और जैसा मैंने कहा, राजा हमारे यहाँ 'मोनार्क' (मनमानी शासक) बिल्कुल नहीं था। राजा में बाद में जो दोष आए, अभी-अभी के हैं। हिंदुस्थान में अहिंदुओं का शासन होने के पश्चात जिनमें ब्रिटिशों का भी समावेश है, वहाँ की शासन-प्रणाली के जो दोष थे- वे बादशाह या मोनार्क के दोष थे - उनका प्रतिबिंब हमारे यहाँ प्रणाली पर पड़ा। यह जो विकृति है, अभी-अभी की है, कुछ शताब्दियों की है।

प्रारंभ में यह सतर्कता बरती गई थी कि इस प्रकार की निरंकुशता निर्मित न हो और इस दृष्टि से राजा के बारे में सूक्ष्मता से विचार किया गया था। राज्यभिषेक के जो मंत्र थे वे भी यही प्रकट करते हैं। मैं भाषान्तर देता हूँ। राज्याभिषेक में जनता राजा से कहती है - हम तुम्हें यहाँ लाये हैं। भीतर आ जाओ। स्थिर रहो, अस्थिर (चंचल) न बनना। तुम्हें अध्यक्ष के स्थान पर रखने की इच्छा सभी प्रजाजनों में रहे। राष्ट्र तुम्हारे द्वारा अध:पतित न हो।

शा त्वाहा षमन्तरेधि ध्रुवस्तिष्ठ अविचाचलिः

तिशस्त्वा सर्वा वा ञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्र अधिभ्रशत्।

तेरे कारण राष्ट्र भ्रष्ट न हो, इस प्रकार की बात जनता उससे कहती थी। उसी में दूसरी बात आती है - सब दिशाओं में रहने वाले प्रजाजन एकमत से तुझे राजपद पर रखने की इच्छा रखें, ऐसा उसको आशीर्वाद देते थे। तेरे राजपद को स्थिर रखने में राष्ट्रसमिति समर्थ हो -

सर्वादिशः संगमसः संध्रार्चाः।

ध्रवाय दे समितिः कल्पतामिह॥ (अथर्व. 6-88-3)

'तेरे राजपद को स्थिर रखने में राष्ट्रसमिति समर्थ हो' का अर्थ यह हुआ कि वह सर्वशक्तिमान नहीं था। सर्वशक्ति प्रजा में थी। सर्वशक्तिमती प्रजा और राजा के मध्य राष्ट्रसमिति थे। राष्ट्रसमिति यदि उसको चाहेगी तो प्रजा को राजी करेगी, नहीं तो उसको हटना पड़ेगा। यह पद्धति थी। इस कारण युरोपीय मानक से यह मापा नहीं जा सकता, यही कहने का अभिप्राय है। राजा निर्वाचित पद था। आनुवंशिक पर्याप्त बाद में हुआ। और प्रजा रुष्ट हो जाती थी तो राजा टिक भी नहीं सकता था। इसके अनेक उदाहरण है। एक उदाहरण राजा प्रजापति का है। उसने उस समय की राष्ट्रसमिति अर्थात संसद का उल्लंखन करने का प्रयास किया। उस राजा को जिस प्रकार हटाया, इसका वर्णन आता है। दूसरा सुप्रसिद्ध वर्णन जानते हैं कि राजा वेण ने असंसदीय व्यवहार किया तो उसको हटाया गया। उसको हटाये जाने के बाद, ध्यान में रखने की बात है कि उसके पुत्र से कहा कि तुमको राजा तो हम बनाते हैं, किंतु हमारी कुछ शर्ते हैं। वे स्वीकार करनी होंगी। उसको यह प्रतिज्ञा ग्रहण करने पर बाध्य किया गयाः

अन्माम् भवन्ती वश्यन्ति कार्यमर्थ समन्वितम्।

तदहं वः करिष्यामि नात्र कार्याविचारणा॥

आप प्रजाजन जो कुछ भी कहेंगे, वही मैं करूँगा। दूसरा कुछ नहीं करूँगा। आपकी प्रसन्नता का कार्य ही करूँगा। ऐसा उससे कहलवाकर, प्रतिज्ञा करवाकर, तब राजा बनाया। राज्याभिषेक के समय के मन्त्र स्पष्ट करते हैं कि कितनी सीमाएँ राजा की थीं और प्रभुसत्ता किस प्रकार जनता की थी। राजा तो केवल मुख्य प्रशासनाधिकारी था। इस कारण राज्याभिषेक के मन्त्रों में उसे प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी - मैं सदैव देश को दैवी मानकर उसकी रक्षा करूँगा। जो भी विधान है, जो भी नीति द्वारा निर्देशित है और जो न्याय के विरुद्ध नहीं है, वही मैं करूँगा। मैं अपनी इच्छापूर्ति के लिए कार्य नहीं करूँगा।

प्रतिज्ञा चामिरोहाश्य मनसा कर्मणा गिरा।

पालयिष्याम्यहं भौम ब्रह्म इत्येवमासकृत।

यशवात्र धर्मनीत्युक्तो दंडनीति व्यपाश्रयः

तमसमः करिष्यामि स्ववासो न कदाचन॥

अपनी इच्छानुसार मैं नहीं चलूँगा, ऐसा उसको कहना पड़ता था और इस कारण जहाँ कुछ विचलन राजा के द्वारा हो गया तो साधारण मनुष्य जाकर उसे डाँट-फटकार आया, यह भी इतिहास में आता है। अधिक नहीं केवल एक छोटा सा उदाहरण बताता हूँ। यह तीसरी शताब्दी का है, अर्थात अभी का है। राजा गड़बड़ करने वाला था तो एक बौद्धभिक्षु आर्यदेव ने जो कहा उसका वर्णन आता है -

जनदासस्य ते दर्पः षाड्भागेन भृतकस्यकः।

अरे, तू जो जन का दास है। तुझे गर्व हो रहा है? तू तो हमसे आय का छठा भाग अपने वेतन के रूप में लेकर सेवा करने वाला नौकर है। और हमसे तू गुर्रऽऽ कर रहा है? एक भिक्षु राजा से यह कह सके खुले में, ऐसी अवस्था थी! यह केवल दृष्टान्त रूप में एक प्रसंग आपके सामने रखा। युरोपीय लोगों ने जो आरोप हमारी प्रकृति पर किया, वह बात सत्य नहीं है।

हमारे यहाँ कोई रूढ़ी शासन-प्रणाली के बारे में नहीं है। भाँति-भाँति की शासन-प्रणालीयाँ हो सकती हैं। लोकतंत्र में यदि कोई अच्छा भाव है तो हमारी भी मनोरचना उसके अनुकूल है। परंतु वहाँ की परिस्थिति जैसी की तैसी उठाकर यहाँ नहीं लायी जा सकती। हमारी जो परम्परा है, हमारी जो प्रतिभा है, हमारी जो विशेषता है, उनको ध्यान में रखकर नई रचना करनी पड़ेगी। इस दृष्टि से कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत हो सकते हैं। वे ठीक से प्रतिपादित भी किए गए है और जैसे ही उनका कार्यान्वयन प्रारंभ होगा, तब अंतिम रूपरेखा (blue print) भी तैयार हो सकती है। अपने यहाँ के एक श्रेष्ठ मार्गदर्शक श्री गुरुजी ने इस संपूर्ण प्रश्न की समालोचना विस्तारपूर्वक की और कहा कि आज की रचना तो उपयुक्त नहीं है। हम नई रचना अपने ढंग की चाहते हैं। उसकी क्या विशेषताएँ हों, इसका उन्होंने यह संकेत दिया कि आज की संरचना केवल क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की है। इसके कारण अनेक विकृतियाँ आ जाती हैं। इसको हटाकर दूसरी रचना लायें, ऐसा यद्यपि आज एकाएक नहीं कहा जा सकता, तो भी कम-से-कम इसको संपूरित (suppliment) करने वाले वृत्तिमूलक (functional) प्रतिनिधित्व की व्यवस्था तो होनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि विधान-मंडल, संसद या निगमों में यदि कुछ सदस्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के रूप में आते हैं तो कुछ कार्यों या व्यवसायों के प्रतिनिधि बनकर आएँ।

वृति या व्यवसायमूलक प्रतिनिधित्व हमारे देश में नई बात नहीं है। वस्तुतः इसीकी विकृति जातिवाद में हुई। परंतु इसकी मूल प्रकृति उससे अलग है। व्यवसायिक प्रतिनिधित्व का अर्थ यह है कि जैसे 16 लाख रेल-कर्मचारी हैं, उनका एक प्रतिनिधि संसद में होना चाहिए। 5 लाख आभियांत्रिकीय (इंजीनियरिंग) कर्मचारी यदि बम्बई में हैं तो उनका एक प्रतिनिधि महाराष्ट्र की विधान सभा में होना चाहिए। व्यापारियों का अलग और वकीलों का अलग प्रतिनिधि विधान सभा में रहे। जो-जो आर्थिक कार्य हैं, आर्थिक हित हैं, उनका प्रतिनिधित्व विधायिका में हो। केवल संख्या के आधार पर हो, या जैसा यूगोस्लाविया में है वैसा हो। यूगोस्लाविया में वृत्तिमूलक प्रतिनिधित्व को बड़े परिणाम में स्वीकार किया गया है और उन्होंने उसका आधार केवल यह नहीं रखा कि वृत्ति या कार्य में कितने लोग हैं। संख्याबल उसका आधार नहीं रखा है। जिस कार्य या व्यवसाय का जितना योगदान समग्र राष्ट्रीय उत्पादन में या समग्र राष्ट्रीय संपत्ति में है उस मात्रा में उसको प्रतिनिधितव मिलने की वहाँ व्यवस्था है। आधार कुछ भी रखा जा सकता है। राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान भी रखा जा सकता है, संख्या भी रखी जा सकती है। किंतु सिद्धांततः यह बात स्वीकार की जाए कि क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के संपूरक के रूप में व्यावसायिक प्रतिनिधित्व हो। यह एक बात उन्होंने कही।

दूसरी बात वह कही जो भारत के इतिहास, प्रकृति और परम्परा के अनुकूल है। यह कि निचले स्तर पर जितने चुनाव हैं वे सब निर्विरोध हों। ब्रिटिश पद्धति का बहुमत-अल्पमत न हो। और, यदि निर्विरोध नहीं होता तो कोई चुनाव नहीं होगा। उस निकाय को भंग रहने दिया जाए। इतना आग्रह रखा। उनका स्पष्ट विचार था कि यदि यह आग्रह रखा जाता है तो इसके आधार स्तर (grassroot level) पर परिवर्तन आएगा। यह बहुमत-अल्पमत की पद्धति जब तक आधार स्तर पर है, तक तब न जातिवाद मिट सकता है, न साम्प्रदायिकता मिट सकती है। अतः आग्रहपूर्वक कहा जाए कि निचले स्तर के जितने चुनाव हैं, वे सब एकमत से होंगे और एकमत से नहीं होंगे तो चुनाव ही नहीं होंगे।

लोगों के धैर्य की सीमा है, अतः अवश्य ही कालान्तर में उनको चुनाव तो करना पड़ेगा और एकमत से वही चुनकर जा सकता है जो सभी धड़ों के ऊपर है। आज की पद्धति में उसी को बढ़ावा मिलता है जो अधिक धड़ेबन्दी वाला, अधिक गुटबन्दी वाला है। एकमत चुनाव की पद्धति में यह नहीं होगा। निष्पक्ष लोग ही उसमें ऊपर आ सकेंगे।

तीसरी बात उन्होंने कही कि जैसी परिस्थिति होगी, उसमें सूत्ररूप सिद्धांत को कार्यरूप देने वालों को रूपरेखा बनानी चाहिए कि इस पद्धति से धीरे-धीरे ऐसा लोकतंत्र विकसित हो जो दलविहिन रहे। राजनीतिक दल का अस्तित्व कोई आवश्यक नहीं। लोकतंत्र लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाला हो। यह सीधे प्रतिनिधित्व करने वाला रहे, बीच में दलालों की - बिचौलियों की आवश्यकता नहीं है। जैसे कुछ लोगों ने कहा कि भक्त और भगवान के बीच में इन पंडा लोगों की आवश्यकता नहीं है। लोग सीधे अपना प्रशासन स्वयं चला सकें। तो इस प्रकार दलविहीन लोकतंत्र कैसे लाया जाए, यह सोचा जा सकता है। यह उनकी तीसरी बात थी।

इस प्रकार मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कुछ बातें उन्होंने रखीं। प्रचलित क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के संपूर्ण के लिए वृत्तिमूलक प्रतिनिधित्व, निचले स्तर पर निर्विरोध चुनाव तथा संपूर्ण पद्धति का निर्दलीय लोकतंत्र के रूप में विकास-ऐसा मार्गदर्शन उन्होंने सूत्र रूप में दिया है तथा यह भी कहा है कि परिस्थिति को देखते हुए इसमें और परिवर्तन हो सकता है।

मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि यह विषय समझते समय हमें यूरोपीय या 'काले यूरोपीय' लोगों द्वारा पढ़ायी गई बातें भूलनी पड़ेंगी और नये प्रकार से अपने इतिहास एवं पद्धतियों का अध्ययन करना पड़ेगा। अपने लिए कैसी पद्धति अनुकूल हो सकती है, इसका विचार करना पड़ेगा। यह केवल दिशा-संकेत है। इसमें आगे विचार करने के लिए बहुत सम्भावना है। ऐसी नई रचना की क्षमता हम लोगों की प्रतिभा में अवश्य हैं, ऐसा अवसर मिलना चाहिए।

16-1-1980

भारतीय मजदूर संघ

अखिल भारतीय अभ्यास वर्ग ,

पुणे में दिए गए भाषण

पर आधारित.....सं)

उन्होंने कहा था : -

w व्यक्ति जब अहं को भूल जाता है, स्वयं को ध्येय में विलीन कर देता है तब उस की शक्ति असीम होती है।

w हमारा उद्देश्य है कि हिंदुस्तान के मजदूर आन्दोलन में जो त्रुटि है उसे ठीक करना। लोग अभी तक यह समझते रहे कि 'मजदूर' और 'मालिक' ये दो ही पक्ष हैं। वे यह भूल गए कि एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष राष्ट्र भी है।

w मजदूर जब अपनी माँग प्रस्तुत करता है तो देखने में आता है कि उसकी 30-40 माँगें हैं। किंतु वास्तव में देखा जाए तो कुल मिला कर उस की एक ही माँग होती है जो हर मनुष्य की होती है - और वह माँग है 'मैं मनुष्य हूँ और मनुष्य के नाते जिंदा रहने का मुझे हक चाहिए।

w काम करने का हक मौलिक अधिकारों में जोड़ देना चाहिए। इस देश में जो पैदा हुआ है उस को काम मिलना ही चाहिए।

w मजदूर आवाद-कार्यकर्ता वर्वाद हो। मजदूरों ने कार्यकताओं ने भा.म.सं. नींव को अपने रक्त से सींचा है। आत्म बलिदान और शहादत के दम पर भा.म.सं. का कार्य बढ़ा है। हम ने कहा था 'दि वेस्ट शुड सफर-सो दैट दि रेस्ट शुड प्रोस्पर' हमारा नारा ही था 'वी.एम.एस. की क्या पहचान, त्याग, तपस्या और बलिदान'।

सोपान - 5

' संस्मरण '

1. प्रभाकर घाटे

2. दत्ता रावदेव

3. सरोज मैत्र

4. बाबा साहेब तकवाले

5. आर. वेणुगोपाल

6. केशव भाई ठक्कर

7. कृष्ण लाल पठेला

जैसा कि आप जानते हैं कि भारतीय मजदूर संघ सहित सभी लोकतांत्रिक मजदूर संगठनों के कार्यकर्ताओं ने पिछले आम चुनाव में जनता पार्टी के प्रत्याशियों का समर्थन किया था, क्योंकि हम यह अनुभव करते थे कि तानाशाही और यथार्थ ट्रेडयूनियनिज्म साथ-साथ नहीं रह सकते इसलिए श्रीमति गांधी की तानाशाही को हटाना ही होगा। हम जनता पार्टी की सफलता निश्चित करने के लिए भी उत्सुक हैं क्योंकि अब यदि जनता 'जनता शासन' से निराश हो जाती है, तो वह केवल जनता पार्टी पर ही विश्वास नहीं खो बैठेगी बल्कि भारतीय परिस्थितियों में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की सामर्थ्य पर भी उसका विश्वास उठ जाएगा। यह भविष्य में तानाशाही का पक्ष मजबूत बनायेगा जैसा कि अतीत में हुआ है।

लेकिन मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सत्तारूढ़ होने के बाद अब जनता पार्टी के नेतागण जन संगठनों को पार्टी दायरे के भीतर लाने का प्रयास कर रहे हैं। मैं यह समझ पाने में असमर्थ हूँ कि यह किस प्रकार लोकतंत्र की आधारभूत मान्यताओं के अनुरूप है। निस्संदेह मैं आपकी जितनी राजनीति अथवा राजनीति शास्त्र नहीं जानता।

( श्री मधु लिमये को मा. ठेंगड़ी जी द्वारा लिखे पत्र का अंश)


प्रेमपर्ण व्यवहार से मिलती है आश्चर्यजनक सफलता

प्रभाकर घाटे ,

पूर्व महामंत्री ,

भारतीय मजदूर संघ ,

मैंगलोर (कर्नाटक)

यह मद्रास की उद्बोधक घटना है। ठेंगड़ी जी हमेशा की तरह भारतीय मजदूर संघ के संगठनात्मक कार्यकलापों के लिए वहाँ प्रवास पर आए थे। वे अनेक कार्यकर्ताओं से घिरे हुए थे। प्रत्येक कार्यकर्ता निकट से उनके दर्शन करना चाहता था। कुछ सम्मानपूर्वक उनके चरण स्पर्श करना चाहते थे। कुछ अन्य कार्यकर्ता उनसे बात करके स्वयं को धन्य करना चाहते थे।

मैनें एक कार्यकर्ता को देखा जो बहुत उत्सुक था कि ठेंगड़ी जी उसकी तरफ देखें, वह ठेंगड़ी जी से कुछ कहना चाहता था। विलम्ब हो रहा था और मुझे लग रहा था कि यदि स्थिति को नहीं संभाला गया तो अगले कार्यक्रम के लिए बहुत देर हो जाएगी। मैं इस प्रयास में था कि ठेगड़ी जी कार्यकर्ताओं से मिलने का कार्यक्रम स्थगित कर दें और वे अगले कार्यक्रम के लिए प्रस्थान करें, कार्यक्रम का स्थान वहाँ से कुछ दूर भी था।

इसी बीच वह कार्यकर्ता ठेंगड़ी जी के निकट पहुंचने में सफल हो गया और उसने ठेंगड़ी जी से कुछ कहा। मैंने देखा ठेंगड़ी जी ने स्वीकृति की मुद्रा में गर्दन हिलाई। उस कार्यकर्ता के चेहरे पर उभरी चमक देखते ही बनती थी। मुझे एकदम आशंका हुई कि हमारा कार्यक्रम निश्चित रूप से अस्तव्यस्त हो जाएगा।

ठेंगड़ी जी मेरी ओर मुड़े और कहा कि हमें इस कार्यकर्ता के घर चलना है। मैंने उस कार्यकर्ता को हतोत्साहित करने के लिए कहा कि लेकिन ठेगड़ी जी........किंतु ठेंगड़ी जी ने मुझे अपना वाक्य पूरा नहीं करने दिया। उन्होंने कहा इनका घर रास्ते में है और केवल पाँच मिनट ही अतिरिक्त लगेंगे। उस कार्यकर्ता की इच्छा पूरी करने के अलावा कोई तरीका नहीं था। हमनें उस कार्यकर्ता को अपने साथ ही ले लिया और हमारे वाहन ने उसके घर की राह पकड़ी। रास्ते में मुझे पता चला कि कुछ दिन पूर्व ही वह कार्यकर्ता एक बेटी का पिता बना है, उसकी इच्छा थी कि ठेंगड़ी जी उस बच्ची को आर्शिवाद दें और उसके लिए एक नाम भी बताएं।

मुझे आश्चर्य हो रहा था उस कार्यकर्ता की इच्छा किस प्रकार की थी! हमारी गाड़ी उसके छोटे से किराये के मकान पर रुकी, सारा दृश्य बता रहा था कि वह एक गरीब परिवार था। शीघ्र उसके परिवार की और आसपास की महिलाएं इकट्ठी हो गई। ठेंगड़ी जी को घर के अंदर ले जाया गया। बच्ची की माँ बच्ची को ठेंगड़ी जी के सामने लेकर आई। ठेंगड़ी जी ने अत्यन्त स्नेहपूर्वक बच्ची के गालों को थपथपाया। सभी लोग इस बात के लिए बड़े उत्सुक थे कि ठेंगड़ी जी बच्ची के लिए क्या नाम सुझाते हैं। सभी चुप थे।

ठेगड़ी जी के 'सेल्वी' कहते ही सारा वातावरण प्रसन्नता से चहकने लगा। बच्ची की माता और पिता ने ठेंगड़ी जी के चरण स्पर्श किए और इस प्रकार उन्होंने एक प्रकार से अपनी कृतज्ञता भी प्रगट कर दी।

इस प्रकार छोटी-2 बातों से सैकड़ों की संख्या में साधारण लोगों में से भारतीय मजदूर संघ के लिए समर्पित कार्यकर्ता खड़े हुए हों, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

(2)

उनकी आत्मीयता

आपात्काल के दिन थे। आवागमन प्रतिबंधित था और वाणी अवरूद्ध। उस समय की आवश्यकता थी प्रबल जनजागरण ताकि स्वतंत्रता को (प्रैस) बोलने की स्वतंत्रता को, आवागमन की स्वतंत्रता को, विचार प्रगट करने की स्वतंत्रता को और यहाँ तक संसद की स्वतंत्रता को बहाल किया जा सके। एक के बाद एक दो नेताओं को उनके छद्म वेश के बावजूद पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। तीसरा व्यक्ति भारत के बाहर विभिन्न देशों में कार्यरत था। यह रहस्य था कि केवल एक व्यक्ति जन जागरण के महान उद्देश्य को लेकर सब तरफ घूम रहा था।

उसी बीच मेरी माता जी का निधन हो गया। बहुत सारे लोग संवेदना प्रगट करने व सांतवना देने के लिए आ जा रहे थे। पुलिस और खुफिया पुलिस के लोग भी आए।

पेन्ट-बुशर्ट पहने और आंखों पर चश्मा लगाए एक सेना के उच्च अधिकारी जैसा दिखने वाला व्यक्ति भी संवेदना प्रकट करने के लिए वहाँ उपस्थित हुआ। मेरे बड़े बेटे व मेरी पत्नी ने मुझे बताया कि कोई बड़े अफसर संवेदना प्रगट करने आए हैं। मैंने उनका स्वागत किया पर यह देखकर सकपका गया कि पुलिस का सर्वाधिक वांछित (Most wanted) व्यक्ति मेरे द्वार पर था। खुफिया विभाग के लोग केवल उन्हीं की खोज में प्रातः काल से मेरे घर पर आ रहे थे।

मैंने उस अफसर की आगवानी की, उनका आशीर्वाद प्राप्त किया ताकि दुःख की घड़ी में मुझे कुछ ढांढस बंधे। मैंने उनसे तुरंत सुरक्षित निकल जाने की भी प्रार्थना की। वे थे हमारे श्रद्धेय ठेंगड़ी जी एक छद्म वेश में।

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी

असाधारण संयमशील नेता

दत्ता रावदेव

भारतीय रेलवे मजदूर संघ

मुम्बई

1962 के चीन आक्रमण के पश्चात देशवासियों के साथ गद्दारी और विश्वासघात करने वाले रेलवे में कार्यरत साम्यवादी यूनियन के बारें में रेलवे मजदूर अत्यन्त क्षुब्ध हुये। पूर्वोत्तर रेलवे के देशभक्त मजदूरों ने गोरखपुर में श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी से संपर्क करके भारतीय मजदूर संघ का रेलवे पर संगठन खड़ा करने का आग्रह किया। सभी राष्ट्रवादी विचारों से ओतप्रोत मजदूरों ने अपने-अपने विचार रखे। श्री ठेंगड़ी जी ने अत्यन्त शांति से और गम्भीरता से उन सबके विचार सुने। उन्होंने स्पष्टता से कहा की संगठन को मान्यता मिलने के कोई आसार नहीं। एक साथ शासन प्रशासन इतना ही नहीं तो दोनो मान्यता प्राप्त संगठनों से अविरत लड़ना होगा। लाभ कुछ नहीं हानि ही होगी। विचार करो। वहाँ उपस्थित सभी ने संगठन खड़ा करने का अपना निश्चय प्रतिपादित किया और सितम्बर 1962 में भारतीय मजदूर संघ का रेलवे पर प्रथम संगठन पूर्वोत्तर रेलवे श्रमिक संघ का गठन हुआ। इससे प्रेरणा लेकर एक के बाद एक जोन पर संगठन गठित किए गए। शुरू-शुरू में ना तो कोई ट्रेड यूनियन जानता था ना ही कोई ट्रेड यूनियन के रिति-रिवाज जानता था। ऐसी अवस्था में स्थान स्थान पर कार्यकर्ता छोटी-छोटी बातें, शिकायतें, समस्या श्री ठेगड़ी जी को घंटो तक सुनाते थे। श्री ठेंगड़ी जी बैठक लगाकर अत्यन्त शांति से और गम्भीरता से सब की बातें सुनते थे। इतना संयम वे कैसे रख पाते यह आश्चर्य है। नेता केवल अपनी बात कहते हैं, अन्य किसी की बातें सुनने के लिए इनके पास समय ही नहीं होता। लेकिन श्री ठेंगड़ी जी इन सबसे अलग, निराले, विरला नेता थे।

गीत , संगीत के जानकार

खड़गपुर पश्चिम बंगाल में दक्षिण पूर्व रेलवे मजदूर संघ का वार्षिक अधिवेशन संपन्न होने पर श्री ठेंगड़ी जी रेलवे के कार्यकर्ताओं के साथ एक सुप्रसिद्ध आदरणीय बंगला व्यक्ति को मिलने इनके निवास स्थान पहुंचे। पहुँचने पर परिवार के सभी सदस्यों को इतना आनंद हुआ की मानों प्रत्यक्ष भगवान उनके यहाँ पधारे। श्री ठेंगड़ी जी उनके साथ बंगला में ही संवाद करते थे। वे सब उनसे बातचीत करने में आनंद और संतुष्टी का अनुभव करते थे। चाय, नाश्ता के बाद श्री ठेंगड़ी जी ने इस व्यक्ति के दो युवा लड़कियों को रविन्द्र संगीत सुनाने के बारे में कहा। तुरंत साधन सामग्री लायी गई। आधा घंटे तक उपस्थित सभी ने गायन का आनंद उठाया। स्वयं श्री ठेंगड़ी जी रविन्द्र संगीत सुनने में तल्लीन हो गए। जब कभी मौका मिलता, समय रहता, तो श्री ठेगड़ी जी संघ गीत के साथ अन्य गीत भी सुनना पसंद करते थे। गीत, संगीत और गायन में वे खूब रुची रखते थे और इसमें वे माहिर थे, जानकार थे।

प्रगाड आत्मविश्वास

आपात्काल के बाद अत्यन्त चैतन्यमय वातावरण देश में निर्मित हुआ। भारतीय रेलवे मजदूर संघ की कार्यसमिति की बैठक मद्रास में थी। कार्यसमिति ने हमें आदेश दिया कि संगठन की मान्यता के बारे में श्री ठेंगड़ी जी से मिलकर बात करें। मुम्बई में नाज सिनेमा के उपर के माले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय में मैं, श्रीनिवास जोशी और मुकुट बिहारी वे श्री ठेंगड़ी जी से मिलने गए। मान्यता के विषय पर हमनें पूरी बात रखी। श्री ठेंगड़ी जी ने शांति के साथ और गम्भीरता के साथ पुरी बात सुनी। उन्होनें कहा मान्यता के लिए इतने आग्रही हैं और मान्यता मिलने पर ही काम बढ़ेगा। ऐसा कार्यकर्ताओं का मानना है तो मैं अभी इसी वक्त भारतीय रेलवे मजदूर संघ बरखास्त करूँगा और नये सिरे से भारतीय रेलवे मजदूर संघ की स्थापना करूँगा। श्री ठेंगड़ी जी का क्रोध देखकर तो हम तीनों गड़बड़ा गए और श्री ठेंगड़ी जी का दुर्दम्य आत्मविश्वास देखकर हम चकित हुये। नतमस्तक हुये। यकायक मैंने कहा ठेंगड़ी जी, बालक अपनी टुटी-फुटी बातें मों से नहीं तो किससे कहेगा। श्री ठेंगड़ी जी का माँ का हृदय हिल गया और स्वाभाविक अवस्था में आकर इन्होंने मुझे गले लगाया और कहा की ठीक है, मान्यता के लिए प्रयास जरूर होगा किंतु आप में से दो कार्यकर्ताओं को पूर्णकालीन कार्यकर्ता के रूप में काम करना होगा। परिणामस्वरूप दक्षिण से श्री के. महालिंगम और मुम्बई से श्री शरद देवधर रेलवे की नौकरी छोड़कर पूर्णकालीन कार्यकता बने।

माँ की ममता का प्रत्यक्ष दर्शन

एक कार्यक्रम के लिए नागपुर में रेशमबाग में रेलवे के कार्यकर्ता आए थे। श्री ठेंगड़ी जी की उपस्थिति में कार्यक्रम हो रहा था। रात को सारे कार्यक्रम पूर्ण होने पर ग्यारह बजे के बाद श्री ठेंगड़ी जी श्रीनिवास जोशी को लेकर महाल क्षेत्र में रहने वाले प्रमुख कार्यकर्ता श्री बंडोपन्त ढोक जी को मिलने के लिए उनके घर गए। श्री ढोक इन दिनों सख्त बीमार थे। प्रत्यक्ष श्री ठेंगड़ी जी को सामने देखकर भावुक बंडोपंत अत्यन्त गदगद हो गए। श्री ठेंगड़ी जी ने अत्यन्त आत्मीयता से उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछा। श्री बंडोपंत का स्वास्थ्य बिलकूल ठीक नहीं था। तो भी वे उठकर बैठे और अत्यन्त सहजता से बोले की अब मैं एकदम ठीक हो जाऊँगा क्योंकि श्री ठेंगड़ी जी स्पर्श और आर्शीवाद जो मिला।

दक्षिण-पूर्व रेलवे मजदूर संघ के महामंत्री श्री अजित चक्रवर्ती बीमार पड़े। श्री ठेंगड़ी जी उन्हें कोलकत्ता से नई दिल्ली लाये। श्री रामदास पाण्डे जी ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया। वहाक पर अच्छी देखभाल और उचित वैद्यकीय इलाज से उनका स्वास्थ्य ठीक हो गया। अस्पताल का सारा खर्चा श्री ठेंगड़ी जी के कहने पर भारतीय मजदूर संघ ने किया, बाद में भारतीय रेलवे मजदूर संघ ने उसे वापस किया।

आई.सी.एफ. कार्मिक संघ चेन्नई के महामंत्री श्री ज्ञानशेखरन कैन्सर जैसे दुर्धर बीमारी से पीड़ित थे। श्री ठेंगड़ी जी ने अपने स्वयं के पैसे उनके वैद्यकीय खर्चे के लिए मुझे देकर श्री ज्ञानशेखरन को देने के लिए कहा। मैंने चेन्नई के प्रमुख कार्यकर्ता श्री राजेन्द्र बाबू द्वारा वे पैसे श्री ज्ञानशेखरन को दिए। श्री ज्ञानशेखरन अपने ऑसू रोक नहीं पाए।

वर्ष 2001 में भा.रे.म.संघ के ज्येष्ठ, अत्यन्त अनुभवी, बुद्धिमान प्रतिभाशाली कार्यकर्ता श्री दामोदर शर्मा अस्वस्थ थे। श्री ठेंगड़ी जी मुम्बई में आए थे। उन्होंने हमें बुलाकर श्री गणेश जी की मूल्यवान, सुंदर मूर्ति लाने को कहा। मूर्ति लेकर श्री ठेंगड़ी जी कोटा, राजस्थान में श्री दामोदर जी को मिलने पहुँचे। उन्होंने माँ की ममता से उनसे हाल-चाल पूछा और आर्शीवाद देकर उन्हें वह मूर्ति भेंट दी। अत्यन्त सरल भावूक श्री दामोदर जी गद्गद हुए और रो पड़े।

वर्ष 1986 में मध्य रेलवे कर्मचारी संघ का वार्षिक अधिवेशन भुसावल में हुआ। प्रथम दिन के कार्यक्रम के बाद सायंकाल शोभा यात्रा निकली। आम सभा के लिए शोभायात्रा निकल पड़ी। एकाएक निसर्ग ने रौद्ररूप प्रकट किया। बिजली कड़कने लगी, मेघ गर्जना शुरू हुई और बरसात के साथ बड़े बड़े ओले गिरना शुरू हुआ। बारिश का मौसम नहीं था। कई सालों में ऐसा कभी हुआ नहीं ऐसे वहाँ के लोग कहते थे। सभा करना तो असंभव था। प्रतिनिधि अपने निवास स्थान के लिए वापस गए। सारे रास्ते ओले गिरने के कारण पूर्णतः सफेद हुये थे। सभी प्रतिनिधि भीग गए थे। ऐसी अत्यन्त विपरीत स्थिति में कड़ाके के सर्दी में, धुंआधार बारिश में रात दस साढ़े दस बजे श्री ठेंगड़ी जी स्वयं प्रतिनिधियों की खबर लेने, उनकी अवस्था देखने निवास स्थान पहुँचे। उन्हें देखकर सारे प्रतिनिधि आश्चर्यचकित तो हुये ही पर उत्साहित भी हुए।

एक सूत्री मांग, भारतीय रेलवे मजदूर संघ और संलग्न यूनियनों का मान्यता को लेकर 8 मई 1979 को देश के हर कोने से आए पच्चीस तीस हजार कार्यकर्ता नई दिल्ली की चिलचिलाती धूप में जुलूस द्वारा रेलभवन पहुँचे। कार्यकर्ताओं की व्यवस्था रामलीला मैदान में टेण्ट लगाकर की गई थी। जुलूस निकलने के पहले श्री ठेंगड़ी जी एक-एक टेण्ट में जाकर कार्यकर्ताओं की पूछताछ करके उन्हें प्रोत्साहित करते थे। श्री ठेंगड़ी जी को सामने देखकर कार्यकर्ता कड़ी धूप, थकावट, प्यास सब भूल गया दक्षिण रेलवे कार्मिक संघ चेन्नई के एक कार्यकर्ता धूप लगने के कारण बेहोश हुये। उन्हें रेलवे अस्पताल में भर्ती करवाया। श्री ठेंगड़ी जी मुझे लेकर उन्हें मिलने अस्पताल पहुँचे। अत्यन्त आत्मीयता से उनसे बातचीत की। सर्वोच्च नेता एक साधारण कार्यकर्ता को मिलने अस्पताल पहुँचे ऐसा इस कार्यकर्ता ने कभी सोचा नहीं था।

प्रभावशाली व्यक्तिमत्व

हमारे अत्यन्त प्रतिभावान, संगठन के बारे में रात-दिन चिंता करने वाले, निरंतर प्रवास करके संगठन का काम सर्वदूर बढ़ाने में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले संगठन मंत्री श्री शरद देवधर जी के मृत्यु के बाद श्री ठेंगड़ी जी ठाणे (मुम्बई) में उनके घर पहुँचे। श्री शरद जी का परिवार उन्हें देखकर आश्चर्यचकित हुआ और पलभर के लिए मानों वे सब अपना गहरा दुख भूल ही गए। ऐसा परिणामकारक उनका व्यक्तिमत्व था।

संपर्क का परिणाम्

1964 में श्री अमलदार जी संजोग से श्री ठेंगड़ी जी के संपर्क में आए। उनके अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्तित्व, सादगी ओर मधुर व्यवहार से श्री अमलदार जी भारतीय मजदूर संघ से जुड़ गए। मध्य रेलवे कर्मचारी संघ के प्रथम महामंत्री, भारतीय रेलवे मजदूर संघ के प्रथम महामंत्री, बाद में अध्यक्ष बने। उन्होंने पद की गरिमा को बहुत ऊँचाई तक बढ़ाया। वे ऊँचे दर्जे के जबरदस्त वक्ता थे। उनके भाषण का प्रभाव रेलवे मजदूरों पर निश्चित रूप से पड़ता था। वे संगठन के साथ इतने घुलमिल गए कि 88-89 साल की आयु में भी वे संगठन की चिंता करते थे, मार्गदर्शन भी करते थे। वे भारतीय रेलवे मजदूर संघ के सबसे अधिक आदरणीय नेता हैं।

संगठन पर बारीकी से नजर

भारतीय रेलवे मजदूर संघ का त्रैवार्षिक अधिवेशन मुम्बई में अक्तूबर 1998 में लेने का निश्चित हुआ। उसी वर्ष में मई में श्री ठेंगड़ी जी पुणे में थे। महाराष्ट्र प्रदेश भारतीय मजदूर संघ के महामंत्री श्री शरद भाऊ जोशी जी के निवास स्थान पर वे रूके थे। उन्होंने मुझे और श्रीनिवास जोशी जी को वहाँ बुलाया। वहाँ पहुँचने पर हमें और श्री रमणभाई को एक साथ बिठाकर अधिवेशन की तैयारी के बारे में पूछा। हमने पूरी जानकारी उनके समक्ष रखी। उन्होंने कहा यह सब ठीक है किंतु अधिवेशन अत्यन्त प्रभावशाली होने के लिए हर मंडल, हर जोन से प्रतिनिधि मुम्बई पहुँचे इसके लिए क्या योजना बनाई है। हम दोनों ने कहा हम दोनों सर्व दूर जाकर प्रचार और प्रसार करेंगे। तुरंत उन्होंने कहा कितना समय आप देंगे। हम दोनों ने कहा एक-एक महीना जरूर देंगे। एकाएक श्री ठेंगड़ी जी ने श्री रमण भाई से कहा, चलो उठो, ऐसी अवस्था में भा.रे.म.संघ बढ़ नहीं सकता। हम दोंनो वैसे ही श्री रमण भाई भी खामोश हो के देखते रहे। फिर हमने कहा दो-तीन महीने तक हम प्रवास करेंगे और अधिवेशन अत्यन्त सफल बनाएंगे। इस अधिवेशन में रेल राज्य मंत्री श्री राम नाईक उपस्थित थे। श्री ठेंगड़ी जी ने स्व. दिनकर गणेश सोहनी जी की पत्नी और सुपुत्र को अधिवेशन के लिए खास आमंत्रित किया था। अपने उद्घाटन भाषण में उन्होंने श्री सोहनी जी की तपस्या, त्याग, सादगी, समर्पण और जबरदस्त योगदान के प्रति आदर प्रकट करके उनका स्मरण करवाया। श्री सोहनी जी घर परिवार से दूर नई दिल्ली में कई साल काम करते रहे।

विलक्षण प्रतिभा और समय सूचकता

आपात्काल के बाद जनता पार्टी का शासन आया। श्री मधु लिमये जी प्रख्यात समाजवादी नेता एवम् सांसद द्वारा भारतीय रेलवे मजदूर संघ को एक पत्र मिला। जिसमें लिखा था कि सभी पॉलिटीकल पार्टीज एक हो गए हैं। सभी ट्रेड यूनियन्स भी इकट्ठा होकर एक ही ट्रेड यूनियन बननी चाहिए। इस पत्र को पढ़कर हम सब तो चकित हुये और असमंजस में पड़े। इसका जबाब देना हमारे बस की बात तो थी ही नहीं। हमने तुरंत श्री रमण भाई जी से संपर्क किया। उन्होंने भी कहा इसका जबाब तो केवल ठेंगड़ी जी ही दे सकते हैं। इन दिनों श्री ठेंगडी जी का प्रोस्टेट ग्लैंड का आपरेशन हुआ था। वे पुणे में डॉक्टर साहब के घर पर ही विश्राम कर रहे थे। उनको मिलने का किसी को अनुमति नहीं थी। फिर भी विषय का महत्व और समय की आवश्यकता को देखकर मैं अन्य कार्यकर्ताओं के साथ पुणे में पहुँचा। डॉक्टर साहब के घर पर वगैर श्री रामदास पाण्डे जी की अनुमति प्रवेश करना असंभव था। पहले तो श्री रामदासजी ने अनुमति देने से साफ इन्कार किया। हम निराश हुए किंतु श्री ठेंगड़ी जी को मिलना अत्यन्त आवश्यक था। बहुत समझाने पर केवल पाँच मिनट का समय देकर हमें अनुमति दी गई। तुरंत हम ठेंगड़ी जी के पास पहुंचे। उन्होंने खूब आनंद से हमको वहाँ बिठाया और कारण पूछा। हमने वह पत्र पढ़के सुनाया। उन्होंने कहा कागज पेन लाये हो। हमने हाँ कहा। हम पूरी तैयारी के साथ वहाँ गए थे। उन्होंने पूरा प्रोग्राम टेलीग्राम भाषा में बताया और टेलीग्राम करने के लिए कहा। श्री ठेंगड़ी जी एक पल भी रूके नहीं और विचार करने में भी समय नहीं लगाया। हमने तुरंत लिखा। स्वास्थ्य ठीक न होने पर भी एक अत्यन्त महत्व के विषय पर और प्रख्यात नेता को बड़े आसानी से जबाब दिया। उनके बुद्धिमता और विलक्षण प्रतिभा और समय सूचकता का दर्शन आज भी हम भूल नहीं पाते। बाद में उन्होंने चर्चा आरंभ की, हमने कहा पाँच मिनट का समय दिया, अब दस मिनट हो चुके हैं। उन्होंने कहा आराम से बैठो, कोई कुछ नहीं बोलेगा। आगे कहा की कार्यकर्ता यही तो मेरी ताकत है। हम सब गद्गद हो गए।

मांग-पत्र नहीं आदेश-पत्र

23 दिसम्बर 1991 को महाराष्ट्र प्रदेश भा.म.संघ ने मुम्बई में अपने अनेक माँगों के लिए मंत्रालय पर विशाल जुलूस का आयोजन किया था। करी रोड के महाराष्ट्र हाई स्कूल से जुलूस मंत्रालय तक पहुँचनें में तीन-चार घंटे का समय लगा। जुलूस में लगभग पच्चीस-तीस हजार मजदूर शामिल थे। श्री ठेंगड़ी जी पूरे समय शुरू से आखिर तक पैदल जुलूस में चलते रहे। जुलूस को 'काला घोड़ा' के पास रोका गया। वहाँ ही सभा हुई। श्री ठेंगड़ी जी ने अत्यन्त जोशीले भाषा में सरकार की ओर इशारा देकर कहा कि, आज तो हम माँग-पत्र देने आए हैं लेकिन इसके आगे माँग पत्र नहीं आदेश-पत्र देने आएंगे। श्री ठेंगड़ी जी का भाषण इतना जबरदस्त और प्रभावशाली रहा कि सारे मजदूर अत्यन्त रोमांचित होकर उठ खड़े होकर गगनभेदी नारे लगाते रहे।

चतुरस्त्र व्यक्तिमत्व

वर्ष 1992 में दक्षिण मध्य रेलवे कार्मिक संघ का रौप्यमहोत्सवी अधिवेशन विजयवाड़ा में हो रहा था। श्री ठेंगड़ी जी की उपस्थिति में यह अधिवेशन संपन्न हो रहा था। श्री ठेंगड़ी जी के साथ मैं भी था। श्री ठेंगड़ी जी रात दो बजे तक पढ़ते रहते थे। तो भी मैंने पूछा, ठेंगड़ी जी सुबह शाखा में बौद्धिक, 10 बजे अधिवेशन का उद्घाटन, दोपहर भारतीय किसान संघ की बैठक, शाम को विद्यार्थी परिषद् का कार्यक्रम और रात को बुद्धिमान, प्रतिभावान, प्रतिष्ठित लोगों के साथ चर्चा। यह सब आप कैसे संभालते हैं। यह तो समझ के परे है। उन्होंने हँसकर कहा- चैनल बदलने पर अलग-अलग कार्यक्रम देखने को मिलते हैं, वैसे ही अलग-अलग कार्यक्रम के लिए मन को तैयार करना पड़ता है, बाकी सारे विषयों पर से ध्यान हटाकर उसी कार्यक्रम के विषय पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है।

प्रस्तावना-परिचय-समापन

कई किताबों की श्री ठेंगड़ी जी ने प्रस्तावना लिखी। किताब पढ़ने के पहले प्रस्तावना पढ़ने पर किताब का विषय अपने आप ध्यान में आ जाता है। इतनी आशयगर्भ, मौलिक, अत्यन्त प्रतिभाशाली उस विषय को न्याय देने वाली उपयुक्त प्रस्तावना श्री ठेंगड़ी जी ही लिख सकते थे। भा.म.संघ के किसी भी कार्यक्रम के लिए महनीय, सुयोग्य और कतृत्ववान व्यक्ति को आदर से आमंत्रित करने की परिपाटी है। उस महान व्यक्ति का परिचय श्री ठेंगड़ी जी इतनी खूबी से, शानदार, सुंदर भाषा में साहित्यिक ढंग से करते थे कि सभी कार्यकर्ताओ को लगता था कि किसी महान व्यक्ति का परिचय बस केवल श्री ठेंगड़ी जी द्वारा ही होना चाहिए। कार्यक्रम का समापन तो श्री ठेगड़ी जी द्वारा होता था। उनके प्रेरणादायी विचार सुनने के लिए सारे लालायत रहते थे। पंचतंत्र, गीता, उपनिषद्, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रंथसाहिब इनका अत्यन्त गहन अभ्यास होने के कारण उनमें से समयोचित और प्रसंगोचित उदाहरण वे अपने मधुर वाणी से देकर सबको उत्साहित करते थे। हर बार नये-नये विषयों की जानकारी मिलती थी। हिन्दी, उर्दू, मराठी, अंग्रेजी, बंगला, और संस्कृत भाषा उन्हें अवगत थी। संत ज्ञानदेव, नामदेव, तुकाराम, कबीर, रविदास, नरसी मेहता, चैतन्य महाप्रभू, गुरूनानक आदि अनेक संतों का अभ्यास चकित करने वाला था। वैसे तो वे हरदम प्रवास में ही रहते थे। फिर भी अनेक लेख, प्रस्ताव, किताबे वैसे ही अनेकानेक विषयों पर व्याख्यान, अनेक कार्यक्रम इनता ही नहीं तो हर जगह गणमान्य लोगों से मिलना, चर्चा करना, कार्यकर्ताओं को मिलना, बीमार लोगों को मिलने के लिए अस्पताल या घर जाना और किताबें पढ़ना। इसके लिए वे समय कैसे निकालते थे यह अत्यन्त आश्चर्यकारक बात है। आज वे नहीं है लेकिन उन्होंने दिए हुये विचार, प्रेरणा, हम सबके साथ कायम रहेंगी। ऐसे एक युगपुरुष, द्रष्टा नेता के हम सब अनुयायी हैं, यह हमारे लिए अत्यन्त गौरव और भाग्य की बात है।

दत्तोपंत ठेंगड़ी

आशा और विश्वास के अग्रदूत

(हिन्दी में अनुदित)

सरोज मित्र

संयोजक

स्वदेशी जागरण मंच

कटक (ओड़िसा)

(मा. ठेंगड़ी जी भूमिगत रहकर आपात्काल के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे। उसी सिलसिले में वह कोलकता आए थे और 9 सितम्बर 1975 रात्रि को उन्होंने कार्यकर्ताओं के साथ बैठक की। उस गुप्त रात्रि बैठक का विवरण श्री सरोज मित्र ने लेखनीबद्ध किया है जिसे यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं:- सं)

कोलकता में 9 सितम्बर 1975 रात्रि को स्थानीय बारह-पंद्रह कार्यकर्ताओं ने गुप्त बैठक की। सामाजिक वातावरण, घुटन, भय तथा आशंकाओं से भरा हुआ था। मा. ठेंगड़ी जी ने बैठक के वातावरण को अपनी गरिमामयी उपस्थिति से आशा, विश्वास एवं उत्साह से भर दिया। उन्होंने अधिकारपूर्ण वाणी तथा विश्वास युक्त लहजे में कहा कि देश पर आपात्काल थोपने वाली ईन्दिरा सरकार का पतन सत्रह महीनों के भीतर हो जाएगा। उन्होंने कार्यकर्ताओं को आश्वस्त किया कि इन्दिरा सरकार का पतन अवश्यम्भावी है।

दत्तोपंत जी ने स्थिति का यर्थाथ आकलन करते हुए कहा कि देश पर आपात्काल थोपने वाले बेशर्म सत्ता-शासन का पतन तो निश्चित है किंतु कोई यह न समझे कि उक्त पतन हमारे और आपके संघर्ष के परिणाम स्वरूप होगा। आप कुछ मत करिए और घर जाकर आराम से सो जाइए तो भी यह सरकार जाने वाली है। इसकी अवधि सत्रह महीने निश्चित है किंतु अगर आप आपात्काल के विरूद्ध खड़े होते हैं, जेल जाते हैं तो आपका नाम इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। ठेंगड़ी जी के उक्त कथन से कार्यकर्ताओं में नव उर्जा और स्फूर्ति का संचार हुआ। उन के चेहरों से निराशा एवं भय का भाव तिरोहित हो गया।

तदुपरान्त बैठक की कार्यवाही सामान्य रूप में सहज गति से आगे बढ़ी। कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने अनुभव बताने प्रारंभ किए। मैंने बताया कि जार्ज फर्नाडिस ने गन-पाउडर (बारूद) इकट्ठा किया है जिसके उपयोग के लिए उन्हें उपयुक्त कार्यकर्ताओं की तलाश है। इसे सुनने के बाद ठेंगड़ी जी ने कहा यह बचकाना काम है। वर्षो पश्चात दिल्ली में ठेगड़ी जी की पुण्य स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में मेरे साथ वक्ता के रूप में उपस्थित जार्ज फर्नाडिस से मैंने उन्हें आपात्काल में उनके उक्त विचार कि बारे में पूछा तो उन्होंने स्वीकार किया कि हाँ वह सही है और उससे जुड़े उन्होंने अपने अन्य दो सहयोगीयों के नाम भी बताए।

बैठक में उपस्थित स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के श्री राविन चक्रवर्ती जिनका निवास कोलकता स्थित बैलूर मठ के समीप है ने रहस्योदघाटन करते हुए इस रोचक घटना का वर्णन किया । इन्हीं दिनों गुप्त तरीके से देर रात के समय सी.पी.एम. के नेता ज्योति बसु रामकृष्ण मिशन, बैलूर मठ में शतवर्षीय सन्यासी स्वामी भरत महाराज से मिलने आए। स्वामी भरत महाराज के आदेश पर बैलूर मठ के कपाट सेवकों ने खोल दिए और आगन्तुक चुपचाप सीधे भरत महाराज के कक्ष में प्रवेश कर गए। उन दोनों के मध्य क्या वार्तालाप हुआ यहतो ज्ञात नहीं किंतु भरत महाराज क्रोधित दिख रहे थे और आवेश में बोल रहे थे ऐसे जो बाहर सेवक उपस्थित थे उन्होंने प्रत्यक्ष देखा-सुना था।

उक्त घटना से वामपंथियों के सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन में दोहरे आचरण का पता चलता है। वामपंथीयों के समस्त कार्यकर्ता एक ओर जहाँ धर्म-कर्म की सार्वजनिक खिल्ली उड़ाते फिरते हैं वहीं निजी तौर पर वह इसे मानते स्वीकारते हैं।

बैठक में चाय समाप्त हुई थी। आधी रात से अधिक समय हुआ था। ठेंगड़ी जी ने मुझे कहा कि उड़ीसा प्रान्त में आप अपना संगठन कार्य करते रहिए और आवश्यकता होने पर जेल यात्रा करनी पड़े तो वह भी करिए। ठेंगड़ी जी के नेतृत्व की यह विशेषता ही कही जाएगी कि उन्होंने डावांडोल हो रहे कार्यकर्ताओं में आत्मविश्वास जगा दिया। जिन कार्यकर्ताओं के दम पर देश से आपात्काल हटाने को जोरदार संघर्ष ठेंगड़ी जी भूमिगत रह कर संचालित कर रहे थे। उन्हें उत्साहित करने का यह उचित समय था। बैठक में आते समय जो कार्यकर्ता भय एवं आशंकाग्रस्त दिख रहे थे वही बैठक समाप्ति पश्चात घर जाते समय नव उर्जा से भरपूर और लक्ष्य के प्रति पुनः कटिबद्ध दिख रहे थे।

" हमने आरंभ में ही कहा था और हमारा उद्देश्य भी था कि सामान्य मजदूर आबाद हो , इस हेतु मजदूर संघ कार्यकर्ता बर्बाद हो (दि बैस्ट शुड सपफर-सो दैट दि रेस्ट शुड प्रोस्पर) जरा विचारें क्या ऐसा कोई दूसरा संगठन है जिस ने कार्यकर्ता की बर्बादी का आह्वान किया हो। हमारा नारा ही था "बीएमएस की क्या पहचान-त्याग , तपस्या और बलिदान " हमारे प्रगतिशील कहलाने वाले लोग कहते थे इस क्षेत्रा में लोग पैसा कमाने आते हैं - सुख सुविधा की अपेक्षा से आते हैं पर यह बीएमएस वाले कैसे पागल हैं त्याग , तपस्या , बलिदान की बातें कर रहे हैं"

द. बा. ठेंगड़ी

असाधारण स्मरण शक्ति के धनी

बाबा साहेब तकवाले

भारतीय किसान संघ

वर्धा (विदर्भ)

स्वर्गीय ठेगड़ी जी के साथ बहुत बार प्रवास का योग आया। एक बार दिल्ली लौटते समय मैंने कहा "नाद और बिंदु का विवाद अभी भी वैसा ही चल रहा है" इस पर वे बोले ईसा मसीह ने इस पर अधिकृत रूप से कह दिया है और उन्होंने बाइबिल से "द वर्ड" पर जो कहा वह संपूर्ण कहकर बतलाया। उनकी वह विलक्षण स्मरणशक्ति देखकर मैं चकित रह गया।

बहुत बार भाषण देते समय वे कुछ मराठी, हिन्दी तथा अंग्रेजी कविताओं के अंश उद्धृत करते थे। वह भी दस-बारह पंक्तियों के होते थे। किताबों से उद्धरण केवल स्मरण से बार-बार देते थे। इतना उन्हें कंठस्थ कैसे होता था यह एक आश्चर्यकारी विषय है।

सामाजिक संपर्क की कुशलता

जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में कार्य का फैलाव करने की बात सामने आई तो मजदूरों के, किसानों के तथा विभिन्न सामाजिक स्तरों में समन्वय निर्माण करने हेतु एवं आर्थिक विषयों पर स्वदेशी के माध्यम से जन जागृति करने हेतु, जन संगठनों का निर्माण करने का प्रश्न आया तो स्वर्गीय ठेंगड़ी जी का नाम सामने आया। उन्होंने भी बड़ी कुशलता से, लगन से, एवं घोर परिश्रम से समय-समय पर उनका निर्माण किया जैसे भारतीय मजदूर संघ की स्थापना से पहले बहुत समय तक कांग्रेस प्रणित 'इंटक' के प्रदेश मंत्री के नाते कार्य करते रहे। यह अनुभव उन्हें भारतीय मजदूर संघ की स्थापना करने के लिए आवश्यक था। विदर्भ में भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वालों में तथा वह कार्य संपूर्ण प्रान्त में फैलाने वालों में स्वर्गीय ठेगड़ी जी प्रमुख थे। 1950 के दशक में कम्युनिस्ट होना एक फैशन था।

वर्धा के कॉमर्स कॉलेज में भी बहुत से प्राध्यापक तथा प्रमुख विद्यार्थी नेता कम्युनिस्ट ही थे। आगे चलकर स्वदेशी जागरण मंच के संयोजक रहने वाले डॉ. बोकरे उस समय वर्धा के कॉलेज में ही प्राध्यापक थे। वे विद्याथियों की बैठक लेकर कम्युनिज्म का प्रचार करते थे। हम संघ से सम्बन्धित विद्यार्थी नागपुर से ठेंगड़ी जी को बुलाकर विद्यार्थियों की बैठक का आयोजन करते थे एवं विद्यार्थियों के दिमाग से कम्युनिज्म का प्रभाव हटाने का प्रयास करते थे।

एक बार का मुझे स्मरण है कि ठेंगड़ी जी आर्वी से किसी केस के संबंध में वर्धा आए थे। मैं भी वर्धा में ही वकालत करता था। वे भारतीय मजदूर संघ के प्रारंभ के दिन थे। उन्होंने मुझे बार रूम से बाहर ले जाकर ट्रेड यूनियन जैसी स्थापना करने से सम्बन्धित कुछ पाठ दिए किंतु मेरे द्वारा मजदूर संघ का काम होने का योग नहीं था। जब भारतीय किसान संघ के कुछ कार्यकर्ताओं ने मुझे विदर्भ में काम करने के लिए कहा तो मैं एक दिन नागपुर में महाल स्थित संघ कार्यालय गया। तब स्व. ठेंगड़ी जी वहीं थे। मैंने उन्हें अपना परिचय देते समय नाम बताया तो उन्होंने तपाक से बोला "बाप्पा आता नाव सांगायची वेले आली का? "(अरे भाई आपको भी नाम बताने की जरूरत है क्या)

एक बार वे वर्धा आए। हमारे विदर्भ प्रांत संगठन मंत्री उनके साथ थे। मैं भी वर्धा में ही था। उनका निवास हमारे संघ वर्धा जिला व्यवस्था प्रमुख मा. राजेन्द्र लुले के घर पर था। शाम के समय कुछ परिचितों के घर पर जाने का कार्यक्रम बनाया गया। मैंने जान बूझकर ही अपने घर का नाम उसमें नहीं लिखा। एक परिचित सज्जन के घर जाते हुये जब गाड़ी मेरे ही घर के सामने से गुजरने लगी तो स्वर्गीय ठेंगड़ी जी ने गाड़ी रूकवा कर मुझे लेकर वे स्वयं घर आए एवं घर के सभी सदस्यों से मिले।

एक बार स्व. ठेंगड़ी जी का उनके जन्म स्थान आर्वी में प्रवास निश्चित हुआ। उन्हें नागपुर स्टेशन से लेना था। वे भारतीय मजदूर संघ की बैठक निपटाकर ए.पी.एक्सप्रेस से नागपुर आने वाले थे। उन्हें लेने मैं और वर्धा नगर संघचालक श्री बालासाहेब लेले दोनों गए। नागपुर से उनके साथ वर्धा आए। वर्धा संघ कार्यालय में बैठक शुरू हो चुकी थी। इसलिए स्व. ठेगड़ी जी मैं तथा अन्य दो-तीन कार्यकर्ता निचले कमरे में बैठे थे। स्व. ठेंगड़ी जी का स्वास्थ्य एकदम गड़बड़ाने लगा तथा वे बेसुध हो गए। हमारे एक डॉक्टर मित्र वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने देखकर कहा कि उनकी हृदयगति बंद हो गई है। तुरंत हृदय को पंपिंग कर आदि उपायों से परिस्थिति पर नियंत्रण पा लिया गया तथा ठेगड़ी जी को अस्पताल में भर्ती करवाया गया। इसके चार वर्ष बाद (2004 मे) पूना में जो घटित हुआ उसकी यह पूर्व सूचना तो नहीं थी?

एक काली कष्टकारी यात्रा (ए ब्लैक जर्नी)

(अनुदित)

आर. वेणुगोपाल

पूर्व कार्याध्यक्ष

भारतीय मजदूर संघ

एर्नाकुलम (केरल)

केरल के पालघाट में संघ शिक्षा वर्ग चल रहा था। श्री ठेंगड़ी जी के शिक्षावर्ग में दो दिन दो बौद्धिक रखे गए थे। उन्हें नागपुर से आना था और दो दिन वर्ग में रुक कर वहाँ से सीधे दिल्ली जाना था। किंतु उनकी ट्रेन महज 1440 मिनट लेट थी जिसे रेलवे वाले केवल 24 घन्टे लेट कहेंगे। अतः उन्हें जिस दिन पालघाट पहुँचना था वे उस के अगले दिन पहुँचे और इसी दिन सायं उन्हें वापसी लम्बी यात्रा द्वारा दिल्ली लौटना था।

हम उन के स्वागत के लिए रेलवे स्टेशन पर मौजूद थे। वे संसद सदस्य होने के नाते फ्री रेलवे पास से गाड़ी के फर्स्ट क्लास (उन दिनों एयर कंडीशन्ड कोच नहीं होते थे) कोच से यात्रा कर रहे थे। जब वह कोच से बाहर आए तो हम उन्हें बड़ी कठिनाई से पहिचान सके। उन का चेहरा, हाथ-पैर, कपड़े सब काले स्याह हो रहे थे केवल उनकी मधुर मुस्कान चेहरे पर स्वाभाविक रूप से चमक रही थी।

हम ने पूछा यह क्या हुआ कैसे हुआ। उन्होंने कहा कुछ नहीं और बताया कि जी.टी. एक्सप्रेस के जिस डिब्बे में मैं यात्रा कर रहा था उस में पंखा बंद था। टी.टी. से शिकायत करने पर भी पंखा ठीक नहीं हुआ गर्मी की रात सो मैंने खिड़की के शीशे उपर चढ़ा दिए। फलस्वरूप रात भर ईंजिन से कोयले के धुंए की राख सिर-मुँह, कपड़ों पर पड़ती रही। गाड़ी एक दिन लेट चल रही थी और आज प्रातः मद्रास पहुँचने पर पालघाट के लिए दूसरी गाड़ी पकड़नी थी जिस के छूटने में बहुत थोड़ा समय था और मैं जल्दी से पालघाट की गाड़ी में सवार हो कर इस हालत में यहाँ पहुँच गया। खैर छोड़ो और चलो अब जल्दी से वर्ग की ओर चलें।

उन की उक्त कष्टदायक लम्बी यात्रा का ब्योरा सुन कर हम दंग रह गए और हम ने कहा कि आप को आज सांय की गाड़ी से दिल्ली के लिए फिर लम्बी यात्रा के लिए निकलना है। क्या आप अपनी यात्रा एक दिन आगे बढ़ा सकते हैं जिससे आप को थोड़ा विश्राम मिल सके।

"नहीं, एक दिन आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। मुझे पूर्व निर्धारित समय पर दिल्ली पहुँचना है। वहाँ बहुत महत्वपूर्ण कार्यक्रम है" उन्होंने कहा। उनके लिए प्रत्येक कार्यक्रम महत्वपूर्ण ही हुआ करता था।

संघ शिविर में पहुँचने पर त्वरित गति से नहा-धोकर वे प्रात:कालीन 10 बजे वाले बौद्धिक (भाषण) के लिए तैयार हो गए। बौद्धिक का विषय था 'साम्यवाद और इस की न्यूनताएँ' एक ऐसा विषय जिस के बारे में केरल के स्वयंसेवक बड़ी उत्सुकता से जानना चाहते थे। वह एक ऐसा समय था जब साम्यवाद अपने शिखर पर था। श्री ठेंगड़ी जी धाराप्रवाह उक्त विषय पर डेढ़ घन्टा बोले और स्वयंसेवक दत्तचित्त हो कर सुनते रहे।

श्री ठेगड़ी जी ने दोपहर का भोजन लिया। मुश्किल से एक घन्टा विश्राम किया और अपरान्हः तीन बजे अपने अगले बौद्धिक के लिए वह फिर तैयार मिले। हम ने उन से निवेदन किया कि वे थोड़ा और आराम कर लें किंतु उन्होंने हमारे निवेदन को अनसुना करते हुए कहा कि मैं स्वयंसेवकों को विस्तारपूर्वक साम्यवाद के असंगत सिद्धांतों के बारे में बताना चाहता हूँ।

उन का यह दूसरा बौद्धिक लगभग दो घन्टे चला। उनींदी आँखें बतला रही थीं कि उन की नींद पूरी नहीं हुई है किंतु उन का युक्तियुक्त तर्कसंगत बौद्धिक ओजस्वी वाणी द्वारा प्रवाहित हो रहा था। बौद्धिक उपरान्त अनौपचारिक रूप से वे कार्यकर्ताओं से बातचीत करते रहे और सायं गाड़ी के ठीक समय पर वे रेलवे स्टेशन पर दिल्ली प्रस्थान के लिए आगे तीन दिन तीन रात्रि की लम्बी यात्रा के लिए तैयार खड़े थे।

क्या आप किसी अन्य संगठन के नेता से उपरोक्त प्रकार के व्यवहार की कल्पना कर सकते हैं। तीन दिन की कष्टकारी काली यात्रा के पश्चात भी गर्मजोशी के साथ सब से मिलना, एक दिन में दो भावपूर्वक प्रवचन देना और उसी दिन सायं पुनः लम्बी यात्रा के लिए सोत्साह प्रसन्नमुद्रा में गाड़ी में बैठ जाना यह एक ऐसा प्रेरणाप्रद प्रसंग है जिसे केरल के उस संघ वर्ग में उपस्थित स्वयंसेवक कभी भुला नहीं सकते।

" हिंदू राष्ट्र की इस छोटी सी प्रतिकृति के समक्ष राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और परिदृश्य के आधार तथा वास्तविकता की ठोस धरती पर खड़े हो कर मैं यह कह रहा हूँ कि अगली शताब्दि अर्थात एक जनवरी 2001 का सूर्योदय जब होगा तो सूर्य नारायण को यह देख कर प्रसन्नता होगी कि बीसवीं शताब्दि की समाप्ति के पूर्व ही हिंदुस्तान के आर्थिक क्षेत्र में गुलाबी लाल रंग से लेकर ( From pink red to darkred) गहरे लाल रंग के सभी झण्डे हिंदू राष्ट्र के सनातन भगवाध्वज में आत्मसात और विलीन हो चुके होंगे।"

द. बा. ठेंगड़ी

(पू. डॉ. हेडगेवार जन्म शताब्दि वर्ष 1989 के

अवसर पर नागपुर में श्री ठेंगड़ी जी की घोषणा)

महान : निर्माता

(अनुदित)

केशव भाई ठक्कर

ज्येष्ठ कार्यकर्ता , भा.म.संघ

वड़ोदरा (गुजरात)

ईंट-दर-ईट एक-एक ईट चिनते हुए भारतीय मजदूर संघ का निर्माण हुआ है। यह न तो कोई काल्पनिक कहानी अथवा चमत्कार है अपितु यह घोर तपश्चर्या का सुपरिणाम है। यह 23 जुलाई 1955 को भोपाल में एकत्रित आए समान विचार वाले कार्यकर्ताओं द्वारा प्रकट किए गए संकल्प को तपनिष्ठ, भविष्यद्रष्टा द्वारा राष्ट्रव्यापी मूर्तरूप देने के भगीरथ प्रयास पुरुषार्थ का नाम है। उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों से आत्मीय बरतचीत द्वारा मातृभूमि के प्रति प्रेमभाव जागृत करते हुए उन्हें भारतीय मजदूर संघ की ओर आकर्षित करना यह नित्यप्रति का कार्य था।

बड़ोदरा में वर्ष 1960 के आसपास घटित एक घटना की प्यारी सी स्मृति आज भी यादों में ताजा है। भास्कर ठक्कर ने ईन्जीनियरिंग मजदूर संघ का निर्माण किया था। छोटी सी नोवल ईन्जीनियरिंग ईकाई के पचास श्रमिक भारतीय मजदूर संघ में शामिल हुए थे। उन की सेवा शर्तों और वेतनमान सुधार के प्रति प्रबंधन को माँग-पत्र दिया गया था।

फैक्टरी का मालिक एक युवा ईन्जीनियर अपने बड़े भाई के साथ नकारात्मक भाव लिए हुए था।

माँग-पत्र पर वार्ता असफल हो गई थी। अतः आन्दोलन प्रारंभ किया गया। अंततः एक सर्वस्वीकृत माडल समझोता-पत्र (एग्रीमैन्ट) हस्ताक्षर के लिए तैयार कर लिया गया।

मालिक ने समझोता-पत्र पर हस्ताक्षर के पूर्व एक शर्त रख दी कि ठेंगड़ी जी स्वयं फैक्टरी में आएं और श्रमिकों की ओर से पहिले वह हस्ताक्षर करें

भारतीय मजदूर संघ निर्माता ने नव गठित मजदूर यूनियन के नवागन्तुक कार्यकर्ताओं के उत्साहवर्धन दृष्टिगत कारखाने का दौरा किया - सभी मजदूर बन्धुओं से आत्मीयतापूर्वक बातचीत की और समझौता दस्तावेज पर आर्शीवाद स्परूप अपने हस्ताक्षर किए।

ऐसे हैं भारतीय मजदूर संघ के निर्माता मा. ठेंगड़ी जी।

1) Unity is different from uniformity. (एकता और एकरूपता में अंतर होता है।) अपनी जीवन प्रणाली सामाजिक समरसता की है।

2) हिंदुत्व is not "ism". (हिंदुत्व 'ईज्म' वाद नहीं है।)

3) परिस्थिति का आकलन करने 3-4 बातों की आवश्यकता है।

i. वृत्त देनेवाला कार्यकर्ता नि:स्वार्थ तथा विश्वासनीय हो।

ii. हमारी दृष्टि वस्तुनिष्ठ pragmatic हो।

iii. राष्ट्रहित तथा मजदूर हित सदा ही मद्देनजर रखना चाहिए।

4) हम पूर्णतः संघ विचारों के है। किंतु हम भा.म.संघ का उद्दिष्ट साध्य करने के लिए निर्णय लेने में स्वतंत्र है। संघ हमारा नियंत्रण नहीं करता।

5) राष्ट्र के प्रति हमारी अव्यभिचारी भक्ति होनी चाहिए। वे कहते थे 'प्यार की गति अति न्यारी - जामे दो न समायें' (कबीर)।

द. बा. ठेंगड़ी

शोकसंतप्त कार्यकर्ता को सान्तवना

कृष्ण लाल पठेला

नई दिल्ली

"ठेंगड़ी जी! आप को क्या आई.एस. चोपड़ा जी का स्मरण है?" मैंने श्री ठेंगड़ी जी से एक दिन पूछा। उनके चेहरे पर थोड़ी चमक उभरी और याद करते हुए उन्होंने कहा "हाँ! वही न, लम्बे कद गोरे रंग के जो कि पोस्टल संगठन में बहुत सक्रिय थे" मैंने कहा हाँ, बिल्कुल वही।

"क्या हुआ? वे तो अब सेवानिवृत हो चुके होंगे" श्री ठेंगड़ी जी ने पूछा।

"उनके 30 वर्षीय पुत्र का एक मास पूर्व निधन हो गया है"। मैंने उन्हें सूचित किया। यह सुनकर उन के चेहरे पर शोक के भाव आ गए। "किंतु मुझे किसी ने बताया नहीं-हमें उन के घर-चलना चाहिए पर अभी पाँच बजे सायं मुझ से मिलने एक मेहमान आ रहे हैं और सात बजे मुझे एयरपोर्ट पहुँचना है" श्री ठेंगड़ी ने बताया।

मैंने कहा तो फिर आप पुनः जब दिल्ली आएँ उस समय उन के घर चलेंगे।

"नहीं! उन के घर जाने में पहिले ही विलम्ब हो चुका है। अब और देर करना उचित नहीं होगा। आप ऐसा करो सायं पाँच बजे फिर यहाँ आ जाओ" श्री ठेंगड़ी जी ने कहा।

मैं ठीक पाँच बजे श्री ठेंगड़ी जी के निवास पर पहुँच गया। वह अपने मेहमान की प्रतीक्षा कर रहे थे। पाँच बजे उन के मेहमान आ गए। उन्होंने मेहमान को भी बाहर प्रतिक्षारत टैक्सी में बिठा लिया और उन से कहा कि आइए मार्ग में हम आपसे बातचीत करते चलेंगे।

श्री चोपड़ा जी के घर की ओर जाते समय मार्ग में ठेंगड़ी जी अपने मेहमान से वार्तालाप करते रहे। कुछ समय पश्चात गाड़ी श्री चोपड़ा जी के घर के सामने रुकी।

शोक की इस घड़ी में श्री ठेंगड़ी जी को अपने निवास पर देख कर चोपड़ा जी भाव विन्हल हो उठे। अश्रूपूरितनेत्रों से अपने प्रिय पुत्र के देहावसान की व्यथापूर्ण कथा उन्होंने श्री ठेंगड़ी जी को सुनाई। श्री ठेंगड़ी जी ने अपना स्नेहिल हाथ चोपड़ा जी की पीठ पर रख दिया और पितृवत् श्री चोपड़ा जी का धैर्य बंधाते रहे।

उक्त भेंट के पश्चात श्री ठेंगड़ी जी सीधे एयरपोर्ट की ओर रवाना हुए और टैक्सी में बैठे अपने मेहमान से पूर्ववत् वार्तालाप में व्यस्त हो गए।

" नए संगठन की मान्यता , ' अधिकार और कर्तव्य ' दोनों पर ट्रेड यूनियनें समान आग्रह रखें। व्यक्तिगत नेतागिरी , राजनीतिक दलगत स्वार्थ , मालिक , सरकार और विदेशी विचारधरा का प्रभाव-इन जैसी बातों से संगठन सर्वथा मुक्त रहे। संगठन राजनैतिक दल निरपेक्ष सभी राष्ट्रवादी तत्वों के लिए एक सामान्य मंच के नाते कार्य करे। राष्ट्र संस्कृति तथा परंपरा के आलोक में मजदूरों को , मजदूरों के लिए और मजदूरों द्वारा चलाई गई संस्था की भूमिका का वह निर्वाह करे और मजदूरों का संपूर्ण राष्ट्र के साथ मनोवैज्ञानिक एकात्म्य स्थापित करते हुए अधिकतम उत्पादन के द्वारा राष्ट्रोत्थान के कार्य में महत्वपूर्ण सहयोग देने में सहायक सिद्ध हो। इस कसौटी पर वर्तमान श्रम संस्थाएँ असंतोषजनक प्रतीत हुई। इस कारण उपरिनिर्दिष्ट तत्वों की पूर्ति करने वाले श्रम संगठन का निर्माण भारत की ऐतिहासिक आवश्यकता मानी गई।"

द. बा. ठेंगड़ी


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हिंदी समय में दत्तोपंत ठेंगड़ी की रचनाएँ