दत्तोपंत ठेंगड़ी
जीवन दर्शन
खंड 7
मुक्तसंगोऽनहवादी धृत्युत्साहसमन्वितः। सिद्ध्यसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता
सात्त्विक उच्यते॥
श्रीमद्भगवद् गीता - २६/१
(जो व्यक्ति भौतिक गुणों के संसर्ग के बिना अहंकाररहित, संकल्प तथा
उत्साहपूर्वक अपना कर्म करता है और सफलता अथवा असफलता में अविचलित रहता है, वह
सात्त्विक कर्त्ता कहलाता है।)
अर्पण
मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी
की
पूज्य माता
सौ. जानकी बाई ठेंगड़ी
की
पावन स्मृति को
सादर समर्पित
कार्यकर्ता निर्माण, आदर्शवादी नेतृत्व, अचल ध्येयवृत्ति, निर्णय प्रक्रिया,
संगठन, क्रांतियां सेक्युलरिज्म, संविधान, राष्ट्रध्वज
संपादन - प्रस्तुतीकरण
अमर नाथ डोगरा
सुरुचि प्रकाशन
केशव कुंज, झण्डेवाला, नई दिल्ली - 110055
दत्तोपंत ठेंगड़ी
जीवन दर्शन
(खण्ड - 7)
प्रकाशक
सुरुचि प्रकाशन
केशव कुंज, झण्डेवाला,
नई दिल्ली - 110055
दूरभाष : 011-23514672, 23634561
E-mail : suruchiprakashan@gmail.com
Website : www.suruchiprakashan.in
© सुरक्षित : भारतीय मजदूर संघ
प्रथम संस्करण : वि. सं. 2073
अक्टूबर, 2016
मूल्य :
₹
200
आवरण पृष्ठ : बलराज
पृष्ठ संयोजक : अमित कुमार
मुद्रक : गोयल एण्टरप्राइजिज
ISBN : 978-93-86199-00-3
मार्गाधारे वर्तावि। विश्व हे मोहरें लावावे। अलौकिक नोहावे। लोकांप्रति॥
संत ज्ञानेश्वर
(जो परिपाटी चलती आई है उसी के अनुसार चलना और विश्व को दिशा देना किंतु यह
कहते समय लोगों में हम कोई अलौकिक हैं, यह भाव उत्पन्न नहीं होने देना। अर्थात
अलौकिक होते हुए भी समाज में लौकिक की भाँति रहना ! आचरण करना।)
दो शब्द
स्वामी दयानन्द सरस्वती महाराज के विद्वान शिष्य गुरुदत्त से किसी ने कहा 'आप
अपने गुरु के महान जीवन पर कोई पुस्तक क्यों नहीं लिखते। पुस्तक द्वारा स्वामी
जी के विचारों व आदर्शों को समाज के प्रत्येक घटक तक पहुँचने में बहुत मदद
मिलेगी और समाज का भला और उत्थान होगा। यह सुनकर गुरुदत्त मौन और गहरी सोच में
पड़ गए। उस व्यक्ति ने पूछा 'क्यों क्या हुआ-आप लिख नहीं सकते अथवा लिखना नहीं
चाहते'। 'नहीं ऐसी बात नहीं' गुरुदत्त ने कहा और गंभीर वाणी से बोले 'मैं यह
पुस्तक लिख सकता हूँ-अवश्य लिखूगा-इस कार्य को आज से ही आरंभ कर दूंगा' ।
छ: मास उपरान्त भेंट होने पर उस व्यक्ति ने पूछा 'पुस्तक लेखन कार्य कहाँ तक
पहुँचा' गुरुदत्त बोले 'कार्य चल रहा है-मैं उत्साहपूर्वक प्रयत्नरत हूँ'। एक
वर्ष उपरांत पुनः भेंट होने पर उस व्यक्ति ने पूछा 'लेखन कार्य संपन्न हो गया
क्या'। गुरुदत्त बोले 'नहीं भाई-कार्य द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है-मेरा प्रयास
जारी है'।
दो वर्ष अंतराल के पश्चात् भेंट होने पर उस व्यक्ति ने कहा 'लेखन कार्य संपन्न
हो चुका होगा किंतु लगता है मुझे बताना आप भूल गए। चलिए, पुस्तक दिखाइए जिसे
देखने को मन लालायित है।' गुरुदत्त ने कहा 'मैं आपको बताना भूला नहीं हूँ
किंतु पुस्तक अभी पूरी तरह तैयार नहीं हुई है। मैं जी तोड़ कोशिश कर रहा हूँ।'
अपने मन के पन्नों पर पुस्तक को उकेरना और मानस पटल पर प्रत्येक शब्द को अंकित
करने में समय तो लगता ही है। गुरुदत्त के चेहरे पर एक तेज उभरा। यह दृढ़
संकल्प और सतत साधना का तेज था।
उस व्यक्ति ने कहा 'जो व्यक्ति अपने मन के कागज पर लिखता है वह जगत् के लिए
प्रेरक पुस्तक बन जाता है। सच! यह पुस्तक तो अद्वितीय होगी। गुरुदेव के
आदर्शों और महानता की जीवंत अभिव्यक्ति होगी।
'दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन दर्शन ' के प्रथम दो खंडों के विमोचन (30 अगस्त 2015)
के अवसर पर प.पू. सरसंघचालक मा. मोहनराव भागवत जी ने अपने उद्बोधन में कहा
'जीवन दर्शन तो बहुत कठिन बात है उसको करना और भी कठिन है। अभी जो कहा गया है
कि इस पुस्तक को स्पर्श करना याने दत्तोपंत जी को स्पर्श करना है लेकिन
दत्तोपंत जी को स्पर्श करना है क्या ? यह पहला सवाल है।
यह जो बताया है कि 'जीवन दर्शन तो बहुत कठिन बात है- उसको करना और भी कठिन
है'। 'करना' माने क्या? अर्थात उसको जीना। 'स्पर्श' करना माने दत्तोपंत हो
जाना। गुरुदत्त से स्वामी दयानन्द सरस्वती हो जाना। यह सचमुच अत्यंत कठिन
कार्य है।
'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' कार्य तो हो रहा है किंतु यह ऐसे हो रहा है
जैसे कोई कुली (हैड लोडर) सिर पर रखी गठरी को उसके स्वामी के आदेशानुसार इंगित
गंतव्य तक पहुँचाने का कार्य करता है। गठरी में क्या और कैसी अनमोल वस्तुएँ
हैं यह वह नहीं जानता केवल उसका स्वामी जानता है। दत्तोपंत जी के अमूल्य
विचारधन और आदर्शों की धरोहर 'जीवन दर्शन' के माध्यम से इसके स्वामी (सुधि
पाठकों) तक सुरक्षित पहुँचाने का कार्य हम श्रद्धापूर्वक और भक्तिभाव से कर
रहे हैं। 'जीवन दर्शन' के अध्ययन के पश्चात् कौन जाने कौन चिंतनशील निर्मल मन
पाठक गुरुदत्त हो जाए- दत्तोपंतमय हो जाए - अस्तु।
ईश कृपा तथा आपके स्नेहाशीष के फलस्वरूप प्रस्तुत ग्रंथमाला का संपादन कार्य
अपेक्षित गति से लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। यह जिनका कार्य है और वास्तव में जो
कर और करवा रहे हैं उन्हीं के श्रीचरणों में इसे अर्पित करते हुए पितृ ऋण से
उऋणी होने की कृतज्ञ अनुभूति होती है।
सादर-सप्रेम,
संपादक
ठेंगड़ी भवन
केंद्रीय कार्यालय,
भारतीय मजदूर संघ
27, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग
दूरभाष : 011-23222654
नई दिल्ली - 110002
इमेल : bmsdtb@gmail.com
अनुक्रमणिका
क्र. विषय पृष्ठ सं.
सोपान-1 (कार्यकर्ता व्यक्तित्व : व्यवहार)
1. दत्तोपंत ठेंगड़ी : परिचय 05
2. कार्यकर्ता (भाग - 1) 15
3. कार्यकर्ता (भाग - 2) 71
4. कार्यकर्ता (भाग - 3) 123
5. सोपान- 1: प्रमुख बिंदु 158
सोपान-2 (मा. ठेंगड़ी जी के उद्बोधन/लेख)
1. आदर्श वीरव्रती 171
2. भारत में क्रांति 179
3. शब्द और अर्थ 209
4. सोपान-2: प्रमुख बिंदु 223
सोपान-3 (मा. ठेंगड़ी जी के उद्बोधन/लेख)
1. व्याधि और उपचार 233
2. विकल्प 241
3. हमारा स्फूर्ति केंद्र 252
4. सोपान-3: प्रमुख बिंदु 270
सोपान-4 (संस्मरण)
1. गोपाल व्यास 271
2. लक्ष्मीनारायण दूबे 280
3. महेश पाठक 283
4. भा. म. संघ, कलकत्ता 286
5. शब्द संकेत 289
6. संपादक परिचय 303
खण्ड -7
सोपान -1
सोपान-1 (कार्यकर्ता व्यक्तित्व : व्यवहार)
1. दत्तोपंत ठेंगड़ी : परिचय
2. कार्यकर्ता (भाग - 1)
3. कार्यकर्ता (भाग - 2)
4. कार्यकर्ता (भाग - 3)
5. सोपान- 1: प्रमुख बिंदु
कार्यकर्ता
(भाग -
1)
मनुष्य निर्माण की भी तो कोई प्रक्रिया है।
कार्यकर्ता निर्माण की या व्यक्ति निर्माण की यह जो बात संघ में बार बार
दोहराई जाती है वह बाहर के लोगों की समझ में नहीं आती। जब तक संघ के साथ
प्रत्यक्ष परिचय नहीं होता तब तक संघ समझने में कठिनाई रहती है। मैनें स्वयं
इस बात का अनुभव किया है।
तब मैं कॉलेज में पढ़ता था। मैं और मेरे अन्य साथी अपने आपको बहुत ही प्रगतिशील
progressive समझते थे। मेरे स्वयंसेवक बन्धुओं की 'संघ का उद्देश्य मनुष्य का
निर्माण' है आदि बातें समझ में नहीं आती थीं। अब यह तो संघ की परिभाषा है।
उसका विशिष्ट अर्थ है। हमें लगता था कि जब हम मनुष्य हैं ही, तो यह मनुष्य
निर्माण की बात कैसे हो सकती है। इतने में उन्हीं दिनों में हमारे कॉलेज की
पत्रिका में प्रकाशित एक कविता मैंने पढ़ी, जो इस प्रकार थी:
Wanted men!
Not systems fit and wise,
Not faith, with rigid eyes,
Not wealth in mountain piles,
Not power with gracious smiles,
Not even the potent pen,
Wanted men!
यह कविता पढ़ने से संघ की मनुष्य निर्माण की बात याद आई।
इसके बाद एक उद्बोधक कहानी पढ़ने में आयी। प्राचीन पी एक सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक
डायजेनिस, एक दिन भरी दोपहर में हाथ में लालटेन लेकर एथेन्स राजधानी के बाजार
में आए। लोगों के पूछने पर उन्होंने कहा, 'मैं मनुष्य ढूंढ रहा हूँ| लोग कहने
लगे कि हम सारे मनुष्य ही तो हैं। फिर उनकी खोज क्यों कर रहे हैं। डायजेनिस
गरज पड़े, मुझे मनुष्य चाहिए, बौने नहीं"। (I want men, not pigmies)। फिर मेरी
दिमाग सोचने लगा, संघ भी मनुष्य-निर्माण की बात करता है, कवि तत्वज्ञ भी
मनुष्य की खोज में हैं-बात क्या है?
इतने में स्वामी विवेकानन्द का एक छायाचित्र देखा उसके नीचे उनका एक वाक्य
लिखा था, "I want men with capital M" तब समझ में आया कि मनुष्य बनाने के लिए
कुछ करना पड़ता है। मनुष्य निर्माण की कोई प्रक्रिया है। केवल दो हाथ, दो पैर
होने से मनुष्य नहीं बनता। और फिर संघ के कार्यकर्ता-निर्माण के प्रयास का
महत्त्व ध्यान में आया।
इस दृष्टि से जब मैं सोचता हूँ तो ध्यान में आता है कि हमारे समाज में मनुष्य
इस नाते आज सामान्य अपेक्षित व्यवहार करने की भी आदत। नहीं दिखाई देती, जैसे
कि व्यक्ति स्वच्छता की बात है। खास कर के सार्वजनिक स्थानों में पानी का
पर्याप्त मात्रा में, लेकिन जरूरत हो उतना ही उपयोग करना। एक बार प्रयाग में
पं. नेहरूजी के घर गांधीजी थे। हाथ धोने के लिए गांधीजी के हाथों पर पंडित जी
पानी डाल रहे थे। लेकिन उनका चित्त विचलित होने के कारण पानी नीचे गिर रहा था।
उस समय गांधी जी ने खेद व्यक्त किया तो पंडित जी बोले, 'उनमें कौन सी बड़ी बात
है। हमारे यहाँ से तो गंगा बहती है।' उस पर महात्मा जी ने कहा, गंगा तो किसी
एक आदमी के लिए नहीं बहती है। उनके दोनों किनारों पर जो लोग पशु, प्राणी,
वनस्पति है, उन सभी के लिए गगा बहती है।"
मतलब यह कि जो काम थोड़े पानी से हो सकता है, उसके लिए ज्यादा पानी खर्च ना
करें। खास कर के सार्वजनिक स्थान पर कप धोना आदि से पानी खराब होता है, यह भी
लोगों के ध्यान में नहीं आता।
जहाँ लोग इकट्ठे रहते हैं वहाँ कभी एक ही सुविधा सब के लिए उपलब्ध रहती है। तो
अपना निजी दैनंदिन व्यवहार निपटने के लिए किसी एक ने ही ज्यादा समय लिया तो
दूसरों को असुविधा हो सकती है। जैसे संघ कार्यालय में जहाँ अधिक कार्यकर्ता
रहते हैं और उन सबको प्रभात शाखा में जाना होता है वहाँ अपना स्नान आदि विधि
निपटने में कम से कम समय लेना आवश्यक है।
उसी तरह सामान्य शिष्टाचार का अनुसरण भी लोग करते नहीं। दूसरों की खिड़की में
से अंदर झांकना; बिना पूर्व सूचना के किसी के घर जाना; दूसरों की कुछ
व्यक्तिगत बातें चल रही हों, तो उसमें बिना जरूरत जाकर बातें शुरू करना, ऐसी
मामूली दीखने वाली किंतु महत्त्व की बातों पर भी लोग उचित बर्ताव नहीं करते।
दूसरों के घर से लायी हुई कोई चीज समय पर और पहले की स्थिति में लौटाना;
दूसरों से मिलने के लिए, या काम के लिए दिया हुआ समय सँभालना; वयोवृद्ध,
ज्ञानवृद्ध तथा अन्य वरिष्ठों का योग्य सम्मान करना; धन्यवाद, sorry, शाब्बास,
वाह वाह आदि उचित वाक्य प्रयोगों का उपयोग करते हुए दूसरों की कदर करना; किसी
के घर गए तो परिवार के सभी घटकों की योग्य पूछताछ करना; ये बातें भी ध्यान में
आती नहीं। न्यूनतम इंसानियत की दृष्टि से सार्वजनिक स्थानों पर वरिष्ठ, वृद्ध,
व्याधिग्रस्त, अपंग तथा महिला इनकी सहायता करना; चढ़ाई पर रिक्शा खींचने वाले
का बोझ हलका करने के लिए रिक्शा से नीचे उतरना, ये बातें भी लोग करते नहीं।
अपने विपत्काल में जिन्होंने हमारी मदद की, हमारे अच्छे दिन आने के बाद उनको
भूल जाना, संबंधियों के संदर्भ में जो सुख-दुख के प्रसंग आते हैं, उनमें
सहानुकंपा न रखना, ये भी कमियाँ व्यक्तिगत जीवन में इंसानियत को नीचे करने
वाली बातें होती हैं।
अब मनुष्य होने के नाते अगर ये सर्वसाधारण अपेक्षाएँ रहती हैं तो मनुष्य
निर्माण का प्रारंभ भी इतनी मामूली सी, लेकिन महत्त्वपूर्ण व्यवहारों की बातों
से करना पड़ता है।
ऐसी स्थिति में कार्यकर्ता निर्माण के बारे में तो बडी बारीकी से विचार करना
पड़ता है।
इस संदर्भ में मुझ जैसे कार्यकर्ताओं को पू. गुरुजी की माताजी जिन्हें हम ताई
करके संबोधित करते थे, बहुत कुछ व्यवहार सत्रों संस्कार मिला। मैं तो स्वयं
आपके घर में रहता ही था, लेकिन आप घर आने वाले अन्यान्य कार्यकर्ताओं से उनका
बहुत ही घनिष्ठ संपर्क और बोलते बोलते हम लोगों को अपनी छोटी-छोटी बातों में
से बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्यों से आप अवगत करा देती थीं।
सभी निजी व्यवहार स्वयं करने की कार्यकर्ता की आदत होनी चाहिए। कपड़े धोना,
इस्त्री करना आदि कई बातों में कार्यकर्ता का अभ्यास होना चाहिए, जैसे कि नीचे
से ऊपर के माले पर पानी भरना; घर के काज में मदद करना, भोजन के समय ठीक ढंग से
परोसना; बाजार से आवश्यक चीजें खरीद लाना; रसोई बनाना आदि। कुछ घरेलू
आवश्यकताएँ पूरी करने का भी अभ्यास होना चाहिए जैसे प्रथमोच्चार है, मरीज की
शुश्रुषा है। बिजली वायरिंग, पेट्रोमेक्स, सायकिल, स्कूटर, मोटर, रेडियो इन
सभी की तांत्रिक जानकारी तथा उनकी मरम्मत का अभ्यास भी होना चाहिए। सब प्रकार
के वाहन चलाना उसको मालूम होना चाहिए। पू. ताई का आग्रह रहता था कि कार्यकर्ता
किसी भी परिस्थिति में किसी भी प्रसंग का सामना करने में सक्षम रहे।
हमारा कार्य संपर्क के आधार पर चलता है तो कार्यकर्ता को अपने कार्यक्षेत्र की
पूरी जानकारी यानी रास्ते, बाजार हाट, गलियाँ, प्रमुख स्थान, उस गाँव के
बस-रेलवे मार्ग, उसकी समय सारणी, आजू-बाजू के उद्योग व्यवसाय, उनके छुट्टी के
दिन, समाज में से विभिन्न जाति, समूह, गुट, रीति-प्रथा, शकुन-अपशकुन की
अवधारणाएँ, रहन-सहन की पद्धतिमा आदि की जानकारी होनी चाहिए। उसी दृष्टि से
कार्यकर्ता का संपर्क शिक्षा संस्था, सहकारी संस्था, नगरपालिका, जिला परिषद्,
ग्रंथालय, अखाडा, भजनी मंडल, रुग्णालय आदि से होना आवश्यक है। समान जो कुछ
महत्त्व के व्यक्ति होते हैं, डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, वकील, जाति के मुखिया,
राजनीतिक नेता तथा गुंडे भी इनसे उसका संपर्क रहना चाहिए। बस स्टेशन, रेलवे
स्टेशन, हवाई अड्डे, टेलीफोन एक्सचेंज, पुलिस थाना इत्यादि से भी उसका अच्छा
संपर्क होना उपयुक्त रहता है।
समाज में घुल मिलकर रहना है तो जिन प्रचलित बातों की चर्चा समाचार पत्रों में,
या समाज में होती रहती है, उसकी जानकारी कार्यकर्ता को होनी चाहिए ताकि वह
विभिन्न स्तरों के लोगों से संवाद प्रस्थापित कर सके, जैसे क्रिकेट है,
राजनीति है, समाज में होनेवाली सामयिक गतिविधियाँ हैं।
व्यक्ति के जीवन में कुछ क्षण भावनिक महत्त्व के रहते हैं, जैसे पहले बच्चे के
जन्म का अवसर, नामकरण विधि, सालगिरह, परीक्षा अच्छी तरह से उत्तीर्ण होना,
कॉलेज का पहला दिन, नौकरी का पहला दिन, विवाह। वैसे ही परिवार में किसी की
बीमारी, दुर्घटना, मृत्यु आदि। जैसे दुखद प्रसंग भी होते हैं। ऐसे सभी सुख दुख
के प्रसंगों का ख्याल रखना और उनमें सहभाग लेते हुए उनका आनंद बढ़ाना, दुख कम
करना, यह सभी कार्यकर्ताओं का कर्तव्य होता है। उसके साथ ही ऐसे सभी प्रसंगों
में आवश्यक बातें तथा विधि की जानकारी भी कार्यकर्ता को होनी चाहिए। किसी की
मृत्यु के अवसर पर अंतिम संस्कार के लिए पूरी व्यवस्था करने में कार्यकर्ता को
पीछे नहीं रहना चाहिए। ऐसे किसी तरह के प्रसंग को ठीक तरह से निभाना आवश्यक
है।
समाज में जो जो उपेक्षित हैं, लापरवाह माँ-बाप के बच्चे, परिवार के बोझ के
नीचे दबी हुई उपेक्षित गृहिणी, विकलांग, वृद्ध, संभ्रमित किशोरावस्था के
बच्चे, सामाजिक दृष्टि से उपेक्षित व्यक्ति, गुट, समूह, इन सभी के लिए सहारा
बनकर कार्यकर्ता रहे ऐसी उसकी मानसिकता होनी चाहिए। अगर किसी व्यक्ति में ऐसी
संवेदनशीलता नहीं होती, तो पू. ताई कहती थी- 'इसकी आँखें हैं लेकिन दृष्टि
नहीं है।'
ये सब छोटे छोटे व्यवहार सूत्र पू. ताई के संस्कारों से हम जैसे कार्यकर्ताओं
को प्राप्त हुए। कार्यकर्ता सभी दृष्टि से सक्षम रहे, उस अकेले रहने में कोई
दिक्कत न रहे इस दृष्टि से आपका यह आप रहता था।
प्रचारक इस नाते पहली पीढ़ी के जो कार्यकर्ता निकले उनमें मा. रामभाऊ जामगड़े
थे। वे पू. गुरुजी के यहाँ ही रहते थे। ग्रामीण जिले के कई कार्यकर्ता उनसे
मिलने आते थे। उनकी बातों से ग्रामीण, देहाती विभाग के कार्यकर्ता के बारे में
पू. ताई की कुछ धारणाएँ, अपेक्षाएँ बनी थीं। खेती के सभी पहलुओं की जानकारी,
खेती के सभी प्रक्रियाओं की जानकारी, खेती के औजार, जानवरों की चिकित्सा की
जानकारी, इनसे अवगत रहना, ऐसे कार्यकर्ता के लिए आवश्यक होता है। इसके साथ ही
देहातों में काम करने वाले अन्य कारीगर लुहार, बढ़ई आदि, इनके काम की जानकारी
आवश्यक है। ऐसी सब जानकारी रहेगी तो ही कार्यकर्ता समाज जीवन से एकात्म होकर
काम कर सकता है ऐसा पू. ताई का कहना था।
`कार्यकर्ता को अपने सभी आर्थिक व्यवहारों का हिसाब बिल्कुल बारीकी से रखने का
प्रयास करना आवश्यक है ऐसा आपका आग्रह रहता था। जो पैसा समाज का है उसके बारे
में तो हमारी जिम्मेदारी होती ही है, लेकिन निजी व्यवहार में भी यह आदत आवश्यक
है ताकि हम अपने खर्चे की ठीक तरह से छानबीन कर सकें और अनावश्यक खच टाल सकें।
इस संदर्भ में पू. गुरुजी के जीवन का एक प्रसंग याद आता है। सरकार्यवाह होने
के पूर्व श्रीगुरुजी को पू. डॉक्टर जी ने किसी काम के लिए दूसरे शहर भेजा था
और उधर आने जाने का खर्च श्री कृष्णा मोहरील से लेने के लिए कहा था। वैसे
कृष्णराव से पैसे लेकर श्रीगुरुजी गए और काम करके लौट आए। आने के बाद, लिए हुए
पैसा का हिसाब देने के समय श्रीगुरुजी एकदम परेशान हुए जबकि एक ढब्बू पैसे का
हिसाब नहीं लग पा रहा था। उन दिनों में दो पैसे का मिलकर एक ढब्बू पैसा होता
था। वह ढब्बू पैसा कहाँ खर्च हो गया, यह भी ध्यान में नहीं आता था। इसी
अस्वस्थ मन:स्थिति में श्रीगुरुजी घर आए और कपड़े उतार कर नहाने गए, तो बनियान
की जेब में वह ढब्बू पैसा मिल गया। श्री गुरुजी को 'यूरेका' का आनंद हुआ और
स्नान होते ही आपने कृष्णराव जी को वह पैसा वापस कर दिया।
हिसाब-किताब के संदर्भ में अपने स्वयंसेवकों की ऐसी सजगता रहने के कारण हमारे
कार्यकर्ता के बारे में समाज में बहुत ही विश्वसनीयता रहती है।
अपने और एक पुराने कार्यकर्ता के बारे में ऐसी ही यादगार है। पू. विनोबाजी
भावे ने पवनार में अपना आश्रम बनाया और कई वर्षों के बाद वे भूदान यज्ञ के लिए
पवनार छोड़कर बाहर निकले। आश्रम छोडने तक की जो कालावधि थी उसका हिसाब-किताब
बराबर लिखा है या नहीं। यह आप देखना चाहते थे। आपने यह हिसाब देखने का काम
अपने किसी सर्वोदयी कार्यकर्ता को नहीं दिया। जो संघ स्वयंसेवक इस नाते
प्रसिद्ध थे (और संघ के अ. भा. व्यवस्था प्रमुख थे) ऐसे श्री बसंत राव बापट को
आपने यह काम सौंपा और उन्होंने भी पूरी छानबीन करने के बाद यह लिखा कि 1942 के
कुछ महीनों का हिसाब छोड़कर बाकी संपूर्ण हिसाब ठीक ढंग से लिखा हुआ है।
ये सभी व्यवहार सूत्र दीखने में मामूली से दीखते हैं लेकिन 'संघ के मनुष्य
निर्माण' प्रक्रिया का और आगे चलकर कार्यकर्ता निर्माण की प्रक्रिया का यह
मूलारंभ इस दृष्टि से बहुत ही महत्त्व के हैं।
हम मानते हैं कि तत्त्वज्ञान कितना भी महान हो उसको चरितार्थ करने वाले
कार्यकर्ता न हों तो उसकी कीमत नहीं होती। हमको याद है जब हम परतंत्र थे, उस
समय हमारे देश के परम श्रेष्ठ कवि रवींद्रनाथ ठाकुर को, जिसे वैश्विक सम्मान
माना जाता है वह नोबेल पुरस्कार मिला था। बाद में आप जापान गए थे। वहाँ एक
विश्वविद्यालय में आपका भाषण रखा था। भाषण सुनने के लिए कुछ लोग तो आए, लेकिन
सारे लोग नहीं गए। जो लोग नहीं आए उनसे बाद में पूछा गया कि आप रवींद्रनाथ
ठाकुर को सुनने के लिए क्यों नहीं आए?' तो हम कहा कि 'हम गुलाम देश के कवि की
बात सुनने के लिए नहीं आ भले वह कितना भी श्रेष्ठ कवि होगा, वह देश अगर
स्वतंत्र नहीं हो सकता तो उसकी कौन सुनेगा?' तो तत्त्वज्ञान श्रेष्ठ होगा
लेकिन जीवन में उसका साक्षात्कार नहीं है तो उस तत्त्वज्ञान का कोई उपयोग
नहीं। इस दृष्टि से हमारा ध्येय संकल्प एवं तत्त्वज्ञान इनका साक्षात्कार करके
उनको आचरण में लाने वाला कार्यकर्ता निर्माण करने का संघ का प्रयास रहा है।
इसलिए कार्यकर्ता ही अपने कार्य का माध्यम है और आधार भी है ऐसा हम मानते हैं।
वैसे देखा जाए तो कार्यकर्ता के बारे में संघ की जो धारणा है वह भी अपने
पारंपरिक समाजविज्ञान से विकसित हुई है। इस कार्यकर्ता को न केवल संघटना का एक
साधन रूप घटक इस नाते हम देखते हैं तो हमारे सामने जो राष्ट्रीय पुनर्निर्माण
का भव्य संकल्प है उसी के परिप्रेक्ष्य में हम कार्यकर्ता को देखते हैं। इस
दृष्टि से संघ की कार्यकर्ता के बारे में जो अवधारणा है वह अन्य संगठनों की
तुलना में वैशिष्ट्यपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण भी है।
क्या है कार्यकर्ता की पहचान
?
इसका मतलब है जिस कार्यकर्ता का हम जिक्र कर रहे हैं वह अपने अपने स्तर पर कम
ज्यादा मात्रा में स्वयंसेवक तथा समाज इनका नेतृत्व करने की क्षमता रखने वाला
होना चाहिए यह संघ की अपेक्षा है। दृष्टि से संघ में हर कार्यकर्ता एक ओर से
अनुयायी होगा फिर भी ओर से अपने अपने स्तर का नेता भी होता है। हमारा उद्देश्य
है देशव्यापी संगठन खड़ा करना और वह भी ऐसे व्यक्तियों का संगठन, जिनमें ठीक
तंग से सोचने की, अपना कार्य पूरी तरह से समझने की और नेतृत्व प्रदान करने की
क्षमता है।
इसलिए संघ में कोई नेता नहीं है और सब नेता ही हैं, ऐसा भी हम कह सकते हैं।
कार्य का आधार तो कार्यकर्ता ही है, लेकिन कुछ विशेष स्तर की जिम्मेदारी
निभाने वाला कार्यकर्ता कुछ मात्रा में नेतृत्व की जिम्मेदारी भी निभाता है और
उस कार्यकर्ता की जिम्मेदारी संघ कार्य में अधिक मानी जाती है।
तो हम समझ सकते हैं कि किस तरह के कार्यकर्ता की इस कार्य में अपेक्षा है?
यानी कि हमारे कार्यकर्ता का व्यक्तित्व किस तरह का होना चाहिए?
कार्यकर्ता स्वयं अपना खुद का संगठन करे।
इस संदर्भ में मेरा स्वयं का ही अनुभव याद आता है। जिस समय भारतीय मजदूर संघ
की स्थापना हुई (सन 1955) तब हमारी मनःस्थिति कैसी होगी। इसकी कोई भी कल्पना
कर सकता है। नया काम था। बड़ी जिम्मेदारी थी। कैसा होगा, क्या होगा ऐसे विचार
मन में थे। स्थापना के पश्चात पणे गया तो वहाँ के एक कार्यकर्ता श्री भाऊसाहब
परांजपे जो पुणे के प्रसिद्ध स.प. महाविद्यालय के उपप्राचार्य थे और मेरे
मित्र थे। उनके सामने मन की अवस्था प्रकट की। उन्होंने कहा कि काम बड़ा है तो
किसी श्रेष्ठ संत का आशीर्वाद प्राप्त करेंगे तो अच्छा रहेगा। मैंने भी हाँ भर
दी। वहाँ उस समय पूज्य श्री वामनराव गुलवणी महाराज जैसे श्रेष्ठ संत थे जो
भाऊसाहब के गुरु थे। हम उनके पास गए। मेरी उमर तो कुछ चालीस वर्ष से भी कम थी
और इस कारण ऐसी उमर में जो कुछ स्वाभाविक सा अहंकार का भाव कहिए, आत्मविश्वास
कहिए, (कभी कभी दोनों भाव एक दूसरे में समाए होते हैं।) वैसा कुछ मेरे मन में
भी था। परिणामतः मेरे मन में संमिश्र भाव था कि संत पुरुष का आशीर्वाद तो
मिलना चाहिए। लेकिन साथ में मन में अहंकार का भाव भी था मैं कोई सामान्य
शादी-ब्याह करने वाला, बाल-बच्चे पैदा करने वाला प्रापंचित कार्यकर्ता थोड़े
ही हूँ। मैं तो संघ का प्रचारक हूँ। मैंने देश के लिए आत्मसमर्पण किया है और
समाज के लिए कष्ट उठा रहा हूँ। तो मैं तो असामान्य हूँ ही। भाऊसाहब पू. गुलवणी
महाराज के साथ बातें करने लगे और मेरा परिचय उनसे कराने का दो तीन बार
उन्होंने प्रयास भी किया। फिर भी उन्होंने ध्यान नहीं दिया तो भाऊसाहब ने कहा
कि 'ये आपका आशीर्वाद चाहते हैं, मार्गदर्शन चाहते हैं। इन्होंने अभी-अभी
भारतीय मजदूर संघ शुरू किया है।' तो उस संत पुरुष ने पूछा, 'भारतीय मजदूर संघ
यह क्या है? हमने कहा कि मजदूरों का कल्याण कैसे किया जाए इसका विचार हमें
करना है। तो वे बोले, अच्छा है फिर उन्होंने मेरी तरफ देखा तक नहीं। तो
भाऊसाहब ने फिर कहा कि आप का मार्गदर्शन लेने आए हैं। तो फिर उन्होंने कहा,
'नहीं नहीं। इनको मेरे मार्गदर्शन की क्या आवश्यकता है? तो ये तो हिंदुस्तान
के सभी मजदूरों का मार्गदर्शन करने वाले हैं। हिंदुस्तान के सभी मजदूरों का
कल्याण किस बात में है यह वे जानते हैं तो खुद का कल्याण किस बात में है यह तो
उन्होंने पहले ही पहचान लिया होगा। उन्हें हमारे मार्गदर्शन की क्या जरूरत
है?'
हम जब बाहर निकले तो भाऊसाहब ने कहा, 'माफ करना। आप को मार्गदर्शन नहीं मिला।'
मैंने कहा कि, 'हमें पूरा मार्गदर्शन मिला। पूज्य गुलवणी महाराज के कहने का
मतलब इतना ही है कि बेटा, खुद का कल्याण किस में है यह मालूम नहीं और बाकी
मजदूरों का मार्गदर्शन करोगे? जो खुद का मार्गदर्शन कर नहीं सकता वह दुनिया का
मार्गदर्शन करने जा रहा है? तो यह हमारी मूर्खता उन्होंने हमें बताई। हमें
पूरा मार्गदर्शन मिला है।'
उसके पहले से ही अहंकारी मानसिकता के कारण मैं अपने मन के असंतुलन का अनुभव ले
रहा था। मैं संघ में बचपन से नहीं तो बहुत देरी से आया। पू. डॉक्टरजी के समय
में नियमित स्वयंसेवक नहीं था। कोई पकड़कर ले गया तो मैं शाखा में जाता था।
1938 से नियमित स्वयंसेवक बना। उस समय कॉलेज में भाषण करने का मौका मिलता था।
अब रगड में से जाते हुए छोटे छोटे काम करते हुए संघ कार्य में आगे बढ़ने का
अनुभव नहीं था। उसके पहले की भाषण कला के कारण पाँच सात बार बौद्धिक देने का
अवसर मिला और यह बात मेरे दिमाग में चढ़ गई। मन में आना शुरू हुआ, मेरे पहले
संघ में आए लोग बौद्धिक नहीं दे सकते थे और एक ही साल में मुझे तो जगह-जगह
बौद्धिक के लिए बुलाने लगे हैं। निश्चित ही बाकी लोग केवल दंड घुमा रहे हैं,
मेरी संघ के बारे में समझदारी उनसे कुछ ज्यादा है। अब इस अहंभाव के साथ मेरा
कार्य चल रहा था किंतु एक बार तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग के समारोप कार्यक्रम
में पू. गुरुजी ने कहा कि, "संघ क्या है यह समझने का मैं अब भी प्रयास कर रहा
हूँ।" मैं समझ बैठा था कि मैंने संघ पूरी तरह से समझ लिया है और पू. सरसंघचालक
कह रहे थे कि 'संघ क्या है यह मैं अभी भी धीरे-धीरे समझ रहा हूँ।' मेरी आँखें
तो उनके इस वाक्य से खुल गईं।
आत्मदीपो भव
हमारे एक ज्येष्ठ प्रचारक मा. दादाराव परमार्थ हमेशा कहते थे कि Begin with
first person singular स्वयं से प्रारंभ करो तो कार्यकर्ता को पहले
आत्मनिरीक्षण, आत्मचिंतन करने की आवश्यकता होती है। रोमेंटिक शब्द का प्रयोग
करना हो तो कह सकते हैं कि कार्यकर्ता स्वयं अपने संगठन (Self Organisation)
का विचार करे। अन्य लोगों के समान हमें ऐसा नहीं सोचना है कि सारी दुनिया को
कैसे दुरुस्त करना इसका विचार पहले किया जाए। हमें तो यह सोचना आवश्यक है कि
पहले स्वयं अपने को कैसे ठीक किया जाए। एक एक व्यक्ति, एक एक कार्यकर्ता जब
अपना स्वयं का संगठन करता है तो वह अपने कार्य का एक परिणामी साधन बन सकता है।
निर्वाण के पहले, भगवान बुद्ध का आखिरी वाक्य था।, 'आत्मदीपो भव।' हर व्यक्ति
स्वयं के लिए दीपक के समान हो, स्वयं से मार्गदर्शन करे।
लेकिन स्वयं अपना संगठन करना यह बात तो बहुत ही कठिन के हम जानते हैं कि
व्यक्ति याने शरीर, मन, बुद्धि, और आत्मा इन चारों का बराबर संगठन हो, चारों
का बराबर संतुलन हो यह बहुत कठिन काम है। हमेशा हम सोचते हैं कि हमारे संघ के
कार्य में मेलजोल कैसा रहेगा। यह शायद इतनी कठिन बात नहीं है जितनी अपने जो
चार अंग हैं-शरीर, मन, बुद्धि, और आत्मा इनमें संगठन करने की बात होती है।
मामूली उदाहरण है। व्यक्ति अगर डायबेटिक पेशेंट हो और रसगुल्ला सामने आया तो
शरीर, माने जिह्वा कहती है, रसगुल्ला खाया जाए लेकिन बुद्धि कहती है, नहीं,
तुम डायबेटिक पेशेंट हो, तुम्हारे लिए यह अच्छा नहीं है। तो शरीर और बुद्धि का
संघर्ष जारी रहता है।
जो चारित्रिक और बाकी दृष्टि से श्रेष्ठ लोग हैं। उन संतों ने भी कहा है कि
अंतर्बाह्य जगत् के साथ रात दिन हमें लड़ाई लड़नी पड़ती है। संत तुकाराम कहते
हैं- 'रात्रंदिन आम्हा युद्धाचा प्रसंग'। वाह्य जगत् के साथ लड़ाई करना तो
बहुत आसान है। मन के साथ लड़ाई करना बहुत ही कठिन काम है और यह लड़ाई व्यक्ति
की आतंरिक संगठन के अभाव की परिचायक होती है। हम तो सामान्य कार्यकर्ता होते
हैं। यदि हम अपने मन को नहीं संभालते हैं तो हमारा मन हमको कहाँ ले जाएगा इसका
कोई भरोसा नहीं और इसी दृष्टि से यह कहा गया है कि हमारा सबसे बड़ा मित्र कौन
है? हम खुद हैं, और हमारा सबसे बड़ा दुश्मन कौन है, तो वह भी हम स्वयं ही हैं।
'आत्मैव आत्मनो बंधु। आत्मैव रिपुरात्मनः। यह शत्रुत्व एक ऐसी निश्चित
प्रक्रिया है कि स्वयं अपने को पता भी नहीं चलते हुए धीरे-धीरे हम गड्ढे में
चले जाते हैं।
और ऐसा भी नहीं कि योग्य क्या है और अयोग्य क्या है, इस बात का अज्ञान इस
संघर्ष का कारण है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि मूल्य की जानकारी तो सभी को होती
है। संत रामदास ने कहा है -
बरे सत्य बोला यथा तथ्य चाला।
बरे बोलती लोक तेणे तुम्हाला।।
सत्य बोलने से और उसी के अनुसार अपना जीवन व्यवहार निभाने से आम लोग हमको बधाई
देते हैं, यह भी सभी को ज्ञात होता है, फिर भी आतंरिक संघर्ष के कारण, आंतरिक
संगठनहीनता के कारण व्यक्ति की प्रवृत्ति का ही असर अधिक मात्रा में होता है
और उसका व्यवहार सुविहित होता नहीं। महाभारत में दुर्योधन ने कहा है
जानामि धर्मः न च मे प्रवृत्ति।
जानाम्यधर्म: न च मे निवृत्ति।।
'धर्म क्या है मैं जानता हूँ लेकिन उसके प्रति मेरी प्रवृत्ति नहीं है और
अधर्म क्या है, यह भी मैं जानता हूँ फिर भी उससे मैं निवृत्त-परावृत्त नहीं हो
सकता।'
संत तुकाराम ने कहा है- माझे मज कलो येती अवगुण। काय करू मन अनावर।।
ऐसी सभी बातें व्यक्ति के स्वयं के आंतरिक संगठन के अभाव की परिचायक हैं वह
प्रत्यक्ष में लाने हेतु साधनरूप जो कार्यकर्ता होने चाहिए उसके व्यक्तित्व का
पहला बुनियादी पहलू है कार्यकर्ता का निजी आंतरिक संगठन। इस हेतु कार्यकर्ता
को स्वयं के ऊपर निरंतर निगरानी रखकर रहना आवश्यक है। वैसे देखा जाए तो हमारे
कार्य के पहले तीन घटक हैं वे तो स्थायीरूपेण (constant factors) स्थिर रहने
वाले हैं। वे हैं अपने सिदंधांत की सत्यता की निजी शक्ति; संगठन की सत्यता की
निजी शक्ति और अपनी कार्यपद्धति की निजी शक्ति; अब अपने कार्य की दष्टि से ऐसा
स्थिर न होने वाला एक ही घटक है, वह है स्वयंसेवक, कार्यकर्ता की निजी शक्ति
का स्तर। हमें अपने कार्य को बढ़ाना है, यह स्थिर न रहने वाला जो घटक है, उसको
स्थिर करके उसकी क्षमता बढानी होगी। हरेक स्वयंसेवक अपनी कार्यसिद्धि का आधार
इस नाते विकसित हो जाए, उसकी आंतरिक प्रेरणा शक्ति का स्तर निरंतर उच्चतम रहे,
इसका प्रयास हम करते हैं। अगर इस मूलभूत बात की हम चिंता करेंगे तो बाकी सभी
बातों की चिंता करने की जरूरत नहीं होगी। They will take care of themselves.
कार्यकर्ता-लालटेन की काँच जैसा
इस दृष्टि से हमारा कार्यकर्ता यही हमारे कार्य का आधार है। हमारा कार्य
कार्यकर्ताओं के कारण ही बढ़ने वाला या घटने वाला है। यही हमारा साधन है।
हमारे कार्यकर्ताओं के माध्यम से हमारे ध्येय संकल्प का दर्शन अगर भक्त के
माध्यम से होना है तो भक्त कैसा होना चाहिए? उसके लिए एक उदाहरण लालटेन की
काँच का है। दीपज्योति आँधी में भी जलती रहे, इसलिए लालटेन में काँच होती है।
वह काँच लगाने से पवन का झोंका भी आ गया तो भी वह ज्योति बुझती नहीं। हमको
अच्छा प्रकाश भी मिलता रहता है। इस काँच में से हम ज्योति को भी देख सकते हैं।
लेकिन इस काँच पर यदि धूल जम गई तो न प्रकाश अच्छी तरह से बाहर आएगा न हम
ज्योति को देख सकेंगे। काँच पर अगर कोई रंग लगा दिया तो भी ज्योति का जो सही
प्रकाश है वह बाहर नहीं दिखाई देगा और ज्योति भी अपने निजी रूप में नहीं दिखाई
देगी। अगर हमारे कार्यकर्ता के माध्यम से ही कार्य का प्रभाव समाज में फैलने
वाला है और उसी के माध्यम से हमारे ध्येय संकल्प का दर्शन समाज को होने वाला
है तो कार्यकर्ता भी लालटेन के काँच जैसा निष्कलंक और पारदर्शी होना चाहिए।
स्वयं के निजी व्यक्तित्व के दूसरे किसी भी रंग का असर अपने कार्य में दिखाई
नहीं देना चाहिए।
कुछ कैलेंडरों में चित्र की रचना ऐसी रहती है कि ऊपर किसी सुंदर दृश्य का
चित्रण और नीचे के पानी में उसका प्रतिबिंब। जैसे ऊपर ताजमहल और नीचे के पानी
में ताजमहल का प्रतिबिंब होती है। कार्यकर्ता और कार्यक्षेत्र का ऐसा ही संबंध
है। कार्यकर्ता का प्रतिबिंब भी कार्यक्षेत्र में दीखता है। जो अच्छा कलाकार
होता है उसने ऊपर का ताजमहल देख लिया तो पानी में उसके प्रतिबिंब का सहज
अनुमान वह लगा सकता है या केवल पानी में प्रतिबिंब देखकर ऊपर का ताजमहल कैसा
होगा, उसकी भी कल्पना वह कर सकता है। वैसे ही कार्यकर्ता को देखकर
कार्यक्षेत्र का और कार्यक्षेत्र को देखकर कार्यकर्ता का अनुमान लगाया जा सकता
है। अपने ज्येष्ठ कार्यकर्ता मा. एकनाथ रानडे ऐसा कहते थे कि 'कार्य और
कार्यकर्ता इनमें इतना अनिवार्य संबंध है कि मैं यदि किसी कार्यकर्ता को देख
लेता हूँ, उसके स्वभाव, गुणदोष आदि पूरी तरह समझ लेता हूँ तो फिर उसके
कार्यक्षेत्र में न जाते हुए भी कार्यक्षेत्र का पूरा पता चलता है।' और वैसे
ही वे कहते थे कि 'यदि मैंने कार्यकर्ता का मुँह तक देखा नहीं, उसके बारे में
मुझे कुछ भी मालूम नहीं और यदि उसके कार्यक्षेत्र का मैंने अध्ययन किया है कि
कार्यक्षेत्र के गुणदोष क्या हैं? व्यवस्थाएँ कैसी लगाई गई हैं, तो कार्यकर्ता
का दर्शन न लेते हुए भी उस कार्यकर्ता की मानसिकता, क्षमता, गुणदोष आदि के
बारे में बराबर पता लग सकता है, इतना अनिवार्य, अन्योन्याश्रित संबंध
कार्यकर्ता और कार्यक्षेत्र इनमें रहता है।' जब इस ईश्वरीय कार्य की पूर्ति का
साधन मात्र यह विनम्र भाव, स्वयं के बारे में कार्यकर्ता के मन में निर्माण
होता है तब स्वाभाविक रूप से ऐसा कार्यकर्ता साधन इस नाते ज्यादा से ज्यादा
उत्तम बनने का प्रयास करेगा ही। अपने कार्य के तथा ज्येष्ठ कार्यकर्ताओं के
व्यक्तिगत संपर्क में आने से जो संस्कार स्वयंसेवक अपने मन पर अंकित करता है
उसी से यह विनम्र भाव उसके मन में पैदा होता है और ध्येय के अनुरूप ही अपना
जीवन निर्मल, स्वच्छ तथा सुयोग्य बने ऐसा कार्यकर्ता का प्रयास रहता है।
निर्णय अपना अपना
ऐसे संस्कारों के कारण ध्येयप्राप्ति की तीव्र इच्छा स्वयंसेवकों के मन में
पैदा होती है और परिणामस्वरूप अपने निजी जीवन के बारे में वह निर्णय करता है
कि हम इस काम में जुट जाएंगे। यह निर्णय पू. डॉक्टर जी के जमाने में भी कठिन
था। आज तो देश का वायुमंडल इस निर्णय के लिए प्रोत्साहक तो है ही नहीं बल्कि
प्रतिकूल ही है। आदर्शवादिता के स्थान पर सर्वदूर अवसरवाद, व्यक्तिवाद तथा
व्यक्तिगत आकाँक्षावाद बल पकड़ता जा रहा है। Service before self के स्थान पर
Self without service की भावना प्रबल होती जा रही है। ऐसी स्थिति में अपने
ध्येयसंकल्प का साक्षात्कार जिसे हुआ है वही यह निर्णय कर सकता है और इस कार्य
में वह इतना तन्मय हो जाता है कि उसके मुकाबले में अन्य किसी बात को उसके जीवन
में कोई स्थान ही नहीं रहता और ऐसा निर्णय स्वयं अपना अपना होता है,
स्वयंप्रेरणा से होता है कि मुझे इस तरह जीवन बिताना है। राजा मानसिंह और राणा
प्रताप, दोनों की वाह्य परिस्थिति तो समान ही थी। दिल्ली में अकबर का प्रबल
शासन था। वह सभी को अंकित करने का प्रयास कर रहा था। राजा मानसिंह ने सोचा कि
ऐसी प्रबल सत्ता के मुकाबले में खड़े रहने की जगह, क्यों न उसी से संधि करें
और चैन से, आराम से जीवन बिता दें। उसी में व्यावहारिक होशियारी है। लेकिन उसी
परिस्थिति में राणा प्रताप ने यह होशियारी नहीं दिखाई। लड़ना स्वीकार किया।
हल्दी घाटी के युद्ध में उसके बाइस हजार सैनिक मारे गए। महल छोड़कर जंगल में
रहना पड़ा। पत्नी और बच्चे भूख से पीड़ित हो गए। तो जो ध्येयवादी होता है वह
स्वयं ऐसे लौकिक दुख, वेदना को ही स्वीकार करता है। 'कार्यकर्ता का अधिष्ठान'
विभाग में स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हुए एक क्रांतिकारी का- रामप्रसाद
बिस्मिल का उदाहरण आया है, वह इस संदर्भ में हम फिर ध्यान में ले सकते हैं।
ऐसा निर्णय लेने में कोई भी व्यक्तिगत, भौतिक लाभ नहीं।
इस दृष्टि से कार्यकर्ता का एक अनिवार्य गुण है त्याग की तैयारी त्याग यह
जीवनमूल्य होना चाहिए। इसका अर्थ क्या है यहाँ इस संदर्भ में एक बात ध्यान में
लेनी है।
ऐसा त्याग माने केवल स्वयं शारीरिक कष्ट उठाना, खाना नहीं मिलेगा तो भी यही
काम करते रहना, इतना ही नहीं होता, त्याग मानसिक स्तर पर भी जारी रहता है।
मानो कार्यकर्ता कुटुंबवत्सल है। पत्नी है, बच्चे हैं। आजू-बाजू के सामाजिक
माहौल में ही ये सब व्यवहार करते हैं। आसपास के महिलाओं में जो रहन-सहन की
पद्धति और स्तर रहता है उसी के अनुसार पत्नी भी अपने निजी जीवन के संदर्भ में
अपेक्षाएँ रखती है। अगर छोटा बच्चा पूछेगा कि पड़ोसी के घर में टी. वी., फ्रिज
है तो हमारे घर में क्यों नहीं है? तो राणा प्रताप और शिवाजी महाराज के उदाहरण
बताकर कार्यकर्ता उस छोटे बच्चे का समाधान नहीं कर सकता है। ऐसी जो मानसिक
समस्याएँ पैदा होती हैं वे एक तरह से मानसिक त्याग के स्वरूप की ही होती हैं।
इस संदर्भ में अपने परिवार के सभी घटकों के मन पर जो मानसिक तनाव रहता है उसका
भी सामना कार्यकर्ता को करना पड़ता है।
हमारे एक कार्यकर्ता थे। आपात्काल (Emergency) में जो तानाशाही का अमल चल रहा
था, उसके शिकार होकर मीसाबंदी हो गए थे। तब उनके घर की कठिनाईयों की जानकारी
प्राप्त करने हेतु हम उनके घर गए। उनकी पत्नी से पूछताछ की। क्या-क्या
कठिनाईयाँ हैं, कैसे निर्वाह हो रहा है? तो उन्होंने कहा- 'आर्थिक कठिनाई काहे
की। आज तक इतने दिन नौकरी करते हुए भी कभी इतना वेतन घर में नहीं आया।' अब जेल
में होने के कारण इस कार्यकर्ता को आधा वेतन मिलता था लेकिन जब काम पर थे तब
हमारे काम के लिए इतनी छुट्टियाँ लेनी पड़ती थीं कि कभी आधा वेतन भी वे घर
नहीं ले जा सकते थे, सब छुट्टियाँ तो बगैर वेतन लेनी पड़ती थीं।
अपने घर में ऐसी भौतिक सुविधाएँ कम ही रहेंगी; शायद नहीं भी रहेंगी। इससे
कार्यकर्ता को मानसिक समझौता करना ही पड़ता है और वह भी एक दृष्टि से त्याग ही
है। हमारे जीवनयापन और जीवन स्तर की परिभाषा यह है कि चमड़ी और हड्डियाँ साथ
रहने के लिए (to put skin and bones together) जो आवश्यक है वह न्यूनतम हमारे
जीवन में रहेगा। ऐसी न्यूनतम सुविधाएँ लेकर ध्येय के साथ एकात्म होकार कार्य
करने वाला हमारा कार्यकर्ता हो ऐसा हमारा प्रयास रहता है।
इस संदर्भ में मोहम्मद पैगंबर का उदाहरण हमारे सामने है। लढाई में उनके पास
बहुत सी लूट की संपत्ति आ जाती थी किंतु उनके स्वयं के लिए घर में शाम के समय
दिया जलाने के लिए तेल भी नहीं रहता था। उनकी बीवियों के मन में आता था कि
उनका पति कितना धाकड है, इतनी लड़ाइयाँ जीतता है, इतना पैसा आता है, लेकिन
उनको कुछ भी नहीं देता। अपने सैनिकों में बाँट देता है। बद्र की प्रसिद्ध लडाई
में (Battle of Badr) बहुत सी संपत्ति मिली। तो उनकी सारी बीवियों ने उनकी
सबसे प्रिय पत्नी आयशा के नेतृत्व में एक साथ जाकर मोहम्मद साहब से अनुरोध
किया कि 'हर समय लड़ाई में आने वाली संपत्ति आप सैनिकों में बाँट देते हैं
किंतु इस समय हमारी प्रार्थना है कि इस संपत्ति का कुछ हिस्सा आप हम लोगों के
लिए भी अलग से रखिए। मुहम्मद साहब ने कहा, ' कुछ हिस्से की ही बात क्या, मैं
लूट की पूरी की पूरी संपत्ति अपने पास रख लूँ तो मुझे कोई पूछने वाला नहीं है।
तुम्हारे कहने पर मैं वैसा ही करता हूँ। यह सारी संपत्ति तुम लोगों के हाथ में
देता हूँ। तुम आपस में बाँट लो। किंतु एक बात ध्यान में रखो। यह संपत्ति
प्राप्त करने के बाद तुममे से किसी को भी यह कहने का अधिकार नहीं रहेगा कि मैं
पैगंबर की बीबी हूँ।' यह सुनकर सभी ने कहा, 'हमें संपत्ति नहीं चाहिए। पैगंबर
की बीबी रहना हमारे लिए महत्वपूर्ण है।' जीवन किस प्रकार चरितार्थ करना चाहिए,
उस जीवन-सीमा को उन्होंने जान लिया। उस सीमा में रहना ही सच्चा मार्ग इस नाते
उन्होंने चुन लिया।
हमारे बीच कई ऐसे कार्यकर्ता हैं उनकी योग्यता और क्षमता ऐसी हो सकती है कि
अपना जो समय और अपनी शक्ति वे संघ के काम में लगाते हैं, अगर उन्होंने अपनी
निजी शक्ति और समय व्यक्तिगत काम में किसी व्यवसाय के रूप में लगाई होती तो
लौकिक दृष्टि से उनको दस गुना लाभ होता। ऐसे भी कार्यकर्ता हैं कि जिनके बचपन
के साथी किसी बड़े ओहदे पर होंगे। उनके पास कार बंगला होगा। उनके बच्चे अच्छी
पढाई करते होंगे, कोई विदेश में भी सुखासीन जीवन बिताते होंगे। पहले कभी जो
मेरे साथ में पढ़ते थे, शायद उनकी बुद्धिमत्ता भी कम थी, वे आज भौतिक
सुखसमृद्धि की चोटी पर हैं। लेकिन यह सब होते हुए भी उनका मार्ग न अपना कर
हमारा कार्यकर्ता सामान्य जीवन बिताता है। कभी कभी आधी तनख्वाह भी नहीं मिलती
होगी, दो वक्त का खाना खाने को भी समय नहीं मिलता होगा। इससे उन्हें क्या
मिलता है? कई बार शायद मन में आता होगा कि इस कार्य से तूने क्या कमाया? देखो!
तुम्हारे इतने साथी किस तरह का सुखमय जीवनयापन कर रहे हैं।' लेकिन कई बार अपने
ऐसे ही कार्यकर्ताओं को मैंने यह कहते सुना है कि 'जो आनंद मुझे इस कार्य में
मिलता है, मेरे मन को जो शांति मिलती है, मालूम नहीं वह मिलती या नहीं अगर मैं
भी ऐसे ही भौतिक सुख के पीछे पड़ता।'
ऐसे कार्यकर्ता हमेशा दूसरों का, समाज का सोचते हुए अपना जीवन बिताते हैं। कोई
करे या न करे मुझे तो करना ही है, यह विचार उनके मन में होता है। The best
should suffer so that the rest may prosper. यही सूत्र उनके सामने रहता है।
संघ की परिभाषा में इसी को 'आत्मनेपदी विचार' कहा जाता है।
कार्यकर्ता का मापदंड
अगर कार्यकर्ता के लिए हमने कोई एक मापदंड तय किया है तो वह है उसकी
विश्वसनीयता। भले ही किसी व्यक्ति की क्षमता (ability), कुशलता (expertise),
कार्य तत्परता (efficiency) अच्छी हो फिर भी उसमें conviction के आधार पर अपने
कार्य के प्रति नि:स्वार्थ प्रतिबद्धता (commitment) न हो, तो हम उसे
कार्यकर्ता नहीं मानेंगे। क्षमता, कार्यकुशलता तथा तत्परता एक ओर और
विश्वसनीयता तथा सैद्धांतिक प्रतिबद्धता दूसरी ओर, इनमें से अगर चुनना है तो
हम कम क्षमता आदि गुणवत्ता लेकिन पूर्ण समर्पितता, प्रतिबद्धता और विश्वसनीयता
होने वाले कार्यकर्ता को चुन लेंगे। असमर्पित कर्तृत्ववान व्यक्ति से
आत्मसमर्पित कम कर्तृत्ववान व्यक्ति हमारे कार्य की दृष्टि से हम स्पृहनीय
मानते हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र में तो professionalism और conviction उनकी प्रतिद्वंद्विता
हमेशा नजर आती है लेकिन संघ में ध्येयनिष्ठा, समर्पितता, विश्वसनीयता को
ज्यादा महत्त्व प्राप्त होता है।
पागल लोगों का संगठन
एक दृष्टि से हम कह सकते हैं कि हमारा संगठन पागल लोगों का एक संगठन है।
क्योंकि हमारे कार्यकर्ताओं में व्यावहारिक चतुराई का पूर्ण अभाव रहता है और
पागलपन को स्वीकार हमने हेतुपूर्वक किया है। ऐसा नहीं है कि हमारे कार्यकर्ता
चतुराई की कला जानते ही नहीं। इस संदर्भ में वे बिल्कुल अनाड़ी हैं लेकिन इनके
समर्पित भाव के कारण ऐसे मार्गों का सहारा नहीं लेना है। यह उन्होंने जानबूझकर
तय किया है। इसमें ही हमारे कार्य और कार्यकर्ताओं की प्रतिष्ठा है। हमारे
कार्य में शीघ्रगति से सफलता नहीं मिलेगी, शायद समय समय पर असफलता भी आएगी। तो
भी अपनी रीति-नीति पद्धति से, मूल्यों से समझौता करके सफलता के लिए ऐसे short
cuts हम नहीं अपनाएँगे। अपने अपने क्षेत्र में जो मार्ग बताया है उसी का
अनुसरण हमें स्थिर बुद्धि से करना हा उसमें और भी एक बात ध्यान में लेना
चाहिए।
ऐसी बुद्धिमानी से थोड़े समय के लिए लोगों को कोई गुमराह कर सकता है। लेकिन
ज्यादा देर तक किसी को गुमराह करना संभव नहीं होता है। अंग्रेजी में एक सूत्र
आया है- One can befool some people for all times or all people for some
time; but no one can befool all people for all times.
सार्वजनिक जीवन में ऐसी चतुराई से जल्दबाजी होने का कारण कुछ निहित स्वार्थ या
हितसंबंध। लेकिन अपने कार्य में तो कार्यकर्ता के मन में पूर्ण समर्पितता का
नि:स्वार्थ भाव रहता है। यहाँ स्वयं के लिए कुछ पाने का सवाल ही नहीं उठता।
केवल देना ही देना है।
और नि:स्वार्थ, समर्पण की भावना तभी पैदा होती है जब कार्यकर्ता के मन में
अपने ध्येयसंकल्प की पूर्ति का मात्र एक साधन इस दृष्टि से स्वयं के बारे में
भाव स्थिर हो जाता है। राष्ट्रदेवता के इस पूजन में देवता पर चढ़ाए गए फूल के
रूप में जब कार्यकर्ता स्वयं को देखता है तब अनायास उसके अहंभाव का भी विलय हो
जाता है।
आत्मसमर्पण की भावना के कारण प्रचंड मनोबल
ऐसी समर्पित मानसिकता के कारण ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता की आंतरिक शक्ति कुछ अलग
ही रहती है। अहंकार रहित आत्मार्पण की भावना से कार्यकर्ता में एक प्रचंड
मनोबल पैदा होता है। अगर ऐसा मनोबल रहा तो शारीरिक शक्ति कम होने के बावजूद भी
आदमी प्रचंड कार्य कर सकता है। अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। कम्युनिस्ट जगत्
में और पश्चिम बंगाल में गोरिल्ला युद्ध (gorilla war) के तंत्र के जन्मदाता
चे ग्वेवारा ने सुना कि कुछ दक्षिण अमेरिकी देशों में भी स्वातंत्र्य संग्राम
उभरकर आ रहा है तो फिर ऐसे संग्राम में हिस्सा लेने के लिए वे अपना पद छोड़कर
बोलेविया में चले गए। जंगल में रहकर गुरिल्ला युद्ध का संचालन किया और वहीं
उनकी मृत्यु भी हुई। उस समय उनको अस्थमा, ब्रोंकायटिस जैसी बीमारी थी। फिर भी
केवल मनोबल के आधार पर उन्होंने उस बीमारी में भी युद्ध का संचालन किया।
अपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह माननीय माधवरावजी मुले का उदाहरण
ऐसा ही है। आपात्काल (Emergency) में उनकी तबियत बहुत ही खराब थी। फिर भी
संपूर्ण देश में जो भूमिगत संघर्ष (underground activity) तानाशाही के मुकाबले
चल रहा था, उसका संचालन माधवराव जी ने अतीव सक्षमता से किया। आपात्काल की
पाबंदी उठने के बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।
नक्सलवादी आंदोलन के प्रणेता चारू मजूमदार ने घोर बीमारी की अवस्था में ही एक
नया क्रांतिकारी आंदोलन बड़ी सक्षमता से चलाया। जब वे गिरफ्तार हुए तो सबको
आश्चर्य हुआ कि उनके पास न तो कोई रायफल या पिस्तौल थी या न कोई हैंडग्रेनेड
था। उनके पास केवल आक्सीजन सिलेंडर था जिसकी उन्हें तबियत की खराबी के का
जरूरत पड़ती थी।
इसका मतलब है, कार्यकर्ता की शक्ति, शारीरिक क्षमता भी उसके मनोबल पर निर्भर
रहती है और ऐसी शक्ति का स्तर प्रसंगवश, परिस्थिति या समय के अनुसार बदल सकता
है यह अनुभव है उसका अंदाजा लगाना इतना आसान नहीं है। इसलिए वह मनोबल पर
निर्भर है यह कहना उचित है।
महाराष्ट्र के इतिहास में एक उदाहरण आता है सरदार बापू गोखले का। एक दिन घर
में नाई के हाथ से दाढ़ी बनाते समय चोट लग गई। तत्काल उनके मुँह से वेदना के
कारण स् स् ऐसे शब्द निकले। तो नाई को बड़ा आश्चर्य हुआ। इतना बड़ा सेनापति
इतनी मामूली चोट से स् स् करता है। उन्होंने कहा-'कमाल की बात है। आप इतने
बड़े सेनानी और इतनी छोटी सी चोट सह नहीं सकते?' बापू ने कुछ जवाब नहीं दिया।
दाढ़ी होने के बाद नाई को अपना एक पैर सामने रखने को कहा। बाद में उस पर अपना
पैर रखा। कोने में भाला था वह हाथ में लेकर इतना जोर से घुसेड़ दिया कि दोनों
पैर पार करके वह जमीन में घुस गया। नाई चिल्लाने लगा। बोला 'मैंने क्या अपराध
किया था कि मुझे आपने ऐसा सजा दी।' बापू ने कहा, 'यह सजा नहीं है। यह तुम्हारे
सवाल का जवान है। दाढ़ी बनाते समय चोट लगी तो वेदना से सस करने वाला मैं
युद्धभूमि पर कैसे लड़ता होउँगा यह बताने वाला यह जवाब है। अब भाला तो मेरे
पैरे में भी घुस गया है लेकिन तुम चिल्ला रहे हो और मैं हँस रहा हूं'। तो दो
बातें अलग-अलग हैं। क्योंकि दोनों अवसर की मानसिकता अलग अलग होती है। व्यक्ति
एक ही लेकिन दाढ़ी के समय की शक्ति का स्तर अलग और लड़ाई के समय की शक्ति का
स्तर अलग।
हमारे सामान्य जीवन में भी हम इसका अनुभव कर सकते हैं। हमारा घराना निम्न
मध्यमवर्गीय (lower middle class) का है। लेकिन हमारे एक चचेरे भाई ने किसी
संपन्न घराने के लड़की से शादी की। हमारे घर आने के बाद उस बहू को घर की रसोई
आदि काम करना पड़ता था जिसकी उसको आदत नहीं थी। चपाती करते समय या चूल्हे से
बर्तन उतारते समय हाथ की जलन होती थी वह उससे सही नहीं जाती थी। संयोग से घर
में आग लग गई। सभी ओर से ज्वालाएँ घर को लपेट रही थीं। सब लोग तो तुरंत बाहर
आए। लेकिन यह बहु के ध्यान में आया, अपना नन्हा बच्चा अंदर ही रह गया है। अब
ध्यान में आते ही स्वयं की बिल्कुल ही फिक्र न करते हुए जलते हुए मकान में वह
घुस गई। दूर अंदर अपना बच्चा था। उसको झटके से उठाकर बाहर आई। तब तक उसकी
साड़ी जलने लगी थी। बदन भी कुछ मात्रा में आग का शिकार बन गया। अब सोचने की
बात है कि घर का काम करते समय चूल्हे की आग से जो डरती थी उसमें जलते हुए मकान
में, आग की फिक्र न करते हुए प्रवेश करके, अपने बच्चे को बचाकर लाने का साहस
कैसे पैदा हो गया? यह शक्ति का स्तर है उसके मनोबल का। उस मनोबल को उचित और जो
पर्याप्त आवाहन प्राप्त हुआ और वह प्रकट हो गया। अपने कार्य में यह आह्वान
अपने अधिष्ठान से ही हमें प्राप्त होता है।
ध्येय के साथ एकात्म होने से विजिगीषु वृत्ति
ध्येय के साथ एकात्म होने से ऐसा मनोबल कार्यकर्ता को प्राप्त होता है, उससे
एक जबरदस्त आत्मविश्वास उसके मन में पैदा होता है। और इस जबरदस्त आत्मविश्वास
के आधार पर किसी का साथ न होते हुए ना अकेले ही चुनौतियों का सामना करने में
उसको कोई आपत्ति नहीं होती है।
ऐसा ही आत्मविश्वास आर्य चाणक्य ने प्रकट किया था। विशाखदत्त के
'मुद्राराक्षस' इस नाटक में एक प्रसंग आया है। आचार्य चाणक्य अपने गुप्तचर से
पूछताछ कर रहे थे और साम्राज्य की परिस्थिति का अंदाजा ले रहे थे। उस दिन यही
सुनने का अवसर आया कि यह राजा अपने दल को छोड़कर चला गया, वह सेनापति शत्रुदल
में चला गया, वह भी हमको छोड़कर चला जा रहा है......आदि आदि। सभी समाचार उनके
साथ छोड़कर जाने वालों के ही थे। वह सुनकर चाणक्य कहते हैं-
एका केवलमर्थसाधनविधौ सेना शतेम्योअधिका
नन्दोन्मूलन दृष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गा गम।।
मतलब यह कि जिन्हें छोड़कर जाना था वे चले गए। जो छोड़कर जाना चाहते हैं वे भी
चले जाएँ, चिंता की कोई बात नहीं। लेकिन ईप्सित प्राप्त करने से जो सैकड़ो
सेनाओं से भी अधिक बलवान है और नन्द साम्राज्य के निर्मूलन के कार्य में जिसके
वीर्य की महिमा दुनिया ने देख ली है केवल यह मेरी बुद्धि मुझे छोड़कर न जाए।
कितना प्रचंड आत्मविश्वास है।
ऐसा ही एक उदाहरण पहले बाजीराव पेशवा का है। वे उत्तर दिग्विजय करना चाहते थे।
स्वराज्य तो नया नया था और ऐसे दिग्विजय के लिए आवश्यक साधन-सामग्री उनके पास
नहीं थी। इस कारण शाहू छत्रपति बाजीराव को उत्तर दिग्विजय की अनुमति नहीं दे
रहे थे। उस समय बाजीराव ने लिखा कि, 'आप हमें केवल अनुज्ञा दीजिए। सेना खड़ा
करना, आवश्यक कोष निर्माण करना और साधन जुटाना यह काम हम करेंगे.....आपके
आशीर्वाद से हम हिंदुस्तान जीत लेंगे।
लिपझिक की लड़ाई में नेपोलियन के पास उनके सहकारी पहुंचे और बड़ी चिन्ता वाली
खबर बताई कि शत्रु की सेना की संख्या हमारी सेना से तीन गुनी अधिक है।
नेपोलियन ने कहा इसमें चिंता की क्या बात है? कार्यकर्ता (भाग-1) तम्हारी भी
संख्या उतनी ही है पर वास्तव में नेपोलियन के सैनिकों की संख्या केवल पचास
हजार थी, और शत्रु की संख्या डेढ़ लाख थी। तो नेपोलियन ने कहा, 'देखो, आपके
पास पचास हजार की सेना है और मैं स्वयं एक लाख। दोनों मिलकर डेढ़ लाख हुए तो
हमारी सेना तो उनकी सेना के बराबर ही है।' अब केवल पचास हजार सेना के साथ होने
के बावजूद जो स्वयं अकेले की ताकत और हिम्मत एक लाख सैनिकों के बराबर समझता है
उसके पास कितना आत्मविश्वास होगा। नेपोलियन का यह उदाहरण, गुरु गोविन्द सिंह
जी के उस वाक्य का स्मरण दिलाता है-'सवा लाख से एक लड़ाऊँ तब गोविंदसिंह नाम
कहाऊँ।'
पहले महायुद्ध में मार्न नदी के किनारे तक जर्मन सेना आ पहुँची। तब फ्रेंच
जनरल जॉफ्रे ने बीस ॲडज्यूटेन्ट्स को बुलाया और बताया कि अब पीछे हटना तो संभव
नहीं है। प्रत्याघात के सिवा कोई चारा नहीं तो प्रत्याघात शुरू करो और
अड़तालिस घंटों के अंदर मुझे टेलिग्राम करो। बीस में से उन्नीस अधिकारी हार
मान कर बैठे। जर्मन सेना जब पेरिस से लगभग बीस मील तक आ पहुँची तब केवल
अॅडज्यूटेन्ट फाक ने अपने कमांडर जनरल जॉफ्रे को टेलिग्राम भेजा था- उसका मतलब
था।
My right recedes, my centre gives way!
Situation is excellent, I shall attack!
यानी 'मेरे साथ वाली दाहिनी बाजू पीछे हट गई है। मध्य की बाजू टूट गई है।
(लेकिन) परिस्थिति बहुत ही अच्छी है। मैं तो प्रत्याघात करूँगा ही।' बाद में
उन्हें संवाददाताओं ने पूछा कि तुम्हारे साथ वाले उन्नीस अॅडज्यूटेन्ट्स सब
परास्त हुए। फिर आप अकेले विजयी कैसे हुए। तो उन्होंने इतना ही सीधा जवाब
दिया, 'मुझे विजय प्राप्त हुई इसका कारण मैंने निर्धारित किया था कि मैं
परास्त नहीं हूँगा। (I was simply determined not to be defeated)
दूसरा उदाहरण फ्रांस के संदर्भ में ही है। दूसरे महायुद्ध में फ्रांस का पूरा
पराभव हुआ। पेरिस भी जर्मनों के हाथ में चला गया। मार्शल पेर्ती के नेतृत्व
में बोर्डो गाँव में एक प्राथमिक पाठशाला में, आगे चलकर क्या करना, इसके बारे
में विचार करने के लिए राजनीतिक नेता तथा सेनानी बैठे थे। आम लोगों का ज्यादा
मात्रा में कत्ल न हो इस दृष्टि से शरणागति स्वीकार लेने का निर्णय हुआ। लेकिन
जनरल दगॉल को यह मंजूर नहीं था। उन्होंने इस निर्णय के खिलाफ भाषण दिया और वे
बैठक में से भाग निकले ताकि उनकी कैद न हो। सीधे लंदन में आए और फ्रांस का
विस्थापित शासन (Government in exile) घोषित करके शरणागति न स्वीकारते हुए
वहाँ से जर्मनों के खिलाफ संघर्ष जारी रखने का निश्चय घोषित किया। अपने
आत्मचरित्र में इस समय स्वयं की स्थिति के बारे में उन्होंने लिखा है:
'I was nothing at the start. On my side, there was no so much as a shadow
of an army or any organisation. In France, I had no guarantor and no
reputation. Abroad, I had neither credit nor justification.'
फिर भी धीरज रखकर बिना किसी साधनों के साथ भी उन्होंने संघर्ष जारी रखा। और
आखिर में फ्रांस के लिए विजय हासिल की।
हमारे यहाँ कहा है-
क्रिया सिद्धि सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे।
ध्येय के साथ एकात्म होने से निर्माण हुए इस आत्मविश्वास के आधार पर ही
कार्यकर्ता सफलता पाता है। सफलता पाने के लिए अगर कुर्बानी भी करनी पड़ती है
तो भी यह कुर्बानी विफल नहीं होने देता है।
हमारे इतिहास में ऐसा उदाहरण आता है, शिवाजी महाराज के एक साथीदार बाजीप्रभू
का। शिवाजी का पीछा करने वाली सेना की संख्या बहुत ही ज्यादा थी और वह तेज भी
थी। अगर शिवाजी महाराज उनके साथ लग जाते तो हिंदवी स्वराज्य का संकल्प वहीं
समाप्त हो जाता। सोचा गया कि जिस छोटी सी घाटी से गुजरते हुए आगे बढ़ना है उधर
ही अपने कुछ इने गिने चुने हुए साथी सैनिकों की हिम्मत पर बाजीप्रभू उस घाटी
में शत्रु सेना को रोकें और शिवाजी कुछ सैनिकों के साथ आगे निकल जाएँ। यह भी
तय हुआ था कि शिवाजी महाराज आगे बढ़कर विशालगढ़ सुरक्षित पहुँचते ही तोपों की
आवाजें होंगी। तब तक घाटी में शत्रु को रोकना है। अब सामने मृत्यु दिखाई दे
रही थी। किंतु जब तक तोपों की आवाजें नहीं आती तब तक आखिरी दम तक शत्रु से
जूझेंगे और उन्हें घाटी पार नहीं करने देंगे। यह निश्चय था। एक एक साथी घायल
होकर धराशायी होने लगा। स्वयं बाजी प्रभू भी खून से लथपथ हुए थे। फिर भी सभी
के कान तोपों की आवाजों की ओर लगे थे और जब तक आवाजें नहीं सनाई देतीं तब तक
वे मरने को भी तैयार नहीं थे। सभी ने प्राण तभी छोड़े जब शिवाजी महाराज
विशालगढ़ पहुंचे और यह सूचना देने वाली तोपों की आवाजें सुनाई दीं।
रोम के इतिहास में भी ऐसा प्रसंग है। शत्रु की भारी सेना रोम के पास आ पहँची
थीं। वहाँ की टायबर नदी पर जो पल था वह पार कर रोम का कब्जा ले सकती थी। उसके
मुकाबले में रोम की सेना बहत ही कम थी तो ऐसा तय हो गया कि न्हेटॅशिअस नाम के
वीर के नेतृत्व में केवल तीन वीर पुरुषों ने शत्रु सेना को पुल के उस पार ही
रोक रखना है और तब तक इधर पुल तोड़ा जाए ताकि शत्रु सेना रोम तक नहीं आ सकेगी।
इतनी भारी शत्रु सेना और केवल तीन वीर पुरुष उसे रोक रहे हैं। बाकी दोनों की
मृत्यु होने के बाद भी अकेला लड़ता रहा। जब तक पुल नहीं टूटा और यह विश्वास
नहीं हुआ कि अब शत्रु सेना किसी भी हालत में रोम नहीं पहुँचेगी तब तक वह लड़ता
रहा। केवल तीन पुरुषों के पराक्रम से रोम उस समय बच गया। यह घटना ईसा पूर्व
488 की है।
ग्रीक इतिहास में लिओनिडस का उदाहरण भी ऐसा ही है।
जो व्यक्ति अपने ध्येय से एकात्म होता है वह ब्राजीप्रभू या न्हेटॅशिअस के
समान होता है। उसे नहीं लगता है हम अकेले हैं थोड़े ही हैं हम से यह कैसे होगा?
काम कैसे निभाना? उन्हें विश्वास रहता है, हमारा ध्येय उदात्त है, हमारी विजय
तो निश्चित है।
विश्व में जब कोई ऐतिहासिक परिवर्तन हुआ है वह कुछ इने गिने चुने लोगों ने
अपने आत्मविश्वास से ही कर दिखाया है। लेनिन ने इसे determined minority कहा
है। ध्यान में आता है कि जय-पराजय तो केवल संख्याबल पर नहीं बल्कि कार्यकर्ता
की आदर्श निष्ठा पर, निश्चय पर, धीरज और साहस पर अवलंबित होती है।
ध्येय की आंतरिक शक्ति का वाहक
इसका कारण है व्यक्ति जब 'अहं' को भूल जाता है, स्वयं को ध्येय में विलीन कर
देता है तब उसकी शक्ति असीम होती है। अगर व्यक्ति अपने अहं को लेकर चल रहा हो
तो उसकी अकेले की ही शक्ति काम आती है। लेकिन ध्येय में 'अहं' को विलीन करने
के कारण ध्येय की जो अंगभूत आंतरिक शक्ति intrinsic strength होती है उस असीम
शक्ति का वह वाहक बन जाता है। लोगों को आश्चर्य होता है कि बाजीप्रभू या
न्हेटॅशिअस जैसे लोगों के अंदर इतनी शक्ति कैसी आती है। ऐसा साहस ये कैसे कर
सकते हैं। तो हमें यह ध्यान में रखना है, यह शक्ति ध्येय के आंतरिक शक्ति के
वाहक इस नाते उनमें पैदा होती है।
और जब ऐसे निजी अहंकार ध्येय में मिलाकर कार्यकर्ता इकट्ठे आते हैं तब संगठन
की शक्ति केवल संख्यात्मक दृष्टि से बढ़ती नहीं, तो गुणात्मक शक्ति भी बढती
है। अब संख्यात्मक शक्ति में एक और एक मिलाकर दो होते हैं, दो और एक मिलाकर
तीन, तीन और एक मिला चार, ऐसी श्रेणी में शक्ति बढ़ती है। लेकिन जब ध्येय के
प्रति निरहंकारिता से समर्पित कार्यकर्ता एक साथ आते हैं तब शक्तिबंधन का
सूत्र अलग हो जाता है। अब एक और एक मिलाकर ग्यारह होते हैं, दो नहीं। तीसरा
कार्यकर्ता खड़ा होता है तो एक सौ ग्यारह होते हैं और चौथा कार्यकर्ता मिलता
है तो एक हजार एक सौ ग्यारह होते हैं, चार नहीं।
विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग
ऐसी निरहंकारी ध्येयसमर्पितता के कारण प्रतिकूल, विपरीत परिस्थिति में भी
कार्यकर्ता अपना धीरज न खोते हुए स्थिर चित से काम कर सकता है। हमारे कार्य की
दृष्टि से परिस्थिति कभी बहुत विपरीत, प्रतिकूल होगी, कभी थोड़ी सी अनुकूल
होगी। ऐसे सभी हालातों में कार्य की सफलता के लिए कार्यकर्ता की मनःस्थिति
शांत, संयत और संतुलित होना अतीव आवश्यक है। यह कठिन तो है ही। भारतीय युद्ध
के प्रारंभ में ही जब अर्जुन जैसे योद्धा के मन में भी दुर्बलता, कैवल्य का
भाव निर्माण हुआ तब भगवान ने कहा-
सुखदुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जया जयौ।,
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यति।।
(भ.गी. २-३८)
सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय ऐसी सभी हालातों में अपना संतुलन रखके अब
क्षत्रिय इस नाते 'युद्धाय युज्यस्व' युद्ध के लिए युद्ध करो। थोड़ी विजय हो
तो आनंद हुआ, पराजय हुई तो एकदम दुख हुआ ऐसा नहीं। कार्य करना यही अपना
कर्तव्य है उसका फल क्या होता है, अच्छा या बुरा, यह देखने की आवश्यकता नहीं।
हम कार्य करते ही जाएँगे। अंततोगत्वा हमें जहाँ पहुँचना है, जरूर पहुँचेंगे।
इसलिए मन की स्थिरता होनी चाहिए। यह स्थिरता होनी चाहिए। यह स्थिरता सभी अच्छे
बुरे प्रंसगों से रास्ता निकालने के लिए बहुत आवश्यक है। हमें यह समझना चाहिए
कि कार्य करना ही आनंद है। Work is its own reward हम कार्य कर रहे हैं यही
हमारे लिए पुरस्कार है।
इस दृष्टि से भगवद्गीता में कार्यकर्ता का जो विवरण किया है वह हमारे लिए बहुत
ही उद्बोधक रह सकता है।
मुक्तसंगोऽनहवादी धृत्युत्साहसमन्वितः
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।
(भ.गी. १८-२६)
जो अनासक्त है, निरहंकारी है, धैर्य तथा उत्साह से युक्त होता है अपने कार्य
की सफलता या असफलता से जिसके मन की साम्यावस्था ढल नहीं सकती ऐसे ही
कार्यकर्ता को सात्त्विक कर्ता कहा जाता है। हमारा कार्यकर्ता ऐसे सभी गुणों
से युक्त, सात्त्विक कार्यकर्ता बने यह हमारा प्रयास रहता आया है।
ऐसे कार्यकर्ता के मन में अपनी कार्यसिद्धि के बारे में कभी निराशा नहीं पैदा
होती। आदर्श क्या है यह तो उनके सामने हमेशा रहता ही है, फिर भी धरातल के
वास्तव का भान भी पक्का रहता है। उन्तीस हजार फीट की एवरेस्ट की चोटी तक
पहुँचना है, फिर भी उसके लिए पहला कदम तो उन्तीस इंच का ही होगा यह वह जानता
है। एवरेस्ट जाने वाले एकदम ऊपर जाने का तो विचार नहीं करते हैं। थोड़ा ऊपर
चढ़ते हैं, फिर कैम्प लगाते हैं, राह बनाते हैं। भोजन, विश्राम करते हैं। फिर
आगे चढ़ते हैं। ऐसे करते करते ही चोटी पर पहुँच जाते हैं। हजार मील पैदल जाना
है तो भी पहला कदम तो डेढ फीट का ही बढाना पड़ेगा, यह चलने वाले को मालूम होता
है। इस दृष्टि से हमारा कार्यकर्ता व्यवहारवादी, आदर्शवादी (practical
idealist) होता है। इसके कारण वह कार्यसिद्धि के बारे में निराशा का शिकार कभी
नहीं बनता। 'सिद्धयसिद्धयोर्निविकार ऐसी उसकी वृत्ति रहती है।
ऐसी संतुलित मानसिकता के कारण ही उसके मन पर कभी अधैर्य या उतावली का असर नहीं
होता है। कभी भी now or never वह मानसिकता पैदा नहीं होती। कार्यसिद्धि की लगन
होने के कारण वह जल्दी पूरा हो जाए ऐसा उसका भी प्रयास रहता है। लेकिन धीरज
बोडकर कार्यहानि करने वाली जल्दबाजी वह नहीं करता है। पू. गरुजी Hasten slowly
ऐसा जो संकेत दिया इस संदर्भ में किया है वह हमें ध्यान में लेना आवश्यक है।
अपने संगठन का कार्य कल्पतरु की तरह है। आपको मालूम होगा कि कल्पतरु के नीचे
जाकर इच्छा करने से सारी मनोकामनाएँ तृप्त हो जाती हैं। जो चीजें हम चाहते हैं
वे सामने आ जाती हैं। हम धीरज रखकर संगठन के अंतर्गत काम करेंगे तो सफलता
मिलेगी ही। लेकिन संगठन की कल्पतरु की शक्ति न जानते हुए अगर धीरज छोड़कर काम
करेंगे तो न केवल हमारी, बल्कि संगठन की भी हानि होगी। एक बार ऐसा हुआ कि भूखा
प्यासा आदमी थककर कल्पतरु के नीचे आ गया। उसे पता नहीं था कि वह कल्पवृक्ष था।
मन में आया प्यास लगी है। पानी मिलता तो अच्छा होता। अब कल्पतरु के नीचे ही
बैठा था तो पानी आ गया। फिर भूख का सोचा तो भोजन भी मिला। लेकिन खाना खाकर जब
वह आराम से बैठा तब मन में आया आखिर ये सब चीजें कहाँ से आईं? कोई दिखाई तो
नहीं देता। शायद लानेवाला कोई शैतान भी हो सकता है। तो सचमुच शैतान उपस्थित हो
गया। अब वह पथिक घबराकर सोचता है कि कहीं हमें यह खा न जाए तो शैतान ने उसे खा
भी लिया।
ठीक यही हाल धीरज न रखने वाले अपने कार्यकर्ता का हो सकता है। यदि धीरज से काम
करें, संतुलित मानसिकता से काम करें तो संगठन का कल्पवृक्ष हमारी कार्यसिद्धि
की तमन्ना पूरी करेगा ही!
अगर कार्यकर्ता स्थिर मानसिकता से काम में जुटा रहता है तो किसी भी विपरीत
परिस्थिति में भी न डगमगाते हुए मार्ग निकालता है। जो अच्छे और कर्तृत्ववान
कार्यकर्ता होते हैं संकटकाल और चुनौतियों के समय उनका कर्तृत्व प्रकट होता
है। बाहर से प्रतिकूलता का आह्वान प्राप्त होने पर उसका पूरी सामर्थ्य से
मुकाबला करने के लिए वे हमेशा सिद्ध रहते हैं। वे रबड़ की गेंद की तरह होते
हैं। यदि कोई रबर की गेंद को जमीन पर पटकता है तो वह पटकने वाले के सिर के ऊपर
तक उछलता जाता है। जिसका चित्त स्थिर है, अपने काम के प्रति समर्पित है वही
चुनौतियों से उछलता है। अस्थिर, असंतुलित मानसिकता ऐसे मौके पर कायरता की
शिकार बनती है। जैसा शेक्सपीयर ने कहा है Cowards die many times before their
death. यानी कि जो कायर होते हैं वे अपनी मृत्यु के पूर्व ही अनेक बार मर चुके
होते हैं 'कायर तो जीवन मरत दिन में बार-बार, प्राण पखेरू वीर के उड़त एक ही
बार'। बहादुर तो एक ही बार मरता है, इतना ही नहीं, अपना जीवित संकल्प जिद्द,
साहस इनके आधार पर कठिनाई को अवसर में बदलने की हिम्मत भी इन बहादुर
कार्यकर्ताओं में होती है। (converting calamity into opportunity) जैसे कि ये
दो बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
जिसे बाद में William the Conqueror कहा गया वह विलियम इंग्लैंड की भूमि पर
आक्रमण करने के लिए हॉलैंड से सेना लेकर आया। समुद्र से बाहर जमीन पर जैसा ही
पहला पैर उन्होंने रखा, तो पैर फिसल गया। एक हाथ के ऊपर उन्होंने अपने को
संभाला। अब इसे बुरा शगुन मानकर सैनिकों में कानाफूसी होने लगी। विलियम ने
देखा इसके कारण सैनिकों का मनोबल कमजोर होने लगा है। तब उन्होंने आज्ञा दे दी
कि, सामने की पहाड़ की चोटी के पास चलें, कोई भी पीछे न देखे। मैं वहा आप से
बात करना चाहता हूँ। सब लोग आगे चले। जिन जहाजों से व सब आए थे, उनको जला देने
की आज्ञा अपने खास विश्वस्त लोगों को विलियम ने दे दी और स्वयं सैनिकों के साथ
पहाड़ की चोटी के पास पहुँचा। पहली बात उन्होंने बताई कि भगवान ने यहाँ आते ही
हमें ब आशीर्वाद दिया। जैसे ही मैंने इस भूमि पर कदम रखा, मेरी हस्तमुद्रा २०
भूमि पर लग गई। तो हमारी विजय निश्चित है। और अब समुद्र की ओर पीछे देखो। जिन
जहाजों से हम आए हैं वे सारे जलाए जा रहे है। अब वापिस जाने के लिए कोई रास्ता
नहीं है। हमें इसी भूमि पर रहना है। तो हम बहादुरी के साथ लड़ेंगे, विजय
प्राप्त करेंगे अथवा हमारी मृत्यु होगी। लेकिन वापस जाना अब बिल्कुल असंभव है।
सैनिकों ने देखा अब दसरा कोई रास्ता नहीं है, तो पूरी ताकत और बहादुरी के साथ
लड़े। उन्होंने विजय प्राप्त की।
तो हर बात को देखने का, हार जीत को देखने का ढंग होता है सही नेतृत्व उसी का
होता है कि जो बदशगुन को भी शुभशगुन के रूप में प्रस्तुत करके, आपत्ति को भी
अवसर के रूप में सामने रखकर अनुयायियों की हिम्मत बढ़ाता है।
ध्येयपूर्ति की अटल सफलता पर विश्वास
ऐसी मन की स्थिर अवस्था तभी प्राप्त हो सकती है जब कार्यकर्ता के मन में कार्य
के बारे में पूर्ण श्रद्धा होती है। हमारा कार्य ईश्वरीय कार्य है तो उसका
तनाव, उसके भविष्य की चिंता वगैरह का बोझ हम पर आने की क्या जरूरत है? हम यदि
पूर्ण समर्पित भाव से कार्य करते हैं तो कार्य के बारे में सभी चिंताएँ,
आशंकाएँ, तनाव भगवान को सौंपते हुए स्थिर मानसिकता से काम करते रहें यही
आवश्यक है।
इस संदर्भ में मुहम्मद साहब के जीवन का एक प्रसंग बताना उपयुक्त रहेगा। एक बार
मुहम्मद साहब के सभी विरोधी लोगों ने उन्हें जान से मारने की योजना बनाकर उनके
मक्का स्थित घर को घेर लिया। वे पीछे के मार्ग से निकल भागे। उनके साथ एक
सहकारी अबू बकर था। विरोधी लोगों ने उनका पीछा किया। पीछा करने वालों के पास
बहुत अच्छे, तेज ऊँट थे, वैसा मुहम्मद साहब के पास नहीं था। अब शत्रु निकट आ
रहा है। यह देखकर अपने साथी के साथ वे पास की एक गुफा में छिप कर बैठे।
शत्रुओं ने उन्हें ढूँढना शुरू किया। उनकी आने वाली आवाज से यह मालूम होता है
कि उनकी संख्या बहुत थी। तो अबू बकर डर के मारे कहने लगा।, 'उनकी संख्या तो
ज्यादा है और हम और आप तो दो ही हैं।' मुहम्मद साहब ने कहा हम तीन हैं। साथी
को आश्चर्य हुआ, तीसरा कौन है? आसपास में कोई दिखाई नही दे रहा है तो मुहम्मद
साहब ने कहा, 'तीसरा तो स्वयं खुदा है हमारे साथ। यदि वह हमारे मुख से अपना
पैगाम लोगों से कहलाना चाहता होगा तो हमें कोई मार नहीं सकता। अगर इससे
विपरीत, किसी दूसरे से यह काम होने वाला होगा तो हम नहीं बच सकेंगे।' बहुत देर
तक ढूँढने पर भी शत्रु को इन दोनों का पता नहीं लगा और दोनों बच गए। जो ईश्वर
पर भरोसा रखना है, मेरे ही हाथों से ईश्वरी कार्य होने वाला है ऐसी अडिग धारणा
उसके मन में होती है तो ईश्वर भी सहायता करता है।
यह जो आत्मविश्वास है वह केवल व्यक्तिगत अहंभाव के कारण नहीं, बल्कि कार्य की
अपरिहार्य सफलता के बारे में जो विश्वास कार्यकर्ता के मन में होता है। उसी का
परिचायक है। हमारा ध्येय उदात्त है, तो हमारी विजय तो निश्चित है। हमें कौन
परास्त कर सकता है? इस दृष्टि से देखा जाय तो अहंकार और आत्मविश्वास इन दोनों
में जो सीमा रेखा है वह बहुत पतली है। कार्यकर्ता के मन में कुछ मात्रा में
अहंकार होना ही चाहिए। इसी से उसमें कार्य के बारे में कुछ पहल निर्माण हो
सकती है। इस संदर्भ में श्री अरविंद का एक वचन याद आता है- Ego is an asset,
ego is a liability. जब तक मन अपरिपक्व है, अहंकार को प्रेरणा से व्यक्ति काम
करते जाता है। ऐसी अवस्था में अगर अहंकार छूटे तो कर्म भी छूट जाएगा।
निष्क्रियता आएगी। तो इस दृष्टि से अपरिपक्व अवस्था से अहंकार asset होता है।
लेकिन मन की अवस्था अन्यथा परिपक्व होने के बाद भी यदि आदमी के अंदर अहंकार रह
जाएगा। वह खतरनाक है। वह liability बन जाती है। लेकिन कार्यकर्ता के मन अपने
कार्य के प्रति जो प्रतिबद्धता होती है, उससे इस व्यक्तिगत अन को वह
ध्येयनिष्ठ आत्मविश्वास में परिवर्तित करता है और यह परिवर्तन कार्यकर्ता की
विकास प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण अवस्था होता। हम इसे निरहंकारी
आत्मविश्वास का भाव भी कह सकते हैं।
न प्रलोभन
,
न भय
ध्येय के साथ एकात्म हुआ कार्यकर्ता अपनी ध्येय साधना की राह पर चलते समय
कठिनाई आई तो भी अपने मंजिल को न भूलते हुए, इन बातों का शिकार न बनते हुए,
अविचल मानसिकता से अपने पथ पर ही आगे बढ़ता जाता है। अपना मन इधर उधर भटकने
नहीं देता है। हमारी संस्कृति में अपने मार्ग पर अविचल रहने वाले देवताओं का
वर्णन आया है। देवताओं ने जब समुद्रमंथन किया तब इस समुद्रमंथन के बारे में
कहा गया है कि-
रत्नैर्महाहैस्तुतुष न देवा न भेजि रे भीम विषणभीतिम्।
सुधां विना न प्रययुर्विरामं न निश्चितार्थद्विरमन्ति धीराः।।
(भर्तृहरि-नीति शतक ७१)
अमृत निकलना था। परंतु इसके बीच समुद्र ने तरह तरह के रत्न दिए, ताकि ये रत्न
पाने के कारण देवता प्रसन्न होकर अगला प्रयास छोड़ देंगे, किंतु रत्न प्राप्त
होने के पश्चात भी ध्येय को न भूलते हुए उन्होंने मंथन जारी रखा। समुद्र ने
सोचा कि ये प्रलोभन के कारणवश नहीं होते तो भीषण कालकूट जैसा विष उन्होंने
बाहर फेंका, लेकिन उसके कारण भी देव डरे नहीं। उन्होंने मंथन का प्रयास तब तक
जारी रखा जब तक अमृत प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए कहा है कि 'न निश्चितार्थात्
विरमन्ति धीराः।'
ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता न प्रलोभन के कारण, न भय के कारण, अपने ध्येय से विचलित
नहीं होता है। इसी मानसिकता को धर्मधैर्य कहा जाता है। जो कार्यकर्ता सामाजिक,
राष्ट्रीय ध्येयपूर्ति के लिए काम कर रहा है उसकी तो बात ही क्या? अन्य
क्षेत्रों में भी निश्चित ध्येय, ध्येय के साथ तादात्म्य और स्वयं अपने
व्यक्तिमत्त्व का आंतरिक संगठन हो, तो व्यक्ति अपने मार्ग पर डटा रहता है।
कोलंबस का ऐसा ही उदाहरण है। उसके अपने मन में पूरा विश्वास था कि समुद्र में
पश्चिम की ओर बढ़ते बढ़ते जमीन मिल जाएगी। सप्ताह के पश्चात सप्ताह बीत गए,
महीने बीत गए, कहीं जमीन नहीं दिखाई देती थी। अब उसके सहकारियों के मन में
कोलंबस जैसा विश्वास नहीं था। तो उनके मन में निराशा छाने लगी। खाने पीने की
सामग्री भी समाप्त होने लगी। साथ वाले सैनिकों में की भावना भी पैदा हुई। फिर
भी कोलंबस अपने विश्वास पर अडिग रहकर दूसरों की हिम्मत बढ़ाते आगे बढ़ते रहा
और एक दिन अमरीका पहुँच गया।
इंग्लिश कवि रॉबर्ट फ्राउस्ट की कविता का एक खंड पं. जवाहर लाल नेहरू हमेशा
अपने टेबल पर रखते थे। कवि ने लिखा है-
Woods are lovely dark and deep,
But I have promises to keep,
Miles to go before I sleep,
And miles to go before I sleep!
दूसरी ओर महाराष्ट्र के मध्ययुगीन इतिहास में ऐसा ही एक उदाहरण श्री चांगदेव
वटैश्वर का है, जो तपस्या के कारण प्राप्त हुई अपनी सिद्धियों पर ही गर्व करते
रहे, सिद्धियाँ भोगते रहे और उधर ही अटक गए। उनका आध्यात्मिक विकास कुंठित हो
गया।
इतना ही नहीं तो ऐसे भौतिक प्रलोभनों में हम अटक रहे हैं यह जानकर भी उनका
प्रबल आकर्षण होने के कारण उनमें से बाहर आने की मानसिकता भी कुछ व्यक्तियों
में नहीं रहती। पश्चिम में सेंट ऑगस्टिन नाम के बड़े संत का उदाहरण है। वह
कहता है- हे प्रभो! मैं जैसा हूँ वैसा ही मुझे रखो ताकि मैं अधिक से अधिक
उपभोग लूँ। मुझे अच्छा बनाओ लेकिन अभी नहीं। सेंट ऑगस्टीन की यह प्रसिद्ध
प्रार्थना है- Lord, make me good but not yet.
अपने लक्ष्य पर एकाग्रता
और भी एक बात है। जो समर्पित कार्यकर्ता है उसके जीवन में एक ही समय पर
व्यावहारिकता के संदर्भ में अनेकानेक माँगे रहती हैं। कई जिम्मेदारियाँ उसको
निभानी होती हैं। फिर भी उसका अवधान अपने ध्येय पर ही अचल रहता है। स्वामी
रामकृष्ण परमहंस ने साधना के बारे में एक उदाहरण दिया, वह बड़ा मार्मिक है।
राजा के महल में कोई दाई राजा के बच्चे को सोने के झूले में झुलाती रहती है।
यह तो पेट के लिए उसको करना ही पड़ता है। लेकिन उसका सारा चित्त अपनी झोपड़ी
में गंदे कपड़े पर सोये हुए अपने बच्चे की तरफ लगा रहता है। एक मराठी संत ने
कहा है-
दुडीवरी दुडी। पाण्या निघाली गुर्जरी।
चाले मोकळया करी। कक्ष तेथे परी।।
घड़े पर घड़ा ऐसे कई सर पर लेकर गुर्जर ललना पानी लाने के लिए जाती है। जाते
समय सहेलियों के साथ बातें भी चलती हैं, हँसी मजाक भी होता है। लेकिन उसका
ध्यान मात्र सर पर रखे हुए घड़ों की तरफ रहता है ताकि अवधान छूट कर कहीं घड़ा
गिर न जाए।
मराठी कविता में एक पंक्ति आई है-
घार हिंडते आकाशी। लक्ष तिचे पिलापाशी
मतलब चील अपना भक्ष्य ढूँढने के लिए आकाश में उड़ान मारती है, घूमती है लेकिन
उसका ध्यान केवल अपने घोसलें में रखे अपने बच्चे के पास रहता है।
कार्यकर्ता का अवधान भी ऐसा ही एकाग्र रहता है। आसपास में चलने वाली सभी
गतिविधियों का भान तो उसको होता ही है, होना आवश्यक भी है।
आगे चलकर यह आवश्यक है कि आसपास की गतिविधियों का आवश्यक उतना ही अवधान रखकर
कार्यकर्ता अपना पूरा ध्यान अपने अंतिम लक्ष्य पर ध्येय पर केंद्रित करे। जब
गुरु द्रोण कौरव पांडव को धनुर्विद्या की शिक्षा दे रहे थे, तब एक दिन परीक्षा
के समय बाजू के पेड़ पर एक पक्षी की कृत्रिम प्रतिमा बनाकर लक्ष्यभेद के लिए
रखी थी। धनुषवाण सिद्ध करने पर हर शिक्षार्थी से गुरु महाराज पूछते हैं।
तुम्हें क्या दिखाई देता है? सभी का उत्तर आ रहा था कि पेड देख रहे है,
आजूबाजू के सब साथी तथा गुरुवर्य ये सभी लोग दिखाई देते है, पूरा परिसर दिखाई
देता है। फिर जब अर्जुन की बारी आई तब वही प्रश्न गुरु ने पूछने के बाद अर्जुन
का जवाब आया, मैं केवल इस पक्षी की आँख देख रहा हूँ। तो जो लक्ष्य था, केवल
उसी के उपर अर्जुन का ध्यान केंद्रित था। भले ही उनको आजूबाजू के परिसर तथा
अन्य लोगों का ख्याल भी होता होगा।
इसी तरह कार्यकर्ता के सजग होने के बावजूद भी उसका ध्यान तो अपने लक्ष्य पर ही
केंद्रित होना आवश्यक है। मतलब multi dimensional vision होकर भी single point
concentration होना चाहिए।
जैसा कि पहले बताया कि संघकार्य में अपेक्षित कार्यकर्ता का व्यक्तित्व ऐसा हो
कि वह अपनी निरहंकारी ध्येयनिष्ठा से, ध्येय के प्रति निर्माण हुई एकात्मकता
से, कार्यकर्ता एक साधन मात्र है इस भाव से पैदा हुई समर्पितता से, आजूबाजू के
क्षेत्र को संघ का परिचय करा दे और अपने अपने स्तर पर अन्यान्य स्वयंसेवक तथा
समाज, इनका नेतृत्व भी करे। इस दृष्टि से कार्यकर्ता में सर्वसाधारण गुणवत्ता
कैसी हो, नेतृत्व के कौन से प्राथमिक पहलू उनके द्वारा प्रकट हों, ऐसी बहुत
सारी बातें अब तक आए हुए सभी संदर्भों से स्पष्ट होती हैं।
अब आगे चलकर स्वयंसेवकों को संघ की रचना में कुछ खास जिम्मेदारियां संभालनी
पड़ती हैं तो इस रचना में नेतृत्व की कुछ श्रेणियां बनना स्वाभाविक होता है।
नेतृत्व की हमारी अवधारणा
लेकिन संघ ने ऐसे नेतृत्व की अवधारणा जो अपने कार्य में अपनाई है वह अपनी
परंपरा के आधार पर ही विकसित की है। हमारी संस्कृति की यह मान्यता है कि जीवन
में आप जिस पद (position) पर होते हैं, उस पर आपका बड़प्पन निर्भर नहीं है।
बड़प्पन तो तपस्या से प्राप्त होता है। सोना जब आग में तपता है तभी अच्छा,
शुद्ध होकर बाहर निकलता है। कार्यकर्ता भी जब कार्य की रगड़ में से निकलता है
तब उसके अहंकार की मिलावट जल जाती है और वह नेतृत्व करने लायक हो जाता है।
लेकिन सामाजिक जीवन में निहित स्वार्थ से व्यवहार करने वाले ऐसा सोचते हैं कि
बड़प्पन पद पर निर्भर है। नेपोलियन जब अपना आदर्शवाद खो बैठा, तब पद और
प्रतिष्ठा के पीछे पड़ा और फलस्वरूप उसकी विचार पद्धति में भी परिवर्तन आया।
उस समय उसने जो कहा वह बहुत प्रसिद्ध है। अंग्रेजी वाक्य ऐसा है- Men are like
figures. They are valued according to the position they occupy. याने आदमी
अंकों के समान होते हैं। अंक कौन से स्थान पर है उस पर उसकी कीमत निर्भर रहती
है। उसने उदाहरण से यह बताया। संख्या 1111 का उदाहरण। अब इसमें अंक 1 ही चार
बार आया है लेकिन हरेक का मूल्य अलग अलग और अपने अपने स्थान पर निर्भर होता
है। आखिर में जो 1 है उसका मूल्य 1 ही है। अंतिम से पहले का मूल्य दस है। उसके
बाद वाले का मूल्य है एक सौ। और पहला जो अंक है उसका रहा एक हजार। अब अंक 1 के
अंतर्गत निजी कीमत (intrinsic value) तो 1 ही है लेकिन जिस स्थान पर यह अंक है
उसके अनुसार उसकी कीमत बदल जाती है। यदि व्यक्ति ऊँचे पद पर जाएगा तो उसका
बड़प्पन बढ़ेगा, ऐसा नेपोलियन का कहना था। आज के व्यक्तिवादी, अवसरवादी
वायुमंडल में व्यक्ति का बड़प्पन ऐसा ही देखा जाता है।
हमारी संस्कृति की मान्यता इसके बिल्कुल विरुद्ध है हमारे यहाँ कहा है-
प्रासाद शिखरस्थोऽपि काको न गरुडायते।
गरुड गरुड है और कौआ कौआ है। अगर गरुड़ जमीन पर बैठा है और कौआ राजप्रासाद के
शिखर पर बैठा है तो भी कौआ तो को रहेगा, उच्च स्थान के कारण वह गरुड़ नहीं बन
सकता है। केवल पद या स्थान पर, बड़प्पन नहीं। बड़प्पन यह कुछ आंतरिक या यथार्थ
होता है ऐसी हमारे यहाँ की धारणा है।
यही अवधारणा ध्यान में लेते हुए संघकार्य में पद देते समय ज्यादा संवैधानिक
आडंबर नहीं मनाया जाता है। पद तो कोई प्रतिष्ठा का निदर्शक नहीं, बल्कि
जिम्मेदारी का परिचायक होता है। फिर भी संघ में यह परिपाटी जारी है कि जिसमें
पद की लालसा दिखाई देती है। ऐसे कार्यकर्ता को पद नहीं दिया जाए। चाहे ऐसे
व्यक्ति की योग्यता कितनी भी क्यों न हो। इसी प्रकार इसकी भी चिंता किसी को
करनी नहीं है कि संगठन में मेरा स्थान कौन सा रहेगा? यह स्थान निश्चित करने का
काम बाकी लोगों का है, मेरा नहीं। कार्य की दृष्टि से मेरी स्वयं की
जिम्मेदारी और पद की चिंता अन्य कार्यकर्ताओं ने वस्तुनिष्ठता के आधार पर करना
आवश्यक है। आगे चलकर हम यह भी देखते हैं कि यहाँ उल्टा मामला तो ऐसा ही है कि
जिसको पद की बिल्कुल इच्छा नहीं उसी को पद पर नियुक्त किया जाए। मुहम्मद
पैगंबर के जीवन का एक प्रसंग है। दूर किसी मूल्क में अमीर की नियुक्ति करने का
प्रसंग था। कोई सहमति न होने के कारण बात मुहम्मद साहब की सामने आई। उन्होंने
कहा, अब हर जगह तो मैं नहीं आ सकता, तो एक संकेत ध्यान में रखो। जिसका अमीर
बनने की बिल्कुल इच्छा नहीं, उसी को अमीर बनाया जाए।
पं. दीनदयाल जी के बारे में भी ऐसी ही एक बात बताई जाती है। जब जनसंघ की
जिम्मेदारी उन्हें संभालनी पड़ी तो कई दिनों के बाद उन्होंने पू. गुरुजी से
कहा कि 'मुझे तो राजनीति में बिलकुल रुचि नहीं, है, क्यों मुझे इस झंझट में
डाला है? मुझे तो संघ का ही काम करना तो श्रीगुरुजी ने कहा, 'तुम्हारे मन में
इस विषय में बिलकुल रुचि नहीं है, इसलिए तो तुमको इस क्षेत्र में भेजा है। जब
मझे पता लगेगा कि तुमको को इस क्षेत्र के बारे में रुचि उत्पन्न हुई है, तुरंत
ही तुमको इस क्षेत्र से निकाल दूंगा।'
तो इस बात से पू. गुरुजी ने नेतृत्व के बारे में जो संकेत दिया है वह हमारे
लिए महत्त्वपूर्ण है।
नैतिकता-नेतृत्व का सही आधार
इस दृष्टि से देखा जाए तो संघ की नेतृत्व की अवधारणा प्रशासनिक या संवैधानिक
नहीं बल्कि नैतिक है। ऐसा नैतिक और पारिवारिक नेतृत्व तभी खड़ा होता है जब
नेतृत्व करने वाला कार्यकर्ता स्वयं मूल्यनिष्ठ रहता है, और किसी भी कीमत पर
अपने मूल्यनिष्ठ व्यवहार सूत्रों से जुटा रहता है।
पं.दीनदयाल उपाध्याय का उदाहरण है।
कई अनुयायियों के दबाव से, समय की माँग समझकर, लेकिन बड़ी अनिच्छा से पंडित जी
जौनपुर चुनाव क्षेत्र के चुनाव में उतरे। अब उसी संदर्भ में प्रचार की
व्यूहरचना करने वालों की बैठक में वे आ पहुँचे तो बातें चल रही थीं।
कार्यकर्ता ने बताया, पूरा हिसाब विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर आ पहुँचे
हैं कि इस चुनाव क्षेत्र में आप चुन कर आएँगे। दूसरा तो कोई पर्याय नहीं।'
पंडित जी ने कहा, 'यह बात मैं कभी भी न होने दूंगा। यह न करने के कारण होने
वाली हार को भी मैं स्वीकार करूंगा। लेकिन एक बार हमने जाति के आधार पर मत
माँगना शुरू कर दिया तो जातिवाद हमेशा के लिए हमारे सरपर सवार होगा। यह अपने
सिदंधांत से विपरीत बात मैं नहीं करूंगा।
कहने की जरूरत नहीं कि पंडित जी चुनाव हार गए।
डॉ बाबासाहेब आंबेडकरजी का भी ऐसा ही एक उदाहरण याद आता है।
1954 के मई महीने में भंडारा में उपचुनाव था। उस आरक्षित चुनावक्षेत्र में
सम्मिश्र चुनाव थे। एक मत सर्वसाधारण (general) उम्मीदवार को और दूसरा आरक्षित
(reserved) उम्मीदवार को देना था। अब एक तरफ दोनों स्थानों पर कांग्रेस के दो
उम्मीदवार खडे थे। दूसरी तरफ आरक्षित स्थान पर श्रद्धेय डॉ. आंबेडकर और दूसरे
स्थान पर और एक अ.भा. दल के उम्मीदवार श्री अशोक मेहता खड़े थे। श्री अशोक
मेहता के पक्ष का पूर्वानुमान अच्छा नहीं था। इसलिए शे. का. फेडरेशन ने उससे
चुनावी समझौता नहीं किया था। अब काँग्रेसी उम्मीदवार चुनकर न आए इस दृष्टि से
शे. को फेडरेशन के मतदाता अपना दूसरे क्रम का मत अशोक मेहता को देते तो वे
चुनकर आ सकते थे। लेकिन बाबासाहब तो चुनकर नहीं आते। क्योंकि अशोक मेहता के
पार्टी का दूसरा मत तो बाबासाहब को मिलने वाला नहीं था। तो डॉ. आंबेडकरजी के
अनुयायियों ने सुझाव दिया कि हम दूसरे क्रमांक का मत किसी को भी नहीं देंगे।
(चुनावी भाषा में कहना हो तो मत जला देंगे') जब डॉ. अंबेडकरजी को यह बात बताई
गई तो उन्होंने निश्चयपूर्वक कहा कि "मैंने संविधान बनाया है तो मेरे अनुयायी
अगर ऐसा गैरसंवैधानिक कृत्य करेंगे तो मैं वह सह नहीं सकता। इसके लिए मेरी
बिलकुल अनुमति नहीं है। मैं चुनाव हार जाऊँ तो भी चलेगा लेकिन मैं यह नहीं
होने दूंगा।" अब नतीजा वही निकला। डॉ. आंबेडकर चुनाव हार गए।
इन दोनों उदाहरणों से यह ध्यान में आता है कि आदर्शवादी, सही नेतृत्व अपने
मूल्यों पर अटल रहकर ही अपना सार्वजनिक व्यवहार करता है, चाहे कुछ भी कीमत
चुकानी पड़े। हमारे कार्य में हमारा तात्कालिक उद्दिष्ट, तात्कालिक कार्यक्रम
योजना आदि सभी बातों पर चर्चा, समझाता हो सकता है लेकिन हमारी विचारधारा,
अंतिम लक्ष्य और उसी के अनुसार हमारी मूल्य श्रेणी इन पर कोई दो मत या चर्चा
नहीं हो सकती, समझौते का तो सवाल ही नहीं।
अब आसपास के अवसरवादी वायुमंडल में ऐसे मूल्यनिष्ठ व्यक्ति को एक तरह से
अकेलापन सहकर चलना पड़ता है। पू. डॉक्टरजी के जमाने में संघकार्य का प्रारंभ
करने से पहले स्वयं को हिंदू कहलाने में शर्म रखने वाले बड़े-बड़े लोग जब
पूछते थे कि, "ऐसा कौन सा पागल आदमी होगा, जो कहता है कि यह हिंदू राष्ट्र
है?" तो पू. डॉक्टरजी अकेले कह रहे थे, "मैं, केशव बलिराम हेडगेवार कहता हूँ
कि यह हिंदू राष्ट्र है?" तो यह ध्येयनिष्ठ अकेलापन तो ऐसे नेता को सहना ही
पड़ता है। इस सदी के बड़े दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति की एक कविता है। पहाड़ी की
चोटी पर स्थित एक पेड़ का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं
Stand alone
Like a solitary tree on the mountain peak
For solitude is the price of thy greatness
Stand alone.
अर्थात तुम अकेले खडे रहो। पर्वत की चोटी पर पेड़ की तरह अकेले खडे रहो। जो
चोटी पर अकेला ही खड़ा रह सकता है, वही कोई बड़ा काम कर सकता है। अकेलापन
बड़प्पन की कीमत है। यह कीमत देना यदि असंभव है तो यह आशा मत करो कि हम
नेतृत्व कर सकें। यदि कार्यकर्ता के रूप में रहना है, नेतृत्व करना है, तो
उसकी कुछ कीमत तो चुकानी पड़ती ही है।
आत्म परीक्षण के आइने में
अब कार्यकर्ता जब स्वयं के बारे में नित्य सावधान, सजग रहता है, तभी उसका
नेतृत्व सिद्ध होता है। तीसरे खलीफा उमर के बारे में एक कहानी प्रसिद्ध है।
सामान्य व्यक्ति भी अपनी व्यक्तिगत समस्या सुलझाने के लिए उनके दरबार में
खुलेआम आ सकता था। एक दिन एक औरत अपने बच्चे को लेकर आई और बोली, 'मेरा बेटा
मरीज है और हकीम ने कहा, मीठा खाना बंद करना होगा लेकिन वह हमारी सुनता नहीं।
अब इसे कैसे समझाऊँ?' तो खलीफा ने उस बच्चे से कहा, 'बेटा, मीठा खाना बंद करो
नहीं तो तुम्हारी तबियत बिगड़ जाएगी।' तो बच्चे ने तुरंत ही माना। उस माँ को
आश्चर्य हुआ। बोलने लगी, 'हम इतने दिन से उसको समझा रहे थे पर वह मान नहीं रहा
था, और आपने एक बार कहा और उसने मान लिया, यह कैसा हुआ?' तो खलीफा ने बताया कि
'इसलिए ही मैंने तुमको पंद्रह दिन के बाद बुलाया और इस काल में मैंने स्वयं
मीठा खाना छोड़ दिया। अगर मैं पहले ही उसको मना करना तो वह नहीं मानता।' जो
बात हम स्वयं करते नहीं, उसके बारे में दूसरों को बताना और वे मानेंगे, ऐसी
अपेक्षा करना गलत है। अगर दूसरा मान जाए यह अपेक्षा मन में है तो उस बात पर
स्वयं अपने जीवन में अमल करना चाहिए।
ऐसे ही मूल्यनिष्ठ आचरण का प्रभाव लोगों पर तथा कार्यकर्ताओं पर पड़ता है और
उनके सामने एक आदर्श परिपाटी प्रस्तुत होती है।
यह खुद के बारे में सावधान रहना बड़ी कठिन बात है। इसके लिए कार्यकर्ता ने
निरंतर आत्मपरीक्षण करने की आवश्यकता है। खुद आत्मपरीक्षण करते रहना और अपने
आप को समझाते रहना अनिवार्य है। यह आत्मपरीक्षण कितना कठोर होना चाहिए इसके
बारे में रूसो की भूमिका हमारे लिए मार्गदर्शक हो सकती है। अपने इस आत्मचरित्र
के प्रारंभ में उन्होंने देवता से अनुरोध किया है-
I have shown myself as contemptible and vile when I was so; good, generous,
sublime when I was so! I have unveiled my interior, such as Thou Thyself
has seen it. Eternal Father! Collect about me the innumerable swarm of my
fellows, let them near my confessions; let them groan my unworthiness; let
them blush at my meanness! Let each of them discover his heart in at the
foot of Thy throne with some sincerity and let anyone them tell Thee, if he
dares "I was a better man".
सारांश में बताना है तो वह कहता है कि मैं जैसा हूँ वैसा ही मैंने इस
आत्मनिवेदन में स्वयं को प्रस्तुत किया है। जब तिरस्करणीय और अधम था तब वैसा;
जब अच्छा, उदार और उदात्त था तब वैसा। मेरा निजी अंतरंग, तुम जैसे देख सकते हो
वैसा तुम्हारे सामने प्रस्तुत किया है। भगवन्! मेरे बारे में मेरे साथियों से
जितनी अवांछनीय बातें बताई जाएँ उतनी ध्यान में लो लेकिन उनमें से हर एक को
तुम्हारे उच्चासन के पैरों के पास बैठकर उतनी ही प्रामाणिकता से अपने अंतरंग
की ओर देखने दो। तो उसको मेरे निवेदन में अपना ही स्वरूप दिखाई देगा और बाद
में कहने दो उसे कि मैं इससे (रूसो) अच्छा था। अगर यह कहने की उसमें हिम्मत हो
तो।
जीवनी लिखते समय भी कितनी कठोरता से सत्य का आश्रय करना आवश्यक है इस विषय में
टॉलस्टॉय ने जो विवरण किया है वह भी आत्मनिरीक्षण के संदर्भ में उतना ही
महत्त्वपूर्ण है- वे लिखते हैं, 'बीमार अवस्था में सोचते समय यह ध्यान में आया
कि सामान्यतः जीवनी जिस प्रकार लिखी जाती है, उसी प्रकार मेरी क्षुद्रता तथा
प्रमादों पर पर्दा डालकर यदि कोई मेरी जीवनी लिखेगा तो वह पूर्णरूपेण असत्य
होगा। जो कोई मेरी जीवनी लिखना चाहता है उसको संपूर्ण सत्य लिखना चाहिए।'
इन दो उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि श्रेष्ठ पुरुष न केवल अपने दोष सजगता से
जानने की कोशिश करते हैं; अपने दोष लोगों में भी दिखाई देने में भी उनके मन
में कोई आपत्ति नहीं रहती। क्योंकि वे केवल अपनी छवि निर्माण करने के पीछे
नहीं रहते। इंग्लैंड का प्रमुख लॉर्ड प्रोटेक्टर होने के पश्चात् ऑलिव्हर
कॉम्वेल के मन में एक बार अपना एक अच्छा चित्र बनवाने की इच्छा निर्माण हुई।
उन दिनों में छायाचित्र की तकनीकी सुविधा नहीं थी। तो एक कुशल चित्रकार पर यह
काम सौंपा गया। चित्रकार तो चित्र अच्छी तरह बना सकता था लेकिन वह प्राण संकट
में पड गया क्योंकि कॉम्वेल के चेहरे पर मस्सा था। उस मस्से के कारण वह बहुत
ही बदसूरत दिखाई देता था। तो चित्रकार के मन में चिंता उठी कि अगर मैं सही
चित्र बनाऊँगा तो चेहरा बदसूरत दीखेगा और इंग्लैंड के अधिनायक का गुस्सा सहन
करना पडेगा फाँसी भी हो जाएगी। इसलिए चित्रकार ने चित्र बिना मस्से का बनाया
और कॉम्वेल के सामने पेश किया। उस समय का कॉम्वेल का वाक्य- Wart, Wart, and
all that. बड़ा प्रसिद्ध है। उन्होंने कहा, नहीं नहीं, इस मस्से के साथ मेरा
चित्र होना चाहिए। उसमें कोई सुधार मत करो।
जो अपने आंतरिक बल पर निर्भर रहता है वह कार्यकर्ता भी छवि के पीछे न लगते हुए
अपनी असली पहचान समाज को हो इस दृष्टि से बर्ताव करता है।
जो कार्यकर्ता अपने दोष नहीं पहचान पाता वह अच्छा कार्यकर्ता नहीं बन सकता।
दूसरों के दोष देखना सरल है किंतु अपने दोषों की ओर देखना कठिन। इस दृष्टि से
कार्यकर्ता को आत्मचिंतन करने की आवश्यकता रहती है। जीजस क्राइस्ट के संबंध
में एक कथा आती है। उनके गाँव नझरत में एक महिला थी। उसका चरित्र अच्छा नहीं
था। वह गर्भवती हो गई तो उसे पत्थरों से मारकर उसकी जान लेने की सजा दी गई।
पत्थर मारना शुरू ही होने वाला था, उतने में ही जीजस ने लोगों से कहा कि पहला
पत्थर वही मारे जिसने अपने जीवन में कभी भी कोई दुष्कर्म न किया हो। Let he
amongst you, who is without a sin, throw the first stone! ऐसा कहने से लोग
आत्मचिंतन के लिए बाध्य हुए आर पहला पत्थर मारने के लिए कोई भी आगे नहीं बढ़ा।
अब जो कार्यकर्ता स्वयं के बारे में सजग, कठोर रहता है उसमें और एक प्रवृत्ति
दिखाई देती है जिससे बचना आवश्यक है। ऐसे कुछ कार्यकर्ताओं में अपनी नैतिकता
की अहंता मन में रखकर दूसरों के प्रति तुच्छता का भाव व्यक्त करने की आदत होती
है। यह मानो अपनी नैतिकता का नशा ही होता है। तो यह ध्यान में रखना आवश्यक
दूसरा कोई अपवित्र है, ऐसा मानकर विशेषकर कामिनी कचन के विषय में अवांछनीय
बातें फैलाने में तथा सुनने में रुचि लेने वाले लोगों की संख्या समाज में
पर्याप्त मात्रा में हुआ करती है। बात सच है कि झूठ इसकी छानबीन न करते हुए
लोग बेलगाम बोलते (loose talk) करते रहते हैं। अपनी नैतिकता के अहंकार के कारण
ऐसे लोगों में शामिल होने का मोह कार्यकर्ता को हो सकता है उससे स्वयं को
बचाना आवश्यक है।
हमारा अस्तित्व अपरिहार्य नहीं
,
निमित्त मात्र
ऐसे कार्यकर्ता के मन में अपने कार्य की सिद्धि के लिए लगन तो रहती है। गहरी
मग्नता भी रहती है। लेकिन वह व्यक्तिगत लगाव के रूप में नहीं। अगर अपने हाथों
से कार्यसिद्धि होने वाली है यह निश्चित रहा तो ऐसा कार्यकर्ता कार्य से जुटा
तो रहता ही है। लेकिन कार्यसिद्धि हो जाने पर किसी भी अहंता का या ममत्व का
भाव मन में न रखते हुए उस कार्य में आगे बढ़ता है, उसी के उलझन में नहीं रहता।
एक दृष्टि से कार्यमग्नता में भी निवृत्ति जैसा भाव उसके मन में रहता है। यह
जो धारणा दिखाई देती है। इसको अंग्रेजी में unattached involvement कहते हैं।
ऐसी नेतृत्व की अवधारणा में व्यक्तिगत कर्तृत्व के अहंकार का अंशमात्र भी भाव
नहीं दिखाई देता है। स्वयं के नेतृत्व के बारे में जो विश्वास उनके शब्दों
में, बर्ताव में महसूस होता है कि वह व्यक्तिगत स्तर का नहीं होता है बल्कि
अपने ध्येयसंकल्प की पूर्ति का हम मात्र एक साधन हैं। इस दृष्टि से होता है।
गॉडन नाम का इंजीनियर और एडमिनिस्ट्रेटर जो विगत सदी में अंग्रेजों ने जब
सूडान पर कब्जा किया तब अंग्रेज सेना का एक अधिकारी था, अपने नेतृत्व के बारे
में कहता है-
I do nothing of this
I am a chistle that cuts the wood
The Carpenter directs it.
If the edge gets blunted
It is for Him to sharpen it.
No one is indispensable to Him.
He can do His work through a straw as well.
अपने कर्तृत्व के बारे मे इतना निर्ममत्व यही सही नेतृत्व का परिचय है।
इसी दृष्टि से पू. गुरुजी ने किसी भी कार्यकर्ता का मरणोत्तर स्मारक बनाने के
संदर्भ में जो कहा है वह ध्यान में लेना उचित होगा। अपना कार्य व्यक्तिनिष्ठ
नहीं बल्कि मूल्यनिष्ठ तत्त्वनिष्ठ है। तो किसी कार्यकर्ताओं की मृत्यु भी
हमारे कार्य में न भरने वाली खाई बनकर नहीं रह सकती। हमें ध्यान में लेना है
कि ईश्वरीय कार्य में किसी भी व्यक्ति का स्थान तथा महत्त्व अटल, अनिवार्य
नहीं हो सकता। ईश्वर तो अपना कार्य तृण के छोटे से तिनके से भी करा लेंगे।
इसलिए कार्यकर्ता ने अपने नेतृत्व के बारे में बड़ी विनम्रता रखनी आवश्यक होती
है। हाँ! अपनी कार्यसिद्धि के बारे में जरूर विश्वास रहना चाहिए। लेकिन अपने
कार्य की अंतिम विजय के बारे में विश्वास और निजी कर्तृत्व के बारे में
व्यक्तिगत आत्मविश्वास इन दोनों में सीमा रेखा बहुत ही पतली होती है, यह ख्याल
रखना उपयुक्त होता है। इस दृष्टि से अगर इस ईश्वरीय कार्य का माध्यम इस नाते
हम कामयाब नहीं होने वाले होंगे तो परमेश्वर अपना माध्यम बदलेंगे और कार्य तो
यशस्वी होगा ही यह भाव मन में होना चाहिए। यदि एक बाँसुरी टूट गई तो वे वह
बाँसुरी बदल देंगे। लेकिन उनके संगीत की धुन तो अखंड गूंजती रहेगी ही। If the
flute cracks, he will change his flute. But the music will flow un
intermittently! के साथ कार्यकर्ता जीवन के अंतिम क्षण तक ध्येयमग्नता से काम
करता रहता है।
इतना ही नहीं तो ऐसे कार्यकर्ता में अपने स्वयं के बारे में आत्मलोप की भावना
की इतनी परिसीमा रहती है कि अपनी मृत्यु होने के बाद अपना नामोनिशाँ तक कहीं न
रहे ऐसा भाव उनके मन में रहता है। पू. गुरुजी इस संदर्भ में अॅलेकजेंडर पोप की
Ode to Solitude इस कविता की कुछ पंक्तियाँ हमेशा उद्धृत करते थे।
'Thus let me live unseen, unknown,
Thus unlamented let me die
Steal from the world and not a stone
Tell where I lie!
लेकिन इसमें सावधानी
कार्य करते समय मृत्यु का स्वागत करना, 'कार्यमग्नता जीवन होवे, मृत्यु ही
विश्रांति', यह ध्येयनिष्ठा कार्यकर्ता की स्वाभाविक अवस्था हो जाती है। किंतु
नियत कार्य की सफलता के लिए to die in harness का व्यावसायिक अर्थ भी समझ लेना
आवश्यक है। वरना कुछ गडबड़ हो सकती है। अब कार्य करते समय मृत्यु को आलिंगन,
या जीवन के अंतिम क्षण तक कार्य, दोनों को हम वीरमरण कहते हैं किंतु किसी भी
कार्य में सबसे अधिक, सामरिक (strategic) महत्त्व की प्रक्रिया होती है। वह है
निर्णय लेने की। इस प्रक्रिया के लिए सभी मानसिक क्षमताएँ कार्यतत्पर होना
आवश्यक होता है। ऐसी मानसिक क्षमताएँ क्षीण होने के कारण निर्णय प्रक्रिया पर
विपरीत असर होता है। तो अंतिम क्षण तक कार्य में रहना और अंतिम क्षण तक निर्णय
प्रक्रिया में सहभागी होना इन दोनों में कुछ विवेक होना चाहिए। पुराने
कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन, old brains on young shoulders इस नाते जरूर होना
चाहिए लेकिन केवल पुराने कार्यकर्ता ही निर्णय प्रक्रिया में नहीं रहेंगे। ऐसे
कार्यकर्ता आखिरी दम तक निर्णय भी लेते रहे तो कार्यहानि हो सकती है।
दूसरे महायुद्ध के पहले, प्रेसिडेंट रूजवेल्ट का स्वास्थ्य कुछ शारीरिक
न्यूनता के बावजूद अच्छा था लेकिन महायुद्ध के दौरान उनका स्वास्थ्य गिरता
गया। युद्धोत्तर वार्ता के लिए कॅसाब्लांका, मॉस्को, तेहरान, माल्टा और
पॉट्सडॅम इन परिषदों में उपस्थित प्रत्यक्षदर्शी सेक्रेटरी ने कहा है कि
महायुद्ध में प्रवेश करते समय प्रेसिडेंट रूजवेल्ट का स्वास्थ्य जितना अच्छा
था उतना ही यदि युद्धोत्तर वार्ता के समय रहा होता तो उनके द्वारा स्टालिन को
पूर्वी यूरोप का इतना बड़ा प्रभाव क्षेत्र देने की गलती न होती। तो रूजवेल्ट
की शारीरिक और मानसिक दुर्बलता का यह परिणाम था।
सन 1879 के फ्रको-प्रशियन युद्ध के समय फ्रांस के राजा के शारीरिक दौर्बल्य के
कारण रानी के हाथ में पूरी सत्ता गई। परिणामस्वरूप प्रशियन सेना पेरिस पर
कब्जा करके राजा को गिरफ्तार कर सकी। यह इतिहास है। अगर राजा निर्णय लेने की
क्षमता रखता तो यह नहीं हो सकता। वैसी ही स्थिति खोमेनी पूर्व ईरान के रजाशाह
पहलवी के शासन की थी। निर्णय लेने की, कारोबार पर नजर रखने की क्षमता,
अस्वास्थ्य के कारण शाह खो बैठा और रानी साहिबा की मनमानी के कारण शाह को ईरान
से भागना पड़ा।
उसी तरह कम्युनिस्ट चीन के निर्माता माओ झेडाँग का भी उनके जीवन के अंतिम चरण
में, मानसिक अक्षमता और सिनेस्टार युवा पत्नी पर पूरा भरोसा इन कारणों से ही
पतन हुआ यह सर्वविदित है।
तो जीवन के अंतिम क्षण तक कार्यकर्ता कार्य करते रहे यह तो अपेक्षा है ही।
लेकिन जैसे कि पहले बताया कि कार्य में रहना और निर्णय प्रक्रिया में रहना,
इनमें विवेक करना आवश्यक है। शारीरिक दुर्बलता का अगर मानसिक क्षमताओं पर
अनिष्ट असर दिखाई देता है तो कार्य में रहने के बावजूद भी निर्णय की
जिम्मेदारी से कार्यकर्ता को मुक्त होना आवश्यक है।
अब जीवन भर एक धुन में कार्य करते समय दौडधूप करके कार्य की हर एक गतिविधि में
कार्यकर्ता प्रत्यक्ष रूप में सक्रिय रहता है। उसके बाद जीवन के अंतिम चरण में
इसी कार्य की निर्णय प्रक्रिया से स्वयं को दूर रखना, उसमें से निवृत्त होना
इतना आसान नहीं। सामान्य व्यक्ति के बारे में हम देखते हैं कि बुढ़ापा होकर भी
परिवार के हर बात में निर्णय करने की आग्रही मानसिकता जीवन के अंतिम चरण तक
नहीं मिटती। कार्यकर्ता के बारे में यह तभी हो सकता है जब अपने कार्य के
संदर्भ में अपने निजी कर्तृत्व के बारे में, व्यक्तिगत रूप में उसका लगाव नहीं
रहता और मन में अपने कार्य का मात्र एक साधन' यह विनम्र भाव रहता है। यही
विनम्रता उसके बड़प्पन की परिचायक होती है।
ध्येयवाद में अहंभाव की मिलावट
इस निरहंकारी ध्येयनिष्ठा में भी सजगता बरतनी पड़ती है। नहीं तो ध्येयवाद में
भी अहंभाव की मिलावट आ सकती है। हमारे एक हिंदुत्ववादी मित्र थे, पूरे
ध्येयवादी। लाल किले पर भगवा झंडा फहराने का नारा देते थे। जैसे-जैसे संगठन
में उनका स्थान ऊँचा होता गया, वैसे-वैसे उन्हें लगने लगा कि लाल किले पर भगवा
झंडा मेरे हाथों ही फहराया जाना चाहिए। फिर मन में आने लगा कि इस घटना का
चित्रण भी होना चाहिए, वगैरह, वगैरह। याने ध्येयवाद वही, लाल किले पर भगवा
झंडा फहराना, लेकिन उसमें 'मैं' -अहंभाव घुस गया।
अब ऐसी मिलावट बहुत बार अपने को पता न लगते हुए भी आ सकती है। 1952 में जब
मेरे जिम्मे राजनीतिक क्षेत्र का काम था, तो द्वारिका प्रसाद मिश्र तो
कांग्रेस के बड़े नेता थे, उनके पास जाने का बहुत बार अवसर मिला। अब उस समय जो
बातें होती थीं उनका निवेदन संघ के सरकार्यवाह मा. भैयाजी दाणी से हम करते थे।
मैंने एक दिन मा. भैयाजी से कहा कि 'राजनीति में होने के कारण तिकड़मबाजी करनी
पड़ती है किंतु प्रत्यक्ष सहवास से मुझे अनुभव हो रहा है कि द्वारिका प्रसाद
मिश्र शत प्रतिशत हिंदू हैं। मा. भैयाजी ने स्मितहास्य करते हुए कहा कि 'तुम
इतने वर्षों से प्रचारक हो तो तुम्हारा मनोवैज्ञानिक निष्कर्ष ठीक होगा ही।'
मैंने कहा, 'यदि ऐसा है तो आपके चेहरे पर मेरी बातें सुनते समय mischievous
smile था, वह क्यों? भैया जी बोले, 'तुम्हारा यह कहना भी ठीक है।' फिर थोड़ा
रुककर बोले कि 'तुम कह सकते हो वैसे मिश्र जी शत प्रतिशत हिंदू तो हैं किंतु
उससे ऊपर और उससे ज्यादा वे और भी कुछ हैं।' मैंने उत्सुकता से पूछा, 'वे क्या
हैं?' भैया जी ने कहा, 'वे द्वारिका प्रसाद मिश्र हैं।'
ध्येयवादी समर्पण का भी अहंकार न हो
ध्येयवाद में मिलावट दूसरी तरफ से भी आ सकती है। जब हम अपना निजी जीवन इस देश
कार्य के लिए समर्पित करते हैं तब उस ध्येयवादी समर्पण का भी अहंकार पैदा होना
संभव है। मैं स्वयं इस भाव की बाधा का अनुभव ले चुका हूँ। जैसे कि पहले ही
मैंने बताया है कि पुणे स्थित पू. गुलवणी महाराज से हुई बातों में मुझे लगा कि
मैं भी कुछ हूँ। मैंने देश कार्य के लिए पूरा जीवन समर्पित किया है। ऐसे
ध्येयवाद के अहंकार का अनुभव कार्यकर्ता के विकास में बाधा उत्पन्न कर सकता
है।
मुझे याद है, मैंने जब प्रचारक इस नाते काम करना शुरू किया तो ज्यादा सूझबूझ
तो नहीं थी। ऐसे शौक के लिए सोचा था कि दूसरे प्रदेश में जाएँगे, शाखा प्रारंभ
करेंगे, देखेंगे, दो चार साल काम करेंगे, फिर घर चले जाएँगे। केरल में शाखाएँ
प्रारंभ हुई। अब संघ का पूरा व्यवहार तो मालूम नहीं था। नागपुर में देखा था कि
शाखा पर देरी पर आने से या किसी अन्य कारण से अधिकारी को प्रणाम करते हैं।
संघचालक या कार्यवाह या मुख्य शिक्षक हों तो उनको प्रणाम करते हैं। केरल में
तो हमने शाखा शुरू की थी तो मेरे मन में आया कि काम हमने खड़ा किया है तो
प्रणाम के अधिकारी हम हैं। बड़ा अहंकार मन में था। बाद में संघ शिक्षा वर्ग के
समय नागपुर आया तब इस संदर्भ में पूछा तो पता चला कि प्रचारक प्रणाम का
अधिकारी हो नहीं सकता। हमने कहा, यह तो मूसीबत है। घर बार छोड़कर आया। सारा
काम खड़ा किया। और मैंने जिसको संघ समझाया, जिसको कार्यकर्ता बनाया, उसको ही
मैं प्रणाम करूँ। मेरे अहंकार को बड़ा धक्का लगा।
उसके बाद जब जबलपुर के एक शिविर में निवेदन के समय पू. गुरुजी ने बताया कि पू.
डॉक्टरजी ने तीन प्रतिशत शहर विभाग के लिए और एक प्रतिशत ग्रामीण विभाग के लिए
स्वयंसेवकों की जो संख्या प्रमाणित की है वह नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ताओं
की है। तब हम नए प्रचारकों को ऐसा लगा कि चलो हमें नेता बनना है तो हमारा
नेतृत्व कैसे प्रस्थापित करेंगे इसलिए सुलभ और सस्ते मार्ग कौन से हैं, चालाकी
की ट्रिक्स कौन सी है यह अध्ययन शुरू किया।
बाद में नागपुर में संघ शिक्षावर्ग में केरल में से किसी महानुभाव को वर्ग का
काम देखने के लिए बुलाया था। उनका सामान उठाना था। तो साथवाला प्रचारक, जो
मेरे ही जैसा नया प्रचारक था, उसने किसी बहाने वह काम टाल दिया। बाद में जब
बातें हुई तो उसने कहा, 'हम प्रचारक हैं। हमें अपनी प्रतिष्ठा बनाकर रखनी
चाहिए। मेहमानों का सामान उठाना मेरा काम नहीं है। हम नौकर तो नहीं हैं।' मुझे
भी यह कहना उस समय पर ठीक लगा। उसी समय दिल्ली के संघचालक मा. प्रकाशदत्त संघ
शिक्षा वर्ग में आनेवाले थे। उनके रहने की व्यवस्था पू. गुरुजी के घर पर थी।
वे जब आए तो पू. गुरुजी स्वयं उनका स्वागत करने नीचे दरवाजे पर आए। हम 4-5
कार्यकर्ताओं को चाय बनाने को कहा। अब हम लोग तो इस मामले में बिलकुल अंजान
थे। चूल्हा कैसे जलाना, चाय कैसी बनानी कुछ मालूम नहीं था लेकिन पू. गुरुजी की
आज्ञा थी। तो हम प्रयास में लगे। बार-बार प्रयास करके भी चूल्हा नहीं जलता था।
समय होने लगा। पसीना बहने लगा। इतने में पू. गुरुजी चुपचाप आए। रसोईघर के
दरवाजे से हमारी ओर देखा, फिर हँसने लगे। मुझे मालूम था कि तुम चाय बनाना नहीं
जानते हो।' पू. गुरुजी ने झटके से चूल्हा फूंका। चाय के लिए पानी लिया और एकेक
करके चाय कैसे बनानी है यह हमें समझाया और बोले, 'अब बनाओ चाय और लेकर आओ।'
तो हम सामान्य प्रचारकों को, मेहमानों का सामान उठाने में आपत्ति थी और पू.
सरसंघचालक को चूल्हे के सामने बैठकर चूल्हा सुलगाने में आपत्ति नहीं थीं। हमको
नेतृत्व का यह नमूना देखकर अच्छा सबक मिला।
बाद में इसी विषय के संदर्भ में संघ की रचना की बारे में एक अजीब सी बात ध्यान
में आई!
संघ की पहली पाबंदी के काल में संघ का संविधान बनाने की कुछ चर्चा चल रही थी
तब मैंने उसकी ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। यह पहले ही बताया है कि इस संविधान
का स्वरूप क्या था। पहले से ही जो रीति, नीति और व्यवहार चलते आए थे उनको ही
शब्दबद्ध किया इतना ही संविधान का स्वरूप था। नई बात तो कुछ थी ही नहीं। लेकिन
बाद में जब मुझे संविधान में आई रचना का पता चला तो और एक धक्का लगा। इस
संविधान के अनुसार स्वयंसेवक मतदाताओं के प्रतिनिधियों के चुनाव से लेकर
संघचालक, प्रांत संघचालक आदि पदों की आखिरी कड़ी के रूप में सरकार्यवाह का
चुनाव होता है। इस दृष्टि से यह अजीब बात है कि संघ के संविधान के अनुसार संघ
के सर्वोच्च पदाधिकारी (Chief Executive Officer) सरकार्यवाह हैं। सरसंघचालक
नहीं। अब बाहर के लोगों के यह समझ में आना संभव नहीं कि सरसंघचालक केवल
मार्गदर्शक एवं तत्त्वज्ञ (Guide and philosopher) हैं। कोई पदाधिकारी नहीं
हैं।
और भी अजीब बात ध्यान में आई कि इस पूरी चुनावी प्रकिया में संघ के प्रचारक न
मतदाता हैं न उनके पक्ष में किसी ने मत देने का सवाल उठता है।
इस बीच में कुछ ज्येष्ठ कार्यकर्ता तथा गुरु जनों के सहवास के कुछ संस्कार भी
हुए तो हमें अनुभव हुआ कि बहुत सोच-समझकर यह पूरी रचना बनाई है।
मा. बाबासाहब आपटे, जो संघ के पहले प्रचारक प्रमुख रहे, वे उदाहरण देते थे। यह
शरीर चल रहा है। अब शरीर सुंदर है या बदसूरत है? चेहरा कैसा है? नाक कैसी है?
आँखे कैसी हैं? आदि देखकर; हाथ पैर मजबूत हैं या दुर्बल? उन ऊपर से दिखने वाली
बातों पर शरीर का जीवमान होना तय होता है ऐसा हम कह सकते हैं क्या? हाथ कट
गया, पैर टूट गया, चेहरा विरूप हुआ तो भी शरीर चलता रहता है, जीवमान है ऐसा हम
क्यों मानते हैं? ऐसा कौन सा मर्म है जो शरीर को चलाता है? तो वह है व्यक्ति
का हृदय! Heart failure हुआ तो ही व्यक्ति की मृत्यु होती है। लेकिन वह जो
हृदय है जो बाहर से दिखता है क्या ? बाहर दिखने वाले अवयब तो बहत सारे हैं
लेकिन सम्पर्ण शरीर को चलाता है वह है हृदय किसी को दिखाई नहीं देता। मा.
बाबासाहब आपटे कहते थे कि संघ की रचना में जिम्मेदार कार्यकर्ता (प्रचारक)
हृदय के समान है। जो संपूर्ण संगठन को चलाते हैं किंतु बाहर से दृश्यमान नहीं
होते हैं। मा. बाबासाहब की छलाँग बहुत दूर तक थी। वे कहते थे, सारी दुनिया को
चलाता रहा है। वह तो किसी को दिखाई नहीं देता है। संगठन जिन कार्यकर्ताओं के
आधार पर चल रहा है, मजबूत होता है, उनकी मानसिकता कैसी होनी चाहिए इसका बोध
हमें मा. बाबासाहब के दिए इस उदाहरण से प्राप्त होता है। तो अपने ध्येय
समर्पितता का भी अहंकार मन में न हो यही हमारा प्रयास रहना चाहिए।
पू. डॉक्टरजी कहते थे, अपने ही समाज के लिए किए हुए त्याग को हम त्याग थोड़े
ही कहते हैं। तो त्याग और ध्येयवादी समर्पण का भाव आदि के अहंकार से स्वयं को
बचाना ही चाहिए। यह संकेत इन श्रेष्ठ नेताओं से हमें प्राप्त होता है। अपने
ध्येयवाद का भी अहंकार मन में न रहे यह हमारा आग्रह है-
ईशावास्योपनिषद् में कहा है
अन्धं तमः प्रविशन्ति, येऽसम्भूपतिमुपासते
ततो भूय इव ते तमो यं उ सम्भूत्यारताः।
अर्थात जो लोग इन्द्रियों की उपासना का ही अहंकार रखते हैं वे तो अंधकार में
डूबे हुए होते ही हैं। लेकिन जो लोग अविनाशी चैतन्य की उपासना का अहंकार मन
में रखते हैं वे तो उससे भी भयंकर गहरे अंधकार में डूबे हुए होते हैं। अपनी
परंपरा के अनुसार नेतृत्व की अवधारणा में अहंकार का संपूर्ण विलय हो यह
बुनियादी बात है। निरहंकारी मानसिकता का परमोत्कट आविष्कार इस नाते हमारे
सामने स्वयं पू. गुरुजी का उदाहरण आता है। एक अवसर पर 'धर्मयुग' इस पत्रिका ने
सभी बड़े नेताओं से संदेश मँगवाए थे। प. गुरुजी से भी संदेश माँगा था। और वे
सब संदेश धर्मयुग में छपे थे। प. गरुजी का संदेश सबसे छोटा था- 'मैं नहीं, तू
ही।' यदि अहं नष्ट हो जाता है, तो इतनी हद तक निरहंकारी वृत्ति रहती है, जिसे
योगी अरविंद ने आत्मविलोपी वृत्ति कहा है। संत रामदास ने कहा है-
समुदाय पाहिजे मोठा। परि तणावा असाव्या बळकटा।
मठ करोनिया ताठा। धरोचि नए।
बड़ा संगठन करने पर भी नेता को यह सजगता बरतनी आवश्यक है कि अपने कर्तृत्व का
अहंकार न हो।
कार्यकर्ता
(भाग - 2)
विनम्र नेतृत्व का आदर्श
हमारे देश का नेतृत्व का सबसे अच्छा उदाहरण भगवान श्रीकृष्ण का बताया जाता है।
पांडवो को चक्रवर्ती बनाने में उनकी ही सहायता प्रमुख रूप से कारण थी। लेकिन
जिस समय पांडवों के यहाँ राजसूय यज्ञ हुआ तब की घटना है। बहुत बड़ा समारोह था।
उसमें तरह तरह के कार्य विभाग तथा जिम्मेदारियाँ थीं। उनका बँटवारा करते समय
एकेक ने अपनी अपनी रुचि का काम सँभाला। श्री कृष्ण से जब पूछा गया, तो
उन्होंने कहा कि भोजन होने के पश्चात जूठी पत्तले उठाने का काम मैं करूँगा।
यानी चक्रवर्तियों का नेतृत्व करने वाला, जूठी पत्तलें उठाने का हल्का काम
स्वयं माँग लेता है।
जो सही दृष्टि से बड़ा नेता है उसे छोटे छोटे हलके काम करने में कोई आपत्ति
नहीं रहती। लोकमान्य तिलक जी के जीवन की ऐसी ही एक छोटी घटना ध्यान में लेना
उपयुक्त रहेगा। 1916 में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन था। महाराष्ट्र और
दक्षिण से प्रतिनिधि गए थे। अधिवेशन में लंबी चर्चा चलने के कारण रात बड़ी
देरी से सोए। लेकिन सुबह हुई और लोग प्रातर्विधि, हाथ मुँह धोने आदि के लिए
निकले तो उन्होंने देखा कि तिलक जी पानी गरम करने के लिए दौड़ धूप कर रहे थे।
चूल्हों पर बड़े-बड़े बर्तन रखे हुए थे और तिलकजी ने कहा कि, भाई, लखनऊ के लोग
शायद इस बात को समझ नहीं पाएँगे कि दक्षिण से आए प्रतिनिधि उत्तर की इस सर्दी
को सह नहीं सकेंगे। नहा धोकर बैठक में जल्दी पहुँचना है। इसलिए मैं उनके लिए
पानी गरम कर रहा हूँ।"
गाँधीजी के जीवन की भी एक ऐसी ही घटना है। उनका एक अनुयायी अच्छा शास्त्री
पंडित था, उसे कुष्ठरोग हो गया। गांधीजी ने उसको अपने पास आश्रम में रखा और
गांधीजी हर तीसरे दिन स्वयं अपने हाथों से जैतून के तेल से उसकी मालिश करते
थे। उस समय सत्ता के हस्तांतरण की चर्चा करने के लिए गांधी जी आए थे। अब
अनुयायी के मालिश की समय सारणी के अनुसार उनका वापसी आरक्षण भी किया था लेकिन
इसमें शक था कि रेल के समय तक यह चर्चा पूरी होगी या नहीं। तो दिल्ली पहुँचते
ही उन्होंने लार्ड माउंटबेटन को बताया, मुझे इस गाड़ी से वापस जाना है। इस समय
तक चर्चा पूरी हुई तो ठीक, वरना इसे आगे बढ़ाना होगा। अब सत्ता हस्तांतरण जैसी
महत्त्वपूर्ण बातचीत में भी महात्मा गांधी स्वयं के लिए निर्धारित ऐसा मालिश
का मामूली सा काम भूल न सके।
पैगंबर मुहम्मद के जीवन में दीखता है कि मदीना में पहली बार बड़ी मस्जिद बनाने
का जब उपक्रम शुरू हुआ तो उस समय अपने साथियों के साथ सिर पर पत्थर उठाकर ले
जाने का काम स्वयं मुहम्मद साहब करते थे।
इस संदर्भ में डॉक्टर जी के जीवन की बातें ध्यान में लेना उपयुक्त रहेगा। पू.
डॉक्टर जी के संदर्भ में एक प्रसंग याद आता है। मा. अप्पा जी जोशी वर्धा में
रहते थे। उनके किसी रिश्तेदार की तबियत की जाँच नागपुर में करवानी थी। उसे ले
आने का काम किसी कार्यकर्ता पर सौंपा गया था। किसी कारणवश वह कार्यकर्ता वर्धा
नहीं जा सकता, यह पू. डॉक्टरजी को मालूम हुआ तो रातों रात इधर उधर दौड़धूप
करके पू. डॉक्टरजी ने स्वयं वाहन की व्यवस्था की और वे उस मरीज व्यक्ति का ले
आने के लिए वर्धा पहुँच गए।
जब नागपुर में पहली बार संघ शाखा शुरू करनी थी तो छोटे बच्चों के साथ पू.
डॉक्टर जी ने स्वयं मैदान साफ करने का काम किया था। नेतृत्व को जो गुण हमें
अभिप्रेत हैं उनका परिचय पू. डॉक्टर जी के कार्यप्रणाली में मिलता है।
जीवन के अंत में 1940 के संघ शिक्षा वर्ग के समय वे बीमार थे। वर्ग में आने के
लिए उनको डॉक्टर ने मना किया था। फिर समारोप के भाषण में बड़े दुख से, नम्रता
के साथ उन्होंने स्वयंसेवकों से कहा कि, 'मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ कि मैं इस
वर्ग में आपकी कुछ सेवा न कर सका।'
पू. गुरुजी के संदर्भ में तो मेरे जीवन का एक छोटा सा अनुभव ऐसा है कि जो
बताने में मुझे शर्म महसूस होती है। जब मैं लॉ कॉलेज में पढ़ता था, तो मैं
उनके यहाँ रहता था। आदतें तो बिगड़ गई थीं कॉलेज लाईफ में। सुबह कॉलेज होता
था। नीचे प्रातर्विधि के लिए आना और फिर उधर से ही चाय पीकर सीधे कॉलेज चले
जाना। बाद में याद आता था कि अरे, अपना बिस्तर तो वैसे ही फैला रहा लेकिन वापस
आने पर बिस्तर अपने स्थान पर ठीक से रखा मिलता था। मैंने सोचा मेरे जैसा एक
अन्य साथी श्री नाना बैद्य वहाँ सोता था, वही रोज मेरा इतना काम कर देता होगा।
मैंने उससे कहा कि भाई माफ करना, तुम्हें रोज मेरा बिस्तर उठाना पड़ता है। तो
उसने कहा, 'भाई, मैं तो तुम्हारा बिस्तर उठाता नहीं।' फिर मुझे डर लगा। एक दिन
कॉलेज न जाते हुए मैं पीछे से छत पर चला गया। देखता रहा कि बिस्तर कौन उठाता
है। तो उधर पू. गुरुजी आए और बिस्तर ठीक जगह पर रखकर नीचे चले गए और इस बात का
उलाहना तक नहीं दिया कि तुम्हारा यह बर्ताव ठीक नहीं है।
पं. दीनदयालजी के जीवन का एक प्रसंग भी याद आता है। मैं जब जनसंघ में काम करता
था, उस समय एक कार्यकर्ता को चुनाव में उम्मीदवारी न मिलने के कारण वह बहुत ही
गरम होकर मेरे पास आया और जोर-जोर से कहने लगा-मैं पार्टी के लिए बर्बाद हो
गया हूँ और पार्टी को तो कार्यकर्ता की कद्र ही नहीं।' मैंने उसको पं. दीनदयाल
जी से मिलने के लिए भेजा। वह बड़े गुस्से में ही था लेकिन पंडित जी से दिल्ली
गया। पंडित जी ने पूछताछ की और बोले शाम को आराम से खाना वगैरह होने के बाद
बातें करेंगे। उन्होंने मान लिया और यह कार्यकर्ता कार्यालय में ही ठहरा। और
फिर दिन भर देखता रहा कि पार्टी के ऑल इंडिया जनरल सेक्रेट्री (पंडित जी) दिन
भर क्या कर रहे थे। तो कोई खोया हुआ कागज ढूँढने के लिए कचरे की टोकरी में से
एक-एक कागज देख रहे थे। श्री जगदीश प्रसाद माथुर ने उस कार्यकर्ता को दोपहर का
खाना होटल से खाकर आने को कहा। लेकिन स्वयं पंडिजी जी ने तो खाना भी नहीं खाया
था। दूध और ब्रेड मँगाया था। यह कार्यकर्ता ये सब बातें देख रहा था। उसे लगा
कि इस जनरल सेक्रेटरी को बिलकुल प्रतिष्ठा का भाव नहीं है। फिर उसने किसी से
पूछा कि पंडित जी कौन से चुनाव क्षेत्र से खड़े हैं? तो जवाब आया, 'अरे भाई,
पंडित जी कहाँ चुनाव लड़ते हैं?' तो उसने कहा, 'फिर काम किसका कर रहे हैं?' तो
बताया गया कि, वे तो तीन सौ लोगों के चुनावी काम में लगे हैं।'
अब शाम छ: बजे काम पूरा होने के बाद पंडितजी इस कार्यकर्ता से बात करने के लिए
हाथ पैर धोकर तैयार हो गए। दोनों के लिए खाना मँगवाया और बोले, 'अब आराम से
अपनी बात बोलो। सबेरे छः बजे तक अब मुझे समय है।' अब ये कार्यकर्ता क्या बोलता
है? बोला, 'कुछ भी नहीं पंडित जी मैं आपके दर्शन के लिए आया था।' और फिर ऐसा
ही नागपुर चला आया।
अब नागपुर आने के बाद मुझे मिला। मैंने पूछा, भाई आपके शिकायत का फैसला क्या
हुआ? वह 'अँ अँ। कुछ नहीं कुछ नहीं करने लगा। मैंने उसे फिर डाँटा कि, भाई,
बड़े जोर से उस दिन कार्यकर्ताओं के सामने पार्टी की बदनामी कर रहा था तो
पंडित जी के सामने अपना शिकायत क्यों नहीं की?' वह बोला, 'मेरी गलती हुई। मुझे
इस तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए था। मैं तो शिकायत करने ही गया था। लेकिन दिन
भर में पंडित जी के बारे में जो देख रहा था, उससे मुझे लगा कि महापुरुष को मैं
कैसे बताऊँ कि मैं बर्बाद हो गया।' और आगे बोला, 'मुझे एक शेर याद आ रहा है।
शिकवा क्या करता इस महफिल में, कुछ ऐसे भी थे
उम्र भर अपने जख्मों पर जो नमक छिड़का किए।
संपूर्ण जीवन भर अपने स्वयं के जख्मों पर जो नमक छिड़क रहे हैं ऐसे लोग जब
मैंने देखे तो मैं कैसे कहूँ कि मेरी उँगली को जरा सी चोट लगी है?
बड़प्पन का बोझ दूसरों पर न आने देना
स्वयं के बड़प्पन का बोझ दूसरों पर न आने देना। यह भी नेतृत्व का सही लक्षण हम
मानते हैं। क्योंकि नेता स्वयं भी अपने बड़प्पन का असर अपने मन पर नहीं होने
देता। प्राचीन चीन के महान दार्शनिक लाओत्से तुंग ने कहा है-'जो लोगों से ऊपर
रहना चाहता है, उसे अपनी विनम्र वाणी के द्वारा स्वयं को उनके नीचे रखना
चाहिए। जो लोगों का अगुआ बनना चाहता है, उसे उनके पीछे पीछे चलना चाहिए। इस
प्रकार यद्यपि उसका स्थान सर्वोपरि होगा, परंतु लोगों को उसका बोझ महसूस नहीं
होगा। यद्यपि उसका स्थान उन लोगों के आगे होगा, परन्तु इससे उन्हें आघात नहीं
पहुँचेगा। इसलिए मानवमात्र को उसकी प्रशंसा में प्रसन्नता होगी और इससे कोई
परेशान नहीं होगा। ऋषि जो कुछ करता है, उसकी मान्यता की अपेक्षा नहीं करता। वह
योग्यता और गुणों का अर्जन करता लेकिन इसका श्रेय वह नहीं लेता। वह अपनी
उपादेयता का ढिंढोरा नही पीटता। संत तुलसीदास ने कहा है--
अपुन रहे हैं दास की नाई। सब ही नचावत राम गुसाई।।
अहंकार रहित मन रहा तो अधिक योग्यता रखने वाले व्यक्ति भी ध्येयवादी व्यक्ति
की बात मान लेते हैं।
संत रामदास कहते हैं
नीचत्व आणि मूर्खपण पहिलेचि घ्यावे।
इसी संदर्भ में प्रकृति ने भी हमारे सामने ऐसे विशाल, निरहंकारी नेतृत्व का
उदाहरण प्रस्तुत किया है। सृष्टि में इस धरती पर जमीन है, पानी ज्यादा है और
वह महासागर में भरा रहता है। किसी ने मलाक में कहा है कि इसे पृथ्वी कहना गलत
है, पानी ही कहना उचित होगा। क्योंकि पानी ही ज्यादा है। लेकिन यह जो पानी जमा
होता है वह अलग अलग स्तरों से निकलता है। किसी गाँव से किसी शहर से, उसके ऊपर
किसी पहाड़ से, उसके भी ऊपर किसी ऊँचे पर्वत से, सबसे ऊँचे हिमालय से भी
विभिन्न जलप्रवाह निकलते हैं। हरेक की सापेक्ष स्थिति क्या रहती है? कोई छोटी
मात्रा में, कम ज्यादा ऊँचाई से, कम ज्यादा जोर से जो प्रवाह आते हैं। उसकी
अलग अलग position रहती है। बड़े ऊँचे पर्वत से आने वाले प्रवाह की स्थिति ऊँची
रहेगी इसमें संदेह नहीं है। लेकिन अंत में क्या होता है? प्रकृति ने नियम
बनाया है, कितनी ही ऊँचाई से प्रवाह क्यों न निकला हो, गंगा यमुना जैसी
महानदियों के भी प्रवाह हों वे सारे आखिर महासागर में जाकर विलीन हो जाते हैं।
और महासागर तो सबसे नीचे होता है। सबसे नीचा होने का मापदंड ही महासागर को
माना गया है। यहाँ तक कि अगर किसी स्थान की ऊँचाई का हिसाब करना है तो
वैज्ञानिक, सागरतल से वह स्थान इतना ऊँचा है, चार हजार फीट, दो हजार फीट, ऐसा
माप लेते हैं। तो सबसे नीचे महासागर की गोद में बड़ी बड़ी ऊँचाई आने वाले सारे
जलप्रवाह शरण लेते हैं। इसका कारण यही है कि वह उदार, सर्वसमावेशक, विशाल होकर
भी सबसे नीचा स्थान रखता है। सही नेतृत्व तो वही है, जिसे अपना बड़प्पन होते
हुए भी उसकी याद तक नहीं रहती और उसका बोझ भी दूसरों पर आता नहीं।
(unconscious of one's own magnitude greatness) इसी को लोक नेतृत्व कहते हैं।
लेकिन कभी कभी स्वयं के उदाहरण से नेता को अनुयायियों को सबक भी सिखाना पड़ता
है। जीजस क्राइस्ट जीवन के अंतिम दिनों की घटना है। वे किसी के यहाँ अपने सभी
शिष्यों के साथ भोजन के लिए गए। उनके जीवन का यह प्रसंग Last supper इस नाम से
प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर भोजन के लिए बैठे तो एक बात उनके ख्याल में आई कि अपने
नेता के पास पहुँचने की जरा होड़ थी। इसके कारण जैसे आजकल के सार्वजनिक जीवन
में होता है वैसा ही दृश्य उपस्थित हुआ। याने elbowing out एक दूसरे को खदेड़
कर सामने घुसना। यह देखकर जीजस को बड़ा दुख हुआ। उन्होनें कहा कि, 'भाई, जरा
हम सब लोग खड़े हो जायें' और जिसका मकान था उसे कहा कि, 'पानी की बाल्टी और
टॉवेल ले आइए।' और फिर एकेक शिष्य को बुलाया। पानी से उसके पैर स्वयं अपने
हाथों से धोए। टॉवेल से अपने हाथ से लेकर हर एकेक के पैर पोछे और फिर कहा कि
'यह मैंने क्यों किया 'इसका आपको पता है क्या? मैंने इसलिए किया है कि आप सबक
सीख सकें कि जिस तरह का प्रेम मैं आप के साथ करता हूँ, जिस तरह का व्यवहार मैं
आपके साथ करता हूँ उसी तरह का प्रेम और व्यवहार आप आपस में रखें ताकि दुनिया
पहचान सके कि आप मेरे हैं।'
तो आदर्शवादी नेतृत्व के यह सब नमूने कार्यकर्ता के लिए बहुत ही मार्गदर्शक
हैं। इस तरह निरहंकारी ध्येयनिष्ठा से संपूर्ण आत्मलोप करने वाला कार्यकर्ता
ही लोगों को पता न लगते हुए स्वाभाविक रूप से उनका नेतृत्व संपादन कर सकता है।
स्वयं अपना बड़प्पन न दिखाते हुए या श्रेय न लेते हुए वह अन्यों को सम्मानित
करता है।
सही बड़प्पन का एक छोटा सा सूत्र विष्णुसहस्रनाम इस स्तोत्र
में आया है।
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृत्।
तीनों लोको का धारण करने वाला याने भगवान, वे ही लोगों का नेतृत्व करते हैं
याने लोकस्वामी हैं। लेकिन यह वे कैसे कहते है? तो कहा, अमानी 'मानदो' मान्यो।
'अमानी' याने जो स्वयं अपने लिए सम्मान की अपेक्षा नहीं करता। 'मानदो' याने जो
दूसरों को मान देता है। फिर तीसरा शब्द आता है 'मान्यो' जिसके कारण वह
सर्वमान्य है। याने लोक नेतृत्व उसी का सिद्ध होता है जो स्वयं के लिए सम्मान
की अपेक्षा न रखते हुए दूसरों को सम्मानित करता है और इसलिए सर्वमान्य
सम्मानित होता है।
कार्यकर्ता को यह ध्यान में लेना आवश्यक है कि व्यक्तिगत अहंकार और
ध्येयनिष्ठा का आदर्श, दोनों एक साथ हृदय के सिंहासन पर भगवान् और शैतान दोनों
एक साथ बैठ नहीं सकते। 'अहम्' जितना बड़ा होगा आदर्शवाद उतना ही छोटा होगा।
मानो एक ही वृत्त है जिसमें दो रंग निश्चित हैं, हरा और लाल। वृत्त यदि स्थायी
रहा तो हरे रंग का दायरा बढ़ने पर लाल रंग का दायरा छोटा होगा। लाल का दायरा
बढ़ेगा तो हरे का छोटा होगा। वैसे ही ह्दय के वृत्त की बात है। उसमें अहंभाव
और ध्येयनिष्ठ आदर्शवाद इन दोनों की स्थिति भी ऐसी ही मात्रा में रहती है।
जहाँ अहंकार होगा, वहाँ ध्येयवाद नहीं होगा। जैसे कि जहाँ अहंकार होता है वहाँ
ईश्वर नहीं होता है।
जब मैं था तब हरी नहीं। अब हरि है मैं नाही।
प्रेमगली अति साँकरी। जामे दो न समाही।।
जिसका आदर्शवाद का दायरा संपूर्ण वृत्त बन गया है, वास्तव में यही व्यक्ति सही
लोक नेतृत्व कर सकता है।
आदर्शवादी नेतृत्व का प्रभाव
ऐसा जो आदर्शवादी नेतृत्व है उसका प्रभाव साथ वाले कार्यकर्ताओं पर और
कार्यक्षेत्र पर भी होता है। संघ कार्य में जो संस्कार होते है, वे केवल
बौद्धिक सुनने से, बड़े-बड़े सिद्धांतों की जानकारी से नहीं तो आदर्शवादी
कार्यकर्ताओं के व्यक्तिगत संपर्क से होते हैं। ऐसा नहीं कि सैद्धांतिक
जानकारी का कोई महत्त्व नहीं है। खास करके आज के जमाने में तो कार्यकर्ताओं को
सामाजिक गतिविधियों का सूक्ष्म भान, अन्यान्य समाज-वैज्ञानिक प्रणालियों की
कुछ मात्रा में जानकारी आवश्यक है। इन सभी जानकारी से न केवल अपने कार्य की
अनिवार्यता तथा तौलनिक महत्ता ध्यान में आती है। अपितु मन में अपने ध्येय
संकल्प के पति दृढ बौद्धिक धारणा भी निर्माण होती है। अपने कार्य के बारे में
एक स्थिर परिप्रेक्ष्य मन में सिद्ध होता है। लेकिन प्रत्यक्ष कार्य करने के
लिए तो प्रवत्ति बनी रहना आवश्यक है। फिर एक बार दुर्योधन का वचन हम ध्यान में
ले सकते हैं। धर्म क्या है, अधर्म क्या है यह सब जानते हुए भी धर्म के प्रति
प्रवृत्ति और अधर्म से निवृत्ति न होने के कारण उसका व्यवहार दुराचारी ही रहा।
तो दृढ़ बौद्धिक धारणा होते हुए भी कार्य के लिए प्रवृत्ति बनाना आवश्यक है और
वह तो व्यक्तिगत संपर्क के माध्यम से प्राप्त हुए संस्कारों से ही निर्माण
होती है। एक दृष्टि से हम ऐसा भी कह सकते हैं कि सिदंधांत कार्यकर्ता को दिशा
तो जरूर बताता है लेकिन उसको गति देने का कार्य, प्रवृत्ति बनाने वाले संस्कार
ही करते हैं। जैसे एक दीप दूसरे दीप को जलाता है उसी प्रकार ध्येयनिष्ठ
कार्यकर्ता अपनी आदर्शवादी गुणवत्ता को दूसरों में संक्रमित करता है तो ऐसा
ध्येयवादी नेतृत्व मोटे तौर पर मौखिक मार्गदर्शन (sermonising) न करते हुए
संपर्क में आने वाले कार्यकर्ता को केवल अपने व्यवहार सूत्रों से मूल्यनिष्ठ
आचरण की प्रेरणा देता है। श्री अरविंद कहते हैं-
Inspiration is real work. Let a truly inspiring word be uttered and it will
breathe life into dry bones. Let the inspiring life be lived and it will
produce workers by thousands.
किसी भी सत्कार्य में ऐसे आदर्शवादी व्यक्ति के आचरण से जो वायुमंडल बनता है
उसके प्रभाव से ही कार्यकर्ता में समर्पण भाव, मूल्यनिष्ठा आदि निर्माण होते
हैं। 1919 में न्यूयार्क से 'यंग पंजाब' के नाम लिखे हए लाला लाजपतराय के एक
अनावृत्त पत्र में इस बात पर उन्होंने जोर दिया है। लाला जी ने लिखा है-
'जिनकी नैतिकता उच्च है, जो अपनी जिम्मेदारी जानते हैं जो स्वार्थ त्याग के
लिए तैयार है और अपने तत्त्व तथा उद्दिष्टों के लिए कष्ट उठाने के लिए जो
तैयार है, ऐसे ही लोग अच्छी संस्थाएँ खड़ी कर सकते हैं।'
कई पश्चिमी विचारकों ने भी यह सूत्र लोगों के सामने रखा है। मेरा एक अवलोकन
बताता हूँ। एक बार रेलवे के प्रवास में सुबह के समय ऊपर की बर्थ का प्रवासी
नीचे आकर मेरी बर्थ पर बैठा। उसके हाथ में एक किताब थी। वह पढ़ने लगा। थोड़ी
देर बाद वह टायलेट जाने के लिए उठा। जाते समय उसने वह किताब जहाँ तक पढ़ी थी
उन्हीं पन्नों पर औंधी करके बर्थ पर रख दी। उसके जाने के बाद उत्सुकतावश मैंने
वह उठाकर देखी तो उन पत्रों पर अल्बर्ट श्वाईट्झर के विचार प्रस्तुत किए गए
थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि ये विचार पू. डॉक्टरजी के विचारों के समान ही प्रतीत
होते थे। संस्कार यह शब्द अंग्रेजी में नहीं है। किंतु व्यक्ति को संस्कार
कैसे प्रदान करना यह विषय सूत्र अपने ढंग से उसमें आया था। मुझे साश्चर्य आनंद
हुआ। किंतु पढ़ते पढ़ते एक वाक्य ऐसा आया जिसके कारण आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी
आया। अच्छी नरम खिचड़ी खाते-खाते बीच में कंकड़ आ जाए ऐसा लगा। वह वाक्य था कि
व्यक्ति के सामने स्वयं अपना उदाहरण आदर्श के नाते प्रस्तुत करना उपयुक्त है।
किंतु Example is not the main thing in moulding men's minds. मुझे गुस्सा
आया कि अब तक यह भला आदमी ठीक ढग स बात कर रहा था और अब अचानक यह गलत बात कैसे
आ गई कि Example is not the main thing etc. मैंने गुस्से से यह किताब रख दी।
किताब के मालिक को टॉयलेट से वापस आने में विलंब हो रहा था तो बीच में विचार
आया कि श्वाईट्झर का अगला वाक्य क्या है यह बार देख तो लें। इसलिए फिर से
किताब उठाई और आगे किया और फिर से आश्चर्य हुआ। अगला वाक्य था- It is the only
thing. तो पूरा वाक्य हो गया। Example is not the main thing. It is the only
thing in moulding men's minds. मतलब है कि main thing बोलने से आभास होता है
कि moulding men's minds कई और बातों पर भी निर्भर है, उन्हीं में से प्रमुख
बात है खुद का आदर्श प्रस्तुत करना। किंतु आगे चलकर जो लिखा था उसमें यह बताया
कि ऐसा नहीं तो Example is the only thing याने मनुष्यों के मन पर संस्कार
अंकित करने के लिए खुद का उदाहरण यही एकमेव महत्त्वपूर्ण बात होती है उसकी
तुलना में दूसरी कोई भी बात महत्त्वपूर्ण नहीं है।
व्यक्तिगत संपर्क से ही कार्यकर्ता का विकास, उसकी गुणवत्ता बढ़ाना, और फिर
उसको उत्साह, विचार, ज्ञान, और तत्त्वज्ञान का एक दर्शन दिलाकर खड़ा करना,
उसमें ध्येय संकल्प के प्रति अडिग श्रद्धा conviction निर्माण करना, आगे चलकर
उसमें भी नेतृत्व की गुणवत्ता तथा धारणा निर्माण हो आदि का प्रयास, नेतृत्व
करने वाला कार्यकर्ता कर सकता है। समय समय पर कार्यकर्ताओं की हिम्मत बढ़ाने
का काम भी उसको करना पड़ता है। अपने इतिहास में सिंहगढ़ विजय की घटना ऐसे
नेतृत्व का नमूना प्रस्तुत करती है। रस्सियों के सहारे सैनिक किले पर पहुँच गए
थे। रात्रि के घमासान युद्ध में तानाजी मालुसरे की मृत्यु हुई। नेता गिरने पर
सैनिक डर के मारे रस्सियों की ओर भागने लगे। तब शेलारमामा ने ललकार कर सैनिकों
को बताया, 'सूर्याजी मालुसरे ने रस्सियाँ पहले ही काट दी हैं शत्रु सेना पर
विजय हासिल करने के अलावा अब यहाँ से भी जान बचाने का दूसरा कोई रास्ता नहीं
है। जीतना है या मरना है।' अब नेता गिरने पर जिनके मन में कमजोरी आई थी, वे सब
सैनिक वापस आए और अपनी बहादुरी का परिचय देते हुए उन्होंने किला जीत लिया।
नेतृत्व के सिद्धांतों से भी बढ़कर नेता का व्यक्तिगत संपर्क मधुर, घनिष्ठ तथा
व्यापक रहा तो लोग उनके ध्येय संकल्प से जुट जाते हैं। एक ऐसी दृष्टि से ऐसा
आदर्शवादी नेता nucleus, प्रेरणा केंद्र, शक्ति केंद्र होता है। जैसे स्तब्ध
कुंठित जलाशय में पत्थर पड़ा तो हलचल पैदा होती है, लहर का छोटा मंडल निर्माण
होता है, और फैलता है। चीनी दार्शनिक लाओत्से के भाष्यकार जॉन हीडर इस
प्रक्रिया को The Ripple Effect यह संज्ञा देते हैं। उन्होंने कहा कि Remember
that your influence begins with you and ripples outward. So, be sure that
your influence is both potent and wholesome.
लेकिन यह लहर किनारे तक जाते जाते क्रमशः क्षीण होती जाती है। केंद्र जितना
बलशाली, जोशीला रहेगा, लहर उसी के तुलना में सचेत, दमदार रहेगी और किनारे पर
उतनी मात्रा में असर होगा। केंद्र ही दुर्बल रहेगा तो लहर भी अधिक मात्रा में
क्षीण होती जाएगी और किनारे पर पहुँचने तक शायद उसका विलय भी होगा। इसी तरह
नेतृत्व का प्रेरणा केंद्र और उससे कार्यकर्ताओं तक पहुँचने वाला संस्कार
उनमें संबंध रहता है। इसलिए नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता का संस्कार प्रबल
तथा हितकर होना आवश्यक है।
नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता का स्वयंसेवकों से व्यवहार कैसा हो
?
हमारे कार्यकर्ता का, खास करके नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता का स्वयं का
व्यक्तित्व कैसा होना अपेक्षित है, कौन सी गुणवत्ता का विकास उसमें होना चाहिए
इसका जिक्र हमने किया। जैसे कि पहले बताया है, ऐसे ही कार्यकर्ता का प्रभाव
अन्य स्वयंसेवकों के मन पर उनके संपर्क के द्वारा होता है और उनमें वही
गुणवत्ता संक्रमित होती है। इसलिए खास करके नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता का
अन्य स्वयंसेवकों से जो व्यवहार रहता है वह बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। संघ
की कार्यपद्धति में ऐसे कई व्यवहार सूत्र विकसित किए गए हैं।
जो व्यक्तिगत संस्कार होते हैं वे आत्मीयतापूर्ण संबंध संपर्क द्वारा होते
हैं। केवल नेतागिरी करके, दूरी से संबंध रखने पर नहीं होते तथा केवल उपदेशबाजी
से भी नहीं होते है। इसलिए नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता में पूरे समाज के
प्रति आत्यंतिक प्रेम आत्मीयता होना जरूरी है। मुझे अपना खुद का ही उदाहरण याद
आता है।
मैं तब मजदुर क्षेत्र में इंटक में कार्य करता था। जब इंटक के जनरल कौंसिल पर
चुनकर गया, तब मुझे बड़ा आनंद आया। जब इसके बाद टाटानगर से नागपुर आया तब पू.
गुरुजी को अपने इस पराक्रम के बारे में बता दिया। 'भारी विरोध के बावजूद भी
मैं चुनकर आया।' युवावस्था थी। आत्मगौरव की भावना थी। तो पू. गुरुजी ने कहा,
'अच्छा हुआ।' बाद में वे इस जनरल कौंसिल के बारे में एक एक बात पूछते गए।
मैंने सब जानकारी दे दी। आखिर में एक प्रश्न उन्होंने पूछा कि, 'आपको जनरल
कौंसिल पर कितने और कौन से लोगों ने चुना?' तो मैंने बताया कि 'non-metal
sector के मतदाता क्षेत्र के मजदूरों ने चुना।' तो उन्होंने पूछा, 'उस क्षेत्र
में कितने मजदूर हैं?' '35000 मजदूर हैं।' फिर उन्होंने कहा कि, 'मेरे मन में
एक प्रश्न है उसका सही जवाब दीजिए। उन 35000 मजदूरों के प्रति क्या आपके मन
में वही आत्मीयता का भाव है जो आपके प्रति आपकी माँ का है?' इस पर उन्होंने
कहा- 'बराबर ही है। आप इंटक के जनरल कौंसिल के सदस्य तो हो चुके हैं, लेकिन
भगवान के जनरल कौंसिल के सदस्य नहीं बने हैं।' अब उन्होंने थोड़े शब्दों में
जो संकेत दिया उससे मुझे मालूम हुआ कि नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता के पास
मातृहृदय होना आवश्यक है।
इस संदर्भ में प. डॉक्टर जी के जीवन के तो कई प्रसंग हमारे लिए मार्गदर्शक हो
सकते हैं। उदाहरण के लिए एक ही प्रसंग बता रहा हूँ जिसमें उनका हृदय उन्हीं के
शब्दों में प्रकट हुआ था। एक स्वयंसेवक की तबियत अच्छी न होने के कारण वह शाखा
पर नहीं आता था। पू. डॉक्टर जी को यह वार्ता मिलने पर वे दो चार स्वयंसेवकों
के साथ सबेरे हो, प्रभात शाखा से उनके घर पर निकले। घर तो सुदूर अंतर पर था।
उस स्वयंसेवक के नजदीक ही पू. डॉक्टर जी को पहचानने वाले एक गृहस्थ रहते थे।
उन्होंने डॉक्टरजी को पैदल आते हुए देखा और पूछा, 'डॉक्टरजी, आप इतने दूर पैदल
किसके यहाँ आए थे?' तो डॉक्टरजी ने कारण बताया। फिर उस सज्जन ने पूछा, 'इतना
लंबा अंतर और आप किसी वाहन के केवल एक बीमार स्वयसेवक से मिलने आए?" तो
डॉक्टरजी बोले-'अंतर तो हृदय में होता है।' मतलब हमारे मन में समाज के हर एक
घटक के लिए जब प्रेम, आत्मीयता रहती है तो सब प्रकाश का अंतर मिट जाता है। ऐसे
आत्मीयतापूर्ण संबंधों के कारण ही नेता का व्यक्तित्व तथा व्यवहार कार्यकर्ता
के लिए एक वस्तुपाठ role model जैसे बन जाता है।
समाज में घुलमिलकर रहना
अब कार्यकर्ता का ऐसा विकास करने वाला संबंध तभी निर्माण होता है जब नेतृत्व
करने वाला समाज से घुलमिलकर रहता है। व्यक्ति इस दृष्टि से आदर्श होकर भी
कार्यकर्ता लोगों से दूरी का व्यवहार करेगा तो वह नेतृत्व नहीं कर सकता है।
भगवद्गीता में कहा है-
यस्मान्नो द्विजते लोको
लोकान्नो द्विजतेच यः।
ऐसा नेता होना चाहिए कि जिससे कोई ऊबता नहीं और जो स्वयं दूसरों के सहवास से
ऊबता नहीं। कुछ कार्यकर्ता व्यक्ति इस नाते अच्छे होते हैं लेकिन अकेले रहना
अच्छा समझते हैं। कोई उनके पास गया तो उनको लगता है कि कोई बला आ गई। ऐसे
व्यक्ति संगठन नहीं बाँध सकते। भले ही वे कितने भी गुणवान, चरित्र संपन्न ही
क्यों न हो। इसलिए लोगों में उठने बैठने, काम करने का स्वभाव, हँसी-मजाक, गपशप
की प्रवृत्ति, अपने आजू बाजू में प्रसन्नता का, मधुरता का वातावरण निर्माण
करना ये सभी बातें नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता की लिए अत्यावश्यक हैं। एक
यशस्वी क्रांति नेता ने कहा है कि जनजागरण के मामले में यह सर्वप्रथम महत्त्व
की बात नहीं है कि आप जनता को क्या बताना चाहते हैं। महत्त्व की बात ये है कि
जनता को क्या जानने को इच्छा है, जिज्ञासा है। आपके सिदंधांत कितने भी श्रेष्ठ
हों। आपकी प्रतिपादन शैली कितनी भी चित्ताकर्षक हो, जब तक सुनने की मानसिकता
जनता में जागृत नहीं है, तब तक आपका कहना तो उनके बधिर कानों पर ही पडेगा।
इसके लिए जनता की मानसिकता की प्रत्यक्ष रूप में, अखबारों से नहीं, प्रत्यक्ष
संपर्क से जानकारी लेना आवश्यक है। लोगों से दर ऊँचे स्थान पर रहते हुए Ivory
Tower में बैठते हुए, वास्तविकता की जानकारी लिये बिना हम बातें करने लगें,
नेता या उपदेशक इसी नाते जनता में जाएँ तो हमारी कोई लगन से नहीं सुनेगा।
पिछले विभाग में, 'अपनी कार्यपद्धति' में यह बात आई है कि जो पान के ठेले पर
जाता नहीं वह कार्यकर्ता ही नहीं हो सकता। उसका मतलब यही है। समाज में घुलमिल
कर रहने से ही समाज मानस की नाड़ी हाथ में आती है और तभी हम अपना विचार समाज
में बोने में सफल हो सकते हैं।
इसके साथ ही जो कुछ कार्यक्रम करना होता है वह सभी को साथ में लेकर करने की
प्रवृत्ति भी होनी चाहिए। कुछ कार्यकर्ता ऐसे होते हैं कि ध्येय समर्पित होते
हैं, लगन से काम करते हैं, निरहंकारी भी होते हैं, फिर भी अकेले ही हर काम
करने का प्रयास करते हैं। कुछ कार्यभार दूसरे के ऊपर सौंपकर उनसे काम करवा
लेने की आदत नहीं होती। अपने कार्य से पूर्ण प्रतिबद्धता होने के कारण ही शायद
दूसरों से यह काम होगा या नहीं। यह भरोसा उनके मन में नहीं रहता। इसके कारण हर
काम स्वयं निबटाने का प्रयास करते हैं। कार्य अच्छी तरह से हो। यह धारणा तो
ठीक है। इसके कर्तृत्व का परिचय भी इससे मिलता है। लेकिन इसके दो परिणाम होते
हैं। एक, ऐसे कार्यकर्ता संस्थान बन जाते हैं। संगठन One Man Institution बन
जाता है और अन्य कार्यकर्ता भी विकसित हों ऐसा प्रयास होने में बाधा निर्माण
होती है। 'एकला चलो' ऐसी वृत्ति से संगठन नहीं बनता।
चीनी दार्शनिक लाआत्से तुंग ने कहा है The wise leader settles for good work
and let others have the floor. जो सुजान नेता होता है वह खुद काम में मग्न तो
रहता ही है लेकिन दूसरों को ज्यादा मात्रा में अवसर देता है।
The leader does not take all the credit for what happen and has no need for
self fame. स्वयं को सभी बातों का श्रेय लेने में नेता को रुचि नहीं रहती
क्योंकि वह प्रतिष्ठा के पीछे नहीं पडता है। दूसरों को बडा करने में,
अनुयायियों का बड़प्पन देखने में सभी नेता को अधिक मात्रा में आनंद मिलता है।
सभी का योग्य ख्याल
इसके साथ ही, साथ में रहने वाले कार्यकर्ताओं की तरफ कार्यकर्ता का ठीक ढंग से
ध्यान रहना आवश्यक होता है। ताकि उनकी योग्य कद्र हो सकेगी। सामान्य व्यक्ति
का ध्यान सर्वप्रथम इस बात पर रहता है कि सामने वाले व्यक्ति के मन में अपने
बारे में मान्यता का भाव कहाँ तक है। यह आवश्यक है कि संबंधित व्यक्ति आश्वस्त
रहे कि आप उसे मान्यता दे रहे हैं। विशेष रूप से जब एक ही समय अनेक लोगों से
संपर्क हो रहा हो तब यह सतर्कता बरतनी पड़ती है। इस संदर्भ में कालिदास ने
भगवान शंकर का वर्णन किया है वह बहुत ही उद्बोधक है। शंकर जी बारात लेकर आए
हैं। उनके स्वागत के लिए जो देवगण उपस्थित हैं। उस समय का शंकर जी का व्यवहार
कालिदास इस तरह मानते हैं-
कंपेन मूर्ध्नः शतपत्रयोनिम्।
वाचा हरिं वृत्रहणं स्मितेन।
आलोकमात्रेण सुरानशेषान्।
संभावयामास तथा प्रधानम्।।
शंकर जी ने ब्रह्मा जी की तरफ सर हिलाया. उसी समय विष्णु जी से कुछ बोले और
साथ ही इंद्र की ओर उन्होंने स्मित हास्य किया। उसी समय किसी को भी न छोडते हए
बाकी देवताओं की ओर करके समानता से सभी की संभावना की। सभी की कद्र करते हुए
सतर्कता से व्यवहार करने का यह आदर्श नमूना हमारे सामने आता है।
जैसे कि पहले बताया है कि, 'अमानी मानदो, मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृत्।' यही
नेतृत्व का सही परिचय है। इसी क्रम में सभी की योग्य कर रखते हुए अन्य
सहकारियों की योग्य रीति से सम्मानित करते हुए नेतृत्व करने वाला कार्यकर्ता
अन्यों को बढ़ावा देता है। लेकिन ऐसा बढावा देते समय कुछ सावधानी भी बतरनी
पड़ती है। जहाँ कभी कभी बढावा देने से दूसरे व्यक्ति सक्रिय बनते हैं वहीं
दूसरी ओर उनमें से कुछ व्यक्तियों का अहंकार तथा अधिकाधिक सम्मान पाने की अखंड
इच्छा, भी बढ़ सकती है। तो एक तरफ दूसरों को सक्रिय बनाना और साथ ही साथ उनको
अनुशासन में रखना यह नेतृत्व की कसौटी है।
इसके साथ साथ यह भी ध्यान में लेना आवश्यक है कि कार्यकर्ताओं के मन में जो
बातें होती हैं वे सावधान चित्त से और धीरज से हम सुनते हैं। यह भी विश्वास
उनके मन में पैदा हो यह हमारा प्रयास रहना चाहिए। मेरे मन की व्यथा कोई सुनने
वाला नहीं है, मेरे मन की आपत्ति कोई समझने वाला नहीं है।' ऐसा भाव यदि
कार्यकर्ता में निर्माण होगा तो उसके मन में कार्यकर्ता के बारे में कुंठा
पैदा होती है और यह कार्य की धारा से आहिस्ता-आहिस्ता दूर हो जाता है। तो
कार्यकर्ता की बात तो सुनना चाहिए ही लेकिन सुनते समय हम केवल सहानुकंपा से
(sympathy) सुन रहे हैं। ऐसा उसे नहीं लगना चाहिए। तो सुनने वाला और बतानेवाला
इनकी हृदय-वीणाओं से एक ही झंकार गूंज रही है। अपने मन में उनके प्रति empathy
है इतना ही उसे महसूस हो। यदि कायकर्ता की बात हम केवल सहानुकंपा से सुनेंगे
तो उनके मन में स्वयं के प्रति करूणा का भाव निर्माण होता है। जिसके कारण उसकी
आत्मपरीक्षण की ओर आत्मचिकित्सा की मानसिकता क्षीण हो जाती है। कार्यकर्ता की
बात सुनते समय antipathy भी नहीं होनी चाहिए, पादा सहानुभूति भी नहीं चाहिए,
तो empathy होनी चाहिए।
अपनी वाणी पर भी नियंत्रण होना आवश्यक है और अपनी वाणी-बोलना सौम्य भी होना
चाहिए। शास्त्रों में भगवान का सहस्रबाहु, सहनशीर्ष तो कहा गया है। पर
सहस्रहृदय नहीं कहा गया है। अर्थात हाथ हजारों है, पैर हजारों हैं, सिर हजारों
है, किंतु हृदय एक ही हैं। यह हृदय चाहे जितना विशाल हो, परन्तु वाणी शुद्ध और
मधुर न रही तो सभी हेतू शुद्ध होने पर भी, बातें व्यर्थ हो जाती हैं। मन तो
कोई देख नहीं पाता है। वाणी से ही व्यक्तियों में पारस्परिक व्यवहार का
निर्धारण होता है। अपने विचारों पर अडिग तो रहना चाहिए लेकिन उनकी अभिव्यक्ति
अगर सौम्य वाणी में नहीं हुई तो कार्यकर्ता योग्य मानसिकता में वे ग्रहण नहीं
कर पाते।
आखिर संवाद का उद्देश्य क्या है
?
सार्वजनिक कार्य में संपर्क तथा संवाद के माध्यम, ज्यादा कर के बोलना, सुनना;
वाणी और श्रवण आदि ही रहते हैं लेकिन इन माध्यमों के द्वारा संपर्क करने का
प्रयोजन क्या है? आखिर बातचीत का उद्देश्य परस्पर मनों की एकता करना ही होता
है। मनों की पहले ही एकता हो तो शब्दरूप, मौखिक संवाद करने की भी जरूरत नहीं
होती है। शायद अप्रयोजनीय superfluous हो जाते हैं। संत ज्ञानेश्वर ने ऐसे
संवाद का वर्णन करते समय कहा है कि यह 'शब्देविण संवादू' शब्द के बिना संवाद
है। ऐसा एक अनोखा संवाद पश्चिमी साहित्य जगत् में हुआ, उसका उदाहरण देता हूँ।
दो श्रेष्ठ विचारक तथा साहित्यकार इमर्सन और कार्लाइल एक दूसरे से मिलने के
लिए आतुर थे। उन्होंने पहले पत्राचार करते हुए मिलने का समय तय किया। एक घंटे
का समय निश्चित हुआ। जो उनके नजदीक वाले थे, उन्हें उत्सुकता थी कि आखिर इतने
बड़े श्रेष्ठ पुरुष आपस में क्या क्या बातें करेंगे। उस भेंट का वर्णन मिलता
है कि, वे दोनों मिले। एक दूसरे की तरफ देखकर कुर्सी पर बैठ गए। एक घंटे तक
शांत चित्त से दोनों एक दूसरे की तरफ देखते रहे। कोई किसी के साथ कुछ बात बोला
नहीं। दोनों ने अपनी घड़ी देखी। एक घंटा हो गया था। समय पूरा हुआ। दोनों उठे
और केवल इमर्सन ने कार्लाइल को 'श्रीमद्भगवद्गीता' के अनुवाद की एक प्रति भेंट
के रूप में दे दी। दोनों एक दूसरे से अलग हो गए। कहते हैं कि उन दोनों को उनके
निकटवर्तियों ने पूछा कि, 'भाई, आप एक घंटे तक बैठे लेकिन आपने कुछ बातें ही
नहीं की।' तो दोनों ने कहा कि बातें तो बहुत हुईं। आपको पता नहीं चला। हम
दोनों जानते थे इसलिए खुश थे।'
तो मतलब यह है कि जहाँ पहले से ही मनोमिलन रहता है वहाँ सुसंवाद रहता है। और
वहाँ वास्तव में भाषा का कोई प्रयोजन ही नहीं है। Silence is more eloquent
ऐसी ही स्थिति रहती है।
मूल प्रेरणा शुद्ध
,
फिर भी मतभेद
इस विषय में ज्यादा सजगता रखने की बात तो अपने ही कार्यकर्ताओं के संदर्भ में
रहती है और उस संदर्भ में मतभेद और मनभेद इनमें विवेक करने की आवश्यकता रहती
है। मतभेद तो कार्यकर्ताओं की विभिन्न प्रेरणाओं के कारण होते हैं। कार्य करते
समय कुछ निहित हित संबंध रहे तो मानसिकता ही अलग हो जाती है और दो
कार्यकर्ताओं में मतभेद का अनुभव आता है। उस समय कुछ विचारों के संबंध में जो
मतभेद होंगे वे प्रामाणिक ही रहेंगे, तात्त्विक रहेंगे, ऐसा भरोसा नहीं रहता।
लेकिन मूल प्रेरणा एक होते हुए भी मतभेद हो सकते हैं। हरेक को अपनी बुद्धि है,
अलग प्रकृति है, प्रवृत्ति है, देखने की दृष्टि अलग रहती है। ऐसी स्थिति में
भी मतभेद होते हैं। महाभारत में ऐसे मतभेद का एक उद्बोधक उदाहरण आया है।
पांडवों के बारे में देखा जाए तो उनके मन का एकात्मकता, विचारों का साधर्म्य,
जीवन दृष्टि की समानता तो अतुलनीय रही है। फिर भी उनमें मतभेद थे ही। प्रसंग
है द्रौपदी वस्त्रहरण का। युधिष्ठिर शांत, संतुलित वृत्ति से सब सह रहा था।
लेकिन भीम से यह बिडम्बना सही नहीं जाती थी। उन्होंने सहदेव से कहा, 'जरा थोड़ा
अंगार ले आओ, ताकि मैं अपने ज्येष्ठ भ्राता के द्यूत खेलनेवाले हाथ जला दूं।'
इतना गंभीर मतभेद दोनों में था। इसका मतलब यह नहीं कि भीम द्रौपदी से ज्यादा
प्यार करता था और युधिष्ठिर का प्यार उतनी मात्रा में नहीं था। लेकिन दोनों की
प्रवृत्ति में फर्क था। फिर भी मूल प्रेरणा एक ही होने के कारण आगे चलकर जो
युद्ध हुआ उसमें सभी पांडव कंधे से कंधा मिलाकर एक साथ लड़े।
ऐसा एक ही उद्दिष्ट और प्रेरणा एक ही होने पर भी आग्रह अलग अलग होने से,
emphasis अलग होने से भी मतभेद होते हैं। परिवार में लड़की के विवाह के संदर्भ
में परिवार के अन्यान्य घटकों की जो भिन्न भिन्न अपेक्षाएँ रहती हैं उनमें हम
यह अनुभव कर सकते हैं। विवाह अच्छी तरह से संपन्न हो, उस लड़की का भावी
वैवाहिक जीवन सुखी हो इस पर तो कोई दो मत नहीं होते। फिर भी हरेक का आग्रह अलग
अलग रहता है।
कन्या वरयते रूपं, माता वित्तं, पिता श्रुतम।
बान्धवाः कुलमिच्छन्ति, जांमेष्टान्नं इतरेजनः।।
जिसकी शादी है वह होने वाले पति के रूप को प्राथमिकता देती है। माता की दृष्टि
से उसकी सांपत्तिक स्थिति महत्त्व की होती है। पिता इच्छा करता है कि कन्या का
पति विद्वान हो। बन्धुगण, कुल अच्छा, प्रतिष्ठित हो ऐसा चाहते हैं, और बाकी
लोग चाहते हैं कि विवाह समारोह में स्वादिष्ट मिष्ठान हो। हरेक का आग्रह अलग
अलग बात क संदर्भ में रहता है। यद्यपि सभी की एक ही इच्छा होती है कि लड़का की
शादी सुचारु ढंग से संपन्न हो और उसका वैवाहित जावन सुखमय रहे।
तो प्रेरणा एक होने पर भी मतभेद का संभव रहता है। यह ध्यान में लेकर ही उसे
सुलझाने का प्रयास शांति से होना आवश्यक है।
अब प्रेरणा एक होने पर भी मतभेद का संभव रहता है उसका और एक कारण है।
वास्तविकता की ओर देखने की, उसे ठीक ढंग से समझने की हरेक की क्षमता,
दृष्टिकोण अलग अलग रहते हैं। कार्यकर्ता सच ही बोलता है, लेकिन सच की वह अपनी
अपनी राय version होती है। वह झूठ नहीं बोलता, लेकिन उसे सत्य का जैसा दर्शन
होता है उसी के अनुसार ही वह बोलता है। वह सच पूरा या यथार्थ होगा ही ऐसी बात
नहीं है। इस तरह सत्य की यथार्थता के बारे में मतभेद का संभव रहता है।
मैं जब जनसंघ में काम करता था तब एक जगह की कुछ समस्या सुलझाने के लिए पं.
दीनदयाल जी ने मुझे और दूसरे एक कार्यकर्ता को वहाँ भेजा। अब जिसके बारे में
समस्या थी वह व्यक्ति सुबह जल्दी ही वहाँ पहुँच गया था। जब मैं प्रभात शाखा से
वापस आया तब तक वे सज्जन अपने गाँव वापस भी चले गए थे। जब मैंने अपने साथ वाले
कार्यकर्ता को इस संदर्भ में पूछा तो उसने कहा कि 'मैंने उस व्यक्ति की समस्या
के बारे में ऐसा फलाना निर्णय किया और वह वापस चला आया।' फिर उसने पूछा, 'क्या
मेरा निर्णय आप को पसंद नहीं आया?' मैंने कहा, 'ऐसी तो बात नहीं है, लेकिन
परिस्थिति का इतना जल्दी आकलन आपको हुआ इसका मुझे आश्चर्य हो रहा है।' अब यह
कार्यकर्ता बोला कि, 'जिस सज्जन के बारे में समस्या थी वे तो अपने प्रामाणिक,
निष्ठावान, कार्यकर्ता हैं।' मैंने कहा, 'मेरा मतलब ऐसा नहीं कि व कम
निष्ठावान हैं, लेकिन उन्होंने अपनी तरफ से जो वास्तविकता बताई होगी उसकी और
भी कोई version हो सकता है। तो वास्तविकता के सभी पहलू तथा versions जब तक
हमारे सामने नहीं आते, तब तक का पूरा आकलन करना और निर्णय लेना उचित नहीं
होता। Quick comprehension और quick decision यानी 'त्वरित आकलन और त्वरित
निर्णय' यह अमरीकी शैली हमारे कार्य में उपयुक्त नहीं हो सकती।
अव सत्य के आकलन के संदर्भ में यह भी कभी कभी संभव रहता है कि वास्तविकता के
सभी पहलुओं की, versions की जानकारी लेना कठिन रहता है। फिर भी कुछ ना कुछ तो
निर्णय लेना समय पर आवश्यक ही होता है। ऐसे मौके पर निर्णय लेते समय अस्थायी
(adhoc, tentative) है, यह न केवल ध्यान में लेना आवश्यक है अपितु अन्य
कार्यकर्ताओं को समझा देना भी आवश्यक है। परिस्थिति की पूरी या ज्यादा जानकारी
प्राप्त होने पर यह निर्णय बदलने की गुंजाइश रखते हुए ही ऐसा निर्णय लेना उचित
रहता है।
सुनने वाले की मानसिकता का ख्याल
जैसे वास्तविकता के संदर्भ में अलग-अलग राय बनी रहती है, वैसे ही बात करते समय
सुनने वाले की अलग-अलग मानसिकता रहने से बोलने का माने भाषा का तथ्य भी बदल
जाता है। माने शब्द वही रहता है लेकिन बोलने वाले का अभिप्राय और सुनने वाले
को प्रतीत होने वाला अर्थ इनमें फर्क रहता है और मतभेद और मनभेद भी निर्माण
होते हैं। ऐसा नहीं कि हमारा बोलना हमें अपेक्षित ऐसे ही ढंग से सुनने वाला
समझ जाएगा।
एक बार जयपुर में एक कार्यकर्ता के घर हम खाना खा रहे थे। मैंने कहा, 'लौकी की
तरकारी बहुत अच्छी बनी है।' यह प्रशंसा सुनकर भाभी जी प्रसन्न होंगी ऐसी मेरी
अपेक्षा थी लेकिन मेरा वाक्य सुनते ही कार्यकर्ता की पत्नी के चेहरे पर उदासी
छा गई। मुझे आश्चर्य हुआ। हाथ धोने के पश्चात् मैं सीधे रसोईघर में गया और
भाभी जी से कहा, 'मैंने तो आपकी बनाई सब्जी की तारीफ की थी और वह सुनकर आपके
चेहरे पर मायूसी छा गई, क्या बात है? भाभी जी ने हताश स्वर में कहा, "कुछ
नहीं। आप भी उन्हीं में से हैं। सब कहते हैं कि मुझे कोई काम अच्छे ढंग से
करना नहीं आता। कपड़े धोना, बर्तन साफ करना, झाड़ू लगाना, रसोई बनाना, कुछ भी
काम मैं अच्छे ढंग से नहीं कर सकती आपने भी वही कहा कि केवल लौकी की सब्जी
अच्छी हुई, इसका मतलब बाकी की चीजें सब खराब हुईं तो इसमें आपका दोष नहीं है,
सब ऐसे ही कहते हैं।"
मुझे आश्चर्य हुआ, मैंने कहा क्या था और उसके मन में यह गलत अर्थ क्यों
निर्माण हुआ। किंतु बाद में जब उनके दो लड़के मेरे पास आकर गपशप करने लगे,
उससे यह कारण मेरे ध्यान में आया। उस घर का हमारा कार्यकर्ता बहुत अच्छा संगठक
था किंतु उसकी बोलने की एक पद्धति थी। इस तरह से बोलने का वह आदी हो गया था।
मन में बुरा या गलत भाव न होते हुए भी वह ऐसा बोलता था। मानो, ऑफिस से आया,
पत्नी ने अच्छे गरम पकौड़े उसके सामने रखे, तो पकौड़े खाते खाते वह हमेशा,
दूसरों के घरों में ऐसे पकौड़े कितने अच्छे बनते हैं यह बताता रहेगा। तो
स्वभाविक था कि जिस घर में घरवाली की बनाई कोई भी चीज पसंद नहीं आती थी, या
दूसरे घर की तुलना में उसको नीचे बताया जाता था और बार बार यही सुनना पड़ता
था, तो तरकारी की मैंने की हुई प्रशंसा को भी भाभी जी ने गलत ढंग से लिया।
एक परिवार में तीन भाई थे। परिस्थिति के कारण बड़े भाई ने शिक्षा अधूरी छोड़कर
नौकरी की और छोटे भाईयों को सिखाया। दूसरा भाई कॉलेज जाकर पढ़ा। बाद में उसकी
शादी हुई। पत्नी तो अच्छी थी। लेकिन कॉलेज जीवन की कुछ रोमांटिक कल्पनाओं के
कारण उसको वह अच्छी नहीं लगती थी। उसका शल्य उसके मन में था। अब तीसरे भाई की
शादी में जब मैं अपने पिताजी के साथ गया था तो पिताजी ने बड़े भाई से कहा कि
'आपने भाई के लिए नक्षत्र जैसी सुंदर लड़की चुनी है।' यह सुनते ही दूसरे भाई
साहब बोल उठे, 'याने मेरी पत्नी बदसूरत है क्या?'
मेरी स्वयं के समझ के बारे में भी एक अनुभव बताने योग्य है कालीकत में पू.
गुरुजी के दौरे में कई बुद्धिजीवी लोगों के साथ गपशप का कार्यक्रम रखा था।
उसमें एक प्राचार्य थे, जिनको हम कभी कभी बौद्धिक के लिए बुलाते थे। उनका
परिचय बताते समय मैंने कहा He is also a lecturer in the R.S.S. University in
Kalikat. यह सुनते ही श्रीगुरुजी मुझे मराठी में हलके से बोले, 'अच्छा, तो
कालिकत में संघ का विद्यापीठ भी है?' अब मुझे लगा कि पू. गुरुजी मेरी प्रशंसा
कर रहे हैं।
फिर पाँच साल बाद जब मैं बंगाल में प्रचारक रहा तब हावडा के एक ऐसे ही
कार्यक्रम में एक महानुभाव का मैंने इसी तरह परिचय करा दिया। कार्यालय में
वापस आते ही श्री गुरुजी ने मुझसे कहा, 'पाँच साल पहले कालिकत में मैंने एक
सूचना दी थी, वह ध्यान में नहीं आयी ऐसा लगता है। किसी की भी ज्यादा प्रशंसा
की गई तो वह इंसान बिगड़ने की ज्यादा संभावना रहती है।, इस दृष्टि से तब
तुम्हें मैंने सजग किया था।' तो जिसको मैं प्रशंसा समझता था वह असल में एक
डाँट थी, यह बात मेरे समझ में नहीं आयी थी।
तो बोलने की भाषा एक होने पर भी अगर सुनने वाले की मानसिक पृष्ठभूमि अलग होगी
तो बोलने वाले के अभिप्राय को ही सुनने वाला ग्रहण करेगा ऐसा नहीं। यह बात भी
संपर्क-संवाद करते समय कार्यकर्ता को ध्यान में लेना आवश्यक है।
समय की बात-बात का समय
हमारा कार्य तो संपर्क-संवाद इन्हीं माध्यमों से होता, बढ़ता है। तो
कार्यकर्ता की मानसिकता ध्यान में लेते हुए ही उससे बात करना चाहिए। अब
दैनंदिन जीवन में हर व्यक्ति हर्ष-विषाद के कई प्रसंगों में से जाता है और उन
अनुभवों पर उनकी सामयिक मन:स्थिति निर्भर करती है। कुछ परिस्थिति की पृष्ठभूमि
का असर भी समय समय पर व्यक्ति के मन पर होता रहता है।
हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च।,
दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पंडितम्।।
अर्थात मूढ़ व्यक्ति के लिए हर दिन हर्ष के हजारों और भय के सैकड़ों स्थान
प्राप्त होते हैं। हम सामान्य व्यक्ति के बारे में भी यह कह सकते हैं। प्रायः
एक काम में आई निराशा, दूसरा काम-जो मूलतः आनंददायी भी क्यों न हो-करते समय
छाई रहती है। इसलिए बात करते समय यह भी देखना चाहिए कि वह व्यक्ति पूर्व घटना
से निर्मित भावच्छाया (hangover) तो नहीं है। दूरभाष पर हुई एक बात पर मैं
क्षुब्ध हो जाता हूँ। दूसरा फोन आता है तो पहली बात से प्राप्त मन:स्थिति से
मेरी आवाज अकारण तीखी हो जाती है। सुजान व्यक्ति की दृष्टि से तो यह बचपना ही
है। फिर हमको तो ऐसा करना ही नहीं चाहिए।
फिर भी दूसरे के बारे में ऐसी संभावना ध्यान में रखें कि हमारी बात सामने वाला
व्यक्ति वस्तुनिष्ठ मनःस्थिति से नहीं सुनता होगा। क्योंकि उसके मन पर किसी
अप्रिय पूर्व घटना का बोझ पड़ा हो। अपने कार्य में अनेक बार यह ध्यान में न
लेने के कारण कार्यकर्ताओं के संबंधों में बाधा उत्पन्न होती है तथा हानि होती
है। किसी कार्यक्रम में एकाध कार्यकर्ता अनुपस्थित रहता है। मुलाकात होने पर
उसे बिना कारण पूछे डॉटा जाता है। बाद में पता चलता है कि कार्यक्रम के दिन ही
उस कार्यकर्ता की माता का देहांत हुआ था। उसी तरह विषज्वर से तीन हफ्ते बीमार
होने के कारण एक कार्यकर्ता अनुपस्थित रहता है तो इतनी अनुपस्थिति असमर्थनीय
समझकर उसी ढंग से उससे बात होती है। उस समय उसको डाँटने वाला कार्यकर्ता यह
नहीं सोचता कि कार्यकर्ता तीन हफ्ते से बीमार है और हमको इसकी खबर तक नहीं यह
अपनी ही गलती है।
आप की अच्छी बात केवल इसलिए अस्वीकार हो सकती है कि उस समय सुनने वालों की
मन:स्थिति प्रतिकूल है या अनुकूल है, यह ध्यान में लेने का धीरज आप के पास न
हो। उतावले लोगों की मानसिकता ऐसी रहती है कि विषय को एक बार बोल डालो और अपने
मन का बोझ हल्का कर लो। उससे भी आगे की बात ऐसी भी होती है कि सुनने वाले की
मानसिकता ठीक नहीं है। यह मालूम होने पर भी बोलने वाला आत्मसंतोष का अनुभव
करता है कि हमने तो अपना कम किया, दूसरा व्यक्ति उसे समझ नहीं पाया तो हमारा
उसमें क्या दोष ? अब एसी मन:स्थिति अगर नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता में रही
तो उनका अन्य कार्यकर्ताओं से संवाद हो ही नहीं सकता और संगठन में बाधा
उत्पन्न होती है।
कुछ लोग तो इतना भी विवेक नहीं रखते कि दुखद घटना के समय मजाक की बातें या
मंगल प्रसंग में अशुभ बातें न करें। कई लोगों की अपनी ही बात सुनाने में
दिलचस्पी रहती है। They love their voice! दूसरों की सुनने में उनको बिलकुल
रुचि नहीं रहती।
दूसरा क्या बोल रहा है वह सुनने के लिए आवश्यक धीरज न रहने से और दूसरे की बात
बीच में ही काटने से कैसी कार्यहानि होती है इसका एक मजदूर क्षेत्र का उदाहरण
याद आता है। यह निलंबित कार्यकर्ता की बात का पुनर्विचार करने के लिए, किसी
प्रतिष्ठित व्यक्ति की मध्यस्थता से मैनेजमेंट तैयार हुई। यूनियन का पदाधिकारी
जनरल मैनेजर के पास बातें करने के लिए पहुँचा। जनरल मैनेजर उसे कहने लगे कि,
'हमने मामले की पूरी जाँच की है और इस निष्कर्ष पर आ चुके हैं कि आप के सदस्य
पर लगाया गया आरोप सही है।' अब आगे वे बोलते और उनकी इतनी ही बात पूरी भी नहीं
हुई कि यह कार्यकर्ता उन पर बरस पड़े, 'हम जानते थे आपकी चालबाजी। आप अपनी
मनमानी चलाइए, हम भी देख लेंगे। असल में जनरल मैनेजर आगे कहने जा रहे थे कि,
आरोप सही है फिर भी परस्पर सद्भाव दृढ़ करने की दृष्टि से हम उस मजदूर को काम
पर वापस लेने के लिए तैयार हैं। लेकिन यूनियन कार्यकर्ता ने उसकी बात बीच में
ही काट दी और ठीक ढंग से सुलझा वाला मामला बिगड़ गया।
कई अतिभाषी व्यक्ति भी आवश्यकता से ज्यादा बात करके कार्यहानि करते हैं। ऐसा
ही एक उदाहरण है। एक अतिभाषी कमलजी अपनी बात मनवाने हेतु विरोधी मत वाले विमल
जी के पास पहुँचे। बड़ी बुद्धिमानी और चतुराई से कमल जी ने विमल जी को अपना
दृष्टिकोण स्वीकारने के लिए प्रवृत्त किया। यहाँ तक कमल जी ठीक ढंग से आगे
बढे। यही क्षण था जब पहला विषय बंद करके किसी दूसरी बात पर बोलना शुरू करें।
किंतु अपनी कामयाबी पर हर्षित होकर कमल जी का संयम टूटा और स्वभावजन्य अतिभाषी
प्रवृत्ति से वे विमल जी को समझाते रहे कि उनकी बात स्वीकारने का विमल जी का
निर्णय कितना उचित था। जैसे-जैसे कमल जी की बात गढ़ती गई, विमल जी सोचने लगे
कि इनकी बात स्वीकार करने में मैंने गलती तो नहीं की और पका पकाया हुआ मामला
खटाई में पड़ गया। तो यह ख्याल रखना आवश्यक है कि Good cause is lost by bad
advocacy ऐसे न होने देना चाहिए।
बुद्धिमानों के बारे में सावधान।
अब अपने कार्य में ऐसे भी लोगों से हमें संपर्क करना पड़ता है जो अति
बुद्धिमान होते हैं और 'हम बुद्धिमान' हैं। इस भाव से उनमें अहंता भी होती है।
ऐसे बुद्धिमान व्यक्तियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती है कि दूसरों के विचार
वे सहज स्वीकार नहीं करते। अप्रकट मन में स्थित बौद्धिक अहंकार का यह
स्वाभाविक परिणाम होता है। ऐसा कहा गया है, 'Nobody agrees to anybody else's
views; everybody agrees to his own views expressed by others' बुद्धिमान
लोगों के साथ संवाद, चर्चा, करते समय उनकी इस मानसिकता का ख्याल रखना आवश्यक
है। पूर्वकाल में हमारे देश में बौद्धिक ईमानदारी Intellectual honesty थी। उस
समय का श्रीमदशंकराचार्य और मंडनमिश्र का परस्पर व्यवहार हमारे लिए ऐसी
ईमानदारी का आदर्श रहा है। किंतु आज इस ईमानदारी का स्थान बौद्धिक अहंकार
(intellectual ego) ने लिया है। ऐसी बौद्धिक अहंकार बुद्धि की चमक दिखाकर
विवाद में यश पा सकता है। हम भी उस बुद्धिमान व्यक्ति का उसी स्तर पर सामना कर
सकते हैं लेकिन कार्यकर्ता को यह ख्याल रहना आवश्यक है कि कि ऐसे तर्कवाद से
हम बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी ओर नहीं ला सकते। we may win an argument but
lose the man!
ऐसी स्थिति में अपनी ओर से सभी संबंधित तथ्य ऐसे व्यक्ति के सामने प्रस्तत
करना और तर्कसंगत निर्णय लेने का या अभियान बनाने का काम उसी के ऊपर सौंपना
उपयुक्त रहता है। हमारे तथ्य ऐसे हो कि विचारशील व्यक्ति को हमारे ही निष्कर्ष
पर आना होगा इसमें उसे अपनी बद्धि की अहंता संतुष्ट करने का तथा अपनी बुद्धि
से निष्कर्ष निकालने का संतोष भी मिलता है और वह व्यक्ति अपने ही स्वयं के
निर्णय से हमारे कार्य में जुट जाता है।
संपर्क संवाद के माध्यम के बारे में और भी एक बात ध्यान में लेना आवश्यक है कि
किसी भी छोटे कार्यकर्ता को भी अपने मन की बात ज्येष्ठ कार्यकर्ता के सामने
रखने में संकोच नहीं होना चाहिए। अपनी कार्यपद्धति' इस विषय के संदर्भ में यह
बात आई है कि संगठन में बाधा उत्पन्न हो इतनी भी स्वतंत्रता कार्यकर्ता के लिए
हानिकारक है और कार्यकर्ता की स्वयंप्रेरणा तथा उत्क्रमशीलता जकड़बंदी में पड़
जाए इतनी सख्त पाबंदी भी ठीक नहीं है। दोनों सीमाएँ (extremes) टालनी चाहिए।
वैसी ही बातें करने के बारे में कह सकते हैं। कार्यकर्ता बोलने में पूर्णरूपेण
खुली मानसिकता से बोले इतनी स्वतंत्रता, इतना सौहार्दपूर्ण वायुमंडल तो होना
चाहिए, लेकिन उसका बोलना इतना खुला तथा स्वर ऐसा न हो कि संगठन के हित की सीमा
पार कर जाए। यह विवेक भी कार्यकर्ता में होना चाहिए।
कार्यकर्ता निर्माण पर जोर क्यों
?
कार्यकर्ता निर्माण पर हम लोग इतना जोर क्यों देते हैं? इसका कारण है कि
कार्यकर्ता हमारे कार्य का माध्यम है। मजदूर क्षेत्र का एक अनुभव बताता है।
1977 में कोटा में भारतीय मजदर संघ का एक स्वाध्याय वर्ग लगा था। उसमें
'कार्यकर्ता' इस विषय पर विचार सुनने के बाद 'सीट' से टूट कर हमारे संगठन में
आए। एक सज्जन पूछने लगे कि कार्यकर्ता के बारे में आप लोग इतना आग्रह क्यों
रखते हैं? कार्यकर्ता तो सदा कार्यकर्ता ही है। हमने कहा कि ऐसा नहीं है।
कार्यकर्ता अच्छा बना रहे इसका आग्रह इसलिए है कि उसके कारण ही कार्य क्षेत्र
स्वच्छ और स्वस्थ रहता है। कार्यकर्ता तो कार्यकर्ता है। लेकिन व्यक्ति इस
नाते हर कार्यकर्ता का अपना अपना स्वभाव रहता है, अलग अलग मानसिकता रहती है।
तो ऐसे व्यक्ति को हम अच्छा कार्यकर्ता बनाने का प्रयास न करें तो उसका
स्वभाव, मानसिकता आदि का कार्य पर असर होना स्वभाविक होता है।
हमारे एक अच्छे मित्र हैं। मजदूर संघ के नहीं, अन्य क्षेत्र के हैं। नेता हैं।
उसका अपना स्वभाव है। एकदम किसी को कुछ बोल देना और कहना कि 'मैं तो मुँहफट
हूँ, जो मेरे दिल में है वही मेरे मुँह में है, मैं दोहरापन नहीं जानता।" अब
ऐसे लोगों की बातों के कारण अन्य कार्यकर्ता टूट जाने की संभावना तो रहती ही
है। लेकिन स्वयं ऐसे लोगों के मन में अनजाने में यह भाव भी बढ़ता रहता है कि
मैं जो हूँ सो हूँ। मेरा उपयोग करना है तो कर लो, नहीं तो छोड़ दो। मुझमें तो
कोई परिवर्तन कैसे हो सकता है? ऐसे कार्यकर्ता ठीक पावदान की तरह होते हैं।
पावदान पर कभी कभी ऐसा लिखा होता है Use me! मैं जैसा हूँ, वैसा मेरा उपयोग
करो। मानो पावदान कहता है मुझमें तो कोई बदलाव आने वाला नहीं। मैं जैसा हूँ
वैसा ही आपको उपयोग में लाना होगा। ऐसे कार्यकर्ता यह नहीं ध्यान में लेते हैं
कि हम पावदान नहीं हैं। वे प्रामाणिक तो होते हैं लेकिन अपने अपरिवर्तनीय
स्वभावविशेष में ही अभिमान रखते हैं। मानो उस स्वभाव विशेष के, या खास करके
स्पष्टवक्तापन के नशे में डूबे रहते हैं।
इसमें ऐसे भी लोग होते हैं कि निजी स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए जो धीरज
रखना आवश्यक होता है वह उनमें नहीं रहता है। एक उदाहरण देता हूँ। हमारे एक
मित्र हैं। हम दोनों मिलकर किसी नए कार्यकर्ता से बात करने गए। उस कार्यकर्ता
को समझना था। मैं उसके साथ बात कर रहा था लेकिन जब में कुछ पूछ रहा था तो बार
बार अपनी एक ही बात दोहरा देता था। बार बार दोहराने की कुछ लोगों की आदत ही
होती है। लेकिन तीन व उसके एक ही बात बोलने पर भी में सुन ले रहा था। किंतु
मेरे साथ वाले मित्र का धीरज टूट गया। उन्होंने कहा, 'दत्तोपंत उसके साथ बात
करने में कोई अर्थ नहीं है, चलो' और फिर उन्होंने उस कार्यकर्ता से कहा, 'आप
पहले दर्जे के मूर्ख हैं।' सारा मामला बिगड़ गया। हम वापस आए। वापस आने पर
मैंने साथ वाले कार्यकर्ता से पूछा कि 'आपने उस कार्यकर्ता को पहले दर्जे का
मूर्ख क्यों कहा?' तो मेरे मित्र ने कहा 'दत्तोपंत आप मुझे सिखा रहे हैं? मैं
आपको अच्छी तरह जानता हूँ।' मैंने कहा-'बात क्या है? तो उसने कहा, 'जो मेरे मन
में है वही आपके मन में है। अंतर मात्र इतना ही है कि मैंने कह दिया कि वह
मूर्ख है और आपने नहीं कहा।' फिर आगे बोला कि बात यह है कि मैं स्पष्टवक्ता
हूँ, आप पाखंडी हैं।' अब यह सुनने के बाद मैं उसे कैसे समझाता? मन में एक
बौद्धिक वर्ग तैयार था, लेकिन जब उसने कहा कि वह स्पष्टवक्ता और मैं पाखंडी
हूँ मेरा बौद्धिक वर्ग वैसे ही खतम हो गया। मैं आगे बोलता ही क्या? ऐसे स्वभाव
के लोग ऐसा सोचते हैं कि हमारे अंदर तो अब परिवर्तन आने वाला नहीं। उनके पास
उसके लिए आवश्यक धीरज नहीं रहता। यह बीमारी ऐसी है कि इसकी कोई दवा नहीं है।
अब ऐसा स्वभाव तो अहंकार का ही एक अलग सा आविष्कार है और अहंकार के कारण तो
कार्यहानि होती ही है।
और भी एक बात है। अपनी कमियों की सीमाओं के बारे में कोई कार्यकर्ता ऐसा भी
कहते हैं कि यह सब तो स्वभाव सुलभ ही है। आखिर हम भी तो मनुष्य हैं। उनका कहना
ठीक तो है। मनुष्य इस नाते ये सारे बातें होना स्वभाविक है उसमें कोई आपत्ति
और दोष नहीं है, किंतु आप को यह आशा नहीं करनी चाहिए कि दस लोग अनुसरण करें या
दस लोगों को आप साथ में लेकर आगे बढ़े। वे आपको नेता या कार्यकर्ता इस रूप में
स्वीकार करें। यदि आप लोगों का नेतृत्व करना चाहते हैं तो फिर यह नहीं चलेगा
कि मैं जैसा हूँ, वैसा ही रहूँगा। तो यह मनुष्य स्वभाव सुलभ बात है। इसमें
परिवर्तन नहीं आ सकता। नेतृत्व करने के लिए हमको ऐसे स्वभाव विशेषों में
परिवर्तन करना ही पडता है। इस दृष्टि से कार्यकर्ता निर्माण बहुत ही
महत्वपूर्ण है।
अहंकार का उद्भव
इसी प्रक्रिया में आगे चलकर अपने अंदर अनजाने ही अहंकार घुस जाता है। मूलतः
ध्येयनिष्ठ व्यक्ति के मन में भी धीरे-धीरे नेतागिरी के भाव आ जाते हैं और कुछ
सफलता प्राप्त होने के बाद यह बात मन में आने लगती है कि यह सब तो मेरे
कर्तृत्व के कारण ही संभव हो सका है। वह यह भूल जाता है कि वास्तव में यह
सफलता सब के सामूहिक प्रयास और परिश्रम का फल है।
तुलसीदास ने भी कहा है कि
लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश, विधि हाथ।
जय-पराजय, लाभ-हानि जीवन-मरण सब भगवान के हाथ में है। तुम्हारे हाथ में कुछ
नहीं है। लेकिन भगवान के भरोसे रहना और सब कुछ उसी पर छोड़ देना इसके लिए लोग
तैयार नहीं होते। तुलसी जी के विचार को ठीक ढंग से मान लिया जाए तो यह स्पष्ट
होता है कि किसी एक आदमी के कारण सफलता नहीं प्राप्त हो सकती। कई सहायक तत्त्व
attendant factors उसमें शामिल रहते हैं। खास करके अपने कार्यकर्ताओं के
द्वारा किए हुए काम, साथ में रहने वाले अन्य लोगों का पहला महत्त्वपर्ण योगदान
तथा अपने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का अब तक मिला हुआ सही मार्गदर्शन तथा
प्रोत्साहन और समय की अनुकूलता ऐसे कई घटक इस सफलता की संभावना में सहायभूत
होते हैं। अगर इन सभी बातों की सहायता का सही ख्याल न रखा तो सफलता प्राप्त
करने वाले कार्यकर्ता के दिमाग में गड़बड़ी शुरू हो जाती है। अच्छे भले
कार्यकर्ता के मन में भी ऐसी गड़बड़ी शुरू हो जाती है। उस समय कुछ ऐसे भी लोग
साथ में रहते हैं कि वे उसमें अपने स्वार्थी हितसंबंधों के लिए और बढ़ोत्तरी
कर देते हैं। किसी एक रसिक कवि ने इश्क के बारे में एक शेर कहा है। उस शेर में
इश्क की जगह 'नेतागिरी' यह शब्द डाल दिया तो वह शेर ऐसा हो जाता है-
वैसे भी होते हैं नेतागिरी में जूनून के आसार,
और फिर लोग और भी दीवाना बना देते हैं।
अब एक बार अपने कर्तृत्व के बारे में अहंकार का भाव मन में पैदा हुआ तो
कार्यकर्ता सोचना प्रारंभ करता है कि 'ये जो मेरे साथ वाले कार्यकर्ता हैं
उनको तो मैं ही संघ में लाया हूँ। मैंने ही तो इनको कार्यकर्ता बनाया।' और
आत्म-औचित्य सिद्ध करते करते इतना अध: पतन शुरू हो जाता है कि जिस सीढ़ी से वह
ऊपर चढ़ जाता है-ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता इकट्ठा होते हैं। तब एक और एक मिलकर दो
नहीं बल्कि ग्यारह होते हैं। तीसरा आया तो एक सौ ग्यारह होते हैं आदि। लेकिन
जब प्रमुख कार्यकर्ता के मन में अहंकार आता है तो इस शक्ति संख्या में वह
दशमलव बिंद का कार्य करता है। और पहले जब चार कार्यकर्ता मिलकर 1111 संख्या
बनी थी वह .1111 संख्या में परिवर्तित हो जाती है। क्योंकि एक के पहले दशमलव
चिन्ह आता है तो .1 एक दशांश हो जाता है। वैसे ही .11, .111, .1111 ऐसी उनकी
संख्या घटती जाती है और इस संगठन में बाधा उत्पन्न होती है।
अपने कार्य में हर हमेशा नए नए कार्यकर्ताओं के निर्माण की श्रृंखला बनी रहना
इस पर हम ध्यान देते हैं। लेकिन नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता के मन में एक
बार अहंकार का प्रवेश हुआ तो यह कार्यकर्ता निर्माण की प्रक्रिया भी खंडित या
क्षीण हो जाती है। साथ वाले छोटे कार्यकर्ता अगर अधिक उपक्रमशील रहे, लगन से
काम करने वाले हों, तो इस नेता, कार्यकर्ता को लगता है कि 'मेरे कबूतर मुझसे
ही गुटरगूं करेगा तो यह कैसे चलेगा।' तो ऐसे उपक्रमशील कार्यकर्ता को बढ़ावा
देकर विकसित करने के बदले, सदा यही सोचा जाता है कि उसको आगे नहीं आने देना।
तो न केवल संगठन में, बल्कि कार्यकर्ता निर्माण की और विकास की प्रक्रिया में
भी बाधा निर्माण होती है। दूसरी पंक्ति का नेतृत्व (second line of
leadership) निर्माण नहीं हो सकता है।
एक अच्छा उदाहरण है। एक मच्छिमार केकड़े पकड़ रहा था। समुद्र के किनारे पर
टोकरी रख कर केकड़े पकड़कर उसमें डाल रहा था। टोकरी में कई केकड़े जमा हो गए।
लेकिन केकड़े के ऊपर कोई ढक्कन वगैरह नहीं था। इतने में उसका एक मित्र वहाँ
आया। उसने देखा कि मच्छिमार केकड़े पकड़ रहा है। लेकिन टोकरी पर तो ढक्कन नहीं
है और केकड़े कूदकर बाहर आने का प्रयास कर रहे हैं। तो उसने मच्छिमार से कहा,
'अरे, इस टोकरी पर ढक्कन तो रख दो, नहीं तो केकड़े कूदकर बाहर चले जाएँगे।'
मच्छिमार ने कहा, 'नहीं। इसकी फिक्र मत करो। कोई भी केकड़ा बाहर नहीं जाएगा
क्योंकि जब कोई केकड़ा ऊपर जाने की कोशिश करता है, तो बाकी के केकड़े उसकी
टाँग खींचकर उसको नीचे गिराते हैं। उनको रोकने के लिए हमको कुछ भी करने की
आवश्यकता नहीं है।'
धर्मांतरण के एक दिन पूर्व डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर नागपुर के श्याम होटल में
अपने प्रमुख कार्यकर्ताओं के साथ दिनभर बैठे थे। अपने महाप्रयाण का आभास उनको
हो चुका था और इसलिए अपने मन में जो भी विचार होंगे वे सब अपने साथियों को
बताने की उनकी इच्छा थी। कार्यकर्ता भी मन की बातें खुलकर पूछ रहे थे। एक
फेटेवाले कार्यकर्ता ने पूछा, "बाबा, मैंने अपने जीवन में देखा है कि कई कार्य
निर्माण होते हैं, आगे बढ़ते हैं और कालांतर से समाप्त भी हो जाते हैं, तो
इसका कारण क्या है?' बाबा ने हँस कर कहा कि 'जहाँ उपेक्षा रहती है, वहाँ कार्य
बढ़ते ही जाता है और जहाँ उपेक्षा नहीं है, वहाँ कार्य घटते घटते समाप्त हो
जाता है।'
हम सब लोगों को लगा कि यह बाबा की slip of tongue है,क्योंकि उपेक्षा यानि
उदासीनता। जहाँ उदासीनता है वहाँ काम बढता है या कहा जा सकता है?
बाबा स्मितहास्यपूर्वक हम लोगों की ओर देख रहे थे और फिर बोले कि 'तुम लोगों
के मन में क्या है, मैं जानता हँ। तुम लोग सोच रहे हो कि यह मेरी slip of
tongue है। किंतु ऐसा नहीं है। तुमने जो प्रश्न पूछा था, उसका उत्तर दो हजार
वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध ने दे रखा है। यहाँ भगवान बुद्ध 'उपेक्षा' शब्द
तांत्रिक अर्थ में उपयोग में लाए हैं। कोई भी नया कार्य शुरू होता है तो लोग
और उसके प्रति उदासीनता दिखाते हैं। मुट्ठी भर ध्येयवादी लोग कार्य चलाते रहते
हैं, इस कारण कार्य बढ़ता है, और उसे अनदेखी करना संभवनीय नहीं होता। उस
स्थिति में लोग इस नए कार्य का उपहास करते हैं। इस कारण कई कार्यकर्ता कार्य
छोड़ देते हैं तो भी बचे हुए कार्यकर्ता लगन से कार्य चलाते रहते हैं। इस कारण
कार्य और भी बढ़ता है। इस अवस्था में विरोध शुरू होता है। विरोध की प्रखरता के
कारण कई और कार्यकर्ता काम छोड़ देते हैं, तो भी बाकी कार्यकर्ताओं के जिद्द
के कारण कार्य और भी बढ़ता है और होते होते यशोमंदिर का शिखर दृष्टिपथ में आता
है। यही क्षण है, जब कार्यकर्ताओं के मन में परिवर्तन होने की प्रबल संभावना
निर्माण होती है। जिन्होंने नि:स्वार्थ बुद्धि से और तपस्या से अब तक काम
किया, उनकी मानसिकता में यशोमंदिर का शिखर देखने के बाद परिवर्तन आता है और
आने वाली सफलता में मैंने किए हुए कार्य का श्रेय कितना बड़ा है, यह दिखाने की
होड़, प्रतिस्पर्धा प्रारंभ हो जाती है। हरेक अपने श्रेय का हिस्सा बहुत बड़ा
दिखाने की कोशिश करता है। यह crisis of credit sharing. बड़ी मात्रा में होता
है ऐसे समय कार्य के जो प्रमुख प्रवर्तक होते हैं, वे इस क्रेडिट शेअरिंग के
मोह में न फंसते हए अपने ही स्थान पर स्थिर रहें और दूसरों को दौड़ने दें,
याने क्रेडिट शेअरिंग के मामले में उनके मन में 'उपेक्षा' का भाव रहा तो फिर
काम आगे बढ़ता है। किंतु प्रमुख प्रर्वतक लोग स्वयं क्रेडिट शेयरिंग की
स्पर्धा में मोहवश होकर दौडने लगे तो यह कार्य घटता है और समाप्त भी हो जाता
है।'
ऐसी स्पर्धा मन में पैदा होती है तो कार्यकर्ताओं में और एक प्रवृत्ति निर्माण
होती है। सफलता प्राप्त हुई तो श्रेय लेने की और असफलता प्राप्त हुई तो
जिम्मेदारी दूसरों पर ढकेलने की। अंग्रेजी में एक कहावत है-Success has many
fathers, but failure is an orphan! यानी सफलता के स्वामी अनेक होते हैं लेकिन
असफलता का आश्रयदाता कोई नहीं होता और इसके लिए असफलता की जिम्मेदारी दूसरों
पर ढकेलने की प्रवृत्ति जारी रहती है लेकिन जो सही नेतृत्व होता है, वह सफलता
का श्रेय भी अकेले नहीं लेता और असफलता की जिम्मेदारी लेने में भी धीरज के साथ
तैयार रहता है। असफलता की जिम्मेदारी ढकेलने की प्रवृत्ति को अंग्रेजी में
passing the buck ऐसा कहते हैं। अमरीकी अध्यक्ष आयजनहॉवर के मेज पर एक पट्टी
पर लिखा हुआ था-The buck stops here! मतलब, असफलता की जिम्मेदारी किसी को भी
दूसरों पर ढकेलने दो, आखिर हम तो बैठे हैं, पूरी जिम्मेदारी लेने के लिए।
नेता की बुराई का भी अनुकरण
अब जैसा कि बताया गया है कि नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता अन्य कार्यकर्ताओं
के लिए आदर्श बन जाते हैं, तो स्वभाविक ही है कि ऐसे आदर्श रूप कार्यकर्ताओं
के गुणों का अनुकरण करने की प्रेरणा जैसे छोटे कार्यकर्ताओं को मिलती है, वैसे
ही उनकी बुराई के अनुकरण की भी मानसिकता कार्यकर्ताओं में पैदा होती है।
अंग्रेजी में एक सूत्र आता है- Love begets love! वैसे ही हम कह सकते हैं- Ego
begets ego! यानी यदि नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता में अहंकार का भाव पैदा
होता है। अब नेता भूल जाता है कि यदि जमीन पर लात मारेंगे तो जमीन भी आपको
उतनी ही चोट पहुँचाएगी। आप के अहंकार के प्रज्जवलन के साथ-साथ अपने सभी
प्राणियों का अहंकार भी प्रज्वलित होता है। यह पहले वे अहंकारी नहीं होते हैं।
उसका कारण, वे पहले जानते हैं कि हमारे प्रमुख कार्यकर्ता के मन में अहंकार
नहीं है। वह ध्येयनिष्ठ है। ध्येय के प्रति आत्मसमर्पित है। लेकिन साथियों को
जब यह अनुभव होता है कि ऐसे ज्येष्ठ कार्यकर्ता के मन में भी अहंकार है तो
उसके परिणामस्वरूप, आहिस्ता-आहिस्ता उनके मन के स्खलन का भी प्रारंभ होता है।
अहंकार के कारण स्वयं को बढ़ावा देने के लिए प्रमुख कार्यकर्ता सोचता है कि
बाकी लोग तो इसी प्रकार आत्मसमर्पित रहने ही वाले हैं। इनमें से मैं अपना
करिअर या स्थान क्यों न बना लूँ? और फिर उसके द्वारा चतुराई के प्रयोग होने
लगते हैं। Service before self की जगह Self without service की मानसिकता बनना
शुरू होती है। इतना ही नहीं तो कुछ त्याग वगैरह करना ही पड़ेगा तो फल का हिसाब
मन में रखकर आवश्यक उतना ही न्यूनतम ऐसा त्याग करेंगे यह भी मानसिकता निर्माण
होती है परंतु ऐसा प्रमुख कार्यकर्ता यह नहीं सोचता है कि 'अरे, हम चतुर होंगे
तो जो आत्मसमर्पित हैं, उनके अंदर भी चतुराई आ जाएगी। वे आत्मसमर्पित नहीं
रहेंगे। वे यह सोचेंगे कि अपना प्रमुख कार्यकर्ता ही यदि स्वयं को बढ़ावा देने
के लिए ऐसे चतुराई का आसरा लेता है, तो क्यों नहीं हम भी अपना करिअर बनाएँ। तो
अगर नेता और अनुयायियों में ही ऐसी होड़ लगी तो करिअर की दृष्टि से, लौकिकी
दृष्टि से कार्यकर्ता बड़े, ऊँचे हो जाते हैं लेकिन संगठन तो बौना ही रह जाता
है।
और चतुराई के कारण कार्यकर्ता का ऐसा जल्दी ऊँचा चढ़ना पतंग जैसा रहता है जबकि
संगठन की दृष्टि से हमारी अपेक्षा रहती है कि वह वृक्ष के समान ऊँचा हो। याने
संगठन के धरातल का उसका संबंध तो टूट न जाए बल्कि और भी विकसित होने के लिए
धरातल से ही उस जीवनरस प्राप्त हो।
साधनों की विपुलता से स्खलन
अब जैसे अहंकार, स्वयं के बड़प्पन का भाव यह कार्यकर्ता के आत्मविकास की
प्रक्रिया जारी रखने में बाधा निर्माण करता है, वैसे ही कार्यकर्ता के स्खलन
का और भी एक आयाम है। जब संगठन का दायरा व्यापक होता है, तब संगठन की
गतिविधियों के लिए आवश्यक ऐसे साधन भी बढ़ जाते हैं। अब हमारा तो आग्रह रहता
है कि साधनों की उपलब्धि न्यूनतम होनी चाहिए, फिर भी संगठन का विकास होने पर
उसके अनुसार साधनों में भी कुछ मात्रा में विपुलता आती है और कार्यकर्ता के मन
में साधनों का उपयोग करने में जो विवेक होना चाहिए, वह कभी-कभी ढल जाता है।
उत्तरोत्तर साधनों पर निर्भर रहने का आदत विकसित होती है और कार्यकर्ता का
मानसिक संतुलन ढल जाता है।
हमने एक सिनेमा देखा था। उसमें एक मजदूर कार्यकर्ता का दर्शन होता है। वह
मजदूर कार्यकर्ता मुख्यमंत्री से बात करता है। बड़ी स्पष्ट बात करता है। फलाना
काम नहीं किया तो जूते से मारूँगा, आदि बातें करता है। अब इसमें अगर असफलता आ
गई तो क्या हो गया आदि। उसके साथ एक महिला सेक्रेटरी रहती है। कार्यकर्ता बात
करता रहता है और कहता है कि 'मेरा क्या, मैं तो पहले की तरह दुकान के सामने
वाला पटरिया पर सो जाऊंगा, मुझे आदत है।' उस पर वह महिला कहती है कि अब वह आदत
छूट गई है। अब तो गाड़ी में बैठने की, होटल में रहने की आदत हो गई है। अब आप
दुकान की पटरियों पर सो न सकेंगे।'
इसलिए कार्यकर्ता को सोचना चाहिए कि बढ़ती हुई साधन-सुविधाओं से कहीं मेरी
पुरानी आदत तो छूट नहीं गई, बिगड़ तो नहीं गई? कल तक मैं अपने किसी कार्यकर्ता
के घर में भी आनंद से रहता था। अब मान्यता मिल गई, संगठन बढ़ता रहा है।
सुविधाओं की विपुलता है। रहने का प्रबंध भी काफी अच्छा है। अब जिस कार्यकर्ता
को यह आदतें लग गई, उसे किसी कार्यकर्ता के छोटे घर में आनंद नहीं मिलेगा, उसे
असुविधा होने लगेगी। अगर उस कार्यकर्ता की आदतें वही सादगी की आदतें हैं तो वह
कार्यकर्ता सफल होगा ही। परिवर्तित परिस्थिती में भी वह पहले जैसे समर्पित
मानसिकता में ही काम करता रहेगा।
यह तो सर्वज्ञात है कि कम्युनिस्टों ने सशस्त्र संघर्षवादी क्रांति का रास्ता
छोड़ कर संसदीय लोकतंत्र का रास्ता अपनाया। इस पार्टी के एक बड़े नेता कामरेड
ए. के गोपालन ने अपने आत्मचरित्र में लिखा है कि वे एक विशेष उद्देश्य लेकर
लोकसभा में गए थे। लोकसभा में जाकर हम परिवर्तन कार्य करेंगे ऐसा उनका कहना
था। परंतु संसद में पहुँचने के बाद उन्हें कुछ अलग ही अनुभव आए। जब कार्यकर्ता
संसद में नहीं पहुँचे थे, तब वे मजदूरों, किसानों से मिलते थे। घंटों तक उनके
सुखदुख की चर्चा होती थी। मजदूरों के यहाँ भोजन करते थे। गंदी बस्ती में सो
सकते थे। दिल्ली में पहुँचे, अच्छे फ्लैट मिल गए। पंखे, फर्नीचर, कालीन की
व्यवस्था हो गई। मिनिस्टरों के यहाँ दावतें होने लगीं। प्रधानमंत्री,
राष्ट्रपति आदि से मुलाकातें होने लगीं। अब वहाँ की आदत लग गई। संसद सदस्य बने
इन कार्यकर्ताओं के मन में आने लगा कि यहीं दिल्ली में रहना अच्छा है। फिर
विचार आने लगा कि मतदाता संघ में मजदूरों के पास जाना, उनकी गंदी बस्ती में
सोना, जहाँ तक टल सकता हो उतना ही अच्छा। यानी मनोवृत्ति में परिवर्तन आने
लगा। संसदीय पद्धति में जाकर उसे अपनी पार्टी के हित में exploit करना तो दूर
रहा, उस पद्धति में आकर स्वयं उनके अंदर ही कुछ बदलाव आए।
कम्युनिस्टों का सीपीआई और सीपीएम में जब विभक्तिकरण हुआ, उस समय इस विषय पर
काफी लंबी चर्चाएँ कम्युनिस्ट पार्टी में हुईं। एक पक्ष का कहना था कि संसदीय
राजनीति में जाने के दुष्परिणाम होने वाल हैं, हमारा क्रांति का आग्रह
revolutionary zeal कम हो जाएगा। श्री ए. के. गोपालन के आत्मचरित्र से यह
सिद्ध होता है कि साधन और सविधाओं के अधिकतम होने से आदतें बिगड़ गईं थीं और
क्रांति का आग्रह कम हो गया था।
ऐसी ही बात काँग्रेस के इतिहास में भी दिखाई देती है। माउंट फोर्ड सुधार का
प्रस्ताव ब्रिटिशों ने प्रस्तुत करने के बाद विधिमंडल में जाना या नहीं, इस पर
कड़ी चर्चा हुई। अधिकतम लोगों का विचार था, कौंसिल प्रवेश करेंगे और इस मंच का
जनजागरण के लिए उपयोग करेंगे। बाद में हम आंदोलन कर सकेंगे। तो उस समय सब को
चेतावनी देने वाले एक विचारक थे, जिन्होंने कहा कि यह नहीं होगा। आप कौंसिल
प्रवेश करेंगे और वहीं के हो जाएँगे, फिर जनजागरण वगैरह का विचार छूट जाएगा
इसलिए कौंसिल में नहीं जाना चाहिए। यह विचार आग्रहपूर्वक रखनेवाले विचारक थे
महात्मा गांधी।
परिवर्तित परिस्थितियों में, सुविधाओं की विपुलता के कारण व्यक्ति अपने मार्ग
से क्यों ढल जाता है? इसलिए कि पहले जमाने में रहता था उसी तरह अब फिर रहने
में कष्ट होता है, असुविधा होती है। एक कार्यकर्ता से पूछा कि बैठक में क्यों
नहीं आए? उसने कहा कि, 'क्या करें, वाहन नहीं मिला, यानी स्कूटर नहीं मिला।'
जब उसके पास स्कूटर नहीं था, तब वह कार्यकर्ता बराबर बैठक में आता था लेकिन
स्कूटर की आदत से मजबूरी आ गई। स्कूटर नहीं तो बैठक में कैसे जाऊँ?' तो
कार्यकर्ता को हमेशा यह सोचना चाहिए, अच्छा कपड़ा मिला, पहन लो, अच्छा खाना
मिला, खा लो! लेकिन खाने-पीने रहने, उठने-बैठने में, बातें करने में हमारी
आदतें बिगड़कर हम ऐसी सुविधाओं के अधीन होकर मजबूर न बनें। हमको जहाँ जाना है।
यदि अच्छे कपड़े पहनकर नहीं गए तो इज्जत नहीं होगी? यह विचार उचित नहीं है।
क्या कपड़े पर हमारी इज्जत निर्भर करती है? जैसे कल जाते थे वैसे आज भी जाते
रहेंगे। दूसरी ओर गंदे कपड़े पहनकर आता है इसलिए कोई बहुत अच्छा कार्यकर्ता
है, यह बात भी सही नहीं होती।
अब परिवर्तित परिस्थिति में मानसिकता में कैसे बदलाव आता है? और परिणामस्वरूप
कर्तृत्व कैसे कम हो जाता है उसके और भी कई उदाहरण हैं। पिछले पत्रों में माया
मछिन्दर का उदाहरण आया है वह इसी मानसिकता का परिचायक है। सत्रहवीं शताब्दी के
फ्रांस के 14 वें लुई के सरदारों का उदाहरण है। सरदार बड़े बहादुर थे। युरोपीय
राष्ट्रों पर फ्रांस का प्रभाव था। राजा लुई ने सोचा कि ये सरदार जिस प्रकार
बाहर के राष्ट्रों के लिए आतंक बन कर रहे हैं। उसी तरह किसी दिन हमें भी तकलीफ
दे सकते हैं। राजा को उसके प्रधान मंत्री ने सलाह दी कि यदि आप चाहते हैं कि
वे सरदार आपको तकलीफ न दें तो उनको दबाने की कोशिश न करो। इन्हें पूरा आराम
दो। अतः उन्होंने एक बड़ा महल बनवाया। वही प्रसिद्ध 'पैलेस ऑफ वायसराय' है। उस
महल में एक बड़ा दरबार बनाया। सबके लिए रहने की यथोचित सम्मानजनक व्यवस्था की।
बड़े-बड़े ओहदे देकर, राजा के समान ही उन सब को बड़ा स्थान प्रदान किया गया।
ऐशो आराम की सभी सुविधाएँ उपलब्ध करा दीं। परिणाम ऐसा हुआ कि दस सालों के अंदर
इन बहादुर कर्तृत्ववान और बुद्धिमान लोगों का इतना पतन हुआ कि आगे चलकर
सत्रहवीं शताब्दी के फ्रांस के सरदार वर्ग में कोई कर्तृत्ववान पुरुष निर्माण
नहीं हुआ। 'पैलेस ऑफ वायसराय' का विलासपूर्ण जीवन, सुखसुविधा, आरामपरस्ती आने
पर उनकी प्रेरणा और कर्तृत्व समाप्त हो गया। इसी प्रकार का उदाहरण उन्नीसवीं
सदी का इटली के सरदार वर्ग का भी है। उधर भी इसी प्रक्रिया के कारण कोई बहादुर
पुरुष निर्माण नहीं हुआ।
एक बार आचार्य दादा धर्माधिकारी ने राजसत्ता के आश्रय के बारे में अपना अनुभव
बताया। उन्होंने कहा देश स्वतंत्र हुआ। गांधी विचार के दो प्रवाह थे। एक
राजनीतिक और दूसरा गैर राजनीतिक। राजनीतिक प्रवाह काँग्रेस के नाम से था। उनके
हाथ में सत्ता आई तो उन्होंने सोचा कि गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रम पर अमल
करने वाले अपने भाइयों की ज्यादा से ज्यादा सहायता करनी चाहिए इसलिए सर्वोदय
कार्यकर्ता तथा संस्थाओं को अधिकतम सहूलियतें और आर्थिक सहायता देने का उपक्रम
उन्होंने प्रारंभ किया। आचार्य विनोवा भावे ने भी इसको नि:संकोच स्वीकार किया।
वे सोचते थे कि हमने तो सरकार से कुछ नहीं माँगा। किंतु न माँगते हुए खुद ही
होकर सरकार की ओर से यदि कुछ सहायता और सहूलियतें मिलती हैं तो उन्हें लेने
में आपत्ति क्या है? हमारे पास अच्छे कर्मठ कार्यकर्ता हैं। वे भी जान से काम
कर रहे हैं। साधनों के अभाव के कारण उनके काम की गति कम हो जाती है। अब साधन
प्राप्त हो गए तो काम की गति बढ़ाना सुलभ होगा। यह सोचकर सर्वोदयी लोगों ने
सहायता और सहूलियतों को जगह-जगह स्वीकार किया। किंतु अनुभव विपरीत ही आया।
अतिरिक्त साधनों के कारण काम की गति कितनी बढ़ी, पता नहीं। किंतु दूसरी बात
सर्वत्र होने लगी। साधनों का उपयोग अधिकाधिक मात्रा में करना प्रारंभ हुआ और
इसके कारण कर्मठ कार्यकर्ताओं की भी मानसिकता बदलने लगी। वे आरामपरस्त बनने
लगे। मोटरकार आ गई। उसके पूर्व अपने काम के लिए आठ-दस किलोमीटर भी पैदल जाने
का अभ्यास था, उसको भी अब मोटरकार की आदत लग गई। किसी कार्यक्रम के लिए एक
किलोमीटर भी पैदल जाना असंभवनीय प्रतीत होने लगा। कार नहीं है इसलिए कार्यक्रम
में नहीं जा सकता, ऐसा कहने तक उनकी यह प्रवृत्ति बढ़ गई। इस तरह अतिरिक्त
साधनों के कारण काम तो बढ़ा ही नहीं, कार्यकर्ताओं की कर्मठता क्षीण हो गई और
सर्वोदय का भारी नुकसान हुआ।
मैं INTUC में काम करता था, उस समय पं. रविशंकर शुक्ल और द्वारिका प्रसाद
मिश्र, दोनों उस समय के मध्य प्रदेश के बड़े काँग्रेसी नेता थे। उनके मेरे
घनिष्ठ संबंध प्रस्थापित हुए थे। वे दोनों मुझे अपने बेटे के समान मानते थे।
मेरी उमर भी छोटी थी। वे जानते थे कि मैं संघ का प्रचारक हूँ। किंतु इसी कारण
वे मानते थे कि मैं कभी विश्वासघात नहीं करूंगा। मतभेद होंगे तो त्यागपत्र
देकर हट जाऊँगा। किंतु विरोधी वक्तव्य देना या कुछ रहस्यभेद करना ऐसी बातें
मैं नहीं करूँगा। इस पूर्ण विश्वास के कारण इन दोनों के साथ अनौपचारिक संबंध
थे। और कभी कभी अपने मन की बात भी वे मेरे सम्मुख प्रकट करते थे।
एक दिन सुबह नाश्ते के लिए मैं वैसे ही मिश्र जी के घर चला गया। वे नाश्ते के
टेबल पर नहीं आए थे। इसलिए वहाँ पडे हुए समाचारपत्र मैंने पढ़ लिए। उसमें डॉ.
डेकाटे का, जो मिश्र जी के अंतर्गत प्रतिस्पर्धा थे, वकतव्य आया था, जिसमें
मिश्र जी पर कठोर टीका थी। तब तक मिश्र जी बाहर आए। हमारी बातें शुरू हुईं।
नाश्ते के समय मिश्र जी ने पूछा, 'क्यों भाई, आज के समाचारपत्र पढ़े हैं?
मैंने हाँ कहा। उस पर मिश्र जी ने कहा कि, आश्चर्य की बात है, वे (डॉ. डेकाटे)
राजनीति में हैं, लेकिन राजनीति जानते नहीं। राजनीति में दलान्तर्गत या
दलबाह्य अन्य किसी नेता को नीचे खींचने की इच्छा होना स्वभाविक है किंतु इसके
लिए ये लोग इतना द्राविड़ी प्राणायाम क्यों करते हैं? इसके खिलाफ भाषण देना,
लेख लिखना, कानाफूसी करना, गुट बनाना, इतने सारे कष्ट क्यों उठाते हैं? यह तो
द्राविड़ी प्राणायाम हो गया।' इस पर मैंने पूछा, 'फिर सीधा प्राणायाम कैसा
होता है'? मिश्र जी ने कहा, 'वह आसान है। एक ही बात है, जिसको नीचे लाना है,
उसका सही मूल्यांकन आप कर लीजिए। यह मूल्यांकन सही रहे, यह महत्त्व की बात है।
मूल्यांकन करते समय आप के पूर्वाग्रह बीच में नहीं आने चाहिए। सही मूल्यांकन
के पश्चात् आप निष्पक्ष बुद्धि से तय कर लीजिए कि वह कौन से पद के लिए उपयुक्त
है और फिर वह जिस पद के लिए उपयुक्त होने की क्षमता रखता है, उससे बहुत ऊँचे
पद पर उसकी नियुक्ति कीजिए, उसको खुशी ही होगी। यह ऊँचा पद ग्रहण करने के लिए
खुशी से वह दौड़ते हुए आएगा। फिर आप घर में बैठकर केवल क्या होता है यह देखते
रहिए। उस ऊँचे पद से प्राप्त हुई सत्ता और सुविधाओं के कारण और उस पद के लिए
आवश्यक क्षमता न होने के कारण दो सालों के बाद वह खुद ही नीचे गिर जाएगा। उसको
नीचे लाने के लिए अलग प्रयास की आवश्यकता नहीं रहेगी।'
ऐसे ही एक अवसर पर द्वारका प्रसाद मिश्र जी खुले दिल से बात कर रहे थे। वे
कहने लगे कि "मैं जानता हूँ, तुम संघ के प्रचारक हो और मैं संघ का विरोधक।
किंतु तू घर का ही आदमी है इसलिए तूझे बताता हूँ। गाँधी हत्या के बाद संघ पर
लगाया हुआ प्रतिबंध समाप्त होने आया, उस समय जवाहर लाल जी ने सभी राज्यों के
गृहमंत्रियों को बुलाया था और उनसे पूछा था कि प्रतिबंध lapse होने के बाद
उसको वैसे ही lapse होने दें या फिर से प्रतिबंध लगाया जाए? इस विषय पर मेरे
साथ भी उन्होंने बातचीत की। मैंने सोच समझकर उनको चिढ़ाने के लिए कहा कि 'आप
हम लोगों से पूछताछ क्यों कर रहे हैं? आपने तो पहले से ही मन में तय किया है
कि आर.एस.एस. को प्रोत्साहन देना।' यह सुनते ही पंडित जी चिढ़ गए। कहने लगे,
'क्या मैंने आर. एस. एस. को बढ़ावा देने का विचार किया है? मैं तो आर. एस. एस.
के सख्त विरोध में हूँ और फिर आप ऐसी बेतुकी बात क्यों कर रहे हैं?' मैंने
कहा, 'मैं तो कह रहा हूँ वह तो स्पष्ट दिखाई दे रहा है। आपने हजारों लोगों को
कारावास में डाला। उनके विचार उद्ध्वस्त हो गए। ये सब लोग संघ के नहीं थे
किंतु आपने हजारों परिवारों को उद्ध्वस्त करने के कारण उनमें से जो संघ वाले
नहीं थे, वे भी अब संघ वाले बन गए हैं। उनके रिश्तेदार, मित्र परिवार, उनकी
सभी की सहानुभूति संघ को प्राप्त हुई। इससे संघ का प्रभाव और भी बढ़ा।
मिश्रजी मुझसे इतना ही बोलकर रुक गए। छोटा होने के कारण मैंने आगे का प्रश्न
नहीं किया कि इसके पश्चात् आप दोनों में संभाषण क्या हुआ? ऐसा पूछना धृष्टता
हो जाती। इसलिए उस समय मैं चुप बैठा। फिर सात-आठ दिनों के बाद अवसर देखकर
मैंने उनसे दूसरा प्रश्न किया, "किसी भी संस्था को suppress करने में वह नष्ट
नहीं होती, ऐसा आपने कहा था, तो संस्था को नष्ट करने का और रास्ता भी क्या
है?" मिश्रजी ने कहा, "वह रास्ता मनोविज्ञान का है। जिस संस्था को नष्ट करने
का है। उस संस्था में Comfort loving cadres और status conscious leaders
निर्माण कीजिए। ये दोनों बातें मनोविज्ञान के अनुकूल हैं। यह आसानी से हो सकता
है। ऐसी संस्था को आप बहुत सहूलियतें और पैसा दीजिए तो धीरे-धीरे अच्छे
कार्यकर्ता आरामपरस्त हो जाएँगें और नेताओं के मन में स्वयंप्रतिष्ठा का भाव
भी निर्माण होगा। बिल्कुल मनोविज्ञान के अनुसार है। ये दो बातें हो जाएँ तो
थोडे ही समय में वह संस्था स्वयं नीचे आ जाएगी। उसके लिए अलग से प्रयास करने
की जरूरत नहीं होगी।
तो कार्यकर्ताओं में कार्य के विकास के कारण प्राप्त होने वाली सुविधाओं में
निहित हितसंबंध निर्माण होते हैं और वे व्यवस्थाएँ वैसी ही बनी रहने में भी
हितसंबंध निर्माण होते हैं। वास्तव में ऐसी सभी व्यवस्थाओं का तथा सुविधाओं का
अपने कार्य की वृद्धि के लिए उपयोग करते समय भी न तो उसके प्रसंगवशात् अभाव के
कारण मजबूरी निर्माण होनी चाहिए, न ही उन सुविधाओं का मोह भी होना चाहिए। मानो
कार्यकर्ता की मानसिकता तो Establishment without 'establishmentarianism',
यानि कि Establishment without a sense of having been established. ऐसी होनी
चाहिए।
अगर यह नहीं हुआ तो, एक तो प्राप्त हुए पद के अहंकार के कारण या सुविधाओं के
मोह के कारण प्रमुख कार्यकर्ता अपना स्थान बनाए रखने के लिए कुछ चतुराई के
प्रयोग शुरू करता है।
स्वार्थ की कुप्रवृत्तियों से सावधान
ऐसे जो कार्यकर्ता संगठन में अपनी साख बनाए रखने का प्रयास करते हैं उनमें से
कुछ कार्यकर्ता तो ऐसे भी हो सकते हैं, जिनका संगठन में काम करने का निजी हेतु
ही स्वार्थपूर्ण रहता है और स्वार्थ के कारण कुछ कुप्रवृत्तियों का असर भी
उनके मन पर रहता है। ऐसी दुष्प्रवृत्ति शायद जन्म से ही मूल स्वरूप में रहती
है और अहंतापूर्ण व्यवहारों में वह अभिव्यक्त होती है। एक सुभाषित में ऐसे
दुष्प्रवृत्ति के लोगों के बारे में कहा है कि
विद्या विवादाय धनं मदाय। बलं परे षां परपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतद्। ज्ञानाय, दानाय च रक्षणाय।।
(गुणरत्नम्-भवभूति)
अर्थात दुष्ट व्यक्ति विद्या, धन और बल का उपयोग विवाद, मद और दूसरों को पीड़ा
देने के लिए करता है। लेकिन साधु-सज्जन उनका उपयोग ज्ञान, दान, और रक्षा के
लिए करता है। किंतु जन्म से ही शत प्रतिशत दुष्प्रवृत्त या सत्प्रवृत्त
व्यक्तियों की संख्या अत्यल्प ही होती है। बहुसंख्य लोग दोनों छोरों के बीच ही
रहते हैं।
अब जो जन्म से ही मूलतः अधिक मात्रा में दुष्प्रवृत्त होता है, ऐसे व्यक्ति
में सुधार लाना शायद किसी के लिए भी संभव नहीं। प्याज को इत्र का अभिषेक करके
या करेले को घी-शक्कर में घोलकर भी वे अपना गुण नहीं छोड़ते। ऐसे लोगों की
सेवा से, योगदान से संगठन को बचाकर रखना ही अच्छा है। लेकिन ऐसी सावधानी हमेशा
बरती जाती ही है ऐसा नहीं। इसका एक कारण है। ऐसे लोगों में जहाँ असाधारण
दुष्प्रवृत्ति रहती है वहाँ उनमें से कुछ लोगों में असाधारण कर्तृत्व भी रहता
है। ऐसा कर्तृत्ववान, व्यक्तिवादी, व्यक्ति महत्त्वाकांक्षी होने के कारण बहुत
कार्य करता है। उसके कर्तृत्व से संगठन के कई कठिन काम भी सफल हो सकते हैं और
उसी के कारण संगठन में उसका स्थान मजबूत होता जाता है। उसके कार्य की प्रशंसा
भी होती है। कर्तृत्व और कार्यक्षमता वास्तव में प्रशंसनीय है। किंतु उस
कर्तृत्व और कार्यपालन के पीछे कार्य की प्रेरणा व्यक्तिवादी होने के कारण आगे
चलकर उस व्यक्ति के कारण उलझनें खड़ी होती हैं और कार्य को धक्का पहुँचता है।
लेकिन बीच में तो बढ़ते हुए आत्मविश्वास के साथ वह दूसरों को दुर्बल समझता है
और खुद को indispensable। दूसरी ओर उसे मिलने वाले ऊँचे स्थान के कारण संगठन
में भी, उसे सर्वसाधारण छोटे, नए कार्यकर्ताओं की बढती मान्यता मिलती है।
क्योंकि उसके दोष उनके ध्यान में तुरंत आते नहीं। इसलिए उनके खिलाफ कारवाई को
वे कार्यकर्ता पसंद नहीं करते। लेकिन उसका दूसरा भी एक कारण है जो कार्यकर्ता
सात्त्विक प्रवृत्ति का रहता है, वह व्यक्तिवादी न होने के कारण स्वयं को
बढ़ावा देने का प्रयास नहीं करता और उसके कार्य की पहचान होने में देर लगती
है। क्योंकि अपने कर्तृत्व के बारे में प्रसिद्धि का माहौल वह नहीं बनाता है।
अगर संगठन के नेतृत्व की विलक्षणता में कुछ न्यून रहा तो सात्त्विक व्यक्ति
पिछड़ जाता है और फिर संगठन का नेतृत्व भी अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहता
है, अगर कोई सात्त्विक व्यक्ति पूरी तरह से, सक्रियता से आगे नहीं आता है तो
हम क्या कर सकते हैं। हमें तो काम की जल्दी है। अतएव जो आगे आएगा उसका उपयोग
करेंगे। व्यक्तिवादी कार्यकर्ता का दुष्प्रवृत्त कर्तृत्व जानने के बावजूद भी
ऐसा सोचा जाता है कि उसके कर्तृत्व का अभी तो लाभ लेंगे। बाद में उसके दोषों
का संगठन पर बुरा असर न हो इस बात कि चिंता करेंगे। लेकिन ऐसी जल्दबाजी से
निर्माण होने वाले दोष भविष्य में ठीक करना कठिन ही नहीं, असंभव हो जाता है।
इसलिए ऐसे दुष्प्रवृत्त लोगों के कर्तृत्व का लाभ लेने का मोह प्रारंभ से ही
निग्रहपूर्वक टालना चाहिए। कभी ऐसी व्यक्तिवादी दुष्प्रवृत्ति का ख्याल देरी
से आया तो भी ऐसे कार्यकर्ता को उसका उचित स्थान दिखाने में बिलंब नहीं करना
चाहिए यद्यपि आप के उनके साथ कितने भी मधुर व्यक्तिगत संबंध क्यों न हों। यह
हमेशा ध्यान में रहना आवश्यक है कि, Procrastination steals not only time but
also organisational health.
पू. गुरुजी ने कहा है कि Nobody is indispensable! सही नेतृत्व वही है जो
स्वयं को dispensable बनाने का प्रयास करता है यानी कि स्वयं की जगह सक्षमता
से ले सकेंगे ऐसे कार्यकर्ता निर्माण करने का हमेशा प्रयास करता है।
इसी में से हमारी सामूहिक नेतृत्व की संकल्पना साकार होती है।
अब कार्यकर्ता के स्खलन के संभव का जो जिक्र किया है उससे यह ध्यान में आ सकता
है कि कोई रचना या व्यवस्था अगर बिगड जाती है तो उसमें सुधार होना इतना कठिन
नहीं है। जितना मनुष्य के मन में सुधार लाना है। इसलिए ये सभी संदर्भ और इस
विषय के सभी आयाम ध्यान में लेते हुए कार्यकर्ता ने और खास करके नेतृत्व करने
वाले कार्यकर्ता ने इन्हे गंभीरता से ध्यान में रखकर पहले स्वयं को सँभालना
जरूरी है और अन्य कार्यकर्ताओं को भी सँभालना आवश्यक है।
हम अन्य क्षेत्रों में क्यों गए हैं
?
अन्य क्षेत्रों में जाने वाले हमारे कार्यकर्ताओं के मन में यह स्पष्ट और दृढ़
धारणा होनी चाहिए कि उन क्षेत्रों में कार्य की रचना संघ के सिद्धांतों तथा
आदर्शों में ही होनी चाहिए।
हम अन्य क्षेत्रों में क्यो जा रहे हैं? वहाँ पहले से काम करने वाले लोग आदर्श
ढंग से व्यवहार नहीं कर रहे हैं।, सस्ती लोकप्रियता के लिए बुरे मार्ग का
अवलंब कर रहे हैं। तो हम उस क्षेत्र को संघ संस्कार देकर परिष्कृत करने जा रहे
हैं। यह बात दृष्टि से ओझल नहीं होनी चाहिए। हमने तुरंत सफलता प्राप्त करने की
यह दिखाने के मोह में हम उनके समान ही गलत व्यवहार करेंगे तो हमारा वहाँ जाने
का क्या उपयोग? हम सफल हो गए ऐसा दिखाने में, सफलता पाने में बिलंब होगा तो भी
चलेगा। किंतु जो रीति, नीति, पद्धति, संकेत, संघ ने हमें बताई है, जो वायुमंडल
तथा मानसिकता संघ ने बना रखे हैं उन सब बातों की प्रतिष्ठापना अपने अपने
क्षेत्र में करनी है। गंगा गए गंगादास, जमना गए जमनादास, ऐसी हमारी स्थिति
नहीं होनी चाहिए।
अन्य क्षेत्रों में, हम क्यों गए हैं इसका सही भान कार्यकर्ता को रहा तो ही वह
संघ को अपेक्षित रीति, नीति, पद्धति के अनुसार उस क्षेत्र में काम कर सकेगा और
जैसे कि पिछले भागों में बताया है, राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने के संघ के
संकल्प की पूर्ति के लिए सहायभूत होगा।
मुझे याद है जब मा. पीतांबरदास जनसंघ के अध्यक्ष हुए तब पु. गुरुजी से मिलने
गए थे। वापस आने के बाद मैंने उनसे पूछा कि आप पू. गुरुजी से मिलने गए, तो
क्या हेतु था? उन्होंने बताया, 'मैं समझना चाहता हूँ कि मैं अध्यक्ष बन गया
इसका सही अर्थ क्या है?' मैंने पूछा, 'कुछ पता लगा,?' मा. पीतांबरदास
शेर-ओ-शायरी के बड़े शौकीन थे, वे बोले, हाँ, समझ गया, एक शेर है-
दुनिया में हैं, दुनिया के तरफदार नहीं।
बाजार से निकले हैं, खरीददार नहीं।।
हम दुनिया में हैं लेकिन हम दुनिया के समर्थक नहीं, उससे आसक्त नहीं और हम
बाजार से निकले हैं लेकिन हमको कुछ खरीदना नहीं है।'
फिर हम बाजार से क्यों चल रहे हैं? तो हमें जहाँ पहुँचना है उस मंजिल के
रास्ते का कुछ हिस्सा बाजार में से जाता है इसलिए हम बाजार से निकले हैं। हमें
तो आगे ही जाना है। इस राष्ट्र को परम वैभव तक ले जाने के कार्य में राजनीति
का जो हिस्सा है, वह ठीक ढंग से पूरा करने के लिए हम राजनीतिक क्षेत्र में
हैं।
कल्पवृक्ष की शक्ति का रहस्य
अन्य क्षेत्र में जाने वाले कार्यकर्ताओं के मन में और भी एक स्पष्ट और दृढ़
धारणा होनी चाहिए। हम कहते हैं कि संघ का संगठन यह कल्पवृक्ष जैसा है। इस
संगठन के द्वारा हमें जो शक्ति प्राप्त होती है वह शक्ति हमारे सिद्धांतों की
तथा हमारे जीवन मूल्य और व्यवहार सूत्रों का है। ऐसी शक्ति के साथ हम अन्यान्य
क्षेत्रों में जाते हैं। अगर इस शक्ति का उपयोग उन क्षेत्रों में संगठन को
बढ़ावा न देते हुए अपने निजी स्वार्थ को बढ़ावा देने के लिए करेंगे, तो संगठन
की निजी शक्ति भी कम हो जाएगी। हमारे गलत व्यवहारों का बुरा असर संगठन की
शक्ति पर भी होगा। इसलिए संगठन के कल्पवृक्ष से प्राप्त हुई शक्ति का संगठन के
लिए ही सजगता से उपयोग करना आवश्यक है। हमारी तपस्या तो फलदायी होगी लेकिन
उसका निजी स्वार्थ के लिए उपयोग करने से उसकी क्षमता अधिकाधिक कम होती जाती
है। ऐसे लोगों के बारे में अलेकजेंडर पोप ने कहा है- "Born for the Universe,
narrowed his mind and gave to his party, what was meant for mankind!
श्री भानुप्रताप शुक्ल ने दिया हुआ एक उदाहरण तो बहुत ही उद्बोधक है। एक राजा
को, लड़ाई में पराभूत होने के कारण जान बचाकर भागना पड़ा। अब कहाँ छिपा जाए?
इसी विचार से भागते भागते जंगल में एक आश्रम के पास आया। आश्रम देखकर बहुत
आनंद हुआ। आश्रम के प्रमुख ऋषि को साष्टांग प्रणिपात करके अपनी कहानी बताई।
ऋषि ने कहा- यहाँ आराम से रहो। यहाँ तुम्हारे ऊपर कोई हमला नहीं कर सकेगा।
आसरा तो मिल गया किंतु उसके सामने समस्या खड़ी हुई। खाना, पीना, पहनना, इसकी
क्या व्यवस्था होगी। आश्रम में रहने वाले सभी ऋषि तो केवल लंगोटियाँ पहनते थे।
नित्य व्रतवैकल्य के कारण दुबले पतले दीखते थे। उनकी तो अपनी ही कोई खाने पीने
की व्यवस्था दीखती नहीं तो अपने भोजन की क्या व्यवस्था हो सकती है? ऐसे सारे
प्रश्न मन में उठ रहे थे। तो आश्रम के प्रमुख ऋषि ने कहा कि, 'सोचने की कुछ
बात नहीं। आश्रम के आंगन में जो पेड़ हैं वह कल्पवृक्ष हैं। उसके नीचे बैठकर
तुम कोई भी आवश्यक चीज माँग लोगे, किसी भी चीज की कल्पना करोगे तो वह चीज यह
कल्पवृक्ष तुम्हें तुरंत प्रदान करेगा।' राजा ने यह प्रयोग करने के बाद जो
चाही वो चीजें उन्हें प्राप्त हो रही थीं। अब कुछ दिनों के पश्चात् उनके मन
में विचार आया, 'यदि हमारी सभी कामनाएँ यह कल्पवृक्ष पूरा करता है तो मेरा
गवाँया हुआ राज प्राप्त करने की कामना पूरी कर सकेगा क्या?' और फिर कल्पवृक्ष
के नीचे बैठकर यह इच्छा प्रकट की और दूसरे ही दिन उसके राजधानी के कुछ लोग खोज
करते करते आश्रम में पहुँच गए। उन्होंने बताया कि आक्रामक राजा के विरोध में
जनता ने विद्रोह किया, उसको मार डाला। तो अब हमारे साथ चलिए और अपना राज ग्रहण
कर लीजिए। यह सुनकर राजा तो बहुत प्रसन्न हुआ।
किंतु उसी समय उसके मन में और एक प्रश्न आया। जब यह कल्पवृक्ष सभी कामनाएं
पूरी करता है तो आश्रम के सभी लोग इस तरह अनशन करके, लंगोटियाँ पहन के क्यों
रहते हैं? इस वक्ष से सभी चीजें न प्राप्त करते हुए ये जबरदस्ती से दुखी जीवन
क्यों व्यतीत कर रहे हैं?
यह प्रश्न आश्रमप्रमुख से पूछने पर उन्होंने हँसकर कहा कि तुम्हारा कहना
बिलकुल ठीक है। किंतु एक बात ध्यान में रखो। कल्पवृक्ष के सान्निध्य में रहकर
भी हम अपने लिए उससे कुछ नही माँगते। यह स्थिति जब तक कायम रहेगी तब तक ही
लोगों की कामनाएँ पूर्ण करने की कल्पवृक्ष की शक्ति कायम रहेगी। हम उससे जैसे
जैसे अपनी कामनाओं की पूर्ति कर लेंगे वैसे वैसे ही कल्पवृक्ष की यह शक्ति
क्षीण हो जाएगी और अंत में वह शक्तिहीन बन जाएगा।
कल्पवृक्ष के सान्निध्य में रहकर भी, उससे अपने उपयोग के लिए सभी सुविधाएँ
प्राप्त होने की संभावना होते हुए भी, केवल लंगोटियाँ पहनकर अपनी साधना में
मग्न रहना यह पागलपन नहीं तो क्या है? जैसे कि पहले बताया गया कि हमारा संगठन
भी एक पागल लोगों का संगठन है। अब सन् 1947 के पहले हमारे देश में कुछ तो पागल
लोग थे, जिन्होंने मातृभूमि के लिए सर्वस्व अर्पण किया था। हम लोग तो पहले से
ही पागल थे। यह भी बताया है कि पू. डॉक्टर जी के जमाने में कई महानुभाव पूछते
थे कि ऐसा कौन सा पागल व्यक्ति है जो कहता है कि यह हिंदू राष्ट्र है। उस समय
पू. डॉक्टरजी ने अकेले ही उसका जवाब दिया था, "मैं केशव बलिराम हेडगेवार कहता
हूँ कि यह हिंदू राष्ट्र है और उस समय से पागल लोग पैदा करने का यह कारखाना
शुरू हो गया। हमें लगता है आज पूरे देश में पागल लोग पैदा करने वाला इतना बड़ा
एकमात्र कारखाना है और उस कारखाने से 'पागलपन' का जितना अच्छा माल तैयार होता
है, उतना अच्छा माल और किसी कारखाने से नहीं आता। और वह माल है हमारा समर्पित
कार्यकर्ता।
इसलिए कार्यकर्ता इस नाते हम किसी भी क्षेत्र में कार्य करते होंगे, हम सब
मिलकर इस राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने का हमारा जो राष्ट्रीय ध्येय संकल्प
है, उसकी पूर्ति के काम में लगे हैं। यह आँखों से ओझल नहीं होने देंगे। संघ ने
जो रीति, नीति, पद्धति तथा जीवन मूल्य हमें सिखाए हैं, जो मानसिक वायुमंडल
हमारे लिए बना रखा है, उन सब बातों को अपने जीवन में चरितार्थ करके ही अगर हम
आगे बढेंगे तो अपना ध्येयसंकल्प पूरा करने में संघ सफल होगा।
जैसा कि प्रारंभ में हमने देखा है कि मनुष्य निर्माण की भी कोई प्रक्रिया रहती
है, वैसे ही कार्यकर्ता ने भी स्वयं के ऊपर अखंड सावधानी से निगरानी रखते हए
स्वयं को अच्छा कार्यकर्ता बनाए रखने की भी कुछ प्रक्रिया रहती है उसको निरंतर
ध्यान में रखना चाहिए।
जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन इस देशकार्य के लिए समर्पित किया ऐसे नेतृत्व
करने वाले कार्यकर्ता हमारे लिए एक आदर्श के रूप में रहते हैं। संगठन का कार्य
जो हमने अपने हाथों में लिया है, यदि उसे सफलतापूर्वक संपन्न करना है तो
कार्यकर्ता को स्वयं को सजग और सतर्क बनाने के लिए ऐसे कार्यकर्ताओं के उदाहरण
सामने रखकर आत्मनिरीक्षण करते रहना आवश्यक है।
अचल ध्येयवृत्ति के हिमालयसदृश आदर्श
जब गत पचहत्तर वर्षों में जिन्होंने खून-पसीने से सींचकर यह कार्य बढ़ाया,
उनमें से कई एकेक करके चले गए। हम जो आज के कार्यकर्ता हैं, उनकी जिम्मेदारी
बढ़ गई है। हमारी शक्ति तो बढ़ रही है लेकिन बदलते हुए सामाजिक वायुमंडल में
हमारी चुनौतियाँ भी बढ़ गई हैं। लेकिन चिंता की बात नहीं। अगर हमारा यह दृढ़
विश्वास है कि ईश्वरीय कार्य है तो किसी भी वायुमंडल में यह सफल होकर रहेगा
ही। दुनिया की कोई शक्ति उसको मिटा नहीं सकती पू. डॉक्टर जी. प गुरुजी जैसे
अचल धीर वृत्ति के हिमालयसदृश आदर्श हमारे सामने हैं।
पंडित दीनदयाल जी के संदर्भ में एक प्रसंग आता है। 1967 में जब पहली बार जनसंघ
के कार्यकर्ता संयुक्त विधायक दल के मंत्रिमंडल में शामिल हुए तब मध्य प्रदेश
के जनसंघ के एक पदाधिकारी ने उनसे पूछा, 'अब हमारे लोग सत्ता में जाकर बैठे
हैं। यदि सत्ता प्राप्ति के कारण इनमें से कई लोग भ्रष्ट हुए और जनसंघ का
अध:पतन हुआ तो?' पंडित जी ने तपाक से जवाब दिया, "मैं जनसंघ विसर्जित करूँगा
और नए दल का गठन करूँगा।" फिर वह भी भ्रष्ट हुआ तो?" "तो फिर वह भी बरखास्त
करूँगा और तीसरा दल शुरू करूँगा।" स्वयं के कर्तृत्व से पाला-पोसा दल अगर
भ्रष्ट हुआ तो उसके प्रति बिलकुल निर्मम भाव रखने की तत्त्वनिष्ठा तो इस
प्रसंग में दिखाई देती ही है लेकिन पुनः प्रारंभ से श्रीगणेश करने की हिम्मत
भी दिखाई देती है। प. गुरुजी के जीवन की भी एक घटना की याद आती है। जब उनसे
कहा गया कि आप को अपनी कार्यपद्धति में परिवर्तन लाना चाहिए। कुछ लोग उनसे
बोले कि अगर परिवर्तन न किया जाए तो यह जो आर.एस.एस. है वह सारा टूट जाएगा,
Everything will crumble down. पूरी बात सुनने के बाद श्री गुरुजी एक मिनट के
लिए स्तब्ध रहे। सामने देख रहे थे। ऐसा लगता था कि वे लोगों की तरफ देख नहीं
रहे हैं। कहीं तो भी दूर देख रहे हैं। मानो स्वयं अपने को ही भूल गए हों। और
फिर उनके मुँह से शब्द निकले कि, Well, if everything crumbles down, I will
begin from the beginning! यदि सारा टूट जाए तो मैं फिर प्रारंभ से शरूआत
करूंगा।'
यह आत्मविश्वास और धारणा केवल व्यक्ति के स्तर का आत्मविश्वास नहीं है तो अपने
सिदंधांत, जीवनमल्य, संकेत तथा कार्यपद्धति और व्यवहार सूत्र इनके प्रति जो दढ
विश्वास होता है उनका निदर्शक है।
कार्यकर्ता
(भाग - 3)
कार्य विस्तार में नीचे-ऊपर संपर्क की सावधानी
संगठन के विस्तार में यह हमेशा संभव रहता है कि संगठकों के अन्यान्य स्तरों
में नीचे से ऊपर तक आपस में जो संबंध संपर्क रहना आवश्यक है वह कम हो जाता है।
एक दूसरे के विचारों का परामर्श, आपस में लेन-देन कम हो जाता है और इसके
परिणामस्वरूप संगठन की तत्परता से चलने की क्षमता mobility और संवेदनशीलता
sensitivity कम हो जाती है। हमारे संगठन की कितनी भी वृद्धि हो, विस्तार हो,
संगठन के विविध घटकों का ऊपर और नीचे दोनों बाजू से जो संपर्क रहता है, जो
प्रतिसादी मानस responsive mind रहता है वह कभी क्षीण नहीं होना चाहिए ताकि
हमें परिस्थिति की अच्छी जानकारी रहे। जीवसृष्टि की उत्क्रान्ति प्रक्रिया में
जो छोटी जीवपेशियाँ रहती हैं वे प्रतिजबाबी और तत्पर (responsive and mobile)
रहती हैं लेकिन जो वृहत् स्वरूप के सस्तन प्राणी होते हैं, वे अपनी प्रतिसादी
क्षमता और तत्परता खो बैठते हैं। वे सुस्त हो जाते हैं। अब इसी के
परिणामस्वरूप जो छोटे कीटक, चीटियाँ और प्राणी होते हैं वे ऐसे बड़े सस्तन
प्राणियों को आसानी से काट सकते हैं, खा सकते हैं। क्योंकि वे अपनी प्रतिजबाबी
और तत्परता से हिलने की क्षमता खो बैठते हैं।
उत्क्रान्ति प्रक्रिया का यह उदाहरण अपनी कार्यवृद्धि में सावधानी रखने के लिए
हमें निरंतर ध्यान में रखना है। संगठन ऊपर से लेकर नीचे तक अखंड संवेदनशील
रहेगा यह प्रयास आवश्यक है। यह नीचे-ऊपर दोनों तरफ संपर्क रखने की बात हमारे
संगठन के लोकतांत्रिक मानसिकता का (democratic ethos) परिचय देती है।
संगठन का आधार-पारिवारिक भाव
आज देश में लोकतांत्रिकता का जो वायुमण्डल है, उसमें यह दिखाई देता है कि
लोकतंत्र के नाम पर अनुशासनहीनता फैल रही है। दूसरी ओर अनुशासन का अर्थ
तानाशाही ऐसा किया जाता है। अपने संगठनों में हम ये दोनों सीमाएँ टाल के
पारिवारिक संबंधों के आधार पर सभी गतिविधियों का व्यवहार करते हैं। अन्य
संगठनों में पारिवारिक भावना यह कल्पना भी व्यर्थ मानी जाती है।
जैसे कि पहले बताया गया है कि संघ स्थान पर संस्कार पारिवारिक आत्मीयता से
होता है और संघ कार्य इस पारिवारिक भावना पर ही अधिष्ठित है। इस पारिवारिकता
का आविष्कार संघ स्थान पर तो होता ही है। लेकिन स्वयंसेवकों के निजी जीवन में
भी उसका अनुभव वे करने लगते हैं। संघ शाखा तो कोई क्रीड़ा-स्थल शारीरिक
प्रशिक्षण केंद्र नहीं है। शाखा की संस्कार प्रक्रिया में बुनियादी बात है,
व्यक्तिगत संपर्क की। इस दृष्टि से एक घंटा खेलने के लिए या व्यायाम के लिए
नियत कार्यक्रम किया और वापस चले गए, इतना ही स्वयंसेवकों के लिए व्यवहार नहीं
रहता। शाखा पर आने वाले सभी स्वयंसेवकों में एक दूसरे के प्रति व्यक्तिगत
मित्रता का और सौहार्द का भाव विकसित हो ऐसा व्यवहार संघ की कार्यपद्धति में
विकसित किया है। इसके माध्यम से ही सभी स्वयंसेवको में एक पारिवारिक भाव पैदा
होता है। एक दूसरे की व्यक्तिगत समस्या, कुछ कठिनाई जैसे सुलझाने का प्रयास
होता है। वैसे ही एक दूसरे के जीवन के आनंद के प्रसंगों में भी स्वयंसेवक
शामिल होते हैं और आनंद दुगुना करते हैं। तो दैनंदिन शाखा व्यवहार से न केवल
व्यक्तिगत गुणों का विकास होता है बल्कि समाज की एकात्मकता का अनुभव देने वाला
पारिवारिक भाव भी विकसित होता है।
ऐसे व्यक्तिगत संपर्क से जो पारिवारिक भाव निर्माण होता है उसका और उसी के साथ
कार्यपद्धति का सही परिचय देने वाला एक बहुत ही उद्बोधक सूत्र पूज्य गुरूजी ने
अपने एक पत्र में दिया था। मैं स्वयं उस पत्र का वाहक तथा साक्षी भी रह चुका
है।
मैं जब पहली बार प्रचारक के नाते मद्रास गया तब जनार्दन जी चिंचालकर कर जैसे
एक दो कार्यकर्ताओं के साथ उधर के एक गणमान्य महानुभावों श्री वी.
राजगोपालाचारी से मिलने गया। संघ के बारे में बातें शुरू हुई। उन्होंने प्रश्न
पूछा कि 'तुम्हारे इस संघ में R.S.S. का संविधान है? कुछ रचना है? What type
of organisation is it? Is it a political party or a social organisation or
a trade union? मैं भी तो पचारक के नाते पहली बार गया था। जादा सूझबूझ नहीं
थी। तो मैं इस सवाल का ठीक तरह से जबाब न दे सका और उसका समाधान न कर सका। फिर
संघ शिक्षा वर्ग के लिए नागपुर आने के बाद पू.गुरुजी से बात हुई। उन्होंने
श्री राजगोपालाचारीजी के लिए एक छोटा सा पत्र दिया। मुझे अचरज हुआ। मेरा ख्याल
ऐसा था कि अब पू. गुरुजी का लंबा पत्र लिखकर उसमें संघ के बारे में विस्तार से
विवरण करेंगे। मैंने पत्र तो पहले पढ़ा नहीं था। फिर जब श्री राजगोपालाचारी ने
वह पत्र पढ़ा, तब कहा, मैं समझ गया, अब आपके कार्यक्रमों में सम्मिलित होने
में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैंने पत्र पढ़ा तो मेरे मन का विस्मय बढ़ गया।
उस छोटे से पत्र में संक्षेप में संघ शिक्षावर्ग के समापन की जानकारी दी थी और
आखिरी हिस्से में संघ के बारे में केवल एक ही वाक्य था, "Ours is a Hindu
Family Organisation; the difference lies not in type but in degree!" मुझे
बहुत अचरज हुआ, केवल एक वाक्य में पू. श्रीगुरुजी ने संघ के स्वरूप का, प्रकार
का जो विवरण दिया उससे श्री राजगोपालाचारी जी के What type of organisation is
it? इस प्रश्न का समाधान हो गया। इसमें जो तथ्य हमारे सामने आता है वह यह है
कि संघ की रचना, कार्यपद्धति आदि सभी पहलुओं का चयन एक पारिवारिक व्यवस्था के
अनुसार होता है। हमने प्रारंभ से ही यह कहा है कि हमारे संगठन का आधार
पारिवारिकता है। हम संविधान को प्रमुख स्थान नहीं देते। जो संस्थाएँ संविधान
के आधार पर खड़ी रहती हैं वे संविधान के ही बोझ के नीचे दबाकर खत्म हो जाती
हैं। परिवारों में लिखित संविधान नहीं रखे जाते। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है
कि परिवार में कुछ व्यवस्था होती ही नहीं। ऐसा तो होता नहीं कि जिन्हें दफ्तर
जाना है वे रसोईघर में बैठे हैं। और जिन्हें रसोई बनानी है वे दफ्तर जा रहे
हैं। वहाँ भी व्यवस्था होती है। हरेक व्यक्ति अपना नियत कार्य करता रहता है;
तथा यह व्यवस्था परिवार के सभी घटकों के सौहार्दपूर्ण, आत्मीयतापूर्ण संबंधों
पर विकसित होती है और कार्यान्वित भी रहती है। हमारी संस्कृति में सदियों से
समाज संगठन का प्राथमिक स्तर तो परिवार ही रहता आया है।
यह ठीक है कि संघ में भी उसकी जो व्यवस्था चलती आयी है उसको नाम मात्र के लिए
शब्दांकित करके कहा, 'यही हमारा संविधान है।'
इस संबंध में भाषा का व्याकरण सिद्ध होने की जो प्रक्रिया रहती है उसका उदाहरण
हम देख सकते हैं। जैसी भाषा चलती आती है उसी के मुताबिक व्याकरण बनता है। पहले
व्याकरण का निर्माण हो, बाद में उसकी चौखट में बैठने वाली भाषा का निर्माण हो
यह प्रक्रिया गलत है। भाषा का प्रयोग तो बोलने के प्रयोग में से ही होता है और
बोलते बोलते ही उसका स्वाभाविक विकास भी होता रहता है। फिर खोजा जाता है कि
उसके विकास के नियम क्या हैं, संकेत क्या हैं? उन नियमों के मेल को ही व्याकरण
कहते हैं। ठीक इसी ढंग से संघ का संविधान बना है। इसमें नई बात कुछ थी ही
नहीं। इसलिए हम कागज पर उतारे हुए संविधान को प्रमुख स्थान नहीं देते। संविधान
तो एक प्रकार का वस्त्र मात्र है, प्राण या आत्मा नहीं है।
फिर भी परिवार में जैसी व्यवस्था तो होती ही है वैसी ही स्वयंसेवकों से
विस्तृत तथा व्यक्तिगत रूप से घनिष्ठ संपर्क बनाए रखते हुए कुछ व्यवस्था की
आवश्यकता होती है, और वह है गटपद्धति। हमारा स्वयंसेवक कार्यकर्ता अधिक से
अधिक स्वयंसेवकों के साथ व्यक्तिगत संपर्क रखे, उनके विचार तथा भावनाओं की
प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त करे इसी हेतु संघ ने गटनायक पद्धति की योजना की है।
हमारा काम मनुष्यों का संगठन करना है, उसमें हमारा संबंध मनुष्यों के साथ आता
है जो स्वाभाविक है कि संपर्क की श्रृंखला विकसित करने के लिये गटपद्धति की
योजना अनिवार्य है। गटनायक यह इस शृंखला की आखिरी कड़ी है। यह भी ध्यान में
रखना आवश्यक है कि यह गटनायक केवल संघ शाखा के लिए गटनायक हो ऐसी कल्पना नहीं
है। बल्कि आगे चलकर वह आसपास की पूरी बस्ती का भी गटनायक हो और उसी दृष्टि से
उस बस्ती के साथ भी उसका घनिष्ठ संबंध सतत संपर्क के माध्यम से विकसित हो यह
भी योजना है।
पारिवारिक अनुशासन
ऐसे पारिवारिक संपर्क संबंधों के आधार पर ही संगठन के लिए आवश्यक ऐसी अनुशासन
की प्रक्रिया स्वाभाविकता से कार्यान्वित होती है। इस दृष्टि से देखा जाए तो
पारिवारिक संपर्क-संबंध यह जैसे अपने संगठन की विशेषता है वैसे ही हमारा
अनुशासन यह भी हमारे संगठन का एक महत्वपूर्ण अंग है।
हम कहते हैं कि हमारा एक पारिवारिक संगठन (Family Organisation) है। एक तरह से
सर्वसाधारण भाषा में कहें तो परिवार में जैसा अनुशासन रहता है वैसा अनुशासन
विकसित करने का हम प्रयास करते हैं। ऐसे पारिवारिक अनुशासन में न कोई आदेश
देने वाला होता है, न तो कोई आदेश पाने वाला होता है। हम चाहते हैं कि हमारे
ज्येष्ठ अनुभवी कार्यकर्ताओं के संपर्क में स्वयंसेवक आए और ये कार्यकर्ता
अपनी समझदारी से इन स्वयंसेवकों की समझदारी बढ़ाए। हम क्या हैं? कार्यकर्ता की
निजी परिस्थिति क्या है? चारों ओर की सामाजिक स्थिति क्या है और हम संगठन के
द्वारा क्या करने निकले हैं? यह सब बातें समझने और समझाने से कार्यकर्ता की
अपने कार्य के बारे में समझ बढती है और यह स्वाभाविक रूप से अनुशासित हो जाता
है, यह प्रक्रिया अपेक्षित है।
लेकिन यह सब करने में, होने में कुछ समय लगना तो स्वाभाविक है। इसलिए जब तक
स्वयंसेवकों की समझदारी पर्याप्त मात्रा में नहीं बढ़ती, तब तक ज्येष्ठ
कार्यकर्ता को कुछ आदेश देना पड़ता है और यह अपेक्षा रहती है कि उसका पालन
किया जाए।
किंतु इसी बात को दोहराना आवश्यक है कि अनुशासन की वास्तविक गॉरण्टी तो
स्वयंसेवकों की समझदारी में है, संवैधानिक व्यवस्था में नहीं है। हम
कार्यकर्ता को समझें, कार्यकर्ता हमें समझे और दोनों मिलकर परिस्थितियों को
समझने का संयुक्त प्रयास करें। कार्यकर्ता अगर ऊपर से आए आदेशों का केवल मशीन
जैसा पालन करेगा, तो वह हमारी पद्धति की असफलता होगी। अच्छा कार्यकर्ता वही है
जो अपने मस्तिष्क से सोचे, विचार करे, और वही करे जो अपने कार्य के लिये
अनुशासनवश उसे करना आवश्यक है।
और समझदारी का मतलब केवल शैक्षिक (academic) समझदारों नहीं। व्यक्ति की
समझदारी ज्यादा करके उसकी औपचारिक शिक्षा से नापी जाती है। लेकिन न वह शिक्षा
से बढती है या न वह शिक्षा के बिना अविकसित रहती है। आइन्स्टाइन, रवीन्द्रनाथ
जैसे अनेक प्रतिभा संपन्न महानुभावों का उदाहरण है जो औपचारिक शैक्षिक प्रणाली
में (formal education) ज्यादा आगे बढ़ नहीं सके।
यह मशीन जैसी आज्ञा का पालन करने की जो बात होती है। उस संदर्भ में और एक
सतर्कता बरतनी पड़ती है। ऊपर से आज्ञा देने वाले के मन में, विचार में, केवल
संगठन के, राष्ट्र के हित की ही भावना होनी चाहिए। आज्ञा देते समय अगर उसके मन
का अहंकार का भाव आज्ञा में मिलाया जाए तो उस आज्ञा के पालन की अपेक्षा का
संदर्भ ही बदल जाता है और अनुशासन की अवधारणा को केवल व्यक्तिगत आयाम प्राप्त
होता है। दूसरी ओर आज्ञा पाने वाले के मन पर भी संगठन के हित की भावना का बोझ
रहता है। आज्ञा के संदर्भ में आज्ञा देने वाले के मन की अहंकारयुक्त गलत धारणा
महसूस होने पर भी इस बोझ के कारण वह आज्ञा का पालन करता ही रहता है। संगठन की
दृष्टि से ये दोनों पक्षों की धारणा इष्ट नहीं है। इससे आज्ञा देनेवाले का
अहंकार पुष्ट हो जाता है और उसके व्यवहारों में मनमानी को अवसर मिलता जाता है।
आज्ञा पाने वाला लगन से आज्ञा को अपनाते हुए आज्ञा का पालन नहीं कर सकता है तो
यह अनुशासन केवल शब्दनिष्ठ, यांत्रिक तथा निर्जीव होता है। यह भी धोखा अपनी
पद्धति में टालना आवश्यक है।
अनुशासन और कार्यकर्ता अपने विचार, इनमें कोई अंतर न रहे ऐसा हम क्यों कहते
हैं? ऐसे अनुशासन के सूत्र पर हम अपनी कार्यपद्धति में जोर क्यों देते हैं।
इसका कारण है कि हम लोग केवल एक छोटा सा समूह या टोली तैयार नहीं कर रहे हैं।
अन्य बहुत सारी संस्थाएँ व्यक्ति प्रधान होती हैं। बस्स! एक व्यक्ति के
बड़प्पन के लिए संस्था चलती है। एक नेता अन्य सब अनुयायी होते हैं। एक आदेश
देता है और अन्य सब पालन करते हैं। हम इस प्रकार से व्यक्ति प्रधान संस्था
बनकर कार्य नहीं करना चाहते और न कोई छोटा-सा समूह बनाना हमारा उद्देश्य है।
हमारा उद्देश्य है, दशव्यापी संगठन खड़ा करना और वह भी ऐसे व्यक्तियों का
संगठन जिनमें सोचने, समझने, कार्य करने और समाज को नेतृत्व प्रदान करने की
क्षमता है। ऐसे ही कार्यकर्ताओं का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण करना यह
हमारी कार्यपद्धति का उद्दिष्ट है।
जब मनुष्य में चिंतन करने की क्षमता, कार्य करने की कर्मठता एवं नेतृत्व
प्रदान करने का सामर्थ्य विकसित होते हैं तो आगे चलकर उसमें अपनी बुद्धि से
काम करने की क्षमता या व्यक्तिगत पहल (individual initiative) स्वाभाविक रूप
से निर्माण होता है और यह आवश्यक भी है। ऐसी कुछ न कुछ स्वयंप्रेरणा
कार्यकर्ताओं में विकसित हु बिना संगठन निर्माण भी नहीं होगा या बढ़ेगा भी
नहीं। लेकिन इसमें एक खतरा संभव है। व्यक्ति की ऐसी स्वयंप्रेरणा इतनी बढ़
जाती है कि अनुशासनहीनता निर्माण होकर संगठन को ही हानि पहुँचती है। दूसरी तरफ
प्रश्न उठता है कि फिर अनुशासन कितना होना आवश्यक है? तो यह इतना अधिक और
यांत्रिक भी नहीं हो कि किसी भी स्वयंप्रेरणा से काम करने की प्रवृत्ति ही
क्षीण हो जाए और उसकी जकड़बंदी हो जाए। हमारा अभीष्ट यह होना चाहिए कि
संगठनात्मक अनुशासन तथा स्वयंप्रेरणा दोनों का सुंदर समन्वय बना रहे।
'सुंदर समन्वय' सुनने में बड़े अच्छे और सरल शब्द हैं, किंतु समझने में उतने
ही कठिन हैं। किसी भी विचार के शब्द (letter) और भाव (spirit) दोनों को समझना
आवश्यक है। इसके बिना काम नहीं चलता। केवल शाब्दिक अर्थ अधूरा होता है और केवल
भाव का समझना भी पर्याप्त नहीं रहता है। हमारे हाईस्कूल की संस्कृत की पुस्तक
में "तात्पर्यान् अनवेक्षिणाम् भृत्यानाम" इस शीर्षक की कहानी थी। उसका अर्थ
किसी भी बात के भाव को न समझने वाले नौकरों की कहानी। साप्ताहिक बाजारों में
या हाटों में, गाँव-गाँव जाकर कपड़ा बेचने वाले व्यापारी के नौकरों की कहानी
है। एक दिन वह व्यापारी ज्वर के मारे हाट में नहीं जा सकता था। नौकर बड़े
विश्वसनीय और आज्ञाकारी थे। उन पर इन्होंने यह काम सौंप दिया। वे बाहर निकलने
वाले थे तभी वर्षा का होना संभव दिखाई दे रहा था तो व्यापारी ने उनसे कहा,
'देखो, ख्याल रखना कपडे के थैलों को पानी नहीं लगना चाहिए. थैलों को वर्षा से
बचाना।" अब रास्ते में बारिश शुरू हुई। आसपास में कुछ आसरा नहीं दिखाई देता
था। अब नौकर तो आज्ञाकारी थे। अब वे सोचने लगे कि स्वामी की आज्ञा है, थैलों
को वर्षा से बचाना। तो एक दूसरे के सलाह से, आज्ञा के शब्दों के अनुसार
उन्होंने थैलों को बचाया। दोनों ने झटपट थैलों से कपड़ा निकाल कर थैली से ऊपर
लपेट दिया। अब कितनी भी वर्षा होने पर भी थैले भीग नहीं सकते थे। आज्ञा का
शब्दशः पालन हो गया, अर्थात कपड़ा भीग गया और थैले बच गए। आज्ञा का भाव
(spirit) नौकरों ने ध्यान में नहीं लिया।
तो संगठनात्मक अनुशासन और स्वयंप्रेरणा इनका सुंदर समन्वय जैसे विषयों का मतलब
ध्यान में लेते समय, शब्द और भाव (letter and spirit) दोनों का ख्याल रखना
आवश्यक होता है।
इस प्रकार की अनुशासन की कल्पना अन्य संस्थाएँ तथा सर्वसाधारण समाज इनकी
कल्पना के भी अतीत होने के कारण संघ की अनुशासन कल्पना के बारे में कुछ अपवाद
छोड़कर बहुत ही गलतफहमियाँ दूर से देखने वाले लोगों के मन में पैदा होती हैं।
क्योंकि साधारणतः अनुशासन माने discipline यह धारणा मन में रहती है और
discipline यह अवधारणा फौजी मानसिकता, जकड़बंदी regimentation के रूप में देखी
जाती है। वास्तव में तो यह धारणा गलत है। Discipline यह शब्द disciple माने
शिष्य इस शब्द से सिद्ध होता है और वह मलतः आध्यात्मिक क्षेत्र से आया है। एक
शिष्य का अपने गुरु के प्रति जो भाव रहता है उसे discipline कहते हैं।
हमारे यहाँ भी प्राचीन काल से अनुशासन इस शब्द का प्रयोग इसी संदर्भ में होता
आया है। गुरु के घर पूरी शिक्षा प्राप्त करने पर शिष्य जब अपने घर चल निकलता
है तब वह अपने आचार्य से जो उपदेश, जो वर्तनसूत्र पाता है, उसको एक उपनिषद में
'इदं अनुशासनम्' ऐसा ही कहा है। उसमें कहा गया है कि जो सिदंधांत रूप धर्म है,
उसी के अनुसार जीवन व्यवहार करो, सत्य का अनुसरण करो आदि। लेकिन पाशष्ट प्रकार
से ही शिष्य का वर्तन रहना चाहिए ऐसा आग्रह नहीं किया है, जिसे अंग्रेजी में
rigidity बोलते हैं। केवल इतना ही कहा है, हमारे शास्त्रों ने हर व्यवहार के
बारे में सही मार्गदर्शन किया है, वह ध्यान में ले लो। कुछ समस्या उत्पन्न हुई
तो अपने जो श्रेष्ठ, नि:स्वार्थ तप:पत विद्वान हैं, वे ऐसे प्रसंगों में जैसा
व्यवहार करते है वैसा ही व्यवहार करो। कोई विशिष्ट नियमावली नहीं बनाई है।
अपनी अपनी बुद्धि की स्वतंत्रता मान ली है और उस स्वतंत्रता का, भौतिक शाश्वत
सिद्धांतों से समन्वय करने का अनुरोध किया है। उसी को अनुशासन कहा है। यही तक
कि उन्होंने कहा है कि 'हमारा भी पूर्णरूपेण अनुकरण मत करो। हमारे जो अच्छे
काम हैं उनका अनुसरण करो किंतु हमारे अन्य कायों का अनुसरण मत करना। 'यानी
यानी अस्माकं सुचरिताणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि।'
इसमें अनुशासन के दो आयाम सामने आते हैं। एक, आदेश का व्यक्तिगत पालन और
दूसरा, सब मिलकर एक साथ सूत्रबद्ध होकर, शाश्वत मौलिक सिदंधांत रूप धर्म का
पालन यानी समष्टिरूप पालन। हमारी अनुशासन की कल्पना में व्यक्तिस्वातंत्र्य और
समष्टि हित इन दोनों का संतुलित एवं समन्वित आशय है। व्यक्ति की अपनी बुद्धि,
प्रकृति अभिरुचि इन सभी के साथ उसका स्वतंत्र अस्तित्व मान लिया है। हरेक
व्यक्ति को अपने अपने प्रकृति धर्म के अनुसार अपने जीवन का विकास और उत्कर्ष
करने के लिए प्रोत्साहित करना यह भी हमारा कर्तव्य माना गया है। लेकिन व्यक्ति
ने अपना विकास करते समय निजी व्यक्तित्व का ही अहंकार न रखते हुए समष्टि का
गौरव मन में रखना चाहिए और उस गौरव की भावना से एकात्म होकर ही, अपनी
व्यक्तिगत गुणसंपदा राष्ट्रहित की सीमा में, समष्टि धर्म के लिए सुसूत्रता से
विकसित करके उपयोग में लानी है, यही हमारी अनुशासन की अवधारणा है। इसके बिना
बाकी जो कुछ है वह केवल दासता निर्माण करने वाली ही बात है।
इसी अनुशासन के भाव का एक बहत ही संदर तथा उदबोधक उदाहरण भगवद्गीतारूप
श्रीकृष्णार्जुन संवाद में हमारे सामने आता है। महाभारत के युद्ध के प्रारंभ
में ही अर्जुन के मन में संभ्रम पैदा हुआ कि मैं यूद्ध करूं या न करू? दोनों
तरफ से पाप तो होगा ही तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से कहा:
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्में।
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
(भ
,
गी २.८८)
'मैं तुम्हारा शिष्य हूँ तो इसमें लड़ना या न लड़ना इसमें श्रेयस्कर क्या है
उसका मुझे निश्चित आदेश दीजिए।' भगवान ने वैसा कोई निश्चित आदेश तो दिया ही
नहीं। उसके बदले जिन कारणों से अर्जुन के मन में भ्रम पैदा हुआ था, उन कारणों
के तर्क की चर्चा करना शुरू किया और उन्हीं का समाधान वे करते रहे। ऐसे होते
होते प्रश्नोत्तर चलते रहे और अठारह अध्याय पूरे हो गए। इतनी चर्चा करके
अर्जुन को समझाने पर भी आखिर में भगवान क्या कहते हैं- 'अब तक जो तुझे बताया
है उसके सभी पहलुओं को ध्यान में लेकर गहराई से विचार करो और फिर तुम्हारी
जैसी इच्छा रहेगी, जैसा तुम्हे योग्य लगे वैसा ही करो।'
"विमृश्येतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरू।" (भ.गी. १८.६३)
माने इतनी चर्चा करने पर भी अर्जुन को निश्चित आदेश तो नहीं दिया और निर्णय उस
पर छोड़ दिया। लेकिन अब इतना सारा होने से अर्जुन की समझदारी भी बढ़ गई थी। और
उन्होंने गीता के अंतिम भाग में कहा-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव।। (भ.गी. १८.७३)
यह विचित्र अनुशासन का ढंग दुनिया में कहीं और देखने को मिल सकता है क्या?
भारत के अनुशासन का आदर्श है, शिष्य का समझदारी का स्तर ऊपर उठाना कि जिससे
शिष्य सही मार्ग पर चल सके। जैसी जसा समझदारी बढ़ेगी वैसे ही अनुशासन बनता
रहेगा। सैनिकी अनुशासन में कम नहीं होता है। इसमें व्यवहारिक बंधन भी हो सकते
हैं। यह तो सही है हममें से ना कोई कृष्ण है, ना कोई अर्जुन। हम सभी जैसे है
वैसे ही मानने में कोई आपत्ति तो नहीं है। फिर भी इस उदाहरण का जो मर्म है,
भावार्थ जो है वह तो हमारे ध्यान में आता है कि कार्यकर्ताओ की समझदारी बढाने
की आवश्यकता है और आदर्श क्या है यह भी हमारे ख्याल में आना अपेक्षित है।
अब जितनी मात्रा में हम कृष्णार्जुन से नीचे हैं, उतनी मात्रा में इस समझदारी
के व्यवहार का हमारा स्तर भी नीचा रहेगा। इसी के कारण कुछ व्यवस्था बनानी
पड़ती है। कुछ नियमों की आवश्यकता होती है। वरना व्यवस्था की वैसी आवश्यकता
नहीं। आखिर अनुशासन क्या है? वह तो कई संवैधानिक बात नहीं। कार्यकर्ता की
समझदारी यही अनुशासन है। यह समझदारी बढ़ाते रहने की आवश्यकता है। हमारा प्रयास
तो, अनुशासन शत-प्रतिशत कैसे रखा जा सकता है, इस दृष्टि से कार्यकर्ताओं की
तैयारी करना यही रहता है। इसके लिए कुछ व्यवस्था आवश्यक रहती है। कोई कहेगा
इसमें क्या कठिनाई है? हमारी व्यवस्था में अधिकारियों के जो आदेश होंगे उसका
पालन किया जाएगा। यह तो ठीक है। इस सूत्र में लोग काम भी करेंगे। यह तो ठीक है
कि आज का Progressiveness, जिसमें ऊपर से आए आदेश की अवहेलना करना एक फैशन है,
हमारे यहाँ नहीं है। हम ऐसे Progressive बनने को तैयार नहीं हैं। परंतु केवल
इस प्रकार उपर से आए आदेश के लिये ही काम करने से गुणात्मकता कम होने का खतरा
भी है। स्वयं अनुभव न कर पाने की स्थिति में कार्य के प्रति तन्मयता भी घटती
है। अनुशासन वास्तव में उत्तम वही है जिसमें आपस में अच्छी समझ हो।
विभिन्न कार्यो का संचालन करने वाले नेताओं में प्रायः एक ऐसी शैली रहती है कि
अपने मन में कार्य की दिशा निश्चित होने के पश्चात् उस विषय में अपने
अनयायियों को बताना और मार्गदर्शन का औचित्य समझने की क्षमता उन अनुयायियों
में न रही तो भी तदनुसार उन्हे कार्य करने का आदेश देना। उस शैली के फलस्वरूप
तात्कालिक कार्य ठीक ढंग से संपन्न हो सकता है, और शायद श्रद्धा के कारण लोगों
में भी यह भाव निर्माण नहीं होता कि हमारे ऊपर यह निर्णय थोपा जा रहा है।
किंतु अनुयायियों में स्वयं विचार करने तथा ठीक निष्कर्ष पर पहँचने की असता इस
शैली के कारण निर्माण नहीं हो पाती।
पुर्णरूपेण ध्येयवादी, आत्मसमर्पित, निरहंकारी नेता किसी भी परिस्थिति में
उचित निर्णय कर सकता है। फिर भी सबको विश्वास में लेकर अपना निर्णय उनकी सलाह
का परिणाम है। यह भावना कार्यकर्ताओं के मन में निर्माण कर सकता है। अपने
निरहंकारी जीवन और व्यवहार कुशलता से संगठन में ऐसा वायुमंडल निर्माण कर सकता
है। जिसके कारण किसी को यह अनुभव ही न हो कि इस एक व्यक्ति के हाथ में बहुत
बड़ी शक्ति केंद्रित हो गई है। फिर उस शक्ति का अस्तित्व किसी को चुभेगा नहीं,
अखरने की बात तो दूर ही रही।
इस दृष्टि से नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता की शैली कैसी होनी चाहिए, इसका
आदर्श पू. डॉक्टर जी के व्यवहार सूत्रों से हमें प्राप्त होता है। उनकी अपनी
विशिष्ट कार्यशैली थी। संघ के ध्येय आदि अपरिवर्तनीय विषयों की बात अलग है।
उसके बारे में समझौते का प्रश्न ही नहीं था। वे जानते थे कि 'समझौता केवल छाता
होता है, छत नहीं।' कार्यपद्धति की बात ही अलग थी। उसके बारे में ऐसी स्थिति
थी कि अपनी कोई भी पूर्व चिंतित तथा पूर्वनियोजित बात यदि वे सबके सामने सीधे
रखते तो सभी उसको श्रद्धा से सहर्ष स्वीकार करते, किंतु उन्होंने ऐसा नहीं
किया। हर विषय में उचित निर्णय हो,यह चिन्ता तो उन्हें अवश्य थी, किंतु वे
सोचते थे कि किसी भी विषय में पहले ही स्वयं अपना मत प्रकट न करके सहयोगियों
की समझदारी का स्तर इतना उँचा किया जाए कि वे स्वयं अपने ही विचार से अभिप्रेत
निर्णय पर पहुँच सकें, फिर वह प्रक्रिया पूरी होने में भले ही विलम्ब हो जाए।
डॉक्टर जी का विचार था कि उतनी देर प्रतीक्षा करना अधिक लाभदायक होगा, बजाय
इसके कि अपना विचार कार्यकर्ताओं पर और सहयोगियों पर थोपा जाए। इस शैली के लिए
धीरज और इस आत्मविश्वास की भी आवश्यकता थी कि धीरे-धीरे किंतु निश्चित रूप में
मैं अपने सहयोगियों को अपने निष्कर्ष पर ले आऊँगा।
इस संदर्भ में बहुत ही मार्गदर्शक उदाहरण है। संघ का प्रारंभ तो 1925 के
विजयादशमी के शुभ अवसर पर हुआ। किंतु इस कार्य का नामरकण 17 अप्रैल 1926 को
हुआ। इसके लिए हुई बैठक का जो वृत्तान्त प्राध्यापक पां.कृ. सावळापूरकरजी ने
बाद में दिया है, वह बहत ही उदबोधक है। बैठक में संघ के नाम के विषय के बारे
में तीन सयात आए। भारतोद्धारक मण्डल, जरीपटका मण्डल, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ। बैठक में 27 स्वयंसेवक उपस्थित थे। उनमें से बहुत सारे स्वयंसेवकों की
उम्र तो बीस वर्ष से भी कम होगी। लेकिन पू. डॉक्टर जी ने सभी को खुली चर्चा
करने का अवसर दिया। प्रा. सावळापूरकर ने भी आधा घंटा भाषण दिया और बाद में
सबकी सहमति से तीसरा नाम याने 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' यह स्वीकृत किया गया।
प्रा. सावळापूरकर ने बताया है कि इस नाम के पक्ष में उन्होंने जो विचार रखे
थे। उनके बारे में पहले उनकी पू. डॉक्टर जी के साथ कुछ भी चर्चा नहीं हुई थी,
यद्यपि डॉक्टरजी ने संस्था का नाम अपने मन में पहले ही निश्चित किया हुआ था।
फिर भी पू. डॉक्टर जी से हमेशा जो संपर्क संवाद होता रहता था, उसी से
सावळापूरकर जी के मन में संघ कार्य के संदर्भ में जो संस्कार हुए थे, जो
समझदारी बढ़ी थी, उसी के आधार पर उन्होंने इस बैठक में अपने विचार रखे थे। तो
प्रथम अपने साथियों की समझदारी का स्तर बढाना और सम्बन्धित विषय चर्चा के रूप
में लाना ताकि निर्णय अभिप्रेम ऐसा ही ठीक ढंग से हो, यह पू. डॉक्टर जी की
कार्यशैली था।
यानी आदेश देने वाला और आदेश पाने वाला इसके बीच मानसिक संवाद सुसंवाद होना
चाहिए तभी उसे अनुशासन कहा जाता है। आदेश पाने वाले को यह अंदाजा होना चाहिए,
ऊपर से किसी एक विशिष्ट आदेश क्यों आया है और अगर एकाध बार, समय पर यह बात
उसके ध्यान में नहीं आई तो भी वह उस आदेश का पालन करेगा। इसके लिए न्यूनतम
व्यवस्था होती है। इसमें यह मानसिकता विकसित होती है कि ऊपर से आया हुआ जो
आदेश होगा वह व्यापक परिप्रेक्ष्य में सर्वांगीण विचार करके ही लिया होगा। इस
संदर्भ में अपने नेतृत्व पर पूरा विश्वास होना चाहिए। दूसरी तरफ नेतृत्व में
भी पूरी तरह की पारदर्शिता होनी चाहिए। उनके भी सभी व्यवहार सामान्य
कार्यकर्ताओं के लिए वस्तुपाठ बनकर रहेंगे। इस दृष्टि से होने चाहिए।
अनुयायियों से अनुशासन की अपेक्षा करने वाला ज्येष्ठ कार्यकर्ता भी स्वयं
अनुशासन का पालन उचित ढंग से समझदारी से और पारदर्शिता से करता है उससे ही
परस्पर विश्वास के आधार पर सही अनुशासन विकसित होता है।
निर्णय प्रक्रिया के आयाम
फिर केंद्र में किसी भी तरह का और कोई सा भी निर्णय हो उससे कुछ मात्रा में
फायदा और कुछ मात्रा में नुकसान भी तो हो सकता है। भगवान ने ही कहा है, 'सभी
कार्य कुछ न कुछ दोषों से युक्त होते ही हैं। जैसे अग्नि प्रज्वलित करने के
पहले धुंआ तो होता ही है।' तो किसी भी निर्णय के साथ उपलब्धियाँ तथा नुकसान
आता ही है। अब निर्णय करते समय उन दोनों में सन्तुलित विचार करके ही निर्णय
लेना आवश्यक होता है और ऐसा निर्णय लिया जाता है यह विश्वास कार्यकर्ताओं में
भी बनाए रखना आवश्यक है।
अन्य संस्थाओं में हमने सुना भी है कि, 'हाँ, ठीक है। वे क्या अखिल भारतीय लोग
हैं जो अपने ivory tower में बैठे हैं। उनको क्या पता है कि नीचे हमारी क्या
कठिनाईयाँ होती हैं।' अब वास्तव में अखिल भारतीय अधिकारियों को मालूम नहीं
होगा तो वह तो दोष ही है। वह इसका निदर्शक है कि संपर्क और संवाद की शृंखला
ठीक नहीं है। अखिल भारतीय स्तर पर निर्णय करना है तो हर जगह की सुखअसुविधा, हर
जगह की सुखदुख, बलस्थान या कमजोरियाँ ऐसी सभी बातें ध्यान में लेते हुए यह
निर्णय लेना आवश्यक है नहीं तो यह निर्णय lop-sided हो सकता है। यह तो ठीक है
किंतु ऊपर संपूर्ण परिस्थिति का विचार हो इसलिए भी line of communication की
आवश्यकता है। जानकारी आवश्यक है। वैसे ही अपने यहाँ की स्थिति अन्य स्थानों से
कुछ अलग ही है। यह जानकारी भी जगह जगह के विभिन्न कार्यकर्ताओं को यदि रही तो
मैं समझता हूँ, उनकी मानसिकता में, वृत्ति में अंतर आएगा और हर जगह की स्थिति
अलग अलग होने के कारण सब जगह एक ही निर्णय सुविधाजनक ही होगा ऐसा नहीं, यह भी
वे मान लेंगे। उसके कारण कई इकाईयों को तो असुविधा बर्दाश्त करनी ही पड़ेगी।
एक सूत्री निर्णय लेना है, अनुशासनबद्ध चलना है तो फिर कितना भी अच्छा निर्णय
लिया तो भी सबके लिए सुविधाजनक हो नहीं सकता, यह समझदारी भी कार्यकर्ताओं में
होना आवश्यक है। लेकिन इसलिए हमलोग अपनी 'डफली और अपना राग' ऐसा व्यवहार नहीं
कर सकते तो केंद्र में फलाना निर्णय क्यों लिया गया इसकी जानकारी कार्यकर्ता
को प्राप्त होती है और जगह जगह से प्राप्त हुई जानकारी के माध्यम से, निर्णय
प्रक्रिया में नीचे के कार्यकर्ताओं का भी योगदान रहता है।
इसमें और एक बात ध्यान में लेना आवश्यक है। देशभर में संघकार्य का विस्तार हुआ
है। अब, अगर स्थान-स्थान पर कार्यकर्ताओं की समझदारी बढानी है तो हरेक स्तर की
गतिविधियों के बारे में उसी स्थान पर निर्णय होने देना आवश्यक है। यानी कि
अपनी पद्धति में हम विकेंद्रित निर्णय प्रक्रिया विकसित करने का प्रयास करते
हैं। हमारे ध्येय संकल्प और नीति निर्धारण में तो हमारा दृष्टिकोण अखिल भारतीय
है। समूचे संगठन की दृष्टि से उनके बारे में निर्णय तो केन्द्रीय स्तर पर
होगा। लेकिन समय समय पर जो कार्यक्रम तय करना है जिम्मेदारियों का और व्यक्ति
का विचार करना पड़ता है, कुछ तात्कालिक विधि निषेधों का विचार करना पड़ता है
या कुछ स्थानीय परिस्थिति को समझने की बात होती है। यह पद्धति इस दृष्टि से
विकसित करने का हमारा प्रयास रहता है कि स्थान स्थान पर कार्यकर्ताओं की
सूझबूझ बढ़े। उनमें निर्णय लेने की क्षमता निर्माण हो। वे केवल ऊपर से आए
निर्णयों को, थोपे हुए निर्णय मानकर काम न करें। स्वयंप्रेरणा से और अपने मन
की लगन से बात करें और उनको अपने कार्य की व्यापक अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य का
भी बोध हो। स्थानीय स्तर का अपना निर्णय पूरे अखिल भारतीय कार्य की व्यूह रचना
का एक अंशमात्र हिस्सा है, इस जिम्मेदारी का भाव भी उनमें पैदा हो। यह समझदारी
बढ़ने की प्रक्रिया समझने के लिए एक उदाहरण देता हूँ पहाड़ी पर चढ़ने का। जब
पहाड़ी पर चढ़ना शुरू करते हैं और इधर उधर देखते हैं तो कुछ परिसर दृष्टिपथ
में आता है। जैसे जैसे हम ऊपर चढ़ते जाते हैं पहले से ज्यादा परिसर हमारे
दृष्टिपथ में आता रहता है। जब पहाड़ी की चोटी पर पहुँचते हैं तब वहुत ही विशाल
परिसर हमारे दृष्टिपथ में आ जाता है। ऐसा नहीं है कि उस समय हमारी आँखों की
रोशनी पहले से ज्यादा अच्छी हो जाती है। आँखों की रोशनी वही रहती है लेकिन
ऊँचाई पर आने के कारण दूर तक का दृश्य स्पष्ट हो जाता है। इसी प्रकार अपने
स्थान पर कार्य करते समय जो बातें ध्यान में नहीं आतीं वे जिम्मेदारी बढ़ने पर
उत्तरोत्तर ध्यान में आना शुरू हो जाता है। समझदारी बढ़ती जाती है। व्यापक,
अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य मन में बनाए रखने की प्रक्रिया शुरू होती है। फिर
अपना स्थानीय काम अखिल भारतीय व्यापक कार्य के शृंखला की एक कडी के रूप में
देखने की मानसिकता बनी रहती है।
ऐसी सजग विकेन्द्रित निर्णय प्रक्रिया ही, समाज की सभी गतिविधियों में पूरे
समाज को स्वयंप्रेरणा से सम्मिलित करने वाले प्रजातंत्र करने वाले प्रजातंत्र
का महत्वपूर्ण पहलू है।
नए कंधों पर बुजुर्ग मस्तिष्क
इस प्रक्रिया में पुराने ज्येष्ठ कार्यकर्ताओं की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है।
इस संदर्भ में नए नए कार्यकर्ता विकसित करने की जो विशेष पद्धति हमारे कार्य
में है। वह ध्यान में आती है। एक दृष्टि से कहा जाए तो नए कंधों पर बुजुर्ग
मस्तिष्क (old brains on young shoulders) ऐसी यह रचना है। बहुत से पुराने
कार्यकर्ता, जिन्होंने वर्षों तक अपनी अपनी जिम्मेदारियाँ बड़ी सक्षमता से,
बड़ी समझदारी से निभाईं, अब वे शारीरिक दौर्बल्य के कारण या कुछ व्यावहारिक
सीमाओ के कारण इतने सक्रिय नहीं रहे। ऐसे कार्यकर्ता नये कार्यकर्ता को
प्रशिक्षित, विकसित कर सकते हैं। कार्य की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी तो नये
कार्यकर्ताओं पर ही रहेगी, रहनी चाहिए। वे ही वर्तमान कार्य का भार सँभालेंगे।
लेकिन उनको सही दिशा का संकेत ये पुराने कार्यकर्ता कर सकते हैं। यह कुछ
वैधानिक नेतृत्व नहीं होता है। बल्कि पारिवारिक नेतृत्व जैसा मामला है। (not
constitutional leadership but patriarchal leadership) हमारा कार्य तो
पारिवारिक ढंग से चलता है तो ऐसे बुजुर्ग कार्यकर्ताओं का हमारे काम में
महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। अधिकार का मद मन में न रखते हुए विकसित हुई,
'पिता के समान, नेतृत्व की यह पद्धति है। इसलिए एक सावधानी ऐसे पुराने
कार्यकर्ताओं के मन में होना आवश्यक है। यह करो वह न करो।' ऐसी आदेशबाजी करने
वाली मानसिकता से दूर रहना आवश्यक है। यदि यह हो सकता है कि पुराने अनुभवी
कार्यकर्ताओं का, नये कार्यकर्ताओं का समझ बढ़ाने की दृष्टि से हमारे कार्य
में महत्वपूर्ण योगदान प्राप्त हो जाता है तो वृद्धावस्था में जीवन के अंतिम
क्षण तक वे योगदान कर सकते हैं।
संगठन की शक्ति संख्या में नहीं
अब ध्यान में आता है कि ऐसा देशव्यापी संगठन अपने ही जिन सिद्धांतों के आधार
पर चलता आया है, विकसित हुआ है, जिनके कारण संघ की संगठन प्रक्रिया में स्वयं
की एक निजी शक्ति (inherent strength) है, वैसे ही उनकी कार्यपद्धति में भी
उसकी अपनी शक्ति है। लेकिन इस शक्ति का हिसाब हम कैसे कर सकते हैं? केवल
संख्यात्मक योग के आधार पर? बाजार में आए हुए पाँच सौ आदमियों की ताकत और
संघशाखा पर आए पाँच सौ स्वयंसेवकों की ताकत क्या एक ही हो सकती है? दोनों जगह
संख्या एक ही है, लेकिन बाजार में आए व्यक्तियों ने अपना अपना व्यक्तित्व
(identity) अलग अलग रखा है। उनका अहंकार अलग है। एक जगह आने का हेतु अलग है।
दूसरी ओर संघ स्थान पर उतनी ही संख्या में आए हुए स्वयंसेवक समान हेतु, समान
मानसिकता, हम सब मिलकर एक हैं, यह एकात्मकता का भाव, इस सबके होते हुए इकट्ठा
आते हैं। इसलिए वे संगठित होते हैं। वे अपना 'अहम्' मिटाकर 'वयम्' की अनुभूति
करते हैं। अलगाव का कोई नामोनिशान नहीं रहता। उसमें से एक सामूहिक अहंकार
निर्माण होता है। (organisational ego of all of us put together) इस सामूहिक
अहंकार से ही सगठन बनता है। इस दृष्टि से रास्ते में, बाजार में होने वाली भीड़
और संगठन ये दो बातें अलग अलग हैं। जैसे मिश्रण (mixture) और यौगिक (compound)
में फर्क है। यौगिक में अलग अलग द्रव्यों के निजी गुणधर्म एक दूसरे में मिलकर
तीसरा पदार्थ बनता है और उसकी शक्ति दोनों के योग से भी अधिकतर होती है।
बीजगणित में एक प्राथमिक सूत्र का उदाहरण होता है। अ को अलग रखकर वर्ग किया तो
अ होता है वैसे ही ब का ब होता है तो अ और ब एक साथ आने पर भी अब होता है
लेकिन अपना अलगपन छोड़कर अगर (अ+ब) ऐसे पहले ही एक प्रकोष्ठ में (bracket) आए
और फिर उसका वर्ग किया तो उसका परिणाम आता है अ+ब' =2अब। अब केवल अ+ब के साथ
यह +2' अ ब शक्तिघटक निर्माण हुआ, वह कहाँ से आया? तो वह अ और ब पहले ही
इकट्ठा आने से यानी उन के संगठन से आया है। वैसे ही संगठन की आंतरिक शक्ति
(internal strength) 'अहम्' का अलगाव का भाव 'वयम्' में समर्पित करने से ही
निर्माण होता है। वह केवल संख्यात्मक योग से नहीं गिनी जाती। लोकतंत्र के इस
जमाने में लोग, संख्या कितनी है, इस मुद्दे को सबसे ज्यादा महत्त्व देते हैं।
चुनावी परिणाम की बात होती है तो मतदाताओं की संख्या का अधिकतम महत्त्व रहता
है। अपना बहुमत होना चाहिए इस पर जोर दिया जाता है। लेकिन जब सिदंधांत और उसी
पर आधारित कार्यपद्धति की शक्ति का सवाल होता है, तब यह निश्चित है कि संख्या
का विषय तो मामूली हो जाता है क्योंकि सिदंधांत तथा कार्यपद्धति की अपनी अपनी
निजी आंतरिक शक्ति रहती है और वह बहुमत पर निर्भर नहीं रहती।
जैसे बाईबिल में आया है कि पृथ्वी यह केंद्र है और सूरज उसके मंडल में घूमता
है। इस सत्र को मध्ययग के बाद वैज्ञानिकों ने अपने संशोधन से चुनौती दी।
कोपरनिकस ने लगातार चौतीस वर्ष परिश्रम करके यह सिद्ध किया कि सूर्य यह
ग्रहमाला का केंद्र है और पृथ्वी उसकी चारों ओर अन्य ग्रहों के साथ चक्कर
काटती है। यह अन्वेषण बाईबिल के मत के विरोध में था। यह कोपरनिकस का सिदंधांत
जब छपकर तैयार हुआ, तब वह मृत्युशय्या पर था। उसके मित्रों ने उसकी छपी हुई
प्रति उसके हाथ में दी और थोड़े ही समय के अंदर उसका प्राणोत्सर्ग हुआ। उसके
पश्चात् लंबे समय तक उसके अन्वेषण की दखल किसी ने नहीं ली। केवल केपलर नामक एक
अन्य शास्त्रज्ञ ने कोपरनिकस के सिदंधांत का passing reference दिया। कोपरनिकस
की मृत्यु के पश्चात् उसके सिदंधांत को नकारात्मक मान्यता मिली। वेटिकन सिटी
ने आदेश निकाल कर सभी ईसाइयों को बताया कि पोप ने यह पुस्तक प्रक्षिप्त की है।
इसलिए किसी ने उसको छूना तक नहीं। मतलब यह हुआ कि उस समय का संपूर्ण यूरोप
कोपरनिकस के सिदंधांत के विरोध में था। किंतु आज संपूर्ण विश्व में उसी के
सिदंधांत को मान्यता मिल रही है।
आगे चलकर गैलेलियो, ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों ने कोपरनिकस का सिदंधांत और
दृढ़ता से दोहराया। लेकिन उनको पाखंडी मानकर छलवाद का शिकार बनाया गया। पूरा
खिस्ती धर्मपीठ और खिस्ती समाज उनके विरुद्ध थे। बहुमत विरुद्ध था। गेलेलियो
को बुढ़ापे में कारावास भूगतना पड़ा। ब्रुनो को तो उसके मत के आग्रह के कारण
ईसाइयों ने चिता पर जलाकर मार दिया। लेकिन सत्य की शक्ति बहुमत पर निर्भर नहीं
होती। के सिद्धांतों को आज सर्वदूर मान्यता है क्योंकि उनकी अपनी निजी आंतरिक
शक्ति थी।
मराठी संत तुकाराम ने कहा है-
सत्य असत्यासि। मन केले ग्वाही मानियले नाही। बहुमता।।
माने मन की अंत:प्रेरणा से सत्य की जो अनुभूति प्राप्त हुई है, उसकी सत्यता
परखने के लिए अपने मन की गवाही ही ले ली है। बहुमत को प्रमाण नहीं माना।
बहुमत से प्रस्ताव पारित करने से अग्नि ऊष्णता और प्रकाश इन गुणधर्मों को छोड़
नहीं सकता, ना तो शीतलता और अंधेरे का आश्रय कर सकता है।
पू. डॉक्टरजी के ध्येय दर्शन का प्रगत उन्मीलन
गत पचहत्तर सालों से ऐसी ही कार्यपद्धति के द्वारा संघकार्य चलता आया है,
विकसित हुआ है। ऐसी स्वयंपूर्ण कार्यपद्धति के द्वारा स्वयंसेवक राष्ट्रीय
पुनर्निर्माण का साधन इस नाते संस्कारित होंगे-संगठन निर्माण होगा, बढ़ेगा और
जैसा 'कार्यकर्ता का अधिष्ठान' इस विभाग में बताया है, स्वयंसेवकों की ऐसी
संगठित संस्कारित शक्ति के द्वारा समाज जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में अपनी
सनातन जीवन पद्धति के, जीवन मूल्यों के अनुसार आज की परिस्थिति, आज के समाज
जीवन की आवश्यकताएँ, ध्यान में लेकर अन्यान्य रचनाएँ (institutional
framework) खड़ी होंगी यानी धर्मप्रवण व्यक्ति मानस और धर्माधिष्ठित समाज रचना
सिद्ध होंगी। इसमें यह बात तो साफ है कि धर्म के आधार पर ऐसी युगानुकूल
संस्थाओं का निर्माण करके समाज परिवर्तन करने के लिए धर्मप्रवण व्यक्ति मानस
की बुनियादी आवश्यकता पूरी करनी पड़ती है। इसलिये जैसे पहले बताया गया है कि
पू. डॉक्टरजी ने मानो एक तरह का श्रम विभाजन किया। उन्होंने सोचा कि व्यक्ति
मानसा धर्मप्रवण सुसंस्कारित करने का कार्य संघ स्थान पर होगा, शाखा में होगा।
फिर ऐसे सुसंस्कारित और धर्म प्रवण व्यक्ति विभिन्न समाज क्षेत्रों में जाकर
विविध संस्थाओं का तथा रचनाओं का निर्माण करेंगे। पू. डॉक्टरजी कहते थेजो सबसे
कठिन कार्य है अर्थात् हिंदू संगठन का कार्य है, वही हम करेंगे। उसके फलस्वरूप
धर्मरक्षण और उसी के द्वारा राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाना यह कार्य होगा।
लेकिन सबसे बुनियादी कार्य तो हिंदू संगठन का है। इसलिये ये संपर्क,
स्वयंसेवक, संस्कार, संगठन आदि बातें आती हैं तो organisation is our
beginning and organisation is our end. यानी 'संगठन के लिए संगठन'। उस समय भी
प्रश्न पूछे जाते थे।, 'राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने कि लिए राष्ट्रजीवन के
विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने की आवश्यकता है, विचारों का विकास होना
आवश्यक है। आप तो कहते हैं कि हम दक्ष-आरम के सिवा अन्य कुछ नहीं करेंगे। तो
यह होगा कैसे?' तब ऐसा बताया जाता था, संघ कुछ भी तो नहीं करेगा। लेकिन देश
में समाज जीवन में ऐसा एक भी कार्य नहीं रहेगा जो करने लायक है और जो हुआ
नहीं। ऐसे कार्य कौन करेंगे? संघ कार्य से संस्कार और प्रेरणा प्राप्त किए हुए
स्वयंसेवक व्यक्तिगत रूप में राष्ट्रजीवन के विभिन्न अंगों में राष्ट्रोपयोगी
कार्य और विचारों का विकास करेंगे। इसके द्वारा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का
कार्य होगा। जैसे बिजली निर्माण का केंद्र होता है। उस बिजली के आधार पर ही
दिये, पंखे चलेंगे, खेतों में पंपों द्वारा पानी पहुँचेगा, सब व्यवहार होंगे।
लेकिन बिजली घर तो केवल बिजली का ही निर्माण करेगा। दूसरा उसका कोई काम ही
नहीं है। तो पहले से ही यह श्रम विभाजन जारी है।
इसका मतलब यही है कि संघ कार्य की विकास प्रक्रिया में अपना मूल कार्य संघ
स्थान पर ही होगा यही बात निश्चित है। और संघ स्थान पर जो बनता है, उसी के
प्रभाव के कारण अन्यान्य क्षेत्रों में कार्य के विविध आयाम खड़े हो जाते हैं।
जैसे कि अमावस की रात चंद्रमा दिखाई नहीं देता है, फिर शुक्ल पक्ष प्रारंभ
होता है, प्रतिदिन चंद्रकला का विकास होता है। जैसे जैसे चंद्रकला विकसित होती
जाती है वैसे वैसे उसका प्रकाश चारों ओर फैलता है। शुक्ल पक्ष में बढ़ने वाला
प्रकाश आप के आँगन में आता है, फिर बरामदे में आता है फिर शयन गृह में आता है।
इसका मतलब यह नहीं है कि चन्द्रमा ने अपना स्थान छोड़कर आप के बरामदे या शयन
कक्ष में प्रवेश किया है। चन्द्रमा तो अपने ही स्थान पर है किंतु जैसे जैसे
उसकी कला बढ़ती जाती है वैसे वैसे उसके बढ़ते हुए प्रभाव का परिचायक यानी उसका
प्रकाश चारों ओर दूर दूर फैलता है। यह संभव नहीं है कि चंद्रमा का विकास तो हो
किंतु उसके प्रभाव का परिचायक प्रकाश बाहर न फैले। वैसे ही संघ अपने ही स्थान
पर यानी संघ स्थान पर है। उसके बढ़ते हुए प्रभाव के परिचायक उसके स्वयंसेवक
चंद्रकिरणों के समान विभिन्न क्षेत्रों में दिखाई दें यह स्वाभाविक ही है
किंतु इसका मतलब यह नहीं कि संघ अपना संघ स्थान छोड़कर बाहर आया है।
दूसरी तरफ विकास के विभिन्न आयाम संघकार्य को प्राप्त होते रहे हैं, यह भी कुछ
नई बात है ऐसा नहीं है। सभी आयाम तो संघ के मूल राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के
संकल्प में पहले से थे ही। संघ की कार्यपद्धति की एक विशेषता है कि जो बात जिस
समय पर करनी है उसी समय हो जाती है। उसके बारे में पहले से मोटे तौर पर बोलना
यह संघ की पद्धति नहीं है। जब कोई ताकत ही न हो तब उस समय पूरा विचार समाज के
सामने रखना भी अनावश्यक है। पहले मोटे तौर पे केवल इतना ही बोल दिया, राष्ट्र
का पुनर्निर्माण करना था वह पर्याप्त था। लेकिन जैसे जैसे शक्ति बढ़ती जाती है
तो उस क्षमता के स्तर के अनुसार अधिक बातों का विषदीकरण करना उपयुक्त होता है।
लेकिन उसमें कोई नई बात तो नहीं होगी। बातें तो पहले से ही संकल्प में थीं।
उसमें कोई हेराफेरी होने वाली नहीं है। अंतर इतना ही है, शक्ति कम थी इसलिए
जादा विचार प्रकट करने की आवश्यकता नहीं थी। जैसे किसी गरीब आदमी के मन में
विचार हो कि मैं राजप्रासाद बनाऊँगा। उसके पास पैसा नहीं है। इस स्थिति में तो
इतना ही कहना पर्याप्त है कि राजप्रासाद बनाना है, इसके बाद पैसा इकट्ठा करना
है। उस समय यदि कोई पूछेगा कि भाई आर्किटेक्ट कौन रहेगा, प्लान क्या होगा,
कमरे कितने होंगे और यह सब कैसे कैसे होगा? तो ये सभी बातों की उस समय
प्रारंभिक अवस्था में जिक्र करना ठीक नहीं। कल्पना साकार करने की क्षमता जब
आएगी तब धीरे-धीरे एक एक बात प्रकट होने लगेगी। माने उस गरीब आदमी के मन में
तो अपने राजप्रासाद का पूरा चित्र पहले से ही संकल्प के रूप में उपस्थित है
लेकिन जब हाथ में कुछ भी नहीं उसी समय में मोटे तौर पर अपने प्रासाद के बारे
में बड़ी-बड़ी बातें वह करेगा नहीं। साधन हासिल करते करते, बढ़ती हुई ताकत के
अनुसार यह अपने मन की एकेक बात बताते जाएगा।
जैसे कोई कुशल चित्रकार पहले अपने मन के संकल्पचित्र की केवल आउटलाइन खींचता
है। क्या कोई कह सकता है क्या कि आउटलाइन के आगे उसके सामने कुछ भी नहीं है।
ऐसा तो नहीं। उसके मन में तो पूरा स्पष्ट रूप से रेखांकित हुआ करता है, और
कागज पर खींची हई आउटलाइन में धीरे धीरे उसी के अनुसार रंग भरते भरते उभरते
हुए रंगों से कल्पना साकार होती है। अंग्रेजी में जिसे progressive unfoldment
कहा जाता है। वैसी यह प्रक्रिया है। unfoldment का मतलब बात पहले से ही मौजूद
रहती है, लेकिन समय के अनुसार उत्तरोतर अधिकाधिक प्रकट होकर दिखाई देना
प्रारंभ होता है और स्पष्ट होती जाती है। मानो सबेरे चार बजे हम अपनी खिड़की
के सामने झाँकते हैं तो सामने का वृक्ष अंधेरे में दिखाई देता है, परंतु साफ
नहीं। धीरे-धीरे प्रकाश फैलता है। वृक्ष स्पष्ट दिखाई देने लगता है। वृक्ष वही
है। कोई ऐसा नहीं कह सकता कि पेड़ उत्क्रान्त हुआ। पहले तो नहीं था वह एकाएक
हो गया, सो बात भी नहीं पेड में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बस, अधिक प्रकाश होने
से डालियाँ, पत्ते, फूल सभी कुछ दिखाई देने लगे हैं। unfoldment का मतलब यही
है, कि चीज वही है फिर भी उसका दर्शन क्रमशः उत्तरोतर स्पष्ट रूप से प्राप्त
होता है। वैसे ही संघ कार्य के बारे में है। पूरे हिंदू राष्ट्र का
पुनर्निर्माण यह संकल्प तो पहले दिन से ही किया हुआ है। उसकी पूर्ति के लिए
समयानुसार जो आवश्यकताएँ उपस्थित होने लगीं वे समय समय पर पूरी करने के लिये
अन्यान्य व्यवस्थाएँ उपस्थित होने लगीं, रचनाएँ सिद्ध होती रहीं तो संघ कार्य
का विकास यानी पू. डॉक्टरजी के मन के ध्येयदर्शन का प्रगत उन्मीलन है। (The
growth of R.S.S. is progressive unfoldment of Dr. Hedgewar's vision) बिना
शक्ति के जिस कल्पना को पागलपन कहा जाता था, वही अब सही ढंग से सोचने वालों
में बुद्धिमानी मानी जाने लगी है।
संघ से प्रेरणा और संस्कार प्राप्त किए हुए स्वयंसेवक अपनी रुचि, प्रकृति,
प्रवृत्ति के अनुसार राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश करेंगे।
अपने अपने क्षेत्र में संघ के द्वारा बनाये हुये पथ्य तथा निषेधों का पालन
करते हुए उपयुक्त कार्यो की रचना करेंगे। रचना के अनुसार संघ संस्कार तथा
मूल्यविचार बोने का प्रयास करेंगे और ऐसे विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रीय
पुनर्निर्माण का प्रयास जारी रहेगा यह बताया गया है, मानो एक तरह का श्रम
विभाजन है। संघ स्वयंसेवकों का निर्माण करेगा; स्वयंसेवक विविध कार्यों तथा
विचारों का विकास करेंगे।
इस दृष्टि से संघ और संघ प्रेरित संस्थाएँ इन दोनों में जो संबंध है, उसका
संकेत करने वाला परमात्मा का वर्णन भगवद्गीता में आता है-
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम।
असक्तं सर्वभृस्च्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।। (भ.गी. १३-१४)
अर्थात जिसमें सभी इंद्रियों के गुणों का आभास होता है, किंतु वास्तव में
जिसको एक भी इंद्रिय नहीं हैं, जिसकी कहीं भी आसक्ति नहीं है तो भी जो सबका
भरण-पोषण करता है; जो स्वयं निर्गुण है किंतु निर्गुण रहते हुए भी सभी गुणों
का उपभोक्ता है (ऐसा परमात्मा)।
संघ तो सभी संघप्रेरित संस्था-रचनाओं की प्रेरणा के नाते धारण पोषण करता है
फिर भी वह सभी से अलग-असक्त है।
संघ स्थान पर प्राप्त होने वाले संस्कार प्रत्यक्ष व्यवहार में लाने के
सन्दर्भ में ऐसा कहा गया था- The battle of Waterloo was won on the
playground of Eton! यही अपनी भी पद्धति का तथ्य है।
ध्यान में आता है कि बड़ी सूक्ष्मता से दूरदर्शी विचार करते हुए राष्ट्रीय
पुनर्निर्माण की संघ की सर्वकष योजनाएँ (all our schemes) सोची गई हैं।
योजना सर्वसमावेशक है। किंतु साथ ही यह भी आग्रह पूर्वक कहा है कि इसका
मूलाधार संघशाखा ही है। इन सभी कार्यों की रचना पिरामिड के समान रहनी चाहिए।
पिरामिड में चूना, सीमेन्ट आदि का उपयोग नहीं किया गया। केवल बड़े बड़े पत्थर
एक के ऊपर एक/रखकर पिरामिड बनाये गए। फिर भी वे तीन-चार हजार वर्ष से वैसे के
वैसे खड़े हैं। इसका रहस्य क्या है? इसका रहस्य है उनका पहला स्तर सबसे
विस्तृत होना, दूसरा उससे छोटा, तीसरा दूसरे से छोटा आदि, इस तरकीब से सारे
पत्थर एक दूसरे पर जमा कर रखे गए हैं। यदि कोई व्यक्ति सोचे कि मैं उल्टा
पिरामिड बनाऊँगा जिसका पहला स्तर सबसे छोटा होगा और ऊपर का स्तर उत्तरोत्तर
अधिकाधिक विस्तृत होने वाला होगा तो ऐसा पिरामिड बनते बनते ही गिर जाएगा।
संघसृष्टि के पिरामिड का पहला आधारभूत स्तर यानी शाखा है। यह स्तर छोटा रहा और
इसके ऊपर के संस्थाओं के स्तर उत्तरोत्तर अधिकाधिक बनने वाले रहे तो इस सृष्टि
का यह पिरामिड बनते बनते ही टूट जाएगा, सारे पत्थर गिर जाएँगे। योजना सर्वकर्ष
है किंतु क्रियान्वयन का मूलाधार, केंद्र बिंदु शाखा है। जिस तरह संघ दर्शन का
केंद्रबिंदु हिंदू राष्ट्र है। बिना हिंदू राष्ट के संघदर्शन अर्थात Hamlet
(play) without prince of Monarch. वैसे ही बिना शाखा के संघयोजना अर्थात्
बिना छेना के रसगुल्ला। इस दृष्टि से संघ की कार्यपद्धति का मूलभूत सूत्र
दृष्टि से ओझल नहीं होने देना आवश्यक है। 'दक्ष-आरम' को हमेशा ख्याल में रखना
आवश्यक है।
इसका मतलब है it is a two-way process! संघस्थान पर गठित हुई संस्कारित शक्ति
अन्य क्षेत्रों में जाएगी और अन्य क्षेत्रों में हुई मूल्याधिष्ठित रचनाओं से
संघ के राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कार्य को बढ़ावा मिलेगा।
इस दृष्टि से एक बाध्यता है। अन्य क्षेत्रों में गए स्वयंसेवकों का संघ
संस्कार ताजा रहे, क्षीण न हो। संघ शाखा से वे कायम संबद्ध रहें।
अब गत तकरीबन हजार सालों में परकीय आक्रमणों का मुकाबला करने के प्रयास में
हमारा समाज व्यस्त रहा- उसकी जिंदगी और मौत का, माने मूल अस्तित्व का ही यह
संघर्ष था। समाज में राष्ट्रीय प्रेरणा निर्माण करने हेतु तथा समाज को हमेशा
सचेत और सतर्क रखने हेतु जनजागरण की जो स्वाभाविक व्यवस्थाएँ हमारे समाज में
पहले से ही मौजूद थीं वे आक्रमण के इस प्रदीर्घ कालखंड में क्षीण हुईं। माँ के
दूध में से, पिता के वस्तुपाठरूप आदर्श से, शिक्षकों के उपदेश से, समाज में जो
महानुभाव होते हैं उनके शुद्ध, समाजसमर्पित, चरित्र के नमूनों से जो संस्कार
जनमानस पर होने चाहिए वे इस प्रदीर्घ काल में नहीं हुए। चाणक्य, शंकराचार्य
जैसे कृतिशील चिंतक तथा महात्माओं की परंपरा खंडित हुई और नई कुछ संस्कार
प्रणाली भी निर्माण नहीं हुई। मानो unborn tomorrow, dead yesterday ऐसी
स्थिति पैदा हुई। इसलिए संघ जैसे युगानुकूल संस्कार प्रणाली का निर्माण तो
आवश्यक हो गया था। इस दृष्टि से संघ की कार्यपद्धति की रचना हुई है। कुछ
मात्रा में पुरानी संस्कार प्रणाली का पर्याय इस नाते और कुछ मात्रा में
पुराने संस्कार माध्यम को पूरक इस दृष्टि से यह पद्धति विकसित हुई है।
बड़े काम के लिए कोई
shortcut
नहीं।
फिर भी धीरज न रखनेवाले स्वयंसेवकों को कभी कभी लगता है इतना लंबा रास्ता
किसलिए किया है, जरा छोटा रास्ता ले लेते। खास करके 1947 के बाद अन्य
संस्थाएँ, अन्य रचनाएँ इनकी कार्यपद्धति के संपर्क में हमारे कार्यकर्ता आने
लगे और वे कहने लगे कि हमारी कार्यपद्धति बहुत ही कठिन है, समय लेने वाली है।
कोई shortcut निकाला जाना चाहिए। लोगों को ऐसा भी लगता है कि आज के जमाने में
संगठन की जरूरत ही क्या है? संगठन तो सोहलवीं सदी की परानी कालवाह्य बात है।
आज कल हवा पर काम चलता है। लहर आती हैं और लहर पर काम होता है, ऐसा इन लोगों
का कहना है। लेकिन हम इसमें विश्वास नहीं रखते। हमारी दृष्टि से संगठन यह विषय
सर्वाधिक महत्त्व का है।
इस संदर्भ में ध्यान में लेना आवश्यक है कि जो shortcuts हैं उन रास्तों से हम
अपने गंतव्य पर नहीं पहुंचेंगे। हाँ, ऐसे छोटे मार्गो से हम कहीं न कहीं
पहुँचेंगे। लेकिन हमने जो गंतव्य सामने रखा है, वहाँ तक नहीं पहुँचेंगे। यदि
हमने सोचा है कि मैसूर के महाराजा के राजभवन जैसा बड़ा प्रासाद बनाएँगे तो
हजारों, करोड़ों रुपये लगाने होंगे, वर्षों तक काम करना पड़ेगा। हजारों मजदूर
और कारीगरों को काम पर लगाना पड़ेगा। अब यदि तुम कहोगे 'इतना सारा करने के लिए
हम तैयार नहीं हैं, पैसा या मजदूर नहीं लगाएँगे, हमको इतना लम्बा रास्ता मंजूर
नहीं है', तो नजदीकी रास्ता हो सकता है। 12 आनों में तास मँगवा लेना, दो मिनिट
में तास का महल बन सकता है। लेकिन यह मैसूर के महाराजा के राजभवन जैसा प्रासाद
नहीं होगा और जैसे ही हवा का झोंका आएगा तो उससे वह महल ढह जाएगा। वह राजभवन
जैसा मजबूत हो ही नहीं सकता। तो इसका मतलब है Shortcut will cut you short!
मुगलसराय का रेलवे यार्ड बहुत ही प्रसिद्ध है। इस रेलवे यार्ड में हमेशा शंटिग
चलती रहती है। पुल भी है। फिर भी लोग रेलवे लाइन का रास्ता ढूँढते हैं। पुल पर
से जाने में समय लगता है, चढ़ना उतरना होता है इसलिए जो सीधे रेलवे लाईन पार
करते हैं, उनके कारण दुर्घटनाएँ होती हैं। रेलवे में वहाँ एक साइन बोर्ड लगा
रखा है जिस पर लिखा है, "बडे कामों के लिए छोटा रास्ता नहीं हो सकता।" हमारे
शास्त्रों में कहा है, "एषः पन्थाः नान्यः पन्थाः विद्यते अयनाय"। उसी के
अनुसार संघ की यह कार्य पद्धति ही हमें ध्येय तक पहुँचाएगी इस श्रद्धा के साथ
काम करना है।
जब इतनी व्यापक और विशाल ध्येयसृष्टि निर्माण करने की बात हम कर रहे हैं तो
उसके लिए धीरज तो होना ही चाहिए। मेरी दादी मेरे बचपन में एक कहानी बताती थी।
जब भगवान ने सृष्टि निर्माण करने का सोचा, तब उन्होंने पहले आदमी का निर्माण
किया। फिर इस पृथ्वी पर कुछ वनस्पति भी हो इस दृष्टि से उन्होंने आदमियों में
विभिन्न वनस्पति के पौधे बाँटना शुरू किया। उनमें कुछ पंद्रह दिनों में फल
देने वाले थे, कुछ दो महीनों बाद फल देने वाले, कुछ एक वर्ष के बाद फल देने
वाले ऐसे पौधे थे। अपनी-अपनी रुचि से आदमी ने चुन लेना था। अब जो व्यवहार चतुर
लोग थे उन्होंने तो तुरंत ही फल देने वाले पौधे चुन लिए। भगवान प्रत्येक फल का
नाम और फलधारणा का समय बता रहे थे और लोग अपना अपना पौधा चुन कर ले रहे थे।
इतने में भगवान ने एक पौधा सामने रखकर कहा-यह कल्पवृक्ष का पौधा है लेकिन उसको
विकसित होने के लिए सौ बरस लगेंगे। तो सब व्यवहार चतुर लोग हँसने लगे। सोचा
ऐसा कौन सा पागल आदमी है जो सौ बरस दम रखकर ठहरेगा। अब कोई सामने नहीं आया तो
कोई सब्जी का पौधा, कोई इस फल का उस फल का पौधा उठा रहा था। लेकिन जिस वृक्ष
के नीचे किसी की भी सभी कामनाएँ तृप्त हो जाती थीं, उसका पौधा लेने कोई भी आगे
नहीं आया।
दादी ने बताई यह कहानी जब मुझे याद आती है तब लगता है एक पागल आदमी उन लोगों
में जरूर होगा जिसने कल्पवृक्ष का पौधा चुना होगा और धीरज के साथ ध्येयपूर्ति
के लिए राह देखने के लिए तैयार था। वे थे पू. डॉक्टर हेडगेवार।
जैसा कि प्रारंभ में बताया, संघ कार्य का माध्यम, सरल, सुलभ है, लेकिन दूसरी
तरफ उसकी कार्यशैली बिल्कुल रूखी, कठिन और धीरज की कसौटी देखनेवाली है। केवल
एक घंटे के लिए संघस्थान पर आना यह बिल्कुल सुलभ सरल लगता है। लेकिन दूसरी तरफ
प्रत्येक व्यक्ति के हृदय पर संस्कार अंकित करके उसे समाजसमर्पित बनाना यह
इतना आसान नहीं है। देश के वर्तमान वायुमंडल में हमारी कार्यपद्धति तो
लोकप्रिय हो ही नहीं सकती क्योंकि एक ही बात दिन प्रतिदिन करना, वही 'दक्ष
आरम' करना यह तो monotonous लगता ही है। इस दृष्टि से देश में चलने वाली तरह
तरह की संस्थाओं में शायद ही संघ जैसा संगठन होगा कि जिसकी कार्यशैली इतनी
रूखी, कठिन और धीरज वाली हो। इसमें कोई रोमांटिक बात भी नहीं है। केवल काम
करना है, स्वार्थरहित काम। बाकी कुछ भी नहीं।
इस संदर्भ में बीच बीच में तरह तरह के सुझाव भी आते रहते हैं। संघ की प्रारंभ
की अवस्था के दिनों से ये सुझाव आते रहे हैं कि संघ के कार्यक्रमों को जरा
आकर्षक बनाना चाहिए। यह करना चाहिए, वह करना चाहिए किंतु ऐसा लगता है कि
रा.स्व.संघ के नेता गण रोमांटिक नहीं हैं। शायद इसी कारण से इन आकर्षकता के
सुझावों को वे स्वीकार नहीं करते।
उनका आग्रह रहता है कि कार्यक्रम केवल आकर्षक नहीं, उपयुक्त, संस्कार, अंकित
करने वाले, परिणामकारी होने चाहिए। कार्यपद्धति के विषय में संघ का यह
निष्कर्ष है कि यही एकमात्र रास्ता है जो "विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिः"
के माध्यम से राष्ट्र को परम वैभव पर पहुंचा सकता है।
संशयवाद का शिकार न बनें।
कार्य तो जल्दी होना चाहिए लेकिन वह अगर पक्की और निर्दोष नींव पर खड़ा होना
है तो समय लगेगा ही। जल्दबाजी से काम बिगड़ता है। ऐसा कहा जाता है कि Undue
haste causes delay इसलिए प. गुरुजी ने जो संकेत दिया है वह ध्यान में रखना
आवश्यक है-धीरे धीरे जल्दी करो माने Hasten slowly!
फिर भी अपने स्वयंसेवक बार-बार चिंतित होते हैं और संशयवाद के शिकार बनते हैं।
अपने कार्य की आलोचना, समय समय पर अपने कार्य का लेखा जोखा लेना आवश्यक तो है
ही, लेकिन एक बार ध्येय निश्चिती हुई है, मार्गनिश्चिती भी हुई है, फिर भी अगर
मन में आशंका पैदा होती है तो इसको हम 'बुद्धिवाद' नहीं कहेंगे। वह तो
'संशयवाद' है।
मानो किसी को नागपुर से दिल्ली जाना है। बार बार पूछकर दिल्ली जाने वाली गाड़ी
में बैठे। अब गाड़ी तो ठीक समय पर, अपना पूरा समय लेती हुई दिल्ली पहुँचेगी
ही। लेकिन बुद्धिवादी होता है तो उसके मन में आशंका पैदा होती है। अगले स्टेशन
पर उतर कर वह एक बार फिर गार्ड से पूछता है कि गाड़ी दिल्ली जानेवाली है न?
फिर उतरकर पूछ लेता है। ऐसी उतावली से हर स्टेशन पर उतर कर पूछता रहता है। यह
बुद्धिवाद नहीं संशयवाद है। एक बुद्धिवादी बंदर की कथा तो सुपरिचित है। उसने
एक बार आम का फल खाया अच्छा लगा। पूछा, कैसे पैदा होता है? किसी ने बताया कि
आम की गुठली जमीन में बोने से आम का पेड़ उग आता है। अब उसने गठली जमीन में
गाड़ दी और नजदीक के पेड पर जा बैठा। फिर एक घंटे बाद सोचने लगा, पेड़ केसे उगा
नहीं गुठली कहीं गायब तो नहीं हो गई। फिर जमीन उखाड़ कर देखा। गुठली वैसी ही
थी। फर उस पर मिटी ढकेल कर पेड़ पर जा बैठा। फिर घंटे बाद वही आशका मन में-
अभी तक पेड़ कैसे नहीं उगा? तो बार बार उखाड़कर गुठली देख रहा था तो पेड़ आएगा
ही कैसे? बदर की यह बद्धिमानी तो नहीं, संशयवाद है। हमारे स्वयंसेवकों का भी
कभी कभी ऐसा होता है। वे भी ऐसे संशयवाद का शिकार बनते हैं।
अब यह अजीब बात है कि जिधर हमारे कुछ कार्यकर्ताओं के मन में अपने कार्य की
सिद्धि के बारे में तथा कार्य पद्धति के बारे में संदेह रहता है, उधर समाज के
बाकी जो घटक वर्ग हैं उनको तो हमारे कार्य के बारे में विश्वास रहता है, विरोध
करने वालों को भी यह निश्चिती रहती है, विश्वास रहता है।
एक कम्युनिस्ट नेता हमारे अच्छे मित्र थे। उनको ऐसा अनुभव आने लगा कि पहले
जमाने जैसी अब पार्टी के कैडर में अपने ध्येय तथा सिद्धांतों के प्रति
प्रतिबद्धता नहीं रही। आजकल के व्यक्तिवादी, अवसरवादी, माहौल का प्रभाव
कार्यकर्ताओं पर भी हो रहा है, तो इसका इलाज क्या हो सकता है। उनको ऐसा लगा कि
संघ के कार्यकर्ता का धीरज तो बदले हुए माहौल में भी जैसा का तैसा है। क्यों न
उनसे उनके cadre building का कुछ curriculum मँगवाए। इस पर उन्होंने मुझसे बात
की तो मैंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को बताया। उन्होंने कहा, 'संघ के तंत्र पर
वे यांत्रिकता से अमल कर सकते हैं? वह मंत्र है, व्यक्तिगत संपर्क के माध्यम
से एक दूसरे में संस्कार संक्रमित करना।" मैंने भी विचार किया, यह बात उस
कम्युनिस्ट नेता को कैसे समझाऊँ? अब मैंने उनसे कहा कि, 'भाई हम अपना
curriculum नहीं दे सकते। वह गुप्त है। उन्होंने कहा, 'यह तो ठीक है। आपका
कार्य तो गुप्तता के आधार पर ही चलता है।
राष्ट्र सेवा दल ने भी संघ जैसा प्रयोग किया। वही वाह्य उपचार अपनाया। वैसी ही
शाखा चलाई। लेकिन संघ कार्य की आत्मा से अनुप्राणित पद्धति वह नहीं ढूँढ पाया।
हमारे चचेरे दादा जी थे। कांग्रेस के नेता थे। हमारे साथ उनकी बातें होती थी
संघ के बारे में। वे मानते नहीं थे। एक बार हमने उनसे अनुरोध किया कि आप
संघस्थान पर आकर दूर से देखिए तब आप की संघ के बारे में जो गलत धारणा है वह
दूर हो जाएगी। उन्होंने मान लिया और दूर से संघस्थान पर होने वाले कार्यक्रम
देखना उन्होंने शरू किया। चार-पाँच दिनों के बाद अचानक आना बंद कर दिया। पूछा
तो बोले 'मुझे डर लग रहा है, अगर पन्द्रह दिन मैं दूर से ही शाखा के कार्यक्रम
देखता रहूँ तो उनके प्रभाव से मैं कब शाखा में आकर तुम लोगों के साथ खड़ा
रहूँगा पता नहीं लगेगा" यानी दूर रहने के लिए भी यह पद्धति की परिणामकारी
शक्ति का प्रत्यय ही कारण होता है।
रामायण में एक बड़ा उद्बोधक प्रसंग है। सीता को वश में करने के लिए बहुत सारे
उपाय रावण ने किए और अब क्या कर सकते हैं? यह पूछने के लिए कुंभकर्ण को बड़े
प्रयासों से जगाया। उन्होंने पूछा, 'क्या बात है?' रावण ने कहा, 'रामचन्द्र के
रूप की ही सीता मन ही मन पूजा करती है। उस रूप के अलावा किसी को मानने को वह
तैयार नहीं है।' कुभकर्ण ने कहा, 'फिर बात तो बिल्कुल आसान है। तुम तो बहुरूपी
हो कोई भी रूप ले सकते हो, तो राम का रूप लेकर उनके पास जाओ'। रावण ने कहा-'वह
भी करके देखा। लेकिन जब मैंने राम का रूप लिया तब परस्त्री के बारे में मेरे
मन की अभिलाषा नष्ट हो गई।' इसका अर्थ यह हुआ कि अन्य कोई भी रूप धारण किया तो
सीता प्रसन्न नहीं होती और राम का ही रूप धारण किया तो मेरे मन की परस्त्री की
अभिलाषा नष्ट हो जाती है।
कार्यपद्धति को शत प्रतिशत उपयोग में लाया जाए
एक बात ध्यान में लेना आवश्यक है। किसी भी माध्यम की, पद्धति की यशस्विता, हम
कितनी लगन से, कितनी निष्ठा से, सुजानता से और सक्षमता से वह पद्धति अमल में
लाते हैं इस पर निर्भर रहती है। उस पद्धति की अपनी जो क्षमता रहती है वही शत
प्रतिशत उपयोग में न लाते हुए हम कहते रहेंगे कि अब यह पद्धति कालबाह्य हुई
है, उसको बदलना चाहिए तो यह बात अशास्त्रीय तथा तर्क से विपरीत सिद्ध होती है।
सोचने की बात है, जब पू. डॉक्टर जी ने संघ प्रारंभ किया तो उनके पास क्या था?
कुछ नहीं। केवल ध्येयनिष्ठा और अपने जीवनव्रत से प्रतिबद्धता। फिर जैसे शून्य
में से संघसृष्टि निर्माण हुई है, अनेक प्रकार की विपरीत परिस्थिति का सामना
करते हुए, अस्तित्व के प्रलयंकारी संघर्षों में भी विजयी होकर सिद्ध हुई है,
वह इसी कार्य पद्धति के आधार पर यह हम न भूलें। जो बडी बडी बातें-गतिविधियाँ
होती हैं वे कालक्रमेण ही होती हैं। धीरे धीरे सिद्ध होती हैं। हमारे यहाँ कहा
है-
शनैः पन्थाः शनैः कन्थः शनैः पर्वतमस्तके।
शनैः विद्या शनैः वित्तं पंचैतानि शनैः शनैः।।
मानवेंद्र रॉय इस श्रेष्ठ क्रांतिकारी तत्त्वज्ञ, तथा विचारक ने जीवन के अंतिम
चरण में समाज परिवर्तन का मार्ग बताया था। वह बहुत ही लम्बा है, It is avery
long way ऐसा उनके कुछ शिष्यों का कहना था। उनको जवाब देते समय श्री रॉय ने
कहा, वह संघ के कार्यपद्धति के संदर्भ में भी कहा जा सकता है। उन्होंने कहा
था- It may be a long way but if it be the only way it is also the shortest
way. हमारी परिपूर्ण कार्यपद्धति की क्षमता पूर्णरूपेण उपयोग में लाकर बड़ी
लगन से, प्रतिबद्धता से, अडिग श्रद्धा से उसका अमल करना आवश्यक है। ऐसा कहा
जाता है, ' Those who march do drive.' इसलिए कार्य की गति बढ़ानी चाहिए।
स्वयंपूर्ण कार्यपद्धति
हमारा यह विश्वास है कि समाज संगठन तथा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का अपना ध्येय
प्राप्त करने की दृष्टि से संघ की कार्यपद्धति स्वयंपूर्ण है। यह स्वयंपूर्ण
है, इसके दो अर्थ हैं, पहला- यदि हम इस कार्यपद्धति से काम करते हैं तो संघ का
ध्येय सिद्ध करने के लिए दूसरी किसी भी पूरक कार्यपद्धति की आवश्यकता नहीं है।
और दूसरा अर्थ यह है, कि किसी भी कारण यदि हम इस कार्यपद्धति को छोड़ देते हैं
तो दूसरी ऐसी कोई सी भी वैकल्पिक कार्यपद्धति नहीं हो सकती, जो हमें वहाँ
पहुँचा सके जहाँ रा.स्व.संघ हमें पहुँचाना चाहता है। दोनों अर्थों में, अर्थात
किसी पूरक कार्यपद्धति की आवश्यकता नहीं और कोई वैकल्पिक पद्धति हो नहीं सकती,
संघ की कार्यपद्धति स्वयंपूर्ण है।
सोपाल - 1
(कुछ प्रमुख बिंदु)
v निर्वाण के पहले, भगवान बुद्ध का आखिरी वाक्य था।, 'आत्मदीपो भव।' हर
व्यक्ति स्वयं के लिए दीपक के समान हो, स्वयं अपना मार्गदर्शन करे।
v संत तुकाराम कहते हैं- 'रात्रंदिन आम्हा यद्धाचा प्रसंग'। वाह्य जगत के साथ
लड़ाई करना तो बहुत आसान है। मन के साथ लड़ाई करना बहुत ही कठिन काम है और यह
लड़ाई व्यक्ति की आतंरिक संगठन के अभाव की परिचायक होती है।
v हमारा सबसे बड़ा मित्र कौन है? हम खुद हैं, और हमारा सबसे बड़ा दुश्मन कौन
है, तो वह भी हम स्वयं ही हैं। 'आत्मैव आत्मनो बन्धुः। आत्मैव रिपुरात्मनः।'
यह शत्रुत्व एक ऐसी निश्चित प्रक्रिया है कि स्वयं अपने को पता भी नहीं चलते
हए धीरे धीरे हम गड्ढे में चले जाते हैं।
v जानामि धर्म न च मे प्रवृत्ति। जानाम्यधर्म न च मे निवृत्ति।। दुर्योधन कहता
है:- 'धर्म क्या है मैं जानता हूँ लेकिन उसके प्रति मेरी प्रवत्ति नहीं है। और
अधर्म क्या है, यह भी मैं जानता हूँ फिर भी उससे मैं निवृत्त-परावृत्त नहीं हो
सकता।'
v आदर्शवादिता के स्थान पर सर्वदूर अवसरवाद, व्यक्तिवाद तथा व्यक्तिगत
आकांक्षावाद बल पकड़ता जा रहा है। Service before self के स्थान पर Self
without service की भावना प्रबल होती जा रही है।
v ऐसे कार्यकर्ता हमेशा दूसरों का, समाज का सोचते हुए अपना जीवन बिताते हैं।
कोई करे या न करे मुझे तो करना ही है, यह विचार उनके मन में होता है। The best
should suffer so that the rest may prosper. यही सूत्र उनके सामने रहता है।
संघ की परिभाषा में इसी को 'आत्मनेपदी विचार' कहा जाता है।
v असमर्पित कर्तृत्ववान व्यक्ति से आत्मसमर्पित कम कर्तृत्ववान व्यक्ति हमारे
कार्य की दृष्टि से हम स्पृहनीय मानते हैं।
v सार्वजनिक क्षेत्र में तो professionalism और conviction उनकी
प्रतिद्वंद्विता हमेशा नजर आती है। लेकिन संघ में ध्येयनिष्ठा, समर्पितता,
विश्वसनीयता को ज्यादा महत्त्व प्राप्त होता है।
v चाणक्य कहते हैं:- जिन्हें छोड़कर जाना था वे चले गए। जो छोड़कर जाना चाहते
हैं वे भी चले जाएँ, चिंता की कोई बात नहीं। लेकिन ईप्सित प्राप्त करने से जो
सैकड़ो सेनाओं से भी अधिक बलवान है और नन्द साम्राज्य के निर्मूलन के कार्य
में जिसके वीर्य की महिमा दुनिया ने देख ली है केवल यह मेरी बुद्धि मुझे
छोड़कर न जाए। कितना प्रचंड आत्मविश्वास है।
v 'मुझे विजय प्राप्त हुई इसका कारण मैंने निर्धारित किया था कि मैं परास्त
नहीं हूँगा।' (I was simply determined not to be defeated)
v जो व्यक्ति अपने ध्येय से एकात्म होता है वह बाजीप्रभू या न्हेटॅशिअस के
समान होता है। उसे नहीं लगता है हम अकेले हैं थोड़े ही हैं हम से यह कैसे
होगा? काम कैसे निभाना? उन्हें विश्वास रहता है, हमारा ध्येय उदात्त है, हमारी
विजय तो निश्चित है।
v विश्व में जब कोई ऐतिहासिक परिवर्तन हुआ है वह कुछ इन गिने चुने लोगों ने
अपने आत्मविश्वास से ही कर दिखाया है। लेनिन ने इस determined minority कहा
है। ध्यान में आता है कि जय-पराजय तो केवल संख्याबल पर नहीं बल्कि कार्यकर्ता
की आदर्श निष्ठा पर, निश्चय पर, धीरज और साहस पर अवलंबित होता है।
v ध्येय के प्रति निरहंकारिता से समर्पित कार्यकर्ता एक साथ आते हैं। तब
शक्तिबंधन का सूत्र अलग हो जाता है। अब एक और एक मिलाकर ग्यारह होते हैं, दो
नहीं। तीसरा कार्यकर्ता खड़ा होता है तो एक सौ ग्यारह होते हैं और चौथा
कार्यकर्ता मिलता है तो एक हजार एक सौ ग्यारह होते हैं, चार नहीं।
v श्री अरविंद का एक वचन याद आता है- Ego is an asset, ego is a liability. जब
तक मन अपरिपक्व है, अहंकार की प्रेरणा से व्यक्ति काम करते जाता है। ऐसी
अवस्था में अगर अहंकार छूटे तो कर्म भी छूट जाएगा। निष्क्रियता आएगी। तो इस
दृष्टि से अपरिपक्व अवस्था से अहंकार asset होता है। लेकिन मन की अवस्था
अन्यथा परिपक्व होने के बाद भी यदि आदमी के अंदर अहंकार रह जाएगा तो वह खतरनाक
है। वह liability बन जाती है।
v ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता न प्रलोभन के कारण, न भय के कारण, अपने ध्येय से
विचलित नहीं होता है। इसी मानसिकता को धर्मधैर्य कहा जाता है।
v चील अपना भक्ष्य ढूँढने के लिए आकाश में उड़ान मारती है, घूमती है लेकिन
उसका ध्यान केवल अपने घोंसले में रखे अपने बच्चे के पास रहता है।
v गरुड़ गरुड़ है और कौआ कौआ है। अगर गरुड़ जमीन पर बैठा है और कौआ राजप्रासाद
के शिखर पर बैठा है तो भी कौआ तो कौआ ही रहेगा, उच्च स्थान के कारण वह गरुड़
नहीं बन सकता है। केवल पद या स्थान पर, बड़प्पन नहीं। बड़प्पन यह कुछ आंतरिक
या यथार्थ मूल्य होता है ऐसी हमारे यहाँ की धारणा है।
v दूर किसी मुल्क में अमीर की नियुक्ति करने का प्रसंग था। कोई सहमति न होने
के कारण बात मुहम्मद साहब की सामने आई। उन्होंने कहा, अब हर जगह तो मैं नहीं आ
सकता, तो एक संकेत ध्यान में रखो। जिसको अमीर बनने की बिल्कुल इच्छा नहीं, उसी
को अमीर बनाया जाए।
v आदर्शवादी, सही नेतृत्व अपने मूल्यों पर अटल रहकर ही अपना सार्वजनिक व्यवहार
करता है, चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े।
v जो बात हम स्वयं करते नहीं, उसके बारे में दूसरों को बताना और वे मानेंगे,
ऐसी अपेक्षा करना गलत है। अगर दूसरा मान जाए यह अपेक्षा मन में है तो उस बात
पर स्वयं अपने जीवन में अमल करना चाहिए।
v जो कार्यकर्ता अपने दोष नहीं पहचान पाता वह अच्छा कार्यकर्ता नहीं बन सकता।
दूसरों के दोष देखना सरल है किंतु अपन दोषों की ओर देखना कठिन। इस दृष्टि से
कार्यकर्ता ने आत्मचिंतन करने की आवश्यकता रहती है।
v कार्यसिद्धि हो जाने पर किसी भी अहंता का या ममत्व का भाव मन में न रखते हुए
उस कार्य में आगे बढ़ता है, उसी के उलझन में नहीं रहता। एक दृष्टि से
कार्यमग्नता में भी निवृत्ति जैसा भाव उसके मन में रहता है। यह जो धारणा दिखाई
देती है। इसको अंग्रेजी में unattached involvement कहते हैं।
v इस दृष्टि से अगर इस ईश्वरीय कार्य का माध्यम इस नाते हम कामयाब नहीं होने
वाले होंगे तो परमेश्वर अपना माध्यम बदलेंगे और कार्य तो यशस्वी होगा ही यह
भाव मन में होना चाहिए। यदि एक बाँसुरी टूट गई तो वे वह बाँसुरी बदल देंगे।
लेकिन उनके संगीत की धुन तो अखंड गूंजती रहेगी ही। If the flute cracks, he
will change his flute. But the music will flow unintermittently! इसके साथ
कार्यकर्ता जीवन के अंतिम क्षण तक ध्येयमग्नता से काम करता रहता है।
v अपने ध्येयवाद का भी अहंकार मन में न रहे यह हमारा आग्रह है।
v बडा संगठन करने पर भी नेता को यह सजगता बरतनी आवश्यक है कि अपने कर्तृत्व का
अहंकार न हो।
v श्री कृष्ण से जब पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि भोजन होने के पश्चात जूठी
पत्तले उठाने का काम मैं करूँगा। यानी चक्रवर्तियों का नेतृत्व करने वाला,
जूठी पत्तले उठाने का हल्का काम स्वयं माँग लेता है।
v संपूर्ण जीवन भर अपने स्वयं के जख्मों पर जो नमक छिड़क रहे हैं। ऐसे लोग जब
मैंने देखे तो मैं कैसे कहूँ कि मेरी उँगली को जरा सी चोट लगी है?
v सबसे नीचे महासागर की गोद में बड़ी बड़ी ऊँचाई वाले सारे जलप्रवाह शरण लेते
हैं। इसका कारण यही है कि वह उदार, सर्वसमावेशक, विशाल होकर भी सबसे नीचा
स्थान रखता है। सही नेतृत्व तो वही है, जिसे अपना बड़प्पन होते हुए भी उसकी
याद तक नहीं रहती और उसका बोझ भी दूसरों पर आता नहीं। (unconscious of one's
own magnitude, greatness) इसी को लोकनेतृत्व कहते हैं।
v अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृत्।
v जहाँ अहंकार होगा, वहाँ ध्येयवाद नहीं होगा। जैसे कि जहाँ अहंकार होता है
वहाँ ईश्वर नहीं होता है।
v 'जिनकी नैतिकता उच्च है, जो अपनी जिम्मेदारी जानते हैं जो स्वार्थ त्याग के
लिए तैयार हैं और अपने तत्त्व तथा उद्दिष्टों के लिए कष्ट उठाने के लिए जो
तैयार हैं, ऐसे ही लोग अच्छी संस्थाएँ खड़ी कर सकते हैं।'
v मनुष्यों के मन पर संस्कार अकित करने के लिए खुद का उदाहरण यही एकमेव
महत्त्वपूर्ण बात होती है उसकी तुलना में दूसरी कोई भी बात महत्त्वपूर्ण नहीं
है।
v ऐसा नेता होना चाहिए कि जिससे कोई ऊबता नहीं और जो स्वयं दूसरों के सहवास से
ऊबता नहीं।
v चीनी दार्शनिक लाओत्से तुंग ने कहा है The wise leader settles for good
work and let others have the floor. जो सुजान नेता होता है वह खुद काम में
मग्न तो रहता ही है लेकिन दूसरों को ज्यादा मात्रा में अवसर देता है।
v The leader does not take all the credit for what happens and has no need
for self fame. स्वयं को सभी बातों का श्रेय लेने में नेता को रुचि नहीं रहती
क्योंकि वह प्रतिष्ठा के पीछे नहीं पड़ता है। दूसरों को बड़ा करने में,
अनुयायियों का बड़प्पन देखने में सही नेता को अधिक मात्रा में आनंद मिलता है।
v कार्यकर्ता सच ही बोलता है, लेकिन सच की वह अपनी अपनी राय version होती है।
वह झूठ नहीं बोलता, लेकिन उसे सत्य का जैसा दर्शन होता है उसी के अनुसार ही वह
बोलता है। वह सच पूरा या यथार्थ होगा ही ऐसी बात नहीं है। इस तरह सत्य की
यथार्थता के बारे में मतभेद संभव रहता है।
v कार्यकर्ता को यह ख्याल रहना आवश्यक है कि ऐसे तर्कवाद से हम बुद्धिमान
व्यक्ति को अपनी ओर नहीं ला सकते। We may win an argument but lose the man!
v कुछ सफलता प्राप्त होने के बाद यह बात मन में आने लगती है कि यह सब तो मेरे
कर्तृत्व के कारण ही संभव हो सका है। वह यह भूल जाता है कि वास्तव में यह
सफलता सब के सामूहिक प्रयास और परिश्रम का फल है।
v 'जहाँ उपेक्षा रहती है, वहाँ कार्य बढ़ते ही जाता है और जहाँ उपेक्षा नहीं
है, वहाँ कार्य घटते घटते समाप्त हो जाता है।'
v हरेक अपने श्रेय का हिस्सा बहुत बड़ा दिखाने की कोशिश करता है। यह crisis of
credit sharing बड़ी मात्रा में होता है। ऐसे समय कार्य के जो प्रमुख प्रवर्तक
होते हैं, वे इस क्रेडिट शेयरिंग के मोह में न फंसते हुए अपने ही स्थान पर
स्थिर रहें और दूसरों को दौड़ने दें, यानी क्रेडिट शेयरिंग के मामले में उनके
मन में 'उपेक्षा' का भाव रहा तो फिर काम आगे बढ़ता है। किंतु प्रमुख प्रर्वतक
लोग स्वयं क्रेडिट शेयरिंग की स्पर्धा में मोहवश होकर दौड़ने लगे तो यह कार्य
घटता है और समाप्त भी हो जाता है।'
v जिस संस्था को नष्ट करने का है उस संस्था में Comfort loving cadres और
status conscious leaders निर्माण कीजिए। ये दोनों बातें मनोविज्ञान के अनुकूल
हैं।
v दुष्ट व्यक्ति विद्या, धन और बल का उपयोग विवाद, मद और दूसरों को पीड़ा देने
के लिए करता है लेकिन साधु-सज्जन उनका उपयोग ज्ञान, दान, और रक्षा के लिए करता
है।
v जो कार्यकर्ता सात्त्विक प्रवृत्ति का रहता है, वह व्यक्तिवादी न होने के
कारण स्वयं को बढ़ावा देने का प्रयास नहीं करता और उसके कार्य की पहचान होने
में देर लगती है क्योंकि अपने कर्तृत्व के बारे में प्रसिद्धि का माहौल वह
नहीं बनाता है।
v पू. गुरुजी ने कहा है कि Nobody is indispensable! सही नेतृत्व वही है जो
स्वयं को dispensable बनाने का प्रयास करता है यानी स्वयं की जगह सक्षमता से
ले सकेंगे ऐसे कार्यकर्ता निर्माण करने का हमेशा प्रयास करता है।
v यह आत्मविश्वास और धारणा केवल व्यक्ति के स्तर का आत्मविश्वास नहीं है तो
अपने सिदंधांत, जीवनमूल्य, संकेत तथा कार्यपद्धति और व्यवहार सूत्र इनके प्रति
जो दृढ़ विश्वास होता है उनका निदर्शक है।
v संगठनात्मक अनुशासन और स्वयंप्रेरणा इनका सुंदर समन्वय जैसे विषयों का मतलब
ध्यान में लेते समय, शब्द और भाव (letter and spirit) दोनों का ख्याल रखना
आवश्यक होता है।
v पूर्णरूपेण ध्येयवादी, आत्मसमर्पित, निरहंकारी नेता किसी भी परिस्थिति में
उचित निर्णय कर सकता है। फिर भी सबको विश्वास में लेकर अपना निर्णय उनकी सलाह
का परिणाम है। यह भावना कार्यकर्ताओं के मन में निर्माण कर सकता है।
v "बड़े कामों के लिए छोटा रास्ता नहीं हो सकता।" हमारे शास्त्रों ने कहा है,
"एषः पन्थाः नान्यः पन्थाः विद्यते अयनाय"।
v कार्य तो जल्दी होना चाहिए लेकिन वह अगर पक्की और निर्दोष नींव पर खड़ा होना
है तो समय लगेगा ही। जल्दबाजी से काम बिगड़ता है। ऐसा कहा जाता है कि Undue
haste causes delay इसलिए पू. गुरुजी ने जो संकेत दिया है वह ध्यान में रखना
आवश्यक है- धीरे धीरे जल्दी करो माने Hasten slowly!
खण्ड -
7
सोपान -
2
सोपान-
2 (
मा. ठेंगड़ी जी के उद्बोधन/लेख)
1. आदर्श वीरव्रती
2. भारत में क्रांति
3. शब्द और अर्थ
4. सोपान-2: प्रमुख बिंदु
सोपान - 2
आदर्श वीरव्रती
यह वसुंधरा वीरप्रसवा है।
इसके वीरों की गिनती कौन कर सकता है?
वैदिक साहित्य में जिनके पराक्रमों, उपलब्धियों का वर्णन है वे व्यक्ति,
वाल्मीकि, व्यास, होमर, प्लूटार्क आदि से लेकर अत्याधुनिक
इतिहासकारों-चरित्रकारों ने जिनका गुणगान किया है वे सभी लोग।
संसार के विभिन्न भागों की लोककथाओं, लोकगीतों, लोकनाट्यों के वर्ण्य-विषय बने
हुए नायक-नायिकाएँ; अपनी श्रेष्ठ भूमिका के कारण व्यक्ति तथा राष्ट्रजीवन के
विभिन्न क्षेत्रों को गौरव प्रदान करने वाले कर्मवीर-फिर वह देश परिचयात्मक
कर्म का हो, कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य का हो, क्षात्र धर्म का हो या अध्ययन,
अन्वेषण तथा शास्त्र, कला दर्शन के निर्माण-संबर्धन का हो।
हिंदू संस्कृति अर्थात विश्व संस्कृति के निर्माता, हिंदू धर्म अर्थात विश्व
धर्म के द्रष्टा, बार-बार युगानूकुल समाज परिवर्तन द्वारा समाज धारणा करने
वाले अवतारी पुरुष परिव्राट।
मानव जाति को तम से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाने का प्रयास
करने वाले सभी देशों तथा कालखंडों के आध्यात्मिक महापुरुष।
दिग्विजयी सेनानी, सम्राट तथा उनको तुच्छ सिद्ध करने वाले आत्मविजयी
सुर्यमण्डलभेदी परिव्राट।
स्वदेशी भुवनत्रयम्" का साक्षात्कार करने वाले विश्व नागरिक।
सभी ज्ञानयोगी, भक्तियोगी, कर्मयोगी।
इस निरवधि काल" के प्रवाह में विपुला पृथ्वी" के हर एक भाग में निर्माण हुए
अलौकिक कर्तव्य के असंख्य धनी।
इन सब वीरों की गिनती करना असंभव है।
जगज्जननी भारतमाता की वीर संतानों का अत्यल्प उल्लेख एकात्मतास्तोत्र" में आता
है, किंतु उसका स्वरूप प्रतिनिधित्व का प्रतीकात्मकता का है, सर्वंकषत्व का
नहीं।
वीर" संज्ञा के उच्चारण से विभिन्न मनों में निर्माण होने वाली प्रतिमा एक
जैसी नहीं होती। वैसे भी नीत्शे का सुपरमैन "कार्लाइल के हीरो" से भिन्न है और
ऋषि अरविंद की संकल्पना का भावी मानव नीत्शे के सुपरमैन" से।
आज सर्वसाधारण व्यक्ति "कार्लाइल के हीरो" को भी पूरी तरह से नही समझ सकता।
उसकी दृष्टि से लियोनार्दो, मायकेन एंजलो, मोजार्ट और बीदोवीन आदि वीरों की
श्रेणी में नहीं आते।
वह फ्रांसिस आफ असीसी, फादर डर्मीयन, राबर्ट काक, हनसेन, जान हंटर को वीर"
नहीं मानता।
शास्त्रज्ञों, मर्मज्ञों, दार्शनिकों, समाज सुधारकों को वह श्रेष्ठ तो मानता
है, उसका यथोचित सम्मान भी करता है, किंतु उनको "वीर" कहना उसे अटपटा सा लगता
है।
जॉन ऑफ आर्क की वीरता वादातीत है, किंतु फ्लोरेंस नाईटिंगेल को "वीर" कैसे कहा
जा सकता है?
सिकंदर, सीजर, हानिवॉल, चंगेज खान, अटिल्ला, तैमूरलंग, विलियम दि कांकर,
फ्रेडरिक दि ग्रेट आदि को "वीर" उपाधि से वंचित रखना अन्याय होगा, किंतु गौतम
बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, नानकदेव, कन्फ्यूशियस आदि को किस निकर्ष पर "वीर"
घोषित किया जा सकता है? आल्हाऊदल तच्चोल उदयन या रुस्तम-सोहराब नि:संदेह वीर
थे, किंतु तुलसीदास, एलतेशन या जरथुष्ट को उस श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है?
वह समझ सकता है वीरता गैरीबाल्डी की, मेजिनी की नहीं। बिस्मार्क की, गेटे की
नहीं। वाशिंगटन-लिंकन की, बेंजामिन फ्रेंकलिन-जेफरसन की नहीं। नेपोलियन की,
रूसो-वाल्टेयर की नहीं। मार्शल जुकाब की, मैक्सिम गोर्की की नहीं।
कैनेडी के "प्रोफाइल इन करेज" के नायकों के समान ये सभी महापुरुष थे। इसमें
संदेह नहीं, किंतु "वीर" शब्द से जो प्रतिमा सामान्य व्यक्ति के मन में उभरकर
आती है, उससे मेल खाने वाले चेहरे इन महापुरुषों के नहीं हैं।
फिर व्याधियों या प्राकृतिक विपदाओं से ग्रस्त लोगों की सेवा करने वाले
स्वयंसेवी; गरीबी कुशलता से कष्टपूर्वक गृहस्थी का सफल संचालन करने वाली
गृहणियाँ; अपंग अवस्था के बावजूद शिक्षा तथा रोजगार प्राप्त करने वाले युवक;
अपना-अपना नियत कार्य-कारीगरी दस्तकारी, किसानी, दुकानदारी, नौकरी आदि अधिकतम
कुशलतापूर्वक करने की लगन से दिन-रात परिश्रम करने वाले लोग; कल रोटी कैसे
मिलेगी" यह चिंता मन में होते हुए भी खुद का और परिवार वालों का हौंसला बाँधने
वाले और उपेक्षित बेरोजगार आदि को "वीर" की परिधि में लाने का विचार
सर्वसाधारण व्यक्ति के मन में कैसे आ सकता है? सैम्युअल स्माइल्स का यह उपदेश
उसको जंचना संभव ही नहीं कि यह मत सोंचो कि जीवन में तुम्हे प्राप्त होने वाला
काम कितना छोटा है बल्कि उसमें श्रेष्ठतम उपलब्धि प्राप्त करने के लिए भरसक
प्रयास करो। लोगों के जूतों की पालिश करने का ही काम तुम क्यों न कर रहे हो,
किंतु वही काम इतने अच्छे ढंग से करने की आकाँक्षा रखो जिससे कि लोग
परिणामस्वरूप कहें कि तुम "नेपोलियन आफ शू शाइंस" अर्थात् चमकदार जूता पालिश
करने में नेपोलियन हो।
गीता में "दैवी संपद्" का वर्णन करते समय जिस सद्गुण को प्रथम क्रमांक दिया
गया है, वह है अभयम्"। यह निश्चित है कि इस सद्गुण का चर्मचक्षु से दिख सकने
वाला आविष्कार शारीरिक स्वरूप का ही होगा। क्योंकि इसका मानसिक, बौद्धिक या
आत्मिक स्तर का आविष्कार चर्मचक्षु से देख पाना संभव है। इसका कारण "वीरता" का
मानसिक साहचर्य सामान्य जनमानस में शारीरिक पराक्रम से ही हो पाता है। यह
अनुमान भी लगाना क्वचित् ही संभव होता है कि इसका स्रोत पराक्रमी पुरुष के मन
में होगा तो भी दृश्य आविष्कार शारीरिक स्तर का ही होता है। वही प्रथम
प्रभावित करता है।
उदाहरणार्थ, किसी ने प्रभु रामचन्द्र जी के समान यदि यह वृत्ति प्रकट की कि
"मैं टूट सकता हूँ, किंतु झुक नहीं सकता", तो उसके विषय में स्वभाविक रूप से
श्रद्धा एवं आदर की भावना निर्माण होती है।
अर्जनस्य प्रतिज्ञे द्वै- न दैन्यं न पलायनम्, देहं वा पातयेत्- अर्थ वा
साधयेत्" की तरह के वचन दुर्बल मन को भी क्षण मात्र में सबल बना सकते हैं।
परशुराम का शत्रुओं को आवाहन् था कि तुम पहले मेरे ऊपर प्रहार करो, पहले मेरी
तरफ चाप खींचो, शत्रु प्रथम मेरे ऊपर प्रहार करे, यही मैं पसंद करता हूँ।
प्रहर नमतु चापम-प्रारूप्रहारप्रियो हम्", मयि त् कृतनिधाने- किं विदध्याः
परेण।" क्योंकि यदि मैं पहले आघात करूँगा तो उसका उत्तर प्रत्याघात से देने के
लिए शत्रु बचेगा ही नहीं" आत्मविश्वास का यह आविष्कार कायर को भी क्षण भर के
लिए शूर बना सकता है। महाकवि बाण ने प्रतिज्ञा ग्रहण करने वाले वीरपुरुष के
लिए सम्पूर्ण पृथ्वी आंगन है, महासमर नाला मात्र है, पाताल समतल स्थल के समान
और सुमेरु पर्वत बांबी के समान है।
आंगनवेदी बसुधा, कुल्या जलधिः, स्थली व पातालम, बाल्मीकश्च सुमेरू:
कृत्प्रतिज्ञस्य वीरस्य।"
यह वर्णन अत्यन्त ही स्फूर्तिदायक है परन्तु है शारीरिक स्तर पर। इस आविष्कार
का प्रेरणा-स्रोत वीरमानस है, यह अनुमान सामान्यजन धीरेधीरे लगा सकते हैं।
बोलिविया के जंगलों में व्याधिग्रस्त होते हुए भी गुरिल्ला युद्ध का नेतृत्व
करने वाले चे-ग्वेवारा; आपात्काल में भीषण रोग से पीड़ित होते हुए भी
लोकसंघर्ष का मार्गदर्शन करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह
स्व. माधव राव मुले; गिरफ्तार होते समय केवल आक्सीजन सिलेंडर जिनके पास मिला,
वे नक्सलवादी सम्प्रदाय के प्रणेता चारु मजूमदार आदि की अवस्था शारीरिक दृष्टि
से स्पृहणीय नहीं है।
कैंसर जैसे रोग से विफल होने के बाद भी अपना नियत कर्म यथापूर्व करते रहने
वाले श्री रामकृष्ण परमहंस, श्री रमण महर्षि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के
द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी, कोमल आयु में मृत्यु का आलिंगन करने वाले
खुदीराम बोस, श्री अनन्त कान्हेरे जैसे क्रांतिकारी; रोग की स्थिति गंभीर होते
हुए भी पैरोल की बात न मानने वाले सत्याग्रही; अपना जीवन कार्य अब पूरा हो
चुका है। इस विचार के कारण स्वातंत्र्य वीर सावरकर जी के समान आत्मविसर्जन
करने वाले वार्धक्य ग्रस्त ध्येयवादी लोग- इन सब के कारण इसी तथ्य के परिचायक
है। इसी कारण नाई के उस्तरे से थोड़ा सा भी कट जाने के बाद सू-सू" करने वाले
बापू गोखले लड़ाई के मैदान में मरने मारने का काम कर सकते थे। इसी कारण जौहर
संभव हुए। इसी कारण दशम गुरु के पुत्र फतेह सिंह, जोरावर सिंह आत्मोत्सर्ग कर
सके। इसी कारण हरीश भनोत की बेटी नीरजा संकट से गुजर रहे हवाई जहाज में अद्भूत
स्थितप्रज्ञता का व्यवहार कर सकी।
वीरता का वास्तविक श्रोत आंतरिक है। उसका आविष्कार मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक
स्तरों पर भी होता रहता है।
संघ कार्य में रत, प्रसिद्धिपराड्.मुख कर्मयोगी कार्यकर्तागण,
"तत्सुखसुखित्वम्" का आदर्श चरितार्थ करने वाली भक्तियोगी ब्रजगोपिकाएँ:
मृत्यु के समय भी निग्रहपूर्वक "पिलवः पिलवः" की रट लगाने वाले ज्ञानयोगी कणाद
के समान दार्शनिक "स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः" सिद्धांत को
प्रत्यक्ष व्यवहार में लाने के लिए अपने सामान्य प्रापंचिक जीवन में "योगः
कर्मसु कौशलम्" का परिचय देने वाले सभी व्यावहारिक जीव इस श्रेणी में आते हैं।
वीरता" की संकल्पना बहुआयामी तथा बहुस्तरीय है।
इसका एक आयाम कालावधि" भी है- तात्कालिक, जीवन-व्यापी; क्षणिक; चिरकालिक,
प्रासंगिक उद्रेक, प्राकृतिक स्थायी स्वभाव।
यह सही है कि एकाध बार, भीष्म के सरसंधान से स्तंभित अर्जुन के समान बड़े-बड़े
सूरमा भी क्षण-दो क्षण के लिए स्तंभित हो सकते हैं और दूसरी ओर क्षणिक आवेश
में आकर प्रसंगोपात कायर भी प्रासंगिक वीरता प्रकट कर सकते हैं। किंतु नियम
रूप से यही कहा जा सकता है कि प्रासंगिक वीरता और स्थायी वीरवृत्ति, दोनों अलग
अगल बातें हैं। कहा गया है कि समविचारी समूह के बीच कायर भी वीर बन जाता है।
किंतु कारागार में अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला के समान, विजनवासन में मैंजिनी
के समान या विषम लड़ाई में अकेलापन महसूस करते हुए भी बाजीप्रभ, लिओनिडस या
होराशिओ के समान वीरत्व कायम रखना अत्यंत कठिन है। यह अनिवार्य नहीं है कि
प्रासंगिक वीरों में स्थायी वीरवृत्ति पाई ही जाए। यही कारण है कि विविध
सामूहिक आंदोलनों में त्यागपूर्वक सहभागी होने वाले कार्यकर्ताओं का अगला जीवन
निराशाजनक दिखायी देता है। ध्येयवाद के लिए प्रासंगिक वीरता नहीं, वीरवृत्ति
अभिप्रेत है।
किंतु इस वीरवृत्ति की जड़े, गहरी न रहीं तो प्रसंगवश विपरीत प्रतिक्रिया भी
हो सकती है। स्काटलैंड के राजा ब्रूस की, हमारे राणा प्रताप की, या यहूदियों
की मोजेज की गिनती संसार के श्रेष्ठ वीरों में होती है। वीरवृत्ति उसका स्थायी
स्वभाव है। उसके विषय में यह कहा जा सकता है कि तूफान कितना ही प्रबल क्यों न
हो, वह वृक्षों को उखाड़कर क्यों न फेंक दे किंतु हिमालय को हिला नहीं सकता।
किंतु यह सत्य है कि परिस्थिति के अति तीखे प्रहार ऐसे ही पुरुषों पर होते
हैं। भट्ठी में परीक्षा सोने की ली जाती है, शीशे की नहीं। क्योंकि यह
सर्वज्ञात है कि शीशे का पिघल जाना निश्चित है। श्रीराम प्रभू के समान इस
प्रकार के व्यक्तियों पर ही यह कहने की बारी आती है कि "दु:खस्य सहनायैव रामे
चेतन्यमाहितम्।"
और इस प्रकार की स्थिति में एकाध बार क्षणिक आत्मग्लानि का अनुभव होना असंभव
नहीं है। सिर पर कफन बाँधकर चलने वाले और सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले व्यक्ति
के जीवन में एकाध क्षण ऐसा आ सकता है।
परन्तु इस प्रकार की परीक्षा के समय उनको आत्मग्लानि से बचाने वाला तत्व भी
है। गुफा में छिपकर बैठे हुए राबर्ट ब्रूस के लिए मकड़ी का सातत्यपूर्ण
प्रयास; जंगल में भटकने वाले राणा प्रताप के लिए कवि मित्र का पत्र; लाल
समुद्र और शत्रु सेना के बीच असहाय अवस्था में फस हुए मोजेस के लिए दृष्टांत
का आभास; ये सब दर्शनी और निमित्त मात्र थे। इन सब का कोई असर न होता यदि उनकी
वीरवृत्ति की जड़ें गहराई तक न पहुंची हुई होतीं। यह गहराई आत्मिक स्तर की है।
इस स्तर तक जिनकी वीरवृत्ति पहुंची है वे ही वीरव्रती हो सकते हैं। आत्मिक
वीरवृत्ति ही वीरव्रत का स्रोत है। इस वीरव्रत के कारण ही सच्चे वीरपुरुष
अपरिहार्य आत्मग्लानि से स्वयं को ऊपर उठा सकते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा
जा सकता है कि आत्मिक वीरव्रत ही उन्हें परीक्षा की भट्ठी में से और अधिक
चमकदार बनाकर निकालता रहता है। इसी वीरव्रत को समुत्कर्ष निःश्रेयस का एकमात्र
उग्र साधन बताया गया है।
वीरवृत्ति को आत्मिक स्तर तक पहुँचाने की प्रक्रिया सभी धर्मग्रंथों में दी गई
है। श्रीमद्भगवद्गीता ने सभी शास्त्रों का दोहन करते हुए उसका निचोड संक्षेप
में मानव जाति के सामने रखा है। गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ के लक्षण
शताब्दियों से संसार के सभी लोगों के लिए आत्मविकास का मार्गदर्शन करते आए
हैं। धर्मशास्त्र तथा गीता के रहते हुए इस विषय में कोई अन्य भाष्य करना
धृष्टता है। ध्रुव तारे की ओर देखकर ही पूर्व काल में लोग दिशाबोध प्राप्त
करते थे। गीता में आदर्श वीरव्रती का वर्णन ध्रुवतारे के समान है। उसी ध्रुव
तारे की ओर अपनी दृष्टि निश्चल रखते हुए ही मार्गक्रमण करना सबके लिए
श्रेयस्कर है। योगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा गीता में वर्णित वीरव्रती है:
"मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साह समन्वितः।
सिद्धसिद्धयोर्निविकारः कर्ता सात्विक उच्यते।"
अर्थात आसक्ति रहित, अहंकारशून्य, धैर्य और उत्साह से युक्त कार्य की सफलता या
असफलता से हर्ष और शोक आदि के विकास से मुक्त व्यक्ति ही सात्विक व्यक्ति है।
वीरव्रतियों की परख करने की यही एकमेव कसौटी है।
(
संकेत रेखा)
भारत में क्रांति
राजनीतिक दृष्टि से विश्व की प्रथम क्रांति निस्पह ऋषियों के नेतत्व में भारत
में वैदिक काल में हुई।
धर्मशास्त्र का इतिहास देखने से पता चलता है कि राज्यक्रांति की बात भारत में
प्राचीन काल से चली आई है। शुक्रनीति (1/70) में आया है कि वह राजा जो प्रजा
को कष्ट देता है या धर्म के नाश का कारण बनता है, अवश्य ही राक्षसों का अंश
होता है। मनु ने (7/111-112) कहा है कि जो राजा प्रजा को पीड़ा देता है वह
अपना जीवन कुटुंब एवं राज्य खो देता है। प्रजा द्वारा राजा वेन की हत्या की
बात शान्तिपर्व 59-93-95 तथा भागवत पुराण 4/14 में पाई जाती है। मनु (2/27-28)
का कहना है कि यदि-व्यभिचारी, दुष्ट एवं अन्यायी राजा दण्ड धारण करे तो वह
दण्ड उसी पर घूम जाता है और उसके सम्बन्धियों के साथ उसका भी नाश कर देता है।
कामन्दक (2/38) ने लिखा है कि मूर्खतापूर्वक दण्ड धारण करने से मुनि लोगों का
भी नाश हो जाता है। शान्तिपर्व (92/19) में घोषित हुआ है कि झूठे एवं दुष्ट
मंत्रियों वाले तथा अधार्मिक राजा को मार डालना चाहिए। तैत्तरीय संहिता
(23/3/1), शतपथ ब्राह्मण (12/9/3/1 एवं 3) में भी ऐसा ही संकेत किया गया है और
लिखा है कि दृष्ट राजा निकाल बाहर किये जाते रहे हैं। यथा दुष्टरीतु पौसाधन
जिसके कुल का राज दस पीढ़ियों से चला आ रहा था, राज्य से निकाल दिया गया।
शान्तिपर्व (12/6/9), मनु (7/27 तथा 34) तथा याज्ञवलक्य (1/356) में राजगद्दी
छीन लेने की बात कही है। शुक्रनीतिसार (2/274-275) में भी दुष्ट राजाओं को
गद्दी से उतार देने और गुणवान व्यक्ति के राज्याभिषेक की चर्चा की गई है।
शुक्रनीतिसार (4/7/332/333) में कहा गया है कि अत्याचारी राजा को हटाकर मार
डालने वाले को पाप नहीं लगता। यशत्तिलक (3 पृ. 431) में प्रजा द्वारा मारे गए
राजाओं के उदाहरण दिये गए हैं। राजनीति प्रकाश (पृ.83) में "राजा के हटाये
जाने पर राजकुमार के अभिषेक के समय कहा गया है। कि स्वयं प्रजा विष्णु है।"
रोमुलस द्वारा रंमस या केन द्वारा एबल के मारे जाने के कई शताब्दी पूर्व की यह
घटना है। भीष्म कहते हैं कि वामदेव द्वारा तानाशाही के विरुद्ध हिंसक क्रांति
की प्रशस्ति की गई। श्री शुक्राचार्य ने दुष्प्रवृत्त सरकार के विरुद्ध
विद्रोह को आवश्यक कर्तव्य माना है। जाफरे फेयर बर्न ने अपनी पुस्तक
"रेवोल्यूशनरी गुरिल्ला वारफेयर" में कहा है शायद दो हजार वर्ष पूर्व
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण द्वारा प्रतिपादित धारणा-कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा
फलेषु कदाचन्- को अर्वाचीन युद्धशास्त्र में बिल्कुल भुला दिया गया है। फिर भी
यह तो कहना ही पड़ेगा कि प्रतिष्ठित क्रांतिकारियों की प्रेरणा का स्रोत
श्रीमद्भगवत गीता ही रहा है। गीता को सच्चे क्रांतिकारियों का प्रमाणभूत
"गैरिक ग्रंथ" कहना उचित होगा।
हिंसा और युद्ध क्रांतियों का एक अपरिहार्य भाग रहा है। किंतु इस उद्धरण से यह
स्पष्ट हो जाता है कि अर्जुन और इस शताब्दी के व्यक्तिवादी राजनीतिक आकाँक्षा
रखने वाले क्रांतिकारियों की धारणा में कितना गुणात्मक अंतर है।
निकट भूत के शिवाजी महाराज जैसे क्रांतिकारियों के कार्य और भाव घर-घर में
परिचित हैं। इन दिनों नक्सलवादी माओ के इस सिदंधांत का प्रचार कर रहे हैं कि
राजनीतिक शक्ति बंदूक की नली से निकलती और बढ़ती है किंतु बहुत कम लोग जानते
हैं कि नक्सली आंदोलन के प्रादुर्भाव के सत्तर साल पहले ही लोकमान्य तिलक ने
कहा था कि अंग्रेज कहते हैं कि भारत का ब्रिटिश साम्राज्य भगवान ने उन्हें
पारितोषिक के रूप में उनकी बंदूक की नली में बैठकर दिया है। लोगों को यह बात
ठीक से समझनी चाहिए।"
1857 से 1947 के बीच के क्रांतिकारियों के नाम सुविख्यात हैं। राजनीति प्रेरित
हिसा भारत के इतिहास में अनोखी नहीं तो यह बात भी पान में रखने योग्य है कि
राजा बेन का उत्तराधिकारी भी कालांतर में स्वयं अत्याचारी बन गया था।
हमारे देश में लोग गलती से क्रांतिकारियों को मार्क्सवाद के साथ जोड़ते हैं।
इस बात को भुला दिया जाता है कि मार्क्सवाद के जन्म से पहले ही पश्चिम में,
1649 में क्रामवेल द्वारा, 1778 में अमेरिका में तथा 1789 में फ्रांस में
क्रांतियाँ हुई थीं। यह ठीक है कि मूल मार्क्सवाद हिंसा और केवल हिंसा ही
सिखाता है, किंतु एंजेल्स ने 1847 में ही अपनी समीक्षा "प्रिंसिपल्स ऑफ
कम्युनिज्म" में लिखा था कि कम्युनिस्ट भलीभाँति जानते हैं कि क्रांतियाँ केवल
निरर्थक ही नहीं, हानिकारक भी होती हैं। वे जानते हैं कि क्रांतियाँ कभी किसी
की इच्छा और निर्णय से नहीं होतीं, वे तो क्रांतिपूर्व की उन परिस्थितियों की
अनिवार्य परिणति होती है जिन पर पार्टियों या वर्गो का कोई नियंत्रण या प्रभाव
नहीं होता। यह भी देखा जाता है कि "सर्वहारा के उत्थान को हिंसा द्वारा दबाकर
कम्युनिज्म के विरोधी, सभी देशों में, स्वयं ही पूर्ण शक्ति लगाकर क्रांति
भूमिका तैयार कर रहे हैं।" मार्क्सवाद हिंसा से जुड़ा हुआ है। किंतु अभी-अभी
कुछ देशों की राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टियों ने यह अ-लेनिनी विचार रखा है कि
बिना हिंसा के भी वे सत्ता पर काबिज हो सकते हैं। उनकी ईमानदारी में शंका की
गुंजाइश होने के बावजूद, जैसा कि प्रो. सिडन हूक ने कहा है, यह तो मानना ही
पड़ेगा कि कुछ देशों के कम्युनिस्टों को भी हिंसा का सिदंधांत बाधास्वरूप ही
लगता है।"
साम्राज्यांतर्गत देशों में मार्क्सवादी क्रांतिकारियों ने लोगों की देशभक्ति
की भावना का आवाहन किया किंतु साथ ही साथ सतर्क रहकर यह भी कहते रहे कि सही
देशभक्ति अन्तर्राष्ट्रीयता का ही एक अंग होती है। "उदाहरणस्वरूप, हो-चि-मिन्ह
ने 1951 में कहा था, हमारे लोग प्रखर देशभक्त हैं। यह हमारी अमूल्य परंपरा रही
है कि जब-जब हमारे पितृदेश पर आक्रमण हुआ, हमारी देशभक्ति के हिंसक उफान ने
सभी संकटों और कठिनाईयों को बहा दिया और देशद्रोहियों और आक्रामकों को रसातल
में डुबो दिया है। यही अब भी होगा। "मार्क्सवाद को राष्ट्रीय संस्कृति और
परम्परा के अनुकूल बनाने के लिए उसके राष्ट्रीयकरण" की कम्युनिस्ट जगत् की नई
प्रवृत्ति पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। "मार्क्सवाद का चीनीकरण" करने की माओ
की सनियोजित कोशिशों से हम परिचित हैं। इस तरह का राष्ट्रीयकृत मार्क्सवाद
किताबी मार्क्सवाद से काफी अलग होता है, उसमें राष्ट्रवाद के भी अंश होते हैं।
समझना यह है कि सांचे बंद दृष्टि से देखने से वास्तविकता सामने नहीं आएगी।
हिंसा के कुछ प्रकारों की ओर ध्यान देना यहाँ आवश्यक नहीं है। जैसे,
सरकार-समर्थित गुंडों के हिंसाचार के विरुद्ध जनता की तत्काल उत्स्फूर्त अथवा
नियोजित प्रतिक्रिया क्योंकि सरकारी एजेंट तो एक प्रकार से सरकार का अंग ही
है। दूसरा प्रकार ऐसी हिंसा का है जो सरकार द्वारा अपने ही खिलाफ रिचस्टेग
फायर जैसी शैली में की हुई कार्यवाहियों की प्रतिक्रिया में जनता द्वारा
उत्स्फूर्त रूप से की गई हो। उदाहरणस्वरूप 6 मार्च 1971 को श्रीलंका सरकार ने
सेना और पुलिस को सतर्क कर उनसे अमरीकी दूतावास पर पेट्रोल बम फिकवाये, और इस
कार्रवाई का आरोप उनके स्पष्ट इन्कार के बावजूद, विरोधियों पर लगाया और
जनसुरक्षा कानून के अंतर्गत अधिकारों का प्रयोग कर आपात्काल घोषित किया, पूरे
द्वीप में कफ्यू लगाया, कई लड़ाकू विरोधियों को बन्दी बनाया और कई विरोधी
नेताओं को मार डाला।
सरकार द्वारा की गई इस भड़काने वाली कार्यवाही की प्रतिक्रिया में जनता द्वारा
तत्काल की गई हिंसा इस प्रस्तुति के परिवेश के बाहर है।
ऐसी कार्रवाई अल्पसंख्यकों के विरुद्ध भी की जा सकती है, वैसे जर्मनी में
हिटलर ने यहूदियों के खिलाफ की, या पाकिस्तान में हिंदओं के खिलाफ की गई।
"क-कलक्स-कलान" के समान "लिचिंग" आदि अमानुष कार्रवाइयों की भी हिंसक
प्रतिक्रिया हो सकती है। किंतु उसे भी विचार के बाहर ही रखना होगा क्योंकि
इसके द्वारा कहीं न तो सत्ता परिवर्तन हुआ है, न होता है।
"कूप-डी-इटाट" (Coup d Etat) में, एडवर्ड लुटबाक ने, कुर्जियों मालपाटे के
टेकनिक ऑफ दि कूप-डी-एटाट" में सुधार करते हुए लिखा है कि "इस "प्रकार के शासन
परिवर्तन में शासन तंत्र के बहुत थोड़े किंतु महत्वपूर्ण लोगों का सहभाग होता
है। ऐसे लोगों का उपयोग करके राज्यतंत्र को अधिकारहीन बना दिया जाता है।"
"सिविल वार" या "यादवी युद्ध" में सेना के विभिन्न दस्तों की आपसी लड़ाई
द्वारा सत्ता परिवर्तन होता है। प्रोनाउन्समेन्ट में कोई एक सेनाधिकारी सेना
के सभी अफसरों के नाम पर घोषणा-पत्र जारी करके सत्ता हथिया लेता है। पुश्च
(Putsch) में सेना का एक दस्ता विद्रोह करके अपने नियुक्त अफसर के नाम पर
सत्ता हथियाता है। आजकल एक अन्य प्रकार है "मुक्ति" (लिबरेशन), जिसमें दूसरे
देश की सेना अथवा राजनीतिज्ञों के हस्तक्षेप द्वारा समानांतर सत्तातंत्र
स्थापित करने का उद्देश्य रखकर सत्ता परिवर्तन किया जाता है।
1945 से 1967 के बीच में 36 देशों के सत्ता परिवर्तनों एवं विप्लव द्वारा
सत्ता का परिवर्तन करने के प्रयत्नों के अनुभवों के आधार पर लुटवाक ने यश
प्राप्ति के लिए कुछ आवश्यक पूर्वाधारा का निधारण किया है। जो तथ्य उन्होंने
दिये हैं उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत जसे विशाल और बहुकेन्द्रिक देश
में विप्लव का तरीका यशस्वी नहीं हो सकता।
गृह-युद्ध, घोषणा-पत्र जारी करके, पुश्च या मुक्ति अभियान में आम जनता की
भूमिका निष्क्रियता की ही रहती है। न तो जनता इनकी शुरूआत कर सकती है, और न इन
पर कोई प्रभाव ही डाल सकती है। परिणामतः सत्तांतर के बाद नये तंत्र पर जनता का
प्रभाव नहीं होता, उस पर सेना ही हावी होती है। इस स्थिति में यदि सैनिक नेता
निरंकुश होना चाहें, जिसका सुअवसर उन्हें मिलता है, तो जनता की स्थिति कढ़ाई
से निकलकर आग में गिरने जैसी दयनीय हो जाती है, अपनी इच्छा और निश्चय के आधार
पर जनता जो कुछ कर सकती है वह है प्रतिरोध, विद्रोह और क्रांति। यह सही है कि
इसके लिए भी सेना को या उसके एक हिस्से को प्रभावित करके अपने पक्ष में मिला
लेना या कम से कम उसे निष्क्रिय करना आवश्यक होता है किंतु नेतृत्व जनता का ही
रहता है, सेना की भूमिका सहायक या पूरक का रहता है।
चे-ग्वेबारा ने हिंसक क्रांति के प्रवर्तन के लिए निम्नलिखित न्यूनतम
आवश्यकताएँ प्रतिपादित की हैं:-
यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना विद्रोह
का न तो प्राथमिक केंद्र ही स्थापित किया जा सकता है, और न ही उसे मजबूत बनाया
जा सकता है। सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रचलित तंत्र के अंतर्गत
बहसबाजी द्वारा संघर्ष करते रहने की निरर्थकता का जनता को अनुभव होना चाहिए।
शांति तो प्रस्थापित कानून के विरुद्ध दमनकारी शक्तियों द्वारा सत्ता पर कब्जा
करने के साथ ही भंग हो जाती है। ऐसी स्थिति में जनअसंतोष अधिकाधिक सक्रिय
रूपों में प्रकट होता है। मूलतः अधिकारियों की उत्तेजक कार्यवाहियों के कारण
उत्पन्न संघर्ष में प्रतिरोध की भावना ठोस होती रहती है।
जहाँ सरकार किसी प्रकार चुनाव के द्वारा सत्ता में आती है और संवैधानिकता और
वैद्यता का दिखावा बनाये रखती है, वहाँ छापामार संघर्ष खड़ा नहीं किया जा
सकता, क्योंकि वहाँ शांतिपूर्ण संघर्ष की संभावनाएँ बनी रहती हैं।"
यह ध्यान में रखने योग्य है कि स्काटलैंड और वेल्स का औद्योगिक पिछड़ापन तथा
उनके विरुद्ध पक्षपात, कनाडा या बेल्जियम के क्षेत्रीय या भाषामूलक आपसी कलह
अथवा आयातिक विदेशी मजदूरों के आधार पर ब्रिटेन, फ्रांस, स्विटजरलैंड या
जर्मनी में कोई क्रांति की आवाज नहीं उठी। अमरीका में नीग्रो, रेड इण्डियन,
मेक्सिकन या पोर्टोरिकन लोग भी पुरी समाज व्यवस्था को बदल डालने के निश्चय और
नारे के बावजूद किसी ऐसी क्रांति के प्रयास में शामिल नहीं हुए हैं।
एन.ए.ए.सी.पी. (The National Association for the Advancement of Coloured
People) अर्थात् अमेरिका के श्वेततर लोगों के उत्थान के लिए बनी यह संस्था अभी
भी वैज्ञानिक दबाव लाने में ही विश्वास करती है। मार्टिन लूथर किंग के अनुयायी
तो अभी भी आशान्वित हैं कि अहिंसक जनप्रतिरोध और ईसाई धार्मिक आह्वान द्वारा
लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। अमरीका के जवानों और काले लोगों की क्रांति
क्षमता, पश्चिम जर्मनी के 1967 के विद्याथिों के उग्र प्रदर्शन, फ्रांस की
मई-जून, 1968 की कोलाहलपूर्ण घटनाएँ, उत्तरी आयरलैंड में कैथोलिक लोगों का
विद्रोह आदि के बावजूद यह स्पष्ट दिखता है कि हिंसक आंदोलन की कल्पना पश्चिमी
लोकतांत्रिक देशों में अभी कोई मजबूत आधार नहीं पा सकी है। इस कल्पना का
प्रभाव अभी परिधि पर ही है। इटली और फ्रांस जैसे कुछ देशों की राष्ट्रीय
कम्युनिस्ट पार्टियों की नई प्रवृत्तियों का पहले ही उल्लेख किया जा चुका है।
अप्रजातांत्रिक देशों की स्थिति भिन्न है।
कालोस मारिथेला द्वारा गरिल्ला योद्धा के लिए निर्धारित किए गए व्यक्तिगत
अन्तर्निहित गुणों और अहिंसक क्रांति के भूमिगत कार्यकर्ता के आवश्यक गुणों
में कोई विशेष अंतर लक्षित नहीं होता। यदि कुछ है तो इतना ही है कि गुरिल्ला
योद्धा के लिए आवश्यक साधन अहिंसक भूमिगत कार्यकर्ता के लिए अनावश्यक हो जाते
हैं।
उदाहरणार्थ, मारिथेला ने कहा है कि गुरिल्ला योद्धा को साहसी पहल करने वाली,
कल्पनाशील और निर्माणक्षम होना चाहिए। उसे अच्छा रणनीतिज्ञ तथा अच्छा
निशानेबाज होना चाहिए। उसमें इतनी चतुरता होनी चाहिए कि शस्त्रास्त्र और अन्य
उपकरणों की कमी को परिलक्षित न होने दे। उसे चपल, परिस्थितिजन्य व्यवहार चतुर
तथा शांत चित्त होना चाहिए। उसे भूख, गर्मी, बरसात सहने वाला तथा अधिक चलने
में थकावट न महसूस करने वाला होना चाहिए। उसमें छिपने, जागरूक रहने छदम वेश
धारण करने संकट से आहत न होने रात और दिन समान रूप से काम करने, घबराकर काम न
करने, किसी भी संकट में धैर्य से निर्णय करने अपने पीछे कोई सराग न छोडने और
किसी भी स्थिति में धैर्य न खोने के गुण होने चाहिए। उसे सामान्य जनों से अलग
नहीं दिखाई देना चाहिए। उसे अपनी गतिविधियों की जानकारी किसी को नहीं देनी
चाहिए। उसमें व्यक्ति और परिस्थिति को परखने का गुण बहुत प्रचुर मात्रा में
होना चाहिए। उसे शत्रुपक्ष की गतिविधियों की पूरी जानकारी रखनी चाहिए। उसे एक
निपुण प्रश्नकर्ता और कार्यक्षेत्र की भू-रचना से पुर्णतया अवगत होना चाहिए।
नाम, पते, दूरभाशा, नम्बर, पहुँच के रास्तों की जानकारी उसे लिखकर नहीं रखनी
चाहिए। योजनाएँ गुप्त तो रहनी चाहिए, किंतु एक एक के सौंपे गए काम की उसे पूरी
जानकारी होनी चाहिए और अखबारों के रिक्त स्थानों पर लिखी टिप्पणियाँ, इधर-उधर
बिखरे कागज टिकट, पत्र, भेंट-पत्र आदि नष्ट कर देने चाहिए। मिलन स्थलों को
स्मृतिबद्ध रखना चाहिए। पकडे जाने पर छापामार सैनिक को संगठन के लिये हानिकर
या अन्य सहयोगियों को पकड़ने में सहायक या शस्त्रास्त्रों के संग्रह के
स्थानों का पता लगाने में सहायक कोई सूचना शत्रुपक्ष को नहीं देनी चाहिए।
क्रांतिकारी नेताओं के लिए शारीरिक सुदृढ़ता और धैर्य, दृढ संकल्प और
इच्छा-शक्ति आवश्यक है। चे-ग्वेवरा और चारु मजूमदार जैसे क्रांतिकारी नेता
गंभीर रोगग्रस्त रहे, फिर भी उनकी इच्छा शक्ति में कोई कमी नहीं आई।
हिंसाचारी क्रांतिकारी की तरह अहिंसक क्रांतिकारी को भी निम्न सात दोषों से
प्रयासपूर्वक बचना चाहिए। अनुभवहीनता, शक्ति को कम या अधिक आँकना,
आत्म-प्रशंसक, अपनी भूमिका को अधिक महत्व देना, सामग्री और सूचना प्राप्ति के
विषय में उपलब्ध व्यवस्था को देखते समय बहुत भारी या बहुत हल्की कार्रवाई,
घबराहट में अधैर्य से कुछ कर बैठना, दु:साहस और पूर्ण विचार के बिना निर्णय
लेना।
1950 में हो-चि-मिन्ह ने अपने अनुयायियों को हिदायतें दी थीं कि वे:
1) अनुशासन का स्तर ऊँचा करें।
2) निर्देशों का कड़ाई से पालन करें।
3) जवानों को प्रेम करें।
4) जनता का आदर करें।
5) लड़ाई की लूट में सरकारी और सामाजिक सम्पत्ति की रक्षा करें।
6) ईमानदारी से आलोचना और आत्मनिरीक्षण करें।
उन्होंने अपने साथियों को प्रचार करने, शत्रुबल का अवमूल्यन तैयारी के समय उसे
प्राप्त सूचना की कड़ी गुप्तता रखने और कोरी सिदंधांतवादिता से दूर रहने की
सावधानी बरतने की ओर भी आकर्षित किया।
ऐसी हिदायतें न्यूनाधिक अंतर में हिंसक क्रांतियों की तरह अहिंसक क्रांतियों
के लिए भी उपयुक्त हैं।
गुरिल्ला युद्ध की सफलता के लिए भू-संरचना का बड़ा महत्व है। राबर्ट टेबर ने
कास्ट्रो के क्यूबाई अनुयायियों की आधार-भूमि के विषय में लिखा है, मेरा
क्षेत्र पूर्व-पश्चिम सौ मील लम्बा और पन्द्रह से बीस मील चौड़ा है। साधारण
गणित से ही यह समझा जा सकता है कि घने जगल और पहाडों से घिरे रास्ता-विहीन ऐसे
क्षेत्र में क्रांतिकारियों को दबाना सेना के लिए कितना असंभव कार्य था।" इस
प्रकार के क्षेत्र में वायु सेना या तोपखाना में क्रांतिकारियों के खिलाफ कोई
कार्रवाई नहीं कर सकते।
जब बरेली और लखनऊ हाथ से जाने के बाद तात्या टोपे ने गुरिल्ला रणनीति अपनायी
थी तो गंगा के विस्तृत मैदानों ने उनको निराश किया था। मध्य भारत की पहाड़ियों
में ही तात्या चलती-फिरती लड़ाई का करिश्मा दिखा सके। तात्या को निराश करने
वाले गंगा के मैदानों में शिवाजी की गुरिल्ला रणनीति यशस्वी हो सकती थी क्या?
तात्या की निम्नांकित आम हिदायतों का पालन क्या उत्तर के मैदानों में हो सकता
था?
शत्रु सेना तुमसे अनुशासन व्यवस्था में अच्छी है। उनके पास बड़ी-बड़ी तोपें
है। उससे सीधे मत भिड़ो, उनकी हलचल पर, नदियों के घाटों पर निगाह रखो, उन तक
रसद पहुँचने मत दो, उनके आसपास मंडराते रहो और उनकी नींद हराम कर दो।"
ऐसा क्षेत्र जो मैदानों से अधिक उबड़-खाबड़ या पहाड़ी हो, रेल-सड़कों के बजाय
घने जंगलों का हो और जिसकी अर्थव्यवस्था उद्योगों के बजाय कृषि पर आधारित हो,
गुरिल्ला युद्ध के लिए सुयोग्य होता है।
सिनेटर जार्ज मेक गव्हर्न ने भी असम भू-रचना में सैनिक शक्ति की सीमाओं का
उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि एशिया के जंगलों में उनकी आणविक शस्त्रास्त्र
सामग्री, पचास अरब का सैनिक बजट, बहुखर्चीले विशेष सैनिक बल आदि घरों में बने
शस्त्रास्त्रों से लड़ने वाले कठोर छापामारों के सामने निष्प्रभ हो गए।" जहाँ
तक भारत का प्रश्न है यह तो विशेषज्ञ ही इसकी भौगोलिक परिस्थिति और जनसंख्या
आदि का विश्लेषण करके बता पायेंगे कि यहाँ छापामार गतिविधियाँ संभव है नहीं
किंतु यह तो निश्चित ही है कि हमारे बड़े बड़े समतल मैदान इस प्रकार की
गतिविधियों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। छापामार युद्ध के लिए उपयुक्त विभिन्न
क्षेत्र एक दूसरे से सटे हुए नहीं हैं और देश का राजनीतिक-प्रशासनिक केंद्र
मैदानों के मध्य में है। भू-संरचना का युद्धों की तरह क्रांतियों में भी महत्व
होता है। यदि दिल्ली के आसपास का क्षेत्र पहाडी होता तो 1761 का हमलावर पानीपत
पहुँचने के पहले ही परास्त हो जाता।
कार्लोस मेरिथेला ने नि:शंसय नागरीय छापामार युद्धनीति कला को परिपूर्णता तक
पहुँचाया है। विदेशी अधिकारियों की हत्या, अपहरण, दूरदर्शन और आकाशवाणी केंद्र
जलाना, अखबारों के दफ्तरों पर बमबारी, सैनिक एवं सरकारी प्रतिष्ठानों पर
बमबारी, रेलगाड़ियाँ और बैंक लूटना, अन्य लोगों को बंधक बनाकर कैदियों को
मुक्त करना, सरकार, पूँजीपति और जमींदारों की अस्त्र-सम्पत्ति हथियाना, शहरी
व्यक्तियों को लड़ाई में भाग लेने के लिए प्रेरित करने के लिए सड़कों पर
लड़ाई, जेलों के अंदर विद्रोह और बाहर से हमले, औद्योगिक हड़ताले आदि सभी का
गुरिल्ला युद्धनीति में अपना महत्व है, किंतु विशिष्ट परिस्थितियों में ही
इनका प्रभाव होता है। लैटिन, अमरीका के करीब-करीब सभी देशों में पचास प्रतिशत
से अधिक लोग, तीन-चार बड़े नगरों में ही रहते हैं। उरूग्वे और चिली में तो एक
तिहाई जनसंख्या एक ही नगर में रहती है। नागरीय आतंकवाद कई तरह से विभिन्न
क्षेत्र में बँटी हुई जनसंख्या में फलदायी नहीं हो सकता।
अहिंसक क्रांतिवादी किसी बाहरी शक्ति से सामग्री और धन की सहायता लेना नैतिक
नहीं मानते, किंतु अन्तर्राष्ट्रीय प्रचार को महत्व देते है। जब कि दुसरे
महायुद्ध के बाद के करीब-करीब सभी क्रांतियुद्ध किसी न किसी विदेशी शक्ति की
सहायता से ही लड़े गए। अल्जीरियाई क्रांतिकारियों को मिश्र से पर्याप्त सहायता
मिली तथा ट्यूनिशिया उनका आश्रय स्थान बना। 1949 में लाल चीन द्वारा बिएतनाम
की सीमा से लगे प्रदेश पर कब्जा किए जाने के कारण परिस्थितियों में हुए लाभ
अंतर को जनरल जियाप ने स्वीकार किया है। 1950 के अंत तक चीन के विएतनाम सीमा
के सभी किलों और ठिकानों से फ्रांसीसियों को भगा दिया गया और सीमावर्ती
क्षेत्र विएतनामी सेना के प्रशिक्षण, गरिल्लाओं की सामरिक सम्पूर्ति और आश्रय
का स्थान बन गया।
सोवियत-चीन सीमा के एक क्षेत्र को चीन की सैनिक गतिविधियों का आधारभूत केंद्र
बनाने की माओ की सुनियोजित चाल सर्वविदित है। यूनानी क्रांतिकारी सेना अपनी
रसद यूगोस्लाविया और अल्बानिया से प्राप्त करती है। उत्तर स्याम के मिओ
जनजातियों का प्रशिक्षण उत्तरी विएतनाम में होता था। अफ्रीकी और लैटिन अमरीकी
देशों की क्रांतियों में क्यूबा की भूमिका तथा भारत के नागा, बर्मा के शान्स
और काचिन, लाओस और मलेशिया और कम्पूचिया के क्रांतिकारियों, फिलिस्तीनी
लिब्रेशन फोर्स, अरब खाड़ी और अफ्रीका के क्रांतिकारियों को दी गई चीनी मदद के
बारे में कौन नहीं जानता?
यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि निकट भूत की किसी भी क्रांति को भारी विदेशी
आर्थिक सहायता और शस्त्रास्त्र पूर्ति के बिना सफलता नहीं मिली। वैसे ही यह भी
तथ्य है कि जिनके छापामार आंदोलनों की सफलता से अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में
कोई अंतर आने की संभावना नहीं हो सकती थी, ऐसे छापामारों की गतिविधियों की मदद
के लिए कोई आगे नहीं आया। फ्रांसीसी प्रभुत्व के विरुद्ध लड़ने वाले छोटे से
चाड के क्रांतिकारी इसी वर्ग में आते हैं।
190 लाख हेक्टेयर से कम के क्षेत्रफल और तीस लाख जनसंख्या वाले देश उरूग्वे को
उपरोक्त तथ्य के विपरीत क्रांति के अभियान में अनुपाततोड़ सहायता मिली,
क्योंकि यह देश महाद्वीप के दो महादेशों ब्राजील और अर्जेटीना के बीच स्थित है
और क्यूबा के कैस्ट्रो और चिली के एलेन्दे उरूग्वे को दक्षिण अमरीका में
क्रांति विद्रोह को बढ़ावा देने के लिए केंद्र मानते थे।
पाँच हजार वाले रोडेशियाई छापामारों ने मोजाम्बिक को केंद्र बनाया और
असाम्यवादी देशों को कृतज्ञतापूर्ण धन्यवाद भी दिये हैं।
आर्म-चेयर क्रांतिकारी समझते हैं कि हिंसक क्रांति की प्रथम आवश्यकता आधुनिक
अस्त्रों की होती है। ए. पी. की यह रिपोर्ट पढ़कर उन्हें आश्चर्य होगा कि
विएतनाम गुरिल्ला दस्ता शस्त्रहीन स्थिति में ही गठित किया जाता है। नेता अपने
अनुयायी स्त्री-पुरुषों से स्पष्ट कह देता है कि प्रारंभ में उन्हें हाथों से
बनाए गए खंजर, भाले, तलवारों एवं घटिया बन्दूकों से ही लड़ना होगा। अच्छे
हथियार तो उन्हें शत्रु से छीनने होंगे।"
हथियारों का महत्व तो है किंतु क्रांति का निर्णायक फल शस्त्रास्त्र नहीं,
जनता देती है।
चे-ग्वेबरा कहते हैं कि गुरिल्ला योद्धा को स्थानीय जनता का पूरा समर्थन
आवश्यक है। यह एक अनिवार्य शर्त है। किसी क्षेत्र में कार्यरत लुटेरों के
उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि "छापामार सेना के सभी चारित्रिक गुण, जैसे
आपसी ऐक्य, नेता के लिए श्रद्धा, शौर्य, क्षेत्र की अच्छी जानकारी और विभिन्न
चालों की समझदारी उन्हें भी होती है। केवल जनसमर्थन न होने के कारण
अन्ततोगत्वा उन्हें राज्यशक्ति समाप्त कर देती है।" जनसमर्थन के बिना संगठन,
जासूसी, सूचना संकलन, प्रचार, अन्तर्घात बीमारी का इलाज या छिपे रहना आदि कुछ
भी संभव नहीं होता।
क्रांतिकारियों को लुटेरों से अलग पहचान उनके ध्येयवाद के कारण है। लक्ष्य में
उनकी दृढ़ निष्ठा, नैतिकता, सरकारी लोगों से अधिक ध्येयवादिता उन्हें जनता का
अधिक विश्वासपात्र बनाती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में गुरिल्लाओं को पहचान पाना उन्हें जनसमर्थन होने के कारण
असंभव हो जाता है, वे इसी समर्थन के आधार पर जासूसी कर पाते हैं।
छापामार का प्रथम लक्ष्य जनता के मन में सरकार से संघर्ष करने की इच्छाशक्ति
जगाना होना चाहिए, क्योंकि जनता की सहमति के बिना कोई सरकार एक दिन भी नहीं चल
सकती। उसे प्रयत्नपूर्वक जनता और प्रशासन के बीच का सम्यक छिन्न-भिन्न करके
उनमें मानसिक दूरत्व निर्माण करना चाहिए।
गुरिल्ला एक लड़ाकू नागरिक तो है, किंतु उसका प्रमुख हथियार बन्दूक या
षड्यंत्र नहीं, जनता से संबंध है।
छापामार गतिविधियाँ सैनिकों से अधिक राजनीतिक होती हैं। क्रांतिकारी की नैतिक
श्रेष्ठता, ध्येयनिष्ठा, त्याग, सरकारी दमन के खिलाफ उग्र कार्रवाइयाँ,
राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रचार, प्रशासन और यातायात की सुसूत्रता को
तोड़ना, हर जगह, हर समय सरकारी सैनिक पहरेदारों को अक्षम और अप्रभावी बना
देना, सरकारी कोष और परिणामतः करदाता पर असहनीय बोझ आदि के एकीकृत प्रभाव से
ही जनता स्थापित शासन की विरोधी बनती है और उसी की अन्तिम परिणति समाज द्वारा
क्रांति को पर्ण समर्थन देने में होती है। उसका यह समर्थन निणार्यक होता है।
इसी के कारण आयरलैंड, क्युबा, जंजीबार, साइप्रस, इजराइल (ब्रिटिश विरोधी) के
क्रांतिकारी अपेक्षाकृत, अपनी बहुत कम मानवीय हानि के आधार पर सफल हो सके।
क्रांति के विषय में जानकार माने गए व्यक्तियों के इस कथनों से बहुत कुछ समझा
जा सकता है। 1946 एवं 1949 के त्रिवर्षीय यूनानी क्रांति की असफलता का प्रमुख
कारण छापामारों का जनता से अलग-अलग रहना और उनका नागरिकों पर अत्याचार था।
क्रांति की असफलता के अन्य कारण थे, ग्रीक छापामारों का विदेशी आधार और
आपूर्ति पर निर्भरता तथा उनका 1948 का यह अपरिपक्व फैसला कि हा प्रकार समृद्ध
सरकारी सेना से संघर्ष करेंगे।
फीलिपाइन्स में हुक क्रांतिकारियों को मेगसासे इस कारण विफल कर सके कि वे
क्रांतिकारी, विद्यार्थी, औद्योगिक मजदूर और निम्न-मध्य वर्ग का कोई जनमोर्चा
नितांत आवश्यकता के बावजूद खड़ा नहीं कर सके। वे क्रांतिकारी जन-आकाँक्षाओं को
समझ नहीं सके और व्यापक असंतोष, जिसकी सरकार पलटने के लिए आवश्यकता होती है,
पैदा नहीं कर सके। फलतः सरकारी सेना को परास्त करने में सक्षम जनसेना तैयार
नहीं हो पाई।
मलाया की मलायन रेसेज लिबरेशन आर्मी में करीब-करीब सभी लोग ऐसे चीनी थे जो
थोड़े दिन पहले ही वहाँ आकर बसे थे। देश में उनकी जड़ें गहरी नहीं थीं। इस
कारण उन्हें पुनर्वास कार्यक्रम के लागू होने पर, जिसका लाभ पाँच लाख चीनियों
को मिला, उन्हें जनतंत्र से अलग-थलग किया जा सका। जनता से कट जाने के कारण
अन्ततोगत्वा उन्हें या तो शरणागत होना पड़ा या गुप्त कार्रवाइयों में पड़कर
मारे या पकड़े गए।
1971 का लंकाई विद्रोह विफल हुआ। रोहन विजेवीरा ने लिखा है कि परिस्थिति राज्य
सत्ता को सशस्त्र विद्रोह द्वारा पलटने के लिए परिपक्व नहीं थी। आम जनता में
यह भावना दृढ नहीं हुई थी कि सशस्त्र क्रांति के बिना अब कोई चारा ही नहीं
है।"
14 अप्रैल 1972 को उरूग्वे में राउल सैन्डी इसलिए असफल हुए कि उन्होंने 28
नवम्बर 1971 के राष्ट्रपति के चुनाव द्वारा स्पष्ट हुए जनता के इस संदेश को
नजरअंदाज कर दिया कि वह क्रांति नहीं चाहती।
1948 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के जेडनोव की प्रेरणा से अपनी
अन्तराष्ट्रीय नीति में आनन-फानन बदल कर दिया। फलतः भारत की कम्युनिस्ट पार्टी
ने घोषित किया कि भारत में क्रांति द्वारा सत्ता हथियाने के लिए परिपक्व
स्थिति है, किंतु तेलंगाना में सीमित सफलता के बावजूद जनसमर्थन के अभाव में यह
चाल बुरी तरह विफल हुई।
नक्सली आंदोलन पर इकानामिक एण्ड पोलिटिकल वीकली के संवाददाता की 22 जुलाई,
1972 की टिप्पणी विस्तृत रूप से उद्धृत करने योग्य है। उसने टिप्पणी की थी कि
लिन पिआओ की विचारधारा के बहुत अधिक प्रभाव में बहकर नक्सलपंथियों ने भ्रमित
होकर सोचा कि शहर गांवों से घिरे हुए हैं, प्रचंड खाद्य संकट के कारण अतीव
असंतोष व्याप्त है, अतएव क्रांति लाई जा सकती है और उसके पूर्व जनसंगठन की कोई
आवश्यकता नहीं। चिनगारी फूटते ही जनता क्रांति में आ जुटेगी। नये लोगों के
राजनीतिक प्रशिक्षण पर जोर देने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। समाज विरोधी
तत्वों और चोर-खूनी सभी को विद्रोही हिंसा शुरू होने पर काम में लगाया जा
सकेगा। आग से सबकुछ शुद्ध हो जाता है। एक बार क्रांति के पैर जम जाने पर कोई
नहीं देखेगा कि शत्रु वर्ग का गला काटने वाला कोई आदर्शवादी था या बाजार का
गुंडा। चारु मजूमदार लघुतम मार्ग से क्रांति के पीछे पड़े हुए थे। उनके सहयोगी
ढीठ गुंडे उन्हें छोड़कर चले गए। जल्दी ही उन गुंडो की समझ में आ गया कि पुलिस
से उन्हें अधिक लाभ हो सकता है। कलकत्ता की सड़कों और गलियों में देखा जा सकता
है कि जो लोग पहले चारु मजूमदार के उपदेशों के कायल थे और माओ की उक्तियों को
यत्र-तत्र दिखाते फिरते थे, वे ही अब स्थापित सत्ता के नेतृत्व को देवत्व
प्रदान करने में लगे हैं। इससे परम्परागत वामपंथी आंदोलन की बहुत बड़ी हानि
हुई। कौन जानता है इसने कौन सी ऐतिहासिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है।"
इन सभी उदाहरणों से यह प्रस्थापित होता है कि जनसमर्थन और सहयोग के बिना
क्रांति नहीं हो सकती। इसके विपरीत, आयरलैंड के ईस्टर विद्रोह, जो 1916 में
अलोकप्रिय थे, ब्रिटेन द्वारा 15 क्रांतिकारियों को गोली से मार दिये जाने और
आयरिश युवकों की अनिवार्य सेना में भर्ती का दमनकारी कानून बनाये जाने के बाद
लोकप्रिय हो गए। टेरेन्स विनी के 74 दिन के अनशन और ब्रिटिश जेल में हुतात्मा
बनने के बाद तो सारी जनता विदेशी राज्यकर्ताओं के विरुद्ध एक हो गई। डी. वेलेश
के तूफानी अमरीकी प्रवास ने आयरिश लोगों के उद्देश्य के पक्ष में विश्व जनमत
तैयार किया। सरकारी प्रतिहिंसा का प्रभाव सरकार के ही विरुद्ध हुआ। पूरी जनता
के विरोध के कारण ब्रिटिश लोग समझ गए कि आरयलैंड में जमे रहना बहुत महँगा और
अलाभकर होगा।
साइप्रस के छापामारों की सफलता के कारणों पर प्रकाश डालते हुए गैर-कम्युनिस्ट
देशभक्त छापामारों के नेता जनरल ग्रीवास लिखते हैं कि यह पढ़कर कि जनरल 'क' या
'ख' साइप्रस में उसी कार्यशैली का जिनसे उन्हें अन्य जगहों पर सफलता मिली,
प्रयोग करने के लिए आ रहे हैं, मुझे बड़ी हँसी आई। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा
था कि साइप्रस का संघर्ष, लक्ष्य, मनोवैज्ञानिक और वैचारिक दृष्टि से अनोखा
था, उससे मुट्ठी भर घुसपैठिये नहीं, पूरी जनता जुड़ी हुई थी।"
माओ का आठ हजार मील का लांगमार्च, जो साल भर में पूर्ण हुआ, जनता की
क्रांतिकारियों के साथ सहयोग भावना के बिना पूरा नहीं हो सकता था।
यूरोप में नाजी सेनाओं के साथ सहयोग करने वाले लोगों के विरुद्ध चलने वाले सभी
आंदोलनों को हर देश में जनता का पूरा समर्थन था।
शस्त्रास्त्र और मानवी शक्ति की कमी के कारण गोरिल्ला युद्ध न छेड पान पर
फिलिस्तीनियों और मोरक्को के क्रांतिकारियों ने क्रमशः ब्रिटिश और फ्रांसीसी
राज्यकर्ताओं के खिलाफ व्यक्तिगत आतंकवाद का सहारा लिया। ऐसा करने में उनका
उद्देश्य विदेशी शासकों को यह आभास कराना था कि जनप्रतिरोध के बावजूद शासन में
बने रहना जन-धन के भारी व्यय के आधार पर ही हो सकता है और जनता को अब तक
जागरूक रखना जरूरी है जब तक विदेशी शासन के खिलाफ वह पूरी तरह से एकजूट न हो
जाए।
अपने जीवट और जनसमर्थन के कारण ही दुर्गम औरास के क्षेत्र का उपयोग कर
अल्जीरियाई छापामार फ्रेंच सेना को ललकार कर फ्रांसीसी सेना और खजाने पर भारी
बोझ बन गए थे। यह गुरिल्ला युद्ध उन्होंने पूरी शक्ति से सैनिक वर्चस्व से
ज्यादा मनोवैज्ञानिक प्रभाव के लिए ही छेड़ा था।
इन सभी संघर्षों में ऐसी स्थिति पैदा हुई कि जिसमें शासकों के लिए पूरी जनता
के विरुद्ध युद्ध लड़ने के अलावा कोई चारा न रहा। ऐसी स्थिति में कोई विदेशी
सत्ता अधिक दिन टिक नहीं सकती, देशी तानाशाही के लिए तो और भी असाध्य हो जाता
है।
रोडेशिया के इआन स्मिथ और दक्षिण अफ्रीका के जॉन वोरस्टर की समझ में भी यह
गलती आ जाएगी।
करीब पचास देशों में नागरी या ग्रामीण, अस्सी से अधिक हिंसक आंदोलनों के
विश्लेषण से यह सिद्ध हो जाता है कि ऐसे आंदोलनों के लिए यद्यपि शस्त्रास्त्र
और जनसमर्थन प्राप्त करना दोनों आवश्यक होते हैं किंतु जनसमर्थन ही अधिक
निर्णायक होता है।
यह ठीक है कि स्वदेशी शासकों की तुलना में विदेशी शासकों के विरुद्ध जनसमर्थन
प्राप्त करना सरल होता है लेकिन यदि यह सर्वज्ञात हो जाए कि स्वदेशी सरकार
किसी विदेशी सरकार की कठपुतली है तो यह कठिनाई कम हो जाती है।
आतंरिक प्रचार से जनसमर्थन जुटाया जा सकता है, किंतु केवल प्रचार के आधार पर
समर्पित कार्यकर्ता तैयार नहीं किए जा सकते। इसके लिए क्रांतिकारी जनशिक्षण की
जरूरत होती है। हरेक आंदोलन के दा उद्देश्य होते हैं: स्थापित शासन व्यवस्था
को नष्ट करना और नई व्यवस्था बनाना। इसमें पहला तो जनप्रशिक्षण के बिना भी
कहीं-कहीं संभव हो सकता है, किंतु जनशिक्षण के बिना नई व्यवस्था गठित करने
में, परानी स्थापित व्यवस्था नष्ट करने की पहली उपलब्धि का लाभ नहीं उठाया जा
सकता।
जनप्रशिक्षण प्रचार से अलग है। प्रचार से उद्देश्य अलग-अलग स्तर पर जनता की
सहानुभूति प्राप्त करना तथा कम से कम जनता को उदारवादी और तटस्थ बना देना होता
है। जनशिक्षण लोगों को क्रांति की गतिविधि में बराबर का भागीदार बना सकता है
जबकि प्रचार ऊपर से नीचे तक सभी को एक दिशा में ही बढ़ाता है। जनप्रशिक्षण सतत
वार्तालाप की प्रक्रिया है। नेता निरंतर लोगों से सीधे मिलते रहते हैं, उनकी
समस्याएँ समझते हैं, उनको सहयोगी मानकर विचार-विनिमय और लोगों द्वारा भ्रांति
में कही अस्पष्ट बातों को उन्हें स्पष्ट रूप में समझाते हैं। आन्दोलनात्मक
क्रांतिकारी प्रशिक्षण जनता की सचेत एवं अचेत आवश्यकताओं से प्रारंभ होता है।
जनता की आतंरिक इच्छाओं के प्रति उसे सचेत करना एक बड़ा धैर्य का प्रदीर्घ
कार्य है, किंतु इसका कोई विकल्प नहीं है। यह भी आवश्यक है कि साझे परीक्षण के
विषय ऐसे होने चाहिए जिन्हें लोग नितान्त आवश्यक समझते हों। लोगों को उनकी ही
बात ठीक तरह से समझने में मदद करनी पड़ती है। यह तभी संभव हो पाता है जब नेता
उनकी बात ठीक तरह से समझ पाये, अपनी बात उसे स्पष्ट रूप से समझा पाये और साझे
रूप में परिस्थिति की वास्तविकता को समझें। इस घोर सुदीर्घ प्रक्रिया के
पश्चात् लोगों का अपने में और नेताओं में विश्वास दढ होता है। जब वे नेताओं का
समर्पण और उनकी स्पष्ट दृष्टि देखते हैं तो अनजाने ही उनके ध्येयवाद को अपना
लेते हैं।
यह एक बहुत धीमी और धैर्य की प्रक्रिया है। संसदीय प्रजातांत्रिक प्रक्रिया
में तुरंत लोकप्रिय हो जाने की आकाँक्षा से प्रभावित लोगों को अपने आपको इस
प्रक्रिया में ढालना नितान्त कठिन प्रतीत होगा। इस संदर्भ में जनसंख्या का
परिणाम साक्षरता तथा राजनीतिक चेतना का स्तर भी विचारणीय होगा। क्रांतिकारी
नेता जनता को केवल प्रयोज्य सामग्री नहीं मानते है। वे जनता से प्रेम करते हैं
और उनके लिए सर्वस्व त्याग करने के लिए सिद्ध रहते हैं। चे-ग्वेबरा कहते हैं
कि भले ही यह हास्यास्पद लगे, फिर भी मैं कहता हूँ कि प्रेम ही सच्चे
क्रांतिकारी की प्रेरणा होता है। इस गण के बिना सच्चे क्रांतिकारी की कल्पना
नहीं की जा सकती।"
इस अन्त:प्रेरणा के कारण क्रांतिकारी नेता लोगों का केवल उपयोग नहीं करते,
अपितु उन्हें प्रशिक्षण द्वारा जागृत करके संगठित भी करते हैं।
फ्रायर कहते हैं: "जो नेता लोगों से वार्तालाप नहीं करते, अपने निर्णय उन पर
थोपते हैं, वे उनका संगठन नहीं, केवल उनका उपयोग करते हैं। न वे स्वयं मुक्त
होते हैं न लोग, वे तो लोगों को दबाते हैं।"
ऐसे नेताओं का लोगों में विश्वास नहीं होता। वे लोगों को स्वभावतः ही
निर्बुद्धि और वार्तालाप के लिए अयोग्य समझते हैं और अत्याचारियों की ही सारी
प्रक्रियाएँ अपनाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि क्रांति न तो नेता जनता के लिए
करते हैं और न जनता नेताओं के लिए। यह तो दोनों की अभेद एकजुटता से काम करने
के कारण होती है। यह एकजुटता जनता के साथ नेताओं के नम्र, प्रेमपूर्ण और
धैर्यपूर्ण, व्यवहार से ही उत्पन्न होती है।
फ्रायर आगे कहते हैं: "क्रांति की प्रक्रिया में मेल-मिलाप से विमुख रहना और
संगठन करने या शक्ति संचय के बहाने लोगों से बात न करने का मतलब है स्वतंत्रता
से ही डरना। यह डर लोगों में विश्वास न होन के कारण होता है। यदि लोगों में
विश्वास ही न हो तो उनकी मुक्ति का क्या औचित्य। ऐसी स्थिति में क्रांति जनता
के लिए नहीं, जनता द्वारा नेताओं के लिए हुआ करती है। यह तो सम्पूर्ण
आत्मनिषेध है। जनता से संवाद सच्ची क्रांति की मौलिक आवश्यकता है। इसी के कारण
वह सैनिक सत्तापलट से सर्वथा भिन्न क्रांति कहलाती है। क्रांति के जो नेता
जनता से संवाद नहीं करते, उनमें शासक का भाव बना रहता है। वे इसी अर्थ में
क्रांतिकारी नहीं होते। अपनी भूमिका के बारे में उनकी धारणा गलत होती है।
विशिष्टता और भिन्नता की भावना से ग्रस्त ऐसे लोग कान्तिकारी नहीं होते। वे
भले ही सत्ता में आ जायें, किंतु ऐसी संवादहीन प्रक्रिया से आई क्रांति की
गुणवत्ता सदैव नहीं रहती है।"
दुर्भाग्य से सभी हिंसक क्रांतियों के नेताओं की निरपवाद रूप से ऐसी ही
प्रवृत्ति रही है। इसी कारण हर सफल क्रांति के बाद, उसके नेताओं का तानाशाही
शासन आया। क्योंकि वे नेता बाद में क्रांतिकारी नहीं रहे थे। अहिंसक क्रांति
के नेताओं को संवाद की इस प्रक्रिया पर अधिक जोर देना चाहिए, यही उनकी शक्ति
का बहुत बड़ा आधार है। संवाद ही उनके विभिन्न कार्यक्रमों का उद्देश्य होता
है। गांधीजी का नमक सत्याग्रह के समय का दांडी मार्च इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण
है। निरंतर व्यक्तिगत निकटता के कारण क्रांतिकारी को लोगों और उनकी समस्याओं
की प्रत्यक्ष जानकारी होती है और यथासमय वह जनता से एकरूप हो जाता है।
दोनों प्रकार की क्रांतियों की सफलता के लिए अन्तिम अवश्यम्भावी विजय में दृढ़
विश्वास आवश्यक है। चे-ग्वेबरा कहते हैं: "जिसे यह असंदिग्ध अनुभूति नहीं होती
कि जनता के विरुद्ध शत्रु की विजय असंभव है, वह छापामार योद्धा नहीं हो सकता।"
ऐसी अनुभूति के बिना कोई अहिंसक क्रांतिकारी भी नहीं बन सकता।
सभी क्रांतिकारी संघर्षों में एक महत्वपूर्ण तत्व है- समय। अन्ततोगत्वा किसी
शासन का पतन उसके अन्तर्निहित विरोधों के परिपक्व होने की गति बढ़ाते हैं,
किंतु प्रक्रिया पूर्ण होने में लम्बा समय लगता है।
पक्षान्तर्गत स्पर्धा, मतभेद, करदाताओं और राजकोष पर बढ़ता बोझ, कीमतों का
बढ़ना, उत्पादन वृद्धि की गति का गिरना, बेरोजगारी में भयावह वृद्धि, भुगतान
संतुलन की विनाशकारी स्थिति कानून और व्यवस्था प्रवर्तक लोगों में असंतोष,
प्रशासकीय रुकावटें, घोर उपेक्षा जनता में अशान्ति और विरोध, सेना की तटस्थता
और अन्तर्विरोध, अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में शासन की प्रतिष्ठा और साख का पतन
आदि बातें अपने समय से ही परिपक्व होती हैं।
राजनीतिक और आर्थिक अन्तर्विरोधों को, ऐसी सरकार तो प्रदीर्घ काल तक सँभाल
सकती है जिसके पास समर्पित ध्येयनिष्ठ अनुयायी हों, कितु जिसके पास ऐसे
अनुयायी न हों, ऐसी सरकार इन अन्तर्विरोधों को नौकरशाही के सहारे अधिक समय तक
नहीं सँभाल सकती। हर स्थिति में समय तत्व अनिवार्य है। यशस्वी क्रांति के एक
नेता ने कहा है: "उनका धैर्य असीम था। वे दूसरों के धैर्य खोकर निष्क्रिय होने
और असफल हो जाने तक प्रतीक्षा कर सकते थे।"
अहिंसक और हिंसक दोनों प्रकार की क्रांतियों में अन्तर्राष्ट्रीय संपर्क एवं
प्रचार प्रमुख तत्व होते हैं, किंतु अहिंसक क्रांति में यह केवल प्रचार तक ही
सीमित रहता है।
भारत की आजादी की लड़ाई में कांग्रेस इस दिशा में निरन्तर प्रयासरत रही। इस
काम के लिए एक विशेष उपसमिति गठित की गई थी। दूसरी आजादी की लड़ाई, अर्थात
श्रीमती इंदिरा गांधी के आपात्काल के विरुद्ध इसका पर्याप्त ध्यान नहीं रखा
था।
1857 प्रथम स्वातंत्र्य युद्ध के विख्यात नानासाहब पेशवा भी अन्तर्राष्ट्रीय
सम्बन्धों का महत्व मानते थे। फ्रांस के नेपोलियन तृतीय को नाना साहब के
द्वारा लिखे पत्र और ब्रिटेन और अन्य देशों को अजीमुल्ला खान को अपने दूत के
रूप में भेजने की उनकी योजना से स्पष्ट हो जाता है कि यह पहलू भी उनकी दृष्टि
से ओझल नहीं था।
अन्य देशों के दूतावासों और पत्रकारों से क्रांतिकारियों के सम्बन्धों के कारण
स्थापित शासन सामान्यत: घबराता है। क्रांतिकारी गतिविधियों के आतंरिक एवं
विदेशों में प्रचार से सरकार हमेशा डरती है।
प्रत्येक सरकार अपने समर्थकों को यह विश्वास दिलाने के लिए कि समझौतों का पालन
किया जाएगा, संधियाँ मान्य होंगी, कर्ज ब्याज सहित वापस किये जायेंगे और
नियोजित पूँजी पर लाभ मिलता रहेगा, स्थायित्व का मुखौटा पहने रहना पड़ता है।
दोनों हिंसक तथा अहिंसक-संघर्षों में एक चाल यह भी रहती है कि सरकार की
स्थायित्व की प्रतिष्ठा को भान किया जाए ताकि उसे विदेशी कर्ज न मिल सके, आय
के स्रोत सूख जायें, भयभीत धनी लोगों तथा नौकरशाही में अन्तर्विरोध पैदा हो।
साम्राज्यवादी देश का संविधान यदि प्रजातांत्रिक है तो साम्राज्यवादी देश की
जनता के एक बड़े वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करके उसका दबाव साम्राज्यवादी सरकार
पर कर पाना क्रांतिकारियों के लिए संभव हो जाता है।
विदेशों में प्रचार के लिए दोनों प्रकार के हिंसक तथा अहिंसक कार्यकर्ता
जनसचना की विभिन्न सेवाओं को प्रभावित करके उनका उपयोग करते हैं। कई बार उनकी
चेष्टाएँ अन्य प्रकार की होती हैं। पदच्युत राजकुमार नरोत्तम सिंहानुक की
एन.आई.एफ. द्वारा प्राग के कम्बोडिया दूतावास पर कब्जा, सितम्बर 1970 में हेग
के इंडोनेशियाई दूतावास पर अम्बानीस शरणार्थियों द्वारा कब्जा, वाशिंगटन में
पुर्तगाली दूतावास के तथा रोडेशियाई सूचना कार्यालयों के बाहर बम विस्फोट,
फिलिस्तीनियों द्वारा म्यूनिख ओलम्पिक में इजरायली खिलाड़ियों पर छापामार हमला
करके 17 व्यक्तियों को मार डालना, 1970 के राष्ट्रीय दिवस पर सिंगापुर में बम
विस्फोट, कुछ दिनों पूर्व के कई हवाई अपहरण तथा वैसी ही कई अन्य चेष्टाओं का
उद्देश्य सम्बन्धित समस्याओं पर दुनिया का ध्यान आकर्षित करना ही था।
सफल अन्तर्राष्ट्रीय प्रचार का सजग उदाहरण नामीबिया के (स्वाण साउथ वेस्ट
अफ्रीकन पीपुल्स आर्गनाईजेशन) ने प्रस्तुत किया है। उन्हें अब राष्ट्रमंडल और
विश्व न्यायालय का नैतिक समर्थन मिल रहा है।
दक्षिण-पूर्वी एशिया में बौद्धों का आत्मदाह स्पष्टतः अधिक प्रभावी रहा है।
लुमुम्बा, केनेडी या मार्टिन लूथर किंग जैसी कोई शहादत नितिन ही अधिक
अन्तर्राष्ट्रीय सहानुभूति अर्जित करती है, क्योंकि करुणा की भावना का प्रभाव
आतंक से अधिक सशक्त और गहरा होता है। अलेंदे के अन्तर्राष्ट्रीय निंदकों को भी
उसके हत्यारों से कोई सहानुभूति नहीं थी।
हर हिंसक क्रांति के पूर्व की घोषणाएँ और क्रांति के बाद के उनके क्रियान्वयन
में हमेशा गहरी खाई रही है। उदाहरणस्वरूप क्या किसी क्रांति ने आज तक किसानों
को दिए गए आश्वासन पूरे किए? किस क्रांति ने मजदूरों को उनके कारखानों का
मालिक बनाया?
वर्गनिअंद ने कहा है कि "क्रांति अपने ही बच्चों को खा जाती है।" तीन सोवियत
विद्वानों, शिक्षाविद, आन्द्रसखारोव, इतिहासकार मेडवडेव, डॉक्टर वेलेन्टिन
तोरचिने द्वारा सोवियत नौकरशाही के नेताओं को लिखे गए पत्र में लगाये गए आरोप
क्रांति के बाद आई तानाशाही के चरित्र को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हैं।
रोनाल्ड सैगल लिखते हैं: "सोवियत शासन के साम्राज्यवादी चारित्रिक पहलू के
अलावा भी साम्यवादियों का अपना देश घोषित किए गए इस देश में ऐसा बहुत कुछ है
जो क्रांतिकारी निष्ठाओं को उघाड़ सकता है। 1917 की क्रांति के अभ्युदय के
इतने अन्तराल के बाद भी समाजवाद के मूल आधार स्वातंत्र्य, समता और बंधुभाव
साम्यवादी देश में ही उपहास और अवहेलना के विषय बन गए हैं। इन आधारों को सबल
करने के प्रयासों को राज्य विरोधी करार देकर दंडित किया गया। आर्थिक विषमता तो
सभी ओर स्पष्ट दिखाई पड़ती है।"
"दि न्य क्लास" अर्थात "नया वर्ग" साम्यवादी क्रांतियों के परिणामों का विषद
वर्णन करती है। न्यू क्लास की प्रस्तुति में लेखक जिलास कहते हैं: साम्यवाद
क्रांति के बाद समाज में भी वे समस्त भेद और अन्तर्विरोध मौजद हैं, जो अन्य
राजाओं में होते हैं। समाजवादी समाज केवल समता और बन्धुभाव के संवर्धन में ही
असफल नहीं हुआ है। पार्टी की साम्यवादी नौकरशाही के कारण समाज में सुविधाभोगी
लोगों की एक पर्त निर्माण होती है जिसे मार्क्स दर्शन के अनुसार ही मैं "न्यू
क्लास"नया वर्ग कहता हूँ।
अपनी किताब "अनपरफेक्ट सोसायटी" में जिलास आगे कहते हैं कि "साम्यवाद के जिस
लोकप्रिय आंदोलन ने एक समय वैज्ञानिकता के नाम पर दुनिया के मेहनतकश और दलित
लोगों को पृथ्वी पर स्वर्ग का राज्य उतारने की प्रेरणा दी और उस अनादि चिरंतन
स्वप्न को धरती पर उतारने के लिए लाखों लोगों ने अपनी जान की बाजी लगाई और लगा
रहे हैं, वह राजनीतिक नौकरशाही में परिणत हो गया है। साम्यवादी राज्य ही आपस
में प्रभाव, प्रतिष्ठा, आमदनी के स्रोत, बाजार आदि अर्थात् उन्हीं सब बातों के
लिए लड़ रहे हैं जिनके लिए राजनेता और सरकारें हमेशा लड़ती रही हैं और लड़ती
रहेंगी। उनकी अपनी धारणाओं और सामाजिक परिस्थितियों के कारण कम्युनिस्ट पहले
विरोधियों से सत्ता हथियाने के लिए और फिर सामाजिक परिस्थितियों के कारण आपसी
छीना-झपटी के लिए बाध्य हुए। इतिहास के सभी क्रांतिकारी आंदोलनों का यही हश्र
हुआ है।"
असाम्यवादी क्रांतियों से बनी तानाशाहियों का अनुभव भी बहुत भिन्न नहीं है।
लम्बे छुरों की रात जिसके दौरान कप्तान रोथम और उसके सहकारी अधिकारियों का
उनके साथियों द्वारा ही क्रूरता से सफाया किया गया, कोई विशिष्ट जर्मन घटना
नहीं थी। वह घटना सत्ताधारी पक्ष के अंतर के भी सभी विरोधी स्वरों को शान्त कर
देने के लिए दृढ संकल्प तानाशाही शासनों की प्रवृत्ति की परिचायक थी। पार्टी
के बाहर विरोधियों का सफाया कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। साइबेरिया के
हडतालियों, हंगरी, पूर्वी जर्मन और चेकोस्लोवाकिया के लोगों का दमन करने वाले
रूसी सैनिक भी उतने ही क्रांतिकारी थे जितने स्पेनी छापामारों के विरुद्ध खड़े
नेपोलियन के सैनिक या स्वदेश में सिर का और विदेशों में स्वातंत्र्यवादियों का
सफाया करने वाले नाजी सैनिक।
14 जुलाई, 1789 को पहली बार लिंआकोर ने आधुनिक अर्थ में क्रांति (रेवोल्यूशन)
शब्द का प्रयोग किया था। तब से आज तक हर हिंसक क्रांति की यह अनिवार्य परिणति
रही है। ऐसी बात नहीं कि इसका कारण क्रांतिकारी नेताओं की सनक, चंचलता या
वैचारिक अशुद्धता हो, यह तो हिंसक क्रांतियों की कार्यपद्धति का एक अंगभत घटक
है।
हन्नाह आरेन्ट "ऑन रेवोल्यूशन" में कहता है: क्रांति की महत्वपूर्ण घटना का नई
व्यवस्था की स्थापना से संबंध है। क्रांति की प्रेरणा में दो तत्व होते हैं।
हमें लगता है, जो समन्वयहीन ही नहीं, बल्कि परस्पर विरोधी भी होते हैं तथा
राजनीतिक ढाँचा और नए प्रशासन की रूपरेखा बनाने का गहरा संबंध जहाँ नये ढाँचे
की मजबूती और स्थायित्व से होता है, वहीं उस काम में लगे लोग भी कुछ नया करने
की मानवीय आनंदानुभूति और नये सृजन के उत्साह से अभिभूत होते हैं। ये दो
तत्व-स्थायित्व की चिंता और नया करने का उत्साह-राजनीतिक विचारों और शब्दावली
में एक दूसरे के विरोधी हैं। एक माना जाता है पुराणपंथी, यथास्थितिवाद, और
दूसरा प्रगतिवाद जिसपर प्रगतिवादी अपना एकाधिकार मानते हैं। इसी विरोध को
हानिकर लक्षण माना जाना चाहिए।"
क्रांति के पश्चात् ही विचारधारा क्रांति के भाव को भूल जाती है, वह क्रांति
की संकल्पना की अवधारणा नहीं कर सकती, इसका कारण यह है कि क्रांति मूलतः
स्थायी संस्था का सृजन नहीं करती।
यदि परिणति भयाक्रान्ता में नहीं हुई हो तो क्रांति प्रजातंत्र की स्थापना की
घोषणा के साथ ही समाप्त हो जाती है.......किंतु इस प्रजातंत्र में उन मूल्यों
को कोई स्थान नहीं होगा, जिसके आधार पर वह न रची गई......यदि नई व्यवस्था की
स्थापना क्रांति का उददेश्य पता हो तो समझना चाहिए कि क्रांति की प्रेरणा बाद
में कुछ नया प्रारम्भ करने की ही नहीं, अपितु नई स्थानीय परम्पराएँ, संस्थाएँ
स्थापन करके उत्तरोत्तर नई ऊँचाइयों पर पहुँचाना है। क्रांति की उपलब्धियों को
सर्वाधिक हानिकर उनकी आधारभूत भावनाएँ ही हो सकती हैं। स्वतंत्रता का सबसे
ऊँचा अर्थ है कर्मस्वातंत्र्य। क्या क्रान्त्युत्तर निर्माण के लिए इस
कर्मस्वातंत्र्य की बलि चढानी पडेगी?"
कंडोरसेट ने कहा है "क्रांतिकारी उन्हीं क्रांतियों को कहना चाहिए, जिनका
उद्देश्य स्वतंत्रता हो," जहाँ हिंसा द्वारा भी संम्पूर्णतया अलग चरित्र की
सरकार बनाकर नई शुरूआत की गई हो, नई राजनीतिक धारणाएँ स्थापित हुई हों, जिनका
उद्देश्य दमन से मुक्ति और स्वतंत्रता हो, वही क्रांति कहला सकती है। इन
कसौटियों को देखने पर लगता है कि अभी तक हुई हिंसक क्रांतियाँ पूर्ण रूप से
"क्रांतिकारी" नहीं थीं।
अहिंसावादी क्रांतिकारियों की कार्य पद्धति पूर्णतया भिन्न होती है। उनका
प्रमुख शस्त्र आतंक नहीं, आत्मबल होता है। उनकी निष्ठा शुचिता में होती है। वे
इस बात को नहीं मानते कि यदि ध्येय अच्छा हो तो कोई उन्हें दृढ़ विश्वास होता
है। क्योंकि उनकी धारणा में सत्य की (ईश्वर की) विजय होती ही है। वे मानते हैं
कि जो पराजित होने से अस्वीकार कर देते हैं वे कभी पराजित नहीं हो सकते। सत्य
के संघर्ष में कोई असफलता नहीं होती, आंशिक असफलताएँ हो सकती हैं। उनका दृढ़
विश्वास होता है कि किसी व्यक्ति पर उनकी स्वैच्छिक सहमति के बिना लम्बे समय
तक शासन नहीं किया जा सकता। वे व्यक्ति का हिंसा द्वारा उनका शारीरिक विकास
नहीं, प्रायश्चित द्वारा शनैः शनैः शुद्धिकरण चाहते हैं। अहिंसक क्रांति के
पूर्व अनिवार्यतः क्रांतिकारी जनजागरण होता है, जिसे श्री अरविन्द पैसिव
रेसिस्टेंट (सहन प्रतिरोध) कहते हैं। लोकमान्य तिलक की चतु:सूत्री और महात्मा
गांधी के सत्याग्रह आदि में संघर्ष के साथ जनजागरण भी अभिप्रेत था। उनका आधार
था जनसंपर्क के द्वारा जनसाधारण और जनजागरण के द्वारा जनसंघर्ष के कारण हा
गतिविधि, चाहे छोटी हो या बड़ी, अहिंसक कार्यकर्ताओं की अहेतूक चेष्टाएँ भी
महत्वपूर्ण बन जाती हैं। प्रतिनिधि मंडल द्वारा साक्षात्कार, बिल्ले लगाना,
प्रतिरोधी प्रस्ताव, आवेदन, हड़तालें, पोस्टर लगाना, साहित्य और पत्रकों का
वितरण, शहीदों की अत्यक्रियाओं पर बड़ी संख्या में लोगों को एकत्र करना,
हुतात्माओं के बलिदानों की वर्षगाँठ मनाना, प्रदर्शन, अधिकारियों के
अत्याचारों का प्रचार, जनशिक्षा के लिए बैठकें, सरकारी समारोहों और विधान
सभाओं का बहिष्कार, आम हड़ताल, बंद, आमरण अनशन, सत्याग्रह कर न देने के
आंदोलन, सम्पूर्ण असहयोग, नागरिक अवज्ञा, जनता की सरकार बनाना, स्थानिक या कुछ
वर्गों के लोगों की समस्याओं के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन आदि बातें जितना संघर्ष
का भाग है उतना ही क्रांति के लिए जनशिक्षा का भी।
थोरी ने अपनी किताब "सिविल डिसओबेडिएंस" (नागरिक अवज्ञा) में इसका विषद्
विवेचन किया है। क्यों उन्होंने गुलामी के विरुद्ध संघर्ष में सरकार को कर
देने के बजाय जेल जाना पसंद किया, तब उन्हें कल्पना भी नहीं थी कि प्रहलाद के
इस देश का राजनीतिक परिदृश्य उनके तत्वज्ञान से इतना प्रभावित होगा। क्या यह
केवल संयोग है कि व्यक्तिगत प्रतिरोध का उनका सिदंधांत इस सुदूर देश में
जन-आंदोलन के तंत्र के रूप में विकसित हुआ नहीं। हमारी आध्यात्मिक परंपरा इस
विचार और कृति के अनुकूल थी। इसी कारण श्री अरविन्द ने कहा है कि अन्यायी और
दमनकारी कानून की अवज्ञा केवल उचित ही नहीं, विशिष्ट परिस्थितियों में कर्तव्य
रूप होती है।
लोकमान्य तिलक ने कहा था कि वे देश को दंड संहिता से बाहर ले जाना चाहते है।
गांधी जी ने सत्याग्रह तंत्र का प्रारंभ करके उसे पूर्ण विकसित किया, जो एक
दुर्बल निष्क्रिय प्रतिरोध नहीं, तो एक सशक्त अहिंसक अवज्ञा थी। 15 सितम्बर
1978 को इलस्ट्रेटेड वीकली के छपे लेख में आचार्य कृपलानी ने विस्तार से
स्पष्ट किया कि प्रहलाद, मीराबाई सुकरात, ईसा मसीह, समाज सुधारकों,
वैज्ञानिकों और अन्यों ने कैसे सत्याग्रह तंत्र का प्रयोग किया और कैसे उस
तंत्र का परिवार, ग्राम, पांत राज्य में प्रयोग किया जा सकता है, और क्यों उसे
समाज विरोधी नहीं समझा जाना चाहिए।
राज्य और कानूनों की समाज के लिए आवश्यकता और उपयुक्तता को स्वीकार करते हुए
भी वह (सत्याग्रह) व्यक्ति को मानव के नाते स्वतंत्रता के उपभोग की छूट देता
है। बेड़ियों में जकड़ा सत्याग्रही भी स्वतंत्र मनुष्य है। अपनी आत्मा को वह
अपनी कह सकता है, वह विरोधियों से भयाक्रांत नहीं होता। शत्रु तो उसका कोई
होता ही नहीं। वह विरोधियों से नहीं विरोधी उनसे भयभीत रहते हैं। वह तो अकेला
ही खड़ा रह सकता है। किंतु हिंसक प्रतिरोधी को अपना सहकारी या अनुयायी जुटाना
पड़ता है।
गांधी जी के सिद्धांतों का समर्थन करते हुए भी स्वतंत्र रूप से श्री डिजिलास
इस निष्कर्ष पर पहुँचे: समसामयिक अनुभव से ऐसा प्रतीत होता है कि शास्त्रोक्त
आधार पर गठित षड्यंत्रकारी सेना के जैसे अनुशासित तत्वज्ञान के आधार पर गठित
संगठनों की कोई अनिवार्य आवश्यकता नहीं है। गृहयुद्ध की तो कदापि आवश्यकता
नहीं है। संघर्ष के अन्य उपाय प्रदर्शन, हड़तालें, विरोधी मोर्चे, विरोधी
प्रस्ताव आदि का अवलम्ब करना चाहिए विशेषतः साहसी आलोचना और नैतिक दृढ़ता अधिक
महत्वपूर्ण है। पूरे ऐतिहासिकता से यही सिद्ध होता है।
हिंसा द्वारा शासन के हर एक नेता और दलाल को गोलियों से उड़ाना तो संभव है,
किंतु हिंसा द्वारा ऐसा शासन स्थापित करना संभव नहीं, जिसे सभी लोग अपना सकें।
सशस्त्र क्रांति के बाद जनता शासन की मालिक नहीं हो सकती। यदि क्रांति की पूरी
प्रक्रिया में उनका प्रभुत्व नहीं रहा हो और यह भी कि यदि उनकी मानसिक तैयारी
केवल तोड़-फोड़ करने की हो तो वे पुनर्रचना के लिए उपयुक्त नहीं हो सकते।
अहिंसक क्रांति की कार्य पद्धति ऐसी है कि वह जनता को क्रांति के दोनों
प्रकारों के कार्यो के लिए प्रशिक्षित करती है। आत्मशक्ति का विकास, क्रांति
में सहभाग और विभिन्न स्थितियों में नेतृत्व के लिये भी वह लोगों को तैयार
करती है। वही जनता का, जनता के लिए, और जनता के द्वारा अर्थात् वास्तविक
क्रांति होती है। ऐसी क्रांतियों के नेताओं के लिए संगठन का मतलब होता है उनका
अपनी जनता के साथ संगठन। वहाँ प्रक्रिया संवाद की होती है, संप्रेषण की नहीं।
वे लोगों के मालिक नहीं, लोगों के साथ रास्ता भले ही लम्बा हो, लेकिन यदि वही।
एकमात्र रास्ता है तो वही सबसे छोटा है।"
शब्द और अर्थ
ईसा मसीह ने कहा है कि 'शब्द मृत्यु देता है और उसका भाव जिलाता है।'
पाण्यात जर्मन दार्शनिक वाल्टेयर ने कहा है कि 'यदि तुम मुझसे बात करना चाहते
हो तो पहले अपने शब्दों को परिभाषित करो।'
महान वैयाकरणशास्त्री पातंजलि कह गए हैं कि "एक शब्दः सम्यक् ज्ञातः
सम्प्रयुक्तः लोके स्वर्गे च कामधुक् भवति''।
शब्द एक मंत्र है। उसका सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक प्रयोग इष्ट फलदायी होता है।
परन्तु देश की वर्तमान अवस्था में हमारे सार्वजनिक जीवन में अनेक
महत्वपूर्ण शब्दों का सम्यक ज्ञान जनसाधारण को नहीं करवाया जाता। कुछ ऐसे लोग
जो अपनी राजनीतिक महत्वाकाँक्षा से प्रेरित होकर किसी न किसी कामना पूर्ति की
पंक्ति में प्रतीक्षारत हैं वे शब्दों के बारे में जनसाधारण में भ्रांतियाँ
निर्मित करने का प्रयास करते हैं।
जिन शब्दों या विषयों के बारे में भ्रांतियाँ निर्मित की गयी हैं, उनमें से एक
शब्द है "सेक्युलरिज्म"। निहित स्वार्थी नेताओं ने इसके विषय में योजनापूर्वक
तरह-तरह की भ्रांतियाँ फैलाई हैं। "सेक्युलर" शब्द का प्रयोग हमारे देश में
जिस अर्थ में किया जाता है, उस अर्थ में दुनिया के दूसरे किसी भी देश में नहीं
किया जाता। वस्तुतः "सेक्युलर" का अर्थ होता है "इहवादी" या "इहलोकवादी"।
पंडित नेहरू के मन में इस बारे में अभिप्रेत संकल्पना के लिए सुयोग्य संज्ञा
थी "असाम्प्रदायिक"। संविधान सभा में हुई चर्चा से लेकर श्री पी.सी चटर्जी की
पुस्तक "सेक्युलर वैल्यूज फॉर सेक्यूलर इण्डिया" के प्रकाशन तक इस विषय पर
लगातार चर्चा होती आई है। "सेक्युलरिज्म" का व्यावहारिक अर्थ "बाइबिल" की भाषा
में "सीजर" (राजा) को वह दो, जो सीजर (राजा) का है; और "ईश्वर को वह दो जो
ईश्वर का है।" अर्थात राजकर्म और धर्मकार्य को पृथक माना गया है।
भारत में राज्य संस्था हमेशा सेक्यूलर ही रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के
द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने बार बार कहा है कि 'हिंदू इतिहास में राज्य
सदैव असाम्प्रदायिक रहा है। हिंदुओ का राज्य अर्थात् सेक्यूलर राज्य।'
फर्डिनांड तथा इसाबेल के क्रूर धार्मिक न्यायपीठ की कल्पना भी हमारे देश में
नहीं की जा सकती पर सेक्यूलर अर्थात निधर्मी की धारणा भी गलत है। डॉ. बाबासाहब
अम्बेडकर कहते हैं: इसका (सेक्यूलर राज्य) अर्थ यह नहीं है कि इस संसद को किसी
मजहब विशेष को शेष लोगों पर लादने का अधिकार नहीं होगा। यही वह एक मात्र सीमा
है जिसे संविधान मान्य करता है। सेक्यूलरिज्म का अर्थ धर्म का निर्मूलन नहीं
है।"
इहवादी, धर्मनिरपेक्ष और निधर्मी, ये तीनों शब्द पूर्णतः समानार्थक नहीं हैं।
उनकी अर्थच्छाया में अंतर है।
दुसरी भ्रांति है धर्मराज्य और थियोक्रेसी (मजहबी शासन) के बारे में। धर्म की
संकल्पना से अपरिचित होने तथा धर्म का भाषान्तर अंग्रेजी में रेलिजन" करने के
कारण अनेक प्रामाणिक चिंतक भी थियोक्रेसी और धर्मराज्य को समानार्थक समझने
लगे। इस तथ्य का विस्तृत विवेचन कई बार हो चुका है कि धर्म और रेलिजन
पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। उदाहरण के लिए श्रुतियों, स्मृतियों, धर्मशास्त्र,
धर्मसूत्र, राजधर्म से संबंधित रामायण के 66 श्लोक तथा महाभारत के शांतिपर्व
के राजकर्म प्रकरण, 17 प्रमुख निबंध, कौटिल्य अर्थशास्त्र, शुक्रनीति तथा इन
सबका परिपूर्ण परामर्श लेने वाले महामहोपाध्याय डा. पा. वि. काणे द्वारा रचित
धर्मशास्त्र में उल्लिखित तथ्यों के प्रकाश में विद्वान लेखक श्री एम. राम
जोइस ने अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ लीगल एण्ड कांस्टीट्यशनल हिस्ट्री ऑफ इंडिया"
(भारत का कानूनी और संविधानिक इतिहास) में लिखा है:
संस्कृत में सर्वाधिक विस्तृत अर्थ की एक अभिव्यक्ति है। इसको व्यक्त करने
वाला किसी अन्य भाषा में कोई शब्द नहीं है। इस शब्द की कोई परिभाषा करने का
प्रयास भी व्यर्थ होगा। इसके अनेक विधा विस्तृत अर्थ है। उनमें से कुछ अर्थ
हमें उक्त शब्द का विस्तार समझने में सहायक हो सकते हैं। उदाहरण के लिए "धर्म"
शब्द इन सबके लिए प्रयुक्त होता है: न्याय-ऐसा व्यवहार जो परिस्थिति विशेष में
उचित हो नैतिक, आध्यात्मिक, पवित्र या मर्यादित हो, प्राणिमात्र के प्रति
सहायता का भाव-दान-दक्षिणा देना, सजीव जगत् के स्वाभाविक गुण या पहचान या
विशिष्टताएँ, कर्तव्य कानून और उसका उपयोग या कानून के समान ही मान्य
परम्पराएँ और एक वैध राजशासन।"
....जब धर्म का उपयोग राजा के कर्तव्य और शक्ति के संदर्भ में होता है तो इसका
अर्थ राजधर्म या सांविधानिक कानून से होता है। इसी प्रकार जब कहा जाता है कि
नागरिकों की शांति और समृद्धि तथा एक नैतिक समाज की स्थापना के लिए धर्मराज्य
आवश्यक है तो धर्म शब्द राज्य के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। अतः यहाँ
धर्मराज्य का अर्थ हुआ कानून सम्मत राज्य, न कि किसी मजहब का या थियोक्रेटिक
राज्य।"
तीसरी भ्रांति राष्ट्र और राज्य के बारे में है। वस्तुतः राष्ट्र और राज्य दो
भिन्न संकल्पनाएँ हैं। परंतु इस भेद का ज्ञान न रहने के कारण अनेक विचारक भी
यह मानने लगे हैं कि रेलिजन, पंथ या उपासना पद्धति के आधार पर राष्ट्र का
निर्माण हो सकता है। जबकि यह स्पष्ट है कि राष्ट का प्राण संस्कृति है, कोई भी
उपासना पद्धति इस गरिमा को प्राप्त नहीं कर सकती। यदि उपासना पद्धति
राष्ट्रीयता का आधार है तो फिर दुनिया के सभी ईसाई देश मिलकर एक राष्ट्र क्यों
नहीं बना सके? बल्कि हआ इसके ठीक विपरीत। इस शताब्दी के दो बड़े महायुद्ध ईसाई
देशों ने ही अपने अपने राष्ट्रीय स्वार्थो की रक्षा के लिए लड़े। यदि उपासना
पद्धति राष्ट्रीयता का आधार है तो फिर संसार के लगभग पचास मुस्लिम देश मिलकर
एक राष्ट्र क्यों नहीं बने? उल्टे अपने अपने राष्ट्रीय हित के लिये विभिन्न
मुस्लिम देश आपस में लड़ते आए हैं और आज भी लड़ रहे हैं।
पाकिस्तान का निर्माण इस्लाम के नाम पर हुआ। वह एक राज्य तो बन गया, लेकिन
राष्ट्र नहीं बन सका। जिस दिन ढाका ने पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ आवाज उठाई,
उसी दिन उपासना पद्धति पर आधारित राष्ट्र की संकल्पना का खोखलापन स्पष्ट हो
गया।
बंगलादेश ने इस्लाम को राज्य का मजहब घोषित किया है। क्या वहाँ मजहब के आधार
पर राष्ट्र निर्माण हुआ है? यदि ऐसा हुआ है तो वहाँ के पन्द्रह प्रतिशत
हिन्दुओं की बात छोड़ भी दी जाए तो भी, 1947 में इस्लाम के नाम पर बंगलादेश गए
बिहारी मुसलमान वहाँ की राष्ट्रीय मुख्य धारा के साथ अब एकरूप क्यों नहीं किये
गए? 1947 में इस्लाम के नाम पर भारत से पश्चिमी पाकिस्तान गए मुसलमान
(मुजाहिद) वहाँ के स्थानीय मुसलमानों द्वारा अब तक क्यों नहीं अपनाए गए ?
अहमदिया और शिया, दोनों मुस्लिम हैं, फिर भी पाकिस्तानियों द्वारा उनको क्यों
नहीं अपनाया जाता? अभी तक पाकिस्तान में पठानों की पख्तूनी अस्मिता, बलूचियों
की बलूची अस्मिता प्रखर रूप से जीवित है। इन तीनों प्रदेशों के मुसलमान
पाकिस्तान से पृथक होकर अपनी-अपनी पृथक इकाइयाँ बनाना चाहते हैं। इसका मतलब
क्या यह नहीं है कि पाकिस्तान एक राज्य तो है किंतु राष्ट्र नहीं है, और यह कि
मजहब के आधार पर राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता। सिंधी मुस्लिमों के ज्येष्ठ
नेता श्री जी. एम. सईद जिन्होंने 1947 में सिंधी असेम्बली में सर्वप्रथम
पाकिस्तान के निर्माण का प्रस्ताव रखा था, आज खुलेआम कह रहे हैं कि उस समय
उन्होंने जिन्ना के बहकावे में आकर बहुत बड़ी गलती की लेकिन अब वे अनुभव करते
हैं कि इस्लाम या किसी मजहब के आधार पर राष्ट्र नहीं बन सकता। सिंधी मुसलमान
राजा दाहिर को अपना राष्ट्रपुरुष मानते हैं और मुहम्मद बिन कासिम को पराया
आक्रामक। सिंधी मुसलमानों की इच्छा है कि पाकिस्तान से निकलकर भारत के साथ
सिंध का गठबंधन (महासंघ) होना चाहिए। श्री सईद कहते हैं कि "सिंध असेम्बली में
पाकिस्तान के निर्माण का प्रस्ताव लाकर उन्होंने पाप किया है और उस महान गलती
को महसूस करने के लिए खुदा ने उनको लंबी उम्र दी, यह खुदा का शुक्र है।"
वास्तविकता यह है कि आज हरेक मुस्लिम देश अपनी-अपनी राष्ट्रीय संस्कृति के
आधार पर राष्ट्र बना है न कि इस्लाम के कारण। यही कारण है कि इंडोनेशिया के
लोगों ने मुस्लिम देश होते हुए भी अपनी राष्ट्रीय हिंदू संस्कृति को अक्षुण्ण
रखा है।
चौथी भ्रांति यह मान्यता है कि हिंदू एक पंथ, सम्प्रदाय, उपासना पद्धति या एक
रेलिजन है जहाँ तक थियोक्रेसी (मजहबी राज्य) का प्रश्न है, उसके लिए एक मजहब
का होना जरूरी है। ईश्वर द्वारा भेजा गया एक पैगंबर, एक पुस्तक, एक उपासना
पद्धति और एक स्वर्ग रेलिजन या मजहब के गुणधर्म हैं। यदि इस कसौटी पर परखा जाए
तो क्या हिंदू धर्म को रेलिजन कहा जा सकता है? हिन्दुओं का एक पैगंबर कौन है?
उसकी किताब कौन सी है और उनका एक ही स्वर्ग कहाँ है? हिन्दुओं की स्थिति तो यह
है कि "नेको मुनिः यस्य वचः प्रमाणम्"-ऐसा कोई भी मुनि नहीं, जिसका वचन प्रमाण
माना जाए। हिन्दुओं के कितने ही अलग-अलग पंथ हैं। उसमें और भी नए पंथ जोड़ने
की उसमें क्षमता है। गांधी जी ने कहा है कि 'हिंदू धर्म में जीसस के लिए
पर्याप्त जगह है। और मुहम्मद, जरथुस्त्र तथा मूसा को भी शामिल करने का
पर्याप्त स्थान है।'
भारत के चार्वाक जैसा नास्तिक भी हिंदू ही है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व
न्यायाधीश श्री गजेन्द्र गडकर का यह अभिमत है कि विश्व के अन्य पंथों के
विपरीत हिंदू धर्म किसी एक पैगंबर का दावा नहीं करता और न ही किसी एक देवी की
उपासना करता है। इसी प्रकार यह किसी एक दार्शनिक अवधारणा को भी नहीं मानता,
उपासना की किन्हीं विशिष्ट पद्धतियों या क्रियाओं को नहीं स्वीकारता, वास्तव
में वह किसी पंथ या सम्प्रदाय की संकीर्ण पारम्परिक विशेषताओं को संतुष्ट करता
प्रतीत नहीं होता। इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही वर्णित किया जा सकता है,
कुछ और नहीं........।
भारतीय विचार-दर्शन का इतिहास इस तथ्य को भलीभाँति प्रगट करता है कि हिंदू
धर्म का विकास हमेशा सत्य के लिए अपूर्व खोज की अभिलाषा से प्रेरित रहा है। यह
खोज इस बात पर आधारित है कि सत्य के अनेक रूप होते हैं। सत्य एक है, परन्तु
विद्वान भिन्न प्रकार से उसका वर्णन करते हैं।"
इस संदर्भ में हुमायूँ कबीर द्वारा उद्धृत विलियम कॉप का यह विचार दृष्टव्य
है: हिंदू संस्कृति की अपूर्व शक्ति और दीर्घायु का सर्वप्रथम कारण प्रकटतः
भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों और परस्पर विरोधाभासी आस्थाओं को व्यवस्थित तथा
समायोजित करने की इसकी क्षमता है। अनेक रूपी तत्वों को समायोजित करने और
उन्हें सामाजिक और अलग पहचान देने की इसकी योग्यता संभवतः मानव इतिहास में
अभूतप्रूव है।"
हमारे एक मित्र सामान्य जन को समझाने के लिए हिंदू की तुलना किराने की दुकान
से करते हैं। कहते हैं कि आप पच्चीस रूपये लेकर किराने की दुकान में जाइये।
वहाँ आपको पचासों वस्तुएँ रखी दिखाई देगी। किंतु आप यदि दुकानदार से पच्चीस
रूपए का "किराना" मांगेगे तो वह कुछ भी देने में असमर्थ होगा, क्योंकि
"किराना" नाम से पहचानी जाने वाली अनेक वस्तुएँ होती हैं" परन्तु किराना नाम
की कोई एक वस्तु नहीं होती। हमारे उक्त मित्र का कहना है कि हिंदू नाम से
पहचान में आने वाले कई संघ, पंथ, सम्प्रदाय और पूजा-पद्धतियाँ तो हैं, परन्तु
हिंदू नाम का कोई एक रेलिजन नहीं है।
वास्तव में हिंदू की परिभाषा समझ पाना पश्चिमी देशों के लोगों के लिए कठिन है।
हिंदू शब्द का भावार्थ क्षेत्रीय और विभिन्न स्तरीय है, विभिन्न पहलुओं और
आयामों से युक्त है। हिंदू शब्द धार्मिक, सांस्कृतिक, अन्तर्राष्ट्रीय और
वैश्विक भी है इसलिए हिंदू विचार पद्धति से अनभिज्ञ लोगों को हिन्दुत्व निष्ठा
के कुछ उद्गार आश्चर्यजनक प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ प्रखर हिन्दुत्वनिष्ठ
स्वातंत्र्य वीर सावरकर कहते हैं:
वस्तुतः सम्पूर्ण पृथ्वी हमारी मातृभूमि है, और मानवता हमारा राष्ट्र। किंतु
जब तक विकास का यह नियम रहेगा कि जो अपने अडिग निर्देश में यह कहता है कि
कमजोर और कायर हमेशा शक्तिशालियों और साहसी लोगों के शिकार होते हैं, तब तक
राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीतायवाद में परिवर्तित होने से अस्वीकार करती
रहेगी।"
"हिंदू" का सर्वागीण अर्थ हमारे 'प्रगतिशील' बंधु समझें या न समझें, किंतु एक
बात तो स्पष्ट है कि हिंदू कोई रेलिजन नहीं है। अतएव हिदुओं का राज्य कभी भी
मजहबी राज्य का रूपरूप धारण नहीं कर सकता। इसी कारण पूज्य श्रीगुरुजी ने कहा
है कि "हिंदू और सेक्यूलर राज्य", दोनों शब्द पर्यायवाची और समानार्थक हैं।"
सेक्यूलरिज्म के संदर्भ में यूरोपीय विकासक्रम हिंदू ऐतिहासिक विकासक्रम से
एकदम भिन्न है।
यह सर्वविदित है कि आरम्भ में रोमन सम्राटों ने ईसाइयत का विरोध किया था, बाद
में उन्होंने उसे स्वीकार किया और ईसाई मत को राजाश्रय प्राप्त हुआ, तो उसके
विभिन्न यूरोपीय भागों का राज्य सँभालने वाले लोग अपने-अपने क्षेत्र के शासक
बन गए फिर भी उन पर चर्च और पोप की आधिसत्ता का अंकुश था। यह अंकुश न सिर्फ
आध्यात्मिक क्षेत्र में रहा अपितु भौतिक, राजनीतिक,, व्यावहारिक और शासकीय
क्षेत्र में भी था। कुछ शताब्दियों तक यही व्यवस्था चलती रही। परंतु ग्यारहवीं
शताब्दी में ब्रिटेन के राजप्रमुख चतुर्थ हेनरी ने इस अधिसत्ता के विरोध में
पहला विद्रोह किया। हालांकि वह सफल नहीं हुआ और अन्ततोगत्वा उसे पोप ग्रेगरी
सप्तम के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा, फिर भी विद्रोह के बाद यूरोप में बेटिकन
सिटी (जहाँ पोप का मुख्य केंद्र है) के अधिकार क्षेत्र के बारे में एक चर्चा
का सूत्रपात हुआ।
आगस्टिन ने पोप की अधिसत्ता का समर्थन किया तो मार्सिग्लिआ ऑफ पेडुआ,
वायक्लिफ, इरस्मस, लूथर, दांते आदि ने उसका विरोध किया। चौदहवीं शताब्दी के
पश्चात् राज्य तथा चर्च आपस में साँठगाँठ करके जनता का शोषण करने लगे। सरकारी
संरक्षण में चर्च में भ्रष्टाचार बढ़ने लगा फ्रांसीसी राज्य क्रांति के पूर्व
चर्च के अधिकारियों के पास बड़ी-बड़ी सम्पत्तियाँ थीं। फ्रांस के
धर्माधिकारियों की व्यक्तिगत आय प्रति वर्ष चार से पाँच लाख तक रहती थी। इसके
अलावा लगभग उतना ही धन प्रतिवर्ष उनके भक्तों की ओर से प्राप्त होता था। उनके
मठ राजमहल के समान सुखोपभोग के सभी साधनों से युक्त रहते थे। लोगों की आमदनी
का एक षष्टमांश चर्च के पास जाता था। चर्च की वार्षिक आमदनी लगभग पन्द्रह
करोड़ की थी। यूरोप के अन्य देशों में भी ऐसी परिस्थिति थी। परिणामस्वरूप
सामान्य जनता में भी पोप विरोधी भावना का उदय होने लगा। राजनीति में चर्च को
अनौपचारिक रूप से अलग करने की बात स्पष्ट रूप से प्रकट करने वाले प्रथम विचारक
प्रवक्ता मैकियावेली थे। यद्यपि वे लोकतंत्र के विरोधी तथा राजशाही के प्रबल
समर्थक थे। इंग्लैंड के हेनरी अष्टम द्वारा पोप के विरोध में किया गया विद्रोह
तथा मार्टिन लूथर के नेतृत्व में आध्यात्मिक क्षेत्र में पोप के खिलाफ हुआ
विद्रोह सर्वविदित है।
सोलहवीं शताब्दी के धर्म सुधारक आंदोलन के परिणामस्वरूप यह मान्यता बनी कि
रेलिजन व्यक्ति के लिए निजी जीवन का विषय है। राजनीतिक और आध्यात्मिक विचारों
की दृष्टि से सत्रहवीं शताब्दी में सेक्यलरिज्म ने प्रगति की। इस दृष्टि से
अलथूसियस ग्रेसियस हॉब्स, जॉन लॉक आदि उल्लेखनीय हैं। अठारहवीं शताब्दी के
उत्तरार्ध में प्रबुद्धवाद के विचार के साथ ही चर्च का प्रभाव और क्षीण हुआ।
यूरोप के बाहर अमेरिकन संयुक्त राष्ट्र का संविधान बनाने वाले राष्ट्र
निर्माताओं, विशेषतः मैडिसन, ने प्रारम्भ में ही चर्च और राजसत्ता के पृथकत्व
पर जोर दिया। 1846 में सेक्युलरिज्म सिदंधांत को सूत्रबद्ध करने का काम हॉलिऑक
ने किया। उसने अपनी पुस्तक "प्रिंसिपल ऑफ सेक्युलरिज्म" तथा "ओरीजिन एण्ड दि
नेचर ऑफ सेक्यूलरिज्म" में सेक्यूलरिज्म के सिद्धांत का विषद विवेचन किया है।
20 सितम्बर 1870 को पोप के रोम पर इतालवी स्वातंत्र्य सेना का अधिकार हो गया।
उसके बाद रोम में जनमत संग्रह किया गया कि रोम की जनता पोप के शासन में रहना
चाहती है या नव स्वतंत्र इटली के राज्य में। रोम की बहुसंख्य जनता ने स्वतंत्र
इटली के पक्ष में मत दिया। फलस्वरूप उसको स्वतंत्र इटली में सम्मिलित करके
राजधानी घोषित किया गया। 2 जून, 1871 को विक्टर इमैन्युअल ने रोम में विजय
प्रवेश किया। उसी वर्ष इटली की संसद में "लॉ ऑफ पेपर गारंटीज" पास किया गया,
जिसके अंतर्गत पोप को उनका निवास स्थान तथा उसके पास का कुछ क्षेत्र सर्वोच्च
शासक मानकर उन्हें सौंप दिया गया और रोम उससे अधिकृत रूप से छीन लिया गया।
1905 में फ्रांस की संसद ने पृथकता का कानून पास करके अपने देश में
सेक्यूलरिज्म का सूत्रपात किया।
यूरोप में सेक्यूलरिज्म के अभ्युदय का इतिहास आयरिश लेखक विलियम एडवर्ड लेकी
ने अपने ग्रंथ "दि राइज एण्ड इन्फ्लूएन्स ऑफ रैसनलिज्म इन यूरोप" में किया है।
ग्यारहवीं शताब्दी से पोप के मजहबी राज्य का विरोध होना प्रारम्भ हुआ था और तब
से अब तक वह बढ़ता ही जा रहा है। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि भौतिक और
राजनीतिक मामले में पोप का हस्तक्षेप समाप्त हो गया। नेपोलियन घोर पोप-विरोधी
था। लेकिन उसे अपनी सत्ता के चरम बिंदु पर अपनी महत्वाकाँक्षा की पूर्ति के
लिए पोप के सामने झुकना पड़ा। यह घटना नेपोलियन-पोप समझौता के नाम से प्रसिद्ध
है।
जर्मनी का लौहपुरुष बिस्मार्क वेटिकन विरोधी था किंतु मैक्याविली के समान वह
भी राजशाही का समर्थक था। उसके जीवन में एक समय ऐसा आया जब उसे समाजवादियों
तथा चर्च की अधिकता के विरोध में एक साथ दो मोर्चों पर लड़ना पड़ा। एक ही समय
दो मोर्चों पर विजयी होना असंभव जानकर रणनीति के तौर पर उस लौहपुरुष ने अपना
सुविचारित सांस्कृतिक संघर्ष छोड़ दिया और न चाहते हुए भी 1887 में वह पोप के
सामने झुक गया। मुसोलिनी ने सात साल तक पोप विरोधी अभियान चलाया था। लेकिन
परिस्थितिवश उसे भी फरवरी 1929 में पोप के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। यह
घटना "लेटरन समझौते" के नाम से प्रसिद्ध है। 1871 को "लॉ ऑफ पेपर गारंटीज"
द्वारा प्रस्थापित हुए कई इहवादी सिद्धांतों को 11 फरवरी, 1929 के इस समझौते
के अंतर्गत छोड़ दिया गया जबकि स्पष्ट रूप से यह समझौता मुसोलिनी के लिए
अपमानजनक था।
हमारे 'प्रगतिशील' विचारक इस भ्रान्ति से ग्रस्त हैं कि समृद्ध पश्चिमी देशों
में पूरी तरह सेक्यूलरिज्म चल रहा है और वहाँ के शासक रेलिजन के दबाव से मुक्त
हैं। इसकी असत्यता के अनेक प्रमाण हैं। एक विद्वान रूसी लेखक ए, बासमिनकोव ने
अपने ग्रंथ "फ्रीडम ऑफ कान्सियंस इन दि यू.एस.एस.आर." के पाँचवे अध्याय में
लिखा है कि अन्तरात्मा की स्वतंत्रता तथा राज्य से चर्च से शिक्षा प्रणाली को
सिदंधांततः पृथक करने की घोषणा करके भी बुर्जुआ प्रत्यक्ष में कभी वैसा करता
नहीं। सत्ता हस्तगत करने के बाद उन्होंने नास्तिक लोगों के विरुद्ध लड़ाई में
चर्च का समर्थन किया। आज भी कई पूँजीवादी देशों में चर्च राजतंत्र का सच्चा और
कितने ही प्रसंगों में संवैधानिक अंग बन गया है। राज्य शासन चर्च को आर्थिक
सहायता देते हैं और अपने वर्ग-हित के लिए उसका उपयोग करते हैं।"
अधिकांश पूँजीवादी देशों के संविधान में अन्य उपासना पद्धतियों पर प्रतिबंध
लगाकर विशिष्ट उपासना पद्धति को ही लाभ पहुँचाने की व्यवस्था की गई है। उदाहरण
के लिए एवंजेलिकल लूथरन चर्च, डेनमार्क, नार्वे, तथा स्वीडन में सरकारी उपासना
पद्धति है। ग्रीस की सरकार ईस्टर्न ऑर्थोडाक्स चर्च का समर्थन करती है, तो
ब्रिटेन में चर्च ऑफ इंग्लैंण्ड का प्रभाव है। स्पेन का प्रस्थापित चर्च रोमन
कैथोलिक है। किसी भी एक पंथ को सरकारी मान्यता प्रदान करने से अन्य पंथ, मजहब
और सम्प्रदाय स्वाभाविक रीति से द्वितीय श्रेणी के हो जाते हैं। मध्य-पूर्व,
दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका के 17 देशों में इस्लाम को कानून द्वारा विशेष
श्रेणी प्रदान की गई है। चौदह यूरोपीय तथा लैटिन अमरीकी देशों में चर्च को लाभ
पहुँचाने के लिए सरकार की ओर से पूरा प्रबन्ध किया गया।
विश्व में ऐसे 22 राज्य है जहाँ विशिष्ट मान्यता प्राप्त चर्च का सदस्य ही
राज्य का प्रमुख बन सकता है। अर्जेन्टीना, साइबेरिया तथा ईरान में सरकारी
नौकरियों के लिए वहाँ के मान्यता प्राप्त मजहब का अबलंबी होना अनिवार्य कर
दिया गया है, फिर अन्तरात्मा की स्वतंत्रता का अर्थ क्या रह जाता है? उत्तरी
आयरलैंड के कैथोलिकों पर राजनीतिक उद्देश्यों से प्रोटेस्टेंट उग्रवादी हमले
करते रहते हैं, उन्हें ब्रिटेन के शासक वर्ग का समर्थन प्राप्त है।
अमरीका में आत्मा की स्वतंत्रता और चर्च को राज्य से अलग करने की औपचारिक
घोषणा की गई है फिर भी अधिकांश सरकारी संस्थाओं में आज भी मजहबी परिपाटियों के
अनुसार समारोह संपन्न होते हैं। अमरीकी प्रतिनिधि सभा "कांग्रेस" का सत्र ईसाई
पार्थना कहने के बाद प्रारभ होता है। केवल शासनाधिकारी ही नहीं, अपितू
राष्ट्रपति भी जब अपन पद का शपथ ग्रहण करता है तो उसे भी मजहबी शपथ लेनी पडती
है। बयालिस देशों के संविधानों की प्रस्तावनाओं में ईश्वर की प्रार्थना की गई
है। कई देशों में न्यायाधीश नास्तिक गवाहों के साक्ष्य स्वीकार नहीं करते,
नास्तिकों को सरकारी सेवाओं में भर्ती नहीं किया जाता। डेलाबारे राज्य के
संविधान के अनुसार सभी नागरिकों के लिए सार्वजनिक प्रार्थना में उपस्थित रहना
अनिवार्य है। नार्वे के संविधान में किए गए प्रावधान के अनुसार सभी नागरिकों
को चाहिए कि वे अपने सभी बच्चों को प्रस्थापित एवंजेलिकल लूथरन चर्च की भावना
के अनुसार ही शिक्षित करें। पश्चिम जर्मनी में चर्च बहुत सी शिक्षण संस्थाओं
और पाठशालाओं में शिक्षा ग्रीक क्रिश्चियन संस्कृति के वैचारिक आदर्शो और
राष्ट्रीय अस्मिता के अनुरूप होनी चाहिए। मजहबी शिक्षा के लिए इजराइल में एक
राज्य परिषद है। वहाँ यहूदी मत को सरकारी उपासना पद्धति की मान्यता दी गई है।
सन् 1986 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार अमरीका में सत्रह साल से अधिक आयु
वाले 16 करोड़ 60 लाख अमरीकियों में से 81 प्रतिशत खुद को ईसाई कहने में गौरव
का अनुभव करते हैं। उनमें से 62 प्रतिशत लोगों का ईसा के पुनरागमन पर विश्वास
है, 38 प्रतिशत लोगों का पुनर्जन्म पर विश्वास है, 43 प्रतिशत लोग नियमित रूप
से पूजा स्थानों में प्रार्थना करने जाते हैं। पाश्चात्य देशों में मजहबी
लोगों का इससे अधिक प्रमाण केवल आयरलैण्ड में है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि अमरीका जैसे प्रगत देशों में इन दिनों ईसाई
कट्टरवाद का प्रारंभ हो रहा है । वर्जिनिया विद्यापीठ के समाजशास्त्र के
प्राध्यापक जेफरी हंडन ने इस ईसाई कटरवाद को "नई आंधी" की उपमा दी है। जिम
बाकर, जेरी फावेल, जिमी स्वगार्ट, राबर्टसन, बेन किचले आदि लोकप्रिय
प्रोटेस्टेंट पंथीय धर्मोपदेशक इसके प्रचारक है।
जो लोग सेक्यूलरिज्म का खुलेआम विरोध करते हैं, उसकी माँग है कि जिन शिक्षा
संस्थाओं में ईसाइयत के बजाय सेक्यूलर युमनिज्म (धर्मनिरपेक्ष मानववाद) पढ़ाया
जाता है, उन शिक्षा संस्थाओं को सरकारी अनुदान नहीं देना चाहिए। इनके ही
प्रभाव के कारण अलाबामा प्रांत की पाठशाला में विद्याथियो के लिए एक मिनट के
अनिवार्य मौन पालन का नियम बनाया गया था। अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय ने इस नियम
को गैर-कानूनी घोषित किया है। ये कट्टरवादी डार्विन के उत्क्रान्तिवाद के
विरोधी हैं। उनकी माँग है कि धर्मनिरपेक्ष मानववाद का प्रचार करने वाली
पुस्तकों को पाठशालाओं तथा ग्रंथालयों में से निकाल देना चाहिए। ईसाई कट्टरवाद
का यह घोषणा-पत्र सन् 1981 में फ्रांसीसी शाफर नामक पादरी ने प्रकाशित किया है
जिसमें यह आवाहन किया गया है कि ईसाई अपनी उद्देश्य पूर्ति के लिए कानून,
सत्याग्रह और बल का प्रयोग करे। ईसाई जीवन-मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए
कानून तथा सरकारीतंत्र का प्रयोग हो सके, इस तरह की अनुकूल स्थिति निर्माण
करने के लिए फॉलवेल ने मॉरल मैजारिटी नाम का संगठन प्रारंभ किया है। यह
घटनाक्रम हमारे तथाकथित प्रगतिशील बंधुओं के लिए विस्मयजनक होगी।
मार्क्स ने रेलिजन को अफीम कहा और प्रथम पंचवर्षीय योजना का उद्घाटन करते समय
स्टालिन ने रेलिजन तथा भगवान को रूस से निष्कासित करने का समयबद्ध कार्यक्रम
घोषित किया। लेकिन उसी स्टालिन को 1945 में मास्को चर्च का पुनरुज्जीवन करके
एलेक्सी नाम के धर्माचार्य को मास्को चर्च में नियुक्त करने के साथ ही पूर्वी
यूरोपीय देशों में चर्च की गतिविधियाँ पूर्णरूपेण प्रतिबन्धित करने का निर्णय
वापस लेना पड़ा।
कई दशक तक कम्यनिस्ट शासित राज्य पोलैण्ड में पोप का स्वागत करने के लिए देश
के लगभग छह करोड़ लोग रास्ते पर आते थे। उनके "मास" सामूहिक प्रवचन में दस लाख
से अधिक लोग उपस्थित रहते थे।
कम्युनिस्ट भूमि पर खड़े होकर पोप ने भौतिकवाद अर्थात् कम्युनिस्टों के अधिकृत
तत्वज्ञान की तीव्र भर्त्सना की थी। ये बातें पहले प्रकाशित हो चुकी हैं।
बिलिग्राहम ने अपनी रूस यात्रा के बाद रूस दिया है कि इस देश में चर्च की
प्रतिष्ठा सुरक्षित है। रूस में चर्च की प्रतिष्ठा इसलिए बढ़ गई है कि कई
दशकों तक रेलिजन को अफीम बताने के बाद अब रूस और चीन ने अपने-अपने संविधानों
में मतवाद की स्वतंत्रता का समावेश किया है। कम्युनिस्ट सरकार रूस में ईसाइयत
के एक हजार वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में आर्थोडॉक्स चर्च के विभिन्न
समारोहों तथा उत्सवों को न केवल अनुमति दे रही है, अपितु सरकारी प्रचार
माध्यमों में भी उनको उचित स्थान दिया है। स्तालिन ने 1945 के पूर्व मास्को का
एक कैथेड्रेल नष्ट किया था। उसके मुआवजे के रूप में रूस की सरकार अब नया
कैथेड्रेल बनाने वाली है। इस समय रूस में ईसाई सार्वजनिक रूप से प्रार्थना
करते हैं कि भगवान गोर्बाचोफ का पेरेस्त्रोय का कार्यक्रम सफल करे।
सेक्यूलरिज्म की संकल्पना से सम्बन्धित भ्रांति के विषय में यहाँ जान-बूझकर
विस्तृत विवरण नहीं दिया गया। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मौलिक स्वरूप की है,
किंतु उसके विषय में उसके पूर्व कई बार प्रकट रूप से सर्वांगीण चर्चा हो चुकी
है। अतः धर्म अर्थात् रेलिजन. रेलिजन अर्थात धर्म, यहाँ इसी का संक्षिप्त
विवेचन किया गया है।
जब तक सब भ्रांतियों का निराकरण नहीं होता, तब तक "सेक्यूलरिज्म का सम्यक
ज्ञान" तथा इस शब्द का "सम्यक प्रयोग" असंभव है।
(
संकेत रेखा)
सोपान - 2
(कुछ प्रमुख बिंदु)
v यह मत सोचो कि जीवन में तुम्हें प्राप्त होने वाला काम कितना छोटा है बल्कि
उसमें श्रेष्ठतम उपलब्धि प्राप्त करने के लिए भरसक प्रयास करो। लोगों के जूतों
की पालिश करने का ही काम तुम क्यों न कर रहे हो, किंतु वही काम इतने अच्छे ढंग
से करने की आकाँक्षा रखो जिससे कि लोग परिणामस्वरूप कहें कि तुम "नेपोलियन आफ
शू शाइंस" अर्थात् "चमकदार जूता पालिश" करने में नेपोलियन हो।
v किसी ने प्रभु रामचन्द्र जी के समान यदि यह वृत्ति प्रकट की कि मैं टूट सकता
हूँ, किंतु झुक नहीं सकता", तो उसके विषय में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा एवं
आदर की भावना निर्माण होती है।
v "अर्जुनस्य प्रतिज्ञे द्वै-न दैन्यं न पलायनम्, देहं वा पातयेत्- अर्थ वा
साधयेत्" की तरह के वचन दुर्बल मन को भी क्षण मात्र में सबल बना सकते हैं।
परशुराम का शत्रुओं को आवाहन् था कि तुम पहले मेरे ऊपर प्रहार करो, पहले मेरी
तरफ चाप खींचो, शत्रु प्रथम मेरे ऊपर प्रहार करे, यही मैं पसंद करता हूँ।
"प्रहार नमतु चापम -प्रारूप्रहारप्रियोऽहम्", मयि त् कृतनिधाने- कि विदध्याः
परेण।" क्योंकि यदि मैं पहले आघात करूंगा तो उसका उत्तर "प्रत्याघात से देने
के लिए शत्र बचेगा ही नहीं" आत्मविश्वास का यह आविष्कार कायर को भी क्षण भर के
लिए शूर बना सकता है।
v महाकवि बाण ने प्रतिज्ञा ग्रहण करने वाले वीरपुरुष के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी
आंगन है, महासमर नाला मात्र है, पाताल समतल स्थल के समान और सुमेरु पर्वत
बांबी के समान है।
v वीरता का वास्तविक श्रोत आंतरिक है। उसका आविष्कार मानसिक बौद्धिक, आत्मिक
स्तरों पर भी होता रहता है।
v यह सही है कि एकाध बार, भीष्म के सरसंधान से स्तंभित अर्जुन के समान
बड़े-बड़े सूरमा भी क्षण-दो क्षण के लिए स्तंभित हो सकते हैं और दूसरी ओर
क्षणिक आवेश में आकर प्रसंगोपात कायर भी प्रासंगिक वीरता प्रकट कर सकते हैं।
किंतु नियम रूप से यही कहा जा सकता है कि प्रासंगिक वीरता और स्थायी वीरवत्ति,
दोनों अलग अगल बातें हैं। कहा गया है कि समविचारी समूह के बीच कायर भी वीर बन
जाता है। किंतु कारागार में अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला के समान, विजनवासन में
मैंजिनी के समान या विषम लड़ाई में अकेलापन महसूस करते हुए भी बाजीप्रभू,
लिओनिडस या होराशिओ के समान वीरत्व कायम रखना अत्यंत कठिन है।
v ध्येयवाद के लिए प्रासंगिक वीरता नहीं, वीरवत्ति अभिप्रेत है।
v भट्ठी में परीक्षा सोने की ली जाती है, शीशे की नहीं। क्योंकि यह सर्वज्ञात
है कि शीशे का पिघल जाना निश्चित है।
v गुरिल्ला एक लड़ाकू नागरिक तो है, किंतु उसका प्रमुख हथियार बन्दूक या
षड्यंत्र नहीं, जनता से संबंध है।
v आतंरिक प्रचार से जनसमर्थन जुटाया जा सकता है, किंतु केवल प्रचार के आधार पर
समर्पित कार्यकर्ता तैयार नहीं किए जा सकते। इसके लिए क्रांतिकारी जनशिक्षण की
जरूरत होती है।
v जनप्रशिक्षण प्रचार से अलग है। प्रचार से उद्देश्य अलग-अलग स्तर पर जनता की
सहानुभूति प्राप्त करना तथा कम से कम जनता को उदारवादी और तटस्थ बना देना होता
है। जनशिक्षण लोगों को क्रांति की गतिविधि में बराबर का भागीदार बना सकता है
जबकि प्रचार ऊपर से नीचे तक सभी को एक दिशा में ही बढ़ाता है। जनप्रशिक्षण सतत
वार्तालाप की प्रक्रिया है।
v फ्रायर कहते हैं: "जो नेता लोगों से वार्तालाप नहीं करते, अपने निर्णय उन पर
थोपते हैं, वे उनका संगठन नहीं, केवल उनका उपयोग करते हैं। न वे स्वयं मुक्त
होते हैं न लोग, वे तो लोगों को दबाते हैं।"
v विशिष्टता और भिन्नता की भावना से ग्रस्त ऐसे लोग क्रांतिकारी नहीं होते। वे
भले ही सत्ता में आ जायें, किंतु ऐसी संवादहीन प्रक्रिया से आई क्रांति की
गुणवत्ता सदैव नहीं रहती है।"
v सभी क्रांतिकारी संघर्षों में एक महत्वपूर्ण तत्व है-समय। अन्ततोगत्वा किसी
शासन का पतन उसके अन्तर्निहित विरोधों के परिपक्व होने की गति बढ़ाते हैं,
किंतु प्रक्रिया पूर्ण होने में लम्बा समय लगता है।
v यशस्वी क्रांति के एक नेता ने कहा है। उनका धैर्य असीम था। वे दूसरों के
धैर्य खोकर निष्क्रिय होने और असफल हो जाने तक प्रतीक्षा कर सकते थे।"
v हर हिंसक क्रांति के पूर्व की घोषणाएँ और क्रांति के बाद के उनके
क्रियान्वयन में हमेशा गहरी खाई रही है। उदाहरणस्वरूप क्या किसी क्रांति ने आज
तक किसानों को दिए गए आश्वासन पूरे किए? किस क्रांति ने मजदूरों को उनके
कारखानों का मालिक बनाया?
v न्यू क्लास की प्रस्तुति में लेखक जिलास कहते हैं: साम्यवाद क्रांति के बाद
समाज में भी वे समस्त भेद और अन्तर्विरोध मौजूद हैं, जो अन्य राजाओं में होते
हैं। समाजवादी समाज केवल समता और बन्धुभाव के संवर्धन में ही असफल नहीं हुआ
है। पार्टी की साम्यवादी नौकरशाही के कारण समाज में सुविधाभोगी लोगों की एक
पर्त निर्माण होती है जिसे मार्क्स दर्शन के अनुसार ही मैं "न्यू क्लास"-नया
वर्ग कहता हूँ।
v क्रांति के पश्चात ही विचारधारा क्रांति के भाव को भूल जाती है, वह क्रांति
की संकल्पना की अवधारणा नहीं कर सकती, इसका कारण यह है कि क्रांति मूलत:
स्थायी संस्था का सृजन नहीं करती।
v अहिंसावादी क्रांतिकारियों की कार्य पद्धति पूर्णतया भिन्न होती है। उनका
प्रमुख शस्त्र आतंक नहीं, आत्मबल होता है। उनकी निष्ठा शुचिता में होती है। वे
इस बात को नहीं मानते कि यदि ध्येय अच्छा हो तो कोई भी साधन अपनाया जा सकता
है। अपनी अन्तिम अनिवार्य विजय का उन्हें दृढ विश्वास होता है। क्योंकि उनकी
धारणा में सत्य की (ईश्वर की) विजय होती ही है। वे मानते हैं। कि जो पराजित
होने से अस्वीकार कर देते हैं वे कभी पराजित नहीं हो सकते। सत्य के संघर्ष में
कोई असफलता नहीं होती।
v बेड़ियों में जकड़ा सत्याग्रही भी स्वतंत्र मनुष्य है। अपनी आत्मा को वह
अपनी कह सकता है, वह विरोधियों से भयाक्रांत नहीं होता। शत्रु उसका कोई होता
ही नहीं। वह विरोधियों से नहीं, विरोधी उनसे भयभीत रहते हैं। वह तो अकेला ही
खड़ा रह सकता है। किंतु हिंसक प्रतिरोधी को अपना सहकारी या अनुयायी जुटाना
पड़ता है।
v जनता का, जनता के लिए, और जनता के द्वारा अर्थात् वास्तविक क्रांति होती है।
ऐसी क्रांतियों के नेताओं के लिए संगठन का मतलब होता है उनका अपनी जनता के साथ
संगठन। वहाँ प्रक्रिया संवाद की होती है, संप्रेषण की नहीं। वे लोगों के मालिक
नहीं, लोगों के साथ हैं, रास्ता भले ही लम्बा हो, लेकिन यदि "वही एकमात्र
रास्ता है तो वही सबसे छोटा है।"
v शब्द एक मंत्र है। उसका सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक प्रयोग इष्ट फलदायी होता है।
v "सेक्यूलर" शब्द का प्रयोग हमारे देश में जिस अर्थ में किया जाता है, उस
अर्थ में दुनिया के दूसरे किसी भी देश में नहीं किया जाता। वस्तुतः "सेक्यूलर"
का अर्थ होता है "इहवादी" या "इहलोकवादी"।
v सैक्यूलर वैल्यूज फॉर सेक्यूलर इण्डिया" के प्रकाशन तक इस विषय पर लगातार
चर्चा होती आई है। "सेक्यूलरिज्म" का व्यावहारिक अर्थ बाइबिल" की भाषा में
"सीजर" (राजा) को वह दो, जो सीजर (राजा) का है; और "ईश्वर को वह दो जो ईश्वर
का है" अर्थात राजकर्म और धर्मकार्य को पृथक माना गया है।
v श्रीगुरुजी ने बार बार कहा है कि 'हिंदू इतिहास में राज्य सदैव
असाम्प्रदायिक रहा है। हिंदुओ का राज्य अर्थात् सेक्यूलर राज्य।'
v इहवादी, धर्मनिरपेक्ष और निधर्मी, ये तीनों शब्द पूर्णतः समानार्थक नहीं
हैं। उनकी अर्थच्छाया में अंतर है।
v यह स्पष्ट है कि राष्ट्र का प्राण संस्कृति है, कोई भी उपासना पद्धति इस
गरिमा को प्राप्त नहीं कर सकती। यदि उपासना पद्धति राष्ट्रीयता का आधार है तो
फिर दुनिया के सभी ईसाई देश मिलकर एक राष्ट्र क्यों नहीं बना सके? बल्कि हुआ
इसके ठीक विपरीत। इस शताब्दी के दो बड़े महायुद्ध ईसाई देशों ने ही अपने अपने
राष्ट्रीय स्वार्थो की रक्षा के लिए लड़े। यदि उपासना पद्धति राष्ट्रीयता का
आधार है तो फिर संसार के लगभग पचास मुस्लिम देश मिलकर एक राष्ट्र क्यों नहीं
बने? उल्टे अपने अपने राष्ट्रीय हित के लिये विभिन्न मुस्लिम देश आपस में
लड़ते आए हैं और आज भी लड़ रहे हैं।
v वास्तविकता यह है कि आज हरेक मुस्लिम देश अपनी-अपनी राष्ट्रीय संस्कृति के
आधार पर राष्ट्र बना है न कि इस्लाम के कारण। यही कारण है कि इंडोनेशिया के
लोगों ने मुस्लिम देश होते। हुए भी अपनी राष्ट्रीय हिंदू संस्कृति को अक्षुण्ण
रखा है।
v "हिंदू" का सर्वांगीण अर्थ हमारे 'प्रगतिशील' बंधु समझें या न समझें, किंतु
एक बात तो स्पष्ट है कि हिंदू कोई रेलिजन नहीं है। अतएव हिंदूओं का राज्य कभी
भी मजहबी राज्य का रूप धारण नहीं कर सकता। इसी कारण पूज्य श्रीगुरुजी ने कहा
है कि हिंदू और सेक्यलर राज्य, दोनों शब्द पर्यायवाची और समानार्थक हैं।"
v विश्व में ऐसे 22 राज्य हैं जहाँ विशिष्ट मान्यता प्राप्त चर्च का सदस्य ही
राज्य का प्रमुख बन सकता है। अर्जेन्टीना, साइबेरिया तथा ईरान में सरकारी
नौकरियों के लिए वहाँ के मान्यता प्राप्त मजहब का अबलंबी होना अनिवार्य कर
दिया गया है, फिर अन्तरात्मा की स्वतंत्रता का अर्थ क्या रह जाता है? उत्तरी
आयरलैंड के कैथोलिकों पर राजनीतिक उद्देश्यों से प्रोटेस्टेंट उग्रवादी हमले
करते रहते हैं, उन्हें ब्रिटेन के शासक वर्ग का समर्थन प्राप्त है।
v अमरीकी प्रतिनिधि सभा "कांग्रेस" का सत्र ईसाई प्रार्थना कहने के बाद
प्रारंभ होता है। केवल शासनाधिकारी ही नहीं, अपितु राष्ट्रपति भी जब अपने पद
की शपथ ग्रहण करता है तो उसे भी मजहबी शपथ लेनी पड़ती है। बयालिस देशों के
संविधानों की प्रस्तावनाओं में ईश्वर की प्रार्थना की गई है। कई देशों में
न्यायाधीश नास्तिक गवाहों के साक्ष्य स्वीकार नहीं करते, नास्तिकों को सरकारी
सेवाओं में भर्ती नहीं किया जाता।
v सन् 1986 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार अमरीका में सत्रह साल से अधिक
आयु वाले 16 करोड़ 60 लाख अमरीकियों में से 81 प्रतिशत खुद को ईसाई कहने में
गौरव का अनुभव करते हैं। उनमें से 62 प्रतिशत लोगों का ईसा के पुनरागमन पर
विश्वास है, 38 प्रतिशत लोगों का पुनर्जन्म पर विश्वास है, 43 प्रतिशत लोग
नियमित रूप से पूजा स्थानों में प्रार्थना करने जाते है।
v कई दशक तक कम्युनिस्ट शासित राज्य पोलैण्ड में पोप का स्वागत करने के लिए
देश के लगभग छह करोड़ लोग रास्ते पर आते थे। उनके "मास" सामूहिक प्रवचन में दस
लाख से अधिक लोग उपस्थित रहते थे। कम्युनिस्ट भूमि पर खड़े होकर पोप ने
भौतिकवाद अर्थात् कम्युनिस्टों के अधिकृत तत्वज्ञान की तीव्र भर्त्सना की थी।
खण्ड - 7
सोपान-
3
सोपान - 3 (मा. ठेंगड़ी जी के उद्बोधन/लेख)
1. व्याधि और उपचार
2. विकल्प
3. हमारा स्फूर्ति केंद्र
4. सोपान-3: प्रमुख बिंदु
सोपान - 3
व्याधि और उपचार
आज की व्याप्त व्याधि के कई कारण हैं। उनमें प्रथम और प्रबल कारण हमारा उस
व्यवस्था का स्थापन है जिसको हमारे संविधान ने प्रतिष्ठित किया। महान विचारको
ने व्यवस्था स्थापन से पहले यह मत प्रगट किया था कि हमको उक्त आशय क लिए
पाश्चिमात्य व्यवस्था का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए।
हमारे संविधान निर्माता इस तथ्य को भूल गए कि विश्वविद्यालय की किसी भी
परीक्षा में मेधावी विद्यार्थी के उत्तर की नकल करके अन्य विद्यार्थी परीक्षा
में उत्तीर्ण हो सकते हैं, क्योंकि सभी विद्याथियों के लिए प्रश्न-पत्रिका एक
ही रहती है। किंतु जैसा कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है, भगवान ने हर
एक देश के लिए अलग-अलग प्रश्न पत्रिका दी है और इस कारण किसी एक देश की उत्तर
पत्रिका की नकल करके कोई भी दूसरा देश भगवान की परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो
सकता।
महात्मा गांधी ने 1908 में ही "हिंद स्वराज्य" के माध्यम से कह दिया था कि
ग्रेट ब्रिटेन के जैसा पाश्चिमात्य लोकतंत्र का ढाँचा भारतीय परिस्थितियों में
अनुकूल नहीं होगा। आचार्य बिनोबा भावे और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी का मत था
कि राजनीतिक दलों की व्यवस्था देश की परिस्थितियों में अनुपयुक्त है। श्रद्धेय
श्री गुरुजी का विचार था कि केवल क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की व्यवस्था भारतीय
जनता की आकांक्षाओं को पूर्ण करने में असमर्थ है। व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की
प्रणाली, जो कि भारतीय परम्परा से समरस है, को क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व प्रणाली
के समान महत्त्व मिलना चाहिए, और व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को
क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व प्रणाली का पूरक बनाना चाहिए। उन्होंने इस उद्देश्य से
कई प्रस्ताव भी दिये थे। वह इस विचार के थे कि निचले स्तर पर चुनाव सर्वसम्मति
से होना चाहिए, न कि अल्पमत-बहुमत के आधार पर जिनको हाल में पश्चिम का अनुकरण
करने के कारण आधार बनाया गया। श्री एम.एन. राय ने आजादी के पहले ही यह चेतावनी
दी थी कि जनशिक्षा का प्रसार हुए बिना पाश्चिमात्य लोकतंत्र की पद्धति देश में
सफल नहीं होगी और इसीलिए यह चाहा था कि जनता की शिक्षा पर और अधिक बल दिया
जाए। उनका कहना था कि यह प्रक्रिया प्रदीर्घ हो सकती है और लोगों का धैर्य भी
टूट सकता है, किंतु यदि केवल इसी प्रक्रिया की ही उपादेयता है तो इसे सबसे कम
समय लगने वाली प्रक्रिया मानी जानी चाहिए। भारतीय संविधान के निर्माता डॉक्टर
अम्बेडकर भी संविधान की व्यवस्थाओं से पूर्णतया सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा था
कि संविधान में निर्मित विभिन्न विचारों एवं दृष्टिकोणों के समायोजन की मजबूरी
होने के कारण वे उसे ऐसा रूप नहीं दे सके, जैसा वे चाहते थे। यदि केवल उन्हें
ही अपनी इच्छा से संविधान के निर्माण का दायित्व दिया गया होता तो संविधान का
वह स्वरूप न होता जो आज है। यह बात सही नहीं है कि यदि बाबा साहब अम्बेडकर को
उनकी इच्छा के अनुसार संविधान बनाने का अवसर मिलता तो उनका संविधान
हिन्दुत्वनिष्ठों की इच्छाओं के अनुकूल पूर्णरूपेण हो जाता किंतु इसमें संदेह
नहीं कि उनके संविधान का स्वरूप आज के संविधान के संबंध में उन्होंने यहाँ तक
कहा कि यदि पाया गया कि यह संविधान अपेक्षा के अनुरूप खरा नहीं उतरता तो मुझे
इसको जनता के सामने जलाकर राख करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी।"
इस विषय में श्री पी. कोटेश्वर राव के उद्गार महत्वपूर्ण हैं। वे कहते हैं:
"हमारा संविधान न तो गांधीवादी है और न ही भारतीय। यह जनता का भी संविधान नहीं
है। यह असाधारण रूप से अनेक उलझनों से भरा है। इसके प्रावधानों में राष्ट्रीय
विशिष्टताओं और हमारे पूर्वजों की प्रतिभा की झलक भी दिखाई नहीं देती। यह समय
की गति से पिछड़ा हुआ है। इसका निर्माण करते समय अपनी भूमि से उपजी भावना का
उपयोग नहीं किया गया। अपने प्राचीन प्रतिभा से प्रेरणा नहीं ली गई। आम आदमी की
आवश्यकताओं एवं भावनाओं को अलंकारिक और खोखली बातों से छिपाया गया। इस संविधान
का निर्माण करने में आम आदमी सह भागी नहीं था। अपने देश की परिस्थितियों के
साथ उनकी प्रासंगिकता का विचार किए बिना पश्चिम के राजनीतिक, आर्थिक एवं
सामाजिक विचारों को आयातित किया गया। इसमें समुचित प्राथमिकताओं की सोच का भी
अभाव है। इसके अनेक भागों के पुनर्निरीक्षण की आवश्यकता है तो कुछ भाग तो
बिल्कुल निकाल देने योग्य हैं। अनेक भागों में नये प्रावधान जोड़ने की भी
आवश्यकता है। अतः अब वह महत्वपूर्ण समय आ गया है कि सभी बातों का वस्तुपरक
लेखा-जोखा किया जाए, साहसपूर्वक इस संविधान को रद्द कर दिया जाए और अपनी भूमि
में से उपजे पूरी तरह से एक समाजवादी और लोकतांत्रिक संविधान का निर्माण किया
जाए।"
हमारा संविधान भारत की भूमि की उपज नहीं है। इसी कारण हमारी भूतकालीन
परम्पराओं, वर्तमान अपेक्षाओं और भविष्य की आकांक्षाओं से असम्बद्ध है।
उदाहरणार्थ, संविधान के अनुसार हमारे लिए सरकार को चुनने की एक प्रणाली
स्थापित की गई है। यह प्रणाली ब्रिटिश प्रणाली की नकल है किंतु यहाँ की और
ब्रिटेन की परिस्थितियों में बहुत बड़ा अंतर है। यहाँ 44 करोड़ लोग पूर्ण
निरक्षर हैं, और 12 करोड़ लोग अर्द्ध-निरक्षर। जनसंख्या का 50 से 60 प्रतिशत
गरीबी की रेखा के नीचे है। उस देश में, जहाँ निरक्षरता और गरीबी का इतना
ज्यादा प्रभुत्व हो, वहाँ वेस्टमिनिस्टर (ब्रिटिश) ढंग का संविधान अधिक कारगर
नहीं हो सकता।
इसी तरह हमने देश काल की परिस्थिति का आकलन किए बिना अपने यहाँ पाश्चिमात्य
संस्थाओं का संस्थापन किया है, जैसे राजनीतिक दल नामक संस्था (Institution of
Political Party)। बहुत से लोग इस धारणा के हैं कि राजनीतिक दल नामक संस्था से
ही केवल सरकार को चुनने की व्यवस्था हो सकती है और वह पार्टी की व्यवस्था भी
वैसी ही हो सकती है जैसाकि ब्रिटेन की व्यवस्था है।
ग्रेट ब्रिटेन में राजनीतिक पार्टियों की आधार-भूमि विचारधारा है। यदि गौर से
देखा जाए तो वहाँ विचारधारा का अर्थ आर्थिक विचारधारा है और राजनीतिक
पार्टियाँ आर्थिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं। यही बात पश्चिमी यूरोप
के देशों-जर्मनी, फ्रांस, इटली आदि के लिए भी लागू होती है। इन देशों में समाज
की संरचना विविधतापूर्ण और बहुआयामी नहीं है। विभिन्न दलों में मुख्य अंतर
आर्थिक क्षेत्र में विद्यमान् रहता है, और इसी कारण वहाँ दक्षिण, वाम और मध्यम
(राइट, लैफ्ट, सेंटर) की शब्दावली का प्रचलन हुआ। राष्ट्रजीवन के अन्य
क्षेत्रों में भी लोगों में मतभेद होते हैं, किंतु वे न तो इतने तीव्र होते
हैं, न इतने मौलिक। ये मतभेद ऐसे होते हैं जिनका निपटारा राजनीतिक दल एवं
सत्ताधारी दल के हस्तक्षेप के बिना किया जा सकता है क्योंकि इन मतभेदों के
निस्तारण के लिए वहाँ अलग व्यवस्था और संस्थाएँ हैं।
किंतु हमारा समाज बहुआयामी और विविधतापूर्ण समाज है। अमरीका का समाज भी ऐसा ही
समाज है और हम पाते हैं कि अमरीका की। प्रमुख राजनीतिक पार्टियाँ आर्थिक,
वैचारिक दृष्टि पर आधारित नहीं हैं। उनका वर्गीकरण दक्षिण, वाम और मध्यमार्गी
पार्टी के रूप में नहीं किया जा सकता। वे केवल चुनाव यंत्र मात्र हैं। वे
चुनाव के समय शासन में आने के पश्चात् भावी कार्यक्रम की रूपरेखा जनता के
सम्मुख प्रस्तुत करके वोट माँगती हैं।
अमरीका अपेक्षाकृत नया राष्ट्र है। इस कारण अमेरिका के पास हमारी तरह ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि तथा अन्तर्निहित एकता के सूत्र नहीं हैं। हमारे देश में सांस्कृतिक
एकता की प्रबल धारा अनेकता को समायोजित करती है जबकि अमेरिका में अनेकता है,
किंतु वहाँ एकता की कोई धारा नहीं है। अनेकता के कारण जीवन के विभिन्न
व्यवहारों में विभिन्न मतभेद वहाँ प्रस्फुटित होते हैं किंतु उनके निस्तारण के
लिए अमरीकी नागरिक राजनीतिक पार्टियों से अपेक्षा नहीं करते कि वे उन्हें
सुलझाएँ, क्योंकि उसके लिए कई तरह की संस्थाओं (Institutional frame work) की
व्यवस्था बनाई गई है।
पश्चिमी यूरोपीय देशों में जहाँ जहाँ समाज विविधतापूर्ण नहीं है वहाँ राजनीतिक
पार्टियों से उन अंतर्गत समस्याओं के, जो आर्थिक क्षेत्र में नहीं आतीं,
निस्तारण की अपेक्षा बहुत कम की जाती है। परिणामस्वरूप वेस्टमिनिस्टरीय ढाँचे
वाली राजनीतिक पार्टी उन देशों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है।
किंतु अपने देश में विभिन्नताएँ तीव्र एवं गहरी हैं। इसलिए यहाँ
वेस्टमिनिस्टरीय ढाँचा प्रभावी रूप में कारगर नहीं हो सकता। यहाँ हम राजनीतिक
पार्टियों से सब क्षेत्रों की समस्याओं के निस्तारण की अपेक्षा रखते हैं।
ऐसी विविधता-पूर्ण समाज रचना के कारण निर्मित समस्याओं का विचार राजनीतिक दलों
के नेता हमारे यहाँ आज नहीं कर रहे हैं। समय और परिस्थितियों का दबाव भविष्य
में उन्हें इन मतभेदों की ओर ध्यान देने के लिए मजबूर करेगा।
उदाहरणार्थ, सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार की सीमा क्या हो, यह बहस का मुद्दा
हो सकता है। मानो, एक सौ लोग ऐसे हैं जो सोचते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र का
विस्तार होना चाहिए। अब यह आवश्यक नहीं कि इस विषय में जो सौ व्यक्ति एक ग्रुप
में हैं वे सब इस प्रश्न पर भी एक ही ग्रुप में रहेंगे कि बेलगांव महाराष्ट्र
में रहे या कर्नाटक में। सावजनिक क्षेत्र के विषय में एकमत रहने वाले लोगों
में से कुछ महाराष्ट्र के पक्ष में हो सकते हैं और कुछ कर्नाटक के। बेलगांव के
महाराष्ट्र में रहने के सभी पक्षधर रामजन्मभूमि के प्रश्न पर एक ही ग्रुप में
रहेंगे। यह भी अनिवार्य नहीं है। इस तरह अलग-अलग समस्याओं पर अलग-अलग ग्रपिंग
हो सकती है।
कुछ समय पूर्व ओमप्रकाश त्यागी ने धर्मान्तरण रोकने के लिए लोकसभा में एक
विधेयक पेश किया था। उसके बिल्कुल विपरीत आशय का एक विधेयक राम जेठमलानी ने
भारतीय जनता पार्टी के संस्थापन के पश्चात् पेश किया। कुछ लोगों ने उनमें से
एक विधेयक पसंद किया और कुछ लोगों ने दूसरा। यह भी निश्चित है कि यह मुद्दा भी
उठा होगा कि विधेयक वापस लेना चाहिए या नहीं अथवा श्री त्यागी या श्री
जेठमलानी को अपना विधेयक वापस लेने के लिए कहा जाए, क्योंकि विधेयक पार्टी
सिद्धांतों के अनरूप नहीं है। इसमें संदेह नहीं है कि पार्टी का अनुशासन
सर्वोपरि है और पार्टी की नीति का पालन होना ही चाहिए; किंतु यदि श्री
जेठमलानी की धर्मान्तरण पर अपनी कोई विचारधारा है तो क्या उनको, उसको प्रस्तुत
करने अथवा स्थापित करने से प्रजातंत्रीय शासन व्यवस्था के अंतर्गत रोकना उचित
होगा? वे एक राजनीतिक पार्टी के सदस्य हैं। उनके लिए क्या दल के अलावा कोई ऐसा
मंच हो सकता है जहाँ वे अपने विचारों का प्रस्तुतिकरण कर सकें? यदि उनका दल
उनके विचार से सहमत न हो तो क्या उन्हें उस विषय पर सदा के लिए चुप रहना
चाहिए, बावजूद इसके कि उनका विचार उनकी प्रबल भावनाओं के कारण हो?
इसी कारण कई तरह के मंचों की अलग-अलग विषयों के हेतु आवश्यकता है। चूंकि अपनी
समाज रचना विविधतापूर्ण है, इसलिए विविध संस्थागत ढाँचे होने चाहिए, जो कि
जनता पार्टी की अपेक्षाओं को पूरा करने तथा विविध विचारों को परिलक्षित करने
का माध्यम बन सके। यह सब राजनीतिक दल के एक ही छत्र के द्वारा नहीं हो सकता।
अतः अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में हमें संस्थाओं
का निर्माण करना होगा। यह विचारणीय है कि उनके नीति निर्धारक तत्व क्या हों?
मेरे विचार से पूजनीय श्री गुरुजी उक्त आवश्यकता की पूर्ति कर चुके हैं। अपने
ठाणे के भाषणों में उन्होंने आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा अन्य
सामाजिक संरचना के नीति निर्देशक तत्व हिन्दुत्व-विचारधारा के आधार पर
प्रतिपादित किए हैं। ठाणे में उनको सुनते समय मैं सचमुच कुछ भयभीत और अधीर हो
गया था। मुझे उनके नेतृत्व में उनके निर्देशन तथा उनकी विचारधारा की परिपक्वता
में अदम्य आस्था है फिर भी उनकी विचारधारा का हिन्दुत्व के आधार पर प्रतिपादित
सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य संरचना के तत्वों का द्वितीय औद्यौगिक क्रांति के
बाद के समय में प्रतिस्थापन हो सकेगा क्या? यह विचार मुझे व्यक्तिगत रूप से
अधीर कर गया था।
मुझे यह बताते हुए हर्ष होता है कि उन भाषणों के पाँच वर्ष के अन्तराल के
पश्चात् जब मैं यूगोस्लाविया गया तो मुझे एक सुखद आश्चर्य हुआ। अपने संविधान
में उन्होंने जो व्यवस्था प्रस्फुटित की, वह श्री गुरुजी के ठाणे में प्रकट
किए गए विचारों के काफी समरूप थी। मैं यह नहीं कहता कि यह बिल्कुल वैसी ही थी
किंतु काफी हद तक उससे मिलती थी। जब मैंने यूगोस्लाव पद्धति का अध्ययन किया तो
मुझे विश्वास हुआ कि श्रीगुरुजी के द्वारा प्रगट किए गए विचार आज के आधुनिक
समाज में व्यवहरित हो सकते हैं। अतएव अपने अतीत से नाता तोड़े बिना भी हम
आधुनिक हो सकते हैं, वह भी बिना पाश्चिमात्य पद्धति का पालन किए।
यह नहीं कहा जा सकता कि यूगोस्लाव प्रयोग सफल होगा कि असफल क्योंकि इस प्रकार
के प्रयोगों से सफलता और असफलता कई कारणों पर अवलम्बित होती है। किंतु यह
प्रशंसनीय है कि उन्होंने यह प्रयोग करने का साहस किया। उनका प्रयोग
श्रीगुरुजी की धारणाओं के इतना निकट है यह तथ्य अपने लोगों को राष्ट्रीय
पुनर्निर्माण के कार्य और अन्वेषण करने का बल और साहस दे सकता है।
इस तथ्य के अलावा राष्ट्रीय पुनर्रचना के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों को
समुचित संस्कार युक्त किया जाए। वे हर गतिविधि उनकी प्रमुखता, संस्थागत ढाँचों
से अधिक होनी चाहिए जो लोगों को संस्कारित करने की प्रक्रिया में सहायक है। इस
दृष्टि से हम भाग्यशाली हैं कि हमारे बीच परम पूज्यनीय डॉ. हेडगेवार जी का एक
महान व्यक्तित्व अवतरित हुआ। वे एक महान दूरद्रष्टा थे। डॉक्टर जी ने भारतीय
समाज की धड़कन को अनुभव किया तथा उसकी भविष्य की आवश्यकता की पूर्ति हेतु
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संस्थापन किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुख्य
अवधारणा शाखा में है, क्योंकि वह लोगों को उस रूप में संस्कारित करती है जिसकी
राष्ट्र को आवश्यकता है, अर्थात् ध्येयवादी व्यक्ति, सम्पूर्ण समर्पण, साध्य
के हेतु संकल्प तथा राष्ट्रीय चरित्रमय व्यक्ति।
इन सारे तत्वों का ध्यान रखते हुए यदि हम अपने को पाश्चिमात्य चकाचौंध से
मुक्त करके यथार्थ की धरती पर आ जायें, अपनी शक्तियों का प्रयोग भारतीय समाज
के लिए उचित संस्थागत ढाँचे के प्रस्फुटन में लगाएँ तथा लोगों को उन संस्कारों
से युक्त करें जो इस ढाँचे को सँभालने की क्षमता रखते हों तो हम समस्याओं का
निराकरण कर सकेंगे।
(
संकेत रेखा)
विकल्प
प्रत्येक चुनाव के बाद विद्यमान निर्वाचन पद्धति या राजनीतिक व्यवस्था के विषय
में बहस प्रारंभ हो जाती है। 1967 की संविद सरकारों के अनुभवों के कारण यह
चर्चा प्रारंभ हुई है कि वर्तमान पद्धति दोषपूर्ण तथा अक्षम है और देश के हित
की दृष्टि से यहाँ अध्यक्षीय पद्धति होनी चाहिए। 1975 के आपात्काल में भी यह
सुझाव सार्वजनिक चर्चा के लिए प्रस्तुत किया गया था। ब्रिटेन का अनुकरण करने
वाली हमारी निर्वाचन पद्धति में सीटों और वोटों में कोई सुसंगत अनुपात नहीं
रहता। ज्यादा मत प्राप्त करते हुए भी कम सीटों और कम मत प्राप्त करते हुए
ज्यादा सीटों का ढर्रा बना हुआ है। इस पद्धति के शिकार अलग-अलग दल बनते रहते
हैं और जो दल शिकार होता है वह तुरंत आनुपातिक प्रतिनिधित्व का सुझाव देता है।
यह भी एक कर्मकाण्ड बन गया है। इस तरह के सुझाव मौलिक चिंतन के फलस्वरूप नहीं,
स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में ही आते हैं।
आज की पद्धति से अगले चुनाव से अपनी सीटें कम न हों, यह सोचकर आनुपातिक
प्रतिनिधित्व का सुझाव देने वाले दलों ने क्या कभी यह सोचा है कि भारत एक
बहु-आयामी और विविधतापूर्ण समाज है, आनुपातिक प्रतिनिधित्व के कारण विभाजनकारी
तत्वों को बढ़ावा मिलेगा। विभिन्न संकीर्ण आधारों पर निर्मित छोटे दलों की
संख्या में वृद्धि होगी, राष्ट्रीय एकात्मता में शिथिलता आएगी, केंद्र तथा
राज्यों में अस्थिरता बढ़ जाएगी और इन सब बातों के फलस्वरूप कुछ समय पश्चात्
जनता अस्थिर लोकतांत्रिक सरकार की अपेक्षा स्थिर तानाशाही सरकार को पसंद
करेगी। अनेक आस्थाओं वाले विविधतापूर्ण समाज में यह सब होना स्वाभाविक है।
लेकिन प्रश्न यह है कि राष्ट्रपति पद्धति का सुझाव देने वाले व्यक्तियों ने भी
दूर की बात सोची है क्या? अनेक आवश्यकताओं के कारण निर्माण होने वाले
अन्तर्विरोधों को सुलझाने की क्षमता संसद से असम्बद्ध किसी राष्ट्राध्यक्ष में
हो सकती है क्या? मंत्रिमंडल और संसद के बीच उचित संबंध न रहा तो संसद के
विभिन्न छोटे-छोटे गुट अपनी संकीर्ण स्वार्थ की सिद्धि हेतु राष्ट्राध्यक्ष पर
दबाव लाने के लिए हर प्रयास करेंगे और उनके आपसी संघर्ष और भी बढ़ेंगे। इतनी
विशाल सभा जिनके हाथों में केन्द्रित की जा सके। ऐसे सर्वसामान्य व्यक्तित्व
वाले प्रभावी प्रत्याशी भी राष्ट्राध्यक्ष पद के चुनाव के समय इस विस्तृत देश
में कितने उपलब्ध होंगे? जिनके आकर्षक व्यक्तित्व की चर्चा होती है, उन पंडित
नेहरू का भी आकर्षण उनके अंतिम दिनों में कितना घट गया था, यह सभी को ज्ञात
है।
इस व्यवस्था में उपयुक्त प्रत्याशी का मिलना कठिन तो होगा, किंतु सबसे
महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे देश में यह पद्धति आई तो राष्ट्राध्यक्ष और
संसद दोनों में बार-बार संघर्ष निर्माण होंगे। संघर्ष, नियम और सामंजस्य की
अपवादजनक स्थिति होगी। मतलब यह कि गतिरोध की अव्यवस्था अधिक काल तक चलती
रहेगी।
ये सारी बातें समझने में ज्यादा कठिनाई नहीं होनी चाहिए, तो भी राजनीतिक
महापुरुषों द्वारा उपयुक्त सुझाव आते रहते हैं। इसका मतलब यह है कि दीर्घकालीन
विचार की क्षमता रखते हुए भी ये महापुरुष दीर्घकालीन विचार नहीं करते।
राष्ट्रनिर्माण का लम्बा विचार उनके सम्मुख नहीं है। उनके विचार केवल अगला
चुनाव और सत्ता प्राप्ति तक ही सीमित है।
किंतु इस तरह के सीमित, केवल चुनाव से जुड़े राजनीतिक चिंतन से देश का कारोबार
अधिक दिनों तक ठीक ढंग से नहीं चल सकता। समस्या के मूल तक जाने की आवश्यकता
है।
ब्रिटिश साम्राज्य के साथ दीर्घकालीन साहचर्य के कारण हमारे देश में यह भावना
निर्माण हुई कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे अच्छा नमूना ग्रेट ब्रिटेन का
है। गांधी जी ने 1908 में "हिंद स्वराज्य" में लिखा था कि ब्रिटेन का मॉडल
भारत के लिये अनुकूल नहीं रहेगा। 1914 में श्री अरबिन्द ने कहा था कि "बिटिश
पद्धति" की संसदीय प्रणाली हमारे देश के लिये उपयुक्त नहीं रहेगी। भारत जैसे
विशाल देश में हित-सम्बन्धों की सरकार (Govt. of Interests) ही कार्यक्षम हो
सकती है। पश्चिम में संसदीय लोकतंत्र की जो विभिन्न प्रणालियाँ प्रचलित हैं
उनके दोषों का विवरण पश्चिम के कई विचारकों ने किया था। प्रतिनिधिक-शासन
प्रणाली को प्रत्यक्ष लोकतंत्र में अधिकतम निकट लाने की आवश्यकता पश्चिम में
प्रतीत होने लगी थी और उसके उपाय की दृष्टि से प्रतिनिधि वापस बुलाने का
अधिकार जैसी कुछ योजनाएँ प्रस्तुत की गईं। पश्चिम ने यह अनुभव भी किया था कि
जनमत संग्रह इस खाई की पूर्ति करने में पर्याप्त मात्रा में सफल नहीं हो सकता।
लोकतंत्र की यशस्विता का मूल जनशिक्षा है कितु उन्हें यह भी अनुभव आया कि
शिक्षा की दिशा में राजनीतिक दल सक्रियता नहीं दिखाते। फ्रांस की राज्यक्रांति
के थोड़े दिन पूर्व रोबेस्पीयर ने कहा था कि "लोक निर्वाचित प्रतिनिधि यदि
चाहें तो जनता के विरोध में षड्यंत्र करते हुए लोकतंत्र को समाप्त कर सकते
हैं। मतपेटी में से तानाशाह का उदय हो सकता है।" इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हिटलर
के रूप में सबके सामने था। शासक दल का बहुमत यदि स्पष्ट न रहा, थोड़े ही मतों
के अंतर से यदि यह शासन में आया तो अपनी सत्ता कायम रखने के लिए उसे किस तरह
छलकपट की राजनीति का आश्रय लेना पड़ता है, उसके उदाहरण ब्रिटेन के संसदीय
इतिहास में उपलब्ध हो चुके थे। अफसर बनने के लिए तो कुछ न्यूनतम योग्यताओं की
आवश्यकता होती है किंतु मंत्री बनने के लिए तो कोई भी न्यूनतम योग्यता की
आवश्यक नहीं मानी जाती, इस अन्तर्विरोधपूर्ण दुष्परिणामकारी स्थिति की अनुभूति
भी पश्चिम में होने लगी थी।
यह बात केवल कम्युनिस्टों ने ही नहीं, बल्कि गैर-कम्युनिस्ट चिंतकों ने भी कही
थी कि चुनाव प्रणाली खर्चीली रही तो उसके फलस्वरूप राजनीतिक भ्रष्टाचार का
निर्माण होता है और लोकतांत्रिक सरकार पर पूँजीपतियों का प्रभाव अपरिहार्य बन
जाता है। यह बात भी लोगों के ख्याल में आने लगी थी कि निकट भूतकाल में निर्माण
हुई "राजनीतिक दल-संस्था" सामान्य नागरिक और लोकतांत्रिक शासन के बीच एक बाधा
के रूप में खड़ी हो जाती है, केवल क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व पर आधारित पद्धति
समाज के विभिन्न हित-समूहों का सम्यक् तथा संतुलित विचार नहीं कर सकती, इस
दृष्टि से व्यावसायिक प्रतिनिधित्व को मान्यता दी जाए, इस विचार का भी प्रचार
पश्चिम में प्रारम्भ हो गया था।
अपने देश में कुछ विचारकों ने भी भारतीय प्रकति, प्रतिभा तथा परामर्श के आधार
पर पाश्चिमात्य लोकतांत्रिक प्रणालियों का मूल्यांकन प्रारंभ कर दिया था।
ब्रिटिश प्रणाली में ही पलने के कारण लोकतांत्रिक निर्णय अर्थात् बहुमत-अल्पमत
की पद्धति से किए गए निर्णय की सार्वत्रिक धारणा को अस्वीकार करते हुए
सर्वसम्मति से हुआ निर्णय, अर्थात् लोकतांत्रिक निर्णय या अभिनव प्रतीत होने
वाला विचार कई चिंतकों ने प्रस्तुत किया था। लोकनायक जयप्रकाश, आचार्य बिनोबा
भावे, श्रीगुरुजी आदि इस चिंतनधारा के प्रवर्तक थे। श्रीगुरुजी का विचार था कि
यद्यपि आज एकदम विभिन्न स्तरों पर इस सिद्धांत को लागू करने में व्यावहारिक
कठिनाईयाँ आयेंगी तो भी निचले स्तर पर उसको लागू किया जा सकता है। इसके
फलस्वरूप उस स्तर पर लोगों की मनोवैज्ञानिक स्थिति में उचित परिवर्तन आएगा।
उपरिनिर्दिष्ट श्रेष्ठ चिंतकों के सामने ही श्री एम.एन. राय ने "राजनीतिक दल
संस्था" के विषय में अविश्वास प्रकट किया था और भारतीय चिंतकों को "अभिप्रेत
दल रहित लोकतंत्र" के विकास का प्रारंभ आज की दलीय लोकतंत्री अवस्था में करने
के हेतु आज के ढाँचे के अंतर्गत निम्न स्तरों पर जनसमितियों का गठन करने का
रचनात्मक सुझाव भी दिया था। (आगे चलकर निर्माण हुई मतदाता परिषदें तथा
जनसमितियों। की कल्पनाएँ इस सुझाव से सादृश्य रखने वाली हैं) श्रीगुरुजी ने
व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की कल्पना पर बल दिया और बताया कि इसका क्षेत्रीय
प्रतिनिधित्व के स्थान पर नहीं तो उसके लिए पूरक पद्धति इस नाते व्यावसायिक
प्रतिनिधित्व का सूत्रपात किया जाए।
किंतु इस तरह के किसी भी मौलिक बात पर ध्यान देने की फुर्सत हमारी संविधान
समिति को नहीं थी। इस संविधान समिति का चुनाव जनता में से 12 प्रतिशत लोगों ने
किया था और समिति का वैचारिक नेतृत्व करने वाले ब्रिटिश परम्परा से प्रभावित
थे। वे बहुत जल्दी में थे। अन्य लोगों की असहमति पर विचार करने के लिए समिति
के पास समय नहीं था। इतनी ही बात नहीं, संविधान समिति के नेताओं को कुछ समय के
लिए समिति के प्रमुख सच्चिदानंद सिन्हा तथा समिति के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र
प्रसाद के भी असंतोष पर ध्यान देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। अंग्रेज
सरकार ने अपनी साम्राज्य सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया
एक्ट, 1935 बनाया था। यह कानून 'बाँटो और शासन करो' की नीति को आगे बढ़ाने की
दृष्टि से विभाजनकारी तत्वों और प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने वाला था।
उसके भी कुछ अंशों को जल्दबाजी में स्वीकार करने में संविधान समिति को संकोच
नहीं हुआ। यह अनुमान लगाने के लिए पर्याप्त आधार है कि भारत की प्रकृति,
परम्परा और परिस्थितियों के अनुकूल यह संविधान बना है या नहीं, यह संदेह
संविधान निर्माताओं के सुप्त मन में था किंतु उन्होंने यह बताकर अपनी
अंतश्चेतना को सान्त्वना दी कि वे इस संविधान और उसके निर्माता नहीं।
एक बार संविधान स्वीकृति होने के पश्चात् एक पवित्र आलेख के नाते उसके प्रति
श्रद्धा रखना सभी नागरिकों का कर्तव्य था और सामान्य नागरिकों ने इस कर्तव्य
का निर्वाह भी किया किंतु राजनीतिक नेताओं की वृत्ति विचित्र है। एक ओर वे
उसके पावित्र्य को स्वीकार करते हैं और दूसरी तरफ अपने दलगत स्वार्थ की पूर्ति
के लिए इसमें बारंबार आसानी से संशोधन करने में संकोच भी नहीं करते। ये संशोधन
भी किसी दीर्घकालीन राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर नहीं किए जाते। तात्कालिक
दलगत स्वार्थ ही संशोधनों की प्रेरणा होते हैं। समस्या के मूल में जाकर
चिरस्थायी राष्ट्रहित के आधार पर व्यवस्था का विचार करने की इच्छा राजनीतिक
नेताओं में दिखायी नहीं देती। उनका समय क्षितिज चुनाव से चुनाव तक ही रहता है।
इस विषय पर मौलिक चिंतन करने वाले कुछ ही लोग थे। किंतु वे सक्रिय राजनीति में
नहीं थे और सक्रिय राजनीतिक नेताओं ने जो चिंतन किया वह मौलिक स्वरूप का नहीं
था।
राजनीति में रहते हुए और एक अखिल भारतीय दल का नेतृत्व करते हुए इस विषय पर
मौलिक चिंतन करने वाले एक ही महापुरुष हमारे मनश्चक्षु के सम्मुख आते हैं, वे
थे स्वर्गीय पंडित दीनदयाल उपाध्याय। राजनीतिक नेता और राष्ट्रनिर्माता दोनों
भूमिकाओं का निर्वाह सफलता पूर्वक करना अति कठिन कार्य है। वह कठिन कार्य
पंडित जी ने किया। वर्तमान ढाँचे के अंतर्गत एक राजनीतिक दल का दिन-प्रतिदिन
मार्गदर्शन करना, स्वस्थ तथा समर्थ संगठन खड़ा करना, हर स्तर पर समस्याओं को
सूक्ष्म अध्ययन करके राष्ट्रहित की चौखट के अंतर्गत उनके समाधान के लिए आंदोलन
चलाना, निर्वाचनों के समय दल की व्यूह-रचना करना, व्यक्तिगत संपर्क तथा
प्रशिक्षण वर्गो के माध्यम से आदर्शवादी कार्यकर्ताओं के समूह निर्माण करना,
आज की व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्रहित की दृष्टि से निकट भविष्य में क्या-क्या
किया जा सकता है इसका व्यावहारिक आलेख देश के सामने रखना, केवल अपने
अनुयायियों के ही नहीं, अपितु अन्य जनों के भी मन में श्रद्धा तथा विश्वास
निर्माण हो सके,
ऐसी स्वयं अपनी जीवन-रचना और सारी बातें उन्होंने यशस्वितापूर्वक की। इसी के
साथ-साथ विद्यमान स्थिति से ऊपर उठकर देश के लिए लाभप्रद दीर्घकालीन रचना का
भी विचार उन्होंने प्रारम्भ कर दिया था। द्विपक्षीय दृष्टि लेकर वे कार्यरत
रहे। दुर्भाग्य से ये सारे कार्य पूर्ण करने के लिए उनको पर्याप्त समय नहीं
मिला, तो भी अपनी अकाल मृत्यु से पूर्व वे विचारों की दिशा तथा प्रमुख सूत्र
निश्चित करने में सफल रहे।
स्वर्गीय पंडित जी का यह स्पष्ट विचार था कि आज का संविधान भारत की प्रकृति
तथा आवश्यकताओं की दृष्टि से अनुपयुक्त है। इसमें भारतीय समाज की विशेषताओं को
आंखों से ओझल किया गया है। यह विदेशों का अंधानुकरण है। इसके परिणामस्वरूप
जितनी समस्याएँ सुलझेंगी उससे अधिक समस्याएँ निर्माण होने वाली हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व कांग्रेस ने कुछ प्रस्तापव पारित किए थे, कुछ
वादे किए थे, जिनके कारण उसके लिए देश की शासन-प्रणाली संघीय रखना अनिवार्य हो
गया था। यह कहा नहीं जा सकता कि संघीय शासन प्रणाली के फलस्वरूप होने वाली
राष्ट्रीय हानि का विचार कांग्रेसी नेताओं ने ध्यान में रखा था या नहीं। यह भी
निश्चित नहीं है कि स्वयं अपनी इच्छा से या पहले दिए हुए आश्वासनों के कारण
उन्होंने संघीय प्रणाली स्वीकार की। जब यह चर्चा चल रही थी उस समय राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने चेतावनी दी थी कि संघीय प्रणाली
भारत के लिए हर दृष्टि से अनुपयुक्त और प्रतिकूल है। किंतु उस समय इस बात का
मर्म समझने की मनःस्थिति में राजनीतिज्ञ नहीं थे। एक तो जैसे पहले कहा गया, वे
बहुत जल्दी में थे। दूसरी बात यह है कि भारतीय विचारकों की भारतीय कल्पना का
मूल्यांकन यूरोपीय मापदंड में करने की उनकी आदत थी। पश्चिमी देशों में संघीय
तथा एकात्म शासन पद्धति का विचार उनकी ऐतिहासिक विकासक्रम की विशेषताओं के
कारण अलग ढंग से होता है, जो हमारे देश के लिए लागू नहीं हो सकता।
पश्चिम के राष्ट्र नये होने के कारण उनकी समस्या तथा उसका समाधान तुलनात्मक
दृष्टि से अधिक सरल हुआ करता है या कम से कम उन्हें वैसा प्रतीत होता है कि
जहाँ विभिन्न इकाइयाँ, जिनका पहले से स्वतंत्र अस्तित्व है, एकत्रित होकर एक
राज्य बनाना चाहती हैं, वहाँ हर एक इकाई की स्वतंत्र अस्मिता कायम रखते हुये
सबको एक सूत्र में लाने वाली शासन-प्रणाली संघीय नहीं हो सकती, जिसमें शासकीय
सत्ता का अधिकतम विकेन्द्रीकरण नीचे की मूल इकाईयों के पास रहे और केंद्र के
पास पूर्व निश्चित अल्पमत अधिकार रहे। संघीय प्रणाली के अंतर्गत आने वाला
राज्य ऐतिहासिक दृष्टि से एक ईकाई के रूप में एकात्मक नहीं हुआ करता जहाँ
राज्य के अंतर्गत आने वाला सम्पूर्ण प्रदेश ऐतिहासिक दृष्टि से एक ही इकाई रहा
हो वहाँ संघीय प्रणाली अप्रासंगिक हो जाती है। इसका मतलब होता है जैविक ईकाई
के जबरदस्ती टुकड़े करना। इसके लिए एकात्मक शासन प्रणाली ही उपयुक्त हो सकती
है, जिसके अंतर्गत सम्पूर्ण राज्य एक इकाई होने के कारण केंद्र में सत्ता का
अधिकतम केन्द्रीकरण स्वाभाविक रूप से हो जाता है। पश्चिमी देशों के विकास की
आज जो अवस्था है उसको देखते हुए ये दो उदाहरण उनके लिए अब तक पर्याप्त प्रतीत
होते हैं।
किंतु भारत जैसे प्राचीन सनातन परिपक्व राष्ट्र की समस्या का समाधान इन दोनों
विकल्पों से नहीं हो सकता। भारत हजारों साल से एक राष्ट्रीय ईकाई है। इसमें
राष्ट्रीय एकात्मकता है। भारतीयों ने पाश्चिमात्य के समान यह नहीं माना कि
एकता ही एकरूपता है। पश्चिम में एकरूपता को ही एकता का लक्षण मानते हैं। हमारे
देश में एकरूपता को विभिन्न ईकाइयों के स्वतंत्र प्रकृतिगत विकास में बाधक
माना गया। एकता के नाम पर एकमार्गीकरण का विचार भारत की प्रकृति के अनुकूल
नहीं है। बिल्कूल प्रारंभिक काल में भी भारत में एकात्मकता के साथ-साथ विपुल
विविधता थी। इस दृष्टि से अथर्ववेद का एक श्लोक इस परिस्थिति पर प्रकाश डालता
है।
जन विभ्रती बहुधा विवाचसंह
नानाधर्माणं पुथिवी यथोवसम्
सहस्रधारा द्रविणस्य में दुहाम
ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरंती॥
(अथर्व
12/1/45)
विविधता को विभेद के रूप में देखने की पाश्चिमात्य विचार पद्धति यहाँ नहीं थी
बल्कि इस के लिए आवश्यक होता है उतना समय नियति ने उन्हें नहीं दिया। किंतु
हमारे लिए यह भी सौभाग्य की बात है कि विचार का प्रमुख सूत्र तथा क्रियान्वयन
की निश्चित दिशा हमारे पूर्वजों को दृश्यमान विभेदों को विविधता के रूप में
देखने का अभ्यास था। एक ही ईकाई के विभिन्न अंग, विभिन्न सोच और प्रकृति के हो
सकते हैं, उनका विकास उनकी रुचि के अनुकूल होना चाहिए। इस तरह की विकसित
विविधता राष्ट्र की एकात्मकता का सौंदर्य तथा समृद्धि बढ़ाती है। इसके कारण
एकात्मकता का सूत्र शिथिल नहीं होगा। उसका सौंदर्य तथा ऐश्वर्य बढ़ेगा, इस
मनोधारणा से हमारे पूर्वजों ने ऐतिहासिक काल में राष्ट्रीय कार्य किया।
संस्थाओं की रचना की। जीवन के सभी क्षेत्रों में ऐसी संस्थाएँ निर्माण की,
जिनके कारण विविधता तथा एकता का हमें दर्शन हो सकता है। संघीय प्रणाली भारत की
प्रकृति तथा इतिहास के अनुकूल नहीं है। पश्चिम से प्रभावित विचारकों को अपने
अनुभव के आधार पर यह धारणा हुई कि जो शासन प्रणाली संघीय नहीं, वह एकतंत्री
होगी। मानो चयन दो अवस्थाओं में ही हो सकता है-या तो सत्ता के अधिकतम
विकेन्द्रीकरण के साथ संघीय प्रणाली रहे या सत्ता के अधि कतम केन्द्रीकरण के
साथ एकतंत्रीय प्रणाली रहे। यह विचार हमारी आवयश्यकताओं से मेल नहीं खाता,
क्योंकि जैसे हम संघीय प्रणाली को अनुकूल नहीं मानते, वैसे ही सत्ता का
केन्द्रीकरण और भारतीय संस्कृति साथ-साथ नहीं चल सकती।
पाश्चिमात्य ढंग से विचार करने वाले लोगों के सामने उपरिनिर्दिष्ट दो ही
विकल्प रहे हैं। किंतु हमारी विशेषताओं का विचार दोनों पद्धतियों में नहीं हो
सकता। स्वर्गीय पंडित दीनदयाल जी की यह विशेषता रही है कि उन्होंने भारतीय
प्रकृति, परम्परा और परिस्थिति के अनुकूल शासन प्रणाली का नया विचार सामने रखा
कि वह शासन प्रणाली एकतंत्री नहीं, एकात्मक होनी चाहिए। सम्पूर्ण देश एक ईकाई
है। इस मान्यता के आधार पर सत्ता के अधिकतम विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ ऐसी
एकात्मक शासन प्रणाली जिसमें केंद्र सरकार के अधिकारों का क्षेत्र सीमित रहे
और जितना अधिक संभव हो सके उतने अधिक विषय उसके अधिकार क्षेत्र से निकलकर नीचे
की ईकाइयों के हाथों में सौंप दिये जायें। नीचे की ईकाइयाँ अधिकतम अधिकारयुक्त
किंतु इस ढंग से नहीं कि राष्ट्रीय अस्मिता से कटकर उन्हें अपनी स्वतंत्र
अस्मिता का अभिमान होने लगे। नीचे की ईकाइयों के रूप में समान स्थानीय रूप-गुण
रखने वाले क्षेत्रों को ईकाई माना जाए।
सुविधा के लिए पंडित जी ने इसके लिए "जनपद" संज्ञा का उपयोग किया। समान
स्थानीय रूप-गुण के उदाहरण आज के लगभग हरेक राज्य में पाये जाते हैं। उनकी
कल्पना थी कि आज के मध्य भारत, महाकौशल, छत्तीसगढ़ या आध्र में तेलंगाना और
रायलसीमा, महाराष्ट्र में विदर्भ, मराठवाडा, कोंकण, बम्बई और शेष महाराष्ट्र
आदि इस तरह के लगभग पचास-पचपन जनपद स्वाभाविक रूप से बनेंगे। इन जनपदों का
स्वयं शासन रहे। वित्तीय और शासकीय अधिकार उनके अधिक रहें। सबसे छोटी ईकाई
अर्थात् ग्राम के साथ सीधा संबंध रखना जनपद शासन के लिए अधिक संभव होगा। सीधे
और प्रत्यक्ष संबंध के कारण आज की शासन पद्धति में दिखने वाली कई त्रुटियाँ
समाप्त हो जायेंगी। केंद्र के अधिकार क्षेत्र से कौन से विषय आसानी से हटाए जा
सकते हैं, यह भी सोचने का एक विषय था। शिक्षा, स्वास्थ्य आदि विषय किसके
अधिकार में रहे, यह भी प्रश्न उनके मन में था अर्थात वे मूल कल्पना को
व्यावहारिक विवरण के साथ धीरे धीरे अन्तिम रूप में रख रहे थे। यह सही है कि
अपनी कल्पना की रूपरेखा विकसित करने के लिए जितना समय किसी भी विचारक को चाहिए
अपने महानिर्वाण के पूर्व उन्होंने हमें प्रदान की। आखिर किसी भी कल्पना की
रूप रेखा पहले से तैयार हो भी नहीं सकती। क्रियान्वयन की अवस्था प्राप्त होने
के पश्चात् पूर्व निश्चित मार्गदर्शन सिद्धांतों के आधार पर क्रियान्वयन करने
वाले रूप रेखा उत्क्रान्त करते हैं।
क्रियान्वयन की प्रक्रिया में यही व्यावहारिक है तो भी इसके लिए मार्गदर्शन
सिद्धांतों का अस्तित्व अनिवार्य है। उसके अभाव में दिशा निश्चित नहीं हो सकती
है और फिर उसके अभाव में रूपरेखा किसकी विकसित करेंगे? जो मार्गदर्शक सिदंधांत
पण्डित जी ने हमें स्पष्ट रूप से दिये हैं, उनके प्रकाश में उस कल्पना को
विकसित करना उनके उत्तराधिकारियों की जिम्मेदारी है। किंतु इतना निश्चित रूप
से कहा जा सकता है कि सत्ता के अधिकतम विकेन्द्रीकरण के साथ एकात्मक शासन
प्रणाली की अभिनव तथा पश्चिमी विचारकों को आश्चर्यजनक लगने वाली कल्पना पंडित
जी देश के सम्मुख न करते तो भावी राष्ट्र निर्माताओं को हमारी दृष्टि में
अनुपयुक्त तथा दोषपूर्ण प्रणालियों में से किसी एक को चुनना पड़ता। आज की
दोषपूर्ण शासन प्रणाली का विकल्प एक स्वस्थ तथा देश की प्रकृति के अनुकूल शासन
प्रणाली ही हो सकती है, यह स्वर्गीय पंडित जी की भावी राष्ट्र निर्माताओं के
लिए एक महान देन है।
आज जब राजनीतिज्ञ अनायास इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि वर्तमान दोषपूर्ण है तो
यह अच्छा होगा कि केवल तात्कालिक सुविधा-असुविधा का विचार न करते हुए समस्या
की तह में जाकर उस पर आमूलाग्र विचार करके वैकल्पिक प्रणाली के विषय में गहराई
से चिंतन करें। इस कार्य में स्वर्गीय पंडित जी के विचार महत्वपूर्ण योगदान कर
सकते हैं।
(संकेत रेखा)
हमारा स्फूर्ति केंद्र
अतीत के कारण ही हमारा राष्ट्र जीवित है। परंपरा से नब्बे करोड़ अंत:करणों का
मार्गदर्शन करने वाला अपना एक प्रतीक है। ऐसा प्रेरणादायी वह प्रतीक है जिसके
रहने पर पूरे समाज के किसी भी व्यक्ति को कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
वह राष्ट्रतत्व अपना भगवा ध्वज है। यह ध्वज जो बातें प्रकट करता है, वे हमारे
राष्ट्र की प्राण हैं। यह झंडा हमारी संस्कृति के मूल तत्वों का दर्शन कराता
है।
प्राचीन समय में हमारे यहाँ अग्नि की उपासना होती थी। उस पवित्र यज्ञ की
ज्वाला का वर्ण और आकार लेकर झंडा बनाया गया। उसको कंधे पर डाल कर संन्यासी
चलते थे। धीरे-धीरे उस रंग का कपड़ा पहनना भी प्रारंभ कर दिया। वे अपने आचरण
द्वारा लोगों को सार्वभौमिक तत्वों से परिचित कराते रहे। संकट के समय में भी
इन संन्यासियों के कारण राष्ट्र कायम रहा। धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए
प्राणों की आहुति देने वाले क्षत्रिय इस झंडे को लेकर चलते थे। इस प्रकार
वीरों ने, साधुओं और बलिदानियों ने इस भगवा रंग को अपनाकर भारत के घर-घर में
पहुँचा दिया।
इस झंडे का यह संदेश है कि मनुष्य जीवन त्यागमय, पवित्र, वैराग्ययुक्त व
संयमयुक्त हो। अतीतकाल से हमारा राष्ट्रीय जीवन इन्हीं तत्वों को लेकर बना है।
कोई राष्ट्र दुनिया में सेना भेजकर विजय प्राप्त करने के लिए होता है, किसी
राष्ट्र का जीवन व्यापार और संपत्ति प्राप्त करना है तो किसी का कला के द्वारा
सौंदर्य का आस्वाद करना है। पर हमारे राष्ट्र का प्राण तत्व मानव जीवन को पशु
जीवन से श्रेष्ठ बनाने का है। सहिष्णुता, उदारता, पवित्रता, संयम व सेवाभाव
तभी उत्पन्न हो सकता है जबकि हम विश्व की एकात्मकता का अनुभव करें। एक ही
आत्मतत्व घट-घट में भरा हुआ है। मनुष्य में ही नहीं अपितु सभी प्राणियों में
यही एक चैतन्य तत्व निहित है। ऐसे विचार हमारे राष्ट्रीय जीवन में रम गए।
वेदों के अध्ययन और संन्यासियों के आचरण से जो इस प्रकार की प्रेरणा प्राप्त
होती रही, उसका प्रतीक यह भगवा ध्वज ही है। यह हमें निष्काम काम की ओर ले जाता
है। अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों का प्रतीक यह ध्वज है।
शेष ध्वजों में यह सामर्थ्य नहीं। हमारा यह सौभाग्य है कि संस्कृति के आधारभूत
गुणों को आत्मसात कर जीवन बिताने वाले लाखों संन्यासियों ने इस रंग के कपड़े
को स्वीकार कर इस अखंड यज्ञ की भावना को जागत रखा। आज अनपढ से अनपढ भी यह समझ
लेता है कि यह कार्य स्वार्थ का नहीं, अपितु धर्म का, पवित्रता का, संयम का व
सबकी भलाई का है। यह झंडा केवल संन्यासियों का पारमार्थिक ही नहीं अपितु ऐहिक
और पारमार्थिक दोनों का मार्गदर्शन करने वाला प्रतीक है। उदयकालीन सूर्य की
आभा को प्रकट करने वाला और सबको प्रकाश देने वाला यह झंडा है।
भगवा ही राष्ट्रीय ध्वज है।
भारत भूमि की हर एक संतान 'भगवा' को अपना राष्ट्रीय निशान मानती है। भौतिकवादी
पश्चिम में राज्य समाज को प्रभावित करता है। धर्म के इस देश में समाज, राज्य
को प्रभावित करता रहा है। भारत में कभी भी सर्वग्राही राज्य नहीं रहा। अपने
व्यक्तिगत या समूहगत स्वार्थो की रक्षा के लिए राजकीय सूत्रों को भी स्वाधिकृत
करने की कामना न रखने वाले दार्शनिकों एवं संतों द्वारा निर्मित सामाजिक विधान
के संरक्षण का कार्य राज्य द्वारा होता था। स्वयं राज्य का शासन भी उसी विधान
से होता था। उस विधान से राज्याधिकारियों को हटते देखकर समस्त समाज तुरंत ही
विरोध करता था। राज्याधिकारियों के ऐसे कृत्य की धर्म विरोधी कर्म के रूप में
आलोचना की जाती थी। लोकापवाद को कठिन दण्ड माना जाता था और समाज के शस्त्रागार
में सामाजिक बहिष्कार अति प्रबल हथियार था। प्रत्येक राजा या सम्राट अपना पृथक
राजकीय ध्वज निर्धारित करने को स्वतंत्र था, किंतु किसी भी राजकीय ध्वज को
राष्ट्रीय ध्वज भगवा ध्वज की पवित्रता नहीं प्राप्त हो सकती थी। यद्यपि यह बात
सत्य है कि भगवा ध्वज में ही विभिन्न चिन्ह देकर शासक गण उसे अपना राज्य ध्वज
बना लेते थे। इसका कारण था राज्य पर समाज का प्रभाव होना। उदाहरणार्थ- हरिहर,
बुक्क या प्रतापरुद्र एवं छत्रपति शिवाजी ने इसे अपना ध्वज माना था, क्योंकि
स्मृति से परे के काल से यह राष्ट्रध्वज के रूप में मान्य रहा। कोई यह नहीं कह
सकता कि भारत के प्रथम शासक इंद्र का भी ध्वज भगवा नहीं था। इन परिस्थितियों
में यह स्वाभाविक बात थी कि देशव्यापी विभिन्न राज्यों के नागरिक गर्व के साथ
राष्ट्रीय भगवा ध्वज के सम्मान में अपने-अपने राज्यों के ध्वजों को भी फहराया
करते थे।
विश्व संस्कृति का प्रतीक-
'
भगवा ध्वज
'
शासकों का सम्मान अपने ही राज्य की सीमा में होता था। परंतु गेरुआ (भगवा)
वस्त्रधारी संन्यासी समस्त राज्यों के निवासियों के सम्मान का अधिकारी था,
संन्यासी यथार्थ में विश्व का नागरिक था। 'स्वदेशो भवनत्रयम्।' इसी कारण उसे
सार्वभौम आदर प्राप्त था। यह एक महत्वपूर्ण बात है कि संन्यासियों ने गेरुआ
रंग को अपना प्रतीक बनाया। संन्यासियों के ही सदृश इस देश का राष्ट्रभाव भी
अन्तर्राष्ट्रीयता के रूप में प्रकट होने वाले विश्व संस्कृति के प्रतीक के
रूप में भगवे ध्वज को अपनाया गया है। अतः राष्ट्रीयकरण जिसका अर्थ श्रमिक
क्षेत्र तथा औद्योगिक संबंधों का मानवीकरण होता है, उस अर्थ को चरितार्थ करने
के लिए कृत संकल्प भारतीय मजदूर संघ द्वारा परंपरागत भगवाध्वज को अपने पथ
प्रदर्शक एवं स्फूर्तिदाता के रूप में मानना सर्वथा स्वाभाविक है।
धर्म की दृष्टि से वाह्य दबाव नहीं अपितु कर्तव्यपरायणता की आंतरिक भावना ही
अधिकतम उत्पादन के प्रयास के लिए आवश्यक आधार व योग्य स्रोत है। भगवाध्वज के
धर्मराज्य में प्रत्येक व्यक्ति मनुष्य के लिए संभव सीमा तक प्रयास करता है
क्योंकि इसी से धर्मपथ का पालन होता है। उसमें यह भी विधान किया गया है कि
उत्पादन रूप कर्तव्य करने में मनुष्य फल की आकांक्षा न रखे और यह कि अपनी
उत्पादित समस्त सामग्री को समष्टिगत भगवान के चरणों में अर्पण कर दे। अस्तु इस
प्रक्रिया में किसी मानवी तंत्र को यह अधिकार नहीं दिया गया है कि जिससे कोई
व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार अधिकतम परिश्रम करने को विवश किया जा सके।
इसके विपरीत प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छा से समाज को अपने अधिकतम परिश्रम का फल
समर्पित कर देता है।
इसके अतिरिक्त कोई ऐसा भी तत्व नहीं दृष्टिगत् होता जो हरेक व्यक्ति की
आवश्यकता के अनुसार वितरण करने का कार्य कर सके। धर्मराज्य में समष्टि को
समर्पित करने के पश्चात् शेषांस को व्यक्ति भगवत्प्रसाद समझ कर ग्रहण करता है
अर्थात् धर्मराज्य के नागरिक यज्ञशिष्टाशन करने वाले होते हैं।
श्रीकृष्णार्पणमस्तु' की एकमात्र भावना ही भारतीयों के समस्त उत्पादन प्रयासों
में सन्निहित रहती है। 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः', इन उपनिषदीय वाक्य में
भारतीयों के अंत:करण की वह भावना प्रतिफलित हुई है जिससे वे समाज से कोई वस्तु
ग्रहण करते हैं। व्यक्ति को स्वयं शासित कर्त्तव्यपरायण भक्त बनाकर धर्म एक ओर
लाभ उठाने की प्रवृत्ति, प्रतियोगिता और शोषण का उन्मूलन करता है, दूसरी ओर
दबाव और सत्तावाद को भी समाप्त करता है।
भारतीय समाज व्यवस्था ही सर्वश्रेष्ठ
धर्म के ऊपर आधारित यहाँ की समाज व्यवस्था विदेशियों की सहस्रवर्षीय घोर
विध्वंश प्रयासों के बावजूद भी बनी ही रही। ग्यारह सौ वर्षों से भी अधिक काल
तक भारतीयों के युद्धरत रहने के कारण इस व्यवस्था में यत्र तत्र कुछ बुराइयाँ
प्रविष्ट हो गई हैं किंतु मुख्य ढाँचा अब भी दृढ़ है। इसके विपरीत पूँजीवादी
ढाँचा दो सौ वर्षों का भी दबाव बर्दाश्त न कर सका तथा समय समय पर प्रकट होने
वाले आंतरिक विद्रोह एवं लौहावरण के पीछे होने वाले विशाल नर-संहार के द्वारा
यह प्रकट होता है कि लेनिन निर्मित भवन भी चालीस वर्षों में ही लड़खड़ाने लगा
है। (ध्यान रहे यह पुस्तिका 1962 में लिखी गई थी)
मार्क्स ने भारतीय व्यवस्था की स्थिरता को गतिहीनता समझने की भूल की है। उसमें
भारतीय मनोविज्ञान एवं समाज व्यवस्था के अध्ययनार्थ आवश्यक धैर्य का अभाव था।
भारतीय व्यवस्था की जाँच किए बिना ही उसने अपना निष्कर्ष निकाल लिया है। बाद
में जाँच-पड़ताल में प्राप्त होने वाले तथ्यों को इस प्रकार व्यवस्थित कर दिया
गया है कि वे पूर्व में ही निर्मित सिद्धांतों के उपयुक्त हो जाएँ। इस
कल्पनात्मक प्रवृत्ति के कारण ही मार्क्स हिंदू व्यवस्था के सही दृष्टिकोण को
प्राप्त करने में असमर्थ रहा। अपने इस अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के ही कारण
मार्क्स ने हिंदू विचारों एवं संस्थाओं का जो मूल्यांकन किया, वह दोषयुक्त हो
गया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि वह हिंदू के आंतरिक सामर्थ्य एवं
योग्यता को समझ पाने में बुरी तरह विफल हुआ। क्या उसे कभी यह कल्पना हुई होगी
कि उसके सपने की वर्गविहीन एवं राज्यशून्य अवस्था एक नित्य परिवर्तनशील
व्यवस्था होगी अर्थात् उसकी कल्पित व्यवस्था अव्यवस्था ही होगी क्योंकि उसकी
कल्पित 'कम्युनिज्म की उच्च अवस्था' स्थायित्व प्राप्त करती है तो उसे
गतिशून्य ही कहा जाएगा। यह एक उल्लेखनीय बात है कि समस्त विद्रोहों का
सम्पूर्ण सफाया करने वाले छत्तीस वर्षों के निरंतर सर्वग्राही शासन के बावजूद
रूसी नेताओं को स्टालिन की मृत्यु के पश्चात् अव्यवस्था फैलने का भय बना रहा।
अनेक राजनीतिक झंझावातों का सामना करने वाली हिंदू समाज-व्यवस्था इस परिस्थिति
का अपवाद है। राज्यों का उदय-अस्त होता रहा किंतु भारतीय समाज व्यवस्था सनातन
रूप से बनी रही। किसी राजनीतिक उथल-पुथल से इसका आधार अछूता ही रहा। यह
अर्थसत्ता या राज्यसत्ता के ऊपर निर्भर नहीं, अपितु व्यक्ति एवं समाज के
स्वेच्छाजन्य धर्मनिष्ठा के ही ऊपर आधारित है। पूँजीवाद की प्रमुख विशेषता है
'भ्रष्ट प्रतियोगिता' कम्युनिज्म की विशेषता है 'दमन' किंतु धर्म की विशेषता
है 'प्रबुद्धता'। प्रबुद्धता की दृढ़ता ही मानव कल्याण के लिए धर्म की मुख्य
देन है।
पांथिक संकीर्णता का धर्म भावना से कोई संबंध नहीं। सभी सामाजिक, आर्थिक,
राजनीतिक एवं सांस्कृतिक समुदाय अपने प्रयोजन के अनुकूल ध्वज को मान्यता
प्रदान करते हैं। अन्य अनेक वस्तुओं में ध्वज द्वारा ही अन्य मानवों से कोई एक
समुदाय भिन्न रूप से परिलक्षित होता है। प्रतिनिधि के रूप में ध्वज किसी एक
समुदाय के समस्त घटकों को प्रकट करता है एवं उस समुदाय के घटकों की भिन्न
तत्वों से उस विशिष्ट समुदाय की पृथकता द्योतित होती है। बौद्धिक रूप से ध्वज
द्वारा उन सभी विचारों एवं आदर्शों की अभिव्यक्ति होती है, जिन्हें ध्वजग्राही
समुदाय अंगीकार करता है। साथ ही इसके द्वारा अब उतने ही प्रभावी रूप से अन्य
विचारों एवं आदर्शो का निषेध भी हो जाता है। किसी एक मत का प्रतीक होने पर यह
अन्य मतों से स्वयं ही भिन्न हो जाता है।
अस्तु, प्रचलित समस्त पताकाएँ सामुदायिक ही हैं, न कि अंतर्राष्ट्रीय। यद्यपि
सभी को अंतर्राष्ट्रीयता का विरोधी नहीं कहा जा सकता, तथापि ऐसी पताकाओं को
सामुदायिक ही कहा जाएगा जो अंतर्राष्ट्रीयता के असांप्रदायिक मत का पूरक सिद्ध
होने वाले किसी आदर्श का प्रतीक न हों। दुर्भाग्यवश जीवन के समस्त क्षेत्र में
पंथानुगामिता बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय धर्म के रूप में
नाजीवाद, फासिस्टवाद, सैनिकवाद का उदय हो रहा है। यह आशा की जाती थी कि इन
राष्ट्रीय मतों के घेरे में बाहर इस प्रकार के अलगाव की भावना का अभाव होगा
क्योंकि शैववाद, वैष्णववाद, जैनमत या बौद्धमत आदि गैर सेमिटिक धर्मो ने इस
अपवाद का समर्थन किया था किंतु ईसाइयत, इस्लाम और कम्युनिज्म-इन तीन सेमिटिक
धर्मो के दुराग्रह और असहिष्णुता ने यह प्रकट कर दिया है कि अनियंत्रित पंथवाद
कितना अंधेर कर सकता है।
भगवाध्वज सत्तात्मक धर्म का प्रतीक है। अग्नि के प्रति ताप एवं प्रकाश की जो
स्थिति है वही स्थिति विश्व के लिए धर्म की है। धर्म कोई वाद या मत नहीं होता
अपितु प्रत्येक वाद एवं मत का समावेश धर्म में होता है। अपनी सीमा में रहते
हुए प्रत्येक वाद कोई न कोई हितकर प्रयोजन सिद्ध करता है, किंतु सीमा के बाहर
उस बाद का हास एवं विनाश निश्चित हो जाता है। किसी वाद में पायी जाने वाली
संकीर्णता का धर्म भावना से कोई संबंध नहीं है। समस्त संसार के लिए किया गया
कोई भी पांथिक दावा स्पष्टतया उपहासपूर्ण होता है। क्योंकि एक ही समय में
विभिन्न समाज को भिन्न-भिन्न प्रकार की परिस्थितियों एवं समस्याओं का सामना
करना पड़ता है। अभी तक किसी भी ऐसी औषधि का आविष्कार नहीं हुआ है जो विभिन्न
प्रकार के समस्त रोग को दूर कर सके। कोई भी वाद सर्वथा निष्प्रयोजन नहीं है,
किंतु किसी भी वाद को हर समय एवं हर स्थान पर लागू नहीं किया जा सकता। कोई भी
वाद जब तक मानव हित को अग्रसर करने वाला रहता है। उसे धर्म का ही प्रकट रूप
कहा जाएगा। किंतु उपयोगिता समाप्त होने के पश्चात् उसका बना रहना धर्म के हित
का विरोधी होता है। टेनिसन की प्रसिद्ध पंक्तियों में किञ्चित परिवर्तन करके
धर्म और विभिन्न वादों का अंतर बतलाया जा सकता है। यथा-
"Old ism changes yielding place to the new and Dharm fulfils itself in many
ways, Lest One good ism should corrupt the world."
एकमात्र धर्म ही अंतर्राष्ट्रीय तत्व है
किसी भी समय व स्थिति में एकमात्र धर्म ही इस बात की गारंटी दे सकता है कि
व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय, मानसिक एवं आध्यात्मिक आदि
स्तरों के विविध मतों की उपयुक्त सुरक्षा होगी। समाज के प्रत्येक अवयवों के
लिए धर्म में मत संबंधी स्वतंत्रता होती है। सभी व्यक्तियों के प्रथम प्रवण
होने पर किसी भी व्यक्ति की पांथिक स्वाधीनता से दूसरों की स्वाधीनता का
संघर्ष नहीं होने पाता। धर्म के प्रभाव में कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का
समुदाय अपने से भिन्न संप्रदाय के नियमों के प्रति न केवल सहिष्णु होता है
अपितु उन नियमों के गुण की परख भी करता है। यह निश्चित है कि सभी पंथ एक ही
धर्म के विविध रूप हैं। उनके परस्पर भिन्न प्रतीत होने का कारण यह है कि वे
विभिन्न देश काल और पात्रों के लिए प्रकट हुए हैं। धर्म में सभी वादों अर्थात
मतों का अन्तर्भाव हो जाता है। संकुचित प्रवृत्ति वाले सेमेटिक मतों का भी
इसमें समावेश होता है, किंतु और सेमेटिक पंथों के तुल्य पद की प्राप्ति हेतु
सेमेटिक मतों को अपनी पांथिकता का त्याग करना पड़ेगा।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि एकमात्र धर्म ही अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञान है।
किसी भी पंथ को वह अनुपम पद नहीं प्राप्त हो सकता है, यद्यपि प्रत्येक पंथ में
किसी न किसी अंश में निश्चित ही विशेषता होती है। किसी भी मत का तब तक आदर
करना चाहिए जब तक वह धर्म का आदर करता रहे। इस प्रकार किसी भी मत एवं धर्म में
विरोध की कोई गुजाइश नहीं है। प्रत्येक आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक
मतों के ध्वज का आदर तभी करना चाहिए जब वे सार्वभौम धर्म के ध्वज का आदर करते
हों। वेदों से लेकर कम्युनिज्म तक के समस्त अनुयायी निस्संदेह अपने ध्वज का
शुद्धभाव से आदर करने के कारण प्रशंसनीय हैं, किंतु यदि वे उसी के साथ
विश्वधर्म के ध्वज की वंदना करते तो वे अपने मत के ही विरुद्ध कार्य करने के
दोषी होते हैं।
राज्य ध्वज के पास मार्चपास्ट करते समय सेना की विविध टुकड़ियाँ गर्वपूर्वक
विभिन्न रंगों की अपनी पताकाएँ फहराती हैं। सार्वभौमिकता के इस ध्वज का आदर
करके समस्त वादों के अनुयायी अपनी पताकाओं की प्रतिष्ठा ही बढ़ाएंगे।
विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर के शब्दों में"
ध्वजा करि उड़ाइबो बैरागीर उत्तरीबसन दरिद्रेर बल।
एक धर्मराज्य होबे एक भारते एक महावचन कोरिबो संबल।।"
हमारा राष्ट्रध्वज
सभी जानते हैं कि जहाँ-जहाँ राष्ट्र होता है, वहाँ-वहाँ राष्ट्रध्वज भी रहता
है। बिना राष्ट्र के ध्वज नहीं और बिना ध्वज के राष्ट्र नहीं होता। यह बहुत
बार कहा जाता था कि भारत राष्ट्र है ही नहीं। इसका कारण यह भी रहा कि लोगों को
उसका ध्वज दिखाई नहीं देता था। अंग्रेजी शिक्षा से जो एक दुर्बुद्धि हमारे
यहाँ फैली, इसके कारण मंदिरों पर उड़ने वाले इस ध्वज को हमने 'रिलीजस फ्लैग'
समझा। अंग्रेजों ने इसके विरुद्ध प्रचार किया और कहा यह तो पारमार्थिक झंडा
है, साधु संतो व मठ-मंदिरों का झंडा है तथा इसका संबंध ऐहिक कर्मो से नहीं है।
हम भी सोचने लगे कि इसका संबध राष्ट्र-जीवन से नहीं, अपितु सीधे परमात्मा से
है। परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग इससे प्रेरणा प्राप्त करने में
असमर्थ रहे। लेकिन समाज पर इस ध्वज का निरंतर असर रहा है और समाज का प्रेरक भी
यह बना रहा। कालांतर में जब भी नए सिरे से राष्ट्र-ध्वज निर्माण करने के
प्रयास हुए, उसमें समाज के उक्त प्रभाव को हम देख सकते हैं। ध्वज निर्धारित
करने वालों के ध्यान में यह बराबर आता रहा कि राष्ट्र के तत्वों को प्रकट करने
वाला राष्ट्रध्वज चाहिए।
भारत में राष्ट्रध्वज निर्माण का प्रथम प्रयास 1905 में बंगाल विभाजन के समय
हुआ। उस समय वाराणसी में जब कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, स्वामी विवेकानंद की
शिष्या भगिनी निवेदिता वहीं रहती थीं। उनके घर पर भारत के बड़े-बड़े नेता
एकत्र होते थे। उन नेताओं ने उनके सामने ध्वज का निर्णय देने का सुझाव रखा।
भगिनी निवेदिता ने उस अधिवेशन में जो ध्वज रखा, वह भगवा ध्वज ही था। उस चौकोर
भगवा ध्वज के ऊपर लाल रंग का इंद्र का वज्र भी अंकित था। यह वज्र संपूर्ण
संस्कृति का प्रतीक है। पर दुर्भाग्य, यह ध्वज स्वीकार नहीं हुआ क्योंकि उसके
बाद के अधिवेशन में, जो लखनऊ में हुआ, उस समय तक उनका देहान्त हो चुका था।
ध्वज बनाने का दूसरा प्रयत्न क्रांतिकारियों द्वारा हुआ। मैडम कामा ने जर्मनी
में सोशलिस्टों की कानफ्रेन्स के अवसर पर देश का तिरंगा झंडा बनाया। उसमें
इटली और अमेरिका के झंडों का सम्मिश्रण किया। इटली के झंडे से लाल, सफेद और
हरा रंग, जो मैजिनी के द्वारा निश्चित किया गया था, लिया। अमेरिका के झंडे में
जितने राज्य हैं, उतने ही तारों के चिह्न अंकित हैं। इसी आधार पर मैडम कामा ने
भी भारत के सोलह राज्यों के प्रतीक कमल अंकित किए और उस परिषद् में भारत का
नाम लेकर मैडम कामा ने रेशमी तिरंगे झंडे को लहराया।
सन् 1920 में जब कांग्रेस का आंदोलन चला तो फिर झंडा बनाने का प्रयत्न दिखाई
पड़ा। महात्मा गांधी ने तिरंगे ध्वज पर चरखा अंकित कराया। 'यंग इंडिया' पत्र
में उन तीनों ही रंगों का अर्थ प्रकाशित किया गया। लाल रंग का पट्टा हिंदुओं
के लिए, हरा मुसलमानों के लिए और सफेद ईसाइयों के लिए-इस प्रकार का तर्क देकर
वह झंडा चलाया गया। पर यह मान्य नहीं हुआ।
सन् 1931 में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने इस प्रश्न के अनुसंधान हेतु एक झंडा
कमेटी का निर्माण किया था। इस कमेटी ने सम्पूर्ण विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत
से यह निर्णय दिया कि भारत का राष्ट्रध्वज भगवा ही है। इस समिति में पं.
जवाहरलाल नेहरू, मो. आजाद, मास्टर तारा सिंह तथा अन्य चार सदस्य थे। पर उस
रिपोर्ट को अ. भा. कांग्रेस कमेटी के सन्मुख प्रस्तुत होने के पश्चात्
अस्वीकृत कर दिया गया। कारण यह था कि अ. भा. कांग्रेस कमेटी के अधिकांश
सदस्यों की संस्था-निष्ठा राष्ट्रनिष्ठा से भी अधिक प्रबल सिद्ध हुई। उस समय
तिरंगा झंडा अस्थायी रूप से 'संस्था ध्वज' के नाते ही स्वीकार किया गया था,
किंतु संस्थागत अहंकार के कारण, अपने ही 'झंडा कमेटी' के एकमत के निर्णय को
ठुकराकर, 'पार्टी झंडे' को 'राष्ट्रीय ध्वज' का स्थान कांग्रेस सदस्यों ने
प्रदान किया। तत्पश्चात 'संस्था निष्ठा' के ही कारण 'झंडा कमेटी' के सदस्य भी
अपने निष्पक्ष निर्णय को छोड़कर शनैः शनैः सदस्यों के दलगत व संकुचित विचारों
से प्रभावित हो गए।
संविधान सभा द्वारा राज्यध्वज निर्णय के लिए नियुक्त 'झंडा कमेटी' की
कार्यवाही जब प्रकाशित होगी तो पता चलेगा कि हिंदू समाज के वर्तमान स्वरूप से
घोर अप्रसन्न, फलस्वरूप विरोधी डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर ने भी समिति के सम्मुख
भगवाध्वज के पक्ष में कुछ बातें रखी थीं। 'झंडा कमेटी' की बैठक के लिए डॉ.
अंबेडकर ने मुंबई से जर प्रस्थान किया तब उन्हें बिदाई देने के लिए मुंबई के
कुछ राष्ट्रवादी नेता हवाई अड्डे पर आए थे। उस समय संविधान के प्रणेता डॉ.
साहब ने उन्हें बताया कि 'झंडा समिति' के सम्मुख भगवा का प्रश्न वे अवश्य
उठायेंगे, किंतु उसका तब तक प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक कि संविधान सभा के बाहर
इस विषय को लेकर प्रचंड जन आंदोलन खड़ा नहीं किया जाता। क्योंकि बहुमत उसमें
संस्थाभिमानी कांग्रेसियों का ही था। परिस्थिति विशेष के कारण इस तरह का
आंदोलन उन दिनों खड़ा करना समुचित नहीं था। डॉ. अंबेडकर ने भगवाध्वज के बारे
में समिति के सम्मुख विचार रखा पर सफलता की आशा न देखकर यह प्रयत्न किया कि कम
से कम चरखा अंकित तिरंगे के स्थान पर अशोक चक्र अंकित तिरंगा स्वीकृत हो।
यह सत्य है कि दल आते हैं और जाते हैं, सरकारें बनती हैं बिगड़ती हैं, पर
राष्ट्र चिरन्तन है। स्थायी स्वरूप है तो केवल राष्ट्र का। भारतीय मजदूर संघ
किसी दल विशेष का अंग नहीं है और न सरकारी संगठन ही। यह केवल राष्ट्र केंद्रित
संगठन है, अस्तु स्वाभाविक रूप से उसके ध्वज का वर्ण वही हो जो कि राष्ट्रीय
भावना जगा सके।
संगठन और पौरुष का प्रतीक- मानव अंगूठा
भारतीय मजदूर संघ ने 2x3 का आयताकार भगवाध्वज (भगवा) को अपना ध्वज स्वीकार
किया एवं गंभीर विचारोपरांत अपना प्रतीक निश्चित करने का निर्णय लिया।
भारतीय मजदूर संघ का प्रतीक
स्वभावतः प्रारंभिक अवस्था में किसी औद्योगिक भाव को प्रकट करने वाले औजार को
प्रतीक मानने की प्रवृत्ति श्रमिक संस्थाओं में रही है। भारतीय मजदूर संघ के
कार्यकर्ताओं ने अपनी संस्था के प्रतीक के रूप में मौलिक एवं आधारभूत चिह्न
रखने का विचार किया। हँसिया और हथौड़ा, चक्र एवं हल अपने आप में अच्छे हैं।
किंतु कार्यकर्ताओं के मन में यह प्रश्न उठने लगा कि पृथ्वी मंडल पर वर्तमान
समस्त प्राणियों में मनुष्य द्वारा ही सभी प्रकार के औजारों, मशीनों तथा
सभ्यता के उपकरणों के विकसित होने का क्या कारण है? शारीरिक दृष्टि से
जीवधारियों से मनुष्य को भिन्न सिद्ध करने वाली कौन-सी वस्तु है? विचार-विमर्श
के पश्चात उन लोगों ने मनुष्य के अंगूठे के अनुपम महत्व पर ही अपनी दृष्टि
केंद्रित की।
निर्माण का जनक
मस्तिष्क के साथ-साथ मनुष्य को पशु से भिन्न सबसे अधिक महत्व की प्रकृति की
देन, उसका अंगूठा ही है। आज कितना वैभव प्रकृति के देन से भिन्न है हम संसार
में देख रहे हैं- वह सारा का सारा अंगूठे और उंगलियों की विशेष बनावट का
परिणाम है। वस्तुत: मानव द्वारा निर्माण का जनक यह अंगूठा ही है। मनुष्य के
कृषि एवं उद्योग संबंधी विकास का एकमात्र कारण उसके पास अंगूठे का रहना है।
अंगूठे के अभाव में हथौड़ा, हँसिया, चक्र या हल का अस्तित्व में आना ही संभव
नहीं था। अर्थात् मनुष्य जाति की समस्त भौतिक एवं वैज्ञानिक उन्नति का
सर्वप्रथम भौतिक कारण उसका अंगूठा ही है।
अंगूठे की विशेष बनावट
Opposition of thumb अंगूठे के विरोध के कारण ही मनुष्य के विकास और प्रकृति
विजय का प्रथम चरण संभव हो सका। यदि मनुष्य की उंगलियाँ अलग-अलग समान्तर रूप
में न होती तो वह वस्तुओं को उतनी दृढ़ता से न पकड़ पाता तथा वस्तुओं से जिस
प्रकार वह आज अपना कार्य करता है- उस प्रकार न कर पाता। ऐसी अवस्था में यह बात
संदेहास्पद है कि मनुष्य अपने वर्तमान रूप में जीवित रह पाता अथवा अपने अंगूठे
के बिना ही वह औजारों का प्रयोग कर सकता, किंतु अपनी उंगलियों के सम्मुख
अंगूठा रहने से वह अपनी रक्षा करने, मकान बनाने, भोजन वस्त्र का प्रबन्ध करने
एवं स्वनिर्मित औजारों से मकान बनाने या जमीन खोदने अथवा लेखनी का प्रयोग करने
के योग्य हुआ है।
अन्य प्राणियों से भिन्नता
यह बात सत्य है कि मनुष्य ही एकमात्र वह प्राणी नहीं है। जिसके पास अंगूठा है।
समस्त प्राणियों के पास किसी न किसी प्रकार का अंगूठा होता है। बंदरों और
भालूओं की उंगलियों के सम्मुख अंगूठा होता है। मनुष्य के सदृश वे वस्तुओं को
ग्रहण कर सकते हैं। वे वृक्ष की डालियों से फल तोड़कर अपने नीचे के प्राणियों
पर फेंक सकते हैं। प्रशिक्षित बंदरों का एसा कार्य करना सिखाया जा सकता ह जो
प्रायः मानवाय प्रतात हात है। मनुष्य की तरह छुरी-कांटे से खाने, कप से पीने
और वस्त्र पहनने एवं उतारने आदि के अनेक कार्य वे कर सकते हैं। वह मनुष्यों की
तरह सभी कार्य इसी से कर पाते हैं। क्योंकि उनके हाथों में मनुष्य के हाथों की
ही तरह उंगलियों के सम्मुख अंगूठा रहता है। किंतु उनका अंगूठा अत्यन्त छोटा और
अविकसित होता है जिसके कारण उनके पकड़ने की शक्ति मनुष्य की अपेक्षा अत्यंत
अल्प होती है। अधिकांश प्राणियों का अंगूठा अनेक एशियाई प्राणी के ग्राह्य
समर्थ पैर की उंगुली की अपेक्षा अधिक उपयोगी नहीं होता। वे अपने बड़े खुर के
अगले भाग को हल्के पदार्थो के उठाने में प्रयुक्त कर सकते हैं। किंतु वे उन
पदार्थो को वस्तुतः दृढ़ता के साथ नहीं पकड़ सकते क्योंकि बड़ी उंगुली और अन्य
उंगुलियों में साम्मुख्य नहीं होता।
कर्मशक्ति का पुंज
किसी लाठी या पत्थर को पकड़कर एवं उससे अन्य जीवधारी को मारकर ही संभवतः
प्रकृति-विजय के प्रति मनुष्य का प्रथम चरण बढ़ा होगा। शेर या चीते के सदृश
मनुष्य के पास मजबूत दांत या पंजे नहीं होते और न तो इसके पास खरगोश या हिरन
के सदृश अपने शक्तिशाली दुश्मन से बचकर भाग निकलने की गति ही होती है। आदिम
मानव दुर्बल और असहाय था। अपनी रक्षा के लिए उसे हथियार की आवश्यकता थी। अतः
मनुष्य और जीवधारियों में सबसे बड़ा अंतर यही था कि मनुष्य एक हथियार बनाने
वाला प्राणी था। किसी उपयोगी शस्त्र का आविष्कार मनुष्य के विकास का प्रथम चरण
था। उसके बाद का विकास प्रारंभिक काल से लेकर आज तक उसके शस्त्र विकास से ही
लक्षित होता है। वस्तुतः अपने औजारों एवं हथियारों के हेतु प्रयुक्त
सामग्रियों के अनुसार ही विज्ञान मानव इतिहास को विभिन्न युगों में विभक्त
करता रहता है।
यही विकास और विजय का संबल, श्रम क्षेत्र का पूर्ण प्रतिनिधित्व करने वाला,
कर्म शक्ति का पुंज, अपनी संपूर्ण उंगलियों को एकजूट रखकर संसार की समस्त
बाधाओं से टक्कर लेने में समर्थ, संगठन एवं पौरुष का निर्देशक-मानव अंगूठा ही
भारतीय मजदूर संघ का प्रतीक है।
हमारा चिह्न
हमें अपनी संस्था का चिह्न चुनना है।
चिह्न तरह-तरह के हो सकते हैं-
सुंदर तथा आकर्षक।
कल्पनाएँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं-
मनोहारी-अति मनोहारी।
सौंदर्य तथा कल्पनाशक्ति का प्रकर्ष,
किसी एक ही आकृति में प्रकट होता है-
ऐसा कहा नहीं जा सकता।
और फिर सौंदर्य की कल्पना भी,
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी
अलग-अलग हुआ करती है।
*
हमारा चिहन-
हमारी सैद्धांतिक भूमिका का,
हमारी मौलिक विचार प्रणाली का,
हमारे स्वयं प्रतिभत्व का,
हमारे जीवन-दर्शन का
परिचायक रहे।
*
जिस औद्योगिक क्षेत्र में हम काम कर रहे हैं,
उसका निर्माण तथा विकास कैसे हुआ?
जिस यंत्र युग का चारों ओर बोलबाला है,
उसका प्रारंभ कैसे हो सका?
उसके भी पूर्व कृषि के साधन तथा शस्त्र
मनुष्य के द्वारा ही निर्मित हुए-
अन्य प्राणियों द्वारा नहीं।
*
इसका रहस्य क्या है?
मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में
कौन-सा मूलगामी शारीरिक भेद है,
जिसके कारण मनुष्य का ही यह श्रेय रहा
कि वह प्राचीन शस्त्र से लेकर अर्वाचीनतम पंथ तक,
सभी साधनों का विकास कर सका?
यह शारीरिक भेद एक ही है-
यह है मनुष्य का अंगूठा।
*
अंगूठा
जो कि बाकी चारो उंगलियों का
स्पर्श कर सकता है।
इसी के कारण मानव ने ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली,
जिसका आविष्कार-
आज के विकसित यंत्रयुग में हुआ है।
यह मानवी अंगूठा ही सभी यंत्रों का मूलाधार है।
सभी यंत्रों का-
हँसिया का और हथौड़ा का,
हल का और चक्र का
चरखे का तथा स्पूतनिक का,
सभी का शारीरिक मूलाधार है-
मानव का अंगूठा।
*
हमारी बुद्धि मूलगामी है।
हम किसी का अंधानुकरण नहीं करते-
न विदेशियों का न विदेश भक्तों का।
उन्होंने किसी-न-किसी यंत्र को ही
अपने चिह्न के रूप में,
स्वीकृत किया।
हम मूल की ओर जाना चाहते हैं-
जो यंत्र का निर्माता है,
और जिसके बिना आज भी
सभी यंत्र मनुष्य के लिए,
अनुपयुक्त हो जाएंगे।
अर्थात् जो यंत्रयुग का,
औद्योगिक तथा शास्त्रीय प्रगति का,
कृषि के विकास का,
और मनुष्य जाति की उत्क्रांति का,
मूलाधार,
आद्य प्रवर्तक है,
उसी को हमने चिह्न के नाते
स्वीकार किया है।
*
यह भारतीय विचारकों की,
भारतीय मजदूर संघ की देन है।
यह भारतीय मजदूर संघ की,
अभारतीय विचारकों को देन है॥
हमारी भूमिका
('हमारा प्रतीक')
करांगुलि से अंगूठे तक-
(1) भूमि (2) श्रम (3) पूँजी (4) साहस (5) संगठन।
(1) श्रम (2) तंत्र (3) तत्व (4) विधि (5) संगठन।
('हमारा प्रतीक' वर्ष 1962 भा.म.सं. कानपुर से प्रकाशित।)
सोपान - 3
(कुछ प्रमुख बिंदु)
v यदि बाबा साहब अम्बेडकर को उनकी इच्छा के अनुसार संविधान बनाने का अवसर
मिलता तो उनका संविधान हिन्दुत्वनिष्ठों की इच्छाओं के अनुकूल पूर्णरूपेण हो
जाता किंतु इसमें संदेह नहीं कि उनके संविधान का स्वरूप आज के संविधान के
संबंध में यहाँ तक कहा कि यदि पाया गया कि यह संविधान अपेक्षा के अनुरूप खरा
नहीं उतरता तो मुझे इसको जनता के सामने जलाकर राख करने में कोई हिचकिचाहट नहीं
होगी।"
v हमारा संविधान भारत की भूमि की उपज नहीं है। इसी कारण हमारी भूतकालीन
परम्पराओं, वर्तमान अपेक्षाओं और भविष्य की आकाँक्षाओं से असम्बद्ध है।
v अमरीका अपेक्षाकृत नया राष्ट्र है। इस कारण अमेरिका के पास हमारी तरह
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा अन्तर्निहित एकता के सूत्र नहीं हैं। हमारे देश में
सांस्कतिक एकता की प्रबल धारा अनेकता को समायोजित करती है जबकि अमेरिका में
अनेकता है, किंतु वहाँ एकता की कोई धारा नहीं है।
v राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने चेतावनी दी थी कि संघीय
प्रणाली भारत के लिए हर दृष्टि से अनुपयुक्त और प्रतिकूल है किंतु उस समय इस
बात का मर्म समझने की मन:स्थिति में राजनीतिज्ञ नहीं थे। एक तो जैसे पहले कहा
गया, वे बहुत जल्दी में थे। दूसरी बात यह है कि भारतीय विचारकों की भारतीय
कल्पना का मुल्यांकन यरोपीय मापदंड में करने की उनकी आदत थी। पश्चिमी देशों
में संघीय तथा एकात्म शासन पद्धति का विचार उनकी ऐतिहासिक विकासक्रम की
विशेषताओं के कारण अलग ढंग से होता है, जो हमारे देश के लिए लागू नहीं हो
सकता।
v भारत हजारों साल से एक राष्ट्रीय ईकाई है। इसमें राष्ट्रीय एकात्मकता है।
भारतीयों ने पाश्चिमात्य के समान यह नहीं माना कि एकता ही एकरूपता है। पश्चिम
में एकरूपता को ही एकता का लक्षण मानते हैं। हमारे देश में एकरूपता को विभिन्न
ईकाइयों के स्वतंत्र प्रकृतिगत विकास में बाधक माना गया। एकता के नाम पर
एकमार्गीकरण का विचार भारत की प्रकृति के अनुकूल नहीं है। बिल्कूल प्रारंभिक
काल में भी भारत में एकात्मकता के साथ-साथ विपुल विविधता थी।
v इस झंडे का यह संदेश है कि मनुष्य जीवन त्यागमय, पवित्र, वैराग्ययुक्त व
संयमयुक्त हो। अतीतकाल से हमारा राष्ट्रीय जीवन इन्हीं तत्वों को लेकर बना है।
कोई राष्ट्र दुनिया में सेना भेजकर विजय प्राप्त करने के लिए होता है, किसी
राष्ट्र का जीवन व्यापार और संपत्ति प्राप्त करना है तो किसी का कला के द्वारा
सौंदर्य का आस्वाद करना है। पर हमारे राष्ट्र का प्राण तत्व मानव जीवन को पशु
जीवन से श्रेष्ठ बनाने का है। सहिष्णुता, उदारता, पवित्रता, संयम व सेवाभाव
तभी उत्पन्न हो सकता है जबकि हम विश्व की एकात्मकता का अनुभव करें। एक ही
आत्मतत्व घट-घट में भरा हुआ है। मनुष्य में ही नहीं अपितु सभी प्राणियों में
यही एक चैतन्य तत्व निहित है। ऐसे विचार हमारे राष्ट्रीय जीवन में रम गए।
वेदों के अध्ययन और संन्यासियों के आचरण से जो इस प्रकार की प्रेरणा प्राप्त
होती रही, उसका प्रतीक यह भगवा ध्वज ही है। यह हमें निष्काम काम की ओर ले जाता
है। अभ्युदय व निः श्रेयस दोनों का प्रतीक यह ध्वज है।
v धर्म की दृष्टि से वाय दबाव नहीं अपितु कर्तव्यपरायणता की आंतरिक भावना ही
अधिकतम उत्पादन के प्रयास के लिए आवश्यक आधार व योग्य स्रोत है।
v ईसाइयत, इस्लाम और कम्युनिज्म-इन तीन सेमिटिक धर्मों के दुराग्रह और
असहिष्णुता ने यह प्रकट कर दिया है कि अनियंत्रित पंथवाद कितना अंधेर कर सकता
है।
v "Old ism changes yielding place to the new and Dharm fulfils itself in
many ways, Lest One good ism should corrupt the world."
खण्ड -7
सोपान - 4
सोपान-4 (संस्मरण)
1. गोपाल व्यास
2. लक्ष्मीनारायण दुबे
3. महेश पाठक
4. भा. म. संघ, कलकत्ता
5. शब्द संकेत
6. संपादक परिचय
सोपान-4
(सोपान)
समग्र चिंतक व रचनाकारः श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी
श्री गोपाल व्यास
पूर्व क्षेत्र प्रचारक
एवं संसद सदस्य(राज्य सभा)
रायपुर- 12 (छ.ग.)
श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी से संपर्क भिलाई में नौकरी के लिए आने और अप्पा जी
शेंडे (मा. अप्पा जी जोशी के दामाद) के भिलाई आने के बाद हुआ यानी 1961 के बाद
इसके पश्चात् तो अखिल भारतीय बैठकों में संपर्क का अवसर नियमित मिलने लगा था।
भा.म.संघ और बाद में भा. कि. संघ आदि के संस्थापक के रूप में संघ क्षेत्र के
बाहर उनके विचारों और कार्यपद्धति का प्रभाव अधिक जाना जाने लगा।
एक बार वे बंगलूर के किसी इंजीनियरिंग संबंधी कार्यक्रम में जाने वाले थे तो
बात चलने पर मैंने उन्हें मेरे इन्स्टीट्यूट ऑफ इंजीनियर्स व इस्पात कारखाने
से जुड़े उद्योगों के अनुभव के संदर्भ में स्वयंसेवकों द्वारा उद्योग भारती के
गठन की अच्छी संभावना बताई। उन्होंने विषय पर एक नोट बनाने को कहा और मैंने वह
नोट तैयार किया। यह लघु उद्योग भारती के गठन के पहले की बात है।
वे जब राज्य सभा के सदस्य थे और मुझे हरिद्वार के भेल कारखाने में जाते हुए
दिल्ली में उनके साउथ एवेन्यू के निवास पर उनसे मिलने का अवसर आया तो देखा कि
कमरे में एक छोटा सा केबिन बनाकर वे उसमें काम करते दिखे और शेष सारा निवास
मजदूर संगठनों के कार्यकर्ताओं से भरा दिखा, संगठनों में भा.म.संघ को छोड़कर
अन्य भी थे।
संघ के बौद्धिक वर्गो में कार्य पद्धति पर बोलते हुए वे कहते थे इसका न कोई
पूरक है न पर्याय।
"प्रचारक बनने (1985) के बाद उनसे काफी वार्तालाप होने के अवसर आने लगे। स्वयं
एक अवसर पर एक वर्ष डॉ. अंबेडकरजी के जन्म दिन उनके जन्म स्थान महू (मध्य
भारत) जाने को मिला। एक सीमा तक गाड़ी से जाने के बाद सबको वे पैदल ले गए। उस
समय एक चर्चा में मैंने पूछा कि डॉ. अंबेडकर, डॉ. हेडगेवार व महात्मा गांधी पर
एक पुस्तक लिखी जाए तो कैसा होगा। उन्होंने मुझे डॉ. अंबेडकर जी की जीवनी
पढ़कर तय करने को कहा। पढ़ने के बाद मुझे समझ में आ गया क्यों उन्होंने ऐसा
कहा होगा। डॉ. अंबेडकर से हुई भेंट का उल्लेख कर वे कहते थे अंबेडकर जी कहते
थे तुम्हारा (संघ का) व्यापक हिंदू संगठन का काम तो अच्छा है पर उसमें बहुत
समय लगेगा और जिन लोगों को ऊपर उठाने का काम करना चाहता हूँ उन लोगों के लिए
लम्बा इंतजार नहीं कर सकता।
सर्वसमावेशक विचार और कार्यक्रम- इस विषय पर उन्हीं का Approach Paper चर्चा
का विषय बना और मुझे सौभाग्य मिला दिल्ली की प्रायः सप्ताह भर की बैठक में
शामिल होने का, इसमें मा. शेषाद्रि जी, मा. रज्जु भैया, मा. मुरली मनोहर जोशी,
श्री भानुप्रताप शुक्ल, श्री देवेन्द्र स्वरूप जी, मा. सुदर्शन जी के समान
श्रेष्ठ विचारकों का मार्गदर्शन भी मिल जाता था।
यदि मा. ठेंगड़ी जी की सतत प्रेरणा व आग्रह न होते तो पुराने मार्क्सवादी डॉ.
बोकरे के 'हिंदू इकोनोमिक्स' ग्रंथ की रचना न हुई होती। अर्थशास्त्र पर अपना
स्वयं-भ अधिकार समझने वाले पश्चिमी विचारकों को ब्रह्म वाक्य मानने वालों को
भारतीय प्रकाश की झलक न मिल पाती।
जब मैं भोपाल में था तब वे संगठन व राज्य के संबंध में पूछताछ व मार्गदर्शन भी
करते थे। तब म.प्र. (2003-4) में भाजपा का शासन था।
विहिप के काम से जब मैं विदर्भ के प्रवास पर था, तब आर्वी उनके घर भी गया और
ग्राम के उस मंदिर में भी जहाँ वे जाया करते थे, पुजारी जी ने बड़े आदर से
उनका स्मरण किया।
मेरे लिए वह सौभाग्य का दिन था जब मैं उन्हें राज्य सभा के सदन के ध्यान में
लाने के लिए विश्वकर्मा दिवस को राष्ट्रीय श्रम दिवस के रूप में मान्यता
दिलाने के संबंध में विशेष उल्लेख कर सका।
कठिनाईयाँ आती हैं- अपना काम किए जाना
लक्ष्मीनारायण दुबे
पूर्व मंत्री,
म.प्र.,भारतीय मजदूर संघ
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
बात सन् 1977 की है। मध्य प्रदेश शासन द्वारा औद्योगिक संबंध पर आयोजित
परिसंवाद में सम्मिलित होने मैं भोपाल गया हुआ था।
भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता परिचय के लिए एकत्र हुये। मैं प्रथम पंक्ति
में मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी के सामने बैठा हुआ था। अपना नम्बर आने पर मैंने अपना
परिचय बिलासपुर नगर के मंत्री (महामंत्री) के नाते दिया। मा. ठेंगड़ी जी ने
सुधारकर कहा नगर नहीं जिला बोलो और उस क्षण मैं बिलासपुर जिला का मंत्री
(महामंत्री) हो गया, यह था मेरा पहला परिचय।
अखिल भारतीय विद्युत मजदूर संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सम्मिलित
होने मैं भोपाल गया हुआ था। बैठक प्रारंभ होने के पहले मा. बाला साहब साठ्ये
ने मुझे मा. ठेंगड़ी जी को लाने भेजा। मैं मा. ठेंगड़ी जी के सामने जाकर
उन्हें बैठक में चलने का आग्रह करने लगा। वहाँ उपस्थित मा. रामभाउ जी जोशी
मेरा परिचय मा. ठेंगड़ी जी से कराना प्रारंभ कर पाते कि इसके पहले ही मा.
ठेंगड़ी जी बोलने लगे, लक्ष्मीनारायण दुबे, विभाग प्रमुख, बिलासपुर विभाग।
इसके बाद मा. ठेंगड़ी जी ने मेरे कंधे पर अपना दाहिना हाथ रखा और बोलने लगे
"देखो कठिनाईयाँ आती हैं, आने देना, परवाह नहीं करना, अपना काम किये
जाना..........." मेरी कठिनाईयों का इतना सूक्ष्म ज्ञान इन्हें कैसे हो
गया-मैं चिन्तन करने लगा-बाद में कठिनाईयों को भुला नये उत्साह से काम करने
लगा।
आगे बात आने पर मैं उन्हें अपने विभाग आने का निमंत्रण देने लगा तो उन्होंने
मुझसे कहा कि प्रदेश का अधिवेशन अपने यहाँ करो, मैं पूरे तीन दिन रहूँगा। फलतः
मैंने प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में अपने यहाँ अधिवेशन रखने का आग्रह किया
और मेरे आग्रह पर 85 में बालको कोरबा में प्रदेश का अविस्मरणीय अधिवेशन संपन्न
हुआ, पूरे तीनों दिन मा. ठेंगड़ी जी अधिवेशन में रहे।
सन् 1977 के भारतीय मजदूर संघ के भोपाल राष्ट्रीय अधिवेशन के समय अधिवेशन
पण्डाल में भिलाई इस्पात संयंत्र के एक कार्यकर्ता मा. ठेगडी जी के सामने खडे
हो गए-वे बीच में लम्बे समय भारतीय मजदूर संघ से बाहर रहे, बाद में पुनः मजदूर
संघ में आए-मा. ठेंगड़ी जी के सामने खडे होकर उन्होंने मा. ठेंगडी जी से
प्रश्न किया, बताइये मैं कौन हूँ? मा. ठेंगड़ी जी ने कहा रवीन्द्र मत भूलो कि
मैं संघ का प्रचारक हूँ और मा. ठेंगड़ी जी ने श्री रवीन्द्र कुमार जी मिश्र के
परिवार का कुशल क्षेम पूछा।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद मा. ठेंगड़ी जी की आगे की यात्रा के लिए रात्रि
बिलासपुर में विश्राम का कार्यक्रम था। ट्रेन अर्ध रात्रि को संभावित थी,
किंतु बिलम्ब के कारण ट्रेन ब्रह्म मुहर्त में बिलासपर आयी। ट्रेन से बाहर
मुझे देखते ही अपना दाहिना हाथ मेरे कंधे में रख मुझसे बात करने लगे। स्टेशन
परिसर में ही एक कार्यकर्ता के घर उनके विश्राम का प्रबंध था। घर पहुँचने के
बाद वे मुझसे बिलासपुर के अनुषांगिक संगठनों विशेषकर राजनैतिक संगठन की
सूक्ष्म जानकारी लेने लगे। रात्रि जागरण की थकान के कारण मैंने उनसे विश्राम
करने का आग्रह किया और सभी कार्यकर्ताओं के साथ कक्ष से बाहर निकल गया, तब
जाकर कहीं वे विश्राम कर पाये।
दूसरे दिन दोपहर बाद उन्हें आगे की यात्रा में जाना था। किसी नये कार्यकर्ता
ने स्टेशन पर एक पानी की बोतल खरीद कर उन्हें रास्ते में पीने के लिए दी।
उन्होंने पानी के बोतल में दिये गए विवरण को पढ़ा और बोतल को लुढ़का दिया-कारण
कि पानी की वह बोतल विदेशी कम्पनी द्वारा बनायी गयी थी।
2001 नागपुर तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग में उनका बौद्धिक था। वे कमजोर दिख
रहे थे उनसे मिलने की अनुमति मैंने माँगी। मुझे बताया गया कि वे मुझसे विभिन्न
विषयों में बहुत अधिक बात करेंगे जो कि उनके स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं
है। इस कारण से अनुमति नहीं मिली-यह संस्मरण अविस्मरणीय है।
"
आत्मीयता की मूर्ति दत्तोपंत ठेंगड़ी"
महेश पाठक
संस्थापक सदस्य
उत्तर रेलवे कर्मचारी यूनियन
(भा.रे.म. संघ, दिल्ली )
विद्यार्थी जीवन में स्वयंसेवक बनने के बाद आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम
हेडगेवार जी की प्रेरणादायक जीवनी पढ़ी। पूरी जीवनी में मूल आधार के स्वरूप एक
शब्द चुना जाए तो वह है आत्मीयता"।
डॉ. साहब को तो नहीं देखा और न सुना किंतु दत्तोपंत जी डॉक्टर साहब के
प्रतिबिंब रूप में हैं यह हजारों कार्यकर्ताओं ने अनुभव किया। सभी ठेंगडी जी
को अपने निकट मानते थे। वृंदावन शाखा के तीन स्वयंसेवक भविष्य में भारतीय
मजदूर संघ के कार्यकर्ता बने। (1) श्री रासबिहारी मैत्र, कलकत्ता (2) दामोदर
प्रसाद शर्मा, (पश्चिम रेलवे) कोटा (3) महेश कुमार पाठक, (उत्तर रेलवे)
दिल्ली। ऐसे दैवी संयोग की स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी। हमें बताया गया कि
मजदूर क्षेत्र में कार्य करना होगा। दिल्ली में होने के कारण विशेष लाभ
सान्निध्य प्राप्त होता रहा। पूजा-पाठ, आध्यात्मिक परिवार के संस्कार के कारण
मजदूर क्षेत्र अटपटा, अरुचिकर, महाशन्य के समान था। ठेंगड़ी जी के आत्मीय
व्यवहार के कारण वर्ष 1963 से 2007 तक सक्रिय कार्य करने का सुअवसर प्राप्त
हुआ।
इस कालखण्ड के अनेक संस्मरण हैं। उन सबको विस्तार से लिखना क्रमबद्ध संभव नहीं
है। संक्षेप में दिल्ली में उत्तर रेलवे में कार्य करने के साथ संघ का भी
दायित्व रहा। प्रथम वर्ष 1954 में बरेली से किया। संघ स्थान पर सूचना मिली कि
रेलवे में कार्य करने वाले स्वयंसेवकों की बैठक संघ कार्यालय झंडेवाला में
होनी है। बैठक के सूत्रधार श्री रघुवीर लाल देव, महामंत्री भारतीय मजदूर संघ
दिल्ली प्रदेश थे। बैठक में ज्ञात हुआ कि गोरखपुर पूर्वोत्तर रेलवे में गत
वर्ष 1962 में भारतीय मजदूर संघ की यूनियन बन चुकी है। उत्तर रेलवे में संगठन
बनाना है। मा. ठेंगड़ी जी से प्रथम परिचय श्री रघुवीर लाल देव जी ने ही कराया।
संगठन हेतु बालकृष्ण कपूर, कर्मचारी उत्तर रेल बड़ौदा हाऊस (दिल्ली) संयोजक तय
हुए। सदस्यता फार्म रेल कर्मचारियों से भरवाये गए। मा. ठेंगड़ी जी ने
छोटी-छोटी बैठकों, द्वारसभाओं को प्रभावी ढंग से सम्बोधित किया। संगठन का
नामकरण हुआ उत्तर रेलवे कर्मचारी यूनियन।"
रेलवे संगठन के विस्तार हेतु राजस्थान में बीकानेर, जोधपुर मा. ठेगड़ी जी का
प्रवास तय हुआ। साथ जाना था बालकृष्ण कपूर जी ने। अस्वस्थ होने के कारण कपूर
जी नहीं जा सके। योजनानुसार मुझे जाना पड़ा। वह प्रथम प्रवास और निकट का
सान्निध्य अभूतपूर्व था जो कभी विस्मृत नहीं होगा। मार्ग में जहाँ भी रेल
रुकती थी। बुद्धिजीवी स्वयंसेवकों का समूह चाय लेकर मा. ठेंगड़ी जी को मिलने
आता। श्री ठेंगड़ी जी चाय का कप बनाकर मुझे देते और परिचय कराते कि रेलवे की
प्रथम शाखा के सचिव हैं महेश जी। यह क्रम चार दिन के बीकानेर जोधपुर प्रवास
में चलता रहा।
बीकानेर कारखाने में द्वार सभा हुई। भीड़ को इकट्ठा करने में कार्यकर्ताओं के
अतिरिक्त साम्यवादियों ने दुष्प्रचार कर पूँजीपतियों का एजेन्ट भाषण देने आ
रहा है, यह कह कर भीड़ जुटायी। स्थानीय कार्यकर्ताओं ने भाषण देना शुरू किया
मामला शान्त रहा। जैसे ही मा. ठेंगड़ी जी बोलने हेतु खड़े हुए शोर-शराबा
हूटिंग नारेबाजी शुरू हो गयी। शान्त भाव से मा. ठेंगड़ी जी धैर्यपूर्वक सुनते
रहे। पाँच मिनट बाद मामला शान्त हुआ। तत्पश्चात् श्री ठेंगड़ी जी ने ललकारा
'देश के गद्दारों! गीदड़ों की तरह चीखने वालों अपनी माँ का दूध पिया है तो
प्रोटेक्टिव एरिया से बाहर सड़क पर निकलो, हम दो-दो हाथ करने को तैयार हैं"
फिर धाराप्रवाह बोलते गए, कारखाने का हूटर बजता रहा। सभी रेल कर्मचारी ध्यान
से भाषण सुनते रहे। उन्हीं में से कुछ रेलकर्मी सायं श्री इन्द्र सिंह जी के
निवास पर आए और क्षमा माँगी, दुष्प्रचार का पूरा वृत्त बताया।
आवेश, क्रोध में बीकानेर में सारगर्भित प्रथम भाषण सुनने को मिला। प्रथम
प्रवास की अनूठी अनुभूति का आनन्द शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है।
दत्तोपंत ठेंगड़ीः कृतज्ञ स्मरण
भा.म.संघ
कलकत्ता
('दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' के प्रथम खण्ड में आदरांजलियों का वृत्त
समाहित किया गया है किंतु बंगाल प्रदेश श्रद्धांजलि सभा का वृत्त समय से नहीं
मिल पाने के कारण प्रस्तुत खण्ड में प्रकाशित किया जा रहा है।....सं.)
24 अक्टूबर 2004 को कलकत्ता के केशव भवन में दिवंगत दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को
श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया था।
श्रीकृष्ण मोतलग अखिल भारतीय सह प्रचारक प्रमुख ने उनके संदर्भ में कहा कि वे
चिंतक, विद्वान लेखक एवं वक्ता के साथ ही स्वयंसेवकों के प्रेरणास्रोत थे। वे
हजारों स्वयंसेवकों को उत्साहित करने का कार्य करते थे। उनमें सरलता, पवित्रता
एवं बंधुत्व का व्यवहार सर्वोपरि था। समारोह की शुरुआत गीता पाठ एवं उनकी
प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित कर के हुई। इस समारोह में संघ की कार्यकारिणी के
सदस्य कालिदास बसु, पूर्व क्षेत्र के मा. संघचालक ज्योर्तिमय चक्रवर्ती,
दक्षिण बंगाल के मा. संघचालक मनोज घोष, क्षेत्र के कार्यवाह सत्यनारायण
मजुमदार, उत्तर प्रदेश के पूर्व महामहिम राज्यपाल विष्णु कांत शास्त्री एवं
समाज के अनेक गणमान्य लोग उपस्थित थे।
इस दिन के महत्त्व को बताते हुए संघ के दक्षिण बंगाल के प्रांत कार्यवाह
रनेन्द्रलाल बंद्योपाध्याय ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक,
चिंताविद एवं भारतीय मजदूर संघ के साथ अनेकों संगठनों के गठन में योगदान देने
वाले दत्तोपंत बापुराव ठेंगड़ी जी का निधन 83 वर्ष की आयु में 14 अक्टूबर को
पुणे के पंडित दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल में हुआ। उन्होंने बंगाल में भी संघ
के लिए कार्य किया था। उनके द्वारा कहे गए अनेक कथन भविष्य में सत्य प्रमाणित
हुए। उन्होंने कहा थारूस का विभाजन होगा, वामपंथ खत्म हो जाएगा जैसे अनेक
वक्तव्य सत्य साबित हुए।
उनका एक माह पहले छोटा सा आपरेशन हुआ था। उस समय से वे पुणे में ही थे। 14
अक्टूबर को वाथरूम में गिर गए। उसके बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया
लेकिन सायं 4 बजे उन्होंने अंतिम साँस ली। उनके अंतिम संस्कार में पूर्व
प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी,
पूर्व सरसंघचालक मा. के.एस. सुदर्शन, सरकार्यवाह मा. मोहन भागवत, सहसरकार्यवाह
मदन दास एवं समाज के विभिन्न क्षेत्रों के गणमान्य लोग उपस्थित थे। अपने
श्रद्धा सुमन अर्पित करते हए ज्योर्तिमय चक्रवर्ती ने कहा कि ठेंगडी जी ने
उन्हें प्रतिज्ञा पाठ पढ़ाया था। कोलकत्ता के अंतिम सफर में उन्होंने कहा था
कि संघ की क्षति संघ के स्वयंसेवक द्वारा ही हो सकती है, दूसरा कोई क्षति नहीं
पहुँचा सकता। उनके द्वारा सतर्कता के लिए कहा गया यह कथन, सभी को मन में रखना
चाहिए।
अनंत लाल सोनी
ने अपने वक्तव्य में कहा कि ठेंगड़ी जी कालीकट से कोलकाता एक प्रचारक के तौर
पर आए थे। यहाँ आकर उन्होंने बंगला भाषा को जानने का प्रयास किया। उस समय
भवानीपुर इलाके के बेलतला में एक शाखा थी। बाद में हावड़ा शहर का दायित्व
उन्हें सौंपा गया। वर्ष 1945 में नागपुर में संघ के तृतीय वर्ष के समारोह में
ठेंगड़ी जी के भाषण से प्रभावित होकर वे प्रचारक के रूप में शामिल हुए।
ठेंगड़ी जी का हृदय बहुत विशाल था।
विष्णुकांत शास्त्री
ने अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए यह वक्तव्य रखा कि 1948 में जब संघ पर
निषेधाज्ञा जारी होने पर उसका विरोध करते हुए सत्याग्रह के समय जेल गए थे और
जेल में 2 महीने गुजारने पड़े थे। ठेंगड़ी जी के उत्साहित करने पर ही मैं
परीक्षा में शामिल होने के लिए तैयार हुआ था और उनके प्रोत्साहन के कारण ही उस
परीक्षा में सफलता प्राप्त की थी। ठेंगड़ी जी के विचार में एकात्म मानववाद
नहीं-एकात्म मानवदर्शन है। 'वाद' विदेशी शब्द है।
कालिदास बसु
ने कहा कि हरिद्वार बैठक में उनसे मिलने की संभावना थी लेकिन उसके पहले ही
उनका निधन हो गया। उनके अगले जन्मदिन 10 नवम्बर को उनकी आयु 84 वर्ष की होती।
पश्चिम बंगाल में उन्होंने गोपनीयता के साथ सत्याग्रह परिचालन किया था। उनका
मुख्य उद्देश्य निषेधाज्ञा को हटाना था। श्रीगुरुजी ने उन्हें मजदूर वर्ग के
हित में काम करने के लिए भेजा था। विभिन्न श्रमिक संगठनों के नेताओं ने उनकी
भूमिका को स्वीकार किया था।
भारतीय मजदूर संघ की पश्चिम बंगाल की राज्य समिति के द्वारा उनके प्रति
श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए सभा बुलाई गयी थी जहाँ बहुत से श्रम संगठनों
के नेताओं ने अपने वक्तव्य के माध्यम से दिवंगत ठेंगड़ी जी के प्रति
श्रद्धांजलि अर्पित की।
उपनिषद में वर्णित शांति मंत्र का पाठ कर इस श्रद्धांजलि सभा का समापन हुआ।
शब्द-संकेत
अकबर 30
अर्जुन 43, 52, 132
अबू बकर 47
अरविन्द (महर्षि) 48, 79, 172, 206
अशोक मेहता 56
ॲलेकजेंडर पोप 63
अप्पा जी जोशी 72
अल्बर्ट श्वाईट्झर 80
अटिल्ला 173
अनन्त कान्हेरे 175
असम 188
अहिंसावादी क्रांति 205
अल्जीरियाई 193
अचार्य कृपलानी 207
अर्जेन्टीना 219
अमेरिका 219, 236
आपात्काल 31
आगेस्टिन सेंट 50
आलिवर क्राम्बेल 59
आयसेनहॉवर 105
आर. एस. एस. 113, 125
आल्हा-ऊदल 173
आयरलैंड 194
आन्दसखारोव 202
आयरलैण्ड 219
आगस्टिन 216
ईसा मसीह 207, 209
इण्डोनेशिया 213
इटली 217
ईरान 219
इमर्शन 88
उरुग्वे 190
एकनाथ 29
ए. के. गोपालन 108
एंजलो 172
एलतेशन 173
एंजेल्स 181
एडवर्ड लुटबाक 183
एम. राम जोयस 210
ए. बासमिनकोव 218
एम. एन. राय 244
ओम प्रकाश त्यागी 238
कल्पतरु 45
कल्पवृक्ष 199
कन्फ्यूशियस 173
कणाद 176
कप्तान रोथम 203
कालिदास 86
कार्लाइल 88
कालिकत 94
कार्लोस मारिथेला 185
कोलम्बस 49
कोटा 98
कोपरनिकस 142
कौटिल्य 211
कंडोरसेट 205
कैनेडी 173
क्रामवेल 181
क्रांतियाँ 181
खलीफा उमर 57
खुदीराम बोस 175
श्री गुरुजी 20, 25, 62, 67, 70, 73, 83, 94, 116, 122, 210, 233, 239
गुरु गोविन्द सिंह 39
गांधी जी 72
गलैलियो 142
गौतम बुद्ध 173
गैरीवाल्डी 173
गेटे 173
गीता 180
गुरिल्ला योद्धा 185
गजेन्द्र गडकर 214
गोर्बाचोफ 222
ग्रेट ब्रिटेन 236
चेग्वेबारा 35, 175, 191
चंगेज खान 173
चर्च 216
चारु मजूमदार 36, 186
चाणक्य 38
चांगदेव वटैश्वर 50
चाड 190
चार्वाक् 214
छापामार 192
जनरल दगाल 40
जे. कृष्णमूर्ति 57
जीजस क्राइस्ट 60
जवलपुर 67
जगदीश प्रसाद माथुर 74
जयपुर 92
जान हंटर 172
जेफरसन 173
जान आफ आर्क 172
जरथुष्ट 173
जोरावर सिंह 175
जेडनोव (सोवियत संघ) 193
जिन्ना 213
जा. एम. सईद 212
जान लाक 217
जेफरी हंडन 220
जिमी स्वर्गाट 233
जयप्रकाश नारायण 262
झंडा कमेटी 262
टालस्टाय 59, 69
टैरेन्स मैक्स्विनी 195
ठाणे (महाराष्ट) 293
डायजेनिस 15
डॉ. अम्बेडकर 55, 130, 210, 234, 262
डॉ. हेडगेवार 56, 72, 73, 83, 120, 136, 144, 152
डॉ. डेकाटे 112
डिजिलास 207
डॉ. पा. वि. कोण 210
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 245
ताई जी (पू. गुरुजी की माता जी) 18
तुकाराम (संत) 274, 143
दादाराव परमार्थ 25
दीनदयाल उपाध्याय 54, 73, 91, 122, 246, 250
नेपोलियन 38, 53, 173
द्वारिका प्रसाद मिश्र 65
नागपुर 67
धर्मयुग (पत्रिका) 70
तिलक जी 71
तुलसीदास 75, 101
ताना जी मालुसुरे 81
दादा धर्माधिकारी 110
द्राविड़ी प्रणायाम 112
दिल्ली 153
नीत्से 172
तैमूरलंग 173
नानकदेव 173
नेपोलियन आफ शू शाइन्स 173
दैवी सम्पदा 174
नेल्सन मंडेला 176
तात्या टोपे 188
तेलंगाना 194
नक्सली आन्दोलन 194
दक्षिण अफ्रीका 196
दांडी मार्च 199
नाना साहेब पेशवा 200
नरोत्तम सिंहानुक 201
नामीबिया 202
दि न्यू क्लास 203
थोरी 206
थियोक्रसी 210
पं. नेहरू 16, 209
भगवान बुद्ध 25
मोहम्मद पैगंबर 32, 54
बद्र (वैटल आफ बद्र) 32
माधवराव मुले 35, 175
बापु गोखले 36
मुद्राराक्षस 38
बाजीराव पेशवा 38
फाक (मार्शल) 39
मार्शल पेतां 40
माओत्सेजंग 64
भैय्या जी दाणी 65
प्रकाश दत्त 67
बाबा साहब आप्टे 69
मदीना 72
महाभारत 59
माया मछिन्दर 110
पीताम्बरदास 118
भानुप्रताप शुक्ल 119
प्रो. पां. कृ. सालापुरकर 136
ब्रुनो 142
मानवेन्द्र राय 156
मायकेन 172
मोजार्ट 172
बीदोवीन 172
फादर डार्मियन 172
फ्लोरेन्स नाईटगेल 172
फ्रांसिस आफ असीसी 172
फ्रेडरिक दि ग्रेट 173
महावीर 173
मैजिनी 173
बिस्मार्क 173
बेंजामिन 173
फ्रेंकलिन 173
मार्शल जुकाब 173
मैक्सिम गोर्की 173
परशुराम 174
बाण (महाकवि) 174
बोलविया 175
फतेह सिंह 175
भीष्म 176
बाजी प्रभु 176
मोजेस 177
मार्क्सवाद 181
प्रिंसीपल्स आफ कम्युनिज्म 181
प्रो. सिडने हूक 182
माओ 182
मोजाम्बिक 191
मेगसासे 192
मलाया 193
ब्रिटेन 194
मोरक्को 195
फ्रायर 198
मार्टिन लूथर किंग 202, 216
महात्मा गांधी 206, 233
मीराबाई 207
पातंजलि 209
पी. सी. चैटर्जी 209
पाकिस्तान 212
बंगलादेश 212
पोप 212
बेटिकन सिटी 216
मैकियावेली 216
विस्मार्क 218
मारल मैजारिटी 221
मार्क्स मास्को 221, 256
पी. कोटेश्वर राय 221
भारतीय संविधान 234
भगवा 234
भगवा ध्वज 258
भगिनी निवेदिता 261
मैडम कामा 261
मास्टर तारा सिंह 262
मौलाना आजाद 262
भारतीय मजदूर संघ 263
विवेकानन्द 16, 261
रामभाऊ जामगड़े 20
विनोबा भावे 21, 233
रविन्द्रनाथ ठाकुर 27
वामनराव गुलवणी 23, 24
राम दास (संत) 26, 70
राजा प्रताप 30, 177
वोलविया 35
विशालगढ़ 41
रोम 41
न्हेटशियस 41
विलियम (दि कान्करर) 46, 173
रावर्ट फ्राउस्ट 50
राम कृष्ण परमहंस 51
रूसो 58, 173
रूझवेल्ट 63
लखनऊ 71
लार्ड माउंटवेटन 72
लाओत्से तुंग (दार्शनिक) 75, 85
विष्णुसहस्त्रनाम् 77
लास्ट सप्पर 77
लाला लाजपतराय 81
राजा लुई 110
रविशंकर शुक्ल 111
राजगोपालाचारी 125
रामायण 155
लियोनार्दो 172
रावर्ट काक 172
रूस्तम सोहराव 173
वाशिंगटन 173
वाल्टेयर 173, 209
रमण महर्षि 175
वीर सावरकर 175, 215
लियोनिडस 176
राजा ब्रूस 177
राजा वेन 179
याज्ञवलक्य 179
रेवोल्यूशनरी गुरिल्ला वारफेयर 180
लोकमान्य तिलक 180
लंकाई विद्रोह (श्रीलंका) 193
राउल सैन्डी 193
रोडेशिया 193
लुमुम्बा 196
रोनाल्ड सैगल 202
लिंयाकोर 202
राष्ट्र और राज्य 204
राजा दाहिर 211
रोमन सम्राट 213
विलियम एडवर्ड लेकी 215
रविन्द्रनाथ ठाकुर 233, 260
राम जेठमलानी 238
युगोस्लाविया 239
रोबेस्पीयर 243
लोकतन्त्र 243
यंग इंडिया 262
श, स, ह, क्ष, त्र, ज्ञ पृष्ठ
|
शिवाजी 40
समुद्र मंथन 49
श्रीकृष्ण 71
ज्ञानेश्वर (संत) 88
स्वयंसेवक 124
सीता 155
हनसेन 172
सिकन्दर 173
शंकराचार्य 173
सिजर 173
हार्निवाल 173
होराशियो 176
श्रीराम प्रभु 177
शुक्र नीतिसार 179
शुक्राचार्य 180
हो-चि. मिन्ह 181, 187
हिंसक क्रांति 184
साइप्रस 195
साइवेरिया 204
सुकरात 207
सेक्युलर 209
हुमाउं कवीर 214
हिंदू 215
हेनरी (चतुर्थ) 216
हालिआक 217
स्टालिन 222
हिटलर 243
सच्चिदानंद सिन्हा 245
लेखक-परिचय
जन्म- 21 जुलाई, 1939, ग्राम- घगवाल (जम्मू)। वर्ष 1957 में हाई स्कूल के
उपरान्त जी. एम. सांईस कालेज, जम्मू में दाखिला। वहीं 1959 में रा. स्व. संघ
प्रवेश। संघ शिक्षण तृतीय वर्ष। स्वयंसेवक के नाते नगर, जिला व विभाग स्तर पर
संघ शाखा दायित्वों का निर्वहन। केंद्र सरकार प्रतिरक्षा उत्पादन विभाग में
सर्विस के दौरान 1966 में भारतीय मजदूर संघ से जुड़ना हुआ। वर्ष 1997
राजपत्रित अधिकारी पद से सेवा निवृत्त।
भारतीय मजदूर संघ में दायित्व
- भारतीय प्रतिरक्षा मजदूर महासंघ के अखिल भारतीय मंत्री (1968) तदुपरान्त
उपाध्यक्ष। पंजाब प्रदेश भा.म.सं. मंत्री (1970)। दिल्ली प्रदेश मंत्री (1978)
तदुपरान्त प्रदेश अध्यक्ष। भा.म.सं. केन्द्रीय कार्यसमिति सदस्य (1981)
तदुपरान्त केन्द्रीय मंत्री व उपाध्यक्ष। सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में
सहभागिता और सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों, समितियों में प्रतिनिधित्व।
देश-विदेश प्रवास। सेवा निवृत्ति उपरान्त दिल्ली में स्थाई निवास।
पुस्तक लेखन
- डब्ल्यु टीओ तोड़ो मोड़ो छोड़ो, भा.म.सं. बढ़ते चरण, प्रतिबद्ध कार्यकर्ता :
प्रेरक प्रसंग, स्वामी विवेकानन्द : औद्योगिक आर्थिक चिन्तन, सौगात (कविता
संग्रह) तथा बड़े भाई स्मृति ग्रंथ का संकलन संपादन। सम्प्रति सेवा निवृत्ति
वर्ष 1997 के पश्चात् स्वैच्छिक 'वन लाईफ-वन मिशन' भावना के अंतर्गत अवैतनिक
पूरा समय भा.म. सं. संगठन कार्य में लगा रहे हैं।