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वैचारिकी संग्रह

दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन दर्शन खंड - 8

दत्तोपंत ठेंगड़ी


दत्तोपंत ठेंगड़ी

जीवन दर्शन

(खंड - 8)

"यस्मान्नोद्विजते लोको , लोकान्नोद्विजते च यः।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥"

श्रीमद्भगवद् गीता - १२/१५

(जिससे लोग ऊबते नहीं और जो लोगों से ऊबता नहीं, जो सुख दु:ख में, भय तथा चिंता में समभाव रखता है- वह मुझे अत्यंत प्रिय है।)

भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच,

सर्वपंथ समादर मंच, पर्यावरण मंच, जन संगठनों

की संक्षिप्त जानकारी, आर्थिक चिंतन, लेख,

विविध एवं संस्मरण।

संपादन - प्रस्तुतिकरण

अमर नाथ डोगरा

प्रकाशक

सुरुचि प्रकाशन

केशव कुंज, झंडेवाला,

नई दिल्ली - 110055

दूरभाष : 011-23514672, 8851358634

E-mail : suruchiprakashan@gmail.com

Website : www.suruchiprakashan.in

© सुरक्षित : भारतीय मजदूर संघ

द्वितीय संस्करण : वि. सं. 2074

नवंबर, 2019

मूल्य : ₹200

आवरण पृष्ठ : बलराज

पृष्ठ संयोजक : अमित कुमार

मुद्रक : गोयल एंटरप्राइजिज

ISBN : 978-93-86199-24-9

अनुक्रमणिका

क्र. विषय

सोपान - 1 (मा. ठेंगड़ी जी के उद्बोधन:- भारतीय किसान संघ , स्वदेशी जागरण मंच , सर्वपंथ समादर मंच)

1. भारतीय किसान संघ, कोटा अधिवेशन

2. स्वदेशी जागरण मंच, मुंबई बैठक

3. सर्वपंथ समादर मंच, नागपुर अधिवेशन

4. सोपान- 1: प्रमुख बिंदु

सोपान-2 (भारतीय किसान संघ , स्वदेशी जागरण मंच , सर्वपंथ समादर मंच , पर्यावरण मंच-लेख)

1. किसान संघ की परिभाषा-किसान संघ क्यों?.....दत्तोपंत ठेंगड़ी

2. अल्पसंख्यक और हिंदू समाज......दत्तोपंत ठेंगड़ी

3. पर्यावरण संरक्षण.....पं. राम प्रकाश मिश्र

4. मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना.....अख्तर हुसैन

5. सोपान- 2: प्रमुख बिंदु

सोपान - 3 (लेख)

1. एकात्म मानववाद : एक अध्ययन...... दत्तोपंत ठेंगड़ी

2. पूर्णाहुति के पूर्व............ दत्तोपंत ठेंगड़ी

3. बाड़ (Fencing) .......... दत्तोपंत ठेंगड़ी

4. समग्र विचार का अभाव.............. दत्तोपंत ठेंगड़ी

5. मुस्लिम अपने भारतीय होने पर गर्व करें- वंदे मातरम कहने पर कैसा एतराज।....मौलाना वहीउद्दीन खान

6. बहुमुखी प्रतिभा के धनी............... डॉ. शंकर तत्त्ववादी

7. विचारऋषि दत्तोपंत जी............. सुधीर पाठक

8. सोपान- 3: प्रमुख बिंदु

सोपान - 4 (संस्मरण)

1. करुणासागर त्यागमूर्ति दत्तोपंत ठेंगड़ी.....सी. ए. वर्गीज

2. सब्यसाची शिल्पकार........ कृष्णा पाटिल

3. श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी कुछ यादें...... रत्नाकर राजनकर

4. मार्गदर्शक नहीं रहा...... म.वा. ओंकार

5. समयाशाली कर्मठ जीवनयज्ञ...... सुभाष सरवटे

6. सुई धागा लेकर अपनी बनियान खुद सिली......नागेश कुमार सिंह

खंड - 8

सोपान - 1

सोपान-1 (मा. ठेंगड़ी जी के उद्बोधन :- भारतीय किसान संघ , स्वदेशी जागरण मंच , सर्वपंथ समादर मंच)

1. भारतीय किसान संघ कोटा अधिवेशन

2. स्वदेशी जागरण मंच, मुंबई बैठक

3. सर्वपंथ समादर मंच, नागपुर अधिवेशन

4. सोपान- 1: प्रमुख बिंदु


भारतीय किसान संघ , अधिवेशन (कोटा)

दिनांक 4 मार्च 1979

(कोटा में संपन्न भारतीय किसान संघ के प्रथम अ. भा. अधिवेशन में

मा. ठेंगड़ी जी का उद्घाटन भाषण-)

आज का यह अवसर ऐतिहासिक महत्व का है, क्योंकि आज देश की महान आवश्यकता की पूर्ति के लिए अखिल भारतीय स्तर पर किसान संगठन निर्माण करने का निश्चय लेकर आप सब प्रतिनिधि बंधुगण 11 राज्यों से यहाँ एकत्रित हुए हैं।

यह बात संतोषजनक है कि आपने 'किसान' शब्द की परिभाषा संकीर्ण न करते हुए स्वयं खेती करने वाले एवं खेती पर अवलंबित सभी ग्रामीण जनों को इस शब्द की परिभाषा में समाविष्ट किया है। प्राचीन काल से हमारे देश में ग्राम का किसान, खेतिहर मजदूर था और कारीगरों को सहकारी साझी निधि (कॉमनवेल्थ) माना गया है।

आपका कार्य-क्षेत्र अति विशाल है। सन् 1971 की जनगणना के अनुसार काश्तकारों (Cultivators) की संख्या 7 करोड़, 81 लाख, 70 हजार थी जिनमें लगभग 1 करोड़, 56 लाख बटाईदार (Share Croppers) थे। खेतिहर मजदूरों की संख्या 4 करोड़ 74 लाख 80 हजार थी। इनके अलावा देशी कारीगर तथा अन्य व्यवसायों में लगे लोगों को मिलाकर ग्रामीण विभाग का चित्र पूरा होता है। पिछले 8 सालों में इस संख्या में कुछ वृद्धि ही हुई है।

किसानों की, यानी की ग्रामीण जनता की समस्याएँ तथा आवश्यकताएँ विभिन्न प्रकार की हैं किंतु उनकी सुलझन तथा पूर्ति अब तक ठीक ढंग से नहीं हो पा रही है। वैसे तो उनकी सहायता के लिए अब तक सरकार तथा अन्य माध्यमों द्वारा कई प्रयास किए गए किंतु उनके कारण अब तक अपेक्षित राहत नहीं मिल सकी।

अंग्रेज सरकार के जमाने में ही यह बात ख्याल में आई कि किसानों की सबसे बड़ी समस्या उनका कर्जा है। सन् 1901 में प्रस्तुत किए गए कार्य में फेमिन कमीशन (Famine Commission) की रिपोर्ट में साहूकारों की ज्यादतियों का वर्णन किया गया था। ग्रामीण ऋण (Credit) की दृष्टि से सहकारी संस्थाओं की उपयोगिता का अध्ययन करने हेतु अंग्रेज सरकार ने सन् 1897 में श्री फ्रेडरिक निकॉल्सन को यूरोप में भेजा था। इसी दृष्टि से सन् 1904 का को-आपरेटिव क्रेडिट सोसायटी एक्ट, सन् 1912 का को-ऑप. एक्ट, सन् 1925 का मेकलेगान कमेटी (Maclagon Committee) और सन् 1925 का बांबे को-आपरेटिव सोसायटी एक्ट महत्वपूर्ण हैं। सन् 1929 में पहला 'सेंट्रल लैंड मार्टगेज बैंक' मद्रास में स्थापित हुआ। सन् 1929 में 'रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया' की स्थापना हुई तथा कृषि ऋण विभाग (एग्रीकल्चर क्रेडिट डिपार्टमेंट) का निर्माण किया गया जिसने अपनी रिपोर्ट सन् 1937 में प्रस्तुत की। सन् 1946 में को-आपरेटिव प्लानिंग कमेटी की रिपोर्ट आई।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सन् 1954 में तथा सन् 1961 में नियुक्त की गई रूरल सर्वे कमेटी तथा रूरल क्रेडिट रिव्यू कमेटी की रिपोर्ट भी जानकारी की दृष्टि से बहुत उपयुक्त रही।

सन् 1955 की जुलाई में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई। नेशनल डेवलपमैण्ट कौन्सिल का दिनांक 9-11-1950 का प्रस्ताव, मेहता कमेटी ऑन को-आपरेटिव क्रेडिट की मई 1960 की रिपोर्ट, सहकारी खेती पर निजलिंगप्पा वर्किंग ग्रुप की जनवरी 1960 को रिपोर्ट तकाबी के बारे में बी.पी. पटेल कमेटी द्वारा अगस्त 1962 में पेश की गई रिपोर्ट, अगस्त 1965 की मिर्धा कमेटी की रिपोर्ट, सन् 1966 में दांतेवाला कमेटी की रिपोर्ट, जुलाई 1963 में नियुक्त गाडगिल कमेटी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट आदि दस्तावेज इंदिरा तानाशाही युग के पूर्व इस दिशा में किए गए अन्वेषणों में महत्वपूर्ण माने जाते हैं। सहकारी क्षेत्र का उपयोग ग्रामीण जनता को राहत पहुँचाने के लिए हो, इस दष्टि से सरकार द्वारा अन्य भी कई समितियों का निर्माण किया गया। द्वितीय महायुद्ध के काल में ऋण (क्रैडिट) के अलावा अन्य कार्यों के लिए सहकार का उपयोग करने की प्रक्रिया तेजी से प्रारंभ हुई। द्वितीय महायुद्ध तथा सन् 1962 के चीनी आक्रमण के समय और 1966 में रुपए के अवमूल्यन के फलस्वरूप उपभोक्ता सहकार को बढ़ावा मिला और ग्रामीण क्षेत्र में उपभोक्ता सहकार का संयोग बड़े पैमाने पर सर्विस को-आपरेटिव के साथ किया गया। अन्य उद्देश्यों के लिए भी सहकारी सिद्धांत का उपयोग किया गया। किंतु इन सब प्रयासों के बावजूद अनुभव यही आया कि ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण (रूरल क्रेडिट सर्वे) का सन् 1954 में निकाला हुआ निष्कर्ष आज भी उतना ही सही है: "Co-operation has failed, but co-operation must succeed." (सहयोग असफल हुआ, पर सहयोग अवश्य सफल होना चाहिए।)

इस क्षेत्र का थोड़ा विस्तृत विवरण देने का कारण यह है कि इस क्षेत्र में अपयश के लिए जो बातें जिम्मेदार हैं वे ही ग्रामीण जनता के लिए बनायी गई अन्य योजनाओं के अपयश के लिए भी जिम्मेदार हैं, जैसे सामुदायिक विकास (Community Development) या बलवन्तराय मेहता कमेटी द्वारा प्रस्तावित समिति तथा जिला पंचायत-न्याय समिति तथा जिला परिषद् की त्रिस्तरीय पंचायती राज योजना। प्रो.डी.जी. कर्वे के अनुसार सहकार तथा सामुदायिक विकास का मर्म एक ही है। वही बात पंचायती राज के लिए लागू होती है। इस अपयश की गहराई में जाने से निम्न कारण ख्याल में आते हैं।

1. स्वयं प्रेरणा का अभाव (ये सारे उपक्रम सरकारी पहल के फलस्वरूप प्रारंभ हुए)।

2. बाहर के शहरी लोगों का नेतृत्व।

3. हर एक उपक्रम का राजनीतिकरण।

4. ग्रामीण निहित स्वार्थ तथा नौकरशाही की साँठ-गाँठ।

यह बात सही है कि हमारी पंचवार्षिक योजनाओं में कृषि को योग्य प्राथमिकता नहीं दी गई। भारी उद्योगों को औचित्य से अधिक प्राधान्य दिया गया। बेरोजगारी को दूर करने वाली श्रम प्रधान रचना तथा उसके लिए आवश्यक भारतीय टेक्नॉलाजी विकसित करने का प्रयास करने के बजाय पश्चिम का अंधानुकरण करते हुए पूँजी प्रधान रचना का विकास किया गया। लघु उद्योग, ग्रामोद्योग, कुटीर उद्योग, कृषि आधारित उद्योग, हाथ करघा उद्योग, डेरी उद्योग तथा वन आधारित उद्योगों को उचित प्रोत्साहन नहीं दिया गया। तो भी जो उचित योजनाएँ बनायी गयीं, कोषों (Funds) तथा निगमों (कार्पोरेशन्स) का निर्माण किया गया, उनका भी अपेक्षित लाभ किसानों को नहीं मिल सका या वे नहीं उठा सके, यह सत्य भी आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता। इस न्यूनता के लिए सबसे बड़ा कारण स्वयं प्रेरणा का अभाव ही रहा है। यहाँ तक कि हरित क्रांति के लिए उपलब्ध की गई सरकारी सहायता भी छोटे किसानों तक नहीं पहुँच सकी। जागृति का और स्वयं प्रेरणा का अभाव ही इसके लिए जिम्मेवार है।

यह तो सब जानते हैं कि किसानों की छोटी तथा जायज माँगों की ओर भी सरकार ध्यान नहीं देती। किसान जो माल मार्केट में बेचता है उसकी सही कीमत उसको मिलनी चाहिए। सही कीमत याने क्या? उत्पादन का पूरा खर्चा एवं कुछ लाभांश मिलाकर ही सही मूल्य बनता हैं। वह स्वयं और उसके परिवार के सदस्य खेतों पर मेहनत करते हैं। अन्य किसी के खेत पर वे सब इसी तरह काम करते तो रोजी के रूप में उनको जितना पैसा मिलता उतना पैसा भी उत्पादन खर्चे में शामिल किया जाना चाहिए और उद्योगपतियों के लाभांश की जैसे सरकार चिंता करती है वैसे ही किसान के लाभांश की भी चिंता सरकार को करनी चाहिए। कहा जाता है कि इससे खेती के माल की कीमत बढ़ेगी और शहर के लोग चिल्लाहट करेंगे। नगरवासियों की चिल्लाने की शक्ति अधिक है, इसलिए सरकार उनकी चिंता अधिक करती रहती है। शहरों में गरीब मजदूर भी रहते हैं, वे भी हमारे भाई हैं हम उनको परेशानी में डालना नहीं चाहते। किंतु उनको राहत देने का उचित मार्ग यह नहीं कि किसानों को भूखा रखा जाए। सरकार कृषि की लागत (Inputs) की कीमत कम करवाए। खाद, बिजली, पानी, ट्रैक्टर, ट्राली, कीटाणुनाशक दवाइयाँ, आदि वस्तुएँ उसे सस्ते में उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए। बिजली की दर उद्योगपतियों के लिए कम और किसानों के लिए अधिक हैं। यह पक्षपात क्यों? फिर, किसान जो माल बेचता है उसकी कीमतें आप जितनी मात्रा में कम करना चाहते हैं, उतनी ही मात्रा में शहरी वस्तुओं की कीमतों और कारखानों में निर्मित माल की कीमतों का सामंजस्य होना चाहिए। वैसे ही पुराने कृषि ऋण से किसान को मुक्त करने की तथा नया कृषि ऋण उस समय पर अविलंब; पर्याप्त तथा सस्ते ब्याज पर दिलाने की व्यवस्था क्यों नहीं हो पाती?

ग्रामीण बेरोजगारी तथा अर्ध-बेराजेगारी की समस्या भीषण है। किंतु उसको दूर करने का गम्भीर प्रयास अब तक नहीं किया गया। यहाँ तक कि इसमें बेरोजगारों की कुल संख्या कितनी है, यह आँकडा भी हम अब तक नहीं निकाल सके और इस दृष्टि से देश के कुछ स्रोतों (रिसोर्सेस) का सर्वेक्षण अब तक नहीं हुआ। रोग के सही निदान का ही जहाँ अभाव है वहाँ उचित उपाय-योजना करना कैसे संभव हो सकता है?

अनाज के उत्पादन की स्थिति अब निराशाजनक नहीं रही। पिछले 3-4 साल निसर्ग की भी अपकृपा ज्यादा नहीं रही। पिछले दिनों में उत्पादन वृद्धि की दर अच्छी रही। ये सारी बातें सही हैं। तो भी यह सत्य है कि अनाज के पर्याप्त उत्पादन के बावजूद ग्रामीण क्षेत्र में भुखमरी वैसी ही है। स्वयं पूर्णता से हम काफी दूर हैं और कृषि तथा ग्रामीण विकास के लिए आवश्यक चीजों की कमी है या उनको विदेशों से ज्यादा कीमत देकर लाने की आवश्यकता सरकार को प्रतीत होती है। सत्तारूढ दल ने 40 प्रतिशत ग्रामीण कृषि विकास के लिए देने की तथा ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार दिलाने वाले उपयुक्त उद्योगों का प्रारंभ करने की घोषणा की थी। इस वर्ष चौधरी चरणसिंह की पहल के कारण बजट में किसानों के लिए जो बातें प्राप्त हुई हैं उनके विषय में हम इस सम्मेलन में चर्चा करने वाले हैं। किंतु इन सब बातों का अपेक्षित उपयोग छोटे तथा सीमांत किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए होगा, यह आशा करना अब तक के अनुभव के आधार पर कठिन है। हरित क्रांति का जिस तरह का परिणाम निकला, उसी तरह का परिणाम इन सब योजनाओं का निकलेगा, यह आशंका समर्थनीय है। जब तक किसानों में जागृति तथा संगठन नहीं, तब तक न तो उनकी स्वयं प्रेरणा जग सकती है, न ही वे स्वयं अपने को राजनीतिक नेता, निहित स्वार्थ तथा नौकरशाही द्वारा चलाये गए शोषण से बचा सकते हैं। निष्कर्ष यह है कि संगठन के अभाव में आत्मोद्धार करना किसानों के लिए असंभव है। आत्मोद्धार की चाभी संगठन में ही निहित है।

ऐसा नहीं कहा जा सकता कि संगठन की दृष्टि से अब तक कोई भी प्रयास नहीं किया गया। सन् 1936 में कांग्रेस के नेतृत्व में अ.भा. किसान सभा की स्थापना की गई। स्वामी सहजानंद उसके प्रथम अखिल भारतीय प्रधान थे। यह संगठन कांग्रेस दल के अंग के नाते घोषित हो यह प्रयास लखनऊ कांग्रेस के समय पं. जवाहरलाल नेहरू आदि राजनीतिक नेताओं ने किया। किंतु राष्ट्र-निर्माता की भूमिका का निर्वाह करने वाले पूज्य महात्माजी के विरोध के कारण वह प्रयास असफल रहा। अगस्त 1942 में भारत छोड़ो" आंदोलन के विषय में कम्युनिस्ट पार्टी ने विरोधी भूमिका ले ली। उसके पश्चात् किसान सभा दुर्बल हुई और उस आंदोलन में कांग्रेस के नेताओं के कारागार में चले जाने के पश्चात् कम्युनिस्टों ने किसान सभा पर कब्जा जमाया। कम्युनिस्ट पार्टी के दो हिस्से होने के पश्चात् किसान सभा के भी दो हिस्से हो गए। इस तरह अब दो किसान सभाएँ मैदान में हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट किसान सभा में किसानों के साथ-साथ खेतिहर मजदूर भी सदस्य के नाते हैं। वैसे उन्होंने खेतिहर मजदूरों की कुछ यूनियनें भी संगठित की हैं, किंतु वे भी किसान सभा के झंडे के नीचे ही काम करती हैं। सी.पी. आई. की किसान सभा की सदस्य-संख्या लगभग 10 लाख और खेत मजदूर यूनियन की सदस्य संख्या 4 लाख थी, ऐसा दावा सन् 1973 में उन्होंने किया था। अप्रैल 1974 में सीकर में हुए 22वें अधिवेशन में मार्क्सवादी किसान सभा के महामंत्री ने अपनी 1973 की सदस्य-संख्या 11 लाख 70 हजार बताई थी। मार्क्सवादी किसान सभा का घोषित सदस्यता का उच्चांक 1971 में था, जब सदस्य-संख्या 12 लाख 70 हजार बताई गई थी। कांग्रेस प्रभावित इन्टक से संबद्ध इंडियन नेशनल रूरल लेबर फेडरेशन भी ग्रामीण क्षेत्र में है। सन् 1971 में उन्होंने दावा किया था कि उनकी फेडरेशन से संबद्ध ग्रामीण मजदूरों की 15 यूनियनें हैं जिनकी सदस्य संख्या 4458 है और खेतिहर मजदूरों की 51 यूनियनें हैं जिनकी सदस्य-संख्या 15760 है। आपात्काल के समय इस फेडरेशन ने 1 लाख से अधिक सदस्यता का दावा किया था।

इन संस्थाओं के अलावा और भी कुछ संस्थाएँ कार्य कर रही हैं, किंतु उनको गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है। स्व. श्री पंजाबराव देशमुख द्वारा निर्मित 'भारत कृषक समाज' तथा कुछ अन्य तत्सम संस्थाएँ बड़े तथा उच्च-मध्यम किसानों की सुख-सुविधाओं की व्यवस्था करती रही है। किंतु संगठन के नाते उनका अस्तित्व नहीं के बराबर है। वैसे ही देश के कुछ विभागों में स्थानीय या विभागीय स्तर पर कार्य करने वाली कुछ संस्थाएँ हैं और यद्यपि उनमें से कुछ अपने नाम के पीछे 'अखिल भारतीय' विशेषण लगाती हैं तो भी वास्तव में उनका कार्य-क्षेत्र स्थानीय या विभागीय ही है और कार्य नित्य स्वरूप का न रहकर नैमित्तिक स्वरूप का ही रहता है। इसमें संदेह नहीं कि संगठन कार्य में इनका भी कुछ योगदान है, किंतु उसका महत्व अति सीमित है क्योंकि वे न तो अखिल भारतीय और न ही नित्य कार्य करने वाली हैं। कुछ स्थानों पर 'हिंद किसान पंचायत' नाम से भी 'साइन बोर्ड्स' लगे हैं। किंतु उनका अखिल भारतीय संगठन का ढाँचा नहीं है, यद्यपि उनके दो-एक कार्यकर्ता विभागीय स्तर पर अच्छा काम करते हैं। वास्तव में वह उनका व्यक्तिगत कार्य है। समाजवादी दल के होने के कारण इस नाम का वे उपभोग करते हैं। किंतु संगठन के नाते हिंद किसान पंचायत की ओर ध्यान देना औचित्यहीन नहीं रहेगा।

इस तरह सभी संगठनों की कुल घोषित सदस्य-संख्या 30 लाख से अधिक नहीं आती, जिससे पता चलता है कि किसान क्षेत्र में संगठन के लिए अवकाश तथा नए किसान संगठन की जरूरत कितनी है। इतना विस्तृत क्षेत्र अछूता पड़ा हुआ है और भी अधिक नई संस्थाएँ गठित हुई तो उनका स्वागत ही करना चाहिए। सबका अंतिम उद्देश्य यदि किसानों की सेवा करना ही है तो फिर आपसी स्पर्धा और राष्ट्रहित के अंतर्गत 'किसानों का हित', यह विशुद्ध उद्देश्य लेकर हम काम कर रहे हैं। संस्थागत अहंकार से हम पीड़ित नहीं हैं। असूर्या की आवश्यकता ही क्या है? मेरा मुर्गा बाँग देगा तब ही सूरज उदय होना चाहिए और मेरे मुर्गे ने बाँग नहीं दी तो सूरज उदय नहीं होना चाहिए, ऐसा कहना बुद्धिमानी का तथा आंतरिकता का लक्षण नहीं है। विशुद्ध सेवा-भाव से प्रेरित होने के कारण हमारा विचार यही है कि किसी के भी द्वारा किसानों का कल्याण होता है तो हम उसका स्वागत करेंगे, और किसान कल्याण हेतु किसी के भी द्वारा किए गए रचनात्मक कार्य में या छेड़े गए आंदोलन में हम उचित सहयोग देने के लिए सदा ही सिद्ध रहेंगे।

चौधरी चरणसिंह द्वारा नव निर्मित 'किसान सम्मेलन' के विषय में यहाँ चर्चा नहीं की गयी, क्योंकि उसका स्पष्ट स्वरूप अब तक हमारे सामने उभरकर नहीं आया। प्रसिद्धि और बोलबाला बहुत होते हुए भी उसका संगठनात्मक ढाँचा दृष्टिपथ में नहीं आ पा रहा है। यह स्वरूप स्पष्ट होने के पश्चात् ही उसके विषय में कुछ कहना उचित होगा।

सरदार बल्लभभाई पटेल के द्वारा बारडोली में चलाया गया किसान आंदोलन तथा महात्माजी द्वारा संचालित नील मजदरों का आंदोलन हमारे इतिहास के शानदार अध्याय हैं, किंतु संगठन के इतिहास में उनका समावेश नहीं होता। संथाल विद्रोह, बंगाल का 'त्रिभाग' आंदोलन तथा तेलंगाना का किसान मजदूर आंदोलन मूलतः स्थानीय किसान मजदूरों की स्वयंप्रेरणा से ही प्रारंभ हुए थे। तेलंगाना तथा 'त्रिभाग' में आंदोलन बढ़ने के बाद कम्युनिस्टों ने उसके साथ संगठन के नाते अपना संबंध जोड़ा था। इनका भी समावेश संगठनात्मक इतिहास में नहीं हो सकता, यद्यपि आंदोलन के नाते उनकी अपनी विशेषताएँ हैं।

चीन-प्रभावित रणनीति के परिणामस्वरूप नक्सलबाड़ी, आंध्र तथा केरल के कुछ हिस्सों में चलायी गई नक्सलवादी गतिविधियाँ हम सभी जानते हैं। आज यह संप्रदाय 12-13 हिस्सों में बँटा हुआ है। उनके भी अपने कुछ आदर्श तथा सिद्धांत हैं और हमसे मेल न खाने वाले होते हुए भी उनकी आदर्शवादिता के विषय में हमारे मन में संदेह नहीं है। किंतु उनका कार्य क्रांति के इतिहास का एक अध्याय हो सकता है, किसान संगठन के इतिहास का नहीं।

संगठन की दृष्टि से अब तक की स्थिति संतोषजनक नहीं है, यह स्पष्ट है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट किसान सभा के महामंत्री ने अपने 22वें अधिवेशन (दिनांक 11-14 अप्रैल, 1974) में अपने प्रतिवेदन में बताया।

"In spite of some advance, the kisan movement, taking the country as a whole, remains weak and extremely uneven In the context a deepening crisis and growing mass discontent this lag in kisan movement is a serious weakness."

सी.पी.आई. की किसान सभा के महामंत्री ने भटिण्डा में अपने 21वें अ. भा. अधिवेशन (सितंबर 1973) में महामंत्री का प्रतिवेदन प्रस्तुत करते समय कहा:-

"Finally, this situation has revealed the utter inadequacy of the existing kisan sabha organisation to discharge the great political responsibility of leading and the country wide diversified mass peasant-movement for radical land reforms as also the movement for an upsurge in agricultural production so essential for lifting our agrarian economy out of the present crisis and putting it on the road to progress."

सी.पी.आई. के भारतीय खेत यूनियन के महामंत्री ने तेलाली में हए अपने तृतीय अधिवेशन में अपने प्रतिवेदन में कहा:- "But despite this progress in the organisational sphere I should frankly state that there is an element of stagnation in our activities in regard to most of the state units. This is naturally causing much anxiety to us. The main reasons for this are (1) Shortage of cadres and (2) Lack of finance. In fact, there are twin problems of cadre and finance which have become the real stumbling blocks in our advance. It is surprising that there are a number of states where not even a single wholetimer is functioning on the agriculture labour front either at the states where there are wholetimers allotted to this front, their maintenance has become a big problem due to lack of finance. This shortage of finance affects the mobility and the effectiveness of the wholetimers.

'इंटक' की ग्रामीण मजदूर फेडरेशन के अध्यक्ष श्री बी.सी. भगवती अपनी पुस्तिका 'Rural Workers' Problems and Organisation' में लिखते हैं:-

"It has been rightly felt that Congress should have a cadre, who have faith in socialist ideal and programmes of the Congress. The question now is how to build up such a cadre."

ये सारे उदाहरण इस बात की ओर संकेत करते हैं कि किसान क्षेत्र के विभिन्न संगठनों के सम्मुख किस तरह की कठिनाइयाँ हैं। पहले से काम करती आ रही ये संस्थाएँ अक्षम या अपर्याप्त हैं, यदि दिखने या आत्मस्तुति-परनिंदा करने के उद्देश्य से यह नहीं कहा है। उनकी त्रुटियाँ तथा दुर्बलताएँ हम सबकी त्रुटियाँ तथा दुर्बलताएँ हैं। विगत् अनुभवों के प्रकाश में, विद्यमान संस्थाओं की सीमाओं तथा किसान क्षेत्र की विशालता को ध्यान में रखा तो नई किसान संस्था की आवश्यकता तथा उपयोगिता समझना आसान होगा। इस तरह की और भी नई संस्थाएँ निर्माण हुई तो उनका भी स्वागत ही करना चाहिए, और सब संस्थाओं को परस्पर पूरक बनाते हुए किसान तथा ग्रामीण जनता की उन्नति हेतु संयुक्त प्रयास जारी रखने चाहिए।

फिर, कोई भी व्यक्ति एक ही समय दो मालिकों की सेवा ईमानदारी से नहीं कर सकता। किसान संघ को गैर-राजनीतिक स्तर पर रहते हुए काम करने का निर्णय स्वागत योग्य है। इसी से यह संगठन सही माने में प्रतिनिधि बनेगा; सर्वव्यापी तथा शक्तिशाली बनेगा। इस तरह का स्वतंत्र, गैर-राजनीतिक, प्रतिनिधि संगठन खड़ा करना आज देश की प्रमुख आवश्यकता है।

यहाँ संगठन शब्द से मेरा अभिप्राय क्या है यह स्पष्ट करना आवश्यक है। भारतीय किसान संघ का संगठनात्मक ढाँचा मजबूत करना, इतना ही औपचारिक कार्य मुझे अभिप्रेत नहीं। वह तो आवश्यक है ही। वैसे ही इसी क्षेत्र में कार्य करने वाली विभिन्न संस्थाओं का परस्पर सहयोग भी अभिप्रेत है। किंतु साथ-साथ और भी एक बात अभिप्रेत है। ग्रामीण क्षेत्रों में कमजोर तत्वों का शोषण करने वाले निहित स्वार्थी व्यक्तियों को छोड़कर शेष सभी तत्वों को परस्परानुकूल बनाना, संपूर्ण गाँव की समृद्धि में सबकी समृद्धि है यह साक्षात्कार सबको कराना, परस्पर विवादों के अवसरों पर सामंजस्य से सुलझाने, निकालने की प्रवृत्ति सबके मन में निर्माण करना, और संपूर्ण गाँव यानी एक सहकारी साझी निधि (कॉमन वैल्थ) है, यह सबको अनुभव कराना, यह कार्य भी संगठन शब्द में अभिप्रेत है।

यह कार्य सिद्ध करने के लिए भगीरथ प्रयत्नों की आवश्यकता है। आज देश में चारों ओर विभेदकारी प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। राजनीतिक मानस अपने-अपने स्वार्थ के लिए किया जा रहा है। इस स्थिति में हमारे कार्यकर्ता स्वयं अपना मन व्यापक नहीं बनाएंगे तो बाकी लोगों को व्यक्तिवाद-जातिवाद के ऊपर ले जाना उनके लिए संभव नहीं होगा। संपूर्ण समाज, संपूर्ण राष्ट्र के साथ एकात्मता रखने वाले कार्यकर्ता ही यह कार्य कर सकते हैं। भारतीय किसान संघ के कार्यकर्ता इसी मन:स्थिति को लेकर मैदान में आए हैं, यह मुझे विश्वास है। अपनी विशुद्ध राष्ट्रभक्ति के कारण आप यह कार्य सिद्ध करेंगे तो राष्ट्रीय एकात्मता तथा राष्ट्र-निर्माण के कार्य में आपने अति महत्वपूर्ण योगदान किया है, ऐसा इतिहास में लिखा जाएगा। इस तरह की स्वस्थ जागृति के लिए कितना भी त्याग करना पड़े, वह करने के लिए हम सदा सिद्ध रहें, यही अपेक्षा है।

अब तक की पंचवर्षीय योजनाएँ प्रमुख रूप से नगरोन्मुख तथा ग्रामविमुख, उद्योगोन्मुख तथा कृषि विमुख रही हैं। यह दृश्य बदल जाएगा। योजना के बनाने में अपनी सहभागिता होने के कारण योजना के कार्यान्वयन के लिए ग्रामीण किसान-मजदूर भी स्वयं स्फूर्ति से क्रियाशील रहेंगे। इससे देश का पूरा वायुमंडल बदल जाएगा। राष्ट्र-निर्माण के बृहत् प्रयास का सच्चे अर्थ में प्रारंभ होगा।

यह मौलिक परिवर्तन देश में लाने के निश्चय से ही 'भारतीय किसान संघ' का निर्माण हो रहा है। इस महान राष्ट्रीय यज्ञ में भगवान सदा ही हमारी सहायता करेगा, यह दृढ़ विश्वास धारण करते हुए मैं घोषित करता हूँ कि भारतीय किसान संघ के प्रथम अधिवेशन का उद्घाटन हुआ है।

"वंदे मातरम्।"

('ध्येय पथ पर किसान')

स्वदेशी जागरण मंच , अखिल भारतीय बैठक

(मुंबई)

दिनांक 21-22 नवंबर 1992

उद्घाटन भाषण

इस द्वि दिवसीय बैठक के लिए यहाँ उपस्थित हुए आप सब स्वदेश भक्त बंधु भगिनियों का मैं हृदय से स्वागत करता हूँ।

ठीक एक वर्ष पूर्व 22 नवंबर, 1991 को नागपुर में हुई इसी तरह की एक बैठक में 'स्वदेशी जागरण मंच' की स्थापना हुई थी। उस बैठक में अखिल भारतीय स्वरूप की पाँच संस्थाओं के पदाधिकारी उपस्थित थे। 'मंच' के निर्माण के साथ साथ मंच की केंद्रीय संयोजन समिति का भी निर्माण किया गया था और स्वदेशी जागरण अभियान की सामान्य रूपरेखा भी बनायी गयी थी। उसके अनुसार पिछले एक वर्ष यह अभियान चलाया गया।

स्वदेशी जागरण के लिए उपयुक्त साहित्य निर्माण करने का सुझाव उस बैठक में आया था तदनुसार साहित्य की निर्मिति सभी भारतीय भाषाओं में तथा अंग्रेजी में हुई और उसका विस्तृत वितरण भी हुआ। इस अवधि में नवजीवन स्वदेश भक्त साहित्यिकों से भी संपर्क प्रस्थापित हुआ।

यह सोचा गया कि यह मंच गैर-राजनीतिक तथा सर्वसमावेशक रहे। हर प्रदेश में सर्वसमावेशकत्व की दिशा में प्राथमिक प्रयत्न किए गए। कछ स्थानों पर यह प्रयास संतोषजनक रहा। 'स्वदेशी जागरण मंच' की मुंबई समिति इसका एक उदाहरण है। अन्य स्थानों पर भी विभिन्न विचारधाराओं के स्वदेश भक्त बंधुओं को एक मंच पर लाने का प्रयत्न हआ। इसमें कुछ स्थानों पर आंशिक सफलता अति सीमित तथा अपर्याप्त है। यह भी अनुभव किया गया कि इस दिशा में सुनियोजित प्रयास सभी स्थानों पर किए गए तो अपेक्षित यश निश्चित रूप से प्राप्त हो सकता है, क्योंकि विभिन्न धाराओं, दलों तथा संस्थाओं में बंट जाने के बावजूद सभी व्यक्तियों तथा व्यक्ति समूहों में स्वदेश भक्ति जागृत है और इस एक बिंदु पर, शेष सभी मतभेदों को भुलाकर एक मंच पर आने की मानसिक तैयारी सबकी हो सकती है। देश का सार्वजनिक जीवन में फैले हुए वायुमंडल के कारण हर एक व्यक्ति तथा व्यक्तिसमूह सर्वप्रथम यह परीक्षा लेना चाहेगा कि 'मंच' के संयोजकों के उद्देश्य विशुद्ध हैं या नहीं। हमारे उद्देश्य विशुद्ध होने के कारण सबको अपने साथ लाने में हम अवश्य यशस्वी होंगे किंतु इसके लिए सतत, व्यापक तथा सघन क्रियाशीलता की आवश्यकता है।

नागपुर बैठक में हमारे लिए प्रेरणादायक बात रही कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह आदरणीय शेषाद्रि जी की बैठक के अंतिम चरण में हम लोगों के बीच उपस्थिति। उनके प्रेममय सहवास तथा समयोचित मार्गदर्शन से हम सब लाभान्वित हुए। उस समय उनकी मूलगामी चिंतन की प्रवृति का हम सबको परिचय हआ। आगे चलकर परमपूज्य सरसंघचालक बालासाहेब देवरसजी का भी शुभाशीर्वाद इस अभियान को प्राप्त हुआ। अन्यान्य अवसरों पर प.पू. बालासाहेब ने दिए हुए तेजस्वी संदेश सभी देश भक्तों के लिए स्फूर्तिदायक रहे। विशेषतः नागपुर शाखा के पिछले विजयादशमी महोत्सव के अवसर पर उन्होंने इस उपक्रम का किया हुआ समर्थ समर्थन तथा दूरगामी मार्गदर्शन ऐतिहासिक महत्व का रहा। उसके कारण पूरे देश में स्वदेशी के बारे में उत्साह की एक नई लहर पैदा हुई।

नागपुर बैठक की एक उपलब्धि यह भी रही कि केंद्रीय संयोजन समिति के प्रमुख के रूप में हमें डॉ. म.गो. बोकरे प्राप्त हुए। वे सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्रज्ञ हैं तथा कुछ समय नागपुर विद्यापीठ के उपकुलपति भी रह चुके हैं। वे कट्टर मार्क्सवादी रहे हैं कम्युनिस्ट पार्टी के एक चोटी विचारक यह मान्यता उन्हें प्राप्त हुई थी। बौद्धिक प्रामाणिकता है वास्तव में शास्त्र शुद्ध ढंग से विचार करते रहने के उनके स्वभाव के कारण उनके विचारों में उचित परिवर्तन हुआ। उनकी हिंदू 'Hindu Economics' यह पुस्तक आगामी मकर संक्रमण महोत्सव के शुभमुहूर्त पर प्रकाशित होने वाली है।

ठीक एक वर्ष के पश्चात् बुलाई गई बैठक प्रमुख रूप से संगठनात्मक विचार विमर्श के लिए है। इसके उद्देश्य तथा स्वरूप के विषय में कुछ क्षेत्रों में स्वाभाविकतः थोड़ी सी गलत धारणा हुई थी। क्योंकि लोगों को अधिकतर अभ्यास सभाओं-सम्मेलन-अधिवेशनों का हुआ करता है। किंतु अपना यह एकत्रीकरण उस स्वरूप का नहीं है। यह बैठक है। संगठनात्मक विचार-विमर्श के लिए। इसमें सोचना है कि अब तक कार्य कितना हुआ है, और आगे की कार्य की दिशा क्या रहे। सभा-सम्मेलन-अधिवेशन आदि की कार्यवाही अलग ढंग की हुआ करती है। इस बैठक का हेतु वह नहीं है। अब तक हुए कार्य का प्रतिवृत्त तथा आगे दिशा के विषय में ठोस सुझाव-यह यहाँ अभिप्रेत है। हाँ एक तरह से इस बैठक के समारोप के रूप में कल, यानी दिनांक 22 नवंबर को एक सार्वजनिक सभा 'मंच' के तत्वावधान में आयोजित की गई है। उसमें स्थानीय तथा अखिल भारतीय कार्यकर्ताओं के भाषण होंगे। उस सभा का उद्देश्य 'मंच' की भूमिका का प्रकार यह रहेगा। बैठक का उद्देश्य सभा के उद्देश्य से भिन्न है। बैठक का यह स्वरूप ध्यान में रहा तो जितना अल्प समय हमें उपलब्ध है उसका अधिकतम रचनात्मक तथा उत्पादक उपयोग करने में हम सफल होंगे।

प्रतिवृत्त प्रस्तुत करते समय हर प्रदेश तथा हर कार्यक्षेत्र में इस दृष्टि से हुई गतिविधियों का वृत्त आएगा ही। किंतु उसके साथ ही निम्न एक दो बातों का उल्लेख आना भी उपयुक्त रहेगा।

गत बैठक में यह तय हुआ कि इस अभियान के दौरान जो भी कार्य होगा वह 'स्वदेशी जागरण मंच' के नाम से ही होना चाहिए, विभिन्न संस्थाओं के कार्यकर्ता काम करेंगे, किंतु तत्वाधान मंच का ही रहेगा। यह भी सोचा गया था कि यह रचना अगली बैठक तक चलेगी, अगली बैठक में हम पुनर्विचार करेंगे कि यही रचना जारी रखी जाए या उसमें कुछ परिवर्तन किया जाए। जैसे स्वदेशी जागरण मंच के साथ अपनी अपनी संस्था का नाम जोड़ना। उदाहरण 'स्वदेशी जागरण मंच' (संस्कार भारती) इस बात पर हम यहाँ विचार करेंगे ही। किंतु गत वर्ष विभिन्न संस्थाओं ने अकेले ही या अन्य लोगों से मिलकर-जो कार्य किया उसका वृत्त प्रस्तुत होना चाहिए। वैसे ही जिन संस्थाओं के प्रतिनिधि गत बैठक में उपस्थित नहीं थे उन्होंने भी इस अभियान में कुछ उल्लेखनीय कार्य किए हैं। उदाहरणार्थ-महिला जागरण की दृष्टि से राष्ट्र सेविका समिति ने किया हुआ कार्य या माननीय रज्जू भैया की सलाह पर विद्या भारती ने किया हुआ हस्ताक्षर संग्रह। अन्य संस्थाओं ने भी ऐसे कुछ उपक्रम किए हैं। इन सबका विस्तृत विवरण सदन के सामने आना चाहिए। इससे अबतक हुए कार्य की पूरी जानकारी सबको होगी। वैसे ही, एक दूसरे के अनुभव से हम सब लाभान्वित होंगे, और हममें से हरेक के चिंतन में कुछ नए आयाम जुड़ सकेंगे।

कार्य के मूल्यांकन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिसके विषय में हम इस बैठक में कितनी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यह देखना है। स्वदेशी का प्रचार यह एक बात है। किंतु उसके परिणामस्वरूप जितने व्यक्तियों ने या परिवारों ने प्रत्यक्ष व्यवहार में विदेशी वस्तुओं का त्याग और उसके साथ ही स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग-कुछ न कुछ मात्रा में-प्रारंभ किया इसकी आँकड़ों के आधार पर जानकारी, यह दूसरी बात है। इसके लिए सर्वेक्षण की आवश्यकता हुआ करती है। एक ही वर्ष की अल्प कालावधि में नए अभियान का प्रचार संगठित करना और उसके परिणामों का सर्वंकष सर्वेक्षण करना-ये दोनों कार्य संपन्न करना कठिन है, यह तो स्पष्ट है। तो भी किसी भी प्रदेश में या कार्यक्षेत्र में इस दृष्टि से कुछ जानकारी उपलब्ध हुई है तो यह बैठक में प्रस्तुत करना उपयुक्त होगा।

हर प्रदेश में या कार्य क्षेत्र में विभिन्न विचारधाराओं के कितने लोगों का या संस्थाओं का सहयोग हमें प्राप्त हुआ, यह भी बताया जाना चाहिए। वैसे ही अपने प्रदेश में समाचार पत्रों तथा अन्य मीडिया का रुख इस अभियान के प्रति क्या रहा, यह भी जानकारी देनी चाहिए।

विदेशी पूँजी के हाथ बड़े लंबे हैं। लोगों को गुमराह करने की उनकी क्षमता असीम है। झूठे प्रचार की कला के विशेषज्ञ बहुत बड़ी संख्या में उनकी सेवाओं में है। अपने हितों की रक्षा हेतु तथा स्वदेशी जागरण को विफल बनाने के लिए विदेशी पूँजी ने इस कालावधि में कई हथकंडे अपनाए हैं। उनकी कार्य पद्यति के अनुसार प्रथम हथकंडे बहुत कम और अप्रकट ही अधिक हुआ करते हैं। स्थूल कम, सूक्ष्म अधिक। स्वयं परदे के पीछे रहते हुए ये विशेषज्ञ दूसरे माध्यमों से गलत तर्कों तथा तथ्यों का धुंआधार प्रचार करते तथा करवाते हैं। सामान्य जन ऐसे दुष्प्रचार के शिकार आसानी से बनते हैं क्योंकि उसके पीछे विदेशियों का हाथ ऐसा अस्पष्ट संदेह भी उनके सरल मन में निर्माण नहीं होता। इस दृष्टि से आए हुए अनुभव भी सदन के सामने प्रस्तुत होने चाहिए।

अपने प्रचार के प्रति सर्वसाधारण जनता की प्रतिक्रिया एवम् विशिष्ट वर्गों की प्रतिक्रिया क्या रही, यह अवश्य बताना चाहिए।

उपरिनिर्दिष्ट विशेष बातों के अलावा अभियान का सर्वसाधारण वृत्त तो प्रस्तुत किया ही जाएगा।

प्रतिवृत्त के पश्चात् कार्य की अगली दिशा के विषय में विचार करना है। नागपुर बैठक में सोचा गया था कि आगे चलकर इस अभियान को एक और आयाम जोड़ना आवश्यक है। वह यानी "उत्पादन खर्चा घोषित करो" यह माँग। इन दो बातों में आश्चर्यजनक अंतर पाया जाता है। इतना अंतर होगा इसकी कल्पना भी आम आदमी नहीं कर सकता। एक ओर कृषि के क्षेत्र में उत्पादकों को लाभकारी मूल्य भी प्राप्त नहीं हो रहा, सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों से उनका उत्पादन खर्चा भी नहीं निकल रहा और दूसरी ओर औद्योगिक क्षेत्र के उत्पादक अनापशनाप मुनाफा कमा रहे हैं। उत्पादकों को-उनका उत्पादन खर्चा निकालकर-उचित 'लाभांश' प्राप्त होना चाहिए। यह बात तो समझ में आ सकती है। किंतु 'उचित लाभांश' की कुछ परिभाषा कुछ सीमा होनी चाहिए या नहीं? इस दृष्टि से हर वस्तु का उत्पादन खर्चा घोषित होना आवश्यक है। उसके बाद उस वस्तु पर उत्पादकों को लाभांश कितना मिलना चाहिए इस पर शास्त्रीय चर्चा हो सकती है। किंतु अब तक चल रहा उस तरह उपभोक्ताओं का असीम शोषण आगे नहीं चलने देना चाहिए।

यह माँग और एक दृष्टि से आवश्यक है। विदेशी पूँजी के एजेण्टों ने यह गलत प्रचार चलाया। 'स्वदेशी जागरण मंच' के पीछे प्रेरणा वास्तविक स्वदेश भक्ति की नहीं है। देशी पूँजीपतियों ने अपने निजी लाभ के हेतु 'मंच' के कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित किया है। विदेश से आने वाली जिस वस्तु का बहिष्कार किया जाएगा उस वस्तु को बेचने वाले का बहिष्कार भी किया जाएगा। अन्यथा देशी उद्योगपति को उस वस्तु पर चाहे जितना मुनाफा लेने की खुली छूट मिल जाएगी। यह प्रचार दबी जबान से बड़े पैमाने पर चलाया जा रहा है। 'उत्पादन खर्चा घोषित करो' इस माँग के कारण इस दुष्प्रचार की हवा ही निकल जाती है। हमारी यह माँग दोनों पर-विदेशी तथा देशी उत्पादकों पर लागू है। उसके कारण उपभोक्ताओं का शोषण करने की दोनों की क्षमता समाप्त हो जाती है और एक असमर्थनीय गलत धारणा का अपने आप निराकरण हो जाता है।

इस माँग को संपूर्ण मंच के द्वारा उठाया जाए या मंच में सम्मिलित हुए आर्थिक क्षेत्र से संबंधित संस्थाओं तक ही अभी इस दायित्व को सीमित रखा जाए, इस पर अगली बैठक में विचार होगा ऐसा नागपुर है बैठक में तय हुआ था। इस पर हम यहाँ विचार करेंगे।

नागपुर बैठक में तय किया गया था कि स्वदेशी जागरण के नित्य कार्यक्रमों के साथ ही उसके सघन प्रचार के लिए एक पखवाड़ा भी मनाया जाए। किंतु इसमें सहभागी होने वाले देशभक्तों की सुविधा-असुविधा को ध्यान में रखकर यह भी तय किया गया कि हर प्रदेश इस पखवाड़े के लिए उपयुक्त समय स्वयं निश्चित करे। इस वर्ष भी निर्धारित नित्य कार्यक्रमों के साथ सघन प्रचार के लिए एक पखवाड़ा या सप्ताह मनाने का विचार उपयुक्त होगा क्या, यह विचार यहाँ करना है। मनाने का निर्णय हुआ तो यह भी सोचना पड़ेगा कि ऐसे सप्ताह या पखवाड़े का समय क्या रहे। क्योंकि इसमें सक्रिय होने वाले देशभक्तों के सामने और भी राष्ट्रीय महत्व के आह्वान हैं। सप्ताह या पखवाड़े के समय का निर्णय राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के प्रकाश में करना होगा।

वैसे ही उस अवधि में करणीय कार्य के स्वरूप पर भी विचार करना है। गत वर्ष के समान प्रचार कार्य तो सघन रूप से होना ही चाहिए। किंतु इस वर्ष क्या हम इस कार्य को कोई नया आयाम भी जोड़ सकते हैं? जैसे-जिन शासकीय, औद्योगिक, शैक्षणिक या अन्य संस्थाओं में थोक खरीदी होती है- उदाहरण-चपरासियों की वर्दियों के लिए कपड़े की थोक खरीदी-उन संस्थाओं के संचालकों से मिलकर उन्हें प्रार्थना करना कि उनकी संपूर्ण खरीदी स्वदेशी वस्तुओं की ही हो। ऐसे और भी कुछ आयाम हो सकते हैं क्या? जो नए हों तथा व्यवहारिक भी।

नागपुर बैठक में निश्चय हुआ था तद्नुसार वैकल्पिक स्वदेशी-विदेशी वस्तुओं की सूचियाँ मंच की ओर से प्रकाशित हई। ये सूचियाँ प्राथमिक स्वरूप की तथा अपूर्ण थीं, यह स्पष्ट है। उसी समय यह भी सूचित किया गया था कि इस विषय में नई जानकारी जैसे-जैसे प्राप्त होगा वैसे-वैसे वह प्रकाशित की जाएगी। यह कार्य चल रहा है। यह भी सही है कि इस समय हमारा ध्यान उपभोक्ता वस्तुओं तथा दवाईयों तक ही सीमित है। किंतु इस कार्य को निरपवाद रूप से चलाने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि 'स्वदेशी' तथा 'विदेशी' (उद्योग) की शास्त्रशुद्ध परिभाषा प्रथम निश्चित हो। इसकी शास्त्रशुद्ध कसौटियाँ तय की जाएँ। गहन तथा सूक्ष्म चिंतन के पश्चात् ही इस विषय का निर्णय हो सकता है। कुल मिलाकर आज की औद्योगिक रचना इतनी उलझन वाली हो गई है कि उपयुक्त कसौटियाँ तुरंत तय करना यह सरल कार्य नहीं है। यह कार्य हमें इस बैठक में पूरा करना है।

साथ ही और एक पहल पर विचार करना है। आज हम सभी उपभोक्ता-वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। यह तो जारी रखना ही है। किंतु इसके साथ ही दो या तीन नित्योपयोगी उपभोक्ता वस्तुओं को (जैसे- टूथपेस्ट, साबुन आदि) अपना प्रमुख निशाना बनाकर उन पर अधिक केंद्रित किया तो उससे कुछ अधिक ठोस परिणाम प्राप्त हो सकते हैं क्या? इसके दोनों (अस्ति-नास्ति) पक्षों पर इस बैठक में विचार होना उपयुक्त रहेगा।

पिछली बैठक के बाद, बीच की कालावधि में परिस्थिति में एक गुणात्मक परिवर्तन आया है। अपना कार्य प्रारंभ हुआ उस समय कुछ सद्भावनापूर्ण बंधुओं के मन में यह संदेह था कि विदेशी आर्थिक साम्राज्य के विषय में स्वदेशी जागरण वालों का प्रतिपादन कहीं अत्युक्तिपूर्ण तो नहीं? स्वदेशी का सिद्धांत तो अच्छा ही है, किंतु आर्थिक गुलामी का जो चित्र ये प्रस्तुत कर रहे हैं, वह अतिरंजित तो नहीं? अब डंकल प्रस्तावों के कारण उनका वह संदेह भी दूर हो गया है। किंतु यह भी सत्य है कि सर्वसाधारण जनता उन प्रस्तावों के स्वरूप से तथा परिणामों से प्रायः अपरिचित है। विशेष रूप से जिन किसानों पर इन प्रस्तावों के कारण वज्राघात होने वाला है। वे इस विषय में पूर्णरूपेण अज्ञानी अतएव उदासीन हैं। वे कल्पना ही नहीं कर सकते कि पश्चिम के विदेशी पूँजी वाले उनके कृषि माल के लिए नई मंडियाँ निर्माण करने के प्रयास में तृतीय विश्व के सभी देशों की कृषि नष्ट करना चाहते हैं। उद्योग के क्षेत्र में विदेशी आर्थिक साम्राज्य के अग्रदूत के रूप में विदेशी तकनीकी आ गई है और आ रही है और उसके अविवेकपूर्ण प्रयोग के भीषण दुष्परिणामों के विषय में सभी को गुमराह करने की दृष्टि से आकर्षक तथा व्यापक प्रचार जोरों से चल रहा है। अज्ञान के कारण सामान्य भारतीय नागरिक विदेशी ऋण के विषय में उदासीन हैं। वह सोचता है कि इस विषय से मेरा क्या लेना देना है, यह सरकार का सिरदर्द है, सरकार इसको देख ले। संकट सभी दिशाओं से बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। एक नया कार्य इस नाते अब तक हुई हमारी प्रगति असमाधानकारक नहीं है। किंतु निरंतर बढ़ रहे आह्वानों के परिप्रेक्ष्य में हमारे कार्य की गति अति असंतोषजनक प्रतीत होती है। सबसे अधिक चिंता का विषय यह है कि कम से कम समय में इस जागरण को सर्वव्यापी बनाने की दृष्टि से मंच के कार्य की रचना कैसी हो, इस विषय की स्पष्ट कल्पना कार्यकर्ताओं के मन में अब तक नहीं है। सार्वजनिक जीवन में लोगों को संस्था प्रधान रचना का ही अभ्यास सामान्यतः हुआ करता है। संस्था प्रधान संस्था रचना के कारण कार्य पर आने वाली मर्यादाओं से सभी परिचित हैं। इन मर्यादाओं के रहते हुए कार्य सर्वसमावेशक नहीं हो सकता, यह भी वे जानते हैं। कार्य का सर्वसमावेश बनाने की उनकी हार्दिक इच्छा भी है। किंतु सोचते हैं कि आखिर संस्था प्रधान रचना को छोड़कर और कौन-सी रचना हो सकती है? कोई भी कार्य करना है तो उसको संस्था के स्वरूप के ढाँचे में बिठाना पड़ेगा जिसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री आदि पदाधिकारियों का अस्तित्व अनिवार्य हो जाता है।

इस बैठक में हमें सोचना है कि हमारे उद्देश्य की दृष्टि से किस तरह की रचना 'मंच' के लिए अनुकूल रहेगी। परंपरागत , रूढ़ संस्था प्रधान रचना के आधार पर हम आज के अभूतपूर्व संकट का सामना नहीं कर सकते। असामान्य आह्वान असामान्य रचना की अपेक्षा करते हैं।

आक्रमण जितना सर्वव्यापी है उतनी ही सर्वव्यापी कार्य रचना होना आवश्यक है। संस्था प्रधान रचना की भी अपनी एक विशेष स्वरूप की शक्ति हुआ करती है। सामान्य परिस्थिति में वह शक्ति परिणामकारक होती है, इच्छित फलदायी सिद्ध हो सकती है। किंतु उस रचना की मर्यादाओं के कारण संस्था प्रधान रचना सर्वसमावेशक नहीं हो सकती। समान उद्देश्य को तथा उनकी प्राप्ति के लिए मोटे तौर पर तय की गई सर्वसम्मत रणनीति को ध्यान में रखकर देश में विभिन्न मतावलंबी देशभक्त विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्तिगत रूप से या व्यक्तिसमूह के रूप में, स्वयं प्रेरणा से तथा स्वयं की उपक्रमशीलता के आधार पर, अकेले अकेले या अन्य व्यक्ति समूहों से मिलकर, कार्य के लिए सोत्साह आगे बढ़ रहे हैं यह दृश्य संस्था प्रधान रचना के फलस्वरूप निर्माण नहीं हो सकता। ध्येय की समानता तथा स्थूलरूप से स्वीकृत की गई सर्वसम्मत रणनीति-ये दो बातें तो अनिवार्य हैं। किंतु विभिन्न व्यक्ति समूहों की अस्मिता को अक्षुण्ण, कायम रहने देते हुए उनकी सभी शक्तियों का उपयोग विशिष्ट कार्य के लिए हो सके इसकी गुंजायश संस्था प्रधान रचना में हो नहीं सकती।

इस संबंध में एक समानांतर उदाहरण देना उपयुक्त होगा। किसी भी देश की सुरक्षा का आधार उस देश की जल-थल-अंबर की नियमित सेनाएँ ही हुआ करती हैं। दूसरे देश पर आक्रमण करने की योजना हो तो उसका भी आधार नियमित सेनाएँ ही हुआ करती हैं। किंतु जब किसी पराये देश का सर्वव्यापी आक्रमण होता है, उसके दबाव के नीचे स्वदेश की प्रस्थापित संस्थाएँ तथा सैनिकी रचनाएँ नष्ट या निष्प्रभ हो जाती हैं, जब देशभक्त प्रतिकारक किस रचना को स्वीकार करते हैं? औरंगजेब को विशाल आक्रामक सेना पर विभिन्न स्थानों पर विभिन्न समय स्वयं प्रेरणा से हमले करते हुए उसको हमेशा चिंताग्रस्त रखने का काम करने वाले गुरिल्ला-यूनिट्स को संस्था प्रधान रचना संज्ञा दी जा सकती है क्या? विभिन्न रचनाओं का महत्व विभिन्न स्वरूपों का हुआ करता है। अटक कर भगवा ध्वज लहराने वाले साबाजी शिंदे की नियमित सेना का अपना एक वैशिष्ट्यपूर्ण महत्व है, औरंगजेब की सेना की नींद हराम करने वाले धनाजी-संताजी के अनियमित गुरिल्ला-यूनिट्स का अपना एक अलग वैशिष्ट्यपूर्ण महत्व हैं। विभिन्न परिस्थितियाँ विभिन्न रचनाओं की माँग करती हैं। स्वदेशी का अभियान पूर्णरूपेण शांतिपूर्ण तथा अहिंसात्मक है। इस अभियान में सहभागी होना यह सभी देशभक्तों का अधिकार तथा कर्तव्य है। अपनी-अपनी व्यक्तिगत या समूहगत अस्मिता को कायम रखते हुए सभी इसमें सहभागी हो सकें ऐसी रचना का हमें विकास करना होगा। इस दृष्टि से पहली आवश्यकता यह है कि हममें से हर एक कार्यकर्ता के मन में यह भाव दृढ़ होना चाहिए कि 'स्वदेशी जागरण मंच' यह संस्था नहीं, जन आंदोलन है। इस दृष्टि से उपयुक्त रचना का विस्तार हमें इस बैठक में करना है। वैसे ही यह जन आंदोलन ग्राम-ग्राम तक कैसे फैलाया जा सकता है इसकी भी योजना यहाँ बनानी है।

हमारे लिए यह हर्ष का विषय है कि सरकार्यवाह आदरणीय शेषाद्रि जी इस बैठक में हमारे साथ हैं।

इस बैठक की व्यवस्था का दायित्व 'मंच' की मुंबई समिति के कार्यकर्ताओं ने सफलतापूर्वक निभाया है। हम सब इस सप्रेम आतिथ्य के लिए उनके हृदय से आभारी हैं। यह उल्लेखनीय है कि मुंबई समिति में विभिन्न विचार धाराओं के स्वदेशभक्त बंधु क्रियाशील हैं।

बैठक के सभागृह का नाम 'बाबू गेनू सभागृह' रखा गया है। स्वदेशी आंदोलन के इतिहास में 'बाबू गेनू' का स्थान वैशिष्ट्यपूर्ण है। दिनांक 12 दिसंबर 1930 को मुंबई के कपड़ा बाजार के इस कामगार ने कालबादेवी रोड पर विदेशी वस्त्रों की गाड़ी को रोकने के प्रयास में हौतात्म्य स्वीकार किया था। स्वदेशी के जागरण का सूत्रपात वैसे तो लाल-बाल-पाल तथा युवा सावरकर के समय ही हो चुका था। किंतु इस प्रयास में प्रत्यक्ष आत्म बलिदान करने वाले प्रथम हुतात्मा बाबू गेनू था। उनकी स्मृति स्वदेश भक्तों को सदैव प्रेरणादायक रहेगी। इस संदर्भ में सामूहिक कार्यवाही के नाते सन् 1932 में हुई गोदी कामगारों की हड़ताल का भी उल्लेख यहाँ करना अप्रासंगिक नहीं होगा।

एक वर्ष पूर्व इस आंदोलन का श्रीगणेश हुआ। स्वातंत्र्य के द्वितीय युद्ध के प्रारंभ की घोषणा हुई। इस अवधि में जो तरह-तरह के अनुभव आए उनको तथा परिवर्तित परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस बैठक में हम संपूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता के अपने चिरवांछित ध्येय के प्रकाश में, कार्य की आगामी दिशा तय करने वाले हैं। हमारे संकल्प विशुद्ध होने के कारण हमारे निर्णय समुचित ही रहेंगे, इसमें संदेह नहीं।

इस कारण हमारी कल होनेवाली सार्वजनिक सभा का व्यावहारिक अर्थ होगा-'पुनश्च हरिः'।

('पुनश्च हरिः')

पुस्तिका से

सर्वपंथ समादर मंच का उदय

अख्तर हुसैन

प्रभारी सर्वपंथ समादर मंच

एवं पर्यावरण मंच

पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष (भा.म.संघ)

बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश)

भारतीय मजदूर संघ केवल दाल रोटी तक सीमित संगठन नहीं अपितु समाज परिवर्तन का, राष्ट्रोत्थान का यह एक विशुद्ध साधन है। इसी कारण भारतीय मजदूर संघ की प्रदीर्घ यात्रा में कार्यकर्ताओं की इसकी अनुभूति हुई कि कारखानों, उद्योगों या कार्यालयों में काम करने वाले मजदूर, कामगार या कर्मचारी अपनी आर्थिक माँगों, वेतन वृद्धि, महँगाई भत्ता, बोनस वगैरह के विषय पर एकत्र होते रहे हैं और इसके लिए आंदोलन भी करते रहे हैं, परंतु आंदोलनरत कर्मियों के मन में यह भाव कतई नहीं रहता कि वे किसी जाति के हैं या किस पंथ को मानने वाले हैं। यहाँ तक कि वे यह भी नहीं सोचते कि उनकी राजनीतिक विचारधारा क्या है? बिल्कुल भेदभाव से रहित होकर मजदूर, कामगार एवं कर्मचारी एक झंडे के नीचे आते हैं यह भी वे नहीं देखते कि ऐस आंदोलनों में नेतृत्व करने वाला कौन है; चाहे वह मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध सिख या जैन कोई भी हो, नेता किसी मत का भी हो सकता है। भिन्न-भिन्न पंथों के अनुयायी एकत्र होकर आंदोलन करते हैं।

चिंतन प्रक्रिया

यह भी सच है कि वे कारखानों, कार्यालयों और औद्योगिक वसाहतों (क्षेत्रों) में एक साथ चाय-पान तथा भोजन आदि करते हैं। जब कार पिकनिक, अधिवेशन या बड़े जुलूस की तैयारी होती है, सभी मिलकर यात्रा करते हैं और ऐसे समय में सभी धर्मस्थलों के समान भाव से दर्शन करते हैं। यदि ऐसा है तो अपनी-अपनी बस्ती में ये मजदूर, कर्मचारी या मजदूर संगठनों के पदाधिकारी एक-दूसरे के मजहब के बारे में समान आदर रखने की संभावना को क्यों नहीं तलाशते? इस दृष्टि से अपनी-अपनी बस्ती, अपने अपने गाँव, अपने-अपने मोहल्ले में उसी सद्भाव से, उसी आत्मीयता से क्यों नहीं रह सकते? जबकि ऐसा सामंजस्य जागृत करना आवश्यक है।

प्रत्यक्ष अनुभूति

यह भी ध्यान में आया कि भारतीय मजदूर संघ के कई गीतों में भगवद् ध्वज की श्रेष्ठता का वर्णन किया गया है। भगवा अपने देश का, श्रमिकों का, मजदूरों का" आदि प्रमुख गीत सभी पंथ के कार्यकर्ता आनंद और तन्मयता से एक ही स्वर में गाया करते हैं। कई मुस्लिम, क्रिश्चियन, सिख, आर्यसमाजी, सनातन धर्मी, पारस धर्मी, पारसी, जैन, बौद्ध आदि पंथों के प्रमुख अधिकारी गायक भी हैं। वे मंच पर आकर इसी प्रकार के गीत माइक से गाते हैं और उपस्थित सभी कामगार, कर्मचारी मजदूर ऐसे गीतों को उसी भाव से दोहराते हैं। राष्ट्रभक्त मजदूरों एक हो एक हो" नई जवानी भगवा रंग-मजदूरों का मजदर संघ", देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम", प्रेम से बोलो वंदेमातरम", भारत माता की जय हो" आदि नारे सामहिक रूप में और समरसता से दुहराते हैं।

यह सब देखते हुए भारतीय मजदूर संघ के प्रमुख लोगों को लगा कि जिस प्रकार मजदूर आंदोलन में हम समानता से-पंथ और जाति का भेद भूलकर एकत्र होते हैं, उसी प्रकार आज भारत में जो जाति भेद, पंथ भेद आदि बढ़ रहे हैं, खींचातानी और तनावपूर्ण वातावरण पंथों में है, उसे नष्ट करके सभी पंथों में परस्पर सामंजस्य, आत्मीयता, प्रेम और समादार की भावना जाग्रत करने के लिए कुछ न कुछ करना ही चाहिए।

कौन करेगा यह काम ?

आखिर यह काम है किसका? यह महत्वपूर्ण कार्य कौन करेगा? देश का यह महत्वपूर्ण कार्य जिसकी आज अतीव आवश्यकता है? क्या कोई राजनीतिक दल या राजकीय पक्ष यह काम कर सकेगा? कदाचित नहीं। इसका कारण जाति-जाति में, पंथ-पंथ में फैला हुआ द्वेष और तनाव है जो राजनीतिक स्वार्थ के कारण उत्पन्न फसल है अंग्रेजों ने जो फूट डालो और शासन करो की रणनीति अपनाई, उससे सनातन धर्मी, मुस्लिम, सिख ईसाई आदि में द्वेष भाव बढ़ता गया। दुर्दैव से स्वातंत्र्योत्तर काल में प्रायः सभी राजनीतिक दलों ने भी यही किया। मतों का राजनीतिकरण करते समय उन्हें यह चिंता नहीं रहती कि हम देश का, समाज का वातावरण कैसा विषैला कर रहे हैं। उन्हें तो अधिकतम मत अपने पक्ष में करना है-इसके लिए चाहे उन्हें कैसा भी कदम क्यों न उठाना पड़े। तथाकथित वामपंथी, पुरोगामी और धर्मनिरपेक्ष आदि कहलाने वाले दलों को भी इसकी कोई परवाह नहीं। इस पृष्ठभूमि पर अर्थात् पंथोपंथ से हटकर समादर भाव, एकात्मकता का भाव, परस्पर सदभाव के क्षेत्र में कोई भी दल पहल करने को तैयार नहीं और एकाध दल अगर ऐसा करने की कोशिश भी करेगा तो उसके सहभागियों को लोग साफ-सुथरी दृष्टि से नहीं देखेंगे। कारण यह है कि आज का सामाजिक वातावरण बहुत ही प्रदूषित और गंदा हो गया है।

मजदूर संघ ने जिम्मेदारी ली

भारतीय मजदूर संघ का कार्य सभी प्रान्तों, जिलों और गाँव-गाँव में फैला हुआ है। इतना बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर जिसके पास है और जिसके कई पदाधिकारी भिन्न-भिन्न पंथों के हैं, मजदूर क्षेत्र में एकत्र होकर काम कर रहे हैं, ऐसा भारतीय मजदूर संघ इस दायित्व को अपने मजबूत कंधों पर क्यों न उठाए? साथ ही साथ जब भारतीय मजदूर संघ कहता है- मजदूरों! विश्व को एक करो (वर्कर्स-यूनाइट दि वर्ल्ड) तो भारत के समाज को एक करना यह सर्वप्रथम दायित्व है। इस तरह के विचार भारतीय मजदूर संघ के नेतृत्वकर्ताओं के मन में पिछले नौ-दस वर्ष पहले आए, जिसके लिए अब प्रयत्न भी किए जा रहे हैं। यह उस सोच की ही परिणति है कि 16 अप्रैल 1994 को नागपुर के रेशमबाग में भारतीय मजदूर संघ के दो दिवसीय अधिवेशन में एक नए मंच का गठन किया गया, जिसका नाम 'सर्वपंथ समादर मंच' रखा गया। भारत में सर्व पंथ समादर मंच की स्थापना के पूर्व अनेक महानुभावों ने परस्पर सहिष्णुता की कोशिश की पर उनमें पूर्ण समादर का भाव नहीं था। समाज के उत्थान के लिए समादर वांछनीय है, इस दृष्टि से 'समादर मंच' नाम रखा गया।

स्थापना बैठक

16 अप्रैल 1994 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक प.पू. डॉक्टर हेडगेवार जी के समाधि स्थान रेशम बाग में, भारतीय मजदूर संघ के स्थान-स्थान पर जो भिन्न-भिन्न मतानुयायी, पदाधिकारी और संबद्ध महासंघों के प्रांत स्तरीय तथा अखिल भारतीय स्तर के पदाधिकारी हैं अर्थात् चुने हुए सभी पंथों के कार्यकर्ता एकत्र हुए, उनमें ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, आर्य समाज, सिख सनातन धर्मी, पारसी, सभी पंथोपपंथ के कार्यकर्ता उपस्थित थे। जो 'सर्वपंथ समादर मंच' की स्थापना अधिवेशन के निमित्त एकत्र हुए थे।

नागपुर के इस दो दिवसीय अधिवेशन का उद्घाटन करने हेतु उद्घाटनकर्ता के रूप में इस्लाम पंथ के साधक, चिंतक और स्वतंत्रतापूर्वक उदार मन से कार्य करने वाले मौलाना वहीदुद्दीन खान खास इसी के लिए दिल्ली से आए थे और अध्यक्ष के नाते उस सभा में उपस्थित थे। नागपुर विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति (वाइस चांसलर) पारसी मतानुयायी श्री जाल पी. जिमी दोनों दिन तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह मा. मदनदास जी देवी उपस्थित थे।

मौ. वहीदुद्दीन द्वारा मार्गदर्शन

मंच का उद्घाटन करते हुए मौलाना वहीदुद्दीन खान साहब ने कहा-स्वयं के स्वार्थ की पूर्ति हेतु कई मुस्लिम नेता और मौलवी 'वंदे मातरम्' नारे का विरोध करते हैं। जिस दिन सभी मुस्लिम इस भारत देश हिंदुओं के जैसे अपना देश मानने लगेंगे और मन से, दिल से 'वंदेमातरम्' कहेंगे, उसी एक दिन में जातीय संघर्ष नष्ट हो जाएगा और भारत एक समर्थ राष्ट्र के रूप में खड़ा हो जाएगा।"

श्री जाल पी. जिमी ने इस अवसर पर अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा-सर्वपंथ समादर मंच का कार्य भारत के कोने-कोने में खड़ा करने के लिए भारतीय मजदूर संघ एक अच्छा वाहक बन सकता है। अपनी भौतिक माँगों की पूर्ति हेतु अपने पंथ, उपपंथ भूलकर यदि लोग एकत्र हो सकते हैं तो वे समाज परिवर्तन की दृष्टि से सभी पंथों के अनुयायियों में एकात्मकता लाने हेतु भी एक मंच पर आ सकते हैं। जैसे-कामगार आंदोलन में ऊँच-नीच का भाव मिटाकर लोग कंधे से कंधा मिलाकर साथ-साथ चलते हैं, ठीक उसी तरह वे राष्ट्रीयता, संस्कृति और परमार्थ की दृष्टि से भी सभी पंथों में समान आदर का भाव निर्मित करने हेतु मंच का काम संपूर्ण भारत में फैला सकेंगे और इसी समानता से, सद्भाव से भिन्न-भिन्न मतानुयायियों को भारतीय मजदूर संघ एक सूत्र में बाँध सकेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।"

एक द्विदिवसीय अधिवेशन के प्रेरक और मार्गदर्शक थे भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी, जिन्हें वहाँ उपस्थित पदाधिकारी न सिर्फ इस तरह के भाषण करते हुए बल्कि इसी प्रकार से आचार-व्यवहार, रहन-सहन भी अपनाते हुए वर्षों से देखते आ रहे हैं। उनके पारदर्शी जीवन से सर्वपंथ समादर मंच की अनुभूति कार्यकर्ताओं के लिए कोई नई चीज नहीं थी।

उस अवसर पर श्री ठेंगड़ी जी ने कहा-भारतीय मजदूर संघ केवल रोजी-रोटी कमाने वाला संगठन नहीं है। वेतन वृद्धि, महँगाई भत्ता, और बोनस, सिर्फ इतनी ही माँगों तक हमारा संगठन सीमित नहीं है। राष्ट्र के पुनरुत्थान का, व्यवस्था के नवनिर्माण का भारतीय मजदूर संघ एक साधन है। इसलिए आप सभी कार्यकर्ताओं को अग्रसर होकर जगह-जगह पर इस सर्वपंथ समादर मंच का कार्य करना है। भारत के सभी जिलों तक मंच की शाखा खड़ी होनी चाहिए।

राष्ट्रीय समिति का गठन

इसी अधिवेशन में सर्वपंथ समादर मंच की राष्ट्रीय समिति गठित की गई, जिसका स्वरूप इस प्रकार था-

अध्यक्ष : श्री जाल पी. जिमी

उपाध्यक्ष : सरदार सुखनंदन सिंह (महामंत्रीः भा.म.संघ, हरियाणा)

: श्री अख्तर हुसैन (भारतीय मजदूर संघ के उपाध्यक्ष तथा अ.भा. विद्युत मजदूर संघ के अध्यक्ष)

: श्री गोप मसीही (हरियाणा प्रदेश मंत्री)

महामंत्री : श्री आलम गीर गौरी (जिलाध्यक्ष, भारतीय मजदूर संघ, इन्दौर)

मंत्री : सरदार लक्ष्मण रवीन्द्र सिंह (संगठक, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश)

: श्री फिरोज खान (मंत्री, भारतीय मजदूर संघ, राजस्थान)

कोषाध्यक्ष : श्री भगवान दास गोंडाणे

अखिल भारतीय मंच खड़ा करने के लिए तो कई व्यवस्थाएँ और तंत्र होना चाहिए। इस दृष्टि से तय किया गया कि भारतीय मजदूर संघ के केंद्र, प्रदेश तथा जिला कार्यालय ही सर्वपंथ समादर मंच के केंद्र, प्रदेश तथा जिला कार्यालय होंगे। 1994 के भारतीय मजदूर संघ के स्थापना दिवस 23 जुलाई को सभी प्रदेशों में, जिलों में इस मंच के कार्यालयों का उद्घाटन करने का निर्णय हुआ। सभी कार्यकर्ताओं कहा गया कि तत्काल ही प्रदेशों में मंच की जिला समितियाँ गठित जाएँ जिसकी पूछताछ भी इसके पदाधिकारियों द्वारा शुरू हो गई है। इसी कारण प्रायः अधिकांश जिलों के कार्यालयों पर भारतीय मजदूर संघ के बोर्ड के साथ सर्वपंथ समादर मंच का बोर्ड भी चमकता दिखेगा।

कार्यक्रम की दृष्टि से 25 मार्च का दिन एकात्मकता दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया गया है। इसका कारण यह है कि हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयासरत श्री गणेश शंकर विद्यार्थी का इसी दिन बलिदान हुआ था। 1995 और 1996 के 25 मार्च को इस अवसर पर सर्वपंथ समादर मंच के कई कार्यक्रम हुए। धीरे-धीरे इस मंच के कार्यक्रम भारत में सभी जगह शुरू होते गए।

सन् 1997 में कानपुर में द्वितीय, सन् 2001 में हैदराबाद में तृतीय तथा 29-30 मार्च 2006 को अजमेर में चतुर्थ अधिवेशन संपन्न हुआ। अजमेर में 21 प्रान्तों का प्रतिनिधित्व इसके कार्य विस्तार का प्रबल प्रमाण है। सामाजिक परिवर्तन के कार्य में भारतीय मजदूर संघ के अंतर्गत सर्वपंथ समादर मंच अपना महत्वपूर्ण योगदान देगा, ऐसा विश्वास है।


सोपान - 1

( कुछ प्रमुख बिंदु)

v अनुभव यही आया कि ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण (रूरल क्रेडिट सर्वे) का सन् 1954 में निकाला हुआ निष्कर्ष आज भी उतना ही सही है: "Co-operation has failed, but co-operation must succeed." (सहयोग असफल हुआ, पर सहयोग अवश्य सफल होना चाहिए।

v सरकार कृषि की लागत (Inputs) की कीमत कम करवाए। खाद, बिजली, पानी, ट्रैक्टर, ट्राली, कीटाणुनाशक दवाइयाँ, आदि वस्तुएँ उसे सस्ते में उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए। बिजली की दर उद्योगपतियों के लिए कम और किसानों के लिए अधिक हैं। यह पक्षपात क्यों? फिर, किसान जो माल बेचता है उसकी कीमतें आप जितनी मात्रा में कम करना चाहते हैं, उतनी ही मात्रा में शहरी वस्तुओं की कीमतों और कारखाने में निर्मित माल की कीमतों का सामंजस्य होना चाहिए।

v सरदार वल्लभभाई पटेल के द्वारा बारडोली में चलाया गया किसान आंदोलन तथा महात्माजी द्वारा संचालित नील मजदूरों का आंदोलन हमारे इतिहास के शानदार अध्याय हैं, किंतु संगठन के इतिहास में उनका समावेश नहीं होता। संथाल विद्रोह, बंगाल का 'त्रिभाग' आंदोलन तथा तेलंगाना का किसान मजदूर आंदोलन मूलतः स्थानीय किसान मजदूरों की स्वयंप्रेरणा से ही प्रारंभ हुए थे।

v चीन-प्रभावित रणनीति के परिणामस्वरूप नक्सलबाड़ी, आंध्र तथा केरल के कुछ हिस्सों में चलायी गई नक्सलवादी गतिविधियाँ हम सभी जानते हैं। आज यह संप्रदाय 12-13 हिस्सों में बँटा हुआ है। उनके भी अपने कुछ आदर्श तथा सिद्धांत हैं और हमसे मेल न खाने वाले होते हुए भी उनकी आदर्शवादिता के विषय में हमारे मन में संदेह नहीं है। किंतु उनका कार्य क्रांति के इतिहास का एक अध्याय हो सकता है, किसान संगठन के इतिहास का नहीं।

v फिर, कोई भी व्यक्ति एक ही समय दो मालिकों की सेवा ईमानदारी से नहीं कर सकता। किसान संघ को गैर-राजनीतिक स्तर पर रहते हुए काम करने का निर्णय स्वागत योग्य है। इसी से यह संगठन सही माने में प्रतिनिधि बनेगा; सर्वव्यापी तथा शक्तिशाली बनेगा। इस तरह का स्वतंत्र, गैर-राजनीतिक, प्रतिनिधि संगठन खडा करना आज देश की प्रमुख आवश्यकता है।

v संपूर्ण समाज, संपूर्ण राष्ट्र के साथ एकात्मता रखने वाले कार्यकर्ता ही यह कार्य कर सकते हैं। भारतीय किसान संघ के कार्यकर्ता इसी मन:स्थिति को लेकर मैदान में आए हैं, यह मुझे विश्वास है। अपनी विशुद्ध राष्ट्रभक्ति के कारण आप यह कार्य सिद्ध करेंगे तो राष्ट्रीय एकात्मता तथा राष्ट्र-निर्माण के कार्य में आपने अति महत्वपूर्ण योगदान किया है, ऐसा इतिहास में लिखा जाएगा। इस तरह की स्वस्थ जागृति के लिए कितना भी त्याग करना पड़े, वह करने के लिए हम सदा सिद्ध रहें, यही अपेक्षा है।

v स्वदेशी का प्रचार यह एक बात है। किंतु उसके परिणामस्वरूप जितने व्यक्तियों ने या परिवारों ने प्रत्यक्ष व्यवहार में विदेशी वस्तुओं का त्याग और उसके साथ ही स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग-कुछ न कुछ मात्रा में प्रारंभ किया इसकी आंकड़ों के आधार पर जानकारी, यह दूसरी बात है। इसके लिए सर्वेक्षण की आवश्यकता हुआ करती है।

v विदेशी पूँजी के हाथ बड़े लंबे हैं। लोगों को गुमराह करने की उनकी क्षमता असीम है। झूठे प्रचार की कला के विशेषज्ञ बहुत बड़ी संख्या में उनकी सेवाओं में है। अपने हितों की रक्षा हेतु तथा स्वदेशी जागरण को विफल बनाने के लिए विदेशी पूँजी ने इस कालावधि में कई हथकंडे अपनाए हैं।

v 'उत्पादन खर्चा घोषित करो' इस माँग के कारण इस दुष्प्रचार की हवा ही निकल जाती है। हमारी यह माँग दोनों पर-विदेशी तथा देशी उत्पादकों पर लागू है। उसके कारण उपभोक्ताओं का शोषण करने की दोनों की क्षमता समाप्त हो जाती है और एक असमर्थनीय गलत धारणा का अपने आप निराकरण हो जाता है।

v 'स्वदेशी जागरण मंच' यह संस्था नहीं, जन आंदोलन है। इस दृष्टि से उपयुक्त रचना का विस्तार हमें इस बैठक में करना है। वैसे ही यह जन आंदोलन ग्राम-ग्राम तक कैसे फैलाया जा सकता है इसकी भी योजना यहाँ बनानी है।

v भगवा अपने देश का, श्रमिकों का, मजदूरों का" आदि प्रमुख गीत सभी पंथ के कार्यकर्ता आनंद और तन्मयता से एक ही स्वर में गाया करते हैं। कई मुस्लिम, क्रिश्चियन, सिख, आर्य समाजी, सनातन धर्मी, पारस धर्मी, पारसी, जैन, बौद्ध आदि पंथों के प्रमुख अधिकारी गायक भी हैं। वे मंच पर आकर इसी प्रकार के गीत माइक से गाते हैं और उपस्थित सभी कामगार, कर्मचारी मजदूर ऐसे गीतों को उसी भाव से दोहराते हैं।

v मंच का उद्घाटन करते हुए मौलाना वहीदुद्दीन खान साहब ने कहा-स्वयं के स्वार्थ की पूर्ति हेतु कई मुस्लिम नेता और मौलवी 'वंदे मातरम्' नारे का विरोध करते हैं। जिस दिन सभी मुस्लिम इस भारत देश को हिंदुओं के जैसे अपना देश मानने लगेंगे और मन से, दिल से 'वंदेमातरम्' कहेंगे, उसी एक दिन में जातीय संघर्ष नष्ट हो जाएगा और भारत एक समर्थ राष्ट्र के रूप में खड़ा हो जाएगा।"

v श्री ठेंगड़ी जी ने कहा-भारतीय मजदूर संघ केवल रोजी-रोटी कमाने वाला संगठन नहीं है। वेतन वृद्धि, महँगाई भत्ता, और बोनस, सिर्फ इतनी ही माँगों तक हमारा संगठन सीमित नहीं है। राष्ट्र के पुनरुत्थान का, व्यवस्था के नवनिर्माण का भारतीय मजदूर संघ एक साधन है।

खंड - 8

सोपान - 2

सोपान- 2 ( भारतीय किसान संघ , स्वदेशी जागरण मंच ,

सर्वपंथ समादर मंच , पर्यावरण मंच-लेख)

1. किसान संघ की परिभाषा-किसान संघ क्यों?...दत्तोपंत ठेंगड़ी

2. अल्पसंख्यक और हिंदू समाज......... दत्तोपंत ठेंगड़ी

3. पर्यावरण संरक्षण..... पं. राम प्रकाश मिश्र

4. मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना..... अख्तर हुसैन

5. सोपान- 2 : प्रमुख बिंदु

सोपान-2

भारतीय किसान संघ

दत्तोपंत ठेंगड़ी

किसान संघ की परिभाषा

किसानों का, किसानों द्वारा, किसानों के लिए निर्मित संगठन।

किसान कौन ?

कृषि पर जिनकी आजीविका अवलंबित या आश्रित है, उन सबको हम किसान मानते हैं अर्थात् इसमें ग्रामीण कारीगर, खेतिहर मजदूर का भी समावेश होता है।

किसान संघ क्यों ?

आज सभी किसान के हमदर्द बनते हैं। सभी राजनीतिक दल या उनके अंग (Wing) के रूप में कार्य करने वाले किसान संगठन किसानों के हितों की चर्चा अपने भाषणों में और समाचार पत्रों के माध्यम से करते रहते हैं। किंतु सरकारी आँकड़े बताते हैं कि किसान लगातार गरीबी रेखा के नीचे जा रहा है। आज किसानों का अपना निजी, गैर-राजनीतिक-स्तर पर कोई संगठन नहीं है। जो उन्हें उनकी उपज का उचित मूल्य तथा सभी प्रकार के सरकारी, अर्द्ध-सरकारी और गैर-सरकारी शोषणों से मुक्ति दिला सके। स्वाभिमान, सम्मान के साथ अपनी संगठित शक्ति के आधार पर बिना किसी राजनीतिक दल का पिछलग्गू बने अपनी सभी उचित माँगों को सत्ता से मनवा सके, इस कार्य के लिए किसान संघ का निर्माण हुआ है।

स्थापना

उत्तर प्रदेश तथा विदर्भ में किसान संघ का कार्य 1971 में प्रारंभ हुआ। इसके अतिरिक्त दक्षिण के कुछ प्रान्तों में भी कार्य शुरू हुआ था। संगठन को अखिल भारतीय स्वरूप 4 मार्च 1979 को कोटा (राजस्थान) के सम्मेलन में दिया गया जिसमें तमिलनाडु और असम को छोड़कर देश के सभी प्रांतों से किसान प्रतिनिधि आए थे। 1500 से ऊपर किसानों ने इस सम्मेलन में भाग लिया। इस अवसर पर भारतीय किसान संघ का एक सुविचारित संविधान भी स्वीकृत हुआ।

उद्देश्य

भारतीय किसान संघ का लक्ष्य किसानों की सामान्य दशा में सुधार लाना है। हम समूचे गाँव को एक परिवार मानकर चलते हैं। वर्ग-अवधारणा में हमारा कोई विश्वास नहीं है। हमारे लिए वर्ग-संघर्ष की बात अप्रासंगिक है। हालाँकि उस समय आपसी संघर्ष की संभावना हो सकती है। जबकि इस परिवार के एक पक्ष के प्रति कोई पक्षपात हो परंतु यह संघर्ष अन्याय के विरुद्ध होगा न कि वर्ग-अवधारणा पर आधारित। हमारी मान्यता है कि जब तक ग्राम-परिवार के सभी अंग एक साथ नहीं रहेंगे तथा पारिवारिक वायुमंडल को स्वस्थ नहीं रखेंगे तब तक ग्रामीण जीवन के देर-सवेर नष्ट होने का खतरा बना रहेगा। इस खतरे को दूर करने के लिए कमजोरों की ओर विशेष ध्यान देना होगा। उदाहरणार्थ बच्चों, बुजुर्गों और अपंगों की ओर जैसे परिवार में विशेष ध्यान रखा जाता है वैसे ही कमजोर वर्गों की ओर अधिक ध्यान देना होगा।

गैर-राजनीतिक स्वरूप क्यों ?

किसान संघ का संगठन जन संगठन है। यदि यह संगठन राजनीति से ऊपर रहा तो राष्ट्र में एकता कायम रख सकने में हम समर्थ हो सकते हैं। हर व्यक्ति की राजनीतिक स्वतंत्रता कायम रखते हुए किसान संगठन को मूल में (Basically) राजनीति से अलग रखना आवश्यक है।

केवल राजशक्ति के सहारे देश उन्नति नहीं कर सकता। राजशाक्ति पर नियंत्रण रखने वाली लोकशक्ति का निर्माण आवश्यक है। यह शक्ति जब निर्माण होगी, तभी राजशक्ति को नियंत्रित किया जा सकता है। अतः इस लोकशक्ति को जाग्रत करना जरूरी है।

कार्यसिद्धि की दृष्टि से आवयश्क है कि जनसंगठन राजनीति तथा राजनीतिक दलों से अलग और स्वतंत्र रहे। जनसंगठन राजनीतिक दल का अंग बने यह सिद्धांत यदि स्वीकार किया तो देश में जितने दल हैं उतने ही जन संगठन हर क्षेत्र में निर्माण होंगे। यह बात एकता में बाधा डालने वाली है। फिर कोई भी व्यक्ति एक ही समय में दो मालिकों की सेवा ईमानदारी से नहीं कर सकता यानी राजनीतिक दल एक मालिक और किसान-मजदूर दूसरा। इस दृष्टि से भारतीय किसान संघ का गैर-राजनीतिक स्तर पर रहते हुए काम करने का निर्णय है। इसी से यह संगठन सही मायने में प्रतिनिधि संगठन बनेगा। इस तरह के स्वतंत्र गैर राजनीतिक, प्रतिनिधिक संगठन का निर्माण करना आज देश की प्रमुख आवश्यकता है।

सन् 1936 के जुलाई माह में बिहार के नियामतपुर में ऑल इंडिया किसान कमेटी की बैठक हुई जिसमें ऑल इंडिया किसान सभा का संविधान स्वीकृत किया गया। उसमें किसान की तथा खेत मजदूर की परिभाषा नहीं की गई थी।

ऑल इंडिया किसान सभा के प्रथम अधिवेशन के प्रथम अधिवेशन के प्रथम अध्यक्षीय भाषण में स्वामी सहजानंद सरस्वती को किसान को अन्न पैदा करने वाला बताया। किसान सभा के कोमिल्ला अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए स्वामी जी ने कहा कि किसान सब तरह के खाद्यान्न तथा कच्चे माल के उत्पादक तथा आपूरक (Suppliers) हैं। उन्होंने कहा कि जिनके पास जमीन है। वे किसान हैं। और जो भूमिहीन हैं वे मजदूर हैं।

जो बड़े किसान हैं वे श्रीमान् हैं इसलिए उनको ऋण नहीं लेना पड़ता। उनको अपनी परिभाषा से अलग करते हुए स्वामी जी ने कहा कि छोटे किसान 'किसान सभा' की रीढ़ की हड्डी हैं।

सन् 1929 में बिहार प्रांत किसान सभा के संविधान में किसान की परिभाषा करते हुए कहा गया कि वह व्यक्ति किसान है जो खेती पर ही प्रमुख रूप से अपनी आजीविका के लिए अवलंबित है और वह कि जो किसानों का संरक्षक है।

मौलिक अधिकारों की सूची स्वीकार करते समय इस सभा ने किसान की यह परिभाषा की कि किसान वह व्यक्ति है जिसके जीविकोपार्जन का प्रमुख साधन खेती है। परिभाषा में आज के रैयत जैसे छोटे जमींदार भी थे जिनके लिए कृषि एक आवश्यकता है। खेत मजदूर में उन सबका समावेश होता है। जिनको उनके मालिक ने कुछ भूखंड दिए हैं।

कोमिल्ला अधिवेशन के अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वामी जी ने कहा कि खेतिहर मजदूर भूमिहीन किसान है और वे किसान आंदोलन के अभिन्न अंग हैं।

किसान सभा के गया अधिवेशन में खेतिहर मजदूरों पर एक प्रस्ताव पारित किया गया और किसान सभाओं को यह आदेश दिया गया कि वे खेतिहर मजदूरों की माँगे हासिल करने के लिए प्रयत्नशील रहें तथा जहाँ-जहाँ खेतिहर मजदूरों की यूनियनें विद्यमान हैं वहाँ उनके साथ मित्रतापूर्ण संबंध बढ़ाएँ।

खेतिहर मजदूरों को इस प्रस्ताव में किसान वर्ग का अंतर्गत हिस्सा कहा गया और अनुरोध किया गया कि 'किसान और खेतिहर मजदूर' दोनों ने शक्तिशाली निहित स्वार्थ के खिलाफ संयक्त मोर्चा बनाने की महान तथा बढ़ती हुई आवश्यकता को महसूस करना चाहिए।

मार्च 1944 के बेझवाड़ा अधिवेशन में किसान सभा ने खेतिहर मजदूरों की समस्याओं का अध्ययन करने की दृष्टि से एक कमेटी नियुक्त की। इसी वर्ष किसान सभा ने खेत मजदूरों को संगठित करने पर विशेष बल दिया।

सन् 1936 के बिहार प्रादेशिक किसान सभा संविधान की प्रस्तावना में स्वामी सहजानंद ने खेतिहर मजदूर को किसान कहा और उनका अलग संगठन बनाने की आवश्यकता नहीं, यह भाव प्रकट किया। इसी सभा के घोषणा पत्र में कहा गया कि किसान तथा खेतिहर मजदूरों में एकता स्थापित होनी चाहिए। 'जमीन उनकी जो जोतेगा।' यह घोषणा किसान सभा द्वारा स्वीकार की जाने के कारण वह खेतिहर मजदूरों को अपने निकट ला सकी। स्वामी जी का विचार था कि दोनों में क्या अंतर है यह बताना कठिन है। अपनी हिंदी पुस्तिका 'महारुद्र का महातांडव' में स्वामी जी ने कहा कि खेतिहर मजदूर किसान वर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा है।

हमारी 'किसान' की परिभाषा में वे सब लोग समाविष्ट हैं जिनकी उपजीविका खेती पर अवलंबित है- खेतिहर मजदूर, कारीगर, आदि। उनके साथ-साथ गाँव में ऐसे भी लोग रहते हैं जिनकी उपजीविका किसानों पर अवलंबित है जिनकी सेवाओं की आवश्यकता किसानों को रहती है। इन सब लोगों का जीवन किसानों के जीवन से एकात्म रहना चाहिए। इनकी उपजीविका का संबंध भी किसान की फसल के साथ जोड़ना चाहिए। इसी में सबका कल्याण है। खेती पर तथा किसानों पर जिनका जीविकोपार्जन अवलंबित है, ऐसे ग्रामीण लोगों की सरकार तथा योजना आयोग ने अब तक उपेक्षा की है।

अपनी पुस्तक 'Towards Social Revolution' में श्री वसंत साठे ने ठीक ही लिखा है कि हमारी योजनाओं में ग्रामीण पूर्ण उपेक्षित, दुर्लक्षित रहे हैं।

चमड़ा कमाने वाला, मोची, लोहार, सुनार, कुम्हार, बढ़ई, बुनकर, कारीगर, दाई और वैद्य आदि लगभग पूर्णतः उपेक्षित हुए हैं। इन दक्ष कारीगरों के लिए तकनीक सुधार प्रशिक्षण, सहायता, औजार शक्ति आदि कुछ भी उपलब्ध नहीं कराये गए हैं।"

इस पृष्ठभूमि में इन लोगों के हितों की रक्षा तथा संवर्धन सरकार पर तथा योजना आयोग पर दबाव लाने का काम संगठित ही कर सकते हैं क्योंकि विभिन्न पेशों में लगे हुए अन्य लोग भी असंगठित हैं और उनका असंगठित होना और भी कठिन है। अतः इनकी ओर से दबाव लाने का काम संगठित किसानों का ही माना जाना चाहिए।

कारीगरों की समस्याओं का सीधा संबंध बाजार से रहता है, ठीक उसी प्रकार जैसे औद्योगिक श्रमिकों की समस्याओं का सीधा संबंध मालिकों से रहता है। बाजार में और कुछ विशेष वस्तुओं की दृष्टि से निर्यात व्यापार में भी अपना स्थान अच्छा रखने के लिए कारीगर यह चाहेगा कि उसके द्वारा उत्पादित वस्तुओं को संरक्षण देने की उचित व्यवस्था सरकार द्वारा हो। खादी या कुछ ग्रामोद्योग द्वारा उत्पादित वस्तुओं को उसी तरह का संरक्षण प्राप्त होता है। वह परावलंबी बात है, और जब तक सरकार पर इस हेतु पर्याप्त दबाव नहीं आता तब तक यह सिद्ध नहीं हो सकता।

दूसरी बात स्वावलंबन की है। वह है 'मार्केट को-आपरेटिज्म' का गठन। औद्योगिक मजदूरी दृष्टि से श्रमिक संघ (ट्रेड यूनियन) का जिस तरह का महत्त्व है लगभग उसी तरह का महत्त्व कारीगरों के लिए 'मार्केट को-आपरेटिव्स' का है। अतः कारीगर तथा उनके हितैषियों द्वारा इस पहलू पर विशेष ध्यान दिया जाना आवश्यक है।

कारीगरों को सामाजिक आर्थिक क्षेत्र में सर्वंकष सहायता पहुँचाने की दृष्टि से उनके परंपरागत औद्योगिक परिवार बहुत ही उपयुक्त आज उन परिवारों का आर्थिक पहल पूर्णतः उपेक्षित और सामाजिक पहलू विकृत हो चुका है। परिणामतः उनकी व्यावहारिक उपयुक्तता नष्ट प्रायः हो गई है। उनकी शासकीय ढंग से पुनः स्थापना होने तक उनका कार्य चलाने वाली नई रचनाओं को स्वीकार अपरिहार्य है उनमें से एक नई रचना 'मार्केट कोआपरेटिव्स' है।

सरकारी संस्थाओं के सामूहिक प्रयास को तथा कारीगरों के व्यक्तिगत प्रयास को अधिक सबल तथा सफल बनाने हेतु स्थान-स्थान पर उनके लिए सूचना-केंद्र खोलना आवश्यक है। बाजार से संबंधित पूरी जानकारी तथा सहकारी आंदोलन के विषय में पूर्ण ज्ञान, दोनों सामान्य कारीगरों को उपलब्ध कराना तथा दोनों की दृष्टि से कुछ कठिनाइयाँ निर्माण हुईं तो उनका निराकरण करना यह आज की उनकी सर्वप्रथम आवश्यकता है। इस दृष्टि से स्थान-स्थान पर 'विश्वकर्मा कारीगर सूचना-केंद्र' का निर्माण होना आवश्यक है।

पुराने औद्योगिक परिवार जहाँ अनुपयुक्त सिद्ध हो रहें हैं वहाँ कुछ नव निर्मित संस्थाओं का इस दृष्टि से क्या उपयोग हो सकता है? उस पर भी विचार होना चाहिए। विश्वकर्मा जातियों की संख्या बहुत है और उनके 'विश्वकर्मा समाज' भी देश में चारों ओर फैले हुए हैं। आज इस विश्वकर्मा समाजों की गतिविधियाँ अन्य प्रकार की हैं। क्या इस विश्वकर्मा समाजों को ही इस आर्थिक दिशा में ही सक्रिय बनाना संभवनीय होगा। उनका संगठनात्मक विस्तार करना और उनकी आर्थिक तथा सामाजिक गतिविधियों को किसान-जीवन (ग्रामीण जीवन) के साथ एकात्म (Integrate) करना क्या संभवनीय है। इस दृष्टि से सर्वेक्षण करना आवश्यक है।

बड़े शहरों में नाई, धोबी आदि पेशे वाले लोगों ने अपनी स्थानीय स्तर की संस्थाएँ बनायी हैं जो उनकी आर्थिक हितों की रक्षा करती हैं। उनका ग्रामीण क्षेत्रों में विस्तार नहीं हुआ। होना कठिन भी है-क्योंकि हर गाँव में इनकी संख्या अत्यल्प है। वहाँ तो एकात्म ग्रामीण जीवन के सहारे ही इन पेशे वालों के हितों की रक्षा तथा संवर्द्धन संभवनीय है।

देशी कारीगरों की दृष्टि से नई भारतीय तकनीक का विकास करना हमारे प्रौद्योगिकीविदों (टेक्नोलोजिस्ट) का कर्तव्य है। किंतु इस में पश्चिम का अंधानुकरण हमारे लिए उपयुक्त नहीं हो सकता। यह आवश्यक है कि हमारे प्रौद्योगिकीविद पश्चिम की सभी तकनीकी ज्ञात कर लें, किंतु उन्हें जैसे के तैसा उपयोग में न लाया जाए। कुछ तकनीक हम जैसे के तैसे स्वीकार कर सकेंगे किंतु कुछ तकनीक में उपयुक्त हेरफेर करने होंगे और अपनी परंपराओं, परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं का विचार करके पश्चिम के कुछ तंत्रों का सर्वथा त्याग करना पड़ेगा क्योंकि हमारी परिस्थितियाँ तथा परंपराएँ पश्चिम से भिन्न हैं।

पश्चिम की समस्या है कम से कम हाथों के द्वारा अधिकतम उत्पादन। हमारी सर्वप्रमुख समस्या है देश के सभी हाथों को पर्याप्त काम देना। अतः पश्चिम की तकनीक का अध्ययन करने के पश्चात् यह आवश्यक होगा कि हम अपनी निजी प्रतिभा के आधार पर अपनी निजी तकनीक का विकास करें। ऐतिहासिक तथा परिस्थितिजन्य कारणों से जहाँ अपरिहार्य हो वहाँ बड़े उद्योगों का उपयोग तथा विकास किंतु अद्यतन यांत्रीकृत लघु-कुटीर उद्योगों और विकेंद्रित उत्पादन प्रक्रियाओं के विषय में आग्रह यह हमारी औद्योगिक रचना की विशेषता रहनी चाहिए। इस तरह की अभिनव भारतीय तकनीक का हम विकास करें कि जिसके फलस्वरूप आज-उपलब्ध साधनों का न्यूनतम विपूँजीकरण (De capitalisation) हो। उपलब्ध व्यवस्थापकीय तथा तकनीकी कौशल अनुपयुक्त न बने, उपलब्ध छोटी-छोटी पूँजियाँ सहकारी संस्थाओं में न डालते हुए भी पूँजी के नाते उपयुक्त सिद्ध हो सके। उपलब्ध श्रमिक कारीगरों को अधिक समय न बिताते हए तथा असह्य परिश्रम न उठाते हुए सभी तकनीक सीखना संभवनीय हो तथा कारखाने के स्थान पर परिवार उत्पादन का केंद्र बने।

हम ग्राम परिवार की कल्पना का प्रतिपादन करते हैं तो भारतीय परंपराओं तथा रचनाओं से अपरिचित अंग्रेजी पढ़े लिखे लोग समझते हैं कि हम लोगों को आधुनिक प्रक्रियाओं की जानकारी ही नहीं है। ये अभी मन की दृष्टि में पिछली शताब्दी में ही रह रहे हैं। उन्हें डॉ. आनंद चक्रवर्ती के निम्नलिखित निरीक्षण से बोध प्राप्त करना चाहिए। वे कहते हैं कि- प्रतिष्ठा, आर्थिक विभेद, तथा सत्ता के आधार पर ग्रामीण भारत में तीव्र स्वरूप की विषमताएँ दिखायी देती हैं। तकनीकी (Technological) परिवर्तन से तथा सरकार द्वारा संचालित भूमि सुधार कार्यक्रमों से भी गाँवों के कमजोर वर्गों की आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आ सका।

स्पष्ट है कि तकनीक (Technology) या कानून भी तभी यशस्वी हो सकेंगे जब परंपरागत भारतीय मनोधारणा के अनुरूप सभी ग्राम वालों के मन में यह भाव जाएगा कि हम सब गाँव वाले मिलकर एक परिवार हैं। यह भाव जाग्रत रहा तो कानून की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

पारिवारिक भाव या ममता का अभाव रहा तो समता या तो निर्माण ही नहीं होगी और जबरदस्ती से निर्माण भी की गई तो वह स्थायी नहीं होगी। ममता का भाव सर्वत्र जाग्रत रहा तो समता का प्रश्न लोगों के मन में उत्पन्न ही नहीं होगा। ममता में ही समता का आश्वासन है।

किसान संघ तथा अन्य संगठन

हमारे देश में किसानों को संगठित करने के प्रयास लगातार होते रहे हैं। कुछ संस्थाएँ आज भी कार्य कर रही हैं। उनके संबंध में सामान्य जानकारी आवश्यक है।

नक्सलवादी और किसान आंदोलन

जिस किसी को किसान और देश-दोनों का विचार करना है। उसके लिए यह अनिवार्य है कि वह नक्सलवादियों की गतिविधियों की बारीकी से जानकारी रखें। राजनीतिक दलों में सी.पी.आई (CPI)और सी.पी.एम. (CPM) किसानों में काम करते हैं। संगठन के नाते नक्सलवादियों से सबसे अधिक तकलीफ इन दो दलों को होती है। अन्य गैर-कम्युनिस्ट राजनीतिक दल नक्सलवादियों के बारे में जानकारी रखने की आवश्यकता नहीं समझते। वे सोंचते हैं कि नक्सलवादियों का एक आध गुट छोड़कर बाकी सब गुट चुनावों से दूर रहते हैं। इस कारण चुनावों की ही चिंता करने वाले राजनीतिज्ञ नक्सलवादियों के बारे में जानकारी रखना आवश्यक नहीं समझते। किंतु किसान और देश की दृष्टि से उनकी यह उदासीनता महँगी और खतरनाक सिद्ध होगी।

आज देश में नक्सलवादी कई गुटों में बँटे हुए हैं, किंतु यह सत्य है कि वे सभी ध्येयनिष्ठ हैं। उनकी गुटबंदी व्यक्तिवाद के आधार पर नहीं है। सिद्धांत तथा रणनीति के विषय में उनके आपस में प्रामाणिक मतभेद निर्माण हुए हैं। उदाहरणार्थ-

v हिंदुस्तान में क्रांति लाने का मार्ग कौन सा रहे? चीन का मार्ग उचित माना, तो भी क्रांति के विषय में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में भी अलग-अलग मत थे; उनमें से किस मत को प्रमाण माना जाए।

v कितने शस्त्रास्त्र हस्तगत करने के पश्चात क्रांतिकारी सेना के निर्माण की अधिकृत घोषणा करना उचित होगा।

v चीन का चेयरमैन (Chairman) भारत का भी चेयरमैन है, यह नारा कहाँ तक उचित है।

v मजदूर, किसान, विद्यार्थी आदि के जनसंगठनों का निर्माण करना कहाँ तक उचित और आवश्यक है? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि ऐसे जनसंगठनों का निर्माण करने और चलाने में जो समय लगेगा उसके कारण जनता में आज जो क्रांति की उमंगे हैं वही समाप्त हो जाएँ।

v चुनाव की संसदीय व्यवस्था में हिस्सा लेना कहाँ तक उपयुक्त रहेगा?

इस तरह के कई मुद्दों को लेकर मतभेदों तथा गुटों का निर्माण हुआ, किंतु सभी गुटों में काम करने वाले कार्यकर्ताओं की ध्येयनिष्ठा पर संदेह नहीं किया जा सकता।

भारतीय किसान संघ को नक्सलवादियों से प्रत्यक्ष मुकाबला तेलंगाना में करना पड़ रहा है। किसान संघ कार्यकर्ता भी ध्येयनिष्ठा से युक्त हैं तथा साहसी भी हैं। किसान मजदूरों की समस्याओं को लेकर वे खड़े होते हैं। एक प्रकार से तेलंगाना में हिंसाचार तथा अहिंसाचार की प्रतिस्पर्धा चल रही है। इनमें से कौन मार्ग यशस्वी होगा, यह भविष्य बतायेगा। हमें अन्य प्रदेशों से भी नक्सलवादियों की गतिविधियों से सजग रहने की आवश्यकता है।

किसान सभा

'किसान सभा' का संगठन स्वामी सहजानंद ने किया। स्वामी सहजानंद के बाद किसान आंदोलन में सबसे बड़ा योगदान श्री एन. सी. रंगा का रहा। किंतु ग्रामीण क्षेत्र की सभी श्रेणियों तक पहुँचकर उनको एक सूत्र में बाँधने का काम करने के लिए उन्हें अपेक्षित समय नहीं मिला। प्रारंभिक अवस्था में बड़े तथा मध्यम किसानों का संगठन में शामिल होना स्वभाविक था, क्योंकि सुशिक्षित होने के कारण वे अधिक जागरूक रहते थे। किंतु उनको संगठनबद्ध करने में ही इतना समय देना पड़ा कि अशिक्षित तथा कम जागरूक छोटे तथा सीमांत किसान, खेतिहर मजदूर तक पहुँचने का अवसर श्री रंगा को मिला ही नहीं। इसके कारण कुछ कम्युनिस्टों ने उनके ऊपर आरोप भी लगाए। श्री रंगा के प्रयासों से यह स्पष्ट है कि उनका संपूर्ण ग्राम-परिवार को संगठित करने का विचार था। किंतु समयाभाव के कारण यह प्रक्रिया अधूरी रह गई।

संपूर्ण ग्राम-परिवार को संगठित करने का कार्य स्वाभाविक रूप से हो सकता है, यह ध्यान में रखकर भारतीय किसान संघ कार्य कर रही है। प्रारंभ से ही बुद्धिपूर्वक यह प्रयास चल रहा है कि सभी श्रेणी की लोगों को किसान संघ के कार्य में सम्मिलित कर लिया जाए।

सन् 1942 के आंदोलन में कम्युनिस्टों ने अपनी देशद्रोहिता का जो परिचय दिया उसके कारण शिक्षित समाज में वे घृणा के पात्र बन गए। अपनी स्थिति को सम्हालने के लिए उन्होंने किसानों में कार्य करने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने किसान सभा को प्रश्रय दिया किंतु कम्युनिस्ट पार्टी का जैसे ही विभाजन हुआ वैसे ही किसान सभा का भी विभाजन हो गया। एक 'मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी' की किसान सभा तथा दूसरी 'कम्युनिस्ट पार्टी' की किसान सभा बन गई। इस विभाजन ने यह स्पष्ट कर दिया कि कम्युनिस्टों का उद्देश्य किसानों का हित करना नहीं था। उनका उद्देश्य राजनीतिक लाभ उठाना था। यदि ऐसा न होता तो किसान सभा को दो धड़ों में विभाजित करने का क्या औचित्य था? भारत के किसानों को रूस और चीन की प्रतिद्वन्द्विता से क्या लेना देना? परंतु कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने राजनीतिक स्वार्थो की पूर्ति के लिए किसान-सभा को हथियाया। अतः जब उनका विभाजन हुआ तब उन्होंने किसान सभा में भी हिस्सा बाँट कर लिया।

कम्युनिस्टों के किसान संगठन में सबसे उल्लेखनीय नाम है- ए.के. गोपालन का। कम्युनिज्म का विरोधी होने पर भी यह मानना पड़ेगा कि श्री गोपालन कर्मठ तथा ध्येयनिष्ठ नेता थे। केरल में कम्युनिस्ट शासन आने के बाद श्री गोपालन की कल्पनाओं को अमल में लाने का अवसर मिला था। किंतु इस दृष्टि से कम्युनिस्ट सरकार का किया हुआ प्रयास दिखावा (Demonstrative) मात्र था। समग्रता से विचार करते हुए योजना बनाकर कार्य नहीं किया गया। सभी मजदूर संस्थाओं की यह माँग थी कि खेतिहर मजदूरों का न्यूनतम वेतन निश्चित किया जाए और उसे सख्ती से लागू किया जाए। कम्युनिस्ट सरकार ने न्यूनतम वेतन कानून तो पारित कर दिया किंतु उसके क्रियान्वयन में कौन-सी कठिनाइयाँ आ सकती हैं, इसका पूरा विचार करते हुए उपाय योजना नहीं की गई। परिणाम क्या हुआ? कई सीमांत किसानों ने खेतिहर मजदूरों को काम पर बलाने के बजाय जमीन खाली छोड़ दी और वे दूसरे कामों में लग गए। वैसे ही कुछ बड़े किसानों ने जमीन तो खाली नहीं छोड़ी किंतु फसल का स्वरूप (Pattern) बदल दिया, जिस पर ज्यादा मजदूरों को बराबर बुलाने की आवश्यकता नहीं रहती। इस तरह के किसान ज्यादातर रबर लगाने (Rubber Plantation) की ओर अधिक झुक गए। दोनों का संकलित परिणाम यह हुआ कि केरल में खेतिहर मजदूर बेकार हो गए। समग्रता से यदि विचार किया गया होता तो कठिनाइयों को दूर किया जा सकता था। किंतु प्रत्यक्ष लाभ हो, इसकी ओर नहीं, दिखावे (Demonstration) की ओर कम्युनिस्ट सरकार का ध्यान अधिक था। इसके कारण ए. के. गोपालन की कल्पनाएँ कम्युनिस्ट सरकार रहते हुए भी साकार नहीं हो सकी।

कम्युनिस्ट प्रणाली के फलस्वरूप गाँवों में सुख-शांति का निर्माण नहीं हो सकता, यह हमारी दृढ़ धारणा है। तो भी यदि गंभीरतापूर्वक कम्युनिस्ट सरकार काम करती तो खेतिहर मजदूर कानून सुपरिणामकारक हो सकता था और श्री गोपालन के कृतित्व का प्रतिफल अधिक अच्छे ढंग से मिल सकता था।

भारत कृषक समाज

भारत कृषक समाज का निर्माण भी पंजाबराव देशमुख ने किया। वे स्वयं अच्छे किसान थे। और कृषकों के संबंध में उनके दिल में हमदर्दी थी। किंतु जिन उद्देश्यों से भारत कृषक समाज की स्थापना की गई थी वे उद्देश्य भारतीय किसान संघ के उद्देश्य से बिल्कुल भिन्न थे और इसके कारण यह अपेक्षा करना अवास्तविक होगा कि भारत कृषक समाज वह काम संपन्न करे जो काम करने की आकाँक्षा भारतीय किसान संघ की है, क्योंकि आज यह संगठन (भा.कृ.समाज) शासकीय प्रभाव से ग्रस्त है। इसके पास अधिवेशनों और कृषि मेलों में जाने की किसानों को मात्र रेल आदि में सुविधा देने का कार्य रह गया है। इसके पदाधिकारी अधिकांशतः सत्ता पक्ष से जुड़े हुए व्यक्ति ही रहते हैं।

किसान पंचायत

समाजवादियों ने बहुत समय तक 'हिंद किसान पंचायत' संस्था चलायी। आज 'हिंद किसान खेतिहर पंचायत' नाम से भी कुछ स्थानों पर समाजवादी काम कर रहे हैं। किंतु एकाध अपवाद छोड़ दिया जाए तो हिंद किसान पंचायत या कोई भी समाजवादी नेता कोई भी महत्वपूर्ण कार्य किसान क्षेत्र में नहीं कर सके। श्री मामा बालेश्वर का कुछ महत्वपूर्ण ठोस कार्य रहा, किंतु संस्था के नाते पंचायत का कार्य अल्प ही रहा।

किसान यूनियन

'किसान यूनियन' के संस्थापक श्री नारायण स्वामी का देहान्त हो ही चुका है। उनका व्यक्तित्व प्रभावी था। तमिलनाड़ु में उन्होंने किसानों के कुछ प्रभावी आंदोलन चलाए। इसके कारण उनकी अन्य प्रदेशों में भी साख बढ़ी। अन्य प्रदेशों के कुछ किसान कार्यकर्ता उनके झंडे के नीच काम करने को तैयार हो गए। इस स्थिति का लाभ उठाकर एक अखिल भारतीय मजबूत संगठन खड़ा करना उनके लिए संभवनीय हो गया था। किंतु ऐसे अनुकूल अवसर पर उनके मन में राजनीतिक आकाँक्षा तथा राजनीतिक प्रवृत्ति का उदय हुआ। इसके फलस्वरूप उनके संगठन में बखेड़ा खड़ा हो गया और अन्य प्रांतों के कार्यकर्ताओं में भी असंतोष उत्पन्न हुआ जो कि स्वाभाविक था जिससे किसान संगठन की हानि हुई।

शेतकरी संगठन

महाराष्ट्र के श्री शरद जोशी ने शेतकरी संगठन बनाया है। श्री जोशी पहले बहुत बड़े वेतन पर नौकरी करते थे। उन्होंने नौकरी छोड़कर किसान मजदूरों की पार्टी बनायी। कुछ लोग उन्हें सी.आई.ए का एजेंट कहते हैं। किसी के खिलाफ ठोस प्रमाणों के अभाव में आरोप करना मैं ठीक नहीं समझता। जब कोई ठोस प्रमाण सामने आए तभी ऐसा कहना ठीक होगा। प्रमाण के अभाव में आरोप को पूर्वाग्रह दोष मानना ही उचित होगा।

कुछ लोगों की आशंका है कि किसानों के आंदोलन के बाद राजनीति में घुसने वाले थे। उनकी राजनीतिक आकाँक्षाओं के विषय में अभी तक कुछ कहना कठिन है। यह ठीक है कि निपाणी के चुनाव में उनका प्रत्याशी खड़ा था। अच्छा होता कि वे अपने इस मोह को नियंत्रित करते। किंतु इसी के आधार पर आरोप लगाना ठीक नहीं। यदि उनको राजनीतिक आकाँक्षा का प्रमाण दिखायी दिया तो हम अवश्य कहेंगे कि आरोप सत्य है। किंतु तब तक इस आरोप को कपोल-कल्पित ही कहना होगा।

उसके सभी सिद्धान्तों की समुचित जानकारी अभी नहीं है। किंतु सरकार तथा योजना आयोग की उन्होंने जो आलोचना की है। उससे हम सहमत हैं लेकिन उन्होंने 'भारत विरुद्ध इंडिया ' का जो नारा दिया है हम उसके विरुद्ध हैं। एक तो यह नारा वास्तविकता पर आधारित नहीं है। इसका अर्थ है 'ग्रामीण भारत विरुद्ध नागरी भारत'। इस तरह का विभाजन तर्क संगत नहीं है। शोषक धनी लोग ग्रामीण भारत में भी हैं और शोषित गरीब लोग शहरों में भी बड़ी संख्या में हैं। शहरों में रहने वाले झोपडपट्टी निवासियों को बड़े बंगले वालों के साथ जोड़ना (Bracket) उतना ही अनुचित है जितना ग्रामीण अंचलों के श्रीमान् किसानों को खेतिहर मजदूर तथा कारीगरों के साथ ब्रेकेट (Bracket) करना।

इसके अलावा यह वर्गीकरण राष्ट्रीय एकता के लिए भी घातक है। इस तरह कल्पना के लिए भाषण तो लच्छेदार हो सकते हैं, किंतु उसके कारण भावनात्मक एकता में दरार आना अवश्यंभावी है। शायद विचार का यह पहलू उनकी आँखों के सामने नहीं है। यदि यह बात उनके ध्यान में आएगी तो वे स्वयं इस तरह का शब्द प्रयोग करना बंद कर देंगे ऐसा मेरा विश्वास है।

हम दोनों साधारण रूप से एक विषय में एकमत हैं- उत्पादन खर्चे पर आधारित मूल्य कृषि उत्पादित वस्तुओं को मिलना चाहिए। लेकिन उन्होंने इसी एक बात को 'एक सूत्रीय कार्यक्रम' बनाया है। यह विचार का ढंग (Approach) हमारा नहीं है। उत्पादन खर्चे पर आधारित कृषि उपज मूल्य को हम महत्वपूर्ण माँग को मानते हैं, किंतु एकमात्र माँग नहीं मानते। इसी एक माँग की पूर्ति से किसानों की बाकी सब समस्याएँ हल हो जाएंगी ऐसा हम नहीं मानते। ग्रामीण ढाँचे (Rural Infrastructure) के निर्माण को ग्रामीण औद्योगीकरण के लिए हमने महत्वपूर्ण माना है। कृषि मूल्य आयोग (A.P.C) का पुनर्गठन आदि कई महत्वपूर्ण माँगों का विवरण हमारे प्रस्तावों में आया है।

वैसे इस माँग पर भी उनका रवैया हमारे रवैये से कुछ भिन्न, ऐसा समाचारों से प्रतीत होता है। ये समाचार कहाँ तक सही हैं, मैं नहीं जानता। किंतु उनको पढ़ने से ऐसा लगता है कि उपभोक्ताओं की मानसिकता के विषय में वे गंभीरता से विचार नहीं कर रहे हैं। हम उचित मूल्य मिलना चाहिए; उसके कारण किसके ऊपर क्या असर होता है; यह सोचने की जिम्मेवारी हमारी नहीं है; यह भाव समाचार-पत्रों में छपे उनके वक्तव्यों से टपकता है। मेरे अनुसार यह वृत्ति अच्छी नहीं है। मुझे आशा है कि उनके कारण मेरे मन में भी यह भाव नहीं होता।

भारतीय किसान संघ

इन सब संगठनों के अलावा भारतीय किसान संघ भी देश भर किसानों में किसानों संगठित करने का प्रयत्न कर रहा है। किंतु न तो किसानों पर वह अपना अकेला आधिपत्य चाहता है और न उनकी अन्य किसान संगठनों में प्रतिस्पर्धा है। वास्तव में स्पर्धा तो वहाँ होती है जहाँ सत्ता प्राप्ति की लालसा होती है। किसानों का क्षेत्र बहुत विशाल है। अगर किसानों को संगठित करने के लिए बीसों संस्थाएँ काम करें तो उनके साथ भारतीय किसान संघ का कोई विरोध नहीं। किसान संघ को सभी के साथ समुचित सहयोग का इच्छुक है। अगर किसानों के हित के लिए कोई भी अन्य संगठित आंदोलन करता है तो किसान संघ इसमें सहयोगी बन सकता है। किसान संघ तो किसानों का केवल भला चाहता है। इस कारण इसकी किसी से प्रतिद्वन्द्विता नहीं है।

महाराष्ट्र में श्री शरद जोशी ने जब नासिक का आंदोलन छेड़ा था तब किसान संघ के भी 500 कार्यकर्ता जेल गए थे। परंतु श्री जोशी और किसान संघ के विचारों में कुछ अंतर है। श्री जोशी प्रचार और आंदोलन में ज्यादा विश्वास रखते हैं। जबकि किसान संघ पहले संगठन को सुदृढ़ बनाने का विश्वासी है। आंदोलन या संघर्ष के द्वारा संगठन को बढ़ाने का तरीका किसान संघ को अभिप्रेत नहीं है। उसका मत है कि पहले संगठन मजबूत करना, फिर आवश्यक होने पर आंदोलन या संघर्ष का रास्ता अपनाना और संघर्ष अच्छा हुआ तो संगठन और भी मजबूत बनेगा। इसी प्रकार अन्य किसान संगठन जहाँ कृषि लागत मूल्यों के संदर्भ में केवल किसानों के हितों के बारे में विचार करते हैं, वहीं किसान संघ संपूर्ण राष्ट्र को सामने रखने के कारण उत्पादकों के साथ-साथ उपभोक्ताओं का भी विचार करता है, क्योंकि ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं। प्रखर राष्ट्रवादी होने के कारण किसान संघ जहाँ किसानों के कल्याण की बात रखता है वहीं अन्य लोगों के हितों की भी चिंता करता है। वह देश में शहर और गाँव की लड़ाई नहीं कराना चाहता। यह बात वास्तविकता से परे है कि सारे शहर वालो की लड़ाई गाँव वालों से है। जो शहर और गाँव की लड़ाई या शहर वालों द्वारा गाँवों के शोषण की बात करते हैं, वे राष्ट्रीयता में दरार डाल सकते हैं।

' साम्यवाद ' और किसान

'साम्यवाद' के प्रणेता कार्ल मार्क्स ने किसानों को बेकार बताया है। फ्रांस के किसानों की स्थिति देखकर मार्क्स ने दुनिया के सभी किसानों को निकम्मा कहा क्योंकि क्रांति के लिए उनका कोई उपयोग नहीं है। उनके मत में क्रांति केवल औद्योगिक मजदूर ही कर सकता है। मार्क्स ने कहा कि किसान के पास उतनी ही बुद्धि होती है जितनी बुद्धि उसके बैल के पास होती है। इसके अलावा मजदूर वर्ग को तो संगठित किया जा सकता है परंतु किसानों को सचेत भी नहीं किया जा सकता। इस कारण, उन्हे संगठित भी नहीं किया जा सकता। मार्क्स ने किसानों को आलू को बोरा बताया है। जो खोलते ही आलू जैसे बिखर जाते हैं। रूस में क्रांति होने के बाद सबने ही कहा कि किसानों का शोषण करने से ही उद्योग खड़े हो सकते हैं। यह विचार प्रकट करने वालों में बुखारिन, लेनिन, स्टालिन आदि प्रमुख हैं। कम्युनिस्टों ने यह विचार भी रखा कि सारी जमीन सरकार की होनी चाहिए। इसके लिए किसानों का भूस्वामित्व समाप्त करके उन्हें सरकारी मजदूर बनाया जाए। किसानों से सारी जमीन छीन ली गई।

औद्योगिक मजदूरों की तुलना में किसानों को संगठित करना अधिक कठिन है। यह प्राथमिक बात किसानों की समझ में आई थी। इस दृष्टि से एंजिल्स का निम्नलिखित विवेचन उद्बोधक है- "Although gnashing their teeth under the terrible burden, the peasants were difficult to rouse to revolt. They were scattered over large areas, and this made every agreement between them extremely difficult; the old habit of submission inherited by generation after generation, lack of practice in the use of arms for various reasons, and varying degree exploitation depending upon the personality of the lord, all combined to keep the peasant quiet." (Peasant War of Germany).

यद्यपि किसान असह्यनीय बोझ के तले दाँत पीसते थे, फिर भी उनको विद्रोह के लिए जगाना कठिन था। वे बड़े भू-क्षेत्र में बिखरे हुए थे और इसके कारण उनमें सहमति होना अत्यंत कठिन होता था। पीढ़ियों से विरासत में प्राप्त आत्म-समर्पण की पुरानी आदत तथा मालिक के व्यक्तित्व पर निर्भर विभिन्न स्तरों का शोषण आदि सभी मिलकर किसान को चुप रखते थे।" (जर्मनी में किसान संघर्ष)

भारत के शासकों पर भी उक्त विचार का अभाव है। हमारे यहाँ पहली पंचवर्षीय योजना रूस के ढंग पर बनायी गई। रूस में जो पहली तथा दूसरी पंचवर्षीय योजना बनी थी उसका लक्ष्य किसानों को समाप्त करके उनका शोषण करना तथा भारी उद्योग खड़े करना था। भारत में भी यही ढंग लाने का प्रयत्न किया गया। कृषि-प्रधान देश भारत में उद्योग को बढ़ावा देना शुरू हो गया। फलतः कृषि क्षेत्र के लिए जितना धन मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। इसके फलस्वरूप देश में प्रतिकूल अर्थव्यवस्था प्रारंभ हुई। कृषि पर आधारित 80 प्रतिशत आबादी की उपेक्षा की गई। ऐसा नहीं है कि देश को भारी उद्योगों की आवश्यकता नहीं है। प्रश्न प्राथमिकता-क्रम (Order of Priority) का है।

भारत एक गरीब देश है। पश्चिम के धनी और विकसित देशों की तुलना में यहाँ की परिस्थितियाँ भिन्न हैं। आबादी अधिक होने के कारण हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या अधिकतम लोगों को रोजगार देने की है, जबकि पश्चिम की जनसंख्या कम है और उनकी क्रय शक्ति भी अधिक है। इसलिए वे ज्यादा वस्तुएँ चाहते हैं। भारत में अधिकाधिक हाथों को काम देने की जरूरत है ताकि वे अपने परिवार, बाल-बच्चों का भरण-पोषण कर सकें। यद्यपि भारत आधुनिक यंत्र युग से बाहर नहीं जा सकता, परंतु कुछ प्राथमिकताएँ निर्धारित की जानीं चाहिए। महात्मा गाँधी ने भी कहा था कि भारत को अधिक से अधिक लोगों को काम में जुटाकर उत्पादन करना चाहिए। उनका स्पष्ट कथन था, हमें मनुष्य को खतम करने वाली मशीन नहीं चाहिए, हमें तो मनुष्य की क्षमता बढ़ाने वाली मशीन चाहिए।" इस दृष्टि से छोटे-छोटे मजदूरों का जाल बिछाना चाहिए। अर्थशास्त्रियों का मत है कि गाँवों में रोजगार खड़ा करने के लिए 800 रुपए की आवश्यकता होती है। जबकि औद्योगिक क्षेत्र में एक रोजगार खड़ा करने के लिए 24 से 25 लाख रुपए की आवश्यकता होती है।

अतः स्पष्ट है कि जो लोग देश में केवल बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना पर बल देते हैं। उनके दिल और दिमाग पर पश्चिमी देशों का प्रभाव छाया हुआ है। पश्चिमी जगत् के तरीके भारत की धरती के लिए पूरे-पूरे उपयोगी नहीं हो सकते। जनसंख्या के घनत्व के कारण यहाँ लघु तथा कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा।

हिंसा और हम

किसान संघ का यह सुविचारित मत है कि जिस स्वतंत्र देश में किसी न किसी तरह का लोकतन्त्र विद्यमान है। उसमें हिंसाचार असहनीय, अनैतिक तथा प्रतिकूल परिणामकारक (Counter productive) है।

किसी भी परिस्थिति में शांतिपूर्ण, संवैधानिक, अहिंसात्मक, प्रतिकार या आंदोलन अपनाने का हमारा निश्चय है। इस तरह के आंदोलन के तंत्र को व्यवस्थित (Systematic) स्वरूप देने का महात्मा जी ने प्रयास किया था। कई लोगों का यह ख्याल गलत है कि इस तरह के प्रतिकार का सिद्धांत गांधीजी ने टॉल्सटाय या कीरो से लिया था। यह बात सही है कि टॉल्सटाय ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया था और कीरो न व्यक्तिगत स्तर पर सरकार के विरोध में इस प्रकार का निःशस्त्र प्रतिकार भी किया था। किंतु बड़े पैमाने (Mass Level) पर इसका प्रयोग गांधीजी ने ही किया और उनकी मूल प्रेरणा भारतीय संस्कृति की है। रही। ये प्रहलाद को संसार का सबसे बड़ा सत्याग्रही मानते थे। इतिहास में यह उल्लेख मिलता है कि निकट भूतकाल में सौराष्ट्र की देशी रियासतों में उन्मार्गगामी राजाओं के विरोध में जनता ने इसी तरह का अहिंसात्मक प्रतिकार किया था। ईस्ट इंडिया कंपनी (East India company) ने पूर्वी भारत के कई नगरों-वाराणसी, लखनऊ, मुर्शिदाबाद, कलकत्ता आदि में दुकानों और मकानों पर कर लगाया था तो उसका प्रतिकार कर-दाताओं ने इसी मार्ग से किया था। अंततोगत्वा कंपनी को कर वापस लेना पड़ा था। वाराणसी के करदाताओं का अहिंसात्मक प्रतिकार विशेष उल्लेखनीय और प्रेरणादायक रहा है। यह संघर्ष सन् 1811-12 तथा 1812-13 में हुआ था। मतलब यह कि इस तरह की प्रतिकार-पद्धति भारत के लिए नई नहीं है।

कई लोगों को यह सुनकर आश्चर्य होगा कि अमेरिका के कृषि क्षेत्र में प्रतिकार के लिए इस मार्ग का अवलंबन पिछले कुछ वर्षों से हो रहा है। वहाँ के खेतिहर मजदूरों की एकमात्र यूनियन कैलीफोर्निया में है। वहाँ का एक-एक किसान बड़ा होने के कारण उसके साथ या एक ही फसल के किसानों के संगठन के साथ यह यूनियन रोजी के बारे में तथा काम के घण्टों (Working Condition) के बारे में बात (Negotiation) करती है। वार्ता असफल रही तो किसानों के खिलाफ आंदोलन करती है। इस दृष्टि से उपभोक्ताओं की हड़ताल को भी संगठित करने का प्रयास होता है। वार्ता असफल करने वाले किसानों का माल किस गाड़ी से बिकने जाएगा, पहले से इसकी जानकारी करके यूनियन के सदस्य मंडी पहुँचते हैं तथा ग्राहकों से प्रार्थना करते हैं कि उनके माल को न खरीदें। यूनियन के सदस्य इस आशय के पोस्टर अपने शरीर पर लगाते हैं और विक्रय के लिए आई हुई गाड़ियों पर खड़े हो जाते हैं। उपभोक्ता भी उनकी बात मानकर माल नहीं खरीदते। हमारे देश में उपभोक्ताओं की हड़ताल कहाँ तक सफल होगी यह कहना कठिन है। किंतु यह निश्चित है कि किसान संगठित रहे तो गांधी-मार्ग से यशस्विता प्राप्त हो सकती है। किसान संघ सदैव यही मार्ग अपनाएगा। किसी भी अवस्था में हम हिंसाचार का अवलंबन करने वाले नहीं।

' साम्यवाद '

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी एककेंद्रिक जागतिक कम्युनिस्ट पार्टी की एक शाखा है। वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी नहीं, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी है। अभी-अभी तक कम्युनिस्ट जगत् एककेंद्रिक था, जिसका केंद्र स्वाभाविक रूप से मास्को रहा है। रूस की सुरक्षा तथा रूसी हितों की रक्षा सभी कम्युनिस्ट पार्टियों का कर्त्तव्य माना गया था। रूस की विदेश नीति के अनुकूल सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को अपनी नीतियाँ बनानी चाहिए, यह अपेक्षा थी।

दिनांक 3 अगस्त 1939 को रूस और नाजी जर्मनी में अनाक्रमण संधि हुई। उसी समय रेमन ड्राप एवं मालटोव ने एक गुप्त संधि के द्वारा पूर्वी यूरोपीय देशों का आपस में बँटवारा कर लिया। दिनांक 3 सितंबर 1939 को हिटलर ने पोलैंड पर हमला किया और मास्को सुलह के अनुसार पूर्वी पोलैण्ड को अपने कब्जे में लेने के लिए स्टालिन को निमन्त्रित किया। यह संधि पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्टों से ही संबंधित थी। क्योंकि वे उस समय नाजी सेना का प्रतिकार कर रहे थे। तो भी किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस संधि के विषय में अनुदार उद्गार नहीं निकाले। उल्टे उसके समर्थन में तर्क प्रस्तुत किए गए। जिस समय जर्मनी फ्रांस को परास्त कर रहा था। उस समय फ्रांस के कम्युनिस्टों ने इस संधि के कारण अपने मातृदेश का विरोध किया और आक्रमणकारी हिटलर का समर्थन किया। स्वभावतः फ्रांस तथा पूर्वी यूरोपीय देश की जनता कम्युनिस्टों को देशद्रोही कहने लगी।

हिटलर ने जब रूस पर आक्रमण किया तब सारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ हिटलर विरोधी हो गयीं। द्वितीय महायुद्ध के समाप्ति के पश्चात् वाल्टा कांफ्रेंस में स्टालिन, चर्चिल, रूजवेल्ट ने यह मान लिया कि पूर्वी यूरोपीय देश रूसी प्रभाव क्षेत्र में रहेंगे। यह निर्णय पूर्वी यूरोपीय देशों की जनता को धक्का देने वाला था। वे रूसी प्रभाव-क्षेत्र में जाना नहीं चाहते थे। यूगोस्लाविया के टीटो के समान वे भी रूस के खिलाफ विद्रोह करना चाहते थे, किंतु चर्चिल और रूजवेल्ट ने उनके साथ विश्वासघात किया।

दुनिया भर के कम्युनिस्टों के समान ही भारत के कम्युनिस्टों ने भी रूस के अनुकूल अपनी नीतियाँ बनायीं। इस कारण प्रारंभिक अवस्था में जिस द्वितीय महायुद्ध को 'जनविरोधी' घोषित किया गया था वही बाद में 'जनसंग्राम बन गया, जिसके कारण कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता की पीठ में छुरा भोंकने का काम किया। किंतु धीरे-धीरे यह स्पष्ट हुआ कि रूसी सरकार रूसी राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व कर रही थी, न कि अंतरराष्ट्रीय कम्युनिज्म का।

युद्धोत्तर रूस सरकार में से सोशल डेमोक्रेट्स को निकालना, सन् 1956 में हंगरी में, 1968 में चेकोस्लोवाकिया पर रूसी आक्रमण, सी.पी. एस.यू.के. की बीसवीं कांग्रेस, विभिन्न सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ रूस का व्यवहार, सन् 1978 में अफगानिस्तान पर आक्रमण, 1981 का पोलैण्ड का झमेला आदि घटनाओं ने यूरोप के कम्युनिस्टों की आँखें खोल दी और "दुनिया के मजदूरों एक हो" की घोषणा का खोखलापन सामने आ गया। इसमें से यूरो कम्युनिज्म का निर्माण हुआ। 'कामिन्फार्म' के निर्माण से पश्चिमी यूरोप के कम्युनिस्ट नाराज हुए। पूछने लगे कि यह नई संस्था खुद अपने हाथ में कौन से नए अधिकार लेने वाली है। जबकि इसके निर्माण के विषय में हम लोगों से विचार-विमर्श भी नहीं किया गया? स्पेनिश कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कैरिल्लों ने कहा कि रूस के बाहर कम्युनिस्ट पार्टियों को समझने में विलंब लगा कि अपने अपने देश की समस्याएँ सुलझाने की दृष्टि से हर एक कम्युनिस्ट पार्टी स्वतंत्र है; अपनी स्वायत्तता बनाए रखने तथा अपनी दृष्टि से जागतिक स्थिति का स्वतंत्ररूप से विचार करने की आवश्यकता है। यूरोप के कम्युनिस्टों ने मार्क्स तथा लेनिन का अंधानुकरण करना बंद कर दिया। रूस की सुविधा के लिए अपनी पार्टियाँ चलाना उन्हें उचित नहीं लगा।

परंतु इस तरह की जागृति भारत के कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं आ सकी। कम्युनिस्ट पाठ्यपुस्तक के विद्यार्थी की भाँति 1962 के चीनी आक्रमण के समय उन्होंने चीनी आक्रमण को आक्रमण मानने से इंकार कर दिया। बाद में चीन और रूस के संघर्ष के फलस्वरूप भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में फूट पड़ गई।

जागतिक कम्युनिस्ट पार्टी के आंदोलन के साथ-साथ प्रभुत्व की आकाँक्षा सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को अपने-अपने देश में बदनाम करने के कारणभूत हुई। वास्तव में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी स्वायत्तता के साथ अपनी स्वयं की प्रतिभा से पार्टी के कारोबार चलाती तो अब तक उसका प्रभाव बहुत बढ़ा होता, किंतु रूस के शिष्यत्व के कारण पार्टी जनता से दूर चली गई और समय-समय पर रूस को प्रसन्न करने के लिए क्रमशः गलत नीतियाँ अपनाती चली गई। इसी नीति का स्पष्ट प्रतिबिंब किसान सभा के इतिहास में हम देख सकते हैं।

आल इंडिया किसान सभा बनने के पूर्व कुछ प्रदेशों में प्रादेशिक स्तर पर किसान सभाएँ सक्रिय थीं। आंध्र प्रदेश, बंगाल, बिहार, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में प्रांतीय स्तर की किसान सभाएँ पहले से कार्यरत थीं।

स्वामीजी और कम्युनिस्टों में मतभेद

स्वामी सहजानंद जी का कम्युनिस्टों से कई विषयों में मतभेद था। स्वामी जी ने सन् 1944 के किसान सभा के बेझवाड़ा अधिवेशन के अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वयंनिर्णय के सिद्धांत पर मुस्लिम लीग तथा पाकिस्तान की माँग पर जोरदार हमला किया। सन् 1942 के किसान सभा के बिहटा अधिवेशन में कम्युनिस्टों द्वारा पारित करवाए गए प्रस्ताव के खिलाफ जाने वाला स्वामी जी का यह भाषण कम्युनिस्टों को बहुत अखरा। किंतु बेझवाड़ा में ही विषय नियामक समिति में स्वामी जी ने कहा-

"I have my own ideas, my own conceptions, my own methods, and these may have differences with those of others".

(मेरे अपने विचार, अपनी अवधारणाएँ, अपने तरीके हैं और वे दूसरों से भिन्न हो सकते हैं)

किसान सभा छोड़ने का कारण उन्होंने ("The defacto Communist domination over it.") उस पर कम्युनिस्टों का आधिपत्य बताया।

दूसरा महायुद्ध कम्युनिस्टों की दृष्टि से सितंबर 1939 से जून 1941 तक जन-विरोधी था और जून 1941 से 1945 के अंत तक वह 'जनता का युद्ध' बन गया। स्वामी जी इससे सहमत नहीं थे।

खेतिहर मजदूरों में काम करने वाले अन्य संगठन

सी.पी.आई-ए.आई.टी.यू.सी. के खेतिहर मजदूर संगठन के अलावा इस क्षेत्र में काम करने वाली अन्य संस्थाएँ इस तरह हैं: सी.पी.एम.-सीटू की यूनियनें, इंटक की इंडियन नेशनल रूरल लेबर फेडरेशन, यू.टी.यू. सी.(लेनिनसरणी) की यूनियनें, लाल निशान गुट, सर्व श्रमिक संघ की यूनियन तथा भारतीय मजदूर संघ का खेतिहर मजदूर संघ। हिंद मजदूर सभा का इस क्षेत्र में विशेष कार्य नहीं, यद्यपि वे बीच-बीच में सम्मेलन आदि करते रहते हैं।

भारतीय मजदूर संघ ने सन् 1975 में अमृतसर अधिवेशन में इस कार्य हेतु सरदार सुखनंदन सिंह की संयोजक के नाते नियुक्त की। दिनांक 8 फरवरी 1978 को दिल्ली में महासंघ का निर्माण किया गया। जिसके प्रधान श्रीपुंडालिक राव दानवे (संसद सदस्य) और महामंत्री श्री एम.जी. डोगरे चुने गए। दिनांक 8 मई 1983 को बुलढाना में हुए अखिल भारतीय अधिवेशन में वाराणसी के श्री आर.एन. सिंह प्रधान और श्री एम.जी. डोगरे महामंत्री निर्वाचित हुए। इस समय इस 'अखिल भारतीय कृषि मजदूर संघ' से 47 यूनियनें संबद्ध हैं, जिसकी सदस्य संख्या लगभग 65,000 है।

यह महासंघ भारतीय किसान संघ को अपना सहयोगी संगठन मानता है।

कम्युनिस्टों ने सर्वप्रथम अखिल भारतीय स्तर की खेतिहर मजदूरों की यूनियन गठित की जिसका नाम है 'भारतीय खेत मजदूर यूनियन'।

सन् 1936-37 में आंध्र प्रदेश में कम्युनिस्टों ने अपनी पहली राज्यस्तरीय 'खेत मजदूर सभा गठित की। जालंधर जिले में खनान गाँव में दिनांक 11-12 दिसंबर, 1954 में हुए प्रादेशिक अधिवेशन में 'पंजाब खेत मजदूर सभा' का निर्माण किया गया। सन् 1968 के सितंबर माह में पंजाब के मोगा में हुए राष्ट्रीय स्तर के अधिवेशन में 'भारतीय खेत मजदूर यूनियन' की स्थापना की गई। तत्पश्चात् यह यूनियन 'वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियंस ऑफ एग्रीकल्चरल फारेस्ट्री एंड प्लांटेशन वर्क्स' से संबद्ध की गई।

अन्य केंद्रीय श्रम-संस्थाओं ने भी इस क्षेत्र में प्रवेश किया, जिसका विवरण अन्यत्र दिया हुआ है। राजनीतिक दलों की दृष्टि से विचार किया तो खेतिहर मजदूरों का सर्वाधिक प्रतिनिधित्व 'रिपब्लिकन पार्टी' करती थी। रिपब्लिकन पार्टी के समर्थकों में सबसे अधिक संख्या खेतिहर मजदूरों की थी तथा खेतिहर मजदूरों में सबसे अधिक लोकप्रिय पार्टी रिपब्लिकन पार्टी थी। किंतु इस पार्टी के विभाजन के पश्चात् स्वाभाविकतः पार्टी की पकड़ तथा समर्थकों की श्रद्धा शिथिल हो गई। पार्टी का 'सिद्धार्थ श्रमिक संघ' भी शिथिल हो गया। वरना खेतिहर मजदूरों में सर्वाधिक सदस्यता 'सिद्धार्थ श्रमिक संघ' की ही पायी जाती।

दिनांक 14-15 जुलाई, 1937 को बिहार के नियामतपुर में अखिल भारतीय किसान कमेटी ने किसान सभा का संविधान बनाया जो सन् 1938 के कोमिल्ला अधिवेशन में स्वीकृत किया गया। उसमें एक और आयाम जोड़ा गया, वह था राज्य में लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना। सन् 1939 के किसान सभा के चतुर्थ अधिवेशन (गया) ने स्पष्ट रूप से कांग्रेस के स्वातंत्र्य संग्राम का समर्थन और साम्राज्यवाद का विरोध किया और यह घोषित किया कि लोकतांत्रिक राज्य की परिणति किसान-मजदूर राज्य में होगी। यह एक बात ध्यान में रखने योग्य है। कुछ कम्युनिस्ट नेताओं ने गलतफहमी फैलायी कि बीच की अवस्था में 'पीपुल्स डेमोक्रेसी' यहाँ रहे। यह बात गया प्रस्ताव में कही गयी, यह झूठ है। अन्य गैर-कम्युनिस्ट राष्ट्रवादी तत्व जिस लोकतांत्रिक राज्य की कामना करते थे वही लोकतांत्रिक राज्य गया प्रस्ताव का भी अभिप्रेत था।

सन् 1940 में पालसा में तथा सन् 1941 में पकाला में किसान सभा का अधिवेशन हुआ। सन् 1942 में बिहटा में अधिवेशन हुआ। किंतु इस बीच सन् 1941 के जून माह में जर्मन सेना ने रूस पर आक्रमण किया जिसके परिणामस्वरूप भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में आमूल परिवर्तन आया और कांग्रेस के 'भारत छोड़ो' आंदोलन के पश्चात् किसान सभा में दरार आई तथा उसकी दिशा परिवर्तन हो गई।

द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् कांग्रेस ने स्वयं अपना किसान संगठन निर्माण करने का प्रयास किया। संबंधित कांग्रेसियों की 24 सितंबर, 1945 को बंबई बैठक के पश्चात् दिनांक 8 जुलाई, 1945 की बंबई की वृहत बैठक तक यह प्रयास जारी रहा। एक विषय पर सभी एकमत भी हुए कि "Membership of the proposed Kisan Sabha shall not be open to the members of the Communist Party and Radical Party of India because of their anti national policies." अर्थात् प्रस्तावित किसान सभा की सदस्यता कम्युनिस्ट पार्टी तथा रेडिकल पार्टी ऑफ इंडिया के सदस्यों के लिए, उनकी राष्ट्रविरोधी नीतियों के कारण, नहीं खुली होगी। किंतु बंबई की इस अंतिम बैठक में संस्था का नाम, ध्वज आदि बातों पर एकमत नहीं हो सका और यहीं कांग्रेस प्रणीत इस प्रयास की इतिश्री हो गई।

'भारत छोड़ो' आंदोलन आरंभ होने के पश्चात् श्री रंगा ने 'किसान सभा' का यह कहकर त्याग कर दिया कि वह राष्ट्रद्रोही संस्था बन गई है। तत्पश्चात् उन्होंने 'ऑल इंडिया किसान कांग्रेस की घोषणा की।

मार्च, 1945 में स्वामी सहजानंद जी ने किसान सभा पर हुए कम्युनिस्ट प्रभाव का निषेध करते हुए किसान सभा छोड़ी और 'ऑल इंडिया यूनाइटेड किसान सभा की स्थापना की।

अल्पसंख्यक और हिंदू समाज

दत्तोपंत ठेंगड़ी

अल्पसंख्यक के अधिकारों के संरक्षण के विषय में आज चारों ओर जोरदार चर्चा चल रही थी। किंतु यह आश्चर्य की बात है कि इस संपूर्ण चर्चा में एक महत्वपूर्ण सत्य आँखों से ओझल हो रहा है जो अल्पसंख्यकों में भी अति अल्पसंख्यक हैं, वे इस सवाल को उठा रहे हैं। उन्हें इस बात में चिंता नहीं है। अल्पसंख्यकों में जो बहुसंख्य हैं, वे ही इस प्रश्न पर गहरी चिंता व्यक्त कर रहे हैं।

यह सर्वज्ञात है कि पारसी तथा यहूदी समाज संख्या में सबसे कम हैं। यह ऐतिहासिक सत्य है कि अपने मूल देश से निर्वासित पारसी भारत में आए। यहाँ के राजाओं ने उनको आश्रय दिया, रहने के लिए जमीन दी, जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध करा दिए। उनके धर्म-मत के अनुसार चलने की पूर्ण-स्वतंत्रता दी। इतना ही नहीं तो उनके धर्म मंदिरों के निर्माण के लिए हिंदू राजा तथा प्रजा ने उन्हें सहायता की। वे भी अपने धर्म-मत तथा परंपाराओं को कायम रखते हुए भारत की संस्कृति और समाज व्यवस्था के साथ एकात्म हो गए और भारत को अपनी मातृभूमि मानकर उसके उत्कर्ष के लिए प्रयत्नशील रहे। भारत का प्रारंभिक औद्योगीककरण करने में पारसियों का बड़ा योगदान रहा। अंग्रेज सरकार की नीतियों के कारण भारत किस तरह दरिद्र हो रहा है। इसका सप्रमाण विश्लेषण नामदार गोपालकृष्ण गोखले तथा दादाभाई नौरोजी ने ही सर्वप्रथम किया। इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष पद से मा. दादाभाई नौरोजी ने 'स्वराज्य, राष्ट्रीय शिक्षा, स्वदेशी तथा बहिष्कार' इस चतुःसूत्री का उद्घोष किया और यही चतु:सूत्री अंत तक स्वातंत्र्य संग्राम की मार्गदर्शक रही। मैडम कामा का भी योगदान सर्वविदित है। भारतीय समान तथा संस्कृति के साथ पारसी पूर्णरूपेण एकात्म हो गया। अपने विदर्भ के दौरे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूजनीय श्री गोलवलकर 'गुरुजी' ने कहा था कि मैं पारसियों को अग्निपूजक ही मानता हूँ।' वे कहते हैं कि पारसियों का जिंदावेस्ता हिंदुओं का एक उपेक्षित धर्मग्रंथ (छांद व्यवस्था) है। सबसे कम संख्या का समाज होते हुए भी उन्हें कभी भी यह चिंता नहीं लगी कि बहुसंख्य समाज के सामने हमारे जायज अधिकारों का हनन तो नहीं होगा?

यही बात यहूदी समाज की है। 1800 वर्ष पूर्व इस समाज को उसकी मातृभूमि से खदेड़ा गया। परिणामस्वरूप दुनिया के विभिन्न देशों में यहूदी जाकर बसे। कुछ यहाँ हिंदुस्तान में भी आए, उनकी संख्या अत्यंत अल्प थी। हमारे देश के राजाओं तथा प्रजा ने उनका आतिथ्यपूर्ण स्वागत किया। उनको रहने के लिए जगह दी। उनकी धर्म परंपरा के अनुसार व्यवहार करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी। यहाँ तक कि उनके धर्म मंदिरों के निर्माण में भी हिंदू राजा और प्रजा ने सहयोग किया। वे भी भारत की संस्कृति तथा समाज के साथ घुल-मिल गए। 1800 साल बाद जब इजरायल का उसके जन्मभूमि में निर्माण हुआ तब इजरायल के नेताओं ने दुनिया के यहूदियों का आवाहन किया कि वे नव इजरायल के निर्माण में अधिकतम योगदान करें।

इजरायल के नेताओं ने यह भी घोषित किया कि दुनिया के सब देशों ने उसके साथ अन्याय किया था। दुनिया में हिंदुस्तान ही एकमात्र ऐसा देश है जिसने उनका प्रेमपूर्वक स्वागत किया। इस आवाहन के फलस्वरूप विभिन्न देशों से कई धार्मिक यहूदी अपना घर-बार छोड़कर इजरायल की सहायता करने के लिए गए। हिंदुस्तान से भी गए। उनमें अधिक संख्या महाराष्ट्र तथा केरल के यहूदियों की थी। दोनों मिलाकर 45000 होगी। वे गए और इजरायल के पुनर्निर्माण के कार्य में जुट गए। किंतु एक क्षण भी वे भारत माता को नहीं भूले। भारतीय संस्कृति तथा समाज की विशेषताओं का स्मरण करते हुए वे इजरायल के साथ एकात्म हुए। प्रौढ़ तथा वृद्ध महाराष्ट्रीय अपने बच्चों को ज्ञानेश्वर, तुकाराम के संत वचन अभी भी सुनाते हैं। केरल के प्रौढ़ तथा वृद्ध अपने बच्चों को कुमारन आशन के तथा वखनोड़ के काव्यों की पंक्तियाँ सुनाते हैं। उनकी धारणा है कि इजरायल उनकी पितृभूमि है और भारत मातृभूमि। जो इजरायल नहीं गए, यहीं निवास करते हैं, वे पूर्ववत् इस संस्कृति और समाज के साथ एकात्मकता रखते हैं।

पारसियों के समान उनकी संख्या भी अति अल्प है किंतु उनके मन में भी कोई भय नहीं है, कोई चिंता नहीं है और इसके कारण उनके मुख में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं है। निर्भय, निश्चिंत होकर वे संपूर्ण समाज के साथ एकात्म होकर रहते हैं।

अल्पसंख्यकों में जिनकी संख्या बहुत बड़ी है, वे हैं मुसलमान और वे अपने अधिकारों के संरक्षण के विषय में हमेशा चिंता व्यक्त करते हैं। आश्चर्य की बात है कि जो अत्यंत अल्पसंख्यक हैं वे पारसी और यहूदी तो निर्भय हैं और मुसलमान राष्ट्रीय मुख्यधारा से एकात्म होना पसंद नहीं करते। इसका क्या कारण है?

वास्तव में भारत में स्थान-स्थान पर ऐसे संत महापुरुष निर्माण हुए जिनके भक्त दोनों हैं- हिंदू भी मुसलमान भी। सूफी संप्रदाय के श्रेष्ठ संत सर्वसमन्वयकारी रहे। श्री दत्तात्रेय संप्रदाय की एक शाखा के प्रमुख श्री नृसिंह सरस्वती के एक शिष्य बीदर के मुसलमान राजा थे। दत्त संप्रदाय की दूसरा शाखा गोरखपुर में है, जिसके प्रणेता श्री मच्छिंद्रनाथ तथा गोरखनाथ रहे हैं। इस संप्रदाय में बहुत मुसलमान शामिल थे और वे नाथ संप्रदाय की उपासना भी करते थे।

टीपू सुल्तान हर सुबह श्रीरंगपट्टन का दर्शन करता था और लड़ाई के समय यश प्राप्त हो इस दृष्टि से ब्राह्मणों के द्वारा अभिषेक भी करवाता था। कई हिंदू मंदिरों को निजाम की ग्रांट भी रहती थी, जो आज की सरकार ने भी बहाल की है। बहुत से हिंदू राजाओं के दरबार में तथा सेवा में मुसलमान रहते थे और मुसलमान बादशाह के सेनापति हिंदू हुआ करते थे।

हमारे प्रगतिशील विचारक शिवाजी की श्रेष्ठता बताने के लिए कहते हैं कि शिवाजी सेकुलर थे क्योंकि उन्होंने स्थान-स्थान पर मुसलमान को अपने राज्य की सेवा में रखा था किंतु वास्तव में देखा जाए तो लगभग सभी हिंदू, बौद्ध तथा जैन राजा सेकुलर ही थे।

ज़िन मुस्लिम कार्यकर्ताओं ने तलवार के भरोसे जबरन हिंदुओं को मुसलमान बनाया, वे इस्लाम के धार्मिक पुरुष नहीं थे। अपने साम्राज्य की लॉबी मजबूत बनाने के लिए उन्होंने इस्लाम का उपयोग किया।

कार्ल मार्क्स ने कहा कि विजेताओं का सांस्कृतिक स्तर जहाँ नीचे का रहता है, वहाँ राजनीतिक दृष्टि से विजेता रहे लोग सांस्कृतिक दृष्टि से विजित लोगों की संस्कृति स्वीकार करते हैं। उस समय यही हुआ। इस नियम के अनुसार कार्ल मार्क्स लिखते हैं कि "The Arabs, Turks, Tartars, Mughals who had successively overcome India, soon became Hinduised, the barbarian conquerors being, by an eternal law of history, conquered themselves by the superior civilisation of their subjects."

मुगल साम्राज्य को स्थिरता प्राप्त होने के बाद उनके सरदार तथा राजवंश के लोग भी यह जानने के लिए इच्छुक हुए कि हिंदुओं का धर्म-मत क्या है? उसका अध्ययन करने लगे। रामायण, महाभारत, अथर्ववेद आदि के फारसी भाषांतर हुए। उसका प्रभाव भी उच्चवर्गीय मुगलों पर होता गया।

दाराशिकोह के विरोध में औरंगजेब ने तलवार निकाली तब तर्क यही दिया था कि दारा तो आधा हिंदू हो गया है। वह बादशाह होगा तो इस्लाम समाप्त होगा। दारा कवि भी था। उसकी इस काव्य पंक्ति का अंग्रेजी भाषांतर इस प्रकार है- "Thou art in the Kabba, as well as in the Somnath temple in the convent as in the Tavern."

यह भावना शंकराद्वैत से नजदीक की है। पाकिस्तान के निर्माण के लिए भारतीय मुसलमानों की मानसिकता तैयार हो, इसलिए अल्लामा इकबाल द्वारा एक कविता लिखी गयी-जबाव-ए-सिकवा, उसमें जानबूझकर अतिशयोक्ति की गई। मुसलमानों को चिढ़ाने के लिए इसकी अतियुक्ति को मान लिया तो भी ये पंक्तियाँ किन परिस्थितियों में लिखी गयी, यह सोचने की बात है। चिढ़ाने के स्वर में कवि कहता है-

From the British you have learnt your language, your culture from the Hindus. How can Muslims pass as a nation which shames even the Jews? Into the sky of your nation your rose. Like a Bright star with a hue but the lure of India's idols has made even Brahmins out of you.

इसका मतितार्थ इतना ही है कि हिंदू और मुसलमानों में लगातार सांस्कृतिक संवाद और लेनदेन Cultural intercourse, cultural interaction चलता रहता था और दोनों समुदायों पर उसका प्रभाव होता था। अंततोगत्वा यहाँ की संस्कृति सर्व समावेशक होने के कारण मुसलमानों का भारतीयकरण हो रहा था क्योंकि assimilation आत्मसातीकरण इस संस्कृति की विशेषता रही है।

विनाश नहीं सम्मिलन (Not destruction, but assimilation) अपने-अपने धर्म-मतों को, धार्मिक परंपराओं को अक्षुण्ण रखते हुए मुसलमान धीरे-धीरे संस्कृति में assimilate हो रहे थे। हिंदुओं ने कभी उनको यह नहीं कहा कि तुम अपना धर्म-मत छोड़ो, कुरान और हदीस छोड़ दो या मस्जिद जाना बंद करो या प्रेषित मुहम्मद साहब को मानना छोड़ दो। उनकी सभी धार्मिक मान्यताओं को अक्षुण्ण रखते हुए वे यहाँ की संस्कृति में आत्ससात हो रहे थे। राजनीतिक कारणों से जहाँ-जहाँ इस्लाम का उपयोग किया गया वहाँ-वहाँ संघर्ष नहीं था। दोनों एक-दूसरे के निकट आ रहे थे।

अंग्रेजों की नीति रही 'फूट डालो और शासन करो'। इस नीति के अंतर्गत हिंदू-मुसलमानों में वैमनस्य निर्माण करने का उन्होंने सफल प्रयत्न किया। किंतु सन् 1857 में हम हिंदू-मुस्लिम एकता का ही दृश्य देखते हैं। बहादुरशाह जफर को अपना भावी राज्य प्रमुख मानते हुए श्रीमंत नानासाहेब पेशवा, तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि ने अंग्रेजों से युद्ध किया।

बहादुर शाह जफर भी इसी मानसिकता का था। अंत में बहादुरशाह को किसी ने कहा कि अब तुम्हारी हार निश्चित है, क्यों न तुम स्वयं होकर आत्मसमर्पण करते?

दमदमे में दम नहीं, अब खैर माँगो जान की

ए जफर बस हो चुकी शमशीर हिंदुस्तान की।

जिस पर बहादुरशाह ने तपाक से जबाब दिया-

गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की।

तख्ते लंदन पर चलेगी तेग हिंदुस्तान की

1857 के अंत तक का यह दुश्य था। बाद में अंग्रेजों ने अपनी फूट डालने की नीति चलाई। एक राजनीतिज्ञ ने कहा है, "Politicians in every country have a knack of exploiting religious sentiments for the furtherance of their political ends. When priesthood makes common cause with a gang of politicians, the combination becomes too formidable for an average believer."

हर देश के राजनीतिज्ञों में मजहबी भावनाओं का अनुचित लाभ उठाने की अद्भुत प्रवृत्ति होती है। जब मजहबी नेता और राजनीतिक नेता अपना गिरोह बना लेते हैं तब यह गठजोड़ सर्वसाधारण अनुयायियों के लिए घातक बन जाता है।

अंग्रेजों की कुटिल राजनीति, उनके द्वारा बढ़ाई गई मुसलमान राजनेताओं की महत्वाकांक्षाएँ, इनके फलस्वरूप दोनों समुदायों में दरार न पैदा हो, यह चिंता सन् 1920 तक लोकमान्य तिलक जी सफलतापूर्वक करते रहे। किंतु जैसे ही तिलक युग का अंत हुआ, परिस्थितियाँ बदलने लगीं।

अंग्रेजों की फूट डालने वाली नीति का सारा अंग्रेजी समाज शिकार बना, ऐसा नहीं कहा जा सकता। बुद्धिवादी मुसलमान बड़ी संख्या में राष्ट्रवादी थे, कांग्रेस में थे। नई पीढ़ी के लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि बैरिस्टर जिन्ना कट्टर राष्ट्रवादी थे। अल्लामा इकबाल, शौकत अली, मुहम्मद अली सब राष्ट्रवादी थे। तिलक जी अंग्रेजों की चाल को विफल करने में सफल रहे। अंग्रेज कहते थे कि हिंदू-मुस्लिम एकता हो जाए तो हम भारत छोड़कर चले जाएंगे। इस चाल का जवाब तिलक जी ने दिया। मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि के नाते तिलक जी ने ऐसे मुसलमानों को मान्यता दी जो राष्ट्रवादी थे। बैरिस्टर जिन्ना ने विभक्त मतदान संघ का जगह-जगह प्रखर विरोध किया था। लाला लाजपतराय जब अमेरिका से भारत आने वाले थे तब कांग्रेस की ओर से उनका स्वागत करने के लिए तीन लोगों को नियुक्त किया गया था-लोकमान्य तिलक, डॉ. एनीबेसेंट और बैरिस्टर जिन्ना। सन् 1920 तक यह स्थिति थी।

गांधीजी ने राष्ट्रवादी, कांग्रेसी मुसलमानों के प्रति उल्टी नीति अपनाई। जो कांग्रेस को गाली देंगे, लात मारेंगे, उनके सामने झुकना और जो कांग्रेस के साथ थे उनकी उपेक्षा करना, यह नीति गांधीजी ने अपनाई। इसके कारण राष्ट्रीय मुख्यधारा के साथ जो मुसलमान थे उनको लगने लगा कि We are taken for granted.

इन लोगों ने खिलाफत आंदोलन के समय तथा अन्य अवसरों पर जो चेतावनियाँ दी थीं। उनको गांधी जी ने आँखों से ओझल कर दिया और Fundamentalists के सामने आत्म समर्पण करते रहे। इस कारण कांग्रेस के भीतर जो भी राष्ट्रवादी मुसलमान थे उनको लगने लगा अब कांग्रेस में रहना व्यर्थ है। हम राष्ट्रीय मुख्यधारा में रहेंगे तब तक गांधीजी हमारी उपेक्षा ही करेंगे। राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग होकर कांग्रेस का विरोध करेंगे तो हमारी कदर होगी। इस भावना से उन्होंने मुस्लिम लीग को बल प्रदान करना प्रारंभ किया।

वास्तविक धरातल पर यह सारी कसरत नेता लोग ही कर रहे थे। सर्वसाधारण मुसलमान तथा हिंदू समाज इस झंझट से मुक्त रहकर अपने परस्पर व्यवहार पूर्ववत चला रहे थे। किंतु आखिर नेताओं की मानसिकता का, उनके द्वारा किए गए प्रचार का प्रभाव तो सामान्य जनों पर होता ही है। वैसा ही हुआ और गांधीजी की गलत नीति के कारण मुसलमानों में पृथकतावादी पाकिस्तानी मनोवृत्ति का विकास होने लगा।

कट्टरवादी मुस्लिम नेताओं के साथ समझौता वार्ता करना यह गांधीजी की नीति गलत है, यह बात, कुछ घटनाओं के कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू जी के ध्यान में आई और 19 मार्च 1937 को लखनऊ में उन्होंने प्रकट रूप से यह कहा भी।

उन्होंने माना कि 'प्रत्यक्ष मुसलमान समाज के साथ संपर्क न करते हए उन्हें मुस्लिम हाथों सौंपकर हम उनके नेताओं के साथ समझौता वार्ता कर रहे हैं, यह हमारी गलती हुई। इसके कारण कट्टरवादी मुस्लिम नेता हमेशा सौदेबाजी करते रहे। हमारे लिए यह उचित था कि हम सीधे सामान्य मुसलमानों के पास जाकर उनको अपनी बात समझाएँ।

(We have too long thought in terms of pacts and compromises with communal leaders and neglected the people behind them. It is for us now to go ahead to welcome the Muslim masses and intelligensia in our great organisation and rid the country of communalism in every shade or form). -Speaches and Documents on Indian Constitution Vol. 1 Page 422/23)

कांग्रेस ने 1920 से ही यह नीति अपनाई होती तो तिलक जी के ही मार्ग पर कांग्रेस चलती और आगे आने वाला विभाजन का संकट निर्माण ही न होता। Muslim mass contact उसको भी कांग्रेसियों ने कार्यान्वित नहीं किया। इस विषय में नेताओं की मानसिकता तथा विचार पद्धति गलत रही। जिसके दुष्परिणाम हम आज भी भुगत रहे हैं। उचित विचारों का परिणाम उचित ही होगा वैसे ही गलत विचारों का परिणाम गलत ही हुआ है।

हिंदुस्तान के संदर्भ में Unity शब्द का प्रयोग उचित नहीं। Unity शब्द के उच्चारण से ही प्रतीत होता है एक से अधिक Unit का अस्तित्व। जहाँ Unit एक ही है वहाँ Unity शब्द का प्रयोग असंबद्ध हो जाता है। जैसे विवाह के लिए एक से अधिक यूनिट की आवश्यकता होती है। खुद के साथ कुश्ती नहीं खेल सकते। वैसे ही अंग्रेजों के यूनिटी (Unity) शब्द में Presumption पूर्वग्रहीन है कि एक से अधिक यूनिटों का अस्तित्व है। संपूर्ण भारतीय समाज एक ही इकाई यूनिट है जिसमें उपासना और भाषा का पूरा स्वातंत्र्य है with perfect freedom of religion and language to all. इसलिए यहाँ Unity शब्द का उच्चारण अप्रासंगिक है। इसी मानसिकता को बढ़ावा देने में देश का कल्याण होगा।

पर्यावरण संरक्षण

पं. राम प्रकाश मिश्र

पूर्व राष्ट्रीय मंत्री

भा.म.संघ, नई दिल्ली

(मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की प्रेरणा से पर्यावरण मंच की स्थापना की गई थी और 28 अगस्त प्रत्येक वर्ष भा.म.संघ 'पर्यावरण दिवस' के नाते मनाता है। पं. राम प्रकाश जी का आलेख पर्यावरण विषय पर पर्याप्त प्रकाश डालते हुए भारतीय प्राचीन परंपराओं का पुनर्स्मरण करवाता है। )

पूरे ब्रह्मांड की एक लय होती है। जहाँ लय है वहीं गति है, निरंतरता है, जीवन प्रवाह है। यदि यह लय बिगड़ गई तो प्रलय ही शेष बचती है। आज का मनुष्य जितनी तेजी से प्रलय की ओर भाग रहा है शायद यह बात वह भी नहीं जानता है।

धरती का मिजाज जब तक सामान्य है तभी तक हम सुरक्षित हैं। सुरक्षा केवल मानव के लिए ही नहीं अपितु पशु-पक्षी, वनस्पति आदि की सुरक्षा। जरा कल्पना कीजिए कि यदि धरती का मिजाज यकायक बहुत गरम हो जाए तो क्या यह सब सुरक्षित रह पाएंगे? क्या पेड़ पौधे बच पाएंगे? क्या मछलियाँ स्वच्छंद रूप से जल में विहार करती रहेंगी जैसा वे आज कर रही हैं। बड़े-नगरों में सीना ताने बहुमंजिली अट्टालिकाएं खड़ी रह सकेंगी? नहीं। कदापि नहीं। इसलिए इस समस्या पर ठंडे मन से सोचने, विचार करने की आवश्यकता है।

वायुमंडल में गैस के जमाव का विधिवत् अध्ययन 1958 में प्रारंभ हो गया जो 1988 में पूरा हुआ। नासा ने विगत सौ वर्षों के तापमान के अध्ययन करने के बाद बताया कि पृथ्वी का औसत तापमान 0.6 से 1.2 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है। इसके अलावा जहाँ 40 वर्ष पहले पंखा नहीं चलता था। आज वहाँ पंखे के बिना रहना कठिन लगता है। 1960 में दिल्ली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा सम्मेलन में यह स्वीकार किया गया कि ग्रीन हाउस गैसों के स्तर में बढ़ोतरी के कारण अनावृष्टि, सूखा प्रकोप बढ़ सकते हैं। उड्स सेंटर रिसर्च नेसाचुयेट्स की रिपोर्ट के अनुसार लगभग एक खरब टन के बीच कार्बन-डाय-आक्साइड प्रतिवर्ष वायुमंडल में पहुँच रही है। भारत में यह मात्रा 47.6 करोड़ टन है। इस सृष्टि के संचालन में कार्बन-डाय-आक्साइड खलनायिका है। यह अकेली नहीं है। गैस की सरदारिन भले ही कार्बन डायऑक्साइड है उसके साथ मिथेन नाइट्रो ऑक्साइड तथा क्लोरो कार्बन आदि। धुआँ उगलती चिमनियाँ, प्रदूषण के साथ धुँआ का गुब्बार छोड़ते वाहन, फैक्टरियों से निकले रसायन आदि पृथ्वी के ऊपर एक ऐसा परत बना देते हैं जो ऊष्मा को आगे नहीं बढ़ने देती है। धरती ठंडी साँस भी नहीं ले पाती है, जिससे उसे सदैव गर्म ही रहना पड़ता है। यही आँच अवश्य उबाल लाएगी कुछ ऐसा ही पृथ्वी के साथ हो रहा है।

सुरसा की तरह कार्बन डायऑक्साइड अपना मुँह फैलाती है। यह प्रतिवर्ष 14 प्रतिशत बढ़ती है। मिथेन तथा नाइट्रोजन एक प्रतिशत बढ़ती है। मिथेन एक प्रतिशत तथा नाइट्रोजन 2 प्रतिशत बढ़कर हमारे सामने खतरनाक स्थिति खड़ी कर देती है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि ईंधन जलाने से जो कार्बन डायऑक्साइड पैदा होती है उसका पचास प्रतिशत भाग तो वातावरण में रहता है। जब कभी कार्बन डार्यऑक्साइड में दस प्रतिशत की वृद्धि होती है। तो पूरे तापमान में तीन सेंटीग्रेड की वृद्धि होती है। तापमान बढ़ने की यह गति आगे चलकर कई गुणा हो जाएगी तो विकट समस्या खड़ी कर सकती है। यदि ऐसा ही रहा तो ध्रुव प्रदेशों और ऊँचे पर्वतों के हिम खंड पिघलेंगे और जलप्लावन होगा। यह विनाश की ऐसी कहानी लिखेगा कि जो मानव इतिहास आज तक नहीं लिख पाया होगा। पानी का प्रवाह समुद्र तक से ऊँचा उठेगा। ध्रुव प्रदेशों का तापमान यदि 10 सेंटीग्रेड भी बढ़ जाए तो अनर्थ हो सकता है। क्योंकि तब समुद्र का जल-स्तर कम से कम पाँच मीटर ऊपर आ जाएगा। समुद्र के किनारे के क्षेत्र में सर्वत्र पंद्रह फीट की ऊँचाई में पानी भर जाएगा। तब तक न मनुष्य रहेंगे न पशु और न ही कोई वनस्पति रह जाएगी। यह दशा एक दो शहरों की नहीं अपितु विश्व के अनेक शहरों की होगी। ईश्वर करे दुर्भाग्य की यह दास्तान कभी न हो, किंतु शुतुरमुर्ग की तरह आँख मूँद लेने से कोई खतरा न टला है और न ही आगे टलेगा।

औद्योगिक कलेवर में मिले और फैक्टरियाँ भी हैं तथा धुँआ उगलती भट्ठियाँ और पावर प्लांट भी हैं। चारों ओर फैली धुँआ की चादर आखिर हमें क्या देती है? यह धुंध और धुएं की काली चादर तथा कार्बन डायऑक्साइड यह सब मिलकर जो ताण्डव करती है वह अपने आप में बेमिसाल है। स्वच्छंद और निर्मल प्रकृति कोई कुकर्म नहीं करती है। यदि हम करेंगे तो उसका बुरा फल हम ही भोगेंगे और कोई दूसरा नहीं।

औद्योगिक क्षेत्र धुएं से, कोयला कण से, वृक्षों के कटने से काले रहते हैं। मनुष्य की भाँति अन्य जीवों का श्वसन तंत्र भी प्रदूषण से प्रभावित होता है। धुएं के कारण प्रकाश की पैराबैगनी किरणों की मात्रा में कमी आ जाती है। पौधे भी वायुप्रदूषण से प्रभावित होते हैं। वायु प्रदूषण के कारण सूर्य के प्रकाश की मात्रा में काफी कमी हो जाती है जिससे पौधों के प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण पदार्थ पत्तियों पर एकत्रित होकर पर्णरंध्रों को अवरुद्ध कर देते हैं जिसके फलस्वरूप वाष्प-उत्सर्जन की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है। वायु प्रदूषण वाले क्षेत्रों में वर्षा में अनेक गैसें तथा विषैले पदार्थ घुलकर धरती पर आ जाते हैं। जड़ों द्वारा जल-ग्रहण करने के साथ पौधों के शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। फलस्वरूप बहुत से हरे-भरे पौधे नष्ट हो जाते हैं। औद्योगिक धुएं में कार्बन कणों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के हाइड्रो कार्बन भी होते हैं तो पत्तियों पर एकत्रित होकर भौतिक और रासायनिक क्रिया पर पत्तियों को हानि पहुँचाते हैं।

कार, बस, ट्रक, मोटरसाइकिल से निकलने वाले धुएं में इथोलिन रहता है जिसके कारण वृक्षों में फलों की कोरोनेशन पेटेल्स भीतर की ओर मुड़ जाती हैं। जापान में कारों से इतना धुआँ निकलता है कि व्यस्त मार्ग का यातायात नियंत्रित करने वाला सिपाही थोड़ी-थोड़ी देर में आक्सीजन ग्रहण करने के लिए आक्सीजन प्रदान करने वाली मशीनों के पास जाता है। अमेरिका में पैंसठ प्रतिशत प्रदूषण मोटरकारों के धुएं से होता है। जापान के स्कूली बच्चे जालीदार मुखौटा पहनकर स्कूल जाते हैं। भड़कदार फूल जैसे शतावरी के वाह्य दल सूख जाते हैं तथा रंगहीन हो जाते हैं।

धातु पिघलने से निकले धुएं में कार्बन के अलावा ताँबा, जस्ता आदि धातुएँ भी अधिक मात्रा में होती हैं। यह पौधों के लिए हानिकारक होती हैं। कुछ पौधे इतने संवेदनशील होते हैं कि वे प्रदूषण के सूचक का काम करते हैं। जब प्रदूषण की मात्रा बढ़ जाती है तो इन पौधों में विशेष चिन्ह पैदा हो जाते हैं। बरगद, सलबनिया, दहलिया तथा चीड़ की पत्तियाँ के ऊपर अधिक प्रदूषण के कारण हल्के चकत्ते पड़ जाते हैं। पत्तियाँ किनारे से मुड़ जाती हैं। वायु में उपस्थित प्रदूषण पदार्थों के छोटे-छोटे कण प्रकाश किरणों को प्रभावित करते हैं जिससे दृश्यता कम हो जाती है। समताप मंडलीय ओजोन पर सुपरसोनिक वायुयानों द्वारा अधिक ऊँचाई पर प्रदूषक पदार्थों के विसर्जन से समताप मंडलीय ओजोन पर प्रभाव पड़ता है।

वायु प्रदूषण पृथ्वी के तापमान, बादलों तथा वर्षा पर प्रभाव डालते हैं। मौसम में परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं। आकाश में कोहरा छा जाने के कारण सूर्य की किरणें पृथ्वी पर कम मात्रा में आती हैं। शहरों का तापक्रम गाँवों की अपेक्षा अधिक देखा गया है। प्रदूषण की उपस्थिति के कारण ताप में परिवर्तन होता है। कंकरीट, सीमेंट के भवन, तारकोल की सड़कों द्वारा ताप को संग्रहित किया जाता है। धूल-माटी, कटी सड़कें वाहनों के चलने से उठने वाली धूल से वायु प्रदूषण होता है। सड़ी-गली चीजों विशेषकर कचड़ों से वायु प्रदूषण होता है। इससे मनुष्य का स्वास्थ्य, पेड़-पौधे, जीव-जंतु तथा विशेषकर जलवायु आदि सभी प्रभावित होते हैं। परिणामस्वरूप मानव स्वास्थ्य पर दुष्परिणाम होता है। निमोनिया, टी. बी., कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह आदि के लिए इन्हें विशेष रूप से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। मधुमक्खी तथा अनेक कीट औद्योगिक वायु प्रदूषण से मरते देखे गए हैं। केमिकल फैक्ट्री के रसायन जब नदियों में जाते हैं तो मछलियाँ मर जाती हैं।

शोर भी एक प्रकार का प्रदूषण है जिसे ध्वनि प्रदूषण की संज्ञा दी गई है। इससे झुंझलाहट तथा अन्य प्रकार की असुविधा होती है। जो ध्वनि मानसिक क्रियाओं में विघ्न डालती हैं उसे शोर कहते हैं। परीक्षा काल में विद्यार्थियों को ध्वनि प्रदूषण से बचाने के लिए लाउडस्पीकर प्रयोग पर रोक लगा दी जाती है। अस्पताल के पास की सड़कों पर गुजरने वाले वाहनों को हार्न बजाने की मनाही रहती है।

इस प्रकार धूल-धुआँ, और ध्वनि से जो प्रदूषण फैलता है वह मानव जीवन के लिए हानिकारक होता है। इससे बचने का उपाय किया जाना अति आवश्यक है।

आज तो स्थिति यह बन गई है कि मजदूरों के लिए चिमनी से चिता तक की व्यवस्था कर दी गई है। मजदूर मशीन-उत्पादन जनित बीमारियों, चिमनियों के धुएं में आखिरी श्वाँस ले रहा है। उदयपुर की पेस्टी साइड, देश में प्लास्टिक कारखाने, एकबेस्टस प्रक्रिया एवं प्रोसेस सीमेंट फैक्टिरियाँ, कारबाइड गैस जिनके लिए भोपाल गैस कांड कुप्रसिद्ध हैं। रोग और मौत का पैगाम लाने वाली साबित हुई हैं।

तद्यपि प्रकति स्वयं नियंत्रित करती है। वह अपने ऊपर संतुलन बना रहे इसका प्रयास करती है। दूषित पर्यावरण के कारण तथा मनुष्य की अज्ञानता के कारण दुष्परिणाम दिखाई पड़ता है। आज पशु पक्षियों, पेड़ वनस्पतियों पर मानव ने बड़ी तेजी से आक्रामक रवैया अपना रखा की देश में पेड़-पौधों और पशु पक्षियों का विशाल भंडार खतरे में है। पीढ़ियों से मानव के साथ इनका चला आ रहा अनुबंध खतरे में पड़ गया है। मानव समाज इन्हें जोड़ने के बदले तोड़ रहा है। जो देश कभी सोन चिरैय्या कहलाता था उसका सोना तो लुट ही गया कहीं चिरैय्या के लुट जाने के दिन न आ जाए। शिकारी और संरक्षकों के बीच बहस जारी है। अभयारण्य अब भय उत्पन्न कर रहे हैं। संवर्धन के ऐसे प्रयास न तो जंगल के राजा के हित में है और न ही गाँवों में रहने वाली प्रजा के हित में हैं। शून्य माने जाने वाले आकाश का कोई भाग शून्य नहीं रहा। दुनिया के 8600 प्रजातियों में 1200 प्रजातियों के पक्षियों का बसेरा भारत में है। 2061 रूप रंग के पक्षियों में से 1750 तो भारत के हैं शेष उत्तरी क्षेत्र से आए प्रवासी पक्षी हैं।

कृषि प्रधान देशों के लिए पक्षी अति महत्वपूर्ण है। वे खेत में खड़ी फसलों में लगने वाले कीड़ों को खाकर फसल की रक्षा करती हैं। उदाहरण के लिए चीन में गौरय्या पक्षी को लोग ढूढ़-ढूढ़कर मार कर खा रहे हैं, जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पूरी की पूरी फसल हाथ से चली गई क्योंकि गौरय्या पक्षी के अभाव में कीड़ों की भरमार हो गई वे पूरी फसल चट कर गए।

हमारे देश में नीलकंठ धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं। गिद्ध भी कम दिखाई पड़ते हैं। चिड़ियों के माध्यम से खान मजदूरों को कार्बन डायऑक्साइड गैस से सावधान रखा जाता है। आज तो तोता, मैना, चकोर पक्षी भारी संख्या में मारे गए हैं। रासायनिक खाद इनके लिए जानलेवा साबित हुई है। कीटनाशक दवा के छिड़काव से इनके अंडे टूट जाते हैं। काली गरदन वाले सारस और सारंग पक्षी गायब हो रहे हैं। तिब्बत पठार और भूटान तथा लद्दाख में काली गर्दन वाले सारस बहुत कम हो गए हैं। आगे चलकर इन प्रजातियों के पक्षियों के लुप्त होने के अंदेशा है।

पक्षी संदेश वाहक हैं। आज भी गाँवों में यह मान्यता है कि यदि किसी के मकान के ऊपर बैठकर कौवा काँव-काँव करे तो महिलाएं कह उठती हैं- "मोरी अटरिया पर कागा बोले, कोई आ रहा है।" आने वाले अतिथि का संदेश कौवा पहले ही पहुँचा देता है। कबूतरों द्वारा पत्र पहुँचाने की प्रथा प्राचीन काल में बहुत प्रचलित थी।

मानव अज्ञानता और लोभवश अपना ही नुकसान करता है। थाणे में धान की बहुत अच्छी फसल होती है। वहाँ खेतों में बड़े-बड़े मेढक भी होते हैं। वहाँ के किसानों को पता चला कि अमेरिका के लोग मेढक की टाँग बहुत पसंद करते हैं। अब क्या था मेढक पकड़कर टाँग काटकर अमेरिका भेजना शुरू हुआ। मेढक टाँग काटने के बाद मर जाते थे। बाद में पता चला कि जो धान की फसल थी आधी रह गई क्योंकि जो फसल में कीड़े लगते थे उन्हें मेढक खा जाते थे और धान की फसल सुरक्षित बच जाती थी। यूकलिप्टस पानी अधिक सोखता है। वर्षा कम होने से यूकलिप्टस और सूखा लाता है।

प्रकृति के साथ मिलकर चलें इसलिए प्रकृति के प्रति उच्च बुद्धि भारत के पूर्वजों ने उत्पन्न की है। प्रकृति को माता कहा गया। धरती को, गंगा को, नर्मदा को, यहाँ तक कि सभी नदियों को माता कहा। वृक्षों की पूजा की। तुलसी को माता मानकर उसकी पूजा की। साँप और नागों की पूजा की, गौ को माता मानकर उसकी पूजा की। हाथी को गणेश मानकर उसकी पूजा की। पीपल, बरगद, आँवला की पूजा की। इन सबके माध्यम से सबके मन में एक भाव उत्पन्न किया कि यह सब मानव जीवन के लिए उपयोगी हैं। यह संतुलन पश्चिमी विकास पथ ने बिगाड़ दिया।

गोबर की खाद से जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। जापान के लोग भारत आए थे। दीनदयाल शोध संस्थान की ओर से गोंडा उत्तर प्रदेश में के बारे में जो विभिन्न प्रकार के प्रयोग चल रहे हैं उसे देखा और के हल के नोंक की नाप ली जो केवल नौ इंच गहराई में जमीन होता है। ट्रैक्टर करीब ढाई या तीन फुट तक जमीन खोदता है जिसके कारण केंचुये ऊपर आकर मर जाते हैं। हल्की नोक से केवल नौ इंच गहराई में खोदने के कारण केंचुये नीचे चले जाते हैं और जमीन को चालते हैं, उससे उर्वरा शक्ति बढ़ती है।

वन धरती पर 33 प्रतिशत होना चाहिए। अब तो केवल 10-11 प्रतिशत मुश्किल से रह गए हैं। यदि जंगल समाप्त हो गए तो मनुष्य किसके आधार पर जिंदा रहेगा। प्रकृति में धारण क्षमता होती है। यदि उसकी धारण क्षमता पर आक्रमण हुआ तो वह उसका बदला लेती है। प्रकृति अपने आप सब बातों पर नियंत्रण करती है। अफ्रीका में सेरीगेट मैदान है जहाँ सिंह हैं। सिंहों की आबादी नियंत्रित है जबकि सिंहनी एक बार में 6-7 बच्चों को जन्म देती है। सिंह को मारकर कोई खाता नहीं है। सिंहों की संख्या बढ़नी चाहिए किंतु नहीं बढ़ती है। प्रकृति ने सिंह को बिना कुछ करे कराए खाने का स्वभाव दिया है। सिंहनी शिकार करती है। सिंह सोता रहता है। शिकार करने के बाद वह आवाज देती है। सिंह मस्ती से जाकर शिकार खाकर अपना पेट भर लेता है, जो बचता है वह सिंहनी खाती है। यदि शिकार छोटा रहा तो सिंह सब खा जाएगा। सिंहनी जो बचेगा उसे खाएगी। बच्चे भूखे मर जाएंगे, मुश्किल से 2-1 बच्चे भगवान के भरोसे जीवित रहेंगे।

लेमांग नाम का जोड़ा खूब प्रजनन करता है। उनकी आबादी तेजी से बढ़ती है। हर पाँच साल बाद प्रकृति उनको प्रेरित करती है। वे पानी की ओर भाग कर जाते हैं और डूबकर मर जाते हैं। लेमांग की आबादी नियंत्रित करने का काम लेमांग ने ले रखा है। बिल्ली एक बार में 3-4 बच्चों को जन्म देती है। प्रकृति ने बच्चा देने के बाद बिल्ली को अधिक भूख लगने की आदत दे रखी है। यदि प्रसव के बाद उसे खाने को कुछ न मिले तो वह अपने बच्चों को खाकर अपनी भूख मिटाती है बाद में जो बच जाते हैं वह उनको पालती है। इस प्रकार प्रकृति बिल्ली की संख्या को नियंत्रित करती है।

आस्ट्रेलिया में खरगोश नहीं थे। भारत से वहाँ खरगोश का जोड़ा ले जाया गया। कुछ वर्षों बाद आस्ट्रेलिया में इतने खरगोश हो गए कि सब्जी की फसल बरबाद हो गई। खरगोश सारी सब्जी कुतर-कुतर कर खा जाते थे। उन्होंने अपनी समस्या भारत सरकार को बताई। प्रकृति ने खरगोश की संख्या नियंत्रित करने के लिए भारत में एक घास दे रखी है। खरगोश उस घास को खा लेते हैं तो प्रजनन दर नियंत्रित रहती है। आस्ट्रेलिया ने जब उस घास को ले जाकर अपने यहाँ लगाया तो खरगोश की बढ़ती संख्या पर नियंत्रण हो सका।

ईसाइयत की एक अवधारणा है कि मनुष्य ने पाप किया है इसलिए आदम-हौवा को जमीन पर भेज दिया कि वहाँ जाकर परिश्रम करने से भोजन पाओगे-स्वर्ग में बड़े मजे किए हो। पृथ्वी पर अधिक से अधिक उपभोग की अवधारणा है। नदी, पहाड, जंगल आदि सब मनुष्य के उपयोग के लिए हैं।

इंगलैंड में निचले सदन में एक बिल आया कि प्राणियों के प्रति जो करता होती है उसे रोकना चाहिए। क्रूरता निरोधक विधेयक निचले सदन से पास हुआ किंतु ऊपरी सदन में जब गया तो उन्होंने इस विधेयक को निरस्त कर दिया। यह विधेयक आर्क विशेष आफ केटवरी जो चर्च आफ इंग्लैंड के सबसे बड़े पादरी होते हैं उनके पास भेजा गया। उन्होंने निर्णय दिया कि बाइबिल के अनुसार मनुष्य को छोड़कर बाकी सब जड़ पदार्थ होते हैं। उनके अंदर कोई प्राण नहीं होता। इसलिए उनको मारने पर कोई पाप नहीं लगता। यह अवधारणा अभी तक विद्यमान है। जबकि भारत जगदीश चंद्र बसु ने कहा कि पौधे भी सुख-दुख का अनुभव करते हैं। उसको जब मैं जहर का इंजेक्शन दूंगा तो वह सूख जाएगा। उन्होंने इंजेक्शन दिया किंतु पौधा नहीं सूखा। वह समझ गए प्याले में जहर नहीं है। उन्होंने प्याला उठाकर पी लिया। बाद में प्रयोगशाला के कर्मचारी ने बताया कि मैंने प्याले में जहर की जगह शक्कर घोल दिया था। जगदीश चंद्र बसु को इस कार्य के लिए सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक घोषित किया गया।

पिछली शताब्दी का लेखा-जोखा लें तो यह बात ध्यान में आती है कि मनुष्य ने बहुत बड़ी मात्रा में वायुमंडल में कार्बन-डायऑक्साइड छोड़ी है। इसलिए जलवायु में भयंकर परिवर्तन की संभावना है। नई नई बीमारियों को अम्युदय और पृथ्वी पर नए नए जीवाणुओं का जन्म तथा व्यक्तिगत स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव देखने में आता है। ओजोन की परत पतली हो गई है। त्वचा कैंसर को खतरा बढ़ गया है। वनस्पति और जल-जीव पर खतरे की घंटी बज रही है। आवश्यकता इस बात की है कि हम सब अभी से मिल बैठकर ऐसा प्रयास करें कि मानव, जल और वनस्पति इस विभीषिका से बच सकें। अन्य जीवों के साथ मानव भी पर्यावरण का एक अंग है। किंतु अन्य जीवों की तुलना में अपने चारों ओर के पर्यावरण को प्रभावित करने की क्षमता उसमें अधिक है। इसी कारण पर्यावरण के साथ मानव संबंधों में जो अव्यवस्था आई है उसके कारण समस्त सांस्कृतिक तथा सामाजिक विनाश की विस्फोटक परिस्थिति ने मानव सभ्यता को सावधान कर दिया है। वह नई-नई तकनीक के विकास में इतना तेजी से लगा है कि उसको ध्यान नहीं रहा है कि पर्यावरणीय समस्याएँ तकनीकी विकास के साथ ही बढ़ रही हैं और बढ़ते-बढ़ते अब तो विकराल रूप धारण कर लिया है। आज के मानव और आदि के मानव में एक मौलिक अंतर है आदि मानव ने प्रकृति के साथ जैसा पाया वैसा ही तादात्म्य स्थापित कर लिया। विगत दो सौ वर्षों में मानव ने आर्थिक और सामाजिक जीवन में प्रगति के लिए पर्याप्त प्रयास किए हैं। उनके इस प्रयास का एक मात्र आधार था स्वयं का अधिक से अधिक कल्याण। उसने पर्यावरण की ओर ध्यान नहीं दिया। कृषि में भी उसने उसी फल को उगाया जिसमें अधिक से अधिक उपज हो। अन्य फसलों को छोड़ दिया। परिणाम स्वरूप अधिक पानी और खाद में उगने वाली फसलें रह गईं। शेष सूखे और कम पानी में तैयार हो वाली फसलें लुप्त हो गयीं। अन्न का संतुलन बिगड़ गया है। मानव ने के रोगों, मानसिक विकार तथा अन्य प्रकार के रोगों को नियंत्रित सकने में सफलता पायी है। जिसके परिणामस्वरूप आबादी ने अधिक वृद्धि कर ली है। अधिक चमत्कारिक प्रोद्यौगिक क्षेत्र में प्रगति कर अपनी संपदा में अबाधित वृद्धि की है। मनुष्य ने अपनी प्रगति कर ली और जीवन स्तर को ऊँचा उठाया किंतु अब यह अनुभव में आया है कि इतनी बड़ी प्रगति मनुष्य ने पर्यावरण की वृहत समस्याओं को उत्पन्न करके अर्जित की है। जल प्रदूषण, धुएं द्वारा प्रदूषण, घटते वन्य जीव प्राकृतिक संपदा का दुरुपयोग यह अब व्यक्ति तथा सामाजिक पर्यावरण तथा मानव एवं पर्यावरण की परस्पर क्रिया एवं प्रतिक्रिया को न समझ पाने के फलस्वरूप ही हुआ है। उपरोक्त कारणों से मनुष्य को प्रकृति के तिरस्कार का परिणाम भी भोगना पड़ा। पर्यावरण से बचने के प्रयास में मनुष्य पर्यावरण के चंगुल में फँसता ही गया। इन्हीं सब कारणों से इस बात की प्रबल आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है कि किस प्रकार प्रकृति का संतुलन पुनः किया जा सके। इन्हीं सब कारणों से यह आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि किस प्रकार प्रकृति का संतुलन प्राप्त किया जा सके। अब हमें अपनी तकनीकी कौशल का उपयोग अपने खोए हुए पर्यावरण को पुनः प्राप्त करने के लिए करना होगा। स्वयं निर्मित इस सांस्कृतिक तथा भौतिक वातावरण में अपने अस्तित्व का बनाए रखने के लिए हमें अब कुछ धारणाओं तथा विधियों का विकास करना होगा। जिनसे कि पर्यावरण की सभी पक्षों का प्रायोगिक तथा मात्रात्मक स्तर पर अध्ययन किया जा सके। मानव पर्यावरण वास्तव में पृथ्वी के प्राकृतिक स्रोतों तथा मानव द्वारा उनके सांस्कृतिक रूपांतरण का अर्थ है कि प्राकृतिक स्रोतों से मानव उपयोग हेतु आवश्यक परिवर्तन। एक समय था जब प्राकृतिक स्रोतों में प्राण है-ऐसा समझा जाता था। प्राकृतिक साधनों में जीव है वह पुनः पैदा होने या स्थापित होने में सक्षम है। इनमें निरंतर निर्माण होता रहता है। उनकी मात्रा में वृद्धि होती रहती है। प्रजनन रत जैव साधन उचित देखरेख में पुन: उपयोगी सामग्री प्रदान करने लगते हैं। जीव साधनों की एक विशेषता है वह है उनके पारस्परिक संबंध। यदि कोई वन जलाया जाता है या जंगल में आग लग जाती है तो इससे केवल वृक्ष ही नहीं अपितु मिट्टी, झरने, भूमिगत जल प्रवाह, जल में रहने वाली मछलियाँ तथा जंगल में रहने वाले पशु तथा अन्य जीव भी प्रभावित होते हैं। मानव की गतिविधियों के बढ़ने के कारण वायु प्रदूषण होता है। सौर ऊर्जा भी प्रभावित होती है।

ऐसे साधन जिनकी पुनः स्थापना नहीं हो सकती है जैसे लौह अयस्क, पेट्रोल, कोयला यदि पूरा उपयोग कर लिया गया तो समझिए कि समाप्त हो जाएगा। पूरा उपयोग करने से पहले उनका विकल्प (सब्सटीट्यूट) खोजना होगा या उनके बगैर ही काम चलाना होगा। वन, घास, वन्य जीव आदि की दूसरे क्षेत्रों से लाकर स्थापना की जा सकती है-जैसे आस्ट्रेलिया में खरगोश नहीं थे। भारत से ले जाकर उनकी स्थापना की गई। पुनः स्थापना का तात्पर्य है कि उस जीव की इस धरती पर कहीं न कहीं उपस्थिति हो। यदि किसी जीव का धरती से ही अस्तित्व समाप्त हो जाएगा तो उसकी पुनर्स्थापना नहीं हो सकती जैसे अमरीकी डायनासोर।

एक संसाधन से दूसरे संसाधन प्रभावित होते हैं। जैसे कोयला की खुदाई और बाँध निर्माण से वन प्रभावित होते हैं। पेट्रोल के जलने से वृक्षों की वृद्धि प्रभावित होते हैं। फर्टीलाइजर कारखाना के पास यदि कोई फल देने वाला बाग है तो उसमें फल-फूल नहीं आते हैं।

प्राकृतिक संपदा का संरक्षण करते हुए उपयोग करना सर्वोतम है। मिट्टी जैविक कारको पर निर्भर है। अगर ये कारक न हो तो भू-संरक्षण की समस्या उत्पन्न हो सकती है। इसलिए किसी भी समुचित संरक्षण कार्यक्रम में मिट्टी, जल, वन और अन्य वनस्पति को शामिल किया जाना चाहिए। वन का विनाश सबसे अधिक रेलवे ने किया। रेल स्लीपर बना के लिए कीमती सागौन के पेड़ काटे गए। अब तो विवश होकर उसने सीमेंट, कंकरीट तथा सरिया से युक्त स्लीपर बनाना प्रारंभ किया है। यह काम बहुत पहले भी हो सकता था; किंतु रेल विभाग ने ध्यान नहीं दिया।

जंगल बर्बाद करने का सारा दोष अंग्रेज वनवासियों पर मढ़ देते थे। स्वतंत्रता के बाद सरकार ने भू-स्वामियों की जमीन पर खड़े पेड़ के स्वामित्व का अधिकार उन्हें दे दिया। ठेकेदारों ने भोले-भाले वनवासियों को नाम मात्र का पैसा देकर लाखों पेड़ खरीदकर काट डाले। साथ ही ठेकेदारों ने सरकारी जंगल का इलाका भी उजाड़ दिया। छत्तीसगढ़ बस्तर जिले में एक प्रकाशन के अनुसार 1956-1981 के मध्य में 125.483 हेक्टेयर जंगल साफ किए। जल विद्युत परियोजना एवं अन्य योजनाओं जिनमें पेपर मिलें शामिल हैं, ने वन को पूरी तरह से निगल लिया। वागेश्वर जिला (उत्तराचंल) में खड़िया पत्थर की कटाई के लिए पेड़ों की खुड़ाई हुई। टिहरी बाँध परियोजना में भी बहुत बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए। वहाँ की जनता ने पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन चलाया। वनों की कटाई का दुष्परिणाम है कि चेरापूंजी जो अधिकतम वर्षा का केंद्र था। वह वह नहीं रहा। अब लोगों के ध्यान में आया कि वनों को बचाना चाहिए, पेड़ लगाना चाहिए। वृक्ष को अपने यहाँ शंकर कहा गया। शंकर विष पीकर नीलकंठ कहलाये। वृक्षधारी जहरीली गैस पीकर हमें स्वास्थ्यवर्धक आक्सीजन देते हैं। वे हमारे जीवन रक्षक हैं।

गुजरात के धर्मपुरा क्षेत्र में वनवासी लोगों ने वृक्ष लगाने का अभियान चलाया है। मीरजापुर में स्थित वनवासी सेवाश्रम निजी तथा सामुदायिक जमीनों पर सामाजिक वानिकी कार्यक्रम चला रहा है। मध्य प्रदेश इंदौर सील के गाँवों में प्रत्येक परिवार को घर बगिया के लिए अनेक के पौधे दिए गए हैं। उड़ीसा ढेंकानल जिले में वनवासी संगठित पेड़ों की रक्षा कर रहे हैं ताकि पेड़ों की कटाई न हो सके। वहाँ वृक्षारोपण भी हो रहा है। वनवासी गाँव वालों को जंगल में घुसने नहीं देते हैं।

सेवा संस्थान ने गिरिनार पर्वत की लकड़हारिनों को संगठित किया है और कहा गया है कि वन के पेड़ नहीं काटेंगे बशर्ते सरकार हमारी रोजी रोटी का व्यवस्था करे। लकड़हारिनें गिरिनार को अपना पिता मानती हैं जिनके हाथ अब तक पेड़ काटते रहे वे ही अब गिरिनार वन को हरा-भरा देखना चाहती हैं। गुजरात सरकार ने यदि गिरिनार पर्वत की लकडहारिनों की रोजी-रोटी की व्यवस्था की है तो अन्य प्रांत क्यों नहीं करते हैं।

मध्य प्रदेश में वनवासी परिवार बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कर रहा है। महाराष्ट्र चंद्रपुर वनराजिक महाविद्यालय के छात्रों का काम अत्यंत सराहनीय है। गुरुदेव रवीन्द्र ठाकुर श्रावण मास की 22वीं तारीख को शांति निकेतन में एक बड़ा समारोह करते थे। फूलों से सजी पालकी में एक छोटे से पौधे (बाल तरु) को रखकर बड़ी धूमधाम से लाया जाता था। प्रेम पूर्वक उसे किसी जगह रोपा जाता था। बाबा आम्टे ने भी इसी प्रथा को अपने यहाँ अपनाया। उन्होंने चंद्रपुर से बरोरा तक 41 किलोमीटर की पद यात्रा की। अपने साथ पालकी में बाल तरु लिए थे। छात्र गाते-बजाते पेड़ लगाते रहे। सामुदायिक वृक्षारोपण को यदि पुरुषार्थ का रूप देना है तो ऐसे सब प्रयास करने होंगे। आज समाज टूट रहा है। यदि सामुदायिक प्रयास से समाज का टूटना बंद हो जाए तो अच्छा ही होगा साथ ही पर्यावरण दूषित होने से भी बच जाएगा। वनों में की जाने वाली अधिकांश गतिविधियाँ वनवासियों को विस्थापित करने वाली साबित हो रही हैं। वन नीति के निर्धारण में वनवासियों को कोई स्थान नहीं है। बहुत हुआ तो वनवासी इन योजनाओं में मजदूरी पा जाते हैं।

आज अनेक बाँध बन रहे हैं। जहाँ आधुनिक विकास का स्पर्श नहीं है। बाँध बंधने से वन पर संकट आएगा। हजारों परिवार भी उजड़ेंगे। भाखड़ा बाँध के कारण 2100 परिवार में 730 परिवार अपने आप को बचा पाए हैं। हिमालय में बसे 1700 परिवारों को पोंग बाँध बनने के कारण उन्हें तपते रेगिस्तान में बसा दिया गया। भाखरा से निकलने वाली नहर क्षेत्र में पानी का स्तर प्रतिवर्ष एक मीटर की रफ्तार से ऊँचा उठ रहा है। नहर के 65% क्षेत्र में भू-जल खारा हो रहा है। पिछले कई वर्ष से जगह-जगह बाँध और पनबिजली का विरोध हो रहा है।

केरल में सौरंधी वन और मन्नार, कर्नाटक में वेडची, उत्तरांचल में टिहरी, बिहार में कोयनकारों आदि योजनाओं का कड़ा विरोध हो रहा है। नर्मदा पर बने सरदार सरोवर बाँध से विस्थापितों को आज तक समुचित रूप में बसाया नहीं जा सका है। देश में सभी बाँध डुबाने में चुस्त और बसाने में सुस्त हैं। नकद मुआवजा देने के सिवाय लोगों को फिर से बसाने के प्रयास विफल हैं।

वन खंड में विचरने वाले पशु अपने वन को नहीं उजाड़ते हैं। संसार का सबसे उत्तम प्राणी मनुष्य अपनी दुनिया को स्वयं उजाड़ने में रातोंदिन प्रयत्नशील है। इस विनाश के पीछे चाहे जितने आर्थिक और विकास के प्रलोभन क्यों न हों मानव तृष्णा के नवीनतम संस्करण क्यों न हो, एक बात सत्य है कि वन विनाश का अर्थ है सृष्टि का सर्वविनाश। वन संपदा के अभाव में मानव विकास का अध्याय लिखने वाले केवल दिवा स्वप्न में ही रहते हैं। यथार्थ की दुनिया से कोसों दूर रहते हैं। वनों को काटने का अर्थ है जीवनदायिनी आक्सीजन की मात्रा में भयंकर कमी। जलवायु में भयंकर परिवर्तन और वायुमंडल में भयंकर गर्मी का संचरण। इन सबसे मनुष्य कैसे छुटकारा पा सकेगा यह सोचने की बात है। मनुष्य क्यों भूल जाता है कि वृक्ष प्राणवायु देते हैं। मनुहार कर बादलों को बुलाते हैं मिट्टी का कटाव रोकते हैं, जड़ी-बुटियों का उपहार देते हैं और भूमि को उपजाऊ बनाए रखते हैं। वनों के कटते रहने से कार्बन-डायआक्साइड का स्तर असंतुलित हो जाएगा। पेड़-पौधों के अभाव में प्रकाश संश्लेषण किया द्वारा कार्बन डायऑक्साइड विघटित कर ऑक्सीजन छोड़ने की क्रिया नहीं हो पाएगी।

पृथ्वी की यह अग्नि परीक्षा है और परीक्षा के कुछ परिणाम अभी से आने लगे हैं। गर्मी में ग्लेशियर पिघलने लगे हैं। अटलाटिंक क्षेत्र के विशाल भूखंड पर यदि गर्मी पड़ी तो समुद्र के जलस्तर को ऊँचा उठाने से कौन रोक सकेगा। समुद्र के किनारे बंदरगाह तो इसकी पहली चपेट में ही जलसमाधि ले लेंगे।

वनों में पाई जाने वाली वनस्पतियों की विविधता ही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। मानव जीवन में वनों का महत्त्व रहा है। आदि मानव ने भोजन, कपड़ा, आवास सब वनों से प्राप्त किया। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ दोनों के संबंधों में परिवर्तन आए हैं। मानव की साख किसी न किसी रूप में आज भी बनी हुई है। अनेक आदिम जातियाँ आज भी वनों में निवास करती हैं। सभ्य जगत पूर्णतया तो नहीं तो आर्थिक रूप से वनों पर निर्भर करता है। इमारती लकड़ी, जलावन लकड़ी, लकड़ी का कोयला, प्लाईवुड, बाँस, बेंत, कागज बनाने के लिए लुगदी का सामान, फल-फूल, तेंदू पत्ता, पशुचारण, औषधियाँ-जड़ी-बूटी, गोंद, तारपीन का तेल, रेशम पदार्थ, कत्था, सुपारी, चिरौंजी, लाख आदि प्रमुख चीजें मनुष्य को वनों से प्राप्त होती हैं। पशु-पक्षी वनों से मिलने वाले वनस्पति पर पलते और बढ़ते हैं। वर्षा ऋतु में जल को रोककर बाढ़ की संभावनाओं को कम करते हैं। पेड़ छाया तथा फल देते हैं। मिट्टी के वाष्प को रोकते हैं। हानिकारक गैसों का वायुमंडल से अवशोषण कर पर्यावरण को स्वस्थ बनाए रखते हैं। वायुमंडलीय आद्रताओं को सुरक्षित रखकर वर्षा कराने में सहायक होते हैं। ग्रीष्म ऋतु में तापमान घटाते हैं। शीत ऋतु में ताप बढ़ाने में सहायक होते हैं। भूमि को उपजाऊ बनाते हैं। वनों में रहने वाले जीव-जंतुओं के आवास की व्यवस्था भी जंगलों से होती है। निस्संदेह वन का महत्त्व है। अपने यहाँ जो जीवन का एक भाग वनों में जाकर बिताने की प्रथा है। भगवान श्री रामचंद्र का चौदह वर्ष का वनवास जगत प्रसिद्ध है। संन्यासी दसनामी होते हैं। पुरी, तीर्थ, सागर, आरण्य, भारती, सरस्वती आदि। संन्यासी दयानंद लोगों को दीक्षायें देते रहे। दयानंद सरस्वती ने सामाजिक बुराइयों को दूर करने, महिलाओं को शिक्षित करने पर जोर दिया तथा 'सत्यार्थ प्रकाश' नाम का विषद् ग्रंथ लिखा। अरण्य में जीवन बिताने वाले संन्यासियों ने वहाँ के मानव को सुसंस्कृत करने का प्रयास किया। आज कल्याण आश्रम इसी कार्य में लगा है। अंडमान में रहने वाले आदिवासी जोरवा को एक सभ्य जीवन बिताने के लिए प्रयासरत हैं। ये आदिवासी जिनके न घर है न तन पर किसी के वस्त्र हैं जो वनों में मिला उसी से गुजारा करते हैं। वे जंगली पशुओं को मारकर खाते हैं। हिरन स्वच्छन्द विचरते हैं उन्हें वे नहीं मारते हैं। तीर-धनुष इनके शस्त्र व अस्त्र हैं। वे अपने में बदलाव लाने के घोर विरोधी हैं। जंगल ही उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी का संरक्षक है।

सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय के बाद आज अंडमान निकोबार में भी जंगल की लकड़ियाँ (पेड़) काटने पर प्रतिबंध है। करीब 549 टापुओं में 49 में आबादी है। शेष में घने जंगल हैं जिनका कोई उपयोग नहीं है। उल्टे मगर, मछली और जंगली लकड़ी स्याम व थाईलैंड के लोग काटकर बड़ी-बड़ी स्टीमर से न ले जाएं उसकी वायुयान से पेट्रोलिंग की जाती है। अंडमान निकोबार द्वीप में जहाँ यह स्थिति है वहीं पूरा विश्व जंगली जीवों की महा विलुप्ति काल में चल रहा है। वैज्ञानिकों, प्रकृति प्रेमियों एवं पर्यावरण के जानकार लोगों के अनुमान के अनुसार अगर यही स्थिति सतत बनी रही तो इस बात में कोई शक नहीं है कि आगे चलकर पशु, पक्षियों, छोटे जीव जंतुओं और पेड़ पौधों की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएंगी। जीव विलुप्ति के इन्हीं कारणों से शनैः शनैः पृथ्वी मानव जाति के आवास योग्य नहीं रह जाएगी।

अतः हम सभी इस ओर गम्भीरता से विचार करें और श्रीमती अमृता देवी के वृक्षों की रक्षार्थ किए गए बलिदान से प्रेरणा लेकर वनों और उनके वृक्षों एवं अन्य जीवों को बचाने में श्री किशोर सिंह और स्वर्गीय निहाल चंद्र धारिणया के बलिदान को याद करते हुए वन एवं अन्य वन्य जीवों की सुरक्षा संवर्धन एवं संरक्षण में यथा संभव योगदान व भागीदारी अवश्य निभायें जिससे आने वाली भावी पीढ़ी को रहने योग्य स्वच्छंद पर्यावरण उपलब्ध हो सके एवं वनों-वृक्षों से आवश्यक वनों उत्पादों की आपूर्ति सतत बनी रह सके।

व्यक्ति के व्यक्तित्व की महानता एवं अमरता उसके व्यवहार एवं कर्तृत्व पर निर्भर करती है। राजस्थान में पर्यावरण संरक्षण एवं मरुस्थल के 'कल्पतरु' खेजड़ी वृक्षों के रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देने की विश्व इतिहास की अविस्मरणीय एवं अद्वितीय गौरव पूर्ण घटना भारत में विक्रम संबत् 1787, 28 अगस्त सन् 1730 भाद्रपद शुक्ल दशमी मंगलवार के दिन तत्कालीन मारवाड़ रियासत (वर्तमान जोधपुर संभाग) की राजधानी जोधपुर से लगभग 25 किलोमीटर दूरी पर स्थित खेजड़ली ग्राम में घटित हुई। वहाँ विश्नोई समाज के प्रर्वतक गुरु जन्मेश्वर के प्रयास से खेजड़ी के वृक्ष बहुतायत में उपलब्ध थे।

जोधपुर किले व महलों के निर्माण एवं संधारण हेतु चूना पकाने की आवश्यकता की पूर्ति के लिए लकड़ी की आवश्यकता थी। तत्कालीन शासक अजीत सिंह ने अपने कारिंदों को आदेश दिया कि वे खेजड़ली गाँव से खेजड़ी के वृक्ष काटकर लावें। शासक के कारिंदे जब वृक्षों को कटवाने के लिए उक्त क्षेत्र में पहुँचे तो स्थानीय लोगों ने मरु प्रदेश के जीवनदायक बहुउपयोगी वृक्ष खेजड़ी की कटाई का विरोध किया। शासक के दीवान ने सख्ती बरतकर वृक्षों को काटने का आदेश कारिंदों को दिया। दीवान ने बलपूर्वक वृक्षों की कटाई प्रारंभ करवा दी। प्रशासन की सख्ती का विरोध करने का साहस प्रजाजन नहीं जुटा पाए। विषम परिस्थिति में खेजड़ली ग्राम की श्री रामो विश्नोई की धर्म पत्नी वीरांगना श्रीमती अमृता देवी (इमरती देवी) की अगुवाई में 363 किसान वर्गीय ग्रामीण वीरों और वीरांगनाओं के साथ छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं ने भी खेजडी वृक्षों को बचाने के लिए अनूठे तरीके से शासन का विरोध किया। अमृता देवी वृक्ष से चिपक गई। उन्हें उसी वृक्ष के साथ काट दिया गया। अमृता देवी की दो मासूम पुत्रियों ने भी अपनी माँ का अनुसरण करते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया। इसी प्रकार खेजड़ी के काले गए एक एक वृक्ष के पेटे (सटे) "सिर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण" की अवधारणा के साथ बलिदानी विरोधस्वरूप सिर शासक के कारिंदों द्वारा कटवाते रहे। दीवान के सामने कटे मुण्डों के ढेर लग गए। जिसमें 69 महिलाओं के सिर थे। यह हृदयविदारक सिलसिला सात आठ दिन चलता रहा। सातवें दिन जब नवविवाहित मुकलावा ने अपनी पत्नी के साथ बलि दिया तो निर्वाध स्वैच्छिक बलिदान का समाचार सुनकर शासक का कठोर हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने क्षमायाचना के साथ उस क्षेत्र में से खेजड़ी सहित सभी हरें वृक्षों की न केवल कटाई रुकवा दी बल्कि तब से उस क्षेत्र में से हरे वृक्षों की कटाई पर कठोर दंड का प्रावधान भी लागू करवा दिया जो आज भी ज्यों का त्यों लागू है।

पर्यावरण प्रदूषण रूपी जिस दानव से समूची मानव सभ्यता आज भयभीत है उसका आभास उस महान वीरांगना को आज से 271 वर्ष पूर्व ही हो गया था। उसकी प्रेरणा का ही फल है कि थार के रेगिस्तान में आज बहुपयोगी खेजड़ी वृक्ष आँचल की तरह पसरे हुए हैं। अन्यथा यह प्रजाति अंधाधुंध कटाई से लुप्त प्राय हो जाती।

श्रीमती अमृता देवी एवं उसके साथियों का, वृक्षों की रक्षा के लिए बलिदान पूरे विश्व के लिए एक प्रेरणा स्रोत एवं ज्योति पुंज बन गया है। आजकल उत्तरांचल में वृक्षों/वनों के संरक्षण हेतु श्री सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा चलाया गया चिपको आंदोलन खेजड़ली गाँव के अमर बलिदानों के बलिदान की प्रेरणा का ही प्रतिफल है।

आज इन्ही बलिदानों की प्रेरणा से उत्तरांचल की श्रीमती बाली देवी 1964 से चिपको आंदोलन के तहत पेड़ों की सुरक्षा और पर्यावरण के संरक्षण में लगी हुई हैं। वे संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा नैरोबी में आयोजित हो रहे पर्यावरण सम्मेलन में 11 अक्तूबर, 2004 को भारत के प्रतिनिधि के नाते भाग ले चुकी हैं।

श्री अशोक भगत लोहरदगा विश्नूपुर ने एक लाख वृक्षारोपण किया। जिसके उपलक्ष्य में वर्ष 1993 के सितंबर मास में महामहिम राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें इंदिरा प्रियदर्शनी वृक्ष मित्र पुरस्कार से सम्मानित किया। उन्हें एक और पुरस्कार 'विवेकानंद सेवा पुरस्कार' 1993 में कलकत्ता की कुमारसभा पुस्तकालय द्वारा दिया गया। बांगरी मथाई नौरोबी, जिन्होंने 1977 से ग्रीन बेल्ट मूवमेंट चलाया है और अब तक 3 करोड़ वृक्षारोपण कर चुकी हैं। उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है। इस प्रकार के प्रोत्साहन से दूषित पर्यावरण को ठीक करने के लिए लोग आगे आएंगे पर्यावरण की शुद्धता के लिए प्रयास करेंगे।

इसी बात को ध्यान में रखकर ग्राम खेजड़ली में बलिदान स्थल पर विश्नोई समाज द्वारा स्मृति स्मारक का निर्माण करवाया गया है। प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की दसवीं को मेला लगता है। जिसमें राजस्थान के अतिरिक्त दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं गुजरात राज्यों से हजारों की संख्या में श्रद्धालुगण सम्मिलित होते हैं और उस महान वीरांगना एवं सहयोगी शहीदों को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। वन एवं अन्य जीवों की रक्षा हेतु प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

राजस्थान प्रदेश की सरकार ने वन विषयक व्यक्तिगत पुरस्कार घोषणा की है। जिसने अपनी या सार्वजनिक भूमि पर 5000 वृक्षारोपण किया हो उसे यह पुरस्कार दिया जाता है। वनजीव विषय व्यक्तिगत पुरस्कार के अंतर्गत वन्य जीव संरक्षण, सुरक्षा एवं इनके आवास स्थलों के विकास में उल्लेखनीय सहयोग करने वाले व्यक्ति पुरस्कार के हकदार होते हैं।

अमृतादेवी पुरस्कार प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल दशमी को जोधपुर जिले के खेजड़ली ग्राम स्थित अमृतोदवी स्मारक पर आयोजित होने वाले कर शहीद मेला समारोह में चयनित व्यक्ति/संस्था को प्रदान किया जाता है। वर्ष 1997-98 से प्रतिवर्ष अगस्त में होने वाले राज्य स्तरीय समारोह वन महोत्सव आदि में पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है।

अरावली पर्वत श्रृंखला की तलहटी में बसे गुलाबी शहर जयपुर स्थित विश्व बानकी उद्यान के सन्निकट झालना क्षेत्र में वीरांगना अमृता देवी की स्मृति में सरकार द्वारा अमृता देवी की वृक्ष उद्यान की स्थापना कर 277वीं पुण्य तिथि पर जन उपयोग के लिए अर्पित किया गया है। 35 हेक्टेयर क्षेत्र पर फैले हुए इस वृक्ष उद्यान में दुर्लभ प्रजाति के पेड़-पौधे भू-क्षरण को रोकते हैं।

अमृता देवी बलिदान दिवस 28 अगस्त को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। शायद पर्यावरण संरक्षण के लिए अपना निज का बलिदान विश्व के किसी देश में नहीं हुआ है। अतः पर्यावरण की रक्षा का प्रयास किया जाना चाहिए।

( पर्यावरण मंच)

" मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ,

हिंदी है हम वतन है हिंदुस्तान हमारा"

अख्तर हुसैन

पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, भारतीय मजदूर संघ

एवं प्रभारी, सर्वपंथ समादर मंच

बुलंदशहर (उ.प्र.)

भारत बहुत बड़ा देश है। यहाँ पर हर मजहब के लोग रहते हैं यह कहना सच होगा कि भारत एक सर्व मजहब परिवार है, इतिहास बताता है कि हजारों साल से भारत एक शांति का देश माना जाता रहा है। जैसा कि आप हम सभी जानते हैं कि एक सफल और संपन्न परिवार बनाने के लिए परिवार के सभी सदस्यों को मिलजुल कर प्यार मोहब्बत के साथ एकजुट होकर रहना पड़ता है और सभी एक दूसरे को पूर्ण सहयोग देते हैं। तभी एक संपन्न परिवार अपनी कामयाबी के लक्ष्य को प्राप्त करता है और एक सफल और कुशल परिवार कहलाता है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे भारत देश को भी हर मजहब, हर जाति, हर धर्म के लोगों का पूर्ण सहयोग प्राप्त है। तभी आज हम आजाद देश के वासी कहलाते हैं और भारतवासी कहलाने में गर्व हासिल करते हैं। इस देश को कामयाबी की मंजिल तक पहुँचाने और इसे आजाद कराने में न जाने कितने लोगों ने अपनी जाने तक गवां दी उन्होंने यह तक नहीं सोचा कि वह हिंदू है या मुसलमान। उन्होंने अपने भारत देश को बुलंदियों की ऊँचाइयों तक पहुँचाने के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया और मुसलमानों ने भी भारत को आजादी दिलाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी और अपना भरपूर सहयोग दिया।

हमारा मजहब हमें इस बात की इजाजत नहीं देता कि हम आपस में लड़ाई झगड़ा करें या आपस में एक दूसरे से बैर रखें बल्कि हमारा मजहब आपस में प्यार मोहब्बत से रहना सिखाता है और हर मजहब खासकर मुस्लिम मजहब की यह असली पहचान है, यहाँ पर हर मुस्लिम भाई बहनों के सहयोग और कुर्बानी की मिसालें आप बताते हैं जिससे यह साबित होता है, मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना:- बाबर को सबसे जबरदस्त टक्कर राणा साँगा ने खानवा के यो दी जबकि राणा की ओर हसन खान मेवाती ने अपने अनेक मुस्लिम सैनिकों के साथ युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। झांसी के किले की रक्षा करने में झांसी की रानी को सबसे अधिक सहायता प्रधान तोपची कुंवर गुलाम गौस खान से प्राप्त हुई जो झांसी की रक्षा करते हुए शहीद हो गया। इसी प्रकार हल्दी घाटी के युद्ध में एक मुस्लिम सेनापति हकीम खान सूरी और उसके सैनिक राणा प्रताप की ओर से बहुत बहादुरी से लड़े। कश्मीर के राजा जैनुल आबदीन ने अपने राज्य से भागे हिंदुओं को वापस बुलाया और उपनिषदों के एक भाग का फारसी में अनुवाद कराया। दक्षिण के सुल्तान इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय ने सरस्वती वंदना के गीत लिखे थे। बंगाल के पठान शासकों ने सुल्तान गाजी शाह और सुल्तान हुसैन शाह ने महाभारत और भागवत पुराण का बंगाली अनुवाद कराया। बादशाह शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह हिंदुस्तान के सम्राट होने के हकदार थे, उनको भगवान राम ने स्वप्न में आशीर्वाद दिया था कि वह श्रीमद्भगवत गीता को फारसी में अनुवाद करा कर गीता के संदेश को विश्व में फैलाएं। जय हिंद का नारा सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के कप्तान आबिद हसन ने 1942 में दिया था। जो आज सब भारतीयों का मंत्र है। फ्रंटियर गांधी खान, अब्दुल गफ्फार खान ने आजादी की लड़ाई में सबसे बड़ी संख्या में दो लाख सत्याग्रहियों की सेना बनाई थी, जिन्हें खुदाई खिदमद्गार कहते थे। छत्रपति शिवाजी के तोपखाने के सेनापति इब्राहिम खान थे। भारत के आजादी के प्रथम युद्ध 1857 में रानी लक्ष्मी बाई की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनके पठान सेनापतियों जनरल गुलाम गौस खान और खुदा दाद खान की थी जिन्होंने रानी लक्ष्मी बाई को बचाने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। अतः हम भारत माता के इन महान सुपुत्रों के सौहार्द और समर्पण को कैसे भूला सकते हैं।

इस प्रकार मुस्लिमों के प्रेम सौहार्द और बलिदानों की सैकड़ों मिसालें मौजूद हैं जिन्हें चंद शब्दों में बयान करना कैसे मुमकिन है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि भारत हमारी मातृभूमि है और हम सभी उसके पुत्र समान हैं, यहाँ की प्राचीन संस्कृति हम सभी की समाज धरोहर है ठीक उसी प्रकार हम सबको मिलजुल कर एकजुट होकर प्रेम भावना के साथ भारत रूपी इस बड़े परिवार में मिलकर रहना होगा, ठीक उसी प्रकार जिस तरह एक परिवार का एक सदस्य छोटे छोटे मतभेदों को भुलाकर प्यार मोहब्बत के साथ आपस में मिलजुल कर रहता है। तभी परिवार टूटने से बच पाता है। इसी तरह हमने अपने देश को बचाने के लिए आपसी मतभेद भुलाकर मजहब धर्म जाति की लड़ाई से ऊपर उठकर प्यार मोहब्बत और आपसी मेलजोल के साथ मिलकर अपने परिवाररूपी भारत को कामयाब बनाना होगा। इस परिप्रेक्ष्य में प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान मौलाना वहीदउद्दीन खान साहब ने मुस्लिम नेताओं से अपील की है इस बात को घोषित करने का साहस इकट्ठा करें कि भारतीय मुसलमान कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। अपने एक लाइन के वक्तव्य में मौलाना ने कहा कि मैं भारतीय मुसलमान होने में गर्व महसूस करता हूँ।" तथा लोगों का ऐसा करना राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने में बहुत कारगर सिद्ध होगा।

भारतीय मजदूर संघ जो कि इस देश के लिए एक मिसाल बन चुका है जिसमें हर मजहब, हर जाति और हर धर्म के लोग मिलकर इस देश को बुलंदियों पर पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं। भारतीय मजदूर संघ द्वारा गठित सर्व पंथ समादर मंच की ओर से राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक सद्भाव स्थापित करने के उद्देश्य से किए गए हर प्रयास एवं प्रयोग स्वागत होना चाहिए। ऐसे भव्य आयोजन के माध्यम से विभिन्न धर्मावलंबियों को एक ही मंच पर विचार व्यक्त करने का अवसर मिलता है। सर्वपंथ समादर मंच वर्तमान समय की आवश्यकता है। विभिन्नता में एकत्व दर्शन की ही हमारी प्राचीन परंपारा है। राष्ट्र हित सर्वोपरी मान कर राष्ट्रीय एकता में हम सब संलग्न होंगे तभी हमारे देश को सफलता मिलेगी। सांप्रदायिक सौहार्द के लिए जरूरी है मिलन। एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न और एक दूसरे के विचारों का समादर होना ही चाहिए। इससे राष्ट्रीय और सामाजिक एकता को बल मिलता है। सर्वपंथ समादर मंच इस उद्देश्य को लेकर देश की सेवा में अग्रसर है। आइए, आज हम सब मिलकर यह प्रण करें कि हमें छोटे-छोटे मतभेदों को भुलाकर प्यार मोहब्बत के साथ रहना है। यही हर मजहब का मानना है। और अंत में मुस्लिम कवि का यह कथन हर भारतवासी को याद रखना चाहिए कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिंदी है हम वतन है हिंदुस्तां हमारा।" हमारी दुआ है कि खुदा हम सबको ऐसा ही बनाए।

सोपान - 2

( कुछ प्रमुख बिंदु)

v आज किसानों का अपना निजी, गैर-राजनीतिक स्तर पर कोई संगठन नहीं है। जो उन्हें उनकी उपज का उचित मूल्य तथा सभी प्रकार के सरकारी अर्द्ध-सरकारी और गैर-सरकारी शोषणों से मुक्ति दिला सके। स्वाभिमान, सम्मान के साथ अपनी संगठित शक्ति के आधार पर बिना किसी राजनीतिक दल का पिछलग्गू बने अपनी सभी उचित माँगों को सत्ता से मनवा सके, इस कार्य के लिए किसान संघ का निर्माण हुआ है।

v किसान संघ का संगठन जन संगठन है। यदि यह संगठन राजनीति से ऊपर रहा तो राष्ट्र में एकता कायम रख सकने में हम समर्थ हो सकते हैं। हर व्यक्ति की राजनीतिक स्वतंत्रता कायम रखते हुए किसान संगठन को मूल में (Basically) राजनीति से अलग रखना आवश्यक है।

v जनसंगठन राजनीतिक दल का अंग बने यह सिद्धांत यदि स्वीकार किया तो देश में जितने दल हैं उतने ही जन संगठन हर क्षेत्र में निर्माण होंगे। यह बात एकता में बाधा डालने वाली है। फिर कोई भी व्यक्ति एक ही समय में दो मालिकों की सेवा ईमानदारी से नहीं कर सकता।

v हमारी 'किसान' की परिभाषा में वे सब लोग समाविष्ट हैं जिनकी उपजीविका खेती पर अवलंबित है- खेतिहर मजदूर, कारीगर, आदि।

v चमड़ा बनाने वाला मोची, लोहार, सुनार, कुम्हार, बढ़ई, बुनकर, कारीगर, दाई और वैद्य आदि लगभग पूर्णतः उपेक्षित हुए हैं इन दक्ष कारीगरों के लिए तकनीक सुधार प्रशिक्षण, सहायता, औजार, विद्युत शक्ति आदि कुछ भी उपलब्ध नहीं कराए गए हैं।"

v पश्चिम की समस्या है कम से कम हाथों के द्वारा अधिकार उत्पादन। हमारी सर्वप्रमुख समस्या है देश के सभी हाथों को पर्याप्त काम देना। अतः पश्चिम की तकनीक का अध्ययन करने के पश्चात यह आवश्यक होगा कि हम अपनी निजी प्रतिभा के आधार अपनी निजी तकनीक का विकास करें।

v पारिवारिक भाव या ममता का अभाव रहा तो समता या तो निर्माण ही नहीं होगी और जबरदस्ती से निर्माण की भी गई तो वह स्थायी नहीं होगी। ममता का भाव सर्वत्र जाग्रत रहा तो समता का प्रश्न लोगों के मन में उत्पन्न ही नहीं होगा। ममता में ही समता का आश्वासन है।

v चीन का चेयरमैन (Chairman) भारत का भी चेयरमैन है, यह नारा कहाँ तक उचित है।

v कम्युनिस्ट प्रणाली के फलस्वरूप गाँवों में सुख-शांति का निर्माण नहीं हो सकता, यह हमारी दृढ़ धारणा है। तो भी यदि गंभीरतापूर्वक कम्युनिस्ट सरकार काम करती थी तो खेतिहर मजदूर कानून सुपरिणामकारक हो सकता था और श्री गोपालन के कृतित्व का प्रतिफल अधिक अच्छे ढंग से मिल सकता था।

v 'ग्रामीण भारत विरुद्ध नागरी भारत'। इस तरह का विभाजन तर्क संगत नहीं है। शोषक धनी लोग ग्रामीण भारत में भी हैं और शोषित गरीब लोग शहरों में भी बड़ी संख्या में हैं। शहरों में रहने वाले झोपड़पट्टी निवासियों को बड़े बंगले वालों के साथ जोड़ना (Bracket) उतना ही अनुचित है जितना ग्रामीण अंचलों के श्रीमान किसानों को खेतिहर मजदूर तथा कारीगरों के साथ ब्रेकेट (Bracket) करना?

v प्रखर राष्ट्रवादी होने के कारण किसान संघ जहाँ किसानों के कल्याण की बात रखता है वहीं अन्य लोगों के हितों की भी चिंता करता है वह देश में शहर और गाँव की लड़ाई नहीं कराना चाहता। यह बात वास्तविकता से परे है कि सारे शहर वालों की लड़ाई गाँव वालों से है। जो शहर और गाँव की लड़ाई या शहर वालों द्वारा गाँवों के शोषण की बात करते हैं। वे राष्ट्रीयता में दरार डाल सकते हैं।

v कृषि-प्रधान देश भारत में उद्योग को बढ़ावा देना शुरू हो गया है। फलतः कृषि क्षेत्र के लिए जितना धन मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। इसके फलस्वरूप देश में प्रतिकूल अर्थव्यवस्था प्रारंभ हुई। कृषि पर आधारित 80 प्रतिशत आबादी की उपेक्षा की गई। ऐसा नहीं है कि देश को भारी उद्योगों की आवश्यकता नहीं है। प्रश्न प्राथमिकता-क्रम (Order of Priority) का है।

v भारत में अधिकाधिक हाथों को काम देने की जरूरत है ताकि वे अपने परिवार, बाल-बच्चों का भरण-पोषण कर सकें। यद्यपि भारत आधुनिक यंत्र युग से बाहर नहीं जा सकता, परंतु कुछ प्राथमिकताएँ निर्धारित की जानीं चाहिए। महात्मा गाँधी ने भी कहा था कि भारत को अधिक से अधिक लोगों को काम में जुटाकर उत्पादन करना चाहिए।

v मनुष्य को खतम करने वाली मशीन नहीं चाहिए, हमें तो मनुष्य की क्षमता बढ़ाने वाली मशीन चाहिए।

v गाँवों में रोजगार खड़ा करने के लिए 800 रुपए की आवश्यकता होती है। जबकि औद्योगिक क्षेत्र में एक रोजगार खड़ा करने के लिए 24 से 25 लाख रुपए की आवश्यकता होती है।

v युद्धोत्तर रूस सरकार में से सोशल डेमोक्रेट्स को निकालना, सन् 1956 में हंगरी में, 1968 में चेकोस्लोवाकिया पर रूसी आक्रमण, सी.पी.एस.यू.के. की बीसवीं कांग्रेस, विभिन्न सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ रूस का व्यवहार, सन् 1978 में अफगानिस्तान आक्रमण, 1981 का पोलैंड का झमेला आदि घटनाओं ने यूरोप के कम्युनिस्टों की आँखें खोल दी और "दुनिया के मजदूरों एक हो" की घोषणा का खोखलापन सामने आ गया।

v भारतीय समाज तथा संस्कृति के साथ पारसी पूर्णरूपेण एकात्म हो गया ।

v पूजनीय श्री गोलवलकर 'गुरुजी' ने कहा था कि मैं पारसियों को अग्निपूजक ही मानता हूँ।' वे कहते हैं कि पारसियों का जिंदावेस्ता हिंदुओं का एक उपेक्षित धर्मग्रंथ (छांद व्यवस्था) है। सबसे कम संख्या का समाज होते हुए भी उन्हें कभी भी यह चिंता नहीं लगी कि बहुसंख्यक समाज के सामने हमारे जायज अधिकारों का हनन तो नहीं होगा?

v यही बात यहूदी समाज की है। 1800 वर्ष पूर्व इस समाज को उसकी मातृभूमि से खदेड़ा गया। परिणामस्वरूप दुनिया के विभिन्न देशों में यहूदी जाकर बसे। कुछ यहाँ हिंदुस्तान में भी आए, उनकी संख्या अत्यंत अल्प थी। हमारे देश के राजाओं तथा प्रजा ने उनका आतिथ्यपूर्ण स्वागत किया। उनको रहने के लिए जगह दी। उनकी धर्म परंपरा के अनुसार व्यवहार करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी। यहाँ तक कि उनके धर्म मंदिरों के निर्माण में भी हिंदू राजा और प्रजा ने सहयोग किया। वे भी भारत की संस्कृति तथा समाज के साथ घुल-मिल गए।

v उनकी धारणा है कि इजरायल उनकी पितृभूमि है और भारत मातृभूमि। जो इजरायल नहीं गए, यही निवास करते हैं, वे पूर्ववत् इस संस्कृति और समाज के साथ एकात्मकता रखते हैं। पारसियों के समान उनकी संख्या भी अति अल्प है किंतु उनके मन में भी कोई भय नहीं है, कोई चिंता नहीं है और इसके कारण उनके मुख में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं है। निर्भय, निश्चिंत होकर वे संपूर्ण समाज के साथ एकात्म होकर रहते हैं।

v अल्पसंख्यकों में जिनकी संख्या बहुत बड़ी है, वे हैं मुसलमान। और वे अपने अधिकारों के संरक्षण के विषय में हमेशा चिंता व्यक्त करते हैं। आश्चर्य की बात है कि जो अत्यंत अल्पसंख्यक हैं वे पारसी और यहूदी तो निर्भय हैं और मुसलमान राष्ट्रीय मुख्यधारा से एकात्म होना पसंद नहीं करते। इसका क्या कारण है?

v श्री दत्तात्रेय संप्रदाय की एक शाखा के प्रमुख श्री नृसिंह सरस्वती के एक शिष्य बीदर के मुसलमान राजा थे। दत्त संप्रदाय की दूसरी शाखा गोरखपुर में है, जिसके प्रणेता श्री मच्छिंद्रनाथ तथा गोरखनाथ रहे हैं। इस संप्रदाय में बहुत मुसलमान शामिल थे और वे नाथ संप्रदाय की उपासना भी करते थे।

v जिन मुस्लिम कार्यकर्ताओं ने तलवार के भरोसे जबरन हिंदुओं को मुसलमान बनाया, वे इस्लाम के धार्मिक पुरुष नहीं थे। अपने साम्राज्य की लॉबी मजबूत बनाने के लिए उन्होंने इस्लाम का उपयोग किया।

v बहादुरशाह जफर को अपना भावी राज्य प्रमुख मानते हुए श्रीमंत नानासाहेब पेशवा, तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि ने अंग्रेजों से युद्ध किया।

v नई पीढी के लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि बैरिस्टर जिन्ना कट्टर राष्ट्रवादी थे। अखामा इकबाल, शौकत अली, मुहम्मद अली सब राष्ट्रवादी थे। तिलकजी अंग्रेजों की चाल को विफल करने में सफल रहे।

v लाला लाजपतराय जब अमेरिका से भारत आने वाले थे तब कांग्रेस की ओर से उनका स्वागत करने के लिए तीन लोगों को नियुक्त किया गया था-लोकमान्य तिलक, डॉ. एनीबेसेंट और बैरिस्टर जिन्ना। सन् 1920 तक यह स्थिति थी।

v गांधीजी ने राष्ट्रवादी, कांग्रेसी मुसलमानों के प्रति उल्टी नीति अपनाई। जो कांग्रेस को गाली देंगे, लात मारेंगे, उनके सामने झुकना और जो कांग्रेस के साथ थे उनकी उपेक्षा करना, यह नीति गांधी जी ने अपनाई। इसके कारण राष्ट्रीय मुख्य धारा के साथ जो मुसलमान थे उनको लगने लगा कि We are taken for granted.

v इन लोगों ने खिलाफत आंदोलन के समय तथा अन्य अवसरों पर भी जो चेतावनियाँ दी थीं। उनको गांधी जी ने आँखों से ओझल कर दिया और Fundamentalists के सामने आत्मसमर्पण करते रहे। इस कारण कांग्रेस के भीतर जो भी राष्ट्रवादी मुसलमान थे उनको लगने लगा कि अब कांग्रेस में रहना व्यर्थ है। हम राष्ट्रीय मुख्यधारा में रहेंगे तब तक गांधीजी हमारी उपेक्षा ही करेंगे। राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग होकर कांग्रेस का विरोध करेंगे तो हमारी कदर होगी। इस भावना से उन्होंने मुस्लिम लीग को बल प्रदान करना प्रारंभ किया।

v हिंदुस्तान के संदर्भ में Unity शब्द का प्रयोग उचित नहीं। Unity शब्द के उच्चारण से ही प्रतीत होता है। एक से अधिक Unit का अस्तित्व। जहाँ Unit एक ही है वहाँ Unity शब्द का प्रयोग असंबद्ध हो जाता है। जैसे विवाह के लिए एक से अधिक यूनिट की आवश्यकता होती है। खुद के साथ कुश्ती नहीं खेल सकते। वैसे ही अंग्रेजों के यूनिटी (Unity) शब्द में Presumption पूर्वग्रहीन है कि एक से अधिक यूनिटों का अस्तित्व है। संपूर्ण भारतीय समाज एक ही ईकाई यूनिट है जिसमें उपासना और भाषा का पूरा स्वातंत्र्य है with perfect freedom of religion and language to all. इसलिए यहाँ Unity शब्द का उच्चारण अप्रासंगिक है। इसी मानसिकता का बढावा देने में देश का कल्याण होगा।

v धरती का मिजाज जब तक सामान्य है तभी तक हम सुरक्षित है। सुरक्षा केवल मानव के लिए ही नहीं अपितु पशु पक्षी वनस्पति आदि की सुरक्षा।

v आज तो यह स्थिति बन गई है कि मजदूरों के लिए चिमनी से चिता तक की व्यवस्था कर दी गई है। मजदूर मशीन-उत्पादन जनित बीमारियों, चिमनियों के धुएं में आखिरी श्वाँस ले रहा है।

v खेजड़ली ग्राम की श्री रामो विश्नोई की धर्म पत्नी वीरांगना श्रीमती अमृता देवी (इमरती देवी) की अगुवाई में 363 किसान वर्गीय ग्रामीण वीरों और वीरांगनाओं के साथ छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं ने भी खेजड़ी वृक्षों को बचाने के लिए अनूठे तरीके से शासन का विरोध किया। अमृता देवी वृक्ष से चिपक गई। उन्हें उसी वृक्ष के साथ काट दिया गया। अमृता देवी की दो मासूम पुत्रियों ने भी अपनी माँ का अनुसरण करते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया। इसी प्रकार खेजड़ी के काटे गए एक एक वृक्ष के पेटे (सटे) "सिर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण" की आवधारणा के साथ बलिदानी विरोध स्वरूप सिर शासक के कारिंदों द्वारा कटवाते रहे।

v श्रीमती अमृता देवी एवं उसके साथियों का, वृक्षों की रक्षा के लिए बलिदान पूरे विश्व के लिए एक प्रेरणास्रोत एवं ज्योति पुंज बन गया है।

v अमृता देवी बलिदान दिवस 28 अगस्त को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। शायद पर्यावरण संरक्षण के लिए अपना निज का बलिदान विश्व के किसी देश में नहीं हुआ है। अतः पर्यावरण की रक्षा का प्रयास किया जाना चाहिए।

v प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान मौलाना वहीदउद्दीन खान साहब ने मुस्लिम नेताओं से अपील की है इस बात को घोषित करने का साहस इकट्ठा करें कि भारतीय मुसलमान कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। अपने एक लाइन के वक्तव्य में मौलाना ने कहा- कि मैं भारतीय मुसलमान होने में गर्व महसूस करता हूँ।" तथा लोगों का ऐसा करना राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने में बहुत कारगर सिद्ध होगा।


खंड - 8

सोपान - 3

सोपान- 3 ( लेख)

1. एकात्म मानववाद : एक अध्ययन...... दत्तोपंत ठेंगड़ी

2. पूर्णाहुति के पूर्व...... दत्तोपंत ठेंगड़ी

3. बाड़ (Fencing)...... दत्तोपंत ठेंगड़ी

4. समग्र विचार का अभाव....... दत्तोपंत ठेंगड़ी

5. मुस्लिम अपने भारतीय होने पर गर्व करें

वंदे मातरम कहने पर कैसा एतराज।.... मौलाना वहिउद्दीन खान

6. बहुमुखी प्रतिभा के धनी................ डॉ. शंकर तत्त्ववादी

7. विचार ऋषि दत्तोपंत जी.............. सुधीर पाठक

8. सोपान- 3: प्रमुख बिंदु

सोपान-3

एकात्म मानववाद : एक अध्ययन

दत्तोपंत ठेंगड़ी

एकात्म मानववाद का विचार इस संसार को पं. दीनदयाल उपाध्याय की श्रेष्ठतम देन है। वर्तमान राजनीतिक उठा पटक में लिप्त अथवा उसके संदर्भ में विचार करने वाले व्यक्ति को यह भ्रम हो सकता है, कि पंडित जी ने अन्य प्रचलित वादों अथवा राजनीतिक विचारधाराओं का खंडन करने के लिए 'एकात्म मानववाद' के नाम से एक नवीन 'वाद' अथवा 'नयी राजनीतिक विचारधारा' का प्रतिपादन किया होगा। इसी भाँति यह तथ्य भी सर्वविदित है कि नवीन 'वाद' या 'राजनीतिक विचारधारा' का प्रतिपादन करने वाले व्यक्ति इस अहंभाव से युक्त होते हैं कि उन्होंने कुछ नया निर्माण किया है। पश्चिमी जगत् में तो यह पद्धति बहुत अधिक प्रचलित है। वहाँ पर यदि कोई विचारक तत्कालीन विचारधारा से थोड़ा भी मतभेद रखता है तो वह अपने आपको एक नवीन 'वाद' का उद्घोषक घोषित कर देता है। किंतु पंडित जी का यह दृष्टिकोण जीवनपर्यंत कभी भी नहीं रहा। भारतीय संस्कृति के एक श्रेष्ठ अनुयायी होने के कारण ऐसा क्षुद्र विचार उनके मन को कभी छू भी न सका। इसी कारण उनकी यह मान्यता थी कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण के कथनानुसार सत्य ज्ञान सनातन काल से चला आ रहा है। देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार उसके व्यक्त स्वरूप में कुछ अंतर दिखाई दे सकता है, किंतु इससे कोई नवीन ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। अतः पंडित जी ने अपनी सृजनात्मक शक्ति अथवा भावनात्मक दृष्टिकोण का प्रयोग इसी सनातन ज्ञान को संसार के सम्मुख नवीन रूप में, परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार रखने में किया। इस प्रकार एकात्म मानववाद का विचार प्रचलित वादों में विद्यमान न्यूनताओं को दूर कर उन्हें परिपूर्ण बनाने के लिए ही किया है, उसे प्रस्तुत करते समय अन्य वादों की विचारधाराओं का खंडन कर समाज में वैचारिक कटुता को बना पंडित जी को कभी भी अभिष्ट न था।

' वाद ' या ' इज्म ' क्यों ?

इसका नाम 'वाद' या 'इज्म' क्यों रखा गया? वैसे पंडित जी स्वयं 'वाद' के पक्षपाती कभी भी नहीं थे। उनका मत था कि जो सत्य और सनातन, न तो वह वाद के चौखटे में ठीक बैठेगा और न बदलती हुई परिस्थतियों का मुकाबला कोई 'वाद' कर सकेगा। दूसरे शब्दों में, 'वाद' या 'इज्म' कभी भी सभी देशों के लिए और समस्त कालों के लिए उपयोगी नहीं हो सकता। यही उनकी भावना थी। यही उनकी दृष्टि थी। किंतु आज कुछ लोगों की आकलन शक्ति की भी एक सुनिश्चित पद्धति बन गई है, और वह पद्यति 'वाद' अथवा 'इज्म' की है। अतः सर्वसाधारण की सुविधा के लिए ही 'वाद' अथवा 'इज्म' शब्द का प्रयोग पंडित जी ने किया।

किंतु इस संबंध में कोई भ्रम उत्पन्न न होने पाए, इसलिए उनका कहना था कि जिस समय सामान्य व्यक्ति के लिए निर्गुण या निराकार ब्रह्म पर चित्त को एकाग्र करना कठिन होता है इसलिए सांगोपांग का सहारा लिया जाता है और फिर इस सगुणोपासना के माध्यम से सामान्य साधक के लिए आगे चलकर निर्गुण की साधना भी शक्य हो जाती है, उसी भाँति एकात्म मानववाद पर लोगों की चित्तवृत्तियाँ केंद्रित हो जाने के बाद वादातीत (Ismlessness) स्थिति पर या वादों से ऊपर सनातन ज्ञान एवं धर्म पर मन एकाग्र करना भी सामान्य व्यक्ति के लिए सरल हो जाएगा।

वे फिलासफर नहीं , द्रष्टा थे

हमारे पंडित दीनदयाल जी 'फिलासफर' नहीं थे। 'वाद' चलाना फिलासफर शब्द का काम होता है, किंतु पंडित जी के संदर्भ में फिलासफर का प्रयोग करना उनके प्रति लघुता होगी। वे तो भारतीय मनीषियों भाँति द्रष्टा थे और इस कारण उन्होंने जो कुछ भी देखा है वह एक वर्णन है। विदेशी भाषा का शब्द 'फिलासफी' उसे व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। यह दर्शन कोई कोई नवीन अथवा अपरिचित न होकर इसी भूमि का दर्शन है। इस उपर्युक्त विचारों को ध्यान में रखना इसलिए आवश्यक है, जिससे आगे चलकर 'वाद' शब्द के कारण हमारी धारणा में गड़बड़ न होने पाए।

यह आवश्यकता क्यों ?

'एकात्म मानववाद' शक और इसकी कल्पना इस समय प्रस्तुत करने की आवश्यकता क्यों प्रतीत हुई। विशेष रूप से उस समय जबकि आज पश्चिम की ओर से कई वाद या विचार अपने देश में आ रहे हैं। अनेक व्यक्तियों का कहना है कि यदि हमारी समस्याओं का हल पश्चिमी वादों या विचारधाराओं से हो सकता है तो हम अपने मस्तिष्क को कष्ट क्यों दें? यह पश्चिम की विचारधारा है, केवल इसलिए इसको त्याज्य समझा जाए, यह भी ठीक नहीं। ऐसी स्थिति में हमारे लिए यह उचित होगा कि हम पश्चिम के वैचारिक मंच पर जो नाटक पिछले तीन-चार वर्षों में हुए हैं, उनका संक्षेप में अवलोकन करें।

पश्चिम का वैचारिक रंगमंच

सर्वप्रथम हम पंथ अथवा रिलीजन का विचार करें। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जिस समय यूरोपीय रंगमंच पर रिलीजन का यह नाटक आरंभ हुआ, उसमें सभी व्यवस्थाएँ उसकी केंद्रानुवर्ती थीं। पोप को केंद्र बिंदु मानकर संपूर्ण ईसाई जगत् उसके अंतर्गत आता था। आगे लकर पोप की इस केंद्रानुवर्ती सत्ता के विरुद्ध दो प्रकार का विद्रोह हुआ। रिलीजन के इस दूसरे चरण में प्रथमतः यह भावना प्रखरतम होती गई कि भक्त और भगवान् के मध्य पोप सरीखा कोई मध्यस्थ नहीं होना चाहिए। फलस्वरूप प्रोटेस्टेंट आदि मतों का प्रचार हुआ। द्वितीय, यह भावना बलवती होने लगी कि देश-वाह्य शक्ति का हस्तक्षेप, भले ही वह रिलीजन के क्षेत्र में ही क्यों न हो, हमारे राष्ट्रीय व्यवहार में नहीं होना चाहिए। इस प्रकार राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता (Nationalism) को प्रश्रय मिला। तीसरे चरण में हम देखते हैं कि रिलीजन आदि सब झूठ है, यह अफीम है, मानवीय शक्ति से परे किसी ईश्वरीय शक्ति की बात करना सत्य नहीं, केवल कोरी कल्पना है, जो कुछ भी इस सृष्टि का आदि-मध्यांत होगा, वह ईश्वर-रहित भौतिक पदार्थ (Matter) है, और इस कारण रिलीजन केवल मन की कल्पना है। भौतिक तत्त्वों या पदार्थों को ही सृष्टि का मूल मानने के कारण इस बात पर बल दिया गया कि मस्तिष्क भी भौतिक तत्त्वों या पदार्थों की परिष्कृत रचना है। (Mind is super-structure on Matter)। दूसरे शब्दों में रिलीजन, संस्कृति, आचार-विचार (Ethics) आदि का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, वरन् जिस प्रकार की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियाँ होंगी, उन्हीं का प्रतिबिंब रिलीजन, संस्कृति एवं आचार-विचार आदि में दिखाई देगा। इस प्रकार तीसरे चरण में भौतिक तत्त्व या पदार्थ (Matter) आधारभूत तत्त्व बन बैठा और उसने रिलीजन को पूर्णतः निष्कासित कर दिया।

नास्तिकतावाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया

यूरोपीय विकास के अगले चरण में इस भौतिकवादी नास्तिक वाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई। अनेक विद्वानों और विचारकों ने यह कहना प्रारंभ किया कि मार्क्स के समय में रिलीजन और चर्च की जो विकृत अवस्था थी, उसको देखकर रिलीजन संबंधी उसके विचारों का कुछ औचित्य भले ही रहा हो किंतु उसको सार्वदेशिक मान लेना अनुचित होगा। इसके स्थान पर अलग-अलग देशों में, अलग-अलग कालखंडों में रिलीजन की जो भूमिका रही है, उसके आधार पर उसका पुनःमूल्यांकन करने पर बल लगा। विचारकों ने कहना आरंभ किया कि यदि रिलीजन को जीवन का मूलाधार न माना जाए तो भी उसकी स्वतंत्र सत्ता को तो हमें स्वीकार करना ही होगा और यह मानना भूल होगी कि रिलीजन अफीम है अथवा उसका स्वरूप सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर ही सुनिश्चित होता है।

मार्क्सवादियों की मान्यताओं में परिवर्तन

इस विचारधारा के बल पकड़ने पर आगे चलकर हमें यह दिखाई देता है कि भौतिकवाद (Materialism) के आधार पर ईश्वरीय सत्ता का निषेध करने वाले और रिलीजन को अफीम बताने वाले कार्ल मार्क्स के अनेक शिष्यों ने ही इस मान्यता पर संदेह करना शुरू कर दिया कि मार्क्स कोरे भौतिकवादी (Crude Materialist) विचारक थे। कार्ल मार्क्स द्वारा सन् 1842 में व्यक्ति-स्वातंत्र्य और प्रेस-स्वातंत्र्य पर तथा सन 1844 में आर्थिक और दार्शनिक विषयों पर लिखे गए लेखों (Economical and Philosophical manuscripts) के आधार पर इन शिष्यों ने यह कहना आरंभ किया कि मार्क्स कोरे भौतिकवादी नहीं थे। उनके मतानुसार जिस प्रकार निर्जीव भौतिक पदार्थ अमूर्त विचारों को प्रभावित करते हैं, उसी प्रकार अमूर्त विचार निर्जीव पदार्थों को भी प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार यदि एक ओर सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ रिलीजन, संस्कृति और आचार-विचार के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है तो रिलीजन, संस्कृति और आचार विचार से सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ भी निर्धारित होती हैं, दूसरे शब्दों में, वे एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं (They act and react upon each other)

चार सौ वर्षों का विश्लेषण

इस प्रकार यूरोप के इस 400 वर्षों के इतिहास में हमें क्या दिखाई दिया? व्यक्ति सबसे पहली इकाई है। रंगमंच का पर्दा जब खुलता है तो वहाँ दिखता है कि व्यक्ति का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है। वह तो पोप के अंतर्गत या मोनार्क के अंतर्गत (अंग्रेजी भाषा के मोनार्क शब्द का किसी भी भारतीय भाषा में कोई पर्यायवाची शब्द नहीं है, सामान्य रीति से समझने के लिए उसे हम निरंकुश शासक या राजा कह सकते हैं) केवल कठपुतली मात्र है, जिसकी अपनी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं होती। अगले चरण में व्यक्ति के व्यक्तित्व का जागरण हुआ और इसीलिए उसे कुचलने वालों के विरुद्ध विद्रोह की प्रक्रिया आरंभ हुई।

इस प्रकार दूसरे चरण में पोप और मोनार्की (निरंकुश राजतंत्र) के विरुद्ध विद्रोह हुआ। इस संघर्ष में पोपशाही का प्रभुत्व समाप्त हुआ और मोनार्की भी समाप्त हो गई। इसके बाद यह कल्पना हुई कि प्रत्येक व्यक्ति का स्वातंत्र्य अबाधित रहना चाहिए। व्यक्ति-स्वातंत्र्य का आश्वासन देने वाली रचनाएँ जिन्हें संसदीय (पार्लियामेंटरी) या लोकतांत्रिक (Democratic) कहा जाता है, अस्तित्व में आयीं और यह आनंद भी उत्पन्न हुआ कि इस व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति-स्वातंत्र्य-सुरक्षित रह सकता है। कालांतर में इसने शोषण-स्वातंत्र्य को जन्म दिया और लोकतांत्रिक संस्थाओं के अंतर्गत बलवान निर्बलों का, धनी निर्धनों का, बुद्धिमान निर्बुद्धों का शोषण करने लगे। इस प्रकार यूरोप में अल्पसंख्यक शोषक और बहुसंख्यक शोषित, ऐसे दो वर्ग दिखाई देने लगे। फलस्वरूप अगले चरण में इस अमानुषिक विषमता के विरुद्ध विद्रोह की भावना प्रबल होने लगी। शोषण के विरोधियों ने उसे समाप्त करने के लिए शोषण-स्वातंत्र्य तथा उसे सुरक्षित रखने वाले व्यक्ति-स्वातंत्र्य की समाप्ति पर बल दिया। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति को समाप्त करने की माँग की जाने लगी। इस कार्य को संपादित करने के लिए एक ऐसी सर्वग्राही या सर्वसत्ताधारी शक्ति (Totalitarianism) की आवश्यकता प्रतीत हुई, जा राज्य में ही हो सकती है। ऐसे राज्य की प्रस्थापना में व्यक्ति-स्वातंत्र्य का आड़ में शोषण-स्वातंत्र्य का संरक्षण करने वाली सभी संस्थाओं का विरोध किया जाने लगा। अब क्रांति की आवश्यकता-रक्तमय क्रांति की आवश्यकता संस्थाओं द्वारा असंभव प्रतीत हुई। इस प्रकार खूनी क्रांति के माध्यम से शोषित की तानाशाही स्थापित करने का विचार प्रबल हुआ जिससे चारों ओर आनंद का साम्राज्य स्थापित हो जाए। संयोगवश इसी आधार पर रूस में खूनी क्रांति भी हो गई। किंतु व्यवहार में दिखाई दिया कि तानाशाही संपूर्ण शोषित जन की नहीं क दल की है, उसके कुछ सत्ताधारी व्यक्तियों की है। समाज ने इस शिति को भी यह आशा में सहन कर लिया कि यह संक्रमणकालीन स्थिति है, जैसे ही सर्वहारा वर्ग का तानाशाही शासन स्थायित्व प्राप्त कर लेगा, यह अवस्था बदल जाएगी। पर यह आशापूर्ण नहीं हुई और यह अनुभव किया जाने लगा कि एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों की यह तानाशाही स्थायी स्वरूप की है। इसके कारण इसके विरुद्ध विद्रोह की भावना व्यक्ति-व्यक्ति के मन में उस अवस्था के अंतर्गत आज हमें दिखाई दे रही है।

व्यक्ति-स्वातंत्र्य का नाटक

कम्युनिस्ट शासन-काल के अंतर्गत अगले विकासक्रम में गुट की तानाशाही के विरुद्ध व्यक्ति-स्वातंत्र्य को स्थापित करने का प्रयास आरंभ हो गया दिखता है। जिन देशों में कम्युनिस्टों का प्रत्यक्ष शासन नहीं है, किंतु कम्युनिस्ट पार्टियाँ हैं वहाँ पार्टी के नेताओं में इस बात को लेकर मतभेद एवं विवाद आरंभ हो गए हैं कि शोषण को समाप्त करने के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं को ही क्यों न माध्यम बनाया जाए। एक प्रभावशाली वर्ग का कहना यह है कि खूनी क्रांति का विचार मार्क्स के समय में भले ही सत्य एवं अपरिहार्य रहा हो, किंतु परिवर्तित परिस्थितियों में संसदीय संस्थाओं का प्रयोग करके भी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित की सकती है। दूसरी ओर उन देशों में, जहाँ मोनार्की (निरंकुश राजतंत्र) स्थान पर संसदीय पद्धति और लोकतांत्रिक संस्थाओं का स्वागत व्यक्ति के व्यक्तित्व को सुरक्षित बनाए रखने के लिए किया गया था। वहाँ पर भी लोगों में इन संस्थाओं के प्रति असंतोष दिखाई दे रहा वर्ग 'हमें पूर्ण स्वाधीनता चाहिए' का उद्घोष कर पश्चिमी संसदीय लोकतंत्र के अंतर्गत जिस नियंत्रण और अनुशासन को व्यक्ति पर लागू किया जाता है, उसे भी सहन करने के लिए तैयार नहीं हैं। इस वर्ग दृष्टि में स्वातंत्र्य और स्वैराचार में कोई अंतर नहीं है। पश्चिमी जगत में विद्यमान हिप्पी संप्रदाय इसी कोटि में आता है, जो केवल लोकतांत्रिक संस्थाओं का ही विरोध नहीं है, वरन् सभी प्रकार की व्यवस्थाओं (Orders) का विरोधी है। इस तरह व्यक्ति को केंद्र-बिंदु मानकर यह नाटक यूरोपीय एवं पश्चिमी जगत् में विगत् तीन-चार सौ वर्षों में होता रहा है।

पारिवारिक इकाई के विरुद्ध विद्रोह

व्यक्ति के बाद अब हम पारिवारिक व्यवस्था का विचार करें, जो एक सर्वमान्य प्रस्थापित तथ्य के रूप में सभी समाजों में सर्वदा विद्यमान रही है। इसकी अपरिहार्यता को हिंदू धर्मशास्त्रों, कन्फ्यूशियस, मोहम्मद और ईसाइयत, सभी के द्वारा स्वीकार किया गया है। लेकिन पश्चिमी जगत् में उसके विरुद्ध भी दो दिशाओं से विद्रोह दिखाई दिया। एक ओर तो कम्युनिस्टों ने तो यह कहकर पारिवारिक व्यवस्था का विरोध आरंभ किया कि यह कृत्रिम व्यवस्था है। मनुष्य और मानव जाति के बीच परिवार सरीखी किसी शृंखला या मध्यस्थ की क्या आवश्यकता है? अतः इन्हें तोडकर कम्यूनों (Communes) की स्थापना करो। दूसरी ओर लोकतांत्रिक देशों में यह भावना बल पकड़ने लगी कि पारिवारिक व्यवस्था में प्रत्येक घटक को जिस पारिवारिक अनुशासन का पालन करना पड़ता है, उसका पालन क्यों किया जाए? यह तो व्यक्ति-स्वातंत्र्य का विलोम है। अतः संयुक्त परिवार को तोड़ दो। विवाह करके माता-पिता से छुट्टी ले लो। अपना परिवार जितना छोटा होगा, उतना ही अधिक उपयोग किया जा सकेगा और स्वैराचार चल सकेगा।

पुनः संयुक्त परिवार की ओर

किंतु इन दोनों आंदोलनों की खामियाँ शीघ्र ही सामने आने लगी और हम देखते हैं कि वे सफल नहीं हो सके हैं। सोवियत संघ में कम्यूनों का प्रयोग विफल सिद्ध हुआ और इसकी प्रतिक्रियास्वरूप पारिवारिक भावना प्रबल होने लगी। कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था में भी अभिभावकत्व (Parenthood) और पितृत्व (Fatherhood) को कानूनी मान्यता देने की पुरजोर माँग की जाने लगी, जिसे अंत में शासन को स्वीकार करना पड़ा। इसी भाँति लोकतांत्रिक देशों में विशेष रूप से अमेरिका में हिप्पी संप्रदाय आदि के स्वैराचार के विरुद्ध वहाँ के श्रेष्ठ विचारकों ने यह माँग करना आरंभ कर दिया है कि संयुक्त परिवार प्रणाली अवश्य स्थापित की जानी चाहिए। अन्यथा समाज में स्थिरता न रह सकेगी। यह वैचारिक प्रवाह आज अमेरिका में चारों ओर दिखाई दे रहा है।

राष्ट्रवाद का विरोध

परिवार के बाद की इकाई राष्ट्र या समाज या राष्ट्रीय समाज की है। पर ऐसा दिखता है कि प्रारंभ में पोपशाही के काल में यूरोप में राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता का जागरण नहीं हुआ था। यह जागरण आगे चलकर पोप के रिलीजन संबंधी हस्तक्षेप और विदेशियों के साम्राज्यवादी आक्रमणों के विरोध में हुआ। इस प्रकार यूरोप में राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता का प्रतिक्रियावादी स्वरूप सामने आने से इस धारणा को बल मिला कि यदि एक ओर राष्ट्रीयता और पोपशाही एक दूसरे से मेल नहीं खा सकती तो दूसरी ओर राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता भी एक-दूसरे की विरोधी हैं। फलस्वरूप राष्ट्रीयता का विकृत और अतिरेकी (Extremist) स्वरूप यूरोप के प्रत्येक देश के सामने आया। आगे चलकर इस अतिरेकी राष्ट्रीयता की प्रतिक्रियास्वरूप एक दूसरी अतिशयवादी विचारधारा कम्युनिज्म के रूप में सामने आई। इसके अनुसार रिलीजन, राष्ट्र (Nation) आदि सब व्यर्थ की बातें हैं, केवल अंतरराष्ट्रवाद या अंतरराष्ट्रीयता (Internationalism) का विचार करना चाहिए। अतः सन् 1914 के महायुद्ध में श्रमिकों के अपनी-अपनी राष्ट्रीय सरकारों के साथ सहयोग किया तो लेनिन ने बहुत दु:ख प्रकट किया। उन्होंने कहा कि इस समय तो श्रमिकों को अपनी राष्ट्रीय सरकारों के साद गद्दारी करके अंतरराष्ट्रीयता के विचार को पुष्ट बनाना चाहिए था।

अंतरराष्ट्रवाद से राष्ट्रवाद की ओर

आगे चलकर इन अंतरराष्ट्रीयतावादियों की सरकारें भी भिन्न-भिन्न देशों में स्थापित हो गयीं। लेकिन उस स्थिति में तथाकथित अंतरराष्ट्रीयतावाद का जादू गायब होने लगा और राष्ट्रीयता की भावना पुनः प्रबल होने लगी। यहाँ तक कि मारिसहिंडस नामक विद्वान ने 'मातृभूमि रूस' (Mother Russia) नामक अपनी पुस्तक में अंतरराष्ट्रीयतावादी विचारधारा के नाम पर चलने वाली सरकार के अंतर्गत राष्ट्रीयता का पक्ष पुष्ट किया है। इस दृष्टि से उक्त पुस्तक के दो अध्याय अतीत का पुनरन्वेषण" (Rediscovery of the Past) और रूस रूसियों के लिए" (Russia for Russians) अत्यंत महत्वपूर्ण है। आज तो हमें इस राष्ट्रीयता की रक्षा के लिए दो अंतरराष्ट्रीयतावादी सरकारों में एक-दूसरे के विरुद्ध चलने वाला संघर्ष स्पष्ट दिखाई दे रहा है।

मानव की प्रगति अवरुद्ध

राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता के इस संघर्ष के संदर्भ में पश्चिम का मानव जाति के संबंध में जो विचार है उसमें प्रगति की कोई संभावना नहीं दिखाई देती। इसका कारण यह है कि उनके समस्त विचार संकेंद्री (Homocentric) हैं। इसका आशय यह है कि इस समस्त विश्व का केंद्र मानव जाति है और उसी के चारों ओर पश्चिमी जगत् का वैचारिक आंदोलन घूमता रहा है।

स्थायित्व और पूर्णता का अभाव

पश्चिम के इस वैचारिक संघर्ष में क्या सही है और क्या गलत, आज इस विवाद में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। किंतु यह निष्कर्ष अवश्य प्रस्तुत किया जा सकता है कि पश्चिम की जो भी विचारधारा कभी इस देश में आई तब उसने यही दावा किया कि वह प्रगतिशील विचारधारा है और शेष सभी विचार प्रतिक्रियावादी हैं लेकिन इन तथाकथित प्रगतिशील विचारधाराओं में से कोई भी विचार अधिक देर तक टिक न सका। उनमें एक अतिशयवादी स्थिति तक परिवर्तन होते रहे। यह स्थिति यही स्पष्ट करती है कि पश्चिम के विचारों में स्थायित्व और पूर्णता (Finality) नहीं है।

पश्चिमी विहार प्रतिक्रिया के प्रतिफल

संक्षेप में, पश्चिम की जो भी विचार रचना है वह भावात्मक (Positive) न होकर प्रतिक्रिया के रूप में अस्तित्व में आई है। आज एक विशेष परिस्थिति एक देश में विद्यमान है जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप यहाँ एक विचार उत्पन्न हुआ। किंतु परिस्थिति बदलते ही उस विचार में भी परिवर्तन अनिवार्य हो गया। यही कारण है कि प्रतिक्रियावाद पर आधारित होने के कारण पश्चिम में गंभीर वैचारिक संकट होते हैं। यह वहाँ की दूसरी विशेषता है। वहाँ की तीसरी विशेषता यह है कि वहाँ का कोई भी विचार सर्वंकष नहीं है, सर्वव्यापी और पूर्ण नहीं है। इसके विपरीत वह अनेक खंडों में विभक्त है। चौथी विशेषता यह है कि समय-समय पर विभिन्न विचारों के जो वांछनीय उद्देश्य रखे गए, उनके अंदर सामंजस्य बैठाने का प्रयास नहीं किया गया। उनमें एक तरह की असंगति (Incompatibility) ही दिखाई दी। उदाहरण के लिए हम फ्रांसीसी राज्य क्रांति को ले लें। इस क्रांति ने स्वतंत्रता, समता और बंधुता (Liberty, Equality and Fratemity) की सिद्धांतत्रयी की घोषणा की किंतु सामंजस्य का अभाव होने के कारण स्वतंत्रता और समता एक दूसरे के विरोधी प्रतीत हुए। इसी कारण स्वतंत्रता और समता स्वभाविक रूप से बंधुता-निर्माण करने की गारंटी न दे सकी। यही स्थिति कम्युनिस्ट गुट की है। संभव है फ्रांसीसी राज्यक्रांति की ही भाँति उनके उद्देश्य भी वांछनीय रहे हैं किंतु वे भी सामंजस्य न ला सके। उदाहरणार्थ उनकी विचारधारा का आदि, अंत और मध्य का संपूर्ण अधिष्ठान भौतिक पदार्थ (Matter) है। अतः भौतिकवाद (Materialism) उनका सैद्धान्तिक दर्शन है। हर एक व्यक्ति की प्रगति हो, यह सबकी व्यक्तिगत आकाँक्षा है, दूसरी ओर समाज का अनुशासन पूर्णरूप में रहे, ऐसी सामाजिक स्तर पर अपेक्षा की गयी। पर दोनों उद्देश्यों में समन्वय वे न कर सके।

जीवन-मूल्य क्या हों ?

यह जो आज का विषय है, वह अपने देश की वर्तमान परिस्थितियों के लिए अधिक उद्बोधक है, अत: उसे विस्तार से समझना आवश्यक है। आज अपने देश में भी समाजवाद (Socialism) का नारा बहुत जोरों से चल रहा है। किंतु यदि इस भौतिकवाद दर्शन को हमने आधारभूत मान लिया तो हमें भौतिक जीवन-मूल्यों को ही स्वीकार करना होगा और अन्य कोई जीवन-मूल्य नहीं रहेंगे। यदि केवल भौतिक जीवन-मूल्य रहे तो यह प्रश्न खड़ा होगा कि व्यक्तित्व-विकास की प्रेरणा और समानता, इनमें सामंजस्य कैसे किया जाए? यदि एक व्यक्ति अपना व्यक्तिगत विकास चाहता है और उसके लिए प्रेरणा-स्रोत केवल भौतिक और आर्थिक जीवन-मूल्य हैं तो वह स्वाभाविक रूप से यह चाहेगा कि यदि उसका विकास अधिक हुआ है तो उसे भौतिक लाभ भी अधिक होने चाहिए और उसकी आय अधिक होनी चाहिए। यदि समानता के नाम पर यह कानून हुआ कि अधिक से अधिक आय और कम से कम आय में अंतर अधिक न हो (हम भी तो यही चाहते हैं) तो यह कहा जाएगा कि व्यक्ति के विकास की प्रेरणा समाप्त हो जाएगी। यदि विशुद्ध आर्थिक जीवन-मूल्य रखे गए तो प्रत्येक व्यक्ति यही सोचेगा कि बहुत परिश्रम करके यदि वह आइंस्टीन, विश्वेश्वरैया या डा. राधाकृष्णन बन जाता है तो भी समानता के कारण उसे बहुत परिश्रम करने पर भी 2 हजार रुपए से अधिक नहीं मिलेंगे। दूसरी ओर यदि वह बिलकुल निकम्मा है और केवल चपरासी का काम करता है तो भी 100 रुपये से कम मिलने वाला नहीं। ऐसी स्थिति में कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो इतना परिश्रम करके डा. राधाकृष्णन बनने का प्रयास करेगा? इसका कारण यह है कि यदि प्रेरणा विशुद्ध भौतिक या आर्थिक जीवन-मूल्यों की रही तो समानता से व्यक्तिगत विकास की प्रेरणा समाप्त हो जाएगी और व्यक्तिगत प्रेरणा देने का विचार किया गया तथा भौतिक जीवन-मूल्य रखे तो समानता का बंधन तोड़ना होगा। आज अपने देश में प्रतिभा संपन्न व्यक्तियों का जो अभाव (Braindrain) दिखता है, उसका कारण भी तो यही है कि लोगों का विशुद्ध भौतिक आर्थिक दृष्टिकोण हो जाने से वे यह सोचते हैं कि यदि उच्चस्तरीय भौतिक विकास यहाँ संभव नहीं है तो वे विदेश क्यों न चले जाएं?

समन्वयात्मक व्यवस्था

इस दुःस्थिति को बदलने के लिए एक ऐसी जीवन-रचना की आवश्यकता है जिसके जीवन-मूल्यों की एक सार्वलौकिक व्यवस्था की जाए। ('पूर्णतया आध्यात्मिक पद्धति' शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ।) इसमें जैसे एक प्रेरणा भौतिक लाभ की है, वैसी ही दूसरी प्रेरणा सामाजिक प्रतिष्ठा की है और फिर इन दोनों को संयुक्त कर एक समन्वयात्मक पद्धति का निर्माण आवश्यक है। ऐसी स्थिति का निर्माण अतीत में भारत में भी किया गया था। इसके अंतर्गत सामाजिक प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत उपभोग की व्युत्क्रमानुपाति (Inverse ratio) व्यवस्था स्थापित कर कहा गया था कि यदि अधिक से अधिक सामाजिक प्रतिष्ठा चाहिए तो कम से कम भौतिक लाभ उठा ना सकते हो, पर सामाजिक प्रतिष्ठा ही रहेगी। इस समन्वयात्मक और संतुलित रचना द्वारा प्रेरणाओं को बनाए रखा गया।

पश्चिम में समन्वय का अभाव

किंतु पश्चिम में इसका अभाव दिखता है। रूस जैसे देश में शुरु में हंटर लगाकर लोगों से काम कराया गया। आज यहाँ न्यूनतम और अधिकतम आय में 1: 80 का अनुपात विद्यमान है और इस प्रकार समानता की स्थिति वहाँ समाप्त हो गई। अब तो वर्गों की विद्यमानता को भी सहन किया जा रहा है। इसी बात की पुष्टि यूगोस्लाविया के भूतपूर्व उप-प्रधानमंत्री जिलास ने अपनी पुस्तक 'दी न्यू क्लास' है। इतना ही नहीं, वहाँ सामाजिक प्रेरणा उत्पन्न करने के लिए विशेष सुविधाएँ भी दी गयी हैं। जिस समय सोवियत संघ ने प्रथम स्पुतनिक छोड़ा था, उस समय अपने को प्रगतिशील कहने वाले खुश्चेव ने दर्प भरे शब्दों में उसे कम्युनिज्म की विजय बताया था। इसका प्रत्युत्तर देते हुए प्रसिद्ध दार्शनिक बट्रेंड रसेल ने कहा कि यह तो कम्युनिज्म की विजय का परिचायक नहीं, पराजय का द्योतक है। यदि रूस में वैज्ञानिकों को एक विशेष वर्ग (Privileged class) के रूप में विशेष सुविधाएँ न दी गई होतीं तो वैज्ञानिकों को यह प्रेरणा प्राप्त न होती कि वे स्पूतनिक का निर्माण कर सकें।" इस तरह यह कम्युनिज्म की पराजय हुई, क्योंकि भौतिक जीवन-दर्शन के साथ समानता का सामंजस्य वहाँ भी न किया जा सका। यूगोस्लाविया हो, रूस हो या बाकी कम्युनिस्ट देश, सर्वत्र यह स्थिति दिखाई देती है। संक्षेप में जिस प्रकार की असंगतियाँ (Incompatibilities) हमें लोकतांत्रिक देशों में दिखाई देती हैं, वैसी ही असंगतियाँ साम्यवादी देशों में भी विद्यमान हैं। दूसरे शब्दों में, पश्चिम के किसी भी विचार में शाश्वत सत्य या पूर्णता (Finality) और स्थिरता का अभाव है। सर्वत्र खंड-खंड में विचार करने की प्रणाली वहाँ प्रचलित है। अत: प्रत्येक विचारधारा भावात्मक न होकर प्रतिक्रियात्मक हो। जो विभिन्न वांछनीय उद्देश्य उन्होंने टेश्य उन्होंने एक ही समाज में, एक ही कालखंड में के सामने रखे, उनके मध्य सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता उनमें नहीं थी।

अंधानुकरण न करें

ऐसी स्थिति में हमें यह सोचना चाहिए कि पश्चिम का अंधानुकरण करके क्या हम गुजारा कर सकेंगे? स्वामी विवेकानंद से पश्चिम के कुछ विचारकों ने कहा था कि 'आपकी अध्यात्म' चर्चा को हम मान लेंगे। आप हमारी नवीन विचारधारा 'समाजवाद' को मान लीजिए। आर्थिक क्षेत्र में आप हमारी विचारधारा को अपना लें। आध्यात्मिक क्षेत्र में हम आपके दर्शन को स्वीकार कर लेंगे।" स्वामी जी ने प्रत्युत्तर में कहा कि भाई ! ठीक है। आपकी नवीन विचारधारा प्रयोगावस्था में हैं जबकि हमारा प्राचीनतम राष्ट्र है। हजारों वर्ष इसकी आयु है। हम कोई कट्टरवादी नहीं हैं, पर आपकी विचारधारा को मानने के पूर्व हमें यह तो देख लेने दीजिए कि उसमें स्थायित्व आ गया है। इस विचार से समाज की धारणा 500 वर्ष तक हुई है, इसका प्रमाण तो मिलना चाहिए, लेकिन जो विचारधारा प्रयोगावस्था में है, उसे हम नहीं ले सकते।"

कम्युनिज्म का लेखा-जोखा

पश्चिम में आज प्रगतिशील विचारधारा कम्युनिज्म की कही जाती है। स्वामी जी के कथन के संदर्भ में जरा उसका लेखा-जोखा किया जाए। रूसी क्रांति के 50 वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे कि इस विचारधारा में विघटन शुरू हो गया। आज कम्युनिज्म की परिभाषा को लेकर उनमें झगड़े हो रहे हैं। रूस के अनुसार चीन पथभ्रष्ट (Deviationist) और संशोधनवादी (Revisionist) है। दोनों के अनुसार यूगोस्लाविया पथभ्रष्ट और साधनवादी है। डांगे के अनुसार नम्बदरीपाद संशोधनवादी है और नम्बूदरीपाद के अनुसार डांगे पथभ्रष्ट और संशोधनवादी है। दोनों ही दृष्टि से चारू मजूमदार संशोधनवादी और पथभ्रष्ट हैं तो चारू मजूमदार की दृष्टि से डांगे और नम्बूदरीपाद पथभ्रष्ट हैं। जगत् के कम्युनिस्टों ने एक-दूसरे को जो प्रमाणपत्र दिए हैं यदि उनकी एकत्र गिनती की जाए तो दिखेगा कि विश्व साम्यवाद विश्व पथ-भ्रष्टता के बराबर है। (world communism is equal to world deviationism)। आज उसमें दोषरहित नहीं बच सका है। वैचारिक दृष्टि से आज यह बड़ी दयनीय स्थिति है, और यदि 50 वर्ष में यह अवस्था आ सकती है कि तथाकथित प्रगतिशील कहलाने वाले राष्ट्र भी अपने सिद्धांतों से हटने लग जाएं तो स्वामी जी के अनुसार उनसे 500 वर्षों तक समाज की धारणा करने की आशा किस प्रकार की जा सकती है?

पुनर्मिलन के लिए

जब हमें सभी विचारधाराओं पर मनन करना है तो उनका अंधानुकरण न करते हुए उनके गुण-दोषों को हमें देखना होगा। उनमें जो कुछ श्रेष्ठ है, उसे अंगीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। पुनर्निर्माण (Reconstruction) के संबंध में एक बार रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी ने कहा था कि हमारी जो प्राचीन रचनाएँ हैं, उनमें ऐसी अनेक शाखाएँ और पत्ते हो सकते हैं जो जीर्ण-शीर्ण हो गए हैं या गल रहे हैं। उन्हें गल जाने देना ही उचित होगा और उसके लिए दु:ख करने का कोई कारण भी नहीं है। इसी भाँति अगर नवीन अंकुर होते हैं तो होने दीजिए। हमें तो बस यह देखना है कि उनका मूल वृक्ष के साथ एक संघजीवन है, एकरस जीवन है। काल के प्रवास में परिस्थिति के अनुसार पुराने पत्ते और शाखाएँ टूट जाएंगी तथा नए अंकर निर्मित होंगे। यह तो हाने ही वाला है। नवीन विचार लेने में हमें कोई आपत्ति नहीं है, परंतु वे ऐसे अवश्य होने चाहिए जो हमें गंतव्य स्थान की ओर ले जा सकें। इस विषय में पश्चिम भी गारंटी नहीं दे सकता, ऐसा दिखता है।

भारतीय जीवन-रचना

अब इस परिस्थिति में जहाँ हम पश्चिम के वैचारिक इतिहास का विचार करते हैं, वहाँ वे भी हमारे वैचारिक क्षेत्रों का विचार करते हैं। हमारे यहाँ जो सामाजिक-आर्थिक रचनाएँ रही हैं, उनके विषय में उनका प्रतिकूल अभिमत है। उनके दृष्टिकोण से हमारे यहाँ कोई भी ऐसी बात नहीं है जो उन्हें सुसंगत दिखती हो। इसके विपरीत उन्हें हर क्षेत्र में आंतरिक विरोधाभास ही दिखाई देता है। एक-एक क्षेत्र का विचार संक्षेप में करें तो उपयुक्त रहेगा। सर्वप्रथम हम धर्म को ही लें। सभी पश्चिमी देशों को ऐसा लगता है कि यहाँ धर्म में विरोधाभास है। भारत कोई आस्तिक है, कोई नास्तिक है, कोई द्वैतवादी है, कोई विशिष्टाद्वैतवादी है, कोई अनीश्वरवादी है, कोई मूर्तिपूजक है, कोई निराकार की उपासना करता है और सभी इसी परंपारा के हैं, सभी इस रचना के अंगीभूत हैं। ईश्वरवादी हैं, तो वे भी कितने हैं। जितने व्यक्ति उतने देवता। यहाँ 33 करोड़ देवता हैं। मानो जिस तरह 33 करोड़ देवता की कल्पना की गई उस समय हमारी जनसंख्या 33 करोड़ रही होगी। प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसकी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार मनोवैज्ञानिक, शारीरिक, आध्यात्मिक अवस्था के अनुसार अलग-अलग मार्ग होंगे। पश्चिम में वैचारिक आबद्धता (Regimentation of thought) है। हमारे मार्ग से ही भगवत् प्राप्ति हो सकती है, ऐसा जहाँ सोचने का आधार है, वहाँ यह लगना अस्वाभाविक नहीं कि भारत में कितना परस्पर विरोध है। कोई आस्तिकता की बात करता है और कोई नास्तिकता की बात करता है। यह सब उनको विचित्र लगता है। इसी प्रकार व्यक्ति की दृष्टि से परिवार, राष्ट्रीय समाज, अंतरराष्ट्रीयता आदि की भूमिकाएँ हमारे यहाँ हैं, उनमें भी उन्हें अंतर्विरोध दिखाई देता है।

अपने यहाँ यह माना गया है कि व्यक्ति का संपूर्ण विकास होना पाहिए और उसे पूर्ण सुख प्राप्त होना चाहिए। अतः इस तरह की सामाजिक, आर्थिक रचना होनी चाहिए जिससे संपूर्ण सुख और विकास प्राप्त हो सके। इसी नाते व्यक्ति को मान्यता देने के साथ-साथ परिवार को भी मान्यता दी गई है। 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव' कहा गया है। यह नहीं कहा गया कि व्यक्ति को मान्यता दी गई है इसलिए शादी के बाद पत्नी को लेकर अलग हो जाओ। इसके विपरीत व्यक्ति और परिवार दोनों को मान्यता देकर उनका अपना अपना स्थान बताया गया है। आगे यह भी कहा गया है कि 'त्यजेदेकं कुलस्यार्थ'- कुल के लिए एक व्यक्ति का त्याग किया जाए, वह आत्म त्याग करे। साथ ही यह भी कहा गया है कि 'आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्'- आत्मा के लिए कुल को ही नहीं, संपूर्ण पृथ्वी को छोड़ दो। पश्चिम की विचारधारा से प्रभावित व्यक्तियों को इसमें बड़ा अंतर्विरोध दिखता है लेकिन वह नहीं, यह हम सभी जानते हैं।

व्यक्ति और समाज

यही स्थिति राष्ट्रीय समाज और व्यक्तियों की अपने यहाँ है। पश्चिम में इस क्षेत्र में भी बड़ा संघर्ष है। वहाँ यह समस्या उग्र हो उठी कि व्यक्ति और समाज का दायरा, उनकी मर्यादा क्या हो? यदि व्यक्ति का दायरा बड़ा हो तो समाज की मर्यादा उसी मात्रा में छोटी होगी और यदि समाज का दायरा बड़ा होगा तो उसी मात्रा में व्यक्ति की मर्यादा, उसका दायरा छोटा हो जाएगा। इस तरह पश्चिमी देशों के बीच रस्साकशी चल रही है।

भारत में व्यक्ति को भी मान्यता है और समाज को भी। दोनों में परस्पर कोई विरोध नहीं। जहाँ यह सिद्धांत माना गया कि प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण सुख और संपूर्ण विकास प्राप्त हो-इस तरह की सुविधा समाज को देनी चाहिए- वहाँ यह भी माना गया कि समाज का अनुशासन प्रत्येक व्यक्ति पर लागू हो। प्रत्येक व्यक्ति एक ओर अपने सुख और विकास की ओर बढ़े और दूसरी ओर स्वेच्छा से स्वयं को समाजाभिमुख, समाज-केंद्रित एवं समाज-समर्पित करे। अपने परिपक्व सुख और परिपक्व विकास को 'समाज पुरुष के चरणों पर अर्पित करे। इस प्रकार अपने यहाँ व्यक्ति-स्वातंत्र्य और सामाजिक अनुशासन में पूर्ण तादात्म्य दिखाई देता है। यद्यपि पश्चिम को इस पर आश्चर्य होता है।

राष्ट्रीयता एवं अंतरराष्ट्रीयता

यही बात राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता की भी है। पश्चिम में राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद का जन्म प्रतिक्रिया से हुआ। अतः दो देशों की राष्ट्रीयताओं में एक-दूसरे के साथ समन्वय नहीं हो पाता और अंतरराष्ट्रीयता तालमेल राष्ट्रीयता के साथ संभव नहीं होता। हमारे यहाँ एक राष्ट्रवादी प्रार्थना है: प्रादुर्भूतः सुराष्ट्रेऽस्मिन कीर्तिमृद्धिं ददातु में"-मुझे सख और कीर्ति दो, क्योंकि मेरा राष्ट्र अच्छा है। आगे संपूर्ण विश्व के लिए भी शुभकामनाएँ हमारी प्रार्थना में मिलती है। मुझे स्मरण है जब विश्व हिंदू परिषद् का अधिवेशन चल रहा था तो प्रश्न उठा कि हिंदू की परिभाषा क्या होगी? मैं उसकी गहराई में नहीं जाना चाहता। किंतु उसमें एक पहलू यह था कि हिंदू को राष्ट्रीय माना जाए या अंतरराष्ट्रीय, या वह उससे भी ऊपर है? उसकी परिभाषा कैसे की जाए? इसका उत्तर यह दिया गया कि जिस समय संपूर्ण संसार असंस्कृत था, हम ही केवल सुसंस्कृत थे। उस समय हिंदू राष्ट्रवाद जग की संस्कृति थी (World civilization was identified with Hindu Nationalism)। किंतु उस समय भी हमने अपने राष्ट्रीय हित के लिए दूसरे राष्ट्रों का शोषण करना नहीं सोचा। कृण्वन्तो विश्वमार्यम्"- हम आर्य हैं तो संपूर्ण विश्व को आर्य बनाएंगे-हम संस्कृत हैं तो सबको संस्कारित करेंगे, उनके स्तर को ऊँचा उठाएंगे। यह हमारा प्राथमिक भावात्मक राष्ट्रवाद है जो एक ऐतिहासिक तथ्य है और जिसमें राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता में विरोध न होकर वह अंतरराष्ट्रीयता का आधार बन जाता है। कोई व्यक्ति राष्ट्रीय है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय न हो और अंतरराष्ट्रीय है तो राष्ट्रीय न हो, ऐसा हमारे यहाँ नहीं दिखता। पश्चिम के लोगों को यह बड़ा विचित्र लगता होगा। वे कहते हैं कि परस्पर विरोधी बातें कैसे कहते हो, एक ही व्यक्ति राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों कैसे हो सकता है? किंतु इस विचार में विरोधाभास नहीं है, यह हम देख चुके हैं।

मानवता से भी आगे विचार

अब इसके बाद जो धारणा आती है, पश्चिम के लोग तो उस पर विचार करते नहीं। वे अधिक से अधिक अंतरराष्ट्रीयतावादी या मानवतावादी हैं। अपने यहाँ मानवता से भी ऊपर विचार किया गया है। मानवेतर सृष्टि की मान्यता अपने ही देश में है। मछलियों, गायों, चींटियों आदि भरण-पोषण और उनको अपने ही समान मानने वाले लोग यहाँ हैं। उनको भी चीनी, आटा देने वाले लोग हमारे देश में हैं। इतना ही नहीं जो देखने में निर्जीव सृष्टि है, उनको भी अपना एक अंग मानकर उस भी भगवान का अस्तित्व है, ऐसा समझकर पत्थर की पूजा करने वाले लोग अपने देश में हैं। आगे चलकर ऐसा भी साक्षात्कार अपने यहाँ के लोगों ने किया है कि मनुष्य क्या है? मानवेतर प्राणी क्या है? बाकी सृष्टि क्या है? निर्जीव चराचर क्या है? यह तो अस्तित्व है- सारी सृष्टि है, वह एक ही है। पर एकता (Unity) और एकरूपता (Uniformity) इन दोनों में अंतर है। सब एकरूप (Uniform) हैं, यह हमारे यहाँ नहीं कहा गया। लेकिन यह अवश्य कहा गया है कि सब मिलकर एक हैं और वह एकता (Unity) कितनी दृढ़ है, इसको यदि अच्छा तरह बताना हो तो 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' (All is Brahmn) कहा जा सकता है। संपूर्ण सृष्टि की धारणा करने की क्षमता अपने धर्म में है ऐसे कुछ नियम हैं जो सनातन और निरंतर हैं। अतः अपरिवर्तनीय हैं। उन्हीं के प्रकाश में, उन्हीं के आधार पर बदलती हुई परिस्थितियों में देश, काल, परिस्थिति के अनुकूल परिवर्तनशील रचनाओं का उद्घोष करने वाला धर्म हमारे यहाँ हुआ है। यदि एक-एक सूत्र का विचार करें तो परस्पर विरोधी बातें बहुत दिखाई देती हैं। कहीं कहते हैं कर्म करो, कहीं कहते हैं संन्यास लो। कभी कहते हैं कि जो कुछ है वह मोक्ष है, फिर कहते हैं कि जो कुछ है सब व्यर्थ है। कभी कहते हैं 'धर्मस्य मूलं अर्थः।' किंतु इन सबमें सामंजस्य ही नहीं, इससे बढ़कर समन्वयात्मक पद्धति (Co-ordinate system) का निर्माण और इससे भी ऊपर तादात्म्य, जिसे सहज बुद्धि नया नहीं जा सकता- और जो अपनी क्षमता है- इस प्रकार की चुनौती देने वाला धर्म अपने यहाँ विकसित हुआ है। स्वामी विवेकानंद के कथन को प्रमाण मानकर इस धर्म के विषय में इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि इसमें समाज में धारणा करने की क्षमता है। हजारों वर्षों समाज की धारणा इससे हुई है। यह बात ठीक है कि पिछले बारह-तेरह सौ वर्षों में बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार समाज की रचना में कौन-कौन से परिवर्तन होने चाहिए, इस पर विचार नहीं हुआ। इस परिवर्तन शब्द से चौंकने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि ऐसे परिवर्तन समाज में समय-समय पर विशुद्ध दर्शन एवं धर्म के आधार पर होते ही रहे हैं। जैसा कि हमारे यहाँ कहा गया है- वेदाविभिन्ना स्मृतयोविभिन्नाः, नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्।" अर्थात्, वेद विभिन्न हैं, स्मृतियाँ भी विभिन्न हैं, और एक भी मुनि ऐसा नहीं है, जिसके वचनों को प्रमाण माना जाए। इस तरह के परिवर्तन करने के लिए जो शांति का समय चाहिए था वह बारह-तेरह सौ वर्षों तक न मिलने के कारण कुछ विकृतियाँ, कुछ दोष अपने यहाँ अवश्य उत्पन्न हुए हैं, किंतु इन विकृतियों का शल्यकर्म किया जा सकता है। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा, रोग का निदान करो किंतु रोगी को समाप्त न करो" (Operate the disease but do not kill the patient)। जो मूल रचना है, वह निर्दोष है। जो विकृति आ गई है उसका आपरेशन कर दीजिए। किंतु व्यवस्था को कायम रखिए। इस भाँति समाज की धारणा सहस्रों वर्षों से बराबर चली आ रही है। अपरिवर्तन सनातन नियम तथा परिवर्तनशील रचना- इस प्रकार का मेल अपने यहाँ रहा।

अब प्रश्न यह है कि पश्चिम की विभिन्न विचारधाराएँ नई हैं तो क्या इसलिए उन्हें प्रगतिशील, आधुनिक और श्रेष्ठ मान लिया जाए?

उचित तो यह होगा कि दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए जो अच्छा हो, वही लिया जाए। इस दृष्टि से अपनी जो पद्धति है, अपना जो सनातन धर्म है, वह अन्य पाश्चात्य विचारों की तुलना में आज महिमामय है। उसकी विशेषताएँ तो बहुत कम हैं, किंतु आज के संदर्भ में उसको स्पष्ट करते हुए स्व. पंडित जी ने कहा था कि हम एकात्म मानववाद के पुजारी हैं (We stand for Integral Humanism)।"

आज का धर्म

दोनों चित्रों में जो अंतर है, वह संभवतः स्पष्ट हो गया है। आज की परिस्थितियों के संदर्भ में अपने धर्म की विशेषता का नामकरण पंडित जी ने 'एकात्म मानववाद' किया। इसी आधार पर सनातन धर्म की रचना है। यही रचना संपूर्ण मानव समाज को सभी कालखंडों में सुख व संपन्न का आश्वासन दे सकती है।

उपाध्यायजी का स्पष्ट निर्देश

अब हम इस तथ्य को भी ध्यान में रखें कि अपने यहाँ की वैचारिक प्रक्रिया अलग ढंग की है। इसका कारण यह है कि भारतीय दर्शन की मौलिक धारणाओं और अभारतीय विचारकों के विचारों में कुछ मौलिक अंतर विद्यमान है। उस अंतर की ओर स्पष्ट निर्देश करते हुए पंडित जी ने बताया कि पश्चिम में सभी इकाइयों, संस्थाओं एवं कल्पनाओं का विचार पृथक्-पृथक् (compartmentalisation) आधार पर किया गया। व्यक्ति का व्यक्ति के नाते, परिवार का परिवार के नाते, समाज का समाज के नाते और मानवता का मानवता के नाते यहाँ विचार किया गया। किंतु इन समस्त इकाइयों में कुछ संबंध है, इसका विचार नहीं किया गया। व्यक्ति का विचार करते समय अन्य सामाजिक अवयवों (organism) को भुला दिया गया। यहा बात परिवार, समाज और मानवता का विश्लेषण करते समय हुई। यह पाश्चात्य प्रकृति है। एक ही अवयव (organism) को वे देखते हैं। रिलीजन का ही उदाहरण हम ले लें। पश्चिम में अनेक प्रकार के मत-मतांतर या रिलीजन होंगे, किंतु एक बात में वे समाज हैं। प्रत्येक रिलीजन वाला कहता है कि मेरा रिलीजन सही है, तुम्हारा भी सही बाकी सब गलत हैं। अपने देश में भी हम देखें। यहाँ भी अनेकानेक संप्रदाय हैं। किंतु यहाँ प्रत्येक व्यक्ति कहता है कि मेरे रिलीजन द्वारा दी ईश्वर प्राप्ति संभव है"- यह पाश्चात्य पद्धति है। उनके यहाँ सामाजिक आर्थिक क्षेत्रों में भी इसका दर्शन होता है। उनके यहाँ एक-एक इकाई का विचार हुआ। समझने के लिए यहाँ कहा जा सकता है कि बीच में एक बिंदु है जो व्यक्ति है। उसको आवृत्त करने वाला बड़ा घेरा परिवार का है। उसको आवृत्त करने वाला, किंतु पिछले घेरे में असंबद्ध एक दूसरा बड़ा घेरा समुदाय (community) का है। उसको आवृत्त करने वाला उससे बड़ा घेरा राष्ट्र का है और उससे उपर जो घेरा है वह मानवता का है। यहाँ तक वे लोग पहुँच गए हैं।

यह रचना संकेंद्री (concentric) है। इसमें व्यक्ति या मानव केंद्र-बिंदु है। अब उससे संबंध न रखते हुए अन्य घेरे परिवार (family), समुदाय (community), राष्ट्र (nation), और मानवता (Humanity) के हैं ये एक-दूसरे को आवृत्त करते हैं, पर एक दूसरे से अलग हैं और एक-दूसरे से निर्गमित नहीं होते।

अपने यहाँ जो रचना दी गई है वह सनातन रचना है, नवीन नहीं है। इसे कुंडलित, सर्पिल या उत्तरोत्तर वृद्धि करने वाली (spiral) अखंड मंडलाकार रचना कहा जाता है। इसका प्रारंभ व्यक्ति से होता है और व्यक्ति को लेकर-व्यक्ति से संबंध न तोड़ते हुए, उसी से संबंध बनाए रखते हए-अपना घेरा परिवार का है। उसे खंडित न करते हुए उससे बड़ा घेरा समाज का है उसे खंडित न करते हुए उसी से संबद्ध अगला घेरा राष्ट्र का है। सातत्य रूप में सबसे ऊपर का घेरा मानवता का है और चरम शिखर पर चराचर विश्व का घेरा है।

दोनों रचनाओं का अंतर

इन दोनों रचनाओं का अंतर हम ध्यान में रखें तो अच्छा होगा। व्यक्ति, परिवार, समुदाय, राष्ट्रीय समाज, मानवता-यह विचार हमने किया और उन्होंने भी किया। उनकी रचना में असंबद्धता दिखाई देती है। उनकी रचना अलग-अलग इकाइयों में है और एक का दूसरे से कोई संबंध नहीं है, यद्यपि वे एक-दूसरे को आवृत्त करती हैं। उनका यह विचार एकांतिक (exclusive) होने के कारण रचना-संकेंद्री (concentric) है। हमारी रचना में पहली इकाई से दूसरी इकाई निकलती है, दूसरी से तीसरी और इस तरह यह क्रम चलता रहता है।

उत्तरोत्तर वृद्धि करने वाली अखंड मंडलाकार (spiral) रचना के कारण इन इकाइयों के हितों में परस्पर विरोध नहीं दिखता। व्यक्ति परिवार के हित में विरोध नहीं है, परिवार और समुदाय के हित में असंगति नहीं है। समुदाय और राष्ट्र, राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीयता में कभी भी विरोध नहीं दिखता। अपनी मान्यता यह है कि विभिन्न इकाइयाँ एक-दूसरे की पूरक हैं। उदाहरणार्थ बच्चा जब छोटा होता है, वह कुछ भी नहीं जानता। उस अवस्था में उसके लिए एक ही इकाई है-'अहम्' मैं हूँ। वह थोड़ा बड़ा होता है। माता-पिता, भाई-बहिन को पहचानता है तो परिवार उसके लिए एक इकाई बन जाता है। पर वह अहम् का निषेध (Negate) नहीं करता। 'मैं' भी सत्य हूँ, परिवार भी सत्य है। वह और बड़ा होता है। गुण-धर्म का विकास करता है। समान गुण-कार्य रखने वाले लोगों के साथ समुदाय स्थापित करता है, उसके साथ एकात्म होता है, समुदाय (community) के बारे में सोचता है कि मेरा केवल समुदाय ही नहीं, संपूर्ण राष्ट्र मेरा है। फिर अंतिम संन्यास आती है। 'स्वदेशो भवनत्रयम्' से संपूर्ण मानवता का विचार आरम्भ कर वह चराचर जगत् से तादात्म्य स्थापित कर लेता है और विश्व नागरिक ही नहीं चराचर सृष्टि का नागरिक (Not only the citizen of the world but the citizen of the universe) बनने की महिमामयी स्थिति को वह प्राप्त कर लेता है। बचपन के अहंकार से लेकर संन्यासी जीवन की चरमोत्कर्ष अवस्था यह जो सुदीर्घ वैचारिक प्रवास है, उसमें जैसे-जैसे आत्मचेतना बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसके लिए पुरानी इकाई सब प्रकार से सत्य भी नई इकाई के सत्य का साक्षात्कार उसको होता जाता है। साक्षात्कार, 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' का साक्षात्कार, संन्यास अवस्था में होता है।

अराजकता नहीं , विकासक्रम

दूसरे शब्दों में, सभी इकाइयाँ सत्य हैं। हमारी आत्मचेतना का जैसे विस्तार होगा, वैसे-वैसे हमारे साक्षात्कार का विकास होगा। सभी सत्य है, इस कारण एक दूसरे का तिरस्कार नहीं, उसका परित्याग नहीं और निषेध नहीं होगा। जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से पौधा निकलता है तथा वहाँ से शाखाएँ एवं पल्लव निकलते हैं। उसमें से फूल और फल निकलते हैं। हर एक का आकार अलग है। अंकुर अलग है, पौधा अलग है, फूल अलग हैं। एक दूसरे का कोई संबंध नहीं दिखता। प्रतीत होता है कि यह अत्यंत अराजक स्थिति (chaotic condition) है। लेकिन यह अराजक न होकर एक विकासक्रम है। बीज और अंकुर में कोई विरोध नहीं। इन सबमें कोई विरोध नहीं है। सबसे छोटी इकाई से लेकर सबसे बड़ी इकाई तक एकात्म (Integration) है। सभी अपने-अपने दायरे में सत्य है। कोई एक दूसरे का विरोध नहीं करता। यह भारतीय विचार-पद्धति की विशेषता है।

एकात्म जीवन की महत्ता

हमने सबसे छोटी इकाई व्यक्ति पर बल दिया और उसका संगठन किया। हमारे यहाँ व्यक्ति के स्वरूप को जिस प्रकार संगठित और एकात्म (Integrated) किया गया, वैसा पश्चिम में नहीं है। वहाँ पर प्रगति को ही केवल महत्त्व दिया गया है। सर्वाधिक प्रगतिशील राष्ट्र अमेरिका है। वहाँ भौतिक प्रगति काफी लोगों की हो गई किंतु यह आश्चर्य की बात है कि वहाँ के सर्वसाधारण व्यक्ति के अंदर सुख, संतोष और समाधान का पूर्णतः अभाव है। वहाँ पर व्यक्ति के जीवन में परस्पर विरोध, असमाधान, असंतोष, सर्वाधिक अपराध और आत्महत्याएँ दिखाई देती हैं, वहाँ प्रगति हुई है तीव्र रक्तचाप (High blood presssure) की, हृदय-रोग की और अपराध-वृत्ति की। संपूर्ण संसार को खरीद सकने की क्षमता रखने वाला अमेरिका भौतिक समाधान से मानसिक समाधान नहीं प्राप्त कर सकता। आखिर व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य क्या है? सुख- जो चिरंतन हो, घनीभूत (solid) हो। सब कुछ करने के बाद भी यूरोपीय देशों में समाधान व सुख का अभाव है। ईसा ने कहा था कि 'संपूर्ण संसार का साम्राज्य भी प्राप्त कर लिया और यदि आत्मा का सुख खो दिया तो उससे क्या लाभ? आज पश्चिम में चंद्रमा के साम्राज्य के लिए होड़ मची है, किंतु वह अपना सुख- समाधान खो बैठा है। अपने यहाँ छोटी से छोटी इकाई व्यक्ति संगठित और एकात्म है। यहाँ उसे खंडों में विभक्त समझने की बुद्धिमत्ता प्रदर्शित नहीं की गई। लेकिन अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक ने वर्णन किया है कि 'सड़कों' पर एक ऐसी बड़ी भीड़ हमेशा लगी रहती है जो आत्मविहीन, मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ, एक दूसरे से अपरिचित और नि:संग स्थिति" (A crowd of isolated, solitary and self-alienated personalities)" हैं। उनका अपने ही साथ समन्वय नहीं तो दुनिया के साथ क्या होगा? व्यक्ति का समाज के साथ समन्वय नहीं। व्यक्ति भी संगठित और एकात्म इकाई नहीं केवल भौतिक स्तर पर विचार करने के कारण वहाँ व्यक्ति को भौतिक-आर्थिक उत्कर्ष मानव को मिले तो उससे सुख की प्राप्ति होगी, यह माना गया। किंतु भौतिक और आर्थिक उत्कर्ष की चरम सीमा होने पर भी सुख का अभाव है और इसका कारण यही है कि वहाँ खंड-खंड में विचार करने की प्रणाली है, जिसमें व्यक्ति को केवल भौतिक-आर्थिक प्राणी (Economical being) मान लिया गया है और व्यक्ति के सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर संगठित एवं एकात्म रूप में विचार नहीं किया गया है।

मर्यादित सुखोपभोग की व्यवस्था

हमारे यहाँ भी कहा गया है कि व्यक्ति आर्थिक प्राणी तो है ही, उसमे कोई संदेह नही। 'आहार, निद्रा, भय, मैथुन की तृप्ति की बात हमारे यहाँ भी कही गई है। उसकी पूर्ति तो होनी ही चाहिए, किंतु मनुष्य के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। मनुष्य आर्थिक प्राणी से ऊपर भी कुछ है। वह शरीरधारी, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक प्राणी भी है। उसके व्यक्तित्व के अनेक पहलू हैं। अतः यदि संपूर्ण व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का संगठित और एकात्म रूप से विचार न हुआ तो उसको सुख-समाधान की अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। अपने यहाँ इस दृष्टि से संगठित एवं एकात्म स्वरूप का विचार हुआ है। व्यक्ति की आर्थिक और भौतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर यह कहा गया है कि इन वासनाओं की तृप्ति होनी चाहिए, किंतु यह भी कहा गया है कि उन पर कुछ वांछनीय मर्यादा भी आवश्यक है। केवल फ्रायड ने ही काम का विचार अत्यंत गंभीरता से किया, ऐसी बात नहीं है हमारे यहाँ भी काम को मनुष्य के अपरिहार्य आवेग के रूप में स्वीकार कर उस पर गंभीरता से विचार किया गया है। गीता के तृतीय अध्याय के 42 वें श्लोक में कहा गया है:

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।

मनसस्तुपराबुद्धिर्यो बुद्धः परतस्तु सः।।

अर्थात् इंद्रियाँ विषयों से ऊपर स्थित हैं, इंद्रियों से मन उत्कृष्ट है। बुद्धि मन से भी ऊपर अवस्थित है। जो बुद्धि की अपेक्षा भी उत्कृष्ट है-उससे भी अगम्य है- वही आत्मा है। परंतु इस श्लोक में 'सः' का अर्थ काम अनेक विद्वानों ने बताया है लेकिन काम को स्वीकार करने पर भी उसे अनियंत्रित नहीं रहने दिया। भगवान् कृष्ण ने स्वयं कहा कि धर्माऽविरुर्द्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।" अर्थात् मैं काम हूँ, काम की पूर्ति भी होनी चाहिए, वह धर्मविरुद्ध न हो।

धर्माधिष्ठित जीवन-रचना

अर्थ को भी अपने यहाँ स्वीकार किया गया है। अर्थशास्त्र की भी रचना हुई है। सबकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति इतनी अवश्य होनी चाहिए कि उसके कारण अपना पेट पालने के लिए व्यक्ति को 24 घंटे चिंता करने की आवश्यकता न हो। उसे पर्याप्त अवकाश मिल सके, जिससे वह संस्कृति, कला, साहित्य, और भगवान् आदि के बारे में चिंतनशील हो सके। इस प्रकार अर्थ और काम को मान्यता देकर भी यह कहा गया कि अर्थ और काम किसी भी व्यक्ति के विनाश का कारण न बने या वह समाज के विघटन का कारण न हो। इस दृष्टि से हमारे यहाँ प्राचीन द्रष्टाओं ने विशिष्ट दर्शन दिया था। उसमें विश्व की धारणा के लिए शाश्वत नियम (Eternal laws) और सर्वजनीन नियम (Universal laws) देखे थे, उनका दर्शन किया था। उन्हें उन्होंने खोजा, लिखा अथवा संग्रहीत नहीं किया था, प्रत्युत उनका मानस-दर्शन किया था। व्यक्ति को विनाश से बचाने के लिए, समाज को विघटन से बचाने के लिए, व्यक्ति के परम उत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए सर्वजनीन एवं सार्वदेशिक नियमों के प्रकाश में जो व्यवस्था उन्होंने बनायी, उसके समुच्चय को धर्म कहा गया। इस धर्म के अंतर्गत अर्थ और काम की पूर्ति का भी विचार हुआ। हर एक व्यक्ति परमसुख यानी मोक्ष प्राप्त कर सके, इसका चिंतन हुआ। इस प्रकार धर्म और मोक्ष के मध्य अर्थ और काम को रखते हुए चतुर्विध पुरुषार्थ की कल्पना अपने यहाँ रखी गई। इस समन्वयात्मक, संगठित और एकात्मवादी कल्पना में व्यक्ति का व्यक्तित्व विभक्त नहीं हुआ। वह आत्मविहीन एवं मानसिक दष्टि से अस्वस्थ प्राणी न बन सका। इस चतुर्विध पुरुषार्थ ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक क्षमताओं के अनुसार अपना जीवनादर्श चुनने का अवसर दे दिया और साथ ही व्यक्तित्व को अखंड बनाए रखा।

एकात्म मानववाद क्या है ?

यह स्मरण रखना चाहिए कि जहाँ व्यक्ति के व्यक्तित्व रूपी विभिन्न पहलू संगठित नहीं हैं या व्यक्ति संगठित नहीं है, वहाँ समाज संगठित हो सकता है? इस संगठित आधार पर ही अपने यहाँ व्यक्ति से परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता और चराचर सृष्टि का विचार किया गया। एकात्म मानववाद (Integral Humanism) इसी का नाम है। इसके तार्किक अनुक्रम के रूप का भी हम विचार करें तो इस संबंध में हमें यही दिखेगा कि इसके कारण अलग-अलग इकाइयों में संघर्ष की तो बात है ही नहीं, वे तो एक दूसरे से निकलने वाले विकासक्रम का ही आविष्कार हैं। ऐसी स्थिति में सभी इकाइयाँ अपने-अपने क्षेत्र में स्वायत्त, किंतु अपने से ऊपर की इकाइयों के साथ एकात्म होते हुए चल रही हैं। जहाँ तक मानव समाज रचना का प्रश्न है, इसका अंतिम अनुक्रम (Sequence) यही हो सकता है- व्यक्ति, परिवार इसी से आगे बढ़ते-बढ़ते राष्ट्र का राष्ट्रीय शासन और फिर इसी एकात्म मानववाद के आधार पर विश्वराज्य (One World State) का आविष्कार होगा। वैचारिक जगत् में उसका दूसरा तार्किक अनुक्रम (Logical Sequence) अद्वैत सिद्धांत का साक्षात्कार होगा।

एकात्म मानववाद की फलश्रुति

अपने इस एकात्म मानववाद के अंतर्गत अस्तित्व में आने वाला विश्वराज्य कम्युनिस्टों के विश्वराज्य से बिल्कुल भिन्न है। कम्युनिस्टों का विश्वराज्य एक केंद्र पर आश्रित है। हमारा विश्वराज्य अनेक केंद्रों पर निर्भर होगा। कम्युनिस्ट व्यवस्था में वैचारिक आबद्धता के अंतर्गत एकरूपता दिखाई देगी। किंतु अपने विश्व राज्य में ऐसी थोपी गई एकरूपता नहीं होगी। एकात्म मानववाद प्रत्येक राष्ट्र अपने को अपनी-अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुसार विकास करने की स्वतंत्रता देगा। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण-कर्म के अनुसार विकास कर, विकास का संपूर्ण फल समाज-पुरुष को अर्पित करता है, उसी तरह प्रत्येक राष्ट्र अपने को मानवता का एक अंग समझेगा। हम सभी मानवता के साथ अपने को एकात्म समझ लें और संपूर्ण मानवता की प्रगति के लिए अपने राष्ट्र की जो विशेषताएँ होंगी, प्रगति की जो विशेषताएँ होंगी, उसका परिपक्व फल मानवता के चरणों पर अर्पित करेंगे। इस तरह हर एक राष्ट्र स्वायत्त रहते हुए अपना विकास भी करेगा, किंतु विश्वात्मा का भाव मन में रहने के कारण एक-दूसरे का पोषक, संपूर्ण मानवता का पोषक विश्वराज्य की पं. दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद की रचना की दृष्टि से चरम परिणति होगी। इसी भाँति वैचारिक क्षेत्र में अद्वैत का साक्षात्कार तर्कशुद्ध परिणति है। इतना हम आज ध्यान रखें तो आज की परिस्थिति में जो वैचारिक संभ्रम चारों ओर दिखाई दे रहा है, उस कुहासे को दूर करना कठिन न होगा।

(' एकात्म मानवदर्शन ' से)

पूर्णाहुति के पूर्व

दत्तोपंत ठेंगड़ी

'ॐ राष्ट्राय स्वाहा' मराठी उपन्यास है। महाराष्ट्र में देशभक्त पाठकों ने उसका हृदयपूर्वक स्वागत किया है। अब हिंदी भाषा भाषी देशभक्तों में इस उपन्यास के विषय में जिज्ञासा जाग्रत हुई है। इसलिए इसका अनुवाद करने का प्रयास किया गया है। बात बिल्कुल सामान्य है। किंतु इसके कारण विचारवंतों के मन में अनेक प्रश्न उठते हैं। यथा-महापुरुषों के जीवन -संदेश को सर्वसाधारण जनता तक पहुँचाने का कार्य समाज की दृष्टि से अत्यावश्यक है। इसी दृष्टि से उनकी जीवनियाँ तथा उनके विचारों के संग्रह प्रकाशित होते रहते हैं। वे जनता तक पहुँचाने योग्य सारी बातें, सभी घटनाएँ, सभी विचार पाठकों तक सीधे पहुँचाते हैं, घूमा-फिरा कर नहीं। ऐसी स्थिति में इस कार्य के लिए ललित साहित्य का माध्यम उपयोग में लाने की क्या आवश्यकता है? इस कार्य में उपन्यास, नाटक आदि माध्यमों के उपयोगी प्रयोजनीयता क्या है? श्रीगुरुजी का जीवन-पट तथा उनके विचार ग्रंथित करने वाला साहित्य पहले ही प्रकाशित है, यद्यपि इसको पर्याप्त नहीं माना जा सकता। फिर भी उनके विषय में उपन्यास लिखने में विशेष लाभ क्या होगा? इसके स्थान पर साहित्य की अन्य विधाओं का प्रयोग इस दृष्टि से अधिक लाभदायक होगा या नहीं?

इसका उत्तर खोजने के लिए सर्वसाधारण की मानसिकता और ललित साहित्य की विशेषता, दोनों पहलुओं पर सूक्ष्मता से विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि महापुरुषों के जीवन-संदेश पाठकों के पास या बुद्धि तक पहुँचाना ही पर्याप्त नहीं है। उसे मन-हृदय-आत्मा तक पहुँचना चाहिए तभी अपेक्षित संस्कार देने का कार्य संपन्न हुआ माना जा सकेगा।

अपेक्षित कार्य है असामान्य व्यक्ति के अलौकिक भाव-विश्व सामान्य से सामान्य व्यक्ति के हृदय पर अंकित करना। तो फिर इस से कौन-सा माध्यम प्रभावी हो सकता है?

सामान्य पाठक विशुद्ध तात्विक या वैचारिक साहित्य की तुलना में ललित साहित्य को अधिक पसंद करता है। यह उसी प्रकार है जैसे कोई भी रोगी विशुद्ध गुटिका-वटिका की तुलना में शर्करागुठित गुटिका-वटिका अधिक पसंद करता है। वस्तु वही है। किंतु शर्करागुठित होने के कारण यह सामान्य व्यक्ति को अधिक रुचिकर होती है। वैसी ही जीवन-संदेश एक ही है, किंतु लालित्य के शर्करागुंठन के कारण यह सामान्य व्यक्ति को अधिक रुचिकर लगता है। ललित साहित्य की उसकी ग्रहणशीलता अधिक रहती है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। इसका कारण भी है।

अनुभव बताता है कि जीवन की प्रारंभिक अवस्था में मनुष्य अपने भावी जीवन के विषय में सोचता रहता है। भावी जीवन के आकर्षण स्वप्न देखा करता है। किंतु प्रत्यक्ष व्यवहार में ऐसा होता है कि शिवाजी बनने का स्वप्न देखने वाले व्यक्ति को अपना सारा जीवन साधारण लिपिक के रूप में ही बिताना पड़ता है। इसी प्रकार अभिनेता बनने की आकाँक्षा रखने वाले व्यक्ति को जीविकोपार्जन के लिए सिनेमा हॉल का टिकट की खिड़की पर टिकट-क्लर्क का काम करना पड़ता है। स्वप्न और प्रत्यक्ष जीवन में महद अंतर आ जाता है। इसी कारण यह कहा जाता है कि जीवन में सुख की अपेक्षा दुःख अधिक है। यश की तुलना में अपयश अधिक है। तृप्ति की तुलना में अतृप्ति अधिक है।

किंतु मनुष्य चतुर प्राणी है। उस वैषम्य के समाधान का मार्ग वह खोज ही लेता है। उसकी अपनी आकाँक्षाएँ विफल हुई तो भी वह उन लोगों की काल्पनिक अथवा वास्तविक कथाएँ पढ़कर जिनकी आकाँक्षाएँ सफल हुई हैं, उनके साथ कुछ क्षण तक तादात्म्य स्थापित कर एक नए जीवन का उपभोग उतने समय तक कर लेता है। तादात्म्य के कारण उतने समय तक शिवाजी बनता है, दुष्यंत बनता है, चारुदत्त बनता है। कुछ समय तक वह स्वयं को अपने आदर्श के साथ एकरूप कर लेता है और इस तादात्म्य के कारण वह अभिनव आनंद का अनुभव कर लेता है। इस प्रकार के तादात्म्य की संभावना और क्षमता साहित्य की अन्य विधाओं या रूपों की तुलना में ललित साहित्य स्थापित करने का कार्य उतनी मात्रा में और उतनी सहजता से गंभीर साहित्य नहीं कर सकता। जो संदेश ललित साहित्य के माध्यम से पाठकों के हृदय, उनके आत्मा तक पहुँचता है, वह केवल बुद्धि तक सीमित नहीं रहता। संस्कार अंकित करने की दृष्टि से यह अधिक प्रभावी माध्यम है। समाज में गिने-चुने 'बुद्धिवादी' लोगों को छोड़ दिया जाए तो बहुसंख्यक लोगों की मानसिकता इसी प्रकार ही रहती है। बुद्धिवादी व्यक्तियों के लिए तात्त्विक, वैचारिक साहित्य अधिक उपयुक्त है, लेकिन सामान्य जनता की दृष्टि से ललित साहित्य अधिक प्रभावी सिद्ध होता है। इस संदर्भ में पाठकों की मानसिकता को जानना जितना आवश्यक है। उतना ही आवश्यक है साहित्यिक की मानसिकता को भी जानना।

ज्ञान अनंत है। उसकी अनंत शाखाएँ हैं। तो भी व्यवहार में उनमें से दो प्रकारों की चर्चा अधिक हुआ करती है। वे प्रकार हैं शास्त्र और कला। सर्वसाधारण मान्यता यह है कि इन दोनों प्रकारों के लिए अलग-अलग ढंग की प्रतिभा की आवश्यकता हुआ करती है। सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी अत्यल्प संख्या में ही पाए जाते हैं। शेक्सपियर, बालजाक, गेटे आदि के समान लेखन करना कालिदास या भवभूति, आइन्स्टीन या न्यूटन के लिए क्या संभव होता? आंशिक रूपेण सर्वतोमुखी प्रतिभा के कुछ उदाहरण मिल सकते हैं, जैसे-लिओनार्दो या फ्रान्सिस बेकन। श्रीमद् आद्य शंकराचार्य ने एक ओर 'शांकरभाष्यम्' लिखा और दूसरी ओर 'नर्मदास्तोत्रम्', 'भज गोविंदम्' आदि। संत ज्ञानेश्वर ने एक ओर ज्ञानेश्वरी के ज्ञानयोगप्रधान अध्याय लिखे और दूसरी ओर वारकरी संप्रदाय के लिए उत्कट भक्ति-रस-प्रधान अभंग लिखे। आधुनिक काल में गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने ऐसी प्रतिभा का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है। पूर्णरूपेण सर्वतोमुखी प्रतिभा का जो एकमात्र उदाहरण संसार ने अब तक देखा है, वह है महर्षि व्यास का। किंतु वह अपने ढंग का अकेला, अभूतपूर्व उदाहरण है। स्पष्ट है कि ऐसे उदाहरण अपवादभूत ही माने जाते हैं। प्रायः यही माना जाता है कि शास्त्र और कला, ये दो विभिन्न प्रकार हैं, और उनमें अवगाहन करने के लिए अलग-अलग प्रकार की प्रतिभा की आवश्यकता हुआ करती है-यद्यपि शब्दों का खेल खेलने वाले कुछ चतुर लोग यह कहते हैं कि हर शास्त्र की अपनी-अपनी कला हुआ करती है। और हर कला का अपना-अपना शास्त्र हुआ करता है।

ललित साहित्य की गिनती कला के रूप में होती है। ललित साहित्य के लेखक की मानसिकता भी एक अध्ययनीय विषय है।

यह सत्य है कि शास्त्रज्ञ अपने शास्त्रीय अन्वेषण का और कलाकार अपनी कलानिर्मिति का कार्य 'स्वान्तः सुखाय' ही करता रहता है। तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की प्रस्तावना में यही बात कही है। 'Pilgrim's progress' के लेखक जॉन बनियान को यह बोलकर निरुत्साहित करने का प्रयास किया गया कि विवेचनात्मक उपन्यास पढ़ने का कष्ट कौन उठाएगा? जॉन बनियान ने उपन्यास के प्रारंभ में 'Apoligia' में लिखा है- "I did it for my own self to gratify."

अपनी कृति को तुरंत, अपने जीवन काल में ही जनमान्यता प्राप्त होगी, ऐसी आशा रखकर इन श्रेष्ठ साहित्यिकों ने अपना साहित्य निर्मित नहीं किया। भवभूति ने तो यहाँ तक कहा कि-

ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञाम्

जानन्तु ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः।

उत्पत्स्यते हि मम कोऽपि समानधर्मा।

कालोह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी॥

सभी प्रतिभासंपन्न साहित्यिकों में एक विशेषता पायी जाती है। वह है वर्ण्य विषय से पूर्ण, शत-प्रतिशत तादात्म्य। लेखन करते समय उनके में यह भान नहीं रहता कि यह लेखन 'मैं' कर रहा हूँ। लिखते समय 'मैं' का पर्णतः विस्मरण हो जाता है और लेखक स्वनिर्मित पात्रों की विचार भावनाओं के साथ एकात्म हो जाता है। ऐसे समय लेखक से यह पूछना कि यह लेखन आप क्यों कर रहे हैं? उतना ही हास्यास्पद होगा जितना आकाश में मेघों को देखकर नृत्य करने वाले मयूर से यह पूछना कि तुम नृत्य क्यों कर रहे हो? या बसंत के आगमन के कारण गायन करने वाली कोकिला से पूछना कि तुम गायन क्यों कर रही हो? उचित समय प्राप्त होने पर मयूर नृत्य किए बिना नहीं रह सकती, वैसी ही प्रतिभावान् लेखक लेखन किए बिना नहीं रह सकता। श्रीमती मृणालिनी बाई इसी श्रेणी में आती हैं।

'ॐ राष्ट्राय स्वाहा' के नायक परम पूजनीय श्रीगुरुजी हैं। इस कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों में तथा श्रीगुरूजी के असंख्य भक्तों में यह उपन्यास लोकप्रिय हो गया, यह स्वभाविक ही है। इसकी समीक्षा भी कई पत्रों में हुई। किंतु उपन्यास की साहित्यिक गुणवत्ता की मार्मिक समीक्षा (Critical Appreciation) अभी तक हुई नहीं है। इस प्रकार की समीक्षा नहीं हुई तो इस उपन्यास की वास्तविक विशेषता ध्यान में कैसे आएगी?

हर भाषा में ललित साहित्य अनेक प्रकार का मिलता है-काव्य कथाएँ, नाटक, उपन्यास आदि। उपन्यास के भी अनेक प्रकार हुआ करते हैं। उनमें से दो प्रकारों की चर्चा अधिक की जाती है। ये हैं घटना-प्रधान उपन्यास तथा चरित्र प्रधान उपन्यास। ऐसा नहीं है कि ये दो प्रकार एकदम परस्पर भिन्न (Mutually exclusive) होते हैं। घटना प्रधान उपन्यास में भी आनुषंगिक रीति से चरित्र-चित्रण (Characterisation) आ जाता है। वैसे ही चरित्र प्रधान उपन्यास में भी आनुषंगिक रीति से घटनाओं का वर्णन होता है। ये दोनों एक दूसरे पर आश्रित रहते हैं। इस स्थूल वर्गीकरण का आधार यह विचार है कि किस उपन्यास में किस पहलू को प्रधानता दी गई है-घटनाओं को या चरित्र-चित्रण को?

हिंदी में चरित्र-प्रधान उपन्यासों के कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं-

अमृत लाल नागर : 'मानस का हंस' (1972), 'खंजन नयन'

प्रेमचन्द : 'गोदान', 'सेवा-सदन', 'प्रेमाश्रम'

वीरेंद्र कुमार जैन : 'अनुचर योगी'

शिवाजी सावंत : 'मृत्युंजय' (मराठी) (1967) अनुवाद

प्रमथनाथ विशी : 'पूर्णावतार' (बंगला) अनुवाद

आचार्य चतुरसेन शास्त्री : 'सोना', 'वैशाली की नगरबधू'

भगवती चरण वर्मा : 'चित्रलेखा'

हजारी प्रसाद द्विवेदी : 'वाणभट्ट की आत्मकथा', 'पुनर्नवा',

'अनामदास का पोथा'

एस. के. पोट्टेक्काट : 'ओरु देशत्तिण कथा' (मलयालम 1971) अनुवाद।

विमल मित्र : 'साहब बीबी और गुलाम'

रवीन्द्र नाथ ठाकुर : 'गोरा 'अनुवाद

अमृत राय : 'बीज', 'धुँआ'

वृंदावन लाल वर्मा : 'झांसी की रानी', 'मृगनयनी', 'विराट की पद्मिनी'

महाश्वेता देवी : 'झांसीर रानी'

विश्वनाथ सत्यनारायण : 'सहस्रफण' (तेलगु 1934) अनुवाद

रामदरश मिश्र : 'आकाश की छत' 1979

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला : 'बिल्लेसुर बकरिहा' 1939

राम कुमार भ्रमर : 'महाभारत'

बदीउज्जमां : 'एक चूहे की मौत'

विष्णु सखाराम खांडेकर : 'ययाति' (मराठी) अनुवाद

अज्ञेय : 'शेखरः एक जीवनी' 1940

राजेन्द्र अवस्थी तृषित : 'भूख किरन की छाँव'

राहुल सांकृत्यायन : 'जय यौधेय'

रांगेय राघव : 'मुर्दों का टीला', 'अंधेरे में जुगनू', 'लोई का ताना',

'लखिया की आँखें

विवेकी राय : 'सोना माटी',

अभिमन्यु अनत : 'जयगाँव के बहादुर'

कुर्रतुल-एन-हैदर : 'आग का दरिया'

नरेंद्र कोहली : 'तोड़ो कारा तोड़ो'

शिव प्रसाद सिंह : 'नीला आँचल'

पन्ना लाल पटेल : 'पार्थ से कहो चढ़ाये वाण'

श्रीलाल शुक्ल : 'पहला पड़ाव'

मन्नू भण्डारी : 'महाभोज'

इन दोनों प्रकारों में क्या अंतर है, इस निमित्त घटना-प्रधान उपन्यासों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित है-

देवकीनंदन खत्री : 'चंद्रकांता', 'चंद्रकांता संतति'

मथुरा प्रसाद खत्री : 'आनंद महल'

गोपाल राम गहमरी : 'झंडा डाकू' 1941

ज्योतिर्मयी ठाकुर : 'मधुवन' 1933

जयशंकर प्रसाद : 'कंकाल' 1947

रांगेय राघव : 'विषादमठ' 1946

भगवती चरण वर्मा : 'वह फिर नहीं आई' 1960

इलाचंद्र जोशी : परदे की रानी' 1941

भीष्म साहनी : 'तमस'

डॉ. विवेकी राय : 'श्वेत पत्र'

खुशवंत सिंह : 'दिल्ली'

सुदर्शन मजीठिया : 'उखड़ी हुई आँधी'

आचार्य चतुरसेन शास्त्री : 'वयंम रक्षाम' 1957, 'सोमनाथ 1954,

'आलमगीर' 1960', 'सोना और खून' 1957-60

यशपाल : 'झूठा सच' 1960

'ऊँ राष्ट्राय स्वाहा' की मार्मिक समीक्षा (Critical Appreciation) करते समय सर्वप्रथम एक बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि यह उपन्यास चरित्र-प्रधान है। श्री नानापालकर द्वारा लिखित डॉक्टर जी की जीवनी के समान श्री गुरुजी की जीवनी लिखना या श्री चं. प. उपाख्य बाबूराव भिशीकर द्वारा लिखित 'केशवः संघ-निर्माता' के समान श्रीगुरुजी के विचारों को उपलब्ध कराना आवश्यक तथा उपयुक्त भी है। इस दिशा में अधिकतम प्रयास हो, यह आग्रह सभी राष्ट्रभक्तों का है। किंतु इस उपन्यास का प्रमुख प्रयास चरित्र-चित्रण है, यद्यपि घटनाओं तथा विचारों का समावेश भी इसमें है। ज्यूलियस सीजर की जीवनी प्लूटार्क ने लिखी है। उसमें प्रस्तुत किए हुए ज्यूलियस सीजर और शेक्सपियर तथा बर्नार्ड शॉ के प्रस्तुत किए हुए ज्यूलियस सीजर में कुछ अंतर है। यही बात उपन्यास के बारे में भी है।

इस प्रकार का चरित्र प्रधान उपन्यास लिखने की अपनी क्षमता मृणालिनी बाई पहले ही सिद्ध कर चुकी हैं। भगत सिंह के जीवन पर 'इंकिलाब' सावरकर का 'अवध्य भी अजिंक्य भी', स्वामी स्वरूपानंद जी पर 'अमृतसिद्धि', मुक्ताबाई पर 'मुक्ताई', वंदनीय ताई आप्टे पर 'कृतार्थ भी कृतज्ञ भी' वेणाबाई पर 'वेणास्वामी' ये उपन्यास उनकी इस क्षमता के प्रमाण हैं।

इसके अतिरिक्त मृणालिनी बाई का अन्य साहित्य भी विपुल है। 'मृणाल' (कथासंग्रह), 'समर्पिता', 'जन्मसावित्री', अवलिया यानी राधिका (दीर्घकथा), 'ही ज्योत अंतरीची', 'आनंदलोक' (कथासंग्रह), 'अमृता', 'आनंदाचे डोहीं-आनंदतरंग', 'रक्तकमल', 'रंगला रक्त गुलाब' (दीर्घकथा) और कुछ बाल-साहित्य भी।

हम जानते हैं कि इस प्रकार के लेखन के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है। प्रस्तुत लेखिका इस दिशा में सदैव आगे रही हैं। उदाहरणार्थ, 'इन्किलाब' लिखने के पूर्व वे लाहौर गयीं। स्वयं भगत सिंह के परिवार में ही उनका निवास रहा। भगत सिंह की पूज्य माता जी तथा अन्य सगे-संबंधी और निकटस्थ लोगों के साथ उन्होंने घनिष्ठ संबंध स्थापित किए। 'ॐ राष्ट्राय स्वाहा' के लिए जो परिश्रम उन्होंने किया उसका उल्लेख उपन्यास की प्रस्तावना में है। अभिप्राय यह है कि इस प्रकार के लेखन के लिए मृणालिनी बाई सर्वथा सुयोग्य हैं, सक्षम हैं, यह बात अब सर्वविदित हो चुकी है। किंतु इस उपन्यास के संदर्भ में एक और बात विशेष उल्लेखनीय है।

पाठकों को यह पढ़कर आश्चर्य होगा कि यह उपन्यास लिखने का विचार मन में आने तक मृणालिनी बाई का श्रीगुरुजी तथा रा.स्व.संघ से कभी भी दूर से भी संबंध नहीं था। श्रीगुरुजी कितनी ही बार पुणे जाते थे। उनके भाषण होते थे। स्वयंसेवक तथा विभिन्न विचारधाराओं के लोग उनसे मिलने आते थे-विरोधी विचारधारा के भी। उनके भाषणों का तथा उनसे साक्षात्कार (इंटरव्यू) आदि का वृत्त भी समाचार पत्रों में आता था। तो भी श्रीगुरुजी से परिचय प्राप्त कर लेना चाहिए। ऐसा मृणालिनी बाई ने कभी सोचा भी नहीं था, उनकी निकट से जानने की इच्छा तथा व्यक्तित्व-कर्तृत्व के विषय में ब्यौरेवार जानकारी होना तो दूर की बात थी। श्रीगुरुजी के महानिर्वाण के पश्चात् भी इस प्रकार की जिज्ञासा उनके मन में जागृत नहीं हुई। संघ कार्यकर्ताओं से भी उनका निकट का संबंध कभी नहीं रहा। ऐसे व्यक्ति में यह उपन्यास लिखने की इच्छा हुई। यह साहित्य-सृष्टि का एक अलौकिक चमत्कार है। कल्पना मन में आने के बाद अपेक्षित जानकारी प्राप्त करने का काम बहुत कठिन था। संन्यासी का विवाह करना हो तो उसकी तैयारी शिखा (चोटी) बढ़ाने की प्रक्रिया से प्रारंभ करनी पड़ती है। ऐसा ही यह मामला था, क्योंकि संघ-परिवार के प्रमुख कार्यकर्ताओं के नाम भी उनको ज्ञात नहीं थे। इस कार्य में श्री बालासाहेब चितले ने उनकी सहायता की। श्री चितलेजी ने संघ-परिवार के प्रमुख कार्यकर्ताओं से उनका परिचय कराया और संघ के विषय में संबंधित प्राथमिक जानकारी भी उनको दी। तो भी यह संघ-कार्य से किंचित् भी संबंध न रखने वाली लेखिका इस प्रशंसनीय प्रयास में कहाँ तक सफल होगी, यह संदेह हम सभी के मन में था।

श्रीमती मृणालिनी बाई कहती थीं- मैं रा.स्व. संघ या राष्ट्र सेविका समिति की सदस्या नहीं हूँ। श्रीगुरुजी से मेरा परिचय भी नहीं था। ऐसी स्थिति में किसी की भी प्रेरणा न होते हुए यह चरित्र उपन्यास लिखने का विचार मन में आया, यह ईश्वरीय प्रेरणा ही है।"

यह चमत्कार कैसे हो सका, इसका अन्वेषण मनोवैज्ञानिकों के लिए रोचक तथा उपयुक्त विषय हो सकता है। ये मनोवैज्ञानिक पातंजलि-परंपरा के होने चाहिए, फ्रायड-जुंग-एडलर के परंपारा के नहीं।

सूक्ष्मता मृणालिनी बाई की मनोरचना की विशेषता है उनकी यह मान्यता है कि शरीर और मन में एकात्मकता है, मन अर्थात् सूक्ष्म अव्यक्त शरीर और शरीर अर्थात् स्थूल व्यक्त मन। जैसे विचार अर्थात् अमूर्त भाषा और भाषा अर्थात् मूर्त विचार।" यही सूक्ष्मता उनकी विचार-पद्धति में है।

ऐसी सूक्ष्मता का मर्म समझना मनोवैज्ञानिक अन्वेषण के लिए अपरिहार्य है। यही बात उनकी लेखन-शैली के विषय में भी है। चरित्र-प्रधान उपन्यास लिखने वाले अनेक साहित्यिक हैं। किंतु ऐसा अनुभव में आता है कि उनमें से कुछ ने अपनी स्वतंत्र, वैशिष्ट्यपूर्ण, लेखनशैली विकसित की है। मृणालिनी बाई में भी यही विशेषता है। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि मृणालिनी बाई ने अपनी निजी, वैशिष्ट्यपूर्ण 'मृणाल शैली' विकसित की है।

उनकी विशेषता केवल वर्ण्य विषय का चयन और लेखनशैली तक ही सीमित नहीं है। उनका व्यक्तित्व भी वैशिष्ट्यपूर्ण है- अति-संवेदनशील, अति संवेदनाक्षम। वे स्वामी अमूर्तानंदजी की मनोरचना के साथ जैसी स्वाभाविक रीति से एकरूप हो जाती हैं, वैसी ही सामान्य स्वयंसेवक या मजदूर की मनोरचना के साथ भी। वे केवल वाणी से नहीं बोलतीं। श्रोता को प्रतीत होता है कि उनकी वाणी, आँखें, चेहरा, संपूर्ण शरीर श्रोता के साथ बात कर रहे हैं।

श्रीमती मृणालिनी मधुसूदन जोशी का जन्म दिनांक 13 फरवरी 1927 को अपनी माँ के यहाँ हुआ था। पिता का नाम सखाराम बहुतुले, मामा का नाम बासुदेव हर्डीकर। बाल्यावस्था में प्रथम दस वर्ष रत्नागिरि में ही बिताये। इस अवधि में स्वातंत्र्यवीर सावरकर तथा उनके परिजनों के साथ उनका अति निकट घरेलू संबंध रहा। 10 से 15 वर्ष तक की अवधि हिंगणा आश्रम में बीती। वहाँ महर्षि अण्णासाहेब कर्वे, ती वाया कर्बे, श्री भास्कर राव सौभाग्यवती कर्वे, श्री भास्कर राव तथा सौ. मावशी, नाना-तात्या-बारूताई शेवड़े, शारदा बाई साठ्ये आदि सेवा भावी कर्मठ सामाजिक व्यक्तियों से उनका परिचय हुआ। तत्पश्चात् की शिक्षा सर परसुराम भाऊ कॉलेज में हुई। वहाँ भी प.पू. सोनोपंत दांडेकर, गुरुवर्य श्री म.माटे, के.ना. घाटवे, बालिंबे, सहस्रबुद्धे-ऐसे ख्यातनाम, तत्त्वनिष्ठ चारित्र्यसंपन्न प्राध्यापकों का साहचर्य एवं मार्गदर्शन उन्हें प्राप्त हुआ। बी.ए. बी.टी. की परीक्षा उतीर्ण होने के पश्चात् वनाधिकारी श्री मधुसदन दिगम्बर जोशी के साथ विवाह संपन्न हुआ। सौभाग्य से श्री जोशी भी सात्विक, चारित्र्यसंपन्न तथा लेखिका के अनुरूप पूर्णरूपेण मिले। आयुष्य के उतरार्ध में परमहंस स्वामी स्वरूपानंदजी से घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ। मृणालिनी के विषय में स्वामीजी ने तीनों भूमिकाओं का एक साथ निर्वाह किया-माता की, पिता की, तथा सदगुरु की। इस प्रकार के जीवन में कैसा भाव विश्व हो सकता है। इसकी कल्पना प्रबुद्ध लोग कर सकते हैं।

उनके मामा श्री वासुदेव शास्त्री हर्डीकर क्रांतिकारी थे। उनके कारण क्रांतिकारियों के जीवन तथा कार्य के विषय में मृणालिनी को विस्तृत जानकारी प्राप्त होती थी। बाद में सावरकर जी का समग्र साहित्य मृणालिनी ने पढ़ा और क्रांतिकारियों के विषय में जो भी, जितना भी जानकारी प्राप्त करना संभव था, उतनी सब प्राप्त करने का अखंड प्रयास मृणालिनी करती रहीं। 'Thus spake Vivekananda' ने तो उनकी मनोरचना में निर्णायक परिवर्तन ला दिया। उन्होंने यह सारा उद्योग गृहस्थी सम्हालते हुए ठीक ढंग से किया, यह उनकी विशेषता है।

इस उपन्यास का हिंदी में अनुवाद कर मा. श्री बापूराव सरदेसाई ने देश की उल्लेखनीय सेवा की है। प.पू. श्रीगुरुजी के जीवन और कार्य का आकलन करने में सभी हिंदी भाषी पाठकों को इससे सहायता होगी। चाहे वे हिंदुत्वनिष्ठ, हिंदुत्वविरोधी, या तटस्थ क्यों न हों। श्रीगुरुजी के जीवन-कार्यकर्तृत्व के विषय में कुछ साहित्य हिंदी में उपलब्ध है। उनके विचारों को भी पर्याप्त मात्रा में लिपिबद्ध किया गया है। किंतु उनके चारित्र्यीकरण को लेकर विस्तृत एवं सर्वांगीण साहित्य का अभी तक निर्माण नहीं हुआ। मा. मु. कृ. उपाख्य बाबूराव चौथाईवाले ने यह कार्य हाथ में लिया था। इस दृष्टि से जानकारी प्राप्त कराने का काम भी उन्होंने प्रारंभ किया था। किंतु भगवान की इच्छा कुछ और थी। सौ. मणालिनी बाई के उपन्यास के कारण इस अभाव की पूर्ति करने का काम मराठी भाषा में ठीक ढंग से प्रारंभ हुआ। अब इस अनुवाद के कारण हिंदी भाषा में भी ऐसा ही शुभारंभ हो रहा है।

यह कार्य कितना कठिन है। इसकी कल्पना सामान्यजन को नहीं हो। सकती। वे तो ऐसा सोचते हैं कि इसमें कठिनाई क्या है? हिंदी भाषा का कोई भी अच्छा जानकार यह कार्य कर सकता है। मराठी शब्द के लिए हिंदी प्रतिशब्द ढूँढना-इतना ही तो काम है। इसमें मराठी-हिंदी शब्दकोश की भी सहायता ली जा सकती है।

किंतु यह विषय इतना सरल नहीं है। जिन विषयों का संपूर्ण आकलन केवल बुद्धि के द्वारा हो सकता है, ऐसे विषयों में शब्दशः अनुवाद की प्रक्रिया उपयुक्त हो सकती है। किंतु जिन विषयों में मन-हृदय-भावना का महत्त्व है, ऐसे विषयों में शब्दशः अनुवाद की प्रक्रिया सफल नहीं हो सकती। "The letter killeth; the spirit reviveth" (शब्द मार देता है, भावना पुनर्जीवित करती है)। शब्दकोश के सहारे 'The letter' (शब्द) का काम तो हो सकता है, 'The spirit' (भावना) का काम कतई नहीं हो सकता, जहाँ निष्प्राण letter के बजाय Toyar spirit का प्रसंग आता है। वहाँ ठीक अनुवाद का काम नहीं कर सकता है। जो उस spirit के साथ एकात्म है, वर्ण्य विषय में ग्रंथित भावनाओं का स्पंदन जिसके हृदय में होता हो, उपन्यास के नायक तथा उनके जीवन कार्य के साथ जिसका प्रत्यक्ष, प्रदीर्घ, जीवमान संबंध रहा हो। क्योंकि श्रीमती मृणालिनी बाई के समान असाधारण उत्कट संवेदनशीलता का स्वभाव क्वचित् ही पाया जाता है। इस कारण नायक तथा उसके जीवन-कार्य के साथ तादात्म्य न रखनेवाला व्यक्ति कितना ही श्रेष्ठ भाषाविद् रहा, तो भी इस प्रकार की कृति का अनुवाद करने की क्षमता नहीं रख सकता। इस तथ्य के प्रकाश में विचार किया जाए तो यह कहना पड़ेगा कि इस उपन्यास के लिए सुयोग्य अनुवादकर्ता उपलब्ध हुए हैं।

श्री विद्याधर बलवन्त उपाख्य बापूराव सरदेसाई का जन्म दिनांक 2 फरवरी 1919 को विले पार्ले, मुंबई में हुआ। पिता तथा पितामह के निधन के बाद 8 वर्ष की आयु में आश्रय के लिए ननसार, इन्दौर आना पड़ा। सन् 1941 में होलकर महाविद्यालय इंदौर से भौतिकीय रसायन में एम.एस-सी. की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उतीर्ण की। सन 1942 में नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघ-शिक्षा-वर्ग (ओ.टी.सी.) की तृतीय वर्ष की शिक्षा पूरी की। सन् 1941 से 1944 तक दक्षिणी मध्यभारत में संघ के प्रचारक के नाते काम किया। सन् 1944 से 1950 तक म.भारत तथा महाराष्ट्र के विभिन्न नगरों में अध्यापन-कार्य किया। सन् 1950 से 1979 तक झाँसी में विपिन विहारी मध्य-विद्यालय एवं महाविद्यालय में अध्यापन कार्य किया और 1979 में महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। आपात्काल में 2-7-75 से 22-3-77 तक कारावास में रहे। सेवानिवृत्ति के पश्चात् अपना संपूर्ण जीवन संघकार्य को समर्पित किया। संघ की योजना के अनुसार कुछ समय तक मध्य में विद्याभारती के प्रांतीय संगठन के सचिव एवं संगठन मंत्री के नाते भी कार्य किया। सन् 1994 में हृदयाघात् के कारण कार्य से निवृत्त होना पड़ा।

उन्होंने यह सारा संगठनात्मक कार्य संभालते हुए उल्लेखनीय लेखनकार्य भी किया। भगिनी निवेदिता के 'Religion and Dharma' का तथा श्रीमती ऐनी बेसेण्ट के 'Hindu ldeals' का तथा अन्य भी कछ अंग्रेजी एवं मराठी ग्रंथों का अनुवाद किया।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जीवन संघसमर्पित होने के कारण संघ के सभी श्रेष्ठजनों के साथ निकट साहचर्य बापूराव जी को प्राप्त हुआ। प.पू. श्रीगुरुजी के साथ उनका घनिष्ठ संबंध रहा। मा. भय्याजी दाणी का उनसे विशेष स्नेह था। इस प्रकार की आजीवन तपश्चर्या के कारण वे इस उपन्यास का अनुवाद करने के लिए सुयोग्य सिद्ध हुए हैं। इस कृति में उपन्यास का वर्ण्य विषय, उपन्यासकार और अनुवादकर्ता-तीनों का परंपरानुकूल उत्कृष्ट संयोग रहा है।

भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस ने भविष्य का एक स्वप्न देखा था। उसका उत्तरोत्तर प्रस्फुटीकरण करने का कार्य स्वामी विवेकानंद ने किया। उनके महानिर्वाण के पश्चात् भी यह प्रक्रिया निरंतर चलती रही। परम पूजनीय डॉक्टरजी ने भी भविष्य का एक स्वप्न देखा था। उसको उत्तरोत्तर प्रस्फुटित करने का कार्य श्रीगुरुजी ने किया। उन्होंने पू. डाक्टर जी की संकल्पना के अनुरूप कार्य की रचना की। इसके कारण यह कार्य और प्रक्रिया निरंतर चल रही है। 'ॐ राष्ट्राय स्वाहा' जैसे साहित्यिक प्रयास इस प्रक्रिया को निरंतर क्रियमाण रखने में निश्चित रूप से सहायक सिद्ध होंगे। हिंदी के मर्मज्ञ पाठक इस उपन्यास का यथोचित् स्वागत करेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

( ऊँ राष्ट्राय स्वाहा)

बाड़ ( Fencing)

दत्तोपंत ठेंगड़ी

डॉक्टरजी के मन में कई वर्षों से संघ जैसा कोई कार्य प्रारंभ करने का विचार चल रहा था। किंतु 'फलानुमेयाः प्रारंभाः' शैली के कारण वे अपने विचार प्रकट नहीं करते थे। उनका चिंतन मूलगामी तथा दूरगामी था। कार्य के प्रारंभ से लेकर ध्येयसिद्धि तक मार्गक्रमण करते समय मार्ग में कैसी-कैसी बाधाएँ निर्माण होंगी और उनका निवारण करने के उपाय क्या-क्या हो सकते हैं, इसका संपूर्ण साधक-बाधक विचार उन्होंने पहले ही किया था। वे जानते थे कि बीजारोपण करने के पूर्व ही एक सावधानी बरतना आवश्यक होता है। किसी भी नए पौधे को यह भय रहता है कि इधर-उधर के पशु आकर उसको खा न डालें या उखाड़ न दें। यह पशुओं का ही नहीं, नर पशुओं का भी स्वभाव होता है कि इस दृष्टि से बीजारोपण के पूर्व से ही नए पौधे के बाड़ (Fencing) की मजबूत व्यवस्था करना दूरदर्शिता का लक्षण है। प्रत्यक्ष संघ-स्थापना के पूर्व यह बाड़ (Fencing) का काम डॉक्टरजी ने वर्षों तक प्रयत्नपूर्वक किया। संघ संस्थापना के बाद का संघ का इतिहास सबके सामने है। किंतु इसकी पूर्व भूमिका बनाने में डॉक्टरजी को लगातार कितने अधिक परिश्रम करने पड़े होंगे और इसके हेतु योजनापूर्वक अपने व्यक्तिगत संपर्क का क्षेत्र कितना विस्तृत करना पड़ा होगा, इसकी कल्पना करना उन लोगों के लिए कठिन है जिन्होंने संघ को प्रस्थापित या वर्धिष्णु स्वरूप में ही देखा है।

बाड़ (Fencing) बनाने का यह कार्य तिलक युग से ही चल रहा था। गांधी-युग के उदय के पश्चात् यह कार्य दुष्कर होगा यह स्पष्ट दिखाई देता था। गांधीजी के व्यक्तित्व के कारण कांग्रेस में मुस्लिम-तोषक नीति का प्रभाव इतना बढ़ गया कि बड़े नेता प्रकट रूप से कहने लगे, आप चाहें तो मुझे गधा कहिए, लेकिन हिंदू मत कहिए।" स्वयं को 'हिंदू' कहने में लोग हीनता का अनुभव करने लगे थे। यह अंदाजा डॉक्टरजी को था कि यदि वही वायुमंडल नागविदर्भ में रहा तो संघ की नींव डालना अति कठिन हो जाएगा। सदैव से पूरे भारत में दो ही प्रांतिक कांग्रेस कमेटियाँ ऐसी थीं जो गांधी जी की मुस्लिम-तोषक नीति से मुक्त थीं- लोकनायक बापूजी अणे के नेतृत्व में विदर्भ प्रांत कांग्रेस कमिटी और डॉ. मुंजे के नेतृत्व में मराठी मध्य प्रांत कांग्रेस कमेटी। बापूजी अणे के हाथ में विदर्भ कांग्रेस बृजलाल वियाणीजी के हाथ में जाने तक विदर्भ में और डॉक्टर मुंजे के हाथ में मराठी मध्यप्रांत कांग्रेस बैरिस्टर मोरूभाऊ अभ्यंकर के हाथ में जाने तक मराठी मध्यप्रांत में यही वातावरण रहा। बाद में वही वायुमंडल आ गया जो पूरे देश में छा रहा था। लेकिन नाग-विदर्भ के मुसलमानों की भी मानसिकता पर इन दिनों वही परिणाम था जो अन्य प्रदेशों में था। मोपला विद्रोह तथा खिलाफत आंदोलन के कारण मुसलमानों में प्रखर सांप्रदायिकता निर्माण हुई, उनका हौसला बढ़ा और स्थान-स्थान पर वे हिंदुओं पर आक्रमण करने लगे। नागविदर्भ प्रदेश भी इसका अपवाद नहीं था।

हिंदुओं की धार्मिक शोभा यात्राएँ वाद्य बजाते-बजाते मस्जिद के सामने से जाना, यह हमेशा की प्रथा तिलक युग में भी थी। अब इस बात पर मुसलमानों ने आपत्ति उठाई। आपकी 'दिंडी' हमारे मस्जिद के सामने आएगी उस समय वाद्य-वादन, गीत, घोषणाएँ आदि कुछ भी नहीं होना चाहिए, ऐसा न किया तो हम आपकी 'दिंडी' को आगे नहीं बढ़ने देंगे, मुसलमानों ने ऐसा रुख अपनाया। मुसलमानों की इस धौंस पट्टी (Bulliying tactics) का परिणाम संपूर्ण हिंदू समाज पर हुआ। जो मूलतः हिंदुत्व निष्ठ नहीं थे उन तटस्थ वृत्ति के हिंदुओं के लिए भी मुसलमानों की यह दादागिरी सहन करना असंभव हो गया। उसी में से 1923 में नागपुर में 'दिंडी सत्याग्रह' की आवश्यकता निर्माण हुई। मुसलमानों की इस धौंस पट्टी (Bulldying tactics) का 'जैसे को तैसे' जवाब देना उस दिंडी सत्याग्रह का उद्देश्य था।

यहाँ इस सत्याग्रह का संपूर्ण इतिहास देने की आवश्यकता नहीं है। ध्यान में रखने लायक बात यही है कि सामान्यतः जो मुस्लिम विरोधी नहीं थे वे भी अब प्रतिक्रिया के रूप में मुस्लिमों में संघर्ष करने के लिए सिद्ध हो गए और इसी निमित्त से भावात्मक हिंदुत्व निष्ठा मन में रखने वाले लोग सत्याग्रह में हिस्सा लेने के लिए आगे आए। सभी के मन में यह भावना थी; किंतु इस प्रकार के सब लोगों से संपर्क स्थापित करके उन्हें कार्य-प्रवृत्त करने का कार्य डॉ. हेडगेवार तथा डॉ. ल. वा. परांजपे ने स्वयं को पीछे रखकर अन्य लोगों को नेतृत्व सौंपते हुए सफलतापूर्वक किया। इस सत्याग्रह में कौन-कौन शामिल थे यह देखना आज उद्बोधक होगा।

दांडी सत्याग्रह लक्ष्मीपूजन के दिन बृहस्पतिवार दिनांक 1 नवंबर 1923 से प्रारंभ हुआ। दिनांक 17 नवंबर को सरकार की मध्यस्थता से कुछ समझौता हुआ। किंतु तुरंत सोमवार दिनांक 19 नवंबर को कार्तिकी एकादशी के दिन झगड़ा फिर से आरंभ हुआ।

इस सिलसिले में कुछ घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। दांडी की शोभायात्रा निकली तो यह संभावना थी कि डॉ. ल. वा. परांजपे के निवास स्थान के सामने उस पर हमला होगा। उस समय स्वयं राजे बहादुर रघुजी राव भोंसले परांजपे के घर के पास दांडी आने के समय से दांडी पूरी तरह आगे निकल जाने तक खड़े रहे। दांडी का नेतृत्व करने वाले लोगों में राजे लक्ष्मणराव भोंसले और उनके ही बाड़े में रहने वाले सर्वश्री मोहिते, महाडिक, शिरके, पालकर, भोंसले आदि लोग शामिल थे। उनके कंधे से कंधे लगाकर सर गंगाधर राव चिटणवीस, कृष्णशास्त्री धुले, नारायण राव बढे. विश्वनाथ वयंकोबा हरदास, जयकृष्ण उपाध्ये, दादाशास्त्री कायरकर, तिजारे, उदाराम पहलवान, धोडबा साब, डॉ. चोलकर, डॉ, परांजपे, बेलेकर, नारायण पेंटर, गोपालराव ओगले तथा चांदेकर चल रहे थे।

"महाराष्ट्र" पत्र ने हर दिन गिरफ्तार हुए लोगों के नाम प्रकाशित किए थे। वह सब पढ़ने से पता चलता है कि दांडी सत्याग्रह में नागपुर के हिंदू समाज के सभी वर्गों और स्तरों के लोग शामिल हुए थे। केवल नमूने के लिए एक दिन की सूची देखिए-

दिनांक 6 दिसंबर, मंगलवार, व्यंकटराव निंबालकर, उमराव बालकृष्ण, किसन नारायण क्षेत्रपाल, तुलसीदास, लक्ष्मणदास, देवराज विठ्ठलराव, लक्ष्मणराव, गणपतराव, बाबूराव गणपतराव, सर्जेराव श्रीपतराव, नारायणराव महितराव, बजरंग लहानगा, दौलतराव मारुतराव, रामचंद्र गोविंद, प्रयागदत्त शुक्ल, शिवगोविंद, छगनलाल, चुन्नीलाल रघुनाथराव निंबालकर, गणपति बिठोबा, वासुदेव बाजीराव, मारोतराव बापूजी, जगोबा नारायण और नारायण मनाजी।

यह एक दिन की सूची केवल उदाहरण के नाते प्रस्तुत की है। विदर्भ के बाहर के लोगों के लिए इसमें एक कठिनाई है। विदर्भ के लोग नाम देखते ही उसकी जाति पहचान सकेंगे। लेकिन बाहर के लोगों के लिए यह संभव नहीं है तो भी ध्यान में रखने की बात इतनी ही है कि दांडी सत्याग्रह में समाज के सभी वर्गों तथा स्तरों के लोगों ने हिस्सा लिया था। इस अर्थ में वह एक अखिल हिंदू आंदोलन हो गया था। इस हिंदू समाज के सभी लोग प्रतिकार के लिए एकत्रित आएँगे। ऐसा विरोधियों ने सोचा भी नहीं था किंतु प्रत्यक्ष में यह एकत्रीकरण देखकर उन्होंने अपना रुख बदल दिया और दिनांक 17.11.1923 को वे समझौते के लिए तैयार हो गए।

समझौता होने के बाद मुसलमान यह सोचने लगे कि अब हिंदू समाज सदा के समान असावधान हो जाएगा। इस कारण तुरंत फिर से कुछ खुराफात शुरू की गई। तो हिंदू असावधान स्थिति में पकड़े जाएंगे। इस विचार को उन्होंने तुरंत दो दिन के पश्चात् दिनांक 19 नवंबर सोमवार को कार्तिकी एकादशी के दिन फिर से आक्रमण किया। उस दिन दोपहर में 4.30 बजे गांजाखेत भाग में पहली झटपट हुई। दि. 20 को मुसलमानों के कोष्टीपुरे पर हमला किया। किंतु उदाराम पहलवान आदि लोगों ने मोमीनों को हंसापुरी शनिवारी की ओर खदेड़ा और इस समय पहले से भी जबरदस्त मार मारा। इसी समय हिंदुओं ने घोषित किया कि शुकवार दि. 23 नवंबर को कार्तिकी पूर्णिमा के दिन गणेश पेठ के गणेश विसर्जन की शोभायात्रा दांडी के साथ निकलेगी और नागपुर के सभी मोहल्लों में वाद्य बजाते हुए शुक्रवार तालाब पर गणेश विसर्जन का कार्यक्रम होगा।

दि. 19 और 20 के अनुभव के बाद यह घोषणा सुनकर दंगाखोर लोगों के मन में दहशत निर्माण हुई। उन्होंने तुरंत शौकतअली से संपर्क किया। शौकतअली उस समय मुंबई में बीमार पड़े थे। दि. 21 नवंबर को मुंबई से शौकतअली ने डॉ. मुंजे के नाम निम्नलिखित टेलीग्राम भेजा- हिंदू-मुस्लिम भाइयों को बंधु-प्रेम का पुराना नाता कायम रखना चाहिए, ऐसी मेरी प्रार्थना है। प्रेम से एकत्रित रहने में ही दोनों का लाभ है। अल्लाह की मेहरबानी से इस बीमारी से दुरुस्त होने के बाद तुरंत ही मैं नागपुर आऊँगा।"

यह टेलीग्राम कितनी समझदारी का है। किंतु ध्यान में रखने लायक बात यह है कि यह समझदारी जागृत होने के लिए दि. 1-11 से 21-11 तक की अवधि बिताना पड़ा और दि. 20 की जबरदस्त मार के पश्चात् ही यह समझदारी निर्माण हुई।

गांधीजी की मुस्लिम नीति गलत है, यह बात कालांतर से पं. जवाहरलाल नेहरू के भी ध्यान में आई कि यह नीति बदलनी चाहिए। स्वयंघोषित मुस्लिम नेताओं को मुसलमानों का प्रतिनिधि मानकर उनके साथ वार्ता करना गलत है, इससे उनकी सौदेबाजी की वृत्ति बढ़ती ही जाती है, इसके बजाय कांग्रेसियों को सीधे सर्वसाधारण मुसलमानों के पास पहुँचना चाहिए और उनको कांग्रेस की भारतीय राष्ट्रीयता की बात समझानी चाहिए, ऐसा पं. जवाहर लाल नेहरू ने दिनांक 19 मार्च, 1937 को प्रकट वक्तव्य दिया और यह घोषणा की कि मैं आज कांग्रेस के मुस्लिम जनसंपर्क अभियान (Muslim Mass Contact) का सूत्रपात कर रहा हूँ।" किंतु यह अभियान आगे चला नहीं। जहाँ सूत्रपात हुआ था वहीं उस अभियान का अंत भी हुआ और कांग्रेस पूर्ववत् गांधीजी की मुस्लिम नीति पर ही चलती रही।

कांग्रेस में पहले से ही काम करने वाले राष्ट्रवादी मुसलमान नेताओं को घर की मुर्गी दाल बराबर समझकर उनकी उपेक्षा करने और हमेशा गालियाँ-धमकियाँ देने वाले स्वयंघोषित मुस्लिम नेताओं को ही मुस्लिमों का सच्चा प्रतिनिधि मानने की नीति गलत और दुष्परिणामकारक है, ऐसा केवल हिंदुत्ववादी ही सोचते हैं, ऐसा नहीं था। कई जागरूक मुसलमान भी जानते हैं कि स्वयंघोषित नेता वास्तव में सभी मुसलमानों के प्रतिनिधि नहीं हैं। कांग्रेस के नेता उनको मुसलमानों का प्रतिनिधि मानते हैं, इस कारण सामान्य मुसलमान भी सोचता है कि शायद वे ही हमारे प्रतिनिधि होंगे। वे जानते थे कि कांग्रेस के साथ होने वाली सौदेबाजी में वे नेता स्वयं अपने ही व्यक्तिगत लाभ का विचार करते हैं, संपूर्ण मुसलमान समूह के हित का विचार उनके मन में नहीं रहता। अकबर-ए-इलाहाबादी ने कहा-

आओ तुम्हें दिखाएँ-इस्लाम की रौनक का हाल।

कौन्सिल में बहोत सैय्यद्-मस्जिद में फकत जुम्मन।।

(सैय्यद् यानी उच्च-जुम्मन यानी निम्नस्तरीय मुसलमान)

प्रत्यक्ष संघकार्य का प्रारंभ संपर्कित हिंदुत्वनिष्ठ प्रौढ़ और प्रमुख रूप से बाल-किशोर तरुणों से करना था, तो भी संपूर्ण देश और इस कारण नागविदर्भ में भी समाज का मानसिक वायुमंडल एकदम प्रतिकूल, विरोधी रहा तो नव आरोपित पौधे के लिए मजबूत बाड़ (Fencing) की आवश्यकता रहेगी, यह अनुमान डॉक्टरजी ने पहले से ही कर लिया था।

बाड़ (Fencing) की संकल्पना आते हैं सक्रिय सहानुभति रखने वाले, निष्क्रिय सहानुभूति रखने वाले और उपकारक तटस्थता (Benevolent Neutrality) रखने वाले कौन-कौन हैं।

नागपुर के बाहर मराठी मध्यप्रांत में और एक स्थान-आर्वी में- 1925 में दंगा हुआ। उस निमित्त 14 हिंदू नेताओं को गिरफ्तार किया गया। उनमें डॉक्टरजी के परमस्नेही डॉ. स. नी. मोहरील तथा आर्वी के जुझारू मालगुजार ठाकुर उमरावसिंह बाबासाहब प्रमुख थे। ये सब जेल में थे। तब तक उनके स्वास्थ्य के विषय में उनके परिवार के जीविकोपार्जन के विषय में डॉक्टरजी चिंता करते रहते थे। कारागृह से उनकी मुक्ति के लिए श्री दादासाहेब करंदीकर, बैरिस्टर जोसेफ बॅप्टिस्टा तथा इलाहाबाद के आल्स्ट्सर आदि अधिवक्ताओं को प्रवृत्त करने का काम भी डॉक्टरजी ने किया। आगे भी इन सबके साथ डॉक्टरजी का संबंध कायम रहा। इसके निमित्त डॉक्टरजी का निवास वर्धा में श्री वि. वि. देशपांडे के यहाँ रहता था।

अन्यत्र भी जहाँ कहीं कुछ भी गड़बड़ होती थी, (उदाहरणार्थ वाशीम), डॉक्टरजी वहाँ पहुँच जाते थे। मराठी मध्यप्रांत के पीड़ित लोगों को स्वाभाविक रूप से सर्वप्रथम स्मरण डॉक्टरजी का होता था। पारिवारिक उलझनों को सुलझाने के लिए, पार्टीशन के मामले निपटाने के लिए, वर संशोधन के लिए, विषम विवाह- जैसे-जरठ-बालिका विवाह पैसे की लालच में तय किया गया तो वह विवाह तोडने के लिए और उस बालिका का विवाह उचित व्यक्ति से कराने के लिए, अच्छे व्यक्ति का हीनता का भाव दूर करने के लिए, गुडांगर्दी को रोकने के लिए, कितने ही छोटे-बड़े कामों के लिए संबंधित पीड़ित लोग डॉक्टरजी की सहायता आत्मीयता के अधिकार से लेते थे।

यह सर्वसाधारण संपर्क के क्षेत्र की बात है। किंतु इतना ही काम बाड़ (Fencing) बनाने के लिए पर्याप्त नहीं था। बाड (Fencing) के नाते विशेष रूप से विविध संस्थाओं तथा व्यक्तियों से संबंध बढ़ाना आवश्यक था। इस दृष्टि से डॉक्टरजी के कार्य की छलाँग तथा उसका विस्तार मन को आश्चर्यचकित करने वाला था।

उन दिनों देश-कार्य के एक अंग के रूप में लोग व्यायामशालाओं और अखाड़ों की ओर देखते थे। नागपुर व्यायामशाला के श्री अण्णा खोत और आगे चलकर महाराष्ट्र व्यायामशाला के श्री दत्तोपंत मारूलकर की व्यायामशालाओं से डॉक्टरजी के घनिष्ठ संबंध थे ही, किंतु उनके अलावा नागपुर के सभी अखाड़ों, व्यायामशालाओं तथा पहलवानों से अधिकाधिक संबंध रखने का उनका प्रयास रहता था। युवकों के आकर्षण का केंद्र संगीत की संस्थाएँ-अभिनव संगीत विद्यालय, भारत गायन समाज तथा चतूर संगीत विद्यालय में भी डॉक्टरजी का आना जाना रहता था। इन संबंधों में से ही माननीय यादवराव जोशी संघ को प्राप्त हुए थे, यह सर्वविदित है।

गोसेवक श्री चौंडे महाराज तथा श्री गोपालराव भिड़े की गोरक्षण संस्था, श्री वाडेगांवकर का अंध-विद्यालय, श्री कृपाशंकर नियोगी का श्रद्धानंद अनाथालय, श्री गोविंद गणेश चोलकर का अनाथ विद्यार्थी गह, श्रीधर नारायण हुद्दार की अभिनव ग्रंथमाला, भोसला वेदशाला, रामकृष्ण मिशन आश्रम, रायफल एसोसिएशन, प्रांतिक क्रीड़ा समिति, गणेशोत्सव के मंडल, युवक मंडलियां, अभ्यास मंडलियां, भजन मंडलियां और भोजन मंडलियां, विधि वाचनालय, तैरना सिखाने के वर्ग- आदि सब उपक्रमों को डॉक्टरजी सक्रिय सहायता देते थे। मानो वे इन सब संस्थाओं के सक्रिय कार्यकर्ता ही थे। इन माध्यमों से डॉक्टरजी के संपर्क में आने वाले युवकों को सहज रूप से त्याग-तपस्या की प्रेरणा मिलती रहती थी। आगे चलकर सन् 1927 के नागपुर के दंगे में शत्रुओं की बंदूक की बुलेट्स सीने पर झेलकर मृत्यु को आलिंगन देने वाला धुंडिराज लेहगाँवकर ऐसे ही युवकों में से एक था। संपर्क बढ़ाने के लिए डॉक्टरजी विवाह, उपनयन, सत्यनारायण व्रत कथा, नामकरण, शवयात्राएँ आदि प्रसंगों का भी उपयोग करते थे।

सन् 1924 के जुलाई 12 व 13 को ईद और आषाढी एकादशी एक ही समय हुई। ऐसे अवसर पर दंगा होना अपरिहार्य था। उस समय हर मुहल्ले में चौकीदारी (गार्डिंग) करने वाले युवकों से डॉक्टरजी बार बार जाकर मिलते थे। शराब की दुकानों पर धरना (पिकेटिंग) देने वाले निर्भय युवकों से भी वे बार बार मिलते थे। डॉ. ना. सु. हर्डीकर द्वारा 1923 से चलाया गया "हिंदुस्तानी सेवादल" के कार्यकर्ता, संत पांचलेगाँवकर महाराज के "मुक्तेश्वर दल" के युवक, अमरावती के डॉ. शिवाजीराव पटवर्धन तथा श्री असनारे द्वारा चलाए गए "हनुमान व्यायाम प्रसारक मंडल" के व्यायामपटु लोगों के मन में डॉक्टरजी के विषय में आत्मीयता का भाव रहता था।

संघ-स्थापना के पूर्व और स्थापना के बाद भी वर्षों तक डॉक्टरजी मराठी मध्यप्रांत के कांग्रेस तथा हिंदू महासभा में विविध पदों पर रहते हुए काम करते थे। इस कारण मध्यप्रांत के इन दोनों दलों के कार्यकर्ताओं से उनके निकट संबंध थे, यह बात सभी जानते हैं; किंतु एक घटना उतनी मात्रा में लोगों के ख्याल में नहीं है। दि. 12 जुलाई 1922 को जेल से मुक्त होकर बाहर आने के बाद डॉक्टरजी का अभिनंदन करने के लिए जो प्रकट सभा हुई उसमें प्रादेशिक कांग्रेसी-हिंदूसभाई नेताओं के अलावा पं. मोतीलाल नेहरू और हकीम अजमलखाँ के भी डॉक्टरजी के लिए अभिनंदन में भाषण हुए। डॉ. ना. भा. खरे सभा के अध्यक्ष थे।

डॉक्टरजी बीच-बीच में महात्माजी के वर्धा आश्रम में जाते थे। वर्धा के "राजस्थान केसरी" साप्ताहिक के संपादक श्री राम गोपालजी विद्यालंकार ही प्रायः डॉक्टरजी का स्वागत करते थे। ऐसे अवसर पर डॉक्टरजी के साथ प्रायः रामभाऊ पिंगले, वामनराव घोरपडे, राजाभाऊ डांगरे आदि मित्र रहते थे। उन दिनों वर्धा आश्रम में जे.सी. कुमारप्पा, नई तालीम" ख्याति के आर्यनायकम् दंपति, श्री कृष्णादासजी जाजू, किशोरीलाल मश्रूबाला, श्रीमन्नारायण, सौभाग्यवती जानकीदेवी बजाज, दादा धर्माधिकारी, आचार्य भणसाली आदि नामवंत लोग रहते थे, उन सबसे मिलकर उनके स्वास्थ्य की पूछताछ करने का काम डॉक्टरजी करते थे।

वर्धा में ही श्री रालंगणकर के आवास में गंगाप्रसादजी के नेतृत्व में पूर्व क्रांतिकारियों के पुनर्वसन के उद्देश्य से डॉक्टरजी द्वारा योजनापूर्वक चलाई गई "राष्ट्रीय मल्ल विद्याशाला" देखने के लिए डॉक्टरजी अकेले ही जाते थे। इस संस्था में पंजाब के 12-13 और उस समय के सेंट्रल प्रोविंसेस के 12/13 युवक आश्रय लिए हुए थे।

डॉक्टरजी "स्वातंत्र्य" दैनिक चलाते थे। उस समय श्री बासुदेवराव फडणवीस, श्री अच्युत बलवंत कोल्हाटकर, डॉ. शं.दा. पेंडसे, के साथ उनकी घनिष्ठता प्रतिस्थापित हुई। यह घनिष्ठता मतभेदों के वाबजूद अंत तक कायम रही।

1920 के पश्चात् कांग्रेस के चुनाव राजनीति में प्रवेश करने के पूर्व मराठी भाषी प्रदेशों में जातियतावादी अवांछनीय तत्वों का चुनावों में विरोध करने का काम "राष्ट्रीय पक्ष" ने किया। उस समय के प्रमुख नेता थे बैरिस्टर रामराव देशमुख, बाबासाहेब खापड़े, वर्धा के मनोहरपंत देशपांडे तथा गोविंदराव चरडे, येलीकेली के डॉ. धोपटे, हिंगणघाट के नागले वकील और चंद्रपुर के बलवंतराव देशमुख इन सब लोगों का उपयोग, इस विपरीत वायुमंडल में, स्वाभाविक रूप से बाड़ (Fencing) के नाते हुआ।

नागपुर के बार असोसिएशन के कई सदस्यों, अधिवक्ताओं ने भी यह भूमिका निभाई। अधिवक्ता बाबाजी पाध्ये, भय्यासाहेब बोबडे, बलवंतराव मंडलेकर तथा गोपालराव देव का ग्रुप इस दृष्टि से प्रसिद्ध था। दादासाहेब शेवडे, दा.तु. मंगलमूर्ति भी इसी श्रेणी में आते थे। दत्तोपंत देशपांडे तथा बाबूराव कान्हे का अलग से उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है।

बाड़ बनाने का यह काम कुछ संत पुरुषों के आशीर्वाद से भी हुआ। "गोमंतक शुद्धि" आंदोलन के प्रर्वतक विनायक महाराज मसूरकर, संत पांचलेगाँवकर, मोझरी के राष्ट्रसंत" तुकडोजी महाराज, स्वामी सत्यदेव, गोभक्त चौंडे महाराज, स्वामी शिवानंद, शंकराचार्य डॉ. कुर्तकोटी और श्रीमंत शाहू छत्रपति द्वारा निर्मित पीठ के क्षात्र जगद्गुरु आदि सभी संत अपने-अपने कार्य से जो वातावरण निर्माण करते थे, उसके कारण भी संघ कार्य के लिए अनुकूल मानसिकता निर्माण होने में सहायता होती थी।

संघ के शारीरिक कार्यक्रमों के प्रर्वतक श्री अण्णा सोहोनी का नाम सबको पता है। किंतु शारीरिक शिक्षा में इनके गुरुदेव श्री दामोदर बलवंत उपाख्य भिड़े भटजी का नाम लोग नहीं जानते। वे श्रेष्ठ क्रांतिकारी थे। उन्होंने ही सेनापति बापट को क्रांति कार्य की दीक्षा दी थी। भिड़े भटजी को संघ की शारीरिक शिक्षा का मूलस्रोत होने की संज्ञा दी जा सकती है।

आज यह सुनकर लोगों को आश्चर्य होगा कि संघ का घोष विभाग निर्माण होने का कुछ श्रेय श्रीमंत दाजीसाहेब बुटी को भी जाता है। किंतु यह योगदान उन्होंने जानबूझकर नहीं किया। उनके द्वारा यह योगदान हो रहा है। इसकी उनको कल्पना भी नहीं थी। चातुर्मास में उनके यहाँ भोजन की पंक्तियाँ होती थीं। भोजन करने वाले हर एक व्यक्ति को दक्षिणा में चार आना धन देने की उनकी प्रथा थी। संघ में प्रथम बिगुल खरीदने का विचार आया। उस समय उसके लिए आवयश्क पैसा संघ के पास नहीं था। घोष के अन्य वाद्य खरीदने के लिए भी पैसे की आवश्यकता थी। उस समय योजना बनी कि अधिक से अधिक स्वयंसेवकों ने बुटी के यहाँ जाना, चार आना दक्षिणा लेना और वह संघ के कोष में घोष के निमित्त जमा करना, इसी तरह निधि संग्रह होकर घोष विभाग का प्रारंभ हुआ।

नियमित संपूर्ण घोष की रचना 1929 में हुई। घोष की शिक्षा देने का काम सैनिकी सेवा से निवृत्त एक ईसाई बादनपटु ने किया। उसका नाम आज उपलब्ध नहीं। उनकी सेवा संघ के लिए उपलब्ध करा देने का काम श्री व्हिव्हियन बोस और बैरिस्टर गोविंदराव देशमुख ने किया था।

ज्ञानकोशकार डॉ. श्रीधर व्यंकटेश केतकर का नाम अधिक प्रसिद्ध नहीं था तभी से डॉक्टरजी की संपर्क सूची में उनका नाम समाविष्ट था। उसका विशेष कारण भी था। पटवर्धन मैदान पर एक सभा में उन्होंने कहा था कि अब देशकार्य करने के लिए गैरिक वस्त्र परिधान धारण न करते हुए सर्वसामान्य लोगों के समान ही रहन-सहन रखकर संन्यासी की वृत्ति से कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है। उनके इस वक्तव्य के विषय में समकालीन विचारवंतो में बहुत समय तक चर्चा चली थी।

बाड़ बनाने का एक हिस्सा इस नाते पश्चिम महाराष्ट्र में जाने के बाद उधर के "लोकशाही स्वराज्य पक्ष" के श्री नरसिंह चिंतामण केलकर, हिंदूसभा के ल.ब. भोपटकर आदि नेता गण के देवदर्शन के लिए जाने का नित्यक्रम डॉक्टरजी ने अंत तक जारी रखा। उन दिनों हिंदुत्व का उद्घोष करना अतीव साहसिक कार्य था। लाला हरदयाल, स्वामी श्रद्धानंद, भाई परमानंद, स्वामी सत्यदेव आदि यह कार्य हिम्मत के साथ कर रहे थे। इस कारण उन सबके विषय में सभी हिंदुत्वनिष्ठ लोगों के मन में कृतज्ञता की भावना रहती थी। उन सबका आशीर्वाद संघ कार्य के लिए प्राप्त हो यह प्रयास डॉक्टरजी हमेशा करते रहते थे। पं. मदनमोहन मालवीय, बाबू पद्मराजजी जैन, सर गोकुलचंद नारंग, सावरकर बंधु, बरदराजलू नायडू का सहकार्य डॉक्टरजी ने संघकार्य के लिए पहले ही प्राप्त कर लिया था। बैरिस्टर जयकर, प्रतापसेठ, डॉ. श्री व्यं. केतका आदि की सक्रिय सहानुभूति भी संघ को प्राप्त थी। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के विषय में अलग से लिखने कहने की आवश्यकता नहीं है।

नागपुर में दांडी सत्याग्रह के कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त परावर्तन पटु जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, बृहत सभा में हिंदुत्व विरोधी वक्ता की धोती छीनकर उसको पूर्ण नग्नावस्था में सभा के बाहर भागने के लिए बाध्य करने वाले बिंदूमाधव पुराणिक, डॉ. मुंजे का गेंडे का बड़ा चित्र बनाकर उसका जुलूस निकालने वाले प्रचंड जुलूस में अचानक हिम्मत के साथ घुसकर वह चित्र फाड़ने वाले उत्साही कार्यकर्ता आदि सभी लोगों के साथ डॉक्टरजी संबंध रखते थे। मालगुजार लोगों के "नरेंद्र मंडल" की चर्चा इसके पूर्व की जा चुकी थी।

प्रत्यक्ष संघ के स्वयंसेवक तथा समर्थकों के वर्तुल के बाहर डॉक्टरजी के किस-किस के साथ कितने गहरे संबंध थे, इसकी जानकारी रख पाना नई पीढ़ी के लोगों के लिए संभव नहीं है। यह सब जानते हैं कि कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष बैरिस्टर मोरूभाऊ अभ्यंकर के मन में डॉक्टरजी के विषय में सम्मान की भावना थी। जनरल मंचरशा आवारी से भी उनका निकट संबंध था। आवारी के शस्त्र सत्याग्रह के समय डॉक्टरजी ने उनको एक मूल्यवान सुझाव दिया था कि सत्याग्रह करने वाले लोगों के हाथों में असली शस्त्र देने से उसके कारण अपने संग्रह के असली शस्त्र अनायास सरकार के हाथ में चले जाते हैं। अत: असली की बजाय नकली तलवारें सत्याग्रहियों के हाथ में देना अच्छा रहेगा। डॉक्टरजी का यह सुझाव आवारीजी ने तुरंत अमल में लाया था। फॉर्वर्ड ब्लॉक के नेता और मजदूर आंदोलन के प्रवर्तक रामभाऊ रुईकर की बाबत सब जानते हैं। किंतु मेरठ षडयंत्र कांड में गिरफ्तार एक कम्युनिस्ट नेता, जिसने 1925 में मुंबई के अधिवेशन में आइटुक (AITUC) पर कब्जा जमाया, उस समय के (AITUC) के सर्वप्रथम कम्युनिस्ट अध्यक्ष के नाते निर्वाचित हुए थे, वे धुंडिराज पंत ठेंगड़ी डॉक्टरजी को छोटा भाई समझकर उनसे प्रेम करते को यह बात उतनी प्रसिद्ध नहीं है। वे डॉक्टरजी को कहते थे, केशव ! तू तेरे संघ के गणवेशधारी दस हजार स्वयंसेवकों का पथ संचालन बंबई में करके दिखा दे, तो मैं तुझे दस लाख रुपया इकट्ठा करके देता हूँ।"

आज की पीढ़ी के लोग श्री वामनराव घोरपड़े के बारे में इतना ही जानते हैं कि वे कांग्रेस में रहते हुए भी ब्राह्मणेतर पक्ष के एक नेता थे। किंतु श्री घोरपड़े से डॉक्टरजी के निकट संबंध थे और डॉक्टरजी के विविध कार्यों में वे सहभागी होते थे। वैसे ही अमरावती के श्री नानासाहेब गवई डॉक्टरजी के संबन्धों के कारण यह भूल जाते थे कि वे तथाकथित अस्पृश्य जाति के थे।

मध्यप्रांत विधान सभा में मार्च 1934 के अधिवेशन में संघ के समर्थन में कई सदस्यों ने भाषण दिए थे। उनके नाम पढ़कर समकालीन भी आश्चर्यचकित हो गए थे। श्री काशीप्रसाद पांडे तथा श्रीबाबासाहेब कोलते के कटौती प्रस्ताव (Cut-motion) पर बोलने वालों में अधिवक्ता तु.ज. केदार, सौभाग्यवती रमाबाई तांबे, बाबासाहेब खापड़ें, उमेदसिंह ठाकुर, मंगलमूर्ति, सी.बी.पारख, श्री रहमान और श्री फुले शामिल थे।

इस आलेख में विजयादशमी 1925 के पूर्व बाड़ बनाने की दृष्टि से डॉक्टरजी ने दूर्दर्शितापूर्वक जो संपर्क बढ़ाए और परिश्रम किए उनका ही वर्णन अभिप्रेत है। संघ स्थापना के पश्चात् संघ का इतिहास सब जानते हैं। उसका वर्णन यहाँ अभिप्रेत नहीं है तो भी कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करने के लिए यहाँ एक अपवाद करना अप्रासंगिक नहीं होगा। बिल्कुल प्रारंभिक काल में जब संघ की नींव डाली जा रही थी। उस अवधि में नींव के पत्थर के नाते जिन्होंने स्वयं को इस काम में झोंक दिया ऐसे लोगों का स्मरण करना आवश्यक है। यह स्वाभाविक है कि वे सब प्रारंभिक लोग नाग-विदर्भ के ही होंगे। सदैव से पूज्य अप्पाजी जोशी ने उन सबके नामों का संकलन उपलब्ध करा दिया है। केवल कृतज्ञ स्मरण के नाते उन सबके नाम दृष्टिगत करने से भी ऋषिऋण की आंशिक पूर्ति हो सकती है।

श्री बलवंतराव दाणी, अड़ेगाव के श्री शंकरराव भगत, भंडारा के डॉ. व्यवहारे, श्री गणपतराव देव, चंद्रपुरके नानासाहेब भागवत, डॉ. तेलंग. श्री बाबा जी बेखडे, बरोड़ा के श्री देवराव पाटिल, वणी के श्री लाटूजी पाटिल, श्री अण्णाजी देशमुख, श्री आबाजी भेदी, डॉ. यादवराव अणे, यवतमाल के वामनराव धर्माधिकारी, अमृतराव साकले, अमरावती के डॉ. सोमण, श्री बामणगांवकर, अकोला के श्री गोपालराव चित्तले, श्री मामा जोकलेकर तथा श्री रामधन।

नागपुर के अप्पाजी गांधी, रामभाऊ गोखले, बढे, बुवा उपाध्ये, बाबूराव उलाभाजे, राजाभाऊ डांगरे, अप्पा जी तिजारे, बामनराव घोरापड़े, रामभाऊ पिंगले, दत्तोपंत परांजपे, मोहोपा के अप्पासाहेब हलदे, खापा के श्री आनंदाव घाडगे, सावनेर के श्री प्रभाकरपंत हरकरे, काटोल के डॉ. पाचखेड़े, श्री बलवंतराव पाचखेड़े, भाऊ साहेब घाटे, मुलमुले, रामटेक के श्री अण्णाजी जोशी, उमरखेड के तात्याजी वान्नेरे, वर्धा के मनोहरपंत देशपांडे, गोविंद राव पांडे, गोविंद राव चरडे, त्रिंबकराव (टी.पी.) देशपांडे, व्यंकटेश (वी.वी.) देशपांडे, येलीकेली के डॉ. धोपटे, पवनार के नानाजी देशमुख, गणपतराव जोशी, तात्याजी उपदेव (सेलू) दादासाहेब सूबेदार मुरलीधर लाला कक्कड़ (हिंगणी) थाजीराव अमृतराव कोटंबकर (कोटबा), लक्ष्मण राव तथा भगवान राव गोल्हर (देवली) त्र्यंबकराव देशपांडे (सालोडफ्कीर), भालेराव देशमुख (तलेगांव), अंबादासपंत काले तथा भाऊजी पुराणिक (नाचणगाव), बाबासाहेब देशपांडे, नानासाहेब टालाटुले (सिंदी), विश्वासराव उंबरकर (उत्तमपुर), बापूजी अगस्ति, नारायण गोपाल देशपांडे, डॉ. मोहरील, डॉ. दे.र. (अण्णा) देशपांडे, आनंदराव अंबाई (आर्वी), श्यामराव देशपांडे (आष्टी) गोविंदराव देशमुख (कारंजा) बाबाजी उन्दरे (तिरोड़ा), महादेवराव आण्याजी देशमुख, (वाढोणा) आदि का नाम उल्लेखनीय है। (तरुण भारत, पुणे रजत जयंती विशेषांक)

एक संस्कृत साहित्यिक ने मालाकार (माली) को कहा है कि वर्षाऋतु प्रारंभ होने के पश्चात् प्रचंड वृष्टि चल रही हो। ऐसे समय तू वृक्ष को जो एक सौ घड़े पानी हर दिन दे रहा है उसका महत्व उस वृक्ष की दृष्टि से उतना नहीं है, जितना ग्रीष्म ऋतु में सभी वृक्ष जब जड़मूल से सूख रहे थे उस समय किसी ने उस वृक्ष को जो एक-एक घड़ा पानी डाला था, उसका है। इसी दृष्टि से इन सब नींव के पत्थरों को कृतज्ञतापूर्वक शत शत प्रणाम।

( पूर्वसूत्र)

'The further backward you can back, the further forward you likely to see'

-Winston Churchill

समग्र विचार का अभाव

दत्तोपंत ठेंगड़ी

दूसरे महायुद्ध में जर्मनी तथा जापान बुरी तरह उद्ध्वस्त हो गए थे। परंतु ये दोनों राष्ट्र आज आर्थिक दृष्टि से बहुत संपन्न हो गए हैं। जर्मनी की मुद्रा मार्क से सारा यूरोप भयभीत है और जापानी मुद्रा 'येन' अमरीकी डालर से टक्कर ले रही है। अमरीकी बाजारों में जापान-निर्मित वस्तुओं का बोलबाला है।

जहाँ तक भारत का प्रश्न है, यहाँ युद्ध में जापान या जर्मनी जैसी कोई बरबादी नहीं हुई है। न ही इस भूमि पर कोई महायुद्ध हुआ है। भारत के लोगों ने स्वाधीनता के लिए जो आंदोलन किया, यहाँ जो स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया, उससे भी देश उद्ध्वस्त नहीं हुआ। अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियाँ कुछ ऐसी पैदा हुईं थी कि ब्रिटिश शासकों के लिए उपनिवेशों को कायम रखना संभव नहीं रह गया था। देश को आजादी मिलने के बाद भी भारत के गवर्नर जनरल और कमांडर-इन-चीफ दो-ढाई साल तक अंग्रेज ही रहे।

जर्मनी-जापान की तुलना में भारत के पास अधिक साधन श्रोत हैं। भारत अति विशाल, लंबा-चौड़ा देश है। उच्च कोटि के विद्वान यहाँ हैं। वैज्ञानिक और तकनीकीविद् हैं। विश्व में प्रथम आने वाले लोग भी हैं। अभी हाल में विज्ञान का नोबेल पुरस्कार श्री चंद्रशेखर को मिला हैं। इनके चाचा श्री सी.वी. रमण को भी पुरस्कार मिल चुका है। हरगोविंद खुराना भी भारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता हैं। अमेरिका को अंतरिक्ष विज्ञान संस्था 'नासा' में भी भारत के कई वैज्ञानिक अमेरिकी व जर्मन वैज्ञानिकों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर काम कर रहे हैं। भारत को विज्ञान के क्षेत्र में विश्व का तीसरा देश (Third Scientific Country of the World) कहा जाता है।

किंतु अब हमारे चिंतन में परिवर्तन आ गया लगता है। 1947 के पहले स्वतंत्रता के लिए त्याग करना हमारा जीवन-मूल्य था, लेकिन अब निजी स्वार्थ-साधन करना ही यहाँ जीवन मूल्य बन गया है। इसके कारण भारत पिछड़ने लग गया है। स्वतंत्रता मिलने के इतने वर्षों बाद भी देश के पौने दो लाख गाँवों में पेय जल नहीं है। हर गाँव में पानी पहुँचाने की योजना तो नहीं बनी। पर पाँच सालों में हर गाँव में रंगीन टेलीविजन पहुँचाने की योजना अवश्य बनायी गई है।

देश में अब छठी पंचवर्षीय योजना समाप्त होने वाली है और सातवीं योजना प्रारंभ होने को है। किसी भी योजना के लिए आँकड़े (Statistics) आवश्यक हैं। अपने देश में बेरोजगारी की गम्भीर समस्या है। सरकार के पास बेरोजगारी की जो संख्या है वह सही नहीं है। सरकार भी इस तथ्य को स्वीकार करती है। मनुष्य के वर्ग के आकड़ों के अलावा दूसरी मुख्य बात साधनों की है। आश्चर्य की बात है कि आज सरकार के पास साधन-स्रोतों, छोटे-बड़े उद्योगों, मझोले उद्योगों, ग्रामोद्योगों या कुटीर उद्योगों, स्व-रोजगार उद्योग (बढ़ई, कुम्हार, लोहार) आदि का काम करने वालों के भी सही आँकड़े नहीं हैं। इसी प्रकार देश से गरीबी हटाने का नारा दिया गया, परंतु आज तक यह निर्णय नहीं हो सका कि गरीब कौन है? वर्तमान सरकार योजना के क्षेत्र में रूस का अनुकरण कर रही है। रूस ने तो आँकड़ों के आधार पर परियोजनाएँ बनायीं, परंतु भारत-सरकार ने आँकड़ों के अभाव में भी धड़ाधड़ योजनाएँ कर डालीं। देश के नेता इन सब बातों के परिणाम के विषय में नहीं सोंचते। उन्हें शायद केवल अगले चुनाव की ही बात सूझती है। चुनाव के कारण ही शायद एक के बाद एक आकर्षक नारे दिए जाते हैं। सस्ती लोकप्रियता के लिए हवा में बातें की जाती हैं। परंतु 'समग्र विचार' नहीं किया जाता। केरल में जब कम्युनिस्ट सरकार बनी तो उसने समग्र विचार किए बिना ही बीड़ी और काजू के मजदूरों की मजदूरी बढ़ायी। परिणाम यह हुआ कि जो कारखाने केरल में थे। मजदूरी ज्यादा होने के कारण जल्दी ही तमिलनाडु और कर्णाटक प्रांतों में चले गए। इस प्रकार केरल के मजदूरों को बढ़ी हुई मजदूरी का पाँच या छः महीने भी लाभ नहीं मिल सका। वे बेरोजगारी के शिकार हो गए। इसी प्रकार जब केरल के मुख्यमंत्री ने खेतिहर मजदूरों की मजदूरी बढ़ायी तब छोटे और सीमांत-किसानों ने, जो बढ़ी हुई मजदूरी नहीं दे सकते थे, या तो अपनी जमीन खाली छोड़ दी या उस पर नकदी फसल के लिए रबर लगा दी। इस प्रकार राज्य में खेती का ढाँचा ही बदल गया।

भूमि हदबंदी से प्राप्त अतिरिक्त भूमि भूमिहीनों में बाँटी गयी, यह बहुत अच्छी बात हुई। परंतु इसके बारे में भी 'समग्र विचार' की आवयश्यकता है। यह सोचना आवश्यक है कि जो जमीन दी जा रही है या दी गई है, उसका क्या होगा? भूमि पाने वाले के पास साधन और श्रम कहाँ से आएंगे? यदि उसे ऋण दिया गया तो इसकी अदायगी कैसे होगी? इन सब बातों का विचार न होने से परिणाम यह हुआ कि जमीन पाने वाले बहुत से लोगों ने या तो जमीन खाली छोड़ दी या इन्हीं लोगों के हाथ बेच दी, जिनसे उन्हें मिली थी।

कृषि क्षेत्र के बारे में भी समग्र विचार गम्भीरता से करना आवश्यक है। एक शास्त्रज्ञ ने दो चक्र बताए हैं-अच्छा चक्र और दुष्ट चक्र का। अनुकूल चक्र और प्रतिकूल चक्र। अच्छे चक्र का अर्थ है उत्पादन बढ़ाना, उत्पादन से बचत बढ़ाना, बचन से निवेश बढ़ाना, फिर उत्पादन बढाना और फिर पूँजी निवेश-बढ़ाना। दृष्ट चक्र से अर्थ है उत्पादन कम हुआ, बचत नहीं हुई तो आगे के लिए लागत नहीं और फिर उत्पादन नहीं होगा। शास्त्रज्ञों का कहना है कि सरकार को पैसा खर्च करके दुष्ट चक्र को रोकना चाहिए। इसके लिए सरकार खेती पर ज्यादा से ज्यादा पैसा खर्च करे। इससे किसान की क्रय-शक्ति बढ़ेगी और जीवन यापक वस्तओं की खरीददारी बढ़ेगी। इसीलिए कीन्स नामक अर्थशास्त्री ने यहाँ तक कहा है कि सरकार को सभी लोगों को काम देना चाहिए। भले ही किसी को एक अनुपयोगी गड्ढा खोदने का ही काम दिया जाए और दूसरे दिन उसी गड्ढे को पाटने का काम दिया जाए। फिर इस काम से उसे जो मजदूरी मिलेगी उससे वह अपनी जीवनोपयोगी वस्तुओं को ही तो खरीदेगा।

आज शहरों और गाँवों की अलग-अलग माँग और आवश्यकता है। माँग का अर्थ है प्रभावकारी आवश्यकता और उसके लिए धन खर्च करने की क्षमता। छोटे-छोटे आदमी में पहले क्रय शक्ति हो। वह उपयोग की वस्तु खरीदेगा। जिससे माँग उत्पन्न होगी, उत्पादन बढ़ेगा, रोजगार पनपेगा और पुनः खरीदने की ताकत बढ़ जाएगी। इस तरह एक नए चक्र का श्रीगणेश होगा। सरकार इन सब बातों को जानती है लेकिन इस दिशा में समग्र विचार नहीं करती जिसके कारण समस्याएँ बनी हुई हैं।

आजादी मिलने के बाद 1947 में ग्रामीण विकास तथा आवश्यकता की वस्तुएँ गाँवों में ही तैयार करने की बात कही गई थी। अस्पताल, विद्यालय, संपर्क मार्ग आदि गाँवों की आवश्यकताएँ हैं परंतु आज तक ग्राम-विकास के ये कार्य सुचारू रूप से नहीं हुए। सरकारी तंत्र भी ठीक ढंग से काम नहीं करता। अफसरशाही केवल अपने हितों की चिंता करती है। पंडित नेहरू ने खंड-विकास, पंचायती राज तथा सहकारी आंदोलन को ग्राम विकास का माध्यम बताया था, परंतु ये सभी कार्यक्रम अफसरशाही के शिकार बने हुए हैं।

कृषि को तो प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली। कृषि के लिए जितने धन की आवश्यकता थी वह भी आवंटित नहीं हुआ। जितनी धनराशि रखी भी गई वह बड़े लोगों तथा अफसरों की साँठ-गाँठ के कारण गरीब गाँव वालों तक नहीं पहुँच सकी। साधन-संपन्न बड़े किसानों के द्वारा 'हरित क्रांति' सफल दिखायी गई। खंड-विकास, पंचायती राज, सहकारी आंदोलन से भी बड़े बड़े लोगों को ही लाभ मिला, जिससे धनी तो और धनी बने पर गरीबों को गरीबी दूर नहीं हो सकी।

हमारे देश में रूस की तरह योजना बनायी गई। रूस में बड़े-बड़े उद्योगों पर बल दिया गया क्योंकि वे किसानों को खत्म करना चाहते थे। वे उनको सरकारी मजदूर मात्र बनाना चाहते थे पर भारत में किसानों का भूमि पर से स्वामित्व खत्म करने का कोई विचार नहीं है। अतः गाँव की योजना भारत के अनुकूल ही बनानी चाहिए। पर यहाँ भी भारी उद्योगों को प्राथमिकता दी गई जिनके परिणाम निकलने में दस-पंद्रह साल लग गए। भाखड़ा नांगल बाँध, राँची हैवी इंजीनियरिंग सरीखे बड़े-बड़े उपक्रम (अंडरटेकिंग) बनाने के लिए न केवल विदेशों से मशीनें व तकनीकीविद् लाए गए वरन् इतना धन लगाया गया जो देश के सामर्थ्य से परे था। इसके लिए विदेशी कर्जा लिया गया। इसके स्थान पर यदि देश की कृषि को प्राथमिकता दी गई होती तो ग्रामीण संरचना विकसित हुई होती।

कृषि-कार्य में काम आने वाली चीजों, जैसे- खाद, बीज, पानी, बिजली, डीजल, ट्रैक्टर, हल, बैल आदि पर भारी मात्रा में छूट दी जानी चाहिए तथा छोटे लोगों के लिए ब्याज मुक्त ऋण की व्यवस्था होनी चाहिए थी। भारी उद्योगों की तुलना में यदि कृषि पर आधा धन भी लगाया जाता तो लागत कम हो जाती। यदि सरकार पाँच-छ: साल तक गाँवों में भारी छूट देती तो देश का चित्र बदल जाता। दुष्ट चक्र का परिवर्तन अच्छे चक्र में हो जाता। किसानों को उचित मूल्य प्राप्त होता। उपभोक्ता पर भी उचित बोझ न बढ़ता। ग्रामीण पैसों से ग्रामीण औद्योगिकीकरण होता तो गाँव की पूँजी से गाँव के मजदूरों को काम मिलता। खेती पर भार घटता। गाँव में उद्योग बढ़ते। इससे उत्पादन बढ़ता और आय में वृद्धि होती। इस प्रकार आय वृद्धि का एक नया चक्र प्रारंभ होता।

आजकल देश में राष्ट्रीय रोजगार की निश्चितता की योजना (National Employment Guarantee Scheme) चलायी जा रही है। छठी योजना में इसके लिए जो राशि आवंटित की गई थी। उसमें से भी लगभग 265 करोड़ रुपया खर्च होना बाकी है। इसी बीच 15 जास्त को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने योजना आयोग से पूछे बिना ही 150 करोड़ रुपए खेतिहर मजदूरों पर शीघ्रातिशीघ्र खर्च करने की घोषणा कर दी। 150 करोड़ रुपए का यह खर्च योजना के बाहर की बात है। इससे यह स्पष्ट है कि आगामी चुनाव को ध्यान में रखकर यह कार्य किया गया है। देश का समग्र विकास, उनके ध्यान में नहीं आता। आज आवश्यकता है देश के सामर्थ्य, गुणवत्ता, साधन श्रोतों का देश के हित में पूरा-पूरा उपयोग हो। लेकिन राजनीति हावी होने के कारण उन सबका उपयोग ही नहीं हो पाता। आज डॉ. हरगोबिंद खुराना जैसे वैज्ञानिक अमेरिका में हैं। अगर देश में उनके गुणों की कद्र होती तो देश का कल्याण होता। देश में सुविधाएँ न मिलने के कारण हमारी ये प्रतिभाएँ विदेशों में चली जाती हैं।

किसान संघ ने इन सभी बातों का समग्र चिंतन किया है, हम सोच सकते हैं, पर सरकार नहीं सोचती। वह हर बात चुनावों को ध्यान में रखकर सोचती है। भारत सरकार पर विदेशी प्रभाव की भी काफी छाया है। इन्हीं कारणों से हमारा देश साधन-संपन्न होते हुए भी पीड़ित तथा पिछड़ा हुआ है।

स्वार्थी वृत्ति का परिणाम

तात्कालिक स्वार्थ से मनुष्य अंधा हो जाता है। किसान और किसान संघ के संबंध शेर और जंगल के संबंध के समान है। शेर के कारण जंगल की सुरक्षा है। शेर नहीं रहे तो कोई भी आकर जंगल-काट देगा। वैसे ही शेर की सुरक्षा जंगल के कारण है। जंगल ही न रहा तो शेर के छिपने का स्थान नहीं रहेगा। वह खुले मैदान में आ जाएगा और कोई भी शिकारी उसका शिकार आसानी से कर सकेगा। यही बात एक किसान और पूरे गाँव की भी है।

बहुत बार अति स्वार्थी लोग यह सोचते हैं कि गाँव के गरीब लोगों का शोषण करते हुए वे अपना महत्व खड़ा करेंगे, किंतु यह अंधदृष्टि की बात है। इस नीति के कारण तत्कालीन लाभ अवश्य होता है। तो आगे चलकर दुधारी तलवार के समान इसके दुष्परिणाम भी भुगतने होते हैं। परिवार के कर्ता-धर्ता लोगों की अति स्वार्थ वृत्ति के संपर्क में आने के कारण परिवार के अन्य लोगों तथा नई पीढ़ी की भी अति स्वार्थ वृत्ति का ही आदर्श देखने को मिला है। इसके कारण वे स्वयं इतने स्वार्थी बन जाते हैं कि अपने तथा अपने बीबी-बच्चों के लाभ के लिए संयुक्त परिवार के शेष सभी घटकों को वे पराया समझने लगते हैं। पैतृक संपत्ति के विभाजन की माँग करते हैं, संयुक्त परिवार में एक-एक करके अलग हो जाते हैं, क्योंकि हरेक को अति स्वार्थ का ही संस्कार मिला हआ रहता है। ये सारी बातें अवश्य होती ही हैं यद्यपि यह प्रक्रिया पूरी होने में समय लगता है किंतु इससे भी अधिक महत्त्व की एक और बात है। कुछ मुट्ठी भर लोग बहुजनों का शोषण कर सकते हैं इसलिए कि बहुजन अशिक्षित, निरक्षर और भोले हैं और दूसरी बात यह है कि वे आर्थिक दृष्टि से असमर्थ-असहाय हैं। किंतु जैसे-जैसे शोषण बढ़ता है शोषितों की दुर्दशा बढ़ते-बढ़ते असह्य हो जाती है तो उनके अंदर बेचैनी, असंतोष, रोष, बदले की भावना बढ़ने लगती है और इस शोषण तथा अन्याय के विरुद्ध कुछ न कुछ करने की तीव्र इच्छा उनके मन में जगने लगती है। आर्थिक दृष्टि से वे असहाय रहते हैं। इस कारण आर्थिक या कानूनी स्तर पर लड़ नहीं सकते। कानूनी स्तर पर लड़ने के लिए भी पैसे की आवश्यकता है। इतना पैसा उनके नाम नहीं रहता। फिर कानूनी लड़ाई में लंबी देर तक राह भी देखनी पड़ेगी। गरीबी तथा रोष के फलस्वरूप उतावली के कारण इतनी लंबी देर तक प्रतीक्षा करना उनके लिए असंभव हो जाता है। इसलिए, स्वाभाविक रूप से वे आंदोलन का रास्ता अपनाते हैं। शांतिपूर्ण संवैधानिक आंदोलन से यश प्राप्त करने में अधिक समय लगता है। इस कारण उनमें से बहुत सार लोग हिंसात्मक, संवैधानिक आंदोलन की ओर अग्रसर होते हैं। इसी प्रवृत्ति में से छविराम या छविराम की पूजा करने वाली किसान निर्मित होते हैं। यह ध्यान रखने योग्य है कि पूर्व उत्तर भारत में हुए हिंसात्मक आंदोलन के विभिन्न नेता तथा पश्चिमी भारत में उत्पन्न हुए तात्या टोपे भील, उमाजी नायक, दत्तया मोन्या आदि लोग इस प्रक्रिया के अतिरेक से निष्पन्न परिणाम के प्रतिनिधि थे। इस असंतोष का अच्छा या बुरा उपयोग करना राजनीतिक लोगों के लिए भी संभवनीय हो जाता है, जैसा ब्रिटिश विरोधी आंदोलन के लिए श्री बासुदेव बलवंत फड़के ने किया। कम्युनिस्ट क्रांति के लिए तेलंगाना के कम्युनिस्टों ने तथा देश के नक्सलवादियों ने इस असंतोष का उपयोग किया।

यह प्रक्रिया पूरी होने में समय अवश्य लगता है, किंतु यह टल नहीं सकती। अति स्वार्थ का यह अपरिहार्य परिणाम है। इस तरह के हिंसाचार का हम विरोध करते हैं, किंतु यह स्मरण रहे कि अति स्वार्थी वृत्ति ही इस हिंसाचार की जननी है। इस परिणाम से अंततोगत्वा स्वार्थी लोगों या उनके वंशजों को बचाकर रखना अधिक देर तक संभव नहीं है। इस तरह तात्कालिक लाभ के लोभ से ये अति स्वार्थी लोग शेष गाँव वालों को तो बरबाद करते ही हैं, अंततोगत्वा स्वयं भी बरबाद होते हैं। यदि दूरदृष्टि रही तो 'पूरा गाँव-एक परिवार', इस भावना का महत्व ध्यान में आएगा। थोड़ा दूर का विचार किया तो स्पष्ट रूप से थोड़ा ध्यान में आएगा कि पूरे गाँव के कल्याण में सभी का कल्याण है और गाँव के किसी भी व्यक्ति के कल्याण में आगे चलकर पूरे गाँव का कल्याण निहित है। सभी गाँव वाले एक ही नौका में सवार हैं। यदि नौका टूटेगी तो सभी डूबेंगे और नौका तैरती रही तो सभी किनारे पहुँच जाएंगे-पार उतर जाएंगे। इस पृष्ठभूमि में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने कहा है कि विश्व में कहीं भी विद्यमान गरीबी विश्व के सभी स्थानों के वैभव के लिए महान खतरा बन जाती है।"

जातीयता

आज हमारे ग्रामीण जीवन को जातिगत बुराइयाँ ध्वस्त कर रही हैं। जातिवाद की यह बुराई काफी पुरानी है। आर्थिक आधार पर कभी इसका जन्म हुआ था, परंतु आज ये जातियाँ व्यवसायगत न रहकर जन्म के आधार पर हो गई हैं। हमारा जातिगत द्वेष, वैमनस्य और जातियाँ-उपजातियाँ बढ़ती ही जा रही हैं।, किंतु सबको हमें स्मरण कराना होगा कि हम सब एक ही समाज और एक ही भारत राष्ट्र के अंग हैं। इनके उत्थान-पतन, वैभव-पराभव, यश-अपयश के हम सब सहभागी हैं। विभिन्न जातियाँ-उपजातियाँ समाज के विभिन्न अवयब हैं। शरीर के सभी अवयब एक स्थान पर आना चाहें तो शरीर टूट जाएगा। एक अवयब दूसरे अवयब का काम नहीं कर सकता। इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर के सभी अवयब मिलकर एक संघ (Federation) है। यदि शरीर के किसी अंग पर चोट होती है तो सारा शरीर कष्ट का अनुभव करता है। यही भाव सभी जातियों के बीच उत्पन्न करना है। एक का दुःख सबका दु:ख है और एक का सुख सबका सुख है। यह भाव आज समाप्त होता जा रहा है।

हमारा समाज बहुत समय तक विदेशियों से युद्ध करता रहा है। समाज के लिए जो समयानुकूल नियम बनने चाहिए थे वे नहीं बन सके। इसके कारण बहुत से दोष उत्पन्न हुए। इतिहास साक्षी है कि ऋषियों ने पहले वेदों की रचना की। जब वैदिक व्यवस्था कालबाह्य हो गई तब स्मृतियों की रचना हुई। स्मृतिकारों ने इन स्मृतियों में राज्य के लिए भी नियम बनाए। राज्य के लिए नियम बनाने का काम राजा नहीं, अर्थशास्त्री और नैतिक शक्ति संपन्न लोग करते थे। किंतु युद्ध काल में यह कार्य संभव न हो सका। फलतः समाज में दोष और विकार बढ़ते गए। समाज पर नैतिकता का दबाव कम होता गया। जब देश स्वतंत्र हुआ और चुनावों द्वारा सत्ता पाने के लिए राजनीतिक दल आगे आए तो उन्होंने जातिवाद को बढ़ावा दिया। आज यह रोग विष की तरह समाज के अंग-प्रत्यंग में फैल गया है। जातिवाद के इस रोग का निराकरण करने वालों की संख्या यद्यपि कम है, फिर भी विश्वास के साथ इस रोग का निराकरण करने के लिए हमें कार्य करना होगा। हम राष्ट्रभक्त हैं, अतः जातियता के विष को दूर करने के लिए हमें कदम उठाना ही होगा। मंजिल चाहे जितनी दूर क्यों न हो किंतु अगला कदम रखते ही दूरी कुछ कम होगी ही। 'सवर्णो' को भी अपनी वर्तमान मानसिकता से कुछ नीचे उतरना होगा। यह कटु सत्य है कि जिनको सदियों से दबाकर रखा गया है, उनमें आज कुछ जागृति आई है। उनमें रोष भी बढ़ा है और फिर राजनीतिक नेता भी आग में घी डालने का काम कर रहे हैं।

जहाँ सभी प्रदेशों में कम अधिक मात्रा में जातिवाद का प्रभाव है, वहाँ बिहार में इन दिनों जातिवाद अधिक भीषण रूप धारण कर रहा है। यद्यपि बिहार प्रदेश किसान सभा बीच में कई वर्षों तक निष्क्रिय पड़ी हुई थी, वहाँ सामाजिक आर्थिक दृष्टि से पीड़ित लोगों के स्थानीय संगठन कहीं-कहीं निर्मित हुए हैं। इस तरह के संगठनों के प्रादेशिक अधिवेशन में पटना नगरी में 23-02-81 को बिहार प्रदेश किसान सभा का निर्माण किया गया। उसकी प्रतिक्रिया विरोधी जातियों में होने में देर नहीं लगी। 1981 के मध्य में 'भूमिसेना' का निर्माण हुआ और जमींदार-नौकरशाह अपराधी की साँठ-गाँठ तैयार हुई। भूमिसेना के नेताओं में विभिन्न राजनीतिक दलों के व्यक्ति थे, किंतु वे सभी कुछ विशेष जातियों के ही रहे। सरकारी प्रतिवेदन के अनुसार जनवरी 1982 से मार्च 1983 तक 55 लोग मारे गए जिनमें से 30 लोग भूमिसेना के द्वारा मारे गए थे।

जातीयता के विष को यदि मिटाना है तो पहले अपने मन से छुआछुत का भाव निकालना होगा और हिम्मत से आगे बढ़ना होगा। इसके दो भाग किए जा सकते हैं- (1) अपनी मान्यता और (2) आगे बढ़ने का निश्चय। यदि मन में सवर्ण और अस्पृश्य का भेद नहीं है तो पहली सीढ़ी तो पार हो गई। रही दूसरी सीढ़ी की बात तो वर्तमान में 'निम्न वर्ग' कहे जाने वाले लोगों को किसान संघ का सदस्य बनाया जाए, उनके पर कार्यक्रम रखा जाए। उसके साथ उठने बैठने में कुछ 'सवर्णों आपत्ति हो सकती है। आपत्ति करने वालों के साथ कठोरता बरतने की क्या आवश्यकता नहीं है? यदि उनके साथ कुछ उदारता बरती तो वे भी थोड़े दिनों के बाद साथ-साथ उठने-बैठने लगेंगे। संपर्ण समाज में एकता का भाव अगर मन में रहा तो सफलता अवश्य मिलेगी।

जातिवाद और ग्रामीण

जातिवाद और ग्रामीण क्षेत्र की निंदा हो रही है। जो राजनीतिक नेता जातिवाद को भड़काकर अपनी नेतागिरी चलाते थे वे भी सार्वजनिक भाषणों में जातिवाद पर आवेशपूर्ण हमला करते हैं। इस वायुमंडल का दुष्परिणाम ग्रामीण जीवन पर होना स्वाभाविक है। एक तो कई क्षेत्रों में दृश्य ऐसा है कि लगभग सभी खेतिहर मजदूर अनुसुचित जातियों के और किसान उच्च वर्गीय हैं। सामाजिक और आर्थिक विषमता एक दूसरे का पोषण करती है। इससे आपसी संघर्ष अधिक तीव्र हो जाते हैं। वास्तव में आज जातियाँ काल वाह्य हो गई हैं, क्योंकि अपनी जाति का ही काम करने वाले लोगों की संख्या कम है। 'गुणधर्म विभागशः' में बताया गया था कि "कृषि गोरक्ष वाणिज्यम्" - यह कार्य वैश्य का है। आज तो वैश्येतर भी बहुसंख्या में निवास करते हैं। आज न कोई जाति अस्तित्व में है और न वर्ण। राजनीतिज्ञों ने ही इस वाद को जीवित रखा और बढ़ाया है।

कुछ दशक पूर्व जाति संस्था का प्रभाव बहुत ज्यादा था। श्री ई.एम. एस. नम्बूदरीपाद अपने सार्वजनिक जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में अपनी जातिगत संस्था 'योगक्षेमम्' के प्रमुख पदाधिकारी थे। बाद में उनका क्षेत्र विस्तृत हो गया। स्वामी सहजानंद सरस्वती भूमिहार था उनके मन में जातिवाद कतई नहीं था। किंतु बड़े जमींदारों में भूमिहारा की संख्या अच्छी थी, स्वामी जी पर आरोप लगाया गया कि वे जातिवादी थे और अपनी जातिवाले जमींदारों के प्रति नरमी बरतते थे। वास्तव में यह आरोप गलत है। महाराष्ट्र में श्री शरद जोशी को प्रारंभिक काल में जातिवाद के आधार पर निंदित किया गया। बाद में अपने कठोर परिश्रम से वे इस कठिनाई को व्यक्तिगत स्तर पर पार कर सके। तो भी संगठन-संघर्ष के प्रयास में उन्हें इसके कारण असुविधा होती रहती है। किसान-सम्मेलन को जाति विशेष का ही माना जाता है और नियमित संगठन भी नहीं है। अर्थात् ग्रामीण जीवन में जातिवाद का अपना स्थान है और इस विषय में ग्रामीण कार्यकर्ताओं को पूरी जानकारी रखना आवश्यक है।

वर्ग-कल्पना

किसान संघ का वर्ग-कल्पना में विश्वास नहीं है। महात्मा जी तथा सरदार पटेल वर्ग-संघर्ष का विरोध तथा वर्ग-समन्वय का प्रतिपादन करते थे। हम वर्ग कल्पना को मानते ही नहीं। आमदनी की अलग-अलग श्रेणियाँ हैं। संपत्ति की विषमता दूर करनी चाहिए। इस दृष्टि से देश में कम से कम और अधिक से अधिक आमदनी में क्या अनुपात रहे, यह निश्चित होना चाहिए। ये सारी बातें हम भी कहते हैं। किंतु हम यह नहीं मानते कि हर गाँव दो युद्धरत शिविरों में विभाजित है। हम संपूर्ण गाँव को एक परिवार मानते हैं और हमारी मान्यता है कि जिस तरह परिवार में बच्चे, बूढ़े तथा बीमार लोगों की विशेष चिंता की जाती है वैसे ही गाँवों में उन लोगों की विशेष चिंता की जानी चाहिए जो आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से कमजोर हैं। किंतु परिवार के संबंध में यह कहना गलत होगा कि वह दो वर्गों में विभक्त हैं क्योंकि उसमें कुछ स्वस्थ और कुछ कमजोर हैं। कुछ पैसा कमाने वाले हैं और कुछ न कमाने वाले हैं। उसी तरह ग्रामवासियों में भी दो वर्ग बताना गलत है। संपूर्ण गाँव एक अर्थविहीन परिवार है।

महात्मा जी की वर्ग-समन्वय की कल्पना और किसान संघ की वर्गविहीन ग्राम परिवार कल्पना-दोनों में सैद्धांतिक अंतर है यद्यपि व्यावहारिक दृष्टि से दोनों की धारणाओं का प्रत्यक्ष परिणाम लगभग एक जैसा ही होने वाला है।

डा. बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा है कि हिंदुस्तान की सही सामाजिक स्थिति का अनुमान हमारे मार्क्सवादी बंधु लगा ही नहीं सकते। पश्चिम में उनकी वर्ग-कल्पना चलती होगी, किंतु हिंदुस्तान में कुछ सामाजिक संस्थाएँ ऐसी हैं जिनके कारण यह पाश्चात्य कल्पना व्यवहार में यथार्थ प्रतीत नहीं होती। उदाहरणार्थ, आर्थिक प्रश्नों पर संपन्न (Haves) के विरुद्ध विपन्न (Have nots) को भड़काया जा सकता है। किंतु जैसे ही कोई सामाजिक विवाद खड़ा होता है, वैसे ही एक जाति के संपन्न-विपन्न (Haves and Have nots) दूसरी जाति के संपन्न विपन्न (Haves and Have nots) के विरुद्ध एक शिविर में आ जाते हैं। दोनों शिविरों में अपनी जाति के संपन्न-विपन्न (Haves and Have nots) कंधे से कंधा मिलाकर खड़े दिखाई देते हैं। इस तरह सामाजिक हिंदुस्तान की कुछ विशेषताएँ हैं, जिनका मार्क्सवाद के आधार पर विचार नहीं हो सकता।

फिर कई गाँवों में सामाजिक और आर्थिक स्थितियों पर सहयोग भी हो जाता है। जहाँ सभी किसान उच्चवर्गीय और खेतिहर मजदूर हरिजन होते होंगे, वहाँ समस्या कितनी जटिल होती होगी, इसकी कल्पना हम कर सकते हैं।

जैसा कि बार-बार कहा गया है संपूर्ण गाँव एक परिवार है- यह भावना जब सबके मन में निर्मित होगी, तभी एक दूसरे के सहारे गाँव वाले अपना उद्धार कर सकेंगे। यह भावना केवल आर्थिक स्तर पर ही नहीं जगानी है, अपितु इसके लिए सामाजिक स्तर पर भी काम करने की आवश्यकता है।

किंतु सभी क्रिया-कलापों में पश्चिम का अंधानुकरण करने की आदत होने के कारण किसान क्षेत्र में कार्य करने वाले सभी सुशिक्षित कार्यकर्ता किसान समस्या को विशुद्ध आर्थिक समस्या मानकर किसान संगठन को विशुद्ध स्तर पर खड़ा करने का प्रयास करते हैं। किसान समस्या का सामाजिक पहलू और किसान संगठन का सामाजिक कर्तव्य दोनों का आकलन वे नहीं कर पाते।

किसान संघ अपनी प्रारंभिक अवस्था में आज इस स्थिति में नहीं है कि वह एक ही समय में दोनों पहलुओं पर ध्यान दे सके। हम भी आज प्रमुख रूप से आर्थिक स्तर पर काम कर रहे हैं। निकट भविष्य में सामाजिक स्तर पर काम करने की क्षमता निर्मित होगी कि नहीं, यह कहा नहीं जा सकता। आज की स्थिति में विभिन्न किसान संस्थाएँ और हम एक ही आर्थिक स्तर पर काम कर रहे हैं। अंतर मात्र इतना है कि दुसरे महत्वपूर्ण पहलुओं के विषय में हम सतर्क हैं। अन्य संस्थाओं के आँखों से ये पहलू ओझल हो गए हैं। दूसरी बात यह है कि निकट भविष्य में हम इस स्तर पर काम करने की क्षमता रखें या न रखें किंतु हमें यह पूर्ण विश्वास है कि हमारे क्षेत्र के बाहर काम करने वाली राष्ट्रवादी शक्तियाँ इस दृष्टि से कार्य कर रही हैं और उन्हें सफलता भी अवश्य मिलने वाली है।

भारत में खेतिहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी

विकासशील देशों में जहाँ कहीं भी न्यूनतम वेतन (कम से कम जितनी मजदूरी मिलनी ही चाहिए।) सक्रिय रूप से निर्धारित किया जाता है, वहीं श्रम मंत्रालयों के लिए इसका लागू किया जाना एक गंभीर चुनौती बन जाता है। आर्थिक कठिनाई, कानून की कम जानकारी और निरीक्षण (जाँच-पड़ताल) की पर्याप्त व्यवस्था न होने के कारण बहुत से या अधिकतर श्रमिकों को उतनी मजदूरी नहीं मिल पाती जितने के वे हकदार हैं। बड़े-बड़े सामानों और आधुनिक फार्मों के बाहर उन क्षेत्रों में सबसे अधिक कठिनाई न्यूनतम मजदूरी लागू करने में आती है, जहाँ कहीं भी पुराने तरीके से खेती होती है। इस प्रकार के श्रमिकों की संख्या कम नहीं है और वे असंख्य रूप में छितरे हुए हैं। वे काम की तलाश में भटकते रहते हैं और इनके लिए काले अक्षर भैंस बराबर होते हैं। इनके बारे में कोई लेखा-जोखा नहीं रखा जाता। अपने मालिकों के साथ उनका संबंध वैसा ही चला जाता है जैसा जमीदारियों में पहले हुआ करता था। इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सरलता से मिल जाते हैं। इनकी समस्या काम का मिलना रहता है, चाहे आप उन्हें कुछ भी मजदूरी क्यों न दें। इन कारणों से मजदूरों के संबंध में कानून ज्यों का त्यों पुस्तकों में धरा का धरा रह जाता है।

एशिया में फिलिपींस, इंडोनेशिया और भारत जैसे कुछ देशों में कृषि के क्षेत्र में मजदूरी तय करने के बारे में कानून बनाए गए हैं। फिलिपींस में कृषि तथा अन्य क्षेत्रों में श्रमिकों के लिए मजदूरी का अभीष्ट स्तर बनाए रखने के लिए कानून सन् 1951 में बना। इसमें समय-समय पर आवश्यकता के अनुसार संशोधन किया जाता रहा है। इंडोनेशिया में श्रम अधिनियम तथा अन्य संबद्ध विनियमों के अंतर्गत खेतिहर मजदूरों के काम करने की परिस्थिति जैसे- उनके वेतन की अभीष्ट स्तर पर बनाए रखने, उनके काम के घंटे आदि का नियमन किया जाता है। भारत में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम सन् 1948 में बनाया गया था। इस अधिनियम में बागानों के मजदूरों से भिन्न, विशेषकर खेतिहर मजदूरों की अभीष्ट मजदूरी देने के बारे में कानूनी व्यवस्था की गई थी। अत: एशिया महाद्वीप में जो देश खेतिहर मजदूरों के लिए अभीष्ट मजदूरी की दर लागू करने में आने वाली समस्या से निपटने में लगे हैं उनमें भारत भी है। इन देशों में समस्याएँ एक जैसी हैं अतः भारत को इस क्षेत्र में जो अनुभव हुआ है उससे एशिया महाद्वीप के अन्य देशों को लाभ हो सकता है।

भारत में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम बनाने का मुख्य उद्देश्य मजदूरों को शोषण से बचाना है। यह शोषण ऐसे क्षेत्रों में किया जाता था, जहाँ काम करने की परिस्थितियाँ विषम होतीं और जहाँ संगठन के अभाव में श्रमिक अपने को बिल्कुल निस्सहाय पाता था। अतः भारत जैसे विकासशील देश में वेतन-नीति स्थापित करने की दिशा में यह एक शुभ कार्य रहा, जिससे मजदूरी का भुगतान, करने में बेईमानी और कुरीतियों को दूर किया जा सके और उन मजदूरों को अभीष्ट मजदूरी दिलवायी जा सके। जो संगठित न होने के कारण अपने श्रम के बदले उचित वेतन प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं। इसका एक तात्पर्य यह भी है कि विकासशील देशों की सरकारें इस मत को स्वीकार करती हैं कि ऐसे देशों में वेतन मनमानी रीति से नहीं तय किया जाना चाहिए जो किसी का पेट काटकर उसे भूखा-नंगा रखे। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम में अनुचित किए गए रोजगारों में लगे रहने वाले श्रमिकों के लिए अभीष्ट वेतन नियत करने तथा उसमें आवश्यकतानुसार संशोधन करने का प्रावधान किया गया है। इस प्रकार के रोजगार में 'खेती' को भी शामिल किया गया है। इस अधिनियम में काम की परिस्थितियों के बारे में भी कुछ बुनियादी शर्तें दी गई हैं, जैसे- इन मजदूरों को कितने घंटे काम करना चाहिए इसके अलावा यदि इनसे काम लिया जाए तो इनको समयोपरि मजदूरी मिलनी चाहिए, इन्हें सप्ताह में छुट्टी भी मिलनी चाहिए आदि। वेतन की दरें सरकार द्वारा अधिसूचना प्रकाशित कर या इस काम के लिए त्रिदलीय समिति नियुक्त कर उसकी सिफारिश के आधार पर तय की जानी चाहिए। इस अधिनियम में निरीक्षकों (इंसपेक्टरों) की नियुक्ति का भी प्रावधान है जिनका काम यह सुनिश्चित करना है कि इस अधिनियम के अंतर्गत जो वेतन और अन्य लाभ मजदूरों को मिल सकते हैं, वे इनको मिलें। इसके अलावा इस अधिनियम में दावा प्राधिकरणों की स्थापना का भी प्रावधान किया गया है। जिनका दायित्व वेतन न देने या कम वेतन देने की घटनाओं की शिकायतों की सुनवाई करना और उचित वेतन का भुगतान कराना है।

न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के बन जाने के बाद सरकार पर इस अधिनियम को सभी क्षेत्रों में और विशेषकर कृषि के क्षेत्र में शीघ्रता से कार्यान्वित करने का दायित्व आ गया। सरकार ने यह मामला एक समिति को सौंप दिया। इस समिति ने यह सिफारिश की कि प्रारंभ में इस अधिनियम को ऐसे क्षेत्रों में लागू किया जाए जहाँ परंपरा से मजदूरों को कम मजदूरी दी जाती रही है और कुछ बड़े फार्म हैं। सरकार ने इस सुझाव को स्वीकार कर लिया और कार्यान्वयन के प्रारंभ के वर्षों में अनेक राज्यों में कुछ चुने हुए क्षेत्रों में अभीष्ट मजदूरी की दर नियत की गई। हालाँकि इस अधिनियम को अन्य क्षेत्रों में भी लागू कर दिया गया लेकिन आज भी कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ खेतिहर मजदूर इस अधिनियम के दायरे से अभी तक बाहर हैं।

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, इस अधिनियम के अंतर्गत अधिसूचना के द्वारा या इस कार्य के लिए नियुक्त समिति के सिफारिश के आधार पर वेतन नियत करने/ वेतन में संशोधन करने की व्यवस्था की गई है। इस संबंध में एक जैसी प्रणाली नहीं अपनायी गई है। यद्यपि अधिसूचना प्रणाली की अपेक्षा समिति नियुक्त करने की प्रणाली को उत्तम समझा गया, लेकिन यह कई मामलों में लागू नहीं की जा सकी। इसका कारण यह रहा कि संगठन के अभाव में इन समितियों में मजदूरों का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई नहीं था। इसलिए अधिकांश राज्यों में अभीष्ट मजदूरी नियत करने व मजदूरी की दरों में संशोधन करने के लिए अधिसूचना की प्रणाली अपनायी जाती है। संशोधित न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 में दिसंबर 1954 से पहले (यह तिथि बाद में बढ़ाकर दिसंबर 1957 की गयी) अभीष्ट मजदूरी निश्चित करने और हर पाँच वर्ष के बाद इसमें संशोधन किया गया। राष्ट्रीय श्रम आयोग (1966) ने न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अंतर्गत अभीष्ट मजदूरी निश्चित करने और इसमें संशोधन करने की व्यवस्था की समीक्षा की। इस आयोग का मत था- हालाँकि यह सामान्यतः सभी स्वीकार करते हैं कि न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 से ऐसे क्षेत्रों में मजदूरों का शोषण होना कम हुआ जहाँ उन्हें विषम से विषम परिस्थितियों में भी काम करना पड़ता है। को भी इस अधिनियम का उचित कार्यान्वयन न होने से लोगों को असंतोष रहा है........इसी प्रकार यह भी शिकायत मिली कि जो मजदूरी एक बार उक्त अधिनियम के अंतर्गत कभी निश्चित की गई उसे कई वर्षों तक संशोधित नहीं किया गया........हमें कई ऐसे दृष्टांत मिले जिनमें हमने देखा कि जो मजदूरी शुरू-शुरू में निश्चित की गयी, उसे संशोधित नहीं किया गया।" आयोग की यह टिप्पणी खेतिहर मजदूरों के संबंध में सोलहों आने सही बैठती है।

यदि हम यह विचार करें कि खेतिहर मजदूरों के लिए वर्तमान मजदूरी की दर क्या है और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अंतर्गत निश्चित अभीष्ट मजदूरी की दर कब निश्चित की गई थी, वर्ष 1959-64 में श्रम ब्यूरो ने खेतिहर मजदूरों की मजदूरी का सर्वेक्षण कर क्या निष्कर्ष निकाले और राष्ट्रीय श्रम आयोग की खोज रिपोर्ट में क्या कहा गया है, तब हमें पता चलेगा कि उक्त वर्षों में मजदूरी की दर सामान्य रूप से उन दरों से ऊँची थी जो कानून द्वारा मजदूरी की अभीष्ट दर निश्चित की गई थी।

खेती के क्षेत्र में मजदूरी की अभीष्ट दर लागू करने का प्रश्न विशेषकर पिछले कुछ वर्षों में काफी चिंता का विषय रहा है। हमारे राज्यों को अपने यहाँ जाँच-पड़ताल करने के लिए पर्याप्त कर्मचारियों के अभाव के अतिरिक्त जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है वे संक्षेप में ये हैं- (1) मजदूरों को अधिनियम/नियमों की जानकारी न होना, (2) रजिस्टर व अन्य प्रकार के रिकार्डों का न रखा जाना, (3) संचार और आवागमन के साधनों का विशेष रूप से बरसात के मौसम में अभाव, (4) मौसम का एक समान न रहना जिससे काम के घंटे लागू करना कठिन हो जाता है, (5) मजदूरी छूट जाने के डर से मजदूरों द्वारा अपनी मजदूरी का खुलकर माँग नहीं करना। इन वर्षों में मजदूरी की विभिन्न दरों की व्यवस्था को लागू करने के लिए जो कार्यवाही की गयी, वह यह है- (1) जाँच-पड़ताल के लिए अधिकारियों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ उनको अधिक प्रभावी बनाया जाए, (2) कृषि, राजस्व सहकारिता आदि अन्य विभागों के अधिकारियों की सेवाओं का अधिकाधिक उपयोग, (3) विभिन्न स्तरों पर कार्यान्वयन समितियों का गठन और (4) रेडियो, समाचार-पत्रों, पत्रकों (पैम्फलेटों) और पोस्टरों द्वारा व्यापक प्रचार। संसद के हाल के सुझाव के अनुसरण में राज्य सरकारों से ऐसी कार्यान्वयन समितियों की स्थापना की संभावना पर विचार करने के लिए कहा गया जिसमें खेतिहर मजदूरों के संगठनों के प्रतिनिधि शामिल किए गए हों। इन समितियों का काम खेतिहर मजदूरों के बारे में अधिनियम के कार्यान्वयन की देख रेख करना होगा।

बीस सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा के बाद श्रम-मंत्रालय ने खेतिहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी निश्चित करने और उसमें संशोधन करने के बारे में एक कार्यक्रम बनाया। इस दिशा में प्रगति की समीक्षा करने और सुधार के संबंध में सुझाव देने के लिए केंद्र में एक संचालन इकाई और अंतरविभागीय कार्यदल गठित किए गए। इन कार्यदलों ने अनेक सुझाव दिए, जिनमें से महत्वपूर्ण सुझाव निम्नलिखित हैं-

(1) सभी राज्यों के श्रम-विभागों में इस संबंध में निरीक्षण-कार्य (जाँच-पड़ताल) के लिए पर्याप्त कर्मचारी नियुक्त किए जाने चाहिए और अन्य विभागों में विकास कार्यों में लगे अधिकारियों की सेवाओं का उपयोग करना चाहिए।

(2) न्यूनतम मजदूरी की दर की प्रारम्भिक और अंतिम अधिसूचना के प्रकाशन के बीच कम से कम विलंब होना चाहिए।

(3) राज्यों के जिन क्षेत्रों में अधिक से अधिक खेतिहर मजदूर काम करते हों, विशेषकर ऐसे क्षेत्रों में जहाँ 50 प्रतिशत या इससे अधिक अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के खेतिहर मजदूर हों या जहाँ ये मजदूर अत्यंत निर्धन हों और इन्हें वर्षों से कम मजदूरी मिलती आई है, वहाँ इस अधिनियम को लागू करने पर सबसे पहले विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

(4) अभीष्ट मजदूरी के कार्यान्वयन, बंधुआ मजदूरों को बसाने, समन्वित ग्राम-विकास और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम के बारे में समेकित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।

(5) प्रचार के सभी उपलब्ध साधनों के द्वारा स्थानीय आधार पर मजदूरी की न्यूनतम दरों का निरंतर प्रचार किया जाना चाहिए।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इन सब प्रयत्नों के उपरान्त ऐसे वातावरण का निमार्ण करना ही आवश्यक है जो खेतिहर मजदूरों के संगठन बनने में सहायक हो। इन मजदूरों के हितों की रक्षा करने के लिए संगठित 'यूनियनों' के अभाव के कारण अधिकांश खेतिहर मजदूरों को अपने अधिकारों की कोई जानकारी नहीं हो पाती। राष्ट्रीय श्रम आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसकी चर्चा करते हुए निम्नलिखित टिप्पणी की- हमने जो अध्ययन किया उससे पता लगा कि हमारे खेतिहर मजदूरों में अधिकांश को न तो इस कानून की और न ही इस बात की कोई जानकारी है कि इस कानून के अंतर्गत उन्हें कितना संरक्षण प्राप्त है।" एक दशक के बीत जाने के बाद भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। इसकी पुष्टि द्वितीय ग्रामीण मजदूर जाँच रिपोर्ट (1974-75) को पढ़ने से होती है। इस प्रतिवेदन के अनुसार, सारे देश में खेतिहर मजदूरों का केवल एक प्रतिशत भाग संगठित है। यह सबसे अधिक केरल राज्य में (9.33 प्रतिशत) है। संगठन के अभाव के अतिरिक्त इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अंतर्गत निश्चित की गई मजदूरी की भी कोई जानकारी नहीं है। यह जानकारी सबसे अधिक (17 प्रतिशत) गुजरात राज्य में वहाँ के खेतिहर मजदूरों को है, केरल राज्य के केवल चौदह प्रतिशत मजदूरों को इस अधिनियम की जानकारी है, जबकि वहाँ सबसे अधिक मजदूर संगठित हैं। इस क्षेत्र में सारे देश का औसत केवल दो प्रतिशत बैठता है।

लघु-कुटीर गृह-उद्योग

चौधरी चरणसिंह जी ने अपने आर्थिक प्रबंध में एक चरम (Extreme) पर जाते हुए लघु उद्योगों का महत्त्व प्रतिपादित किया। यह अच्छा ही हुआ, क्योंकि स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् हमारा लंबक (पेण्डुलम) दूसरे गलत छोर (Extreme) पर पहुँच गया था। रूसी योजनाओं का अंधानुकरण करते हुए भारी उद्योगों को हमारी योजनाओं में अत्यधिक महत्त्व दिया था, जो भारत की आवश्यकताओं के प्रतिकूल जाने वाली बात थी। उस लंबक को सुवर्ण मध्य पर लाने की दृष्टि से चौधरी-साहब की अतिवादिता (Extremism) पर उपयुक्त सिद्ध हो सकती है। तो भी, कोई भी आत्यन्तिकी भूमिका न लेते हुए विभिन्न औद्योगिक ढाँचों का समग्रता (Integrated) तथा उचित परिणाम के साथ (With sense of proportion) विचार करने के पश्चात् ही संपूर्ण औद्योगिक नीति का निर्धारण अच्छा रहेगा।

आज औद्योगिक क्षेत्र की कुल लागत 15,000 करोड़ रुपए की है। इसका केवल 6.5% लघु उद्योगों के क्षेत्र में हैं। कुल औद्योगिक उत्पादन का 22% उत्पादन लघु उद्योगों के क्षेत्र में होता है। कुल रोजगार का 32% लघु उद्योग प्रदान करते हैं।

पाश्चात्य तंत्र से एक व्यक्ति को रोजगार देने के लिए 40,000 से 1,00,000 रुपए तक पूँजी लगती है और उचित तकनीक (Appropriate Technology) अपनायी जाए तो वही काम 400 रुपए में हो सकता है। डॉ. शुभाकर की यह निश्चित धारणा है, बेरोजगारी न बढ़ाकर, रोजगार-बढ़ाकर, अधिक उत्पादन करना हमारी आज की आवश्यकता है। एक रुपए की लागत से रोजगार बढ़ाने के बावजूद क्षमता (Efficiency) पर इसका विपरीत परिणाम न हो, यह देखने वाले तंत्र को इंटरमीडिएट (Intermediate) या उपयुक्त तकनीक (Appropriate Technology) कहा गया है। इसी सिद्धांत के आधार पर अपने देश के अनकल नई तकनीक का विकास किया जा सकता है।

हस्तकला (Handicrafts) क्षेत्र और उसके उत्पादन तथा रोजगार के विषय में विश्वसनीय जानकारी तथा अनुमान उपलब्ध नहीं हैं। वाणिज्य मंत्रालय के हस्तकला अध्ययन गट ने सुझाव दिया कि इस तरह की समग्र जानकारी शीघ्र उपलब्ध करनी चाहिए। उपलब्ध जानकारों के आधार पर ऐसा दिखता है कि हस्त-कला के केवल चुने हुए पाँच वर्गा में छः लाख कारीगर दारिद्र्य-रेखा के नीचे हैं। यह आकलन ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह आय 62 रुपए तथा शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति प्रतिमास आय 79 रुपए (1976-77 की कीमतों के आधार पर) है।

बुनकरों का हाल भी खराब ही है। छठी योजना के प्रारंभ में हथकरघा उद्योग के विकास के लिए केंद्र से 189 करोड़ रुपए, राज्यों से 183 करोड़ रुपए तथा आर्थिक संस्थाओं से 400 करोड़ रुपए का लक्ष्य निश्चित किया गया था। किंतु इस राशि का अल्पांश भी बुनकरों के काम में नहीं आया। बुनकरों के माल की विदेश में माँग है। किंतु विदेशों में हथकरघे के उत्पादन के नाम पर पावरलूम से उत्पादित कपड़ा बेचा जाता है। इस विषय में सरकार पावरलूम वालों को नियंत्रित नहीं करती। कीमती सिंथेटिक धागा बुनकर खरीद नहीं सकता। इस धंधे का जहाँ-जहाँ यान्त्रिकीकरण हुआ, वहाँ-वहाँ यह धंधा प्रायः व्यापारियों तथा साहूकारों के हाथों में चला गया है। आज की उपभोक्ताओं की रुचि तथा बाजार की माँग के साथ मेल खाने वाली तकनीकी विद्या के प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं है। 30,000 कालीन (बुनकरों) के प्रशिक्षण का उदाहरण अपवाद रूप में है। श्री बी. शिवरामन की अध्यक्षता में नियुक्त अध्ययन दल (Study Team) की रिपोर्ट पर अब तक क्रियान्वयन नहीं हुआ। शिवरामन रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 38 लाख हथकरघे हैं। बुनकरों की कुल संख्या लगभग एक करोड़ है। इनमें से 40 लाख से अधिक बुनकर बेरोजगार हैं। बचे हुए बुनकरों को साल में छ: मास अर्द्ध रोजगार मिलता है। बिचौलियों, मास्टर वीवर्स तथा विभिन्न अधिकारियों द्वारा उनका शोषण चलता है।

जो अवस्था बुनकरों की है, वही अन्य कारीगरों की भी है। माल बेचने के बाजार (मार्केटिंग) तथा निर्यात की सहूलियतों का अभाव, स्तरीय भाव (standard quality) के विषय में उदासीनता, युवा उद्यमियों के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा का अभाव, तकनीकी सलाहकार संगठनों (Technical Consultancy Organisations) तथा KIO, APITO, ORITCO आदि संस्थाओं में समन्वय का अभाव आदि बाधाएँ सभी के मार्ग में हैं। बैंकों की ऋण देने की नीति तथा सूद की दर नए उद्यमियों (Entrepreneur) के लिए असुविधाजनक है। छोटे उद्योगों और उसी क्षेत्र के बड़े उद्योगों के उत्पादन की बीच सीमा-रेखा का स्पष्ट निर्धारण (Line of Demarcation) आवश्यक है वह आज प्रायः नहीं है। प्रयोग के नाते भी सरकार 'लघु उद्योगों के लिए पूरक बड़े उद्योग' की नीति अपनाने को तैयार नहीं। दुर्भाग्य से श्री मैकरमारा का यह अभिप्राय सही है इस तरह के रचनात्मक कार्यों के लिए आवश्यक भूमिका निर्वाह करने की क्षमता भारत की नौकरशाही-अफसरशाही में नहीं है।

ग्रामीण पुनर्रचना के लिए कटिबद्ध कार्यकर्ताओं द्वारा उपरिनिर्दिष्ट सभी तथ्य अपनी योजनाएँ बनाते समय ध्यान में रखने आवश्यक हैं।


मुस्लिम अपने भारतीय होने पर गर्व करें

वंदे मातरम कहने पर कैसा एतराज

मौलाना वहीउद्दीन खान

(इस्लामिक विद्वान, दिल्ली)

(दिनांक 16 अप्रैल 1994 नागपुर स्थित रेशमबाग में भारतीय मजदूर संघ द्वारा गठित 'सर्वपंथ समादर मंच का प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन संपन्न हुआ जिसमें देश के सभी प्रान्तों से इस्लाम, क्रिश्चियन, यहूदी, पारसी, सिख, बौद्ध आदि पंथों के अनुयायी कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। अधिवेशन का उद्घाटन प्रसिद्ध इस्लामिक विचारक व चिंतक मौ. वहीउद्दीन खान ने किया और अध्यक्षता नागपुर विश्वविद्यालय के भूतपूर्व उपकुलपति प्रख्यात पारसी विद्वान प्रो. जाल. पी. जिमी ने की। मंच पर मा. मदनदास देवी तत्कालीन सह सरकार्यवाह रा. स्व. संघ एवं प्रभारी भारतीय मजदूर संघ के साथ मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी, श्री राजकृष्ण भगत व सरदार सुखनंदन सिंह भी उपस्थित थे। वहीं भारतीय मजदूर संघ के प्रमुख कार्यकर्ता सर्वश्री आलमगीर गौरी, अख्तर हुसैन, सरदार रविन्द्र सिंह 'लक्ष्मण', सी. बी. फ्रैंक, मुहम्मद दीन खान, सन्ध्या लारैन्स, भगवान दास गौंडाने व शब्बीर मुहम्मद अन्सारी सदृश एक सौ से अधिक कार्यकर्ता अधिवेशन में दोनों दिन उपस्थित रहे।

अधिवेशन के प्रमुख भाषण (समारोप) मंच के संस्थापक और मार्गदर्शक मा. ठेंगड़ी जी का था। किंतु इस अवसर पर अपने उद्घाटन भाषण में उदारवादी विचारक एवं इस्लामिक विद्वान मौलाना वहीउद्दीन खान साहब ने जो विचार प्रकट किए वह अत्यंत प्रेरणादायी और उत्साहवर्धक थे। उनके वह विचार समाज के सभी वर्गों के लोगों का पथ आलोकित करने वाले हैं। अतः उस प्रसिद्ध भाषण के जो अंश अगले दिन दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए उन्हें ही यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।...)

प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान वहीउद्दीन खान साहब ने मुस्लिम नेताओं से अपील की है कि वे इस बात को घोषित करने का साहस करें कि वे भारतीय मुसलमान कहलाने में गर्व महसूस करते हैं।

अपने एक लाइन के वक्तव्य में मौलाना ने कहा कि मैं भारतीय मुसलमान होने में गर्व महसूस करता हूँ तथा लोगों को ऐसा करना राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने में बहुत कारगर सिद्ध होगा।" वयोवृद्ध नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हेडगेवार स्मृति भवन में एक सभा को संबोधित कर रहे थे। ये सभा सर्वपंथ समादर मंच" के बैनर तले संचालित हुई जो कि भारतीय मजदूर संघ के जरिये सांप्रदायिक सौहार्द बिठाने के लिए संघ परिवार की शाखा है।

सर्वपंथ समादर मंच निर्माण के अवसर पर आयोजित यह ऐतिहासिक सभा थी और इसमें भारतीय मजदूर संघ से संबंधित 100 से अधिक जाने माने मुस्लिम, सिख एवं ईसाई ट्रेड यूनियन के लोग थे। लगभग सभी बड़े सूबों से आए नेतागण सरकारी, अर्ध सरकारी, पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग एवं निजी संस्थाओं के कर्मचारियों के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। पारसी विद्वान श्री जाल. पी. जिमी ने सभी की अध्यक्षता की।

मौलाना ने वंदेमारतम् का विरोध करने वाले स्वयभू मुस्लिम नेताओं को आड़े हाथों लिया तथा अतीत को याद करते हुए कहा कि एक समय था जब शायर इकबाल राम की शान में गा सकते थे तथा उन्हें "इमामे हिंद" की पदवी दी गई थी। इकबाल का 'सारे जहाँ से अच्छा' अपनी लोकप्रियता की हद पर था। वो समय एक अच्छा समय था लेकिन ऐसा बहुत दिनों तक नहीं रहा जिसने सही दिशा में सोचने वाले लोगों के दिलों को ठेस पहुँचाई। दुर्भाग्य से उन लोगों ने जिन्हें सारे जहाँ से अच्छा गाने कोई ऐतराज नहीं था, वंदेमातरम् का घोर विरोध किया।

ज्यादातर मामलों में वंदेमातरम का विरोध गलतफहमी के कारण या लोगों ने बिना समझे-बूझे वंदेमातरम का विरोध करना शुरू कर दिया जब कि दोनों गीतों के अर्थ में शायद ही कोई अंतर हो। दोनों ही गीत मात भमि की प्रशंसा में हैं। इन हालातों से सांप्रदायिकता को और बल मिलता है।"

एकत्रित लोगों से उन्होंने कहा कि "ये गलत कहानियाँ नेताओं के एक वर्ग ने पैदा की हैं, जिसे खत्म करने की जरूरत है।" विद्वान ने बेबाक अंदाज में सांप्रदायिक द्वेष की समस्या के समाधान का एक आसान उपाय भी सुझाया। मौलाना के अनुसार यदि गलत कहानियों के धुंध में सांप्रदायिक गड़बड़ी बढ़ती है तो इसका सबसे अच्छा तरीका ये है कि इन ललित कहानियों की धुंध को साफ किया जाए। इस मामले में मुस्लिम रहनुमाओं को सकारात्मक रवैया अख्तियार करते हुए संजीदगी से ये घोषणा करनी चाहिए कि वह इसी धरती से जुड़े हुए हैं। मुस्लिम रहनुमाओं की ये कारकर्दगी हर आदमी के अंदर मौजूद इंसान को इंसाफ करने में मदद करेगी। इसके विपरीत भड़काऊ भाषण इंसान के अहं को ठेस पहुँचाते हैं और ये श्रीमान् 'अहं' व्यक्ति को बेइंसाफी करने को प्रेरित करते हैं और भारत की तरक्की की राह में रोड़ा बनते हैं।"

देश के कमजोर पहलुओं का बारीकी से परीक्षण करने के बाद मौलाना इससे बचाव का उपाय बता रहे हैं। मौलाना ने खुलासा करते हुए बताया कि उन्होंने क्यों ऐसी संस्था के समारोह में हिस्सा लिया जिसका जन्म भारतीय मजदूर संघ से हुआ है। उन्होंने कहा कि उनके संघ परिवार के नेताओं की लगन एवं उत्साह पर शक की गुंजाइश नहीं है। भारतीय मजदूर संघ एक ऐसी संस्था है जिसका जन्म डॉ. हेडगेवार, जिनके भारतीय समाज के प्रति योगदान को नकारा नहीं जा सकता, के विचारों एवं सिद्धांतों पर हुआ है। उन्हीं के बताए रास्तों पर चलते हुए भारतीय मजदूर संघ सदैव कर्तव्यनिष्ठा की भावना पर बल देता है जबकि अन्य मजदूर संगठन केवल अपने अधिकारों के लिए ही आंदोलन करते हैं। भारतीय मजदूर संघ के नेताओं की प्रशंसा करते हुए मौलाना ने कहा कि इस संगठन ने सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ाने के लिए एक नए मंच का शुभारंभ करके सही दिशा में कदम उठाया।"

(सर्वपंथ समादर मंच)

बहमुखी प्रतिभा के धनी तथा मौलिक चिंतक

श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी

डॉ. शंकर तत्ववादी

संघ कार्यालय

महाल, नागपुर

अपने कर्तृत्व और क्रियाशीलता के कारण जिन्होंने समाज के विभिन्न कार्यक्षेत्रों में अपना बहुमूल्य योगदान देते हुए अपने स्वयंसेवकत्व के ऊँचे मापदंड प्रस्थापित किए ऐसे ठेंगड़ी जी उस देवदुर्लभ कार्यकर्ता टीम की एक प्रमुख कड़ी थे जिसका उल्लेख तृतीय सरसंघचालक मा. बालासाहब देवरस जी ने कतिपय प्रसंगों में किया था। 1942 में बने संघप्रचारक के दायित्व को उन्होंने आजीवन अर्थात् 2004 में शरीर शांत होने तक, पूरे 62 वर्षों तक निभाया। प्रत्यक्ष संघकार्य में बंगाल और केरल में प्रारंभिक कुछ वर्षों में उन्होंने योगदान दिया, परंतु उसके पश्चात् अन्य विविध कार्यों में ही उनका योगदान रहा।

भारतीय मजदूर संघ के साथ ही भारतीय किसान संघ, सामाजिक समरसता मंच, सर्वपंथ समादर मंच, स्वदेशी जागरण मंच और पर्यावरण मंच के तो वे संस्थापक थे ही, परंतु इसी के साथ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, सहकार भारती, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद और भारतीय विचार केंद्र (तिरुअनंतपुरम) सरीखी संस्थाओं के वह या तो संस्थापक सदस्य रहे या मार्गदर्शक रहे! वह आरंभ में केरल में भारतीय जनसंघ के संगठन मंत्री भी रहे थे। कितनी ही अन्य संस्थाओं के वे अध्यक्ष रहे और कई संस्थाओं के कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। विश्व विभाग का उनके पास कोई अधिकृत दायित्व तो नहीं था परंतु उसके प्रत्येक पंचवार्षिक शिविर तथा शिक्षावर्ग में वे नियमित रूप से उपस्थित होकर शिविरार्थियों का बहुमूल्य मार्गदर्शन करते थे। संघ परिवार में अनिवार्य' (most wanted) श्रेणी में उन्हें गिना जा सकता है। इस प्रकार अनेक क्षेत्रों का उनका संबंध होने के बाद भी मा. ठेंगड़ी जी की पहचान श्रमिक क्षेत्र के साथ ही जुड़ी हुई थी। जैसा कि स्वयं पू. गुरुजी ने सन् 1972 में हुई ठाणे की बैठक में कहा था, 'भारतीय मजदूर संघ' सरीखे एकदम नवीन क्षेत्र को उन्होंने लगभग अकेले ही (single handed) खड़ा किया और शून्य से आरंभ किए हुए इस कार्य को विश्व के सर्वाधिक बड़े गैर-राजनैतिक श्रमिक संगठन के रूप में प्रस्थापित किया, और उसे एक नवीन स्वतंत्र पहचान दी। यह पहचान एक राष्ट्रवादी संगठन के रूप में रही। तब तक श्रमिक क्षेत्र में लाल झंडे के अतिरिक्त अन्य किसी रंग के झंडे को स्थान नहीं था और 'भारत माता की जय' सरीखे नारे नहीं लग सकते थे। ये मान्यतायें भी बदली गयीं और 'इन्किलाब जिंदाबाद' के स्थान पर 'भारत माता की जय' ये नारा गूंज उठा।

महाराष्ट्र में पंढरपुर की यात्रा के समय वारकरी भक्तमंडली एक गीत की पंक्ति बोलते हैं- "वाळवंटी चंद्रभागेच्या तीरी झेंडा रोविला" यानी श्री विठ्ठल के नाम का झंडा गाड़कर हमने नई पारी शुरू कर दी है। ठेंगड़ी जी ने भी श्रमिक आंदोलन में राष्ट्रवाद का झंडा गाड़कर इस क्षेत्र को एक नई पहचान दी।

एक अनुशासित स्वयंसेवक के नाते जो भी दायित्व ठेंगड़ी जी को दिया गया उसे उन्होंने पूर्ण मनोयोग से और आदर्शवत् निभाया। 1964 से 1976 तक उन्हें कार्यकर्ताओं ने राज्यसभा में सदस्य बनाकर भेजा। ठेंगड़ी जी अपने को स्वयं के कार्यक्षेत्र में एक गटनायक ही मानते थे। राज्यसभा के सदस्य के रूप में भी उन्होंने अपनी स्वतंत्र पहचान बनायी। न केवल एक जागरूक जनप्रतिनिधि के रूप में उन्होंने राज्यसभा में अपना योगदान दिया अपितु विरोधी विचारधारा के लोगों के साथ अत्यंत सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए। राज्यसभा के उपाध्यक्ष पद के लिए उनके नाम का समर्थन करने वाले लोगों में न केवल उनके अपने पक्ष के लोग थे अपित विरोधी मत बने वाले बंधुओं ने भी उनके नाम का अनुमोदन किया था। साउथ एवेन्य में रहते हुए उनकी प्रात:कालीन नित्य की चाय श्री बॅनर्जी के साथ होती थी. जो वामपंथी विचारधारा के थे। 1980 के लगभग वामपंथी श्रमिक नेता श्री राममूर्ति के 75वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में निजी भोज पर जिन चार बंधुओं को निमंत्रण था उनमें तीन तो जाने माने वामपंथी नेता थे और चौथे थे मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी। विरोधियों के साथ उनके अत्यंत मधुर संबंध थे और कालांतर में कई विरोधी बंधु तो उनके मित्र ही नहीं कार्य में सहयोगी भी बन गए थे। अपने सिद्धांतो के साथ कहीं भी समझौता न करते हुए इस प्रकार लोगों को जोड़ना, यह ठेंगड़ी जी के 'अजातशत्रु' होने का ही प्रमाण है।

अखंड परिश्रम और अखंड स्वाध्याय ये ठेंगड़ी जी के दो विशेष गुण थे। उनके प्रवास क्रम में प्रातः से लेकर मध्यरात्रि तक और कभी-कभी उससे भी आगे कार्यक्रमों का सिलसिला चलता रहता था। जिसमें शाखा में बौद्धिक, कार्यकर्ताओं की बैठकें, अधिवेशन का उद्घाटन, किसी विविध क्षेत्र के कार्यक्रम में भाषण, प्रतिष्ठित व्यक्तियों से वार्तालाप- ऐसे कार्यक्रम लगे रहते थे और साथ ही चलता था निकट के सहयोगियों से वार्तालाप, या किसी छोटे बड़े कार्यकर्ता के घर में अनौपचारिक मिलन। दिन के 24 घंटों में यह सब वह कैसे कर लेते थे, यह चर्चा का विषय है।

इसके साथ ही होता था उनका स्वाध्याय।

ठेंगड़ी जी की बौद्धिक क्षमता अपार थी। प्राचीन ग्रंथ, उनके अगणित विषय, उसमें विपुल संदर्भ, देश विदेश के श्रेष्ठ पुरुषों की तथा उनके विचारों की जानकारी, संतवचन, कथा प्रसंग, चुटकुले, इनका ठेंगड़ी जी के पास अथाह सागर था। अपने अत्यंत व्यस्त जीवन में यह उन्होंने कब आत्मसात् किया यह एक संशोधनका ही विषय है। अपने आवश्यक कार्य करते हुए ठेंगड़ी जी ने विपुल लेखन भी किया है और वह भी कई भाषाओं मे। मराठी, हिंदी और अंग्रेजी के साथ ही बंगला भाषा और मलयालम भाषा पर भी उनका प्रभुत्व था और इनमें वे धाराप्रवाह बोल सकते थे। भाषा के माध्यम से कोई भी व्यक्ति निकटता अनुभव करता है और इसका लाभ ठेंगड़ी जी को हुआ इजरायल के प्रवास में। इजरायल में जो भारतीय बसे हैं वे या तो मूल महाराष्ट्र के मराठी भाषी थे, या केरल के मलयालम भाषी। इन दोनों भाषाओं पर ठेंगड़ी जी का अधिकार होने के कारण इजरायल का भारतीय मूल का प्रत्येक व्यक्ति ठेंगड़ी जी के साथ बड़ी सरलता से बात कर सकता था। ठेंगड़ी जी के उद्बोधन में व्यक्ति कुछ नया विचार या चिंतन का सूत्र पाता था। पू. डॉक्टर जी के विषय में एक कविता में लिखते हुए ठेंगड़ी जी ने कहा है "Through his tongue he did speak to us our ancient wisdom" यही बात उन्हें स्वयं को भी लागू होती है- जो कुछ उन्होंने बोला वह अपने भारत की प्राचीन वाणी ही थी। उनका योगदान और मार्गदर्शन भारत में विविध क्षेत्रों को तो मिलता ही था परंतु भारत के बाहर विदेशों में भी उनके विचारों से लोग लाभान्वित हुए हैं। लगभग 35 देशों में उनका प्रवास हुआ था। जिसमें अटलांटिक महासागर का आइसलैंड भी है। 830 ईसवीं में विश्व की प्रथम संसद भवन की स्थापना यहाँ आइसलैंड में हुई ऐसी यूरोपीय देशों की मान्यता है। मा. अशोक जी सिंघल के साथ ठेंगड़ी जी वहाँ भी हो आए थे। भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक के नाते उन्हें साम्यवादी देश भी जानते थे और वे उनका विचार सुनने को उत्सुक रहते थे। साम्यवादी चीन ने उन्हें विशेष रूप से निमंत्रित किया था और तत्रस्थ साम्यवादी नेताओं के साथ न केवल उनका वार्तालाप हुआ था अपितु वहाँ के रेडियो से उनकी वार्ता प्रसारित भी हुई थी। रूस के अधिकारियों के साथ भी उनकी चर्चा हुई। विश्व हिंदू परिषद् के द्वारा आयोजित अधिवेशनों में अनेक देशों में मा. ठेंगड़ी जी ने अपने विचार प्रकट किये। ट्रिनिडाड में प्रधान मंत्री श्री वासुदेव पांडे से बातचीत में उन्होंने कहा कि 'वसुधैव कुटुंबकम्' के साथ अब 'वसुधैव मार्केटिंग' शुरू हो गया है तो पांडेजी ने कहा की उन्हें तो एक नया चिंतन सूत्र मिल गया है।

विश्व विभाग में हिंदू स्वयंसेवक संघ के साथ ही विश्व हिंदू परिषद्, फ्रेंडस आफ इंडिया सोसायटी इंटरनैशनल, हिंदू सेविका समिति, सेवा इंटरनेशनल के कार्यकर्ताओं के साथ भी मा. ठेंगड़ी जी की वार्ताएं हुईं। यूरोप और अफ्रीका महाद्वीपों के अनेक देशों में तथा अमेरिका, कॅनाडा आदि देशों में भी ठेंगड़ी जी का प्रवास होकर वहाँ के कार्यकर्ताओं के साथ जो उनका विचार विनिमय हुआ उसे जानकर लगता है कि ठेंगड़ी जी को 'वैश्विक विचारक' कहना अधिक योग्य होगा। मा. शेषाद्रि जी ने इस प्रकार उनका उल्लेख भी किया है।

ठेंगड़ी जी मूलतः संघ स्वयंसेवक थे। यद्यपि उनका कार्यक्षेत्र प्रत्यक्ष संघकार्य के बाहर था तथापि उनके विचारों का अधिष्ठान संघ विचार और हिंदुत्व ही था। पू. गुरुजी ने ही उन्हें संघ के प्रचारक के रूप में बाहर भेजा। पू. गुरुजी ही उनके दैवत थे और उन पर उनकी अपार श्रद्धा थी।

संघ कार्यकर्ता के रूप में वे एक कुशल संघटक थे। उनकी लिखी हुई 'कार्यकर्ता' यह पुस्तक सभी के लिए एक पाथेय के रूप में प्रसिद्ध है और इस पुस्तक की विषयवस्तु को पढ़कर मा. वैद्यजी ने इसे 'संघोपनिषद्' कह डाला है।

छोटे बड़े असंख्य कार्यकर्ताओं से मिलकर उनका जो मित्रवत् व्यवहार होता था वह उस कार्यकर्ता के लिए उत्साह और प्रेरणा का कारण बनता था। वे लोगों से कभी ऊबते नहीं थे और लोग उनसे मिलने के लिए सदैव आतुर रहते थे।

गीता में भक्त के लक्षण में भगवान कहते हैं:-

"यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।"

अर्थात् जिससे लोग ऊबते नहीं और जो लोगों से ऊबता नहीं ऐसा व्यक्ति मुझे प्रिय है। इस श्रेणी में मा. ठेंगड़ी जी का अनायास ही अंतर्भाव होता है।

अनपढ़ और अत्यंत सामान्य व्यक्तियों के साथ ही बड़े-बड़े विद्वानों के साथ भी ठेंगड़ी जी सहजता अनुभव करते थे। यह देखकर गांधीजी का महामना मालवीय जी के संदर्भ में किया हुआ उल्लेख कुछ परिवर्तित रूप में रखने की आवश्यकता लगती है। गांधीजी ने कहा था 'तिलकजी हिमालय सरीखे ऊँचे हैं और उतनी ऊँचाई पर मैं पहुँच नहीं सकता, गोखले जी- उनके गुरु- सागर सरीखे गंभीर है और उतनी गहराई तक भी मैं जा नहीं सकता; मुझे मालवीय जी गंगा मैय्या की शीतल धारा सरीखे लगते हैं जहाँ मैं सरलता से विहार कर सकता हूँ।' मुझे लगता है कि ठेंगड़ी जी में हिमालय की ऊँचाई थी, सागर की गहराई थी और गंगाजी की शीतल धारा की सहजता भी थी।

विचारऋषि दत्तोपंत जी

सुधीर पाठक

ज्येष्ठ पत्रकार,

पूर्व मुख्य संपादक

दैनिक तरुण भारत, नागपुर

विचारऋषि क्यों ?

नागपुर के ख्यातनाम अर्थशास्त्रज्ञ डा. म.गो. बोकरे कट्टर साम्यवादी थे। मा. दत्तोपंतजी ने उन्हें साम्यवादी विचारधारा से परावृत कर 'हिंदू अर्थशास्त्र' नाम का ग्रंथ लिखने के लिए प्रवृत्त किया। यह एक लोकोत्तर कार्य दत्तोपंतजी ने किया। इस कार्य के लिए उनका गौरव करना हो तो एकमात्र शब्दावली सुयोग्य होगी और वह होगी 'विचारऋषि', जिससे दत्तोपंतजी को जाना जाएगा।

चिंतन का आधार हिंदुत्व

मा. दत्तोपंतजी के चिंतन का आधार पूर्णतः 'हिंदुत्व' का था। 'भारतीयता' का था। साम्यवादी रशियन शक्ति का विघटन होगा और पूरे विश्व से दो-तीन साल में ही साम्यवादी विचारधारा ताश के पत्तों के समान ढह जाएगी ऐसी भविष्यवाणी उन्होंने कर दी थी, जो समय की कसौटी पर खरी उतरी। आज साम्यवादी विचारधारा लुप्त हो रही है। साम्यवादी विचार पराभूत हुआ। जिसके जीवन का मुख्य अधिष्ठान 'स्वयंसेवकत्व' हो और 'एकता अज्ञांकिता' यही जिनका जीवनमंत्र हो ऐसे स्वयंसेवक की दूरदर्शिता को जागतिक मान्यता कैसे प्राप्त हो सकती थी? अपने गुणवैशिष्ट्यों को बेचने की कला का ज्ञान स्वयंसेवक में नहीं रहता है। पोषाकी जगत् में बिना लोहा किया बंगाली कुरता और धोती पहनकर तथा कंधे पर एक पंचा रखकर चलने वाला व्यक्ति याने दत्तोपंत ऐसी उनकी पहचान थी। ऐसे असाधारण रूप में उन्हें देखने पर लोगों का कैसे विश्वास होता कि यह अंग्रेजी भी बोलता हो और एक बड़ा चिंतनशील एवं दूरदर्शिता रखने वाला कोई ध्येयवादी जो हिंदुत्व के लिए समर्पित जीवन व्यतीत करने वाला हो।

उनसे प्रथम भेंट

जब श्री गोविंदराव आठवले महाराष्ट्र विधान परिषद में विदर्भ स्नातक मतदार संघ का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तब मैं उनका विधान परिषद संबंधित पत्रव्यवहार का काम करता था। गोविंदभाऊ के जीवन में भारतीय मजदूर संघ के कार्य के लिए अग्रक्रम रहता था। मा. दत्तोपंतजी के बारे में बहुत सी बातें वे मुझे कहते रहते थे। उन्हीं के साथ रहते मेरी भेंट मा. दत्तोपंतजी से पहली बार हुई। मैंने उसी समय पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण किया था। भेंट होने पर पता चला कि वे मेरे पिताजी तथा चाचा जी से पूर्व परिचित थे। अतः नए परिचय की दृढ़ता बढ़ी।

व्यक्तित्व का बड़प्पन

मुंबई स्थित हबीब बिल्डिंग में भारतीय मजदूर संघ का कार्यालय है। वहाँ एक बैठक में दत्तोपंतजी तथा रमणभाई शाह उपस्थित थे। मेरे पिताजी और चाचाजी मुझे मिलने हबीब बिल्डिंग में आए थे। क्योंकि मैं उस कार्यालय में रहता था और वहाँ की सब व्यवस्था भी देखता था। 'मुंबई सकाल' में मैं उपसंपादक था और विधि (कानून) की पढ़ाई भी करता था। बैठक के पश्चात् कोई भी आगे के पूर्व नियोजित दूर के कार्यक्रम के लिए बाहर नहीं जा सके क्योंकि मूसलाधार पानी बरसता था। रात हो गई थी। मैंने पड़ोसी के घर से बड़े बर्तन लाकर खिचड़ी-बेसन पकाया और हम पाँचों ने आधी रात को करीब 12 बजे भोजन किया। नींद तो सबको आती है तो कार्यालय में जो दरियाँ थीं वह बिछाई और दो गद्दे थे वह भी बिछाए। अब बड़ों के लिए दत्तोपंत जी ने गद्दे छोड़े और स्वयं तुरंत ही दरी पर लेट गए और क्षणार्ध में गहरी नींद में सो गए। गददे पर कोई भी नहीं सोया। सब दरी पर सोए।

मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक अखिल भारतीय नेता इतनी सहजता से व्यवहार कर सकता है। स्पष्ट ही है कि उस रात गद्दे पर कोई भी नहीं सोया। इन प्रसंगों से दत्तोपंत जी के महान व्यक्तित्व का बड़प्पन सहज ही अधोरेखित हो गया। उनके व्यवहार की यह सहजता अंत काल तक कायम रही। यह अनुभव अत्यंत स्पृहणीय एवं स्मरणीय है। प्रेरक भी है।

अध्ययन की गहराई

उनकी महानता का और एक पहलू ध्यान को आकर्षित करने वाला स्मरण में आता है। मुंबई छोड़कर मैं नागपुर आया था। राज्यशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर आचार्य (पी.एच.डी.) उपाधि के लिए मैंने पंजीयन किया था। पी.एच.डी. का विषय था, स्वातंत्र्योतर काल में भारत पर लादी गई लड़ाइयाँ और उनका भारत की परराष्ट्र नीति पर हुआ परिणाम। महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक के एक अधिकारी, श्री बालासाहब कोठेजी को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने यह विषय दत्तोपंतजी को बताया। उन्होंने मुझे भेंट करने के लिए बुलाया। दत्तोपंतजी ने भेंट में जो कहा वह उनकी विद्वता पर और विषय के गहन अध्ययन पर प्रकाश डालनेवाला है। मुंबई से मैं नागपुर में 'तरुण भारत' में जब आया तब की यह बात है।

'युद्ध याने क्या' से लेकर 'मानव रहित युद्ध' तक के विषय को मुझे दत्तोपंतजी ने समझाया। श्री कोठेजी दत्तोपंत जो बोलते थे वह सब लिखते थे। भारत ने चीन तथा पाकिस्तान से आक्रमण होने पर जो संघर्ष किया उसके बारे में बहुत सारी जानकारी मुझे दी। जब कोठेजी द्वारा लिखित वह सारी दत्तोपंतजी के मुख से निकली हुई सविस्तार जानकारी मैंने एकांत में पढ़ीं तो मेरे ध्यान में आया कि इस विषय की व्याप्ति कितनी अधिक है, जिसकी मैंने पूर्व में कभी कल्पना भी नहीं की थी। मेरे प्रबंध के मार्गदर्शक डा. बसंतराव रायपुरकर ने भी दत्तोपंतजी का वह कथन पढ़ा तो उन्होंने मुक्त मन से उसकी बहुत सराहना की। इसी बीच मेरी 'तरुण भारत' में पदोन्नति हुई। जिम्मेवारी बढ़ती गई और पी.एच.डी. पीछे रह गया।

संवाद से महानिर्मिति

दत्तोपंतजी की यह विशेषता थी कि कार्यकर्ता से बात करने का समय यानी कार्यक्रमों के बीच का खाली समय जो मिलता था वह किसी विषय को समझाने के लिए वे उपभोग में लाते थे। 'तरुण भारत' के सहायक संपादक श्री राजाभाऊ पोफलीजी कहते थे कि ग्राहक पंचायत कैसी होनी चाहिए, उसकी निर्मिति कैसे हो इन सबका नियोजन वे इसी प्रकार के बीच वाले समय में समझाते थे। रा.स्व.संघ के महाल स्थित कार्यालय से (डा. हेडगेवार भवन) प्रातः निकलकर रात को वापस कार्यालय में आने तक के समय में उन्होंने मुझ से जो चर्चा की वह दिनभर के विभिन्न पूर्व नियोजित कार्यक्रमों के बीच में मिलने वाले समय में की। उसी चर्चा का फलित था 'ग्राहक पंचायत' का गठन। इसकी कल्पना मूलतः बापू महाशब्देजी की थी। एडवोकेट गोविंदराव मुधडाजी ने लिखा था। दत्तोपंत जी का बौद्धिक अपत्य है। प्रथम उसे स्थानीय बाद में राज्यव्यापी और अंत में अखिल भारतीय ऐसा राष्ट्रीय स्वरूप देकर भी वे इस संगठन से लिप्त नहीं रहे, अलग ही रहे। आगे जाकर डा. म.गो. बोकरेजी ने ग्राहकोपयोगी अनेक वस्तुओं का उत्पादन खर्च निकालकर उन वस्तुओं के निर्माण का फायदा तथा लागत पर ब्याजादि मिलाकर उसका विक्रय मूल्य निर्धारित करने की विधि तैयार कर प्रसूत की थी। वस्तुओं का उत्पादन मूल्य जानने का ग्राहकों का मौलिक अधिकार है ऐसा प्रतिपादन किया गया। यहीं से डा. बोकरे को साम्यवादी आंदोलनों से बाहर निकाल करउनके द्वारा 'हिंदू अर्थशास्त्र' का ग्रंथ लेखन करवाने का श्रेय दत्तोपंत को ही जाता है। उन्होंने डा. बोकरे को अखिल भारतीय व्यासपीठ प्राप्त करवाया एक पत्रकार परिषद् बुलवाकर, जिसकी कहानी बड़ी आनंदमयी और प्रेरक भी है।

' पद्मपत्रमिवाम्भसा ' जैसा आचरण

'हिंदू अर्थशास्त्र' क्या है यह समझाने हेतु एक पत्रपरिषद मुंबई में हुई थी। फिरोजशाह मेहता मार्ग पर जिस भवन में 'हिंदुस्तान समाचार' का कार्यालय है, वहाँ यह पत्रपरिषद हुई। उसमें मा. दत्तोपंतजी ने स्वयं डा. बोकरेजी का परिचय उपस्थित पत्रकारों को कराया। परिचय करा देने के बाद स्वतः परिषद में न रुकते हुए दत्तोपंतजी परिषद से पूर्वयोजना से बाहर निकल आए और उनके आगे के कार्यक्रम के लिए चले गए। अगर वे वैसा नहीं करते तो पत्रपरिषद डा. बोकरे जी की न होकर दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की हो जाती। वैसा न हो इसलिए बाहर निकल जाने का निर्णय दत्तोपंत जी ने विचारपूर्वक लिया था। यह उनकी दूरदृष्टि थी, समझदारी थी, नीति थी। आत्मविलोपी रहना यह उनके जीवन का स्थायी भाव था। 'ब्रह्मण्याध्याय कर्माणि सं त्यक्त्वा करेतियः। लिप्यते न सं पापेन पह्मपत्रभिवाम्भसा।।' (गीता अध्याय 5, श्लोक 10वाँ) उनका प्रत्यक्ष आचरण भी ऐसा ही था।

बहुआयामी वाचन

जब मुझ पर तरुण भारत दैनिक, नागपुर के मुख्य संपादक का दायित्व था, तब दत्तोपंतजी ने मुझे उनके मुकाम पर यानी भगवान नगर, नागपुर में श्री वसंतराव पाठक के घर मिलने के लिए बुलाया था। मेरा अभिनंदन कर मुझ से पूछा कि मैंने कौन कौन से ग्रंथों का वाचन किया है। मैंने जो पढ़े थे, उनके नाम बताए। उन्होंने बाद में उनके स्मरण में से 40 पुस्तकों की सूची लिख लेने की आज्ञा की। पुस्तक के नाम सहित उस पुस्तक में जिस विषय की जानकारी लिखी गयी थी, वह मुझसे लिखवा ली। मुझे आज भी इस एक प्रश्न का उत्तर अभी तक नहीं मिला कि दत्तोपंतजी के देशव्यापी तथा विदेश दौरों के कार्यक्रम में होने वाली, बैठकें, चर्चाएँ, बौद्धिक भाषण इत्यादि सब करते हुए इतने ग्रंथों का वाचन उन्होंने कैसे और कौन से समय में किया होगा? उनका वाचन बहुआयामी ग्रंथों का था, वैसे ही चिंतन चतुरस था और यही बात उनके लिए भूषणावह थी। इसमें संदेह नहीं हो सकता। उनका अंग्रेजी ग्रंथों का वाचन भी बहुत गहरा था। उनके बताए 40 ग्रंथों में से केवल 10 ग्रंथों का ही वाचन आज तक मैं कर पाया। किंतु उन दस ग्रंथों ने ही मुझे एक यशस्वी संपादक के रूप में प्रस्थापित कर दिया।

भारतीय अर्थव्यवस्था राष्ट्रहितैषी हो!

भारतीय अर्थव्यवस्था के संबंध में स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ की भूमिका तत्कालीन शासन प्रमुख प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी की भूमिका के विरोध में थी। दत्तोपंतजी का कहना था कि हमने अपने मार्ग से जाना चाहिए। अमरीका का अनुनय करने की कोई आवश्यकता नहीं है। गैट करार के विरोध में वे थे। भारत की बड़ी आबादी वाला बाजार सब राष्ट्रों के फायदे का था। उसे कोई भी छोड़ना नहीं चाहेगा। इसलिए भारत सरकार ने अपनी शर्तों पर भारत में उन्हें प्रवेश देना चाहिए। ऐसा दत्तोपंत जी का आग्रह था। उन्होंने दिल्ली और बाद में नागपुर के टाउन हॉल में दिए जाहिर सभा के भाषणों में प्रधानमंत्री वाजपेयी जी की कटु शब्दों में आलोचना की और अटलजी के लिए वे अमरीका के 'गिनिपिग' हैं ऐसा उल्लेख किया। इससे देश भर में बहुत खलबली मची। संचार माध्यमों ने भी इसे बहुत प्रसिद्धि दी।

मन की गहरी अस्वस्थता

नागपुर की सभा के बाद लक्ष्मीनगर में उनके भतीजे के घर दत्तोपंत आए थे। उस समय उन्होंने मुझे मिलने के लिए वहाँ बुलाया था। मेरे वहाँ जाने पर दत्तोपंत ने मुझसे कहा, मैंने अटलजी को गिनिपिग कहा, लेकिन संचार माध्यमों में और टीवी चैनल्स में अब उस संबंध में जो दर्शाया जा रहा है। वैसा भाव मेरा नहीं था।" मेरे शब्द थे- अटल जी बहुत क्षमतावान हैं, दूरदृष्टि उनके पास है। उन्होंने अणुबम का परीक्षण कराया तब यह सब सिद्ध हुआ है। परीक्षण के फलस्वरूप अमरीका ने भारत पर लगाए आर्थिक निर्बंधों की भी अटलजी ने परवाह नहीं की। आगे चलकर अमरीका सरीखा शक्तिशाली राष्ट्र को भी ये निर्बध हटाने पड़े। ऐसे अटलजी अब अमरीका के गिनिपिग हुए जैसा व्यवहार कर रहे हैं।"

उस रात दत्तोपंत बहुत अस्वस्थ थे। मैंने उनको इतना अस्वस्थ होते पर्व में कभी देखा नहीं था। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि आपकी भाषण में जो भावशैली थी वह अगर आपने कही जैसी होगी तो 'तरुण भारत' में निश्चित ही वैसा ही छपकर आएगा। आप चिंता न करें। वैसा ही छपकर आया। लेकिन फिर भी उनकी अस्वस्थता कम नहीं हुई। नागपुर के उनके भाषण के कुछ दिनों के बाद पूना में एस.पी. कॉलेज के मैदान पर भारतीय मजदूर संघ का भव्य महाराष्ट्रव्यापी सम्मेलन हुआ। उसमें दत्तोपंत जी का भाषण हुआ। उसमें उन्होंने स्वदेशी का मुद्दा प्रतिपादित किया। किंतु इस भाषण में नित्य का वह जोश, उत्साह व भाषण देने की सहजता नहीं दिखाई दी।

महान व्यक्तित्व की मर्यादाएँ

बड़े व्यक्तियों के दु:ख दर्द भी बड़े ही होते हैं। सामान्य मनुष्य की तरह सहजता से वे किसी के भी सामने अपने दुःख को प्रकट नहीं कर सकते। पूना में दिए उस भाषण के बाद मैं उनसे मिलने पाषाण में रहने वाले बिजली कामगार नेता श्री एस. एन. देशपांडे के घर रात को गया था। उस क्षण मुझे ऐसा लगा कि एक विचारऋषि की वैचारिक स्वतंत्रता जब किसी कारणवश वंदिस्त होती है, तब उनकी होनेवाली अस्वस्थता को समझना सहज नहीं होता। किंतु अपनी अस्वस्थता का उल्लेख उन्होंने कभी भी कहीं भी और किसी के पास भी नहीं किया। इसे महान व्यक्तित्व की मर्यादाएँ ही कहना होगा।

विश्व स्तरीय तत्त्वज्ञ

मार्क्स के कालखंड में यूरोप पश्चिमात्य देशों में अरिस्टॉटल, प्लेटो, स्पेन्सर इत्यादि तत्वज्ञों (Philosophers ) का प्रभाव था। इसके वाबजूद मार्क्स का जड़वादी (Materialistic) तत्वज्ञान ने संपूर्ण यूरोप जगत् में प्रभाव जमाया था। मार्क्स के तत्वज्ञान का तर्क अनुभूति मानवता के कसौटी पर दत्तोपंतजी ने नकारा ही नहीं, अपितु यह तत्वज्ञान नजदीक के भविष्य में धराशायी हो जाएगा, ऐसा घोषित किया और सत्य भी हुआ। एक तरह से मार्क्स की पराजय और दत्तोपंत जी की विजय हुई। किंतु संघ में स्वयं का विलोप करने के कारण वे अरिस्टॉटल विश्व में एक महान तत्वज्ञ के ख्यातनाम नहीं हो पाए। ऐसे ही पं. मालवीय जी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन आदि अपने देश के महान विचारकों तत्वज्ञों में थे किंतु, उनकी पहचान देश में नहीं बन पायी।

राष्ट्र समर्पित उत्तुंग जीवन का अंत

कुछ दिनों के बाद मैं पूना से नागपुर बस से वापस जा रहा था। अहमदनगर पार करने पर श्री मोरेश्वर जोशी जी का पूना से दूरभाष आया कि अब दत्तोपंत इस दुनिया में नहीं रहे। दुःखी मन से मैं नागपुर पहुँचा। उन पर दूसरे दिन अग्रलेख लिखा। बाद में उनके मासिक श्राद्ध के प्रकट कार्यक्रम में-जो नागपुर के कांग्रेस नगर स्थित न्यू इंग्लिश हाईस्कूल के प्रांगण में संपन्न हुआ-तरुण भारत नागपुर ने एक पुरवणी (Supplement) का इस महान मनीषी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के उपलक्ष्य में विशेष प्रकाशन किया था। उपस्थितों में उसका वितरण भी किया गया था।

मा. दत्तोपंत जी के जाने से सर्वसमावेशक विचार करनेवाला, फिर भी कटु वचन न करने वाला, एक विचारऋषि काल रूपी परदे के पीछे अदृश्य हो गया। एक राष्ट्र समर्पित उत्तुंग जीवन की यात्रा थम गई।

सोपान - 3

(कुछ प्रमुख बिंदु)

v आज किसानों का अपना निजी, गैर-राजनीतिक-स्तर पर कोई संगठन नहीं है। जो उन्हें उनकी उपज का उचित मूल्य तथा सभी प्रकार के सरकारी, अर्द्ध-सरकारी और गैर-सरकारी शोषणों से मुक्ति दिला सके। स्वाभिमान, सम्मान के साथ अपनी संगठित शक्ति के आधार पर बिना किसी राजनीतिक दल का पिछलग्गू बने अपनी सभी उचित माँगों को सत्ता से मनवा सके, इस कार्य के लिए किसान संघ का निर्माण हुआ है।

v महापुरुषों के जीवन-संदेश पाठकों के पास या बुद्धि तक पहुँचाना ही पर्याप्त नहीं है। उसे मन-हृदय-आत्मा तक पहुँचना चाहिए तभी अपेक्षित संस्कार देने का कार्य संपन्न हुआ माना जा सकेगा।

v बुद्धिवादी व्यक्तियों के लिए तात्त्विक, वैचारिक साहित्य अधिक उपयुक्त है, लेकिन सामान्य जनता की दृष्टि से ललित साहित्य अधिक प्रभावी सिद्ध होता है।

v पूर्णरूपेण सर्वतोमुखी प्रतिभा का जो एकमात्र उदाहरण संसार ने अब तक देखा है, वह है महर्षि व्यास का।

v अपनी कृति को तुरंत, अपने जीवन काल में ही जनमान्यता प्राप्त होगी, ऐसी आशा रखकर इन श्रेष्ठ साहित्यिकों ने अपना साहित्य निर्मित नहीं किया।

v सभी प्रतिभासंपन्न साहित्यिकों में एक विशेषता पायी जाती है। वह है वर्ण्य विषय से पूर्ण, शत-प्रतिशत तादात्म्य। लेखन करते समय उनके मन में यह भान नहीं रहता कि यह लेखन 'मैं' कर रहा हूँ। लिखते समय 'मैं', का पूर्णतः विस्मरण हो जाता है।

v भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस ने भविष्य का एक स्वप्न देखा था। उसका उत्तरोत्तर प्रस्फुटीकरण करने का कार्य स्वामी विवेकानंद ने किया। उनके महानिर्वाण के पश्चात् भी यह प्रक्रिया निरंतर चलती रही। परम पूजनीय डॉक्टरजी ने भी भविष्य का एक स्वप्न देखा था। उसको उत्तरोत्तर प्रस्फुटित करने का कार्य श्रीगुरुजी ने किया। उन्होंने पू. डाक्टर जी की संकल्पना के अनुरूप कार्य की रचना की। इसके कारण यह कार्य और प्रक्रिया निरंतर चल रही है।

v गांधीजी की मुस्लिम नीति गलत है, यह बात कालांतर से पं. जवाहरलाल नेहरू के भी ध्यान में आई कि यह नीति बदलनी चाहिए।

v कांग्रेस में पहले से ही काम करने वाले राष्ट्रवादी मुसलमान नेताओं को घर की मुर्गी दाल बराबर समझकर उनकी उपेक्षा करने और हमेशा गालियाँ-धमकियाँ देने वाले स्वयंघोषित मुस्लिम नेताओं को ही मुस्लिमों का सच्चा प्रतिनिधि मानने की नीति गलत और दुष्परिणामकारक है, ऐसा केवल हिंदुत्ववादी ही सोचते हैं, ऐसा नहीं था। कई जागरूक मुसलमान भी जानते हैं कि स्वयंघोषित नेता वास्तव में सभी मुसलमानों के प्रतिनिधि नहीं हैं।

v दि. 12 जुलाई 1922 को जेल से मुक्त होकर बाहर आने के बाद डॉक्टरजी का अभिनंदन करने के लिए जो प्रकट सभा हुई उसमें प्रादेशिक कांग्रेसी-हिंदूसभाई नेताओं के अलावा पं. मोतीलाल नेहरू और हकीम अजमलखाँ के भी डॉक्टरजी के अभिनंदन में भाषण हुए। डॉ. ना. भा. खरे सभा के अध्यक्ष थे।

v मेरठ षड्यंत्र काण्ड में गिरफ्तार एक कम्युनिस्ट नेता, जिसने 1925 में मुंबई के अधिवेशन में आइटुक (AITUC) पर कब्जा जमाया, उस समय के (AITUC) के सर्वप्रथम कम्युनिस्ट अध्यक्ष के नाते निर्वाचित हुए थे, वे धुंडिराज पंत ठेंगड़ी डॉक्टरजी को छोटा भाई समझकर उनसे प्रेम करते थे। यह बात उतनी प्रसिद्ध नहीं है। वे डॉक्टरजी को कहते थे, केशव! तू मेरे संघ के गणवेशधारी दस हजार स्वयंसेवकों का पथ संचलन बंबई में करके दिखा दे, तो मैं तुझे दस लाख रुपया इकट्ठा करके देता हूँ।"

v आज की पीढ़ी के लोग श्री वामनराव घोरपड़े के बारे में इतना ही जानते हैं कि वे कांग्रेस में रहते हुए भी ब्राह्मणेतर पक्ष के एक नेता थे। किंतु श्री घोरपड़े से डॉक्टरजी के निकट के संबंध थे और डॉक्टरजी के विविध कार्यो में वे सहभागी होते थे। वैसे ही अमरावती के श्री नानासाहेब गवई डॉक्टरजी के संबन्धों के कारण यह भूल जाते थे कि वे तथाकथित अस्पृश्य जाति के थे।

v एक संस्कृत साहित्यिक ने मालाकार (माली) को कहा है कि वर्षाऋतु प्रारंभ होने के पश्चात् प्रचंड वृष्टि चल रही हो, ऐसे समय तू वृक्ष को जो एक सौ घड़े पानी हर दिन दे रहा है उसका महत्व उस वृक्ष की दृष्टि से उतना नहीं है, जितना ग्रीष्म ऋतु में सभी वृक्ष जब जड़मूल से सूख रहे थे उस समय किसी ने उस वृक्ष को जो एक-एक घड़ा पानी डाला था, उसका है।

v रूस ने तो आँकड़ों के आधार पर परियोजनाएँ बनायीं, परंतु भारत-सरकार ने आँकड़ों के अभाव में भी धड़ाधड़ योजनाएँ कर डालीं। देश के नेता इन सब बातों के परिणाम के विषय में नहीं सोचते। उन्हें शायद केवल अगले चुनाव की ही बात सूझती है। चुनाव के कारण ही शायद एक के बाद एक आकर्षक नारे दिए जाते हैं। सस्ती लोकप्रियता के लिए हवा में बातें की जाती हैं। परंतु 'समग्र विचार' नहीं किया जाता।

v हमारे देश में रूस की तरह योजना बनायी गई। रूस में बड़े-बड़े उद्योगों पर बल दिया गया क्योंकि वे किसानों को खत्म करना चाहते थे। वे उनको सरकारी मजदूर मात्र बनाना चाहते थे। पर भारत में किसानों का भूमि पर से स्वामित्व खत्म करने का कोई विचार नहीं है। अतः गाँव की योजना भारत के अनुकूल ही बनानी चाहिए। पर यहाँ भी भारी उद्योगों को प्राथमिकता दी गई जिनके परिणाम निकलने में दस-पंद्रह साल लग गए।

v कृषि-कार्य में काम आने वाली चीजों, जैसे- खाद, बीज, पानी, बिजली, डीजल, ट्रैक्टर, हल, बैल आदि पर भारी मात्रा में छूट दी जानी चाहिए तथा छोटे लोगों के लिए ब्याज मुक्त ऋण की व्यवस्था होनी चाहिए थी। भारी उद्योगों की तुलना में यदि कृषि पर आधा धन भी लगाया जाता तो लागत कम हो जाती। यदि सरकार पाँच-छ: साल तक गाँवों में भारी छूट देती तो देश का चित्र बदल जाता।

v आज आवश्यकता है देश के सामर्थ्य, गुणवत्ता, साधन श्रोतों का देश के हित में पूरा-पूरा उपयोग हो। लेकिन राजनीति हावी होने के कारण उन सबका उपयोग ही नहीं हो पाता। आज डॉ. हरगोबिंद खुराना जैसे वैज्ञानिक अमेरिका में है। अगर देश में उनके गुणों की कद्र होती तो देश का कल्याण होता। देश में सुविधाएँ न मिलने के कारण हमारी ये प्रतिभाएँ विदेशों में चली जाती हैं।

v तात्कालिक स्वार्थ से मनुष्य अंधा हो जाता है। किसान और किसान संघ के संबंध शेर और जंगल के संबंध के समान हैं। शेर के कारण जंगल की सुरक्षा है। शेर नहीं रहे तो कोई भी आकर जंगल काट देगा। वैसे ही शेर की सुरक्षा जंगल के कारण है। जंगल ही न रहा तो शेर के छिपने का स्थान नहीं रहेगा। वह खुले मैदान में आ जाएगा और कोई शिकारी उसका शिकार आसानी से कर सकेगा। यही बात एक किसान और पूरे गाँव की भी है।

v पूरे गाँव के कल्याण में सभी का कल्याण है और गाँव के किसी भी व्यक्ति के कल्याण में आगे चलकर पूरे गाँव का कल्याण निहित है। सभी गाँव वाले एक ही नौका में सवार हैं। यदि नौका टूटेगी तो सभी डुबेंगे और नौका तैरती रही तो सभी किनारे पहुँच जाएंगे-पार उतर जाएंगे। इस पृष्ठभूमि में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने कहा है कि विश्व में कहीं भी विद्यमान गरीबी विश्व के सभी स्थानों के वैभव के लिए महान खतरा बन जाती है।"

v यदि शरीर के किसी अंग पर चोट होती है तो सारा शरीर कष्ट का अनुभव करता है यही भाव सभी जातियों के बीच उत्पन्न करना है। एक का दु:ख सबका दु:ख है और एक का सुख सबका सुख है। यह भाव आज समाप्त होता जा रहा है।

v हम राष्ट्रभक्त हैं, अतः जातीयता के विष को दूर करने के लिए हमें कदम उठाना ही होगा। मंजिल चाहे जितनी दूर क्यों न हो किंतु अगला कदम रखते ही दूरी कुछ कम होगी ही।

v जातीयता के विष को यदि मिटाना है तो पहले अपने मन से छुआछूत का भाव निकालना होगा और हिम्मत से आगे बढ़ना होगा।

v किसान संघ का वर्ग-कल्पना में विश्वास नहीं है। महात्मा जी तथा सरदार पटेल वर्ग-संघर्ष का विरोध तथा वर्ग-समन्वय का प्रतिपादन करते थे। हम वर्ग कल्पना को मानते ही नहीं।

v डा. बाबा साहेब अम्बेडकर ने कहा है कि हिंदुस्तान की सही सामाजिक स्थिति का अनुमान हमारे मार्क्सवादी बंधु लगा ही नहीं सकते। पश्चिम में उनकी वर्ग-कल्पना चलती होगी, किंतु हिंदुस्तान में कुछ सामाजिक संस्थाएँ ऐसी हैं जिनके कारण यह पाश्चात्य कल्पना व्यवहार में यथार्थ प्रतीत नहीं होती।

v एक जाति के संपन्न-विपन्न (Haves and Have nots) दूसरी जाति के संपन्न विपन्न (Haves and Havenots) के विरुद्ध एक शिविर में आ जाते हैं। दोनों शिविरों में अपनी जाति के संपन्न-विपन्न (Haves and Have nots) कंधे से कंधा मिलाकर खड़े दिखाई देते हैं। इस तरह सामाजिक हिंदुस्तान की कुछ विशेषताएँ हैं, जिनका मार्क्सवाद के आधार पर विचार नहीं हो सकता।

v चौधरी चरणसिंह जी ने अपने आर्थिक प्रबंध में एक चरम (Extreme) पर जाते हुए लघु उद्योगों का महत्त्व प्रतिपादित किया। यह अच्छा ही हुआ, क्योंकि स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् हमारा लंबक (पेंडुलम) दूसरे गलत छोर (Extreme) पर पहुँच गया था।

v दुर्भाग्य से श्री मैकरमारा का यह अभिप्राय सही है इस तरह के रचनात्मक कार्यों के लिए आवश्यक भूमिका निर्वाह करने की क्षमता भारत की नौकरशाही-अफसरशाही में नहीं है।

v प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान वहीउद्दीन खान साहब ने मुस्लिम नेताओं से अपील की है कि वे इस बात को घोषित करने का साहस करें कि वे भारतीय मुसलमान कहलाने में गर्व महसूस करते हैं।

v मौलाना ने वंदेमारतम् का विरोध करने वाले स्वयंभू मुस्लिम नेताओं को आड़े हाथों लिया तथा अतीत को याद करते हुए कहा कि एक समय था जब शायर इकबाल राम की शान में गा सकते थे तथा उन्हें 'इमामे हिंद' की पदवी दी थी। इकबाल का 'सारेजहाँ से अच्छा' अपनी लोकप्रियता की हद पर था। वो समय एक अच्छा समय था लेकिन ऐसा बहुत दिनों तक नहीं रहा जिसने सही दिशा में सोचने वाले लोगों के दिलों को ठेस पहुँचाई। दुर्भाग्य से उन लोगों ने जिन्हें सारे जहाँ से अच्छा गाने में कोई ऐतराज नहीं था, वंदेमारतम् का घोर विरोध किया।

v मुस्लिम रहनुमाओं को सकारात्मक रवैया अख्तयार करते हुए संजीदगी से ये घोषणा करनी चाहिए कि वह इसी धरती से जुड़े हुए हैं। मुस्लिम रहनुमाओं की ये कारकर्दगी हर आदमी के अंदर मौजूद इन्सान को इन्साफ करने में मदद करेगी। इसके विपरीत भड़काऊ भाषण इंसान के अहं को ठेस पहुँचाते हैं और ये श्रीमान् 'अहं' व्यक्ति को बेइंसाफी करने को प्रेरित करते हैं और भारत की तरक्की की राह में रोड़ा बनते हैं।

v महाराष्ट्र में पंढरपुर की यात्रा के समय वारकरी भक्तमंडली एक गीत की पंक्ति बोलते हैं- "वाळवंटी चंद्रभागेच्या तीरी झेंडा रोविला" यानि श्री विठ्ठल के नाम का झंडा गाड़कर हमने नई पारी शुरू कर दी है। ठेंगड़ी जी ने भी श्रमिक आंदोलन में राष्ट्रवाद का झंडा गाड़कर इस क्षेत्र को एक नई पहचान दी।

v वामपंथी श्रमिक नेता श्री राममूर्ति के 75वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में निजी भोज पर जिन चार बंधुओं को निमंत्रण था उनमें तीन तो जाने माने वामपंथी नेता थे और चौथे थे मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी। विरोधियों के साथ उनके अत्यंत मधुर संबंध थे और कालांतर में कई विरोधी बंधु उनके मित्र ही नहीं तो कार्य में सहयोगी भी बन गए थे। अपने सिद्धांतो के साथ कहीं भी समझौता न करते हुए इस प्रकार लोगों को जोड़ना ये ठेंगड़ी जी के 'अजातशत्रु' होने का ही प्रमाण है।

v डॉक्टर जी के विषय में एक कविता में लिखते हुए ठेंगड़ी जी ने कहा है "Through his tongue he did speak to us our ancient wisdom" यही बात उन्हें स्वयं को भी लागू होती है के ट्रिनिडाड में प्रधान मंत्री श्री वासुदेव पांडे से बातचीत में उन्होंने कहा कि 'वसुधैव कुटुंबकम्' के साथ अब 'वसुधैव मार्केटिंग' शुरू हो गया है तो पांडेजी ने कहा की उन्हें तो एक नया चिंतन सूत्र मिल गया है।

v गीता में भक्त के लक्षण में भगवान कहते हैं:

"यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च में प्रियः।।"

अर्थात् जिससे लोग ऊबते नहीं ओर जो लोगों से ऊबता नहीं ऐसा व्यक्ति मुझे प्रिय है। इस श्रेणी में मा. ठेंगड़ी जी का अनायास ही अंतर्भाव होता है।

v गांधीजी ने कहा था 'तिलकजी हिमालय सरीखे ऊँचे हैं और उतनी ऊँचाई मैं पहँच नहीं सकता, गोखले जी- उनके गुरु- सागर सरीखे गंभीर है और उतनी गहराई तक भी मैं जा नहीं सकता; मुझे मालवीय जी गंगा मय्या की शीतलधारा सरीखे लगते हैं जहाँ मैं सरलता से विहार कर सकता हूँ।' मुझे लगता है कि ठेंगड़ी जी में हिमालय की ऊँचाई थी, सागर की गहराई थी और गंगाजी की शीतल धारा की सहजता भी थी।

v वहाँ यह पत्रपरिषद हुई। उसमें मा. दत्तोपंतजी ने स्वयं डा. बोकरेजी का परिचय उपस्थित पत्रकारों को कराया। परिचय करा देने के बाद स्वतः परिषद में न रुकते हुए दत्तोपंतजी परिषद से पूर्वयोजना से बाहर निकल आए और उनके आगे के कार्यक्रम के लिए चले गए। अगर वे वैसा नहीं करते तो पत्रपरिषद डा. बोकरे जी की न होकर दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की हो जाती। वैसा न हो इसलिए बाहर निकल जाने का निर्णय दत्तोपंत जी ने विचारपूर्वक लिया था। यह उनकी दूरदृष्टि थी, समझदारी थी, नीति थी। आत्मविलोपी रहना यह उनके जीवन का स्थायी भाव था।

v दत्तोपंतजी के देशव्यापी तथा विदेश दौरों के कार्यक्रम में होने वाली, बैठकें, चर्चाएँ, बौद्धिक भाषण इत्यादि सब करते हुए इतने ग्रंथों का वाचन उन्होंने कैसे और कौन से समय में किया होगा? उनका वाचन बहुआयामी ग्रंथों का था वैसे ही चिंतन चतुरस था और यही बात उनके लिए भूषणावह थी। इसमें संदेह नहीं हो सकता। उनका अंग्रेजी ग्रंथों का वाचन भी बहुत गहरा था। उनके बताए 40 ग्रंथों में से केवल 10 ग्रंथों का ही वाचन आज तक मैं कर पाया। किंतु उन दस ग्रंथों ने ही मुझे एक यशस्वी संपादक के रूप में प्रस्थापित कर दिया।

v मार्क्स के कालखंड में यूरोप पश्चिमात्य देशों में अरिस्टॉटल, प्लेटो, स्पेन्सर इत्यादि तत्वज्ञों (Philosophers) का प्रभाव था। इसके बावजूद मार्क्स के जड़वादी (Materialistic) तत्वज्ञान ने संपूर्ण यूरोप जगत् में प्रभाव जमाया था। मार्क्स के तत्वज्ञान का तर्क अनुभूति मानवता के कसौटी पर दत्तोपंतजी ने नकारा ही नहीं, अपितु यह तत्वज्ञान नजदीक के भविष्य में धराशायी हो जाएगा, ऐसा घोषित किया और सत्य भी हुआ। एक तरह से मार्क्स की पराजय और दत्तोपंत जी की विजय हुई।


खंड - 8

सोपान - 4

सोपान - 4 (संस्मरण)

1. करुणासागर त्यागमूर्ति दत्तोपंत ठेंगड़ी..... सी. ए. वर्गीज

2. सब्यसाची शिल्पकार..... कृष्णा पाटिल

3. श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी कुछ यादें..... रत्नाकर राजनकर

4. मार्गदर्शक नहीं रहा..... म.वा. ओंकार

5. समयशाली कर्मठ जीवनयज्ञ..... सुभाष सरवटे

6. सुई धागा लेकर अपनी बनियान खुद सिली.... नागेश कुमार सिंह

सोपान - 4

करुणासागर त्यागमूर्ति-दत्तोपंत ठेंगड़ी

डॉ. सी. ए. वर्गीज

निदेशक, सी.बी.एम.डी.

(स्वदेशी जागरण मंच)

श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के निधन का दु:खद समाचार जब मुझे मिला तो अमेरिका के विख्यात जीवनी लेखक(बायोग्राफर) लुइस फिशर का महात्मा गांधी के निधन पर दिया गया वक्तव्य मुझे स्मरण हो आया जिसमें उन्होंने कहा था कि 'विश्व निर्धन हो गया है क्योंकि निर्धनों में अतिनिर्धन का देहावसान हो गया है। (The world has become poorer because it has lost the poorest of the poor) यह जितना महात्मा गांधी के लिए सच है उतना ही उक्त कथन दत्तोपंत जी के निधन पर भी उपयुक्त है।

मेरा यह दावा कदापि नहीं है कि मैं उनका सहकर्मी था। वे मुझसे कहीं कई गुणा अधिक संगठनात्मक पदानुक्रमी एवं अनुभवयुक्त थे। किंतु दुर्भाग्यवश मुझे उनकी संगति में रहने का लंबा समय प्राप्त नहीं हुआ। मेरा उनसे परिचय मेरे स्वदेशी जागरण मंच में प्रवेश के उपरान्त हुआ और इस परिचय की अवधि वमुश्किल पाँच वर्ष रही होगी किंतु इसी अल्पावधि में मेरा उनके प्रति जबरदस्त आकर्षण पैदा हुआ। यह उनकी संगठनात्मक उपलब्धियों के कारण नहीं अपितु उनके तेजस्वी व्यक्तित्व तथा विरोधियों को भी पस्त कर देने वाली स्मित मधुर मुस्कान के कारण था। यह आवश्यक नहीं है कि किसी लोहे के टुकड़े को आकर्षित करने के लिए चुंबक (मैग्नेट) के निकट वर्षों रखा जाए अपितु एकाध अवसर प्राप्त होते ही लोहा मैग्नेट की ओर खिंचा चला जाता है।

श्री ठेंगड़ी जी का श्रम संघ आंदोलन, किसान व स्वदेशी जागरण मंच के लिए योगदान अभूतपूर्व, असाधारण व चमत्कारिक है। सामान्यतया देखा जाता है कि संगठनकर्ता व्यक्तिगत शक्ति प्रसिद्धि की भूख के कारण धनबल बाहुबल का प्रयोग करके अपना उद्देश्य व सफलता प्राप्त करते हैं। किंतु कुछ होते हैं जो उद्देश्य प्राप्ति हेतु अपने सब सुखों का त्याग करते हुए अनूठे तरीके से अपना सर्वस्व होम करके अपने बंधु बांधवों के हितार्थ स्वयं को खपा देते हैं। ठेंगड़ी जी ने स्वयं को खपा देने वाला यह मार्ग ही चुना था और यथार्थ में अकेले दम पर (सिंगल हैंडिडली) उन्होंने न केवल चिरस्थाई सर्वशक्तिशाली जनसंगठन खड़े किए अपितु अन्यों को जन जन का नेता बनने का सही मार्ग क्या है यह भी दर्शाया।

अनेक नेता संगठन बनाते ही इसलिए हैं कि वे व्यक्तिगत लाभ, सुविधाएँ व सत्ता का दुरुपयोग करके समाज में ऊँची हैसियत बनाए रखें और यही सत्ता प्रतिष्ठान पश्चात् अपने बेटे, बेटियों व निकट संबंधियों को हस्तांतरित कर दें। श्री ठेंगड़ी जी के मामले में उनके संपर्क में आए हुए सभी लोग उनके लिए बराबर व उनके वरिष्ठ सहयोगी थे। परिणामस्वरूप उन्होंने जितने भी संगठन खड़े किए उनका पुख्ता आधार और प्राथमिकता है। इसलिए इन संगठनों की विस्तार वृद्धि उनके जीवन काल में भी बढ़ी और भविष्य में भी उत्तरोतर बढ़ती ही जाएगी।

उनका जीवन सच्चे अर्थो में भारत की पावन संस्कृति तथा श्रेष्ठ परंपाराओं का साक्षात मूर्तरूप था। वे श्रेष्ठतम कर्मयोगी तथा भगवद्गीता के 'कर्म करो फल ईश्वरत्व पर छोड़ दो' को चरितार्थ करके गए हैं। इस संदर्भ में मुझे कर्मयोगी की महाकवि टैगोर ने जो व्याख्या की है उसका स्मरण हो रहा है। टैगोर कहते हैं 'जो व्यक्ति किसी एक विचार को जीता है- राष्ट्रहित व मानवताहित के लिए जीवन जीता है उस के लिए जिंदगी का बहुत व्यापक अर्थ (extruded meaning) अच्छाई के जीवन जीने के मायने हैं समस्त लोगों का जीवन जीना।'

लगता है महाकवि टैगोर जब 'साधना' पर अपने निबंध में उक्त पंक्तियों का प्रयोग कर रहे थे अवश्य ही उनके मन में दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसा कोई व्यक्ति रहा होगा।

दत्तोपंत जी गुणों के भण्डार थे किंतु उनका सबसे प्यारा गुण उनकी उल्लासपूर्ण (radiant) मासूमियत थी। यह उनके संत समाज आंतरिक शांति के कारण था जिसे उन्होंने वर्षों की सतत साधना से प्राप्त किया था। मेरा मानना है कि उन्होंने अनेक चुनौतियों तथा विकट परिस्थतियों का सामना किया होगा जिन्होंने उनके दृढ़ संकल्प व धैर्य को आजमाया होगा। ऐसे सभी अवसरों और प्रसंगों में वे विजयी रहे और मित्रों व विरोधियों का मन भी गहरे विश्वास और मूलतः सभी के लिए भले की भावना होने के कारण वे जीत सके। यहाँ तक कि अलग मत व विचार धारा के लोग भी इनसे प्रेम करने और उन्हें आदर देने लगे।

उनकी योगीरूप चित्तवृत्ति व चरित्र ने मेरे मन पर अत्यंत स्नेहिल व गहरी अमिट छाप छोड़ी है। उन्होंने अपने आस-पास के वातावरण पर विजय प्राप्त कर ली थी और जो व्यक्ति उनके संपर्क में आता था वे उसके अंतर्मन को छू लेते थे-बिना ट्रेड यूनियन के उद्देश्य अथवा सामाजिक नीति के अपनी समस्त कार्य व्यस्तताओं को पीछे रखते हुए वे प्रत्येक व्यक्ति को महत्व देते थे।

उनकी विरासत (Legacy) क्या है? ईंट दर ईंट गारे से निर्मित कोई आलीशान भवन निर्मित कर के वे अपने पीछे नहीं छोड़ गए हैं अपितु उन्होंने उन तमाम मिलने वालों के मन में विचारों की नई तरंगे, नई प्रेरणाएँ और जागृति के बीज बोए हैं। विचारों के यह अंकुर बढ़ने, फलने, फूलने चाहिए और समाज के प्रत्येक क्षेत्र तथा राष्ट्रीय जीवन में इनका प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई देना चाहिए जिसकी ठेंगड़ी जी को चाहत थी और जिसे चरितार्थ होते हुए ठेंगड़ी जी देखना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु ठेंगड़ी जी का जीवन चरित (biography) लिखने की आवश्यकता है जिससे असंख्य लोगों, जो मातृभूमि की सेवा में स्वयं को समर्पित करना चाहते हैं, को असीम प्रेरणा प्राप्त होगी। इस संदर्भ में बताना चाहूँगा कि मैं स्वयं उनकी जीवनी (बायोग्राफी) लिखना चाहता था और इस हेतु उन्हें किंचित परेशान भी करता रहा किंतु उनके भीतर बैठे हुए विनम्र आत्मविलोपी मानुष ने इसकी कभी स्वीकृति प्रदान नहीं की। उनके जीवन के विशाल विस्तृत अनुभव और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उनके द्वारा प्रतिपादित विचारों के खजाने को संरक्षित एवं संवर्धित तथा विस्तारित करने की आवश्यकता है।

मैं उन्हें अक्सर विनम्र सुझाव दिया करता था कि वे श्रम संघ व किसान आंदोलन का आधुनिकीरण करें और उन्हें समसामयिक प्रतिष्ठानों के रूप में परिवर्तित व विकसित करें। जिनमें आधुनिक धारणाओं पर आधारित श्रम तथा कृषि प्रबंधन को स्थापित किया जाए। जनमानस में यह विचार पनपे कि वे स्वयं में एक संस्थान हैं। उससे पहले बेहतर यह होगा कि 'दत्तोपंत ठेंगड़ी प्रबंधन संस्थान' (Dattopant Thengadi Institute of Management) नाम से एक प्रतिष्ठान की स्थापना की जाए जिसमें श्रम संघ और कृषि प्रबंधन के विशिष्ट पाठयक्रम रखे जाएँ। प्रारंभ में पत्राचार पाठ्यक्रम और तदुपरान्त विधिवत संस्थान की स्थापना की जाए।

संयोगवश अंतिमबार जिस विषय पर ठेंगड़ी जी ने मुझ से चर्चा की वह था औद्योगिक ट्रस्टीशिप की अवधारणाओं पर कैसे एक सम्मेलन बुलाया जाए जिस पर एक एप्रोच पेपर तैयार करके मैंने उन्हें दिया था। उसकी प्राप्ति रसीद उन्होंने मुझे भेजी और लिखा था 'उद्देश्यपूर्ति हेतु पर्याप्त सामग्री है' किंतु उनके अस्वस्थ हो जाने के कारण उक्त कार्य योजना पर आगे कार्यवाही नहीं हो सकी। मैं समझता हूँ उनके कागजों (फाइलों) में कदाचित्त ऐसी अनेक योजनाओं प्रकल्पों की रूपरेखाएँ बंद पड़ी होंगी जिन्हें राष्ट्रहित के प्रकाश में लाया जाना चाहिए।

मुझे ठेंगड़ी जी के सानिध्य का सौभाग्य थोड़े ही समय के लिए मिला फिर भी उनकी उपस्थिति मैं हरदम महसूस करता हूँ। उनका आत्मीय औरा स्नेहपूर्ण मुस्कराता हुआ चेहरा मेरी स्मृतियों में सदा के लिए अंकित हो गया है। उनका मानवता के प्रति लोकोत्तर असीम प्रेम व शोषित पीड़ित उपेक्षित दबे कुचले लोगों के प्रति सर्वस्व त्याग की भावना कभी विस्तृत नहीं की जा सकती। उनके विचार विश्व में जगमगाएँ और उनकी पावन स्मृतियाँ हमें प्रेरित करें तथा हमारे कार्यकलाप ऐसे हों जिसे उस महान कर्मयोगी की विरासत के हम वास्तविक और सही अधिकारी सिद्ध हों।


सब्यसाची शिल्पकार

कृष्णा पाटिल

भारतीय किसान संघ

बड़ौदा (विदर्भ)

श्रद्धेय ठेंगड़ी जी ने रा.स्व.संघ की अपेक्षानुसार विभिन्न क्षेत्रों का नाम रोशन किया। प्रतिनिधि सभा में किसी सामाजिक क्षेत्र का विस्तार करने की बात आई तो स्वभाविक रूप से उस क्षेत्र के अभिभावक के नाते ठेंगड़ी जी की ओर निर्देश होता था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, किसान संघ,सामाजिक समरसता मंच, स्वदेशी जागरण मंच, सर्व पंथ समादर मंच आदि संस्थाओं को आपने सफल आधार दिया। उसके लिए हर क्षेत्र का प्रारूप, उसकी योजना का अंदाज, क्षेत्र की पहली बैठक में ही उनको आ जाता था। सभी कार्यकर्ताओं को दो-तीन दिनों के लिए निवास के लिए बुलाने थे। ऐसी बैठक में केवल हँसी-मजाक चलती थी। ऐसे समय संघ के अनुशासन में से आए हुये लोग बेचैन हो जाते थे। किंतु दत्तोपंत जी अविचल रहते थे और ऐसे अनुशासन विहीन लगने वाले माहौल में भी कार्य के विस्तार की चिंता करते थे। अपनी उनकी कार्यपद्धति पर उनका पक्का विश्वास था। अपनी आँखों के सामने मानो अपनी नई चित्रदृष्टि को वे देख रहे थे। उसका अखंड चिंतन चलना, इस आधुनिक विश्वकर्मा में हम महसूस करते हैं।

विदर्भ के दारव्हा तहसील स्थान पर 1970 में भारतीय किसान संघ (विदर्भ) की बैठक भा.कि.संघ के प्रांताध्यक्ष मा. बाबूराव जी वैद्य के घर पर आयोजित थी। यह बैठक 3-4 दिन से चल रही थी। यह बैठक अभूतपूर्व और अविस्मरणीय थी। मैं पदवीधर होने के तुरंत बाद ज्येष्ठ प्रचारक बाकाभाऊ पांडेजी के आदेश के कारण प्रबंधक के काम के लिए इस बैठक में पहुंचा था। प्रतिदिन का भोजन उसमें भी हर दिन नए व्यंजनों की भरमार, चाय नाश्ता और हँसी मजाक इतना ही स्मरण से उस बैठक का है। इस पहली बैठक में मा. बाबूराव जी बैद्य किसान संघ के प्रांत अध्यक्ष और स्व. मधुभाऊ बनसोड प्रांत मंत्री घोषित हुये। उस कारण सबको अच्छा भोजन करवाने वाले को यहाँ अध्यक्ष मनोनीत किया जाना है, ऐसी मेरी धारणा बन गई। मैं कम उमर का था इसलिए शायद मेरे दिमाग में ऐसी बात आ गई। किंतु उस बैठक के बाद भा. किसान संघ बढ़ता ही गया मैं इसका गवाह हूँ और उस बैठक में मा. ठेंगड़ी जी ने सहज भाव से कार्यकर्ताओं में नव चैतन्य का संचार किया। लस्त सुस्त कार्यकर्ताओं में आपने संजीवनी फॅकी। भा.म.संघ उनकी प्राथमिकता थी। भा. किसान संघ की परवरिश जारी थी। ऐसे समय महाराष्ट्र के कृषि क्षेत्र में शरद जोशी (सांसद) नाम का एक तूफान आया।

शरद जोशी की शेलकर्स (खेतिहरों की) संगठन यानी एक आंधी का रूप लेकर आई और देखते ही देखते पूरे महाराष्ट्र पर छा गई। अंतर प्रांतीय आंदोलन शुरू हुए। कार्यकर्ता किसान संघ को छोड़कर नई संगठन की ओर आकर्षित होने लगे। मा. ठेंगड़ी जी को सारी जानकारी थी। मा. ठेंगड़ी जी ने अपने जीवन में ऐसे चमकते सितारे बहुत देखे हैं इसलिए वे कतई विचलित नहीं हुए बल्कि काम करने वाले को तहे दिल से शुभकामना देते रहे। हमारा बरताव ऐसा रहे कि वहाँ के कार्यकर्ता हमारे लोगों पर निर्भर रहें। हमें छोड़कर उनका कहीं भविष्य नहीं। इस प्रकार के सहवास की आदत उन्हें होनी चाहिए। यह मा. दत्तोपंत जी की सलाह थी। हम उनके क्षेत्र में जाकर अपना प्रभाव ठीक दिखा सके तो हमारा उधर जाना कुछ मायने रखेगा। अपने स्वयंसेवकों के संबंध में ठेंगड़ी जी का पूरा विश्वास था। अभी तक उनके खेमे (शरद जोशी) के चित्र हमारे सामने हैं। मजदूर क्षेत्र के नेताओं की आदतें ठेंगड़ी जी को ठीक मालूम थीं। किसी ढीली-ढाली कार्य पद्धति पर आपको भरोसा नहीं था। इसलिए यह शरद जोशी नाम की आँधी बहुत थोडा समय टिकेगी। ऐसा मा. ठेंगड़ी जो को ठोस विश्वास था और आगे चलकर समय की कसौटी पर उनका भविष्य सही निकला।

श्रद्धेय दत्तोपंत लक्ष भेदी दिव्य दृष्टि के दार्शनिक, ज्येष्ठ विचारक तथा नित्य अध्ययनशील थे। आपका कई विषयों का गहन चिंतन था। आप अर्थशास्त्री थे और एकदम विनम्र थे। मेरे हिसाब में यह उनका सबसे श्रेष्ठ गुण था। छोटे कार्यकर्ता से उन्हें अधिक लगाव था तो तथाकथित बड़े लोगों को पर्याप्त दूरी (Respectable Distance) रखने की आपके व्यक्तिमत्व की एक विशेषता थी। हिंदुत्व जीवन पद्धति के विषय में उत्कट स्थायी भाव होने के कारण मातृभूमि के संबंध में तथा भारत के समाज जीवन पर आधारित उनकी चिंतन विचारधारा अद्वितीय थी। अजेय शक्ति दिलाने वाली थी। गैट करार के कारण अपेक्षित आर्थिक गुलामी का धोखा सर्वप्रथम जानकर उनके विरोध में प्रथम शंखनाद आपने ही किया और विदेशी साम्राज्य के विषैले वायुमंडल को ठेंगड़ी जी ने छेद दिया।

इस विदेशी षड्यंत्र की कूटनीति को आपने बहुत पहले पहचाना। मा. दत्तोपंत जी की इस दिव्य दृष्टि को समूचा भारतीय समाज सभी स्तरों पर स्वदेशी के माध्यम में प्रणाम कर रहा है और इसी आत्मीयता से यह उनके प्रति मेरी श्रद्धांजलि है।

" श्रद्धेय दतोपंत ठेंगड़ी की कुछ यादें"

रत्नाकर राजनकर

बुलढाणा

श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की पावन स्मृति को विनम्र अभिवादन करते हए उनके बुलढाणा जिले में हुए कई बार के प्रवास की केवल एक या दो प्रसंग को प्रकाश में लाने का मेरा यह छोटा सा प्रयास है। स्व. मा. मा.ग. डोंगरे उपाख्य बाबूराव जी डोंगरे और दत्तोपंत के मित्रत्व का परिचय बुलढाणा के भा.म.संघ के कार्यकर्ताओं के लिए एक आनंद का विषय था। श्री विश्वंभर बाघमारे, श्री प्रकाश रवोन, श्री मंगलमूर्ति आसोलकर, श्री बाबूराव जी के सामने सहवास में बड़े हये। स्व. दत्तोपंत व स्व. बाबूराव जी का सख्य तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य आदि की वाणी बातों में हम रंग जाते हैं।

स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी जब भी बुलढाणा में आते थे उनकी सारी व्यवस्था मेरे ही घर में होती थी, उसके कारण भोजन के समय का हास्य-विनोद हमने अच्छी तरह अनुभव किया है। ऐसा भाग्य शायद बहुत से कार्यकर्ताओं को न मिला हो। दत्तोपंत तथा बाबूराव जी की शिक्षा, उनके प्रति आदर तथा अदब के कारण उनसे बातचीत करते समय संयम रखना पड़ता था।

भारतीय मजदूर संघ की स्थापना के बाद स्व. बाबूराव जी के स्नेहिल और अथक प्रयास के कारण खेतिहर मजदूर, गुमास्ता, घरेलू, विद्युत, बैंक इन उद्योगों में बड़ी संख्या में कामगार भा.म.संघ से जुड़े, सतपुड़ा पहाड़ी के आदिवासियों का संगठन भी खड़ा हुआ। आदिवासियों की समस्या के समाधान हेतु आंदोलन भी हुए। कुल मिलाकर बुलढाणा जिले में भा.म.संघ का कार्य गतिशील हुआ। इस दरम्यान स्व. दत्तोपंत जी का प्रवास भी बहुत हुआ था। जगह जगह कार्यकर्ता की टोली निर्माण हुयी और कई कार्यकर्ता सीधे स्व. दत्तोपंत जी के संपर्क में आए थे।

उस समय भा.म.संघ के नाम से कहीं पर भी कोई कार्यालय नहीं था। भा.म.संघ की संपत्ति नहीं बनाना, कार्यकर्ता का घर ही भा.म. संघ का कार्यालय ऐसा माना जाता था। लेकिन स्वर्गीय बाबूराव जी डोंगरे ने अपनी खुद की जगह देकर भा.म.संघ का कार्यालय निर्माण किया। स्व. बाबूराव जी के प्रति आदर के कारण इसका विरोध कोई भी नहीं कर सका था। इस कार्यालय का उद्घाटन स्व. दत्तोपंत ने किया यह एक ऐतिहासिक घटना बुलढाणा जिले के कार्यकर्ताओं के लिए थी।

हर दो या तीन साल के बाद स्व. दत्तोपंत का बुलढाणा में प्रवास होता था। यह हमारे लिए आनंद का विषय रहता था या छोटे-बड़े कार्यकर्ताओं से सहज संपर्क, मुलाकात में वे अपने कुटुंब के घटक ही लगते थे।

स्व. दत्तोपंत बाल गोपालों में भी रम जाते थे। छोटे-छोटे बच्चे उनसे इतने घुलमिल जाते थे कि उनके जाने के समय बच्चे उनको पकड़े रहते थे, उनको भी दत्तोपंत का सहवास प्यारा लगता था। उनके सहवास में हमें जो आनंद मिला वह अविस्मरणीय है। संगठन का कार्य स्वीकार करने के बाद, कार्यकर्ता तथा कार्य के प्रति कैसे समरस हो यह उनसे ही सीखने को मिला था।

श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की स्मरणशक्ति बहुत तीव्र थी। अखिल भारतीय अधिवेशन के समय मिले कार्यकर्ताओं का नाम और गाँव के साथ इनका उल्लेख करते थे और उनके ही गाँव के अमुक अमुक कैसे हैं, क्या करते हैं, प्रकृति ठीक है कि नहीं आदि प्रश्न करते थे। आत्मीयता से पूछताछ करना यह उनके स्वभाव की विशेषता थी।

श्रद्धेय दत्तोपंत का हमें मिला सहवास उनकी मनोमिलन की सहज वृत्ति, कार्यकर्ताओं से संपर्क, सुख-दुख में सहभाग की तत्परता हमने जो अनुभव की उसको भुला पाना संभव नहीं। उनकी पावन स्मृति में इतनी ही मन की बात।

मार्गदर्शक नहीं रहा

म.वा. ओंकार

महाराष्ट्र

घट स्थापना का दिन-भा.म.संघ के छोटे-बड़े कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शक आदरणीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने अंतिम यात्रा के लिए चुना। उनके जाने से केवल भा.म.संघ ही नहीं, अपितु समूचे भारत वर्ष के राष्ट्र भक्त कामगार अपने नेता को खो चुके थे। "देशभक्त मजदूरों एक हो, देश के लिए करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम" यह शिक्षा देने वाला महान गुरु हमारे बीच में नहीं रहा। उनके अथक प्रयास और पूरे भारत में निरंतर प्रवास के कारण भा.म.संघ को प्रथम क्रमांक की कामगार संगठन का दर्जा प्राप्त हुआ। भा.म.संघ के बड़ोदरा अधिवेशन में हम कामगारों से कम रोजी पाने वाले असंगठित गरीब मजदूर और खेतिहर मजदूर इनकी समस्याओं की ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। ऐसा उपदेश उन्होंने किया था।

दुनिया के मजदूरों एक हो और कामगार संगठन माने लाल झंडा इस प्रस्थापित संकल्पना के बदले कामगारों के मन-मस्तिस्क में भगवा झंडा ठेंगड़ी जी ने संक्रमित किया। कामगारों को न्याय दिलाने हेतु आपने वामपंथी नए शासन के चाटुकार इंटक वालों को भी साथ लेकर चलने का भी आपने प्रयास किया। किसी भी ढंग का आंदोलन चलाना है तो प्रारंभ में सबको एकत्रित जुटाना, कृति समिति का गठित करना जरुरी है। इन सबको साथ लेकर चलना ठेंगड़ी जी की योजना थी। किंतु अन्य संगठनों के आवाज देने पर उनके पीछे घसिटते जाना, उन्हें कतई मान्य नहीं था। मौका पड़ने पर उनका विरोध कर समानांतर आंदोलन चलाना। इस प्रकार की बात हम मा. ठेंगड़ी जी से सीखे हैं। शासन में कौन बैठा है। इसकी चिंता न करते हुए देश के और मजदूरों के हित में राजनीति से दूर रहकर चलने वाला भा.म.संघ आपने खड़ा किया और उसको ठीक रफ्तार से चलाया।

भा.म.संघ से संबंधित गवर्मेंट एंप्लाइज नेशनल कॉन्फेडरेशन (सेंट्रल तथा स्टेट एंप्लाइज) इस संगठन की अध्यक्षता दिल्ली में हुयी। सभा में ठेंगड़ी जी ने मुझे सौंपी। केंद्र सरकार द्वारा चौथे वेतन आयोग का अन्य संगठनों ने विरोध किया तथा सहयोग न देने की भूमिका ली। ऐसी विचित्र परिस्थितियों में मा. ठेंगड़ी जी का निर्देश मिला था। वेतन आयोग के मातहत केंद्रीय और राज्य कर्मचारियों के वेतन में और भत्ते में (Allowance) सुधार हो सकता है। बढ़ोतरी अवश्य हो सकती है, ऐसा उनका मानना था और उसी को आपने प्रोत्साहित किया। ठेंगड़ी जी के आशीर्वाद से मैं मा. अन्नाजी मिटकरी एवं मधुकर राव बोरकर, श्री आंबेडकर, जग्गी जी तथा पठेलाजी इन सबके सहयोग से चौथे वेतन आयोग को देने के लिए ज्ञापन बनाया और आयोग को देकर, गवाही के लिए जाने का मौका भी मिला। आज ऐसे ज्येष्ठ नेता को हम खो बैठे। संगठन को बहुत हानि पहुँची। मैं उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

समयशाली कर्मठ जीवनयज्ञ

सुभाष सरवटे (प्रचारक)

नागपुर

स्वयंसेवकत्व श्रद्धेय ठेंगड़ी जी के जीवन का अभिन्न अंग था। प्रतिदिन के उनके व्यवहार से यह बात समझ में आती थी। उनके बर्ताव से समभाव प्रतिक्षण प्रकट होता था। वे सभी को अपना मानते थे। झारखंड के हजारीबाग विभाग का रा.स्व.सेवक संघ का प्रचारक होने के नाते दायित्व मेरे पास था और 1997 में मा. ठेंगड़ी जी चार दिन के प्रवास पर हजारीबाग आए थे। केंद्रीय अर्थमंत्री और प्रशासन में महत्वपूर्ण पदों का वहन करने वाले श्री यशवंत जी सिन्हा हजारीबाग के निवासी थे। हजारीबाग के पास डेमोहांड एक छोटा ग्राम है, वहाँ श्री सिन्हा जी की खेती है। ठेंगड़ी जी के निकट सहवास तथा प्रभाव के कारण स्वदेशी जागरण मंच का काम करने वाले सिन्हा जी भाजपा में सक्रिय हो गए थे। उन्हीं दिनों में सिन्हा जी अविभक्त बिहार के भाजपा के अध्यक्ष के नाते चुने गए थे। इस दरम्यान मा. दत्तोपंत जी के प्रवास में श्री सिन्हा जी हजारीबाग में उनसे मिलने आए। दो घंटे तक दोनों की अनौपचारिक बातचीत हुई। अंत में सिन्हा जी ने ठेंगड़ी जी को सारे नियोजित कार्यक्रमों के बाद अपने 'फार्म' पर आने का आग्रहपूर्वक निमंत्रण दिया। किंतु ठेंगड़ी जी ने नम्रतापूर्वक और स्पष्ट शब्दों में 'ना' कहा। सिन्हा जी के चेहरे के भाव थोड़े नाराजी से लगे और मुझे भी अच्छा नहीं लगा। तब रास्ते में मैंने सहमते हुए ठेंगड़ी जी से उनके 'नकार' का कारण पूछ ही लिया। उनका उत्तर था "आवश्यक ऐसे सारे विषयों पर बातचीत हो गई थी फिर उनके फार्म पर किसलिए जाना?

इसी प्रवास में उनकी कर्मठता का और एक अनुभव आया। हजारीबाग में रेलवे नहीं थी। इसलिए झुमरीतलैया (कोडरमा) स्टेशन से जाना होता है। वहाँ से दत्तोपंत जी को जिला संघचालक सुरेश सिंह जी के घर ले गए। वहाँ सुबह चाय नाश्ता होकर हजारीबाग जाने का तय था। जिला संघचालक जी के घर पर उधर के एक विधायक ठेंगड़ी जी से मिलने हेतु पहले से ही पहुँचे थे। मा. दत्तोपंत जी प्राकृतिक सौदर्य के चहेते हैं, यह पता होने के कारण, पास वाला तिलैया डैम दिखाने की पूरी व्यवस्था हो चुकी थी। विधायक महोदय ने वैसा प्रस्ताव ठेंगड़ी जी के समक्ष रखा। किंतु मुझे बताकर ठेंगड़ी जी ने यह कार्यक्रम रद्द करवाया। संघ के किसी कार्यक्रम में औरों का हस्तक्षेप उन्हे पसंद नहीं था और न ही उनकी सहायता।

'दत्तोपंत जी के साथ मेरे संबंध एकदम अनौपचारिक थे। नागपुर के नागोबा गली में पूजनीय गुरुजी के माता-पिता का निवास था। मैं उनका नजदीकी, रिश्तेदार होने के कारण बचपन में उनके साथ रहता था। कुछ साल बाद दत्तोपंत जी का निवास उसी मकान में हुआ। साथ में शाखा के पश्चात् पू. गुरुजी, डॉ. आबाजी थत्ते, कृष्ण राव जी मोहरील बाबूजी चौथाई वाले, मनोहर राव जी देवरस, दत्तोपंत जी इस सब के साथ चाय नाश्ते के लिए उस मकान पर आने थे। पू. गुरुजी की माताजी (ताई) के लिए सबको बड़ी श्रद्धा थी। विशेष कर दत्तोपंत जी के लिए ताई जी को बड़ा लगाव था। दत्तोपंत जी पूरण रोटी बड़े चाव से खाते थे, यह ताई जी को ठीक मालूम था। हमारे घरों में छोटे-छोटे कामों के लिए राधाबाई नाम की एक बुढ़िया थी। ठेंगड़ी जी उसकी भी पूछताछ करते थे। फत्तरफोड़ अखाड़े के पास एक झुग्गी में राधाबाई रहती थी। ठेंगड़ी जी उस झुग्गी में जाकर राधाबाई को मिलकर आए। हमारे उस मकान के सामने खटणमल नामक सज्जन की दुकान थी। उसके दुकान का बहत सारा माल हमारे घर पर रखना था। इस खटणमल से ठेंगड़ी जी की खूब दोस्ती हो गई और आखिर तक बनी रही।

दत्तोपंत जी लिखने का काम प्रायः दोपहर के समय करते थे। उपरोक्त कार्य काल में खेती के विषय में एक पुस्तक लिखने के लिए आपने दोपहर का ही समय चुना था। पिछले साल रा.स्व.संघ की प्रतिनिधि सभा के समय स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण ठेंगड़ी जी को रेशमबाग से महाल के संघ कार्यालय में आना पड़ा। वहाँ आने के बाद दोपहर के समय मुझे उनके कमरे में बुलाकर, दत्तोपंत जी ने उनकी कॉपी में नागोबा गली के उस मकान के निवासी और बीच बीच में वहाँ मिलने के लिए आने वाले की नामों की सूची लिखने के लिए कहा।

छोटे-छोटे सभी लोगों से ऐसा सम-भावना का बर्ताव रखने वाले मा. ठेंगड़ी जी किसी विशेष बीमारी के न होते हुए चल बसे। इस पर अभी भी भरोसा नहीं होता। पूना जाकर उनसे मुलाकात करने की इच्छा वैसे ही धरी रही। अभी भी लगता है कि ठेंगड़ी जी कहीं से आकर कहेंगे-हाँ, सुभाष, वे नाम लिखना शुरू करो-बाबूराव रत्नाकर, दादा पिपळूणकर, भाई-।।

सुई धागा लेकर अपनी बनियान खुद सिली

नागेश कुमार सिंह

भारतीय मजदूर संघ

रायबरेली (उत्तर प्रदेश)

फरवरी 1982 में इंडियन टेलिफोन इंडस्ट्रीज लिमिटेड, रायबरेली के सामुदायिक केंद्र में अखिल भारतीय केंद्रीय सार्वजनिक प्रतिष्ठान मजदूर संघ का अखिल भारतीय तीन दिवसीय अभ्यास वर्ग चल रहा था। उसमें मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी तथा मा. बड़े भाई रामनरेश सिंह जी का मार्गदर्शन प्राप्त हआ था। उस समय मैं इंडियन टेलिफोन इंडस्ट्रीज लिमिटेड मजदूर संघ का महामंत्री था। मा. ठेंगड़ी जी व मा. बड़े भाई रामनरेश सिंह जी के रहने की व्यवस्था इंडस्ट्रीज के अतिथिगृह में की गई थी। यह देखकर दोनों लोग नाराज हो गए और पूछा कि क्या कार्यालय में जगह नहीं थी जो अतिथिगृह में रहने की व्यवस्था की गई है। मा. ठेंगड़ी जी ने कहा मैं कार्यकर्ताओं के साथ रहने के लिए आया हूँ न कि अतिथिगृह में रहने आया हूँ। मुझे अपने कार्यकर्ताओं के साथ रहना ही प्रिय है।

मुझे मा. ठेंगड़ी जी व बड़े भाई जी की सेवा कार्य के देख रेख के लिए लगाया गया था। नहाने के बाद ठेंगड़ी जी ने मुझसे सुई धागा लाने के लिए कहा। मैंने पूछा क्या करेंगे सुई धागा तो उन्होंने पहनी हुयी बनियान दिखायी जो एक-दो जगह से उधड़ गई थी और उनसे आग्रह किया कि लाइए मैं सिल दूँ। उन्होंने मनाकर दिया। स्वयं सुई धागा लेकर अपनी बनियान सिली। मुझसे अन्य कार्यकर्ताओं व कार्यक्रम के तथा मेरे स्वयं के परिवार के हालचाल पूछते रहे।

इंडियन टेलिफोन इंडस्ट्रीज में पहला बड़ा अभ्यास वर्ग था। सभी कार्यकर्ता तन-मन-धन से कार्य में जुटे थे। कहीं कोई कमी न रह जाए अच्छी से अच्छी व्यवस्था दी जाए, भोजन व्यवस्था आदि सभी व्यवस्था उत्तम हों, यह प्रयास था।

उद्घाटन सत्र में ठेंगड़ी जी बोल रहे थे। दुनिया के बहुत सारे देशों के बारे में जानकारी दे रहे थे। उनके साथ बड़े भाई रामनरेश सिंह जी व पं. राम प्रकाश मिश्र तथा श्री महीनारायण झा व श्री साठे जी मंच पर मौजूद थे। सत्र समाप्त हुआ। दूसरे सत्र में पं. राम प्रकाश मिश्र जी ने कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन किया।

दूसरे सत्र के बाद भोजनावकाश था। ठेंगड़ी जी व बड़े भाई जी ने सभी कार्यकर्ताओं के साथ पंक्ति में बैठकर भोजन किया तथा अपना पत्तल उठाकर बाहर डाला। भोजन वाले स्थान पर भी कार्यकर्ताओं की तारीफ और हौसलाअफजाई की। उसके बाद कार्यकर्ताओं से विदा लेकर आवास पर आए। मैं उनके साथ गाड़ी में ही था। आवास पर आने के बाद मा. ठेंगड़ी जी व बड़े भाई मुझ पर खूब नाराज हुए। कहा कि बहुत दिव्य व्यवस्था व दिव्य भोजन व्यवस्था से दूसरे कार्यकर्ता कार्यक्रम नहीं लेंगे। जहाँ संगठन कमजोर है व कार्यकर्ता कमजोर हैं वे सोचेंगे ऐसी व्यवस्था कैसे करेंगे। जो पैसा इतनी व्यवस्था में खर्च किया वही पैसा बचाकर संगठन को देते तो संगठन के काम आता, भविष्य के लिए इन बातों का ध्यान रखना। संगठन कार्य व कार्यक्रम साधारण तरीके व सादगी के साथ किया जाए। अपव्यय बिल्कुल नहीं होना चाहिए। सादा जीवन उच्च विचार को सदा ध्यान रखकर ही काम किया जाए। यह संगठन व कार्यकर्ता दोनों के हित में है। विदाई वाले दिन मैं ठेंगड़ी जी व बड़े भाई जी के लिए एक-एक कुर्ता, धोती व बनियान का कपड़ा जैसा वे पहने थे व साथ ही एक अंगोछा ले आया था। विदाई के समय जब उनके कपड़े के झोले में रखने लगा तो दोनों एक साथ बोल पड़े कि यह क्यों लाए हो। अभी इसकी क्या जरूरत थी। यही पैसा बचाकर संगठन को नहीं दे सकते थे? मैं अवाक रह गया। मा. ठेंगड़ी जी ने कहा मजदूरों के लिए काम करने निकला हूँ। मजदूरों जैसा ही जीवन जीता हूँ। अभी इस देश के मजदूर की हालत इतनी नहीं सुधरी कि दो वस्त्र से ज्यादा रख सकें। मेरे बड़े अनुनय विनय पर उन्होंने एक वस्त्र स्वीकार किया।

एक बार वित्तीय वर्ष 1998-99 में मा. ठेंगड़ी जी रायबरेली आए थे। रात्रि भोजन एक उद्योगपति परिवार के यहाँ रखा गया था। भोजन के बाद जब ठेंगड़ी जी उनके घर से बाहर आए तो उन्होंने कहा किसी कार्यकर्ता के यहाँ भोजन रखना था। मैं अपने कार्यकर्ता के यहाँ ही भोजन करना पंसद करता हूँ, किसी उद्योगपति के यहाँ नहीं। सदैव ध्यान रहे छोटे से छोटे कार्यकर्ता के यहाँ सूखी रोटी में मुझे जो स्वाद मिलता है, वह किसी उद्योगपति के 36 व्यंजन में नहीं मिलता। विदुर का साग ही प्रिय है दुर्योधन के व्यंजन नहीं।

एक बार एक कार्यकर्ता से संगठन के पैसे खर्च हो गए। बात ठेंगड़ी जी तक पहुँची। कुछ कार्यकर्ता नाराज थे इससे सख्ती के साथ पैसे वसूले जाएँ। ठेंगड़ी जी ने सभी कार्यकर्ताओं को समझाया कि ठीक है कार्यकर्ता ने शराब पी ली अब दवा का बिल लगाकर पास कर लो और प्रयास करो कि ऐसा न हो। कार्यकर्ता भी बना रहेगा और कोष का हिसाब भी ठीक हो जाएगा। सख्ती करने पर न कार्यकर्ता रह जाएगा और न ही कोष का हिसाब हो पाएगा।


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हिंदी समय में दत्तोपंत ठेंगड़ी की रचनाएँ