हिंदी और भारतीय भाषाएं एक साथ दो मोर्चों पर लड़ रही हैं। एक ओर शिक्षा का
मोर्चा है तो दूसरी तरफ बाजार। भारत जैसे देश में जहां शिक्षा से निर्मित होने
वाली अर्थव्यवस्था लगातार बढ़ रही है और जल्द ही ट्रिलियन डॉलर का आकार
प्राप्त का लेगी, वहीं बाजार की दृष्टि से भी भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी
अर्थव्यवस्था बनकर उभर रहा है। लेकिन बाजार जहां हिंदी और भारतीय भाषाओं में
विस्तार पा रहा है वहीं शिक्षा में भारतीय भाषाएं सिकुड़ती जा रही हैं। ये
कमजोरी जो पहले केवल उच्च शिक्षा के संस्थानों में थी, जहां हिंदी और भारतीय
भाषाओं को लगभग निषिद्ध घोषित कर दिया गया था। वहीं अब माध्यमिक और प्राथमिक
शिक्षा के क्षेत्र में भी हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाएं उपेक्षणीय हो गई हैं।
सामान्यजन के बदलते दृष्टिकोण के पीछे निश्चित रूप से शासकीय नीतियां और समाज
के प्रभुत्वशाली वर्ग की भारतीय भाषाओं के प्रति उपेक्षा एवं अंग्रेजी के
प्रति अतिशय मोह बड़ा कारण रहा है। आजादी के तत्काल बाद जिस जज्बे के साथ इस
देश ने राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किया था और ये सपना देखा था कि
हिंदी अगले दस- बीस वर्षों में समस्त भारत की संपर्क भाषा, राजभाषा और उससे
आगे बढ़कर राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित होगी, यह स्वप्न अब भी अधूरा है।
सामान्यत: सिद्धांत है कि जो भाषा बाजार में चलती है वही अंतत: राज और समाज
की भाषा बनती है, लेकिन हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ इसका उल्टा हो रहा है।
देश की आर्थिक गतिविधियों के संचालन में विशेषत: खुदरा व्यापार में हिंदी और
भारतीय भाषाएं अपरिहार्य हैं परन्तु समाज के संचालन और राजकाज की भाषा के रूप
में इनकी भूमिका अब भी सीमित ही है। देश में अंग्रेजी भाषा को बोलने वालों की
संख्या भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किसी भी भाषा से कम है।
बावजूद इसके वह अब भी पूरे भारत की राजकाज की भाषा बनी हुई है। इसी कारण यह एक
वर्चस्वशाली भाषा है। अंग्रेजों की नीतियों के कारण भारतीय भाषाओं के बीच की
समरसता और बहुभाषिकता की स्वीकृति के प्रति संदेह पैदा हुआ जबकि भारत में भाषा
संस्कृति के निर्माण, मनुष्य के बलिदान और स्वाभिमान तथा जीवन का साधन रही है।
भारत में भाषा का लोकोत्तर चरित्र है। उसका परंपरागत इतिहास है। उसे ज्ञान के
विस्तार और ज्ञान की निर्मिति और विस्तार के लिए उपलब्ध साधन के रूप में देख
सकते हैं। सभी भारतीय भाषाओं में ऐसी पूरकता है जिससे भारत नाम के सांस्कृतिक
राष्ट्र की निर्मिति होती है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक संपूर्ण राष्ट्र
एकता के सूत्र में बंध॑ता है। इसकी विविधताओं को स्वीकार करके राष्ट्रीय एकता
सिद्ध होती है। हालांकि भारत की संसद की चर्चा का अधिकांश हिस्सा हिंदी एवं
भारतीय भाषाओं में हुआ है, पर अभी भी कार्यपालिका में इनका प्रयोग सापेक्षिक
रूप से कम है। न्यायपालिका में तो हिंदी एवं भारतीय भाषाएं प्रवेश पाने के
लिए संघर्ष कर रही हैं। उच्च शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। इस
देश के भाषायी कुलीन श्रेष्ठ शिक्षकों एवं शोधवेत्ताओं ने पूरे प्रयास से
हिंदी एवं भारतीय भाषाओं को उच्च शिक्षा एवं शोध की भाषा बनने से रोका है।
तर्क यह है कि हमारी भाषा में सामग्री नहीं है, इस नाते हम अंग्रेजी में पढ़ने
के लिए बाध्य हैं। हम सब जानते हैं कि स्नातक में आने वाला हमारा विद्यार्थी
अंग्रेजी भाषा को कितना समझ पाता है। भाषा सीखते-सीखते ही उसकी जिंदगी चली
जाती है। इस संदर्भ में एक उदाहरण देना चाहता हूं। 'स्वराज इन आइडियाज' में
के. सी. भट्टाचार्य लिखते हैं कि "मैं इस स्थिति में आ गया हूँ कि बांग्ला में
कुछ भी नहीं सोच सकता, जो सोचता हूं उसको बांग्ला में लिख नहीं सकता, इसलिए
मेरे द्वारा लिखित 'स्वराज इन आइडियाज" में भी मौलिकता नहीं आएगी।" के. सी.
भट्टाचार्य की इस स्वीकारोक्ति का हमें ध्यान रखना चाहिए। हमें एक ऐसी शिक्षा
पद्धति की स्थापना करने का प्रयत्न करना होगा जिसमें सृजनात्मक कल्पनाएं और नई
संभावनाओं का चिंतन मनुष्य अपनी मातृभाषा में कर सके। इसके लिए हमें दुनिया
में उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान के संसाधनों, तकनीकी उपकरणों के संसाधनों, संप्रेषण
के माध्यमों का समन्वित प्रयोग करते हुए संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को परिवर्तित
करने का यत्न करना है। इस स्थिति में भारतीय मेधा वैश्विक स्तर पर स्थापित हो
सकेगी। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की स्वीकृति के एक वर्ष के अंदर ही देश की
आईआईटीज और मेडिकल कालेजों में भारतीय भाषाओं में अध्यापन प्रारंभ होना
भारतीय इतिहास की की युगांतकारी घटना है, जो सही संदर्भों में मैकाले को खारिज
करते हुए भारत के लोगों के लिए भारत की जुबान में शिक्षा हो इसका पथ प्रदर्शित
करती है। औपनिेवेशीकरण की पूरी प्रक्रिया में भाषा ने महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई थी। शिक्षा के भारतीयकरण का अभियान भी भाषा के माध्यम से ही होगा। इसका
सृजनात्मक पक्ष देखने को मिलने लगा है। हिंदी को लेकर जन स्वीकृति का जो
स्वरूप बन रहा है उसे शिक्षा में उतारना होगा। इसके लिए नई राष्ट्रीय शिक्षा
नीति में चयन मूलक स्वतंत्रता और आवश्यकता मूलक चयन की दृष्टि से भारतीय
भाषाओं को प्रस्तुत किया गया है। भारत की बहुभाषिकता को संवर्धित करते हुए
हिंदी आने वाले दस से पंद्रह वर्षों में भारत सहित विश्वस्तर पर ज्ञान-विज्ञान
और तकनीकी की भाषा के रूप में विकसित हो सकती है। हम दुनिया के तमाम देशों पर
एक नजर दौड़ायें तो प्रगत देशों की सूची में उच्च स्थान पर वही राष्ट्र हैं
जिन्होंने शिक्षा,व्यापार और सरकार इन सब के बीच मातृभाषा को स्वीकारा और
बढ़ावा दिया है। हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं को स्वीकार करना, उन्हें
शिक्षा,व्यापार और सरकार की भाषा बनाना ही वास्तव में भारत को औपनिवेशिक
दासता से मुक्ति दिलाना है और सही अर्थों में हिंद स्वराज को साकार करना है।
समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का जो स्वप्न भारत के संविधान निर्माताओं
ने देखा था वह इसी तरह पूर्ण होगा।