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वैचारिकी

जन गण मन के राम

रजनीश कुमार शुक्ल


जन गण मन के राम भारत की पहचान हैं। वे भारत का जीवन तत्व हैं। भारतीय संस्कृति की अनादि धारा में उनकी सर्वत्र उपस्थिति है। हमारे लोक और शास्त्र में उनके अनगिनत रूप वर्णित हैं- प्रभु श्री राम, राजाराम, सियावर राम, दुष्ट विकंदन राम, सज्जन संरक्षक राम, धर्म संस्थापक राम, करुणामय राम, करुणावरुणालय राम, नेही राम, योजक राम, त्यागी राम, पुत्र राम, पिता राम, शासक राम, सेनानी राम, परामर्शदाता राम, धर्म तत्वज्ञ राम, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, अखंड ब्रह्मांड नायक राम, हनुमान के राम, वाल्मीकि के राम, तुलसी के राम, केशव के राम, गुरुगोविन्द सिंह के राम, कम्ब के राम, मैथलीशरण गुप्त के राम और निराला के राम। एक राम के इतने विविध रूप! इन रूपों को ध्यान में रखकर ही मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं कि, ''हे राम तुम्हारा चरित्र स्वयं में काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।" कहना न होगा कि राम भारतीय संस्कृति और इतिहास में एक ऐसे अद्भुत व्यक्ति हैं जो जीवन के विविध रूपों और पर्यायों में मर्यादा, धर्मगुण और आचरण का संस्कार रचते हैं। उनका जीवन स्वयं शास्त्र है। उनके संबंध में वाल्मीकि साफ शब्दों में में कहते हैं-

प्रादुर्भावं विकुरुते येनैतन्निध्न नयेत्। पुनरेवात्मानात्मानमधिष्ठाय स तिष्ठति।।

अर्थात् उनका अवतार इसलिए हुआ जिससे वे मनुष्यों में विकृतियों को नाश कर उनमें जीवन की श्रेष्ठता को जाग्रत कर सके। ऐसे जाग्रत व्यक्ति को देखकर अन्य लोग सीख सके कि जीवन में कैसे व्यवहार करना चाहिए। एक साधारण मनुष्य के लिए ईश्वर रूपी मानव अर्थात् राम का जीवन इसी रूप में अनुकरणीय है। उनका पूरा जीवन साधारण मनुष्य के रूप में भाषित होता है। लोग राम के श्रेष्ठ जीवन को स्वयं के जीवन में उतार सकें इसके लिए अवतारी अलौकिक राम लोक संग्रह, लोकानुकम्पा, लोक जागरण, लोक शिक्षण और लोक संस्कार के भाव से साधारण मनुष्य के रूप में जीवन जीते हैं। वे लीलाएं नहीं करते हैं लीला तो कृष्ण करते हैं। कृष्ण स्वयंघोषित करते हैं-

अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थितः ।

भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवेत्।। (रासपञ्चाध्यायी-5-37)

कृष्ण केवल लीला करते और उन लीलाओं को सुनकर व्यक्ति पारलौकिक अनुभव कर सकता है। राम लीला नहीं करते हैं। वे जीवन जीते हैं। वे सत्यसंध हैं। वे शिष्य, पति, पुत्र, राजा, सेनानी, संगठनकर्ता, वनवासी के रूप में मर्यादाओं को रचते हैं। इसी कारण राम इस देश में जन-जन के मन में बसते हैं। वे इस गणराज्य के गणाधिपति हैं। इस गणराज्य के प्रतीक हैं। वे बताते हैं कि गणतांत्रिक जीवन कैसा होना चाहिए? गणतांत्रिक जीवन में किस प्रकार से राजा को भी साधारण स्तर पर जीवन जीना पड़ता है? किस प्रकार से गणतांत्रिक जीवन में श्रेष्ठतम स्थिति में रहते हुए भी व्यक्ति (ईश्वर होने के बाबजूद भी) समाज के अंतिम आदमी के प्रति उत्तरदायी होता है? किस प्रकार से वह मन, मानस में बुद्धि, चेतन, संस्कार के रूप में, आचरण करता के रूप में लोगों के बीच जीता है? अपनी इसी विशिष्टता के कारण राम अपने तिरोधान के बाद भी जीवित हैं। यही उनका वैशिष्ट्य है।

यह अलग बात है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राम लला विराजमान के अस्तित्व को भी विराजमान रूप, मूर्तिमान रूप, विग्रहवान व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया। जो जीवंत और प्राणवान राम हैं, विग्रहवान राम है, उसकी चर्चा जरुर होनी चाहिए। आइए 'जन के राम' पर विचार करते हैं।

हम सब जानते हैं कि राम ने अपने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा जन स्थान में व्यतीत किया था। यदि भारत की भूमि में जन स्थान नाम की चीज खोजने जाएंगे तो वह नहीं मिलेगी। अयोध्या में जहाँ जन का कलरव होता रहता था, जहाँ का जन-जन राम के लिए आकुल-व्याकुल माकूल था उसे छोड़कर राम को 14 वर्षों के लिए वनवास में भेजा गया। वह वन या कह लें निर्जन स्थान ही जन स्थान हो गया। क्यों? क्योंकि राम जहाँ है वही जन-स्थान है, राम जहाँ है वही जन का जागरण करते हैं, जन की निर्मिती करते हैं। वे कण-कण में ब्रह्म की चेतना का परिष्कार करते हैं। इस प्रकार के श्रेष्ठ राम, इस प्रकार के विशिष्ट राम महनीय राम जन-जन के राम हैं। ऐसे राम जन का संग्रह करते हुए, जन को एकजुट करते हुए, जन में सामर्थ्य जागते हुए व्यक्ति को सामर्थ्यवान बनाते हुए एक ऐसी सेना खड़ी कर देते हैं जो त्रिलोक विजयी थी। रावण की सेना जो अपने काल में श्रेष्ठतम आयुध की क्षमताओं से संपन्न और अविजेय थी, उसे समाज के अंतिम जनों से मिलकर बनी सेना पराजित कर देती है। ऐसे हैं हमारे जन के राम। इसके अलावा वे मन के भी राम हैं। मन के राम कैसे हैं? उनमें मंजुलता है बल्कि वे मंजुलता की पराकाष्ठा हैं। इसे तुलसीदस मंगलाचरण में कहते हैं-

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छंदसामपि।

मंगलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।। (रामचरित मानस, बालकांड, मंगलाचरण)

यहाँ वर्ण को दो अर्थ ले सकते हैं- शाब्दिक वर्ण और रंग के अर्थ में वर्ण। इन दोनों अर्थों में 'राम' का अर्थ गंभीर है और अर्थ प्राचुर्य भी है। इसे 'मीनिंग' के सन्दर्भ में भी ले लीजिए और 'इकॉनमी' के सन्दर्भ में भी ले लीजिये। यदि 'अर्थसंघानाम' को पूरा-पूरा लेते हैं तो उसका तात्पर्य अर्थ समूह से है। 'इकॉनमी' के सन्दर्भ में लें तो दुनिया अर्थ अर्थात् पूंजी के संकेन्द्रण के रास्ते पर जा रही है। इन दोनों से बात नहीं बनती है। मूल प्रश्न है कि क्या ये सब मिलकर मंगल की सृष्टि कर पाते हैं या नहीं। अगर मंगल की सृष्टि नहीं करते है तो सब व्यर्थ है उसकी प्रार्थना वाल्मीकि बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-

त्रयाणामपि लोकानां कार्यार्थं मम सम्भवतः । भद्रं तेऽस्तु गमिष्यामि यत एवाहमागतः ।।

अर्थात् मेरा यह अवतार तीनों लोको का कार्य सही करने के लिए हुआ है। मेरा उद्देश्य सबका मंगल करना है। मैं तो जहाँ से आया हूँ वही चला जाता हूँ। मेरा अवतार मेरा आना तुम्हारे मंगल के लिए है। मेरा उद्देश्य संपूर्ण विश्व का कल्याण और सबके लिए न्याय देना है। जन-जन को न्याय देने वाले, राम जन के प्रति करुणा करने वाले राम एक ऐसे व्यक्ति के रूप में भारतीय परंपरा में दिखाई देते हैं जो इस संकल्प के साथ कृत है कि धर्म की रक्षा करनी है अधर्म का नाश करना है।

दिव्यं च मानुषं च त्वमात्मनश्च पराक्रमम् । इक्ष्वाक्वृषभावेक्ष्य यतस्व द्विषता वधे

हे ईक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राम आप में दोनों ही पराक्रम हैं- दिव्य और मानवीय। इस दिव्य और मानवीय पराक्रम को देखते हुए अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए शत्रु वध कीजिये। शत्रु राम के बारे में मारीच जो कहता है वह भी राम की महिमा ही है-

रामो विग्रहवान्धर्मः साधु सत्यपराक्रमः । राजा सर्वस्य लोकस्य देवानां मघवानिय ।।

ये राम कौन है? मारीच, जो राम का शत्रु है, वह राम के इसी रूप को प्रस्तुत करता है- उदात्त लोक नायक जो धर्म और सत्य की रक्षा के लिए पैदा हुआ है -वह राम धर्म की साक्षात् मूर्ति हैं जीवन्त धर्म हैं, धर्म मूर्ति हैं वे साधु हैं, सत्य पराक्रमी हैं। पराक्रमी का मतलब येनकेन प्रकारेण छल के साथ युद्ध को जीतना नहीं है बल्कि सत्य पर आधृत धर्म का युद्ध करना है। वे धर्म की स्थापना के लिए युद्ध करते हैं। अपना पराक्रम दिखाते हैं। राम का जो रूप मारीच को दिखता है वैसा ही वाल्मीकि को दिखाई देता है-

एष विग्रहवान्धर्म एष वीर्यवतां वरः । एष बदध्याधिको लोके तपसश्च परायणम् ।।

वाल्मीकि कहते हैं कि मैं उस राम की कथा कह रहा हूँ जो धर्म की मूर्ति हैं, तेजस्वी हैं, बुद्धिमान, लोक कल्याण के लिए जन्म लिया है। जो सब प्रकार के तप और साधना में तत्पर हैं। कर्तव्य परायणता ही जिसके लिए धर्म है। संयम और सेवा के द्वारा जो धर्म लाभ प्राप्त करते हैं और उसका संरक्षण करने का निरंतर यानि कर्तव्य परायण लोगों के और धर्म परायण लोको का, सत्य संगत लोगों का संरक्षण करने के लिए निरंतर यज्ञ करता है। वह साधारण मनुष्य है कैसा है? उसी की कथा कहनी है। इसी तथ्य को नारद भी दुहराते हैं-

धर्मज्ञः सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रतः । यशस्वी ज्ञानसंपन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान् ।।

अर्थात् राम धर्म के जानने के वाले सत्य प्रतिज्ञ, प्रजा की भलाई करने वाले कीर्तिवान, ज्ञानी, पवित्र, मनो और इद्रियों को वश में रखने वाले योगी हैं। ये कोई लोकोत्तर नहीं है, कृष्ण की तरह सार्वत्रिक अलौकिकता की छाया लपेटे हुए नहीं हैं। ये तो कौशल्यानंदन है, ये तो दशरथनंदन है, ये तो सबके बीच ही है। अब तक उनके जिन गुणों की झलक मिल रही है उन गुणों की चर्चा करते हैं। राम हिमालय से महान दिखाई देते हैं लेकिन जब व्यक्ति की बात करते हैं तो वे हम सबके बीच कहीं न कहीं रोज के अनुभव में आनेवाले एक संवेदनशील व्यक्ति हैं-

स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः । समुद्र इव गाम्भोर्ये धैर्येण हिमवानिय ।।

हमारे राम समुद्र के समान गंभीर हैं, हिमालय के समान धैर्यशाली और दृढ़ हैं। वे समस्त गुणों के भंडार हैं। ऐसा होते हुए भी वे कौशल्या का आनंद का वर्धन करने वाला है। ये मूर्तिवान राम है। याद करिए यशोदा ने तो एक बार कृष्ण का वह रूप देख लिया था जो पूर्ण ब्रम्ह का रूप था जिसमें अखंड ब्रम्हांड समाया हुआ था तो उन्हें मूर्छा आ गयी थी लेकिन इस प्रकार के सभी गुणों के मूर्तिवान राम अंततः कौशल्या के आनंदवर्धन हैं। उनका यह रूप ही ऐसा है जो माँ और मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम से भरा है। इनके लिए वे दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य को त्यागने के लिए तत्पर रहता है। उसे धूलि बराबर समझते हैं और कह उठते हैं-

अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।

राम में एक साथ मन, मानस, मनस्विता, चेतना और अखंडता को देखा जा सकता है। वाल्मीकि के राम ऐसे ही हैं। तुलसी ने तो 'मानस' ही लिखा है। निःसंदेह मानस के राम तुलसी के मन के ही राम होंगे। मन मानस के मराल राम होंगे। वे दैन्य का हरण तो करते हैं। साथ ही वे प्रयास करते हैं कि समाज में कहीं दीनता न व्याप्त हो, सर्वत्र पराक्रम दिखे, सर्वत्र साहस दिखे, जो दीनानाम नाथ है दीनानाथ है। इसलिए हे रघुवंश नायक मेरे जन्म और मरण के कारण, भूत भयानक दुखों का हरण कीजिये। इसी भाव को व्यक्त करने के लिए तुलसी कह उठते हैं-

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।

अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु विषम भव भीर।। (राम चरित मानस, उत्तर कांड, दोहा-130)

यह राम कैसे प्राप्त होते हैं? वे विश्वास से प्राप्त होते हैं। राम श्रद्दा से प्राप्त होते हैं। राम की परीक्षा तो बहुतों ने ली है। यहाँ तक की संपूर्ण सृष्टि के निर्माता को इस मायावी सृष्टि ने प्रपंच में फंसाकर उनके अस्तित्व के लिए न्यायालयों के चक्कर लगवाया है। स्पष्ट है कि राम को केवल युक्ति या प्रमाण से जाना नहीं जा सकता है। उन्हें जानने के लिए तो श्रद्दा चाहिए। ज्ञान से राम को जानना है तो संशय में पड़ना है। रावण ने ज्ञान से जाना। उसे मारीच ने ज्ञान से ही बताया था कि वे मूर्तिवान विग्रह राम है, सत्य संघ राम है, पराक्रमी राम है, धर्मज्ञ राम है लेकिन ज्ञान से उनकी भक्ति नहीं कर पाया। वह पता तो भक्ति से चलते हैं। श्रद्धा से चलते हैं। जब श्रद्दा होती है तब समर्पण होता है। ऐसी स्थ्तिि में भक्ति होती है तो वह करुणा-वरुणालय हो जाती है। जब कोई सत्य के साथ खड़े होता है। धर्म के साथ खड़ा होता है। निष्ठावान होकर के खड़े होता है तो उसे राम प्राप्त होते हैं। राम उनके साथ खड़ा होते हैं जो संकल्प के साथ यज्ञ करने के लिए तत्पर है। यज्ञ करना यानि धर्म करना, यज्ञ करना यानि कर्म करना, यज्ञ करना यानि दूसरों के लिए अपने हिस्से को वितरित करने का यत्न करना। इस देश में यही ऋषि परंपरा रही है। दिनकर इसी को कहते हैं कि ऐसे समय में धनुर्धर राम खड़ा हो जाता है। इसलिए यह राम कैसे हैं इसको तुलसी स्पष्ट करते हैं-

राम भगति मनि उर बस जाके। दुख लवलेस न सपनेउं ताके ।।

चतुर सिरोमनि तेइ जग माही। जे मनि लागि सुजतन कराही ।।

अतः राम को भक्ति के द्वारा जाना जा सकता है। किस रूप में जाना जायेगा? इसके लिए राम भक्ति रूपी मणि को हृदय में बसाना है। हनुमान लला को याद कीजिए। उन्होंने राम की छवि को सीना चीर के दिखा दिया। यह सिर्फ हनुमान के साथ नहीं है। तुलसी बाबा भी इसको कहते हैं-

"भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्दाविश्वासरुपिणौ।

याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।।

अर्थात् मैं भवानी और शंकर की उपासना करता हूँ। भवानी, माँ गौरी श्रद्दा रूप हैं और भगवान शिव विश्वास रूप हैं। श्रद्दा और विश्वास के बिना आप जितना चाहे यज्ञ कर लें आपके अंदर जो राम बैठा हुआ है उसका दर्शन नहीं हो सकता है। वह श्रद्दा और विश्वास उत्पन्न होता है। राम की कृपा के बिना उसको कोई पा नहीं सकता है। राम का रूप सहज है। जो जिस रूप में देखता है उसे वे उसी रूप में दिखते हैं। उदाहरण के लिए अयोध्या की स्त्रियों को राम का असाधारण राम कितना साधारण दिख रहा है-

तनकी दुति स्याम सरोरूह लोचन कंजकी मंजुलताई हरैं।

अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंगकी दुरि धरैं।

दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि-ज्यों किलकैं कल बाल-बिनोद करैं।

अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन -मंदिर में बिहरैं।3।

यह मन का राम है। इस मन के राम को जानने के लिए ज्ञानी नाम अग्रगण्य नाम में गमन होने की जरुरत भी नहीं है। तर्क की कसौटी पर राम को जानने की जरुरत नहीं है। एक शिशु की मंद मुस्कान में किलकारी भरते उसकी छवि प्रकट होती है। एक शिशु में जो निर्मलता है, जो अमल विमल आनंद कारणता है वही राम है। यह जब सीमित से असीमित हो जाता है तो मन मानस राम मय हो जाता है। राम इतना साधारण है कि कभी-कभी विश्वास नहीं होता है कि यह सकलगुण निधान राम राम लला 70 वर्ष तक मुकदमा लड़ते रहे।

हमारे राम लला का सौंदर्य अद्भुत है-

वरदंत की पंगत कुंदकली अधराधर पल्लव खोलन की। चपला चमके घन बीच जगै छवि मोतिन माल अमोलन की।।

घुघराली लटै लटकै मुख पर कुंडल लोल कपोलन की। न्योछावर प्राण करे तुलसी बलि जाऊँ लला इन बोलन की।।।।

ऐसे सहज, निष्कलंक निष्कपट निरासक्त निष्कलुष राम मन मानस में निवास करते हैं। वे 'मन' को 'अमन' कर देने वाले हैं। मन यदि सभी प्रकार की समस्याओं का कारण है तो उन समस्याओं से 'अमन' अर्थात् मुक्त कर देने वाले राम है-

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥

ऐसे राम सर्वत्र हैं। घट-घट पर हैं तुलसी दास कहते हैं -

सिय राम मय सब जग जानी,

करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ।।

कबीर भी राम को नहीं छोड़ते हैं। वे कहते हैं-

कस्तुरी कुंडल बसै,मृग ढूढ़ै वन माहि

ऐसे घट घट राम हैं,दुनिया देखे नाहि।

जो राम त्रेता में थे वही कलयुग में हैं। जो अयोध्या में थे वही काशी में हैं। जो मथुरा में थे वही समुद्र पार करके श्री लंका में हैं। जो तब थे वही अब हैं। जो वहां थे वही यहाँ हैं। अब प्रश्न है कि आज के संदर्भ में राम के रूप को कैसे समझा जाए? आज राम को समझना है तो दुनिया के लिए मर्यादाओं के रूप में। दुनिया के सामने विविध प्रकार के संकट हैं। दुनिया एक दूसरे की धरती और एक-दूसरे के धन को कब्जाने के लिए प्रयासरत है। कोई कह सकता है कि उसमें राम क्या करें? राम ने तो आदर्श स्थापित किये, राम ने तो रास्ता दिखाया है। राम तो वह हैं जो उत्तर से दक्षिण तक इस देश को जोड़ते हैं। जो अयोध्या से लेकर के धनुषकोटि तक जन-जन को जोड़ते हैं। वे राज सत्ता के बल पर नहीं जोड़ते हैं बल्कि व्यक्ति के श्रेष्ठ आचरण को सामने रखकर जोड़ते हैं। वे स्वयं अनेकानेक कठिनाइयों धारण करते हैं लेकिन अहिल्या को मुक्त करते हैं। वे खुद सीता वियोग में दुखी हैं, करुणक्रंदन करते हैं लेकिन सबरी के दुःख को दूर करते हैं उसे शांति देते हैं, आह्लाद देते हैं, सम्मान देते हैं, उसे मातृत्व का सुख देते हैं। उसे वैसा ही सम्मान देते हैं जैसा वे कौशल्या को देते हैं, सुमित्रा को देते हैं, कैकयी को देते हैं। ये राम तो वह हैं जो अपने ही राज्य के केवट से अनुनय करते हैं कि नाव पर बैठाओ और उस पार ले जाओ। ये राम वह हैं जिसे अध्योध्या की प्रजा और सेना नदी के किनारे तक छोड़ने आयी है। उनसे भी राम अनुनय करता है। वे समाज के अंतिम सिरे पर खड़ा व्यक्ति तो अपने हृदय से लगा लेते हैं। उसके उपकार को याद करता है और घोषित करते हैं तुम तो मेरे भाई भरत जैसे हो। इसी को कबीर बहुत साफ कहते हैं-

"चार राम हैं जगत में तीन राम व्यवहार, चौथा राम सुसार है ताका हो विचार."

दशरथ पुत्र राम, वनवासी राम और राजा राम और राम का नाम। जब आप दशरथ पुत्र राजकुमार राम को समझते हैं तो पारिवारिक जीवन का आदर्श प्रस्तुत होता है। जब वनवासी राम को सामने रखते हैं तो समाज में अंतिम व्यक्ति का, अकिंचन व्यक्ति का, जनांतिक में निवास करने वाले व्यक्ति वह स्वरूप होता है जो जनांतिक को जन स्थान में परिवर्तित कर देता है। जो अपने व्यवहार से कामलगिरि की सूखी पहाड़ियों को अयोध्या सा शोभाशाली बना देता है। जो दंडकारण्य के राक्षसों की भूमि को अपने यत्न के द्वारा, अपने प्रयासों के द्वारा ऋषियों की यज्ञ भूमि बना देता है। जो दंडकारण्य से आगे बढ़ते हुए रीक्षों और भालुओं का ऐसा संगठन खड़ा कर देता है कि वे दुनिया की सबसे बड़ी सेना को पराजित कर देते हैं। वह राम ऐसा है जो सर्वत्र गुण को ही देखता है। सर्वत्र शुभ ही देखता है। एक संस्कृत में सुभाषित है ....

अयोग्यः पुरुषः नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः ।

राम भी ऐसे योजक हैं। कोई भी पुरुष अयोग्य नहीं, पर उसे योग्य काम में जोड़नेवाला पुरुष दुर्लभ है ।

ऐसे योजक राम जिससे जो चाहते हैं वह करवा लेते हैं। जो कभी श्रापित थे उसे सद्गुण में बदल देते हैं। जो दुर्भाग्य से और गलतियों से उदित हुआ था उसे सद्गुण में परिवर्तित करके उसके द्वारा श्रेष्ठतम की सर्जना करा लेते हैं। उदाहरण के लिए हम सबको मालूम है जब हनुमान ने उत्पात मचाया था तब ऋषियों ने श्राप दिया था कि वे अपने बल को भूल जाएं। अब इसे भूल जाने के कारण वे साधारण प्राणी बन जाते हैं। यदि हनुमान को अपना बल और पराक्रम याद रहा होता तो सुग्रीव से मिलना हुआ होता क्या? इस तरह से वे एक भुलक्कड़ को राम संयोजन का कारक बना देते हैं। ऐसे ही नलनील जो बहुत बड़े इंजीनियर थे उन्हें दुर्गुण मिल गया कुछ भी फेंकोगे डूबेगा ही नहीं। उसे भी राम ने शक्ति में बदल दिया। मैं तो सिर्फ आपसे ये कह रहा हूँ कि राम साधारण का असाधारण बना देते हैं। राम तो वे हैं जो मरते हुए रावण के पास लक्ष्मण को राजनीति के गुण सीखने के लिए भेजते हैं। इस अदभुत प्रकार के राम के संदर्भ में हम क्या कह सकते हैं? क्या चर्चाएँ कर सकते हैं? लोगों ने इसी राम की आराधना की है।

भवभूति उत्तर रामचरित में बल देते हैं कि राम को जानना है तो राम के उत्तर चरित्र को जानना होगा। अयोध्या में राम राज्य की स्थापना करने वाले राम को जानना पड़ेगा। यहाँ भी वहीं करुणामय राम दिखाई देते हैं। लोक संग्रह की अवधारणा वाले राम दिखाई देते हैं और लोकाराधक राम दिखाई देते हैं। जो राम बहुत साफ शब्दों में प्रतिज्ञा करते हैं-

स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि

आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा

राम की चर्चा हम किस प्रकार करते हैं? स्नेहागार राम, दया निधान राम, सुख सागर राम, सर्व सुख हेतुक राम इत्यादि के रूप में राम की चर्चा होती है। इन सभी गुणों के आगार हैं राम। ऐसे राम प्रतिज्ञा करते हैं कि यदि प्रजा को प्रसन्न रखने के लिए, प्रजा आराधन के लिए, प्रजा को सुखी रखने के लिए मुझे स्नेह, दया, सुख और यहाँ तक की जानकी को भी छोड़ना पड़े तो मुझे उसे छोड़ने में कोई कष्ट नहीं है। यह राजा राम है, यह गणनायक राम है, यह भारत गणराज्य में, भारत गण में जी रहे राम हैं। वे ही राम रामराज्य की स्थापना करता है। इसी रामराज्य की स्थापना बात महात्मा गाँधी बार-बार करते हैं। इसके बारे में तुलसी बाबा कहते हैं कि वह रामराज्य कैसा है? राम राजा है इस नाते रामराज्य नहीं है बल्कि जिस राज्य में सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति का यत्न है और उस यत्न के परिणाम स्वरूप सभी प्रकार के दुखों से लोगों को मुक्ति प्राप्त होती है वह राम राज्य है-

दैहिक दैविक भौतिक ताप। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।

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सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं॥

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बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज। मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज॥(रामचरित मानस, उत्तरकांड)

राम राज्य में मनुष्य और प्रकृति सभी निज धर्म का पालन करते हैं। वे सभी कल्याण के लिए उदार चेता होकर त्याग करते हैं। उनमें संग्रह की प्रवृत्ति नहीं है। इसी प्रकार के राम राज्य की कल्पना हमारे यहाँ है जिसमें एक राजा से अपेक्षित है कि वह प्रेम की, सद्भावना की, शांति की और स्वशासन की स्थापना करे। एक राजा के रूप में जिस धर्म और मर्यादा की स्थापना राम करते हैं, गाँधी बाबा ने उसी भारत की कल्पना हिंदस्वराज में की है। इसी स्वतंत्र भारत की स्थापना के लिए गाँधी बाबा ने संग्राम किया। उनके आयुध भी राम के जैसे ही थे। कोदंड धारी राम असुर निकंदन राम, अहिंसा का प्रतीक राम, करुणा का प्रतीक राम है, कैकयी, मंथरा, गिलहरी और खर, दूषन, मारीच, सूर्पणखा आदि को न्याय देने वाला न्यायी राम। इन सबके प्रति करुणामय राम है। जब रावण से युद्ध होता है और आसुरी सभ्यता से आये हुए विभीषण को उस युद्ध में रावण की साज सज्जा, उसके आयुध उसके रथ, उसकी गतिशीलता, उसकी तकनीकि को देखकर कर संशय उत्पन्न होता है। इसका कारण है कि विभीषण भी उसी भौतिकतावादी आसुरी सभ्यता का था। उसके मन में संशय हो जाता है-

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥

अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा॥1॥ (रामचरित मानस, लंका कांड)

राम उसका संशय दूर करते हैं। उनके लिए स्नेह, दया, सत्य, पवित्रता, मर्यादा, नैतिकता, करुणा, धर्म, साहस इत्यादि सद्गुण ही युद्ध के आयुध हैं। राम सिद्ध करते हैं कि युद्ध हौसलों से जीता जाता है। संकल्प से जीता जाता है। आयुध से नहीं जीता जाता है। राममय भारत की जवानी ने स्वतंत्र भारत में जितने युद्ध किये हैं उसमें इसको चरितार्थ करके दिखाया है। ऐसे राम से मैं यही कामना करता हूँ कि उसकी संतति, राम को आदर्श मानकर जननी, जन्मभूमि, जन्मभूमि के जन-मन में स्नेह का, सुख का, सौहार्द का, साहस का, सत्कर्म का, करुणासंबलित मूल्य का सृजन कर सके। भौतिकता से अपने नाश के कगार पर पहुँच गयी इस दुनिया को श्रेष्ठतम जीवन मूल्यों के बोध के साथ नए सिरे से नयी सभ्यता को रचने, नयी सभ्यता को बनाने की दृष्टि प्राप्त हो सके इसलिए जन गण मन राम, जन जन के राम, जन नायक राम, गणराज्य के राजा राम, जन गण के नायक राम, मन मानस के आनंद और सुख के हेतु राम, मन चेतना में, बुद्धि चेतना में, विद्या और आनंद की स्फूर्ति राम, हम सबका कल्याण करें। संपूर्ण विश्व का कल्याण करें और हम सब के अंदर अपने गुणों के कुछ अंश को आरोपित करने और हममें उन गुणों का आधान करने की क्षमता प्रदान करें।


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