भारत की आजादी के महानायक गांधी, युद्ध और हिंसा से संत्रस्त विश्व के
उद्धारक हैं। गांधी मनुष्य को बांटने के, लड़ाने के और उसे युद्धोन्मत्त
करने के सभी विचारों के विरोधी हैं। इस रूप में जब हम गांधी को देखते हैं तो
जीर्ण- शीर्ण काया में एक ऐसी आत्मा का चित्र उभरकर आता है जो मानवता के
मृत्यु की सभी आसुरी शक्तियों के विरूद्ध नचिकेता के समान निर्भय होकर खड़े
होते हैं और मुत्यु के देवता से ही अमरत्व का रास्ता प्राप्त करते हैं।
हिंद स्वराज्य में गांधी इसी रूप में पश्चिम की सभ्यता दृष्टि को झकझोरते
हैं। विश्व को गुलाम बना रही आधुनिक साम्राज्यवादी सभ्यता जो पश्चिम से एक
आंधी की तरह भारत की ओर आई थी, गांधी उसे राक्षसी सभ्यता के रूप में
प्रस्तुत करते हैं। यह उन्हें एक ओर औपनिषदिक परंपरा के उन ऋषियों में खड़ा
करता है जिन्होंने भौतिकतावादी सभ्यता के संकटों का आकलन करते हुए तप,
त्याग और तुष्टि की मानव केंद्रित सभ्यता को स्थापित किया था तो दूसरी ओर
यूरोप की युद्धोन्मत्त सत्ता केंद्रित सभ्यता के समक्ष वे ईशा मसीह के रूप
में प्रस्तुत होते हैं, जिसे मैनचेस्टर के मिलों में काम कर रहे बेबस,
निरीह, मजदूरों की स्वतंत्रता की भी चिंता है। गांधी राजनैतिक स्वतंत्रता और
आधुनिक सभ्यता के बीच अहिंसा, करूणा, प्रेम, त्याग, सुचिता, स्वच्छता के
मूल्यों को सभ्यता की पहचान के रूप में प्रतिस्थापित करने वाले दार्शनिक और
प्रयोक्ता हैं। गांधी खुद के जीवन और अपने साथ के लोगों को आश्रम जीवन की
प्रयोगशाला के रूप में परिवर्तित करते हैं।
गांधी विश्व सभ्यता के लिए एक ऐसा अनुपम उदाहरण हैं जिससे यूरोप की सभ्यता
दृष्टि का पूर्व में कोई परिचय नहीं था। गांधी की सभ्यता और समाज दृष्टि भारत
की अपनी सांस्कृतिक परंपरा, करूणा, मूल्यबोध, परदुखकातरता के साथ संपूर्ण
प्रकृति के संरक्षण और संपोषण की सतत, स्थायी और संपोष्य विकास दृष्टि है।
गांधी अहिंसा के हथियार से लड़ने वाला वह बहादुर योद्धा है जिसका युद्ध
व्यक्ति को मारता नहीं परिवर्तित करता है। हाड़ मांस के पुतले को कोई क्षति न
पहुंचाते हुए उसे आसुरी वृत्ति से मुक्त कराकर दैवीय गुणों से युक्त करता
है। सभ्यता को लेकर गांधी की कल्पना बहुत स्पष्ट है। हिंद स्वराज्य में
यह सभ्यता दृष्टि रामराज्य के रूप में परिलक्षित होती है, जिसमें
दैहिक,दैविक और भौतिक त्रिविध तापों से मुक्त समाज भारत में किस प्रकार से
बनेगा इसका विधान प्रस्तुत करते हुए हिंसा,लालच, आक्रामकता की अधुनातन
प्रवृत्तियों के खात्में के लिए पूरी आधुनिकता के खिलाफ खड़े हो जाते हैं।
औद्योगिक क्रांति के बाद विकसित हुई सभ्यता जो मनुष्य को उत्पादन का साधन
और शोषण का लक्ष्य बनाती है, उसकी समाप्ति का आह्वान करते हुए एक ऐसे
राष्ट्र की परिकल्पना सामने रखते हैं जिसमें व्यक्ति, गांव, जनपद, प्रांत
और राष्ट्र सभी इकाईयां अपने पैरों पर खड़ी हैं। यह आत्म निर्भरता केवल
आर्थिक नहीं है। मनुष्य के जीवन के सभी पक्षों को समेटती और समन्वित करती है।
इसीलिए गांधी अहिंसा के व्रत को ताकतवर के हथियार के रूप में और सत्याग्रह को
कमजोर की लाठी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। गांधी के हथियार वही हैं
जिन्हें रावण के विरूद्ध लड़ते हुए राम ने विजय के हथियार के रूप में अपनाए
थे। ये हथियार भारत की परंपरा का स्वभाव रहे हैं। इन उपकरणों से युद्ध और
शांति प्रत्येक स्थिति में सृजनात्मक चेतना से संपन्न मनुष्य और
समीक्षात्मक बुद्धि से युक्त समाज निर्मित किया जा सकता है। बोध और कौशल से
संपन्न, सद्गुणों से संमजित मनुष्य कैसे निर्मित होगा ये गांधी की चिंता है।
गांधी की यह भी चिंता है कि आधुनिकता के प्रचंड प्रवाह में हिंसक हो रही
मानवता को अहिंसा और करूणा के रास्ते पर किस प्रकार चलाया जाए। आज गांधी के
जाने के 73 वर्ष बाद यह कठिनाई और बढ़ी है। विज्ञान और तकनीक की निर्गुण तथा
एकांगी दृष्टि ने व्यक्ति से लेकर राष्ट्रों तक सब में लालच और अहंकार का
ऐसा विस्तार किया है कि परदुखकातरता तो विस्मृत ही हो गई है, स्वबोध भी
समाप्त हो गया है।
हिम्मत तो वह है जो गांधी जी ने कलकत्ता के हैदर मेंशन में दिखाई थी। बंगाल
में दंगों के अमलकार सोहरावर्दी के साथ हैदर मेंशन में रहना और सोहरावर्दी को
इस बात के लिए मजबूर कर देना कि दंगे रोकें, अपने को बदलें। साथ ही साहस ऐसा
कि आखिरी वाइसराय माउंट बेटन से अपनी मुलाकात में साफ-साफ कह देना कि, "जब
सिर्फ यही विकल्प बचा है कि या तो कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए अंग्रेजी
राज ही चलता रहे या फिर भारत रक्त स्नान करे। अवश्य ही, भारत रक्त-स्नान का
सामना करने को तैयार है।" गांधी जिस रक्त स्नान की बात कर रहे थे, पूर्वी
बंगाल का नोआखाली जिला उसका पहला शिकार बना। नोवाखाली में जर्जर शरीर, नंगे
बदन हाहाकारी हिंसा से लड़ने के लिए गांधी जी ने अपने को प्रस्तुत कर दिया।
यह वह कालखंड है जहां रावण से विजय के राम के हथियार गांधी में प्रकटीभूत होते
हैं। राम आसुरी सभ्यता से दैवी सभ्यता की ओर आये विभीषण से स्पष्ट रूप से
कहते हैं कि-
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा
अर्था शौर्य, धैर्य, सत्य, शील, बल, विवेक,इन्द्रीय दमन, क्षमा, दया और समता
के सद्गुणों से निर्मित रथ ईश्वर भजन के चतुर सारथी से समन्वित और वैराग्य,
संतोष, दान, बुद्धि और विज्ञान के आयुध से लैस धर्ममय शस्त्रास्त्र जिनमें
भी निर्मलता, स्थिरता, शम, दम, यम, नियम आदि सद्गुणों से राम के समान ही गांधी
का विजय रथ बनता है। गांधी अपने एकादश व्रत के माध्यम से भारत की महान ऋषि
परंपरा ने अपने तप से मानवता की रक्षा और विकास के जिन श्रेष्ठ संसाधनों को
विकसित किया है उसके प्रयोक्ता गांधी महान सेनानी के रूप में आज भी हमारे लिए
प्रासंगिक हैं।