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निबंध

विरासत और विकास की राष्ट्रीयता के नायक थे नेताजी
रजनीश कुमार शुक्ल


24 फरवरी, 1946 को "हरिजन" में गांधीजी हरिजन में एक लेख लिखते हुए कहते हैं कि 'आज़ाद हिंद फौज का जादू हमपर छा गया है। नेताजी का नाम सारे देश में गूंज रहा है। वे अनन्य देशभक्त हैं।' साथ में वह एक टिप्‍पणी भी करते हैं कि वर्तमान काल का उपयोग मैं जान-बूझकर कर रहा हूँ। इस जगह वर्तमान काल के उपयोग के निहिता‍र्थ बहुत सारे हैं। 23 अगस्त, 1945 को जब यह खबर फैल गई कि विमान-दुर्घटना में सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु हो गई, तो अगले ही दिन अमृत कौर को पत्र में गांधी लिखते हैं- "सुभाष चन्‍द्र बोस अच्छे उद्देश्य के लिए मरे। वे निस्संदेह एक देशभक्त थे।" फरवरी 46 में वे नेताजी के बारे में वर्तमान काल का उपयोग करते हुए वे कहते हैं कि वह अनन्‍य देशभक्‍त हैं, गांधीजी के इस जानबूझ शब्‍द को अभी तक डिकोड नहीं किया गया है। इस बात को इतिहास पर छोड़ने की जरूरत है कि जानबूझकर शब्‍द का तात्‍पर्य क्‍या यह था कि कथित विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्‍यु का सच गांधीजी के सामने आ गया था। क्‍या गांधी किन्‍ही कारणों से उस सच को साफ शब्‍दों में कह भी नहीं पा रहे थे लेकिन वो छिपाना भी नहीं चाहते थे। आज जब देश नेताजी के 125 वें जन्‍मदिन की ओर है एक बात का तो पक्‍का भरोसा है कि आज नेताजी हमारे बीच नहीं होंगे पर गांधी के शब्‍दों में याद करें तो एक अनन्‍य देशभक्‍त के रूप में नेताजी हर भारतवासी के मन मानस में जीवित हैं।

इस अवसर पर एक और बात को याद करना चाहूँगा। 1956 में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली जब कोलकाता आए थे तो पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जस्टिस पी.बी चक्रवर्ती ने उनसे लंबी बातचीत की थी। उस लंबी बातचीत में एक सवाल यह भी था कि वह कौन सा बड़ा कारण था कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को सफलतापूर्वक दबा देने के बाद भी अंग्रजों ने भारत को आजादी देना स्‍वीकार कर लिया। इसके जवाब में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली बताया कि नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज की वजह से ब्रिटिश शासन भारतीय सेना और नौ सेना के सैनिकों के बीच अपनी विश्वसनीयता खो चुका था और उन सैनिकों की ब्रिटिश शासन के प्रति वफादारी लगभग समाप्‍त हो गई थी। यही कारण था कि अंग्रेज जल्‍दी से जल्‍दी भारत छोड़ देना चाहते थे और यह कार्य एक डेढ़ वर्षों में सफलतापूर्वक पूरा कर लिया गया। एटली का यह कथन भारत के स्‍वतंत्रता संग्राम में नेताजी की भूमिका और उनके प्रभाव को दर्शाने के लिए पर्याप्‍त है। जापान, सिंगापुर, रंगून और अंडमान में आजाद हिंद सरकार की स्‍थापना और उसके कब्‍जे के बाद यह स्‍वाभाविक था कि ब्रिटिश हुकूमत को सुरक्षित और सम्‍मानजनक रूप से भारत से बाहर निकलने का रास्‍ता खोजना पड़ा। यह और बात है कि अंग्रेजों ने कूटनीतिक तौर पर अपनी वापसी में भी सफलता अर्जित की। ईस्‍ट इंडिया कंपनी के समय उन्‍होंने जिस तरह हिंदू- मुसलमान का विभाजन करवाकर बंगाल से दिल्‍ली तक भारत पर कब्‍जा किया था उन्‍हीं तौर तरीकों से भारत को विभाजित करके विभाजन से उपजी ज्‍वलामुखी सी समस्‍याओं के मुहाने पर भारत को छोड़ दिया। इस आलोक में नेताजी के योगदान का मूल्‍यांकन अभी शेष है। अभी शेष है कि 1947 के बाद के भारत में नेताजी की भूमिका बनी रही होती तो आज का भारत कैसा होता।

27 अप्रैल, 1947 को आजाद हिंद फौज के सैनिकों को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा था- "सुभाष बाबू तो मेरे पुत्र के समान थे। उनके और मेरे विचारों में भले ही अंतर रहा हो, लेकिन उनकी कार्यशक्ति और देशप्रेम के लिए मेरा सिर उनके सामने झुकता है।" गांधीजी के उद्गार और एटली के खुलासे के बाद सुभाष बाबू के योगदान और उनकी आजाद हिंद फौज की भूमिका पर इतिहासकारों के द्वारा जो काम होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। सुभाष बाबू से जुड़े हुए दस्‍तावेज अभिलेखागारों और संग्रहालयों में सीलबंद पड़े रहे। आजाद भारत का जो सपना सुभाष बाबू ने देखा था उसपर तो थोड़ी भी चर्चा नहीं हुई। एक ऐसे विचारक जिसने समाज और राष्‍ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में स्‍पष्‍टता के साथ अपनी वैचारिकी को रखा। विशेषत: भारत में उस कालखंड में व्‍याप्‍त सांप्रदायिकता के प्रश्‍न हों, स्त्रियों के सशक्‍तीकरण और उनकी अधिकारिता का प्रश्‍न हो, भारत में शिक्षा का स्‍वरूप कैसा हो और उसकी अर्थनीति क्‍या होनी चाहिए, उद्योग नीति क्‍या होनी चाहिए, नागरिक स्‍वतंत्रता का स्‍वरूप क्‍या होगा इत्‍यादि प्रश्‍न जाने क्‍यों चर्चा में नहीं हैं। जिस स्‍वतंत्रता या मुक्ति की बात सुभाष बाबू करते हैं वह राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक स्‍वतंत्रता है। इतना ही नहीं वह आर्थिक स्‍वतंत्रता को सामाजिक और राजनीतिक स्‍वतंत्रता का आधार मानते हैं। एक राष्‍ट्रवादी राजनेता के रूप में वह इस मान्‍यता को बहुत स्‍पष्‍टता के साथ प्र‍तिपादित करते हैं कि भारत की आर्थिक स्‍वतंत्रता अब बिना औद्योगीकरण के संभव नहीं है। आज भारत जिस नीति पर चल रहा है, जो औद्योगीकरण को तीन हिस्‍सों में बांटता है। भारी उद्योग, मध्‍यम और लघु उद्योग और कुटीर उद्योग। यह इस देश में भारत के जन को आर्थिक स्‍वतंत्रता, रोजगार के अवसर दिलाने के लिए 1937 में पहली बार भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस का अध्‍यक्ष बनने के बाद सुभाष बाबू के द्वारा कांग्रेस में गठित भारत की योजना समिति का परिणाम है। यही वह जगह है जहां गांधीजी और सुभाष बाबू के बीच वैचारिक मतभेद उभरता है। सुभाष बाबू का जो आध्‍यात्मिक स्‍वरूप है उस पर भी आज चर्चा की आवश्‍यकता है। क्‍योंकि भारत आज जिस रूप में दुनिया के सामने खड़ा हो सकता है वह केवल उद्योग और अर्थ के आधार पर नहीं होगा। सुभाष बाबू की मान्‍यता है कि स्‍वामी रामकृष्‍ण, विवेकानंद और अरविंदो ने हर भारतीय के लिए जीवन में आधुनिकता और आध्‍यात्मिकता का जो रास्‍ता प्रतिपादिता किया था उसको राष्‍ट्रीय जीवन में आचार व्‍यवहार का हिस्‍सा बनाया जाए। भारत उनके लिए मां है। एक आध्‍यत्मिक सत्‍ता है। यह विश्‍व चेतना का अंश है। इस बोध के साथ भारत की निर्मिति समय के विज्ञान और उद्योग के आधार पर होनी चाहिए।

विरासत और विकास की राष्‍ट्रीयता के प्रतिपादक के रूप में सुभाष बाबू को समझना आज ज्‍यादा सहज है क्‍योंकि भारत आज आत्‍मनिर्भरता, आध्‍यात्मिकता और वैश्विकता इन तीनों को अपने विकास का लक्ष्‍य बनाकर विश्‍व व्‍यवस्‍था में तेजी से आगे बढ़ रहा है। सुभाष बाबू को याद करते समय हमें यह भी ध्‍यान रखना है कि वह जिस चिन्‍मय, दैवीय और आध्‍यात्मिक भारत की वह कल्‍पना कर रहे हैं उसकी निर्मिति सैन्‍य और आध्‍यात्मिक प्रशिक्षण दोनों से होती है। यहां मैं उनके एक कथन को सिर्फ दोहराना चाहता हूँ कि एक सच्‍चे सैनिक और स्‍वतंत्रता सेनानी को सैन्‍य और आध्‍यात्मिक दोनों तरह के प्रशिक्षण की जरूरत होती है। अपनी राष्‍ट्रीयता को स्‍पष्‍ट करते हुए वो कहते हैं कि राष्‍ट्रवाद मानव जाति के उच्‍चतम आदर्शों जिन्‍हें सत्‍यम शिवम सुंदरम के रूप में परिभाषित किया गया है से अभिप्रेरित है।

आज फिर यह याद करने की जरूरत है कि दुनिया के विभिन्‍न देशों में रह रहे भारतवासियों का आह्वान करते हुए नेताजी ने कहा था कि भारत की स्‍वतंत्रता मातृभूमि की मुक्ति हमारा कर्तव्‍य है। इसलिए हम अपनी स्‍वतंत्रता के मूल्‍य का भुगतान अपने रक्‍त से करेंगे। अपने बलिदान और परिश्रम से जो हम स्‍वतंत्रता जीतेंगे उस विजीत स्‍वतंत्रता को हम अपनी शक्ति के साथ संरक्षित करने में सक्षम भी होंगे। आज जब भारत में स्‍वतंत्रता जीती जा चुकी है अब इस स्‍वतंत्रता को अमर हुतात्‍माओं के सपनों की स्‍वतंत्रता के रूप में संरक्षित करने के लिए शक्ति संचयन और शक्ति आराधन की आवश्‍यकता है। नेताजी के शब्‍दों में कहें तो इस स्‍वतंत्रता की प्राप्ति और इसका संरक्षण एक ऐसा लक्ष्‍य है जिसे हर भारतवासी को हर हाल में पूरा करना है। हम सबका जन्‍म ही इसीलिए हुआ है। इसको बनाए रखने के लिए ध्‍यान रखने की जरूरत है कि विश्‍व मानवता और वैश्विकता के विश्‍व्‍यापी छलावे के बीच छद्म नैतिकता की जो धारा बह रही है उसमें बहना नहीं है। शायद यही कारण है कि कस्तूरबा गांधी की मौत के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी के नाम पत्र लिखते हुए बा के प्रति अपनी संवेदनाओं को प्रकट करते हुए लक्ष्‍य से रंचमात्र भी विचलित नहीं होते हुए। नेताजी पत्र में लिखते हैं कि जब तक अंग्रेज हिन्दुस्तान में हैं, हमारे देश के प्रति उनके अत्याचार होते रहेंगे। केवल एक ही तरीका है जिससे हिन्दुस्तान के बेटे और बेटियां श्रीमती कस्तूरबा गांधी की मौत का बदला ले सकते हैं, और वह यह है कि अंग्रेजी साम्राज्य को हिन्दुस्तान से पूरी तरह नष्ट कर दें। इस पत्र में वह अपने लक्ष्‍य को गांधी के सामने दोहराते हैं कि दुख की इस घड़ी में हम एक बार फिर उस पवित्र शपथ को दोहराते हैं कि हम अपना सशस्त्र संघर्ष तब तक जारी रखेंगे, जब तक अंतिम अंग्रेज को भारत से भगा नहीं दिया जाता। इन पंक्तियों को जो निहितार्थ है वह यह है कि अंतिम अंग्रेज भारत से भगाया जा चुका है पर अंग्रेजियत के प्रभाव के रूप उसका भूत अब भी भारत में कायम है।

भाषा का प्रश्‍न हो या सभ्‍यता का, राष्‍ट्रीय एकीकरण का प्रश्‍न हो या भारत के आध्‍यात्मिक नैतिक जागरण का अब भी अंग्रेजियत कायम है। यह वह बिंदु है जहां गांधी और सुभाष मिलते हैं। अगर गांधी भारत की राष्‍ट्रभाषा के रूप में हिंदी को देख रहे होते हैं तो नेताजी द्वारा आजाद हिंद सरकार की कामकाज की भाषा सिंगापुर और रंगून में भी हिंदी ही बनायी जाती है। हिंदी, हिन्‍दुस्‍तान और हिंदवी लोग औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति प्राप्‍त करें, नये भारत का जागरण करें यही खून की कीमत से पाई गई आजादी का वास्‍तविक संरक्षण है। इस वास्‍तविक संरक्षण के लिए सुभाष बाबू को याद करना भारत के पराक्रम की याद है। पराक्रम से प्राप्‍त आजादी का पौरूष से संरक्षण किया जाए, इस संकल्‍प को दोहराना है।


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