एक ओर जहाँ भारतीय प्रतिभाएं पूरी दुनिया में अपना ध्वज लहरा रही हैं, वहीं
भारत की अमूर्त विरासतों को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक
मान्यता मिल रही है। यूनेस्को ने भारतीय त्योहार दुर्गा पूजा को 'मानवता की
अमूर्त सांस्कृतिक विरासत' सूची में शामिल किया है। इसके पूर्व योग, नवरोज और
कुंभ मेला को भी इस सूची में शामिल किया जा चुका है। यह विरासतों के मूर्त से
अमूर्त की ओर पहचान और महत्व को दिखाने वाला है। दुर्गा पूजा के इस सूची में
शामिल होने से भी महत्वपूर्ण यह है कि इन अमूर्त सांस्कृतिक विरासतों को
मान्यता मिलने का जो सकारात्मक प्रभाव भारत के जन मन पर पड़ रहा है वह क्या
है? इस दृष्टि से जब सोचते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि यह बीते कुछ साल
भारत को उसके प्राचीन गौरव और नये लक्ष्यों के साथ पहचानने का कालखंड है। यही
कारण है कि जहाँ कुंभ मेला को समझने और उसके प्रबंधन विधि को जानने के लिए
हार्वर्ड विश्वविद्यालय जैसे विश्वस्तरीय संस्थान इस आयोजन का अध्ययन कर
रहे हैं, वहीं राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के साथ ही इसे भारत के गौरव और
संस्कृति के मानबिंदु के रूप में सर्वत्र स्वीकृति प्राप्त हुई है। जिस
सौहार्द और उल्लास के वातावरण में काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरीडोर का निर्माण
हुआ है उससे विरासतों के प्रति गौरव के भाव और नये भारत के निर्माण का पथ
प्रशस्त होता है। सहज नहीं था विश्वनाथ मंदिर कॉरीडोर का निर्माण, हजारों
लोग बेघर हुए लेकिन उन्होंने अपनी खुशी से अपने-अपने घर विश्वनाथ मंदिर
कॉरीडोर के निर्माण के लिए दिये परंतु विस्थापन के विरूद्ध कोई आंदोलन नहीं
चला। लोगों की सहभागिता का ही परिणाम था कि दो वर्षों में न केवल दो सौ वर्षों
की समस्या का समाधान हो गया बल्कि एक भव्य वास्तु भी उभर कर आया। सही
अर्थों में बहुभाषिक, बहुधर्मी, बहुलतावादी समाज किस प्रकार सबकी मान्यताओं
को आदर देते हुए और अपनी मूल परंपरा को उसका यथोचित गौरव देते हुए आगे बढ़
सकता है, इसके रास्ते दिखायी देने लगे हैं। यह नये भारत की करवट है। दुर्गा
पूजा को भी इसी रूप में देखना होगा। देश में दुर्गापूजा का उत्सव आज सभी
प्रांतों में मनाया जा रहा है। दुर्गा पूजा न केवल स्त्री की दिव्यता का
उत्सव है, बल्कि नृत्य, संगीत, शिल्प, अनुष्ठानों, प्रथाओं, परंपराओं और
सांस्कृतिक पहलुओं की एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है। सर्व समावेशी यह त्योहार
जाति, पंथ और आर्थिक वर्गों की सीमाओं से परे होकर लोगों को एक साथ जोड़ता है।
इसने एक नये ढंग से रोजगार के अवसर भी सृजित किए हैं, व्यापार की संभावनाएं
विस्तृत की हैं। अर्थात मूर्त-अमूर्त विरासतों की ओर लौटना केवल पुराने युग
में लौटना नहीं है अपितु पुराने युग के गौरव के साथ नए भारत के निर्माण की ओर
चलना है। यह वापसी नहीं है, प्रगति है। विरासतों को सिर्फ इतिहास से जोड़कर
देखने की जरूरत नहीं है। विरासत तो वही होती है जिसको मनुष्य आज के क्षण में
संजोना चाहता है, जीवंत रखना चाहता है। एक लंबा समय रहा है जब देश में हमारी
विरासतों को प्राचीन विरासतों के रूप में समझा जाता रहा है। हमारी विरासतें
हमारे पूर्वजों के द्वारा दिया गया एक ऐसा उत्तराधिकार है जिससे हम अपने
श्रेष्ठ भविष्य का पथ प्रदर्शित कर सकते हैं, इस रूप में नहीं देखा जा रहा
था। आज पूजा, पर्व, मेले, मंदिर, गुरूद्वारे, चर्च और मस्जिद यह सशक्त भारत
के निर्माण के केन्द्र हो सकते हैं, प्रगतिशील भारत के निर्माण के केन्द्र
हो सकते हैं। श्रद्धा,आस्था,उपासना अफीम का नशा नहीं हैं अपितु साहस और
संकल्प के साथ सबके बढ़ने और सुखमय होने का रास्ता प्रशस्त कर सकते हैं,
देश में इस तरह का एक नया वातावरण निर्मित हो रहा है। यह केवल जड़ों की ओर
लौटना नहीं है अपितु जड़ों से पर्याप्त जीवन शक्ति लेकर विरवे के विराट वृक्ष
में परिवर्तित होने की प्रक्रिया है। कोई समाज आकाशबेल जैसा नहीं हो सकता।
परायी सांस्कृतिक भूमि पर स्वबोध का समाज नहीं खड़ा हो सकता। आज निश्चित रूप
से भारत में स्वराज,स्वबोध और सुराज को लेकर एक नया सकारात्मक विधायक
विमर्श खड़ा हुआ है। पहली बार ऐसा हुआ है कि राजनैतिक मतभेदों के होते हुए भी
इस नये करवट ले रहे भारत के प्रति सर्वत्र सकारात्मक दृष्टि दिखायी दे रही
है। इसका कारण बदलता हुआ भारत, दुनिया में तेजी से बढ़ता हुआ भारत है तो
दुनिया की समस्याएं भी हैं। दुनिया ने जिस प्रकार की सभ्यता को पिछले तीन-
चार सौ वर्षों में निर्मित किया है, अंगीकृत किया है और उसे एकमात्र सभ्यता
के रूप में स्वीकृति प्रदान की है, उसने मनुष्य जाति के समक्ष विविध प्रकार
के संकट पैदा किए हैं। इस सभ्यता दृष्टि के कारण सुव्यवस्था, लोक कल्याण
और पर्यावरण का संकट आसन्न है। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर दुनिया भारत की उस
अमूर्त सांस्कृतिक परंपरा की ओर देख रही है जो 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे
सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्' की अवधारणा
पर आधारित है। दुनिया भर में लुप्त और अदृश्य हो रहे पारसियों का त्यौहार
नवरोज हो या भारत में जोरशोर से मनायी जाने वाली दुर्गापूजा हो, सबके लिए जगह
है, सबके लिए सम्मान है, सबकी स्वीकृति है। सब सबका है, साझा और निरंतरता
में है। यह आज एक नई दृष्टि उभर कर आई है। काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरीडोर के
शुभारंभ के अवसर पर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे रेखांकित करते
हुये जो बात कही थी वह आज के भारतीय समाज का यथार्थ है। नए भारत में अपनी
संस्कृति का गर्व भी है और अपने सामर्थ्य पर उतना ही भरोसा भी है। नए भारत में
विरासत भी है और विकास भी है। यहां विरासत से विकास है। विकास का तात्पर्य
अपनी विरासतों को सहेजते हुए, उनसे उर्जा ग्रहण करते हुए आज की आवश्यकताओं को
समझकर आगे बढ़ने का है। इस नये भारत को इस रूप में समझना पड़ेगा है पूजा
वैयक्तिक है लेकिन दुर्गापूजा अमूर्त सामूहिक चेतना का मूर्त प्रगटीकरण है।
व्यक्तिगत पूजा को सामूहिक पूजा में अंतर्विष्ट करने की प्रकिया व्यक्तिगत
गुणों को समूह के गुणों में अंतर्विष्ट करने की प्रक्रिया का प्रतीकीकरण है।
दुर्गा पूजा को 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत' सूची में शामिल किए जाने
को व्यष्टि से समष्टि की ओर विकसित हो रहे समाज की नई चेतना के आलोक में
देखा जाना चाहिए। भारत की महान सांस्कृतिक परंपराओं को यूनेस्को की सूची में
शामिल किया जाना यह साबित करता है कि दुनिया आज संतृप्त हो रही सभ्यता के
विकास के एक रास्ते के रूप में देख रही है। ये विरासतें संग्रहालयों में बंद
नहीं बल्कि भारतीयों के जीवन में जीवित विरासते हैं और जब कोई समाज विरासतों
को जीने की ओर बढ़ता है तो अपने पूर्वजों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासतों के
साथ अपनी आने वाली पीढि़यों के सुखमय भविष्य के लिए जीवन प्रणाली की निर्मिति
करता है। आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक
परंपरा की स्वीकृति इसी रूप में सामने आती है।