हिंसा को गौरव का विषय मानने वाली मानसिकता त्यागे बिना अमेरिका में बंदूक
संस्कृति थमने वाली नहीं है। बीते दिनों अमेरिका के टेक्सास में स्कूल पर एक
सिरफिरे बंदूकधारी के हमले में कई परिवारों के चिराग बुझ गए। इस हमले में 19
बच्चों और दो अध्यापकों को अपनी जान गंवानी पड़ी। यह अमेरिका में इस तरह की
पहली घटना नहीं। ऐसे में इसे लेकर बहस का आरंभ होना स्वाभाविक है। अमेरिकी
राष्ट्रपति जो बाइडन ने कुछ बयान देकर फिलहाल खानापूर्ति कर ली है, लेकिन यह
समस्या केवल जुबानी जमाखर्च से ही खत्म नहीं होने वाली। निरंतर बढ़ती ऐसी
घटनाओं के पीछे सबसे प्रमुख कारण तो खतरनाक हथियारों का सहजता से सुलभ होना ही
माना जा रहा है। कुछ विशेषज्ञ ऐसी अंधाधुंध गोलीबारी के पीछे हिंसक वीडियो
गेम्स को भी जिम्मेदार मानते हैं। हालांकि 2017 में लास बेगास के एक कंसर्ट पर
गोलीबारी कर जिस स्टीफन पैडाक ने 58 लोगों की जान ले लो थी वह न तो मानसिक
रोगी था, न ही किसी विचारधारा से प्रभावित और न ही वीडियो गेम खेलता था। इसी
तरह 2018 में पेन्सिलवेनिया में 11 लोगों की जान लेने वाला राबर्ट बोवर्स भी
एक आम आदमी था। इस प्रकार देखा जाए तो हिंसक एवं क्रूर प्रवृत्ति ही अमेरिका
की नियति बनती दिख रही है।
बात केवल बच्चों को निशाना बनाने तक सीमित नहीं। अमेरिका के ही बफेलो में एक
श्वेत बंदूकधारी ने कुछ दिन पहले 10 अश्वेतों को मार डाला। यह घटना एक सुपर
मार्केट में हुई। इसमें मरने वाले 20 वर्ष से लेकर 86 वर्ष तक के थे। हालांकि
इस पर अमेरिकी समाज की वैसी प्रतिक्रिया नहीं आई जैसी 'ब्लैक लाइव्स मैटर'
अभियान में देखने को मिली थी। इसके राजनीतिक और तमाम अन्य कारण हो सकते हैं,
लेकिन इतना स्पष्ट है कि वह अमेरिकी समाज में अंदर तक पैठ कर चुके रंगभेद की
बीमारी का भी एक पहलू है। इसीलिए वह घटना राष्ट्रीय चिंता का विषय नहीं बनी।
हिंसा में फर्क करना, रंग के आधार पर अंतर करना, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों
के आधार पर भेदभाव बंदूक और हिंसा की कुसंस्कृति को खत्म नहीं कर सकता। ऐसी
स्थितियां अमेरिकी समाज की उस अभिवृत्ति के कारण उत्पन्न हुई है, जो समाज
फलक्रियावाद में विश्वास करता है। फलक्रियावाद एक ऐसे सामाजिक चिंतन का परिणाम
है जो स्वार्थों की पूर्ति की सैद्धांतिकी को प्रस्तुत करता है। इस मूल
सैद्धांतिकी से मुक्त हुए बिना अमेरिकी समाज को हिंसा से कभी मुक्ति नहीं मिल
पाएगी।
किसी भी सभ्य समाज में हिंसा अस्वीकार्य होती है और विशेषकर बच्चों को उसका
निशाना बनाना मानवता पर बड़ा कलंक है, लेकिन अमेरिका में यह लगातार होता आ रहा
है। ऐसा वहां नशे की तरह फैल चुके हिंसक कंप्यूटर गेम्स और सुपर मार्केट में
सब्जी की तरह मिलने वाले हथियारों की उपलब्धता का परिणाम है। अकेले 2022 में
अभी तक अमेरिका के विभिन्न स्कूलों में हिंसा के 27 मामले सामने आए है, जिनमें
147 से अधिक जानें गई हैं। इस बर्बरता से मुक्ति के लिए अहिंसा की दृष्टि से
सोचने वाली जीवन प्रणाली चाहिए और एक बार फिर अमेरिकी समाज को हिंसा और नस्लीय
भेदभाव से मुक्त जीवन पद्धति की निर्मिति के लिए किसी मार्टिन लूथर किंग को
आवश्यकता है। हालांकि यह केवल मार्टिन लूथर किंग या उनके जैसे किसी महान
व्यक्तित्व द्वारा चलाए जाने वाले जन आंदोलन से भी संभव नहीं हो सकेगा। इसके
लिए हिंसा को गौरव का विषय मानने वाली अपनी राष्ट्रीय संस्कृति से भी अमेरिका
को बाज आना पड़ेगा। बुद्धों को भड़काने और दुनिया के तमाम देशों में नरसंहार की
स्थितियां पैदा करने वाली अंतरराष्ट्रीय कूटनीति से भी उसे मुक्ति पानी पड़ेगी।
जब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अहिंसामूलक विश्व व्यवस्था की निर्मिति का परिवेश
नहीं बनेगा, तब तक अमेरिकी समाज में भी व्यक्ति के स्तर पर अहिंसा, करुणा
इत्यादि मानवीय गुणों को व्यवहार्य नहीं बनाया जा सकेगा।
वस्तुतः यह हिंसा को विकृति का शिकार हुए कुछ किशोरों और युवाओं का प्रश्न
नहीं है। यह केवल हिंसक मोबाइल गेम की परिणति नहीं है, अपितु यह प्रकटीकरण है
एक ऐसी सभ्यता के स्वाभाविक दुष्परिणामों का जिसमें जीवन की गुणवत्ता ऐंद्रिक
आस्वाद की सीमा में जाकर समाप्त हो जाती है। अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति
के लिए व्यक्ति अपनी समस्त मानवीय क्षमताओं का उपयोग करने को जीवन दृष्टि मान
लेता है। क्षणिक उपलब्धियों और सुख के लिए हजारों वर्षों से स्थापित और
स्वीकृत नैतिकता को तिलांजलि दे देता है। असल में नितांत अलगाव, अकेलेपन और
कुंठा में जीवन जीने के लिए अभिशप्त किसी भी समूह में अन्य के लिए दवा, करुणा
जैसे मानवीय मूल्यों के होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं। आज एक ऐसी
विश्व सभ्यता की आवश्यकता है जो करुणा पर आधारित हो। इस अभीष्ट की पूर्ति
विज्ञान और तकनीक के विकास से नहीं होगी। इसके लिए मनुष्य को प्रसन्नता और सुख
के नए मानदंडों को गढ़ना और बनाना पड़ेगा। अमेरिकी समाज को इसे ज्यादा गंभीरता
से देखना पड़ रहा है, क्योंकि विगत सौ वर्षों में अमेरिका ने जो सामर्थ्य
विकसित की है, वह भौतिक उपलब्धियों से निर्मित हुई है। किसी भी प्रकार से कुछ
भी प्राप्त करने का सामर्थ्य अंततः हिंसा, युद्ध और बर्बरता को चहुंओर
विस्तारित करता है। इसलिए आज गांधी और मार्टिन लूथर किंग को याद करने की
आवश्यकता है। बुद्ध और महावीर के रास्ते पर दुनिया चले, ईसा मसीह की शिक्षा का
पालन करे, एक आदर्शवादी जीवन प्रविधि विकसित करे, इसकी आज जरूरत आ पड़ी है।
अन्यथा भौतिक उपलब्धियों की चाह और वर्तमानजीविता इस सृष्टि को यांत्रिक,
अमानवीय और बर्बर ही बना रही है।