अप्सरा
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
प्रथम संस्करण
1931
गंगा पुस्तकमाला कार्यालय ,
लखनऊ
अप्सरा निराला की कथा-यात्रा का प्रथम सोपान है। अप्सरा-सी सुंदर और कला-प्रेम में डूबी एक वीरांगना की यह कथा हमारे हृदय पर अमिट प्रभाव छोड़ती है। अपने व्यवसाय से उदासीन होकर वह अपना हृदय एक कलाकार को दे डालती है और नाना दुष्चक्रों का सामना करती हुई अंततः अपनी पावनता को बनाए रख पाने में समर्थ होती है। इस प्रक्रिया में उसकी नारी सुलभ कोमलताएँ तो उजागर होती ही हैं, उसकी चारित्रिक दृढ़ता भी प्रेरणादायक हो उठती है। इस उपन्यास में तत्कालीन भारतीय परिवेश और स्वाधीनता-प्रेमी युवा-वर्ग की दृढ़ संकल्पित मानसिकता का चित्रण हुआ है, जो कि महाप्राण निराला की सामाजिक प्रतिबद्धता का एक ज्वलंत उदाहरण है।
अप्सरा को साहित्य में सबसे पहले मन्द गति से सुन्दर-सुकुमार कवि-मित्र सुमित्रानन्दन पन्त की ओर बढ़ते हुए देखा, पन्त की ओर नहीं । मैंने देखा, पन्तजी की तरफ एक स्नेह-कटाक्ष कर, सहज फिरकर उसने मुझसे कहा-इन्हीं के पास बैठकर इन्हीं से मैं अपना जीवन-रहस्य कहूँगी, फिर चली गई ।
- 'निराला'
वक्तव्य
अन्यान्य भाषाओं के मुकाबले हिन्दी में उपन्यासों की संख्या थोड़ी है । साहित्य तथा समाज के गले पर मुक्ताओं की माला की तरह इने-गिने उपन्यास ही हैं । मैं श्री प्रेमचन्दजी के उपन्यासों के उद्देश्य पर कह रहा हूँ । इनके अलावा और भी कई ऐसी रचनाएँ हैं, जो स्नेह तथा आदर-सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं । इन बड़ी-बड़ी तोंदवाले औपन्यासिक सेठों की महफिल में मेरी दंशिताघरा अप्सरा उतरते हुए बिलकुल संकुचित नहीं हो रही- उसे विश्वास है, वह एक ही दृष्टि से इन्हें अपना अनन्य भक्त कर लेगी । किसी दूसरी रूपवाली अनिन्द्य सुन्दरी से भी आँखें मिलाते हुए वह नहीं घबराती, क्योंकि वह स्पर्द्धा की एक ही सृष्टि, अपनी ही विद्युत् से चमकती हुई चिर-सौन्दर्य के आकाश-तत्त्व में छिप गई है ।
मैंने किसी विचार से अप्सरा नहीं लिखी, किसी उद्देश्य की पुष्टि भी इसमें नहीं। अप्सरा स्वयं मुझे जिस-जिस ओर ले गई, दीपक-पतंग की तरह में उसके साथ रहा । अपनी ही इच्छा से अपने मुक्त जीवन-प्रसंग का प्रांगण छोड़ प्रेम की सीमित, पर दृढ़ बाँहों में सुरक्षित, बँध रहना उसने पसन्द किया ।
इच्छा न रहने पर भी प्रासंगिक काव्य, दर्शन, समाज, आदि की कुछ बातें चरित्रों के साथ व्यावहारिक जीवन की समस्या की तरह आ पड़ी हैं, वे अप्सरा के ही रूप-रुचि के अनुकूल हैं। उनसे पाठकों को शिक्षा के तौर पर कुछ मिलता हो, अच्छी बात है; न मिलता हो, रहने दें; मैं अपनी तरफ से केवल अप्सरा उनकी भेंट कर रहा हूँ ।
लखनऊ
1.1.1931
- 'निराला'
एक
इडेन-गार्डेन में, कृत्रिम सरोवर के तट पर एक कुंज के बीच, शाम सात बजे के करीब, जलते हुए एक प्रकाश-स्तम्भ के नीचे पड़ी हुई एक कुर्सी पर सत्रह साल की चम्पे की कली-सी एक किशोरी बैठी सरोवर की लहरों पर चमकती चाँद की किरणें और जल पर खुले हुए, काँपते, बिजली की बत्तियों के कमल के फूल एकचित्त से देख रही थी। और दिनों से आज उसे कुछ देर हो गई थी, पर इसका उसे खयाल न था ।
युवती एकाएक चौंककर काँप उठी। उसी बेंच पर एक गोरा बिलकुल सटकर बैठ गया। युवती एक बगल हट गई। फिर कुछ सोचकर, इधर-उधर देख, घबराई हुई, उठकर खड़ी हो गई। गोरे ने हाथ पकड़कर जबरन बेंच पर बैठा लिया। युवती चीख उठी ।
बाग में उस समय इक्के-दुक्के आदमी रह गए थे । युवती ने इधर-उधर देखा, पर कोई नजर न आया । भय से उसका कंठ भी रुक गया। अपने आदमियों को पुकारना चाहा, पर आवाज न निकली। गोरे ने उसे कसकर पकड़ लिया ।
गोरा कुछ निश्छल प्रेम की बात कह रहा था कि पीछे से किसी ने उसके कॉलर में उँगलियाँ घुसेड़ दीं, और गर्दन के पास कोट के साथ पकड़कर साहब को एक बित्ता बेंच से ऊपर उठा लिया, जैसे चूहे को बिल्ली। साहब के कब्जे से युवती छूट गई। साहब ने सिर घुमाया । आगन्तुक ने दूसरे हाथ से युवती की तरफ सिर फेर दिया, "अब कैसी लगती है ?"
साहब झपटकर खड़ा हो गया । युवक ने कॉलर छोड़ते हुए जोर से सामने रेल दिया। एक पेड़ के सहारे साहब सँभल गया, फिरकर उसने देखा, एक युवक अकेला खड़ा है । साहब को अपनी वीरता का खयाल आया । "टुम पीछे से हमको पकड़ा," कहते-कहते वह युवक की ओर लपका ।
"तो अभी दिल की मुराद पूरी नहीं हुई ?" युवक तैयार हो गया ।
साहब को बॉक्सिंग (घूँसेबाजी) का अभिमान था, युवक को कुश्ती का । साहब के वार करते ही युवक ने कलाई पकड़ ली, और वहीं से बाँधकर बहल्ले दे मारा, और छाती पर बैठ कई रद्दे कस दिए । साहब बेहोश हो गया । युवती खड़ी सविनय ताकती रही। युवक ने रूमाल भिगोकर साहब का मुँह पोंछ दिया । फिर उसी को सिर पर रख दिया । जेब से कागज निकाल बेंच के सहारे एक चिट्ठी लिखी, और साहब की जेब में रख दी । फिर युवती से पूछा, "आपको कहाँ जाना है ?
"मेरी मोटर सड़क पर खड़ी है । उस पर मेरा ड्राइवर और बूढ़ा अर्दली बैठा होगा । मैं हवाखोरी के लिए आई थी। आपने मेरी रक्षा की, मैं सदैव-सदैव आपकी कृतज्ञ रहूँगी !"
युवक ने सिर झुका लिया ।
"आपका शुभ नाम ?" युवती ने पूछ ।
"नाम बतलाना अनावश्यक समझता हूँ । आप जल्द यहाँ से चली जाएँ ।"
युवक को कृतज्ञता की सजल दृष्टि से देखती हुई युवती चल दी । रुककर कुछ कहना चाहा, पर कह न सकी । युवती फील्ड के फाटक की ओर चली, युवक हाईकोर्ट की तरफ । कुछ दूर जाने के बाद युवती फिर लौठी । युवक नज़र से बाहर हो गया था । वह गई और साहब की जेब से चिट्ठी निकालकर चुपचाप चली आई ।
दो
कनक धीरे-धीरे अठारहवें वर्ष के पहले चरण में आ पड़ी । अपार अलौकिक सौन्दर्य, एकान्त में, कभी-कभी अपनी मनोहर रागिनी सुना जाता । वह कान लगा उसके अमृत-स्वर को सुनती पान किया करती । अज्ञात एक अपूर्व आनन्द का प्रवाह अंगों को आपादमस्तक नहला जाता । स्नेह की विद्युल्लता काँप उठती । उस अपरिचित कारण की तलाश में विस्मय से आकाश की ओर ताककर रह जाती । कभी-कभी खिले हुए अंगों के स्नेहभार में एक स्पर्श मिलता, जैसे अशरीर कोई उसकी आत्मा में प्रवेश कर रहा हो ! उस गुदगुदी में उसके तमाम अंग कॉपकर खिल उठते । अपनी देह के वृन्त अपलक खिली हुई ज्योत्स्ना के चन्द्र-पुष्प की तरह, सौन्दर्योज्ज्वल पारिजात की तरह एक अज्ञात प्रणय की वायु डोल उठती । आँखों में प्रश्न फूट पड़ता, संसार के रहस्यों के प्रति विस्मय ।
कनक गन्धर्व-कुमारिका थी । उसकी माता सर्वेश्वरी बनारस की रहनेवाली थी । नृत्य-संगीत में वह भारत- प्रसिद्ध हो चुकी थी । बड़े-बड़े राजे-महाराजे जलसे में उसे बुलाते, उसकी बड़ी आवभगत करते । इस तरह सर्वेश्वरी ने अपार सम्पत्ति एकत्र कर ली थी । उसने कलकत्ता-बहूबाजार में आलीशान अपना एक खास मकान बनवा लिया था, और व्यवसाय की वृद्धि के लिए, उपार्जन की सुविधा के विचार से, प्रायः वहीं रहती भी थी । सिर्फ बुढ़वा-मंगल के दिनों, तवायफों तथा रईसों पर अपने नाम की मुहर मार्जित कर लेने के विचार से काशी-आवास करती थी । वहाँ भी उसकी एक कोठी थी ।
सर्वेश्वरी की इस अथाह सम्पत्ति की नाव पर एकमात्र उसकी कन्या कनक ही कर्णधार थी, इसलिए कनक में सब तरफ से ज्ञान का थोड़ा-थोड़ा प्रकाश भर देना-भविष्य के सुखपूर्वक निर्वाह के लिए, अपनी नाव खेने की सुविधा के लिए-उसने आवश्यक समझ लिया था । वह जानती थी, कनक अब कली नहीं, उसके अंगों के कुल दल खुल गए हैं । उसके हृदय के चक्र में चारों ओर के सौन्दर्य का मधु भर गया है । पर उसका लक्ष्य उसकी शिक्षा की तरफ था । अभी तक उसने उसका जातीय शिक्षा का भार अपने हाथों नहीं लिया । अभी दृष्टि से ही वह कनक को प्यार कर लेती, उपदेश दे देती थी । कार्यतः उसकी तरफ से अलग थी । कभी-कभी जब व्यवसाय और व्यावसायियों से फुर्सत मिलती, वह कुछ देर के लिए कनक को बुला लिया करती । और, हर तरफ से उसने कन्या के लिए स्वतन्त्र प्रबन्ध कर रखा था । उसके पढ़ने का घर में ही इन्तजाम कर दिया था । एक अंग्रेज-महिला, श्रीमती कैथरिन, तीन घंटे उसे पढ़ा जाया करती थी । दो घंटे के लिए एक अध्यापक आया करते थे ।
इस तरह वह शुभ्र-स्वच्छ निर्झरिणी विद्या के ज्योत्स्ना-लोक के भीतर से मुखर शब्द-कलरव करती हुई ज्ञान के समुद्र की ओर अबाध वह चली । हिन्दी के अध्यापक उसे पढ़ाते हुए अपनी अर्थ-प्राप्ति की कलुषित कामना पर पश्चात्ताप करते, कुशाग्रबुद्धि शिष्या के भविष्य का पंकिल चित्र खींचते हुए मन-ही-मन सोचते-इसकी पढ़ाई ऊसर वर्षा है- तलवार में ज्ञान, नागिन का दूध पीना । इसका काटा हुआ एक कदम भी नहीं चल सकता । पर नौकरी छोड़ने की चिन्ता-मात्र से व्याकुल हो उठते थे । उसकी अंग्रेजी की प्राचार्या उसे बाइबिल पढ़ाती हुई बड़ी एकाग्रता से देखती, और मन-ही-मन निश्चय करती थी कि किसी दिन उसे प्रभु ईसा की शरण में लाकर कृतार्थ कर देगी ।
कनक भी अंग्रेजी में जैसी तेज थी, उसे अपनी सफलता पर जरा भी द्विधा न थी । उसकी माता सोचती-इसके हृदय को जिन तारों से बाँधकर मैं इसे सजाऊँगी, उनके स्वर-झंकार से एक दिन संसार के लोग चकित हो जाएँगे, इसके द्वारा अप्सरा-लोक में एक नया ही परिवर्तन कर दूँगी, और वह केवल एक ही अंग में नहीं, चारों तरफ मकान के सभी शून्य छिद्रों को जैसे प्रकाश और वायु भरते रहते हैं, आत्मा का एक ही समुद्र जैसे सभी प्रवाहों का चरम परिणाम है ।
इस समय कनक अपनी सुगन्ध से आप ही आश्चर्यचकित हो रही थी । अपने बालपन की बालिका तन्वी कवयित्री को चारों ओर केवल कल्पना का आलोक देख पड़ता था, उसने अभी उसकी किरण-तन्तुओं से जाल बुनना नहीं सीखा था । काव्य था, पर शब्द-रचना नहीं-जैसे उस प्रकाश में उसकी तमाम प्रगतियाँ फँस गई हों ! जैसे इस अवरोध से बाहर निकलने की वह राज न जानती हो ! वहीं उसका सबसे बड़ा सौन्दर्य, उसमें एक अतुल नैसर्गिक विभूति थी । संसार के कुल मनुष्य और वस्तुएँ उसकी दृष्टि में मरीचिका के ज्योति-चित्रों की तरह आतीं, अपने यथार्थ स्वरूप में नहीं ।
कनक की दिनचर्या बहुत साधारण थी । दो दासियाँ उसकी देख-रेख के लिए थीं, पर उन्हें प्रतिदिन दो बार उसे नहला देने और तीन-चार बार वस्त्र बदलवा देने के इन्तजाम में ही जो कुछ थोड़ा-सा काम था, बाकी समय यों ही कटता था । कुछ समय साड़ियाँ चुनने में लग जाता था ।
कनक प्रतिदिन शाम को मोटर पर किले के मैदान की तरफ निकलती थी । ड्राइवर की बगल में एक अर्दली बैठता था । पीछे की सीट पर अकेली कनक । कनक प्रायः आभरण नहीं पहनती थी । कभी-कभी हाथों में सोने की चूड़ियाँ डाल लेती थी । गले में एक हीरे की कनी का जड़ाऊ हार । कानों में हीरे के दो चम्पे पड़े रहते । सन्ध्या-समय, सात बजे के बाद से दस तक और दिन में भी इसी तरह सात से दस तक पढ़ती थी । भोजन-पान में बिलकुल सादगी, पर पुष्टिकारक भोजन उसे दिया जाता था ।
तीन
धीरे-धीरे ऋतुओं के सोने के पंख फड़का, एक साल और उड़ गया । मन के खिलते हुए प्रकाश के अनेक झरने उसकी कमल-सी आँखों से होकर बह गए । पर अब उसके मुख से आश्चर्य की जग-ज्ञान की मुद्रा चित्रित हो जाती । वह स्वयं अब अपने भविष्य के तट पर तुलिका चला लेती है । साल-भर से माता के पास उसे नृत्य और संगीत की शिक्षा मिल रही है । इधर उसकी उन्नति के चपल क्रम को देख सर्वेश्वरी पहले की कल्पना की अपेक्षा शिक्षा के पथ पर उसे और दूर तक ले चलने का विचार करने लगी, और गन्धर्व जाति के छूटे हुए पूर्व गौरव को स्पर्द्धा से प्राप्त करने के लिए उसे उत्साह भी दिया करती थी । कनक अपलक ताकती हुई माता के वाक्यों को सप्रमाण सिद्ध करने का मन-ही-मन निश्चय करती, प्रतिज्ञाएँ करती । माता ने उसे सिखलाया, "किसी को प्यार मत करना । हमारे लिए प्यार करना आत्मा की कमजोरी है, यह हमारा धर्म नहीं ।"
कनक ने अस्फुट वाणी में मन-ही-मन प्रतिज्ञा की, 'किसी को प्यार नहीं करूँगी । यह हमारे लिए आत्मा की कमजोरी है, धर्म नहीं ।'
माता ने कहा, 'संसार के और लोग भीतर से प्यार करते हैं, हम लोग बाहर से ।'
कनक ने निश्चय किया, 'और लोग भीतर से प्यार करते हैं, मैं बाहर से करूँगी ।'
माता ने कहा, "हमारी जैसी स्थिति है, इस पर ठहरकर भी हम लोक में वैसी ही विभूति, वैसा ही ऐश्वर्य, वैसा ही सम्मान अपनी कला के प्रदर्शन से प्राप्त कर सकती हैं; साथ ही, जिस आत्मा को और लोग अपने सर्वस्व का त्याग कर प्राप्त करते हैं, उसे भी हम लोग अपनी कला के उत्कर्ष के द्वारा, उसी में प्राप्त करती हैं, उसी में लीन होना हमारी मुक्ति है । जो आत्मा सभी सृष्टियों का सूक्ष्मतम तन्तु की तरह उनके प्राणों के प्रियतम संगीत को झंकृत करती, जिसे लोग बाहर के कुल सम्बन्धों को छोड़, ध्वनि के द्वारा तन्मय हो प्राप्त करते, उसे हम अपने बाह्य यन्त्र के तारों से झंकृत कर, मूर्ति में जगा लेतीं, फिर अपने जलते हुए प्राणों का गरल, उसी शिव को, मिलकर पिला देती हैं । हमारी मुक्ति इस साधना द्वारा होती है, इसीलिए ऐश्वर्य पर हमारा सदा ही अधिकार रहता है । हम बाहर से जितनी सुन्दर, भीतर से उतनी ही कठोर इसीलिए हैं । और-और लोग बाहर से कठोर, पर भीतर से कोमल हुआ करते हैं, इसलिए वे हमें पहचान नहीं पाते और अपने सर्वस्व तक का दान कर हमें पराजित करना चाहते हैं । हमारे प्रेम को प्राप्त कर, जिस पर केवल हमारे कौशल के शिव का ही एकाधिकार है, जब हम लोग अपने इस धर्म के गर्त से, मौखरिए की रागिनी सुन मुग्ध हुई नागिन की तरह, निकल पड़ती हैं, तब हमारे महत्त्व के प्रति भी हमें कलंकित अहल्या की तरह शाप से बाँध, पतित कर चले जाते हैं । हम अपनी स्वतन्त्रता के सुखमय बिहार को छोड़ मौखरिए की संकीर्ण टोकरी में बन्द हो जाती हैं, फिर वही हमें इच्छानुसार नचाता, अपनी स्वतन्त्र इच्छा के वश में हमें गुलाम बना लेता है । अपनी बुनियाद पर इमारत की तरह तुम्हें अटल रहना होगा, नहीं तो फिर अपनी स्थिति से ढह जाओगी, बह जाओगी ।"
कनक के मन में होंठ काँपकर रह गए, 'अपनी बुनियाद में इमारत की तरह अटल रहूँगी !'
चार
अखबारों में बड़े-बड़े अक्षरों में सूचना निकली :
'कोहनूर-थिएटर' में
शकुन्तला ! शकुन्तला !! शकुन्तला !!!
शकुन्तला : मिस कनक
दुष्यन्त : राजकुमार वर्मा, एम.ए. !'
प्रशंसा में और भी बड़े-बड़े आकर्षक शब्द लिखे हुए थे । थिएटर-शौकीनों को हाथ बढ़ाकर स्वर्ग मिला । वे लोग थिएटरों का तमाम इतिहास कंठाग्र रखते थे । जितने भी एक्टर (अभिनेता) और बड़ी-छोटी जितनी भी मशहूर एक्ट्रेस (अभिनेत्रियाँ) थीं, उन्हें सबके नाम मालूम थे, सबकी सूरतें पहचानते थे, पर यह मिस कनक अपरिचित थी । विज्ञापन के नीचे कनक की तारीफ भी खूब की गई थी । लोग टिकट खरीदने के लिए उतावले हो गए । टिकट-घर के सामने अपार भीड़ लग गई, जैसे आदमियों का सागर तरंगित हो रहा हो । एक-एक झोंके से बाढ़ के पानी की तरह वह जनसमुद्र इधर-से-उधर डोल उठता था । बॉक्स, ऑर्केस्ट्रा, फर्स्ट क्लास में भी और दिनों से ज्यादा भीड़ थी ।
विजयपुर के कुँअर साहब भी उन दिनों कलकत्ते की सैर कर रहे थे । इन्हें इस्टेट से छः हजार मासिक जेब-खर्च के लिए मिलता था । वह सब नई रोशनी, नए फैशन में फूँककर ताप लेते थे । आपने भी एक बॉक्स किराए पर लिया । थिएटर की मिसों की प्रायः आपकी कोठी में दावत होती थी, और तरह-तरह के तोहफे आप उनके मकान पहुँचा दिया कते थे । संगीत का आपको अजहद शौक था । खुद भी गाते थे, पर आवाज जैसे ब्रह्मभोज के पश्चात कड़ाह रगड़ने की । लोग इस पर भी कहते थे, क्या मँजी हुई आवाज है ! आपको भी मिस कनक का पता मालूम न था । इससे और उतावले हो रहे थे । जैसे ससुराल जा रहे हों, और स्टेशन के पास गाड़ी पहुँच गई हो !
देखते-देखते सन्ध्या के छः का समय हुआ । थिएटर-गेट के सामने पान खाते, सिगरेट पीते, हँसी-मजाक करते हुए बड़ी-बड़ी तोंदवाले सेठ छड़ियाँ चमकाते, सुनहली डण्डी का चश्म लगाए हुए कॉलेज के छोकरे, अंग्रेजी अखबारों की एक-एक प्रति लिए हुए हिन्दी के सम्पादक सहकारियों पर अपने अपार ज्ञान का बुखार उतारते हुए, पहले ही से कला की कसौटी पर अभिनय की परीक्षा करने की प्रतिज्ञा करते हुए टहल रहे थे । इन सब बाहरी दिखलावों के अन्दर सबके मन की आँखें मिसों के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं । उनके चकित दर्शन, चंचल चलन को देखकर चरितार्थ होना चाहती थीं । जहाँ बड़े-बड़े आदमियों का यह हाल था, वहाँ थर्ड क्लास तिमंजले पर फटी-हालत, नंगे बदन, रूखी सूरत, बैठे हुए बीड़ी-सिगरेट के धुएँ से छत भर देनेवाले, मौके-बेमौके तालियाँ पीटते हुए 'इनकोर इनकोर' के अप्रतिहत शब्द से कानों के पर्दे पार कर देनेवाले, अशिष्ट, मुँहफट, कुली-क्लास के लोगों का बयान ही क्या ? वहीं इन धन-कुबेरों और संवाद-पत्रों के सर्वज्ञों, वकीलों, डॉक्टरों, प्रोफेसरों और विद्यार्थियों के साथ ये लोग भी कला के प्रेम में साम्यवाद के अधिकारी हो रहे थे ।
देखते-देखते एक लारी आई । लोगों की निगाह तमाम बाधाओं को चीरती हुई, हवा की गोली की तरह, निशाने पर जा बैठी । पर, उस समय गाड़ी से उतरने पर, वे जितनी-मिस डली, मिस कुन्दन, मिस हीरा, पन्ना, पुखराज । रमा, क्षमा, शान्ति, शोभा, किसमिस और अंगूर-बालाएँ-थीं, जिनमें किसी ने हिरन की चाल दिखाई, किसी ने मोर की, किसी ने नागिन-जैसी-सब-की-सब जैसे डामर से पुती, अफ्रीका से हाल ही आई, प्रोफेसर डीवर या मिस्टर चटर्जी की सिद्ध की हुई, हिन्दुस्तान की आदिम जाति की ही कन्याएँ और बहनें थीं, और ये सब इतने बड़े-बड़े लोग इन्हें ही कला की दृष्टि से देख रहे थे । कोई छः फीट ऊँची, तिस पर नाक नदारद । कोई डेढ़ ही हाथ की छटंकी, पर होंठ आँखों की उपमा लिए हुए आकर्ण-विस्तृत । किसी की साढ़े तीन हाथ की लम्बाई चौड़ाई में बदली हुई-एक-एक कदम पर पृथ्वी काँप उठती । किसी की आँखें मक्खियों-सी छोटी और गालों में तबले मढ़े हुए । किसी की उम्र का पता नहीं, शायद सन् 57 के गदर में मिस्टर हडसन को गोद खिलाया हो । इस पर ऐसी दुलकी चाल सबने दिखाई, जैसे भुलभुल में पैर पड़ रहे हों ! गेट के भीतर चले जाने के कुछ सेकंड तक जनता तृष्णा की विस्तृत अपार आँखों से कला के उस अप्राप्य अमृत का पान करती रही ।
कुछ देर बाद एक प्राइवेट मोटर आई । बिना किसी इंगित के ही जनता की क्षुब्ध तरंग शान्त हो गई । सब लोगों के अंग रूप की तड़ित से प्रहत निश्चेष्ट रह गए । सर्वेश्वरी का हाथ पकड़े हुए कनक मोटर से उतर रही थी । सबकी आँखों के सन्ध्याकाश में जैसे सुन्दर इन्द्रधनुष अंकित हो गया हो । सबने देखा, मूर्तिमती के प्रभात की किरण है ।
उस दिन घर से अपने मन के अनुसार सर्वेश्वरी उसे सजा लाई थी । धानी रंग की रेशमी साड़ी पहने हुए, हाथों में सोने की, रोशनी से चमकती हुई चूड़ियाँ; गले में हीरे का हार; कानों में चम्पा; रेशमी फीते से बँधे तरंगित, खुले लम्बे बाल; स्वस्थ, सुन्दर देह; कान तक खिंची, किसी की खोज-सी करती हुई बड़ी-बड़ी आँखें; काले रंग से कुछ स्याह कर तिरछाई हुई भौंहें । लोग स्टेज की अभिनेत्री शकुन्तला को मिस कनक के रूप में अपलक नेत्रों से देख रहे थे ।
लोगों के मनोभावों को समझकर सर्वेश्वरी देर कर रही थी । मोटर से सामान उतरवाने, ड्राइवर को मोटर लाने का वक्त बतलाने, नौकर को कुछ भुला हुआ सामान मकान से ले आने की आज्ञा देने में लगी रही । फिर धीरे-धीरे कनक का हाथ पकड़े हुए, अपने अर्दली के साथ, ग्रीन-रूम की तरफ चली गई ।
लोग जैसे स्वप्न देखकर जागे । फिर चहल-पहल मच गई । लोग मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे । धन-कुबेर सेठ दूसरे परिचितों से आँखों से इशारे करने लगे । इन्हीं लोगों में विजयपुर के कुँबर साहब भी थे । और, न जाने कौन-कौन-से राजे-महाराजे सौन्दर्य के समुद्र से अतन्द्र अम्लान निकली हुई इस अप्सरा की कृपा-दृष्टि के भिक्षुक हो रहे थे ।
जिस समय कनक खड़ी थी, कुँवर साहब अपनी आँखों से नहीं, खुर्दबीन की आँखों से उसके बृहत् रूप के अंश में अपने को सबसे बड़ा हकदार साबित कर रहे थे, और इस कार्य में उन्हें जरा भी संकोच नहीं हो रहा था । कनक उस समय मुस्कुरा रहा थी ।
भीड़ तितर-बितर होने लगी । खेल आरम्भ होने में पौन घंटा और रह गया । लोग पानी, पान, सोडा-लेमनेड आदि खाने-पीने में लग गए । कुछ लोग बीड़ियाँ फूँकते हुए खुली, असभ्य भाषा में कनक की आलोचना कर रहे थे ।
ग्रीन-रूम में अभिनेत्रियाँ सज रही थीं । कनक नौकर नहीं थी, उसकी माँ भी नौकर नहीं थी । उसकी माँ उसे स्टेज पर पूर्णिमा के चाँद की तरह एक ही रात में लोगों की दृष्टि में खोलकर प्रसिद्ध कर देना चाहती थी । थिएटर के मालिक पर उसका काफी प्रभाव था । साल में कई बार उसी स्टेज पर, टिकट ज्यादा बिकने के लोभ से, थिएटर के मालिक उसे गाने तथा अभिनय करने के लिए बुलाते थे । वह जिस रोज स्टेज पर उतरती, रंगशाला दर्शक-मण्डली से भर जाती । कनक रिहर्सल में कभी नहीं गई, यह भार उसकी माता ने ले लिया था ।
कनक को शकुन्तला का वेश पहनाया जाने लगा । उसके कपड़े उतार दिए गए । एक साधारण-सा वस्त्र, वल्कल की जगह, पहना दिया गया । गले में फूलों का हार । बाल अच्छी तरह खोल दिए गए । उसकी सखियाँ अनुसूया और प्रियंवदा भी सज गईं । उधर राजकुमार को दुष्यन्त का वेश पहनाया जाने लगा । और-और पात्र भी सजा कर तैयार कर दिए गए ।
राजकुमार भी कम्पनी में नौकर नहीं था । वह शौकिया बड़ी-बड़ी कम्पनियों में उतारकर प्रधान पार्ट किया करता था । इसका कारण खुद मित्रों से बयान किया करता । कहा करता था, हिन्दी के स्टेज पर लोग ठीक-ठीक हिन्दी-उच्चारण नहीं करते, उर्दू के उच्चारण की नकल करते हैं, इससे हिन्दी का उच्चारण बिगड़ जाता है । हिन्दी के उच्चारण में जीभ की स्वतन्त्र गति होती है । यह हिन्दी ही की शिक्षा के द्वारा दुरुस्त होगी । कभी-कभी हिन्दी में वह स्वयं भी नाटक लिखा करता । यह शकुन्तला-नाटक उसी का लिखा हुआ था । हिन्दी की शुभकामना से प्रेरित हो उसने विवाह भी नहीं किया । इससे घरवाले कुपित भी हुए थे, पर उसने परवा नहीं की । कलकत्ता-सिटी-कॉलेज में वह हिन्दी का प्रोफेसर है । शरीर जैसा हृष्ट-पुष्ट, वैसा ही सुन्दर और बलिष्ठ भी है । कलकत्ता की साहित्य-समितियाँ उसे अच्छी तरह पहचानती हैं ।
तीसरी घंटी बजी । लोगों की उत्सुक आँखें स्टेज की ओर लगीं । पहले बालिकाओं ने स्वागत-गीत गाया, पश्चात् नाटक शुरू हुआ । पहले-ही-पहल कण्व के तपोवन में शकुन्तला के दर्शन कर दर्शकों की आंखें तृप्ति से खुल गई । आश्रम के उपवन की वह खिली हुई कली अपने अंगों की सुरभि से कम्पित दर्शकों के हृदय को, संगीत की मधुर मीड़ की तरह काँपकर उठती देह की दिव्य द्युति से, प्रसन्न-पुलकित कर रही थी । जिधर-जिधर चपल तरंग की तरह वह डोलती फिरती, लोगों की अचंचल, अपलक दृष्टि उधर-ही-उधर उस छवि-स्वर्ण-किरण से लगी रहती । एक ही प्रत्यंग संचालन से उसने लोगों पर जादू डाल दिया । सभी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे । उसे गौरवपूर्ण आश्चर्य से देखने लगे ।
महाराज दुष्यन्त का प्रवेश हुआ । देखते ही कनक चौंक उठी । दुष्यन्त भी, अपनी तमाम एकाग्रता से, उसे सविस्मय देखते रहे । यह मौन अभिनय लोगों के मन में दुष्यन्त और शकुन्तला की झलक भर गया । कनक मुस्कुराई । दोनों ने दोनों को पहचान लिया था ।
उनके अभ्यन्तर भावों की प्रसन्नता की छाया दर्शकों पर भी पड़ी । लोगों ने कहा, "कितना स्वाभाविक अभिनय हो रहा है !"
क्रमशः आलाप-परिचय, राग-रस-प्रियता आदि अभिनीत होते रहे । रंगशाला में सन्नाटा छाया था, मानो सब लोग निर्वाक् कोई मनोहर स्वप्न देख रहे हों । गान्धर्व रीति से विवाह होने लगा । लोग तालियाँ पीटते, सीटियाँ बजाते रहे । शकुन्तला ने अपनी माला दुष्यन्त को पहना दी, दुष्यन्त ने अपनी शकुन्तला को । स्टेज खिल गया ।
ठीक इसी समय, बाहर से भीड़ को ठेलते, चैकरों की भी परवा न करते हुए, कुछ कान्स्टेबलों को साथ ले, पुलिस के दारोगाजी बड़ी गम्भीरता से स्टेज के सामने आ धमके । लोग विस्मय की दृष्टि से एक दूसरा नाटक देखने लगे । दारोगाजी ने मैनेजर को पुकारकर कहा, "यहाँ, इस नाटक-मण्डली में, राजकुमार वर्मा कौन है ? उसके नाम वारन्ट है, हम उसे गिरफ्तार करेंगे ।"
तमाम स्टेज थर्रा गया । उसी समय लोगों ने देखा, राजकुमार वर्मा, दुष्यन्त की ही सम्राट चाल से निश्शंक, वन्य दृश्य-पट के किनारे से, स्टेज के बिलकुल सामने आकर खड़ा हो गया, और वीर-दृष्टि से दारोगा को देखने लगा । वह दृष्टि कह रही थी-हमें गिरफ्तार होने का बिलकुल खौफ नहीं । कनक भी शकुन्तला के अभिनय को सार्थक करती हुई, किनारे से चलकर अपने प्रिय पति के पास आ, उसका हाथ पकड़ दारोगा को निस्संकोच दृप्त दृष्टि से देखने लगी । कनक को देखते ही शहद की मक्खियों की तरह दारोगा की आँखें उससे लिपट गई । दर्शक नाटक देखने के लिए चंचल हो उठे ।
"हमने रुपए खर्च किए हैं । हमारे मनोरंजन का टैक्स लेकर फिर उसमें बाधा डालने का सरकार को कोई अधिकार नहीं । यह दारोगा की मूर्खता है, जो अभियुक्त को यहाँ कैद करने आया । निकाल दो उसे ।" कॉलेज के एक विद्यार्थी ने जोर से पुकारकर कहा ।
"निकालो, निकालो, निकाल बाहर करो !" हजारों कंठ एक साथ कह उठे ।
ड्राप गिरा दिया गया ।
"निकल जाओ, निकल जाओ !" पटापट तालियों के वाद्य से स्टेज गूँज उठा । सीटियाँ बजने लगीं । "अहा-हा-हा ! कुर्बान जाऊँ साफा ! कुर्बान जाऊँ डंडा ! छछूंदर-जैसी मूँछें ! यह कद्दू-जैसा मुँह ।"
दारोगाजी का सिर लटक पड़ा । 'भागो भागो, भागो' के बीच उन्हें भागना ही पड़ा । मैनेजर ने कहा, "नाटक हो जाने के बाद आप उन्हें गिरफ्तार कर लीजिएगा । मैं उनके पास गया था । उन्होंने आपके लिए यह संवाद भेजा है ।"
दारोगा को मैनेजर गेट पर ले जाने लगे । उन्होंने स्टेज के भीतर रहकर नाटक देखने की इच्छा प्रकट की । मैनेजर ने टिकट खरीदने के लिए कहा । दारोगाजी एक बार घूरकर रह गए । फिर अपने लिए एक ऑरकेस्ट्रा का टिकट खरीद लिया । कान्स्टेबलों को मैनेजर ने थर्ड क्लास में ले आकर भर दिया । वहाँ के लोगों को मनोरंजन की दूसरी सामग्री मिल गई ।
थिएटर होता रहा । मिस कनक द्वारा किया गया शकुन्तला का पार्ट लोगों को बहुत पसन्द आया । एक ही रात में वह शहर-भर में प्रसिद्ध हो गई ।
नाटक समाप्त हुआ । राजकुमार को ग्रीन-रूम से निकलते ही गिरफ्तार कर लिया गया ।
पाँच
एक बड़ी-सी, अनेक प्रकार के देश-देश की अप्सराओं, बादशाहजादियों, नर्तकियों के सत्य तथा काल्पनिक चित्रों तथा बेलबूटों से सजी हुई दालान । झाड़-फानूस टँगे हुए, फर्श पर कीमती गलीचा-कारपेट बिछा हुआ । मखमल की गद्दीदार कुर्सियाँ । कोच और सोफे तरह-तरह की मेजों के चारों ओर कायदे से रखे हुए । बीच-बीच में बड़े-बड़े आदमी के आकार में ड्योढ़े शीशे । एक तरफ टेबल-हारमोनियम और एक तरफ पियानो रखा हुआ । और-और यन्त्र भी-सितार, सुर-बहार, इसराज, वीणा, सरोद, बैंजों, बेला, क्लारियोनेट, कारनेट, मँजीरे, तबले, पखावज, सारंगी आदि यथास्थान सुरक्षित रखे हुए ।
छोटी-छोटी मेजों पर चीनी-मिट्टी के कीमती शो-पीस रखे हुए । किसी में फूलों के तोड़े । रंगीन शीशे-जड़े तथा झँझरियोंदार डबल दरवाजे लगे हुए । दोनों किनारों पर मखमल की सुनहरी जालीदार झूल चौथ के चाँद के आकार से पड़ी हुई । बीच में छः हाथ की चौकोर करीब डेढ़ हाथ की उँची गद्दी, तकिए लगे हुए । उस पर अकेली बैठी हुई, रात आठ बजे के लगभग, कनक सुरबहार बजा रही है । मुख पर चिन्ता की एक रेखा स्पष्ट खिंची हुई उसके बाहरी सामान से चित्त बहलाने का हाल बयान कर रही है । नीचे लोगों की भीड़ जमा है । सब कान लगाए सुरबहार सुन रहे हैं ।
एक दूसरे कमरे से एक नौकर ने आकर कहा, "मौजी कहती हैं, कुछ गाने के लिए कहो ।"
कनक ने सुना । नौकर चलने लगा, कनक ने उससे हारमोनियम दे जाने के लिए कहा ।
हारमोनियम आने पर उसने सुरबहार चढ़ा दिया । नौकर उस पर गिलाफ चढ़ाने लगा । कनक दूसरे सप्तक के 'सा' स्वर पर उँगली रखकर बेली करने लगी । गाने से जी उचट रहा था, पर माता की आज्ञा थी, उसने गाया :
"प्यार करती हूँ , अलि, इसलिए मुझे भी करते हैं ये प्यार,
बह गई हूँ अजान की ओर , इसलिए वह जाता संसार ।
रुके नहीं , धनि-चरण घाट पर,
देखा मैंने मरन-बाट पर ,
टूट गए सब आट-ठाट , घर,
छूट गया परिवार-
तभी सखि , करते हैं वे प्यार ।
आप बही या बहा दिया था ,
खिंची स्वयं या खींच लिया था ,
नहीं याद कुछ कि क्या किया था ,
हुई जीत या हार-
तभी री , करते हैं वे प्यार ।
खुले नयन , जब रही सदा तिर-
स्नेह तरंगों पर उठ-उठ गिर ;
सुखद पालने पर में फिर-फिर
करती थी शृंगार -
मुझे तब करते हैं वे प्यार ।
कर्म-कुसुम अपने सब चुन-चुन
निर्जन में प्रिय के गिन-गिन गुन ,
गूँथ निपुण कर से उनको सुन ,
पहनाया था हार -
इसलिए करते हैं वे प्यार । "
कनक ने कल्याण में भरकर यमन गाया । नीचे कई सौ आदमी मन्त्र-मुग्ध से खड़े हुए सुन रहे थे । गाने से प्रसन्न हो, सर्वेश्वरी ने अपने कमरे से उठकर, कनक के पास आकर बैठ गई । गाना समाप्त हुआ । सर्वेश्वरी ने प्यार से कन्या का चिन्तित मुख चूम लिया ।
तभी नीचे से एक नौकर ने आकर कहा, "विजयपुर के कुँवर साहब के यहाँ से एक बाबू आए हैं । कुछ बातचीत करना चाहते हैं ।"
सर्वेश्वरी नीचे अपने दो मंजिलवाले कमरे में उत्तर गई । यह कनक का कमरा था । अभी कुछ दिन हुए, कनक के लिए सर्वेश्वरी ने सजाया था । कुछ देर बाद सर्वेश्वरी लौटकर ऊपर आई । कनक से कहा, "कुँबर साहब विजयपुर तुम्हारा गाना सुनना चाहते हैं ।"
"मेरा गाना सुनना चाहते हैं !" कनक सोचने लगी । "अम्मा !" कनक ने कहा, "मैं रईसों की महफिल में गाना नहीं गाऊँगी ।"
"नहीं, वह यहीं आएंगे । बस, दो-चार चीजें सुना दो । तबियत अच्छी न हो, तो कहो, कह दें, फिर कभी आएँगे ।"
"अच्छा अम्मा, किसी कीमती, खूबसूरत पत्ते पर हुई ओस की बूँद अगर हवा के झोंके से जमीन पर गिर जाए तो अच्छा या प्रभात के सूर्य से चमकती हुई उसकी किरणों से खेलकर फिर अपने निवास-स्थान- आकाश को चली जाए ?"
"दोनों अच्छे हैं उसके लिए । हवा के झूले का आनन्द किरणों से हँसने में नहीं, वैसे ही किरणों से हँसने का आनन्द हवा के झूले में नहीं । और, अन्ततः वास-स्थान तो पहुँच ही जाती है, गिरे या डाल पर सूख जाए !"
"और अगर हवा में झूलने से पहले ही सूखकर उड़ गई हो ?"
"तब तो बात ही और है ।"
"मैं उसे यथार्थ रंगीन पंखोंवाली परी मानती हूँ ।"
"क्या तू खुद ही परी बनना चाहती है ?"
"हाँ, अम्मा ! मैं कला को कला की दृष्टि से देखती हूँ । क्या उससे अर्थ-प्राप्ति करना उसके महत्त्व को घटा देना नहीं ?"
"ठीक है । पर यह एक प्रकार का समझौता है । अर्थवाले अर्थ देते हैं, और कला के जानकार उसका आनन्द । संसार में एक-दूसरे से ऐसा ही सम्बन्ध है ।"
"कला के ज्ञान के साथ-ही-साथ कुछ ऐसी गन्दगी भी हम लोगों के चरित्र में रहती है, जिससे मुझे सख्त नफरत है ।"
माता चुप रही । कन्या के विशद अभिप्राय को ताड़कर कहा, "तुम इससे बच रहकर भी अपने ही जीने से छत पर जा सकती हो, जहाँ सबकी तरह तुम्हें भी आकाश तथा प्रकाश का बराबर अंश मिल सकता है ।"
"मैं इतना सब नहीं समझती । समझती भी हूँ, तो भी मुझे कला को एक सीमा में परिणत रखना अच्छा लगता है। ज्यादा विस्तार से वह कलुषित हो जाती है, जैसे बहाव का पानी । उसमें गन्दगी डालकर भी लोग उसे पवित्र मानते हैं, पर कुएँ के लिए यह बात सार्थक नहीं । स्वास्थ्य के विचार से कुएँ का पानी बहते हुए पानी से बुरा नहीं । विस्तृत व्याख्या तथा अधिक बहाव के कारण अच्छे-से-अच्छे कृत्य बुरे धब्बों से रँगे रहते हैं ।"
"प्रवृत्ति के वशीभूत हो लोग अनर्थ करने लगते हैं । यही अत्याचार धार्मिक अनुष्ठानों में प्रत्यक्ष हो रहा है, पर बृहत् अपनी महत्ता में बहत् ही है । बहाव और कुएँवाली बात जँचकर भी फीकी रही ।"
"सुनो, अम्मा ! तुम्हारी कनक अब तुम्हारी नहीं रही । उसके हार में ईश्वर ने एक नीलम जड़ दिया है ।"
सर्वेश्वरी ने ताअज्जुब की निगाह से कन्या को देखा । कुछ-कुछ उसका मतलब वह समझ गई, पर उसने कन्या से पूछा, "तुम्हारे कहने का मतलब ?"
"यह ।" कनक ने हाथ की चूड़ी, कलाई उठाकर दिखाई ।
सर्वेश्वरी हँसने लगी, "तमाशा कर रही है ? यह कौन-सा खेल ?"
"नहीं अम्मा !" कनक गम्भीर हो गई । चेहरे पर एक स्थिर प्रौढ़ता झलकने लगी, "में ठीक कहती हूँ, मैं ब्याही हुई हूँ । अब में महफिल में गाना नहीं गाऊँगी । अगर कहीं गाऊँगी भी, तो खूब सोच-समझकर, जिससे मुझे सन्तोष रहे ।"
सर्वेश्वरी अपलक दृष्टि से कनक को देखती रही ।
"यह विवाह कब हुआ, और किससे हुआ ? किया किसने ?"
"यह विवाह आपने किया ईश्वर की इच्छा से, कोहनूर-कम्पनी के स्टेज पर कल हुआ, दुष्यन्त का पाठ करनेवाले राजकुमार के साथ, शकुन्तला के रूप में सजी हुई तुम्हारी कनक का । ये चूड़ियाँ, एक-एक दोनों हाथों में, इस प्रमाण की रक्षा के लिए मैंने पहन ली हैं । और देखो...." कनक ने जरा-सी सिन्दूर की बिन्दी सिर पर लगा ली थी, "अम्मा, यह एक रहस्य हो गया। राजकुमार को..."
माता ने बीच में ही हँसकर कहा, "सुहागिनें अपने पति का नाम नहीं लिया करती ।"
"पर में लिया करूँगी । मैं कोई घूँघट काढ़नेवाली सुहागिन तो हूँ नहीं । कुछ पैदायशी स्वतन्त्र हक अपने साथ रखूँगी, नहीं तो कुछ दिक्कत पड़ सकती है । गाने-बजाने पर भी मेरा ऐसा ही विचार रहेगा । हाँ, राजकुमार को तुम नहीं जानतीं । उन्होंने ही मुझे इडेनगार्डेन में बचाया था ।"
कन्या की भावना पर, ईश्वर की विचित्र घटनाओं के भीतर से इस प्रकार मिलाने पर कुछ देर तक सर्वेश्वरी सोचती रही । देखा, उसके हृदय के कमल पर कनक की इस उक्ति की किरण सूर्य की किरण की तरह पड़ रही थी, जिससे आप-ही-आप उसके सब दल प्रकाश की ओर खुलते जा रहे थे । तरंगों से उसका स्नेह-समुद्र कनक के रेखा-तक को छूने लगा । एकाएक स्वाभाविक परिवर्तन को प्रत्यक्ष लक्ष्य कर सर्वेश्वरी ने अप्रिय, विरोधी प्रसंग छोड़ दिया । हवा का रुख जिस तरफ हो, उसी तरफ नाव को वहा ले जाना उचित है, जबकि लक्ष्य केवल सैर है, कोई गम्य स्थान नहीं ।
हँसकर सर्वेश्वरी ने पूछा, "तुम्हारा इस प्रकार स्वयंवरा होना उन्हें भी मंजूर है न, या अन्त तक शकुन्तला की ही दशा भोगनी होगी ? और, वह तो कैद भी हो गए हैं ।"
कनक संकुचित लज्जा से द्विगुणित हो गई । कहा, "मैंने उनसे तो इसकी चर्चा नहीं की । करना भी व्यर्थ है । इसे मैं अपनी हद तक रखूँगी । किसके कैसे खयालात हैं, मुझे क्या मालूम ! अगर वह मुझे, मेरे कुल का विचार कर, ग्रहण न करें, तो इस तरह का अपमान बरदाश्त कर जाना मेरी शक्ति से बाहर है । वह कैद शायद उसी मामले में हुए हैं ।"
उनके बारे में और भी कुछ तुम्हारा समझा हुआ है ?"
"मैं और कुछ नहीं जानती, अम्मा ! पर कल तक...सोचती हूँ, थानेदार को बुलाकर कुछ पूछें, और पता लगाकर भी देखूँ कि क्या कर सकती हूँ ।"
सर्वेश्वरी ने कुँवर साहब के आदमियों के पास कहला भेजा कि कनक की तबियत अच्छी नहीं, इसलिए किसी दूसरे दिन गाना सुनने की कृपा करें ।
छह
कनक का जमादार एक पत्र लेकर, बड़ा बाजार थाने में, दारोगाजी के पास गया ।
दारोगाजी बैठे हुए एक मारवाड़ी को किसी काम में शहादत के लिए समझा रहे थे कि उनके लिए, और खास तौर से सरकार के लिए, इतना-सा काम कर देने पर वह मारवाड़ी महाशय को कहाँ तक पुरस्कृत कर सकते हैं, सरकार की दृष्टि में उनकी कितनी इज्जत होगी, और आर्थिक उन्हें कितने बड़े लाभ की सम्भावना है । मारवाड़ी महाशय बड़े नम्र शब्दों में, डरे हुए, पहले तो इनकार करते रहे, पर दारोगाजी की वक्तृता के प्रभाव से, अपने भविष्य के चमकते हुए भाग्य का काल्पनिक चित्र देख-देख पीछे से हाँ-ना के बीच खड़े हुए मन-ही-मन हिल रहे थे, कभी इधर, कभी उधर । उसी समय कनक के जमादार ने खत लिए हुए उन्हें घुटनों तक झुककर सलाम किया ।
दारोगा साहब ने 'आज तख्त बैठो दिल्लीपति नर' की नजर से क्षुद्र जमादार को देखा । बढ़कर उसने चिट्ठी दे दी।
दारोगाजी तुरन्त चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगे । पढ़ते जाते और मुस्कुराते जाते थे । पढ़कर जेब में हाथ डाला । एक नोट था पाँच रुपए का । जमादार को दे दिया । कहा, "तुम चलो । कह देना, हम अभी आए ।"
अंग्रेजी में पत्र यों था :
3. बहूबाजार-स्ट्रीट,
कलकत्ता
3-4-18
प्रिय दारोगा साहब,
आपसे मिलना चाहती हूँ । जब से स्टेज पर से आपको देखा-आहा ! कैसी गजब की हैं आपकी आँखें । दोबारा जब तक नहीं देखती, मुझे चैन नहीं । क्या आप कल नहीं मिलेंगे ?
आप ही की
कनक
थानेदार साहब खूबसूरत न थे, पर उन्हें उस समय अपने सामने शहजादे सलीम का रंग फीका और किसी परीजाद की आँख भी छोटी जान पड़ी । तुरन्त उन्होंने मारवाड़ी महाशय को बिदा कर दिया । तहकीकात करने के लिए मछुवा बाजार जाना था, यह काम छोटे थानेदार के सिपुर्द कर दिया, यद्यपि वहाँ बहुत-से रुपए गुंडों से मिलनेवाले थे ।
उठकर कपड़े बदले और सादी, सफेद पोशाक में वह बाजार की सैर करने चल पड़े । पत्र जेब में रखने लगे, तो फिर उन्हें अपनी आँखों की बात याद आई । तुरन्त शीशे के सामने जाकर खड़े हो गए, और तरह-तरह से मुँह बना-बनाकर आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे । उनके मन को, उस सूरत से, उन आँखों से तृप्ति न थी, पर जबरन मन को समझा रहे थे । दस मिनट तक इसी तरह अपनी सूरत देखते रहे । शीशे के सामने बैसलीन ज्यादा-सी पोत ली । मुँह धोया । पाउडर लगाया । सेंट छिड़का । फिर आईने के सामने खड़े हो गए । मन को फिर भी न अच्छा लगा, पर जोर दे-देकर अपने को अच्छा साबित करते रहे ।
कनक के मन्त्र ने स्टेज पर ही इन्हें वशीभूत कर लिया था । अब पत्र भी आया और वह भी प्रणय-पत्र के साथ-साथ प्रशंसा-पत्र । उनकी विजय का इससे बड़ा और कौन-सा प्रमाण होता ! कहाँ उन्हें ही उसके पास प्रणयभिक्षा के लिए जाना था, कहाँ वही उनके प्रेम के लिए उनकी जादू-भरी निगाह के लिए पागल है । इस पर भी उनका मन उन्हें सुन्दर नहीं मानता, यह उनके लिए सहन कर जानेवाली बात थी ।
एक कांस्टेबल को टैकसी ले आने के लिए भेज दिया था । बड़ी देर से खड़ी हुई टैक्सी हॉर्न दे रही थी, पर वह अपने बिगड़े हुए मन से लड़ रहे थे ।
कांस्टेबल ने आकर कहा, "दारोगाजी, बड़ी देर से टैक्सी खड़ी है ।" तब आपने छड़ी उठाई और थाने से बाहर हो गए । सड़क पर टैक्सी खड़ी थी, बैठ गए । कहा, "बहूबाजार ।"
ड्राइवर बहूबाजार चल दिया । जकरिया-स्ट्रीट के बराबर टैक्सी पहुँची, तब आपको याद आया कि टोपी भूल आए हैं । कहा, "अरे ड्राइवर, भाई, जरा फिर थाने चलो ।"
गाड़ी फिर थाने आई । आप अपने कमरे से टोपी लेकर फिर टैक्सी पर पहुँचे । टैक्सी पुनः बहूबाजार चली ।
तीन नम्बर के आलीशान मकान के नीचे टैक्सी खड़ी हो गई । पुरस्कृत जमादार ने लौटकर अपने पुरस्कार का हाल कनक से कह दिया था । कनक ने उसे ही द्वार पर दारोगा साहब के स्वागत के लिए रखा था, और समझा दिया था कि 'बड़े अदब से, दो मंजिलेवाले कमरे में, जिसमें मैं पढ़ती थी, बैठाना और तब मुझे खबर देना ।'
जमादार ने सलाम कर थानेदार साहब को उसी कमरे में ले जाकर एक कोच पर बैठाया और फिर ऊपर कनक को खबर देने के लिए गया ।
कमरे में, शीशेदार अलमारियों में, कनक की किताबें रखी थीं । उनकी जिल्दों पर सुनहरे अक्षरों से किताबों के नाम लिखे हुए थे । दारोगाजी विद्या की तौल में कनम को अपने से छौटा एवं अमान्य समझ रहे थे, परन्तु उन किताबों की तरफ देखकर उसके प्रति उनके दिल में कुछ इज्जत पैदा हो गई । उसकी विद्या की मन-ही-मन बैठे तरफ वह थाह ले रहे थे ।
कनक ऊपर से उतरी । साधारणतया जैसी उसकी सज्जा मकान में रहती थी, वैसी ही-सभ्य तरीके से एक जरी की किनारीदार देसी साड़ी, मोजे और ऊँची एड़ी के जूते पहने हुए ।
कनक को आते देख थानेदार साहब खड़े हुए । कनक ने हँसकर कहा, "गुडमॉर्निंग !"
थानेदार कुछ झेंप गए । डरे कि कहीं बातचीत का सिलसिला अंग्रेजी में इसने चलाया, तो नाक कट जाएगी । इस व्याधि से बचने के लिए उन्होंने स्वयं ही हिन्दी में बातचीत छेड़ दी, "आपका नाटक कल देखा, मैं सच कहता हूँ, ईश्वर जाने, ऐसा नाटक जिन्दगी-भर मैंने नहीं देखा।"
"आपको पसन्द आया, मेरे भाग्य ! माँ तो उसमें तरह-तरह की त्रुटियाँ निकालती हैं। कहती हैं, अभी बहुत कुछ सीखना है, तारीफवाली अभी कोई बात नहीं हुई।"
कनक ने बातचीत का रुख बदला । सोचा, इस तरह व्यर्थ ही समय नष्ट करना होगा । बोली, "आप हम लोगों के यहाँ जलपान करने में शायद संकोच करें ?"
मोटी हँसी हँसकर दारोगा ने कहा, "संकोच ? संकोच का तो यहाँ नाम नहीं, और फिर तू...आ...आपके यहाँ !"
कनक ने दारोगाजी का आन्तरिक भाव समझ लिया था । नौकर को आवाज दी । नौकर आया । उससे खाना लाने के लिए कहकर आलमारी से खुद उठकर एक रेड-लेवल और दो बोतलें सोडे की निकालीं ।
शीशे के एक गिलास में एक बड़ा पैग ढालते हुए कनक ने कहा, "आप मुझे 'तुम' ही कहें । कितना मधुर शब्द है-तुम ! 'तुम' मिलानेवाला है, 'आप' शिष्टता की तलवार से दो जुड़े हुओं को काटकर जुदा कर देनेवाला ।"
दारोगाजी बाग-बाग हो गए । बादल से काले मुँह की हँसी में सफेद दाँतों की कतार बिजली की तरह चमक उठी । कनक ने बड़े जोर से सिर गड़ाकर हँसी रोकी ।
थानेदार साहब की तरफ अपने जीवन का पहला ही कटाक्ष कर कनक ने देखा, तीर अचूक बैठा है, पर उसके कलेजे में बिच्छू डंक मार रहे थे ।
कनक ने गिलास में कुछ सोडा डालकर थानेदार साहब को दिया । वह बिना हाँ-ना किए लेकर पी गए ।
कनक ने दूसरा पैग ढाला, उसे भी पी गए । तीसरा ढाला, उसे भी पी लिया ।
तब तक नौकर खाना लेकर आ गया । कनक ने सहूलियत से मेज पर रखवा दिया ।
थानेदार साहब ने कहा, "अब मैं तुम्हें पिलाऊँ ?"
कनक ने भौंहे चढ़ा लीं, "आज शाम को नवाब साहब मुर्शिदाबाद के यहाँ मेरा मुजरा है, माफ कीजिएगा, किसी दूसरे दिन आइएगा, तब पिऊँगी । पर मैं शराब नहीं पीती, 'पोर्ट वाईन' पीती हूँ । आप मेरे लिए एक लेते आइएगा ।"
थानेदार साहब ने कहा, "अच्छा, खाना तो साथ खाओ ।"
कनक ने एक टुकड़ा उठाकर खाया । थानेदार भी खाने लगे । कनक ने कहा, "मैं नाश्ता कर चुकी हूँ, माफ फरमाइएगा, बस ।"
उसने वहीं, नीचे रखे हुए, ताम्बे के एक बड़े-से बर्तन में हाथ-मुँह धोकर डिब्बे से निकालकर पान खाया । दारोगाजी खाते रहे । कनक ने डरते हुए चौथा पैग तैयार कर सामने रख दिया । खाते-खाते थानेदार साहब उसे भी पी गए । कनक उनकी आँखों में चढ़ता सरूर देख रही थी ।
धीरे-धीरे थानेदार साहब का प्रेम प्रबल रूप रूप धारण करने लगा । शराब की जैसी वृष्टि हुई थी, उनकी नदी में वैसी ही बाढ़ भी आ गई । कनक ने पाँचवाँ पैग तैयार किया । थानेदार साहब भी प्रेम की इस परीक्षा में फेल हो जानेवाले आदमी न थे । इनकार नहीं किया । खाना खा चुकने के बाद नौकर ने उनको हाथ धुला दिए ।
धीरे-धीरे उनके शब्दों में प्रेम का तूफान उठ चला । कनक डर रही थी कि वह इतना सब सहन कर सकेगी या नहीं । वह उन्हें माता की बैठक में ले गई । सर्वेश्वरी दूसरे कमरे में चली गई थी ।
गद्दे पर पड़ते ही थानेदार साहब लम्बे हो गए । कनक ने हारमोनियम उठाया । बजाते हुए पूछा, "वह जो कल दुष्यन्त बना था, उसे गिरफ्तार क्यों किया आपने, कुछ समझ में नहीं आया।"
"उससे हैमिल्टन साहब नाराज हैं । उस पर बदमाशी का चार्ज लगाया गया है ।"
"ये हैमिल्टन साहब कौन हैं ?"
"अपने सुपरिंटेंडेंट पुलिस हैं ।"
"कहाँ रहते हैं ?" कनक ने एक गत का चरण बजाकर पूछा ।
"रौडन-स्ट्रीट, नं. 5 उन्हीं का बँगला है ।"
"क्या राजकुमार को सजा हो गई है ?"
"नहीं, कल पेशी है । पुलिस की शहादत गुजर जाने पर सजा हो जाएगी।"
"में तो बहुत डरी, जब आपको वहाँ देखा ।" आँखें मूँदे हुए दारोगाजी मूँछों पर ताव देने लगे ।
कनक ने कहा, "पर मैं कहूँगी, आप-जैसा खूबसूरत जवान बना-चुना मुझे दूसरा नहीं नजर आया ।"
दारोगाजी उठकर बैठ गए । इसी सिलसिले में प्रासंगिक-अप्रासंगिक, सुनने-लायक, न सुनने-लायक बहुत-सी बातें कह गए । धीरे-धीरे लड़कर आए हुए भैंसे की आँखों की तरह आँखें खूनी हो चलीं । भले-बुरे की लगाम मन के हाथ से छूट गई । इस अनर्गल शब्द-प्रवाह को बेहोश होने की घड़ी तक रोक रखने के अभिप्राय से कनक गाने लगी ।
गाना सुनते-ही-सुनते मन विस्मृति के मार्ग से अन्धकार में बेहोश हो गया ।
कनक ने गाना बन्द कर दिया । उठकर दारोगाजी के पॉकेट की तलाशी ली । कुछ नोट थे, और उसकी चिट्ठी । नोटों को उसने रहने दिया, चिट्ठी निकाल ली ।
कमरे में तमाम दरवाजे बन्द कर ताली लगा दी ।
सात
कनक घबरा उठी । क्या करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा था । राजकुमार के बारे में जितना ही सोचती, चिन्ताओं की छोटी-बड़ी अनेक तरंगों, आवर्तों से मन मथ जाता, पर उन चिन्ताओं के भीतर से उपाय की कोई मणि नहीं मिल रही थी, जिसकी प्रभा उसके मार्ग को प्रकाशित करती । राजकुमार के प्रति उसके प्रेम का यह प्रखर प्रवाह, बंधी हुई जल-राशि से छूटकर अनुकूल पथ पर वह चलने की तरह, स्वाभाविक और सार्थक था । पहले ही दिन उसने राजकुमार के शौर्य का जैसा दृश्य देखा था, उसके सबसे एकान्त स्थान पर जहाँ तमाम जीवन में मुश्किल से किसी का प्रवेश होता है, पत्थर के अक्षरों की तरह उसका पौरुष चित्रित हो गया था । सबसे बड़ी बात जो रह-रहकर उसे याद आती थी, वह राजकुमार की उसके प्रति श्रद्धा थी ।
कनक ने ऐसा चित्र अब तक नहीं देखा था, इसलिए उस पर राजकुमार का स्थायी प्रभाव पड़ गया । माता की समस्त मौखिक शिक्षा इस प्रत्यक्ष उदाहरण के सामने पराजित हो गई । और, वह जिस तरह की शिक्षा के भीतर से आ रही थी, परिचय के पहले ही प्रभात में किसी मनोहर दृश्य पर उसकी दृष्टि का बँध जाना, अटक जाना उसके उस जीवन की स्वच्छ, अबाध प्रगति का उचित परिणाम ही हुआ । उसकी माता शिक्षित तथा समझदार थी, इसलिए उसने कन्या के सबसे प्रिय जीवनोन्मेष को बाहरी आवरण द्वारा ढक देना उसकी बाढ़ के साथ ही जीवन की प्रगति को भी रोक देना समझा था ।
सोचते-सोचते कनक को याद आया, उसने साहब की जेब से एक चिट्ठी निकाली थी, फिर उसे अपनी फाइल में रख दिया था । वह तुरन्त उठकर फाइल की तलाशी लेने लगी । चिट्ठी मिल गई ।
साहब की जेब से वह राजकुमार की चिट्ठी निकाल लेना चाहती थी, पर हाथ एक दूसरी चिट्टी लगी । उस समय घबराहट में, वहाँ उसने पढ़कर नहीं देखा । घर जाकर खोला, तो काम की बातें न मिलीं । उसने चिट्टी को फाइल में नत्थी कर दिया । उसने देखा था, युवक ने पेंसिल से पत्र लिखा है, पर यह स्याही से लिखा गया था । इसकी बातें भी उस सिलसिले से नहीं मिलती थीं । इस तरह ऊपरी दृष्टि से देखकर ही उसने चिट्ठी रख दी । आज निकालकर फिर पढ़ने लगी । एक बार दो बार, तीन बार पढ़ा । बड़ी प्रसन्न हुई । यह वही हैमिल्टन साहब थे । वह हों, न हों, पर यह पत्र हेमिल्टन साहब ही के नाम लिखा गया था-उसके एक दूसरे अंग्रेज मित्र मिस्टर चर्चित द्वारा । मजमून था, रिश्वत और अन्याय का । कनक की आँखें चमक उठीं ।
इस कार्य में सहायता की बात सोचते ही उसे मिसेज कैथरिन की आई । अब कनक पढ़ती नहीं, इसीलिए मिसेज कैथरिन का आना बन्द है । कभी-कभी आकर मिल जातीं, मकान में पढ़ने की किताबें पसन्द कर जाया करतीं । वह अब भी कनक को वैसे ही प्यार करती हैं । कभी-कभी पाश्चात्य कला-संगीत और नृत्य-की शिक्षा के लिए साथ यूरोप चलने की चर्चा भी करती । सर्वेश्वरी की भी उसे यूरोप भेजने की इच्छा थी, पर पहले वह अच्छी तरह से उसे अपनी शिक्षा दे देना चाहती थी ।
कनक ने ड्राइवर से मोटर लाने के लिए कहा, और कपड़े बदलकर चलने को तैयार हो गई ।
मोटर में बैठकर ड्राइवर से पार्क-स्ट्रीट चलने के लिए कहा ।
कितनी व्यग्रता ! जितने भी दृश्य आँखों पर पड़ते हैं, जैसे बिना प्राणों के हों । दृष्टि कहीं भी नहीं ठहरती । पलकों पर एक ही स्वप्न संसार की अपार कल्पनाओं से मधुर हो रहा है । व्यग्रता ही इस समय यथार्थ जीवन है, और सिद्धि के लिए वेदना के भीतर से काम्य-साधना अन्तर्जगत् के कुल अन्धकार को दूर करने के लिए उसका ही प्रदीप पर्याप्त है । उसके हृदय की लता को सौन्दर्य की सुगन्ध से पूरित रखने के लिए उसका एक ही फूल बस है । तमाम भावनाओं के तार अलग-अलग स्वरों में झंकार करते हैं । उसकी रागिनी से एक ही तार मिला हुआ है । असंख्य ताराओं की आवश्यकता नहीं, उसके झरोखे से एक ही चन्द्र की किरण उसे प्रिय है । तमाम संसार जैसे अनेक कलरवों के बुदबुद गीतों से समुद्वेलित, क्षुब्ध और पैरों को स्खलित कर बहा ले जानेवाला विपत्ति-संकुल है । एक ही बए को हृदय से लगा, तैरती हुई, वह पार जा सकेगी । सृष्टि के सब रहस्य इस महाप्रलय में डूब गए हैं । उसका एक ही रहस्य, तपस्या से प्राप्त अमर वर की तरह, उसके साथ सम्बद्ध है । शक्ति दृष्टि से वह इस प्रलय को देख रही है ।
पार्क-स्ट्रीट आ गया । कैथरिन के मकान के सामने गाड़ी खड़ी करवा कनक उतर पड़ी । नौकर से खबर भिजवाई । कैथरिन बँगले से बाहर निकली, और बड़े स्नेह से कनक को भीतर ले गई ।
कैथरिन से कनक की बातचीत अंग्रेजी में ही होती थी । आने का कारण पूछने पर कनक ने साधारण कुल किस्सा बयान कर दिया । कैथरिन सुनकर पहले तो कुछ चिन्तित-सी हुई फिर कुछ सोचकर मुस्कुराई । कनक की सरल बातों से उसे बड़ा आनन्द हुआ । "तुम्हारा विवाह चर्च में नहीं, थिएटर में हुआ ! तुमने एक नया काम किया।" उसने कनक को इसके लिए बधाई दी ।
"कल पेशी है ।" कनक उत्तर-प्राप्ति की दृष्टि से देख रही थी ।
"मेरे विचार से मिस्टर हेमिल्टन के पास इस समय जाना ठीक नहीं । वह ऐसी हालत में अधिक जोर-दबाव नहीं डाल सकते । और, इस पत्र में उन पर एक दूसरा मुकदमा चल सकता है, पर यह सब मुफ्त ही दिक्कत बढ़ाना है । अगर आसानी से अदालत का काम हो जाए, तो इतनी परेशानी से क्या फायदा ?"
"आसानी से अदालत का काम कैसे हो ?"
"तुम घर जाओ, मैं हैमिल्टन को लेकर आती हूँ । मेरी-उनकी अच्छी जान-पहचान है । खूब सज-धजकर रहना, और अंग्रेजी तरीके से नहीं, हिन्दोस्तानी तरीके से," कहकर कैथरिन हँसने लगी ।
आचार्या से मुक्ति का अमोघ मन्त्र मिलते ही कनक ने भी परी की तरह अपने सुख की काल्पनिक पंख फैला दिए ।
कैथरिन गैरेज में अपनी गाड़ी लेने चली गई, कनक रास्ते पर टहलती रही । कैथरिन हँसती हुई, "जल्दी जाओ" कहकर रोडन-स्ट्रीट की तरफ चली, और कनक बहूबाजार की तरफ ।
घर आकर कनक माँ से मिली । सर्वेश्वरी दारोगा की गिरफ्तारी से कुछ व्याकुल थी । कनक की बातों से उसकी शंका दूर हो गई । कनक ने माता को अच्छी तरह, थोड़े शब्दों में, समझा दिया । माता से उसने कुल जेवर पहना देने के लिए कहा । सर्वेश्वरी हँसने लगी । नौकर को बुलाया । जेवर का बॉक्स उठवा तिमंजिले पर कनक के कमरे की ओर चली ।
सभी रंगों की रेशमी साड़ियाँ थीं । कनक के स्वर्ण-रंग को दोपहर की आभा में कौन-सा रंग ज्यादा खिला सकता है, सर्वेश्वरी इसकी जाँच कर रही थी । उसकी देह में सटा-सटाकर उसकी और साड़ियों की चमक देखती रही । उसे हरे रंग की साड़ी पसन्द आई । पूछा, "बता सकती हो, उस समय यह रंग क्यों अच्छा होगा ?"
"उहूँ !" कनक प्रश्न और कौतुक की दृष्टि से देखने लगी ।
"तेज धूप में हरे रंग पर नजर ज्यादा बैठती है, उससे आराम मिलता है ।"
उस बेशकीमती कामदार साड़ी को रखकर कनक नहाने चली गई । माता एक-एक कर समस्त बहुमूल्य हीरे, पन्ने, पुखराज के जड़ाऊ जेवर निकाल रही थी । कनक नहाकर धूप में; चारदीवार के सहारे, पीठ के बल खड़ी बाल सुखा रही थी । मन राजकुमार के साथ अभिनय की सुखद कल्पना में लीन था । वह अभिनय को प्रत्यक्ष की तरह देखती रही थी । उन्होंने कहा है, सोचती, 'मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगा ।' अमृत-रस से सर्वांग तर हो रहा था । बाल सूख गए, पर वह खड़ी ही रही ।
तभी माँ ने पुकारा, ऊँची आवाज से । कल्पना की तन्द्रा टूट गई । वह धीरे-धीरे माता के पास चली ।
सर्वेश्वरी कन्या को सजाने लगी । पैर, कमर, कलाई, बाजू, वक्ष, गला और मस्तक अलंकारों से चमक उठे । हरी साड़ी के ऊपर तथा भीतर से रत्नों के प्रकाश की छटा, छुरियों-सी निकलती हुई किरणों के बीच उसका सुन्दर, सुडौल चित्र-सा खिंचा हुआ मुख, एक नजर आपाद-मस्तक देखकर माता ने तृप्ति की साँस ली ।
कनक एक बड़े से आईने के सामने जाकर खड़ी हो गई । देखा, राजकुमार की याद आई, कल्पना में दोनों की आत्माएँ मिल गई; देखा, आईने में वह हँस रही थी ।
नीचे से आकर नौकर ने खबर दी, मेमसाहब के साथ एक साहब आए हुए हैं ।
कनक ने उन्हें ऊपर ले आने के लिए कहा ।
कैथरिन ने हैमिल्टन साहब से कहा कि उन्हें ऐसी एक सुन्दरी भारतीय पढ़ी-लिखी युवती दिखाएँगी, जैसी उन्होंने शायद ही कहीं देखी हो । वह गाती भी लाजवाब है, और अंग्रेजों की तरह उसी लहजे में अंग्रेजी भी बोलती है ।
हैमिल्टन साहब, कुछ दिल से और कुछ पुलिस में रहने के कारण, सौन्दर्योपासक बन गए थे । इतनी खूबसूरत पढ़ी-लिखी भारतीय युवती से, बिना परिश्रम के ही, कैथरिन उन्हें मिला सकती है, ऐसा शुभ अवसर छोड़ देना उन्होंने किसी सुन्दरी के स्वयंवर में बुलाए जाने पर भी लौट आना समझा। कैथरिन ने यह भी कहा था कि आज अवकाश है, दूसरे दिन इतनी सुगमता से भेंट नहीं हो सकती । साहब तत्काल कैथरिन के साथ चल दिए थे । रास्ते मे कैथरिन ने समझा दिया था कि किसी अशिष्ट व्यवहार से वह अंग्रेज-जाति को कलंकित नहीं करेंगे, और यदि उसे अपने प्रेम-जाल में फँसा सके, तो यह जाति के लिए गौरव की बात होगी । साहब दिल-ही-दिल प्रेम-परीक्षा में कैसे उत्तीर्ण होंगे, इसका प्रश्नपत्र हल कर रहे थे, तब तक ऊपर से कनक ने बुला भेजा ।
कैथरिन आगे-आगे, साहब पीछे-पीछे चले । साहब ने चलते समय चमड़े के कलाईबन्द में बँधी हुई घड़ी देखी । बारह बज रहे थे ।
नौकर दोनों को तिमन्जिले पर ले गया । मकान देखकर साहब के दिल में अदेख सुन्दरी के प्रति इज्जत पैदा हुई थी । कमरे की सजावट देखकर साहब आश्चर्य में पड़ गए । सुन्दरी को देखकर तो साहब के होश ही उड़ गए ! दिल में कुछ घबराहट हुई, पर कैथरिन कनक से बातचीत करने लगी, तो कुछ सँभल गए । सामने दो कुर्सियाँ पड़ी थीं । कैथरिन और साहब बैठ गए । यों अन्य दिन उठकर कनक कैथरिन से मिलती, पर आज वह बैठी ही रही । कैथरिन इसका कारण समझ गई । साहब ने इसे हिन्दुस्तानी कुमारियों का ढंग समझा । कनक ने सूरत देखते ही साहब को पहचान लिया, पर साहब उसे नहीं पहचान सके । तब से इस सूरत में साज के कारण बड़ा फर्क था ।
साहब अनिमेष आँखों से उस रूप की सुधा को पीते रहे । मन-ही-मन उन्होंने उसकी बड़ी प्रशंसा की । उसके लिए, यदि वह कहे तो, साहब सर्वस्व देने को तैयार थे । कैथरिन ने साहब को समझा दिया था कि उसके कई अंग्रेज प्रेमी हैं, पर अभी उसका किसी से प्यार नहीं हुआ । यदि वह उसे प्राप्त कर सकें, तो राज्यकन्या के साथ ही राज्य भी उन्हें मिल जाएगा; कारण उसकी माँ की जायदाद पर उसी का अधिकार है ।
कैथरिन ने साहब का परिचय देते हुए कहा, "मिस कनक, इनसे मिलो । यह हैं मिस्टर हैं मिस्टर हैमिल्टन, पुलिस-सुपरिटेंडेंट, 24 परगना । तुमसे मिलने के लिए आए हैं । इन्हें अपना गाना सुनाओ ।"
कनक ने उठकर हाथ मिलाया । साहब उसकी सभ्यता से बहुत प्रसन्न हुए ।
कनक ने कहा, "हम लोग पृथक-पृथक आसन से वार्तालाप करेंगे, इससे आलाप का सुख नहीं मिल सकता । साहब अगर पतलून उतार डालें, मैं इन्हें धोती दे सकती हूँ, तो संगसुख की प्राप्ति पूरी मात्रा में हो । कुर्सी पर बैठकर पियानो, टेबल हारमोनियम बजाए जा सकते हैं, पर आप लोग तो यहाँ हिन्दुस्तानी गीत ही सुनने के लिए आए हैं, जो सितार और सुरबहार से अच्छी तरह अदा होंगे, और उनका बजाना बराबर जमीन पर बैठकर ही हो सकता है ।"
कनक ने अंग्रेजी में कहा । कैथरिन ने साहब की तरफ देखा ।
नायिका के प्रस्ताव के अनुसार ही उसे खुश करना चाहिए । साहब ने अपने साहबी ढर्रे से समझा, और उन्हें वहाँ दूसरे प्रेमियों से बढ़कर अपने प्रेम की परीक्षा भी देनी थी । उधर कैथरिन की मौन चितवन का मतलब भी उन्होंने यही समझा । साहब तैयार हो गए । कनक ने एक धुली 48 इंच की बढ़िया धोती मँगा दी । कैथरिन ने साहब को धोती पहनना बतला दिया । दूसरे कमरे से साहब धोती पहन आए, और कनक के बराबर गद्दी पर बैठ गए; एक तकिए कर सहारा कर लिया ।
कनक ने सुरबहार मँगवाया । तार स्वर से मिलाकर पहले एक गत बजाई । स्वर की मधुरता के साथ-साथ साहब के मन में उस परी को प्राप्त करने की प्रतिज्ञा भी दृढ़ होती गई ।
कैथरिन ने बड़े स्नेह से पूछा, "यह किससे सीखा ? अपनी माँ से ?"
"जी हाँ ।" कनक ने सिर झुका लिया ।
"अब एक गाना सुनाओ, हिन्दुस्तानी गाना; फिर हम चलेंगे, हमें देर हो रही है ।"
कनक ने एक बार स्वरों पर हाथ फेरा और फिर गाने लगी :
गाना (सारंग)
याद रखना इतनी बात ।
नहीं चाहते, मत चाहो तुम,
मेरे अर्घ्य, सुमन-दल-नाथ !
मेरे वन में भ्रमण करोगे जब तुम,
अपना पथ-श्रम आप हरोगे जब तुम,
ढक लूँगी मैं अपने दृग-मुख,
छिपा रहूँगी गात-
याद रखना इतनी ही बात ।
सरिता के उस नीरव-निर्जन तट पर
आओगे जब मन्द चरण तुम चलकर-
मेरे शून्य घाट के प्रति करुणा कर,
हेरोगे नित प्रात-
याद रखना इतनी ही बात ।
मेरे पथ की हरित लताएँ, तृण-दल
मेरे श्रम सिंचित्, देखोगे अचपल,
पलक-हीन नयनों से तुमको प्रतिपल
हरेंगे अज्ञात-
याद रखना इतनी ही बात ।
मैं नहीं रहूँगी जब, सुना होगा जग,
समझोगे तब यह मंगल-कलरव सब-
था मेरे ही स्वर से सुन्दर जगमग;
चला गया सब साथ-
याद रखना इतनी ही बात ।
साहब एकटक मन की आँखों से देखते, और हृदय के कानों से सुनते रहे । उस स्वर की सरिता अनेक तरंग-भंगों से बहती हुई जिस समुद्र से मिली थी, वहाँ तक सभी यात्राएँ पर्यवसित हो जाती थीं ।
कैथरिन ने पूछा, "कुछ आपकी समझ में आया ?"
साहब ने अनजान की तरह सिर हिलाया । कहा, "इनका स्वरों से खेलना मुझे बहुत पसन्द आया, पर गीत का अर्थ मैं नहीं समझ सका ।"
कैथरिन ने थोड़े शब्दों में अर्थ समझा दिया ।
"हिन्दुस्तानी भाषा में ऐसे भी गीत हैं ?" साहब ताअज्जुब करने लगे ।
कनक को साहब देख रहा था । उसकी मुद्राएँ, भंगिमाएँ गाते समय इस तरह अपने मनोभावों को व्यंजित कर रही थीं, जैसे वह स्वर के स्रोत में बहती हुई प्रकाश के द्वार पर गई हो, और अपने प्रियतम से कुछ कह रही हो, जैसे अपने प्रियतम को अपना सर्वस्व पुरस्कार दे रही हो ।
संगीत के लिए कैथरिन ने कनक को धन्यवाद दिया, और साहब को अपने चलने का संवाद । साथ ही उन्हें समझा दिया कि उसकी इच्छा हो, तो कुछ वह वहाँ ठहर सकते हैं । कनक ने सुरबहार एक बगल रख दिया ।
एकान्त में प्रिय कल्पना से, अभीप्सित की प्राप्ति के लोभ से, साहब ने कहा, "अच्छा, आप चलें, मैं कुछ देर बाद आ जाऊँगा ।"
कैथरिन चली गई । साहब को एकान्त मिला । कनक बातचीत करने लगी ।
साहब कनक पर कुछ अपना भी प्रभाव जतलाना चाहते थे, और दैवात् कनक ने प्रसंग भी वैसा ही छेड़ दिया, "देखिए, हम हिन्दुस्तानी हैं, प्रेम की बातें हिन्दी में कीजिए । आप 24 परगने के पुलिस-सुपरिंटेंडेंट हैं ?"
"हाँ ।" ठोड़ी ऊँची कर साहब ने सगर्व कहा, और जहाँ तक तनते बना, तन गए ।
"आपकी शादी तो हो गई होगी ?"
साहब की शादी हो गई थी, पर मेमसाहब को कुछ दिन बाद आप पसन्द नहीं आए, इसलिए इनके भारत आने से पहले ही वह इन्हें तलाक दे चुकी थीं-एक साधारण से कारण को बहुत बढ़ाकर । पर यह साहब साफ इनकार कर गए, और इसे ही उन्होंने प्रेम बढ़ाने का उपाय समझा ।
"अच्छा, अब तक आप अविवाहित हैं ? आपसे किसी का प्रेम नहीं हुआ ?"
"हमको अभी तक कोई पसंड नईं आया । हब टुमको पसंड करता ।" साहब कुछ नजदीक खिसक आए ।
कनक डरी । उपाय एक ही उसने आजमाया था, और उसी का उपयोग वह साहब के लिए भी कर बैठी । बोली, "शराब पीजिएगा ? हमारे यहाँ शराब पिलाने की चाल है ।"
साहब पीछे कदम धरनेवाले न थे । उन्होंने स्वीकार कर लिया । कनक ने ईश्वर को धन्यवाद दिया ।
नौकर से शराब और सोडा मँगवाया ।
"तो अब तक किसी से प्यार नहीं किया ? सच कहिएगा ।"
"आम शच बोलटा, किशी को बी नई ।"
साहब को पैग तैयार कर एक गिलास में दिया । साहब बड़े अदब से पी गए । दूसरा, तीसरा, चौथा...पाँचवें पर इनकार कर गए । अधिक शराब जल्दी-जल्दी पी जाने से नशा तेज होता है, यह कनक जानती थी, इसीलिए वह फुर्ती कर रही थी । साहब को भी अपनी शराब-पाचन शक्ति का परिचय देना था, साथ ही अपने अकृत्रिम प्रेम की परीक्षा ।
कनक ने सोचा, भूत सिद्धि की तरह हमेशा भूत को एक काम देते रहना चाहिए । नहीं तो, कहा गया है, वह अपने साधक पर ही सवारी कस बैठता है ।
कनक ने तुरन्त फरमाइश की, "कुछ गाओ और नाचो । मैं तुम्हारा विदेशी नाच देखना चाहती हूँ ।"
"टब टुम बी आओ, हियाँ डांसिंग-स्टेज कहाँ ?"
"यहीं नाचो । पर मुझे नाचना नहीं आता, मैं तो सिर्फ गाती हूँ ।"
"अच्छा, टुम बोलटा, टो हम नाच सकटा ।"
साहब अपनी भोंपू-आवाज में गाने और नाचने लगे । कनक देख-देखकर हँस रही थी । कभी-कभी साहब का उत्साह बढ़ाती, "बहुत अच्छा, बहुत सुन्दर ।"
साहब की नजर पियानो पर पड़ी । कहा, "डेक्खो, आबी हम पियानो बजाटा, फिर टुम कहेगा, टो हम नाचेगा ।"
"अच्छा, बजाओ ।"
साहब पियानो बजाने लगे । कनक ने तब तक अंग्रेजी गीतों का अभ्यास नहीं किया था, पर कविता के यति-भंग की तरह सब स्वरों का सम्मिलित विद्रोह उसे असह्य हो गया । उसने कहा, "साहब, हमें तुम्हारा नाचना गाने से ज्यादा पसन्द है ।"
साहब अब तक औचित्य की रेखा पार कर चुके थे । आँखें लाल हो रही थीं । प्रेमिका को नाच पसन्द है, सुनकर बहुत ही खुश हुए, और शीघ्र ही उसे प्रसन्न कर वर प्राप्त कर लेने की लालसा से नाचने लगे ।
नौकर ने बाहर से संकेत किया । कनक उठ गई । नौकर को इशारे से आदेश दे लौट आई ।
धड़-धड़-धड़ कई आदमी जीने पर चढ़ रहे थे । आगन्तुक बिलकुल कमरे के सामने आ गए । हैमिल्टन को नाचते हुए देखा । हैमिल्टन ने भी उन्हें देखा, पर उनकी परवा न कर नाचते ही रहे ।
"ओ ! टुम डूसरे हो रॉबिंसन ।" हैमिल्टन ने पुकारकर कहा ।
"नहीं, मैं चौथा हूँ ।" रॉबिंसन ने बढ़ते हुए जवाब दिया ।
तितलियों-सी मूँछें, लम्बे-तगड़े रॉबिंसन साहब मजिस्ट्रेट थे । कैथरिन के पीछे-पीछे कमरे के भीतर गए । कई और आदमी भी साथ थे । कुर्सियाँ खालीं थीं । बैठ गए । कैथरिन ने कनक से रॉबिंसन साहव से हाथ मिलाने के लिए कहा, "यह मजिस्ट्रेट हैं, तुम अपना कुल किस्सा इनसे बयान कर दो ।"
हैमिल्टन को धोती पहने नाचता हुआ देख रॉबिंसन बारूद हो गए थे । कनक ने हैमिल्टन की जेब से निकाली हुई चिट्ठी साहब को दे दी । पढ़ते ही आग में पेट्रोल पड़ गया ।
कनक कहने लगी, "एक दिन में इडेन-गार्डेन में, तालाब के किनारेवाली बेंच पर अकेली बैठी थी । हैमिल्टन ने मुझे पकड़ लिया, और मुझे जैसे अशिष्ट शब्द कहे, मैं कह नहीं सकती । उसी समय एक युवक वहाँ पहुँच गया, उसने मुझे बचाया । हैमिल्टन उससे बिगड़ गया, और उसे मारने के लिए तैयार हो गया । दोनों में कुछ देर हाथापाई होती रही । उस युवक ने हैमिल्टन को गिरा दिया और कुछ रद्दे जमाए, जिससे हैमिल्टन बेहोश हो गया । तब उस युवक ने अपने रूमाल से हैमिल्टन का मुँह धो दिया, और सिर पर उसी की पट्टी लपेट दी । फिर उसने एक चिट्ठी लिखी, और उसकी जेब में डाल दी । मुझसे जाने के लिए कहा । मैंने उससे पता पूछा, पर उसने नहीं बताया । यह हाईकोर्ट की राह चला गया । अपने बचानेवाले का पता मालूम कर लेना मैंने अपना फर्ज समझा, इसलिए वहीं फिर लौट गई । चिट्ठी निकालने के लिए जेब में हाथ डाला, पर भ्रम से युवक की चिट्ठी की जगह यह चिट्ठी मिली । एकाएक कोहनूर-स्टेज पर में शकुन्तला का अभिनय करने गई । देखा, वही युवक दुष्यन्त बना था । थोड़ी ही देर में दारोगा सुन्दरसिंह उसे गिरफ्तार करने गया, पर दर्शक बिगड़ गए थे, इसलिए अभिनय समाप्त हो जाने पर गिरफ्तार किया । राजकुमार का कुसूर कुछ भी नहीं; अगर है, तो सिर्फ यही कि उसने मुझे बचाया था ।"
अक्षर-अक्षर साहब पर चोट कर रहे थे । कनक ने कहा, "और देखिए, यह हैमिल्टन के चरित्र का दूसरा पत्र ।"
कनक ने दारोगा की जेब से निकाला हुआ पत्र भी साहब को दिखाया । इसमें हैमिल्टन के मित्र सुपरिटेंडेंट मिस्टर मूर ने दारोगा को बिला वजह राजकुमार को गिरफ्तार कर, बदमाशी के सुबूत दिलाकर सजा करा देने के लिए लिखा था । उसमें यह भी लिखा था कि इस काम से तुम्हारे ऊपर हम और हेमिल्टन साहब बहुत खुश होंगे ।
मजिस्ट्रेट रॉबिंसन ने उस पत्र को भी ले लिया । पढ़कर दोनों की तिथियाँ मिलाईं । सोचा । कनक की बातें बिलकुल सच जान पड़ीं । रॉबिंसन कनक से बहुत खुश हुए ।
कनक ने भड़ककर कहा, "यह दारोगा साहब भी तो यहीं तशरीफ रखते हैं । आपको तकलीफ होगी, चलकर उनके भी उत्तम चरित्र का प्रमाण से सकते हैं ।"
रॉबिंसन तैयार हो गए । हैमिल्टन को साथ चलने के लिए कहा । कनक आगे-आगे नीचे उतरने लगी ।
सुन्दरसिंह के कमरे की ताली नौकर को दे दी, और कुछ दरवाजे खोल देने के लिए कहा । सब दरवाजे खोल दिए गए । भीतर सब लोग एकसाथ घुस गए । दारोगा साहब करवट बदल रहे थे । रॉबिंसन ने एक छड़ी लेकर खोद दिया । तब तक नशे में कुछ उतार आ गया था, पर फिर भी वह सँभलने लायक न थे । रॉबिंसन ने डाँटकर पुकारा । साहबी आवाज से यह घबराकर उठ बैठे । कई आदमियों और अंग्रेजों को सामने खड़ा देख चौंककर खड़े हो गए । पर सँभलने की ताब न थी, कटे हुए पेड़ की तरह वहीं ढेर हो गए । होश दुरुस्त थे, पर शक्ति न थी । दारोगा साहब फूट-फूटकर रोने लगे ।
"साहब खड़े हैं, और आप लेटे रहिएगा ?" कनक के नौकर खोद-खोदकर दारोगा साहब को उठाने लगे । एक ने बाँह पकड़कर उन्हें खड़ा कर दिया ।
उन्हें विवश देख रॉबिंसन दूसरे कमरे की तरफ चल दिए । कहा, "इशे पड़ी रहने डो, हम शब समझ गया ।"
यह कनक का अध्ययन कक्ष था । सजी हुई पुस्तकों पर नजर गई । रॉबिंसन उन्हें खोलकर देखने के लिए उत्सुक हो उठे । नौकर ने अलमारियाँ खोल दीं । साहब ने कई पुस्तकें निकालीं, उलट-पुलटकर देखते रहे । इज्जत की निगाह से कनक की ओर देखकर अंग्रेजी में कहा, "अच्छा, मिस कनक, तुम क्या चाहती हो ?"
"सिर्फ इन्साफ ।" कनक ने मँजे स्वर से कहा ।
साहब सोचते रहे । निगाह उठाकर पूछा, "क्या तुम इन लोगों पर मुकदमा चलाना चाहती हो ?"
"नहीं ।"
साहब कनक को देखते रहे । आँखों में तअज्जुब था, और सम्मान । पूछा, "फिर कैसा इन्साफ ?"
"राजकुमार को बिला वजह तकलीफ दी जा रही है । वह छोड़ दिए जाएँ ।" कनक की पलकें झुक गईं ।
साहब कैथरिन को देख हँसने लगे । फिर हिन्दी में बोले, "हम कल ही छोड़ डेगा । टुमशे अम बहुत खुश हुआ ।"
कनक चुपचाप खड़ी रही ।
"तुम्हारी पटलून क्या हुई मिस्टर हेमिल्टन ?" हैमिल्टन को घृणा से देखकर साहब ने पूछा ।
अब तक हैमिल्टन को होश ही न था कि वह धोती पहने हुए हैं । नशा इस समय भी पूरी मात्रा में था । जब एकाएक यह मुकदमा पेश हो गया, तब उनके दिल से प्रेम का मनोहर स्वप्न सूर्य के प्रकाश से कटते हुए अन्धकार की तरह दूर हो गया । एकाएक चोट खाकर, नशे में होते. हुए भी, वह होश में आ गए थे । कोई उपाय न था, इसलिए मन-ही-मन पश्चात्ताप करते हुए यन्त्रवत् रॉबिंसन के पीछे-पीछे चल रहे थे । मुकदमे के चक्कर में बचने के अनेक उपायों का आविष्कार करते हुए वह अपनी हालत को भूल ही गए थे । पतलून की जगह धोती और वह भी एक दूसरे अंग्रेज के सामने ! उन्हें कनक पर बड़ा क्रोध आया । मन में बहुत ही क्षुब्ध हुए । अब तक वीर की तरह सजा के लिए तैयार थे, पर अब लज्जा से आँखें झुक गईं ।
एक नौकर ने पतलून लाकर दिया । बगल के एक दूसरे कमरे में साहब ने उसे पहन लिया ।
कनक को धैर्य देकर रॉबिंसन चलने लगे । चलते समय हेमिल्टन और दारोगा को शीघ्र निकाल देने के लिए एक नौकर से कहा । कनक ने कहा, "ये लोग शायद अकेले घर न जा सकेंगे । आप कहें, तो मैं ड्राइवर से कह दूँ, इन्हें छोड़ आवे ।"
रॉबिंसन ने सिर झुका लिया, मानो अपना अदब जाहिर कर रहे हों । फिर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगे । कैथरिन से उन्होंने धीमे शब्दों में कुछ कहा, नीचे उसे अलग बुलाकर । फिर अपनी मोटर में बैठ गए ।
कनक ने अपनी मोटर से हैमिल्टन और दारोगा को उनके स्थान पर पहुँचवा दिया ।
आठ
अदालत लगी हुई थी । एक हिस्सा रेलिंग से घिरा था । बीच में बड़े तख्त पर मेज और कुर्सी रखी थी । मजिस्ट्रेट मिस्टर रॉबिंसन बैठे थे । एक ओर कठघरे के अन्दर बन्दी राजकुमार खड़ा हुआ, एक दृष्टि से बेंच पर बैठी हुई कनक को देख रहा था, और देख रहा था उन वकीलों, बैरिस्टरों और कर्मचारियों को, जो उसे देख-देखकर आपस में एक-दूसरे को खोद-खोदकर मुस्कुरा रहे थे, जिनके चेहरे पर झूठ, फरेब, जाल, दगाबाजी, कठहुज्जती, दम्भ, दास्य और तोताचश्मी-सिनेमा के बदलते हुए दृश्यों की तरह-आ-जा रहे थे, और जिनके पर्दे में छिपे हुए वे सुख-वैभव और शान्ति की साँस ले रहे थे । वहाँ के अधिकांश लोगों की दृष्टि निस्तेज, सूरत बेईमान और स्वर कर्कश था । राजकुमार ने देखा, एक तरफ पत्रों के संवाददाता भी बैठे हुए थे, एक तरफ वकील-बैरिस्टर तथा दर्शक ।
वहाँ कनक उसके लिए सबसे बढ़कर रहस्यमयी थी । बहुत कुछ मानसिक प्रयत्न करने पर भी उसके आने का कारण वह न समझ सका । स्टेज पर कनक को देखकर उसके प्रति दिल में अश्रद्धा, अविश्वास तथा घृणा पैदा हो गई थी । जिस युवती को इडेन-गार्डेन में एक गोरे के हाथों से उसने बचाया, जिसके प्रति सभ्य, सम्भ्रान्त महिला के रूप में देखकर वह सभक्ति खिंच गया था, वह स्टेज की नायिका है-यह उसके लिए बरदाश्त से बाहर की बात थी । कनक का समस्त सौन्दर्य उसके दिल में पैदा हुए इस घृणा-भाव को प्रशमित तथा पराजित न कर सका । उस दिन स्टेज पर राजकुमार दो पार्ट कर रहा था- एक मन से, दूसरा जबान से, इसीलिए कनक की अपेक्षा वह कुछ उतरा हुआ समझा गया था । उसके सिर्फ दो-एक स्थल अच्छे हुए थे ।
इजलास में कनक को बैठी देखकर उसने अनुमान लगाया, शायद पुलिस की गवाह या ऐसी ही कुछ होकर आई है । क्रोध और घृणा से हृदय तक भर आया । उसने सोचा, इडेन-गार्डेन में उससे गलती हो गई । मुमकिन है, वह साहब की प्रेमिका रही हो, और व्यर्थ ही उसने साहब को दंड दिया । राजकुमार के हृदय-प्राचीर पर जो अस्पष्ट रेखा कनक की थी, बिलकुल मिट गई । 'मनुष्य के लिए स्त्री कितनी बड़ी समस्या है ! इसकी सोने-सी देह के भीतर कितना तीव्र जहर !' राजकुमार सोच रहा था, 'मैंने भी कितना बड़ा धोखा खाया ! इसका दंड ही से प्रायश्चित्त करना ठीक है ।"
राजकुमार को देखकर कनक की आँखों में आँसू आ गए । राजकुमार तथा दूसरों की आँखें बचा रूमाल से चुपचाप उसने आँसू पोंछ लिए । उस रोज लोगों की निगाह में कनक ही कमरे की रोशनी थी । उसे देखते हुए सभी की आँखें औरों की आँखों को धोखा दे रही थीं । सबकी आँखों की चाल तिरछी हो रही थी ।
एक तरफ दारोगा साहब खड़े थे । चेहरा उतरा हुआ था । राजकुमार ने सोचा, शायद मुझे अकारण गिरफ्तार करने के विचार से यह उदास हैं । राजकुमार बिलकुल निश्चिन्त था ।
दारोगा साहब ने रविवार के दिन रॉबिंसन का जैसा रुख देखा था, उसके अनुसार शहादत के लिए दौड़-धूप करना अनावश्यक समझ अपने बरखास्त होने, सजा पाने और न जाने किस-किस तरह की कल्पनाएँ लड़ा रहे थे । इसी समय मजिस्ट्रेट ने दारोगा साहब को तलब किया । पर यहाँ कोई तैयारी थी ही नहीं । बड़ी करुण भाव से, दृष्टि में कृपा चाहते हुए, दारोगा साहब मजिस्ट्रेट को देखने लगे ।
अभियुक्त को छोड़ देना ही मजिस्ट्रेट का अभिप्राय था, इसलिए उन्होंने उसी रोज, उसके पैरवीकार सॉलिसिटर जयनारायण को उसकी भलमनसाहत के सबूत लेना आरम्भ किया । कनक एकाग्रचित्त हो मुकदमे की कार्रवाई देख रही थी ।
राजकुमार के मन का एकाएक परिवर्तन हो गया । वह अपने पक्ष में प्रमाण पेश होते हुए देख चकित हो गया । कुछ समझ में न आया उसकी । उस समय कनक का उत्साह देखकर वह अनुमान करने लगा कि शायद यह सब व्यवस्था इसी की हुई हैं । कनक के प्रति उसकी भावनाएँ बदल गई-आँखों में श्रद्धा आ गई, पर दूसरे ही क्षण, उपकृत द्वारा मुक्ति पाने की कल्पना कर, वह बेचैन हो उठा । उस-जैसे निर्भीक वीर के लिए, जिसने स्वयं ही यह सब आफत बुला ली थी, कितनी लज्जा की बात है कि वह एक साधारण बजारू स्त्री की कृपा से मुक्त हो । क्षोभ और घृणा से उसका सर्वांग मुरझा गया । जोश में आ वह अपने कठघरे से पुकारकर बोला, "मैंने कुसूर किया है ।"
मजिस्ट्रेट लिख रहे थे । नजर उठाकर एक बार उसे देखा, फिर कनक को । कनक घबरा गई । राजकुमार को देखा, वह निश्चिन्त दृष्टि से मजिस्ट्रेट की ओर देख रहा था । कनक ने वकील को देखा । राजकुमार की तरफ फिरकर वकील ने कहा, "तुमसे कुछ पूछा नहीं जा रहा, अतः तुम्हें कुछ कहने का अधिकार नहीं ।"
फ़ैसला लेकर हँसते हुए वकील ने कहा, "राजकुमार छोड़ दिए गए ।"
वकील को पुरस्कृत कर, राजकुमार का हाथ पकड़ कनक अदालत से बाहर निकल चली । साथ-साथ कैथरिन भी चली । पीछे-पीछे हँसती हुई कुछ जनता ।
रास्ते पर एक किनारे कनक की मोटर खड़ी थी । राजकुमार और कैथरिन के साथ कनक भी पीछे की सीट पर बैठ गई, ड्राइवर गाड़ी ले चला ।
एक अज्ञात मनोहर प्रदेश में राजकन्या की तलाश में विचरण करते हुए पूर्वश्रुत राजपुत्र की याद आई । राजकुमार निर्लिप्त द्रष्टा की तरह वह स्वर्णिम स्वप्न देख रहा था ।
मकान के सामने गाड़ी खड़ी हो गई । कनक ने हाथ पकड़कर राजकुमार से उतरने के लिए कहा ।
कैथरिन बैठी रही । दूसरे रोज आने का कनक ने उससे आग्रह किया । ड्राइवर उसे पार्क-स्ट्रीट ले चला ।
ऊपर सीधे कनक माता के कमरे में गई । बराबर राजकुमार का हाथ पकड़े रही । राजकुमार भावावेश में यन्त्रवत् उसके साथ-साथ चल रहा था ।
"यह मेरी माँ हैं ।" राजकुमार से कहकर कनक ने माता को प्रणाम किया । आवेश में, स्वतः प्रेरित की तरह, अपनी दशा तथा परिस्थिति के ज्ञान से रहित, राजकुमार ने भी हाथ जोड़ दिए ।
प्रणाम कर प्रसन्न कनक राजकुमार से हटकर खड़ी हो गई । माता ने दोनों के मस्तक पर स्नेह-स्पर्श कर आशीर्वाद दिया, और नौकरों को बुलाकर, उन्हें हर्ष से एक-एक महीने की तनख्वाह देखकर पुरस्कृत किया ।
कनक राजकुमार को अपने कमरे में ले गई । मकान देखते ही कनक के प्रति राजकुमार के भीतर सम्भ्रम का भाव पैदा हो गया था । कमरा देखकर उस ऐश्वर्य से वह और भी नत हो गया।
कनक ने उसे गद्दी पर आराम करने के लिए बैठाया । खुद भी एक बगल बैठ गई ।
"दो रोज से आँख नहीं लगी, सोऊँगा ।"
"सोइए ।" कनक ने आग्रह से कहा । फिर उठकर हाथ की बनी, बेल-बूटेदार, एक पंखी ले आई, और बैठकर झलने लगी ।
"नहीं, इसकी जरूरत नहीं, बिजली का पंखा तो है ही, खुलवा दीजिए ।" राजकुमार ने सहज स्वर से कहा ।
जैसे किसी ने कनक का कलेजा मसल दिया हो, 'खुलवा दीजिए ।' ओह ! कितना दुराव ! आँखें छलछला आईं । राजकुमार आँखें मूँदे पड़ा था । सँभलकर कनक ने कहा, "पंखे की हवा गर्म होगी ।"
वह उसी तरह पंखा झलती रही । हाथ थोड़ी ही देर में दुखने लगे, कलाइयाँ भर आईं, पर वह झलती रही । उत्तर में राजकुमार ने कुछ भी न कहा । उसे नींद लग रही थी । धीरे-धीरे सो गया ।
नौ
राजकुमार के स्नान आदि का कुल प्रबन्ध कनक ने उसके जागने से पहले ही नौकरों से करा रखा था । राजकुमार के सोते समय सर्वेश्वरी कन्या के कमरे में एक बार गई, और उसे पंखा झलते देख, हँसकर लौट आई । कनक माता को देखकर उठी नहीं । लज्जा से आँखें झुका उसी तरह बैठी पंखा झलती रही ।
दो घंटे बाद राजकुमार की आँखें खुलीं । देखा, कनक पंखा झल रही है । बड़ा संकोच हुआ । उससे सेवा लेने के कारण लज्जा भी हुई । उसने कनक की कलाई पकड़ ली । कहा, "बस, आपको बड़ा कष्ट हुआ ।"
एक तीर पुनः कनक के हृदय-लक्ष्य को पार कर गया । चोट खा, काँपकर सँभल गई । कहा, "आप नहाइएगा नहीं ?"
"हाँ, स्नान तो जरूर करूँगा, पर धोती ?"
कनक हँस पड़ीं, "मेरी धोती पहन लीजिएगा ।"
"मुझे इसमें कोई लज्जा नहीं ।"
"तो ठीक है । थोड़ी देर में आपकी धोती सूख जाएगी ।"
कनक के यहाँ मर्दानी धोतियाँ भी थीं, पर स्वाभाविक हास्यप्रियता के कारण नहाने के पश्चात् राजकुमार को उसने अपनी ही एक धुली हुई साड़ी दी । राजकुमार ने भी अम्लान, अविचल भाव से वह साड़ी मर्दों की तरह पहन ली । नौकर मुस्कुराता हुआ उसे कनक के कमरे में ले गया ।
"हमारे यहाँ भोजन करने में आपको कोई एतराज तो न होगा ?"
"कुछ भी नहीं । मैं तो प्रायः होटलों में खाया करता हूँ ।" राजकुमार ने असंकुचित स्वर से कहा ।
"क्या आप मांस खाते हैं ?"
"हाँ, मैं सक्रिय जीवन के समय मांस को एक उत्तम खाद्य मानता हूँ, इसीलिए खाता हूँ ।"
"इस वक्त तो आपके लिए बाजार से भोजन मँगवाती हूँ, शाम को पकाऊँगी ।" कनक ने विश्वस्त स्वर से कहा ।
राजकुमार ने देखा, जैसे अज्ञात, अब तक अपरिचित शक्ति से उसका अंग-अंग कनक की ओर खिंचा जा रहा था, जैसे चुम्बक की तरफ लोहे की सुइयाँ । केवल हृदय के केन्द्र में द्रष्टा की तरह बैठा हुआ वह उस नवीन प्रगति से परिचित हो रहा था ।
वहीं बैठी हुई थाली में एक-एक खाद्य पदार्थ चुन-चुनकर कनक ने रखा । एक तश्तरी पर ढक्कनदार ग्लास में बन्द वासित जल रख दिया । राजकुमार भोजन करने लगा । कनक वहीं एक बगल बैठकर पान लगाने लगी । भोजन हो जाने पर नौकर ने हाथ घुला दिए ।
पान की रकाबी कनक ने बढ़ा दी । पान खाते हुए राजकुमार ने कहा, "आपका शकुन्तला का पार्ट उस रोज बहुत अच्छा हुआ था । हाँ, धोती तो अब सूख गई होगी ।"
"इसे ही पहने रहिए ! समझ लीजिए, अब आप ही शकुन्तला हैं । निस्सन्देह आपका पार्ट बहुत अच्छा हुआ था । आप कहें, तो मैं दुष्यन्त का पार्ट करने के लिए तैयार हूँ ।"
मुखर कनक को राजकुमार कोई उत्तर न दे सका ।
कनक उठकर दूसरे कमरे में गई और धुली हुई मर्दानी धोती ले आई ।
"इसे पहन लीजिए, यह मैली हो गई है ।" सहज आँखों से मुस्कुराकर कहा कनक ने ।
राजकुमार ने धोती पहन ली । कनक फिर चली गई । अपनी एक रेशमी चादर ले आई ।
"इसे ओढ़ लीजिए ।"
राजकुमार ने आढ़ लिया ।
एक नौकर ने आकर कहा, 'माँजी याद कर रही हैं ।"
"अभी आई ।" कहकर कनक माता के पास चली गई ।
हृदय के एकान्त प्रवेश में जीवन का एक नया ही रहस्य खुल रहा है । वर्षा की प्रकृति की तरह जीवन की धात्री देवी नए साज से सज रही है । एक श्रेष्ठ पुरस्कार प्राप्त करने के लिए कभी-कभी, बिना उसके जाने हुए ही, लालसा के हाथ फैल जाते हैं । आज तक जिस एक ही स्रोत से बहता हुआ वह चला आ रहा था, अब एक दूसरा रुख बदलना चाहता है । एक अप्सरा कुमारी, सम्पूर्ण ऐश्वर्य के रहते हुए भी, आँखों में प्रार्थना की रेखा लिए, रूप की ज्योति से जगमग, मानो उसी के लिए तपस्या करती आ रही है । राजकुमार चित्त को स्थिर कर विचार कर रहा था, यह सब क्या है ?... क्या इस ज्योति से मिल जाऊँ ?...न, जल जाऊँ, तो ? इसे निराश कर दूँ ?...बुझा दूँ ?...न, मैं इतना कर्कश, तीव्र, निर्दय न हूँ, न हूँगा; फिर ?... आह ! यह चित्र कितना सुन्दर, कितना स्नेहमय है ?... इसे प्यार करूँ ?...न, मुझे अधिकार क्या ? मैं तो प्रतिश्रुत हूँ कि इस जीवन में भोगविलास को स्पर्श भी न करूँ, प्रतिज्ञा !...की हुई प्रतिज्ञा से टल जाना महापाप है ! और यह... स्नेह का निरादर ?
कनक के भावों से राजकुमार को अब तक मालूम हो चुका था कि वह पुष्प सी की पूजा में चढ़ गया है । उसके द्वारा रक्षित होकर उसने अपनी पुष्प चिर रक्षा का भार उसे सौंप दिया है । उसके आकार, इंगित और गति इसकी साक्षी हैं ! राजकुमार धीर और शिक्षित युवक था । उसे कनक के मनोभावों को समझने में देर नहीं लगी । जिस तरह उसके उपकार का कनक ने प्रतिदान दिया, उसको याद कर कनक के गुणों के साथ उस कोमल स्वभाव की ओर वह आकर्षित हो चुका था । केवल लगाम अभी तक उसके हाथ में थी । उसी रसप्रियता के अन्तर्लक्ष्य को ताड़कर मन-ही-मन वह सुखानुभव कर रहा था, पर दूसरे ही क्षण इस अनुभव को वह अपनी कमजोरी भी समझता था । कारण, इसके पहले ही वह अपने जीवन की गति निश्चित कर चुका था- साहित्य तथा देश की सेवा के लिए वह आत्मार्पण कर चुका था । इधर कनक का इतना अधिक एहसान उस पर चढ़ गया था जिसके प्रति उसकी मनुष्यता स्वतः नतमस्तक हो रही थी । उसकी आज्ञा के प्रतिकूल आचरण की जैसे उसमें शक्ति ही न रह गई हो । वह अनुकूल-प्रतिकूल अनेक प्रकार की ऐसी ही कल्पनाएँ कर रहा था ।
सर्वेश्वरी ने कनक को सस्नेह पास बैठाकर कहा, "ईश्वर ने तुम्हें अच्छा वरदान दिया है । वह तुम्हें सुखी और प्रसन्न करे ! आज एक नई बात सुनाऊँगी । 0आज तक तुम्हें अपनी माता के सिवा पिता का नाम नहीं मालूम था । अब तुम्हारे पिता का नाम तुम्हें बता देना मेरा धर्म है । कारण, तुम्हारे कार्यों से मैं देखती हूँ, तुम्हारे स्वभाव में पिता-पक्ष ही प्रबल है । बेटी, तुम रणजीतसिंह की कन्या हो । तुम्हारे पिता जयनगर के महाराज थे । उन दिनों मैं वहीं थी । उनका शरीर नहीं रहा । होते, तो वह तुम्हें अपनी ही देख-रेख में रखते । आज देखती हूँ, तुम्हारे कुल के संस्कार ही तुम में प्रबल हैं । इससे मुझे प्रसन्नता है । अब तुम अपनी अनमोल, अलभ वस्तु सँभालकर रखो, उसे अपने अधिकार में करो । आगे तुम्हारा धर्म तुम्हारे साथ है ।"
माता की सहृदय बातों से कनक को बड़ा सुख हुआ । स्नेह-जल से सिक्त होकर वह बोली, "अम्मा, यह सब तो वह कुछ जानते ही नहीं । मैं कह भी नहीं सकती । किसी तरह इशारा करती हूँ, तो कोई जैसे मुझे पकड़कर दबा देता है । कुछ बोलना चाहती हूँ तो कंठ से आवाज ही नहीं निकलती ।"
"तुम उन्हें कुछ दिन बहला रखो । समय आने पर सब बातें आप खुल जाएँगी । मैं अपनी तरफ से कोई कार्रवाई करूँगी, तो इसका उन पर बुरा असर पड़ेगा ।"
नौकर से जेवर का बॉक्स बढ़ा देने के लिए सर्वेश्वरी ने कहा ।
आज कनक के लिए सबसे बड़ी परीक्षा का दिन है । आज की विजय उसकी सदा की विजय है । इस विचार से सर्वेश्वरी बड़े विचार से सोने और हीरे के अनेक प्रकार के आभरणों से उसे सजाने लगी । बालों में सुगन्धित तेल लगा, किनारे से तिरछाई माँग काढ़, चोटी गूँथकर चक्राकार जूड़ा बाँध दिया । हीरे की कनीजड़े सोने के फूलदार काँटे जूड़े में पिरो दिए । कनक ने अच्छी तरह सिन्दूर माँग में भर लिया । उसकी ललाई उस सिर का किसी के द्वारा कलम किया जाना सूचित कर रही थी । सर्वेश्वरी ने बसन्ती रंग की साड़ी पसन्द की । सिर से पैर तक कनक को सजा दिया उसने ।
"अम्मा, मुझे तो यह सब भार लग रहा है । मैं चल न सकूँगी ।"
सर्वेश्वरी ने कोई उत्तर नहीं दिया । कनक राजकुमार के कमरे की ओर चली । जीने पर उतरते समय आभरणों की झंकार से राजकुमार का ध्यान आकर्षित हुआ ? अलंकारों की मंजीर-ध्वनि धीरे-धीरे निकट होती गई । अनुमान से उसने कनक के आने का निश्चय कर लिया । दरवाजे के पास आते ही कनक के पाँव ठिठक गए । सर्वांग संकोच से शिथिल पड़ गया । कृत्रिमता पर बड़ी लज्जित हुई । मन को किसी प्रकार दृढ़ कर, होंठ काटती, मुस्कुराती, वायु को केशों की सुरभि से सुगन्धित करती हुई, धीरे-धीरे चलकर गद्दी के एक प्रान्त में, राजकुमार के बिलकुल निकट बैठ गई ।
राजकुमार ने केवल एक नजर कनक को देख लिया । हृदय ने प्रशंसा की । मन ने एकटक यह छवि खींच ली । तत्काल प्रतिज्ञा के अदम्य झटके से हृदय की प्रतिमा शून