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कविता

वजूद

प्रदीप त्रिपाठी


वजूद

अपने-अपने वजूद के द्वंद्व में

ध्वस्त हो रहे हैं वे और हम

खूँटे से बँधे विचार अट्टहास कर रहे हैं

यहाँ हस्तक्षेप जैसा कुछ भी नहीं है....

और

मैं इस सन्नाटे में

अज्ञेय की कविता पढ़ रहा हूँ-

"मौन भी अभिव्यंजना है

जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।"


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