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कविता संग्रह

लहर

जयशंकर प्रसाद


लहर

 

जयशंकर प्रसाद

 

लोकभारती प्रकाशन

१५-ए, महात्‍मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद-१

 

 

भूमिका

'लहर' में 'थके पथिक की पन्था की' पाथेय बनी स्मृतियों के अनेक रूपों के अलावा क्षितिज को उदार बनाने की आंतरिक कोशिश है। प्रेमचन्द द्वारा सम्पादित हंस के आत्मकथांक में 'आत्मकथा' शीर्षक से छपी कविता के अन्त में प्रसाद ने 'अभी समय भी नहीं'- 'थकी सोई है मेरी मौन व्यथा' लिखकर अपनी रचनाओं के भीतर के मर्म का ही उद्घाटन किया है। वह मर्म व्यथा झरना- आँसू में अनेक रूपों में उद्घाटित होती हुई धीरे-धीरे विश्वकथा में बदलने लगती है। निजी पीड़ा लोक पीड़ा का रूप धारण कर लेती है और फिर लोक पीड़ा की मुक्ति का उपाय भी कवि खोजने लगता है। 'लहर' के विषय में पन्तजी ने लिखा है कि "लहर के प्रगीतों में गाम्भीर्य, मार्मिक अनुभूति तथा बुद्ध की करुणा का भी प्रभाव है। प्रसादजी का भावजगत 'झरना' की प्रेम व्याकुलता तथा चंचल भावुकता से बाहर निकलकर इसमें उनकी व्यापक जीवनानुभूति को अधिक सबल संगठित अभिव्यक्ति दे सका है।" (सुमित्रानन्दन पन्त ग्रन्थावली भाग ६, द्वि० सं०, पृ० ८०) आत्मपरकता की यह वस्तुपरकता प्रसाद को अच्छे लेखक से बड़ा लेखक बनाती है। 'आँसू' में भी इस प्रकार की चेतना मिलती है। आँसू के अन्त में तो आत्मपरकता के इस विस्तार का कारण और उसकी प्रक्रिया भी संकेतित है।

घिर उन निराश नयनों की

जिनके आँसू सूखे हैं

उस प्रलय दशा को देखा

जो चिर वंचित भूखे हैं

सूखी सरिता की शय्या

वसुधा की करुण कहानी

कूलों में लीन न देखी

क्या तुमने मेरी रानी

सबा निचोड़ लेकर तुम

सुख से सूखे जीवन में

बरसों प्रभात हिमकन सा

आँसू इस विश्व सदन में

'लहर' की पहली ही कविता में जो रचना के नामकरण और प्रतीकार्थ का कारण भी है, सूखे तट पर 'करुणा की नव अंगड़ाई सी' और 'मलयानिल की परछाईं सी' छिटकने और छहरने की आकांक्षा है। स्मृति और आकांक्षा की यह भाव-विचारात्मक द्वन्द्वात्मकता लहर के गीतों और लम्बी कविताओं को गहरी अर्थवत्ता और कलाकृतित्व प्रदान करती है। आचार्य शुक्ल ने 'लहर' से आनन्द की लहर का संकेत ग्रहण किया है। मुझे मूलत: यह स्मृति और आकांक्षा दोनों की लहर लगती है। जीवन के सूनेपन का संकेत प्राय: लहर में भी है, परंतु इस सूनेपन को वे करुणा, वेदना आदि से उदात्त करते रहते हैं 'मादकता भरी ललाई' आलस की अंगड़ाई, बरसते ज्यों मदिरा अश्रांत, मधुचर्या, विश्वमधुऋतु के कुसुम विकास, आह रे वह अधीर यौवन, आह रे वह अतीत जीवन आदि विस्मृति के स्तूप के भीतर लहर में भी अनेक रूप लगभग प्रसाद के 'काव्यसमय' की तरह आते हैं। वे सौन्दर्याभिरुचि में एक विशेष भंगिमा और प्रकृति का संकेत करते हैं। लहर के गीतों में कसावट, संक्षिप्तता और संकेतात्मकता के साथ विशेष प्रकार की विशेषणप्रियता भी है। अनेक कविताओं में यह विशेषणप्रियता अनुभव को एक प्रकार की सटीकता और ससीमता भी प्रदान करती जिसे क्लासिक प्रवृत्ति माना जाता है। इस प्रकार के विशेषणों में अलस, म्लान, करुणा, नील, मधु अति प्रचलित हैं और कविता में कभी-कभी अनुभूति के संदर्भ का कार्य करते हैं। एक प्रकार से विभावन करते हैं। आचार्य शुक्ल ने आँसू की तुलना में 'लहर' पर विस्तार से विचार करते हुए निष्कर्षतः लिखा है कि "लहर में हम प्रसादजी को वर्तमान और अतीत जीवन की प्रकृत ठोस भूमि पर अपनी कल्पना ठहराने का कुछ प्रयत्न करते पाते हैं।"

- हिन्दी साहित्य का इतिहास, २१वाँ संस्करण, पृ० ४६४ ।

मूलगन्ध कुटी विहार के उपलक्ष्य में लिखी 'अरी वरुणा की शान्त कछार, तपस्वी के विराग की प्यार' कविता को पढ़ने से छायावाद और विशेषतः प्रसाद के मुहावरे और चिन्तन का पता चलता है, जो उनकी कविताओं में अन्तर्ध्वनित सत्य की तरह निजी प्रेम को चिर सत्य और चिर सुन्दर बनाता रहता है। अतिवाद की निन्दा और मध्यपथ को सद्गति 'विश्वमानवता का जयघोष' 'भाग कितना लेगा मस्तिष्क, हृदय का कितना है अधिकार' 'मुक्ति जल की वह शीतल बाढ़ जगत की ज्वाला करती शांत' जैसे शब्द प्रसाद के कालबोध को भी उजागर करते हैं।' 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे' और 'हे सागर सङ्गम अरुण नील' कविताओं में एक प्रकार की रहस्यमयता है, जो अन्तर्व्यथित सत्य के रूप में अनुभव को अनुभूति में रूपांतरित करती है या संवेदनात्मक ज्ञान को ज्ञानात्मक संवेदना में बदलती है। प्रसाद के संदर्भ में यह एक प्रकार नियतिबोध में भी है। दो उद्धरण इस अर्थ में आवश्यक हैं। क्योंकि इन कविताओं में 'छायावाद' के प्रमुख तत्त्व - विश्वास, अध्यात्म, दर्शन, विभुता, अस्पष्टता, अपारदर्शी भाषा आदि घुले हुए हैं और यही घुलनशीलता ही छायावाद की कलात्मकता और रचनाशीलता है। प्रकृति, मानवता, स्वानुभूति, इतिहास और ईश्वर सबके संकेत इस पाठ में हैं। इन अंशों से कामायनी के रचनाकार की मनोभूमि और उस काल के संस्कृति बोध का संकेत मिलता है-

(१) ले चल मुझे भुलावा देकर

मेरे नाविक ! धीरे धीरे

जिस गम्भीर मधुर छाया में -

विश्व चित्रपट चल माया में-

विभुता विभु सी पड़ी दिखायी-

दुख सुख वाली सत्य बनी रे ।

श्रम विश्वास क्षितिज बेला में-

जहाँ सृजन करते मेला से-

अमर जागरण उषा नयन से-

विखराता हो ज्योति घनी रे-

(२) हे सागर संगम अरुण नील

पिङ्गल किरणों की मधु-लेखा,

हिम शैल बालिका को तूने कब देखा।

कलरव संगीत सुनाती

किस अतीत युग की गाथा गाती ।

आगमन अनन्त मिलन बनकर-

बिखराता फेनिल तरह खील।

हे सागर संगम अरुण नील!

'लहर' के गीतों में अभी भी 'अधर में वह अधरों की प्यास' धमनियों में आलिंगनमयी वेदना को लिए नयी व्यथाएँ, तुम्हारी आँखों का बचपन, कोमल कुसुमों की मधुर रात, वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे और पागल पुकार फिर प्यार प्यार जैसी कविताएँ ' आँसू' 'अरुण' और 'नील' की युति की याद दिलाती हैं। बाहर की समग्र प्रकृति जिसमें मानव जगत भी है उन्हें अपनी अनुभूतियों का विस्तार लगता है। सारी सृष्टि प्रेमलीला और प्रेम की पीड़ा से प्लावित लगती है। प्रेमपथिक और 'आँस' की तरह लहर में भी प्रेम के ही कारण शशि, प्रभात, ओस, लहर, सावनघन, बिजली आदि में सक्रियता है। प्यार की भावात्मक और अभावात्मक स्थितियों को प्राकृतिक प्रपंच समझने का आग्रह वैदिक गीतों से लेकर आज तक मिलता है। छायावाद मनुष्य को केन्द्र में मानकर चलता है।

प्रेम के अभावात्मक पक्ष की दृष्टि की उदात्तता के कारण कवि अभावों के बीच विद्यमान भाव के स्वप्न को शाश्वत बनाना चाहता है यह भी आत्मप्रसार की आकांक्षा अथवा आत्मरति का ही उदात्तीकरण या विस्तार है। निजी व्यथा से समान व्यथा की खोज से उत्पन्न दृष्टि मानवता के विकास की कथा है। इस प्रकार की कविताओं में भी अंतर्निहित भाव प्रेम नहीं करुणा है-

(१) स्नेहालिंगन की लतिकाओं की झुरमुट छा जाने दो।

जीवनधन! इस जले जगत को वृन्दावन बन जाने दो।

(२) अपलक जगती हो एक रात

वक्षस्थल में जो छिपे हुए-

सोते हों हृदय अभाव लिये-

उनके स्वप्नों का हो न प्रात

'लहर' के अंत में ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित जो कविताएँ संकलित हैं, वे प्रसाद के जीवन दर्शन, देश प्रेम, सामयिक स्थिति, अन्तर्द्वन्द्व तथा नियतिबोध की कविताएँ हैं। 'अशोक की चिन्ता' वैसे तो प्रसाद की भी चिन्ता है, जो दुःखी व्यक्तियों के घावों पर मलहम लगाने, दुःख बाँटने और दुःख से मुक्ति के उपाय खोजती है। कलिङ्ग के युद्ध के बाद लाशों का अम्बार देखकर अशोक के मन में सर्वनाश के बाद अनेक प्रकार के प्रश्न और शंकाएँ उत्पन्न होती हैं, जो परिवर्तन के क्रम को सनातन मानती हैं। उसके मन में करुणा का महाभाव पैदा करती हैं। क्षण भंगुरता की यह सनातनता अशोक के मन में परिवर्तन के अनेक चित्र प्रस्तुत करती है। इस प्रकार के चित्र 'प्रेमपथिक': आँसू' और 'कामायनी' में भी है। यह दृष्टि वैराग्य भी पैदा करती है और दुःख को दूर करने का संकल्प भी। अशोक में संकल्पात्मक अनुभूति है। विकल्पों की नाशवानता संकल्प का कारण बनती हैं। वह सोचता है कि विजय और पराजय का कुढंग छोड़कर मानवता के सुख का प्रयत्न करना चाहिए। महादम्भ का दानव अनंग का आसव पीकर विश्व में अनेक भीषण अत्याचार कर चुका है। उसे अपनी विजय भी नश्वर ही लगती है। उसे सारा रागरंग, वैभव विलास क्षणिक लगता है। प्रेम आदि भी उसे एक लहर ही लगता है। हालाँकि प्रसाद आँसू में क्षणिक सुख को, दो घड़ियों के जीवन के कोमल वृन्तों में उलझने के बाद मृत्यु हो जाय तो भी महत्वपूर्ण और सार्थक मानते हैं। परन्तु अशोक की चिन्ता में एक प्रकार की प्रौढ़ता है।

काली काली अलकों में,

आलस मद नत पलकों में,

मणि मुक्ता की झलकों में,

सुख की प्यासी ललकों में,

देखा क्षण भंगुर है तरंग

फिर निर्जन उत्सव शाला,

नीरव नूपुर श्लथ माला,

सो जाती है मधु बाला,

सूखा लुढ़का है प्याला,

बजती वीणा न यहाँ मृदंग

अशोक की यह चिन्ता कामायनी की चिन्ता से भिन्न है। यह एक प्रकार के दर्शन सर्ग की भूमिका है। इससे प्रसाद की उस मनोभूमि का पता चलता है, जिसमें इस प्रकार की निष्कर्षात्मक अनुभव वाली कविताएँ राग के बाद के विरान का कारण बनती हैं। अशोक की चिन्ता उसे विषादग्रस्त नहीं करती है, बल्कि कविता के अन्त में अशोक और प्रसाद और किसी भी व्यक्ति को जो अहंकार और काम के वशीभूत होकर अपनी आकांक्षा को ही सबकी आकांक्षा मानता है यह ज्ञान प्रदान करती है-

संसृति के विक्षत पग रे!

यह चलती है डगमग रे!

अनुलेप सदृश तू लग रे !

मृदु दल विखेर इस मग रे !

कर चुके मधुर मधुपान भृंग

भुनती वसुधा, तपते नग,

दुनिया हे सारा अग जग,

कंटक मिलते हैं प्रति पग,

जलती सिकता का यह मग,

बह जा बन करुणा की तरंग

जलता है यह जीवन पतंग

जलियाँवाला बाग में सेनापति के देशद्रोह के कारण छल से हुई हार से विजयी पराजित सिक्ख सेना के नेता शेरसिंह के समर्पण की इस ऐतिहासिक घटना पर आधारित यह कविता शेरसिंह की वीरता, मातृभूमि के प्रति सम्मान, प्रेम की भावना और पंचनद के शौर्य स्वत्व रक्षा में प्रबुद्ध सजीव सिक्खों के प्राणपण से लड़ने की वीरगाथा आदि का उल्लेख जिस प्रकार के मुक्त छंद में प्रसाद ने किया है, वह प्रारम्भिक आख्यान कविताओं से अधिक कलात्मक संयम के साथ हुआ है। शेरसिंह की भावना और मातृभूमि की वीरगाथा का स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि में वीरमूर्ति श्याम सिंह के माध्यम से किया गया वर्णन विषाद कारक नहीं उत्तेजना कारक समयोचित प्रयत्न है। शेरसिंह का आत्म संघर्ष और उसका आत्मबल इस कविता की निर्मिति का गुण है। प्रसाद की भाषा में बौद्धिक भावुकता के कारण इसमें विशेष प्रकार की दिव्यता भी है और शेरसिंह का मनस्ताप भी। पूरी कविता में 'स्वतन्त्रता' मातृभूमि, जन्मभूमि आदि शब्द कविता को 'घटना' से हटाकर रचना की वस्तु बना देते हैं। परम्परा का जीवित अंश पराधीन भारत में नये अर्थ से दीप्त हो उठता है।

(१) यवनों के हाथों से स्वतन्त्रता को छीनकर,

खेलता था यौवन- विलासी मत्त पंचनद

प्रणय विहीन एक वासना की छाया में।

फिर भी लड़े थे हम निज प्राणपण से।

(२) वीर पञ्चनद के सपूत मातृभूमि के

सो गये प्रतारणा की थपकी लगी उन्हें

छल बलिवेदी पर आज सब सो गये।

रूप भरी, आशा भरी, यौवन अधीर भरी,

पुतली प्रणयिनी का बाहुपाश खोलकर,

दूध भरी दूध सी दुलार भरी माँ की गोद,

सूनी कर सो गये।

'पेशोला की प्रतिध्वनि' स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए कटिबद्ध राणाप्रताप के मेवाड़ की पुकार है। मेवाड़ की यह पुकार प्रकारान्तर से भारतमाता की भी पुकार है। कविता नवजागरण की प्रतीक कविता है जिसमें बार-बार आह्वान है कि इस अंधड़ में जब अंधकार का समुद्र क्षुब्ध होकर उमड़ रहा है तब पतवार को कौन थामेगा? यह मेवाड़ की ही चुनौती नहीं है देश की चुनौती है। यही अन्धकार भीतर और बाहर 'राम की शक्तिपूजा' और 'तुलसीदास' में भी है।

आह इस खेवा की!

कौन थामता है पतवार ऐसे अन्धड़ में

अंधकार पारावार गहन नियति सा-

उमड़ रहा है ज्योति-रेखा-हीन क्षुब्ध हो ।

तब- कौन लेगा भार यह?

जीवित है कौन?

साँस चलती है किसकी

कहता है कौन ऊंची छाती कर, मैं हूँ-

मैं हूँ- मेवाड़ में,

अरावली श्रृङ्ग सा समुचत सिर किसका?

बोलो, कोई बोलो, अरे क्या तुम सब मृत हो ?

कवि जगाना चाहता है- प्राण संचार करना चाहता है सोये हुए या मरों हुओं के शरीर में वह वर्तमान मेवाड़ या देश की अतीत के मेवाड़-राणा के मेवाड़ की तुलना में माया के समान पड़ा हुआ मानता है। एक प्रकार से 'जागो फिर एक बार' की तरह इसे 'शक्ति साधना' की कविता कहा जा सकता है। कविता में प्रसाद का शब्द चयन जागरण और उदबोधन के अनुकूल ओज गुण युक्त है। कविता अपनी बनावट और मूल्य दृष्टि दोनों के समन्वय के कारण अच्छी है। प्रसाद का अपने समय का काल बोध इस कविता में ब्रह्मांड की तरह फैलता हुआ काल बोध है।

'प्रलय की छाया' एक नारी के आंतरिक एकालाप उचित अनुचित के द्वन्‍द्व, आकांक्षा और मूल्य के तनाव की कलात्मक संतुलन से रची हुई कविता है। मानव मन की इच्छा और विवशता का ऐसा चित्र दुर्लभ है। एक-एक पंक्ति अपने पाठ की दृष्टि से अनेक प्रति और सम पाठों की ओर संकेत करती है। इतिहास और परम्परा के खंडहरों में झाँकने को बाध्य करने के साथ मन अतृप्त वासनाओं और कर्तव्यों के तनाव कैसे कमलावती के हृदय को मथते हैं। इस मार्मिक प्रसंग को प्रसाद ने आधुनिक दृष्टि से नितान्त मानवीय बनाकर प्रस्तुत किया है। कविता में मानव नियति का व्यंग्य और उसकी विडम्बना को जिस प्रकार रेखांकित किया गया है वह कविता को पैथेटिक नहीं ट्रैजिक बताता है। जिस रूप या वासना के माध्यम से वह शाहंशाह को अवश करके कटार से मारना चाहती है, ऐश्वर्य वैभव शक्ति आदि को नकारना चाहती है वही सब उसके स्वयं के विनाश के कारण बनते हैं। कविता की संरचना में पद क्रम का जैसा प्रयोग मानस के उद्वेलनों और अन्तर्द्वन्द्वों के लिये किया गया है वह सधा हुआ और संकेतक है। प्रकृति, मानव जीवन, वैयक्तिक प्रतीति और वयः संधि के सौन्दर्य की रूपगर्विता को प्रसाद एक साथ इस प्रकार साधते और बाँधते हैं कि कविता के प्रारंभ में ही कथ्य भाषा और वाचक के प्रति बलात् आकर्षित होना पड़ता है। 'आज' और 'उस दिन' के माध्यम से ही एक विडम्बना नियति का संकेत मिलता है।

थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की

संध्या है आज भी तो धूसर क्षितिज में

और उस दिन तो,

निर्जन जलधि बेला रागमयी संध्या से-

सीखती थी सौरभ से भरी रंगरलियाँ ।

नार

आत्ममुग्धता और सौन्दर्य का रेखांकन जिस चित्रमयता और सांकेतिकता के साथ किया गया है। इसके पहले के रूपक और नखसिख की रूढ़ियों की तुलना महाकवि की रचना लगती हैं। इसमें केवल सौन्दर्य वर्णन ही नहीं यौवन, रूप, विलास और प्रगल्भता का विकास क्रम भी संकेतित है। कविता स्मृतियों या दृश्यों के एक क्रम में संयोजन से निर्मित है। यह आत्मवाची शिल्प है। धूसर संध्या, रूप वर्णन और वह एक संध्या (दूसरी) जिसमें गुर्जरेश पाँवड़े बिछाते रहे पलकों को क्रमश: याद कर रही है कि कैसे-

गुर्जरेश पाँवड़े बिछाते रहे पलकों के,

तिरते थे -

मेरी अँगड़ाइयों की लहरों में

पीते मकरन्द थे -

मेरे इस अधखिले आनन सरोज का

कितना सोहाग था, वैसा अनुराग था?

खिली स्वर्ण मल्लिका की सुरभित वल्लरी सी

गुर्जर के थाले में मरन्द वर्षा करती मैं

एक दृश्य है जिसमें रूपरानी गुजरात की कमला, महिला महत्त्व का भाल उन्नत करने वाली पद्मिनी से अधिक सुन्दर अपने सौन्दर्य के प्रति सजग, गुर्जरेश के साथ अहंकार के मद में युद्ध करती हुई, फिर भागती हुई, यवनों के दल द्वारा पकड़े जाने पर अपने विचित्र मनोवृत्ति का वर्णन करती है। इस वर्णन में आदर्श यथार्थ का आन्तरिक संघर्ष जिस रूप में प्रस्तुत है वह शिल्प की दृष्टि से काल की सनातन अवधारण पर आधारित है-ऋजुरेखीय काल की ऐतिहासिक अवधारण पर नहीं। एक प्रकार से सभी दृश्य परिधि पर स्थित हैं, जो कमला और कमला के माध्यम से मनुष्य की सबलता और दुर्बलता को अर्थ प्रदान करते हैं। मन में उठने वाली भावनाओं के घात प्रतिघात 'प्रलय की छाया' को नितान्त मानवीय और यथार्थपरक बनाते हैं। उसका यह कथन वैसे तो प्रसाद के अनुभव की भी अर्थवत्ता लिए है - उन्हें भी शायद कोई कमला मिली हो ऐसा उनके समवयस्क मित्र आदि कहते हैं-लेकिन नियति बोध और विडम्बना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें कमला के बहाने कवि ने दिल्ली के चरित्र पर भी एक टिप्पणी की है और यह टिप्पणी नियति से व्यंग्य की तरह उन्हीं संकेतों में उस पर लागू है।

रूप यह

देखे हो तुरुष्क पति मेरा भी

यह सौन्दर्य देखे, देखे यह मृत्यु भी

कितनी महान और कितनी अभूतपूर्व ?

बन्दिनी मैं बैठी रही

देखती थी दिल्ली कैसी विभव विलासिनी ।

यह ऐश्वर्य की दुलारी प्यारी क्रूरता की

यह छलना थी सजने लगी थी संध्या में

'प्रलय की छाया' में रूप के माध्यम से अलाउद्दीन जैसे सम्राट् को पराजित करने का भी एक दृश्य है, जिसमें मानिक द्वारा गुर्जरेश की आज्ञा बताने के बाद वह अपना जीवन समाप्त नहीं करती है, बल्कि अपने भीतर रूप के माध्यम से भारतेश्वरी का पद प्राप्त करने की लालसा का बयान भी करती है। जीवन की धूसर संध्या में जब उसे नीच परिवारी मानिक जिसे उसने अपने को समर्पित करके दबी हुई लालसाओं की पूर्ति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में बचाया था वही मलिक काफूर की हत्या करके खुसरू नाम से बादशाह बन बैठा तो उसे पश्चाताप होता है। उस बिन्दु से जब वह अतीत को देखती है तो उसे अपनी कमजोरी, विवशता, लालसा और मानवता के आत्म-सम्मान की विजय आदि सब बात याद आते हैं। उसे मानव जीवन प्राप्त करने के (बड़े भाग मानुष तन पावा) के सौभाग्य और उसकी अलभ्यता की स्मृति भी कौंधती है। इस स्वीकृति की विडम्बना भी यही है कि यह बोध आत्महत्या के कारण पैदा होता है। नियति के क्रूर व्यंग्य को ही तो विडम्बना कहते हैं। कविता अपनी दृष्टि में गिरने या अपमानित महसूस करने से ही नहीं, इस टिप्पणी से समाप्त होती है, यद्यपि वह काव्य को कमजोर करती है, परंतु प्रसाद के जीवन मूल्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

नारी यह रूप तेरा जीवित अभिशाप है

जिसमें पवित्रता की छाया भी पड़ी नहीं।

जितने उत्पीड़न थे चूर हो दब हुए,

अपना अस्तित्व हैं पुकारते,

नश्वर संसार में

जिस प्रतिहिंसा की ध्वनि हैं चाहते।

- सत्यप्रकाश मिश्र

गीत-क्रम

उठ उठ री लघु लघु लोल लहर

निज अलकों के अंधकार में

मधुप गुनगुना कर कह जाता

अरी वरुणा की शांत कछार

जगती की मंगलमयी उषा

ले चल वहाँ भुलावा देकर

हे सागर संगम अरुण नील

उस दिन जब जीवन के पथ में

बीती विभावरी जाग री

आँखों से अलख जगाने को

आह रे, वह अधीर यौवन

तुम्हारी आँखों का बचपन

अब जागो जीवन के प्रभात

कोमल कुसुमों की मधुर रात

कितने दिन जीवन-जलनिधि में

वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे

मेरी आँखों की पुतली में

जग की सजल कालिमा

वसुधा के अंचल पर

अपलक जगती हो एक रात

चिर तृषित कंठ से तृप्ति विधुर

काली आँखों का अंधकार

अरे कहीं देखा है तुमने

शशि-सी वह सुन्दर रूप विभा

अरे! आ गयी है भूली सी

निधरक तूने ठुकराया तब

ओ री मानस की गहराई

मधुर माधवी संध्या में

अंतरिक्ष में अभी सो रही

अशोक की चिंता

शेरसिंह का शस्त्र-समर्पण

पेशोला की प्रतिध्वनि

प्रलय की छाया

[१]

उठ उठ री लघु लघु लोल लहर!

करुणा की नव अँगराई-सी,

मलयानिल की परछाईं-सी,

इस सूखे तट पर छिटक छहर!

शीतल कोमल चिर कंपन-सी,

दुर्ललित हठीले बचपन-सी,

तू लौट कहाँ जाती है री-

यह खेल खेल ले ठहर ठहर!

उठ-उठ गिर-गिर फिर-फिर आती,

नर्त्तित पद-चिह्न बना जाती,

सिकता की रेखाएँ उभार-

भर जाती अपनी तरल-सिहर !

तू भूल न री, पंकज वन में

जीवन के इस सूनेपन में,

ओ प्यार-पुलक से भरी ढुलक!

आ चूम पुलिन के विरस अधर !

[२]

निज अलकों के अन्धकार में तुम कैसे छिप आओगे?

इतना सजग कुतूहल ! ठहरो, यह न कभी बन पाओगे!

आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप-चाँप कर उन्हें नहीं-

दुख दो इतना, अरे अरुणिमा ऊषा-सी वह उधर बही ।

वसुधा चरण-चिह्न-सी बन कर यहीं पड़ी रह जावेगी।

प्राची रज 'कुंकुम ले चाहे अपना भाल सजावेगी।

देख न लूँ, इतनी ही तो है इच्छा? लो सिर झुका हुआ ।

कोमल किरन-उँगलियों से ढँक दोगे यह दृग खुला हुआ।

फिर कह दोगे; पहचानो तो मैं हूँ कौन बताओ तो ।

किंतु उन्हीं अधरों से, पहले उनकी हँसी दबाओ तो ।

सिहर भरे निज शिथिल मृदुल अंचल को अधरों से पकड़ो।

बेला बीत चली है चंचल बाहु-लता से आ जकड़ो।

तुम हो कौन और मैं क्या हूँ

इसमें क्या है धरा, सुनो -

मानस जलधि रहे चिर चुंबित -

मेरे क्षितिज उदार बनो।

[३]

मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी ।

इस गम्भीर अनन्त नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास-

यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास ।

तब भी कहते हो - कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती!

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे - यह गागर रीती ।

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडम्बना ! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं ।

भूलें अपनी, या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं। ।

उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ मधुर चाँदनी रातों की ।

अरे खिलखिला कर हँसते होने वाली उन बातों की ।

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया?

आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।

जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुन्दर छाया में ।

अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में ।

उसकी स्मृति, पाथेय बनी है थके पथिक की पन्था की ।

सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कन्था की?

छोटे-से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?

क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?

सुनकर क्या तुम भला करोगे- मेरी भोली आत्म-कथा?

अभी समय भी नहीं - थकी सोई है मेरी मौन व्यथा । [*]

[ ४ ]

अरी वरुणा की शांत कछार!

तपस्वी के विराग की प्यार!

सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन कुंज!

जगत नश्वरता से लघु त्राण, लता, पादप सुमनों के पुंज!

तुम्हारी कुटियों में चुपचाप, चल रहा था उज्ज्वल व्यापार।

स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि, गूँजता था जिससे संसार ।

अरी वरुणा की शांत कछार!

तपस्वी के विराग की प्यार!

तुम्हारे कुंजों में तल्लीन, दर्शनों के होते थे वाद ।

देवताओं के प्रादुर्भाव, स्वर्ग के सपनों के संवाद।

स्निग्ध तरु की छाया में बैठ, परिषदें करती थीं सुविचार-

भाग कितना लेगा मस्तिष्क, हृदय का कितना है अधिकार?

अरी वरुणा की शांत कछार!

तपस्वी के विराग की प्यार!

छोड़कर पार्थिव भोग विभूति, प्रेयसी का दुर्लभ वह प्यार ।

पिता का वक्ष भरा वात्सल्य, पुत्र का शैशव सुलभ दुलार ।

दुःख का करके सत्य निदान, प्राणियों का करने उद्धार ।

सुनाने आरण्यक संवाद, तथागत आया तेरे द्वार ।

अरी वरुणा की शांत कछार!

तपस्वी के विराग की प्यार!

मुक्ति जल की वह शीतल बाढ़ जगत की ज्वाला करती शांत ।

तिमिर का हरने को दुख भार, तेज अमिताभ अलौकिक कांत ।

देव कर से पीड़ित विक्षुब्ध, प्राणियों से कह उठा पुकार-

तोड़ सकते हो तुम भव-बन्ध, तुम्हें है यह पूरा अधिकार।

अरी वरुणा की शांत कछार!

तपस्वी के विराग की प्यार!

छोड़ कर जीवन के अतिवाद, मध्य पथ से लो सुगति सुधार।

दुःख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मों का व्यापार।

विश्व मानवता का जय घोष, यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद्र।

मिला था वह पावन आदेश, आज भी साक्षी हैं रवि चन्द्र ।

अरी वरुणा की शांत कछार!

तपस्वी के विराग की प्यार!

तुम्हारा वह अभिनंदन दिव्य और उस यश का विमल प्रचार ।

सकल वसुधा को दे सन्देश, धन्य होता है बारम्बार ।

आज कितनी शताब्दियों बाद, उठी ध्वंसों में वह झंकार ।

प्रतिध्वनि जिसकी सुने दिगंत, विश्व वाणी का बने विहार। [†]

[५]

जगती की मंगलमयी उषा बन

करुणा उस दिन आई थी,

जिसके नव गैरिक अंचल की प्राची में भरी ललाई थी।

भय-संकुल रजनी बीत गई,

भव की व्याकुलता दूर भई,

घन-तिमिर- भार के लिए तड़ित् स्वर्गीय किरण बन आई थी।

खिलती पँखुरी पंकज-वन की,

खुल रही आँख ऋषिपत्तन की,

दुख की निर्ममता निरख कुसुम-रस के मिस जो भर आई थी।

कल-कल नादिनि बहती-बहती--

प्राणी दुख की गाथा कहती-

वरुणा द्रव होकर शांति-वारि शीतलता-सी भर लाई थी।

पुलकित मलयानिल कूलों में,

भरता अंजलि था फूलों में,

स्वागत था अभया वाणी का, निष्ठुरता लिये बिदाई थी।

उन शांत तपोवन कुंजों में

कुटियों, तृण-वीरुध पुंजों में,

उटजों में था आलोक भरा कुसुमित लतिका झुक आई थी।

मृग मधुर जुगाली करते से,

खग कलरव में स्वर भरते से,

विपदा से पूछ रहे किसकी पगध्वनि सुनने में आई थी।

प्राची का पथिक चला आता,

नभ पद-पराग से भर जाता,

वे थे पुनीत परमाणु दया ने जिनसे सृष्टि बनाई थी।

तप की तारुण्यमयी प्रतिमा,

प्रज्ञापारमिता की गरिमा,

इस व्यथित विश्व की चेतनता गौतम सजीव बन आई थी।

उस पावन दिन की पुण्यमयी,

स्मृति लिये धरा है धैर्यमयी,

जब धर्म-चक्र के सतत-प्रवर्त्तन की प्रसन्न-ध्वनि छाई थी।

युग-युग की नव मानवता को,

विस्तृत वसुधा की विभुता को,

कल्याण संघ की जन्म भूमि आमंत्रित करती आई थी।

स्मृति-चिह्नों की जर्जरता में,

निष्ठुर कर की बर्बरता में,

भूलें हम वह संदेश न जिसने फेरी धर्म दुहाई थी । [‡]

[ ६ ]

ले चल वहाँ भुलावा देकर

मेरे नाविक! धीरे धीरे ।

जिस निर्जन में सागर लहरी,

अंबर के कानों में गहरी-

निश्छल प्रेम-कथा कहती हो,

तज कोलाहल की अवनी रे!

जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,

ढीले अपनी कोमल काया,

नील नयन से ढुलकाती हो,

ताराओं की पाँति घनी रे!

जिस गंभीर मधुर छाया में -

विश्व चित्र-पट चल माया में -

विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-

दुःख-सुख वाली, सत्य बनी रे!

श्रम-विश्राम क्षितिज वेला से-

जहाँ सृजन करते मेला से-

अमर जागरण उषा नयन से-

बिखराती हो ज्योति घनी रे !

[ ७ ]

हे सागर संगम अरुण नील!

अतलांत महा गंभीर जलधि -

तज कर अपनी यह नियत अवधि,

लहरों के भीषण हासों में

आकर खारे उच्‍छ्वासों में

युग युग की मधुर कामना के

बन्धन को देता जहाँ ढील ।

हे सागर संगम अरुण नील!

पिंगल किरणों-सी मधु-लेखा

हिम-शैल बालिका को तूने कब देखा !

कलरव संगीत सुनाती,

किस अतीत युग की गाथा गाती आती।

आगमन अनंत मिलन बनकर-

बिखराता फेनिल तरल खील ।

हे सागर संगम अरुण नील,

आकुल अकूल बनने आती,

अब तक तो है वह आती,

देवलोक की अमृत कथा की माया - .

छोड़ हरित कानन की आलसं छाया-

विश्राम माँगती अपना

जिसका देखा था सपना

अरुण ज्योति की झील बनेगी कब सलील?

निस्सीम व्योम तल नील अंक में,

हे सागर संगम अरुण नील! [§]

[८]

उस दिन जब जीवन के पथ में

छिन्न पात्र ले कंपित कर में,

मधु- भिक्षा की रटन अधर में,

इस अनजाने निकट नगर में,

आ पहुँचा था एक अकिंचन ।

उस दिन जब जीवन के पथ में

लोगों की आँखें ललचाईं,

स्वयं माँगने को कुछ आईं,

मधु सरिता उफनी अकुलाई,

देने को अपना संचित धन ।

उस दिन जब जीवन के पथ में,

फूलों ने पंखुरियाँ खोलीं,

आँखें करने लगीं ठिठोली,

हृदयों ने न सम्हाली झोली,

लुटने लगे विकल पागल मन ।

उस दिन जब जीवन के पथ में,

छिन्‍न पात्र में था भर आता-

वह रस बरसब था न समाता,

स्‍वयं चकित-सा समझ न पाता

कहाँ छिपा था, ऐसा मधुवन!

उस दिन जब जीवन के पथ में,

मधु-मंगल की वर्षा होती,

काँटों ने भी पहना मोती,

जिसे बटोर रही थी रोती-

आशा, समझ मिला अपना धन।

[९]

बीती विभावरी जाग री!

अम्बर पनघट में डुबो रही -

तारा-घट ऊषा नागरी ।

खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा,

किसलय का अंचल डोल रहा,

लो यह लतिका भी भर लाई-

मधु मुकुल नवल रस गागरी ।

अधरों में राग अमंद पिये,

अलकों में मलयज बंद किये-

तू अब तक सोई है आली ।

आँखों में भरे विहाग री !

[ १० ]

आँखों से अलख जगाने को,

यह आज भैरवी आई है।

ऊषा-सी आँखों में कितनी,

मादकता भरी ललाई है।

कहता दिगंत से मलय पवन

प्राची की लाज भरी चितवन-

है रात घूम आई मधुवन,

यह आलस की अँगराई है।

लहरों में यह क्रीड़ा-चंचल

सागर का उद्वेलित अंचल ।

है पोंछ रहा आँखें छलछल,

किसने यह चोट लगाई है?

[ ११ ]

आह रे, वह अधीर यौवन!

मत्ता-मारुत पर चढ़ उद्भ्रांत,

बरसने ज्यों मदिरा अश्रांत-

सिंधु बेला-सी घन मंडली,

अखिल किरनों को ढँककर चली,

भावना के निस्सीम गगन-

बुद्धि-चपला का क्षण-नर्त्तन,

चूमने को अपना जीवन,

चला था वह अधीर यौवन!

आह रे, वह अधीर यौवन!

अधर में वह अधरों की प्यास

नयन में दर्शन का विश्वास,

धमनियों में आलिंगनमयी-

वेदना लिये व्यथाएँ नयी,

टूटते जिससे सब बंधन

सरस सीकर- से जीवन-कन,

बिखर भर देते अखिल भुवन,

वही पागल अधीर यौवन

आह रे, वह अधीर यौवन!

मधुर जीवन के पूर्ण विकास,

विश्व-मधु - ऋतु के कुसुम-विलास

ठहर, भर आँखों देख नयी-

भूमिका अपनी रंगमयी,

अखिल की लघुता आई बन-

समय का सुन्दर वातायन,

देखने को अदृष्ट नर्त्तन ।

अरे अभिलाषा के यौवन!

आह रे, वह अधीर यौवन!

[ १२ ]

तुम्हारी आँखों का बचपन !

खेलता था जब अल्हड़ खेल,

अजिर के उर में भरा कुलेल,

हारता था हँस-हँस कर मन,

आह रे, वह व्यतीत जीवन!

तुम्हारी आँखों का बचपन !

साथ ले सहचर सरस वसंत,

चंक्रमण करता मधुर दिगन्त,

गूँजता किलकारी निस्वन,

पुलक उठता तब मलय - पवन |

तुम्हारी आँखों का बचपन !

स्निग्ध संकेतों में सुकुमार,

बिछल, चल थक जाता तब हार,

छिड़कता अपना गीलापन,

उसी रस में तिरता जीवन ।

तुम्हारी आँखों का बचपन !

आज भी है क्या नित्य-किशोर-

इसी क्रीड़ा में भाव विभोर-

सरलता का वह अपनापन -

आज भी है क्या मेरा धन!

तुम्हारी आँखों का बचपन !

[ १३ ]

अब जागो जीवन के प्रभात!

वसुधा पर ओस बने बिखरे

हिमकन आँसू जो क्षोभ भरे

ऊषा बटोरती अरुण गात!

अब जागो जीवन के प्रभात!

तम-नयनों की ताराएँ सब-

मुँद रहीं किरण दल में हैं अब,

चल रहा सुखद यह मलय वात!

अब जागो जीवन के प्रभात!

रजनी की लाज समेटो तो,

कलरव से उठ कर भेंटो तो,

अरुणांचल में चल रही वात!

अब जागो जीवन के प्रभात!

[ १४ ]

कोमल कुसुमों की मधुर रात !

शशि- शतदल का यह सुख विकास

जिसमें निर्मल हो रहा हास,

उसकी साँसों का मलय वात!

कोमल कुसुमों की मधुर रात !

वह लाज भरी कलियाँ अनंत,

परिमल-घूँघट ढँक रहा दंत,

कँप-कँप चुप-चुप कर रही वात ।

कोमल कुसुमों की मधुर रात !

नक्षत्र- कुमुद की अलस माल,

वह शिथिल हँसी का सजल जाल-

जिसमें खिल खुलते किरन पात ।

कोमल कुसुमों को मधुर रात !

कितने लघु-लघु कुड्मल अधीर,

गिरते बन शिशिर-सुगंध-नीर,

सो रहा विश्व सुख-पुलक-गात!

[ १५ ]

कितने दिन जीवन-जलनिधि में-

विकल अनिल से प्रेरित होकर

लहरी, कूल चूमने चल कर

उठती-गिरती सी रुक रुक कर

सृजन करेगी छवि गति-विधि में!

कितनी मधु-संगीत-निनादित -

गाथाएँ निज ले चिर-संचित

तरल तान गावेगी वंचित!

पागल-सी इस पथ निरवधि में!

दिनकर हिमकर तारा के दल

इसके मुकुर वक्ष में निर्मल

चित्र बनायेंगे निज चंचल!

आशा की माधुरी अवधि में!

[ १६ ]

वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे?

जब सावन-घन-सघन बरसते-

इन आँखों की छाया-भर थे!

सुरधनु रंजित नव-जलधर से-

भरे, क्षितिज व्यापी अम्बर से,

मिले चूमते जब सरिता के,

हरित कूल युग मधुर अधर थे

प्राण पपीहा के स्वर वाली-

बरस रही थी जब हरियाली-

रस जलकन मालती-मुकुल से-

जो मदमाते गंध विधुर थे।

चित्र खींचती थी जब चपला,

नील मेघ-पट पर बह विरला,

मेरी जीवन-स्मृति के जिसमें-

खिल उठते वे रूप मधुर थे।

[ १७ ]

मेरी आँखों की पुतली में

तू बनकर प्राण समा जा रे!

जिससे कन कन में स्पंदन हो,

मन में मलयानिल चंदन हो,

करुणा का नव अभिनंदन हो-

वह जीवन गीत सुना जा रे !

खिंच जाय अधर पर वह रेखा -

जिसमें अंकित हो मधु लेखा

जिसको यह विश्व करे देखा,

वह स्मिति का चित्र बना जा रे !

[ १८ ]

जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचंद्र दिखा जाओ।

हृदय-अँधेरी झोली इसमें ज्योति भीख देने आओ।

प्राणों की व्याकु्रल पुकार पर एक मींड़ ठहरा जाओ।

प्रेम-वेणु की स्वर-लहरी में जीवन-गीत सुना जाओ।

स्नेहालिंगन की लतिकाओं की झुरमुट छा जाने दो।

जीवन-धन! इस जले जगत को बृन्दावन बन जाने दो।

[ १९ ]

वसुधा के अंचल पर

यह क्या कन-कन सा गया बिखर?

जल-शिशु की चंचल क्रीड़ा-सा,

जैसे सरसिज दल पर।

लालसा निराशा में ढलमल

वेदना और सुख में विह्वल

यह क्या है रे मानव जीवन?

कितना है रहा निखर ।

मिलने चलते जब दो कन,

आकर्षण-मय चुम्बन बन,

दल के नस-नस में बह जाती

लघु-लघु धारा सुन्दर ।

हिलता-डुलता चंचल दल

ये सब कितने हैं रहे मचल?

कन-कन अनंत अंबुधि बनते,

कब रुकती लीला निष्ठुर,

तब क्यों रे फिर यह सब क्यों?

यह रोष भरी लाली क्यों?

गिरने दे नयनों से उज्ज्वल

आँसू के कन मनहर-वसुधा के अंचल पर

[ २० ]

अपलक जगती हो एक रात!

सब सोये हों इस भूतल में,

अपनी निरीहता सम्बल में,

चलती हो कोई भी न बात!

पथ सोये हों हरियाली में,

हों, सुमन सो रहे डाली में,

हो अलस उनींदी नखत पाँत!

नीरव प्रशांति का मौन बना,

चुपके किसलय से बिछल छना,

थकता हो पंथी मलय-वात!

वक्षस्थल में जो छिपे हुए-

सोते हों हृदय अभाव लिये-

उनके स्वप्नों का हो न प्रात!

[ २१ ]

चिर तृषित कंठ से तृप्ति बिधुर

वह कौन अकिंचन अति आतुर

अत्यन्त तिरस्कृत अर्थ सदृश

ध्वनि कंपित करता बार-बार,

धीरे से वह उठता पुकार

मुझको न मिला रे कभी प्यार ।

सागर लहरों सा आलिंगन

निष्फल उठकर गिरता प्रतिदिन

जल वैभव है सीमा-विहीन

वह रहा एक कन को निहार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कभी प्यार ।

अकरुण वसुधा से एक झलक

वह स्मित मिलने को रहा ललक

जिसके प्रकाश में सकल कर्म

बनते कोमल उज्ज्वल उदार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कभी प्यार ।

फैलाती है जब उषा राग

जग जाता है उसका विराग

वंचकता, पीड़ा, घृणा, मोह

मिलकर बिखेरते अंधकार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कभी प्यार।

ढल विरल डालियाँ भरी मुकुल

झुकतीं सौरभ रस लिये अतुल

अपने विषाद-विष में मूर्च्छित

काँटों से बिंधकर बार बार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कभी प्यार ।

जीवन रजनी का अमल इंदु

न मिला स्वाती का एक बिंदु

जो हृदय सीप में मोती बन

पूरा कर देता लक्षहार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कभी प्यार ।

पागल रे! वह मिलता है कब

उसको तो देते ही हैं सब

आँसू के कन-कन से गिन कर

वह विश्व लिये है ऋण उधार,

तू क्यों फिर उठता है पुकार?

मुझको न मिला रे कभी प्यार!

[ २२ ]

काली आँखों का अंधकार

अब हो जाता है वार पार,

मद पिये अचेतन कलाकार

उन्मीलित करता क्षितिज पार-

यह चित्र! रंग का ले बहार

जिसमें है केवल प्यार प्यार!

केवल स्मितिमय चाँदनी रात

तारा किरनों से पुलक गात,

मधुपों मुकुलों के चले घात,

आता है चुपके मलय वात,

सपनों के बादल का दुलार ।

तब दे जाता है बूँद चार।

तब लहरों-सा उठकर अधीर

तू मधुर व्यथा-सा शून्य चीर

सूखे किसलय-सा भरा पीर

गिर जा पतझड़ का पा समीर ।

पहने छाती पर तरल हार।

पागल, पुकार फिर प्यार प्यार!

[ २३ ]

अरे कहीं देखा है तुमने

मुझे प्यार करने वाले को?

मेरी आँखों में आकर फिर

आँसू बन ढरने वाले को?

सूने नभ में आग जलाकर

यह सुवर्ण-सा हृदय गला कर

जीवन-संध्या को नहला कर

रिक्त जलधि भरने वाले को?

रजनी के लघु-लघु तम कन में

जगती की ऊष्मा के वन में

उस पर पड़ते तुहिन सघन में

छिप, मुझसे डरने वाले को?

निष्ठुर खेलों पर जो अपने

रहा देखता सुख के सपने

आज लगा है क्यों वह कँपने

देख मौन मरने वाले को?

[ २४ ]

शशि-सी वह सुन्दर रूप विभा

चाहे न मुझे दिखलाना।

उसकी निर्मल शीतल छाया

हिमकन को बिखरा जाना।

संसार स्वप्न बनकर दिन-सा

आया है नहीं जगाने,

मेरे जीवन के सुख निशीथ!

जाते जाते रुक जाना।

हाँ, इन जाने की घड़ियों में

कुछ ठहर नहीं जाओगे?

छाया-पथ में विश्राम नहीं,

है केवल चलते जाना।

मेरा अनुराग फैलने दो,

नभ के अभिनव कलरव में,

जाकर सूनेपन के तम में-

बन किरन कभी आ जाना।

[ २५ ]

अरे! आ गई है भूली-सी-

यह मधु-ऋतु दो दिन को,

छोटी-सी कुटिया मैं रच दूँ,

नयी व्यथा-साथिन को !

वसुधा नीचे ऊपर नभ हो,

नीड़ अलग सबसे हो,

झाड़खंड के चिर पतझड़ में

भागो सूखे तिनको!

आशा से अंकुर झूलेंगे

पल्लव पुलकित होंगे,

मेरे किसलय का लघु भव यह,

आह, खलेगा किन को?

सिहर भरी कँपती आवेंगी

मलयानिल की लहरें,

चुंबन लेकर और जगाकर-

मानस नयन नलिन को ।

जवा- कुसुम-सी उषा खिलेगी

मेरी लघु प्राची में,

हँसी भरे उस अरुण अधर का

राग रँगेगा दिन को

अंधकार का जलधि लाँघ कर

आवेंगी शशि-किरनें,

अंतरिक्ष छिड़केगा कन कन

निशि में मधुर तुहिन तुहिन को

इस एकांत सृजन में कोई

कुछ बाधा मत डालो,

जो कुछ अपने सुंदर से हैं

दे देने दो इनको ।

[ २६ ]

निधरक तूने ठुकराया तब

मेरे टूटी मधु प्याली को

उसके सूखे अधर माँगते

तेरे चरणों की लाली को।

जीवन-रस के बचे हुए कन,

बिखरे अम्बर में आँसू बन,

वही दे रहा था सावन घन-

वसुधा की इस हरियाली को ।

निदय हृदय में हूक उठी क्या,

सोकर पहली चूक उठी क्या,

अरे कसक वह कूक उठी क्या,

झंकृत कर सूखी डाली को?

प्राणों के प्यासे मतवाले-

ओ झंझा से चलने वाले!

ढले और विस्मृति के प्याले,

सोच न कृति मिटने वाली को।

[ २७ ]

ओ री मानस की गहराई !

तू सुप्त, शांत कितनी शीतल-

निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल-

नव मुकुर नीलमणि फलक अमल,

ओ पारदर्शिका! चिर चंचल-

यह विश्व बना है परछाईं !

तेरा विषाद द्रव तरल-तरल

मूच्छित न रहे ज्यों पिये गरल

सुख लहर उठा री सरल सरल

लघु लघु सुन्दर सुन्दर अविरल,

तू हँस जीवन की सुघराई !

हँस, झिलमिल हो लें तारा गन,

हँस, खिलें कुंज में सकल सुमन

हँस, बिखरें मधु मरन्द के कन,

बन कर संसृति के नव श्रम कन,

सब कह दें 'वह राका आई!'

हँस लें भय शोक प्रेम या रण,

हँस ले काला पट ओढ़ मरण,

हँस ले जीवन के लघु लघु क्षण,

देकर निज चुंबन के मधुकण,

नाविक अतीत की उतराई !

[ २८ ]

मधुर माधवी संध्या में जब रागारुण रवि होता अस्त,

विरल मृदुल दलवाली डालों से उलझा समीर जब व्यस्त

प्यार भरे श्यामल अंबर में जब कोकिल की कूक अधीर,

नृत्य-शिथिल बिछली पड़ती है वहन कर रहा उसे समीर,

तब क्यों तू अपनी आँखों में जल भरकर उदास होता,

और चाहता इतना सूना कोई भी न पास होता?

वंचित रे! यह किस अतीत की विकल कल्पना का परिणाम,

किसी नयन की नील निशा में क्या कर चुका क्षणिक विश्राम ?

क्या झंकृत हो जाते हैं उन स्मृति किरणों के टूटे तार-

सूने नभ में स्वर तरंग का फैलाकर मधु पारावार ?

नक्षत्रों से जब प्रकाश की रश्मि खेलने आती है,

तब कमलों की सी तव संध्या क्यों उदास हो जाती है?

[ २९ ]

अंतरिक्ष में अभी सो रही है ऊषा मधुबाला,

अरे खुली भी नहीं अभी तो प्राची की मधुशाला।

सोता, तारक-किरन-पुलक-रोमावलि मलयज वात,

लेते अँगड़ाई नीड़ों में अलस विहग, मृदुगात,

रजनी रानी की बिखरी है म्लान कुसुम की माला,

अरे भिखारी! तू चल पड़ता लेकर टूटा प्याला ।

गूँज उठी तेरी पुकार- 'कुछ मुझको भी दे देना-

कन कन बिखरा विभव दान कर अपना यश ले लेना।'

दुख-सुख के दोनों डग भरता वहन कर रहा गात,

जीवन का दिन पथ चलने में कर देगा तू रात,

तू बढ़ जाता अरे अकिंचन, छोड़ करुण स्वर अपना,

सोने वाले जगकर देखें अपने सुख का सपना ।

[ ३० ]

अशोक की चिंता

जलता है यह जीवन-पतंग!

जीवन कितना? अति लघु क्षण,

ये शलभ पुंज से कण-कण,

तृष्णा वह अनलशिखा बन-

दिखलाती रक्तिम यौवन।

जलने की क्यों न उठे उमंग?

है ऊँचा आज मगध-शिर-

पदतल में विजित पड़ा गिर,

दूरागत क्रन्दन-ध्वनि फिर

क्यों गूँज रही है अस्थिर-

कर विजयी का अभिमान भंग?

इन प्यासी तलवारों से

इनकी पैनी धारों से,

निर्दयता की मारों से,

उन हिंसक हुंकारों से

नत-मस्तक आज हुआ कलिंग।

यह सुख कैसा शासन का?

शासन रे मानव मन का!

गिरि- भार बना सा तिनका,

यह घटाटोप दो दिन का-

फिर रवि-शशि- किरणों का प्रसंग।

यह महादंभ का दानव-

पीकर अनंग का आसव-

कर चुका महा भीषण रव,

सुख दे, प्राणी को मानव

तज विजय पराजय का कुढंग ।

संकेत कौन दिखलाती,

मुकुटों को सहज गिराती,

जयमाला सूखी जाती,

नश्वरता गीत सुनाती,

तब नहीं थिरकते हैं तुरंग ।

वैभव की यह मधुशाला,

जग पागल होने वाला,

अब गिरा-उठा मतवाला

प्याले में फिर भी हाला,

यह क्षणिक चल रहा राग-रंग।

काली काली अलकों में,

आलस, मद-नत पलकों में,

मणि मुक्ता की झलकों में,

सुख की प्यासी ललकों में,

देखा क्षण-भंगुर है तरंग।

फिर निर्जन उत्सव-शाला,

नीरव नूपुर श्लथ माला,

सो जाती है मधुबाला,

सूखा लुढ़का है प्याला,

बजती वीणा न वहाँ मृदंग।

इस नील विषाद गगन में-

सुख चपला-सा दुख घन में,

चिर विरह नवीन मिलन में,

इस मरु-मरीचिका-वन में,

उलझा है चंचल मन-कुरंग ।

आँसू कन-कन ले छल-छल

सरिता भर रही दृगञ्चल,

सब अपने में हैं चञ्चल;

छूटे जाते सूने पल,

खाली न काल का है निषंग।

वेदना विकल यह चेतन,

जड़ का पीड़ा से नर्तन,

लय-सीमा में यह कंपन,

अभिनयमय है परिवर्तन,

चल रहा यही कब से कुढंग।

करुणा गाथा गाती है,

यह वायु बही जाती है,

ऊषा उदास आती है

मुख पीला ले जाती है,

बन मधु-पिंगल संध्या सुरंग ।

आलोक किरन है आती,

रेशमी डोर खिंच जाती,

दृग-पुतली कुछ नच पाती,

फिर तम पट में छिप जाती,

कलरव कर सो जाते विहंग ।

जब पल भर का है मिलना,

फिर चिर वियोग में झिलना,

एक ही प्रात हैं खिलना,

फिर सूख धूल में मिलना,

तब क्यों चटकीला सुमन रंग?

संसृति के विक्षत पग रे!

वह चलती है डगमग रे!

अनुलेप सदृश तू लग रे!

मृदु दल बिखेर इस मग रे!

कर चुके मधुर मधुपान भृंग ।

भुनती वसुधा, तपते नग,

दुखिया है सारा अग-जग,

कंटक मिलते हैं प्रति पग,

जलती सिकता का यह मग,

बह जा बन करुणा की तरंग,

जलता है यह जीवन-पतंग । [**]

[ ३१ ]

शेरसिंह का शस्त्र-समर्पण

"ले लो यह शस्त्र है

गौरव, ग्रहण करने का रहा कर में-

अब तो न लेश मात्र ।

लालसिंह! जीवित कलुष पंचनद का ।

देख, दिए देता है

सिंहों का समूह नख दंत आज अपना!"

"अरी रणरंगिनी!

सिक्खों के शौर्य भरे जीवन की संगिनी!

कपिशा हुई थी लाल तेरा पानी पान कर।

दुर्मद दुरन्त धर्म दस्युओं की त्रासिनी-

निकल, चली जा तू प्रतारण के कर से।"

"अरी वह तेरी रही अन्तिम जलन क्या?

तोपें मुँह खोले खड़ी देखती थीं त्रास से

चिलियान वाला में ।

आज के पराजित जो विजयी थे कल ही,

उनके समर-वीर-कर में तू नाचती

लप-लप करती थी- जीभ जैसे यम की!

उठी तू न लूट त्रास भय के प्रचार को,

दारुण निराशा भरी आँखों से देखकर

दृप्त अत्याचार को-

एक पुत्र-वत्सला दुराशामयी विधवा

प्रगट पुकार उठी प्राण भरी पीड़ा से-

और भी,

जन्मभूमि दलित विकल अपमान से

त्रस्त हो कराहती थी

कैसे फिर रुकती?"

"आज विजयी हो तुम

और हैं पराजित हम

तुम तो कहोगे, इतिहास भी कहेगा यही,

किंतु यह विजय प्रशंसा भरी मन की-

एक छलना है।

वीरभूमि पंचनद वीरता से रिक्त नहीं।

काठ के हों गोले जहाँ

आटा बारूद हो

और पीठ पर हो दुरंत दंशनों का त्रास

छाती लड़ती हो भरी आग, बाहु बल से

उस युद्ध में तो बस मृत्यु ही विजय है!

सतलज के तट पर मृत्यु श्यामसिंह की-

देखी होगी तुमने भी वृद्ध वीर-मूर्ति वह

तोड़ा गया पुल प्रत्यावर्त्तन के पथ में

अपने प्रवंचकों से।

लिखता अदृष्ट था विधाता वाम कर से।

छल में विलीन बल, बल में विषाद था-

विकल-विलास का।

यवनों के हाथों से स्वतंत्रता को छीन कर,

खेलता था यौवन-विलासी मत्त पंचनद -

प्रणय विहीन एक वासना की छाया में ।

फिर भी लड़े थे हम निज प्राण-पण से।

कहेगी शतद्रु शत-संगरों की साक्षिणी,

सिक्ख थे सजीव-

स्वत्व रक्षा में प्रबुद्ध थे ।

जीना जानते थे,

मरने को मानते थे सिक्ख ।

किंतु आज उनकी अतीत वीर गाथा हुई-

जीत होती जिसकी

वही है आज हारा हुआ!"

"ऊर्ज्जस्वित रक्त औ" उमंग भरा मन था

जिन युवकों के मणिबंधों में अबंध बल

इतना भरा था

जो उलटता शतघ्नियों को !

गोले जिनके थे गेंद

अग्निमयी क्रीड़ा थी

रक्त की नदी में सिर ऊँचा छाती सीधी कर

तैरते थे-

वीर पंचनद के - सपूत मातृभूमि के-

सो गये, प्रतारणा की थपकी लगी उन्हें

छल- बलिवेदी पर आज सब सो गये।

रूप भरी, आशा भरी, यौवन अधीर भरी,

पुतली प्रणयिनी का बाहुपाश खोलकर,

दूध भरी दूध सी दुलार भरी माँ की गोद,

सूनी कर सो गये।

हुआ है सूना - पंचनद ।

भिक्षा नहीं माँगता हूँ

आज इन प्राणों की

क्योंकि, प्राण जिसका आहार, वही इसकी

रखवाली आप करता है - महाकाल ही,

शेर पंचनद का प्रवीर रणजीत सिंह

आज मरता है देखो,

सो रहा है पंचनद आज उसी शोक में ।

यह तलवार लो

ले लो यह थाती है ।" [††]

[ ३२ ]

पेशोला की प्रतिध्वनि

अरुण करुण बिंब!

वह निर्धूम भस्म रहित ज्वलन पिंड!

विकल विवर्त्तनों से

विरल प्रवर्त्तनों में

श्रमित नमित सा-

पश्चिम के व्योम में है आज निरवलंब सा ।

आहुतियाँ विश्व की अजस्त्र ले लुटाता रहा-

सतत सहस्र कर माला से-

तेज ओज बल जो वदान्यता कदंब-सा ।

पेशोला की ऊम्मियाँ हैं शांत, घनी छाया में -

तट तरु है चित्रित तरल चित्रसारी में।

झोंपड़े खड़े हैं बने शिल्प से विषाद के-

दग्ध अवसाद से।

धूसर जलद खंड भट पड़े हों-

जैसे विजन अनंत में ।

कालिमा बिखरती है संध्या के कलंक सी,

दुंदुभि-मृदंग-तूर्य शांत स्तब्ध, मौन हैं ।

फिर भी पुकार सी है गूँज रही व्योम में-

"कौन लेगा भार यह?

कौन विचलेगा नहीं?

दुर्बलता इस अस्थिमांस की-

ठोंक कर लोहे से, परख कर बज्र से,

प्रलयोल्का-खंड के निकष पर कस कर

चूर्ण अस्थिपुंज सा हँसेगा अट्टहास कौन?

साधना पिशाचों की बिखर चूर-चूर होके

धूलि सी उड़ेगी किस द्रुत फूत्कार से?

कौन लेगा भार यह ?

जीवित है कौन?

साँस चलती है किसकी

कहता है कौन ऊँची छाती कर, मैं हूँ-

मैं हूँ - मेवाड़ में,

अरावली शृंग-सा समुन्नत सिर किस का?

बोलो, कोई बोलो - अरे क्या तुम सब मृत हो ?

आह, इस खेवा की!-

कौन थामता है पतवार ऐसे अन्धड़ में,

अन्धकार-पारावार गहन नियति-सा-

उमड़ रहा है ज्योति-रेखा-हीन क्षुब्ध हो!

खींच ले चला है.

काल-धीवर अनंत में,

साँस, सफरी सी अटकी है किसी आशा में

आज भी पेशोला के-

तरल जल-मंडलों में,

वह शब्द घूमता सा-

गूँजता विकल है।

किंतु वह ध्वनि कहाँ?

गौरव की काया पड़ी माया है प्रताप की

वही मेवाड़ !

किंतु आज - प्रतिध्वनि कहाँ?"

 

[ ३३ ]

प्रलय की छाया

थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की

संध्या है आज भी तो धूसर क्षितिज में !

और उस दिन तो;

निर्जन जलधि-वेला रागमयी संध्या से-

सीखती थी सौरभ से भरी रंग-रलियाँ।

दूरागत वंशी-रव-

गूँजता था धीवरों की छोटी-छोटी नावों से-

मेरे उस यौवन के मालती-मुकुल में

रंध्र खोजती थीं, रजनी की नीली किरणें

उसे उकसाने को - हँसाने को ।

पागल हुई मैं अपनी ही मृदुगंध से-

कस्तूरी मृग जैसी।

पश्चिम जलधि में,

मेरी लहरीली नीली अलकावली समान

लहरें उठती थीं मानो चूमने को मुझको,

और साँस लेता था समीर मुझे छूकर ।

नृत्यशीला शैशव की स्फूर्तियाँ

दौड़ कर दूर जा खड़ी हो हँसने लगीं।

मेरे तो-

चरण हुए थे विजड़ित मधु-भार से।

हँसती अनंग-बालिकाएँ अंतरिक्ष में

मेरी उस क्रीड़ा के मधु अभिषेक में

नत-शिर देख मुझे ।

कमनीयता थी जो समस्त गुजरात की

हुई एकत्र इस मेरी अंगलतिका में।

पलकें मंदिर भार से थीं झुकी पड़तीं।

नंदन की शत-शत दिव्य कुसुम-कुंतला

अप्सराएँ मानो वे सुगंध की पुतलियाँ

आ-आकर चूम रहीं अरुण अधर मेरा

जिसमें स्वयं ही मुस्कान खिल पड़ती।

नूपुरों की झन्कार घुली-मिली जाती थी

चरण-अलक्तक की लाली से

जैसे अंतरिक्ष की अरुणिमा

पी रही दिगंत व्यापी संध्या-संगीत को

कितनी मादकता थी?

लेने लगी झपकी मैं

सुख-रजनी की विश्रंभ-कथा सुनती;

जिसमें थी आशा

अभिलाषा से भरी थी जो

कामना के कमनीय मृदुल प्रमोद में

जीवन सुरा की वह पहली ही प्याली थी "

"आँखें खुलीं;

देखा मैंने चरणों में लोटती थी

विश्व की विभव-राशि,

और थे प्रणत वहीं गुर्जर महीप भी

वह एक सन्‍ध्‍या थी।"

"श्यामा सृष्टि युवती थी

तारक-खचित नीलपट परिधान था

अखिल अनन्त में

चमक रही थीं लालसा की दीप्त मणियाँ -

ज्योतिमयी, हासमयी, विकल विलासमयी ।

बहती थी धीरे-धीरे सरिता

उस मधु यामिनी में

मदकल मलय पवन ले ले फूलों से

मधुर मरन्द-बिन्दु उसमें मिलाता था ।

चाँदनी के अंचल में ।

हरा भरा पुलिन अलस नींद ले रहा।

सृष्टि के रहस्य-सी परखने को मुझको

तारिकाएँ झाँकती थीं।

शत शतदलों की

मुद्रित मधुर गन्ध भीनी-भीनी रोम में

बहाती लावण्य धारा ।

स्मर-शशि किरणें,

स्पर्श करती थीं इस चंद्रकान्त मणि को

स्निग्धता बिछलती थीं जिस मेरे अंग पर।

अनुराग पूर्ण था हृदय, उपहार में-

गुर्जरेश पाँवड़े बिछाते रहे पलकों के,

तिरते थे-

मेरी अँगड़ाइयों की लहरों में

पीते मकरन्द थे-

मेरे इस अधखिले आनन-सरोज का

कितना सोहाग था, कैसा अनुराग था?

खिली स्वर्ण मल्लिका की सुरभित वल्लरी-सी

गुर्जर के थाले में मरंद वर्षा करती मैं।"

"और परिवर्त्तन वह!

क्षितिज पटी को आंदोलित करती हुई

नीले मेघ-माला-सी

नियति-नटी थी आई सहसा गगन में

तड़ित विलास-सी नचाती भौंहें अपनी।"

"पावक-सरोवर में अवभृथ स्नान था

आत्म-सम्मान यज्ञ की वह पूर्णाहुति

सुना- जिस दिन पद्मिनी का जल मरना

सती के पवित्र आत्म गौरव की पुण्य-गाथा

गूँज उठी भारत के कोने-कोने जिस दिन;

उन्नत हुआ था भाल

महिला-महत्व का।

दृप्‍त मेवाड़ के पवित्र बलिदान का

ऊज्जित आलोक-

आँख खोलता था सब की।

सोचने लगी थीं कुल-वधुएँ, कुमारिकाएँ

जीवन का अपने भविष्य नये सिर से;

उसी दिन

बींधने लगी थी विषमय परतंत्रता

देव-मंदिरों की मूक घंटा ध्वनि

व्यंग्य करती थी जब दीन संकेत से

जाग उठी जीवन की लाज भरी निद्रा से।

मैं भी थी कमला,

रूप-रानी गुजरात की ।

सोचती थी-

पद्मिनी जली थी स्वयं किंतु मैं जलाऊँगी-

वह दावानल ज्वाला

जिसमें सुलतान जले।

देखे तो प्रचंड रूप-ज्वाला-सी धधकती

मुझको सजीव वह अपने विरुद्ध !

आह! कैसी वह स्पर्द्धा थी?

स्पर्द्धा थी रूप की

पद्मिनी की बाह्य रूप-रेखा चाहें तुच्छ थी

मेरे इस साँचे से ढले हुए शरीर के

सम्मुख नगण्य थी।

देखकर मुकुर पवित्र चित्र पद्मिनी का

तुलना कर उससे,

मैंने समझा था यही ।

वह अतिरंजित सी तूलिका चितेरी की

फिर भी कुछ कम थी ।

किंतु था हृदय कहाँ?

वैसा दिव्य

अपनी कमी थी इतरा चली हृदय की

लघुता चली थी माप करने महत्त्व की।

"अभिनय आरंभ हुआ

अनिहलवाड़ा में अनल चक्र घूमा फिर

चिर अनुगत सौंदर्य के समादर में

गुर्ज्जरेश मेरे उन इंगितों में नाच उठे ।

नारी के नयन! त्रिगुणात्मक ये सन्निपात

किसको प्रमत्त नहीं करते?

धैर्य किसका नहीं हरते ये!

वही अस्त्र मेरा था।

एक झिटके में आज

गुर्जर स्वतन्त्र साँस लेता था सजीव हो ।

क्रोध सुलतान का दग्ध करने लगा

दावानल बनकर

हरा-भरा कानन प्रफुल्ल गुजरात का।

बालकों की करुण पुकारें, और वृद्धों की

आर्त्तवाणी,

क्रंदन रमणियों का,

भैरव संगीत बना, तांडव नृत्य-सा

होने लगा गुर्जर में ।

अट्टहास करती सजीव उल्लास से

फाँद पड़ी मैं भी उस देश की विपत्ति में ।

वही कमला हूँ मैं!

देख चिर संगिनी रणांगण में, रग में,

मेरे वीर पति आह कितने प्रसन्न थे

बाधा, विघ्न, आपदाएँ,

अपनी ही क्षुद्रता में टलतीं-बिचलतीं ।

हँसते वे देख मुझे

मैं भी स्मित करती ।

किंतु शक्ति कितना थी उस कृत्रिमता में?

संबल बचा न जब कुछ भी स्वदेश में

छोड़ना पड़ा ही उसे

निर्वासित हम दोनों खोजते शरण थे,

किंतु दुर्भाग्य पीछा करने में आगे था।

"वह थी दुपहरी,

लू से झुलसाने वाली, प्यास से जलाने वाली।

थके सो रहे थे तरुछाया में दोनों हम,

तुर्कों का एक दल आया झंझावात-सा।

मेरे गुर्ज्‍जरेश !

आज किस मुख से कहूँ?

सच्चे राजपूत थे,

वह खड्ग लीला खड़ी देखती रही मैं वहीं

गत-प्रत्यागत में और प्रत्यावर्त्तन में-

दूर वे चले गये-

और हुई बंदिनी मैं।

वाह री नियति !

उस उज्ज्वल आकाश में

पद्मिनी की प्रतिकृति-सी किरणों में बनकर

व्यंग्य-हास करती थी।

एक क्षण भ्रम के भुलावे में डालकर

आज भी नचाती वही,

आज सोचती हूँ जैसे पद्मिनी थी कहती-

"अनुकरण मेरा कर"

समझ सकी न मैं।

पद्मिनी की भूल जो थी उसे समझाने को

सिंहनी-सी दृप्त मूर्ति धारण कर

सम्मुख सुल्तान के

मारने की, मरने की- अटल प्रतिज्ञा हुई।

उस अभिमान में

मैंने कहा था- छाती ऊँची कर उससे-

"ले चलो मैं गुर्जर की रानी हूँ, कमला हूँ"

वाह री! विचित्र मनोवृत्ति मेरी!

कैसा वह तेरा व्यंग्य परिहास-शील था?

उस आपदा में आया ध्यान निज रूप का।

रूप यह!

देखे तो-तुरुष्कपति मेरा भी

यह सौंदर्य्य देखे, देखे यह मृत्यु भी-

कितनी महान और कितनी अभूतपूर्व?

बंदिनी मैं बैठी रही,

देखती थी दिल्ली कैसी विभव विलासिनी!

यह ऐश्वर्य्य की दुलारी, प्यारी क्रूरता की-

एक छलना सी, सजने लगी थी संध्या में ।

कृष्णा वह आई फिर रजनी भी-

खोलकर ताराओं की विरल दशन पंक्ति

अट्टहास करती थी दूर मानो व्योम में

जो न सुन पड़ा अपने ही कोलाहल में।

कभी सोचती थी प्रतिशोध लेना पति का

कभी निज रूप-सुन्दरता की अनुभूति

क्षण भर चाहती जगाना मैं

सुलतान ही के उस निर्मम हृदय में,

नारी मैं!

कितनी अबला थी और प्रमदा थी रूप की!

साहस उमड़ता था वेग पूर्ण ओघ-सा

किंतु हलकी थी मैं,

तृण बह जाता जैसे-

वैसे ही विचारों में तिरती-सी फिरती मैं!

कैसी अवहेलना थी मेरी शत्रुता की यह

मेरे इस रूप की ।

आज साक्षात होगा कितने महीनों पर

लहरी-सदृश उठती-सी गिरती-सी मैं

अद्भुत! चमत्कार!! दूप्त निज गरिमा में

एक सौंदर्य्यमयी वासना की आँधी-सी

पहुँची समीप सुलतान के ।

तातारी दासियों ने मुझको झुकाना चाहा

मेरे ही घुटनों पर,

किंतु अविचल रही।

मणि-मेखला में रही कठिन कृपाणी जो

चमकी वह सहसा

मेरे ही वक्ष का रुधिर पान करने को ।

किंतु छिन गयी वह

और निरुपाय मैं तो ऐंठ उठी डोरी-सी,

अपमान ज्वाला में अधीर होके जलती।

अंत करने का वहीं मर जाने का

मेरा उत्साह मंद हो चला ।

उस क्षण बचकर मृत्यु महागर्त्त से सोचने लगी थी मैं-

"जीवन सौभाग्य है; जीवन अलभ्य है।"

चारों ओर लालसा भिखारिणी-सी माँगती थी-

प्राणों के कण-कण, दयनीय-स्पृहणीय

अपने विश्लेषण में रो उठे अकिंचन जो-

"जीवन अनन्त है,

इसे छिन्न करने का किसको अधिकार है?"

जीवन की सीमामयी प्रतिमा

कितनी मधुर है ?

विश्व-भर से मैं जिसे छाती में छिपाये रही।

कितनी मधुर भीख माँगते हैं सब ही

अपना दल-अंचल पसार कर

बन-राजी माँगती है जीवन का बिंदु-बिंदु ओस-सा

क्रंदन करता-सा जलनिधि भी

माँगता है नित्य मानो जरठ भिखारी-सा

जीवन की धारा मीठी-मीठी सरिताओं से।

व्याकुल हो विश्व-अन्ध-तम से

भोर में ही माँगता है -

"जीवन की स्वर्णमयी किरणें प्रभा-भरी ।

जीवन ही प्यारा है जीवन सौभाग्य है । "

रो उठी मैं रोष भरी बात कहती हुई

"मार कर भी क्या मुझे मरने न दोगे तुम?

मानती हूँ शक्तिशाली तुम-सुलतान हो

और मैं हूँ बन्दिनी ।

राज्य है बचा नहीं,

किंतु क्या मनुष्यता भी मुझमें रही नहीं

इतनी मैं रिक्त हूँ?"

क्षोभ से भरा था कण्ठ फिर चुप हो रही।

शक्ति-प्रतिनिधि उस दृप्त सुलतान की

अनुनय भरी वाणी गूंज उठी कान में।

"देखता हूँ मरना ही भारत की नारियों का

एक गीत-भार है।

रानी! तुम बन्दिनी हो मेरी प्रार्थनाओं में

पद्मिनी को खो दिया है

किंतु तुमको नहीं !

शासन करोगी इन मेरी क्रूरताओं पर

निज कोमलता से- मानस की माधुरी से !

आज इस तीव्र उत्तेजना की आँधी में

सुन न सकोगी न विचार ही करोगी तुम

ठहरो विश्राम करो।"

अति द्रुत गति से

कब सुलतान गये

जान सकी मैं न, और तब से

यह रंगमहल बना सुवर्ण पींजरा ।

"एक दिन, संध्या थी;

मलिन उदास मेरे हृदय पटल-सा-

लाल-पीला होता था दिगंत निज क्षोभ से।

यमुना प्रशांत मन्द-मन्द निज धारा में।

करुण विषादमयी

बहती थी धारा के तरल अवसाद-सी।

बैठी हुई कालिमा की चित्र-पटी देखती

सहसा मैं चौंक उठी द्रुत-पद शब्द से

सामने था

शैशव से अनुचर

मानिक युवक अब

खिंच गया सहसा

पश्चिम-जलधि कूल का वह सुरम्य चित्र

मेरी इस दुखिया अँखड़ियों के सामने।

जिसको बना चुका था मेरा वह बालपन

अद्भुत कुतूहल औ' हँसी की कहानी से!

मैंने कहा-

"कैसे तू अभागा यहाँ पहुँचा है मरने?'

"मरने तो नहीं यहाँ जीवन की आशा में

आया हूँ रानी!- भला

कैसे, मैं न आता यहाँ?'

कह, वह चुप था ।

छुरे एक हाथ में

दूसरे से दोनों हाथ पकड़े हुए वहीं

प्रस्तुत थीं तातारी दासियाँ ।

सहसा सुलतान भी दिखाई पड़े,

और मैं थी मूक, गरिमा के इन्द्रजाल में

"मृत्यु दण्ड !"

वज्र-निर्घोष-सा सुनाई पड़ा भीषणतम-

मरता है मानिक!

गूँज उठा कानों में-

"जीवन अलभ्य है; जीवन सौभाग्य है।"

उठी एक गर्व-सी

किंतु झुक गई अनुनय की पुकार में

"उसे छोड़ दीजिये" - निकल पड़ा मुँह से।

"हँसे सुलतान; और अप्रतिम होती मैं

जकड़ी हुई थी अपनी ही लाज-श्रृंखला में।

प्रार्थना लौटाने का उपाय अब कौन था?

अपने अनुग्रह के भार से दबाते हुए

कहा सुलतान ने-

"जाने दो रानी की पहली यह आज्ञा है।"

हाय रे हृदय! तूने

कौड़ी के मोल बेचा जीवन का मणि-कोष

और आकाश को पकड़ने की आशा में

हाथ ऊँचा किये सिर दे दिया अतल में ।

"अन्तर्निहित थीं

लालसाएँ, वासनाएँ जितनी अभाव में

जीवन की दीनता में और पराधीनता में

पलने लगीं वे चेतना के अनजान में।

धीरे-धीरे आती है जैसे मादकता

आँखों के अंजन में, ललाई में ही छिपती;

चेतना थी जीवन की फिर प्रतिशोध की।

किंतु किस युग से वासना के बिन्दु रहे सींचते

मेरे संवेदनों को-

यामिनी के गूढ़ अन्धकार में

सहसा जो जाग उठे तारा-से

दुर्बलता को मानती-सी अवलंब मैं

खड़ी हुई जीवन की पिच्छिल-सी भूमि पर ।

बिखरे प्रलोभनों को मानती-सी सत्य मैं

शासन की कामना में झूमी मतवाली हो ।

एक क्षण, भावना के उस परिवर्तन का

कितना अजित था?

जीवित हैं गुर्ज्जरेश! कर्णदेव!

भेजा संदेश मुझे "शीघ्र अन्त कर दो-

जीवन की लीला।"

लालसा की अर्द्ध-कृति-सी!

उस प्रत्यावर्त्तन में प्राण जो न दे सके, हाँ-

जीवित स्वयं है ।

जियें फिर क्यों न सब अपनी ही आशा में?

बंदिनी हुई थी मैं अबला थी,

प्राणों का लोभ उन्हें फिर क्यों बचा सका?

प्रेम कहाँ मेरा था?

और मुझमें भी कहूँ कैसे शुद्ध प्रेम था ।

मानिक कहता है, आह, मुझे मर जाने को।

रूप ने बनाया रानी मुझे गुजरात की,

वही रूप आज मुझे प्रेरित था करता

भारतेश्वरी का पद लेने को ।

लोभ मेरा मूर्तिमान प्रतिशोध था बना

और सोचती थी मैं, आज हूँ विजयिनी

चिर पराजित सुलतान पद तल में।

कृष्णागुरुवर्तिका

जल चुकी स्वर्ण पात्र के ही अभिमान में

एक धूम-रेखा मात्र शेष थी,

उस निस्पंद रंग मंदिर के व्योम में

क्षीण-गंध निरवलंब ।

किंतु मैं समझती थी, यही मेरा जीवन है।

यह उपहार है, यह शृङ्गार है ।

मेरी रूप माधुरी का ।

मणि नूपुरों की बीन बजी, झनकार से ।

गूँज उठी रंगशाला इस सौंदर्य की

विश्व था मनाता महोत्सव अभिमान का

आज विजयी था रूप

और साम्राज्य था नृशंस क्रूरताओं का

रूप माधुरी की कृपा कोर को निरखता

जिसमें मदोद्धत कटाक्ष की अरुणिमा

व्यंग्य करती थी विश्व भर के अनुराग पर

अवहेलना से अनुग्रह थे बिखरते ।

जीवन के स्वप्न सब बनते बिगड़ते थे

भवें बल खातीं जब;

लोगों की अदृष्ट लिपि लिखा-पढ़ी जाती थी

इस मुसक्यान के, पद्मराग-उद्गम से

बहता सुगंध की सुधा का सोता मंद-मंद।

रत्न-राजि, सींची जाती सुमन-मरंद से

कितनी ही आँखों की प्रसन्न नील ताराएँ ।

बनने को मुकुर अचंचल, निस्पंद थीं।

इन्हीं मीन दृगों का चपल संकेत बन

शासन, कुमारिका से हिमालय के शृंग तक

अथक अबाध और तीव्र-मेघज्योति-सा

चलता था-

हुआ होगा बनना सफल जिसे देखकर

मंजु-मीन-केतन अनंग का।

मुकुट पहनते थे सिर, कभी लोटते थे-

रक्त-दिग्ध धरणी में रूप की विजय में।

हरमें सुल्तान की

देखतीं सशंक दृग कोरों से

निज अपमान को ।

"बेच दिया

विश्व इंद्रजाल में सत्य कहते हैं जिसे;

उसी मानवता के आत्म सम्मान को।"

जीवन में आता है परखने का

जिसे कोई एक क्षण,

लोभ; लालसा या भय, क्रोध, प्रतिशोध के

उग्र कोलाहल में,

जिसकी पुकार सुनाई ही नहीं पड़ती।

सोचा यह उस दिन;

जिस दिन अधिकार क्षुब्ध उस दास ने,

अंत किया छल से काफूर ने

अलाउद्दीन का मुमूर्ष सुलतान का।

आँधी में नृशंसता की रक्त-वर्षा होने लगी।

रूप वाले, शील वाले, प्यार से पले हुए

प्राणी राज-वंश के

मारे गये।

वह एक रक्तमयी संध्या थी।

शक्तिशाली होना अहोभाग्य है

और फिर

बाधा-विघ्न-आपदा के तीव्र प्रतिघात का

सबल विरोध करने में कैसा सुख है? -

इसका भी अनुभव हुआ था भली भाँति मुझे

किंतु वह छलना थी मिथ्या अधिकार की।

जिस दिन सुना अकिंचन परिवारी ने;

आजीवन दास ने रक्त से रँगे हुए;

अपने ही हाथों पहना है राज-मुकुट।

अंत कर दास राजवंश का,

लेकर प्रचंड प्रतिशोध निज स्वामी का

मानिक ने, खुसरू के नाम से

शासन का दंड किया ग्रहण सदर्प है।

उसी दिन जान सकी अपनी मैं सच्ची स्थिति

मैं हूँ किस तल पर?

सैकड़ों ही वृश्चिकों का डंक लगा एक साथ

मैं जो करने थी आई

उसे किया मानिक ने!

खुसरू ने!!

उद्धत प्रभुत्व का

वात्याचक्र! उठा प्रतिशोध-दावानल में

कह गया अभी-अभी नीच परिवारी वह!

"नारी यह रूप तेरा जीवित अभिशाप है

जिसमें पवित्रता की छाया भी पड़ी नहीं।

जितने उत्पीड़न थे चुप हो दबे हुए,

अपना अस्तित्व हैं पुकारते,

नश्वर संसार में

ठोस प्रतिहिंसा की प्रतिध्वनि हैं चाहते!"

"लूटा था दृप्त अधिकार ने

जितना विभव, रूप, शील और गौरव को

आज वे स्वतन्त्र हो बिखरते हैं!

एक माया-स्तूप-सा

हो रहा है लोप इन आँखों के सामने।

देख कमलावती!

ढुलक रही है हिम- बिन्दु-सी

सत्ता सौंदर्य के चपल आवरण की ।

हँसती है वासना की छलना पिशाची-सी

छिपकर चारों ओर व्रीड़ा की अँगुलियाँ

करती संकेत हैं व्यंग्य उपहास में।

ले चली बहाती हुई अन्ध के अतल में

वेग भरी वासना !

अंतक शरभ के

काले काले पंख ढँकते हैं अन्ध तम से।

पुण्य-ज्योति हीन कलुषित सौंदर्य्य का-

गिरता नक्षत्र-नीचे कालिमा की धारा-सा

असफल सृष्टि सोती-

प्रलय की छाया में ।



[*] मुंशी प्रेमचन्द द्वारा 'हंस' के 'आत्म कथांक' के लिये कृति माँगने पर। (संपा०)

[†] जहाँ बुद्ध ने प्रथम धर्मोपदेश दिया उस प्राचीन ऋषिपत्तन के मृगदाव में जिसे अब सारनाथ कहते हैं-'मूलगंध कुटी विहार' की प्रतिष्ठा के अवसर पर। (संपा०)

[‡] यह गीत मूलगंध कुटी विहार (सारनाथ) के आदि समारोहोत्सव का मंगलाचरण रहा। (संपा०)

[§] गंगा सागर संगम के मध्य स्टीमर पर १४ जनवरी, १९३२ को लिखित यह एक मात्र गीत है जिस पर तिथि अंकित है। (संपा०)

[**] कलिंग-विजय में भीषण नर-संहार को देखकर सम्राट अशोक की विरक्ति । जिसके बाद उसने केवल धर्म विजय किये और आयुपर्यन्त कोई युद्ध नहीं किया। (संपा०)

[††] भारतीय सशस्त्र क्रांति के प्रतिकूल विचारों की सफलता पर। आगामी रचना भी इसी भावधारा का शेषांक है। (संपा०)

 


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हिंदी समय में जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ