आधुनिक हिंदी कथा साहित्य की पिछले सौ वर्षों की यात्रा के जो विभिन्न पड़ाव
हैं, उसमें हरेक पड़ाव पर हिंदी कहानी व उपन्यासों ने अपने समय में सार्थक
हस्तक्षेप किया है। हिंदी कहानी का पहला महत्वपूर्ण पड़ाव 'उसने कहा था' का
प्रकाशन था। वह कहानी 1915 में 'सरस्वती' में छपी थी। लेकिन एक शताब्दी बाद भी
चंद्रधर शर्मा गुलेरी की वह कहानी पाठकों की चेतना में रची-बसी है। कहानी का
एक संवाद है, "तेरी कुड़माई हो गई?" यह सौ साल पहले का प्रेम प्रस्ताव है।
लहना सिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहां आया हुआ है। दहीवाले के
यहां, सब्जीवाले के यहां, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है।
जब वह पूछता है, "तेरी कुड़माई हो गई?" तब 'धत्' कह कर वह भाग जाती है। एक
दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा, "हां, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम
के फूलोंवाला सालू।'' इतना सुनते ही बालक लहना सिंह की दुनिया में उथल-पुथल मच
जाती हैः "उसने रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ीवाले की
दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध
उंडेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई।
तब कहीं घर पहुंचा।" बालक लहना सिंह का यह परिवर्तित व्यवहार उसके भाव-लोक में
आए तूफान का तो परिचय देता ही है, उसकी बालिका से बालपन की सहज प्रीति की
गहराई को भी दर्शाता है। इसे पहली ही नजर में बालपन का साहचर्यजन्य प्रेम कह
सकते हैं। बालपन की यह प्रीति इतना अगाध विश्वास लिए है कि 25 वर्षों के
अंतराल के बाद भी प्रेमिका को यह भरोसा है कि यदि वह अपने उस प्रेमी से,
जिसने बचपन में कई बार अपने प्राणों को संकट में डाल कर उसकी जान बचाई, यदि
कुछ मांगेगी तो वह निश्चित देगा। बालिका पचीस साल बाद सुबेदारनी बन चुकी है और
लहना से उसकी जब भेंट होती है तो सूबेदारनी कहती है, "मैंने तेरे को आते ही
पहचान लिया। एक काम कहती हूं। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब
दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने
हम तीमियों की एक घंघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ
चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार
और हुए, पर एक भी नहीं जिया।" सूबेदारनी रोने लगी, "अब दोनों जाते हैं। मेरे
भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास
बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे, आप घोड़े की लातों में चले गए
थे और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को
बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आंचल पसारती हूं।" प्रेमिका ने जो
कहा, उसे लहना ने पूरा किया। अपने प्राण देकर उसने दोनों को बचाया। लहना की
मृत्यु के पहले का दृश्य विधान अत्यंत मार्मिक है। लहना सिंह अंत तक किसी को
नहीं बताना चाहता, स्वयं अपने अधिकारी, बॉस, सूबेदार को भी नहीं कि उसने यह
कुर्बानी सिर्फ 'उसने कहा था' की वचन-रक्षा के लिए दी है। केवल इतना-भर कह कर
इस दुनिया को छोडने के लिए तैयार हैः "सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखो तो मेरा
मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि जो 'उसने कहा था,' वह मैंने
कर दिया। सूबेदार पूछते भी हैं कि उसने क्या कहा था तो भी लहना सिंह का उत्तर
यही है, मैंने जो कहा वह लिख देना और कह भी देना।" प्रेम पर प्राण न्यौछावर
करनेवाले दुनिया में कई दृष्टांत हैं किंतु बालपन की सहज प्रीति पर बलिदान कर
देने वाला विरल उदाहरण केवल लहना सिंह का है। उसके बलिदान पर पाठक साधु-साधु कह
उठता है। इसीलिए प्रेम कथाओं में 'उसने कहा था' का नायक लहना सिंह सबसे अलग और
आगे है। वह अमर चरित्र है। कहानी में लहना सिंह के बारह वर्ष की अवस्था से
लेकर सैंतीस वर्ष तक की मृत्युपर्यंत का जीवन वृत्त समेटा गया है। लहना सिंह
जैसे सीधे-साधे सिपाही, जमादार लहना सिंह की प्रत्युपन्नमति, कार्य करने की
फुर्ती, संकट के समय अपने साथियों का नेतृत्व, जर्मन लपटैन को बातों-बातों
में बुद्धू बना कर उसकी असलियत जान लेना, इन सबसे उसके चरित्र के विकास को
समझने में मदद मिलती है।
प्रथम विश्व युद्ध के समय लिखी गई इस कहानी का फलक व्यापक है। वातावरण की
सृष्टि और उसके जीवंत चित्रण के मामले में भी इस कहानी का कोई जोड़ नहीं।
अमृतसर की भीड़-भरी सड़क और गहमागहमी से कहानी शुरू होती है। युद्ध के मोर्चे
पर खाली पड़े फौजी घर, खंदक का वातावरण, युद्ध के पैंतरे इन सबके चित्र पाठक
के चित्त में भी अंकित हो जाते हैं। इस कहानी में युद्ध-कला, सैन्य-विज्ञान
और खंदकों में सिपाहियों के रहने-सहने के ढंग का जितना प्रामाणिक और सूक्ष्म
चित्रण हुआ है, वैसा किसी दूसरी कहानी में नहीं मिलता। ध्यान देनेयोग्य है कि
सौ साल पहले चंद्रधर शर्मा गुलेरी की भाषा कितनी परिनिष्ठित है। कोई भी पाठक,
जैसे ही इस कहानी को पढ़ना शुरू करता है, वह उसकी व्यंजना के जादू से बंध कर रह
जाता है। उदाहरण के लिए पहला पैरा ही देखें, "यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती
नहीं, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी
देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं हट जा - जीणे
जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्ताँ प्यारिए; बच जा लंबीवालिए। समष्टि
में इनके अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी
है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है, बच जा।"
इस कहानी की भाषा काव्यात्मक है जिसने उसे कलात्मक उत्कर्ष दिया है। शैली ऐसी
है कि शुरू से आखिर तक वह पाठक को बांधे रखती है और उत्सुकता जगाए रखती है।
किसी भी कहानी की श्रेष्ठता की कसौटी हैः किस्सागोई और बलवान चरित्रों का
निर्माण, यथार्थ पर पैनी दृष्टि, आदर्श और यथार्थ, भोगा हुआ यथार्थ, बदला हुआ
यथार्थ, भाषा की व्यंजना, शैली की प्रांजलता, युग बोध, उद्देश्य एवं लेखक का
दृष्टिकोण और कहानी में आज के लिए उपयोगी मूल्य। 'उसने कहा था' कहानी में आज के
समय के लिए भी उपयोगी मूल्य हैं।
समय सापेक्षता इस कहानी की बड़ी विशेषता है। कहानी कहने की शैली, चित्रण की
शैली और वर्णन की शैली के कारण 'उसने कहा था' शताब्दी बीत जाने के बाद भी ऊंचे
आसन पर आरूढ़ है। परवर्ती काल में हिंदी कहानी व उपन्यास के कथ्य और शिल्प
दोनों को प्रगतिशील आंदोलन ने बहुत प्रभावित किया था और वह प्रभाव बहुत सार्थक
रहा। हिंदी कथा साहित्य प्रेमचंद के जमाने में ही बदलने लगा था। यशपाल और
अज्ञेय हिंदी कहानी को गांव से शहर में ले गए। भुवनेश्वर उसे लखनऊ ले गए तो
काशीनाथ सिंह उसे बनारस ले गए और अपनी अलग कथा भाषा के कारण उन्होंने खुद को
ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया से भी अलग कर लिया। भैरव प्रसाद गुप्त,
अमरकांत, शेखर जोशी के समानांतर काशीनाथ सिंह ने अपनी जो अलग रेखा खींची, वह
निर्मल वर्मा से भी अलग थी और राजेंद्र यादव तथा कमलेश्वर से भी भिन्न थी। उस
काल खंड में विष्णु प्रभाकर तथा श्रीलाल शुक्ल भी जमे हुए थे। वे अंतर्वस्तु और
किस्सागोई के कारण जमे हुए थे। उदाहरण के लिए देखें तो अपने उपन्यास 'अर्द्ध
नारीश्वर' में विष्णु प्रभाकर ने स्त्री तथा पुरुष की बराबर की सहभागिता को
हासिल करने पर जोर दिया है। इस उपन्यास का पात्र अजित कहता है, 'मैं सुमिता को
अपनी दासता से मुक्त कर दूंगा। मैं उसकी दासता से मुक्त हो जाऊंगा। तभी हम
सचमुच पति-पत्नी हो सकेंगे।' इसी स्वयं की मुक्ति का नाम है-'अर्द्ध नारीश्वर'।
विष्णु जी के एक दूसरे उपन्यास 'निशिकांत' का कथा क्षेत्र 1920 से 1939 तक फैला
हुआ है। उस कालखंड का यथार्थ देश के स्वाधीनता संग्राम का संक्रांतिकाल है।
उपन्यास बताता है कि उस यथार्थ का नागरिकों के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन पर
कितना निर्णायक प्रभाव पड़ा। विष्णु जी के एक अन्य उपन्यास 'स्वप्नमयी' में एक
मां सपने तो देखती है पर उसे जी नहीं पाती। उसकी विवशता को पूरी संवेदना के
साथ उपन्यासकार ने उभारा है और बताया है कि ऐसे चरित्र कितने भी महान क्यों न
हों, उनके लिए इस संसार में जगह नहीं है। किंतु 'संकल्प' नामक उपन्यास में वे
बताते हैं कि संकल्प रहे तो सारी प्रतिकूलताओं पर स्त्री विजय पा सकती है। एक
दूसरे उपन्यास 'कोई तो' में लेखक ने मध्यवर्गीय नैतिकता के प्रश्न को उठाया है
तो 'श्वेतकमल' में स्त्री के सतत संघर्ष को मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। विष्णु
प्रभाकर के उपन्यास 'सूरदास' का केंद्रविंदु गांधी की अहिंसा है। उपन्यास का
नायक सूरदास गांधी की अहिंसा को मूर्त रूप देता है और अत्याचार के विरोध के
लिए अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ मार्ग पर चलता है। विष्णु जी के कहानी संग्रहों
-'धरती अब भी घूम रही है,' 'चर्चित कहानियां''एक और कुंती', 'मैं नारी हूं' (दो
खंड) और 'मेरी प्रेम कहानियां' में संकलित अधिकतर कहानियों में हर तरह की
रुढ़ि, जड़ता, अंधविश्वास, अज्ञान तथा पाखंड पर चोट किया गया है।
विष्णु प्रभाकर के समकालीन से.रा.यात्री ने भी निरंतर समय के विपर्यय का सामना
अपनी रचनाओं में किया। उनकी नई औपन्यासिक कृति 'जिप्सी स्कॉलर' का नायक
इंद्रदेव चटर्जी खुर्जा के एक पीजी कालेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं। वे
पहले क्लब में रहते थे, बाद में एक संभ्रांत इलाके के एक फ्लैट में जाकर
रहने लगे। वे शास्त्रीय संगीत, श्रेष्ठ साहित्य और कला के अध्येता और पारखी
थे, किंतु अक्सर शाम को गंदी बस्तियों में जाते जहां गाली-गलौज और मार-पीट
मामूली बात थी। उपन्यास के नायक में यह विरोधाभास था कि क्लासिक आर्ट का रसिक
गंदी बस्तियों की अभिव्यक्ति के यथार्थ को भी गहरी आसक्ति तथा रसात्मकता से
ग्रहण करता था। किताबों की संस्कृतनिष्ठ भाषा के आदी अक्सर गंदी बस्तियों की
भदेस बोली और उनके जीवन के यथार्थ से महरूम रह जाते हैं। चटर्जी साहब के रसिक
स्वभाव का परिचय उस समय भी मिलता है जब शहर से लगे जंगल की तरफ गड़लुहारों का
एक दल आकर डेरा लगाता है। उपन्यास में यह प्रसंग आते ही उसमें एक नई चमक आ जाती
है। गड़लुहार घुमंतू जनजाति है। इस जनजाति का प्रसंग आते ही उपन्यास में कथा रस
की व्यंजना के स्तर को नई ऊंचाई मिलती है। यहां जीवन के राग-विराग, मर्म और
निर्मम की रचना एक साथ की गई है। उपन्यास बताता है कि ये खानाबदोश कैसे कठोर
श्रम कर छूरी, चाकू, चिमटे वगैरह बनाते हैं और उन्हें बाजार में बेचकर कठोर
जीवन-यापन करते हैं। चटर्जी साहब भी नाजो नामक नवयुवती से दो छुरियां खरीदते
हैं। वह खानाबदोश है। नाजो बेहद खूबसूरत है। सभ्य समाज द्वारा ठगी जाती है।
शादी का झांसा देकर उससे शारीरिक संबंध बनाने वाले उस ड्राइवर ने जब उससे पिंड
छुड़ाना चाहा तो उसी खानाबदोश लड़की नाजो ने खून जमा देनेवाला दृश्य उपस्थित
कर दिया- वह स्टीयरिंग व्हील पकड़े ड्राइवर का गिरेबान पकड़े हुए थी और उसे
खिड़की के बाहर खींचकर औंधा किए हुए थी। वह चिंघाड़कर कह रही थी-'थारी मतारी
णे गधे... मणे आज थाड़ी नाण काटेणी ई कारणी, तणे म्हारो धरम बिगाड़ो... म्हारी
नी होके रहणो तो मणे वी तजे जीता नी छोड़णो। तेरी रकत न पी जाऊं तो मज्झे बी
नाजो ना कहणा।' पुलिस ने मौके पर आकर नाजो से उस ड्राइवर को तो छुड़ा लिया
किंतु तब भी उसने घोषणा की-'जा घुस जा अपनी जाई के....कहीं तो हाथ आवेगा। तणे
बकरो सा हलाल ना करो तो मणे अपनी मां की बेट्टी ना केंणा, बेस्वा की औलाद
कैंणा।' नाजो के इस संवाद में घुमंतू जनजातियों के जीवन-दर्शन का आख्यान छिपा
है। वह दुनिया जो हजारों सालों से समय के विपर्यय से लड़ रही है, लड़ते हुए ही
जीती है। उनके लिए लडऩा ही जीना है। उस अनजानी और अनपहचानी दुनिया का
प्रामाणिक तरीके से उपन्यासकार परिचय कराने में सफल होता है। खानाबदोशों के
प्रसंग के बाद चटर्जी के मसूरी जाने का संदर्भ आता है। उसके बाद आगरा के सेंट
जांस कॉलेज में उनकी नियुक्ति हो जाती है जहां मिस लीला रैना के साथ उनका तब
तक-डेढ़ साल से ज्यादा समय तक प्रेम प्रसंग चलता है जब तक कि वे खडग़वासला में
प्राध्यापक बनकर नहीं जाते। और खडग़वासला में तो रंगकर्मी छवि आपटे से चटर्जी
का प्रेम इतना आगे बढ़ा कि वे अपने पति व परंपरा में जकड़े परिवार को छोड़कर
चटर्जी के साथ भागकर दिल्ली आ गईं। चटर्जी ने छवि आप्टे का एनएसडी में दाखिला
कराया और दिल्ली में उनके रहने का प्रबंध भी। छवि आप्टे के जरिए नारी
स्वतंत्रता के संदर्भ के साथ ही उपन्यास खत्म होता है। दिल्ली में छवि आप्टे
नई जिंदगी शुरू करती हैं और वहीं चटर्जी भी अध्यापन की तलाश में निकलने का
फैसला करते हैं। इस तरह आखिर में यह औपन्यासिक कृति नई जिंदगी की तलाश की कृति
बन जाती है। भाषा की सहजता उपन्यास को आरंभ से अंत तक पठनीय बनाए रखता है। यह
उपन्यास से. रा. यात्री के पूर्ववर्ती तीसेक उपन्यासों से सर्वथा भिन्न है और
यात्री जी के सतत रचनाशील रहने की उत्कट बेचैनी का सबूत भी।
से. रा. यात्री जिस तरह खानाबदोशों के जीवन संदर्भ को जिप्सी स्कालर में लाते
हैं, उसी तरह राकेश मिश्र की कहानी 'सभ्यता समीक्षा' उस मनुष्य की बात करती है
जिसे मुख्यधारा मनुष्य मानती ही नहीं। इस कहानी में राकेश मिश्र बताते हैं कि
मुख्यधारा के लोग अपनी भाषा के वर्चस्व के कारण ही आदिवासियों की सभ्यता को
दबाए हुए हैं। यह कहानी यह बोध कराती है कि पानी से यदि प्यास अलग हो जाए तो
सभ्यता के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि पानी को प्यास से किस तरह
जोड़ेंगे।
इसी तरह के समय के ज्वलंत प्रश्न श्रीलाल शुक्ल उठाते हैं। उनके उपन्यास 'राग
दरबारी' ने स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को जिस
तरह परत दर परत उघाड़ा, वह सतत बेचैन करनेवाला है। 'राग दरबारी' ने स्वतंत्र
भारत की लोकशाही में आदर्शवाद के मुखौटे को चीरकर रख दिया है। लोकशाही की सड़ी
व्यवस्था को और सड़ने से कैसे बचाया जाए, यही उपन्यासकार की चिंता है। सवाल है
कि 'राग दरबारी' के धूर्त नेता, वैद्य जी, प्रिंसिपल साब, गंवार सनीचर, पिता
को मारने की परंपरा निभानेवाले पहलवान या उनका न्याय करनेवाले पंच- क्या उन
चरित्रों में आज भी कोई बदलाव आया है? श्रीलाल शुक्ल ने हिंदी कथा साहित्य को
'अज्ञातवास', 'सीमाएँ टूटती हैं', 'मकान', 'आदमी का जहर', 'पहला पड़ाव' और
'बिस्रामपुर का संत,' 'बब्बरसिंह और उसके साथी', 'राग विराग', 'यह घर मेरी
नहीं', 'सुरक्षा और अन्य कहानियाँ', 'इस उम्र में', 'दस प्रतिनिधि कहानियाँ'
जैसी कृतियाँ दीं। श्रीलाल जी का समग्र राजनीति-बोध और समाज-बोध उनकी कथा
कृतियों में प्रतिबिंबित हुआ है। वे अपनी कहानियों- 'सुरक्षा', 'गिरफ्तारी',
'सपोला', 'दुराचरण', 'परी दीन की प्रेमगाथा', में लोकतंत्र में चल रही विकास
योजनाओं का मुखौटा उतार देते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इन योजनाओं में छल के
कारण ही हम पिछड़ते चले गए। पिछड़ने का यह एक कारण है- योजनाओं के कार्यान्वयन
में भ्रष्टाचार और छल। पर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण कारण और भी हैं, जैसे-1.
प्राथमिक शिक्षा, जनस्वास्थ्य, परिवार-नियोजन आदि के घोषित कार्यक्रमों में
राजनीतिक इच्छा और प्रशासनिक निष्ठा का पूर्ण अभाव, 2. आर्थिक नीतियों में
स्पष्ट सोच और सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का अभाव, 3. शासकीय व्यय में विलासिता और
4. निम्नतम और निम्न मध्यम वर्ग के प्रति उपेक्षा का भाव आदि।
श्रीलाल जी की कहानी 'दंगा' से पता चलता है कि प्रशासन कितने संवेदनहीन तरीके
से चीजों को देखता है। श्रीलाल जी प्रशासनिक अधिकारी थे इसीलिए प्रशासन की
विच्युतियों की अधिक प्रामाणिकता के साथ वे अभिव्यक्ति कर पाए थे। यही बात
उच्च पुलिस अधिकारी रहे विभूति नारायण राय के लिए भी सही है। उन्होंने 'शहर में
कर्फ्यू' नामक उपन्यास लिखकर सांप्रदायिकता की समस्या पर एक गंभीर विमर्श खड़ा
किया था। यह उपन्यास दंगे की चपेट में आए इलाहाबाद के एक अल्पसंख्यक परिवार की
तीन दिनों की मार्मिक कथा है। नेशनल पुलिस अकादमी की फेलोशिप के तहत विभूति ने
सांप्रदायिकता जैसे संवेदनशील विषय को अपने अध्ययन व अनुशीलन का उपजीव्य
बनाया। उनके शोध प्रबंध 'सांप्रदायिक दंगे तथा भारतीय पुलिस'में पुलिस की
भूमिका को कठघरे में खड़ा किया गया था। उनकी नई किताब हाशिमपुरा के दंगे पर
केंद्रित है। ये तीनों किताबें विभूतिनारायण राय को सांप्रदायिकता जैसे
संवेदनशील विषय के विशेषज्ञ और विलक्षण प्रवक्ता का दर्जा देती हैं और
सांप्रदायिकता से लड़ने के उनके हौसले का सबूत भी। यह सबूत राय के उस पत्र से
भी पुख्ता होता है जो उन्होंने 2002 के गुजरात दंगे के समय देशभर के आईपीएस
अधिकारियों को लिखा था।
विभूतिनारायण राय ने अपने उपन्यासों में कई महत्वपूर्ण विषय उठाए। 'घर' नामक
उपन्यास मुंशी रामानुज लाल के गरीब परिवार की गरीबी की मार्मिक कथा कहते हुए
यह सवाल उपस्थित करता है कि गरीबी, बेकारी तथा तंगहाली से जूझे बिना क्या घर
को समझा जा सकता है? 'तबादला' में विभूति ने आजादी के इतने साल बाद भी तबादले
के उद्योग के रूप में फलते-फूलते जाने का विश्वसनीय वृतांत पेश किया तो 'किस्सा
लोकतंत्र' में भारतीय लोकतंत्र के विद्रूप को सामने ले आए। 'प्रेम की भूत
कथा' में उपन्यासकार ने विक्टोरियन नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया।
नैतिकता पर सवाल खड़े करने के मामले में राजेंद्र यादव का तो कोई जवाब ही नहीं
है। राजेन्द्र यादव ने वर्जनाओं का निरंतर प्रतिरोध किया, वैविध्यपूर्ण व
नए-नए कथा प्रयोग किए और युगीन यथार्थ व नए मानवमूल्यों की अभिव्यक्ति की।
कहानी की नहीं, उपन्यास को भी उन्होंने शिल्प, संवेदना और भाषा की नई ताकत दी।
उन्होंने हिन्दी गद्य के क्लैसिक रंग को पकड़ा और हिन्दी के जातीय गद्य को
पुनर्प्रतिष्ठित किया। राजेन्द्र यादव की सिर्फ लेखक बनने की यात्रा बाकायदा
1952-53 में शुरू हुई थी। उपन्यास 'प्रेत बोलते हैं' (सारा आकाश) उसी समय आया
था। वैसे 1950 के भी पहले कहानी-संग्रह 'रेखाएँ, लहरें और परछाइयाँ' आ गया था।
'देवताओं की मूर्तियाँ' भी आ गया था। कहानियों के इन दोनों संग्रहों से लेकर
'वहाँ तक पहुँचने की होड़ तक' की कहानियाँ अपनी ही पूँछ पकड़कर चक्करघिन्नी
खाते कुत्ते का उन्मादभर नहीं हैं। राजेन्द्र यादव के यहाँ कहानी कहानी की तरह
नहीं आती थी। पहले जीवन का कोई प्रभाव, प्रसंग या टुकड़ा आता और जब उसे कहानी
के गमले में लगाने के लिए उसकी धरती से कथाकार नोचता तो जड़ों के साथ
छोटी-छोटी डोरियों और रेशों का उलझा-गुँथा सिलसिला चला आता। फिर कथाकार का मन
नहीं करता कि जड़ का सारा हिस्सा तेज चाकू से वह तराश दे और बाकी पौधे को
धो-पोछकर प्लेट में सजाए हुए काउण्टर पर ले जाए... या किसी भी गुलदान में रख
दे और वहाँ हरा-भरा हो जाए... अपनी जिन्दगी की अनेक देखी-भोगी कहानियों को
राजेंद्र यादव ने अलग इकाई की तरह देखने की अनहद कोशिश की, मगर हर कहानी के
साथ कुछ न कुछ और सूत्र भी उलझे-गुँथे चले जाते, जो पहले नहीं दिखते थे। कहानी
सबसे पहले राजेन्द्र यादव के लिए याद थी, जुड़े हुए सूत्रों के स्रोत की खोज
और पुनरावलोकन थी, फिर सम्बोधन होने लगी, फिर क्रमश: संवाद। आरम्भिक दिनों में
लिखी गई उनकी कहानियों में स्मृतियों के साथ-साथ अपने परिवेश को समझने, आस-पास
ही सन्दर्भ तलाशने की कोशिश है ('प्रतीक्षा' और 'लौटते हुए')। निठल्ला
अतीतजीवी नहीं, वर्तमान से टकराने का अदम्य साहस भी इन कहानियों की एक विशेषता
है। 'सम्बन्ध' जैसी कहानियों में आतंकप्रद यथार्थ को स्वीकार किया गया है तो
'मरनेवाले के नाम' में इसकी ही पुष्टि है। 'टूटना' बाहरी उपलब्धियों के भीतर
व्यर्थताओं, भीतर की वितृष्णा को रचनात्मक स्तर पर लाने की कवायद है। इसी के
साथ उनकी आरम्भिक कहानियाँ छायावादी प्रभावों से निकलने की कोशिश करती दिखती
हैं। मनुष्य और कलाकार के अन्तर्सम्बन्ध को समझना राजेन्द्र यादव की थीम रही।
उसी से प्रेरणा ग्रहण कर उन्होंने यथार्थवादी कहानी 'लेखक', 'कला और विसर्जन'
और जब 'कला मर गई' लिखी। 'अभिमन्यु की आत्महत्या' में भी व्यक्ति व कला के
द्वंद्व को समझने की कोशिश की गई है। अन्य कहानियाँ आस-पास के जीवन में घर
करते पाखण्ड, आडम्बर, दोमुँहपन कट्टरता और अन्याय के विरूद्ध प्रतिवाद दर्ज
कराती हैं। 'स्वतन्त्रता दिवस' में कितनी सटीक अभिव्यक्ति हुई है। सामाजिक
अथवा कला सरोकारों की ये कहानियाँ समय को अपने भीतर पकड़ती हैं। 'सारा आकाश'
तक की रचनाओं को देखने पर लगता है कि लेखक भीतर और बाहर सामन्तवादी संस्कारों,
घिसे-पिटे आदर्शों, मूल्यों, मान्यताओं व आचार संहिताओं से लड़ रहा था और इस
क्रम में बिना अपनी जमीन छोड़े ज्यादा यथार्थवादी व प्रामाणिक होने की कोशिश
कर रहा था। राजेंद्र यादव ने समय के सामने खड़े होकर उसे पूरी तटस्थता से
देखा। समय सापेक्षता के लिहाज से उनकी कथा कृतियां बेजोड़ हैं।
इसी तरह काशीनाथ सिंह ने अपनी कहानियों और उपन्यासों को समय के साथ इस तरह
जोड़ा है कि वे हमेशा वर्तमान बनी रहती हैं। काशीनाथ सिंह की पहली कहानी 'संकट'
'कृति' पत्रिका के 1960 के सितंबर के अंक में छपी थी। एक तरह से वे साठोत्तरी
कहानी के प्रस्थान बिंदु हैं। वे 1984 तक कहानियां लिखते रहे। उन चौबीस वर्षों
में उन्होंने चालीस कहानियां लिखीं। उनकी कहानियां यह बोध कराती हैं कि
हिन्दी कहानी की मुद्रा बदल रही है। मुद्रा इस तरह बदल रही है कि 'अपना
रास्ता लो बाबा' में जिस चाचा ने कंधे पर घुमाया, उसे ही कथानायक नहीं पहचानना
चाहता। एक यथार्थ यह भी है कि आज समूची की समूची हिंदी पट्टी जातियों में बंटी
है। हिंदी का बाजार तो बन गया, हिंदी का समाज कब कैसे बनेगा। यही काशीनाथ सिंह
की चिंता है। काशीनाथ सिंह ने जाति को ध्यान में रखकर 1971 में 'चोट' कहानी
लिखी थी। दिलचस्प यह है कि उस कहानी में दलित अन्तर्विरोध भी है। इसी तरह 'वे
तीन घर' भी दलितों के भीतर के अंतर्विरोध को व्यक्त करती हुई कहानी है। 'कहानी
सराय मोहन की' में हरिजन रोटियाँ बना रहा है और उसकी रोटियाँ ठाकुर व ब्राह्मण
खा जाते हैं। भूख के सामने जाति का कोई अर्थ नहीं रह जाता लेकिन जैसे ही पता
चलता है कि वह दलित है, ब्राह्मण तो पचा जाता है, ठाकुर उल्टी कर देता है।
ब्राह्मण का उपहास करनेवाली इस कहानी का अभिव्यक्ति कौशल अनूठा है। 'कहानी
सरायमोहन की' के अलावा 'वर चाहिए तो इधर आइए', 'बांस', 'विलेन', 'सदी का सबसे
बड़ा आदमी', 'सुख', 'दौलत का दुखड़ा', 'अपना रास्ता लो बाबा!', 'एक लुप्त
होती हुई नस्ल', 'मुसइ चा', 'जंगलजातकम्', 'लंका बांके चारि दुआरा' जैसी
कहानियां आज अंतर्वस्तु तथा अभिव्यक्ति कौशल के कारण हिंदी की धरोहर बन चुकी
हैं। कहना न होगा कि काशीनाथ सिंह की ये कहानियाँ व्यापक फलक और व्यापक
परिप्रेक्ष्य की कहानियाँ हैं। सबसे तात्पर्यपूर्ण यह है कि आदमी को लिखने की
कोशिश में ही उनकी हर कहानी बनती है। कहानी कहने के लिए काशीनाथ सिंह ने ऐसा
शिल्प ईजाद किया, जो खाल्लिस उनका है। पारदर्शी गद्य की ऐसी ताजगी अन्यत्र
नहीं मिलती। काशीनाथ जी ने कहानी के बने-बनाए खांचे व ढांचे का अतिक्रमण कर
कहानी को एक नया तेवर दिया। काशीनाथ सिंह की पहचान कथा साहित्य में उनकी खास
कथा भाषा को लेकर बनी है तो कथा स्थल (खास तौर पर अस्सी) को लेकर भी।
राजनीतिक-सामाजिक दृश्य पट ने बनारस के रस में जो कड़वाहट घोली है, उसकी तीखी
और तिलमिला देनेवाली अनुभूति के लिए काशीनाथ सिंह ने 'काशी का अस्सी' में
बनारस के मुहल्ले अस्सी को बैरोमीटर बनाया है जो पूरे देश का बैरोमीटर बन गया
है। वैश्वीकरण ने सीधे-सरल जीवन की धज्जी उड़ाकर विकृत लोभ और काइंयापन को
जन्म दिया है। काशीनाथ सिंह इस रचना में बताते हैं कि जो धर्म का झंडा
उठानेवाले हैं, बाजार के प्रभाव में सबसे पहले वे ही आते हैं। यह रचना अस्सी
के घाट पर डालर के ठाट का सांस्कृतिक क्रियाक्रम है। काशीनाथ सिंह ने बनारस के
इतिहास के गड़े मुर्दे नहीं उखाड़े हैं, उन्होंने बनारस के वर्तमान से मुठभेड़
की है। काशीनाथ सिंह ने कहा है- 'काशी का अस्सी मेरा नगर था मगर 'रेहन पर
रग्घू' मेरा घर है।' रेहन पर सिर्फ रग्घू ही नहीं जा रहा है, नई विश्व अर्थ
व्यवस्था में बहुत-कुछ जा रहा है।
आज का एक कठिन प्रश्न सर्वहारा वर्ग का कठिन होता जीवन है। इस वर्ग पर कथाकार
इसराइल ने मार्मिक रचनाएं दी हैं। उन्होंने 'रोशन' जैसा उपन्यास लिखा तो
'फर्क' तथा 'रोजनामचा' जैसे कहानी संग्रह हिंदी को दिए। इसराइल की कहानियाँ
युद्धरत मनुष्य के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक सरोकारों की कहानियाँ हैं।
इसराइल की कहानियों में शिल्प के प्रति कोई आग्रह नहीं है। पूँजीवादी व्यवस्था
में महानगर का यांत्रिक जीवन, संवेदनशील मानव-सम्बन्ध और शोषण के फैलते जाल की
पहचान कराती इनकी कहानियों का एक अलग मिजाज है। वर्ग-चेतना से लैस होकर
कारखाना, मजदूर, हड़ताल और इनसे जुड़े इतर प्रसंगों की जितनी आत्मीय और
सूक्ष्म पहचान इसराइल को है, उतनी अन्य घोषित जनवादी लेखकों में नहीं। हिन्दी
की प्रगतिशील जनवादी कहानी की परम्परा वस्तुत: इसराइल तक आकर ही अपनी सही
पहचान कायम कर सकी है। प्रतिबद्ध विचारधारा और रूपवादी व्यामोह से विमुक्त
इनका लेखन स्पष्टरूप से मजदूरों के पक्ष में खड़ा लेखन है। इस दृष्टि से शेखर
जोशी के बाद इसराइल हिन्दी के पहले कथाकार हैं जिन्होंने मील-मजदूरों के जीवन
पर आधारित लेखन किया है।
समय सापेक्षता की दृष्टि से प्रभा खेतान की औपन्यासिक कृतियां 'आओ पेपे घर
चलें' (1990), 'तालाबंदी' (1991), 'अग्निसंभवा' (1992), 'एड्स' (1993),
'छिन्नमस्ता' (1993), 'अपने-अपने चेहरे' (1994), 'पीली आँधी'(1996) और 'स्त्री
पक्ष' (1999) भी उल्लेखनीय हैं। इन कृतियों में प्रभा खेतान ने स्त्री की केवल
बाहरी नहीं, उनकी नितान्त निजी, आन्तरिक और गोपनीय परतों को भी खोला है। इन
कृतियों की स्त्री अपना जीवन अपनी तरह जीने के क्रम में भयावह
मानसिक-भावनात्मक बदलावों से गुजरती है और नई चुनौतियों से जूझते हुए एक नई
स्त्री के रूप में उसका रूपान्तरण होता है। प्रभा जी ने अपने जीवन में जिस
तरह अपने 'स्पेस' और 'इनकम'को सुरक्षित किया था, उसी तरह उनकी कृतियों की
स्त्री पात्र भी ऐसा करती मिलती हैं। इस लिहाज से देखें तो उनकी कोई कृति उनके
जीवन से अलग नहीं है। उनकी बात जितनी कड़ी और बेबाक होती थी, भाषा उतनी ही
शिष्ट। अपने-आप में यह एक बड़ी बात है। निरन्तर परिवर्तनशील परिवेश के दबाव और
बंगाल की सामाजिक जागरूकता के बीच प्रभा खेतान ने अपने सर्जक व्यक्तित्व का
निर्माण किया था। संपन्न मारवाड़ी परिवारों में भी उन्होंने स्त्री को
टूटते-बिखरते, वेदना में रहते देखा था, उसी के समानांतर यह भी देखा था कि
बंगाली स्त्री स्वकीय पहचान के लिए लड़ रही है, काम कर रही है, नौकरी कर रही
है और साथ ही सुसंस्कृत भी है।
वैसे स्त्री की तुलना में पुरुष को भी कम संघर्ष नहीं करना पड़ता। उदाहरण के
लिए धीरेंद्र अस्थाना के उपन्यास 'गुजर क्यों नहीं जाता' को देखा जा सकता है।
इस उपन्यास का दायरा दिल्ली से मुम्बई तक और सम्पर्क पत्रकारिता तथा साहित्य
जगत् से जुड़ा है। पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया से धीरेंद्र का न सिर्फ
समीपी परिचय है, बल्कि उस पर उनकी पैनी औप अनवरत दृष्टि है। उनके पास शिल्प की
वह अद्भुत ताकत है, जिसमें उपन्यास बनता है। इसमें एक रचनाकार (जो पेशे से
पत्रकार है) के जीवन संघर्ष की यथार्थ, गंभीर और मार्मिक गाथा है जो भोगा, उसे
ही अभिव्यक्त किया है। इसी क्रम में फरेब और तिकड़म के आवरण में छिपी बौद्धिक
जगत् की एक दुनिया बेपर्दा हो जाती है। कहना न होगा, पढ़े-लिखे लोग जितना
सर्वनाश करते हैं, उतना गँवार कहे जाने वाले अनपढ़ लोग नहीं करते, क्योंकि एक
तो गँवार भोले-भाले व सहिष्णु होते हैं और दूसरे, उनके पास साजिश रचने का
तिकड़म नहीं होता जबकि बुद्धिजीवियों के पास तिकड़म और साजिश रचने, अपने ही
बीच के लोगों को उठाने गिराने, जलील करने और उनकी टाँग खींचने की तिकड़मी
बुद्धि होती है। बुद्धि के बूते ही तो जीते हैं बुद्धिजीवी। 'गुजर क्यों नहीं
जाता' उपन्यास में लेखक के पास प्रामाणिकता और ईमानदारी की बड़ी पूँजी है।
लेखक अपनी खामियों के बारे में भी बिलकुल पारदर्शी है। चाहे उपन्यास के
पन्ने-पन्ने पर 'बुढ़े फकीर' (जो एक पात्र की तरह उपस्थित है) की बात हो या
किसी 'बारबाला' से सम्बन्ध का सम्पूर्ण संदर्भ हो या मुम्बई में दिल्ली के एक
सज्जन की पिटाई कर बदला लेने का प्रसंग हो, उपन्यास में यह सब कुछ स्वाभाविक
तरीके से आता है। पाठक झटका खाए तो खाए, लेखक कुछ भी छिपाता नहीं।
उपन्यास के नायक सोमेन्द्र का संवेदनशील व्यक्तित्व उसकी तड़प, वेदना, खुशी,
सुख और शिकायत के साथ उपस्थित है। एक अखबार के संघर्ष के दिनों के साथ ही
उपन्यास के नायक सोमेन्द्र का संघर्ष शुरू होता है। अखबार में हड़ताल हो जाती
है। पेशेवर पत्रकार होने के नाते सोमेन्द्र अपने ऊपर न तो आन्दोलनकारी होने का
ठप्पा लगाना चाहता है और न ही अपने आन्दोलनकारी साथियों के खिलाफ जाना चाहता
है। इसलिए वह अखबार के मुख्य उप-सम्पादक की सेवा से इस्तीफा दे देता है। फिर
वह खुद सड़क पर आ जाता है। दो भाई, एक बहन, दो बेटे, पत्नी और माँ समेत
सोमेन्द्र का परिवार केवल एक घर के भरोसे माँ की पाँच सौ रुपये की पेंशन पर कब
तक और कैसे टिकता? कुछ रुपयों के लिए किताबें बेचनी पड़ती हैं। पत्नी का
मंगलसूत्र भी बिक जाता है। यही क्या, पत्नी को प्रतिमाह चार सौ रुपये के लिए
एक कामकाजी दम्पत्ति के बच्चों की देखभाल का काम भी करना पड़ता है। ऐसे में
'न्यू इण्डिया टाइम्स' में सोमेन्द्र को मिलती हुई नौकरी, उसके सम्पादक निगम
साहब को फोन कर 'कथा' के सम्पादक योगेन्द्र जी रुकवा देते हैं। ऐसा भी दिन आ
जाता है कि सोमेन्द्र को भूख लगी है, पर जेब में पौने सात रुपये हैं। वह
दिल्ली गेट के एक ढाबे में आधा प्लेट चावल (उसके पास जितने पैसे हैं, उनमें
अधिकतम इतना ही चावल मिल सकता है) मँगाता है और उसमें थोड़ा-सा नमक और पानी
मिलाकर तेजी से सटकने लगता है। इसी बीच पत्रकार-कवि और समीक्षक पलाश जी आते
दिखते हैं तो उनकी नजरों से उन चावलों को बचाने के लिए सोमेन्द्र उन्हें अपनी
रूमाल में समेट लेता है। संघर्ष के इन कठिन दिनों में मेल के सम्पादक चंदन जी
भी सोमेन्द्र को नौकरी नहीं देते, जिनके दुलरुवा रहे हैं सोमेन्द्र। चंदन जी
सोमेन्द्र से इसलिए नाराज हैं, क्योंकि उनके खिलाफ एक खबर (सोमेन्द्र की
जानकारी में नहीं) 'चौथी सत्ता' में छपी रहती है। 'संडे मिरर' के सम्पादक
उज्जवल शर्मा, जो 'इतवार' के सम्पादक रहते सोमेन्द्र से कॉलम लिखवा चुके थे,
पर सोमेन्द्र को नौकरी देने से वे मना कर देते हैं। इस तरह बौद्धिक जगत् का
बड़ा हिस्सा 'चौथी सत्ता' से सोमेन्द्र के हटने के बाद यही चाहता है कि वह टूट
जाए। पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया में ऐसे असहिष्णु और स्वार्थी लोगों की
भरमार होती ही है, जो चाहते हैं कि यदि व्यक्ति की उपयोगिता नहीं है तो उसे टूट
जाने दो। पर कठिन संघर्ष सोमेन्द्र को तोड़ नहीं पाता। रेडियो वार्ताओं,
रेडियों के लिए नाटक लिखकर, टीवी के ले कुछ एसाइनमेंट लेकर सोमेन्द्र संघर्ष
से जूझ रहा होता है। बौद्धिक जगत् में उसे ईश्वर दत्त, अक्षत जैसे मददगार भी
मिलते हैं जो वाकई सोमेन्द्र की प्रतिभा, ऊर्जा की कद्र करते हैं। अक्षत के
जरिए सोमेन्द्र की प्रभात जी से मुलाकात होती है और अन्तत: सोमेन्द्र को
'जनशक्ति' के मुम्बई संस्करण में फीचर सम्पादक की नौकरी मिल जाती है। मुम्बई
के लिए जब सोमेन्द्र रवाना होता है, तो दिल्ली पर उसे छोड़ने कोई मित्र नहीं
आता, जिनके साथ उसने बारह साल गुजारे। विदा करने आती है सिर्फ पत्नी। मुम्बई
में सोमेन्द्र कड़की के दिन गुजारता है। वहाँ उसे बारबाला जया मिलती है। उससे
जुड़ने और अलग होने की कहानी अत्यंत मार्मिक है। सोमेन्द्र मुम्बई में
साप्ताहिक का फीचर सम्पादक बनता है, तो उसका डंका संम्पूर्ण साहित्य जगत् में
बजने लगता है। ऐसे में, छह साल बाद छह दिन के लिए सोमेन्द्र दिल्ली आता है तो
यह क्या? जो लोग बेकारी के दिनों में व्यंग्य करते थे, टाँग खिंचाई में लगे
रहते थे, वे सभी 'आत्मीयता' से मिल रहे थे। यही नहीं, जब सोमेन्द्र छह दिन की
छुट्टी बिताने के बाद मुम्बई के लिए राजधानी एक्सप्रेस से रवाना होता है तो नयी
दिल्ली स्टेशन पर विदाई देने वालों का मेला लग जाता है। यह भीड़ उन बौद्धिक
लोगों की है जो 'सुदिन' में सोमेन्द्र को छोड़ने आए हैं- 'सुख-सम्पदा में सब
कोई हितू'। सोमेंद्र को यदि धीरेंद्र मान लें तो लेखक के जीवन के एक कालखंड को
हम भलीभांति समझ सकते हैं। धीरेंद्र अस्थाना ने मुंबई रहते हुए 'देश निकाला'
जैसा उपन्यास लिखा। मुंबई की फिल्मी दुनिया से जुड़े मध्यवर्गीय पति-पत्नी की
कहानी है। दोनों के जीवन का मकसद भिन्न है। मकसद भिन्न होने के कारण ही
मल्लिका और गौतम सिन्हा पति-पत्नी के तौर पर लिव-इन-रिलेसनशिप में एक साथ
ज्यादा दिन नहीं रह पाते। वे अलग हो जाते हैं। रंगमंच के कलाकार से फिल्मी
संवाद लेखक बन रहे गौतम सिन्हा को भविष्य की चिंता एक बार पुनः उसे मल्लिका के
पास ले जाती है। उधर रंगमंच की नायिका रह चुकी मल्लिका देखते ही देखते सिनेमा
में भी स्टार बन जाती है। लेकिन जब उसे पता चलता है कि वह माँ बनने वाली है तो
ग्लैमर को छोड़ मातृत्व का चयन करती है। गौतम सिन्हा का पुरुषवादी अहं एक बार
पुनः उसे मल्लिका से अलग करता है। उपन्यास की पृष्ठभूमि में सिनेमा की
चकाचौंधभरी दुनिया भले हो, उसमें मुंबई के मध्यवर्गीय जीवन की सारी विडंबनाएं
है। आगे चलकर यह उपन्यास मल्लिका और उसकी पुत्री चीनू के संघर्ष के रूप में
स्त्री विमर्श के नए गवाक्ष खोलता है।
भाषा को सम्प्रेषणीय बनाने की गजब की
सामर्थ्य धीरेन्द्र अस्थाना में है। धीरेंद्र
के किसी उपन्यास में कहीं हल्का-सा भी
बिखराव नहीं है। एक बात जहाँ खत्म होती है,
दूसरी बात वहीं शुरू होती है। हर उपन्यास में
एक प्रवाह है, एक लय है। रोचक, रोमांचक
और पठनीयता के गुणों से भरपूर। मध्यवर्गीय
दुनिया के भीतर झाँकने, उसके भीतर से
गुजरने और उस दुनिया को समझने का अवसर देती
है। धीरेंद्र मध्यवर्ग से आते हैं और उसी वर्ग
के जीवन की विसंगियों का यथार्थ चित्रण
करते हैं। कदाचित इसीलिए वे प्रामाणिक चित्रण
कर पाते हैं। धीरेन्द्र अस्थाना आठवें
दशक के उत्तरार्ध से ही लगातार अपनी
रचनात्मक उपस्थिति का एहसास कराते रहे हैं।
धीरेंद्र अस्थाना के चार
उपन्यास
: 'समय एक शब्द भर नहीं है',
'हलाहल', 'गुजर क्यों नहीं जाता' और 'देश
निकाला' तथा
कहानियों के आठ
संग्रह:
'लोग हाशिये पर', 'आदमीखोर',
'मुहिम', 'विचित्र देश की प्रेमकथा', 'जो मारे
जाएँगे', 'उस रात की गंध', 'खुल जा सिमसिम,'
'नींद के बाहर' प्रकाशित होकर हिंदी समाज में
समादृत हुए हैं। इन दिनों धीरेंद्र
आत्मकथा लिख रहे हैं। वैसे उनके जीवन के तमाम
संदर्भ उनकी दूसरी कृतियों में बिखरे
पड़े हैं।
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धीरेंद्र अस्थाना के बाद की पीढ़ी के अत्यंत समर्थ कथाकार हैं राकेश मिश्र।
उनका दूसरा कहानी संग्रह 'लालबहादुर का इंजन' अभी-अभी आधार प्रकाशन से आया है।
यह संग्रह इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक की हिंदी कहानी के बदलते मिजाज को
समझने में बहुत सहायक है। समय को अपने भीतर पकड़ने का विवेक राकेश की कहानियों
की प्रधान विशेषता है। 'लालबहादुर का इंजन' संग्रह की कहानियां यह बोध कराती
हैं कि यथार्थ इतनी तेजी से बदल रहा है कि संग्रह की पहली कहानी 'शोक' के संजय
भाऊ को अपनी पुत्री के मरने पर भी बहुत दुःख या पीड़ा नहीं होती। पीड़ा नहीं
होने के कारण ही छकुली की चौथी संपन्न कराते ही संजय भाऊ आटो अंकल के यहां
संदीप के साथ शराब पीने चले जाते हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में एक तरफ पूरी
दुनिया एक हो रही है, वहीं पिता (और मां) और उसके द्वारा रची गई उसकी अपनी ही
सृष्टि के बीच कितनी लंबी फांक आ गई है।
गौण पात्र भी राकेश की कहानी में अपनी जगह बनाते हैं। 'शोक' कहानी में रोजी,
उसकी ममा और डैडी गौण पात्र हैं किंतु रोजी का किसी आटोवाले के साथ भाग जाना
और उस घटना के बाद रोजी की मां का पति को छोड़कर गोवा जाकर किसी अन्य के साथ
रहने लगना आर्तनाद की शक्ल में पाठक के मन-मस्तिष्क में गूंजता रहता है। राकेश
की कहानियों में ऐसे चरित्र अधिक हैं जो इस क्रूर होते समय में अपने पांव नहीं
टिका पा रहे हैं। 'स्थगन के शिल्प में' कहानी में संजीत, अजय कुमार मंटू,
अविनाश गौतम और अजय यादव जैसे उच्च शिक्षित नौजवान कैरियर को लेकर मची आपाधापी
को पार कर पांव टिकाने की कोशिश करते हैं और मास काम की पढ़ाई करने के बाद
संजीत को प्राइमरी का टीचर बनना पड़ता है। 'लालबहादुर का इंजन' कहानी समय के
विपर्यय से जुड़ी गंभीर तन्मयता और आंतरिक संस्पर्श का समन्वय है। यह कहानी
विश्वविद्यालयों की छात्र राजनीति के संपूर्ण परिवेश का मार्मिक चित्र
प्रस्तुत करती है और जिस लालबहादुर के पैसे के बल पर प्रवीण छात्र संघ का
अध्यक्ष बना, उसे जरूरत पड़ने पर एकाध हजार रुपए भी नहीं देता। यह कहानी बताती
है कि आज की राजनीति, यहां तक कि वामपंथी छात्र राजनीति करनेवाले कितने
निष्ठुर हो गए हैं। लालबहादुर जो वैज्ञानिक आविष्कार करना चाहते थे, उनकी
अर्द्धविक्षिप्त व्यक्ति के रूप में परिणति कहानी में एक चीख बन जाती है।
'परिवार (राज्य) और निजी सम्पत्ति' कहानी अपने युग व समय के सवालों के साथ
मुठभेड़ करती है। नंदकिशोर पांडे की नौकरी चली जाने के बाद उनके पुत्र धीरज
पांडे का नेताजी के रूप में उभरना और संस्था बनाकर सारे रइसों को सम्मान
दिलाने का व्यवसाय चलाना, यहां तक कि अपने नाम पर सड़क का नाम करवाना और पिता
की नौकरी बहाल कराना और देखते-देखते पूरे घर की माली हालत में आमूलचूल
परिवर्तन लाना यह सब युग के हिसाब से ही संपन्न होता है। लेकिन अंत में भाई के
हाथों ही धीरज के मारे जाने की कारुणिक परिणति उत्तरोत्तर आधुनिक जीवन की
जटिलता और इस युग की जीवन शैली और मनोवृत्ति को बेपर्दा करती है। इस कहानी में
कथाकार का तीक्ष्ण दृष्टिसंपन्न आलोचनात्मक चिंतन विभिन्न सांस्कृतिक व
सामाजिक विमर्शों में वर्तमान हो उठता है। राकेश की कहानी 'अम्बेदकर हास्टल'
में पिता की पेंशन का कागज बनाने के लिए शहर गए जगमोहन राय और उनके बीमार पिता
रात काटने के लिए अंततः अम्बेडकर हास्टल में आश्रय लेते हैं। राय साहब वहां
अपना परिचय दलित के रूप में देते हैं। हास्टल का एक दलित छात्र सुबह राय साहब
से कहता है- 'यदि सवर्ण के रूप में आप परिचय देते तो ज्यादा खुशी होती। समाज
की इस बढ़ती हुई खाई को हम नौजवान, पढ़े-लिखे लोग नहीं पाटेंगे तो और कौन
पाटेगा।' इस तरह यह कहानी समता पर आधारित एक स्वस्थ समाज के सपनों से पूरी तरह
प्रतिबद्ध हो जाती है। दलित विमर्श को यह कहानी ठोस जमीन देती है और वह आवश्यक
परिप्रेक्ष्य भी जिसमें शब्द अपना अर्थ पाते हैं और मुक्ति भी।
'लालबहादुर का इंजन' में सात कहानियां हैं और जहां भी प्रेम का प्रसंग आता है
तो राकेश मिश्र की भाषा काव्यात्मक हो उठती है। संग्रह की आखिरी दोनों
कहानियां-'बुरा है शैतान' और 'लगभग हमउम्र' प्रेम कहानियां हैं। स्त्री-पुरुष
संबंधों की बाहरी और आंतरिक तहों को उकेरने के लिए दोनों कहानियों में कथाकार
ने अद्भुद कला क्षमता का परिचय दिया है। दोनों कहानियों में स्थितियां भिन्न
हैं किंतु फार्मूला एक है। पुरुष के जीवन में आनेवाली प्रथम स्त्री 'लगभग
हमउम्र' में है तो 'बुरा है शैतान' में एक नायिका से अलग-अलग समय तीन युवक
प्रेम की पींगें बढ़ाते हैं। दोनों कहानियों में संबंधों की प्रकृति में
आनेवाले बदलाव को रेखांकित किया गया है। राकेश के पहले संग्रह 'बाकी धुंआ रहने
दिया' की प्रेम कहानियों में भी स्थितियों के प्रति आश्वस्ति का भाव नहीं है।
'तुमने जहां लिखा है प्यार, वहां सड़क लिख दो', 'बाकी धुआं रहने दिया' और
'सभ्यता समीक्षा' का अंत भी कलात्मक दृष्टि से न संयोगधर्मी है न आरोपित।
प्रेम के अनुभवों व अंतर्द्वंद्वों को पारदर्शिता के साथ अभिव्यक्त करना आसान
काम नहीं है जिसमें विलक्षण ढंग से राकेश सफल हुए हैं। इस बदलते हुए समय,
यथार्थ और चेतना के गहरे उद्वेलन की मार्मिक विडंबनाओं की राकेश की कहानियों
के बारे में उदय प्रकाश ने ठीक लिखा है, "राकेश मिश्र की विलक्षण कहानियां इस
संक्रांतिकाल के उन पलों को भाषा में दर्ज करने का प्रयत्न करती हैं जिन पलों
में इतिहास और स्मृति, शब्द और अर्थ, राजनीति और विचार, मिथक और यथार्थ एक
दूसरे के संहार के लिए हर रोज हमारे सामने नए रूपक रचते हैं। 'तक्षशिला में
आग', 'पृथ्वी का नमक', 'राजू भाई डाट काम' और 'शह और मात' जैसी कहानियों के
एक-एक वाक्य, उनके बिम्ब और कलात्मक छवियां जिस तल्लीनता, मेहनत और विदग्धता
के साथ रची गई हैं, उनमें सिनेमा और स्मृति या मिस्टीक और असलियत का दुर्लभ
विडंबनाओं से भरा कौतुक और जादू एक साथ मौजूद है।"
आज का एक बड़ा सुलगता सवाल जल-जंगल-जमीन का है। महुआ माजी का नया उपन्यास
'मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ' जल-जंगल-जमीन की समस्या और विकिरण तथा विस्थापन से
जूझते आदिवासी जीवन की महागाथा है और इसीलिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है। समूची
दुनिया में आदिवासियों के जीवन पर आज सबसे ज्यादा प्रभाव वहां यूरेनियम के लिए
हो रहे खनन का पड़ रहा है। उपन्यास खनन से ही शुरू होता है। उसके बाद उसका
पूरा संसार आंखों के सामने खुलता चला जाता है। उस खनन से जो रेडियोधर्मी
प्रदूषण फैल रहा है, उसके दुष्परिणामस्वरूप आदिवासी स्त्रियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी
विकलांग और विकृत बच्चों को जन्म दे रही हैं और जंगलजीवियों की एक समूची
दुनिया नष्ट हो रही है। विकिरण का दुष्परिणाम हिरोशिमा तथा नागासाकी पर गिराए
गए परमाणु बमों के दुष्परिणामों से कई गुना ज्यादा है। विकिरण मानव शरीर के
त्वचा के अंदर चली जाती है। वह हवा को बेतरह प्रदूषित कर रही है। वह कंक्रीट
की तीन सेंटीमीटर दीवार को भी भेद जाती है। वह बारिश होने पर नदियों में
मिलकर, समुद्र में जाकर हजारों सालों तक लोगों को प्रभावित करती है और
खेतीबारी को भी। इसीलिए आज अमेरिका समझ नहीं पा रहा है कि न्यूक्लीयर वेस्ट को
वह कहां फेंके। उसे उसने छत पर रख छोड़ा है। पहले उसे वह प्रशांत महासागर में
फेंका करता था किंतु वहां के छोटे-छोटे द्वीपों की जनजातियों पर दुपष्परिणाम
हुए तो वहां फेंकना उसे रोकना पड़ा।
रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण विनाश की यह नृशंस लीला चुपचाप बगैर किसी युद्ध
के चल रही है। इस नृशंस लीला का हृदयविदारक चित्रण महुआ माजी ने किया है।
उन्होंने यह भी बताया है कि विकास के पूंजीवादी माडल ने औद्योगिकीकरण के नाम
परजंगल-जमीन का अधिग्रहण कर आदिवासियों के सामने विस्थापन की कितनी विकट
समस्या खड़ी की है। उपन्यास की कथा झारखंड के सिंहभूम क्षेत्र की है और उसकी
केंद्रबिन्दु में होजनजाति है किंतु बहुत कुशलतापूर्वक इस कथा को दुनिया भर के
आदिवासियों की समस्याओं से जोड़ दिया गया है। उपन्यास का नायक सगेन विकिरण
विरोधी वैश्विक आंदोलन से संवाद स्थापित करता है। आदिवासियों की समस्याओं को
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने से यह एक राष्ट्रीय नहीं,
अंतर्राष्ट्रीय फलक का संपूर्ण उपन्यास बन जाता है। जापान, अमेरिका से लेकर
विदेशों में विकिरण के खतरों के खिलाफ जहां भी संघर्ष चल रहे हैं, उन्हें इस
उपन्यास में समेटा गया है। उपन्यास बताता है कि पूरी दुनिया में परमाणु पर
क्या विचार-विमर्श चल रहा है? समूची दुनिया में पूंजीवादी विकास की क्या
राजनीति है? इस कथाकृति में विकास के आदिवासी मॉडल की वकालत की गई है। इसमें
आदिवासियों की संस्कृति, खानपान, रीतिरिवाज को विरासत के रूप में प्रस्तुत करने
की कोशिश की गई है। इसमें आदिवासी बहुल क्षेत्रों में प्रचलित डायन प्रथा का
मार्मिक चित्रण है तो खनन से उपजी विस्थापन की विभीषिका भी।कहना न होगा कि यह
उपन्यास हिंदी ही नहीं, भारतीय भाषाओं के साहित्य के दायरे को विस्तृत करता
है। महुआ माजी का महत्व यहीं बढ़ जाता है। आदिवासियों के जीवन संग्राम पर अब
तक रचे गए उपन्यासों से महुआ का उपन्यास बहुत अलग और यह आगे निकल जाता है
जिसमें मूलतः पर्यावरण, प्रकृति और आदिवासियों की रक्षा की चिंता है।तथ्य और
आंकड़े उपन्यास को बोझिल नहीं बनाते, अपितु उसे विश्वसनीय बनाते हैं। यह
उपन्यास जनजातीय इतिहास है तो समाजशास्त्रीय अध्ययन भी। आदिवासी जीवन की इस
शोधपरक जीवंत दस्तावेजी औपन्यासिक कृति के लिए महुआ माजी बधाई की हकदार हैं।
इस उपन्यास में लेखिका ने जनजातियों की भाषा को और उनके शब्दों की सामर्थ्य के
महत्व को जिस तरह रेखांकित किया है और यत्नपूर्वक उनकी भाषा को ऊपर उठाने का
जो प्रयास किया है, वह भी गौरतलब है। उपन्यास में जब कभी प्रकृति का वर्णन आता
है या प्रेम का वर्णन तो उसमें एक नई चमक आ जाती है क्योंकि हर प्रकृति वर्णन
और प्रेम वर्णन के समय उपन्यास की भाषा काव्यात्मक हो उठती है। महुआ की भाषा
सधी हुई है। कृष्णा सोबती ने इसे उपन्यास के बारे में ठीक ही लिखा है-हर सचेत
नागरिक के लिए मानवीय चिंताओं की शैल्फ पर एक जरूरी टाईटिल। बांग्लादेश की
मुक्तिगाथा पर आधारित अपने पहले उपन्यास मैं बोरिशाइल्ला से ही महुआ माजी
चर्चित हो गई थीं। यह उपन्यास बांग्लादेश को देखने-समझने का एक जरिया बन गया।
यह उपन्यास विखंडित होते समाज का सजीव चित्र प्रस्तुत करता है।
महुआ माजी की समकालीन कथाकार वंदना राग ने भी जल-जंगल-जमीन के सवाल को शिद्दत
से उठाया है। वंदना राग की कहानी 'नक्शा और इबारत' नक्सलबाड़ी आंदोलन के आईने
में बंगाल से एक सांस्कृतिक संवाद भी है। यह कहानी उनके संग्रह यूटोपिया में
संकलित है। 'नक्शा और इबारत' उस दौर की ओर संकेत करती है जब नक्सलबाड़ी आंदोलन
से उपजी चिनगारियां जगह-जगह लपटों की शक्ल ले रही थीं और कृषि क्रांति का सपना
आरंभ हुआ था। सत्तर के दशकवाले नक्सलबाड़ी आन्दोलन के कार्यकर्ता जानते थे कि
पुलिस के देखे जाते ही मारे जाएंगे फिर भी जल, जंगल और जमीन के अधिकार
को,वर्ग-संघर्ष के सवाल को और साम्राज्यवाद के सांघातिक नतीजों को पूरी ताकत
और ईमानदारी से उठाते थे। लेकिन परवर्ती काल में वे कामरेड किस तरह सुविधाभोगी
हो गए, इसे वंदना राग की कहानी गहरी टीस के साथ व्यक्त करती है। प्रतिबद्धता
का आग्रह कहीं बिला गया, तभी तो बोड़ोदा साम्राज्यवाद की गोद में जा बैठे। एक
सुचिन्तित विचारधारा से उपजे आंदोलन में आए स्खलन का प्रामाणिक चित्र इस कहानी
में देखा जा सकता है। जल, जंगल और जमीन से बेदखल होने के बाद सर्वहारा में
परिणत हो गई देश की बड़ी आबादी पर यानी देश के सबसे कमजोर वर्ग पर वन्दना राग
ने अत्यन्त मार्मिक कहानियाँ लिखी हैं। यूटोपिया में संकलित 'तस्वीर' शीर्षक
कहानी में पप्पू जैसे दलित किशोर को क्रिसमस समारोह में सिर्फ केक देखने (खाने
नहीं) के अपराध में अधमरा होना पड़ता है। फादर थामस के शिष्य मास्कल टोपनो जिस
गरीब किशोर को अपने घर बुलाकर खिलाते थे, अक्षर ज्ञान कराते थे और मनुष्य
बनाने का सपना देखते थे और जिसे इस पार्टी में खुद लेकर आए थे, उसे पहचानने से
ही इंकार करते हैं। कुलीन समाज में अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए यह अमानवीय
कर्म करने में जरा भी उन्हें हिचक नहीं होती। पप्पू से भिन्न कारूणिक परिणति
'टोली' के सर्वहारा भूत की नहीं होती। उसे भी पुलिस पीट-पीट कर अधमरा करती है।
भागीरथी और मुसद्दी दूर से यह दृश्य देखते हैं पर उसे बचाने नहीं आते। यह
कहानी सर्वहारा वर्ग की एकजुटता के अभाव को उम्दा ढंग से उठाती है।
इधर के वर्षों में विमर्श का बड़ा विषय साम्प्रदायिकता की समस्या रही है।
साम्प्रदायिक ताकतें किस तरह मनुष्यता को क्षत-विक्षत कर रहीं हैं और किस तरह
नज्जो जैसी किशोरियां वहशीपन का शिकार हो रही हैं, इसकी बानगी 'यूटोपिया'
कहानी में देखी जा सकती है।सांप्रदायिकता जैसे अतिसंवेदनशील विषय को वंदना
'यूटोपिया' में नए अंदाज में उठाती हैं। वंदना की यह कहानी यदि सर्वाधिक चर्चा
के केंद्र में रही तो इसलिए कि सांप्रदायिक पहचानों के संघर्ष से उत्पन्न
होनेवाली कठोर स्थापनाएं इसमें हैं। भारत की कई ताकतों के लिए ये स्थापनाएं
पचानेलायक नहीं हैं। यूटोपिया के अलावा वन्दना राग ने 'कबीरा खड़ा बाजार में',
'रात्रि जागरण' और 'तस्वीर' में भी धर्म में घर कर गर्इं विकृतियों, धार्मिक
पाखंड, सांप्रदायिक घृणा और वर्गीय भेदभाव के यथार्थ का प्रामाणिक चित्र खींचा
है।यह समय जितना जटिल है, उतना ही खूंखार भी और इसके हमले में सबसे ज्यादा आहत
स्त्री ही हुई है। मृतात्माओं की अर्थी पर शीश नत करनेवाले देश में मरने के
बाद भी एक स्त्री को सताए जाने की कहानी 'कबीरा खड़ा बजार में' कही गई है।
सदियों से सताए जाने के बावजूद स्त्री ने लड़ाई नहीं छोड़ी है। जटिल जीवन की
परिस्थितियों में थपेड़े खातीं स्त्री के संघर्ष को 'शहादत और अतिक्रमण' कहानी
में देखा जा सकता है। मुन्नी सिंह जानती है कि अपने पक्ष में उसे खुद लड़ना
होगा। वह लड़ती है। कुलीन जीवन की आपा-धापी के बीच स्त्री-पुरूष संबंध की
प्रस्तुति 'नमक' कहानी में है तो बहुआयामी जटिल यथार्थ की कहानी हम 'रात्रि
जागरण' में पढ़ सकते हैं। इसमें वैवाहिक, विवाहेत्तर स्त्री-पुरूष संबंध,
पारिवारिक स्थितियों और सामाजिक रूढ़ियों का जीवन्त लेखा-जोखा है। स्त्री जीवन
का बाहरी और भीतरी संघर्ष अनु सिंह चौधरी की कहानियों में भी गहरे नैतिक आवेग
के साथ प्रकट हुआ है। उनकी कहानियों की पहली किताब 'नीला स्कार्फ़' हिंद युग्म
से अभी-अभी प्रकाशित हुई है। संग्रह की पहली कहानी 'रूममेट' में असीमा जब लिली
से पूछती है, "जिससे मिलकर आने के बाद तुम दो दिनों तक बीमार दिखती हो, उसी
मंगेतर के प्यार की निशानी हैं ये जख्म? इतनी तकलीफ सह कैसे लेती हो? दो
जिंदगियां कैसे जीती हो?" लिली जवाब देती है, "शरीर के जख्मों को मन पर नहीं
आने देती, इसलिए।" असीमा अपने रूममेट होने का फर्ज अदा करती है तभी लिली
हिम्मत जुटा पाती है और अंततः अपने मंगेतर शेखर से अपनी शादी तोड़ने की घोषणा
करती है। यहां लिली ही मुक्त नहीं होती, उसके साथ ही शब्द भी मुक्ति पाते हैं।
दूसरी कहानी 'बिसेसर बो की प्रेमिका' में बिसेसर जब अपनी पत्नी का सौदा करता
है, मालिक से साथ हम बिस्तर होने के लिए तो बिसेसर बो मालिक से मिलने तो जाती
है और तब बिसेसर कल्पना करता है कि दोनों में अब ये हो रहा होगा, अब वो हो रहा
होगा किंतु वह लौटकर बिसेसर को जब बताती है, "कह दिए हम बड़का बाबू को, हाथ एक
ही शर्त पर लगाने देंगे। उनकी प्यास जितनी बड़ी बड़की कनिया की भी प्यास है।
बड़की कनिया को बिसेसर दे दो एक रात के लिए, तुम बिसेसर बो को रख लो चाहे
कितनी ही रातों के लिए।" इस तरह यह कहानी पितृसत्तात्मक समाज को आईना भी दिखा
देती है। निरन्तर परिवर्तनशील परिवेश के दबाव में संग्रह के स्त्री पात्र
टूटते और बिखरते, वेदना में रहते जरूर हैं किंतु उसी के समानांतर स्वकीय
पहचान के लिए लड़ते भी हैं। इससे स्त्री को एक पुख्ता रूप मिलता है और कहानी
संग्रह को भी एक ठोस जमीन मिलती है। अनु सिंह चौधरी की बात जितनी कड़ी है,
भाषा उतनी ही सौम्य। भोजपुरी लोकगीतों की छौंक ने संग्रह को कलात्मक उत्कर्ष
दिया है। उदाहरण के लिए संग्रह की एक कहानी 'देखवकी' में लड़की दिखाने के समय
होनेवाले जद्दोजहद को पूरी जीवंतता से रचने के क्रम में लड़की की मां के गाए
मंगल गीत कथाकार के अभिव्यक्ति कौशल को नया ताप देते हैं।
इस आलेख में कुछ ही कथाशिल्पियों व उनकी रचनाओं की चर्चा की जा सकी है और
जाहिर है कि कई महत्वपूर्ण कथाकार छूट गए हैं किंतु जिन्हें आधार बनाया गया
है, उससे इसकी पुष्टि तो होती ही है कि अपनी अंतर्वस्तु, अनुभवों की विविधता
और शिल्प की नयी-नयी भंगिमाओं से हिंदी कथा-साहित्य इतना सुसंपन्न कभी नहीं
दिखा, जितना अभी दिख रहा है। कहानी में शिल्प और वस्तु के प्रति सजगता के साथ
कहानी को बेहतर फलक देने के लिए कसक का होना आवश्यक है। इस प्रतीति को हम आज
की कथाकृतियों में महसूस कर सकते हैं।