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आलोचना

साहित्य में अब निर्वासन विमर्श चले

कृपाशंकर चौबे


प्रलेक प्रकाशन से सद्यः प्रकाशित 'हम जलावतन' 49 समकालीन निर्वासित कश्मीरी कवियों की चयनित कविताओं का संकलन है। संकलनकर्ता और अनुवादक हैं अग्निशेखर जिन्होंने स्वयं अपने समुदाय के लाखों लोगों के साथ दशकों से अपने ही देश में धर्माधारित जलावतनी का अभिशप्त जीवन जीते हुए हिन्दी साहित्य को निर्वासन चेतना की विपुल कविताएं दी हैं जो उनके छह कविता संग्रहों- 'किसी भी समय', 'मुझसे छीन ली गई मेरी नदी', 'काल वृक्ष की छाया में', 'जवाहर टनल', 'मेरी प्रिय कविताएं' और 'जलता हुआ पुल' में संकलित हैं। अग्निशेखर रचित 'नीलगाथा' महाकाव्य में भी निर्वासन का भोगा हुआ यथार्थ है और बदला हुआ यथार्थ भी। वास्तव में निर्वासन में छूटी हुई मातृभूमि व्यक्ति, समुदाय या समूह का आजीवन पीछा करती रहती है। आप जहां भी जाते हैं, उसकी स्मृति आपके साथ रहती है। इसलिए अग्निशेखर की कविता में उसकी मातृभूमि एक रूपक, एक काव्य बिंब, स्मृति, ललक, एक अविच्छिन्न स्थान चेतना की तरह उसका पीछा करती रही है। 'हम जलावतन' में संकलित कविताओं में भी लोगों का निर्वासन और उनका बहुविध नरसंहार एक भयावह वस्तु सत्य है। इसे कवि, संस्कृतिकर्मी और निर्वासित लेखकों की साहित्यिक संस्था 'नागराद' के संस्थापकमोहन लाल आश की इन काव्य पंक्तियों में देखा जा सकता हैः " 'बे' से बारुद/ 'बे' से बम/ 'बे' से भूकम्प/ 'बे' से बूढ़े/ 'बे' से बच्चे/ 'बे' से बीमार/ 'बे' के परवर्ती सब अक्षर/ जलते हैं इसी श्मशान में।" कवि, संस्कृतिकर्मी, शिक्षक और साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानितमखन लाल कंवल कहते हैं-"कल/ जिनका शव फेंका गया/ नदी में/ कहते हैं होंठ थे सिले उसके/ आँखें थी खुलीं/ और हाथ में रखी थी किसी ने/ कटी हुई जीभ उसकी।" जेनोसाइड को देख कवि, कश्मीरी विश्वकोश के संपादक और लोकवार्ताकार मोती लाल साकी कहते हैं कि मनुष्य क्या पाखी तक भागने को विवश हुएः "सड़कों पर गिरा रक्त इतना/ कि कपड़े चाक किए मैंने। पेड़ के खोंखर में पाखी/ सब शोक मनाते भागे।" वे एक दूसरी कविता में कहते हैं-"अभी न घर छोड़ा तूने बैठे हो/ मौत की वारंट लिखी गई है/ टिकते भी हम कब तक टिकते/ सहते भी तो कब तक सहते।" कवि, लेखक, अनुवादक, संस्कृतिकर्मी और शिक्षक अर्जुन देव मजबूर उन भयावह दिनों की स्मृति को इस तरह अभिव्यक्त करते हैं- "कफन बांध सिर से/ उठाई बेलचों से बर्फ/ बनाई राहें/ तोड़ा बर्फ का दर्प/ अधमरों को निकाला बर्फ के नीचे से/ पिलाया जल बच गए कुछ/ कुछ तोड़ गए दम इस अंधड़ में।" कवि, सांस्कृतिक व सामाजिक कार्यकर्ताबाल कृष्ण संन्यासी कहते हैं कि भीषण जनसंहार के कारण जल स्रोत तक विषाक्त हो गएः "किसने जलस्रोतों को कर दिया विषाक्त/ किसने खारा कर दिया/ अमृतभरा कलश/ किसकी गोलियों से/ छलनी हो गया अमृत का घड़ा।" कवि व शिक्षकप्रेमनाथ शाद घाटी से निकलने के दृश्य को इस तरह काव्यात्मक अभिव्यक्ति देते हैं-"वो खौफ हवा में हिंसा, दहशत, और मैं शाद/ मन मार कलेजा थाम लिया/ तो निकला।" कवि, कहानीकार, अनुवादक, अनुसंधत्सु, यायावर, कला मनीषी और ब्लॉगर अवतार मोटा पूछते हैं कि सहमे लोग किसे अपनी व्यथा सुनातेः "सहम गए हम जैसे ठूंठ हुए/ उघड़ गए भ्रम चौराहे पर/ किस किसको जाकर व्यथा सुनाते।" वे एक दूसरी कविता में कहते हैं-"बिखरे ऐसे जलावतनी में/ कौन कहां जाकर छितराकर चला गया/ अंधड़ में जान हथेली में रख/ क्षुधा से पीड़ित/ हम पार कर गए घुप्प अंधेरे में/ हिमाच्छादित पर्वत।" निबंध लेखक, अनुसंधित्सु, विचारक और हिन्दी आंदोलन से संबद्ध कवि पृथ्वीनाथ पुष्प कहते हैं कि कश्मीर से निर्वासित होने के बाद तड़पता जीवन ही रह गयाः "उन्होंने/ ढहा दिए जीवन जीने के/ आधार सेतु तेरे सब/ और टांग दिया खूंटी से तड़पता तुमको।" कवि व संस्कृतिकर्मी बद्रीनाथ अभिलाश कहते हैं कि 19 जनवरी 1990 के जनसंहार ने प्रलय को भी मात दे दी थीः "जब वर्ष नब्बे में उठा वो तूफान/ लगे शवों के ढेर, डरे श्मशान/ प्रलय ने खाई थी मात, ओ माँ।"

इन विचलनकारी कविताओं में हम देख सकते हैं कि कश्मीरी कविता के केंद्र में जलावतनी उसका प्रमुख विषय बना हुआ है। पीताम्बर धर 'फानी', काशीनाथ 'बागवान', निरंजननाथ 'सुमन', वासुदेव 'रेह', मखनलाल 'महव', शम्भुनाथ भट्ट 'हलीम', विश्वनाथ 'विश्वास', राधेनाथ 'मसरत', जगन्ननाथ 'सागर', मोतीलाल 'नाज', चमन लाल 'चमन', जवाहर लाल 'सरूर', मखनलाल 'बेकस', त्रिलोकीनाथ 'कुन्दन', अर्जुननाथ भट्ट 'मजरूह', मोहिनी कौल, तेज रैना, पृथ्वीनाथ कौल 'सायिल', मकतूप मास्‍टर जयकृष्ण, ओमकारनाथ 'शबनम', संतोष शाह 'नादान', प्यारे 'हताश', तेज रावल, कुसुम घर, नरेन्द्र सफाया, मोतीलाल 'मसरूफ', ब्रिजनाथ 'बेताब', प्रेमी 'रोमानी', शान्तिवीर कौल, रतन लाल 'जौहर', अशोक कौल रईस, रतन 'तलाशी', वीरजी 'वीर', कुमार अशोक सराफ 'घायल', राजेन्द्र 'आगोश', कल्हण कौल, रवीन्द्र 'रवि', सतीश 'विमल' और सुनीता पंडिता रैना की कविताओं में भी गहन बिछोह की पीड़ा और प्रतिरोध दर्ज है। इन निर्वासित कश्मीरी कवियों ने विकट बेबसी में अस्मिता और अस्तित्व के प्रश्नों को शिद्दत से उठाया है।

अग्निशेखर ने पुस्तक की भूमिका में ठीक लिखा है कि अपनी भूमि से बिछोह, जनसंहार की दारुण स्मृतियों, घृणा की राजनीति, कैंपों में पशुओं जैसी ज़िन्दगी, अस्तित्व और अस्मिता के प्रश्न, अनदेखी, एक जीती- जागती संस्कृति के विलोपन की आशंका जैसी विचलनकारी चिन्ता इन समकालीन कश्मीरी कवियों का वर्ण्य-विषय है। यह निर्वासन-चेतना आर्थिक बाध्यताओं, प्राकृतिक आपदाओं, विकास के कारण हुआ विस्थापन न होकर आस्था विशेष के नाम पर हुए जेनोसाइड (जनसंहार) के चलते घटित हुई है। हालांकि संवेदना के स्तर पर सभी तरह के विस्थापनों की पीड़ा की भावभूमि एक सी होते हुए भी आधुनिक कश्मीरी कविता में केंद्रीय भाव-बोध के आयाम तनिक भिन्न हैं। इन कश्मीरी कविताओं के रचनाकार पाकिस्तान समर्थित जेहादी आतंकवाद, अलगाववाद के चलते बेदखल कर दिए गए कवि हैं। कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद, जेहादी हिंसाचार, घृणा की राजनीति के चलते कश्मीर के मूल निवासी लाखों कश्मीरी हिन्दुओं को सुनियोजित ढंग से मातृभूमि से धर्म के आधार पर बेदखल कर जलावतनी में धकेला गया। आज इतने दशकों बाद भी उस जेनोसाइड की दारुण स्मृतियां रोंगटे खड़े करती हैं। पारंपरिक संस्कृतिमूलक जीवन शैली, परस्पर सौहार्द, मित्रताएं, सह अस्तित्व को धत्ता बताते जेहादी विमर्श ने लोगों के पांवों तले की जमीन ही छीन ली। जेनोसाइड-चेतना की ये समकालीन कश्मीरी कविताएं संघर्षरत् अंतर्देशीय शरणार्थियों की आहत भावनाओं का दस्तावेज तो हैं ही, ये कविताएं एक गंभीर सामाजिक उद्देश्य के साथ चलती हैं। ये कविताएं वस्तुस्थिति का बेबाकी से वर्णन करती हैं और उन्हें अलग महत्त्व प्रदान करती हैं। इन कविताओं को पढ़कर एक संवेदनशील पाठक के भीतर एक प्रश्नाकूलता कुलबुलाने लगती है। यह जेनोसाइड और जबरिया निर्वासन व्यक्ति अथवा समूह या समुदाय विशेष को उसकी जन्मभूमि से ही वंचित नहीं करता, बल्कि उससे उसका संसार ही ले लेता है जिसमें उसकी आत्मा बसी होती है। उसकी स्मृतियां, तीज-त्योहार, परंपराएं, धरोहर, उसका पर्यावरण, उसकी स्थान-चेतना, लोकवार्ता, मातृभाषा, साहित्य धीरे-धीरे उससे छिटकने लगता है।

'हम जलावतन' संकलन में शामिल निर्वासन चेतना की कश्मीरी कविताओं को पढ़ते हुए मन में यह टीस उभरती है कि साहित्य में जिस तरह स्त्री विमर्श है, दलित विमर्श है, आदिवासी विमर्श है, वद्धावस्था विमर्श है, उसी तरह निर्वासन विमर्श क्यों नहीं है जबकि निर्वासन विमर्श की बुनियाद रखनेवाली विपुल कविताएं और गद्य साहित्य उपलब्ध है।


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हिंदी समय में कृपाशंकर चौबे की रचनाएँ