राम मनोहर लोहिया ने समाजवादी समाज की स्थापना के लक्ष्य को सामने रखकर सक्रिय पत्रकारिता भी की थी। उन्होंने अगस्त 1956 में अंग्रेजी मासिक 'मैनकाइंड' और मई 1959 में हिंदी मासिक पत्रिका 'जन' निकाली। दोनों पत्रिकाओं का उद्देश्य हिंदुस्तान में और दुनिया में आदमी की जिंदगी की असलियतों की जानकारी हासिल करना और उसके भविष्य की खोज करना था। दोनों पत्रिकाओं के हर अंक में जानकारीभरे और विचारपूर्ण लेख, दस्तावेज और जीवंत संपादकीय टिप्पणियां होती थीं। दोनों पत्रिकाओं का भरोसा लोकतंत्र, समाजवाद, सिविल नाफरमानी, विश्व सरकार और अहिंसक क्रांति में था। दोनों पत्रिकाओं में लोहिया स्वयं विशेष लेख और विचारोत्तेजक टिप्पणियां लिखते थे। उनके लेखन में विषयों की विपुल विविधता थी। केवल 'मैनकाइंड' के विभिन्न अंकों को देखें तो उसमें छपे लोहिया के लेखों के शीर्षक पढ़कर ही विषयों की विविधता का अंदाजा लगाया जा सकता है। मसलन, लोहिया ने 'मैनकाइंड' के सितंबर 1956 के अंक में कुछ ऐतिहासिक तिथियां और महिलाओं के विशेष अधिकार, मई 1958 के अंक में मानव जाति की एकता, अगस्त 1958 के अंक में दो हड़तालें, जल-अकाल और लू, खरसवन का रक्तस्नान, एक बहुआयामी विश्लेषण, अक्टूबर 1958 के अंक में बनारस विश्वविद्यालय, फरवरी 1959 के अंक में एक तर्कहीन स्थिति, जुलाई 1959 के अंक में विशुद्धतावाद और अप व्ययी प्रवत्ति, अगस्त 1959 के अंक में मराठा जाति, अप्रैल 1960 के अंक में आजादी, स्थान और संघर्ष, जून 1960 के अंक में आंध्र जाति तथा शिखर सम्मेलन, जून 1960 के अंक में वर्तमान सिविल नाफरमानी आंदोलन, जुलाई 1960 के अंक में त्वचा के रंग का मुद्दा तथा न्याय का गर्भपात, अक्टूबर 1960 के अंक में बंगाल के युवजनों से अपील, तथा विश्व नागरिकतावाद, नवंबर 1960 के अंक में सत्याग्रह तथा युवाओं का विद्रोह, फरवरी 1961 के अंक में इंगलैंड की महारानी का दौरा तथा हम और विश्व संसद, फरवरी 1961 के अंक में उड़ीसा के चुनाव तथा ऊंची जाति का जज और हत्या, विदेश नीति की कसौटी, फरवरी 1966 के अंक में क्रांतिकारी आर्थिक कार्यक्रम, काशी विश्वविद्यालय, ताशकंद घोषणा और.., मार्च 1966 के अंक में विपक्षी दलों की एकता, तथा केरल और खाद्यान्न, जुलाई-अगस्त 1966 के अंक में भेदभाव और समानता, चुनाव-पूर्व का वर्ष, जनवरी-फरवरी 1967 के अंक में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाएं, जनवरी-फरवरी 1967 के अंक में नागरिक स्वतंत्रताएं और दंड प्रक्रिया संहिता, जनू 1967 के अंक में राष्ट्रपति चुनाव के बाद, जुलाई 1967 के अंक में अमेरिकी मार्गों का भारत प्रेम, जुलाई 1967 के अंक में गांधी और बम, अगस्त 1967 के अंक में अगस्त क्रांति की पच्चीसवीं वर्षगांठ, अगस्त 1967 के अंक में वंशवादी सिद्धांत शीर्षक टिप्पणी लिखी थी।
लोहिया की दृष्टि में देश पहले था, बाकी चीजें उसके बाद। उन्होंने 'मैनकाइंड' के अप्रैल 1960 के अंक में 'आज का दुःखी भारत और भविष्य की सुनहरी झलक' शीर्षक लेख में देश-दशा का चित्रण इस तरह किया था, 'भारत को एक ऐसा छोटा कमरा कहा जा सकता है जिसमें बहुत ही ज्यादा आदमी रहते हों और जगह बहुत ही तंग और थोड़ी हो। ऐसी हालत में लोग एक दूसरे को कहनियों से धक्का देकर पीछे ढकेल सकते हैं और ताकतवर लोग थोड़ी और ज्यादा खाद्य पदार्थों व दूसरी प्राप्य चीजों की सुविधाओं को लेने के लिए जबर्दस्ती खुद को और ज्यादा जगह में फैला सकते हैं। यह भी हो सकता है कि वे संघर्ष करने की सोचें और उस छोटे से कमरे की संकरी दीवारों को गिरा डालने का सामूहिक सम्मिलित निर्णय करके इस मकसद से एक साथ आगे बढ़ें।" 1 लोहिया देश में स्वार्थ और परमार्थ का संतुलन बिगड़ जाने से क्षुब्ध थे। उनका यह क्षोभ 'जन' के जून 1967 के अंक में स्वार्थ और परमार्थ, निराशा का कर्तव्य शीर्षक टिप्पणी में इस तरह व्यक्त हुआ था, "स्वार्थ की हद होनी चाहिए। उसकी मात्रा परमार्थ की मात्रा से कभी बढ़नी नहीं चाहिए। इसलिए सबसे अच्छा आदमी वह है जो दूरतम स्वार्थ का साधक है।" 2 इसी टिप्पणी में उन्होंने खिन्न होकर लिखा था, "उत्तर प्रदेश के समाजवादियों में ताजगी नहीं रह गई है। शायद देश में कहीं नहीं रह गई है। यह तभी हो सकती है जब पढ़ने-लिखने का काम कुछ बढ़े।" 3 लोहिया भारत के राजनीतिक दलों में समन्वय का स्वप्न देखते थे। उन्होंने 'जन' के जुलाई 1967 के अंक में 'बजटः पराया तन मन और बेरोक विलासिता' शीर्षक टिप्पणी में लिखा था, "लोकसभा में पश्चिम एशिया की बहस के समय जब मैं अटल बिहारी वाजपेयी को सुन रहा था तो ऐसा लगा कि अटल बिहारी वाजपेयी जी और डांगे जी और गोपालन जी ये तीनों चाहें तो आसानी से एक सरकार में रहकर अपना कामकाज चला सकते हैं।" 4 लोहिया की वह समन्वयवादी दृष्टि ही थी कि 12 अप्रैल 1964 को उन्होंने तत्कालीन जनसंघ के महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय के साथ नकली बंटवारे की समस्या पर संयुक्त वक्तव्य जारी किया था। उस वक्तव्य में दोनों नेताओं ने कहा था, "पूर्वी पाकिस्तान में व्यापक पैमाने पर हुए दंगों के फलस्वरूप दो लाख से ऊपर हिंदू और दूसरे अल्पसंख्यक भारत आने को विवश हुए हैं। हमारा ध्रुव विचार है कि पाकिस्तान के हिंदू और दूसरे अल्पसंख्यकों के जान-माल की रक्षा करना- कराना भारत सरकार का कर्तव्य है।" 5
समन्वयवादी होने के बावजूद लोहिया राजनीति में जमीन से नहीं जुड़ने के राजनीतिक दलों के दोष की खबर लेने में संकोच नहीं करते थे। उन्होंने 'जन' के अगस्त 1967 के अंक में 'नक्सलबाड़ी, आसनसोल और कलकत्ता' शीर्षक टिप्पणी में लिखा था, "साम्यवाद आज वियतनाम पर पलता है। कल क्यूबा पर पलता था। साम्यवाद विरोध तिब्बत या हंगरी पर पलता है। कभी-कभी दोनों ही पूर्वी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर होनेवाले जुल्म पर पलने की कोशिश करते हैं। क्या धरती में जड़ें रखनेवाले दल इस वाहयात ढंग से आचरण करते? 6 बड़े राजनेताओं के दोष की आलोचना करने से भी लोहिया परहेज नहीं करते थे। 'जन' के अक्टूबर 1967 के अंक में महात्मा गांधी पर लिखे अपने एक लेख का शीर्षक ही लोहिया ने दिया था-'गांधीजी का दोष'। उसमें उन्होंने लिखा था, "1947 में हिंदुस्तान के बंटवारे के दोष से गांधीजी मुक्त नहीं किए जा सकते।" 7
लेकिन वही लोहिया प्रतिकूल समय में भी राजनारायण के पक्ष में बोलने का साहस भी रखते थे। राजनारायण से जुड़ी एक घटना के आईने में भारत के संसदीय व्यवहार का भिन्न भाष्य प्रस्तुत करते हुए लोहिया ने 'मैनकाइंड' के अक्टूबर 1958 के अंक में संसदीय व्यवहार के सिद्धांत शीर्षक लेख में लिखा था, "आने वाली पीढ़ियां राजनारायण सिंह को स्वतंत्र भारत के पहले कुछ वर्षों के सबसे बड़े संसदीय व्यक्तित्व के रूप में याद रखेंगी। जवाहरलाल नेहरू को संभवतः एक ऐसे उल्लेखनीय संसदीय व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा जो चालाक रणनीतिकार या, जो यह जानता या कि दूसरों पर दोष कैसे मढ़ा जाता है, कैसे विपक्ष को प्रशंसा या घमकी या दोनों के मेल से चुप रखा जाता है और यह संसद के लंबे इतिहास में याद रहेगा। राजनारायण का नाम संक्षिप्ततम संसदीय इतिहास में जनता के चैंपियन के रूप में, संसदीय अधिकारों के योद्धा के रूप में और सबसे ऊपर, संसद के अंदर तथा बाहर समान रूप से हिंसा के शत्रु और सिविल नाफरमानी के धर्मयोद्धा के रूप में याद रखा जाएगा। उसे ऐसे व्यक्ति के रूप में याद रखा जाएगा जिसने अपने शरीर को अपने धर्म का साक्षी बनाया, जिसने कमजोर, बेसहारा और अकेले आदमी को शब्दों से अधिक अपनी मिसाल से सिखाया कि कैसे अन्याय के आगे कभी नहीं झुकना चाहिए।" 8
लोहिया ने उसी टिप्पणी में विरोध के लिए राजनारायण द्वारा अपनाई गई कार्य शैली को अनुचित मानने से इंकार किया और लिखा, "सदन के अंदर श्री राजनारायण द्वारा सिविल नाफरमानी की कार्रवाई की बारीकी से किंतु व्यापक जांच होनी चाहिए। उन्होंने संभव है, सचमुच मुख्यमंत्री पर जूता फेंका हो या खाद्य मंत्री को थप्पड़ मारा हो। इसे तात्कालिक आवेश की अभिव्यक्ति माना जा सकता था और इसके लिए हल्की सजा दी जा सकती थी। बहुत से लोगों ने इस सतही साहस या आवेश की प्रशंसा की होगी। तथापि, इस कार्रवाई का कोई महत्व नहीं होता। वास्तव में इस तरह का व्यवहार असंयत आचरण को बढ़ावा देता है और आदमी की गरिमा के अपमान की स्थिति पैदा करता है। 9 कमजोर और अकेले आदमी को इससे कोई लाभ नहीं होता और बहुत बड़ी ताकत के सामने सभी आदमी कमजोर और अकेले होते हैं। इस तरह के काम आम आदमी में आत्मसमर्पण की आदत डालते हैं। राजनारायण का काम इस बात का प्रतीक है कि बिल्कुल निहत्था और शक्तिहीन आदमी सशस्त्र शक्ति के आगे क्या कर सकता है। उसे घुटने नहीं टेकने चाहिए। उसे सताने वाले पर प्रहार नहीं करना चाहिए। उसे सिर्फ इतना करना चाहिए कि वह हुक्म मानने से इनकार करे क्योंकि वह सिविल नाफरमानी की लगभग धार्मिक शक्ति से प्रेरित होता है। अब तक हथियार के सामने तर्क-बुद्धि टूटती रही है जब तर्कहीन सशस्त्र शक्ति का मुकाबला करने के लिए तर्क शस्त्र का सहारा लेता है तब भी वह उसी प्रकार टूटता है जैसे वह शस्त्र का सहारा लेने से इनकार करने पर दबाए जाने से टूटता है। तर्क को उसका उचित हथियार सिविल नाफरमानी से ही मिलता है। मानवता के पास तर्क को शस्त्रयुक्त बनाने का और कोई तरीका नहीं है। सिविल नाफरमानी सशस्त्र तर्क है। किंतु उत्तर प्रदेश की विधान सभा में राजनारायण की कार्रवाई को दोहरे अर्थ के लिए लंबे समय तक याद रखा जाएगा। इसे लंबे समय तक इस बात के प्रतीक के रूप में याद किया जाएगा कि आदमी संकट की घड़ी में क्या कर सकता है, ऐसे क्षण में जब कमजोर आत्मा उन्हें अत्याचार और शोषण के आगे समर्पण करने को आमंत्रित करती है। इस कार्रवाई ने संसदीय धोखे पर जबर्दस्त चोट की है बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि यह संसद के दर्पण को बेदाग और निष्कलंक बनाए रखने के लिए कष्ट-सहन का अत्यंत कठोर अभ्यास था। भले ही आज चापलूस और पाखंडी लोग इसकी निंदा करें, संसदीय कार्यविधि के सुधार के महान लक्ष्य की दिशा में इसे महत्वपूर्ण कदम माना जाएगा।" 10
भारत में संसदीय लोकतंत्र पर बहस के संदर्भ में लोहिया ने 'जन' के सितंबर 1966 के अंक में 'हत्यारे का बढ़ता हुआ हाथ' शीर्षक अपने लेख में कहा था, "लोकतंत्र और हिंसा के इस सारे मामले को सफाई से समझना होगा। मैं पूरी गंभीरता से कहना चाहता हूं कि हमारा दल को एक मानी में असहाय है, वह क्यों संसदीय प्रणाली को खत्म करना चाहेगा। हम तो चाहेंगे कि हर बालिग का वोट रहे। आज अगर वह बालिग डर के मारे या लालच के मारे या चुनाव के मौके पर रेडियो और इश्तहार की भयंकर आवाज के मारे कांग्रेस के साथ चला जाता है तो हमने अपना विश्वास नहीं खो दिया है। मुझे विश्वास है कि आज नहीं तो कल, परसों, दो-पांच-सात बरस में वह ठीक रास्ते पर आकर कांग्रेस सरकार को धक्का देगा।" 11
लोहिया जिस नैतिक आवेग के साथ अंदरुनी राजनीति का भाष्य करते थे, उसी आवेग के साथ सीमा विवाद पर भी। चीन के विस्तारवादी रवैये से चिंतित लोहिया ने 'जन' के मार्च 1960 के अंक में चीन-हिंदुस्तान शीर्षक लेख में लिखा था, "हिंदुस्तान पर चीन को बढ़ने की हिम्मत क्यों हुई? तीन-चार साल पहले जब वह लद्दाख में बढ़ा, तो भारत सरकार ने सिवाय चिट्ठीबाजी के कुछ नहीं किया। इसलिए उसका हौसला बढ़ गया।" 12 लोहिया ने इसके पीछे चीन की मंशा पर भी प्रकाश डाला था। उन्होंने उसी लेख में लिखा था, "चीन की इस हरकत के पीछे दो मकसद हैं। एक-चीन ज्यादा जमीन के लिए तो फैलना चाहता ही है, पर वह केवल इसीलिए नहीं, बल्कि कुछ और उद्देश्य लेकर फैलना चाहता है। दो-इससे भी बड़ा मकसद उसका यह है कि वह साम्यवाद या कम्युनिज्म को बढ़ाना चाहता है। वह दूसरे इर्द-गिर्द के देशों में साम्यवादी हुकूमतें कायम करना चाहता है।" 13
लोहिया ने 'जन' के मार्च 1960 के अंक में 'हिंदुस्तान की वर्णमालाएं' शीर्षक लेख में हिंदुस्तानी वर्णमालाओं की एकता को स्थापित किया। उन्होंने लिखा, "तमिल भी नागरी वर्णमाला का ही थोड़ा बदला या बिगड़ा हुआ रूप है। तमिल वर्णमाला ने तो केवल कुछ नागरी अक्षरों को छोड़ दिया है तथा थोड़े से नए शामिल कर लिए हैं। उड़िया या बांग्ला में भी जो थोड़ा सा परिवर्तन आया है, उसके दो कारण हैं। एक-ताल पत्र या भोज पत्र के इस्तेमाल की वजह से, दो- वर्णमाला को सुंदर कलात्मक रूप देने की कोशिश की वजह से।" 14 लोहिया ने लिखा था कि हिंदुस्तान की सभी वर्णमालाएं एक ही जाति के अंग हैं। उसी लेख में उन्होंने कहा था, "भारत की वर्णमालाएं उर्दू को छोड़कर ध्वनि या उच्चारण के दृष्टिकोण से 99 प्रतिशत या शक्ल के दृष्टिकोण से 80 प्रतिशत एक प्रकार की हैं। किसी वर्णमाला के दो गुण होते हैं। एक-ध्वनि या उच्चारण। दो-अक्षरों की शक्ल। भारत की वर्णमालाओं के बहुसंख्यक अक्षरों की ध्वनि में समानता है। यह समानता उनकी बनावट और शक्ल में भी काफी है।" 15
लोहिया अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर सतत निगाह रखते थे। उन्होंने 'मैनकाइंड' के नवंबर 1956 के अंक में फ्रांस में जनता की कार्यवाही के संदर्भ में लिखा था, "एक देश से दूसरे देश में सूचना संप्रेषण की स्थिति काफी खराब है। न्यूयार्कर पत्र की दुनिया खुश, सुरुचि संपन्न, शक्तिशाली किंतु न्यूयॉर्क तक सीमित है; कोई भी दूसरा शहर चाहे, वह कितना ही बड़ा और शक्तिशाली हो, सीमित ही होता है। यह न्यूयार्कर न होता तो मैनकाइंड को अल्जीरिया के 'गंदे युद्ध' के खिलाफ फ्रांस की जनता की कार्रवाई की जानकारी ही नहीं मिलती। अपने 9 जून के अंक में न्यूयार्कर ने उस एक घंटे की हड़ताल की रिपोर्ट छापी है जो लिमोक्स टाइल मेकर्स में उसके तीन कर्मचारियों को सेना द्वारा बुलाए जाने पर हुई और उस हड़ताल के बारे में भी जो 411 मार्कोनी मजदूरों ने पेरिस के बाहर की। राऊन गोदी कर्मचारियों ने जहाजों में युद्ध सामग्री लादने से इनकार किया और हड़ताल कर दी। कम्युनिस्ट पत्र ह्लूमैनाइट युद्ध विराम तथा अल्जीरिया में शांति के लिए बातचीत की मांग के साथ इस कार्रवाई को प्रोत्साहन देता रहा है। ह्यूमैनाइट ने लामेनस, नाइस और एंटिवस्स में रेलगाड़ियों की कार्रवाई के खिलाफ भी जनता के विरोध की खबर छापी। ग्रेनोबल में कानवाही ट्रेन को घंटों रोका गया, लोग पटरियों पर लेट गए। इसी तरह का विरोध नज़ेरे में बहुत भारी रहा और यह इतना क्रूर था कि जब गाड़ी वहां से चली तो केवल दो सैनिक उसमें रहे। कम्युनिस्ट ह्यूमैनाइट ने प्रदर्शनकारियों की संख्या आठ हजार बताई जिसमें धातु-कारखानों, नौसेना शिपयार्ड और मशीन शॉप के कर्मचारी तथा कुछ स्थानीय महिलाएं थीं खासकर माताएं और प्रेमिकाएं। राष्ट्रीय पत्र किगारो ने प्रदर्शनकारियों की संख्या तीन हजार ही बताई। कानवाहियों को अक्सर रोका गया, उदाहरण के लिए बेंडोल में दो घंटे के लिए, क्विंपरे-पेरिस एक्सप्रेस को तीन घंटे, लियोन-बोर्डियो एक्सप्रेस को 17 बार विद्रोही सैनिकों ने ही अलार्म चेन खींचकर रोका।" 16
इतना विवरण देने के बाद लोहिया ने क्रांतिकारियों को सलाह दी थी कि उनके लिए क्या करणीय है। उन्होंने लिखा था, "इन पुश्तैनी गुलामों की अटूट सत्ता के बीच क्रांतिकारियों को सावधान रहना चाहिए। सभी निजामों के दंडधारियों को कोसने, इनका मजाक उड़ाने या इनकी निंदा करने से काम नहीं चलेगा। क्रांतिकारियों की उन कमजोरियों को बेरहमी से दूर किया जाना चाहिए जो इस प्रकार की गुलामी को स्थायित्व प्रदान करती हैं। क्रांतिकारियों को अध्ययनशील और मुकम्मिल बनना होगा, अपने शब्दों तथा विचारों में बिल्कुल सही बनना होगा, दृढ़ निश्चयी बनना होगा और योजना के अनुसार काम करना होगा। स्थिरता के सुरुचि संपन्न गुलामों की तरह कपड़े पहनना और भाषा बोलना उनके लिए जरूरी नहीं है लेकिन उन्हें नम्र, सुविज्ञ और यथातथ्य बनना होगा। उन्हें समायोजन की कला सीखनी होगी क्योंकि क्रांतिकारी में हठीलापन होता है और हठीले लोगों के लिए समायोजन करना बहुत मुश्किल होता है। हम अन्य राजनैतिक पार्टियों के साथ समायोजन का सुझाव नहीं दे रहे हैं, यह समायोजन क्रांतिकारी लोगों के बीच होना चाहिए, उसी तरह जैसे शासक वर्ग, अपने अगड़ों और प्रतिद्वंद्विताओं के बावजूद, अपने बीच समायोजन करते हैं। क्रांतिकारियों को अपने धन के प्रति भी उदार होना चाहिए क्योंकि वे अपनी सरकारों को चलाने में तभी सक्षम होंगे जब वे यह जानते होंगे कि अपना धन और श्रम पार्टी को दिया जाता है जब वह खुद सरकार बनने के लिए संघर्ष कर रही होती है। उन्हें निष्ठापूर्वक यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि सोशलिस्ट पार्टी के दंडधारी, अपरिहार्य 25 प्रतिशत कुलीनों को छोड़कर, वे पुश्तैनी गुलाम नहीं होंगे जो वर्तमान प्रशासन के दंडचारी हैं। उन्हें संघर्ष और बहादुरी के कामों में अपने को निश्चय ही लगाना होगा। लेकिन उन्हें मन और व्यवहार के प्रशिक्षण में भी समान रूप से अपने को लगाना होगा जिससे क्रांति का संगठन और प्रशासन से मेल हो।" 17
विश्व समाजवाद का सपना देखनेवाले लोहिया सोशलिस्टों की कमजोरियों और व्यर्थता को भी ठीक-ठीक पहचानते थे। उन्होंने 'मैनकाइंड' के अगस्त 1958 के अंक में अपनी टिप्पणी का शीर्षक ही दिया था-विश्व समाजवाद की निरर्थकता। उसमें उन्होंने लिखा, "14 जून को संगठित विश्व समाजवाद अपनी व्यर्थता की पूर्ण अभिव्यक्ति थी। सोशलिस्ट इंटरनेशनल की सामान्य परिषद ने अल्जीरिया युद्ध सहित फ्रांस की स्थिति पर तीन सूत्री प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में सोशलिस्ट इंटरनेशनल ने विश्वास व्यक्त किया कि फ्रांस की सोशलिस्ट पार्टी सभी परिस्थितियों में लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं की रक्षा करने में सफल होगी। चौदह दिन पहले फ्रांस के सोशलिस्टों ने संसदीय प्रक्रियाओं को निलंबित कर सारी विधायी शक्तियां एक व्यक्ति को छह महीने के लिए सौंप दी थीं। सोशलिस्ट इंटरनेशनल इस विडंबनापूर्ण स्थिति से परिचित नहीं रही होगी जिसमें फ्रांस के सोशलिस्टों ने प्रतिनिधि सरकार को खत्म कर दिया था और फिर भी वह उम्मीद कर रहा था कि लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा होगी। यह संभव है कि यूरोप के समाजवादियों का दिमाग दो हिस्सों में बंटा है जो एक दूसरे के लिए बंद हैं, जिनमें एक हिस्सा लोकतंत्र आदि की अमूर्त कल्पनाओं में उलझा रहता है और दूसरा मूर्त विचारों तथा लोकतांत्रिक व्यवहार की संभावनाओं में। दिमाग के दो बंद खानों में विभाजन की शुरुआत विदेशी साम्राज्यवाद के मद्देनजर हुई होगी जिसका प्रमाण प्रस्ताव का अल्जीरिया संबंधी अंश देता है और अब इसे आंतरिक सरकार पर भी लागू कर दिया गया है।" 18
उसी टिप्पणी में लोहिया ने लिखा, "अगर हमारी भावनाएं नहीं जगेगी तो संतुलन बिगड़ जाएगा। भावनात्मक परेशानी का एक कारण यह भी है कि सोवियत खेमा साम्राज्यवादी विशेषाधिकारों से मुक्त रहा है। फिर भी मन को दृढ़ता बनाए रखना जरूरी है और उसके संतुलन को नहीं बिगड़ने देना होगा। समय गुजरने के साथ भावनाएं मन के साथ मेल स्थापित कर लेंगी और भावनात्मक संयम मन की शांति के समानांतर जाएगा। लेकिन समस्या कठिन है। रंगीन जातियों के लिए तो बहुत ही कठिन है। जब तक उनके पास सेनाएं हैं और वे कारखाने स्थापित करने के इच्छुक हैं, उनके देश अपने को अलग नहीं रख सकते और उन्हें किसी न किसी खेमे की पाशविक शक्ति है जुड़ना ही पड़ेगा। कई मौकों पर उन्हें उस खेमे से मदद भी मिलेगी जो साम्राज्यवादी विशेषाधिकारों से अपेक्षाकृत मुक्त है। सोवियत हथियार प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से एशियाई देशों के हाल के विकास के पीछे रहे हैं और आगे और भी रहेंगे। जब तक रंगीन देश और उनके राज्य सेनाओं से मुक्ति प्राप्त करना नहीं सीखेंगे तब तक उन्हें सोवियत हथियारों का इस्तेमाल आर्थिक साम्राज्यवाद का मुकाबला करने के लिए करना पड़ेगा। क्या वे यह कर सकते हैं, यह जानते हुए कि इन हथियारों में जितनी इलाज की क्षमता है उतनी ही जहर फैलने की भी क्षमता है? क्या वे समान अप्रासंगिकता की चट्टान पर मजबूती से खड़े रह सकते हैं? क्या यह भी संभव है कि अमेरिका की जनता भी कुछ मात्रा में अमेरिकी सरकार को बाध्य करें कि वह साम्राज्यवाद के मुनाफाखोरों का सक्रिय नेतृत्व करना बंद करे?" 19
जो अपनी आलोचना कर सकता है, उसे ही दूसरों की आलोचना का अधिकार होता है। समाजवादी लोहिया ने सोशलिस्टों की आलोचना की तो अंतरराष्ट्रीय नीति के प्रश्न पर विश्व की हर राजनीतिक पार्टी की आलोचना की। उन्होंने 'मैनकाइंड' के मई 1957 के अंक में विश्व की विभिन्न पार्टियों की अंतरराष्ट्रीय नीति शीर्षक टिप्पणी में लिखा, "विश्व की सभी राजनैतिक पार्टियां अंतरराष्ट्रीय नीति के मामले में निर्धन हैं। उनमें दूर की बात सोचने का साहस नहीं है। युद्ध या विजय का खतरा उन पर मंडराता रहता है और इसलिए वे स्थायी रूप से तात्कालिक झगड़ों को दूर करने और सतही इलाज करने के लिए चिंतित रहती हैं। वे उस आदमी की तरह हैं जो दिवालियेपन की स्थिति को पहुंच गया है और इसलिए वह दिन, महीने या साल का बजट ही बना सकता है। मानव-जाति की जरूरत है कि राजनैतिक पार्टियां सौ या पचास साल की अंतर्राष्ट्रीय नीति बनाएं। विश्व अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में बुनियादी रूप से बीमार है। उसकी नींव सड़ गई है। नई नींव डालने की जरूरत है। बुनियादी बीमारी के बाहरी लक्षणों का इलाज करने से यह नहीं होगा।" 20
मिस्र या अरब के क्रांतिकारी नासर के बारे में लोहिया ने बहुत सतर्क टिप्पणी की। उन्होंने 'मैनकाइंड' के नवंबर 1958 के अंक में राष्ट्रपति नासर का राजनीतिक दर्शन शीर्षक लेख में लिखा, "राष्ट्रपति नासर पहला या आखिरी, मिस्र या अरब का क्रांतिकारी नहीं है। इतिहास के परिप्रेक्ष्य में उन्हें अनेक क्रांतिकारियों में एक कहा जाएगा और जरूरी नहीं, सबसे बड़ा ही कहा जाए। तथापि, उनके विचारों की समीक्षा की जानी चाहिए क्योंकि वे वर्तमान समय के सबसे अधिक प्रतिनिधि अरब नेता हैं। उनके विचारों के कुछ अंशों पर लाखों लोग सहमत होंगे। जरूरी नहीं कि वे सही और प्रभावकारी ही हों। कुछ तो निश्चय ही हैं। हम यहां सही और प्रभावकारी अंशों को गलत और निष्प्रभावी अंशों से विस्तार से अलग नहीं करना चाहते हैं किंतु राष्ट्रपति नासर के राजनैतिक चिंतन का मोटे तौर पर सर्वेक्षण करना चाहते हैं। इस पर बहुत अस्पष्ट तरीके से विचार हुआ है। मित्र और शत्रु, अरब और गैर-अरब, मिस्र या अरब की क्रांति की सामर्थ्य और कमजोरी को देखने में अनिच्छुक या असमर्थ रहे हैं। इसकी एक वजह यह रही कि राष्ट्रपति नासर ने अपनी पुस्तक 1955 में लिखी और वे अपने विचारों में परिवर्तन कर सकते थे। तथापि, यह निर्णायक महत्व की बात नहीं है। जब तक नए विचारों को घोषित और पुराने विचारों के ऊपर स्थापित नहीं किया जाएगा, अरब दुनिया के बारे में यही माना जाएगा कि उसके विचारों में पुराने विचारों का ही सार है। 21 राष्ट्रपति नासर ने मिस्र की क्रांति को तीन वृत्तों में चला बताया है। पहला वृत्त अरब का वृत्त है, दूसरा अफ्रीका का और तीसरा इस्लाम का। इससे पहले कि बाहरी वृत्तों को समझने की कोशिश की जाए, नासर द्वारा प्रस्तुत मिस्र की क्रांति पर विचार कर लिया जाए। उनका विचार है कि जगलुल पाशा की 1919 की क्रांति दो चक्की के पाटों के बीच पिसी, एक राजनैतिक क्रांति जिसमें अत्याचारी शासन को परास्त किया गया और दूसरी सामाजिक क्रांति जिससे न्याय को सुरक्षित किया गया। उनका विचार है कि अन्य देशों को भी इन दो क्रांतियों से गुजरना पड़ा, लेकिन एक ही समय में नहीं : 'उनकी क्रांतियों में सदियों का अंतर रहा।' मिस्र के लोगों का 'भयानक अनुभव' यह है कि उन्हें दोनों क्रांतियों से एक ही समय में गुजरना पड़ा। राजनैतिक और सामाजिक क्रांतियों के विभाजन या उनके बीच समय के अंतराल के फर्क पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह धारणा गलत है। अमेरिका, फ्रांस, चीन की क्रांतियों में राजनैतिक और सामाजिक क्रांति एक साथ हुई। रंगीन जातियों की क्रांति को अवरुद्ध करने या विफल करने वाले कारणों पर ज्यादा व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचार होना चाहिए जैसे मानव सभ्यता के मुद्दे और उनकी गति। रूसी क्रांति भी राजनैतिक और सामाजिक क्रांतियों के दो पाटों में फंसी थी और भारतीय क्रांति भी। भारतीय क्रांति अन्य प्रकार से अवरुद्ध हुई होगी। यह जरूरी नहीं कि उसे स्थायी पराजय कहा जाए। वास्तव में, अस्थायी अवरोध निर्णायक महत्व की सफलता की दिशा में कदम सिद्ध हो सकता है। जब रंगीन समाजों को इस बात का बोध हो जाएगा कि उनकी क्रांतियां क्यों लगातार अवरुद्ध होती रहीं तो मानव-जाति का नया युग शुरू हो जाएगा।" 22
उसी टिप्पणी में लोहिया ने कहा, "भारत की विदेश नीति का ऐसा वस्तुनिष्ठ विश्लेषण अभी होना है जो अटलांटिक और सोवियत खेमों के पूर्वाग्रहों से मुक्त हो तथा गर्व और सम्मान की खोखली भावनाओं से भी मुक्त हो। इस स्पष्ट तथ्य की तरफ भी लोगों का ध्यान नहीं गया कि विदेश नीति में 1953 में और फिर 1958 में बदलाव हुए। एक अर्थ में भारत की विदेश नीति हमेशा ही कॉमनवेल्थ से बंधी रही और यह हथियारों की खरीद के मामले में तो खासतौर पर निर्विवाद है। लेकिन गुटनिरपेक्षता और बारी-बारी दोनों खेमों की सेवा का दूसरा आधार भी है। 1953 और 1958 की अवधि में सोवियत खेमे की सेवा में, अटलांटिक खेमे की तुलना में, ज्यादा ही ध्यान दिया गया किंतु अब उलटा क्रम चल पड़ा लगता है। 1952 की संसद में जब प्रधानमंत्री को एक घंटे से ज्यादा की दखलंदाजी में तीन बार बोलने से रोका गया था, उसमें साम्यवादी विपक्ष ने क्या भूमिका अदा की, इस बात की जांच होनी चाहिए। इस तथ्य का भी अध्ययन होना चाहिए कि साम्यवादी विपक्ष को अगले पांच सालों में अधिकाधिक पालतू बनाया गया। यह रोचक अतिरिक्त जांच हो सकती है जबकि मुख्य महत्व विदेश नीति के आधारों को दिया जाना चाहिए। जब कोई भारत की विदेश नीति की उपलब्धियों को तर्कपूर्ण ढंग से विस्तार के साथ प्रस्तुत करेगा तो विदेश-नीति के प्रत्येक मुद्दे पर यह कहना होगा कि किन मुद्दों पर भारत बेहतर करू सकता था, किंतु नहीं किया और किन पर वह भविष्य में या वर्तमान में काम कर सकता है, लेकिन नहीं कर रहा है।" 23
लोहिया कई देशों के प्रतिनिधियों द्वारा बंदर जैसा व्यवहार किए जाने से खिन्न थे। उनकी खिन्नता 'मैनकाइंड' के फरवरी 1959 के अंक में स्पुतनिक शीर्षक टिप्पणी में प्रकट हुई। उस टिप्पणी में उन्होंने लिखा था, "भले ही कितनी ही एटलसें अमेरिकी राष्ट्रपति का संदेश अंतरिक्ष से धरती पर भेजें, स्पुतनिक शब्द ने 'सेटलाइट' शब्द पर लगभग अपराजेय बढ़त प्राप्त कर ली है। रूसी शब्द का अंग्रेजी शब्द पर यह वर्चस्व इस बात का द्योतक है कि रूसी विज्ञान ने अमेरिकी विज्ञान पर कम से कम प्रयोगात्मक क्षेत्र में बढ़त प्राप्त कर ली है। रूसी रॉकेट का चांद से आगे सूर्य की तरफ बढ़ना, चाहे यह सुनियोजित हो या संयोगिक, इसी का प्रमाण है। यह धरती से लगभग 6 लाख मील दूर तक गया और इसकी वर्तमान स्थिति अज्ञात है। जिन देशों ने परमाणु विभाजन कर लिया है, वे युद्ध नहीं कर सकते; इस डर से कि पता नहीं क्या हो। जिन्होंने परमाणु विभाजन नहीं किया, वे भी युद्ध नहीं कर सकते, इस डर से कि कुछ नहीं होगा। फिर भी बंदर आपस में गुर्राते हैं और जनता उत्तेजित होती है। प्रधानमंत्री ने 1957 के चुनाव प्रचार में कश्मीर पर अधिक भाषण दिए, बनिस्बत सारे जीवन के। पाकिस्तान की सरकारें और उनके प्रमुख भी ऐसा ही करते हैं। वे कश्मीर पर भाषण करते हैं, वहां की राजनैतिक या रणनीतिक स्थिति के कारण नहीं बल्कि इसलिए कि यह वोट प्राप्त करने का आसान तरीका है। सीमा के दोनों ओर के लोग स्कस मास्टर के इशारे पर बंदरों की तरह क्यों व्यवहार करते हैं?" 24
लोहिया ने कांगो को साम्राज्यवादी हितों से बचाने के प्रयास और वहां लोकतंत्र की वापसी का स्वागत किया। उन्होंने 'मैनकाइंड' के अक्टूबर 1960 के अंक में कांगो की राजनैतिक समस्या शीर्षक टिप्पणी में कहा, "मैं कांगो की लुमुम्बा सरकार के प्रति सभी रंगीन देशों का गहन भ्रातृभाव प्रकट करना चाहता हूं जो मैंने पहले भी कई बार जनसभाओं में किया लेकिन किसी विचित्र कारण से वह समाचारपत्रों में नहीं छपा। कांगो के लोगों की पीड़ा और उनका महान प्रयास कई महत्वपूर्ण घटनाओं में अभिव्यक्त हुआ है, जैसे, लुमुम्बा सरकार को अपनी जनता का संसदीय विश्वास प्राप्त है और इसलिए उसे औपचारिक लोकतांत्रिक स्वीकृति मिली है उसने लोकतंत्र के मूल्यों की अभिव्यक्ति की है क्योंकि इसने कांगो की जनता को विदेशी गोरे अफसरों के वर्चस्व से मुक्त किया है और अर्थव्यवस्था को भी साम्राज्यवादी हितों से तथा देश को विभाजनकारी प्रवृत्तियों से बचाया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हर तरह से लोकतांत्रिक चरित्र वाली लुमुम्बा सरकार के विरुद्ध आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर अपने लिए बदनामी कमाई और दुनिया की समान-प्रेमी जनता के क्रोध एवं दुख को जगाया है।" 25
उसी टिप्पणी में लोहिया ने कहा था, "अगर महात्मा गांधी ने, जो लुमुम्बा से कहीं बहुत बड़ा आदमी था, भारत के विभाजन का सक्रिय विरोध किया होता या साम्राज्यवादी हितों के निष्कासन का सुझाव दिया होता तो यूरोप-अमेरिका के श्वेत लोगों और उनके सब देशों में विद्यमान एजेंटों ने, लुमुम्बा से भी ज्यादा निंदा की होती। अतः इस प्रकार की निंदा का कोई महत्व नहीं है। रंग की असमानता तथा अन्यायों के खिलाफ संघर्ष अफ्रीका सचमुच एकजुट हो गया है। कांगो का संघर्ष रंग की असमानता को दूर करने का पहला तीव्र और स्पष्ट संघर्ष है। पैट्रिस लुमुम्बा वर्तमान दशक का दूसरा सबसे बड़ा अफ्रीकी नेता है। जोमो केनियाटा जो अब भी जेल में है, पहला नेता है। मुझे इस बात की खुशी है कि श्वेत रूस, स्वार्य या निःस्वार्थ से कांगो के लोगों के साथ खड़ा है। इस बात की बहुत चर्चा हुई है कि कांगो में केवल आधे दर्जन ग्रेजुएट हैं और उसकी समस्या का कारण यही है। मुझे लगता है कि कांगो में बहुत ज्यादा स्नातकों का न होना ही उसकी खुशकिस्मती है जिसके कारण वह स्पष्ट और तीव्र निर्णय लेता रहा है। कांगो तथा अन्य जगहों की सफलता सौंदर्य चेतना में भी क्रांति लाएगा कि चमड़ी के रंग का सुंदरता से कोई संबंध नहीं है और त्वचा की बनावट और अन्य शारीरिक विशेषताएं सुंदरता का निर्धारण करती हैं तथा अफ्रीका की काली स्त्री जल्दी ही विश्व सुंदरी का मुकुट धारण करेगी।" 26
लोहिया ने संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से मानव जाति की अंतश्चेतना अभिव्यक्त नहीं होने का कारण उस विश्व संस्था में कुछ देशों का वर्चस्व होना माना था। लोहिया ने 'मैनकाइंड' के नवंबर 1960 के अंक में संयुक्त राष्ट्र संघ शीर्षक लेख में लिखा, "संयुक्त राष्ट्र की 10वीं बैठक ऐसे माहौल में हुई कि उसकी सब पहले की बैठकें फीकी पड़ गईं, कम से कम प्रचार के मामले में। पहली बैठक ने बहुत काम किया होगा; उसने आधारशिला रखी। जिन बैठकों में कोरिया और स्वेज नहर पर मतदान हुआ, वे अपने काम के महत्व अर्थात् यथास्थितिवाद की दृष्टि से अधिक निर्णायक रही होंगी। 27 यह भी बहस का ही विषय है। लेकिन इस बात को सभी स्वीकार करेंगे कि 10वीं बैठक प्रचार के मामले में सबसे बढ़कर रही। यह प्रचार सिर्फ ऊपरी झाग है या इसमें कुछ सर्जनात्मक तत्व है, आज निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। जो बात निश्चित है वह यह है कि यदि इस प्रचार का लाभ हुआ तो इसका सारा श्रेय सोवियत रूस को जाएगा। अगर सोवियत रूस प्रचार का मुख्य अभिकरण था, तो उसका प्रधानमंत्री खुश्चेव उसका एकमात्र प्रवक्ता था। सभा में लंबे भाषणों से, कई अन्य हस्तक्षेपों से और समाचारपत्रों के साथ फुटपाथों पर की गई दर्जन भर बातचीतों से खुश्चेव ने विश्व को इन बातों पर सोचने और बात करने के लिए मजबूर कर दिया 1. संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता, 2. महासचिव का पद, 3. कांगो में संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्रवाई, 4. उपनिवेशों की स्वाधीनता और सारे विश्व में राष्ट्रीय स्वतंत्रता, 5. सारे विश्व में अपेक्षाकृत समान समृद्धि, 6. निःशस्त्रीकरण।28अन्य देशों ने अन्य मुद्दे उठाकर अपनी तरफ ध्यान खींचने की कोशिश अवश्य की किंतु उनकी संक्षिप्त कोशिशों का परिणाम निराशाजनक ही रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ इस समय बहुत ही कृत्रिम तंत्र बना हुआ है। उसमें पनामा, दहोमी, सिप्रस और अल्बानिया जैसे अनेक छोटे शहर भी अमेरिका, रूस की बराबरी के सदस्य हैं। जोड़-तोड़ से वोट इधर-उधर होते हैं। अगर अटलांटिक खेमे का सदस्य आम सभा में वोट हारता है जो अधिक देशों के बदलते चरित्र को देखते हुए असंभव नहीं है तो यह संयुक्त राष्ट्र संघ पर उतना ही गरम हमला होगा जितना सोवियत संघ ने किया। मानव जाति की अंतश्चेतना संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से अभिव्यक्त नहीं होती, न कभी होगी, जब तक कि इसे वयस्क मताधिकार के आधार पर पुनर्गठित नहीं किया जाएगा। इसमें कोई क्षेत्रीय आधार पर वेटेज की व्यवस्था कर ली जाए ताकि भारत, चीन, अमेरिका, रूस जैसे बड़ी आबादी वाले देशों को वहां वर्चस्व की स्थिति हासिल न हो जाए। 29 विश्व-संसद से निर्मित विश्व-सरकार आज बहुत जरूरी विचार बन गया है हालांकि वह अभी किसी जरूरी योजना में नहीं है। वह देश जो किसी भी तरह के उपनिवेशवाद के खिलाफ है, हंगरी, अल्जीरिया, ग्वाटेमाला, किसी भी प्रकार का, और जो सारे विश्व में अपेक्षाकृत समान समृद्धि के विचार को समर्पित हो, जो हमेशा दान या सहायता की फिराक में न रहता हो, जिसके राजनेता कुलीनों की दर्शक-दीर्घा के लिए बंदर-नाच न करते हों, वह खुश्चेव को उसके खेल में मात दे सकता था, रूसियों के मन में संदेह के कुछ बीज भी डाल सकता था कि मार्क्सवाद या सोवियत व्यवस्था के उपाय सर्वोत्तम हैं अथवा नहीं, किंतु इस तरह का देश अभी कोई है नहीं।" 30
लोहिया ने गोवा की मुक्ति के लिए जो संघर्ष किया, वह इतिहास स्वीकृत तथ्य है। उन्होंने अपनी पत्रिका में भी गोवा के प्रश्न को जोरदार ढंग से उठाया। लोहिया ने 'मैनकाइंड' के अक्टूबर 1957 के अंक में स्वतंत्रता सेनानी और स्वतंत्रता परिरक्षक शीर्षक टिप्पणी में लिखा, "मैनकाइंड के इस अंक में गोवा पर ऐसे व्यक्ति का लेख दिया जा रहा है जो कुछ समय गोवा की जेल में रहा लेकिन अपने को अज्ञात रखना चाहता है क्योंकि वह इस समय भारत सरकार के प्रति वचनबद्ध है। उन्होंने गोवा के छोटे क्षेत्र के लिए दो विचार रखे हैं लेकिन उनका सारी मानव-जाति के साथ संबंध है। 31 सत्ता में बैठे प्रतिष्ठा से लदे दो व्यक्ति घातक संघर्ष में उलझे हैं पुर्तगाली प्रधानमंत्री का कहना है कि पुर्तगाल गोवा में ईश्वर के लिए और संस्कृति की रक्षा के लिए है और इसलिए वह इसे तभी छोड़ेगा जब उसे बल प्रयोग से निकाला जाएगा। भारत के प्रधानमंत्री को भी पूरा यकीन है कि भारत को गोवा में पुर्तगाल के खिलाफ शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिए इसलिए कि उनकी शांति-रक्षक की छवि को आंच न आए। 32 प्रतिष्ठा के दोनों मुद्दे नकली हैं और अक्सर इस तरह की नकली बातों से राज्यों की जनता के बड़े समूह और उनकी सेनाएं प्रभावित हो जाती हैं। पिछले कम से कम दस वर्षों में गोवा में शक्ति के प्रयोग के संबंध में उतने ही नैतिक और अन्य तर्क रहे हैं जिसने कश्मीर में। कश्मीर के पठान लुटरे, गोवा में पुर्तगाली लुटेरों से अधिक विदेशी नहीं हैं। अगर कश्मीर के शासक द्वारा, भारतीय सेनाओं के प्रवेश से पहले, एक कागज पर किए गए हस्ताक्षर ही इतना फर्क करते हैं तो भारत को एक पिछड़ा, कागजों से बंधा राज्य कहा जाना चाहिए और आगे बढ़ने और प्रगति के सारे दावों को छोड़ दिया जाना चाहिए।" 33
उसी टिप्पणी में लोहिया ने पश्चिम की संस्कृति के प्रभाव का विवेचन करते हुए लिखा था, "विचार और जीवन शैली के यूरोपियन रूपों का सारे विश्व में वर्चस्व हो जाने से बहुत अस्वास्थ्यकर स्थिति बन गई है खासकर गैर यूरोपीय क्षेत्रों में। गैर-यूरोपीय क्षेत्रों के शिक्षित वर्ग आम जनता से बिल्कुल कट गए हैं। वे भौतिक और सांस्कृतिक रूप में यूरोपियन के ज्यादा करीब हैं बनिस्पत अपने लोगों के। उनके पास अपनी कारें हैं और आमतौर पर वे कारों में सफर करते हैं। वे अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में भेजते हैं जो यूरोपियन भाषा और तौर-तरीके सिखाते हैं। वे यूरोपियन शैली के कपड़े पहनते हैं और भोजन भी ऐसा करते हैं जो यूरोप की पाक शैली से तैयार होता है। 34 उनमें से बहुत कम लोग ऐसे होंगे जो अपनी व्यक्तिगत स्थिति से बाहर निकलकर देखते हैं और जो अपने आस-पास की गरीबी और लाचारी को देखकर चकित होते हैं। गैर-यूरोपीय क्षेत्रों के लोगों में बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होती है जिन्होंने आधुनिकीकरण के भौतिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त नहीं हुए हैं और न ही वे इसके धोखे से प्रभावित होते हैं जो उनके अपने क्षेत्रों में है। आम जनता गरीबी की घोर यंत्रणा भोगती है। उनकी मानसिकता या तो पीछे देखूं होती है या वे घोर उदासीनता और संवेदनहीनता के शिकार होते हैं। इनमें से जो अपनी देशी भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करते हैं वे पीछे की तरफ देखने वाले या अपने विचारों में पुनरुत्थानवादी अथवा छद्म धार्मिक होते हैं। उनमें इलीट वर्ग का एक हिस्सा भी होता है जो यूरोप की जीवन-शैली, उसकी सुविधा को अपनाए होता है लेकिन यूरोपीय विचारों के बिना। विश्व के सभी गैर-यूरोपियन इलाकों में यही दोगलापन सारी बुराइयों की जड़ है। गोवा के लेखक ने जिस द्विविभाजन का जिक्र किया है उससे अधिक खतरनाक यह व्यापक द्विभाजन है। स्वतंत्रता सेनानियों और स्वतंत्रता के परिरक्षकों के इस द्विविभाजन, पुश्तैनी शासकों व गुलामों की जाति, यूरोप की नकल करने वाले इलीट वर्ग और उदासीन, जनता के द्विभाजन को, गैर यूरोपियन क्षेत्रों में खत्म करना सारी दुनिया के युवाओं का और खासकर एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिणी अमेरिका के युवाओं का सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए।" 35
संदर्भः
1. 'मैनकाइंड', अप्रैल 1960
2.' जन', जून 1967
3. वही
4.' जन', जुलाई 1967
5.' जन', जून 1966
6. जन', अगस्त 1967
7.' जन', अक्टूबर 1967
8.' मैनकाइंड', अक्टूबर 1958
9. वही
10. वही
11. जन', सितंबर 1966
12. 'जन', मार्च 1960
13. वही
14. वही
15. वही
16. 'मैनकाइंड', नवंबर 1956
17. वही
18. 'मैनकाइंड', अगस्त 1958
19. वही
20. 'मैनकाइंड', मई 1957
21. मैनकाइंड', नवंबर 1958
22. वही
23. वही
24. 'मैनकाइंड', फरवरी 1959
25. 'मैनकाइंड', अक्टूबर 1960
26. वही
27. 'मैनकाइंड', नवंबर 1960
28. वही
29. वही
30. वही
31. 'मैनकाइंड', अक्टूबर 1957
32. वही
33. वही
34. वही
35. वही