ज्ञान की परंपरा के विस्तार में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान
विश्व-परिदृश्य ने समाज, संस्कृति, मत, विश्वास, भाषा, साहित्य, विचार-विमर्श
की प्रणालियों आदि की दृष्टि से पिछले सभी युगों से अधिक वैविध्यपूर्ण स्वरूप
ग्रहण कर लिया है। संस्कृति और सभ्यता के विकास की एक ऐसी धारणा आकार लेने लगी
है, जिसकी सफलता विभिन्न ज्ञानानुशासनों के मध्य संवाद पर टिकी है। यह कार्य
अनुवाद के द्वारा किया जा रहा है। अनुवाद की मूल प्रकृति के अनुसार एक भाषा में
अस्तित्वमान ज्ञान को अन्य भाषा-भाषी को उपलब्ध कराना ही उसकी सार्थकता मानी
गई है। इस रूप में यह संवाद विकसित करने के लिए भी एक जरूरी शर्त है। इससे
अनुवाद करने की आवश्यकता और अनुवाद-कार्य करते हुए आने वाली समस्याओं को समझने
की आधारभूमि निर्मित होती है।
विद्वानों ने अनुवाद को मुख्यतः भाषांतर के अर्थ में ग्रहण करते हुए इसके
प्रकारों पर चर्चाएँ की हैं। इसके तीन मूल प्रकार, अंतःभाषिक; अंतरभाषिक; और
अंतरप्रतीकात्मक, बताए गए हैं। इनके अतिरिक्त अनुवाद की प्रकृति के आधार पर
शब्दानुवाद, भावानुवाद, छायानुवाद, रूपांतरण व सारानुवाद तथा प्रक्रिया के
आधार पर पाठधर्मी व प्रभावधर्मी अनुवाद, रूप के आधार पर मौखिक (आश्वनुवाद) व
लिखित, तथा वांग्मय के आधार पर साहित्यिक और साहित्येतर अनुवाद प्रकार का
वर्णन किया गया है। विद्वानों ने इन अनुवाद के प्रकार को ध्यान में रखते हुए
अनुवाद की समस्याओं की विवेचना करने और इन्हें सिद्धांतों की सीमा में आबद्ध
करने का प्रयत्न किया है। अनुवाद की समस्याओं को सामान्यतः दो भागों में
वर्गीकृति किया गया है- एक भाषापरक और दूसरी सामाजिक-सांस्कृतिक। इन दोनों पर
विचार किया जाए तो निम्न समस्याएँ सामने आती हैं- दो भाषाओं पर समान अधिकार,
अनुवादक का शब्द-संस्कार, समाज-संस्कृति का ज्ञान, अनुवाद का उद्देश्य, पाठ का
संदर्भ, देश-काल-वातावरण का ज्ञान, विधा और प्रयोग क्षेत्र से संबंधित
समस्याएँ। कुछ विद्वानों का मत है कि भाषापरक समस्या दोनों भाषाओं की भिन्न
संरचनाओं के कारण उठ सकती हैं, किंतु सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या सर्वाधिक जटिल
होती है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि भाषापरक और सामाजिक-सांस्कृतिक
समस्याएँ एक दूसरे के साथ गुथी हुई हैं। अतः इनका विवेचन एक-दूसरे को ध्यान
में रखकर किया जाना आवश्यक है।
साहित्येतर पाठ का अनुवाद
साहित्येतर अनुवाद के लिए प्रायः शब्दानुवाद का चयन किया जाता है। अनुशासन
विशेष की शब्दावलियों की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है; क्योंकि सभी
अनुशासनों की अपनी प्रकृति और विशेषताओं के अनुसार विशिष्ट शब्दावली होती है।
इसके शब्द ज्ञानानुशासन विशेष की अध्ययन व शोध की प्रक्रियाओं के अनुसार विशेष
अर्थ वहन करते हैं। अनुशासन विशेष की शब्दावलियों के आधार पर ही अनुवाद किया
जाता है। स्पष्ट है कि ये शब्दावलियाँ अपने-अपने क्षेत्रों में विशिष्ट अर्थ
रखती हैं, जिनका कोई दूसरा पर्याय नहीं होता। अनुवादक को इनमें सम्मिलित
शब्दों के अर्थ की रक्षा करते हुए अनुवाद कर्म संपादित करना होता है। इस
प्रकार के अनुवाद की आवश्यक शर्त अनुशासन विशेष की शब्दावली और उसके अर्थ से
परिचित होना है। इस प्रकार के अनुवाद में तथ्यों, उनकी कार्य-विधि, प्रक्रिया
आदि को सीधे-सीधे अभिव्यक्त किया जाता है। इसमें दोनों भाषाओं; स्रोत और
लक्ष्य, में दक्षता और क्षेत्र विशेष की शब्दावली के ज्ञान को छोड़कर अनुवादक
से किसी विशेष कौशल की अपेक्षा नहीं होती। साहित्येतर अनुवाद में विज्ञान,
तकनीकी, वाणिज्य, इतिहास, अर्थशास्त्र, भूगोल, प्रशासन आदि से संबंधित पाठों
के अनुवाद शामिल हैं।
साहित्यिक पाठ का अनुवाद
साहित्यिक अनुवाद से आशय सर्जनात्मक साहित्य के अनुवाद से है। इसमें परंपरागत
साहित्य तथा संस्कृति से जुड़े पाठ, यथा; कविता, नाटक, कथा, रिपोर्ताज,
यात्रावृत्त आदि सम्मिलित हैं। साहित्य के अनुवाद की सबसे बड़ी कठिनाई विभिन्न
विधाओं में निहित अंतर की है। मूल रूप से सारी विधाओं की प्रकृति भिन्न होती
है,इसलिए अलग-अलग विधाओं की कृतियों को अलग-अलग ढंग से अनूदित करना पड़ता है।
उदाहरण के लिए एक उपन्यास का अनुवाद उसी तरीके से नहीं हो सकता जिस तरह से एक
कहानी का होता है या फिर नाटक का। साहित्यिक अनुवाद करते समय अनुवादक के
समक्ष पहली समस्या अनुवाद के प्रकार के चयन की होती है। यह एक गंभीर समस्या है
कि वह शब्दानुवाद पद्धति का चयन करे या भावानुवाद पद्धति का। साहित्य में
सामान्यतः भावानुवाद पर बल दिया जाता है, लेकिन कहीं-कहीं शब्दानुवाद भी किया
जाता है। कुशल अनुवादक के लिए यह समझना अनिवार्य होता है कि साहित्यिक अनुवाद
में शब्दानुवाद का स्थान गौण है और यदि कहीं अनुवादक शब्दानुवाद के विरल
प्रयोग को चुनता भी है तो इसके लिए भी पुष्ट आधार और कारण तलाशने होते हैं।
साहित्यिक अनुवाद के लिए अनुवादक से ऐसे विशेष कौशल की अपेक्षा होती है, जिसका
संबंध अनुवादक के रचनाधर्मी और सर्जनशील होने से है। ऐसे अनुवाद में अनुवादक
से यह अनिवार्य अपेक्षा होती है कि वह कथ्य की आत्मा की रक्षा करते हुए उसे नए
रूप में प्रस्तुत करे। इसके लिए अनुवादक स्थान, परिवेश, पृष्ठभूमि, समय, नाम,
वस्तु, सांस्कृतिक तत्वों, रहन-सहन, वेश-भूषा, भाषा आदि में आवश्यकतानुसार
नवीन प्रयोगों, यहाँ तक कि विश्ववसनीय परिवर्तन के लिए भी स्वतंत्र होता है।
ध्यान रखना होगा कि अनुवादक इस प्रकार का बदलाव अनुवाद के उद्देश्यों और
लक्षित पाठक को ध्यान में रख कर करता है। उदाहरण के लिए भारतेन्दु की अनूदित
कृति 'दुर्लभ बंधु व वंशपुर का महाजन'(1880) को देखा जा सकता है, जो शेक्सपियर
के नाटक 'द मर्चेंट ऑफ वेनिस' का हिंदी अनुवाद है। भारतेन्दु ने यह अनुवाद
भारतीय पाठकों के लिए किया और इसके लिए आवश्यकतानुसार पृष्ठभूमि, परिवेश,
पात्रों के नाम, स्थान, वेश-भूषा, भाषा, रहन-सहन आदि में पर्याप्त परिवर्तन
किया है।
यह निर्विवाद है कि साहित्येतर अनुवाद की अपेक्षा साहित्यिक पाठ का अनुवाद
अधिक चुनौतीपूर्ण होता है, क्योंकि इसके अनुवाद में वैविध्यपूर्ण तथा अधिक
संश्लिष्ट समस्याएँ आती हैं। समाज में लगातार परिवर्तन होने के कारण भाषा और
संस्कृति में नवीन तत्व जुड़ते रहते हैं। इन सभी से परिचित होकर ज्ञान की
दृष्टि से अद्यतन बने रहना और इनका ध्यान रखते हुए अनुवाद कार्य करना अनुवादक
के लिए आवश्यक होता है।इन सभी से भली प्रकार परिचित न होने की दशा में अनुवादक
अनुवाद कर्म के साथ न्याय नहीं कर पाता। साहित्यिक कृतियों में
समाज-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के लिए बहुत से ऐसे पद प्रयुक्त होते हैं, जो
अन्य संस्कृति की भाषा में नहीं होते। ऐसी दशा में अनुवादक के समक्ष पदों के
समतुल्य स्थानांतरण की समस्या उत्पन्न होती है।
साहित्यिक अनुवाद में आने वाले समाज-सांस्कृतिक तत्वों के संदर्भ में गोपीनाथन
(2001) का मानना है- "अन्य भाषाओं के कथा साहित्य के अध्ययन में वहाँ की
सांस्कृतिक विशेषताओं का ज्ञान भी निहित रहता है, इसलिए सांस्कृतिक
विशिष्टताओं का अंतरण अनिवार्य है; परंतु इस प्रक्रिया में सहजता हो, इसका भी
ध्यान रखना आवश्यक है, क्योंकि कथा साहित्य का अध्ययन मूलतः सांस्कृतिक ज्ञान
के लिए नहीं बल्कि कथा रुचि के कारण ही होता है। सांस्कृतिक विशिष्टताओं का
ज्ञान आनुषांगिक, किंतु महत्वपूर्ण उपलब्धि है, पाठक के सांस्कृतिक क्षितिज को
विकसित करता है।"
साहित्य में लोक की अभिव्यक्ति होने के कारण लेखक भावों की प्रभावपूर्ण और
तर्कपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए अभिधा, लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग करता है। इस
क्रम में वह लोकोक्तियों और मुहावरों का भी सहारा लेता है। इन्हीं लोकोक्तियों
और मुहावरों में लोक के समाज-सांस्कृतिक तत्वों की अभिव्यक्ति होती है। चूंकि
लोकोक्तियों और मुहावरों में कुछ समाज-सांस्कृतिक तत्व केवल लोक विशेष तक ही
सीमित होते हैं, जिस कारण अनुवादक के लिए लोकोक्तियों और मुहावरों का अनुवाद
करना एक जटिल कार्य है, क्योंकि इनके अनुवाद में शब्दार्थ को ग्रहण नहीं किया
जाता, बल्कि इनका लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है। चूंकि लोकोक्तियों और
मुहावरों की उत्पत्ति लोक से होती है, इसलिए इनकी अभिव्यक्ति में सांस्कृतिक
तत्वों का समावेश होता है और इनका अर्थ परिस्थितिजन्य व संदर्भित भी होता है।
संदर्भ और परिस्थियों को समझकर ही उपयुक्त अर्थ ग्रहण किया जा सकता है। अतः
इनके अनुवाद के लिए भाषा विशेष की संस्कृति से परिचित या भिज्ञ होना जरूरी
होता है। इनसे अनभिज्ञ होने की दशा में अनुवादक दुविधा में पड़ जाता है कि वह
किसी लोकोक्ति या मुहावरा का क्या अर्थ ग्रहण करे। यह ध्यान देने योग्य है कि
इनका शब्दशः अनुवाद नहीं कर उसी के समान अर्थ वाला लक्ष्य भाषा में प्रचलित
कोई लोकोक्ति या मुहावरा तलाशना चाहिए, क्योंकि मुहावरों और लोकोक्तियों में
जिन समाज-सांस्कृतिक तत्वों का सन्निवेश स्रोत भाषा में होता है, उससे बिलकुल
अलग समाज-सांस्कृतिक तत्व लक्ष्य भाषा के मुहावरों और लोकोक्तियों में होते
हैं। उदाहरण के लिए अंग्रेजी मुहावरा 'A bad carpenter fights with his tools'
का यदि शाब्दिक अनुवाद 'एक बुरा कारीगर (बढ़ई) अपने औजारों से लड़ता है' कर
दिया जाए तो इसकी मूल भावना ही व्यक्त नहीं हो सकेगी और अनुवाद विफल हो जाएगा।
अतः हिंदी में इसका अनुवाद हिंदी मुहावरा 'नाच न जाने आँगन टेढ़ा' के रूप में
किया जाना चाहिए। दूसरे उदाहरण के रूप में अंग्रेजी के एक अन्य मुहावरे को देखा
जा सकता है-'barking dog seldom bite' इस मुहावरे का हिंदी समानार्थी 'जो गरजते
हैं वे बरसते नहीं' है। उदाहृत अंग्रेजी मुहावरे में कहीं भी न तो गरजना और न
ही बरसना शब्द का समानार्थी आया है। अंग्रेजी और हिंदी के लोक में पर्याप्त
भिन्नता होने के कारण एक में 'barking dog' है, तो दूसरे में 'गरजना', जो निरा
खालीपन का सूचक है, है। अगर यहाँ अनुवादक अंग्रेजी शब्दों के समतुल्य हिंदी
में अर्थ निकालने का प्रयास करेगा, तो सही अर्थ नहीं निकल पाएगा या कुछ और ही
अर्थ निकलेगा। आशय यह है कि अनुवादक से अपेक्षा होती है कि वह दोनों; स्रोत और
लक्ष्य भाषा, के लोक से परिचित हो, ताकि कथ्य को और उसमें विद्यमान सांस्कृतिक
व लोक के तत्वों को सही रूप में निरूपित और स्थानापन्न कर सके।
इसी प्रकार, व्यंग्य का अनुवाद करना भी ऐसी ही एक चुनौती है, क्योकि व्यंग्य
में सामान्यतः जो कहा जाता है, अभीष्ट अर्थ उसके विपरीत होता है। इस कारण, यदि
व्यंग्य का अनुवाद शब्दशः कर दिया जाए, तो इसका अर्थ खो जाता है क्योंकि
अनुवाद में वह संदेश अभिव्यक्त होगा, जो वास्तव में वांछित संदेश का विपरीत
है। इनके अनुवाद के लिए भाषा की शब्द-शक्तियों को समझना और उसके अनुसार लक्ष्य
भाषा में सटीक शब्दों का चयन करना अनिवार्य है। ऐसी ही चुनौती पद्य के अनुवाद
में भी होती है, क्योंकि काव्य में आमतौर पर शब्दों का क्रम गद्य से भिन्न
होता है और कई बार इनमें सांकेतिक अर्थ भी छिपे होते हैं। इस क्रम में लेखक
पाठक को उबाऊपन से बचाने और सौंदर्यबोध को बनाए रखने की भी कोशिश करता है। इस
प्रक्रिया में रचनाकार ऐसे शब्दों का भी चयन करता है, जिनके कई अर्थ होते हैं।
कई बार ऐसा कृति को रुचिपूर्ण बनाने और लेखक के अपने पांडित्य के कारण भी होता
है। कहीं-कहीं यह भी देखने को मिलता है कि स्रोत भाषा का कोई शब्द लक्ष्य भाषा
में भी है, लेकिन अर्थ के स्तर पर दोनों जगह बहुत भिन्नता है। इस दशा में इनका
अनुवाद शब्द या वाक्य के आधार पर संभव नहीं है। इनके अनुवाद में इस तथ्य पर
ध्यान देना होगा कि ये परिस्थितियों और प्रसंगों के आधार पर अपना अर्थ
संप्रेषित करते हैं, इसलिए अनुवादक का देश-काल-समाज-संस्कृति और वातावरण से
परिचित होना जरूरी हो जाता है।
साहित्यिक अनुवाद में भाषा से संबंधित अनेक समस्याएँ आती हैं। भाषा समाज के
उत्पाद के रूप में संस्कृति को अभिव्यक्त करती है। इस कारण भाषा में
सांस्कृतिक तत्व पाये जाते हैं। इस रूप में भाषा, समाज और संस्कृति एक दूसरे से
परस्पर संबद्ध हैं। प्रत्येक भाषा-भाषी समाज का अपना एक विशिष्ट
समाज-सांस्कृतिक-धार्मिक विधान होता है। स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में अनुवाद
करते समय ये समाज-सांस्कृतिक-धार्मिक कोटियाँ अनेक समस्याएँ उत्पन्न करती हैं,
क्योंकि इनकी अपनी एक विशेष परंपरा होती है। ऐसी कृतियों का अनुवाद करते समय
सांस्कृतिक या धार्मिक शब्दों के अनुवाद के लिए शब्दों के मूल अर्थ का प्रयोग
नहीं किया जाता, बल्कि संदर्भित अर्थ को लक्ष्य भाषा में संप्रेषित करने वाले
शब्दों का प्रयोग किया जाता है। पाठक के मूल पाठ की संस्कृति से अनभिज्ञ होने
के कारण इनका यथावत विवरण देना अनिवार्य होता है अतः इसका व्यापक अर्थ ग्रहण
करके लक्ष्य भाषा में उतारना बहुत जटिल होता है। इस रूप में, स्रोत भाषा में
प्रयुक्त शब्दों को संदर्भ की मांग के अनुसार लोक, सांस्कृतिक और धार्मिक या
कर्म-कांड के शब्दों के अर्थ को ग्रहण करना पड़ता है और उसे उसी रूप में
अभिव्यक्त करना पड़ता है। कभी-कभी आंचलिक शब्दों का भी प्रयोग कर दिया जाता है,
जिनका अनुवाद उसी रूप में संभव नहीं हो पाता, इसलिए इन शब्दों के समतुल्य
शब्दों का लक्ष्य भाषा में प्रयोग आवश्यक होता है। कथा-प्रसंगों में ऐसे
वाक्यों का प्रयोग होता भी मिलता है, जिनका अनुवाद शब्दों के आधार पर किया ही
नहीं जा सकता। इन वाक्यों का अनुवाद करने के लिए वाक्य के मूल भाव को समझ कर
उसके लक्ष्यार्थ के आधार पर ही अनुवाद किया जाता है। सुरेश कुमार (2006) के
अनुसार, "साहित्यिक अनुवाद में मूलभाषा के शैलीगत उपकरणों तथा उनके लक्ष्य
भाषागत रूपात्मक संवादिता प्रायः नहीं मिलती। शब्दार्थ के स्तर पर भी कभी-कभी
अंतर दिखाई दे सकते हैं। संभव है कि मूल भाषा साहित्यिक शैली में जिस प्रभाव
की व्यंजना के लिए पर्ययता के प्रयोग हुआ हो उसके लिए कोई लक्ष्य भाषा आवृत्ति
का उपयोग करे।
कथा साहित्य का अनुवाद
कथा साहित्य के अनुवाद के बारे में स्वतंत्र रूप से विचार किए जाने की
आवश्यकता है। कथा साहित्य के अनुवाद की समस्याओं पर विचार प्रस्तुत करने के
पूर्व कथा साहित्य में शामिल उपन्यास और कहानी के अनुवाद की भिन्नताओं और
चुनौतियों को स्पष्ट कर देना आवश्यक है। उपन्यास का अनुवाद कहानी के अनुवाद से
इस मायने में भिन्न होता है कि वह अधिक वर्णनात्मक होता है। इसके अनुवाद में
वर्णनात्मक के सहज प्रवाह और तार्किकता पर ध्यान देना आवश्यक होता है। उपन्यास
में कथा, चरित्र, संदर्भ तथा उसके भीतर रचे-बसे द्वैत को पकड़ना अनुवादक के लिए
सबसे बड़ी चुनौती है। इसके साथ ही यह भी ध्यान में रखने वाली बात है कि उपन्यास
की कोटियाँ अलग-अलग होती हैं। ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, यथार्थवादी,
पारिवारिक-सामाजिक तथा राजनैतिक उपन्यास अलग-अलग ढंग से बर्ताव की माँग करते
हैं। अपनी स्थितियों के अनुकूल रखते हुए उसकी समग्रता को उसमें निहित संवेदना
के साथ अनुवाद में लाना बेहद कठिन काम है। जो अनुवादक इस बारीकियों को समझता
है, वह उपन्यास का सफल अनुवाद कर सकता है। गोर्की के 'मदर' का हिंदी अनुवाद
इसका बेहतर उदाहरण है।
कथा साहित्य के अनुवाद के संदर्भ में अनुवाद की तीन समस्याएँ प्रमुख हैं, भाषा
के विभिन्न रूप; वातावरण और आंचलिकता। कथा साहित्य के अनुवाद की एक समस्या
स्रोत भाषा के अनुरूप परिवेश बनाने की है। कृति यदि अनुवादक के देश की ही है,
तो अनुवादक को परिवेश गढ़ने में ज्यादा समस्या नहीं होती, परंतु यदि परिवेश
विदेशी संस्कृति से संबंधित है, तो अनुवादक को उसके सृजन में कठिनाई होगी।
कथा साहित्य के पाठ का अनुवाद करने के लिए भाषा के विभिन्न रूपों और और उनके
प्रयोग-वैशिष्टय पर ध्यान दिया जाना अनिवार्य है। भाषा और शब्दावली के
प्रयोग-क्षेत्र तथा प्रयोक्ता-समूह का ध्यान रखना भी आवश्यक है । इस दृष्टि से
भाषा और पात्रों के संबंध को देखा जा सकता है। यह स्वाभाविक है कि कथा में
किसी डॉक्टर की भाषा का रूप और स्तर अलग होगा, जबकि एक सेवक की भाषा अनेक
रूपों में उससे भिन्न होगी। यदि अनुवादक प्रयुक्त भाषा के स्तरों में अंतर
करने में असमर्थ रहता है, तो मूल पाठ का कथ्य और भाव अधिकतम नैकट्य के साथ
लक्ष्य भाषा में ले जाना कठिनाई भरा होगा।
भाषा के बारे में एक अन्य तथ्य उसकी वर्णनात्मकता से संबंधित है। यह स्पष्ट है
कि "कथा साहित्य के अनुवाद का स्वरुप मूलरूप से वर्णनात्मक होता है, अतः यह
आवश्यक हो जाता है कि अनूदित रचना में वर्णनात्मकता का यह गुण रोचक एवं आकर्षक
हो। इसको रोचक एवं आकर्षक बनाने के लिए कथा साहित्य के अनुवाद की भाषा सहज,
बोधगम्य, तथा प्रवाहयुक्त होनी चाहिए।"
कथा साहित्य का अनुवाद करने से पहले उसका गहन अध्ययन करना चाहिए तथा मूल पाठ
से तादात्म्य स्थापित करते हुए उसे आत्मसात करना चाहिए। कथा साहित्य की भाषा
में केवल सपाटबयानी नहीं होती, इसमें भी कविता तथा नाटक की तरह लक्षणा,
व्यंजना का प्रयोग किया जाता है। यदि कथा साहित्य भारतीय भाषा में है, तो एक
भारतीय अनुवादक के लिए इसका अनुवाद देश, काल और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में
करना आसान होता है,लेकिन विदेशी भाषा में होने पर उसको अनुवाद में बहुत सी
कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। कथा साहित्य की भाषा के ये पक्ष अनूदित पाठ
के आधार पर अनुवाद की समस्याओं का अध्ययन करने को प्रेरित करते हैं।
कथा साहित्य में प्रयुक्त शब्दों में यदि एकार्थता है तो कथा साहित्य की
महत्ता कम हो जाती है। इसे कथा साहित्य का दोष भी माना जाता है। गिरीश सोलंकी
के अनुसार, "कथा साहित्य भाषा की सीमाओं को आसानी से तोड़ता है। कथा साहित्य
व्यंजनात्मक एवं अनेकार्थक होता है। एकार्थता कथा साहित्य का दोष होता है।
उपन्यास कला एवं शिल्प विधान का अच्छा ज्ञान अनुवादक के लिए सहायक होता होगा।
यह सब स्पष्ट करता है कि कथा साहित्य का अनुवाद उतना आसान कार्य नहीं है बल्कि
उसमे अनुवादक को दायित्व निभाना पड़ता है।
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