मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास के लंबे दौर में मानवीय संबंधों में सामुदायिक मूल्य आधारित सामाजिक व्यवस्था वाला समाज अस्तित्व में आया जो आदिम काल से आदिवासी समाज को विकसित समृद्ध करता आया है। इस मानवीय संबंधों वाले समाज की कुछ अपनी बुनियादी विशिष्टताएँ रही हैं। जनजातीय समुदायों के विश्वास, मूल्य व मान्यताओं का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना सभ्यता के विकास का इतिहास। इनकी बसावट मुख्यतः जंगलों और गुफाओं में तथा नदियों के किनारे रही है। प्रकृति की उन्मुक्त एवं स्वच्छंद गोद में रहने के कारण इनके जीवन में भी उन्मुक्तता एवं स्वच्छंदता दिखाई देती है। इनके लिए जल, जंगल और जमीन मात्र उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि जीवन का अनिवार्य अंग हैं। ये युगों से अपनी सांस्कृतिक विरासत के तौर पर भारत की प्राचीन संस्कृति, सभ्यता और जीवन शैली को सुरक्षित रखने में सफल रहें हैं। किसी भी समाज में व्याप्त मूल्य, विश्वास व मान्यताएँ संस्कृति के मूलभूत तत्व होते हैं। सामान्यत: भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को समझने के लिए वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था का सहारा लेना पड़ता है, लेकिन जनजातीय समुदाय इस सामाजिक प्रणाली का अंग न होकर एक विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था से संबंध रखते हैं। यही कारण है कि जनजातीय समुदायों को वर्णव्यवस्था व जाति आधारित समाज व्यवस्था से पृथक करके देखना होगा, तभी उनकी तमाम मान्यताओं व मूल्यों को ठीक प्रकार से समझा जा सकता है। इसी के साथ जनजातीय समुदायों को आज के राष्ट्रीय तथा वैश्विक जीवन में होने वाले परिवर्तनों और उनके जनजातीय समुदायों पर पड़ने वाले प्रभावों के परिप्रेक्ष्य में भी जानना-समझना होगा। तभी जनजातीय समुदायों के यथार्थ के आधार पर उनकी भावनाओं, विचारों, संघर्षों, विभिन्न परिस्थितियों में उभरने वाली प्रतिक्रियाओं आदि का अध्ययन किया जा सकेगा। अंग्रेजी लेखक हाँसदा सौभेन्द्र शेखर की कृति The Mysterious Ailment Of Rupi Baskeyसंथाल जनजाति की प्राचीन व आधुनिक मूल्यों, विश्वासों तथा मान्यताओं को सशक्त रूप में व्यक्त करती है।
कुंजी शब्द : जनजाति , मूल्य, विश्वास, परंपराएँ, संस्कृति, प्रकृति।
जनजाति (tribe) वह सामाजिक समुदाय है जो राज्य के विकास के पूर्व अस्तित्व में था या जो अब भी राज्य के बाहर हैं। जनजाति वास्तव में भारत के आदिवासियों के लिए इस्तेमाल होने वाला एक वैधानिक पद है। भारत के संविधान में अनुसूचित जनजाति पद का प्रयोग हुआ है और इनके लिए विशेष प्रावधान लागू किये गए हैं।(1)
भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है। आदिवासी शब्द का अर्थ मूल निवासी होता है। पुरातन लेखों मे आदिवासियों को अत्विका और वनवासी भी कहा गया है। संविधान में आदिवासियों के लिए अनुसूचित जनजाति पद का उपयोग किया गया है।(2)
जनजातीय जीवन तेज़ी से शोध और विमर्श के केंद्र में अपना स्थान बनाता जा रहा है। इसकी पृष्ठभूमि में एक ओर उसकी समाज-सांस्कृतिक तथा जीवन-प्रणाली संबंधी विविधता है, तो दूसरी ओर उसके भीतर से फूटती अस्तित्व के लिए संघर्ष की आग है। 'जनजाति' के लिए हिंदी में आदिवासी, मूलवासी, वन्यजाति, वनवासी, पहाड़ी, आदिम जाति, अनार्य, आदिम लोग आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है। जनजातीय संदर्भों को अवधारणात्मक पद्धति से विचार और विश्लेषण का विषय बनाते समय 'आदिवासी विमर्श' का प्रयोग तो रूढ़ हो गया है, लेकिन विमर्श के संदर्भ में जिस समुदाय को 'आदिवासी' कहा जाता है, भारतीय संविधान में उसके लिए 'जनजाति' नाम स्वीकार किया गया है। प्रस्तुत शोध कार्य के केंद्र में बौद्धिक अथवा किसी अन्य क्षेत्र में इस समुदाय के नामकरण पर विचार करने की समस्या नहीं है; अत: यह उचित प्रतीत होता है कि अयाचित भ्रमों और विवादों से बचने के लिए 'जनजाति' पद का प्रयोग किया जाए। प्रस्तुत शोध पत्र में उसी का व्यवहार किया गया है।
भारत की प्रमुख जनजातियों में संथाल, गोंड, मुंडा, माहली, भूमिज, जुआंग, खड़िया, सवरा, हो, बोडो, भील, खासी, सहरिया, गरासिया, मीणा, उरांव, कोरकू, कमार, बिरहोर, गुरूंग, लिंबू, लेपचा, आका, न्यिशी, आदी, मोनपा, अबोर, मिरी, मिशमी, सिंगपी, मिकिर, राम, करावी, कवारी, गारो, खासी, नागा, कुकी, लुशाई, चकमा चेंचू, कोंडा, रेड्डी, राजगोंड, कोया, कोलाम, कोटा, कुरूंबा, बडागा, टोडा, काडर, मलायन, मुशुवन, उराली, कनिक्कर आदि हैं। जनजातीय समुदायों का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना सभ्यता के विकास का इतिहास। इनकी बसाहट मुख्यत: जंगलों और गुफाओं में तथा नदियों के किनारे रही है। इनके लिए जल, जंगल और जमीन मात्र उपभोग की वस्तुएँ नहीं, बल्कि जीवन का अनिवार्य अंग हैं। सामान्यत: भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को समझने के लिए वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था का सहारा लेना पड़ता है, लेकिन जनजातीय समुदाय इस सामाजिक प्रणाली का अंग न होकर एक विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था से संबंध रखते हैं। यही कारण है कि जनजातीय समुदायों को वर्णव्यवस्था व जाति आधारित समाज व्यवस्था से पृथक करके देखना होगा, तभी उनके साथ न्याय किया जा सकता है। इसी के साथ जनजातीय समुदायों को आज के राष्ट्रीय तथा विश्व जीवन में होने वाले परिवर्तनों और उनके प्रभावों के परिप्रेक्ष्य में जानना-समझना होगा। तभी जनजातीय समुदायों के जीवन यथार्थ को उनकी भावनाओं, विचारों, संघर्षों, विभिन्न परिस्थितियों में उभरने वाली प्रतिक्रियाओं आदि का अध्ययन किया जा सकेगा।
आर्थिक उदारीकरण की नीति ने बाजारवाद का रास्ता खोला तथा मुक्त व्यापार और मुक्त बाजार व्यवस्था के अंतर्गत उत्पन्न आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों ने जनजातियों के जल, जंगल, जमीन से भी आगे जाकर उनके जीवन को ही अपनी शर्तों पर समझने की कोशिश की। इसके परिणाम को समझने के लिए केवल एक उदाहरण पर्याप्त है कि उदारीकरण के आरंभिक दस वर्ष में ही अकेले झारखंड राज्य से 10 लाख से अधिक जनजातीय लोग विस्थापित हो गए। इनमें से अधिकांश दिल्ली जैसे महानगरों में घरेलू नौकर के रूप में या दिहाड़ी पर काम करने को विवश हुए। इस प्रकार बाजार और सत्ता के गठजोड़ ने जनजातीय समुदायों के सामने अस्तित्व की चुनौती खड़ी कर दी। नदियों, पहाड़ों, जंगलोंसे कटते ही उनकी भाषा, संस्कृति और उनसे निर्मित होने वाली पहचान पर गहरा संकट मंडराने लगा।
जनजातीय अस्मिता और अस्तित्व का इतना गहरा संकट इससे पहले पैदा नहीं हुआ था। धीरे-धीरे जनजातीय समुदायों में सामाजिक, आर्थिक समस्याओं और सांस्कृतिक पहचान पर घिर आए संकट का मुक़ाबला करने की भावना पैदा हुई। इसने धीरे-धीरे प्रतिरोध का रूप ग्रहण कर लिया, जो सामाजिक व राजनीतिक ज़मीन से कहीं अधिक कला और साहित्य में दिखाई दिया। जनजातियों की सांस्कृतिक परम्परा और समाज-संस्कृति पर विचार की एक दिशा यहाँ से भी विचारणीय मानी जा सकती है।
"मानव विज्ञानियों और समाजशास्त्र के अद्येताओं ने विभिन्न जनजातीय समुदायों का सर्वेक्षण मूलक व्यापक अध्ययन प्रस्तुत किया है और उसके आधार पर विभिन्न जनजातीयों के विषय में सूचनाओं के विशद कोष हमें सुलभ है। पुन: इस अकूत शोध-सामग्री के आधार पर विभिन्न जनजातीय समूहों और समाजों के बारे में निष्कर्षमूलक समानताओं का निर्देश भी किया जा सकता है। लेकिन ऐसे अध्ययन का संकट तब खड़ा हो जाता है जब हम ज्ञान को ज्ञान के लिए नहीं मानकर उसकी सामाजिक संगति की तलाश खोजना शुरू करते हैं। ये सारी सूचनाएं हमें एक अनचिन्हीं- अनजानी दुनिया से हमारा साक्षात्कार कराती हैं, किन्तु इस ज्ञान का संयोजन भारतीय समाज में उनके सामंजस्यपूर्ण समायोजन के लिए किस प्रकार किया जाए, यह प्रश्न अन्य दुसरे सवालों से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यहाँ समाज-चिंतन की हमारी दृष्टि और उसके कोण की वास्तविक परीक्षा भी शुरू हो जाती है। ठीक यहीं से सूचनाओं का विश्लेष्ण-विवेचना चुनौती बनकर खड़े हो जाते हैं।"(3)
जिस संथाल जनजाति जीवन की बात हम यहाँ कर रहे हैं, उसका छोटा सा परिचय-
संथाल जनजाति : संथाल झारखंड राज्य की एक सबसे अधिक जनसंख्या वाली जनजाति है, जो मुख्य रूप से संथाल परगना प्रमंडल एवं पश्चिमी व पूर्वी सिंहभूम, हजारीबाग, रामगढ़, धनबाद तथा गिरिडीह जिलों में निवास करती है। इसकी कुछ आबादी बिहार राज्य के भागलपुर, पूर्णिया, सहरसा तथा मुंगेर प्रमंडल में भी पाई जाती है। ये जनजाति पश्चिम बंगाल, ओड़ीशा, मध्य प्रदेश तथा असम राज्यों में भी वास करती है। इस जनजाति को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के साओत क्षेत्र में लंबे अर्से तक रहने के कारण साओन्तर कहा जाता था, जिसे कालांतर में चल कर संथाल कहा जाने लगा। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक के दौरान संथाल जनजाति पश्चिम बंगाल के बीरभूम से झारखण्ड के संथाल परगना जागीर के हंडवे तथा बेलपट्टा में यथेष्ट संख्या में आकार बस गई हैं। यह भारत की तीसरी सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है (पहली गोंड दूसरी भील)। झारखंड में इनका जमाव संथाल परगना में सर्वाधिक है। अधिकांश लोगों का मत है कि अंग्रेजों ने संथानों की बहुलता को देखते हुए क्षेत्र का नाम संथाल परगना रखा। संथाल परगना के अलावा यह धनबाद, गिरिडीह, हजारीबाग, रांची, पलामू, लातेहार, सिंहभूम में बसे हुए हैं। यह झारखंड के बाहर बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, असम एवं चीन (अल्प मात्रा में) में पाए जाते हैं।
"संथाल जनजाति का संबंध ऑस्ट्रेलायड प्रजाति समूह से है। इनकी त्वचा का रंग काले से लेकर गहरा भूरा, बाल मोटे, काले व खड़े; नाक चौड़ी व चपटी, आँखें मध्यम आकार की काली, होठ मोटे व लटके हुए शरीर पर बालों की संख्या नगण्य, दाढ़ी विरल तथा कद मध्यम से छोटा होता है। "मदिरापान तथा नृत्य इनके दैनिक जीवन का अंग है। अन्य आदिवासी समुहों की तरह इनमें भी जादू टोना प्रचलित है। संथालो की अन्य विषेशता इनके सुन्दर ढंग के मकान हैं जिनमें खिडकियाँ नहीं होती हैं। संथाल मारांग बुरु की उपासना करतें हैं। साथ ही ये सरना धर्म का पालन करते हैं।"(4)
THE MYSTERIOUS AILMENT OF RUPI BASKEY उपन्यास में संथाल समाज व्यवस्था और पद्धति हिंदुओं की वर्णाश्रम पद्धति से आश्चर्यजनक समानता रखती है। इनके उपर्युक्त वंशो को खून के नाम से उप वंशों में विभाजित किया गया है। एक वंश या गोत्र के अंदर वैवाहिक संबंध वर्जित हैं। संथाल गांव में अलग-अलग गोत्रों के भीतर दूसरे गोत्र में भी विवाह संबंध मान्य नहीं है। संथालों के गांव का प्रमुख व्यक्ति मांझी कहलाता है और विवाह वार्ता आरंभ करने के लिए भी उसकी अनुमति अनिवार्य है। अनुमति प्रदान करने के लिए उसे कुछ रुपए या ऊंचाई नामक चावल से बनी शराब मिलती है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रायः साप्ताहिक हाटो, मेलों में लड़के-लड़कियां एक-दूसरे को पसंद कर लेते हैं, फिर अपने अभिभावकों को किसी मध्यस्थ सूत्र से अपनी पसंद की सूचना देते हैं। माझी की अनुमति मिल जाने पर दोनों पक्षों के अभिभावक मिल बैठकर विवाह संबंध तय करते हैं। संथालों के उत्तराधिकार संबंधी कानूनों के मुताबिक पुत्रों को पिता की संपत्ति बराबर मिलती है, विवाहित पुत्री को कोई हिस्सा नहीं मिलता है। संथाल परिश्रमी और अध्यवसायी समुदाय है। उनकी अर्थव्यवस्था मुख्य तौर पर स्थाई खेती पर निर्भर है। वह स्थाई रूप से गांव में फूस से बने मकानों और झोपड़ियों में रहते हैं। उनके घर त्रिकोणात्मक तथा मजबूत बुनियाद पर बने हुए होते हैं। जिनके चारों ओर बरामदे होते हैं यह घर कई कमरों में विभाजित होते हैं और एक छोटा कमरा मवेशियों के लिए होता है। संथाल धर्म को बनगांव और प्रेत आत्माओं में विश्वास और पूजा का धर्म कहा जा सकता है। संथालों के सबसे प्रमुख देवता सिंगबोंगा हैं उनके बाद दूसरा स्थान मरंग बुरू का आता है। संथालों के ग्राम देवता जहर खेरा कहलाते हैं। गृह देवता का नाम बाहरी व्यक्तियों को नहीं बताया जाता। (नायक) उनके ग्राम पुजारी धार्मिक कृत्य और अनुष्ठानों को संपन्न कराता है।
इस उपन्यास में यह भी दर्शाया गया है कि संथाल समाज में नारी हमेशा से पुरुष की संगिनी मानी गई है। उसके अधिकार और कर्तव्य पुरुषों के बराबर हैं। उसकी शादी उसकी इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती नहीं होती। झारखंडी संस्कृति में नारी के विकास के लिए एक पूरी स्वतंत्र दुनिया है। किंतु इसके साथ ही वे यह भी जोड़ना नहीं भूलते कि ब्राह्मणवादी संस्कृति के प्रभाव से झारखंडी समाज में नारी कि स्वतंत्रता पर कुठाराघात हुआ है, उसका सामाजिक सम्मान और अधिकार घटा है, पुरुष के साथ उसके साथीपन की धारणा में परिवर्तन आया है तथा पुरुष और नारी के स्थान तथा अधिकार के बारे में अलग-अलग मानदंड बनते जा रहे हैं। उपन्यास में ऐसे ही स्त्री पात्रों को दिखाया गया है। जैसे रूपी , पुटकी, गुरुबारी, डेला आदि।
भारत जैसे पुरुष वर्चस्ववादी गैर-आदिवासी समाज के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है लिंगानुपात के गड़बड़ाने की। भारत के जो प्रदेश भौतिक समृद्धि और शिक्षा के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान रखते हैं, उनमें प्रति एक हजार पुरुषों के बीच स्त्रियों का अनुपात क्रमश: दिल्ली 866, पंजाब 893 हरियाणा 877 और चंडीगढ़ 818 है। चारों राज्यों का औसत 863.5 होता है। देश का कुल औसत एक हजार मर्दों पर 940 स्त्रियां हैं। आदिवासी बहुल प्रांतों में यह लिंगानुपात क्रमश: छत्तीसगढ़ 991, झारखंड 964, उत्तराखंड 963 और पूर्वोत्तर के आठों राज्यों का 950 है।
सामाजिक घटकों की दृष्टि से देखा जाए तो पता चलता है कि दलितों में यह अनुपात 945 का है और सवर्णों में प्रति एक हजार पुरुषों पर मात्र 937 स्त्रियां अस्तित्व में हैं। इससे भिन्न आदिवासी जनसंख्या में यह अनुपात 1000 : 990 का है। स्पष्ट है कि लिंगानुपात की दृष्टि से भारत के विकसित इलाकों और तबकों की तुलना में आदिवासी समाज बहुत बेहतर दशा में है। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह संदेह और प्रश्न उत्पन्न होता है कि भौतिक उन्नति और शिक्षा जैसे विकास के प्रतिमानों का मनुष्य की समझदारी के साथ क्या सामंजस्य है?
इसी क्रम में हम महिलाओं पर किए जाने वाले अपराधों का विश्लेषण कर सकते हैं। पिछले तीन सालों में सर्वाधिक वृद्धि दिल्ली जैसे महानगरों में हुई है, जहां देश के सबसे अधिक पढ़े-लिखे और विकसित लोग निवास करते हैं। सबसे कम अपराध उन राज्यों में दर्ज हुए, जहाँ आदिवासी जनसंख्या की बहुलता है। महिला अत्याचारों के आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि आदिवासी समाज की तुलना में सवर्ण या भद्र समाज में अत्याचार अधिक हैं। उल्लेखनीय है कि अंडमान के द्वीप समूहों में आदिम कबीलों की भाषिक परंपरा में 'बलात्कार' या 'दुष्कर्म' जैसे शब्दों के समानार्थी हैं ही नहीं। इससे स्पष्ट होता है कि ऐसी घटनाएं उनके समाज में घटित ही नहीं होतीं।
THE MYSTERIOUS AILMENT OF RUPI BASKEY उपन्यास में यह दर्शाया गया है कि संथाली समाज आस्था के धनी माने जाते थे। संथाली समाज मूलतः प्रकृतिपूजक हैं। संथाली समुदाय की संस्कृति सामूहिक जीवन की चेतना, व्यवहार और अनुभव पर आधारित है। प्रकृति से संघर्ष करने पर जिन वस्तुओं को जीवन रक्षक पाया, उन्हें अपने जीवन में आत्मसात कर लिया गया। वस्तुतः संथाली संस्कृति की उत्पत्ति या मान्यता समाज के अनुभवों पर आधारित कही जा सकती है। ऐसे समाज के लोग आज भी अपने ईष्ट के प्रति आस्था रखते थे, उनकी पूजा अर्चना करते हैं। वह काला जादू, भूत-प्रेत, जादू-टोनो में भी विश्वास करते थे और ग्रामीण इलाको के लोग आज के समय में भी इन सभी को मानते हैं। ये लोग प्रकृति के प्रति बहुत आस्थावान होते हैं। किसी न किसी बहाने से ये प्रकृति की पूजा करते हैं। आदिकाल से ही ये लोग प्रकृति की पूजा करते आ रहे है, यह उनकी एक अनोखी विशेषता है। ये लोग पीपल की पूजा, खेती के बाद की उपज जैसे धान, गेंहू, आदि का भी विशेष पूजन करते है। आज भी ये जंगल व पेड़-पौधो की सुरक्षा करते है। इस उपन्यास में दिखाया गया है कि जो गाँव का मुखिया है, जब उसकी पत्नी का लगातार 3 बार गर्भपात हो जाता है तो वह अनेक मंदिरों और पूजा स्थलों पर जाता है, वहाँ बलि चढ़ाता है, यहाँ के मंदिरों की खास बात यह है कि सभी प्रकार के अच्छे और बुरे जीवन पद्धति से सबंधित देवी-देवताओं के मंदिर हैं। कालांतर में आर्यों के जीवन पद्धति का प्रभाव इन पर पड़ा और हिन्दू संस्कृति से संथाली जन समुदाय भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।
"शादी समाज का एक महत्वपूर्ण संस्कार है और पीढ़ी दर पीढ़ी सभ्य समाज के लोगों को इन परंपराओं से गुजरना होता है। आम तौर पर पहले अभिभावक लड़का लड़की को देख कर पसंद करते हैं। फिर दहेज की मांग पूरी होने पर लड़के वाले लड़की के घर बारात लेकर पहुंचते हैं और विधिवत विवाह संपन्न होता है। किन्तु आदिवासी संथाल समाज में 12 तरीकों से विवाह की परंपरा है।"(5)
संथालों का विधिवत विवाह प्राकृतिक शुभ शकुन द्वारा तय किया जाता है। संथाल "उमूल आदेर" (छाया घुसाना) एव "रूम डाकाव" (मृतात्मा का आह्वान) द्वारा आत्मा के अजर अमर पर विश्वास करते हैं। मृत्यु संस्कार में साल, करम, पता, कुश, जड़, चिकनी मिट्टी, महुआ, खल्ली एवं व्यक्ति में ग्रामीण पंच की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। बाहा पर्व एवं माह संथाली वर्ष की प्रथम पूजा तथा माह है। बाहा पर्व में संथाली के कृषि, शादी-व्याह, शिकार आदि सब को पंचांग उस वर्ष के लिए शकुन कलश में देखा जाता है। उपन्यास की नायिका भी अपने घर से दूर 7 किलोमीटर पर इन पर्वों को देखने के लिए अपने दोस्तों के साथ जाती थी। ऐसे अवसरों पर संथाल के लोंगों का काफी उल्लास देखने को मिलता है।
इस उपन्यास में संथाल गाँव, समाज व धार्मिक रिवाजों व संथाल समुदाय के गैर-संथाल समुदायों के साथ पारस्परिक व्यवहार को दिखाया गया है। कादामडीही के निवासियों में लालच तथा ईर्ष्या जैसी गलत प्रवृत्तियाँ नहीं थी और अभी तक आर्थिक, सामाजिक आदि संकटों का आक्रमण इन पर नहीं हुआ था। सभी लोग प्रेम से मिलजुल कर रहते थे। गैर संथाल वासियों के द्वारा छुआछूत, जाति को लेकर वैमनस्य आदि को दिखाया गया है। सोमाय हड़ाम के द्वारा उनको चेतावनी देना तथा धमकाने की प्रथम कोशिश को दिखाया गया है। लेखक ने अपने इस उपन्यास में संथाली समुदाय की संस्कृति, इनकी जीवन कला और जीवन मूल्य के पक्षों को भी यथा स्थान रखा है। बिना किसी राग द्वेष के संथाली समुदाय किसी को भी अपने गाँव में बसने की अनुमति दे देता है, जबकि वहीं बाहरी लोग जो यहाँ आकर बस गए हैं वे किस प्रकार जातीयता का जहर समाज में घोलने की कोशिश करते हैं। इन सभी घटनाओं से संथाली समाज के जीवन मूल्यों का भी संकेत मिलता है। इससे उनकी समरसता की संस्कृति भी उजागर होती है। इतना ही नहीं इसके जीवन की विडंबनाओं- अंधविश्वासों के जाल में उलझे प्रसंग भी छूट नहीं पाए हैं। विशेषकर बलि देने का प्रसंग आज भी प्रचलित है।
इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि जनजातीय समाज को जब भी किसी चीज़ की कमी महसूस होती है, तब वे अपने संसाधन जुटाने में सक्षम होते हैं। उपन्यास के अंत में दिखाया गया है कि जब परिवार के सदस्यों की संख्या बढ्ने लगती है तो विशु खेत की जमीन पर फूस के दो कमरे बनाता है तथा उस घर में उसका और उसके बड़े भाई जयपाल का परिवार आराम से रहता है। वे ज्यादातर उपयोग में आने वाली बहुत सी चीजो को स्वयं ही बना भी लेते थे।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि संथाल जनजाति आज भी अपनी परम्पराओं को साथ लेकर चल रहा है। वह चाहे प्रकृति के सहचर्य वाला दृष्टिकोण हो या फिर पूजा, त्यौहार की बात हो। अभी भी वही मूल्य और विश्वास के साथ ये लोग अपने समुदाय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहें है। लेखक हांसदा सौभेन्द्र शेखर ने भी वही वास्तविक यथार्थ अपने इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है। वह चाहे जादू-टोना हो या फिर डायन विद्या सभी का बहुत ही आंचलिक वर्णन देखने को मिलता है। जनजातीय जीवन यथार्थ, वस्तुन्मुखी दृष्टि, नई चेतना, आंचलिक भाषा और परिवेश और आंचलिक संरचना 'THE MYSTERIOUS AILMENT OF RUPI BASKEY'के आंचलिक परिधान है जिसमें संथाल जनजाति की मान्यताएँ, विश्वास एवं परम्पराएँ पूर्णतः दृष्टिगत होती हैं।
ग्रंथ सूची:
आधार सामग्री : Hansda, Sowvendra Shekhar. (2014). The Mysterious Ailment of Rupi Baskey. New Delhi: Aleph Book Company.
संदर्भ सामाग्री :-
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4. http://medbox.iiab.me:3000/wikipedia_hi_all_novid_2017-html
सहायक सामग्री :
उपाध्याय, विजय शंकर. शर्मा, विजय प्रकाश. एवं डे, गया. (2009). भारत की जनजातीय संस्कृति: मध्यप्रदेश, हिंदी ग्रंथ अकादमी.
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ई-साधन :
Links :
http://adivasivimarsh.blogspot.in/
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http://aadivasisamaj.com/aadivasi-history