आज भूमंडलीकरण के व्यापक परिदृश्य को देखते हुए तुलनात्मक अध्ययन का योगदान
महत्वपूर्ण है। तुलनात्मक अध्ययन से विश्व साहित्य का निर्माण होता है।
तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन मुख्य रूप से फ्रांस, जर्मनी, अमरीका, रूस,
इंग्लैंड, जापान, इटली, बेल्जियम आदि देशों में अत्यधिक मात्रा में हो रहा है।
आज के आधुनिक संदर्भ को देखते हुए इस अध्ययन को स्वतंत्र अस्तित्व भी मिल रहा
है। तुलनात्मक अध्ययन एक अंतःविषय क्षेत्र है, जिनके विद्वान राष्ट्रीय सीमाओं
में साहित्य का अध्ययन करते हैं, समय-समय पर सभी भाषाओं में साहित्यों और अन्य
कलाओं (संगीत, चित्रकला, नृत्य, फिल्म, आदि) के बीच सीमाओं के पार विषयों
(मनोविज्ञान, दर्शन, विज्ञान, इतिहास, वास्तुकला, समाजशास्त्र, राजनीति, आदि)
को देखते हुए उसकी तुलना करते हैं। सबसे अधिक स्पष्ट रूप में कहा जाए तो
तुलनात्मक साहित्य "सीमाओं के बिना साहित्य" का अध्ययन है। तुलनात्मक साहित्य
में भाग लेने वाले विद्वान राष्ट्रीय सीमाओं से परे साहित्य का अध्ययन करने की
इच्छा रखते हैं और भाषाओं में रुचि रखते हैं ताकि वे अपने मूल रूप में विदेशी
ग्रंथों को पढ़ सकें। कई तुलनात्मक भी अन्य सांस्कृतिक घटनाओं जैसे कि
ऐतिहासिक परिवर्तन, दार्शनिक अवधारणाओं, और सामाजिक आंदोलनों के साथ साहित्यिक
अनुभव को एकीकृत करने की इच्छा साझा करते हैं।
तुलनात्मक अध्ययन का पश्चिमी इतिहास
तुलनात्मक साहित्य का विकास 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन के विद्वानों की
संकीर्ण राष्ट्रवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ था जिसके पीछे जातीय श्रेष्ठता
की भावना निहित थी। "लिटरेचर कम्पेरी" तुलनात्मक साहित्य के लिए ये फ्रांसीसी
शब्द पहली बार फ्रांस में 19वी शताब्दी की शुरुआत में आया था और उसके बाद से
इसके स्वरूप और इस शब्द पर काफी चर्चाएं और वाद-विवाद होते रहे थे।
दांते ने अपने विस्तृत निबंध 'de vulgari Eloquentia' के नवें अध्याय में
प्राचीन फ्रेंच साहित्य (the langue doc) की उसके समकक्ष लिखित साहित्य (the
langue) की आपस में तुलना करके तुलनात्मक अध्ययन की शुरुआत की, उन्होंनें (de
vulgari Eloquentia) निबंध अपने देश निकाला (1302-1305) के दौरान लिखा था। इस
पुस्तक में ललित भाषा और वर्नाकुलर की भी आपस में तुलना की। तुलनात्मक अध्ययन
की शुरुआत के रूप में इसको देखा जा सकता है। जोचिम डु बेली के "Defense et
illustration de langue francis" (1549) के साथ फ्रांस में पोरंपरवादियों और
प्रगतिशीलों के बीच बहस शुरू हो गई। इसके माध्यम से तुलनात्मक साहित्य के लिए
एक जमीन तैयार हो गई। 1597 में शेक्सपियर ने अपने नाटक हेनरी iv में भी
तुलनात्मक शब्द का प्रयोग किया है। बेली की परिचर्चा कार्नेल के discours sur
ler trios unites (1660) के सहारे 1687 से 1716 तक प्राचीनो और आधुनिकों के
बीच मतभेद के रूप में चली। वाल्तेयर (1734) भी तुलनात्मक साहित्य के तत्वों को
समाहित करता है। जर्मनी में तुलनात्मक साहित्य का एक उदाहरण जोहन एलियास
श्लेगेल का "verglefchung Shakespeare's and Andeans gryphs (1742) है। 1779
में डॉ. जॉनसन 52 कवियों का जीवनवृत्त लिखा था जो तुलनात्मक अध्ययन के लिए
प्रेरित करता है।
"1821 में ट्रौबाडोर्स की भाषा के संबंध में लैटिन-यूरोप की भाषाओं के
तुलनात्मक व्याकरण पर एक पुस्तक प्रकाशित हुई। वेलेक, नोल और लैप्लेस के
अनुसार "literature compare" शब्द का प्रथम प्रयोग उनकी पुस्तक "Cowrs de
literature compare" में हुआ। "Examination of the influence exerted by French
18 th century writers on foreign literatures and on the European
mind" शीर्षक से विलमेन ने एक व्याख्यान सोरबान में दिया। 1832 में आंपेयर ने
"comparative history of literature" शीर्षक एक व्याख्यान प्रस्तुत किया। 1841
में जिन जैक्स आंपेयर ने "Comparative history of literature" शीर्षक एक
व्याख्यान प्रस्तुत किया। 1841 में जीन जैक्स आंपेयर की पुस्तक histoire de la
literature francaise au moyen age compare aur literatures etrangers"
प्रकाशित हुई"।
[1]
एक संयुक्त पद के रूप में 'कंपरेटिव लिटरेचर' पद का प्रयोग सबसे पहले अंग्रेजी
भाषा के कवि मैथ्यू आर्नल्ड के 1848 के एक पत्र में आया, जिसमें उन्होंने
इंग्लैंड के साहित्य पर चिंता व्यक्त की और स्वीकार किया कि इंग्लैंड की
साहित्यिक स्थिति महाद्वीपीय (यूरोपीय) मानकों के बहुत पीछे है। आर्नल्ड
इंग्लैंड के साहित्य की वर्तमान स्थिति से चिंतित होते हैं और साहित्य के
व्यापक अध्ययन पर ज़ोर देते हैं। यद्यपि आर्नल्ड के इस विचार की काफी निंदा भी
हुई, परंतु वास्तविक अर्थ में तुलनात्मक साहित्य के स्वतंत्र अध्ययन की कवायद
यहीं से शुरू होती है। लोगों के मध्य साहित्य-संवाद और विमर्श होने शुरू होते
हैं। आगे चलकर साहित्य के यही संवाद और विमर्श पश्चिम में तुलनात्मक साहित्य
के विभिन्न संप्रदायों के रूप में स्थापित होते हैं। ये संप्रदाय तुलनात्मक
अध्ययन को महत्वपूर्ण और आवश्यक मानते हैं, परंतु वे अध्ययन की विषय-वस्तु
तथा अध्ययन पद्धति में भेद करते हैं। पश्चिम के इन संप्रदायों में ऐसे चार
प्रमुख संप्रदाय उभरकर सामने आते हैं जो तुलनात्मक साहित्य को एक स्वतंत्र
ज्ञानानुशासन के रूप में स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ये संप्रदाय
निम्न हैं- जर्मन संप्रदाय, फ्रांसीसी संप्रदाय, अमेरिकी संप्रदाय और रूसी
संप्रदाय।
तुलनात्मक साहित्य के प्रमुख पश्चिमी स्कूल
पश्चिम में बहुत से विद्वान तुलनात्मक अध्ययन को आवश्यक
मानते हैं, लेकिन वे अध्ययन की विषय-वस्तु तथा अध्ययन पद्धति में भेद करते हैं।
इन विद्वानों के मतों के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन की विषय वस्तु पर ज़ोर देने
और उसे स्थापित करने के लिए विभिन्न संप्रदायों की स्थापना हुई, जिन्हें
तुलनात्मक अध्ययन के स्कूल या संप्रदाय भी कहा जाता है। यहाँ इन संप्रदायों के
बारे में सामान्य जानकारी प्रस्तुत की जा रही है :
o जर्मन स्कूल
तुलनात्मक साहित्य के जर्मन संप्रदाय (या स्कूल) की स्थापना 19वीं सदी के
अंतिम भाग में Free University Berlin के प्राध्यापक पीटर जोंडी (Peter
Szondi) के विचारों से प्रेरित होकर हुई। जोंडी साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन
में विश्वास रखते थे और इसको बढ़ावा देने के लिए अपने ही समान विचार रखने वाले
पश्चिम के विभिन्न विद्वानों (दरीदा, पियरे बोरडियू, लूसियान गोल्डमैन, पॉल
डी मैन, गेर्शोमो शॉलेम, थियोडोर डब्लू एडोर्नो, हंस रॉबर्ट जूस, रेने वेलेक,
जेफ्री हार्टमैन पीटर डेमेत्ज़, लियोनेल त्रिलिंग आदि।) को व्याख्यान के लिए
आमंत्रित करते थे। इस आयोजन को Programmatic Network की संज्ञा से संबोधित
किया गया। यह संप्रदाय रूस के पूर्वी यूरोपीय साहित्यिक सिद्धांतकारों तथा
संरचनावाद के प्राग संप्रदाय द्वारा सर्वाधिक प्रभावित रहा। तुलनात्मक साहित्य
के जर्मन संप्रदाय से प्रभावित होकर जर्मनी में 31 तुलनात्मक विभागों की
स्थापना की गई।इन विभागों द्वारा परंपरागत भाषाशास्त्र के साथ-साथ
विद्यार्थियों को व्यावहारिक ज्ञान देने के लिए व्यावसायिक कार्यक्रमों को
अध्ययन में शामिल किया गया।
[2]
o फ्रांसीसी स्कूल
20वीं शताब्दी तक द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभिक भाग से क्षेत्र को एक
विशेषकर अनुभववादी और सकारात्मक दृष्टिकोण से चिह्नित किया गया, जिसे
"फ्रांसीसी स्कूल" कहा जाता है, जिसमें विद्वानों ने फोरेंसिक रूप से काम की
जांच की, कामों के बीच "मूल" और "प्रभाव" के साक्ष्य की तलाश में विभिन्न
देशों से इस प्रकार के प्रभाव का पता लगाने का प्रयास कर सकता है कि समय के
साथ राष्ट्रों के बीच एक विशेष साहित्यिक विचार कैसे परवर्तित होता है।
तुलनात्मक साहित्य के फ्रांसीसी स्कूल में, प्रभावों और मानसिकता का अध्ययन ही
देखने को मिलता है। आज, फ्रांसीसी स्कूल अनुशासन के राष्ट्र-राज्य दृष्टिकोण का
अभ्यास करता है, हालांकि यह "यूरोपीय तुलनात्मक साहित्य" के दृष्टिकोण को भी
बढ़ावा देता है। इसकी स्थापना 20वीं सदी के प्रारंभ में हुई। इसमें अध्ययन के
लिए आनुभविक और सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया।
[3]
o अमेरिकी स्कूल
अमेरिकी संप्रदाय फ्रांसीसी संप्रदाय की प्रतिक्रिया के रूप
में अस्तित्व में आया। इसने साहित्य को अपने अध्ययन का हिस्सा बनाया और सीधे
साहित्यिक आलोचना से प्रेरित होते हुए सौंदर्यशास्त्र को अध्ययन पद्धति के रूप
में अपनाया। इस संप्रदाय ने Goethe के अंतरराष्ट्रीय सहयोग के स्वप्न को साकार
करने का प्रयास किया। अमेरिकी स्कूल का दृष्टिकोण सांस्कृतिक अध्ययन के
वर्तमान प्रणाली से परिचित होगा और यहां तक कि कुछ लोगों ने 1970 और 1980 के
दशक के दौरान विश्वविद्यालयों में सांस्कृतिक अध्ययन में तेजी के अग्रदूत होने
का दावा किया है। आज का क्षेत्र बेहद विविध है: उदाहरण के लिए,
तुलनात्मकवादियों ने नियमित रूप से चीनी साहित्य, अरबी साहित्य और अन्य प्रमुख
विश्व भाषाओं और क्षेत्रों के साथ ही साथ अंग्रेजी और महाद्वीपीय यूरोपीय
साहित्य के साहित्य का अध्ययन किया है।
[4]
o रूसी स्कूल
इस संप्रदाय की मूल मान्यता है कितुलनात्मक साहित्य एक
सार्वभौमिक साहित्यिक संवृत्ति (phenomenon) का सार है, जो विभिन्न देशों के
जनसमूह के सामाजिक जीवन के ऐतिहासिक विकास तथा पारस्परिक सांस्कृतिक व
साहित्यिक विनिमय पर आधारित है।इस मान्यता का पालन करते हुए तुलनात्मक साहित्य
में एक सार्वभौमिक साहित्यिक संवृत्ति (phenomenon) का अध्ययन करने के लिए
साहित्यिक विधाओं या आंदोलनों का सहारा लिया जाता है तथा सामाजिक जीवन के
ऐतिहासिक विकास क्रम के परिप्रेक्ष्य में सांस्कृतिक प्रभावों का विवेचन किया
जाता है।
तुलनात्मक अध्ययन पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएँ
-
ओरेगान विश्वविद्यालय की कंपेरेटिव लिटरेचर
-
ओरेगान विश्वविद्यालय की इयर बुक कंपेरेटिव एंड जनरल लिटरेचर
-
पेंसिलवेनिय विश्वविद्यालय की इयर बुक आफ़ कंपेरेटिव क्रिटिसिज़्म
-
इनिनायुस विश्वविद्यालय कंपेरेटिव लिटरेचर स्टडीज
तुलनात्मक अध्ययन का भारतीय इतिहास
भारतीय परिप्रेक्ष्य में यही तुलनात्मक अध्ययन की बात की जाए तो सबसे पहले
हमें यह स्वीकार करना होगा कि भारत में इसकी संभावनाएं बहुत अधिक है। साथ ही
विश्व स्तर पर जिस तरह तुलनात्मक साहित्य के विभिन्न स्कूल तथा संप्रदाय मौजूद
हैं और जो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं उसी
तरह तुलनात्मक साहित्य के भारतीय संप्रदाय की भी कल्पना की जा सकती है।
"भारतीय साहित्यकारों या विद्वानों से पहले प्राच्य विद्या में रुचि रखने वाले
यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय तुलनात्मक साहित्य की नींव रखी थी। चार्ल्स
विलकिंस (1750-1836) द्वारा अनूदित भगवतगीता (1785) की भूमिका लिखते हुए
भारतवर्ष के प्रथम गवर्नर-जरनल वारेन हेस्टिंग्स ने गीता के धर्मत्व की ईसाई
मुक्ति भावना से तुलना की थी और साहित्यिक मूल्यांकन की दृष्टि से गीता के वजन
पर इलियड, ओडेसी तथा पैराडाइज़ लॉस्ट का उल्लेख किया था। सन 1859 में
मैक्सम्यूलर द्वारा रचित "ए हिस्ट्री आफ़ एंशेंट संस्कृत लिटरेचर" में
सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से संस्कृत तथा यूनानी साहित्य के इतिहास के
अध्ययन की बात कही गई है"।
[5]
सन 1907 में ही 'सरस्वती' पत्रिका में पदमसिंह शर्मा ने बिहारी और फ़ारसी कवि
सादी की तुलनात्मक आलोचना की थी। साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर बंकिमचंद्र
चटर्जी ने भी शेक्सपियर के नाटक 'टेंपेस्ट' की तुलना कालिदास के नाटक 'शकुंतला'
के साथ और 'कुमार संभव' की तुलना मिल्टन के 'पैराडाइज़ लास्ट' के साथकर के बल
दिया। जी. यू. पोप ने तमिल भाषा-भाषी विद्वानों से अंग्रेजी भाषा में लिखित
धार्मिक कविताओं से से परिचित होने का आग्रह किया। उनका यह आग्रह तिरुवाचकम और
नालडियार् तमिल धार्मिक ग्रंथों के संदर्भ में थी। इसी प्रकार के प्रयासों ने
भारत में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन के मार्ग को प्रसस्त किया।
स्वतंत्रता की लड़ाई के समय जब देश अपने क्षेत्रीय संकीर्ण मनोभावों से निकलकर
खुद को राष्ट्र परिवार के रूप में माने जाने की जद्दोजहद में लगा हुआ था ठीक
उसी समय सन 1907 में बंगाल के राष्ट्रीय शैक्षिक परिषद द्वारा व्याख्यान के
लिए आमंत्रित किए गए रवींद्रनाथ टैगोर ने साहित्य के क्षेत्र में विश्वव्यापी
व सार्वजनिक अवधारणा के रूप को प्रकट करते हुए विश्व साहित्य पर व्याख्यान
दिया। कंपेरेटिव लिटरेचर की अवधारणा को विकसित करने के लिए यह व्याख्यान नींव
का पत्थर साबित हुआ। इसके पश्चात सन् 1919 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के
कुलपति श्री आशुतोष मुखर्जी ने आधुनिक भारतीय भाषाओं का पहला विभाग स्थापित
किया, जिसे वे नेशनल लिटरेचर कहते थे। वे एक ऐसी प्रविधि आविष्कृत करना चाहते
थे जिसमें देश के विभिन्न भाषाई क्षेत्रों में रचे गए साहित्यों की स्वीकृति और
समावेश हो। इसी बीच भारतीय विश्वविद्यालयों की स्थापना के साथ साथ इस शताब्दी
के तीसरे दशक से भारतीय भाषाओं के साहित्य से संबद्ध शोधकार्य में तुलनात्मक
साहित्य पद्धति की ओर भारतीय विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ और प्रियरंजन सेन
जैसे विद्वानों का "इन्फ़्लुएन्स आफ़ वेस्टर्न लिटरेचर इन द डेवलपमेंट आफ़
बेंगाली नावेल" (1932) जैसी तुलनात्मक शोध पुस्तकें प्रकाशित होने लगी।
इसके बाद 1956 में जाधवपुर विश्वविद्यालय में बुद्धदेव बसु के नेतृत्व में
भारत का पहला तुलनात्मक साहित्य विभाग विधिवत स्थापित हुआ। सन् 1962 में
दिल्ली विश्वविद्यालय के आधुनिक भारतीय भाषा और साहित्यिक अध्ययन विभाग की
स्थापना हुई जिसमें एम.ए. के पाठ्यक्रम में तुलनात्मक भारतीय साहित्य की
शुरुआत की गयी। सन् 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के
विभागाध्यक्ष डॉ. नगेंद्र जो कि उस समय एक प्रसिद्ध समालोचक, समीक्षक,
काव्यशास्त्री थे, उन्होने एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जिसका एक
वॉल्यूम तुलनात्मक साहित्य शीर्षक के नाम से प्रकाशित हुआ। विभाग द्वारा 1994
में तुलनात्मक भारतीय साहित्य में एम.ए. शुरू किया गया।
भारत के तुलनात्मक साहित्य के महत्व और विकास पर दृष्टि डालने से यह पता चलता
है कि भारत स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात इस दिशा में काफी संख्या में
अध्ययन हुए। साहित्य अकादेमी की स्थापना 1954 में हुई थी जो भारतीय साहित्य के
विकास और प्रसार की दशा में एक बड़ा और महत्वपूर्ण कदम रहा। साहित्य अकादेमी
विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगोष्ठियों का आयोजन करता है,
जिससे तुलनात्मक भारतीय साहित्य विषय पर आधारित संगोष्ठियाँ भी शामिल हैं।
साहित्य अकादेमी के द्वारा तुलनात्मक भारतीय साहित्य पर किया गया अध्ययन भी दो
खंडों में प्रकाशित किया गया है। साहित्य अकादेमी के अलावा कंपेरेटिव इंडियन
लिटरेचर एसोसिएशन (जो दिल्ली विश्वविद्यालय के आधुनिक भारतीय भाषा विभाग के
प्रयासों से अगस्त 1981 में अस्तित्व में आया) इंडियन नेशनल कंपेरेटिव लिटरेचर
एसोसिएशन, (जो जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रयासों से 1982 में निर्मित हुआ)
कंपेरेटिव लिटरेचर सोसाइटी, (जो 1984 में केरल विश्वविद्यालय के अंग्रेजी
विभाग के प्रयास से बना) द्रविडियन कंपैरेटिव लिटरेचर एसोसिएशन, (जिसका निर्माण
मदुराई कामराज विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्रयास से हुआ) आदि
संस्थाओं की स्थापना के बाद तुलनात्मक साहित्य को एक स्वतंत्र विद्यानुशासन
बनाने की दिशा में कार्य किए गए हैं जिसके माध्यम से विभिन्न राष्ट्रीय एवं
अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों और परिचर्चाओं का आयोजन और पत्र-पत्रिकाओं का
प्रकाशन किया जाता है।
बाद में भारत के विभिन्न हिस्सों में कुछ केंद्र स्थापित हुए जो किसी न किसी
रूप से इससे संबंध रखते थे। सुभा चक्रवर्ती दासगुप्ता के एक लेख जिसका नाम
"Comparative literature in India: an overview of its history" के अनुसार
"सत्तर और अस्सी के दशक के दौरान तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन दक्षिण भारत के
कई केंद्रों और विभागों; जैसे- त्रिवेंद्रम, मदुरई कामराज विश्वविद्यालय,
भारतीदासम विश्वविद्यालय, कोट्टायम और पांडिचेरी, में शुरू हुआ। इन सभी में
तुलनात्मक साहित्य पाठ्यक्रम अंग्रेजी साहित्य के साथ शुरू किए गए। मदुरई
कामराज विश्वविद्यालय के तमिल अध्ययन विद्यालय में एक पूर्णकालिक तुलनात्मक
साहित्यिक अध्ययन विभाग स्थापित किया गया था। केरल के प्रतिष्ठित कवि, लेखक
और आलोचक के. अयप्पा पनीकर ने साहित्यिक सिद्धांत की तुलना करने के लिए भारतीय
कथा साहित्य व परंपराओं की बात करते हैं और दक्षिण भारत में तुलनात्मक साहित्य
की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान किया। तुलनात्मक भारतीय साहित्य के विषय में
वे कहते हैं- "एक सांझा विरासत जो कई जुड़े हुए सूत्रों से उत्पन्न होती है,
हजारों वर्षों का सतत इतिहास, विकास की समानांतर धाराओं का संगम, विदेशी
प्रभावों और संपर्कों की घटती बढ़ती मात्रा, विभिन्न दिशाओं में आंतरिक प्रवसन
की एक जटिल शृंखला, धार्मिक और राजनीतिक अधिस्वर से युक्त सांस्कृतिक आंदोलनों
का एक अनुक्रम, प्राकवैदिक काल से लेकर वर्तमान तक इस प्रकार के परिप्रेक्ष्य
से हम तुलनात्मक भारतीय साहित्य के मूल घटकों की पहचान कर सकते हैं"।६ के.
अयप्पा पणिक्कर ने अपनी पुस्तक "स्पॉटलाइट आन कंपेरेटिव इंडियन लिटरेचर" में
उल्लेख किया है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक साहित्य के भविष्य के
लिए एक प्रोजेक्ट कराया गया था जिसका शीर्षक था "प्रोजेक्ट आन स्टडीज़ इन
कंपेरेटिव लिटरेचर इन इंडियन यूनिवर्सिटीज़"। इस प्रोजेक्ट में भारत और विदेश
के विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक साहित्य के अंतर्गत होने वाले अध्ययन को
आधार बनाया गया था।
तमिल में दो भिन्न भिन्न संस्कृतियों के ग्रंथों की तुलना से संबंधित अध्ययनों
के अलावा शास्त्रीय ग्रन्थों की तुलना ग्रीक, लैटिन और जापानी शास्त्रीय
ग्रंथों की तुलना भी आपस में की गई। बाद में, अस्सी और नब्बे के दशक में
तुलनात्मक साहित्य के अन्य केंद्र देश के विभिन्न हिस्सों में या तो स्वतंत्र
निकाय या फिर एक भाषा के में संचालित विभागों के अंदर ही स्थापित हुए।
जैसे-पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला, डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय, डॉ बाबासाहेब
अंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, संबलपुर विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय और एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय, मुंबई। 1986 में तुलनात्मक
साहित्य का एक नया पूर्ण विभाग वीर नर्मद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय, सूरत
में स्थापित किया गया, जहाँ पश्चिमी भारत के भारतीय साहित्य पर ध्यान दिया
गया। इसके अलावा 1999 में द्रविड़यन तुलनात्मक साहित्य और दर्शन का एक विभाग
द्रविड़ विश्वविद्यालय, कुप्पम में स्थापित किया गया था। इसके साथ ही यह जान
बोध होना आवश्यक है कि तुलनात्मक कविताओं (comparative poetics);जो, विशेषकर
दक्षिण का, तुलनात्मक साहित्य अध्ययन और लघु-शोध प्रबंधों का केंद्रीय विषय
है, को उड़ीसा में स्थापित Vishvanatha Kaviraja Institute of Comparative
Literature and Aesthetics द्वारा अनुसंधान का मुख्य क्षेत्र बनाया गया।
आठवें दशक के आते-आते भारत भर में जहां तहां तुलनात्मक साहित्य की चर्चा होने
लगती है। यह चर्चा धीरे धीरे संगोष्ठियों के आयोजन और एम.ए./एम.फिल. के
पाठ्यक्रमों में तुलनात्मक साहित्य के समाहित किए जाने के रूप में सामने आती
है। कई विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में एम.ए./एम.फिल. के पाठ्यक्रममें
कहीं अनिवार्य तो कहीं ऐच्छिक रूप से इसे जगह दी गयी। सन् 1988 में लखनऊ
विश्वविद्यालय के एम.ए. के पाठ्यक्रम में तत्कालीन विभागाध्यक्ष प्रो.
सूर्यप्रसाद दीक्षित के द्वारा तुलनात्मक साहित्य का एक अनिवार्य प्रश्नपत्र
शुरू किया गाय था जिसमें हिंदी के साथ मलयालम, तमिल, मराठी, गुजराती, और
बांग्ला के तुलनात्मक अध्ययन के विकल्प थे। कंपेरेटिव इंडियन लिटरेचर एसोसिएशन
(आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1981) तथा इंडियन नेशनल
कंपेरेटिव लिटरेचर एसोसिएशन, (जादवपुर विश्वविद्यालय, 1982) ने 1992 में ये
दोनों संस्थाएं आपस में विलय होकर एक नई संस्था के रूप में उभरकर सामने आई
जिसका नाम कंपेरेटिव लिट्रेचर एसोसिएशन आफ़ इण्डिया (CLAI) है। आज के समय में
इस संस्था में लगभग 2000 सदस्य हैं और इस संस्था में सक्रिय लेखक, शोधार्थी
समय समय पर विभिन्न संगोष्ठी और कार्यशाला का आयोजन करवाते रहते है। जिसके
फलस्वरूप हम यह कह सकते हैं कि आने वाले समय में यह अपने उद्देश्य को शीघ्र ही
प्राप्त कर लेगा।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि तुलनात्मक अध्ययन की शुरुआत विश्व के
विभिन्न सिद्धांतों को जानने के लिए किया गया था। भारत के साहित्य और वैश्विक
साहित्य को तुलनात्मक सिद्धांतों द्वारा एक दूसरे के नजदीक लाया गया। सन् 2005
में मणिपुर विश्वविद्यालय, कांचीपुर, इम्फाल के हिन्दी विभाग में एम.ए. के
पाठ्यक्रम में तुलनात्मक साहित्य पढ़ाया जाता था, जिसमें प्रश्नपत्र का नाम
"तुलनात्मक साहित्य: हिन्दी और मणिपुरी के विशेष संदर्भ में" था। भारतीय
साहित्य जहाँ तुलनात्मक साहित्य का विषय बना, वहाँ भी अंग्रेजी में ही उसको
स्थान मिला। भारतीय भाषाओं में उसको स्थान नहीं मिला। तुलनात्मक भारतीय
साहित्य अंग्रेजी वर्चस्व के शिकंजे से बाहर नहीं आ सका। इन्हीं स्थितियों के
बीच सन् 2006 में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा,
महाराष्ट्र ने इस दिशा में पहल की और हिन्दी माध्यम से, हिंदी साहित्य को आधार
मानते हुए भारतीय एवं शेष विश्व सहिया को लेकर एक भारतीय मॉडल विकसित करने की
दिशा में पहला कदम रखा। विश्वविद्यालय के साहित्य विभाग ने एम.ए.(हिंदी)
तुलनात्मक साहित्य शुरू किया। इस प्रकार तुलनात्मक अध्ययन ने भारत में अपने
स्वरूप को विस्तारित किया।
निष्कर्षतः तुलनात्मक अध्ययन के संदर्भ में एक विशिष्ट तथ्य यह है कि पश्चिम
में इसका विकास 19वी शताब्दी के के अंत में हुआ था। अतः शुरुआती दौर में इसके
अंतर्गत पश्चिमी साहित्य का अध्ययन ही अधिक किया जाता था और आज भी ऐसी ही
स्थिति देखने को मिलती है। दूसरी तरफ भारत में इसका विकास आजादी के पश्चात
ज्यादा हुआ। अतः इससे भारतीय साहित्य की तुलना विदेशी साहित्य से की गई, लेकिन
कुछ समय के उपरांत भारतीय तुलनात्मक अध्ययन की स्थिति मे थोड़ा बदलाव आया है।
अब भारतीय साहित्य की तुलना अन्य भाषाओं में लिखे गए साहित्य के साथ विभिन्न
भारतीय भाषाओं में लिखे गए साहित्य के साथ भी की जाती है। भारत में तुलनात्मक
साहित्य से जुड़ी इन संस्थाओं के विकास से समय के साथ तुलनात्मक साहित्य की
अवधारणा और उसके विकास की आवश्यकता पर बल दिया गया है। तुलनात्मक अध्ययन में
अब हाशिए के साहित्य के अध्ययन को और साहित्य में अस्तित्व की तलाश के प्रश्न
को काफी महत्व दिया जाने लगा है। अंत में यह कहा जा सकता है कि तुलनात्मक
साहित्य, साहित्य का वह अध्ययन है जो एक से अधिक साहित्य का अध्ययन एक साथ
करता है।
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अन्य अध्ययनीय स्रोत :
चौधुरी, इंद्रनाथ. (2006). तुलनात्मक साहित्य: भारतीय परिप्रेक्ष्य. दिल्ली:
वाणी प्रकाशन.
राव, आदेश्वर. (1972). तुलनात्मक शोध और समीक्षा. आगरा: प्रगति प्रकाशन.
राजूरकर, भ. ह. व बोरा, राजमल. (संपा). (2004). तुलनात्मक अध्ययन: स्वरूप और
समस्याएँ. दिल्ली: वाणी प्रकाशन.
शुक्ल, हनुमानप्रसाद. संपा. (2015). तुलनात्मक साहित्य: सैद्धांतिक
परिप्रेक्ष्य. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
पाटिल, आनंद. (2006). तुलनात्मक साहित्य: नए सिद्धांत और उपयोजन. (अनु.)
चंद्रलेखा. दिल्ली: न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन
वेब लिंक
http://samaykolkhyan.blogspot.in/2015/02/blog-post_15.html
http://jagadishwarchaturvedi.blogspot.in/2017/02/blog-post_18.html
https://hi.wikipedia.org/wiki/तुलनात्मक_साहित्य
http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/150007/4/04_chapter%201.pdf
https://www.jstor.org/journal/compstudsocihist
[1]
शुक्ल, हनुमानप्रसाद. तुलनात्मक साहित्य: सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य, नई
दिल्ली; राजकमल प्रकाशन. पृष्ठ-35
[2]
https://en.wikipedia.org/wiki/Comparative_literature
[3]
https://en.wikipedia.org/wiki/Comparative_literature
[4]
https://en.wikipedia.org/wiki/Comparative_literature
[5]
चौधुरी, इंद्रनाथ. (2006). तुलनात्मक साहित्य: भारतीय परिप्रेक्ष्य,
पृष्ठ संख्या- 47