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निबंध

बदलते परिदृश्य में साहित्य का स्वरूप और अनुवाद की महत्ता

कुलदीप कुमार पाण्डेय


बीसवीं सदी के अंत में भूमंडलीकरण के दौर में, शहरीकरण तथा ग्राम विस्थापन, संवेदनशून्यता फैल रही थी। भारत भूमंडलीकरण के नाम पर बाजारवाद, उपभोक्तावाद की दौड़ में दौड़ रहा था। आज का मनुष्य पूँजी की तरफ दौड़ रहा है। इस कारण समय, समाज और संवेदना के स्वरुप में आए बदलाव को आसानी से परखा जा सकता है। आज की रंग-बिरंगी चकाचौंध की दुनिया का असर साहित्य पर भी पड़ा है। साहित्यकार भी हताश और निराश है, इन सभी प्रभावों को हम भूमंडलीकरण के प्रभाव में देख सकते है।

आज साहित्य पाठक वर्ग को ध्यान में रखकर लिखा जाता है क्योंकि वर्तमान समय में साहित्य सृजन भी एक बड़ा पूँजी का माध्यम है। कोई साहित्यकार समाज की दुर्दशा पर जल्दी नहीं लिखना चाहता, जबकि पहले ऐसा नहीं था। पहले लेखक रचना करते समय समाज के अच्छे-बुरे पहलुओं पर नज़र रखते थे जबकि उन्हें सराहा नहीं जाता था। उन्हें बहुत बाद में उच्च स्थान दिया जाता था। जैसे अमृता प्रीतम ने उसी समय आज के संपूर्ण स्त्री-विमर्श को अपनी रचनाओं में समेटा था परन्तु पंजाबी साहित्य ने उन्हें स्थान देने में बहुत देर की। हिंदी साहित्य के मस्त मौला साहित्यकार निराला ने 'तोड़ती पत्थर', 'कुकुरमुत्ता' जैसी रचनाएँ की, जो समाज में संवेदनात्मक क्रांति लाने के योग्य है परन्तु हिंदी साहित्य में उन्हें उलाहना ही मिली परंतु ये रचनाकार साहित्यकार का दर्जा पाने के लिए नहीं लिखते थे। ये साहित्यकार समाज को बदलने के लिए लिखते थे परन्तु वर्तमान में साहित्यकार पाठक वर्ग की मनोदशा को देख कर लिखते है कि कौन सी रचना, किस विषय वस्तु को पाठक अधिक पसंद करेंगे। उनकी रचनाओं में साहित्यिकता भले न हों परन्तु रोमांच अवश्य होता है। एक प्रमुख विचारक रोला बार्थ ने अपने एक लेख 'द डेथ ऑफ़ द ऑथर' (लेखक की मृत्यु) में कहा है कि लेखक की मृत्यु के बाद ही पाठक का जन्म होगा। इसका तात्पर्य यह है कि किसी रचना के प्रसंग में जब तक लेखक तथा उसके मंतव्यों को प्रश्रय मिलेगा, पाठक को वाजिब महत्त्व नहीं मिल पाएगा अर्थात पाठक के द्वारा किसी रचना का संपूर्ण रसास्वादन तभी संभव है जब वह लेखक के प्रभाव मंडल से दूर रहे, इसके विपरीत स्थिति आज साहित्य में विद्यमान है। आज पाठक कृति का चयन साहित्यकार का नाम देखकर करता है।

आज समाज के पूँजीवाद की विशेषता यह है कि उसने अपने चेहरे पर कुछ लुभावने मुखौटे चढ़ा रखे हैं। ये मुखौटे भूमंडलीकरण के विश्वग्राम के विकास और जनतंत्र की रक्षा के मुखौटे हैं जिसकी आड़ में उसके बाजार और बाजारतंत्र का, कर्जदार देशों के आर्थिक दोहन का सिलसिला निर्विघ्न चल रहा है। पहले बाजार घर के बाहर हुआ करते थे, हमारी जरूरतों पर निर्भर थे। आज साहित्य शौक में बदल गया है, बड़े-बड़े रचनाकार तक बाज़ार की प्रभुता के तहत अपने रचना धर्म को छोड़कर दूरदर्शन के लिए सीरियल और अपराध कथाएँ लिख रहें हैं।

साहित्यिक अभिरुचि का जितना ह्रास हमारे आज के समय में हुआ है वैसा पहले नहीं हुआ था। छपा हुआ शब्द बेमानी होकर रह गया है, पुस्तकें या तो पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा रही हैं या सरकारी खरीद में जा रहीं हैं। पुस्तकों के दाम बहुत तेज़ी से बढ़े हैं, खरीदकर पुस्तक पढ़ने वाले की संख्या नगण्य हो चुकी हैं। इनमें सबसे बदत्तर स्थिति कविता पुस्तकों की है। उपन्यास कहानी तो अपने रोमांच (नैरेटिव) के नाते कुछ पढ़े जाते हैं, कविता पुस्तकों के न तो पाठक रह गए है और न ही उन्हें छापने वाले प्रकाशक।

आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण में एक नए पूँजीवाद ने जन्म लिया जो कि देश के लिए हितकर नहीं हुआ। इन्हीं पूँजीवादियों के लिए हमारी सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव लाना पड़ा, जिसमें कहा गया 'स्वास्थ्य गरीबी और शिक्षा, आदमी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी होगी, न कि सरकार की' जिसकी आलोचना और भत्सर्ना भारतीय कवियों और लेखकों ने अपनी अपनी भाषा के माध्यम से की और करनी भी चाहिए। कहा जाता है जो काम तलवार नहीं कर सकती, उसे कलम बखूबी करती है। इसलिए जब-जब परिवेश ने साहित्य को प्रभावित किया है, तब-तब साहित्य ने भी परिवेश के ऊपर अपना असर डाला है। एक छोटी सी घटना सर्वविदित है- एक बार पंडित जवाहर लाल नेहरु के पाँव संसद भवन की सीढ़ियों पर चढ़ते वक्त डगमगा गए थे, उनके पीछे राष्ट्रकवि दिनकर चल रहे थे, उन्होनें झट से अपने हाथ का सहारा देकर उनको गिरने से बचा लिया। इस पर पंडित नेहरु में दिनकर जी को धन्यवाद देते हुए कहा था, 'आपने मुझे बचा लिया वरना आज मैं गिर जाता', उत्तर में दिनकर जी बोले, 'कोई बात नहीं, इतिहास गवाह है, जब-जब राजनीति डगमगाई है, साहित्य ने उसे संभाला है'।

कोई भी कवि, लेखक, रचनाकार, साहित्यकार, अपने भाव की सृजनता भले ही अकेले में करता हो, मगर उस एकांत क्षणों में भी उसका परिवेश (अच्छा या बुरा) उसके साथ होता है। समाज परिवेश के बिना किसी प्रकार का सृजन करना असंभव है, भले ही उसने क्षण को, उस रचना का महानायक लेखक की आँखों के सामने न हो लेकिन कल्पना में उसका चित्र तो रहता ही है, जिसे देखकर साहित्यकार अपने साहित्य की रचना करता है। साहित्य सृजन की बुनियादी शर्त आत्मसजगता होनी चाहिए।

भूमंडलीकरण ने साहित्य को प्रभावित किया है जिससे लिखने की शैली में परिवर्तन हुआ क्योंकि समाज में ऐसे ही लेखन की मांग है क्योंकि भूमंडलीकरण के दौर में व्यक्ति के भीतर अजनबीपन, अकेलापन तथा तनाव जैसे विकार उत्पन्न होने लगे हैं। साहित्यकार का समाज के प्रति भाव तथा समाज में फैले विकार के प्रति झुझलाहट स्वाभाविक थी परन्तु यह एक विधा में नहीं समा पा रहा था। इसीलिए साहित्यकार की लिखने की शैली में परिवर्तन आया। उपन्यासकार की औपन्यासिक शैली में जहाँ काव्यात्मकता को स्थान मिलने लगा वहीं कवि की कविताओं में कथात्मकता आने लगी। हाइकू जैसे छंदों का प्रयोग होने लगा। छोटी कविताओं का प्रचलन बढ़ने लगा, भाषा की क्लिष्टता सरलता में बदली। पुरानी अभिव्यक्ति की शैलियाँ आधुनिक विचारों को स्पष्ट करने में असमर्थ थी। शैली तथा शिल्प के अलावा एक भारी बदलाव 90 के बाद के दशक में साहित्य की भाषा में आया। आज साहित्य की भाषा शुद्ध और परिष्कृत नहीं है, आज साहित्य की बिक्री बढ़ाने के लिए उसमें हिंग्लिश भाषा का प्रयोग हो रहा है।

आज के समय में भूमंडलीकरण का जो जादू युवा वर्ग पर चढ़ा हुआ है, जहाँ वह अब बौद्धिक पुस्तकों जिनसे ज्ञान का विस्तार होता है उनको न पढ़ते हुए सिर्फ सतही विषय को ही अपनाता है, जिसका यथार्थ से कोई लेना देना नहीं है। आज का पाठक वर्ग प्रेमचंद के बाद सीधा चेतन भगत को पढ़ना चाहता है जो जीवन जगत की वास्तविकता से कोसों दूर है। जहाँ प्रेमचंद अपने साहित्य में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की बात करते हैं वहीं दूसरी तरफ चेतन भगत के उपन्यासों में भूमंडलीकरण हावी है। उनके उपन्यासों में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। उदाहरण के तौर पर हाफ गर्लफ्रेंड में एक माधव नाम का लड़का जिसकी प्रेमिका बिहार से कहीं चली जाती है तथा वो उसको न्यूयार्क में खोज लेता है और वो भी बिल गेट्स की संस्था की मदद से तथा एक दूसरे उपन्यास जिसका नाम वन नाईट एट इन कॉल सेंटर है, उसमे एक आदमी को जो कॉल सेंटर में काम करता है, उसको भगवान का फोन आता है। आज के समय में साहित्य की असलियत यह है कि पाठक जैसा चाहता है वैसा ही लिखना साहित्यकार की मजबूरी हो गया है। जो इस परिपाटी पर चलता है वही सबसे ज्यादा बिकता है। इसके साथ ही भारी बदलाव आज के साहित्य में जो आया है वह है समष्टि से व्यष्टि की तरफ झुकाव। पहले लेखक या साहित्यकार समष्टि के माध्यम से व्यष्टि की बात करते थे परन्तु आज व्यष्टि के माध्यम से समष्टि की बात की जा रही है। आज साहित्य में स्वानुभूति को महत्व मिला है। अब स्वयं के भोगे गए यथार्थ को साहित्यकार लेकर आ रहा है।

जब इस साहित्य का दूसरी भाषा में अनुवाद हुआ तो साहित्य से होते हुए यही प्रभाव अनुवाद पर भी देखने को मिलता है। मूल संवेदना को बचाते हुए अनुवादक को साहित्यकार की शैली को ध्यान में रखकर ही अनुवाद करना पड़ता है। इस प्रकार उत्तर आधुनिक विमर्श से अनुवाद की अवधारणा में भी प्रसार तथा विकास हुआ। अनुवाद अब एक भाषा में कही गई बात को दूसरी भाषा में फिर से कहना भर नहीं है। अनुवाद वाद का संवाद है। अनुवाद कौशल संबंधी प्रस्तुत विचार को आगे बढ़ाने में भाषा चिंतक आंद्रे लीफेबेरे का भी योगदान रहा, उन्होंने Translation, Rewriting & Manipulation Of Literary Fame नाम से एक पुस्तक लिखी जिसमें यह स्थापना प्रतिपादित की कि 'अनुवाद मूलतः पुनर्लेखन है और उद्देश्य चाहे कुछ भी हो, प्रत्येक पुनर्लेखन का एक निश्चित विचार तथा शास्त्र होता है। अनुवाद भी इतिहास ,आलोचना, लेखन, संपादन की ही तरह एक पुनर्लेखन होता है, जो अपने युग के अनुसार संचालित होता है।'

इस बीच जक देरिदा का विखंडनवाद अनुवाद संबंधी पारंपरिक विचार और विश्लेषण के लिए क्रांतिकारी साबित हुआ है। देरिदा के अनुसार, विभिन्न भाषा प्रणालियों में अन्तर्निहित भिन्नता प्रक्रियागत रूप में अनंत होती है। किसी शब्द का अर्थ निश्चित इसलिए होता है क्योंकि अनिश्चय तथा विकल्प की स्थिति मौजूद नहीं रहती। अनुवाद करते समय पाठ पूरी तरह विखंडित हो जाता है। एक ही शब्द अथवा एक ही पाठ के एक नहीं अनेक अर्थ सूझते रहते है। अत: पाठ में अर्थ का आधार अस्थिर होता है ऐसे में अनुवाद मूल के अर्थ का संवाहक मात्र नहीं, बल्कि एक ऐसा प्रारूप होता है, जिसमें अनुवादकर्ता के लिए पाठ में परिवर्तन परिवर्धन करने की गुंजाइश रहती है। कहना न होगा कि देरिदा के विखंडनवाद में आधुनिक अनुवाद चिंतन को गहरे रूप में प्रभावित किया है। किसी पाठ के भाषांतरण के बहाने पाठ से जुड़ी हुई दो भाषा संस्कृतियों में संवाद भी अब अनुवाद का नव्य आयाम बन गया है। निश्चय ही यह अनुवाद में आधुनिकता का आगमन है।

साहित्यिक अनुवाद तो पहले से ऐसे होते रहे हैं। विज्ञापन के अनुवाद में मूल से बेहतर रचना पर सदैव बल दिया जाता रहा है। किंतु अब ज्ञान विज्ञान के विभिन्न अनुशासन से संबद्ध लेखन के अनुवाद में भी सृजनशीलता पर भी जोर दिया जाने लगा है। निश्चय ही ये अनुवाद को लेकर लोगों की धारणा में आये बदलाव का प्रमाण है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अनुवाद की प्रासंगिकता बढ़ी है। इस उत्तर आधुनिक दौर में अनुवाद एक ऐसी सच्चाई बनकर उभरा है कि अब हर कोई मानने लगा है कि दुनिया का काम अनुवाद के बिना नहीं चल सकता है। अनुवाद की इस अपरिहार्यता पर भूमंडलीकरण, बाजारवाद तथा सूचना क्रांति के परिप्रेक्ष्य में विचार करना भविष्य के लिए भी अत्यधिक आवश्यक होगा।


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हिंदी समय में कुलदीप कुमार पाण्डेय की रचनाएँ