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निबंध

सांस्कृतिक पाठ के अनुवाद की चुनौतियाँ

कुलदीप कुमार पाण्डेय


"मानव भाषा के सहारे समाज का विस्तार करता गया और आदान-प्रदान की प्रक्रिया को अधिक फैलाने की आवश्यकता का अनुभव करने लगा। उन स्थितियों में अनुवाद ने जन्म लिया, अनुवाद के द्वारा एक देश दूसरे देश के, एक प्रांत दूसरे प्रांत के साहित्य, संस्कृति, कला और विज्ञान से परिचित होता है। वह दो संस्कृतियों, दो देशों और दो विचारधाराओं के बीच सेतु का कम करता है। उसी प्रकार अनुवादक भौगोलिक सीमाओं को पार कर भाषाओं के बीच सौहार्द्र, सौमनस्य, एवं सद्भावना की स्थापना करता है। भूमंडलीकरण और एकात्मकता की भावना से ओतप्रोत करता है।" [1]

इसमें संदेह नहीं है कि विश्व की सभ्यताओं और सांस्कृतिक विकास तथा परस्पर आदान प्रदान में अनुवाद की विशेष भूमिका है। विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों को जानने और समझने के लिए अनुवाद को माध्यम बनाए बिना काम नही चल सकता। भारतीय दर्शन, बौद्ध धर्म, गीता, उपनिषद, क़ुरान, बाइबिल, पंचतंत्र आदि अनेक प्राचीन ग्रंथों का वैश्विक स्तर पर प्रचार प्रसार अनुवाद द्वारा ही संभव हो सका है। इससे साहित्य एवं कला की विश्व चेतना का विकास तो हुआ ही, सांस्कृतिक एकता को विकसित करने में भी इसकी भूमिका उल्लेखनीय रही। वास्तव में अनुवाद एक सांस्कृतिक सेतु का कार्य करता है।

"भाषा के जन्म से ही अनुवाद की आवश्यकता बनी हुई है। यह आज के आधुनिक युग में न केवल प्रासंगिक है बल्कि अपरिहार्य भी है। किसी भी समाज देश का विकास अनुवाद के बिना संभव नही है। अनुवाद की प्रासंगिकता का केवल एक यही आयाम नही है, कई अन्य आयामों में भी अवलोकित किया जा सकता है। आधुनिक युग संचार क्रांति तथा सूचना प्रौद्योगिकी का युग है। इस संदर्भ में अनुवाद की प्रासंगिकता एवं उपादेयता आज असंदिग्घ है। ज्ञान विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में जिस गति से निरंतर उन्नति और प्रगति होती जा रही है सम्पूर्ण विश्व सिकुड़ता चला जा रहा है। भूमंडलीकरण की अवधारणा और विश्व ग्राम की संकल्पना का आधार 'संचार' तथा 'अनुवाद' को माना जा रहा है। आज जिस प्रकार ज्ञान विज्ञान का क्षितिज विस्तृत होता जा रहा है वैसे ही देश विदेश के अनेक भाषा भाषी समुदायों का मिलन भी संभव होता जा रहा है।" [2]

भारत में अनुवाद की परंपरा प्राचीन काल से है। एक समय था जब देश में एक ही भाषा से उसी भाषा में अनुवाद हुआ करते थे। ये अनुवाद भाषा या टीका के रूप में अधिक मान्य थे, किन्तु दो भिन्न प्रकृतियों वाली, व्याकरणिक संरचनाओं की भिन्नता वाली तथा शैली के अंतर वाली भाषाओं में परस्पर अनुवाद के प्रचलन ने साहित्यिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, पारंपरिक, दार्शनिक, राजनीतिक, सामाजिक, वैचारिक आदान प्रदान में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। आज भूमंडलीकरण के युग में कविता कहानी, उपन्यास नाटक, डायरी, सूक्तियाँ, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, आदि ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जिनमें विश्व स्तर पर परस्पर आदान प्रदान का सिलसिला चल निकला है। संस्कृत के वैदिक युग, उत्तर वैदिक तथा पौराणिक साहित्य से होती हुई यह अनुवाद परंपरा मध्यकाल के संतों द्वारा संस्कृत और पालि के साहित्य, धर्म, दर्शन, नीति, व्याकरण आदि के अनेक ग्रंथों का युगीन भाषा में अनुवाद का जनजागरण किया। वहीं १९वी शताब्दी में भारतीय प्राचीन ग्रंथों के अनुवाद के साथ साथ पश्चिमी साहित्य और विशेषकर अंग्रेजी के अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों के अनुवाद हुए। इस प्रकार देखें तो राजनैतिक चेतना, राष्ट्रीय एकता, अखंडता तथा सांस्कृतिक नवजागरण में अनुवाद तथा अनुवादकों ने निश्चय ही युगांतकारी कार्य किया।

अनुवाद को परकाया प्रवेश सरीखी विधा माना जाता है। लेकिन कहीं कहीं ये अंटीं यात्रा में तब्दील हो जाती है। अनुवाद करते समय अनुवादक को सबसे अधिक कठिनाई सांस्कृतिक अनुवाद में आती हैं। आज जहाँ हम भूमंडलीकरण के दौर में संपूर्ण विश्व को एक ग्राम में तब्दील करना चाहते हैं , वहाँ यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य माना जाता है। प्रत्येक संस्कृति की अपनी कुछ विशेषताएँ होती है, अतः उन विशेषताओं के अनुरूप उस संस्कृति की भाषा में कुछ विशिष्ट शब्द और अभिव्यक्तियाँ होती हैं। ऐसे शब्दों और अभिव्यक्तियों का अनुवाद करना टेढ़ी खीर है। उदाहरण के लिए हिन्दी में 'अंगद का पैर', 'दधीचि की हड्डी', द्रोपदी का चीर, भीष्म प्रतिज्ञा, सोने की लंका, या शैतान की आंत, ऐसी ही अभिव्यक्तियाँ है जो शैली में जितना आकर्षण पैनापन ल देती हैं, अनुवाद में उतनी ही दुरूह और प्रायः दुष्कर है। कभी कभी अर्थ भेद को व्यक्त करने की भाषा में क्षमता होने तथा दूसरी में क्षमता न होने से भी सांस्कृतिक अनुवाद कठिन हो जाता है।

ऐसे अनुवाद सृजनात्मक अनुवाद के क्षेत्र में आते है, जिनमे भाव और कल्पना विधायक तत्व होते है। साहित्य का अनुवाद साहित्येतर अनुवाद से कठिन और दुष्कर है। साहित्यकार पाठक के हृदय में अपनी अनुभूति का स्थानांतरण नहीं करता। वह पाठक की समानांतर अनुभूति को ही उद्बुद्ध करता है और पाठक या सहृदय का अपनी भाव दशा या परिवेश के अनुसार साधारणीकरण होता है। अनुवाद में पाठ के अर्थ ग्रहण और अर्थ निर्धारण में अनुवाद को सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के प्रति सचेत रहना पड़ता है। लक्ष्य भाषा में समान अभिव्यक्तियों की तलाश करनी होती है और ऐसी तमाम अभिव्यक्तियों के बीच पारस्परिक मिलान कराते हुए भाषांतरण करना होता है। यद्यपि यह कम किंचित श्रमसाध्य है, तथापि सांस्कृतिक कथन को को सामान्य कथन से स्थानांतरित नही किया जा सकता। मुश्किल स्थिति में यानि स्त्रोतभाषा की किसी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का अनुवाद करते समय लक्ष्यभाषा मे समान अभिव्यक्ति का अनुवाद न होने की स्थिति में लिप्यंतरण करना ही श्रेयष्कर है।

प्रो। रीतारानी पालीवाल के अनुसार "हर संस्कृति में रहन-सहन, रीति-रिवाज़, खान-पान, आचार-विचार, जाति, कुल, धर्मोपासना के विधि विधान एवं भौगोलिक स्थितियाँ विशिष्ट एवं निजी होने के कारण उसकी भाषा प्रयोग विधि भी विशिष्ट होती है। ऐसे प्रयोगों को भाषांतरित करना बड़ा ही कठिन हो जाता है। उदाहरणार्थ, त्रिमूर्ति की धारणा हिन्दू संस्कृति की धुरी है। मिथकों, कथाओं, लोक विश्वासों के सांस्कृतिक प्रतीकों में इसकी जड़ें बहुत गहरी है। संस्कृति के ऐसे आदि बीज-बिंबों का अनुवाद बड़ा ही कठिन होता है। इनका लिप्यंतरण ही बेहतर होता है।" [3]

उदाहरण के लिए व्यक्ति, पात्रों के नाम सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, पौराणिक परिवेश के हों तो उनमें ज्यों का त्यों लिप्यंतरण का सहारा लिया जाएगा नहीं तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा।

जैसे :-

रावण - satan

माधुरी दीक्षित - monalisa

मेनका - madona

पंत - wordswarth

डोसा - pizza

घेवर - cake

ये सभी गलत अनुवाद के उदाहरण हैं। जैसा कि प्रायः देखा जाता है भगवान राम को बादशाह राम या सीता को बेग़म सीता के रूप में अनूदित किया गया है। ऐसी स्थितियों में व्यक्तियों व पात्रों के नाम को ज्यों का त्यों लिप्यंतरण करना चाहिए। जिससे सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ व मूल भाव को किसी प्रकार की क्षति न पहुंचे। कुछ अनुवादों में लिप्यंतरण के साथ-साथ पाद टिप्पणी का सहारा लिया जाता है। जैसे-सामाजिक सांस्कृतिक सीमा आने पर निम्न आवश्यकतानुसार पद्धति का सहारा लिया जा सकता है।

1. ज्यों का त्यों लिप्यंतरण द्वारा अनुवाद किया जाना।

हिमालय - HIMALAYA

पंचवटी - PANCHVATI

दीपावली - DEEPAWALI

गंगा - GANGA

2. लिप्यंतरण के साथ-साथ पाद टिप्पणी द्वारा अनुवाद करना।

बैंगन का भर्ता :- a dish prepared from meshed and fried brinjals.

घेवर :- a sweet prepared from wheat flour, oil and cream.

डोसा :- a south Indian dish prepared from rice flour stuffed with boiled potato and spices.

3. किसी सामाजिक अंश का अर्थ ग्रहण कर अनुवाद करना।

उनमें महाभारत का युद्ध छिड़ गया।

The Mahabharata was started among them.

They engaged themselves in a fierce battle.

तुम्हें उस रास्ते पर नहीं जाना चाहिए, जिस पर बाली गया था।

You should not follow the path of Baali.

You should not follow the path of violence.

4. आवश्यकता अनुसार समीपवर्ती अंश का अनुवाद करना।

उसकी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा से कम नहीं है।

His oath is firm as bhishma's.

उनमें कौरव पांडव जैसा बैर है।

They are sworm enamies like kaurva-pandava.

5. निकट समतुल्य की पद्धति द्वारा अनुवाद करना।

Adam and Eve- आदम और हव्वा

Herculean effort- भगीरथ प्रयत्न

Cupid- कामदेव

"आज ये भी कहा जाता है कि एक ही भाषा के पर्याय भी पूर्ण समतुल्य नहीं होते हैं। अतः दो भाषाओं में पूर्ण समतुल्यता का होना कोई आवश्यक नहीं है। इसलिए साहित्य अनुवाद में हम देखते है किमूल का बहुत कुछ छूट जाता है और लक्ष्य भाषा का बहुत कुछ जोड़ना पड़ता है। भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में लिए गए काव्यों का अनुवाद करने में अनुवादक को कहाँ तक सफलता मिलेगी? यह प्रश्न भी विचारणीय है। भारतीय साहित्य के बीच परस्पर अनुवाद तथा भारतीय एवं विश्व साहित्य के बीच अनुवाद की अपनी-अपनी समस्याएँ और सीमाएँ हैं। इन सीमाएँको तीन स्तर पर देख सकते हैं - १. अनुवादक, २. कृति, ३. भाषा, अर्थात स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की संरचना या बुनावट।" [4] (कामायनी काव्य का एक उदाहरण जो अनुवाद की मौलिक प्रतिभा का तथा भावों का सुंदर एवं सुस्पष्ट अभिव्यक्ति के प्रयास का परिचायक है। ये भाव अनुवादक की सृजनात्मक प्रतिभा का उदाहरण है। जैसे -

मूल :- " हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह

एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह"

अँग्रेजी अनुवाद :- Upon the Himalaya's lofty peak

In the cool shade of an overhanging cliff

A person set who with wet eyes surveyed

The flowing current of the flood of doom.

यह कामायनी महाकाव्य का प्रथम सर्ग है। अँग्रेजी अनुवादक ने विजातीय भाषा अँग्रेजी की प्रकृति के अनुरूप ही अनुवाद प्रस्तुत किया है। मूल कवि और अनुवादक दोनों भारतीय हैं। मूल पाठ तथा अनुवाद दोनों में आदिमानव की सृष्टि भारत में होने की ओर संकेत किया गया है। मूल के एक 'एक पुरुष' का अनुवाद 'A person' करके अनिश्चय की भावना को अनुवादक ने मूल लेखक की भांति ही व्यक्त करने की चेष्टा की है। 'शिला' का अनुवाद 'overhanging cliff' (प्रलंबी चट्टान) तथा 'देख रहा था' का अनुवाद 'surveyed' किया गया है। सामान्य रूप से surveyed शब्द का उपयोग 'जांच' या 'सर्वेक्षण' के लिए करते हैं। मूल भाव को ध्यान में रखकर भी अनुवाद किया जाता है। उदाहरण :-

'सत्यम् शिवम सुंदरम्'

A thing of beauty is joy forever.

'नियति चलाति कर्म चक्र यह'

There is a divinity that shapes our ends.

प्रेमचंद की कफ़न कहानी में कुल्हड़ शब्द आया है। इस कहानी के अंग्रेजी में चार अनुवाद हुए है तथा चारों अनुवादों में कुल्हड़ के लिए क्रमशः WINE GLASS, CUP, JUG, WINE CUP रखा गया है। कहना न होगा कि कोई भी अनुवाद ठीक नहीं है। इसी कहानी में चमार भी आता है जिसे अनुवादकों ने चमार (पाद टिप्पणी में a backward class, cobbler तथा tanner) कहा गया है किंतु कोई भी सटीक नहीं है। निष्कर्षतः इन श्रेणियों के सांस्कृतिक अनुवादों में सामान्य अनुवादक के कामचलाऊ अनुवाद से ही संतोष करना पड़ता है, वह सटीक अनुवाद नहीं कर सकता। यह स्थिति अनुवादक के समक्ष एक चुनौती प्रस्तुत करती है जिससे रूबरू होने के लिए उसे सदैव तत्पर रहना होता है।

अंतरण में समतुल्यता दो भाषाओं के बीच तुलनीयता को स्थापित करती है। यह समतुल्यता सिर्फ रूपपरक ही नहीं होती बल्कि संदर्भपरक भी होती है। इसके लिए रूपपरक और संदर्भपरक तुलनीयता की आवश्यकता होती है। जैसे 'मेरे भाई ने गंगा नहा लिया' यहाँ सिर्फ गंगा नदी में नहाने का आशय नहीं है बल्कि किसी शुभ कार्य को पूरा करने का भाव निहित है। इसका अनुवाद करना बहुत ही कठिन कार्य है।

"इसी तरह 'सौभाग्यवती महिला' का अनुवाद 'lucky, fortunate women' अंग्रेजी शब्द में किया जाएगा तो वास्तविक अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं हो पाएगी क्योंकि 'सौभाग्यवान' का अनुवाद 'lucky, fortunate, prosperous, auspicious' आदि के रूप में किया जा सकता है। लेकिन जब किसी महिला के लिए इस विशेषण का प्रयोग किया जाएगा तो एक विशिष्ट सांस्कृतिक अर्थ की प्रतीति होगी अर्थात 'जिस स्त्री का पति जीवित है'। यही कारण है कि विवाहित महिलाओं के लिए "सौभाग्यवती रहो" आशीर्वाद के रूप में प्रयोग होता है। किसी विधवा स्त्री को धन-धान्य से समृद्ध होने पर भी उसे सौभाग्यवती नहीं कहा जा सकता"। [5]

अतः इन उदाहरणों से स्पष्ट हो रहा है कि इन सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को विषम सांस्कृतिक भाषा में अंतरण करना जटिल कार्य है, जिसके लिए पाद टिप्पणी के साथ साथ उस शब्द के बारे में विस्तृत जानकारी देना भी उचित है। इस अध्याय में भूमंडलीकरण के सांस्कृतिक प्रभाव को उचित ढंग से देखने का प्रयास रहा है। इस प्रकार सांस्कृतिक अनुवाद और उसकी चुनौतियों की चर्चा के बाद अगले अध्याय में भूमंडलीकरण के भाषिक पक्ष का विवेचन किया जा रहा है।

संदर्भ स्त्रोत

[1] चर्ल, अन्नपूर्णा. अनुवाद की नयी परंपरा और आयाम, पृष्ट १५०

[2] टंडन, पूरनचन्द. अनुवाद पत्रिका, अंक-१२७, पृष्ठ १-२

[3] पालीवाल, रीतारानी. अनुवाद प्रक्रिया और परिदृश्य, पृ॰४५

[4] चर्ल, अन्नपूर्णा. अनुवाद: नई परंपरा और आयाम. पृ. 152-153)

[5] अनुवाद शतक विशेषांक, डॉ॰ पूरनचंद टंडन, अंक 100-101,पृ॰-86

 


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