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कविता

घनघोर आत्मीय क्षण

नीलेश रघुवंशी


जब जब हारी खुद से आई तुम्हारे पास
मेरे जीवन का चौराहा तुम
रास्ते निकले जिससे कई कई!
वो कौन सी फाँस है चुभती है जो जब तब
डरती हूँ अब तुमसे मिलने और बतियाने से
मिलेंगे जब हम करेंगे बहुत सारी बातें
धीरे धीरे जब हम
घनघोर आत्मीय क्षणों में प्रवेश कर जाएँगे
तब सकुचाते हुए पश्चात्ताप करते हुए
तुम सच बोलोगे
छल हँसेगा तब कितना
कपट नाचेगा ईर्ष्या करेगी सोलह श्रृंगार
मैं तुम्हें प्यार करती हूँ तुम मुझे छलते हो
भोले प्यारे कपटी इंसान
प्यार और छल रह नहीं सकते एक साथ
क्यों छला तुमने मुझे इतना
कि
तुम्हारा ही कलेजा छलनी हो गया!


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