दि. 02 जून, 2019 को 'सबलोग'में प्रकाशितडॉ.
अमरनाथ जी का लेख'हिन्दी की हिन्दुत्ववादी आलोचना
'
पढ़ने को मिला। एक बार की मुलाक़ात और दूरभाष पर चार-छह बार के संवादों के
साथडॉ. अमरनाथ मेरे परिचित हैं। हमारे यहाँ (तमिलनाडु केन्द्रीय
विश्वविद्यालय) जब मैंने हिन्दी विभाग की नींव रखी (2014) तो गुरुवर स्व.
सुवास कुमार जी के सुझावों के अनुसार आपको बोर्ड ऑफ स्टडीज़ में भी सम्मिलित
किया गया। परंतु निजी परिचय एवंस्नेह संबंधों के कारण वाजिब ज़िरह न करना
आलोचना के मानदंडों को ताक पर रख देने जैसा होगा। अतःपरिचय-निजत्व-स्नेह वाले
पक्ष को बलवती होने न देते हुए आपकीउपरोक्त आलोचना के बरक्स यह ज़िरह प्रस्तुत
है।
यदि मैं यह कहूँ कि हिन्दी आलोचना को सर्वाधिक क्षति निस्संदेह वामपंथी
विचारधारा के अनुयायियों ने पहुँचाई है, तो अत्युक्ति न होगी। लगभग प्रत्येक
रचना पर एक ही औज़ार-हथियार(tool) चलाने का उपक्रम उन्होंने सतत किया -
मार्क्सवाद!ऐसे अनुयायी हर रचना का मूल्यांकन एक ही 'पैटर्न'पर करने का उपक्रम
निरंतर करते रहे।इसविशिष्टालोचना के अति विशिष्ट प्रतिमान बुने गए और भारतीय
परिप्रेक्ष्य मेंमार्क्सवाद अत्यंत उग्र-हिंसकबनने के बावजूद सबका प्रिय विषय
बना रहा। लिहाजा सभी ग्रंथालयों में इसी धारा की अनगिनत रचनाओं ने अधिकाधिक
जगह समेट ली (अन्य ज्ञान-विचार-दर्शनके लिए जगह सिमट (मिट) गई!)। इस
विशिष्टालोचना के पक्षधरों ने ऐसा करते हुए अपना एक 'वर्ग'ही बना लिया। ऐसे
लेखक-आलोचक-अध्यापकों के सानिध्य में जो भी पाठक-विद्यार्थी पहुँचा, वह उस
'वैचारिक अंधकार' से ग्रस्त हुए बिनानहीं रहा।'अंधकार' विशेषोक्ति
इसलिएयुक्तियुक्त हैक्योंकि इस विचार-शैली (mannerism)से पाठक के ज्ञान का
परिसीमन हुआ (जबकि सर्वविदितहै 'ज्ञान मुक्त करता है!') और वह अन्य महत्वपूर्ण
विचार-दर्शन के पक्षों को आत्मसात करने से वंचित ही रहा। साहित्याध्ययन या
विचार-शैली की अन्य धाराओं का समुचित विकास न होने का बलवतीकारण संभवतः यही
पक्ष रहा है। हिन्दी साहित्य जगत में ऐसे लेखक-आलोचक-अध्यापकों (मार्क्सवादी)
का बहुत बड़ा कुनबा है, जो पाठक-श्रोता-विद्यार्थियों कोविचारधारात्मक खेमे की
राजनीति से परिचय कराता है और अन्य वैचारिक अनुशासनों के प्रतिसायास (अनायास
नहीं!) विद्वेष-विरक्तिविकसित करता है।ऐसे कथित(स्वघोषित!)बुद्धिजीवीअपने
विचारधारात्मक अर्धज्ञान के साथ हर जगह विद्यमान हैं। इन्हें प्रायः एक-दूसरे
को निरंतर पुरस्कृत करते हुए पाया जाता है और पुरस्कृत स्मृति चिह्न लौटाने
वाली मुहिम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हुए भी देखा-पाया जा सकता है।दीरहते हैं
और शाब्दिक भेड़-चाल से भेड़िया-धसान तक का खेला शुरू हो जाता है।मेरा मानना
है कि ऐसे बुद्धिजीवियों के बीच चंद लेखकों को बिना किसी ठोस आधार के
'हिंदुत्ववादी' अथवा 'संघवादी' कह देना,'विक्टिम' बना देने जैसा है। जबकिडॉ.
अमरनाथ नेइसी लेख में सत्य को उद्घाटित करते हुए कमल किशोर गोयनका के संबंध
में सही ही लिखा है -"वामपन्थी आलोचकों द्वारा मुंशी प्रेमचंद
को अपने खेमे में हथिया लिए जाने के खिलाफ कमलकिशोर गोयनका ने जमकर लिखा है और
प्रेमचंद को मार्क्सवादी साबित किए जाने वाली अवधारणाओं का तार्किक ढंग से
खंडन करने की कोशिश की है।"वास्तव में संपूर्ण जीवन निरंतरवे इसी
उपक्रम में जुटे-डटे रहे (इसका उल्लेख भी डॉ. अमरनाथ करते ही हैं!)। यह
उदाहरण है मार्क्सवादी आलोचकों के 'मार्क्स-कॉम्पलेक्स' का!
प्रश्न यह उठता है कि क्या राष्ट्र की बात करना, संघ के अनुशासन एवं प्रबोधन
की प्रशंसा करना, वामपंथियों के कुतर्कों के विरुद्ध लिखना, बोलना या खड़े
होना 'संघी'होना कहलाएगा?डॉ. अमरनाथ ने संघ के साथ चंद लेखक-आलोचक-विचारकों को
जोड़कर आलोचना के एक नए प्रकार का आविष्कारया नामकरण (coin) कर दिया है। ऐसा
करनातर्कसंगत तो नहीं ही है,सही मायने में उचित भी नहीं!इसीलिए 'हिंदुत्ववादी
आलोचना' अथवा'संघवादी आलोचना' प्रयुक्ति पर आपत्ति जताते हुए कुछ प्रश्न
उपस्थित करने की हिम्मत-जुर्रत कर रहा हूँ। मेरे विचार में ऐसा करते हुए हम
किसी भी रचनाकार को सीमित ही कर देते हैं।उनके लेखन-कर्म की उदात्त संभावनाओं
पर कुठाराघात करते हैं - जैसा किमार्क्स-एंगेल्स के नाम पर अपना भवन और
मीनारें खड़ी करने वाले आलोचकों-बुद्धिजीवियों के खेमे ने किया।आधारभूत
प्रश्न यह है कि किसी भी लेखक-विचारक को एक चौखटे में बंद कर देना कितना और
किस हद तक उचित है? क्या ऐसा करना वास्तव में लेखक को पीड़ित (victim)बनाने
का उपक्रम नहीं है?डॉ. अमरनाथ ने किन मानदंडों के आधारों परअपने लेख
मेंउल्लिखित लेखक-आलोचकों को 'हिंदुत्ववादी अथवा संघवादी आलोचना'की एक विशिष्ट
श्रेणी में रखा? आपके लेख से किसी भी तरहउपरोक्त प्रश्नों के उत्तर मिल नहीं
पाते हैं। आपने केवल लेखक-आलोचकों के नाम गिनाए हैं और उन लेखकों द्वारा लिखी
हुई रचनाओं का उल्लेखमात्र किया है। उनकी कौन-कौन सी रचनाएँराष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के किस-किस दृष्टिकोण को उजागर करती हैं, इसका विवरण-विवेचन
करना बेशक वाज़िब था, जिससे कि आपनेसरासर बचना ही वाजिब समझा।
जैसा कि मैंने विचार प्रकट किया - मेरे विचार में किसी भी लेखक को किसी एक
विचारधारा में बाँधना युक्तियुक्त नहीं है। लेखक के किसी विचारधारा से संबद्ध
होने के बावजूद हमें उसकी रचनाशीलता के विविध आयामों के परिदृश्य में ही
आलोचना करनी चाहिए।दुर्भाग्य है कि हिन्दी साहित्य-आलोचना को विचारधारात्मक
खेमों में बाँट कर रख दिया गया है। यह प्रचलन अब आम तौर पर हर जगह विकसित होता
हुआ दिखाई देता है।एक वाक़ये का उल्लेख करना यहाँ वाजिब ही होगा। हमारे
विश्वविद्यालय में (2014) मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की जन्म वर्षगाँठ के
उपलक्ष्य में 'राष्ट्रीय शिक्षा दिवस'मनाया गया। कई विद्यार्थियों-शोधार्थियों
के साथ-साथ कई प्रोफेसरों ने बढ़चढ़ कर अपने मंतव्य रखे और प्रायः जैसा होता
आया है- बहुतों ने मौलाना आज़ाद को 'इंडियन मुस्लिम स्कॉलर' और 'मुस्लिम
थिंकर' कह डाला। मैंनेव्याख्यान माला के समापनमें प्रश्न उठाया था कि क्या
मौलाना आज़ाद के नाम के पीछे 'मुस्लिम स्कॉलर' या 'मुस्लिम थिंकर' लिखना
या कहना आवश्यक (उचित!) है?उपरोक्त वाक़ये की इस लेख के साथ यही संबद्धता है
कि हम अनायास अथवा आदतन(बहुत बार 'सायास'!) विचारकों-लेखकों को अलग-अलग खेमों
में बाँट देते हैं। फलाँ-फलाँलेखक-आलोचक-विचारकअमुक-अमुक विचारधारा का/की है!
और फिर उन लेखक-आलोचक-विचारकों ने भले ही उस विचारधारा को न्यायोचित सिद्ध
करते हुए कुछ लिखा न हो, हम उन्हें उसी चौखटे में 'फिट' करने की जुगत में
भिड़ जाते हैं। आप मुझसे इत्तिफ़ाक़ रखेंगे -ऐसा अमूमन होता आया है।
यहाँ समझने की आवश्यकता है कि संघ के कार्यक्रमों में जाना, संघ का मंच साझा
करना, संघी होना और संघवादी आलोचना करना, इन बातों में बहुत अंतर है। वैसे
'संघवादी आलोचना' जैसी कोई विचार-शैली न शुरू हुई है ; न शुरू होनी ही
चाहिए। ऐसा कहने की वजह बहुत स्पष्ट है -संघ 'अखण्ड भारत' की बात करता है और
संघ के आभा मण्डल में शायद ही ऐसी कोई बात-विषय (content-intent)शेष रह जाता
है, जिसे रचनाकार किसी-न-किसी रूप में अपने रचनालोक में उजागर करने से चूकता
हो। संघ के व्यापक वैचारिक पटल और जन-जन में सक्रिय भागीदारीको देखते हुए,
निश्चय ही यह कहा जा सकता है कि हर रचनाकार 'संघवादी' दायरे में आ सकता है।
ऐसा करना (कहना भी!) मार्क्सवादी-समाजवादी लेखक-आलोचक-विचारकों को नागवार
गुज़रेगा।जब संघ 'अखण्ड भारत' की बात करता है तो वह खण्डित-विखण्डित आलोचना को
कैसे स्वीकृत कर सकता है? जो संघी नहीं हैं किंतु निष्पक्ष होकर संघ की
वैचारिकी एवं गतिविधियों को देखते-जानते-परखते हैं, वे बतलाएँगे कि संघ देश के
हर घटना-प्रसंग-मामले पर अपनी प्रतिक्रिया देता रहा है - चाहे वह राजनीति हो,
चुनाव, भाषा, संस्कृति, सेना-सुरक्षा का मामला हो, मंदिर-मस्जिदअथवाधार्मिक
उन्माद का मुद्दा हो। इस बात को दोहराने की निश्चय ही आवश्यकता नहीं कि संघ के
लिए भारत ही 'पुण्यभूमि', 'पितृ भूमि' और 'कर्मभूमि' रही है। अतः अविवादित रूप
सेउसका दायरा अत्यधिक विस्तृत हो जाता है।
दुर्भाग्य है कि हिन्दी आलोचना की सुदृढ़ परंपरा होते हुए भी इधर प्रभाववादी
आलोचना का नया दौर आरंभ हुआ है। मौजूदा सरकार (मोदी सरकार) के पक्ष में बात
करने वालों पर भी यह आरोप निरंतर लगाएजा रहे हैं कि वे 'संघी' हैं और 'भक्त'
हैं। यह भयंकर दूराग्रह है।वर्तमान आलोचकों ने विस्मृत कर दिया है कि आलोचना
का काम हिक़ारत की भावना पैदा करना नहीं है। यदि ऐसा हो रहा है तो वहनिश्चय
ही वैचारिक आतंकवाद (intellectual terrorism) की कोटि में गिना जाने योग्य
है। ऐसी आलोचना भारत की अखण्डता के लिए घातक है। संघ ऐसी विचार-शैली का भी
विरोध करता है।आलोचक का काम रचनाकार के सृजन-कर्म की आलोचना करना है न कि उसके
संगठनगत निज-संबंधों की पड़ताल करना। वर्तमान में स्वयंकिसी-न-किसी चौखटे में
सन्निविष्ट होकर दूसरों को किसी-न-किसी चौखटे में 'फिक्स' करने की आलोचना
परंपरा कायम हो चुकी है। ऐसे आलोचकों-पत्रकारों द्वारा (राजनीतिक पार्टियों के
साथ-साथ!) संघ के विरुद्ध वैचारिक विषाक्तीकरण का नित्यकर्म जारी है।इस
विषाक्तीकरण का ही नतीजा है कि केरल-पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में संघ के
कार्यकर्ताओं की नितदिन हत्याओं की घटनाओं में बढ़ोतरी होती ही जा रही
है।वास्तव में हिन्दी में ऐसी विभाजनकारी शक्तियाँइतनी हावी हैं कि वे साहित्य
और साहित्यकारों को जाति, धर्म, प्रांत, दलाधारित राजनीति के खेमे में बाँटने
का निरंतर उपक्रम करने में जुटी हुई हैं। मसलन मेरी पुस्तक 'संस्कृति
बनाम अपसंस्कृतीकरण ' (2010)की आलोचना करते हुएएक वरिष्ठ आलोचक
ने लिखा -"हैदराबाद के युवा लेखक।"लेखक-आलोचकों
द्वारा ऐसा चिह्नित करना भी विभाजन का ही एक तौर-तरीका है, जिसके बहुत गहरे
मायने हैं।इस विभाजन ने मुझे यकायक'हिन्दीतर भाषी लेखक' की श्रेणी में बाँटकर
रख दिया।हमें ऐसे विभाजनों से नितांत एवं निरंतर बचने की आवश्यकता है।
स्त्रीवादी लेखिका, दलित लेखक, आदिवासी लेखक, प्रवासी लेखकइत्यादि भेदों से
रचनाकारों केअन्यान्य पहलुओं को अनदेखा कर दिया जाता है। वास्तव में यह लेखक
का अनादर भी है।अफ़सोस कि यह ढर्रा कायम हो चुका है। वर्तमान साहित्यिक
विमर्शों ने तो इस विभाजन में चार चाँद लगा दिए हैं। यह विभाजनकारी भेदाभेद
(पहचान-अंतर) किए किसने?क्यों किए जाने चाहिए थे? कथाकार उदय प्रकाश ने
'पीली छतरी वाली लड़की' में विश्वविद्यालय में पलती-बढ़ती जातिवाद
कीगहरी-महीनपरतें खोली हैं। वास्तव भी यही है,विद्यार्थी-शोधार्थी अध्यापक की
जाति देखकर उसका चयन कर रहे हैं। कहीं-कहीं प्रांतवाद का पैटर्न भी है। दीगर
तथ्य यह भी कि दलित अध्यापक के पास दलित विद्यार्थी-शोधार्थी, बामन के पास
बामन, मुस्लिम के पास मुस्लिम पहुँच रहे हैं और धडल्ले से प्रवेश पाए जा रहे
हैं। और तो औरनौकरियों में भी इसी तर्ज पर बहालियाँभी हो रही हैं। बहुतांश बार
तो पैनल में बैठे ये कथित बुद्धिजीवी अपनी जात के लिए लड़-भिड़ जाता है।घनघोर
अविश्वास का माहौल पैदा किया गया है। यह भारतीयजनता पार्टी की सरकारें आने के
बाद आरंभ हुआ है, ऐसी बात नहीं है!बहरहाल, बचे-खुचे सद्भाव-सौहार्द कीजर्जर
पुलियाटूटकर बिखरने के कगार पर है। कैसा देश और भविष्य गढ़ रहे हैं ऐसे
अध्यापक-विद्यार्थी-शोधार्थी?क्या इस पैटर्न से जातिवाद खत्म होने की कोई
संभावना बन सकती है?
खैर, प्रकारान्तर से समकालीन चिंता का विषय यह होना चाहिए कि ऐसे तमाम (कथित!)
बुद्धिजीवी अपने-आपको निरपेक्ष साबित करने की हर ज़िद पर उतारू हैं।जातिवादी
अतिवादिता और विमर्शोंमें विद्यार्थी-शोधार्थियों के साथ-साथ अध्यापकों का
वैचारिक दिवालियापन (संकीर्णता-कट्टरता) स्पष्ट जाहिर होने लगा है। वह अन्य
जाति-धर्म-प्रांत के प्रति अत्यंत असहिष्णु होते जा रहे हैं। तिस पर दुर्भाग्य
यह किजातिवाद और सांप्रदायिकता का ठीकरा आनन-फानन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर
फोड़ा जा रहा है। जातिवाद का यह विषैला सर्प अब खेमे-दर-खेमेसरपट दौड़ रहा है।
यकीन मानिए कि यहविशालकाय विष-सर्प हर किसी को अपनी जद में लेने को अति विकराल
हुए जा रहा है।एक ओर जातिवादी-प्रांतवादी राजनीतिक पार्टियों ने इस
जातिवाद-प्रांतवाद को वोटबैंक के रूप में भुनाते हुए जन-जन को एक-दूसरे के
विरूद्ध खड़ा कर दिया तो दूसरी ओर स्वहितकामी आलोचना-पत्रकारितानेइस विषाक्त
माहौल को अत्यधिक बदहवास बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।जातिवाद के इस विष दंश
से भारत कब उबरेगा, इसका अनुमान लगानाअब कठिन ही नहीं बल्कि असंभव-अकरणीय सा
हो गया है।ऐसे में यही उम्मीद की जा सकती है किसंघ के पास अपना'अखण्ड भारत' का
सपना पूरा करने के लिए कोई-न-कोई फुलप्रूफ प्लान उपलब्ध होगा, जिससे कि भारत
की अखण्डता को सुनिश्चित किया जा सकेगा।
कहना न होगा कि बड़े-बड़े शब्द-मंतव्य लिख देने से बातें'बड़ी' और
'प्रभावकारी' नहीं हो जातीं। बड़ी बात करने और तिस पर उसेप्रभावकारी बनाने के
लिए उसका सर्वांगीण विवेचन करनाअनिवार्यहोता है और ऐसा तर्कों के सुस्पष्ट
प्रस्तुतीकरण से ही संभव हो सकता है। लेखक-आलोचक को यह स्मरण रखना होगा कि
लेखक-आलोचक-अध्यापक औरपत्रकारों(सनसनीखेज़ उत्पन्न करने वाले!) में बहुत अंतर
है। बावजूद इसके लेखक-आलोचक-अध्यापक और पत्रकारों में एक पक्ष समान रूप में
होना अनिवार्यहै-'विश्वसनीयता'! अच्छा होगा लेखक-आलोचक-अध्यापक और पत्रकार
'अपनी'तथा'औरों की विश्वसनीयता' को बरकरार रखने का उपक्रम निरंतर करते
रहें।परंतु हिन्दी की वर्तमान आलोचना परंपरा में कुतर्कों का प्रचलन निर्विवाद
रूप में अधिक हो चला है। संघ से घृणा और संघ को 'भाजपा का मेंटर' मानने का ही
नतीजा है कि वर्तमान सरकार के विरुद्ध (2014 से) कुछ-न-कुछ लिखने की होड़-सी
मची हुई है।'हिंदुत्व'को पुनः चर्चा के केन्द्र में लाने का उपक्रम
निर्णयात्मक आलोचक-पत्रकारों ने ही किया और संघ को इस चर्चा को विराम देते हुए
सबके सामने प्रस्तुत होना पड़ा।यदि मैं यह कहूँ कि संघ की आलोचना और विरोध
करना या संघ की किसी-न-किसी रूप में बात करना 'आलोचना का फैशन' हो गया है तो
अत्युक्ति न होगी। वास्तव में ऐसा करते हुए हरकोई (आलोचक-पत्रकार) अपने आपको
स्थापित करने की अपार संभावनाओं को टटोल रहा है। बहुतों का तर्क यह है कि
'भाजपा माने संघ!', 'संघ माने भाजपा!' ऐसा सोचते-लिखते हुए लेखक भूलते जा
रहे हैं कि मोदी सरकार भारत की सरकार है, केवल संघ की नहीं!यदि संघ नरेन्द्र
मोदी का मार्गदर्शक है तो संघ का कौन-सा एजेंडा भारतानुकूल नहीं है और मोदी
सरकार के कौन-कौन से निर्णय लोकतंत्र के लिए 'ख़तरनाक' साबित हुए हैं? यह
बताने के लिए तर्क उपलब्ध नहीं हैं।यह जानना-समझना होगा कि किसी व्यक्ति या
विचारधारा के प्रति घृणा से उत्पन्न आलोचना से समाज में विघटन ही उत्पन्न होता
है। अतः आलोचक-बुद्धिजीवी-पत्रकारों को देर-सवेर ही सही अपने आपको सुधारने का
उपक्रम करना चाहिए। संघ को जानने के लिए केवल 'बंच ऑफ थॉट्स
' और/अथवा 'वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड '
का पारायण करना ही काफ़ी नहीं है। संघ को तभी जाना सा सकता है, जब उसकी
संगठनात्मक विशिष्टता को जाना जाए, उसकी कार्य-शैली, उसकी वैचारिकी को
समग्र-सम्यक रूप में जाना जाए। ऐसा करते हुएगत वर्ष 17 से 19 सितंबर को दिल्ली
के विज्ञान भवन में सरसंघचालक श्री मोहन जी भागवत द्वारा 'भविष्य का भारत:
आरएसएस का दृष्टिकोण' विषय पर देश के प्रबुद्ध नागरिकों से किया गया संवाद
भी सुनना (अब 'पढ़ना') चाहिए।
संघ को दूषित-कलंकित करने के उपक्रम मेंकुछ आलोचक
(वामपंथी-स्वहितापेक्षी)निहित स्वार्थों के मद्देनज़र 'हिंदुत्व' को अराजक
रूप में प्रस्तुत करने का एजेंडा निरंतरचला रहे हैं।इस बात से सब परिचित हैं कि
ऐसा चंद राजनीतिक पार्टियों के स्वार्थ के मद्देनज़र भी किया जा रहा है। ऐसा
करते हुए एक राजनेता द्वारा अपनेमन-मस्तिष्क की विक्षिप्तावस्था में संघ की
तुलना'मुस्लिम ब्रदरहुड'से कर दी गई। ऐसे में क्या
यह मान लिया जाएगा कि 'संघवादी आलोचक'धार्मिक उन्माद के पक्षधर हैं?यदि ऐसा
प्रचारित-प्रसारित किया जाता रहा तो फिर वह किस तरह से फल-फूल सकती है? वास्तव
में संघ को लेकर बहुत-सेविरोधाभास वामपंथीबुद्धिजीवी तथा कांग्रेस के
पिछलग्गु,बगुलाभगत पुरस्कारकामी लेखक-आलोचकों ने उत्पन्न किए हैं। यद्यपि डॉ.
अमरनाथ ने संघ का पक्ष रखते हुए सही ही उद्धृत किया है कि 'हिंदुत्व' संकुचित
नहीं, अत्यंत व्यापक है। वह उसी अर्थ में अस्तित्व में आना चाहिए। उसे उसी रूप
में उतारने की जद्दोज़हद, संघ की वास्तविक जद्दोज़हद है। बावजूद इसके 'संघवादी
आलोचना' प्रयुक्ति से सहमत नहीं हुआ जा सकता। इस भेद से लेखकीय दृष्टि और
उसकेबहु-परतीय, स्तरीयचिंतन को 'लेबुल' लगा देने जैसा है। ध्यातव्य है कि जिस
प्रकार संघ का दृष्टिकोण व्यापक है, उसी तरह लेखकीय दृष्टि और चिंतन भी।
जितना विभाजन हिन्दी आलोचना के मार्क्सवादी खेमे (कांग्रेसपरस्त!) ने
किया,शायद ही किसी अन्य भाषा में ऐसाहुआ हो। ब्राह्मणवाद (मनुवाद),
सवर्णवाद(ठाकुरवाद), दलितवाद, हाशियाकृत समाज,अल्पसंख्यकों की चिंता(नाटकीय!)
और उन पर मंडराते अगोचर एवं अलक्षित ख़तरे के प्रति सचेत करने की घोषित-अघोषित
मुहिम, हिन्दू आतंकवाद, बहुसंख्यक अराजकता, हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिकता,
फासिस्टवाद और न जाने कितने ही घातक-मारक विभाजन इन आलोचकों ने ईज़ाद कर लिए
हैं। न जाने कितने ही टुकड़े - एक को दूसरे से तथा दूसरे को तीसरे से और तीसरे
को औरों से अलग-थलग करनेवाली खाइयाँ तैयार कर दी गई हैं।भारत के इस परिदृश्य
में ऐसा बहुत कम ही लगता है कि शायद ही सब एक हो पायेंगे।'सबका मालिक एक' हो न
हो, क्या कभी सब एक 'लीक' पर चल पाएँगे? वामपंथी आलोचना ने जनता में 'घोर
अविश्वास' पैदा करने का हर संभव प्रयास किया है। मौजूदा छद्म निरपेक्षता और
वामपंथी अतिवादितासबको निरंतर बाँटने में लगी हुई है।बहुतांश बार यह प्रश्न
उठता है कि क्या वामपंथी कभी शांति के पक्षधर बन पाएँगे? क्या कभी शांति की
उपासना कर पाएँगे?'लाल सलाम' के संघर्षकामी विचार से लहूलुहान करने की हरक़तें
और वारिदात (misdemeanour& commotions) को देखते हुए ये प्रश्न अत्यधिक
गंभीर बन जाते हैं।हमें यह जानने-समझने की ज़रूरत अब भी है कि
वामपंथी-समाजवादी और कांग्रेसपरस्त विचारक-आलोचकों का काम आरंभ से ही भारत को
खण्ड-खण्ड में विभाजित करने के साथ-साथसंघ-विरोधी, हिंदू और हिंदुत्व विरोधी
नैरेटिव खड़ा करना रहा है। इस दृष्टि से इसे अतृप्त आत्माओं (अकारण संतप्त!) का
नैरेटिव कहा जा सकता है।कछुए की पीठ से कठिन इसनैरेटिव का नतीजा यह है कि
हिंदू के पक्ष में औरहिंदुत्व पर बात करने से लोग कतराते हैं।यही कातर भाव
पैदा करना इनके नैरेटिव का एकमेव लक्ष्य रहा है।
हिन्दी में यह स्थिति बना दी गई है कि मार्क्स या पिछड़े अथवा अल्पसंख्यकों की
बात किए बिना प्रगतिशील हुआ ही नहीं जा सकता। थोड़ा विचित्र अनुभव हो सकता है
परंतुइसका उदाहरण संभवतः सबसे पहले प्रेमचंद ने ही शुरू किया। प्रगतिशीलता
कावही पैमाना सभी अनुयायियों के लिए दस्तूर (custom) बन गया। बदस्तूर आलोचना
में वही पद्धति आज तक जारी है। मसलन 'सोज़े वतन' (1908)के दिलफ़िगार से लेकर
'ईदगाह' (1938) के हामिद तक यह बताने की कोशिश की गई कि इस देश के मुसलमान
बहुत राष्ट्रवादी हैं। तब फिर सिने सितारा आमिर खान, नसीरुद्दीन शाह, जावेद
अख़्तरइत्यादि एलिट क्लास (जिन्हें धर्म से कोई मतलब नहीं!)पर कौन-सी मुसीबत
आ पड़ी थी कि उन्हें इस देशवासियों से भय लगने लगा। सैफ अली खान ताउम्र
सेक्यूलर बनने की कोशिश करते रहे। सेक्यूलर बनने की इस कोशिश में उन्होंने दो
दफ़ाइस्लाम से बाहर विवाह किया। परंतु उनके देशप्रेम का चरमउनकी दूसरी बेगम से
पैदा हुई औलाद के नाम (तैमूर) में दिख जाता है! यह कैसा देशप्रेम है? हमारे
यहाँ आज भी 'राम' नाम रख देने से सांप्रदायिकता फैलने का डर सताने लगता है
और'जय श्रीराम' कह देने से तो विवाद खड़ा हो जाता है। ऐसा कहने वालों को पुलिस
से पिटवा दिया जाता है। जेल की सलाखों के पीछे तक फेंक दिया जाता है। ऐसे में
आलोचकों को यह बताने का भी उपक्रम करना चाहिए कि लम्बे समय से पदाक्रांत इस
देश में'तैमूर' सेक्यूलर और 'राम' कम्यूनल क्यों होने चाहिए!हम आज
लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्ष भारत में इफ्तार पार्टी, क्रिसमस के लिए 'तेरी
मेरी उसकी' सब तैयार,परंतुहिन्दू त्यौहार यथा -नवरात्रि (दुर्गा पूजा), राम
नवमी, गणेश चतुर्थी, दीपावलीपर सबको धार्मिक आडंबर दिख जाता है।
विश्वविद्यालयों से लेकर धर्म निरपेक्ष सरकारों तक ईद और क्रिसमस मनाने पर
कोई आक्षेप नहीं परंतु नवरात्रि (दुर्गा पूजा), गणेश चतुर्थी, दीपावली, रामनवमी
मनाने से हिंदुत्व को बढ़ोतरी मिलती है।सांप्रदायिक तनाव बढ़ जाता है। हिंदू
आतंकवाद जाग उठता है!वाह रे! मेरे भारत एवं हिंदुत्व के आलोचक और भारत का
उदारचेता (liberal) मीडिया!
ऐसे समय मेंजबकि वामपंथी आलोचक-बुद्धिजीवी और कांग्रेसपरस्त लेखक-पत्रकार हर
तरह से 'हिन्दुत्व' को घेरने में लगे हुए हैं, क्या विश्वास है कि
'हिन्दुत्ववादी आलोचना' के नामकरण से इन लेखक-आलोचकों को सांप्रदायिक 'टैग' न
लगा दिया जाए!कितना शोचनीय है कि संकीर्ण सोच वाले आलोचक बृहत् दृष्टिकोण
वालों के विरुद्ध नकारात्मक सोच का नैरेटिव खड़ा करने में सफल हो जाते हैं।
इनके आपसी सांठ-गांठ को इससे भलीभाँति जाना जा सकता है कि इतर विचार-दर्शन को
लोगों तक पहुँचने ही नहीं दिया जाता या फिर उसे नकारात्मक 'ओवरकोट' पहना
करपरोसा जाता है।प्रसंगोचितऔर उल्लेखनीय है कि सितंबर 2019 से मेरा लेख
'
भारतीय ज्ञान-परंपरा और जनहित-राष्ट्रहित की सिद्धि'जनसत्ता,
दैनिक जागरण, लोकमत समाचार ने प्रकाशित करना मुनासिब नहीं समझा। इसके मायने
समझने की निश्चय ही सबको आवश्यकता है।
हिंदी के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और उदारचेता आलोचकों के नामों पर भी थोड़ा गौर
करें तो पता चलेगा कि अब तक बहुतांश निरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने अपने नामों के
साथ जुड़े पुछल्लों से ही मुक्ति नहीं पाई है। कहीं आवेदन-निवेदन करते हैं तो
जाति (उपजाति भी!) और धर्म का उल्लेख किए बिना नहीं रहते बल्कि इसके विपरीत वे
पुछल्लों से समीकरणों को साधने की कोशिश में जुट जाते हैं। कई तो इन्हीं
समीकरणों पर सत्तासीन हुए।कइयों ने बड़ी-बड़ी नौकरियाँ हथिया लीं। ऐसे तमाम
आलोचकों ने संघ के विरुद्ध प्रायः जनता में विष बोने का ही काम किया है। ऐसे
में 'संघवादी आलोचना'को'विषवादी आलोचना'के रूप मेंप्रस्तुत करने का उपक्रम ये
उदारचेता आलोचक करने से नहीं चुकेंगे?
हिन्दी साहित्य और आलोचना ही क्यों हिन्दी सिनेमा ने भी विभाजनकारी रवैया
अपनाते हुएअल्पसंख्यकों के उदारवाद और राष्ट्रवाद को रेखांकित करने का काम
किया (समाचार चैनल और कुछेक राजनीतिक पार्टियों के 'रब्बीश बिहेवियर' की इसमें
शुमार नहीं)। 'मुसलमान' मतलब 'ईमान'!और फिर उनका आदर्शवादी चित्रण आपको 'शोले'
के किरदार इमाम साहब (ए. के. हंगल) और अहमद (सचिन पिलगांवकर) में दिख जाता है।
वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि मुसलमान राष्ट्रवादी हैं।जब संघ की व्यापक
दृष्टि है -"इस विचारधारा के लोगों का मानना है हर भारतवासी,जो
किसी भी मजहब का मानने वाला हो,की रगों में हिन्दू का खून
दौड़ रहा है और उसके पूर्वज हिन्दू थे। हममें से कुछ लोगों ने या तो अपनी
मर्जी से या दबाव में गैर सम्प्रदाय अपना लिया पर सबकी रगों में एक ही 'जाति'
का खून बहता है। इसलिए हममें से जो देशभक्त हैं,वे किसी भी
पंथ या सम्प्रदाय को मानने वाले हो सकते हैं।"फिर संघ की
ऐसी-वैसी अपने मन जैसी घिनौनी आलोचना क्यों?
तत्कालीन मुसलमानों की मंशा और राष्ट्रवाद पर प्रश्न बारंबार उठताहै कि
राष्ट्रवादी मुसलमानों को 'मुस्लिम लीग' (1906, नवाब ख्वाजा सलीमुल्लाह और
मुहम्मद अली जिन्ना) बनाने की क्यों सुझी? तब कौन-सा संघ काम कर रहा
था,जोहिंदुत्ववादी (कट्टर, जैसा कि 'हिंदुत्व' के आलोचक मानते हैं) ताकतें
पैदा करने में जुट गया था (जैसा कि वर्तमान में 'हिंदुत्व' को संकुचित रूप में
परिभाषित करने वाले आलोचक कहते हैं)?गौरतलब है कि सन् 1857 में सभी हिंदू
राजा-रजवाड़ों ने यह तय किया था कि बहादुर शाह जफ़र के नेतृत्व मेंस्वतंत्रता
संग्राम होगा।'मुस्लिम लीग' की तत्कालीन सोच के मद्देनज़र क्या ऐसा नहीं कहा
जा सकता कि सत्ता की चाह मुसलमानों ने सन् 1857 से ही पाल रखी थी कि भारत
स्वतंत्र होगा तो सत्ता अपने हाथों में रहेगी! और जब देखा कि ऐसा होना संभव
नहीं तो सत्ता की चाह लिए 'मुस्लिम लीग' बना ली और 'अखण्ड भारत' के
टुकड़े-टुकड़े कर दिए।