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कविता

खिड़की खुलने के बाद

नीलेश रघुवंशी


मुँड़ेर पर अनगिन चिड़िया
दूर कहीं
झुंड में उड़ते सफेद बगुले
पेड़ की डाल पर नीलकंठ
कूकती कोयल हरे भरे झूमते पेड़
ताजगी से भरी सुबह
प्रकृति प्रेम हिलोरें मारता है मेरे भीतर
खोलती हूँ जैसे ही खिड़की
दिखते हैं
सड़क पर शौच करते लोग
कीचड़ में भैंसों के संग धँसते बच्चे
बिना टोंटी वाले सूखे सरकारी नल पर
टूटे फूटे तपेले में अपना मुँह गड़ाए
एक दूसरे पर गुर्राते कुत्ते
दिखता है
कूड़े और नालियों पर बसर करता
सड़ांध मारता जीवन
देखना कुछ चाहती हूँ
दिख कुछ और जाता है
खिड़की खुलने के बाद...


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