अरब सागर पर चाँद
धुला-पुछा, भरा-पूरा
चाँद उतरा है-
अरब सागर के आकाश में।
उतना ही चमकीला,
जितना ढोल-ढाक-ताशा बजाता
अरब सागर का पानी।
हजारों जंगी जहाजों पर भारी।
जब हम चाँद पर फिदा होते हैं-
और अक्सर होते ही रहते हैं,
तब खगोलवेत्ता हँसते कहते हैं-
चाँद की चमक है आभासी,
चाँदनी तो है सूरज की उधारी।
ठीक है; ठीक है आपकी गणना
फिर भी, हमें कह लेने दें-
नूर और नाद का समां बंधा है,
भूमंडल में आज की रात।
जहां जा रही चांदनी,
वहीं खिल रही कुमुदिनी।
उन्हें रोक नहीं सकते,
अंतर महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र।
ऐसे में फिदा होने से कौन रोक सकता है?
पूरा या अधूरा या घटने-बढ़ने की कला,
सब खगोल का अनूठा चक्र है।
अपना तो रिश्ता है करीबी,
धरती का है मीठा पड़ोसी।
अरब सागर के किनारों से,
देख लें हिंद-पाक।
पृथ्वी और चंद्रमा,
पड़ोस निभाने में लाजवाब।
ज्वार उमड़ा है,
अरब सागर में।
लहरों में द्वंद्व,
द्वंद्व में लहरें-
कुछ भी नहीं निर्द्वन्द्व।
न जल न थल,
न ग्रह न गर्भ-
न जन न मन।
चाँद रिमोट से कर रहा है,
अतल मन और अटूट लहरों की
विलक्षण उठापटक।
धरती की आँख से गोलगाल चाँद -
गायब रहता है जिस रात,
भाटे से करता रहता है बात।
भाटा धरती से आता है,
धरती में जाता है।
अँधेरे में भाटा, उजाले में ज्वार-
क्या खूब गति का यह इजहार।
गति में चरम, गति में ही परम।
गति की कलाबाजी में,
उस कलाकार को बड़ा मजा आता है।
कहते हैं चतुर चाँद के
अजीब हैं चालढाल।
किसी को पागल बनाता है-कुछ को उन्मादी,
कुछ को कवि, कुछ को प्रेमी, कुछ को अपराधी।
कवि-प्रेमी तक तो चलता है,
बाकी बहुत खलता है।
जैसे अतिसुंदर कश्मीर में,
अपने-अपने चाँद के लिए
अंतहीन उथलपुथल।
यकीन नहीं होता-
देखने में उत्तर-पूर्व जैसा मोहक चाँद,
इतने विचलन का है कारक।
होंगे मनोविद् सही,
होगा अवचेतन-उपचेतन का वजूद-
लेकिन इस खतरनाक प्रचार से,
बेलाग बच जाएगा असली संहारक।
सिर्फ, वही मन को मुट्ठी में करता है-
चाँद के बहाने।
नहीं, चाँद बहाना नहीं है-
वह तो नूर है।
झर-झर झरता,
मन के अरब सागर में।
****
सूरजो का टूटा घर
सूरजो!
जब कभी रसायनों-गैसों,ज्वालाओं-विस्फोटों से मुक्ति पाएं,
इस भव्य भग्नावशेष में कुछ घंटे बिताएं।
ब्रह्मांड में भट्ठी बन तपते-तपाते कभी सोचा है?
बारह सालों तक बारह सौ राजगीरों ने आपका घर रचा था।
यह पुरावशेष आपके शक्ति-सौंदर्य की भग्न कथा है।
२
सामने देखें!
वह रहा आपका शैशव,
एक भोलाभाला हंसमुख बच्चा।
जैसे भिनसार में चला आ रहा हो,
पांव-पांव,ठांव-ठांव
और रास्ता हो कच्चा।
कुछ सीढ़ी नीचे उतरें,
यह रहा आपका पूर्ण-प्रौढ़ तेज।
तीखे नाक-नैन-नक्श चुस्त बानकाट का बांका ज्वान,
जैसे दोपहर में धूप की लंबवत बारिश
और फिर चढ़नी हो सीधी चढ़ाईं।
ढलान पर ढलकें,
डरें नहीं चिढ़ें नहीं!
छायाओं से घिरे यह आप हैं,
जैसे बुझती हुई आग से झरती राख हैं।
ढलते शौर्य-सौंदर्य को वक्त विदा करता है,
भय और कामना से हाथ जुड़ा करता है।
जब तक चुपचाप घुलती रहती है तांबई काया,
तब तक दिव्य दमकती है कंचन माया।
कब तक रहेगा कोई इकहरा रूप,
ढलकर हो जाएगा वह अपरूप।
जभी तक रहता है उठान,
तभी तक दुनिया करती है सलाम।
उदास न हों ,
इस राजसी खंडहर में आपने जो रूप निरखा-
वह कल्पना है और यथार्थ भी।
इंसान ने अपने जैसा गढ़ा,
आपने भी आदम को पढ़ा।
वैसे तो आप मूलतः हैं उजले,
पृथ्वी पर हो जाते हैं पीले।
धूलकण बदल देता है रंग,
जैसे मिथक बनाता है ग्रह से देवता।
मौलिकता से चलता है ब्रह्मांड,
कृत्रिम रंग से भी नहीं बदलती पहचान।
३
अब आप भी कहां हैं अकेले?
सुना है वहां हैं अनेक सुदर्शन सूर्य
और अनेकानेक सौरमंडल।
जब भी देखने आएं अपना टूटा घर,
सोलर ट्रेन से ही आएं।
उसमें लगा हो कालचक्र,
कालचक्र में ही टिक-टिक करती हैं जैविक इच्छाएं।
कौन खेलता है इच्छाओं का खेला,
इच्छालोक बना दी गई पृथ्वी।
कोई इच्छा-रागी कोई इच्छा-त्यागी,
कब किस योगी-औलिया की इच्छा जागी।
लगा है इच्छाओं का रेला-मेला,
जग की झलकी लेने हो जाएं सहेला।
कुछ घंटे क्या ज्यादा छुट्टियां बिताएं,
बंगाल-मन्नार की खाड़ी में नौका चलाएं।
समंदरी हवा खाएं,
हाड़-मांस के पुतले-पुतलियों से बतियाएं।
चाहें तो भेड़-बकरियां भी चराएं,
चिड़िया-चुनमुन से बोली मिलाएं।
आप तो हैं ही आदिम,
धरती पर भी आदिवासी हो जाएं।
सौरलोक में कोई न कोई सूर्य ड्यूटी करता रहेगा,
भारत के टूटे घर को आपकी आवाजाही का इंतजार रहेगा।
सौरमंडल में लौटने से पहले-
उन दासों को एक नज़र देख लेंगे तो मेहरबानी.
उन विशुओं को धन्यवाद दें जरूर,
जिन्होंने उदय से अस्त तक आपको रचा।
उनके रक्तसंचार में हैं आप,
जो पत्थरों में गढ़ते रहे एक जीवंत ग्रह का अलंकृत पुरुष।
उनके सृजन में आपका कठोर-कोमल ताप,
जो पत्थरों पर छोड़ते रहे सस्ते शानदार श्रम की छाप।
अगली बार आएंगे तो जानेंगे-
जिन्होंने इस प्रस्तर कला में फूंकी जान,
उनमें कितनों के हाथ कटे धड़ गिरे सिर लुढ़के।
यों ही नहीं फहराती कला की पताकाएं,
उसकी नींव में होती हैं मौतें, चीखें और आहें।
जहां कहीं टिकतीं हैं मोहित निगाहें,
आपकी लपटों से कम नहीं यहां लंबी आंतों की ज्वालाएं।
४
हो गया आत्मदर्शन और कथनोपकथन।
अब आप लौट जाएं अपनी दिनचर्या में,
रसायनों-गैसों, लपटों-विस्फोटों की दहकती प्रक्रिया में।
अपनी केंद्रीयता में तपें-तपाएं,
छहों ऋतुओं से पृथ्वी सजाएं।
चलने दें खंडित सौंदर्य का पर्यटन,
होने दें मिथकों का विपणन-प्रदर्शन।
मगर सच की आंच में उन्हें न भूलें-
जिनके लिए चांदनी के रंग का चावल-आटा।
धूप के रंग जैसा घट्ठा-सत्तू,
और आप वृत्ताकार कलाबत्तू।
टूटे घर में आने का आभार!
जीवन चक्र में बसे रहने का शुक्रिया!!
दो बूंद आंसू गिराने की रहेगी सजल याद,
अनगिन श्रमदिवसोंं और असंख्य श्रमिकों के नाम पर।
क्षमा करें!
आप भी इस एक चौथाई उन्मत्त उपभोगी दुनिया से पूछ लें,
करोड़ों वर्षों से अथक ऊर्जा देते आपकी मज़दूरी का क्या ?
विशु: कोणार्क सूर्य मंदिर का मुख्य राजगीर
*******
अनंत की कला
जैसी छवियाँ, जितनी आकृतियाँ
बादल आंकते हैं
वैसी उतनी कहां उकेर पाएंगे
भूतल के सारे मूर्त-अमूर्त चित्रकार !
किसी ने देखा है?
तीन हिस्सा जल से ऊपर उठता भाप
और घनीभूत भाप से बनता पानी का महाथैला?
'नासा' की भेदिया निगाहों ने भी देखा है क्या?
किसने नहीं देखा है?
दूर मेघमंडल और निकट मेघालय में
चित्र-विचित्र होते बादल।
रंगों-रूपों-छवियों-आकृतियों का महारेला।
मौलिक नजरों ने सब देखा है।
जब कभी किरणें उन्हें सुनहरे-रूपहले फ्रेम में मढ़ती हैं
तब वे सजे-धजे जलरंग चित्र होते हैं
असीम कलादीर्घा में टहलते-बुलते हुए।
अवाक रह जाते हैं सारे कला समीक्षक और मर्मज्ञ
जब वे अचानक फ्रेम से बाहर आ जाते हैं।
किसी चौखट में नहीं अंट सकते
स्वाधीन बादलों के आत्मचित्र ।
कला-बाजार में वे नीलाम नहीं होते,
उनकी बोली नहीं लगती।
कला अकादमियों के गोदाम में खो नहीं सकते।
चाह लें तो डुबो सकते हैं
कला-संस्कृतियों का पूरा पाखंड।
हाथ खींच लें तो चूर हो जाएगा
सत्ता-सभ्यता का घमंड।
उनका नाता सीधे प्रकृति की रचनाशाला से है।
वे सिर्फ सजावटी नहीं होते।
जिंदगी जीते हैं, देते हैं और बरस जाते हैं
मंद्र…विलंबित…द्रुत…तेज…मध्यम…मंद।
असमान दुनिया और असमान देश में
उनकी एक-एक बूंद समान होती है।
चेरापूंजी से मौउसींरम तक
वे धीमी गति का समाचार जैसी हैं।
वे चिरकृतज्ञ हैं,
अपने स्रोत को नहीं भूलते।
जल से आते हैं,
जल हो जाते हैं।
वे अनंत की कला हैं,
वही तो हैं-
देह और धरा में 70 फीसदी,
उनके बिना सब शून्य और सुन्न।
चेरापूंजी और मौउसींरम में भारत की सर्वाधिक वर्षा होती है। दोनों मेघालय में
हैं।
****
पुरी : चार दृश्यानुभूतियाँ
१
शंख की तरह बज रहा,
सीप की तरह चमक रहा है,
पूर्वी सागर।
असंख्य लहरें फूँक रही हैं
असंख्य शंख।
बंगाल की खाड़ी हो रही है
शंख-महाशंख।
२
दूर लहरों पर डोलती है
अकेली डोंगी,
मानो नई राह पर खोजती जिंदगी।
डोंगी में सवार मछुआरा
देख रहा है
समुद्र के खेत में
उपजती मछलियाँ।
उदर में बज रहा है
भूख का शंख।
जितना गहरा पानी का पेंदा,
उतना ही गहरा पेट।
जितनी ज्यादा मछलियाँ,
उतना बड़ा जीवन का शंख।
सृष्टि की दृष्टि में,
मछलियाँ हैं शंख,
मछुआरे की देह है समुद्र।
सृष्टि के महाजाल में
कुछ नहीं भी बहुत कुछ,
बहुत कुछ भी कुछ नहीं।
यह भी जीवन सार,
अथाह सागर में,
अपार संसार में,
अक्षय कालपात्र में।
३
सूर्य की अगवानी और विदाई में
विराट से भेंट रहा है विराट।
मिल रहे हैं
अग्नि और जल।
क्षिति और पवन।
ध्वनि और गगन।
पुरी के तट के सम्मुख
महातत्वों का हेल-मेल,
समय है साक्षी।
४
तट पर टहलता है नुलिया
फिर भी तटस्थ नहीं है।
दिशाओं से निकलकर
कुल दो काम करता है नुलिया।
न जाने कब से
उत्ताल लहरों से सहमे आगतों को
समुद्र स्नान कराता है नुलिया ।
डरो मत! मैं हूँ आदिम कवच
ले जाओ यह अतींद्रिय अनुभव
थोड़ा खारा जल, थोड़ी नमकीन हवा
अवश लहरों में थोड़ा उठाव थोड़ा गिराव
जीवन भी तो यही
बिना कहे कहता है नुलिया ।
न जाने कब तक
रहस्यमयी लहरों में छिपी मौत से
जिंदगियाँ बचाता रहेगा नुलिया?
खैर मनाओ ! बच गया प्राण
ले जाओ यह रोमांचक अनुभूति।
कंठ में अटका पानी, भीगी रेत-सी देह
तिलस्मी लहरों का चील-झपट्टा
जिंदगी भी तो यही
बिना बोले बोलता है नुलिया ।
कितना जानता है जीवन-मरण का खेल
कितना पहचानता है लहरों का शौक और शोक
सीपियों-कौड़ियों के कनटोप पहन
घूमता है नुलिया ।
काल के दो काम करता है नुलिया।
दिक में गूंजता है सुनंदा पटनायक का आलाप
…नाना रंग में खेलत है खिलौना माटी का…
नुलिया : ओड़िया शब्द, जिसका अर्थ है मजदूर। पुरी के तट पर वे काफी संख्या
में घूमते रहते हैं।
तैराकी से अनभिज्ञ यात्रियों को समुद्र स्नान कराते हैं और डूबने से बचाते
हैं.
********
रास्ते दो हैं जैसा चुनो
चराचर को मान लें चरागाह-
तो चरागाहों में चर रहे हैं चौपाए।
मिट्टी में उगी घास,
घास में छिपी नमी।
तृण-तिनकों पर उतरी धूप,
गम्भों में ढुलका ओस।
टूसों-फूसों में लिपटी हवा,
हवा में घुसी दिशाएँ ।
साग-पात में बसा रस,
रस में रचा समय।
कितना कुछ चर रहे हैं
चौपाए शाकाहारी।
उन पर नजरें गड़ाए हैं
भिन्न पद-कद के मांसाहारी।
क्या यही है प्रकृति की रसोई में
जीवो जीवस्य भोजनम!
जहाँ है यह हिंसक सूक्ति,
वहीं है जीवन की उक्ति।
जीओ और जीने दो,
रास्ते दो हैं जैसा चुनो!
*********
स्मृति-दु:स्मृति
स्मृतियाँ जंजीरों को नहीं मानतीं,
कभी और कहीं से मुक्त उड़ती आ जाती हैं।
दु:स्मृतियाँ भी पीछा करती दाखिल हो जाती हैं,
वे जंजीरों की गवाहियाँ होती हैं।
कभी होती हैं इतनी दुखद की दुख कहे-
भूल जाओ पोंछ लो।
मगर वे इतनी सगी कि संग रहती हैं-
स्व की तरह,
अपने स्वत्व का अहसास कराती।
ऐसा कि हवा में गुँथा सांय-सांय सनन-सनन,
दुखती रगों को भी न दे पता।
कभी इतनी सुखद कि सुख बोले-
संजो लो सहेज रखो।
मगर वे इतनी नि:संग कि फिरती रहती हैं-
अनासक्ता की भाँति,
अपने क्षणत्व की झलक दिखाती।
जैसे तार पर सजी बूँदों की झालर,
किरणों को देखते ही लापता।
कभी किसी विशिष्ट घड़ी में
खटमिट्ठे सी एक साथ सुखद-दुखद,
जैसे असंग समय की एक आँख में उल्लास
और दूसरी में विषाद।
इस खास लम्हे में भी इतनी विलग,
मानो कुछ हुआ ही न हो।
लगाव-अलगाव ही तो है,
जिन्दगी का धूप-छाँही युगल नृत्य।
कभी इतनी लघुतम कि बिंदु सम,
कभी इतनी महत्तम कि विराट भी न्यून।
इधर द्वन्द्व से आगमन,
उधर द्वन्द्व में प्रस्थान।
दसों दिशाओं में संचित,
कण-मन में स्पंदित।
ऐसी भारहीन कि हवा सी चपल,
वैसी वजनी कि सदियों अचल।
स्मृतियाँ खोजती हैं बसाहट,
दु:स्मृतियाँ करती रहती हैं बेदखल।
मानो चुग्गा चुगने घोंसले से पंछी उड़े
और नवजीवों पर बाजों की दुनाली नजर पड़े
स्मृतियों में एक इच्छा है,
सपने सी प्राचीन।
यही कि उसका हो पुनर्वास,
दु:स्मृतियों की भी हो मुक्ति।
जितनी प्राचीन स्मृतियाँ,
उतनी ही साबिक इच्छाएँ।
अपूर्णता भी बहुत प्राचीन,
प्राचीनता में भी कहाँ संभव पूर्णता।
हर क्षण द्वन्द्व-प्रति-द्वन्द्व
जहाँ मुक्त उड़ानें,
वहीं पीछा करती जंजीरें।
जहाँ जंजीरें वहीं मुक्ति की कोशिशें,
स्मृति-दु:स्मृति का भी यही शीतयुद्ध।
हर स्मृति उत्पत्ति की नई साँस
और विस्मृति शून्य का उच्छवास।
स्मृति-दु:स्मृति का लोप,
शर्तिया पूर्ण प्रजाति विनाश।
यही तो है चरैवति चरैवति,
चलते चलो! चलते चलो !!
*****
चक्र है अंत नहीं
बिस्मिल्लाह की मंगलध्वनि हो
या आकाशवाणी की संकेत ध्वनि।
चिड़ियों की चुनमुन हो
या इंजन की पहली सीटी।
धारा की खलखल हो
या नवजात का पहला रुदन।
बूंदों की टिप-टिप हो
या महुआ की टप-टप।
तेलघानी से आती झांस हो
या गुड़घानी से फैलती मिठास।
सब चक्र है अंत नहीं,
सब यात्रा है विराम नहीं।
बिस्मिल्लाह की फूंक को भी विराम कहां,
डुमरांव से दुनिया के दर पर सांसों का सुर।
प्राती जैसी भाती है संकेतध्वनि,
कहीं न कहीं बजती रहे, रेडियो में न सही।
******
उत्स में है संभावना
कहीं अदृश्य कोख से पैदा होते हैं सोते,
कुछ डग भरकर झरना हो जाते हैं।
झरने कूदते हैं,
नदियाँ हो जाते हैं।
नदियाँ सभ्यताएँ गढ़ती-रचती बहती जाती हैं,
लोप होती हैं सागर हो जाती हैं।
सागर तीन हिस्सा लेते हैं,
महासागर हो जाते हैं।
सोते सूख रहे हैं,
नदियाँ मारी जा रही हैं।
सागर का क्या होगा?
सोचता है महासागर।
सोच से बनता है भाप,
भाप से बादल।
बादल से बूँदें,
बूँदों से वर्षा।
वर्षा जल की कोख है,
और सोते पगडंडियाँ।
उत्स में है संभावना
जैसे रचना-पुनर्रचना।
*****
पहचान
न कोई शक न भ्रम न दुविधा न द्वन्द्व,
दो अलग-अलग पहचान हैं इंसान और शैतान.
होंगे दोनों के अलहदा मुकाम,
संभव है कि वे हों एक जिस्म दो जान.
दोनों पृथ्वी पर साथ-साथ बढ़े,
न आगे न पीछे.
साथ न आते तो अधूरे होते,
एक दूसरे के बिना कैसे पूरे प्रश्नवाची होते.
गप है कि इन्सान मिट्टी से बना है,
और शैतान आग से.
अरे गप्पी! मिट्टी हो कि आग
वहीं है हवा और पानी.
न ईश्वर न कोई अगमजानी,
बस सयानी प्रकृति है ज्ञानी-विज्ञानी.
जैसे भी आए अभिन्न न सही मतिभिन्न तो हैं,
सुजात-कुजात न कहें
जिन्दगी की बिसात तो हैं.
इंसान के पहलू में ही शैतान छिपता है.
उससे पीछा छुड़ाने की जितनी जद्दोजहद करो,
वह उतना ही हमसाया रहता है.
उसकी जिद इंसान से कैसे कम है,
एक सम है तो दूसरा विषम है.
आकर्षण-विकर्षण भी एक नियम है.
जब दोनों साथ-साथ आगा-पीछा करते हैं,
तब परस्पर मुठभेड़ ही हासिल है.
कहां कोई गाफिल है?
तय है कि शैतान के पहलू में भी इंसान टोकता ही होगा,
ऐ! तेरी हरकतें मेरी निगाहों की जद में हैं.
शैतानियत की भी कोई हद है?
मेरा बचना ही तेरा प्रतिवाद है,
यह काले-उजले का विवाद है.
पूरी दुनिया में अन्यायी शैतानी जुन्टा है,
न्याय के लिए हर क्षण बजता इंसानी घंटा है.
हद से ज्यादा शैतान आबाद है,
इंसान भी बेहद जिंदाबाद हैं.
*****
लय नहीं होती सभी लय
है,
था।
इस अंतराल में छूट जाता है
संपूर्ण क्रियाकलाप
और धीरे-धीरे मिटने लगता है।
आया,
गया।
इस अवधि में घटती है
समस्त हलचल
और धीमे-धीमे खोने लगती है।
आएगा,
जाएगा।
इस दौरान फूटते हैं
तमाम बुलबुले
और एकाएकी लय होने लगते हैं।
लय नहीं होतीं
सभी लय कभी।
चलता रहता है,
काल का तिपहिया।
जिन्दगी देती रहती है
काल को ताल।
निरंतरता अपनी पोटली में
बचा लेती है उतना-
बचना चाहिए जितना।
निरंतरता को चलना है,
बचे हुए को बढ़ाते हुए।
बचे की गठरी पीठ पर लादे हुए,
जैसे हजारों साल पुराने जीवन से बंधे-बढ़े-चले-
नए बसाव की ओर झुंड के झुंड जन।
जो काल संग होड़ में है,
चलता है।
बच जाता है,
बचना चाहिए जितना।
कहीं नहीं होती लय
सभी लय कभी।
*****
पानी-पत्थर
पत्थर और पानी में होड़ है।
पानी चाहता है
अपने वेग से प्रवाह की बाधा तोड़ दे।
पत्थर अड़ा है
पानी की गति को मंद कर बिखेर दे।
दोनों की जिद का न ओर है न छोर है
बस, अनंत जोर है।
*****
यातायात संलाप
कोई उत्तर से दक्षिण,
कोई दक्षिण से उत्तर।
अमूमन मिलते नहीं,
पूरब और पश्चिम।
और मध्य तो बस,
न टस न मस।
कहीं आया कोई संधिस्थल,
वहीं जन्म लेता संघात।
फिर अपनी राहें; अपनी दिशाएँ,
अपनी जिदें, अपनी आकांक्षाएँ।
अपने-अपने लक्ष्य, अपने-अपने पड़ाव।
तुम जाओ उस रास्ते,
मेरी राह इस तरफ।
पृथ्वी के गोल चक्कर पर-
कभी टकराएंगे,
या बचते-बचाते निकल जाएंगे।
आएंगे-जाएंगे,
कब मिलजुल गाएंगे।
*****
कगार
ठीक-ठीक कहना मुश्किल है-
यह मृत्यु की कगार है,
या जीवन की।
यह कहना बहुत ठीक होगा कि
यह कगार दोनों की है।
जैसे गोधूलि-
जिसमें आती रात है,
तो जाता दिवस भी।
बिल्कुल ठीक कहना होगा,
जीवन की अविराम धारावाहिकता।
*****
बनना-मिटना
मृत्यु आयी,
न हवा सिंहकी न एक पत्ता खरका।
सफेद जाजम पर बैठ,
उसने एक गिलास पानी पीया।
तनिक सुस्त थी
शायद आज किया अधिक काम तमाम।
मैं मुस्कुराया,
वह भी मुस्कुरायी।
मैं उठा,
वह उठी।
हम साथ-साथ चले गए,
बनने-मिटने की अनंत प्रक्रिया में।
*****
आवाजाही
जिंदगी इंतजार नहीं करती,
मौत इंतजार करती रहती है।
चलता है, यही मुहावरा चलता है,
अव्वल तो मौत भी इंतजार क्यों करेगी?
जिंदगी का मौत से अच्छा संवाद है,
कायनात में कहां कोई वाद-विवाद है?
दोनों की दोस्ताना गलबांही है,
अपनी-अपनी आवाजाही है।
न जिंदगी को सुख है,
न मौत को दु:ख है।
दोनों निर्विकार हैं,
सब उभयमुख हैं।
*****
कलावस्तु
चेत में उभरीं छवियां,
देह ने उन्हें धारण किया।
चैतन्य हो वे अंग-प्रत्यंग में सध गईं,
अहमन्य शास्त्र ने उन्हें कहा मुद्राएं।
भंगिमाएं पत्थरों में जड़ीभूत की गईं,
शिल्पियों ने गढ़ा शिल्प वे मूर्तियां हो गईं।
कलाविदों ने उच्चारा-
यह है मूर्तिकार का परकाया प्रवेश।
छवि का आकृति और कला का वस्तु में रुपांतरण।
अब वे दृश्य हैं,
कल्पना से परे।
अब वे वस्तु हैं,
अनुभूति से बाहर।
*****
शब्द
वे तीन थे,
नहीं थे तीन जापानी बंदर।
तीनों थे पचहत्तर पार,
जिंदगी की नाव जा रही थी किनार।
पार्क की हरी कुर्सी पर साँवली शाम घिर आई थी,
तीनों हमउम्रों की भी शाम ढल रही थी।
तीनों स्मृतियों में आ-जा रहे थे-
कि अचानक विस्मृत हो गया एक शब्द।
जैसे लगा कि लग्गी छूट गई हो,
मुँह बाये शून्य थाहते तीनों खोजने लगे खोया शब्द।
महज पचपन सेकंड की थी तलाश,
जितने में बजता है राष्ट्रगान।
विस्मरण का विकट क्षण था वह,
तीनों करते रहे उबडूब।
तभी एक को याद आ गया वह शब्द,
दूसरे-तीसरे ने कहा जल्दी बताओ।
पहले ने जैसे ही कहा-ज्वार,
बाकी दोनों ने जोड़ा-भाटा।
तीनों नें एक साथ उच्चारा-ज्वार भाटा,
और खिलखिलाहट की लहर आई।
जैसे ही शब्द मिला,
तीनों को होने-जीने का अर्थ मिला
उनका ज्वार बीत गया था,
वे भाटे में बीत रहे थे।
ज्वार हो या भाटा,
एक शब्द ही तो है लाइफबोट की तरह तैरता।
पूरे पार्क में हवा का झोंका आया,
नीला आकाश झुक आया धरती उपर उठ गई.
पास की डाल पर फूलसूँघी ने की चीं मी चूँ मूँ।
तीनों हमसफरों के साथ हाँ हाँ हूँ हूँ।
गांधीमन में तीन जापानी बंदर भी तो हैं,
मौन के शब्द, शब्द के संकेत।
शब्द का लोप जीवन का विलोप है,
जीवन संज्ञाहीन तो शब्द शून्य।
*****
आषाढ़ की पहली फुहार
पहली फुहार पड़ रही है.
दूब से फुनगी तक भीग गए,
भीगने से सहमा बुढ़ापा नआया।
बचपन पर भी बंदिश,
मगर फुहार का बुलावा खाली न गया।
सूने पार्क में वृक्षों से झरती बूंदों के नीचे,
रंगारंग छतरियों में छुपे-अधछिपे।
छिपते-छिपाते बतियाते-गपियाते,
रमी है इक्कीसवीं सदी की युवा बहार।
भीतर फुहार बाहर फुहार,
भीगे मौसम के भीगे बयार।
बजता है मन सरोद तन सितार,
प्यार की उंगलियां छेड़ती हैं तार।
धरती खुश आकाश भी खुश,
आषाढ़ का प्रथम दिन भी मस्त।
हवा में पानी, पानी में चमक,
मिट्टी से माहौल तक सोंधी महक।
घुम रहे फिल्मों के बरसाती दृश्य,
बज रहे छाते के नीचे के गीत।
रिमझिम के तराने लेके आई बरसात,
याद आई किसी से वो पहली मुलाकात।
आषाढ़ की पहली-पहली बूंदों की पाती,
आओ! पहले-पहले संगी, नए-नए साथी।
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अवांतर भूमि
वह शहर में रह रहा है
और शहर में नहीं है।
गांव में नहीं रह रहा है,
लेकिन, गांव में है।
राज्य में रह रहा है,
फिर भी राज्यविहीन है.
जहां है वहां नहीं है,
जहां नहीं है वहां है।
वह अपने पर हंसता है,
कि कहीं का नहीं है।
किसने किया कैसे हुआ,
हो गया अवांतर भूमि!
वह सोचता है,
सोचते-सोचते व्यतीत होता है।
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दु:ख
दुख को दुख की तरह लिखो
तो दुख सपाट दिखता है।
जैसे ही दु और ख के बीच
विसर्ग की दो बिंदी आती है।
दो आंखें डबडब दिखतीं हैं
वैसे ही दुख दु:ख हो जाता है।
दु:ख में खुद है खुद में दु:ख
परदु:ख कातर बुद्ध आता है।
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सुख और खुश
सुख और खुश में अक्षर-मात्रा समान हैं,
होना ही चाहिए।
बस, आगे-पीछे और पीछे-आगे करने में
दोनों की जान-पहचान है।
खुश होने का सुख है,
सुख कब नाखुश है?
सुख देखने में खुश,
हर क्षण चौकस।
छीन न जाए सुख,
आ न जाए दुःख।
खुश की खुशी क्षणिक है,
सुख भी कहां चिरसुखी!
जब खुशी का सूचकांक गिरता है,
तब सुखांत होता है-
फिर दोनों का दु:खांत होता है।
देख लो! खुशी पर भी कोई पहरा है।
सोच लो! सुख इकहरा है।
पता चलेगा कि दु:ख दुहरा है।
जहां सुख खुला विज्ञापन है,
वहीं दु:ख खुद को ज्ञापन है।
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