सावरकर समग्र
खंड : 1
स्वातंत्र्यवीर
विनायक दामोदर सावरकर
आभार- स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक
२५२ स्वातंत्र्यवीर सावरकर मार्ग
शिवाजी उद्यान, दादर, मुंबई-२८
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन
४/१९ आसफ अली रोड
नई दिल्ली-११०००२
संस्करण - २००४
©सौ. हिमानी सावरकर
मूल्य - पाँच सौ रुपए प्रति खंड
पाँच हजार रुपए (दस खंडों का सैट)
मुद्रक - गिर्राज प्रिंटर्स, दिल्ली
प्रथम खंड
पूर्व पीठिका, भगूर, नाशिक
शत्रु के शिविर में
लंदन से लिखे पत्र
द्वितीय खंड
मेरा आजीवन कारावास
अंदमान की कालकोठरी से
गांधी वध निवेदन
आत्महत्या या आत्मार्पण
अंतिम इच्छा पत्र
तृतीय खंड
काला पानी
मुझे उससे क्या? अर्थात् मोपला कांड
अंधश्रद्धा निर्मूलक कथाएँ
चतुर्थ खंड
उ:शाप
बोधिवृक्ष
संन्यस्त खड्ग
उत्तरक्रिया
प्राचीन अर्वाचीन महिला
गरमागरम चिवड़ा
गांधी गोंधल
पंचम खंड
१८५७ का स्वातंत्र्य समर
रणदुंदुभि
तेजस्वी तारे
षष्टम खंड
छह स्वर्णिम पृष्ठ
हिंदू पदपादशाही
सप्तम खंड
जातिभंजक निबंध
सामाजिक भाषण
विज्ञाननिष्ठ निबंध
अष्टम खंड
मैझिनी चरित्र
विदेश में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
क्षकिरणे
ऐतिहासिक निवेदन
अभिनव भारत संबंधी भाषण
नवम खंड
हिंदुत्व हिंदुत्व का प्राण
नेपाली आंदोलन
लिपि सुधार आंदोलन
हिन्दू राष्ट्रदर्शन
दशम खंड
कविताएँ
भाषा-शुद्धि लेख
विविध लेख
अनुवाद:
प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. ललिता मिरजकर,
डॉ. हेमा जावडेकर, श्री वामन राव पाठक, श्री काशीनाथ जोशी,
श्री शरद दामोदर महाजन, श्री माधव साठे, सौ. कुसुम तांबे,
सौ. सुनीता कुट्टी, सौ. प्रणोति उपासने
संपादन:
प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. श्याम बहादुर वर्मा,
श्री रामेश्वर मिश्र 'पंकज', श्री जगदीश उपासने,
श्री काशीनाथ जोशी, श्री धृतिवर्धन गुप्त, श्री अशोक कौशिक
मार्गदर्शन :
श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, डॉ. हरींद्र श्रीवास्तव,
श्री शिवकुमार गोयल
विनायक दामोदर सावरकर : संक्षिप्त जीवन परिचय
श्री विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी तथा अग्रणी नक्षत्र थे। 'वीर सावरकर' शब्द साहस, वीरता, देशभक्ति का पर्यायवाची बन गया है। 'वीर सावरकर' शब्द के स्मरण करते ही अनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान् वीरता, एक उत्कट देशभक्ति से ओतप्रोत इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हमारे सामने साकार होकर खुल पड़ते हैं।
वीर सावरकर न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु वह एक महान् क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वह एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया तो '१८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर' का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था।
इस महान् क्रांतिपुंज का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में चितपावन वशीय ब्राह्मण श्री दामोदर सावरकर के घर २८ मई, १८८३ को हुआ था। गाँव के स्कूल में ही पाँचवीं तक पढ़ने के बाद विनायक आगे पढ़ने के लिए नासिक चले गए।
लोकमान्य तिलक द्वारा संचालित 'केसरी' पत्र की उन दिनों भारी धूम थी। 'केसरी' में प्रकाशित लेखों को पढ़कर विनायक के हृदय में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ हिलोरें लेने लगीं। लेखों, संपादकीयों व कविताओं को पढ़कर उन्होंने जाना कि भारत को दासता के चंगुल में रखकर अंग्रेज किस प्रकार भारत का शोषण कर रहे हैं। वीर सावरकर ने कविताएँ तथा लेख लिखने शुरू कर दिए। उनकी रचनाएँ मराठी पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होने लगीं। 'काल' के संपादक श्री परांजपे ने अपने पत्र में सावरकर की कुछ रचनाएँ प्रकाशित की, जिन्होंने तहल्का मचा दिया।
सन् १९०५ में सावरकर बी.ए. के छात्र थे। उन्होंने एक लेख में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया। इसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का कार्यक्रम बनाया। लोकमान्य तिलक इस कार्य के लिए आशीर्वाद देने उपस्थित हुए।
सावरकर की योजना थी कि किसी प्रकार विदेश जाकर बम आदि बनाने सीखे जाएँ तथा शस्त्रास्त्र प्राप्त किए जाएँ। तभी श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर को छात्रवृत्ति देने की घोषणा कर दी। ९ जून, १९०६ को सावरकर इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए। वह लंदन में इंडिया हाउस' में ठहरे। उन्होंने वहाँ पहुँचते ही अपनी विचारधारा के भारतीय युवकों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की।
सावरकर 'इंडिया हाउस' में रहते हए लेख व कविताएँ लिखते रहे। वह गुप्त रूप से बम बनाने की विधि का अध्ययन व प्रयोग भी करते रहे। उन्होंने इटली के महान् देशभक्त मैझिनी का जीवन-चरित्र लिखा। उसका मराठी अनुवाद भारत में छपा तो एक बार तो तहल्का ही मच गया था।
१९०७ में सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लंदन में १८५७ की अर्द्धशती मनाने का व्यापक कार्यक्रम बनाया। १० मई, १९०७ को 'इंडिया हाउस' में सन् १८५७ की क्रांति की स्वर्ण जयंती का आयोजन किया गया। भवन को तोरण-द्वारों से सजाया गया। मंच पर मंगल पांडे, लक्ष्मीबाई, वीर कुँवरसिंह, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, नानाजी पेशवा आदि भारतीय शहीदों के चित्र थे। भारतीय युवक सीने व बाँहों पर शहीदों के चित्रों के बिल्ले लगाए हुए थे। उनपर अंकित था -१८५७ के वीर अमर रहें'। इस समारोह में कई सौ भारतीयों ने भाग लेकर १८५७ के स्वाधीनता संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रीय गान के बाद वीर सावरकर का ओजस्वी भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया कि १८५७ में 'गदर' नहीं अपितु भारत की स्वाधीनता का प्रथम महान् संग्राम हुआ था।
सावरकर ने १९०७ में १८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर' ग्रंथ लिखना शुरू किया। इंडिया हाउस के पुस्तकालय में बैठकर वह विभिन्न दस्तावेजों व ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। उन्होंने लगभग डेढ़ हजार ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इसे लिखना शुरू किया।
ग्रंथ की पांडुलिपि किसी प्रकार गुप्त रूप से भारत पहुँचा दी गई। महाराष्ट्र में इसे प्रकाशित करने की योजना बनाई गई। 'स्वराज्य' पत्र के संपादक ने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया; किंतु पुलिस ने प्रेस पर छापा मारकर योजना में बाधा डाल दी। ग्रंथ की पांडुलिपि गुप्त रूप से पेरिस भेज दी गई। वहाँ इसे प्रकाशित कराने का प्रयास किया गया; किंतु ब्रिटिश गुप्तचर वहाँ भी पहुँच गए और ग्रंथ को प्रकाशित न होने दिया गया। ग्रंथ के प्रकाशित होने से पूर्व ही उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंतत: १९०९ में ग्रंथ फ्रांस से प्रकाशित हो ही गया।
ब्रिटिश सरकार तीनों सावरकर बंधुओं को 'राजद्रोही' व खतरनाक घोषित कर चुकी थी। सावरकर इंग्लैंड से पेरिस चले गए। पेरिस में उन्हें अपने साथी याद आते। वह सोचते कि उनके संकट में रहते उनका यहाँ सुरक्षित रहना उचित नहीं है। अंतत: वह इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए।
१३ मार्च, १९१० को लंदन के रेलवे स्टेशन पर पहुँचते ही सावरकर को बंदी बना लिया गया और ब्रिक्स्टन जेल में बंद कर दिया गया। उनपर लंदन की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ। न्यायाधीश ने २२ मई को निर्णय दिया कि क्योंकि सावरकर पर भारत में भी कई मुकदमे हैं, अत: उन्हें भारत ले जाकर वहीं मुकदमा चलाया जाए। अंतत: २९ जून को सावरकर को भारत भेजने का आदेश जारी कर दिया गया।
१ जुलाई, १९०९ को 'मोरिया' जलयान से सावरकर को कड़े पहरे में भारत रवाना किया गया। ब्रिटिश सरकार को भनक लग गई थी कि सावरकर को रास्ते में छुड़ाने का प्रयास किया जा सकता है। अत: सुरक्षा प्रबंध बहुत कड़े किए गए। ८ जुलाई को जलयान मार्सेल बंदरगाह के निकट पहुँचने ही वाला था कि सावरकर शौच जाने के बहाने पाखाने में जा घुसे। फुरती के साथ उछलकर वह पोर्ट हॉल तक पहुँचे और समुद्र में कूद पड़े।
अधिकारियों को जैसे ही उनके समुद्र में कूद जाने की भनक लगी कि अंग्रेज अफसरों के छक्के छूट गए। उन्होंने समुद्र की लहरें चीरकर तैरते हुए सावरकर पर गोलियों की बौछार शुरू कर दी। सावरकर सागर की छाती चीरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ने लगे। कुछ ही देर में वह तट तक पहुँचने में सफल हो गए किंतु उन्हें पुन: बंदी बना लिया गया।
१५ सितंबर, १९१० को सावरकर पर मुकदमा शुरू हुआ। सावरकर ने स्पष्ट कहा कि भारत के न्यायालय से उन्हें न्याय की किंचित् भी आशा नहीं है, अत: वह अपना बयान देना व्यर्थ समझते हैं।
२३ दिसंबर को अदालत ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने, बम बनाने तथा रिवॉल्वर आदि शस्त्रास्त्र भारत भेजने आदि आरोपों में आजन्म कारावास की सजा सुना दी। उनकी तमाम संपत्ति भी जब्त कर ली गई।
२३ जनवरी, १९११ को उनके विरुद्ध दूसरे मामले की सुनवाई शुरू हुई। ३० जनवरी को पुनः आजन्म कारावास की सजा सुना दी गई। इस प्रकार सावरकर को दो आजन्म कारावासों का दंड दे दिया गया। सावरकर को जब अंग्रेज न्यायाधीश ने दो आजन्म कारावासों का दंड सुनाया तो उन्होंने हँसते हुए कहा, 'मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ईसाई (ब्रिटिश) सरकार ने मुझे दो जीवनों का कारावास दंड देकर पुनर्जन्म के हिंदू सिद्धांत को मान लिया है।'
कुछ माह बाद महाराजा नामक जलयान से सावरकर को अंदमान भेज दिया गया। अंदमान में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं। कोल्हू में बैल की जगह जोतकर तेल पिरवाया जाता था, मूंज कुटवाई जाती थी। राजनीतिक बंदियों पर वहाँ किस प्रकार अमानवीय अत्याचार ढाए जाते थे, इसका रोमांचकारी वर्णन सावरकरजी ने अपनी पुस्तक मेरा आजीवन कारावास में किया है।
सावरकरजी ने अंदमान में कारावास के दौरान अनुभव किया कि मुसलमान वॉर्डर हिंदू बंदियों को यातनाएँ देकर उनका धर्म-परिवर्तन करने का कुचक्र रचते हैं। उन्होंने इस अन्यायपूर्ण धर्म-परिवर्तन का डटकर विरोध किया तथा बलात् मुस्लिम बनाए गए अनेक बंदियों को हिंदू धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने अंदमान की कालकोठरी में कविताएँ लिखीं। 'कमला', 'गोमांतक' तथा 'विरहोच्छ्वास' जैसी रचनाएँ उन्होंने जेल की यातनाओं से हुई अनुभूति के वातावरण में ही लिखी थीं। उन्होंने 'मृत्यु' को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी वह अत्यंत मार्मिक व देशभक्ति से पूर्ण थी।
सावरकरजी ने अंदमान कारागार में होने वाले अमानवीय अत्याचारों की सूचना किसी प्रकार भारत के समाचारपत्रों में प्रकाशित कराने में सफलता प्राप्त कर ली। इससे पूरे देश में इन अत्याचारों के विरोध में प्रबल आवाज उठी। अंत में दस वर्ष बाद १९२१ में सावरकरजी को बंबई लाकर नजरबंद रखने का निर्णय किया गया। उन्हें महाराष्ट्र के रत्नागिरी स्थान में नजरबंदी में रखने के आदेश हुए।
'हिंदुत्व', 'हिंदू पदपादशाही', 'उ:श्राप', 'उत्तरक्रिया', 'संन्यस्त खड्ग' आदि ग्रंथ उन्होंने रत्नागिरी में ही लिखे।
१० मई, १९३७ को सावरकरजी की नजरबंदी रद्द की गई।
नजरबंदी से मुक्त होते ही सावरकरजी का भव्य स्वागत किया गया। अनेक नेताओं ने उन्हें कांग्रेस में शामिल करने का प्रयास किया; किंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया, 'कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर मेरे तीव्र मतभेद हैं। मैं हिन्दू महासभा का ही नेतृत्व करूँगा।'
३० दिसंबर, १९३७ को अहमदाबाद में आयोजित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकरजी सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने 'हिंदू' की सर्वश्रेष्ठ व मान्य परिभाषा की। हिंदू महासभा के मंच से सावरकरजी ने 'राजनीति का हिंदूकरण और हिंदू सैनिकीकरण' का नारा दिया। उन्होंने हिंदू युवकों को अधिक-से-अधिक संख्या में सेना में भरती होने की प्रेरणा दी। उन्होंने तर्क दिया, 'भारतीय सेना के हिंदू सैनिकों पर ही इस देश की रक्षा का भार आएगा, अत: उन्हें आधुनिकतम सैन्य विज्ञान की शिक्षा दी जानी जरूरी है।'
२६ फरवरी, १९६६ को भारतीय इतिहास के इस अलौकिक महापुरुष ने इस संसार से विदा ले ली। अपनी अंतिम वसीयत में भी उन्होंने हिंदू संगठन व सैनिकीकरण के महत्त्व, शुद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। भारत को पुन: अखंड बनाए जाने की उनकी आकांक्षा रही।
ऐसे वीर पुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी हमारे लिए पथ-प्रदर्शक का काम करने में सक्षम है।
-शिवकुमार गोयल
अनुक्रम
अथ-आह
१. क्या लिखू?
२. सन् १८५७ के बाद की राजनीति
भारतीय सेना की कायापलट एवं जनपदों का नि:शस्त्रीकरण
३. राजनीतिक परिस्थिति का विश्लेषण
बंगाल, मद्रास, आंध्र, कर्नाटक, गुजरात, बिहार और संयुक्त प्रांत
४. राजनीतिक परिस्थिति का प्रांतीय विश्लेषण
पंजाब और देसी राज्य
५. राजनीतिक परिस्थिति का प्रांतीय विश्लेषण
महाराष्ट्र
६. अंग्रेजों की छावनी में
ह्यूम की कुलकथा
७. कूका-विद्रोह
८. क्रांतिवीर वासुदेव बलवंत फड़के
बिना शस्त्र स्वराज नहीं
सरदार दौलतराव
रामसिंह कूका और वासुदेव बलवंत
९. वासुदेव बलवंत का सशस्त्र संघर्ष
१०. अखिल भारतीय राष्ट्रीय महासभा की स्थापना
वास्तविक डर तो क्रांतिकारियों से था, कांग्रेस से नहीं
मैग्नाकार्टा की विविध व्याख्याएँ
दादाभाई नौरोजी का साक्ष्य
विष भी कभी अमृत हो जाता है
११. भारतीय राष्ट्रीय महासभा की नींव में मुस्लिम काल-बम
राष्ट्रीय एकता की भावना रक्त में रमी हुई है
परंतु मुसलमान?
मुसलमानों द्वारा अराष्ट्रीय माँगें आरंभ
कांग्रेस का कर्तव्य
१२. तिलक-पर्व
१३. वासुदेव बलवंत फड़के के बाद क्या?
भगूर
१. 'भगूर' गाँव में
२. सामान्य वस्तु भी दिव्य-वैभव-मोहिनी
३. मेरे पिताजी
४. मेरे बापू काका
५. मेरी माँ
६. मेरी पहली स्मृति
७. माँ की मृत्यु
८. मेरे बालसखा
९. आरण्यक
१०. प्रथम पृष्ठविहीन इतिहास
११. कविता की बारहखड़ी
१२. आर्या की माला
१३. श्रद्धा की नींव हिलने की घटना
१४. तत्त्व-जिज्ञासा का सूत्रपात
१५. अंग्रेजी शिक्षा का प्रारंभ
१६. विद्वत्ता-परीक्षण की मूर्खतापूर्ण कसौटी
१७. पहला व्याख्यान
१८. मैंने वक्तृत्व-कला कैसे सीखी?
१९. प्लेग का प्रकोप
२०. वीर चापेकर और रानडे
२१. स्वतंत्रता-संग्राम की शपथ
२२. पुणे में प्रवेश
२३. 'काल' पत्र का परिचय
२४. 'गुरुणां गुरु: ' केसरी
२५. परिवार पर प्लेग का प्रकोप
परिशिष्ट
नासिक
१. श्री म्हसकर
२. श्री पागे
३. तिलभांडेश्वर की गली
४. आबा पांगळे
५. गुप्त मंडल की स्थापना
६. 'मित्र मेला' की स्थापना
७. साध्य और साधन
८. हाई स्कूल में शिक्षा
९. आर्थिक संकट के दिन
१०. दैवी गुप्त धन?
११. पब्लिक सर्विस की परीक्षा
१२. बढ़ता स्नेही समाज
१३. प्लेग-रोगियों के शव
१४. श्मशान के फूल
१५. ननिहाल की यात्रा
१६. कोठूर शाखा की स्थापना
१७. राजा इंग्लैंड का या हिंदुस्थान का?
१८. किशोर वय का ज्ञानार्जन
१९. भगूर में शाखा
२०. पहला बड़ा गणपति उत्सव और मेला
२१. 'त्र्यंबक' गाँव की शाखा
२२. मेरा शरीर और व्यायाम
२३. 'मित्र मेला' और व्यायाम
२४. विवाह
२५. क्रांतिकारी का विवाह
२६. श्रीयुत् भाऊराव चिपळूणकर
२७. श्री विष्णु महादेव भट
२८. श्री सखाराम गोरे
२९. मन की संसद
३०. बाबा द्वारा प्राणायाम-साधना
३१. केरल कोकिल
३२. छोटा भाई 'बाल'
३३. महान् पेशवा कौन?
३४. मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण
३५. 'मित्र मेला' का प्रारंभिक इतिवृत्त
३६. स्वातंत्र्य लक्ष्मी की जय!
३७. सशस्त्र क्रांति-युद्ध
खंड-२
परिशिष्ट-१ (मेरी भाभी की स्मृतियाँ)
परिशिष्ट-२ (कवि के चरित्र से उद्धृत गोविंद)
शत्रु-शिविर में
१. वाष्प नौका पर
'महासागर' कविता के कुछ उद्धरण
समुद्र और आकाश की अंजुली में चाँदनी रात
२. मैं जब लंदन पहुँचा
दादाभाई नौरोजी
लंदन इंडियन सोसायटी
ईस्ट इंडियन एसोसिएशन
ब्रिटिश संसद के निर्वाचन में दादाभाई पराजित
मुसलमानों का संगठित विरोध
दादाभाई का नया ग्रंथ :
Poverty and Unbritish Rule in India
ब्रिटिश और अनब्रिटिश
लिबरल और कंजर्वेटिव
संसद में दादाभाई नौरोजी का प्रवेश
ब्रिटिश-निष्ठा की लहर
एक सुरक्षित स्वाँग
आयरलैंड का उदाहरण
देशभक्त दादाभाई का प्रभावी व्यक्तित्व
सशस्त्र क्रांतिपक्ष को दादाभाई की अनजानी श्रद्धांजलि!
ब्रिटिश कमेटी ऑफ दि इंडियन नेशनल कांग्रेस
सन् १८९७
उधर सुदूर पुणे में
कांग्रेस प्रस्ताव एवं क्रांतिकारी चिनगारियाँ
हिंडमैन
पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा
श्यामजी का सहसा इंग्लैंड जाना
राजनीतिक उद्देश्य नहीं
श्यामजी के जीवन-ध्येय का कायाकल्प
हर्बर्ट स्पेंसर की मृत्यु
पंडितजी का पहला राजनीतिक कार्य
'इंडियन सोशियोलॉजिस्ट' पत्र का प्रकाशन
'होमरूल सोसायटी' की स्थापना
'इंडिया हाउस' की स्थापना
पर आपका नया कार्यक्रम क्या है?
तथापि विपिनचंद्र पाल प्रथम रहे
दादाभाई स्वशासन की भाषा पहले बोलने लगे थे
'होमरूल' शब्द का उपयोग क्यों अस्वीकारा?
एक राजनीतिक प्रहसन
बैरिस्टर सरदार सिंह राणा
दादाभाई के पार्लियामेंटरी मोर्चे की इतिश्री!
मोर्ले भारत सचिव नियुक्त
होमरूल सोसायटी की प्रथम वार्षिक सभा
सुरेंद्रनाथ बनर्जी की गिरफ्तारी और दंड
पेरिस में भारतीय राजनीति की पहली सभा
ब्रिटेन में उस समय के भारतीय तरुण
मेरे उद्देश्य से अधिकतर प्रतिकार
दस प्रतिशत अपवाद
सारांश
३. शत्रु-शिविर में
ब्रिटिश साम्राज्य का सर्वोच्च बिंदु
क्रांतिकारी दल को ब्रिटिशों के शस्त्र-बल की जानकारी
मेरे संबंध में भेजा गया पहला गुप्त प्रतिवेदन
मांटगुमरी आई.सी.एस. प्रतिवेदन
रौलट रिपोर्ट
अगम्य गुरु की कपोल कथा
क्रांतिकारी गुप्त संस्था का अभिमान भरा क्रांतिकौशल
ब्रिटिश गुप्तचर प्रतिवेदनों के ही आधार पर भारतीय
राजक्रांति का इतिहास न लिखा जाए
४. जोसेफ मैजिनी : आत्मकथा और राजनीति
भारतीय राजनीति पर मैजिनी के चरित्र का प्रभाव :
गैरीबाल्डी के संबंध में एक स्मृति
रहस्यमयता का केवल आस्वाद
मैजिनी के लेखों के मराठी अनुवाद का निश्चय
अनुवाद-संबंधी मेरी नीति
राजमान्य या लोकमान्य
मैजिनी की पुस्तक दोनों को ही अर्पित क्यों?
५. 'फ्री इंडिया सोसायटी' की स्थापना और '१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य-समर' ग्रंथ का लेखन
'फ्री इंडिया सोसायटी' की स्थापना
अनेक को सशस्त्र क्रांति असंभव लगती थी
सशस्त्र क्रांति का प्रत्यक्ष उदाहरण : १८५७
'के' ऐंड मॅलिसन का विस्तृत ग्रंथ
इंडिया ऑफिस कांग्रेस संग्रहालय
अंग्रेजों का दीर्घ उद्योग एवं सुव्यवस्था
पुस्तकालयाध्यक्ष को चकमा दिया
इंडिया ऑफिस जाने पर रोक
ग्रंथ तो लिखा गया, पर
परिशिष्ट-१
पिस्तौलें एवं पुस्तकें लानेवाले क्रांतिकारी तरुण चंजेरी राव
गुप्तचर प्रतिवेदन
चंजेरी राव के निवेदन के कुछ अंश
परिशिष्ट-२
षड्यंत्र के अभियोग के न्यायमूर्ति के निर्णय का एक अंश
लंदन के समाचार
१. हे हिंदुस्थान! जो पचा सको, वह खाओ!!
२. राष्ट्रीय युवा सेना
३. समाप्ति का आरंभ
४. राष्ट्रीय सभा की बकरियाँ
५. हिंदुस्थान के मदारी
६. इसका क्या अर्थ है?
७. क्रांति के प्रवाह
८. इंग्लैंड की महिलाएँ और हिंदुस्थान के पुरुष
९. नववर्ष प्रारंभ
१०. वायुयान का प्रचलन
११. श्यामजी कृष्ण वर्मा की उदारता
१२. स्वदेश से कृतघ्नता
१३. लंदन टावर
१४. सावधान
१५. सन् १८५७ के सपने
१६. अप्रत्यक्ष प्रतिकार की जय-पराजय
१७. प्रकाश और अंधकार
१८. लंदन में पहला शिवाजी-जन्मोत्सव
१९. सन् १८५७ के स्वतंत्रता-संग्राम की स्वर्ण जयंती
२०. अलंकरण समारोह
२१. अच्छा हुआ
२२. विद्यार्थियों का तेजोभंग
२३. लोकमान्य तिलक को काला पानी
२४. 'लंदन टाइम्स' का क्रोध
२५. स्वदेशी और इंग्लैंड का व्यापार
२६. अजित सिंह और हैदर रजा का अभिनंदन
२७. लोकनायक विपिनचंद्र पाल का आगमन
२८. काल्पनिक दंगा
२९. रक्षाबंधन समारोह और दक्षिण अफ्रीकी भारतीय जनता को सहानुभूति
३०. भारतीय विद्यार्थियों के लिए पशुशाला
३१. राष्ट्रीय परिषद्
३२. श्री गुरु गोविंदसिंह जन्मोत्सव
३३. स्वराज के जयघोष का परिणाम
३४. द्वंद्व युद्ध
३५. गाली-गलौज का परिणाम
३६. उग्रवादियों को मिटाओ
३७. सर कर्जन वायली की हत्या
३८. मदनलाल धींगरा
३९. सावरकर पर 'ग्रेज इन' का अभियोग
४०, भयंकर नाटक का पटाक्षेप
४१. अंग्रेज यहाँ-वहाँ एक जैसे
४२. भरतवाक्य
४३. देशभक्त सावरकर का पत्र
४४. विजयदशमी
४५. सांत्वना
४६. मेरा मृत्यु-पत्र
४७. मित्र हो, राम-राम
प्रकरण १
क्या लिखूँ ?
क्या लिखूँ? ये जो सारे इष्ट-मित्र और देशबंधु कह रहे हैं और मेरा मन भी बीच-बीच में मुझे लिखने के लिए कोंचता है, तो क्या अपनी स्मृतियाँ, अपना वह जीवनवृत्त लिख डालूँ-एक बार?
मनुष्य या समाज के लिए स्मृति उपयुक्त ही रहती है, परंतु वास्तव में देखें तो स्मृति के सदृश विस्मृति भी एक ईश्वरीय कृपा ही है। मनुष्य या समाज के लिए कुछ स्मृतियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें याद रखने की अपेक्षा भूलना अधिक हितकर होता है; पर कई को इस जन्म की स्मृतियों से संतोष नहीं होता और वे पूर्वजन्म की स्मृतियों को भी खोजने के लिए योग-सिद्धि का मार्ग अपनाते हैं। परंतु सचमुच देखें तो केवल इस जन्म की सारी-की-सारी स्मृतियाँ भी यदि हमारा पीछा करती रहीं तो उन्हें सहन करना चेतन मन के लिए संभव नहीं है; फिर यदि उपचेतन मन की सात या सत्तर पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ सतत भीड़ लगाए रहीं तो प्राणों को कितनी घुटन होगी! उन सत्तर जन्मों की सत्तर माताओं का लाड़, विमाताओं की चुगलखोरी, खेल या गृहस्थी में खोए हुए गुड्डे-गुडि़या, शिक्षकों की छड़ी, काटनेवाले बिच्छू, अधूरी रह गई आशाएँ, वे रोग, वे भोग, वे अपमान, वे मोहभंग, वे झगड़े-झंझट और फिर उनका स्मरण, पुन:- पुन: स्मरण, अर्थात् विगत दु:खों का कोयला फिर-फिर घिसना!!
भगवान् बुद्ध द्वारा कथित उनके पूर्वजन्म की थोड़ी-बहुत स्मृतियाँ लिखकर रखी हुई हैं जो श्रौत साहित्य के रूप में उपलब्ध हैं। उन जातक कथाओं का कैसा विस्तार हुआ है! और यदि भगवान् बुद्ध अपने सभी पूर्वजन्मों की समस्त कथाएँ कहते लिखवाने की कृपा करते, तब उन ग्रथों के कारण पूरी पृथ्वी ही ग्रंथालय बन जाती; फिर भी उनके लिए वह पर्याप्त नहीं होती। कारण यह है कि किसी के भी पूर्वजन्म अगणित होने से स्मृतियों के खंड भी तो असंख्य ही होते!!
यह तो एक बुद्ध भगवान् की बात हुई। परंतु यदि प्रत्येक जन्म में हुआ मनुष्य, जैसे आजकल हमारे कुछ थियोसोफिस्ट मित्रों को अपने पूर्वजन्म की स्मृतियाँ हो आती हैं, वैसे ही सकल स्मृतियाँ ताजा करने लगा और दुर्देव से उन सबको लिख-छापकर प्रकाशित भी करवाने लगा तो संपूर्ण मनुष्य जाति की केवल इसी पीढ़ी के औसतन एक सौ पचास करोड़ लोगों में से प्रत्येक के असंख्य जातक होंगे। उनको पढ़ने की बात तो दूर, केवल उनकी संख्या सुन-सुनकर चक्कर आने लगें। पौराणिक परंपरा के अनुसार कहें तो रक्तबीज दानवों जैसे हर गुजरे क्षण की स्मृति का रक्त-बिंदु एक-एक स्मृति-दानव को जन्म देता है। पौराणिक परिभाषा में ही यदि कहें तो स्मृति के इसी अत्याचार से लोगों का परित्राण करने हेतु क्षण का वह बिंदु गिरते ही निगल लेने के लिए है। देवी विस्मृति ने अवतार लिया, इसलिए सबकुछ ठीक हो गया। निस्संदेह स्मृति के सदृश विस्मृति भी ईश्वरीय कृपा ही है।
प्राचीन इतिहास अर्थात् समाज की आदिम स्मृतियाँ न मिलना हमारे लिए कभी-कभी बहुत चिंता का कारण बन जाता है। इतिहास किस तरह पढ़ा जाए, यह विवेक जब तक समाज में जाग्रत नहीं होता, तब तक उसका कुछ भाग विस्मृत हो जाना ही क्या हितकर नहीं है? क्योंकि आज रावण की लंका कौन-सी है, यह यदि ऐतिहासिक निश्चितता से कहा जाने लगे तो उस देश के वासियों के मन में हम आर्यों के प्रति द्वेष उत्पन्न नहीं होगा और पुराने झगड़े का कोयला घिसकर एक नया झगड़ा तैयार नहीं किया जाएगा, यह कौन कह सकता है? यह कोरी कल्पना नहीं है। उसी रामायण-कथा की स्मृति के कारण हम आर्य आज भी बंदरों से लाड़ करते हैं; उसके लिए मनुष्य को कष्ट भी हो जाए तो कोई बात नहीं। अभी एक स्थान का समाचार है कि बंदर को मुक्त कराने के लिए दंगा हुआ और कई आदमी मारे गए। यह एक तरह से सुग्रीव और राम के बीच हुई संधि का सम्मान करना ही तो है! उत्तर ध्रुव से आर्य हिंदुस्थान में आए, यह उपपत्ति सुनते ही स्वयं को अनार्य मानने वालों ने तथाकथित आर्य मानी जाने वाली जातियों को 'पश्चात हिंदू' और स्वयं को 'आदि द्रविड़', 'आदि हिंदू' कहना शुरू किया या नहीं! फिर उस प्राचीन काल की जानकारी पौराणिक लुका-छिपी की स्वाँग उतारकर एकदम सही स्वरूप में प्रकट हो गई जान कौन मूल में अनार्य, कौन आर्य, कौन असुर, कौन दनुज, कौन हूण, कौन द्रविड़ आदि की सच्ची बातों घर-घर अकस्मात् ज्ञात हो जाएँ तो आज कितना हो-हल्ला मच जाएगा! कितने ही ब्राह्मण शुद्धकृत शक या मघ निकलेंगे, क्षत्रिय हूण निकलेंगे! ससुराल पक्ष आर्य, तो मायका नागवंशी या पैशाच निकल आएगा।
जो हो गया, सो हो गया! अब पिछला भूल जाओ!! यह वाक्य कहते ही कितने टूटे स्नेह फिर जुड़े हैं आज तक, कितने ही अनुतप्त प्रणय पुन: अनुरक्त हुए हैं। निस्संदेह स्मृति जैसी विस्मृति भी एक ईश्वरीय कृपा ही है।
यदि ईश्वरप्रदत्त इन दो परस्पर विरूद्ध कृपाओं का उपयोग तारतम्य से किया जाता है तो ये दोनों ही मानव-जीवन के लिए उपयुक्त सिद्ध होती हैं; परंतु यदि हम सर्वदा पिछली बातों का ही स्मरण करते रहे या उन्हें भूलते रहे तो अपना जीवन अधिक दु:सह या असह्य हो जाएगा।
इस तारतम्य से देखने पर यह प्रश्न उठता है कि अपनी स्मृतियों को सार्वजनिक रूप से ग्रथित करना सार्वजनिक हित में है या नहीं? यह व्यक्तिपरक प्रश्न नहीं है, क्योंकि व्यक्ति को जो स्मृतियाँ सुखावह या हितावह लगती हैं, वह उन्हें तब तक फिर-फिर दोहराने के लिए स्वतंत्र है, जब तक उनसे किसी को कोई पीड़ा न हो। व्यक्ति से आगे परिवार, कुल या वंश से संबंधित स्मृतियों का क्रम आता है। कहा जाता है, चीन में ऐसी प्रथा है कि मृत व्यक्ति का केवल नामोल्लेख ही श्राद्ध के दिन नहीं किया जाता, वरन् उसके चरित्र की संक्षिप्त कथा भी कही जाती है, जिसे सारा परिवार सुनता है। इस तरह वहाँ परिवार का इतिहास सुरक्षित किया जाता है। वह पारिवारिक महत्व का होता है। उसके छपाने-पढ़ाने जैसा साहित्यिक अर्थ कुछ नहीं होता। यह भी सच ही है कि सामान्य जीवनक्रम में हजारों आदमी एक जैसे ही जीते हैं। जन्म, रोग, विवाह, संतति, मृत्यु एवं उससे संबंधित क्षुधा-शांति, भाव-भावना, सब एक समान है। ऐसे किसी एक चरित्र की पोथी, उसमें उल्लिखित नाम विशेष बदलने पर किसी भी अन्य व्यक्ति का चरित्र-चित्रण बन सकता है। ऐसे चरित्र परिवार-हित में परिवार के पास ही रहें; हाँ, कदाचित् कभी अनुवंशशास्त्र के शोधकर्ताओं के लिए उसका उपयोग हो। इतना ही उसका सार्वजनिक उपयोग हो सकता है।
व्यक्तिगत या पारिवारिक सीमा तक फैले चरित्रों की बात छोड़कर जिस किसी जीवन से किसी राष्ट्र या मनुष्य जाति के जीवन के धागे बँधे हैं, ऐसे सार्वजनिक व्यक्ति के चरित्र और स्मृतियों का प्रश्न आता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन लाखों व्यक्तियों के जीवन का संकलित सार ही होता है। कभी-कभी तो ऐसा कोई एक जीवन पूरी पीढ़ी का इतिहास हो जाता है। अशोक या आल्फ्रोड दि ग्रेट का चरित्र निकालते ही उस पीढ़ी के इतिहास से पन्ने-के-पन्ने ही मानो फाड़कर फेंके से लगते हैं। सामान्य रूप में ऐसा कहा जा सकता है कि लोक-जीवन पर जिनके जीवन का परिणामकारक प्रभाव किसी तरह पड़ा है, उनकी स्मृतियाँ ही सार्वजनिक प्रसिद्धि के लिए और सार्वजनिक हित में चिरस्मरणीय रहती हैं, और इसीलिए राष्ट्र या मानव के सामयिक साहित्य में उन्हें यथाप्रमाण स्थान प्राप्त करने का अधिकार होता है। ऐसे लोगों द्वारा यदि अपनी जीवन-स्मृतियाँ या आत्म-चरित्र सार्वजनिक हित में ग्रथित कर प्रकाशित किए जाते हैं तो वे लोग-जिज्ञासा और वाड़्मय की सहनशीलता का अनुचित लाभ लेने के दोष के भागी न होकर अपनी आकांक्षा और ध्येय, प्रयत्न और पराक्रम, न्यूनता और पूर्णता की जानकारी जैसी संपत्ति अगली पीढ़ी के हितार्थ उसके हाथों में सौंप जाने का, अपने सार्वजनिक जीवन का अंतिम श्रेयस्कर कर्तव्य ही पूरा करते हैं।
मेरी जीवन-स्मृतियाँ उपर्युक्त तीन वर्गों से अंतिम वर्ग में आती हैं, तभी उन्हें वैयक्तिक मृत्यु के साथ ही विस्मृति की राख में नष्ट न करके लोग-स्मृति के संग्रहालय में सुरक्षित रखने का प्रयास करना उचित होगा। पर क्या ये उस वर्ग की हैं?
मनुष्य-मात्र को अपनी कर्म-कथा, अपनी शेखी बघारने के अनुकूल जो भाग मिले, उसे कहने का मोह रोक पाना कठिन होता है। उस मोह को यथासंभव विवेक से दबाकर ममत्वशून्य दृष्टि से मैं अपने आत्म-चरित्र का समालोचन जब-जब तटस्थता से करता हूँ, तब-तब मुझे लगता है कि मेरा जीवन जब से मुझे ज्ञात है, वह भारतीय राष्ट्र के सार्वजनिक जीवन से संबद्ध है। इतना ही नहीं, बाद के काल में तो मेरा निजी जीवन राष्ट्रीय जीवन का एक प्रमुख और परिणामकारक घटक बनता चला गया है। मेरे लिए गौरवास्पद वयस्क पीढ़ी के अनेक राष्ट्रीय नेताओं से मेरा संबंध रहा। मेरे समकालीन लाखों तरूणों पर मेरे विचारों, प्रयासों और साहचर्य का अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष ऐसा परिणाम होने के कारण कि मुझे अपने जीवन में अनेक बड़े-बड़े राष्ट्रीय आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाने का अवसर बार-बार मिलने से मेरे चरित्र की बनावट और रचना किस-किस तरह से होती गई, इसका मेरे द्वारा वर्णित वृत्तांत उस काल के राष्ट्रीय इतिहास की रचना के लिए उपयोगी ही है। मेरी स्मृतियाँ केवल मेरे अकेले चरित्र तक सीमित नहीं हैं, उनमें तो पूरी दो-तीन पीढि़यों का जीवन प्रतिबिंबित होता है। और यह भी कि यदि मैं न कहूँ तो संभवत: उनके गुप्त कार्य और उत्कट राष्ट्रसेवा तथा महनीय त्याग की जानकारी भी लोगों को नहीं होगी। ऐसे अनेक लोकसेवकों, त्यागियों, शूरों और साधु पुरूषों की स्मृतियों को प्रत्यक्ष में सम्मानित कर उनके प्रति कृतज्ञता का ऋण अंशत: उतारने का काम भी मेरी स्मृतियों के प्रकाशन से होगा। इतना ही नहीं, जिस सशस्त्र क्रांति की अति जाज्वल्य और भव्य राष्ट्रीय भवितव्यता के आंदोलन से मेरा संबंध विशेष रूप से रहा था, उस उत्थान-काल के इतिहास का बहुत सारा भाग लोगों के लिए अज्ञात है। बंगाल के बहुत से देशभक्तों ने काफी-कुछ कहा है, फिर भी शेष बहुत सारा भाग कहने वाला कोई विशेषज्ञ अब नहीं रहा। कुछ थे, वे कह नहीं सके। विरोधी शक्ति ने तो सशस्त्र क्रांतिकारी उत्थान की स्मृति को समूल नष्ट करने के लिए हर एक मुँह को बंद करने का बीड़ा ही उठा रखा था। ऐसे समय में उस इतिहास पर अपनी स्मृतियों के आधार पर यथासंभव प्रकाश डालना एक राष्ट्रीय कर्तव्य ही है। यह कर्तव्य भी ऐसा अत्याज्य है कि केवल उसी एक कार्य के लिए अपनी स्मृतियाँ अपने साथ ही नष्ट होने देना अनुचित होगा।
उसमें भी मेरा चरित्र मूलत: कुछ ऐसे आकस्मिक, अद्भुत, क्षुब्ध करने वाली विद्युत् तंतुओं से बुना हुआ है और कँपाने वाले सुख-दु:ख के रंगारंग से उसकी कुछ ऐसी सजावट हुई है कि केवल उसकी मनोबेधकता के लिए ही साहित्य में उसका होना आवश्यक है।
चूँकि इस तरह मेरी सुधियाँ-स्मृतियाँ कम-से-कम एक-दो पीढि़यों को तो मनोबेधक, उद्बोधक लगे बिना नहीं रहेंगी, इसलिए मैं उन्हें लिखने का निश्चय कर रहा हूँ। यदि एक-दो पीढि़यों के बाद सार्वजनिक साहित्य में उसकी अनुपयोगिता सिद्ध हो जाती है तो काल स्वयं ही उसे निकाल फेंकने का काम कर लेगा। इसका कारण यह है कि जैसे व्यक्ति के जीवन की एक काल-मर्यादा होती है, वैसे ही उस व्यक्ति के पीछे बची उसकी जीवन-स्मृतियों की भी होती है। व्यक्ति हो या व्यक्ति-स्मृतियाँ हों, पृथ्वी का अवकाश नवीन का सृजन करने के लिए निर्जीव और अनुपयोगी पुराने को नष्ट करने का कार्य करता ही रहता है।
सार्वजनिक उपयोग के लिए यदि स्मृतियाँ प्रकाशित करते हैं तो वे जैसी घटित हुईं, वैसी ही पूरी-की-पूरी प्रकाशित करना प्रामाणिक लेखक का कर्तव्य है। लोगों में शेखी बघारने के लिए केवल उपयुक्त भाग ही प्रकाशित करना मिथ्याचार है। लोकप्रियता की इच्छा लोकहितपरकता का सच्चा सूत्र नहीं है। इसका कारण यह है कि मनुष्य का शरीर उसके सहज या प्राप्त सब रोग-भोग का, संश्लिष्ट संघर्ष का समन्वित परिणाम होता है। इसलिए उसका हर कृत्य भी उसके तथ्यकथित गुणावगुणों के संश्लिष्ट संघर्ष का, उसकी पूर्ण भावनाओं का सम्मिश्र प्रतिफलन होता है। किसी को अच्छे लगने वाले उसके गुण के उत्कर्ष में दूसरे को बुरे लगने वाले उसके अवगुणों का सानिध्य या सहकार्य भी होता ही है और उसके अवगुण उसके गुणों के बीजों का क्वचित् अपरिहार्य गौण रूपांतर भी होते हैं। जिसे भूसा कहकर फटक दिया जाता है, उसी के संरक्षण में, जिसे दाना कहकर उठाया जाता है, वह पलता-बढ़ता है। त्याज्य मल-मिट्टी का खाद गुलाब के फूल के विकास का समग्र रहस्य समझना चाहें तो उसकी जड़ों से कली तक, खाद-मिट्टी, सड़ी-गली पत्ती, उसके काँटे और डाली, टहनी सहित उसके सारे अंग-प्रत्यंगों, सब गौण उत्पादों पर भी विचार करना होगा। उनकी उपस्थिति और महत्व को भी जानना होगा। मनुष्य के लिए भी वैसा ही है। उसकी रचना-प्रक्रिया को यदि सचमुच समझना हो तो उसके केवल उस भाग की महत्ता गाने से कोई लाभ नहीं होगा, जिसे उसकी महानता समझा जाता है। वह नख-शिख जैसा था, वैसा ही उसे सामने रखा जाना चाहिए। वही छाया-चित्रकार श्रेष्ठ होता है, जो मनुष्य का वैसा ही चित्र लेता है, जैसा वह है - न अधिक सरस, न अधिक नीरस। इसलिए क्रॉम्वेल ने अपने चित्रकार को जताकर कहा था - 'मैं जैसा हूँ, वैसा ही चित्रित करो, एक भी झुर्री मत छोड़ना।'
सूक्ष्मता से देखा जाए तो क्रॉम्वेल के व्यक्तित्व और कृतित्व में उसके तेज के बराबर ही झुर्रियों का भी महत्व था।
आत्मवृत्त कहने वाले को अपना संपूर्ण चरित्र, स्वयं को या अन्यों को जो भाग अच्छा लगता है, वही नहीं, बल्कि कहने योग्य भली-बुरी सब स्मृतियाँ यथावत् कहनी चाहिए, यद्यपि उपर्युक्त कारणों से शास्त्रत: और तत्वत: यही उचित है, फिर भी आज तक जिन-जिन महान् व्यक्तियों ने आत्म-चरित्र लिखे, उनके लिए इस नियम का यथावत् पालन कभी तो संभव नहीं हुआ और कभी उचित नहीं लगा। इसका कारण यह है कि सत्य परिस्थिति से सापेक्ष हो जाता है, सीमित हो जाता है। मेरी रूचि अपने लोक-जीवन से जुड़ी हुई है। इसीलिए कहने योग्य अच्छी-बुरी सारी बातें निस्संकोच और निर्भयता से जैसी हैं, वैसी ही कहने योग्य होते हुए भी जिस समाज-स्थिति में और विशेषत: राजनीतिक परिस्थिति में मुझे यह आत्मकथन लिखना पड़ रहा है, उसके कारण अपनी उस रूचि को अंशत: दबाना पड़ रहा है। इसका एक कारण और भी है। हमसे जिन व्यक्तियों का संबंध रहा है, उनसे अनुमति लिए बिना उनकी बातों को प्रकट करना उनके साथ विश्वासघात हो सकता है। जब तक सज्जनों के सत्य का दुरूपयोग करने से दुष्ट चूकते नहीं हैं, तब तक व्यवहार की बेड़ियाँ तोड़कर स्वतंत्रता से विचरण करना सत्य के लिए दुर्घट होगा। ऐसे पेंच में फँसे हम आत्मवृत्त लिखने के पूर्व इतनी ही प्रतिज्ञा कर सकते हैं कि वे स्मृतियाँ हमें जैसी स्मरण होंगी, वैसी ही कहेंगे और उनको 'लोग छंदानुवर्ती' करने के लिए उनमें रंग नहीं भरेंगे। जैसे स्पष्ट स्मरण आनेवाली स्मृतियों में भी कभी-कभी अस्पष्ट स्मृत या पूर्ण विस्मृत स्मृतियों को मानकर चलना पड़ता है, वैसे ही हम मानकर चलेंगे और आज जिन स्मृतियों को कह नहीं पा रहे हैं, उन मनोरंजक स्मृतियों पर पड़ा गोपनीयता का परदा भी आगे-पीछे कभी एकाध प्रसंग से हटा देंगे।
प्रकरण - २
सन् १८५७ के बाद की राजनीति
मेरे क्रांतिकारी राजनीतिक जीवन का अंकुरण, विकास और कार्यक्रम मेरे जन्म के पूर्व की राजनीतिक उथल-पुथल और परिस्थितियों का एक परिणाम था, प्रतिक्रिया या अनुक्रिया थी। विशेषत: ब्रिटिश सत्ता हिंदुस्थान में प्रस्थापित होने के बाद उसे उखाड़ फेंककर हिंदुस्थान की राजनीतिक स्वतंत्रता फिर से स्थापित करने के लिए राज्यक्रांति के जो-जो छोटे-बड़े प्रयास हुए, उनकी परंपरा को आवश्यक अनुपात में समझ लेने के सिवाय, उसका समालोचन किए बिना, मेरे क्रांतिकारी राजनीतिक जीवन के गठन और उसमें निहित घटनाओं का कार्य-कारण भाव पूरी तरह ग्रहण नहीं किया जा सकता और उसका मूल्य-मापन भी यथाप्रमाण नहीं किया जा सकता।
रणजीत सिंह का राज्य जीत लेने पर पंजाब प्रांत जब ब्रिटिश सत्ता के अधीन हुआ, तब सारे हिंदुस्थान पर ब्रिटिशों का सचमुच एकसूत्री शासन चालू हो गया। ब्रिटिशों की उस दासता से अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए हिंदुस्थान के क्रांतिकारियों का पहला सशस्त्र प्रयास सन् १८५७ में हुआ। उस प्रयास की उग्रता और विस्तार बढ़ते-बढ़ते एक ऐसे तुमुल युद्ध में बदल गया, जिसे इंग्लैंड और हिंदुस्थान का इतिहास कभी भुला नहीं सकता। वास्तव में उपर्युक्त पूर्वपीठिका या पृष्ठभूमि का समालोचन इसी सन् १८५७ के महान् क्रांतियुद्ध से किया जाना आवश्यक है।
इस क्रांतियुद्ध का समग्र इतिहास एवं विस्तृत समालोचन मैंने अपने " War of Indian Independence" ('सत्तावनचे स्वातंत्र्यसमर' अर्थात् १८५७ का स्वातंत्र्यसमर) ग्रंथ में पहले ही कर दिया है, उसे पुन: इस ग्रंथ में लिखने का कोई कारण नहीं रहा। अत: १८५७ के उस प्रथम प्रचंड क्रांतियुद्ध के शांत होने के बाद ही, अर्थात् सामान्य रूप से सन् १८६० से मेरे राजनीतिक जीवन की उमंग के आरंभ अर्थात् सन् १८९५ के अंत तक का जो कालखंड बचता है, उस अवधि में हुए राजनीतिक आंदोलनों एवं क्रांतिकारी सशस्त्र प्रयासों का आवश्यक समालोचन मैं अपने 'आत्मवृत्त' की पृष्ठभूमि एवं पूर्वपीठिका के रूप में पहले कर देना चाहता हूँ।
भारतीय सेना की कायापलट एवं जनपदों का नि:शस्त्रीकरण
सन् १८५७ के (प्रथम) स्वतंत्रता-संग्राम में भारतीय क्रांतिकारियों की हार और ब्रिटिशों की जीत के बाद हिंदुस्थान के पैरों में ब्रिटिश साम्राज्य सत्ता की बेड़ियाँ पहले से भी अधिक मजबूती से जकड़ने की पराकाष्ठा में उन्होंने सर्वप्रथम सेना की कायापलट की। जिस-जिस जाति के सैनिक या लोग हिंदुस्थान में ब्रिटिशों के आने के बाद से या सन् १८५७ के उस स्वतंत्रता-संग्राम में उनसे शत्रुत्व लेने या प्राणपर्यंत लड़ने से नहीं डरे, उस-उस जाति के लोगों को ब्रिटिश सेना में यथासंभव भरती न करने का निश्चय किया गया। अत: मराठों को सेना में सहज भरती मिलना बंद हो गया। मराठी चित्तपावन ब्राह्मणों का प्रवेश तो और भी सख्ती से रोका गया। इसके पीछे धारणा यह थी कि उनमें अंग्रेजों के विरूद्ध शत्रुत्व के बीज होते हैं और सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध के शीर्ष नेताओं में वे ही लोग थे। किंतु यह वास्तविक कारण न बताकर यह बताया जाता था कि वे सैनिक जाति के नहीं हैं। उन्हें यदि लिया भी जाता, तो धीरे-धीरे असैनिक (Non-Military) या सूची-बाह्य वर्ग (Unlisted Classes) में भेज दिया जाता। सन् १८५७ के संग्राम में जिन पलटनों ने विद्रोह किया था, उनमें अधिकांशत: उत्तर प्रदेश के पुरबिया ब्राह्मण थे। वे अंग्रजों से कठोरता से लड़े भी थे। अत: उनका भी सेना में प्रवेश बंद किया गया।
पंजाब के सिख और नेपाल के गोरखा सन् १८५७ के संग्राम में अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान रहे। क्रांतिकारियों को पराजित करने में उन सिखों और गोरखा सैनिकों ने बड़ी बहादुरी दिखाई। इसलिए उन्हें सेना में बड़े-बड़े पुरस्कार-सम्मान दिए गए तथा उनको विशेष रूप से भरती किया गया। उसी तरह पठान, बलूच और पंजाबी मुसलमानों की भी भरती सेना में अधिक होती रही। इसका एक कारण सन् १८५७ के संग्राम में उनका अंग्रेजों का साथ देना था। दूसरा कारण यह था कि जिनके रक्त में हिंदू द्वेष जन्मत: ही समाया हुआ है, ऐसे ये पठान, पंजाबी, बलूच मुसलमानों की सेना हिंदुओं का काँटा निकालने के लिए बिना किसी आशंका के उपयोग में लाई जा सकती थी।
हिंदुस्थान की सेना को इस तरह अपने अनूकूल ढालने के बाद अंग्रेजों ने देश के सारे नागरिकों को नि:शस्त्र कर डाला। इस तरह हिंदुओं के हाथों से शस्त्र-साधन छीन लेने से अंग्रेजों के विरूद्ध सन् १८५७ को पुनरावृत्ति होने की सारी संभावनाएँ समाप्त हो गईं।
अंग्रेज इतने पर भी नहीं रूके। ब्रिटिश हिंदुस्थान तो नि:शस्त्र हो गया, पर बड़े-बड़े देसी राज्यों के लोग नि:शस्त्र नहीं थे। उन राज्यों के पास अपनी-अपनी संगठित सेनाएँ थीं। अंग्रेजों का रूस जैसा एकाध प्रबल शत्रु हिंदुस्थान पर आक्रमण करे और उसका हिंदुस्थान के थोड़े-से भाग में भी प्रवेश हो जाए तो वह लोगों को शस्त्र दे सकता था। इसलिए केवल सशस्त्र क्रांति के साधन हाथ से छीनकर खाली बैठने की बजाय सशस्त्र क्रांति की इच्छा ही हिंदू लोगों के हृदय से नष्ट कर दी जाए तो क्रांति होने का भय नहीं रहेगा - यह विचार अंग्रेज कूटनीतिज्ञों के मन में पहले से ही था। विजित जनों का मन जीत लेने का उपाय इतिहास में प्रभावी माना गया है। बचपन से ही विजितों की युवा पीढ़ी को विजेताओं के धर्म और संस्कृति में ढालकर उनमें विजेताओं के प्रति प्रेम-भाव जगाने के लिए ऐसी शिक्षा देना, जिससे उन्हें यह लगे कि अपना राज गया, तो अच्छा ही हुआ; विदेशी राज में ही अपना हित है और उसके विरूद्ध कार्य करना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। ऐसे सारे विचार विजित लोगों की अगली पीढ़ी में भर देने चाहिए। उनके मन को ही मारकर या भरमाकर उन्हें ऐसा निष्क्रिय बना दें कि अगर किसी ने शस्त्र आदि साधन हाथ में दे भी दिए तो क्रांति करने की इच्छा ही उन विजितों के मन में न उपजे। विजित होने की भावना की चुभन भी धीरे-धीरे उनके मन से नष्ट हो जाए और 'दिल्लीश्वरो वा जगरीश्वरो वा'- ऐसी चापलूसी वे भक्तिभाव से करने लगें। अंग्रेजों का राज थोड़ा स्थिर हो जाने के बाद से मैकाले आदि कूटनीतिज्ञों ने इस कूटभाव से अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मिशनरियों की स्थापना सन् १८५७ के पूर्व ही चालू कर दी थी। सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध के बाद धर्मांतरण कराने वाली मिशनरियों की गतिविधियाँ तो काफी हद तक रूक गईं, परंतु सारे हिंदुस्थान में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार व्यापक स्तर पर बढ़ता गया।
ब्रिटिश राजसत्ता हिंदुस्थान में चिरस्थायी और भयविहीन रहे तथा सन् १८५७ के जैसे सशस्त्र व्रिदोह की संभावनाएँ समाप्त हो जाएँ, इसके लिए अंग्रेजों ने जो-जो उपाय किए, उनके परिणाम अलग-अलग प्रांतों पर वहाँ के ऐतिहासिक, सामाजिक और स्वाभाविक भेदों के कारण अलग-अलग ही हुए। इसलिए यहाँ सन् १८६० से १८८४ तक की राजनीतिक परिस्थिति और उसके संदर्भ के प्रवाह में आने वाले कुछ अन्य उपायों का विश्लेषण अपने अभिप्रेत दृष्टिकोण से मैं प्रांतश: करूँगा।
प्रकरण-३
राजनीतिक परिस्थिति का विश्लेषण
(सन् १८६० से १८८४ तक)
बंगाल , मद्रास, आंध्र, कर्नाटक, गुजरात, बिहार और संयुक्त प्रांत
बंगाल
लगभग पाँच सौ वर्षों तक मुसलमानों के राज में असहनीय धार्मिक और सामाजिक अत्याचारों से दबी बंगाली हिंदू जनता अंग्रेजों के आक्रमण का पहले ही कोई सबल विरोध नहीं कर पाई थी। वहाँ की मुसलमान जनता भी अंग्रेजों की तुलना में इतनी दुर्बल, बुद्धिहीन और डरपोक हो गई थी कि एक भी उल्लेखनीय लड़ाई लड़े बिना ही अंग्रेजों ने वह प्रदेश हथिया लिया। सदियों से मुस्लिम गुलामी में रह रही बंगाली हिंदू जनता जब सहज ही अंग्रेजों की गुलामी में चली गई, तब उन दो गुलामियों की तुलना करना ही उसके हाथ में रह गया था। मुसलमानों की गुलामी में निरंकुश तानाशाही और असह्य धर्म-छल तुलनात्मक रूप से अंग्रेजी राज में काफी कम हुआ था। इसीलिए नई सरकार बंगाली हिंदुओं को अधिक रास आई। अंग्रेजों के आगे मुसलमानी धर्मोन्माद ढीला पड़ गया। दुर्बलों के आगे अपनी शान बघारने वाले मुसलमान अंग्रेजों के तलुवे चाटने लगे। इस तरह बंगाल में हिंदू और मुसलमान - दोनों ही अंग्रेजों के सामने भीगी बिल्ली बन गए। स्वतंत्रता-प्राप्ति की महत्वाकांक्षा तो दूर, सामान्य राजनीतिक प्रवृत्ति भी बंगाल में कुल मिलाकर अंग्रेजी शासन के पहले दशक में ही समाप्त प्राय: हो गई थी।
इसी कारण जब सन् १८५७ के स्वातंत्र्य-युद्ध का प्रचंड दावानल आधे हिंदुस्थान में भड़क रहा था, तब बंगाली जनता में नाममात्र की भी क्रांति की कोई चिनगारी नहीं भड़की। जिसका प्रचलित नाम 'बंगाल आर्मी' था, उस सरकारी सेना के विभाग में क्रांतिकारी षड्यंत्र हुआ और हिंदुस्थान की अन्य सेनाओं की तरह बंगाल आर्मी भी विद्रोह की राह पर चल पड़ी थी, यह सच है, पर 'बंगाल आर्मी' नाम का वास्तविक अर्थ ज्ञात न होने से अनेक लोगों की यह धारणा बनती है कि बंगाल ने भी सन् १८५७ के संघर्ष में भाग लिया था। यह धारणा गलत है। 'बंगाल आर्मी' का अर्थ कोई बंगाली सैनिक-बहुल सेना का विभाग नहीं था। सेना में सैनिक के रूप में उस समय का बंगाली समाज कभी भरती नहीं होता था। अत: उनकी बंगाली पलटन कभी नहीं बनी। 'बंगाल आर्मी' नामक सेना वास्तव में अंग्रेजों द्वारा बंगाल में रखा हुआ सैनिक विभाग था। उसमें उत्तर प्रदेश के पुरबिया ब्राह्मण, कुछ पुरबिया मुसलमान और कुछ गैर-बंगाली सैनिक ही भरती थे। उससे बंगाली लोगों का कोई संबंध नहीं था।
बंगाल में जिस समय अंग्रेजी शिक्षा का प्रारंभ हुआ, उस समय मुस्लिम समाज ने उस ओर झाँककर भी नहीं देखा। उनके मुल्ला-मौलवी मसजिद में जो कुछ कहते थे, उसी में वे रँगे रहे। इस्लाम का यथासंभव प्रचार, हिंदू-द्वेष और अंग्रेजों के स्वर में स्वर मिलाना- इसके अतिरिक्त अन्य कोई राजनीति बंगाली मुसलमानों में शेष नहीं थी। परंतु बंगाली हिंदू समाज ने अंग्रेजी शिक्षा में बहुत वेग से प्रगति की। इस कारण अंग्रेजों को नई राज-व्यवस्था स्थापित करने के लिए जो दूसरी श्रेणी के अधिकारी और लिपिकों की फौज चाहिए थी, वह मिलती गई। इसके विपरीत अंग्रेजी-शिक्षितों को छोटी-बड़ी जो नौकरियाँ तेजी से मिलती गईं, उसके कारण विद्यालयों-महाविद्यालयों में नामांकन के लिए भगदड़ मची रही। अनेक बंगाली हिंदू युवकों ने सीधे विलायत जाकर ब्रिटिश विश्वविद्यालयों से उपाधियाँ प्राप्त कीं। बड़ी-बड़ी सरकारी नौकरियाँ, वेतन, सम्मान, अधिकार-ये सब उन्हें मिलने लगे। इस तरह अंग्रेजी-शिक्षितों का एक नया वर्ग समाज में उत्पन्न हुआ। डॉक्टर, बैरिस्टर, संपादक, न्यायाधीश प्रभृति लोग उसमें से निकलते रहे। इससे वही वर्ग बुद्धिमान, मानवान और धनवान होता चला गया। समाज का नया नेतृत्व भी उसी वर्ग के हाथों में सहजता से चला गया। अंग्रेजों ने चालू किया था, उसके अनुसार ही इस अंग्रेजी-शिक्षित समाज का मन भी अंग्रेजों ने जीत लिया था। अंग्रेजी शासन के कारण इस वर्ग की उन्नति होने से उनमें अंग्रेजी शासन के प्रति अपनापन बढ़ने लगा। यह शासन ऐसा ही बना रहे तो अपना अर्थात् देश का हित है, ऐसी उनकी भावना होती गई। वे राजनिष्ठ से अधिक ब्रिटिशनिष्ठ बन गए थे। समाज में प्रमुखता, नेतृत्व और मार्ग प्रदर्शकत्व उन्हीं को प्राप्त हो जाने से समाज में भी ब्रिटिश राजसत्ता के लिए अपनापन और निष्ठा की पकड़ बढ़ती गई। हम किसी परकीय विजेता के दास हैं, यह वेदना ही मिट गई। इसीलिए कुछ अपवादों को छोड़ दें और सामूहिक भावना की बात सोचें तो राजनीतिक असंतोष या राजनीतिक आंदोलन जैसा कुछ उस समय बंगाल में अस्तित्व में नहीं था। फिर क्रांति या सशस्त्र क्रांति की बात तो संभव ही नहीं थी। उस काल में अंग्रेजों को उस प्रांत से कोई विशेष चिंता नहीं थी।
सन् १८६० से १८८४ तक की अवधि में बंगाल में अंग्रेजी-शिक्षित वर्ग के नेतृत्व में यदि कोई आंदोलन जोर-शोर से चला था तो वह धार्मिक और समाज-सुधार का आंदोलन था। राजा राममोहन राय, टैगोर, केशवचंद्र सेन आदि प्रसिद्ध नेताओं की दो पीढि़यों के प्रयास से बंगाल में 'ब्रह्मसमाज' का प्रचार, प्रतिष्ठा और प्रभाव बहुत बढ़ गया था। अंग्रेजी पढ़े हिंदू तरूणों मेंसे बहुसंख्य के मन पर ब्रह्मसमाज के धर्ममत और आचार का प्रभाव था। बंगाल के हिंदू-समाज के आंदोलन के कारण धार्मिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक जागृति व्यापक स्तर पर बड़े परिमाण में आई और अनेक प्रगामी सामाजिक सुधार हिंदू समाज के गले उतारे गए, यह बात सत्य है। परंतु ब्रह्मसमाज के प्रवर्तक एवं प्रमुख नेताओं से लेकर सर्वसाधारण युवा-से-युवा सदस्यों तक की मनोभूमिका में ब्रिटिश निष्ठा की जड़ें इतनी गहरी उतर गई थीं कि उनका रहन-सहन और आचार-व्यवहार ही नहीं, बल्कि उनके धार्मिक विचार भी पाश्चात्य जूठन और उधार लिया हुआ पाथेय लगे।
परंतु मिशनरियों से अधिक हिंदू समाज की दुर्दशा जब ब्रह्मसमाजी करने लगे-और वह भी हिंदुत्व पर चढ़े कलुष को साफ कर हिंदू समाज को अधिक तेजस्वी तथा ओजस्वी बनाने की अपनत्व-भरी महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर नहीं, अपितु हम हिंदू ही नहीं हैं, हमारा ब्रह्मसमाज तो एक नए धर्म का आविष्कार है और हम हिंदू समाज का भाग न होकर एक अलग स्वतंत्र समूह हैं, हिंदू समाज से फूटकर निकल जाने की बेशर्म धमकियाँ देते हुए-तब सनातन हिंदू समाज भी हड़बड़ाकर जागा और ब्रह्मसमाज का कट्टर विरोध करने लगा।
मिशनरी आरंभ से ही ब्रह्मसमाज को बढ़ावा दे रहे थे। हिंदू समाज को ढीला करने का अपना काम ब्रह्मसमाजी हिंदुओं द्वारा होता देखकर मिशनरियों को गुदगुदी होती थी। 'ब्रह्मसमाजी है' का अर्थ था कि वह ब्रिटिशनिष्ठ है। ऐसा विश्वास होने से ब्रिटिश शासन भी बड़े-बड़े ब्रह्मसमाजी नेताओं को मान-मान्यता देता था, समाज के प्रतिनिधि के रूप में उनको गौरवान्वित करता था।
ऐसी स्थिति में ब्रह्मसमाज का प्रभावी विरोध करने का एक ही अस्त्र सनातनियों के हाथों में था और वह था जाति-बहिष्कार! आज यह अस्त्र पूर्व काल के अनेक आयुधों की तरह ही कुंठित हो गया है और फेंक भी दिया गया है। यह उचित ही है। तब भी उस काल में उस अस्त्र की धार के सामने मैं-मैं कहने वाले अनेक नकली सुधारक थरथर काँपते थे। इस बहिष्कार की आँधी के चलते ही हिंदुओं के घरों में अशांति फैल गई। नाते-रिश्ते टूटने लगे। यह स्थिति कितने भयानक मोड़ पर जा पहुँची, इसका आकलन करने के लिए कालांतर में उदित उग्र राजनीतिज्ञ के रूप में ख्यात और देशभक्त के रूप में प्रसिद्ध विपिनचंद्र पाल का उदाहरण पर्याप्त है।
विपिनचंद्र पाल की आत्मकथा के अनुसार, बंगाल का लगभग पूरा अंग्रेजी-शिक्षित वर्ग उपर्युक्त सामाजिक एवं धार्मिक संघर्ष में ही भ्रमित और भारित पड़ा था, उसमें प्रभावी राजनीतिक चेतना उत्पन्न ही नहीं हुई थी। पाल बाबू की युवावस्था की कथा भी वैसी ही थी। उनकी युवावस्था का सारा उत्साह, शक्ति और समय ब्रह्मसमाज के प्रचार, आंदोलन और उसके उप-पंथों के झगड़ों में नष्ट होता रहा। अपनी आयु के तीस वर्ष तक उन्होंने राजनीति में कोई रूचि नहीं ली थी। हर नए धर्म या पंथ में कुछ काल बाद अपरिहार्य रूप से जो फूट पड़ती है, वैसी फूट ब्रह्मसमाज में भी पड़ी और उपपंथों की स्थापना हुई। पाल बाबू उन उपपंथों में से एक में सक्रिय होकर युवावस्था में ही 'ब्रह्मो' हो गए। उस समय ऊपर वर्णित जाति-बहिष्कार की परंपरा आरंभ हो गई थी। तरूण पाल जितने कट्टर ब्रह्मसमाजी थे, उनके पिता उतरती आयु में भी उतने ही कट्टर सनातनी थे। उन्हें अपने इकलौते पुत्र का 'ब्रह्मो' हो जाना जरा भी पसंद नहीं था। उन्होंने उन्हें परिवार और घर से निकाल दिया। इतना ही नहीं, 'उसे और उसकी संतान को भी मेरी मृत्यु के बाद मेरी संपत्ति का उत्तराधिकार नहीं मिलेगा'-ऐसा अपने मृत्यु-पत्र (वसीयतनामा) में साफ-साफ लिख दिया।
विपिन बाबू ने एक विधवा से ब्रह्मसमाजी रीति से विवाह किया था। उसे और उसकी संतान को पाल बाबू के पिता ने एक पैसा भी नहीं दिया। इस कारण विपिन बाबू को दरिद्रता से सतत संघर्ष करना पड़ा। कुछ वर्षों बाद जब उनके पिता ने खटिया पकड़ी, तब मृत्यु-शय्या से उन्होंने विपिन बाबू को अपनी संपत्ति में से कुछ अंश दिया, परंतु अपने इकलौते पुत्र के घर आने पर भी उन कृतानिश्चयी वृद्ध पिता ने मरते-मरते तक उस धर्म-बहिष्कृत पुत्र के हाथ का जरा भी अन्न-जल ग्रहण नहीं किया। सनातनी और समाजियों में जब ऐसा तीव्र संघर्ष चल रहा था, तब एक ओर विधवा विवाह, अंतरजातीय विवाह, समुद्रगमन आदि सामाजिक सुधार विरोध के बावजूद हिंदू समाज में मान्य होते चले गए। दूसरी ओर अपने उपपंथों की मारामारी से तथा सनातनियों के प्रबल विरोध के कारण ब्रह्मसमाज हतबल, अनुपयोगी और शक्तिहीन होता चला गया। हिंदू समाज में से टूटकर अलग होने वाले अनेक पंथों की जो गति हुई, वैसी ही गति ब्रह्मसमाज की भी हुई और वह हिंदू समाज में विलीन हो गया। वह सब कैसे हुआ, उसका विवरण यहाँ देना अनुपयुक्त है।
बंगाल का मुखर वर्ग इस तरह ब्रह्मसमाज के अधीन हो जाने से सन् १८८४ तक अधिकतर पूरे मन से ब्रिटिशनिष्ठ ही बना रहा। इस मत के समर्थन में एक ही साक्ष्य प्रस्तुत कर रहा हूँ। चूँकि वह अधिकृत है, इसलिए पर्याप्त भी है। ब्रह्मसमाज के उस काल के प्रमुख पीठाचार्य केशवचंद्र सेन - जिनकी ख्याति बंगाल भर में गूँज रही थी, जिनका शब्द बंगाल का प्रतिनिधि शब्द माना जाता था - का मत, जिसे ब्रह्मसमाज के उस काल के कट्टर प्रचारक विपिनचंद्र पाल ने अपनी आत्मकथा के पृष्ठ ३१५ पर लिखा है, यहाँ ज्यों-का-त्यों उद्धृत है - Keshava Chandra and his Brahmo Samaj practically left the political field alone. If anything Keshava's politics accepted the British subjection of India as due to the intervention of God's special providence for the salvation of India.
इसका आशय है कि केशवचंद्र सेन और उनके ब्रह्मसमाज ने राजनीति के क्षेत्र में पैर भी नहीं रखा। उनका यदि कोई राजनीतिक सिद्धांत था तो यही कि हिंदुस्थान में स्थापित ब्रिटिश शासन हिंदुस्थान के हित के लिए कृपालु ईश्वर का दिया हुआ विशेष वरदान है।
कुछ मिशनरियों और ब्रिटिश सरकारी अधिकारियों ने ब्रह्मसमाज और उसके नेताओं का जो इतना बड़ा यशोगान उस समय किया, वह यों ही नहीं था। मैंने ऊपर जो लिखा है कि अंग्रेजों ने अंग्रेजी की शिक्षा जिस कूट उद्देश्य से चालू की थी, उनका वह उद्देश्य बंगाल के अंग्रेजी-शिक्षित वर्ग की दो-तीन पीढि़यों तक तो सचमुच सफल ही रहा।
ब्रह्मसमाज की कला जैसे-जैसे उतरती गई, वैसे-वैसे बंगाल के अंग्रेजी-शिक्षित हिंदू समाज में राजनीतिक भावना जाग्रत होती गई। इस प्राथमिक राजनीतिक जागृति का श्रेय यदि किसी को प्रमुखता से दिया जा सकता है तो वह सुरेंद्रनाथ बनर्जी को दिया जाना चाहिए। बंगाल के आद्य राजनीतिक गुरू देशभक्त सुरेंद्रनाथ बनर्जी ही थे। परंतु उनके पूर्व चरित्र से यही सिद्ध होता है कि अपनी उम्र के तीस वर्षों तक अन्य अंग्रेजी-शिक्षितों की तरह ही उन्हें भी राजनीति का ऐसा ज्ञान नहीं था, आकर्षण तो बिलकुल ही नहीं था।
सुरेंद्रनाथ बीस वर्ष की उम्र को पार करने के पहले ही सन् १८६८ में सिविल सर्विस की परीक्षा- जो उस समय की सबसे बड़ी परीक्षा मानी जाती थी- के लिए इंग्लैंड गए। तब तक राजनीति से उनका परिचय भी नहीं था। इंग्लैंड में भी पढ़ाई के सिवाय उन्होंने इधर-उधर ताक-झाँक नहीं की। परीक्षा उत्तीर्ण करके वे आई.सी.एस हो गए। अर्थात् सरकारी नियमानुसार किसी-न-किसी उच्च अधिकार वाले पद पर उनकी नियुक्ति निश्चित थी। वे इसका इंतजार करते रहे, पर उन्हें यह सूचित किया गया कि 'तुमने अपनी वास्तविक आयु छिपाकर और परीक्षा के लिए नियत उम्र तक उसे घटाकर अपराध किया है।'
इस आरोप से मुक्त होने के लिए उन्हें बहुत कष्ट उठाने पड़े। परंतु अंत में वे निर्दोष सिद्ध होकर आरोप-मुक्त हुए। इसके बाद उनकी नियुक्ति बंगाल में सीधे मजिस्ट्रेट के पद पर हो गई। 'हम गोरों के साम्राज्य में एक 'नेटिव' (देसी) मनुष्य हमारी कुरसी से कुरसी मिलाकर ऐसे बड़े पद पर बैठे' यह बात उस काल के सत्ताभिमानी अंग्रेज अधिकारियों को काँटे की तरह चुभने लगी। उन्होंने शीघ्र ही सुरेंद्रनाथ को घात में लेने के लिए उनके कामकाज में एक चूक को निमित्त बना दिया। उसके आधार पर सरकार ने सुरेंद्रनाथ को अधिकारी पद से अपदस्थ कर दिया और इंडियन सिविल सर्विस की नौकरी के लिए अपात्र घोषित कर दिया।
इस असह्य अपमान और अन्याय के आघात से सुरेंद्रनाथ का स्वाभिमान जाग्रत हुआ। आंग्ल सत्ता द्वारा स्वदेश को पददलित होते हुए देखकर उस राष्ट्रीय अपमान से स्वाभिमान की जो ज्योति सुरेंद्रनाथ के हृदय में नहीं सुलग पाई, वह ज्योति आंग्ल सत्ता द्वारा किए गए वैयक्तिक अपमान से प्रज्वलित हो उठी। इन सब अपमानों का मूल इस देश की राष्ट्रीय दासता में हैं, यह सत्य उस अपमान से जगी ज्योति के प्रकाश में उन्हें साफ-साफ दिखाई देने लगा और सरकारी नौकरी का रास्ता छोड़ उन्होंने अपने को स्वदेश सेवा के लिए समर्पित करते हुए राजनीति में प्रवेश किया। परंतु उनकी राजनीति किस प्रकार की थी? राज्य की नहीं, राज्यक्रांति की तो बिलकुल नहीं। राज तो अंग्रेजों का ही रहे! उसमें कुछ सुधार हो, इतना ही। कुल मिलाकर शपथपूर्वक कही जा सकने वाली ब्रिटिशनिष्ठ राजनीति। स्वयं सुरेंद्रनाथ महाशय ने अपनी राजनीति की रूपरेखा आत्म-चरित्र में अनेकश: चित्रित की है।
उस समय ऐसे बंगाली राजनीति के स्वरूप को आज अपने शब्दों में कहने की अपेक्षा उस समय के बंगाली नेताओं की भाषा में कहना अधिक यथातथ्य होगा। इसके लिए तत्कालीन 'गरम' नाम से प्रसिद्ध मुखपत्र - जिसके गरम पक्ष के कारण ब्रिटिश शासन ने उस पत्र पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर उसे बंद करने तक का विचार किया था -ऐसे एक बंगाली वृत्तपत्र में सरकारी आपत्तियों का उत्तर देने के लिए लिखे लेख का एक भाग विपिनचंद्र पाल के आत्म-चरित्र के पृष्ठ २८१-२८२ पर दिया हुआ है, उसे ही यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। वह बंगाली पत्र लिखता है-
'अंग्रेज हमसे किस तरह की राजनिष्ठा की अपेक्षा करते हैं, वह हमें मालूम नहीं। हमें इतना ही ज्ञात है कि अंग्रेजी शासन हमारे लिए हितकारक होता आया है। किसी भी राज्य में और कभी भी इस देश में ऐसा न्याय, ऐसी शिक्षा और ऐसी शांति का लाभ नहीं हुआ था। बहुत क्या, प्राचीन हिंदू काल में भी आज के ब्रिटिश राज जैसा न्याय, शिक्षा और शांति पूरे देश में नहीं थी! यद्यपि बहुत बातों में हम पिछड़े हैं, फिर भी हम कोई जंगली या निर्बुद्धि लोग नहीं है। अंग्रेजों से अनेक बहुमूल्य लाभ हमें हुए हैं, यह हम जानते हैं। किसी भी विजयी राष्ट्र ने किसी भी विजित राष्ट्र से कदाचित् ही इतना उदार व्यवहार किया हो, जितनी उदारता से ब्रिटिश शासक हमारे देश की प्रजा से व्यवहार कर रहा है। यह सब सच होते हुए भी इसके लिए अंग्रेजों के हाथों कभी पक्षपात नहीं होता या उनके द्वारा दिए वचनों का पालन किया ही जाता है - ऐसा हमें क्या मानना ही चाहिए?
'अंग्रेजी शासन ईश्वरीय वरदान है। स्वयं रामराज्य की अपेक्षा या चंद्रगुप्त, अशोक, विक्रमादित्य, श्रीहर्ष, पुलकेशी आदि हमारे हिंदू सम्राटों के शासन से भी अधिक हितकारी यह परकीय शासन है। अत: इस ब्रिटिश शासन के प्रति राजनिष्ठ रहना और ब्रिटिश सम्राट् का कृपाछत्र हिंदुस्थान पर वैसा ही अभंग रहे, इसकी प्रार्थना करना, कृतज्ञता की दृष्टि से भी अपना नैतिक कर्तव्य है।' सन् १८८४ तक बंगाल के धार्मिक एवं राजनीतिक नेताओं तथा उनके लाखों आंग्ल शिक्षित या अशिक्षित अनुयायियों की यह राजनीतिक निष्ठा थी, यह बात उस समय के बंगाल के प्रतिनिधि, प्रमुख और इसके साक्षी केशवचंद्र सेन, सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा विपिनचंद्र पाल के ऊपर दिए उद्गारों से पूर्णत: सिद्ध होती है। फिर भी कई लोगों को कदाचित् ऐसा लग सकता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि उपरोक्त ढंग से व्यक्त की जानेवाली निष्ठा अंग्रेजी क्रिमिनल कोड की कँची से बाहर बने रहने के लिए या राजनीति के एक दाँव के रूप में ऊपरी तौर पर प्रदर्शित की जाती हो? तो उस शंका के निवारणार्थ उस समय के प्रसिद्ध नेता विपिनचंद्र पाल का निम्नलिखित साक्ष्य देखें। अपने आत्म-चरित्र में इस शंका के विरूद्ध वे लिखते हैं-
' It was not merely a diplomatic move to save their skin. Educated Indian opinion in those days sincerely wanted the continuance of the British rule. The generation to which they belonged had not completely forgotten the last days of Moghal Empire marked by universal anarchy and disorder. The British had replaced that reign of terror by a new reign of law. Their professions of loyalty to the British Government were therefore absolutely sincere not withstanding their criticism of the act and policies of the Indian Government.' (Pal's autobiography, p. 291 to 293).
विपिन बाबू के उपर्युक्त विचार पूर्णत: यथार्थपरक हैं। उस अवधि में उनके स्वयं के विचार भी वैसे ही थे।
परंतु सन् १८६० से १८८४ तक की पीढ़ी की ही बात क्यों करें? मेरी स्वयं की पीढ़ी में ही ब्रिटिश सम्राज्ञी रानी विक्टोरिया अथवा ब्रिटिश सम्राट् 'न: विष्णु: पृथवीपति:' इस शास्त्राधार से कितने ही लोगों द्वारा ईश्वरांश माने जाते रहे। जिन अंग्रेज लोगों ने हमारे ऊपर अनंत उपकार किए, उनका शासन उखाड़ फेंकने की इच्छा करना नैतिक अपराध है, पाप है। अंग्रेजी राज का कृपाछत्र हमपर ऐसा ही अटूट बना रहे, उसी में हमारा परम कल्याण है -ऐसी निष्ठा रखने वाले अनगिनत आंग्ल-शिक्षित नए पदवीधारी और पुराने शास्त्री पंडित, नेता तथा अनुयायी, वृद्ध एवं तरूण पूरे हिंदुस्थान में थे। उनमें से कितनों का विचार-परिवर्तन हुआ, इसके अनेक उदाहरण मेरे इस आत्म-चरित्र के आगामी वृत्तांतों में दिखेंगे।
मद्रास , आंध्र, कर्नाटक एवं गुजरात प्रांत
सन् १८६० से १८८४ तक के कालखंड में जो राजनीतिक परिस्थिति बंगाल में थी, वह पंजाब और महाराष्ट्र को छोड़कर मद्रास, आंध्र, कर्नाटक एवं गुजरात प्रांतों के उस कालखंड की राजनीतिक परिस्थिति एवं अंग्रेजी-शिक्षित मानसिकता की सर्वसाधारण रूपरेखा है। सन् १८५७ के स्वातंत्र्य-युद्ध के समय बंगाल की तरह मद्रास, आंध्र, कर्नाटक और गुजरात प्रांतों में राष्ट्रीय ध्येय से अनुस्फूर्त ऐसा क्रांतिकारी उठाव नहीं हुआ। हिंदुस्थान सरकार की सेना में इन सब प्रदेशों के लोगों की गिनने योग्य भरती कभी हुई ही नहीं थी। सन् १८५७ के बाद अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार मद्रास प्रांत में बहुत तेजी से और अन्य प्रांतों में धीरे-धीरे हुआ, परंतु वह बढ़ता ही रहा। इस कारण आंग्ल-शिक्षितों का जो नया वर्ग वहाँ उत्पन्न हुआ, वह भी बंगाल जैसा ही पूरा ब्रिटिशनिष्ठ था। बंगाल में ब्रह्मसमाज जैसी एक प्रबल धार्मिक एवं सामाजिक संस्था का उदय होने से, उसकी चुभन से पूरे बंगाली हिंदू समाज में बड़ी खलबली मची, विचारों में तेजी आई, आचार में कुछ अंश में उपयुक्त सुधार हुए, लेकिन वैसा कोई प्रबल धार्मिक और सामाजिक आंदोलन उस कालखंड में मद्रास, आंध्र, कर्नाटक और गुजरात प्रांतों में नहीं हुआ। सन् १८८४ के आसपास अंग्रेजी - शिक्षितों में कुछ राजनीतिक जागृति आने लगी। मद्रास में 'महाजन सभा' सन् १८८१ में स्थापित हुई, परंतु उसकी दौड़ भी बंगाल की तरह अधिक-से-अधिक कहें तो ब्रिटिश राज के सुराज तक ही सीमित थी।
बिहार एवं संयुक्त प्रांत
सन् १८५७ के स्वतंत्रता-संग्राम के बाद दिल्ली से नीचे बुंदेलखंड तक तथा बिहार एवं संयुक्त प्रांत की सारी जनता राजनीतिक दृष्टि से अचेतन हो गई थी। लेकिन उसका कारण अलग था। उस प्रचंड क्रांतियुद्ध का रणक्षेत्र यही बना था। स्वदेश एवं स्वधर्म की स्वतंत्रता के लिए उस युद्ध में अंग्रेजों से लड़ते हुए यहीं की जनता ने अपना रक्त, अपनी शक्ति और अपने प्राण इतनी उत्कटता से अर्पित किए थे और उस क्रांतियुद्ध में उनकी पराजय होने के बाद अंग्रेजों ने उनपर इतने अत्याचार किए थे कि लड़ते-लड़ते रणभूमि में मूर्च्छित होकर गिरे हुए किसी वीर की भाँति ही सारा विस्तीर्ण प्रदेश-का-प्रदेश मूर्च्छित पड़ा था। फिर धीरे-धीरे उनकी संतानें अंग्रेजों द्वारा स्थापित विद्यालयों और महाविद्यालयों से अंग्रेजी पढ़ने लगीं। उनको अंग्रेजी सरकार के सेवा विभाग, न्याय विभाग तथा आरक्षी विभाग में नौकरियाँ, अधिकार, पद और उपाधियाँ मिलने लगीं। इस नियत क्रम से अन्य प्रांतों के आंग्ल-शिक्षित वर्ग की तरह संयुक्त प्रांत का यह वर्ग भी विचार एवं आचार से ब्रिटिशनिष्ठ बनता गया जो सन् १८५७ के क्रांतिकाल की पीढ़ी की भव्य भावना से बिलकुल विसंगत, अधिकतर विरोधी था। हर कोई स्वार्थों में खोया हुआ था। आगे फिर जो थोड़ी राजनीतिक जागृति हुई, वह भी पूरी तरह मंद थी।
ब्रिटिशनिष्ठ सुराज के आंदोलनों में बंगाल में जितनी जोश और जान दिखाई देती थी, सन् १८८४ तक इस प्रांत के आंग्ल शिक्षित वर्ग की दुर्बल राजनीतिक हलचल उतनी भी नहीं थी।
प्रकरण - ४
राजनीतिक परिस्थिति का प्रांतीय विश्लेषण
(सन् १८६० से १८४४ तक)
पंजाब और देसी राज्य
पंजाब
बंगाल, मद्रास इत्यादि प्रदेशों में अंग्रेजी सत्ता अच्छी तरह जम जाने अर्थात् पचास-पचहत्तर वर्ष बीत जाने तक भी पंजाब प्रांत में अंग्रेजी शासन स्थापित नहीं हो पाया था। सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध के समय तक पंजाब की स्वतंत्रता का हरण हुए केवल नौ-दस वर्ष बीते थे। इसलिए अंग्रेजों को भी यह डर था कि पंजाब के सिख, जिनका राज कोई नौ-दस वर्ष पूर्व ही उनसे छीना गया था, अब उनके विरूद्ध विद्रोह कर सन् १८५७ के क्रांतिकारियों से मिले बगैर नहीं रहेंगे। क्रांतिकारियों ने भी सिखों को तरह-तरह से समझाया था कि 'अंग्रेजी सत्ता का जुआ' कंधे से उतार फेंकने का ऐसा स्वर्णिम अवसर फिर आनेवाला नहीं है। अंग्रेजों की सारी सेनाएँ हमसे लड़ने दिल्ली, लखनऊ और कानपुर की ओर भेजी गई हैं और पंजाब खुला पड़ा है। अत: तुम्हारी सिख पल्टनें यदि शेष मुट्ठी भर अंग्रेजों पर टूट पड़ेंगी तो पंजाब से अंग्रेजी सत्ता उखाड़ फेंकने में एक सप्ताह भी लगनेवाला नहीं है। इस प्रकार उन्हें सारे हिंदुस्थान से भगाया जा सकेगा।'
उस समय सिखों का कोई नेता नहीं था। जैसे किसी आदमी को अकस्मात् बुद्धिहीनता का दौरा पड़ जाता है, वैसे ही सिख समाज की बुद्धि भी कुंठित हो गई थी। उन्होंने अंग्रेजों से बदला लेकर अपना राज स्थापित तो किया नहीं, उलटे जिन लाखों क्रांतिकारियों ने दिल्ली से नर्मदा तक अंग्रेजी राज उखाड़ फेंका था, अपने उन राष्ट्र-बंधुओं के पैरों में विदेशी शत्रु की बेड़ियाँ फिर पक्की करने के लिए युद्धभूमि में प्राणों की बाजी लगाकर अंग्रेजों का साथ दिया। अंत में क्रांतिकारियों को पराजित कर अंग्रेजों ने विजय पाई, उन्हें राज मिला, परंतु सिखों को क्या मिला? अंग्रेजी सेना में भरती और ब्रिटिश राज के 'राजनिष्ठ प्रजाजन' अर्थात् एकनिष्ठ दास की पदवी!
उस क्रांतियुद्ध की पराजय के बाद अन्य प्रांतों की तरह ही पंजाब में भी अंग्रेजी सत्ता निरंकुश होकर राज करने लगी। अंग्रेजी शासन की व्यवस्थाएँ चालू हो गई और उनको चालू रखने के प्रयोजन से अंग्रेजी-शिक्षित लिपिक एवं द्वितीय श्रेणी के अधिकारियों की पूर्ति के लिए अंग्रेजी विद्यालय-महाविद्यालय खुलने लगे। बंगाल तथा मद्रास कीपीढियाँ जब अंग्रेजी-शिक्षित हो गए, तब पंजाब के लड़के ए.बी.सी.डी. सीखने लगे। तब तक सारा राजकाज उर्दू-फारसी में चलता था। अत: प्राथमिक शालाओं में मुसलमान शिक्षकों का ही बोलबाला था। बंगाल में जैसे अंग्रेजी पढ़ाने के बहाने हिंदू लड़कों पर ईसाई धर्म के संस्कार डालने के प्रयास मिशनरी शिक्षक करते थे, वैसे ही, अपितु उससे भी अधिक, अनिर्वचनीय और आपत्तिजनक ढंग से ये मुल्ला-मौलवी विद्यालयों और घरों में पढ़ाते समय हिंदू लड़कों पर इसलाम का प्रभाव डालकर उनका मुसलिमीकरण करने का प्रयास करते थे। बंगाल में अंग्रेजी शासन-काल की पहली-दूसरी पीढ़ी के शिक्षित हिंदू तरूणों का झुकाव मुस्लिम धर्म की ओर हो जाता था, वैसे ही पंजाब के हिंदू तरूणों का झुकाव मुस्लिम धर्म की ओर हो जाता था। पंजाब में अंग्रेजी शिक्षा फैलने के कारण उस अंग्रेजी-शिक्षित हिंदू वर्ग पर बंगाल की तरह ही ब्रह्मसमाज का प्रभाव पड़ेगा, इस आशा से ब्रह्मसमाज ने पंजाब में भी एक शाखा आरंभ की थी। वह (ब्रह्मसमाज) अपने प्रचार में प्राय: हिंदू समाज की निंदा ही करता था, मुसलमानों या ईसाइयों की धार्मिक या सामाजिक पोलें खोलने की उसकी तनिक भी हिम्मत नहीं होती थी। ब्रह्मसमाज की ऐसी पक्षपातपूर्ण और कायरों जैसी हिंदू-निंदा से मुसलमान एवं ईसाइयों के हाथ मजबूत ही होते थे। इससे हिंदुओं का धैर्य टूटता था। इस प्रकार जहाँ हिंदू समाज की अस्मिता क्षीण होती जा रही थी, वहाँ कैसी राजनीतिक जागृति और क्या अन्य बातें?
ऐसे घोर मानसिक और आत्मिक अंधकार में टटोलते चल रहे पंजाब के हिंदू समाज को मिला अकस्मात्- 'मा भी: डरो नहीं'- ऐसा आश्वासन देनेवाला आकाशवाणी-सदृश स्वामी दयानंद सरस्वती का संदेश। निस्संदेह मुसलमानों और ईसाइयों की कैंची में फँसे पंजाब के हिंदू समाज को यदि किसी महापुरूष ने कम-से-कम धार्मिक और सामाजिक संकट से मुक्त कराया तो वह स्वामी दयानंद सरस्वती ही थे। उसमें भी सौभाग्य की बात यह कि दयानंद के आर्यसमाज की सारे हिंदुस्थान में प्रबल अगुवाई यदि किसीने की, तो वह पंजाब के अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग ही थे। रोगी के लिए आवश्यक रामबाण औषधि उसे मिली और वह भी समय पर। पंजाब के संशयात्मा हिंदू समाज के लिए ब्रह्मसमाज मारक था। जमे-जमाए रोग पर वह पुराणोक्त कुपथ्य के समान था। उस परिस्थिति से उसको तारने में आर्यसमाज ही समर्थ हुआ।
ब्रह्मसमाज रूपी भवन का निर्माण परकीय संस्कृति की नींव पर हुआ था, परंतु आर्यसमाज मंदिर स्वकीय संस्कृति की नींव पर खड़ा था। इसलिए एक ओर मुसलमानी प्रचार-आक्रमण और दूसरी ओर अंग्रेजी शिक्षा के स्वत्व-घातक कुसंस्कार- इन दोनों को मार गिराने में सापेक्षत: समर्थ, प्रबल सिद्धांत और अग्रगामी सुधार पर आधारित स्वामी दयानंद का आर्यसमाज ही उस परिस्थिति में पंजाब के हिंदुओं का युगधर्म बनने के योग्य था। परिणाम भी वही हुआ। जिनके भी मन पर आर्यसमाज का प्रभाव पड़ता था, वे हिंदू सिर्फ स्वधर्म ही नहीं, स्वराष्ट्र के भी कट्टर उपासक बन जाते थे। कुल मिलाकर यही कहा जाएगा कि अंग्रेजी पढ़ा-लिखा हिंदू वर्ग आर्यसमाजी हो गया। वह नव चैतन्य से भर गया। उनमें से अनेक प्रमुख लोगों ने स्वधर्म प्रचारार्थ संन्यासी बनकर समाज-सेवा स्वीकार की। बड़ी-बड़ी शिक्षण-संस्थाएँ स्थापित कीं। आर्यसमाज के ऐसे सावेश प्रचार में वहाँ का बुद्धिशील वर्ग तद्रूप और तल्लीन हो गया।
सारे ही हिंदू नेताओं का ध्यान इस धार्मिक आंदोलन में पूरी तरह लग जाने से पंजाब में प्रचलित राजनीतिक जागृति लाने के कार्य में इस वर्गकी ओर से उदासीनता बरती जाने लगी। आर्यसमाज भी धार्मिक और सांस्कृतिक संस्था थी, यह बात सच थी। स्वामी दयानंद के 'सत्यार्थ प्रकाश' में राजनीति भी धार्मिक कर्तव्य ही है। इतना ही नहीं, अपितु स्वराज नीति ही आर्यों की वास्तविक राजनीति है, यह बात स्पष्टता से उस ग्रंथ के एक स्वतंत्र समुल्लास में आदेशित है। इसीलिए पहले से ही अंग्रेजों की दृष्टि आर्यसमाज पर थी। अंग्रेज सरकार के कोप से अपनी संस्था को कोई हानि नहो, ऐसा कोई कारण भी अंग्रेज सरकार को न मिले, इसलिए आर्यसमाज के नेताओं ने पहले ही जताते हुए ऐसा बंधन अपने ऊपर लाद लिया था कि आर्यसमाज केवल धार्मिक और सामाजिक संस्था है, उसका राजनीति से कोई-लेना-देना नहीं है। आर्यसमाज के प्रमुख नेताओं से लेकर सामान्य सभासदों तक कोई भी प्रचलित राजनीति में ऐसी भागीदारी न करे जो अंग्रेजी राजसत्ता की दृष्टि में चुभे, यह प्रतिबंध इस समाज ने स्वयं ही स्वीकार किया था।
इस तरह सन् १८६० से १८४४ तक की पंजाब की स्थिति राजनीतिक दृष्टि से देखें तो कहा जा सकता है कि सिख समाज अपनी ब्रिटिश निष्ठा के कारण ब्रिटिश सेना का भरती-क्षेत्र बन गया था। मुस्लिम समाज अवसर मिलते ही हिंदू समाज को तो डंक मारता रहा, पर शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार के आगे दीन बना रहा जबकि प्रबुद्ध हिंदू समाज धार्मिक, शैक्षणिक और सामाजिक आंदोलनों में सम्मिलित हुआ और प्रचलित राजनीति से दृढ़तापूर्वक निर्लिप्त बना रहा। परिणामत: सन् १८८४ तक बंगाल में सुरेंद्र बाबू की प्रेरणा से राजनीतिक प्रगति सुराज की माँग तक आ पहुँची थी, जबकि पंजाब में राजनीतिक हलचल भी शुरू नहीं हुई थी।
इसमें एक अपवाद भी था और वह भी 'सौ चोट सुनार की तो एक चोट लुहार की' वाले न्याय की भाँति। इस सारी राजनीतिक उदासीनता का बदला एक ही प्रहार से लेनेवाले गुरू रामसिंह कूका के सन् १८७० से १८७४ तक चले सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन का वृत्त हम सुसंगत स्थान पर देंगे। यहाँ इतना ही कहना काफी है कि जिस प्रकार मध्य रात्रि के अंधकार में बिजली चमक जाने के बाद भी अँधियारा बना रहता है, उसी प्रकार क्रांति की यह आग क्षण में लगी और क्षण में बुझ गई; पंजाब राजनीतिक अंधकार में वैसा ही सोया रहा।
उस समय पंजाब की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति की उपर्युक्त रूपरेखा सही है या नहीं, यह देखने के लिए पंजाब के अर्वाचीन राजनीतिक गुरू के रूप में सम्मानित लाला लाजपतराय के आत्म-चरित्र का कुछ भाग यहाँ उद्धृत किया जा रहा है -
''मेरे पिताजी बचपन में जिस विद्यालय में पढ़ते थे, उसका मुख्याध्यापक एक कट्टर मुसलमान मौलवी था। सभी (हिंदू) लड़कों पर उसका प्रभाव इतना अधिक था कि उनमें से बहुत से लड़के धर्म-परिवर्तन कर मुसलमान हो गए थे। जिन्होंने खुले रूप में धर्म नहीं बदला, वे भी अपने धर्म पर विश्वास उठ जाने के कारणमन से मुसलमान हो गए थे। मेरे पिताजी दूसरे वर्ग में आते थे। वे दैनिक नमाज पढ़ते थे। 'रोजा' रखते थे। वे हिंदू धर्म और आर्यसमाज के कट्टर शत्रु थे और समाचारपत्रों में उसके विरूद्ध तीखे लेख लिखते थे। मेरी माता सर्वधर्मपरायण सिख परिवार की थीं। मेरी माता को मेरे पिता 'ऐसा करो, वैसा करो, नहीं तो मैं खुल्लमखुल्ला मुसलमान हो जाऊँगा' कहकर डाँटते रहते थे। बचपन में मुझे भी पिताजी ने थोड़ा-बहुत कुरान पढ़ाया। उनकी देखा-देखी मैं भी नमाज पढ़ता था, मुसलमानों के रोजा (उपवास) भी करता था। विद्यालय में मुझे अरबी, फारसी भाषाओं और इसलाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इन सब बातों से मुझे लगने लगा था कि हिंदू और सिख - दोनों ही धर्ममत अंधविश्वास और मूर्खतापूर्ण किस्से-कहानियों से ओत-प्रोत हैं।
'सन् १८८२ से पंडित गुरूदत्त से मेरी मित्रता बढ़ने लगी। इस मित्रता से धर्म-संबंधी मेरे विचारों को गति मिली और उन्हें राजनीतिक स्वरूप मिला। जैसे-जैसे यह भावना बलवती होती गई, मैं इसलाम धर्म के संस्कारों से दूर होने लगा।'
इसके पश्चात् पंडित गुरूदत्त के समान ही लाला हंसराज, लाल साईंदास आदि आर्यसमाज के महान् त्यागी विद्वान, संस्कृतज्ञ और स्वधर्मनिष्ठ नेताओं से लाजपतराय का परिचय हुआ। इससे बाल्यकाल से उनके मन पर जमी धार्मिक पाखंड की काई दूर होती गई। आर्यसमाजी वाड्मय के अध्ययन से उनको प्राचीन भारतीय इतिहास और वैदिक धर्म के मूल तत्वों का सत्य ज्ञान हुआ। मुस्लिम और ईसाई उपदेशकों की बातें कितनी निंदनीय होती हैं, यह बात समझ में आने लगी। उनका राष्ट्रीय स्वाभिमान जाग उठा। किसी प्राणलेवा संकट से बचकर पुनर्जन्म होने जैसा आनंद लाजपतराय को प्राप्त हुआ। वे लिखते हैं -'मैं फिर से हिंदू हो गया! पाठक ध्यान दें कि जिसका बचपन मुसलमानी वातावरण में बीता, तरूणाई के प्रारंभ में जो ब्रह्मसमाजी बना, वही मैं पंडित गुरूदत्त, लाला हंसराज आदि की सहायता से प्राचीन आर्य संस्कृति एवं धर्म का भक्त बना! मैं फिर से हिंदू हो गया।
'राष्ट्र की एकता के लिए पूरे भारत में नागरी लिपि और हिंदी भाषा का प्रचार होना आवश्यक है, ऐसा जब मुझे लगने लगा, तब अंबाला में जाकर मैंने उर्दू के विरूद्ध भाषण दिया। पंजाब में उस समय अधिकतर सरकारी कामकाज, बाजार, समाचारपत्र आदि की भाषा उर्दू ही थी। संस्कृत का ज्ञान और नागरी लिपि तो शिक्षित हिंदू वर्ग भी भुला बैठा था - पंडित वर्ग तो नामशेष ही हो गया था। हिंदी भाषा और नागरी लिपि का प्रचार होना चाहिए, यह बात मैंने बड़े आग्रह से व्याख्यान में कही। उसपर टीका हुई। मैंने नागरी वर्णाक्षर सीखना चालू किया। हिंदी पर ही सारा ध्यान केंद्रित करने के लिए मैंने अरबी-फारसी पढ़ना पूरी तरह बंद कर दिया। पंडित गुरूदत्त के प्रोत्साहन से मैंने संस्कृत भी सीखनी चाही, परंतु सीख नहीं पाया।'
पंडित गुरूदत्त की तरह ही लाला साईदास भी वैदिक धर्म और संस्कृति के कट्टर प्रचारक थे। लाजपतराय लिखते हैं -''लॉर्ड रिपन के सार्वजनिक सत्कार के समय बनारस के पंडितों ने लॉर्डरिपन की गाड़ी स्वयं खींची, यह सुनकर लाला साईदास को बहुत दु:ख हुआ। पंडितों के इस कृत्य से हिंदू धर्म के मुख पर कालिख लग गई, ऐसा उन्होंने कहा।'
लालाजी आगे लिखते हैं -'कुल मिलाकर परिस्थिति ऐसी होते हुए भी मेरे राजनीतिक विचार अधिक स्पष्ट नहीं थे। आर्यसमाज के मंच से जो व्याख्यान मैंने उस अवधि में दिए, उनमें मैं ब्रिटिश सरकार की स्तुति करता था। मुसलमानों के अत्याचारों से अंग्रेजों ने हमें मुक्त किया, ऐसा मुझे लगता था। साधारण जनता का भी मत ऐसा ही था। सन् १८८३ से १८८५ के मध्य तक मेरे इन राजनीतिक विचारों में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ; उनमें परिवर्तन होने जैसा कोई अवसर भी नहीं आया।'
बंगाल में अंग्रेजी शासनकाल में राजनीतिक आंदोलन के जन्मदाता जैसे सुरेंद्रनाथ बनर्जी थे, वैसे ही पंजाब के आधुनिक राजनीतिक आंदोलन के आद्य गुरू लाला लाजपतराय थे। उन्होंने अपने आत्म-चरित्र में प्रामाणिकता और स्पष्टता से जो कहा है, उससे सन् १८८४ तक अर्थात् १८७४ में पंडित रामसिंह कूका के अनुयायियों द्वारा अंग्रेजों के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह प्रारंभ करने के दस वर्ष बाद भी यदि स्वयं लाजपतरायजी को ऐसा लगता था कि 'अंग्रेजों का राज ही ठीक है' तो पंजाब की सामान्य जनता और अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों का मन भी वैसा ही था, इसमें क्या आश्चर्य!
देसी राज्य
सन् १८५७ के क्रांति युद्ध को दबाने के लिए जिस किसी प्रकरण में अंग्रेजों को हार खानी पड़ी, उसमें से पहली मुख्य बात यह थी कि अंग्रेज सरकार भारतीय लोगों के धर्म में प्रत्यक्ष या परोक्ष हस्तक्षेप नहीं करेगी, यह बात अंग्रेज सरकार ने मान ली। जैसे पहले मिशनरियों के प्रचार में अंग्रेज अधिकारी खुला प्रोत्साहन और सुविधा देते थे या स्वयं ही मिशन का कार्य करते थे, वैसा अब अधिकतर बंद हो गया। दूसरी बात यह कि डलहौजी ने दत्तक प्रकरण में हस्तक्षेप कर देसी राज हड़पने की जो जोरदार मुहिम चला रखी थी, वह बंद करके अंग्रेज सरकार ने 'दत्तक अधिकार' मान्य किया तथा यह बात भी स्वीकार की कि देसी राज्यों के अस्तित्व को सहसा चोट नहीं पहुँचाई जाएगी। उसी कारण विशेष आपत्तिजनक विरल प्रकरण छोड़ दें तो अंग्रेज सरकार ने देसी राज्यों का अस्तित्व समाप्त करने का साहस फिरनहीं किया। सन् १८५७ के युद्ध में अंग्रेजों से लड़ने के दौरान हजारों लोगों द्वारा किए गए प्राण-दान के फलस्वरूप ही शेष देसी राज्यों के प्राण बचे। उनको जीवन की नई संधि मिली, मगर प्राण पर बीते हुए उस संकट का जो भयानक प्रभाव देसी राज्यों पर हुआ, उससे ब्रिटिश सत्ता पहले से अधिक प्रबल और सुदृढ़ हो गई। उसने देसी राज्यों के पैरों में इतनी बेड़ियाँ डालीं कि उन महाराजाओं को सार्वदेशिक राजनीतिक प्रश्न पर मुँह खोलने की हिम्मत नहीं हो पाती थी। इतना ही नहीं, अपने राज्य में जनता का किसी राजनीतिक प्रवृत्ति से दूर का भी संबंध बन सके, ऐसी संस्था या ऐसे शब्द भी कोई न निकाले, इसके लिए अधिकतर राजे-महाराजे स्वयं कड़ी निगरानी रखते थे। ब्रिटिश साम्राज्य के गौरव एवं अपनी अथाह राजनिष्ठा के भव्य प्रदर्शन का कोई भी अवसर वे और उनकी जनता खाली नहीं जाने देते थे। कुछ अपवाद छोड़ दें तो देसी राज्यों में ब्रिटिश-विरोधी राजनीतिक आंदोलन तो क्या, सामान्य स्वराष्ट्र-भक्ति का अंकुर भी नहीं फूट पाया था, वह कहने की आवश्यकता नहीं है।
प्रकरण - ५
राजनीतिक परिस्थिति का प्रांतीय विश्लेषण
(सन् १८६० से १८४४ तक)
महाराष्ट्र
इस ग्रंथ के लिए हिंदुस्थान के प्रमुख प्रांतों की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति का आवश्यक अवलोकन करने के बाद अब अंत में महाराष्ट्र की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति का भी संक्षिप्त अवलोकन करें। महाराष्ट्र को अंत में लेने का कारण यह है कि अन्य प्रांतों में न दिखने वाली जो अधिकतर राजनीतिक विशेषताएँ महाराष्ट्र में हैं, उनका सीधा संबंध इस ग्रंथ के अगले भाग से है।
बंगाल, मद्रास और अनेक प्रांतों में अंग्रेजी राजसत्ता स्थापित होने के कई शतक पूर्व तक वहाँ मुगलों के अत्याचारों का नंगा नाच हो रहा था। अत: धर्मोच्छेदक एवं तानाशाही मुगल शासन चला गया और सापेक्षत: ठीक-ठाक विधिसम्मत अंग्रेजी राज आया। वहाँ की सामान्य जनता को पहले यह कैसे अच्छा लगा और अंग्रेजों के विरूद्ध असंतोष क्यों नहीं हुआ, यह पहले साधार कहा जा चुका है। परंतु महाराष्ट्र की सामान्य जनता की मन:स्थिति अंग्रेजी राज आने के आरंभ से समूहत: विपरीत थी।
केवल महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि अधिकांश हिंदुस्थान पर अधिकार जमाने के लिए अंग्रेजों को यदि किसी सबल शक्ति से लड़ना पड़ा था तो वह मराठी साम्राज्य ही था। हिंदुस्थान की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से प्रखर युद्ध दो हिंदू शक्तियों ने किया था। पहले और लंबे समय तक हिंदुस्थान भर के लिए मराठे लड़े और अंत में केवल पंजाब के लिए हमारे शूर धर्मबंधु सिख लड़े। इन दोनों युद्धों में अधिक संगठित और क्षमतावान ब्रिटिश जीते तथा मराठे और सिख हारे।
उपर्युक्त दोनों युद्धों में सिख तो कुल दस-बीस वर्षों में ही अपने पराभव को इतना भूल गए कि अपना पंजाब राज्य छीन लेनेवाले ब्रिटिशों की सेवा के लिए उन्होंने पूरे मन से अपनी निष्ठा समर्पित कर दी। इसके विपरीत पूर्णता में देखें तो अपने पराभव और ब्रिटिश सत्ता की स्थापना का काँटा मराठों के मन में सतत चुभता ही रहा। महाराष्ट्र की सर्वसामान्य जनता को भी -'ह्या घरांत शिरला प्रबल शत्रु पारखा' (यह घर में घुसा प्रबल शत्रु परदेसी है) - इसका घाव रहा। अपने हाथ में आया हुआ अखिल भारत का प्रभुत्व, प्रस्थापित की हुई हिंदू पदपादशाही इन अंग्रेजों ने देखते-देखते छीन ली, इसकी महाराष्ट्र को मन-ही-मन बड़ी चिढ़ थी। अपने वैभव और पराभव की ताजा स्मृति तब तक किसी भी तरह बुझ नहीं पा रही थी। रामेश्वर से अटक तक मैदान मारते उनके अश्व-दल अभी तक उनको स्वप्न में दिखते थे। सिंधु नदी का पानी पी चुके उनके हजारों विजयी घोड़ों की टापों की ध्वनि अभी भी उनकी नींद उड़ाती थी। ब्रिटिशों से हुआ अपना यह वैर वे भूले नहीं थे। उस वैर के कारण ही सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध में नाना साहब, बाला साहब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मी बाई प्रभूति पराक्रमी नेताओं ने रणांगण में उन ब्रिटिशों का रक्त बहाते लगभग तीन वर्ष तक भयंकर लड़ाई लड़ी। उनकी पराजय हुई। उन्हें नि:शस्त्र किया गया। ब्रिटिशों ने उन्हें सेना में भी नहीं लिया। सैनिक परंपरा और सैन्य गुण घटने लगे। दरिद्रता, दुष्काल तथा दुर्दशा के चक्र में वे पिसते रहे। परराज का दु:ख था, पर स्वराज प्राप्त करने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। फिर भी मराठी स्वराज और साम्राज्य के समय जिन्होंने बड़े-बड़े पराक्रम किए और मान-सम्मान भोगा, उन राजा-महाराजा, सरदार, जागीरदार, वतनदार, शास्त्री पंडित, गडकरी, मानकरी, शिलेदार, बारगीर इत्यादि लोगों के पुत्र या पौत्र, जो गाँव-गाँव में बिखर गए थे, में से अधिकतर ब्रिटिशों के विरूद्ध मन-ही-मन सुलग रहे थे जिन्होंने स्वराज छीन लिया था। परंतु वे ब्रिटिशों के कड़े शासन में अकर्मण्य, अवश, असंगठित और अवाक् थे।
सारांश यह कि संपूर्ण महाराष्ट्र राज्य पर तो ब्रिटिशों द्वारा पूर्णत: अधिकार कर लिया गया था, परंतु अभी महाराष्ट्र का मन पूर्णत: जीता नहीं गया था।
पराजितों का मन जीतने के लिए अंग्रेजों ने हिंदुस्थान भर में अंग्रेजी शिक्षा एवं मिशनरी-प्रचार की जो योजना बनाई थी, उसका प्रयोग महाराष्ट्र में भी किया गया। परंतु मद्रास, बंगाल आदि प्रांतों में जो प्रयोग अपेक्षा के अनुकूल सफल हुआ, वह महाराष्ट्र में उतना सफल नहीं हुआ। इतना ही नहीं, ब्रिटिशों को दस-बीस वर्षों में ही यह चिंता सताने लगी कि इस योजना से ब्रिटिश-द्रोह बढ़ रहा है।
महाराष्ट्र में अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों का जो नया वर्ग अंग्रेजों ने बनाया, स्थूल रूप में उसके तीन पक्ष थे।
पहला पक्ष, जैसा बंगाल के प्रकरण में हमने 'ब्रिटिशनिष्ठ पक्ष' वर्णित किया था -उस तरह का अंग्रेजी-शिक्षित महाराष्ट्रीय 'ब्रिटिशनिष्ठ पक्ष' था। स्वराज गया तो यह अच्छा ही हुआ; हिंदुस्थान के कल्याण के लिए ईश्वर ने हमें ब्रिटिश राज वरदान में दिया है। उनकी सत्ता और कृपाछत्र हम पर कम-से-कम तीन-चार शतक तो रहे ही, इसी में हमारा कल्याण है। हमारे सारे पूर्वज अनाड़ी, धर्म के विषय में अंधविश्वासी और मूर्ख थे। नाना फड़नवीस आज होता तो वह पागल ही माना जाता। सन् १८५७ में हुआ विद्रोह स्वदेश पर पड़ी आपत्ति ही थी। तब के उन अधम विद्रोहियों ने राक्षसी अत्याचार का जो कृतघ्न राजद्रोह किया, उससे हमारे राजनिष्ठ मुँह पर कालिख पुत गई, परंतु क्षमाशील ब्रिटिशों ने हमारे महापापों को क्षमा कर हमारे हाथों में अपनी रानी का घोषणा-पत्र दे दिया। वह हमारा 'मैग्नाकार्टा' है। अंग्रेज न्यायी हैं। हमारा उद्धार कर वे हमें हमारा राज लौटा देंगे। परंतु वे कृपालु होकर वैसा करने की जल्दबाजी न करें।
ये थे वे सूत्र जो वे ईश्वरप्रदत्त व्यवस्था (Providential Dispensation) वाले पक्ष की पाटी पर पूजते थे। वे उसका जाप नित्य करते थे।
उदाहरणार्थ, इस पक्ष के एक धुरंधर राव साहब मंडलीक सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध के लिए कहते थे, 'यह जो मूर्खता के कारण विस्फोट हुआ, वह हमारे लिए संकट ही है। राज्य में सुधार करने तथा न्यायाकांक्षी को न्याय देने की व्यवस्था करने की कंपनी की इच्छा है। पर अब इस 'शिपायांच्या बंडामुळे' (सिपाही विद्रोह) से हम कितने पिछड़ जाएँगे, पता नहीं।'
उस समय के दूसरे विद्वान् विनायक कोंडदेव ओक ने सन् १८५७ के विद्रोही सिपाहियों को 'शिपायांच्या बंडामुळे' अनुप्रासयुक्त अभद्र भाषा में 'भंड, गुंड, पुंड' आदि कहा था। रायबहादुर गोपालराव हरि देशमुख ने गणना करके लिखा था -'अंग्रेजों में साधारण व्यक्ति भी हिंदुओं से हजारगुना श्रेष्ठ है।' (मुसलमानों की अपेक्षा वह कितना गुना श्रेष्ठ है, यह कहने की हिम्मत रायबहादुर महोदय को नहीं हुई।) 'वर्तमान में अंग्रेज हिंदुओं से सौगुना चतुर हैं और वह चतुराई हिंदू लोगों को मिले, इसलिए यह देश ईश्वर ने उनके हवाले किया है।' (शतपत्री)। इस तरह विचार करने वालों के पक्ष में कुछ बड़े विद्वान्, कुछ सच्चे देशभक्त और बाकी पेटू और अवसरवादी डॉक्टर, बैरिस्टर, आई.सी.एस. सरकारी नौकरी के अभिलाषी आदि छुटभैये लोग थे। फिर भी जैसे बंगाल, मद्रास आदि प्रांतों में अधिसंख्य अंग्रेजी-शिक्षित इस ब्रिटिशनिष्ठ पक्ष के थे और उनमें अपवाद कम ही थे, वैसी स्थिति महाराष्ट्र की नहीं थी, उसके बिलकुल विपरीत थी। अंग्रेजी-शिक्षितों में भी ब्रिटिशनिष्ठ पक्ष अधिक नहीं था। परंतु ब्रिटिश सरकार जान-बूझकर उन्हें तथा उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं को, उनके द्वारा प्राप्त आवेदनों को ही सारी जनता के वास्तविक प्रतिनिधि, लोकमत-प्रदर्शक मानती थी, सार्वजनिक समस्याओं में उनके शिष्टमंडलों की ही बात सुनती थी। देना-लेना कुछ नहीं, पर सुन लेना। सरकार के दरबार में उन्हें 'आइए, बैठिए!' कहा जाता था।
उनके पक्ष में पूरी तरह सम्मिलित न होने पर भी नेतृत्व की माला जिसके गले पड़ी और जिसने उसे स्वीकार किया था, उस एक महान् व्यक्तित्व का उल्लेख स्वतंत्र रूप से करना आवश्यक है। उनका नाम था रायबहादुर महादेव गोविंद रानडे। यह बात सच है कि Providential Dispensation (विधिलिखित राज्यव्यवस्था) शब्द का उच्चारण वे भी बार-बार करते थे। अंग्रेजों का शासन ईश्वर के वरदान रूप में हमें मिला है; वह हमारे हित में ही है, ऐसा वे भी कहते रहते थे। वे ब्रिटिश सेवा में न्यायाधीश के ऊँचे पद पर आसीन थे और वह नौकरी छोड़ना उन्हें उचित नहीं लगता था अथवा राजद्रोही या राजनीतिक कार्यकर्ताओं की काली सूची में उनका पक्ष न आए, इसलिए वह पद छोड़ना नहीं चाहते थे। परंतु हाँ, उपर्युक्त वाक्य उनके केवल मुँह से ही निकलते थे या उसके तार हृदय से भी जुड़े थे, यह निश्चित रूप से आज भी नहीं कहा जा सकता। वह चाहे जो हो परंतु रायबहादुर न्यायमूर्ति रानडे द्वारा ऐतिहासिक, अर्थशास्त्रीय, सामाजिक, धार्मिक एवं विशेषत: राजनीतिक राष्ट्र-जीवन के अंग-प्रत्यंग में नवजीवन का संचार करने के लिए छोटी-बड़ी संस्थाओं की स्थापना कर, उन्हें चलाकर, बिखरे समाज को संगठित कर उसे सक्रियता की ओर अग्रेसर करने के लिए जितनी महान् लोक-सेवा की गई, उन उपकारों को महाराष्ट्र ही नहीं, हिंदुस्थान भी कभी भुला नहीं सकता। यहाँ यह बात भी ध्यान में रखने लायक है कि 'ब्रिटिशनिष्ठ' समझे जाने वाले और 'रायबहादुर','न्यायमूर्ति' आदि ब्रिटिश अलंकरणों से शोभित रानडे के तार 'सशस्त्र क्रांतिनिष्ठ' वासुदेव बलवंत फड़के से जुड़े थे, यह संशय स्वयं अंग्रेजों को भी हुआ था। इन सबसे उनके Providential Dispensation वादी ब्रिटिशनिष्ठा के अंतरंग पर मर्मभेदी प्रकाश पड़े बिना नहीं रहता।
महाराष्ट्र के अंग्रेजी-शिक्षितों का दूसरा वर्ग उपर्युक्त ब्रिटिशनिष्ठ वर्ग की तुलना में संख्या में अधिक, योग्यता में समान, सच्चे स्वदेशनिष्ठों का वर्ग था। स्वराज चला गया, यह बात उनके हृदय पर चोट करती थी। अंग्रेजी राज भगवान् की करनी न होकर शैतान की करनी है, वह वरदान नहीं, एक भीषण शाप है! देश के पैरों में पड़ी बेड़ियाँ टूटने का असंभव काम यदि संभव हो तो उसी को 'ईश्वरीय वरदान' कहा जा सकता है। यह थी इस पक्ष की भूमिका और यह भूमिका अंग्रेजों की कूटनीति के अनुसार अंग्रेजी शिक्षा से भी मंद नहीं पड़ी, उलटे अंग्रेजी इतिहास और साहित्य के अध्ययन से इसमें और उफान आया। हिंदुओं की स्वधर्मनिष्ठा हिलाने के लिए मिशनरी लोग बाइबिल की पुस्तकें मुफ्त में बाँटते रहे। विद्यालयों में उसे जबरन पढ़ाते रहे। परंतु इस वर्ग के लोग वही बाइबिल उनके मुँह पर फेंककर उन्हें परेशान करते। हिंदुओं के पुराणों को यदि कोई मिशनरी 'कपोलकल्पित कथा' कहता तो ये लोग बाइबिल के पहले अध्याय 'सृष्टि की उत्पत्ति' से 'यीशू की उत्पत्ति' तक के अध्यायों में वर्णित कुमारी के पुत्र होने तक की सारी कथाएँ कपोलकल्पित सिद्ध कर उलटा उनसे प्रश्न करते थे।
इस प्रकार वे मिशनरियों का मुँह बंद कर देते थे। अंग्रेजी नहीं पढ़े पंडित लोग यह वाक्ताड़न उतने कौशल से नहीं कर पाते थे, क्योंकि बाइबिल उनकी पढ़ी हुई नहीं होती थी। परंतु अंग्रेजी-शिक्षित लोग बाइबिल के साथ फ्रांसीसी क्रांतिकारियों सदृश अन्य ईसाइयों या अन्य बुद्धिवादी अध्येताओं की तरह बाइबिल की सच्चाई के संबंध में लिखी टीकाओं का भी अध्ययन कर मिशनरियों की खाल खींचने के लिए तैयार रहते थे। स्वधर्म, स्वदेश, स्वभाषा और स्वसंस्कृति के अभिमान से इस वर्ग के हृदय धड़कते रहते थे। अंग्रेजी शिक्षा से बुझ जाने की अपेक्षा वह अधिक ही प्रभावी होता चला गया। उनको यथाशीघ्र समाज में सुधार भी अपेक्षित था। अंग्रेजी शिक्षा से हुए अनेक लाभों को वे नकारते नहीं थे। अपने पूर्वजों के संबंध में तथा प्राचीन इतिहास के बारे में कोई वाहियात निंदा करे तो उसे वैसा ही मुँहतोड़ उत्तर वे देते थे; परंतु वे अपनी न्यूनता, जिसके कारण स्वराज-हानि हुई, को दुर्लक्षित नहीं करते थे।
किसी भी शर्त पर अंग्रेजी शासन की दासता का जुआ अपनी गरदन पर ढोते हुए उनका आभार क्यों माना जाए? क्या ये अंग्रेज कोई देवदूत हैं? या हमने मरी माँ का दूध पिया है? ऐसे सीधे प्रश्न पूछकर और वह अपने लिए हितकर है, ऐसी निष्ठा के विपरीत यह स्वेदशनिष्ठ वर्ग ब्रिटिशनिष्ठ वर्ग के उपदेशों और आचरण की खिल्ली उड़ाया करता था। वे अंग्रेजी राज के कारण होती देश की दुर्दशा, बढ़ती दरिद्रता, अकाल आदि की बातें जनता से कहकर अंग्रेजों के प्रति घृणा उत्पन्न करते। फिर भी अंग्रेजों के राज को सशस्त्र क्रांति से उखाड़ फेंकने का प्रयास करना या सोचना या आकांक्षा रखना हिंदुस्थान जैसे असंगठित और शस्त्रविहीन देश के लिए पापकारक या असमर्थनीय तो नहीं, परंतु मूर्खतापूर्ण एवं आत्मघाती अवश्य लगता था। उक्त परिस्थिति में अंग्रेज सरकार के विरूद्ध लोगों में यथासंभव असंतोष फैलाना, उसके लिए निर्भीक हो जेल भी जाने के लिए तैयार रहना, जगह-जगह सरकार का संगठित विरोध करने का धैर्य और क्षमता जनता में उत्पन्न करना - परंतु वह विरोध विधान और विधि (Constitutional & Legal) की सीमा का उल्लंघन न करे, हिंदुस्थान भर में ऐसा प्रचंड आंदोलन चलाया जाए तो आज नहीं तो कल संवैधानिक ( Constitutional) प्रकृति का ब्रिटिश लोकमत जाग्रत होगा और कुछ तो उनके स्वयं के हित में और कुछ उनके जाति भाइयों द्वारा हिंदुस्थान भर में हो रहे अन्याय से उपजे खेद के कारण ब्रिटिश सरकार हिंदुस्थान की माँगें मानने लगेगी, रानी की घोषणा के अनुसार हिंदुस्थानी जनता से ब्रिटिश नागरिकों की तरह ही समता-बंधुता से व्यवहार करने लगेगी। इतना होने पर फिर भविष्य के बारे में भविष्य में सोच लेंगे, ऐसा कार्यक्रम था दूसरे वर्ग के देशनिष्ठ लोगों का। यही उनके पक्ष का कार्यक्रम, नीति और धुँधला आशावाद था। मन में कुछ भी हो, फिर भी यह स्वेदशनिष्ठ वर्ग 'स्वराज' अर्थात् अंग्रेजी राज नष्ट कर स्थापित किया गया स्वयं का राज इस अर्थ में 'स्वराज' शब्द का अपने लोक-आंदोलन में उच्चारण नहीं करता था, क्योंकि वैसा करना अंग्रेजी दंडविधान की सीमा में उस समय तो सहज ही धकेला जा सकता था। वैधानिक मर्यादा में अपना सारा आंदोलन चले, इसलिए इस पक्ष के नेता बार-बार जोर देकर कहते थे, 'हम बादशाह के उतने ही राजनिष्ठ प्रजाजन हैं, जितने ब्रिटिशवासी। इसलिए झगड़ा राजा द्वारा नियुक्त मंत्रियों, अधिकारियों, सेवकों आदि से है, राजा से नहीं।'
महाराष्ट्र के अंग्रेजी-शिक्षितों का ही तीसरा वर्ग क्रांतिनिष्ठ, सशस्त्र क्रांतिकारी वर्ग था। पहले दोनों वर्गों- ब्रिटिशनिष्ठ या स्वदेशनिष्ठ - में से कोई भी 'हमारा राजा' कहता तो उसका अभिप्राय होता 'राजा? जो ब्रिटिशों का राजा, वह हमारा राजा?'-'घर में घुसे चोर को क्या राजा कहेंगे?' क्रोधपूर्वक ऐसा पूछने वाले वर्ग का कहीं कोई पता-ठिकाना नहीं था। परंतु जहाँ उनका अस्तित्व न हो, ऐसा स्थान भी नहीं था। जिस सशस्त्र क्रांतिकारी प्रवृत्ति को मार डालने के लिए अंग्रेजों ने अंग्रेजी विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय खोले, उन्हीं संस्थाओं में इस वर्ग के छिपे क्रांतिकारी रहते थे। प्रत्यक्ष अंग्रेजी सरकार की नौकरी करनेवालों में उनके अनुयायी गुप्त रूप से रहतेथे। अंग्रेजों द्वारा आत्मरक्षार्थ बनाई गई विधि की सीमा में ही रहकर बनाए हुए विधि-विधान की मर्यादा का उल्लंघन न करते हुए हम राजनीतिक आंदोलन करेंगे, ब्रिटिशों को झुकाएँगे- उपरोक्त स्वराजवादी दूसरे वर्ग का यह कथन ऐसा था, जैसे दादी की कहानी के राक्षस के प्राण जिस किसी वास्तु में हों, वही वस्तु सुरक्षित रखते हुए उस राक्षस को मारने की आशा करना। क्रांतिनिष्ठ वर्ग इस सोच को मूर्खतापूर्ण मानता था।
ब्रिटिश-निष्ठा उत्पन्न करने के लिए अंग्रेजी की शिक्षा देने की जो नीति ब्रिटिशों ने हिंदुस्थान में चलाई, वह नीति बंगाल, मद्रास आदि में सफल रही, परंतु महाराष्ट्र के क्रांतिकारी वर्ग पर उस नीति का परिणाम उलटा ही हुआ। उनमें इस विद्या को सीखने से ब्रिटिशनिष्ठा अंकुरित होने की बजाय ब्रिटिश-द्वेष पनपा। हिंदुस्थान की दुर्दशा करने वाली ब्रिटिशों की कारगुजारियाँ उन्हें ब्रिटिश ग्रंथों से ही अधिक विस्तार से ज्ञात हुई। अंग्रेजी पढ़ने से उन्हें यूरोप और अमेरिका के स्वतंत्रता-संग्रामों की कथाएँ पढ़ने को मिलीं। इससे उनकी दृष्टि विशाल, उनका ध्येय व्यापक, उनका ज्ञान अधुनातन हो गया। अंग्रेजी शिक्षा से होनेवाले लाभ आत्मसात् कर वह शिक्षा-व्यवस्था हिंदुस्थान में लागू करने के पीछे अंग्रेजों का जो कूट उद्देश्य था, उसे उन्होंने मार गिराया। अंग्रेजी दाँव उनके ऊपर ही उलट दिया।
फिर भी यह ध्यान में रखना होगा कि इस वर्ग की यह सशस्त्र क्रांतिनिष्ठा केवल अंग्रेजी शिक्षा से उत्पन्न नहीं हुई थी। अंग्रेजी शिक्षा ने उत्प्रेरक का कार्य अवश्य किया। उनके स्फूर्ति-प्रदाता देव थे श्रीकृष्ण, श्री शिवाजी महाराज और उनकी भवानी तलवार। मुस्लिम पादशाही को पदाक्रांत कर हिंदू पदपादशाही को स्थापित करने वाला मराठों का इतिहास था उनका पंचम वेद। सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध के अमर सेनानी नाना साहब, तात्या टोपे, झाँसी की रानी आदि की ताज वीरगाथाओं का गायन यद्यपि अंग्रेजों के कड़े नियंत्रण में असंभव था, फिर भी वे कानो-कान प्रवाहित होती थीं और हृदय में आग सुलगाती थीं। वह क्रांतियुद्ध महाराष्ट्र में भी चलाने की गुप्त मंत्रणा सन् १८५७ में चल रही थी। देर थी, तो महाराष्ट्र में केवल तात्या टोपे की संगठित सेना के घुसने की। निजाम के देशद्रोही विश्वासघात के कारण तात्या टोपे का आगे बढ़ना असंभव हो गया। नर्मदा पार कर जाने के बाद उसे फिर लौटना पड़ा। इससे महाराष्ट्र के उनके अनेक साथी पकड़े गए। त्र्यंबकेश्वर के किलेदार जोगलेकर तथा वैसे ही कुछ बड़ों को फाँसी दे दी गई। फिर भी इस संकट से जो बच गए या वे मराठाजन जो ब्रह्मावर्त या दक्षिण में लड़े या उस कार्य में लगे रहे, वे अब नाना वेश और नाना युक्तियों से महाराष्ट्र में भूमिगत रहकर जीवनयापन कर रहे थे। वे लोग भी गुप्त रूप से इन नव अंग्रेजी-शिक्षित देशभक्तों में संघर्षशील युवकों को यह चेतना दे रहे थे कि मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से पुन: लड़कर देखो।
अंग्रेज इस देश से केवल न्यायबुद्धि से जानेवाले नहीं, उन्हें तो सशस्त्र क्रांति से ही भगाना होगा -यह क्रांतिपक्षवालों का आद्य सिद्धांत था। 'अरे, ऐसी क्रांति असंभव है, वह तुम्हारी मूर्खता है, यूँ ही मरना चाहते हो।' उन्हें ऐसा कुछ उपदेश कोई ब्रिटिशनिष्ठ या स्वदेशनिष्ठ देता तो वे उसका आभार मानते हुए कहते, 'मरण? हमारी मातृभूमि के सिंहासन पर उसका शत्रु चढ़ बैठा हो और हम जीवित अवस्था में उसे देखें, यही हमें मरण से अधिक दु:खदायी लगता है। संभव हो अथवा असंभव, हम सफल हों या विफल, अपनी शक्ति से जितना हो सकेगा, उतना प्रतिशोध तो हम लेंगे ही। प्रतिशोध लेते समय जो मरण आएगा, वह इस पौरूषहीन जीवन की तुलना में हमें अधिक आकर्षित करेगा, क्योंकि सफल क्रांति की आग हुतात्माओं की जलती चिता की आग से ही भड़कती है। हम अपना कर्तव्य पूरा करेंगे, चाहे कोई अन्य हमारे पीछे आए या न आए!'
प्रकरण - ६
अंग्रेजों की छावनी में
(सन् १८६० से १८८४ तक)
अब तक सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध के बाद की हिंदुस्थानी जनता की राजनीतिक मन:स्थिति एवं आंदोलनों की बात प्रांतानुसार की। उसी समय हिंदुस्थान पर स्वामित्व स्थापित करने वाले अंग्रेज सत्ताधारियों की छावनियों में कौन से विचार-प्रवाह चल रहे थे, अब इस पर भी थोड़ा सा विचार करें।
उस समय अंग्रेज राजकर्ताओं के दो गुट थे। पहला और बहुसंख्यक गुट केवल डंडाशाही का पक्षधर था। सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध में अंग्रेजों द्वारा संपादित महान् विजय का नशा इस गुट के अधिकारियों के सिर चढ़कर बोल रहा था। उन्हें भारतीय जनता झाड़ की पत्ती लगती थी। वे गर्जना करते - हमने हिंदुस्थान जीता है तलवार की धार से और उसकी रक्षा भी हम तलवार के बल पर ही करेंगे। हम शासक हैं और हिंदुस्थान हमारा पद-दलित दास है। भारतीय लोगों के मन में हम विजेता अंग्रेजों के लिए प्रेम हो या द्वेष; उन दुर्बलों के दिलों में हमारे विरूद्ध चोरी-चोरी कुछ हलचल हो या और कुछ, उसकी चिंता हमें नहीं है। हम जो कहेंगे, वह नीति और जो चलाएँगे, वह रीति। उसके विरूद्ध ये टूँ-टाँ कुछ भी न करें, नहीं तो हम उन्हें कीड़े-मकोड़ों की तरह मसल देंगे। हिंदुस्थान पर ब्रिटिशों का राज बनाए रखना हो तो हमारा शासन ऐसा कड़ा चाहिए, जैसे तलवार पर फौलाद का चढ़ा पानी।
'तलवार से राज्य जीते जाते हैं, यह सच होते हुए भी तलवार की धार पर उनकी रक्षा हमेशा नहीं होती।' अंग्रेज शासक वर्ग का दूसरा गुट, जो अल्पसंख्यक होने पर भी अनुभवी और राजकाज में वर्षानुवर्ष के घुटे-मँजे कूटनीतिज्ञों का गुट था, डंडाशाही गुट को समझाते हुए कहता था, 'पराजितों द्वारा ब्रिटिशों के विरूद्ध आंदोलन करते ही उसे नष्ट कर डालने की दंडशक्ति तो ब्रिटिशों की कलाई में होनी ही चाहिए। परंतु विजेता राज करता रहे, यह भाव पराजितों के मन में आए-ऐसा जादू चलाकर उनपर राज करने के साथ ही यथासंभव उनका मन भी जीतने की कार्यवाही करते रहना, हिंदुस्थान जैसे विस्तीर्ण देश पर ब्रिटिशों का शासन चिरकाल तक बनाए रखने का सरल और सस्ता उपाय है। लॉर्ड डलहौजी द्वारा चलाई गई डंडाशाही के कारण मराठों और सिखों से लड़ते समय जितना ब्रिटिश रक्त सौ वर्ष में भी नहीं बहा, उतना दो वर्ष के अंदर सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध ने बहाया। इसे हमें इतनी जल्दी नहीं भूलना चाहिए!'
इस दूसरे गुट के अंग्रेज कूटनीतिज्ञों की नीतियों के अनुसार सन् १८५७ का क्रांतियुद्ध समाप्त होने पर भारतीय लोगों का मन जीतने के लिए अंग्रेज शासकों ने अंग्रेजी पढ़ाने आदि के जो उपाय किए, उसकी चर्चा पिछले प्रकरणों में हमने की है। उन उपायों का कुछ परिणाम उनकी नीति के अनुसार हुआ और ब्रिटिश शासन का सहयोग पूरे मन से करनेवाला ब्रिटिशनिष्ठ भारतीय वर्ग सभी प्रांतों में उत्पन्न हुआ। सामान्य जनता की क्रांतिकारी-चेतना मृतप्राय होकर इधर-उधर शांत दिख रही थी, यह देखकर अंग्रेज कूटनीतिज्ञों को बहुत शांति मिली थी। उनकी नीति का सुपरिणाम देखकर इंग्लैंड की जनता और शासक वर्ग में इस पक्ष की नीतियों का महत्व भी बढ़ गया था। फिर भी इस पक्ष को हिंदुस्थान के संबंध में निश्चितता कभी भी नहीं लगती थी। ऊपरी शांति पर उनका विश्वास नहीं था। कहीं 'खट्ट' की ध्वनि होते ही इस पक्ष के कान खड़े हो जाते, वह देखने लगता और कहता कि क्या सन् १८५७ के एक वर्ष पूर्व भी ऐसी ही शांति इस देश में नहीं थी? हम लोग सभी ओर 'सब ठीक है' की रिपोर्ट ही तो भेजा करते थे। इस पक्ष में सन् १८५७ की आग में झुलसे बड़े-बड़े सैनिक और नागर अंग्रेज अधिकारी थे। धीरे-धीरे इस पक्ष का नेतृत्व जिन श्रीयुत्र ए. ओ. ह्यूम के पास जानेवाला था, उन्हीं की एक कथा उदाहरणार्थ प्रस्तुत है।
ह्यूम की कुलकथा
सन् १८५७ में १० मई को मेरठ (सं.प्रा.) में क्रांतिकारी सैनिकों ने अंग्रेज सरकार के विरूद्ध विद्रोह किया, वहाँ के अंग्रेज अधिकारियों को काट डाला और एक सप्ताह के अंदर दिल्ली पर चढ़ाई कर भारतीय सेना की सहायता से वहाँ के ब्रिटिश अधिकारियों को तलवार से मौत के घाट उतारकर और दिल्ली जीतकर हिंदुस्थान की स्वतंत्रता की खुली घोषणा कर दी। उसके बाद पूर्व संकेतानुसार एक के बाद एक दूसरे नगरों में विद्रोह होने लगे। ऐसे समय श्रीयुत् ह्यूम इटावा के मजिस्ट्रेट एवं कलक्टर थे। उन्होंने विद्रोह का समाचार सुनकर, अपने परम विश्वसनीय तथा राजनिष्ठ भारतीय सैनिकों को चुनकर एक संरक्षक टुकड़ी बनाई और असिस्टेंट मजिस्ट्रेट मि. ड्यानियल को वह टुकड़ी सौंपकर इटावा नगर के सारे रास्ते रोक रखने को कहा। इस व्यवस्था के बाद भी कुछ क्रांतिकारी सैनिक, नगर में घुसकर एक मंदिर में ठहरे हुए हैं। पहले के अनुभवों के आधार पर ह्यूम साहब ने सोचा कि मैं आगे आऊँगा तो नगर के अपने राजनिष्ठ भारतीय प्रजाजन मेरी सहायता करने आगे आ जाएँगे। इसी विश्वास से कुछ सैनिकों को लेकर ह्यूम ड्यानियल के साथ उस मंदिर पर आक्रमण करने पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि उनके पीछे सहायता के लिए आनेवाले राजनिष्ठ प्रजाजन मंदिर को घेरकर खड़े हैं और उस मंदिर में बैठे क्रांतिकारियों की जय-जयकार कर रहे हैं। उनको भोजन-पानी पहुँचाने का कार्य जोर-शोर से चल रहा है। ह्यूम ने सोचा, कोई बात नहीं। अपने साथ चुने हुए विश्वसनीय सेना के जवान हैं ही। उस टुकड़ी को मंदिर पर हमला करने का कड़ा आदेश देकर ड्यानियल मंदिर की ओर बढ़ा। परंतु उसके पीछे कौन गया? केवल एक भारतीय सैनिक! और मंदिर से क्रांतिकारियों की टुकड़ी ने गोलीबारी आरंभ कर दी। क्षण भर में ही दोनों वहीं ढेर हो गए। यह दृश्य देखते ही ह्यूम साहब ने आज्ञा-भंग करने वाले भारतीय 'राजनिष्ठ' सैनिकों को लताड़ना भूलकर पलटकर जो भागना आरंभ किया तो अपनी छावनी के तंबू में घुस जाने तक भागते ही रहे।
एक-दो दिन में ही समाचार फैला कि पड़ोस के मैनपुरी और अलीगढ़ नगरों में भी विद्रोह करके नागरिकों ने ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति पा ली है और ब्रिटिश लोगों की हालत खराब है। इसी समाचार के साथ इटावा में विद्रोह की खुली घोषणा हो गई। २२ मई को ब्रिटिशों की भारतीय सेना एक हाथ में पलीता और दूसरे हाथ में कृपाण लिए ब्रिटिश छावनी पर टूट पड़ी। उन्होंने कोषागार लूटे, बंदीगृह खोल दिए और अंग्रेज सैनिक, अधिकारी, पादरी, व्यापारी, औरतें, बच्चे-सारे गोरों को चेतावनी दी कि यदि वे तत्काल इटावा छोड़कर चले नहीं गए तो उनका कत्ल कर दिया जाएगा।
इस भीषण अंतिम आदेश को सुनकर अंग्रेज भय से काँपने लगे। अपने बाल-बच्चे लेकर या उन्हें छोड़कर सब भागने लगे, परंतु किस रास्ते जाएँ और कहाँ जाएँ! रास्ते में गोरा मिलते ही 'मारो फिरंगी को' की आवाज उठती। मार-काट होती। भागनेवाले गोरों में भी सबसे कठिन समस्या वहाँ के कलक्टर, मजिस्ट्रेट ह्यूम की थी! उन्हें सब पहचानते थे। अंग्रेजी राज का वही मुख्य अधिकारी था, परतंत्रता का प्रमुख प्रतीक था, इसलिए सबका क्रोध उसपर था। फिर भी चार-पाँच भारतीय सैनिकों को उसपर दया आ गई। उन्होंने 'साहब को दूर भगा देते हैं' कहकर उन्हें क्रांतिकारियों के कब्जे से ले लिया, पर साहब का रंग गोरा था और गोरे रंग के दिन पूरे हो चुके थे। जीवित रहने के लिए रंग चाहिए था काला। वह कठिन था - काला रंग लगाकर भागते गोरे इसलिए पकड़े जाते कि कहीं बदन पर से काला रंग भागमभाग में छूट जाता तो गोरा तुरंत पहचाना जाता और उसकी या तो दुर्गति होती या वह मारा जाता। अत: ह्यूम साहब के लिए दोहरी सावधानी जरूरी थी। उन्होंने मुँह पर काला रंग लगाया, फिर साड़ी पहनी और उसपर बुरका ओढ़ा। तब वे सैनिक उन्हें बचाने के लिए तैयार हुए और राजमान्य राजेश्री ह्यूम बाई को इस प्रकार गुप-चुप बाहर निकालकर बहुत दूर छोड़ आए। प्राण हथेली पर लिए घूमते साहब को एक अंग्रेज सैनिक टुकड़ी मिली और वे बच गए।
अपने प्राणों पर बन आई इस घटना का जो डर ह्यूम साहब के मन में बैठा, वह जीवन भर उनको बेचैन किए रहा और इसका चिरंतन परिणाम उनकी राजनीति पर भी पड़ा। सन् १८५७ जैसा सशस्त्र क्रांति का संकट अंग्रेजी सत्ता को फिर से न झेलना पड़े, इसके लिए क्या उपाय किए जाएँ - यह चिंता उन्हें हमेशा सताती रही। हिंदुस्थान की जनता की शांति दिखावटी होती है। इस विशाल देश की कोटि-कोटि जनता के भीतर कब किस कारण कोई क्रांति की चिनगारी भड़क जाए, इसका कोई नियम नहीं, यह उनका अनुभवसिद्ध पक्का विचार हो गया था और 'सब ठीक है' कहनेवाले ब्रिटिश अधिकारियों की 'ढोल की पोल' का वे इसीलिए हमेशा विरोध करते थे।
'कौवा बैठे और डाली टूट़े' वाली कहावत पंजाब में उसी समय चरितार्थ हुई। जिस पंजाब प्रांत के बारे में सारे ब्रिटिश अधिकारी 'सब ठीक है' कहते थे, वहीं ह्यूम जैसे विचारों के अधिकारियों को जो डर सताता था, वह सच हो गया और सन् १८७२ में ऊपर से शांत दिखाई देती जनता के मन में एक सशस्त्र क्रांति की चिनगारी भड़क उठी।
प्रकरण - ७
कूका-विद्रोह
आज तक के ज्ञात इतिहास से विदित होता है कि अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध सन् १८५७ के बाद प्रथम महत्वपूर्ण सशस्त्र क्रांतिकारी संघर्ष कूका पंथ का ही था। यहाँ उसकी विस्तृत जानकारी देने के लिए स्थान नहीं है। उसका आवश्यक सारांश देना ही पर्याप्त होगा।
सन् १८२४ में जन्मे पंडित रामसिंह कूका ने अपनी तरूणाई में महाराजा रणजीत सिंह की सेना में एक सैनिक के रूप में नौकरी की थी। उस स्वधर्मीय शासन का विध्वंस अंग्रेजों ने किया। इसका इतना दु:ख कूका को हुआ कि वे अन्यों की भाँति अंग्रेजी सेना में भरती नहीं हुए। वे अपने गाँव भैणी आकर धर्मोपदेश करने लगे। शीघ्र ही उनकी ख्याति एक साधु के रूप में फैल गई और उनको गुरू माननेवालों का एक पंथ बन गया। उस पंथ का नाम 'नामधारी पंथ' पड़ गया। उनके उपदेशों में गोवध-निषेध की काफी प्रधानता थी। वे कहते कि कसाई के हाथों कटती गाय को अपने प्राण देकर भी बचाना तुम्हारा धार्मिक कर्तव्य है। शिष्यों को यह उपदेश वे आग्रहपूर्वक देते थे।
ऐसा कहते हैं कि साधु रामदास नामक कोई मराठी साधु उन्हें मिले। उन्होंने गुरू रामसिंह को ऐसा परामर्श दिया कि गोवध-निषेध आदि जिस धर्म-मत को वे प्रतिपादित करते रहते हैं, वह स्वधर्म कार्य स्वराज-स्थापना के बिना नहीं हो सकता। वह परामर्श मन में पैठ जाने के कारण गुरू रामसिंह ने अपने धार्मिक पंथ को अति सावधानी से राजनीतिक रूप देने का उपक्रम किया। पहले उन्होंने अंग्रेजी शासन से केवल नि:शस्त्र असहयोग करने का आदेश दिया और अंग्रेजी न्यायालयों, रेलगाडियों और अंग्रेजी शिक्षा देनेवाली संस्थाओं का बहिष्कार आरंभ करवाया। उन्होंने अपने नामधारी या कूका पंथ का एक स्वतंत्र डाक विभाग चालू किया।
उनके इस आंदोलन के कारण पंजाब के अंग्रेजी शासक वर्ग ने सन् १८६४-६५ में उनपर कुछ कड़े बंधन लगाए। परिणामत: प्रकट आंदोलन रोके जाने से यथानियम उसका रूपांतरण गुप्त आंदोलन में हो गया। गुरू रामसिंह ने पंजाब प्रांत के बारह मंडल (जिले) मानकर प्रत्येक पर एक-एक गुप्त मंडलाधिप (कलक्टर) नियुक्त किया। सेना में भी उन्होंने धर्म की आड़ में राजनीतिक प्रचार चालू किया। इसी बीच सन् १८६९ में उनके कुछ नामधारी कूका शिष्यों की टक्कर गायों को काटने के लिए ले जा रहे मुस्लिम कसाइयों से हो गई। उनसे झगड़ा होने पर कूकाओं ने उन्हें मार डाला और गाएँ मुक्त करवा दीं। अंग्रेजी शासन ने उन कूकाओं की धर-पकड़ के लिए इधर-उधर दौड़ भाग और मार-पीट चालू करवाई।
अपने पंथ पर आए इस संकट को टालने के लिए रामसिंह कूका ने स्वत: ही उन शिष्यों को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया और सरकार को सूचित किया कि इस घटना का कोई संबंध पंथ से नहीं है। सरकार ने समर्पित शिष्यों को फाँसी दे दी। यह प्रकरण समाप्त होते-होते जनवरी, १८७२ में कुछ मुसलमानों ने एक नामधारी कूका को पकड़ा, मारा-पीटा, उसके सामने एक गाय काटी और उसके रक्त से उस कूका को सिर से पैर तक पोता।
गुरू रामसिंह के दरबार में उस शिष्य ने जब यह कथा कही, तब सैकड़ों कूके क्रोध और संताप से भड़क गए। उन्होंने धर्मशत्रु से तत्काल प्रतिशोध लेने की शपथ ली। गुरू रामसिंह उन्हें 'ठहरो-ठहरो' कहते रहे, परंतु वे सब शस्त्र प्राप्त करने के लिए मालेर कोटला नामक मुसलमानी रियासत की ओर चल पड़े। मलौध का किला जीतकर वहाँ से शस्त्र प्राप्त करके वे सब मालेर कोटला नगर पर टूट पड़े। मालेर कोटला की सहायता अंग्रेजों को करनी ही थी; उन्होंने मेजर कारेन की टुकड़ी भेजी। नामधारी कूका अत्यंत वीरता से लड़े। उनमें से बहुत तो रणक्षेत्र में मारे गए। जो जीवित पकड़े गए, उन साठ-सत्तर नामधारियों को बड़ी ही निर्ममता से नगर के चौक पर तोपों के मुँह से बाँधा गया। तोपें दागी गई और उनकी काया के चिथड़े-चिथड़े ऊँचे उड़कर चारों ओर बिखर गए। वे धर्मवीर हिंदू जब तोपों के मुँह से बाँधे जा रहे थे, तब भी अपने गुरू रामसिंह की अखंड जय-जयकार कर रहे थे।
गुरू रामसिंह ने अपने शिष्यों द्वारा मालेर कोटला पर हमला बोलते ही तुरंत अंग्रेजी सरकार को लिख भेजा कि मेरा आदेश न माननेवाले और विद्रोह करनेवाले इन लोगों से मैंने गुरू-शिष्य का नाता तोड़ डाला है। परंतु अंग्रेज ऐसी स्वीकारोक्ति को तो माननेवाला था नहीं। उसने उन्हें अचानक पकड़ा और किसी तरह की न्यायिक प्रक्रिया न कर सन् १८१८ के रेगुलेशन के अधीन सीमा-पार ब्रह्म देश भेज दिया। स्वराज की प्राप्ति के लिए अपने प्राण संकट में डालनेवाले उस महान् गुरू का अंत निर्वासन के बाद उसी कैद में सन् १८८५ में हो गया। उनका नामधारी पंथ अभी भी जीवित है, परंतु केवल एक पंथ के रूप में।
गुरू रामसिंह कूका के सशस्त्र विद्रोह का या नामधारी धर्मवीरों के बलिदान का कोई उल्लेखनीय प्रभाव उस समय पंजाब की जनता पर नहीं पड़ा। अंग्रेजी सेना के सिख सैनिकों या बाहर के सिख समाज की कोई सहानुभूति कूका पंथ से नहीं थी। इसके विपरीत दसवें गुरू गोविंदसिंह के बाद किसी व्यक्ति को 'गुरू' न माना जाए, सिखों के इस धर्ममत के विरूद्ध रामसिंह कूका को उनका पंथ 'गुरू' मानता था और वे भी स्वयं को 'गुरू' मानते थे। इस कारण भी उनपर और उनके नामधारी पंथ पर सिख समाज का रोष था। इस संकुचित दृष्टि के कारण सिखों में नामधारियों के आत्म-बलिदान से कोई लगाव नहीं उपजा। मुसलमान तो कूका पंथ के जन्मजात दुश्मन थे ही। अंग्रेजों के द्वारा कूकाओं का सत्यानाश किया जाना मुसलमानों को इसीलिए अच्छा लगा। वे तो इसे अंग्रेजों का उपकार ही मानने लगे। अंग्रेजी पढ़े-लिखे हिंदू वर्ग की स्थिति क्या थी, यह पूर्व में वर्णित है ही। सारांश यह कि इस सशस्त्र विद्रोह से पंजाब में नई चेतना का किंचित् भी संचार न हुआ, मानो किसी चट्टान पर चिनगारी-भर आ पड़ी हो। चिनगारी स्वयं ही बुझ गई। चट्टान का पत्थर पत्थर ही बना रहा।
पंजाब के बाहर भी इस क्रांतिकारी विद्रोह का कोई सार्वजनिक हल्ला-गुल्ला उस समय नहीं हुआ। धर्मवीर गुरू रामसिंह निर्वासित रहते हुए ब्रह्म देश में ही मर गए, यह हिंदू जाति के दस-पाँच समाचारपत्रों में कदाचित् आया हो, न आया हो। फिर उस घटना पर अग्रलेख या गौरव-प्रकाशन किए जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। स्वदेश और स्वधर्म के उद्धार हेतु उस महान् व्यक्ति के अलावा रणक्षेत्र में लड़े, मरे या तोपों से उड़ाए गए उनके जिन शूर अनुयायियों ने अपने प्राणों की बलि चढ़ाई, उनके लिए इस देश में उनके देशबंधुओं और धर्मबंधुओं ने सार्वजनिक कृतज्ञता का एक आँसू भी नहीं बहाया। उनके नामधारी पंथ के भावुक शिष्यों में एक ऐसी ममतामयी श्रद्धा आज भी अस्तित्व में है कि गुरू रामसिंह की मृत्यु का समाचार असत्य है और अंग्रेजों ने केवल दुष्टबुद्धि से वह समाचार फैलाया है। वास्तव में हमारा गुरू अभी भी जीवित है।
रामसिंह कूका की वीरगाथा को प्रकाश में लाने का पहला अवसर मुझे मिला। इंग्लैंड जाने के बाद सन् १८५७ के स्वतंत्रता-संग्राम का इतिहास लिखने के उद्देश्य से जब मैं उस समय की अंग्रेजी पुस्तकों, पुस्तिकाओं आदि-जो कुछ मिला, को पढ़ने लगा, तब दो-तीन पुराने लेखों में कूका या नामाधारी पंथ के सशस्त्र विद्रोह के बिखरे हुए उल्लेख मुझे दिखे। उन्हें एकत्र करके मैंने रामसिंह के आंदोलन की सारणी बनाई। 'इंडिया हाउस' में प्रति सप्ताह 'फ्री इंडिया सोसायटी' की ओर से मेरे जो व्याख्यान होते थे, उनमें से एक व्याख्यान में मैंने गुरू रामसिंह और उनके द्वारा सन् १८५७ के बाद अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध किए गए प्रथम सशस्त्र विद्रोह का इतिहास बनाई हुई उस सारणी के आधार पर बताया था।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार, गुरू रामसिंह के चरित्र पर पहला सार्वजनिक व्याख्यान मेरे द्वारा इंग्लैंड में दिया गया। उन नामधारी धर्मवीरों को हमने उस सभा में जो सार्वजनिक कृतज्ञता के पुष्प अर्पित किए, वही पुष्पांजलि पहली श्रद्धांजलि थी। तब से मुझे जब-जब अवसर मिला, मैंने संभाषणों, व्याख्यानों और लेखों में गुरू रामसिंह कूका के चरित्र की जानकारी सार्वजनिक रूप से दी। इसी कारण आज हिंदुस्थान में क्रांतिकारियों का अभिमान रखनेवालों द्वारा लिखे गए ऐतिहासिक साहित्य में धर्मवीर और देशवीर कूकाओं के आत्मयज्ञ का कृतज्ञतापूर्ण उल्लेख थोड़ा-बहुत आ गया है।
अंग्रेजी सरकार के अंतस्थ वृत्त में कूका-विद्रोह के कारण बहुत-कुछ हलचल पैदा हुई। डंडाशाही के 'सबकुछ ठीक है' वाले जो अधिकारी थे, उनको मि. ह्यूम के कुटिल और कूटनीति के पक्षवालों ने सुनाना चालू किया -'देखा, हिंदुस्थानी जनता की दिखावटी शांति कैसी होती है? उसका यह प्रत्यक्ष उदाहरण है।'
सौभाग्य से कूकाओं का पहला झगड़ा धार्मिक कारणों से मुसलमानों से ही हुआ। इससे उनकी योजना फूट गई और मुसलमानों की सहानुभूति भी अंग्रेजों को मिल गई, अन्यथा सन् १८५७ के संकट की छोटी पुनरावृत्ति देखने को मिलती या नहीं, यह अतीत के गर्त में समा गया। फिर भी अंग्रेज कूटनीतिज्ञों का अंग्रेजी-शिक्षितों या जिन्हें वे 'अंग्रेजियत के प्रभाववाले' कहते थे, पर विश्वास बना रहा क्योंकि कूका सशस्त्र संघर्ष में सम्मिलित अधिकतर लोग अशिक्षित थे। उलटे उस अंग्रेजी-शिक्षित वर्ग को ही घेरकर और संगठित कर उनके द्वारा सामान्य जनता में ब्रिटिश राजनिष्ठा का प्रचार करने की योजना बनाई जा रही थी, पर अंग्रेजी-शिक्षित भारतीय वर्ग पर जो विश्वास अंग्रेजों का था, उसे भी दो-तीन वर्षों में ही एक बलवत्तर झटका लगा।
प्रकरण - ८
क्रांतिवीर वासुदेव बलवंत फड़के
मैंने पहले ही कहा है कि उपर्युक्त अवधि में महाराष्ट्र में अंग्रेजी-शिक्षित वर्ग में ही एक सशस्त्र क्रांतिनिष्ठ पक्ष गठित होकर ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध गुप्त कार्यवाहियाँ करने लग गया था। अंतत: उस पक्ष के नेता क्रांतिवीर वासुदेव बलवंत फड़के ने अंग्रेजों द्वारा छीनी गई अपने देश की स्वतंत्रता पुन: प्राप्त करने के लिए सन् १८७८ में स्पष्ट रूप से सशस्त्र क्रांति की घोषणा कर दी।
जिन पाठकों को वासुदेव बलवंत फड़के की सशस्त्र क्रांति का रोमांचक वर्णन विस्तार से जानना हो, वे श्रीयुत् वि. श्री. जोशी द्वारा लिखित प्रसिद्ध मराठी पुस्तक 'वासुदेव बलवंत फड़के यांचे चरित्र' पढ़ें। उसमें सारा इतिहास साधार, साद्यंत तथा सरसतापूर्वक वर्णित है। तथापि यहाँ वासुदेव बलवंत फड़के के चरित्र में से कुछ घटनाओं का उल्लेख आवश्यक है।
वासुदेव बलवंत ने अपना एक आत्म-चरित्र सन् १८७१ के आसपास लिखा था। वे दैनंदिनी (डायरी) भी लिखा करते थे। उन्हें जब सरकार ने पकड़ा, तब उनके सामान में उपर्युक्त दोनों वस्तुएँ मिली थीं। इसके सिवाय उनपर और उनके साथियों पर चले न्यायिक प्रकरण से भी उनके क्रांतिकारी विचार और आचार पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। उपर्युक्त आधार पर वासुदेव बलवंत पर लिखा 'सुशील यमुना' या ऐसे ही किसी नाम का एक उपन्यास मैंने पढ़ा था, ऐसा कुछ स्मरण आता है। वह उपन्यास रायबहादुर महादेव गोविंद रानडे के प्रोत्साहन से लिखा गया था। इसके अतिरिक्त क्रांतिवीर फड़के के सशस्त्र विद्रोह के संबंध में प्रचलित अनेक दंतकथाएँ भी हम बच्चे उस समय के प्रौढ़ों से बड़ी उत्सुकता से सुनते थे। हमारे क्रांतिप्रवण हृदय उस वीरगाथा को सुनकर स्फूर्ति पाते थे। मैं पढ़ने के लिए जब नासिक में आया और अपनी गुप्त संस्था की एक प्रचारात्मक प्रकट शाखा 'मित्र मेला' की स्थापना की, तब उसकी एक बैठक की थी। उक्त बैठक में हमने अपनी क्रांतिकारी गुरू-परंपरा के जो चित्र लगाए थे, उनमें एक चित्र फड़के का भी था जिसे हम एक दरजी की दुकान से लाए थे। दरजी ने वह चित्र बड़े भक्ति-भाव से एक परदे की आड़ में टाँग रखा था।
वासुदेव बलवंत का जन्म सन् १८४५ में हुआ था। जब वे बारह-तेरह वर्ष के थे, तब उत्तरी हिंदुस्थान में सन् १८५७ का क्रांतियुद्ध पूरे जोरों पर था। क्रांतियुद्ध के नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, कुँवर सिंह आदि नेताओं और संग्राम की वीरगाथाओं की चर्चा महाराष्ट्र के हाट-बाजार तथा गली-नुक्कड़ पर कुछ प्रकट और कुछ चुपके-चुपके होती थी। वासुदेव बलवंत के घर में भी उनके पिता तथा चाचा की मित्र-मंडली में उन वीरगाथाओं की चर्चा जोर-शोर से होती थी। समाचार लाने और फिर उसे पूरे जोश से मित्र-मंडली को सुनाने का काम वासुदेव के पिता बलवंत बड़े उत्साह से किया करते थे। बालक वासुदेव तल्लीन होकर पिता के चेहरे की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए कथा सुनता था और मन-ही-मन स्वप्न देखा करता था कि बड़ा होने पर अंग्रेजी राज समाप्त कर स्वेदश को स्वतंत्र करवाएगा।
वासुदेव को फिर एक विद्यालय (हाई स्कूल) में अंग्रेजी पढ़ाई गई। विद्यालय छोड़ने के बाद भी वासुदेव अंग्रेजी पढ़ता रहा। उसने उस भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। वह अंग्रेजी अच्छी तरह बोल भी लेता था। उसने कुछ वर्ष तक इधर-उधर छोटी-मोटी नौकरी की। सन् १८६५ में वह सेना के वित्त विभाग (मिलिटरी फाइनेंस डिपार्टमेंट) में लिपिक हो गया। यह नौकरी पुणे में थी, इसलिए वह पुणे आया और यही उसके स्वदेश-भक्ति रूपी इस्पात पर पुणे के राजनीतिक वातावरण की धार चढ़ी।
सरकारी नौकरी करते हुए उनके मन को बेचैन करनेवाली एक व्यक्तिगत घटना भी घटित हुई। उनकी माँ, जो शिरढोण नामक गाँव में रहती थीं और जिन्हें वासुदेव बलवंत बहुत प्रेम करते थे, गाँव में ही अस्वस्थ हो गई। उनसे तत्काल मिलने जाने के लिए उन्होंने अधिकारियों से अवकाश माँगा, परंतु अनुमति देने में वे अधिकारी टालमटोल करने लगे। यह स्थिति देखकर वे बिना अनुमति के ही पुणे से गाँव चले गए। वहाँ पहुँचे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी माँ का देहावसान हो चुका है। यह सुनकर उनके दु:ख का पारावार नहीं रहा। 'मेरी माँ इस जन्म में अब मुझे कभी नहीं दिखेंगी', यह बात उन्हें बहुत चुभी। इसका भी उन्हें बहुत दु:ख हुआ कि उनकी माँ अपने अंतिम समय अपने पुत्र का मुँह भी नहीं देख पाई। वे पुणे लौटे, नौकरी पर गए, किंतु उनका भीषण झगड़ा उस अधिकारी से हुआ, जिसके द्वारा अनुमति न दिए जाने के कारण वे तत्काल गाँव नहीं जा पाए थे। इस अन्याय के विरूद्ध उन्होंने बंबई सरकार से अपील की। परंतु एक सामान्य लिपिक की बात कौन सुनता? फिर, जब उनकी माँ के वार्षिक श्राद्ध का दिन आया, तब भी उनका अवकाश स्वीकार नहीं हुआ। इससे उन्हें न केवल अत्यधिक दु:ख हुआ, अपितु अवकाश न देनेवाली अंग्रेज सत्ता की समस्त राज-व्यवस्था के प्रति ही अत्यधिक घृणा उनके मन में भर गई। अन्याय का बदला किस तरह लिया जाए, उनका संतप्त मन यही सोचने लगा।
वासुदेव बलवंत का मन मूल में ही स्वराष्ट्र-भक्ति एवं स्वराज-निष्ठा से ओत-प्रोत था। उनके संतप्त मन में इस घटना से जैसे तूफान खड़ा हो गया और फिर व्यक्तिगत जीवन से ऊपर उठकर राष्ट्र-जीवन के साथ एकात्मता स्थापित करने का विचार आया। उनका व्यक्तिगत क्रोध उदात्त होकर राष्ट्रीय क्रोध में बदल गया। उन्होंने संकल्प लिया और फिर स्वयं को स्वदेश-सेवा के लिए अर्पित कर दिया। उन्होंने देश को स्वतंत्र कराने के लिए अपना प्राण न्योछावर करने तक की ठानी।
स्वदेश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का निश्चय करते ही वासुदेव बलवंत ने रायबहादुर रानडे के व्याख्यान के कारण सन् १८७२-७३ में उभरे पहले स्वदेशी आंदोलन के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया। अनेक लोगों की तरह उन्होंने भी स्वदेशी वस्त्र और अन्य वस्तु उपयोग में लाने का व्रत लिया। वे सरकारी नौकरी पर भी स्वदेशी कपड़ों में ही जाते। इससे भी उनको संतोष न हुआ तो वे स्वदेशी का प्रचार करने के लिए व्याख्यान भी देने लगे। उनके व्याख्यान तीखे होते थे। व्याख्यान के लिए डोंडी भी वे स्वयं पीटते थे। पुणे में गली चौक में थाली पीट-पीटकर वे घोषणा करते -'भाइयो-बहनो, सुनो! आज शनिवार बाड़े के सामने मेरा व्याख्यान है। हमारा देश स्वतंत्र होना चाहिए। अंग्रेजों को भगा देना चाहिए - यह सब कैसे हो, यही मैं अपने व्याख्यान में कहूँगा!!' इन व्याख्यानों के साथ ही युवकों के लिए उन्होंने एक अखाड़े की भी स्थापना की। वे स्वयं बड़े व्यायाम-निपुण थे। उनका शरीर कसा हुआ था। वे घोड़ा दौड़ाते थे। साथ ही खड्ग, खंजर, पटा, पिस्तौल, बंदूक, बरछी आदि शस्त्र चलाने में भी निपुण थे। लोगों को सबकुछ सिखाने का उपक्रम उन्होंने चालू किया। इस अखाड़े में जिन युवकों की भीड़ होती थी, उनमें अधिकतर अंग्रेजी-शिक्षित ही थे। उनके अखाड़े के एक छात्र का नाम था - बाल गंगाधर तिलक।
बिना शस्त्र स्वराज नहीं
'बिना शस्त्र धारण किए स्वराज नहीं मिलेगा'- उनका बार-बार यही कहना होता था। सन् १८७६-७७ के अकाल से क्रोधित लोगों में लूट, चोरी, डकैती आदि का क्रम तेजी से चल रहा था। उनमें से भील, रामोशी प्रभृति कुछ साहसी जातियों के लोगों को वासुदेव ने अपना साथी बना लिया। धीरे-धीरे दो-तीन सौ सशस्त्र लोगों की मुट्ठी भर सेना उनके पास हो गई। अपनी गुप्त संस्था के गद्रे, साठे आदि सुशिक्षित लोग भी उनके साथ थे। अन्य सुशिक्षित एवं प्रतिष्ठित अनुयायियों द्वारा गुप्त सहायता देने का वचन भी उन्हें प्राप्त हुआ। इस तरह सन् १८७९ के प्रारंभ में सशस्त्र विद्रोह करने का निश्चय उन्होंने किया। उसी के अनुसार 'हमें अंग्रेजों का राज पलटकर हिंदुस्थान में स्वतंत्र लोकसत्तात्मक स्वराज की स्थापना करनी है'- यह सार्वजनिक घोषणा करके वासुदेव बलवंत ने सशस्त्र क्रांति का रणसिंहा फूँक दिया।
ऐसी क्रांतिकारी सेना बनाने के लिए धनवानों से पैसा माँगने पर कोई भी नहीं देता, यह अनुभव जब उन्हें हुआ, तब उन्होंने गाँव-गाँव में छापे मारना प्रारंभ कर दिया। सरकारी कोषागार लूटने का भी उनका विचार था। उनकी टोलियाँ जब डकैती करने लगीं, तब चारों ओर आतंक फैल गया। पुलिस दल भी उनका सामना करने से कतराने लगा। बंबई सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए मेजर ड्यानियल को नियुक्त किया। मेजर अपनी सेना की टुकड़ी लेकर वासुदेव बलवंत को पकड़ने चला। वासुदेव बलवंत घोषणा करते थे -'हम कोई भूखे-नंगे डकैत नहीं हैं, देश के स्वतंत्रता-संग्राम के लिए निकले सशस्त्र क्रांतिकारी हैं!' अंग्रेजी-शिक्षित वर्ग के अनेक सरकारी नौकर, शिक्षक, छात्र, बड़े अधिकारी तथा कुछ समाचारपत्रों के संपादक भी बलवंत से जुड़े हुए थे। वे भी 'फड़के' के लिए लोकसहानुभूति उत्पन्न करते रहे। इस कारण मेजर ड्यानियल की कुछ चल नहीं पा रही थी। उधर वासुदेव बलवंत का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। लोग उन्हें प्यार से 'दूसरा शिवाजी' भी कहने लगे। उनके दल के सैनिक उन्हें 'महाराज' कहते थे। उनकी टोली के एक सदस्य का विशेष उल्लेख यहाँ करना आवश्यक है। उस सदस्य का नाम था - दौलत रामोशी।
सरदार दौलतराव
महाराष्ट्र में 'रामोशी' नामक एक जाति है। इस जाति के बहादुर जवान अधिकतर चोर-डकैतों के दल में घुसे रहते थे। वासुदेव बलवंत की प्रेरणा से उनमें से कितने ही स्वधर्म के अभिमान से देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले स्वयं-सैनिकों की पात्रता पा गए। उन्हीं में से एक था दौलतराव रामोशी। वह वासुदेव बलवंत का इतना तत्वनिष्ठ एवं एकनिष्ठ अनुयायी बन गया कि उन्होंने उसको 'सरदार दौलतराव' की उपाधि दी और उसे स्वतंत्रता सैनिकों के एक दल का प्रमुख बना दिया। मेजर ड्यानियल ने पहले उसी का पीछा करना आरंभ किया। मेजर ड्यानियल पीछे-पीछे और दौलतराव लूटमार करते हुए आगे-आगे। यह क्रम लंबा चला। परंतु एक बार एक पहाड़ी, जिसे 'ठिसुबाई की टेकड़ी' कहा जाता था, के पास दोनों का आमना-सामना हो गया। जब लुका-छिपी का दाँव खेलना असंभव लगने लगा, तब सरदार दौलतराव ने ड्यानियल पर गोलियों की वर्षा आरंभ कर दी। ड्यानियल के सैनिक कसे हुए प्रशिक्षित थे। उनके पास गोला-बारूद भी भारी मात्रा में था। गोलीबारी में दोनों ओर के सैनिक हताहत होते-होते दौलतराव की टुकड़ी लगभग समाप्त हो गई। दौलतराव के किसी सहयोगी ने कहा, 'अब हम स्वयं ड्यानियल की शरण में जाएँ - यह उचित है, 'परंतु उन्होंने उत्तर दिया, 'नहीं, मैं अंग्रेजों के हाथों जीवित पड़नेवाला नहीं।'
लड़ते-लड़ते अकस्मात् ड्यानियल और वे आमने-सामने आ गए। दौलतराव ने शीघ्रता से बंदूक छोड़ पिस्तौल से ड्यानियल पर गोली चलाई, परंतु वह चूक गई, जबकि ड्यानियल की गोली दौलतराव के हृदय में लगी और वे धराशायी हो गए। स्वदेश-स्वातंत्र्यार्थ अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते जिन हिंदू वीरों ने 'अभिमुख शस्त्राघाती समरमखामागि राहिले काय' (अभिमुख शस्त्राघात पर, समरमख में कभी हटे नहीं थे) आत्माहुति दी, उनकी नामावली में क्रांतिवीर सरदार दौलतराव रामोशी का नाम शीर्ष पर लिखा जाना चाहिए।
ब्रिटिश शासन की बंबई सरकार को जल्दी ही यह समझ में आ गया कि बात हलकी-फुलकी नहीं है। इसलिए केवल एक मेजर ड्यानियल और उसकी सैनिक टुकड़ी कुछ नहीं कर पाएगी। तब बंबई सरकार ने तीन-चार और अधिकारियों को कर्नल क्रिस्पिन, मेजर फुल्टन, कैप्टन ब्रेन आदि अधिक संख्या में सैनिक देकर फड़के के स्वतंत्रता-संग्राम को रोकने के लिए भेजा। बंबई सरकार ने वासुदेव बलवंत को पकड़ने के लिए बड़ा पुरस्कार भी घोषित किया। इस घोषणा के उत्तर में वासुदेव बलवंत की अपनी सरकार ने भी घोषणा की कि जो कोई बंबई के गवर्नर सर रिचर्ड टेंपल, पुणे के कलक्टर और सेशन जज का सिर काटकर ला देगा, उसे पुरस्कार दिया जाएगा। इस घोषणा-पत्र पर वासुदेव बलवंत का मोटे अक्षरों में बड़ा ही शानदार हस्ताक्षर था और उस हस्ताक्षर के नीचे लिखा था -'पेशवा का नया मुख्य प्रधान- वासुदेव बलवंत फड़के।'
वासुदेव बलवंत ने यह भी घोषणा की कि अब हम हर यूरोपी पर हमला करके देश के शत्रुओं को मारेंगे। सन् १८५७ के संग्राम की पुनरावृत्ति होगी। पूरे देश में संघर्ष होगा।
क्रांतिकारियों का यह घोषणा-पत्र बड़े-बड़े नगरों में दीवारों पर क्रांतिकारियों में से कौन, कब चिपका जाता था, कभी ज्ञात नहीं होता था। वासुदेव बलवंत की सारी धमकियाँ खोखली नहीं होतीं, यूरोपीय बस्तियों में यह आतंक था। इसी समय केशव रानडे आदि क्रांतिकारियों द्वारा पुणे में, जहाँ अंग्रेजों के बड़े दफ्तर थे, दो बाड़ों-विश्रामबाग बाड़ा और बुधवार बाड़ा - को आग लगा दी गई। इन दोनों भवनों में रखे सारे कागज-पत्र जलकर राख हो गए। इस घटना से पुणे पर वासुदेव बलवंत के संभावित आक्रमण की एक अफवाह उड़ी। बंबई में भी यही अफवाह उड़ी। सन् १८५७ के दिनों की आग में झुलसे सारे नगर-ग्रामनिवासी यूरोपीय डर गए। अलग-अलग रहनेवाले यूरोपीय लोगों ने अपने बाल-बच्चे सुरक्षित स्थानों पर भेज दिए। जो समूह में रहते थे, उन्होंने शस्त्र और गोला-बारूद का प्रबंध कर लिया। वासुदेव बलवंत की इस धूमधाम के समाचार देसी अखबारों से देश भर में फैल गए। यही नहीं, इंग्लैंड के 'डेली टेलीग्राफ', 'मॉर्निंग पोस्ट', 'टाइम्स' आदि समाचारपत्रों में भी फड़के फड़कने लगे।
पार्लियामेंट में भी महाराष्ट्र के सशस्त्र विद्रोह को लेकर प्रश्न किए गए। उस समय के समाचारपत्रों की कतरनों को यहाँ उद्धृत करने से ही उस समय की परिस्थिति की कल्पना अधिक स्पष्ट होगी। इसलिए मैं कुछ बानगी नीचे दे रहा हूँ -
ऐंग्लो-इंडियन पक्ष के 'बॉम्बे गजट' में लिखा था-
'The rumours that have been flying about Western India for the past few months have now received ample confirmation. The rumours ascribe to certain members an ambition on their part to renew in Western India those tactics by which Shivaji in days gone by succeeded eventually in sapping the power of the them mighty Mughal Empire. A little of martial law would do Poona a great deal of good. The Mutiny (of 1857) attained its dangerous proportion mainly because we ignored it at the beginning. There should be no mistake of that sort in Poona now.' (Bombay Gazette; 15 May, 1879)
'We are sorry that the Government should be away from the presidency at a time of panic and Bombay was almost panic stricken when it heard on Tuesday last of the dacoity at Palaspe, which is only a few miles from this place.' (Native opinion; 18.5.1879, Bombay.)
'A feeling of extreme uneasiness at the exploits of the decoits is becoming very general. The people in the city and cantonment of Poona are greatly alarmed. Accounts of dacoities continue to be received in nearly all parts of the presidency. Even the Europeans residing in the railway lines are frightened in to sending their wives and children away for safety.' (Bombay Gazette; 19.5.1879)
'लंदन टाइम्स' ने भी भारत में उठते बवंडर के समाचार छापते हुए ऐसा मत व्यक्त किया था -'These armed gangs seem to form a part of a regular organization under the command of one Vasudeo Balwant lately a clerk in the Finance Department.'
इसी समाचारपत्र ने एक संपादकीय में लिखा था - 'The manifesto sent to the Bombay Governer resembles the insolence of Irish Ribandism. It talks of organizing another Mutiny (of 1857) and invents as its patron a mysterious potentate on whom it bestows the name of Shivaji the Great, founder of Maratha Empire.' (London Times; 19.5.1879)
मद्रास के 'इंडियन डेली न्यूज' ने इसी मई माह में लिखा -'The people of Poona and Satara have a history of dacoits ripening into successful rebellions, a living history repeated in their folk songs. Vasudeo Balwant's true character has not yet been comprehended. If he be capable of half burning the capital of Maharashtra and of filling all the country with terror at the expectation of his name, the reward (for his capture) appears to be too small.' आदि-आदि।
कलकत्ता के Statesman ने लिखा है - 'It is not strange that the recent incendiarism at Poona should have excited the keenest interest and enxiety throughout the country… where confiagrations have come to be recognized as serious rebellion…' (21.5.1879)
अंत में अंग्रेजी सैनिक दलों के चारों ओर से घेर लेने के बाद मेजर ड्यानियल ने २० जुलाई को वासुदेव बलवंत और उनके साथियों को पकड़ा। उनपर एवं उनके चुने हुए साथियों पर अंग्रेजों की सरकार के विरूद्ध सशस्त्र युद्ध घोषित करना, डाके डालना आदि के आरोप लगाकर न्यायिक कार्रवाई चालू की गई। कारागृह में वासुदेव बलवंत को कष्ट दिए गए। उन्होंने आत्महत्या का भी प्रयास किया, परंतु वह विफल हुआ। पुणे में न्यायालय के आसपास सैकड़ों लोग उनके दर्शन पाने के लिए खड़े रहते थे। वे सब वासुदेव बलवंत की जय-जयकार भी करते थे। उन दिनों उन्हें कोई विधिज्ञ (वकील) मिलना कठिन था, पर 'जगत् काका' के नाम से ख्यात गणेश वासुदेव जोशी ने वकातलनामा प्रस्तुत किया।
अभियोग चालू हो जाने पर वासुदेव बलवंत ने वकील की सलाह के अनुसार कहा, 'मैंने आत्मवृत्त तीव्र आवेग में लिखा है, वह साक्ष्य के लायक नहीं है। रामोशी डकैती डालते ही हैं, उनको पकड़कर सरकार के सुपुर्द करने हेतु मैंने उनसे मित्रता की। विद्रोह करने का मेरा विचार नहीं था। साक्षीगण पुलिस के डंडे के भय से झूठ बोल रहे हैं।' सरकारी शिकंजे से छूटने के लिए वकील ने जो-जो सिखाया, वह उन्होंने कहा, पर अंत में इस नाटक का निर्वाह नहीं कर पाए और जो कुछ सत्य था, वही उन्होंने कहा-विधिक प्रकरण में साक्षीगणों ने कहा कि वासुदेव बलवंत हमसे कहा करते थे कि 'मुझे ब्रिटिश राज उलटकर हिंदू राज स्थापित करना है।'
स्वयं वासुदेव बलवंत द्वारा लिखा हुआ आत्मवृत्त और दैनंदिनी सरकार की ओर से साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की गई। वासुदेव बलवंत ने भी अपने अंतिम वक्तव्य में निर्भय होकर उसका अनुवाद किया - उन्होंने कहा, 'ऐ मेरे सर्व हिंदुस्थानवासी बंधुओ! आपके कल्याण के लिए मैंने अपने प्राण झोंक दिए हैं। ऐसा करके मैं कोई विशेष कार्य कर रहा हूँ, ऐसा नहीं है। क्या दधीचि ऋषि ने देवों के कल्याण के लिए अपनी हड्डियाँ निकालकर नहीं दी थीं? वैसे ही मेरे प्राण लेकर ईश्वर आप सबका कल्याण करे, यही उससे मेरी प्रार्थना है।... मेरे देशबंधुओं पर अंग्रेजों द्वारा किए गए नानाविध अत्याचारों पर विचार करते-करते मेरा मन अंग्रेजी सत्ता का नाश करने के लिए मचलने लगा। प्रात:काल से संध्याकाल पर्यंत और रात्रि में तथा नींद में भी मेरा निरंतर वही विचार चलता रहता था। मध्य रात्रि में मैं उठ बैठता और देर तक इसपर विचार करता रहता कि ब्रिटिशों का नाश कैसे किया जा सकता है। जिस भूमि की कोख से मेरा जन्म हुआ, उसी से सारे जन्मे। वे दाने-दाने के लिए तरसते हुए मरें और हम कुत्ते की तरह पेट भरें, यह मुझसे सहन नहीं होता था। मैंने इसलिए अंग्रेजों के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह छेड़ा, नौकरी पर लात मारी और स्वराज के लिए लूटमार से धन भी एकत्र करने का निश्चय किया।... इस तरह अच्छे आधार पर खड़ा छोटा विद्रोह कर अपना राज क्यों न प्राप्त किया जाए। इस तरह सब ओर से सशस्त्र प्रयास होने पर यदि चमत्कार होता तो प्रजासत्तात्मक राज्य की स्थापना का मेरा उद्देश्य पूरी तरह सिद्ध हो जाता। फिर आकाश से स्वयं ईश्वर ही उतरकर अंग्रेजों को बचाता तो बचाता, पर यह न हो सका। मुझे सफलता नहीं मिली, परंतु ईश्वर जानता है, यह सब मैंने देश के लिए किया। ऐ हिंदुस्थानवासी लोगो, मुझसे आपको कोई लाभ न हुआ। मैं अपना उद्देश्य प्राप्त नहीं कर सका, इसके लिए आप मुझे क्षमा करें।'
अभियोग की सारी कार्यवाही के अंत में वासुदेव बलवंत को आजीवन कारावास का दंड दिया गया। इसके बाद विधिक सच-झूठ का सहारा लेकर एक अपील भी उन्होंने की। अपील में उन्होंने कहा था - मैंने विद्रोह कभी किया ही नहीं। मैं तो ब्रिटिश राज का राज्यनिष्ठ नागरिक था। शिवाजी ने भी 'मैं मुस्लिम बादशाह का एकनिष्ठ सेवक हूँ' ऐसे स्वाँग कई बार किए थे। उनकी अभ्यर्थना (अपील) अस्वीकार हुई। सरकार ने उन्हें आजीवन कारावास भोगने के लिए 'अदन' भेज दिया।
वहाँ कारावास में रहते हुए इस वीर व्यक्ति ने एक रात हाथ-पैर की बेड़ियाँ तोड़ डालीं, कोठरी के द्वार उखाड़ डाले और कारागृह की दीवार पर चढ़कर भाग गया। प्रात: काल होते ही इस अद्भुत साहस की कथा अधिकारियों ने पढ़ी। तुरंत ही इधर-उधर घोड़े दौड़ाए गए। दौड़कर कई कोस दूर पहुँचे उस क्रांतिकारी वीर को दिन ढलते फिर से पकड़ लिया गया। वह पुन: कारागृह में बंद कर दिए गए। एक-दो वर्षों में उनका वह बलवान शरीर दुर्बल हो गया और सन् १८८३ में वह पराक्रमी देशभक्त तिल-तिलकर कारागृह में ही मर गया।
उनके संबंध में देशवासियों के मन में क्या था, वह उस परिस्थिति में अंग्रेजी कानूनों की भयानक जकड़न में जितना अधिक स्पष्टता से कहा जा सकता था, उतना पूरी सदयता से 'अमृत बाजार पत्रिका' ने कह डाला। उस समाचारपत्र के संपादक ने लिखा है -'Vasudeo Balwant Phadake possesses many of the traits of those high souled men who are now and then sent in this world for the accomplishment of great perposes… The noble feelings of a Washington a Tale (of Switzerland) and a Garibaldi animated his breast and if he is not appreciated in this country… His heart overflowed with love for India. Whatever he had he was willing to offer for his country, even his life. The every idea of establishing a Republic shows the unselfish nature of his mind. He had no intention to establish a Raj of his own…. Forget for a moment that Phadake led bands of dacoits and sought the subversion of British Government and then he stands before you as a being as superior to the common herd of humanity as the Himalayas to the Satpura Range.' (A. B. Partica; 15.11.1879)
इस सशस्त्र विद्रोह के साठ-सत्तर सदस्यों को काला पानी भेजा गया। कुछ यों ही मर गए। अनेक की गृहस्थी उजड़ गई और आश्चर्य यह कि अंग्रेजों के विरूद्ध छेड़े गए इस सशस्त्र विद्रोह में एक भी अंग्रेज का रक्त नहीं बहा, अंग्रेजों का घर-बार नहीं लूटा गया। इसका कारण मुख्य रूप से यही था कि क्रांतिकारियों का कार्यक्रम ही दिशा भूल गया था। अंशत: इसे 'योगायोग' ही कहा जाएगा।
रामसिंह कूका और वासुदेव बलवंत
सन् १८५७ के बाद १८८४ तक अंग्रेजी शासन के विरूद्ध इन दो उल्लेखनीय क्रांतिकारी विद्रोहों में स्वरूपत: ही कुछ विभेद था। गलती से ठोकर लगकर फटा हुआ बम और निशाना साधकर फेंका गया बम, इसमें जो भेद होता है, वही भेद इनमें था। अंग्रेजों का विश्वास जिस वर्ग पर था, उस अंग्रेजी-शिक्षित एवं सरकारी सेवक वर्ग में से ही वासुदेव बलवंत और उसके क्रांतिकारी अनुयायी आगे आए। अंग्रेजी राज उलटकर मातृभूमि को स्वतंत्र करने और उस स्वतंत्र हिंदुस्थान में प्रजासत्तात्मक राज की स्थापना करने के लिए हम शस्त्र उठा रहे हैं, ऐसी घोषणा उस समय के भारतीय नेताओं को असभ्य, अभद्र और अवाच्य लगने वाली थी, पर अंग्रेजों को सर्पदंश की तरह प्राणघातक लगने वाली विषबुझी भाषा में घोषणा कर वासुदेव बलवंत ने क्रांतिकारी विद्रोह किया था। उसमें भी परिस्थिति ऐसी कि कूका आंदोलन को स्थानीय सहायता और सद्भाव न मिलने के कारण 'तेरी भी चुप, मेरी भी चुप' के बहाने अंग्रेज उस विद्रोह का उल्लेख कहीं न करके छिपाने में सफल हो गए। इस कारण सशस्त्र विद्रोह की परंपरा पंजाब में जड़ नहीं जमा सकी, परंतु महाराष्ट्र में रामोशी, किसान तथा पशुपालकों से लेकर स्वयं को ब्रिटिशनिष्ठ कहलाने वाले बड़े-बड़े और धनवान नेताओं तक ने अपनी-अपनी तरह से वासुदेव बलवंत को देशवीर के रूप में सम्मान और मान्यता दी। इन सब कारणों से इस सशस्त्र विद्रोह का हल्ला-गुल्ला न केवल स्वदेश में, बल्कि विलायत में भी हुआ और इस कारण सशस्त्र क्रांति की परंपरा महाराष्ट्र में जड़ जमा सकी।
प्रकरण - ९
वासुदेव बलवंत का सशस्त्र संघर्ष
(अंग्रेजी सत्ता पर हुई प्रतिक्रिया)
हिंदुस्थान का राजकाज जिन नागर और सैनिक ब्रिटिश अधिकारियों के हाथों रहता था, उनमें से दंडनैतिक वर्ग भी इस क्रांतिकारी विद्रोह से भयभीत हुए बिना न रह सका। राज्य-व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो गया है, यह उनको मानना पड़ा। किंतु सदैव ऐसी हाँक लगाते रहना उस वर्ग के लिए कठिन हो गया था।
अंग्रेज अधिकारियों के दूसरे वर्ग, जो पहले से ही डंडाशाही वर्ग को 'देखो सावधान रहो, नहीं तो फिर सन् १८५७ की भाँति प्राण संकट में पड़ेंगे' कहता आ रहा था, को अपनी दूरदृष्टि की शान बघारने और हिंदुस्थान का राजकाज अपनी कही कूटनीति से चलाने का अवसर वासुदेव बलवंत के सशस्त्र विद्रोह के कारण प्राप्त हुआ। महाराष्ट्र में जिस वर्ग को ब्रिटिशनिष्ठ वर्ग समझते थे, उस अंग्रेजी-शिक्षित वर्ग में ही ब्रिटिशद्रोह पनप रहा है, यह तथ्य सशस्त्र विद्रोह से स्पष्ट हो जाने से सारे ब्रिटिश कूटनीतिज्ञ भयभीत हो गए थे। वह ब्रिटिश द्रोह का छूत अन्य प्रदेशों के ब्रिटिशनिष्ठ अंग्रेजी-शिक्षित वर्ग में न फैल पाए, इसके लिए उन्होंने तत्काल साम-दाम-दंड-भेद का मायाजाल फैलाना शुरू कर दिया। इस ऐंग्लो-इंडियन वर्ग के नेता थे ए. ओ. ह्यूम। इन ह्यूम साहब का चरित्र उनके ही वर्ग के उनके एक साथी ने लिखा है। उस चरित्र में ह्यूम की उस समय की वैचारिक दशा का यह चित्र हमें देखने को मिला है -
'Looking over India during the period with the help of information at his (Hume's) disposal (he had served as chief secretary to the Viceroy) Hume became convinced that concerted action by responsible friends of India was necessary to counteract the dangerous currents of opinions and to turn the gathering political consciousness of educated Indians into pacific and fruitful channels. When Lyton left (1880 A.D.) the country after a term during which famine, frontier wars and administrative Vagaries had combined to produce a mass of ugly feelings, the outlook was exceedingly disquieting…
'Hume realized that the existing Government administered by foreign officials on outocratic lines was dangerously out of tune with the people. There was a great gulf between the foreign beaurocracy self centered on the heights of Simla and the millions living on the plain below. And about the year 1878-79 economic combined with political troubles were actively at work throughout India… While in schools and colleges the leaven of Western education was working among the intellectuals teaching lessons of political Histroy and now it was only through storm and stress that the British people had won for themselves the blessings of freedom.
'Hume knew there was imminent risk of a popular out-break of which Indian leaders were blissfully ignorant. The new wine was fermenting in old bottles and that any time the bottles might burst.
'There existed no recognized channel of communication between the rulers and the ruled. The absence of which found the Government imprepared to meet the emergency in 1857;
उपर्युक्त उद्धरण का अनुवाद देने की आवश्यकता नहीं है। इन अंग्रेज कूटनीतिज्ञों के विचारों के संबंध में हमने पहले जो कहा, वही इसमें कहा गया है। केवल उसे उनके अपने शब्दों का आधार होना चाहिए। इसलिए हमने उपरोक्त उद्धरण दिए हैं। उसमें वासुदेव बलवंत के सन् १८७८-७९ के सशस्त्र विद्रोह और सत्तांतरण का स्पष्ट उल्लेख है। अंग्रेजी सत्ता को वास्तविक डर ऐसे ही सशस्त्र क्रांतिकारी विद्रोह का है। ऐसे साधनों की ओर भारतीय लोगों का ध्यान न जाए, इसलिए उनकी दिशा परिवर्तित करने के लिए क्या-क्या लालच दिए जाएँ, अंग्रेजी सत्ताधिकारियों और कूटनीतिज्ञों की यह चिंता उपर्युक्त उद्धरण में स्पष्ट है। इस संबंध में अंग्रेजी सलाहकारों के बीच गहन चर्चा के उपरांत यह तात्कालिक गुप्त नीति निश्चित हुई थी कि अंग्रेजी-शिक्षितों एवं सरकारी सेवकों का जो एक ब्रिटिशनिष्ठ, प्रभावी, संपन्न और मुखर वर्ग हिंदुस्थान के सभी प्रांतों में अस्तित्व में है, उसे संगठित करने के लिए उनकी एक अखिल भारतीय संस्था स्थापित की जाए। इस ब्रिटिशनिष्ठ भारतीय संस्था के हाथों से ही जनता में उदित हो रही क्रांतिकारी प्रवृत्ति की पुरानी जड़ें आसानी से खोदकर निकाली जा सकती हैं और नए अंकुर पैदा होना असंभव किया जा सकता है, ऐसा विश्वास अंग्रेजी कूटनीतिज्ञों को हो गया था। अत: इस वर्ग के नेता श्री ह्यूम ने सन् १८८३ में सरकारी सेवा से मुक्त होते ही यह काम अपने हाथों में लिया।
पहले उन्होंने हर प्रांत के ब्रिटिशनिष्ठ भारतीय नेताओं से अपने मन की बात छिपाते हुए विचार-विनिमय किया। उस समय देश में स्थापित हो चुकी या स्थापित हो रही भारतीय राजनीतिक संस्थाओं का भी अनुमान उन्होंने लगाया।
ऐसी संस्थाओं में आयु और कर्तव्य से अग्राधिकार-प्राप्त संस्था थी पुणे की 'सार्वजनिक सभा'। रायसाहब श्री रानडे प्रभृति अनेक अंग्रेजी-शिक्षित बड़े नेताओं ने सन् १८७० में वह राजनीतिक संस्था स्थापित की थी। लोगों में बड़े प्रेम और आदर से 'जगत् काका' कहलाए जानेवाले गणेश वासुदेव जोशी उस सभा के सबसे कर्मठ देशभक्त कार्यकर्ता थे। उनका पूरा जीवन मानो इसी सभा के लिए समर्पित था। वासुदेव बलवंत फड़के भी उस सभा में थे। कोरी भाषणबाजी से अपना मन उचट जाने तक वे उस सभा के सक्रिय कार्यकर्ता थे। वैसे तो वह संस्था विधि की मर्यादाओं में कार्यरत संस्था थी, पर सन् १८७४ में ही उसने एक ऐसा प्रस्ताव पारित किया था, जो उस समय किसी भी कार्यरत राजनीतिक संस्था को नहीं सूझ-सँभल रहा था। प्रस्ताव था कि हिंदुस्थान के प्रतिनिधि ब्रिटिश पार्लियामेंट में लिए जाएँ और भारत का राजकाज उनके विचार से चलाया जाए। इस सार्वजनिक सभा के अनुकरण में बंबई के फिरोजशाह मेहता, तैलंग, तैयबजी आदि तत्कालीन नेताओं ने 'बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन' नामक संस्था स्थापित कर राजनीतिक आंदोलन प्रारंभ किया। उसमें भी रानडे का सहयोग था। मद्रास में उसी तरह की संस्था 'महाजन सभा' सन् १८८१ में और बंगाल में सुरेंद्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में 'बंगाल नेशनल लीग' नामक संस्था स्थापित हुई। भविष्य में इन प्रादेशिक संस्थाओं से किसी अखिल भारतीय राजनीतिक संस्था का जन्म होने की संभावना थी। पुणे और बंबई में उसके लिए चर्चाएँ भी शुरू हो गई थीं। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने सन् १८८३ में 'इंडियन नेशनल एसोसिएशन'(Indian National Association) नामक संस्था की स्थापना की। उसकी शाखाएँ हिंदुस्थान भर में खोलने के उद्देश्य से पंजाब का एक प्रचार-दौरा भी उन्होंने किया था। (बाद में कांग्रेस की स्थापना हो जाने पर वह संस्था कांग्रेस में ही विलीन कर दी गई।)
केवल भारतीय नेताओं की अगुवाई से ऐसी कोई संस्था स्थापित हो, यह बात अंग्रेज कूटनीतिज्ञों को पसंद नहीं थी। वह श्रेय उन्हें स्वयं लेना था और दूसरा यह कि सुरेंद्रनाथ जैसे कितने ही ब्रिटिशनिष्ठ नेता हों, पर हैं तो वे भारतीय ही। केवल भारतीय नेताओं के हाथोंवाली संस्था की तुलना में ऐंग्लो-इंडियन अधिकारियों के नियंत्रण की संस्था पर ब्रिटिश राज की स्थिरता बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपना ब्रिटिश अधिकारियों की दृष्टि में अधिक निरापद था। इसलिए सन् १८८४ में ही ह्यूम साहब, जो जल्दी से मिल सकते थे, ने ऐसे सहयोगियों को घेरकर उपरोक्त नीति के आधार पर एक अखिल भारतीय राजनीतिक संस्था स्थापित करने की डोंडी चारों तरफ पिटवा दी। उस संस्था का नाम रखा 'दि इंडियन नेशनल यूनियन'(The Indian Nationa Union) जिसकी मूल प्रतिज्ञा थी - Unswerving loyalty to the Crown. (ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति अडिग निष्ठा)।
इस संस्था पर प्रभुत्व बनाए रखने की ब्रिटिश अधिकारियों की इच्छा का विरोध किसी भारतीय नेता ने नहीं किया। हाँ, ब्रिटिश वायसराय द्वारा इस योजना का विरोध हुआ। वह आश्चर्यजनक समाचार मैं आगे दूँगा।
कल तक ब्रिटिश सत्ता के बड़े-बडे पदों पर आसीन होकर जो ह्यूम शासन चलाते थे, उन्हीं ह्यूम के सेवानिवृत्त होते ही भारतीय प्रजा का पक्ष लेकर लोककल्याण के लिए उनके साथ आकर मिलना और भारतीय प्रजा की अगुवाई स्वीकार करने की कृपा करना, ब्रिटिशनिष्ठ अंग्रेजी-शिक्षित भारतीय लोगों के लिए बड़ी उदारवादी घटना थी। इसलिए उन्होंने ऐसे अधिकारियों पर धन्यवाद और अभिनंदन की खूब वर्षा की। इस संस्था के संविधान में ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति अडिग निष्ठा की जो धारा ह्यूम साहब की योजना में थी, वह इन भारतीय नेताओं की स्वयं की निष्ठा का पुनरूच्चार ही थी। ह्यूम साहब की ओर से यदि वह धारा न भी जोड़ी जाती तो भारतीय देशभक्त स्वयं ही उसे जोड़ देने का कार्य करते, क्योंकि वह उनकी इच्छा थी, बंधन नहीं।
इस अंतराल में ह्यूम साहब ने अपनी योजना और हमने पहले जिसकी चर्चा की, उसके निहित उद्देश्य के संबंध में सरकार की मंत्रिपरिषद् के उच्च पदासीन अंग्रेजी अधिकारियों और उस समय के वायसराय लॉर्ड डफरिन आदि से गुप्त विचार-विनिमय किया था। इस अखिल भारतीय संस्था का स्वरूप केवल राजनीतिक न होकर सामाजिक भी हो, इस संबंध में गहन चर्चा अंग्रेज कूटनीतिज्ञों ने की थी। परंतु लॉर्ड डफरिन का आग्रह था कि इस संस्था का स्वरूप राजनीतिक ही होना चाहिए। उसी तरह यह भी निश्चय किया गया कि ह्यूम साहब ने जल्दी-जल्दी में प्रयोग हेतु जिस संस्था की स्थापना की घोषणा की है, उस 'इंडियन नेशनल यूनियन' का विसर्जन कर उन्हीं नीतियों के आधार पर और अधिकाधिक भारतीय नेताओं को लेते हुए तथा उनकी पूरी सहमति प्राप्त करते हुए अखिल भारतीय स्वरूप की एक नई संस्था स्थापित की जाए जिसका नाम 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' हो।
वायसराय की प्रेरणा और आशीर्वाद से जन्मी कांग्रेस के आगे-पीछे ब्रिटिश नेतृत्व के हाथों से निकल जाने की संभावना को यथाशक्ति असंभव करने के लिए ह्यूम साहब ने सुझाया कि इस नई संस्था के वार्षिक अधिवेशन में संस्था का अध्यक्ष पद उस प्रांत के गवर्नर को दिए जाने की पद्धति विकसित की जाए, जहाँ अधिवेशन हो। परंतु लॉर्ड डफरिन ने यह योजना स्वीकार नहीं की, क्योंकि उन्होंने इस नई राजनीतिक संस्था की योजना को जिस उद्देश्य से प्रेरित किया था, वह उद्देश्य इस तरह सीधे-सीधे सरकारी संस्था बनाने से सफल होनेवाला नहीं था। गवर्नर जैसे बड़े अधिकारी संस्था के अध्यक्ष बने रहने पर सामान्य जन यही सोचते कि यह सरकारी संस्था है और फिर भारतीय जनता पर उसका प्रभाव विपरीत पड़ता। यदि उसका अध्यक्ष पद जनता के देशभक्त नेता को दिया जाता है और फिर भी 'ब्रिटिश राज हिंदुस्थान के कल्याण के लिए चिरायु रहे' आदि घोषणाएँ होती रहेंगी, तभी वह भारतीय जनता की अधिक प्रिय संस्था हो पाएगी। दूसरा महत्वपूर्ण लाभ यह था कि भारतीय लोगों द्वारा गाए जानेवाले स्तुति-गीत यूरोप, अमेरिका आदि की जनता के आगे गवाकर ब्रिटिश साम्राज्य की वाहवाही दुनिया भर में फैलाना कहीं अधिक सरल होगा। यह किस प्रकार संभव था, इस पर विचार करते हैं।
हर प्रांत के सारे-के-सारे ब्रिटिशनिष्ठ लोगों -जिनमें नेता, सेवानिवृत्त छोटे-बड़े ब्रिटिश और भारतीय अधिकारी, राजनीतिक संस्थाएँ, देश के प्रमुख विधि व्यवसायी, डॉक्टर, संपादक, वित्ताधीश और विद्याधीश थे, ने इस नई संस्था में सम्मिलित होने के वचन दिए। उसका पहला अधिवेशन बंबई में आयोजित करने का दायित्व रानडे, तैलंग, फिरोजशाह आदि वहाँ के मान्य नेताओं ने स्वीकार किया। उसका अध्यक्ष पद किसको दें? किसी शासकीय अधिकारी को नहीं दें, यह बात तो लॉर्ड डफरिन ने पहले ही स्पष्ट कर दी थी। इसीलिए ह्यूम साहब ने स्वयं पीछे रहकर भारतीय नेताओं को आगे किया। उन भारतीय नेताओं ने लॉर्ड डफरिन से निवेदन किया कि नई भारतीय संस्था के पहले अधिवेशन के लिए तो हम बंबई प्रांत के तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड रे का ही चयन कर रहे हैं। अत: अपनी सहमति देने की कृपा करें।
लॉर्ड डफरिन ने फिर से स्पष्ट तौर पर उस अनुरोध को अस्वीकार करते हुए सूचित किया कि जन्म ले रही इस हिंदुस्थानी संस्था का अध्यक्ष पद किसी हिंदुस्थानी व्यक्ति द्वारा ही स्वीकार किया जाना उचित होगा, सरकार यही समझती है। ऐसा क्यों? इस गुप्त विषय पर लॉर्ड डफरिन ने कुछ भी नहीं कहा। परंतु उस हिंदुस्थानी भोली जनता को ऐसा लगा कि ये ब्रिटिश लोकसत्ता की परंपरा के अनुयायी होने के कारण ही हमपर इतना भरोसा कर रहे हैं और यह सोचकर तो वे सब बड़े ही प्रभावित और संतुष्ट थे। भारतीय नेता कह रहे थे कि हमें ब्रिटिश नेतृत्व ही चाहिए। ब्रिटिश वायसराय कह रहे थे -'रहने दें, रहने दें, भारतीय नेतृत्व ही कांग्रेस की शोभा बनाएगा।' इस तरह ह्यूम आदि साहबों का खेल रंग लाने लगा।
सन् १८६० से १८८४ तक के कालखंड में अलग-अलग प्रांतों में राजनीतिक परिवर्तन किस-किस तरह होता गया, यहाँ तक हमने यही बातें विशेषकर कहीं और इस ग्रंथ की पृष्ठभूमि के लिए जो आवश्यक था, उसका विश्लेषण भी किया।
अब हमें इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना से लेकर सन् १८९५ के अंत तक की राजनीतिक परिस्थिति का विश्लेषण करना है।
प्रकरण - १०
अखिल भारतीय राष्ट्रीय महासभा की स्थापना
पूर्वोक्त कथन के अनुसार अंग्रेजी कूटनीतिज्ञों की योजनानुरूप रंगभूमि की सजावट पूरी होते ही सन् १८८५ में इंडियन नेशनल कांग्रेस का पहला अधिवेशन बंबई में हुआ। अध्यक्षता बंगाल के श्री व्योमेश चंद्र बनर्जी ने की। प्रारंभ में ही भारत की सम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया के प्रति असीम और पूर्ण राजनिष्ठा का प्रदर्शन प्रतिज्ञापूर्वक किया गया -
'We pledge our unstinted and unserving loyalty to Her Majesty the Queen Victoria, the Empress of India'.
इस पहले अधिवेशन से आगे अनेक वर्षों तक राजनिष्ठा का यह 'श्रीगणेशाय नम:' कहे बिना कांग्रेस पोथी पढ़ ही नहीं पाती थी। जैसा आरंभ, वैसे ही पहले अधिवेशन का अंत भी राजनिष्ठा तथा ह्यूम साहब की जय-जयकार से संपन्न हुआ। पूर्व में स्वयं सरकार के एक उच्च पदाधिकारी रहते हुए अखिल भारतीय महासभा को जन्म देकर तथा उसका नेतृत्व स्वीकार करके ह्यूम साहब ने जो साहस एवं न्यायप्रियता प्रदर्शित की और भारतीय लोगों पर जो उपकार किए, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता कांग्रेस मंडप में एकत्र भारतीय प्रतिनिधियों एवं प्रेक्षकों ने Three Cheers for Hume की ध्वनि से मंडप का वह लघु आकाश गुँजाकर व्यक्त की। इस कृतज्ञता-ज्ञापन को स्वीकार करते हुए ह्यूम साहब तत्काल उठ खड़े हुए और कहा, 'देखिए, अब अंत में तीन बार ही नहीं अपितु तीन के तीन गुना और संभव हो तो उसके भी तीन गुना बार (Three times three and if possible three times that) भारत-सम्राज्ञी विक्टोरिया की जय-जयकार करें।' वैसा ही हुआ। आगे भी अनेक वर्षों तक हर कांग्रेस अधिवेशन के अंत में हिंद-सम्राज्ञी या सम्राट् की जय-जयकार प्रतिनिधियों तथा दर्शकों का गला सूखने तक चिल्ला-चिल्लाकर की जाती रही।
कभी-कभी कांग्रेस के राजनिष्ठ देशभक्तों को ऐसी जय-जयकार के बाद कोई दयालु वायसराय या गवर्नर उनके सूखे गलों को तर करने के लिए शीतल पेय भी पिला देता था। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हुआ था। इस अवसर पर लॉर्ड डफरिन ने कांग्रेस के सभी प्रतिनिधियों को सम्माननीय अतिथि के रूप में आमंत्रित कर एक शानदार उद्यान भोज भी दिया था। उसके बाद मद्रास में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर मद्रास प्रांत के अंग्रेज गवर्नर ने ऐसा ही एक उद्यान भोज देकर प्रतिनिधियों का सम्मान किया था।
ह्यूम साहब को कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया गया। जिन्होंने बड़े-बड़े सत्ता-पदों पर रहकर ब्रिटिशों की ओर से हिंदुस्थान पर निरंकुशतापूर्वक शासन किया था, सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हीं ह्यूम, वेडर्बर्न आदि ऐंग्लो-इंडियन लोगों को तब कांग्रेस का अध्यक्ष पद भी दिया जाता था। हिंदुस्थान की तिजोरी से लाखों रूपयों की तो केवल भूति (पेंशन) पचानेवाले ऐंग्लो-इंडियन वर्ग के ये अध्यक्ष कांग्रेस की व्यास-पीठ पर से भाषण देते-देते जब हिंदुस्थान की दीन, दरिद्र एवं अकाल पीडित जनता के लिए करूणा से व्याकुल होते थे, तब 'अभिनय हो तो ऐसा' कहते हुए श्रेष्ठ अभिनेता भी मुँह में अँगुली दबा लेता था।
धीरे-धीरे कांग्रेस भी कुछ माँगें करने लगी। भारतीय लोगों को सरकारी विभागों में उच्चाधिकार पदों पर अधिक संख्या में नियुक्त किया जाए, 'कर' कुछ कम किए जाएँ, सरकारी सलाहकार समितियों में कुछ कम ही सही पर भारतीय लोग नियुक्त किए जाएँ, धीरे-धीरे विधिमंडल (धारा सभा) के लिए चाहे अति सीमित परंतु कुछ उपक्रम अवश्य किए जाएँ ताकि उसमें अपने दो-चार प्रतिनिधि भेजने का अधिकार जनता के वरिष्ठ स्तर के लोगों को मिले, ऐसी नितांत सेवाभावी माँगें होती थीं। इस तरह की माँगें कांग्रेस करे और उनमें से किसी नितांत निरापद माँग को ब्रिटिश सरकार ढिंढोरा पीटते हुए स्वीकार करे, यही ब्रिटिश कूटनीति थी। उसी तरह इन माँगों का प्रस्ताव करते समय भारतीय नेतृत्व सरकार की जो कुछ टीका करते, उससे भी कड़ी टीका ह्यूम, वेडर्बर्न आदि हिंदुस्थान के हितैषी, हिंदुस्थानी सरकार की करते थे। उसे सुनकर हमारी भोली-भाली ब्रिटिशनिष्ठ पीढ़ी को लगता कि इन ऐंग्लो-इंडियन नेताओं ने निस्संदेह केवल हिंदुस्थान के हित में ही कांग्रेस की स्थापना की है। बेचारे हमारे लिए स्वयं के अंग्रेज देशबंधुओं से और उनकी सरकार से भी ये लड़ रहे हैं!
कांग्रेस की स्थापना करने के पीछे क्या कूटनीतिक दाँव था, यह प्रकट करने का प्रसंग भी इस अंग्रेज कूटनीतिज्ञ वर्ग पर कभी-कभी आ ही जाता था। एक-दो उदाहरण देखें। भारतीय नेतृत्व बड़े डरते हुए सरकार पर टीका करते या कोई सामान्य सी माँग प्रस्तुत करते थे, परंतु सरकारी अधिकारियों में ऐसा भी एक तीसमार खाँ डंडाप्रेमी पक्ष था जिसे लगता था कि इन सबसे सरकार की बड़ी अप्रतिष्ठा हो रही है। उनके एक नेता सर आक्लैंड ने कांग्रेस जैसी उपद्रवी संस्था स्थापित कर ब्रिटिश सरकार का वर्चस्व कम करने, भारतीय लोगों में असंतोष का बीज बोने तथा ब्रिटिश हित के विरूद्ध घातक कार्य करने के लिए ह्यूम जैसे लोगों की प्रखर आलोचना की। तब ह्यूम ने उन्हें जो उत्तर दिया, उसे ह्यूम के चरित्र लेखक वेडर्बर्न ने इस प्रकार लिखा है -
'There was no cause for fearing political danger from the congress. …It is the British Government which has let loose forces which unless wisely guided and controlled must sooner or later involve consequences which are too dangerous to contemplate. And it is to limit and control them and direct them when there is yet time to do so… that this Congress movement was designed.'
उपर्युक्त छद्म वाक्यों का सीधा अर्थ इतना ही है कि हिंदुस्थान में सशस्त्र क्रांति की जो प्रवृत्ति बढ़ रही है, उसे यदि समय पर ही कांग्रेस की ब्रिटिश-निष्ठा की बेड़ियाँ नहीं पहनाई जातीं तो सन् १८५७ जैसे सशस्त्र युद्ध का कोई संकट अंग्रेजी सत्ता को फिर से आ घेरता। उस तरह के सशस्त्र क्रांतिवाद से भारतीय लोगों को विमुख करने के लिए ही तो कांग्रेस का मायाजाल पसारा गया था। ऐसे में उस कांग्रेस से ब्रिटिश शासन को कौन सा भय हो सकता है। उलटे ह्यूम कहते हैं कि It is necessary for the safety of the state. अर्थात् ब्रिटिश सत्ता को हिंदुस्थान में सुरक्षित रखने के लिए ही इसकी आवश्यकता है।
वास्तविक डर तो क्रांतिकारियों से था , कांग्रेस से नहीं
ब्रिटिश लोगों के मन पर उपर्युक्त धारणा को पुष्ट करने के लिए ये हिंदुस्थान के हितचिंतक उस समय एक अर्थपूर्ण उपमा का प्रयोग करते थे। आवरण त्यागकर जब उन्हें अपने हेतु का सत्य रूप प्रकट करना अनिवार्य ही हो जाता, तब वे स्पष्ट रूप से कहते, 'देखों, भाप-यंत्र में भाप को निरंतर बंद करते रहे तो कभी-न-कभी वह भाप, यंत्र फोड़कर बाहर चली आएगी। फिर क्या सारा यंत्र टुकड़े-टुकड़े होने से बचेगा? यदि ऐसा नहीं होने देना है तो अतिरिक्त भाप को नियंत्रण के साथ बाहर निकालने की व्यवस्था करने के लिए एक सुरक्षा-छिद्र (Safety Valve) होना आवश्यक होता है। वैसी ही बात ब्रिटिश राजयंत्र की है। विदेशी राजकर्ता के विरूद्ध बढ़ते असंतोष को यदि सदा डंडाशाही से दबाना चाहो तो उसका क्रांतिकारी विस्फोट हुए बिना न रहेगा जो पूरे शासन-तंत्र के कब टुकड़े-टुकड़े कर देगा, कहा नहीं जा सकता। वैसा न हो, इसलिए उस असंतोष को मुखर करने का रास्ता बनाए रखना ही चाहिए। धीरे-धीरे बातें करते हुए उस असंतोष को बह जाने देने के लिए एक रास्ता, एक सुरक्षा-छिद्र रखना आवश्यक है। वह सुरक्षा-छिद्र हमने 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' के रूप में बनाया है।
एक ओर भारतीय लोगों से कहना कि उनके हित में ही हमने कांग्रेस की स्थापना की है और दूसरी ओर ब्रिटिश लोगों से कहना कि हिंदुस्थान में ब्रिटिश सत्ता चिरकाल तक अबाधित बनी रहे, इसी मुख्य हेतु से हमने कांग्रेस की स्थापना की है। ह्यूम ऐंड कंपनी का ऐसा दोमुँहापन देखकर क्या कांग्रेस के भारतीय देशभक्त क्रुद्ध हुए? नहीं। क्योंकि उस विसंगति में क्रोध आने जैसा कुछ था ही नहीं। ब्रिटिश राज हिंदुस्थान पर चिरकाल तक अकुंठित चलता रहे, क्योंकि, उसी में हिंदुस्थान का कल्याण है, हो रहा है, होना है, ऐसी उन कांग्रेसी भारतीय देशभक्तों की स्वयं की निष्ठा थी। अत: ब्रिटिश सत्ता दृढ़ करना और हिंदुस्थान का कल्याण करना, ये एक ही सिक्के के दो पहलू थे, एक ही अर्थ के दो वाक्य थे। ह्यूम ने ब्रिटिश सत्ता को दृढ़ करने के लिए ही कांग्रेस की स्थापना की, ऐसा कहने का अर्थ 'भारतीय लोगों के हितार्थ कांग्रेस स्थापित की' ऐसा होता है; और भारतीय लोगों के हित में कांग्रेस की स्थापना की- ऐसा कहें तो 'ब्रिटिश सत्ता को दृढ़ करने के लिए कांग्रेस स्थापित की', ऐसा उसका अर्थ होता है। ऐसी पलायन-वृत्ति के उन कांग्रेसी ब्रिटिशनिष्ठ भारतीय देशभक्तों को ह्यूम जैसे ब्रिटिश नेता के दोमुँहे वक्तव्यों की यह विसंगति चुभती तो थी ही नहीं, उलटे वह विरोधाभास अलंकार का उत्तम उदाहरण है, ऐसा ही उनको लगता होगा।
फिर भी कांग्रेस का महासचिव ह्यूम अपने अंधभक्तों के कहे में नहीं रहता था। कांग्रेस में प्रस्तुत प्रस्तावों में ब्रिटिश हितों के विरूद्ध कभी गलती से भी कोई बोला तो ह्यूम आदि उसे वहीं रोक देते थे। कांग्रेस के तीसरे या चौथे अधिवेशन में मद्रास के हिंदी प्रतिनिधि ने यह बात सर्वाधिक आग्रहपूर्वक कही कि जिस विधि के अधीन हिंदुस्थान को नि:शस्त्र किया गया है, वह शस्त्रबंदी अधिनियम रद्द किया जाए और ऐंग्लो-इंडियनों की तरह भारतीय लोगों को भी शस्त्र रखने की अनुमति दी जाए।
यह प्रस्ताव सुनते ही ह्यूम साहब का माथा ठनका। हिंदुस्थान के हितचिंतक की नाटकीय भूमिका को भी वे भूल गए और बड़े रूखे स्वर में बोले, 'सन् १८५७ के काले संकट का अनुभव जिसको हुआ है, ऐसा कोई भी ब्रिटिश नागरिक फिर से भारतीय लोगों को पुन: शस्त्र देने का परामर्श नहीं देगा। यह मान्य होने वाली बात नहीं है। कांग्रेस को अपनी मर्यादा का ध्यान रखकर ही बोलना चाहिए और ऐसे अनुत्तरदायी प्रस्ताव नहीं लाने चाहिए।'
ह्यूम साहब के मन पर सन् १८५७ का भारी आघात लगा था। इसीलिए वह उक्त प्रस्ताव के विरूद्ध इतना आवेशपूर्वक बोल सके। दूसरे ऐंग्लो-इंडियनों ने क्रोध से कहा कि ब्रिटिश जैसी शक्तिशाली सत्ता तुम्हारे हिंदुस्थान की सब शत्रुओं से रक्षा करने में समर्थ होते हुए तथा देश में शांति और सुव्यवस्था रखने का वचन महारानी द्वारा मैग्नाकार्टा में देने पर शस्त्रों की आवश्यकता ही क्या है? उनके इस क्रोध-भरे प्रश्न का वैसा ही उत्तर देने के लिए वासुदेव बलवंत जैसा कोई व्यक्ति वहाँ होना चाहिए था। पर ह्यूम की कांग्रेस में वैसा दुर्दम्य आदमी कहाँ से मिलता? कांग्रेस का सदस्य तो सभ्य ही हो सकता था। उन सभ्य सदस्यों में से अधिकतर लोगों ने हिंदुस्थान के हितैषी ऐंग्लो-इंडियन लोगों का वह संतप्त प्रश्न 'तुम्हें सारांश इतना ही था कि बाघ या वैसे ही जानवर से ढोर-डंगर बचाने, जंगली सुअरों से खेती-फसल और चोर-डाकुओं से घर-द्वार की रक्षा करने के लिए ये शस्त्र चाहिए, अन्यथा हमें इन शस्त्र आदि से क्या लेना? दो-तीन सदस्यों ने कुछ कड़े शब्दों में जो उत्तर दिए, वे भी दयनीय ही थे। जैसे महारानी की घोषणानुसार हम भी ब्रिटिश साम्राज्य के निष्ठावान नागरिक हैं और शस्त्र रखना निष्ठावान नागरिकों का प्राथमिक अधिकार है।
मैग्नाकार्टा की विविध व्याख्याएँ
सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध के बाद घोषित पत्रक में ऐसे कुछ दो-चार आश्वासनपरक वाक्य थे कि विक्टोरिया महारानी ने अब ईस्ट इंडिया कंपनी का विसर्जन करके हिंदुस्थान का सारा राजकाज अपने हाथ में ले लिया है। इसलिए उसकी सारी प्रजा से समानता का व्यवहार किया जाएगा और उसका संरक्षण किया जाएगा।
कांग्रेस के अंग्रेज कूटनीतिज्ञों और हमारे ब्रिटिशनिष्ठ भारतीय देशभक्तों ने इन वाक्यों का जो एक से बढ़कर एक भाष्य किया, उनसे उस अवधि के समाचारपत्र और अन्य सामग्री भरी पड़ी है। उन सभी की तर्क-प्रणाली संक्षेपत: यह थी -
चूँकि ब्रिटेन और हिंदुस्थान दोनों की महारानी एक ही है। इसलिए पूरा साम्राज्य ही हम दोनों का सम्मिलित साम्राज्य है। यह सम्मिलित साम्राज्य है, इसलिए हिंदुस्थान पर विदेशी राज्य है, ऐसा मानना या समझना मूलत: गलत है। उसमें भी महारानी के सन् १८५७ के बाद जारी घोषणा-पत्र में हिंदुस्थान को दिए ताम्रपट में ऐसा स्पष्ट अभिवचन दिया हुआ है कि उसके सब प्रजाजनों से समानता का व्यवहार किया जाएगा। अर्थात् वैधानिक दृष्टि से भारतीय प्रजाजन ब्रिटेन का प्रधानमंत्री भी हो सकेगा, जैसे ब्रिटिश प्रजाजन हमारा गवर्नर या गवर्नर जनरल हो सकता है। अतएव हमारा प्रश्न हिंदुस्थान को स्वराज अथवा स्वातंत्र्य मिलने का नहीं है, वह संवैधानिक दृष्टि से हमें मिला हुआ है ही! अब प्रश्न यही शेष रहता है कि उस विधि के अधीन कार्यवाही हो।
हिंदुस्थान में आने वाले महारानी के कुछ अधिकारी क्रूर होते थे। जो उपद्रव होता था, वह उनके उस स्वभाव के कारण होता था। उन अधिकारियों के कपटपूर्ण व्यवहार की शिकायत करने, महारानी के और उसके मंत्रिमंडल को बताने के लिए विलायत शिष्टमंडल भेजना, अभी राजकाज चलाने के योग्य नहीं होने के कारण भारतीय लोगों की योग्यता बढ़ाना, अपनी राजनिष्ठा उत्कट और अटल रखना तथा उसे कलंकित करने वाला सशस्त्र विद्रोह जैसा जधन्य राजद्रोही एवं देशद्रोही अपराध देश में किसी के द्वारा भी किए जाने पर अधिकारियों द्वारा उसका तत्काल अंत करना, इतना ही हमारा मुख्य कार्यक्रम है। एक वाक्य में कहें तो हमारा झगड़ा यहाँ की अफसरशाही से है, ब्रिटिश राजमुकुट से नहीं। हम हिंदुस्थानी लोग सम्राज्ञी या सम्राट् के अति राजनिष्ठ प्रजाजन हैं।
कांग्रेस के उस समय के अधिवेशनों में एक-से-एक वक्ता रानी के उस घोषणा-पत्र की चिंदी लेकर हाथ ऊपर उठाए गर्जना करता - यह देखो हमारा मैग्नाकार्टा। जिसने यह दिया है, वह कोई ऐसा-गैरा नहीं है, वह हैं 'देवीश्री विक्टोरिया सार्वभौमिनी'!!
परंतु वह मैग्नाकार्टा की चिंदी लिखकर देने के लिए ब्रिटिश महारानी को किसने विवश किया? कांग्रेस की उस दीन-दरिद्र वृत्ति या सन् १८५७ के सशस्त्र क्रांतियुद्ध के विकट रण ने? परंतु इस कार्य-कारण का उच्चारण तक कोई वक्ता नहीं करता था। अधिकतर भारतीय नेताओं को उसमें निहित मर्म का पता ही नहीं था। कदाचित् वह जानकारी भी नहीं थी। जिसे यह मर्म की बात ज्ञात थी, वह ह्यूम था। कांग्रेस का ह्यूम सदृश ऐंग्लो-इंडियन नेता उस प्रकरण में धूर्तता से चुप ही रहता था।
दादाभाई नौरोजी का साक्ष्य
उस समय के ईमानदार कांग्रेसी देशभक्तों में दादाभाई नौरोजी सिरमौर थे। हमारे पारसी देशबंधुओं के लिए यह बात गौरवमयी है कि उनके समाज में उन दो पीढ़ियों में हिंदुस्थान के हित के लिए आजन्म प्रयास करने वाले दादाभाई नौरोजी, फीरोजशाह मेहता, वाच्छा आदि प्रामाणिक, कर्तव्यशील और महान् देशभक्त हुए। हमने अभी तक हिंदुस्थान के उस समय के वातावरण की और विशेषकर कांग्रेस की ब्रिटिशनिष्ठ मनोवृत्ति का जो विश्लेषण किया है, उसकी वास्तविकता को साक्ष्य से पुष्ट करने के लिए हम उन्हीं दादाभाई नौरोजी का उद्धरण प्रस्तुत करना चाहते हैं। दादाभाई नौरोजी तब तक 'राष्ट्र पितामह' की पदवी से अलंकृत नहीं हुए थे। तब वे उतने वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध भी नहीं थे, जितने होने के बाद उन्हें ब्रिटिशनिष्ठा के फल कड़वे लगने लगे थे। कांग्रेस के जन्म के समय से ही वे एक लोकप्रिय नेता के रूप में हिंदुस्थान भर में जाने जाते थे। अध्यक्ष के नाते उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन में अपने भाषण में कहा -
'Our faith in the instinctive love of justice and fair play of the people of the united kingdom is not misplaced… I for one have not the shadow of doubt in dealing with such justice loving and fair minded people as the British. We may rest fully assured that we shall not work in vain. It is this conviction which has supported me against the difficulties. I have never faltered in my faith in the difficulties. I have never faltered in my faith in the British character and have always believed that the time will come when the sentiments of the British nation our Glorious Soverign proclaimed to us in our great character of the proclamation of 1858 will be realized.'
इसका भावार्थ यह है कि 'ब्रिटिश लोगों की स्वाभाविक न्यायबुद्धि पर एवं उनके सभ्यतापूर्ण व्यवहार पर हमने जो निष्ठा प्रकट की है, वह गलत नहीं है। जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं कह सकता हूँ कि ब्रिटिशों जैसे न्यायप्रिय और सदाचारी लोगों से व्यवहार करते हुए मुझे कभी भी आशंका नहीं होती। इस निष्ठा से हम जो कार्य कर रहे हैं, वह कार्य विफल नहीं होगा, मुझे ऐसा विश्वास है। इस विश्वास ने ही सारी बाधाओं में मुझे सहारा दिया। ब्रिटिशों के शील से मेरा विश्वास कभी डिगा नहीं। मुझे हमेशा यह विश्वास रहा है कि एक दिन ऐसा आएगा, जब सन् १८५८ के घोषणा-पत्र में हमें दिए गए उस ताम्रपट में, उस मैग्नाकार्टा में, ब्रिटिश राष्ट्र और हमारी कृपावंत सार्वभौमिनी द्वारा उद्घोषित सद्भावना, शुभेच्छा सफल होकर रहेंगी।'
प्रौढ़प्रज्ञ एवं प्रमुख नेता दादाभाई की इस ब्रिटिश निष्ठा की छाप उस समय की बीस-तीस वर्षीय भावी देशसेवकों की युवा पीढ़ी पर इतनी सुदृढ़ पड़ी कि कुछ वर्ष बाद स्वयं दादाभाई तो उस आशावाद से निराश हो गए, परंतु उनके शिष्यों के मन से ब्रिटिशनिष्ठा की भ्रांति किसी प्रकार भी नष्ट नहीं हो सकी। रानडे और दादाभाई के पट्टशिष्य देशभक्त गोखले का ही उदाहरण देखें। उस समय के और दस-बारह वर्ष बाद जब गोखले प्रौढ़ हो गए तथा कांग्रेस के मान्य नेता के रूप में प्रसिद्ध हो गए, तब उन्होंने अपने 'भारत सेवक समाज' के विधान में जिस प्रतिज्ञा को स्वीकार किया, वह थी -
'The members of this new society frankly accept the British connection as ordained in the inscrutable dispensation of providence for India's good.' अर्थात् इस नई संस्था के सदस्य ईश्वर की कृपा से हिंदुस्थान में स्थापित ब्रिटिश सत्ता को निष्कपटता से स्वीकार करते हैं, क्योंकि उसी में हिंदुस्थान का कल्याण है।
ऐसे ब्रिटिशनिष्ठ देशभक्तों के नेतृत्व में एवं ब्रिटिश सरकार के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग से कांग्रेस की शाखा-प्रशाखा का विस्तार प्रथम दशक में ही सारे हिंदुस्थान में हो गया। 'ब्रिटिशों के उपकार', 'हमारा मैग्नाकार्टा', 'हमारी सम्राज्ञी विक्टोरिया', 'माई-बाप सरकार','ब्रिटिश राज ईश्वरीय वरदान', 'हम केवल उसके राजनिष्ठ प्रजाजन', 'ब्रिटिश साम्राज्य चिरायु हो' इत्यादि कांग्रेसी परिभाषाएँ और घोषणाएँ उन ऐंग्लो-इंडियन नेताओं द्वारा पढ़ाई गईं तथा उस समय के भारतीय कांग्रेसी नेताओं और अनुयायियों द्वारा पूरे मन से स्वीकार की गई। ये सब हिंदुस्थान के हर समाचारपत्र में प्रकाशित होती रहीं। देश के सारे मुद्रणपीठ एवं वाक्पीठ कांग्रेस ने हथिया लिए। ब्रिटिशनिष्ठा की तूफानी बाढ़ से पूरा देश सराबोर हो गया। हिंदुस्थान की एकमात्र प्रतिनिधि एवं मुखर संस्था कांग्रेस ही है, ऐसा ह्यूम जैसे ऐंग्लो-इंडियन कूटनीतिज्ञ नेता गरज-गरजकर दुनिया से कह सकें, ऐसी वस्तुस्थिति उत्पन्न हो गई। कांग्रेस स्वयं को 'केवल यही सर्वमान्य संस्था है', इतना ही कहकर संतुष्ट नहीं होती थी, अपितु सर्वमान्य होने से उसे जितना गौरव होता था, उससे दस गुना अधिक गौरव 'मैं राजमान्य भी हूँ' यह घोषणा करने से होता था। कांग्रेस में जो कोई भी नेता बन जाता, वह कुछ दिन बाद किसी ब्रिटिश शासन के विभाग के उच्चाधिकार पद पर अंग्रेजों द्वारा नियुक्त कर दिया जाता। सर, सी.आई.डी., रायबहादुर आदि कोई-न-कोई मानद अलंकरण सरकार की ओर से उसे दिया जाता रहा। किसी-न-किसी शासकीय समिति या सलाहकार समिति में कांग्रेस के इन ब्रिटिशनिष्ठ नेताओं को लिया जाता था और ब्रिटिशों की ओर से मिलनेवाली इस राजमान्यता के प्रसाद-चिन्हों के संबंध में कांग्रेस बहुत गौरवान्वित होती थी।
हमने कांग्रेस के ऐसे आत्मतुष्ट प्रमुख नेताओं के व्याख्यानों और प्रतिज्ञाओं का जो नमूना ऊपर दिया है, वैसे अनेक भोले वक्तव्यों और राजनिष्ठा के कांग्रेसी प्रस्तावों का कपट पूर्ण उपयोग यूरोप, अमेरिका आदि से जुड़ी ब्रिटिशों की विदेश नीति के राजकाज में ह्यूम जैसे ऐंग्लो-इंडियन कूटनीतिज्ञ किस तरह कर लेते थे, यह भी देखने लायक है।
जिस प्रकार अंग्रेजों ने अन्य देश जीतकर अपना साम्राज्य विस्तृत किया, वैसे ही यूरोप के फ्रांस, ऑस्ट्रिया, रूस आदि देशों ने भी किया था। अंग्रेजों की महत्वाकांक्षा इतने से पूरी नहीं हुई। उनका लक्ष्य था कि अन्यों के साम्राज्य नष्ट या संकुचित हों और अपना साम्राज्य भयरहित रहे। अंग्रेजों की इस महत्वाकांक्षा के कारण अन्य साम्राज्यों में से किसी में भी वहाँ की पीड़ित जनता या राष्ट्र द्वारा आजादी के लिए विद्रोह करने पर इंग्लैंड उस क्रांतिकारी कार्य का समर्थन अवश्य करता था। ऑस्ट्रिया की दासता से मुक्ति पाने के लिए जब इटली के क्रांतिकारी उठे, तब इंग्लैंड ने उनकी प्रशंसा की और उन्हें 'स्वतंत्रता-प्रेमी' कहा। परपीड़क और दुष्ट ऑस्ट्रियन साम्राज्य नष्ट होना ही चाहिए, यह भी प्रचारित किया। फ्रांस के साम्राज्य में भी उसके गुलाम देश सशस्त्र क्रांति करें, इसके लिए यथासंभव कार्य किया। मैजिनी, कोसूथ, रूस के क्रांतिकारियों आदि को इंग्लैंड में आश्रय दिया और स्वयं ही सारे परतंत्र राष्ट्रों का हिमायती होने का ढिंढोरा जोर-शोर से पीटा, पर हिंदुस्थान के पैर में डाली हुई अपनी गुलामी की बेड़ी रत्ती भर भी ढीली करने के लिए इंग्लैंड तैयार नहीं था।
इंग्लैंड की इस कपटपटुता के विरूद्ध कड़ी टिप्पणी यूरोप तथा अमेरिका के लोग करते थे। यदि इंग्लैंड को विश्व के साम्राज्यों के परतंत्र एवं पीडित राष्ट्रों के संबंध में इतनी चिंता है, तो इंग्लैंड अपनी निष्ठुर दासता के सबसे पहले हिंदुस्थान को मुक्त क्यों नहीं कर देता? ऐसी मर्मभेदी टिप्पणी इंग्लैंड के प्रतिस्पर्धी देश किया करते थे। परंतु इंडियन नेशनल कांग्रेस बन जाने के बाद ऐसी प्रखर टीका करनेवालों का मुँह बंद करने का एक सुंदर साधन इंग्लैंड को मिल गया। वास्तव में कांग्रेस की स्थापना का एक उद्देश्य यह भी था। लॉर्ड डफरिन ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद किसी भी सरकारी अधिकारी द्वारा स्वीकार न करने की जिस पद्धति का विकास किया, उससे यह आभास अधिक पक्का हो जाता था कि कांग्रेस भारतीय लोगों की गैर-सरकारी स्वतंत्र संस्था है। इसका उपयोग विदेश राजनीति में करना सरल हो जाता था। ब्रिटिश समाचारपत्र, वक्ता, विदेशी प्रतिनिधि, ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य एवं ब्रिटिश मंत्री यूरोप और अमेरिका के देशों द्वारा की जानेवाली ब्रिटेन की आलोचना का सीधा उत्तर यों देने लगे थे -'देखिए, कांग्रेस के प्रस्ताव यह दर्शाते हैं कि हिंदुस्थान हमसे अलग होना ही नहीं चाहता। केवल इसीलिए हम वहाँ राज कर रहे हैं और हिंदुस्थान की सहमति से हिंदुस्थान के हितार्थ वहाँ राज करना हम ब्रिटिशों का नैतिक कर्तव्य है।'
ब्रिटिशों के ऐसे उत्तरों का एक नमूना वेडर्बर्न के भाषण में मिलता है। हिंदुस्थान की तिजोरी से मोटी पेंशन पानेवाले इन साहब ने सन् १९०५ में ग्रीनिच ईथिकल सोसायटी में दिए गए अपने भाषण में कहा -
'While the ltalians had always refused to accept the Austrian rule (during the period of their forced subjection) as the national rule boycotted the Austrians so as to make the administration impossible, the Indians on the other hand so far from boycotting the British had offered them their co-operation and accepted British rule as their national rule, while the resolutions of Indian National Congress showed how grievances might be redressed and the people made prosperous and contended, thus making British rule popular, stable and strong.'
सारांश यह कि इटली की जनता ने अपने ऊपर लादे गए ऑस्ट्रिया के शासन को कभी स्वीकार नहीं किया। वह उसे हमेशा परराज, परदासता ही कहती रही। उसने ऑस्ट्रिया के परराज का बहिष्कार कर रखा था। परंतु भारतीय लोगों ने तो हमारी ब्रिटिश सत्ता का बहिष्कार नहीं किया है। इतना ही नहीं, ब्रिटिशों की राजसत्ता को ही उन्होंने 'स्वराज' मानकर स्वीकार किया है। वे स्वयं आगे बढ़कर हमारी ब्रिटिश सरकार से सहयोग कर रहे हैं। भारतीय लोगों की प्रतिनिधि-संस्था इंडियन नेशनल कांग्रेस के प्रस्ताव इसके साक्षी हैं। वे ही यूरोपीय आदि देशों को हिंदुस्थान की ब्रिटिश राजनिष्ठा का पूरा साक्ष्य दे सकते हैं। प्रजा के दु:ख दूर करने और लोगों को संपन्न तथा संतुष्ट रखने के कार्य में कांग्रेस का सहकार्य हमें प्राप्त है। कांग्रेस चाहती है कि ब्रिटिश सत्ता इसीलिए लोकप्रिय, प्रबल और अटल रहे।
अर्थात् हिंदुस्थान में ब्रिटिश सत्ता प्रबल और अटल रखना प्रमुख साध्य था। लोगों के सुख और संतोष के लिए अपरिहार्य उठा-पटक करने की नीति ब्रिटिश साम्राज्यवादी निर्लज्जता से बार-बार स्पष्ट करते रहे। फिर भी कांग्रेस के भोले भारतीय नेता उनको हिंदुस्थान के हितचिंतक ही मानते रहे। मैकाले से लेकर ह्यूम तक ने पराजित हिंदुस्थान का मन जीत लेने के लिए, मन मार डालने के लिए जो-जो उपाय सोचे थे, उनमें से अधिकतर सफल होते जा रहे हैं, ऐसा एक समाधान ब्रिटिश कूटनीति को दिखने लगा हो तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं। जिसे हिंदुस्थान की राष्ट्रीय सभा (इंडियन नेशनल कांग्रेस) कहा जाता है, वह अपनी खुशी से हिंदुस्थान की स्वतंत्रता और राजासन छीन लेनेवाली ब्रिटिश सत्ता के सिर पर 'हमारी सम्राज्ञी' कहकर चँवर डुलाने में सुख और सम्मान समझे - यह देखकर यूरोप लज्जित था, परंतु हिंदुस्थान राष्ट्र की प्रतिनिधि कही जानेवाली कांग्रेस को उस दासता का खेद नहीं था। उलटे उसे वह ईश्वरीय वरदान लगता था।
विष भी कभी अमृत हो जाता है
यद्यपि हमारे लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और उसको पाने के लिए आवश्यक सशस्त्र क्रांति की प्रवृत्ति को कुचल देने के लिए ही अंग्रेजों ने इस ब्रिटिशनिष्ठ कांग्रेस की स्थापना की, उसका विस्तार किया, परंतु 'विषमप्यमृतम् क्वचित् भवेत्' (विष भी कभी अमृत हो जाता है) के न्याय से हमारे देश को एक अन्य लाभ अपरिहार्य रूप से मिलने लगा।
कांग्रेस का नाम 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' (भारतीय राष्ट्रीय महासभा) रखा गया था। अर्थात् यह भावना उन लोगों में अनुस्यूत थी कि इंडिया-भारत-हिंदुस्थान यह आसेतुहिमालय एक एकप्राण अखंड राष्ट्र है। अलग-अलग प्रांतों की भिन्न-भिन्न भाषा और वेशभूषा के हजारों देशभक्त और विचारवान लोग कांग्रेस के वार्षिक और प्रांतीय अधिवेशनों में जैसे-जैसे बार-बार एक ही राष्ट्र-भावना से एकत्र होने लगे, वैसे-वैसे सामान्य जनता में भी देशभक्ति की भावना गहरी पैठने लगी। हम करोड़ों लोग उस एक ही भारत माँ की संतान हैं, हमारे अलग-अलग प्रांत उस एक ही भारत माता के, अपने अखंड हिंदुस्थान देश के केवल अंग-प्रत्यंग हैं। हमारे राजनीतिक और राष्ट्रीय सुख-दु:ख एक ही हैं तथा यदि हम विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह बलवान, सम्मानित राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हम सब एक-केंद्र, एकात्म, अखिल भारतीय और अखंड भारतीय ऐसी राजनीतिक एकता भी संपादित करें- हिंदू जगत् में पहले ही अंतर्निहित इस भावना की एक नई लहर देश के इस छोर से उस छोर तक प्रकटत: चलने लगी। परंतु कांग्रेस के अंग्रेजी-शिक्षित नेताओं को लगने लगा कि यह जो अखंड हिंदुस्थान की एकात्मता की प्रबुद्ध अनुभूति और राष्ट्र-एकता की भावना देश भर में अकस्मात् संचारित हुई है, वह अंग्रेजी शिक्षा के कारण है। अर्थात् ब्रिटिशों का राज इस देश पर है, इसलिए पंजाब, बंगाल, मद्रास आदि भिन्न प्रांतों के लोगों में 'हम एक राष्ट्र के लोग हैं' की भावना, जो पहले कभी भी नहीं थी, आज पहली बार उत्पन्न हुई है। उनका पक्का विश्वास था कि भारतीय राष्ट्र-एकता और राज्य-एकता की कल्पना भी ब्रिटिशों के हिंदुस्थान में आने के पूर्व हममें नहीं थी। वह तो ब्रिटिशों की एकछत्र राजसत्ता के ही कारण है, यह उन्हीं का उपहार है।
कांग्रेस के हिंदू नेताओं की इस श्रद्धा को अंग्रेज नेता उठाए फिरते थे, यह कहने की आवश्यकता नहीं। अंग्रेज नेता खुले रूप में धमकाते, डराते हुए कहते थे -भारतीय लोगों में राष्ट्रीय एकता की यह भावना यदि आपको सुदृढ़ करनी है तो आपको चाहिए कि ब्रिटिशों के शासन के प्रति निरंतर राजनिष्ठ बने रहें। यदि ब्रिटिश छत्र भंग हुआ तो उसके एकात्म बन गए इस अखंड हिंदुस्थान की राष्ट्रीय एकता के भी टुकड़े हो जाएँगे। आप कोटि-कोटि भारतीय लोगों को देशभक्ति के सूत्र से बाँधे रखने की शक्ति ब्रिटिश सत्ता में है, इसलिए.....। परंतु वस्तुस्थिति तो कुछ और ही थी!
प्रकरण - ११
भारतीय राष्ट्रीय महासभा की नींव में मुस्लिम काल-बम
काश कांग्रेसी नेताओं और उनके प्रचारकों ने स्वयं से ही एक आत्मपरीक्षक प्रश्न पूछा होता कि कांग्रेस को हम 'भारतीय राष्ट्रीय महासभा' किनके भरोसे कह रहे हैं? राष्ट्र के नाम कांग्रेस द्वारा आह्वान किए जाते ही - केवल दो-तीन वर्ष में असम से सिंध और कश्मीर से कन्याकुमारी तक के सहस्राधिक देशभक्तों ने जो प्रतिध्वनि दी है और उस राष्ट्रीय पीठ से जुड़ गए हैं, वै कौन हैं? और यह भी कि कांग्रेस के सभा-समारोहों में स्वयं को 'भारतीय' कहनेवाले नेता भी मूल घर के कौन हैं? माननीय परंतु कुछ-एक अपवाद छोड़कर कांग्रेस के स्वदेशभक्त सहस्राधिक अनुयायी थे तो सारे हिंदू ही। उन्हीं के भरोसे वह अपने को 'भारतीय राष्ट्रीय महासभा' (इंडियन नेशनल कांग्रेस) कहा सकती है। केवल अंग्रेजी शिक्षा से राष्ट्रीय एकता की भावना जाग्रत हो सकती तो उस समय हिंदुस्थान में हजारों अंग्रेजी-शिक्षित तथा सरकार में ऊँचे पदों पर आसीन मुसलमान विद्यमान थे। फिर उनमें भी भारतीय एकता की भावना जाग्रत होनी चाहिए थी। परंतु क्या वे हजारों मुसलमान उस इंडियन नेशनल कांग्रेस में आए? सर बदरूद्दीन तैयबजी आदि दो-तीन को छोड़ दें तो अंग्रेजी-शिक्षित या अशिक्षित मुसलमान समाज कांग्रेस में क्यों नहीं आया? नहीं आया -इतना ही नहीं, अपितु अंग्रेजी-शिक्षित मुस्लिम वर्ग ने ही आगे जाकर सर सैयद अहमद नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति के नेतृत्व में कांग्रेस-स्थापना के तुरंत पश्चात् क्या उसके विरोध में अन्य एक मुस्लिमपक्षीय संस्था 'दि पैट्रियॉटिक एसोसिएशन' स्थापित नहीं की? और इन अंग्रेजी-शिक्षित मुसलमानों ने सारे मुसलमानों को सूचित करने के लिए क्या यह डोंडी नहीं पिटवाई कि 'कांग्रेस तो हिंदू कांग्रेस है। मुसलमानों, इसका बहिष्कार करो! कांग्रेस-बहिष्कार!!'
राष्ट्रीय एकता की भावना रक्त में रमी हुई है
अंग्रेजी में दो शब्द हैं - नेशन और स्टेट (Nation and State)। ये दो शब्द राजनीति के दो अलग-अलग भाव दर्शाते हैं। 'राष्ट्र' शब्द की जो व्युत्पत्ति है, वह गौण हो गई है उसे जो रूढ़ार्थ प्राप्त हो गया है, उस अर्थ में वह शब्द 'नेशन' का ही अर्थ व्यक्त कर सकता है। वैसे ही 'स्टेट' अर्थात् राज्य की बात है। इस संकेत से देखें तो राष्ट्रीय संस्था और राज्य संस्था- ये दोनों अंशत: भिन्नार्थक संस्थाएँ हैं। भौगोलिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक- प्रिय और पूज्य बंधनों से बँधे तथा भारत में निवास करते हमारे कोटि-कोटि देश-बांधवों के मन में इसीलिए राष्ट्रीय एकता की भावना सहस्राधिक वर्षों से रक्त में मिलती आ रही है। यह हिंदू जगत् - आसेतुहिमालय भारतभूमि की पूजा अपनी पितृ-भू और अपनी पुण्य-भू के रूप में करता आ रहा है। 'उत्तरस्याम् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। तद्वर्षं भारतं नाम भारती यत्र संतति:।।' यह हमारे राष्ट्रैक्य की आर्ष व्याख्या है, अंग्रेजी नहीं। अपने इस राष्ट्रैक्य की परिणति राज्य एकता में हो, यह भारत राष्ट्र एकछत्र हो, ऐसी महत्वाकांक्षा भी प्राचीन काल से हमारे राष्ट्रीय हृदय में सरसराती रही है। उसकी प्रेरणा से अखिल भरतखंड पर एकछत्र राज्यसत्ता प्रस्थापित कर उसकी राज्य एकता भी प्राप्त करने के भगीरथ प्रयास प्राचीन काल से हमारी दिग्विजयी सेना और राज्यमंडल करते आ रहे हैं। साम्राज्य संस्था, चक्रवर्तित्व संस्था, राजसूयाश्व-मेधादिक यज्ञ-प्रथा, ये सब उसी प्रयास के द्योतक हैं। हमारे इतिहास के बिलकुल नए (जुड़े) पृष्ठों को देखें तो लगता है कि मुसलमानी पादशाही को उलटकर आसिंधु हिंदुस्थान में हिंदू पदपादशाही की स्थापना करने की प्रबुद्ध महत्वाकांक्षा सँजोए मराठी पराक्रम ने वह ध्येय प्राप्त कर ही लिया था। इस विषय का विस्तारपूर्वक लेखन 'हिंदुत्व' ग्रंथ में हमने किया है। जिज्ञासा हो तो उसे वहाँ देख सकते हैं।
महाराष्ट्र साम्राज्य की तत्कालीन विजय से प्रफुल्लित हिंदू-हृदय में उछलती राष्ट्रीय एकता की प्रबल भावना की प्रतिध्वनि उस समय की भाषा में यदि सुननी हो तो गोविंदराव काले और नाना फड़नवीस को - सन् १७९३ के आसपास अर्थात् जब तक महाराष्ट्र राज्य को अंग्रेजों की अँगुली भी नहीं लगी थी - लिखे पत्र के निम्नलिखित वाक्य पढ़ें -
'अटक (सिंधु) नदी के इधर दक्षिण समुद्र तक हिंदुओं का स्थान: तुर्कस्थान नहीं! यह हमारी सीमा पांडवों से विक्रमादित्य तक रक्षित कर उपभोग की गई। फिर राजकर्ता नादान निकले। यवन प्रबल हुए। बाद में शिवाजी महाराज राजकर्ता एवं धर्मरक्षक हुए। उन्होंने एक कोने में धर्मरक्षण किया। उसके बाद साहब व भाऊ साहब ऐसे प्रचंड प्रतापसूर्य हुए। इससे पहले उन जैसा कभी कोई हुआ ही नहीं। वर्तमान में श्रीमंत के पुण्य प्रताप से एवं राज्यश्री पाटिल बाबा (महादजी शिंदे) की बुद्धि तथा तलवार के पराक्रम से सबकुछ लौटकर घर में आ मिला... जिस-जिसने हिंदुस्थान में सिर ऊँचा किया - पाटिल बाबा ने वही-वही सिर फोड़ा - जो अप्राप्य था, वह प्राप्त हो गया। अब उसका बंदोबस्त शककर्ता के रूप में करके उपभोग करें। कहीं पुण्याई कम न पड़ जाए और किसी की दृष्टि न लग जाए, जो बात हुई, उसमें केवल देश या राज्य प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं, अपितु वेदशास्त्रों का रक्षण, गो-ब्राह्मण-प्रतिपालन, सार्वभौमत्व भी प्राप्त हुआ। कीर्ति-यश के नगाड़े बजे - इतनी सारी बातें हैं। इस युक्ति को सँभालना!...'
हिंदू जगत् के मन में अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता की भावना इस तरह अंतर्निहित थी। इसीलिए 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' (अखिल भारतीय राष्ट्रीय महासभा) नाम सुनते ही हिंदुओं की ममता जाग उठी। यह अपने ही राष्ट्र की संस्था है, ऐसी ममता उनके ह्दयों में अपने आप स्फुरित हुई। अपनी मातृभूमि की सेवा करना अपना कर्तव्य है। इस निष्ठा से, किराए का कोई सौदा न करते हुए वे सहस्राधिक हिंदू देशभक्त और देशसेवक उस राष्ट्रीय संस्था के मंच के पास एकत्र होकर खड़े हो गए।
परंतु मुसलमान ?
इसके विपरीत कांग्रेसी हिंदू नेताओं के 'आइए! आइए!!' कहकर निवेदन करते रहने पर भी इस अखिल भारतीय राष्ट्रीय महासभा में मुसलमान क्यों नहीं आए? इतना ही नहीं, जन्म से जाति-धर्मनिरपेक्ष रहकर एक राष्ट्र में विलीन हो जाने के कांग्रेस के सिद्धांत से ही मुसलमानों को इतना बैर क्यों था और तत्काल कांग्रेस के विरूद्ध अपनी स्वतंत्र संस्था उन्होंने क्यों बनाई? भोले-भाले कांग्रेसी हिंदू देशभक्त! मुसलमानों की मूल धर्म प्रवृत्ति और उसपर आधारित ऐतिहासिक परंपरा क्या है, इसकी उन अंग्रेजी-शिक्षित कांग्रेसी हिंदू नेताओं में से अधिकतर को कोई जानकारी नहीं थी।
हिंदू-मुसलमानों का सम्मिलित 'भारतीय', 'इंडियन' राष्ट्र जो कांग्रेस का ध्येय था, उन्हें (हिंदू कांग्रेसियों को) प्रामाणिक रूप से पूर्णत: विशुद्ध देशभक्ति का प्रतीक लगता था, परंतु वही मुसलमानों की धर्मनिष्ठा और ऐतिहासिक परंपरा का उपमर्दनकारक था। मुसलमानों के धर्मशास्त्र की दृष्टि से हिंदू-मुसलमानों का 'सम्मिलित' राज्य, यह बात ही मूल में अधर्म और पाप था। विशुद्ध मुस्लिम राज्य ही केवल धर्म्य है, उनकी शरीअत (शास्त्र) के अनुसार सही है। जितना अधिक लाड़-प्यार-भरी भाषा में कांग्रेस मुसलमानों से कहती कि 'हम हिंदू-मुसलमान एक ही देश की संतानें हैं। इसीलिए देशबंधु हैं और एक हिंदू राष्ट्र के नागरिक हैं' मुसलमान उतना ही अधिक उस कथन से चिढ़ने लगा।
मुसलमानों के धर्मशास्त्र के अनुसार जो विशुद्ध मुस्लिम राज्य नहीं है, वह भूमि उनका देश हो ही नहीं सकता। उसे 'देश माता' कहना! तौबा! तौबा!! और जिस देश में मुस्लिम राज्य भी नहीं, मुस्लिम बहुसंख्यक भी नहीं, उलटे केवल गैर-मुसलिमों की अर्थात् मूर्तिपूजक हिंदुओं की प्रचंड बहुसंख्या है, वह देश तो काफिर स्थान, नापाक है। ऐसे देश में बलवानों के सामने मुसलमान भीगी बिल्ली जैसे नरम होकर अवश्य रहेंगे, परंतु डर से, निष्ठा से नहीं। इतना ही नहीं, ऐसे नापाक देश में रहने पर उन्हें एक धार्मिक प्रायश्चित भी करना पड़ता है। अक्षरश: 'तौबा' करनी पड़ती है।
मुसलमानों की इस मनोवृत्ति की निंदा या प्रशंसा करने के लिए हम यह वर्णन नहीं कर रहे हैं। वस्तुस्थिति जो है, जैसी है, वही कह रहे हैं। कोई भी मुसलमान विद्वान इसे नकार नहीं सकता और किसी एक ने इसे नकारा भी, तो धर्मशास्त्र और इतिहास तो कहीं गया नहीं न? उनके ही शास्त्र से उनकी जाँच करनी चाहिए।
मुसलमानों द्वारा अराष्ट्रीय माँगें आरंभ
उपर्युक्त मुस्लिम धर्मनीति एवं राजनीति के प्रचारार्थ सर सैयद अहमद के प्रयासों से अलीगढ़ में एक मुसलमानी स्वतंत्र शैक्षणिक संस्था की स्थापना हुई। अंग्रेजी शिक्षा के लाभ लेते हुए भी, उस शिक्षा के कारण हिंदुओं के जातिवंत स्वाभिमान को ठेस पहुँचानेवाली ब्रिटिश छाप 'भारतीयता' का जो 'रोग' हिंदुओं में बढ़ता जा रहा था, वह मुसलमान युवकों में न बढ़े और अंग्रेजी शिक्षा के बावजूद वे अशिक्षित मुसलमान से भी अधिक कट्टर मुसलमान बने रहें, इस विचार से अलीगढ़ की वह संस्था परिपूर्ण थी। यह संस्था कुछ ही समय में हिंदूद्वेषी मुस्लिम राजनीति के केंद्र अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिणत हो गई।
तत्पश्चात् मुस्लिम संस्था, समाचारपत्र, अधिवेशन आदि साधनों के माध्यम से संयुक्त मुस्लिम संघटन का विस्तार करते हुए मुस्लिम नेताओं ने सामूहिक रूप से कांग्रेस के विरुद्ध अंग्रेज सरकार का तीव्र प्रतिवाद करना प्रारंभ कर दिया। उनके उस समय के लेखन और भाषण का केंद्रबिंदु यही था कि कांग्रेस हिंदू संस्था है। यदि ब्रिटिश सरकार उसकी शक्ति बढ़ने देगी और हिंदुओं को उच्च अधिकार देगी तो यहाँ हिंदू राज हो जाएगा। परंतु मुसलमान ऐसे हिंदू राज में रहने के लिए कभी भी तैयार नहीं होंगे। ब्रिटिश राज में हमें भय नहीं है। अत: कांग्रेस की माँगें, उसके नेताओं को दी जानेवाली बड़ी ऊँची नौकरियाँ, सरकारी समितियों में नियुक्तियाँ, राजनीतिक या नागरिक अधिकार इत्यादि देने के पहले हम मुसलमानों के प्रतिनिधियों से सहमति लेकर ही सरकार ऐसा करे। इतना ही नहीं, मुसलमानों के यहाँ के भूतपूर्व शासक होने के कारण उनकी जो विशेषता है और अल्पसंख्यक होने के कारण हमारे संरक्षण का जो विशेष दायित्व सरकार पर है, वह भी ध्यान में रखते हुए राजसेवा विभाग के उच्च पद, नौकरियाँ, प्रतिनिधित्व आदि अधिकार या लाभ सरकार से झगड़ने वाले हिंदुओं की तुलना में हम राजनिष्ठ मुसलमानों को अधिक एवं जातिगत आधार पर भी मिलना चाहिए।
यह कहना अनावश्यक है कि ह्यूम आदि कुछ ब्रिटिश कूटनीतिज्ञों ने जैसे कांग्रेस को उसकी ब्रिटिशनिष्ठ श्रद्धा के साथ उठा रखा था, वैसे ही दूसरे कुछ ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने मुस्लिम संस्थाओं के कांग्रेस-विरोध को प्रोत्साहित किया। ब्रिटिश राजनीति के ये दो पक्ष दिखावटी थे। अंदर से उनका उद्देश्य एक ही था। ब्रिटिश राज्य की स्थिरता के लिए ब्रिटिशों को इन परस्पर विरोधी भारतीय संस्थाओं की आवश्यकता थी। इस फूट से ब्रिटिश साम्राज्य की दृढ़ता बढ़ती थी।
कांग्रेस का कर्तव्य
यह बात पूर्णत: स्पष्ट है कि हिंदू-मुसलमान में फूट डालने का दोष कांग्रेस के मत्थे नहीं डाला जा सकता। भारतीय राष्ट्रीय महासभा ने अपने सामने जो ध्येय रखा था, वह भौगोलिक राष्ट्रवाद (Geographical Nationality) का था। एक भूभाग में जो रहते हैं, वे सब लोग धर्म-जाति-निरपेक्ष एकराष्ट्र ही होते हैं अथवा होने चाहिए। यूरोप के फ्रांस आदि कुछ देशों के और विशेष रूप से ब्रिटेन के उस समय के एकराष्ट्रीय स्वरूप की देखा-देखी उन्होंने राष्ट्र की यह भौगोलिक व्याख्या की थी - वास्तविकता देखें तो उस बित्ता भर इंग्लैंड में वैसी देशीय राष्ट्रैक्य की भावना अंगीकृत होने के पूर्व - स्कॉटलैंड, इंग्लैंड, वेल्स आदि घटकों के बीच और रोमन कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट आदि धर्म पंथों के बीच कितने ही यादवी युद्ध हुए। इनमें इंग्लैंड देश को शताब्दियों तक घिसटते रहना पड़ा था। परंतु इतना गहरा विचार न करते हुए एक देशभूमि ही राष्ट्रीय एकता का घटक होती है - ऐसी एकांगी श्रद्धा से वही व्याख्या कांग्रेस ने हिंदुस्तान के संदर्भ में की। हाँ, एक अर्थ में वह भी अनुचित नहीं थी। वह प्रयोग भी करके देखना आवश्यक था। यहाँ तक इस दिशा से आते हुए एक अर्थ में कांग्रेस गलत राह पर नहीं थी।
'कांग्रेस हिंदुओं की है, हम उसमें नहीं आते - हम मुसलमानों को विशेष अधिकार मिलेंगे, तभी हम उसमें सम्मिलित होंगे।' ऐसा कहने पर कांग्रेस को 'भारतीय राष्ट्रवाद' की अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए यह पक्का उत्तर देना चाहिए था - 'अखंड भारत हमारा देश है। वही हमारा राष्ट्र है। उसके सभी नागरिकों को जाति-धर्म-प्रांत-निर्विशेषता से इस भारतीय राष्ट्रीय महासभा में आने का अधिकार है। फिर वह धर्म से हिंदू है या मुसलमान, पारसी या ईसाई, ऐसी पूछताछ करना भी कांग्रेस की मूलभूत प्रतिज्ञा के विरुद्ध है। कांग्रेस में हिंदू-ही-हिंदू हैं, यह आपका कहना हमारी दृष्टि से उचित नहीं है, क्योंकि कुछ ब्रिटिश नागरिकों को छोड़ दें तो कांग्रेस में सम्मिलित जो भी लोग हैं, वे सब भारतीय हैं - इंडियन हैं, इतना ही हमें ज्ञात है। और जो आप स्वयं को मुसलमान कहते हैं, कल यदि कांग्रेस में सम्मिलित होते हैं तो आपको हम सब कांग्रेसी केवल भारतीय, केवल इंडियन ही मानेंगे, इसी नाम से पहचानेंगे, मुसलमान के रूप में नहीं। संपूर्ण भारतीय देशबंधुओं के हित में यह भारतीय राष्ट्रीय महासभा जो कुछ भी अधिकार माँगती है, वे अधिकार (प्राप्त होने पर) समान अंश में, समान नियमन से सब नागरिक भोगेंगे। नागरिकों को न्याय, धर्म स्वातंत्र्य देना-दिलाना इस राष्ट्रीय महासभा का कर्तव्य है - इससे अधिक इसका संबंध धर्म से नहीं होगा। इस प्रतिज्ञा पर विचार कर जिसे कांग्रेस में आना हो, आए अन्यथा न आए।'
परंतु ऐसा सीधा उत्तर न देकर कांग्रेस के भारतीय नेताओं ने मुसलमानों को मुसलमान के रूप में पहचानना और उनका मान-मनौअल करना आरंभ किया। कांग्रेस में हम अधिकतर हिंदू ही हैं, इस संबंध में उनका अपना मन ही उन्हें कचोटने लगा। कांग्रेस के अनेक हिंदू नेता लज्जित होकर कहने और लिखने लगे -'हम पहले भारतीय हैं, बाद में हिंदू हैं!' रायबहादुर रानडे तो इससे भी आगे बढ़कर स्पष्ट घोषणा करने लगे -'मैं हिंदू नहीं, मुसलमान भी नहीं, मैं केवल भारतीय हूँ!' परंतु जैसे-जैसे वे स्वयं को हिंदू कहलाने में लजाने लगे, वैसे-वैसे मुसलमान नेता अपनी संस्था के माध्यम से प्रकट रूप में गरजने लगे - 'परंतु हम पहले मुसलमान हैं और बाद में भारतीय!' वे बड़े जोर-शोर से अपना मुसलमानी संगठन बनाने लगे और उसका उत्तर देने में समर्थ हिंदू संगठन बनाने की बात मन में भी लाना ये कांग्रेसी हिंदू राष्ट्रीय पाप समझने लगे। जिस संस्था का या सभा का उद्देश्य भारतीय राष्ट्र की नींव पर आधारित है, वह संस्था या सभा भारतीय राष्ट्रवादी है - फिर उसमें कोई मुसलमान है, नहीं है, ऐसी पक्की तर्कशुद्ध व्याख्या लागू करना छोड़कर कांग्रेस के सच्चे, परंतु राजनीति में प्रज्ञाशून्य देशभक्त स्वयं ही ऐसा कहने लगे कि जिस संस्था या सभा में कोई मुसलमान है ही नहीं, उसे किस मुँह से 'भारतीय' कहें।
परिणामस्वरूप उन्होंने निश्चय किया कि किसी भी तरह कुछ मुसलमानों को तो कांग्रेस में लाना ही चाहिए। कांग्रेस में जाने के लिए अपने भाव बढ़ गए हैं, यह बात समझने में मुसलमानों को देर नहीं लगी - फिर 'यह' दोगे तो आएँगे, 'वह' दोगे तो आएँगे - ऐसी लूट मचने लगी तो इसमें आश्चर्य की क्या बात! मुस्लिम दृष्टि अपनी आत्मनिष्ठ राजनीति चलाने की थी और उसकी तुलना में कांग्रेसी हिंदुओं की कोई राजनीति थी ही नहीं। इसलिए हिंदुत्व भी डूबा और भारतीयता भी डूबी।
सर्वसामान्यत: हमारी जनता की ऐसी समझ है कि लखनऊ समझौते के बाद या खिलाफत आंदोलन के बाद कांग्रेस मुसलमानों की गोद में गई और अपने भारतीय राष्ट्रवाद के ध्येय से हटने लगी। परंतु मुसलमानों से मुसलमान होने के कारण समझौता करने लायक उनकी जातीय धौंस की पूर्ति एक दिन या एक वर्ष में करना संभव नहीं था। अर्थात् उसकी जड़ उसके पूर्व समय में निहित थी। यह जड़ कहाँ है, इसका पता लगाने के लिए मैं कांग्रेस के प्रारंभ से उसके नेताओं के भाषण, लेख, प्रस्ताव प्रभृति तद्संबंधी लेखन पढ़ता चला तो मुझे दिखा कि अखंड हिंदुस्थान के विचार की नींव में धर्म-जाति-प्रांत-निर्विशेष भारतीय राष्ट्र के निर्माण करने हेतु स्थापित 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' का प्रारंभ जहाँ से हुआ, उस प्रारंभ में ही कांग्रेस की ओर से होनेवाली मुसलमानों की धार्मिक एवं जातीय मान-मनौवल की जड़ें धँसी हुई हैं। उसमें भी उस समय के धुरंधर कांग्रेसी नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी महोदय का आत्मवृत्त जब मैं इस दृष्टि से ध्यान से पढ़ने लगा तो एक पैराग्राफ में चार-पाँच पंक्तियाँ दिखीं, उनपर न कोई टीप-टाप, न टीका। उसमें कुछ विशेष ध्यान देने योग्य है ही नहीं, ऐसी वृत्ति से सहज भाव से वे पंक्तियाँ लिखी गई। परंतु मुझे वह लाख रूपए की लगीं। राजनीतिक साहित्य के कोने-किनारे से ऐसी पंक्तियाँ खोजकर उसका भाष्य करके उसके मर्म पर शोध-ज्योति डालने का अग्राधिकार - मैं समझता हूँ - मुझे ही प्राप्त है। वे पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -
सन् १८८७ में मद्रास में कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन हुआ। उसके संबंध में लिखते हुए देशभक्त सुरेंद्रनाथ बनर्जी अपने आत्म-चरित्र के १०८वें पृष्ठ पर लिखते हैं -
'…The Mohamedan community under the leadership of Sir Sayyad Ahmed had held aloof from the Congress. They were working under the auspices of the 'Patriotic Association' in direct opposition to the national movement. Our critics regarded the National Congress as a Hindu Congress and the opposition papers described it as such. 'We were straining every nerve to secure the co-operation of our Mohamedan fellow countrymen in this great national work. We sometimes paid the fares of Mohamedan delegates and offered them other facilities.'
भावार्थ यह है कि सर सैयद अहमद के नेतृत्व में मुसलमान समाज कांग्रेस से अलग ही रह रहा था। कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन का स्पष्ट विरोध करने के लिए ही (सर सैयद अहमद द्वारा स्थापित संस्था) 'पैट्रियॉटिक एसोसिएशन' के नेतृत्व में मुस्लिम समाज काम कर रहा था। हमारे टीकाकार नेशनल कांग्रेस को 'हिंदू कांग्रेस' कहते थे और विरोधी समाचारपत्र भी कांग्रेस को 'हिंदू कांग्रेस' ही लिखते थे। नेशनल कांग्रेस के महान् राष्ट्रीय कार्य में मुसलमान भाइयों का सहयोग प्राप्त करने के लिए हम अपनी ओर से प्रयास करते रहे थे। कभी-कभी तो कांग्रेस अधिवेशन में आने के लिए मुसलमान किराया और अन्य सुख-सुविधाएँ भी पाते थे।
इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस ने ऐसे किराए के मुसलमानों को केवल इसलिए अपने साथ रखा था कि वे मुसलमान थे। हिंदू-मुसलमान की एकता एवं भारतीय राष्ट्र की समरसता का तमाशा पूरा करके दिखाने के पागलपन से सन् १८८७ के भी पूर्व अर्थात् पहले दो वर्ष से ही कांग्रेस ग्रसित हो चुकी थी। कांग्रेस के हिंदू नेताओं की इस मनोवृत्ति के कारण मुसलमानों को किराए एवं भत्ते के चेक देते-देते ही आगे कोरे चेक, गांधीजी के ब्लैंक चेक देने का प्रसंग आनेवाला था। इस बुद्धिभ्रम के कारण अपने आरंभ से ही इंडियन नेशनल कांग्रेस के हिंदू नेताओं ने मुसलमानों के पैर पकड़ने का काल-बम भारतीय राष्ट्रैक्य की नींव में ही अज्ञानता से रख दिया। उसी काल-बम का यथाकाल विस्फोट होकर अखंड हिंदुस्थान की - भारतीय राष्ट्रैक्य की - धज्जियाँ उड़ जाने वाली हैं - यह किसी ने सोचा भी नहीं था।
देशभक्त सुरेंद्रनाथ बनर्जी के आत्म-चरित्र का एक और उद्धरण हमारे उपरोक्त वर्णन का कितना सही समर्थन करता है, इसका नमूना देखें। कांग्रेस के विरोध में स्वतंत्र मुस्लिम संगठन स्थापित करनेवाले प्रसिद्ध हिंदूद्वेषी, अलीगढ़ विश्वविद्यालय के सूत्रधार सर सैयद अहमद की मृत्यु होने पर अपने आत्म-चरित्र के पृष्ठ ४९ पर सुरेंद्रनाथ महोदय लिखते हैं -
'Sir Sayyad's Patriotic Association was started in opposition to the Congress… But let bygones be bygones. Let us not forget the debt of gratitude that Hindus and Mohamedans alike owe to the honoured memory of Sir Sayyad Ahmed. For, the seeds that he sowed are bearing fruits and today the Aligarh College, now raised to the status of a university, is the centre of that culture and enlightenment which had made Islam in India instrict with the modern spirit and along with that patriotic enthusiasm which argues well for the future solidarity of Hindus and Mohamedans!'
भावार्थ यह कि सर सैयद ने कांग्रेस का विरोध करने के लिए 'पैट्रियॉटिक एसोसिएशन' स्थापित की... पर जाने दें, जो हो गया सो हो गया। हम यह न भूलें कि हिंदू और मुसलमान दोनों ही सर सैयद अहमद के ऋणी हैं और इस कारण हम सब कृतज्ञता से उनकी स्मृति का स्मरण करें, क्योंकि उनके बोए बीज अंकुरित हो रहे हैं। वह अलीगढ़ उस संस्कृति के ज्ञान-प्रकाश का केंद्र बन गया है। उससे हिंदुस्थान के मुसलमान समाज में आज आधुनिक चेतना का संचार हो रहा है और हिंदू-मुसलमानों की भावी राष्ट्रीय एकता की शुभ सूचना देनेवाले उत्साही देशाभिमान की ज्योति फैल रही है।
सर सैयद जब मरे, तब उनकी उस अलीगढ़ संस्था से शिक्षित कांग्रेसी राष्ट्रीय एकता को नकारनेवाली या हिंदू-द्वेष से ओत-प्रोत मुसलमान तरूणों की एक पीढ़ी शिक्षित होकर निकल चुकी थी। फिर भी उस संस्था के अंतरंग के विषय में बड़े-बड़े हिंदू नेता कितने अज्ञ, अंध और असावधान थे - यह देखें! सुरेंद्र बाबू उपर्युक्त उद्धरण में मुसलमानों की जिस आधुनिक चेतना और देशाभिमान को भोलेपन से 'हिंदू-मुस्लिम एकता की शुभ सूचना' समझते थे, वह वास्तव में मुस्लिम राज्य आकांक्षा के द्वारा दी गई राष्ट्रभंग की धमकी थी।
इस ग्रंथ के दृष्टिकोण से कहने लायक कांग्रेस की उत्पत्ति और उसकी ब्रिटिशनिष्ठ अवधि अर्थात् सन् १८८५ से १८९५ तक का संक्षिप्त इतिहास ऐसा है। इस इतिहास से यह स्पष्ट है कि सन् १८९५ के पूर्व पाँच-छह वर्ष से जो कुछ राजनीतिक हलचल प्रकट रूप से चल रही थी, उसके मुख्य सूत्र कांग्रेस के हाथ में आ गए थे। उस कांग्रेस को ब्रिटिश निष्ठा की और मुस्लिमपरस्ती की दो भूत बाधाओं ने प्रारंभ से ही जकड़ रखा था।
मुस्लिम-अनुनय का खुलेआम विरोध कर उसे प्रतिबंधित कर सके, ऐसा कोई भी हिंदू पक्ष उस अवधि में अस्तित्व में नहीं था। इस कारण कांग्रेस के शरीर में उस रोग के विषाणु अधिकाधिक फैलते चले गए।
ब्रिटिशनिष्ठा की भूत बाधा से उस राष्ट्रीय संस्था को मुक्त कराने का बीड़ा उठाए एक बलवान मांत्रिक उसी समय भारतीय राजनीति के प्रांगण में उतरा था। उसका नाम था - 'केसरी' के संपादक महाराष्ट्र-केसरी बाल गंगाधर तिलक।
प्रकरण - १२
तिलक-पर्व
सन्१८८५ तक की राजनीतिक स्थिति का अवलोकन करते हुए पाँचवें प्रकरण में 'स्वदेशनिष्ठ' गुट (पक्ष) की नीतिगत ध्येय-धारणा की विशेषताएँ विशद् रूप में वर्णित हैं। यह पक्ष ब्रिटिशनिष्ठ पक्ष का कट्टर विरोधी था। महाराष्ट्र में उसका जन्म हुआ था। उस समय उसका प्रसार भी महाराष्ट्र के बाहर नहीं था। उस समय यह पक्ष कोई संगठित संस्था हो, ऐसा नहीं था। ब्रिटिश सत्ता से कुपित और उस विदेशी सत्ता का वैधानिक रीति से यथासंभव विरोध करते रहनेवाली मनोवृत्ति के एकमेव सूत्र से बँधा हुआ वह स्वदेशनिष्ठों का एक समूह था। इसी अर्थ में उसे 'पक्ष' कहा है। इस स्वदेशनिष्ठ पक्ष का वैचारिक एवं कार्यिक शिविर सशस्त्र क्रांतिनिष्ठ पक्ष की दीवारों से लगा हुआ रहता था। वे दो पक्ष एक न होते हुए भी इतने निकट थे कि उसके अनेक कार्यकर्ता परस्पर के शिविरों में आया-जाया करते थे। इस कारण कौन किस गुट में है, यह ब्रिटिश शासन का गुप्तचर विभाग भी नहीं कह सकता था। इसलिए उसने दोनों को 'ब्रिटिश-विरोधी' नाम की एक ही रस्सी से बाँध रखा था।
सन् १८७४ में विष्णु शास्त्री चिपळूणकर ने जब अपनी 'निबंधमाला' का प्रकाशन प्रारंभ किया, तब उस स्वदेशनिष्ठ मनोवृत्ति द्वारा मानो रणसिंहा ही फूँका गया। उसके निनाद से महाराष्ट्र के रानडे, लोकहितवादी आदि ज्येष्ठ-श्रेष्ठ-ब्रिटिशनिष्ठ नेता एवं प्रार्थना समाज आदि संस्थाओं का विचारपीठ कंपित हुआ। 'बॉम्बे गजट' पत्र ने अंग्रेज सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित करने के लिए यह छापना शुरू किया कि निबंधमाला में ब्रिटिशद्रोही अर्थात् राजद्रोही सामग्री होती है। विष्णु शास्त्रीजी की ऐसी आत्मप्रत्ययी चेतना और चालना से एक-से-एक तरूण, अंग्रेजी-शिक्षित स्वार्थत्यागी, स्वदेशनिष्ठ मंडली कर्मक्षेत्र में उतरी और शास्त्रीजी द्वारा स्थापित नई स्वावलंबी शैक्षणिक संस्था, वृत्तपत्र संस्था और इतर संस्थाओं में केवल आंशिक वेतन पर काम करने लगी।
ब्रिटिशों की सेवा-चाकरी नहीं करना एवं राजकोप से भयभीत हुए बिना लोगों पर होनेवाले अन्याय की बात कहकर विदेशी सत्ता के संबंध में वैधानिक सीमाओं के अधीन यथासंभव असंतोष फैलानेवाला राजनीतिक आंदोलन चलाना उनका ध्येय हो गया। इसी अखाड़े में से तरूण तिलक आगे आए। महाविद्यालय की परीक्षा से निवृत्त होते ही वे विष्णु शास्त्री से आ मिले। तिलक और उनके आगरकर इत्यादि तरूण साथियों को साथ लेकर विष्णु शास्त्री ने सन् १८८१ में 'केसरी' की स्थापना की।
यद्यपि विष्णु शास्त्री सन् १८८२ में चल बसे, परंतु तिलक, आगरकर आदि ने 'केसरी' पत्र बंद नहीं होने दिया। कोल्हापुर के महाराज पर अत्याचार-संबंधी सारे समाचार 'केसरी' ने छापे। परिणामस्वरूप उनपर अंग्रेजी सत्ता पर की गई टीका संबंधी अभियोग चला और तिलक तथा आगरकर ने कारावास का दंड भोगा। उसके बाद तो 'केसरी' का संपादकत्व और संचालकत्व तिलक के ही हाथ में आ गया। तब से महाराष्ट्र में शक्तिसंपन्न हो रहे 'स्वदेशनिष्ठ' पक्ष का जो अनौपचारिक नेतृत्व तिलक के पास आया, वह अंत तक अटल बना रहा।
इसी बीच जैसा कि पहले वर्णित है, सन् १८८५ में 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' की स्थापना हुई। उसकी स्थापना में रायबहादुर रानडे, तैलंग आदि मराठी ब्रिटिशनिष्ठ पक्ष के लोग अग्रगण्य थे। उस समय तरूण तिलकजी का और उनके गुट का राजनीतिक जीवन महाराष्ट्र की सीमा में ही सीमित था। अत: कांग्रेस की स्थापना से उनका कोई संबंध नहीं रहा। परंतु कांग्रेस के 'अखिल भारतीय राष्ट्रीय महासभा'- इस स्वदेशभक्तिपूर्ण सरस नाम और स्वयं प्रकट रूप में स्वीकार किया हुआ राष्ट्रैक्य एवं राज्यैक्य का उच्च और उदात्त ध्येय देखकर महाराष्ट्र का यह स्वदेशनिष्ठ पक्ष अन्य मतभेदों को गौण मानते हुए महाराष्ट्र के ब्रिटिशनिष्ठ गुट के समान उत्सुकता से कांग्रेस में जा मिला। स्वयं तिलक कांग्रेस के बंबई अधिवेशन में अर्थात् १८८९ में पहली बार कांग्रेस में उपस्थित हुए। उसके बाद भी कुछ वर्षों तक तिलक को कांग्रेस में कोई प्रमुखता से पहचानता नहीं था। उनका कार्य कांग्रेस बाह्य महाराष्ट्रीय जनता में ही चल रहा था। उनकी नीतियाँ भी उस अवधि की कांग्रेसी चौखट में नहीं आती थीं। उदाहरणार्थ, सन् १८९३ में और उसके बाद जूनागढ़, बंबई, पुणे, येवले इत्यादि स्थानों पर मुसलमानों ने दंगे किए। तब मुसलमानी बिच्छू का डंक कुचलने के लिए हिंदुओं द्वारा किए गए प्रतिकार का खुला समर्थन करने में, हिंदुओं पर लादे गए मुकदमों से उनको छुड़ाने में और हिंदू पक्ष के लिए निर्भयता से लड़ने में तिलक तथा उनके स्वदेशनिष्ठ गुट ने अगुवाई की थी। महाराष्ट्र के ब्रिटिशनिष्ठ गुट और स्वयं कांग्रेस ने हिंदुओं के सत्पक्ष का बचाव करने में मुसलमानों के क्रोध के भय से जिस प्रकार की कायर-वृत्ति का परिचय दिया, वैसा तिलक ने नहीं किया। उलटे सार्वजनिक 'शिवाजी उत्सव', सार्वजनिक 'गणेशोत्सव' आदि राष्ट्रीय महोत्सवों की परंपरा प्रचलित कर तिलक और तिलक पक्ष ने महाराष्ट्र में हिंदू संगठन की नींव डाली। तिलक की ऐसी विविध जनसेवा से रानडे, फिरोजशाह मेहता, वाच्छा, गोखले इत्यादि ब्रिटिशनिष्ठ नेताओं के हाथों से महाराष्ट्र का नेतृत्व तेजी से खिसकता चला गया और तिलक नेता बनते गए। इसी लोकप्रियता के बल पर सन् १८९५ में वे बंबई विधानसभा में जन-प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित हुए।
तब तक कांग्रेस के अंग्रेजी या भारतीय नेतृत्व को तिलक के इस कर्तृत्व या महत्त्व की कल्पना नहीं थी। हिंदुस्थान में भी उनके नाम की ख्याति यहाँ-वहाँ ही थी। इस कारण कांग्रेस में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व ज्येष्ठ पीढ़ी के रानडे आदि लोग ही उस अवधि में किया करते थे। उनका ही यह विचार था कि सन् १८९५ का कांग्रेस अधिवेशन पुणे में आयोजित हो। सुरेंद्रनाथ बनर्जी अध्यक्ष चुने गए। सामाजिक सुधार हो या न हो, यह प्रश्न नहीं था। सामाजिक परिषद् का अधिवेशन कांग्रेस के शामियाने में ही आयोजित हो या न हो, यह बहस पुणे में अच्छी तरह छिड़ गई। कांग्रेस के लिए जो हजारों लोग चंदा देते थे, उनमें विशिष्ट धार्मिक या सामाजिक सुधारों के लिए अनुकूल और प्रतिकूल लोग भी होते थे। उनमें दूसरे प्रतिकूल पक्ष के लोगों की ही संख्या अधिक थी। ये बहुसंख्य चंदादाता चाहते थे कि कांग्रेस के शामियाने में उन्हें नापसंद एवं उनकी धर्म भावना को ठेस पहुँचानेवाली परिषद को स्थान न दिया जाए। सामाजिक परिषद् के अभिमानी लोग चाहें तो अपने पैसे से स्वतंत्र शामियाना लगाएँ और अपनी सामाजिक परिषद् का आयोजन करें। यह था मुख्य प्रश्न। परंतु अभी तक के सारे कांग्रेस अधिवेशनों में कांग्रेस के मंडप में ही सामाजिक परिषद् आयोजित होती रही थी और किसी भी प्रांत में उसका विरोध नहीं हुआ था। अत: रानडे, गोखले, फिरोजशाह आदि ब्रिटिशनिष्ठ एवं सुधारक नेताओं ने जिद की कि सामाजिक परिषद् कांग्रेस मंडप में ही आयोजित होगी।
यह गुंडागर्दी हम पुणे में नहीं चलने देंगे-इस जिद से स्वदेशनिष्ठ और सनातनी पक्ष ने संगठित होकर आह्वान दिया। इस पक्ष की यह भूमिका न्यायोचित ही थी, इसलिए तिलक ने उसका पक्ष लिया। इस कारण यह वाद पुणे की सीमाएँ लाँघकर महाराष्ट्र-भर में फैल गया और यह आशंका बलवती हो गई कि कांग्रेस का विभाजन हो जाएगा। सारे हिंदुस्थान में यह चर्चा चली कि रानडे या तिलक, इनमें से कौन सही है और कौन गलत? कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष सुरेंद्रनाथ बनर्जी के दबाव में बड़े खेद के साथ न्यायमूर्ति रानडे ने अपना मन कड़ा करके अपनी जिद छोड़ी और यह घोषणा की कि सामाजिक परिषद् का आयोजन कांग्रेस मंडप में नहीं होगा। यह प्रचारित हो गया। वस्तुत: परिषद् का प्रश्न मात्र दिखावा था। उसकी आड़ में महाराष्ट्र के ब्रिटिशनिष्ठ और स्वदेशनिष्ठ या रानडे पक्ष तथा तिलक पक्ष की यह कुश्ती थी। इसमें तिलक पक्ष की जीत होने से महाराष्ट्र और उसके बाहर सारे हिंदुस्थान में तिलक का नाम एक जुझारू नेता के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
उस समय के पुराने और प्रसिद्ध कांग्रेसी नेताओं के मध्य हमारा नवागत देशभक्त चमक उठे, ऐसे कुछ गुण-विशेष तिलक में पहले से ही थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी आयु के तीस वर्षों तक शासन के सेवाविभाग में नौकर ही थे। तब तक उन्होंने देशसेवा का नाम भी नहीं लिया था। वह तो राज्यशासन ने उनपर कुछ व्यक्तिगत आरोप लगाए और नौकरी से निकाल दिया। तब वे देशसेवा का कार्य करने की ओर मुड़े। स्वयं दादाभाई नौरोजी तीस-चालीस की आयु तक व्यापार ही करते रहे। न्यायमूर्ति रानडे तो आजन्म ब्रिटिशों के चाकर ही थे। चाकरी के बाद के खाली समय में वे स्वदेश-सेवा के कार्य करते थे। बड़े नेता फिरोजशाह अपने वकीली व्यवसाय से लाखों रुपए कमाने में लगे हुए थे। परंतु युवा तिलक ने विश्वविद्यालय से उपाधि प्राप्त करते ही यह प्रतिज्ञा ली थी कि सरकारी नौकरी नहीं करूँगा। जीवनयापन हेतु आवश्यक धन अर्जित करते हुए शेष जीवन देश-सेवा में अर्पित कर दूँगा।
सुरेंद्रनाथ आदि उस समय के कांग्रेस के ज्येष्ठ और श्रेष्ठ नेताओं की राजनीति मूलतः ब्रिटिशनिष्ठ थी। अर्थात् वे राजनीति की पहली सीढ़ी पर ही खड़े थे। परंतु तिलक की राजनीति का प्रारंभ ही पहली सीढ़ी के बाद की ऊँचाई की स्वदेशनिष्ठ सीढ़ी से हुआ। यहाँ यह भी कहना प्रसंगानुकूल होगा कि सन् १८९५ के बाद नौ-दस वर्ष बीत जाने पर तिलक द्वारा पुरस्कृत राष्ट्रीय और उग्रवादी पक्ष के जो नेता थे, उनमें और तिलक में भी यह विभेद था। जैसे पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा आयु के चालीस वर्ष तक देशी राजा के उच्चपदस्थ चाकर ही थे और व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के अतिरिक्त दूसरा कोई भी स्वार्थ-त्यागी जनसेवा का क्रियात्मक ध्येय उनके सामने नहीं था। ब्रिटिशनिष्ठा के अतिरिक्त किसी और राजनीतिक निष्ठा की बात उन्होंने नहीं की थी। यद्यपि राष्ट्रीय पक्ष के नेताओं को, आनुप्रासिक होने से, 'लाल-बाल-पाल' कहा जाता था, तथापि लाला लाजपतराय या पाल बाबू दोनों ही नेता तीस-चालीस की आयु तक राजनीति में धड़ल्ले से नहीं कूदे थे। ब्रिटिश राज हिंदुस्थान में है और वह उपकारक है, ऐसी ही उनकी प्राथमिक सोच थी। इस सबकी साधार सविस्तार चर्चा पिछले प्रकरणों में की जा चुकी है।
अर्थात् उपर्युक्त सारे नेताओं की तुलना में तिलकजी का जो उभरता वैशिष्ट्य था, वह अन्य तत्कालीन नेताओं में नहीं था। हमारा यह कथन अन्य लोगों द्वारा की गई देशसेवा की या उनकी कुल योग्यता की न्यूनता दिखाने के लिए नहीं है। उन नेताओं में भी प्रत्येक की अपनी उल्लेखनीय विशेषता थी। उनकी देशसेवा अपने-अपने हिसाब से उत्कट ही थी। जैसे न्यायमूर्ति रानडे के लिए ऊपर कहा गया कि वे सरकारी नौकरी के बाद बचे समय में देशसेवा करते थे, पर इस सच के पीछे का सच यह भी है कि बचे समय में उनके द्वारा की गई देशसेवा इतनी असामान्य थी कि उतनी देशसेवा करने में किसी दूसरे को सात जन्म भी पूरे न पड़ते।
सन् १८९५ में कांग्रेस का अधिवेशन होना निश्चित हुआ। उसके बाद ही यह बहस छिड़ गई कि कांग्रेस मंडप में सामाजिक परिषद् का आयोजन हो या न हो। इस बहस के कारण तिलक का नाम महाराष्ट्र के बाहर पहली बार गूँजा। बहस में एक ओर थे कांग्रेस के पुराने नेता तो दूसरी ओर था एक नवागत युवक। इस नवागत युवक को वे सुप्रतिष्ठित, ब्रिटिशनिष्ठ नेता दुत्कार नहीं पाए। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए ही दोनों ओर के नेताओं के गुण-विशेषों की चर्चा ऊपर करनी पड़ी और इसी क्रम में तिलकजी के अपेक्षाकृत अधिक प्रखर स्वार्थ-त्याग और तेजस्वी राजनीति का उल्लेख करना पड़ा।
उपर्युक्त कथन के अनुसार ही तिलक पक्ष के कारण कांग्रेस के मंडप से सामाजिक परिषद् के बरतन-भाँडे बाहर फेंके जाते ही वह बहस थम गई और सब लोगों की पूरी एकता से कांग्रेस का अधिवेशन पुणे में संपन्न हो गया। इतना ही नहीं वह आयोजन इतने ठाठ-बाट से हुआ कि उससे पुणे को ख्याति प्राप्त हुई। पूरे देश से वहाँ एकत्र लोगों ने यह भी देखा कि महाराष्ट्र में नेता पद पर तिलकजी ही आसीन हैं। तिलकजी के स्वतंत्र कर्तृत्व की परीक्षा भी उसी अधिवेशन में हुई। दूसरे यह कि ब्रिटिशनिष्ठ लोगों के चंगुल से कांग्रेस को छुड़ाने के लिए जो लड़ाई भविष्य में लड़ी जानी थी, उसका प्रारंभ भी वहीं से हुआ। इसी समय से महाराष्ट्र के इतर प्रांतों में भी उसका प्रसार होने लगा।
प्रकरण-१३
वासुदेव बलवंत फड़के के बाद क्या?
जिस सशस्त्र क्रांतिनिष्ठ पार्टी से इंग्लैंड को अन्य सब पार्टियों की तुलना में अधिक भय था, जिस सशस्त्र क्रांतिनिष्ठ मनोवृत्ति को समाप्त करने के मूल उद्देश्य से ब्रिटिश कूटनीतिज्ञों ने कांग्रेस की स्थापना की - उस मनोवृत्ति वाली क्रांतिनिष्ठ पार्टी का इस (सन् १८८५ से १८९५ की) अवधि में क्या हुआ?
कांग्रेस ने पूरे देश में ब्रिटिशनिष्ठा की एक आँधी चला दी - उस आँधी में वह वृक्ष की तरह उखड़कर गिर तो नहीं गया? या कांग्रेस के पीछे दौड़ती लाखों की भीड़ के पैरों के नीचे गिरकर कुचल तो नहीं गया? या वासुदेव बलवंत के सशस्त्र विद्रोह के बाद चले फाँसी या काले पानी के भयंकर दंड और विद्रोह की भयानक विफलता के कारण सशस्त्र क्रांतिवाद के सिद्धांत से उस पक्ष की श्रद्धा लुप्त तो नहीं हो गई और अपने ही शरीर के रक्तक्षय से दुर्बल होते हुए वह गतप्राण तो नहीं हो गया? या स्वदेशभक्ति के रास्ते चलकर धन, सुख, सुरक्षा, पद, अलंकरण आदि के उपभोग का जो एक सरल रास्ता कांग्रेस की ओर जाता था, उसके मोह में वह भी उसी रास्ते तो नहीं चल पड़ा?
ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सन् १८८३ में अदन में सुलगी चिता पर वीर वासुदेव बलवंत की देह जलकर राख हुई-चिता बुझ गई। परंतु बचे हुए महाराष्ट्रीय क्रांतिकारियों के मन में बैठी स्वतंत्रता की प्रबल आकांक्षा और उसे पाने के लिए सर्वस्व होम करने की अभिलाषा बुझी नहीं। उनके मन में लपटें धधकती ही रहीं। संगठन बचा न था। परंतु व्यक्तिगत तौर पर और गुटों में भारतीय स्वतंत्रता के ध्येय तथा सशस्त्र क्रांतिवाद का प्रचार वे गुप्त रूप से निरंतर करते ही रहे। वह भी नाना वेश में, नाना कारणों से; अप्रत्यक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष में भी करते रहे।
प्रत्यक्ष आंदोलनों में उस समय भारतव्यापी आंदोलन कांग्रेस का ही था। उसके द्वारा हिंदुस्थान के कोने-कोने में फैलाई गई राष्ट्रीय एकता की चेतना क्रांतिकारियों को सुख तो देती थी। फिर भी ब्रिटिशनिष्ठ मनोवृत्ति से घृणा करने के कारण कांग्रेस से दूर ही रहे। दूसरा प्रत्यक्ष आंदोलन तथा स्वदेशनिष्ठ तिलकपंथियों का। इस पंथ के प्रत्यक्ष आंदोलन से क्रांतिकारियों का हार्दिक संबंध था। तिलकपंथियों के प्रत्यक्ष आंदोलन का फैलाव वैधानिक सीमा तक ही था, परंतु स्वदेशनिष्ठ पक्ष की रूपरेखा, मनोवृत्ति और कार्यक्षेत्र का जो चित्रण पूर्व में किया गया है, वह उनमें अभी भी समाई हुई थी। प्रकट रूप में आंदोलन और मन में सशस्त्र क्रांति को साथ रखनेवाले अनेक क्रांतिकारी तिलकपंथी आंदोलनों में भागीदार थे।
अधिक क्या कहें, तिलकजी द्वारा सन् १८९५ तक आयोजित अकाल-निवारण कार्य, हिंदू-मुसलमान दंगे, शिवाजी-जयंती, गणेश उत्सव आदि सामुदायिक आंदोलन और भविष्य के सारे आंदोलनों में जो अनुयायियों की संख्या, उत्पाद कट्टरपन और स्वार्थ-त्याग दिखती थी, उसका मुख्य कारण क्रांतिनिष्ठा ही थी। तिलकजी को इसकी पूरी जानकारी थी।
परंतु प्रत्यक्ष और वैधानिक आंदोलनों में इन क्रांतिकारियों के सहभाग का मुख्य उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि ये वैधानिक आंदोलन स्वतंत्रता-प्राप्ति के काम में कितने अधूरे हैं।
प्रबल, प्रखर देशभक्ति और स्वार्थ-त्याग जिनके रग-रग में समाया था और जो क्रांति संस्थाओं में ही शोभा दे सकते थे - ऐसे स्वदेशनिष्ठ लोगों से क्रांतिनिष्ठ गुप्त रीति से पूछते - कहिए, इन वैधानिक आंदोलनों के अंत में क्या अनुभव मिला? जो आंदोलन वैधानिकता की आड़ में चलाए गए, उन आंदोलनों को अंग्रेजों ने कौड़ी के मोल का भी नहीं समझा! उलटे कल वैधानिक लगनेवाले आंदोलनों को आज ब्रिटिशों द्वारा 'अवैधानिक' कहकर आंदोलनकारियों को सरेआम दंडित किया जा रहा था। हम ब्रिटिश सम्राट् के प्रति राजनिष्ठ हैं - ऐसा बार-बार लिखने एवं कहने वाले हमारे तिलक जैसे नेता को भी ब्रिटिश शासन 'राजद्रोही' ही तो कह रहा है। स्वदेशी का आंदोलन आज वैधानिक है, परंतु कल वे उसी कपड़े पर कर लाद दें, तो उनको वैधानिक आंदोलन चलाकर किस तरह रोका जा सकता है? आज जन-जागृति के लिए जो शिवाजी उत्सव, गणेश उत्सव आयोजित कर रहे हैं, उन्हें अंग्रेजी समाचारपत्र 'राजद्रोह फैलानेवाले' कह रहे हैं। कल उन उत्सवों को 'राजद्रोही' करार दिया जाता है और उनपर प्रतिबंध लगाया जाता है तो सबकुछ समाप्त ही हो जाएगा। कांग्रेस के ब्रिटिशनिष्ठ आंदोलन तो खैर, छोड़ ही दें। वे तो अधोगामी हैं ही। स्वदेशनिष्ठ लोगों के वैधानिक आंदोलन उपयुक्त तो हैं, पर आधे-अधूरे ही हैं, ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के लिए तो वे बिलकुल ही बेकार हैं। विधि-निर्माण करने की क्षमता ही ब्रिटिशों के हाथों से छीननी होगी। आज हमपर ब्रिटिशों का जो शासन है, वह उनके हाथों में शस्त्रशक्ति होने के कारण ही है। अत: उस शस्त्रशक्ति को हतबल करके ऐसी प्रतिशक्ति अर्थात् सशस्त्र क्रांति खड़ी करने के सिवा ब्रिटिशों की दासता से अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र करना संभव नहीं है। यह करना संभव हो या असंभव, पर रास्ता वही है और वह रास्ता गुप्त संस्थाओं की गुफाओं से निकलकर रणांगण के लिए जाता है।
प्रत्यक्ष आंदोलनों में श्रम करने के बाद भी ब्रिटिशों का कुछ भी नहीं बिगड़ता - यह देखकर परेशान, स्वदेशनिष्ठ लोगों को क्रांतिकारियों का यह युक्तिवाद भाता था। उनमें से जिनके हृदय चेत जाते थे, वे सशस्त्र क्रांतिवाद के नए अनुयायी बन जाते थे। कुल मिलाकर स्वदेशनिष्ठों के प्रत्यक्ष आंदोलन, अप्रत्यक्ष एवं गुप्त क्रांतिकारी संस्थाओं को नए अनुयायी देनेवाले भरती-क्षेत्र हो गए थे। क्रांतिनिष्ठ पक्ष इसी दृष्टि से उसका उपयोग करता था।
इस तरह होते-हाते सन् १८९५ के आसपास महाराष्ट्र में गुप्त रीति से टोली-टोली में बिखरे हुए उन सशस्त्र क्रांतिकारियों का एक नया संगठन फिर से कार्यक्षेत्र में उतर पड़ा। पूरे हिंदुस्थान में बिजली की तरह कौंधी चापेकर बंधुओं की गुप्त संस्था उसी का प्रकट रूप थी।
उपलब्ध इतिहास से यह दिखता है कि सन् १८९५ के कालखंड तक हिंदुस्थान की सार्वभौम स्वतंत्रता के लिए, ब्रिटिशों का सशस्त्र प्रतिकार करने के लिए प्रेरित किसी क्रियाशील क्रांतिकारी संस्था या सक्रिय गुट का अस्तित्व महाराष्ट्र के सिवाय किसी भी अन्य प्रांत में नहीं था। महाराष्ट्र में केवल वह क्रांतिकारी परंपरा अखंड चलती रही। सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध से स्फूर्ति लेकर वासुदेव बलवंत का सशस्त्र विद्रोह जन्मा। वासुदेव बलवंत की प्रेरणा लेकर चापेकर बंधुओं ने क्रांतिकारी संस्था बनाई। चापेकर तथा रानडे की फाँसी की स्फोटक घटना से मेरा बाल-हृदय सुलग उठा और मैंने उनका क्रांतिकार्य आगे बढ़ाते रहने की प्रतिज्ञा अपने कुल देवता के सामने की। इस वर्ष के आसपास ही चापेकर के पुण्य स्मरण में लिखे अपने काव्य में इन हुतात्माओं को संबोधित कर मैंने आश्वस्त किया था -
कार्य सोडुनि अपुरे पडता झुंजत? खंति नको! पुढे ॥
कार्य चालवू गिरवित तुमच्या पराक्रमाचे आम्ही धडे ॥
(खेद न करना अपने आधे छूटे कार्य पर,
पराक्रम के पदचिह्नों पर होंगे हम अग्रसर।)
इस आश्वासन के किंचित् पश्चात् 'अभिनव भारत' का प्रादुर्भाव हुआ!
भगूर
'मेरी स्मृतियाँ' के लेखन के प्रारंभ में ही मुझे यह कहना है कि वास्तव में मुझे अपने जन्म की कोई स्मृति नहीं है।
कुछ स्पष्ट स्मरण लिखते समय जो बातें याद नहीं आ रही हैं, उनको घटित होना मानकर चलना ही पड़ता है और उपर्युक्त कथन इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। अपना जन्म होते कौन देखता-बूझता है। फिर भी उसपर विश्वास करके चलना पड़ता है, नहीं तो आत्म-चरित्र की एक पंक्ति भी लिखी नहीं जा सकती। यहाँ पर आप्त-वाक्य ही प्रमाण होता है। वैसी ही स्थिति माता-पिता की होती है। मेरी यह जननी है और यह जनक हैं, इस भावना का भी प्रमाण यदि केवल आप्त-वाक्य 'प्रत्यक्ष' को ही साक्ष्य मानने का अवलंबन करें तो जीवन असंभव होकर रह जाएगा। दाँत नहीं थे, तब माँ के दूध की धार ही जीवन का आत्यंतिक आधार थी, वैसे ही प्रत्यक्ष की स्मृति होने के पूर्व आप्त-वाक्य ही जीवन का अपरिहार्य आधार होता है। पाला, पानी आग, नाम इत्यादि सब वस्तुओं के हिताहित गुणधर्म आप्त-वाक्य से ही सिखाए जाते हैं। ऐसा न हो तो प्रत्यक्ष की कठोर वास्तविकता उसे कब का मसल डाले।
ऐसा कहते हैं कि मेरा जन्म सोमवार 28 मई, 1883 को नासिक तहसील के भगूर गाँव में हमारे कुटुंब के 'पुराने मकान' में हुआ था। मेरे पिता और काका ने एक नया सुंदर मकान बनवाया था, इसलिए पहला मकान पुराना हो गया। प्लेग के आक्रमण और उसके बाद राजकर्ताओं द्वारा कहर ढाने से परिवार और कागज-पत्रों की जो दुर्दशा हुई, उसमें मेरी जन्मपत्री खो गई थी। ग्रहों की कृपा-अवकृपा का कोई भरोसा मुझे प्रारंभ से ही नहीं था। इसलिए मेरी जन्मपत्री मुझसे बिछुड़ी ही रही। परंतु मेरे ज्येष्ठ बंधु गणेश (उपनाम बाबाराव) को प्रारंभ से ही फलित ज्योतिष में रुचि थी। उन्होंने ही हम तीनों भाइयों की जन्म-कुंडलियाँ कहीं से खोजकर निकालीं-वही मैं नीचे दे रहा हूँ।

मेरी माँ का नाम राधाबाई और पिता का नाम दामोदर पंत या अण्णाराव था।
हम तीनों भाइयों की जन्मतिथियाँ निम्नलिखित हैं -
गणेश दामोदर सावरकर - शक संवत् 1801 ज्येष्ठ कृष्ण 9 (उत्तर भारत में वैशाख कृष्ण 9) सूर्योदयात् घटी 47 पल 36, 13 जून, 1879। विनायक दामोदर सावरकर - शक संवत् 1805, वैशाख कृष्ण 6 (उत्तर भारत में चैत्र कृष्ण 6) सूर्योदयात् घटी 39, पल 55, 28 मई, 1883। नारायण दामोदर सावरकर - वैशाख शुक्ल 15, शक संवत् 1810, सूर्योदयात् घटी 25, पल 35, सन् 1888।
पेशवा काल में, कोंकण की चिपळूण तहसील के गुहागरपेटे गाँव के दो परिवार धोपावकर और सावरकर अपना भाग्योदय करने के लिए उत्तर की ओर बढ़े। जो कुछ भी हुआ हो, पर अंतिम ज्ञात स्थिति यह है कि पेशवा से पुरस्कार में जागीर प्राप्त कर वे भगूर में बस गए। मेरी स्मृति तक वह जागीर हमारे घराने में अव्याहत चल रही थी। मेरे बचपन में 'जागीरदार का पुत्र' ऐसा सम्मान और लाड़ मुझे प्राप्त रहा। अपने प्रजाजनों के बीच जागीरदार के लड़के की शान और ऐंठ बनाए रखने का प्रयास भी मैं किया करता था, ऐसी कुछ धुँधली स्मृति मुझे है। कुछ यह भी स्मरण है कि बैलगाड़ियों पर आम लादकर जब हमारे किसान आते तो उनके श्रम पर मुझे दया आती और ओसारे में बैठकर सुस्ताने का आग्रह मैं उनसे करता।
वे कहते, 'छोटे जागीरदार! आपके काका अगर आ गए तो हमें फटकारेंगे।' मैं इसपर कहता, 'वे क्यों फटकारेंगे? उन्हें आप मेरा नाम बताओ; मैंने बैठाया है, यह बताओ।' मेरे काका आ भी जाते तो ओसारे पर चढ़कर बैठे किसान कहते, 'बापू साहब, हमें छोटे जागीरदार ने बैठाया है - कितना दयावान लड़का है।' यह सुन काका मुसकराते और कहते, 'छोटे जागीरदार ने बैठाया है तो मेरी क्या हिम्मत तुम्हें यहाँ से उठाने की - बैठो, बैठो।'
हम 'सावरकर' कैसे कहलाने लगे, इस बारे में निश्चय से कुछ कह पाना कठिन है। वैसे, कोंकण में भी यह कुलनाम प्रचलित है।
हमारे किसी पूर्वज को संस्कृत विद्वान् के रूप में पेशवा ने सम्मानित किया था और उन्हें पालकी भेंट की थी, ऐसी किंवदंति है। मेरी पिता और काका बचपन में मुझे घर में पड़ी एक बड़ी मोटी तगड़ी बल्ली दिखाकर कहते कि यह उस पालकी का अवशेष है।
मैंने तो खंडोबा के मंदिर की पालकी देखी थी। उसे वर्ष में दो बार सजाकर समारोहपूर्वक निकाला जाता था। अपने घर के कबाड़े में पड़ा वह काष्ठी देखते-देखते जब मैं खो जाता, तो फिर मुझे भी एक सजी-धजी पालकी दिखने लगती, जिसमें एक भव्य पुरुष बड़े सम्मानित ढंग से बैठा हुआ मुझे दिखता। मैं बड़े ही गर्व से फूलकर उस पूर्वपुरुष को नमस्कार करता, उसे साभिमान आश्चर्य से देखता रहता।
'भगूर' गाँव में
लगभग सात-आठ पीढ़ी पहले हमारे पूर्वपुरुष 'हरभट' इस भगूर गाँव में आकर बसे, तब इस गाँव का भाग्य भी उस पालकी-प्राप्त व्यक्तित्व के भाग्य के समान ही जागा। पेशवा राज के उस वैभवशाली काल में इस गाँव में चौदह चौकों के बाड़े बने थे, यह बात मेरे काका मुझे बताया करते थे। गाँव के खंडहरों से मिट्टी खोदते समय कभी कोई एकाध चौक मिलने की बात कहता तो आठ-दस की आयु का मैं दौड़कर वहाँ जाता और वहीं का होकर रह जाता। पहले मिले और नए मिले चौक की गिनती करता। वे चौदह नहीं हो पाते तो अनुमान लगाता कि वे अड़ोस-पड़ोस के घरों के नीचे दबे पड़े होंगे।
हमारे घर के सामने ही खंडहर जैसे स्थान में एक कुआँ था। उसमें एक सुरंग भी है। वहाँ एक नाग देवता खजाने की रक्षा करता हुआ बैठा है - ऐसी लुभावनी दंतकथाएँ मुझे कुएँ तक खींच ले जातीं और मैं उसके किनारे बैठकर यह कल्पना करता रहता कि वह सुरंग, वह नाग, वह खजाना कैसा होगा। परंतु अपने गाँव की इन अद्भुत रम्य पुराण वास्तु का संशोधन कर महाराष्ट्र के प्रसिद्ध इतिहास संशोधक राजवाडे' की तरह ख्यात होने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला।
पेशवा काल में धनी-मानी लोगों के रहने-बसने का यह गाँव था। वहाँ का पानी उत्तम था। हवा-पानी की उत्तमता को परखकर ही अंग्रेजों ने अपनी एक छावनी यहीं पास के 'देवलाली' में बनाई थी। इस गाँव में स्वयं बाजीराव पेशवा का भी आगमन हुआ था, ऐसी किंवदंति है। पर कौन सा पेशवा? पहला या अंतिम? रणधीर या रणभीरु? मेरे गाँव को लाँछन लगानेवाला या गौरव बढ़ानेवाला? दंतकथा अंतिम पेशवा की बात कहती तो मेरा मन आक्रोश से भर उठता। दंतकथा ही कहानी है तो पहले बाजीराव पेशवा की क्यों न कही जाए? यह प्रश्न मेरे बाल-मन को सताता।
मेरे बचपन में उस भगूर गाँव में खंडहर हुई चारदीवारी, महादेव और गणपति का मंदिर तथा खंडोबा की भव्य मूर्ति थी। हरसिंगार का एक पेड़ भी था, जिसपर से फूल उतारने के लिए चढ़े मेरे पिताजी नीचे गिरे थे। रक्त से सने, मूर्च्छित उनको घर लाया गया था - यह चिरस्मरणीय घटना सुनते ही मेरा रोम-रोम सिहर उठता। वैसे ही एक गिरा-पड़ा मठ था तथा गाँव से दूर की छोटी नदी 'दारणा' थी। बचपन में ही माँ की मृत्यु हो जाने के बाद पीने के लिए उसका जल लाने बारह वर्ष की आयु में जब मैं उसके पास जाता तो किनारे के बबूलों की छाया में खड़ा रहता। वहाँ मेरे लिए राह देखते खड़े किसी प्रियजन की समीपता जैसी बबूल के सुवर्ण पुष्पों की वह बिछावन आदि वस्तुएँ तथा उनसे संबंधित ग्रामीण दंतकथाएँ मेरे बाल-मन की कल्पना को बहुत प्रिय लगतीं। आज भी उन सबकी स्मृति कितनी रम्य लगती है।
सामान्य वस्तु भी दिव्य-वैभव-मोहिनी
प्रिय पाठक, आपने इस गाँव का गुंजन पहले ही सुन रखा है। है स्मरण! नहीं? अरे, भूल गए! फिर याद दिलाऊँ क्या? पर शर्त है बालक जैसी। यह किस्सा किसी और को बताना नहीं; नहीं तो कुट्टी हो जाएगी। मेरा एक काव्य. (खंड काव्य) है गोमांतक (गोवा)। उसमें एक गाँव है 'भार्गव' - यही तो मेरा भगूर है। उसमें भार्गव गोवावासी है, पर है वह मेरे भगूर का ही कल्पना-चित्र। भार्गव उद्धृत कर रहा हूँ, उसमें भगूर दिख जाएगा - देखिए भार्गव...
थी एक नदी नाम दारका ताप हारका।
प्रतिपच्चंद्रलेखेव तवंगी धवलोदका।।
हर का हरने ताप हलाहल का।
रही जो स्वर्ग जाकर पापक्षालनी आपगा
वसुधा भगीरथ सम सम्राट् कुल की।
भगीरथी महत्कार्य करने संतत लगी।।
उस अर्थ में ऐसी महान् न है दारका।
दीनों का तृष्णा सांत्वन पुण्य कार्य कारका।।
गाँव जो तृषित हैं अधिक उनको।
नदी इतनी सी पिलाए जलधार को।।
पयपान कराए शावकों को शेरनी ज्यों।
या हिरनी पिलाए पय अपने शिशु को।
शोभित है दारका के तट ग्राम एक छोटा।।
जैसे पुष्प-गुच्छ बना बन मोगरे का।।
हरित चादर-सी फैली दूर तक कृषि डोले।
हो जैसे सिंधु में द्वीप गाँव ऐसा लगे।।
कृषि गीत 'ए बैला' गूँजे उच्च स्वर।
भारे से ही पुष्पगंध से भरे अंबर।।
बहता कल-कल जल खेत में पूरे।
सुरसाध जलधारा मयूर नृत्य करे।।
प्रकृति की कृपा थी पूर्व से जैसी।
आज भी थी उस ग्राम पर वैसी।।
सुरूप फिर भी जैसे दिखे बीमार-सा।
या तड़ित से जला वृक्ष दिखे जैसा।।
परचक्र के कारण ऐसा हुआ भार्गव गाँव।।
था गर्वित कभी, आज उसका मुख म्लान।।
भग्न परकोटे का शेष दरवाजा एक।
कहता ग्राम के पूर्व वैभव की कथाएँ अनेक।।
देवालय महादेव का सन्निध खड़ा जीर्ण-सा।
धर्म केंद्र समाज का मानो अकेला शेष था।।
ग्राम युव-युवतियाँ प्रदक्षिणा इसे देतीं।
गूँथकर माला गिरे चंपा फूल की।।
पड़ोस के मठ में खड़ा पेड़ एक हरसिंगार का।
फूलों से लदता, गर्वित करता, ग्राम को सदा।।
इस हरसिंगार की जो कथा दंतकथा थी।
पूर्व में नारद को स्वयं 'अर्जुन सारथी' ने कही।।
कि भामा रुक्मिणी और रानियाँ दूसरी।
किसी एक के आँगन में हरसिंगार देख न सकतीं।।
हारे हरि रानियों की ईर्ष्या परस्पर से।
चढ़ाया हरसिंगार चरणों पर भृगु के।।
ऋषि ने अपने मठ में दिया उसे रोप।
यही वह हरसिंगार है यह है आरोप।।
दस-पाँच दुकानें बस्ती बीच गाँव की।
खड़िया-पुती शोभित गेरु सजी।।
बड़ा बाजार यही था उस लघु गाँव का।
रँगीलों-मतवालों का स्थान यही सुरम्य था।।
खेत जाते भोर ही देखती दुकानें यहाँ।
नली में भर तेल संध्या ले जाती स्त्रियाँ।।
थोड़ी चलती-चलाती नोन-मिर्च वे लेतीं।
बनिया दूना दाम ले कहे हो गई गलती।।
बड़े पेट का सेठ उसी में एक था।
दुकानदार थे अनेक साहूकार वह अकेला।।
बच्चे और गरीब कँगले जब भीख वहाँ माँगते।
तब वह क्रोधित हो सेठ सबको वहाँ से हाँकते।।
मारने कँगलों को खड़े होते जब सेठ।
बच्चे भाग जाते बाहर गाँव के ठेठ।।
गाँव में जोड़ न देख अपना नवमल्ल वो।
माँ के चरण छूकर जाता पड़ोस गाँव को।।
सँभलकर रहना-कहती माँ बढ़कर आगे।
कुश्ती का आयोजन जहाँ वहाँ वह सीधा भागे।।
और कुश्ती में दाँव लगा स्पर्धी को चित कर।
जीत कुश्ती लौटता बाँध साफा सिरपर।।
उसका स्वागत करने सब ही तो उमड़ पड़े।
जय-जयकार से उसके गाँव का लघु अंबर फटे।।
ढोल पीटते लोग, चला पहलवान सीना ताने।
मानो रावण-वध कर राम ही साकेत लौट रहे।।
गाँव में ही है मायका पर नहीं भेजता ससुरा।
पानी पिलाने भैया लाता नदी पर बछड़ा।।
नदी पथ नहीं, मायका है माना अपना।
बहना प्यार करे भैया को उतना।।
पंचायत सभा पंचों की सुलटाने गाँव के विवाद।
सरपंच साहसी गाँव का सुलझाता सारे प्रवाद।।
नित्य , नैमित्तिक धर्म कार्य सब करते।
ग्रामोपाध्याय गाँव के पाप हरते।।
दैवी, भौतिक आपत्ति इस तरह होकर दूर।
निश्चित, निष्ठा से किसान करते खेती सुदूर।।
मुकुट पहने सुवर्ण के बालियाँ मानो कह रहीं।
गाँव देह में हैं प्राण और घर-घर में समाधान।।
साल-भर अब होगी हर कमी पूरी।
कुम्हार, तेली, बढ़ई, जुलाहे की बस्ती हरी।।
अपने सब सहायकों का किसान पेट भरे।
अनाज अंश यथा न्याय बाँट उन्हें वो दे।।
वर्ष के लिए लगता अनाज जितना लोगों को।
बाँटकर बचे और संप्रति जिसका काम न हो।।
समुदाय हितार्थ वह सामुदायिक निधि बने।
पटेल मुखिया का वह उससे गाँव खत्ती भरे।।
अकाल का संकट यदि आए भू पर कभी।
करेगी अन्न संपत्ति लोक-पोषण वो भली।।
ग्राम-शासन ऐसा जो हर गाँव होता रहे।
स्वयंपूर्ण लोकतंत्र का लघु रूप फूले-फले।।
पर आसन्न मृत्यु पड़ी व्यवस्था वह ग्राम की।
परराज्यन प्रबंध के रास्ते आती पराकृति।।
दुकानें दारू की खुलीं अब बीच बस्ती।
दानवीय कर कर्षण सहन करती खेती।।
इस ऐसी ग्राम संस्था से प्रथिता स्वयंभू अधिक।
प्राण भूत जैसी संस्था थी दूसरी और एक।।
था एक युगस्थायी वटवृक्ष महायशी।
फैलीं जिसकी हवा जड़ें प्रतिवृक्ष-सी।।
आया जो अतिथि जा न लौटकर पाया।
बिना सुने कथा वटवृक्ष की बिना देखे काया।।
कि पूर्व में जिस किसी दिन उस वीरोत्तम भार्गव ने।
सकंप समुद्र को पीछे था हटाया शत योजने।।
उस दिन उस वीर ने विजय-ध्वज के रूप में।
स्थापित किया गाँव और रोपा वटवृक्ष बीच में।।
चौपार उसका हेमाडपंथी बिना चूना कीच।
पूरे अवनि पर नहीं ऐसा मंत्रबद्ध शिला अतीव।।
चौपाल नहीं केवल पीठ यह अखंड चर्चा की।
राजनीति सारी गाँव ठान की घटती यहीं।।
दिन में संथागार और रात में।
रंगभूमि खुली, कोई आए कोई खेले, देखे।।
आते घुमक्कड़ साधू धुनी रमाते यहाँ।
विनय करते बहुत तब कहते लव देश कहाँ।।
चिलम का धुआँ बात-बात पर छोड़ना।
विलायत है बस जरा आगे काशी के कहना।।
अवधूत यह पर प्रेम बधू का देखे।
नए वृक्ष की देख पूजा मत्सर से भरे।।
वृद्ध वटाध्यक्ष की वत्सल छाया जिसपर।
पशु-पक्षियों की छावनी पड़ी रहती निरंतर।।
लुप्त सी है अब गाँव की चावडी फिर भी।
कई-कई राज्याधिकारियों के दिखते शिविर वहीं।।
जैसे जिस दिन दौरे पर कोई आए।
तहसीलदार की गड़बड़ उस दिन हो जाए।।
हर कोई उस रास्ते जाए विलोकने।
डर-डरकर दूर से धूमकेतु हो जैसे।।
पटेल की गलमुच्छें बड़ी रुआबदार।
पटवारी की लेखनी हेरफेर में तैयार।।
खूब बढ़ाते अपना रोब डरते अंदर से।
उस दिन उस गाँव के हर ग्रामीण से।।
लेते मुजरा उस दिन मुंडी झुकाकर जरा।
तहसीलदार के जाते ही पर होते कर्कशा।।
वही मिशन का एक स्कूल नया लगे।
क्रोध उसका करते पंडितजी पुराने।।
टाट-पट्टी खाली इनकी कक्षा है सूनी।
रटते अंग्रेजी उधर बच्चे कक्षा है पूरी।।
कैसे हो कल्याण देश का हरे-हरे।
श्रीगणेश लिखे बिना बच्चे बढ़े चले।।
इस भगूर गाँव के पड़ोस में ही एक छोटा गाँव था 'राहूरी'। वहाँ हमारे कुल की जागीर थी। मेरे कुल में अनेक पुरुष वेदशास्त्रों के ज्ञाता थे। वैसे ही एक पुरुष ने यज्ञदीक्षा भी ली थी, इसलिए हमारे कुल को 'दीक्षित' भी कहा जाता था। मेरी दादी के पिता अपने समय के बड़े वीर थे- वे मकराणी घोड़ों के एक दल के अधिपति थे। इसी दल की सहायता से उन्होंने एक बार डाकुओं को पकड़ा और उनके पास से उनकी प्रमुख देवी की प्रतिमा ले आए। मेरी दादी उसे हमारे कुल में ले आईं। वह अष्टभुजा भवानी की मूर्ति बहुत सुंदर थी, वही हमारी कुल देवी बनीं। उस मूर्ति को बलि दिए जाने की प्रथा थी। इसलिए उसकी स्थांपना गाँव के एक मंदिर में की गई थी। उसकी पालकी प्रतिवर्ष बड़े समारोह से निकाली जाती थी। उस पालकी के भोई कहा करते थे कि हमारा घर आते-आते वह पालकी बहुत भारी हो जाती है और जब हमारे कुल का कोई सदस्य उसके दर्शन कर लेता है तो वह फिर हलकी हो जाती है।
बाद में मेरे पिताजी ने एक नया घर बनाया और वह मूर्ति हमारे घर में ही प्रतिष्ठित की गई। उस अष्टभुजा की सेवा-चाकरी करने में मेरा मन अधिकतर लगा रहता था। मेरे पिताजी नवरात्रि व्रत करते, घी के दीपक और अगरबत्तियाँ जलाए जब वे सप्तशती का पाठ करते और 'या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:' आदि पढ़ते हुए बार-बार 'नमस्तस्यै-नमस्तस्यै नमो नम:' कहते, तब मैं मंत्रमुग्ध हो जाता और समाधि की स्थिति में पहुँच देहभान भूल जाता। किशोरावस्था का वह संस्कार जब-जब जाग्रत होकर स्मरण हो जाता है, तब-तब मैं रोमांचित हो जाता हूँ। किशोरावस्था में वे लगते थे कितने सुंदर, भावसुंदर! अब वे लगते हैं कितने तत्त्वसुंदर श्लोक!
मेरे पिताजी
मेरे पितामह के दो पुत्र और एक पुत्री, तीन संतानें हुईं। मेरे ताऊ, जिन्हें हम 'बापू काका' कहते, मेरे पिता से चौदह-पंद्रह वर्ष बड़े थे। मेरे पिता का नाम दामोदर पंत था जिन्हें हम सब 'अण्णा' कहते थे। वह अति स्नेहिल और सुजन थे। उन्हें अति सम्मानपूर्ण संबोधन अच्छे नहीं लगते थे।
हम मराठी लोग अति सम्मान दर्शाने - 'अहो', 'जाहो' कहते हैं और यही अपनेपन के संबंधों में स्नेहदर्शी 'अरे', 'ओरे' हो जाता है। मेरे पिता को यही संबोधन अच्छे लगते, जबकि दूसरा कोई जब पिता के प्रति प्रयुक्त् ये संबोधन सुनता तो बिगड़ता, हमको समझाता कि पिता को ऐसे संबोधित नहीं किया जाता। वे गठीले शरीर के गोरे, पर कोमल स्निग्ध चेहरे के थे। उन्होंने नासिक हाई स्कूल से मैट्रिक किया था। उनके शिक्षक उन्हें बुद्धिमान परंतु शैतान छात्र कहते थे। उस युग में मैट्रिक के छात्र महाराष्ट में दुपट्टा-साफावाले होते थे। अधिकतर दुपट्टे का उपयोग उसकी गेंद बनाकर कक्षा में ऊँघते छात्रबंधु के सिरपर मारने के लिए होता था। मेरे पिता पर आरोप था कि उन्होंने स्वयं प्रधानाध्यापक पर ही ऐसी गेंद का प्रयोग किया था। वे कविता किया करते थे। मराठी के अनेक नामवंत कवियों की कविताएँ उन्हें कंठस्थ थीं। वे उन्हें बड़े मजे में गा-गाकर हम बच्चों को सुनाते। मुझे भी इसी कारण अनेक पुरानी कविताएँ कंठस्थ हो गई थीं।
मेरे बापू काका
मेरे ताऊ ऊँचे, भरे-पूरे शरीर के व्यायाम-पटु और हम बच्चों से निष्कपट प्रेम करनेवाले व्यक्ति थे। वे कानून के ज्ञाता थे, इसलिए नासिक की वकील मंडली में उनकी यारी-दोस्ती थी। अपने पिताजी के पश्चापत् उन्होंने साहूकारी का धंधा किया, बढ़ाया और उसमें नाम कमाया। साहूकारी थी, आम के बाग थे, खेती थी। इसलिए मेरे ताऊ का मित्र-परिवार, जिनमें सरकारी अधिकारी और अन्य बड़े लोग भी थे, गर्मियों में या अन्य अवसरों पर हमारे गाँव चैन-चान के लिए आया करते थे।
मेरी फूफी कोठूर के कानेटकर परिवार में विवाहित थीं। उनके पति मेरे पिता के बहनोई, जिन्हें हम सब धोंडू अण्णा कहते थे, हमारे ताऊ के साथ साहूकारी करते थे। ब्राह्मणों में अगुवा, जागीरदार, अंग्रेजी पढ़े-लिखे साहूकार, कानून के ज्ञाता आदि होने से हमारे घराने का दबदबा आसपास के पाँच-दस गाँवों में था। परंतु दुर्भाग्य से एक गड़बड़ी भी थी। मेरे पिता और ताऊ में गहरी अनबन थी। कभी-कभी तो दोनों में फौजदारी भी हो जाती। बापू काका को न पत्नी थी, न बच्चे। पत्नी जल्द ही चल बसी थीं। इसलिए मुझे अपने ताऊ के प्रति दया आती थी।
साहूकार का घर और गाँव सुनसान होने से चोरी-डकैती से हमारा घर त्रस्त था। परंतु मेरे पिता बहुत वीर थे। चोरों-डकैतों से वे अकेले ही तलवार लेकर भिड़ जाते थे। न रात देखते, न दिन। चोर-उचक्कों से भिड़ जानेवाला उनका एक बहादुर साथी कुत्ता भी था। उस कुत्ते की अनेक दंतकथाएँ हमारे घर में पौराणिक आख्यानों की तरह कही-सुनी जाती थीं। बैठक पर हजारों रुपए खुले छोड़कर बापू काका को किसी काम से जाना भी पड़ता था, तो कोई डर नहीं था। कुत्ते के रहते उन रुपयों को कोई मजाक में भी हाथ लगाने का साहस नहीं कर सकता था। उस कुत्ते का इतना आतंक था। वह चोरों का शत्रु था, इसीलिए उसे किसी ने विष देकर मार डाला था।
बापू काका का मुझपर बहुत स्नेह था। मैं उनका बड़ा लाड़ला बेटा था। कोई भी बड़ा असामी उनके यहाँ आता तो वे मुझे किसी अमूल्य रत्न की तरह उसको दिखाते थे, मेरी प्रशंसा के पुल बाँधते थकते नहीं थे। कितने ही अटपटे नामों से वे मुझे बुलाते थे, कहानियाँ सुनाते थे। वे मुझे दत्तक ही लेना चाहते थे, परंतु मेरे पिता से वैर होने के कारण उनकी वह इच्छा पूरी नहीं हुई।
मैं कोई चौदह-पंद्रह साल का था, जब मैंने भगूर के गणपति उत्सव में एक भाषण दिया था। वही मेरा प्रथम सार्वजनिक भाषण था। उस भाषण को सुनकर मेरे बापू काका इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने मुझे उठाकर सीने से लगाया और चूमा। 'तू हमारे घराने का नाम रोशन करेगा; वाह, क्या भाषण दिया!' आदि बातें वे बड़ी प्रसन्नता से कहते रहे। उनकी मृत्यु-पूर्व की यह अंतिम स्मृति मेरे मन में आती रहती है। इस स्मृति का यहाँ पर उल्लेख करना उनके प्रति मेरी प्रेमपूर्ण श्रद्धांजलि ही है।
मेरी माँ
कोठूर के दीक्षित घराने की वह कन्या। पिता बड़े शास्त्री पंडित थे, परंतु उनका और उनके एकमात्र भाई (मेरे मामा) का लालन-पालन मेरी नानी ने किया। मेरे मामा को कविता रचने में रुचि थी। तरुणाई में वे कुश्ती और व्यायाम में ही लगे रहे। देह से विशाल, रूपवान, तीक्ष्ण बुद्धि, मन से कोमल, दूसरे से सब काम आगे बढ़कर करनेवाले मेरे मामा ने गीता जैसे ग्रंथ पर भी प्रसादगुणयुक्त कविता लिखी। हम बंधुओं में जो काव्य कला उदित, पल्लवित, पुष्पित, फलित हुई, उसका मूल कारण मातृ-पितृ कुल में इसका होना ही था। इसमें कोई शंका नहीं।
जब मेरी माँ की मृत्यु हुई, तब मैं नौ वर्ष का था। अत: उसके स्वरूप को मैं इतना भुला बैठा हूँ कि यदि वह सामने प्रकट भी हो जाए तो उसे पहचान नहीं सकता। पर उसके संबंध में मैंने जो कुछ सुना और जो कुछ उसकी धुंधली स्मृतियाँ मुझे हैं, उसका ही प्रतिबिंब मेरे काव्य 'गोमांतक' की 'रमा' की भूमिका पर पड़ा है। सुंदर स्वरूप, गोरी, स्वभाव से सुशील और स्नेहिल मन की मेरी माँ थी, यह उसके प्रति कही जानेवाली बातों से मैंने जाना था। संपन्नता का घमंड उसे नहीं था, परंतु उसकी मृत्यु के बाद हमारी संपन्नता घटने लगी। मेरे पिता कहा करते थे, 'वह आई भी लक्ष्मी लेकर, गई भी लक्ष्मी लेकर। 'उसके जाते ही लक्ष्मी चली गई। वास्तव में वही लक्ष्मी थी। मेरे पिता, मेरी माँ पर वास्तव में बहुत मुग्ध थे -
प्रिया उसके जैसी युवती ही वय से।
गृहिणी कर्तव्य करे पर पूर्ण प्रौढ़त्व से।
गृहनिर्मल, रसोई सुरस करे वह नित्य।
प्रियंवदा थी वह सबी बात थी सत्य।।
बड़ों की साग्रह करे सेवा बच्चे पढ़ाए।
वेतन से अधिक वाणी से सेवक भरमाए।
किसान आते ऋण लेते उसके द्वारे।
रोटी-पानी देकर उनसे बातें मीठी करे।।
अमराई से आम आते पर्वत लगाते घर में।
सुंरग, सुरस, सुस्वादु बीनकर वह पहुँचाती हर घर में।
सुवासिनी आमंत्रित करती सब जात।
आँगन भरता सब लूटती आम।।
माँ के स्तनपान से आम कांचन गौर से।
या स्तनद्वय के मध्य स्तंभित लोभ अनावर से।
किंचित् कुपित कभी होती प्रेम कोमल पति से।
प्राण से प्यारी वह माने जैसे वह माने उसे।।
वेणी बाँधे स्वहस्ते नहलाए भी वह उसे।
लजाती वह कुपित हो क्षणमात्र बात न करे उससे।।
मेरे ताऊ को संतान नहीं थे। मेरी माँ की भी पहली दो संतानें अल्पायु थीं, अत: उसकी तीसरी संतान अर्थात् मेरे बड़े भाई को माँ और नानी का अपार प्यार मिला। उनके जन्मे के चार वर्ष बाद मेरा जन्म हुआ। उसके तीन वर्ष बाद मेरी बहन 'माई' और उसके बाद मेरे छोटे बंधु 'बाल' का जन्म हुआ।
मेरे माँ-पिता की तरुणाई की गृहस्थी बहुत आनंद से गुजरी। उनके वे मजे के दिन कैसे बीतते थे, दारणा नदी के पार हमारी जागीर की अमराइयों में वनभोज आदि किस हर्ष और उत्साह से संपन्न होते थे! मेरी माता की दिनचर्या कैसी होती थी! वह कैसी स्नेहित, कर्तव्यतत्पर और पवित्र थी, इसका कुछ आभास मेरे 'गोमांतक' काव्य की 'रमा' के दर्पण में दिख सकता है -
एक-दूजे का सुख बढ़ाते रमा-माधव रम रहे।
एक उत्तम दूजा अति तो पहिला फीका पड़े।।
यथाकाल सुभाग से रमा रमणी यश पाए।
प्रसवित हुआ एक लाल तनया वंश यश उजाले।।
जन्म होते बालक पर गगन से सुमन वर्षा हुई।
विमानों की भीड़ भारी अंबर में जमी।।
आशीष दे विपुल उसे प्राचीन पूज्य गोत्रज ऋषि।
गंधर्व गगन में गाए न गाए गीत बधाई।।
पुत्रमुख वात्सल्य से चूमने वह लगी।
मानो रमा के हृदय में स्नेह की बिजली भरी।।
कौशल्या के सुख से कम सुखी उसे क्यों गिने।
सिंहासन पर बैठी महारानी थी इसलिए।।
बाल उसका उसे पुकारे मंजुलता से 'माँ'।
वात्सल्य-अश्रु से तर हो जाए आँचल उसका।।
माता के स्तनपान पिता के प्रिय स्नेह से।
बाल पोषण पाए लोभ हर्षित हुए।।
कान के झुमके झुमकते ठुमकते बाल के।
माँ को कौर खिलाए अपने मुँह से निकाल के।।
घोड़ा खेलते तात को काम पर जाने न दे।
कपड़े छिपाए, दरवाजे बीज खड़ा रहे।।
जैसे-जैसे बढ़ता चला बालक उसका सद्गुणी।
श्रेय प्रेम उसे मिलता संयुक्त होकर जीवनी।।
प्रथम प्रसवा स्तनपान कराए शिशु चूमते-चूमते।
नदियाँ सहोदर लेतीं प्रीति नीति उस लोक में।।
भोग ही योग्य है या प्रतिपाल अपत्य का।
गति दे जीवन गंगा को सृष्टि दे नवीनता।।
बाल संगोपन करे नारी पाए जीवन में रम्यता।
जीवन में क्रम आए सुव्रत पालन हो यथा।
एक-दो पंछियों की सुन तान सुंदर।
भोर ही जग पड़े नित रमा सत्वर।।
झाडू-बुहारी स्वयं करे दासी हाथ लगाने न दे।
स्नान कर शुचिर्भू वह शीघ्र स्वयं को करे।।
पिछवाड़े के आँगन में लगाई फुलवारी थी उसने।
देवपूजा हित फूल चुनने वह वहाँ जाया करे।।
फूलों की सुगंध में और उषा के सुरंग में।।
तन्मय हो वह सृष्टि कौतुक देख भले।।
फूल चुनते गीत झरता मंजुल उसके कंठ से।
मानो शांति प्रभात की वाणी पाए गीत से।।
पति को धीरे से वह जाग्रत करे।
देश कुशल सब नयनों में नीर भरे।।
तुलसी निकट बैठ वह जाप नित्य किया करे।
बालक उसका वहाँ बैठ देख चुहलबाजी करे।।
पूजा करते उसे लिपटने को बालक मचले।
या अगरबत्ती का उठता धुआँ पड़कने को लपके।।
उष्णोदक से फिर बालक को वह नहलाए।
एक-एक शब्द कहते उससे स्तोत्र पाठ करवाए।।
कमल पंखुड़ी खिलते-खिलते खुलती जैसे।
हृदय उसके अर्थ-ज्ञान खिलता वैसे।।
नमस्कार करवाए देव तुलसी को सती।
कौर मुँह में तनय के बैठाकर देती।।
दूध-भात का कौर साथ उसके अचार।
थाली से जो देती माँ उसका कौन समान।
वैसी मिठाई मिलती नहीं जीवन में फिर कभी।
स्नेह भी वैसा माँ कर पाती नहीं फिर कभी।।
सुनते क्या जी! बोले रमा मुड़ देखे कहीं।
पति को कुछ कहने अधीर वह हुई।।
जेठ में होंगे पूरे पाँच अपने लाल के।
जन्मदिन मनाए दाल बाटी के ठाठ से।।
टीका-टिप्पणी विरोध उसका न हुआ।
प्रस्ताव उसका पंच-सभा में पारित हुआ।।
वनभोज उस युगल को था बहुत पसंद।
रमा-माधव बुलाते इष्ट मित्र मनाने वसंत।।
नाना पकवान बनाए महिलाओं ने।
शुभ दिन आने पर उन्हें साथ लाए।।
प्रात: से ही मंगल बाजे बजने लगे।
गाड़ियाँ भी आ गईं सजी फूलों से।।
गाड़ियाँ बढ़ीं धक्का सबको लगा।
नर-नारी भिड़े और एक ठहाका लगा।।
खेत, खेती, पशु-पक्षी और पेड़-मेड़।
अक्रम सुंदरता से मार्ग थे भरे-भरे।।
नाम पूछे काम पूछे बालक उत्कंठा-भरा।
ताली बजा, गाल खींच दिखाए वह हरा-भरा।।
खेत छोड़ गाड़ियाँ चलीं, हुई खड़खड़।
पंछी उड़े, गाते मंजुल करते फड़फड़।।
मानुष भी क्या उड़ सके जैसा पंछी उड़े।
प्रश्न बालक का सुन रमा उससे कहे।।
पुत्र नहीं देता देव ऐसे पंख मनुष को।
पर चतुर मानव ने बनाए विमान नापने आकाश को।।
मेरी पहली स्मृति
'अपनी' कहने योग्य मेरी प्रथम स्मृति मेरे सातवें-आठवें वर्ष की है। मेरे पिता का नियम था कि रात्रि का भोजन हो जान के बाद वे मेरे ज्येोष्ठ बंधु से मराठी के किसी एक ग्रंथ का वाचन करवाते थे। मराठी 'ओवी' छंद में लिखे अनेक ग्रंथ, जैसे - 'राम विजय', 'पांडव प्रताप', 'शिवलीलामृत', 'जैमिनि अश्वमेध' आदि उन दिनों मराठी घरों में पढ़े जाते थे। ग्रंथ पढ़ा जाता और उसपर मेरी माँ से वे चर्चा करते। ऐसी एक चर्चा का विषय था कि हर कल्प पिछले कल्प का बिलकुल प्रतिरूप रहता है। पिछले कल्प की यथावत् आवृत्ति उसके बाद के कल्प में होती रहती है। दूसरे दिन वे सारी बातें मेरी स्मृति में रहती थीं।
हम दोपहर पाठशाला से घर आया करते थे, फिर कुछ खाना-पीना और बहुत-कुछ माँ से लाड़-लड़ियाव करते। उस दिन कुछ ऐसा हुआ कि मैं घर तो आ गया, पर खाने-पीने की किसी बात पर माँ से रूठ गया। इसी में छुट्टी का समय बीत गया और माँ से बिना बतियाए-लड़ियाए पाठशाला लौटना पड़ा। बाद में मुझे इस बात का बड़ा खेद हुआ कि रूठा-रूठी में माँ से बतियाने का स्वर्णिम अवसर खो गया और वे बीते क्षण अब जीवन में कभी भी नहीं आएँगे। वे निकल गए तो निकल ही गए।
इतना मैं सोच ही रहा था कि रात्रि की चर्चा स्मरण हो आई और यह समाधान उभरा कि कोई बात नहीं, अगले कल्प में यह दिन फिर आएगा ही, यही मेरी माँ होगी। ऐसे ही पाठशाला की छुट्टी होगी, यही क्षण फिर आएगा। तब अगर रूठा-रूठी नहीं की तो इस खोए हुए सुख का लाभ फिर मिल जाएगा। माँ से फिर लड़ियाव-बतियाव हो जाएगा। परंतु हाय रे! हाय! इतना सोचते यह भी ध्यान में आ गया कि अगले कल्प में तो आज जैसा ही घटित होगा। अर्थात् उस कल्प में भी रूठने की गलती मैं करूँगा। आज चाहे जैसा दृढ़ निश्चय मैं करूँ, घटेगा तो वही जो आज घटित हुआ, क्यों कि हर पिछले कल्प का प्रतिरूप या छायारूप ही अगला कल्प होता है। यह स्पष्ट है कि उस दिन माँ के मधुर शब्दों से जो मैं वंचित हुआ, वह हुआ। ऐसे उलट-पुलट विचार बिजली की तरह आए-गए। पर जब उसकी सुध आती है, तब मन उदास हो ही जाता है।
मेरा यज्ञोपवीत संस्कार कब हुआ, कैसे हुआ, इसकी कोई सुध मुझे नहीं है, पर माँ की एक सुध अवश्य है। उसका होनेवाला बच्चा पेट में आड़ा हो गया था। रात भर सारे बेचैन थे, मेरे पिता की आँखों में आँसू थे, वे इधर-उधर चक्कर काट रहे थे, रात-ही-रात नासिक से डॉक्टर लाया गया, उसके प्रयास सफल रहे। माँ ने सकुशल प्रसव किया। सब लोग इतने प्रसन्न हुए कि बच्चा मरने का दु:ख किसीको हुआ ही नहीं। उस अवधि की एक-दो बातें मेरे बड़े भैया ने मुझे कही थीं। वे बातें बड़े भैया से ही जुड़ी थीं। मेरे पिता अपने बड़े बेटे को अंग्रेजी पढ़ाते, शब्द के अर्थ, स्पेलिंग पूछते, बड़े भैया को आते ही नहीं थे। फिर पिता का आदेश होता - आँगन की पूरी लंबाई में घूमते हुए कान पकड़े उस शब्दे का घोंटा लगाओ। बड़े भैया बेचारे पूरी ईमानदारी से वैसा ही करते। परंतु मुझे बड़ा बुरा लगता। मैं यह समझ नहीं पाता कि शब्द घोंटने के लिए कान पकड़ना और चक्कर काटना क्यों जरूरी है? आँगन में तुलसीचौरा था। मैं बड़े भैया को उसके पीछे बैठकर शब्द घोंटने को कहता और स्वयं पहरा देता। पिताजी के आते ही मैं उनको संकेत करता। वे तुलसीचौरे के पीछे से निकलकर कान पकड़े घूमने लगते।
अपने बड़े भैया, जिन्हें हम सब 'बाबा' कहते थे, को इस कानपकड़ी से बचाने के मेरे प्रयास की भरपाई उन्होंने की, पर उससे मेरे प्राण संकट में पड़ गए थे। मेरे पिताजी अनुशासनप्रिय थे। अत: अनुशासन के लिए वे कभी-कभी पिटाई भी कर देते थे। पर मेरे संबंध में उनपर यह प्रत्यक्ष आरोप घर में लगाया जाता कि उनका गुस्सा पक्षपातपूर्ण है। एक बार कुछ ऐसा हुआ कि मुझे दो-चार थप्पड़ लगाने की प्रतिज्ञा उन्होंने की और वे मेरे पीछे पड़ गए। मैं छिपने के लिए अँधेरे कमरे की ओर भागा। बाबा भी वहीं थे, मेरी सहायता करने के लिए वे मेरे पीछे आए। उस कमरे में तिजोरी थी और वह भी खुली हुई। बाबा ने उसे देखते ही मुझे उसमें घुस जाने को कहा-मैं गुडी-मुडी होकर उसमें बैठ गया और बाबा ने तिजोरी बंद कर दी। पिताजी ने कुछ इधर-उधर मुझे खोजा और 'बदमाश कहीं छिप गया' ऐसा बड़बड़ाते वे अपने काम से चले गए। पिताजी के जाते ही बाबा ने तिजारेी खोली, मैं अर्ध बेहोशी में था। बाबा ने घबराकर हल्ला-गुल्ला किया। माँ और दूसरे लोग आए, मुँह पर पानी के छीटे आदि देकर मुझे होश में लाया गया।
माँ की मृत्यु
सन् 1892 में हमारे गाँव में बड़ी महामारी फैली। इधर-उधर करते उसने मेरी माँ को धर दबोचा। तब माँ की आयु कोई बत्तीस-तैंतीस वर्ष की होगी। वह एकदम तरुण दिखती थी, यद्यपि चार बच्चों की माँ थी। धन तथा संतति संपन्नकता, अत्यबधिक प्रेम करनेवाला पति उसे प्राप्त थे, पर नियंता से वह देखा नहीं गया और वह महामारी का शिकार हो गई। वह दिन मुझे स्पपष्ट स्मरण है। सुबह से ही उसे दस्त होने लगे, पर उस दिन घर में श्राद्ध या ऐसा ही कुछ कार्य था। इसलिए बड़े धैर्य से उसने रसोई बनाई। फिर दस्त हुआ। नहाकर वह फिर परोसने लगी। तब तक किसी को भी उसकी भनक नहीं थी, पर पंगत वह परोस न पाई। उसे चक्कर आने लगे, वह पुराने घर के देवगृह में आकर पसर गई। फिर वह उठी ही नहीं। पंगत-अंगत धरी रह गई। अण्णा (मेरे पिता) उसे देवगृह से उठाकर बीच के कमरे में ले आए। मामा और नानी के लिए हमारे ननिहाल को तार दिया गया। उपचार शुरू हो गए, पर कोई लाभ न हुआ। शक संवत् 1814 आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा के दिन उसकी नाड़ी क्षीण होने लगी। हम बच्चों को बड़े-बूढ़ों ने एक-एक करके उसके अंतिम दर्शन कराए। मेरा छोटा भाई बाल पाँच-एक वर्ष का बालक था। क्षीण चैतन्य अवस्था में बाल को देखकर उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। उस बच्चे को सँभालने की बात उसने संकेत से कही। बाल माँ-चिपकू था, अब कैसे रहेगा? यह प्रश्न था। तुलसी दल और पूजा की कुप्पी में गंगाजल रखा हुआ था। पिता ने वह दोनों उसके मुख में डाला और वह सुवासिनी साध्वी परलोक सिधार गई। मेरे पिता उस मृत देह के पास बैठे फूट-फूटकर रोए। मेरे पिता और ताऊ के बीच भयंकर वैर था, परंतु मेरी माँ से वैर करे, ऐसा पत्थर-दिल कोई नहीं था। बापू काका ने हम बच्चों को पेट से लगा लिया। राधा, तूने यह क्या किया, अब इन बच्चों का क्या होगा? कैसे होगा? हमारे घर की लक्ष्मी हमें क्यों छोड़ गई? वे रोते-रोते कहते जा रहे थे। पूरा घर शोकग्रस्त हो गया। दोपहर दो बजे दहन-क्रिया समाप्त कर लोग-बाग घर लौट आए, पर माँ नहीं लौटी।
इन घटनाओं की स्पष्ट स्मृति मुझे है। इसके साथ ही मानव-स्वभाव की विचित्रता को दर्शानेवाली एक अन्य सुधि भी है। दाह-क्रिया आदि निपटाकर लोग-बाग लौटे तो भोजन की व्यवस्था राधा काकू ने की। ये हमारे ही संबंध की महिला थीं। मुझे खूब भूख लगी थी और भोजन में रसदार आलू बने थे। वह सब्जी मुझे उस दिन इतनी अच्छी लगी कि वैसी मधुर सब्जी जीवन में फिर कभी चखी हो, ऐसा स्मरण नहीं है।
माँ के पीछे हम तीन भाई और मेरे बाद की एक बहन-ये चार संतानें थी। माँ की मृत्यु के बाद मेरे पिता को वह घर काटने जैसा लगने लगा। माँ के लिए ही एक तीन मंजिला मकान पिताजी बनवा रहे थे। उसे तुरत-फुरत पूरा करवाकर पिताजी हम बच्चों को लकर उस नए घर में चले गए। पुराने घर में हमारे ताऊ अकेले ही रहने लगे। वे साठ के आसपास थे, पर अपना भोजन स्वयं बनाते थे। इधर नए घर में चालीस-बयालीस के मेरे पिताजी खेती, किसानी, साहूकारी, लेन-देन, मुकदमे, झगड़े सँभालते हुए हम बच्चों की देखभाल, रसोई-व्यवस्था आदि देखते। पिताजी के मित्रगण दूसरा विवाह करने के लिए उनपर जोर डालते। उस काल में तो ऐसे विवाह होते ही थे, परंतु हमपर उनका जो अतिशय स्नेह, ममता थी, उस कारण उन्होंने वह विचार मन में आने ही नहीं दिया। बाहर के सारे कामकाज के साथ वे हमारा लालन-पालन माँ से भी अधिक ममता से करते रहे।
वे लोरी गाकर हमें सुलाते, थपकियाँ देकर उठाते, नहलाते, कपड़े पहनाते, रसोई बनाते। बाद में मैं और बड़े भैया भी रसोई आदि में उनका हाथ बँटाते। कामकाज के लिए नौकर-चाकर थे, पर बच्चों के जो काम माँ ही करती हैं, वे सारे काम वे स्वयं ही करते थे ताकि बच्चे माँ की ममता से वंचित न रहें। रात में सोने के पहले अपने सोए हुए बच्चों के सिर-गाल पर हाथ फेरने से उनका न चूकना माँ के न होने की वंचना से हमें मुक्त कर सका। बड़े भैया पिताजी के साथ रसोई बनाते-बनाते उसके विशेषज्ञ बन गए, परंतु मैं उस समय से लेकर आज तक रसोईशास्त्र में विफल ही रहा।
माँ की मृत्यु के बाद छोटे भाई का यज्ञोपवीत हुआ। ऐसे अवसरों पर मेरी नानी, मामी और मामा अवश्य हमारे गाँव आते थे। बड़े भैया सत्रह के हो गए तो उनका विवाह पिताजी ने कर दिया। कन्या त्र्यंबकेश्वर निवासी नानाराव फड़के की भतीजी थी। वह हमारी येसू भाभी बनी। मेरे ही वय की। स्वभाव की इतनी ममतामयी कि हमारे लिए भगिनी ही हो गई। उसकी स्मरणशक्ति अति की हद तक थी, उस छोटे वय में भी उसे पचास-साठ गीत याद थे। गाना भी मधुर। मराठी में रचना प्राचीन और काफी लंबा गजगौरी गीत उसे कंठस्थ था। उस गजगौरी गीत में अद्भुत कथाओं को भी पिरोया गया था। जब वह अपनी पल्लेदार आवाज में उस अद्भुत और रम्य गीत को गाती तो बस, हम मंत्रमुग्ध हो सो जाते। वह सोया देख हमें चिकोटी काटकर उठाती। आज भी यदि कोई परलोक विद्या की शक्ति मेरे हाथ आ जाए तो मैं उस भाभी को जिलाऊँ और उसके जीते ही मैं उससे कहूँ कि वह गजगौरी पुन: एक बार गाओ न, बहिनी! वह गजगौरी गीत मैं जिद करके अपनी नानी से भी सुनता था।
मेरे बड़े भैया को अंग्रेजी पढ़ने के लिए नासिक में रखा गया। अण्णा (मेरे पिता) भी कचहरी आदि के काम से नासिक जाते-आते रहते थे। तब भाभी ही हम बच्चों की अभिभावक रहती। मैं उसे और अपनी छोटी बहन को लिखना-पढ़ना सिखाने का प्रयास करता। मैं कविता लिखने लग गया था। भाभी से भी कविता सीखने का आग्रह करता। मेरे आग्रह के कारण वह भी शब्दों की जोड़-तोड़ करने लग गई थी।
समय ने पलटा खाया और येसू बहिनी के पति और मैं, उसका देवर, दोनों को ही काले पानी की सजा हुई। येसू बहिनी पर तिहरी मार पड़ने लगी। एक तरफ सरकारी आतंक था, दूसरी ओर वियोग और तीसरी स्वयं की बीमारी। मृत्यु-शय्या पर वह पड़ गई। ऐसे में मेरे मित्र उससे आग्रह करते रहे कि मेरे चरित्र के एक भाग के रूप में मेरे बारे में वह कुछ लिखे, जिसे अनुकूल समय आने पर छपवाया जा सके। मेरे प्रति उनका अकृत्रिम स्नेह था। अत: उस आग्रह को वह ऐसी जानलेवा परिस्थिति में भी टाल नहीं सकती थी। उसने वे सारी स्मृतियाँ लिखीं। उसमें से उसके द्वारा लिखे हुए कुछ प्रसंग मैं यहाँ ज्यों का त्यों उद्धृत कर रहा हूँ। कितनी स्नेहसिक्त सुधियाँ हैं, ये पाठक स्वयं ही देख लें -
अपने देवरजी को मैंने उनके वय के ग्यारहवें वर्ष के आसपास सबसे पहले देखा। मेरे विवाह में मेरी और उनकी पहचान कैसे हुई, यह बताती हूँ। सुनो! विवाह के पूर्व का समय था। मैं गौरी पर अक्षत चढ़ाने बैठी थी। इतने में ये दो लड़के (मेरे दोनों देवर) आकर विवाहवाले घर के दरवाजे पर खड़े हो गए और उन्होंने पूछा - फड़के का घर यही है क्या? हमारी भाभी कहाँ हैं? ये शब्द सुनते ही मेरी मौसी उनसे पूछती है कि तुम कौन हो और तुम्हारे नाम क्या हैं? नाम क्या हैं, ऐसा पूछते ही मेरे ये देवरजी कहते हैं, ये मेरा छोटा भाई, इसका नाम नारायण दामोदर सावरकर, मेरा नाम विनायक दामोदर सावरकर और हमारे बड़े भैया जिनका आज विवाह है, उनका नाम है गणेश दामोदर सावरकर। सभी ने यह सुना, मेरी माँ और मौसी धन्य-धन्य हो गईं और बोली, 'कितने सयाने, बुद्धिमान और स्पष्ट वक्ता हैं ये हमारी येसू के देवर।' यह सब मैं बड़े उल्लास से सुन रही थी। मुझे लगा कि मैं उनकी वह स्नेहिल, सुकुमार एवं कोमल मूर्तियाँ देखती ही रहूँ। प्रेम क्या होता है और उसका आनंद क्या होता है, मुझे उस दिन उसकी समझ आई। इतनी बातें होते-होते हमारे देवरजी बोले, 'क्यों जी, विवाह कहाँ होगा? हमारी भाभी किस ओर खड़ी होंगी? मुझे उनके पास खड़े होकर सबकुछ देखना है।'
'मेरी मौसी ने उनसे कहा, 'ऐसे बैठो! इधर ही तुम्हारी भाभी खड़ी रहेगी।' मुझे यह सुनकर बड़ा अच्छा लगा। देवरजी वहीं मेरे पास ही बैठे। हम वधू-वर जो-जो विधि करते रहे, वे एकटक देखते रहे। चार दिन तक वे बरात के साथ वहीं रहे। पंगतों में जब कभी नवविवाहित भोजन करते, तब वे भाई को आग्रह करते कि भाभी के मुँह में कौर दें। मुझे भी कहते कि भाई के मुँह में कौर दें। पंगतों में दक्षिणा दी जाती, तब वे भाभी को भी दक्षिणा देने का आग्रह दान-दाता से करते, पर मेरी थाली के सामने रखा गया सिक्का तुरंत उठा लेते। कोई पूछता तो कहते, 'वाह! भाभी तो हमारी है।'
'विदा होने के समय मेरी माँ मुझे समझाते हुए कह रही थी, 'दो-चार दिन में ही लौटा ले आएँगे।' देवरजी ने यह सुन लिया और मेरी माँ से बड़प्पन से कहा - 'माँजी, आप चिंता न करो। भाभी की आँखें गीली हैं। उसका औषध उपचार कर हम ठीक कर देंगे।'
'रात में बैलगाड़ियाँ चल दीं। मुकाम पर पहुँचते-पहुँचते दिन निकल जाता। रास्ते में एक स्थान पर सूर्योदय हुआ। उसे देख देवरजी ने कहा, 'कितना सुहाना समय है यह! सूर्य की कोमल किरणें आँखों और मन को कितना आनंद दे रही हैं। पर दु:ख इस बात का है कि आँख आने के कारण तुम ये सब देख नहीं सकती। देखों, सूर्योदय होते ही मोर कैसे नाच रहे हैं, मृगों की टोली कैसे दौड़ रही है! पर तुम आँखें बंद किए बैठी हो। मैं पानी लाता हूँ, तुम आँखें धो लो।' वे पानी ले आए। मैंने आँखें धोईं। खोली भगूर में आ जाने पर मेरी आँखों को अफीम के गरम पानी से सेंकने के लिए वे मुझे बार-बार कहते, सारी सामग्री मुझे लाकर देते। अपनी गोद में मेरा सिर लेकर स्वयं ही मेरी आँखें उन्होंने सेंकीं भी। घर आने पर पूजन हुआ, मेरा नाम सरस्वती रखा गया। देवरजी ने सबको मिश्री की डली देते हुए मेरे नए नाम का विज्ञापन किया। दो-तीन दिन बाद विवाह धूमधाम से समाप्त हुआ, देवरजी भी अपने कामकाज में लग गए।
'प्रात: उठते ही नहा-धोकर वे पाठशाला जाते। जाते-जाते सबको उनके काम बताते जाते। दस बजे मराठी पाठशाला की छुट्टी होते ही जिस किसी को दवा-दारू देना हो, वे स्वयं ही देते। भोजन के बाद हम कुछ खेल रहे होते तो हमारे संग आकर वे भी खेलते। दो बजे फिर पाठशाला जाते। ढाई-तीन बजे पानी पीने की छुट्टी में वे घर आते। तब हम सब एक थाली में परोसा दाना-दूना चुगते। उस समय उन्हें बहुत मजाक सूझता। हमारे हिस्से का दाना-दूना छिपाते। उनके भी विवाह की बातें तब चल पड़ी थीं। जिस लड़की से रिश्ता होना था उसका नाम लेकर या उसे मोटी, काली-कलूटी कहकर हम भी उन्हें चिढ़ाते। वे हमारा झोंटा पकड़ ऊपर उठाते और कसमें खाने के बाद ही छोड़ते। फिर उन्हें पाठशाला जाना होता था। पाँच बजे लौट आते। तब तक उनके संगी-साथी घर के द्वार पर खड़े मिलते। खेलकर आने के बाद भोजन और शय्या, ऐसा उनका कार्यक्रम रहता।
'फिर हलदी-कुंकुम लाया गया। एक गौरी बनाकर उसके आगे दीपक जलाया गया, उसे गजरे से सजाया गया, लेकिन वस्त्र क्या पहनाएँ? इसपर विचार हुआ, बातचीत होती रही। इसी बीच मेरे देवरजी ने स्वयं एक रंगोली बनाई और मुझसे कहा, 'कितनी शानदार रंगोली है! तुम्हें क्या आती है?' मैंने कहा, 'ठीक है! तुम्हारी रंगोली का नाम क्या है?' उन्होंने हँसी करते हुए जवाब दिया, 'टूटा भांडा।' इस पर सब हँस पड़े। फिर उन्होंने कागज की कतरनों की सजावट की। पास-पड़ोस की महिलाओं ने आकर नए लग्न का नामोच्चार किया और जाते समय मुझसे बोलीं, 'इतनी सुंदर कला तुमने कहाँ सीखी?' अब वसंत पूजा होनी थी। देवरजी द्वारा इस संबंध में पूछे जाने पर मामी ने बताया कि उन्होंने पूजा के समय ही गुलाल, हलदी, कुंकुम, नैवेद्य आदि सजाने की कला सीखी। यह सुनकर देवरजी मुझसे बोले, 'तुम भी यह कला सीख लो।' और सारी वस्तुएँ देते हुए नए-नए ढंग से उन्हें सजाने के लिए कहा।
'ग्यारह वर्ष के थे, पर पुस्तकों पर जैसे टूट पड़ते थे। हमारा गाँव जैसे कुग्राम ही था, पर चार-पाँच समाचार पत्र आते थे। हर किसी से समाचारपत्र ले आना, पढ़कर लौटा आना। वैसे ही पुस्तकों का; कहीं पुस्तक दिख जाए तो उसे उनको पढ़ना ही था। एक दिन क्या हुआ - भोजन किया, कुरता पहना और पड़ोसी के यहाँ घड़ी देखने चले गए। वहाँ सारे लोग उन्हें देखकर हँसने लगे, क्यों कि कुरते के नीचे केवल लँगोटी पहन रखी थी। चड्डी पहनना ही भूल गए थे। फिर कोई बहाना ठोंका और चले आए। मुझे ही डाटने लगे कि बताया क्यों नहीं।
'मायके जाकर जब मैं दूसरी बार लौटी तब मंगला गौरी का पूजन था। हम भोजन कर रहे थे। उस दिन हम महिलाएँ भोजन करते समय बोलती नहीं हैं। बहुत सारी लड़कियाँ थीं - सारी नवविवाहिता। ये पंगत परोसने आए। किसको क्या चाहिए, लड़कियाँ संकेत से या फिर अँगुली से भूमि पर लिखकर बतातीं। मुझे लिखना आता ही नहीं है, यह बात उन्हें उस दिन ज्ञात हो गई। भोजन के बाद उन्होंने पूछा, तुम्हें लिखना-पढ़ना नहीं आता? तुम्हें किसी ने सिखाया नहीं? अब मैं पढ़ाऊँगा।
'एक-दूसरे को हम देवर-भाभी कहते, पर रिश्तां सगे भाई-बहन जैसा था। सारे खेल-खिलवाड़ में यही भाव रहता। इससे उस वय में हममें बड़ी उन्मुक्तता थी। तीसरी बार दीवाली बाद जब मैं ससुराल लौटी, तब रसोई सँभालनी पड़ी। हमारे यहाँ एक पंडित रसोई बनाया करते थे, वे छुट्टी पर चले गए थे। मुझे रसोई का अनुभव नहीं था। पंडित था तो मैंने उस ओर झाँका भी नहीं था। देवरजी ने मुझे रसोई बनाना सिखाया। मेहमान भी आते तो हम दोनों मिलकर रसोई बना लेते। मुझे लिखना-पढ़ना नहीं आता, यह बात उन्हें खलती रहती। बार-बार वे मुझे उसके लिए कहते। मेरी आँखें कमजोर थी। ससुरजी उनसे कहते, क्यों उसे परेशान करते हो? उसकी आँखें ठीक होने दो पहले।
'चौथी बार मैं ससुराल लौटी। देवरजी बारह वर्ष के हो गए थे। सारे कामकाज समय बाँधकर करने लगे थे। बड़े देवीभक्त थे। उसकी पूजा, ध्यान बड़े एकाग्र हो करते। पूजाघर में कोई आया-गया, उनको पता न पड़ता। किशोर वय में इतनी एकाग्रता मैंने कहीं और देखी-सुनी नहीं। पूजा-ध्यान के बाद भोजन करते। फिर अध्ययन के लिए बैठते। जहाँ बैठते, वहाँ माँ काली का एक चित्र लगा था। बार-बार उसे देखते।
'अध्ययन करते-करते थकते तो हमारे बीच आ टपकते। मैं अपनी छोटी ननद के साथ चूल्हे-चक्की का या ऐसा ही कोई खेल खेलती होती। वे दो-चार दाँव खेलते, फिर पुस्तकों में खो जाते। कभी दर्पण ले लेते, तरह-तरह की मुखमुद्रा बनाते। कहते, 'ऐसा होता तो' या और मुँह बिगाड़कर 'ऐसा होता तो तुम मुझे धकिया देतीं।' हम कहते, 'नहीं, तब भी नहीं और अब भी नहीं। तुम हमारे प्यारे सलोने देवरजी जो हो।' फिर सब पेट पकड़-पकड़कर हँसते। शौचालय में समाचारपत्र ले जाते, लौटते तो कुत्ते-बिल्ली की आवाज निकालते। पिछवाड़े कछवाई थी, वहाँ बकरियाँ घुस आती थीं, वैसी आवाज निकालते। मैं भगाने दौड़ती तो ये खिलखिला पड़ते। कभी-कभी हम उन्हें बहुत चिढ़ाते, वे हमें पकड़ एक छोटे आले में हमारी मुंडियाँ घुसेड़ देते।
'आप हँसोगे तो हँसो, पर मैं लिखूँगी, उनके अपने अल्हड़पन, उन्मुक्त भाव के खेल-खिलवाड़। हमारे यहाँ एक बड़ा झूला था। हम सारे बच्चों की धमाचौकड़ी उसके इर्दगिर्द चलती। रविवार तो बस! घर सिर पर उठा लेने का दिन। वे झूले पर चढ़कर गीत गाते। उनका एक गीत खास था। उसमें पेशवाई के समय का वर्णन था।
'मेरे एक देवर, ननद बहुत छोटे थे। मेरे समवयस्क। फिर भी समझ और बुद्धि से बड़े। कभी-कभी रुष्ट हो जाते। बोलते नहीं। यह चुप्पी मुझे सहन न होती। मैं क्षमा-याचना करती और बड़ी उदारता से सब भूल-भालकर हम फिर हँसने-बोलने लगते।
'उस समय वे 'पेशवा की बरवर' नामक पुस्तक का वाचन कर रहे थे। उस पुस्तक में सवाई माधवराव का एक चित्र था। उस चित्र को उन्होंने अलग कागज पर चित्रित किया। हम सबको दिखाया, मुझे बहुत अच्छा लगा। सवाई माधवराव पर एक होली-गीत लिखा। हम सबको लिखवाया। घर में ही टँगे बड़े झूले पर बैठ हम उसे गाते। एक दिन उसी झूले से धड़ाम से गिरे और नीचे लेट गए। आँखें आड़ी-टेढ़ी कर लीं, जीभ बाहर निकाल बुलाने लगे - 'ओ भाभी, रे बहना, मैं मरा।' मेरी ननद घबरा गई। मैंने कहा, मजाक कर रहे हैं, घबराने की बात नहीं है तो एकदम बोल पड़े, हाँ-हाँ, किसी के प्राण निकल रहे हैं, फिर भी भाभी के लिए मजाक। बहन-बहन है, भाभी-भाभी; पराई। बहन जैसी अपनी कैसे हो सकती है? मुझे बहुत बुरा लगा। रुलाई फूट पड़ी मेरी। तब उलट गए - अरे, तुम भी कैसी? बहन तो चार दिन बाद ससुराल चली जाएगी। हमेशा तो तुम ही रहोगी और मैं क्या तुम्हें पहचानता नहीं। यह तो मजाक था और तुमने खूब पहचाना। ऐसे बात पलट दी।
'कुछ समय बाद छोटे देवरजी, जिन्हें सब 'बाल' कहते थे, का जनेऊ हुआ और तुरंत की ननद का विवाह। मेरे मायके के गाँव त्र्यंबकेश्वर का ही लड़का था। विवाह भी वहीं होना था। हम सब त्र्यंबकेश्वर गए। मेरे मायके में ही डेरा पड़ा। ये, देवरजी और मैं लौटनेवाले थे, पर हम सब गंगाद्वार देखने गए। ऊँची पहाड़ी पर। देवरजी वहाँ बाल-बाल बचे। उतरते समय सीढ़ियों से न उतरकर सीढ़ियों के रेलिंग के बाहरी छोर पर से उतरने की होड़ लगी और पैर चूक गया, गिर गए। गिरते-गिरते चिल्लाए, 'भद्रकाली!' 'भद्रकाली' का घोष सुनते ही इधर-उधर से भागे-दौड़े लोग आए। सिर में दो जगह घाव हो गए। रक्त की धार बहने लगी थी। वहाँ एक साधु की कुटिया थी, वहीं जाकर उपचार किया। सिर बाँधने के लिए पट्टी चाहिए थी। त्र्यंबकेश्वर के प्रभारी (प्रबंधक) जोगलेकर वहाँ थे। जरी काम का दुपट्टा ओढ़ा करते थे। तुरंत उन्हों ने उसे फाड़ा, लंबी पट्टी निकाली, घाव बाँधे। चार-आठ दिन वहाँ रहकर हम सब 'भगूर' आ गए।
'मई माह बीता। जून से अगली पढ़ाई के लिए देवरजी को नासिक जाना था। मराठी कक्षा पाँच तक वे भगूर में ही पढ़े थे। अगली दो कक्षाओं की पढ़ाई भी उन्होंने वैसे घर पर कर ली थी। नासिक में उन्हें अंग्रेजी की कक्षा तीन में शिवाजी स्कूल में प्रवेश मिला। वहाँ चार महीने बाद ही चौथी कक्ष में चले गए। गणपति उत्सव के दिनों में भगूर लौटे। पिछले दो वर्ष से वे भगूर में गणपति-स्थापना करते रहे थे। साथियों को जमा करते, नए-पुराने गीत उनहें सिखलाते, स्वाँग करवाते! मराठी में इसे 'मेला करना' कहते हैं। इस वर्ष स्वयं सात-आठ गीत रचे। आयोजन भी बड़ा किया। ससुरजी न रहते तो घर के मूल्यवान कपड़े आदि देकर उन्हें मालदार, चोबदार आदि बनाकर राजदरबार सजाते।
'इनके रचे गीतों में आर्यभूमि के उद्धार की बात अवश्य पिरोई रहती। मराठी में एक प्रकार का गीत 'फटका' कहलाता है। फटका माने फटकार। जो चेतते नहीं, उनके लिए। देवरजी ने एक ऐसा स्वदेशी का फटका रचा था जो बहुत लोकप्रिय था। गणपति उत्सव की तो जान ही था वह फटका।
'यहाँ मुझे कुछ और भी दिलचस्प बातें स्मरण हो रही हैं। क्रम में तो वे नहीं है, आगे-पीछे हो गई हैं, पर अब मैं उन्हें यहीं लिखे दे रही हूँ। कोई जो आगे जाँचेगा, वह ठीक कर लेगा। घर में कभी कोई कारज होता तो बहुत लोग जमा होते। महिलाओं की पंगत बैठती तो तात्या (देवरजी को हम सब तात्या कहने लग गए थे) बाहर जाकर आवाज देते -ऊँ भवति भिक्षां देहि। (महाराष्ट्र में भिक्षावृत्ति कर अपनी शिक्षा पूरी करने वाले छात्र इस तरह की आवाज घर के दरवाजे से देकर भिक्षा प्राप्त करते थे और ऐसे छात्र को 'माधुकरी' कहा जाता था।) इस आवाज से गृहिणी असमंजस में पड़ जाती। सोचती, क्या कोई माधुकरी सच में ही आया है। बाद में मालूम हो गया था, पर एक बार फिर ऐसा ही खिलवाड़ उन्होंने किया तो मेरी ममिया सास ने कहा, 'उसे सच में ही रोटी परोस दो' किसीने उनको रोटी परोस दी तो उन्होंने बड़े-बूढ़ों से शिकायत की - देखो, मुझे माधुकरी कहकर रोटी परोसती हैं। परंतु सारा नाटक सबको ज्ञात था, इसलिए बात हँसी में चली गई।
'वैसे ही गजगौरी गीत का एक किस्सा है। मेरे द्वारा गाया गया यह गीत उन्हें बड़ा प्रिय था। उनहोंने एक दिन आग्रह किया और मैंने उसे गाया। गीत सुनते-सुनते उन्होंने अपनी धोती का पल्लू निकालकर सिर पर लिया और मेरे साथ सुर मिलाया। सभी लोग मजे ले रहे थे। इतने में वे बोले, मेरी गोद भी भरी जाएगी या नहीं। महिलाओं ने कहा, हाँ भर दो उसकी गोद। फिर क्या था, मेरी ननद ने उनको कुंकुम का टीका किया आर चावल-नारियल से उनकी गोद भरी।
'उन्होंने बात बनाकर अपने पिता से कहा, इन सब महिलाओं ने जबरन मेरा टीका किया और गोद भरी। ससुरजी को तात्या की ये चुहलबाजी ज्ञात न थी, इसलिए उन्होंने हमें डाँटा, 'ऐसा ऊधम क्यों करती हो तुम सब उससे।' ससुरजी इतना कहकर गए और तात्या ताली पीट-पीटकर कहने लगे, 'देखो, कैसे बाजी उलट दी, अब आया न मजा!' किसी को इसका बुरा-भला न लगता। उनकी मधुर वाणी और चुहल को सभी चाहते थे।
'कभी-कभी दोनों भाइयों में बात बढ़ जाती। मेरे पति अपने छोटे भाई को मारने दौड़ते तो देवरजी मेरी आड़ में छिप जाते और कहते, ये मेरा सुदृढ़ दुर्ग है। यहाँ आकर मुझे पकड़ने का साहस किसी में नहीं है। एक बार मेरे पति छोटे भाई के ऐसे व्यवहार पर चिढ़ गए और उन्हें प्याज फेंककर मारने लगे। प्याज के वार से बचने के लिए तात्या चिल्लाए, 'देखो-देखो, बड़े भैया प्याज फेंक-फेंककर भाभी को मार रहे हैं। अब तो मेरे पति को चुपचाप बाहर जाना ही था (क्यों कि सौ वर्ष पुराने उस जमाने में पति अपनी पत्नी से खुले में बोल भी नहीं सकता था, छूना आदि तो बहुत दूर था।)
'बकरियाँ घर-आँगन में घुस आतीं, तो देवरजी उनको पकड़ते। मुझे दरवाजा बंद करने को कहते। मैं चूक जाती या डर जाती तो तितलियाँ मुट्ठी में पकड़कर ले आते, मुझे फेंककर मारते। तितलियों से मुझे तब बहुत डर लगता था।
'इसी समय उन्होंने देसी कपड़े पर एक फटका लिखा। नासिक में होनेवाली किसी सभा का समाचार मिलते ही वहाँ जाते। पुस्तकालय उनका प्रिय स्थान था। पढ़ाई में तेज थे ही। पुस्तकों से उनका लगाव बचपन से ही था और ये बात बड़े-बड़ों को आश्चर्य में डालती थी। नासिक के उस समय के बड़े नेता बलवंत खंडोजी पारख थे। वे प्रख्यात कवि भी थे। उन्हें तात्या की फुरती और कविता देख-सुन बड़ा आनंद आता था। वे उन्हें सभा-सम्मेलनों में बुलाकर ले जाते। परिचय करा देते, यहाँ-वहाँ कहते-देखो, क्या प्रतिभाशाली लड़का है! पारख ने तो इनके पिता को यह कहा था, 'देखो, इस बच्चे(को बचाओ, इसको नजर लग सकती है।' और सच में ही उन्हें जैसे नजर लग गई। नासिक से पत्र आया, तात्या को ज्वर है, उसे ले जाइए। मेरे ससुरजी गए और उन्हें ले आए। नजर आदि पर उनका बड़ा विश्वास था। उन्होंने नजर उतारने के विविध उपाय किए। पर जल्र कोई लाभ नहीं हुआ। ज्वर में खूब बातें करते-विद्यालय की, राजनीतिक सभा-सम्मेनलनों की। तीन हफ्ते बाद ज्वर कम हुआ। फिर घर में ही अध्ययन करते रहे। बाद में नासिक गए। ये सारी बातें उनके चौदहवें वर्ष की है। पढ़ने के साथ लिखना भी उनका चलता रहता। उन्होंने 'सार संग्रह' नाम की एक पुस्तक बना रखी थी। उसमें वे पुस्तकों में पढ़ी उपयोगी जानकारी अपने शब्दों में उतारते थे। नासिक में दोनों भाई अपने हाथ से रसोई बनाते थे। भोजनालय अच्छे नहीं थे, फिर भी बाद में भोजनालयों में जाने लगे। छुट्टी में भगूर आए थे। फिर उन्हें चेचक निकली। पिता ने पुत्र की सेवा-टहल की। फलत: वह संकट जल्दी ही निपट गया। शरीर पर कहीं कोई व्रण भी नहीं रहा।'
भाभी द्वारा लिखे मेरे चरित्र को यहीं छोड़ अपनी बात अब आगे बढ़ाएँ।
मेरे बालसखा
मेरी माँ का देहावसान, उसके बाद नए घर में हमारा प्रवेश अर्थात् दस वर्ष की आसु तक मेरे संगी-साथी कौन थे, इसकी कुछ स्पष्ट सुध मुझे नहीं है। पर इसके बाद मेरे साथ एक संगठित मित्रमंडल रहने लगा, इसका मुझे स्मरण है। वे राजू दरजी के पुत्र परशुराम दरजी और राजाराम दरजी थे। इन दोनों का मुझसे घर जैसा संबंध था। वे सामान्यतः कंगाल स्थिति में थे, परंतु उन्हें मेरे घर की सुस्थिति का कोई लोभ नहीं था। उन दोनों ने आवश्यकतानुसार हमारे घर की सेवा अपने घर से अधिक की। निराकांक्षी स्नेह के प्रतीक उन दोनों को मेरी मित्रता का अभिमान था। ये दोनों भाई हमारे घर खेलने आते। पिताजी जब-जब नासिक जाते, तब-तब रात में हमारे साथ सोने आते। कोई भी रुका काम निपटा देते। उनके भरोसे गहना-लत्ता छोड़ हम कहीं चले जाते। उनके पिता की एक नौटंकी थी। ये दोनों भी लावणी गाने में प्रवीण थे। परशुराम स्त्री-वेश में नचैया बनता था। इस क्षेत्र में वह प्रख्यात था। मेरी संगति में समाचारपत्र आदि पढ़ने का चाव उन्हें लगा और उनके मन-बुद्धि का विकास हुआ। मेरे लड़कपन के राष्ट्रीय आंदोलन और राजनीति में वे प्रमुखता से भाग लेते थे। उनकी नौटंकी के लिए मैंने उन्हें कुछ उपदेशपरक, राजनीतिक लावणियाँ और झगड़े रचकर दिए। मेरी ये रचनाएँ उन्होंने मंच पर उतारी और मुझ बच्चे को शायर, कविराज आदि कह चलती नौटंकी में सम्मानित किया। तब उस छोटे से गाँव की उस छोटी सी राजसभा का वह बाल कवि (बच्चा शायर) फूलकर कुप्पा हो गया था।
जब मैं बीमार था, तब मेरे वे मित्र मेरी पूरी सेवा रात-दिन करते। हमारे घर-घर संकट आए तो वे रो पड़ते थे। हमारा कुछ अच्छा हो तो वे खुश होते, बहुत खुश। मेरे घर में 'राजा और परशा' की इस जोड़ी का लाड़-प्यार बच्चों जैसा ही होता था। पिताजी गाँव से बाहर जाते तो खाने के लिए हम तीनों की पंगत ही बैठती। बचपन से ही मुझे जातिभेद के प्रति आक्रोश था। ये दरजी, मैं ब्राहृमण, यह कल्पना ही मुझे अपमानजनक लगती थी। मुझपर उनके परिवार का भी स्नेह बरसता था। उनकी माँ, भाभियाँ मेरे लिए ताजा भाकर (ज्वार-बाजरे की रोटी), उसपर लहसुन, लाल मिर्च की चटनी रखकर देती थीं और मैं उसे खाता था। उसमें उनका इतना स्नेह भरा होता कि मैं आज भी उसे स्मरण कर भाव-विह्वल हो उठता हूँ। आज सोचता हूँ कि ब्राह्मण जागीरदार का पुत्र उनके घर जी लेता है, इसका उन्हें कितना अभिमान होता होगा। भगूर में मंगलवार बाजार का दिन होता। उस बाजार में इन दो भाइयों की बीड़ी, माचिस, मिट्टी के तेल की दुकान लगती थी। शाम को उन्हें माँ-बाप जेब-खर्च देते। वे उससे रेवड़ियाँ खरीदते और हमेशा पहली रेवड़ी मुझे ही मिलती। मुझे रेवड़ियाँ बहुत पसंद भी थीं और उन्हें खाते एक छंद हमेशा मेरे मुँह से निकल पड़ता था। भोजन प्रारंभ करने के पहले 'त्रिसुपर्ण' का गायन पिताजी की सीख के कारण मैं करता ही था, रेवड़ियाँ मुँह में रखने के पहले यह छंद उसी स्वभाव से निकलता था -
प्रभु पाते तुम नित्य प्रेम से बरफी-खोये का प्रसाद।
पाऊँ रेवड़ी मैं भी ऐसा दिन क्यों ना होवे एकाध।।
मेरी मित्रमंडली में बचपन से ही जो राजनीतिक तेज खेल रहा था, उसका अंश उनकी अपनी शक्ति के अनुसार उन दोनों लड़कों में भी प्रकाशित हुए बिना न रहा। बाद में नासिक में हम लोगों ने 'अभिनव भारत' संस्था स्थापित कर जो बवंडर खड़ा किया, इन दोनों ने भी अपने गाँव में स्वदेश की स्वतंत्रता का वैसा ही आंदोलन चलाने का प्रयास किया और यथाशक्ति कार्य करते रहे। मेरे कारावास की अवधि में परशुराम की मृत्यु हो गई। राजाराम अवश्य मुझे कारावास से लौटने पर मिला। बचपन में उनका मेरे और मेरे घर के प्रति निष्कंपट प्रेम था। आगे वह मेरी कीर्ति और पराक्रम की अद्भुतता के कारण आदर-भाव में बदल गया। मैं जब कारावास से छूटकर आया, तब की भेंट में राजाराम ने एक पुराना चित्र मुझे दिखाया। वह वास्तव में दुर्लभ चित्र था। वह चित्र हाथ में लेकर मैंने कहा, 'राजाराम, तुम्हारी दी हुई यह भेंट अनुपम है, मैं इसे ले जाऊँगा।' तब वह बड़े करुणा भाव से बोला, 'यह आपका चित्र मैं आपको भी नहीं दूँगा। यह मेरे देवता का चित्र है। इसपर मैं नित्य सुगंधित फूल चढ़ाता हूँ। यह मैंने तब भी बड़े यत्न से छिपाए रखा था, जब 'अभिनव भारत' और सावरकर से जुड़े हर घर की तलाशियाँ ली जाती थीं, उनको मारा-पीटा और कोठरी में डाला जाता था। यह मैं आपको नहीं दे सकता।' बड़े प्रयास से उसे विश्वास दिलाया, उस चित्र की और प्रतियाँ निकलवाई और वह उसके देवता का चित्र उसे लौटा दिया। इस प्रसंग के बाद यह मेरा भक्त मित्र अधिक जीवित नहीं रहा। उसका एक छोटा भाई जानकीदास राणूशेर दरजी अभी भी जीवित है और अपनी नाटक-नौटंकी कला में राजे-रजवाड़ों में ख्यात है।
मेरे बचपन का दूसरा दोस्त 'गोपाल' था। मेरी मित्रमंडली में यह मेरा सहकारी भी था। गाँव के पटवारी का यह पुत्र वय में मुझसे बड़ा था। मैं जब चौथी कक्षा में था, तब यह छठी कक्षा में था। उसका घराना योग्यता से संपन्न और परिस्थिति से विपन्न था। उसकी लिखावट बहुत सुंदर थी, इसलिए मैं अपनी कविताएँ बाहर प्रकाशनार्थ भेजने के लिए उसी से लिखवाता था। परंतु उसे उसका पारिश्रमिक सौंपने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। उसे पढ़ने और ज्ञान प्राप्त करने की सहज लालसा थी। इसीलिए हम समाचारपत्रादि साथ-साथ पढ़ते थे। मेरे बचपन के राजनीतिक प्रयासों में मुझे उसका साथ मिलता था। जब मेरे राजनीतिक प्रयास 'अभिनव भारत' के रूप में विशद् हुए, तब भी मेरा यह बालसखा अभिनव बुद्धि, समर्पित देशभक्ति एवं एकनिष्ठ स्नेह का प्रतीक बना रहा। जब मैं चाहता, मुझे वह साथ देता। अर्थात् राजकोप उसपर भी हुआ। उसके पिता का पटवारी पद छीना गया। घर में दरिद्रता वास करने लगी, पर वह हारा नहीं। कर्तव्यच्युत नहीं हुआ। सन् 1906 के प्रथम प्रचंड आंदोलन में यदि किसी गाँव का नाम सर्वतोमुखी था, तो वह भगूर था और वह गोपाल के कारण। जब मैं काले पानी भेज दिया गया, तब भी गोपाल ने अपना कार्य चालू रखा और हरिभक्ति परायण गोपालराव आनंदराव देसाई के नाम से महाराष्ट्र में अपने क्षेत्र के एक जीवट कार्यकर्ता के रूप में ख्यात हुआ।
मेरा एक मौसेरा भाई वामन धोपावकर, बालू कुलकर्णी, रावजी और त्र्यंबक दरजी, भिकू बंजारी, बापू, नथू आदि लड़के भी मेरे बचपन के एकनिष्ठ अनुयायी थे। मेरे छोटे भाई का एक मित्र तो उस गाँव का 'हीरा' ही हो गया। वह अब सतारा का प्रसिद्ध डॉक्टर आठवले है। सतारा में 'अभिनव भारत' संस्था का कार्य चलाने के आरोप में डॉक्टर को कारावास का दंड भी मिला।
मेरी पढ़ाई, लिखाई, राजनीतिक आकांक्षा और उस हेतु किए गए सारे प्रयासों का बड़ा चिरस्थायी प्रभाव मेरे बालसखाओं पर पड़ा, अन्यथा वे उसी ग्राम-वातावरण में पड़े रहते। उनकी बुद्धि और शक्ति विकसित हो जाने के कारण उन्होंने पूर्ण सिद्धता अर्जित कर राष्ट्र-कार्य में सहयोग दिया और स्वयं भी यशस्वी हुए। माँ की मृत्यु के बाद राजनीतिक और धार्मिक संस्कारों की ओर मेरी सक्रियता तेजी से बढ़ती गई। छुआछूत से या ऐसे ही कौटुंबिक प्रपंचों से मुझे घृणा थी। बचपन का मेरा प्रिय खेल मंदिर-निर्माण था, लकड़ी के छोटे-बड़े गुट्टे इकट्ठे करना, अपनी मित्रमंडली के साथ मिट्टी की छोटी-छोटी ईंटे बनाना, रावजी दरजी से मूर्ति बनवाना। तब हम बालकों के लिए मंदिर विशाल होते थे। दूसरा प्रिय खेल मूर्तियों को पालकी में रखकर उनकी शोभायात्रा निकालने का था। इसके लिए एक पालकी पिताजी ने बनवा दी थी। श्रावण सोमवार को खूब सजा-धजाकर गाँव में उसे घुमाते। महाराष्ट्र में घर-घर में प्रचलित ग्रंथ हरि विजय, पांडव प्रताप के वाचन का सप्ताह रखते। समाप्ति पर उत्सव करते। इसी वय में पिताजी मुझसे लोकमान्य तिलक का 'केसरी' पढ़वाने लगे थे। वैसे, मेरे प्रिय पत्र बंबई का 'गुराखी', पुणे का 'जगत् हितेच्छु' और 'पुणे वैभवी थे। ये पत्र जिन-जिनके यहाँ आते थे, उन-उनके घर नियमित जाकर मिन्नतें कर ये समाचारपत्र मैं ले आता था। मित्रों के समक्ष उनका वाचन करके सार्वजनिक करता था। फिर अपने बालसखाओं से चर्चा करता था। हमारे घर में पुरानी पोथियाँ और पुस्तकें थीं। ऊपर टाँड पर वे सब सजाकर रखी रहती थीं। रविवार को छुट्टी के दिन मेरा प्रिय कार्य उन पोथियों, पुस्तकों को टाँड पर से उतारकर उनके कपड़े आदि खोलकर, फिर से बाँधकर उन्हें पूर्वस्थान पर जमाना था। यह बात अलग है कि इस काम को करते समय पुस्तकों सहित मैं ऊँचाई से गिर पड़ता था। फिर भी मेरी वह अभिरुचि यथावत् थी।
आरण्यक
ऐसे ही एक बार एक संस्कृत पोथी मेरे हाथ लगी। उसमें केवल काली स्याही का प्रयोग न कर लाल तथा हरी स्याही से बड़ा सुंदर रेखांकन किया हुआ था। वह सुंदर पोथी खोलकर मैं पढ़ने लगा। उसकी संस्कृत भाषा कुछ समझ में नहीं आ रही थी। पर पढ़ने में कुछ मजा आया, इसलिए पढ़ता रहा। जैसे कोई अपशकुन घटित हो जाए, ऐसा हुआ। मेरे पिताजी उधर से गुजरे और उन्होंने मुझे वह पढ़ते देखा तो झपट पड़े और मुझसे पोथी छीनते हुए बोले, 'पागल हो गए हो क्या? यह आरण्यक है, इसे घर में पढ़ना नहीं चाहिए, नहीं तो घर अरण्य हो जाएगा।'
उस समय तो उस अर्थवाद से मुझपर एक अस्पष्ट भय के सिवाय क्या प्रभाव पड़नेवाला था! पर आज उस फलश्रुति की दंतकथा कितनी विस्मयकारी लग रही है! उस आरण्यक के और उसके अंत से प्रारंभ होनेवाले उपनिषद् के विचार, जिसे इस संस्कृति की माया के घर में रहना हो, वास्तव में उसे नहीं पढ़ना चाहिए। कम-से-कम निष्ठापूर्वक तो बिलकुल ही नहीं पढ़ना चाहिए, नहीं तो उसी माया के घर को 'जनाकीर्णं मन्ये हुतवह परीतं गृहमिव' - सारा गृह तृष्णा की अग्नि से सुलगा हुआ है, यह मानते हुए उसका त्याग करने को वह प्रवृत्त हो जाएगा और 'सर्वास्ते फासुका भग्ना गृहकूटं च नश्यति' कहते हुए हाथ ऊपर उठाकर रोते हुए किसी गौतम बुद्ध की तरह घर त्यागकर बाहर निकल जाएगा। और ऐसा होने पर घर जंगल हुए बिना कैसे रहेगा, क्योंकि उसके घर 'त्यागेनैकेन अमृतत्वमानस:!
और उसके उस गर्भित अर्थ की वह व्याख्या पूरी तरह धुल-पुछकर उसके शब्द को ही अक्षरश: सत्य माननेवाला विश्वास कितना अंधा है! पानी में देखोगे तो दाँत गिरते हैं? कहता हुआ बार-बार पानी में झाँककर देखने को आतुर बालक की भाँति आरण्यक के उन रँगे पृष्ठों को बार-बार देखता और पढ़ता। उन्हें केवल पढ़ने से घर जंगल कैसे हो जाएगा। यह मन-ही-मन दोहराता हुआ पाखंड का उपहास किया करता।
प्रथम पृष्ठविहीन इतिहास
उसी टाँड पर रखी एक फटी-सी अंग्रेजी पुस्तक ने मेरे मन पर एक चिरस्थायी परिणाम अंकित किया था। वह पुस्तक A Short History of the world (विश्व का संक्षिप्त इतिहास) थी। तीसरी कक्षा तक की अंग्रजी मैंने घर पर ही पढ़ ली थी। इतिहास के प्रति मेरी जिज्ञासा बचपन से ही जाग्रत थी। उस पुस्तक का नाम पढ़ते ही मानो कल्याण करनेवाला कोई पारस मेरे हाथ लग गया, ऐसा आनंद मुझे हुआ। मुझे लगा कि इतिहास का सारा खजाना ही मेरे हाथ लग गया। पर उस पुस्तक का प्रथम पृष्ठ ही नहीं था और अंदर की भाषा अंग्रेजी थी। पिताजी को मनाया और उन्होंने नित्य थोड़ा-थोड़ा बताने की बात मान ली। फिर समझ में आया कि वह तो एक खंड मात्र है, पूर इतिहास नहीं। इस खंड में अरब के इतिहास का प्रारंभ हो रहा था। मैंने पिताजी से पूछा, 'इस पुस्तक में लिखित अरब के इतिहास के पहले क्या था?' पिताजी ने कहा, 'इसका पहला पृष्ठ फटा है, उसमें वह होगा।' वे उस पृष्ठ को खोजने लगे, वह मिला नहीं। मैं उदास हो गया और उसी उदासी में मन में ऐसा प्रश्न उपस्थित हुआ कि वह पृष्ठ मिल भी जाए तो क्या'? उसमें भी जहाँ से प्रारंभ किया गया होगा, उसके पहले क्या था, यह प्रश्न तो फिर भी उठेगा ही। प्रथम पृष्ठ विहीन यह फटी पुस्तक ही क्या, जिसमें पहला पृष्ठ है, वह इतिहास-पुस्तक भी वास्तव में अधिकतर दूसरे पृष्ठ से ही लिखी होगी।
और यह एक सिद्धांत बन गया। तर्कशास्त्र के अनुमान आदि किसी शास्त्रतज्ञ की मुझे उस बाल वय में जानकारी होना संभव नहीं था। फिर भी यह सिद्धांत स्वयंस्फूर्त होकर आया और पट भी गया। मानव का पूर्व इतिहास खोजते चलो तो बंदर तक पहुँचो, बंदर का खोजो तो जीवाणु तक, जीवाणु से वनस्पति तक और उसके भूभाग तक, उसके सूर्य तक, ऐसे कितना ही पीछे-पीछे जाओ, पर हाथ जो लगेगा, उसके पूर्व का कुछ-न-कुछ रह ही जाएगा।
अपनी कविता 'सप्तर्षि' में मैंने यही कहा है कि खंड इतिहास संभव है, पर विश्व-इतिहास का पहला भाग मिलना संभव नहीं। और यह सिद्धांत विश्व-इतिहास की पुस्तक का पहला पृष्ठ खोजते हुए मुझे स्वयंस्फुरित हुआ था -
अन्यों का केवल, जो भौमिक उसका
न संभव सबका
विश्व-इतिहास चाहिए
तेरे चारों ओर घेराव विकलों का
कल्पों के विमान से
या तारों की सीढ़ियाँ चढ़ते
जाए तू ऊँचे-ऊँचे खोजता कितना भी
इतिहास का पहला पृष्ठ नहीं मिलना
नहीं दिखना,
प्रारंभ तेरा दूसरे पृष्ठ से होना
अभिशाप है यह, अभिशाप है।
उस टाँड पर रखी पुस्तकों में महाराष्ट्र के अग्रणी विष्णुी शास्त्री चिपळूणकर रचित 'निबंधमाला' थी। वह मैंने कई-कई बार पढ़ी। 'केसरी' के प्रथम वर्ष के अंक और चिपळूणकर के मृत्यु लेख के अंक तीसरी मंजिल पर एक खोके में रखे थे, उन्हें भी मैं पढ़ता था। पुराने काव्य इतिहास-संग्रह के अंक भी बहुत पढ़े। महाभारत का अनुवाद 'कथासार' या 'सद्धर्मदीप' नामक मासिक पत्र में छपता था, वह भी मैं पढ़ता था। रात में मेरे पिताजी दूध-शक्कर में भिगोकर रखी रोटियाँ मीड़कर खाते, तब मैं कुछ-न-कुछ अंग्रेजी पढ़ता। मुझे जो अधकचरी अंग्रेजी आने लगी थी, उसके बल पर होमर का 'इलियड' मैं पढ़ता था। मेरे पिताजी अर्थ बताते। उन्होंने उसके पूर्व मेरे बड़े भैया से वह सार्थ पढ़वाया था। मुझे तभी से इसकी रुचि हो गई थी। अग्या मेमनान एवं अकेलिज की बहादुरी की कथाएँ भी भीम-अर्जुन की कथाओं की तरह मुझमें आवेश भरती थीं। पिताजी ने नासिक से लाकर पेशवा और शिवाजी की बखर (इतिहास) मुझे दी थी। उन्हेंब मैंने कई-कई बार पढ़ा। जो-जो मैं पढ़ता, उसकी चर्चा अपने बाल-मित्रों में अवश्य करता। नासिक के वकील आदि लोग हमारे घर आया करते थे। तब वे मुझसे बड़े लाड़ से मेरे पढ़े पर चर्चा करते। मेरी बहुश्रुतता मेरे वय के अनुपात में बहुत बढ़ी-चढ़ी थी, वे उसकी प्रशंसा करते। उसी समय मैं 'निबंधमाला' की भाषा-शैली की नकल करते हुए लंबे-लंबे वाक्यों में निबंध लिखने का प्रयास करने लगा था। मोरो पंत कवि की अनेक रचनाएँ पिताजी गुनगुनाया करते थे। मैंने भी उनकी कुछ-एक कविताएँ कठस्थ कर ली थीं और उनका अनुकरण करते हुए मैं मोरो पंत जैसी कविता भी लिख लेता था। 'नवनीत' नामक काव्य-संग्रह की अधिकांश कविताएँ मुझे कंठस्थ थीं। मराठी के दूसरे वरिष्ठ कवि वामन भी मेरे प्रिय थे। अर्जुन और भीम की जोड़ी में मुझे भीम अधिक भाता था। पिताजी से, उनके मित्रों से, अपने मित्रों से मैं बहस करता। अर्जुन के पक्ष में यदि कोई बात करे तो मैं भीम का पक्ष लेता। मैं कहता कि भीम के कहे अनुसार यदि धर्मराज आचरण करते तो पैर का काँटा समय पर ही टूट जाता और महाभारत का भीषणतम संहार टल जाता। द्यूत प्रसंग, कीचक प्रसग और श्रीकृष्ण द्वारा दी गई संधि प्रसंग में भीम ने जो मार्ग सुझाया, वही अंत में हुआ, परंतु धक्के खाने के बाद और उसे पहले न मानने के कारण प्रायश्चित भोगने पर कृष्ण को भी वही स्वीकार करना पड़ा। मोह अर्जुन को हुआ, भीम को कभी नहीं हुआ। पूरी गीता जो पढ़नी पड़ी, वह अर्जुन का तुलना में भीम के लिए नहीं। मैं अपना पक्ष इस तरह रखता। तब मुझे चिढ़ानेवाले बड़े-बड़े आदमियों के हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाते थे।
कविता की बारहखड़ी
मैंने कविता की बारहखड़ी लिखना अपनी माँ की जीवितावस्था में अपनी आयु के आठवें वर्ष में शुरू किया था। घर में श्रीधर कृत 'हरि विजय' आदि पोथियाँ थीं। उन्हें देख-देखकर मुझे लगता कि मैं भी कोई ग्रंथ, महाकाव्य लिखूँ। मेरी बाल बुद्धि के निश्चय का आकार भी मेरे नन्हें नयनों को संतोष दे, वही होना चाहिए था। माचिस के आकार के कागज के टुकड़े काटकर एक-एक अध्याय के पृष्ठ पतले डोरे से बाँधकर मैंने पहली तैयारी पूरी की। तब सरकंडे की कलम बनानी पड़ती थी। मैं जूझता रहा, चार-छह प्रयासों के बाद मेरी मनभावन कलम बनी। फिर पोथियों में जो होती है, वैसी लाल स्या़ही से सुंदर चौखटें कागजों पर बनाई। 'श्री गणेशाय नम:' भी लिखा। अब ग्रंथ लिखने के कार्य की शेष रही बिलकुल सामान्य सी बात-अर्थात् ग्रंथ लिखना, वह जो एक तरफ छूटा तो छूट ही गया। इसका मुख्य कारण यह था कि 'श्री गणेशाय नम:' उस छोटे से कागज पर घिचपिच ही लिख पाया और वह पोथी मेरी कल्पना में जितनी सुंदर थी, वैसी कागज पर अवतरित होने की कल्पना ही पूरी तरह असत हो गई। हाँ, एक विचार जिसे शुभ ही कहा जाए, वह यह आया कि पहले अपना लेखन सुंदर सुवाच्च, जमा हुआ बना लूँ और फिर ग्रंथ-लेखन करूँ। और मैंने कविता की बारहखड़ी छोड़ सुंदर लेखन के लिए कलम घिसना चालू कर दिया।
कविता करने की उमंग कितने दिनों तक धूल खाती रही, यह स्मरण नहीं, परंतु दसवें वर्ष के अंत तक मैं कुछ-न-कुछ रचने लगा होऊँगा, क्योंकि ग्यारहवें-बारहवें वर्ष तक मैं ओवी, फटका, आर्या आदि छंदों में काव्य लिखने लग गया था। कितनी ही रचनाएँ मैं करता, छोड़ता और भूल भी जाता। ओवी तो मैं वैसे ही रचता चला जाता, जैस सहज बोलते हैं। उन दिनों महाराष्ट्र में घर-घर में बड़े विशाल झूले हुआ करते थे। वैसे झूलेवाला वह कमरा ही घर का केंद्र हुआ करता था। बच्चों की ही नहीं, सद्य: विवाहिता, अर्धप्रौढ़ा महिलाओं का भी जमघट वहीं रखता। तो ऐसी दस-दस, बारह-बारह कन्याएँ और प्रौढ़ाएँ एक ओर झूले पर और दूसरी ओर मैं अकेला ओवी रचता और उनपर फेंकता। यह कार्यक्रम मेरी आयु के सत्रह-अठारह वर्ष तक अविराम चलता रहा। जहाँ भी, जब भी कभी कारज हुआ या होता, काव्यप्रेमी महिलाएँ मुझे घेर लेतीं और मेरी काव्य-धारा का अनुपम आनंद लेती हुई मुझे प्रेरित भी करतीं। मराठी में महिलाओं में ओवी को संख्याबद्ध भी किया जाता।
जैसे पहले मेरी ओवी...दूसरी गा माझी ओवी। मैं एक आख्यान प्रसंग लेता और दो सौ तक सख्या कहते मैं ओवी रचता चला जाता या फिर वे सारी एक ओवी कहतीं, मैं उसके प्रत्युत्तर में दूसरी ओवी और वह भी उनकी ओवी का अंतिम शब्द आते-आते रचकर सुना जाता।
मुझे इस क्षेत्र में हराने के षड्यंत्र महिलाएँ और कन्याएँ हर घरेलू कारज के अवसर पर किया करतीं।
परंतु यह बात 'ओवी' की है। आर्या छंद ने किसी अनार्या की तरह अपनी मात्राओं के छल से मेरी बाल-प्रतिभा को परास्त करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। वह सारा लज्जाजनक प्रसंग मैं कथन भी न करता, यदि सत्य कथन की लौकिक स्तुति का लोभ मुझे इतना न लुभाता।
आर्या की माला
आर्या छंद में काव्य रचनेवाला महाराष्ट्र का शीर्ष प्राचीन कवि मोरो पंत होने से 'आर्या पंत की' उक्ति ही महाराष्ट्र में प्रचलित है। मैं ओवी छंद में जैसी सहज रचना कर लेता था, वैसे ही आर्या छंद में भी कर सकता हूँ - यह मेरी धारणा थी। मोरो पंत की आर्या कंठस्थ करके श्रुति के आधार पर अनुमान से मैं रचना भी कर लेता था और उसकी स्तुति भी मेरे बाल वय को देखते हुए होती। परंतु...बात कुछ दूसरी ही थी।
हमारी मराठी पाठशाला के मुख्याध्यापक एक प्रेमी, सहनशील, वृद्ध व्यक्ति थे। उनके राज में घर सब्जी-भाजी देने, संदेश देने-लाने, दोपहर को उनको जरा सी झपकी लग जाए, आँख बंद हो जाए तो अपनी आँखें खुली रखना, ताकि पाठशाला में कोई बाहरी आदमी आए तो भद्द न पिटे-ऐसे विश्वास के काम करने का सम्मान कभी-कभी मुझे मिलता। इतना ही नहीं, जिस सम्मान को प्राप्ते करने की होड़ पाँचवीं-छठवीं कक्षा के छात्रों में लगती थी, वह डाक पर मुहर ठोंकने का सम्मान भी मानो किसी राजा ने अपनी राजमुद्रा अपनी अनुपस्थिति में ऐश्वर्ययुक्त गंभीरता से अपने विश्वसनीय मंत्री को सौंपी हो, वैसे मेरे मुख्याध्यापक मुझे सौंपते थे। और वह मुहर या ठप्पा लेकर उन पत्रों पर मारते हुए एक सम्मान-भावना की छाप मेरी मुखमुद्रा पर भी अंकित हो जाती। मेरी इस तरह की उपयुक्तता के कारण हो या गुरुजी की स्वभावजन्य सहनशीलता के कारण, पर मेरे द्वारा रचित आर्या वे बिना विचलित हुए सुनते और मेरी प्रशंसा करते। कहते, 'शाबाश, ऐसे ही प्रयास करते रहो, यशस्वी कवि हो जाओगे।'
परंतु कुछ दुर्भाग्य से ये पुराने गुरुजी वहाँ से चले गए और उनकी जगह एक नौसिखिए मुख्याध्यापक वहाँ आ गए। तब तक मेरी गणना पाठशाला की माननीय सूची में हो गई थी। अत: अन्य सहपाठियों के मुँह से मेरी माननीयता उनके कान में बार-बार आने लगी। परंतु जाने क्यों उन्हें मेरा यह चढ़ा भाव खलने लगा। मैं करेला भी नीम चढ़ा था, क्योंकि उनसे पहचान होते ही राजनीतिक बहसें भी करने लगा। अत: हर बार वे एक हथौड़ा मारकर मुझे डाँट पिलाया करते - 'छोटा मुँह बड़ी बात न किया करो, बैठ जाओ!' फिर भी मेरी आदत सुधरी नहीं और एक बार तो सचमुच ही छोटा मुँह बड़ी बात सिद्ध करनेवाला काम मैं कर बैठा। अर्थात् अपनी आर्या छंद में रची कविताएँ उन्हें दिखाने ले गया। उन्हें देखते ही बड़े तिरस्कार से उन्होंने कहा, 'चले बड़े कवि होने। तुझे गण-मात्रा का भी सऊर नहीं, यूँ ही काला-पीला करना कविता करना नहीं होता। जा-जा, फिर छोटा मुँह बड़ी बात न करना।' मेरी कविताओं की अब तक प्रशंसा करनेवाले मेरे सहपाठी मास्टरजी का ऐसा वाक्य सुनकर मेरा उपहास करते हुए इस तरह हँसे, मानो उन्हें गणमात्रावृत्त के प्रयोग में प्रवीणता प्राप्त हो। इतना ही नहीं, शायद उन्हें ऐसा भी लगा कि कविता करने का पागलपन न कर उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता ही सिद्ध की है।
तब तक मुझे गण, मात्रा आदि शब्दों का एक-एक अर्थ ही ज्ञात था। घर में जब विवाहादि बातों की चर्चा चलती, तब वर-वधू के जिस देवगण, राक्षसगण आदि की पूछताछ होती, वह 'गण' मुझे ज्ञात था। और 'मात्रा' वह जो श्रीगणेश के सिर पर चढ़ती है। वर-वधू की तरह हर आर्या का भी गण ऐसा ही होता है क्या? यह प्रश्न मुझे सताता। वैसे ही सिर पर मात्रा लिए कितने वर्ण आर्या में होने चाहिए, यह प्रश्न भी था। पर गाँव में पूछूँ किससे? वहाँ सर्वज्ञ तो एक मास्टर ही था और ऐसे ही फिर पूछना, माने फिर झिड़की खाना और उसके मुँह से सुनना - 'जाओ, छोटा मुँह बड़ी बात न किया करो।'
सच देखा जाए तो वे चाहते तो दस मिनट में मुझे आर्या छंद की मात्रा आदि का रहस्य समझाकर मेरी काव्य-प्रेरणा को प्रोत्साहन दे सकते थे। परंतु वे भी कविकर्मी थे और यदि छात्र भी कविता करने लगे तो मास्टरजी का बड़प्पन क्या और कैसे रहे, इसलिए वे एक तरह से मेरे प्रतिस्पर्धी थे। मेरे बचपन में ही नहीं, प्रौढ़पन में भी मुझे मेरे साहस या स्वातंत्र्य घोषणा और राज्य, क्रांति या समाजक्रांति आदि के अभिनव भारतीय साहस में मुझे प्रोत्साहन देनेवाले गुरुजनों का अभाव ही रहा। इसके विपरीत तेजोभंग और मनोभंग की बेड़ियों रहा। इसके विपरीत तेजोभंग और मनोभंग की बेड़ियों से गुरुजनों द्वारा मेरे पैर बाँधकर ही रखे जाते। आगे बढ़ने में सहायक हो सकनेवाली शक्ति अधिकतर गुरुजनों द्वारा पैर में डाली गई बेड़ियाँ तोड़ने में ही व्यय हुई।
फिर बड़े प्रयासों से मैंने गण-मात्रा के नियमों को स्पष्ट करता एक आर्या छंद प्राप्त किया। पर फिर वही ढाक के तीन पात। मैं अपनी रची आर्या को वह नियम लगाकर देखने लगा। मात्रा का अपना अर्थ स्थायी रखते हुए अर्थात् ईकार, ऐकार, ओकारवाले वर्णो को मैं मात्रावाले वर्ण मानकर उन्हें गिनता। मोरो पंत की आर्या की मात्रा भी गिनी, पर नियम कहीं भी ठीक बैठे ही नहीं। ऐसी भी शंका मन में आई कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हर आर्या के लिए अलग नियम होता हो। यथासंभव सारी मात्राएँ खोजता रहा। औषध प्रयोग में जो 'मात्रा' काम में आती हैं, केवल वे ही रह गईं। हताशा से भरता गया। काव्य की एक पुस्तक 'वृत्त दर्पण' भी मेरे हाथ लगी, पर दर्पण में तो वह दिखेगा जो अपने पास हो। दस-ग्यारह की आयु का था। अत: दर्पण भी कुछ दिखला न सका।
जाने कैसे सिर धुनते-धुनते मुझे ज्ञात हुआ कि कविता की मात्रा वर्ण के सिर पर नहीं होती। कविता के लघु-दीर्घ भेद को 'मात्रा' कहते हैं। यह ज्ञात होते ही मैंने देखा कि आर्या छंद में रची मेरी अधिकतर रचनाएँ नियमानुकूल ही हैं। मुझे इससे बड़ी सांत्वाना मिली, पर आर्या छंद के गण-मात्रा प्रपंच में भी मेरा काव्य-सृजन चलता रहा। आर्या छोड़ अन्य काव्य-प्रकारों में मैं रचना करता। इतना ही नहीं, उन्हें चुपचाप समाचारपत्रों में प्रकाशनार्थ भी भेज देता। संपादक के पास रखी रद्दी की टोकरी भरते-भरते एक दिन मेरी एक रचना -स्वदेशी की फटकार' सच में ही समाचारपत्र में छपकर आ गई। कितने महत्व का दिन था वह! गाँव के मेरे बालसखाओं के बाजार में मेरी कविता की साख जिस तरह एक सामान्य कारण से गिर गई थी, वही इस सामान्य कारण से एकाएक चढ़ भी गई। अब वह रचना निश्चित रूप से कविता ही थी और उसका रचनाकार कवि ही था। अब इसके बाद मैं कवि नहीं हूँ, ऐसा कौन कह सकता है? ऐसा मुझे स्वयं भी लगा, क्योंकि उस गाँव के पूरे जीवन में जिसकी कविता समाचारपत्रों में छपी हो, ऐसा कवि मैं ही था। इसलिए पूरे गाँव में मेरे कवि होने का ढिंढोरा पिट ही गया। अच्छा यह हुआ कि जो कविता 'जगत् हितेच्छुस' नामक समाचारपत्र में छपी, वह कविता गाँव के बारह वर्ष के एक बालक की है, यह उन्हें ज्ञात नहीं हुआ था, नहीं तो वह छापी ही न जाती। कविता कैसी है, इससे अधिक इसपर बल देनेवाली पत्रिकाएँ ही अधिक होती हैं कि कवि कौन है।
इसी समय मेरी राजनीतिक महत्वाकांक्षा सशस्त्र क्रांति की ओर तेजी से झुकने लगी थी। उसके पैर मेरी बाल-क्रीड़ाओं के पालने में स्पष्ट दिखने लगे थे। मुसलमानों के धार्मिक अत्याचार और अंग्रेजों के राजनीतिक अत्याचारों की स्पष्ट कल्पना किए बिना ही जो कुछ सूचनाएँ मिलतीं, उन्हीं से उनके प्रति तिरस्कार की भावना मन में उठती, और मेरी यह बाल-भावना अपने बालसखाओं के साथ झूठमूठ की लड़ाइयाँ लड़कर बदला ले लेती। मराठी पाठशाला छूटते ही हमारा दल हाथ में छड़ियाँ लेता और उसे तलवार की तरह घुमाता हुआ चलता; जो भी झाड़ी मिलती, उसकी शामत आ जाती, विशेषकर पीले फूलोंवाली काँटों-भरी एक मुलायम झाड़ी के तो सौ वर्ष पूरे हो जाते। छठी की तलवार से उस झाड़ी को काटने के लिए हम इसलिए भी जुड़ते, क्योंकि उस झाड़ी को गाँव में 'विलायती' कहा जाता था। उस विलायती झाड़ी की मुंडी छाँटते समय हमें लगता कि हम प्रत्यक्ष विलायती अंग्रेजों की ही सफाई कर रहे हैं। सन् 1857 के क्रांतियुद्ध में अंग्रेजों को काटनेवाले विद्रोहियों जैसी उत्कटता से; वह भी उससे बहुत सस्ते में वे लड़ाइयाँ हम लड़ते। राष्ट्रीय बदला लेने की इस काल्पनिक कृति के चलते वास्तविक राष्ट्रीय बदला लेने के लिए अपनी तलवारों का पानी परखने का प्रसंग भी शीघ्र ही आ पहुँचा।
सन् 1894-95 में बंबई, पुणे आदि स्थानों पर हिंदू-मुस्लिम दंगों की एक बड़ी लहर चली। 'केसरी', 'पुणे वैभव' आदि समाचारपत्रों में उसके समाचार पढ़ने-सुनने की बड़ी उत्सुकता रहती थी उन समाचारपत्रों, जो हमारे गाँव में डाक से आते थे, को लेने डाकघर के पास घंटों खड़ा रहना पड़ता था। मुस्लिमों की ओर से दंगे की शुरुआत होकर हिंदुओं की पिटाई होने पर हमें बहुत क्रोध आता। लगता कि ये हिंदू चुप क्यों बैठते हैं? इतने में यदि हिंदुओं की ओर से प्रतिकारस्वरूप मुस्लिम मारे जाते तो हमारी टोली का हर्ष आकाश को छूने लगता। देश भर में चल रहे इस घमासान में हमारी छोटी टोली ने यदि भगूर में अपना पराक्रम नहीं दिखाया होता तो हिंदू धर्म का अस्तित्व कहाँ बचता? अत: अपने बालसखाओं को इकट्ठा करके मैंने उन्हें बताया कि इस राष्ट्रीय अपमान का बदला हमें भगूर में भी लेना है और वह इस प्रकार की गाँव की सीमा के बाहर स्थित एक वीरान मसजिद पर आक्रमण किया जाए। बदला लेने का यही उत्तम मार्ग है। हम बारह-तेरह वर्ष की आयु के लड़कों की टोली नहीं, वीरों का दल एक दिन सायंकाल को उस मसजिद पर आक्रमण करने के लिए छिपते-छिपाते चल दिया। मसजिद तो वीरान थी, उसमें कोई भी नहीं था। संभवत: हमारी विशाल सेना को आता देख शत्रु डरकर पहले ही भाग गया होगा! हमने जी भरकर मसजिद की तोड़-फोड़ करके अपनी बहादुरी के झंडे वहाँ पर गाड़े और शिवाजी की युद्ध-नीति का पूरा-पूरा पालन करते हुए जितनी जल्दी हो सका, उतनी जल्दी वहाँ से पलायन किया। दूसरे दिन यह समाचार मुसलमान लड़कों को भी मिला। उस गाँव की मराठी पाठशाला के बरामदे में ही लगनेवाली उर्दू पाठशाला के सामने के विस्तृत आँगन में पाठशाला-शिक्षक के आने के पूर्व ही जोरदार लड़ाई हुई। परंतु मुसलमान लड़कों के दुर्भाग्य से उन्हें चाकू, रूल, आलपिनें आदि रण-सामग्री का भंडार पहले ही योजनाबद्ध ढंग से बनाकर रखनेवाला सेनापति न मिलने और हमारी सेना के पास वह सारी युद्ध-सामग्री मेरी सूझबूझ के कारण होने से हिंदुओं की जीत हुई। अंत में संधि हुई, जिसकी पहली शर्त यही थी कि दोनों पक्षों में से कोई भी इसकी सूचना शिक्षक को नहीं देगा।
परंतु दो-तीन मुसलमान लड़कों ने इस पराभव का बदला लेने के लिए मिलकर यह षड्यंत्र रचा कि उस बम्मन के बच्चे को अर्थात् मुझ विनायक को पकड़कर मुँह में गणपति के प्रसाद (मोदक) की जगह एक मछली ठूँसना है। उनका यह दाँव लग नहीं पाया। पर यह समाचार मिलते ही हमारे पक्ष की तैयारी भी बड़े जोर-शोर से होने लगी। मसजिद पर किए गए हमले के समय हमारे धर्मवीरों में जो अशोभनीय ढीलापन देखने में आया था, उसे दूरकर इस सेना को अधिक कार्यक्षम और अनुशासित करने के लिए हमने ढंग से सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया।
चूँकि यह आपस की बात है, किसी मुसलमान वाचक को सुनाई न दे, इसलिए इतने धीरे से कह रहा हूँ कि उस मसजिद पर किए गए हमले में कुछ को अपनी नानी-दादी के पुकारने के कारण तुरंत घर जाना जरूरी हो गया। कुछ को उसी समय लघुशंका के लिए बहुत दूर जाना पड़ा और कुछ को जब उनके नेता ने अंदर घुसने का आदेश दिया, तब उन्होंने उनसे प्रतिप्रश्न किया-नेता क्यों न पहले जाए? और जब नेता अंदर गया, तब प्रश्न उछाला गया कि और किसी को अंदर जाने की क्या आवश्यकता है? बाहर भी तो कोई पहरे पर चाहिए। नए पहरेवालों में से कुछ, जिन्होंने पहरा देना कर्तव्य माना था, भाग भी गए।
इन सबके लिए जब मैंने अपने बालसखाओं से कहा तो बड़ी बहस के उपरांत एक सैनिक विद्यालय चलाने की बात कही गई, जिससे अनुशासन और पराक्रम बढ़े। जल्दीं ही हम झूठमूठ की लड़ाइयाँ करने लगे। एक पार्टी मुसलमान या अंग्रेज हो जाती और दूसरी हिंदू। नीम की निंबोरी हमारे गोला-बारूद बनते। एक सीमा निश्चित होती, निंबोरी बाँट ली जाती। युद्ध प्रारंभ हो जाता। निंबोरी की मार से बिना डरे बीच की सीमा पर लगा ध्वज जो छीन लाए या दूसरे पक्ष के बाजू में घुसकर उनका गोला-बारूद छीन लाए, वह पार्टी विजयी मानी जाती। अधिकतर मेरी हिंदू पार्टी की ही जीत होती। यदि कभी ऐसा लगता कि जीत अहिंदू पार्टी की होगी, तो मैं देशाभिमान का आह्वान करता और कहता कि वे स्वयं पीछे हटकर हमें जीत दिलवाएँ, वरना हिंदुओं की पराजय और मुसलमानों या अंग्रेजों की विजय जैसा परिणाम सामने आएगा। वे समझ जाते और पीछे हटकर राष्ट्र हित को ऊँचा रखते। ऐसी किसी भी युक्ति से हिंदुओं की जीत होते ही हमारी पूरी टोली हिंदू-विजय के गीत गाते हुए भगूर के गली-मोहल्ले में शोर मचाते हुए निकल पड़ती।
हमारे सैनिक विद्यालय में जल्दी ही एक घोड़े की आवश्यकता पड़ सकती थी, क्योंकि सैनिक विद्यालय में तैयार हो रहे शिवाजी, तानाजी को घोड़े पर बैठना आना जरूरी था। ऊपर वर्णित मेरे मित्रों में से राजा परशा के यहाँ एक टट्टू था। वह मेलों-ठेलों में किराने की दुकानों का माल ढोने के काम आता था। हमारे बहादुर स्वतंत्रता-सैनिकों का श्यामवर्ण घोड़ा होने का महत् भाग्य उसे मिलना था। अपने माँ-बाप को बिना बताए वे अपने टट्टू को विद्यालय में लाते थे और बारी-बारी हम उसपर चढ़कर अश्वारोहण का अभ्यास करते थे। मैं पहले इसी घोड़े पर बैठा। यद्यपि वह आकार से घोड़ा था, फिर भी उसकी मंद गति के कारण हमारे भावी स्वतंत्रता-संग्राम में वह हाथी-समान भी उपयोग में लाया जा सकता था। उसको दौड़ाने के लिए बार-बार छड़ी मारनी पड़ती थी। इस अनुभव से मैंने छड़ी की संख्या के सूत्र ही बना डाले थे। इतना दौड़ाना है तो इतनी छड़ियाँ। दुर्भाग्य से ऐसे सूत्रों के अनुशासन में चले सभी घोड़े विनयशील नहीं होते, यह मुझे भविष्य के एक खड़तल अनुभव से ज्ञात हुआ, क्योंकि आठ-नौ वर्ष वाद जव्हार राज्य की राजधानी में एक तेज-तर्रार घोड़े पर बैठने का अवसर मुझे अपनी ससुराल में मिला। उस घोड़े को उक्त शास्त्रीय सूत्र के अनुसार जब छड़ियाँ लगाईं तो वह बदमाश घोड़ा जो उड़ा तो अंत में गेंद की तरह हमें दूर फेंकने के बाद ही रुका।
मेरे बड़े भाई साहब को धनुष-बाण चलाने का बड़ा शौक था। एक-दो बार बाण चलाकर कनेर का फूल तोड़ते हुए उन्हें मैंने देखा था। अचूक निशाना लगाने से फूल टूटा या चूक से सही निशाना लग जाने के कारण टूटा, यह कहना कठिन है। परंतु इससे धनुष-बाण चलाने की ईर्ष्या मुझमें अवश्य उत्पन्न हुई। हमारे सैनिक स्कूल के लिए तो यह आवश्यक था ही। अत: उसका भी अभ्यास शुरू हुआ।
पिताजी से कह-कहकर भिल्ल आदि लोगों से तरह-तरह के बाण मैं मँगवाता। फिर धनुष बनाकर ताँत बाँधकर उसको बनाने-बिगाड़ने मे हमारा बड़ा मनोरंजन होता। हमारे पिताजी के पास एक बंदूक और तलवार भी थी। बंदूक का उपयोग वे उसमें पानी भर बिल में घुसे साँप मारने के लिए करते थे। वह बंदूक भी दो-चार बार हमने चलाई। मुझे उसका बड़ा ही कौतूहल था। बंदूक, उसके छरें आदि देखने और छूने में बड़ा मजा आता था। अपने सैनिक विद्यालय के एक दो साथियों को मैंने उसे चलाना भी सिखाया। हमारे ही पुराने घर की खिड़की से नए घर में छिपकर बैठे एक उल्लू को मारने एक बार मेरे पिताजी ने वह बंदूक चलाई और जाने क्या-कुछ हो गया, उसके उलटे धक्के से पिताजी घायल हो गए। उस धक्के से मेरे सैनिक विद्यालय के छात्र और प्राचार्य भी घायल हुए और फिर कभी बंदूक को हाथ लगाया हो, यह मुझे स्मरण नहीं।
हमारे घर में एक गुप्ती और एक-दो पुरानी तलवारें भी थीं, जो हमेशा छिपाकर ही रखी जातीं। अपने सैनिक मित्रों को सौ-सौ कसमें देकर मैं बड़ी ही संजीदगी से और बड़ी सावधानी से उन्हें दिखाता था। तीसरी मंजिल पर जाकर मैं उन शस्त्रों को रगड़-रगड़कर साफ करता और फिर छिपाकर रख देता। जीने के नीचे बनाए गए एक गोपनीय स्थान में उन शस्त्रों को छिपाकर मैं रखता।
तेरह-चौदह के मध्य की आयु में कुल-स्वामिनी देवी के प्रति मेरी अपनी भक्ति बहुत अधिक बढ़ गई। यह मूर्ति रुधिरप्रिय है, ऐसी किंवदंति थी। अत: उसे घर में न रखकर खंडोबा के मंदिर में हमारे एक अब्राह्मण पुजारी की सेवा में रखा गया था- इसलिए कि उसे बकरे आदि का भोग मिल सके। उस पुजारी को स्वप्न में देवी का आदेश मिलने लगा कि मुझे घर पहुँचाओ। मेरे पिताजी को स्वप्न में देवी घर में आई हुई दिखती। उस देवी के जाग्रत और तेजस्वी होने के आख्यान पूर्वापर उस गाँव और घर में सुनाए जाने से सबको बड़ा डर लगता था। परंतु पुजारी के आग्रह के कारण अण्णार (मेरे पिताजी) ने उसे घर में ही स्थापित करने की व्यवस्था की। उनके अनेक इष्ट मित्र कहते, 'अरे अण्णा, वह रुधिरप्रिय जाज्वल्य देवी है। अगर कुपित हो गई तो सारा घर भस्म कर देगी। उसे मंदिर में ही रखना ठीक है।' अण्णा कहते, 'अब तो जो होगा, उसीकी मरजी से होगा।'
परंतु मुझे तो वह मातृवत् ही अधिक लगती, वैसी ही ममतामयी, स्नेहिल, कृपालु। मैं अपने बचपन के सुख-दु:ख भी उससे कहता। धीरे-धीरे मुझे वह नए घर का सुंदर स्थान, जहाँ यह देवी स्थापित थी, बहुत ही भाने लगा। देवी माँ की पूजा-सेवा और साधना में अधिकाधिक तल्लीन भी रहने लगा। 'पांडव प्रताप', 'हरि विजय' आदि ग्रंथ घर-घर में जैसे प्रचलित थे, वैसा कोई देवी-चरित्र मराठी में नहीं था या मुझे तब तक नहीं मिला था। 'सप्तशती' संस्कृत में थी, उसे पढ़ता, परंतु उससे मन को शांति नहीं मिलती थी। उसी समय समाचारपत्र में पढ़ने को मिला कि 'देवी विजय' नामक ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। पता नहीं, पिताजी मँगवाएँ या नहीं, यह सोचकर एक प्रति देय मूल्य (वी.पी.पी) से भेजने के लिए मैंने पैसे भेज दिए। ग्रंथ आ गया तो उसका पारायण करने लगा। इस ग्रंथ में जो जानकारी मिली, उसका आधार लेकर अन्य देवी-भक्तों के चरित्रों के साथ प्रताप-शिवाजी को भी जोड़ते हुए एक ग्रंथ 'दुर्गादास विजय' नाम से लिखा जाए, यह संकल्प भी मन में उभरा और तत्काल उसे ओवीबद्ध करके लिखना आरंभ किया। प्रथम देवी-स्तुति, फिर ग्रंथकार-चरित्र। उसके पश्चात् देवी से हुआ साक्षात्कार। भारत की स्वतंत्रता के लिए ग्रंथकार जो युद्ध करनेवाला था, उसमें सफलता मिलने का आशीर्वाद देवी से प्राप्त करने के लिए एक प्रारंभिक प्रार्थना। यह सब करते चार-पाँच अध्याय, तीन-चार सौ ओवियाँ रच डालीं। मराठी के एक ग्रंथ लेखक श्रीधर स्वामी पंढरपुर के देव-मंदिर में बैठकर ही ग्रंथ-रचना किया करते थे, अर्थात् स्वयं पांडुरंग उन्हें सुनता है, ऐसी जो एक दंतकथा थी, उसका गौरव भी अपने ग्रंथ में हो, इसलिए अध्याय का सृजन होते ही उसे तन्मय चित्त से पढ़कर देवी को सुनाता था। देवी पर नाना प्रकार के फूल हमेशा ही चढ़े रहते थे। उनमें से कोई एक फूल भी मेरे वाचनकाल या उसके बाद लुढ़ककर नीचे आ जाता तो मैं उसे प्रसाद मानता। यह चमत्कार भी ग्रंथ में लिखा जाता और मुझे यह विश्वास होता कि मेरा ग्रंथ भी श्रीधर स्वामी के जैसा ही हो जाएगा। मेरे इस ग्रंथ की कुछ ओवियाँ सच में ही बड़ी उत्तम 'प्रासादिक' स्वरूप की रची गई थीं। उनमें मैंने अंग्रेजों के अत्या़चारों का वर्णन 'दैत्य', पृथ्वीभार हरण', 'अवतार' आदि से ठेठ पौराणिक भाषा में किया था। मेरे जीवन के प्रभात में ही आत्म-चरित्र लिखने का यह पहला प्रयास था और उसके अनंतर यह दूसरा आयुष्य के तीसरे प्रहर में हुआ।
इससे भी अधिक आश्चर्यजनक चमत्कारों का अनुभव के तीसरे प्रहर में हुआ। भाव-प्रवण मन को होता। जब ध्यान लगाकर मैं बैठता तो कभी-कभी मुझे प्रत्यक्ष देवी दिखाई देती। देवी के मुख से कही गई बातें सुनाई देतीं; पर वे क्या और कैसी थीं, अब उनका स्मरण नहीं रहा। एक बार मेरी बहन के कान का एक महँगा बाला खेल-खेल के दौरान मेरे हाथ से छिटककर कहीं गुम गया। पिताजी क्रुद्ध होंगे, इसलिए उससे बचने के लिए मैं देवी के सामने जाकर अड़ गया। आँखें बंदकर ध्यान-मुद्रा में बैठ गया। मेरी बंद आँखों को वह आभूषण एक आलमारी के नीचे पड़ा हुआ स्पष्ट दिख गया। पर वहाँ तो हम दस बार पहले ही देख चुके हैं, मन में इस शंका ने जन्म लिया। फिर मुझे एक आवाज सुनाई दी, जैसे कोई कह रहा हो - 'अरे! उठ, देख फिर से।' और मुझे उठना पड़ा। भाभी को साथ लेकर मैं उस आलमारी के सामने गया और झुककर उसके नीचे हाथ डाला। आश्चर्य कि मेरे हाथ पर जैसे किसी ने वह बाला रख दिया हो। सबके, विशेषकर पिताजी के, आश्चर्य का ठिकाना न रहा। मैं तब उसे दैवी चमत्कार समझता था और उस 'दुर्गादास विजय' ग्रंथ में ऐसे चमत्कार ओवीबद्ध कर लिखता भी था।
परंतु मेरे मन में एक प्रश्न उठने लगा - ये घटनाएँ दैविक हैं या भावनात्मक। मन की एकाग्रता के कारण मन की सुप्त जाग्रत हो सुध आ जाती हो, ऐसा तो नहीं? देवी जिसका दर्शन कराती है, वह अपने ही मनस्मृति का अतिदर्शन तो नहीं? वैसे ही कान में आते शब्द-स्वर अतिश्रवण तो नहीं? जो कुछ भी हो, पर ऐसा होता था।
बालपन से ही मेरी भावना जितनी उत्कट थी, बुद्धि उतनी ही तर्कट थी। मैं वास्तव में इन दो सगी बहनों के मायाजाल में फँसा हुआ था। ये दोनों एक-दूसरी को नीचा दिखाने का खेल खेला करती थीं, मानो इन दोनों का यह परस्पर प्रेम-प्रदर्शन का कोई तरीका हो। देवी के प्रति मेरी सरल और निस्सीम श्रद्धा के इस सहज आनंद के दूध में नमक की पहली डली मेरे सामने कब डाली गई, उसका स्वच्छ स्मरण मुझे है।
'ईश्वर' हमेशा ही भक्तों का संकट हरता है, ऐसा नहीं है। कई बार वह भक्त की गुहार अनसुनी भी कर देता है, यह तथ्य एक दिन मेरे सामने प्रकट हो गया और मेरी श्रद्धा की मजबूत नींव खिसकने लगी। उस दिन नासिक से कुछ बड़े वकील सावरादिक मेरे बड़ों के इष्ट मित्र अतिथि बनकर हमारे घर आनेवाले थे। वास्तव में वे सारे मेरे पिताजी के मित्र थे और साथ में एक रकम भी लानेवाले थे जो मेरे पिताजी को एक ऋण की साप्ताहिक किश्त के रूप में किसी दूसरे को चुकानी थी। मेरे पिताजी लेन-देन की ये सब बातें मुझसे कहा करते थे, पर वे लोग नहीं आए। पिताजी बहुत उदास हो गए। उनको ऐसा उदास देख मैंने देवी माँ की शरण में जाने की ठानी। बच्चा यही तो करता है! संकट आने पर माँ के पास ही जाता है। देवी के सामने बैठकर उसे मनाने का प्रयास मैं करने लगा। आँखों में आँसू आ गए। ऐसी प्रार्थना मैं 'ओवी' छंद में काव्य रचते हुए ही किया करता था। वैसा ही करता हुआ मैं अपने पिताजी को संकटमुक्त करने की रट देवी के सामने लगाए रहा। क्रोध में देवी से मैंने यह भी कहा कि यदि तुमने आज मेरे पिताजी की लाज नहीं रखी तो मैं यह समझूँगा कि देवी-देवता सब ढकोसला है।
दो दिन हो गए, अतिथि नहीं आए। पिताजी की नजर मुझपर रहती थी। उन्होंने कहा कि ऐसे छोटे-मोटे कार्य के लिए ईश्वर पर भार नहीं डालना चाहिए। रकम लाने के लिए वे स्वयं ही नासिक गए। परंतु रकम देनी नहीं थी। इसलिए वे बड़े लोग आए नहीं थे। आखिर पिताजी बैरंग लौट आए। इससे मेरी उदासी बढ़ गई। मन में आया, ऐसा तो नहीं कि मेरी भक्ति दूसरे भक्तों से कम है या यह कि उन भक्तों के साथ भी ऐसा ही होता है। ईश्वर हमेशा ही भक्त की बातें नहीं मानता। इस संशय के जन्मते ही 'भक्त विजय' ग्रंथ में वर्णित चरित्र मैंने फिर से एक बार पढ़ डाला। अभी तक पोथी में जो कुछ लिखा था, वह सच है या झूठ, इसको परखने का प्रयास नहीं किया था, पर अब मैंने पहली बार-श्रद्धा और संशय से दोनों ही आँखें खोलकर पोथी पढ़ी।
तब बुद्धि में यह बात आने लगी कि भक्त को जिस किसी संकट से ईश्वर ने उबारा, केवल उन्हीं घटनाओं का वर्णन पोथी में किया गया है और जिन घटनाओं में भक्त की कोई सहायता ईश्वर ने नहीं की, उनको छोड़ दिया गया है। महाराष्ट्र के संतशिरोमणि ज्ञानदेव ने जब समाधि ली, तब उनकी छोटी बहन मुक्ता बाई बहुत दु:खी हुई। उसने अपने इष्ट से बहुत-बहुत विनती की, पर ज्ञानदेव जीवित नहीं हुए। जिस तुकाराम का ब्राह्मणों द्वारा नदी में फेंका गया ग्रंथ उनके इष्ट विठ्ठल ने निकाला, उन्हीं भगवान् विठ्ठल ने उनके कथा-प्रसंग में एक भयंकर आग लग जाने पर लोगों के प्राण नहीं बचाए। एक गाँव मलेच्छों ने लूटा। तुकाराम ने अपने परम इष्ट विठ्ठल से कहा कि ये तो तेरा ही अपयश है, पर साक्षात् ईश्वर ने उस संकट का निवारण नहीं किया। अब तो मैं ऐसे सैकड़ों उदाहरण दे सकता हूँ। चोखामेल नामक एक परम तपस्वी भक्त महाराष्ट्र में हुए हैं। हीन जाति का होने के बावजूद उन्होंने मंदिर में प्रवेश किया। पुजारियों ने उन्हें पकड़कर चट्टान से बाँधा और मृत्युदंड देने को तत्पर हो गए। उस संकट से भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने भक्त को उबारा, ऐसा वर्णन पोथी में है, पर एक बार कुछ हरिद्वेषी मुसलमान उसे उसके साथियों सहित एक दरवाजा बनाने की बेगार के लिए पकड़कर ले गए। वह दरवाजा बनते-बनते गिर गया और उसके नीचे भक्तश्रेष्ठ चोखा अपने साथियों सहित दबकर मर गए, मगर अँगुली पर गोवर्धन उठानेवाले श्रीकृष्ण ने वह गिरता द्वार नहीं रोका। पोथियों में ऐसी घटनाओं का वर्णन भारी उपेक्षा से क्यों किया जाता है? मैं जिन पोथियों को शंकारहित और विश्वसनीय मानता था, उनपर से मेरा इन सब कारणों से विश्वास हिलने लगा।
श्रद्धा की नींव हिलने की घटना
मैं पढ़ता आया था कि अठारह पुराणों की रचना व्यास ने की है। अर्थात् मराठी में रचित 'देवी विजय' ग्रंथ भी व्यासकृत 'देवी भागवत' के आधार पर ही रचित था। परंतु उसे पढ़ा तो देखा कि उसमें वर्णित रामचरित्र में राम और लक्ष्म़ण सगे भाई नहीं हैं। अन्य' पुराणों में तो ये सगे भाई और भरत-शत्रुघ्न सौतेले भाई कहे गए हैं। पहले लगा, पढ़ने-समझने में कुछ गड़बड़ी हो रही है। फिर मूल 'देवी भागवत' देखना चाहा, पर वह तो उस समय अप्राप्त और दुर्लभ था। विभिन्ने पुराणों में वर्णित घटना और चरित्र की विसंगतियाँ धीरे-धीरे ज्ञात होने लगीं और यह तथ्य मन में जम गया कि सारे (अठारहों) पुराण व्यासरचित नहीं हैं। एक ही व्यास की ये सारी रचनाएँ होना असंभव है। सारी पोथियाँ एक जैसी सत्य भी नहीं हैं। यह दृष्टि मिल जाने पर अपने भाई, मामा आदि से और नासिक जाने पर तो मुझसे कई गुना अधिक शिक्षित व्यक्तियों से भी मैं पुराणों को दिखा-दिखाकर वाद-प्रतिवाद किया करता और उनकी भोली श्रद्धा देख चकित भी हो जाता।
महाराष्ट्र में एक और प्रचलित तथा मान्यता प्राप्त लौकिक अर्थात् मराठी भाषा में लिखा ग्रंथ है 'गुरु चरित्र'। वह ग्रंथ भी मेरी संशयी बुद्धि की साढ़े साती के घेरे में जल्दी ही आ गया। उसमें अनेक व्रतों-नियमों का उल्लेख है। पहले मैं उन व्रतों-नियमों का पालन श्रद्धा से करने लगा। फलश्रुतियाँ तो कितनी ही बार विकट होती हैं, यह बात भी समझ में आ गई। तब हमारे सिर घुटे होते थे, उनपर एक चोटी लहराया करती थी। चोटी में गाँठ लगाने की सुध नहीं रहती। मेरे बड़े भैया ऐसे अवसर की ताक में रहते थे। मेरी चोटी खुली दिखते ही कहते, 'चोटी खुली रखकर जितने कदम चलोगे, उतनी ब्रह्म-हत्या का पाप लगेगा।' मैं उसका उत्तर वैसा ही टेढ़ा देता। कहता, 'चिंता नहीं। सायं संध्यां (शिव-पूजा) के समय शिव का नाम लेते ही सात जन्म के पाप धुल जाएँगे। (सायाह्वे सप्तेजन्मनि) और 'गंगा-गंगा' दो-चार बार कहूँगा तो सारे ही पापों से मुक्त हो जाऊँगा। (गंगा गंगेति यो ब्रूयात्...मुच्य ते सर्व पापेभ्यो !) मेरे धार्मिक विचारों में होनेवाली इस उथल-पुथल के कारण मेरी ईश्वर-पूजा-भक्ति उतनी श्रद्धा से होना छूट गया। जिन सामान्य चमत्कारों के कारण ईश्वर के प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ गई थी, वैसे ही अब वह घटने भी लगी। फिर भी अपने घर की देवी के प्रति मेरी भक्ति टिकी रही।
तत्त्व-जिज्ञासा का सूत्रपात
संशय के अग्निकुंड में मेरी पहली भोली भावनाएँ, जो एक तरह से भूसा ही थीं, जलने का प्रारंभ होते-होते मेरी निष्ठा को उपरोक्त तत्त्व विचारों की पक्की नींव प्राप्त होने का भी सूत्रपात हो गया। यह मेरे ज्येष्ठ बंधु के कारण हुआ। इस क्षेत्र में वे ही मेरे पहले गुरु थे। मेरे पिताजी या अन्य किसी को भी वेदांत विषय में रुचि नहीं थी, अध्ययन या अभ्यास होने की बात तो बहुत दूर थी। परंतु मेरे ज्येष्ठ बंधु इस क्षेत्र में बहुत सक्रिय थे। उनकी आयु यहां कोई सत्रह-अठारह साल की थी। केवल वेदांत-संबंधी ग्रंथ पढ़ने तक ही नहीं, योगाभ्यास करने की ओर भी उनकी प्रवृत्ति बढ़ी हुई थी। उन्हें इस विषय के ग्रंथ खरीदने का चाव था। उनके द्वारा खरीदा गया एक ग्रंथ ग्वालियर के किन्हीं श्री जठार द्वारा लिखित था। ग्रंथ का नाम था - 'स्वा-नंद साम्राज्य ।' 'साम्राज्य' शब्द मेरे राजनीतिक विचारों के कारण मेरे निकट का था, बड़े भाई का आग्रह तो था ही और मेरी प्रवृत्ति भी किसी विषय में पीछे रहने की नहीं थी, इसलिए भी मैंने वह ग्रंथ पढ़ा। कुछ प्रकरण तो मुझे अच्छे लगे। परंतु 'माया' शब्द के मायाजाल और 'ब्रह्म' शब्द' के ब्रह्म घोटाले ने मुझे उस वय में उक्त विषय से दूर ही किया। अर्थात् ये दूर जाना भी अधिक पास आने जैसा ही था, क्योंकि सबकुछ जानने की मेरी जो प्रबल इच्छा हमेशा ही रही थी, वह मुझे किसी विषय से दूर जाने की अपेक्षा खींचती ही अधिक थी। प्रबल जिज्ञासा और संस्कार की एक आतुर जंजीर मेरी बुद्धि के गले में इसलिए अपने आप ही पड़ गई; और मैं इस विषय के उपांगों पर, अद्भुत चमत्कारों पर, सत्य और असत्य को लेकर डींग हाँकते लोग, साधु या भोंदू, पल-पल 'धर्म-धर्म' कहकर फैली रूढ़ियाँ ईश्वर का अस्तित्व या अनस्तित्व आदि विषयों पर अपने ज्येष्ठ बंधु सहित अन्यों से मेरे वाद-विवाद शुरू हो गए। इस वाद-विवाद में मुझे बड़ा-छोटा कोई सूझता नहीं था। इस वाद-विवाद में यदि कोई ज्ञानी किसी ग्रंथ को उद्धृत करता तो वह ग्रंथ खोजकर मैं अवश्य पढ़ता, ताकि उनकी बातों को मैं काट सकूँ। ग्रंथ पढ़ना, चिंतन करना और अपनी बात को सिद्ध करने के लिए उसका उपयोग शस्त्र जैसा करना मेरी आदत-सी हो गई। अर्थात् उस विषय का जो चिरंतन मर्म था, वह मेरे मन में स्वत: पैठता जाता। इन ग्रंथों के पूर्व जब मैं भोली भावना से पोथी-पुराणादि ग्रंथ पढ़ता हुआ, तब उन ग्रंथों में मिलता कल्पना-विलास और रस-भरे आख्यान आँखें मूँदकर पढ़ने में जो समाधान मिलता, वैसा इन ग्रंथों में नही मिलता। फिर भी उनके संवाद और प्रयोग मेरी भावना को प्रबुद्ध करते गए।
मुझ लगता है कि चरित्र-लेखन के कालक्रम का पालन न कर संदर्भित विषय की धारा पकड़ते हुए कुछ बातें यहीं कह देना अच्छा है।
बात मेरे ज्येष्ठ बंधु की निकली है तो उसी संदर्भ में बढ़ें। उन्हें साधु-संग बड़ा प्रिय था। कोई भी जटाधारी-अर्धनग्न विभूति रमाया व्यक्ति मिल जाता, तो वे उसके पीछे पड़ जाते। प्रारंभ में जब हम संपन्न थे, तब ऐरे-गैरे साधु-महात्मा की खिलाई-पिलाई अखरने का प्रश्न नहीं था, पर बाद में भी मेरे बड़े भैया उदार मन से किसी साधु-महात्मा को भरपेट दूध, मिठाई, फल आदि भेंट करते ही रहे। उन साधुओं में कुछ सतपुरुष भी होते ही थे। परंतु अनेक ने मेरे बड़े भैया को उनके भोलेपन का लाभ लेते हुए लूटा ही। ऐसे समय में मैं उनका उपहास कर उन्हें सताता। वे भी खुद को ठगा हुआ मानते, पर फिर कोई जटाधारी मिलते ही उनकी मठिया में पहुँच जाते थे। लौटकर मुझसे अवश्य कहते, 'उनकी बातें भूलो, जिन्हें तुम चोर-उचक्का कहते थे। ये जो आए हैं, वास्तव में सिद्ध पुरुष है। चल, तू भी दर्शन कर ले।''
कभी-कभी मैं चला भी जाता। एक बाबा का स्मरण मुझे है। वे सद्प्रवृत्त थे, पर बहुत सामान्य। अंग्रेजी कक्षा में प्रवेश कर मैं नासिक पहुँचा ही था। पंचवटी में स्थित राम धर्मशाला में वे डेरा डाले हुए थे। एक अँधियारे कमरे में उनका पूजा-पाठ चलता था। बीच-बीच में ब्रह्मभोज किया करते थे। उनकी धारणा यह थी कि इस सबके लिए पैसा उनकी इच्छा मात्र से ही ईश्वर पहुँचा देता है। मेरे भैया ने उन्हें गुरु माना था। वे मुझे उनका दर्शन करने हेतु चलने का आग्रह करते। मेरे भैया ने उन साधु बाबा के बारे में मुझे बताया कि वे अर्वाचीन रामदास स्वामी हैं, उन्होंने अंतर्ज्ञान से तेरा परिचय पहले ही प्राप्त कर लिया है और वह परिचय प्राप्त हो जाने पर ही वे बार-बार तुझे लाने के लिए मुझसे कहते हैं। खैर, एक शुभ दिन मैं बाबा के कमरे पर गया। मुझे देखते ही वे बड़े प्रसन्ने हो गए, बोले, 'अरे, तू तो बड़ा शुभ लक्षणी है, महान् आत्मा।' मैंने भी उनका निरीक्षण किया। इधर-उधर से देखा, पर मुझे शिवाजी-निर्माण करने की शक्ति उनमें कहीं दिखाई नहीं दी। मेरी जो प्रबलतम महत्त्वाकांक्षा थी, उसे उनके सामने प्रकट करते हुए मैंने कहा, 'अंग्रेजों की गुलामी से भारत को मुक्ति दिलाने के लिए सशस्त्र् युद्ध के सिवाय कोई उपाय नहीं है।' परंतु उन्होंने मुझसे वही कहा जो अन्य साधु बाबा हमेशा कहते रहते थे। वे बोले, 'अभी तू उस ओर बढ़ना छोड़ दे। पहले ईश्वर का अधिष्ठान प्राप्त कर, जो तुझे यहाँ प्राप्त् होगा। (मैं समझ गया कि वे चाहते हैं - मैं उनका दास बनकर सारी सेवा-चाकरी करूँ।) ईशकृपा से तेरी सारी इच्छाएँ पूरी हो जाएँगी।'
मैं जान गया कि राजनीति का स्पर्श भी इन्हें नहीं है; ये रामदास स्वामी कैसे हो सकते हैं! यह तो कहते हैं, 'ये तो प्रभु की मरजी है। उनके पाप का घड़ा जब भरेगा, तब उनका भी नाश होगा।' मुझे ये सारे तर्क क्रोधित करते। मैं कहता-चोरों का राज यदि प्रभु की इच्छा है तो उनको राजच्युत करने की हमारी इच्छा क्या राक्षसी इच्छा है? यदि सबकुछ ईश्वर की इच्छा से होता है तो मेरे मन में और हजारों के मन में उठती यह इच्छा भी तो ईश्वर की ही इच्छा है। यह क्या उनके पाप का घड़ा भरने का संकेत नहीं है? पर वे समझे तब न?
जिस नाम का यह वृत्त मैं लिख रहा हूँ, उस समय से ही मेरी प्रवृत्ति क्रांतिकारी की ओर तेजी से बढ़ने लगी थी। अत: यहाँ उस समय के अपने विचार और तद्नुषंगी कार्यों का पूरा वर्णन करना चाहिए। यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि वे क्रांतिकारी विचार और आंदोलन आज भी अनुकरणीय हैं, इसलिए वह लिख रहा हूँ, ऐसा कोई न समझे। क्या, क्यों और कैसे घटित हुआ, केवल इतना ही यहाँ कहना है। उनमें से किन्हीं या कुल घटनाओं का समर्थन नहीं है यह।
अंग्रेजी शिक्षा का प्रारंभ
भगूर की प्राथमिक पाठशाला में पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण कर लेने के बाद भी घर की कुछ परिस्थितियों के कारण डेढ़-दो वर्ष मैं भगूर में ही रहा, पर अंग्रेजी पढ़ता रहा और अगली दो कक्षाओं का पाठ्यक्रम भी मैंने पूरा कर लिया। गणित विषय में अनुत्तीर्ण कभी नहीं हुआ। भगूर में मेरे साथ के मारवाड़ी लड़के मौखिक गणित में बहुत प्रवीण रहते थे। उनका व्यवसाय ही था बेचने-खरीदने का। तोला-माशा से लेकर बीस मन तक के हिसाब वे तड़ातड़ करते जाते। मेरा क्षेत्र कविता-लेख आदि का था। मारवाड़ियों के बीच जब कभी मैं फँस जाता, तब वे अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए मौखिक हिसाब की तोप मुझपर दाग देते। मैं उनके प्रश्नों का उत्तर जल्दी नहीं दे पाता तो वे लोग ठहाका लगाकर हँसते और कहते-अरे सावरकर! तुम तो बड़े बुद्धिमान छात्र हो। फिर, यह तो छोटा-मोटा हिसाब है। यह भी कर नहीं पाओगे तो तुम्हारा काम कैसे चलेगा? तुम्हारी कविता और वह अंग्रेजी कैट-मैट से क्या होगा?' बड़ा अपमान होता मेरा। फिर मैं भी तीर छोड़ता-'आपका लड़का तो मुझसे क्या, न्यायमूर्ति रानडे से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि न्यायमूर्ति भी ये हीग-तेल का हिसाब तत्काल नहीं कर सकते। ऐसा करो, अपने लाड़ले को हाई कोर्ट का जज की बना डालो।'
एक अन्य ऐसी ही रोचक बात मैं यहाँ कहना चाहता हूँ। मेरे निकट के एक संबंधी थे। उनकी बुद्धि वास्तव में बड़ी तीक्ष्ण और विकासशील थी। परंतु उसे छोटे छेद में ही बंद रहना पड़ा था। फलत: वह बौनी ही रह गई थी। अब ये सज्जन जब-तब अपनी बुद्धि के वैभव का प्रदर्शन करने के लिए नितांत छोटी उपलब्धियों को ही सामने लाते। उन्होंने नासिक तहसील का भूगोल रट रखा था। यह पारंगतता उनके ज्ञान मापने की कसौटी थी। किसी के भी ज्ञान की परख वे इसी कसौटी से करते। नासिक तहसील का भूगोल रट लेते ही उनका छात्र मानो उपाधिकारी हो जाता। चाहते थे कि कभी मैं उनकी पकड़ में आऊँ और वे अपनी इस कसौटी से मेरी सारी विद्वत्ता की किरकिरी करें।
जब उनसे किसी धार्मिक या राजनीतिक विषय पर बहस हुई, तब मैं दसवीं कक्षा का छात्र था। उनके तर्क आदि मेरे सामने कैसे टिकते? मैंने अपनी बात की पुष्टि में दुनिया के अनेक देशों और स्थलों का भी उल्लेख किया। वे बहुत चिढ़ गए और चिल्लाकर बोले, 'बस! बस! मुझे भूगोल के पाठ तुमसे सीखने की आवश्यकता नहीं है। विश्व का भूगोल मेरे सामने बघार रहे हो, पर इस क्षेत्र में मेरे कक्षा तीन के छात्र भी तुमसे बहुत भारी हैं।' उन बजरबट्टुओं में से एक को उन्होंने तुरंत कहा- 'पूछ तो इससे भूगोल के दो-एक प्रश्न।' गुरुजी का इतना कहना था कि एक बजरबट्टू ने मेरी ओर एक प्रश्न दाग दिया- 'तुम्हें विश्व का भूगोल याद है न! अच्छा तो फिर बताओ, दारणा नदी के किनारे कौन-कौन से गाँव हैं? या काजवा नदी के किनारे के गाँवों के नाम ही बता दो।' मैं चुप ही रहा और मुसकराने लगा। उस छात्र ने दोनों नदियों के किनारे के गाँवों के नाम तड़ातड़ कह डाले। गुरुजी ने मुझे हर विषय में अनुत्तीर्ण घोषित कर दिया। उनका कहना था कि जिस किसी को पारणा या काजवा नदी के किनारे के गाँवों के नाम ज्ञात नहीं, उसे राजनीति या धर्म की क्या समझ?
विद्वता-परीक्षण की मूर्खतापूर्ण कसौटी
गाँव खेड़े का जो अनुभव मुझे हुआ और जो उससे अधिक आगे न निकल पाने वाले सभी बी.ए., एम.ए. तक शिक्षित लोगों को होता है, वह मजेदार है। इन ग्रामीणों के किसी कूट प्रश्न पर दुनिया की सारी विद्वत्ता कब बलि चढ़ जाएगी, यह निश्चित नहीं है। कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति उनके बीच पहुँचे तो उसे गाँव के सारे अनाड़ियों में से कोई एक सयाना बड़े छद्म विनय से वह कूट प्रश्न पूछता और उसका उत्तर नहीं मिलता या मिलता ही नहीं, तो उस पढ़े-लिखे की सारी विद्वत्ता व्यर्थ ठहरा दी जाती।
यदि कोई विद्वान् ज्योतिषी गाँव खेड़े पहुँचेगा और कहेगा कि उसे सौरमंडल तथा ग्रह-नक्षत्रों की गति और संख्या की जानकारी है तो उससे पूछा जाएगा, 'आप इतने दूर के तारों की गिनती कर लेते हो तो पहले मेरे घर की खपरैलों की संख्या तो बताओ।' ऐसे विकट प्रश्न पर वह ज्योतिषी चुप ही रहेगा। दूसरा कोई शेर होकर कहेगा, 'अरे, जो आँखों के सामने के खपरैल नहीं गिन सकता, वह दूर आकाश के आभूषण जैसे दरिद्रता के दारुण दु:ख को भुलाने के काम आते हैं, वैसे ही अज्ञान के गहन अंधकार में से उपजे विकट प्रश्न ज्ञानीपन का तमगा प्रदान कर अल्पकालिक ही सही, पर सुख तो प्रदान करते हैं और इस दृष्टि से यह ठीक भी है।'
विद्वत्ता की परीक्षा लेने की ऐसी कसौटियाँ केवल गाँव खेड़े में ही दिखती हैं, ऐसा नहीं है। इस विचित्र पद्धति से पहले अनेक राज दरबारों में भी अतिथि विद्वानों की ऐसी ही परीक्षा लेकर उन्हें नीचा दिखाया जाता था। यह तथ्य अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। कोई विद्वान् जब अपने किसी मत को स्थापित करने या कोई अपराजेय पत्र लेकर निकलता, तब उसके प्रतिद्वंद्वी विद्वान उससे ऐसे विचित्र प्रश्न पूछकर उसे परास्त करने का प्रयास करते थे, चाहे वह प्रश्न विषय से संदर्भित हो या न हो। शंकराचार्य-मंडन मिश्र के बीच के वाद का प्रतिपाद्य विषय था - कर्मकांड या ज्ञानकांड में से श्रेष्ठ या मोक्षदाता कौन? पर शंकराचार्य से प्रश्न पूछे गए, कामशास्त्र के। रेखागणित या बीजगणित के प्रश्नपत्र में उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार में भेद या होमर अंधा था या आँखोंवाला, ऐसे प्रश्न जितने सुसंगत कहे जाएँगे, उतने ही कामशास्त्र के प्रश्न थे। उससे भी कठिन प्रसंगों के बीच से विद्वानों को गुजरना पड़ता रहा है। रामानुजाचार्य के काल में कोई एक विद्वान अजेय पत्र लेकर दिन में मशाल जलाने निकला था। दिन में मशाल जलाने का अर्थ था चारों ओर अंधकार या ज्ञानांधकार है; उसमें मार्ग प्रदर्शन करने के लिए मुझे मशाल जलानी पड़ रही है।
उस विजयेच्छुक पंडित को विश्व के समस्त चौकड़ों की सूची मुखाग्र सुनानी पड़ती थी, जैसे ब्रह्मदेव के मुँह चार, दिशा चार, वेद चार, पुरुषार्थ चार, आश्रम चार, वर्ण चार, युग चार, दशरथ के पुत्र चार आदि सारी बारहखड़ी सुनानी पड़ती। उसमें से कोई एक भी चौकड़ा वह भूल जाए और परीक्षकों के ध्यान में वह चौकड़ा आ जाए तो उस विजय से इच्छुक पंडित की सारी विद्वत्ता पानी-पानी। उसकी मशालें बुझा दी जाएँ और उसके साथ ही अजेय पत्र प्राप्त करने की उसकी महत्त्वाकांक्षा भी बुझ जाए-एक ओर ऐसे अचार और पोली पंडित, तो दूसरी ओर परीक्षा लेने की विचित्र कसौटियाँ। जैसा कि पूर्व में ही मैंने कहा, अंग्रेजी की दो कक्षाओं का अध्यायन मैंने घर पर पूरा किया था। आयु के तेरहवें वर्ष के आसपास पिताजी ने मुझे आगे की पढ़ाई करने नासिक भेजा। मेरे बड़े भैया बहुत पहले से नासिक में थे। जिस दिन मुझे अपना गाँव भगूर छोड़ना था, उस दिन मेरे बचपन के साथियों और पड़ोसियों को बुरा लगा। मैं भाग्यशाली था कि उस छोटी आयु में भी छोटे-बड़े बहुत स्त्री-पुरुष मुझे प्यार करते थे, मेरे प्रति भक्ति-भाव रखते थे। मुझे भी उनसे बिछुड़ते दु:ख हुआ था। कुछ तो मुझे छोड़ने नासिक तक आए थे।
नासिक में तब एक पाठशाला थी 'शिवाजी स्कूल'। पुणे की रानाडे आदि की मंडली ने उसकी स्थापना की थी। पुणे के न्यू इंडिया स्कूल की तरह ही यह भी राष्ट्रीय आदर्शों की पाठशाला है, यह उसके संस्थापक कहा करते थे। पुणे के न्यू इंडिया स्कूल की तरह नासिक का यह शिवाजी स्कूल है, इस बात को कुछ छात्र यूँ कहते थे कि पुणे के स्कूल के संस्थापकों जैसे ही नासिक के स्कूल के संस्थापक भी नासिक के विष्णु शास्त्री चिपळूणकर होने ही चाहिए। इस सब बातों को सुनकर मैंने उसी नई राष्ट्रीय पाठशाला में जाने का निश्चय किया। एक अन्य कारण यह था कि घर की पढ़ाई के आधार पर किसी दूसरी पाठशाला में मुझे कक्षा तीन में नहीं लिया जाता, जबकि उस राष्ट्रीय स्कूल में मेरी परीक्षा लेकर कक्षा तीन में प्रवेश दिया गया।
नासिक में मैं और मेरे बड़े भाई कानड्या मारुति मंदिर के पास रहते थे। इस मंदिर के पास लड़कों का जमघट लगा रहता था, पर वे सब मुझसे वय और कक्षा में बड़े थे। इतना ही नहीं, उनकी प्रवृत्ति और रुचियाँ भी मुझसे अलग थीं। वे वहाँ यूँ ही खड़े-खड़े बेमतलब की गपें हाँकते थे, नाटक और गाने-बजाने की बातें करते रहते थे। इसका यह अर्थ नहीं कि वे सब-के-सब बदमाश थे। वे सब सामान्य छात्र ही थे, जो कक्षा में पीछे बैठना पसंद करते हैं और उपद्रवप्रेमी होते हैं। उस श्रेणी के खेमे से मेरी प्रवृत्ति अलग थी। अध्ययन, व्यायाम, वाचन आदि में मेरा समय बँटा रहता था। शेष समय में राजनीति पर चर्चा करना मुझे अच्छा लगता था। पर उनमें मुझे ऐसा कोई दिखा नहीं। मुझे तो उन पढ़े-लिखे नागरिकों की तुलना में भगूर के वे ग्रामीण बंधु ही अधिक ज्ञानी, देशभक्त, सत्संगी और राजनीतिक चर्चा के अधिक मर्मज्ञ लगते थे। इसलिए नासिक में कई महीनों तक मेरा मन उदास रहा था। उसमें भी एक बात यह कि पिताजी से मुझे कुछ अधिक लगाव था। वे भी इसी कारण हर पखवाड़े नासिक आते थे। उनके आने की राह तकते मेरी आँखों में आँसू आ जाते थे। वे जब तक रहते, तब तक के दोनों दिन मैं खुश रहता। वे लौटते तो मेरे मन में उथल-पुथल मच जाती। पहले हम दोनों भाई घर में ही रसोई बनाते थे, पर फिर भोजनालय जाने लगे। मेरा स्वभाव बड़ा संकोची था। भोजनालयों में तो बिना माँगे कोई परोसता नहीं, इस कारण कितने ही दिन मैं अधभुखा ही रहता। गंगाराम के उस भोजनालय में हम पैसा भी अधिक देते थे। वहाँ की रोटियाँ भी मुझे अच्छी लगती थी। खूब खाने को जी करता, पर माँगने में बहुत लज्जा आती। रोटी चाहिए? जब वह चिल्लाकर पूछता तो मेरे मुँह से 'न' ही निकल जाती। परोसिया भी खुश हो जाता। वैसे भी वह मुझे सताना ही चाहता था। भोजनालय की इस दिक्कत का हल मेरे बड़े भैया ने निकाला। उन्होंने मुझे एक प्रसिद्ध हलवाई के यहाँ जलेबियों की बंधी लगवा दी। व्यायाम हो जाने के बाद मैं वहाँ जाकर जलेबियाँ खाता। पर उस समय ब्राह्मणों का इस तरह खुले में हलवाई के यहाँ कुछ खाना निंदनीय समझा जाता था। खानेवाले छिपाकर खाते थे, पर मुझे इसमें कुछ गलत नहीं लगता था। मैं सहपाठियों के बीच अपने इस कार्य का समर्थन करता था। अन्न, से जातिच्युत होनेवाले तर्क का सतत उपहास मैं तब भी करता था।
जिस शिवाजी स्कूल में मैं तीसरी कक्षा में भरती हुआ, उसी में तीन माह बाद कक्षा चार में बैठने लगा। वहाँ के शिक्षकों से मुझे बड़ा स्नेह मिला। मेरी नियमितता, बुद्धि की तीव्रता, बहुश्रुतता से वे प्रभावित थे। हाई स्कूल की प्रावीण्य सूची में मेरा नाम आने की संभावना उन्हें लगती थी। मुझे भी उस स्कूल का अभिमान हो गया था। मैंने भगूर में रची कविताएँ, लेख आदि अपने शिक्षकों को दिखाए। इसकी प्रशंसा मेरे शिक्षकों ने अपने परिचितों से सहज ही की। उस समय नासिक से 'नासिक वैभव' नामक एक समचारपत्र प्रकाशित होता था। उसके संपादक कोई श्री खरे थे, वे मुखत्यार वकील भी थे। उन्होंने भी जब सुना और देखा तो बड़ी प्रशंसा की। इस प्रोत्साहन के कारण एक लेख लिखने की इच्छा मेरे मन में उठी और मैंने एक लेख 'हिंदू संस्कृति का गौरव' या ऐसे ही किसी शीर्षक से लिखा। वह लेख देखकर वे चकित हो गए; उन्हें लगा कि वह मेरा लिखा नहीं है, पर शिक्षकों ने उसके मेरे होने की पुष्टि की। 'नासिक वैभव' के संपादक इतने प्रसन्न हो गए कि वह लेख उन्होंने संपादकीय के स्थान पर दो अंकों में छापा। लेख के वे तेजस्वी विचार उस समान्य समाचारपत्र की भाषा में अलग ही दिखाई दिए। उस भाषा-शैली और विचारों का बड़ा प्रभाव समाज पर हुआ। उस लेख की बड़ी पूछ-परख हुई और काफी बड़े लोगों को यह बात ज्ञात हुई कि इस लेख का लेखक शिवाजी स्कूल का एक छोटा छात्र है।
नासिक का एक दूसरा समाचारपत्र था 'लोक-सेवा' उसके संपादक व मालिक थे प्रसिद्ध नाटककार श्री अनंत वामन बर्वे। शिवाजी स्कूल के संचालक श्री रानडे, जोशी आदि भी पुणे के ही थे। 'लोक-सेवा' पुणे में चलते लोकमान्य तिलक के आंदोलनों का मुखपत्र जैसा ही था। नासिक के गणपति उत्सवों में राष्ट्रीयता की भावना भरने का महत्त्वपूर्ण कार्य श्री बर्वे ने किया था। शिवाजी उत्सव आदि राष्ट्रीय पक्ष के आंदोलनों के भी सूत्रधार वे ही रहते थे। राष्ट्रीय उत्सवों में राष्ट्रीय गीत भी वे गाया करते थे। मैं उन गीतों को बड़ी तल्लीनता से सुनता था। आज भी उनमें से एक-दो गीतों के चरण मैं गुनगुनाता रहता हूँ, इतने प्रभावकारी थे वे गीत।
ये सारे कार्यक्रम नासिक की नदी गोदावरी, जिसे 'गोदा गंगा' या केवल 'गंगा' ही कहा जाता था, के किनारे प्राय: संपन्न होते थे। मेरे सहपाठी गंगा के किनारे जब मटरगश्ती करते घूमते थे, तब मैं अकेला इन राष्ट्रीय कार्यक्रमों में बिन बुलाया मेहमान बनकर घुस जाता और तन्मतयता से सब सुनता, आत्मसात् करता। नासिक में आने के दस-बारह माह बाद तक मेरा ऐसा कोई मंडल नहीं बना था। मैं अकेला ही सबकुछ देखने-सुनते मन-ही-मन योजना बनाता रहता था। मेरे शिक्षकों ने श्री बर्वे से मेरा जो परिचय एक भावी कवि और लेखक के रूप में कराया था, उसका लाभ यह हुआ कि अनेक समारोहों और संस्थाओं में मेरा प्रवेश सुलभ हो गया।
पहला व्याख्यान
नासिक में प्रतिवर्ष आयोजित होनेवाली वाद-विवाद प्रतियोगिता में मुझे भी भाग लेना चाहिए, यह बात श्री बर्वे ने कही। श्री बर्वे के कहने पर मेरा आवेदन विलंब होते हुए भी स्वीकार कर लिया गया। मैंने अपना भाषण लिखकर अपने शिक्षकों को दिखाया। आवेदन के तीसरे दिन ही कार्यक्रम था। इस तरह के आयोजनों में छात्रों के विषय प्राय: निश्चित ही रहते हैं और यदि एक ही विषय पर बोलनेवालों की संख्या अधिक हुई तो पहले दो-तीन प्रतियोगियों के भाषण हो जाने के बाद श्रोताओं के लिए वह चर्वित-चव्रण लगने लगता है। मेरा आवेदन सबसे अंत में दिया गया था। अत: मेरा क्रम सबसे अंत में ही था। सारा कुछ पहले ही सुन चुके और घर जाने की मन:स्थिति बनाए श्रोताओं के सामने मुझे अपना कौशल दिखाना था। पहले के दस-पाँच वाक्यों ने ही श्रोताओं को बाँध लिया। मेरा भाषण उत्तम रहा। सभी ओर से उसकी प्रशंसा की जाने लगी। परीक्षकों ने निर्णय भी तत्काल ही सुनाया और मैं प्रथम घोषित किया गया । निर्णय सुनाने के पहले परीक्षकों में कुछ कानाफूसी हुई। श्री बर्वे ने यह बात भी सबके सामने प्रकट कर दी कि जो भाषण मैंने दिया था, उसका मूल पाठ मुझ जैसे कुमार वय के लड़के का नहीं हो सकता, ऐसा परीक्षकों को लगा था। मूल पाठ को एक तरफ रखकर भी सोचें तो भाषण उत्तम ही रहा। फिर भी वह एक प्रश्न था, जिसका निवारण शिक्षकों ने तथा श्री बर्वे ने किया। उन्होंने कहा, 'हमें ज्ञात है कि कुमार सावरकर उत्कृष्ट लेख लिखते हैं और उनमें से कुछ समाचारपत्रों में प्रकाशित भी हुए हैं। कुमार सावरकर की मोहिनी छवि, अल्पवय और उस अनुपात में किसी की भी प्रशंसा प्राप्त हो, ऐसी अलंकृत भाषा शास्त्रशुद्ध निबंध-पद्धति, अस्खलित वक्तृत्व आदि का जो गुण-गौरव आपने किया है, इससे प्रोत्साहन पाकर यह कुमार भविष्य में अधिकाधिक यशस्वी होगा, ऐसा विश्वास किया जा सकता है।'
मैंने वक्तृत्वा-कला कैसे सीखी ?
भरी सभा में यही मेरा पहला भाषण था। जब मैं छोटा था, तभी मेरी भाषण-प्रवृत्ति के पौधे में पहले चुल्लू भर पानी डालने की दया नासिक की उपरोक्त् प्रतियोगिता ने की। अब अनेक विद्वान्, संपादक आदि मुझसे बार-बार कहते हैं कि मैंने यह वक्तृत्व-कला किस तरह सीखी, इस विषय पर मैं एक लेख लिखूँ।
मेरे प्रथम सार्वजनिक भाषण के पूर्व अर्थात् वय के चौदहवें वर्ष के भी पहले भाषण-कला सीखने में मुझे किन-किन साधनों से सहायता मिली, वही संक्षिप्त में लिख डालूँ तो अधिक कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं रहेगी, क्योंकि मेरा ज्ञानार्जन और कार्य-क्षेत्र जैसे-जैसे व्यापक होता गया, वैसे-वैसे वे साधन भी विस्तृत होते गए। उनका विस्तार तो हुआ, पर प्रकार बहुधा वही रहा।
वय के बारहवें-तेरहवें वर्ष में ही मैंने वक्तृत्व-कला विषय पर दो-तीन मराठी पुस्तकें पढ़ी थीं। भाषण का मूल पाठ-निबंध किस तरह लिखा जाए, इसका वर्णन उन पुस्तकों में था- विषय-प्रवेश, विषय-विवेचन, पूर्व पक्ष, उत्तर पक्ष, खंडन, मंडन, संकलन, समापन इत्यादि। इस पद्धति से मैं निबंध लिखता। इससे अलग भी जो निबंध-लेखन के प्रकार भिन्ना-भिन्न ग्रंथकारों के हैं, उनका भी प्रयोग करके देखता। पहले इसी क्रम से निबंध लिखना आवश्यक है। जैसे पहले क्रम से सात सुर जानना जरूरी है, वैसे ही यह है। गायक हो जाने के बाद जैसे उन सुरों को उलट-पलटकर रागदारी गाना सरल होता है, वैसे ही विषय-प्रस्तुति का शास्त्र एक बार आत्मसात् हो जाने पर उसमें परिवर्तन करना अच्छा रहता है। बाद की स्थिति में तो लेखक अपनी स्वतंत्र शैली भी विकसित कर लेता है, परंतु निबंध या मूल पाठ-लेखन वास्तव में किसी व्याख्यान का द्वितीय भाग होता है।
भाषण की आत्मा तो भावना होती है। विषय से स्वयं का तादात्म्य महत्त्वपूर्ण है। इसी कारण निबंध या व्याख्यान लिखने की अपेक्षा जब मैं उसे मौखिक रूप से गढ़ता चलता हूँ, तब ही मेरा भाषण सरस होता है, क्योंकि जैसे-जैसे भावना चेतती है, वैसे-वैसे भाषा, गति, आवेश, मुद्राविकार और अभिनय यथावत् सहज प्रकट होने लगता है। परंतु यह तन्मयता जिस भाषा से यथावत् प्रकट होनी है, उस भाषा पर अधिकार होना चाहिए। उस भाषा पर अधिकार होना चाहिए। उस भाषा के शब्द, अलंकार, वचन आदि सब भावना के पीछे-पीछे-अश्व के पीछे चलनेवाले पहिए की तरह सत्वर, सलिल और सहज दौड़ने चाहिए। मैंने बचपन से अनेक कविताएँ, सुभाषित आदि कंठस्थ किए थे। जिस ग्रंथ से मिले, उससे उत्तम-उत्तम वाक्य, वाक्य-समूह मिलते ही लिख लिये थे और अपने निबंधों में उनका यथोचित उपयोग करने का प्रयास मैं करता रहता था। विशेषत: गद्य लिखने समय गद्य को न तोड़ते हुए उसी के प्रवाह में कविताओं के उद्धरणों का अंतर्भाव करने की रुचि मुझमें अधिक ही थी।
भावना, भाषा-शैली, अभिनय-गति आदि से भाषण खिल जाता है, यह बात सत्य होते हुए भी उसे वास्तव में परिणामकारी, प्रबल और दुर्जेय करना हो तो मुख्यत: उस विषय का ज्ञान होते हुए भी अन्य अनेक विषयों की जानकारी का बड़ा संग्रह पास में रहना चाहिए। मैं सोचता हूँ कि मेरे भाषण का जो अमोघ परिणाम लोगों पर होता था, उसका कारण उस प्रसंग, आयु और विषय की तुलना में सहायक मेरे ज्ञान का बड़ा भंडार ही था। लिखने बैठता, तब 'क्या लिखूँ' की चिंता में कलम का अंतिम सिरा मुँह में डालकर चूसते रहनेवाली स्थिति मेरी कभी नहीं होती थी, उलटा यह होता कि कलम की नोक पर विषय जमघट और धक्का -मुक्की करने लगते थे। उनमें से किसे आगे बढ़ने दूँ और किसे पीछे रहने दूँ, ऐसे चौकीदार की भूमिका ही मुझे करनी पड़ती थी। इन सबका कारण बचपन से विविध विषयों का अथक वाचन, चिंतन और निरीक्षण था।
सारांश यह कि मेरी भाषण-कला की प्रतिभा का तेजस्वी आधार प्रकृतिप्रदत्त ही था। प्रकृतिप्रदत्त प्रतिभा भी अधिकतर प्रयासपूर्वक विकसित होती हैं और इस दिशा में मैंने अध्ययन, वाचन, चिंतन आदि प्रयत्नाधीन गुणों का संग्रह नित्य ही किया। इसलिए मेरे भाषण में जो ठोस, प्रबल और अजेय परिणाम दिखता है, वह उसी का प्रतिफल है।
संक्षेप में यह कि भाषण-कला के लिए कुछ आवश्यक घटक यद्यपि मुझमें प्रकृतिप्रदत्त ही थे, फिर भी उनका विकास कर, उसे परिशोधित कर, उसे कला का लालित्य प्राप्त कराने के लिए मैंने पूरे प्रयास भी किए। यह बात सच है कि ज्ञान-साधना मैंने ज्ञान-प्राप्ति के लिए मैंने पूरे प्रयास भी किए। यह बात सच है कि ज्ञान-साधना मैंने ज्ञान-प्राप्ति के लिए ही की थी। व्याख्यानों में जो उसका उपयोग हुआ, वह दूसरा लाभ था। यहाँ यह भी कहना प्रासंगिक होगा कि जैसे काव्य-कला सिखानेवाला बचपन में कोई नहीं मिला था, वैसे ही भाषण-कला का मार्ग प्रदर्शन करानेवाला भी कोई नहीं मिला। इतना ही नहीं, इन दोनों में सहानुभूति से प्रोत्साहन देनेवाला भी कोई नहीं मिला। इसके विपरीत मेरे समवयस्कों ने अपने अरसिक अज्ञान के कारण और समकालीन प्रौढ़ों ने मत्सर भावना से मेरा मनोभंग तथा तेजोभंग करते रहने का ही प्रयास किया। परंतु इस संघर्ष से सुप्त अग्नि की चिनगारियाँ अधिक तेजी से उड़ने लगीं। किशोर वय के बाद भी भाषण-कला की अभिरुचि के कारण मैं डिमास्थेनीस, सिसरो, शेरिडन आदि अंग्रेजी मराठी चरित्रों का और लेखों का अध्ययन करता रहा। कई उद्धरण निकालकर कंठस्थ किए। मैकाले द्वारा लिखित अंग्रेजों के इतिहास की कई व्याख्यान-उपयोगी कंडिकाएँ मैंने बड़े चाव से कंठस्थ की थीं। महाभारत के श्रीकृष्ण के सभापर्व और कर्णपर्व में दिए अमोघ ओजस्वी भाषण मैंने गद्य और पद्य-दोनों में बार-बार पढ़े। मैं स्वयं को ही वे सब सुनाता। मुझे वे बहुत प्रिय थे। उन संभाषणों का हर गुण-उसमें वर्णित कोटिक्रम, तर्क-वितर्क, वह अधिकार, वह भाषा, वह तेज, वह प्रभाव, वह प्रकाश मुझे प्रभावित करता। निस्संदेह श्रीकृष्ण जैसा वाङ्मयी तो केवल श्रीकृष्ण ही था।
मेरे उपर्युक्त प्रथम सार्वजनिक भाषण को अर्थात मेरे वय के संदर्भ में जिन्होंने उसे बहुत सराहा, उनमें नासिक के एक आशु कवि, तिलक महाराज के अनन्य भक्त, वहाँ के नेता और वकील बलवंत खंडूजी पारख थे। इस भाषण के कारण उनसे मेरा परिचय हुआ। वे मेरे पिताजी के भी परिचित थे। उत: 'मैं भगूर के सावरकर का पुत्र हूँ' यह जानकर उन्होंने मुझे अतिरिक्त स्नेह दिया। रास्ते में मिल जाते तो मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरते। अपने साथ चल रहे किसी नेता या वकील से कहते, 'यही हमारे मित्र सावरकर का लड़का है। अच्छा, वत्स सावरकर! यह नाम सार्थक करना। जिसका कर (हाथ) गिरते राष्ट्र को सँवारे (सावर का मराठी अर्थ 'सँवारना' ही है), ऐसा सावरकर तू बन।' पारखजी शब्दों के जादूगर थे, बड़े हँसानेवाले वक्ता थे। आशु कवि भी ऐसे कि घटना घटते-घटते उसका आँखों देखा हाल छंदोबद्ध सुनाते जाते। मराठी काव्य का फटका (फटकार) रूप उनको विशेष प्रिय था। अन्य श्लोक जैसी कविताएँ भी वे करते थे।
उनके हास्यमूर्ति होने के कारण पंगतों, बैठकों, सभाओं आदि में उनकी उपस्थिति की चाह सभी को होती थी। उनकी उपस्थिति से अदम्य हास्य का झरना मानो बहता रहता था।
जब मैं नासिक आया तो मुझे अपनी राजनीतिक बौद्धिक प्रवृत्ति का कोई साथी नहीं मिला था। अत: मुझे अकेलेपन की भावना बहुत सताती थी, पर कुछ समय ऐसे निकल जाने के सात-आठ माह बाद ही मैं नासिक के प्रथम श्रेणी के नागरिकों तक से परिचित हो गया। इस कारण मुझे पहले जिनके बीच रहना पड़ा था, उन अज्ञ, अनाड़ी और ऊधमी लड़कों पर भी मेरा दबदबा बन गया। उनमें भी मेरी संगति से मेरी ही प्रवृतियाँ धीरे-धीरे विकसित होने लगीं और एक संप्रदाय का बीज अंकुरित होने लगा। इसी समय घर बदलकर तिलभांडेश्वर की गली में वर्तक के मकान के एक कमरे में हम रहने लगे। भोजनालय चालू ही था। इस स्थान पर जिन लोगों से मेरा सरोकार हुआ, वे उस पहले स्थान से अधिक अच्छे स्वभाव, योग्यता और प्रवृत्तिवाले थे। मेरे चरित्र-प्रवाह के कितने ही महत्त्वपूर्ण प्रसंगों और काल से इसी मंडली का बार-बार संबंध आनेवाला है। इसलिए उनके स्वभाव, चरित्र आदि का वर्णन यहाँ नहीं कर रहा हूँ।
प्लेग का प्रकोप
भगूर जाना-आना होता ही रहता था। मुझे चेचक निकल आई तो मैं बहुत दिनों भगूर में ही रहा। बंबई और पुणे में प्लेग का जो दु:खद प्रकोप हुआ, ये वही दिन थे। प्लेग के भयानक स्वरूप और उससे भी अधिक भयानक प्लेग निवारणार्थ सरकारी दमनशाही के वर्णन लोगों को 'केसरी' में पढ़ने के लिए मिलते थे। मेरे पिताजी मुझसे 'केसरी' का वाचन करवाते थे। उसे सुनने गाँव के बहुत सारे लोग हमारी बैठक में आते थे। जिसे आज प्लेग लगा, वह कल चला गया। घर में एक आदमी को प्लेग होते ही देखते-देखते सारा घर मानो अग्नि की भेंट चढ़ जाता। घर में पाँच-छह लाशें बिछ जाएँ तो कौन किसको उठाए। बाड़े, गली-मोहल्ले, सब जगह कराहने की आवाजें, भागमभाग, रोना-धोना। जो आज दूसरों की लाश उठाते, वे ही दूसरे दिन प्लेग-पीड़ित हो जाते और तीसरे दिन उनका शव कोई तीसरा ढोता। ऐसे में कौन किसका शव उठाए? बच्चे माँ-बाप के शव बिना उठाए भाग जाते। वैसे ही बच्चों के शवों को छोड़कर माँ-बाप भाग जाते। घर में शव है, यह जानते ही सरकारी सिपाही घर में घुस आते। घर शुद्ध करने के बहाने उसे नष्ट करते, लूटते। बचे हुए लोगों को सेग्रेशन-शिबिरों में कैद रखा जाता, पर वहाँ भी प्लेग पीछा नहीं छोड़ता, पहुँच ही जाता। घर-द्वार, गली-मोहल्ले में फैले दैवी प्लेग के साथ फैले राजनीतिक प्लेग के भयंकर वर्णन पढ़-सुनकर लोगों के हृदय कंपित हो उठते।
बंबई तथा पुणे में फैले प्लेग के कहर के वर्णन पढ़-सुनकर जिनके शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते थे, हमारी बैठक में बैठनेवाले हम भगूर के लोगों में से कई उसी प्लेग के शिकार होनेवाले हैं, वह घर और गाँव भी उजाड़ हो जानेवाला है, यह तब किसे पता था। पुणे में लोग कैसे मरते हैं, यह सुनकर घबरा जानेवाला हर श्रोता-एक-दो अपवाद छोड़कर-उस प्लेग में मर गया। उस एक-दो अपवाद में एक अपवाद मैं स्वयं था। मैं कथावाचक अकेला ही उस कथा को पढ़ने-सुनानेवालों में बचा रहा।
वीर चापेकर और रानडे
बात-बात में हिंदुस्तान भर में आँधी में आग की तरह प्लेग फैल गया। प्लेग-निवारण का सरकारी डंडा भी उसी तरह उसके पीछे-पीछे चला। जगह-जगह दंगे भी हुए, परंतु प्लेग की या प्लेग-निवारक अत्याचार की आँखें न खुलीं। पुणे में तो स्थिति बहुत ही बुरी हुई। सिपाहियों की धींगामुश्ती, बूटों से ठोकर मारना, घर गिराना, जलाना, देवगृह में रखी मूर्तियाँ भी फेंक देना, मरते पति से पत्नी को और माँ से बच्चे को जबरन खींचकर सेग्रेशन के कारावास में भेज देना-इन प्लेग-निवारक टोलियों की धींगामुश्ती दैत्यों के ये अत्याचार सभी लोगों को असह्य और त्रासद लगने लगे। इसका बदला लेने के लिए सन् 1897 के जून में चापेकर बंधुओं ने रैंड और आयर्स्ट नामक दो अंग्रेज अधिकारियों का वध उनकी तेज दौड़ती बग्धी पर चढ़कर गोली मारकर कर दिया। यह वध उस रात में किया गया, जिस रात से सरकारी तौर पर महारानी विक्टोरिया का हीरक उत्सव मनाया जाना था। गोली शासन के मर्म पर लगी। साहसी विद्रोह का अंत:स्थ उद्देश्य सफल हुआ, पर सरकार पागल हो गई। विलायत तक पुणे के ब्राह्मणों का द्वेष और दहशत पहुँच गई। सरकार की रावणी गर्जनाएँ होने लगीं। पुणे के नेताओं की पीठ पर बीच चौक पर बेंत मारने होंगे, ऐसी बातें कही जाने लगीं। उसे उतना ही निडर प्रत्युत्तर 'केसरी' ने दिया। उसने अपने संपादकीय में पूछा - 'सरकार का दिमाग तो ठिकाने पर है?' तिलक पकड़े गए। पुणे के दूसरे प्रमुख नेता नातू को सीमा-पार का दंड सुनाकर कारावास में रखा गया। राष्ट्रीय विचारों के अन्य पत्रों के संपादक भी बंद कर दिए गए।
दामोदर पंत और बालकृष्ण पंत चापेकर पकड़े गए। उनके द्वारा प्राप्त जानकारी ने तो आग में घी का काम किया। हिंदुस्तान से ब्रिटिश सत्ता का नामोनिशान मिटाने के लिए चापेकर बंधु वासुदेव बलवंत फड़के के रास्ते पर ही चलने का इरादा रखते थे। ध्येय की उतनी स्पष्टता या षड्यंत्र या कार्यक्रम की व्यापकता इनके पास अभी नहीं थी, पर बंबई स्थित रानी विक्टोरिया की प्रतिमा के मुँह पर कालिख पोतने, उसे जूतों की माला पहनाने आदि राजद्रोही कार्य उन्होंने इसके पहले ही किए थे। इन सब अपराधों के लिए उन्हें फाँसी दी गई। इस समाचार से पूरा देश दु:खी था। तभी दस हजार रुपए लेकर सरकार को चापेकर बंधुओं का नाम बताने वाले द्रविड़ बंधुओं को चापेकर के तीसरे भाई वासुदेव और उसके एक मित्र रानडे ने दिनदहाड़े पुणे में मार डाला। इस समाचार से पूरा देश कंपित हो गया। उन्हें भी फाँसी पर चढ़ाया गया, परंतु चापेकर बंधुओं और रानडे को फाँसी दिए जाने के साथ ही उन प्लेग-निवारक नियमों को भी, जिनके कारण लोगों को असह्य कष्ट हुए और जिसका बदला लेने के लिए ही इन तरुणों ने वह अद्भुत भीषण कर्म किया, फाँसी पर चढ़ा दिया गया। वे सारे सिवाही भी पुणे से हटा लिये गए। वह कष्टकारी दमनशाही बंद हुई। यदि उपर्युक्त भीषण प्रतिक्रिया के पहले ही वह बंद कर दी जाती, तो? परंतु नहीं की गई। प्रतिक्रिया के बाद ही वह अप्रिय क्रिया हुई। ऐसा ही संयोग बना!
उपर्युक्त अति अद्भुत लोमहर्षक घटनाएँ लगातार और इतनी द्रुत गति से घटित हुई कि मृत शरीर में भी उनके धक्कों से रक्त-संचार की गति तीव्र हो गई होगी। सारा देश अत्याचार से क्रुद्ध हो गया। फिर स्वदेश को स्वतंत्र करने के लिए मुझ जैसे पहले से बेचैन और शिवाजी तथा अन्य पौराणिक वीरों के रंग में रँगे युवक की तो बात ही क्या की जाए?
उपरोक्त घटनाओं का वर्णन मैंने जिन शब्दों में किया है, वास्तव में ये शब्द उन भावों के शतांश भी नहीं है जो उक्त घटनाक्रम को पढ़ते हुए मेरे मन में उठते रहे थे।
चापेकर-रानडे का मुकदमा, दंड, फाँसी आदि के वर्णन पढ़ते-पढ़ते समाचारपत्र के अंक मेरी आँखों से झरते आँसुओं से भीग जाते। अन्य, कई लोग उनके साहस की प्रशंसा तो करते, पर उनका नाम लेना तो दूर, उन नामों को सुनते हुए भी थरथराते थे। समाचारपत्रों में भी उनके लिए गालियाँ ही लिखी होतीं। उन्हें वे 'देशद्रोही', 'कुल-कलंक' और न जाने क्या-क्या कहते! मैं इससे बहुत उदास और संतप्त हो जाता। मैं खुले रूप से उनका समर्थन करता और उन्हें 'वीर'(शहीद) कहता (तब तक 'हुतात्मा', 'देशवीर' आदि शब्द प्रचलित नहीं थे)। मुझे स्व भाषा की यह कमी बड़ी खलती थी। मैंने उसके लिए अनेक शब्दों की खोज की, परंतु बात बनती नहीं थी। जब मैजिनी के चरित्र का अनुवाद मराठी में किया, तब मैंने नेशनल 'मारटायर' के अर्थ में 'देशवीर' शब्द निश्चित किया। परंतु यह शब्द 'मारटायर' जैसा व्यापक नहीं था। इसलिए मैं बदल-बदलकर धर्मवीर, देशवीर, शास्त्रवीर आदि शब्दों का प्रयोग करता था। उत्तर भारत में प्रचलित 'शहीद' शब्द का भी प्रयोग मैंने किया था, परंतु वह शब्द अरबी भाषा का है, ऐसा ज्ञान होते ही उसका प्रयोग छोड़ दिया। अंदमान के कारागृह में अपने भाई से चर्चा करते समय मुझे 'हुतात्मा' शब्द सूझा और निश्चित ही वह 'मारटायर' शब्द से अधिक उपयुक्त, व्यापक और पवित्रतासूचक होने के कारण मुझे पसंद आ गया और मैंने उसे प्रचलित भी किया।
'केसरी' में उन्हें 'पागल', 'सिरफिरे' कहा जाता - उसे पढ़कर मन कड़वाहट से भर जाता। सामान्य लोगों में 'केसरी' के शब्द ज्यों-के-त्यों, बिना उनके अर्थ पर ध्यान दिए रूढ़ हो जाते थे। इसलिए मैं इन शब्दों का तीव्र विरोध करता था। मैं कहता-वे सिरफिरे, तो तुम मुर्दा। सिरफिरों से ही शत्रु अधिक डरता है। दंडसंहिता के भय से ही उन्हें 'सिरफिरे' कहने की आवश्यकता नहीं थी। दंड के भय से उन्हें 'अच्छे' मत कहो, पर गाली-गलौज क्यों करते हो? लोग अपनी कायरता ढकने के लिए उन्हें 'पागल' या 'सिरफिरे' कहते हैं, जबकि ऐसे ही कृत्य करनेवाले अंग्रेजों, रूसियों, आइरिशों को यही समाचारपत्र और यही लोग 'वीर', 'शहीद', आदि कहकर उनका सम्मान करते थे। ऐसा करने में उन्हें इंडियन पैनल कोड का डर नहीं लगता था।
इसी समय नाटकों में जाने के लिए घर से भागे पुणे के कुछ लड़के एक दिन हमारे घर में घुस गए। गणपति उत्सव में गाए जानेवाले कुछ वीर रसपूर्ण गीत मैंने पहली बार उनसे सुने। चूँकि वे पुणे के थे, इसलिए मैं और भगूर के मेरे मित्र उनसे चापेकर बंधुओं के बारे में अधिकाधिक पूछताछ करते और समचारपत्रों द्वारा उनको गालियाँ देने की बातों पर लोगों को धिक्कारते, पर उनमें से दो प्रमुख लड़कों लवाटे और अण्णा ने एक दिन बड़े गोपनीय ढंग से हमें बताया कि यद्यपि तिलकजी 'केसरी' में चापेकर को गालियाँ देते हैं, पर असली बात यह है कि तिलकजी ने ही उन्हें रैंड का खून करने का आदेश दिया था। मुझे मेरे पिता ने यह बात कह रखी थी कि पुणे के लोग बेढंगी गापें हाँकने में प्रवीण होते हैं। वे बात को इस ढंग से कह रहे थे, मानो उस सारे षड्यंत्र के बहुत निकट हों। फिर भी वह समाचार मुझे अच्छा लगा। मैंने मन-ही-मन कहा- ऐसा है तो तिलक जैसे वीर केसरी ने वीर केसरी के अनुरूप ही यह कार्य किया है, पर तुरंत ही लगा, यदि ऐसा है तो 'केसरी' तथा अन्य पत्रों द्वारा चापेकर आदि को 'सिरफिरे' आदि कहना और अधिक अक्षम्य तथा निंदास्पद है। राष्ट्र-कार्य के लिए चापेकर से अपना संबंध अस्वीकार करना, यह युक्तितिलक जैसे नेता को, वीर सेनापति को, बचाने के लिए प्रयोग करने की छूट हो सकती है। पर यह महान् कार्य है, ऐसा कहकर उस महान् कार्य को करने के लिए पहले स्वयं युवा क्रांतिकारियों को उत्प्रेरित करना और उन वीरों द्वारा उसे कर डालने के बाद अपनी चमड़ी बचाने के लिए टोपी बदलकर उसी कृत्य के लिए उन्हें 'सिरफिरे', 'पागल' कहना, इससे अधिक लज्जा स्पद तथा राष्ट्रद्रोही मूर्खता दूसरी और क्या हो सकती है; क्योंकि उन्हें 'सिरफिरा', 'पागल' कहने के बाद दूसरा कोई भी युवा ऐसा करने को मूर्खतापूर्ण मानकर डरेगा और वकील, न्यायमूर्ति, हाइकोर्ट का जज आदि बनना ही उसे देशभक्ति का मृतप्राय, परंतु बड़ा सभ्य और उचित मार्ग लगेगा तथा शत्रुजयी बलिदान का जीवंत मार्ग पागलपन लगेगा। परिणामत: चापेकर के तेज से चेतना पा रही शत्रुजय वीरवृत्ति फिर से ठंडी होकर रह जाएगी।
और यह अंतिम विचार ही मुझे बेचैन करने लगा। चापेकर और रानडे अपने देश पर होते अत्याचार का बदला लेते हुए फाँसी पर चढ़ गए। जाते-जाते यदि अपनी प्राण-ज्योति ये प्रज्वलित शत्रुजयवृत्ति के यज्ञ-कुंड में एक के बाद एक समिधा डालते हुए उसे ऐसे ही प्रज्वलित रखना और अंत में स्वतंत्रता के एक महायुद्ध में परिवर्तित करना हो तो यह दायित्व मेरी सीमा तक मुझ पर भी क्यों नहीं हैं? चापेकर का कार्य कोई एक तो आगे बढ़ाए-यदि ऐसा है तो फिर वह मैं क्यों न करूँ, मैं भी उस होमकुंड की समिधा क्यों न बनूँ?
स्वतंत्रता-संग्राम की शपथ
वासुदेव चापेकर और रानडे फाँसी पर चढ़े-अर्थात एक नाटक का अंतिम दृश्य संपन्न हुआ। यह समाचार मैंने समाचारपत्र में पढ़ा। वे फाँसी के पहले, रात्रि में बड़े सुख से सोए। भोर में उठे, गीता-पाठ किया और 'नैनं छिंदति शस्त्राणि' की गर्जना करते-करते एक-दूसरे के गले मिले और फाँसी पर चढ़ गए। यह सारा वर्णन जब पढ़ा, तब से कुछ दिनों तक उपर्युक्त सारे प्रश्न रात को नींद में भी मुझसे उत्तर चाहते हुए मुझे सताते रहे। दो-चार दिन इसी अवस्था में बीत जाने के बाद अंत में मैं अपने बचपन के आधार, संकट में समाधान करनेवाली देवी माता, जिससे मैं अपने सुख-दु:ख कहता था और जिसे सुनाने के पश्चापत मुझे सदैव एक बोझा उतर जाने जैसी अनुभूति होती थी, की और दौड़ा। पूजाघर में गया। बड़े भक्ति-भाव से उसकी पूजा की। स्वदेश की दु:स्थिति से बेचैन अपने मन की सारी व्यथा उसे सुनाई और उसके चरणों पर हाथ रखकर उसे साक्षी मान और उन दिनों जैसा आभास मुझे होता था, तदनुरूप उसकी अनुमति लेकर मैंने प्रतिज्ञा की कि अपने देश की स्वतंत्रता के लिए मैं सशस्त्र युद्ध में चापेकर की तरह ही मर जाऊँगा या शिवाजी जैसा विजयी होकर अपनी मातृभूमि के सिर पर स्वराज का राज्याभिषेक करवाऊँगा!
हमारे नए घर के छोटे, परंतु सुंदर देवगृह में सुगंधित फूलों का परिमल भरा हुआ है, घी का दीप नीरांजन में मंद-मंद जल रहा है। धूपबत्तियों व मादक-सर्पाकृति धुआँ, कुसुमों के कोमल परिमल में गुँथा जा रहा है। महिषासुर पर पाद-प्रहार करने वाली, सिंहासनारूढ़, अष्टभुजा, जिसके आठों हाथों में नंगे शस्त्र हैं, उग्र परंतु मेरी ओर सुहास्य मुख से देखती हुई वह सुंदर देवी-मूर्ति देवगृह में विराजमान है- उसके सामने उस पुण्यमय वातावरण में मैंने प्रतिज्ञा की-मैं अपने देश की स्व तंत्रता वापस प्राप्तव करने के लिए सशस्त्रध क्रांति की पताका खड़ी कर-मारते-मारतेमर जाने तक लडूँगा।
उस छोटे से देवगृह में अपने पंद्रह वर्ष के वय में मैंने देवी के चरणों को अपने हाथों से बड़े समर्पण भाव से स्पनर्श करते हुए यह प्रतिज्ञा की। वह जो छोटी चिनगारी उड़ी-आगे भविष्य में उसकी कितनी प्रदीप्ति होनेवाली थी! कितना रक्तपात, घात-प्रत्याघात, वध, फाँसी, वनवास, अत्याचार, यश और अपयश, दौरात्म्य और हौतात्म्य, प्रकाश और अंधकार, अग्नि और धुएँ के बादल-ऐसा जो कुछ होनेवाला था, उसका अति सूक्ष्म रूप उस संकल्प (प्रतिज्ञा) की चिनगारी में छिपा हुआ था। एक भयंकर तूफान उस प्रथम चिनगारी में समाया हुआ था। अब भूतकाल की दूरबीन से अपने जवीन की घटनाओं पर नजर डालना हूँ तो स्पष्ट दिखता है कि पूरे हिंदुस्तान में जिसका डंका बजा, उस 'अभिनव भारत' की क्रांतिकारी संस्था का उदय उसी संकल्प में से हुआ। यह मेरी प्रतिज्ञा ही 'अभिनव भारत' का मूल थी -यही बीज था। वह सन् 1898 का वर्ष था।
परंतु उस समय उस व्यापक भविष्य की कल्पना किसे हो सकती थी? फिर भी अपना जीवन बदल डालने वाली कोई महत्त्वपूर्ण बात मैंने अपनी सीमा तक ही की है - इसका एक दृढ़ संस्कार जो उस दिन जाग्रत हुआ, वह कभी भी मंद नहीं पड़ा। वह दिन, वह घटना, लिखकर दिए हुए किसी ऋण-पत्र की तरह मेरे मन में नित्य अनुभूत होते रहे हैं।
स्वयं द्वारा रचे जा रहे पूर्वोल्लिखित ग्रंथ 'देवीदास विजय' में मैंने यह घटना छंदोबद्ध लिखी। मेरे उस निश्चय को बल प्राप्त हो, इसके लिए बहुत आर्तता से देवी की विनती भी मैंने की। परंतु अपने मन में प्रज्वलित हुई वह चिनगारी मैंने जैसे ही उन कागजों पर उतारी, मेरा बचपन का वह खिलौना जलकर भस्म हो गया, क्योंकि छह-सात वर्ष बाद ही क्रांतिकारी षड्यंत्र के आरोपों के अधीन सरकारी कोप की बिजली जब हमारे तरुण मंडल पर गिरी, तब मेरे मित्रों को वे सारे साक्ष्य जलाकर राख करने पड़े, जो घर की तलाशी में प्राप्त होने पर उल्लिखित क्रांति की प्रतिज्ञा में षड्यंत्र का पक्का साक्ष्य बन सकते थे।
भगूर में क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करने के लिए तथा लोकमान्य तिलक और चापेकर-रानडे का खुला सम्मान करने के लिए मैंने तत्काल एक एकांकी लिखा। नाटक लिखने का यह मेरा प्रथम प्रयास था। हमारे गाँव के राणू दरजी आदि की नौटंकीवालों ने उस एकांकी को मंच पर लाने की तैयारी शुरू कर दी थी। तभी कुलकर्णी पटेल ने उनके कान फूँक दिए। फलत: उस एकांकी की इतिश्री हो गई।
उस समय मैं एक काव्य भी लिख रहा था। उसका भाग्य अवश्य दूर तक फैलने का और बहुत सफलता पाने का था। वह काव्य था - चापेकर का फटका। वह फटका कम-से-कम सन् 1910 तक तरुणों के रक्त को गरमाते हुए और चापेकर की स्मृति जाग्रत रखते हुए, गुप्त और प्रकट, महाराष्ट्र भर में गाया जाता रहा। मेरे दो सहकारी श्री म्हसकर और श्री पागे उसको छपवाना चाहते थे। उन्होंने उसके लिए बहुत प्रयास किए। उसे छापने योग्य बनाने के लिए उसकी ज्वलनशील भाषा बहुत सौम्य और द्विअर्थी अर्थात् एकाएक क्रांतिकारी न लगनेवाली, परंतु क्रांति की विरोधी भी नहीं, ऐसी बनाई गई- फिर भी उसे छापने का साहस कोई नहीं कर सका, क्योंकि उस समय चापेकर का नाम ही किसी क्रांति के समान सरकार और जनता को भयावह लगता था, राजद्रोही समझा जाता था। फिर भी घर-घर में, पाठशाला-विद्यालयों में, बैठकों में, उपहारगृहों में, सभाओं में वह चापेकर का फटका तरुण, प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों में बहुत प्रिय था। जब कभी मैं स्वयं ही उसे गाकर सनाता, तब मेरी वृत्ति इतनी उच्च हो जाती कि मेरे बाहु कंपित होने लगते। मेरा और सुनने वालों का कंठ भर आता। आवेश और शोक की भावना में देह का मान क्षण भर को बिसर जाता।
इस समय मेरे विचारों का यह क्रांतिकारी रुझान देखकर और मेरे कदम उस ओर बढ़ते देखकर मेरे पिता को एक अलग ही चिंता सताने लगी। सच तो यह है कि उन्होंने ही मुझमें बचपन से देशप्रेम, काव्य, इतिहास और लोकमान्य तिलक की राजनीति में रुचि जगाई थी। मेरे इन गुणों को वे परिपुष्ट करना चाहते थे और मन-ही-मन मेरे कर्तृत्व का अभिमान भी रखते थे। परंतु लोकमान्य तिलक की राजनीति के भी आगे कदम बढ़ाने की प्रवृत्ति मेरी होने लगी - मैं अल्पावय में ही अंग्रेजों को मारने और विद्रोह करने की बातें बोलने लगा - रात-रात भर एकांत में जागने लगा और मेरी मुद्रा पर एक अकालिक चिंता तथा गंभीरता दिखने लगी, तब वे कुछ भयग्रस्त हो गए-मेरे जीवन को यह भयंकर दिशा प्राप्त हो जाने से मेरे प्राण-संकट के भय से वे बेचैन हो गए। एक दिन वे आधी रात में सहज भाव से बँगले में आए। मैं कोई कविता गुनगुना रहा हूँ और उसमें पूरा खो गया हूँ- गाल पर आँसू की बूँदें हैं, नेत्र किसी अदृश्य चित्र की ओर टकटकी लगाए हुए हैं, ऐसा दृश्य उन्होंने देखा। उन्होंने धीरे से मेरा स्पर्श किया और 'क्या है रे?' कहकर मेरे सामने का कागज उठाया। चापेकर पर रजित पोवाड़ा-उसके कुछ चरण उन्होंने देखे, पढ़े-मुझे बड़ी ही शाबाशी दी। फिर मेरा मुँह अपनी दोनों हथेलियों में संपूर्ण वात्सल्य से लेते हुए वे बोले, 'तात्या़, अभी तू कच्ची-कोमल आयु का है रे-तेरी देह भी सुकुमार है- ये विचार और मार्ग भयंकर तथा कठोर है! मस्तिष्क में अतिशय तनाव पैदा करनेवाले इस विषय की ओर मत बढ़। अपने परिवार की आशा का एकमेव केंद्र तू ही है। मेरी द्वारका का सहारा तू ही एक स्तंभ है। इस घर का उद्धार भी करेगा तो तू ही। इसलिए अपने प्राण संकट में मत डाल। तुझे इस मार्ग के भयंकर परिणामों की कल्पना नहीं है। कविता करना चालू रख, पढ़-लिखकर बड़ा बन, फिर जो मन में आए, वह कर।' मैं सुनता हुआ चुप बैठा रहा, पर मन-ही-मन कहा- 'चापेकर के परिणाम से और भयंकर क्या होगा? वह भोगने के लिए हम तैयार ही है।'
उसके बाद से 'गरमी लगती है' यह कहते हुए मैं बँगले में झूले पर अकेला सोने लगा। जब सब सो जाते, तब उठकर कविता करता। दिन में जैसे उस विषय को भूल ही गया हूँ, मैं अन्य वाचन, लेखन-चर्चा किया करता। कभी-कभी इसी स्थान पर सोते हुए कविता के कुछ चरण जुड़ जाते। सुबह उठते ही मैं उन्हें कंठस्थ कर लेता।
पुणे में प्रवेश
संयोग ही रहा कि इसी वर्ष के आगे-पीछे मैंने पहली बार पुणे देखा। मेरी भाभी के एक भाई का विवाह कर्जत में था। मैं और बाबा-दोनों इस विवाह के लिए कर्जत गए थे, पर किसी कारणवश यह विवाह आठ दिन के लिए स्थगित हो गया। इसका लाभ उठाकर हम दोनों भाई पुणे देखने पहुँचे। मेरे भावी ससुर श्री भाऊसाहब चिपळूणकर के परिवार से हमारा घनिष्ठ परिचय पहले से ही था। अत: हम जव्हार के बाड़े में पहुँचे थे। हमारे साथ आए लोगों में से किसी की नजर कहीं तो किसी की कहीं थी, पर मेरा सारा ध्यान शनिवार बाड़ा की ओर ही लगा था। मराठा बखरों (ऐतिहासिक अभिलेखों) का जो अध्ययन मैंने किया था, उसके कारण पुणे को देखे बिना भी वह मेरे परिचय का था। मैंने न जाने कितनी रातें मन-ही-मन पुणे में बिताई थीं। शाइस्ता खान जिस बाड़े में ठहरा था, वह बाड़ा; जिस रसोईघर के रास्ते उस खान पर हमला करने वह सिंहगढ़ का सिंह घुसा था, वह रसोईघर; पार्वती नामक टेकरी पर नाना साहब पेशवा चिंतित होकर बैठे थे, वह स्थान; सवाई माधवराव का सारा रंग जिन रास्तों से होकर बह गया, वे रास्ते; वह दुर्दैवी फव्वारा, जिसपर कूदकर सवाई माधवराव घायल हुआ था, वह नाना फड़नवीस का बाड़ा, वह दिंडी (दरवाजा) जिसमें से जल्दबाजी में निकलते हुए (माधवराव के घायल हो जाने का समाचार सुनकर) नाना फड़नवीस गिरे थे। एक-दो नहीं, पुणे के हजारों स्थान देखने की मेरी इच्छा थी, पर मेरे साथ के सब बड़े लोग इस संबंध में पूरे उदासीन थे। उन्हें पुणे में केवल ताबूत देखने थे। मुझे छोटा समझकर कहीं जाने भी नहीं देते थे। मुझे स्वयं भी रास्ते में खो जाने का डर लगता था। फिर भी शनिवार बाड़ा और पार्वती देखी। मैं इन दोनों स्थानों से हटना ही नहीं चाहता था-उन स्थानों का माहात्म्य कहना चाहता था, पर सुनने को कोई राजी ही नहीं था। सब लोग 'चलो-चलो' करनेवाले थे। पेशवाई के संबंध में रुचि की यह दशा, तो आजकल के वासुदेव बलवंत-चापेकर-रानडे के विषय में क्या कहा जाए? वहाँ मुझे सिवाय दो-तीन गप्पी लोगों के, कोई न मिला। मुझे लगता था कि पुणे में पैर रखते ही मुझे तिलक-चापेकर कके सिवाय कुछ और सुनाई नहीं देगा। रास्तों में इन्हीं की चर्चा सुनने को मिलेगी। देखा तो उलटा-मैं जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ हमारे यहाँ आनेवाले लोग उन दो नामों को टालकर ही-जो बोलना था-बोल रहे थे। इतना ही नहीं, चापेकर को गाली देनेवाले लोग भी पुणे में मिले! मेरी अपेक्षा से तो यह विपरीत निकला। पर पुणे देखकर मुझे जो आनंद आया, उसे कैसे कहूँ? ऐसा लगा कि सदैव शनिवार बाड़ा की ओर ही रहें।
पाँच-छह दिन बाद ही हम विवाह हेतु कर्जत वापस लौट आए। कर्जत आते ही मुझे ज्ञात हुआ कि पड़ोस के ही दहिवेली गाँव में वाद-विवाद प्रतियोगिता है। मैंने तुरंत भाषण देने की तैयारी शुरू कर दी। दो-चार दिन में मैंने निबंध लिखकर उस आधार पर समारोह में भाषण दिया। मुझे प्रथम घोषित किया गया। अध्यक्ष ने पुरस्कार बाँटते समय मुक्त कंठ से मेरे भाषण की प्रशंसा तो की, पर कहा-इस वय का प्रतियोगी ऐसा निबंध और ऐसी भाषा लिख सकेगा, ऐसा मुझे लगता नहीं। वह निबंध किसी और का लिखा हुआ है, परंतु प्रथम पुरस्कार इसी बालक को दिया जा रहा है, क्योंकि निबंध चाहे किसी ने लिखा हो, पर उत्कृष्ट भाषण इसी लड़के ने किया है। इस आयु में ऐसा भाषण निर्विवाद रूप से सराहनीय है।
उनके इस कथन से मुझे विवाद ने आ घेरा। मैंने तत्क्षण खड़ा होते हुए कहा, 'निबंध मैंने ही लिखा है और लिखते समय मुझे अनेक लोगों ने देखा है। मेरे बार-बार ऐसा कहने पर भी व्यवस्थापकगण इस निबंध को मेरा नहीं मान रहे, इस हठ के पीछे क्या है-यही कि मेरी आयु छोटी है। मेरी बात छोड़ दें, पर इसी न्याय से सोचें तो ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी ग्रंथ लिखा था, यह बात भी झूठी कही जाएगी। गुणा: पूजास्थानम् गुणिषु न च लिंगम् न च वय:।' इतना कहकर मैं बैठ गया। सभा क्षण भर के लिए अचंभित हो गई। अध्यक्ष मेरी बात से कुपित हो उठे और 'इसने छोटा मुँह बड़ी बात की है' कहकर झुँझलाने लगे, पर अन्य सदस्यों और व्यवस्थापकों ने बात सँभाल ली। सभा के प्रमुख कार्यवाह सभा समाप्त होते ही मुझसे मिले और उन्होंने मुझे अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया। वहीं उन्होंने यह भी कहा कि निबंध तुमने ही लिखा है, यह बात स्वीकार कर ली गई थी।
इस सारी घटना का मेरे जीवन की दृष्टि से कोई उल्लेखनीय महत्त्व जो हो, पर वह तो पुरस्कार था, न बहसबाजी, वरन् इस कारण मुझे पुणे से प्रकाशित होनेवाले 'काल' पत्र का परिचय प्राप्त हुआ।
'काल'पत्र का परिचय
उपरोक्त सभा में जो पुरस्कार मुझे मिला, उसमें एक व्यवस्था यह थी कि एक वर्ष तक बिना मूल्य 'काल' नामक पत्र मुझे मिलनेवाला था। यह 'काल' पत्र पुणे का गौरव था और उसके संपादक शिवराम पंत परांजपे सुप्रसिद्ध व्यक्ति थे। तब उस पत्र का प्रारंभ-काल ही था, पर न जाने क्यों या किस कारण दहिवेली की उस सभा ने वही पत्र मुझे पुरस्कार में दिया। इसका योजक कौन था, वह ज्ञात नहीं, परंतु वह दुर्लभ योजकों में से एक योजक था, इसमें कोई शंका नहीं। प्रसिद्ध पत्र 'केसरी', जिसके संबंध में लोगों को विशेष जानकारी भी नहीं थी, को छोड़कर ऐसे पत्र को चुनना और उसे पुरस्कार में देना अपने आप में विलक्षण था। अब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो उस समय न दिखाई देनेवाले संबंध और परिणाम-परंपरा दिखाई देती है। उसे देखकर यही कहना पड़ता है कि मेरे उस समय के अभीष्ट को सिद्ध होने के लिए मेरे हाथ में जो समाचारपत्र पहले आना चाहिए था, वह 'काल' ही था और 'काल' को भी उसके संदेशों को वास्तव में उतारने के लिए जो वाचक चाहिए था, वह मैं ही था। उस समय 'काल' से मेरा जो परिचय हुआ, वह आजन्म बना रहा। 'काल' के संपादक से परिचय अभी होना शेष था। परिचय के बाद मैं 'काल' का भक्त ही बन गया। 'काल' में छपे एक लेख में चापेकर और रानडे को 'मर्डरर' की जगह 'मारटायर' लिखा हुआ मैंने पढ़ा, जिससे मैं अति आनंदित हुआ। मेरे मन में खलबली मचा देनेवाली भावना को 'केसरी' से भी अधिक साहस से व्यक्त करनेवाले 'काल' के प्रति मैं कृतज्ञता से भर गया। 'काल' में छपे उपर्युक्त लेख पर 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने बड़ा कोहराम मचाया। दादाभाई नौरोजी ने भी 'काल' के संपादक मालिक को राष्ट्रीय महासभा में नहीं आने दिया। उस समय से 'काल' पत्र में प्रकाशित कोई लेख बिना पढ़े मैंने छोड़ा नहीं। कुछ लेख तो दस-दस बार पढ़े। जहाँ जाता, वहीं 'काल' पत्र की प्रशंसा करता। लोगों को 'काल' के लेख जबरन पढ़कर सुनाता। उस समय उसका विरोधी पक्ष भी बड़ा था।
कुल मिलाकर लोक-समाज डरपोक ही था! क्रांतिकारी विचार पढ़ने से भी लोग न केवल कतराते थे, अपितु यह कहना भी नहीं चाहते थे। अत: 'काल' पत्र को ही अतिरंजित, सिरफिरा, बकवासी आदि कहते थे। मैं जहाँ जाता, वहीं उसके ऊपर लगाए जानेवाले इन आरोपों के विरुद्ध लड़ पड़ता, क्योंकि उस जैसा सशस्त्र क्रांति का समर्थक और सूचक दूसरा कोई समाचारपत्र तब नहीं था। मेरे विचारों पर तो नहीं, पर मेरी भाषा, ज्ञान, संस्कृति और उत्साह पर 'काल' पत्र के अखंड परिशीलन का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। वह प्रभाव इतना बड़ा था कि मुझे अपने क्रांतिकारी जीवन की स्फूर्ति का गुरुपद यदि किसी को देना पड़े तो मैं वह 'काल' को ही दे सकता हूँ, परंतु केवल क्रांतिकारी जीवन की स्फू्र्ति का, कृति का नहीं; क्योंकि अपने क्रांतिकारी संगठन और समय में हमेशा मुझे ही अपना नेता बनना पड़ा। मुझे अपने सिवाय दूसरा कोई भी गुरु अथवा नेता उस रणक्रंदन में प्रत्यक्ष सक्रिय सहायता देनेवाला नहीं था, अधिकतर लोग मुझे नकारनेवाले ही थे। एक-दो अंदर से ठीक और समय-समय पर 'धन्य' कहनेवाले भी थे, पर मेरे ध्येय, साहस और रणक्रंदन के कदम आगे बढ़ानेवाला, उसमें मेरा नेतृत्व करनेवाला उस पीढ़ी के नेताओं में कोई नहीं था। वे सब-के-सब-बहुत पीछे खड़े रहनेवाले लोग थे। हम पिछड़ रहे हैं, ऐसा न समझते हुए वे यह समझते थे कि मैं ही भड़भड़ाहट में बहुत आगे बढ़ रहा हूँ। 'काल' से जुड़े लोगों ने ऐसी त्रुटि कभी नहीं की। उन्होंने दूसरे को कभी नहीं खींचा।
'गुरुणां गुरु:'केसरी
'काल' के विषय में यह चर्चा करते हुए भ्रम को टालने के उद्देश्य से यहाँ यह भी कहना आवश्यक है कि क्रांतिकारी नीति की बातें छोड़ दें तो 'काल' जितनी ही नहीं, उससे भी कई गुना अधिक मेरी आबाल्य भक्ति 'केसरी' पर थी। पूरे महाराष्ट्र और आंशिक रूप से हिंदुस्थान की भी राजनीतिक गढ़ाई जिस 'केसरी' ने की, उसके लेखन का कोई अंशदान मेरी गढ़ाई में नहीं हो, यह असंभव था। लोकमान्य के अति कृतज्ञ और अति निष्ठावान अनुयायियों से भी अधिक कृतज्ञ और निष्ठावान् मैं था और अंत तक बना रहा। उसका प्रत्यक्ष साक्ष्य यही है कि मैं और मेरे सहयोगियों ने लोकमान्य की सारी राजनीति और उपदेशों पर आचरण करने का प्रयास किया और उनके कार्यक्षेत्र से भी आगे प्रत्यक्ष रणक्षेत्र में उरतने की न केवल इच्छा रखी, अपितु दौड़े भी। उनके गणेश उत्सेव, शिवाजी उत्सव, राष्ट्रीय शिक्षा, बहिष्कार, सभा-परिषदों का आयोजन-इन सब आंदोलनों के विस्तार का जो संकेत होता था, वह बिना उनके द्वारा स्पष्ट किए, स्वयं ही जानकर हमने पूरा किया। इतना ही नहीं, उस सबका अपरिहार्य पर्यवसन जिसमें होता है और जो केवल लोकमान्य ही जानते थे, उस रणक्षेत्र में हम अचानक कूद पड़े-यही हमारा उनके निष्ठावान् अनुयायी होने का प्रमाण है।
उनके प्रत्यक्ष ध्येय सुराज, होमरूल, स्वराज की सीढ़ियाँ चढ़कर हम उनके मन के वास्तविक ध्येय, अर्थात् स्वतंत्रता के ध्येय की सीढ़ी चढ़ गए। वे जो कुछ मन में बोले, उसकी गर्जना हमने की। वे जहाँ ठहर जाते, हम वहीं से आगे बढ़ते। वे नेता थे, वे राष्ट्र से एक कदम आगे रहते थे, पर वे अगले कदम निर्विघ्न डाल सकें, इसलिए उनके ही आगे सौ कदम चलकर-राष्ट्र की सशस्त्र सेना का मार्ग निष्कंटक करनेवाले खुदाई और सफाई करनेवाले (सेपर्स ऐंड माइनर्स) की टोली जो करती है, वैसे प्रयास हमने किए। जहाँ उनके साधन कुंठित हो जाते, वहीं अचानक उन्हीं साधनों के लोहे को पिघलाकर हम शस्त्र बनाया करते, कुंठा को धार चढ़ाते। इसीलिए हम उनके वास्तविक निष्ठावान अनुयायी थे; क्योंकि आगे-आगे दौड़कर उनके मन का हेतु सिद्ध करने के लिए प्रयासरत रहे। वे खड्ग की मूठ थे, हम क्रांतिकारी उसका फाल थे। खड्ग की मूठ कभी फाल नहीं हो सकती, पर फाल तो मूठ के इशारे पर ही रण में नाचता है। फाल मूठ के मन को ही आकार देता है।
मेरे इन क्रांतिकारी आंदोलनों तथा मेरी परिधि में आनेवाले छोटे-बड़े लोगों के बीच किए गए प्रयासों का थोड़ा-बहुत प्रभाव मेरे बड़े भाई पर न पड़ना असंभव था। उस छोटे वय में मेरी कविता, लेख, भाषण आदि की प्रशंसा होती देखकर किसी भी भाई को इतना आनंद नहीं हुआ होगा, जितना मेरे बड़े भाई को होता था। मेरे राजनीतिक विचार उन्हें भाते थे। परंतु मुझपर इन विचारों का जैसा भूत सवार था, वैसा उस समय तक उनके ऊपर नहीं था। पिताजी ने उन्हें मुझसे पहले ही नासिक पढ़ने के लिए भेजा था। पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण होने तक वे मन लगाकर अंग्रेजी पढ़ते रहे। फिर उनका चित्त पढ़ाई से उलटा। परंतु पिताजी के आग्रह और भय के कारण सातवीं कक्षा में पहुँचे। उसी समय वे दो परस्पर विपरीत प्रवृत्तियों की खींचातानी में फँस गए। वे एक ही समय में दो तरह की संगति में रमे रहते। एक संगति साधु-वैरागियों की, तो दूसरी नाटक-मंडली की थी! एक तो भस्मह रमाए लँगोटी लगाए धर्मशाला की किसी अँधेरी गाठी में धूनी रमाए रहनेवाले। दूसरे, चेहरे को रंग-बिरंगा किए, हारमोनियम-तबले के साथ नाट्यशाला में रँगे हुए रहनेवाले। इन दोनों में यदि कोई समानता थी तो केवल बढ़े हुए बालों में। एक की मोटी जटाएँ तो दूसरे के सजे-सँवरे केश। मेरे भाई का सारा समय बिना पक्षपात के इन दोनों के लिए बँटा हुआ था। नाटक के मित्रों के कारण उनकी रातें चाय, चिवड़ा गाना-बजाना नाट्य रंग में बीततीं और दिन प्रभात-स्नान करके ग्यारह बजे तक प्राणायाम, जप-ध्या़न आदि के अभ्यास में बीतता। दोपहर बाद का समय वे गोसावी बैरागी के अड्डे पर वेदांत और भक्ति की चर्चा करने या मंत्र-तंत्र, जादू-टोने की गपें सुनने-सुनाने या उनकी सब्जी काटने, उनका मठ झाड़ने, पैर दबाने आदि सेवा करने में बिताते थे।
पुत्र नाटक-मंडली के साथ कब निकल जाएगा, इस डर से पिताजी घिरे रहते थे। पुत्र के मन का झुकाव जरूर नाटक की ओर था, परंतु उसकी आत्मा का खिंचाव नाटक तो क्या, गृहस्थी में भी नहीं था। इस प्राकृतिक संसार को अपने तुच्छ प्राण की सर्वथा भेंट देकर इस चंचलसंसार से सुदूर, सुभव्य, सुगूढ़ चिरंतन की ओर था। वैराग्य की आँधी उनमें कभी-कभी संचार करती थी। वैसी एक आँधी की कथा मैं लिख रहा हूँ जो उस अवधि में, अर्थात् सन् 1898-99 में जब मेरे भाई साहब बीस वर्ष की देहरी पर थे, बड़ी वेगवान थी। विवेकानंद अमेरिका में वेदांत की विजय-पताका फहराकर लौंटे ही थे। पूरा हिंदुस्थान उनके वेदांतिक व्याख्याननों और राजयोग, कर्मयोग आदि पुस्तकों से भरा था। वे ग्रंथ और व्याख्यान मेरे भाई साहब ने और उनके साथ मैंने भी पढ़े थे। प्रत्यक्ष निर्विकार समाधि पाद का अनुभवप्राप्त राजयोगी विवेकानंद और वह राजयोग जो भी वहाँ पहुँच जाए, उसको सिखाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध वे मायावती के आश्रम में बैठे हुए हैं, यह समाचार सुनते ही योगानंद के लिए बचपन से ही बेचैन मेरे बड़े भाई का धैर्य छूट गया। उन्होंने घर से भागकर मायावती जाने का पक्का विचार बना लिया।
अकस्मारत् 'तत्रतं बुद्धि-संयोगम् लभ्यिते पौर्वदेहिकम्' ऐसा कुछ हुआ कि वे गृहस्थी से विरागी हो गए। कौटुंबिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि ऐहिक घटाटोप उन्हें अति तुच्छ लगने लगे। यदि वे उस समय घर त्यागकर निकल जाते तो उनके पूरे जीवन को निराली दिशा ही मिलती। परंतु उनके निश्चय ओर वैराग्य धारण कर घर त्यागने के रास्ते में यदि दुर्लघ्न बाधाएँ न खड़ी होतीं और वह वैराग्योन्मुख युवक मायावती को भागने में सफल हो जाता तो उसके जीवन को एकदम अलग दिशा मिलती और तब राज्यक्रांति-आंदोलन में उसके द्वारा की गई उठापटक की कमी रह जाती। उसी अनुवात से उसकी प्रगति में लक्षणीय अंतर पड़ जाता, परंतु तभी अकस्मात् हमारे परिवार पर भी प्लेग का संकट आ पड़ा।
परिवार पर प्लेग का प्रकोप
फलस्वरूप बड़े भाई की सब योजनाएँ ताश के तंबू की तरह भरभराकर गिर गई। वह सन् 1899 का वर्ष था। नासिक में उस वर्ष प्लेग ने फिर से हाहाकार मचाया। हम दोनों भाई नासिक की जिस तिलभांडेश्वर गली में रहते थे, वहाँ हमारे पड़ोस में ही प्लेग फूट पड़ा। एक वर्ष पूर्व जब नासिक में प्लेग फैला था, तब मेरे बड़े भाई के आग्रह के कारण मेरे पिताजी ने भगूर के अपने घर में जिन्हें आश्रय दिया था, उसे ही घर में प्लेग हुआ। मेरे बड़े भैया ने इस बार प्लेग से ग्रस्त उस आदमी की सेवा-टहल अपने पुत्र जैसी की, पर वह बच नहीं सका। पास-पड़ोस में भी लोग चटपट मरने लगे। तब हमारे पिता हमें स्कूल से निकालकर भगूर वापस ले गए।
मेरी बहन जिस त्र्यंबकेश्वर नामक गाँव में ब्याही, थी, उस गाँव में भी ज्येष्ठ-आषाढ़ के मध्य प्लेस फैल जाने का समाचार आया। ये दिन आम के थे। भगूर में हमारी बड़ी प्रसिद्ध अमराइयाँ थीं। आम के दिनों में गाड़ियाँ भर-भरकर आम निकाले जाते। उन दिनों में हमारे परिवार के इष्ट मित्र, सगे-संबंधी गाँव-गाँव से आकर हमारे घर आठ-दस दिन रहते और आमों का आनंद लेकर ही जाते थे। त्र्यंबक में प्लेग फैलने का समाचार मिलते ही मेरी छोटी बहन और बहनोई भासकरराव काले को प्लेग से बचाव के लिए भगूर ले आने की बात चली। आम की बहार थी ही। इस कार्य के लिए पिताजी ने मेरे बड़े भैया को त्र्यंबक भेजा।
भेजा अवश्य, परंतु स्वयं भगूर का क्या हुआ? स्वयं भगूर गाँव प्लेग की चपेट में आ गया। सभी के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। नासिक का प्लेग वहाँ आते-जाते लोगों ने देखा था। पुणे-बंबई में प्लेग चालू था, तब वहाँ के हृदयस्पर्शी वर्णन 'केसरी' आदि समाचारपत्रों में छपते थे। उन भयावह वर्णनों को भगूर गाँववालों ने हमारे ही घर की देहरी पर बैठकर सुना था। तब वे 'युद्धस्या कथा रम्या' थे। प्लेग का वही कहर अब अपने दरवाजे पर आकर प्रत्यक्ष खड़ा नहीं हो जाए, यह डर हर एक को था। आषाढ़ आया और चूहे मरने के गुप्त समाचार गाँव में सुने जाने लगे। अशुभ समचार झूठा है, ऐसा समझने की मानव-प्रकृति तब तक होती है, जब तक वह गले तक नहीं आ जाता। इसके विपरीत वह शुभ समाचार सच ही होगा, ऐसा भी माना जाता है। चूहा मरने के बाद भी मेरे घर में चूहा मरा, यह मानने को कोई तैयार नहीं होता था। तू चोर है - ऐसा किसीको कहा जाए, तो जैसे वह क्रुद्ध होकर उस बात को नकारता है, वैसे ही 'तुम्हारे घर चूहा मरा' ऐसा किसीको कहते ही वह क्रोध में भरकर नकारने लगता, क्योंकि तब घर में चूहा मरने की घटना सचमुच बड़ी भयावह थी। चूहा मरा है, यह समाचार फूटते ही सरकारी आदमी आकर घर खाली कराते। उस परिवार को जंगल का रास्ता नापता पड़ता। घर का सारा सामान धोया जाता। उस कार्य में काफी सामान गायब हो जाता; और यह सब इतना भयावह था कि कल प्लेग से मरनेवाला आदमी आज ही चल देता! इसी कारण चूहे के मरने की बात मरण तक छिपाई जाती। जो बेचारे मानते, वे भी यह कहte कि शायद बिल्ली ने मारा हो, प्लेग से नहीं मरा। इस कारण जितनी तेजी से प्लेग फैलता, उससे अधिक तेजी से वह समाचार फैलता। परंतु प्लेग की अपेक्षा उसके निवारण का सरकारी प्रयास अधिक डरावना था। इसलिए इस अशुभ को 'अशुभ' कहने की बात यथासंभव टाली ही जाती। हमारे घर में भी दो-चार चूहे मरे। परंतु अण्णा (मेरे पिता) ने - प्लेग के नहीं हैं, ऐसे तो हमेशा ही मरते हैं, ऐसा कहते हुए चुपचाप दूर फेंकवा दिए और हम बच्चों को कहीं भी उसकी चर्चा नहीं करने का आदेश दिया।
मेरे दोनों मित्रों राजा और पारशा के भी घर में चूहे मरे, परंतु वे उसे छिपा गए। दो दिन बाद उनका एक बड़ा भाई तुकाराम प्लेचगग्रस्त हो गया। उसपर देवता की सवारी आया करती थी। उसीसे उसे बुखार आया है, ऐसा ढोंग उन्होंने दिन भर किया, पर दूसरे दिन भोर होते ही वह मर गया। पूरे गाँव में इस घटना का बड़ा हल्ला-गुल्ला हुआ। लोगों के पाँवों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई। उस राणू दरजी का घर पटेल कुलकर्णी ने सील किया। पच्चीस जनों का वह परिवार गाँव के बाहर फेंक दिया गया। हमारे घर के पड़ोस का एक आदमी ऐसे ही प्लेग से मरा। उस रात दस बजे के करीब वह जोर-जोर से कराहने लगा। वह आवाज हमें खिड़की से सुनाई देने लगी। हम बच्चों को डर लगेगा, इसलिए हमें दूसरी जगह सोने को कहा गया, पर मैं चुपचाप वह आर्त स्वर सुनता रहा और खिड़की पर बैठा रहा। कभी डर लगता तो कभी कौतूहल होता। और फिर ऐसे विचार वेग से आए कि यदि कल मेरे घर पर यह आपदा आई तो मुझे क्या करना होगा? पिताजी ही प्लेग से मर गए तो? सरकारी लोग घर को तहस-नहस कर देंगे, सारा सामान उठाकर फेंक देंगे। भाई की चिंता हुई, यदि वह मर गया तो? अण्णा कितना शोक करेंगे, हमें भी कितनी रुलाई आएगी, पर हम बड़ा धीरज रखकर पिताजी को समझाएँगे। वे हमारे धीरज की तारीफ करेंगे, पर मैं ही मर गया तो? अपना लिखा 'दुर्गादास विजय' ग्रंथ, 'सर्वसार संग्रह' और अन्यर रचित साहित्य प्रकाशित करने की बात अपनी मृत्युपूर्व इच्छा के रूप में मैं पिताजी से कह दूँगा।
इस प्रकार की अपशकुनी आशंकाएँ मेरे मन में तब से ही पैठ गई। यह अपशकुनी और विक्षिप्त वृत्ति हमेशा बनी रही। परंतु मेरे भाग्य में अशुभ से ही हमेशा संघर्ष करते रहने का जो विधान था, उसमें यह वृत्ति उपयोगी रही। ऐसे अनेक अपशकुनी विचार मन में आते गए। फिर भी हर संकट का सामना अविचलित भाव से करनेवाली अपने मन की तैयारी देखकर उन अपशकुनी विचारों को मैंने धन्यवाद ही दिया।
वह पड़ोसी जोर-जोर से चिल्लाने लगा। उसके परिवारवाले अण्णा को बुलाने लगे। प्लेग जैसे स्पर्शजन्य रोग के कारण सगे-संबंधी भी प्लेग के रोगी के पास नहीं जाते थे। अण्णा भी निरुपाय होकर ही गए। खोज-खबर लेकर आए। कुछ-थोड़ा सो पाए थे कि रोने-धोने की आवाजें आने लगीं। चौबीस घंटे के अंदर हट्टा-कट्टा पड़ोसी मर गया। सुबह की सरकारी आदमियों ने आकर उस घर के खपरे उतार लिये। सामान के साथ अनाज भी आँगन में फेंक-फाँककर घर धो डाला और शव के साथ ही स्त्री -बच्चों को भी घर के बाहर निकाल दिया। गाँव के बाहर रहने को कहा गया, पर झोंपड़ी बनाकर नहीं दी। वह सरकार का काम नहीं था।
उसी रात अण्णा एक और प्लेग के रोगी का समाचार लेने गए। भगूर में प्लेग फैलने का समाचार सुनते ही मेरे मामा ने भगूर छोड़ने का संदेश भिजवाया, पर 'घर छोड़ो' कहना जितना आसान है, उतना ही उसे छोड़ना कठिन होता है। कहाँ जाएँ, यह सोचने तक का समय नहीं रहा, और केवल चार दिन में ही मानो पूरा गाँव जलने लगा।
अण्णा उस रात घर छोड़ने का ही विचार करते हुए घर लौट रहे थे तो गली के ही उस राणू दरजी के घर पर उनकी नजर गई। चार-पाँच दिन पहले पच्चीस आदमियों का वह परिवार लड़कों-बच्चों की किलकारियों से गूँजता रहता था। उसी परिवार के मकान को आज श्मेशान बना हुआ उन्होंने देखा। आदमी नहीं, दीया-बत्ती नहीं! खपरैल भी उतरी हुई। दरवाजे, खिड़कियाँ खुली हुई, उल्लू बोलने के सिवाय कोई स्वर नहीं। अण्णा काँप गए-रास्ता न सूझे। रास्ता रोज का था, पर उनको लगा कि गड्ढा है। गढ्ढे से पैर बचाने के चक्कर में उनके पैर में मोच आ गई। मैंने उन्हें कुछ लँगड़ाते हुए घर में आते देखा-हम सब दरवाजे पर ही उनकी चिंता में खड़े थे। मैंने पूछा, 'क्या हुआ?' बोले, 'कुछ नहीं, यूँ ही थोड़ा मुड़ गया है।' हम सब घबरा जाएँगे, इसलिए उन्होंने ऐसा कहा। उन्होंने एक औषधि बताई। मैंने उसे उनके पैर पर लगाया। बैठकर पैर दबाता रहा। एक प्लेग-प्रतिरोधक औषधि वे नासिक से लाए थे, वह सबने ली, फिर सो गए। दूसरे दिन मैंने और भाभी ने मिलकर रसोई बनाई। मैं हमेशा ही अपने से छोटी भाभी की सहायता रोटी आदि बेलकर करता था। थोड़ी देर बाद देखा कि अण्णा जाँघ में कुछ टटोलते खड़े हैं। मुझे देखते ही सकुचा गए-मैं डर गया। क्या हुआ, यह पूछने पर बोले-कल पैर जो लचक गया था, उसीमें कुछ पीड़ा है।
हम लोगों ने भोजन किया। अण्णा दूछती पर जाकर सो गए। मेरा छोटा भाई 'बाल' छोटा, केवल ग्यारह वर्ष का था। माँ मरी, तब चार-पाँच का था, तब से पिताजी ही उसकी माँ थे। रोज दोपहर वह पिताजी के पास ही सोता था, पर उस दिन उन्होंने उसे न ले जाते हुए केवल मुझेही ऊपर बुलाया। मैं सोलह वर्ष का, भाभी चौदह वर्ष की और बाबा बीस वर्ष का था। ऊपर मेरे जाते ही मुझे सीने से लगाकर भरी आँखों से अण्णा बोले - 'बेटे, मुझे प्लेग हो गया है। अब तुम लोगों का क्या होगा?' यह सुनते ही मैं दहल गया। परंतु बचपन से ही मेरे स्वभाव का यह विशेष गुण रहा कि संकट आते ही मेरा मन पत्थर जैसा हो जाता और मुझमें कर्तव्य का उत्साह बढ़ जाता। मैंने कहा, 'चिंता नहीं करें, मैं अभी वैद्य को बुला लाता हूँ।'
वे बोले, 'नहीं, यह बात किसी को बताना नहीं, वरना पुलिस आ जाएगी।' मैंने समाचारपत्र में एक रामबाण औषधि के बारे में पढ़ा था- उसे लगाने के बारे में उनसे पूछा। उनके 'हाँ' कहते ही मैं बाहर की ओर भागा। मेरा एक दरजी मित्र था, उसके घर से चुपचाप मुरगी के दो अंडे ले आया। अंडे के बलक में सिंदूर मिला वह औषधि अण्णा की गाँठ पर मैंने बाँध दी। भाभी को सारा-कुछ बता दिया। बाल रोने लगा, अण्णा के पास उसे जाना था। उसे ऊपर ले जाकर दिखा लाया। उसे बताया कि अण्णा को मलेरिया हो गया है।
जिस मित्र के यहाँ से मैं अंडे लाया था, उनके घर चर्चा चली- ब्राह्मण के यहाँ अंडे क्यों गए, यह प्रश्न था उनके सामने। संकट के समय हमेशा साथ देनेवाले राजा, पारशा-दोनों ही भाई प्लेग के कारण जंगल चले गए थे। उनके भाई भी मृत्यु के बाद उनकी माँ को भी प्लेग ने दबोचा। दो दिन में वह अधमरी हो गई, नीचे का आधा भाग तो मर ही गया। दूसरे बाल-बच्चों को प्लेग से बचाने के लिए उस माँ को चारों ओर कपड़ा बाँधकर उन लोगों ने एक पेड़ के नीचे डाल दिया। सवेरे देखा तो चींटियों और दीमक ने उसके शरीर में छेद बना दिए थे। यह सारा समाचार सुनने को मिला।
बाल फिर अण्णा के पास जाने के लिए मचलने लगा। उसे बताया, अण्णा बीमार हैं और यह बात बाहर कहनी नहीं है, तू चुप रहना। उस लड़के ने समझदारी दिखाई, चुप हो गया। इतना ही नहीं, अण्णा की सेवा में अर्थात् उन्हें ऊपर दूध-दलिया-पानी पहुँचाने में रात भर मेरी सहायता करने लगा। भोर होते-होते अण्णा बेचैनी से कराहने लगे। बापू काका को ज्ञात हुआ। वे बहुत घबराए, पर घर नहीं आए। पुलिस को चुप करा आता हूँ, कहकर जो गए तो लौटे नहीं। परंतु उन्होंने पटेल-कुलकर्णी को इतना कह दिया कि अण्णा बीमार हैं और यह भी कहा कि अनजान बनते हुए ज्यादा पूछताछ न करें और यथासंभव हमें घर से बाहर न निकालें। और भी कुछ-कुछ उपाय होते रहे। भाभी ने किसी तरह रसोई बनाई। बाल और मैंने भोजन किया। अण्णा फिर बहुत बेचैन हो गए। कोई दूसरी औषधि देना जरूरी था। दरवाजे से कोई भी पूछताछ के लिए टपक पड़ता, इसका डर था। इसलिए बाल को दरवाजे पर बैठाया - कहा कि कोई आए तो कहना कि घर में कोई नहीं है।
पिछले आँगन में साँवरी का एक पेड़ था, उसकी कलियों से बननेवाली एक दवाई देने के लिए किसीने कहा था। कलियाँ मैं तोड़ ही रहा था कि बाल वहाँ आ गया। मैंने गुस्से में कहा, 'तू अपना काम छोड़कर यहाँ क्यों आया? जाओ, वहीं रहो।' वह बेचारा लौटने लगा, पर मैंने उसकी आँखों में आँसू देखे - अण्णा के लिए रो रहा होगा, ऐसा सोच मैं उसे पास लेकर समझाने लगा। तब बहुत लजाते हुए वह बालक बोला, 'तात्यां, गुस्सा नहीं करोगे तो एक बात तुम्हें कहनी है।' मेरे 'कहो' कहते ही वह बोला, 'अण्णा के लिए पहले से ही आप कितने कष्ट उठा रहे हो, इसलिए मैंने सुबह से छिपाकर रखा, पर अब मैं खड़ा नहीं रह सकता। मेरी जाँघ बहुत दुख रही है।' और वह रोने लगा। उस छोटे से लड़के ने 'मेरा कष्ट बढ़ेगा', इसलिए मुझसे इतनी देर तक अपना दु:ख छिपाए रखा था। कितना धीरज और समझ! मुझे धक्का-सा लगा, पर मैंने न घबराते हुए उससे कहा,'धत् तेरी की, इतना ही है ना। चल, मैं तुझे वह सिंदूर की दवाई लगा देता हूँ। अण्णा को नही बताना। अण्णा के पास तो नही जाओगे?' 'नहीं, बिलकुल नहीं जाऊँगा,' उसने समझदारी से कहा।
बाल को मैंने एक अलग कमरे में लिटाया। भाभी को बताया-तू बाल की सेवा कर, मैं अण्णा की करता हूँ। किसी को किसी की बात नहीं बतलानी है। बेचारी भाभी! जिस ओर मैं कहूँ, वही उसका पूरब। अटूट विश्वास। वह भी छोटी ही थी- पर धीरज की बड़ी पक्की। बाल के पास चुपचाप जाकर बैठ गई। प्लेग के रोगी के श्वास-उच्छ्वास से भी दूसरे को प्लेग हो जाता है, यह हमें ज्ञात था। इसलिए मैं भी बीच-बीच में अपनी जाँघ दबाकर देखता-कहीं दुख तो नहीं रही! और भाभी से भी बार-बार पूछता, 'तुम्हारा सिर-विर तो नहीं दुख रहा है? दुख रहा हो तो बता देना, छिपाना नहीं।' एक प्लेग-प्रतिरोधक औषधि मेरे पास थी, वह उसे पिलाता। मैं भी पीता।
हम दोनों राह देख रहे थे कि बहन को लिवा लाने गए बाबा कब लौटकर आते हैं? शाम होते ही अण्णा और बाल जोर-जोर से कराहने लगे-उन्हें बहुत प्यास लगती थी। पर पानी नहीं देना, ऐसा लोग कहते थे। ऊपर अण्णा, नीचे बाल-दोनों का कराहना। बाल था बड़ा बहादुर, पर था तो बच्चा ही। कोई दूसरा और हो, इसलिए हमारी ड्योढ़ी पर कुत्ते की तरह पड़े रहनेवाले दो-एक असामियों को बुलवा भेजा, पर कोई न आया। हमारे सगे-संबंधियों में से एक मामा ही थे जिनका सहारा हमारे परिवार को था। उन्हें तार भेजा।
अण्णा की बीमारी की वह दूसरी रात थी। नौ-दस बजे वायु का एक बड़ा झटका उन्हें आया। मैं पानी नहीं दे रहा था, इसलिए मुझपर वे बहुत बिगड़े। उठने-दौड़ने लगे। मेरे जैसे बच्चे के वश का नहीं था उनको सँभालना। इतने में दीया नीचे गिरकर बुझ गया और मुझे ऐसा लगा, जैसे वे मुझे मारने के लिए आ रहे हैं। उनसे डरकर मैं अँधियारे में ही धड़-पड़ जीने से नीचे उतर आया। वे नहीं आ पाए, यह भाग्य की ही बात थी। दरवाजे के पास ही कराहते पड़े रहे। बीच-बीच में में करुण स्वर में कहते - 'तात्या,बाल, पानी लाना रे!' मैं उनके पास जाना चाहता था, पर डर के मारे जा नहीं पा रहा था। बाल भी इधर 'तात्या' कहकर जोर से पुकारता था। भाभी उसके पास थी। मैं उसके पास गया- वह भी वायु-प्रकोप में था। उसे डाँटा, 'चिल्ला नहीं, अण्णा तो पता चल जाएगा कि तू भी प्लेग में पड़ा है।' डाँटते ही अर्धमूर्छा में पड़ा वह बालक कुछ देर चुप हो जाता। मेरे आते ही भाभी भड़भड़ाकर रो पड़ी। मैं काँप गया-कहीं इसे तो प्लेग ने नहीं पकड़ लिया। बड़े स्नेह से सहलाते हुए उससे पूछा, 'कहीं दुख तो नहीं रहा?' उसने कहा, 'मेरा क्या, कुछ हो, पर आपके क्लेश देखकर चिंता हो रही है, आप थोड़ा विश्राम कर लो।' मैंने कहा, 'ऐसे समय रो-धोकर रहने से कैसे काम चलेगा-धीरज से संकट से लड़ना ही होगा।'
वायु-प्रकोप से अण्णा के दरवाजे से नीचे गिर जाने का डर था। हमने सोचा, ऊपरवाला दरवाजा बंद कर लें। दीया लेकर हम दोनों उधर गए तो अण्णा फिर से दौड़कर आए और नीचे उतरने लगी। मैंने उन्हें थोड़ा पानी दिया और जब तक वे पानी पीते, दरवाजा लगा लिया। अणा फिर चिल्लाने लगे, 'पानी, तात्या पानी।' अण्णा की वे आतुर आवाजें- 'तात्या -बाल, अरे कोई पानी तो लाओ' मुझे अभी भी सुनाई देती हैं और ऐसा लगता है, अभी दौड़कर उनके पास पानी लेकर जाऊँ।
वह रात भाभी और मैंने बाल के सिरहाने बारी-बारी से ऊँघते हुए काटी। बाल भी वायु में था, फिर भी वह सँभाला जा सकता था, किंतु अण्णा को सीढ़ियों पर ही रोके रखना हमारे लिए असंभव था। वह डरावनी रात, उसमें कराह और चिल्ला हट! मेरे प्रिय पिता और लाड़ले भाई की वह भयंकर पीड़ा और उन्हें देख-देखकर बढ़ती हमारी वेदना!
खैर, डरते-डरते रात समाप्तर हुई और जिनकी राह हम देख रहे थे, वे हमारे बड़े भाई बाबा, बहन और बहनोई को लेकर आ गए। उन्होंने घर में झाँका और अवाक् रह गए। बाबा उन्हें आमों की बहार का आनंद चखाने लाए थे और यहाँ यह भयावह स्थिति! मेरी बहन की आयु भी केवल तेरह-चौदह वर्ष की थी। अण्णा के पास गई, पर वे उसे पहचान भी नहीं पाए। स्पर्शजन्य रोगी के घर पर कुछ खाना-पीना संभव नहीं, इसलिए किसी दूसरे के घर में खिला-पिलाकर दोपहर की गाड़ी से किसी और संबंधी के यहाँ उन्हें भेज दिया। अण्णा को वैसी स्थिति में छोड़कर जाते हुए बहन को बहुत दु:ख हुआ, पर कोई उपाय नहीं था। उसे लेकर तुरंत जाने की बात बहनोई ने चलाई, जो वही ठीक ही थी।
बाबा के आ जाने से मुझे धीरज बँधा। पूरे गाँव में हमारे यहाँ के संकट की बाल फैल गई थी, पर जहाँ-तहाँ घर-घर में रोना-धोना और भागमभाग चालू थी। कौन किसके लिए रोता? दो-एक वैद्य आए-गए। नासिक से कोई बड़ा डॉक्टर लाने की बात चली, पर अण्णा के जीवन का धागा तीसरे दिन टूट-सा गया। जिस घर में प्लेग का रोगी हो, उस घर से सरकारी नियम के अनुसार रोगी सहित सबको जबरन बाहर कर दिया जाता, पर पटेल-कुलर्णी ने वैसा कुछ किया नहीं। शाम को मामा आए, वे दूसरे ही घर में टिके थे। 'अण्णा को पहले ही गाँव छोड़ने को कहा था- तब नहीं सुना - मेरे बच्चों को काल के गाल में धकेल दिया।' ऐसा कहते हुए ही वे आँगन में पधारे-अण्णा को भरपेट गालियाँ दीं और सारे समाचार लेकर चले गए।
रात में अण्णा का देहावसान हो गया। किसी को ज्ञात नहीं हुआ। भोर होने पर देखा तो वे हमें छोड़कर जा चुके थे। वह दिन शक संवत् 1821 श्रावण अमावस का था। बाल भी मरणासन्न ही था- उसकी मुंडी ढीली पड़ी थी। मुँह से रक्त बह रहा था, पर साँस चालू थी, हलकी-हलकी। बापू काका कहीं गए थे, वे आए। चार आदमी इधर-उधर के बटोरकर अण्णा की अंत्यविधि की गई। अण्णा की देह को अग्नि देकर लौटे। दोपहर हो गई थी। हमने घर छोड़ा। रोन