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वैचारिकी संग्रह

सावरकर समग्र खंड 2

विनायक दामोदर सावरकर


 

सावरकर समग्र

खंड : 2

स्वातंत्र्यवीर

विनायक दामोदर सावरकर

आभार- स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक

२५२ स्वातंत्र्यवीर सावरकर मार्ग

शिवाजी उद्यान, दादर, मुंबई-२८

प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन

४/१९ आसफ अली रोड

नई दिल्ली-११०००२

संस्करण - २००४

©सौ. हिमानी सावरकर

मूल्य - पाँच सौ रुपए प्रति खंड

पाँच हजार रुपए (दस खंडों का सैट)

मुद्रक - गिर्राज प्रिंटर्स, दिल्ली

प्रथम खंड

पूर्व पीठिका, भगूर, नाशिक

शत्रु के शिविर में

लंदन से लिखे पत्र

द्वितीय खंड

मेरा आजीवन कारावास

अंदमान की कालकोठरी से

गांधी वध निवेदन

आत्महत्या या आत्मार्पण

अंतिम इच्छा पत्र

तृतीय खंड

काला पानी

मुझे उससे क्या? अर्थात् मोपला कांड

अंधश्रद्धा निर्मूलक कथाएँ

चतुर्थ खंड

उ:शाप

बोधिवृक्ष

संन्यस्त खड्ग

उत्तरक्रिया

प्राचीन अर्वाचीन महिला

गरमागरम चिवड़ा

गांधी गोंधल

पंचम खंड

१८५७ का स्वातंत्र्य समर

रणदुंदुभि

तेजस्वी तारे

षष्टम खंड

छह स्वर्णिम पृष्ठ

हिंदू पदपादशाही

सप्तम खंड

जातिभंजक निबंध

सामाजिक भाषण

विज्ञाननिष्ठ निबंध

अष्टम खंड

मैझिनी चरित्र

विदेश में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

क्षकिरणे

ऐतिहासिक निवेदन

अभिनव भारत संबंधी भाषण

नवम खंड

हिंदुत्व हिंदुत्व का प्राण

नेपाली आंदोलन

लिपि सुधार आंदोलन

हिन्दू राष्ट्रदर्शन

दशम खंड

कविताएँ

भाषा-शुद्धि लेख

विविध लेख

 

अनुवाद:

प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. ललिता मिरजकर,

डॉ. हेमा जावडेकर, श्री वामन राव पाठक, श्री काशीनाथ जोशी,

श्री शरद दामोदर महाजन, श्री माधव साठे, सौ. कुसुम तांबे,

सौ. सुनीता कुट्टी, सौ. प्रणोति उपासने

संपादन:

प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. श्याम बहादुर वर्मा,

श्री रामेश्वर मिश्र 'पंकज', श्री जगदीश उपासने,

श्री काशीनाथ जोशी, श्री धृतिवर्धन गुप्त, श्री अशोक कौशिक

मार्गदर्शन :

श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, डॉ. हरींद्र श्रीवास्तव,

श्री शिवकुमार गोयल

 

विनायक दामोदर सावरकर : संक्षिप्त जीवन परिचय

श्री विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी तथा अग्रणी नक्षत्र थे। 'वीर सावरकर' शब्द साहस, वीरता, देशभक्ति का पर्यायवाची बन गया है। 'वीर सावरकर' शब्द के स्मरण करते ही अनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान् वीरता, एक उत्कट देशभक्ति से ओतप्रोत इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हमारे सामने साकार होकर खुल पड़ते हैं।

वीर सावरकर न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु वह एक महान् क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वह एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया तो '१८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर' का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था।

इस महान् क्रांतिपुंज का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में चितपावन वशीय ब्राह्मण श्री दामोदर सावरकर के घर २८ मई, १८८३ को हुआ था। गाँव के स्कूल में ही पाँचवीं तक पढ़ने के बाद विनायक आगे पढ़ने के लिए नासिक चले गए।

लोकमान्य तिलक द्वारा संचालित 'केसरी' पत्र की उन दिनों भारी धूम थी। 'केसरी' में प्रकाशित लेखों को पढ़कर विनायक के हृदय में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ हिलोरें लेने लगीं। लेखों, संपादकीयों व कविताओं को पढ़कर उन्होंने जाना कि भारत को दासता के चंगुल में रखकर अंग्रेज किस प्रकार भारत का शोषण कर रहे हैं। वीर सावरकर ने कविताएँ तथा लेख लिखने शुरू कर दिए। उनकी रचनाएँ मराठी पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होने लगीं। 'काल' के संपादक श्री परांजपे ने अपने पत्र में सावरकर की कुछ रचनाएँ प्रकाशित की, जिन्होंने तहलका मचा दिया।

सन् १९०५ में सावरकर बी.ए. के छात्र थे। उन्होंने एक लेख में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया। इसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का कार्यक्रम बनाया। लोकमान्य तिलक इस कार्य के लिए आशीर्वाद देने उपस्थित हुए।

सावरकर की योजना थी कि किसी प्रकार विदेश जाकर बम आदि बनाने सीखे जाएँ तथा शस्त्रास्त्र प्राप्त किए जाएँ। तभी श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर को छात्रवृत्ति देने की घोषणा कर दी। ९ जून, १९०६ को सावरकर इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए। वह लंदन में इंडिया हाउस' में ठहरे। उन्होंने वहाँ पहुँचते ही अपनी विचारधारा के भारतीय युवकों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की।

सावरकर 'इंडिया हाउस' में रहते हए लेख व कविताएँ लिखते रहे। वह गुप्त रूप से बम बनाने की विधि का अध्ययन व प्रयोग भी करते रहे। उन्होंने इटली के महान् देशभक्त मैझिनी का जीवन-चरित्र लिखा। उसका मराठी अनुवाद भारत में छपा तो एक बार तो तहलका ही मच गया था।

१९०७ में सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लंदन में १८५७ की अर्द्धशती मनाने का व्यापक कार्यक्रम बनाया। १० मई, १९०७ को 'इंडिया हाउस' में सन् १८५७ की क्रांति की स्वर्ण जयंती का आयोजन किया गया। भवन को तोरण-द्वारों से सजाया गया। मंच पर मंगल पांडे, लक्ष्मीबाई, वीर कुँवरसिंह, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, नानाजी पेशवा आदि भारतीय शहीदों के चित्र थे। भारतीय युवक सीने व बाँहों पर शहीदों के चित्रों के बिल्ले लगाए हुए थे। उनपर अंकित था -१८५७ के वीर अमर रहें'। इस समारोह में कई सौ भारतीयों ने भाग लेकर १८५७ के स्वाधीनता संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रीय गान के बाद वीर सावरकर का ओजस्वी भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया कि १८५७ में 'गदर' नहीं अपितु भारत की स्वाधीनता का प्रथम महान् संग्राम हुआ था।

सावरकर ने १९०७ में १८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर' ग्रंथ लिखना शुरू किया। इंडिया हाउस के पुस्तकालय में बैठकर वह विभिन्न दस्तावेजों व ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। उन्होंने लगभग डेढ़ हजार ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इसे लिखना शुरू किया।

ग्रंथ की पांडुलिपि किसी प्रकार गुप्त रूप से भारत पहुँचा दी गई। महाराष्ट्र में इसे प्रकाशित करने की योजना बनाई गई। 'स्वराज्य' पत्र के संपादक ने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया; किंतु पुलिस ने प्रेस पर छापा मारकर योजना में बाधा डाल दी। ग्रंथ की पांडुलिपि गुप्त रूप से पेरिस भेज दी गई। वहाँ इसे प्रकाशित कराने का प्रयास किया गया; किंतु ब्रिटिश गुप्तचर वहाँ भी पहुँच गए और ग्रंथ को प्रकाशित न होने दिया गया। ग्रंथ के प्रकाशित होने से पूर्व ही उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंतत: १९०९ में ग्रंथ फ्रांस से प्रकाशित हो ही गया।

ब्रिटिश सरकार तीनों सावरकर बंधुओं को 'राजद्रोही' व खतरनाक घोषित कर चुकी थी। सावरकर इंग्लैंड से पेरिस चले गए। पेरिस में उन्हें अपने साथी याद आते। वह सोचते कि उनके संकट में रहते उनका यहाँ सुरक्षित रहना उचित नहीं है। अंतत: वह इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए।

१३ मार्च, १९१० को लंदन के रेलवे स्टेशन पर पहुँचते ही सावरकर को बंदी बना लिया गया और ब्रिक्स्टन जेल में बंद कर दिया गया। उनपर लंदन की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ। न्यायाधीश ने २२ मई को निर्णय दिया कि क्योंकि सावरकर पर भारत में भी कई मुकदमे हैं, अत: उन्हें भारत ले जाकर वहीं मुकदमा चलाया जाए। अंतत: २९ जून को सावरकर को भारत भेजने का आदेश जारी कर दिया गया।

१ जुलाई, १९०९ को 'मोरिया' जलयान से सावरकर को कड़े पहरे में भारत रवाना किया गया। ब्रिटिश सरकार को भनक लग गई थी कि सावरकर को रास्ते में छुड़ाने का प्रयास किया जा सकता है। अत: सुरक्षा प्रबंध बहुत कड़े किए गए। ८ जुलाई को जलयान मार्सेल बंदरगाह के निकट पहुँचने ही वाला था कि सावरकर शौच जाने के बहाने पाखाने में जा घुसे। फुरती के साथ उछलकर वह पोर्ट हॉल तक पहुँचे और समुद्र में कूद पड़े।

अधिकारियों को जैसे ही उनके समुद्र में कूद जाने की भनक लगी कि अंग्रेज अफसरों के छक्के छूट गए। उन्होंने समुद्र की लहरें चीरकर तैरते हुए सावरकर पर गोलियों की बौछार शुरू कर दी। सावरकर सागर की छाती चीरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ने लगे। कुछ ही देर में वह तट तक पहुँचने में सफल हो गए किंतु उन्हें पुन: बंदी बना लिया गया।

१५ सितंबर, १९१० को सावरकर पर मुकदमा शुरू हुआ। सावरकर ने स्पष्ट कहा कि भारत के न्यायालय से उन्हें न्याय की किंचित् भी आशा नहीं है, अत: वह अपना बयान देना व्यर्थ समझते हैं।

२३ दिसंबर को अदालत ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने, बम बनाने तथा रिवॉल्वर आदि शस्त्रास्त्र भारत भेजने आदि आरोपों में आजन्म कारावास की सजा सुना दी। उनकी तमाम संपत्ति भी जब्त कर ली गई।

२३ जनवरी, १९११ को उनके विरुद्ध दूसरे मामले की सुनवाई शुरू हुई। ३० जनवरी को पुनः आजन्म कारावास की सजा सुना दी गई। इस प्रकार सावरकर को दो आजन्म कारावासों का दंड दे दिया गया। सावरकर को जब अंग्रेज न्यायाधीश ने दो आजन्म कारावासों का दंड सुनाया तो उन्होंने हँसते हुए कहा, 'मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ईसाई (ब्रिटिश) सरकार ने मुझे दो जीवनों का कारावास दंड देकर पुनर्जन्म के हिंदू सिद्धांत को मान लिया है।'

कुछ माह बाद महाराजा नामक जलयान से सावरकर को अंदमान भेज दिया गया। अंदमान में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं। कोल्हू में बैल की जगह जोतकर तेल पिरवाया जाता था, मूंज कुटवाई जाती थी। राजनीतिक बंदियों पर वहाँ किस प्रकार अमानवीय अत्याचार ढाए जाते थे, इसका रोमांचकारी वर्णन सावरकरजी ने अपनी पुस्तक मेरा आजीवन कारावास में किया है।

सावरकरजी ने अंदमान में कारावास के दौरान अनुभव किया कि मुसलमान वॉर्डर हिंदू बंदियों को यातनाएँ देकर उनका धर्म-परिवर्तन करने का कुचक्र रचते हैं। उन्होंने इस अन्यायपूर्ण धर्म-परिवर्तन का डटकर विरोध किया तथा बलात् मुस्लिम बनाए गए अनेक बंदियों को हिंदू धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने अंदमान की कालकोठरी में कविताएँ लिखीं। 'कमला', 'गोमांतक' तथा 'विरहोच्छ्वास' जैसी रचनाएँ उन्होंने जेल की यातनाओं से हुई अनुभूति के वातावरण में ही लिखी थीं। उन्होंने 'मृत्यु' को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी वह अत्यंत मार्मिक व देशभक्ति से पूर्ण थी।

सावरकरजी ने अंदमान कारागार में होने वाले अमानवीय अत्याचारों की सूचना किसी प्रकार भारत के समाचारपत्रों में प्रकाशित कराने में सफलता प्राप्त कर ली। इससे पूरे देश में इन अत्याचारों के विरोध में प्रबल आवाज उठी। अंत में दस वर्ष बाद १९२१ में सावरकरजी को बंबई लाकर नजरबंद रखने का निर्णय किया गया। उन्हें महाराष्ट्र के रत्नागिरी स्थान में नजरबंदी में रखने के आदेश हुए।

'हिंदुत्व', 'हिंदू पदपादशाही', 'उ:श्राप', 'उत्तरक्रिया', 'संन्यस्त खड्ग' आदि ग्रंथ उन्होंने रत्नागिरी में ही लिखे।

१० मई, १९३७ को सावरकरजी की नजरबंदी रद्द की गई।

नजरबंदी से मुक्त होते ही सावरकरजी का भव्य स्वागत किया गया। अनेक नेताओं ने उन्हें कांग्रेस में शामिल करने का प्रयास किया; किंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया, 'कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर मेरे तीव्र मतभेद हैं। मैं हिन्दू महासभा का ही नेतृत्व करूँगा।'

३० दिसंबर, १९३७ को अहमदाबाद में आयोजित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकरजी सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने 'हिंदू' की सर्वश्रेष्ठ व मान्य परिभाषा की। हिंदू महासभा के मंच से सावरकरजी ने 'राजनीति का हिंदूकरण और हिंदू सैनिकीकरण' का नारा दिया। उन्होंने हिंदू युवकों को अधिक-से-अधिक संख्या में सेना में भरती होने की प्रेरणा दी। उन्होंने तर्क दिया, 'भारतीय सेना के हिंदू सैनिकों पर ही इस देश की रक्षा का भार आएगा, अत: उन्हें आधुनिकतम सैन्य विज्ञान की शिक्षा दी जानी जरूरी है।'

२६ फरवरी, १९६६ को भारतीय इतिहास के इस अलौकिक महापुरुष ने इस संसार से विदा ले ली। अपनी अंतिम वसीयत में भी उन्होंने हिंदू संगठन व सैनिकीकरण के महत्त्व, शुद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। भारत को पुन: अखंड बनाए जाने की उनकी आकांक्षा रही।

ऐसे वीर पुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी हमारे लिए पथ-प्रदर्शक का काम करने में सक्षम है।

-शिवकुमार गोयल

 

 

अनुक्रम

प्रास्ताविक

पूर्वार्ध

१. बंबई स्थित डोंगरी का कारागृह

दूसरा दिन

जगत् का पिष्टपेषण

वही होगा जो प्रतिकूल है

दारुण आघात

महाकाव्य

श्री गोविंदसिंह का चरित्र

सर हेनरी कॉटन

बलिदानी वीर या अधम

पत्नी से भेंट

२. भायखला कारागृह

३. ठाणे कारागृह

कनिष्ठ बंधु

दादा, यह लीजिए

छूटेंगे या मरेंगे

पत्र पहुँचा दिया

सिंह-पुरुष

विलायती छैल छबीली

काँटों का मुकुट

अर्क हैं अर्क

उपनेत्रों की नीलामी

अंदमान का चालान

चालान आ गया

क्रूर डकैत

बहन की हत्या

परोपकारी अधिकारी

४. अंदमान के लिए प्रस्थान

उन्मुक्त हास्य

चालान का नाम

बालिस्टर की प्रतिष्ठा

चले भैया काला पानी

मोगलाई मैदान

५. काले पानी का सागर

प्रस्थान

जलयान की गंदगी

रामकृष्ण परमहंस

यूरोपियनों का व्यवहार

बारी बाबा की कहानी

प्रस्तुत स्थिति

६. अंदमान का वर्णन

मलेरिया का प्रादुर्भाव

जोंक, साँप व कनखजूरे

अंदमान और हिंदुस्थान

अंदमान की स्थिति

तीरों की बौछार

नरमांस भक्षक

जावरों का व्यवसाय

पोर्ट ब्लेअर

बसाहत की ओर चलो

अंग्रेजी नाम का हिंदीकरण

७. अंदमान में

चलो, उठाओ बिस्तरा !

बारी साहब आता है

बारी बाबा का उपदेश

८. कोठरी में पहला सप्ताह

सन् १८५७ के विद्रोह की चर्चा

कौन नहीं होता स्वार्थी ?

दोनों ही समान थे

अनुष्टुप् छंद

कारागृह की प्रथम गुप्त चिट्ठी

सावधानी की सूचना

गुप्तचरों का काम

जो है सो कह डालो

विश्वासघात

अब बस हुआ, माफ करो !

दही नारियल

बस हो गया, माफ करो !

माफ करो में से 'मा'

९. तत्रस्थ राजबंदियों की पूर्व स्थिति

बम-गोलेवाले

जीभवाले अथवा राजबंदी

'डी' टिकट

क्रूर देवता को भोग

कोल्हू

तेल पूरा करना पड़ेगा

रात्रि में कोल्हू पर काम

रोग का स्वाँग

पालतू बनाने का प्रयोग

मैं कहूँ वही रोगी

नहीं चाहिए यह जीवन

चुटकी भर तंबाकू

अंदमानीय नीतिशास्त्र

नैसर्गिक विधि का अधिकार

प्रथम हड़ताल

पोर्ट ब्लेअर का ईश्वर

वैद्यकशास्त्र का एक और प्रमेय

पापभीरु बारी साहब

साला लोग ! बेंत लगावेंगे

बारी रचित नाटक

आप राजबंदी नहीं हैं

१०. अग्रज के दर्शन

यही अलौकिक भाग्य नहीं है क्या ?

और कार्यों के विषय में

११. कोल्हू का बैल

तेलघानी में

उदार मित्रों का सहयोग

मानसिक विद्रोह

आत्महत्या का आकर्षण

यदि मरना है तो

मरेंगे तो वैसे ही मरेंगे

१२. अंदमान में संगठन और प्रचार

अंदमान में संगठन

राजबंदियों का शिक्षण

बंदीगृह में उत्सव

खिड़कियों पर वार्तालाप

कारागार का टेलीफोन

पुस्तकों की कमी

पुस्तकों का वैषम्य

पुस्तकों का परिणाम

अचानक छापा पड़ा

पुती दीवार और रामबाँस का काँटा

केवल पढ़कर क्या करोगे ?

राजनीतिक इतिहासशास्त्र, राजनीतिक शासनशास्त्र और राजनीतिक अर्थशास्त्र

१३. हिंदुस्थान से पत्र व्यवहार और समाचार प्राप्ति

मुँह सीकर अत्याचार

शिकायत प्रकट कैसे करें ?

होतीलाल का पत्र

बारी साहब का भड़कना

बारी के भाषण की प्रतिध्वनि

स्वदेशवासियों की स्थिति कैसी है ?

बिल्ले के पीछे पत्र

परदेसी डाक

समाचारों का एक और मार्ग

गोखले का निधन

हम एक सौ पाँच

१४. १९११ के राज्यारोहण समारोह की परछाई

मुक्ति की आशा

उत्सव

अरविंद बाबू का कृष्ण दर्शन

बड़े बाबू छूट गए

शुभ शकुन

कल का दिन

१५. अंदमानी बंदियों का भोजन

बंदियों का भोजन

छोटा बारी

दही का लोटा

रुचिकर भोजन

राजबंदियों में पेटू

सब्जी में साँप और कनखजूरे

उत्तरदायित्त्व हिंदू पेटी अफसर पर

१६. आत्महत्या, धर-पकड़ एवं दूसरी-तीसरी हड़ताल

ज्वर या दस्त की दवा है क्या ?

रोग भी भोग ही प्रतीत होते

अपमानित जीवन से मर जाना अच्छा

उल्लासकर दत्त

बारी के साथ द्वंद्वयुद्ध

वह मध्याह्न का समय

उसका निष्ठुर सौजन्य

पागलपन का ढोंग

हथकड़ियों में लटकने पर भी

अंग्रेजी में नहीं, हिंदी में बोलो

नानी गोपाल

अन्न त्याग

भूख हड़ताल का अंत

टेलीफोन खत्म तो टेलीग्राफ शुरू

पठान या हिंदू

तीसरी हड़ताल का अंत

उत्तरार्ध

१. अंदमान में संगठन और प्रचार कार्य

कारागृह के बाहर चल ग्रंथालय

२. अंदमान में शुद्धि

भ्रष्टीकरण की प्रथम विधि

मुसलमानों का विरोध

शुद्धिकरण खेल नहीं

पतितोद्धार की विशेष आवश्यकता

बड़ों का बचपना

अंदमान में शुद्धि

हिंदू बालक का अभियोग

आप अन्य लोगों को हिंदू क्यों नहीं बनाते ?

तीव्र और खरा आक्षेप

शुद्धि कार्य का प्रकट प्रारंभ

दो जनों को पुनः हिंदू बनवाया गया

हिंदुओं द्वारा हिंदूकरण का विरोध

अब रोने की बारी मुसलमानों की

मुसलमानों के अत्याचार निरस्त

खान-पान से हिंदू भ्रष्ट नहीं होता

हिंदू बंदी का अनशन

वे चने हिंदू क्यों नहीं बन जाते ?

भ्रष्टता का दोष नष्ट किया

बाबाराव पर आक्रमण

जनगणना के अवसर पर

सिख भी हिंदू ही हैं

काम टालने का बहाना नमाज

बाँग और शंख की प्रतिस्पर्धा

अत्याचार से धर्मप्रचार नहीं

बहिष्कर्ताओं की ही शुद्धि

३. यूरोपीय जर्मन महायुद्ध

गवर्नर जनरल पर बम

लाला हरदयाल

सुरेंद्रनाथ बनर्जी

अंग्रेजों के दामाद से युद्ध

विवशतावश सशस्त्र प्रतिकार

अन्य लोगों को तो मुक्त किया जाए

बंदियों की लड़ाई की कल्पना

हिंदुस्थान का लाभ देखिए

मुसलमानों द्वारा तुर्की की बड़ाई

सम्राट् मुसलमान और आर्य बना

मूर्खता के पीछे सुसंगति

पुनः काम में जुटाया

एम्डेन का आगमन

अंग्रेजों की दृढ़ता ! हमारा भोलापन

विपक्ष की उचित कल्पना हो

निरपेक्ष सुज्ञ योजना बनाओ

विश्व को अंदमान का परिचय

४. अंदमान में राजबंदियों का रेला

उस तेल ने असंतोष की आग भड़काई

परमानंद ने बारी को मारा

बारी पर गालियाँ देने की पाबंदी

झगड़े की जड़ सावरकर

राष्ट्रहित में अ-विरोधी वचन का पालन

दोनों संदेह त्याज्य

एक दिवसीय निरपेक्ष दया भाव

बारी टाँय-टॉय फिस्स

स्वास्थ्य गिर गया

५. चौथी हड़ताल तथा गिरता स्वास्थ्य

सावरकर से डरते क्यों हो ?

मुक्ति से भी क्या लाभ ?

नाममात्र की द्वितीय श्रेणी

अंदमानीय पत्रों का सर्वत्र प्रचार

गिड़गिड़ाने में भी निपुण

बारी हताश हो गया

सत्याग्रही रामरक्षा की मृत्यु

पुनर्जन्म लेकर वापस लौटूंगा

निराश, हताश लाला हरदयाल

६. मृत्यु शय्या पर

राजमहल रोग न देखे

बिल्लियों की लड़ाई और रामायण

पंद्रह दिन तो सुख प्राप्त होता

तीनों बंधुओं का भरत-मिलाप

विकार और विवेक का द्वंद्व

मंडन मिश्र की कोठरी

काव्य रचना बंद

बाबा का दुःखद दर्शन

७. पंजाब तथा गुजरात में दंगे

नियमानुसार दंडित सैनिक राजबंदियों का आगमन और कारागारीय आयोग (जेल कमीशन) के सम्मुख वक्तव्य

देशभक्ति और बुद्धि बल

बन गए जंटलमैन

बारी की निस्पृहता

क्रांतिकारी और पक्षी

बारी की मृत्यु

शाप और क्षमा

ठीक करनेवाले ही ठीक हो गए

हिंदू संस्कृति के अभिमानी बंदीपाल

कारागृह जाँच समिति

सच कहने का अर्थ बंदीवास बढ़ाना

मुक्ति का मापदंड

सधे हुए तर्कशुद्ध उत्तर

कारावास की व्यवस्था

८. सैकड़ों बंदियों की मुक्ति

९. अंदमान में हिंदी का प्रचार

कन्याओं को हिंदी नागरी शिक्षा

१०. सवा बालिश्त का हिंदू राज्य

सलाम नहीं, राम-राम

सभी पर धाक जमाई

पीड़ा और अत्याचार बंद

भंगी के साथ सहभोज

लोकमान्य की मृत्यु पर उपवास१

सभाएँ भी गुप्त रूप से भरने लगीं

राजबंदियों का सम्मान होने लगा

वयस्‍को के लिए भी शिक्षा की सुविधा

ग्रंथालय का विस्तार

अधिकारी आश्चर्यचकित

शिक्षा की व्याख्या

बाबा की धैर्यशील मूर्ति

पत्थर की दीवार आखिर टूटी

अपराधियों का सही उपयोग विपक्ष की सहानुभूति, स्वपक्ष का विरोध

लोकहित में लोकप्रियता का बलिदान

अग्रगामी बनो

अहिंसा की मांगलिक झंझा

प्रतिसहकार

११. अंदमान के अंतिम दिन

पाबंदी तोड़कर बंदी ने पहनाई चंपा की माला

पागलों के पिंजरे में

१२. दुर्दिनों की पुनरावृत्ति

समाचार की भावांजलि

बारह वर्ष बाद नासिक आया

रलागिरि कारागार

आत्मघात का अंतिम झटका

असहनीय दुःख सहना ही होगा

मैं असहयोगी-सत्य हमारा आदर्श व्रत

रत्नागिरि के बंदीगृह में शुद्धि

रत्नागिरि कारागृह में दंगा

बंदियों में शिक्षा-आंदोलन

तीन पुस्तकें प्रकाशित

बाबा कारामुक्त

अंदमान के सह-कष्टभोगी मित्रों से भेंट

यरवदा में शुद्धिकरण

प्रथम राजनीति, अन्यथा समाजकार्य

मुक्ति की शर्तों का प्रारूप

१३. आजन्म कारावास की अंतिम रात्रि

१४. प्रिय पाठक !

परिशिष्ट

विनायक दामोदर सावरकर के कारागृह की इतिहास-दर्शिका

अंदमान के अँधियारे से

अब मृत्यु का स्वागत करें ?

आत्मचरित्र संबंधित साहित्य

१. सावरकर के पत्र

२. संबंधित साहित्य

मो.क. (महात्मा) गांधी वध अभियोग

वि.दा. सावरकर का निवेदन

सावरकर सदन

हिंदू महासभा

आपटे, गोडसे और उनका पत्राचार

अग्रणी और हिंदू राष्ट्र

अग्रणी' की नीति गोडसे, आपटे ही निश्चित करते

दैनिक 'अग्रणी' पर मेरा चित्र

मैंने 'अग्रणी' में कभी नहीं लिखा

मेरे साथ दौरे पर आपटे और गोडसे

बड़गे का साक्ष्य

बड़गे का उद्देश्य और स्वभाव

बड़गे के तीन पत्र

कु. मोडक का साक्ष्य

डॉ. जगदीशचंद्र जैन

अंगदसिंह और गृहमंत्री मोरारजी का साक्ष्य

हिंदूराष्ट्र दल

मेरे पास कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला

केवल संबंध होना षड्यंत्र का साक्ष्य नहीं

केंद्र सरकार के संबंध में मेरी नीति

गोडसे और आपटे ने महासभा की अवज्ञा की

३. आत्महत्या और आत्मार्पण

कुछ श्रेष्ठ उदाहरण

४. स्वातंत्र्यवीर सावरकर का अंतिम इच्छा-पत्र (मृत्यु-पत्र)

डॉक्टर का प्रमाणपत्र

 

प्रास्‍ताविक

स्‍वजनस्‍य हि दु:खमग्रता।

विवृत्‍तद्वारमिवोप जायते।।

-कालिदास

हमारे अंदमानवाले वृत्तांत तथा वहाँ बंदीवास को निभाते समय भुगतनी पड़ी यातनाओं की काहनी सुनने के लिए न केवल महाराष्‍ट्र में अपितु समूचे हिंदुस्‍था में हमारे हजारों देशबंधुओं ने सहानुभूतिपूर्ण उत्‍सुकता आज तक समय-समय पर प्रकट की है। उसपर भी, जिन सुख-दु:खों को हमने भुगत लिया, उनका निवेदन सुहृदों से करते समय समान वेदनाओं से जनित आँसुओं के कारण स्निग्‍ध होनेवाले मधुर आनंद का अनुभव करने के लिए हमारा हृदय हमारी मुक्‍तता के क्षणों से स्‍वाभाविक ही व्‍याकुल होता आया है।

फिर भी आज तक अंदमान की कहानी होंठों तक पहुँचने पर भी किसी तरह होंठों से बाहर नहीं निकल रही थी। अंधकार में बढ़नेवाली किसी कँटीली पुष्‍पलता की भाँति उन अँधियारे दिनों की याद उजियारे को देखते ही सूखने लगती, भौचक्‍का हो जाती।

कभी लगता था, क्‍या बताने के उद्देश्‍य से वह सब भुगत लिया था? तो फिर उसे निद्रा अभिनय ही कहना चाहिए। कभी लगता था, हमें जो यातनाएँ भुगतनी पड़ीं उन यातनाओं को भुगतते-भुगतते जो लोग उन यातनाओं के शिकार हो गए, उनको तो घर लौटकर प्रियजनों को अपने वे सुख-दु:ख बताने का भी संतोष नहीं प्राप्‍त हुआ। वे साथी आज हमारे बीच नहीं हैं, जिनके साथ तप की जलन को सह लिया था, उनको छोड़कर समारोह की दावत के पकवान अकेले ही कैसे खाएँ ? क्‍या यह उनके साथ प्रताड़ना नहीं होगी ?

और हम जैसे कतिपय मनुष्‍यों पर आज तक ऐसे विकट संकटों का सामना करने वाले आह्रान आ गिरे हैं और अभी भी इसी प्रकार के अथवा इससे भी भयानक आह्रान आ गिरनेवाले हैं। इस जीवन-कलह के नगाड़े के कोलाहल के बीच हम अपनी इतनी सी हलगी क्‍यों बजाते रहें।

दु:ख के गले में आक्रोश का ढोल तो कुदरत ने ही लटका दिया है, ताकि उसे बजाकर वह अपना यथासंभव मनोरंजन कर सके। बाज ने निशाना लगाते ही विवश हो उसकी चोंच के अदर ही फँसा हुआ पंछी-सहायता की लेशमात्र आशा न होते हुए भी-जो स्‍वाभाविक चीख निकालता है, उस चीख से लेकर, नेपोलियन का शव सेंट हेलिना से पेरिस जिस दिन लाया गया, उस दिन एक पूरा-का-पूरा राष्‍ट्र अपने ध्‍वजों को झुकाए, अपने हजारों वाद्यों से हजारों शोक-स्‍वर तथा विरह गीतों को गाते हुए दु:ख और आक्रोश का जो प्रकटीकरण कर रहा था-उस आक्रोश तक, उस राष्‍ट्रीय स्‍फूर्तिगान तक, जितना भी प्राणिसृष्टि का आक्रोश है, उतना सब अपने-अपने दु:ख को सर्वज्ञात करने में मग्न होता है। आक्रोश दु:ख का स्‍वभाव ही है, सो इस अनंत अंतराल में जो अनंत चीखें अपने-अपने दु:ख का बोझ हलका करती हुई विचरण कर रहीं हैं, उनके मध्‍य मेरा दु:ख भी अभिव्‍यक्ति की साँस क्‍यों न छोड़े ? इस अनंत अंतराल में मेरे भी आक्रोश के लिए स्‍थान होगा! ऐसा सोचकर प्रवृत्ति कभी-कभी दु:ख को एकबारगी निगलने के लिए तैयार हो जाती थी, परंतु तभी परिस्थिति उसके पाँव खींचकर उसे पीछे ढकेल देती थी।

हमारी सद्य:कालीन परिस्थिति में, हमारे अंदमानवाले अनुभव में जो कुछ बतलाने लायक है, वही विशेष रूप में बताया नहीं जा सकता। परिस्थिति की परिधि में जो बताया जा सकता है, बिलकुल ऊपर सतह का, खोखला तथा अपेक्षाकृत क्षुद्र लगता हुआ, कहने में कोई रूचि नहीं और जो कहने लायक लगता है, उसे परिस्थिति कहने नहीं देती। ऐसी अवस्‍था में कुछ भी बताते हुए कथ्‍य का चित्र रंगहीन त‍था सत्त्वहीन कर देने की अपेक्षा अभी कुछ भी न बताएँ। जब वह दिन आ जाएगा कि सारी गूढ़ आकांक्षाएँ अभिव्‍यक्‍त हो सकें, सारी मूक भावनाएँ खुलेआम बातें कर सकें, उस दिन जो कुछ कहना है, यथा प्रमाण कह देंगे। यदि ऐसा दिन इस जिंदगी के दौरान निकलकर नहीं आया, तो नहीं कहेंगे। यदि उस वृत्तांत को जगत् ने नहीं सुना तो उस वजह से उसका महत्त्व तो कम नहीं होगा अथवा उसकी तीव्रता कम नहीं होगी, अथवा इस विश्‍व की विराट् दिनचर्या में वह सब अनसुना रहने के कारण कोई बड़ी रूकावट आनेवाली है, ऐसा भी नहीं। ऐसी हमारी सोच थी।

चित्त की ऐसी दोलायमान अवस्‍था में आज तक अंदमान के हमारे संस्‍मरण हमारे प्रिय बंधुओं को सुनाने का काम वैसा ही रह गया। हमारे बाद अंदमान आकर हमारे पहले जो मुक्‍त हुए थे, ऐसे कतिपय राजनीतिक ब‍ंदियों ने अपने-अपने अनुभवों को प्रसिद्ध किया-ऐसा हमने देखा। अन्‍यत्र भी वर्ष अथवा छह महीनों के लिए जो कारागृह में बंद थे, ऐसे लोगों ने भी उनके अनुभवों तथा उनकी यातनाओं की कहानी को समय-समय पर प्रसिद्ध किया और हमने उसे पढ़ लिया। परंतु ऐसे आत्‍म-स्‍मृति कथन में आत्‍म-श्‍लाघा की जो गंध अनिवार्य रूप में आ जाती है, वह हमारे मन को पुन:-पुन: सकुचाया करती थी और प्रियजनों के पास अपने सुख-दु:खों को खुले मन से कह डालने की स्‍वाभाविक प्रवृत्तिगत तथा जिस संकटों के पराभव की कहानी बतलाने का आनंद अनुभव करने के लिए अत्‍यंत उत्‍सुक होने पर भी परिस्थिति पुन:-पुन: मार्ग अवरूद्ध कर देती थी।

तथापि, जो कुछ भी आधा-अधूरा अथवा अल्‍प-स्‍वल्‍प सद्य:कालीन परिस्थिति की परिधि में बतलाने लायक होगा, उसे तो आपको कह देना ही होगा, हमें वह भी सुनने लायक लगनेवाला है, इस प्रकार का अत्‍यंत उत्‍सुक, निष्‍पाप तथा प्रेमयुक्‍त आग्रह विख्‍यात प्रकाशन मं‍डलियों से लेकर पाठशाला के बच्‍चों तक, सभी ओर से हमें अभी भी लगातार होते रहते हैं। इस कारण ऐसे आग्रह का अब सम्‍मान न करना एक तरफ से विनय का अतिरेक करके सार्वजनिक मनोभंग करना होगा, ऐसा हमें लगने लगा है। ऐसी स्थिति में जो कुछ बतलाया जा सके, वह हमारा अंदमान का वृत्तांत है- यह कह देने का निश्‍चय हमने किया है। सुसंगत वृत्तांत-कथन असंभव है, यह तो जाहिर है। अत: जो कुछ संक्षिप्‍त, टूटे-फूटे तथा संबंध विहीन संस्‍मरण हम बता सकेंगे, उन्‍हीं के प्रति पाठक संतोष मान लें और उनके बीच जो विसंगतियाँ अथवा अस्‍पष्‍टता होगी, उसे परिस्थिति का दोष मानकर कुछ दिनों के लिए क्षमा कर दें।

हम जानते हैं कि ऐसे वृत्तांत का सार्वजनिक उपयोग बहुत बड़ा है; परंतु केवल वृत्तांत से अधिक ऐसी दुर्घट परिस्थिति में उदित विचारों तथा भावनाओं का इतिहास विशेष मनोरंजक होने के साथ-साथ बोधप्रद भी होने के कारण हम इन संस्‍मरणों में उसे अधिक महत्‍व देनेवाले है; परंतु चूँकि ये संस्‍मरण त्रुटित हैं और भावनाओं का वह इतिहास अस्‍पष्‍ट, सूचक तथा हलके-हलके रूप में ही बताना बेहतर होगा। अत: जब तक संपूर्ण तथा सुसंगत कथन प्रसिद्ध नहीं होता, पाठक हमारे अंदमान स्थित जीवन के बारे कुछ भी साधारण धारणा न बनाएँ। यद्यपि इन संस्‍मरणों में सारी बातें कहना संभव नहीं है, फिर भी जो कुछ बताया जाएगा उसे अक्षरश: तथा भावार्थश: यथातथ्‍य बताने का यत्‍न अवश्‍य कि जाएगा। इस ग्रंथ में विचारों, भावनाओं तथा घटनाओं का जो वर्णन आएगा, वह सब उस समय उद्भूत विचार-भावनाओं का निदर्शक होगा और आज उसे मात्र ऐतिहासिक रूप में ही पढ़ा जाए, ऐसी लेखक की इच्‍छा है।

-वि.दा.सावरकर

पूर्वार्ध

प्रकरण-१

बंबई स्थित डोंगरी कारागृह

"आप पर पचास वर्ष के काले पानी का दंड लागू हो गया है। हेग [1] के अंतरराष्‍ट्रीय न्‍यायालय ने कहा है कि 'अंग्रेजों को आपको फ्रांस के हाथों सौंपना ही चाहिए था।' ऐसा कठोर निर्णय नहीं दिया जा सकता है।'' मुझे़...ने कहा।

"ठीक है, मैं कभी हेग के भरोसे रहा ही नहीं था। परंतु क्‍या मुझे हेग का निर्णय देखने को मिलेगा?"

"यह मेरे वश में नहीं है। आपके लिए जो संभव है, वह मैं करूँगा। फिर भी हम अजनबियों को भी विह्रल करनेवाला समाचार आपने जिस धीरज से सुना, वह मेरी सहायता पर निर्भर रहेगा, ऐसा मुझे नहीं लगता।" वे सज्‍जन छटपटाते हुए बोले।

"ऐसा थोड़े ही है कि यह या इस तरह के समाचार मुझे भयंकर नहीं लगते, परंतु पहले से ही समझ-बूझकर इस संकट का सामना करने के संकल्‍प से भरे होने के कारण हमारा मन कठोर हो गया है। यदि आप भी मेरी स्थिति में होते तो इसी विवेक के बल पर ऐसा ही धीरज रख पाते। आपकी सहायता के प्रति मैं आभारी हूँ।"

इतने में किसी के आने की आहट हुई। वह सज्‍जन झट से मेरी कोठरी के आगे निकल दूसरी दिशा की ओर अपने काम से चलते बने। मैं अपनी कोठरी में पीछे सरककर खड़ा रहा। मन में शब्‍द गूँज रहा था-'पचास वर्ष'।

तभी वे लोग आ गए, जिनके आने की आवाज आई थी। अधिकारी ने द्वार खोलकर मुझे भोजन परोसवाया। हेग का निर्णय आने तक मुझे बंदियों का भोजन या वेश नहीं दिया गया था; क्‍योंकि कदाचित् तब तक सरकारी आदेश नहीं आया होगा। भोजन करते समय मैंने हेतुपूर्वक ही अच्‍छे पदार्थ नहीं खाए तो अधिकारी ने पूछा, "क्‍यों, राव साहब, आज खाते क्‍यों नहीं?"

"खा तो रहा हूँ। परंतु वही व्‍यंजन खा रहा हूँ जो सभी बंदियों को मिलते हैं। कौन जाने, कल उन्‍हीं बंदियों के साथ काम करने मुझे भी जाना पड़े, कहा नहीं जा सकता। सदन्‍न कभी मिलेगा, कभी नहीं। हाँ, परंतु कदन्‍न तो सदैव साथ होगा। उससे मित्रता चिरकाल तक उपयोगी होगी।" मैंने हँसते हुए कहा।

अधिकारी ने उतावलेपन से कहा, "नहीं, नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा। आप फ्रांस लौट जाएँगे, ऐसा आदेश भी आ चुका है, ऐसा मैंने सुना है। आप बंदियों में काम करेंगे ? राव साहब! ईश्‍वर ऐसा कभी नहीं करेगा।"

इतने में एक सिपाही भागता आया। बोला, "हवलदारजी साहब आता है!"

धड़ाम से दरवाजा बंद हो गया। भोजन परोसते हुए वे लोग आगे निकल गए। सुपरिटेंडेंट आया और नियमानुसार परंतु सहानुभूतिपूर्ण शब्‍दों में मुझसे बोला, "आगे से आपको बंदी के कपड़े तथा अन्‍न मिलेगा। आपका पचास वर्ष का दंड आज से लागू हो गया है।"

मैं उठा, अपने घरेलू कपड़े उतार दिए। बंदी के कपड़े ले लिये और पहनने लगा। मन काँप गया। ये वस्‍त्र-बंदी के वस्‍त्र जो आज शरीर पर चढ़ रहे हैं-अब फिर कभी उतरनेवाले नहीं हैं। इन्‍हीं कपड़ों में मेरी अरथी निकलेगी। धुँधले से विचार... किंतु मन उदास सा हो गया। सुपरिटेंडेंट यूँ ही कुछ इधर-उधर की बात कर रहा था। उसके संवाद में मन का बलात् उलझाया।

इतने में सिपाही ने एक लोहे का बिल्‍ला लाकर हाथ में दिया। यही वह 'क्रमांक' है जो प्रत्‍येक बंदी की छाती पर झूलता है। उस बिल्‍ले पर बंदी की मुक्ति का दिनांक अंकित होता है। मेरा मुक्ति दिनांक! मुझे मुक्ति भी है क्‍या? मृत्‍यु ही मेरी मुक्ति का दिनांक है। कुछ जिज्ञासा, कुछ निराशा, कुछ विनोदमिश्रित भाव से मैंने उस बिल्‍ले की ओर देखा। मुक्ति का वर्ष था- सन् १९६०। पल भर के लिए उसका कुछ भी अर्थ उजागर नहीं हुआ। पल दो पल में ही उसमें निहित भयंकर अर्थ उजागर हो गया। दंड सन् १९१० में और मुक्ति सन् १९६० में!

....ने निर्मम व्‍यंग्य से कहा, "कोई चिंता नहीं। दयालु सरकार आपको सन् १९६० में अवश्‍य मुक्‍त कर देगी।"

मैंने उपहास में कहा, "परंतु मृत्‍यु अधिक दयालु है। उसने मुझे इसके पूर्व ही मुक्‍त कर दिया तो!" दोनों ही हँसे। वह सहज हँसा और मैं प्रयत्‍नपूर्वक हँसा। सुपरिटेंडेंट कुछ और चर्चा के बाद चला गया। सब लोग चले गए। मैं नीचे बैठा। शेष रहे हम दोनों-मैं और मेरा दंड। अकेले उस उदास कोठरी में एक-दूसरे का सामना करते हुए एक-दूसरे का मुँह देखते हुए।

इसके आगे उस दिन की कहानी तथा हृदय में मची खलबली हमने 'सप्‍तर्षि' [2] कविता के पूर्वार्ध में उसी पुस्‍तक में प्रकाशित की है।

दूसरा दिन

"पौ फट गई है।" जमादार ने आकर कहा, "यद्यपि आपकी सजा प्रारंभ हो गई है तथापि आपको पूर्व की भाँति ही प्रात: व्‍यायाम के लिए सैर करने नीचे लाया जाए, साहब ने कहा है।"

मैं व्‍यायाम के लिए नीचे उतरा तो इधर मेरी कोठरी की खोज-खोजकर तलाशी ली गई। मेरी सारी पुस्‍तकें तथा मेरा सामान नीचे ले जाया गया। सिपाहियों के पहरे में डोंगरी जेल के मध्‍य चौक में मैं धीरे-धीरे टहल रहा था। अब मेरे बैरिस्‍टरी वस्‍त्रों के स्‍थान पर वे खुरदरे मोटे वस्‍त्र थे जो साधारण बंदी के शरीर पर होते हैं। इन वस्‍त्रों में बैरिस्‍टर कैसे लगते हैं- इस कौतूहल से बहुतेरे और वा‍स्‍तविक संवेदना से थोड़े-अनेक लोग रूग्‍णालय से, रास्‍ते से, खिड़कियों से, किसी-न-किसी काम के बहाने वहाँ आते-जाते मुझे देख रहे थे। डोंगरी [3] का कारागृह मध्‍य बस्‍ती में है-ऐसा लगता है, क्‍योंकि आसपास थोड़ी दूर पर ऊँची-ऊँची इमारतें तथा घर दिखाई देते हैं। उधर व्‍यायाम करते समय उन इमारतों और खिड़कियों के पास स्‍त्री-पुरूषों की भीड़ लग जाती और वे तब आपस में खुसर-पुसर करते रहते जब तक मै अपना व्‍यायम समाप्‍त कर वहाँ से चला नहीं जाता। पुलिस की आँख बचाकर मैं भी कभी-कभी उनके प्रणाम स्‍वीकार कर प्रति प्रणाम करता। मन में उनका वह पूज्‍यभाव देखकर कभी अच्‍छा लगता पर कभी....ऐसे विचार आते। एक दिन मुझे सामने के घर के एक निवासी को पुलिस द्वारा धमकाने का समाचार मिला।

मेरे कारण दूसरों को कष्‍ट न हो, इसलिए तब मैं यथासंभव आँखें नीची करके टहलता था। इस व्‍यायाम के समय मुँह से योगसूत्र का पाठ करता और इसके पश्‍चात् उसके एक-एक सूत्र पर विचार करते हुए उसकी छानबीन करता। आज भी नित्‍यक्रमानुसार इसी तरह के विचारों में उलझा हुआ मैं व्‍यायाम कर रहा था। इतने में एक हवलदार ने जिसे मेरे लिए ही नियुक्‍त किया था- बताया, "समय पूरा हो गया है, चलिए।" मैं सीढि़याँ चढ़ता ऊपर अपनी कोठरी में आ गया। परंतु जो विचार कर रहा था उसी में उलझा होने से वैसे ही बैठा रहा। उस निमग्नता में काफी समय व्‍यतीत हुआ कि पुन: दरवाजा खड़का और हवलदार ने भीतर प्रवेश किया। उसके साथ एक बंदी था जिसके सिर पर एक गठरी थी। सोचते-सोचते मेरा चित्त‍ शांत हो गया और मैं पल भर के लिए उसी तरह आँखें खोले निश्चिंत बैठा रहा। इसे देख हवलदार ने कहा, "राव साहब, चिंता मत करो। ईश्‍वर आपके ये दिन भी पार करेगा। आप पर पड़े संकट का भगवान् साक्षी है। मेरे परिवार के लोगों की भी आँखें भर आईं। परंतु मैंने गर्व से सभी को आश्‍वस्‍त किया कि इस संकट में भी वे नहीं डगमगाएँगे। फिर यह क्‍या? आप चिंता मत कीजिए।"

उसके इस सद्भावनापूर्वक समझाने का परिणाम एकदम विपरीत हुआ। चिंता करने लायक कुछ घटित हुआ है, इसका मुझे स्‍पष्‍ट स्‍मरण हो गया। मन में एक चुभन सी हुई। मैंने पूछा, "यह बोझा किसलिए?" हवलदार ने हँसने की चेष्‍टा करते हुए कहा, "कुछ नहीं, बस यूँ ही! कानूनी तौर पर कुछ-न-कुछ काम तो देना ही है। आपसे जितना बने कीजिए, उसकी कोई चिंता नहीं है।"

उसने उस बोझे को नीचे उतारा। उसे खोला और उसके टुकड़े-टुकड़े किए। फिर मुझे दिखाया कि किस तरह उसे ठोक-धुनककर उसकी रस्‍सी बनाई जाती है।

तो फिर यह है-सश्रम कारावास।

जगत् का पिष्‍टपेषण

हूँ! चलो, करो इसका सामना। बस, नारियल की जटाएँ ही तो कूटनी हैं न! हाँ रे, पागल मनुआ! भला इसमें ओछापन कैसा ? इससे क्‍या जीवन व्‍यर्थ जाता है ? भई जीवन स्‍वयं ही एक पिष्‍टपेषण है। पंचमहाभूतों को निचोड़, बटकर जीवन की यह रस्‍सी बटनी है, बार-बार तंतुओं को लंबा करते रहना और अंत में मृत्‍यु के मोगरे से कूटकर पुन: जटाएँ बनाकर पंचमहाभूतों के ढेर में उन्‍हें मिला देना।

प्रात: के पश्‍चात् संध्‍या, संध्‍या के पश्‍चात् पुन: सवेरा-सभी पिष्‍टपेषण। वनस्‍पति खा-खाकर जीना, जीते-जीते मर जाना, मरते ही उस अस्थि-मांस को वनस्‍पति खा जाए-सभी पिष्‍टपेषण। तेजोमेधा की सूर्यमाला, सूर्यमाला की पृथ्‍वी, इस धरा के किसी पुच्‍छल तारे से टकराने भर की देरी है कि पुन: तेजोमेध-सभी निरर्थक! उसी प्रकार उसी का और उसी के एक आवश्‍यक एवं अपरिहार्य अटल हि‍स्‍से के रूप में बनी-बनाई बँधी हुई रस्‍सी खोलकर उसे कूटना-यह है हमारा पिष्‍टपेषण। यदि यह महान् पिष्‍टपेषण महत्‍वपूर्ण हो, कुछ अहमियत रखता हो, यदि उसमें जीवन निरर्थक न हो, तो यह भी एक छोटा सा पिष्‍टपेषण कर्तव्‍य ही है, क्‍योंकि उस महान् पिष्‍टपेषण का यह भी एक अपरिहार्य अंग है। कारण वह घट रहा है।

मैं जटाओं को कूटने लगा। हवलदार और वह बंदी यह देखने वहीं खड़े रहे कि मैं यह काम कर सकता हूँ या नहीं, और मेरा मन बहलाने के लिए वे इधर-उधर की गप्‍पें हाँकने लगे-

"महाराज, आपको यह ज्ञात नहीं होगा, जब तिलक [4] और आगरकर को दंड हुआ था तब उन्‍हें इसी कोठरी में रखा गया था। वे जब आपस में बहस करते तब जोर-जोर से बोलने लगते। तब कभी-कभी उन्‍हें चेतावनी देनी पड़ती कि धीरे बोलो!"

"पर वे आपकी बात सुनते थे या उलटे आप पर ही नाराज होते थे?"

"बहस के आवेश में उसके खंडित होने से वे तनिक झुँझलाते। पर फिर धीमी आवाज में बतियाने लगते अथवा चुप हो जाते। और वे वाई के पत्रकार-हाँ, हाँ, वही जो आप कह रहे हैं-वृद्ध लेले-जो कुबड़े थे, वे भी यहीं पर साधारण बंदी थे। उनकी बुद्धि बड़ी कल्‍पनाशील थी। इधर खटमलों की भरमार हो गई थी। लेले बहुत झुँझलाते। एक दिन इस ब्राह्मण ने क्‍या किया कि साधारण बंदी होने के कारण उन्‍हें यहाँ जो घरेलू वस्‍त्र मिलते, उन्‍होंने उनमें से एक महीन परंतु सघन चादर निकाली और वे उसकी, जैसे ताकिये की बनाते हैं, आच्‍छादन की खोल सीने लगे। हमने यूँ ही पूछा, 'शास्‍त्रीजी, यह क्‍या सिलाई कर रहे हैं ? साहब बिगड़ेगा।' उन्‍होंने कहा, 'ठहरो जरा और देखते जाओ। मैंने इन खटमलों के लिए एक रामबाण औषधि ढूँढ निकाली है। आपको भी देता हूँ।' चंद घंटो में खोल तैयार हो गई और देखते-देखते वह बामन उसमें घुस गया। केवल आँख-नाक के छेद खुले रहे। बाकी सर से पाँव तक वह उस थैली में घुस गया, जैसे वह कोई गद्दी हो; और अंदर से उसके बंद खींचकर महाशय शाम होते ही जो लंबी तानकर सोए तो तब उठे जब हमने ही सवेरे दरवाजा खटखटाया। तब से मजाल है एक खटमल ने कभी उन्‍हें सताया हो। दिन में उस थैली को उलटी करके वे उसे धूप में रखते और रात में उसमें घुसकर खर्राटे भरते।"

"तिलक, आगरकर के साथ वे यहाँ थे, उसके बाद भी कभी इधर रहे क्‍या?"

"जी हाँ, रहे थे। परंतु उस समय उन पर कड़ा पहरा रखा गया था। इसी कोठरी में वे थे। एक दिन खटमलों ने उनका लहू चूस-चूसकर रात भर उनकी नींद हराम कर दी। मैंने सवेरे द्वार खोला, देखा तो तिलक खटमलों का शिकार करने में व्‍यस्‍त हैं। मैंने पूछा, 'क्‍यों महाराज, ठीक तो हैं न आप!' वे शांति के साथ मुसकराते हुए बोले, 'ठीक तो हूँ जमादार, केवल कल रात भर आँख नहीं लगी। तनिक भीतर तो आइए, देखिए आपके ये पालतू कीड़े। मैंने देखा, तो खटमलों की पंक्तियाँ भीत पर जा रही हैं। 'परंतु तात्‍या साहब यह जो राजनीतिक कार्य आपने हाथ में लिया है, वह सफल होगा क्‍या?"

हवलदार आदि लोग चले गए। पुन: मैं और मेरा दंड दोनों आमने-सामने एक-दूसरे से परिचित होने के लिए खड़े रहे।

यह परिचय पूरा होता गया। अब कोई संदेह शेष नहीं रहा। आशा नहीं थी, तथापि यह संभावना थी-कदाचित् हेग के निर्णय से मुक्ति संभव हो-पर अब वह समाप्‍त हो गई। अब यह निश्चित है कि संपूर्ण जीवन इसी तरह की किसी कोठरी में सड़ता रहेगा। तो फिर? इसका भी सामना करना होगा, और क्‍या?

वही होगा जो प्रतिकूल है

मेरे इस कष्‍टमय हेतुपूर्वक स्‍वयं पर गिराए गए संकट रूपी पर्वत के नीचे पिसते जीवन में यदि कोई एक नियम अतिशय कटु परंतु हितसाधक सिद्ध हुआ है तो वह यह कि सदैव वही होगा जो प्रतिकूल हो। उसका डटकर सामना करने के लिए मानसिक तैयारी करना।

जिन-जिन व्‍यक्तियों का अत्‍यंत विपरीत देश, काल और परिस्थिति में जन्‍म हुआ हो, फिर भी जो उससे भयंकर संघर्ष कर, उसे पराजित कर, उसकी छाती पर खड़े होकर किसी नवयुग का, किसी महान् ध्‍येय का सुप्रभात देखना चाहते हों, उन्‍हें 'प्रतिकूल ही बहुधा घटित होगा', यह गृहीत कर उसका सामना करना चाहिए। उन्हें नियम से हलाहल पीना ही चाहिए। ऐसा दृढ़ निश्‍चय करके कि प्रतिकूल ही होगा और मैं अपने प्राणों की बाजी लगाकर उसका सामना करूँगा। यदि कदाचित् अनुकूल बात हुई तो उसमें इतनी भी हानि नहीं होगी, प्रत्‍युत अनुकूलता का वह आनंद द्विगुणित होता है। हाँ, यदि मन में यही आस, यही लालसा रही कि जो अनुकूल है वही होना चाहिए और कुछ प्रतिकूल हो जाए, इस असहाय पीढ़ी में जन्‍म लेनेवालों के जीवन में यही अधिक संभव है, तो फिर अचानक टूटे निराशाओं के इस पहाड़ के नीचे हमारा धीरज, साहस चूर-चूर हुए बिना नहीं रहेगा। सिद्धि‍ के मानस सरोवर में क्रीड़ा करना जिस पीढ़ी का अहोभाग्य हो, राजहंस सुखपूर्वक मुक्‍ताफलों का भोजन करके विषतंतुओं का जलपान करे। परंतु जिस पीढ़ी को प्रयासों के मृत सरोवर के विषाक्‍त प्रदेश से मार्ग का अतिक्रमण करना हो, उसे प्रतिकूलता रूपी लोहे के चने चबाकर उन्‍हें हजम करने का अभ्‍यास करना ही होगा।

दारूण आघात

पंरतु जो प्रतिकूल है वही घटित होगा, यह मानकर चलने की थोड़ी आदत और शक्तिवाले मेरे मन पर एकाएक इतना भयंकर आघात हुआ कि मूर्च्‍छा आ जाए। मैं जब लंदन में पकड़ा गया था [5] तभी मैंने समझ लिया था कि अंदमान में पच्‍चीस साल गुजारने पड़ेंगे। मार्सेलिसस में मैं फिर से तब पकड़ा गया [6] जब सारा शिक्षित जगत् कह रहा था कि मुझे फ्रांस को लौटा दिया जाएगा-ऐसा वे निश्चितता से कह रहे थे-फिर भी मैंने मान लिया था कि अधिकतर फाँसी चढ़ना होगा। पंरतु अंत में दोनों ही निराशाओं को झुठलाकर एक तीसरी निराशा अचानक आ धमकी जो एक प्रकार से इन दोनों से भी महाभयंकर थी-पचास वर्ष का दंड[7]। इस तरह की उदास, एकांत कोठरी में अकेले जीवन गुजारना-अकेले एक-एक घंटा गिनते हुए जीवन बिताना! ठीक है-यही होगा।

'हेग' का निर्णय होने से पहले ही पच्‍चीस वर्ष कैसे निकालूँगा, इसका एक मनोमय चित्र बनाया था। उसमें जो माप निश्चित किया था अब वही दुगुना करना है। इन पच्‍चीस वर्षों में इस असहाय, नि:साधन तथा निरूत्‍साही विजय बंदीवास में भला ऐसा कौन सा कर्म किया जा सकता है जिसके अर्पण द्वारा मातृभूमि का ऋण अल्‍प, स्‍वल्‍प मात्रा से ही क्‍यों न हो, हलका हो और मानव जाति की कुछ विशेष सेवा हो सके। राले से लेकर क्‍युरोपॉटकिन तक अनेक महान् बंदियों के चरित्रों का स्‍मरण करके देखा। उस लेखक को जिसने 'पिलग्रिम्‍स प्रोग्रेस' लिखा-लेखन-सामग्री मिलती थी। मुझे पेसिंल का आधा इंच टुकड़ा पास रखना भी मना था। फिर स्‍टेड सरीखे बंदी की तरह उन विषयों पर लेख लिखने का नाम ही नहीं लेना चाहिए, जिन्‍हें अखबारों में निरूपद्रवी समझा जाता था। उस कोठरी में, जिसमें मुझे रखा गया था, पंछी तक पर नहीं मार सकता था, फिर प्रचार की बात ही क्‍या करना!

कागज का टुकड़ा रखना भी जहाँ अपराध समझा जाता हो, वहाँ लेखन! कलम घिसना सर्वथा असंभव ही था। स्‍वयं ही पठन द्वारा ज्ञान प्राप्ति और भूली-बिसरी एकाध पुस्‍तक कभी-कभार हाथ लग जाए तो मात्र पढ़कर संचित किया हुआ ज्ञान उस फलहीन वक्ष अथवा जलाशय में जलसंग्रह की तरह ही व्‍यर्थ होगा जिसके जल से हजारों तो क्‍या, एकाध प्‍यासे की तृष्‍णा का भी शमन नहीं होता, अथवा न ही अन्‍नोत्‍पादन से क्षुधा का शमन होता है। जिन्‍होंने महान् तथा उपयुक्‍त कार्य किए हैं, मेरे समान कारावास तो उनमें से किसी एक को भी नहीं भुगतना पड़ा। ऐसे इस कठोर साधनहीन बंदीवास में भला मैं कौन सा कार्य कर सकता हूँ? यह विकट समस्‍या थी।

महाकाव्‍य

धुर बचपन से ही एक इच्‍छा थी कि मराठी में एक महाकाव्‍य [8] लिखा जाए! क्‍या, किस तर‍ह, इतना ही नहीं अपितु मुझे इस बात का भी निश्चित ज्ञान नहीं था कि महाकाव्‍य होता क्‍या है? पर लिखूँगा, यह निश्‍चय था। उस छूटपन से आज तक यह इच्‍छा सालती रही थी। कर्मक्षेत्र के घमासान में यद्यपि यह मनीषा मन से ओझल हो चुकी थी तथापि कारागृह की एकांत कोठरी की इस शांत धूलि पर लेटते ही यह इच्‍छा पुन: दृष्टिगोचर होने लगी। इस कोठरी में कठोर परिश्रम करते हुए भी कम-से-कम रात्रि में अकेले पड़े रहने पर बत्ती न दी या कागज-पेंसिल का टुकड़ा पास न रखने दिया तो भी एकाध काव्‍य की रचना संभव है। मन-ही-मन कविता रच उसे कंठस्‍थ कर अपने स्‍मृति-प‍त्र पर ही उसे लिखता गया तो इस पर तो कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकता। वर्तमान की इस अत्‍यंत निर्दय साधनहीनता में भी यह कार्य करना तो संभव है ही। और यदि इस तरह एकाध काव्‍य मैं रच सका तो इस बंदीवास से कभी मुक्‍त होने पर और यदि मुक्ति नहीं भी मिली तो भी अपनी मातृभूमि के चरणों में यह एक नवोपहार अर्पण किया जा सकता है। इतना कार्य भी कम नहीं है।

फिर तब तक यह एक कार्य तो कार्यान्वित करूँ जब तक उससे महत्त्वपूर्ण कोई अन्‍य कार्य संभवनीयता की कक्षा में नहीं आ रहा। बस तय हो गया पच्‍चीस वर्षों में एक महाकाव्‍य की रचना करना। यह देखकर कि यदि हेग का निर्णय विपरीत हो गया तो बंदीशाला में हाथों से कठोर परिश्रम करते-करते ही (ऐसा प्रतीत हो गया कि) अन्‍य किसी भी साधन के अभाव में यह एक कार्य तो संभव है। यह देखकार मन की कार्य-पिपासा शांत हो गई सी लगी। छटपटाहट थम गई। हेग का निर्णय विपरीत सिद्ध हो गया। पच्‍चीस वर्षों के बजाय अ‍कल्पित भयंकर दंड हुआ-पचास वर्ष, तथापि वही कार्यक्रम निश्चित किया। इतना ही नहीं, यह देखकर कि अंगीकृत महान् ध्‍येय की सिद्धि के लिए ऐसी निस्‍सहाय एवं निराश अवस्‍था में भी इतना कुछ तो किया ही जा सकता है और अभी भी कुछ ऐसा कार्य करना संभव है जिससे यह जीवन कृतार्थ हो सकता है, मन की उदासी कुछ कम हो गई। ऐसा प्रतीत हुआ कि निष्क्रिय विफलता के भय का बोझ हलका हो गया। आतुर मन ने यह गणना ही कर ली कि प्रतिदिन कम-से-कम दस से बीस कविताओं की रचाना और पुराने हर संस्‍करण के साथ कंठस्‍थ करने का क्रम रखा जाए तो एक या आधा लाख महाकाव्‍य की रचना करना संभव है। तो फिर शुभस्‍य शीघ्रम्-आज ही हो जाए श्रीगणेश। प्रथम श्री गुरूगोविंदसिंह [9] का चरित्र गान।

श्री गोविंदसिंह का चरित्र

क्‍योंकि गोविंदसिंह हुतात्‍माओं के मुकुट मणि थे। महान् यश से मंडित महापुरूष राजप्रासादों के सुवर्ण कलशों जैसे तेजस्‍वी दिखते ही हैं। परंतु आज उनका चरित्र बखानने में, उनके यशोगान करने से मुझे उतनी शांति नही मिल सकती, उलटे मेरे माथे पड़ी असफलता की तीव्रता अधिक कष्‍टप्रद हो सकती है। आज मेरा ध्‍येय यशोमयी राजप्रासाद के पैरों तले गहराई में दबी अपयश की उस नींव का चिंतन करना है। इसीलिए आज मुझे गुरू गोविंदसिंहजी की असफलता की गाथा गानी है। 'चमकोर' दुर्ग से पलायन करते समय जिनका संपूर्ण पराभव हो गया है, जिनके माता-पिता, पत्‍नी-पुत्र, पूरे परिवार का सर्वनाश हो गया है, जिनके शिष्‍यों ने उनके प्रति शपथपूर्वक उठाई निष्‍ठा को त्‍यागकर, ऐन मौके पर उनका परित्‍याग कर पराजय एवं असफलता का ठीकरा उन्‍हीं के सिर फोड़ा फिर भी इस नर केसरी ने दु:ख का हलाहल किसी अपयश का रूद्र सरीखा अवतार धारण कर पचा लिया। गोविंदसिंह का यही अपयश आज मेरे भयंकर दु:ख और पराजय की गहरी नींव पर भावी पीढ़ियों के यशप्रासाद खड़े करेगा।

भावनाओं के मीनार पर आरूढ़ होकर मेरा मन सुदूर दृश्‍य देखने में तल्‍लीन हो रहा था-और मेरे हाथ नारियल की मोटी-मोटी जटाएँ तोड़ने, कूटने में, उन्‍हें सुलझाने में व्‍यस्‍त थे। प्रतिदिन के लिए निश्चित दस-पंद्रह आर्या (मराठी छंद) बन चुकी थीं-जटाएँ सुलझाना भी समाप्‍त हो चुका था। हाथ छिल गए थे, छाले पड़ गए थे, जिनसे लहू रिसने लगा था। इस बात का मुझे स्‍मरण नहीं कि हेग के निर्णय के पश्‍चात् डोंगरी के बंदीगृह में मैं कितने दिन पड़ा रहा। प्रात:काल उठना, व्‍यायाम हेतु टहलते हुए मुखोद्गत योगसूत्रों का पाठ करना, उनमें से अनुक्रम से प्रत्‍येक पर विचार करना, फिर कठोर परिश्रम के तौर पर जो कठोर काम मिले वह करना, उसे करते-करते ही मन में दस-बारह नई कविताओं की रचना और पुरानी कंठस्‍थ्‍य कविताओं की आवृत्ति के पश्‍चात् भोजन करना। भोजन से निपटकर जेल बंद होने के बाद सर्वत्र शांति छा जाने पर ध्‍यान धारणा का अभ्‍यास साधना, उसके पश्‍चात् रात नौ बजे तक सो जाना। नींद बहुत गाढ़ी आ जाती। एकांत कोठरी में इस तरह का कार्यक्रम चलता। कभी-कभी 'प्रवृत्तिचिये राजबिंदीं। पुढां बोधाचिये प्रतिपदीं। विवेक दृश्‍यांची मांदी सारीत'[10]-इस प्रकार विवेक दृश्‍यों के झुंड दूर करने के प्रयास करते हुए भी चिंता तथा उद्वेग अचानक धर दबोचते, जिससे दम घुटने लगता। ऐसा लगता, अपने पीछे अपने कार्य का क्‍या होगा.....यदि....फिर ये कष्‍ट भी...परंतु मन का संतुलन फिर से सँभालता।

 

सर हेनरी कॉटन

एक दिन जेल में यह हल्‍ला हुआ कि मेरे कारण किसी बड़े साहब की पेंशन बंद की गई है। यह क्‍या प्रकरण है? कुछ दिन पश्‍चात् 'केसरी' का एक टुकड़ा अचानक काल कोठरी में मेरे हाथ लग गया। उसके द्वारा इस वार्ता का तथ्‍य थोड़ा-बहुत समझ में आया। लंदन में नूतन वर्ष के उपलक्ष्‍य में वहाँ के भारतीय लोगों की एक गोष्‍ठी आयोजित की गई थी उस समय सभा की भित्ति पर मेरी एक बड़ी सी तसवीर लगाई गई थी। गोष्‍ठी के प्रधान अतिथि सर हेनरी कॉटन जैसे जाने-माने सज्‍जन ने मेरी तसवीर को संबोधित करते हुए साहस, देशभक्ति की अत्‍युत्‍कटता आदि कुछ गुणों की प्रशंसा की थी और इसके लिए खेद भी व्‍यक्‍त किया था कि ऐसे गुणसंपन्‍न नवयुवक का जीवन मात्र पच्‍चीस वर्ष की आयु में ही इस प्रकार नष्‍ट हो रहा है। उन्‍होंने यह आशा भी व्‍यक्‍त की थी कि कम-से-कम हेग का उच्‍चतम न्‍यायालय मत-स्‍वतंत्रता के अधिकारों को न कुचलक मुझे फ्रांस वापस भेजने का निर्णय करेगा। सर साहब के इस भाषण से ही संपूर्ण अंग्रेजी समाज बौखला गया। सावरकर के लिए सहानुभूति का प्रदर्शन! भले ही वह निंदगर्भित क्‍यों न हो, लेकिन थी तो सहानुभूति। किसी ने कहा, इस हेनरी कॉटन की 'सर' के कॉटन शब्‍द के आधार पर सावरकर ने यह उत्‍कृष्‍ट व्‍यंग्य रचना की है-कॉटन माने कपास, सरकी माने बिनौला-अर्थात् कॉटन का बिनौला निकाल डालो। किसी ने कहा, उसकी पेंशन बंद करो। आखिर चाय की प्‍याली के इस तूफान के झोंके के साथ ही राष्‍ट्रीय सभा मंडप के भी डाँवाँडोल होने का आभास होने लगा। तत्‍कालीन अध्‍यक्ष सर विलियम वेडर्बर्न तथा नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने राष्‍ट्रसभा से वापस लौटते समय एक सार्वजनिक सभा में इस विषय का विशेष उल्‍लेख करते हुए सर हेनरी कॉटन के उद्गारों पर सफाई का हाथ फेरा और घोषित किया कि राष्‍ट्रीय सभा सावरकर तथा उनके अनुगामियों के पथ से किसी प्रकार का संबंध तो दूर, रत्‍ती भर सहानुभूति भी नहीं है। 'केसरी' के जिस टुकड़े में मैंने यह वृत्‍तांत पढ़ा था, उसी में केसरीवालों ने एक-दो टिप्‍पणियाँ लिखकर सर हेनरी साहब का बचाव करने का प्रयास किया था। 'केसरी' के लेख में मेरा नामनिर्देश एकवचनी संबोधन से किया हुआ देखकर मुझे मन-ही-मन आश्‍चर्य हुआ। 'सर साहब, यह सावरकर कौन? काला या गोरा, यह भी नहीं जानते। 'ऐसा वाक्‍य सर हेनरी कॉटन के समर्थन में लिखा था। 'केसरी' सरीखे पत्र को भी उस परिस्थिति में यह लिखना पड़ा। परंतु उस समय अपना निरपराधत्‍व तथा शिष्‍टत्‍व प्रस्‍थापित करने के लिए किसी भी राजनीतिक संस्‍था अथवा व्‍यक्ति के लिए सावरकर को घोर अपराधी कहना और उस नाम का अशिष्‍टता से एकवचनी (तू-तड़ाक) उपपदों से उल्‍लेख करना एक अमोघ साधन बन गया था। इंग्‍लैंड में एक अंग्रेज अधिकारी हमारा गौरवपूर्वक उल्‍लेख करे और इधर हिंदुस्‍थान में हमें 'तू-तड़ाक'के बिना बड़े साहसी समाचारपत्र भी संबोधित न करें-इसमें उस समाचारपत्र अथवा व्‍यक्ति विशेष का दोष नहीं है-मेरे विचार से इससे इसी का निदर्शन होता है कि-परतंत्र राष्‍ट्रों की कैसी दुर्गति बनी है, वहाँ मानवता भी कितनी महँगी है।

बलिदानी वीर या अधम

कोठरी के द्वार की सलाखों से कोई झाँक रहा था, "क्‍यों, कैसे हो बैरिस्‍टर, ठीक हो न!"

"हाँ आपके आशीर्वाद से ठीक हूँ।" मैंने कहा।

"ना-ना! महाराज, कहाँ आप, कहाँ हम! कल ही यूरोप से आए अपने एक मित्र से मेरा संभाषण हुआ। उसने बताया, "सारे यूरोप में सावरकर को एक हुतात्‍मा जैसा सम्‍मान मिल रहा है। फ्रांस, जर्मनी आदि देशों के समाचारपत्र आपकी तुलना बुल्‍फटोन-एमेट-मैजिनी के साथ कर रहे हैं। पुर्तगाल में भी समाचारपत्र आपका चरित्र, जैसे भी उपलब्‍ध हो, छाप रहे हैं...। वे सज्‍जन आपसे मिलना चाहते थे परंतु मैंने उन्‍हें बताया कि यह असंभव है। परंतु कम-से-कम आपके दर्शन का तो लाभ हो-इस तीव्रतर इच्‍छा से वे आपके टहलने के समय उस सामनेवाली चाल में खड़े रहेंगे...तनिक आप उधर नजर डालें। परंतु कल बंबई के एक ऐंग्‍लो-इंडियन पत्र ने हेग के विषय में निर्णन लिखते समय आपके लिए जहर उगला है।"

"वह क्‍या? हाँ, कहिए। स्‍तुति सुनने जैसा अपनी निंदा सुनना यद्यपि कार्यकर्ताओं को प्रिय नहीं होता, परंतु सुनना आवश्‍यक होता है।"

"उस समाचारपत्र ने आपको दंड घोषित होने पर, विशेष रूप में आनंद व्‍यक्‍त करते हुए लिखा है-The rascal has at last met with his fate."

मैंने कहा, "बस! इतना ही? चलो, यह तो अच्‍छा ही हुआ। यूरोप में मुझे Martyr (शहीद) कहा गया-इन्‍होंने मुझे Rascal (अधम) कहा। इन दोनों में आत्‍यंतिक निंदा-स्‍तुति के अनायास ही परस्‍पर काट हो जाने से मेरा अपना मूलभूत मूल्‍य ज्‍यों-का-त्‍यों अबाधित ही रहा।"

सुबह कोठरी का द्वार बंद हो जाता, वह पुन: दस बजे खुलता। इस नियम का मैं इतना अभ्‍यस्‍त हो चुका था कि कभी बीच में द्वार खुलने की प्र‍तीक्षा भी शेष नहीं रही। प्रतीक्षा ही नहीं रहने से बंद द्वार देखकर वह अस्‍वस्‍थता जो पहले होती थी, बहुत कम होती जा रही थी। उसपर अचानक मुझे एक साधन मिल गया जो आजकल काम करते समय प्रतीत होनेवाली उकताहट को दूर करता था। कोठरी की छत में एक दरार थी, उसमें एक कबूतर-परिवार ने खपरैल के नीचे अपना डेरा जमाया हुआ था। उसकी ओर देखते हुए मैं कठिन समय काट रहा था। इतने में द्वार खटका। असमय द्वार खटका था-स्‍पष्‍ट है, अपने बंदी बने भाग्य में कुछ नई बात लिखी जानेवाली है। जिज्ञासावश मैंने ऊपर देखा, तो हवलदार ने कहा, "चलो, साहब बुलाते हैं!" चाहे किसी बहाने भी क्‍यों न हो परंतु इस एकांत कोठरी से बाहर निकलने के लिए किसी भी कैदी का मन इतना तत्‍पर होता है कि 'चलो' शब्‍द कान में पड़ते ही बंदी के मन में वैसा ही उत्‍साह भर देता है जैसा तड़ाक् से टूटते हुए रस्‍से की आवाज उससे बँधे हुए चौपाये के मन में पल भर के लिए ही क्‍यों न हो, भरपूर चपलता भर देती है। मैं उठा। साहब किसलिए बुलाते हैं, यह पूछने का मन हुआ परंतु जब तक काई कुछ न कहे तब त‍क किसी भी अधिकारी से स्‍वयं कुछ भी पूछना नहीं चाहिए, ऐसी प्रथा होने के कारण मैं कुछ बोला नहीं। पर वह सुशील हवलदार ही धीरे से बोला, "लगता है, कोई मिलनी आई है।"

 

पत्‍नी से भेंट

कार्यालय में आते ही मैंने देखा, सलाखों की खिड़की के पास मेरे बड़े साले साहब [11] खड़े हैं-साथ में मेरी धर्मपत्‍नी[12]। बंदीगृह के वेश में, कैदी के दु:खद स्‍वरूप में, पैरों मे जकड़कर ठोंकी हुई भारी बेडि़यों को यथासंभव सहज उठाए हुए मैं आज पहली बार उनके सामने खड़ा हो गया। मेरे मन में धुकधुकी हो रही थी। चार वर्ष पूर्व जब इसी बंबई से मैं इनसे विदा लेकर विलायत चला गया, उनकी आकांक्षा थी कि वापस लौटते समय मैं बैरिस्‍टरी के रोबदार गाउन (चोगा) में तथा उन भाग्‍यशाली लक्ष्‍मीघरों के मंडल से घिरा आशा एवं ऐश्‍वर्य की प्रभा से दमक रहा हूँगा। लेकिन आज मुझे इस तरह निस्‍सहाय, निराशा की बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखकर उन्‍नीस-बीस वर्षीय उस बेचारी युवा रमणी के हृदय को कितनी ठेस पहुँची होगी? दोनों सलाखों के पीछे खड़े थे। मुझे छूने के लिए भी उनपर प्रतिबंध लगाया गया था। पास ही पराए लोगों का कड़ा पहरा। मन में ऐसे भाव उमड़ रहे हैं, जिनको शब्‍दों का सानिध्‍य भी संकोचास्‍पद होता है। हाय! पचास वर्षों के अर्थात् आजीवन बिछोह के पूर्व विदा लेनी है और वह भी इन विदेशी निर्दयी काराधिकारियों के स्‍नेहशून्‍य दृष्टिपातों की कक्षा में। इस जन्‍म में अब आपकी-हमारी भेंट लगभग असंभव ही है। ऐसा कहनेवाली वह भेंट!

आकाश आँधी-पानी से भर जाए, ऐसे विचार अचानक एक ही क्षण में हृदय में भर आए, परंतु दूसरे ही क्षण हृदय की विवेक चौकी पर उन्हें रोका गया। उनके सारे झुंड छिन्‍न-विच्छिन्‍न किए गए और दृष्टि मिलते ही नीचे बैठकर मुसकराते हुए मैंने पूछा, "क्‍यों देखते ही पहचान लिया मुझे? यह तो केवल वस्‍त्र परिवर्तन हुआ है। मैं तो वही हूँ। सर्दी का निवारण करना ही वस्‍त्रों का प्रमुख उद्देश्‍य होता है, जो इन कपड़ों द्वारा भी पूरा हो रहा है।" थोड़ी देर में विनोद-निमग्‍न होकर वे दोनों इतने सहज होकर वार्त्तालाप करने लगे, जैसे वे अपने घर में बैठकर ही गपशप कर रहे हों। अवसर पाकर मैंने बीच में ही कहा, "ठीक है, ईश्‍वर की कृपा हुई तो पुन: भेंट होगी ही। इस बीच कभी इस सामान्‍य संसार का मोह होने लगे तो ऐसा विचार करना कि संतानोत्‍पत्ति करना, चार लकड़ी-तिनके जोड़कर घोंसला बनाना ही संसार कहलाता हो तो ऐसी गृहस्‍थी कौए-चिडि़या भी करते हैं। परंतु गृहस्‍थी चलाने का इससे भी भव्‍यतर अर्थ लेना हो तो मानव सदृश घरौंदा बसाने में हम भी कृतार्थ हो गए हैं। हमने अपना घरौंदा तोड़-फोड़ दिया, परंतु उसके योग से भविष्‍य में हजारों लोगों के घरों से कदाचित् सोने का धुआँ भी निकल सकता है। उस पर 'घर-घर' की रट लगाकर भी प्‍लेग के कारण क्‍या सैकड़ों लोगों के घर-बार उजड़ नहीं गए? विवाह-मंडप से दूल्‍हा-दुलहन को कराल काल के गाल में खदेड़कर नियति ने कितने जोड़ों को बेजोड़ा किया। इसी विवेक का दामन पकड़कर संकटों का सामाना करो। मैंने सुना है, कुछ वर्षों के पश्‍चात् अंदमान में परिवार ले जाने की अनुमति दी जाती है। यदि ऐसा हुआ तो ठीक ही है, परंतु यदि ऐसा नहीं हुआ तो भी इस धैर्य के साथ रहने का प्रयास करें कि कुछ भी हो, इस समय को सहना ही होगा।"

"हम इस तरह का ही प्रयास कर रहे हैं। हम एक-दूसरे के लिए हैं ही। हमारी चिंता न करें, आप स्‍वयं का जतन करें, हमें सबकुछ मिल जाएगा।" इस तरह हमारे प्रश्‍नोत्तर का अनुक्रम चल ही रहा था कि सुपरिटेंडेंट ने 'समय समाप्‍त होने' का संकेत किया। अत: मैंने होंठों पर आए शब्‍दों को आधा-अधूरा ही छोड़कर इस भेंट को समाप्‍त किया। परंतु जाते-जाते साले साहब ने जल्‍दी-जल्‍दी कहा, "अच्‍छा, परंतु एक नियम का अवश्‍य पालन करें। प्रतिदिन प्रात:काल 'कृष्‍णाय वासुदेवाय हरये परमात्‍मने! प्रणतक्‍लेशनाशाय गोविंदाय नमोस्‍तु ते।।'-इस मंत्र का जाप नियमपूर्वक अवश्‍य करें।" उनकी ओर प्रशंसापूर्ण दृष्टि से देखकर मैंने उत्तर दिया, "अवश्‍य।"

वे वापस लौट गए। मैंने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा। उन लोगों को, जो वापस लौट रहे थे, यह दिखाने के लिए कि मुझे ये श्रृखंलाएँ कतई भारी नहीं लगतीं, चलते समय मैं हेतुपूर्वक उन्‍हें खनकाते हुए जेल के भीतर लौट आया। परंतु मेरा मन? अभी-अभी मैंने उन्‍हें खनकाते हुए जेल के भीतर लौट आया। परंतु मेरा मन? अभी-अभी मैंने उन्‍हें जिन शब्‍दों का उपदेश दिया था, उन्‍हीं का मन ही मन ज़ोर से उच्चारण किया- मन को डांट पिलाई और जिस तरह बछड़े को खींचकर लाया जाता है, उसी तरह मन को खींचकर विवेक के खूँटे से बाँध दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मेरी संपूर्ण शक्ति निचुड़ गई है। कोठरी में बंद करके हवलदार के जाते ही मैं निढाल होकर भूमि पर लेट गया। देखा तो ऊपर कबूतर के बच्‍चे अकेलेपन के दु:खित स्‍वर में आक्रोश व्‍यक्‍त कर रहे थे, तड़प रहे थे। उनकी माँ सवेरे एक साहब की बंदूक का शिकार बन गई थी और बच्‍चे, वह हमेशा की तरह चोंच में दाने लेकर अब आएगी, तब आएगी, ऐसी राह देखते-देखते निराश और भयभीत हो गए थे तथा वियोग की वेदना से फड़फड़ाते हुए आक्रोश कर रहे थे।

हाय! हाय! मेरे बिछोह की वेदनाओं का यथासंभव जितना चित्रण हो सके उतना करूण, दारूण बनाने के लिए ही किसी दुष्‍ट चितेरे ने जान-बूझकर कबूतर के बच्‍चों के शोक की इस पृष्‍ठभूमि का चयन किया है? यह तनाव मन के लिए असह्य था! भूमि पर लेटे-लेटे ही आँख लग गई इतने में-

"उठिए, अरे सो रहे हैं क्‍या! साहब काम के समय आपको यदि साहब ने सोते हुए देख लिया तो वे हमें क्‍या कहेंगे।" दरवाजे की सलाखों पर अपना डंडा जोर-जोर से खड़काते हुए सिपाही बोला।

मैं उठ गया। पुन: वही तूमार-उसे कूटना खोलना-वही पिष्‍टपेषण...

दंड प्रारंभ हुए प्राय: एक महीना बीत गया था। मुझे अभी भी वही भोजन मिलना था जो कच्‍चे बंदी को दिया जाता है, अत: मुझे दूध भी मिलता था। मैं अभी-अभी भोजन से निपटा था। इतने में हवलदार ने मुझे बाहर बुलाया और तभी सुपरिटेंडेंट भी आया, "अपना बोरिया-बिस्‍तर उठा लो।" मैंने अपना बिस्‍तर उठाया। सोचा, यह क्‍या-कहीं अंदमान तो नहीं जा रहे हैं। द्वार के पास आया, वहाँ जेल की गाड़ी खड़ी थी। मैं भीतर बैठ गया, गाड़ी बंद हो गई, इतनी कि बाहर का कुछ भी नहीं दिख रहा था। न दिशा, न मार्ग-केवल खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी। गाड़ी रूक गई-एक और जेल के पास अपने आपको खड़ा पाया। भीतर सोलह संस्‍कार किए गए, जो एक नए बंदी के लिए किए जाते हैं। आखिर कोठरी में बंद हो जाने के बाद देखा तो मैं एक ऐसे कारागृह में बंद हो गया था जो डोंगरी के कारागृह से भी कठोर एकांत तथा निर्जन स्थिति में है। हाँ, दूर एक बंदी वॉर्डर दिख रहा है। थोड़ी देर में भोजन आ गया। द्वार खोलते-खोलते उस अंग्रेज सार्जेंट ने, जिसे मेरे लिए भारतीय हवलदार के बदले हेतुपूर्वक भेजा गया था-इधर-उधर देखकर (Good day कहते हुए) राम-राम किया। मैंने धीरे से पूछा, "यह कौन सी जेल है?" उसने साथ के भारतीय बंदी को पता न चले, इसलिए स्‍पेल करते हुए बताया-Byculla (भायखला)।

प्रकरण-२

भायखला कारागृह

डोंगरी की एकांत कोठरी से भायखला की एकांत कोठरी पर चढ़ते समय गहराते एकांत तथा उदासीनता की अगली सीढ़ी पड़ी। डोंगरी में आसपास कोई मनुष्‍य नहीं रहता था, परंतु कम-से-कम दूर से कोलाहल तो सुनाई देता था। आसपास मनुष्‍य ही नहीं बल्कि एक-दो पुस्‍तकें तथा वे वस्‍तुएँ भी जिनका मैं अभ्‍यस्‍त था, शेष नहीं थीं। सामान का भी एक तरह का संग-साथ होता है। चिरपरिचित वस्‍तुओं से दूर होने से भी खाली-खाली सा प्रतीत होता है, जैसे परिचित जनों के वियोग से सबकुछ शून्यवत् लगने लगता है। कोठरी का निरीक्षण किया। ऐसा कुछ नहीं था जो देखने योग्‍य हो। चहलकदमी करने लगा। मन-ही-मन सोचने लगा, मेरे पकड़े जाने से हमारी क्रांतिकारी संस्‍था की क्‍या स्थिति होगी? अब आगे की योजना बनानी चाहिए।

सायंकालीन भोजन आ गया। मेरे मन में राजनीति के विचारों से जो खलबली मची थी- अन्‍य विषय मिलने से वह कुछ शांत हो गई। भोजन से निपटकर, बरतन माँजकर पुन: उस हाल ही में बंद हुए सलाखोंवाले द्वार के निकट खड़ा रहा। साँझ हो गई। वही संध्‍या, वही रात, वही तात्त्विक विचारों से मिली हुई तात्‍कालिक शांति 'सप्‍तर्षि' कविता [13] के उत्तरार्ध का विषय बन गई है। आज दो आवेदनपत्र दिऐ थे। डोंगरी छोड़ते ही उधर जो थोड़ा सा दूध मिलता था वह भी बंद हो जाने से तथा भायखला में केवल ज्‍वार की रोटी खाने से पेट खराब हो जाता था, अत: यह माँग की थी कि पुन: दूध दिया जाए। मुझसे अपने घर की तथा सरकार की सारी-की-सारी पुस्‍तकें छीन ली गई थीं। मेरी दूसरी माँग यह थी कि उनमें से कोई एक पढ़ने के लिए मिले। इस आवेदनपत्र का उत्तर मिल गया-दूध की कोई आवश्‍यकता दिखाई नहीं देती-बाइबिल के विषय में सोचें।

आखिर कुछ दिनों बाद बाइबिल मिल गई। बहुत दिन से पुस्‍तक न होने के कारण हाथ में आते ही लगा कि पढ़ा जाए। बाइबिल खोली, तभी प्रहरी ने बताया-पुस्‍तक कोठरी में नहीं रखी जाएगी, शाम के समय कामकाज समाप्‍त होने पर बस एक-दो घंटों के लिए ही मिलेगी। अत: उसे वापस लौटाया और पुन: कठोर परिश्रमार्थ जो काम दिया था, वह करने लगा। करते-करते मन-ही-मन कविता की रचना करता रहा। आखिर शाम के समय बाइबिल हाथ पड़ी।

ईसा मसीह के चरित्र तथा उपदेश के विषय में मेरे मन में हमेशा आदर भाव था। फ्रांस में मैं बाइबिल की नई पोथी (न्‍यू टेस्‍टामेंट) का चिंतन और अध्‍ययन करता था। अब गोविंदसिंह की 'आर्या' समाप्‍त होने को ही थी और 'सप्‍तर्षि' भी पूरा होने को आ गया था। भावी काव्‍य-रचना के लिए आवश्‍यक ऐतिहासिक साहित्‍य साधन प्राप्‍त नहीं थे, और यह भी स्‍पष्‍ट निश्चित नहीं किया था कि किस विषय पर काव्‍य-रचना करनी है, अत: पहले ईसा का चरित्र ही मराठी में कविताबद्ध करने का निश्‍चय किया। बाइबिल की पुरानी पोथी (ओल्‍ड टेस्‍टामेंट) का एतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से अध्‍ययन करते समय ज्‍यू लोगों के राष्‍ट्रीय कारावास की दुर्भाग्‍यपूर्ण तथा असहाय अवस्‍था और उससे छुटकारा पाने के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयत्‍नों का वर्णन पढ़ रहा था....परंतु ये लोग मुझे अंदमान क्‍यों नहीं भेजते? मैंने कुछ ऐसा सुना था कि दंड घोषित होने के पश्‍चात यदि बंदी को काले पानी नहीं भेजा गया तो दंड के वे छह महीने गिने नहीं जाते। इसके अतिरिक्‍त मैंने अंदमान रेग्‍यूलेशन में भी पढ़ा था कि छह महीने कारावास भुगतने के बाद बंदी को बाहर द्वीप पर छोड़ा जाता है और जिसे थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना आता है, उस कैदी को सौ-सौ लोगों की देखरेख और अन्‍य महत्त्वपूर्ण कृषि कार्य भी सौंपे जाते हैं। यदि ऐसा हो तो कारागृह की इस कोठरी के जीवन से उधर का जीवन अत्‍यधिक सुसह्य होने की संभावना है। कम-से-कम सागर तट पर पल भर रूककर खुली हवा में साँस लेना तो संभव होगा-लोगों में घुल-मिल जाने का सुअवसर प्राप्‍त होगा, उसके योग से पुन: प्रचार और लोकोपयुक्‍त कार्य भी करना संभव होगा। दस वर्षों के पश्‍चात् अपने परिवार के साथ घर भी बसाया जा सकता है। ऐसी अवस्‍था में मेरा जीवन किंचित् बहुत सुसह्य हो जाएगा। परंतु मन तुरंत खट्टा हो जाता। भई, उनका क्‍या होगा जिन्‍हें मेरे संग पाँच-दस-पंद्रह वर्ष का दंड हुआ है और उनका जिन्‍हें कोठरी के इस बंदीगृह की सुरंग में ही सारी सजा काटनी है? उनमें से कोई मेरे बाल मित्र थे, कोई विश्‍वस्‍त सहयोगी थे तो काई अभिन्‍न हृदय सहचारी थे-प्राय: सभी मुझपर असीम श्रद्धा रखते थे, मुझसे निस्स्‍वार्थ प्रेम करते आए थे। उनपर तथा उनके परिवारों पर आ पड़े संकट में मैं उन्‍हें नहीं बचा सका, न ही उनकी किसी तरह सहायता कर सका। इस भ्रांति से कि मेरे कारण ही उन्‍हें इतनी सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, क्‍या वे मुझसे रूष्‍ट नहीं हुए होंगे? उसपर भी मुझे उनकी उन वृद्ध ममतामयी माताओं पर, जिन्‍होंने उन्‍हें पाल-पोसकर बड़ा किया और अब उनसे उनकी अंधे की लाठी नियति ने अचानक छीन ली-दया आती। और वह वज्रनिश्‍चयी वीर-जिन्‍होंने मात्र सुनने के लिए भी दुस्‍सह यातनाएँ झेलीं-पर 'उफ' तक नहीं किया, न ही मेरे विरूद्ध एक शब्‍द कहा, और उन युवकों की सब यातनाओं को ही भूल गया। पुन: सोचता, कहीं मैं पिछड़ तो नहीं गया? सबसे आगे रहकर सामने हो रहे कठोर-से-कठोर आघातों को झेलने के लिए क्‍या मैं छाती तानकर आगे नहीं खड़ा रहा? तो फिर अब जो अटल, अपरिहार्य है, जो सबका कार्य भाग है, उसके भागी भी सभी होंगे। और जो भोगना पड़ा वह तो कुछ भी नहीं है, अभी तो...।

मैने पहले भी एक निवेदन किया था-जिसमें यह प्रार्थना की थी कि मुझे दिए गए दो आजीवन कारावासों का दंड एककालिक किया जाए। उस प्रार्थना के समर्थनार्थ जो कारण मैंने प्रस्‍तुत किए थे, उनमें से एक यह था कि दंडविज्ञान में आजीवन कारावास का अर्थ मनुष्‍य के जीवन के कर्तृत्‍व का सामान्‍य काल किया जाता है। इंग्‍लैंड आदि देशों में यह अवधि चौदह वर्ष की है, हिंदुस्‍थान में वे अपराध के हिसाब से बीस अथवा पच्‍चीस वर्ष मान सकते हैं। यह अवधि ही दंडविज्ञान में जीवन काल है। अधिक-से-अधिक दंड की यही अवधि है। अत: मुझे प्राप्‍त दो आजन्‍म कारावास यदि एककालिक नहीं किए गए और एक आजन्‍म कारावास काटने के उपरांत दूसरा आजन्‍म कारावास काटने का अर्थ लिया गया तो दंडविज्ञान की भाषा में ही इस जन्‍म की सामाप्ति के पश्‍चात् यह दंड भुगतने के लिए दूसरा जन्‍म लेना चाहिए-यह हास्‍यास्‍पद होगा और वास्‍तव में यह पचास वर्ष काले पानी की भीषण पद्धति से मरने का अर्थ है-यह जन्‍म समाप्‍त करके दूसरे जन्‍म में भी दंड भोगना है। तो यह हास्‍यास्‍पद अर्थ टालने के लिए भी मेरी मुक्ति का वर्ष १९६० न रखते हुए आजन्‍म कारावास अर्थात् पच्‍चीस वर्ष-जो अधिक-से-अधिक दंड समझा जाता है-ही निश्चित किया जाए। इस आवेदनपत्र का आज उत्तर आ गया। यह निर्णय दिया गया था कि 'आपका आजन्‍म कारावास एककालिक न करते हुए वह क्रमानुसार भोगना पड़ेगा। यही निर्णय उचित है, अत: आपका दंड पचास वर्ष तथा मुक्ति का वर्ष १९६० [14] ही रहेगा।' यह बताने के लिए जो एक अंग्रेज सज्‍जन आए थे, उन्‍होंने मेरे आवेदनपत्र की परिभाषा का हेतुपूर्वक अवलंब करते हुए मुझसे विनोदमिश्रित स्‍वर में कहा, "सावरकर साहब, आखिर सरकार ने यही निश्चित किया कि आपको इस जन्‍म की आजन्‍म कारावास की सजा काटने के बाद अगले जन्‍म में भी आजन्‍म कारावास काटना होगा।" मैं भी हँसते हुए बोला, "तो फिर इसमें भी कम-से-कम एक समाधान की बात यह है कि सरकार ने हिंदुओं के पुनर्जन्‍म के सिद्धांत को स्‍वीकार कर लिया है और ईसाई धर्म के पुनरूत्‍थापन का सिद्धांत छोड़ दिया है!"

य‍ह क्‍या? आज इतना शीघ्र भोजन? कारागृह में भले ही जान चली जाए, परंतु पूर्व नियोजित कार्यक्रमानुसार ही चलना होता है। यहाँ पर सबके लिए इतना समयशील रहना होता है। भोजन के‍ लिए, अन्‍न के लिए, मृत्‍यु आ जाए तो भी भोजन जल्‍दी नहीं आ सकता, यदि आवश्‍यक हो तो मृत्‍यु भोजन आने तक रूके। तो फिर भला आज यह असमय भोजन क्‍यों? अर्थात् कुछ-न-कुछ नया घटनेवाला है। मैंने पहरे पर खड़े गोरे अधिकारी की ओर जिज्ञासु दृष्टि से देखा। उसने अपनी टोपी पीछे करने के बहाने अपने हाथ दूर तक पीछे ले जाकर दो बार हिलाए। अथात् हमें कहीं और पहुँचना है। भोजन हो गया। भित्ति पर एक नुकीले कंकर से कुछ कविताएँ घसीटकर लिखी थीं-उन्‍हें जल्‍दी-जल्‍दी पढ़कर रगड़-रगड़कर साफ किया-जिससे किसी को उनका पता न चले। इतने में सिपाही ने 'चलो' कहते हुए द्वार खोला। गोरे सार्जेंट के अधीन हमें कारागार अधीक्षक को सौंपा गया, जैसे हम कोई निर्जीव वस्‍तु हों। मोटर-रेल, पुन: स्‍टेशन। यह पता चला-यह ठाणे है और हमें वहीं के कारागृह में जाना है।

प्रकरण-३

ठाणे कारागृह

कारागृह में जहाँ-तहाँ गड़बड़। पचास वर्ष दंड का, काले पानी का एक बैरिस्‍टर बंदी! अधिकारियों का कड़ा आदेश कि कोई मेरी ओर आँख उठाकर भी न देखे। सारे वॉर्डर और कैदियों को बाहर निकालकर, एक भाग पूरा खाली करके रखा था। परंतु उस कठोर आदेश के बावजूद बंदीगृह की जिज्ञासा दबाते नहीं बनी। उस कोठरी पर, जिसमें मुझे रखा गया था, दुष्‍ट-से-दुष्‍ट और क्रूरता में विख्‍यात मुसलिम वॉर्डर नियुक्‍त किए गए थे। पूरा कठोर एकांत। भोजन आ गया। एक कौर भी गले से उतरना असंभव प्रतीत हो रहा था। बाजरे की घटिया रोटी और जाने कौन सी बहुत खट्टी भाजी जिसे मुहँ में भी नहीं डाला गया। रोटी टुकड़ा तोड़ना, थोड़ा चबाना, उसपर घूँट भर पानी पीना और उसके साथ गटक जाना-इस तरह रोटी खाई। जल्‍दी ही शाम हो गई। कोठरी बंद करके लोगों के जाते ही निढाल होकर मैं बिस्‍तर पर लुढ़क गया। अँधेरा छाने लगा। इतने में कहीं से ऐसे मनुष्‍य की आवाज आई जिसे स्‍वयं सुनकर लोग भयभीत हो जाएँ। धीरे से देखा, दुष्‍टों में दुष्‍ट जो वॉर्डर मेरे लिए नियुक्‍त किए गए थे, उनमें से एक बंदी वॉर्डर मुझे हौल से संकेत कर द्वार के निकट बुला रहा है। मैं चला आया। इधर-उधर देखकर उस बंदी वॉर्डर ने कहा, "महाराज, आपकी वीरता की ख्‍याति हमने सुनी है। ऐसे शूर पुरूष के चरणों का मैं दास हूँ। आपके लिए मुझसे जो भी बन पड़े, वह सब करूगाँ। अब मैं एक समाचार देता हूँ। परंतु वह आपके पास से फूटना नहीं चाहिए अन्‍यथा मैं मारा जाऊँगा। आप वीर हैं, चुगली जैसा दुष्‍कर्म आप कदापि नहीं करेंगे, फिर भी आपको सावधान किया है।" इस तरह बिना रूके परंतु बहुत ही दबे स्‍वर में बोलते और अंदर घुसते हुए उसने कहा, "आपका भाई यहीं पर है।"

"कौन सा भाई?"

"छोटा।" उसे संदेह हुआ, कोई देख तो नहीं रहा, वह झट से पीछे हट गया। मैं भी भीतर खिसक गया।

कनिष्‍ठ बंधु[15]

छोटा भाई! बीस की आयु के नीचे का वह लड़का, जिसे अहमदाबाद में लॉर्ड मिंटो पर बम फेंकने के आरोप में अठारह वर्ष की आयु में ही जेल में बंद होकर साहस के साथ उन यंत्रणाओं का सामना करने का अवसर मिला था। अहमदाबाद से उसे छोड़ा गया तो घर आकर बिस्तर पर जरा पीठ ही टिकाई थी कि राज्यक्रांति तथा राजनीतिक हत्या के भयंकर आरोपों में उसे पुनः पकड़कर कारागार में डाल दिया गया। लेकिन वर्ष भर एक के बाद एक यातनाओं, धमकियों तथा निर्दयता के आघात सहते हुए उस कोमल आयु में भी अपने कठोर निश्चय तथा अंगीकृत व्रत से वह लेश मात्र विचलित नहीं हुआ। वह मेरा अनुज। माता-पिता की छत्रछाया बाल्यावस्था में ही उठ जाने के कारण मैं ही उसका माता-पिता बन गया था। कल-परसों तक पल भर मुझसे दूर होने पर जो रोने लगता वही मेरा छोटा भाई यहाँ पर है, मेरी तरह ही बेड़ियों में जकड़ा हुआ तथा चक्की पीसने जैसा कठोर कार्य कर रहा है। मानो उसके ये सारे कष्ट कम थे, इसलिए उसे आज मेरे आजन्म कारावास का समाचार दिया जाएगा! मेरे आजन्म कारावास का उन्हें पता था, तथापि लगभग सभी को विश्वास था कि हेग में मैं छूट जाऊँगा और पुनः फ्रांस भेज दिया जाऊँगा। इसी आनंद में मेरे ये साथी अपने दुःख भूले हुए थे परंतु अब उनका अंतिम आशा-तंतु टूट जाएगा। मैं सचमुच ही काला पानी जाऊँगा और यह समाचार मैं स्वयं उन्हें दूंगा। एक बड़े भाई तो पहले ही आजन्म कारावास पर काला पानी चले गए थे। आज मेरा भी चिरवियोग होगा। आज हमारा यह बालक सचमुच अनाथ हो जाएगा। जब उसके मन में यह दारुण सत्य उतरेगा कि मैं लगभग फिर कभी न दिखने के लिए ही अंदमान जाऊँगा, तब उसके कोमल मन की कैसी अवस्था होगी? और मुक्ति के पश्चात् वह कहाँ जाएगा? उसे कौन सहारा देगा? कौन उसकी शिक्षा पूरी करेगा? यह नन्हा बालक जिस किसी द्वार पर पहुँचेगा, उसके द्वार उसी के माथे पर धड़ाधड़ बंद कर दिए जाएँगे। दुःखावेग में ये सारे विचार एक साथ तरंगित होकर पुनः डूब गए। उनमें कुछ विचार पुनः हृदय में उथल-पुथल मचाते रहे।

 

दादा , यह लीजिए

वही वॉर्डर फिर पास आया। काफी अंधेरा हो गया था।

"दादा!"

"हाँ।"

"यह लीजिए।" कहते हुए उसने एक पाटी मेरे हाथ में दी और हिदायत दी कि सुपरिटेंडेंट साहब ने सभी वॉर्डरों को यह आज्ञा दी है कि आपको आपके भाई का समाचार यदि किसी ने दिया तो उसे दस वर्ष का काले पानी का दंड दिए बिना नहीं छोड़ा जाएगा। आपने अपने मुख से एक शब्द भी निकाला तो मैं मर जाऊँगा। इतना गिड़गिड़ाता हुआ वह पीछे घूम गया और दूर जाते ही जोर-जोर से जूते चरमराता तथा तालबद्ध डग भरता हुआ पहरा देने लगा। वह पाटी मेरे छोटे भाई का पत्र था। दूर कहीं लालटेन जल रही थी उसके प्रकाश में थोड़ा सा दिख रहा था। उसी उजाले में मैंने अत्यंत ममता से उस पत्र को पढ़ लिया। उसमें दुःख तथा तेजोभंग का एक शब्द भी नहीं था इसके विपरीत एक धैर्यशाली संदेश भेजा गया था कि अंगीकृत व्रत की पूर्ति के लिए इससे भी अधिक कठोर तपस्या क्यों न करनी पड़े, चिंता नहीं। मैंने ठान लिया कि इस पत्र का उत्तर भेजूं। अंदमान में एक वर्ष में एक पत्र भेजने की अनुमति दी जाती है, परंतु मैंने सुना था कभी-कभी ऐसी सहूलियत भी नहीं मिलती। अत: हो सकता है बाल को पत्र लिखने का यह अंतिम अवसर ही हो। मैंने उस वॉर्डर को संकेत किया। वह दबे कदम आ गया। परंतु यह कहते हुए कि रात में देखा जाएगा, वह चलता बना।

आधी नींद पूरी हो चुकी होगी। दरवाजे के सीखचों के पास धीमी खड़खड़ाहट सुनाई दी। मेरे कान खड़े हो गए, मैं चौंकते हुए उठ गया। देखा तो वॉर्डर दरवाजा खड़खड़ा रहा था। उसने हाथ से संकेत किया 'लिखिए' और लालटेन समीप ले आया। मुझसे एक शब्द भी बोलते हुए यदि वह पकड़ा जाता तो उसे दंड हुए बिना नहीं रहता। दुष्टों में दुष्ट समझे जानेवाले इस घातक डाक के मन में भी मेरे लिए इतनी सहानुभूति है, यह देखकर मैं दंग था यही अनुभव आगे चलकर मुझे बार-बार हुआ। मैं उसका आभार प्रदर्शित करने लगा, परंतु जल्दी-जल्दी में उसने कहा, "दादा, तुरंत से पहले लिखकर दो।"

 

छूटेंगे या मरेंगे

तथापि शंका हुई, 'मुझसे लिखवाकर इस पाटी को कहीं यह बाल के हाथ न सौंपकर अधिकारियों को न सौंप दे? मेरा जीवन गुप्तचरों से दाँव-पेंच खेलते हुए व्यतीत हुआ था। अतः मैंने किसी का भी नाम, गाँव, अता-पता या कोई विशेष कार्यक्रम न लिखते हुए अंदमान के अंधेरे फलक पर आशाओं की दो-तीन तूलिकाएं मारते हुए लिखा कि 'यदि वहाँ के नियमानुसार मुझे अपना परिवार पाँच दस वर्षों के लिए ले जाने की अनुमति दी गई तो मैं अपना जीवन साधना में व्यतीत करूँगा और यदि मैं पुन हिंदुस्थान की पावन धरती के तट पर अपना पैर नहीं रख सका तो 'ततः प्राचेतस शिष्यौ रामायणमितस्ततः मैथिलेयी कुशलवौ जगतुर्गुरुचोदितौ' की तरह ही, उन अभिनव कुमारों के कंठों से देश भर में प्रचार करूँगा। एक जीवन की सफलता के लिए बस यही एक कार्य समर्थ है। इस योजना के अनुसार मैं अंदमान में पच्चीस वर्ष व्यतीत करूँगा। परंतु यह एक आजन्म कारावास भुगतने के पश्चात् भी यदि मुझे छोड़ा नहीं गया तो केवल छूटेंगे या यों ही मरेंगे, यह मेरा निश्चय है। तुम चिंता मत करना अथवा इस विचार से अपना मन छोटा नहीं करना कि जीवन विष हो गया। वाष्पयंत्र को सक्रिय करने के लिए अपनी देह को ईंधन बनाकर यदि किसी को जलते-सुलगते रहना ही है तो भला वह हम ही क्यों न हों? इस तरह मात्र जलते रहना भी एक कर्म ही है। इतना ही नहीं, अपितु महत्कर्म है।' [16] बॉर्डर ने संकेत रूप में खाँसकर सूचित किया, 'जल्दी करो'। मैं पाटी को द्वार के निकट रख पीछे हट गया। जाते-जाते उससे कहा, "मैं चाहता हूँ, मेरे कारण आपको जरा सा भी कष्ट न पहुँचे। आप चाहें और यदि आपको यह कर्तव्य लगता हो तो ही ऐसा साहस करें।" वह मुसकराया, "छि., यह कैसा साहस! दादा, मैं कोई चोर-उचक्का नहीं हूँ। हमने भरे गाँव में प्रवेश करके सरे बाजार डाका डाला है और लड़ते-लड़ते निकल भी गए। दादा, मैं शूर पुरुष हूँ, और इसीलिए आप जैसे साहसी, पराक्रमी पुरुष का मैं बंदा हूँ। भला मेरा कैसा साहस! मेरी मुक्ति होने में दो महीने शेष हैं। साहस तो आपका है कि ऐसे प्रसंग में भी आप इतने प्रसन्न हैं।"

 

पत्र पहुँचा दिया

उसने जाकर विश्वासपूर्वक बाल को पत्र पहुँचाया। परंतु उसकी व्याख्या मेरे ध्यान से नहीं उतरी। डाकू चोरी को पाप और तुच्छ कर्म समझते हैं! माँग जाति के लोग डोमों को नहीं छूते! इसी तरह यह भी। दूसरे दिन मैंने उसे अन्योक्ति द्वारा सूचित करने का प्रयास किया- माना कि स्वार्थ हेतु लूटमारएक प्रकार से वीरता है तथापि वह श्रेयस्कर अथवा प्रशंसनीय नहीं है। वह भी समझ गया और आगे फिर कभी उसने डींग हाँककर डाका डालने का उल्लेख नहीं किया।

मेरे आने के पश्चात एक-दो दिन के अंदर ही बाल को ठाणे से स्थानांतरित करके कहीं अन्यत्र भेजा गया। अधिकारी जानते थे, यद्यपि इसमें संदिग्धता थी कि पुनः उसकी भेंट होगी या नहीं, तथापि इतने निकट एक भीत की आड़ रहते हुए भी उन्होंने उससे मेरी भेंट नहीं होने दी। उसके पश्चात् वर्षों मुझे उसका कुछ भी समाचार नहीं मिला, यूं कहिए कि समाचार मिलने नहीं दिया गया कि वह कहीं गया, कब छूटा, क्या करता है।

सिंह-पुरुष

ठाणे कारागृह के सिपाहियों के अधिकारियों में से एक प्रमुख अधिकारी हेतुपूर्वक उजाड़ रखे गए मेरे भाग पर नियुक्त किया गया था। वह थुलथुल, गोलमटोल, हँसोड़ परंतु बड़ा ही घुन्ना था। गोरे अधिकारियों का बेहद विश्वस्त। यह यथासंभव मुझसे बात करने का प्रयास करता मेरे विचार से मेरे लिए उसके मन में सम्मित्र भावना थी, भले ही वह सत्य थी या मिथ्या। मेरे प्रति वह दया भाव प्रदर्शित करता था। भोजन यथासंभव ठीक-ठीक देने का प्रयास करता। वह इसी प्रयास में रहता कि मुझे कोई कष्ट न हो, मुझे किसी से बात करते देखकर भी अनदेखी कर लेता परंतु नियमपूर्वक राजनीतिक चर्चा करके मेरे मन पर यह प्रभाव जमाने का प्रयत्न करता कि मैंने अत्यंत निरर्थक एवं पागलपन का काम करके नादानीपूर्वक जीवनहानि की है। आते-जाते बंदियों को सकारण बुलाकर मुझे दिखाता और उनसे कहता, 'देखो, हमारा सिंह पुरुष हो तो ऐसा! पर क्या? राव अजब तेरी करनी, अजब तेरा खेल। मकड़ी के जाल में फंसाया शेर।' यह गीत गा-गाकर स्वांग करता नाचता और स्वयं ही पूर्व पक्ष उत्तर पक्ष करते हुए विवाद छेड़ता कि 'कहा इतनी प्रबल सरकार और कहाँ ये अकिंचन चार बच्चे! चले हैं अंग्रेज सरकार का राज लेने। ऐसा कहते हुए हाथ में पकड़ा सोटा तलवार जैसा घुमाते हुए-दो-तीन पैतरे काटकर नाचता और अपने साथ लाए दो-तीन कैदियों से जो वह पूछता, 'क्यों रे राम मेरे इस तरह वार करने से हवा मरी?" सब लोग जोर-जोर से ठहाके लगाते। हवलदार की ठिठोली थी। न हँसें तो मुसीबत। कब क्या दंड दिलवा दे। उनके हसन पर वह और छाती फुलाकर कहता, 'अरे, हँसते क्यों हो? क्या हवा को मारने का यह साहस हमारे इन महाराज के साहस से अधिक हास्यास्पद है जो आठ दस लड़के लेकर अंग्रेज सरकार को मारने चले हैं?'

 

विलायती छैल छबीली

कभी हम स्नान करते तो वह वहाँ खड़े होकर हमारी ओर घूरता रहता और अपने मातहत सिपाहियों से कहता, 'गोंद्या, तनिक देखो तो हमारे दादा की देह जैसे सोने का टुकड़ा। भुजाओं का गठाव, यह चौड़ी छाती! दादा कुश्ती करते थे, यह पक्का है। फिर झट से आवाज पलटकर अति विनम्र स्वर में कहता, 'अजी, विलायत में ही रहकर किसी छैल छबीली के रंग में रंगकर अपना यौवन बिता देते! कहाँ यह आपका तारुण्य और उसपर कैसी मुसीबत! भला आपको ये लोहे की बेड़ियाँ पहनने की हौंस क्यों लगी ?' कभी वह कहता, 'न न। यह घोर कर्म हमारे दादा कर ही नहीं सकते। लगता है, कुछ बड़े बड़े नामवर लोगों ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए हमारे इस भोले शंकर को आगे करके सब्जबाग दिखाकर इन्हें मुंह के बल गिरा दिया। दादा, आपकी अपेक्षा मैं कितना सुखी हूँ। महीने-के-महीने वेतन पाता है तिसपर पेंशन है ही। पच्चास-साठ रुपए खनखनाते हुए मजे में जीवनयापन कर रहा हूँ। और आप-कुंदन जैसा दमकता रूप, खिलता यौवन, बालिस्टरी, दीवान की बेटी व्याही हुई। सर्वनाश किया आपने अपने जीवन का, स्वर्गीय सुख का। किसलिए? देश के लिए? दीवानगी है दीवानगी राव!" मैं यह सब शांति से सुन लेता, परंतु कभी-कभी वह मेरे धैर्य का बाँध भी तोड़ डालता। हाथ जोड़कर मुझसे कहता, 'महाशय, बताइए, सच-सच बोलो शासन की बागडोर आप कैसे हथियाएंगे? आपको क्या लगता है, कितने दिनों में आप छूटेंगे? इस दिसंबर में दरबार है (यह उस समय की बात है जब जॉर्ज पंचम गद्दी पर बैठनेवाले थे) तब छूटेंगे?' मैं कहता, 'न-न भई हमारे लिए ज्युबिली कैसी ? तथापि कभी दस-बारह वर्षों में समय बदला तो बदला। तो वह अत्यंत कड़वा मुँह बनाकर कहता, 'छि., तुम्हें वे क्यों कर छोड़ेंगे, आपको यों ही सड़ने देंगे, मरने के पश्चात् ही छोड़ेंगे।

इस व्यक्ति की भयंकर सहानुभूति से अपने आपको बचाना मेरे लिए असंभव ही होता। जब वह पाँच-दस बंदियों को जमा करके, उपरोक्तानुसार 'देखो हमारा वीर' कहकर कहकहे लगाता, सोटा घुमा-घुमाकर नाचता और नियम बंधनों को अंगूठा दिखा बंदियों को एकत्र कर उन्हें तमाशा दिखाता तो मेरा मन दुःखी होता। इन चोर-उचक्कों के मनोरंजनार्थ मैं इस तरह तमाशा बनता, जैसे किसी शेर को गाड़ी में बांधकर उसकी प्रदर्शनी की जाए। कभी-कभी मैं मन-ही-मन झल्लाता, इससे अच्छा मुझे फाँसों पर क्यों नहीं चढ़ा दिया गया मेरे पहले से दुःखी मन पर यह जले पर नमक छिड़कने जैसा था।

 

काँटों का मुकुट

मैं पुनः-पुनः मन-ही-मन 'प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः'[17]-यह योगसूत्र बोलते हुए अपने मन को सिखाता कि इस कारावास में तुम्हें मानसिक यातना भी उसी तरह सहनी होगी जैसे शारीरिक यातनाएँ। इससे यदि तुम्हारा तेजोभंग होता है तो यह माना जाएगा कि तुम्हारा तेज एक क्षणिक उत्तेजना ही थी। तुम ऐसा क्यों नहीं सोचने कि उन्हें इस खेल में आनंद आ रहा है? तुम्हें ऐसा प्रतीत हो रहा है न कि इस खेल के नायक तुम हो? केवल इस तरह की वृत्ति को मार लो। तुम तो अच्छी तरह से जानते हो कि तुम कौन हो? तुमने क्या और क्यों किया है? चोरों के तमाशे से तुम्हारा क्या बिगड़ता है? तुमसे पहले यह काँटों का ताज उन्हें भी धारण करना पड़ा जो अपने आपको प्रेषित कहलाया करते थे आज द्वीप-द्वीपांतर जिनके चरणों पर अपने शीश झुका रहे हैं, तुमसे पहले कारागार के बंदियों ने उनकी दुर्गति की थी। इस तरह विवेक के साथ में उस व्यक्ति का व्यवहार सहता रहा। आज सोलह वर्ष बीत चुके थे, परंतु अभी तक मैं निश्चित रूप में यह नहीं कह सकता कि उस मनुष्य को जैसे कि कुछ बंदियों का कहना था-मुझे मानसिक यातनाएँ दिलाकर मेरा तेजोभंग करने के लिए ही हेतुपूर्वक नियुक्त किया गया था अथवा उसका उस तरह का व्यवहार मात्र सहानुभूतिपूर्ण वाहियातपन था कुछ भी हो, उसका वह गीत आज भी मेरे कानों में गूंज रहा है, 'अजब तेरी कुदरत अजब तेरा खेल, मकड़ी के जाल में फंसाया है शेर।'

एक दिन मैंने उससे कहा, "कुछ समाचार सुनाओ।" उसने कहा, "कैसा समाचार? दादा, इन लोगों के कारण आप व्यर्थ मरे और अब भी आपको उनका मोह नहीं छूटता? ओह, कैसे लोग और कैसा लोक हित? देखो, आप पकड़े गए। बस! सारे बुरकों में छिप गए। किसीने चूँ तक की हो तो शपथ! कैसा समाचार! अरे, आप मरे दुनिया डूबी।"

 

अर्क हैं अर्क

हाल ही में इंग्लैंड में राज्यारोहण समारोह हुआ था तो बंदियों में यह गप उड़ गई थी कि इस अवसर पर छूट मिलेगी। वह हवलदार मेरे साथ बात करके गया ही था, इतने में एक और अधिकारी, जो मुझे कभी-कभी कुछ समाचार देता था, आ गया। उसे पत्र पढ़ने में रुचि नहीं थी। परंतु मुझे समाचार देने थे, इसलिए वह थोड़े पत्र छाँट रहा था। उसने जल्दी से आते हुए कहा, "मद्रास में अशे नाम के एक कलेक्टर को-एक शाक्‍त ब्राह्मण ने [18] गोली से उड़ा दिया। सुना है, चिदंबर पिल्लै के प्रकरण से उस अधिकारी का कुछ संबंध था।" वह हवलदार जब दोपहर में पुन: आया तो मेरी ओर घूरते हुए उसने कहा, "क्यों महाराज, मद्रास में आपका कोई स्नेही रहता है।"

"इस बंदीशाला में रहकर भला मैं कैसे जान सकता हूँ कि कौन कहाँ है और थोड़ी देर पहले आप ही ने तो कहा था कि जो कोई हैं वे बुरके में बैठे हैं। कहने भर के लिए भी वे चूँ तक नहीं करते।" इसपर व्यंग्यपूर्वक मुंडी हिलाते हुए उसने अपने सिपाहियों से मेरी ओर संकेत करते हुए कहा, "अर्क हैं अर्क, अवतारी हैं ये।" इसका निश्चित अर्थ आज तक मैं नहीं जान सका। हो सकता है, उसे संदेह हुआ हो कि मद्रास की जो वार्ता उसने सुनी, वह मैंने भी सुनी होगी और मेरे उत्तर का व्यंग्य उसने समझा हो।

 

उपनेत्रों की नीलामी

उस समय मेरे पास मेरी अपनी केवल दो चीजें थीं-एक मेरे उपनेत्र (ऐनक) और दूसरी एक आने की छोटी सी अँगुलाकार गीता। ये दो वस्तुएँ ही मेरी संपत्ति थीं। परंतु आज सवेरे हवलदार ने इन दो वस्तुओं की भी माँग की, "साहब माँगता है।" मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उपनेत्र की माँग क्यों ? थोड़ी देर बाद सुपरिटेंडेंट आया। मैंने पूछा, "उपनेत्र क्यों लिये है?" उसने बताया, "राज्यक्रांति के अपराध में तुम्हारी सारी चीजें जब्त की जाएँ, ऐसा दंड होने के कारण उन वस्तुओं को जब्त [19] किया गया है। विलायत में जब आप पकड़े गए तब आपके पास से मिले ट्रंक, कपड़े, पुस्तकें आदि सभी सामान की आज प्रकट रूप में नीलामी होगी। जो पैसे मिलेंगे वे सरकार में जमा होंगे।"

निजी संपत्ति के रूप में एक आने की गीता और उपनेत्रों का भी अपहरण किया जाए, इससे अन्य बंदियों को दुःख हुआ और कुछ सिपाहियों ने ठान ली कि वे इस नीलामी में सामान नहीं खरीदेंगे। मुझे इस बात का पता लगते ही मैंने उन्हें सूचित किया कि उस सामान में अनेक मूल्यवान वस्त्र हैं। उन्हें मिट्टी के मोल किसी ऐरे-गैरे के खरीदने से अच्छा है आप लोग उन्हें खरीद लें, इससे मुझे संतोष होगा। यदि आप जैसे सहृदय उस नीलामी में चुप्पी साधकर बैठेंगे तो हृदयहीन लोग बोली लगाएंगे। आप मेरे देशबंधु दूर रहे तो कोई गोरा या नीम गोरा सार्जेंट सब लूट लेगा। इससे अच्छा है, यदि आप नीलामी में बोली लगाएँगे तो कपड़े तथा सामान आपके बाल-बच्चों के काम आएगा-मैं समझूगा ये वस्तुएँ सद्कार्य में आ गईं। इस तरह उन सज्जन सिपाहियों को समझाने का मैंने प्रयास किया। दूसरे दिन उपनेत्र और गीता मुझे वापस लौटाई गई, परंतु मेरी कहकर नहीं, बंदियों को दिया जानेवाला सरकारी सामान कहकर।

 

अंदमान का चालान

आज कारागृह में जहाँ देखो वहाँ एक ही गड़बड़ मची हुई थी। आज अंदमान का चालान आनेवाला था। चालान हमारे काराशास्त्र का एक पारिभाषिक शब्द है। काले पानी का दंड उन बदमाशों को दिया जाता है जिन्हें सारे इलाके में अन्य सभी अपराधियों से भयंकर तथा नृशंस समझा जाता है। इन काले पानी के दंडितों में से जो भयंकरों में भयंकरतम सिद्ध होते हैं उन्हें आजन्म कारावास का दंड होता है। उन्हें पहले इलाकों के स्थानीय कारागारों में रखा जाता है, तत्‍पश्‍चात् कुछ दिनों बाद उनकी परीक्षा ली जाती है। इसमें जो स्वदेश और स्वसमाज में रखने के अपात्र सिद्ध होते हैं, उन्हें उनके संबंधित ठिकानों से ठाणे भेजा जाता है? और वहाँ इन अपराधियों, जो देश के भयंकर असली बदमाश सिद्ध होते हैं, के झुंड को अंदमान भेजने के लिए कुछ दिन तक रखा जाता है। उनके इस अगली यात्रा के लिए होनेवाले आगमन को ही हम बंदियों की परिभाषा में 'चालान' कहा जाता है। नामी चोर, निर्दयी, खतरनाक डाकू, नृशंस हत्यारे, आग लगानेवाले, उग्र अपराधियों में भी भयानक समझे जानेवाले आदि तमाम 'सज्जनों का समूह आज ठाणे के कारागार में पधार रहा था।

बंदीशाला में इस मेले के आने का दिवस बहुतों को एक उत्सव का दिन प्रतीत होता है; क्योंकि प्रत्येक बंदी के प्राण इस उकताहट भरे, नीरस जीवन के पेंच से किसी भी बहाने से क्यों न हो, मुक्ति पाने के लिए घुल-घुलकर काँटा बनते हैं। चाहे किसी कौए का उड़ते-उड़ते एकाध पर गिर पड़े या एक चिड़िया को दूसरा चिड़िया मारने लगे-कोई भी नई, साधारण सी घटना उस उकताहट भरे जीवन में तनिक मनोरंजन का कारण बनती है, उसमें रंग भरती है और फिर आज ती 'चालान' आ रहा है। जमादार से लेकर बंदीवान तक सभी उतावली दिखा रहे थे। काले पानी के इस 'चालान' के लिए पूर्ववर्ती परकोटे की एक भीत की ओट में स्वतंत्र कोठरियों का एक रिक्त हिस्सा आरक्षित था। उस दालान को झाड़-बुहारकर साफ-सूफ करने में, राशन-पानी के नाप-तौल का प्रबंध करने में, कपड़ों की गिनती में तथा अन्य ढेर सारे प्रबंधों की उतावली में आधे से अधिक बंदी व्यस्त थे और शेष आधे बंदी उनकी उस धाँधली तथा खरित निरीक्षण में अपनी उतावली में व्यस्त थे।

 

चालान आ गया

तीन बज रहे थे। प्रत्येक व्यक्ति अपने निकटवर्ती बंदी से आतुरता से पूछता, "अरे, अभी तक 'चालान' क्यों नहीं आया?" इतने में कारागार के द्वार से बंदियों में से कुछ लोग अचानक इधर-उधर मुड़ते हुए दिखाई देने लगे। 'चालान आ गया', 'क्यों आ गया?', 'हाँ-हाँ, ठेठ द्वार पर है।', 'कितने हैं?', 'कैसे हैं?'-आदि प्रश्नों तथा उत्तरों की झड़ी लग गई और बंदियों में ही नहीं अपितु सिपाहियों में भी भगदड़ मच गई, क्योंकि वे भी अवश्य ही उतने ऊब चुके होंगे जितने कि ये बंदी। इतने में 'झन्-झन्' की गहरी लयबद्ध झंकार निकट आने लगी। प्रत्येक बंदीवान अकेला या झुंड बनाकर उस मार्ग के आसपास पल भर के लिए अनुशासन को ताक पर रखते हुए छिपकर बैठ रहा है। आ गया, चालान आ गया। कोई अत्यंत उग्र, कोई चट्टान सदृश कठोर, कोई भयंकर खूँखार, कोई बलवान, कोई काला कलूटा, बीच-बीच में कहीं दर्शनीय-इस तरह विभिन्न स्वरूप तथा मुद्रा के वे मानव प्राणी। कोई छाती तानकर अकड़ रहा है, कोई दनदनाता हुआ चल रहा है जैसे कोई महान् पराक्रम करके आ रहा हो, कोई इस तरह हेकड़ी जता रहा है जैसे 'नमयतीव गतिर्धरित्रीम्' तो कोई दुःख भार से शीश झुकाए लज्जा के मारे पानी पानी होकर घबराते हुए इधर-उधर देखता हुआ। सिपाहियों के नियंत्रण में दो सुनियंत्रित पंक्तियों में चलते-चलते उनकी बेड़ियों की लयवद्ध झनझनाहट-यह सारा दृश्य देखते समय एक तरह का भयंकर मनोरंजन अवश्य हो रहा था।

 

क्रूर डकैत

वह देखिए, एक डाकू-उग्र मुद्रा, दाढ़ी-मूंछे, लंबे-लंबे बाल। उजड्ड जंगली मोटी-मोटी और क्रूर गोल-गोल घूमती आँखें, वह सिंधी मुसलमानों में एक छटा हुआ क्रूर डाकू! बंदी के वस्त्र भी बड़ी सुघड़ता के साथ बाँधकर, पैरों की बेड़ियाँ सहजतापूर्वक कमर में बाँधकर अपना बिस्तर बगल में दबाए, किसी को ऊँची आवाज में पुकारता हुआ, ऊँचे स्वर में बात करते-करते किसी विजयी वीर की तरह घूम रहा है। सिपाही कहते हैं, दो बार काले पानी की हवा खाकर आया है और अब आजीवन काले पानी पर जा रहा है। वह स्वयं यह शेखी बघार रहा है कि वह काले पानी पर जमादारी कर चुका है, वहाँ उसने अपनी ऐसी धाक जमाई है कि एक बंदीवान लौंडे को उसकी अनुमति के बिना उसके एक शत्रु से बतियाते देखकर डंडे के एक ही वार से उसका सिर फोड़कर नीचे गिरा दिया। दूसरे दिन वह मर गया। परंतु इस दुष्ट ने यह रिपोर्ट देकर अपने हाथ झाड़ लिये कि वह लड़का काम करते समय किसी कगार से गिर पड़ा। काले पानी पर मेरी जमादारी पक्की है-वहाँ बस जाने भर की देरी है-मैं जमादार बना। फलाने साहब, अमुक साहब, इस प्रकार बड़े-बड़े नाम लेकर उसने नवागत बंदियों को चकित कर दिया। उनमें से जो कुछ कम आयु के थे और जिनकी छाती में अभी तक हृदय नामक कोई चीज धड़क रही थी और काले पानी जैसे दंड से लज्जित थे, इसी तरह कुछ अन्य बंदी जिन्हें इस बार की चिंता थी कि आगे कैसी कटेगी, उनको यही आशा थी कि आगे चलकर कहाँ यह सचमुच जमादार बना तो हमें सहारा देगा- अतः बेचारे अभी से उसकी सेवा चाकरी में लगे रहते, उसकी 'हाँ जी, हाँ जी' करते। रास्ते से बंदियों की यह टोके आते ही स्टेशन पर कोई केले, नारियल, खाद्य वस्तुएँ, पैसे आदि दान करते। उसमें से पैसे-वैसे मिलने पर ये बंदी अपने इस 'जमादार' को दे देते और चुपके से उसके पैर रगड़ते। वह भी उन लोगों को डिगीन साहब या फिर मांटफर्ड साहब से कहकर आज ही मुकादमी का काम दिलवाऊँगा आदि जो जी में आए सो नाम लेकर गप्पे हाँकता, और अपनी भोगेच्छार्थ उनके भोलेपन की बलि चढ़ाता।

 

बहन की हत्या

देखो, वह लड़का, अभी मूंछें भी नहीं भीगीं, अठारह-उन्नीस की आयु। भंगेड़ियों की संगत में एक दिन भंग के नशे में अपनी बहन को इसलिए चाकू घोप दिया कि उसने गाली दी। वह तो उसी समय ढेर हो गई और यह अब डरते, सहमते बिछौने के बोझ तले झुकती कमर के साथ तथा बेडियाँ उठाए न उठने के कारण लँगड़ाते-लँगड़ाते, घिसटता चल रहा है। इस भय से सहमा हुआ है कि एक बार काले पानी गया तो अपना गाँव और स्वजन फिर कब दिखेंगे? देखिए, इन दो सिरों के बीच में उग्रता, लज्जा, निर्लज्जता तथा क्रूरता की विविध प्रतियाँ क्रमशः लगाई गई थीं जो इस घिनौने भोंडे जुलूस में बेड़ियाँ खनकाती हुई जा रही थीं।

बात-की-बात में वह जुलूस परकोटे के भीतर घुस गया। उनके निरीक्षणार्थ काराधिकारी चल पड़ा। यह समाचार मिलते ही प्रत्येक बंदी सिर पर पाँव रखे दौड़ा और यथास्थान पहुँचकर काम का बहाना करने लगा। सब भोले बने हुए थे। सिपाही भी किसी के जरा सी 'चूं' करते ही बरस पड़ते, ऐ क्या बात है, कायदे से चलो, मानो इस बात से सर्वथा अनभिज्ञ थे कि एक क्षण पहले इधर कैसा घपला मचा था। अब तक बंदियों से अधिक सिपाहियों का जो भीड़-भड़क्का तथा ठेला-ठेली चल रही थी वह सब जैसे 'कायदे' से या विधिवत् चल रहा था।

 

परोपकारी अधिकारी

दूसरे दिन यह निश्चित हुआ कि काले पानी भेजने के लिए हमारा स्वास्थ्य, आयु आदि अनुकूल है या नहीं, इसकी वैद्यकीय जाँच हो जाए। एक परोपकारी अधिकारी ने मुझसे कहा, "यदि आप काले पानी पर नहीं जाना चाहते तो मुझसे जितना भी बन पड़ा आपको यहीं रखने का अवश्य प्रयास करूंगा।" मैंने कहा, "आपकी सद्भावना के लिए मैं आपका बहुत आभारी हूँ। परंतु मुझे हिंदुस्थान में रखना कदाचित् बंबई के गवर्नर के भी वश की बात नहीं होगी आप व्यर्थ कष्ट न करें।" उस दिन पंचों के सामने मेरी परीक्षा हो गई। वह परोपकारी अधिकारी भी वहाँ पर उपस्थित थे ही। मुझे ज्वर था, परंतु रीति के अनुसार मेरा वजन लेकर मुझे काले पानी भेजने की पात्रता निश्चित की गई। बगल में बोरिया-बिस्तर, हाथ में बरतन-बेड़ियाँ झनझनाते हुए मेरा भी जुलूस निकाला गया। मैं भी उस परकोटे के द्वार के भीतर घुस गया। उस द्वार की देहरी पर काले पानी के सिंहद्वार की देहरी थी। मैंने उसे पार किया, हिंदुस्थान से नाता टूट गया। अंदमान के लिए मेरा प्रस्थान हुआ।

प्रकरण-४

अंदमान के लिए प्रस्थान

ठाणे के कारागृह में केवल अंदमान का चालान बंद करने के लिए ही जो स्वतंत्र परकोटे का भाग था उसमें अर्थात् अंदमान के उस द्वार के अंदर पाँव रखते ही जिस कोठरी में मुझे बंद किया गया था, वह कोठरी यद्यपि अकेली थी, तथापि उससे एक के बाद एक लगी हुई कोठरियों में अंदमान जा रहे सारे बंदियों के भरे होने और भोजन करते-घूमते उनके भाषण, उसाँसे, रोना और हँसना यह सब सुनने और देखने से बहुत दिन के मेरे मन को उस दुःख में भी कुछ आनंद आए बिना न रहा।

मैंने उन बंदियों का 'हँसना' जो कहा, वह सच है। दुःख और यातनाओं की भयप्रद सुरंग के दुःख की अति में हँसना ही हर तरह की हँसी में विकट होता है। दुःख का भार असहनीय होने अथवा निर्लज्जता के कंधे से उसे हलके से फेंक देने से दुःख भी खिलखिलाने लगता है। शोक भी उसी तरह हँसता है, जिस तरह हर्ष का अतिरेक होने पर वह रोता है। कहा जाता है कि फ्रांस की राज्यक्रांति के दौरान अमानुष रक्तरंजन, वध, हत्याओं, फाँसी और मारकाट की पेरिस में अति हो गई थी, और ऐसी भीषण स्थिति हो गई थी कि आज प्रधानमंत्री बने और कल फाँसी। उस समय जो नाट्यगृह कभी इतने नहीं भरते थे, वे भी खचाखच भरे रहते थे और मधुशालाएँ, क्रीड़ालय सतत नाच-गानों, हँसी कहकहों से गूंजते रहते थे।

 

उन्‍मुक्‍त हास्‍य

पिछले महायुद्ध में भी यही अनुभव हुआ। जर्मन पनडुब्बियों के अधिकारियों तथा नाविकों को युद्ध में सभी सैनिकों से अधिक कष्टप्रद तथा मारक सेवा करनी पड़ी। उन्हें तत्काल अपने प्राण हथेली पर लेकर सागर में गोते लगाने पड़ते और समुद्र के गर्भ में पल-पल मृत्यु की अपेक्षा करते मारने का काम करना पड़ता। उस भयप्रद अनिश्चितता के धूमधड़ाके में कभी-कभी ये पनडुब्बियाँ किसी तटीय शहर में आकर विश्राम करतीं, तब उतने से अल्पकाल में भोग-विलास के लिए जो विहारालय बनाए गए थे, उनमें से कई में यह ध्येय वाक्य होता-'एन्जॉय टिल दाउ गोएस्ट मैड! एन्जॉय! फॉर टुमारो वी डाय!' (हँसो बेटा, इतना हँसो कि उन्माद हो जाए, क्योंकि कल तुम्हें कराल काल का ग्रास जो बनना है।) इस तरह के क्रीड़ालयों में उन्‍मुक्‍त हास्य-हुल्लड़ सभ्यता सभी नियमित बंधनों को पैरों तले कुचलकर दिन-रात उच्छृखल तांडव करती रहती। वह हास्य जानता था कि आज जो उसका नाम इस तांडव पटल पर है, वही उसका कल मृत्यु के सरकारी पटल पर दर्ज किया जाएगा। तात्कालिक दुःख का हास्य सभी हास्यों में विकट होता है।

उन सभी वस्तुओं से, जो जीवन को रमणीयता प्रदान करती हैं, वंचित होकर भी उस कारावास में, जहाँ रहते हुए पशु भी थर-थर काँपते हैं, बेड़ियों में जकड़े, पाप करते-करते बेशर्म हो गए, पाप से पूरा परिचय न होने के कारण जी तोड़-तोड़कर खानेवाले, क्रोध में लाल-पीला होकर कुढ़ते रहनेवाले और दुःख से हिचकियाँ भर-भरकर रोनेवाले सैकड़ों जीव कराहते हुए ही सही, जोर-जोर से ठहाके लगा रहे थे। तीव्र संकट के मनोरंजनार्थ साधारण विनोद पर्याप्त न होने से बीभत्स विनोद रूपी दारू की बोतलें गटकते हुए वे नशे में झूम-झूमकर चल रहे थे। कोई सिंध का, कोई धारवाड़ का, कोई कोंकण का, कोई गुजरात का निवासी। उनकी विभिन्न भाषाएँ भले ही उनके मनोविचार तथा मनोविकार को पूरी तरह अभिव्यक्त करने में समर्थ न हों, तथापि बीभत्स विनोद की भाषा सहजतापूर्वक उनकी राष्ट्रीय भाषा बनकर वह मनोविकार समझा सकती थी। उनमें से हर एक बहुत दिनों बाद इतने लोगों में रहने का अवसर पाकर सामाजिक आनंद में क्षण भर को मग्न हो गया था। साँझ की वेला अर्थात् इस विद्रोह हेतु उठी बीभत्स भावनाओं तथा विनोद के नंगे नाच की वेला। हर कोठरी से चीखने-चिल्लाने, गाली-गलौज, ठहाकों, अनुच्चारणीय शब्दों का जी भरकर उच्चारण आदि बातों की रेलपेल होती और उसमें भी थोड़ी सी कर्तव्यनिष्ठा की गंध आती। मनुष्य स्वभाव कितना विचित्र है! ये अधम-से-अधम व्यक्ति यही समझते कि इस तरह बीभत्स हुल्लड़बाजी करना अपना परम कर्तव्य है। मन को जब तक यह समझ में नहीं आता कि अधमता भी अपना एक कर्तव्य है-अधम व्यक्ति सरेआम अधमता नहीं कर सकता। उन बंदियों में आजन्म कारावास के जो निर्लज्ज बंदी थे वे उन बंदियों को, जिनकी आँखों में अभी भी पानी शेष है और इसलिए इस नंगे नृत्य में बेधड़क हिस्सा लेने का निर्लज्ज साहस अभी तक नहीं कर सके थे, चिल्ला-चिल्लाकर कहते, 'ऐ भाई, गाओ। ऐ साला, चिल्ला न। अरे अपने चालान के नाम का डंका बजना चाहिए न। पिछली बार जब हम यहाँ आए तब दरवाजों के सीखचों को पकड़-पकड़कर उन्हें जोर-जोर से हिलाते और बरतन दीवार पर मारते रहे, सिपाही गिड़गिड़ाकर पैर पकड़ने लगे और उन्होंने हरेक को चुपचाप तमाकू धमा दी। भई, गला फाड़ फाड़कर चिल्लाओ, चालान का नाम मत डुबोना।'

 

चालान का नाम

क्योंकि चालान काराजगत् की एक महनीय संस्था ही बन गई थी, इसलिए उसका नाम कोई साधारण बात नहीं थी। उस चालान के सभासद का उच्च स्थान हमें सहजता से नहीं मिला था। पुलिस चौकी, मजिस्ट्रेट, कोर्ट, सेशन, ज्यूरी, हाई कोर्ट आदि कई परीक्षाओं में खरा उतरा अथवा चढ़ा मनुष्य ही आजन्म कारावास, काले पानी की प्रतिष्ठा प्राप्त कर पाता है। तिसगर भी चुन-चुनकर जो विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि रूपी बदमाश यहाँ आए थे, उन बदमाशों की यह प्रमुख संस्था थी। उसका पूर्वापर लौकिक रूप ऐसा था कि थाने में चालान का आगमन होते ही सिपाही, हवलदार, जेलर, सुपरिटेंडेंट सभी चिंतामग्न होने चाहिए, दीवारें टूटनी चाहिए, सीखचे उखड़ने चाहिए, सिर फूटने चाहिए, दो- एक सिपाहियों की धुनाई होनी चाहिए, पाँच-दस जनों की पीठें कोड़ों की बौछारों से उधड़नी चाहिए। सिपाहियों को उनकी 'हाँ जी, हाँ जी' करते हुए जैसे-तैसे अपनी जान बचानी चाहिए-तभी उसे चालान कहा जाएगा- तभी उसका नाम सार्थक होगा।' अन्यथा, बदमाशों के वे आचार्य कुलगुरु, नूतन सदस्यों को प्रोत्साहित करते हुए कहते, 'फिर बदमाशी क्यों? यही चालान की पूर्व परंपरा है। आज इस नामचीन संस्था का संचालन हमारे हाथ में आने के कारण हमारा कर्तव्य है कि हम वह परंपरा निभाएँ। चीखो, चिल्लाओ, नाचो, गालियाँ दो। चालान का नाम रोशन करना चाहिए न भाई!!'

और बंदियों में जो उस बीभत्स विनोद तथा निर्लज्ज व्यवहार का नंगा नृत्य कर रहे थे, वे कुछ अंशों में कर्तव्य भावना से उत्तेजित होकर ही ऐसा कर रहे थे। बीच में ही कोई निर्लज्ज शिरोमणि चीखता, 'चालान का नाम राखियो, भाई!' और फिर सीटियां, तालियाँ, बेड़ियों की झनझनाहट की धमाचौकड़ी शुरू! पूर्वापर चले आए इस चालान का 'एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिदियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥' इस तरह उदात्त बुद्धि से वे सारे लोग दस-बारह बजे तक उस नीच कर्तव्य को निभाने का प्रयास करते रहे। चालान के इस संस्थागत अभिमान के सामने क्या सिपाही, क्या सुपरिटेंडेंट सभी अपना सारा बड़प्पन ताक पर रखकर गुपचुप तमाकू लो, चिल्लाओ, बात करो, पर आपस में धीमी आवाज में और किसी प्रकार ठाणे के इस कारागृह से भाग न जाएँ, यह सावधानी रखते हुए। पुलिस अफसरों को उतने ही बंदी गिन दिए, जितने लिये थे तब समझो गंगा नहा गए, और इस तरह नाक में दम होने पर निढाल हो जाते।

कर्तव्य-कर्म वही है कि जिसकी प्रशंसा जिस समाज में हम रहते हैं उसका बहुजन समाज करता है। यह साधारण सहज भावना है। इस विधान का पोषक उदाहरण इस चालान के संस्थागत अभिमान से कुछ परे ढूँढ़ना आवश्यक नहीं है। जिस समाज में बीभत्स विनोद कर्तव्य सिद्ध होता है, उस समाज में वह व्यक्ति पापी तथा समाज-निंदित सिद्ध होगा ही जो इस तरह के विनोद में सम्मिलित नहीं होता। होली के त्योहार में जो गोबर से नहीं खेलता, वही अशिष्ट सिद्ध होता है और समाज उसकी ओर उपहास तथा तिरस्कार बुद्धि से देखता है।

 

बालिस्टर की प्रतिष्ठा

उस रात मेरी भी अवस्था कुछ ऐसी ही हो जाती, परंतु सौभाग्यवश 'बैरिस्टर' और 'बड़ा साहब' के रूप में जिस-तिस के मुँह में अपना बोलबाला था बंदियों में और उनमें भी छटे हुए बदमाश अपराधियों में, यदि किसी वर्ग के विषय में सहज आदर भाव तथा भय उत्पन्न होता हो तो वह 'बैरिस्टर' वर्ग के विषय में है। कवि, विद्वान्, सात्त्विक जनों के संबंध में उनकी कोई विशेष भावना नहीं होती, भले ही वह अंग्रेजों का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। परंतु 'बैरिस्टर' कहते ही आदर मिश्रित आश्चर्य भाव से भृकुटियाँ तानकर उनके मुख से भी अच्छा!' निकल ही जाता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। चोरी, उचक्की, डाकेजनी, न्यायालय तथा कारागृह में उनका सारा जन्म व्यतीत होता है। उधर उनके मतानुसार सहज ही 'बालिस्टर कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम् समर्थ एक अद्वितीय प्राणी प्रतीत होगा ही, क्योंकि वह उनके अत्यंत कुशलतापूर्वक बुने हुए पापों के जाल अपनी कुशाग्र बुद्धि द्वारा छिन्न विच्छिन्न करता है अथवा इसके विपरीत उनके स्पष्ट गोचर अपराधों को अपनी बुद्धि की ढाल के नीचे छिपाकर उन्हें निर्दोष बरी जो करा देता है। उनका इस प्राणी से डरना स्वाभाविक है। उससे हाथ मिलाने के लिए, उससे मित्रता करने के लिए वे स्वाभाविक रूप से प्रयास करते हैं। प्राचीन काल में बादशाह और बीरबल की सुरस कथाएँ जिस तरह प्रचलित थीं, उसी तरह काराजगत् में बालिस्टर और गवाह की दंत कथाएँ दूर-दूर तक फैली हैं। भले ही मेरी 'बालिस्टरी' का मेरे लिए कोई उपयोग न हुआ हो, तथापि इतना उपयोग तो वहाँ अवश्य हो गया। कितना ही बड़ा बदमाश क्यों न हो, मेरे सामने झट से नम्र बन जाता।

उस रात में सलाखों से बंद द्वार के निकट खड़ा रहकर बीभत्सता का वह नंगा नृत्य सुन-देख रहा था। बहुत दिनों के पश्चात् इतने स्वर तथा कोलाहल सुन रहा था। एकांतवास से मेरा मन चिड़चिड़ा हो गया था, वही संतप्त मन उस बीभत्सता, भोंडेपन से घृणा कर पीछे हटने की बजाय मनोविकारों के विस्फोट से आग लगा-मिट्टी के तेल का कनस्तर जैसे एकदम लपेटों में घिर जाए-उसके उजाले में वह तमाशा देखता रहा और देखते-देखते ही उस कारण तथा स्वरूप का तात्त्विक पृथक्करण भी करता रहा। भले ही व्यक्तिगत दुःख से मन व्याकुल हो, तथापि उस गड़बड़झाले में मन अपना दुःख-दर्द भूलकर घड़ी भर के लिए वह तमाशा देखे बिना अन्य कुछ कर भी नहीं सकता, इतना उन लोगों के ठहाकों का शोर हो रहा था। मैंने उसमें प्रत्यक्ष हिस्सा नहीं लिया तथा चालान के चालक ने यह कहते हुए उसकी उपेक्षा की कि 'बालिस्टर साहब को तंग मत करो।' इतना ही नहीं, ग्यारह बजे रात को जब उनका हंगामा शिखर तक पहुँच गया तब सिपाहियों ने उनसे कहा, "बालिस्टर साब को नींद नहीं आ रही है, अत: तुम भी अब सो जाओ।" यह कहते ही उन बंदियों में से प्रायः सभी बंदियों ने चीखना-चिल्लाना बंद किया और फिर लगभग बारह बजे रात मेरी आँख लग गई।

प्रात: काल स्मरण हो आया कि मेरे ज्येष्ठ बंधु बाबाराव जब आजन्म कारावास [20] पर गए, तब वे इसी तरह के किसी चालान के साथ गए होंगे और उससे पहले यहीं कहीं उन्हें बंद रखा गया होगा। अत: वॉर्डर से पूछा, पर वह नया था, कुछ नहीं जानता था। एक पुराने सिपाही ने थोड़ी सी खोजबीन करते हुए कहा, "उन्हें इसी कोठरी में बंद किया गया था, जहाँ आज मुझे रखा गया है।" वह सिपाही चला गया। मेरी आँखों के सामने मेरे ज्येष्ठ बंधु की मूर्ति खड़ी हो गई। उनके अभियोग के समय मेरे साथ जो लोग थे, उनसे मुझे ज्ञात हो गया था कि जेल में उन्हें कड़ी यंत्रणाएँ सहनी पड़ीं। मुझे उनकी यंत्रणाएँ भी दिखाई देने लगीं। उनकी वह देह मुझे दिखाई देने लगी, जो यातनाओं से व्याकुल प्राण होने पर उन कष्टों के शारीरिक तथा मानसिक आघात सहती हुई खड़ी थी, जैसे एक बार बहका हुआ हठी गजराज अपने गंडस्थल पर तीक्ष्ण-से-तीक्ष्ण आघातों को 'उफ' तक न करते हुए सहता है और अड़ियल बना अचल खड़ा रहता है। इस कोठरी में वह वीर पुरुष सलाखों के पास इसी तरह हाथ मलता हुआ खड़ा रहा होगा जैसे पक्षीराज गरुड़ पिंजरे के पास झुँझलाया, झल्लाता हुआ रहता है। मेरी चिंता तो नहीं करते होंगे? या मन में यह तोनहीं कहते होंगे-क्या हुआ मैं चला गया तो ? वह तो पीछे है न? फिर चिंता काहे की? वह देख लेगा यदि यह कहते होंगे तो अब मुझे भी इसी तरह आहत होते देखकर उन्हें कैसा प्रतीत होगा? उन्हें कितना आघात पहुँचेगा? इससे अच्छा है, यदि उनसे मेरी प्रत्यक्ष भेंट न हो और उन्हें और मुझे भिन्न-भिन्न वार्डों में रखा जाए।

मेरे विचार से यदि मुझ अकेले को ही दंड भुगतना पड़ता तो मेरे मन को उन वेदनाओं का, जो मैंने भुगती हैं, पचासवाँ हिस्सा भी भोगना नहीं पड़ता। परंतु एक तो मैं अपनी वेदनाएँ सहता था और उसी समय यदि मेरी आँखों के सामने मेरे अग्रज को भी, जो मुझे भगवान् सदृश पूज्य हैं, मुझसे भी अधिक मात्रा में यंत्रणाएँ झेलते हुए मुझे देखना पड़ता, सुनना पड़ता तो उस समय मेरी सहनशक्ति ऐसी भरभराती जैसे तूफान में कोई प्रचंड वटवृक्ष कड़कड़ करता भरभराकर धराशायी हो जाता है। मेरा कलेजा छलनी हो जाता।

एक विश्वासी अधिकारी से पूछा, "यहाँ कहीं उन्हें कोई कष्ट तो नहीं दिया गया?" उसने कहा, "वैसे तो नहीं हुआ, पर आपके अभियोगी (अभियोग में जो सह अभियुक्त होते हैं, उन्हें कारागृह में 'को-एक्यूज्ड' कहा जाता है) कहा करते।" उनका यह आश्वासन सुनकर थोड़ी राहत मिली। कम-से-कम इस कमरे में तो वे चैन की नींद सोते होंगे।

मैंने उसी अधिकारी से श्री वामनराव जोशी[21], सोमण [22] आदि सह अभियुक्तों की ठाणे की जानकारी चाही।

 

चले भैया काला पानी

दो-चार दिन अंदमान प्रस्थान करने के लिए सभी बंदियों की उस सेना कोबाहर निकाला गया। अन्य बंदियों के साथ मैं भी कोठरी के पास तैयार होकर खड़ा रहा। पैरों में बेड़ियाँ, अंदमान के लिए एक अँगोछा, एक चद्दर और एक बंडी- इस तरह का वेश, बगल में जैसे-तैसे दबाया हुआ टाट और कंबल का बिस्तर जिसे उस टाट के खुरदुरेपन तथा कठोरता के कारण लपेटना कठिन हो रहा था, और एक हाथ में टीन के 'थाली पाट'। पुनः वह टोली एक पंक्ति में तालबद्ध बेड़ियाँ झनझनाती हुई चली। जो कोई भी दिखे उसे 'राम-राम, चले भैया काला पानी' कहते हुए राम-राम का आदान-प्रदान करती हुई वह टोली चल रही थी।

जेल के द्वार पर आते ही वह टोली बाहर निकली। सिपाहियों का बंदूक तानेपहरा सज्ज हो गया और उस पंक्ति को लेकर आगे बढ़ गया। स्टेशन तक ये पैदल चले, परंतु मुझे उसमें सम्मिलित नहीं किया गया। भला ऐसा क्यों? मुझे चिंता होने लगी। इतने में एक मोटर आ गई। दो हट्टे-कट्टे गोरे अधिकारी बाहर निकले। मैं भीतर बैठ गया, फिर वे बैठ गए और मोटर बंद हो गई। न जाने कैसे परंतु शहर और स्टेशन पर यह बात फैल गई थी कि मैं आज काला पानी प्रस्थान कर रहा हूँ। जिस मार्ग से बंदो जाते हैं, उस मार्ग पर मेरा भी दर्शन होगा, इसी आस में लोग हर प्रकार से प्रयास करके छिप-छिपकर टापते जमे हुए थे, अतः मुझे गुपचुप अन्य मार्ग से ले जाना आवश्यक था। यह एक कारण था और दूसरी बात यह कि मैं मार्सेलिस से भागा हुआ और वे गुप्त षड्यंत्र के दिन! न जाने कौन कहाँ कैसा षड्यंत्र रचकर मेरी मुक्ति का प्रयास करे- क्या कह सकते हैं। सहज डग भरते उन दिनों सुरंग उड़ती थी। ऐसी स्थिति में मार्सेलिस का प्रमाद फिर से न दोहराया जाए इसलिए मुझे स्टेशन पर उस जन समुदाय में से पैदल ले जाने की बजाय स्वतंत्र मोटर में ले जाया गया।

इस तरह जब-जब मुझे स्वतंत्र मोटर से विशेष व्यवस्था के साथ कहीं से जाया जाता तब-तब उन बंदियों में मेरे संबंध में बड़प्पन की धारणा होती, वह क्या, वह तो भैया, राजा है राजा! देखो! उसे मोटर दी गई। वह हमारे साथ पैर घसीटते पैदल थोड़े ही आएगा!' कोई कहता, 'सरकार उससे डरती है। देखो, कैसे मोटरकार ला दी। 'मार्सेलिस के जहाज से भागने के प्रयासों के जो लाभ हुए उनमें से यह भी एक लाभ हुआ कि मोटर की खूब सैर हो गई और उससे बंदियों में मेरे संबंध में जो सकारण-अकारण आदर भाव था और जिसके लिए सरकारी अधिकारी डटकर प्रयत्नशील थे कि वह आदर भाव न बने, बढ़ता ही चला गया।

स्टेशन पर आते ही मुझे एक स्वतंत्र डिब्बे में ठूँसा गया। मेरे हाथों में जो हथकड़ी थी उसका दूसरा सिरा एक भीमकाय अंग्रेज अधिकारी के हाथ से जकड़ा हुआ था। मेरे लिए उस बेचारे को हथकड़ी पहननी पड़ी। मेरे पैरों में बेड़ियाँ तो थी ही, हाथ में हथकड़ी थी। इतना ही नहीं अपितु उसने मेरे दूसरे हाथ को भी कस लिया था। धोती खोंसनी हो तो उसके हाथ से खोंसनी पड़ती। उस अधिकारी के हाथों से मेरा हाथ बाँधने के कारण शौच, लघु शंका सब विधियाँ साथ-साथ, सोना भी साथ-साथ। कई यात्राओं में इस प्रकार का घिनौनापन तथा कष्ट सहना पड़ा।

मुझे डिब्बे में ढूँसा गया। परंतु ऐसा नहीं कि किसी ने मुझे देखा ही नहीं। जो लोग उधर उत्सुकतावश आए हुए थे उन्हें दूर खदेड़ा जाता। परंतु कुछ यूरोपियन भी देखने के लिए आए थे। वे डिब्बे के पास आते, उनमें से कुछ लोग बंद खिड़कियाँ खोलकर दो शिष्ट शब्द शिष्टतापूर्वक बोलते अथवा उद्दंडतापूर्वक देखकर चलेजाते। उनपर कड़ी पाबंदी नहीं थी। गाड़ी छूटने के बाद जहाँ-जहाँ वह खड़ी होती, उस स्टेशन पर पहुँचने से पहले मेरे डिब्बे की सारी खिड़कियाँ बंद की जाती। जब से इंग्लैंड छूटा, मैंने कभी खुली खिड़कियों वाले डिब्बे में बैठकर यात्रा की ही नहीं। परंतु इस स्टेशन पर मेरे साथ आए हुए एक अधिकारी ने न जाने पहले से ही वहाँ के विदेशी लोगों से क्या साँठ-गाँठ की थी, मेरे डिब्बे की खिड़कियोँ खोल दी गई। काफी गोरे लोग थोड़ी-थोड़ी दूरी पर खड़े थे। मैंने देखा, उनमें से कुछ लोगों ने उत्सुकता के आवेश में अपनी मेमों को कंधों पर उठाया हुआ था। एक ने मुझे संकेत किया, खिड़की के पास खड़े रहो। मैं खड़ा रहा तो There's he, that is Savarkar' का हल्ला सुनाई दिया। ये गोरे लोग भी, जिन्होंने मुझे देखने के लिए वहाँ भीड़ लगाई थी, इतना निकट नहीं आ पाए कि मुझसे दो बातें करें, चार-पाँच गोरे आकर चले गए, परंतु मैंने स्वयं पहल करके किसी का नाम नहीं पूछा। उनके संभाषण में प्रायः आदर भाव और कम-से-कम शिष्टता तो दिखाई देती थी इक्का-दुक्का गोरा उद्दंड होता था। यदि इस तरह कोई आता तो वह मेरी मुद्रा भी वैसी ही पाता- आता और जाता, मैं भी उसे कुछ नहीं गिनता।

 

मोगलाई मैदान

प्राय: मेरे डिब्बे की खिड़कियाँ बंद रहतीं। डिब्बे के दूसरे हिस्से में, जो लोहे की सीखचों से मेरे हिस्से से अलग किया गया था, काले पानी के सारे बंदी धमाचौकड़ी मचा रहे हैं। गरमी के दिन अंगार बरसाती चिलचिलाती धूप, असहनीय उमस। कोई बारात भी उत्सवार्थ यात्रा कर रही होती तो भी उसे यात्रा सुखद नहीं लगती। तिसपर मैं तो काले पानी के आजीवन कारावास के लिए निकल पड़ा था। डिब्बे के बाहर मोगलाई मैदान आवे की तरह तप रहे थे भीतर उस डिब्बे में उमस की उतनी ही तीव्रता से अंग-अंग छटपटा रहा था और उस ऊष्‍मा की तीव्रता तथा छटपटाहट उतनी ही असहनीय थी जितनी अंतःकरण स्थित ऊष्मा की। इस स्थिति में वह रेल मोगलाई मैदानों में से होती मद्रास चली।

जब मन अधिक टूटता तो रूस से साइबेरिया जाते राजनीतिक बंदियों को टोलियों की यात्रा में जो दुर्गत बनी थी, उसका स्मरण करके मैं अपने मन को समझाता, 'अरे, अभी भोगा ही क्या है तुमने ? यह कोई कहने की बात थोड़े ही है ? जो करेगा सो भरेगा। जो भरेगा सो करेगा।'

गाँव के पीछे गाँव, नगरों के पीछे नगर छोड़ती हुई, वन, उपवन, पर्वत, नदी-नालों को पार करती वह रेलगाड़ी किसी हड़काई हुई शेरनी तरह मुझे मुँह में दबाए भागती जा रही थी। हाय-हाय! जितनी तीव्र गति के साथ वह मुझेअपनी मातृभूमि से काले पानी की ओर खींचती हुई ले जा रही है उतनी ही तीव्र गति से वह काले पानी से अपनी मातृभूमि पर मुझे कब लाएगी? कभी लाएगी भी कि नहीं? कैसे लाएगी? यह आशा करना एक मानसिक आश्चर्य ही है। साइबेरिया में भी 'रूस! हाय मेरा रूस' करते करते सैकड़ों लोगों ने प्राण त्याग किया। अंदमान में 'हाय भारत! हाय हिंदुस्थान' करते-करते मेरे भी प्राण पखेरू उड़ जाएँगे।

मद्रास आ गया। रेल से उतरते ही मुझे एक तरफ सभी बंदियों से अलग करके पहरे में रखा गया गाड़ी के साथ एक यूरोपियन अधिकारी बड़ी दूर से आया था। हो सकता है, वह रेल का अधिकारी हो या पुलिस का। वह हर दो-तीन स्टेशनों के पश्चात् उन अधिकारियों में, जो मेरी निगरानी के लिए नियुक्त किए गए थे, किसी एक से कुछ बात करके मुझे देखकर वापस लौटता। संभवतः अब वह मुझे छोड़कर वापस लौट रहा हो। मेरे पास आते हुए वह बात करने लगा, उसका गला सेंधा हुआ था, "Good bye, friend! (अलविदा मित्र!) मुझे लगता है आप प्रभु कृपा से दिसंबर में राज्यारोहण के समय मुक्त होंगे।" मैंने कहा, "आपकी शुभकामना के लिए आभारी हूँ। परंतु हमारे घाव इतने हरे हैं कि वह इतने शीघ्र कैसे भरेंगे ? इस तरह की आशा पर निर्भर रहना मूर्खता ही होगी।"उन्होंने इतने आश्वस्त स्वर में कहा जैसे कि वह जताना चाहते थे कि अधिकारी होने के नाते वे कुछ विशेष जानते हैं, "मुझपर विश्वास रखो। आप अवश्य मुक्त होंगे। अच्छा, आपसे विदा लेता हूँ। आपके धीरोदात्त आचरण की अमिट छाप (This your dignified courage) मेरे मन पर अंकित हो गई है।" अन्य अधिकारी भी विदा लेते हुए चले गए। मार्सेलिस की लंबी-चौड़ी गप्पें सुनने के कारण उनकी यही धारणा बनी थी कि इस यात्रा में भी मैं उन्हें बहुत तंग करूंगा। अंग्रेज को देखते ही मेरे तन-बदन में आग लगती है। मैं कोई उद्दंड, अशिष्ट तथा भयंकर व्यक्ति हूँ। परंतु इस यात्रा में उन्हें जरा भी कष्ट न हुआ और मुझे अंत में मद्रास के अधिकारियों को सौंपने के पश्चात् जैसे उनका मन शांत हुआ और उन्हें मुझमें इतने सद्गुण दिखाई दिए कि उन्होंने टोपी उतारकर मुझे प्रणाम भी किया।

उसी समय मद्रास में कलेक्टर अशे की हत्या हो चुकी थी। अधिकारियों को संदेह था कि इस हत्या का संबंध यूरोप स्थित 'अभिनव भारत' के एक नेता से जुड़ा हुआ है। अत: मेरा अनुमान था ही कि इस संबंध में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में मुझसे कुछ-न-कुछ अवश्य पूछा जाएगा। इंग्लैंड में मेरे पकड़े जाने के बाद मुझे हिंदुस्थान में वापस लाया जा रहा था और मेरा प्रकरण समाप्त होने पर मुझे अंदमान ले जाने की व्यवस्था हो रही थी, तब सचमुच ही मैं यह नहीं जानता था कि'अभिनव भारत' के तत्कालीन उपाध्यक्ष श्री अय्यर [23] हिंदुस्थान में आए थे। इनकी असमय मृत्यु से इस वर्ष समूचा आर्यावर्त विहल हो रहा था। मैं इस बात से सचमुच अनभिज्ञ था कि वे हिंदुस्थान आए हुए हैं। वे यूरोप से नाना वेशों और विधियों तथा उद्देश्य से यात्रा करते, सिर पर अति गंभीर आरोपों के वाँरेंट लिये हिंदुस्थान की सीमाओं पर कड़ी गुप्तचर व्यवस्था के बावजूद हिंदुस्थान में पांडिचेरी में आ धमके थे। अंदमान में सात-आठ वर्ष गुजारने के बाद सीक्रेट रिपोर्ट पढ़कर मुझे ज्ञात हुआ कि पुलिस अधिकारियों की यह कल्पना थी कि वहाँ से उन्होंने अभिनव भारत की शाखा की सहायता से उसके सदस्यों में से एक शाक्त ब्राह्मण के हाथों तूतीकोरिन के कलेक्टर की गोली मारकर हत्या करवाई थी, पर उस समय यह भी मुझे ज्ञात नहीं था कि श्री अय्यर वापस लौट आए हैं।

मद्रास के उस कलेक्टर की हत्या का समाचार मुझे प्राप्त हो चुका था और बस इतना ही सत्य है कि मुझे यह संदेह था कि प्राय: मद्रास के 'अभिनव भारत' के किसी सदस्य द्वारा ही यह कठोर कृत्य संपन्न करवाया गया होगा परंतु इस आशा से कि मुझे यह समाचार ज्ञात ही नहीं हुआ हो और इसलिए मैं सहजतापूर्वक मद्रास शाखा की कुछ वार्ता उगलूँगा-मद्रास अधिकारियों में से एक भारतीय अधिकारी, जिन्होंने अंग्रेजी वेश धारण किया था-मुझसे मिले। सागर में अंदमान का जलयान 'महाराजा' आया हुआ है। सारे बंदी एक बड़ी सी नाव में ठेलाठेली करके उधर रवाना किए गए थे। बस मैं ही शेष रह गया था। इतने में मुझे ले जाने के लिए ये और अन्य एक-दो अधिकारी एक छोटी नाव के साथ आ गए। मैं उस छोटी नैया में बैठ गया। मैं स्वयं अपनी ओर से कभी किसी से वार्तालाप प्रारंभ नहीं करता, क्योंकि मैं ठहरा एक बंदी, कोई भी फटाक से डाँट पिलाएगा, 'चुप रहो।' कुछ समय के पश्चात इधर-उधर का कुशल-मंगल पूछकर उन अधिकारियों ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की कि इंग्लैंड स्थित क्रांतिकारियों की मेरे पीछे कैसी अवस्था हो गई होगी। मैंने कहा, "यह तो आपको मुझे बताना चाहिए भला जेल में पड़े रहकर मैं कैसे जान सकता हूँ?" जान-बूझकर मुझे ताव दिलाने के लिए उन्होंने कहा, "हाँ, यह भी सत्य है। और कैसे अकिंचन षड्यंत्र। चार लोग भी उनमें सम्मिलित नहीं थे" मैंने हँसकर कहा, "तो आप ही कुछ लोगों को इकट्ठा करते।"

"अरे, कैसी बात करते हैं। इस मद्रास इलाके के लोग बढ़े शिष्ट और विवेकशील हैं, न कि आपके इलाके के नवयुवकों के समान छिछले। इधर कोईप्रचारक आ भी गया तो उसे एक भी अनुयायी नहीं मिलेगा।" यह बात करते समय पग-पग पर उनका लक्ष्य इसपर केंद्रित था कि मैं उनका प्रतिरोध करने के लिए मद्रास के कुछ नामचीन क्रांतिकारियों के नाम तो नहीं उगलने लगा। बाद में स्वयं ही कहने लगे, "आपका अनुभव कैसा रहा?" मैंने कहा, "मुझसे अधिक आप लोगों को मद्रास का अनुभव रहा होगा।" उन्होंने कहा, "मैंने तो मद्रास में सर्वत्र शांति ही देखी।" मैंने स्मित करते हुए कहा, "ठीक है न! आप विश्वासपूर्वक कहते हैं कि इधर हर कहीं शांति है?" वह समझ गया। वह दूसरा अधिकारी भी मुसकराया। कहने लगा "उन्हें सबकुछ ज्ञात होगा। केवल आप उन्हें उकसाने का प्रयास कर रहे हैं और वे आपको उकसा रहे हैं।"

वह छोटी नौका, जो मुझे लेकर आई थी, अंदमान से आए हुए 'महाराजा' नामक विशाल वाष्प नौका से सट गई। मुझे हथकड़ी पड़ी हुई थी ही उसके साथ ही उस जलयान की सीढ़ी पर कड़े पहरे में मुझे चढ़ाया गया। मैं ऊपर चढ़ ही रहा था कि उस समय जहाज में सवार हुए यात्री, नौकर-चाकर, अधिकारी तथा आसपास की छोटी-छोटी नौकाओं में सवार होकर आए हुए दर्शक वह दृश्य देखने के लिए धक्कम-धक्का करने लगे और अंदमान के उस जहाज पर मुझे सवार होते हुए ऐसे देखने लगे जिस तरह हम किसी शव को अरथी पर चढ़ाते और ठीक तरह से बाँधते हुए विस्मय और जिज्ञासापूर्वक देखते हैं।

उस 'महाराजा' जलयान पर किसी बंदी का, जिसे आजन्म कारावास हो गया है, सवार होना और शव को अरथी पर सजाना एक ही बात थी। आज तक जो सैकड़ों-हजारों बंदी आजन्म कारावास की सजा काटने इस भयंकर जलयान पर चढ़कर काले पानी गए, उनमें से दस भी जीवित वापस नहीं लौट सके। अठारह-बीस वर्ष की चढ़ती आयु के युवकों पर इस जलयान पर पैर रखते ही अस्सी वर्ष के बूढ़ों जैसी मुर्दनी छा जाती। मनुष्य एक बार अरथी पर बाँध लिया गया कि उसके परिजन समझते हैं कि यह इस संसार से सदा के लिए जा रहा है और भावना से दुःखित, विस्मित होकर शून्यवत् उसकी उस निकलती अरथी की ओर देखते रहते हैं-ठीक उसी दृष्टिकोण से वे मेरी ओर देख रहे थे उनकी मुद्रा से यह भाव स्पष्ट परिलक्षित था कि मैं अब इस जगत् के लिए मर चुका-और यह भावना सत्य ही थी। सचमुच ही मुझे अरथी पर चढ़ाया जा रहा था। अंतर बस इतना ही था कि शव को अरथी पर चढ़ाते समय जो भावनाएँ दर्शक मन को स्तंभित अथवा व्याकुल करके शवयात्रा की ओर खींचती हैं, वह शव उनका आकलन नहीं कर पाता। परंतु मैं सबकुछ का आकलन कर रहा था कि मेरी अरथी सजाई जा रही है, मेरी अरथी निकल रही है। मुझे इस यथार्थ का भी बोध हो रहा था कि इन सैकड़ों दर्शकों कीदृष्टि जो मुझपर टिकी हुई है, वह प्रायः निर्मम तथा तटस्थ है। जिस तरह राह चलते आकस्मिक रूप से किसी की निकली हुई अरथी हम देखते हैं, पल भर उसकी ओर देखते-देखते हम केवल इतना ही कहते हैं, लगता है कोई मर गया है, बस उसकी ओर देखते-देखते हम अपनी राह जाते हैं। उस समय इस बात का आकलन होने से कि मैं शव बन रहा हूँ, मुझे इस यथार्थ-बोध का ही अधिक दुःख था कि हजारों देशबांधव मेरी ओर मात्र आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे हैं। काश, उनमें से एक भी मनुष्य मुझे इस तरह ढाढ़स बँधा पाता कि 'जाओ बंधु, जाओ! तुम्हारे पीछे मैं और हम तुम्हारे व्रत को पूरा करके अपने इस हिंदुस्थान के...' तो मेरी वह अरथी मेरे लिए फूलों की सेज बन जाती।

प्रकरण-५

काले पानी का सागर

उस जलयान की सीढ़ी से चढ़ाकर मुझे सीधे उसके तलमंजिल पर ले जाया गया। उधर एक बड़ा पिंजरा बनाया गया था जिसमें लोहे की मजबूत छड़ें लगाई गई थीं। इस जहाज का वह पिंजरा बहुत लंबा किंतु सँकरा था जिसमें कोई बीस-तीस व्यक्तियों को ही रखा जा सकता था। परंतु हेतुपूर्वक यह इस तरह बनाया गया था कि जिसमें आजन्म कारावास के काले पानी के बंदीवान जानवरों जैसे ठूँसे जाते। उसमें मैंने देखा कि उन बंदियों को, जो ठाणे से आए हैं, ठेलाठेली के साथ ठूसकर खड़ा किया गया है। मैं मन-ही-मन सोच रहा था, क्या मुझे भी इस जहाज के इस घुटन भरे तलमंजिले के अंधेरे पिंजरे में इन बंदियों के साथ ठूँसा जाएगा? इतने में ही उस पिंजड़े का द्वार खुल गया और मुझे उसी में ठूस दिया गया। इंग्लैंड में 'ब्रांकायटिस' रोग का शिकार हो जाने के कारण मुझे जरा से तंग स्थान पर जाते ही साँस लेना दूभर हो जाता छाती में दर्द होने लगता और दम घुटने लगता। अत: मैंने उस गोरे अधिकारी को, जो मेरे साथ था, बताया कि इस प्रकार के तंग व घुटन भरे स्थान पर मुझे रखने से गड़बड़ हो सकती है। उसने जहाज के डॉक्टर को सूचित किया। उसने कहा, 'फिलहाल तो इधर ही रहो, स्वास्थ्य खराब होने पर देखा जाएगा' और विशेष सुविधा के तौर पर मुझे उस पिंजरे में न रखते हुए मेरा बिछौना एक कोने में, जहाँ जहाज का छेद था, उसके सामने सीखचों के पास डालने का आदेश दिया आगे शीघ्र ही ज्ञात होगा कि इस विशेष सुविधा का मुझे क्या लाभ हुआ।

इतने में एक और सज्जन आ गए, उन्होंने मार्सेलिस की बात छेड़ी। मैंने भी खुलकर थोड़ी चर्चा की। "आपसे मिलने हम हेतुपूर्वक आए थे। ईश्वर आपको वापस स्वदेश ले आए, यही हमारी हार्दिक कामना है।" इतना कहते हुए वे सभी अधिकारी अपनी टोपियाँ उतारकर प्रणाम करके चले गए। एक गोरे गृहस्थ को जैसे उनका यह व्यवहार अखर गया और वह हेय तथा क्रुद्ध दृष्टि से उन्हें और मुझे घूरकर बिना प्रणाम किए चलता बना। जैसे उसकी दृष्टि जता रही थी-भला इस पापी बंदी को इतना सम्मान क्यों?'

 

प्रस्थान

जहाज की सीटी के पश्चात् भों-भों-भों की कर्णकटु आवाज आई और एक हिचकोले के साथ जहाज चल पड़ा। उस पिंजड़े की ऊँचाई पर दो-तीन छोटी-छोटी गोलाकार खिड़कियाँ थीं जो शीशे से बंद की गई थीं। उनसे लटकते हुए, उन अभागे दंडितों में से कुछ तट की ओर टकटकी लगाकर देखने लगे किनारा दृष्टि से ओझल हो गया। घर छूट गया भई, घर छूट गया' कहते हुए उनमें से एक धम्म से नीचे बैठ गया। यह सुनते ही 'अब अपना देश हम पुनः कब देखेंगे?' ऐसे बिलबिलाते हुए सतारा की ओर के दो किसान फूट-फूटकर रोने लगे। अभी काला पानी लग गया! भैया, रो मत। काले पानी में रोने से कुछ नहीं होता।' इस तरह इन दंडितों में से जो छँटे हुए बदमाश अपराधी थे, दार्शनिक की तरह बीचोबीच खड़े होकर सभी को सांत्वना दे रहे थे बीच ही में किसी ने मेरी ओर संकेत करते हुए कहा, "देखो भैया, तुम्हारी-हमारी छोड़ो। वह देखो, बालिस्टर साहब! भई अंग्रेज अफसर भी टोपी उतारकर इन्हें प्रणाम करते हैं। भला इनके दुःख के सामने हमारा दुःख क्या है?" इतना कहने की देर थी कि धीरे धीरे सभी मेरे इर्दगिर्द जम गए। प्राय: सभी को ज्ञात था कि मुझे पचास वर्षों का दंड हुआ है, तथापि हर कोई पूछता-कितने वर्षों का दंड? मैंने अपने गले में लटका हुआ क्रमांक का वह बिल्ला ही उनके हाथों में थमा दिया। बार-बार 'पचास-पचास' की रट लगाते हुए मैं ऊब सा गया था। यह सुनकर कि सचमुच ही मुझे पचास वर्षों का दंड हुआ है-केवल उन्हें ही नहीं अपितु सहस्राधिक दंडितों को भी, जिनकी पंद्रह बरस के दंड से ही सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई है, धीरज बँधता। उन सभी बंदियों का दु:ख मुझे देखते ही हलका हो जाता।

 

जलयान की गंदगी

कुछ देर बाद संध्या हो गई। गरमी से जान निकलती, तिसपर इतना भीड़ भड़क्का। उन चालीस-पचास लोगों में, जिनमें हिंदू-मुसलमान सब थे, कुछ तो घिनौने जीवन के अभ्यस्त बनकर निर्लज्ज बने हुए थे; चोर-उचक्के, डाकू, पापी दुष्ट, भयंकर इंद्रिय रोग से ग्रस्त; कुछ ऐसे घिनौने, जिन्होंने वर्षों से दाँत भी नहींमाँजे थे। इस तरह के चालीस-पचास आदमियों की बिछौनों पर बिछौने बिछाए हुई भीड़भाड़ में मैं भी अपना बिस्तर बिछाकर लेट गया। मेरे पैरों से किसी का सिर सटा हुआ था। मेरे सिर से ही नहीं अपितु मुँह के पास किसीकी टाँगें सटी हुई और तनिक उधर मुँह करे तो मुख से मुख सटा हुआ। पल भर चित लेटा। सामने ही एक बड़ा सा पीपा आधा काटकर रखा हुआ था। उधर थोड़ा रिक्त स्थान था। उस पिंजरे में। अन्यत्र बहुत भीड़ हो गई थी, उसकी तुलना में मेरे कोने में कम भीड़ थी और इसी कारण मुझे इस कोने में बिस्तर बिछाने की सहूलियत दी गई थी परंतु इतने में सड़ी हुई दुर्गध का इतना तीव्र भपारा आया कि नाक सड़ गई। मैंने अपनी नाक जोर से दबाकर बंद की। यह देख निकट के एक बंदी ने संकेत किया कि धुँधले उजाले में रखा वह पीपा देखो। देखा तो ज्ञात हुआ कि यह पीपा ही रात भर सभी प्राणियों को शौचकूप के स्थान पर काम आनेवाला है। मेरी दृष्टि उधर जाते ही वह बंदी, जो उस पीपे पर बैठा था, बेचारा संकोचवश उठने लगा परंतु मैंने संकेत से उसे बैठने के लिए कहा, "अरे, यह तो देह धर्म है। भला इसमें लज्जा कैसी? थोड़े समयोपरांत मुझे भी उधर ही बैठना होगा। किसी को भी संकोच करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा नहीं कि मेरी नाक है और तुम्हारी नहीं है, तो फिर तुम लोगों से अधिक भला मुझे यह गंदगी असहनीय क्यों लगे?" उन दंडितों में एक पुराना घाघ मेरे निकट आकर कहने लगा, "दादा, हम इसके आदी हो चुके हैं। मैं काले पानी से ही आ रहा हूँ। आप उस कोने में चलिए, वहाँ न भीड़ है न दुर्गंध। मैं इधर आ जाता हूँ।" उसकी उदारता को मैंने मन से सराहा। मैंने सोचा, 'हे प्रभो, इन पतितों के अंत:करण के आँगन में भी एक सुंदर सा तुलसी वृंदावन होता है।'

मैंने उस घुटे डाकू को धन्यवाद दिया और कहा, "खुली हवा के लिए डॉक्टर ने मुझे यह विशेष सुविधा दी है कि मैं सलाखों के पास सो जाऊँ। इस पीपे की बात पर उन्होंने गौर नहीं किया। परंतु मैं इसे भी एक विशेष सुविधा समझता हूँ। आप चिंता न करें। भला आपको इस गंदगी में ढकेलकर मैं उधर क्यों जाऊँ ? मुझे भी अब इस तरह के जीवन का आदी होना होगा " रात में एक के पीछे एक बंदी उस पीपे पर आने-जाने लगा। गंदगी तथा घिनौने दृश्य की चरम सीमा हो गई। मैंने अपनी आँखें बंद करके सोने का स्वाँग रचाया ताकि उन बंदियों को संकोच न हो। मन कसमसाया, 'हाय-हाय! यह तो जीवित नरक भोगना पड़ रहा है तुम्हें। विवेक ने समझाया, 'बावले, यह सत्य है, पर यह भी अपना-अपना विचार है। यहाँ तुम्हे विशेष सुविधा मिल रही है न! तो फिर उसका विशेष उपयोग क्यों नहीं कर लेते ? जाति-पात, गोत्र, वर्ग का ही नहीं अपितु शील तथा शुचिता का भी अहंकार मिट्टी में मिलाकर विश्व से एकरूप होने के लिए महान् तपस्वी और योगी भी जिसे साधनस्वरूप बनाने में हिचकिचाते हैं, वह तुम्हारे हाथों करवाकर तुम्हारा भी अहंकार चकनाचूर करने के लिए ही ईश्वर ने तुम्हें यह अवसर तो नहीं प्रदान किया? इस विशेष सुविधा का विशेष उपयोग करो। त्रैलिंग स्वामी पर न्यायालय में अशिष्ट व्यवहार के लिए जब अभियोग लगाया गया था तब उनके साधुत्व की खिल्ली उड़ाने के लिए मजिस्ट्रेट ने व्यंग्य किया, "परंतु ये अद्वैतवादी भोजन के समय अन्न ही क्यों ग्रहण करते हैं? गोबर क्यों नहीं खाते ?" इसपर त्रैलिंग स्वामी हँसे और वहीं पर शौच करके, जब तक लोग सफाई को आते, देखते-देखते उसे खा गए!

 

रामकृष्ण परमहंस

रामकृष्ण परमहंस के विषय में भी इसी तरह की आख्यायिका है। अपनी अद्वैतानुभूति के सारे साधन समाप्त होने के पश्चात् एक अंतिम कठिन साधना के रूप में कलकत्ता में वे उस स्थान पर गए जहाँ मैला डाला जाता है। वहाँ पड़ी विष्ठा को अपने हाथों से उलट-पुलट करते हुए उन्होंने पाँच काड़ी भरकर विष्ठा मुँह में डाल ली। और एक तू है कि इन दंडितों के विष्ठा करते समय उस दुर्गंध से डरकर उस गंदगी भरे पीपे से दूर भागना चाहता है। अन्य लोगों की विष्ठा के पीपे से चाहे कितना भी दूर भागो, तथापि उसका क्या करोगे जो तुम्हें अपनी विष्ठा का पीपा अपनी ही पीठ पर ढोना पड़ता है? तुम उसे लाख वस्त्रों की आड़ में छिपा लो तथापि ढकने से भी वह खुला का खुला ही रहेगा, चारों ओर दुर्गंधि छोड़ेगा। समर्थ रामदास स्वामी ने यह स्पष्ट कहा है-

'भक्षण करते ही सुग्रास अन्न। आधी विष्ठा आधा वमन।

पीते ही भागीरथी का जीवन। मूत्र होय तत्काल।'

तो फिर 'चाहे राजा हो या रंक। पेट में विष्ठा नहीं चुकती।' यह यदि सत्य है तो अपने आपके मल-मूत्र का उपसर्ग जिस तरह अनिवार्य समझकर तुम शांत लेटे रहते हो उसी तरह उनके उपसर्ग को भी तुम क्यों नहीं सह लेते ? इस जगत् में देह धारणा के लिए रेचन भी उतना ही उपकारक है जितना कि भोजन। इस तरह इस जगत् और इस देह की रचना करके पुन: कुछ इंद्रियों को जो प्रिय है, वह अन्य इंद्रियों के लिए असहनीय क्यों किया गया? प्रकृति का यह न्याय वही जाने कि एक देह की इंद्रियों में भी यह विषम परस्पर विद्वेष क्यों उत्पन्न किया? अथवा हो सकता है, उसका उपाय न हो अथवा उनके उस परस्पर कलह से उसे आनंद हो रहा हो।

और फिर इस तरह विवेक सेना को विद्रोही इंद्रियों के पीछे छोड़ते और उनके उस परस्पर संग्राम की हाथापाई देखते-देखते मुझे भी बड़ा आनंद आने लगा। अन्न की विष्ठा, विष्ठा का खाद और खाद पुन: अन्न। भई वाह! चमत्कार है! इसआनंद में गंदगी का उपद्रव दूर हो गया। रात एक बजे के आसपास गहरी नींद सो गया। उस जलयान पर इस तरह मेरा उस कोने में अविचल रहना सभी बंदियों के लिए आश्चर्य का कारण बन गया। एक-दो जनों ने तो मेरी पीठ पीछे यह संदेह भी व्यक्त किया कि मैं किसी नीच जाति का गंदा, घिनौना व्यक्ति हूँ जिसके शरीर में पसीने की दुर्गंध आती है।

 

यूरोपियनों का व्यवहार

उस जहाज के यात्रियों तथा कुछ भारतीय अधिकारियों की हार्दिक इच्छा रहती थी कि मेरी कुछ-न-कुछ सहायता करके अपनी आदर भावना व्यक्त करें जो उनके मन में मेरे लिए पनप रही थी आते-जाते वे यथासंभव मुझसे मिलकर जाते। यूरोपियन लोगों में कुछ संतरियों ने भी मेरे प्रति बहुत आदर भाव प्रदर्शित किया। कुछ अंग्रेजी वृत्तपत्र, पत्रिकाएँ भी प्राप्त हो गई। जहाज पर खाने के लिए केवल भुने हुए चने मिलते थे परंतु कुछ अधिकारियों ने अनुरोध किया कि मैं कुछ खाने के लिए ले लूँ। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या माँगूँ? और मुझे अकेले को देना भी कठिन था। अंत में कुछ उदार व्यापारियों ने कप्तान की आज्ञा प्राप्त करके सभी बंदियों के लिए भात, मछली और अचार आदि व्यंजन तैयार करवाए। मेरे कारण दो दिन के अनशन के पश्चात् ऐसा भोजन प्राप्त हुआ जो कभी नहीं मिलता था, इसलिए सभी बंदी बाँसों उछल गए। मेरे साथ ही उन्हें घंटा-आधे घंटे के लिए उस घुटन भरे तंग तलमंजिले पिंजरे से निकालकर हवाखोरी के लिए ऊपर के तल्ले पर जब लाया जाता तब साधारण व्यवस्था से अधिक व्यवस्था तथा सुविधापूर्वक व्यवहार किया जाता। इसके संबंध में वे दंडित मुझे यूँ कहते, 'बाबूजी, हमारा अहोभाग्य कि आप हमारे साथ आए! कितना अच्छा हुआ!' तब मैं हँसते हुए कहता, 'तो फिर यह अच्छा ही हुआ न कि मुझे दंड मिला।'

उधर दिन-रात उन बंदियों में मेरी चर्चा छिड़ती और मेरी चर्चा छिड़ते ही, हिंदुस्थान अपना स्वदेश है …उसे... आदि उस कार्य के संबंध में भी जिसका भार मैंने उठाया था-भरपूर चर्चा होती। यदि कोई तिलमिलाकर मुझसे कहता, 'कैसे कहें, पर आपको देखकर कलेजा टूक-टूक हो जाता है तो में मुसकराकर कहता, अभी-अभी तो आप कह रहे थे कि ऐसा होना चाहिए, और हिंदुस्थान... में आदि चर्चा कर रहे थे न? फिर आपने इस बात पर गौर नहीं किया कि एक मैं ही क्यों? इस तरह मेरे जैसे बंदियों से सैकड़ों जहाज भर-भरकर काले पानी जाएँगे। जो करेगा सो भरेगा। जो भरेगा सो करेगा...।'

जहाज के अधिकारी से लेकर सिपाही-संतरी तक और बंदियों से लेकरखलासियों तक मेरे बहाने सतत राजनीति की चर्चा छिड़ती। जिन्होंने यह सब कभी नहीं सुना था, उन्होंने उसे सुना; जिन्हें कभी सूझा नहीं था, उन्हें सूझा और जिन्होंने इसे कभी नहीं माना था, उन्होंने मान लिया।

 

बारी बाबा की कहानी

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात, जो वहाँ की परिस्थिति में मन को अपनी ओर खींचती, वह यह ज्ञात करना था कि काला पानी कैसा है। जो भी कोई वहाँ से आता उससे यही पूछने को जी चाहता। प्रत्येक व्यक्ति एक ही बात पूछता। फिर मुझे भी पूछने की इच्छा होती। अंदमान के सिपाहियों की वह टोली, जो बंदियों को लेने आई थी, उससे पूछते, क्योंकि वही इस विषय के प्रमुख अधिकारी और वही इसके ज्ञाता! काले पानी का नाम लेते ही वे सबसे पहले 'बारी बाबा' की कहानी सुनाते।

उनकी धारणा थी कि बारी बाबा ही काला पानी है। उन दंडितों में से जो अत्यंत निर्दय बंदी होते, वे बिना किसी कारण हो-हल्ला करके आपस में गाली गलौज करते, तब सिपाही क्रोधित हो कहते, 'अरे ठहर तू, बड़ी चढ़ी हुई है तुझे, समझता है तू ही सबसे बड़ा बदमाश है। अगर एक बार बारी बाबा को देखा तो सारा होश ठिकाने आ जाएगा-अरे धोती ढीली हो जाएगी, धोती में मूतोगे, समझे !' बारी बाबा और हमारी शीघ्र ही गहरी मैत्री होनेवाली थी, अतः उन सिपाहियों को उस संबंध में अधिक कुरेदने में कोई तुक नहीं था।

अंदमान के संबंध में वे कहते, 'बाबूजी, छह महीनों में मुक्ति मिलेगी। आप जैसे पढ़े-लिखे बाबुओं को तो ऑफिस में काम मिलेगा। इतना ही नहीं, पूरा जिला आपकी आज्ञा में रहेगा। दस वर्षों तक सहस्रों रुपए जुटा सकोगे और दस वर्षों के पश्चात् घरबार बसा लोगे।' मन-ही-मन मैं सोचता, 'यह क्या! भई, कहीं मुझे क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेने के उपलक्ष्य में पुरस्कृत करने के लिए तो अंदमान नहीं ले जा रहे हैं। चलो, अच्छा ही हुआ जो मार्सेलिस में पकड़ा गया। यूरोप में दर-दर की ठोकरें खाते हुए भटकने के दुःखद जीवन का मैंने अनुभव किया है। अंदमान का जीवन, जैसा ये वर्णन कर रहे हैं, इससे अधिक असहनीय तो नहीं है। अर्थात् वैसा ही तो नहीं जैसा यह बखान कर रहे हैं। हाँ, हो सकता है, वैसा ही हो। परंतु क्या वह मेरे भाग में होगा? असंभव। सर्वथा असंभव। उनकी अवस्था कैसी है जो राजबंदी पहली बार ही अंदमान गए थे? क्या मेरी उनसे भेट होगी? और मेरे ज्येष्ठ बंधु?'

कोई भी निश्चित जानकारी नहीं दे सकता था। बस इतना ही ज्ञात हुआ कि वे लोग वहाँ हैं। कारागृह में हैं। प्रायः मैं भी उधर ही जाऊँगा।

सभी कह रहे हैं, आज अंदमान आएगा। प्रात:काल के छह बज चुके थे. सभी दंडितों को पंक्ति में ऊपर लाया गया। ऊपरी तल्ले पर लास्कार आदि सेवक जहाज धो रहे हैं। बढ़ते-बढ़ते सूरज का ताप प्रखर हो गया। आज बंदियों के मन बिखर रहे हैं कि काला पानी आएगा। यात्रा की धाँधली में दबी हुई लाचारी, विरह तथा शोकपूर्ण विचार मेरे चित्त पर उमड़-उमड़कर ऊपर उठकर हृदय में घुसकर उसे चंचल बना रहे हैं, जैसे सागर की तलहटी की मछलियों उछल-उछलकर ऊपरी सतह में घुसती हैं, मैं काले पानी की छाँव से घिर गया हूँ।

सागर शांत है-किसी झील की तरह स्तब्ध और उसपर यह जलयान ऐसे सलिल विहार कर रहा है जैसे हिम प्रदेश में बालक मजे में हिम पर फिसलते हैं। सूरज पृथ्वी की ओर टकटकी बाँधकर निरीक्षण कर रहा है, जैसे कि मानव द्वारा जड़ सृष्टि पर प्राप्त की हुई इस अपूर्व विजय से वह विस्मित हो गया हो। कितना विशाल सागर और यह कैसी पिद्दी सी नौका। परंतु उस नौका में एक छोटी सी कोठरी में बैठा एक मानव उस सागर को अपने चप्पू के अंकुश से अपनी इच्छानुसार मोड़कर उसे अपना गुलाम बनाए हुए है। यह मानव की जड़ सृष्टि पर प्राप्त कितनी बड़ी विजय है, कैसे कहें। एक दिन यही सूरज उस नूतन विजय की ओर, जो मनुष्य ने अपने मन पर प्राप्त की है, इसी तरह भौचक्का होकर पृथ्वी की ओर देखता रहेगा। मनुष्य भी मन में विराजमान उस राक्षस पर विजय प्राप्त कर, पीड़क और पीड़ित को एक-दूसरे से छेदकर और अपने पैरों में पड़ी दासता की बेड़ियाँ तोड़कर मुक्त हो गया है, तथापि वह प्रेमपाश से परस्पर बँध गया है-हाँ, एक समय ऐसा भी आएगा-ऐसा धन्य दिवस न जाने कब उदित होगा जब यह सूर्य इस नूतन विजय से प्रमुदित होकर वसुंधरा की ओर इसी तरह देखता रहेगा मानव जाति की स्वतंत्रता केवल मनुष्य मात्र के प्रेम की ही दासी रहेगी। इस धन्य दिवस पर धन्य उन समस्त भुक्त-कष्टों तथा हुतात्माओं के कष्ट भोग तथा हौतात्म्य सफल होंगे जिन्होंने यह धन्य दिन लाने के लिए आत्म बलिदान किया है। समस्त मानव जाति उनकी आभारी होगी। जिन्हें इस विजय का वह महान् श्रेय प्राप्त होनेवाला है, उनमें मैं भी अंश भागी होऊँगा। कितना महान्, कितना उज्ज्वल है यह भविष्य काल!

 

प्रस्तुत स्थिति

परंतु वर्तमान! तुम्हारी प्रस्तुत स्थिति ? स्वप्न, स्वप्न! अरे मूर्ख, तुम्हें आ रहे भविष्य के ये सपने केवल स्वप्न ही होंगे। वैदिक काल से ऐसे स्वप्न देखते-देखते मनुष्य को युग बीत गए भविष्य के उन सुनहरे सपनों का उपयोग वर्तमान की रात्रि के घनघोर मोहांधकार में पल भर के लिए प्रकाश देना ही है। इस सागर को हीदेखो-कितनी अविस्मरणीय, अगम्य राक्षसी शक्ति। उसके शरीर पर यह नौका कितने मजे में लहराती चल रही है। क्यों ? इसलिए कि वह इसे सह लेता है। जैसे कोई प्रचंड राक्षस किसी तुच्छ मच्छर को अपने शरीर पर बैठने देता है। पल भर उस मच्छर का साहस देखकर अपना मनोरंजन करता है, फिर एक ही चपत से उसे मारकर उसे इस तरह नष्ट कर देता है जैसे कभी उसका अस्तित्व ही नहीं था। उसी तरह तुम जैसे मच्छर-मनुष्य का साहस है यह। यह प्रचंड सामुद्रिक शक्ति जब खौलने लगेगी तो अपनी लहर की एक बूँद की फुहार पर तुम्हारी यह नैया ही नहीं अपितु पूरा-का-पूरा महाद्वीप ही उठाकर उसे खंड-खंड कर सुपारी जैसा सटक जाएगा। तब किसी को पता भी नहीं चलेगा कि यहाँ पर कभी एशिया महाद्वीप था या नहीं। कितना 'यः कश्चित्' है मानव-'यः कश्चित्' मनुष्य के बीच मैं कितना 'यत्किंचित्कर' हो गया हूँ!! आज इन अधम, नीच तथा दुष्ट दंडितों, जो अपना शरीर समेटकर बैठे हैं, की पंक्ति में एक उपेक्षित कोने में मैं भी अपना शरीर समेटकर पकड़े बैठा हुआ। हाथों में हथकड़ी, पाँवों में बेड़ियाँ- इतना क्षुद्र, तुच्छ बन गया हूँ कि इस जहाज के झाडूवाले भी मेरी ओर सहानुभूतिपूर्वक संकेत करके 'बालिस्टर बाबू' कहते हुए दया करते हैं। ये सेवक भी, जो पानी डालकर लकड़ियाँ धो रहे हैं, दहाड़ते हैं-'ऐ कैदी, उठो इधर से। चलो, उधर बैठो।' और मुझे उनका आदेश पालन करना होता है।

सागर शांत था। किसी सामुद्रिक दैत्य की तरह खर्राटे भर रहा था। वाष्प नौका फिसलती हुई किसी आसन्नमरण की नाड़ी सदृश मंद-मंद चल रही थी। ऊपर से सूर्य क्रूरतापूर्वक सभी पर अंगार बरसा रहा था अत्यधिक गरमी थी, अंदमान निकट आ रहा था अधिकारियों और यात्रियों ने अब मुझसे बात करना बंद कर दिया था। वे ऐसी दूरियाँ साध रहे थे जैसे मुझसे सर्वथा अपरिचित हों। काले पानी की छाया मुझपर स्पष्ट दिखाई देने लगी।

प्रकरण-६

अंदमान का वर्णन

अंदमान, निकोबार तथा उसके निकटतम द्वीपपुंज का हिंदुस्थान के इतिहास से ही नहीं अपितु भविष्य से भी संबंध होने के कारण प्रत्येक हिंदवासी को उसकी अल्प ही क्यों न हो, जानकारी आवश्यक है। हिंदुस्थान के बाहर अर्वाचीन काल में हिंदू संस्कृति जिन-जिन नूतन भूखंडों पर अपना आधिपत्य फैलाती जा रही है, उसमें अंदमान द्वीपपुंज की गणना करना अत्यावश्यक है।

यह द्वीप कलकत्ता से लगभग छह सौ मील की दूरी पर है। बीच में छोटे छोटे द्वीपपुंज, थोड़ा सागर, पुनः द्वीपपुंज-इस क्रम से यह एक द्वीपमाला ही बंगाल के उपसागर में बिखरी हुई है। उसमें अंदमान सबसे बड़ा द्वीप है। वह तीन भागों में विभाजित है। उन्हें उत्तर अंदमान, मध्य अंदमान और दक्षिण अंदमान की संज्ञाएँ दी गई हैं। इस द्वीप के मानचित्र में दी हुई आकृति देखकर यह स्पष्ट होता है कि उसका नाम अंदमान क्यों पड़ा। इस नाम की हनुमान शब्द से हुई व्युत्पत्ति हमने सुनी है, परंतु अंडाकृति होने के कारण इसका अंदमान नाम हमें संभवनीय प्रतीत होता है। उत्तर अंदमान की लंबाई इक्यावन मील (मील- दूरी सूचक शब्द है, जिसे अब किलोमीटर कहा जाता है।) मध्य अंदमान की लंबाई उनसठ मील तथा दक्षिण अंदमान उनसठ मील लंबा है और रटलैंड द्वीप ग्यारह मील लंबा है। इस पुंज को बड़ा अंदमान कहा जाता है। उसके अतिरिक्त उसके उनतीस मील दक्षिण की ओर छोटा अंदमान है, जिसकी लंबाई तीस मील और चौड़ाई सत्रह मील है। आज तक इस द्वीप में उल्लेखनीय उपनिवेश न होने के कारण इधर-उधर दूर-दूर तक ऐसे घने जंगल, जिनकी भूमि को कभी सूर्य किरणों का स्पर्श तक नहीं हुआ, फैले हुए हैं। ऊँचे-ऊँचे पहाड़, जो समुद्र तट से ऊपर-ऊपर चढ़ते जा रहे हैं, और घने जंगलों के अतिरिक्त इस बात का अभी स्पष्ट अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि इस इलाके में और क्या है, तथापि वन विभाग के अधिकारियों ने जी-तोड़ परिश्रम कर निरंतर कष्ट झेलकर जंगल के स्थलों, वृक्षों और वस्तुस्थिति की यथासंभव छानबीन करके अब उनका मानचित्र भी बनाया है। इस द्वीप के पहाड़ों में सबसे ऊँचा पहाड संडलमाउंट नामक चोटी है, जिसकी ऊँचाई तीन हजार फीट है। बड़ी नदी यहाँ पर एक भी नहीं है, पर जगह-जगह पहाड़ों से कलकल करते बहते झरने विपुल मात्रा में हैं।

 

मलेरिया का प्रादुर्भाव

इस इलाके में घने जंगलों के कारण प्राचीन काल में वर्षा की अविरल झड़ियाँ लगी रहती थीं ग्रीष्म ऋतु में भी रिमझिम-रिमझिम होती ही रहती, तथापि जिस-जिस भाग में जंगल की कटाई होकर बस्ती बन गई है और भूमि को थोड़ा साफ करके जोतकर खेती और नारियल के बगीचे लगाए गए हैं-उस ओर ऋतु मान लगभग हिंदुस्थान के उष्ण इलाकों जैसा हो रहा है। वर्षा और ग्रीष्म- यही दो ऋतुएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं, शीत या जाड़े का मौसम बस झाँकता हुआ निकल जाता है। इस द्वीप के चारों ओर से ही नहीं अपितु प्रत्येक दो टुकड़ों के बीच में से भी समुद्र के घुसे होने और इन द्वीपों के लंबाई तथा चौड़ाई में छोटे होने के कारण यहाँ-वहाँ खाड़ियाँ और दलदल का साम्राज्य फैला हुआ है। इन खाड़ियों के जल में जंगल के सूखे पत्तों की एक के ऊपर एक परतें जमा होकर सड़ती हैं। इसी से मलेरिया का प्रादुर्भाव तथा प्रभाव अत्यंत कष्टप्रद होता है। मक्खियाँ जो इस मलेरिया का प्रसार करती हैं, इधर इतनी विपुल और विविध जातियों की हैं कि वर्णन करना असंभव है। कुछ भीतर की ओर मच्छर सदृश मक्खियाँ झुंड के-झुंड इधर-उधर एक साथ गुनगुनाती हुई भिनभिनाती हैं जैसे तार में पिरोया हुआ जाल। कुछ बड़ी-बड़ी मक्खियाँ अपने लंबे-लंबे पैरों पर खड़ी रहकर इतनी तेजी से झूलती हैं कि उस दोलायमान अवस्था में यह कहना कठिन होता है कि वह एक काली रेखा है या मक्खी।

 

जोंक , साँप व कनखजूरे

जंगलों में इन मक्खियों के अतिरिक्त जो मलेरिया का प्रसार करती हैं जोंकों की भी भरमार होती है। कीचड़ में, नीचे पड़े हुए पत्तों और सूखे पतों के ढेरों में ही नहीं अपितु वृक्षों की डालियों पर, पत्तों पर ये जोंकें चिपकी रहती हैं। गरमी में दुबककर कहीं छिपी बैठी ये जोंकें रिमझिम बरखा बरसने लगते ही बाहर निकलती हैं। मानवी गंध सूंघते ही आनंदित होती हैं। ऊपर से वृक्षों, पत्तों से वे टप-टप कूद पड़ती हैं, नीचे पाँव पड़ते ही वे तलवे चाटने लगती हैं और मानवी शरीर की पिंडलियों, जाँघों-जो भी हिस्सा मिले, उससे चिपककर सुप-सुप लहू सुड़कने लगती हैं। बड़े-बड़े बदमाश, पाजी कंटक लोग जो कारागृह के कठोर-से-कठोर दंड से नहीं घबराते, वे जब जंगल की कटाई के लिए जाते हैं तो इन जोंकों के भय से काँपने लगते हैं जंगल से काम करके बंदी जब शाम ढले वापस लौटते तब ऐसा लगता वे लहू में नहाकर आए हैं, क्योंकि यहाँ-वहाँ सर्वत्र जोंकों के काटे से शरीर में छेद हो जाते और उन छेदों से लहू की पतली सी धारा निकलती रहती। अच्छा ये जोके भी एक या दो नहीं, इधर मनुष्य अपने हाथों से मुट्ठी भर-भरकर उन्हें अपने शरीर से उखाड़कर फेंक रहा है और उधर छोटी-बड़ी जोंकों के झुंड ऊपर से कूदकर या नीचे से चढ़कर अथवा आजू-बाजू से आकर चिपकते जाते हैं।

इन जंगलों में भयंकर साँप की तरह के गिरगिटों का भी, जो जोंकों की तरह ही नहीं अपितु उनसे भी घातक होते हैं-बसेरा होता है। ये एक हाथ लंबे तथा एक इंच से मोटे विषैले सांप आपल्या, जिन्हें उधर 'कनखजूरे' कहा जाता है, इतने विषैले होते हैं कि उनके डसने से मनुष्य को लकवा मारता है और भीषण वेदना हुए बिना नहीं रहती। यहाँ साँप बहुत ही कम हैं, तथापि ' वाइपर' नामक अत्यंत विषैला एक छोटा सा साँप मिलता है, कभी-कभी अजगर भी मिलते हैं। सदियों से इन जंगलों में किसी भी मनुष्य का अधिक प्रवेश न होने के कारण इन सब प्राणियों की अत्यधिक वृद्धि होती रही है जो परस्पर भक्षण की मर्यादा से ही कदाचित् कुंठित होती होगी। इन जंगलों में बाघ, शेर, रीछ आदि खूँखार पशु नहीं पाए जाते। जंगली सुअर मिलते हैं। पक्षियों में इधर भारतीय पक्षी कुछ अधिक संख्या में नहीं थे। अंग्रेज सरकार ने मैना, तोते, बाज, गिलहरी, मोर आदि पक्षियों को यहाँ लाकर छोड़ दिया; इतना ही नहीं, कौए मंगवाकर उनकी बस्ती बसाने में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। पक्षियों की तरह हिरन, कुत्ते, सियार आदि पशु तथा बहुत सारे पालतू प्राणी भी इधर लाकर छोड़ दिए गए। इसी कारण अब अंदमान में प्राय: सभी उपयुक्त भारतीय प्राणी उपलब्ध हैं।

समुद्री आश्चर्य की तो कोई सीमा ही नहीं। शंख, सीपियाँ, पत्थर, कितनी रंग-बिरंगी सुंदर आकृतियाँ, कितने प्रकार, मानो विश्वकर्मा का वैचित्र्य हो। उसकी शोभा का वर्णन कैसे किया जाए?

ऐसे रंग की सीपियाँ, शंख कि जिनके सामने इंद्रधनुष की शोभा भी लज्जा से शीश झुकाए। उनमें कम-से-कम एक की सुंदरता भी कोई कुशल चितेरा किसी चित्र में उँडेल सका तो मनुष्य उस कलाकृति को प्रदर्शनियों में सदियों तक सजाकर रखेगा। इस तरह की अनेक सुंदर-सुंदर वस्तुएँ ही नहीं अपितु प्राणियों की भीरचना, जिनकी रेलपेल समुद्र तट पर उन्मुक्तत: इधर-उधर बिखरी होती है। जैसे सम्राट् हर्ष के किसी मार्ग से चलते समय बरसाए गए सुवर्ण मोतियों के फूल इधर उधर बिखरे होते थे, उसी तरह शंख, सीपियों तथा सुंदर पत्थरों पर कोई चितेरा अपनी तूलिका से एक-एक अव्यवस्थित कुशलता की फटकार निश्चित ही इस समुद्र तट पर बिखेरता है। विविध मछलियाँ-मगरमच्छ। समुद्र स्थित किसी मत्स्य की पूंछ से एक ऐसा तीक्ष्ण सिरे का चाबुक जुड़ा हुआ कि जिसकी एक फटकार से टाँगों के मांस की धज्जियाँ उड़ जाएँ। किसी का मुँह अश्वनुमा, किसी की पूँछ में बिजली जितना शक्तिशाली करंट कि उसके क्रोध से आसपास विद्युत् के धक्के लगें। किसी का मुँह तो मनुष्य के मुख जैसा-हालाँकि बहुत कम, परंतु विश्वसनीय यात्रियों ने स्वयं देखकर इसका वर्णन किया था। इस तरह नानाविध सामुद्रिक प्राणियों का इस द्वीप के रेतीले सागर तट और उसकी लहरों पर स्वच्छंद विहार चलता रहता है।

 

अंदमान और हिंदुस्थान

इस द्वीपमाला का उल्लेख मार्कोपोलो और निकोलो आदि यूरोपियन तथा कुछ अरबी सैलानियों के प्राचीन लेखों में उपलब्ध है परंतु इस द्वीप से हिंदुस्थान का संबंध अति प्राचीन काल से अवश्य रहा होगा। मगध देश से श्रीलंका की ओर अनेक समुद्री यात्राएँ होने के वर्णन इतिहास में उपलब्ध हैं और उसी तरह आंध्र, तमिल आदि दक्षिणी लोगों के ब्रह्मदेश, स्याम, पेग, जावा आदि देशों पर राजनीतिक आक्रमण होने के जो वर्णन उपलब्ध हैं, उससे स्पष्ट दिखाई देता है कि भारतीय सागर-यात्री इस द्वीप से भलीभांति परिचित थे। इस द्वीप का स्पष्ट नाम-निर्देश ग्यारहवीं सदी में पांड्य राजाओं के आक्रमण के वर्णन में उपलब्ध है। इस सागर विजेता वीर ने पेगू पर आक्रमण करके उसपर विजय प्राप्त की और अपनी उस विजयी सेना को वापस लाते समय अंदमान और निकोबार-इन दो द्वीपों पर अपना अधिकार प्रस्थापित करके फिर अपने सफल नौसाधनों-अपनी जलसेना के साथ भारतभूमि वापस लौटा-इस तरह तत्कालीन लेखों में उसकी प्रशस्ति की गई है। इन यात्रियों तथा विजेताओं का-जो भिन्न-भिन्न समय पर गए हुए थे-पुरातन सुराग अभी तक कुछ अधिक उपलब्ध नहीं है। हम बंदीवास में थे, तब एक अधिकारी ने बताया था कि जब खुदाई का काम चल रहा था उस समय प्राचीन राजमहल के अवशेष बरामद हुए थे। परंतु इसकी छानबीन करने का उचित अवसर हमें आज तक नहीं मिला कि यह समाचार कहाँ तक साधार था और उसके पश्चात् कौन-कौन से पुरावशेष उपलब्ध हुए। हाँ, इतना तो सिद्ध हो गया कि भारतीयों कीबस्ती तथा प्रशासन इस द्वीप पर कभी हुआ करता था।

अंदमान की स्थिति

तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि इस बस्ती तथा प्रशासन का अंदमान के मूल निवासियों पर कुछ अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। जिस तरह उन बस्तियों द्वारा की गई बुआई अथवा कृषि, वास्तुकर्मों का प्रभाव उस द्वीप के प्रकृति निर्मित स्वरूप पर कुछ अधिक समय तक नहीं टिक सका, उसी प्रकार उन भारतीय बस्तियों की मानसिक, बौद्धिक अथवा धार्मिक संस्कृति का प्रभाव भी तत्रस्थ मूल निवासी जनों पर कुछ टिका दिखाई नहीं देता। एक नन्हा सा द्वीप-सागर से घिरा हुआ। उसपर सतत बस्ती बनाकर उसका प्राकृतिक वन्य स्वरूप परिवर्तित करने के लिए हिंदुस्थान का उससे अव्याहत संबंध बना रहना अत्यंत आवश्यक था। आधुनिक जीवन के सारे उपकरण हिंदुस्थान से वहाँ ले जाने से ही वहाँ के जीवन-सुधार का क्रम सरल हो सकता है। हिंदुस्थान अथवा बाह्य सुसंस्कृत जगत् से नाता टूटते ही नए पहुँचे मनुष्यों का भी तत्रस्थ वन्य अवस्था में पहुँच जाना स्वाभाविक है। जर्मन महायुद्ध के समय कभी-कभी चार महीने जब हिंदुस्थान के जलयान सामान सहित अंदमान नहीं जा सके, तब उस कालखंड में जीवन की सुधारक आवश्यकताओं अथवा क्रम को इतनी अधिक मात्रा में त्यागना अनिवार्य हो गया कि पचास वर्षों के अंदर-अंदर तत्रस्थ सभी निवासियों को बिना वस्त्रों के रहना पड़ा तथा खेती-बाड़ी, शाकाहार और अन्नाभाव में मांसाहारी बनना पड़ा। ऐसी अवस्था में अंदमान में समुद्र गमन निषिद्ध समझने के कालखंड में अंदमान से पहले ही गए हुए भारतीय तत्रस्थ मूल वन्य निवासियों को सुधारने के बदले स्वयं ही जंगली बने और आगे नए रक्त संबंध असंभव होने के कारण वे वन्य निवासी या तो लुप्त हो गए होंगे या उनका विनाश हो गया होगा, क्योंकि इस द्वीप में आज भी जो लोग मूल निवासी के रूप में पाए जाते हैं, उनका रहन-सहन काफी हद तक विश्व के अन्य प्रदेशों की उन वन्य जनजातियों से ही मिलता-जुलता है, जिनकी गणना रहन-सहन के ढंग से अति प्राचीन जनजातियों में की जाती है। जावा द्वीप के आसपास फैले हुए द्वीप समूह बंदर जैसे मनुष्यों के लिए प्रसिद्ध हैं। स्वयं वहाँ के डॉक्टरों ने हमें दिखाया कि निकोबार से बंदी के रूप में लाए गए एक-दो मनुष्यों की दुम की हड्डी दो-तीन इंच ऊपर उठी हुई है, जिससे उन्हें कुरसी पर पीठ टिकाकर सीधा बैठना भी असंभव था। उनकी इस दुम पर बालों का अभाव था और उससे सटकर दुम के बालों के गुच्छे की स्नायु वहाँनहीं लटक रही थी। उनकी ठुड्डी तथा मुख की रचना हूबहू वानर जैसी थी।

इस प्रकार के वानर सदृश मानव इस इलाके में कभी-कभी मिलते हैंजिनकी दुम की हड्डी होती है। उनकी वाचा बहुतांश में परिणतावस्था में होती है। अंदमान में जो वन्यजन हैं उनमें जावरा नामक जनजाति साधारणतः चार-साढ़े चार फीट लंबी होती है। उनका वर्ण काला-कलूटा, केश कड़े, रूखे-रूखे से छोटे-छोटे गुच्छों में मुड़े हुए। इनकी दाढ़ी-मूंछ तो कभी निकलती ही नहीं। वे किसी साधु महात्मा समान नग्नावस्था में ही घूमते-फिरते हैं, वस्त्र परिधान का घोर पातक वे कभी करते नहीं। किसी साधु-महात्मा सदृश देह पर रक्तवर्णीय मिट्टी पोतकर वे शरीर की आच्छादन प्रवृत्ति की तुष्टि करते हैं। उनकी स्त्रियों में इक्की-दक्की ललना विलास लोलुप निकला तो वृक्ष का एकाध पत्ता कटि के आगे लटका लेतीं। उन लोगों की स्वप्न सृष्टि को, जो आजीवन विलासिता का तिरस्कार करते हुए सादगीपूर्ण रहन-सहन की माला जपते हैं, वास्तविक रूप देनेवाले ये जावरा सर्वथा वन्य स्थिति में हैं और नागरी तथा मानुषिक जीवन स्थित प्रलोभनों से अभी तक दूर रहे हैं। जब वे दियासलाई और वस्त्र नहीं जानते तथा बैलगाड़ियों से भी परिचित नहीं हैं तो रेलगाड़ी, हवाई जहाज, प्रचंड जलयान आदि मानवी पतितावस्थांतर्गत साधनों का उल्लेख ही नहीं करना चाहिए। उन्हें कुरसी, जूते, कोठी-बँगला, खेती बाड़ी, खाद्यान्न, यंत्र, चरखा भी ज्ञात नहीं। सादगीयुक्त जीवन के भक्त संप्रदायी के अनुसार मनुष्य जाति के सभी संकटों का एकमात्र कारण-सुधारणा है। इस सुधारणा के नाम से ही नहीं अपितु उसकी अभिलाषा से भी जावरा लोग अपरिचित हैं। उन आचार्यों को भी, जो सादगी युक्त जीवन का डंका बजाते रहते हैं, लँगोटी पहनने का मोह होता ही है, जावरों को तो उतना भी मोह नहीं होता। बड़े निर्मोही हैं वे।

परंतु क्या इस कारण वे असंतुष्ट हैं ? कदापि नहीं। काश्तकारी नहीं, हल नहीं, बैंकों में पैसा नहीं-न सही; परंतु जो किसी ऊबड़-खाबड़ गढ़ी-गुफा में पनाह अथवा मांस का टुकड़ा अस्थायी अग्राधिकारवश किसी जावरे के पास हो, उसपर दूसरे की निगाह न पड़े अथवा पड़ते ही जो सावधानी बरतनी अथवा चिंता करनी पड़ती है, व्यवस्था करनी पड़ती है, आवश्यकता पड़ने पर डटकर टक्कर देनी पड़ती है, यह सब उसके लिए उतना ही उत्कट और भयंकर होता है जितना किसी कैसर या जार के लिए। आपको और हमें खेती की जितनी चिंता करनी पड़ती है, उससे अधिक चिंता और कष्ट जावरा लोगों को वन्य फल की खोज और उसके अभाव में सुअर के शिकार अथवा मच्छीमारी में भुगतने पड़ते हैं।

 

तीरों की बौछार

इन जावरों के अतिरिक्त इधर एक और वन्य जाति पाई जाती है। परंतु उसका कद ऊँचा तथा वह इन जावरों से अधिक प्रगतिशील दिखाई देती है। कदाचित् यह जनजाति प्राचीन उपनिवेश के अवशिष्ट मानव से वन्य जातियों के संबंध से बनी हो। जावरा एकपत्नीक होते हैं। वे अन्य यंत्रों से भले ही अपरिचित हों, एक यंत्र से भलीभांति परिचित होते हैं- वह है उनका पाँच-छह फीट लंबा धनुष। उनका शरसंधान अचूक होता है। इस तीर-कमान के बलबूते ही उन्होंने अपनी स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखी है। भले ही अब बंदूकों तथा हवाई जहाजों के सामने उसका निभना असंभव है, परंतु उनके धनुष के कारण ऐसे साधन होने के बावजूद अंग्रेज उन्हें सहजतापूर्वक नहीं जीत सके। कई बार जंगलों से गुपचुप आगे बढ़कर सरकारी छावनियों, चौकियों अथवा अकेले बंदियों पर छापामारी करके वे नौ दो ग्यारह हो जाते, तथापि जैसे-तैसे उनका तात्कालिक रूप से पीछा करके फिर से उन्हें गहरे जंगलों में खदेड़ देना-बस! इससे अधिक उनका पीछा करने का झंझट सरकारी अधिकारी कभी मोल नहीं लेते हिंदुस्थान में एक राज्य जीतना जितना सुलभ है, उतना इन जंगलों के वन्य तथा शूर लोगों पर काबू पाना सुलभ नहीं, जो तीरों की भयंकर बौछार करते हैं। फिलहाल यह समस्या इतनी आवश्यक न होने के कारण आज तक ये लोग जंगल की अपरिचित निबिड़ता में रहकर, जिस तरह उनके पूर्वज जी रहे थे, उसी सनातन मार्ग से आचरण करते हुए नंगधड़ंग अवस्था में सुअर का पीछा करते, कच्चा मांस खाते, भूत-प्रेतों को पूजते आनंदपूर्वक जीवन जी रहे हैं। उनकी इस रूढ़ि को कोई अशिष्ट कहकर तो देखे। उनमें से सनातन धर्माभिमानी सज्जन उसे जीते-जी फाड़कर उसकी बोटी-बोटी करके उसीके कच्चे मांस पर अपना उदर-भरण किए बिना नहीं छोड़ेगा।

 

नरमांस भक्षक

जावरे आज भी नरमांस भक्षक हैं। कुछ यूरोपियन साहसी यात्रियों ने उनके नरमांस भक्षक होने के बावजूद इन लोगों में घुसपैठ करके उनसे मित्रता की और उनके रहन-सहन, उनके रीति-रिवाजों और भाषा की मनोरंजक जानकारी संकलित की। अंदमान में दंडितों को भी जावरों की नरमांस लालसा का शिकार बनने की जगह उनके आतिथ्यपूर्वक भोजन का स्वाद उठाते हुए और उसके पश्चात् वहाँ से सही-सलामत वापस लौटते हुए हमने देखा है। उनके वर्णनों से इस तरह अनुमान लगाया जा सकता है कि जावरा सहसा शरणागत की जान नहीं लेते। परंतु अंग्रेज सरकार के अधिकारियों को ही नहीं अपितु अन्य अवन्य मनुष्य को भी, जो शहरी दिखाई देता है, वे अपना प्राकृतिक शत्रु समझते हैं और जंगल से निकलकर उसे अकेला देखकर उसके प्राण ले लेते हैं। कभी-कभी उसके मांस को वे कच्चा ही और कभी-कभी आग पर भूनकर खाते हैं। दिन निकलते ही हर कोई अपना-अपनातीर-कमान संभालता हुआ शिकार के लिए निकल पड़ता है। महिलाएँ भी मच्छीमारी अथवा अन्य छोटे-मोटे शिकार के लिए निकल पड़ती हैं उनकी टोलियाँ एक साथ एक छत के नीचे रहती हैं। आखेट में जो शिकार मिलता है उसमें सभी की साझेदारी। जंगली शहद, फल हर कोई अपना-अपना ग्रहण करता है। दिन भर भटककर रात में आग जलाकर उसपर वे शिकार लटकाते हैं। पहला शिकार भुनते ही उसे फाड़कर सभी जन एक साथ बैठकर खाते हैं। उसके पश्चात् कभी-कभी नर-नारी मिश्रित कोई नृत्य होता है। उनका एक राजा होता है जिसका सभी बड़ा सम्मान करते हैं। नृत्य समाप्त होने के उपरांत नर-नारियों के जोड़े अथवा सभी मिलकर उस आग के इर्दगिर्द वृत्ताकार नग्नावस्था में सो जाते हैं।

कुछ भगोड़े भारतीय बंदियों ने उन्हें खेती की परिकल्पना समझाने के लिए शाक-भाजी बनाकर दिखाई, तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ मनुष्य की मृत्यु के पश्चात् वे उस शव को कुछ दिन के लिए एक वृक्ष पर टाँगते हैं कहते हैं, फिर उसे पत्थर मारकर नीचे गिराते हैं। उनकी धर्म विषयक संकल्पनाओं की कुछ भी विश्वसनीय जानकारी अभी तक संकलित नहीं है, तथापि भूत-प्रेत और भय के आगे उनके धर्म विषयक विचारों का विकास हुआ प्रतीत नहीं होता। उनमें एक जनजाति अनेक वर्ष पूर्व अंग्रेजों की शरण में आकर उनके आश्रय में रही, इस कारण ये वन्य जावरा आधुनिक मानव की तरह उनके प्रति भी विशेष भावना रखते हैं। तथापि इतने निर्जन जंगलों में रहते हुए भी धीरे-धीरे उनमें ब्रांडी और देशी मदिरा का प्रवेश हो रहा है।

 

जावरों का व्यवसाय

अंग्रेजों से मिलकर रहनेवाले जावरों का प्रमुख व्यवसाय है सागर तट से अनेक सुंदर शंख, सीपियाँ तथा विविधाकृति चकमक पत्थर चुनकर अंग्रेजों की चौकी पर लाना-कुछ काँच के खिलौने, चीनी, तंबाकू लेकर उन वस्तुओं को बेचना-दो-चार निकटवर्ती इमारतों में, जो उनके लिए ही बनवाई गई थीं, रहते हुए और पुन: इस अभेद्य आरण्यक निविड़ता में घुसकर अदृश्य हो जाना। जंगल से शहद लाकर भी वे उसे बेचते थे इन सभी वस्तुओं को वहाँ से इकट्ठा करके सरकार उन्हें विदेश भेजती है। वहाँ के शंखों को ठीक तरह से घिसकर ऊपर से चाँदी अथवा सुवर्ण की गढ़न के साथ भारी मोल लेकर उन्हें बेचा जाता। ये हिले हुए लोग अब एक छोटी सी लँगोटी पहनने लगे हैं उनकी स्त्रियाँ एकाध पत्ता अथवा पर्णमाला कटि में लपेटती हैं। उपनिवेशीय लोगों से निकट संबंध हो जाने से उनमें एक मिश्रित संतति उत्पन्न होने लगी है। कभी-कभी गोरे सिपाही अथवा यूरोपियनव्यक्ति के संपर्क से उत्पन्न जावरा स्त्रियों की संतान गोरी और भारतीय पुरुषों के संसर्ग से उत्पन्न साँवली अथवा गेहुँआ वर्णीय दिखाई देती है। उनमें से कुछ युवक युवतियाँ और विशेषतः सम्मिश्र संतति की पढ़ाई और उन्हें सरकारी नौकरी देने का प्रयास किया जा रहा है। सुना है, एक-दो महिलाएँ सेवा-टहल का काम-काज सीखकर धाय भी बनी हैं। अंदमान के चीफ कमिश्नरों में से एक की स्त्री के लिए इसी प्रकार एक जावरा महिला को सहचरी के रूप में नियुक्त किया गया था।

हम कह सकते हैं कि अंदमान का अर्वाचीन सुसंगत इतिहास साधारणत: सन् १७७६ से आरंभ होता है। इससे पूर्व सिंगापुर, पेनांग, मलक्का, टेनासेरीम आदि द्वीपों तथा स्थलों से काले पानी का दंड प्राप्त लोगों को निर्वासित किया जाता था। इंजीनियर कोलबुक तथा कैप्टन ब्लेअर जैसे दो उद्योगी अंग्रेजों ने सन् १७७६ की संधि में अंदमान में उपनिवेश प्रस्थापित करने का प्रयास किया। उससे पूर्व कई बार अंग्रेजों की नौकाएँ भटककर इस द्वीप के किनारे आ लगी थीं। उनके भयंकर वर्णन आज भी पढ़ने को मिलते हैं। कैप्टन ब्लेअर ने जब उपनिवेश प्रस्थापित करने का प्रयास किया तब अंदमान की जलवायु नगरवासियों के स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक थी। जो लोग उधर प्रस्थापित किए गए, उनमें से एक भी मनुष्य अधिक समय जीवित नहीं रह सका। उस ब्लेअर साहब के नाम से ही अंदमान का वर्तमान बंदरगाह 'पोर्ट ब्लेअर' नाम से जाना जाता है। आगे सन् १८५७-५८ के स्वतंत्रता संग्राम में जो हजारों सैनिक पराभूत होकर द्वीपांतर के भयानक दंड के शिकार बने, उन्हें इसी अंदमान में लाया गया। तभी से इस उपनिवेश का सुसंबद्ध श्रीगणेश हुआ। जब हम अंदमान गए थे तब सन् १८५७ की राज्यक्रांति में भाग लेनेवालों में से जो थोड़े लोग जीवित थे, उनमें से एक वृद्ध ने यह सुनते ही कि हम भी राज्यक्रांति के कारण ही आए हैं- हमारा अभिनंदन करते हुए एक प्रेमपूर्ण संदेश भेजा था। आगे चलकर हमने सुना कि उस बंदी को एक उत्सव के अवसर पर मुक्त किया गया, वह भी लगभग साठ वर्ष बंदीवास भुगतने के पश्चात्। सन् १८५७ की राज्यक्रांति के निर्वासित शरणार्थियों से अंदमानी उपनिवेश का श्रीगणेश होता है और यह कैसा संयोग है कि पचास वर्ष पश्चात् सन् १९०७-८ की राज्यक्रांति के नेताओं के निर्वासन से उसका अंत होता है!

वासुदेव बलवंत के राज्यक्रांति कार्य में भाग लेनेवाले साथियों को भी अंदमान के लिए ही रवाना किया गया था। हमें इस बात का पता चल ही गया था कि उनमें से एक-दो हमारे जाने के बाद आगे-पीछे मुक्त हो चुके थे बंबई के हिंदू-मुसलिम दंगा-फसादों में दंड प्राप्त कुछ हिंदू उधर ही थे मणिपुर की राज्यक्रांति में हिस्सा लेनेवालों को भी उधर ही भेजा गया था। उनमें से उनके राजवंश के लोगोंको एक सीमित भूखंड पर काफी हद तक स्वतंत्र रूप में घर बसाकर रहने की अनुमति दी जाती। ठेठ बंदियों जैसे व्यवहार से उन्हें तंग नहीं किया गया था। इस प्रकार अंदमान में राजनीतिक अथवा सार्वजनिक आंदोलन में दंड प्राप्त सैकड़ों राजनीतिक दंडित प्राचीन काल से कष्टमय दिन बिता रहे हैं, तथापि उनके कष्टों अथवा अंदमान की कहानी हिंदुस्थान के हत्पटल पर अंकित होने का संयोग तब जुड़ नहीं सका। अर्वाचीन क्रांतिकारियों के निर्वासन से यह संयोग बना और भारतीय दिलों को अब इस बात का एहसास हो रहा है कि अपने धर्म, जाति तथा राष्ट्र के सहस्रों वंशज और अंशज अंदमान में बसे हुए हैं। उन भारतीय उपनिवेशों का अपने प्रेम, आत्मीयता तथा कर्तव्य पर उतना ही अधिकार है जितना भारत किसी भी एक राज्य का। यह बात भारतीय दिलों में अभी भले ही धुंधली सी हो, परंतु आने अवश्य लगी है।

 

पोर्ट ब्लेअर

'पोर्ट ब्लेअर' इस उपनिवेश का प्रमुख बंदरगाह और द्वीप है। अंदमान में भारतीय और ब्रह्मी लोगों के बंदियों का उपनिवेश होने से इन साठ-सत्तर वर्षों में ही वहाँ का जनसमूह भारतीय ही हो गया है परंतु निकोबार में ब्रह्मी और मलाया द्वीपपुंज के लोगों की ही बस्ती बढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह द्वीप भारतीय संस्कृति तथा समाज से हमेशा के लिए वंचित हो गया है। आजकल अंदमान में भी कुछ हद तक दंडितों को भेजना बंद होने के कारण हमें यह आशंका हो रही है कि उधर भी भारतीय बस्ती समाप्ति की ओर लगती है और इसीलिए इस विषय से संबंधित पूर्वापर के दोषों को आँचल में बांधकर भी इस महत्त्वपूर्ण बात पर विचार करने के लिए हम यहीं पर चार शब्द लिखना आवश्यक समझते हैं।

अंदमान में कुछ अंशों में बंदियों की टोलियों को भेजना बंद होने के बाद अधिकारियों ने निश्चय किया कि तत्रस्थ भूभाग का बँटवारा करके उन हिस्सों तथा नारियल एवं सुपारियों के उन हजारों बागानों को, जो सरकारी अधिकार में हैं, ग्राहकों को बेचकर वह सारी संपत्ति व्यक्तिगत कर दी जाए उसके अनुसार सैकड़ों एकड़ भूमि और वृक्ष अत्यल्प मूल्य पर बेचने के लिए समूह बनाए गए। इन समूहों की बिक्री की योजना के बारे में हिंदुस्थान के व्यापारी पूरी तरह से अनभिज्ञ थे, और ऐसे हिंदू व्यापारी भी इने-गिने ही थे जो अंदमान में उन समूहों को खरीद सकते थे। अतः स्पष्ट है, तत्रस्थ यूरोपियन तथा ऐंग्लो-इंडियन लोगों के हाथों ही उनमें से प्राय: सारे समूह लग रहे हैं। जिन थोड़े से भारतीय व्यापारियों अथवा सज्जनों ने उनमें से कुछ समूह ले लिये, उन्हें भी हिंदुस्थान से आदमियों का उचित सहयोग न मिल सकने के कारण धनार्जन का यह स्वर्ण अवसर व्यर्थ सिद्ध हो रहा है। जंगलों की कटाई करके उपनिवेश बसाने के लिए भी सरकार ने अत्यंत सुलभ सुविधाओं पर भूभाग देने की योजना बनाई है। इक्की-दुक्की ईसाई संस्थाओं ने इन सुविधाओं का लाभ उठाकर हिंदुस्थान स्थित संथाल आदि जनजातियों के लोगों को ईसाई बनाकर उधर ले जाकर जंगल काटकर उनका ईसाई उपनिवेश बनाने की योजना बनाई है, परंतु किसी भी भारतीय अथवा हिंदू व्यापारी का अभी तक इस ओर ध्यान नहीं गया है।

 

वसाहत की ओर चलो

अंदमान में पहले बंदियों की बसाहत थी, तब उधर जाने अथवा व्यापार करने में देर सारी कठिनाइयाँ आती थीं परंतु अब इतनी कठिनाई नहीं होती। अतः भारतीय लोगों को चाहिए कि उधर आजकल भूमि तथा बने-बनाए नारियल के बागान अल्प मूल्य में प्राप्त करने का अवसर हाथ से न निकलने दें और उधर जाकर उन समूहों को खरीदें। यहाँ पर पूरी जानकारी देना असंभव है, परंतु यदि किसी को इसमें रुचि हो तो वह अंदमान के चीफ कमिश्नर के पते पर लिखकर जानकारी प्राप्त कर सकता है। इधर बिते भर टुकड़े के लिए उच्च न्यायालय के द्वार खटखटाकर विवाद के पचड़े में पड़ने की बजाय उधर एकड़ों की भूमि नाममात्र मूल्य में उपलब्ध होने पर भी उसे प्राप्त करने का प्रयास न करना कूपमंडूकता नहीं तो और क्या है ? परंतु क्या किया जाए! यह बित्ते भर टुकड़ा पूर्वजों द्वारा अर्जित है न? ऐसे घरघुसे अभिमानी लोग एक पते की बात पर गौर करें कि 'यह मेरी पूर्वजों द्वारा अर्जित संपत्ति है' ऐसी गर्वोक्ति करने से अधिक श्रेयस्कर है यह कहना कि 'यह मेरी अपनी कमाई है, न कि बाप की कमाई। भगवान् और देश इसी से प्रसन्न होंगे।

अंदमान के बंदियों की बसाहत बंद करने तक हिंदुस्थानी कौंसिलों में अंदमान संबंधी बहुत चर्चा की गई, परंतु वह बसाहत टूटते ही-कुछ अंश तक टूट हो गई-कौंसिल के सदस्यों को इसका संपूर्ण विस्मरण हो गया, यह ठीक नहीं। उधर आज लगभग दस हजार लोग रह रहे हैं, जो हमारे देश, धर्म तथा जाति के हैं। हमारे बांधवों की तीन-चार पीढ़ियों के जीवन की राख इस द्वीपपुंज में जमी है। उनके अथक परिश्रम से यह द्वीप 'य: कश्चित्' पदार्थ नहीं है, आर्थिक दृष्टि से यहाँ पर विचार करना हमारा अभीष्ट होने के कारण उस दृष्टि से भी उधर विपुल संपदा उत्पन्न हो सकती है। उधर चाय बागान, रबड़ की फसल, गन्ने, नारियल, सुपारी के बड़े-बड़े बागान संपन्नावस्था में लहलहा रहे हैं, तथापि आज भी उस भूमि का भरण-पोषण वैसे नहीं हुआ जैसे होना चाहिए। अभी तक पचास वर्षों मेंएक छोटे से हिस्से को ही कृषि योग्य बनाया गया है जंगल की पैदावार भी दो बार हो सकती है। अत: आर्थिक दृष्टि से भी बंदियों की बसाहत बंद होने के बाद इस द्वीप की व्यवस्था कैसी रखी गई, उधर भूमि के गुट तथा बागान की बिक्री किस दर से होगी, इसे पहली बार हिंदुस्थान में विज्ञापित करके फिर उन्हें बेचा गया अथवा वह कुछ खास लोगों के हाथों में जा रही है आदि पूछताछ कोई कौंसिलर अवश्य करें। उसी तरह अपने उन जाति-बंधुओं की स्थिति कैसी है, जो उधर एकाकी हो गए हैं-यह एक बार प्रत्यक्ष देख आने के लिए, कौंसिल के लोक नियुक्त पक्ष को चाहिए कि वह किसी कौंसिलर को उधर भेज दे। वे बेचारे गूंगे हैं। उन्हें अपनी स्थिति सुधारने के कोई साधन नहीं, अतः आपको उनका मुख बनना होगा। आर्यसमाजी उपदेशकों में से भी किसी प्रमुख उपदेशक को उधर भेजना आवश्यक है। वहाँ बहुसंख्य लोग हिंदू होने पर भी और इस बात के लिए प्रयत्नरत होते हुए भी कि स्कूलों में हिंदी भाषा पढ़ाई जाए-दैनंदिन लेखन की भाषा उर्दू ही है इतना ही नहीं, भारतीय अथवा हिंदू बच्चों को भी स्कूलों में मातृभाषा नहीं पढ़ाई जाती, शिक्षा का माध्यम अभी भी उर्दू रखा गया है। ये और इस तरह की अनेक बातों की ओर जो कोई संगठक वहाँ जाए तो वहाँ के अधिकारियों का ध्यान आकर्षित कर उचित व्यवस्था करे।

अंदमान की समस्त स्थिति का विवरण और उसे सुधारने के उपायों का उल्लेख आगे यथास्थान आएगा, अत: अभी इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रश्न की ओर गौर करने तक ही मैं अपनी बात को सीमित रखकर आगे बढूँगा।

अंग्रेजी नाम का हिंदीकरण

अंदमान स्थित प्रस्तुत भूभागों के नाम प्रायः अंग्रेजी में रखे गए हैं। परंतु भारतीय उपनिवेशांतर्गत लोगों की बातचीत में उनके जो रूप हो गए हैं, वे हिंदी से इतनी सफाई के साथ मिलते-जुलते हैं कि यदि कोई विद्वान् उनके रूपांतर करने की जिम्मेदारी ले भी लेता तो वह उसे साध्य नहीं होता। भारतीय लोगों की बातचीत में 'शोअर प्वॉइंट' का 'सुवरपेठ' रूपांतर हो गया है। इंडॉस प्वॉइंट' का दंडापेठ। उसी तरह गोकुलावन, बाराटाँग, कालाटाँग आदि नामकरण भी श्रवणीय हैं। अज्ञात बातें ज्ञात वस्तुओं के स्वभाव से ही ज्ञात होती हैं, ऐसे ही अज्ञात शब्द भी भाषाशास्त्र में ज्ञात शब्दों के स्वभाव के आधार से ही उच्चारित होने की जो सहज प्रवृत्ति होती है, उसका एक मनोरंजक उदाहरण है। बिना किसी साधारण संकेत से उन अंग्रेजी शब्दों के रूपांतर को अपने आप ही भारतीय मुखों द्वारा हिंदीत्व प्राप्त हो गया है।

इसके प्रत्येक जिले में दंडितों की इमारतें बनवाई गई हैं और उनमें एक-एक कारखाना खोला गया है। उदाहरणार्थ फिनिक्स में लोहा, पीतल, सीपियों, कछुओं की पीठ आदि से अनेक सुंदर चीजें बनाने का शिल्प कार्य जारी है, जिसमें चार सौ शिल्पज्ञ बंदी कार्यरत रहते हैं। नेव्हीवे फट्टे में सब्जियों का बागान है। चँथम में जंगली लकड़ियों को बनाने का तथा आरी से चीरने का कारखाना है। कालाटांग में चाय का बागान है। उधर इतना कठोर परिश्रम लिया जाता है कि वहाँ जाने के नाम पर बंदी भी थर-थर कांपने लगते हैं इनके अतिरिक्त जंगल कटाई के लिए जिन टोलियों को भेजा जाता है, उनके दुर्भाग्य की तो कोई सीमा ही नहीं होती।

अंदमान [24] में पहले-पहल जिन-जिन बंदियों की टोलियाँ भेजी गई, वहीं पहुँचने पर उन्हें पहले लगभग मुक्त छोड़ा जाता। आगे उनसे कुछ वर्षों तक सरकारी कैद में काम करवाया जाता। जो स्वतंत्र रहते वे धान की खेती करते। उनके वंशों की जो बस्ती बढ़ती गई, उन्हें फेरी अर्थात् 'फ्री' कहा जाता है। आज उनमें कितने सारे शिक्षित तथा शिष्ट लोग हैं। आगे चलकर हिंदुस्थान से बंदी आते ही उन्हें कुछ दिन के लिए कारागृह में रखने की योजना बनाई गई। इसके लिए और अंदमान स्थित अपराधियों के लिए एक नया विशाल कारागृह बनाया गया। जी हाँ, यही है वह सिल्वर जेल अथवा Cellular Jail, आगे चलकर जहाँ राजनीतिक बंदियों को वर्षों तक बंद रखने की परिपाटी बन गई-इतनी कठोर कि जिसकी एकांत कोठरी में कराहने की प्रतिध्वनि एक बार हिंदुस्थान के तट तक सुनाई दे।

 

प्रकरण-७

अंदमान में

जलयान अंदमान के बंदरगाह में आकर खड़...खड़...खड़ करता हुआ पानी में लोहे का लंगर डालकर खड़ा हो गया। [25] धीरे-धीरे बड़ी-बड़ी नौकाओं का, जो बंदियों को ले जाती हैं, और अधिकारियों की मोटरबोटों का जमघट उस जलयान के चारों ओर लग गया। उतरने के लिए हमें जहाज पर काफी समय खड़े रहना पड़ा। उतनी देर में इधर-उधर दृष्टि दौड़ाकर उस भूमि का निरीक्षण किया जहाँ हमें बहुधा आजीवन रहना था। पुराने बंदी जो साथ में थे और कुछ सिपाही, वे कुछ जानकारी दे देते। वह रासद्वीप है। वहाँ अंदमान का चीफ कमिश्नर रहता है। सागर में यह द्वीप इस तरह शोभायमान था जैसे झील में बनाया हुआ किसी अप्सरा का महल। एक प्रकार से वह द्वीप अन्य द्वीपों की तुलना में इतना नन्हा सा, सुघड़ तथा सुशोभित था कि पल भर के लिए बेड़ियों में जकड़े मन का भी मनोरंजन हो जाता था दूसरी ओर अंदमान के सागर तट के निकट सुदूर तथा सुव्यवस्थित ढंग से लगाई हुई नारियल वृक्ष की श्रेणियाँ झूम रही थीं। दूर-दूर तक आम, सुपारी तथा पीपल वृक्ष के पुंज दिखाई दे रहे थे। निकट घाट पर मनुष्यों के झुंड-के-झुंड चहक रहे थे। उसके ऊपर ही ऊँचाई के सिरे पर नारियल के झूमते हुए छत्र के नीचे एक वृत्ताकार प्राचीर के भीतर एक भव्य भवन दिखाई दिया। कितना शांत! उसके इर्दगिर्द नारियल, सुपारी तथा केले के वन चँवर डुला रहे थे, छत्र पकड़कर खड़े थे। लगा जैसे यह किसी संपन्न तथा शांतिप्रिय गृहस्थ की कोठी हो अथवा किसी पादरी का आश्रम। हमने पूछा, "वह भवन क्या है?" सिपाही ने कहा, "अरे, वही तो है बारी बाबा का सिल्वर जेल।" इस बारी बाबा का और सिल्वर जेल का उल्लेख सिपाहियों ने बंदियों को धमकाने के लिए जहाज पर इतनी बार किया था कि उन सिपाहियों की मान्यता कुछ गलत नहीं थी। यह सिल्वर जेल है, यह कहते ही उसके आंतरिक स्वरूप का पूर्ण बोध हो गया। वह और अधिक कृपालु होकर बिना पूछे ही कहने लगा, "अब उधर ही जाना है। वहीं बारी बाबा के घर पर ठहरना है आप सबको।"

हम सभी दंडितों के सिर पर बिस्तर तथा हाथ में थालीपाट देकर एक पंक्ति में नीचे उतारा गया। जहाजघाट पर आते ही अन्य बंदियों को सिपाहियों तथा बंदियों के पहरे में ऊपर भेजा गया, केवल मुझे ही यूरोपियनों के पहरे में अलग रखा गया। उधर जहाजघाट पर बैठे-बैठे मेरे मन में विचार आ गया कि अंदमान सागर में ऐसे स्थान पर बसाया गया है कि हिंदुस्थान की सामुद्रिक सुरक्षा की दृष्टि से उसका महत्त्व कभी भी कम होना असंभव है।

अंदमान-निकोबार का यह पूर्ववर्ती द्वीपपुंज हिंदुस्थान के पूर्व में सागर का द्वार ही है। यदि यह द्वीप हिंदुस्थान के अधिकार में नहीं हो और यदि उसका परकोटा तथा युद्धजन्य शक्ति दुर्बल हो तो पूरब की ओर से होनेवाला कोई भी समुद्री हमला कलकत्ता तक जा पहुंचेगा, परंतु यदि अंदमान का द्वीपपुंज हिंदुस्थान की सत्ता के नीचे रहेगा तो उसे हवाई एवं सागरीय थाने की योग्यता प्राप्त हो जाएगी और उसकी प्राचीर दृढ़ की जाएगी, उधर भारतीय नौसेना का एक बलशाली हिस्सा सतत पहरा देगा और पूर्ववर्ती विदेशी शत्रु के किसी भी आक्रमण का पहला प्रतिकार अंदमान के आँगन में हो किया जा सकेगा अंदमान की बस्ती तथा सद्य: संस्कृति-सबकुछ भारतीय होने के कारण उस द्वीपपुंज का भारत का ही एक राजनीतिक विभाग होना न्यायोचित है पश्चिमी सागर तट पर लक्षदीव-मालदीव जैसे छोटे-छोटे द्वीप भी हिंदुस्थानी राज्यशासन के हाथ से जब निकल गए तब यूरोपीय सामुद्रिक आक्रमण बिलकुल घर के द्वार पर आकर बंबई, गोवा को खटखटाने लगे उन्हें दूर रखकर रोकने के लिए कोई भी उपाय हिंदुस्थान की तत्कालीन देशी सत्ता नहीं कर सकी। अब भविष्य में तो यह भूल सुधार कर पश्चिम की ओर मालदीव, दक्षिण की ओर सिंहल द्वीप, पूरब की ओर अंदमान निकोबार द्वीपपुंज-इन सभी स्थलों को बलशाली सामुद्रिक सैन्य शिविर तथा सागरीय दुर्ग का स्वरूप देना चाहिए। [26] आज केवल राजनीतिक संयोगवश सिंगापुर भारतीय सागर की नाक है। अंदमान प्राकृतिक चौकी है, क्योंकि अंदमान सिंहलद्वीप की तरह भारत का ही एक प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक अंश है।

 

चलो , उठाओ बिस्तरा!

भावी भारत के बलशाली युद्धपोतों का बेड़ा अंदमान के प्रांगण में समुद्रीय दुर्ग के आगे पहरा देता हुआ मेरी कल्पना तरंग में लहराने ही लगा था कि एक सिपाही बड़ी उद्दंडतापूर्वक दहाड़ा,"चलो, उठाओ बिस्तरा!" क्योंकि एक यूरोपियन अधिकारी निकट ही खड़ा था। प्रत्येक हिंदू भारतीय पुलिस सिपाही तथा सैनिक की यही धारणा हो जाती है कि अंग्रेजों के सामने भारतीय राजनीतिक बंदियों के साथ जितना अधिक उदंडतापूर्वक व्यवहार करें उतना ही अपनी पदोन्नति के लिए लाभदायक सिद्ध होगा। अंदमान में होनेवाले अपमान का यह कटु वाक्य सूत उवाच हो था। उठ गया, अपना बिस्तर सिर पर उठाया, हाथ में धालीपाट थामा, पैरों की भारी बेड़ियाँ कमर से ठीक-ठीक कस ली और खड़ा रहा। किसी उच्च महान् विचारों की चोटी से अचानक किसी विवश प्रतिकूल तथा रूखे विचारों के गढ़े में ढकेला जाए तो मन भी घायल होता है, जैसे कि अचानक ऊँचाई से नीचे गिरने पर शरीर हताहत होता है, तथापि अपनी कल्पना तरंगों में दृष्टिगोचर हुई भावी भारत की बलशाली नौसेना को देख भविष्य में स्वाधीन होनेवाले भारत के कठोर एवं विवश वर्तमान के उस 'चलो, उठाओ बिस्तरा' का सामना करने के लिए मैं झट से तैयार हो गया। घाट से निकलकर एक चढ़ाई पर चढ़ने का आदेश मुझे दिया गया। पर बेड़ियों से जकड़े हुए नंगे पैरों के कारण चढ़ने में विलंब होने लगा सिपाही 'चलो, जल्दी चलो' चिल्लाकर जल्दी मचाने लगा। किसी गोरे अधिकारी ने सिपाही से कहा, "चलने दो उसे, जल्दी क्यों मचा रहे हो ?" चढ़ते समय मेरे मन में एक ही विचार मंडरा रहा था, 'सागर से यह राह चलकर मैं ऊपर चढ़ रहा हूँ जो अंदमान जाती है। अंदमान से वापस भारत लौटने के लिए इसी मार्ग से मैं इस जन्म में पुनः सागर की ओर नीचे आ भी सकूँगा?'

थोड़ी ही देर में चढ़ाई समाप्त हो गई और सिल्वर जेल का द्वार आ गया। लोहे की चूलों से दाढ़ कड़कड़ाने लगी। फिर उस कारागृह ने अपना जबड़ा खोला और मेरे भीतर घुसने के बाद वह जबड़ा जो बंद हुआ तो पुन: ग्यारह वर्ष बाद ही खुला।

 

बारी साहब आता है

दरवाजे के भीतर पैर रखते ही दो गोरे साजेंटों ने मुझे दोनों हाथों से पकड़कर खड़ा किया। इतने में आसपास के प्रहरियों में खुसुर-फुसुर प्रारंभ हो गई- 'बारी साहब आ रहा है।' बारी साहब से अधिक निष्ठुर अथवा कठोर व्यक्ति उन्होंने कभी भी नहीं देखा था, अत: वे इस उत्कंठा से मेरी ओर ताकने लगे कि उसका नाम लेतेही मेरे मुख पर क्या प्रतिक्रिया होती है। परंतु मैं तो उस भीषण भव्य कारागृह के दो लौह दरवाजों के बीच के हिस्से को सुशोभित करने के लिए जो आभूषण धारण किए गए थे, उन्हें परखने में व्यस्त था। विभिन्न प्रकार से हथकड़ियाँ एक-दूसरी में गूँथकर उनके भद्दे, भोंडे फूल दीवार पर लगाए गए थे पैरों की बड़ी-बड़ी बेड़ियाँ, दंड बेड़ियाँ और अन्य आयुध जो मनुष्य के शरीर को कष्ट देते हैं, सामने के हिस्से पर एक पंक्ति में लटक रहे थे। उस उग्रता की भी एक शोभा थी। उस बेयॉनेट, बंदूकों, बेड़ियों, हथकड़ियों के सौम्य आभूषणों से वह भीषण तुरुंग इस तरह शोभायमान होता जैसे एक जल्लाद सुंदर वस्त्र पहनकर फाँसी देने के लिए आते हुए शोभित होता है।

देशों की स्वतंत्रता प्राप्ति का इतिहास पढ़नेवालों और तत्रस्थ निर्वासितों और दंडितों के आत्मवृत्त देखनेवालों ने जिन दृश्यों का वर्णन किया है, जिसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, उनसे अक्षरशः मेल खाता यह दृश्य था। दोनों उद्दंड सार्जेंटों ने मुझे पकड़कर उधर इस तरह खड़ा कर दिया कि उस दृश्य के भीषण जबड़ों से मेरा सारा मनोधैर्य चकनाचूर हो जाए। वह भीषणता मेरी ओर आँखें तरेरकर टकटकी बाँध रही थी मैं भी उसकी ओर आँखें लाल करके देख रहा था और आँखों से आँखें मिला रहा था दोनों का परिचय हो गया। मुझे एक अनोखी, अद्भुत संतुष्टि मिली। अच्छा, तो फिर मैंने जो पढ़ा वह स्वयं अनुभव किया और इधर इन दृश्यों के जबड़े में बिना टूटे निष्कंप-निर्भयता के साथ खड़ा हो गया। ब्रिस्टन की लंदन स्थित जेल में मैंने 'दो मूर्ति' नामक एक कविता लिखी थी। मेरा मन उसके चरण गुनगुनाने लगा और जय... इस तरह के उद्गार मेरे हृदय में उभरने लगे।

 

बारी बाबा का उपदेश

मनोविकारों के बवंडर से किंचित् छुटकारा मिलते ही मैंने मुड़कर देखा तो एक मोटा-ताजा हष्ट-पुष्ट गोरा अधिकारी हाथ में मोटा सा सोटा पकड़े मेरी ओर घूर रहा था। तो ये ही बारी साहब थे! उन्होंने हेतुपूर्वक अपने आगमन की बात मेरे कानों में डाली और अब वे नित्य के अनुभव के अनुसार इस अपेक्षा के साथ यहाँ आए थे कि यह बेचारा सहमी-सहमी नजरों से उनकी राह की ओर देखता होगा. परंतु उसी समय मेरा मन उपर्युक्त विजयी विचारों में मग्न था, अतः मुझे पता ही नहीं चला कि वे कब आ गए उस कालावधि में उन्हें मेरी ओर देखते रहने की इच्छा हुई होगी। इस तरह मेरा गुपचुप निरीक्षण करते जैसे ही मेरी दृष्टि उनपर पड़ी वैसे ही वे मेरी ओर देखी-अनदेखी करते हुए उस सार्जेंट को आदेश देने लगे,"Leave him, he is not a tiger." (छोड़ दो उसे, वह कोई बाघ नहीं है। उसके बाद मेरी ओर उस मोटे सोटे को लक्ष्य करते हुए उन्होंने कहा, "Well, are you the man who tried to escape at Marseilles?" (तुम ही वह आदमी हो जिसने मार्सेलिस से भागने का प्रयास किया था?) उसके इस उद्धत स्वर में पूछे प्रश्न का उतने ही उद्धत परंतु संयत स्वर में मैंने उत्तर दिया, "Yes, why?" (हाँ, क्यों ?) मेरे उत्तर से बारी साहब का स्वर तनिक नरम हो गया। केवल कौतूहलपूर्ण स्वर में उन्होंने कहा, "Why did you do that?" (तुमने ऐसा क्यों किया?) मैंने कहा, "इसके कई कारण हैं। उनमें से एक यह है कि इन सभी कष्टों से मुक्ति मिले।"

"परंतु इन कष्टों में तो तुम स्वयं ही कूदे थे न!"

"हाँ, यह सच है। क्योंकि इन कष्टों में कूदना मुझे अपना कर्तव्य लगा। और उन कष्टों से यथासंभव मुक्त होना भी मुझे कर्तव्य ही प्रतीत हुआ।"

"देखो," बारी साहब एकदम खुलकर हँसते-हँसते कहने लगे, "मैं अंग्रेज नहीं हूँ। मैं आयरिश हूँ। उसी कारण मेरे मन में तुम्हारे प्रति अनादर अथवा तिरस्कार उत्पन्न नहीं होता। इंग्लैंड में मैंने अपनी तरुणाई के दिन बिताए हैं। और उन लोगों के सद्गुणों का मैं चाहनेवाला हूँ। मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि मैं आयरिश हूँ बचपन में मैंने भी आयरलैंड को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए छिड़े स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था। परंतु अब मेरे मन ने पलटी खाई है। और देखो, मैं तुम्हें मित्रता के नाते यह कह रहा हूँ। तुम अभी युवा हो, मैं तुमसे बड़ा हूँ, तुमसे अधिक दुनिया देखी है।" (You are still young. But I am advanced in age.) मैंने मुसकराते हुए बीच में ही पूछा, "And don't you think that perhaps that may be the reason of the change that has come over you? Not increasing wisdom but dwindling energy?" चकराते हुए साहब ने कहा, "आप ठहरे बड़े बैरिस्टर और मैं एक अनपढ़ जेलर, परंतु मेरे इस उपदेश को तुच्छ मत समझना। हत्या हत्या ही होती है। हत्याओं से कभी स्वतंत्रता नहीं मिलेगी।"(Murders are murders and they will never bring independence.)

"बिलकुल सही है। परंतु आप पहले यही पाठ आयरलैंड के सिनफिनवालों को क्यों नहीं पढ़ाते? आपको किसने बताया कि मैं हत्या का पक्षपाती हूँ।" बात का रुख बदलते हुए उन्होंने कहा, "अब सुपरिटेंडेंट साहब पधार रहे हैं। वास्तव में आपसे मेरा राजनीति विषयक चर्चा करना नियम बाह्य है। परंतु आप जैसे विद्वान्, युवा तथा विख्यात मनुष्य को इस तरह के मक्कार बदमाशों में देखकर अंत:करण छटपटाता है, इसीलिए इतना कुछ कहा। अब पीछे जो हुआ सो हुआ। उससे मुझे कोई लेना-देना नहीं है। आप यहाँ के कारागृह के नियमों का पालन कीजिए, बस!मेरा काम हो गया। नियम के विरुद्ध व्यवहार मत करना। अन्यथा मुझे दंड भी देना पड़ेगा।" इस बंदीपाल के ध्यान में यह बात नहीं आई कि अपना यह कथन बंदियों के साथ राजनीति की चर्चा मत करना-यह मैं नियम विरुद्ध व्यवहार कर रहा हूँ-'तुम नियम के विरुद्ध आचरण मत करना अन्यथा मुझे दंड भी देना पड़ेगा'-यह कहना कितना परिहासपूर्ण है!

"और आपको एक सावधानी की सूचना देना में अपना कर्तव्य समझता हूँ। आप यदि यहाँ से भागने की चेष्टा करेंगे तो भयंकर संकट में पड़ेंगे। इस जेल के इर्दगिर्द घना जंगल है। उनमें महाक्रूर, खूँखार, नृशंस जंगली लोग रहते हैं। वे आपके जैसे सुकुमार बालकों की टोह में होते हैं, उनके चंगुल में फँसते ही वे उसे ककड़ी जैसा चबाते हैं। हँसते क्यों हैं? क्यों जमादार, मैं जो कह रहा हूँ सच है या नहीं?" जमादार ने सचमुच मुजरा करते हुए उनकी हाँ में हाँ मिलाई, "सोलह आने सच है, साहब।"

"मैं भी जानता हूँ।" मैंने कहा, "पकड़े जाते ही मैंने प्रथमतः जो पुस्तक मँगवाकर पढ़ी-वह है अंदमान का सरकारी इतिवृत्त। मैं ठीक तरह से जानता हूँ, पोर्ट ब्लेअर मार्सेलिस नहीं है।"

"ठीक है। यह देखो और जैसा मैं कहूँ वैसा करो। मैं आपके काम आऊँगा। हाँ, जमादार, इन्हें भीतर ले जाओ और सात नंबर की चाली की कोठरी में बंद कर दो।"

प्रकरण-८

कोठरी में पहला सप्ताह

मुझे लेकर वह जमादार सात नंबर की इमारत में बंद करने चल पड़ा। रास्ते में एक हौज दिखाई दिया। जमादार ने कहा, "इसमें नहा लो।" चार-पाँच दिन हो गए थे, मैं स्नान नहीं कर सका था। सागर यात्रा से शरीर अत्यधिक मैला हो गया था. घमौरियाँ निकल आई थीं। अतः स्नान करने की अनुमति मिलते ही मुझे अति प्रसन्नता हुई। परंतु क्या भिगोऊँ? जमादार ने कहा, "यह लो लँगोटी।" अब काम करते तथा स्नान करते समय नियम से लंगोटी पहननी पड़ेगी। मन तनिक झिझका, पुनः कहा, 'अरे पगले, रामदास भी तो लँगोटी ही पहना करते थे न ! सभी जानते हैं, तुम्हारे इन कपड़ों के भीतर क्या है। फिर किससे छिपा रहे हो?' इसी विकार को मिल्टन ने Honour dishonourable (ऑनर डिसऑनरेबल) कहा है। यूरोप में ऐसा एक धर्मपंथ था, जो कपड़े पहनना पाप समझता था, क्योंकि आदम और ईव दोनों निष्पाप अवस्था में नग्न ही रहते थे इस पंथ के अनुयायी भी वैसे ही रहते थे। उन्हें 'अॅडमाइट' कहा जाता था। वर्तमान यूरोप में भी धर्मदृष्टि से न सही, शास्त्र दृष्टि से कई स्थानों पर छोटी-छोटी स्त्री-पुरुषों की बस्तियाँ हैं, जो ऐसे क्षेत्र में प्रस्थापित किए जाते हैं कि जिनमें स्त्री-पुरुषों के लिए मात्र सर्दी निवारणार्थ वस्त्र पहनना क्षमा है, इसके अतिरिक्त नित्य नग्नावस्था में रहकर सूर्य प्रकाश में शरीर अनावृत रखना अनिवार्य होता है। क्योंकि कपड़ों का अत्यधिक मोह, शरीर को सूर्यदर्शन लगभग आमरण और शायद मरने के पश्चात् भी यूरोप में होने नहीं देता, अतः डॉक्टरों की यह राय बन चुकी है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से यह हानिकारक है। इस तरह के विचार मस्तिष्क में मँडरा ही रहे थे कि हाथों से फटाफट अपने कपड़े और चड्डी (कैदियों को दिया जानेवाला घुटन्ना) उतारकर बिलकुल नंगा होकर लंगोट पहन ली। अन्य राजनीतिक बंदियों की तरह प्रथमतः लंगोट पहनते समय लज्जावश जो हिचकिचाहट होती है, वह नाटक देखने को नहीं मिलने के कारण उनकी मुद्रा से यह स्पष्ट हो गया कि उनके अनुसार मैं बहुत ही निर्लज्ज मनुष्य हूँ। जैसे-तैसे लंगोटी पहनकर मैं प्रसन्नतापूर्वक स्नान करने गया। मैं कटोरा (दंडित को दी हुई थाली) भर-भरकर पानी लेने लगा। इतने में जमादार चिल्लाया, "ऐसा मत करो। यह काला पानी है, भाई! पहले खड़े रहो। फिर मैं कहूँगा 'पानी लो।' फिर पानी लेना, वह भी एक कटोरा। फिर मैं कहूंगा, 'अंग मलो। हाथ से शरीर रगड़ो।' मैं कहूँ, 'और पानी लो' कि पुनः दो कटोरे पानी लेना और वापस लौटना। तीन कटोरों में-तीन थालियों में स्नान करना है।"

उस मुसलमान पठान जमादार की आज्ञा सुनते ही मैं चौंक पड़ा। मैं क्षेत्रवासी होने के कारण नासिक-त्र्यंबक के संकल्प अनुशासन से स्नान करने का आदी था। मन-ही-मन हँसते हुए मैंने कहा, 'यह भी इस तरह का एक संकल्प ही है। वह गोरे पानी का संकल्प था, इसे बस काले पानी का संकल्प कहा जाए।' उस दढ़ियल दीक्षित ने यह संकल्प-कथन प्रारंभ किया। मैं स्नान करने लगा इतने में आँखें लप से बंद हो गई। कुछ भी नहीं दिख रहा था और बहुत तेज जलन होने लगी। क्या हुआ? संकल्प में कहीं कुछ भूल-चूक तो नहीं हुई? इतने में अंजलि भर गई और पानी मुँह में चला गया तो मुख 'धू-धू' करते हुए विद्रोह पर तुल गया। जीभ एकदम खारी बन गई। तब साहस जुटाकर जमादार से पूछा, "यह पानी खारा कैसे हुआ?" उसने कहा, "भला समुंदर का पानी कभी मीठा होता है?" तब ध्यान आया कि हम समुद्र स्नान कर रहे थे पीने के पानी की कमी होने से अंदमान में स्नान, कपड़े धोने आदि के लिए सर्वत्र समुद्र का पानी प्रयोग किया जाता है। वह भी किसी कुंड में संचित।

सारा तन चिपचिपा हो गया। बाल कड़े-रूखे-कठोर हो गए थे। काश, स्नान के पचड़े में न ही पड़ता। परंतु पुनः सोचा, अब इसकी आदत डालनी ही पड़ेगी। लंदन, पेरिस के 'टर्किश बाथ' का आनंद लिया है, अब अंदमानिश बाधों का आनंद लेना चाहिए! राष्ट्रीय पापों का क्षालन उत्तम साबुन तथा सुगंधित तेल मल-मलकर गरम पानी के फव्वारों की सुखद फुहारों भरे स्नानों तथा संस्कृत संकल्पों द्वारा नहीं। 'लो पानी'- इन कर्कश शब्दों के कठोर संकल्प द्वारा तोन कटोरे खारे पानी के स्नान से ही होगा।

कपड़े पहनकर आगे बढ़ा तो उस त्रितल (तीन तलीय) इमारत का मुझे दर्शन हो गया। इसकी भी ईटों तथा पत्थरों से पक्की बनाई हुई थीं, लंबी-लंबी एक ही ऊँचाई की सलाखों से उसमें विभिन्न खाने बनाए हुए थे, आग के भय से उसे कहीं भी लकड़ी का स्पर्श नहीं होने दिया था और उसमें एक जैसी, सप्रमाण अनेक कोठरियाँ बनी हुई थीं। वे चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियाँ, वह श्वेत धवल रंग और सप्रमाण देखकर मन इतना हर्ष-विभोर हो गया जैसे मैं कोई सुगठित हवेली देख रहा हूँ। यही सात नंबर चाली है, इसी के तृतीय तल पर मुझे रहना है। वाह! उत्तम खुली मिलेगी और भरपूर प्रकाश! ऐसा अपना घर होता तो मैं कितना श्रीमंत होता और कदाचित् चार-चार महीने इस विस्तृत भवन में और इस हरे-भरे आँगन में सुख से रहा जाता। बस, इसके बंदीशाला होने की भावना को त्याग दो तो इस हवेली में भी रहना उतना दुस्सह नहीं। निवास के संबंध में वेदांतियों का यह जो कथन है कि मम और नमम में ही सुख-दुःख के बीज निहित हैं, उनका यह कहना व्यर्थ नहीं है। ठीक है, यथासंभव यही प्रवृत्ति रखी जाए। इतना सुंदर घर और वह भी बिना भाड़े के मिल जाए तो उसे बंदीशाला कहकर उससे व्यर्थ भयभीत क्यों होना? कुछ दिन इधर ही प्रसन्नतापूर्वक क्यों न रहा जाए?

परंतु कुछ दिन अर्थात् कितने दिन? आशंका ने प्रश्न उठाया और मैंने खुसुर-फुसुर की, 'यहीं पर तो भेद है।' अंदमान के नियमानुसार छह महीनों के पश्चात् बंदियों को कारागृह से बाहर दिया जाता है। अन्य लोगों की अपेक्षा मुझपर क्रोध कुछ अधिक है, तो अधिक-से-अधिक एक वर्ष अंदर रखेंगे। सिपाहियों ने बताया था कि तीन वर्षों के ऊपर किसी भी व्यक्ति को आज तक सिल्वर जेल में एक साथ लगातार बंद नहीं रखा गया है। अत: अधिक-से-अधिक तीन वर्ष मुझे अंदर रखा जाएगा। परंतु कठिनतम ही गृहीत करके उसके प्रतिकार की पहले से ही मानसिक सिद्धता करना संकट के समय मेरा अति उपयुक्त नियम रहा था, जिसका अनुसरण करके मैंने सोचा, 'इसका अभिप्राय यह कि अधिक-से-अधिक पाँच वर्ष तक मुझे कोठरी में बंद रखा जाएगा। बस ठीक है! इस बंदीगृह को, जो बुरा नहीं है, अपनी हवेली समझकर पाँच वर्ष यहीं पर डेरा डालेंगे, काव्य-रचना करेंगे, सरकारी आज्ञा से नहीं अपितु स्वेच्छया निश्चय से यह नियम बना लेंगे।'

इसी मानसिक खिलौने से खेलते-खेलते मैं तृतीय तल पर पहुँच उस कोठरी के द्वार के पास खड़ा ही रह गया था। इस कारणवश कि मैं उधर आ रहा हूँ, वह पूरी इमारत जिसमें लगभग डेढ़ सौ लोग रहते थे, खाली की गई थी। केवल दृष्टि से उत्तम परंतु बंदियों की दृष्टि से चुगलखोर, पापी, कुकर्मी तीन ऐसे वॉर्डरों को वहाँ रखा गया था। वे तीनों बलूची तथा पठान मुसलमान थे। राजनीतिक बंदियों पर और उसमें भी विशेषकर मुझपर प्रायः पठान, बलूची मुसलमानों के अतिरिक्त अन्य किसी को भी पहरेदारी का काम नहीं सौंपा जाता। जिसको यह काम सौंपा जाता उसे इसमें अपना बड़ा गौरव लगता, क्योंकि वे इस बात पर इतरा सकते थे कि अधिकारियों का उनपर कितना दृढ़ विश्वास है। उनके माध्यम से अधिकारी हमारे गुप्त भेद जान सकते थे। साथ ही वे अधिकारियों के सभी तरह के अन्यायपूर्ण एवं नृशंसतापूर्ण काम करने के अभ्यस्त थे। अतः इन बलूची और पठान मुसलमानों को अधिकारी भी अधिक ढील देते थे। उनका अनियमित ही नहीं अनीतिमान आचरण भी क्षम्य। मानकर इस तरह की नीति अपनाते कि अन्य सभी पर और विशेषत: हिंदुओं पर उनका दबदबा रहे। हम सब राजबंदियों के हिंदू होने के कारण और उस बंदीगृह में हमारे आगमन के कारण हिंदुओं पर जैसे संकटों का पहाड़ ही टूट पड़ा था। हम हिंदू दंडितों पर हिंदू जमादार रखा जाए, तो उसके हमसे सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने की संभावना अधिक होती। हमारे राजबंदी होने से हमारी वास्तविक गतिविधियों को तिल का ताड़ बनाकर और जो नहीं भी हैं, उन्हें नमक-मिर्च लगाकर अधिकारियों तक पहुँचाना तथा यथासंभव हमसे क्रूरतापूर्ण व्यवहार करना हिंदुओं के लिए इतना सरल नहीं था जितना कि मुसलमानों के लिए। अतः हिंदुओं लिए पदोन्नति और वेतन वृद्धि कठिन कार्य होने लगा।

दूसरी बात यह है कि पठानों को इन दुष्टतापूर्ण कार्यों के लिए सिर पर चढ़ाना, अधिकारियों के लिए अनिवार्य हो जाने के कारण इन कुकर्मी मुसलमानों का, जिन्हें धर्मांधता ने बाल्यकाल से यह घुट्टी पिलाई थी कि हिंदुओं को अत्यधिक कष्ट देने से 'सर्वपापं विनश्यति', हिंदुओं के विरुद्ध मिथ्या चुगलियाँ, उलाहनों को खड़ा करके उन्हें अधिकाधिक पीड़ा देना संभव हो गया था, क्योंकि सभी का अनुभवसिद्ध विश्वास था-बारी बाबा मुसलमानों के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं सुनेगा। इस प्रकार हिंदू बंदियों को अधिकारियों में स्थान मिलना असंभव हो गया। जो हिंदू दंडित अधिकारी थे, उनपर मिथ्या दोषारोपण कर पठान बंदियों ने उन्हें निकाल दिया और पठान बंदियों की अधिकारियों के पदों पर नई भरती होती रही। पठान अधिकारी नित्य पठानों का पक्ष लेते। उनकी यही एकता सत्कर्मों में एक आदर्श सिद्ध होती। उनके इस मेल के कारण पठान मुसलमानों, सिंधी मुसलमानों, बलूची मुसलमानों के गुटों के बंदी अधिकारी अपनी-अपनी जातियों के बंदियों को यथासंभव हिंदुओं को अधिक-से-अधिक यंत्रणा देने के लिए प्रोत्साहित करने लगे। अत: हम हिंदू राजबंदियों के उस कारागृह में प्रवेश करते ही केवल वहीं पर नहीं अपितु संपूर्ण अंदमान में हिंदू दंडितों तथा दंडित अधिकारियों की दुर्दशा का कोई ठिकाना नहीं रहा। इसका वृत्तांत धीरे-धीरे आगे आता ही रहेगा कि इसके परिणाम कितने दूर-दूर तक पहुँचते गए थे। वह वृत्तांत ठीक-ठीव समझ में आए, इसलिए यहीं पर इसके मूल कारण का थोड़ा सा विश्लेषण किया है इन मुसलमानों में पठान, सिंधी, बलूची जैसे व्यक्तिगत अपवादों को छोड़कर प्राय: अधिकतर मुसलमान अत्यधिक क्रूर, नृशंस तथा हिंदू-द्वेष से लबालब भरे हुए होते। उनसे बहुत नीचे पंजाबी मुसलमान तथा अन्य बँगला, मराठी, तमिल आदि मुसलमान बंदीवान व्यक्तिगत अपवादों को छोड़कर प्रायः न तो इतने दुष्ट थे और न ही हिंदू-द्वेष से भरे हुए। तथापि उनकी इस सज्जनता को दुर्गुण घोषित कर उपर्युक्त क्रूर मुसलमान नित्य नियम से उनपर व्यंग्य कसते, और 'यह तो आधा काफिर ही है' कहकर उनका उपहास उड़ाते, परिणामस्वरूप ये पंजाबेतर मुसलमान भी धीरे-धीरे पठानों का अनुकरण करने लगते। तथापि वे तत्रस्थ सरकार के विश्वासपात्र नहीं थे अधिकारियों का रुझान व्युत्क्रम से उनकी ओर ही आकर्षित होता जो अधिक क्रूर होते।

एतदर्थ मुझपर तो मुसलमानों में ही नहीं, पठानों में भी जो अत्यंत बेशर्म वॉर्डर, जमादार अथवा 'पेटी अफसर' अर्थात् वह बंदीवान अधिकारी, जिसे बंदियों से तरक्की मिली हो, नियुक्त किया जाता। ऐसे ही उन तीनों बॉर्डरों के हाथ मुझे सौंपकर कोठरी में बंद कर, ताला लगाकर वह जमादार चला गया।

दूसरे दिन प्रात:काल लगभग आठ बजे वे पठान वॉर्डर जल्दी-जल्दी मेरी कोठरी के सामने आकर बोले, "साहब आता है, खड़े रहो।" मैं द्वार के निकट आ गया। द्वार अर्थात् कोठरी की सलाखों का नित्य बंद रहनेवाला द्वार। बारी साहब अपने साथ और कुछ गोरे लोग लेकर आए थे। उस कारागृह में मेरा आगमन होने से बारी साहब को एक नया महत्त्व प्राप्त हो गया था। तत्रस्थ यूरोपियन स्त्री-पुरुषों की मुझे देखने तथा यथासंभव मेरे साथ थोड़ा संभाषण करने की इच्छा होती थी। अतः उन्हें बारी साहब की आरती उतारने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय ही नहीं रहता। काफी अनुनय-विनय करने के पश्चात् अत्यंत सावधानी के साथ, गुपचुप बारी साहब उन्हें बंदीगृह में ले आते और मुझसे भेंट करवाकर अथवा दूर से मुझे। दिखाकर इस तरह गंभीर मुद्रा बनाते कि-तुम लोगों पर पहाड़ जैसा विशाल उपकार किया, अब मैं इस विवेचना में गर्क है कि इसके आगे इसे कैसे पार करूँ। That will do! that will do?' कहते हुए वे अतिथियों को लेकर झट से वापस चले जाते। मुझे ऐसे कई गोरे सार्जेंट तथा महिलाओं के उदाहरण ज्ञात हैं जो यह स्वर्ण अवसर पाने के लिए पंद्रह-पंद्रह दिन बारी साहब की कोठी पर उनकी अनुनय-विनय करते रहे थे।

"सरकार!" वॉर्डर के चिल्लाते ही मैं वहाँ के नियमानुसार सीधा खड़ा रहा। कोठरी की सलाखों के छोटे द्वार में से बारी साहब के दिखने के पहले ही उनकी निकली हुई तोंद दिखाई देने लगती। क्योंकि उनकी वह तोंद, जो उनके संपूर्ण शरीर को पछाड़ती हुई और संपूर्ण विश्व को तुच्छतापूर्वक चुनौती देती हुई दिखती थी, उस गुब्बारे की तरह गोल-मटोल जो स्कूलों में पृथ्वी का आकार दिखाने के लिए रखा जाता है, दो कदम उनके आगे भागती और उनकी इस तोंद पर मध्य तक चढ़ाए हुए पाजामे पर वह चमड़े का पट्टा भूमध्य रेखा की तरह शोभा देता।

 

सन् १८५७ के विद्रोह की चर्चा

बारी साहब ने प्रारंभ किया, "लोगों ने आपको बताया ही होगा कि मैं आपका बंदीपाल (Jailer) हूँ।" मैंने केवल सस्मित देखा।"परंतु मैं आपसे कहता हूँ कि मैं आपका एक मित्र हूँ।" साथ में आए हुए अतिथि मौन थे, क्योंकि वारी साहब प्रत्यक्ष बोलने का अधिकार अपने विशेष चमचे को ही देते, अन्य लोगों को नहीं। "मुझे आप जैसे शिक्षित, पढ़े-लिखे मनुष्य से संभाषण करना बड़ा अच्छा लगता है। अत: मैं इस तरह कभी-कभी यूँ ही खुलकर वार्तालाप करने आ जाता हूँ। आपने सन् १८५७ के उस दुष्टतापूर्ण विद्रोह का इतिहास लिखा है न!' [27] वे जब बोल रहे थे मैं केवल सस्मित मुद्रा में देख रहा था। मैंने भाँप लिया कि महाशय टटोलने पधारे हुए हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी सामान्य प्रवृत्ति को देखना ही उनका उद्देश्य है। मैं भी सोच रहा था-चलो, उनकी बात सुनने में समय का भार तो तनिक हलका होगा जो इस काल कोठरी में भारी हो गया है। मैंने कहा, "यह सच है कि उस विषय पर मैंने ढेर सारी पुस्तकें पढ़ी हैं।" उन्होंने कहा, "तो फिर ऐसे दुष्ट लोगों से आपको घिन नहीं आती? क्या थी उनकी पैशाचिक क्रूरता। मेरे पिता स्वयं उस विद्रोह में फंस गए थे। वे हमें बताया करते, 'उस अधम नाना साहब ने कानपुर में स्वयं सभ्य अंग्रेज महिलाओं पर भोंडे अत्याचार करके उनके मुँह में।' ऐसे नरराक्षस थे वे!" मैंने पूछा, "क्या आपके पिताजी ने अपनी आँखों से देखा?" उन्होंने झट से कहा, "एक कर्नल ने बताया, जिसने लखनऊ में यह कृत्य प्रत्यक्ष देखा था।" मैंने कहा, "तो फिर यह अवश्य मिथ्या होना चाहिए। क्योंकि जब अंग्रेज महिलाओं तथा पुरुषों को बंदीगृह में डाला गया तब नाना कानपुर में थे, न कि लखनऊ में।" मेरी बात अनसुनी करते हुए बारी साहब ने कहा, "ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं।" मैंने कहा, "होंगे! जैसी यह मनगढ़ंत, सुनी-सुनाई दंतकथा है वैसी ही वे भी होंगी।"

अब अतिथियों में से एक ने, जो सज्जन दिख रहे थे, कहा, "परंतु कुल मिलाकर नाना साहब, तात्या टोपे आदि स्वार्थी विद्रोहियों से आपको घृणा नहीं होती क्या?" मैंने उनसे कहा, "यदि आप इस विषय पर कारागृह में चर्चा करना उचित समझते हैं तो मैं करता हूँ। परंतु यहाँ मैं एक दंडित हूँ और ये बंदीपाल यदि चर्चा ही करनी है तो उस समय तक बराबरी का संबंध आपको स्वीकार करना होगा। अन्यथा आपको यह स्वीकार करना होगा कि बंदीवान समझकर मेरे मुँह पर ताला ठोंककर मेरे राष्ट्र के इतिहास से संबंधित एकपक्षीय तथा अपमानजनक उल्लेख करना निंदनीय तथा कायरतापूर्ण कृत्य है।" बारी साहब ने कहा, "नहीं, नहीं, मैं आपसे पहले भी कह चुका हूँ कि मैं यहाँ एक हितैषी के नाते खड़ा हूँ। आप जो चाहे चर्चा कीजिए।" "तो फिर", मैंने उत्तर दिया, "मैं खुलकर अपनी राय प्रस्तुत करता हूँ। मैं जानता हूँ, मेरे विचार आपको प्रक्षोभक, तीखे, उग्र प्रतीत होंगे और हो सकता है, इस चर्चा का उद्देश्य भी यही आजमाना हो कि वे वैसे हैं या नहीं। परंतु मुझे उन्हें छिपाने की कभी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। ये ऐतिहासिक प्रश्न हैं। और यदि इनके कारण मुझे कष्ट, अत्याचार सहने पड़ें तो भी उनके भय से मैं अपने राष्ट्र के इतिहास का और प्रमुख भूमिकाओं का अपमान चुपचाप सुनना भीरुता, कापुरुषता समझता हूँ। आपने नाना साहब संबंधी जो दंतकथा सुनाई, उसकी सत्यासत्यता का निर्णय करने के लिए अंग्रेजों ने एक सरकारी कमीशन नियुक्त किया था। उसने यह निर्णय दिया कि अंग्रेज महिलाओं पर किए गए नैतिक अत्याचारों के वर्णन मिथ्या तथा अतिरंजित थे। वह अंग्रेजी छावनी के गोरे सोल्जरों के कुत्सित मस्तिष्क की उपज है।"

कौन नहीं होता स्वार्थी ?

"आपने नाना साहब और तात्या टोपे को स्वार्थी कहा?" "हाँ", उस अतिथि ने कहा, "क्योंकि नाना साहब राजा बनना चाहते थे और तात्या को महानता चाहिए थी।" मैंने कहा, "आपकी यह बात ठीक है, और यह भी बिलकुल सत्य है कि विक्टर इम्यानुएल को इटली का राजा बनना था, वाशिंगटन प्रेसिडेंट बनना चाहते थे और गैरीबाल्डी को भी महानता की आवश्यकता थी! वास्तव में वे अपनी जातीय स्वतंत्रता के लिए लड़े और ये अपनी" "तो फिर आपने भी विद्रोह का झंडा तो नहीं लहराया?" बारी ने पूछा। मैंने उत्तर दिया, "यह प्रश्न सर्वथा स्वतंत्र है। यह कहना कि सन् १८५७ का स्वतंत्रता संग्राम छिड़ गया इसलिए आज भी वह छिड़ना आवश्यक है, अथवा सन् १८५७ में वह नहीं छिड़ता तो आज भी वह नहीं छिड़ना चाहिए-मेरे विचार से दोनों ही मूर्खता के लक्षण हैं।" मैंने देखा, उन अतिथियों ने सन् १८५७ के राष्ट्रीय इतिहास पर लिखित एक-दो पुस्तकें पढ़ी हैं। उन्होंने बीच में ही कहा, "तो फिर आप यह प्रतिपादित तो नहीं करना चाहते कि यह सर्वथा गलत और गप है कि विद्रोहियों ने अंग्रेज महिलाओंका कत्ल किया।" मैंने कहा, "ऐसा कौन कहता है? वह बात सत्य है, और करुणाजनक भी। परंतु महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उसका कारण क्या है? उन महिलाओं के साथ प्रथमतः वैसा ही व्यवहार किया गया जैसा युद्धबंदियों के साथ किया जाता है-यह उनमें से शेष महिलाओं तथा अन्य लोगों के साक्ष्य से स्पष्ट है। उस कमीशन के सामने जो साक्ष्य रखे गए उन्हें मैंने प्रकाशित किया है। परंतु जब अंग्रेज सेना कानपुर पर अधिकार करने आगे बढ़ी तो इलाहाबाद के आसपास के गाँवों में आग लगाकर लोगों को जीवित जलाने लगी और उस अग्निकांड में राष्ट्रीय विद्रोह में जान हथेली पर लेकर लड़नेवाले सैकड़ों देशभक्तों के बीवी बच्चों की खुलेआम होली जला दी गई। तब इन वार्ताओं से कानपुर के क्रांतिकारियों की सेना में भयंकर क्षोभ उत्पन्न हुआ। इतने में जो अंग्रेज महिलाएँ युद्धबंदियों के रूप में कारागृह में थीं, उनके आक्रमणकारी अंग्रेज सेना को भेजे गए गुप्त पत्र और उनके क्रांतिकारी सेना को भेजे समाचार पहुँचानेवाले संदेशवाहक पकड़े जाने से चिढ़कर उन महिलाओं की हत्या की गई।"

 

दोनों ही समान थे

"इस नृशंस कर्म को उतना ही दोष देना चाहिए जितना अंग्रेजी सेना के अत्याचारों को। क्या उन्हें दोषी नहीं ठहराना चाहिए जिनकी वह आंशिक तथा अल्प मात्रा में प्रतिक्रिया थी? क्या आप यह समझते हैं कि आयरलैंड में ड्रॉचेडा के कत्ल से क्रॉमवेल को नरपशु ठहराते हुए इंग्लैंड को लज्जित होना चाहिए था? भयंकर और राष्ट्रीय क्रांति के प्रसंग में इस तरह के भयंकर कृत्य घटते हैं। यह कितनी ही उद्वेगजनक बात क्यों न हो, तथापि उससे उस क्रांति के मूलभूत उद्देश्य का विरोध करने का कोई कारण नहीं है। नाना की आज्ञा के बिना उनकी सेना के क्रांतिकारी सैनिकों के आदर्श का शिकार बनी प्रत्येक अंग्रेज महिला के वध के पूर्व ही केवल विद्रोहियों की नाक में सुतली पिरोने के लिए भारतीय लोगों की दस-दस स्त्रियाँ अंग्रेजी-सेना के अग्निकांड का शिकार बन गई। उस अंग्रेज सेनानी के इंग्लैंड में पुतले खड़े किए गए। नील अपनी दैनिकी में कहती है, 'अंग्रेज राष्ट्र के कल्याणार्थ इस निर्दयता का अवलंबन करना मेरा कर्तव्य था।' सन् १८५७ के क्रांतिकारियों को भी क्या वही समर्थन उपयुक्त नहीं होगा? यदि दोषी हैं तो हम दोनों कम-अधिक मात्रा में दोषी हैं। नहीं तो कोई भी नहीं।" अतिथि महोदय ने कहा, "मेरा विश्वास है कि वह विद्रोह राजनीतिक स्वाधीनता के लिए ही था; और जो अनेक अश्लील अफवाहें उन सिपाहियों के संबंध में फैली हुई हैं वे भी बहुतांश में निराधार हैं, बेसिर-पैर की हैं। परंतु आज उससे क्या पाठ लिया जाए?"

"यह मेरी समस्या नहीं है। केवल ऐतिहासिक घटना थी इसलिए मैंने इतनी चर्चा की। प्रस्तुत संबंध में मैंने पहले जो कुछ कहा उसके अतिरिक्त आज इसपर मुझे कुछ भी कहना संभव नहीं है।"

"ठीक है। आज न सही, फिर कभी चर्चा करेंगे।" इस तरह सहजतापूर्वकबोलने के साथ मेरे स्वास्थ्य के संबंध में सहानुभूतिपूर्वक पूछताछ करके बारी साहबचले गए।

 

अनुष्टुप् छंद

अगले दो दिन मुझे कुछ भी नहीं दिया गया। मुझसे कहा गया, महीना-दो महीना मेरा व्यवहार देखकर मुझे पुस्तक दी जाएगी कागज का टुकड़ा मिलना तो सर्वथा असंभव था, बात करने के लिए चिड़िया तक नहीं थी तब इस कालकोठरी में दिन काटने का उत्तम साधन मैंने निश्चित किया, उन कविताओं की रचना करना जो पीछे आरंभ की थीं। बीच के कालखंड में समुद्र यात्रा की हड़बड़ाहट में वह काम ठप हो गया था, क्योंकि वहाँ बात करने तथा पढ़ने के लिए मिल जाने के कारण लोगों में विचारों का प्रसारण करने का दूसरा कार्य संभव हो सका था। कविता-रचना करने का निश्चय करते ही मन में सोचा, मराठी में अनुष्टुप् छंद का प्रचार लुप्तप्राय ही हो गया है। यह ठीक नहीं। इस मधुर परिचित और काव्य विधा के लिए अनुकूल अनुष्टुप् की, जिसमें रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्य का गान किया जाता है, गीता सरीखा दर्शन भी जिसमें अच्छी तरह व्यक्त हो सकता है, उपेक्षा करना हानिकारक निर्दयता तथा मराठी भाषा के लिए लांछनास्पद है। मोरो पंत के अनुष्टुप् हैं और कुछ समर्थ रामदास के, बाकी उसे (अनुष्टुप् छंद को) कोई पूछता तक नहीं। अत: उसी में एक मंजुल, ललित, छोटी सी काव्य-रचना क्यों न की जाए। तब स्मरण करने लगा, इस वृत्त के नियम क्या हैं। कुछ स्मरण ही नहीं हो रहा था। साथ में वृत्त दर्पण भी नहीं था अन्य अनुष्टुप् यथासंभव स्मरण करते, उन्हें बोलकर और उनमें नियम ढूँढ़कर उनका मंथन करता रहा। सारा दिन इसी माथापच्ची में बीत गया। मात्राओं की गिनती करें तो किसी में अठारह, किसी में बीस तो किसी में पच्चीस किसी का किसी से तालमेल नहीं। अच्छा, गणवृत्त कहा जाए तो गण भी कहाँ मेल खा रहे हैं? य गण देखा, भ गण देखा गणों में तो उसकी गणना ही नहीं। इतने में झट से बचपन में रटा-रटाया एक चरण स्मरण हुआ जिसने हाहाकार मचा दिया। 'अनुष्टुप् छंद वह जिसका कोई नियम ही नहीं। (अनुष्टुप् छंद ते ज्याला एक नेम नसे गणी)।' 'नियम ही नहीं '-ऐसे शास्त्र वचन से प्रभावित होने के कारण मात्र श्रुति सुख पर ही निर्भर रहकर मैंनेअनुष्टुप् रचना का सपाटा लगाया।

तीन-चार दिनों के हमारे इस बलात्कार से क्षुब्ध होकर ही मानो वृत्तदर्पणांतर्गत इस तीसरे चरण ने क्रोध से ताव खाकर स्वयं को प्रकट किया, जैसे प्राचीन काल में निषाधविद्वांड दर्शन से प्रक्षुब्ध होकर आदि कवि के शोक ने श्लोक रूप धारण करके उस प्रथम अनुष्टुप् का उच्चारण किया था हमारे स्मृत्यं गण में उच्चारण हुआ 'अक्षरे चरणी आठ' - तो फिर अनुष्टुप् को एक गण नियम नहीं पद प्रथम देते हुए फिर नियम का पद ग्रहण कर वृत्तदर्पणकारों ने कैसा चकमा दिया। आठ अक्षरों के नियम का स्मरण होते ही सारी ग्रंथियाँ ठीक-ठाक बैठ गई परंतु अपने रचे हुए अनुष्टुप् की ओर दृष्टि डाली जाए तो मजे-ही-मजे। किसी के चरण में आठ क्षर तो किसी के दस तो किसी के बीस। किसी का किसी से मेल नहीं।

अर्थात् इन सारे अनुष्टुपों की द्वितीय आवृत्ति करने पर भी यह समाप्त नहीं हुआ, क्योंकि केवल आठ अक्षर गिन लेने पर भी कभी-कभी वह अनुष्टुप् की चाल से किसी भी तरह से नहीं चल रहा था और धप्प से बैठ जाता था। पहले श्रुति सुख ने चकमा दिया तो अब शास्त्र-नियमों ने ! उदाहरणार्थ 'सलिलात् नदीच्या त्या प्रतिबिंबित जी पद्ये' (नदी के जिस पानी में वे पद्य प्रतिबिंबित हो रहे थे)- इस चरण में आठ-आठ अक्षर होने से भी वे अंत में अनुष्टुप् की चाल से चलने में स्पष्ट विरोध करते हैं। तब कुछ और दिनों के पश्चात् उपांत्य ह्रस्व जैसे एक-दो सूक्ष्म नियम जो वृत्तदर्पण में नहीं दिए गए थे, स्वयं ही ढूँढ़ निकालने पड़े। तब विरचित अनुष्टुपों को घिस-घिसकर तीसरा संस्करण निकालना पड़ा। यह सारा गोरखधंधा साधनाभाव के कारण करना पड़ा। वृत्त शास्त्र की एक भी पुस्तक मिलती तो एक घंटे में निर्णय हो जाता। कारागृह में मैं जो साहित्य सृजन कर सका, उसके लिए साधन सामग्री का अभाव होने के कारण काफी त्रास हुआ-एक तारीख के लिए, एक शब्द के लिए आठ-आठ दिन अटकना पड़ता। कल्पना लाख अच्छी होने पर भी उसे त्यागना पड़ता। वर्षों तक उसी पर निर्वाह करना पड़ता जो स्मृति में था।

परंतु आखिर अनुष्टुप् सफल हो गया और इस वृत्त में ही कारावास की उस सात नंबर की एकांत कोठरी में 'कमला' [28] का अरण्य कमल खिलने लगा।

 

कारागृह की प्रथम गुप्त चिट्ठी

आज मुझे इस कोठरी में बंद हुए चार-पाँच दिन बीत गए होंगे। अभी तक उस पूरे विभाग में मेरे अतिरिक्त एक भी बंदी नहीं छोड़ा गया था ताकि मुझे कोई भी समाचार न मिल सके। स्नान के लिए भी सामनेवाली कोठरी, जो इमारत का आने-जाने का रास्ता था, की ओर ही पानी मिलता। मैं तृतीय तल की चालो में रहता भीत में एक ही नाप की सलाखें ठुकी हुई, वह रास्ता और उसके पीछे कोठरियों को पंक्ति-ऐसा ही इन चालों का स्वरूप था। भोजन से निपटकर थोड़ा समय हो गया था। दोपहर के समय कोठरी में बैठा था कि नीचे से एक छोटा सा पत्थर सलाखों से टकराया और नीचे गिर गया। पुनः नीचे से किसीने ठीक तरह से फेंका। वह सलाखों से निकलकर मेरी कोठरी के द्वार पर आ गिरा। मैं खड़ा ही था। सामने देखा तो एक बॉर्डर वह पत्थर उठाने के लिए संकेत करके चला गया मैंने वह पत्थर उठाया तो उसमें बंधे कागज पर लिखी चिट्ठी मिली। मैं उसे खोलकर पढ़ने ही लगा था, इतने में नीचे शोरगुल सुनाई दिया। मैं चौक उठा और दरवाजे के निकट आते हुए देखा तो नीचे आँगन में पेटी अफसर को वह वॉर्डर, जो मेरे पहरे पर रहता था. जोर-जोर से आवाज देकर बुला रहा था। मैंने उसी समय ताड़ लिया कि इस पठान वॉर्डर ने, जो पहरे पर था, उस वॉर्डर को चिट्ठी फेंकते हुए देखा होगा और उसे पकड़ने के लिए अथवा मेरी कोठरी खोलकर तलाशी लेने के लिए यह पेटी अफसर को बुला रहा है। इतने में वह यमदूत मेरी कोठरी के सामने खड़ा हो गया। परंतु वह चिट्ठी फाड़ डालने के लिए मेरा मन नहीं कर रहा था, क्योंकि इतने साहस के साथ जिसने यह चिट्ठी मुझे पहुंचाई वह इसलिए कि उसमें कुछ महत्त्वपूर्ण संदेश होगा। परंतु उसे कहीं भी छिपाना असंभव प्रतीत हो रहा था। मिनटों में ताला खुलेगा। चिट्ठी मिल गई तो वह वॉर्डर, जो इसे लाया था, वे लोग जिन्होंने यह भेजी थी और जिनके इस चिट्ठी में नाम हैं-सभी संकट में पड़ेंगे। अत: कोठरी के एक कोने में, इस वॉर्डर से बचते हुए, झट से शरीर के ही ऐसे स्थान पर चिट्ठी छिपाने के अतिरिक्त, जहाँ छुपानी नहीं चाहिए, अन्य कोई चारा नहीं रहा। मैंने उसे इस तरह छिपाया कि उसमें जो कुछ गोपनीय बात होगी उसे घात न हो। इतने में पेटी अफसर आ गया। उसने उद्दंडतापूर्वक पूछा, "चिट्ठी कहाँ है? कंकड़ किसने उठाया?" मैंने कहा, "मैं कुछ नहीं जानता।" मेरे पहरे पर वह पठान वॉर्डर, इस तरह के निश्चित विचार में मग्न था कि इतने सख्त बंदोबस्त में कौन आ सकता है भला! इतने में उस पत्थर की आवाज होने से वह उठकर देखने लगा तो उसे वह नीचे खड़ा वॉर्डर मुझे कुछ संकेत करता हुआ दिखाई दिया। संदेहवश उसने हॉक लगाई। उसमें भी वह वॉर्डर हिंदू था। अतः: उसे पकड़कर (पद से) हटाने पर अपने एक पठान को वॉर्डर बनाने का अवसर मिलता। इसीलिए उसने हंगामा खड़ा किया। मेरी चाली पर नियुक्त वह पेटी अफसर भी मुसलमान ही था, क्योंकि सरकारी प्रतिज्ञा यह थी कि मेरे पास किसी भी हिंदू को फटकने नहीं देना है। आखिर मेरी कोठरी का दरवाजा खोलकर उस पेटी अफसर ने मेरे शरीर की तलाशी ली। चहटी, बनियान की सिलाई भी टटोलकर देखी, परंतु चिट्ठी नहीं मिली। उस हिंदू बॉर्डर की भी तलाशी ली गई। उसके पास भी कुछ नहीं मिला। अर्थात् यह प्रकरण इतने पर ही समाप्त हो गया।

 

सावधानी की सूचना

उन सबके चले जाने के बाद मैंने शरीर से चिट्ठी निकालकर पढ़ ली। उसमें कारागृह की स्थिति का वर्णन था, जिससे मुझे इस बात का ज्ञान हो सके कि किससे कैसे व्यवहार करूं। उस समय कारागृह में बंगाल के माणिक टोले के लोग, इलाहाबाद के स्वराज पत्र के तीन-चार संपादक, बस इतने ही राजबंदी थे जिन्होंने मुझे यह चिट्ठी भिजवाई थी, वे मेरे पूर्व परिचित बंगाली मित्रों में से एक थे। उन्होंने इस तरह संदेश भेजा था कि राजबंदी होने के कारण ही सामान्यत: किसीपर विश्वास न करें बंगाली लोगों में पकड़-धकड़ होने के उपरांत कुछ लोग सरकार में गुप्त वार्ताओं का भेद खोल रहे हैं। अत: उधर हम लोगों में दो पक्ष हो गए हैं ऐसा प्रतीत होता है कि अमुक-अमुक व्यक्तियों का फिलहाल बस इतना ही काम निश्चित है कि अधिकारियों को प्रसन्न करके कोल्हू की भयंकर यंत्रणाओं के काम से अपनी जान बचाएँ। उसके लिए उन्होंने उन लोगों के नाम बता दिए जिन्हें पिछले आंदोलन में पकड़ा नहीं गया था। परंतु इधर भी वह अधिकारियों को सूचित करता है कि हम क्या बातचीत करते हैं, क्या कर रहे हैं अत: अमुक व्यक्ति पर विश्वास मत कीजिएगा।

बंगाल के षड्यंत्र के लोगों की फूट के संबंध में पढ़कर मुझे कोई विशेष आघात नहीं पहुंचा। क्योंकि जब मैं जेल से बाहर था तभी मुझे ज्ञात हो गया था कि उनमें से प्रमुख व्यक्ति के पकड़े जाते ही कुछ लोगों के धीरज का बाँध टूट गया और कलकत्ता के कारागार में ही परस्पर विश्वासघात करने की जैसे होड़ लग गई थी। कुछ लोगों का यद्यपि इस तरह अध:पतन हो चुका था, परंतु सभी विश्वासघाती नहीं थे, न ही सभी का धैर्य भंग हुआ था। इतना ही नहीं, उनमें से उन लोगों का, जिनका इस तरह के कष्ट न सह सकने के कारण अध:पतन हो गया था, उनकी भी पिछली सेवा, देशभक्ति और स्वार्थत्याग जैसे सद्गुणों का विस्मरण करना मुझे अन्याय प्रतीत होता था।

यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इस कथ्य के ये अथवा अन्य विचार भावना के रूप में में नहीं बता रहा, मैं यह कथ्य कथन कर रहा हूँ कि क्रमशःप्रसंगानुरूप मुझे क्या प्रतीत हुआ और मुझे क्या करना पड़ा। मैं तो केवल इतिहास का ही वर्णन कर रहा हूँ। मैंने इसकी चर्चा तो बिलकुल नहीं की कि उसके संबंध में मुझे क्या प्रतीत हुआ और जो हुआ सो अच्छा हुआ या बुरा। यह चर्चा करने का प्रस्तुत स्थल पर हेतु भी नहीं है। यह प्रश्न सर्वथा स्वतंत्र रखकर पाठक इन स्मृतियों को पढ़ लें- इस तरह सावधानी की सूचना पुन: एक बार देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ।

 

गुप्तचरों का काम

बंगाली राज्य-क्रांतिकारियों में से कुछ प्रमुख व्यक्तियों को जब कष्ट झेलना असंभव हो गया तब उन्होंने सोचा, जैसे-तैसे संकटों का बेड़ा पार कर लें और इस आत्मरक्षात्मक बुद्धि के कारण अपने साथियों, अनुयायियों और इतना ही नहीं, मेरे जैसे केवल कारावास में ही प्रत्यक्ष परिचित हुए व्यक्तियों की गतिविधियों तथा वार्तालाप की भी गुप्त सूचना अंग्रेज अधिकारियों को देते समय उन्होंने आगे-पीछे नहीं देखा। यह बात सत्य होने पर भी, उसके बारे में सोचते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें उतनी हो घोर यंत्रणाएँ, अवहेलना तथा भयंकर शारीरिक कष्ट झेलने पड़े जिससे वे इस मनोदशा तक पहुँच गए। उनपर दोषारोपण करने का अधिकार बस उन्हीं को है जो वैसे ही अपार शारीरिक कष्ट तथा मानसिक यंत्रणाएँ सहते हुए भी विचलित नहीं हुए थे संपूर्ण जीवन आरामकुरसी पर लेटकर बितानेवाले किसी गोबरगणेश को यह अधिकार नहीं पहुँचता।

मुझे इस तथ्य का भी ध्यान रहता कि क्रांतिकारियों के प्रमुखों के हाथों विश्वासघाती कृत्य केवल कुछ बंगालियों अथवा हिंदुस्थानियों के ही हाथों नहीं हुए, आयरलैंड, रूस, इटली आदि देशों में राज्यक्रांति तथा धर्मक्रांति के भीषण संग्रामों में तो शारीरिक अत्याचारों से निराश, हतबल बने इन भारतीय उदाहरणों से भी अधिक घिनौने विश्वासघात के उदाहरण उपलब्ध हैं अत: इससे पग डगमगाना अथवा किसी राज्य विशेष पर लांछन लगाना निपट मूर्खता होगी।

 

जो है सो कह डालो

गुप्त चिट्ठी का आलेख पढ़कर मुझे कोई विशेष धक्का नहीं पहुँचा। इसके विपरीत मुझे उन धैर्यच्युत व्यक्तियों पर दया आने लगी।

उनमें से एक विशेष उदाहरण विस्तार से उचित है। तत्रस्थ क्रांतिकारियों में से एक प्रमुख बंगाली गृहस्थ थे क्योंकि उस समय भी उनकी आयु तीस के ऊपर थी-ये सज्जन शिक्षित थे और उत्कृष्ट विस्फोटक लेखक के रूप में विख्यात थे।क्रांतिकारियों को गीता पढ़ाते समय ये उपदेश देते-'देह तो कुछ भी नहीं, आत्मा। अमर है। "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि।' अतः युवक मरणमारण की चिंता नहीं करते। परंतु जब कारागार की पाषाणी प्राचीर का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ और कोल्हू जैसे कठोर काम करते-करते-जिससे बैल भी रुआंसे हो जाते-एक दिन सिर चकराकर गिरना पड़ा, तब मानो प्रतिशोध के लिए ही देह ने आत्मा को पैरों तले कुचलकर उनके मनोबल को चकनाचूर कर डाला। किसी भी तरह उन कष्टों से बचना कठिन हो गया। अच्छा, एक-दो दिन का भी प्रश्न नहीं था, पूरे जीवन का प्रश्न था। उन कष्टों से कभी मुक्ति नहीं मिलनी थी। इसके विपरीत हठ पर अड़े रहें तो इससे भी अधिक भयंकर कष्ट भुगतने पड़ेंगे। इस तरह निराशा के घनघोर अँधेरे में दम घुटने लग जाए और प्राण उड़ने लग जाएँ तो देह प्राण से गठबंधन करके चिल्लाने लगे कि कुछ भी करो, परंतु मेरी बात मानो। परंतु मार्ग ? विपदाओं की दमघोंटू दीवारों से बाहर निकलने के लिए मार्ग कहाँ से मिलेगा ?

बस एक ही संकरी, गंदली, दमघोंटू राह! केवल यह बता देना कि अपने साथी कौन-कौन हैं? 'जो है सो कह डालो '- ये अक्षर छपी हुई पट्टी इस राह पर नित्य लटकती दिखाई देती ही थी। उनके इस टूटे मनोबल की जानकारी भी उन्हें एक मित्र ने अधिकारियों को दे दी। वह मित्र भी वैसी ही अवस्था से मुक्ति पाने के लिए इस राह पर चल पड़ा था। कोई कहता, यह समाचार ऊपर ठेठ कलकत्ता तक भेजा गया, फिर उन्हें सब्जबाग दिखाए गए। डूबते को तिनके का सहारा होता है। विश्वास न होते हुए भी उन्होंने उनके भुलावे पर विश्वास किया। एक दिन वह नाटक करने की ठानकर उस द्वीप का एक मुख्याधिकारी कारागृह में आ गया। राजबंदी कोल्हू में जुते ही थे उस अधिकारी के सामने आते बंद कोठरी के छोटे द्वार के निकट आकर वे चिल्लाए, "निवेदन।" वह अधिकारी शेखी बघारते हुए 'What do you want?' कहता हुआ थोड़ा घूमकर द्वार के निकट खड़ा रहा। वे सज्जन घुटने टेककर हाथ जोड़कर कुछ भी करो, परंतु मुझे इन नरक-यातनाओं से मुक्त करो'-ऐसी करुणाजनक प्रार्थना करने लगे अधिकारी ने उत्तर दिया, "जो कहना है, वह बंदीपाल को कहो।"

 

विश्वासघात

अधिकारी चला गया। पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार बंदीपाल ने कागज और स्याही भिजवाई। ये सज्जन कलकत्ता के पड्यंत्र की जानकारी लिखकर देने लगे। आश्चर्य की बात यह है कि उस दुर्बल मनोदशा में भी उस सज्जन में, जो यह कर्म करने के लिए तत्पर हुए थे, इतनी प्रामाणिकता शेष थी कि इस कर्म को बुरा समझा जाए। उन्होंने अपने मित्र को एक पत्र भेजने कष्ट मुझसे नहीं सहे जाते। उन्हें टालने का मार्ग है आत्महत्या। मैने उसका अवलंबन करने का प्रयास किया, परंतु मुझमें इतना साहस नहीं था। अत: एक तो यह कि आप मुझे जान से मार डाले, जैसे पूर्व में अन्य विश्वासघातियों को मारा था मैं आपको दोषी नहीं ठहराऊँगा। या मुझे विश्वासघात करके अधिकारियों को यथासंभव जानकारी देकर उनके सामने गिड़गिड़ाकर इस असहनीय शारीरिक यंत्रणा से मुक्ति पाना अनिवार्य है। अपने मन पर मेरा बस नहीं है। यह विलक्षण गुप्त चिट्ठी उसने अपने अनुयायियों को भेजो और अधिकारियों को यथासंभव सभी जानकारी का कागज भरकर उसमें बहुत सारे नाम भरकर लिख दिए।

तीसरे दिन उन्हें कोल्हू के काम पर से हटाया गया और रस्सी बैटने का काम, जो कोल्हू की तुलना में आसान था, सौंपा गया। परंतु कोठरोबंदी से मुक्ति नहीं मिली, न ही उन्हें कारागार से बाहर छोड़ा गया।

इस भले आदमी में इतना आकलन करने तथा मानने लायक प्रामाणिकता शेष थी कि वह जो कर रहा है, अनुचित है। उसके एक-दो साथी इस प्रामाणिकता से भी वंचित हो चुके थे। इन निर्लज्ज लोगों को मेरे आगमन से आनंद प्राप्त हुआ। अधिकारियों को कुल मिलाकर मेरी सारी गतिविधियों को बताने की उत्कट भयप्रद कामना उनमें उत्पन्न हुई और सत्य नहीं भी तो मेरे विरुद्ध मिथ्या बातें भी नमक मिर्च लगाकर उनकी इच्छापूर्ति करते हुए किसी प्रकार अपने पूर्व अपराध का उन्हें विस्मरण कराकर स्वयं छुटकारा पाने का प्रयास करना ही इन राजबंदियों में से दो- तीन बंगाली बंदीवानों का अभीष्ट था। इन दो उलझनों के चंगुल में मुझे अंत तक रहना पड़ा। मेरे विरुद्ध चुगली करनेवाला हर चुगलखोर अधिकारियों की नाक का बाल बन जाता। कम-से-कम वे दिखावा तो करते कि वह उन्हें कितना प्रिय है और उसे बंदीगृह में कुछ-न-कुछ सुविधाएं मिल जाती। इस योग से मेरे विरुद्ध चुगली खाना प्रतिष्ठा का एक लाभदायी व्यवसाय ही बन गया; परंतु उसी बहती गंगा में हाथ धोकर इन दो-तीन राज बंदियों ने अपना उल्लू सीधा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्हें प्राप्त होनेवाली व्यक्तिगत सुविधा के साथ प्राय: मेरी व्यक्तिगत यातना में वृद्धि होती। परंतु वह सारी रामकहानी आगे आएगी

प्रस्तुत चिट्ठी में और अन्य छोटे-मोटे उदाहरणों द्वारा बंगाली राजबंदियों के एक पक्ष ने दूसरे पक्ष के विरुद्ध मुझे जो आस्थापूर्वक सूचना दी थी, उसे पढ़कर मैंने ठान लिया कि जिनके हाथों पूर्व में इतने सारे स्वाभिमानपूर्ण, साहस, तेज तथा निस्वार्थ देशसेवा के कार्य हुए हैं उनके संबंध में तब तक कोई भी विरोधी धारणा बनाना उचित नहीं, जब तक स्वयं उनकी प्रत्यक्ष पूछताछ करके परिचयोत्पन्न निश्चिंतता नहीं कर लेते। यद्यपि इस तरह का प्रत्ययकारी दर्शन हो भी गया कि उनका यह नैतिक अधःपतन सत्य है, तथापि मात्र इसी कारणवश उनकी पूर्वकालीन देशसेवा पर छींटाकशी नहीं करनी चाहिए। हाँ, केवल सावधानी की सूचना दृष्टि के सामने रखकर संभलकर चलना होगा।

 

अब बस हुआ , माफ करो!

यह चिट्ठी मिलने के दूसरे या तीसरे दिन बाद मेरे क्रमांक के अर्थात सात नंबर के आँगन में राजबंदियों को छोड़कर अन्य बंदियों को काम के लिए भेजा गया। उस क्रमांक के विभाग में लगभग दो सौ दंडित नारियल तोड़ना, फोड़ना, टुकड़े करना आदि कामों में जुटे हुए थे। मेरे लिए इस इलाके को सदैव रिक्त रखना असंभव भी था। इसीलिए इस चाल के तृतीय तल को, जिसमें मैं रहता था, रिक्त रखते हुए शेष दोनों तलों को सोने के लिए बंदियों को दे दिया गया था। उस दिन दोपहर में नीचे आँगन में ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बाजार भरा है। सैकड़ों-हजारों नारियल गाड़ियों में भर-भरकर उनके ढेर-के देर लगाए जाते। बंदियों की एक टुकड़ी उन्हें छीलकर उस टीन के सायबान से एक-एक नारियल फेंकती रहती। उधर वह टुकड़ी, जो नारियल फोड़ती थी, खटाखट वारों से एक वार के साथ दो टुकड़े करके फेंक रही थी-उसका पानी पीपों में भर-भरकर उसे ढोने में एक अन्य टुकड़ी व्यस्त थी। शेष तीस-चालीस बंदी उन कटे हुए गोले के कटोरों को खुरपे से घोंपकर टुकड़े-टुकड़े काटकर नारियली या गोले की खोपड़ियों को जोर से घुमाते हुए फेंक रहे थे। परंतु गोले का एक टुकड़ा खाना तो दूर, ढोकर ले जाते नारियल पानी की-जो व्यर्थ जाता था-एक बूँद भी पीना कानूनी परिभाषा में जघन्य अपराध था और नित्य इन बंदियों को उसके लिए दंड मिलता। तथापि काम का आरंभ होते ही जिस-तिस का थोबड़ा नारियल के टुकड़ों से फूला हुआ, और गरदन नीचे झुकी हुई होती तथा सहमी-सहमी आँखें कनखियों से यह देखती हुई लट्टू जैसी गोल-गोल मटकती रहती कि कोई अपने भरे हुए गालों की ओर तो नहीं देख रहा। उस बाजार को वह रौनक, वह भीड़-भाड़, वह कोलाहल, उस अफसर (बंदियों में से जिन्हें अधिकारी के रूप में नियुक्त किया जाता) लोगों की 'चलो भाई, काम करो, ''ऐ, साले, थोबड़े में क्या ठूँसा है,' जैसी चीख-पुकार देखने लायक होती। इस सारे हंगामे में पल भर के लिए इस यथार्थ का विस्मरण होता कि मैं भी बंदीवान हैं। परंतु कब तक? तभी तक, जब तक मुँह में भरे हुए टुकड़े पेटी अफसर के देखने पर कमर पर धम्म से उसकी सोटी का धप्पा पड़ा नहीं अथवा उस भार के नीचे दोपहर तक अंग-अंग टूटकर भारी नहीं हो गया।

 

दही नारियल

उस दिन हमारे उस पठान वॉर्डर का-वह बाजार देखते नीचे जाकर थोड़ा पानी पीकर दो-तीन गोले मुख शुद्धि के तौर पर मुँह में डालने के लिए-जी ललचाना स्वाभाविक था। बेचारा मेरे साथ ही उस सातवें क्रमांक की इमारत के तीसरे तल्ले पर बंदी हो गया था और उस एकांतवास से ऊब गया था। अच्छा, मुझपर नियुक्त वह बॉर्डर अधिकारियों का पिट्ठू ! उससे कौन नहीं डरेगा ? उसके नारियल मांगते ही कौन उसे गुपचुप गरी निकालकर नहीं देगा ? दोपहर में पेटी अफसर, वह भी पठान होने के कारण संकेत करके इमारत का द्वार खोलकर नीचे आँगन में गए। पानीवाले नारियल के दो-तीन नरम-नरम गोले तुड़वाकर उन्होंने गटगट करके अपने पेट में उँडेले। अब शेष रह गई मुख शुद्धि। नित्य के नियमानुसार बंदियों की जो लंबी पंक्ति बैठी हुई थी, उधर जाकर नरेलियों से (गोले की खोपड़ियों से) गोला गोड़कर एक को धमकी दी,"हाथ चलाओ!" वॉर्डर को देखकर सकपकाता हुआ वह बंदी हाथ चला ही रहा था, अर्थात् अपना काम करने ही लगा था कि वॉर्डर महाशय स्वयं ही अपना हाथ चलाने लगे और निकट बैठे हुए बंदी को बस यूं ही यह कहते हुए कि 'नारियल खा रहा था साला! देखो, मुँह देखें तो' एक करारी थप्पड़ रसीद की। नारियल खाने के अपराध में उस बंदी को झापड़ लगाने का कार्य समाप्त होते ही उन्हें प्रतीत हुआ कि सर्वत्र अनुकूल वातावरण निर्मित हो गया है, क्योंकि अब किसी से भी दही नारियल की मांग करने पर, जो उधर नारियलों में सर्वोत्तम समझा जाता है, कोई माई का लाल डर के मारे 'ना-नु' नहीं कर सकता था। नित्य के अनुभव से उसने यह गाँठ में बाँध रखा था। एक मद्रासी बंदी के पास छिपाया हुआ दही नारियल था, जिसका ऊपर उल्लेख हो चुका है। यह बंदी नया नया आया था। वॉर्डर महाशय झट से वहाँ पहुँच गए और उन्होंने आज्ञा दी, "लाओ साला नारियल इधर।" परंतु वह मद्रासी अपनी ही अकड़ में था। मद्रास इलाके का यह एक नामचीन डाकू था। कई बार तमिल जेल की हवा खाकर ढीठ बना हुआ था। अब पहली बार काले पानी पर आ गया था। वह भी दस वर्षों के लिए, अतः कुछ अधिक भयभीत भी नहीं था। साथ ही उसे हिंदुस्थानी भाषा का अत्यल्प ज्ञान होने के कारण 'इल्ले इल्ले' अर्थात् 'नहीं-नहीं' कहते हुए चतुराई से निभाने की सुविधा प्राप्त थी जिसे मद्रासी दंडित अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते। अत: वॉर्डर की उस उद्धत आज्ञा का उसने तनिक अक्खड़पन से उत्तर दिया, 'इल्ले'। वह दही नारियल उसने पूरे एक आने की तंबाकू देकर उससे गुपचुप खरीदा था, जो नारियल तोड़ता है। उसके जैसा ढीठ बंदीवान उस वॉर्डर को सहजतापूर्वक थोड़े ही देनेवाला था। परंतु उन पठानी वॉर्डरों को सहसा कोई ऐसे हिंदू बंदी से पाला नहीं पड़ता जो उन्हें ठेंगा दिखाए, परिणामतः वे बहुत नकचढ़े बन जाते थे। उस मद्रासी के पास जाकर बॉर्डर ने गाली-गलौज के साथ पुनः नारियल की मांग की। वह मद्रासी यह सोचकर कि नरमी से ही काम निकालना ठीक है, तिलमिलाते हुए 'इल्ले स्वामी, इल्ले कहते हुए हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा। पठान का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। किसी हिंदू से स्वार्थवश कहा-सुनी होते ही पटान और मुसलमानों की साधारण प्रवृत्ति के अनुसार उसे धार्मिक युद्धांतर्गत परम पवित्र कर्तव्य माना जाता। पठान और भी गालियों पर उतर आया और उसने साला काफिर है, भड़ुए की चोटी उखाड़नी चाहिए जड़ से' आदि गर्जन-तर्जन करते हुए उस मद्रासी की चोटी पर हाथ डाला। वह मद्रासी सत्य ही हिंदी नहीं जानता था, अत: पल भर के लिए वह उधेड़बुन में पड़ गया। उसने सोचा, कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे सही बात बताने के बावजूद मैं इसकी बात पर कान नहीं दे रहा हूँ? परंतु उस वॉर्डर के उसकी चोटी को झटके से खीचकर उस दही गोले पर हाथ रखते ही उस मद्रासी ने भी उसकी दाढ़ी पकड़कर खींचातानी शुरू की। किसीने भी मुँह से चूं तक नहीं की, क्योंकि दोनों की एक ही चाल थी-दही गोले की गुपचुप चोरी करना, अतः बस तेरी भी चुप, मेरी भी चुप। चोर-चोर मौसेरे भाई।

 

बस हो गया , माफ करो!

आखिर यह देखते हुए कि अन्य बंदीवान उसकी ओर देखकर व्यंग्य से हँस रहे हैं, उसने नित्य नियम के अनुसार अपना सोटा निकालकर उस मद्रासी को जोर से मारा और उसकी चोटी को ऐसा झटका लगाया कि आधी उखाड़ डाली। 'काफिर साला काफिर' बड़बड़ाते हुए क्रोध से लाल-पीला होकर पठान उसकी धुनाई कर रहा था। अंत में न जाने क्या हुआ, वह मद्रासी एकदम आपे से बाहर हो गया और उछलकर उसने उसे उठाकर धड़ाम के साथ धरती पर पटक दिया और उसकी छाती पर घुटना गाड़कर तड़ातड़ तमाचों-पर-तमाचे लगाने लगा। पठान वॉर्डर के उस तरफ आने के कारण उसका मित्र पेटी अफसर भी उस तरफ आकर दूर ओट में बैठकर नमाज पढ़ रहा था सारे बंदी, जो उस वॉर्डर के अत्याचारों से ऊब चुके थे, कुछ अधिक हंगामा न करते हुए अपना-अपना स्थान पकड़कर तमाशा देखते रहे। मुझे तो ऊपर से सलाखों के निकट खड़े रहकर यह देखते ही बड़ी हँसी आने लगी। वॉर्डर महाशय की वह पठानी टोपी, वह साफा जिसे देखकर पूरा जेल सिर से पाँव तक कांप उठता था, कहीं-का-कहीं पड़ा था और वह मद्रासी होंठों-ही-होंठों में कुछ तमिल शब्द बुदबुदाता हुआ उसकी दाढ़ी मरोड़ता, मुक्कों-पर-मुक्के मारता हुआ उसकी छाती पर सवार था। वॉर्डर महाशयकी क्या मजाल जो उसे 'काफर' कहे, चुपचाप दही नारियल के स्थान पर मार खाते रहे। और ऊपर मद्रासी सवार! अंत में एक-दो मिनटों में पठान वॉर्डर ने थपेड़ों की मार खाते-खाते फुसफुसाते हुए कहा, "अब बस हुआ, माफ करो!" इस तरह ठोकरें खाते-खाते कसमसाए स्वर में की हुई प्रार्थना सुनकर मैंने सोचा, मद्रासी को अब उसे छोड़ देना ही उचित होगा परंतु देखा तो वह मद्रासी जोर जोर से तमिल में गालियाँ बकता हुआ उस पठान के सिर पर और तेजी के साथ मुक्के मारने लगा।

 

माफ करो में से 'मा'

क्योंकि उस मद्रासी को हिंदी भाषा का ज्ञान लगभग न के बराबर था, अत: उसे 'माफ करो' में से केवल 'मा' ही समझ में आ सका। उसे लगा कि बॉर्डर अभी भी मुझे माँ-बहन की गाली दे रहा है। जैसे-जैसे पठान कहता 'अब बस! माफ करो! माफ करो !' वैसे-वैसे 'मा' "मा' करते हुए उसे धमकाते हुए तमिल भाषा में गालियाँ बकते-बकते वह मद्रासी उसके सिर पर मुक्कों-घूँसों की बौछार करता रहा।

अंत में जो हंगामा होना था, वह हो गया और पेटी अफसर तथा सभी बंदीवान भागे-भागे आ गए। वह मुठभेड़ समाप्त हो गई। वह संतप्त मद्रासी हाथों तथा मुँह से बड़बड़ाने लगा कि 'साहब हम तुम मार'। इन हिंदी शब्दों में उसने संकेत द्वारा गले को अंगुली से स्पर्श करके स्पष्ट शब्दों में जताया कि यदि यह बात साहब के कानों तक पहुँची और मुझपर अभियोग लगाया तो मैं तुम्हारा गला घोंटकर जान से मारे बिना नहीं छोड़ेंगा।

उस मद्रासी की वह धमकी और सवासेरपन देखते ही पाव सेर बनने का पठानी शेरों का जन्मजात स्वभाव और अफसर से कहने पर स्वयं का ही नियम विरुद्ध आचरण कि इस वॉर्डर को, जो ऊपरी तल पर नियुक्त है, नियम के विरुद्ध नीचे आँगन में आने ही क्यों दिया- इन सारे झमेलों से घबराकर पेटी अफसर और वह वॉर्डर महाशय किसी ने भी साहब को वह बात बताना उचित नहीं समझा; और तीन-चार दही गोले गटककर जो मुख शुद्धि की इच्छा वॉर्डर महाशय के मन में उत्पन्न हुई थी उसकी तुष्टि मद्रासी ने मुख पर मारे घूँसों से की मानकर अपने बिखरे हुए गलमुच्छे संवारते-संवारते और साफा बाँधते-बाँधते महाशय पुनः उस इमारत के तृतीय तल पर आकर मेरे ऊपर पहरा देने लगे। मैंने उन्हें सहज स्वर में मैंने पूछा, "क्या हुआ, खान साहब?" उस पठान वॉर्डर ने यह समझकर कि कुछ भी नहीं देखा होगा, छाती तानकर कहा, "वह एक चोर साला, दहीनारियल चोरी करना चाहता था। खूब धुनाई की गई उसकी।" मैंने सविस्मत उत्तर दिया, "ठीक! एक चोर साला दही गोला चोरी करना चाहता था, वो साला पीटा गया। क्यों, ठीक है?"

वह साला चोर जो पीटा गया-वह कौन था? यह या तो उस पठान को ज्ञातथा या फिर मुझे!

प्रकरण-९

तत्रस्थ राजबंदियों की पूर्व स्थिति

अब जिस त्रितल चाली में मुझे बंद किया गया था, उसमें राजबंदियों के अतिरिक्त अन्य बंदियों को काम करने और रहने के लिए छोड़ा जाने के कारण मुझे कारागृह की बहुत सारी उथल-पुथल ज्ञात होने लगी जिस विषय की मुझे उत्सुकता थी वह विषय अर्थात् राजबंदियों की तत्रस्थ स्थिति और मेरे ज्येष्ठ बंधु का कुशल-क्षेम-उससे संबंधित काफी जानकारी गुप्त रूप से किसी-न-किसी तरह मैंने प्राप्त की। हमारे पाठकगणों के मन में यह जानने की उत्सुकता होगी कि हिंदुस्थान की स्वाधीनता के लिए भयंकर कृत्य करने के एवज में जिन लोगों को उसी तरह से भयंकर दंड प्राप्त हुए उनकी क्या गत बनी होगी यह वृत्त विस्तृत रूप में तो क्या, संक्षेप में भी यहाँ प्रस्तुत नहीं किया जा सकता तथापि जितना दिया जा सकता है, उतना देने के लिए यह प्रसंग उचित है। एतदर्थ उसकी कुछ प्रारंभिक जानकारी देता हूँ।

बम-गोलेवाले

अंदमान में प्रथमतः जो आधुनिक राज्य-क्रांतिकारी गए थे, उनमें माणिकतल्ला बगीचे के षड्यंत्र में सम्मिलित बंगाली सज्जन, उनके पीछे-पीछे महाराष्ट्र के श्री गणेशपंत सावरकर और श्री वामनराव जोशी थे। उनके आगे-पीछे ही बंगाल की एक राजनीतिक डकैती के संबंध में पांच-छह लोग आए थे इन सभी राजबंदियों में तीन बंगालियों और दो महाराष्ट्रियों को आजीवन काले पानी का दंड प्राप्त हुआ था। शेष बंगाली लोग दस से तीस वर्षों तक के लिए दंड प्राप्त थे मैं जब वहाँ गया था तब इन लोगों के अतिरिक्त इलाहाबाद के 'स्वराज्य' पत्र के चार संपादक भी आए थे, जिन्हें सात से दस वर्षों का दंड हुआ था परंतु उनपर राजद्रोह का आरोपलगाया गया था न कि राज्यक्रांति का। इतना ही नहीं, अपितु वह सचमुच राज्य के तत्त्वों से सर्वथा अपरिचित तथा व्यवहार के विरुद्ध भी थे। परंतु केवल राजद्रोह के अपराध के लिए दंड देकर उन्हें क्रांतिकारियों में बैठाने के कारण उनमें से कुछ लोगों को राज्यक्रांति के तत्व भी परिचित और व्यवहारसम्मत होने लगे-बस इस दंड का इतना परिणाम अवश्य हुआ। किस मुकदमे में कौन-कौन थे और फिर व्यक्ति के क्या मत थे, मुझे अब यह पक्की तरह याद नहीं आ रहा, इसलिए उनका साधारण उल्लेख करके ही समाधान करना पड़ रहा है। ऊपर उल्लिखित लोगों के अतिरिक्त और एक राजबंदी वहाँ थे, ऐसा मुझे लगता है। पहले गए हुए लोगों में बंगाली ही अधिक होने के कारण हम सबको ही बंगाली कहा जाता था, परंतु बाद में जब पंजाब आदि प्रांतों से सैकड़ों लोग आने लगे तब हमें एक और अनाड़ी कोश प्राप्त हो गया। वह था 'बम-गोलेवाले'।

 

जीभवाले अथवा राजबंदी

उन हजारों बंदियों ने, जिन्होंने राजबंदी का अर्थ तो क्या इस शब्द को भी कभी अपने जीवन में नहीं सुना, भला वे इस शब्द की संकल्पना को कैसे सोच समझ सकते हैं? उनमें से अधिकतर को बममारी का अभ्यास करने की कल्पना थी और उसी साधारण लक्षण द्वारा हमारे वर्ग के साधारण निर्देश का काम चलाया गया। बारी साहब को जब कभी राजबंदियों की आवश्यकता पड़ती तब 'जाओ, उस सात नंबर के बम-गोलेवाले को लेकर आओ' अथवा 'सब बम-गोलेवालों को अभी के-अभी बंद करो' ऐसी गर्जना होती। वहाँ जाने के पश्चात् सभी बंदियों को मैं देर सबेर यह समझाता, 'अरे हम बम-गोलों से लड़े, पर हमपर ऐसा कहने का आरोप नहीं लगाया गया था। हमपर यह कहने का आरोप लगाया गया था कि हम सरकार से लड़े, स्वराज्य की स्थापना के लिए लड़े। हममें से कोई पिस्तौल से, कोई बंदूक से तो कोई मात्र लेखनी की सहायता से लड़ रहे थे कुछ लोगों ने तो बम देखा भी नहीं था, फिर उसे फेंकने की बात तो दूर रही। हम सभी ने जो कुछ चलाया, यह शस्त्र या अपनी जिद्वा। अत: आप हमें जीभवाले कहिए। यमवाले क्यों कहते हैं?' इसका मतलब? वे हंसकर पूछते, 'आप बताइए, वास्तविक नाम क्या है, हम वही कहेंगे।' मैं कहता, 'हमारे वर्ग का वास्तविक नाम है 'राजबंदी'। अच्छा तुम इसका सहज उच्चारण नहीं कर सकते तो तुम बस इतना ही कहा करो 'राजकैदी'। इस शब्द का उच्चारण वे झट से कर लेते। आगे चलकर यही शब्द रुप हो गया, तथापि बारी साहब को यह सुहाता नहीं था। हमें यदि कोई 'बाबू' (यह शब्द अंदमान में सम्मानसूचक है) कहता तो भी बारी साहब चिल्लाते, 'कौन बाबू है?साला। ये सब कैदी हैं। तो फिर जिन बारी साहब को अन्य बंदियों को जो पढ़ना लिखना जानते थे, बाबू संबोधित करने में कोई आपत्ति नहीं थी, केवल हम राजबंदियों को बाबू संबोधित करने पर आपत्ति थी, वे बारी साहब हमें राजबंदी अथवा राजकैदी थोड़े ही संबोधित करने देंगे ?

 

'डी' टिकट

मरते दम तक बारी साहब ने यही रट लगाई थी कि हम पॉलिटिकल प्रिजनर्स नहीं हैं। कोई बंदी उनके सामने राजकैदी कह देता तो साहब गरजते, 'हः यो? कौन राजकैदी? वो भी तुम्हारे माफक ही एक मामूली कैदी है। बदमाश कैदियों का 'डी' टिकट देखता नहीं तुम उनकी छाती पर ?' बदमाशों में महाबदमाशों को 'डी' अर्थात् 'डेंजरस' (भयंकर) अर्थ का अक्षर खोदकर कपड़ों पर लगाने के लिए हमें एक बिल्ला दिया जाता, तथापि प्रथम दिवस से अंतिम दिन तक बंदीगृह में मुझे सभी 'बड़े बाबू' नाम से ही संबोधित करते रहे और तो और स्वयं बारी साहब भी गलती से कई बार कहते, 'ऐ हवलदार जाओ उस सात नंबर के बड़े बाबू को बुलाओ।' उसी तरह जैसे-जैसे हमारे उपदेश से बंदियों की समझ में राजनीतिक आंदोलन के मर्म का परिचय होता गया वैसे-वैसे वे स्वयं ही हमें 'राजकैदी' के नाम से संबोधित करने लगे। इस शब्द में अंतर्भूत स्वराज्यार्थ संपर्क करने के जिस विचार के कारण बारी साहब उसका नाम भी नहीं लेने देते थे, उसी विचार का ठोस उल्लेख बंदियों के चित्त पर अंकित हो, इसके लिए मैं सभी को यथासंभव यही उपदेश करता कि वे हमें उसी नाम से संबोधित करें। आखिर वही शब्द प्रचलित हो गया। बारी साहब को लेकर वरिष्ठ अधिकारियों तक सभी ने दावे के साथ सौ-सौ बार स्पष्ट करते हुए भी कि 'तुम पॉलिटिकल प्रिजनर नहीं हो, साधारण पापी बंदी हो, आखिर हम 'पॉलिटिकल प्रिजनर' ही सिद्ध हो गए। उसी तरह उनके लाख डराने धमकाने के बावजूद बंदीगृह से लेकर अंदमान की स्वतंत्र बस्तियों तक हमें 'राजकैदी' के रूप में ही संबोधित किया जाने लगा।

 

क्रूर देवता को भोग

मैंने ऊपर लिखा था कि मेरे अंदमान जाने से पहले जो राजबंदी वहाँ गए थे, उन्हें पहले एक ही भवन में इकट्ठा रखा गया था उनपर एक पठान बंदीवान अधिकारी था। नारियल छीलकर निकाले हुए मोटे-मोटे छिलके, जिसमें नारियल का गोला मिलता है (कोंकण में उसे 'सोडणे' कहा जाता है), सुखाकर उसको कूटना और उनमें से जटाएँ या रेशे ठीक तरह से निकालकर उन्हें साफ-सूफ करनेका काम उनको सौंपा जाता था। यह काम कठिन ही था, तथापि उतना कठिननहीं था जितना कोल्हू से तेल निकालना। वास्तव में जिन बंदियों को पूरी तरह सेअंग्रेजी स्पेलिंग भी नहीं आती, उन्हें भी इधर आते ही अथवा तनिक आगे-पीछे लिखने का काम सौंपकर 'बाबू' के तौर पर बंदियों पर अधिकार दिया जाता है। परंतु राजबंदियों में से किसी को भी लिखने का काम नहीं दिया जाता। उन्हें इतने कठोर परिश्रम के काम दिए जाते हैं जो उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं किए। कदाचित् उन्हें केवल स्पेलिंग लिखने से कई गुना अधिक अंग्रेजी का ज्ञान था। उनकी इस शिक्षा की न्यूनता के कारण हो सकता है वे लिखने का काम करने के लिए अपात्र समझे गए हों।

तथापि काम भले ही कठोर परिश्रम का हो, पर जी-तोड़ परिश्रम करते करते भी सभी एक साथ रह सकते थे। यही लाभ उन समाजप्रिय शिक्षित मनुष्यों को सुखद प्रतीत होता था। उनमें से एक-दो जन रोगग्रस्त थे, जिस कारण उन्हें दूध मिलता। वह दूध उस पठान अधिकारी को, जिसे उनपर नियुक्त किया जाता, भोग के रूप में गुपचुप चढ़ाए जाने के कारण वह क्रूर देवता भी थोड़ा-बहुत कम उग्र प्रतीत होता। इन दो बातों के कारण कुल मिलाकर उस समय कारागृहवासी राजबंदियों की अवस्था कारागृह की तुलना में इतनी दुःसह नहीं थी। मेरे अग्रज भी उसी भवन में रहा करते थे।

परंतु कुछ महीने इस तरह बीतने के पश्चात् कलकत्ता से निरीक्षणार्थ एक पुलिस अधिकारी अंदमान आ गए। उन्होंने जब देखा, राजबंदी 'छिलका' कूट रहे हैं और उन्हें थोड़ी दूरी पर किंतु एक साथ ही रखा गया है, तब उन्हें स्वाभाविक रूप में ही खेद हुआ कि बंदीशाला में भी मनुष्य के साथ इतनी मानवता का व्यवहार किया जाता है। उन्होंने अंदमान के अधिकारियों के कान ऐंठे और उन स्थानीय, अनाड़ी अधिकारियों के मन में एक उच्च राजनीतिक तत्व का मर्म बैठाया कि-यह बंदी किसी खूनी, चोर-डाकू जैसे सदाशय, दयालु मानव नहीं हैं अपितु ये राजबंदी महाबदमाश हैं-उनसे ऐसा व्यवहार किया जाए जिससे उनका घमंड चूर-चूर हो जाए।

 

कोल्हू

तब से व्यवस्था बदल गई। उन राजबंदियों को अलग-अलग चालियों में अकेले-अकेले ही बंद किया गया। यदि वे आपस में वार्तालाप करते तो बेड़ियाँ, हथकड़ियाँ आदि की जोरदार भरमार होने लगती। स्नान कुंड पर अथवा भोजनार्थ दूर बैठकर केवल 'ठीक है न' जैसे संकेत से कुशल पूछने पर भी सात-सात दिनों तक हथकड़ियाँ लगाकर रखना आदि दंड दिए जाने लगे और अंत में छिलका कूटने के कठोर परिश्रम का वह काम भी उन लोगों को दिया जाता जिन्हें स्पेलिंग करने से अधिक अंग्रेजी का ज्ञान है। यह सब उन्हें अन्यायजनक प्रतीत हुआ पर, फिर भी उन्हें कोल्हू में जोता गया जो कारावास में कठिनतम काम समझा जाता और जो बैलों के करने योग्य था। उन लोगों को सबक जो सिखाना था! दो-दो महीने तक यह काम देने के बाद एक महीना पुनः छिलका दिया जाता और पुनः कोल्हू में जोता जाता। प्रात:काल उठते ही लँगोट कसकर कमरे में बंद होना पड़ता। भीतर कोल्हू की डाँडी को ऐसे घुमाना पड़ता जैसे हाथ से पहिया घुमाया जाता है। उस ओखली में गोले पड़ते ही वह इतनी भारी हो जाती कि अतिरथी, महारथी कुली भी उसके बीस फेरे पूरे करते-करते लुढक जाता। चोर-डाकुओं को भी बीस से कम उम्र में सहसा इस काम में नहीं जोता जाता। परंतु अंदमानी वैद्यकशास्त्र के अनुसार राजबंदी यह डाँडी किसी भी उम्र में घुमा सकते थे अत: उस डाँडी को आधा घेरा (चक्कर) देकर शेष आधा घेरा देने लायक शक्ति हाथों में नहीं होने से उसपर लटककर उसकी पूर्ति करनी पड़ती थी। इतनी शक्ति उस कोल्हू में पड़े नारियल पीसने को जुटानी पड़ती। इतने कठोर परिश्रम से अनजान और कोमल वय के थे, बीस की आयु के इधर-उधर के सुकुमार शिक्षित नवयुवक राजबंदी। सामान्यतः प्रातःकाल दस बजे तक इस तरह सतत चक्कर घुमाते-घुमाते साँस फूल जाती। किसी-किसी का ही नहीं, प्रायः सभी का सिर चकराने से बार बार नीचे बैठना पड़ता। दस बजे से नियमानुसार दो घंटे काम बंद रखा जाता। परंतु कोल्हू का काम ऐसा नहीं था, जिसमें अवरोध पड़ता। भोजन आते ही कमरा खोला जाता। बंदी के बाहर आकर दाल, भात, रोटी के साथ भीतर जाने के लिए। मुड़ते ही दरवाजा पुनः बंद। यदि कोई हाथ धोकर पसीने से लथपथ शरीर साफ करने लगता तो उतना विलंब भी असहनीय होता। जमादार का अर्थात् बंदियों में बदमाश, जिसे किसी ने अधिकारी बनाया हुआ होता, माँ-बहनों की गाली बकना निश्चित था। हाथ धोने के लिए पानी कहाँ से मिलेगा? पीने के पानी के लिए भी जमादार की खुशामद करनी पड़ती है, क्योंकि कोल्हू का काम करते समय प्यास अधिक जोर से लगती है। पानीवाला पानी नहीं देता। किसीने चोरी-चोरी चुटकी भर तंबाकू दी, तभी वह पानी देता। जमादार को बताने पर वह गुर्राता, 'बंदी को दो कटोरे पानी देने की आज्ञा है, तुम तो तीन पी चुके। और पानी अपने बाप के घर से लाओ।' जमादार की वास्तविक भाषा का हमने सर्वथा सभ्य, शिष्ट शब्दों में अनुवाद किया है। हाथ धोने के तथा पीने के पानी की जहाँ यह अवस्था हो वहाँ स्नान का नाम क्या लेना?

 


[1] यह निर्णय २४ फरवरी के दिन घोषित किया गया ।

[2] यह ५१४ पंक्तियों की कविता 'सावरकर समग्र साहित्‍य' में सातवें खंड में प्रकाशित की गई है ।

[3] यह बंदीगृह बंबई में ही डोंगरी उमरखाड़ी इलाके में था । अब इस कारागृह में दो से सोलह वर्ष के अपराधी बच्‍चों को सुधार के लिए रखा जाता है ।

[4] इस कोठरी में अब लोकमान्‍य तिलक का चित्र रखकर वहाँ उनका स्‍मारक बनाया गया है।

[5] १५ मार्च, १९१०।

[6] ८ जुलाई, १९१०।

[7] पहले पच्‍चीस वर्षों का दंड १४ दिसंबर, १९१० के दिन और दूसरा पच्‍चीस वर्षों का दंड ३० जनवरी, १९११ के दिन दिया गया।

[8] सावरकर रचित कविता दस सहस्‍त्र पंक्तियों से अधिक की है। सावरकर समग्र साहित्‍य के सातवें खंड में यह कविता विद्यमान है।

[9] सिखों के दसवें धर्मगुरू । अंत ७ अक्‍तूबर, १७०८ । 'मूर्ति दुजी ती' इस कविता का नाम है । इसमें गुरूगोविंदसिंह के शिष्‍य वीरबंदा का वर्णन किया है ।

[10] ज्ञानेश्‍वरी अध्‍याय १८, ओवी १०६९-७० ।

[11] श्री त्र्यंबक रामचंद्र चिपळूणकर (दादा)।

[12] सौ. यमुना (माई) सावरकर; निधन ८ नवंबर, १९६३।

[13] सावरकर, समग्र साहित्‍य, खंड-७।

[14] ६ जनवरी, १९२४ के दिन वीर सावरकर की कारावास से मुक्ति हो गई। आगे चलकर उन्‍हें रत्‍नागिररि में कुछ शर्तों पर स्‍थानद्ध किया गया; १० मई , १९३७ के दिन इन शर्तों को हटाया गया और सन् १९६० में वीर सारवरकर का मृत्‍युंजय महोत्‍सव धूमधाम से मनाया गया। इसके पश्‍चात् २६ फरवरी, १९६६ के दिन उन्‍होंने 'आत्‍मार्पण' किया।

[15] . डॉ. नारायण दामोदर सावरकर; जन्‍म : सन् १८८८, मृत्‍यु: सन् १९४९।

२. वीर सावरकर का सतत आग्रह था कि मुसलिम वर्चस्‍ववाले इस नाम को बदलकर अहमदाबाद का नाम 'कर्णावती' रखा जाए।

[16] 'नोबेल' पुरस्कार विजेता महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर को अभिनंदन कर भेजी गई कविता में सावरकर ने यही कल्पना प्रस्तुत की है।

[17] पातंजल योगसूत्र, समाधिपाद सूत्र-१०।

[18] . उसका नाम वांछु अय्यर था।

[19] . हिंदुस्‍थान के स्‍वतंत्र होने के उपरांत भी सावरकर को उनकी चीजें नहीं लौटाई गईं। उन्‍होंने स्‍वत: भी नहीं माँगी।

[20] . गणेश (बाबाराव) दामोदर सावरकर को जून १९०९ के दिन आजीवन कारावास का दंड दिया

गया था।

[21] . जैक्सन हत्या में अभियुक्त-इन्हें भी आजन्म कारावास दंड हुआ था।

[22] . शंकर रामचंद्र सोमण-इन्हें भी जैक्सन हत्या षड्यंत्र में दंड हो चुका था।

[23] . वेंकट सुब्रह्मण्यम अय्यर, शि.ल. करंदीकर लिखित 'सावरकर के सहयोगी' शोर्षक पुस्तक में

उनका चरित्र है

[24] अंदमान को वर्तमान (सन् १९६८) परिस्थिति के लिए निम्नलिखित संदर्भ देखिए

१. अंदमान से आनंदमान-सेवक माधव राजवाड़े, जो सन् १९५८ से अंदमान के प्रशासक हैं।

२. 'किर्लोस्कर' जून १९६०, राजवाड़े का लेख।

३. धर्मयुग, ३ मई, १९५९, एस. कृष्णमूर्ति का हिंदी लेख। ४, केसरी, ३१ जनवरी, १९६०, वसंत रामचंद्र गोखले का लेख।

५.७ और १४ जुलाई, १९६८ के केसरी में श्री कौशिक का लेख।

[25] वीर सावरकर ४ जुलाई, १९११ के दिन अंदमान पहुंचे थे।

[26] सावरकर के इन दूरदृष्टिपूर्ण विचारों ने सन् १९६८ में तब मूर्त रूप ग्रहण किया, जब भारतीय वायुसेना और नौसेना के ठिकाने अंदमान में बनाए गए।

[27] 'सन् १८५७ का स्वातंत्र्य-समर' वीर सावरकर लिखित पुस्तक उस समय गुप्त रूप से छपवाई गई थी। तब उसपर पाबंदी लगी थी, उसे अब हटाया गया है। अनेक भाषाओं में उसके अनुवाद भी प्रकाशित हो चुके हैं।

[28] इस' कमला' काव्य के अब अनेक संस्करण निकल चुके हैं। सावरकर समग्र वाङमय, खंड-७ में यह 'कमला' काव्य प्रसिद्ध हो चुका है और उसका संस्कृत अनुवाद भी प्रसिद्ध हो गया है।

तेल पूरा करना पड़ेगा

स्नान की ही बात क्यों? भोजन की भी यही अवस्था थी। भोजन परोसकर एक बार दरवाजा बंद करते ही जमादार को यह चिंता नहीं होती कि बंदी खा रहे है या नहीं। वह सतत उस चाली की कोठरियों के सामने से चिल्लाते हुए चलता अरे बैठो मत। शाम तक तेल पूरा करना होगा नहीं तो पिटोगे, सजा होगी सौ अलग।' इस तरह उसके चीखते-चिल्लाते कइयों के गले से कौर नहीं उतरता, क्योंकि शाम तक तेल कम भरते ही नित्य लातों-घूंसों-सोटियों से बंदियों को कुटते-पिटते हर कोई देखता था। इस धौस के कारण पेट में भले ही चूहे कूद रहे हों, कोल्हू घुमाते-घुमाते, उस थाली में से, जिसमें खड़े-खड़े पसीने की धार गिर रही है, ग्रास उठाकर मुँह में ढूँसते, जैसे-तैसे उसे निगलते और कोल्हू चलाते चलाते ही भोजन करते अनेक बंदियों को मैंने कई बार अपनी आँखों से देखा है।

इस प्रकार उस अद्भुत भोजन से निपटकर पुनः पाँच बजे तक कोल्हू चलाना पड़ता। अभ्यासी कोई चार बजे समाप्त करता। सर्वथा पक्का सौ में एकाध व्यक्ति ही सदैव पूरा काम अर्थात् तीस पौंड तेल निकाल पाता। शेष सभी आज नहीं तो कल इतना जी-तोड़ कष्ट उठाकर भी काम पूरा करने में असमर्थ रहते। उनमें से जो नौसिखिए, सीधे-सादे और सापेक्षतः सच्चे होते, हाय! हाय! उनपर जमादार वार्डरों की मार पड़ती। भोजन न करते हुए काम में जुटने पर भी तेल का कोटा पूरा न होने पर थप्पड़-लात-घूसों-डंडों की मार खाते, थके-मांदे बंदी तेल उँडेलकर रोते-रोते वापस लौटते हुए मुझे आज भी दिखाई दे रहे हैं, नम्र स्वभाव के बंदियों की यह अवस्था होती थी। तनिक हेकड़ या क्रोधी होता तो उसे हथकड़ी, डंडा बेड़ी आदि मारपीट से अधिक आसान दंड था। इस व्यवस्था के कारण बंदीगृह में कदम रखते ही सज्जनताजन्य सच्चाई, अवशिष्ट लज्जा भी छूट जाती है। ऐसे ही लोग अंत तक बंदीगृह में जीवित बच पाते हैं या जो जीते हैं-वे अधिकतर उनमें से ही होते हैं।

 

रात्रि में कोल्हू पर काम

निर्लज्ज क्रोधी महाबदमाशों को भी बारी साहब सर्वथा छूट देते हों, ऐसा नहीं था। सीधे-सादे लोगों पर प्रथमतः आते-जाते मारपीट होती, क्योंकि घोंघों को पैरों तले कुचल डालना वीर पुरुषों के लिए आसान खेल होता है। इस प्रकार उन सीधे-सादे निर्बल निर्लज्जों की धुनाई होते देखकर उन बदमाशों के मन में भी, जिनका तेल का कोटा पूरा नहीं हुआ होता, यह भय उत्पन्न होना स्वाभाविक था कि उन्होंने और तंग किया तो उन्हें भी यही प्रायश्चित्त करना होगा और उनमें कुछ लोगकाम पूरा करने के प्रयास में जुटते। किसी-किसी दिन नारियल की गरी गीली हो और शाम तक किसी का भी तेल का कोटा पूरा नहीं हुआ तो बारी साहब के पास दूसरा उपाय था, जिसे काम में लाया जाता। ये साले बंदी लोग मिली-भगत करके किसी का काम पूरा नहीं होने देते,' इस तरह जोर-जोर से दहाड़ते हुए बारी साहब, अब संध्या समय पांच बजे भोजन परोसने का समय होता तब यह आदेश करते कि तीस पौंड तेल जब तक पूरा नहीं होगा तब तक भोजन नहीं मिलेगा सबेरे छह बजे से बिना आराम किए खड़े-खड़े दोपहर ग्यारह बजे भोजन करते और शाम तक बिना रुके कोल्हू चला-चलाकर जो पस्त हो जाते थे, उनमें भी ऐसे दस-पाँच बंदी ही होते जो तेल का कोटा पूरा कर पाते थे, तथापि कोल्हू चलानेवाले चालीस पचास लोगों से तेल का कोटा पूरा करना असंभव ही होता। परंतु बारी साहब कुरसी मंगवाकर उस चाली को ताला ठोंक देते और सभी बंदीगृहों का काम ठीक पाँच-छह बजे बंद कराकर नियमानुसार सभी कारागृह बंद करने का प्रतिवृत्त (रिपोर्ट) सूचित करते, बस उसी चालो का काम ठोंककर चलवाते रहते। उस नियम को पैरों तले कुचलकर इस चाली में काम चालू रखने की बात का भाँडा फोड़ने का भला किसी सिपाही या नौकर में साहस था? बारी साहब सप्ताह के अंदर-अंदर कुछ न-कुछ षड्यंत्र रचकर, उसपर लांछन लगाकर उसका सर्वनाश कर देते, इसका कोई नियम थोड़े ही था? तब रात सात-आठ-नौ बजे तक कोल्हू चलाए जाते। आते-जाते सिपाही जमादार मारपीट कर रहे हैं, घंटों के पीछे घंटे बज रहे हैं, पूरी अंदीशाला गहरी नींद में है किंतु कोल्हू की इमारत करेर करती काम कर रही है, बारी चाली के आगे कुरसी पर बैठकर ऊँघ रहा है और बीच में ही माँ-बहन की गालियाँ बकते हुए इस तरह चिल्ला रहा है, "अब तक तेल नहीं हुआ तो मारो साले को बेंत, कल मारना तो आज मारो।"

 

रोग का स्वाँग

जिनके हाथों को इस तरह के कठोर परिश्रम ने कभी स्पर्श तक नहीं किया या, उन्हें इसी कोल्हू का काम महीनों तक दिया गया। इनमें कॉलेज में अध्ययन अध्यापन करनेवाले तथा सत्रह वर्ष के लड़के भी थे। उनके कष्ट की सीमा नहीं थी। उनमें जब कुछ बीमार पड़ गए तब वे सोचने लगे, इससे तो मृत्यु भली। बीमारी तब तक ढोंग की सूची में समाविष्ट होती थी जब तक वह गंभीर स्वरूप धारण नहीं करती। उसमें भी यदि ज्वर हो तो १०१ 0 के ऊपर चढ़ने पर ही उसे ज्वर समझा जाता, तब भी राजबंदी को रुग्णालय में नहीं अपितु कोठरी में ही बंद किया जाता। साधारण चोरी, आगजनी, डकैती, गरदन काटना आदि पोर्ट ब्लेअर के नीतिशास्त्र केअक्षम्य अपराध हैं, ऐसे अपराध करनेवालों को रुग्णालय में मात्र रोगी कहते हैं। सोने के लिए खटिया दी जाती। परंतु ज्वर अथवा दस्त, उलटियाँ आदि प्रत्यक्ष रोग नहीं होते। सरदर्द, हृदय विकृति, जी घबराना आदि अप्रत्यक्ष रोगों ने जिसे जर्जर किया है उनकी दशा पूछना तो दूर, उनके रोग का निदान ढोंग अथवा कामचोरी जैसे रोग से ग्रस्त होने में किया जाता था; साथ ही दंड भी दिया जाता। हाँ, यह बात असत्य नहीं कि दंडितों में उनके पास, जिन्हें गुरू्ंटाल कहा जाता, आवश्यकतानुसार तेज ज्वर, दस्त अथवा खून की उलटियाँ होने की औषधियाँ तथा उपाय होते। परंतु यह बात भी झूठ नहीं है कि इस तरह की दवाइयों के बदले १०३-४ 0 तक ज्वर मे तपना स्वीकार है। तीव्र पेट दर्द होकर खून के दस-दस दस्त होना भी स्वीकार है, परंतु इस कोल्हू की यातना से कुछ दिनों के लिए मुक्ति मिले। इस तरह जिस कोल्हू के कष्ट असहनीय थे-महान् बदमाशों को भी जो असहनीय होते-उसी कोल्हू में उन राजबंदियों को जोता जाता जो अपने जीवन में पहली बार बंदीगृह का मुँह देख रहे थे। और उनमें भी कोई उपरोक्त अप्रत्यक्ष रोग से बीमार पड़ जाए तो उसकी गणना ढोंगी, नाटकियों में करके उसे पुनः इस कठोर परिश्रम के काम पर भेजा जाता। ऐसे कष्टभोगी पुरुषों में मेरे ज्येष्ठ बंधु की गणना प्रमुख रूप में की जाती।

 

पालतू बनाने का प्रयोग

एक तो उन्हें पहले से ही आधासीसी की व्यथा थी, उसपर बंदीगृह के ये मानसिक और शारीरिक कष्ट। ऊपर से कोल्हू में जुतना। और सबसे बड़ा अपराध यह कि इस प्रकार के अपार कष्टों से भी पूर्ववर्णित अन्य राजबंदियों की तरह वे अभी तक टूटे नहीं थे। उनके मुँह से अभी तक अवास्तविक जानकारी का अथवा तिरस्करणीय प्रार्थना का एक शब्द भी नहीं निकला था। अत: बारी जो उन राजबंदियों को स्पष्टतः हिंसक, बर्बर कहता और जो स्वयं उनके सर्कस का चालक कहलाता था, आज भी उन्हें पालतू बनाने का प्रयोग कर ही रहा था ऐसी अवस्था में टकराते और उसके परिणामस्वरूप उन्हें पुनः भयंकर आधासीसी की व्यथा ने घेर लिया। प्रात:काल कोल्हू में जुत जाने के बाद सतत उसे घुमाने से जैसे-जैसे दिन चढ़ता जाता-वैसे ही उनके सिर में असह्य पीड़ा होती जाती, असीम वेदना से वे छटपटाते। धूप भी सही नहीं जाती, तथापि जैसे-जैसे दिन चढ़ता वैसे ही बढ़ती हुई तीव्र पीड़ा की वेदना के साथ-साथ 'कोल्हू पेलो और कुछ नहीं जानता, चलो कोल्हू पेलो' की जमादार की अशिष्ट गर्जनाएँ भी बढ़ती जाती। गोरे अधिकारी के दौरे पर आते ही उन्होंने उनके सामने निवेदन-पत्र रखा-"मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है।" उन्होंने उत्तर दिया, "वह मेरा सरदर्द नहीं। डॉक्टर को दिखाओ।" डॉक्टर कोईहिंदुस्थानी ही होगा। वह आकर देखता-ज्वर है या नहीं और कह देता-इसे कुछ नहीं है। साहब के पास ले जाओ। क्योंकि सिर की पीड़ा से तापमापी (थर्मामीटर) जरा भी तप्त नहीं होता। मस्तिष्क की पीड़ा को सिद्ध करने के लिए अन्य कोई भी प्रमाण नहीं। अर्थात् इसमें अवश्य कोई चाल होगी बंदियों की, उसमें भी राजबंदियों की, उसमें भी गणेशपंत सावरकर की गहरी चाल...।

 

मैं कहूँ वही रोगी

डॉक्टर जानता था कि वह जो कर रहा है वह अन्याय है, परंतु उसे बारी का भय था। वह आते-जाते यही कहता रहेगा, 'देखो डॉक्टर, आप हिंदू हैं। ये राजबंदी भी हिंदू हैं। पता नहीं कब ये अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से आपको गड्ढे में ढकेल दें। उनके साथ मेरी अनुमति के बिना यदि आपको एक शब्द बोलते हुए भी किसी ने देखा तो आपके विरुद्ध अधिकारियों के पास प्रतिवृत्त चला जाएगा अत: ध्यान रखिए, यदि नौकरी चाहिए तो आप अपनी ओर से उनके संबंध में कुछ मत कहिए। आप पढ़े-लिखे तो हैं, परंतु मैं बड़ा अनुभवी हूँ। मुझे पता है, इन ढोंगियों के कौन से रोग सच हैं और कौन से मिथ्या अत: याद रखिए, वे तभी बीमार पड़ेंगे जब मैं कहूँगा, समझे?' इतना कहकर अपने विनोद पर स्वयं ही बत्तीसी निकालते हुए बारी आगे बढ़ जाता।

एक बार एक डॉक्टर (हॉस्पिटल असिस्टेंट) ने मेरे बंधु की वह अत्यंत दयनीय दशा देखी। सिर की पीड़ा असहनीय होने पर वे कभी-कभी दीवार से अपना सिर टकराते। फिर उठकर वैसे ही कोल्हू घुमाते। डॉक्टर ने साहस करके कहा, "चलो, मैं दो दिन आपको अपने अधिकार में निरीक्षणार्थ (for observation) रखता हूँ। छोड़ दो यह काम और उठाओ अपना बोरिया बिस्तर।" उसकी सूचना के अनुसार मेरे बंधु बोरिया-बिस्तर सँभालकर जा ही रहे थे कि वह दानव बारी अपना सोटा पटकता हुआ आ धमका, "अरे ऐ, बम-गोलेवाले, किधर जा रहा है?" कहते हुए गुस्से के साथ उस जमादार से पूछने लगा जो गणेश दादा को ले जा रहा था। जमादार इतना सकपकाया कि काटो तो बदन में खून नहीं। वह कहने लगा, "डॉक्टर बाबू की आज्ञा से काम छोड़कर इन्हें निरीक्षणार्थ संशयित रोगी के नाते छोड़ने जा रहा हूँ।" "पर मुझसे क्यों नहीं पूछा ? कौन है यह डॉक्टर बाबू ए साला, वो साला।" कहते हुए उसने हंगामा करके पूरा बंदीगृह सिर पर उठा लिया। "ले जाओ इसे वापस। काम पर लगा दो साले को। देख लेता हूँ उस डॉक्टर को और तुझे भी, साला तुम-मुझसे पूछे बगैर इसको कोठरी से बाहर क्यों निकाला? डॉक्टर की आज्ञा या मेरी?' इस तरह जोर-जोर से गरजते हुए उसने उस जमादार से गणेशदादा को कोठरी में बंद कराया और कोल्हू में जोत दिया। डॉक्टर का अधिकार बारी के अर्थात् बंदीपाल के अधिकार के निम्न स्थान पर नहीं होता, वह केवल सुपरिटेंडेंट के अधिकार के नीचे आता है। परंतु सभी हिंदू तथा भारतीय अधिकारियों का जी जान से यही प्रयास रहता कि राजबंदियों से संबंधित कोई भी उलाहना, शिकायत सुपरिटेंडेंट तक न पहुँचे। एतदर्थ बारी से डरकर उस डॉक्टर ने अपने अपमान का कड़वा घूट तो पी ही लिया और बारी से क्षमा मांगकर पुन: कभी किसी बंदीवान को सुपरिटेंडेंट की अनुमति के बिना कोठरी से रुग्णालय में पल भर के लिए भी ले जाने का साहस नहीं किया। शेष कोई भी दंडित, दस-दस बार जेल काटकर ही नहीं अपितु जेल तोड़कर निकले भगोड़े भी केवल इतना सूचित करके कि 'वे बीमार हैं' रुग्णालय में जा सकते थे। आगे की बात तो डॉक्टरों के हाथ में होती कि उन्हें रखना है या नहीं। उनके काम में सहसा बंदीपाल दखल नहीं देते केवल राजबंदियों के लिए रुग्णालय के द्वार बंद थे।

वह आधासीसी का रोग तथा टोस सहते-सहते मेरे ज्येष्ठ बंधु कोल्हू पेरते, संध्या समय तेल नापकर 'हुश्श' करते हुए जो सोने की कोठरी में लकड़ी के लट्ठे पर या तख्त पर अपना शरीर पटकते, तब सारे शरीर में पीढ़ा होने लगती। फिर आँख लगी नहीं कि दूसरी सुबह। फिर वही आधासीसी, वही जमादार, वही काले अधिकारियों का अपमान और यंत्रणा-वही कोल्हू के साथ खड़ा रहना। इस तरह सप्ताह, महीने कष्ट और अत्याचारों की पराकाष्ठा में बिताते हुए इसी तरह सारा जन्म बिताना था।

 

नहीं चाहिए यह जीवन

उन यातनाओं का कितना बखान करें? परंतु हाँडी के चावल परखने के लिए एक उदाहरण देता हूँ। अंदमान में बंदीवास में कामकाज, अन्न-वस्त्र, मारपीट आदि कई प्रकार से त्रास दिया जाता है, उसमें एक ऐसा था जो देखने में साधारण, कहने में संकोचास्पद, परंतु जिसे सहने में अपने आपसे घिन्न होने लगती और ऐसा प्रतीत होता जैसे भगवान् जीवन से उठा ले तो अच्छा वह कष्ट था-बंदियों को मल-मूत्र का अवरोध करने के लिए बाध्य करना। सवेरे, दोपहर, शाम-इस समय के अतिरिक्त शौच जाना लगभग जघन्य अपराध समझा जाता। रात में बंदीवानों को छह-सात बजे ही जो बंद किया जाता तो सुबह छह बजे द्वार खोला जाता। उस अवधि में लघुशंका के लिए केवल एक मटका भीतर रखा जाता। अंदमान के बंदीगृह में सभी कोठरियाँ अलग-अलग थीं और प्रत्येक में एक ही बंदी को बंद किया जाता। इसीलिए तो उसे सेल्यूलर जेल अर्थात् कोठरियों का कारागृह कहा गया।बारी साहब का नीति-नियम था कि रात्रि के इन बारह घंटों में किसी बंदी को शौच नहीं होना चाहिए। वह मटका भी इतना छोटा होता कि लघुशंका के लिए भी पूरा नहीं पड़ता। किसी को शौच जाना हो तो उसे वॉर्डर को सूचित करना पड़ता। यदि अपनी अनिच्छा अथवा भय वश यह विशेष बात असत्य घोषित की तो प्रश्न ही नहीं। उस बंदी को उसी तरह मलावरोध करके तब तक रुकना चाहिए जब तक सवेरा नहीं होता। और यदि वॉर्डर ने जमादार को सूचित किया तो जमादार बंदी को असमय शौच लगने की पापी सनक सवार होने के अपराध में दस गालियाँ और बॉर्डर को बंदी की शिकायत सुनने के अपराध में पाँच गालियाँ बकते हुए मन हुआ और नींद की खुमारी में याद रहा तो यह बात डॉक्टर को बता देता। डॉक्टर का शौच लगने विषयक प्रमाणपत्र सौ में से एकाध बार मिलेगा। फिर वह बारी तक पहुँचता और उसकी इच्छा हुई तो ताला खोलकर उस बंदी को शौच जाने के लिए निकाला जाता। उसपर प्रात:काल में बारी साहब के सामने पूछताछ में ऐसा प्रश्न पूछा जाता जिसका किसी भी बंदी को संतोषजनक उत्तर नहीं सूझता। फिर गालियों की बौछार होती सो अलग। 'क्यों बे, तुमने रात भर इतना हल्ला-गुल्ला क्यों किया?' 'क्या करता हुजूर। जोर से टट्टी लगी थी। क्षमा कीजिए हुजूर।' तब अपनी सोटी पटककर पानी पी-पीकर उसे कोसते हुए साहब पूछते, 'पर क्यों लगा था पाखाना? बोल साले, रात के समय टट्टी क्यों लगी?' सकपकाया हुआ बंदी हड़बड़ाते हुए कहता, 'लगी, इसीलिए लगी।' जमादार तुरंत उसे एक थप्पड़ रसीद करते हुए कहता, 'ऐ साला, साहब का मजाक उड़ाता है?' दयावान बारी साहब इतने पर ही उस बंदी को प्रायः छोड़ देते। कभी वे बहुत ही द्रवित हुए तो उसे इतने पर न छोड़ते हुए यह आदेश देकर चले जाते कि 'इसे एक दिन के लिए कोल्हू पेरने का काम दे दो।'

 

चुटकी भर तंबाकू

ऐसी त्रासद स्थिति में जिन बंदियों के लिए मलावरोध सर्वथा असंभव हो जाता, वे कोठरी में ही भूमि पर शौच कर लेते। रात भर आठ-दस फीट की उस कोठरी में मल के पास सिरहाना करके सोने के पश्चात् प्रात:काल ताला खुलते ही भंगी की अनुनय-विनय करते- 'तुम्हें चोरी-चोरी चुटकी भर तंबाकू दूँगा, तुम चुपचाप मैला साफ कर दो।' उसने बात मानी तो ठीक, अन्यथा किसी के पास